Book Title: Paia Sadda Mahannavo
Author(s): Hargovinddas T Seth
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 21
________________ (१५) दूसरी मुख्य कठिनाई अर्थ-व्यय के बारे में थी। मेरी आर्थिक अवस्था ऐसी नहीं थी कि इस महान् ग्रंथ की तय्यारी के लिए पुस्तकादि आवश्यक साधनों के और सहायक मनुष्यों के वेतन-खर्च के अतिरिक्त प्रकाशन का भार भी बहन कर सकू। और मुफ्त में किसी से आर्थिक सहायता लेना मैं पसन्द नहीं करता था। इससे इस कठिनाई को दूर करने के लिए अग्रिम ग्राहक बनाने की योजना की गई, जिसमें उन अग्रिम ग्राहकों को हर पचीस रुपये में इस संपूर्ण ग्रन्थ की एक कॉपी देने की व्यवस्था थी। इससे मेरी उक्त कठिनाई सम्पूर्ण तो नहीं, किन्तु बहुत-कुछ कम हो गई। इस योजना को इतने दूर तक सफल बनाने का अधिक श्रेय कलकत्ता के जैन श्वेताम्बर-श्रीसंघ के अग्रगण्य नेता श्रीमान् सेठ नरोत्तमभाई जेठाभाई को है, जिन्होंने शुरू से ही इसकी संरक्षकता का भार अपने पर लेते हुए मुझे हर तरह से इस कार्य में सहायता की है, जिसके लिए मैं उनका चिर-कृतज्ञ हूँ। इसी तरह अहमदाबाद निवासी श्रद्धेय श्रीयुत् केशवलालभाई प्रेमचन्द मोदी बी. ए., एलएल बो. का भी मैं बहुत ही उपकृत हूँ कि जिन्होंने कई मुद्रित पुस्तकों में दो हुई प्राकृत शब्द-सूचियों पर से एकत्रित किया हुन्ना एक बड़ा शब्द-संग्रह मुझे दिया था. इतना ही नहीं, बल्कि समय समय पर प्राकृत की अनेक हस्त-लखित तथा मुद्रित पुस्तकों का जोगाड़ कर दिया था और उक्त योजना में ग्राहक-सख्या बढ़ा देने का हार्दिक प्रयत्न किया था। प्रातःस्मरणीय, पूज्यपाद, गुरुवयं मुनिराज श्रोअमीविजयजी महाराज, पूज्य जैनाचार्य श्री विजयमोहन सरिजी, जं. यु. भट्टारक श्रोजिनचारित्रसरिजी तथा स्वतन्त्रसम्पादक विद्वद्वयं श्रीयुत् अम्बिकाप्रसादजी बाजपेयी का भी मैं हृदय से उपकार मानता हूँ कि जिनको प्रेरणा से अग्रिम ग्राहकों की वृद्धि द्वारा मुझे इस कार्य में सहायता मिली है। उन महानुभावों को, जिनके शुभ नाम इसी ग्रन्थ में अन्यत्र दी हुई अग्रिम-ग्राहक-सूची प्राशित किए गए हैं', अनेकानेक धन्यवाद हैं कि जिन्होंने यथाशक्ति अल्पाधिक संख्या में इस पुस्तक की कॉपियाँ खरीद कर मेरा यह कार्य सरल कर दिया है। यहाँ पर मेरे मित्र श्रीयुत् सेठ गिरधरलाल त्रिकमलाल और श्रीमान् बाव डालचंदजी सिंघी के नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन दोनों महाशयों ने अपनी अपनी शक्ति के अनुसार यथेष्ट संख्या में इस कोष को काँपियाँ खरीदने के अतिरिक्त मुझे इस कार्य के लिये समय समय पर बिना सूद ऋण देने की भी कृपा की थी। यह कहने में कोई प्रत्युक्ति नहीं है कि यदि उक्त सब महानुभावों की यह सहायता मुझे प्राप्त न हुई होती तो इस कोष का प्रकाशन मेरे लिए मुश्किल ही नहीं, असंभव था। यहाँ इस बात का भी उल्लेख करना उचित जान पड़ता है कि आज से करीब दस वर्ष पहले मेरे सहाध्यापक श्रद्धेय प्रोफेसर मुरलीधर बनजी एम्. ए. महाशय ने और मैंने मिलकर एक प्रस्ताव विशिष्ट पद्धति का प्राकृत इंग्लिश कोष तैयार करने के लिए कलकत्ताविश्वविद्यालय में उपस्थित किया था, परन्तु उस समय वह अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया था। इसके कई वर्ष बाद जब मेरे इस प्राकृत-हिन्दी कोष का प्रथम भाग प्रकाशित हुमा तत्र उसे देखकर कलकत्ता-विश्वविद्यालय के कर्णधार स्वर्गीय आनरेबल जस्टिस आशुतोष मुकजी इतने संतुष्ट हुए कि उन्होंने तुरंत ही विश्वविद्यालय की तरफ से हम दोनों के तत्त्वावधान में इसी तरह के प्रमाण-युक्त एक प्राकृत-इङ्गिलश कोश तैय्यार और प्रकाशित करने का न केवल प्रस्ताव ही पास करवाया, बल्कि उसको कार्य-रूप में परिणत करने के लिए उपयुक्त व्यवस्था भी करायी है। इसके लिए उनको जितने धन्यवाद दिये जायँ, कम हैं। यहाँ पर मैं कलकत्ता-विश्वविद्यालय की भी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता कि जिसके द्वारा मुझे इस कार्य में समय, पुस्तक प्रादि की अनेक सुविधाएँ मिली हैं, जिससे यह कार्य अपेक्षा-कुत शीघ्रता से पूर्ण हो सका है। इस कोष के उपोद्घात से सम्बन्ध रखनेवाले अनेक ऐतिहासिक जटिल प्रश्नों को सुलझाने में श्रद्धय प्रोफेसर मुरलीधर बनर्जी एम्. ए. ने अपने कोमतो समय का विना संकोच भोग देकर मुझे जो सहायता की है उसके निए मैं उनका अन्तःकरण से आभार मानता हूँ। इस कोष के मुद्रण-कार्य के प्रारम्भ से लेकर प्रायः शेष होने तक, समय समय पर जैसे जैसे जो अतिरिक्त हस्त-लिखित और मुद्रित पुस्तकें या संस्करण मुझे प्राप्त होते जाते थे वैसे वैसे उनका भी यथेष्ट उपयोग इस कोष में किया जाता था। यही कारण है कि तब तक के अमुद्रित भाग के शब्द उनके रेफरेंसों के साथ साथ प्रस्तुत कोष में ही यथास्थान शामिल कर दिए जाते थे और मुद्रित अंश के शब्दों का एक अलग संग्रह तय्यार किया जाता था जो परिशिष्ट के रूप में इसी ग्रंथ में अन्यत्र प्रकाशित किया जाता है । ऐसा करते हुए तृतीय भाग के छपने तक जिन अतिरिक्त पुस्तकों का उपयोग किया गया था उनकी एक अलग सूची भी तृतीय भाग में दी गई थी। उसके बाद के अतिरिक्त पुस्तकों की अलग सूचो इसमें न देकर प्रथम की दोनों (द्वितीय और तृतीय भाग में प्रकाशित) मूचियों को जो एक साधारण सूची यहाँ दी जाती है उसी में उन पुस्तकों का भी वर्णानुक्रम से यथास्थान समावेश किया गया है, जिससे पाठकों को अलग अलग रेफरेंस-सूचियाँ देखने को तकलीफ न हो। उक्त परिशिष्ट में केवल उन्हीं शब्दों को स्थान दिया गया है जो पूर्व-संग्रह में न पाने के कारण एकदम नये हैं या प्राने पर भी लिंग या अर्थ में पूर्वागत शब्द की अपेक्षा विशेषता रखते हैं। केवल रेफरेंस की विशेषता को लेकर किसी शब्द को परिशिष्ट में पुनरावृत्ति नहीं की गई है। १. 'अग्रिम-ग्राहक सूची' का अंश द्वितीय संस्करण में नहीं छापा गया है-संपादक । २. 'परिशिष्ट' का संपूर्ण अंश इस द्वितीय संस्करण में यथास्थान समावेश कर दिया गया है-संपादक । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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