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सम्यक्त्व प्रकरणम्
नल दमयन्ती की कथा
रोओ। अब कोई दैव अपना प्रभाव नहीं दिखायगा।
इसी बीच कोई देव स्वर्ग से आकर के मुकुटीकृत हाथों द्वारा दमयन्ती को प्रणाम करके बोला-हे माते! मैं पिङ्गल चोर हूँ, जिसे आपने दीक्षा दिलवायी थी। मैं विहार करता हुआ तापसपुर पत्तन की ओर गया। वहाँ बाहरी प्रदेश में रात्रि को मैं प्रतिमा में आसीन था, तभी चित्ता से उठती हुई अग्नि मानो मेरा सेवन करने के लिए मेरे समीप
आ गयी। उस अग्नि से जलता हुआ भी मैं धर्मध्यान रूपी अमृत को पीते हुए उस ताप को नहीं जानता हुआ शान्त चित्त से समाधिस्थ रहा। पंचनमस्कार का स्मरण करते हुए, आराधना की सम्यग् विधि करके देह का त्याग करके स्वर्ग में असुरकुमार देव के रूप में उत्पन्न हुआ। तब अवधिज्ञान के उपयोग से पूर्व भव में प्रव्रज्या प्रदान कराने में तथा प्राण दान में उपकारिणी जानकर मैं आपको वंदन करने के लिए आया हूँ। हे देवी! मेरी यह सारी दिव्य ऋद्धियाँ आपके ही प्रसाद से हैं। हे करुणानिधे! अगर आपने मुझे बोध नहीं दिया होता, तो पता नहीं मैं किन कुयोनियों में भटक रहा होता। इस प्रकार कहकर उस पुर में सात करोड़ सोनैयों की बरसात करने से गुरुपूजा की तरह करके वह पिङ्गल देव स्वर्ग को चला गया।
तब उस प्रकार के धर्मफल को प्रत्यक्ष देखकर विस्मित होते हुए ऋतुपर्ण नरेन्द्र ने भी जिनधर्म को ग्रहण किया। तब हरिमित्र ने कहा-महाराज! भैमी को अभी पितृ ग्रह जाने की इजाजत दीजिए। रानी ने भी कहा-देव! यही युक्त है। इस प्रकार राजा के द्वारा विशाल सेना सहित भैमी को पितृ-नगर की ओर भेजा गया।
पुत्री को आयी हुई जानकर पुष्पदंती रानी के साथ राजा भी तूफानी नाव की तरह तुरन्त प्रेम में अनुरागी होकर वहाँ आये। माता-पिता को देखकर भैमी शीघ्र ही वाहन से उतरी। प्रेमपूर्वक भक्ति से गुरु व देव की तरह उनके चरणों में झुक गयी। एक दूसरे में मिली हुई नदियों की तरह मां-बेटी परस्पर आलिंगन बद्ध होकर नयनों की अश्रुधारा के पूर से संपूर्ण भूतल को प्लावित बनाने लगीं। भैमी को देखकर पुरजन भी अश्रु की धाराओं से पृथ्वी को वर्षाऋतु की तरह पंकिल बनाने लगे।
फिर अश्रुओं द्वारा धुले हुए मुख से उन दोनों ने निधान की तरह संचित सुख दुःख को परस्पर कहा। अपनी गोद में आरोपित करके पुष्पदन्ती ने सुता से कहा-अभी भी मेरा पुण्य जागृत है कि मैंने तुम्हें जीवित ही पा लिया। हे पुत्री! तुम यहाँ सुखपूर्वक रहो। वहीं अपने प्रिय को देखोगी। क्योंकि चिरकाल तक जीवित रहकर मनुष्य अपने सुख का उपभोग कर सकता है। कहा भी है
जीवन् भद्राणि पश्यति । जीते हुए व्यक्ति कल्याणों को देखता है।
राजा ने पुत्री को पाने की तुष्टि से बटु को ५०० ग्राम दिये। कल्पवृक्ष के समान संतोष का फल दान ही है। राजा ने बटु को कहा-अगर तुम नल को भी इसी तरह ले आओगे, तो मैं तुम्हे अपना आधा राज्य दे दूंगा। फिर राजा ने अपने नगर में सर्वत्र पुत्री के आगमन की खुशी में उत्सव आयोजित किये। विशेष रूप से देवअर्चनादि अष्ट दिन का महोत्सव करवाया। पुत्री से भी कहा-तुम उदास मत होओ। नल को पाने के लिए भी वे-वे उपाय किये जायेंगे।
इधर भैमी को अरण्य में छोड़कर नल आगे बढ़ा। घूमते हुए उसने वन निकुंज से, धुएं का समूह ऊपर की ओर उठते हुए देखा। बढ़ती हुई वह धूम्रपटल यमुना की तरह लग रही थी। मानो अपने पिता सूर्य से मिलने यमुना उपसर्पित हो रही हो। पुनः क्षणभर में ही उसके अन्दर कराल ज्वाला धधक उठी, देखने में बालों के समान काली जलती हुई ज्वाला प्रेत की तरह काँप रही थी। जलते हुए बांसों के समूह के बीच से किसी जंगली जानवर का प्रस्फूट स्वर सुनायी दिया। बिना आवाज वाले दावानल की तरह नल ने उन शब्दों को सुना-हे इक्ष्वाकु वंश के शिरोभूषण! विश्व को अभय देने में समर्थ विश्वसनीय नल! मेरी रक्षा करो। मेरी रक्षा करो। इस प्रकार मनुष्य स्वर
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