Book Title: Samaysar Vaibhav
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Jain Dharm Prakashan Karyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 201
________________ सर्व विशुद्ध जानाधिकार १६२ ( ११४/३ ) "तथा दुराशय यह मत लेना-मनि बनना है व्यर्थ समानहम स्वछंद विचरण कर निश्चय नय से कर लेंगे कल्याण।" जो स्वछंद विचरण करता वह मार्ग भ्रष्ट व्यवहार विहीननिश्चय पथ से बहुत दूर है ' स्वैराचारी सतत मलीन । ( ४१४/४ ) श्रावक-श्रमण वृत्ति या तप, व्रत, संयमादि नहि व्यर्थ, निदान । निश्चय पथ में परम सहायक बन करते जो जन कल्याण । इन्द्रिय विषयासक्त, पापरत, पाखंडी, व्यसनों में चूरशठ से रहती प्रात्म साधना-सत्समाधि सब कोसों दूर । ( ४१४/५ ) जबकि पाप सह विषय वासना विषका सम्यक कर परिहार । द्रव्यलिंग मुनि-श्रावक का गह पाता व्यक्ति समय का सार । अभिप्राय यह है कि समन्वित नय सुदृष्टि द्वारा सविशेषतत्व समस्त निष्पक्ष भाव से समयसार में करो प्रवेश ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 199 200 201 202 203