Book Title: Prashnavyakaran Sutram
Author(s): Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti

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Page 900
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०२ सस्थावराद्यपरिग्रह निरूपणम् ८५१ ' , मूलादियाई' पुष्पफलकन्दमूलादिकानि प्रतीतानि तथा सणसत्तरसाई' रागसप्तदशानि=शणः स्वक प्रधाननालोधान्यविशेषः स सप्तदशो येषां तानि तथोक्तानि सप्तदशसंख्यकानि, 'सन्न घण्णाई' सर्वधान्यानि ' तीहि वि ' जोगेहिं ' त्रिभि रपि योगैः = वाडूमनः कायलक्षणैस्त्रिभिरपि योगैः परिवेत्तं परिग्रहीतुं न कल्पन्ते । ' किं कारणं किमर्थं परिग्रहीतुं न कल्पन्ते ? इत्याह- ' अपरिमिय णाणदंसणधरेहिं ' अपरिमितज्ञानदर्शन धेरैः = अपरिमितानि यानि ज्ञानदर्शनानि तानि धरन्ति ये ते तैः, केवलज्ञानकेवलदर्शनधरैरित्यर्थः पुनः--' सीलगुणविणयतवसंजमनायकेहिं ' शीलगुणविनयतपः संयमनायकैः, तत्र - शीलम् = आत्मसमाधिः, गुणाः = ज्ञानादयः, विनयः अभ्युत्थानादिकः तपः संयमौ प्रतीतौ तान्नयन्ति = वर्द्धयन्ति ये ते तैः पुनः - तित्थंकरेहि ' तीर्थङ्करैः शासनमवर्तकैः पुनः 'सत्र जगजीववच्छलेहिं ' सर्वजगज्जीववत्सलैः सर्वजगतां ये जीवास्तेषु तदुपरि वत्सलैः =परमकारुणिकैः, पुनः कीदृशैः ? ' तिलोय महिएहि ' त्रिलोकमहितैः = लोकत्रयपुष्प, फल, कन्द, भूल आदिकों को तथा ( मणसत्तरसाई) शण-त्वक प्रधान नालो धान्य विशेष यह है सत्रहवां जिन्हों का ऐसे (सब्वघण्णाई समस्त धान्यों को ( न यावि तीहिंबिजोगेहि परिवेत्तुं ) मन, वचन और काय, इन तीनों योगों से ग्रहण करना कल्पित नहीं है । ( किं कारणं ) क्या कारण है कि वे नहीं कल्पता है ? इस पर कहते हैं (अपरिमियणाणदंसणधरेहिं ) अपरिमित अंपार - अनंत केवलज्ञान, केवलदर्शन, को धारण करने वाले, (सीलगुणविणयतव संजमनायगेहिं ) शीलआत्मसमाधि, ज्ञानादिगुण अभ्युत्थानादिरूप विनय, तप और संयम Easter वाले, (तित्थयरेहिं ) तीर्थकर - शासन प्रवर्तक, (सव्वजगजीववच्छ लेहिं ) समस्त जगत के जीवों के ऊपर परम करुणाशील, (तिइयाइ पुष्य, इज, उहें, भूग, माहिने तथा सण सत्तरसाई शशु-रेशाવાળી વાળાથી યુક્ત ધાન્ય વિશેષ જેમાં સત્તરમું છે એવાં सव्वधष्णाई' સમસ્ત ધાન્યાને नयावि तीहिं विजोगेहिं अय, ये होना योगथी खानु दातुं नथी. "किकारणं " ते नहीं उदयवानुं अश्शु शु छे ? तो सूत्रार डे छे- " अपरिमाणदंसणधरेहिं " અપરિમિત–અપાર-અનત કેવળજ્ઞાન, કેવળ દનને ધારણ કરનાર सील-गु णविजय तव संजम नायगेहिं " शीत-आत्म समाधि, ज्ञानादि गुणु, मल्युत्थाનાકિરૂપ વિનય, તપ અને સયમ, એને વધાવાનાર, tacafe" cla ५२ शासन प्रवर्त, " सव्वजगजीववच्छले हि સમસ્ત જગતનાં જવા પ્રત્યે અત્ય’તકરૂણાશીલ, तिलोयम हिएहि " नशेसोमा भान्य सेवां " जिणवरि 16 66 " परिधेतू મન, વચન અને ८८ (( ܕܕ 6 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only 46 " (C ""

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