Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य विषयेषु सत्सु अस्वाध्यायो बोध्यः इति चतुर्थो भेदः।”
इस सूत्र के द्वारा स्पष्टतया अशुचि के निकट में अस्वाध्याय दर्शाया है। एवं अशुचि के रूप में उभय संप्रदाय के वृत्तिकारों ने मल वगैरह का ग्रहण किया है। यहाँ ‘मल' शरीर के बाहर रहा हुआ ही ग्रहीतव्य है या फिर शरीर के भीतर रहा हुआ भी? यदि शरीर के भीतर रहे मल-मूत्रादि को भी अशुचि कहोगे तो उसकी उपस्थिति में अस्वाध्याय मानने की आपत्ति दुर्वार बनेगी। अर्थात् कदापि स्वाध्याय नहीं कर पाएँगे, क्योंकि प्रायशः शरीर में मल-मूत्रादि की उपस्थिति, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी, कायम होने से अशुचिसामीप्यरूप अस्वाध्यायिक स्वाध्याय के प्रति प्रतिबंधक सिद्ध होगा। शरीर के बाहर रहे हुए मलादि का ही अशुचितया व्यवहार
SEEEEEEEEEEEEEEE प्रश्न : घ्राण-आलोक का विषय बनने वाले मल-मूत्रादि को ही
अस्वाध्याय का कारण माना गया है। शरीर के भीतर रहे मलमूत्रादि घ्राण-आलोक के विषय नहीं। अतः वे अशुचि होने पर भी अस्वाध्यायिक नहीं होगा, अशुचिसामीप्यस्य
घ्राणालोकविषयत्वरूपस्य विवक्षितत्वात् । उत्तर : शरीर के भीतर रहे मलादि घ्राण का विषय नहीं बनते - यह
बात असिद्ध है। क्या वायुनिर्गम आदि द्वारा यह बात घ्राणज प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं? स्वानुभव ही प्रमाण है न? तदुपरांत, गंध आए या न आए – उससे अस्वाध्यायिक का निर्णय नहीं होता। परंतु गंध आने की शक्यता हो उस सीमा के अंदर अशुचि होने मात्र से अस्वाध्यायिक हो जाता है। अत एव नाक पर रूमाल या कपड़ा दबा कर विष्टा के नज़दीक स्वाध्याय की अनुज्ञा नहीं मानी गइ है। इत्यलं प्रसङ्गेन!