Book Title: Pariksha Mukham
Author(s): Manikyanandisuri, Gajadharlal Jain, Surendrakumar
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
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हिंदीबंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । ७७ मत द्वितीय आर एकटी समान जातीय फलेर व्यावृत्तिद्वारा अफलेरओ कल्पना करा याय । येमन बौद्ध समानजातीय प्रमाणेर व्यावृत्तिद्वारा अप्रमाण स्वीकार करेन । आर सर्वथा अफल कल्पना करिले जगते फल नामक जिनिस आछे इहाइ सिद्ध हइबे ना । एजन्य प्रमाण ओ फलेर भेद वास्तव भेदइ बलिते हइबे किंतु एखाने सर्वथा भेदओ वला याय ना केनना यदि सर्वथा भेद मानिया लओया याय तबे येमन द्वितीय आत्मार प्रमाणेर फल आमा हइते भिन्न, सेरूप आमार आत्मार प्रमाणफलओ आमाहइते भिन्न हइया पड़े । आर एइ रीतिते. 'ऐ फल आमारइ प्रमाणेर फल' इहा बलाओ अशक्य हइया उठिवे । बलिते पार ये ' यदिओ प्रमाण ओ फल भिन्न, तथापि समवाय संबंधे ये आत्माते प्रमाण थाकिबे सेइ आत्मातेइ समवायसंबंधे फलओ थाकिवे ।' ए कथाओ ठिक नहे केनना समवाय मानिलेओ अतिप्रसंग दोष हय अर्थात् समवायके एक नित्य ओ व्यापक माना हइया छे । सुतरां एइ आत्माते प्रमाण वा फल समवाय संबंधे थाके एइ दोषेर निवृत्ति हइते पारे ना ॥ ६६-७२ ॥
प्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भाषितौ परिहृतापरिहृतदोषौ वादिनः साधनतदाभासौ प्रतिवादिनो दूषणभूषणे च ॥७३॥
हिंदी-प्रथम वादीने प्रमाणका प्रयोग किया और प्रतिबादीने उस प्रमाणको दुष्ट बनादिया उससमय यदि वादी प्रति