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खण्ड १ | जीवन ज्योति
फूल बन जाते हैं । विपत्ति भो सम्पत्ति बन जाती है। इन्हीं महापुरुषों की श्रेणी में है पू० गुरुवर्या श्री सज्जनश्रीजी म. सा० का भी व्यक्तित्व । जिनका संयमी जीवन समाज व शासन सेवा कार्य में पूर्णरूप से तत्पर है।
आपश्री अत्यन्त शान्त सरल स्वभाव वाली है । दार्शनिक मुखमण्डल पर चमकती दमकती हई निश्चल स्मित रेखा, उत्फुल्ल नीलकमल के समान मुस्कराती हुई स्नेह स्निग्ध निर्मल आँखें, स्वर्ण कमल पत्र के समान दमकता हुआ सर्वतोभद्र भव्य ललाट, कर्मयोग की प्रतिकृति के सदृश वे बाहर से जितनी सुन्दर व नयनाभिराम हैं उससे भी अधिक अन्दर से मनोभिराम हैं। उनकी मन्जुल मुखाकृति पर निष्कपट विचारकता की भव्य आभा झलकती है । आपकी उदार आँखों के भीतर से कमल के समान सरल सहज स्नेह सुधारस छलकता है । जब भी देखिए वार्तालाप में सरस शालीनता के दर्शन होते हैं। हृदय की संवेदनशीलता एवं उदारता दर्शक के मन और मस्तिष्क को एक साथ प्रभावित करती है। कुछ क्षण में ही जीवन की महान दूरी को समाप्त कर एकता के सहज सूत्र में बांध देती है।
मेरा सौभाग्य है कि मुझे गुरुवर्या श्री सज्जनश्रीजी म. सा. का सान्निध्य प्राप्त हुआ। आपश्री के जीवन में अनेक गण विद्यमान हैं। आपश्री के लिए "स्वयं तरन्-तारयितु क्षमः परम्' उक्ति चरितार्थ होती है। स्वयं संसार सागर से तिरने वाली हैं और प्रत्येक प्राणी को भी संसार सागर से तिराने वाली है । जब आपश्री गढ़ सिवाणा पधारीं । मैंने आपश्री के प्रथम बार ही दर्शन किये थे। लेकिन आपश्री का आदर्श जीवन, सरल स्वभाव व वात्सल्य भरे व्यवहार से मैं इतनी अधिक प्रभावित हई कि मैं अपनी लेखनी द्वारा अभिव्यक्त करने में असमर्थ हूँ। और दर्शन करने से लगा मानो मैंने आज साक्षात् भगवान के दर्शन किये हों । ओली पर्व का समय निकट आ रहा था। श्री संघ की विनती को स्वीकार कर आपश्री ने ओलो करवायी। मुझे आपश्री के प्रतिदिन दर्शन व प्रवचन श्रवण का सुयोग बराबर मिलता रहा, कुछ दिन पश्चात् आपश्री मिठोडावास पधार गई । वहाँ भी मैं बराबर जाती रही।
सिवाणा श्री संघ की आग्रहभरी विनती को स्वीकार कर आपश्री ने चातुर्मास सिवाणा में ही किया। मुझे चार महीने आपश्री की सानिध्यता प्राप्त हुई और सत्प्रेरणा मिलती रही जिससे मेरी भावना
और दृढ़ बन गयी । और मैंने आपश्री की शीतल छाया में रहकर यावज्जीवन व्यतीत करने का निर्णय कर लिया। आपश्री की भी कृपादृष्टि सदा इतनी बरसती रही कि मेरी दिनानुदिन भावना दृढ़तर होती गयी । और संयम-पथ पर अग्रसर होने के लिए उद्यत हो गयी।
आपधी के जीवन में एक-एक विशेषता ऐसी भरी है कि जितना भी लिखें अतिशयोक्ति नहीं होगी। आपश्री में विद्वत्ता के साथ-साथ त्याग, तप का भी विशेष गुणहै । आपश्री ने मासक्षमण, ओलीजी विंशतिस्थानक, वर्षीतप आदि अनेक तपस्याएँ करके अपने संयमी जीवन को पवित्र बनाया और बना रही हैं। आपश्री अपनी शिष्याओं को भी हमेशा प्रेरणा देती रहती हैं कि जीवन में जब तक त्याग, तप नहीं आयेगा तब तक आत्म-शुद्धि भी नहीं होगी । तप के साथ-साथ वैयावृत्य की भावना भी विशेष है । अपनी पू. गुरुवर्या श्री ज्ञानश्री जी म. सा. की सेवा में २२ वर्ष तक एक ही स्थान पर जयपुर में रहकर सेवा की। साथ ही आवश्यकता होने पर सभी पूज्यवर्याओं की सेवा के लिए सदा तत्पर रहती हैं।
गच्छ प्रवर्तिनी जैसे महान पद पर आसीन होते हुए भी जीवन में इतनी सरलता है कि कभी कभी तो विचार आता है आपश्री इतनी विद्वान योग्य श्रमणी होते हुए भी छोटे बड़ों के प्रति सदा समान
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