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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
उनकी भावुकता का मुहताज नहीं है । परिपक्व विचार ने उसी शब्दावलि को आमंत्रित किया है जिसमें अभिव्यक्ति की शक्ति है और पैनापन है । यह कृति लेखिका का हिन्दी साहित्य को विशेष अनुदान है।
प्रसिद्ध चिन्तक तथा साधक उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री के शब्दों में प्रभा-प्रवचन में परम विदुषी साध्वीरत्न के अनुभवों का साक्षात्कार, उनके गहन अध्ययन का निचोड़, जीवन की बहुआयामी व्यापकता, अनुभव, नीति, व्यवहार धर्म, साधना और चिन्तन का नवनीत अभिव्याप्त है । यह वस्तुतः जीवन का भाष्य है ।
जहाँ प्रस्तुत प्रवचनों का संकलन साहित्यिक निधि का प्रतिनिधित्व करता है वहाँ वह पाठकों अथवा श्रोताओं को सन्मित्र की सहकारिता प्रदान करता है । सीख जैसी सम्पदा पाकर उसका पाठक लाभान्वित होता है और दुहाई देता है पूजनीया माताजी को । इससे बढ़कर कृति-लेखन की सफलता और क्या हो सकती है ? प्रवचनों की शैली वर्तमान है और है उसमें जीवन्त प्रेरणा फूंकने की अदम्य सामर्थ्य |
सब मिलाकर यह सहज में कहा जा सकता है कि विदुषी लेखिका धर्म की प्रचारिका मात्र ही
नहीं है अपितु सुधी लेखिका भी सिद्ध हुई है। उन्हें कवयित्री के रूप में सदा स्मरण किया जावेगा । भजनों का लेखा-जोखा तो हजार-हजार महिलाओं के समूह में आकंठित गूंज रहा है। गूंज की गरिमा जीवन को उदात्तता प्रदान करती है वस्तुतः यह बहुत बड़ी देन है । यही शिव है, यही सत्य है और है सुन्दरं । बोध कथाओं का संकलन पाठक को सुबोधता है । एक ही बैठक में यदि किसी को शिक्षा का मोदक आस्वादित हो जाए तो आज के सन्त्रास से भरे वातावरण में और क्या कुछ चाहिए ? प्रवचनों का संग्रह जीवन - पाथेय है जिसे पाकर किसी भी यात्री को सफलता तक पहुँचाने का दावा है ।
साध्वी महासती जी आज सशरीर हमारे बीच नहीं हैं । उनका साहित्य हमारे सामने है । प्रवचनों को मैं कई बार बाँच गया हूँ । बराबर लगता रहा है कि उन्हें बाँचता रहूँ । सद्साहित्य लेखक का स्मारक होता है । प्रभावती जी का साहित्य उनके अभाव को मिटाता है और 'प्रोक्सी' की भूमिका अदा करता है । इस प्रकार वे अपने सुधी पाठकों का इतने पवित्र साहित्य को पारायण करने साहित्य के व्याज से अमर हैं । अजर हैं । मैं हिन्दी की हार्दिक संस्तुति करता हूँ और साधुवाद देता हूँ उन्हें जिन्होंने इसे प्रकाशित किया है, सुलभ कराया है ।
प्रभु का स्वरूप :
नमक की पुतली ने सागर से पूछा - "तुम्हारी गहराई कितनी है ?" सागर ने कहा - " भीतर उतरकर देखो !"
पुतली भीतर गई और उसी में समा गई !
साधक ने प्रभु से पूछा - "प्रभु ! तुम्हारा स्वरूप क्या है ?"
प्रभु ने कहा- "मन के भीतर झांक कर देखो"
२४६ | तृतीय खण्ड : कृतिल दर्शन
साधक मन के भीतर उतरा और स्वयं प्रभु स्वरूप बन गया । सागर को जानने का अर्थ है - सागर में विलीन होकर सागर बन जाना । प्रभु को जानने का अर्थ है- प्रभु स्वरूप को पाकर स्वयं प्रभु बन जाना ।
- उपाचार्य देवेन्द्र मुनि
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