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प्रवचनसार
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अथवा छयोपशममन्दता भयेते सोई,
थूल मूरतीक हू न जानत किते रहै ॥ ६ ॥
दोहा । देह घरेसे आतमा, द्रव्येद्रिनिके द्वार । निकट थूल मूरत दरव; तिनको जाननिहार ॥ ७ ॥
अथवा छय उपशम धेरै, निपट निकट जे वस्त । . तिनहुँ न जानि सकै कभी, यह जगविदित समस्त ॥ ८ ॥ पंचिन्द्रिनिके विषयको, जानि अनुभवै सोय । इन्द्रियसुख सो जानियो, मूरतीकमें होय ॥९॥ यातें ज्ञानी सुख दोऊ, वसहिं सदा इक संग ।। मूरतिमाहिं मूरतिक, इतरमाहिं तदरंग ॥ १० ॥ फरस रूप रस गंध अरु, श्रवनिद्रिनिके भोग । ज्ञानद्वारतें जानिके, सुख अनुभव तपयोग ॥ ११ ॥ यात ज्ञानरु सौख्यको, अविनाभावी संग । चिद्विलासहीमें बसत, उपजहि संग उमंग ॥ १२ ॥ इन्द्रियज्ञानरु सौख्य जिमि, मूरतीकमें जान । तथा अतिन्द्रियज्ञान सुख, वसत अतिंद्रियथान ॥ १३ ॥ कहा कहों नहिं कहि सकों, वचनगम्य नहिं येह । अनुभव नयन उघारि घट, वृन्दावन लखि लेह ॥ १४ ॥