Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य तरह आगमसम्मत नहीं हो सकती।
आगम में “अंतोमुहत्ताउया चेव कालं करेंति' (पन्नवणा के प्रकृतसूत्र का अंत्य अंश) - ऐसा बताने द्वारा साफ-साफ बता दिया है कि संमूर्छिम मनुष्य का आयुष्य अंतर्मुहूर्त ही होता है। फलितार्थ स्पष्ट है कि प्रथम विकल्प वाजिब नहीं। तथा उसका मूल शरीर के भीतर रहे मलादि में भी संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति हो सकती है' - यह मान्यता है, कि जो मिथ्या होना ज्ञात होती है।
अब यदि दूसरा विकल्प स्वीकार किया जाए कि 'ढाई द्वीप के बाहर संमूर्छिम मनुष्य का अस्तित्वमात्र संभवित नहीं। अर्थात् जंघाचारणादि लब्धिसंपन्न महात्मा या अन्य मनुष्य वगैरह ढाई द्वीप के बाहर जाए तब उनके शरीर में संमूर्छिम मनुष्य नहीं होते।' तो यह बात भी सैद्धांतिक परीक्षा को सहन नहीं कर पाएगी, क्योंकि संमूर्च्छिम मनुष्य का जघन्य और उत्कृष्ट आयुष्य अंतर्मुहूर्त ही बताया गया है। अतः जिस समय मुनि ढाई द्वीप के बाहर पैर रखेंगे उसी समय उनके शरीर के अंदर रहे हुए सर्व संमूर्छिम मनुष्य नष्ट हो जाएँगे - वैसा तो मानना शक्य नहीं है, क्योंकि उसकी पूर्व क्षण में ही उत्पन्न हुए संमूर्छिम मनुष्य अपने आयुष्य का अंतर्मुहूर्त कैसे पूरा करेंगे? अंतर्मुहूर्त तो कम से कम आवश्यक ऐसा समयखंड है। अर्थात् संमूर्छिम मनुष्य का जघन्य आयुष्य भी अंतर्मुहूर्त है। अतः ऐसी कल्पना आपको माननी पड़ेगी कि जो मुनि ढाई द्वीप के बाहर जाने वाले हो उनके शरीर में, उनके ढाई द्वीप के बाहर पैर रखने के अंतर्मुहूर्त पहले से ही नए संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति समूची बंध हो जाती है। तथा पूर्विल तमाम संमूर्च्छिमों का क्रमशः विनाश भी मान्य करना पड़ेगा।
इसमें भी केवलीदृष्ट का ही सहारा रामलालजी महाराज को लेना पड़ेगा। इसका कारण यह है कि इच्छा होने मात्र से महात्मा ढाई