Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 01
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 434
________________ महाराजा आया और उसने क्षमा चाही उनसे । वह बोला, 'हम जानते न थे। इससे पहले हमने किसी संन्यासी के लिए उत्सव आयोजित नहीं किया। हम हमेशा राजाओं का अतिथि सत्कार करते हैं, इसलिए हमें राजाओं के ढंग ही मालूम है। हमें अफसोस है, पर अब तो यह बहुत अपमानजनक बात हो जायेगी, क्योंकि यह सबसे बड़ी वेश्या है इस देश की, और बहुत महंगी है। और हमने इसे इसका रुपया दे दिया है उसे यहां से हटने को और चले जाने को कहना तो अपमानजनक होगा। और अगर आप नहीं आते तो वह बहुत ज्यादा चोट महसूस करेगी। इसलिए बाहर आयें।' किंतु विवेकानंद भयभीत थे बाहर आने में इसीलिए मैं कहता हूं कि वे तब तक अप्रौढ़ थे, तब तक भी पके संन्यासी न हुए थे। अभी भी तटस्थता मौजूद नहीं थी, मात्र निंदा थी। एक वेश्या? वे बहुत क्रोध में थे, और वे बोले, 'नहीं' फिर वेश्या ने गाना शुरू कर दिया उनके आये बिना ही। और उसने गाया एक संन्यासी का गीत । गीत बहुत सुंदर है। गीत कहता है, 'मुझे मालूम है कि मैं तुम्हारे योग्य नहीं, तो भी तुम तो जरा ज्यादा करुणामय हो सकते थे। मैं राह की धूल सही; यह मालूम है मुझे। लेकिन तुम्हें तो मेरे प्रति इतना विरोधात्मक नहीं होना चाहिए। मैं कुछ नहीं हूं मैं अज्ञानी हूं एक पापी पर तुम तो पवित्र आत्मा हो, तो क्यों मुझसे भयभीत हो तुम?" कहते हैं, विवेकानंद ने अपने कमरे में सुना । वह वेश्या रो रही थी और गा रही थी, और उन्होंने अनुभव किया उस पूरी स्थिति को अनुभव किया उन्होंने कि वे क्या कर रहे थे। बात अप्रौद थी, बचकानी थी। क्यों हों वे भयभीत? यदि तुम आकर्षित होते हो तो ही भय होता है। तुम केवल तभी सी से भयभीत होओगे यदि तुम सी के आकर्षण में बंधे हुए हो। यदि तुम आकर्षित नहीं हो तो भय तिरोहित हो जाता है। भय है क्या? तटस्थता आती है बिना किसी विरोधात्यकता के। वे स्वयं को रोक न सके, इसलिए उन्होंने खोल दिये थे द्वार वे पराजित हुए थे वेश्या के द्वारा। वेश्या विजयी हुई थी; उन्हें बाहर आना ही पड़ा। वे आये और बैठ गये। बाद में उन्होंने अपनी डायरी में लिखा, 'ईश्वर द्वारा एक नया प्रकाश दिया गया मुझे भयभीत था मैं जरूर कोई लालसा रही होगी मेरे भीतर, इसीलिए भयभीत हुआ मैं। किंतु उस स्त्री ने मुझे पूरी तरह पराजित कर दिया था, और मैंने कभी नहीं देखी ऐसी विशुद्ध आत्मा। वे अश्रु इतने निर्दोष थे और वह नृत्य-गान पावन था कि मैं चूक गया होता और उसके समीप बैठे हुए, पहली बार मैं सजग हो आया कि बात उसकी नहीं जो बाहर होता है। महत्व उसी का है कि भीतर क्या है।' उस रात उन्होंने लिखा अपनी डायरी में, 'अब मैं उस स्त्री के साथ बिस्तर में सो भी सकता था और कोई भय न होता। 'वे उसके पार जा चुके थे उस वेश्या ने उन्हें मदद दी पार जाने में। यह एक अद्भुत घटना थी रामकृष्ण न कर सके मदद, लेकिन एक वेश्या ने कर दी मदद |

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