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___ अथ तृतीया भावनामाह-'तइय' इत्यादि
मूलम्-तइय पीढफलगसेज्जासथारगट्टयाए रुक्सान छिदियवा, न य छेयण भेयणेण य सेना कारियव्वा जस्सेव उवस्सए वसेज्जा, सेज्ज तत्थेव गवेसेज्जा, न य विसम सम करेज्जा, न य निवायपवायउस्सुगत्त, न उसमसगेसु खुभियव्वं,. अग्गीधूमो य न कायव्यो । एवं सजमवहुले सवरवहुले संवुडवहुले समाहिबहुले धीरे काएण फासयते सययं अज्झाणजुत्ते समिए एगे चरेज्ज धम्म, एव समिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा निच्च अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरए दत्तमणुन्नाय उग्गहरुई ॥ सू० ८॥
टीका-'तइय' तृवीया शग्यापरिकर्मनिरूपा मारनामाह-तत्र- पीढफलग सेज्जासथारगट्टयाए' पीठफलफशग्यासस्तारकार्यतायै-तत्र-पीठ- बाजोट' को प्राप्त करने के लिये उनके स्वामीयो की आज्ञा प्राप्तकर उन २ वस्तु ओं को लेता है वह इस द्वितीय भावना का पालक होता है। इस तरह के विचार से जो साधु अपनी प्रवृत्ति करता है वह अधिकरण करण कारण पापकर्म से निवृत्त बनकर इस व्रत को इस भावना द्वारा स्थिर करने वाला हो जाता है ।। सू०७॥
अप सूत्रकार इस व्रत की तृतीय भावना को कहते हैं-'तइय पीढफलग.' इत्यादि।
टीकार्थ-(तइय) इस व्रत की तीसरी भावना शय्यापरिकर्मवर्जनरूप है। वह इस प्रकार से है-(पीढफलगसेज्जा सथारगट्टयाए) આજ્ઞા લઈને તે વસ્તુઓ ગ્રહણ કરે છે તેઓ આ બીજી ભાવનાના પાલક હોય છે આ પ્રકારના વિચારથી જે સાધુ પિતાની પ્રવૃત્તિ કરે છે તે અધિકરણ કરણકારણ પાપકર્મથી નિવૃત્ત થઈને આ વ્રતને આ ભાવના દ્વારા સ્થિર કરનાર બની જાય છે. સૂ૦ ૭ છે व सूत्रा२ २॥ व्रतनी श्री भावना सतावे -"तइय पीढफलग" त्यादि
---" तइय " मा प्रतनी श्री लावना " शय्यापरिभवन" नामनी छ त मा प्रभारी छ-" पीढफलगसेज्जासथारगढ़या " पी:-Hima,