Book Title: Saddharm Bodh
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Nanebai Lakhmichand Gaiakwad

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Page 77
________________ [ ७३ । [५] लोभ-पाप का बाप तथा पाप का मूल यह लोभ ही शत्रु है, इसके फन्देमें फसते ही तत्काल सब सद्गुणोंका नाश होजाता है। और इस फन्देसे निकलना भी बड़ा कठिन है,कारण कि जैसे २ लाभमें वृद्धि होती जाती है तैसे २ लोभमें भी वृद्धि होती जाती है, इस आशातृष्णाको तृप्त करनेके लिए मनुष्य क्षुधा, तृष्णा,शीत,ताप वगैरा अनेक दुःख सहन कर देशांतरोंमें. जंगल, झाडी, समुद्रादि दुर्गमस्थानों में मारे मारे फिरते हैं, नीच लोगोंके गुलाम बनते हैं, जातिविरुद्ध कर्माचरण करते हैं, ऐसे अनेक कष्ट सहकर तृष्णाको तप्त करना चाहते हैं, परन्तु इसकी तृप्ति नहीं होती है। सवैया-जो दस बीस पचास भए। शत होत हजारकी लाख मंगेगी । क्रोड अरब्ब खरब्ध असंख्य । धरापत होनेकी चाह जगेगी। स्वर्ग पातालको राज मिले । तो भी तृष्णा आधिकी आग लगेगी ॥ सुन्दर एक सन्तोष बिना शठ ? तेरी तो भूग्व कभी ना भगेगी ।।

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