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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
सामर्थ्य आ जाती है। पुरुष के प्रतिबिम्ब से प्रभावित प्रकृति के गुणों का आरोप पुरुष में भी हो जाता है। जिससे, स्वभावतः निलिप्त, त्रैगुण्यरहित, असंगी पुरुष स्वयं को कर्त्ता/भोक्ता आदि रूपों में अनुभूत करने लगता है । इन दोनों में परस्पर अध्यासित आरोप, जब ज्ञान के द्वारा नष्ट होते हैं, तब, पुरुष, अपने को प्रकृति से भिन्न अनुभव करने लग जाता है। प्रकृति भी पुरुष का परित्याग कर देती है, और उसके लिए की जाने वाली सर्जना, से विराम ले लेती है। इसी को ‘विवेक बुद्धि'/'भेदबुद्धि'/'कैवल्य प्राप्ति' कहा गया है। इसी से दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति होती है। अतः विवेकबुद्धि उत्पन्न हो जाने के पश्चात् पुरुष अपने स्वरूप में स्थित रहकर ही प्रकृति को देखता है। उसके बन्धन में फिर नहीं आता। 'पुरुष' की यही मोक्षावस्था है।
सांख्यों ने मुक्त अवस्था में भी 'पुरुष' को प्रकृति का दर्शक माना है। इस मान्यता से यह स्पष्ट होता है कि मुक्त-अवस्था में वह न तो प्रकृति से सर्वथा 'मुक्त' हो पाता है, न ही सत्त्वगुण से । क्योंकि उसमें सत्त्वगुण का, कुछ न कुछ अंश बचा ही रहता है । इसके बिना उसमें देखने की सामर्थ्य नहीं आ सकती। और, जब वह वहाँ देखने में लीन होता है, तब, उसमें तमोगुण का भी अभिभव अवश्य हो जाता है 178 सांख्यदर्शन मानता है कि गुण, परस्पर अभिभव का सहारा लेकर, मिश्रित रूप से ही अपना व्यवहार/व्यापार करते हैं । फिर सत्त्व और तम दोनों ही गुणों में, पुनः एक दूसरे को अभिभूत करने की आशंका बनी रहती है। इस स्थिति में, यह कैसे माना जा सकता है कि मुक्त पुरुष को दुःखों की आत्यन्तिक/एकान्तिक रूप से दुःखों से निवृत्ति मिल जाती है ? वैसे भी सांख्यदर्शन में किसी वस्तु का सर्वथा अभाव नहीं माना गया। अपितु, पदार्थ के एक रूप से दूसरा रूप परिणमित होता देखा जाता है। इसी तरह. मक्त अवस्था में भी कोई स्थिति ऐसी नहीं मानी जा सकती. जिसमें तमोग अभाव हो सकता हो । वाचस्पति मिश्र ने भी यही आशय तत्त्व कौमुदी में व्यक्त किया है ।
सांख्यदर्शन पुरुष में जिस विवेकख्याति/भेदबुद्धि की प्राप्ति को मुक्तिरूप में स्वीकार करता है, वह ख्याति/बुद्धि सत्त्वगुण रूप ही होती है। इसलिए मुक्त अवस्था में यदि ख्याति/बुद्धि की मौजूदगी मानी जाती है, तो वहाँ सत्त्वगुण की भी स्थिति अवश्य मानी जायेगी। इससे उसका प्रकृति के साथ सम्बन्ध भी अवश्य सम्भावित हो जाता है । इस दृष्टि से, यह कहा जा सकता है कि सांख्यों का पुरुष, मुक्त अवस्था में भी वस्तुतः प्रकृति से मुक्त नहीं हो पाता।
___ अद्वत-सिद्धान्त-बुद्धि, मन, अहंकार, चित्त, अन्तःकरण की वृत्तियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के संयोग से विज्ञानमय कोश की, तथा उससे आवृत चैतन्य जीव की उत्पत्ति होती है। इस मान्यता के अनुसार 'शरीर' और 'आत्मा' दोनों को ही 'जीव' मानकर, उसे 'ईश्वर का अंश' कहा गया है। माया का परिणाम होने के कारण, स्थूल सूक्ष्म शरीरों वाला 'आत्मा' ही 'जीव' कहा गया है। आत्मा के प्रत्येक व्यवहार में स्वतःप्रामाण्य माना गया है। यही आत्मा, आनन्द-ज्ञानस्वरूप, सत्, कूटस्थ नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त तथा ज्ञाता है । इस मान्यता में 'आत्मा' और 'ब्रह्म' की एकता स्पष्ट है। प्रत्यक यक्तिगत आत्मा ही बुद्धि, मन आदि की वृत्तियों से आवृत चेतना है। जबकि 'ब्रह्म' विशद्ध. विनिर्मक्त चेतना है । माया का वशीभूत हुआ और अन्तःकरण की वृत्तियों से आबद्ध ब्रह्म ही आत्मरूप को प्राप्त होता है । जैसे घट के छिन्न-भिन्न हो जाने पर घटाकाश, बाह्याकाश में सम्मिलित होकर, उसी जैसा हो जाता है । इसी तरह, आत्मा और परमात्मा में भी कोई अन्तर नहीं है। 77. सांख्यकारिका - तत्त्वकौमुदी--(मात्त्विकया-भेदोऽन्त्येव) 65 78. वही- (अन्योन्याभिभवा०) 12 79. वही-तत्त्व कौमुदी-1 २० | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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