Book Title: Rajasthani Sahitya Sangraha 01
Author(s): Narottamdas Swami
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 19
________________ मौजूम खातू । सदा वरत का नेम चलातू । जो ही फकीर प्राव । तिसकु खाँणा खुलावै । एक रोज इक दीवान फकीर पाया। दावल दोन घरां न पाया। अन्त-बेटे बाप विसराया, भाई वीसा रेह । सूरी पुरा गल्लडी, मांगण चीता रेह ॥१०७।। ऐसा कुतबदीन साहजादा दिल्ली बीच पिरोसाह पातस्याह का साहजादा भया । दांवलदान फकीर की लड़की साहिवां से प्रासिक रह्या । बहुत दिनां प्रीत लागी। दुख पीड़ आपदा सहु भागी। पोरोसाहि का तखत पाया साहजादा साह कहाया । यह सिफन कुतबदीन साहजादे की पढे, बहुत ही वजन सुख से बढे । यह बात गाहजुग से रहि । ढढीणी ने जोड़ कर कही।" दूसरी रचना राजस्थान के सुप्रसिद्ध कवि समयसुन्दर रचित 'भोजन विच्छित्ति' नामक है। 'कल्प-सूत्र' की टीका मैं, महावीर के जन्म के पश्चात् कुटुम्बोजनों को जो भोजन कराया गया, उसका वर्णन बड़ी छटापूर्ण भाषा में किया गया है । खाद्य पदार्थों का इतना सुन्दर वर्णन पढ़ कर पाठकों को भी भोजन करने की इच्छा जाग उठेगी । परोसने वाली स्त्री का वर्णन करके खाद्य पदार्थों का वर्णन किया गया है __"मांडयउ उत्तग तोरण मांडवउ, तुरत नवउ । बेसवानउ प्रांगणउ, तेतउ नील रतन तराउ । सखरा मांडया प्रासण, बैसतां किसी विभासण प्रीसणहारी पइठी । ते केहवी ?-सोल शृगार सज्या, बीजा काम त्यज्या । हाथनी रूड़ी, बिहे बांहे खलकइ चूड़ी । लघ लाघवी कला, मन कीधा मोकला । चितनी उदार, अति घणी दातार । दउलती हाथ, परमेसर देजे तेहनो साथ । धसमसती प्रावी, सगलारइ मन भावी। "हिव पकवान प्राणइ, केहवा वखाणइ-सत्तपुडा खाजा, तुरतना ताजा, सदला नइ साजा, मोटा जाणे प्रासादना छाजा । पछे प्रीस्या लाडू, जाए नान्हा गाडू । कुण कुण ते नाम, जीमतां मन रहे ठाम । मोतीया लाडू, दालिना लाडू, सेविया लाडू, कोटीरा लाड, नांदउलिरा लाडू, तिलना लाडू, मगरिया लाइ, भूगरिया लाडू, सिंह केसरिया लाडू।" १८ वीं शताब्दी के सभा-शृगार, कुतुहलम् प्रादि कई वर्णनात्मक ग्रन्थ मिले हैं, जिनके उद्धरण अपने अन्य लेख में दे चुका हूँ । इस शताब्दी की दो सुन्दर रचनाएं चारण कवियों की भी प्राप्त हैं, जिनमें से 'खिची गंगेव नीबांवतरो दो-पहरौ' और 'राजान राउतरो वात-वरणाव' बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इनका एक एक उदाहरण नीचे दिया जा रहा है। पहली रचना के प्रारम्भ में वर्षा का वर्णन तो बहुत ही सुन्दर है जिसको मैंने 'राजस्थानी साहित्य' में वर्षा वर्णन लेख में दे दिया है। उसे यहां भी दिया जा रहा है। "वरखा रितु लागी, विरहणी जागी। प्राभा झर हरै, बीजां प्रावास करै। नदी ठेवा खावै, समुद्र न समावै । पाहाडा पाखर पड़ी, घटा ऊपड़ी। , मोर सोर मंडै, इन्द्र धार न खंड । पाभो गाज, सांरग वार्ज । द्वादश मेघन दुवो हुदो, सु दुखियारी प्रांख हुवो। . झड़ लागौ, प्रथोरो दलद्र भागौ । दादुरा डहिडहै, सावण प्राणवैरी सिध कहै । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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