Book Title: Pravachansar Parmagam
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Dulichand Jain Granthmala

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Page 207
________________ १९८ ] कविवर घृन्दावन विरचित जैसो कछू पावें तसो अंगीकार करें बन्द, मिच्छा आचरनकरि ताहको नियोग है ॥ दिनहीमें खात रस आस न धरात मधु, ___ मांस आदि सरवथा त्यागत अजोग है। देहनेह त्यागि शुद्ध संजमके साधनको, ऐसोई अहार शुद्ध साधुनिके जोग है ॥१३०॥ चौपाई। एकै वार अहार बखाने । तासुहेत यह सुनो सयाने ॥ मुनिपदकी सहकारी काया । तासु सुथित यात दरसाया ॥१३१॥ अरु जो वारवार मुनि खाई । तबहि प्रमाददशा वढ़ि जाई । दरवभावहिंसा तब लागे। संजमशुद्ध ताहि तजि भागै ॥१३२॥ सोऊ रागभाव तजि लेई । तब सो जोग अहार कहेई ।। । तातै वीतरागताधारी । ऐसे साधु गहँ अविकारी ॥१३३ । है जो भरि उदर करै मुनिभोजन । तो है शिथिल न सधै प्रयोजन || न जोगमाहिं आलस उपजावै । हिंसा कारन सोड कहावै ॥१३॥ ताते ऊनोदर. आहारो। रागरहित · मुनिरीति विचारो ॥ । सोई जोग अहार कहा है। संजमसाधन साध गहा है ॥१३५॥ जथालाभको हेत विचारो। आपु कराय जु करें महारो || तब मनवांछित भोजन करई । इन्द्रियराग अधिक उर धरई ।।१३६।। हू हिंसा दोष लगै धुव ताके । संजमभंग होहिं सब वाके ॥ । तातै जथालाभ आहारी । मुनिकहँ जोग जानु निरधारी ॥१३७||

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