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८८ - सम्यक्त्वपराक्रम (२)
आपकी पत्नी नही हू नही है |
राजा ने कहा- रानी ! पुत्रवियोग के कारण तुम मोह में पड गई हो। तुम अपने ध्येय को भी भूली जा रही हो । विचार करो, तुम कौन हो ? तुम एक राज्य की महारानी हो, फिर भी केवल सत्य को पालन करने के लिए ही दूसरे के घर की दासी वनी हो । तुम मुझे स्वामी कहती हो सो मैं पूछता हूं कि मेरी हड्डियों को स्वामी कहती हो या आत्मा को ? तुम भलीभांति जानती हो कि जो पुरुष एक दिन प्रतापशाली राजा था और जिस ओर नजर फेरता था उसी ओर लक्ष्मी विलास करने लगती थी, वह राजा सत्य के लिए ही दूसरे का दीन दास बना है । जिस सत्य का पालन करने के लिए मैंने और तुमने इतने कष्ट उठाये हैं, क्या आज उसी सत्य का परित्याग कर देना उचित है? अगर मै कर वसूल किये विना, स्वामी की आज्ञा के विरुद्ध लकडियाँ दे दूं और पुत्र का अग्निसंस्कार कर डालू तो सत्य का विघात होगा या नही ?
? इस समय मेरे पास एक भी टका
राजा हरिश्चन्द्र का यह सत्याग्रह सच्ची ग का स्वरूप स्पष्ट करता है । आज तुम्हे भी विचार करना चाहिए कि सत्य का पालन करने के लिए कितना त्याग सीखने की आवश्यकता है | नाशशील शरीर के लिए तो थोडा-वहुत त्याग किया जाता है किन्तु अजर-अमर श्रात्मा के लिए तनिक भी त्याग करते नही वन पड़ता । यह कितनी भयानक भूल है ।
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हरिश्चन्द्र का कथन सुनकर रानी बोली- " वास्तव मे आपका कहना ठीक है । सत्य का त्याग करना कदापि