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सस्कृत-साहित्य का इतिहास
इस विचार के जन्मदाता स्वयं ६० गणपति शास्त्री ही थे। नाटक अपने गुणों के कारण वस्तुतः इस सम्मान के अधिभारी हैं जो उन्हें दिया जा रहा है। बार्नेट और सिलवन लेवी जैसे अन्वेपक उक्त विचार से सहमत नहीं है, अतः हम इस बात को जरा विस्तारपूर्वक कहेंगे। प्रश्न यह है.."चे तेरह के तेरह नाटक किसी एक ही के बनाए हुए हैं या इनके रचियता अनेक व्यक्ति हैं" ? और यदि उनका रचियता एक ही व्यक्ति है, तो वह कौन है ? (१३) क्या इन नाटकों का रचियता एक ही व्यक्ति है?
विद्वान इस बात में प्रायः सहमत है कि इन सब नाटकों का कर्ता एक ही व्यक्ति है। इस तर्क की पुष्टि के लिए निम्नलिखित हेतु दिए
(१) एक प्राश्च यजनक विशेषता रंगमंच सम्बन्धी संकेत-वाक्य 'नान्यन्ते ततः प्रविशक्षि सत्रधारः' है। संस्कृत के दूसरे नाटकों में यह संकेत-वाक्य आशीर्वादात्मक पद्य या पद्यों के बाद आता है।
(२) इन नाटकों में हम प्रसिद्ध पारिभाषिक शब्द के लिए प्रसिद्ध पारिभाषिक शब्द का प्रयोग पाते हैं। यथा, प्रस्तावना के लिए स्थापना शब्द आया है। यद्यपि कुछ एक दूसरे नाटक कारों के नाटकों में भी इस प्रकार के पारिभाषिक शब्द देखे जाते हैं, तथापि ये तेरह नाटक अन्य नाटकों की कक्षा में नहीं रक्खे जा सकते । इनकी अपनी एक पृथक ही श्रेणी है, क्योंकि इनमें 'प्ररोचना का अभाव है अर्थात् उनमें न अन्य का नाम दिया गया है और न अन्धकार का।
(३) कम से कम चार नाटकों की नान्दी में मुना अलवार है अर्थात नान्दी में नाटक के मुख्य-मुख्य पात्रों के नाम आ गए हैं।
१ यह विशेषता इन नाटको मे भी देखी जाती है-शक्तिभद्र का अाश्चर्य-चूड़ामणि, नप महेन्द्रविक्रमवर्मा का मत्तविलास (ई. की ७वों शताब्दी), चार भाण, श्रोर दो नाटक ।