Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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विस्तृत विवेचन सहित
इसका धर्म कभी नहीं हो सकता। जब जीव अपने को सुखी
और स्वाधीन समझ लेता है और पर में सुख की मान्यता को त्याग देता है तो उसकी धर्मरूप परणति हो जाती है। जीव जब पापभाव को छोड़कर पुण्यभाव करता है तो रागरूप परिणति ही होती है, जिससे कर्मबन्ध के सिवा और कुछ नहीं होता। भले ही पुण्योदय से देव, चक्रवर्ती हो जाय, किन्तु स्वस्वभाव से च्युत होने के कारण अधर्मात्मा ही माना जायगा।
जबतक जीव अपने को पराश्रय और विकारी मानता है तबतक उसकी दृष्टि पुण्य-पाप की ओर रहती है, पर जब त्रिकाल असंग स्वभाव की प्रतीति करता है तो विकार का क्षय हो जाता है और ज्ञानानन्द स्वरूप आत्मा आभासित होने लगता है। पर द्रव्यों से राग करना, उनके साथ अपना संयोग मानना दुःखरूप है और दुःख कभी भी आत्मा का धर्म नहीं हो सकता है। ___ यह मी सत्य है कि आत्मा को किसी बाह्य संयोग से सुख नहीं मिल सकता है। यदि इसका सुख परवस्तु जन्य माना जायगा तो सुख संयोगी वस्तु हो जायगा, पर यह तो आत्मा का स्वभाव है, किसीके संयोग से उत्पन्न नहीं होता। पर पदार्थों के संयोग से सुख की निष्पत्ति आत्मा में मानी जाय तो नाना प्रकार की बाधाएँ आयेंगी। एक वस्तु जो एक समय में सुख
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