________________
सामायिक प्रवचन
(२) क्षेत्र - शुद्धि-क्षेत्र से मतलब उस स्थान से है, जहा साधक सामायिक करने के लिए बैठता है । क्षेत्र शुद्धि का अभिप्राय यह है कि सामायिक करने का स्थान भी शुद्ध होना चाहिए । जिन स्थानो पर बैठने से विचारधारा टूटती हो, चित्त मे चचलता प्राती हो, अधिक स्त्री-पुरुष या पशु आदि का ग्रावागमन अथवा निवास हो, लडके और लडकिया कोलाहल करते हो- खेलते हो, विपय विकार उत्पन्न करने वाले शब्द कान मे पडते हो, इधर-उधर दृष्टिपात करने से विकार पैदा होता हो, अथवा कोई क्लेश उत्पन्न होने की सम्भावना हो, ऐसे स्थानो पर बैठकर सामायिक करना ठीक नही है । ग्रात्मा को उच्च दशा मे पहुँचाने के लिए, ग्रन्तहृदय मे समभाव की पुष्टि करने के लिए क्षेत्र-शुद्धि सामायिक का एक अत्यावश्यक अंग है । प्रत सामायिक करने के लिए वही स्थान उपयुक्त हो सकता है, जहा चित्त स्थिर रह सके, आत्मचिन्तन किया जा सके, और गुरुजनो के ससर्ग से यथोचित ज्ञान - वृद्धि भी हो सके ।
४२
सामायिक के योग्य स्थान
*
जहा तक हो सके, घर की अपेक्षा उपाश्रय मे सामायिक करने का ध्यान रखना चाहिए । एक तो उपाश्रय का वातावरण गृहस्थी की झझटो से बिलकुल अलग होता है । दूसरे, सहधर्मी भाइयो के परिचय से अपनी जैनसस्कृति की महत्ता का ज्ञान भी होता है । उपाश्रय, ज्ञान के आदान-प्रदान का सुन्दर साधन है । उपाश्रय का शाब्दिक अर्थ भी सामायिक के लिए अधिक उपयुक्त है । उपाश्रय शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की जाती है | उप= उत्कृष्ट, ग्राश्रय= स्थान | अर्थात् मनुष्यो के लिए अपने घर यदि स्थान केवल ग्राश्रय है, जबकि उपाश्रय इहलोक तथा परलोक दोनो प्रकार के जीवन को उन्नत बनाने वाला होने से एव धर्मसाधना के लिए उपयुक्त स्थान होने से उत्कृष्ट ग्राश्रय है ।'
दूसरी व्युत्पत्ति है— 'उप = उपलक्षरण से आश्रय = स्थान ।' अर्थात् निश्चयदृष्टि से प्रतिमा के लिए वास्तविक ग्राश्रयआधार वह स्वय ही है, और कोई नही । उक्त ग्रात्म-स्वरूप ग्राश्रय की प्राप्ति, आश्रय की प्राप्ति,
परन्तु
व्यावहारिक दृष्टि से