Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 71
________________ तरंगलोला ने घूमते-घूमते कमल की गंध वाला एक सुवासित श्वेत पुष्प देखा और उसने सावधानीपूर्वक उसे शाखा से तोड़ डाला....... इतने में ही पद्म सरोवर के कमलों से निकली मधुमक्षिकाओं ने तरंगलोला के वदन पर आक्रमण कर दिया। यह देखकर तरंगलोला चौंकी और उसने अपना कोमल हाथ मुंह के आगे हिलाना प्रारंभ किया.... परन्तु वृक्ष के कोमल पल्लवों जैसा हाथ क्या असर करे....? तरंगलोला धीरे से चीखी, परन्तु उसकी चीख कैसे सुनाई दे, जब कि चारों ओर आनन्द का सागर हिलोरें लेता हो। तरंगलोला ने प्रयत्न कर मुंह ढांका.... कुछ राहत मिली... मधुमक्षिकाओं से बचने के लिए पासवाले मंडप में चली गई। वहां सारसिका भी खड़ी थी। उसने सखी की अकुलाहट देखकर कहा-'क्यों तरंग! लगता है मधुमक्षिकाओं ने तुम्हें परेशान किया है?....... अरे! अभी भी तुम्हारे वदन पर एक-दो मक्षिकाएं बैठने की कोशिश कर रही है...... तुम मत घबराओ...... बेचारी मधुमक्षिकाएं भी तुम्हारा पुष्प जैसा वदन देखकर भ्रम में घिर गई हैं..... अभी ये अपने आप उड़ जाएंगी..... 'तू कहां गई थी?' 'मैं पद्मवन की ओर सप्तपर्ण के फूलों को देखने गई थी।' 'तो चल, मैं भी चलती हूं।' कदली मंडप से बाहर निकलते ही सारसिका बोली-'तरंग! नहीं, नहीं...... पद्मसरोवर के पास जाना उचित नहीं है।' 'क्यों ?' 'जलाशय को देखकर तुम्हारा चित्त अस्वस्थ हो जाता है, इसलिए...।' 'पगली कहीं की! बाल्यावस्था में ऐसा होता था. अब क्या होता है?' कहकर तरंगलोला पद्मसरोवर की ओर अग्रसर हुई। और दोनों चलकर पद्मसरोवर के पास आईं। सरोवर का यह भाग कमलसमूहों से अत्यंत लुभावना लगता था। उसमें श्वेत, नील, स्वर्णिम तथा रक्तकमल शोभित होते थे। उसको देखते-देखते आदमी आनन्दविभोर हो जाता था, परन्तु देखने से उसे तृप्ति नहीं मिलती थी। इन कमलों पर भ्रमर तो गूंजते ही थे...... साथ ही साथ मधुमक्षिकाएं भी एकधार झणकार कर अपने आनन्द को अभिव्यक्त करती थीं। सरोवर में श्वेत हंसों की पंक्ति तैर रही थी। इन्हें देख दोनों सखियां अभिभूत-सी हो गईं। हंस-हंसिनी के युगल आपस में केलि-क्रीड़ा करते हुए आनन्द मना रहे थे। ____ और अन्यान्य पक्षी भी तट पर स्थित वृक्षों पर, लताओं और झुरमुटों पर कल्लोल कर रहे थे। यह दृश्य देखकर तरंग बोली-'सखी! मनुष्य सुखी है या पक्षी? देखो, पक्षी कितने आनन्दित हैं?' पूर्वभव का अनुराग / ६९

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