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समयसार-वैभव
( २० )
अप्रतिबुद्ध दशा का स्पष्टीकरण आत्म भिन्न जड़ चेतन एवं मिश्र द्रव्य है अपरम्पारपुत्र, कलत्र, मित्र, भृत्याविक या धन, धान्य राज्य परिवार । ये सब मै हूँ--में ये सब है, ये मेरे-में इनका राव । संयोगी द्रव्यों में एवं समुत्पन्न हो जो भ्रम-भाव ।
पूर्व काल में ये मेरे थे अथवा मै इनका था कांत । आगामी ये मेरे होंगे-2 तन्मय बन रहूँ नितांत । ऐसे असद्विकल्प निरंतर करता रहता जो चिद्मान्त । वह परात्मदर्शी, बहिरातम, अप्रतिबद्ध ही है विभ्रांत ।
( २२ ) अतरात्मा की शुद्धात्म दृष्टि (भेद विज्ञान) अग्नि-अग्नि है, ईधन-ईधन, अग्नि नहीं है ईन्धन भार । ईन्धन भी न हि अग्नि मयी है, हुवा न होगा किसी प्रकार। त्यों चेतन देहादिक से मिलकर भी रहता भिन्न नितांत ।
स्व-परभेद पाकर सुदृष्टि यों अन्तरात्म बनता निभान्त । (20) कलत्र-स्त्री। भृत्य-सेवक । राव-स्वामी । (21) कांत-स्वामी । असद्विकल्पभ्रमपूर्ण विचार । चिद्भांत आत्मा को ठीक से न जानने वाला । परात्म वर्ची-परको
आत्मा समझने वाला । विभ्रांत-मिथ्यावी । (22) निभ्रांत-श्रम रहित ।