Book Title: Sanskrit Sahitya ka Itihas
Author(s): Hansraj Agrawal, Lakshman Swarup
Publisher: Rajhans Prakashan

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Page 293
________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास किताबी संस्कृत की सर्वथा अवहेलना कर दी ! बार में जा बोलचाल की भाषा में ही कथा करने की परिपाटी प्रचलित हो चली और अर्थ करने वाले की आवश्यकता न रही, तब सङ्गीत और नाटकोपयुक्त श्रङ्ग भङ्गि को भी सम्मिलित कर लिया गया। इससे सारी वस्तु अत्यन्त रोचक और नाटकीय हो गई । इस सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रमाण मूल्यवान्द है। (१) साँची से प्रास होने वाले उत्कीर्ण लेख से ( जो निःसन्देह ईसवी सन् से पूर्व का है, अनेक कथकों (कथा कहने वालों) का पता चलता है, जो अङ्ग-मङ्गि के साथ नाच रहे हैं, कथा कह रहे हैं और गा रहे हैं। ये सब बाते वस्तुतःनाटकीय है। (२) रामायण के अत्तरकाण्ड में कुश और बध दो गायकों का वर्णन श्राता है। वे जिस राम के अनभिज्ञात पुत्र हैं, उसी के चरित की कथा कर रहे हैं! (३) भरत (वर्तमान भाटकथा कारक) शब्द बतलाता है कि उच्च स्वर ले बोल-सुनाने का नाटक के साथ कितना गहरा सम्बन्ध है। (४) उस तीसरे प्रमाण का समर्थन कुशलव शब्द से भी होता है। (११) उत्तर रामचरित में भवभूति कहता है, नाटकों पर रामायणमहाभारत का महान् ऋण है। (६) भास के नाटक भी अपने आपको रामायण-महाभारत का ऋणी सूचित करते हैं। (ग) धर्म का प्रभाव-रूपों की उत्पत्ति को सञ्ची प्रेरणा धर्म से ही प्रास हुई है। स्वर्ग में पहला रूपक एक धार्मिक उत्सव पर ही खेला गया था। ताण्डव और लास्य ये दोनों महादेव और पार्ववती ने दिए थे । कृष्ण, राम, शिव एवं अन्य देवताओं की भक्ति ने रूपक के विकास में बड़ी सहायता की है। यह बात ध्यान देने योग्य है किजैन और बौद्धधर्म नाटकों के विरुद्ध हैं, परन्तु इन धर्मों के अनुयायियों

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