Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 84
________________ (७५) चित एक ऐसे वान:प्रस्तके मस्तिष्कमें हुई जो दार्शनिक विवेकके लिये विशेष विख्यात न था, अब जब कि लोग उसकी मानसिक उत्पत्तिको सृष्टिकर्ता सम्पन्धी वादविवादके तीव्र कोलाहलके कारण भूल गये हैं, तो वह सब प्रकारको विरोधता और असंगतिका भण्डार हो गया है। इसका विरोध होना मी असम्मष था क्योंकि मनुष्यके मस्तिष्कमें समस्त क्रिया और कर्तव्य के एक मात्र कारणके रूपमें कल्पित हो कर इसके लिये यह सम्भव न था कि वह किसी प्रकारके (कर्मजनित, स्वाभाविक इत्यादि) कृतियोंकी जिम्मेवारीको अस्वीकार कर सकता । अधिकांश निकट कालमें यह रूपक आत्माके आदर्शस भी जो ईश्वरमें लय होना समझा गया है, संवधित हो गया है । इस प्रकार अन्तिम शकि का प्रारम्मिक मानसिक विचार अब कमसे कम चार मिन्न वस्तुओंको गर्मित करता है, अर्थात् (१) प्रकृनिकी कार्य कारिणी शक्ति (२) जीव द्रव्य और अन्य द्रव्योंके कर्तव्य (३) कमजनित शक्ति और (४) जीवका अन्तिम उद्देश, इन ही चार भिन्न असंध्य कल्पनाओंका संग्रह है जो एक दर्शनिक विचारमे नवीन मदाखिलत करनेवालेके मास्तिष्कम लापरयाही स्थिर होकर अदृष्टके रूपकके तौर पर संसार शासक सम्बन्धी विषय में भूल और झगडेजा उपजाऊ कारण है।

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