Book Title: Prashnamala Stavan
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Jain Pathshala

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Page 5
________________ (२) विराधी पहेले देवलोके, भगवतीमें वातजी। ज्ञातामें गाइ ईसान देवी, आटुंइ एक साथजी ।मू॥५॥ उववाइमें तप देखो, उत्कृष्ट जोतपी जायजी। भगवतीमें, तां मली, तापस, ईसांण इंद्रेक हायजी ॥॥६॥ उववाइ छटे देवलोके, जावे चोद पूर्वना धारजी। कार्तिकशेठ पहेले देवलोके, भगवतीजीमें तारजी ।।मू॥७॥ तीन करण योगथी टाले, श्रावक कर्मादानजी । उपासकमें हल निवाडा, सगडाल आनंद गुणवानजी ॥॥८॥ वेदनी कर्मकी बार मूहूर्त, जगन थिति पनवण जाणनी। तेहिज अंतर्मुहुर्त दाखी, उत्तराध्ययन की वाणजी ।मू॥९॥ भगवतामें बाल मरणथी, वदे अनंत संसारजी। ठाणायंगमें दो मरणकी, आज्ञा दी करतारजी |मु॥१०॥ चौदे पूर्व महावल भण्यो, भगवती ब्रह्म देवलोकजी। . छहाथी नीचे नहि जावे, उपवाइ सुत्र अवलोकजी ।।मू॥११॥ लसण मांहे जीव अनंता, उत्तराध्ययनमें सारजी। प्रत्तीक काय पनवणा बोले, पंचागी लो घारजी ।।मु॥१२॥ दोय भाषारी आज्ञा नहि, दश वीकालक जाणनी । चार भाषा अलराद्धी बोली, पनवणाकी वाणजी ॥मू॥१३॥ दश विकालक चित्रामकी नारी, नहिरे हे अणगारजी । ठाणयंग के पंचमे ठाणे, साधु आजीयां रेवे लारजी ॥॥१४॥ रोग आयो औषद नहि करणो, उत्तराध्ययनमें लेखनी । वरिप्रभुजी औषध कीनो, भगवती लो देखनी ॥॥१५॥ दशवकालिक भोजन करवो, एक भक्त को माननी । वकिट भोजी तपसी साधु, ओ कल्पसुत्रको ज्ञानजी ॥॥१६॥

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