Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 69
________________ दास-दासी और पाकशास्त्री भी थे। इस प्रकार अत्यंत स्वच्छ और रमणीय उस पद्मवन में मानो एक छोटी-सी नगरी बस गई...... वह भी त्रिया नगरी....। सेठानी ने और उसकी समवयस्क स्त्रियों ने बहुरंगी वस्त्र धारण कर रखे थे। ये प्रौढ़ वय की होने पर भी यौवन की-सी मदमस्ती से उल्लास अनुभव कर रही थीं। प्रत्येक स्त्री अलंकारों से अलंकृत थी। किसी की कटिमेखला के छोटे धुंघरू मधुर ध्वनि प्रसारित कर रहे थे तो किसी के पायल बज रहे थे। युवा कन्याएं और नवपरिणीता स्त्रियां अत्यंत उल्लास में क्रीड़ा कर रही थीं। वे निर्बन्ध रूप से निर्भयतापूर्वक इधर-उधर घूम रही थीं। तरंगलोला, सारसिका और दो परिचारिकाएं पद्मवन की शोभा देखती हुई चारों ओर चक्कर लगा रही थीं। स्त्रियां जब गृहचिन्ता से मुक्त होकर ऐसे आमोद-प्रमोद भरे स्थान में आ जाती हैं तब उनकी आन्तरिक उमंगें उछलने लगती हैं। समवयस्क स्त्रियां ऐसे समय में अपने विकास की बातें भी कर लेती हैं और कोई-कोई स्त्री किसी एक पुष्प की तुलना अपने यौवन की मदमस्ती के साथ करती है। पद्मवन विशाल था। पद्मवन में स्थित पद्मसरोवर अत्यंत रमणीय था। मध्याह्न के पश्चात् जलक्रीड़ा की योजना थी और संध्या होते-होते यहां से अपने-अपने निवास की ओर जाने का निश्चय था। परन्तु कुछेक प्रौढ़ नारियों ने जलाशय की सुंदरता से पराभूत होकर उसी समय जलक्रीड़ा करने का निश्चय किया। सेठानी ने कहा-'जलक्रीड़ा का आनन्द तो मध्याह्न के बाद ही आएगा। उस समय जल भी कुछ तप जाएगा और हम भी श्रमित हो जाएंगी..... उस समय.... प्रथम प्रात:काल का कार्य संपन्न कर हमें तरंगलोला द्वारा प्रस्तुत सप्तपर्ण की कल्पना को जांचने के लिए सप्तपर्ण के वृक्ष के पास चलना है।' सुनन्दा ने कहा। 'ठीक है...... आज की उद्यानिका का सही आनन्द तो वही है' दो-तीन स्त्रियां बोल पड़ी। प्रात:कार्य से निवृत्त होकर प्रौढ़ स्त्रियां तथा अन्य नारियां सप्तपर्ण वृक्ष की ओर रवाना हुईं। वह वृक्ष सरोवर के किनारे पर था। तरंगलोला भी अपनी सखियों के साथ उद्यान-भ्रमण के लिए चल पड़ी थी। ___ उभरता यौवन और चिरप्रतीक्षा के बाद मिली स्वतंत्रता। ऐसा अवसर कौन चूके? तरंगलोला तो देवलोक की परी की भांति कभी लतामंडपों में, कभी निकुंजों में तो कभी फलदार वृक्षों की छांह में फुदक रही थी। जो स्त्रीसमूह, सप्तपर्ण वृक्ष की ओर चला था, वह भी कल्लोल करती हुई पूर्वभव का अनुराग / ६७

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