Book Title: Sachitra Mukh Vastrika Nirnaya
Author(s): Shankarmuni
Publisher: Shivchand Nemichand Kotecha Shivpuri

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Page 38
________________ [ ६ ] मुखवस्त्रिका | जानकारी नहीं रखने से अर्थात् अपनी श्रज्ञानता से इन जीवा की हिंसा करते हैं । परन्तु इन में टोपी दोनो तरह के मनुष्य हैं। क्योंकि कानून नहीं जानने वाला व्यक्ति दण्ड से अपने को नहीं बचा सकता है । जब कि, जानकारी प्राप्त करने के लिए सब को स्वतन्त्रता है फिर नहीं जानने वाले लोग क्यों नहीं इसका ज्ञान प्राप्त करलेते है । हां जानने वालों का यह कर्तव्य अवश्य है कि, जिज्ञासु और जान मनुष्यों को इस का मर्म बतलावे और इस का ज्ञान प्राप्त करावे, इसी लिए मैंने भी इस पुस्तक को लिखना श्रावश्यक समझा है । संसार का ऐसा कोई धर्म नहीं है जो दया को न मानता हो । सब धमों में दया और अहिंसा की शिक्षा सब से पहले दी गई है । मनुष्य मात्र का कर्तव्य है कि, सारे जगत् के प्राशियों पर दया करे " श्रात्मवत् सर्व भूतानाम् ' इस महात्राक्य को न भूले | > मनुष्य हाथ पैर हिलाने और चलने फिरने से शान्त रह सकता है | परन्तु बोलने से नहीं । कितने ही का स्वभाव होता है कि थक कर पड़जाने पर भी मुँह से निरर्थक और अनर्गल शब्द उगलता ही करते हैं । उच्चारण और श्वास प्रश्वास द्वारा मनुष्य महान पाप कर डालता है अर्थात् मुँह की भाप से कोठान कोटि जीवों को जला देता है । इस से सिद्ध हुआ कि, ज्यावह हिंसा मनुष्य अपने मुँह से ही करता है । और इस की रोक न करना कितना हानि कारक है ।

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