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सम्यक्त्व प्रकरणम्
मेतार्य महर्षि कथा मुख्य प्राण-वल्लभा दो रानियाँ थीं। पहली का नाम सुदर्शना तथा दूसरी का नाम प्रियदर्शना था। पहली रानी के पुष्पदन्त की तरह आकाश में सिरमोर दो पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र सागरचन्द्र कुमार ने युवराज पद को प्राप्त किया। कनिष्ठ पुत्र मुनिचन्द्र चन्द्र से भी उज्ज्वल गुणों का पुंज था। उसने अपने पिता के सन्निधि में उज्जयिनी का राज्य प्राप्त किया।
दूसरी रानी के भी दो पुत्र हुए। बड़े का नाम बालचन्द्र तथा छोटे का नाम गुणचन्द्र रखा गया। धूप धूम्र से पवित्र हुए अंशुक के समान राजा का समस्त कुटुम्ब जिनधर्म से वासित था।
एक दिन राजा चन्द्रावतंसक अपने निवास स्थान पर रात्रि के समय माघ महीने में ठण्ड होते हुए भी कायोत्सर्ग में स्थित हो गये। उन्होंने अभिग्रह धारणकर लिया कि परदे की आड़ में रहा हुआ यह दीपक जब तक जलता रहेगा, तब तक मैं अपना ध्यान नहीं खोलूँगा। रात्रि का प्रथम प्रहर बीतने को था, दीप भी बुझने ही वाला था। तभी दीपक प्रज्ज्वलित करने वाली दासी ने दीपक में और तेल डाल दिया, ताकि प्रभु को अंधेरे में कोई अरति न हो। जैसे-जैसे दीपक की ज्योति बढ़ती गयी, वैसे-वैसे राजा रूपी महात्मा का धर्मध्यान भी बढ़ता गया। इस प्रकार प्रत्येक प्रहर के अन्तिम क्षणों तक दीपकारिका दासी दीप में तेल डालती रही। उधर राजा भी प्रतिक्षण संसारविषयक स्नेह को निज मन से संपूर्ण रूप से निकालता रहा। दीप की ज्योति स्नेह रूपी तेल से बढ़ती रहीं ओर राजा की ध्यानज्योति चित्त के स्नेह-क्षय से बढ़ती गयी। राजा का शरीर सुकुमारता के कारण मनोहर था। अनुरक्त स्त्री के आलिंगन के समान वेदना ने उनका आलिङ्गन कर लिया। शरीर के असहिष्णु होने पर भी चित्त की दृढ़ता के कारण उन्होंने गृहस्थ होते हुए भी महर्षि की तरह उस वेदना को सहन किया। वेदना से आर्त होने पर भी सात्विक-पुरुष अपने नियम को नहीं तोड़ता। कहा भी गया है
व्यसनेऽपि महात्मानः प्रतिपन्नं त्यजन्ति किम् ? क्या दुःख आने पर भी महात्मा अपनी कृत प्रतिज्ञा को छोड़ते हैं? कदापि नहीं।
इस प्रकार रात्रि के अवसान और प्रभात के प्रादुर्भाव के साथ ही चन्द्रावतंसक राजा ने अपनी आयु पूर्ण करके शुभ ध्यान के साथ देवलोक को प्राप्त किया।
सामन्त, सचिव आदि सभी वरिष्ठ नागरिकों ने सागरचन्द्र का राज्याभिषेक करना प्रारम्भ किया। क्योंकिन्याय्यं को नाऽनुतिष्ठति ? उचित का अनुकरण कौन नहीं करता?
पर सागरचन्द्र ने साम्राज्य से निस्पृह होते हुए विमाता से कहा कि उदय होते हुए बाल चन्द्रमा की तरह मेरा भाई बालचन्द्र ही राजा बनेगा।
विमाता ने कहा- राज्य श्री प्रौद ऊँटनी की तरह है और बालचन्द्र तो बलद रूपी बालक के समान है। अतः उसे राज्य देना युक्त नहीं है। सभी पुत्रों में तुम वय से ज्येष्ठ हो। अतः इस उपस्थित राजलक्ष्मी का समुद्वहन करो।
उसकी इच्छा न होते हुए भी सभी ने उसे साम्राज्य का अधिपति बना दिया। वह अपने प्रताप से ग्रीष्म ऋतु के सूर्य की तरह दुःसह हुआ।
अन्य किसी दिन विमाता ने जब सागरचन्द्र राजा को राज्य-ऋद्धि से युक्त दीव्यमान महेन्द्र की तरह आतेजाते देखा, तो विचार करने लगी-हा! हा! मैंने अपने पुत्र के सुख के प्रति वैर-भावना दर्शायी। उसे मिलती हुई राज्य लक्ष्मी का मैंने निषेध कर दिया। इस समय तो सागरचन्द्र राजा है। बाद में इसका पुत्र राजा बनेगा। अतः इसके राज्य की संभावना क्रमशः इसके बेटे पोतों को प्राप्त होगी। अतः किसी भी तरह से इसका अभी ही संहार कर दूँ,
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