Book Title: Paia Sadda Mahannavo
Author(s): Hargovinddas T Seth
Publisher: Motilal Banarasidas
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअ-सद्द-महण्णवो (प्राकृत-शब्द-महार्णवः) PAIA-SADDA-MAHANNAVO (A COMPREHENSIVE PRAKRIT-HINDI DICTIONARY) For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PĀIA-SADDA-MAHANNAVO A COMPREHENSIVE PRAKRIT-HINDI DICTIONARY with Sanskrit equivalents, quotations AND complete references BY PANDIT HARGOVIND DAS T. SHETH MOTILAL BANARSIDASS Delhi Varanasi Patna Madras For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअ-सद्द-महण्णवो (प्राकृत-शब्द-महार्णवः) अर्थात् विविध प्राकृत भाषाओं के शब्दों का संस्कृत प्रतिशब्दों से युक्त, हिन्दी अर्थों से अलंकृत, प्राचीन ग्रन्थों के अनल्प अवतरणों और परिपूर्ण प्रमाणों से विभूषित बृहत्कोश कर्ता पंडित हरगोविन्ददास त्रिकमचंद सेठ मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली वाराणसी पटना मद्रास Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोती लाल बनारसी दास मुख्य कार्यालय : बंगलो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली ११०००७ शाखाएँ : चौक, वाराणसी २२१ ००१ अशोक राजपथ, पटना ८००००४ १२० रायपेट्टा हाई रोड, मैलापुर, मद्रास ६०० ००४ प्राकृत ग्रन्थ परिषद् ग्रन्थाङ्क ७ द्वितीय संस्करण : वाराणसी, १९६३ पुनर्मुद्रण : दिल्ली, १९८६ ISBN: 81-208-0239-x नरेन्द्रप्रकाश जैन, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली ७ द्वारा प्रकाशित तथा जैनेन्द्रप्रकाश जैन, श्री जैनेन्द्र प्रेस, ए-४५, फेज-१, नारायणा, नई दिल्ली २८ द्वारा मुद्रित । For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PUBLISHER'S NOTE The present Pāia-sadd-mahaņņavo or "The Great Ocean of Prākrit Words' is a comprehensive Prākrit-Hindi Dictionary compiled by Pt. Hargovind Das Trikam Chand Sheth and was first published slightly less than six decades ago in 1928. It is a pioneer work, being the result of several years' single-minded devotion and indefatigable labour on the part of the compiler, to whom the students and scholars of the Prākrit language will ever remain grateful. The work is of immense value since in addition to serving the needs of the students of Prākrit it has also proved very much helpful to researchers in understanding Old-Hindi words of obscure origin as well as all the other languages of the Middle Indo-Aryan group including Old-Rajasthani, Old-Gujarati, Old Marathi, Old-Bengali, Old-Maithili etc. After its first appearance in 1928 the work remained out of print for a number of years when its rare copies were sold at fabulous prices-a fact further attesting to its importance, utility and popularity. To fulfil a pressing need a long awaited second edition was brought out by the Prākrit Text Society in 1963 and in view of a persistent demand this reprint is being issued after a long gap for the benefit of the interested scholars. The Publishers hope that the work will inspire talented scholars for further intensive research in the field culminating, so we wish, in a more comprehensive dictionary of the language including also the cognate Apabhramsa language and literature. For Personal & Private Use Only www.jainebrary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-सूची = (पै) प्रयो पैशाची भाषा। प्रेरणार्थक णिजन्त। प्रक (अप) (प्रशो) उभ कम भक बहुवचन । भविष्यत्कृदन्त । भविष्यत्काल । भूतकाल । भवि भूका कवक भूत-कृदन्त । मागधी भाषा। (मा) कि अव्यय। अकर्मक धातु। अपभ्रंश भाषा। अशोक शिलालेख । सकर्मक तथा प्रकर्मक धातु । कर्मणि-वाच्य। कमणि-वर्तमान-कृदन्त । कृत्य-प्रत्ययान्त। क्रियापद । क्रिया-विशेषण। गुजराती। चूलिकापैशाची भाषा । त्रिलिङ्ग। देश्य-शब्द । नपुंसकलिङ्ग। पुंलिङ्ग। पुंलिङ्ग तथा नपुंसकलिङ्ग। पुंलिङ्ग तथा स्त्रीलिङ्ग। क्रिवि वक वि गु० ( शौ) (चूपै) त्रि वर्तमान वृदन्त । विशेषण। शौरसेनी भाषा। सर्वनाम। संबन्धक कृदन्त । सकर्मक धातु । स्त्रीलिङ्ग। स्त्रीलिंग तथा नपुंसकलिङ्ग। हेत्वर्थ कृदन्त । For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण-ग्रन्थों [ रेफरेन्सेज़ ] के संकेतों का विवरण संकेत रन्थ का नाम अंगविज्जा अंगचूलिया अंतगडदसामो पंत अच्च अजि अझ अत्तचअसम अजिप्रसंतिथव अध्यात्ममतपरीक्षा अणु मणुप्रोगदारसुत्त अणुत्तरोववाइअदसा संस्करण प्रादि जिसके अंक दिए गए हैं वह प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी-५, १६५७ हस्तलिखित । *१ रॉयल एसियाटिक सोसाइटी, लंडन, १९०७ २ प्रागमोदय-समिति, बंबई, १९२० वाणीविलास प्रेस, मद्रास, १८७२ स्व-संपादित, कलकत्ता, संवत् १९७८ १ भीमसिंह मारणक, संवत् १९३३ २ जैन प्रात्मानन्द सभा, भावनगर १ राय धनपतिसिंहजी बहादुर, कलकत्ता, संवत् १९३६ २ आगमोदय समिति, १९२४ बम्बई, १ रॉयल एसियाटिक सोसाइटी, लंडन, १९०७ २ आगमोदय-समिति, बम्बई, १९२० निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९१६ त्रिवेन्द्र संस्कृत सिरोज १ जैन-धर्म-प्रसारक सभा, भावनगर, संवत् १९६६ २ शा. बालाभाई ककलभाई, अहमदाबाद, संवत् १९६२ ... हस्तलिखित डॉ. इ. ल्युमेन्-संपादित, लाइपजिग, १८६७ प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी-५ १ डॉ. डबल्यु. शनिंग संपादित, लाइपजिग, १६१. " + २ भागमोदय-समिति, बम्बई, १९१६ श्रतस्कन्ध, प्रध्य० ३ प्रो. रवजीभाई देवराज-संपादित, राजकोट, १९०६ आगमोदय-समिति, बम्बई, १९१६ गाथा हस्तलिखित प्रध्ययन + हस्तलिखित गाथा अभिज्ञानशाकुन्तल प्रविमारक आउरपञ्चक्खाणपयन्नो प्राउ प्राक १प्रावश्यककथा २ अावश्यक-एर ज्यालुगन् आख्यानकमरिणकोश प्राचारांगसूत्र आख्या प्राचा प्राचानि पाचू मात्म आत्महि आत्मानु आनि आचारांग-नियुक्ति आवश्यकचूणि पात्मसंबोधकुलक मात्महितोपदेश-कुलक मात्मानुशास्ति-कुलक आवश्यकनियुक्ति १ यशोविजय-जैन-ग्रंथमाला, बनारस । २ हस्तलिखित । * ऐसी निशानी वाले संस्करणों में अकारादि क्रम से शब्द-सूची छपी हुई है, इससे ऐसे संस्करणों के पृष्ठ आदि के अंकों का उल्लेख प्रस्तुत कोश में बहुधा नहीं किया गया है, क्योंकि पाठक उस शब्द सूची से हो अभिलषित शब्द के स्थल को तुरन्त पा सकते हैं। जहाँ किसी विशेष प्रयोजन से अंक देने की प्रावश्यकता प्रतीत भी हुई है, वहाँ पर उसी ग्रन्थ की पद्धति के अनुसार अंक दिए गए हैं, जिससे जिज्ञासु को अभीष्ट स्थल पाने में विशेष सुविधा हो। + इन संस्करणों में श्रुतस्कन्ध, अध्ययन और उद्देश के अङ्क समान होने पर भी सूत्रों के अङ्क भिन्न-भिन्न हैं। इससे इस कोष में जिस संस्करण से जो शब्द लिया गया है उसी का सूचाङ्क वहाँ पर दिया गया है। अंक की गिनती उसी उद्देश्य या अध्ययन के प्रथम सूत्र से भारम्भ की गई है। +श्रद्धेय श्रीयुत केशवलालभाई प्रेमचन्द मोदी, बी. ए., एल एल.,बी. से प्राप्त । For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत ग्रन्थ का नाम प्राप मारा प्राव मावटि भावदो आवपगा प्राबम इंदि प्राराधनाप्रकरण पाराधनासार आवश्यकसूत्र आवश्यक टिप्पण आवश्यक दीपिका प्रावश्यकसूत्रे पत्रे गाथा पावश्यकसूत्र मलयगिरि टीका इन्द्रियपराजयशतक दि कोस्मोग्राफी देर् इंदेर उत्तराध्ययनसूत्र उत्तराध्ययन सूत्र संस्करण आदि जिसके अंक दिए गए हैं वह शा. बालाभाई ककलभाई, अहमदाबाद, संवत् १९६२ गाथा मानिकचंद-दिगंबर-जैन-ग्रंथमाला, संवत् १९७३ हस्तलिखित देवचन्द लालभाई विजयदानसूरि ग्रंथमाला (हरिभद्र टीका) हस्तलिखित भीमसिंह माणेक, बंबई, संवत् १९६८ गाथा .डॉ. डबल्यु. किर्केल-कृत, लाइपजिग, १९२० १ राय धनपतिसिंह बहादुर, कलकत्ता, संवत् १९३६ अध्ययन, गाथा २ स्व-संपादित, कलकत्ता, १६२३ + ३ हस्तलिखित देवचन्द लालमाई डो. जे. कारपेंटिपर-संपादित, १९२१ हस्तलिखित निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९१५ पृष्ठ हस्तलिखित गाथा हस्तलिखित मूल-गाथा गाथा जैन विद्या-प्रचारक वर्ग, पालीताणा पृष्ठ देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फंड, बम्बई, १९१४ अंश, तरंग - डॉ. एल्. पी. टेसेटोरि-संपादित, १९१३ +हस्तलिखित गाथा मनसुखभाई भगुभाई, अहमदाबाद, संवत् १९६७ * एसियाटिक सोसाइटी, बंगाल, कलकत्ता, १८६० त्रिवेन्द्र संस्कृत-सिरीज पृष्ठ पागमोदय समिति, बम्बई, १९१६ गाथा उत्त का उत्तनि उत्तर उप उप टी उपर्प +. " उप पृ उव उवा उवर उवा उत्तराध्ययननियुक्ति उत्तररामचरित उपदेशपद उपदेशपद-टीका उपदेशपंचाशिका उपदेशपद उपदेशरत्नाकर उवएसमाला उवदेशकुलक उपदेशरहस्य उवासगदसायो ऊरुभंग प्रोधनियुक्ति प्रोपनियुक्ति-भाष्य प्रौपपातिकसूत्र कल्पसूत्र कर्पूरमब्जरी कर्मग्रंथ पहला ,, दूसरा , तीसरा , चौथा ऊर पोष पोष भा भोप कप्प कप्पू कम्म? • कम्म २ कम्म३ कम्म४ * डॉ. इ. ल्युमेन्-संपादित, लाइपजिग, १८८३ * डॉ. एच. जेकोबी-संपादित, लाइपजिग, १८७६ * हाई प्रोरिएन्टल सिरीज, १६०१ •मात्मानन्द-जैन-पुस्तक-प्रचारक मण्डल, मागरा, १९१८ गाथा १९१९ १९२३ " ॥ ___+ सुखबोधा नामक प्राकृत-बहुल टीका से विभूषित यह उत्तराध्ययन सूत्र की हस्त-लिखित प्रति प्राचार्य श्रीविजय-मेघसूरिजी के भंडार से श्रद्धेय श्रीयुत् के.प्रे. मोदी द्वारा प्राप्त हुई थी, इस प्रति के पत्र १८६ हैं। श्रद्धेय श्रीयुत के.. मोदी द्वारा प्राप्त । For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत । ग्रन्थ का नाम संस्करण आदि जिसके अंक दिए गए हैं वह कम्म ५ कर्म ग्रन्थ पाँचवाँ गाथा १ भोमसिह मागेक, बम्बई, संवत् १९६८ २ जैन-धर्म-प्रसारक सभा, भावनगर, संवत् १९६८ ,, छठवाँ कम्म६ कम्मप करु कर्ण जैन-धर्म-प्रसारक-सभा, भावनगर, १६१७ आत्मानन्द-जैन-सभा, भावनगर, १६१६ त्रिवेन्द्र-संस्कृत-सिरीज गायकवाड प्रोरिएन्टल सिरीज, नं. ८, १६१८ +हस्त-लिखित आत्मानन्द सभा कपूर कम कर्मप्रकृति करुणावज्रायुधम् करणंभार करचरित (भारण) कर्मकुलक बृहत्कल्प-भाष्य "गाथा (बृहत) कल्पसूत्र कहावली काव्यप्रकाश कालकाचार्यकथानक कल्पभाष्य "गा. * डॉ. डबल्यु. शुनि-संपादित, लाइपजिग, १६०५ कस कहा काप अमुद्रित काल किरात कुप्र कुमा कुम्मा कुलक किरातार्जुनीय (व्यायोग) कुमारपालप्रतिबोध कुमारपालचरित कुम्मापुत्तचरित्र कुलकसंग्रह खामगाकुलक लघुक्षेत्रसमास गउडवहो गच्छाचारपयन्नो 44 खा खेत्त गउड गच्छ वामनाचार्यकृत टीका-युक्त, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई * डॉ. एच् . जेकोबी-संपादित, जेड्-डी-एम्-जी, खंड ३४, १८८० गायकवाड ओरिएन्टल सिरीज, नं ८, १९१८ गायकवाड प्रोरिएण्टल सिरीज, १९२० * बंबई-संस्कृत-सिरीज, १६०० स्व-संपादित, कलकत्ता. १९१६ " जैन श्रेयस्कर मंडल, म्हेसाणा, १६१४ +हस्तलिखित भीमसिंह माणेक, बंबई, संवत् १९६८ * बंबई-संस्कृत-सिरीज, १८८७ ... १ हस्तलिखित ...अधिकार, गाथा २ चंदुलाल मोहोलाला कोठारी, अहमदाबाद, संवत् १०८० ,, ३ सेठ जमनाभाई भगूभाई, अहमदाबाद, १६२४ स्व-संपादित, कलकत्ता, संवत् १९७८ राय धनपतिसिंह बहादुर, कलकत्ता, १८४२ + १ डॉ. ए. देबर् -संपादित, लाइपजिग, १८८१ २ निर्णयसागर प्रेस, वम्बई, १९११ स्व-संपादित, कलकत्ता, संवत् १९७८ अंबालाल गोवर्धनदास, बम्बई, १९१३ भीमसिंह माणेक, बम्बई संवत् १९६२ गाथा गरण गरिण गावरस्मरण गणिविज्जापयन्नी गाथासप्तशती " गाथा गुण गुभा गुरुपारतन्त्र्य-स्मरण गुरगानुरागकुलक गुरुवन्दनभाष्य + श्रद्धेय के. प्रे. मोदी द्वारा प्राप्त । + लाइपजिगवाले संस्करण का नाम "सप्तशतक डेस हाल" है और बम्बईवाले का “गाथासप्तशती"। ग्रन्थ एक ही है, परन्तु बम्बईवाले संस्करण में सात शतकों के विभाग में करीब ७०० गाथाएँ छपी हैं और लाइपजिगवाले में सीधे नंबर से ठीक १०००। एक से ७०० तक की गाथाएँ दोनों संस्करणों में एक-सी हैं, परन्तु गाथाओं के क्रम में कहीं कहीं दो चार नंबरों का भागा-पीछा है । ७०० के बाद का और ७०० के भीतर भी जहाँ गाथांक के अनन्तर में दिया है वह नंबर केवल लाइपजिग के ही संस्करण का है। For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत ग्रंथ का नाम संस्करण प्रादि जिसके अंक दिए गए हैं वह गाथा गुरुप्रदक्षिणाकुलक गौतमकुलक चउसरणपयन्नो पाहड चारु चउ पन्नमहापुरिसचरियं प्राकृतलक्षण चंदपन्नत्ति चारदत्त चेइयवंदरमहाभास चैत्यवन्दन भाष्य जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति चेइय गाथा चैत्य अंबालाल गोवर्धनदास, बम्बई, १९६३ भीमसिंह मारणेक, बम्बई, संवत् १९६५ १ जैन-धर्म-प्रसारक-सभा, भावनगर, संवत् १९६६ २ शा. बालाभाई ककलभाई, अहमदाबाद, संवत् १९६२ प्राकृत-ग्रथ-परिषद्, वाराणसी-५, १९६१ । एसियाटिक सोसासायटी, बंगाल, कलकत्ता, १८८० हस्तलिखित त्रिवेन्द्र-संस्कृत-सिरीज जैन प्रात्मानन्द सभा, भावनगर, संवत् १९६२ भीमसिंह माणेक, बम्बई, संवत् १९६२ १ देवचंद लालभाई पु० फंड, बम्बई, १६१० २ हस्तलिखित जैन प्रभाकर प्रिटिंग प्रेस, रतलाम, प्रथमावृत्ति सिंधी जैन सिरीज पारमानन्द जैन-पुस्तक-प्रचारक-मंडल, प्रागरा, संवत् १९७८ हस्तलिखित देवचंद लालभाई पुस्तकोद्धार फंड, बम्बई, १९१६ + हस्तलिखित अंबालाल गोवर्धनदास, बम्बई, १९१३ हस्तलिखित " वक्षस्कार गाथा जिन प्रतिपत्ति गाथा जीवस जयतिहुअण-स्तोत्र जिनदत्ताख्यान जीवविचार जीतकल्प जीवाजीवाभिगमसूत्र जीवसमासप्रकरण जीवानुशासनकुलक ज्योतिष्करएडक +टिप्पण (पाठान्तर) टीका ठाणंगसुत्त (स्थनांगसूत्र) एंदिसूत्र जीवा : पाहुड 억 ठाण. पत्र मि एमिऊरण-स्मरण गायाधम्मकहासुत्त तंदुलवेयालियपयन्नो गाथा श्रतस्कन्ध, मध्य णाया मागमोदय-समिति, बम्बई, १९१८-१९२० १ हस्तलिखित २ आगमोदय समिति, बम्बई, १९२४ स्व-संपादित, कलकत्ता, संवत् १९७८ पागमोदय समिति, बम्बई, १९१६ १ हस्तलिखित २ दे० ला० पुस्तकोद्धार फंड, बम्बई, १९६२ जैन-ज्ञान-प्रसारक-मंडल, बम्बई, १९११ हस्तलिखित हस्तलिखित गायकवाड मोरिएण्टल सिरीज, नं ८, १६१८ पत्र गाथा तित्य तिजयपहत्त तित्थुग्गालियपयन्नो तीर्थकल्प त्रिपुरदाह (डिम) ... कल्प पृष्ठ + श्रद्धेय श्रीयुत् के० प्रे: मोदी द्वारा प्राप्त । + पाठान्तर वाले संस्करणों के जो पाठान्तर हमें उपादेय मालूम पड़े हैं उन्हें भी इस कोष में स्थान दिया है और प्रमाण के पास ‘टि' शब्द जोड़ दिया है जिससे उस शब्द को उसी स्थान के टिप्पन का समझना चाहिए। जहाँ पर प्रमाण में ग्रंथ-संकेत और स्थान-निर्देश के अन्तर 'टी' शब्द लिखा है वहाँ उस ग्रंथ के उसी स्थान की टीका के प्राकृतांश से मतलब है। For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत ग्रंथ का नाम संस्करण प्रादि जिसके अंक दिए गए हैं वह दंडकप्रकरण गाथा १ जैन-ज्ञान-प्रसारक-मंडल, बम्बई, १९११ २ भोमसिंह माणेक, बम्बई, १९०८ हस्तलिखित दंस दर्शनशुद्धिप्रकरण तत्त्व दशप्रगस्त्य दशवैचू दशवकालिक प्रगस्त्य सिंहचूणि P. T.S. दस अध्ययन दसचू दसनि चूलिका अध्ययन, गाथा दशवैवृद्ध दसा दीव can वर्ग, गाथा देवदिन्न देवेन्द्र गाथा दसवैकालिकसूत्र १ भीमसिह मारणेक, बम्बई, १६०० २ डॉ. जीवराज घेलाभाई, अहमदाबाद, १९६२ दशवैकालिकचूलिका दशवैकालिकनियुक्ति १ भीमसिंह मारणेक, बम्बई, १६०० २ देवचन्द लालभाई दशवैकालिक वृद्ध विवरण मुद्रित चूरिण, ऋषभदेव केसरीमल दशाश्रुतस्कन्ध हस्तलिखित दीवसागरपन्नत्ति दूतघटोत्कच त्रिवेन्द्र-संस्कृत-सिरीज देशीनाममाला बम्बई-संस्कृत-सिरीज, १८८० देवेन्द्रस्तवप्रकीर्णक हस्तलिखित देवदिन्न कथानक देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरण जैन प्रात्मानन्द सभा, भावनगर, १९२२ द्रव्यसित्तरी १ जैन-धर्म-प्रसारक-सभा, भावनगर, संवत् १९५८ २ शा वेणीचंद सूरचंद, म्हेसाणा, १९०६ द्रव्यसंग्रह जैन-ग्रंथ-रत्नाकर-कार्यालय, बंबई, १९०६ ऋपभपंचाशिका काव्यमाला, सप्तम गुच्छक, बंबई, १८६० धर्मरत्नप्रकरण सटीक १ जैन-विद्या-प्रचारक वर्ग, पालीताणा, १६०५ २ हस्तलिखित धम्मिलहिंडी (वसुदेवहिंडी अन्तर्गत) अत्मानन्द सभा धम्मोवएसकुलक +हस्तलिखित धर्मसंग्रह जैन-विद्या-प्रचारक-वर्ग, पालीतारणा, १९०५ धर्मरत्नलघुवृत्ति मात्मानन्द सभा धर्मविधिप्रकरण सटीक जेसंगभाई छोटालाल सुतरीया, अहमदाबाद, १९२४ । धर्मसंग्रहणी दे० ला० पुस्तकोद्धार फंड, बंबई, १९१६-१८ धर्माभ्युदय जैन-मात्मानन्द-सभा, भावनगर, १६१८ प्राकृतधात्वादेश एसियाटिक सोसाइटी मॉफ बंगाल, १९२४ ध्वन्यालोक निर्णयसागर प्रेस, बंबई नन्दीटिप्पण P.T. . नलदवदंतीरास (ऋषिवर्धन), बेन्डर संपादित द्रव्य धरण धम्म मूल-गाथा घम्मि धम्मो गाथा अधिकार धर्म पत्र धर्मर धर्मवि धर्मसं धर्मा धात्वा गाथा ध्व नंदीटिप्प नलदवरास श्रद्धेय श्रीयुत के० प्रे: मोदी द्वारा प्राप्त । For Personal & Private Use Only . Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत रन्थ का नाम संस्करण आदि जिसके अंक दिए गए हैं वह गाथा नव नवतत्त्वप्रकरण १ प्रात्मानन्द-जैन-सभा, भावनगर २ पाद्य-जैन-धर्म-प्रवर्तक-सभा, अहमदाबाद, १९०६ नाट निचू नाटकीयप्राकृतशब्दसूची निशीथचूर्णि निरयावलीसूत्र उद्देश वर्ग, अध्य० निसा निसी पउम पउम पंच निशाविरामकुलक निशोथसूत्र पउमचरित्र पउमचरिय पंचसंग्रह हस्तलिखित १ हस्तलिखित २ भागमोदय-समिति, बम्बई, १९२२ + हस्तलिखित हस्तलिखित जैन-धर्म-प्रसारक-सभा, भावनगर, प्रथमावृत्ति प्राकृत-ग्रंथ-परिषद्, वाराणसी-५ १ हस्तलिखित २ जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, १६१६ हस्तलिखित गाथा उद्देश पर्व, गाथा द्वार, गाथा पंचभा पंचव पंचा पंचासक पंचकल्पभाष्य पंचवस्तु पंचासकप्रकरण पंचकल्पचूणि पंचनिन्थीप्रकरण पंचरात्र पंचसूत्र जैन-धर्म-प्रसारक सभा, भावनगर, प्रथमावृत्ति हस्तलिखित प्रात्मानन्द-जैन सभा, भावनगर, संवत् १९७४ त्रिवेन्द्र संस्कृत-सिरीज हस्तलिखित गाथा " सेंट्रल लाइब्रेरी, बड़ोदा में स्थित एक मुखपृष्ठ-हीन पुस्तक से गृहीत, जिसके पूर्व भाग में क्रमदीश्वर का प्राकृत व्याकरण और उत्तर भागमें 'प्राकृताभिधानम्' शीर्षक से कतिपय ग्रंथों से उद्धृत प्राकृत शब्दों की एक छोटी सी गूची छपी हुई है। इस सूची में उन ग्रंथों के जो संक्षिप्त नाम और पृष्ठाङ्क दिए गये हैं वे ही नाम तथा पृष्ठाङ्क ज्यों के त्यों प्रस्तुत कोष में भी यथास्थान 'नाट' के बाद रखे गये हैं। उक्त पुस्तक में उन ग्रंथों के संक्षिप्त नामों तथा संस्करणों का विवरण इस तरह है;मालती मालतीमाधवम् Calcutta Edition of 1830 चैत , चैतन्यचन्द्रोदयम् 1854 विक्र विक्रमोर्वशी 1830 साहित्य साहित्यदर्पण Edition of Asiatic Society उत्तर उत्तररामचरित Calcutta Edition of 1831 रत्ना रत्नावली 1832 मृच्छ मृच्छकटिक 1832 प्राप प्राकृतप्रकाश Mr. Corell's Edition of 1854 शकुन्तला Calcutta Edition of 1840 मालवि मालविकाग्निमित्र Tulberg's Edition of 1850 देगिसंहार Muktaram's Edition of 1855 पान संक्षिप्तसारस्य प्राकृताध्यायः महावी महावीरचरितम् Trithen's Edition of 1848 पिंग पिंगलः Ms. . +श्रद्धेय के.प्रे. मोदी द्वारा प्रास । श वेणि For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत ग्रन्थ का नाम सस्करण आदि जिसके अंक दिए गए हैं वह पक्खि पक्खिसूत्र महापच्चक्खाणपयन्नो पंचप्रतिक्रमणसूत्र गाथा पडि पद श्रुतस्कन्ध, द्वार परण पएह पभा पव पएणवणासुत्त प्रश्नव्याकरणसूत्र पच्चक्खारणभाष्य प्रवचनसारोद्धार गाथा + द्वार भीमसिंह माणेक, बम्बई, संवत् १९६२ शा. बालाभाई ककलभाई, अहमदाबाद, संवत् १९६२ १ जैन-ज्ञान-प्रसारक-मंडल, बम्बई, १९११ २ प्रात्मानन्द-जैन-पुस्तक-प्रचारक-मंडल, प्रागरा, १९२१ राय धनपतिसिंह बहादुर, बनारस, संवत् १६४० आगमोदय-समिति, बम्बई, १९१६ भीमसिंह माणेक, बम्बई, संवत् १९६२ १ संवत् १९३४ २ दे. ला० पुस्तकोद्धार फंड, बम्बई, १९२२-२५ प्रात्मानन्द-जैन सभा, भावनगर, संवत् १९७४ * बी. बी. एण्ड कंपनी, भावनगर, संवत् १९७३ गायकवाड ओरिएण्टल सिरीज, नं. ४, १९१७ डा. प्रार् . पिशेल कृत, १६०० * एसियाटिक सोसाइटी, बंगाल, कलकत्ता, १६०२ १ हस्तलिखित २ दे० ला• पुस्तकोद्धार फंड, बम्बई, १९२२ गाथा पृष्ठ प्रज्ञापनोपाङ्ग-तृतीयपदसंग्रहणी पाइपलच्छीनाममाला पार्थपराक्रम ग्रामेटिक् देर् प्राकृत स्प्राखन् प्राकृतपिंगल पिंडनियुक्ति वैरा गाथा पिडभा पुप्फ प्रति प्रयौ पिडनियुक्तिभाष्य पुष्पमालाप्रकरण प्रतिमानाटक प्रबोधचन्द्रोदय प्रतिज्ञायौगन्धरायण प्रव्रज्या-विधान-कुलक प्राकृतसर्वस्व (मार्कण्डेयकृत) इन्ड क्शन टु दि प्राकृत प्राकृतप्रकाश गाथा. पूष्ठ प्राप प्रामा प्रारू प्रासू प्राकृतमार्गोपदेशिका प्राकृतशब्दरूपावली प्राकृतसूक्तरत्नमाला बालचरित बृहत्कल्पभाष्य भगवतीसूत्र जैन-श्रेयस्कर-मंडल, म्हेसाणा, १९११ त्रिवेन्द्र-संस्कृत-सिरीज निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९१० त्रिवेन्द्र-संस्कृत सिरीज + हस्तलिखित विझागापटम्, विशाखापट्टणम् पंजाब युनिवर्सिटी, लाहौर, १९१७ *१ डा. कावल-संपादित, लंडन, १८६८ * २ बंगीय-साहित्य परिषद्, कलकत्ता, १९१४ • शाह हर्षचन्द्रु भूराभाई, बनारस, १९११ • सेठ मनसुखभाई भगुभाई, अहमदाबाद, संवत् १९६८ जैन-विविध-साहित्य-शास्त्र-माला, बनारस, १६१६ त्रिदेन्द्र-संस्कृत-सिरीज हस्तलिखित .१ जिनागमप्रकाश सभा, बम्बई, संवत् १९७४ २ हस्तलिखित ३ आगमोदय समिति, बम्बई, १९१८-१९१६-१६२१ १ जैन-धर्म-प्रसारक-सभा, भावनगर, संवत् १९६६ २ शा. बालाभाई ककलभाई, अहमदाबाद, संवत् १९६२ देवचन्द लालभाई बाल गाथा पृष्ठ उद्देश शतक, उद्देश भत्त भत्तपरिएणापयन्नो गाथा भववृकथा भवभावनावृत्तिकथा + द्वार-प्रारम्भ के पूर्व के प्रस्ताव के लिए 'पर्व' के बाद केवल गाथा के अंक दिए गए हैं। +श्रद्धेय श्रीयुत के.प्रे. मोदी द्वारा प्राप्त । For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत མ ཝཱ ལྒ ལྒ ཡ ལླ 1 ལྒ ལླཾཤྲཱཤྲཱལྒ ཧྨ རྞྞཎྜཝཱཧྨམྦྷཝཱ – མཱམྦྷཝཱམྦཝྰསྒོ་ཟླ मंगल महा महानि मा मे यति रंभा रयरण राय रुक्मि लघु लोक वसु वा वाम वि ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ || || | || | || =3 = 11 11 || || || || = ग्रन्थ का नाम भवि सत्त कहा भाव कुलक भाषा रहस्य मंगललक मध्यमव्यायोग मनोनिग्रहभावना घासण्या एरस्यान् इन महाराष्ट्री महानिशोधसूत्र मालविकाग्निमित्र मालतीमाधव निस्वामिपरि मुद्राराक्षस मृच्छकटिक मैथिली कल्याण मोहराजपराजय यति शिक्षापंचाशिका रंभामंजरी रत्नत्रय कुलक हरनिया अभिधान राजेन्द्र रायपसेोसुत्त रुक्मिणी हरण ( ईहामृग ) लघुसंग्रहणी लघुअजितशान्ति स्मरण लोकप्रकाश वजालग्ग व्यवहारसूत्र, सभाष्य वसुदेवहिडी वाग्भटकाव्यानुशासन वाग्भटालकार विषयत्यागोपदेशकुलक + श्रद्धेय श्रीयुत के प्रे. मोदी द्वारा प्राप्त । ( ɛ) संस्करणमादि * १ डा. एच्. जेकोबी - संपादित १९१८ * २ गायकवाड प्रोरिएण्टल सिरीज, १९२३ अंबालाल गोवर्धनदास, बम्बई. १९२३ सेठ मनसुखभाई भनुभाई, बहमदावाद + हस्तलिखित त्रिवेन्द्र संस्कृत सिरीज + स्तलिखित डॉ. एच. जेवी संपादित, साइपजिग १८८६ हस्तलिखित निर्णयसागर प्रेस, बम्बई. १९१५ 33 हस्तलिखित बम्बई - संस्कृत - सिरीज, १६१५ १ निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९१६ २ बम्बई - संस्कृत - सिरीज, १८६६ माणिकचन्द - दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, १९७३ गायकवाद ओरिएन्टल सिरोल नं. १, १९१० + हस्तलिखित * निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १८=६ + हस्तलिखित स्व-संपादित, बनारस, १९१८ * जैन प्रभाकर प्रिंटिंग प्रेस, रतलाम १] हस्तलिखित २ प्रागमोदय समिति बम्बई, १९२५ गायकवाड़ श्रोरिएन्टल सिरीज, नं. ८, भोमसिंह माले बम्बई, १२०० स्व-संपादित, कलकत्ता, संवत् १९७८ देवचन्द लालभाई एसियाटिक सोसाइटी, बंगाल, कलकत्ता १ हस्तलिखित २ मुनि माणेक संपादित, भावनगर, १६२६ १ हस्तलिखित २ प्रात्मानन्द सभा निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९१५ १६१६ + हस्तनिचित " ... For Personal & Private Use Only १६१८ जिसके अंक दिए हैं ह गाथा 35 पृष्ठ गाथा अध्ययन མ ཟླ་ ཟླ་ ༦ ༦ ༦ ྴ ལླི ༠』 पृष्ठ ༦ ལྦཉྙཱུ ༄ ལྦ ཌྜྷྱ ཤྩ उद्देश्य पृष्ठ 33 गाथा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत रन्थ का नाम संस्करण आदि जिसके अंक दिए गए हैं वह विक विक्र विचार विपा विवे गाथा श्रू तस्कन्ध, अध्य० गाथा विसे वृष पृष्ठ वेणी श्रा श्रावक गाथा मुलगाथा गाथा " गाथा विक्रमोर्वशीय निर्णयसागर प्रेत, बम्बई, १९१४ विक्रान्तकौरव माणिकचन्द-दिगम्बर-जैन-ग्रन्थ-माला, संवत १९७२ विचारसारप्रकरण आगमोदय-समिति, बम्बई, १९२३ विपाकश्रुत स्व-संपादित, कलकत्ता. संवत् १९७६ विवेकमंजरीप्रकरण स्व-संपादित, बनारस, संवत् १९७५-७६ विशेषावश्यकभाष्य स्व-संपादित, बनारस, वीर-संवत् २४२१ वृषभानुजा निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १८९५ वेणीसंहार निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९१५ वैराग्यशतक विटुलभाई जीवाभाई पटेल, अहमदाबाद, १६२० श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति दे०ला. पुस्तकोद्धार फंड, बम्बई, १९१६ श्रावकप्रज्ञप्ति १ श्रीयुत केशवलाल प्रेमचन्द संपादित, १६०५ २ जैन धर्म शाखा थू तास्वाद + हस्तलिखित षड्भाषाचन्द्रिका * बम्बई संस्कृत एन्ड प्राकृत सिरीज, १९१६ समराइचकहा एसियाटिक सोसाइटी, बंगाल, कलकत्ता, १६०८-२३ संबोधसत्तरी विट्ठलभाई जीवाभाई पटेल, अहमदाबाद, १९२० संक्षिप्तसार १ हस्तलिखित २ संस्कृत प्रेस डिपोजिटरी, कलकत्ता, १८८६ बृहत्संग्रहणी १ भीमसिंह मारणेक, बम्बई, संवत् १९६८ २ प्रात्मानन्द जैन सभा, भावनगर, संवत् १९७३ संघाचारभाष्य हस्तलिखित शान्तिनाथचरित्र (देवचन्द्रसूरि-कृत) , संतिकरस्तोत्र १ जैन-ज्ञान-प्रसारक-मंडल, बम्बई, १९११ २ प्रात्मानन्द-जैन-पुस्तक-प्रचारक-मंडल, प्रागरा, १९२१ संथारगपयन्नो १ हस्तलिखित २ जैन-धर्म-प्रचारक-सभा, भावनगर, संवत् १९६६ संबोधप्रकरण जैन-ग्रन्थ-प्रकाशक-सभा, अहमदाबाद, १९१६ संवेगचूलिकाकुलक + हस्तलिखित संवेगमंजरी सट्ठिसयपयरण १ स्व-संपादित, बनारस, १९१७ २ सत्यविजय-जैन-ग्रन्थमाला, नं. ६, अहमदाबाद, १९२५ सनत्कुमारचरित * डॉ. एच. जेकोबी-संपादित, १६२१ उपदेशसप्ततिका जैन धर्म-प्रसारक-सभा, भावनगर, संवत् १९७६ समवायांगसूत्र आगमोदय समिति, बम्बई, १९१८ । ससुद्रमन्थन (समवकार) गायकवाड प्रोरिएन्टल सिरीज, नं.८, १६१८ सम्मतिसूत्र जैन-धर्म-प्रसारक-सभा, भावनगर, संवत् १९६५ पृष्ठ गाथा प्रस्ताव गाथा संथा गाथा संबोध संवे संवेग सट्ठि गाथा सम्म गाथा +श्रद्धेय श्रीयुत के.प्रे. मोदी द्वारा प्राप्त । For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत ग्रन्थ का नाम संस्करण आदि जिसके अंक दिए गए हैं वह पत्र गाथा सम्मत्त सम्य सम्यक्त्यो सा सार्ध सिक्खा सिग्ध सिरि सुख सुज्ज ..' अध्ययन, गाथा पाहुड पृष्ठ ... परिच्छेद, गाथा "श्रुतस्कंध, अध्य सूत्र सम्यक्त्वसप्तति सटीक दे० ला० पुस्तकोद्धार-फंड, बम्बई, १९१६ सम्यक्त्वस्वरूप पचोसो अंबालाल गोवर्धनदास, बम्बई, १९१३ सम्यक्वोत्पादविधिकुलक +हस्तलिखित सामान्यगुणोपदेशकूलक गराधरसार्धशतकप्रकरण जौहरी चुन्नीलाल पन्नालाल, बम्बई, १९१६ शिक्षाशतक हिस्तलिखित सिग्घमवहर उ-स्मरण स्व-संपादित, कलकत्ता, संवत् १९७८ सिरिसिरिवालकहा दे. ला: पुस्तकोद्धार फंड, बम्बई, १९२३ सुखबोधा टीका (उत्तराध्ययनस्य) हस्तलिखित सूर्यप्रज्ञप्ति भागमोदय-समिति, बम्बई, १९१६ सुपासनाहचरिम स्व-संपादित. बनारस, १६१८-१६ सुरसुंदरोचरिम जैन-विविध-साहित्य-शास्त्र-माला, बनारस, १६१६ सूप्रगडांगसुत्त +१ भीमसिंह माणेक, बंबई, १९३६ २ आगमोदय-समिति, बंबई, संवत् १९१७ सूत्रकृताङ्गनियुक्ति १ हस्तलिखिच २ प्रागमोदय-समिति, बंबई, संवत् १९७३ ३ भीमसिंह माणेक , , १६३६ सूक्तमुक्तावली दे० ला० पुस्तकोद्धार फंड, बंबई, १९२२ सूत्रकृतांगचूणि P.T.S. सेतुबंध निर्णयसागर प्रेस, बंबई, १८९५ स्वप्नवासवदत्त त्रिवेन्द्र-संस्कृत-सिरीज हम्मीरमदमर्दन गायकवाड ओरिएन्टल सिरोज, नं. १०, १९२० हास्यचूडामणि (प्रहसन) हितोपदेशकुलक +हस्तलिखित हितोपदेशसारकुलक हेमचन्द्र-प्राकृत-व्याकरण .१ डॉ. पार्, पिशेल-संपादित, १८७७ २ बंबई-संस्कृत-सिरीज, १६०० हेमचन्द्र-काव्यानुशासन निर्णयसागर प्रेस, बंबई, १६०१ सूअनि श्रुतस्कंध गाथा सूक पत्र सूत्रचू आश्वासक, पत्र स्वप्न हम्मीर गाथा पद, सूत्र पृष्ठ +श्रद्धेय श्रीयुत के. प्रे. मोदी द्वारा प्राप्त । +देखो 'उत्त' के नीचे की टिप्पणी। + सूत्र के अंक इन दोनों में भिन्न भिन्न हैं, प्रस्तुत कोष में सूत्रांक केवल भी. मा. के संस्करण के दिए गये है। For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण में लेखक का निवेदन कोई भी भाषा के ज्ञान के लिए उस भाषा का व्याकरण और कोष प्रवान साधन है । प्राकृत भाषा के प्राचीन व्याकरण अनेक हैं, जिनमें चंड का प्राकृतलक्षण, वररुचि का प्राकृतप्रकाश, हेमाचार्य का सिद्धहम (प्रथम अध्याय), मार्कण्डेय का प्राकृतसर्वस्व प्रौर लक्ष्मीधर की पड्भाषाचन्द्रिका मुख्य हैं। और अर्वाचीन प्राकृत व्याकरणों की संख्या अल होने पर भी उनमें जर्मनी के सुप्रसिद्ध प्राकृतविद्वान् डॉ. पिशल का प्राकृतव्याकरण सर्वश्रेष्ठ है जो प्रतिविस्तृत और तुलनात्मक है। परन्तु प्राकृत-कोष के विषय में यह बात नहीं है। प्राकृत के प्राचीन कोषों में अद्यापि पर्यन्त केवल दो ही कोष अलब्ध हुए हैं—पण्डित धनपाल-कृत पाइअलच्छीनाममाला और हेमाचार प्रणीत देशीनाममाला । इनमें पहला अतिसंक्षिप्त -दो सौ से भी कम पद्यों में ही समाप्त और दूसरा केवल देश्य शब्दों का कोष है। इनके सिवा अन्य कोई भी प्राकृत का कोष न होनेसे प्राकृत के हरएक अभ्यासी को अपने अभ्यास में बहुत असुविधा होती थी, खुद मुझे भी अपने प्राकृत-ग्रन्थों के अनुशीलन-काल में इस प्रभाव का कटु अनुभव हुआ करता था। इससे पाज से करीब पनरह साल पहले पूज्यपाद, प्रातःस्मरणीय, गुरुवयं शास्त्र-विशारद जैनाचार्य श्री १०८ श्री विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराज को प्रेरणा से प्राकृत का एक उपयुक्त कोष बनाने का मैंने विचार किया था। इसी अरसे में श्री राजेन्द्र सरिजी का अभिधानराजेन्द्र नामक कोष का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ और अभी दो वर्ष हुए इसका अन्तिम भाग भी बाहर हो गया है । बड़ी बड़ो सात जिल्दों में यह कोष समाप्त हुआ है। इस संपूर्ण कोष का मूल्य २६०) रुपये हैं जो परिश्रम और ग्रन्थ-परिमाण में अधिक नहीं कहे जा सकते। यद्यपि इस कोष की विस्तृत प्रालोचना करने की न तो यहाँ जगह है, न आवश्यकता ही; तथापि यह कहे बिना नहीं रहा जा सकता कि इसकी तय्यारी में इसके कर्ता और उसके सहकारियों को सचमुच घोर परिश्रम करना पड़ा है और प्रकाशन में जैन श्वेताम्बर संघ को भारी धन-व्यय । परन्तु खेद के साथ कहना पड़ता है कि इसमें कर्ता को सफलता की अपेक्षा निष्फलता ही अधिक मिली है और प्रकाशक के धनका अपव्यय ही विशेष हुआ है। सफलता न मिलने का कारण भी स्पष्ट है। इस ग्रन्थ को थोड़े गौर से देखने पर यह सहज ही मालूम होता है कि इसके कर्ता को न तो प्राकृत भाषामों का पर्याप्त ज्ञान था और न प्राकृत शब्द-कोष के निर्माण की उतनी प्रबल इच्छा, जितनो जैन-दर्शन-शास्त्र और तक-शास्त्र के विषय में अपने पाण्डित्यप्रख्यापन की घून । इसी धुन ने अपने परिश्रम को योग्य दिशा में ले जानेवालो विवेक-बुद्धि का भी हास कर दिया है। यही कारण है कि इस कोष का निर्माण, केवल पचहत्तर से भी कम प्राकृत जैन पुस्तकों के हो, जिनमें अर्धमागधी के दर्शनविषयक ग्रंथों की बहुलता है, आधार पर किया गया है और प्राकृत को ही इवर मुख्य शाखाओं के तथा विभिन्न विषयों के अनेक जैन तथा जैनेतर ग्रन्थों में एक का भी अयोग नहीं किया गया है । इससे यह कोष व्यापक न होकर प्राकृत भाषा का एकदेशीय कोष हुमा है। इसके सिवा प्राकृत तथा संस्कृत ग्रन्थों के विस्तृत अंशों को और कहीं-कहीं तो छोटे-बड़े संपूर्ण ग्रन्थ को ही अवतरण के रूप में उद्धृत करने के कारण पृष्ठ-संख्या में बहुत बड़ा होने पर भी शब्द-संख्या में ऊन ही नहीं, बल्कि आधार-भूत ग्रंथों में पाए हुए कई उपयुक्त शब्दों को छोड़ देने से और विशेषार्थ-हीन पतिदीर्घ सामासिक शब्दों की भरती से वास्तविक शब्द-संख्या में यह कोष अतिन्यून भी है। इतना ही नहीं, इस कोष में मादशं पुस्तकों की, प्रसावधानी की और प्रेस की तो असंख्य अशुद्धियाँ हैं ही, प्राकृत भाषा के अज्ञान से संबन्ध रखनेवाली भूलों की भी कमी नहीं है। और सबसे बदकर दोष इस कोष में यह है कि वाचस्पत्य, अनेकान्नजयपताका, अष्टक, रत्नाकरावतारिका आदि केवल संस्कृत के और जैन इतिहास जैसे १. जैसे 'चेइय' शब्द की व्याख्या में प्रतिमाशतक नामक सटीक संस्कृत ग्रन्थ को प्रादि से लेकर अन्त तक उद्धृत किया गया है। इस ग्रंथ की श्लोक-संख्या करीब पाँच हजार है। २. अक = अकं आदि। ३. जैसे अइ-तिक्ख-रोस, अइ-दुक्ख-धम्म, अइ-तिब्ब-कम्म-विगम, अकुसल-जोग-रिणरोह, चियंते(?)उर-पर-घर-प्पवेस, अजिम्म(?) कंत-गयरणा, अजस-सय-विसप्पमारण-हियय, अजहएणको(?)स-पएसिय प्रादि। इन शब्दों का इनके अवयवों को अपेक्षा कुछ भी विशेष अर्थ नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 ( १४ ) केवल आधुनिक गुजराती ग्रन्थों के संस्कृत और गुजराती शब्दों पर से कोरी निजी कल्पना से ही बनाये हुए प्राकृत शब्दों की इसमें खूब मिलावट की गई है, जिससे इस कोष की प्रामाणिकता ही एकदम नष्ट हो गई है । ये और अन्य अनेक अक्षम्य दोषों के कारण साधारण अभ्यासी के लिए इस कोष का उपयोग जितना भ्रामक और भयंकर है, विद्वानों के लिए भी उतना ही क्लेशकर है। इस तरह प्राकृत के विविध भेदों और विषयों के जैन तथा जैनेतर साहित्य के यथेष्ट शब्दों से संकलित, भावश्यक अवतरणों से युक्त, शुद्ध एवं प्रामाणिक कोष का नितान्त प्रभाव बना ही रहा। इस प्रभाव की पूर्ति के लिये मैंने अपने उक्त विचार को कार्य रूप में परिणत करने का दृढ़ संकल्प किया और तदनुसार शीघ्र हो प्रयत्न भी शुरू कर दिया गया, जिसका फल प्रस्तुत कोष के रूप में चौदह वर्षों के कठोर परिश्रम के पश्चात् श्राज पाठकों के सामने उपस्थित है । " प्रस्तुत कोष की तय्यारी में जो श्रनेक कठिनाइयाँ मुझे झेलनी पड़ी हैं उनमें सर्व प्रथम प्राकृत के शुद्ध पुस्तकों के विषय में थी । प्राकृत का विशाल साहित्य भण्डार विविध विषयक ग्रंथ रत्नों से पूर्ण होने पर भी आजतक वह यथेट रूप में प्रकाशित ही नहीं हुआ है । और हस्त लिखित पुस्तकें तो बहुधा अज्ञान लेखकों के हाथ से लिखी जानेके कारण प्रायः श्रशुद्ध ही हुआ करती हैं; परन्तु प्राजतक जो प्राकृत की पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं वे भी, न्यूनाधिक परिमाण में अशुद्धियों से खाली नहीं हैं। अलबत, यूरोप की और इस देश की कुछ पुस्तकें ऐसी उत्तम पद्धति से छपी हुई हैं कि जिनमें अशुद्धियाँ बहुत ही कम हैं, और जो कुछ रह भी गई हैं वे उनमें टिप्पणी में दिए हुए अन्य प्रतियों के पाठान्तरों से सुधारी जा सकती हैं। परन्तु दुर्भाग्य से ऐसे संस्करणों की संख्या बहुत ही अल्प- नगण्य हैं। सचमुच, यह बड़े खेद की बात है कि भारतीय और खास कर हमारे जैन विद्वान प्राचीन पुस्तकों के संशोधन में अधिक हस्तलिखित पुस्तकों का उपयोग करने की और उनके भिन्न-भिन्न पाठों को टिप्पणी के आकार में उद्धृत करने की तकलीफ ही नहीं उठाते। इसका नतीजा यह होता है कि संशोधक की बुद्धि में जो पाठ शुद्ध मालूम होता है वही एक, फिर चाहे वह वास्तव में अशुद्ध ही क्यों न हो, पाठकों को देखने को मिलता है। प्राकृत के इतर मुद्रित ग्रन्थों की तो यह दुर्दशा है ही, परन्तु जैनों के पवित्रतम और अति प्राचीन धागम-ग्रन्थों की भी यही अवस्था है। कई वर्षों के पहले मुर्शिदाबाद के प्रसिद्ध न-कुबेर राव धनपतिसिंहजी बहादुर ने अनेक धागम अन्य भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न संशोधों से संपादित करा कर पाये थे, जिनमें अधिकांश ज्ञानी संशोधकों से सम्पादित होने के कारण खूब हो शुद्ध थे आगमोदय समिति ने अच्छा फंड एकत्रित करके भी जो आगमों के ग्रन्थ छपवाये हैं वे में सुन्दर होने पर भी शुद्धता के विषय में बहुधा पूर्वोक्त संस्करणों की पुनरावृत्ति ही है का परिश्रम किया गया है, न मूल और टीका के प्राकृत शब्दों की संगति की ओर ध्यान दिया गया है, और न तो प्रथम संस्करण की साधारण शुद्धियां सुधारने की योति कोशिश ही की गई है। क्या ही छा हो यदि श्री आगमोदय समिति के कार्यकर्ताओं का ध्यान इस तथ्य की भोर श्राट हो और वे प्राकृत के विशेषज्ञ और परिश्रमी विद्वानों से संपादित करा कर समस्त ( प्रकाशित और अप्रकाशित ) श्रागम-ग्रन्थों का. एक शुद्ध (Critical ) संस्करण प्रकाशित करें, जिसकी अनिवार्य आवश्यकता है। किन्तु भी कुछ ही वर्ष हुए हमारी छपाई सफाई श्रादि बाह्य शरीर की सजावट किसी में भादर्श-पुस्तकों के पाठान्तर देने इस तरह हस्त लिखित और मुद्रित प्राकृत ग्रन्थ प्रायः श्रशुद्ध होने के कारण आवश्यकतानुसार एकाधिक हस्त लिखित पुस्तकों का अन्य-ग्रंथों में उद्धृत उन्हीं पाठों का और भिन्न-भिन्न संस्करणों का सावधानी से निरीक्षण करके उनमें से शुद्ध प्राकृत शब्दों का तथा एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न परन्तु शुद्ध रूपों का हो यहाँ ग्रहण किया गया है और अशुद्ध शब्द या रूप छोड़ दिए गए हैं। और जिस ग्रन्थ की हो हस्त लिखित प्रति अथवा एक मुद्रित संस्करण पाया गया है उसमें रही हुई अशुद्धियों का भी संशोधन यथामति किया गया है और संशोधित शब्दों को ही इस कोष में स्थान दिया गया है । साधारण स्थलों को छोड़ कर खास खास स्थानों में ऐसी प्रशुद्धियों का उल्लेख भी उन पाठों को उद्धृत करके किया गया है, जिससे विद्वान् पाठक को मेरी की हुई शुद्धि की योग्यता या प्रयोग्यता पर विचार करने की सुविधाहो । इस प्रकार जैसे मूल प्राकृत शब्दों की अशुद्धियों के संशोधन में पूरी सावधानी रक्खी गई है वैसे ही आधुनिक विद्वानों की की हुई छाया (संस्कृत प्रतिशब्द) और अयं को भूलों को सुधारने की भी पूरी कोशिश की गई है ध्यान दिया गया है । मुझे यह जानकर संतोष हुआ है कि मेरे इस प्रयत्न की विद्वान् तक ने की है। सारांश यह कि इस कोष को शुद्ध बनाने में संपूर्ण प्राकृत के सुप्रसिद्ध जर्मन कदर भी प्रोफेसर ल्योमेन जैसे २ कागज, क्योंकि १. देखो मगर डम्म भगोरसम्भव, अतिसुखसमुदय, धम्मबिंदु प्रमत्तमयपरिक्षा विपरिक्षा, (?) योगात्त जागा प्रभूति शब्दों के रेफरेंस २. देखो अन्यत्र उद्धृत किए हुए इस ग्रंथ विषयक अभिप्रायों में रॉयल एसियाटिक सोसाईटी के जर्नल में प्रकाशित प्रो. ल्युमेन का अभिप्राय । For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) दूसरी मुख्य कठिनाई अर्थ-व्यय के बारे में थी। मेरी आर्थिक अवस्था ऐसी नहीं थी कि इस महान् ग्रंथ की तय्यारी के लिए पुस्तकादि आवश्यक साधनों के और सहायक मनुष्यों के वेतन-खर्च के अतिरिक्त प्रकाशन का भार भी बहन कर सकू। और मुफ्त में किसी से आर्थिक सहायता लेना मैं पसन्द नहीं करता था। इससे इस कठिनाई को दूर करने के लिए अग्रिम ग्राहक बनाने की योजना की गई, जिसमें उन अग्रिम ग्राहकों को हर पचीस रुपये में इस संपूर्ण ग्रन्थ की एक कॉपी देने की व्यवस्था थी। इससे मेरी उक्त कठिनाई सम्पूर्ण तो नहीं, किन्तु बहुत-कुछ कम हो गई। इस योजना को इतने दूर तक सफल बनाने का अधिक श्रेय कलकत्ता के जैन श्वेताम्बर-श्रीसंघ के अग्रगण्य नेता श्रीमान् सेठ नरोत्तमभाई जेठाभाई को है, जिन्होंने शुरू से ही इसकी संरक्षकता का भार अपने पर लेते हुए मुझे हर तरह से इस कार्य में सहायता की है, जिसके लिए मैं उनका चिर-कृतज्ञ हूँ। इसी तरह अहमदाबाद निवासी श्रद्धेय श्रीयुत् केशवलालभाई प्रेमचन्द मोदी बी. ए., एलएल बो. का भी मैं बहुत ही उपकृत हूँ कि जिन्होंने कई मुद्रित पुस्तकों में दो हुई प्राकृत शब्द-सूचियों पर से एकत्रित किया हुन्ना एक बड़ा शब्द-संग्रह मुझे दिया था. इतना ही नहीं, बल्कि समय समय पर प्राकृत की अनेक हस्त-लखित तथा मुद्रित पुस्तकों का जोगाड़ कर दिया था और उक्त योजना में ग्राहक-सख्या बढ़ा देने का हार्दिक प्रयत्न किया था। प्रातःस्मरणीय, पूज्यपाद, गुरुवयं मुनिराज श्रोअमीविजयजी महाराज, पूज्य जैनाचार्य श्री विजयमोहन सरिजी, जं. यु. भट्टारक श्रोजिनचारित्रसरिजी तथा स्वतन्त्रसम्पादक विद्वद्वयं श्रीयुत् अम्बिकाप्रसादजी बाजपेयी का भी मैं हृदय से उपकार मानता हूँ कि जिनको प्रेरणा से अग्रिम ग्राहकों की वृद्धि द्वारा मुझे इस कार्य में सहायता मिली है। उन महानुभावों को, जिनके शुभ नाम इसी ग्रन्थ में अन्यत्र दी हुई अग्रिम-ग्राहक-सूची प्राशित किए गए हैं', अनेकानेक धन्यवाद हैं कि जिन्होंने यथाशक्ति अल्पाधिक संख्या में इस पुस्तक की कॉपियाँ खरीद कर मेरा यह कार्य सरल कर दिया है। यहाँ पर मेरे मित्र श्रीयुत् सेठ गिरधरलाल त्रिकमलाल और श्रीमान् बाव डालचंदजी सिंघी के नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन दोनों महाशयों ने अपनी अपनी शक्ति के अनुसार यथेष्ट संख्या में इस कोष को काँपियाँ खरीदने के अतिरिक्त मुझे इस कार्य के लिये समय समय पर बिना सूद ऋण देने की भी कृपा की थी। यह कहने में कोई प्रत्युक्ति नहीं है कि यदि उक्त सब महानुभावों की यह सहायता मुझे प्राप्त न हुई होती तो इस कोष का प्रकाशन मेरे लिए मुश्किल ही नहीं, असंभव था। यहाँ इस बात का भी उल्लेख करना उचित जान पड़ता है कि आज से करीब दस वर्ष पहले मेरे सहाध्यापक श्रद्धेय प्रोफेसर मुरलीधर बनजी एम्. ए. महाशय ने और मैंने मिलकर एक प्रस्ताव विशिष्ट पद्धति का प्राकृत इंग्लिश कोष तैयार करने के लिए कलकत्ताविश्वविद्यालय में उपस्थित किया था, परन्तु उस समय वह अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया था। इसके कई वर्ष बाद जब मेरे इस प्राकृत-हिन्दी कोष का प्रथम भाग प्रकाशित हुमा तत्र उसे देखकर कलकत्ता-विश्वविद्यालय के कर्णधार स्वर्गीय आनरेबल जस्टिस आशुतोष मुकजी इतने संतुष्ट हुए कि उन्होंने तुरंत ही विश्वविद्यालय की तरफ से हम दोनों के तत्त्वावधान में इसी तरह के प्रमाण-युक्त एक प्राकृत-इङ्गिलश कोश तैय्यार और प्रकाशित करने का न केवल प्रस्ताव ही पास करवाया, बल्कि उसको कार्य-रूप में परिणत करने के लिए उपयुक्त व्यवस्था भी करायी है। इसके लिए उनको जितने धन्यवाद दिये जायँ, कम हैं। यहाँ पर मैं कलकत्ता-विश्वविद्यालय की भी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता कि जिसके द्वारा मुझे इस कार्य में समय, पुस्तक प्रादि की अनेक सुविधाएँ मिली हैं, जिससे यह कार्य अपेक्षा-कुत शीघ्रता से पूर्ण हो सका है। इस कोष के उपोद्घात से सम्बन्ध रखनेवाले अनेक ऐतिहासिक जटिल प्रश्नों को सुलझाने में श्रद्धय प्रोफेसर मुरलीधर बनर्जी एम्. ए. ने अपने कोमतो समय का विना संकोच भोग देकर मुझे जो सहायता की है उसके निए मैं उनका अन्तःकरण से आभार मानता हूँ। इस कोष के मुद्रण-कार्य के प्रारम्भ से लेकर प्रायः शेष होने तक, समय समय पर जैसे जैसे जो अतिरिक्त हस्त-लिखित और मुद्रित पुस्तकें या संस्करण मुझे प्राप्त होते जाते थे वैसे वैसे उनका भी यथेष्ट उपयोग इस कोष में किया जाता था। यही कारण है कि तब तक के अमुद्रित भाग के शब्द उनके रेफरेंसों के साथ साथ प्रस्तुत कोष में ही यथास्थान शामिल कर दिए जाते थे और मुद्रित अंश के शब्दों का एक अलग संग्रह तय्यार किया जाता था जो परिशिष्ट के रूप में इसी ग्रंथ में अन्यत्र प्रकाशित किया जाता है । ऐसा करते हुए तृतीय भाग के छपने तक जिन अतिरिक्त पुस्तकों का उपयोग किया गया था उनकी एक अलग सूची भी तृतीय भाग में दी गई थी। उसके बाद के अतिरिक्त पुस्तकों की अलग सूचो इसमें न देकर प्रथम की दोनों (द्वितीय और तृतीय भाग में प्रकाशित) मूचियों को जो एक साधारण सूची यहाँ दी जाती है उसी में उन पुस्तकों का भी वर्णानुक्रम से यथास्थान समावेश किया गया है, जिससे पाठकों को अलग अलग रेफरेंस-सूचियाँ देखने को तकलीफ न हो। उक्त परिशिष्ट में केवल उन्हीं शब्दों को स्थान दिया गया है जो पूर्व-संग्रह में न पाने के कारण एकदम नये हैं या प्राने पर भी लिंग या अर्थ में पूर्वागत शब्द की अपेक्षा विशेषता रखते हैं। केवल रेफरेंस की विशेषता को लेकर किसी शब्द को परिशिष्ट में पुनरावृत्ति नहीं की गई है। १. 'अग्रिम-ग्राहक सूची' का अंश द्वितीय संस्करण में नहीं छापा गया है-संपादक । २. 'परिशिष्ट' का संपूर्ण अंश इस द्वितीय संस्करण में यथास्थान समावेश कर दिया गया है-संपादक । For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि मेरी मातृभाषा हिन्दी नहीं है तथापि वही एकमात्र भारतवर्ष की सर्वाधिक व्यापक और इसलिए राष्ट्र-भाषा के योग्य होने के कारण यहाँ अर्थ के लिए विशेष उपयुक्त समझी गई है। अन्त में, पार्ष से लेकर अपभ्रश तक की प्राकृत भाषाओं के विविध-विषयक जैन एवं जैनेतर प्राचीन ग्रंथों के (जिनकी कुल संख्या ढाई सौ से भी ज्यादा है) अतिविशाल शब्द-राशि से, संस्कृत प्रतिशब्दों से, हिन्दी अर्थों से, सभी आवश्यक अवतरणों से और संपूर्ण प्रमाणों से परिपूर्ण इस बृहत् प्राकृत-कोष में, यथेष्ट सावधानता रखने पर भी, जो कुछ मनुष्य-स्वभाव-सुलभ त्रुटिया या भूलें हुई हों उनको सुधारने के लिए विद्वानों से नम्र प्रार्थना करता हुप्रा यह अाशा रखता हूँ कि वे ऐसी भूलों के विषय में मुझे सतर्क करेंगे ताकि द्वितीयावृत्ति में तद्नुसार संशोधन का कार्य सरल हो पड़े । जो विद्वान् मेरे भ्रम-प्रमादों की प्रामाणिक पद्धति से सूचना देंगे, मैं उनका चिर-कृतज्ञ रहूँगा। यदि मेरी इस कृति से, प्राकृत-साहित्य के अभ्यास में थोड़ी भी सहायता पहुँचेगी तो मैं अपने इस दोघ-काल-व्यापी परिश्रम को सफल समदूंगा। कलकत्ता ता०३९-१.२८ हरगोविन्द दास टि. सेठ For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण का उपोद्घात जो भाषा अतिप्राचीन काल में इस देश के श्रार्य लोगों की कथ्य भाषा - बोलचाल की भाषा थी, जिस भाषा में भगवान् महावीर और बुद्धदेव ने अपने पवित्र सिद्धान्तों का उपदेश दिया था, जिस भाषा को जैन और बौद्ध विद्वानों विविध विषयक विपुल साहित्य की रचना कर अपनाई है, जिस भाषा में श्रेष्ठ काव्य निर्माण द्वारा प्रवरसेन, हाल आदि प्राकृत किसे कहते हैं ? महाकवियों ने अपनी अनुपम प्रतिभा का परिचय दिया है, जिस भाषा के मौलिक साहित्य के आधार पर संस्कृत के अनेक उत्तम ग्रन्थों की रचना हुई है, संस्कृत के नाटक-ग्रन्थों में संस्कृत-भिन्न जिस भाषा का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है, जिस भाषा से भारतवर्ष की वर्तमान समस्त आर्य भाषाओं की उत्पत्ति हुई है और जो भाषाएँ भारत के अनेक प्रदेशों में आजकल भी बोली जाती हैं, इन सब भाषाओं का साधारण नाम है प्राकृत, क्योंकि ये सब भाषाएँ एकमात्र प्राकृत के ही बिभिन्न रूपान्तर हैं जो समय और स्थान की भिन्नता के कारण उत्पन्न हैं। इसीसे इन भाषाओं के व्यक्ति वाचक नामों के आगे 'प्राकृत' शब्द का प्रयोग आजतक किया जाता है, जैसे प्राथमिक प्राकृत, या अर्धमागधी प्राकृत, पाली प्राकृत, पैशाची प्राकृत, शौरसेनी प्राकृत, महाराष्ट्री प्राकृत, अपभ्रंश प्राकृत, हिन्दी प्राकृत, बंगला प्राकृत आदि । भारतवर्ष की अर्वाचीन और प्राचीन भाषाएँ और उनका परस्पर सम्बन्ध भाषातत्व के अनुसार भारतवर्ष की आधुनिक कथ्य भाषाएँ इन पाँच भागों में विभक्त की जा सकती है : - ( १ ) आर्य (Aryan), (२) द्राविड़ (Dravidian), (३) मुण्डा ( Munda ), (४) मन् ख्मेर ( Mon-khiner) और (५) तिब्बतar (Tibeto-Chinese). भारत की वर्तमान भाषाओं में मराठी, बँगला, ओड़िया, बिहारी, हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, पंजाबी, सिन्धी और काश्मीरी भाषा आर्य भाषा से उत्पन्न हुई हैं। पारसी तथा अंग्रेजी, जर्मनी आदि अनेक आधुनिक युरोपीय भाषाओं की उत्पत्ति भी इसी आर्य भाषा से है । भाषा गत सादृश्य को देखकर भाषा तन्त्र- ज्ञाताओं का यह अनुमान है कि इस समय विच्छिन्न और बहु-दूरवर्ती भारतीय आर्य भाषा-भाषी समस्त जातियाँ और उक्त युरोपीय भाषा-भाषी सकल जातियाँ एक ही आर्य वंश से उत्पन्न हुई हैं । तेलगु, तामिल और मलयालम प्रभृति भाषाएँ दाविड़ भाषा के अन्तर्गत हैं; कोल तथा साँथाली भाषा मुण्डा भाषा के अन्तर्भूत हैं; खासी भाषा मन्ख्मेर भाषा का और भोटानी तथा नागा भाषा तिब्बत चीना भाषा का निदर्शन है । इन समस्त भाषाओं की उत्पत्ति किसी आर्य भाषा से सम्बन्ध नहीं रखती, अतएव ये सभी अनार्य भाषाएँ हैं । यद्यपि ये अनार्य भाषाएँ भारत के ही दक्षिण, उत्तर और पूर्व भाग में बोली जाती हैं तथापि अंग्रेजी आदि सुदूरवर्ती भाषाओं के साथ हिन्दी आदि आर्य भाषाओं का जो वंश-गत ऐक्य उपलब्ध होता है, इन अनार्य भाषाओं के साथ वह सम्बन्ध नहीं देखा जाता है । ये सब कथ्य भाषाएँ आजकल जिस रूप में प्रचलित हैं, पूर्वकाल में उसी रूप में न थीं, क्योंकि कोई भी कथ्य भाषा कभी एक रूप में नहीं रहती । अन्य वस्तुओं की तरह इसका रूप भी सर्वदा बदलता ही रहता है- देश, काल और व्यक्तिगत उच्चारण के भेद से भाषा का परिवर्तन अनिवार्य होता है । यद्यपि यह परिवर्तन जो लोग भाषा का व्यवहार करते हैं उनके द्वारा ही होता है तथापि उस समय वह लक्ष्य में नहीं आता । पूर्वकाल की भाषा के संरक्षित आदर्श के साथ तुलना करने पर बाद में ही वह जाना जाता है। प्राचीन काल की जिन भारतीय भाषाओं के आदर्श संरक्षित हैंजिन भाषाओं ने साहित्य में स्थान पाया है, उनके नाम ये हैं- वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत, पाली, अशोक लिपि तथा उसके बाद की लिपि की भाषा और प्राकृत भाषा समूह न थीं, केवल लेख्य - साहित्यिक भाषा - ही थीं। इनमें प्रथम की दो भाषाएँ कभी जन साधारण की कथ्य भाषा अवशिष्ट भाषाएँ कथ्य और लेख्य उभय रूप में प्रचलित थीं । इस । For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) समय ये समस्त भाषाएँ कथ्य रूप से व्यवहृत नहीं होतीं, इसी कारण ये मृत भाषा (dead languages) कहलाती हैं। उक्त वैदिक आदि सब भाषाएँ आर्य भाषा के अन्तर्गत हैं और इन्हीं प्राचीन आर्य भाषाओं में से कईएक क्रमशः रूपान्तरित होकर आधुनिक समस्त आर्य भाषाएँ उत्पन्न हुई हैं। ये प्राचीन आर्य भाषाएँ कौन युग में किस रूप में परिवर्तित होकर क्रमशः आधुनिक कथ्य भाषाओं में परिणत हुई, इसका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जाता है। प्राचीन भारतीय आर्य भाषाओं का परिणति-क्रम सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपनी लिग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया (Linguistic survey of India) नामक पुस्तक में भारतवर्षीय समस्त आर्य भाषाओं के परिणाम का जो क्रम दिखाया है उसके अनुसार वैदिक भाषा उक्त साहित्य-भाषाओं में सर्व-प्राचीन है। इसका समय अनेक विद्वानों के मत में खिस्ताब्द-वृर्व दो हजार वर्ष (2001 ) और प्रो. वेद-भाषा पोर लौकिक मक्समूलर के मत में ख्रिस्ताब मेक्समूलर के मत में ख्रिस्ताब्द-पूर्व बारह सौ वर्ष (1200 B. C.) है। यह वेद-भाषा क्रमशः - परिमार्जित होती हुई ब्राह्मण, उपनिषद् और यास्क के निरक्त की भाषा में और बाद में पाणिनि-प्रभृति संस्कृत के व्याकरण-द्वारा नियन्त्रित होकर लौकिक संस्कृत में परिणत हुई है। पाणिनि आदि के पद-प्रभृति के नियम-कप संस्कारों को प्राप्त करने के कारण यह संस्कृत कहलाई। मुख्य रूप से 'संस्कृत' शब्द का प्रयोग इसी भाषा के अर्थ में किया जाता है। यह संस्कृत भाषा वैदिक भाषा से उत्पन्न होने से उसके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रखने से वेदभाषा के अर्थ में भी 'संस्कृत' शब्द बाद के समय से प्रयुक्त होने लग गया है। पाणिनि के बाद संस्कृत भाषा का कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। यह परिवर्तन होने में-वेद-भाषा को लौकिक संस्कृत के रूप में परिणत होने में-प्रायः डेढ़ हजार वर्ष लगे हैं। पाणिनि का समय गोल्डस्टुकर के मत में ख्रिस्ताब्द-पूर्व सप्तम शताब्दी और बोथलिंक के मत में ख्रिस्ताब्द-पूर्व चतुर्थ शताब्दी है। यहाँ पर इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि डॉ. हॉनलि और सर ग्रियर्सन के मन्तव्य के अनुसार आर्य लोगों के दो दल भिन्न-भिन्न समय में भारतवर्ष में आये थे। पहले आयों के एक दल ने यहाँ आकर मध्यदेश में अपने उपनिवेश की स्थापना की थी। इसके कई सौ वर्षों के बाद आयों के दूसरे दल ने भारत में प्रवेश कर प्रथम दल के वेद और वैदिक सभ्यता आया का मध्यदेश को चारा ओ - आयों को मध्यदेश की चारों ओर भगा कर उनके स्थान को अपने अधिकार में किया और मध्यदेश - को ही अपना वास स्थान कायम किया। उक्त विद्वानों को यह मन्तव्य इसलिए करना पड़ा है कि मध्यदेश के चारों पाश्वों में स्थित पंजाब, सिन्ध, गुजरात, राकपूताना, महाराष्ट्र, अयोध्या, बिहार, बंगाल और उड़ीसा प्रदेशों की आधुनिक आर्य कथ्य भाषाओं में परस्पर जो निकटता देखी जाती है तथा मध्यदेश की आधुनिक हिन्दी भाषा पाश्चात्य हिन्दी के साथ उन सब प्रान्तों की भाषाओं में जो भेद पाया जाता है, उस निकटता और भेद का अन्य कोई कारण दिखाना असम्भव है। मध्यदेशवासी इस दूसरे दल के आयों का उस समय का जो साहित्य और जो सभ्यता थी उन्हीं के क्रमशः नाम हैं वेद और वैदिक सभ्यता। १. आर्य लोगों के आदिम वास-स्थान के विषय में आधुनिक विद्वानों में गहरा मत-भेद है। कोई स्वान्डोनेविया को, कोई जर्मनी को, कोई पोलण्ड को कोई हंगरी को, कोई दक्षिण रशिया को, कोई मध्य एशिया को प्रार्यों की प्रादिम निवास-भूमि मानते हैं तो कोई-कोई पंजाब और काश्मीर को ही इनका प्रथम वसति-स्थान बतलाते हैं। किन्तु अधिकांश विद्वान् भाषा-तत्त्व के द्वारा इस सिद्धान्त पर उपनीत हुए हैं कि युरोपीय और पूर्वदेशीय प्रार्यों में प्रथम विच्छेद हुमा। पोछे पूर्वदेश के मार्य लोग मेसेपोटेमिया और ईरान में एक साथ रहे और एक ही देव-देवी की उपासना करते थे। उसके बाद वे भी विच्छिन्न होकर एक दल फारस में गया और अन्य दल ने अफगानिस्तान के बीच होकर भारतवर्ष में प्रवेश और निवास किया। परन्तु जैन और हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भारतवर्ष ही चिरकाल से प्रार्यों का आदिम निवास-स्थान है। कोई-कोई आधुनिक विद्वान ने पुरातत्त्व की नूतन खोज के आधार पर भारतवर्ष से ही कुछ आर्य लोगों का ईरान प्रादि देशों में गमन और विस्तार-लाभ सिद्ध किया है, जिससे उक्त शास्त्रीय प्राचीन मत का समर्थन होता है। For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) उक्त वेद-भाषा प्राचीन होने पर भी वह वैदिक युग में जन-साधारण की कथ्य भाषा न थी, ऋषि- लोगों की साहित्य-भाषा थी । उस समय जन-साधारण में वैदिक भाषा के अनुरूप अनेक प्रादेशिक भाषाएँ ( dialects) कथ्य रुप से प्रचलित थीं। इन प्रादेशिक भाषाओं में से एक ने परिमार्जित होकर वैदिक साहित्य में स्थान पाया है। ऊपर वैदिक युग से पूर्वं काल 'आए हुए प्रथम दल के जिन आयों के मध्यदेश के चारों तरफ के प्रदेशों में उपनवेशों प्राकृत भाषाओं का प्रथम का उल्लेख किया गया है उन्होंने वैदिक युग अथवा उसके पूर्व काल में अपने-अपने प्रदेशों की कध्य स्तर (खिस्त-पूर्व भाषाओं में, दूसरे दल के आर्यों की वेद-रचना की तरह, किसी साहित्य की रचना नहीं की थी। २००० से ख्रिस्तइससे उन प्रादेशिक आर्य भाषाओं का तात्कालिक साहित्य में कोई निदर्शन न रहने से उनके पूर्व ६०० ) प्राचीन रूपों का संपूर्ण लोप हो गया है। वैदिक काल की और इसके पूर्व की उन समस्त कथ्य भाषाओं को सर प्रियर्सन ने प्राथमिक प्राकृत (Primary Prākrits) नाम दिया । यही प्राकृत भाषा समूह का प्रथम स्तर (tage) है । इसका समय ख्रिस्तपूर्व २००० से ख्रिस्त - पूर्व ६०० तक का निर्दिष्ट किया गया है। प्रथम स्तर की ये समस्त प्राकृत भाषाएँ स्वर और व्यञ्जन आदि के उच्चारण में तथा विभक्तियों के प्रयोग में वैदिक भाषा के अनुरूप थीं। इससे ये भाषाएँ विभक्ति- बहुल (synthetic) कही जाती है । वैदिक युग में जो प्रादेशिक प्राकृत भाषाएँ कथ्य रूप से प्रचलित थीं, उनमें परवर्ति-काल में अनेक परिवर्तन हुए जिनमें ऋ ऋ आदि स्वरों का, शब्दों के अन्तिम व्यञ्जनों का, संयुक्त व्यञ्जनों का तथा विभक्ति और वचन-समूह का लोप या रूपान्तर मुख्य हैं। इन परिवर्तनों से ये कथ्य भाषाएँ प्रचुर परिमाण में रूपान्तरित हुई। इस तरह द्वितीय स्तर प्राकृत भाषाओं का द्वितीय (second stage) की प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति हुई । द्वितीय स्तर की ये भाषाएँ जैन और बौद्ध धर्म के प्रचार के समय से अर्थात् ख्रिस्त-पूर्व षष्ठ शताब्दी से लेकर ख्रिस्तीय नवम या दशम शताब्दी स्तर ( खिस्त-पूर्व पर्यन्त प्रचलित रहीं । भगवान् महावीर और बुद्धदेव के समय ये समस्त प्रादेशिक प्राकृत भाषाएँ, ६०० से खिस्ताब्द अपने द्वितीय स्तर के आकार में, भिन्न-भिन्न प्रदेशों में कथ्य भाषा के तौर पर व्यवहृत होती थीं । ६०० ) उन्होंने अपने सिद्धान्तों का उपदेश इन्हीं कथ्य प्राकृत भाषाओं में से एक में दिया था। इतना ही नहीं, बल्कि बुद्धदेव ने अपना उपदेश संस्कृत भाषा में न लिखकर कथ्य प्राकृत भाषा में लिखने के लिए अपने शिष्यों को आदेश दिया था । इस तरह प्राकृत भाषाओं का क्रमशः साहित्य की भाषाओं में परिणत होने का सूत्रपात हुआ, जिसके फलस्वरूप पश्चिम मगध और सूरसेन देश के मध्यवर्ती प्रदेश में प्रचलित कथ्य भाषा से जैनों के धर्म-पुस्तकों की अर्धमागधी और पूर्व मगध में प्रचलित लोक-भाषा से बौद्ध धर्म-ग्रन्थों की पाली भाषा उत्पन्न हुई । पाली भाषा के उत्पत्ति स्थान के सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वानों का जो मतभेद है उसका विचार हम आगे जा कर करेंगे । ख्रिस्ताब्द से २५० वर्ष पहले सम्राट् अशोक ने बुद्धदेव के उपदेशों को भिन्न-भिन्न प्रदेशों में वहाँ-वहाँ की विभिन्न प्रादेशिक प्राकृत भाषाओं में खुदवाए । इन अशोक शिलालेखों में द्वितीय स्तर की प्राकृत भाषाओं के असंदिग्ध सर्व-प्राचीन निदर्शन संरक्षित हैं । द्वितीय स्तर के मध्य भाग में - प्रायः ख्रिस्तीय पंचम शताब्दी के पूर्व में भिन्न-भिन्न प्रदेशों की अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति हुई । इस स्तर की भाषाओं में चतुर्थी विभक्ति का, सब विभक्तियों के द्विवचनों का और आख्यात की अधिकांश विभक्तियों का लोप होने पर भी विभक्तियों का प्रयोग अधिक मात्रा में विद्यमान था । इससे इस स्तर की भाषाएँ भी विभक्ति-बहुल कही जाती हैं । सर प्रियर्सन ने यह सिद्धान्त किया है कि आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की उत्पत्ति द्वितीय स्तर की प्राकृत भाषाओं से, खासकर उसके शेष भाग में प्रचलित विविध अपभ्रंश भाषाओं से हुई है और आधुनिक भाषाओं को 'तृतीय तर की प्राकृत (Tertiary Prākrits) ' कह कर निर्देश किया है । इन भाषाओं की उत्पत्ति प्राकृत भाषाओं का तृतीय स्तर का समय ख्रिस्तीय दशम शताब्दी है । इनका साधारण लक्षण यह है कि इनमें अधिकांश या माधुनिक भारतीय श्रायं भाषाओं की उत्पत्ति विभक्तियों का लोप हुआ है, एवं भाषाओं की प्रकृति विभक्ति-बहुल न होकर विभक्तियों के बोधक स्वतन्त्र शब्दों का व्यवहार हुआ है। इससे ये विश्लेषणशील भाषाएँ (Analytical (खिस्ताब्द १०० ) Languages) कही जाती हैं। जिस प्रादेशिक अपभ्रंश से जिस आधुनिक भारतीय आर्य भाषा की उत्पत्ति हुई है उसका विवरण आगे 'अपभ्रंश ' शीर्षक में दिया जायगा । For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) द्वितीय स्तर की प्राकृत भाषाओं का इतिहास प्रस्तुत कोष में द्वितीय स्तर की साहित्यिक प्राकृत भाषाओं के शब्दों को ही स्थान दिया गया है । इससे इन भाषाओं की उत्पत्ति और परिणति के सम्बन्ध में यहाँ पर कुछ विस्तार से विवेचन करना आवश्यक है । साधारणतः लोगों की यही धारणा है कि संस्कृत भाषा से ही द्वितीय स्तर की समस्त प्राकृत भाषाएँ और आधुनिक भारतीय भाषाएँ उत्पन्न हुई हैं। कई प्राकृत वैयाकरणों ने भी अपने प्राकृत व्याकरणों में इसी मत का समर्थन किया है । परन्तु यह मत कहाँ तक सत्य है, इसका विचार करने के पहले इन भाषाओं के भेदों को जानने की जरूरत है । प्राकृत का संस्कृत-सापेक्ष प्राकृत वैयाकरणों ने प्राकृत भाषाओं के शब्द, संस्कृत शब्दों के सादृश्य और पार्थक्य के अनुसार इन तीन भागों में विभक्त किए हैं: - (१) तत्सम, (२) तद्भव और (३) देश्य या देशी । विभाग (१) जो शब्द संस्कृत और प्राकृत में बिलकुल एक रूप हैं उनको 'तत्सम' या 'संस्कृतसम' कहते हैं, जैसे - प्रजलि, भांगम, इच्छा, ईहा, उत्तम, ऊढा, एरंड, श्रोङ्कार, किङ्कर, खज, गण, घण्टा, चित्त, छल, जल, झङ्कार, टङ्कार, डिम्भ, ढक्का, तिमिर, दल, घवल, नोर, परिमल, फल, बहु, भार, मरण, रस, लव, वारि, सुन्दर, हरि, गच्छन्ति, हरन्ति प्रभृति । (२) जो शब्द संस्कृत से वर्ण-लोप, वर्णागम अथवा वर्ण-परिवर्तन के द्वारा उत्पन्न हुए हैं वे 'तद्भव' अथवा 'संस्कृतभव' कहलाते हैं, जैसे:- भग्र = श्रग्ग, प्रायं = प्रारित्र, इष्ट = इट्ठ, ईर्ष्या = ईसा, उद्गम = उगम, कृष्ण = कसण, खर्जूर = खज्जूर, गज = गन, घमं= धम्म चक्र = चक्क, क्षोभ = छोह, यक्ष = जक्ख, ध्यान = भाण, दंश = डंस, नाथ = शाह, त्रिदश = तिवस, दृष्ट = दिट्ठ, धार्मिक = घम्मिश्र, पश्चात् = पच्छा, स्पर्शं फंस, बदर = बोर, भार्या = भारिश्रा, मेघ = मेह, अरण्य = रराण, लेश = लेस, शेष = सेस, हृदय = हिश्रम, भवति = हवइ, पिबति = पिश्रइ, पृच्छति = पुच्छइ, प्रकार्षीत् = प्रकासी, भविष्यति - होहि इत्यादि । (३) जिन शब्दों का संस्कृत के साथ कुछ भी मादृश्य नहीं है-कोई भी सम्बन्ध नहीं है, उनको 'देश्य' या 'देशी' बोला जाता है; यथा - अगय (दैत्य), श्राकासिय ( पर्याप्त), इराव ( हस्ती ), ईस (कीलक), उन्नचित्त ( श्रपगत), ऊसन (उपधान), एलविल ( धनाढ्य, वृषभ), ओंडल (धम्मिल्ल), कंदोट्ट (कुमुद), खुड्डि (सुरत), गयसाउल (विरक्त), घढ ( स्तूप), चउक्कर (कार्तिकेय), छंकुई ( कपिकच्छू), जच्च (पुरुष), झडप्प (शीघ्र ), टंका (जङ्घा), डाल (शाखा), ढंढर (पिशाच, ईर्ष्या), णित्तिरडि (त्रुटित ), तोमरी (लता), थमिश्र ( विस्मृत), दाणि (शुल्क), धरण (गृह), निक्खुत्त (निश्चित), परिणश्रा (करोटिका), फुटा (केश-बन्ध), बिट्ट (पुत्र), भुंड (सूकर), मड्डा (बलात्कार), रत्ति (भाज्ञा), लंच (कुक्कुट), विच्छड (समूह), सयराह (शीघ्र ), हुत्त ( श्रभिमुख ), उन ( पश्य), खुप्पइ (निमज्जति), छिवइ ( स्पृशति ), देखाइ, निश्रच्छ (पश्यति), चुक्कर (भ्रश्यति), चोप्पड ( क्षति), अहिपच्चु (गृह्णाति) प्रभृति । उपर्युक्त विभाग प्राकृत के साथ संस्कृत के सादृश्य और पार्थक्य के ऊपर निर्भर करता है। इसके सिवा संस्कृत और प्राकृत के प्राचीन ग्रन्थकारों ने प्राकृत भाषाओं का और एक विभाग किया है जो प्राकृत भाषाओं के उत्पत्ति-स्थानों से संबन्ध रखता है । यह भौगोलिक विभाग (Geographical Classification) कहा जा सकता । भरतप्रणीत कहे जाते नाट्य-शास्त्र में, 'सात भाषाओं को जो मागधी, अवन्तिजा, प्राच्या, सूरसेनी, अर्धमागधी, वाहीका और दाक्षिणात्या ये नाम हैं, चण्ड के प्राकृत व्याकरण में जो पैशाचिकी और मागधिका ये नाम मिलते हैं, दण्डी ने काव्यादर्श में जो महाराष्ट्राश्रया, शौरसेनीं, गौडी और लाटी ये नाम दिए हैं, आचार्य हेमचन्द्र आदि ने मागधा, शौरसेनी, पैशाची और चूलिकापैशाचिक कह कर जिन नामों का निर्देश प्राकृत भाषाओं का भौगोलिक विभाग १. " मागध्यवन्तिजा प्राच्या सूरसेन्यर्धमागधी । वाह्वोका दाक्षिणात्या च सप्त भाषाः प्रकीर्तिताः ।।" ( नाव्यशास्त्र १७, ४८ ) । २. "पैशाचिक्यां रणयोर्लनौ' (प्राकृतलक्षरण ३, ३८ ) । ३. "मागधिकायां रसयोलंशौ' (प्राकृतलक्षरण ३, ३९ ) । ४. महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः । सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धादि यन्मयम् ॥ शौरसेनी च गौडी च लाटी चान्या च तादृशी । याति प्रकृतमित्येवं व्यवहारेषु सन्निधिम् ||" ( काव्यादर्श १, ३४ : ३५ ) : For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) किया है और मार्कण्डेय ने अपने प्राकृतसर्वस्त्र में प्राकृतचन्द्रिका के कतिपय इलों को को उद्धृत कर महाराष्ट्री, आवन्ती, शौरसेनी, अर्धमागधी, वाहलीकी, मागधी, प्राच्या और दाक्षिणात्या इन आठ भाषाओं के, छह विभाषाओं में द्राविड़ और ओढ़ज इन दो विभाषाओं के, ग्यारह पिशाच-भाषाओं में काञ्चीदेशीय, पाण्डय, पाञ्चाल, गौड, मागध, वाचड, दाक्षिणात्य, शौरसेन, कैकय और द्राविड़ इन दस पिशाच-भाषाओं के. और सताईस अपभ्रंशों में ब्राचड, लाट, वैदर्भ, बार्बर, आवन्त्य, पाञ्चाल, टाक्क, मालव, कैकय, गौड, उड, हैव, पाण्ड्य, कौन्तल, सिंहल, कालिङ्ग, प्राच्य, कार्णाट, काश्च, द्राविड़, गौर्जर, आभीर और मध्यदेशीय इन तेईस अपभ्रशों के जिन नामों का उल्लेख किया है वे उस भिन्न-भिन्न देश से ही संबन्ध रखते हैं जहाँ-जहाँ बह-वह भाषा उत्पन्न हुई है। षड्भावाचन्द्रिका के कर्ता ने 'शूरसेन देश में उत्पन्न भाषा शौरसेनी कही जाती है, मगध देश में उत्पन्न भाषा को मागधी कहते हैं और पिशाच-देशों की भाषा पैशाची और चूलिकापैशाची है' यह लिखते हुए यहो बात अधिक स्पष्ट रूप में कही है। पूर्व में प्राकृत भाषाओं के शब्दों के जो तीन प्रकार दिखाए हैं उनमें प्रथम प्रकार के तत्सम शब्द संस्कृत से ही सब देशों के प्राकृतो में लिये गए हैं। दूसरे प्रकार के तद्भव राब्द संस्कृत से उत्पन्न होने पर भी प्राकृत वैयाकरणों के मत से काल-क्रम से भिन्न-भिन्न देश में भिन्न-भिन्न रूप को प्राप्त हुए हैं और तीसरे प्रकार के देश्य शब्द तत्सम प्रादि शब्दों वैदिक अथवा लौकिक संस्कृत से उत्पन्न नहीं हुए हैं, किन्तु भिन्न-भिन्न देश में प्रचलित भाषाओं की प्रकृति से गृहीत हुए हैं। प्राकृत वैयाकरणों का यही मत है। देश्य शब्द पहले प्राकृत भाषाओं का जो भौगोलिक विभाग बताया गया है, ये तृतीय प्रकार के देशोशब्द उसी भौगोलिक विभाग से उत्पन्न हुए हैं। वैदिक ओर लोकिक संस्कृत भाषा पंजाब और मध्यदेश में प्रचलित वैदिक काल की प्राकृत भाषा से उत्पन्न हुई है। पंजाब और मध्यदेश के बाहर के अन्य प्रदेशों में उस समय आर्य लोगों की जो प्रादेशिक प्राकृत भाषाएँ प्रचलित थीं उन्हीं से ये देशीशब्द गृहीत हुए हैं। यही कारण है कि वैदिक और संस्कृत साहित्य में देशीशब्दों के अनुरूप कोई शब्द (प्रतिशब्द) नहीं पाया जाता है। प्राचीन काल में भिन्न-भिन्न प्रादेशिक प्राकृत भाषाएँ हयात थीं, इस बात का प्रमाण व्यास के महाभारत, भरत के नाम्यशास्त्र और वात्स्यायन के कामसूत्र आदि प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में और जैनों के ज्ञाताधर्मकथा, विपाकश्रुत, औपपातिकसत्र तथा राजप्रश्नीय आदि प्राचीन प्राकृत ग्रन्थों में भी मिलता है । इन ग्रन्थों में 'नानाभाषा', 'देशभाषा' या 'देशीभाषा' शब्द का प्रयोग प्रादेशिक प्राकृत के अर्थ में ही किया गया है। चंड ने अपने प्राकृत व्याकरण में जहाँ देशीप्रसिद्ध प्राकृत मूल १.ये श्लोक पैशाची' और 'अपभ्रंश' के प्रकरण में दिए गए हैं। २. “शूरसेनोद्भवा भाषा शौरसेनोति गोयते । मगधोत्पन्नभाषां तां मागधी संप्रचक्षते । पिशाचदेशनियतं पैशाचीद्वितयं भवेत् ॥” (षड्भाषाचन्द्रिका, पृष्ठ २) । ३. “नानाचर्मभिराच्छन्ना नानाभाषाश्च भारत । कुशला देशभाषासु जल्पन्तोऽन्योन्यमीश्वराः" (महाभारत, शल्यपर्व ४६, १०३)। । "मत ऊवं प्रवक्ष्यामि देषभाषाविकल्पनम् ।" "अथवा च्छन्दतः कार्या देशभाषा प्रयोक्तृभिः" (नाट्यशास्त्र १७, २४, ४६) । "नात्यन्तं संस्कृतेनैव नात्यन्तं देशभाषया । कथां गोष्ठीषु कथयंल्लोके बहुमतो भवेत्" (कामसूत्र १, ४, ५०)। "तते णं से मेहे कुमारे......अटारसविहिप्पगारदेसीभासाविसारए.......होत्या"; "तत्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नाम गणिया परिवसइ मड्ढा.......अद्वारसदेसीभासाविसारया" (ज्ञाताधर्मकथासूत्र, पत्र ३८६२)। 'तत्थ णं वाणियगामे कामज्झया णामं गणिया होत्या......अट्ठारसदेसीभासाविसारया" (विपाकश्रुत, पत्र २१-२२)। 'तए णं दढपइराणे दारए.......अटारसदेसाभासाविसारए" (प्रौपपातिक सूत्र, पेरा १०६)। "तए णं से दढपतिएणे दारए.......अट्ठारसविदेसिप्पगारभासाविसारए' (राजप्रश्नीयसूत्र, पत्र १४८) । ४. "सिद्धं प्रसिद्ध प्राकृतं त्रेधा त्रिप्रकारं भवति-संस्कृतयोनि.......,संस्कृतसम........देशीप्रसिद्ध तच्चेदं हर्षितं = ल्हसिमं" (प्राकृतलक्षण पृष्ठ १-२)। For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) का उल्लेख किया है वहाँ भी देशी शब्द का अर्थ देशीभाषा ही है। ये सब देशी या प्रादेशिक भाषाएँ भिन्न-भिन्न प्रदेशों के निवासी आये लोगों की ही कथ्य भाषाएँ थीं। इन भाषाओं का पंजाब और मध्यदेश की कथ्य भाषा के साथ अनेक अंशों में जैसे सादृश्य था वैसे किसी किसी अंश में भेद भी था। जिस जिस अंश में इन भाषाओं का पंजाब और मध्यदेश की प्राकृत भाषा के साथ भेद था उसमें से जिन भिन्न-भिन्न नामों ने और धातुओं ने प्राकृतसाहित्य में स्थान पाया है वे ही हैं प्राकृत के देशी वा देश्य शब्द । प्राकृत-वैयाकरणों ने इन समस्त देश्य शब्दों में अनेक नाम और धातुओं को संस्कृत नामों के और धातुओं के स्थान में आदेश-द्वारा सिद्ध करके तद्भव-विभाग में अन्तर्गत किए हैं। यही कारण है कि आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी देशीनाममाला में केवल देशी नामों का ही संग्रह किया है और देशी धातुओं का अपने प्राकृत-व्याकरण में संस्कृत धातुओं के आदेश-रूप में उल्लेख किया है; यद्यपि आचार्य हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती कई वैयाकरणों ने इनकी गणना देशी धातुओं में ही की है। ये सब नाम और धातु संस्कृत के नाम और धातुओं के आदेश-रूप में निष्पन्न करने पर भी तद्भव नहीं कहे जा सकते, क्योंकि संस्कृत के साथ इनका कुछ भी सादृश्य नहीं है। कोई कोई पाश्चात्य भाषातत्त्वज्ञ का यह मत है कि उक्त देशी शब्द और धातु भिन्न-भिन्न देशों की द्राविड़, मुण्डा आदि अनार्य भाषाओं से लिए गए हैं। यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि यदि आधुनिक अनार्य भाषाओं में इन देशीशब्दों और देशी-धातुओं का प्रयोग उपलब्ध हो तो यह अनुमान करना असंगत नहीं है। किन्तु जबतक यह प्रमाणित न हो कि 'ये देशी शब्द और धातु वर्तमान अनार्य भाषाओं में प्रचलित हैं', तबतक 'ये देशी शब्द और धातु-प्रादेशिक आर्य भाषाओं से ही गृहीत हुए हैं' यह कहना ही अधिक संगत प्रतीत होता है। इन अनार्य भाषाओं में दो-एक देश्य शब्द और धातु प्रचलित होने पर भी 'वे अनार्य भाषाओं से ही प्राकृत भाषाओं में लिए गए हैं। यह अनुमान न कर 'प्राकृत भाषाओं से ही वे देश्य शब्द और धातु अनार्य भाषाओं में गए हैं। यह अनुमान किया जा सकता है। हाँ, जहाँ ऐसा अनुमान करना असंभव हो वहाँ हम यह स्वीकार करने के लिए बाध्य होंगे कि 'ये देश्य शब्द और धातु अनार्य भाषाओं से ही प्राकृत में लिए गए हैं। क्योंकि आई और अनार्य ये उभय जातियाँ जब एक स्थान में मिश्रित हो गई हैं तब कोई कोई अनार्य शब्द और धातु का आर्य भाषाओं में प्रवेश करना असंभव नहीं है। डॉ. काल्डवेल (Caldwell) प्रभृति के मत में वैदिक और लौकिक संस्कृत में भी अनेक शब्द द्राविडीय भाषाओं से गृहीत हुए हैं। यह बात भी संदिग्ध ही है, क्योंकि द्राविडीय भाषा के जिस साहित्य में ये सब शब्द पाये जाते हैं वह वैदिक संस्कृत के साहित्य से प्राचीन नहीं है। इससे 'वैदिक साहित्य में ये सब शब्द द्राविडीय भाषा से गृहीत हुए हैं' इस अनुमान की अपेक्षा 'आर्य लोगों की भाषा से ही अनार्यों की भाषा में ये सब शब्द लिए गए हैं' यह अनुमान ही विशेष ठीक मालूम पड़ता है। जिन प्रादेशिक देशी-भाषाओं से ये सब देशी शब्द प्राकृत-साहित्य में गृहीत हुए हैं वे पूर्वोक्त प्रथम स्तर की प्राकृत भाषाओं के अन्तर्गत और उनकी समसामयिक हैं। खिस्त-पूर्व षष्ठ शताब्दी के पहले ये सब समय देशीभाषाएँ प्रचलित थीं, इससे ये देश्य शब्द अर्वाचीन नहीं, किन्तु उतने ही प्राचीन हैं जितने कि वैदिक शब्द। द्वितीय स्तर की प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति-वैदिक या लौकिक संस्कृत से नहीं, किन्तु प्रथम स्तर की प्राकृतों से प्राकृत के वैयाकरण-गण प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति में प्रकृति शब्द का अर्थ संस्कृत करते हुए प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति लौकिक संस्कृत से मानते हैं । संस्कृत के कई अलंकार-शास्त्रों के टीकाकारों ने भी तद्भव और तत्सम शब्दों में स्थित १. देखो हेमचन्द्र-प्राकृत-व्याकरण के द्वितीय पाद के १२७, १२६, १३४, १३६, १३८, १४१, १७४ वगैरह सूत्र और चतुर्थ पाद के २, ३, ४, ५, १०, ११, १२ प्रभृति सूत्र । २, एते चान्यैदेशीषु पठिता अपि अस्माभित्विादेशीकृताः' (हे० प्रा० ४, २); अर्थात् अन्य विद्वानों ने वज्जर, पज्जर, उप्पाल प्रभृति धातुओं का पाठ देशी में किया है, तो भी हमने संस्कृत धातु के आदेश-रूप से ही ये यहीं बताए हैं। For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) "तत्' शब्द का सम्बन्ध संस्कृत से लगाकर इस मत का अनुसरण किया है। कतिपय प्राकृत-व्याकरणों में प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति इस तरह की गई है : 'प्रकृतिः संस्कृतं, तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम्' (हेमचन्द्र प्रा० व्या०)। 'प्रकृति: संस्कृतं तत्र भवं प्राकृतमुच्यते' (प्राकृतसर्वस्व)। 'प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवत्वात् प्राकृतं स्मृतम्' (प्राकृतचन्द्रिका)। 'प्रकृतेः संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृतो मता' (षड्भाषाचन्द्रिका)। 'प्राकृतस्य तु सर्वमेव संस्कृत योनिः' (प्राकृतसंजीवनी)। इन व्युत्पत्तियों का तात्पर्य यह है कि प्राकृत शब्द 'प्रकृति' शब्द से बना है, 'प्रकृति' का अर्थ है संस्कृत भाषा, संस्कृत भाषा से जो उत्पन्न हुई है वह है प्राकृत भाषा । प्राकृत वैयाकरणों की प्राकृत शब्द की यह व्याख्या अप्रामाणिक और अव्यापक ही नहीं है, भाषा-तत्व से असंगत भी है। अप्रामाणिक इसलिए कही जा सकती है कि प्रकृति शब्द का मुख्य अर्थ संस्कृत भाषा कभी नहीं होता-संस्कृत के किसी कोष में प्राकृत शब्द का यह अर्थ उपलब्ध नहीं है और गौण या लाक्षणिक अर्थ तबतक नहीं लिया जाता जबतक मुख्य अर्थ में बाध न हो । यहाँ प्रकृति शब्द के मुख्य अर्थ स्वभाव अथवा 'जन-साधारण लेने में किसी तरह का बाध भी नहीं है। इससे उक्त व्युत्पत्ति के स्थान में 'प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम्' अथवा 'प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम्' यही व्युत्पत्ति संगत और प्रामाणिक हो सकती है। अव्यापक कहने का कारण यह है कि प्राकृत के पूर्वोक्त तीन प्रकारों में तत्सम और तद्भव शब्दों की ही प्रकृति उन्होंने संस्कृत मानी है, तीसरे प्रकार के देश्य शब्दों की नहीं, अथच देश्य को भी प्राकृत कहा है। इससे देश्य प्राकृत में वह व्युत्पत्ति लागू नहीं होती। प्राकृत की संस्कृत से उत्पत्ति भाषा-तत्त्व के सिद्धान्त से भी संगति नहीं रखती, क्योंकि वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत ये दोनों ही साहित्य की मार्जित भाषाएँ हैं। इन दोनों भाषाओं का व्यवहार शिक्षा की अपेक्षा रखता है। अशिक्षित, अज्ञ और बालक लोग किसी काल में साहित्य की भाषा का न तो स्वयं व्यवहार कर सकते हैं और न समझ ही पाते हैं। इसलिए समस्त देशों में सर्वदा ही अशिक्षित लोगों के व्यवहार के लिए एक कथ्य भाषा चालू रहती है जो साहित्य की भाषा से स्वतन्त्र-अलग होती है। शिक्षित लोगों को भी अशिक्षित लोगों के साथ बातचीत के प्रसंग में इस कथ्य भाषा का ही व्यवहार करना पड़ता है। वैदिक समय में भी ऐसी कथ्य भाषा प्रचलित थी। और जिस समय लौकिक संस्कृत भाषा प्रचलित हुई उस समय भी साधारण लोगों की स्वतन्त्र कथ्य भाषा विद्यमान थी, यह नाटक आदि में संस्कृत भाषा के साथ प्राकृत-भाषी पात्रों के उल्लेख से प्रमाणित होता है। पाणिनि ने संस्कृत भाषा को जो लौकिक भाषा कही है और पतञ्जलि ने इसको जो शिष्ट-भाषा का नाम दिया है. उसका मतलब यह नहीं है कि उस समय प्राकृत भाषा थी ही नहीं, परन्तु उसका अथें यह है कि उस समय के शिक्षित लोगों के आपस के वार्तालाप में, वर्तमान काल के पण्डित लोगों में संस्कृत की तरह और भिन्नदेशीय लोगों के साथ के व्यवहार Lingun Prinon की माफिक संस्कृत भाषा व्यवहृत होती थी। किन्तु बालक, स्त्रियाँ और अशिक्षित लोग अपनी मात. भाषा में बातचीत करते थे जो संस्कृत-भिन्न साधारण कथ्य भाषा थी। साधारण कथ्य भाषा किसी देश में किसी काल में साहित्य की भाषा से गृहीत नहीं होती, बल्कि साहित्य-भाषा ही जन-साधारण की कथ्य भाषा से उत्पन्न होती है। इसलिए 'संस्कत से प्राकत भाषा की उत्पत्ति हुई है' इसकी अपेक्षा 'क्या तो वैदिक संस्कृत और क्या लौकिक संस्कृत दोनों ही उस समय की प्राकृत भाषाओं से उत्पन्न हुई है' यही सिद्धान्त विशेष युक्ति-संगत है। आजकल के भाषा तत्त्वज्ञों में इसी सिद्धान्त का अधिक आदर देखा जाता है। यह सिद्धान्त पाश्चात्य विद्वानों का कोई नूतन आविष्कार नहीं है, भारतवर्ष के प्रकते: संस्कृतादागतं प्राकृतम्' (वाग्भटालंकारटीका २, २); 'संस्कृतरूपाया: प्रकृतेरुत्पन्नत्वात् प्राकृतम्' (काव्यादर्श की प्रेमचन्द्र तर्कवागीश-कृत टीका १, ३३)। २ प्रतियोनिशिल्पिनोः । पौरामात्यादिलिगेषु गुणसाम्यस्वभावयोः । प्रत्यात् पूविकायां च' (अनेकार्थसंग्रह ८७६-७)। ३. 'स्वाम्यमात्यः सुहृत्कोशो राष्ट्रदुगंबलानि च । राज्याङ्गानि प्रकृतयः पौराणां श्रेणयोऽपि च ।। (प्रभिधानचिन्तामणि ३, ३७८)। 'यत् कात्यः-अमात्याद्याश्च पौराश्च सद्भिः प्रकृतयः स्मृताः' (म०चि० ३, ३७८ की टीका)। ४. कोई कोई प्राधुनिक विद्वान् प्राकृत भाषा की उत्पत्ति वैदिक संस्कृत से मानते हैं, देखो 'पाली-प्रकाश' का प्रवेशक पृष्ठ ३४-३६ । For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) ही प्राचीन भाषातत्वज्ञों में भी यह मत प्रचलित था यह निम्नोद्धृत कतिपय प्राचीन ग्रन्थों के अवतरणों से स्पष्ट प्रतीत होता है। रुद्रट-कृत काव्यालङ्कार के एक 'इलोक की व्याख्या में खिस्त की ग्यारहवीं शताब्दी के जैन-विद्वान् नमिसाध ने लिखा है कि: "प्राकृतेति । सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कारः सहजो वचन-व्यापारः प्रकृतिः, तत्रः भवं सैव वा प्राकृतम् । 'पारिसवयणे सिद्ध देवाणं अद्धमागहा वाणी' इत्यादिवचनाद् वा प्राक् पूर्व कृतं प्राक्कृतं बाल-महिलादि-सुबोधं सकलभाषानिबन्धनभूतं वचनमुच्यते । मेघनिमुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव च देशविशेषात् संस्कारकरणाच्च समासादितविशेष सत् संस्कृताद्युत्तरविभेदानाप्नोति । अत एव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निदिष्टं तदनु संस्कृतादीनि । पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते ।" इस व्याख्या का तात्पर्य यह है कि-'प्रकृति शब्द का अर्थ है लोगों का व्याकरण आदि के संस्कारों से रहित स्वाभाविक वचन-व्यापार, उससे उत्पन्न अथवा वही है प्राकृत । अथवा 'प्राक् कृत' पर से प्राकृत शब्द बना है, 'प्राक् कृत' का अर्थ है 'पहले किया गया। बारह अंग-ग्रन्थों में ग्यारह अंग ग्रन्थ पहले किए गए हैं और इन ग्यारह अङ्ग-ग्रन्थों की भाषा मार्ष-वचन में-सूत्र में अर्धमागधी कही गई है जो बालक, महिला आदि को सुबोध-सहज-गम्य है और जो सकल भाषाओं का मूल है। यह अर्धमागधी भाषा ही प्राकृत है। यही प्राकृत, मेघ-मुक्त जल की तरह, पहले एक रूपवाला होने पर भी, देश-भेद से और संस्कार करने से भिन्नता को प्राप्त करता हुमा संस्कृत मादि प्रवान्तर विभेदों में परिणत हुआ है अर्थात अर्धमागधी प्राकृत से संस्कृत और अन्यान्य प्राकृत भाषामों की उत्पत्ति हुई है। इसी कारण से मूल ग्रन्थकार (रुद्रट) ने प्राकृत का पहले और संस्कृत आदि बाद में निर्देश किया है। पाणिन्यादि व्याकरणों में बताए हए नियमों के अनुसार संस्कार पाने के कारण संस्कृत कहलाती है।' "प्रकृत्रिमस्वादुपदैनं जनं जिनेन्द्र साक्षादिव पासि भाषितैः' (द्वात्रिंशद्वात्रिशिका १, १८) । "अकृत्रिमस्वादुपदा जैनी वाचमुपास्महे ।" (हेमचन्द्रकाव्यानुशासन, पृष्ठ १)। उक्त पद्यों में क्रमशः महाकवि सिद्धसेन दिवाकर और आचार्य हेमचन्द्र जैसे समर्थ विद्वानों का जिनदेव की वाणी को अत्रिम' और संस्कृत भाषा को 'कृत्रिम' कहने का भी रहस्य यही है कि प्राकृत जन-साधारण की मातृभाषा होने के कारण अकृत्रिम- स्वाभाविक है और संस्कृत भाषा व्याकरण के संस्कार-रूप बनावटीपन से पूर्ण होने के हेतु कृत्रिम है। १. “प्राकृतसंस्कृतमागधपिशाचभाषाश्च शौरसेनी च । षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः ॥" (काव्यालंकार २, १२) । २. बारहवां अङ्ग-ग्रंथ, जिसका नाम दृष्टिवाद है और जिसमें चौदह पूर्व (प्रकरण) थे, संस्कृत भाषा में था। यह बहुत काल से लुप्त हो गया है । यद्यपि इसके विषयों का संक्षिप्त वर्णन समवायाङ्गसूत्र में है। "चतुदशापि पूर्वाणि संस्कृतानि पुराऽभवन् ॥११४॥ प्रज्ञातिशयसाध्यानि तान्युच्छिन्नानि कालतः । अधुनैकादशाङ्गयस्ति सुधर्मस्वामिभाषिता ।।११५॥ वालस्त्रीमूढमूर्खादिजनानुग्रहणाय सः । प्राकृतां तामिहाकार्षात्(प्रभावकचरित्र, पृ०६८-६९)। ३. "मुत्तण दिट्ठिवायं कालियउकालियंगसिद्धं तं । थीबालवायपत्थं पाययमुइयं जिणवरेहिं ॥" (प्राचारदिनकर में उद्धृत प्राचीन गाथा)। "बालस्त्रीमन्दमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः॥" (दशवैकालिक टीका पत्र १.० में हरिभद्रसूरि द्वारा और काव्यानुशासन की टीका पृ० १ में प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा उद्धृत किया हुआ प्राचीन श्लोक)। ४. "प्रकृत्रिमाणि-प्रसंस्कृतानि, अत एव स्वादूनि मन्दधियामपि पेशलानि पदानि यस्यामिति विग्रहः" (काव्यानुशासनटीका)। भाचार्य हेमचन्द्र की 'प्रकृत्रिम' शब्द की इस स्पा व्याख्या से प्रतीत होता है कि उनका अपने प्राकृत-व्याकरण में प्राकृत की प्रकृति संस्कृत कहना सिद्धान्त-निरूपण के लक्ष्य से नहीं, परन्तु अपने प्राकृत-व्याकरण की रचना-शैली के उपलक्ष में है, क्योंकि सभी उपलब्ध प्राकृत-व्याकरणों की तरह हेमचन्द्र-प्राकृत-व्याकरण में भी संस्कृत पर से ही प्राकृत-शिक्षा की पद्धति प्रखत्यार की गई है और इस पद्धति में प्रकृति-मूल के स्थान में संस्कृत को रखना अनिवार्य हो जाता है । अथवा यह भी असम्भव नहीं है कि व्याकरणरचना के समय उनका यही सिद्धान्त रहा हो जो बाद में बदल गया हो और इस परिवर्तित सिद्धान्त का काव्यानुशासन में प्रतिपादन किया हो । काव्यानुशासन की रचना व्याकरण के बाद उन्होंने की है यह काव्यानुशासन की "शब्दानुशासनेऽस्माभिः साव्यो वाचो विवेचिताः" (पृष्ठ २) इस उक्ति से ही सिद्ध है। For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) केवल जैन विद्वानों में ही यह मत प्रचलित न था, ख्रिस्त की आठवीं शताब्दी के जैनेतर महाकवि वाक्पतिराज ने भी अपने 'गउडवहो' नामक महाकाव्य में इसी मत को इन स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है : सयलाभो इमं वाया विसंति एतो य ति वायाओ । तिसमुचयति साराम्रो थिय जनाई ॥१३॥" अर्थात् इसी प्राकृत भाषा में समुद्र में ही प्रवेश करता है धौर समुद्र से बाहर होता है। वाक्पति के इस पद्य का ममं यही है कि प्राकृत भाषा की उत्पत्ति अन्य किसी भाषा से नहीं हुई है, बल्कि संस्कृत प्रादि सब भाषाएँ प्राकृत से ही उत्पन्न हुई हैं । सब भाषाएँ प्रवेश करती हैं और इस प्राकृत भाषा से ही सब भाषाएँ निर्गत हुई हैं; जल (श्रा कर) ( बाष्प रूप से) ही खिस्त की नयम शताब्दी के जैनेतर कवि राजशेखर ने भी अपने 'बालरामायण' में नीचे का श्लोक लिखकर यही मत प्रकट किया है। : "यद योनिः किल संस्कृतस्य गुहां जिह्वा कमोदते, यत्र थोपवावारिखि कटुर्भाषाक्षराणां रसः । गद्यं चूर्णंपदं पदं रतिपतेस्तत् प्राकृतं यद्वचस्तॉल्लाटॉल्ललिताङ्गि पश्य नुदती दृष्टेनिमेषव्रतम् ।।" (४८, ४६ ) । जैन और जैनेवर विद्वानों के उक्त वचनों से वह स्पष्ट है कि प्राचीन काल के भारतीय भाषातज्ञों में भी यह मत प्रबल रूप से प्रचलित था कि प्राकृत की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से नहीं है । प्राकृत भाषा लौकिक संस्कृत से उत्पन्न नहीं हुई है इसका और भी एक प्रमाण है। वह यह कि प्राकृत के अनेक शब्द और प्रत्ययों का लौकिक संस्कृत की अपेक्षा वैदिक भाषा के साथ अधिक मेल देखने में आता है । प्राकृत भाषा साक्षाद्र. प से लौकिक संस्कृत से उत्पन्न होने पर वह कभी संभव नहीं हो सकता। वैदिक साहित्य में भी प्राकृत के अनुरूप अनेक शब्द और प्रत्ययों के प्रयोग विद्यमान हैं। इससे यह अनुमान करना किसी तरह असंगत नहीं है कि वैदिक संस्कृत और प्राकृत ये दोनों दी एक प्राचीन प्राकृत भाषा से उत्पन्न हुई हैं और यही इस सादृश्य का कारण है वैदिक भाषा और प्राकृत के सादृश्य के कतिपय उदाहरण हम नीचे उद्धृत करते हैं ताकि उक्त कथन की सत्यता में कोई संदेह नहीं हो सकता । वैदिक भाषा और प्राकृत में सादृश्य = १. प्राकृत में अनेक जगह संस्कृत कार के स्थान में उकार होता है, जैसे- वृन्द सुन्द, ऋतु = उड, पृथिवी = पुहवी; वैदिक साहित्य में भी ऐसे प्रयोग पाये जाते है, जैसे- कृत = कुठ (ऋग्वेद १, ४६, ४) । २. प्राकृत में संयुक्त वर्णवाले कई स्थानों में एक व्यञ्जन का लोप होकर पूर्व के ह्रस्व स्वर का दीर्घ होता है, जैसे- दुर्लभ, विजाम योसाम, स्पर्शफास वैदिक भाषा में भी वैसा होता है, यथा-दुर्लभ दूलभ (आवेद ४, १८), दुर्गाश दूजारा ( शुक्तः प्रातिशाख्य २ ४३)। = = - ३. संस्कृत व्यञ्जनान्त शब्दों के अन्त्य व्यञ्जन का प्राकृत में सर्वत्र लोप होता है, जैसे- तावत्ताव, यशस= जस वैदिक साहित्य में भी इस नियम का अभाव नहीं है, यथा-पश्चात्पचा ( तैत्तिरीयसंहिता २, ३, १४), नीचात् = नीचा ( तैत्तिरीयसंहिता १, २, १४ ) । = हा १०, ४, ११) उच्चात् उचा = ४. प्राकृत में संयुक्त र और य का लोप होता है, जैसे- प्रगल्भ = पगब्भ, श्यामा सामा: वैदिक साहित्य में भी यह पाया जाता है, यथा-अ- प्रगल्भ = अ-पगल्भ ( तैत्तिरीयसंहिता ४, ५, ६१ ); त्र्यच = त्रिच (शतपथब्राह्मण १, ३, ३, ३३ ) । ५. प्राकृत में संयुक्त वर्ण का पूर्व स्वर हस्व होता है, यथा- पात्र पत्र, रात्रिरति साध्यसम्म इत्यादि वैदिक भाषा में भी ऐसे प्रयोग हैं, जैसे रोदसीय रोदसिया (ऋग्वेद १००० १०) अमात्र अमत्र (वेद 1,16, Y) I = ६. प्राकृत में संस्कृत द का अनेक जगह ड होता है, जैसे-दण्ड = डण्ड, दंस = डंस, दोला= डोला; वैदिक साहित्य में भी ऐसे प्रयोग दुर्लभ नहीं है, जैसे- दुर्दभ = दूडभ ( वाजसनेयसंहिता ३, ३६), पुरोदास = पुरोडाश ( शुक्लप्रातिशाख्य ३, ४ ) । १. सकला इदं वाचो विशन्तीतश्च नियंन्ति वाचः । प्रायन्ति समुद्रमेव निर्य॑न्ति सागरादेव जलानि ॥ ६३ ॥ For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) ७. प्राकृत में काह होता है, यथा-बधिर = बहिर व्याव - वाह; वेद-भाषा में भी ऐसा पाया जाता है, जैसे -- प्रतिसंधाय = प्रतिसंहाय ( गोपथब्राह्मण २४ ) । ८. प्राकृत में अनेक शब्दों में संयुक्त व्यञ्जनों के बीच में स्वर का आगम होता है, जैसे- क्लिष्ट = किलिहू, स्त्र = सुत्र, तन्त्री = तणुत्री; वैदिक साहित्य में भी ऐसे प्रयोग विरल नहीं है, यथा - सहस्य: = सहस्रियः, स्वर्गः = सुवर्ग: ( तैत्तिरीयसंहिता ४, २, ३ ); तन्वः = तनुवः स्वः = सुत्रः ( तैत्तिरीयारण्यक ७. २२, १६, २, ७ ) । प्राकृत में अकारान्त पुंलिङ्ग शब्द के प्रथमा के एकवचन में श्रो होता है, जैसे-देवो, जिणो, सो इत्यादि; वैदिक भाषा में भी प्रथमा के एकवचन में कहीं-कहीं ओ देखा जाता है, यथा-संवत्सरो अजायत (ऋग्वेदसंहिता १०, १६०, २ ), सो चित् (ऋग्वेदसंहिता १, १६१, १०-११ ) । १०. तृतीया विभक्ति के बहुवचन में प्राकृत देव आदि अन्त शब्दों के रूप देवेहि, गंभीरेहि, जेहि आदि होते हैं; वैदिक साहित्य में भी इसीके अनुरूप देवेभिः, गम्भीरेभिः, ज्येष्ठेभिः आदि रूप मिलते हैं । प्राकृत की तरह वैदिक भाषा में भी चतुर्थी के स्थान में षष्ठी विभक्ति होती है' १ प्राकृत में पञ्चमी के एकत्रचन में देवा, वच्छा, जिणा आदि रूप होते हैं; वैदिक साहित्य में भी इसी तरह के उच्चा, नीचा, पश्चा प्रभृति उपलब्ध होते है । २. १३. प्राकृत में द्विवचन के स्थान में बहुवचन ही होता है: वैदिक भाषा में भी इस तरह के अनेकों प्रयोग मौजूद हैं, यथा-' इन्द्रावरुणी' के स्थान में 'इन्द्रावरुणा', 'मित्रावरुणौ' की जगह 'मित्रावरुणा', 'यौ सुरथी रथितमौ दिविस्पृशावश्विनौं' के बदले 'या सुरथा रथीतमा दिविस्तृशा अश्विना', 'नरौ हे' के स्थल में 'नरा हे' आदि । इस तहर अनेक युक्ति और प्रमाणों से यह साबित होता है कि प्राकृत की उत्पत्ति वैदिक अथवा लौकिक संस्कृत से नहीं, किन्तु वैदिक संस्कृत की उत्पत्ति जिस प्रथम स्तर की प्रादेशिक प्राकृत भाषा से पूर्व में कही गई है उसीसे हुई है । इससे यहाँ पर इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि संस्कृत के अनेक आलंकारिकों ने और प्राकृत के प्रायः समस्त वैयाकरणों ने 'तत्' शब्द से संस्कृत को लेकर 'तद्भव' शब्द का जो व्यवहार 'संस्कृतभव' अर्थ में किया है वह किसी तरह नहीं हो सकता। इसलिए वहाँ 'तत्' शब्द से संस्कृत के स्थान में वैदिक काल के प्राकृत का ग्रहण कर 'तद्भव' शब्द का प्रयोग 'वैदिक काल के प्राकृत से जो शब्द संस्कृत में लिया गया है उससे उत्पन्न' इसी अर्थ में करना चाहिए । संस्कृत शब्द और प्राकृत तद्भव शब्द इन दोनों का साधारण मूल वैदिक काल का प्राकृत अर्थात् पूर्वोक्त प्राथमिक प्राकृत या प्रथम स्तर का प्राकृत हैं। इससे जहाँ पर 'तद्भव' शब्द का सैद्धान्तिक अर्थ 'संस्कृतभव' नहीं, किन्तु 'वैदिक काल के प्राकृत से उत्पन्न' यही समझना चाहिए । द्वितीय स्तर की प्राकृत भाषाओं का उत्पत्ति-क्रम और उनके प्रधान भेद जब उपर्युक्त कथन के अनुसार वैदिक तथा लौकिक संस्कृत और समस्त प्राकृत भाषाओं का मूल एक ही है और वैदिक तथा लोकिक संस्कृत द्वितीय स्तर की सभी प्राकृत भाषाओं से प्राचीन हैं, तब यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं है कि द्वितीय स्तर की प्राकृत भाषाओं के उत्पत्ति क्रम का निर्णय एकमात्र उसी सादृश्य के तारतम्य पर निर्भर करता है जो उभय संस्कृत और प्राकृत तद्भव शब्दों में पाया जाता है। जिस प्राकृत भाषा के तद्भव शब्दों का वैदिक और लौकिक संस्कृत के साथ जितना अधिक सादृश्य होगा वह उतनी ही प्राचीन और जिसके तद्भव शब्दों का उभय संस्कृत के साथ जितना अधिक भेद होगा वह उतनी ही अर्वाचीन मानी जा सकती है, क्योंकि अधिक भेद के उत्पन्न होने में समय भी अधिक लगता है यह निर्विवाद है । द्वितीय स्तर की जिन प्राकृत भाषाओं ने साहित्य में अथवा शिलालेखों में स्थान पाया है उनके शब्दों की वैदिक और लौकिक संस्कृत के साथ, उपर्युक्त पद्धति से तुलना करने पर, जो भेद (पार्थक्य) देखने में आते हैं उनके अनुसार द्वितीय स्तर की प्राकृत भाषाओं के निम्नोक्त प्रधान भेद ( प्रकार ) होते हैं, जो क्रम से इन तीन मुख्य काल-विभागों में बाँटे जा सकते हैं - (१) प्रथम युग - ख्रिस्त-पूर्व चार सौ से लेकर स्त्रिस्त के बाद एक सौ वर्ष तक ( 400 BC to 100 A D. ); (२) मध्ययुग - ख्रिस्त के बाद एक सौ से पाँच सौ वर्ष तक ( 100 A. C. to 600 A. D. ); (३) शेष युग - ख्रिस्तीय पाँच सौ से एक हजार वर्ष तक ( 500 A. D. to 1000 A. D. ) । १. " चतुथ्यर्थे बहुलं छन्दसि " ( पाणिनि व्याकरण २, ३, ६२ ) । For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) प्रथम युग (ख्रिस्त-पूर्व ४०० से स्त्रिस्त के बाद १००) (क) हीनयान बौद्धों के त्रिपिटक, महावंश और जातक-प्रभृति ग्रन्थों की पाली भाषा। (ख) पैशाची और चूलिकापैशाची। (ग) जैन अंग-ग्रन्थों की अर्धमागधी भाषा। (घ) अंग-ग्रन्थ-भिन्न प्राचीन सूत्रों की और पउम-चरिअ आदि प्राचीन ग्रन्थों की जैन महाराष्ट्री भाषा । (ङ) अशोक-शिलालेखों की एवं परवर्ति-काल के प्राचीन शिलालेखों की भाषा । (च) अश्वघोष के नाटकों की भाषा । ____ मध्ययुग (ख्रिस्तीय १०० से ५००) (क) त्रिवेन्द्रम् से प्रकाशित भास-रचित कहे जाते नाटकों की और बाद के कालिदास-प्रभृति के नाटकों की शौरसेनी, मागधी और महाराष्ट्री भाषाएँ। (ख) सेतुबन्ध, गाथासप्तशती आदि काव्यों की महाराष्टी भाषा। (ग) प्राकृत व्याकरणों में जिनके लक्षण और उदाहरण पाये जाते हैं वे महाराष्टी, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिकापैशाची भाषाएँ। (घ) दिगम्बर जैन ग्रन्थों की शौरसेनी और परवर्ति-काल के श्वेताम्बर ग्रन्थों की जैन महाराष्ट्री भाषा। (ङ) चंड के व्याकरण में निर्दिष्ट और विक्रमोर्वशी में प्रयुक्त अपभ्रंश भाषा । शेष युग (ख्रिस्तीय ५०० से १००० वर्ष ) भिन्न-भिन्न प्रदेशों की परवर्ती काल की अपभ्रश भाषाएँ। अब इन तीन युगों में विभक्त प्रत्येक भाषा का लक्षण और विशेष विवरण, उक्त क्रम के अनुसार (१) पालि, (२) पैशाची, (३) चूलिकापैशाची, (४) अर्धमागधी, (५) जैन महाराष्ट्री, (६) अशोकलिपि, (७) शौरसेनी, (८) मागधी, (E) महाराष्टी, (१०) अपभ्रंश इन शीर्षकों में क्रमशः दिया जाता है। (१) पालि हीनयान बौद्धों के धर्म-प्रन्थों की भाषा को पालि कहते हैं। कई विद्वानों का अनुमान है कि पालि शब्द 'पङ्क्ति' पर से बना है। 'पक्ति' शब्द का अर्थ है 'श्रेणी । प्राचीन बौद्ध लेखक अपने ग्रन्थ में धर्म-शास्त्र की वचन-पक्ति को उद्धृत करते समय इसी पालि शब्द का प्रयोग करते थे, इससे बाद के समय में बौद्ध धर्म-शास्त्रों की भाषा का ही नाम पालि हुआ । अन्य विद्वानों का मत है कि पालि शब्द 'पङ्क्ति' पर से नहीं, परन्तु 'पल्लि' पर से हुआ निर्देश प्रोर व्युत्पत्ति है। पल्लि' शब्द असल में संस्कृत नहीं, परन्तु प्राकृत है, यद्यपि अन्य अनेक प्राकृत शब्दों की तरह यह भी पीछे से संस्कृत में लिया गया है। पल्लि शब्द जैनों के प्राचीन अंग-ग्रन्थों में भी पाया जाता है । 'पल्लि' शब्द का अर्थ है ग्राम या गाँव । 'पालि' का अर्थ गावों में बोली जाती भाषा-ग्राम्य भाषा-होता है। 'पङ्क्ति' पर से 'पालि' होने की कल्पना जितनी क्लेश-साध्य है 'पल्लि' पर से 'पालि' होना उतना ही सहज-बोध्य है। इससे हमें पिछला मत ही अधिक संगत मालूम होता है। 'पालि' केवल ग्रामों की ही भाषा थी, इससे उसका यह नाम हुआ है यह बात नहीं है। बल्कि प्रदेश-विशेष के ग्रामों की तरह शहरों के भी जन-साधारण की यह भाषा थी, परन्तु संस्कृत के अनन्य-भक्त १ "पङक्ति = पंक्ति = पंति = पण्टि = पंटि = पंलि = पल्लि = पालि अथवा पङक्ति = पत्ति = पट्टि = पल्लि = पालि" (पालिप्रकाश, प्रवेशक, पृष्ठ ६)। २ “सेतुस्सिं तन्तिपन्तीसु नालियं पालि कथ्यते" (अभिधानप्रदीपिका ६६६)। ३ देखो, विपाकश्रुत (पत्र ३८, ३६) । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) ब्राह्मणों की ही ओर से इस भाषा की तरफ अपनी स्वाभाविक घृणा' को व्यक्त करने के लिए इसका यह नाम दिया जाना और अधिक प्रसिद्ध हो जाने के कारण पीछे से बौद्ध विद्वानों का भी मागधी की जगह इस शब्द का प्रयोग करना आश्चर्यजनक नहीं जान पड़ता। उक्त प्राकृत भाषा-समूह में पालि भाषा के साथ वैदिक संस्कृत का अधिक सादृश्य देखा जाता है। इसी कारण से द्वितीय स्तर की प्राकृत भाषाओं में पालि भाषा सर्वापेक्षा प्राचीन मालूम पड़ती है। पालि भाषा के उत्पत्ति-स्थान के बारे में विद्वानों का मत-भेद हैं। बौद्ध लोग इसी भाषा को मागधी कहते हैं और उनके मत से इस भाषा का उत्पत्ति-स्थान मगध देश है। परन्तु इस भाषा का मागधी प्राकृत के साथ कोई सादृश्य नहीं है। डॉ. कोनो ( Dr. Konw ) और सर ग्रियर्सन ने इस भाषा का पैशाची भाषा के साथ सादृश्य देखकर पैशाची भाषा जिस देश में प्रचलित थी उसी देश को इसका उत्पत्ति-स्थान बताया है, उत्पत्ति-स्थान यद्यपि पैशाची भाषा के उत्पत्ति-स्थान के विषय में इन दोनों विद्वानों का मतैक्य नहीं है। डॉ. कोनो के मत में पैशाची भाषा का उत्पत्ति-स्थान विन्ध्याचल का दक्षिण प्रदेश है और सर ग्रियर्सन का मत यह है कि इसका उत्पत्ति-स्थान भारतवर्ष का उत्तर-पश्चिम प्रान्त है। वहाँ उत्पन्न होने के बाद संभव है कि कोंकणप्रदेश-पर्यन्त इसका विस्तार हुआ हो और वहाँ इससे पाली भाषा की उत्पत्ति हुई हो।' परन्तु पालि भाषा अशोक के गुजरातप्रदेश-स्थित गिरनार के शिलालेख के अनरूप होने के कारण यह मगध में नहीं, किन्तु 'भारतवर्ष के पश्चिम प्रान्त में उत्पन्न हुई है और वहाँ से सिंहल देश में ले जाई गई है। यही मत विशेष संगत प्रतीत होता है, क्योंकि निम्नोक्त उदाहरणों से पालिभाषा का गिरनार-शिलालेख के साथ सादृश्य और पूर्व-प्रान्त-स्थित धौलि (खंडगिरि) शिलालेख के साथ पार्थक्य देखा जाता हैसंस्कृत पाली गिरनारशिला धौलिशिला राज्ञः राजिनो, रज्जो राणो कृतम् कतं इस विषय में डॉ. सुनोतिकुमार चटर्जी का कहना है कि "बुद्धदेव के समस्त उपदेश मागधी भाषासे बाद के समय में मध्यदेश (Donb) की शौरसेनी प्राकत में अनुवादित हुए थे और वे ही खिस्त-पूर्व प्रायः दो सौ वर्षे से पालि-भाषा के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं।" किन्तु सच तो यह है कि पालि भाषा का शौरसेनी और मागधी की अपेक्षा पैशाची के साथ ही अधिक सादृश्य है जो निम्नोक्त उदाहरणों से स्पष्ट जाना जाता है। संस्कृत पालि पैचाची शौरसेनी मागधी *क (लोक) क (लोक) क (लोक) .(लो) •(लोन) ग (नग) ग ( नग) ग ( नग) .(एम) ०(एम) *च (शची) च (सची) च (सची) ०(सई) ०(शई) •ज (रजत) ज ( रजत) ज ( रजत) ० (रपद) (लप्रद) *त (कृत ) त (कत) त (कत) द (कद) ड (कड) र (कर) र (कर) र (कर) र (कर) ल (कल) लजिने १. "लोकायतं कुतकं च प्राकृतं म्लेच्छभाषितम् । न श्रोतव्यं द्विजेनैतदधो नयति तद् द्विजम्' (गरुडपुराण, पूर्वखण्ड ९८, १७)। २. The Origin and Development of the Bengalee Language, VoL. I, page 57. ३. इन उदाहरणों में प्रथम वह अक्षर दिया गया है जिसका उस उस भाषा के नीचे दिए गए प्रक्षरों में परिवर्तन होता है और अक्षर के बाद ब्राकेट में उसी अक्षरवाला शब्द स्पष्टता के लिए दिया गया है। * स्वर वणों के मध्यवर्ती प्रसंयुक्त वर्ण । -For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत श ( वश ष (मेष) स (सारस ) उत्पन्न हुई थी । विनियोग पालि न ( वचन ) ट्ट (पट्ट) र्थ ( प्र ) स्' (वृक्षः ) त्थ (अत्थ) ओ (रुक्खो) पालि भाषा की उत्पत्ति का समय ख्रिस्त के उत्पत्ति समय (स) स (मेस ) स (सारस) न ( वचन ) ट्ट ( पट्ट ) . ( २६ ) पैशाची (स) स (मेस) स (सारस) न (वचन) ट्ट ( पट्ट) त्थ (प्रत्थ) ओ (रुक्खो) शौरसेनी स ( स ) स (मेस ) स (सारस) ण (वरण) ट्ट ( पट्ट ) त्थ (प्रत्थ ) ओ (रुक्खो) इस पालि भाषा से आधुनिक सिंहली भाषा की उत्पत्ति हुई है। प्राकृत शब्द से साधारणतः पालि-भिन्न अन्य भाषाएँ ही समझो जाती हैं। इससे, और पालि भाषा के अनेक स्वतन्त्र कोष होने से, प्रस्तुत कोष में पालि भाषा के शब्दों को स्थान नहीं दिया गया है। इसलिए पालि भाषा की विशेष आलोचना करने की यहाँ आवश्यकता नहीं है । पूर्व षष्ठ शताब्दी कहा जाता है, किन्तु वह काल बुद्धदेव की समसामयिक कथ्य मागधी भाषा का हो सकता है। पालि कथ्य भाषा नहीं, परन्तु बोद्ध धर्म - साहित्य भाषा है। संभवतः यह भाषा ख्रिस्त के पूर्व चतुर्थ या पञ्चम शताब्दी में पश्चिम भारत में ( २ ) पैशाची गुणाढ्य ने 'बृहत्कथा पैशाची भाषा में लिखी थी, जो लुप्त हो गई है। इस समय पैशाची भाषा के उदाहरण निदर्शन प्राकृतप्रकाश, आचार्य हेमचन्द्र का प्राकृतव्याकरण, षड्भाषाचन्द्रिका, प्राकृत- सर्वस्व और संक्षिप्त सार आदि प्राकृत व्याकरणों में आचार्य हेमचन्द्र के कुमारपाल चरित तथा काव्यानुशासन में, मोहराज - `पराजय नामक नाटक में और दो-एक षड्भाषास्तोत्रों में मिलते हैं । भरत के नाट्यशास्त्र में पैशाची नाम का उल्लेख देखने में मिश्र आदि संस्कृत के आलंकारिकों ने इसका उल्लेख किया है । अभिहित की है । मागधी श ( वश ) श ( मेश) श (शालश) or (वरण) स्ट (पस्ट ) स्त (मस्त) ए ( लुक्खे) ४ "केशवनहीं आता है, परन्तु इसके परवर्ती रुद्रट, वाग्भट ने इस भाषा को "भूतभाषित' के नाम से ४. काव्यालंकार २, १२ । ५. 'संस्कृतं प्राकृतं चैव पैशाची मागधी तथा' (श्रलङ्कार शेखर, पृष्ठ ५)। ६. 'संस्कृतं प्राकृतं तस्यापभ्रंशो भूतभाषितम् (वाग्भटालङ्कार २, १) । ७. यद् भूतैरुच्यते किञ्चित् तद्भौतिकमिति स्मृतम्' (वाग्भटालङ्कार २, ३ ) । भट तथा "केशव मिश्र ने क्रम से भूत और पिशाच-प्रभृति पात्रों के लिए और बहुभाषा चन्द्रिका कार ने राक्षस, पिशाच और नीच पात्रों के लिए इसका विनियोग बतलाया है । १. पुंलिंग में प्रथमा के एक वचन का प्रत्यय । की २. प्राचार्यं उद्योतन की कुवलयमाला में, दण्डी के काव्यादर्श में, बारण के हर्षचरित में, धनञ्जय के दशरूपक में, सुबन्धु वासवदत्ता में और प्रन्यान्य प्राकृत संस्कृत ग्रंथों में इसका उल्लेख पाया जाता है। क्षेमेन्द्रकृत बृहत्कथामञ्जरी और सोमदेव भट्टप्रणीत कथासरित्सागर इसी बृहत्कथा का संस्कृत अनुवाद है। इस बृहत्कथा के ही भिन्न-भिन्न अंशों के आधार पर बाण, श्रीहर्षं, भवभूति आदि संस्कृत के महाकवियों की कादम्बरी, रत्नावली, मालतीमाधव प्रभृति अनेक संस्कृत ग्रंथों की रचना की गई है। ३. पृष्ठ २२६६ २३३ । ८. 'पैशाची तु पिशाचाद्या: प्राहु:' ( श्रलङ्कारशेखर, पृष्ठ ५ ) । ९. रक्षः पिशाचनीचेषु पैशाचीद्वितयं भवेत् ||३५|| ( षड्भाषा चन्द्रिका, पृष्ठ ३) । For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्भाषाचन्द्रिकाकार पिशाच-देशों की भाषा को ही पैशाची कहते हैं और पिशाच-देशों के निर्देश के लिए नीचे उत्पत्ति-स्थान के श्लोकों को उद्धृत करते हैं : 'पाएज्यकेकयवाहीकसह्यनेपालकुन्तलाः । सुधेष्णभोजगान्धारहैवकन्नोजनास्तथा । एते पिशाचदेशाः स्युः' मार्कण्डेय ने अपने प्राकृतसर्वस्व में प्राकृतचन्द्रिका के 'काञ्चीदेशीयपाएज्य च पाञ्चाल गौड-मागधम् । वाचडं दाक्षिणात्यं च शौरसेनं च कैकयम् ॥ शाबरं द्राविडं चैव एकादश पिशाचजाः । - इस वचन को उद्धृत कर ग्यारह प्रकार की पैशाची का उल्लेख किया है। परन्तु बाद में इस मत का खण्डन करके सिद्धान्त रूप से इन तीन प्रकार की पैशाची का ग्रहण किया है; यथा-'कैकयं शौरसेनं च पाञ्चालमिति च त्रिधा पैशाच्यः' । लक्ष्मीधर और मार्कण्डेय ने जिन प्राचीन वचनों का उल्लेख किया है उनमें पाण्ड्य, काञ्ची और कैकय आदि प्रदेश एक दूसरे से अतिदूरवर्ती प्रान्तों में अवस्थित हैं। इतने दूरवर्ती : देश एकदेशीय भाषा के उत्पत्ति-स्थान कैसे हो सकते हैं? यदि पैशाची भाषा किसी प्रदेश की भाषा न हो कर भिन्न भिन्न प्रदेशों में रहनेवाली किसी जाति-विशेष की भाषा हो तो इसका संभव इस तरह हो भी सकता है कि पूर्वकाल में किसीक देश-विशेष में रहनेवाली पिशाच-प्राय मनुष्य-जाति. बाद में भिन्न-भिन्न देशों में फैलती हुई वहाँ अपनी भाषा को ले गई हो। मार्कण्डेय-निर्दिष्ट तीन प्रकार की पैशाची परस्पर संनिहित प्रदेशों की भाषा है, इससे खूब ही संभव है कि यह पहले केकय देश में उत्पन्न हुई हो और बाद में समीपस्थ शूरसेन और पजाब तक फैल गई हो। मार्कण्डेय ने शौरसेन-पेशाची और पाश्चाल-पैशाची की प्रकति जोकर गाडी बडी है इसका मतलब भी यही हो सकता है। सर ग्रियरन के मत में पिशाच-भाषा-भाषी लोगों का आदिम वासस्थान उत्तर-पश्चिम पजाब अथवा अफगानिस्थान का प्रान्त प्रदेश है और बाद में वहाँ से ही संभवतः इसका अ जाना है। किन्तु डॉ. हॉनाल का इस विषय में और ही मत है। उनका कहना यह है कि अनार्य जाति के लोग आर्य-जाति की भाषा का जिस विकृत रूप में उच्चारण करते थे वही पैशाची भाषा है, अर्थात् इनके मत से पैशाची भाषा को किसी देश-विशेष की भाषा है और न वह वास्तव में भिन्न भाषा ही है। हमें सर ग्रियर्सन का मत ही प्रामाणिक प्रतीत होता है जो मार्कण्डेय के मत के साथ अनेकांश में मिलता-जुलता है। वररुचि ने शौरसेनी प्राकृत को ही पैशाची भाषा का मूल कहा है। मार्कण्डेय ने पैशाची भाषा को कैकय, शौरसेन और पाञ्चाल इन तीन भेदों में विभक्त कर संस्कृत और शौरसेनी उभय को कैकय-पैशाची का और कैकय-पैशाची को शौरसेन पैशाची का मूल बतलाया है। पाञ्चाल-पैशाची के मृल का उन्होंने निर्देश ही नहीं किया है, किन्तु उन्होंने इसके जो केरी (कैलिः) और मंदिल ( मन्दिरम् ) ये दो उदाहरण दिये हैं इससे मालूम होता है कि इस पाळचालप्रकृति पैशाची का कैकय-पैशाची से रकार और लकार के व्यत्यय के अतिरिक्त अन्य कोई भेद नहीं है, सुतरां शौरसेन-पैशाची की तरह पाञ्चाल-पैशाची की प्रकृति भी इनके मत से कैकय-पैशाची ही हो सकती हैं। पहा यह कहना आवश्यक है कि मार्कण्डेय ने शौरसेन-पैशाची के जो लक्षण दिए हैं उन पर से शौरसेन-पैशाची का १. वर्तमान मदुरा और कन्याकुमारी के आसपास के प्रदेश का नाम पाण्ड्य, पञ्चनद प्रदेश का नाम केकय, अफगानिस्थान के वर्तमान वाल्खनगरवाले प्रदेश का नाम वाहीक, दक्षिण भारत के पश्चिम उपकूल का नाम सह्य, नर्मदा के उत्पत्ति-स्थान के निकटवर्ती देश का नाम कुन्तल, वर्तमान काबूल और पेशावरवाले प्रदेश का नाम गान्धार, हिमालय के निम्न-वर्ती पार्वत्य प्रदेशविशेष का नाम हैव और दक्षिण महाराष्ट्र के पार्वत्य अञ्चल का नाम कन्नोजन है। २. "प्रकृतिः शौरसेनी" (प्राकृतप्रकाश १०, २)। ३. “सस्य शः", "रस्य लो भवेत्", "चवर्गस्योपरिष्टाद् यः" "कृतादिषु कडादयः", "क्षस्य च्छ', "स्थाविकृतेः ट्रस्य श्तः", "त्तत्थयोः श ऊध्वं स्यात्", "अतः सोरो (?) त्" (माकुतसर्वस्व, पृष्ठ १२६)। For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) शौरसेनी भाषा के साथ कोई भी संबन्ध प्रतीत नहीं होता, क्योंकि कैकय-पैशाची के साथ शौरसेन पैशाची के जो भेद उन्होंने बतलाए हैं वे मागधी भाषा के ही अनुरूप हैं न कि शौरसेनी के इससे इलको शोर सेन- पैशाचा न कह कर मागव पैशाची कहना ही संगत जान पड़ता है। प्राकृत ' वैयाकरणों के मत से पैशाची भाषा का मूल शौरसेनी अथवा संस्कृत भाषा है, किन्तु हम पहले यह भलीभाँति दिखा चुके हैं कि कोई भी प्रादेशिक कथ्य भाषा, संस्कृत अथवा अन्य प्रादेशिक भाषा से उत्पन्न नहीं है, परन्तु यह उसी कथ्य अथवा प्राकृत भाषा से उत्पन्न हुई है जो बंदिक युगे में उस प्रदेश में प्रचलित थी । इस लिए पैशाची भाषा मूल संस्कृत वा शोरलेनी नहीं, किन्तु वह प्राकृत भाषा ही है जो वैदिक युग में भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिम प्रान्त की या अफगानिस्थान के पूर्व प्रान्त वर्ती प्रदेश की कथ्य भाषा थी । प्रथम युग का पैशाचं भाषा का कोई निदर्शन साहित्य में नहीं मिलता है। गुणाक्य की बृहत्कथा संभवतः इसी प्रथम युग की पैशाचा भाषा में रची गई थी; किन्तु वह आजकल उपलब्ध नहीं है। इस समय हम व्याकरण, नाटक और काव्य में पैशाची भाषा के जो निदर्शन पाते हैं वह मध्ययुग की पैशाची भाषा का है । मध्ययुग की यह पैशाची भाषा ख्रिस्त की द्वितीय शताब्दी से पाँचवीं शताब्दी पर्यन्त समय । प्रचलित थी । पैशाची भाषा का शौरसेनी भाषा के साथ जिस-जिस अंश में भेद है वह सामान्य रूप से नीचे दिया जाता है । इसके सिवा अन्य सभी अंशों में वह शौरसेनी के ही समान है। इससे इसके बाकी के लक्षण शौरसेनी के प्रकरण से जाने जा सकते हैं । लक्षण वर्ण-भेद १. ज्ञ, न्य और राय के स्थान में ज्ञ होता है; यथा - ज्ञा = पञ्ञा; ज्ञान = ज्ञानः कन्यका = कञ्ञ का अभिमन्यु = अभिमन्युः पुण्य = पुष्ञ । २. य और न के स्थान में न होता है; जैसे- गुण = गुन; कनक = कनक | ३. त और द की जगह त होता है; जैसे-भगवतो = भगवती; शत- सत; मदन = मतन; देव=तेव । ४. लकार में बदलता है यथा-सील-सीक कुज कुळ । ५. हु की जगह टु तु और होता है। जैसे—कुटुम्बक, कुटुम्बरु, कुतुम्बक । ६. महाराष्ट्री के लक्षण में असंयुक्त व्यञ्जन परिवर्तन के १ से १३, १५ और १६ अंकवाले जो नियम बतलाए भट - भट; मठ = मठ; गरुड = गरुडः प्रतिभास = पतिभास; शबल = सबळ; यशस् = यसः करणीय = करणाय; अंगार = इंगार; या आदि शब्दों का परिणत होता है ति में यथा-पाट गए हैं वे शौरसेनी भाषा में लागू होते हैं, किन्तु पैशाची मैं नहीं; यथा - लोक = ळोक; शाखा = साखा; कन६ = कनक; शपथ = सपथ; रेफ = रेफ दाह = दाह । याविस सदृश सविस । ; ७. नाम-विभक्ति १. अकारान्त शब्द की पञ्चमी का एकवचन बातो और धातु होता है; जैसे -जिनातो, जिनातु । आख्यात १. शौरसेनी के दि और प्राय की जगह विरागच्छति गच्छते रमति, रमते । २. भविष्य काल में स्सि के बदल एय्य होता है; जैसे—भविष्यति = हुवेय्य | ३. भाव और कर्म में ईम तथा इज के स्थान में इय्य होता है; यथा - पश्यते = पठिय्यते, हसिय्यते । कृदन्त = १. या प्रत्यय के स्थान में कहीं न ओर कहीं खून ओर न होते हैं: यथा पहिला पठितून गत्वा गन्तून, तून त्थून = नष्ट्वा - नत्थून, नट्टून; तष्ट्वा तत्थून, तद्दून । For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) (३) चूलिकापैशाची चलिकापैशाची भाषा के लक्षण आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत-व्याकरण में और पंडित लक्ष्मीधर ने अपनी षडभाषाचन्द्रिका में दिए हैं। आचार्य हेमचन्द्र के कुमारपालचरित और काव्यानुशासन में इस भाषा निदर्शन के निदर्शन पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त हम्मीरमदमर्दन नामक नाटक में और दो-एक छोटे-छोटे षड भाषास्तोत्रों में भी इसके कुछ नमूने देखने में आते हैं। प्राकृतलक्षण, प्राकृतप्रकाश, संक्षिप्तसार और प्राकृतसर्वस्व वगैरह प्राकृत व्याकरणों में और संस्कृत के अलंकार अन्थों में चूलिकापैशाची का कोई उल्लेख नहीं है: अथ च आचार्य हेमचन्द्र ने और पं. लक्ष्मीधर ने चूलिकापैशाची के जो लक्षण दिए हैं वे चंड, वररुचि, क्रमदीश्वर और मार्कण्डेय-प्रभृति वैयाकरणों ने पैशाची भाषा के लक्षणों में ही अन्तर्गत किए हैं। इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि उक्त वैयाकरण-गण चूलिकापैशाची को पैशाची भाषा के अन्तत पैशाची में इसका ही मानते थे. स्वतन्त्र भाषा के रूप में नहीं। आचार्य हेमचन्द्र भी अपने अभिधानचिन्तामणि नामक अन्तर्भाव संस्कृत कोष ग्रन्थ के "भाषाः षट् संस्कृतादिकाः (काएड २,१९६) इस वचन की "संस्कृत-प्राकृत-मागधी-शौरसेनी पैशाच्यपभ्रंशलक्षणाः' यह व्याख्या करते हुए चूलिकापैशाची का अलग उल्लेख नहीं करते। इससे मालूम पड़ता है कि वे भी चूलिकापैशाची को पैशाची का ही एक भेद मानते हैं। हमारा भी यही मत है। इससे यहाँ पर इस विषय में पैशाची भाषा के अनन्तरोक्त विवरण से कुछ अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं रहती। सिर्फ आचार्य हेमचन्द्र ने और उन्हीं का पूरा अनुसरण कर पं० लक्ष्मीधर ने इस भाषा के जो लक्षण दिए हैं वे नीचे उद्धृत किए जाते हैं। इनके सिवा सभी अंशों में इस भाषा का पैशाची से कोई पार्थक्य नहीं है। लक्षण १. वर्ग के तृतीय और चतुर्थ अक्षरों के स्थान में क्रमशः प्रथम और द्वितीय होता है'; यथा-नगर = नकर, व्याघ्र वक्ख, राजाराचा, निभेर-निच्छर, तडाग = तटाक, ढका%Dठका, मदन% मतन, मधुर-मथुर, बालक = पालक, भगवती = फकवती। २. र के स्थान में वैकल्पिक ल होता है; यथा-रुद्र = लुद्द, रुद्द । (४) अर्धमागधी भगवान महावीर अपना धर्मोपदेश अर्धमागधी भाषा में देते थे। इसी उपदेश के अनुसार उनके समसामयिक गणधर श्री सुधर्मस्वामी ने अर्धमागधी भाषा में ही आचाराङ्ग-प्रभृति सत्र-ग्रन्थों की रचना की थी। ये ग्रन्थ उस समय लिखे नहीं गए थे, परन्तु शिष्य परम्परा से कण्ठ-पाठ द्वारा संरक्षित होते थे। दिगम्बर जैनों के मत से ये समस्त ग्रन्थ विलुप्त प्राचीन जैन सूत्रों की हो गए है, पर हो गए हैं, परन्तु श्वेताम्बर जैन दिगम्बरों के इस मन्तव्य से सहमत नहीं हैं। श्वेताम्बरों के मत के भाषा प्रर्धमागधी ___ अनुसार ये सूत्र-ग्रन्थ महावीर-निर्वाण के बाद ९८० अर्थात् ख्रिस्ताब्द ४५४ में बलभी (वर्तमान वळा, काठियावाड़) में श्रादेवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने वर्तमान आकार में लिपिबद्ध किए। उस समय लिखे जाने पर भी इन ग्रन्थों की भाषा प्राचान है। इसका एक कारण यह है कि जैसे ब्राह्मणों ने कण्ठ-पाठ-द्वारा बहु-शताब्दीपर्यन्त वेदों की रक्षा की थी वैसे ही जैन मुनियों ने भी अपनी शिष्य-परम्परा से मुख-पाठ द्वारा करीब एक हजार वर्ष तक अपने इन पवित्र ग्रन्थों को याद रखा था। दूसरा यह है कि जैन धर्म में सूत्र-पाठों के शुद्ध उच्चारण के लिए खूब जोर दिया गया है, यहाँ तक कि मात्रा या अक्षर के भी अशुद्ध या विपरीत उच्चारण करने में दोष माना गया है। तिस पर भी सूत्रग्रन्थों की भाषा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से इस बात को स्वीकार करना ही पड़ेगा कि भगवान महावीर के समय की अर्ध १. अन्य वैयाकरणों के मत से यह नियम शब्द के आदि के अक्षरों में लागू नहीं होता है (हे० प्रा०४, ३२७)। २. "भगवं च णं भद्धमाहीए भासाए धम्ममाइक्खई" (समवायाङ्ग सूत्र, पत्र ६०)। "तए णं समणे भगवं महाबीरे कूरिणप्रस्स रएणो भिभिसारपूत्तस्स...."मद्धमागहाए भासाए भासाइ।..."'सा वि य णं अद्धमागहा भासा तेसि सव्वेसि मारियमणारियाणं प्रप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमई" (प्रौपपातिक सूत्र)। ३. "मत्थं भासइ परिहा, सुत्तं गर्थति गणहरा निउणं" (अावश्यकनिपुंक्ति)। For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) मागधी भाषा के इन पन्थों में, अज्ञावभाव से दी क्यों न हो, भाषा-विषयक परिवर्तन अवश्य हुआ है। यह परिवर्तन होना असंभव भी नहीं है, क्योंकि ये सूत्र ग्रन्थ वेदों की तरह शब्द प्रधान नहीं, किन्तु अर्थ प्रधान हैं। इतना ही नहीं, बल्कि ये ग्रन्थ जन-साधारण के बोध के लिये ही उस समय की कथ्य भाषा में रचे गये थे और कथ्य भाषा में समय गुजरने के साथ-साथ अवश्य होनेवाले परिवर्तन का प्रभाव कण्ठ-पाठ के रूप में स्थित इन सूत्रों की भाषा पर पड़ना, अन्ततः उ उस समय के लोंगो को समझाने के उद्देश्य से भी आश्चर्यकर नहीं है। इसके सिवा भाषा परिवर्तन का यह भी एक मुख्य कारण माना जा सकता है कि भगवान् महावीर के निर्वाण से करीब दो सौ वर्ष के बाद (स्त्रिस्त-पूर्व ३१०) चन्द्रगुप्त के राजत्वकाल में मगध देश में बारह वर्षो का सुदीर्घ अकाल पड़ने पर साधु लोगों को निर्वाद के लिए समुद्र वीर-वर्ती प्रदेश (दक्षिण देश ) में जाना पड़ा था । उस समय वे सूत्र ग्रन्थों का परिशीलन न कर सकने के कारण उन्हें भूल से गए थे । इससे अकाल के बाद पाटलिपुत्र में संघ ने एकत्रित होकर जिस-जिस साधु को जिस-जिस अङ्ग ग्रन्थ का जो-जो अंश जिस-जिस आकार में याद रह गया था, उस उस से उस उस अङ्ग-ग्रन्थ के उस उस अंश को उस-उस रूप में प्राप्त कर ग्यारह अङ्ग-प्रन्थों का संकलन किया । इस घटना से जैसे अङ्गग्रन्थों की भाषा के परिवर्तन का कारण समझ में आ सकता है, वैसे इन ग्रन्थों की अर्धमागधी भाषा में मगध के पार्श्ववर्ती प्रदेशों की भाषाओं की तुलना में दूरवर्ती महाराष्ट्र प्रदेश की भाषा का जो अधिक साम्य देखा जाता है उसके कारण का भी पता चलता है । जब ऐतिहासिक प्रमाणों से यह बात सिद्ध है कि दक्षिण प्रदेश में प्राचीन काल में जैन धर्म का अच्छी तरह प्रचार और प्रभाव हुआ था तब यह अनुमान करना अयुक्त नहीं है कि उक्त दीर्घकालिक अकाल के समय साधु लोग समुद्र-वीर-वर्ती इस दक्षिण देश में ही गए थे और वहाँ उन्होंने उपदेश-द्वारा जैन धर्म का प्रचार किया था। यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं है कि उक्त साधुओं को दक्षिण प्रदेश में उस समय जो भाषा प्रचलित थी उसका अच्छी तरह ज्ञान हो गया था, क्योकि उसके विना उपदेशद्वारा धर्म-प्रचार का कार्य वे कर ही नहीं सकते थे। इससे यह असंभव नहीं है कि उन साधुओं की इस नवपरिचित भाषा का प्रभाव, उनके कण्ठ-स्थित सूत्रों की भाषा पर भी पड़ा था। इसी प्रभाव को लेकर उनमें से कईएक साधु-लोग पाटलिपुत्र के उक्त संमेलन में उपस्थित हुए थे, जिससे अङ्गों के पुनः संकलन में उस प्रभाव ने न्यूनाधिक अंश में स्थान पाया था । उक्त घटना से करीब आठ सौ वर्षों के बाद बलभी (सौराष्ट्र) और मथुरा में जैन ग्रन्थों को लिपिबद्ध करने के लिए मुनि-संमेलन किए गए थे, क्योंकि इन सूत्र-ग्रन्थों का और उस समय तक अन्य जो जैन ग्रन्थ रचे गए थे उनका भी क्रमशः विस्मरण हो चला था और यदि यही दशा कुछ अधिक समय तक चालू रहती तो समय जैन शास्त्रों के छोप हो जाने का डर था जो वास्तव में सत्य था। संभवतः इस समय तक जैन साधुओं का भारतवर्ष के अनेक प्रदेशों में विस्तार हो चुका था और इन समस्त प्रदेशों से अल्पाधिक संख्या में आकर साधु लोगों ने इन संमेलनों में योगदान किया था। भिन्न-भिन्न प्रदेशों से आगत इन मुनियों से जो ग्रन्थ अथवा प्रन्ध के अंश जिस रूप में प्राप्त हुआ उसी रूप में वह लिपिबद्ध किया गया। उक्त मुनियों के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में चिरकाल तक विचरने के कारण उन प्रदेशों को भिन्न-भिन्न भाषाओं का, १. पुदिना कालिग मोबाला पापमुदयं जिएवरेह ॥" चारदिनकर में श्रीवर्धमानपुरद्वारा प्रदत की हुई प्राचीन गाया)। "बालश्रीमन्दमूर्खाणां नृणां चारित्राहि क्षणाम् । धनुग्रहार्थं तत्वतः सिद्धान्तः प्राकृतः कुतः ॥' (हरिभद्रसूरि की क टीका में और हेमचन्द्र के काव्यानुशासन में उद्धृत प्राचीन टोक) । २. देखो Annual Report of Asiatic Society, Bengal, 1896 में डॉ हालि का लेख । ३. xx स्मिन् काले कराने कालराविद् तु तदा सानो विस्मृतं तम् निर्वाहार्थ सास्ती नीरन अनभ्यसनतो नश्यस्थीत मोमतामपि ।।१६।। वाध्ययनोद्देशायासीद्यस्य तदाददे ॥२७॥ तदायादनिमित्तं च तस्य विधि विचिन्तयन्॥४६॥ नेपालदेशमार्गस्थ भद्रबाहु च पूर्विणम् । ज्ञात्वा संधः समाह्लातुं ततः प्रैषीन्मुनिद्वयम् ॥५६॥ सबैकादशाङ्ग श्रोमेल संयोज्य पाटलीपुत्रे दुष्काला For Personal & Private Use Only ( स्थविरावलीचरितं, सगं ९ ) । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) उच्चारणों का और विभिन्न प्राकृत भाषाओं के व्याकरणों का कुछ-न-कुछ अलक्षित प्रभाव उनके कण्ठ-स्थित धर्म-ग्रन्थों की भाषा पर भी पड़ना अनिवार्य था। यही कारण है कि अंग-ग्रन्थों में, एक ही अङ्ग-प्रन्थ के भिन्न-भिन्न अंशों में और कहीं-कहीं तो एक ही अंग-ग्रन्थ के एक ही वाक्य में परस्पर भाषा-भेद नजर आता है। संभवतः भिन्न-भिन्न प्रदेशों की भाषाओं के प्रभाव से युक्त इसी भाषा-भेद को लक्ष्य में लेकर ख्रिस्त की सप्तम शताब्दी के ग्रन्थकार श्रीजिनदासगणि ने अपनी निशीथचूर्णि में अर्धमागधी भाषा का "अट्ठारसदेसीभासानिययं वा अद्धमागह" यह वैकल्पिक लक्षण किया है। भाषा-परिवर्तन के उक्त अनेक प्रबल कारण उपस्थित होने पर भी अंग-ग्रन्थों की अर्धमागधी भाषा में, पाटलिपुत्र के संमेलन के बाद से, आमूल वा अधिक परिवर्तन न होकर उसके बदले जो सूक्ष्म या अल्प ही भाषा-भेद हुआ है और सैकड़ों की तादाद में उसके प्राचीन रूप अपने असल आकार में जो संरक्षत रह सके हैं उसका श्रेय सूत्रों के अशुद्ध उच्चारण आदि के लिए प्रदर्शित पाप-बन्ध के उस धामिक नियम को है जो संभवतः पाटलीपुत्र के संमेलन के बाद निर्मित या दृढ़ किया गया था। ___ यहाँ पर प्रसंग-वश इस बात का उल्लेख करना उचित प्रतीत होता है कि समवायांग सूत्र में निर्दिष्ट अंग-ग्रन्थसम्बन्धी विषय और परिमाण का वर्तमान अङ्ग-प्रन्थों में कहीं-कहीं जो थोड़ा-बहुत क्रमशः विसंवाद और ह्रास पाया जाता है और अङ्ग-ग्रन्थों में ही बाद के उपाङ्ग-ग्रन्थों का और बाद की घटनाओं का जो उल्लेख दृष्टिगोचर होता है उसका समाधान भी हमको उक्त सम्मेलनों की घटनाओं से अच्छी तरह मिल जाता है। *समवायाङ्ग सूत्र, व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, औपपातिक सूत्र और प्रज्ञापना सूत्र में तथा अन्यान्य प्राचीन जैन ग्रन्थों में जिस भाषा को अर्धमागधी नाम दिया गया है, "स्थानाङ्गसूत्र और अनुयोगद्वारसूत्र में जिस भाषा को 'ऋषिभाषिता' कहा आ गया है और सम्भवतः इसी 'ऋषिभाषिता' पर से आचार्य हेमचन्द्र आदि ने जिस. भाषा की 'आ - (ऋषियों की भाषा), संज्ञा रखी है वह वस्तुतः एक ही भाषा है अर्थात् अर्धमागधी, ऋषिभाषिता और आर्ष ये तीनों एक ही भाषा के भिन्न-भिन्न नाम हैं, जिनमें पहला उसके उत्पत्ति-स्थान से और बाकी के दो उस भाषा को सर्व-प्रथम साहित्य में स्थान देनेवालों से सम्बन्ध रखते हैं। जैन सूत्रों की भाषा यही अर्धमागधी, ऋषिभाषिता या आर्ष है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में आर्ष प्राकृत के जो लक्षण और उदाहरण १. समवायाङ्ग सूत्र, पत्र १०६ से १२५ । २. "जहा पन्नवणाए पढमए पाहारुद्देसए' ( व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र १, १-पत्र १६ )। ३. देखो, स्थानाङ्ग सूत्र, पत्र ४१० में वर्णित निलव-स्परूप । ४. देखो, पृष्ठ १६ में दिया हुआ समवायाङ्गसूत्र और पोपपातिकसूत्र का पाठ। "देवाएं भंते ! कयराए भासाए भासंति ? कयरा वा भासा भासिजमारणी विसिस्सति ? गोयमा! देवाएं अद्धमागहाए भासाए भासंति, सावि य णं अद्धमागहा भासा भासिज्जमाणो विसिस्सति ।" (व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ५, ४–पत्र २२१)। "से कि तं भासारिया ? भासारिया जे णं अद्धमागहाए भासाए भासंति' (प्रज्ञापनासूत्र १-पत्र ६२)। मगहद्धविसयभासारिणबद्धं अद्धमागह, अट्ठारसदेसीभासारिणययं वा अद्धमागह' (निशोथचूणि )। "पारिसवयणे सिद्धं देवाणं अद्धमागहा वाणी" ( काव्यालंकार की नमिसाधुकृतटीका २, १२) । "सर्वार्धमागधीं सर्वभाषासु परिणामिनीम् । सर्वपा सर्वतो वाचं सावंज्ञों प्ररिणदध्महे ।।" (वाग्भटकाव्यानुशासन, पृष्ठ २)। ५. "सकता पागता चेव दुहा भणितीमो आहिया । सरमंडलम्मि गिज्जते पसत्था इसिभासिता ॥” (स्थानाङ्गसूत्र ७-पत्र २६४)। "सक्या पायया चेव भणिईओ होंति दोएिण वा। सरमंडलम्मि गिज्जते पसत्था इसिभासिआ॥" ( अनुयोगद्वारसूत्र, पत्र १३१ ) । ६. देखो, हेमचन्द्र-प्राकृतव्याकरण का सूत्र १, ३। "प्रार्षोत्थमार्षतुल्यं च द्विविधं प्राकृतं विदुः" ( प्रेमचन्द्रतकंवागीश द्वारा काव्यादर्शटीका १, ३३ में अद्भुत किया हुआ पद्यांश )। For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) बताए हैं उनसे तथा "अत एत सौ पुंसि मागध्याम्' (हे० प्रा० ४, २८७) इस सूत्र की हत्या में जो “यदपि "पोराणमद्धमागहभासानिययं हवइ सुत्तं" इत्यादिना पार्षस्य अर्धमागधभाषानियतत्वमाम्नायि वृद्धस्तदपि प्रायोऽस्यैव विधानात्, न वक्ष्यमाणलक्षणस्य" यह कहकर उसी के अनन्तर जो दशवैकालिक सूत्र से उद्धृत “कयरे आगच्छइ, से तारिसे जिइंदिए" यह उदाहरण दिया है उससे उक्त बात निर्विवाद सिद्ध होती है। डॉ. जेकोबी ने प्राचीन जैन सूत्रों की भाषा को प्राचीन महाराष्ट्री कहकर 'जैन महाराष्ट्री' नाम दिया है। डॉ. पिशल ने अपने सुप्रसिद्ध प्राकृत-व्याकरण में डॉ. जेकोबी की इस बात का सप्रमाण खंडन किया है और यह सिद्ध किया है कि आर्ष और अर्धमागधी इन दोनों में परस्पर भेद नहीं है, एवं प्राचीन जैन सूत्रों की-गद्य और पद्य दानों की भाषा परम्परागत मत के अनुसार अर्धमागधी है। परवर्ती काल के जैन प्राकृत ग्रन्थों की भाषा अल्पांश में अर्धमागधी की और अधिकांश में महाराष्ट्री की विशेषताओं से युक्त होने के कारण 'जैन महाराष्ट्री' कही जा सकती है; परन्तु प्राचीन जैन सूत्रों की भाषा को, जो शौरसेनी आदि भाषाओं की अपेक्षा महाराष्ट्री से अधिक साम्य रखती हुई भी, अपनी उन अनेक खासियतों से परिपूर्ण है जो महाराष्ट्र आदि किसी प्राकृत में दृष्टिगोचर नहीं होती हैं, यह ( जैन महाराष्ट्री) नाम नहीं दिया जा सकता। पंडित बेचरदास अपने गुजराती प्राकृत-व्यारकण की प्रास्तावना में जैन सूत्रों की अर्धमागधी भाषा को प्राकृत (महाराष्ट्री) सिद्ध करने की विफल चेष्टा करते हुए डॉ. जेकोबी से भी दो कदम आगे बढ़ गए हैं, क्योंकि डॉ. जेकोबी जब इस भाषा को प्राचीन महाराष्ट्री-साहित्य-निबद्ध महाराष्ट्री से पुरातन महाराष्ट्री बताते हैं तब पंडित बेचरदास, प्राकृत भाषाओं के इतिहास जानने की तनिक भी परवाह न रखकर, अर्वाचीन महाष्ट्री से इस प्राचीन अर्धमागधी महाराष्ट्री से अर्धमागधी को अभिन्न सिद्ध करने जा रहे हैं ! पंडित बेचरदास ने अपने सिद्धान्त के समर्थन में जो भिन्न है दलीलें पेश की हैं वे अधिकांश में भ्रान्त संस्कारों से उत्पन्न होने के कारण कुछ महत्त्व न रखती हुई भी कुतूहल-जनक अवश्य हैं। उन दलीलों का सारांश यह है-(१) अर्धमागधी में महाराष्ट्री से मात्र दो-चार रूपों की ही विशेषता; (२) आचार्य हेमचन्द्र का इस भाषा के लिए स्वतन्त्र व्याकरण या शौरसेनी आदि की तरह अलग-अलग सूत्र न बनाकर प्राकृत ( महाराष्ट्री ) या आर्ष प्राकृत में ही इसको अन्तर्गत करना; (३) इसमें मागधी भाषा की कतिपय विशेषताओं का अभाव; (४) निशीथचूर्णिकार के अर्धमागधी के दोनों में एक भी लक्षण की इसमें असंगति; (५) प्राचीन जैन ग्रन्थों में इस भाषा का 'प्राकृत' शब्द से निर्देश; (६) नाट्य-शान में और प्राकृत-व्याकरणों में निदिष्ट अर्धमागधी के साथ प्रस्तुत अर्धमागधी की असमानता। १. मागधी भाषा में प्रकारान्त पुंलिंग शब्द के प्रथमा के एकवचन में 'ए' होता है। २. इसका अर्थ यह है कि प्राचीन प्राचार्यों ने "पुराना सूत्र अर्धमागधी भाषा में नियत है" इत्यादि वचन-द्वारा प्रापं भाषा को जो अर्धमागधी भाषा कही है वह प्रायः मागधी भाषा के इसी एक एकारवाले विधान को लेकर, न कि पागे कहे जानेवाले मागधी भाषा के अन्य लक्षण के विधान को लेकर । ३. इसी वचन के आधार पर डॉ. हॉनलि का चण्ड-कृत प्राकृतलक्षण के इन्ट्रोडक्शन (पृष्ठ १८-१९) में यह लिखना कि हेमचन्द्र के मत में 'पोराण' पार्ष प्राकृत का एक नाम है, भ्रम-पूर्ण है, क्योंकि यहां पर 'पोराण' यह सूत्र का ही विशेषण है, भाषा का नहीं। ४. पावश्यकसूत्र के पारिष्ठापनिकाप्रकण ( दे० ला० पु० फं० पत्र ६२८ ) में यह संपूर्ण गाथा इस तरह है : "पुण्यावरसंजुत्तं वेरग्गकर सतंतमविरुद्धं । पोराणमदमागहभासानिययं हवइ सुत्तं ।।" %. Kalpa Sutra, Sacred Books of the East, VOL. XII. ६. Grammatik der Prakrit-Sprachen, 16-17. ७. जैसे प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत-व्याकरण में महाराष्ट्री भाषा के प्रथं में प्राकृत शब्द का प्रयोग किया है वैसे पंडित बेचरदास ने भी अपने प्राकृत-व्याकरण में, जो केवल हेमाचार्य के ही प्राकृत-व्याकरण के आधार पर रचा गया है, सर्वत्र साहित्यिक महाराष्ट्री के अर्थ में ही प्राकृत शब्द का व्यवहार किया है। For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दलील के उत्तर में हमें यहाँ अधिक कहने की कोई आवश्यकता नहीं, इसी प्रकरण के अन्त में महाराष्ट्री से अर्धमागधी की विशेषताओं की जो संक्षिप्त सूची दी गई है वही पर्याप्त है। इसके अतिरिक्त डॉ बनारसीदास की 'अर्धमागधी रीडर', मुनि श्रीरत्नचन्द्रजी की 'जैन सिद्धान्त कौमुदी' और डॉ. पिशल का 'प्राकृत-व्याकरण' मौजूद है; जिनमें क्रमशः अधिकाधिक संख्या में अर्धमागधी की विशेषताओं का संग्रह है। आचार्य हेमचन्द्र के ही प्राकृत-व्याकरण के 'आर्षम्' सूत्र से, इसकी स्पष्ट और सर्व-भेद-माही व्यापक व्याख्या से और जगह-जगह किए हुए आर्ष के सोदाहरण उल्लेखों से दूसरी दलील की निर्मलता सिद्ध होती है। यदि आचार्य हेमचन्द्र द्वारा ही निर्दिष्ट की हुई दो-गक विशेषताओं के कारण चूलिकापैशाची अलग भाषा मानी जा सकती है, अथवा आठ-दस विशेषताओं को लेकर शौरसेनी, मागधी और पैशाची भाषाओं को भिन्न-भिन्न भाषा स्वीकार करने में आपत्ति नहीं की जा सकती, तो कोई वजह नही है कि उसी वैयाकरण के द्वारा प्रकारान्तर से अवच स्पष्ट रूप से बताई हई वैसी ही अनेक विशेषताओं के कारण आर्ष या अर्धमागधी भी भिन्न भाषा न कही जाय । तीसरी दलाल की जड़ यह भ्रान्त संस्कार है कि 'वही भाषा अर्धमागधी कही जाने योग्य हो सकती है जिसमें मागधी भाषा का आधा अंश हो'। इसी भ्रान्त संस्कार के कारण चौथी दलील में उद्धृत निशीथचूर्णि के अर्धमागधी के प्रथम लक्षण का सत्य और सीधा अर्थ भी उक्त पंडितजी की समझ में नहीं आया है। इस भ्रान्त संस्कार का निराकरण और निशीथचूर्णिकार द्वारा बताए हुए अर्धमागधी के प्रथम लक्षण का और उसके वास्तविक अर्थ का निर्देश इसी प्रकरण में आगे चलकर आर्धमागधी के मूल की आलोचना के समय किया जायगा, जिससे इन दोनों दलीलों के उत्तरों को यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं है। पाँचवीं दलील भी प्राचीन आचार्यों के द्वारा जैन सूत्र-ग्रन्थों की भाषा के अर्थ में प्रयुक्त किए हुए 'प्राकृत' शब्द को 'महाराष्ट्री' के अर्थ में घसीटने से ही हुई है। मालूम पड़ता है, पंडितजी ने जैसे अपने व्याकरण में 'प्राकृत' शब्द को केवल महाराष्ट्री के लिए रिजर्व कर रखा है वैसे सभी प्राचीन आचार्यों के 'प्राकृत' शब्द को भी वे एकमात्र महाराष्ट्री के ही अर्थ में मुकरर किया हुआ समझ बैठे हैं। परन्तु यह समझ गलत है। प्राकृत शब्द का मुख्य अर्थ है प्रादेशिक कथ्य भाषा-लोक-भाषा। प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति भी वास्तव में इसी अथे से संगति रखती है यह हम पहले ही अच्छी तरह प्रमाणित कर चुके हैं। ख्रिस्त की षष्ठ शताब्दी के आचार्य दण्डी ने अपने काव्यादर्श में 'शौरसेनी च गौडी च लाटी चान्या च तादृशी। याति प्राकृतमित्येवं व्यवहारेषु संनिधिम् ॥' (१, ३५)। इन खले शब्दों में यही बात कही है। इससे भी यह स्पष्ट है कि प्राकृत शब्द मुख्यतः प्रादेशिक लोक-भाषा का ही वाचक है और इससे साधारणतः सभी प्रादेशिक कथ्य भाषाओं के अर्थ में इसका प्रयोग होता आया है। दण्डी के समय तक के सभी प्राचीन ग्रंथों में इसी अर्थ में प्राकृत शब्द का व्यवहार देखा जाता है। खुद दंडी ने भी महाराष्ट्री भाषा में प्राकृत शब्द के प्रयोग को 'प्रकृष्ट' शब्द से विशेषित करते हुए इसी बात का समर्थन किया है। दण्डी के महाराष्ट्री को 'प्रकृष्ट प्राकृत' कहने के बाद ही से विशेष प्रसिद्धि होने के कारण, महाराष्ट्री के अर्थ में 'प्रकृष्ट' शब्द को छोड़ कर केवल प्राकृत शब्द का भी प्रयोग हेमचन्द्र आदि, किन्तु दण्डी के पीछे के ही विद्वानों ने, कहीं कहीं किया है। पंडितजी ने वररुचि के समय से लेकर पीछले आचार्यों का महाराष्ट्री के ही अर्थ में प्राकृत शब्द का व्यवहार करने की जो बात उक्त टिप्पणी में ही लिखी है उससे प्रतीत होता है कि उन्होंने न तो वररुचि का ही व्याकरण देखा है और न उनके पीछे के आचार्यों के ही अन्थों का निरीक्षण करने की कोशिश की है, क्योंकि वररुचि ने तो 'शेष महाराष्ट्रीवत्' (प्राकृतप्रकाश १२, १२) कहते हुए इस अर्थ में महाराष्ट्री शब्द का ही प्रयोग किया है, न कि प्राकृत शब्द का । आचार्य हेमचन्द्र ने भी कुमारपालचरित में 'पाइमाहि भासाहि' (१,१) में बहुवचन का निर्देश कर और देशीनाममाला (१, ४) में 'विशेष' शब्दलगाकर 'प्राकृत' का प्रयोग साधारण १. 'आर्ष प्राकृतं बहुलं भवति । तदपि यथास्थानं दर्शयिष्यामः । आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते' (हे० प्रा० १, ३)। २. देखो, हेमचन्द्र-प्राकृत व्याकरण के १, ४६; १, ५७ १, ७६; १, ११, १, ११९ १,१५१, १, १७७१, २२८१ २५४, २, १७२, २१, २, ८६, २, १०१, २, १०४० २, १४६; २, १७४० ३, १६२९ मौर ४, २८७ सूत्रों की व्याख्या। ३. 'ऊपरना वधा उल्लेखोमां वपरायेलो 'प्राकृत शब्द प्राकृत भाषानो सूचक छ, अनुयोगद्वारमा 'प्राकृत' शब्द प्राकृत भाषाना अर्थमां वपरायेलो छे. (पृ. १३१ स०)। वैयाकरण वररुचिना समयथी तो ए शब्द ज अर्थमां वपरातो आव्यो छे, अने ए पछीना आचार्योए पण ए शब्दने एज अर्थमां वापरेलो छ, माटे कोईए नहीं ए शब्दने मरडवो नहीं।' (प्राकृतव्याकरण, प्रवेश, पूठ २६ टिप्पणी)। ४. 'महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः' (काव्यादर्श १, ३४)। For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) लोक-भाषा के ही अर्थ में ही किया है। आचार्य दण्डी और हेमचन्द्र ही नहीं, बल्कि ख्रिस्त की नववीं शताब्दी के कवि राजशेखर', ग्यारहवीं शताब्दी के नमिसाधु', उन्नीसवीं शताब्दी के प्रेमचन्द्रतर्कवागीश प्रभृति प्रभूत जैन और जैनेतर विद्वानों ने इसी अर्थ में प्राकृत शब्द का प्रयोग किया है। इस तरह जब यह अभ्रान्त सत्य है कि प्राचीन काल से लेकर आजतक प्राकृत शब्द प्रादेशिक कथ्य भाषा के अर्थ में व्यवहृत होता आया है और इसका मुख्य और प्राचीन अर्थ साधारणतः सभी और विशेषतः कोई भी प्रादेशिक भाषा है, तब प्राचीन आचार्यों द्वारा भगवान महावीर की उपदेश-भाषा के और उनके समसामयिक शिष्य सुधर्मस्वामि-प्रणीत जैन सूत्रों की भाषा के ही अभिप्राय में प्रयुक्त किए हुए 'प्राकृत' शब्द का 'अर्ध मगध-प्रदेश (जहाँ भगवान महावीर और सुधर्मस्वामी का उपदेश और विचरण होना प्रसिद्ध है) की लोक-भाषा (अर्धमागधी) इस सुसंगत अर्थ को छोड़ कर मगध से सुदूरवर्ती प्रदेश 'महराष्ट्र (जहाँ न तो भगवान महावीर का और न सुधर्मस्वामी का ही उपदेश या विहार होना जाना गया है) की भाषा (महाराष्ट्री) यह असंगत अर्थ लगाना, अपनी हीन विवेचना-शक्ति का परिचय देना है। इसी सिलसिले में पंडितजी ने अनुयोगद्वार सूत्र की एक अपूर्ण गाथा उद्धृत की है। यदि उक्त पंडितजी अनुयोगद्वार की गाथा के पूर्वार्ध का यहाँ पर उल्लेख करने के पहले इस गाथा के मूल स्थान को ढूंढ पाते और वे प्राकृत शब्द से जिस भाषा (महाराष्ट्री) का ग्रहण करते हैं इसके और प्राचीन सूत्रों की अर्धमागधी भाषा के इतिहास को न जानते हुए भी सिर्फ उत्तरार्ध-सहित इस गाथा पर ही प्रकरण-संगति के साथ जरा गौर से विचार करने का कष्ट उठाते, तो हमारा यह विश्वास है कि वे कम से कम इस गाथा का यहाँ हवाला देने का साहस और अनुयोगद्वार के कर्त्ता पर अर्धमागधी के विस्मरण का व्यङ्ग-बाण छोड़ने की धृष्टता कदापि नहीं कर पाते। क्योंकि इस गाथा का मूल स्थान है तृतीय अंग-प्रन्थ जिसका नाम स्थानाङ्ग-सूत्र है। इसी स्थानाङ्ग-सूत्र के सम्पूर्ण स्वर-प्रकरण को अनुयोगद्वार-सूत्र में उद्धृत किया गया है जिसमें वह गाथा भी शामिल है। वह सम्पूर्ण गाथा इस तरह है: __सक्कता पागता चेव दुहा भणियो प्राहिया। सरमंडलम्मि गिज्जते पसत्या इसिभासिता।" इसका शब्दार्थ है-"संस्कृत और प्राकृत ये दो प्रकार की भाषाएँ कही गई हैं, गाये जाते स्वर-समूह (षड्ज-प्रभृति) में अलिभाषिता-आर्ष भाषा प्रशस्त है।" यहाँ पर प्रकरण है सामान्यतः गीत की भाषा का। वर्तमान समय की तरह उस समय भी सभी भाषाओं में गीत होते थे। इससे यहाँ पर इन सभी भाषाओं का निर्देश करना ही सूत्रकार को अभिप्रेत हैं जो उन्होंने संस्कृत-व्याकरण-संस्कार युक्त भाषा और प्राकृत-व्याकरण-संस्कार-रहित-लोक-भाषा इन दो मुख्य विभागों में किया है। इस तरह इस गाथा में पहले गीत की भाषाओं का सामन्य रूप से निर्देश कर बाद में इन भाषाओं में जो प्रशस्त है वह 'ऋषिभाषिता' इस विशेष रूप से बताई गई है। यदि यहाँ पर प्राकृत शब्द का 'प्रादेशिक लोक-भाषा' यह सामान्य अर्थ न लेकर पंडितजी के कथनानुसार 'महाराष्ट्री' यह विशेष अर्थ लिया जाय तो गीत की सभी भाषाओं का निर्देश, जो सूत्रकार को करना आवश्यक है, कैसे हो सकता है ? क्या उस समय अन्य लोक-भाषाओं में गीत होते ही न थे ? गीत का ठेका क्या संस्कृत और महाराष्टी इन दो भाषाओं को ही मिला हुआ था? यह कभी संभावित नहीं है। इसी गाथा के उत्तरार्ध के "पसत्था इसिभासिता" इस वचन से अर्धमागधी की सूचना ही नहीं, बल्कि उसका श्रेष्ठपन भी सूत्रकार ने स्पष्ट रूप में बताया है। इससे पंडितजी के उस कथन में कुछ भी सत्यांश नजर नहीं आता है, जो उनसे सूत्रकार के अर्धमागधी की अलग सूचना न करने के बारे में किया गया है। जैसे बौद्धसूत्रों की मागधी (पालि) से नाट्य-शास्त्र या प्राकृत-व्याकरणों में निर्दिष्ट मागधी भिन्न है वैसे जैन सूत्रों की अर्धमागधी से नाट्य-शास्त्र की या प्राकृत व्याकरणों की अर्थमागधी भी अलग है। इससे बौद्धसूत्रों की मागधी नाट्यशास्त्र या प्राकृत-व्याकरणों की मागधी से मेल न रखने के कारण जैसे महाराष्टी न कही जाकर मागधी कही जाती है वैसे जैन सूत्रों की अर्धमागधी भाषा भी नाट्य-शास्त्र या प्राकृत-व्याकरणों की अर्धमागधी से समान न होने की वजह से ही महाराष्टी न कही जाकर अर्धमागधी ही कही जा सकती है। १. 'परसो सक्कम-बषों पाउम-बंधोवि होइ सुउमारों (कर्पूरमजरी, अङ्क १)। २. 'सूरसेन्यपि प्राकृतभाषेव, तथा प्राकृतमेवापभ्रंशः' (काव्यालङ्कार-टिप्पण २, १२)। ३. सर्वासामेव प्राकृतभाषाणां'-(काव्यादर्ण-टोका १, ३३), 'तादृशोत्यनेन देशनामोपलक्षिताः सर्वा एव भाषाः प्राकृतसंशयोज्यन्त इति सूचितम्' (काव्यादर्श-टीका १, ३५) । For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) भरत-रचित कहे जाते नाट्य-शास्त्र में जिन सात भाषाओं का उल्लेख है उनमें एक अर्धमागधी भी है। इसी नाट्यशास्त्र में नाटकों के नौकर, राजपुत्र और श्रेष्टी इन पात्रों के लिए इस भाषा का प्रयोग निर्दिष्ट किया गया है इससे नाटकों में इन पात्रों की जो भाषा है वह अर्धमागधी कही जाती है। परन्तु नाटकों की अर्धमागधी और जैन सूत्रों की . अर्धमागधी में परस्पर समानता की अपेक्षा इतना अधिक भेद है कि यह एक दूसरे से अभिन्न कभी नाटकीय अर्धमागधी नहीं कही जा सकती। मार्कण्डेय ने अपने प्राकृत-व्याकरण में मागधी भाषा के लक्षण बताकर उसी जैन-सूत्रों की मधमागधी प्रकरण के शेप में अर्धमागधी भाषा का यह लक्षण कहा है-“शौरसेन्या प्रदूरत्वादियमेवार्धमागधी" से भिन्न है अर्थात शौरसेनी भाषा के निकट-वर्ती होने के कारण मागधी ही अर्धमागधी है । इस लक्षण के अनन्तर उन्होंने उक्त नाट्य-शास्त्र के उस वचन को उद्धृत किया है, जिसमें अर्धमागधी के प्रयोगाई पात्रों का निर्देश है और इसके बाद उदाहरण के तौर पर वेणीसंहार की राक्षसी की एक उक्ति का उल्लेख कर अर्धमागधी का प्रकरण खतम किया है। इससे यह स्पष्ट मालूम होता है कि भरत का अर्धमागधी-विषयक उक्त वचन और मार्कण्डेय का अर्धमागधी-विषयक उक्त लक्षण नाटीय अर्धमागधी के लिए ही रचित है; जैन सूत्रों की अर्धमागधी के साथ इसका कोई संबन्ध नहीं है। क्रमदीश्वर ने अपने प्राकृत-व्याकरण में अर्धमागधी का जो लक्षण किया है वह यह है-""महाराष्ट्रीमियाऽ धमागधी" अर्थात् महाराष्टी से मिथित मागधी भाषा ही अर्धमागधी है। जान पड़ता है, क्रमदीश्वर का यह लक्षण भी नाटकीय अर्धमागधी के लिए ही प्रयोज्य है, क्योंकि उक्त नाट्यशास्त्र में जिन पात्रों के लिए अर्धमागधी के प्रयोग का नियम बताया गया है, अनेक नाटकों में उन पात्रों की भाषा भिन्न-भिन्न है। संभवतः इसी भिन्नता के कारण ही क्रमदीश्वर ने और मार्कण्डेर ने अर्धमागधी के भिन्न-भिन्न लक्षण किए हैं। जैसे हम पहले कह चुके हैं, जैन सूत्रों की अर्धमागधी में इतर भाषाओं की अपेक्षा महाराष्टी के लक्षण अधिक देखने में आते हैं। किन्तु यह याद रखना चाहिए कि ये लक्षण साहित्यिक महाराष्ट्री से जैन अर्धमागधी में नहीं आये हैं। इसका कारण यह है कि जैन सूत्रों की अर्धमागधी भाषा साहित्यिक महाराष्ट्री भाषा से अधिक प्राचीन है और ___इससे यही (अर्धमागधी) महाराष्ट्री का मूल कही जा सकती है। डॉ. हॉर्नलि ने जैन अर्धमागधी महाराष्ट्री से अर्धमागधी को ही आर्ष प्राकृत कहकर इसीको परवर्ती काल में उत्पन्न नाटकीय अर्धमागधी, महाराष्ट्री और प्राचीन है शौरसेनी भाषाओं का मूल माना है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत-व्याकरण में महाराष्टी नाम न दे कर प्राकृत के सामान्य नाम से एक भाषा के लक्षण दिए हैं और उनके उदाहरण साधारण तौर से अर्वाचीन महाराष्ट्री-साहित्य से उद्धृत किये हैं। परन्तु जहाँ अर्धमागधी के प्राचीन जैन ग्रन्थों से उदाहरण लिए हैं वहाँ इसको आर्ष प्राकृत का विशेष नाम दिया है। इससे प्रतीत होता है कि आचार्य हेमचन्द्र ने भी एक ही भाषा के प्राचीन रूप को आर्ष प्राकृत और अर्वाचीन रूप को महाराष्टी मानते हुए आर्ष प्राकृत को महाराष्ट्री का मूल स्वीकार किया है। नाटकीय अर्धमागधी में मागधी भाषा के लक्षण अधिकांश में पाये जाते हैं इससे 'मागधी से ही अर्धमागधी भाषा की उत्पत्ति हुई है और जैन सूत्रों की भाषा में मागधी के लक्षण अधिक न मिलने से वह अर्धमागधी कहलाने योग्य नहीं' यह जो भ्रान्त संस्कार कई लोगों के मन में जमा हुआ है, उसका मूल है अर्धमागधी शब्द को मागधी भाषा के अधोश. १. "मागध्यवन्तिजा प्राच्या सूरसेन्यर्धमागधी । वाह्रीका दाक्षिणात्या च सप्त भाषा: प्रकीर्तिताः' (१७, ४८) । २. "चेटानां राजपुत्रारणां श्रेष्ठिनां चार्धमागधी" (भरतीय नाट्यशास्त्र, निर्णयसागरीय संस्करण, १७, ५०)। मार्कण्डेय ने अपने व्याकरण में इस विषय में भरत का नाम देकर जो वचन उद्धृत किया है वह इस तरह है-"राक्षसी श्रेष्ठिचेटानुकादेरर्धमागधी' इति भरतः" यह पाठान्तर ज्ञात होता है। ३. प्राकृतसर्वस्व (पृष्ठ १०३)। ४. संक्षिप्तसार (पृष्ठ ३८)। ५. देखो, भास-रचित कह जाते 'चारुदत्त' और 'स्वप्नवास दत्त' में क्रमशः चेट तथा चेटी की भाषा और शुद्रक के 'मृच्छकटिक' में चेट और श्रेष्ठी चन्दनदास की भाषा। &. "It thus seems t me very clear, that the Prākrit of Charda is the ARSHA or ancient (Poran) orm of the Ardhamāgadhi, Mahāräshtri and Sauraseni." (Introduction to Präkritakshana of Chanda, Page XIX). For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) में ग्रहण करना, अर्थात 'अर्धमागध्या: यह व्युत्पत्ति कर 'जिसका अर्थाश मागधी भाषा यह अर्धमागधी' ऐसा करना । वस्तुतः अर्धमागधी शब्द की न वह व्युत्पत्ति ही सत्य है और न यह अर्थ ही अर्धमागधी शब्द की वास्तविक व्युत्पत्ति है 'अर्धमगधस्येयम्' और इसके अनुसार इसका अर्थ है 'मगध देश के अर्धाश की जो भाषा वह अर्धमागधी' । यही बात ख्रिस्त की सातवीं शताब्दी के ग्रन्थकार श्रीजिनदासगणि महत्तर ने निशीथ नामक पथ में पोमयागहनासानिययं वद सुल" इस उल्लेख के 'अर्धमागध' शब्द की व्याख्या के प्रसङ्ग में इन स्पष्ट शब्दों में कही है : " मगहद्धविसयभासानिबद्ध श्रद्धमाग" अर्थात् मगध देश के अर्ध प्रदेश की भाषा में निबद्ध होने के कारण प्राचीन सूत्र 'अर्धमागध' कहा जाता है । < अर्धमागधी शब्द की संगत राति ( परन्तु अर्धमागधी का मूल उत्पत्ति स्थान पश्चिम मगन अथवा मगध और शूरसेन का मध्यवर्ती प्रदेश (अयोध्या) होने पर भी जैन अर्धमागधी में मागची और शौरसेनी भाषा के विशेष लक्षण देखने में नहीं आते। महाराष्ट्री के साथ ही इसका अधिक सादृश्य नजर आता है। यहाँ पर प्रश्न होता है कि इस सादृश्य च कारण क्या है ? सर ग्रियर्सन ने अपने प्राकृत भाषाओं के भौगोलिक विवरण में यह स्थिर किया है कि जैन अर्धमागधी मध्यदेश शूरसेन ) और मगध के मध्यवर्ती देश ( अयोध्या) की भाषा थी एवं आधुनिक पूर्वीय हिन्दी उससे उत्पन्न हुई है । किन्तु हम देखते हैं कि अर्धमागधी के लक्षणों के साथ मागधी, शौरसेनी और आधुनिक पूर्वीय हिन्दी का कोई सम्बन्ध नहीं है, परन्तु महाराष्ट्री प्राकृत और आधुनिक मराठी भाषा के साथ उसका सादृश्य अधिक है। इसका कारण क्या ? किसीने अभीतक यह ठीक-ठीक नहीं बताया है। यह सम्भव है, जैसा हम पाटलिपुत्र के सम्मेलन के प्रसंग में ऊपर कह आये हैं, चन्द्रगुप्त के राजस्वाल में (ख्रिस्त-पूर्व ३१० ) बारह वर्षों के अकाल के समय जैन मुनि संघ पाटलीपुत्र से दक्षिण की ओर गया था। उस समय वहाँ के प्राकृत के प्रभाव से अंग-ग्रन्थों की भाषा का कुछ-कुछ परिवर्तन हुआ था । यही महाराष्ट्री प्राकृत का आप प्राकृत के साथ सादृश्य का कारण हो सकता है । इ-स्थान श्रौर उस 'महाराष्ट्री' के जैन अर्धमागधी का उत्पत्ति -साथ सादृश्य का कारण उत्पत्ति-समय सर आर. जि. भाण्डारकर जैन अर्थमागची का उत्पत्ति समय ख्रिस्तीय द्वितीय शताब्दी मानते हैं। उनके मत में कोई भी साहित्यिक प्राकृत भाषा लिख की प्रथम या द्वितीय शताब्दी से पहले की नहीं है। शायद इसी मत का अनुसरण कर डॉ. सुनीविकुमार चटर्जी ने अपनी Origin and Development of Bengalee Language नामक पुस्तक में ( Introduction, page 18 ) समस्त नाटकीय प्राकृत भाषाओं और जैन अर्धमागधी का उत्पतिकाल ख्रिस्तीय तृतीय शताब्दी स्थिर किया है । परन्तु त्रिवेन्द्रम् से प्रकाशित भास-रचित कहे जाते नकों का निर्माण समय अन्ततः ख्रिस्त की दूसरी शताब्दी के बाद का न होने से और अश्वघोष-कृत बौद्ध-धर्म-विषयक नाटकों के जो कतिपय अंश डॉ. ल्युडर्स ने प्रकाशित किए हैं उनका समय ख्रिस्त की प्रथम शताब्दी निश्चित होने से यह प्रमाणित होता है कि उस समय भी नाटकीय प्राकृत भाषाएँ प्रचलित थीं और डॉ. ल्युडर्स ने यह स्वीकार किया है कि अश्वघोष के नाटकों में जैन अर्धमागची भाषा के निदर्शन हैं। इससे जैन अर्धमागधी की प्राचीनता का वह भी एक विश्वस्त प्रमाण है । इसके अतिरिक्त, डॉ. जेकोबी जैन सूत्रों की भाषा और मथुरा के शिलालेखों (ख्रिस्तीय सन् ८३ से १७६) की भाषा से यह अनुमान करते हैं कि जैन अंग-प्रन्थों की अर्धमागधी का काल खिस्त-पूर्व चतुर्थ शताब्दी का शेष भाग अथवा स्ति-पूर्व तृतीय शताब्दी का प्रथम भाग है। हम डॉ. जेकोबी के इस अनुमान को ठीक समझाते हैं जो पाटलिपुत्र के उस सम्मेलन से संगति रखता है जिसका उल्लेख हम पूर्व कर चुके हैं । संस्कृत के साथ महाराष्ट्री के जो प्रधान प्रधान भेद हैं, उनकी संक्षिप्त सूची महाराष्ट्री के प्रकरण में दी जायगी । यहाँ पर महाराष्ट्री से अर्धमागधी की जो मुख्य-मुख्य विशेषताएँ हैं उनकी संक्षिप्त सूची दी जाती है। उससे अर्धमागधी के लक्षणों के साथ महाराष्ट्री के लक्षणों की तुलना करने पर यह अच्छी तरह ज्ञात हो सकता है कि लक्षण महाराष्ट्री की अपेक्षा अर्धमागधी की वैदिक और लौकिक संस्कृत से अधिक निकटता है जो अर्थमागधी की प्राचीनता का एक श्रेष्ठ प्रमाण कहा जा सकता है । वर्ण-भेद १. दो स्वरों के मध्यवर्ती असंयुक्त क के स्थान में प्रायः सर्वत्र ग और अनेक स्थलों में त और य होता है; जैसेग—प्रकल्प = पगप्पः श्राकर = नागर; आकाश = प्रागासः प्रकार पगारः श्रावक = सावगः विवर्जक विवजग; निषेवक = णिसेवग; लोक = लोग; प्राकृति = आगइ । For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) त-पाराधक = पाराहत (ठाणंगसूत्र-पत्र ३१७), सामायिक % सामातित (ठा० ३२२), विशुद्धिक % विशुद्धित (ठा० ३२२), अषिक = अहित (ठा० ३६३), शाकुनिक = साउरिणत (ठा ३६३),नैषधिक = रणेसजित (म० ३६७), वीरासनिक = वीरासरिणत (ठा० ३६७), वधकि = वट्ठति (ठा० ३६८), नैरयिक = नेरतित (ठा० ३६६), सोमंतक = सीमंतत (ठा० ४५८), नरकात् = नरतातो (ठा० ४५८), माडम्बिक = माडंबित (ठा. ४५६), कौटुम्बिक = कौडुबित (ठा० ४५६), सचक्षुष्केण = सचक्खुतेणं (विपाकश्रुत-पत्र ५), कूणिक = कूरिणत (विपा० ५ टि), प्रन्तिकात् = अंतितातो (विपा० ७), राहसिकेन = रहस्सितेणं (विपा ४.१८) इत्यादि। य-कायिक = काइय, लोक = लोय वगैरह । २. दो स्वरों के बीच का असंयुक्त ग प्रायः कायम रहता है। कहीं-कहीं इसका त और य होता है; जैसे-पागम - प्रागम, प्रागमन = प्रागमण, प्रानुगामिक = माणुगामिय, प्रागमिष्यत् = प्रागमिस्स, जागर = जागर, अगारिन् = अगारि, भगवन् = भगवं प्रतिग = अतित (ठा० ३६७); सागर = सायर । ३. दो स्वरों के बीच के असंयुक्त च और ज के स्थान में त और य उभय ही होता है। च के उदाहरण, जैसे-नाराच = णारात (ठा० ३५७), वचस् - वति (ठा० ३९८; ४५०), प्रवचन = पावतरण (ठा० ४५१), कदाचित् = कयाती (विपा० १७, ३०); वाचना = वायणा, उपचार = उवयार; लोच = लोय, प्राचार्य = पायरिय। ज के कुछ निदर्शन ये हैं-भोजिन् = भोति (सूम० २,. ६.१०), वन = वतिर (ठा० ३५७), पूजा = पूता (ठा० ३५८), राजेश्वर-रातीसर (ठा० ४५६), पात्मजः% प्रत्तते (विपा० ४ टि), प्रजात = पयाय, कामध्वजा = कामज्या , पात्मज = अत्तय। ४. दो स्वरों का मध्यवर्ती त प्रायः कायम रहता है कहीं-कहीं इसका य होता है। यथा-वन्दते = वंदति, नमस्यति = नर्मसति,. पयु'पास्ते = पज्जुवासति (सूम २, ७; विपा-पत्र ६), जितेन्द्रिय = जितिदिय (सूम २, ६,५), सतत = सतत (सूम १, १, ४, १२), भवति = भवति (ठा-पत्र ३१७), अंतरित = अंतरित (ठा० ३४६), धैवत = घेवत (ठा० ३६३), जाति = जाति, प्राकृति = प्रागिति, विहरति = विहरति (विपा-४), पुरतः -पुरतो, करोति = करेति (विपा० ६), ततः = तते (विपा० ६७८), संदिसतु = संदिसतु, संलपति = संलवति (विपा० ७, ८), प्रभृति = पभिति (विपा० १५; १६), करतल = करयल । स्वरों के बीच में स्थित द का द और त ही अधिकांश में देखा जाता है, कहीं-कहीं य भी होता है, जैसेद-प्रदिशः = पदिसो (माचा), भेद = भेद, अनादिकं = प्रणादिय (सूम २, ७), वदत् = वदमाण, नदति = रणदति, जनपद = जणवद, वेदिष्यति = वेदिहिती (ठा-पत्र क्रमशः ३२१, ३६३, ४५८, ४५६) इत्यादि। त-यदा= जता, पाद = पात, निषाद= निसात, नदी = नती, मृषावाद = मुसावात, वादिक = वातित, मन्यदा अन्नता, कदाचितु = कताती (ठा-पत्र क्रमश: ३१७, ३४६, ३६३, ३६७, ४५०, ४५१, ४५८, ४५९); यदि = जति, चिरादिक = चिरातीत (विपा० पत्र ४) इत्यादि। य-प्रतिच्छादन = पडिच्छायण, चतुष्पद =चउप्पय वगैरह। ६. दो स्वरों के मध्य में स्थित के स्थान में प्रायः सर्वत्र व ही होता है; यथा-पापक = पावग, संलपति - संलवति, सोपचार = सोवयार, प्रतिपात = प्रतिवात, उपनीत = उवरणीय, अध्युपपन्न -मझोववरण, उपगूढ = उवमूढ़, भाधिपत्य = माहेवञ्च, तपक= तवय, व्यपरोपित = ववरोवित इत्यादि। ७. स्वरों के मध्यवर्ती य प्राए: कायम रहता है, अनेक स्थानों में इसका त देखा जाता है। जैसे य-वायव - वायव, प्रिय=पिय, निरय = निरय, इन्द्रिय = इन्दिय, गायति = गायइ प्रभृति । त-- स्यात् = सिता, सामायिक = सामातित, कायिक = कातित, पालयिष्यन्ति = पालतिस्संति, पर्याय = परितात, नायक = णातग, गायति = गातति, स्थायिन् % ठाति, शायिन् = साति, नैरयिक = नेरतित (ठा० पत्र क्रमशः ३१७, ३२२, ३२३, ३५७, ३५८, ३६३, ३६४, ३६७, ३६८, ३६६), इन्द्रिय = इन्दित (ठा० ३२२, ३५५) इत्यादि। ८. दो स्वरों के बीच के व के स्थान में व, त, और य होता है; यथा व-वायव = वायव, गौरव = गारव, भवति = भवति, अनुविचिन्त्य = प्रणवीति (सूम १, १, ३, १३) इत्यादि। त-परिवार = परिताल, कवि = कति (ठा० पच क्रमशः ३५८, ३६३) इत्यादि। य-परिवर्तन = परियट्टण, परिवर्तना = परियट्टणा (ठा० ३४६) वगैरह। महाराष्ट्री में स्वर-मध्य-वर्ती असंयुक्त क, ग, च, ज, त, द, प, य, व इन व्यजनों का प्रायः सर्वत्र लोप होता है और प्राकृतप्रश आदि प्राकृत-व्या रणों के अनुसार इन लुप्त व्यजनों के स्थान में अन्य कोई वर्ण नहीं होता। सेतुबन्ध, गाथासप्तशती और क रमञ्जरी आदि नाटकों की महाराष्ट्री भाषा में भी यह लक्षण ठीक-ठीक देखने में For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता है। आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत-व्याकरण के अनुसार उक्त लुप्त व्यजनों के दोनों तरफ अवर्ण (म या मा) होने पर लुप्त व्यञ्जन के स्थान में 'य' होता है। 'गउडवहो' में यह 'य' अधिक मात्रा में (उक्त व्यञ्जनों के पूर्व में अवर्ण-भिन्न स्वर रहने पर भी) पाया जाता है। परन्तु जैन अर्धमागधी में, जैसा हम ऊपर देख चुके हैं, प्रायः उक्त व्यञ्जनों के स्थान में अन्य अन्य व्यञ्जन होते हैं और कहीं कहीं तो वही व्यजन कायम रहता है। हाँ, कहीं कहीं उक्त व्यञ्जनों के स्थान में अन्य व्यञ्जन होने या वही व्यञ्जन रहने के बदले महाराष्ट्री की तरह लोप भी देखा जाता है; किन्तु यह लोप वहाँ पर ही देखने में आता है जहाँ उक्त व्यञ्जनों के बाद प्र या प्रा से भिन्न कोई स्वर होता है। जैसे—लोकः = लोमो, रोचित = रोइत, भोजिन् = भोइ, पातुर = पाउर, प्रादेशि = पाएसि, कायिक = काइय, प्रावेश - पाएस वगैरह। शब्द के आदि में, मध्य में और संयोग में सर्वत्रण की तरह न भी होता है। जैसे-नदी = नई, ज्ञातपुत्र = नायपुत्त, पारनाल = प्रारनाल, अनल = मनल, अनिल = अनिल, प्रज्ञा = पन्ना, अन्योन्य = अन्नमन्न, विज्ञ = विन्नु, सर्वज्ञ = सव्वन्नु इत्यादि । ११. एव के पूर्व के प्रम् के स्थान में माम् होता है; यथा-यामेव = जामेव, तामेव = तामेव, क्षिप्रमेव = खिप्पामेव, एवमेव = एवामेव, पूर्वमेव = पुवामेव इत्यादि । १२. दीर्घ स्वर के बाद के इति वा के स्थान में ति वा और इ वा होता है। जैसे-इन्द्रमह इति वा= इंदमहे ति वा, इंदमहे.इ वा इत्यादि। १३. यथा और यावत् शब्द के य का लोप और ज दोनों ही देखे जाते हैं; जैसे-यथाख्यात = प्रहक्खाय, यथाजात = महाजात, यथानामक = जहाणामए, यावत्कथा=प्रावकहा, यावजीव = जावजीव । वर्णागम १. गद्य में भी अनेक स्थलों में समास के उत्तर शब्द के पहले म आगम होता है; यथा-निरयंगामी, उर्दुगारव, दीहंगारव, रहस्संगारव, गोणमाइ, सामाइयमाइयाई, मजहएणमणुक्कोस, मदुक्खमसुहा आदि । महाराष्ट्री के पद्य में पादपूर्ति के लिए ही कहीं कहीं म् आगम देखा जाता है, गद्य में नहीं। शब्द-भेद १. अर्धमागधी में ऐसे प्रचुर शब्द हैं जिनका प्रयोग महाराष्ट्री में प्रायः उपलब्ध नहीं होता; यथा-प्रज्झत्थिय, प्रज्झोव वरण, प्रणवीति, माधवणा, माघवेत्तग, प्राणापाणू, प्रावीकम्म, कण्हुइ, केमहालय, दुरूढ, पचत्थिमिल्ल, पाउकुवं, पुरथिमिल्ल, ...पोरेवच, महतिमहालिया, वक्क, विउस इत्यादि। २. ऐसे शब्दों की संख्या भी बहुत बड़ी है जिनके रूप अर्धमागधी और महाराष्ट्री में भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं। उनके कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं :अर्धमागधी महाराष्ट्री अर्धमागधी महाराष्ट्री अभियागम अब्भाप्रम तच्च (तथ्य) तच्छ माउंट माउंचरण तेगिच्छा चिइच्छा माहरण उग्राहरण दुवालसंग बारसंग उप्पि उवरि, प्रवरि दोच्च दुइम किया किरिया नितिय रिणच कीस, केस केरिस खिमम केवचिर किचिर पडुप्पन्न पच्तुप्परण पच्छेकम्म पच्छाकम्म चियत्त चइम पाय (पात्र) पत्त छच छक्क पुढो (पृथक् ) पुर्ह, पिह जाया जत्ता पुरेकम्म पुराकम्म रिणगण, णिगिण (नग्न) गुग्ग पुब्वि णिगिणिण (नाग्न्य) रगग्गत्तण माय (मात्र) मत्त, मेत्त ६ तच्च (तृतीय) माहण बम्हण निएय गेहि गिद्धि पुवं तम For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुद्धि (४२) अर्धमागधी महाराष्ट्री अर्धमागधी महाराष्ट्री मिलक्खु, मेच्छ मिलिच्छ सोप्राण, सुसारण मसाण वग्गू वामा सुमिण सिमिण वाहणा ( उपानह) उवारणमा सुहम, सुहुम सरह सहेज्ज सहाय सोहि और, दुवालस, बारस, तेरस, प्रउणवीसइ, बत्तीस, पणतीस, इगयाल, तेयालीस, पणयाल, अढयाल, एगट्ठि, बावट्ठि, तेवट्ठि, छावट्ठि, अढसट्ठि, मउगत्तरि, बावत्तरि, परगत्तरि, सत्तहत्तरि, तेयासी, छलसीइ, बारण उइ प्रभृति संख्या-शब्दों के रूप अर्धमागधी में मिलते हैं, महाराष्ट्री में वैसे नहीं। नाम-विभक्ति १. अर्धमागधी में पुंलिंग अकारान्त शब्द के प्रथमा के एकवचन में प्रायः सर्वत्र ए और क्वचित् पो होता है, किन्त महाराष्ट्री में प्रो ही होता है। २. सप्तमी का एक वचन स्सिं होता है जब महाराष्ट्री में म्मि । ३. चतुर्थी के एक वचन में पाए या माते होता है; जैसे—देवाए, सवरणयाए, गमणाए, अट्ठाए, महिताते, असुभाते, प्रखमाते (ठा. पत्र ३५८) इत्यादि महाराष्ट्री में यह नहीं है। अनेक शब्दों के तृतीया के एकवचन में सा होता है; यथा-मणसा, वयसा, कायसा, जोगसा, बलसा, चक्खुसा: महाराष्ट्री में इनके स्थान में क्रमशः मणेण, वएण, कारण, जोगेण, बलेण, चक्खुणा । ५. कम्म और धम्म शब्द के तृतीया के एक वचन में पालि की तरह कम्मुणा और धम्मुणा होता है, जब कि महाराष्टी में कम्मेण और पम्मेण । ६. मागधी में तत् शब्द के पश्चमी के बहुवचन में तेब्भो रूप भी देखा जाता है। ७. युष्मत् शब्द की षष्टी का एकवचन संस्कृत की तरह तव और प्रस्मत् की षष्ठी का बहुवचन अस्माकं अर्धमागधी में पाया जाता है जो महाराष्ट्री में नहीं है। आख्यात-विभक्ति १. अर्धमागधी में भूतकाल के बहुवचन में इंसु प्रत्यय है; जैसे-पुच्छिंसु, गच्छिंसु, प्राभासिसु इत्यादि । महाराष्ट्री में यह प्रयोग लप्त हो गया है। धातु-रूप १. अर्धमागधी में प्राइक्खइ, कुव्वइ, भुवि, होक्खती, बूया, अब्बवी, होत्था, हुत्था, पहारेत्था, आघ, दुरूहइ, विगिचए, तिवायए, प्रकासो, तिउट्टई, तिउट्टिजा, पडिसंधयाति, सारयती, घेच्छिइ, समुच्छिहिति, आहंसु प्रभृति प्रभूत प्रयोगों में धातु की प्रकृति, प्रत्यय अथवा ये दोनों जिस प्रकार में पाये जाते हैं, महाराष्ट्रो में वे भिन्न भिन्न प्रकार के देखे जाते हैं। धातु-प्रत्यय १. अर्धमागधी में त्वा प्रत्यय के रूप अनेक तरह के होते हैं : (क) ट्टु जैसे-कट्, साहट्ट, अवहटटु इत्यादि। (ख) इत्ता, एत्ता, इत्ताणं और एत्ताणं; यथा-इत्ता, विउट्टित्ता, पासित्ता, करेत्ता, पासित्ताणं, करेत्ताणं इत्यादि। (ग) इत्तुः यथा-दुरूहित्तु, जाणित्तु, वषित्तु प्रभृति । (घ) चाः जैसे-किचा, एचा, सोचा, भोचा, चेचा वगैरह । (ङ) इया; यथा-परिजाणिया, दुरुहिया आदि । (च) इनके अतिरिक्त विउक्कम्म, निसम्म, समिच, संखाए, अरणवीति, लद्धं, लद्ध ण, दिस्सा इत्यादि प्रयोगों में 'त्वा' के रूप भिन्न भिन्न तरह के पाये जाते हैं। २. तुम् प्रत्यय के स्थान में इत्तए या इत्तते प्रायः देखने में आता है; जैसे-करित्तए, गच्छित्तए, संभुंजित्तए, उवसामित्तते (विपा० १३), विहरित्तए आदि। ३. ऋकारान्त धातु के त प्रत्यय के स्थान में ड होता है। जैसे-कड, मड, अभिहड, वावड, संवुड, वियड, वित्थड प्रभृति । For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. २. ( ४३ ) तद्धित तर प्रत्यय का तराय रूप होता है; यथा - प्रणिट्टतराए, अप्पतराए, बहुतराए, कंततराए इत्यादि । श्राउसो, श्राउसंतो, गोमी, वुसिमं, भगवंतो, पुरत्थिम, पचत्थिम, श्रीयंसी, दोसिणो, पोरेवच्च आदि प्रयोगों में मतुपू, और अन्य तद्धित प्रत्ययों के जैसे रूप जैन अर्धमागधी में देखे जाते हैं, महाराष्ट्री में वे भिन्न तरह के होते हैं । महाराष्ट्री से जैन अर्धमागधी में इनके अतिरिक्त और भी अनेक सूक्ष्म भेद हैं, जिनका उल्लेख विस्तार भय से यहाँ नहीं किया गया है । (५) जैन महाराष्ट्री जैन सूत्र- प्रन्थों के सिवा श्वेताम्बर जैनों के रचे हुए अन्य ग्रन्थों की नाम-निर्देश और गया है । इस भाषा में तीर्थंकर और प्राचीन मुनियों के स्तुति आदि विषयों का विशाल साहित्य विद्यमान है । साहित्य प्राकृत के प्राचीन वैयाकरणों ने 'जैन महाराष्ट्री' यह नाम देकर किसी भिन्न भाषा का उल्लेख नहीं किया है । आधुनिक पाश्चात्य विद्वानों ने व्याकरण, काव्य और नाटक ग्रन्थों में महाराष्ट्री का जो रूप देखा जाता हैं उससे श्वेताम्बर जैनों के प्रन्थों की भाषा में कुछ कुछ पार्थक्य देख कर इसको 'जैन महाराष्ट्री' नाम दिया है । इस भाषा में प्राकृत-व्याकरणों में बताये हुए महाराष्ट्री भाषा के लक्षण विशेष रूप से मौजूद होने पर भी जैन अर्धमागधी का बहुत-कुछ प्रभाव देखा जाता है । जैन महाराष्ट्री के कतिपय ग्रन्थ प्राचीन है । यह द्वितीय स्तर के प्रथम युग के प्राकृतों में स्थान पा सकती हैं। पयन्ना-ग्रन्थ, नियुक्तियाँ, पउमचरिअ, उपदेशमाला प्रभृति ग्रन्थ प्रथम युग की जैन महाराष्ट्री के उदाहरण हैं । बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारसूत्र भाष्य, विशेषावश्यक भाष्य, निशीथ चूणि, धर्मसंग्रहणी, समराइच्चकहा प्रभृति ग्रन्थ मध्य युग और शेष-युग में रचित होने पर भी इनकी भाषा प्रथम युग की जैन महाराष्ट्री के समान हैं । दशम शताब्दी के बाद रचे गये प्रवचन - सारोद्धार, उपदेशपट्टीका, सुपासनाहचरिअ, उपदेशरहस्य प्रभृति ग्रन्थों की भाषा भी प्राय: प्रथम युग की जैन महाराष्ट्री के ही अनुरूप हैं। इससे यहाँ पर यह कहना होगा कि जैन महाराष्ट्री के ये ग्रन्थ आधुनिक काल में रचित होने पर भी उसकी भाषा, संस्कृत की तरह, अतिप्राचीन काल में ही उत्पन्न हुई थी और यह भी अनुमान किया जा सकता हैं कि जैन महाराष्ट्री क्रमशः परिवर्तित होकर मध्य युग की व्यञ्जन-लोप- बहुल महाराष्ट्री में रूपान्तरित हुई हैं। अर्धमागधी के जो लक्षण पहले बताये गए हैं उनमें से अनेक इस भाषा में भी पाये जाते हैं । ऐसे लक्षणों में लक्षण कुछ ये हैं —— समय प्राकृत भाषा को 'जैन महाराष्ट्री' नाम दिया चरित्र, कथाएँ, दर्शन, तर्क, ज्योतिष, भूगोल, १. क के स्थान में अनेक स्थलों में ग । २. लुप्त व्यञ्जनों के स्थान में यू । ३. शब्द के आदि और मध्य में भी ए की तरह न । ४. यथा और यावत् के स्थान में क्रमश: जहा और जाव की तरह ग्रहा और भाव भी । समास में उत्तर पद के पूर्व में 'म्' का आगम । ५. ६. पाय, माय, तेगिच्छग, पडुप्पराण, साहि, सुहुम, सुमिण आदि शब्दों का भी, पत्त, मेत्त, चेइच्छय आदि की तरह प्रयोग । ७. तृतीया के एकवचन में कहीं कहीं सा प्रत्यय । ८. इक्ख, कुव्वइ प्रभृति धातु-रूप । ६. सोचा, किच्चा, वंदित्तु आदि त्वा प्रत्यय के रूप । १०. कड, वावड, संवुड, प्रभृति त प्रत्ययान्त रूप । For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 88 ) (६) अशोक - लिपि सम्राट् 'अशोक ने भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न स्थानों में अपने धर्म के उपदेशों को शिलाओं में खुदवाये थे। ये सब शिलालेख उस समय में प्रचलित भिन्न-भिन्न प्रादेशिक भाषाओं में रचित हैं । भाषा साम्य की दृष्टि से ये सब शिलालेख ४४ प्रधानतः इन तीन भागों में विभक्त किये जा सकते हैं: (१) पंजाब के शिलालेख । इनकी भाषा संस्कृत के अनुरूप है। इनमें र का लोप नहीं देखा जाता । (२) पूर्व भारत के शिलालेख । इनकी भाषा का मागधी के साथ सादृश्य देखने में आता है। इनमें र के स्थान में सर्वत्र है । (३) पश्चिम भारत के शिलालेख । ये उज्जयिनी की उस भाषा में है जिसका पालि के साथ अधिक साम्य है । इन तीनों प्रकार के शिलालेखों के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं जिन पर से इनका भेद आ सकता है । अच्छी तरह समझ में संस्कृत देवानांप्रियस्य कपर्दगिरि (पंजाब) देवानंप्रियस रणो धौलि (उड़ीसा) देवानंपियस लजिने लुखनि राज्ञः वृक्षाः शुश्रूषा सुश्रुषा मस्ति, नास्ति नास्ति इन शिलालेखों का समय ख्रिस्तपूर्व २५० वर्ष का है । इन शिलालेखों की भाषा की उत्पत्ति भगवान् महावीर की एवं सम्भवतः बुद्धदेव की उपदेश-भाषा से ही हुई है।' सुसूसा नाथि, नमि, नथा गिरनार (गुजरात) देवानंपियस रानो, रनो वच्छा (७) सौरसेनी संस्कृत नाटकों में प्राकृत गद्यांश सामान्य रूप से सौरसेनी भाषा में लिखा गया है । अश्वघोष के नाटकों में एक तरह की सौरसेनी के उदाहरण पाये जाते हैं, जो पालि और अशोकलिपि को भाषा के अनुरूप और निदर्शन पिछले काल के नाटकों में प्रयुक्त सौरसेनी की अपेक्षा प्राचीन है। भास के, कालिदास के और इनके बाद के अधिक नाटकों में सौरसेनी के निदर्शन देखे जाते हैं। वररुचि, हेमचन्द्र, क्रमदीश्वर, लक्ष्मीधर और मार्कण्डेय आदि के प्राकृत व्याकरणों में सौरसेनी भाषा के लक्षण और उदाहरण पाये जाते हैं । सुसुसा नास्ति दण्डी, रुद्रट और वाग्भट आदि संस्कृत के अलंकारिकों ने भी इस भाषा का उल्लेख किया है । भरत के नाट्यशास्त्र में सौरसेनी भाषा का उल्लेख हैं, उन्होंने नाटक में नायिका और सखियों के लिए इस भाषा विनियोग का प्रयोग बताया हैं । भरत ने विदूषक की भाषा प्राच्या कही हैं, परन्तु मार्कण्डेय के व्याकरण में प्राच्या भाषा के जो लक्षण दिये गये हैं। उनसे और नाटकों में प्रयुक्त विदूषक की भाषा पर से यह मालूम होता है कि सौरसेनी से इस भाषा प्राच्या भाषा सौरसेनी के (प्राच्या) का कुछ विशेष भेद नही हैं। इससे हमने भी प्रस्तुत कोष में उसका अलग उल्लेख न करके भन्तर्गत सौरसेनी में ही अन्तर्भाव किया हैं । दिगम्बर जैनों के प्रवचनसार, द्रव्यसंग्रह प्रभृति ग्रन्थ भी एक तरह की सौरसेनी भाषा में ही रचित हैं। यह भाषा श्वेताम्बरों की अर्धमागधी और प्राकृत-व्याकरणों में निर्दिष्ट सौरसेनी के मिश्रण से बनी हुई है। इस जैन सौरसेनी भाषा को 'जैन सौरसेनी' नाम दिया गया है। जैन सौरसेनी मध्ययुग की जैन महाराष्ट्री की अपेक्षा जैन अर्द्धमागधी से अधिक निकटता रखती है ओर मध्ययुग की जैन महाराष्ट्री से प्राचीन है । For Personal & Private Use Only १. हाल ही में डॉ० त्रिभुवनदास लहेरचंद ने अपने एक गुजराती लेख में अनेक प्रमाण मौर युक्तियों से यह सिद्ध किया है कि प्रशोक के शिलालेखों के नाम से प्रसिद्ध शिलालेख सम्राट् अशोक के नहीं, परन्तु जैन सम्राट् संप्रति के खुदवाये हुए हैं। २. See Dr. A. B. Keith's Sanskrt Drama, Page 87. ३. " नायिकानां सखीनां च सूरसेनाविरोधिनी" (नाट्यशास्त्र १७, ५१ ) । ४. " प्राच्या विदूषकादीनां (नास्वशास्त्र १७, ५१) । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौरसेनी भाषा की उत्पत्ति' सूरसेन देश अर्थात् मथुरा प्रदेश से हुई हैं। वररुचि ने अपने व्याकरण में संस्कृत को ही सौरसेनी भाषा की प्रकृति अर्थात् मूल कहा है। किन्तु यह हम पहले ही प्रमाणित कर चुके हैं कि किसी प्राकृत भाषा की उत्पत्ति संस्कृत से नहीं हुई है। सुतरां, सौरसेनी प्राकृत का मूल भी प्रकृति वैदिक या लौकिक संस्कृत नहीं है। सौरसेनी और संस्कृत ये दोनों ही वैदिक युग में प्रचलित सूरसेन ___ अथवा मध्यदेश की कथ्य प्राकृत भाषा से ही उत्पन्न हुई हैं। संस्कृत भाषा पाणिनि-प्रभृति के व्याकरण द्वारा नियन्त्रित होने के कारण परिवर्तन-हीन मृत-भाषा में परिणत हुई। वैदिक काल की सौरसेनी ने प्राकृत-व्याकरण द्वारा नियन्त्रित न होने के कारण क्रमशः परिवर्तित होते हुए पिछले समय की सौरसेनी भाषा का आकार धारण किया। पिछले समय की यह सौरसेनी भी बाद में प्राकृत-व्याकरणों के द्वारा जकड़े जाने के कारण संस्कृत की तरह परिवर्तन-शून्य होकर मृत-भाषा में परिणत हुई है। अश्वघोष के नाटकों में जिस सौरसेनी भाषा के उदाहरण मिलते हैं वह अशोकलिपि की सम-सामयिक कही जा सकती है। भास के नाटकों की सौरसेनी का और जैन सौरसेनी का समय सम्भवतः ख्रिस्त की प्रथम समय या द्वितीय शताब्दी मालूम होता है। महाराष्ट्री भाषा के साथ सौरसेनी भाषा का जिस-जिस अंश में भेद है वह नीचे दिया जाता है। इसके सिवा महाराष्ट्री भाषा के जो लक्षण उसके प्रकरण में दिये जायँगे उनमें महाराष्ट्री के साथ सौरसेनी का लक्षण कोई भेद नहीं है। इन भेदों पर यह ज्ञात होता है कि अनेक स्थलों में महाराष्ट्री की अपेक्षा सौरसेनी का संस्कृत के साथ पार्थक्य कम और सादृश्य अधिक है। वर्ण-भेद १. स्वर-वर्गों के मध्यवर्ती असंयुक्त त और द के स्थान में द होता है; यथा-रजत = रमद, गदा = गदा । २. स्वरों के बीच असंयुक्त थ का ह और ष दोनों होते हैं। जैसे-नाथ = णाध, णाह । ३. य के स्थान में प्य और ब होता है; यथा-पाय = भग्य, मज सूर्य = सुग्य, सुब। नाम-विभक्ति १. पञ्चमी के एकवचन में दो और दु ये दो ही प्रत्यय होते हैं और इनके योग में पूर्व के अकार का दीर्घ होता है; यथाजिनात् = जिणादो, जिणादु। आख्यात १. ति और ते प्रत्ययों के स्थान में दि और दे होता है; जैसे-हसदि, हसदे, रमवि, रमदे । २. भविष्यकाल के प्रत्यय के पूर्व में स्सि लगता है; यथा-हसिस्सिदि, करिस्सिदि । सन्धि १. अन्त्य मकार के बाद इ और ए होने पर ए का वैकल्पिक आगम होता है; यथा—युक्तम इदम् = जुत्तं णिम, जुत्तमिम एवम् एतत् = एवं णेदं, एवमेदं । कृदन्त १. त्वा प्रत्यय के स्थान में इम, दूण और ता होते हैं; यथा-पठित्वा = पढिम, पढिदूण, पढित्ता । १. वन्नवणासूत्र के “सोत्तियमइया (?मई य) चेदी वीयभयं सिंधुसोवीरा । महुरा य सूरसेणा पावा भंगी य मासपुरिवट्टा" (पत्र ६१)। इस पाठ पर "चेदिषु शुक्तिकावतो, वीतभयं सिन्धुषु, सौवीरेषु मथुरा, सूरसेनेषु पापा, भङ्गे(? निषु मासपुरिवट्टा" इस तरह व्याख्या करते हुए प्राचार्य मलयगिरि ने सूरसेन देश की राजधानी पावा बतलाकर भाजकल के बिहार प्रदेश को ही सूरसेन कहा है। नेमिचन्द्रसूरि ने अपने प्रवचनसारोदारनामक ग्रंथ में पन्नवणासूत्र के उक्त पाठ को पविकल रूप में उद्धृत किया है। इसकी टीका में श्रीसिद्धसेनसूरि ने प्राचार्य मलयगिरि की उक्त व्याख्या को 'प्रतिव्यवहृत कहकर, उक्त मूल पाठ की व्याख्या इस तरह की है:-'शुक्कीमती नगरी चेदयो देशः, वीतभयं नमर सिन्धुसौवीरा जनपदः, मधुरा नगरी सूरसेनाख्यो देशः, पापा नगरी भङ्गयो देशः, मासपुरी नगरी वों देशः' (दे० ला संस्करण, पत्र ४४६)। २. प्राकृतप्रकाश ( १२, २)। For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) मागधी मागधी प्राकृत के सर्व-प्राचीन निदर्शन अशोक-साम्राज्य के उत्तर और पूर्व भागों के खालसी, मिरट, लौरिया ( Lauriya), सहसराम, बराबर ( Barabar ), रामगढ़, धौलि और जौगढ़ ( Jaugadha ) प्रभृति स्थानों के अशोकनिदर्शन शिलालेखों में पाये जाते हैं। इसके बाद नाटकीय प्राकृतों में मागधी भाषा के उदाहरण देखे जाते हैं। नाटकीय मागधी के सर्व-प्राचीन नमूने अश्वघोष के नाटकों के खण्डित अंशों में मिलते हैं। भास के नाटकों में, कालिदास के नाटकों में और मृच्छकटिक आदि नाटकों में मागधी भाषा के उदाहरण विद्यमान हैं। . वररुचि के प्राकृतप्रकाश, चण्ड के प्राकृतलक्षण, हेमचन्द्र के सिद्धहेमचन्द्र (अष्टम अध्याय), क्रमदीश्वर के संक्षिप्तसार, लक्ष्मीधर की षड्भाषाचन्द्रिका और माकेण्डेय के प्राकृतसर्वस्व आदि प्रायः समस्त प्राकृत-व्याकरणों में मागधी भाषा के लक्षण और उदाहरण दिए गए हैं। . भरत के नाट्यशास्त्र में मागधी भाषा का उल्लेख है और उन्होंने नाटक में राजा के अन्तःपुर में रहनेवाले, सुरंग खोदनेवाले, कलवार, अश्वपालक वगैरह पात्रों के लिए और विपत्ति में नायक के लिए भी इस भाषा का प्रयोग करने को कहा विनियोग है। परन्तु मार्कण्डेय द्वारा अपने प्राकृतसर्वस्व में उद्धृत किये हुए कोहल के “राक्षसभिक्षुक्षपणकचेटाद्या मागधीं प्राहुः" इस वचन से मालूम होता है कि भरत के कहे हुए उक्त पात्रों के अतिरिक्त भिक्षु, क्षपणक आदि अन्य लोग भी इस भाषा का व्यवहार करते थे। रुद्रट, वाग्भट, हेमचन्द्र आदि आलंकारिकों ने भी अपने-अपने अलंकार-ग्रन्थों में इस भाषा का उल्लेख किया है। ___ मगध देश ही मागधी भाषा का उत्पत्ति-स्थान है। मगध देश की सीमा के बाहर भी अशोक के शिलालेखों में जो इसके निदर्शन पाये जाते हैं उसका कारण यह है कि मागधी भाषा उस समय राजभाषा होने के कारण मगध के बाहर भी ना इसका प्रचार हुआ था। सम्भवतः राज-भाषा होने के कारण ही नाटकों में सर्वत्र ही राजा के ' अन्तःपुर के लोगों के लिए इस भाषा का व्यवहार करने का नियम हुआ था। प्राचीन भिक्षु और क्षपणक भी मगध के ही निवासी होने से, सम्भव है, नाटकों में इनकी भाषा भी मागधी ही निर्दिष्ट की गई है। वररुचि ने अपने प्राकृत व्याकरण में मागधी की प्रकृति-मूल होने का सम्मान सौरसेनी को दिया है। इसीका अनुसरण कर मार्कण्डेय ने भी सौरसेनी से ही मागधी की सिद्धि कही है। किन्तु मागधी और सौरसेनी आदि प्रादेशिक भाषाओं का भेद अशोक के शिलालेखों में भी देखा जाता है। इससे यह सिद्ध है कि ये सब प्रादेशिक भेद प्राचीन और समसामयिक हैं, एक प्रदेश की भाषा से दूसरे प्रदेश में उत्पन्न नहीं हुए हैं। जैसे सौरसेनी मध्यदेश में प्रचलित वैदिक युग की कथ्य भाषा से उत्पन्न हुई है वैसे मागधी ने भी उस कथ्य भाषा से जन्म-ग्रहण किया है जो वैदिककाल में मगध देश में प्रचलित थी। अशोक-शिलालेखों की और अश्वघोष के नाटकों की मागधी भाषा प्रथम युग की मागधी भाषा के निदर्शन हैं। भास के और परवर्ती काल के अन्य नाटकों की और प्राकृत-व्याकरणों की मागधी मध्य-युग की मागधी समय भाषा के उदाहरण हैं। __ शाकारी, चाण्डाली और शाबरी ये तीन भाषाएँ मागधी के ही प्रकार-भेद-रूपान्तर हैं। भरत ने शाकारी भाषा का व्यवहार शबर, शक आदि और उसी प्रकृति के अन्य लोगों के लिए कहा है, किन्तु मार्कण्डेय ने राजा के साले की भाषा शाकारी बतलाई है। भरत पुक्कस आदि जातियों की व्यवहार-भाषा को चाण्डाली और अंगारकार, व्याध, सर प्रदेश में उत्पन्न नहीं हुए काल में मगध देश में प्रकस्य भाषा से उत्पन्न हुई है १. "मागधी तु नरेन्द्राणामन्तःपुरनिवासिनाम्" (नाट्यशास्त्र १७, ५०)। ___“सुरङ्गाखनकादीनां शुण्डकाराश्वरक्षिणाम् । व्यसने नायकानां स्यादात्मरक्षासु मागधी ॥" (नाट्यशास्त्र १७,५६)। २. "प्रकृतिः सौरसेनो" (प्राकृतप्रकाश ११, २)। ३. "मागधी शौरसेनीतः" (प्राकृतसर्वस्व, पृष्ठ १०१)। ४. “शबराणां शकादीनां तत्स्वभावश्च यो गणः । शकारभाषा योक्तव्या" (नाट्यशास्त्र १७, ५३)। ५. "शकारस्येयं शाकारी, शकारश्च 'राज्ञोऽनूढाभ्राता श्यालस्वैश्वर्यसंपन्नः ।। मदमूर्खताभिमानी शकार इति दुष्कुलीनः स्यात्' इत्युक्तेः" (प्राकृतसर्वस्व, पृष्ठ १०५)। For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) - शाकारी आदि भाषाएँ कटहार और यन्त्र-जीवी लोगों की भाषा को शायरी कहते हैं । इन तीनों भाषाओं के जो लक्षण और मगध के उदाहरण मार्कण्डेय के प्राकृत-व्याकरण में और नाटकों के उक्त पात्रों की भाषा में पाये जाते हैं उनमें और इतर प्राकृत - व्याकरणों की मागधी भाषा के लक्षण और उदाहरणों में तथा नाटकों के मागधीभाषा-भाषी पात्रों की भाषा में इतना कम भेद और इतना अधिक साम्य है कि उक्त तीन भाषाओं को मागची से अलग नहीं कही जा सकती। यही कारण है कि हमने प्रस्तुत कोष में इन भाषाओं का मागधी में ही समावेश किया है। मृच्छकटिक के पात्र माथुर और दो द्यूतकारों की भाषा को 'ढक्की' नाम दिया गया है। यह भी मागधी भाषा का ही एक रुपान्तर प्रतीत होता है। मार्कण्डेय ने 'ढक्की' को ही 'टाक्की' नाम से निर्देश किया है, यह उनके वहाँ पर उद्धृत .किये हुए एक श्लोक से ज्ञात होता है। मार्कण्डेय ने पदान्ध में उ, तृतीया के एकवचन में पश्चमी के बहुवचन में हम आदि जो इस भाषा के लक्षण दिए हैं उनपर से इसमें अपभ्रंश का ही विशेष साम्य नजर आता हैं । इस लिए मार्कण्डेय ने वहाँ पर जो यह कहा है कि 'हरिश्चन्द्र इस भाषा को अपभ्रंश मानता है" वह मत हमें भी संगत मालूम पड़ता है । ढक्की या टाकी भाषा मागधी भाषा का सीरसेनी के साथ जो प्रधान भेद है वह नीचे दिया जाता है। इसके सिवा अन्य अंशों में मागी भाषा साधारणतः सौरसेनी के ही अनुरूप है । लक्षण वर्ण-भेद १. र के स्थान में सर्वत्र ल होता है; यथा-नर = गल; कर = कल । २. श, ष और स के स्थान में तालव्य श होता है; यथा-शोभन = शोहण, पुरुष = पुलिशः सारस = शालश । ३. संयुक्त व और स के स्थान में दन्त्य सकार होता है यथा-शुष्क शुल्क ४. ट्ट और ष्ठ के स्थान में स्ट होता है; यथा — पट्ट = पस्ट, सुष्ठु = शुस्तु । ५. स्थ और र्थं की जगह स्व होता है; जैसे-उपस्थित = उवस्तिदः सार्थं = शस्त ६. ज, थ और य के बदले य होता है; यथा-जानाति = यादि, दुर्जन = दुय्यणः मद्य मय्य, अद्य = अय्य; याति = यादि, = यम = यम ७. न्य, एय, ज्ञ और ज के स्थान में ज्ञ होता है; यथा - प्रन्य = मन्ञ; पुण्य पुत्र प्रज्ञा = पन्नाः भञ्जलि = श्रव्ञलि । ८. अनादि व के स्थान में व होता है; यथा - गच्छ = गश्च पिच्छिल = पिचिल | ९. क्ष की जगह एक होता है"; जैसे-राक्षस = लस्कश, यक्ष यस्क । - कस्ट स्वनतिखदि बृहस्पति बृहस्पदि । = नाम-विभक्ति प १. अकारान्त पुंलिंग शब्द के प्रथमा के एकवचन में ए होता है; यथा-जिनः यिणे, पुरुषः = पुलिशे । २. अकारान्त शब्द के षष्ठी का एकवचन एस ओर ग्राह होता है; यथा-जिनस्य = विएस्स, यिरगाह । ३. अकारान्त शब्द के पछी के बहुवचन में मारा और भाई वे दोनों होते हैं जैसे-जिनानामविशाण, पिणा । ४. अस्मत् शब्द के एकवचन और बहुवचन का रूप हगे होता है । १. “एडसाद अंगारकरण्याचा कात्रोपजीविनाम् योग्या शरभाषा तु" (नाज्यशाख १७, ५३-४) । २. " प्रयुज्यते नाटकादौ द्यूतातिव्यवहारिभिः । वणिग्भिर्हीन देहैश्च तदाहुष्टक भाषितम् " ( प्राकृतसर्वस्व, पृष्ठ ११० ) । ३. "हरिन्द्रविम भाषामपभ्रंश इतीति" (प्राइस ष्ठ ११० ) । ४ माह नियम वैकल्पिक मानते हैं "रस्य सोनाम" (प्राकृतस०] [४] १०१) । ५. हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'क्ष' की जगह जिह्वामूलीय क' होता है; देखो हे० प्रा० ४, २९६ ॥ For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) (९) महाराष्ट्री प्राकृत काव्य और गीति की भाषा महाराष्ट्री कही जाती है। सेतुबन्ध, गाथासप्तशती, गउडवहो, कुमारपालचरितः प्रभृति ग्रन्थों में इस भाषा के निदर्शन पाये जाते हैं । गाथा (गीति - साहित्य) में महाराष्ट्री प्राकृत ने इतनी प्रसिद्धि प्राप्त की थी कि बाद के नाटकों में गद्य में सौरसेनी बोलनेवाले पात्रों के लिए संगीत या पद्य में महाराष्ट्री भाषा का व्यवहार करने का रिवाज सा बन गया था । यही कारण है कि कालिदास से लेकर उसके बाद के. सभी नाटकों में पद्य में प्रायः महाराष्ट्री भाषा का ही व्यवहार देखा जाता है। निदर्शन चंड ने अपने प्राकृतलक्षण में 'महाराष्ट्री' इस नाम का उल्लेख और इसके विशेष लक्षण न देकर भी आर्ष- प्राकृतः अथवा अर्धमागधी के और जैन महाराष्ट्री के लक्षणों के साथ साधारण भाव से इसके लक्षण दिए हैं। वररुचि ने अपने प्राकृत-व्याकरण में इस भाषा के "महाराष्ट्री' नाम का उल्लेख किया है और इसके विशेष लक्षण और उदाहरण दिए हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में 'महाराष्ट्री' नाम का निर्देश न कर 'प्राकृत' इस साधारण नाम से महाराष्ट्री के ही लक्षण और उदाहरण बताए हैं । क्रमदीश्वर का संक्षिप्तसार, त्रिविक्रम की प्राकृतव्याकरणसूत्रवृत्ति, लक्ष्मीधर की षड्भाषाचन्द्रिका और मार्कण्डेय का प्राकृतसर्वस्व प्रभृति प्राकृत व्याकरणों में इस भाषा के लक्षण और उदाहरण पा जाते हैं । चंड-भिन्न सभी प्राकृत वैयाकरणों ने महाराष्ट्री का मुख्य रूप से विवरण दिया है और सौरसेनी, मागधी प्रभृति भाषाओं के महाराष्ट्री के साथ जो भेद हैं वे ही बतलाए हैं। संस्कृत के अलंकार-शास्त्रों में भी भिन्न-भिन्न प्राकृत भाषाओं का उल्लेख मिलता है । भरत के नाट्य-शास्त्र में 'दाक्षिणात्या' भाषा का निर्देश है, किन्तु इसके विशेष लक्षण नहीं दिए गए हैं। संभवतः वह महाराष्ट्री भाषा ही हो सकती है, क्योंकि भरत ने महाराष्ट्री का अलग उल्लेख नहीं किया है । परन्तु मार्कण्डेय के प्राकृतसर्वस्व में उद्धृत प्राकृतचन्द्रिका के वचन में और प्राकृतसर्वस्व के खुद मार्कण्डेय के वचन में महाराष्ट्री और दाक्षिणात्या का भिन्न भिन्न भाषा के रूप में उल्लेख किया गया है । दण्डी के काव्यादर्श के 'महाराष्ट्राश्रयों भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः । सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धादि यन्मयम् ॥” (१, ३४) । इस श्लोक में महाराष्ट्री भाषा का और उसकी उत्कृष्टता का स्पष्ट उल्लेख है । दण्डी के समय में महाराष्ट्री प्राकृत का इतना उत्कर्ष हुआ था कि इसके परवर्ती अनेक ग्रन्थकारों ने केवल इस महाराष्ट्री के ही अर्थ में उस प्राकृत शब्द का प्रयोग किया है जो सामान्यतः सर्व प्रादेशिक भाषाओं का वाचक है। रुद्रट का काव्यालंकार, वाग्भटालंकार, पाइअलच्छीनाममाला, हेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण प्रभृति ग्रन्थों में महाराष्ट्री के ही अर्थ में प्राकृत शब्द व्यवहृत हुआ है । अलंकार-शास्त्र-भिन्न पाइअलच्छीनाममाला और देशीनाममाला इन कोष-प्रन्थों में भी महाराष्ट्री के उदाहरण हैं। डॉ. हॉर्नलि के मत में महाराष्ट्री भाषा महाराष्ट्र देश में उत्पन्न नहीं हुई है । वे मानते हैं कि महाराष्ट्री का अर्थ 'विशाल राष्ट्र की भाषा' है और राजपूताना तथा मध्यदेश प्रभृति इसी विशाल राष्ट्र के अन्तर्गत हैं, इसी से 'महाराष्ट्री' मुख्य प्राकृत कही गई है । किन्तु दण्डी ने इस भाषा को महाराष्ट्र देश की ही भाषा ही है। उत्पत्ति स्थान प्रियर्सन के मत में महाराष्ट्री प्राकृत से ही आधुनिक मराठी भाषा उत्पन्न हुई है। इससे महाराष्ट्री प्राकृत का उत्पत्तिस्थान महाराष्ट्र देश ही है यह बात निःसन्देह कही जा सकती है । आचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में महाराष्ट्र को ही 'प्राकृत' नाम दिया है और इसकी प्रकृति संस्कृत कही है। इसी तरह चण्ड, लक्ष्मीधर, मार्कण्डेय आदि वैयाकरणों ने साधारण रूप से सभी प्राकृत भाषाओं का मूल (प्रकृति) संस्कृत बताया है। किन्तु हम यह पहले ही अच्छी तरह प्रमाणित कर आए हैं कि कोई भी प्राकृत भाषा संस्कृत से उत्पन्न नहीं हुई है, बल्कि वैदिक काल में भिन्न-भिन्न प्रदेशों में प्रचलित आर्यों की कथ्य भाषाओं प्रकृति १. " शेषं महाराष्ट्रीवत् ” ( प्राकृतप्रकाश १२, ३२) । २. "महाराष्ट्री तथावन्ती सौरसेन्यधंसागधी । वाह्रीकी मागधी प्राच्यत्यष्टौ ता दाक्षिणात्यया ।।" (प्रा० सं० पृष्ठ २) । ३. देखो प्राकृतसर्वस्व, पृष्ठ २ और १०४ । For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९ ) से ही सभी प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति हुई है, सुतरां महाराष्ट्री भाषा की उत्पत्ति प्राचीन काल के महाराष्ट्र निवासी आर्यों की कथ्य भाषा से हुई है । कौन समय आर्यों ने महाराष्ट्र में सर्व प्रथम निवास किया था, इस बात का निर्णय करना कठिन है, परन्तु अशोक के पहले प्राकृत भाषा महाराष्ट्र देश में प्रचलित थी, इस विषय में किसीका मतभेद नहीं है। उस समय महाराष्ट्र देश में प्रचलित प्राकृत से क्रमशः काव्यीय और नाटकीय महाराष्ट्री भाषा उत्पन्न हुई है । प्राकृतप्रकाश का कर्ता वररुचि यदि वृत्तिकार कात्यायन से अभिन्न व्यक्ति हो तो यह स्वीकार करना होगा कि महाराष्ट्री ने अन्ततः स्त्रिस्त-पूर्व दो सौ वर्ष के पहले ही साहित्य में स्थान पाया था । लेकिन महाराष्ट्री भाषा के तद्भव शब्दों में व्यञ्जन वर्णों के लोप की बहुलता देखने से यह विश्वास नहीं होता कि यह भाषा उतनी प्राचीन है । वररुचि का व्याकरण संभवतः स्त्रिस्त के बाद ही रचा गया है। जैन अर्धमागधी और जैन महाराष्ट्री में महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव का ह पहले उल्लेख किया है । महाराष्ट्री भाषा में रचित जो सब साहित्य इस समय पाया जाता है उसमें ख्रिस्त के बाद की महाराष्ट्री के ही निदर्शन देखे जाते हैं । प्राचीन महाराष्ट्री का कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है । प्राचीन महाराष्ट्री में बाद की महाराष्ट्री की तरह व्यजन वर्ग लोप की अधिकता नहीं थी, इस बात के कुछ निदर्शन चण्ड के व्याकरण में मिलते हैं। जैन अर्धमागधी और जैन महाराष्ट्री में प्राचीन महाराष्ट्री भाषा का सादृश्य रक्षित है। समय भरत ने नाट्यशास्त्र में आपन्ती और वाह लीकी भाषा का उल्लेख कर नाटकों में धूर्त पात्रों के लिए आयन्ती का भावन्ती र वाह्रीकी और यूतकारों के लिए वाह लीकी का प्रयोग कहा है। मार्कण्डेय ने अपने प्राकृतसर्वस्व में 'आवन्ती महाराष्ट्री स्यान्महाराष्ट्रीशीर सेम्पोस्तु संरात्' और 'आपस्यामेव वा लोकी किन्तु रस्यात्र लो भवेत् यह कह अन्तर्गत है कर इनका संक्षिप्त लक्षण-निर्देश किया है। मार्कण्डेय ने आवन्ती भाषा के जो खा के स्थान में तु और भविष्यत् काल के प्रत्यय के स्थान में ज और जा प्रभुति लक्षण बतलाए हैं वे महाराष्ट्रों के साथ साधारण हैं। उनके दिए हुए किराद, वेद, पेच्छदि प्रभृति उदाहरणों में जो तकार के स्थान में दकार है वहाँ शौरसेनी के साथ इसका आव का) सादृश्य है परन्तु वह भी सर्वत्र नहीं है, जैसे उनके दिए हुए हो, सुम्ब निज भरणा आदि उदाहरणों में इसी तरह बाह लीकी मैं जोर का ल होता है वही एकमात्र मागधी का सादृश्य है। इसके सिवा सभी अंशों में यह भी आयन्ती की तरह महाराष्ट्री के ही साहरा है सुतरां ये दोनों भाषाएँ महाराष्ट्री के ही अन्तर्गत कही जा सकती है। इससे हमने भी इनका इस कोष में अलग निर्देश नहीं किया है। संस्कृत भाषा के साथ महाराष्ट्री भाषा के वे भेद नीचे दिए जाते हैं जो महाराष्ट्री और संस्कृत के साथ अन्य प्राकृत भाषाओं के सादृश्य और पार्थक्य की तुलना के लिए भी अधिक उपयुक्त हैं । लक्षरण स्वर १. अनेक जगह भिन्न स्वरों के स्थान में भिन्न-भिन्न स्वर होते हैं। जैसे—मृद्धि सामिद्धि, ईईसि हर हीर, ध्वनि झुणि, शय्या = सेज्जा, पद्म = पोम्म; यथा = जह सदा = सइ स्त्यान = थीए, सास्ना = सुरहा, आसार = ऊसार, ग्राह्य = गेज्झ, श्राली = श्रोली; इति इन, पथिन् = पह, जिह्वा = जीहा, द्विवचन = दुवऋण, पिण्ड = पेंड, द्विधाकृत = दोहा इन हरीतकी = हरडई, कश्मीर = कम्हार, पानीय = पाणिन, जीएं = जुराण, हीन : हूरा, पीयूष = पेऊस मुकुल = मउल, भ्रुकुटि = भिउडि, क्षुत = छीघ्र, मुसल = मूसल, तुण्ड = तोंड; सूक्ष्म = सरह, उद्वय ढ = उच्चीढ, वातूल = वाउल, नूपुर = खेउर, तूणीर = तोणीर; वेदना = विश्रणा, स्तेन = थूण; मनोहर = मगहर, गो = गउ, गानः सोच्छ्वास = सूसास । २. महाराष्ट्री में ऋ, ऋ, लृ, लृ ये स्वर सर्वथा लुप्त हो गये हैं । = ३. ऋ के स्थान में भिन्न-भिन्न स्वर एवं रि होता है; यथा - तृण = तण, मृदुक = माउक्क, कृपा = किवा, मातृ - माइ, माउ वृत्तान्त = वृतंत, मृषा मुसा, मूसा, मोसा वृन्त विट, वेंट, वोंट ऋतु उउ, रिउ ऋद्धि = रिद्धि, ऋक्ष रिच्छः सदृश = सरिस, दृप्त = दरिभ । = ४. ट के स्थान में इलि होता है; जैसे- क्लुप्त = किलित्त, क्लुन्न = किलिएण | ऐ का प्रयोग भी प्रायः महाराष्ट्री में नहीं है। उसके स्थान में सामान्यतः ए और विशेषतः श्रव होता है, यथा- शैल = सेल, ऐरावण = एरावण, वैद्य - वेज, वैधव्य = वेहन्त्रः सैन्य = सेण्ण, सइराण, कैलाश = केलास, कइलासः दैव = देव्व, दइव ऐश्वयं = भइसरिभ, दैन्य = दइएण । ७ For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) ६. प्रो का व्यवहार भी प्रायः महाराष्ट्र में नहीं है। उसके स्थान में सामान्यतः भो और विशेष स्थलों में उ या अउ होता है; यथा-कौमुदी - कोमुई, यौवन = जोव्वण, दौवारिक = दुवारिप, पौलोमी = पुलोमीः कौरव = क उरव, गौड = गउह, सौध = सउह। असंयुक्त व्यञ्जन १. स्वरों के मध्यवर्ती क, ग, च, ज, त, द, य, व इन व्य जनों का प्रायः लोप होता है; जैसे क्रमशः-लोक = लोग, नग = एमः शची = सई, रजत = रमम. यती-जई, गदा = गया, वियोग = विनोम, लावण्य = लापरण। २. स्वरों के बीच के ख, घ, थ, ध और भ के स्थान में ह होता है; यथा क्रमशः-शाखा = साहा, श्वाघते - लाहइ, नाथ = णाह, साधु = साहु, सभा = सहा । ३. स्वरों के बीच के ट का ड होता है; यथा-भट = भड, घट = घड । ४. स्वरों के बीच के ठ का ढ होता है। जैसे–मठ = मढ, पठति = पढइ । ५. स्वरों के बीच के ड का ल प्रायः होता है; यथा-गरुड = गरुल, तडाय = तलाम । ६. स्वरों के बीच के त का अनेक स्थल में ड होता है, यथा-प्रतिभासस = पडिहास, प्रभृति = पहुडि, व्यापृत = वावड, पताका पडामा । ७. न के स्थान में सर्वत्र ण होता है; यथा-कनक =करणप, वचन = वनण, नर-गर, नदी = राई, अन्य प्राण, दैन्य = दइएण। ८. दो स्वरों के मध्यवर्ती प का कही-कहीं व और कहीं-कहीं लोप होता है; यथा-शपथ = सवह, शाप = साव, उपसर्ग = उवसग्ग, रिपु = रिउ, कपि = कइ । ह. स्वरों के बीच के फ के स्थान में कहीं-कहीं भ, कहीं-कहीं ह और कहीं-कहीं ये दोनों होते हैं; यथा-रेफ = रेभ, शिफा = सिभा, मुक्ताफल - मुत्ताहल, सफल = सभल, सहल, शेफालिका = सेभालिमा, सेहालिया। स्वरों के मध्यवर्ती ब का व होता है; जैसे-अलाबू = अलावू, सबल = सवल। ११. आदि के य का ज होता है; यथा-यम = जम, यशस् = जस, याति - जाइ। १२. कृदन्त के अनीय और य प्रत्यय के य का ज होता है। जैसे-करणीय = करणिज, पेय = पेज । १३. अनेक जगह र काल होता है; यथा-हरिद्रा = हलिहा, दरिद्र = दलिद्द, युधिष्ठिर - जहुट्ठिल, अंगार = इंगाल। १४. श और ष का सर्वत्र स होता है; यथा-शब्द =सद्द, विश्राम = वीसाम, पुरुष-पुरिस, सस्य = सास, शेष = सेस । १५. अनेक जगह ह का घ होता है; यथा-दाह = दाघ, सिंह = सिंघ, संहार = संघार । १६. कहीं-कहीं श, ष और स का छ होता है; जैसे-शाव = छाव, षष्ठ = छ?, सुधा= छुहा । अनेक शब्दों में स्वर सहित व्यञ्जन का लोप होता है; यथा-राजकुल = राउल, प्रागत = आप्र, कालायस = कालास, हृदय = हिप, पादपतन = पावडण, यावत् = जा, त्रयोदश = तेरह, स्थविर = थेर, बदर = बोर, कदल = केल, कणिकार = करणेर, चतुर्दश= चोद्दह, मयूख = मोह । संयुक्त व्यञ्जन १. क्ष के स्थान में प्रायः ख और कहीं-कहीं छ और क होता है। जैसे-क्षय = खय, लक्षण = लक्खण, अक्षि = अच्छि, क्षीण - छीण, झीण। २. त्व, त्र, द्व और घ के स्थान में कहीं-कहीं क्रमशः च, छ, ज और भ होता है; यथा-ज्ञात्वा = णचा, पृथ्वी = पिच्छी, विद्वान् = विज, बुद्ध्वा = बुज्झा । द्वस्व स्वर के परवर्ती थ्य, थ, इस और प्स के स्थान में छ होता है; जैसे-पथ्य = पच्छ, पश्चात् = पच्छा, उत्साह - उच्छाह, अप्सरा % अच्छरा। १०. १७. १. संस्कृत के 'भयि' शब्द का महाराष्ट्री में ऐं होता है। इसके सिवा किसी किसी के मत में 'ऐ' तथा 'नौ' का भी प्रयोग होता है जैसे-कैतव = कैनव, कौरव = कौरव (हे० प्रा० १, १)। २. बररुचि के प्राकृत-व्याकरण के 'नो णः सर्वत्र' (२, ४२) सूत्र के अनुसार सर्वत्र 'न' का 'ण' होता है। सेतुबन्ध और गाथा शप्तशती में इसी तरह सार्वत्रिक 'ण' पाया जाता है। हेमचन्द्र प्रादि कई प्राकृत वैयाकरणों के मत से शब्द के मादि के न का विकलल्प से 'ण' होता है। यथा-नदी = एई, नई; नर = पर, नर । गउडवहो में एकार का वैकल्पिक प्रयोग देखा जाता है। For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. द्य, प्य और यं का ज होता है; यथा-मद्य = मज, जय्य = जज, कार्य = कज । ५. ध्य और घ का होता है; यथा-ध्यान - भाण, साध्य = सज्झ, गुह्य = गुज्झ, सह्य - सज्झ । ६. ते का प्रायः ट होता है; जैसे-नर्तकी-गट्टई, कैवतं = केवट्ट । ७. के स्थान में होता है; यथा-मुष्टि = मुट्ठि, पुष्ट = पृट्ठ, काष्ठ = कट्ठ, इष्ट = इट्ट । ८. म्न का ण होता है; यथा-निम्न = णिएण, प्रद्युम्न = पज्जुएण । है. ज्ञ का ण और ज होता है। जैसे-ज्ञान = णाण, जाण प्रज्ञा = पएणा, पज्जा । १०. स्त का थ होता है; जैसे-हस्त = हत्थ, स्तोत्र = थोत्त, स्तोक - थोव । ११. ड्म और क्म का प होता है; यथा-कुड्मल = कुंपल, रुक्मिणी- प्पिणी। १२. प और स्प का फ होता है; यथा-पुष्प = पुष्फ, स्पन्दन = फंदरण । १३. ह्व का भ होता है, यथा-जिह्वा=जिब्भा, विह्वल = विन्भल । १४. म और ग्म काम होता है; जैसे-जन्मन् = जम्म, मन्मथ = मम्मह, युग्म = जुज्म, तिग्म = तिम्म । १५. श्म, म, स्म और ह्म का म्ह होता है; यथा-काश्मीर = कम्हार, ग्रीष्म = गिम्ह, विस्मय = विम्हन, ब्राह्मण = बम्हण । १६. श्न, ष्ण, स्न, हु, हु और क्षण के स्थान में रह होता है; यथा-प्रश्न = परह, उष्ण = उपह, स्नान = राहाण, वह्नि = वहि, पूर्वाद्ध = पुष्वराह, तीक्ष्ण = तिएह । १७. ह का ल्ह होता है; यथा-प्रहाद = पल्हाम, कहार = कल्हार । १८. संयोग में पूर्ववर्ती क, ग, ट, ड, त, द, प, श, ष और स का लोप होता है, जैसे-भुक्त = भुत्त, मुग्ध = मुद्ध, षट्पद = छप्पन, खड्ग = खग्ग, उत्पल = उप्पल, मुद्गर = मुग्यर, सुप्त = सुत्त, निश्चल = णिचल, निष्ठुर -पिट् ठुर, स्खलित = खलिया। संयोग में परवर्ती म, न और य का लोप होता है; यथा-स्मर = सर, लग्न = लग्ग, व्याध = वाह। २०. संयोग में पूर्ववर्ती और परवर्ती सभी ल, व और र का लोप होता है; यथा-उल्का = उक्का, विक्लव = विक व शब्द सद्द, पक्क % पक, अर्क - अक्क, चक्र = चक्क । २१. संयुक्त अक्षरों के स्थान में जो-जो आदेश ऊपर कहा है उसका और संयुक्त व्यञ्जन के लोप होने पर जो-जो व्यअन बाकी रहता है उसका, यदि वह शब्द के आदि में न हो तो, द्वित्व होता है। जैसे-ज्ञात्वा = णचा, मद्य = मज, भुक्त =भुत्त, उल्का = उक्का। परन्तु वह आदेश अथवा शेष व्यअन यदि वर्ग का द्वितीय अथवा चतुर्थ अक्षर हो तो द्वित्व न होकर उसके पूर्व में आदेश अथवा शेष व्यञ्जन के अनन्तर-पूर्व व्यञ्जन का आगम होता है; यथालक्षण = लक्खण, पश्चात् = पच्छा, इष्ट = इट्ट, मुग्ध = मुद्ध । विश्लेषण १. ह. श, ष के मध्य में और संयोग में परवर्ती ल के पूर्व में स्वर का आगम होकर संयुक्त व्यञ्जनों का विश्लेषण किया जाता है; यथा-प्रहंत = अरह, मरिह, अरुहः मादर्श = पायरिस, हर्ष = हरिस: किष्ट = किलिट्ठ । - व्यत्यय १. अनेक शब्दों में व्यञ्जन के स्थान का व्यत्यय होता है; यथा-करेणू = कणेरू, पालान =प्राणाल, महाराष्ट्र = मरहट्ठ, - हरिताल = हलियार, लघुक = हलुप, ललाट =ण्डाल, गुह्य = गुटह, सह्य % सरह । सन्धि १. समास में कहीं-कहीं ह्रस्व स्वर के स्थान में दीर्घ और दोघं के स्थान में ह्रस्व होता है; यथा-अन्तर्वे दि=अन्तावेइ, पतिगृह = पइहर, यमुनातट = जंउणप्रड, नदीस्रोत = णइसोत्त । २. स्वर पर रहने पर पूर्व स्वर का लोप होता है। जैसे-त्रिददेश = तिप्रसीस । संयुक्त व्यअन का पूर्व स्वर ह्रस्व होता है; जैसे-पास्य = अस्स, मुनीन्द्र = मुरिंणद, चूर्ण = चुराण, नरेन्द्र = णरिंद, म्लेच्छ % मिलिच्छ, नीलोत्पल = णोलुप्पल । सन्धि-निषेध उद्धृत ( व्यञ्जन का लोप होने पर अवशिष्ट रहे हुए) स्वर की पूर्व स्वर के साथ प्रायः सन्धि नहीं होती है; यथानिशाकर = णिसापर, रजनीकर = रमणीपर । For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात के स्वर की साधनाथ सन्धि नहीं होती है, हाता है; यथा-वग्गेवि प्रवयासोटा ( ५२ ) २. एक पद में स्वरों की सन्धि नहीं होती है; जैसे-पाद - पान, गति = गइ, नगर = णभर । ३. इ, ई, और ऊ की, असमान स्वर पर रहने पर, सन्धि नहीं होती है; यथा-वग्गेवि प्रवयासो, दणुईदो। ४. ए और प्रो की परवर्ती स्वर के साथ सन्धि नहीं होती है; यथा-फले प्राबंधो, मालक्खिमो एरिह । ५. आख्यात के स्वर की सन्धि नहीं होती है। जैसे-होइ इह । नाम-विभक्ति १. अकारान्त पुंलिंग शब्द के एकवचन में प्रो होता है। जैसे--जिनः = जियो, वृक्षः = वच्छो । २. पश्चमी के एकवचन में तो, ओ, उ, हि और लोप होता है और तो-भिन्न अन्य प्रत्ययों के प्रसंग में अकार का आकार होता है; जैसे-जिनात् = जिणात्तो, जिणाप्रो जिणाउ, जिणाहि, जिणा । ३. पञ्चमी के बहुवचन का प्रत्यय तो, मो, उ और हि होता है, एवं तो से अन्य प्रत्यय में पूर्व के मका मा होता है, हि के प्रसंग में ए भी होता है, यथा-जिणत्तो, जिणायो, जिणाउ, जिणाहि, जिणेहि । ४. पञ्चमी के एकवचन के प्रत्यय के स्थान में हितो और बहुवचन के प्रत्यय के स्थान में हिंतो और सुतो इन स्वतन्त्र शब्दों का भी प्रयोग होता है, यथा-जिनात् = जिणा हितों; जिनेभ्यः = जिणा हिन्तो, जिणे हिन्तो, जिणा सुतो, जिणे सुतो। ५. षष्टो के एकवचन का प्रत्यय स्स होता है, यथा-जिणस्स, मुरिणस्स, तरुस्स। अस्मत् शब्द के प्रथमा के एकवचन के रूप म्मि, अम्मि, अम्हि, हं, अहं और मयं होता है। अस्मत् शब्द के प्रथमा के बहुवचन के रूप प्रम्ह, अम्हे, अम्हो, मो, वयं और भे होता है। अस्मत् शब्द के षष्ठी का बहुवचन णे, णो, मज्झ, प्रम्ह, अम्ह, अम्हे, प्रम्हो, भम्हाण, ममाण महाण और मज्झाण होता है। युष्मत् शब्द के षष्ठी का एकवचन तइ, तु, ते, तुम्ह, तुह, तुह, तुव, तुम, तुमो, तुमाइ, दि, दे, इ, ए, तुम, तुम्ह, तुज्झ उन्भ, उम्ह, उज्झ और उय्ह होता है। लिङ्ग-व्यत्यय १. संस्कृत में जो शब्द केवल पुंलिंग है, उनमें से कई एक महराष्ट्री में स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग भी है, यथा-प्रश्नः = पएहो, पाहा: गुणाः = गुणा, गुणाई देवा = देवा, देवाणि । अनेक जगह स्त्रीलिंग के स्थान में पुलिग होता है, यथा-शरत् = सरसो, प्रावूट = पाउसो, विद्युता = विज्जुणा । ३. संस्कृत के अनेक क्लीबलिंग शब्दों का प्रयोग महाराष्ट्ठी में पुंलिंग और स्त्रीलिंग में भी होता है; यथा-यशः = जसो, जन्म = जम्मो, प्रक्षि-मच्छी, पृष्ठम् = पिट्ठी, चौर्यम् = चोरिमा। स्थान में हितो और सही जिनेभ्यः = जिणा । प्रत्यय स्स होता है. आख्यात १. ति और ते प्रत्ययों के त का लोप होता है, जैसे-हसति = हसइ, हसए; रमते = रमद, रमए । २. परस्मैपद और आत्मनेपद का विभाग नहीं है, महाराष्ट्रा में सभी धातु उभयपदी की तरह हैं। ३. भूतकाल के ह्यस्तन, अद्यतन और परोक्ष विभाग न होकर एक ही तरह के रूप होते हैं और भूतकाल में आख्यात की जगह त-प्रययान्त कृदन्त का ही प्रयोग अधिक होता है। ४. भविष्यत्-काल के भी संस्कृत का तरह श्वस्तन और भविष्यत् ऐसे दो विभाग नहीं है। ५. भविष्यकाल के प्रत्ययों के पहले हि होता है, यथा-हसिष्यति = हसिहिद, करिष्यति, = करिहिइ । ६. वर्तमान काल के, भविष्यकाल के और विधि-लिंग और आज्ञार्थक प्रत्ययों के स्थान में ज्ज और ज्जा होता है, यथा हससि, हसिष्यति, हसेत्, हसतु = हसेज्ज, हसेज्जा। ७. भाव और कर्म में ईम और इज प्रत्यय होते हैं, यथा-हस्यते % हसीमइ, हसिबइ । कृदन्त १. शीलाद्यर्थक तु-प्रत्यय के स्थान में इर होता है, यथा-गन्तु = गमिर, नमनशील = एमिर । २. स्वा-प्रत्यय के स्थान में तुम् , म, तूण, तुपाण और ता होता है, जैसे-पठित्वा-पठिउँ, पढिम, पढिऊण, पढिउमाण, पढित्ता । तद्धित १. स्व-प्रत्यय के स्थान में त और तण होता है, यथा-देवत्व - देवत्त, देवत्तण । For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-वैयाकरणों ने भी य -अलग निर्देश करते हुए का अपभ्रंश कही गई है। यहा में (१०) अपभ्रंश महर्षि पतअलि ने अपने महाभाष्य में लिखा है कि "भूयांसोऽपशब्दा मल्पीयांसः शब्दाः । एकैकस्य हि शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशाः, सद्यथा-गौरित्यस्स शब्दस्य गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका इत्येवमादयोऽपभ्रशा:" अर्थात् अपशब्द बहुत और शब्द (शुद्ध) थोड़े हैं, क्योंकि एक एक शब्द के बहुत अपभ्रंश हैं, जैसे 'गौः' इस शब्द के गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका इत्यादि अपभ्रंश हैं। म यहाँ पर 'अपभ्रंश' शब्द अपशब्द के अर्थ में ही व्यवहृत है और अपशब्द का अर्थ भी 'संस्कृतसामान्य और विशेष प्रर्थ व्याकरण स आसद्ध शब्द' है, य - व्याकरण से असिद्ध शब्द' है, यह स्पष्ट है। उक्त उदाहरणों में 'गावी' और 'गोणी' ये दो शब्दों का प्रयोग प्राचीन जैन-सूत्र-ग्रन्थों में पाया जाता है और चंड तथा आचार्य हेमचन्द्र आदि प्राकृत-वैयाकरणों ने भी ये दो शब्द अपने-अपने प्राकृत-व्याकरणों में लक्षण-द्वारा सिद्ध किये हैं। दण्डी ने अपने काव्यादर्श में पहले प्राकृत और अपभ्रश का अलग-अलग निर्देश करते हुए काव्य में व्यवहृत आभीर-प्रभृति की भाषा को अपभ्रंश कही हैं और बाद में यह लिखा है कि 'शास्त्र में संस्कृत भिन्न सभी भाषाएँ अपभ्रश कही गई है। यहाँ पर दण्डी ने शास्त्र-शब्द का प्रयोग महाभाष्य-प्रभृति व्याकरण के अर्थ में ही किया है। पतञ्जलि-प्रभृति संस्कृत-वैयाकरणों के मत में संस्कृत-भिन्न सभी प्राकृत-भाषाएँ अपभ्रंश के अन्तर्गत हैं, यह ऊपर के उनके लेख से स्पष्ट है। परन्तु प्राकृत-वैयाकरणों के मत में अपभ्रंश भाषा प्राकृत का ही एक अवान्तर भेद है। काव्यालंकार की टीका में नमिसाधु ने लिखा है कि "प्राकृतमेवापभ्रंशः” (२, १२) अर्थात् अभ्रंश भी शौरसेनी, मागधी आदि की तरह एक प्रकार का प्राकृत ही है। उक्त क्रमिक उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि पतञ्जलि के समय में जिस अपभ्रंश शब्द का 'संस्कृत-व्याकरण-असिद्ध (कोई भी प्राकृत)' इस सामान्य अर्थ में प्रयोग होता था उसने आगे जाकर क्रमशः 'प्राकृत का एक भेद' इस विशेष अर्थ को धारण किया है। हमने भी यहाँ पर अपभ्रश शब्द का इस विशेष अर्थ में ही व्यवहार किया है। अपभ्रंश भाषा के निदर्शन विक्रमोवंशी, धर्माभ्युदय आदि नाटक-ग्रन्थों में, हरिवंशपुराण, पउमचरिम (स्वयंभूदेवकृत) निदर्शन भविसयत्तकहा, संजममंजरी, महापुराण, यशोधरचरित, नागकुमारचरित, कथाकोश, पाचपुराण, सुदर्शनचरित्र, करकंडुचरित, जयतिहुप्रणस्तोत्र, विलासवईकहा, सणंकुमारचरिम, सुपासनाहचरित्र, कुमारपालचरित, कुमारपालप्रतिबोध, उपदेशतरंगिणी प्रभृति काव्यग्रन्थों में, प्राकृतलक्षण, सिद्धहेमचन्द्रव्याकरण (अष्टम अध्याय), संक्षिप्तसार, षड्भाषाचन्द्रिका, प्राकृतसर्वस्व वगैरह व्याकरणों में और प्राकृतपिङ्गल नामक छन्द-ग्रन्थ में पाये जाते हैं। डॉ. हॉर्नलि के मत में जिस तरह आर्य लोगों की कथ्य भाषाएँ अनार्य लोगों के मुख से उच्चारित होने के कारण . जिस विकृत रूप को धारण कर पायी थीं वह पैशाची भाषा है और वह कोई भी प्रादेशिक भाषा नहीं है, उस तरह आर्यों की कथ्य भाषाएँ भारत के आदिम-निवासी अनार्य लोगों की भित्र भिन्न भाषाओं के प्रभाव से जिन रूपान्तरों को प्राप्त हुई थीं वे ही भिन्न-भिन्न अपभ्रश भाषाएँ हैं और ये महाराष्ट्री की अपेक्षा अधिक प्राचीन हैं। डॉ. हॉर्नलि के इस मत का सर ग्रियर्सन-प्रभृति आधुनिक भाषातत्त्वज्ञ म्वीकार नहीं करते हैं। सर ग्रियर्सन के मत में भिन्न-भिन्न प्राकृत भाषाएँ साहित्य और व्याकरण में नियन्त्रित होकर जन-साधारण में अप्रचलित होने के कारण जिन नूतन कथ्य भाषाओं की उत्पत्ति हुई थी वे ही अपभ्रश हैं। ये अपभ्रश-आषाएँ ख्रिस्तीय पञ्चम शताब्दी के बहुत काल पूर्व से ही कथ्य भाषाओं के रूप में व्यवहृत होती थी, क्योंकि चण्ड के प्राकृत-व्याकरण में और कालिदास की विक्रमोर्वशी में इसके निदर्शन पाये जाने के कारण यह निश्चित है कि ख्रिस्तीय पञ्चम शताब्दी के पहले से ही ये साहित्य में स्थान पाने लगी थीं। ये अपभ्रश भाषाएँ प्रायः दशम शताब्दी पर्यन्त साहित्य की भाषाएँ थीं। इसके बाद फिर जनसाधारण में अप्रचलित होने से जिन नूतन कथ्य भाषाओं की उत्पत्ति हुई वे ही हिन्दी, बंगला, गुजराती बगैरह आधुनिक १. "खीरीणियानो गावीमो", "गोणं वियाल" ( आचा २, ४, ५)। "णगरगावीप्रो" (विपा १, २--पत्र २६)। "गोणीणं संगेल्लं" (व्यवहारसूत्र, उ० ४)। २. “गोर्वावी" (प्राकृतलक्षण २, १६)। ३. “गोरणादयः" (हे० प्रा० २, १७४) । ४. “भाभीरादिगिरः काव्येष्वपनश इति स्मृताः । शाने तु संस्कृतादन्यदपभ्रंशतयोदितम्" (१, ३६)। For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य कथ्य भाषाएँ हैं। इनका उत्पत्ति-समय ख्रिस्त की नववीं या दसवीं शताब्दी है। सुतरां, अपभ्रंश-भाषाएँ ख्रिस्त की पश्चम शताब्दी के पूर्व से लेकर नववी या दशवीं शताब्दी पर्यन्त साहित्य की भाषाओं के रूप में प्रचलित थीं। इन अपभ्रश भाषाओं की प्रकृति वे विभिन्न प्राकृत-भाषाएँ हैं, जो भारत के विभिन्न प्रदेशों में इन अपभ्रशों की उत्पत्ति के पूर्वकाल में प्रचलित थीं। . भेद अपभ्रंश के बहुत भेद हैं, प्राकृतचन्द्रिका में इसके ये सताईस भेद बताये गए हैं। "वाचडो लोटवैदर्भावुपनागरनागरौ । बाबरावन्त्यपाञ्चालटाकमालवकैकयाः ।। गौडोटू हैवपाश्चात्यपाएज्यकौन्तलसँहलाः । कालिंगथप्राच्यकार्णाटकाच्यद्राविडगौराः ॥ भाभीरो मध्यदेशीयः सूक्ष्मभेदव्यस्थिताः । सप्तविशत्यपभ्रशा वैतालादिप्रभेदतः । मार्कण्डेय ने अपने प्राकृतसर्वस्व में प्राकृतचन्द्रिका से सताईस अपभ्रंशों के जो लक्षण और उदाहरण उद्धृत किए हैं। वे इतने अपर्याप्त और अस्पष्ट हैं कि खुद मार्कडेय ने भी इनको सूक्ष्म कह कर नगण्य बताये हैं और इनका पृथग्-पृथग् लक्षण-निर्देश न कर उक्त समस्त अपभ्रंशों का नागर, ब्राचड और उपनागर इन तीन प्रधान भेदों में ही अन्तर्भाव माना है। परन्तु यह बात मानने योग्य नहीं है, क्योंकि जब यह सिद्ध है कि जिन भाषाओं का उत्पत्ति स्थान भिन्न-भिन्न प्रदेश है और जिनकी प्रकृति भी भिन्न-भिन्न प्रदेश की भिन्न-भिन्न प्राकृत भाषाएँ हैं तब वे अपभ्रंश भाषाएँ भी भिन्न-भिन्न ही हो सकती हैं और उन सब का समावेश एक दूसरे में नहीं किया जा सकता। वास्तव में बात यह है कि वे सभी अपभ्रंश भिन्न भिन्न होने पर भी साहित्य में निबद्ध न होने के कारण उन सब के निदर्शन ही उपलब्ध नहीं हो सकते थे। इसीसे प्राकृतचन्द्रिकाकार न उनके स्पष्ट लक्षण ही कर पाये हैं और न तो उदाहरण ही अधिक दे सके हैं। यही करण है कि मार्कण्डेय ने भी इन भेदों को सूक्ष्म कहकर टाल दिये हैं। जिन अपभ्रंश भाषाओं के साहित्य-निबद्ध होने से निदर्शन पाये जाते हैं उनके लक्षण और उदाहरण आचार्य हेमचन्द्र ने केवल अपभ्रंश के सामान्य नाम से और मार्कण्डेय ने अपभ्रंश के तीन विशेष नामों से दिये हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने 'अपभ्रंश' इस सामान्य नाम से और मार्कण्डेय ने 'नागरापभ्रंश' इस विशेष नाम से जो लक्षण और उदाहरण दिये हैं वे राजस्थानी-अपभ्रश या राजपूताना तथा गुजरात प्रदेश के अपभ्रंश से ही संबन्ध रखते हैं। ब्राचडापभ्रंश के नाम से सिन्धप्रदेश के अपभ्रंश के लक्षण और उदाहरण मार्कण्डेय ने अपने व्याकरण में दिये हैं, और उपनागर-अपभ्रंश का कोई लक्षण न देकर केवल नागर और ब्राचड के मिश्रण को 'उपनागर-अपभ्रंश' कहा है। इसके सिवा सौरसेनी-अपभ्रंश के निदर्शन मध्यदेश के अपभ्रंश में पाये जाते हैं। अन्य अन्य प्रदेशों के अथवा महाराष्ट्री, अर्धमागधी, मागधी और पैशाची भाषाओं के ओ अपभ्रंश थे उनका कोई साहित्य उपलब्ध न होने से कोई निदर्शन भी नहीं पाये जाते हैं। भिन्न-भिन्न अपभ्रंश भाषा का उत्पत्ति-स्थान भी भारतवर्ष का भिन्न भिन्न प्रदेश है। रुद्रट ने और वाग्भट ने उत्पत्ति-त्थान अपने अपने अलङ्कार-ग्रन्थ में यह बात संक्षेप में अथच स्पष्ट रूप में इस तरह कही है: “षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः" (काव्यालङ्कार २, १२) । ____ "अपभ्रंशस्तु यच्छुद्ध तत्तद्देशेषु भाषितम्" (वाग्भटालङ्कार २, ३)। ख्रिस्त की पञ्चम शताब्दी के पूर्व से लेकर दशम शताब्दी पर्यन्त भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेश में कथ्य भाषाओं के माधुनिक प्रार्य कथ्य रूप में प्रचलित जिस जिस अपभ्रश भाषा से भिन्न-भिन्न प्रदेश की जो जो आधुनिक आर्य कथ्य भाषाओं की प्रकृति भाषा (Moderu Vernacular) उत्पन्न हुई है उसका विवरण यों है: १. बंगोयसाहित्यपरिषत-पत्रिका, १३१७ । २. "टाक्कं टक्कभाषानागरोपनागरादिभ्योऽवधारणीयम् । तुबहला मालवी । वाडीबहुला पाञ्चाली । उल्लप्राया वैदर्भी। संबोधनान्या लाटी । ईकारोकारबहुला प्रौढ़ी । सवीप्सा कैकेयी । समासान्या गौडी। डकारबहुला कौन्तली । एकारिणी च पाण्ज्या। युक्ताच्या सँहली। हियुक्ता कालिंगी । प्राच्या तद्देशीयभाषाच्या । ज(भ)ट्टादिबहुलाऽभीरी वर्णविपर्ययात् कार्णाटी । मध्यदेशीया तद्देशीयाव्या । संस्कृतान्या च गौर्जरी । चकारात् पूर्वोक्तटकभाषाग्रहणम् । रत(ल)हभां व्यत्ययेन पाश्चात्या। रेफ व्यत्येन द्राविडी। ढकारबहुला वैतालिकी । एमोबहुला काञ्ची। शेषा देशभाषाविभेदात् ।" १. 'नागरो आचडचोपनागरश्चेति ते त्रयः । अपभ्रशा; परे सूक्ष्मभेदत्वान्न पृथङ मताः" (प्रा० स० पृष्ठ ३)। "अन्येषामपभ्रशामामेष्वेवान्तर्भावः" (प्रा० स० पृष्ठ १२२)। For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) महाराष्ट्री-अपभ्रंश से मराठी और कोंकणी भाषा। मागधी-अपभ्रंश की पूर्व शाखा से बंगला, उड़िया और आसामी भाषा। मागधी-अपभ्रंश की बिहारी शाखा से मैथिली, मगही और भोजपुरिया । अर्धमागधी-अपभ्रंश से पूर्वीय हिन्दी भाषाएँ अर्थात् अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी। सौरसेना-अपभ्रंश से बुन्देली, कन्नौजी, ब्रजभाषा, बाँगरू, हिन्दी या उर्दू ये पाश्चात्य हिन्दी भाषा । नागर-अपभ्रंश से राजस्थानी, मालवी, मेवाड़ी, जयपुरी, मारवाड़ी तथा गुजराती भाषा। पालि से सिंहली और मालदीवन । टाकी अथवा ढाकी से लहण्डी या पश्चिमीय पंजाबी। टाकी-अपभ्रंश (सौरसेनी के प्रभाव-युक्त) से पूर्वीय पंजाबी। ब्राचड-अपभ्रंश से सिन्धी भाषा। पैशाची-अपभ्रंश से काश्मीरी भाषा। लक्षण नागर-अपभ्रश के प्रधान लक्षण ये हैं : वर्ण-परिवर्तन १. भिन्न-भिन्न स्वरों के स्थान में भिन्न-भिन्न स्वर होते हैं; यथा-कृत्य = कच्च, काच, वचन = वेण, वीण बाहु = बाह, बाहाः बाहुः पूष्ठ = पठि, पिडि, पुट्ठिः तृणतण, तिण, तृण; सुकृत - सुकिद, सुकृद; लेखा = लिह, लोहा लेह। स्वरों के मध्यवर्ती असंयुक्त क, ख, त, थे, प और फ के स्थान में प्रायः क्रमशः ग, घ, द, ध, व और भ होता है। यथा विच्छेदकर = विच्छोहगरः सुख = सुघ, कथित = कधिद, शपथ = शवध, सफल = सभल । ३. अनादि और असंयुक्त म के स्थान में बैकल्पिक सानुनासिक व होता है; यथा-कमल = कल, कमल भ्रमर = भवर, भमर । ४. संयोग में परवर्ती र का विकल्प से लोप होता है; यथा-प्रिय = पिय, प्रियः चन्द्र = चन्द, चन्द्र । ५. कहीं-कहीं संयोग के परवर्ती य का विकल्प से र होता है। जैसे-व्यास = वास, वासः व्याकरण = वागरण, वागरण । ६. महाराष्ट्री में जहाँ म्ह होता है वहाँ अपभ्रंश में म्भ और म्ह दोनों होते हैं; यथा- ग्रीष्म = गिम्भ, गिम्हः श्लेष्म - सिम्भ, सिम्ह। नाम-विभक्ति १. विभक्ति के प्रसंग में ह्रस्व स्वर का दीर्घ और दीर्घ का ह्रस्व प्रायः होता है; यथा-श्यामलः = सामलः, खड्गाः खग्ग; दृष्टि = दिट्ठिः पुत्री = पुत्ति । २. साधारणतः सातों विभक्ति के जो प्रत्यय हैं वे नीचे दिये जाते हैं। लिंग-भेद में और शब्द-भेद में अनेक विशेष प्रत्यय भी हैं, जो विस्तार-भय से यहाँ नहीं दिये गए हैं। एकवचन बहुवचन प्रथमा उ, हो द्वितीया तृतीया सु, हो, स्सु पञ्चमी षष्ठी सु, हो, स्सु सप्तमी आख्यात-विभक्ति एकवचन बहुवचन चतुर्थी thod on. २ पु. ३ पु० M For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. मध्यम पुरुष के एकवचन में आज्ञार्थ में इ उ और ए ३. भविष्यत्काल में प्रत्यय के पूर्व में स आगम होता है १. २. करेणु करेवि, करेविशु । ३. प्रत्यय की जगह एवं ४. ( ५६ ) होते हैं, यथा-- कुरु = करि, करु, करे । यथा- भविष्यति होस = कृदन्त तव्य - प्रत्यय के स्थान में इएर्ड, एवउं और एवा होता है; यथा कर्तव्य = करिएव्बउं, करेन्त्रउ, करेवा । वा के स्थान में इ, इउ, इवि श्रवि, एप्पि, एप्पिरगु, एवि, एविण 3 होते हैं; यथा कृत्वा = करि करिउ, करिवि, करवि, करेप्पि एप्प, एम्पि. ए एविए होते हैं। यथाकरे करण करा कर हि करेण्यि, करेपि करेवि, करेविशु । शीलाद्यर्थक तृ-प्रत्यय के स्थान में प्राय होता है; जैसे--कर्तृकरण, मारयितृ = मारण । तद्धित १. व और ता के स्थान में पण होता है; यथा -- देवत्व = देवप्पण, महत्त्व - वड्डप्पण । हम पहले यह कह आये हैं कि वैदिक और लौकिक संस्कृत के शब्दों के साथ तुलना करने पर जिस प्राकृत भाषा में वर्ण-लोप- प्रभृति परिवर्तन जितना अधिक प्रतीत हो, वह उतनी ही परवर्ती काल में उत्पन्न मानी जानी चाहिए। इस नियम के अनुसार, हम देखते हैं कि महाराष्ट्री प्राकृत में व्यञ्जनों का लोप सर्वापेक्षा अधिक है, इससे वह अपभ्रंशों का भिन्न अन्यान्य प्राकृत भाषाओं के पीछे उत्पन्न हुई है, ऐसा अनुमान किया जाता है परन्तु अपभ्रंश में उक्त नियम का व्यस्य देखने में आता है, क्योंकि भिन्न-भिन्न प्रदेशों की अपभ्रंश भाषाएँ यद्यपि महाराष्ट्री के बाद ही उत्पन्न हुई हैं तथापि महाराष्ट्री में जो व्यञ्जन वर्ण लोप देखा जाता है, अपभ्रंश में उसकी अपेक्षा अधिक नही, बल्कि कम ही वर्ण-लोप पाया जाता है और ऋ स्वर तथा संयुक्त रकार भी विद्यमान है । इस पर से यह अनुमान करना असंगत नहीं हैं कि वर्ण-लोप की गति ने महाराष्ट्री प्राकृत में अपनी चरम सीमा को पहुँच कर उसको (महाराष्ट्री को ) अस्थि आदर्श में गठन - माँस-पिण्ड की तरह स्वर-बहुल आकार में परिणत कर दिया। अपभ्रंश में उसकी प्रतिक्रिया शुरू हुई, और प्राचीन स्वर एवं व्यजनों को फिर स्थान देकर भाषा को भिन्न आदर्श में गठित करने की चेष्टा हुई। उस चेष्ठा का ही यह फल है कि. पिछले समय में संस्कृत भाषा का प्रभाव फिर प्रतिष्ठित होकर आधुनिक आर्य कथ्य भाषाएँ उत्पन्न हुई है। प्राकृत पर संकृत का प्रभाव जैन और बौद्धों ने संस्कृत भाषा का परित्याग कर उस समय की कथ्य भाषा में धर्मोपदेश को लिपिबद्ध करने को प्रथा प्रचलित की थी। इससे जो दो नया साहित्य भाषाओं का जन्म हुआ था, वे जैन सूत्रों की अर्धमागधी और बी-धर्मग्रन्थ की पालि भाषा है। परन्तु वे दो साहित्य भाषाएँ और अन्यान्य समस्त प्राकृत भाषा संस्कृत के प्रभाव को उल्लंघन नहीं कर सकी हैं। इस बात का एक प्रमाण तो यह है कि इन समस्त प्राकृत भाषाओं में संस्कृत भाषा के अनेक शब्द अविष रूप में गृहीत हुए हैं । ये शब्द तत्सम कहे जाते हैं । यद्यपि इन तत्सम शब्दों ने प्रथम स्तर की प्राकृत भाषाओं से ही संस्कृत में स्थान और रक्षण पाया था, तो भी यह स्वीकार करना ही होगा कि ये सब शब्द परवर्ती काल की प्राकृत भाषाओं में जो अपरिवर्तित रूप में व्यवहृत होते थे वह संस्कृत साहित्य का ही प्रभाव था । गाथा भाषा इसके अतिरिक्त, संस्कृत के दो प्रभाव से बौद्धों में एक मित्र भाषा उत्पन्न हुई थी महायान बौद्धों के महावैपुल्यसूत्र नामक कतिपय सूत्र प्रन्थ हैं उलितविस्तर, सद्धम-पुण्डरीक, चन्द्रप्रदीपसूत्र प्रभृति इसके अन्तर्गत हैं। इन ग्रंथों की "भाषा में अधिकांश शब्द तो संस्कृत के हैं ही, अनेक प्राकृत शब्दों के आगे भी संस्कृत की विभक्ति लगा कर उनको भी संस्कृत के अनुरूप किये गए हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने इस भाषा को 'गाथा' नाम दिया है। परन्तु वहाँ पर यह कहना आवश्यक है कि इसका यह 'गाथा' नाम असंगत है, क्योंकि यह संस्कृत- मिश्रित प्राकृत का प्रयोग उक्त प्रधों के केवल पचांतों में ही नहीं, बल्कि गद्यांश में भी देखा जाता है। इससे इन ग्रंथों की भाषा को 'गाथा' न कहकर 'प्राकृत-मि-संस्कृत' या 'संस्कृत मिश्र प्राकृत अथवा संक्षेप में मिश्र भाषा ही कहना उचित है। डॉ. बनेफ और डॉ. राजेन्द्र लाल मित्र का मत है कि, 'संस्कृत भाषा, क्रमशः परिवर्तित होती हुई प्रथम गाथा भाषा के रूप में और बद के पालि-भाषा के आकार में परिणत हुई है। इस तरह गाथा भाषा संस्कृत और पालि को मध्यवर्ती For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने के कारण इन दोनों के (संस्कृत और पालि के ) लक्षणों से आक्रान्त है।' यह सिद्धान्त सर्वथा भ्रान्त है, क्योंकि हम यह पहले ही अच्छी तरह प्रमाणित कर चुके हैं कि संस्कृत-भाषा क्रमशः परिवतित होकर पालि भाषा में परिणत नहीं हुई है, किन्तु पालि-भाषा चैदिक-युग की एक प्रादेशिक भाषा से ही उत्पन्न हुई है। और, गाथा-भाषा पालि-भाषा के पहले प्रचलित न थी, क्योंकि गाथा-भाषा के समस्त ग्रन्थों का रचना-काल खिस्त-पुर्व दो सौ वर्षों से लेकर ख्रिस्त की तृतीय शताब्दी पर्यन्त का है, इससे गाथा-भाषा बहुत तो पालि भाषा की समकालान हो सकती है, न कि पालि-भाषा की पूर्वावस्था। यह भाषा संस्कृत के प्रभाव को कायम रखकर विभिन्न प्राकृत-भाषाओं के मिश्रण से बनी है, इसमें सन्देह नहीं है। यही कारण है कि इसके शब्दों को प्रस्तुत कोष में स्थान नहीं दिया गया है। गाथा-भाषा का थोड़ा नमूना ललितविस्तर से यहाँ उद्धृत किया जाता है: "अघ्र वं त्रिभवं शरदभ्रनिर्भ, नटरङ्गसमा जगि जन्मि च्युति । गिरिनद्यसमं लघुशीघ्रजवं, व्रजतायु जगे यथ विद्यु नभे ॥ १ ॥ "टदकचन्द्रसमा इमि कामगुणा. प्रतिबिम्ब इवा गिरिघोष यथा । प्रतिभाससमा नटरङ्गसमास्तथ स्वप्नसमा विदितार्यजनैः ॥ १ ॥" (पृष्ठ २०४, २०६ )। बुद्धदेव और उसके सारथी की आपस में बातचीत : "एषो हि देव पुरुषो जरयाभिभूतः, क्षीणेन्द्रियः सुदुःखितो बलवीर्यहीनः । बन्धुजनेन परिभूत अनाथभूतः, कार्यासमर्थ अपविद्ध बनेव दारु॥ कुलधर्म एष अयमस्य हि त्वं भणाहि, प्रथवापि सर्वजगतोऽस्य इयं ह्यवस्था । शीघ्र भरणाहि वचनं यथभूतमेतत्, श्रुत्वा तथार्थमिह योनि संचिन्तयिष्ये ।। नैतस्य देव कुलधर्म न राष्ट्रधर्मः, सर्वे जगस्य जर यौवन धर्षयाति । तुभ्यंपि मातृपितृबान्धवज्ञातिसंघो, जरया अमुक्तं नहि अन्यगतिर्जनस्य ।। धिक् सारथे अबुधबालजनस्य बुद्धियद् यौवनेन मदमत्त जरा न पश्ये । पावर्तयस्विह रथं पुनरहं प्रवेक्ष्ये, कि मह्य क्रीडरतिभिर्जरया श्रितस्य ।।" संस्कृत पर प्राकृत का प्रभाव पहले जो यह कहा जा चुका है कि वैदिक काल के मध्यदेश-प्रचलित प्राकृत से ही वैदिक संस्कृत उत्पन्न हुआ है और वह साहित्य और व्याकरण के द्वारा क्रमशः माजित और नियन्त्रित होकर अन्त में लौकिक संस्कृत में परिणत हुआ है; एवं प्राकृत के अन्तर्गत समस्त तत्सम शब्द संस्कृत से नहीं, परन्तु प्रथम स्तर के प्राकृत से ही संस्कृत में और द्वितीय स्तर के प्राकृत में आये हैं। प्राकृत के अन्तर्गत तद्भव शब्द भी संस्कृत से प्राकृत में गृहीत न होकर प्रथम स्तर के प्राकृत से ही क्रमशः परिवर्तित होकर परवर्ती काल के प्राकृत में स्थान पाये हैं और संस्कृत व्याकरण-द्वारा नियन्त्रित होने से वे शब्द संस्कृत में अपरिवर्तित रूप में ही रह गये हैं। इसी तरह प्राकृत के अधिकांश देशी-शब्द भी वैदिक काल के मध्यदेश-भिन्न अन्यान्य प्रदेशों के आर्य-उपनिवेशों की प्राकृत-भाषाओं से ही बाद की प्राकृत-भाषाओं में आये हैं। इससे उन्होंने ( देशी शब्दों ने ) मध्यदेश के प्राकृत से उत्पन्न वैदिक और लौकिक संस्कृत में कोई स्थान नहीं पाया है। इस पर से यह सहज ही समझा जा सकता है कि प्राकृत ही संस्कृत भाषा का मूल है। अब इस जगह हम यह बताना चाहते हैं कि प्राकृत से न केवल वैदिक और लौकिक संस्कृत भाषाएँ उत्पन्न ही हुई हैं, बल्कि संस्कृत ने मृत होकर साहित्य-भाषा में परिणत होने पर भी अपनी अंग-पुष्टि के लिए प्राकृत से ही अनेक शब्दों का संग्रह किया है। ऋग्वेद आदि में प्रयुक्त वंक ( वक्र ), बहू ( वधू), मेह ( मेघ), पुराण (पुरातन ), तितउ (चालनी), उच्छेक ( उत्सेक), प्रभृति शब्द और लौकिक संस्कृत में प्रचलित तितउ (चालनी), आवृत्त ( भगिनीपति ), खुर (धुर), गोखुर ( गोक्षुर ), गुग्गुलु (गुल्गुलु ), छुरिका (क्षुरिका ), अच्छ (ऋक्ष ), कच्छ (कक्ष ), पियाल (प्रियाल ), गल्ल (गण्ड), चन्दिर ( चन्द्र), इन्दिर ( इन्द्र), शिथिल (लथ ), मरन्द ( मकरन्द ), किसल ( किसलय), हाला ( सुराविशेष), हेवाक ( व्यसन ), दाढा ( दंष्ट्रा), खिडक्तिका ( लघुद्वार, भाषा में खिड़की), जारुज ( जरायुज ), पुराण (पुरातन ) वगैरह शब्द प्राकृत For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) से ही अविकल रूप में गृहीत हुए हैं और मारिप ( मार्ष ), जहिष्यसि ( हास्यसि ), ब्रूमि ( ब्रवोमि ), निकृन्तन ( निकर्तन ), लटभ ( सुन्दर ), प्रभृति प्राकृत के ही मूल शब्द माजित कर संस्कृत में लिए गए हैं । प्राकृत भाषाओं का उत्कर्ष कोई भी कथ्य भाषा क्यों न हो, वह सर्वदा ही परिवर्तन-शील होती है । साहित्य और व्याकरण उसको नियम के बन्धन में जकड़कर गति-हीन और अपरिवर्तनीय करते हैं । उसका फल यह होता है कि साहित्य की भाषा क्रमशः कथ्य भाषा से भिन्न हो जाती है और जन-साधारण में अप्रचलित मृत भाषा में परिणत होती है । साहित्य की हरकोई भाषा एक समय की कथ्य भाषा से ही उत्पन्न होती है और वह जब मृत भाषा में परिणत होती है तब कथ्य भाषा से फिर एक नयी साहित्य की भाषा की सृष्टि होती है । इस तरह एक समय की कध्य भाषा से ही वैदिक और लौकिक संस्कृत उत्पन्न हुई थी और वह साधारण के पक्ष में दुर्बोध होने पर अर्धमागधी, पालि आदि प्राकृत भाषाओं ने साहित्य में स्थान पाया था। ये सब प्राकृत- भाषाएँ भी समय पाकर जन-साधारण में दुर्बोध हो जाने पर संस्कृत की तरह मृत भाषा में परिणत हो गई और भिन्न-भिन्न प्रदेश की अपभ्रंश भाषाएँ साहित्य भाषाओं के रूप में व्यवहृत होने लगीं। अपभ्रंशभाषाएँ भी जब दुर्बोध होकर मृत भाषाओं में परिणत हो चली तब हिन्दी, बंगला, गुजराती, मराठी प्रभृति आधुनिक कथ्य भाषाएँ साहित्य की भाषाओं के रूप में गृहीत हुई हैं । उक्त समस्त कथ्य भाषाएँ उस उस युग की साहित्य की मृत-भाषाओं की तुलना में अवश्य ऐसे कतिपय उत्कर्षो से विशिष्ट होनी चाहिए जिनकी बदौलत ही ये उस-उस समय की मृत भाषाओं को साहित्य के सिंहासन से च्युत कर उस सिंहासन को अपने अधिकार में कर पायी थीं । अब यहाँ हमें यह जानना जरूरी है कि ये उत्कर्ष कौन थे ? हरकोई भाषा का सर्व प्रथम उद्देश्य होता है अर्थ- प्रकाश । इसलिए जिस भाषा के द्वारा जितने स्पष्ट रूप से और जितने अल्प प्रयास से अर्थ प्रकाश किया जाय वह उतना ही उत्कृष्ट भाषा मानी जाती है। इन दो कारणों के वश होकर ही भाषा का निरन्तर परिवर्तन साधित होता है और भिन्न-भिन्न काल में भिन्न-भिन्न कथ्य भाषाओं से नयी-नयी साहित्य भाषाओं की उत्पत्ति होती है । वैदिक संस्कृत क्रमशः लुप्त होकर लौकिक संस्कृत की उत्पत्ति उक्त दो कारणों से ही हुई थी । वैदिक शब्द समूह अप्रचलित होने पर उसके अनावश्यक प्रकृति और प्रत्ययों को बाद देकर जो सहज ही समझ में आ सके वैसी प्रकृति और प्रत्ययों का संग्रह कर वैदिक भाषा से लौकिक संस्कृत की उत्पत्ति हुई थी । संस्कृत भाषा के प्रकृति-प्रत्यय काल-क्रम से अप्रचलित होकर जब दुःख बोध्य हो उठे तब उस समय की कथ्य भाषाओं से ही स्पष्टार्थक, सुखोच्चारण-योग्य, मधुर और कोमल प्रकृति-प्रत्ययों का संग्रह कर संस्कृत के अनावश्यक, दुर्बोध, कष्टोच्चारणीय, कठोर और कर्कश प्रकृति-प्रत्यय- सन्धि-समासों का वर्जन कर अर्धमागधी, पाली और अन्यान्य प्राकृत-भाषाएँ साहित्य• भाषाओं के रूप में व्यवहृत होने लगीं। यदि इन सब नूतन साहित्य भाषाओं में संस्कृत की अपेक्षा अर्थ- प्रकाश की अधिक शक्ति, अल्प आयास से और सुख से उच्चारण-योग्यता प्रभृति गुण न होते तो ये कर्म भी संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा को साहित्य के सिंहासन से च्युत करने में समर्थ न होतीं । काल-क्रम से ये सब प्राकृत-साहित्य-भाषाएँ भी जब व्याकरण- द्वारा नियन्त्रित होकर अप्रचलित और जन-साधारण में दुर्बोध हो चलीं तब उस समय प्रचलित प्रादेशिक अपभ्रंश भाषाओं ने इनको हटाकर साहित्य भाषाओं का स्थान अपने अधिकार में किया । यहाँ पर यह प्रश्न हो सकता है कि साहित्य की प्राकृत भाषाओं की अपेक्षा इन अपभ्रंश भाषाओं में वह कौन-सा गुण था जिससे ये अपने पहले की प्राकृत-साहित्यभाषाओं को परास्त कर उनके स्थान को अपने अधिकार में कर सकीं ? इसका उत्तर यह है कि कोई भी गुण चरम सीमा में पहुँच जाने पर फिर वह गुण ही नहीं रहने पाता, वह दोष में परिणत हो जाता है। संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत भाषाओं में यह उत्कर्ष था कि इनमें संस्कृत के कर्कश और कष्टोच्चारणीय असंयुक्त और संयुक्त व्यञ्जन वर्णों के स्थान सब कोमल और सुखोचारणीय वर्ण व्यवहृत होते थे । किन्तु इस गुण की भी सीमा है, महाराष्ट्री प्राकृत में यह गुण सीमा का अतिक्रम कर गया, यहाँतक कि संस्कृत के अनेक व्यञ्जनों का एकदम हो लोप कर उनके स्थान में स्वर वर्णों की परम्परा द्वारा समस्त शब्द गठित होने लगे । इससे इन शब्दों के उच्चारण सुख-साध्य होने के बदले अधिकतर कष्टसाध्य हुए, क्योंकि बीच बीच में व्यञ्जन वर्णों से व्यवहित न होकर केवल स्वर-परम्परा का उच्चारण करना कष्टकर होता है । इस तरह प्राकृत भाषा महाराष्ट्री प्राकृत में आकर जब इस चरम अवस्था में उपनीत हुई तबसे ही इसका पतन अनिवार्य हो उठा। इसकी प्रतिक्रिया For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) स्वरूप अपभ्रंश-भाषाओं में नूतन व्यञ्जन वर्ण बैठा कर सुखोच्चारण-योग्यता करने की चेष्टा हुई। इसका फल यह हुआ कि प्रादेशिक अपभ्रंश-भाषाएँ साहित्य की भाषाओं के रूप में उन्नीत हुई। आधुनिक प्रादेशिक आर्य-भाषाएँ भी प्राकृत भाषाओं के उस दोष का पूर्ण संशोधन करने के लिए नूतन संस्कृत शब्दों को ग्रहण कर अपभ्रंशों के स्थान को अपने अधिकार में करके नवीन साहित्य-भाषाओं के रूप में परिणत हुई । आधुनिक आर्य-भाषाओं में पूर्व-वर्ती प्राकृतों और अपभ्रशों की अपेक्षा उत्कर्ष यह है कि इन्होंने शब्दों के सम्बन्ध में प्राकृत और संस्कृत को मिश्रित कर उभय के गुणों का एक सुन्दर सामञ्जस्य किया है । इनके तद्भव और देश्य शब्दों में प्राकृत की कोमलता और मधुरता है और तत्सम शब्दों में संस्कृत की ओजस्विता। आधुनिक आर्य-भाषाओं में संस्कृत और प्राकृत दोनों की अपेक्षा उत्कर्ष यह है कि ये संस्कृत और प्राकृतों के अनावश्यक लिंग, वचन और विभक्तियों के भेदों का वर्जन कर, उनके बदले भिन्न भिन्न स्वतन्त्र शब्दों के द्वारा लिंग, वचन और विभक्तियों के भेदों को प्रकाशित कर और संस्कृत तथा प्राकृतों के विभक्ति-बहुल स्वभाव का परित्याग कर विश्लेषण-शील-भाषा में परिणत हुई हैं। इस तरह इन भाषाओं ने अल्प आयास से वक्ता के अर्थ को अधिकतर स्पष्ट रूप में प्रकाशित करने का मार्ग-प्रदर्शन किया है। उक्त गुणों के कारण ही आधुनिक आर्य-भाषाओं ने वैदिक, संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश इन सब साहित्य-भाषाओं के स्थान पर अपना अधिकार जमाया है। संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत-भाषाओं में जो उत्कर्ष-गुण ऊपर बताये हैं वे अनेक प्राचीन ग्रन्थकारों ने पहले ही प्रदर्शित किये हैं। उनके ग्रन्थों से, प्राकृत के उत्कर्ष के संबन्ध में, कुछ वचन यहाँ पर उधृत किए जाते हैं : "अमिभं पाउप-कव्वं पढिउं सोऊं च जे ण प्राणंति। कामस्स तत्त-तत्ति कुणंति, ते कह ण लज्जति ? ॥ (हाल की गाथासप्तशती १, २)। अर्थात जो लोग अमृतोपम प्राकृत-काव्य को न तो पढ़ना जानते हैं और न सुनना जानते हैं अथच काम-तत्त्व की. आलोचना करते हैं उनको शरम क्यों नहीं आती? 'उम्मिल्लइ लायएणं पयय-च्छायाए सक्कय-वयाएं। सक्कय-सक्कारुक्करिसरोण पययस्सवि पहावो ।' (वाक्पतिराज का गउडवहो ६५)। का शब्दों का लावण्य प्राकृत को छाया से ही व्यक्त होता है। संस्कृत-भाषा के उत्कृष्ट संस्कार में भी प्राकृत का प्रभाव व्यक्त होता है। "णवमत्थ-दसणं संनिवेस-सिसिरानो बंघ-रिद्धीमो। अविरलमिणमो प्राभुवण-बंधमिह णवर पययम्मि ॥' (गउडवहो ७२)। । सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आजतक प्रचुर परिमाण में नूतन नूतन अर्थों का दर्शन और सुन्दर रचनावाली प्रबन्धसंपत्ति कहीं भी है तो वह केवल प्राकृत में ही। "हरिस-विसेसो वियसावमो य मउलावनो य अच्छीण। इह बहि-हुत्तो अंतो-मुहो य हिययस्स विप्फुरइ ।' (गउडवहो ७४) । प्राकृत-काव्य पढ़ने के समय हृदय के भीतर और बाहर एक ऐसा अभूत-पूर्व हर्ष होता है कि जिससे दोनों आँखें एक ही साथ विकसित और मुद्रित होती हैं। "परुसो सक्का-बंधो पाउअ बंधोवि होइ सुउमारो। पुरिस-महिलाणं जेत्तिअमिहंतर तेत्तिप्रमिमाणं ।' (राजशेखर की कर्पूरकजरी, अङ्क १)। संस्कृत-भाषा कर्कश और प्राकृत भाषा सुकुमार है। पुरुष और महिला में जितना अन्तर है, इन दो भाषाओं में भी. उतना ही प्रभेद है। १. प्रमृतं प्राकृतं काव्यं पठितु श्रोतुच ये न जानन्ति । कामस्यतत्त्वचिन्तां कुर्वन्ति, ते कथं न लज्जन्ते ?॥ २. उन्मोलति लावण्यं प्राकृतच्छायया संस्कृतपदानाम् । संस्कृतसंस्कारोत्कर्षणेन प्राकृतस्यापि प्रभावः ।। ३. नवामार्थदर्शनं संनिवेशशिशिरा बन्धद्धयः । अविरलमिदमाभुवनबन्धमिह केवलं प्राकृते ॥ ४. हर्षविशेषो विकासको मुकुलीकारकश्चाक्ष्णोः । इह बहिर्मुखोऽन्तमुखश्च हृदयस्य विस्फुरति ॥ ५. परुषः संस्कृतबन्धः प्राकृतबन्धस्तु भवति. सुकुमारः। पुरुषमहिलयोविदिहान्तरं तावदनयोः ।। For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'गिरः श्रव्या दिव्याः प्रकृतिमधुराः प्राकृतगिरः । सुभव्योऽपभ्रंशः सरसरचनं भूतवचनम् । (राजशेखर का बालरामायण १,११)। संस्कृत-भाषा सुनने योग्य है, प्राकृत भाषा स्वभाव-मधुर है, अपभ्रंश-भाषा भव्य है और पैशाची-भाषा की रचना रस-पूर्ण है। 'सक्कय-कव्वस्सत्थं जेण न याएंति मंद-बुद्धीया । सव्वाणवि सुह-बोहं तेरणेमं पाययं रइयं ।। गुढत्थ-देसि-रहियं सुललिय-बन्नेहिं विरइयं रम्म । पायय-कव्वं लोए कस्स न यियं सुहावेइ ?॥ (महेश्वरसूरि का पञ्चमीमाहात्म्य)। सामान्य मनुष्य संस्कृत-काव्य के अर्थ को समझ नहीं पाते हैं। इसलिए यह अन्य उस प्राकृत-भाषा में रचा जाता है जो सब लोगों को सुख-बोध्य है। गूढार्थक देशी-शब्दों से रहित और सुललिन पदों में रचा हुआ सुन्दर प्राकृत-काव्य किसके हृदय को सुखी नहीं करता? उज्झउ सक्कय-कव्वं सक्कय-कव्वं च निम्मियं जेण । वंस-हरं व पलित्तं तडयडतदृत्तणं कुणइ ।' (वज्जालग्ग (?) से अपभ्रशकाव्यत्रयी को प्रस्ता०, पृष्ठ ७६ में उद्धृत)। संस्कृत-काव्य को छोड़ो और जिसने संस्कृत काव्य की रचना की उसका भी नाम मत लो, क्योंकि वह (संस्कृत) जलते हुए बाँस के घर की तरह 'तड़तड़ तट्ट' आवाज करता है-श्रतिकटु लगता है। “पाइन-कव्वम्मि रसो जो जायइ तह व छेय-भणिएहि । उययस्स य वासिय-सीयलस्स तित्ति न वच्चामो । ललिए महुरक्खरए जुवई-यण-वल्लहे स-सिंगारे । संते पाइय-कव्वे को सकइ सक्कयं पढिउं? ॥" (जयवल्लभ का वबालग्ग, पृष्ठ ६) प्राकृत-भाषा की कविता में और विदग्ध के वचनों में जो रस आता है उससे, बासी और शीतल जल की तरह, तृप्ति नहीं होती है-मन कभी ऊबता नहीं है-उत्कण्ठा निरन्तर बनी ही रहती है। जब सुन्दर, मधुर, शृङ्गार-रस-पूर्ण और युवतियों को प्रिय ऐसा प्राकृत-काव्य मौजूद है तब संस्कृत पढ़ने को कौन जाता है? १. संस्कृतकाव्यस्याथं येन न जानन्ति मन्दबुद्धयः । सर्वेषामपि सुखबोधं तेनेदं प्राकृतं रचितम् ।। गुढार्थदेशीरहितं सुललितवर्णविरचितं रम्यम् । प्राकृतकाव्यं लोके कस्य न हृदयं सुखयति ? ॥ २. उभयतां संस्कृतकाव्यं संस्कृतकाव्यं च निर्मितं येन । वंशगृहमिव प्रदीप्तं तडतडतट्टत्वं करोति ॥ ३. प्राकृतकाव्ये रसो यो जायते तथा वा छकभरिणतः । उदकस्य च वासितशीतलस्य तृप्ति न व्रजामः ॥ ललिते मधुराक्षरके युवतिजनवल्लभे सशृ'गोरे । सति प्राकृतकाव्ये कः ष्वकते संस्कृतं पठितुम् ? ॥ For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस कोष में स्वीकृत पद्धति प्रथम काले टाइपों में क्रम से प्राकृत शब्द, उसके बाद सादे टाइपों में उस प्राकृत शब्द के लिङ्ग आदि का संक्षिप्त निर्देश, उसके पश्चात् काले कोष्ठ (बाकेट) में काले टाइपों में प्राकृत शब्द का संस्कृत प्रतिशब्द, उसके अनन्तर सादे टाइपों में हिन्दी भाषा में अर्थ मौर तदनन्तर सादे टाइपों में ब्राकेट में प्रमाण (रेफरेंस) का उल्लेख किया गया है। २. शब्दों का क्रम नागरी वर्ण-माला के अनुसार इस तरह रखा गया है :--अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, प्रो, प्रौ, अं, क, ख, ग प्रादि । इस तरह अनुस्वार के स्थान की गणना संस्कृत-कोषों की तरह पर-सवर्ण अनुनासिक व्यन्जन के स्थान में न कर मन्तिम स्वर के बाद और प्रथम व्यजन के पूर्व में ही करने का कारण यह है कि संस्कृत की तरह प्राकृत में व्याकरण की दृष्टि से भी मनुस्वार के स्थान में अनुनासिक का होना कहीं भी अनिवार्य नहीं है और प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों में प्रायः सर्वत्र अनुस्वार का ही प्रयोग पाया जाता है। प्राकृत शब्द का प्रयोग विशेष रूप से प्रार्ष (अर्धमागधी) और महाराष्ट्री भाषा के अर्थ में और सामान्य रूप से पार्ष से लेकर अपभ्रंश भाषा तक के अर्थ में किया जाता है। प्रस्तुत कोष के 'प्राकृत-शब्द-महार्णव' नाम में प्राकृत-शब्द सामान्य अर्थ में ही गृहीत है । इससे यहाँ पार्ष, महाराष्ट्री, शौरसेनी, अशोक-शिलालिपि, देश्य, मागधी, पैशाची, चूलिकापैशाची तथा प्राभ्रश भाषाओं के शब्दों का संग्रह किया गया है। परन्तु प्राचीनता और साहित्य की दृष्टि से इन सब भाषाओं में आप और महाराष्ट्री का स्थान ऊँचा है। इससे इन दोनों के शब्द यहाँ पूर्ण रूप से लिए गये हैं और शौरसेनी आदि भाषाओं के प्रायः उन्हीं शब्दों को स्थान दिया गया है जो या तो प्राकृत (प्रार्ष और महाराष्ट्री) से विशेष भेद रखते हैं अथवा जिनका प्राकृत रूप नहीं पाया गया है, जैसे-'य्येव', 'विधुव', 'संपादइत्तम', 'संभावीप्रदि' वगैरह । इस भेद की पहिचान के लिए प्राकृत से इतर भाषा के शब्दों और पाख्यात-कृदन्त के रूपों के प्रागे सादे टाइपों में कोष्ठ में उस उस भाषा का संक्षिप्त नाम-निर्देश कर दिया गया है, जैसे (शौ)', '(मा)' इत्यादि । परन्तु सौरसेनी मादि में भी जो शब्द या रूप प्राकृत के ही समान है वहाँ ये भेद-दर्शक चिह्न नहीं दिए गए हैं। (क) आर्ष और महाराष्ट्री से सौरसेनी आदि भाषाओं के जिन शब्दों में सामान्य (सर्व-शब्द-साधारण) भेद है उनको इस कोष में स्थान देकर पुनरावृत्ति-द्वारा ग्रन्थ के कलेवर को विशेष बढ़ाना इसलिए उचित नहीं समझा गया है कि वह सामान्य भेद प्राकृत-भाषाओं के साधारण अभ्यासी से भी अज्ञात नहीं है और वह उपोद्घात में भी उस उस भाषा के लक्षणप्रसङ्ग में दिखा दिया गया है जिससे वह सहज ही ख्याल में पा सकता है। पार्ष और महाराष्ट्री में भी परसर उल्लेखनीय भेद है। तिस पर भी यहाँ उनका भेद-निर्देश न करने का एक कारण तो यह है कि इन दोनों में इतर भाषाओं से अपेक्षा-कृत समानता अधिक है। दूसरा, प्रकृति की अपेक्षा प्रत्ययों में ही विशेष भेद हैं जो व्याकरण से सम्बन्ध रखता है, कोष से नहीं तीसरा, जैन ग्रंथकारों ने महाराष्ट्री-ग्रंथों में भी पार्ष प्राकृत के शब्दों का अविकल रूप में अधिक व्यवहार कर उनको महाराष्ट्री का रूप दे दिया है। ४. प्राकृत में यश्रुतिवाला नियम खूब हो अव्यवस्थित है। प्राकृत-प्रकाश, सेतुबन्ध, गाथासप्तशती और प्राकृपिंगल मादि में इस नियम का एकदम प्रभाव है जबकि भाष, जैन महाराष्ट्री तथा गउडवहो-प्रभृति ग्रन्थों में इस नियम का हद से ज्यादा प्रादर देखा जाता हैं; यहाँ तक कि एक ही शब्द में कहीं तो यश्रुति है और कहीं नहीं, जैसे 'पन' और 'पय', 'लोम' और 'लोय'। इस कोष में ऐसे शब्दों की पुनरावृत्ति न कर कोई भी (यश्रुतिवाले 'य', से रहित या सहित) एक हो शब्द लिया गया है। इससे क्रम तथा इतर समान शब्द की १. देखो प्राकृतप्रकाश, सूत्र ४, १४; १७; हेमचन्द्र-प्राकृत-व्याकरण, सूत्र १, २५ और प्राकृतसर्वस्व, सूत्र, ४, २३ आदि । २. प्राकुतसर्वस्व (पृष्ठ १.३) प्रादि में इनसे अतिरिक्त और भी प्राच्या, शाकारि आदि अनेक उपभेद बताए गए हैं, जिनका समावेश ___ यहाँ सौरसेनी आदि इन्हीं मुख्य भेदों में यथास्थान किया गया है। ३. इन संक्षिप्त नामों का विवरण संकेत-सूची में देखिए । ४. इसी से डा. पिशल आदि पाश्चात्य विद्वानों ने आर्ष-भिन्न जैन प्राकृत-ग्रयों को भाषा को 'जैन महाराष्ट्रो' नाम दिया है । देखो ___डॉ. पिशल का प्राकृतव्याकरण और डॉ. टेसेटोरी को उपदेशमाला की प्रस्तावना । ५. हेमचन्द्र-प्राकृत-व्याकरण का सूत्र १,१८० । For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) तुलना की सुविधा के लिए आवश्यकतानुरूप कहीं कहीं रेफरेंसवाले शब्द के 'प्र' के स्थान में 'य' और 'य' की जगह 'अ' किया गया है। ७. आर्ष ग्रन्थों में यश्रुतिवाले 'य' की (प्रतीत) की जगह 'अतीय' आादि । स्थान दिया गया है। ६. संयुक्त शब्दों को उनके क्रमिक स्थान में अलग न देकर मूल (पूर्व भागवाले) शब्द के भीतर ही उत्तर भागवाले शब्द अकारादि क्रम से काले टाइपों में दिए गए हैं और उसके पूर्व (ऊर्ध्वं बिन्दी ) का चिह्न दिया गया है। ऐसे शब्द का संस्कृत प्रतिशब्द भी काले टाइपों में चिह्न दे कर दिए गए हैं। विशेष स्थानों में पाठकों की सुगमता के लिए संयुक्त शब्द उसके क्रमिक स्थान में अलग भी बतलाये गए हैं श्रौर उसके अर्थ तथा रेफरेंस के लिए मूल शब्द में जहाँ वे दिए गए हैं, देखने की सूचना की गई है । तरह 'त' का प्रयोग भी बहुत ही पाया जाता है, जैसे 'भय' (प्रज) के स्थान में 'प्रत', 'आई' ऐसे शब्दों की भी इस कोष में बहुधा पुनरावृति न करके त-वर्जित शब्दों को ही विशेष रूप से (क) इन संयुक्त शब्दों में जहाँ 'देखो'- से जिस शब्द को देखने को कहा गया है वहाँ उस शब्द के उसी मूल शब्द के भीतर देखना चाहिए न कि अन्य शब्द के अन्दर । " त तर (स्व) था, दा (स), घर पर तराय (तर), प्रत्ययों को छोड़कर केवल मूल शब्द हो यहाँ लिए गए हैं। शब्द भी लिए गए हैं। भ्रम, सम (राम) परन्तु जहां ऐसे भीतर दिए गए हैं। ८. धातुषों के सब रूप सादे टाइपों में और कृदन्तों के रूप काले टाइपों में धातु के (क) भाव तथा कर्म-कर्तरि रूपों का निर्देश भी धातु के भीतर कर्म(ख) भूत कृदन्त के रूप तथा अन्य प्रख्यात तथा कृदन्त के विशिष्ट रूप बहुधा अलग अलग अपने क्रमिक स्थान हैं दिए गए हैं। ९. जिन संस्करणों से शब्द-संग्रह किया गया है उनमें रही हुई संपादन की या प्रेस की भूलों को सुधार कर शुद्ध शब्द ही यहाँ दिए गए. हैं। पाठकों के ज्ञानार्थं साधारण भूलों को छोड़कर विशेष भूलवाले पाठ रेफरेंस के उल्लेख के अनन्तर-पूर्व में ज्यों के त्यों उधृत भी किये गए हैं और भूलवाले भाग की शुद्धि कौन में '?' (शा) के बाद बतला दी गई है। जैसे देखी क्षोभ वन्भ आदि शब्द । आदि सुगम धीर सर्वसाधारण प्रत्ययवाले शब्दों में प्रत्ययों में रूप आदि की विशेषता है वहां प्रत्यय सहितः 9 से ही किया गया है। (क) जहाँ भिन्न भिन्न ग्रंथों में या एक ही ग्रंथ के भिन्न भिन्न स्थानों में या संस्करणों में एक ही शब्द के अनेक संदिग्ध रूप पाये गए हैं और जिनके शुद्ध रूप का निर्णय करना कठिन जान पड़ा है वहाँ पर ऐसे रूपवाले सब शब्द इस कोष में यथास्थान दिए गए हैं और तुलना के लिए ऐसे प्रत्येक शब्द के अन्त भाग में 'देखो' लिख कर इतर रूप भी सूचाया गया है; जैसे देखो 'पुक्खलच्छिभय, पोक्खलच्छिलय'; 'पेसल, पेसलेस, 'भयालि, सयालि' श्रादि शब्द । १०. एक ही ग्रंथ के एक या भिन्न भिन्न संस्करणों के अथवा भिन्न भिन्न ग्रंथों के पाठ भेदों के सभी शुद्ध शब्द इस कोष में यथास्थान दिए गए हैं। जैसे— परिक्कुसियती २५ पत्र १२३ ) और परिसिव (भग २५ - पत्र १२५ ) विदेश (भी, मा. का – टीसूत्रकृतांग १, २, ३, १२) और निव्विदेज्ज (प्रा. स. का सूत्रकृतांग १, २, ३, १२) पविरल्लिय (प्रा. स. का प्रश्नव्याकरण १, ५-पत्र ११) और पत्थिरित (अभियनराजेन्द्र का प्रश्नव्याकरण १ ५) सामको प्रवचनसारोद्धार, द्वार ७ ) प्रभृति । (समवायांग-पुत्र, पत्र १५३) धीर सामिकुड ११. संस्कृत की तरह प्राकृत में भी कम से कम शब्द के आदि के 'ब' तथा 'व' के विषय में गहरा मतभेद है। एक की शब्द कहीं बकारादि पाया जाता है तो कहीं वकारादि। जैसे भगवतीसूत्र में 'बस्थि' हैं तो विपाकश्रुत में 'वस्थि' छपा है। इससे ऐसे शब्दों को दोनों स्थानों में न देकर जो 'ब' या 'व' उचित जान पड़ा है उसी एक स्थल में वह शब्द दिया गया है और उभय प्रकार के शब्दों के रेफरेंस भी वहाँ ही दिये गये हैं। हाँ, जहाँ दोनों अक्षरों के अस्तित्व का स्पष्ट रूप से उल्लेख पाया गया है वहाँ दोनों स्थलों में वह शब्द दिया गया है, जैसे 'बप्फाउल' भौर 'वप्फाउल " प्रादि । १२. लिङ्गादि बोधक संक्षिप्त शब्द प्राकृत शब्द से ही संबन्ध रखते हैं, संस्कृत- प्रतिशब्द से नहीं । (क) जहाँ अर्थ-भेद में लिङ्ग प्रादि का भी भेद है वहाँ उस अर्थ के पूर्व में ही भिन्न लिंग आदि का सूचक शब्द दे दिया गया है । जहाँ ऐसा भिन्न शब्द नहीं दिया है वहाँ उसके पूर्व के अर्थ या अर्थी के समान ही लिंग आदि समझना चाहिए। १. देशीनाममाला ६, ६२ का टीका । For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) प्राकृत में लिंग-विधि खूब हो अनियमित है। प्राकृत वैयाकरणों ने भी कुछ प्रति संक्षिप्त परन्तु 'व्यापक सूत्रों के द्वारा इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया है। प्राचीन ग्रंथों में एक ही शब्द का जिस-जिस लिंग में योग जहाँ तक हमें दृष्टिगोचर हुमा है, उस-उस लिंग का निर्देश इस कोष में उस शब्द के पास कर दिया गया है। जहाँ लिंग में विशेष विलक्षणता पाई गई है वहाँ उस ग्रंथ का अवतरण भो दे दिया गया है। (ग) जहाँ स्त्रीलिंग का विशेष रूप पाया गया है वहाँ उस अर्थ के बाद 'स्त्री-' निर्देश करके रेफरेंस के साथ दिया गया है। (घ) प्राकृत में अनेक ग्रंथों में अव्यय के बाद विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। इससे ऐसे स्थानों में अव्यय-सूचक 'म' के बाद प्रायः लिंग बोधक शब्द भी दिया गया है। जैसे 'बला' के बाद 'म. स्त्री' = (अव्यय तथा स्त्रीलिंग)। १३. देश्य शब्दों के संस्कृत-प्रतिशब्द के स्थान में केवल देश्य का संक्षिप्त रूप दे' ही काले टाइपों में कोष्ठ में दिया गया है। (क) जो धातु वास्तव में देश्य होने पर भी प्राकत के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध व्याकरणों में संस्कृत धातु के आदेश कह कर तद्भवे बतलाये गये हैं उनके संस्कृत-प्रतिशब्द के स्थान में 'दे'न देकर प्राचीन वैयाकरणों की मान्यता बतलाने के उद्देश्य से वे वे प्रादेशि संस्कृत रूप ही दिये गये हैं। इससे संस्कृत से बिलकुल विसदृश रूपवाले इन देश्य धातुओं को वास्तविक तद्भव समझने को भूल कोई न करे। (ख) जो धातु तद्भव होने पर भी प्राकृत-व्याकरणों में उसको अन्य धातु का आदेश बतलाया गया है उस धातु के व्याकरण-प्रदर्शित प्रादेशि संस्कृत रूप के बाद वास्तविक सस्कृत रूप भी दिखलाया गया है यथा पेच्छ के [दृश , प्र + ईक्ष] आदि। (ग) प्राचीन ग्रंथों में जो शब्द देश्य रूप से माना गया है परन्तु वास्तव में जो देश्य न होकर तद्भव ही प्रतीत होता है, ऐसे शब्दों का संस्कृत-प्रतिशब्द दिया गया है और प्राचीन मान्यता बर लाने के लिए संस्कृत प्रतिशब्द के पूर्व में दे दिया गया है। (घ) जो शब्द वास्तव में देश्य ही है, परन्तु प्राचीन व्याख्याकारों ने उसको तद्भव बतलाते हुए उसके जो परिमार्जित–छिल-छाल कर बनाये हुए संस्कृत-रूप अपने ग्रंथों में दिये हैं, परन्तु जो संस्कृत-कोषों में नहीं पाये जाते हैं, ऐसे संस्कृत-प्रतिरूपों को यहाँ स्थान न देते हुए केवल 'दे हो दिया गया है। (ङ) जो शब्द देश्य रूप से संदिग्ध है उसके प्रतिशब्द के पूर्व में 'दे' भी दिया है। १४. प्राचीन व्याख्याकारों के दिये हुए संस्कृत-प्रतिशब्द से भी जो अधिक समानतावाला संस्कृत प्रतिशब्द है वही यहाँ पर दिया गया है, जैसे 'एहारिणय के प्राचीन प्रतिशब्द 'स्नापित' के बदले 'स्नानित' । १५. अनेक अर्थवाले शब्दों के प्रत्येक अर्थ १, २, ३ प्रादि अंकों के बाद क्रमशः दिये गये हैं और प्रत्येक अर्थ के एक या अनेक रेफरेंस उस मर्थ के बाद सादे ब्राकेट में दिये हैं। (क) धातु के भिन्न-भिन्न रूपवाले रेफरेंसों में जो-जो अर्थ पाये गये हैं वे सब १, २, ३ के अंकों से देकर क्रमशः धातु के पाख्यात तथा कृदन्त के रूप दिये गये हैं और उस-उस रूपवाले रेफरेंस का उल्लेख उसी रूप के बाद ब्राकेट में कर दिया गया है । (ख) जिस शब्द का अर्थ वास्तव में सामान्य या व्यापक है, किन्तु प्राचीन ग्रंथों में उसका प्रयोग प्रकरण-वश विशेष या संकीरणं अर्थ में हुमा है, ऐसे शब्द का सामान्य या व्यापक अर्थ ही इस कोष में दिया गया है; यथा-'हत्थिचग' का प्रकरण-वश होता 'हाथ के योग्य प्राभूषण' यह विशेष अर्थ यहाँ पर न देकर 'हाथ-सम्बन्धो' यह सामान्य अर्थ हो दिया गया है। ‘णक्खत्त (नाक्षत्र) आदि तद्धितान्त शब्दों के लिए भी यही नियम रखा गया है। शब्द-रूप, लिंग, अर्थ की विशेषता या सुभाषित की दृष्टि से जहाँ अवतरण देने की आवश्यकता प्रतीत हुई है वह। पर वह, पर्याप्त अंश में, अर्थ के बाद और रेफरेंस के पूर्व में दिया गया है। (क) अवतरण के बाद कोष्ठ में जहाँ अनेक रेफरेंसों का उल्लेख है वहाँ पर केवल सर्व-प्रथम रेफरेंस का हो अवतरण से संबन्ध है, शेष का नहीं। एक हो ग्रंथ के जिन अनेक संस्करणों का उपयोग इस कोष में किया गया है, रेफरेंस में साधारणतः संस्करण-विशेष का उल्लेख न करके केवल ग्रंथ का ही उल्लेख किया गया है । इससे ऐसे रेफरेंसवाले शब्द को सब संस्करणों का या संस्करण-विशेष का समझना चाहिए। १. हेमचन्द्र-प्राकृत-व्याकरण, सूत्र १, ३३ से ३५ । For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (क) जहाँ पर संस्करण-विशेष के उल्लेख की खास आवश्यकता प्रतीत हुई है वहाँ पर रेफरेंस की संकेत-सूची में दिये हुए संस्करण के १, २ आदि अंक रेफरेंस के पूर्व में दिये हैं। जैसे पेसल और पेसलेस शब्दों के रेफरेंस 'पाचा' के पूर्व में “२' का अंक प्रागमोदय-समिति के संस्करण का और '३' का अंक प्रो. रवजी भाई के संस्करण का बोधक है। १८. जहाँ कहीं प्राकृत के किसी शब्द के रूप को, अर्थ की अथवा संयुक्त शब्द आदि की समानता या विशेषता के लिये प्राकृत के हो ऐसे शब्दान्तर की तुलना बतलाना उपयुक्त जान पड़ा है वहाँ पर रेफरेंस के बाद देखो-' से उस शब्द को देखने की सूचना की गई है। जहाँ कहीं 'देखो' के बाद काले टाइपों में दिये हुए प्राकृत शब्द के अनन्तर सादे टाइपों में लिंगादि-बोधक या संस्कृत-प्रतिशब्द दिया गया है वहाँ उसी लिंग अादिवाले या संस्कृत प्रतिशब्दवाले ही प्राकृत शब्द से मतलब है, न कि उसके समान इतर प्राकृत शब्द से । जैसे अ शब्द के 'देखो च प्र' के च से पुंलिंग च को छोड़कर दूसरा ही अव्यय-भूत च शब्द, और ओसार के 'देखो ऊसार = उत्सार के 'ऊसार' से तीसरा ही ऊसार शब्द देखना चाहिए; पहले, दूसरे और चौथे ऊसार शब्द को नहीं । उक्त नियमों से अतिरिक्त जिन नियमों का अनुसरण इस कोष में किया गया है वे आधुनिक नूतन पद्धति के संस्कृत आदि कोषों के देखनेवालों से परिचित और सुगम होने के कारण खुलासे की जरूरत नहीं रखते। १९. For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअ-सह-महण्णवो। (प्राकृत-शब्द-महार्णवः) णासिअ-दोस-समूह, भासिअणेगंतवाय-ललिअत्थं । पासिअ-लोआलो, बंदामि जिणं महावीरं ॥१॥ निकित्तिम-साउ-पयं, अइसइ सयल-वाणि-परिणमिरं । वायं अवाय-रहिअं, पणमामि जिणिंद-देवाणं ।। २॥ पाइअ-भासामइअं, अवलोइअ सत्थ-सत्थमइविउल । सद्द-महण्णव-णाम, रएमि कोसं स-वण्ण-कर्म ।। ३॥ अपुं[अ] १ प्राकृत वर्ण-माला का प्रथम अक्षर ( हे १, १, प्रामा)। २ विष्णु, कृष्ण (से १,१)। अ देखो च अ (श्रा १४, जी २; पउम ११३, अ [दे] देखो इव; 'चंदो म' (प्राकृ ७६)। अप[अ] निम्नलिखित अर्थों में से, प्रकरण के अनुसार, किसी एक को बतलानेवाला अव्यय-१ निषेध, प्रतिषेध; 'अइंसरण' (सुर ७, २४८), 'सबनिसेहे मोऽकारो' (विसे १२३२). २ विरोध, उल्टापन; 'अधम्म' (गाया १,१८)। ३ अयोग्यता, अनुचितपन; 'अयाल' (पउम २२,८५)। ४ अल्पता, थोड़ापन; 'अधरण' (गउड); 'अचेल' (सम ४०)। ५ अभाव, अविद्यमानता; 'प्रगुण' (गउड)। ६ भेद, भिन्नता; 'अमणुस्स' (रणदि)। ७ सादृश्य, तुल्यता; 'प्रचक्खुदंसरण' (सम १५)। ८अप्रशस्तता, बुरापन; 'अभाइ' (चारु २६)। ६ लघुपन, छोटाई; 'प्रतड' (बृह १)। 'अ पुं [क] १ सूर्य, सूरज (से ७, ४३)। २ अग्नि, पाग। ३ मयूर, मोर (से ६,४३)। ४ न. पानी, जल (से १,१)। ५ शिखर, टोंच अइ सक [आ + इ] आगमन करना, मा (से ६,४३) । ६ मस्तक, सिर (से ६,१८)। गिरना; 'अइंति नाराया' (स ३८३)। 'अ वि [ज] उत्पन्न, जात (गा ६७१)। | अइइ श्री [अदिति] पुनर्वसु नक्षत्र का अधिअअंख वि [दे] स्नेह-रहित, सूखा (दे १, ष्ठाता देव (सुज १०)। अइइ सक [अति+इ] १ उल्लंघन करना। २ अअर देखो अवर (पि १६५)। गमन करना । ३ प्रवेश करना। वकृ. अइंत अअर देखो आयर (पि १६५)। (से ६, २६, कप्प)। संकृ. अइच (सूत्र अइ अ[अयि १-२ संभावना और आमंत्रण १,७, २८)। अर्थ का सूचक अव्यय (हे २, २०५; स्वप्न अइउट्ट वि [अतिवृत्त प्रतिगत, प्राप्त (सूम ५८) । १, ५, १, १२)। अइ अ[अति यह अव्यय नाम और धातु के अच सक [अति + अञ्च ] १ अभिषेक पूर्व में लगता है और नीचे के अर्थों में से किसी करना, स्थानापन्न करना । २ उल्लंघन करना। एक को सूचित करता है-१ अतिशय, अति- ३ अक. दूर जाना (से १३, ८ ८६)। रेक; 'अइउराह', 'अइउत्ति', 'अइचिंतंत' (श्रा अइंचिअ वि [अत्यञ्चित] १ मभिषिक्त, १४, रंभा, गा २१४) । २ उत्कर्ष, महत्व; स्थानापन्न किया हुआ (से १३,८)। २ उल्लं'अइवेग' (कप्प) । ३ पूजा, प्रशंसा; 'अइजाय' घित, अतिक्रान्त (से १३,८)। ३ दूर गया (ठा ४)। ४ अतिक्रमण, उल्लंघन; 'अइ- हुमा (से १३, ८६)। उक्कसो' (दस ५,४,४२)। ५ ऊपर, ऊंचा; अइंछ देखो अइंच (से १३, ८)। 'प्रहमंच'. 'अइपडागा' (औप. पाया १.१)। अइंछिअ देखो अईचिअ (से १३,८। ६ निन्दाः 'अइपंडिय' (बृह १)। अइंछण न [अत्यश्चन] १ उल्लंघन (से १३, अइ अ [अति] सामर्थ्य-सूचक अध्यय; 'अइ- ३८ ) । २ आकर्षण, खींचाव (स ८.६४) । वहई' (सूम १, २, ३, ५) । | अइंत देखो अइइ प्रति +इ। For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो अइंत-अइपरिणाम क्रम्। अइंत वि [अनायत् ] १ नहीं पाता हुमा । | अइगय वि [दे] १ आया हुआ । २ जिसने अइण न [अजिन] चर्म, चमड़ा (पान)। २ जो जाना न जाता हो; 'गाहाहि पणइणीहि प्रवेश किया हो वह (दे १,५७); 'ससुरकुलम्मि | अइणिय वि [दे. अतिनीत] आनोत, लाया य खिजइ चित्तं अईतीहि' (वजा ४)। माइगो, दिट्ठा य सगउरव तत्थ' (उप ५६७ हुआ (दे १,२४)। अइंदिय वि [अतीन्द्रिय] इंद्रियों से जिसका टी)। ३ न. मार्गका पीछला भाग ( दे १, अइगिय । वि [अतिनीत] १ फेंका हुआ (से ज्ञान न हो सके वह (विसे २८१८)। अइणीय ६,५६) । २ जो दूर ले जाया अइंमुत्त देखो अइमुत्त (प्राकृ ३२)। अइगय वि[अतिगत अतिक्रान्त, गुजरा हुआ गया हो (प्राप)। अइकम अक [अतिक्रम् ] गुजरना, बीतना हिंडंतस्स अइगयं वरिसमेग' (महा; से १०, अइणीअ वि [अतिगत] गत, गया हुआ (सुख 'देवश्चणस्स समग्रो प्रइकमइ दुद्धरस्स रायस्स' | १८ विसे ७ टी)। २,१३)। (सम्मत्त १७४) । देखो अइक्कम अति + | अइगय वि [अतिगत] प्राप्त; 'एवं बुदिमइ- अइणीय वि [दे. अतिनीत] मानीत, लाया गो गब्भे संवसइ दुक्खिनो जीवो' (तंदु हुआ (महा)। अइकाय पुं[अतिकाय] १ महोरग ---जातीय | १३)। अइणु वि [अतिनु] जिसने नौका का उल्लंदेवों का एक इन्द्र (ठा २)। २ रावण का एक अइचिरं प्र[अतिचिरम् ] बहुत काल तक घन किया हो वह, जहाज से उतरा हुआ पुत्र (से १६, ५६) । ३ वि. बड़ा शरीरवाला (गा ३४६)। (षड्)। (णाया १,६)। अइच्च देखो अइइ = अति + इ। अइतह वि [अवितथ] सत्य, सच्चा (उप अइक्कत वि [अतिकान्त] १ प्रतीत, गुजरा अइच्छ सक [गम् ] जाना, गमन करना। १०३१ टो)। हुमाः 'अइक्कंतजोवरणा' (ठा ५)। २ तीर्ण, अइच्छइ (हे ४,१६२)। अइतेया स्त्री [अतितेजा पक्ष की चौदहवीं पार पहुंचा हुआ (माव)। ३ जिसने त्याग किया अइच्छ सक [अतिक्रम् ] उल्लंघन करना। रात (सुज्ज १०,१४)। हो वहः 'सबसिरोहाइक्कंता' (प्रौप)। अइच्छइ (ओघ ५१८)। वकृ. अइच्छंत | अइदंपन्ज न [ऐदंपर्य तात्सर्य, रहस्य, भावार्थ अइक्कम सक [अति + क्रम् ] १ उल्लंघन (उत्त १८)। (उप ८६४; ८७६)। करना। २ व्रत-नियम का आंशिक रूप से | अइच्छा स्त्री [अदित्सा] १ देने की अनिच्छा। अइदुसमा ) स्त्री अतिदुष्षमा देखो दुस्सखण्डन करना: 'अइक्कमई' (भग)। वकृ. अइ- । २ प्रत्याख्यान विशेष (विसे ३५०४)। अइदुस्समा मदुस्समा (पउम २०,८३ अइदूसमा '१०, उप पृ१४७)। कमंत, अइकममाण (सुपा २३८, भग)। अइच्छिय वि [गत] गया हुआ, गुजरा हुआ अइदंपज्ज देखो अइदंपज्ज (पंचा १४)। कृ. अइकमणिज्ज (सूत्र, २,७)। (पउम ३, १२२; उप पृ १३३)। अइधाडिय वि[अतिध्राटित] फिराया हुआ, अइक्कम पुं[अतिक्रम] १ उल्लंघन (गा अइच्छिय वि [अतिक्रान्त प्रतिक्रान्त, उल्लं३४८) । २ व्रत या नियम का प्रांशिक खण्डन घित (पान, विसे ३५८२) । धुमाया हुआ (पएह १,३)। (ठा ३, ४)। बजाय अतिजा | अइनिठुहावण वि[अतिविष्टम्भन स्तब्ध अइक्कमण न [अतिक्रमण] कार देखो (सुपा संपत्ति को प्राप्त करनेवाला पुत्र (ठा ४)। करनेवाला, रोकनेवाला (कुमा)। २३८)। अइन्न न [अजीर्ण] १ बदहजमी, अपच । २ अइह वि अदृष्ट] १ जो न देखा गया हो अइक्ख वि [अतीक्ष्ण] तीक्ष्णतारहित; वि. जो हजम न हुआ हो वह । ३ जो पुराना वह । २ न. कर्म, देव, भाग्य (भवि) । उव्व, 'अइस्खा वेयरणो' (तंदु ४६)। न हुआ हो, नूतन (उव)। पुव्व वि [पूर्व जो पहले कभी न देखा अइक्ख वि (अनीक्ष्य अदृश्या 'अइक्खा गया हो वह (गा ४१४; ७४८)। अइन्न वि[अदत्त नहीं दिया हमा। "याण वेयरणी' (तंदु ४६)। अइह वि [अदृष्ट जो देखा न गया हो वह न [दान] चोरी (प्राचा)। अइगच्छ । अक [अति + गम् ] १ गुजरना, (हास्य १४६)। अइपंडुकंबलसिला स्त्री [अतिपाण्डकम्बल अगम बीतना। २ सक, पहुँचना। ३ अइह वि [अनिष्ट] १ अप्रिय। २ खराब, दुष्ट; शिला] मेरु पर्वत पर स्थित दक्षिण दिशा की प्रवेश करना । ४ उल्लंघन करना। ५ जाना, 'जो पुणु खलु खुदु अट्ठसंगु, तो किमन्भ एक शिला (ठा ४)। गमन करना। वकृ. अइगच्छमाण (णाया स्थउ देइ अंगु' (भवि)। अइपडाग पुं [अतिपताक] १ मत्स्य की एक १,१)। संकृ. अइयञ्च (प्राचा); 'अइगतूण | अइहा सक [अति + स्था] उल्लंघन करना। जाति (विपा १, ८)। २ स्त्री. पताका के अलोग' (विसे ६०४)। संकृ. अइट्ठिय (उत्त ७)। ऊपर की पताका (णाया १, १)। अइगम पुं[अतिगम] प्रवेश (विसे ३८६)। अइट्ठिय वि[अतिष्ठित] अतिक्रान्त, उल्लंधित अइपरिणाम वि [अतिपरिणाम] आवश्यअइगमण न [अतिगमन] १ प्रवेश-मार्ग| ( उत्त ७)। कता न रहने पर भी अपवाद-मार्ग का ही (णाया १, २) । २ उत्तरायण, सूर्य का उत्तर | अइण न [दे] गिरि-तट, तराई, पहाड़ का | आश्रय लेनवाला, शास्त्रोक्त अपवादों की मर्यादा दिशा में जाना (भग)। निम्न भाग (दे १, १०)। का उल्लंघन करनेवाला For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइपाइअ-अइरिंप पाइअसहमहण्णवो 'जो दव्वखेत्तकालभावकयं जं जहि जया काले। करने की अनुज्ञा न हो; 'अइभूमि न गच्छेजा, २ राजा वगैरह का नगर प्रादि में धूम-धाम तल्लेसुस्सुत्तमई, अइपरिणामं वियारणाहि' गोयररंगगो मुणी' (दस ५, १, २४)। । से प्रवेश करना (ठा ४) । (बृह १)। अइमट्टिया स्त्री [अतिमृत्तिका] कीचवाली अइयाय वि [अतियात] गया हुमा, गुजरा अइपाइअ वि [अतिपातिक] हिंसा करनेवाला मट्टी (जीव ३) । हुआ ( उत्त २०)। (सूम २, १, ५७)। अइमत्त । वि [अतिमात्र] बहुत, परिमाण अइयार पुं [अतिचार]उल्लंघन, अतिक्रमण अइपास पुं [अतिपाव] भगवान् अरनाथ अइमाय से अधिक (उवठा )। (भवि) । २ गृहीत व्रत या नियम में दूषण के समकालिक ऐरवत क्षेत्र के एक तीर्थंकर अइमुक | पुं [अतिमुक्त, क] १ स्वनाम लगाना (श्रा ६)। देव (तित्थ)। अइमुंन । ख्यात एक अन्तकृद् (उसी जन्म में | अइर भ[अचिर] जल्दी, शीध्र (स्वप्न ३७), अइपास सक [अति + दृश्] अतिशय अइमुंतय मुक्ति पानेवाला) जैन मुनि, जो अइर न [अजिर] आंगन, चौक (पान)। देखना, खूब देखना । अइपासइ (सूत्र १, १, अइमुत्त ! पोलासपुर के राजा विजय का पुत्र अइर दे] मायुक्त, गांवका राज-नियुक्त अइमुत्तय ) था और जिसने बहुत छोटी ही मुखिया (दे १,१६)। अइप्पगे प्र[अतिप्रगे] पूर्व-प्रभात, बड़ी उम्र में भगवान् महावीर के पास अइरन [दे. अतर] देखो अयर-अतर सबेर (सुर ७, ७८)। दीक्षा ली थी (अन्त)। २ कंस (सुपा ३०)। अइप्पमाण वि [अतिप्रमाण] १ तृप्त न होता का एक छोटा भाई (प्राव) । ३ अइर वि [दे] प्रतिरोहित (पिंड ५६०; हुया भोजन करनेवाला । २ न. तीन बार से वृक्ष-विशेष (पउम ४२, ८)। ४ | ५६१)। अधिक भोजन (पिंड ६४७)। माधवी लता (पाम; स ३५) । अइरजुवइ स्त्री (दे) नई बहू, दुलहिन (दे १, अइप्पसंग पुं[अतिप्रसङ्ग] १ प्रतिपरिचय ५ न. अन्तगड़दसा नामक अंग-ग्रन्थ (पश्चा१०)। २ तर्क-शास्त्र में प्रसिद्ध अति का एक अध्ययन (अन्त) । (हे १, | अइरत्त पुं[अतिरात्र अधिक तिथि, ज्योतिष व्याप्ति-नामक दोष (स १६६; उवर ४८ )। २६;१७८, पि २४६)। की गिनती से जो दिन अधिक होता है वह आइप्पसंगि वि [अतिप्रसङ्गिन] अतिप्रसंग अइय वि [अतिग प्रतिक्रान्तः 'अव्वो अइन | (ठा ६)। दोषवाला (अज्झ १०)। म्मि तुमे, गवरं जइ सा न जूरिहिइ' (हे अइरत्त वि [अतिरक्त] १ गाढा लाल । २ २, २०४) । २ करनेवाला; 'ठाणाइय अइप्पहाय न [अतिप्रभात] बड़ी सबेर (गा | विशेष रागी। कंबलसिला, कंबला श्री (औप)। [°कम्बलशिला, कम्बला मेरु पर्वत के अइबल वि [अतिबल] १ बलिष्ठ, शक्तिशाली अइय वि [अतिग] प्राप्त (राय १३४)। पांडक वन में स्थित एक शिला, जिसपर (प्रौप)। २ न. अतिशय बल, विशेष सामर्थ्य । 'अइय वि [दयित] १ प्रिय, प्रीतिपात्र । २ जिनदेवों का जन्माभिषेक किया जाता है ३ बड़ा सैन्य (हे ४, ३५४)। ४ पुं. एक | दया-पात्र, दया करने योग्य (से , ३१)।। (ठा २, ३) । राजा. जो भगवान ऋषभदेव के पूर्वीय चतुर्थ अइयच्च देखो अइगच्छ। अइरा प्र [अचिरात् ] शीघ्र, जल्दी (से भव में पिता या पितामह था (पाचू)। ५ | अइयण न [अत्यदन] बहुत खाना, अधिक भरत चक्रवर्ती का एक पौत्र (ठा ८)। ६ भोजन करना ( वव २)। अशास्त्री [अचिरा] पांचवें चक्रवर्ती और भरत क्षेत्र में आगामी चौबीसी में होनेवाला | अइयय वि [अतिगत] गया हुआ (स सोलहवें तीर्थंकर-देव की माता (सम पांचवां वासुदेव (सम ५) । ७ रावण का एक ३०३) । अइराणी १५२; पउम २०, ४२)। . योद्धा (पउम ५६, २७)। अइयर सक [अति + चर्] १ उल्लंघन | अइराणी स्त्री [दे] १ इन्द्राणी । २ सौभाग्य के अइभद्दा स्त्री [अतिभद्रा] भगवान् महावीर करना। २ व्रत को दूषित करना। वकृ. | लिए इन्द्राणी-व्रत करनेवाली स्त्री (दे १,५८)। के प्रभास नामक ग्यारहवें गणधर की माता | अइयरंत (सुपा ३५४)। अइरावण ऐरावग] इन्द्र का हाथी(पाम)। (पाचू)। अइया सक [अति + या] जाना, गुजरना | अइरावय पुं[ऐरावत] इन्द्र का हाथी (भवि)। अइभूइ पुं[अतिभूति] एक जैन मुनि, जो (उत्त २०)। अइराहा स्त्री [अचिरामा बिजली, चपला पंचम वासुदेव के पूर्व जन्म में गुरु थे (पउम अइया स्त्री [अजिका] बकरी, छागी (उप (दे १, ३४ टी)। २०, १७६)। | २३७)। अइरि न [अतिरि] धन या सुवर्ण का प्रतिअइभूमि स्त्री [अतिभूमि १ परम प्रकर्ष। अइया स्त्री [दयिता] स्त्री, पली (से, क्रमण करनवाला, धनाव्य ( षड्। २ बहुत जमीन (से३, ४२) । ३ गृहस्थों ३१)। अइरिंप पुदेि] कथाबन्ध, बातचीत, कहानी के घर का वह भाग, जहाँ साधुओं का प्रवेश | अइयाण न [अतियान] १ गमन, गुजरना।। (द १,२६) । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ अरित वि [अतिरिक्त ] १ बचा हुआ म शिष्ट (पउम ११८, ११६) । २ अधिक, ज्यादा (ठा २, १ ); 'पवद्धमाणाइरितगुणनिलो' (सा ६३) । सिज्जासणिय वि [शय्यासनिक ] लम्बी-चौड़ी शय्या और श्रासन रखनेवाला (साधु) (प्राचू ) । अवरूव वि [अतिरूप] १ सुरूप, सुडौल (पउम २०, ११३)। २५. भूत-जातीय देवविशेष (१) । अश्रेश्व वि] [ अतिरेकित] मतिरेष-युक्त, प्रतिप्रभूत ( राय ७८ टी) । अइरेग पुं [अतिरेक ] १ प्राधिक्य, अधिकता; 'साइरेगप्रवासजायय' (गाया १, ५) । २ अतिशय (जीव )। अइरेण । श्र [अचिरेण ] जल्दी, शीघ्र (गा अइरेण ) १३५; पउम ६२, ४, उवर ४३ ) । अइरेय देखो अइरेग (गाया १, १ ) । [ [ अतीव ] श्रतिशय, प्रत्यन्त; 'रितं इव महंतं, चिट्ठs मज्झम्मि तस्स भवणस्स । ता तं सव्वं सुपुरिस ! मप्यायत्तं करेासु ।' (महा) अश्वट्टण न [ अतिवर्त्तन] जालंधन, प्रतिक्रमण ( श्राचा) । अइवत्त सक [ अति + वृत्] श्रतिक्रमरण करना । श्रइवत्तइ ( आचा) । अवत्तिय वि [ अतिव्रतिक ] १ जिसका उल्लंघन किया गया हो वह । २ प्रधान, मुख्य । ३ उल्लंघन करनेवाला ( श्राचा) । अश्वयक [अति + वृत्] उल्लंघन करना । संकृ. अइवइत्ता ( सू २, २, ६५ ) । अइवय सक [ अति + व्रज् ] १ उल्लंघन करना । २ संमुख जाना । ३ प्रवेश करना । अति ( १ ) कृ. 'नियमवय अइवयंतं गयं सुमिणे पासित्तार्णं पडिबुद्धा (या १, १ कप । अवय सक [ अति + पत्] उल्लंघन करना । २ सम्बन्ध करना । ३ प्रवेश करना। ४ प्रक. मरना । ५ गिरजाना; 'अवरे रण-सीस-लद्धनखा संगममि भवति (एह १, २) 'लोभघत्था संसारं मइषयंति ( परह १, ५) । कु. जर या सरीरव-विलासिणि सरीर पाइअसद्दमहणवो वा अइवयमाणि निवासि (खाया १,१); अइवयंत (कप्प ) । प्रयो. अइवाएमाण (माचा ठा७) । अइवह सक [अति + वह ] वहन करने में समर्थ होना । अइवहइ (सूत्र १, २, ३, ५) । अश्या वि अतिपातिन् ] १ हिसक (सूम १, ५) । विनश्वर ( विसे १५७८ ) । अड्याइनु वि [अतिपातयितु] मारनेवाला (ठा ३, २) । अश्वाइय वि [अतिपाविक] ऊपर देखो ( सुध २, १) । अइवायत्तु देखो अइवाइन्तु (ठा ७) । अइवाएमाण देखो अश्वय = अति + पत् । अश्वाय पुं [ अतिपात] १ हिंसा आदि दोष ( ध ४६ ) । २ विनाश; 'पारणा इवाएणं' ( गाया १, ५) । अवाय पुं [अतिवात] १ उल्लंघन । २ भयं कर पवन, तूफान ( उप ७६८ टी) । अइवाह सक [ अति + वाय् ] बीताना, गुजारना 'सोमवाहे दुन्ति दि' (धर्मवि ३३) । अविरिय [अविषीर्य] १ बल महा पराक्रमी । २ पुं. इक्ष्वाकु वंश का एक राजा ( पउम ५, ५) । ३ नन्दावर्त नगर का एक राजा ( पउम ३७, ३) । अइविसाल वि [अतिविशाल ] १ बहुत बड़ा, विस्तीर्ण । २ स्त्री यमप्रभ नामक पर्वत के दक्षिण तरफ की एक नगरी (दीव) । अइस [अप] वि [ईटरा] ऐसा, इस तरह का ( ४, ४०३) । अइसइ वि [अतिशयिन् ] श्रतिशय वाला, विशिष्ट, आर्य-कारक (सुपा २५७) । अइसइअ वि [ अतिशयित ] ऊपर देखो (पान) । अइसंवण देखो अइसंघाण; 'भितगागतिसंघ न काय' (पंचा ७,२१)। असंधाग [ अतिसंधान ] ठगाई, वंचना; 'भियगारणइसं वारणं सासयवुड्ढी य जयगा य' (पंचा ७) । अहि [अतिथि] जिसके माने की तिथि नियत न हो वह, पाहुन, यात्री, भिक्षुक, साधु (आवा) । संविभाग पुं [ संविभाग ] साधु को भोजन आदि का निर्दोष दान (धर्मं ३ ) । अई सक [गम ] जाना, गमन करना । श्र ( ४, १६२ कुमा); ति ( गड) अइसकाया श्री [अनिष्वष्कणा] उत्तेजना, अअ [न] भूतकाल (१६०) । प्रेरणा, बढ़ावा (निसी) । २ वि. जो बीत चुका हो, गुजरा हुआ; 'जे अ या सिद्ध (प) प्रतिक्रान्त (सूम अइसय स सक । [अति + शी] मात करना । अरिस- अईअ वह 'परवलय असतो' (उम १० १५) । अस्य पुं [अतिशय ] १ श्रेष्ठता, उत्तमता (कुमा १५) २ महिमा, प्रभाव 'नया इस' (महा) २ बहुत १२, ८१) । ४ चमत्कार ( उर १, ३) । भरिय वि [भृत] पूर्ण, पूरा भरा हुआ (पान) । अइसरियन [पेश्वर]] वैभव, संपत्ति, गौरव (हे १,१५१) । अइसाइ वि[अतिशायिन] १ श्रेष्ठ (पम्म टी) । २ दूसरे को मात करनेवाला । स्त्री. णी (सुपा ११४) । अइसायण न [अतिशायन] उत्कृष्टता (२२) । अइसार पुं [अतिसार ] संग्रहणी रोग, जठर की व्याधि-विशेष (१५) अइसेस पुं [अतिशेष ] १ महिमा, प्रभाव, आध्यात्मिक सामर्थ्यं (सम ५६ ) । २ बचा हुआ अवशिष्ट (ठा ४, २) २ अतिशय वाला (विसे ५५२) । अइसेसि [अविशेषिन] १ प्रभावशाली, महिमान्वित । २ समृद्ध (राज) । अइसेसि वि [ अतिशेषिन् ] १ महिमान्वित | २ समृद्ध, ज्ञान आदि के अतिशय से सम्पन्न (सट्ठि ४२ टी ) । अइसेसिय वि [ अतिशेषित ] ऊपर देखो (ओघ ३० ) । अइसेसिय वि [अतिशेषित ] ज्ञात, जाना (१) । अइहर पुं [अतिभर] हद, अवधि, मर्यादा; 'सतीय को भरो ?' (२३) । अहारा श्री [हे] बिजली चला दे १, ३४) । For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अईअ-अंकवाणिय पाइअसहमहण्णवो १, १०; साधं ४ विसे ८०८)। ४ जो दूर | [पश्चाशत् ] उनपचास, ४६ (जी ३०; पउम हो गया हो (उत्त १५)। १०२, ७०)। देखो एगूण ! य गए बाएंकसुनोडुवें (सुर १६, २४६)। अईअ)[अतीव] बहुत, विशेष, अत्यन्त अउणतीसइ स्त्री देखो अउण-त्तीस (उत्त ४ संख्या-दर्शक चिह; १, २, ३ (पएण अईव (भग०, १; पएह १, २)। ३६, २४०)। २)। ५ नाटक का एक अंश; 'सुराणा मणुअईसंत वि [अ+ दृश्यमान] जो दिखता | अउणप्पन्न देखो अउणापन्न (जीवस २०८)। स्सभवणाड़एसु निज्झाइमा मंका' (धरण ४५)। न हो (से १, ३५)। अउणासट्रि देखो अउण-सट्रि (सुज्ज ६)। ६ सफेद मणि की एक जाति (उत्त ३४)। अईसय देखो अइसय (पउम ३,१०५; ७५, अउणोणिउत्ति स्त्री [अपुनर्निवृत्ति] अन्तिम ७ चिह्न, निशान (चंद २०)। ८ मनुष्य के २६)। निवृत्ति, मोक्ष (अच्चु १०)। बत्तीस प्रशस्त लक्षणों में से एक (पएह १, अईसार पुं [अतीसार] रोग-विशेष, संग्रहणी अउण्ण न [अपुण्य] १ पाप (सुर ६, ४)। ६पासन-विशेष (चंद ४)। कण्ड रोग (सुख १,३)। | अउन्न । २) । २ वि. अपवित्र । ३ पुण्य पुंन. [काण्ड] रत्नप्रभा पृथ्वी के खर-काण्ड अईसार पुं[अतीसार] १ संग्रहणी रोग । रहित, पापी (पउम २८, ११२; का एक हिस्सा, जो अंक रत्नों का है (ठा २ इस नाम का एक राजा (ठा ५,३)। सुर २, ५१)। १०)। अरेल्लुग, करेल्लुअ पुं[करेल्लुक] अउ देखो आउ = स्त्री; 'उल्लसियो तमरूवो अउम देखो ओम (गुभा १४)। पानी में होनेवाली एक जाति की वनस्पति वलयागारो भउक्कामो' (पव २५५)। (प्राचा)। दुइ स्त्री [स्थिति] अंक रेखाओं अउमर वि [अमर खानेवाला, भक्षक (प्राक अउअ न [अयुत] १ दस हजार की संख्या । की विचित्र स्थापना, ६४ कलाओं में एक २'अउअंग को चौरासी लाख से गुणने पर अपल विअितुल असाधारण, अद्वितीय (उप कला (कप्प)। धर पुं[धर] चन्द्रमा (जीव जो संस्था लब्ध हो वह (ठा २, ४)। ३) । धाई स्त्री [ धात्री] पांच प्रकार की ७२८ टी; पएह १, ४)। धाई-माताओं में से एक, जिसका काम बालक अउअंग न [अयुताङ्ग] 'अच्छरिणउर' को | अउलीन वि [अकुलीन] कुल-हीन, कुजाति, को उत्संग में ले उसका जी बहलाना है (णाया चौरासी लाख से गुणने पर जो संख्या लब्ध संकर (गा २५३)। १, १)। "लिवि स्त्री [लिपि] अठारह हो वह (ठा २, ४)। अउव्य वि [अपूर्व] अनोखा, अद्वितीय (गा लिगियों में की एक लिपि, वर्णमाला-विशेष अउंठ वि [अकुण्ठ] निपुण, कार्य-दक्ष (सम ३५) । वणिय [ वणिक] अंक(गउड)। अउस पुं[दे] उपासक, पूजारी (प्रयौ ५२)। रत्नों का व्यापारी (राय)। वालि, वाली अउचित्त न [औचित्य] उचितपन (प्राकृ भए अ [अये] आमन्त्रण-सूचक अव्यय | स्त्री [पालि, पाली] आलिंगन (काप (कप्पू)। १६४) । हर देखो धर (जीव ३)। अउज्म वि [अयोध्य] १ युद्ध में जिसका | अओ अ [अवस्] १ यहां से लेकर (सुपा अंक [दे अङ्क निकट, समीप, पास (दे १, सामना न किया जा सके वह (सम१३७) । । ४७८)। २ इसलिए, इस कारण से (उप २ जिस पर रिपु-सैन्य आक्रमण न कर सके ७३०)। ऐसा किला, नगर आदि (ठा ४)। अंक पुन [अङ्क] एक देव-विमान (देवेन्द्र अओं [अयस्] लोह । घण पुं [घन] १३२)। अउज्झा स्त्री [अयोध्या] नगरी-विशेष, इक्ष्वा- | लोहे का हथौड़ा; 'सोसंपि भिदंति अयोध अंककरेलुअ, ग देखो अंक-करेल्लुअ (प्राचा कुवंश के राजाओं की राजधानी, विनीता, _ हिं' (सूत्र १, ५, २, १४)। 'मय वि कोसला, साकेतपुर आदि नामोंसे विख्यात [मय लोहे की बनी हुई चीज (सूम २, २, १, ८, ५)। नगरी, जो आजकल भी अयोध्या नाम से ही २)। मुह पुं[मुख] १-२ इस नाम का | अंकण न [अङ्कन] १ चिहित करना (भाव)। प्रसिद्ध है (ठा २)। अन्तर्वीप और उसके निवासी (ठा ५) । ३ वि. २ बैल आदि पशुमों को लोहे की गरम सलाई अउण वि [एकोन] जिसमें एक कम हो लोहे की माफिक मजबूत मुंह वाला; 'पक्खीहिं प्रादि से दागना (पएह १,१)। ३ वि. अंकित खजंति प्रोमुहेहि (सूत्र १, ५, २, ४)। करनेवाला, गिनती में लानेवाला: 'अंकणं जोइवह । यह शब्द बीस से लेकर तीस, चालीस प्रादि दहाई संख्या के पूर्व में लगता है और मुही स्त्री [मुखी] एक नगरी (उप ७६४)। सस्स.''सूर' (कप्प)। जिसका अर्थ उस संख्या से एक कम होता अओग्ग वि [अयोग्य] नालायक (स ७६४)। अंकणा स्त्री [अङ्कना] ऊपर देखो (णाया १, है। 'ठ्ठि स्त्री [°षष्टि] उनसाठ, ५६ अओझा देखो अउज्झा (प्रति ११५)। | १७)। (कप्प)। त्तरि स्त्री [सप्तति] उनसत्तर, अंम[दे] स्मरण-द्योतक अव्यय; 'अं दटुब्वा | अंकदास पुं[अङ्कदास] बालक को उत्संग ६६ (कप्प)त्तीस स्त्रीन [त्रिंशत् उनतीस, __ में लेकर उसका जी बहलानेवाला नौकर २६ (णाया १, १३) । सहि स्त्री [षष्टि] अंक पुं [अङ्क १ उत्संग, कोला (स्वप्न (सम्मत्त २१७)। उनसाठ, ५६ (कप्प)। पन्न, वन्न स्त्रीन २१९)। २ रत्न की एक जाति (कप्प)। अकवाणिय देखो अंक-बणिय (राय १२९)। For Personal & Private Use Only , Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो अंकार-अंगवड्ढण अंकार पंदे] सहायता, मदद (दे १,६)। अंकेल्लण न [दे] घोड़ा आदि को मारने का [रक्ष, रक्षक] शरीर को रक्षा करनेवाला अंकावई स्त्री [अङ्कावती] १ महाविदेह क्षेत्र चाबुक, कोड़ा, औंगी (जं ४)। (सुपा ५२७; इक)। 'राग, राय पुं[राग] के रम्य नामक विजय की राजधानी (ठा २)। अंकेल्लि पुं[दे] अशोक-वृक्ष (दे१, ७)। शरीर में चन्दनादि का विलेपन (प्रौप; गा मेरु की पश्चिम दिशा में बहती हुई शीतोदा अंकोल्ल पुं[अङ्कोठ] वृक्ष-विशेष (हे १,२००)। १८६)। राय पुं[ राज] १ अंगदेश का महानदी की दक्षिण दिशा में वर्तमान एक राजा (उप ७६५)। अंग देश का राजा कर्ण वक्षस्कार पर्वत (ठा ५, २)। . अंग ब. पुं[अङ्ग] १ इस नाम का एक देश, (णाया १,१६; वेणी १०४)। "रिसि देखो अंकिअन [दे] प्रालिंगन (दे १,११)। जिसको आजकल बिहार कहते हैं (सुर २, इसि । रुह वि [रुह] देखो " य ज अंकि वि [अङ्कित] चिहित, निशानवाला ६७)। २ रामका एक सुभट (पउम ५६,३७)। (सुपा ५१२; पउम ५६, ३२)। रुहा स्त्री (औप)। ३ न. प्राचारांग सूत्र आदि बारह जैन आगम [रुहा] पुत्री, लडकी (सुपा १५०)। विज्जा अंकिइल्ल पुं[दे] नट, नर्तक, नचवैया (गाया ग्रंथ (विपा २,१)। ४ वेदांग, वेद के शिक्षादि स्त्री [विद्या] १ शरीर के स्फुरण का शुभाछः अंग (प्राचू) । ५ कारण, हेतु (पव १)। शुभ फल बतलानेवाली विद्या (उत्त८)। २ उस ६ प्रात्मा, जीव (भवि)। ७ मॅन. शरीर अंकुडग पुं[अकुटक] नागदन्तक, खूटी, नाम का एक जैन ग्रंथ (उत्त ८)। 'वियार ' (प्रासू ८४)। ८ शरीर के मस्तक आदि अवयव ताख (जं १)। [विचार] देखो पूर्वोक्त अर्थ (उत्त १५)। (कम्म १, ३४)। अ. मित्रता का प्रामअंकुर पुं [अङकुर] प्ररोह, फुनगी (जी ६)। संभूय वि [संभूत] संतान, बच्चा (उप न्त्रण, सम्बोधन (राय) । १० वाक्यालंकार अंकुरिय वि [अङ्कुरित] अंकुर-युक्त, जिसमें ६.४८)। हारय पुं [हारक] शरीर के में प्रयुक्त किया जाता अव्यय (ठा ४) । इ पुं अंकुर उत्पन्न हुए हों वह (उवा)। अवयवों के विक्षेप, हाव-भाव (अजि ३१) । [जित्] इस नामका एक गृहस्थ, जिसने अंकुस पु[अकुश] १ प्रांकडी, लोहे का "गदाण न [दान] पुरुषेन्द्रिय, पुरुष-चिह्न भगवान् पार्श्वनाथ के पास दीक्षा ली थी एक हथियार, जिससे हाथी चलाये जाते हैं; (निसी)। (निर)। "इसि पुं["र्षि] चंपा नगरी का 'अंकुसेण जहा रणागो धम्मे संपडिवाइयो' एक ऋषि (प्राचू)। [चूलिया] स्त्री अंग पुं[अङ्ग] भगवान् आदिनाथ के एक पुत्र (उत्त २२)। २ ग्रह-विशेष (ठा २, ३)। ३ [चूलिका] अंग-ग्रंथों का परिशिष्ट (पक्खि)। का नाम (ती १४) । २ न. लगातार बारह सीता का एक पुत्र, कुस (पउम ९७, १६)। च्छहिय वि [छिन्नाङ्ग] जिसका अंग दिनों का उपवास (संबोध ५८)। °ज देखो ४ नियन्त्रण करनेवाला, काबू में रखनेवाला 4 (धर्मवि १२६)। हर वि. [धर] अङ्गकाटा गया हो वह (सूत्र २, २, ६३)। (गउड)। ५ एक देव-विमान (राज)। ६ पुंन. जाय वि [जात] बच्चा, लड़का (उप ग्रंथों का जानकार (विचार ४७३ )। गुरु-वन्दन का एक दोष (पव २)। ६४८) । द देखो य% °द (ठा ८)। अंग वि [आङ्ग] १ शरीर का विकार (ठा अंकुस पुन [अक्कुश] १ एक देव-विमान पविद्रन [प्रविष्ट] १ बारह जैन अंग-ग्रन्थों ८)। २ शरीर-संबंधी, शारीरिक (सुम २, (देवेन्द्र १४०)। २ पृ. अंकुशाकार खूटी में से कोई भी एक (कम्म १, ६) । २ अंग २)। ३ न. शरीर के स्फुरण आदि विकारों के (राय ३७)। ग्रंथों का ज्ञान (ठा २, १)। बाहिर न शुभाशुभ फल को बतलानेवाला शास्त्र, निमित्तअंकुसइय न दे. अंकुशित] अंकुश के प्राकार- r°बाह्य] १ अंग-ग्रंथों के अतिरिक्त जैन आगम शास्त्र (सम ४६)। वाली चीज (दे १, ३८; से ६, ६३)। (प्राचू)। २ अंग-ग्रंथों से भिन्न जैन पागमों का | अंग वि [चङ्ग] सुन्दर, मनोहर (भवि) । अंकुसय पु [अबकुशक] देखो अंकुस । २ | ज्ञान (ठा २)। मंग न [rङ्ग] १ अंग-प्रत्यंग अंगइया स्त्री [अङ्गदिका] एक नगरी, तीर्थसंन्यासी का एक उपकरण, जिससे वह देव (राय)। २ हर एक अवयव (षड्)। मंदिर | विशेष (उप ५५२)। पूजा के वास्ते वृक्ष के पल्लवों को काटता है न[ मन्दिर] चम्पा नगरी का एक देव-गृह अंगंगीभाव अङ्गाङ्गीभाव अभेद-भाव, (प्रौप)। (भग १, १)। मद, मद्दय पुं[ मर्द, अभिन्नता; 'अंगंगीभावेण परिणएपन्नसरिसमर्दक १ शरीर की चंपी करनेवाला नौकर। अंकुसा श्री [अकुशा] चौदहवें तीर्थंकर श्री जिणधम्मे (सुपा २१८)। २ वि. शरीर को मलनेवाला, चंपी करनेवाला अनन्तनाथ भगवान् की शासन-देवी (पव २८)। अंगण न [अङ्गण] प्रांगन, चौक (सुर ३, (सुपा १०८, महा; भग ११, १)। य पुं अंकुसिअ वि [अङ्कुशित] अंकुश की तरह ७१)। [द] १ नाली नामक विद्याधरराज का मुड़ा हुमा (से १४, २६)। पुत्र (पउम १०, १०; ५६, ३७)। २ न. अंगणा स्त्री [अङ्गना] स्त्री, औरत (सुर ३, अंकुसी स्त्री [अकुशी] देखो अंकुसा बाजू बंद, केहुंटा (पएह १, ४)। य वि - (संति १०)। [ज] १ शरीर में उत्पन्न । २ पुं. पुत्र, अंगदिआ देखो अङ्गइया (ती)। अंकूर देखो अंकुरः 'सा पुण विरतमित्ता लड़का (उप १३४ टी)। 'या स्त्री [जा] अंगवड्ढण न [दे] रोग, बीमारी (दे १, निबंकूरे विसेसेई (सूअनि ६१ टी)। __ कन्या, पुत्री (पास)। रक्ख, रक्खग वि ४७)। For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगवलिज-अंजण पाइअसहमहण्णवो अंगवलिज्ज न [दे] शरीर को मोड़ना (दे १, | अंगुत्थल न [दे] अंगुठी, अंगुलीय (दे १, अंघो अ [अङ्ग] भय-सूचक अव्यय (प्रति ३६; प्रयौ २०५)। अंगार पुं [अङ्गार] १ जलता हुआ कोयला अंगुब्भव वि [अङ्गोद्भव] संतान, बच्चा अंच सक [कृष् ] १ खींचना । २ जोतना, (हे १, ४७) । २ जैन साधुओं के लिए भिक्षा (उप २६४) । चास करना। ३ रेखा करना । ४ उठाना । का एक दोष (प्राचा) । मग पुं[मर्दक] अंगुम सक [पूरय ] पूत्ति करना, पूरा अंचइ (हे ४,१८७) । संकृ.अंचेइत्ता (प्राव)। एक प्रभव्य जैन-आचार्य (उप २५४) । वई करना । अंगुमइ (हे ४, ६८) । | अंच सक [अञ्च् ] पूजना, पूजा करना । स्त्री। बता] सुसुमार नगर के राजा धुन्धुमार | अंगमिय विपरिता पूर्ण किया हमा| अंचए (वि)। की एक कन्या का नाम (धम्म ८टी)। (कुमा)। अंच सक [अन् ] जाना । अंचति (पंचा अंगारग।[अङ्गारक] १-२ ऊपर देखो अंगुरि, री स्त्री [अगुलि, ली] उंगली १६, २३); 'अञ्चु गइ पूयणम्मि य', अंगारय । (गा २६१)। ३ मंगल-ग्रह (परह (गा २७७)। 'सोधीए पारमंचई' (बृह ४)। १, ५) । ४ पहला महाग्रह (ठा २) । ५ राक्षस-वंश का एक राजा (पउम अंगुल न [अङ्गुल] यव के आठ मध्यभाग | अंचल पुं [अञ्चल] कपड़े का शेष भाग के बराबर का एक नाप, मान-विशेष (भग ३, (कुमा)। ५, २६२)। ७)। पोहत्तिय वि [पृक्त्व क] दो से अंचि पुं [अश्चि] गमन, गति (भग १५)। अंगारिय वि [अङ्गारित] कोयले की तरह लेकर नव अंगुल तक का परिमारण वाला अंचि पुं[आश्चि] आगमन, पाना (भग १५)। जला हुआ, विवणं (नाट; प्राचा)। अंचिय वि [अश्चित] १ युक्त, सहित (सुर अंगाल देखो अंगार; 'निदड्ढंगालनिभं (पिंड (जीव १)। अंगुलि स्त्री [अङ्गुलि] उंगली (कुमा।)। ४, ६७)। २ पूजित (सुपा २१८)। ३ प्रशस्त, ६७५)। अंगालग देखो अंगारग (राज)। कोस पुं[कोश] अंगुलि-त्राण, दास्ताना श्वाचित (प्रासू १८)। ४ न. एक प्रकार का (राय)। °फोडण न [°स्फोटन] उंगली नृत्य (ठा ४, ४; जीव ३)। ५ एक बार का अंगालियन [दे] ईख का टुकड़ा (दे १, फोड़ना, कड़ाका करना (तंदु)। गमन (भग १५)। २८)। यचि पुं[श्चि] १ अंगालिय देखो अंगारिय (प्राचा)। अंगुलिअन [अगुलीयक] अंगुठी गमनागमन, आना-जाना (भग १५)। २ ऊंचा-नीचा होना (ठा १०)। अंगि [अङ्गिन] १ प्राणी, जीव (गण | अंगुलिजक (दे ५, ६; कप्प; पि २५२) । अंचियरिभिय न अश्चितरिभित] एक ८)। २ वि. शरीरवाला। ३ अंग-ग्रन्थों का | अंगुलिज्जग ) तरह का नाच ( राय ५३)। ज्ञाता (कप्प)। अंगुलिणी स्त्री [दे] प्रियंगु, वृक्ष-विशेष (दे अंचिया स्त्री [अश्विका आकर्षण (स१०२)। अंगिरस न [अङ्गिरस एक गोत्र, जो गोतम१, ३२)। अंछ सक [कृष्] १ खींचना; 'अंछति वासुगोत्र की शाखा है (ठा ७)। अंगुली स्त्री [अङ्गली] देखो अंगुलि (कप्प)। देवं प्रगडतडम्मि ठियं संत' (विसे ७६४)। अंगिरस वि [आङ्गिरस १ अंगिरस-गोत्र में उत्पन्न (ठा ७)। २ पुं. एक तापस (पउम ४, न [अगुलीयका अंगुठी २ अक. लम्बा होना। वकृ. अंछमाण (विसे अंगुलीय ! (सुर १०, १४); 'पायवडि- ७६५)। प्रयो. अंछावेइ (गाया १,१)। ८६)। अंगुलीयग। अंगीकड ! वि [अङ्गीकृत] स्वीकृत (ठा ५; | एण सामिय ! समप्पियो अंछण न [कर्षण] खींचाव (पएह २, ५) । अंगुलीयय अंगीकय । सुपा ५२६)। अंगलीयनो तीए (पउम ५४, अंछिय वि [दे] आकृष्ट, खींचा हुमा (दे अंगुलेजक अंगीकर । सक [अङ्गी+] स्वीकार । ६; सुर १, १३२; पि २५२; १, १४)। अंगीकुण । करना । अंगीकरेइ (महा; नाट)। अंगुलयय । पउम ४६, ३५)। अंज सक [अ ] प्रांजना । कृ. अंजियव्य अंगीकरेहि (स ३०६) संकृ. अंगीकरेऊण अंगुलेयग देखो अंगुलेयय (सुख २, २६)। (विसे २६४२)। अंगुवंग न [अङ्गोपाङ्ग] १ शरीर के | अंजण पुं[अञ्जन] १ कृष्ण पुद्गल-विशेष अंगुअ पुं [इगुद] १ वृक्ष-विशेष । २ न. अंगोवंग । अवयव (पएण २३)। २ नख (सुज २०)। २ देव-विशेष (सिरि ६६७)। इंगुद वृक्ष का फल (हे १, ८६)। वगैरह शरीर के छोटे-छोटे अवयव; 'नहकेसम- अंजण पुं[अञ्जन] १ पर्वत-विशेष (ठा ५)। अंगुठ्ठ पु [अङ्गुष्ट] अंगूठा (ठा १०), सुभंगुलीप्रोट्टा खलु अंगोवंगाणि (उत्त ३)। २ एक लोकपाल देव (ठा ४)। ३ पर्वत पसिण ([प्रश्न] १ एक विद्या । २ °णाम न [ नामन्] शरीर के अवयवों के विशेष का एक शिखर, जो दिग्हस्ती कहा 'प्रश्न-व्याकरण' सूत्र का एक लुप्त अध्ययन निर्माण में कारण-भूत कर्म-विशेष (कम्म १, जाता है (ठा २, ३, ८)। ४ वृक्ष-विशेष (ठा १०)। ३४; ४८)। . (प्राव)। ५ न. एक जाति का रत्न (णाया अंगुट्ठी स्त्री [दे] सिरका अवगुण्ठन, चूंघट | अंगोहलि स्त्री [१] शिर को छोड़कर बाकी १, १)। ६ देवविमान-विशेष (सम ३५) । (दे १, ६; स २८४)। । शरीर का स्नान (उप पू२३)। ७ काजल, कजल (प्रासू ३०)। ८ जिसका For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पुलय पुं [लय अंजुवि [ऋजाणं तह मुर पाइअसहमहण्णवो अंजणइसिआ अंत सुरमा बनता है ऐसा एक पार्थिव द्रव्य (जी रूप विनय, प्रणाम (प्रासू ११० स्वप्न ६३)। अंडय [दे, अण्डज] मछली, मत्स्य (दे ४)। मांलको प्रांजना (सूम १,६)। १० उड पु पुट] हाथ का संपुट (महा)।। १, १६)। तैल मादि से शरीर की मालिश करना (राज)। करण न [करण] विनय-विशेष, नमन | अंडाउय वि [अण्डज] अण्डे से पैदा होने११ लेप (स ५८२)। १२ रत्नप्रभा पृथिवी (दे)। "पग्गह [प्रग्रह] १ नमन, हाथ वाला (पउम १०२, ९७)। के खर-काएड का दशव अंश-विशेष (ठा १०)। जोड़ना (भग १४, ३)। २ संभोग-विशेष अंत पुं [अन्न] १ स्वरूप, स्वभाव (से ६, केसिया स्त्री [ केशिका] वनस्पति-विशेष | (राज)। १८)। २ प्रान्त भाग (से ६, १८)। ३ (पएण १७, राय)। जोग पुं[योग]. अंजस वि (दे) ऋजु, सरल (दे १, १४)। सीमा, हद (जी ३३)। ४ निकट, नजदीक कला-विशेष (कप्प)। दीव पुं[द्वीप] अंजिय वि [अञ्जित प्रांजा हुमा, अंजन-युक्त (विपा १,१)। ५ भग, विनाश (विसे ३४५४, द्वीप-विशेष (इक)। 'पुलय पुं [पुलक] | किया हुआ ( से ६, ४८)। जी ४८)। ६ निर्णय, निश्चय (ठा ३)। ७ एक जाति का रत्न (ठा १०)। २पर्वत-विशेष | अंजु विऋजु] १ सरल, भकुटिलः 'अंजुधम्म प्रदेश, स्थान; 'एगंतमंतमवक्कमई' (भग ३, का एक शिखर (ठा ८)। पहा स्त्री जहा तच्चं, जिणाणं तह सुणेह में' (सूत्र १, २)। ८ राग और द्वेषः 'दोहिं अंतेहि [प्रभा] चौथी नरक-पृथिवी (इक)। रिट्ठ ११ , १, ४, ८)। २ संयम में तत्पर, अदिस्समायो' (माचा)। ६ रोग, बीमारी पुं ["रिष्ट] इन्द्र-विशेष (भग ३, ८)। संयमी; 'पुट्ठोवि नाइवत्तइ अंजू' (प्राचा)। (विसे ३४५४)। १० वि. इन्द्रियों को प्रति'सलागा स्त्री [शलाका] १ जैन-मूर्तिकी ३ स्पष्ट, व्यक्त (सूत्र १, १)। कूल लगनेवाली चीज, असुन्दर, नीरस वस्तु प्रतिष्ठा । २ अंजन लगाने की सलाई (सूम १, अंजआ स्त्री अञ्जका भगवान अनन्तनाथ (पएह २, ४)। ११ मनोहर, सुन्दर (से ६, ५) । "सिद्ध वि [सिद्ध] आंख में अंजन___ की प्रथम शिष्या (सम १५२)। १८) । १२ नीच, क्षुद्र, तुच्छ (कप्प)। कर विशेष लगाकर अदृश्य होने की शक्तिवाला अंजू स्त्री [अ] १ एक सार्थवाह की वि [कर उसी जन्म में मुक्ति पानेगला (निसी) । सुन्दरी स्त्री [सुन्दरी] एक सती कन्या (विपा १, १०)। २ 'विपाकश्रुतं का (सूत्र १, १५)। करण वि [करण] नाशक स्त्री, हनूमान् की माता (पउम १५, १२)। एक अध्ययन (विपा १,१)। ३ एक इन्द्राणी (पएह १, ६)। काल पुं [काल] १ अंजणइसिआ स्त्री [दे] वृक्ष-विशेष, श्याम (ठा ८)। ४ 'ज्ञाताधर्मकथा' सूत्र का एक मृत्यु काल । २ प्रलय काल (से ५, ३२)। तमाल का पेड़ (द १, ३७) । अध्ययन (णाया २)। 'किरिया स्त्री [क्रिया] मुक्ति, संसार का अंजणई स्त्री [दे] वल्ली-विशेष (पएण)। अंठि पुन [अस्थि] हड्डी, हाड़. (षड्); अन्त करना (ठा ४, १)। कुल न [कुल] अंजणईस न [दे] देखो अंजणइसिआ 'अहिप्रमहुरस्स अंबस्स अजोग्गदाए गएठी न क्षुद्र कुल (कप्प)। गड वि [कृत् ] उसी (दे १, ३७ । भक्खीमदि' (चारु ६)। जन्म में मुक्ति पानेवाला (उप ४६१)। अंजणग देखो अंजण। अंड । न [अण्ड, क] १ अंडा (कप्प 'गडदसा स्त्री [कृद्दशा] जैन अंग-ग्रंथों में अंजणा स्त्री [अंजना] १ हनूमान की माता अंडअ औप) । २ अंड-कोश (महानि ४)। पाठवा अंग-ग्रंथ (अणु १)। 'चर वि (पउम १, ६०)। २ स्वनाम-ख्यात चौथी अंडग | ३ 'ज्ञाताधर्मकथा' सूत्र का तृतीय [चर] भिक्षा में नीरस पदार्थों की ही खोज नरक-पृथिवी (ठा २, ४)। ३ एक पुष्करिणी अध्ययन (गाया १,१)। कड करनेवाला (पएह २,१)। (जं ४)। तणय पुं [तनय हनूमान् वि [कृत] जो अण्डे से बनाया | अंत वि [अन्त्य अन्तिम, अन्त का (परण (पउम ४७, २८)। सुन्दरी स्त्री [°सुन्दरी] गया हो; 'बंभरणा माहणा एगे, पाह | १५)। क्खरिया स्त्री [rक्षरिका] १ हनूमान् की माता (पउम १८, ५८)। अण्डकडे जगें (सूत्र १, ३)। ब्राह्मी लिपि का एक भेद (परण १)। २ अंजणाभा स्त्री [अअनाभा] चौथी नरक बंध पुं[बन्ध] मन्दिर के शिखर कला-विशेष (कप्प)। पृथिवी (इक)। पर रखा जाता अण्डाकार गोला अंत न [अन्त्र] प्रांत (सुपा १८२, गा अंजणिआ स्त्री [दे] देखो अंजणइसिआ (गउड)। वाणियय पुं[वाणि- ५८५ )। (दे १, ३७)। जक अण्डों का व्यापारी (विपा | अंत [अन्तर] मध्य में, बीच में (हे १, अंजणी स्त्री [अञ्जनी] कजल का प्राधार । १४) । °उर न [पुर] देखो अंतेउर पात्र (सूत्र १, ४)। अंडग अण्डज] १ अण्डे से पैदा (नाट)। करण, करण [करण] मन, अंजलि, ली पुंस्त्री [अञ्जलि] १ हाथ का | अंडय । होनेवाले जंतु, पक्षी, सांप, हृदय; 'करुणारसपरवसंतकरणेण' (उप ६ संपुट (हे १, ३५)। एक या दोनों संकुचित मछली वगैरह (ठा ३, १८)। टी; नाट) । ग्गय वि [गत] मध्यवर्ती, हाथों को ललाट पर रखना; 'एगेण वा दोहि २ रेशम का धागा। ३ रेशमी वस्त्र बीचवाला (हे १, ६०)। द्धा स्त्री [धा] वा मउलिएहि हत्यहिं रिगडालसंसितेहिं अंजली (उत्त २६)। ४ शण का वस्त्र १ तिरोधान । २ नाश (पाचू)। "द्धाण न भएणति' (निचू)। ३ कर-संपुट, नमस्कार (सूम २, २)। [धान अदृश्य होना, तिरोहित होना For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंत-अंतरेण पाइअसहमहण्णवो (उप १३६ टी)। 'द्धाणी स्त्री [र्धानी] | अंतब्भाव देखो अंत-भाव (मझ १४२)। | अंतरापह पुं[अन्तरापथ] रास्ता का बीचला जिससे अदृश्य हो सके ऐसी विद्या (सूप अंतर न [अन्तर] १ मध्य, भीतरः 'गामंतरे | भाग (सुख १, १५)। २, २) । "द्धाभूअ वि [धाभूत] नष्ट, पविट्ठो सो (उप ६ टी)। २ भेद, विशेष, अंतराय पुन. [अन्तराय] देखो अंतराइय विगतः 'नट्ठत्ति वा विगतेत्ति वा अंतद्धाभूतेत्ति । फरक (प्रासू १६८) । ३ अवसर, समय | (ठा २, ४ ; स २०३)। वा एगट्ठा (प्राचू)। °प्पा पुं [पात] (णाया १,२)। ४ व्यवधान (जं १) अंतराल [अन्तराल] अंतर, बीच का भाग अन्तर्भाव, समावेश (हे २, ७७)। °भाव पुं ५ अवकाश, अन्तराल (भग ७,८)। ६ विवर, (अभिने। [भाव] समावेश (विसे)। मुहुत्त न छिद्र (पास)। ७ रजोहरण । ८ पात्र । ६ पुं.. [°मुहूर्त] कुछ कम मुहूर्त, न्यून मुहूर्त (जी | | अंतरावण पुंन [अन्तरापण] दूकान, हाट प्राचार, कल्प । १० सूत के कपड़े पहनने का १४)। 'रद्धा स्त्री [धा] १ तिरोधान । प्राचार, सौत्र कल्प (कप्प)। कप्प पुं २ नाश, 'वुड्ढी सइअन्तरद्धा' (श्रा १६) । अंतरावास पुं [अन्तरवर्ष, अन्तरावास] [कल्प] जैन साधु का एक आत्मिक प्रशस्त 'रद्धा स्त्री [अद्धा] मध्य-काल, बीच का आचरण (पंचू) कंद पुकन्द] कन्द की वर्षा-काल (कप्प)। समय (गचा)। रप्प पुं [आत्मन] एक जाति, वनस्पति-विशेष (पएण१)। अंतरिक्ख पुंन [अन्तरिक्ष] अन्तराल, प्रात्मा, जीव (हे १,१४)। रहिय, रिहिद करण न [करण] आत्मा का शुभ अध्य प्राकाश (भग १७, १०, स्वप्न ७०)। जाय (शौ) वि [हित] १ व्यवहित, अंतराल-युक्त | वसाय-विशेष (पंच)। गिह न [गृह] वि [जात] जमीन के ऊपर रही हुई प्रासाद, (प्राचा)। २ गुप्त, अदृश्य (सम ३६; उप १ घर का भीतरी भाग। २ दो घरों के बीच मंच आदि वस्तु (प्राचा २, ५)। पासणाह १६६ टी; अभि १२०) । वेिइ पुं [ वेदि] का अंतर (बृह ३)। कई स्त्री [नदो] पुं[पार्श्वनाथ] खानदेश में अकोला के गंगा और यमुना के बीच का देश (कुमा)। छोटी नदी (ठा ६)। दीव पुं [द्वीप] पास का एक जैन-तीर्थ और वहाँ की भगवान "अंत वि [°कान्त] सुन्दर, मनोहर (से १, १ द्वीप-विशेष (जी २३)। २ लवरण समुद्र श्रीपाश्र्वनाथ की मूर्ति (ती)। ५६)। के बीच का द्वीप (परण १)। सत्तु पुं अंतरिक्ख वि [आन्तरिक्ष] १ प्राकाशअंतअ वि [आयात् ] प्राता हुअा (से ६, [शत्रु] भीतरी शत्रु, काम-क्रोधादि (सुपा संबंधी, आकाश का (जी ५)। २ ग्रहों के परस्पर युद्ध और भेद का फल बतलानेवाला अंतअ वि [अन्तग] पार-गामी, पार-प्राप्त (से अंतर सक [अन्तरय ] व्यवधान करना, बीच शस्त्र (सम ४६)। | में डालना । अंतरेहि, अंतरेमि (विक्र १३६)। अंतरिज न [अन्तरीय] १ वस्त्र, कपड़ा। अंतअ वि [अन्तद] १ अविनाशी, शाश्वत । २ शय्या का नीचला वस्त्र; 'अंतरिजं रणाम अंतर वि [आन्तर] १ अभ्यन्तर, भीतरी 'सय२ जिसकी सीमा न हो वह (से ६,१८)। | लमुराणपि अंतरो अप्पारणो' (अच्चु २०)।२ रिणयंसणं, प्रहवा अंतरिजं नाम सेजाए हेढिल्लं पोत्त' (निचू १५)। अंतअवि [अन्तक] १ मनोहर, सुन्दर मानसिक (उवर ७१)। अंतरिज न [दे] करधनी, कटीसूत्र (दे १, अंतग (से ६, १८)। २ अन्तर्गत, अंतरंग वि [अन्तरङ्ग] भीतरी (विसे | समाविष्ट (सूत्र १, १५)। ३ पर्यन्त, प्रान्त | २०२७)। भागः 'जे एवं परिभासंति अन्तए ते समाहिए' अंतरिजिया स्त्री [अन्तरीया] जैनीय अंतरंजी स्त्री [आन्तरी] नगरी-विशेष (विसे | (सूम १,३)। ४ यम, मृत्यु (से ६,१८ उप वेशवाटिक गच्छ की एक शाखा (कप्प)। | २३०३)। ९९६ टी); 'समागमं कंखति अन्तगस्स (सूत्र अंतरपल्ली स्त्री [अन्तरपल्ली] मूल स्थान से अंतरित वि[अन्तरित व्यवहित, अंतर १ वाला (सुर ३, १४३; से १, ढाई गव्यूत की दूरी पर स्थित गाँव (पव७०), अंतरिय २७) अंतग वि [अन्तग] १ पार-गामी । २ अंतरमुहुत्त देखो अंत-मुहुत्त (पंच २,१३)। दुस्त्यज, जो कठिनाई से छोड़ा जा सके | अंतरिया स्त्री [दे] समाप्ति, अंत (जं २)। 'चिच्चारण अन्तगं सोयं निरवेक्खो परिचए' अंतरा प्र[अन्तरा] १ मध्य में, बीच में (उप | तरिया श्री रिता नोटा (सूत्र १, ६)। ६५४ )। २ पहले, पूर्व में (कप्प)। __थोड़ा व्यवधान (राय)। अंतगय देखो अंत-ग्गय (वव १)। अंतराइय न [आन्तरायिक] १ कर्म-विशेष, | अंतरीय न [अन्तरीप द्वीप, 'सरवरगिहंत'अंतण न यिन्त्रणा बन्धन, नियन्त्रण (प्रयौ। जो दान प्रादि करने में विघ्न करता है (ठा | राले जिणभवणं पासि अंतरीयं वधर्मवि २४)। - २)। २ विघ्न, रुकावट (पएह २,१)। १४३)। अंतद्धाण वि[अन्तर्धान] तिरोधान-कर्ता(पिंड अंतराईय न [अन्तरायीय] ऊपर देखो (सुपा | अंतरेण प्र[अन्तरेण] बिना, सिवाय (उत्त ६०१)। २ ३५)। For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो अंतरेण-अंधार अंतरेण प्र[अन्तरेण] बीच में, मध्य में (स (कप्प)। वाहिणी स्त्री [°वाहिनी] क्षुद्र | अंदोलिर वि [आन्दोलित] झुलनेवाला (सुपा ७६७)। नदी (ठा २, ३)। वीसंभ पुं[विश्रम्भ] ७८)। अंतलिक्ख देखो अंतरिक्ख (गाया १,१ हार्दिक विश्वास (हे १ ६०) । सल्ल न | अंदोल्लण देखो अंदोलण। चारु ७)। ['शल्य १ भीतरी शल्य, घाव (ठा ४)। अंध वि [अन्ध] १ अन्धा, नेत्र-हीन (विपा अंति देखो पंति (से ६,६६)। २ कपट, माया (ोप) । साला स्त्री १, १)। २ अज्ञान, ज्ञानरहित 'एए णं [शाला घरका भीतरी भाग, 'कोलालभंडं अंतिम वि [अन्तिम चरम, शेष, अन्त्य (ठा अंधा मूढा तमप्पइट्ठा' (भग ७, ७)। अंतोसालाहितो बहिया नीणेई (उवाः पि कंटइन्ज न [कण्टकीय अंध पुरुष के कंटक ३४३) । हुत्त वि ["मुख भीतर, 'अंताहुत्तं पर चलने के माफिक अविचारित गमन करना अंतिय न [अन्तिक] १ समीप, निकट (उत्त डज्झइ जायासुरणे घरे हलिअउत्तो' (गा १)। २ अवसान, अंत: 'अह भिक्खू गिलाएजा (प्राचा)। तमन [तमस] निबिड अन्ध३७३)। पाहारस्सेव अंतिया (प्राचा १,८)। ३अन्तिम, कार (सूत्र १, ५)। 'पुर न [पुर] नगरअंतोहुत्त वि[दे] अधोमुख, औंधा मुंह वाला | चरम (सूत्र २,२)। विशेष (बृह ४)। (दे १, २१)। अंतीहरी स्त्री [दे] दूती (दे १, ३५)। नदी (अप) स्त्रीवात, अंध पुं[अन्ध] पांचवॉ नरक का चौथा नरकेन्द्रक, एक नरक-स्थान (देवेन्द्र ११)। अंतेआरि वि [अन्तश्चारिन्] बीच में जाने- ४, ४४५) । । अंध पुं.ब. [अन्ध्र] इस नाम का एक देश . वाला, बीचक (हे १, ६०)। °अंद चन्द्र] १ चन्द्रमा, चांद 'पसुव (पउम ९८, ६७)। अंतेउर न [अन्तःपुर] १ राजस्त्रियों का इणो रोसारुणपडिमासकतगोरिमुहअंदं (गा अंध वि [आन्ध्र आन्ध्र देश का रहनेवाला निवासगृह । २ रानी, 'सणंकुमारो वि तेसि १)। २ कपूर (से ६, ४७)। राअ पुं (पएह १, १)। .. वंदणत्थं संतेउरो गो तमुजाणं (महा)। (राग) चन्द्रकान्त मरिण ( से ६, ४७ )। अंधंधु [दे] कूप, कुंआ (दे १, १८)। अंतेउरिगा। स्त्री [ आन्तःपुरिकी, '11 अंदरा स्त्री [ कन्दरा] गुफा ( से , अंधकार देखो अंधयार (चंद ४ । अंतेउरिया । अन्तःपुर में रहनेवाली स्त्री, ४७)। अंतेउरी । जी (उप ६ टी; सुपा २२८, अंदल पुं [कन्दल] वृक्ष-विशेष (से ७, अंधग पु[दे] वृक्ष, पेड़ (भग १८, ४)। वण्डि [वह्नि] स्थूल अग्नि (भग १८,४)। २८६)। २ रोगी का नाममात्र लेने से उसको नीरोग बनानेवाली एक विद्या (वव ५)। अंदावेदि (शौ) देखो अंतावेइ (हे ४, अंधग देखो अंध (भग १८, ४)। वहि २८६)। पुं [वह्नि सूक्ष्म अग्नि (भग १८, ४)। अंतेल्ली स्त्री [दे] १ मध्य, बीच । २ उदर, अंदु ) स्त्री [अन्दु] शृंखला, जंजीर __ ण्ह (वृष्णि ) यदुवंश का एक राजा, पेट । ३ कल्लोल, तरंग (दे १, ५५)। . अंदुया ) (ोप, स ५३०)। जो समुद्रविजयादि के पिता था (अंत २)। अंतेवासि वि [अन्तेवासिन् ] शिष्य (कप्प)। अंदेउर (शौ) देखो अंतेउर (हे ४, २६१)। अंधय पुं [अन्धक] १ अंधा, नेत्रअंतेवुर देखो अंतेउर (प्रति ५७)। अंदोल अक [अन्दोल] १ हिंचकना, झूलना। अंधयग) हीन (पएह १, २)। २ वानरअंतो प्र[अन्तर् ] बीच, भीतरः 'गामंतो + २ कंपना, हिलना । ३ संदिग्ध होना, 'अंदोलइ वंश का एक राज कुमार (पउम ६, १८६)। संपत्ता' (उप ६ टी सुर ३, ७४) । खरिया । दोलासु व माणो गरुमोवि विलयाणं' (स अंधयार पुंन [अन्धकार अंधेरा, अंधकार स्त्री [खरिका] नगर में रहनेवाली वेश्या ५२१)। वकृ. अंदोलंत, अंदोलिंत, अंदो- | (कप्पः स ४२६)। पक्ख पुं[पक्ष] (भग १५)। गइया स्त्री [गतिका] लमाण (से ८,५१,११,२५; सुर ३,११६)। कृष्णपक्ष (सुज १३)। स्वागत के लिए सामने जाना, 'सव्वाए अंदोल सक [अन्दोलय] कंपाना, हिलाना । अंधयारण न [अन्धकार] अन्धेरा (भवि)। विभूईए अंतोगइयाए तणयस्स' (सुर १५, वकृ. अंदोलंत (सुर ३, ६७)। अंधयारिय वि [अन्धकारित] अंधकार१६१) । गय वि [गत] मध्यवर्ती, | समाविष्ट (उप ६८६ टी) । णिसणी अंदोलग पुं [आन्दोलक] हिंडोला (राय)। वाला (से १, १५, ५३)। स्त्री [निवसनी] जैन साध्वियों को पहनने अंदोलण न [आन्दोलन १ हिचकना, | अंधरअ ! वि [अन्ध] अंधा, नेत्रहीन का एक वस्त्र (बृह ३)। दहण न __ भूलना (सुर ४, २२५)। २ हिंडोला । ३ अंधल 1 (गा ७०४ ; हे २, १७३)। [दहन] हृदय-दाह (तंदु)। मज्भाव- मार्ग-विशेष (सूत्र १, ११)। | अंधलरिल्ली स्त्री [अन्धयित्री] अंध बनानेसाणिय पुंन । मध्यावसानिक] अभिनय अंदोलय देखो अंदोलग (सुर ३, १७५)। वाली एक विद्या (सुपा ४२८)। का एक भेद (राय)। मुहुत्त न [मुहूर्त] अंदोलि वि [आन्दोलिन् ] हिलानेवाला, | अंधार पुं [अन्धकार] अंधेरा (अोध १११, कम मुहर्त, ४८ मिनिट से कम समय | कंपानेवाला (गा २३७)। । २७०)। For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधार - अंभो अंधार सक [ अन्धकार ] अन्धकार-युक्त करना । कर्म. 'मेहच्छन्ने सूरे अंधारिज न कि भुवर' (कु ३८७) । अंधारयवि [अन्धकारित] अंधकार वाला (सुपा ५४, सुर ३, २३० ) । अंधा [अन्धय् ] अंधा करना । अंधा वेइ (विक्र ८४) । अवि [न्धित ] श्रध बना हुआ (सम्मत्त १२१)। अंधि स्त्री [अधिका] द्यूत- विशेष (दे २, अंधिआ स्त्री [आंन्धका] चतुरिन्द्रिय जंतु की एक जाति (उत्त ३६,१४७) । अंधिलग वि [अन्ध] अन्धा, जन्मान्ध (परह २,५ ) । अंधिलय देखो अंधिलग; (पिंड ५७२) । अंधदि (शौ) वि [अन्धीकृत ] अंध किया हुआ (स्वप्न ४९ ) । अंधु ! [अन्धु] कूप, कुँआ (प्रामाः दे ०१, १८) । अंबेल्लग देखो अंधिल्लग ( पिण्ड ) । अं [कम्प] कंपन (से. ५, ३२) । अंत्र पुं [अम्ब] एक जात के परमाधार्मिक देव, जो नरक के जोवों को दुख देते हैं (सम २८ ) | १) । [आ] १ ग्राम का पेड । २ न. श्राम, आम्र-फल (हे १, ८४) । गया स्त्री [दे] श्रम की ग्रांठी, गुठली ( निच् १५) । ' चोयग न [दे] १ आम का रुंछा (नित १५) । २ ग्राम की छाल (श्रावा २,७,२) । 'डगल न [दे] आम का टुकड़ा (निचु १५ ) 'डाग न [दे] श्राम का छोटा टुकड़ा (प्राचा २,७,२) । पेसिया स्त्री [पेशिका ] श्रम का लम्बा टुकड़ा (निचू १५ ) । भित्त न [दे] श्रम का टुकड़ा ( निचू १५) । सालग न [दे] ग्राम की खाल ( नित्र १५) । ° सालवण [शावन] चैत्य-विशेष ( राय ) । [ [ अम् ] १ तक, मट्ठा (जं ३ ) । २ खट्टा रस । ३ खट्टी चीज (विसे) । ४ वि. निष्ठुर वचन बोलनेवाला (बृह १) । वि [आम्ल ] १ खट्टी वस्तु । २ मट्टे से संस्कृत चीज (जं ३ ) । अंधवि [a] लाल, रक्तवर्णवाला (से ३, ३४) । पाइअसहमण्णवो .११ अंग देखो अंब = प्राम्र (अणु) 'ट्ठिया स्त्री | अंबाड सक [तिरस् + कृ] उपालंभ देना, [स्थि] ग्राम की गुठली (श्रणु) । तिरस्कार करना 'तम्रो हक्कारिय अंबाडिया भरणा य' (महा) । अं [अम्बष्ठ ] १ देश-विशेष (पउम १८, ६५) । २ जिसका पिता ब्राह्मण और माता वैश्य हो वह (सूत्र १, ६) । अंबड पुं [अम्बड ] १ एक परिव्राजक, जो महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष जायगा ( प ) । २ भगवान् महावीर का एक श्रावक, जो श्रागामी चौबीसी में २२ वाँ तीर्थंकर होगा (312) 1 [] कठिन ( १,१६) । अंबधाई स्त्री [अम्बाधात्रा ]धाई माता (सुपा २६८) । मसी स्त्री [] कठिन और वासी कनिक (दे १,३७ ) । अंबय देखो अंब (सुपा ३३४) । [ [ अम्बर ] एक देव - विमान (देवेन्द्र १४४) । अंबर [अम्बर ] १ प्रकाश (पाच भग २, २) । २ वस्त्र, कपड़ा ( पात्र निचू १ ) । 'तिलय पुं [°तिलक] पर्वत - विशेष (श्राव ) । 'वत्थ न [वस्त्र] स्वच्छ वस्त्र ( कप ) । अंबरस पुंन [अम्बरस ] आकाश, गगन (भग २०, २-पत्र ७७५) । अंबर न [ अम्बरीष ] १ भट्टी, भाड़ (भग ३, ६) । २ कोक (जीव )। ३ पुं. नारकजीवों को दुःख देनेवाले एक प्रकार के परमाधार्मिक देव ( पव १८० ) । अंधरिति पुं [अम्बऋषि ] १ ऊपर का तीसरा अथ देखो (सम २८ ) । २ उज्जयिनी नगरी का निवासी एक ब्राह्मण (भाव) । अंबरीस देखो अंबरिस । अंबरीसि देखो अंबरिसि । अंबसमिआ अवसान आ} देखो अंबमसी । स्त्री [अम्बडी ] एक देवी ( महानि । २) । अंबा स्त्री [अम्बा] १ माता, मां (स्वप्न २२४) २ भगवान् नेमिनाथ की शासनदेवी (संति १० ) । ३ वल्लो - विशेष ( परण १ ) । [ ] खरडना, लेप करना; 'चमढेति खरण्टेति अंबाडेति त्ति वृत्तं भवति' ( निचू ४) । For Personal & Private Use Only अंबाडग अवाय पुं [आम्रातक] १ मामला का ( पण १; पउम ४२, ६) । २ न. आमला का फल ( अनु ६) । अंबाडयवि [तिरस्कृत ] १ तिरस्कृत (महा.) २ उपलब्ध (स ५१२) । अंबिआ स्त्री [अम्बिका ] १ भगवान् नेमिनाथ की शासनदेवी ( ती १०)। २ पांचवें वासुदेव की माता (पउम २०, १८४) । समय [समय ] गिरनार पर्वत पर का एक तीर्थ स्थान ( ती ४) । अंबर न [आ] श्रम का फल (दे १, १५) अंबिल पुं [आम्ल ] १ खट्टा रस (सम ४१ ) । २ वि. खटाई वाली चीज, खट्टी वस्तु (घोष ३४० ) । ३ नामकर्म - विशेष (कम्म १,४१) । बलिया स्त्री [अम्लिका] १ इम ( उप १०३१ टी ) । २ इमली का फल ( श्रा २० ) । अंबुन [अम्बु ] पानी, जल (पा) । अ, ज न [ज] कमल, पद्म ( ५५ कुमा) [नाथ ] समुद्र ( वव ६) । ह [ह] कमल (पा) । वह पुं [वह ] मेघ, वारिस ( गडड ) । वाद पुं [वाह ] मेघ, वारिस ( गउड)। अंबु पिसा अंबु [] व पशु- विशेष, शरभ (दे १, ११) । अंबेट्टि अंबे [] राहु (गा ८०४ ) । } स्त्री [दे] एक प्रकार का जुआ, मुष्टि- द्यूत (दे १, ७) बेस [दे] द्वार-फलक, दरवाजे का (दे १, ८) । अंबची स्त्री [] फूलों को बिननेवाली स्त्री (दे १, ९; नाट) । अंभ पुं [ अम्भस् ] पानी, जल ( श्रा १२) । अंभु ( प ) [ अश्मन् ] पत्थर, पाषाण ( षड् ) । अंभो [ अम्भस् ] पानी, जल अन [ज] कमल (दे ७, ३८ ) । इणी स्त्री ["जिनी] कमलिनी, पद्मिनी ( मै ६१ ) । निहि पुं [निधि] समुद्र (श्रा १२ ) । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ पाइअसहमहण्णवो अंभोहि-अकिट 'रुह न [रुह] कमल, पद्म; 'कुंभंभोरुहसर- | अकंडतलिम वि [दे]१ स्नेह रहित । जिसने वि [कारिन् ] अकृत्य को करनेवाला जलनिहिणो, दिध्वविमाणरयणगणसिहिणों | शादी न की हो वह (दे १, ६०)। (पउम ८०,७१)। (उप ६ टी)। अकंपण वि [अकम्पन] १ कप रहित । २ | अकय्य (मा) ऊपर देखो (नाट)। अंभोहि पुं[अम्भोधि समुद्र (कुप्र २७१)। पुं. रावण का एक पुत्र (से १४,७०)। अकरण न [अकरण] १ नहीं करना (कस) अंस पुंअंश] १ भाग, अवयव, खंड, टुकड़ा अकंपिय वि [अकम्पित] १ कम्परहित २ मैथुन, 'जइ सेवंति प्रकरणं पंचएहवि (पान)। २ भेद, विकल्प (विसे)। ३ पर्याय, २ . भगवान महावीर का आठवाँ गणधर | बाहिरा हुति' ( वव ३)। धर्म, गुण (विसे)। (सम १६ )। अकाइय वि [अकायिक] १ शारीरिक चेष्टा अंस पुं[अंश] विद्यमान कर्म, सत्ता-स्थित अकज देखो अकय = अकृत्य ( उव)। अण्ण कम; 'अंस इति संतकमै भन्नई (कम्म ६,६)। से रहित । २ पुं. मुक्तात्मा (भग ८, २)। । वि [अकर्ण] १ कर्ण रहित । हर वि [धर] भागीदार (उत्त१३, २२)। अकन्न , २-३ . स्वनामख्यात एक अंत- अकाम अकाम प्रानच्छा (सूत्र २, ६)। २ वि. इच्छारहित, निष्काम अंस द्वीप और उसमें रहनेवाला (ठा ४, २)। पु[अंस] कान्ध, कंधा (गाया अंसलग अप्प (सुपा २०६) । णिज्जरा स्त्री [निर्जरा] १,१८ तंदु)। [अकल्प] अयोग्य आचार, कर्म-नाश की अनिच्छा से बुभुक्षा आदि कष्टों शास्त्रोक्त विधि-मर्यादा से बाहर का आचरण अंसि देखो अस = अस्। को सहन करना (ठा४,४)। (कप्प)। अंसि स्त्री [अश्रि] १ कोण, कोना (उप पू ६८)। २ धार, नोक (ठा ८)। अप्प वि [अझल्प्य] अनाचरणीय, शास्त्र- अकामग ) [अकामक] ऊपर देखो। अंसिया स्त्री [अंशिका] भाग, हिस्सा (बृह निषिद्ध आहार-वस्त्र प्रादि अग्राह्य वस्तु अकामय J ३ अवांछनीय, इच्छा करने (वव १)। के अयोग्य (पएह १, १; गाया१, १)। अंसिया स्त्री [अर्शिका] १ बवासीर का रोग अकप्पिय पुं [अकल्पिक] जिसको शास्त्र अकामिय वि [अकामिक] निराश (विपा (भग १६, ३)। २ नासिका का एक रोग | का पूरा-पूरा ज्ञान न हो ऐसा जैन साधु (निचू ३)। ३ फुनसी, फोड़ा (निचू ३)। (वव १)। अकाय वि [अकाय] १ शरीररहित । २ पु अंसु पु [अंशु] किरण (लहुअर)। मालि अकप्पिय देखो अकप्प - प्रकल्प्य (दस ५)। | मुक्तात्मा (ठा २, ३)। पुं["मालिन्] सूर्य, सूरज (रयण १)। अकम वि [अक्रम] १ क्रम रहित । २ | अकार पुं [अकार] 'अ' प्रक्षर, प्रथम स्वर क्रिवि. एक साथ (कुमा)। वर्ण (विसे ४६५)। अंसु देखो अंसुय = अंशुक (पंच ३, ४०)। अंसु [अंशु] किरण । मंत, वंत वि अकम्म । न [अकर्मन्, 'क] १ कर्म अकारग ' [अकारक] १ अरुचि, भोजन की [मत् ] १ किरणवाला। २ पुं. सूर्य अकम्मग' का प्रभाव (बृह १)। २ पुं अनिच्छा रूप रोग (णाया १,१३)। २ वि. अकर्ता (सूत्र १,१)। वाइ वि [°वादिन] मुक्त, सिद्ध जीव (आचा)। ३ कृषि आदि (प्राकृ ३५)। कर्म रहित (देश, भमि वगैरह) (जी २४)। अंसु न [अश्र] आँसू, नेत्र-जल । मंत, वंत आत्मा को निष्क्रिय माननेवाला ( सूत्र १, वि [ मत् ] अश्रुवाला (प्राकृ३५)। भूमग, भूमय वि [भूमक] अकर्म-भूमि अंसु । न [अश्रु] आंसू, नेत्र-जल (हे १, में उत्पन्न होने वाला (जीव १)। भमि. अकासि प्रदे] निषेध-सूचक अव्यय, अलम् भूमी स्त्री [भूमि, भूमी] जिस भूमि में | 'प्रकासि लजाए' (दे १, ८)। अंसुय) २६; कुमा)। प्राप्त अकिंचण वि [अकिञ्चन] १ साधु, मुनि, कल्प वृक्षों से ही प्रावश्यक वस्तुओं की प्राप्ति अंसुय न [अंशुक] १ वस्त्र, कपड़ा (से ६, होने से कृषि वगैरह कर्म करने की आवश्यकता | भिक्षुक (पएह २, ५)। २ गरीब, निर्धन, ८२)। २ बारीक वस्त्र (बृह २)। ३ पोशाक, नहीं है वह, भोग-भूमि (ठा ३, ४)। वेश (कप्प)। दरिद्र (पान)। अंसोत्थ देखो अस्सोत्थ (पि ७४, १५२, भूमिय वि [ भूमिज] प्रकर्म-भूमि में अकिट्ठ वि [अकृष्ट] नहीं जोती हुई जमीन उत्पन्न (ठा ३, १)। 'अकिटुजाय-' (पउम ३३, १४)। ३०६)। अंह पुन [अंहस् ] मल, 'मउयं व वाहियो अकम्हा प्र[अकस्मात्] अचानक, निष्का- अकिट्ठ वि [अक्लिष्ट] १ क्लेशरहित, बाधासो निरंहसा तेण जलपवाहेण' (धर्मवि | रण (सुपा ५६६)। रहितः १४६)। अकय वि [अकृत] नहीं किया हुआ (कुमा)। 'पेच्छामि तुज्झ कंतं, अंहि पुं [अंह्र] पाद, पाँव (कप्पू)। "मुह वि [मुख अपठित, प्रशिक्षित (बृह संगामे कइवएसु दियहेसु । अकइ वि [अकति] असंख्यात, अनन्त (ठा ३)।त्थ वि [Tथे असफल (नाट)। | मह नाहेण विणियं, | अकय वि [अकृत्य १-२ करने के अयोग्य रामेण प्रकिट्ठधम्मेणं' (पउम अकंड देखो अयंड (गा ६६५)। या अशक्य । ३ न. अनुचित काम । कारि ५३, ५२ )। For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकारय- अक्ख पाइअसहमहण्णवो अकिरिय वि [अक्रिय] १ आलसी, निरुद्यम। अकंड देखो अकंड (प्राउ ५३) । अक्किट्ठ वि [अक्लिष्ट] १ क्लेश-वर्जित (जीव २ अशुभ व्यापार से रहित (ठा ७)। ३ अकंत वि [आक्रान्त] १ बलवान् के द्वारा ३)। २ बाधारहित (भग ३, २)। परलोक-विषयक क्रिया को नहीं माननेवाला, दबाया हुआ (गाया १, ८)। २ घेरा हा, अक्किट्ठ वि [अकृष्ट] अविलिखित (भग ३,२)। नास्तिक (णंदि) । यि वि [आत्मन] आत्मा ग्रस्त (आचा)। ३ परास्त, अभिभूत (सूप १, अक्किय वि [अक्रिय] क्रियारहित (विसे को निष्क्रिय माननेवाला, सांख्य (सूअ १, १, ४)1४ एक जाति का निर्जीव वायू (ठा २२०६)। ५, ३)। ५ न. आक्रमण, उल्लंघन (भग १, अक्कुट्ठ वि [दे] अध्यासित, अधिष्ठित (दे १, अकिरिया स्त्री [ अक्रिया ] १ क्रिया का ३)। दुक्ख वि [°दुःख दुःख से दबा ११)। प्रभाव (भग २६, २)। २ दुष्ट क्रिया, खराब हुआ (सूम १, १, ४)। अक्कुस सक [गम्] जाना। अकुसइ (हे व्यापार (ठा ३, ३) । ३ नास्तिकता (ठा ८)। अकंत विदे] बढ़ा हा, प्रवृद्ध (दे १.६)।। ४, १ बाइ विवादिन् परलोक-विषयक क्रिया अकंत वि अकान्ता अनिल अनभिलषित अक्कुहय वि[अकुहक निष्कपट, मायाराहत को नहीं माननेवाला, नास्तिक (ठा ४,४)। अनभिमत (सूप १, १, ४, ६)। (दस ६, २)। अकीरिय देखो अकिरिय, 'जे केइ लोगम्मि अक्कंद अक /आ+ क्रन्दु] रोना, चिल्लाना | अक्कूर ' [अकर] श्रीकृष्ण के चाचा का अकीरियाया, अन्नण पुट्ठा धुयमादिसंति' (सूप (प्रामा) । वकृ. अक्कंदंत (सुपा ५७४)। नाम (रुक्मि ४६)। अक्कूर वि [अकर] क्रूरतारहित, दयालु (पव अकंद (अप) देखो अक्कम = आ + क्रम् । अकुइया स्त्री [अकुचिका] देखो अकुय । २३६)। अकंदइ; संकृ. अकंदिऊण (सरण)। अकुओभय वि [अकुतोभय जिसको किसी अक्केज देखो अकिज। अक्कंद पु[आक्रन्द] रोदन, विलाप, चिल्लातरफ से भय न हो वह, निर्भय (प्राचा)। अकेल्लय वि [एकाकिन् ] अकेला, एकाको कर रोना ( सुर २, ११४ ) । अकुंठ वि [अकुण्ठ] अपने कार्य में निपुण (नाट)। (गउड)। अकंद वि [दे] वारण करनेवाला, रक्षक (दे अक्कोड पुंदे] छाग, बकरा (दे १,१२) । अकुय वि [अकुच निश्चल, स्थिर (निचू १) १, १५)। अक्कोडण न [आक्रोडन] इकट्ठा करना, संग्रह स्त्री. अकुझ्या (कप्प)। अक्कंदावणय वि [आक्रन्दक] रुलानेवाला | करना (विसे)। अकोप्प वि [अकोप्य रम्य, सुन्दर (पग्रह (कुमा)। अक्कोस न [अक्रोश जिस ग्राम के अति नजअकंदिय न [आक्रन्दित] विलाप, रोदन (से दीक में अटवी, श्वापद या पर्वतीय नदी आदि ४, ६४; पउम ११०, ५)। अकोप्प दे] अपराध, गुनाह (षड् )। का उपद्रव हो वह अकोस देखो अक्कोस = अक्रोश । अक्कम सक [आ+ क्रम्] १ आक्रमण करना, 'खेत्तं चलमचलं वा, इंदमणिदं सकोसमकोस । अकोसायंत वि [अकोशायमान] विकसता दबाना । २ परास्त करना। वकृ. अक्कमंत वाघातम्मि अकोस, अडवीजले सावए तेणे' हुप्रा, 'रविकिरणतरुणबोहियाकोसायंतपउम (पि ४८१)। संकृ. अकमित्ता (पएह १,१)। (बृह ३)। गभीर वियडणाभे' (औप)। अक्कम पं [आक्रम] १ दबाना, चढ़ाई करना। अक्कोस सक [आ+ क्रुश ] आक्रोश करना । अक्क पं [अ]१ सूर्य, सूरज (सुर १०, २ पराभव (आव)। वकृ. अक्कोसिंत (सुर १२, ४०)। २२३) । २ आक का पेड़ (प्रासू १६८)। ३ | अक्कमण न [आक्रमण] १-२ ऊपर देखो अकासपु आकाश कटु वचन, शाप, सुवर्ण, सोनाः 'जेरण अन्नुन्नसरिसो विहिरो । (से १४, ६६)। ३ पराक्रम (विसे १०४६)। भर्त्सना (सम ४०)। रयणकसंजोगो' (रयण ५४)। रावण का । ४ वि. आक्रमण करनेवाला (से ६.१)। अक्कोसग वि [आक्रोशक] प्रानोश करनेवाला एक सुभट (पउम ५६,२)। "तूल न [तूल] | अकमिअ देखो अकंत = आक्रान्त (काप्र १७२; (उत्त २)। आक की रूई (पएण १)। तेअपुं[तेजस्] सुपा १२७)। अक्कोसणा स्त्री [आक्रोशना] अभिशाप, निर्भविद्याधर वंश का एक राजा (पउम ५,४६)। अक्कसाला स्त्री[दे]१ बलात्कार, जबरदस्ती। संना (गाया १, १६)। 'बोंदीया स्त्री [ बोन्दिका] वल्ली-विशेष २ उन्मत्त-सी स्त्री (दे १,५८)। अकोसिअ वि[आक्रोशित] कटु वचनों से (परण १)। अक्का स्त्री [दे] बहिन (दे १, ६)। जिसकी भर्त्सना की गई हो वह (सुर ६, अक ' दे] दूत, संदेश-हारक (दे १,६)। अक्का स्त्री [अका] कुट्टनी, दूती (कुप्र १०)। २३४ )। "अक्क देखो चक्र (गा ५३०, से १, ५)। अक्कासी स्त्री [अक्कासी] व्यन्तर-जातीय एक अकोह वि [अक्रोध] १ अल्प-क्रोधी (जं २)। अक्का वि [अकृत] नहीं किया गया। पुव्व देवी (तो है)। २ क्रोधरहित (उत्त २)। वि [ पूर्व] जो पहले कभी न किया गया हो अक्किज्ज वि [अकेय] खरीदने के अयोग्य (ठा | अक्ख पुं[अक्ष] १ जीव, आत्मा (ठा १)। (से १२, ५०)। । २ रावण का एक पुत्र (से १४, ६५)। ३ For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ पाइअसद्दमहण्गवो अक्ख-अक्खितर चन्दनक, समुद्र में होनेवाला एक द्वीन्द्रिय २ शाम, संध्या काल (दे १, ५६)। अक्खा स्त्री [आख्या] नाम (विसे जन्तु, जिसके निर्जीव शरीर को जैन साधु अक्खणिआ स्त्री [दे] विपरीत मैथुन १६११)। लोग स्थापनाचार्य में रखते हैं (श्रा १)। (पास)। अक्खाइ वि [आख्यायिन् ] कहनेवाला, ४ पहिया की धुरी, कोल (ोध ५४६)।५ अक्खम वि [अक्षम १ असमर्थ (सुपा- उपदेशक: 'अधम्मक्खाई' (गया १, १८ चौसर का पासा (धरण ३२)। ६ बिभीतक, ३७०) । २ अयुक्त, अनुचित (ठा ३, ३)। विपा १,१)। बहेड़ा का वृक्ष (से ६, ४४) । ७ चार हाथ अक्खय वि अक्षत] १ घावरहित, व्रण शून्य अक्खाय न [आख्यातिक क्रियापद, क्रियाया ६६ अंगुलों का एक मान (अणुः | (सुर २, ३३) । २ अखण्डित, संपूर्ण (सुर वाचक शब्द (विसे)। सम)। ८ रुद्राक्ष (अणु ३)। ६ न. इन्द्रिय | ६, १११)। ३ पुं. ब. अखण्ड चावल अक्खाइय वि [अक्षितिक स्थायी, अनश्वर, (विसे ६१ ; धरण ३२)। १० द्यूत, जूआ (सुपा ३२६)। शाश्वत एवं ते अलियवयणदच्छा परदोसुप्पाय(से ९, ४४)। चम्म न [°चमैन] पखाल, एपसत्ता वेडंति अक्खाइयबीएण अप्पारणं यार वि [चार] निर्दोष आचरणवाला मसक; 'अक्खचम्म उट्ठगंडदेस' (गाया १, कम्मबंधणेण' (पण्ह १, २)। (वव ३)। ६) । पाडय न [पादक कील का टुकड़ा, अक्खाइया स्त्री [आख्यायिका] उपन्यास, | अक्खय वि [अक्षय] १ क्षय का प्रभाव 'राइणा हाहारवं करेमाणेण पहनो सो वार्ता, कहानी (कप्पू ; भास ५०)। (उवर ८३) । २ जिसका कभी नाश न हो सुरणपो अक्खपाडएणंति' (स २५५) । माला अक्खाउ वि [आख्यात] कहनेवाला (सूत्र वह (सम १)। स्त्री [ माला जपमाला (पउम ६६, ३१) । "निहि पुन [निधि] एक प्रकार की 'लया स्त्री [लता] रुद्राक्ष की माला (दे)। अक्खाग पुं[आख्याक म्लेच्छों की एक तपश्चर्या (पव २७१) । तइया स्त्री 'वत्त न [पात्र] पूजा का पात्र, 'तो जाति (सूत्र १, ५)। [तृतीया] वैशाख शुक्ल तृतीया (प्रानि)। लोप्रो। गहियक्खबत्तहत्थो एइ गिहे...." अक्खाड़गपुं [अक्षवाटक] १ जूमा अक्खर पुंन [अक्षर] १ अक्षर, वर्ण (सुपा ...."वद्धावरणत्थं' (सुपा ५८५) । वलय अक्खाडय ) खेलने का अड्डा । २ अखाड़ा, न [°वलय रुदाक्ष की माला (दे २,८१) । ६५६) । २ ज्ञान, चेतना: 'नक्खरइ अणुव व्यायाम-स्थान (उप पृ १३०)। ३ प्रेक्षकों वाअ पु[पाद] नैयायिक मत के प्रवर्तक प्रोगेवि, अक्खरं, सो य चेयणाभावो' (विसे को बैठने का आसन (ठा ४, २) । गौतम ऋषि (विसे १५०८)। वाडग पुं ४५५)। ३ वि. अविनश्वर, नित्य (विसे अक्खाण न [आख्यान] १ कथन, निवेदन [वाटक] अखाड़ा (जीव ३)। सुत्तमाला ४५७) । 'त्थ पुं [°ार्थ] शब्दार्थ (अभि (कुमा)। २ वार्ता,उपकथा (पउम ४८, स्त्री [सूत्रमाला] जपमाला (अणु३)। १५१) । पुट्ठिया स्त्री [पुष्ठिका] लिपि ७७)। अक्ख देखो अक्खा = आ + ख्या । अक्खइ विशेष (सम ३५)। समास पुं[°समास] अक्खाणय न [आख्यानक] कहानी, वार्ता (सरण)। १ अक्षरों का समूह । २ श्रुत-ज्ञान का एक | (उप ५६७ टी)। अक्खइय वि [आख्यात] उक्त, कथित | भेद (कम्म १, ७)। अक्खाय वि [आख्यात] १ प्रतिपादित, (सरण)। अक्ख ल पु[दे] १ अखरोट वृक्ष । २ न. कथित (सुपा ३६५) । २ न. क्रियापद (पएह अक्ख उहिणी देखो अक्खोहिणी (प्राकृ३०)। __ अखरोट वृक्ष का फल (पएण १६)। २, २)। अक्खंड वि [अखण्ड] १ संपूर्ण । २ अक्खलिय वि [दे] १ जिसका प्रतिशब्द | अक्खाय न [अखात] हाथी को पकड़ने के अखण्डित । ३ निरन्तर, अविच्छिन्नः 'प्रक्ख हमा हो वह, प्रतिध्वनित (दे १, २७)। लिए किया जाता गढ़ा, खड्डा (पाप)। एडपयाणेहि रहवीरपुरे गो कुमरो' ( सुपा २ आकुल, व्याकुल (सुर ४,८८)। अक्खाया स्त्री [आख्याता] एक प्रकार की २६६)। अक्खलिय वि [अस्खलित] १ अबाधित, जैन दीक्षा 'अक्खायाए सुदंसणो सेट्टी सामिणा अक्खंडल पुं[आखण्डल] इन्द्र (पान)। निरुपद्रव (कुमा)। २ जो गिरा न हो वह, पडिबोहियो' (पंचू)। अक्खंडिअ वि [अखण्डित] १ संपूर्ण, | अपतित (नाट)। अक्खि त्रि [अक्षि] प्रांख, नेत्र (हे १, ३३, खण्ड रहित (से ३, १२)। २ अविच्छिन्न, अक्खवाया स्त्री [दे] दिशा (दे १, ३५)। ३५ स २; १०४: प्रातः स्वप्न ६१)। निरन्तर (उर ८, १०)। अक्खा सक [आ + ख्या] कहना, बोलना। अक्खिअ वि [आक्षिक] पासा से जूमा अक्खंत देखो अक्खा = प्रा+ख्या। वकृ. अक्खंत (सण; धर्म ३)। कवकृ. | खेलनेवाला, जुमाड़ी (दे ७, ८)। अक्खड सक [आ + स्कन्द] आक्रमण अक्खिज्जत (सुर ११, १६२)। कृ. अक्खिअ वि [आख्यात] प्रतिपादित, कथित करना, 'अक्खडइ पिया हिपए, अण्णं अक्खेअ, अक्खाइयेव्य (विसे २६४७; गा (श्रा १४)। महिलाअणं रमंतस्स' (गा ४४)। २४२)। हेकृ. अक्खाउं (दस ८ सत्त अक्खितर न [अक्ष्यन्तर] प्रांख का कोटर अक्खणवेल न [दे] १ मैथुन, संभोग।। ३ टी)। (विपा १,१)। For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो अक्खिजंत-अखादिम अक्खिजंत देखो अक्खा = आ + ख्या। अक्खित्त वि [आक्षिप्त] सब तरह से प्रेरित (सिरि ३६६)। अक्खित्त वि [आक्षिप्त] १ व्याकुल । २ जिस पर टीका की गई हो वह । ३ आकृष्ट, खींचा हुआ (सुर ३,११५)। ४ सामर्थ्य से लिया हुआ (से ४, ३१)। अक्खित्त न [अक्षेत्र मर्यादित क्षेत्र के बाहर का प्रदेश (निचू १)। अक्खिा सक [आ + क्षि ] १ आक्षेप करना, टीका करना, दोषारोप करना । २ रोकना । ३ गॅवाना। ४ व्याकुल करना । ५ फेंकना । ६ स्वीकार करना, 'अक्खिवइ परिसगारं' (उवर ४६)। हेकृ. अक्खिविउं (निर १, १); 'तो न जुत्तमिह कालम् अक्खिविउं' (स २०५; पि ५७७)। कर्म. 'अक्खिप्पइ य मे वाणी' (स २३; प्रामा)। अक्खिव सक [आ+क्षिप्] आक्रोश करना। अखिवंति (सिरि ८३१)। अक्खिवण न [आक्षेपण व्याकुलता, घबराहट (पण्ह १, ३)। अक्खीण वि [अक्षीण] १ ह्रास-शून्य, क्षयरहित, अखूट (कप्प)। २ परिपूर्ण, संपूर्ण (कुमा)। महाणसिय वि [ महानसिक] जिसको निम्नोक्त प्रक्षीण महानसी शक्ति प्राप्त हुई हो वह (पएह २, १) महाणसी स्त्री [महानसी] वह अद्भुत आत्मिक शक्ति जिससे थोड़ा भी भिक्षान्न दूसरे सैकड़ों लोगों को यावत्-तृप्ति खिलाने पर भी तबतक कम न हो, जबतक भिक्षान्न लानेवाला स्वयं उसे न खाय (पव २७०)। महालय वि[ महालय जिससे थोड़ी जगह में भी बहुत लोगों का समावेश हो सके ऐसी अद्भुत आत्मिक शक्ति से युक्त (गच्छ २)। अक्खुअ वि [अझत] अक्षीण, त्रुटि-शून्य 'अक्खुमायारचरित्ता' (पडि)। अक्खुडिअ वि [अखण्डित संपूर्ण, अखण्ड, त्रुटिरहित; 'अक्खुडिओ पखुडियो छिक्कतोवि सबालबुड्ढजणो' (सुपा११६)। अक्खुण्ण वि [अक्षुण्ण] जो टूटा हुआ न हो, अविच्छिन्न (बृह १)। अक्खुद्द वि [अक्षुद्र] १ गंभीर, अतुच्छ | अक्खोड पुं[आस्फोट प्रतिलेखन की क्रिया(दव्व ५) । २ दयालु, करुण (संचा२)। ३ | विशेष (पव २)। उदार (पंचा ७)। ४ सूक्ष्म बुद्धिवाला अक्खोडिय बि [कृष्ट] खींचा हुआ, बाहर (धर्म २)। निकला हुआ (खड्ग) (कुमा)। अक्खुद्द न [अक्षौद्रय] क्षुद्रता का अभाव अश्वोभ पु[अक्षोभ १ क्षोभ का (उप ६१५)। अक्खोह प्रभाव, घबराहट का अभाव अक्खुपुरी स्त्री [अक्षपुरी] नगरी-विशेष र (गाया १,६)। २ यदुवंश के राजा (गया २)। अन्धकवृष्णि का एक पुत्र, जो भगवान् नेमिअक्खुम्भमाण वि [अक्षुभ्यमान] जो क्षोभ ! नाथ के पास दीक्षा लेकर शत्रुजय पर मोक्ष को प्राप्त न होता हो (उप पृ ६२)। गया था (अंत १,७)। ३ न. 'अन्तकृद्दशा' अक्खुभिय देखो अक्खुहिय (एंदि ४६)। सूत्र का एक अध्ययन (अंत १,७)। ४ वि. अक्खुहिय वि [अक्षुभित] क्षोभरहित, क्षोभरहित, अचल, स्थिर (पराह २,५: कुमा)। अक्षुब्ध (सरग)। अक्खोहणिज वि [अक्षोभणोय] जो क्षुब्ध अक्खूग सि [अक्षुग] अन्यून, परिपूर्ण न किया जा सके (सुपा ११४ )। 'भोयरणवत्थाहरणं संपायंतेण सबमक्खूणं' । अक्खोहिणी स्त्री [अक्षौहिणी] एक बड़ी (उप ७२८ टी)। सेना, जिसमें २१८७० हाथी, २१८७० अक्खेअ देखो अक्खा = आ + ख्या । रथ, ६५६१० घोड़े और १०९३५० पैदल अक्खेव पुं[अ+क्षेप] शीघ्रता, जल्दी (सुपा होते हैं (पउम ५५, ७; ११)। १२६)। अखंड वि [अखण्ड ] परिपूर्ण, खण्डरहित अक्खेव पुं [आक्षेप] १ आकर्षण, खोंच कर (प्रौप)। लाना (पण्ह १, ३)। २ सामर्थ्य, अर्थ की संगति के लिए अनुक्त अर्थ को बतलाना (उप अखंडल पुं [आखण्डल] इन्द्र (पउम ४६, १००२)। ३ आशंका, पूर्वपक्ष (भग २, १; विसे १४३६) । ४ उत्पत्ति, 'दइवेण फलक्लेवे अखंडिय वि [अखण्डित नहीं टूटा हुआ, अइप्पसंगो भवे पयडो' (उबर ४८)। परिपूर्ण (पंचा १८ )। अक्खेवग पुं[आक्षेपक] १ खींचकर लाने- अखंपण वि [दे] स्वच्छ, निर्मल: 'प्रायववाला, अाकर्षक । २ समर्थक पद, अर्थसंगति त्ताई। धारिति, ठविति पुरो अखम्पणं दप्पणं के लिए अनुक्त अर्थ को बतलानेवाला शब्द केवि' (सुपा ७४)। (उप ६६६)। ३ सान्निध्यकारक (उबर १८८)। अखज्ज वि [अखाद्य] जो खाने लायक न हो अक्खेवणी स्त्री [आक्षेपणी] श्रोताओं के (णाया १,१६)। मन को आकर्षण करनेवाली कथा (ौप)। अखत्त न [अमात्र क्षत्रिय-धर्म के विरुद्ध, अक्खेवि वि [आक्षेपिन] आकर्षण करने- जुलुम; 'यंपइ विजाबलियो, वाला, खींचकर लानेवाला (परह १, ३)। अहह अखत्तं करेइ कोइ इमो अक्खोड सक [कृष् ] म्यान से तलवार को (धम्म ८ टी)। खोचना, बाहर करना। अक्खोडइ (हे ४,१८७)। अखम देखो अक्खम (कुमा)। अक्खोड सक [आ + स्फोटय् ] थोड़ा या | अखरय पु[दे] भृत्य-विशेष, एक प्रकार का एक बार झटकना । अक्खोडिजा। वकृ. दास (पिंड ३६७)। अक्खोडंत (दस ४)। अखलिअ देखो अक्खलिय = अस्खलित अक्खोड पुं[अक्षोट] १ अखरोट का पेड़। २ (कुमा)। न. अखरोट वृक्ष का फल (परण १७, सण)। अखादिम वि [अखाद्य खाने के अयोग्य, ३ राजकुल को दी जाती सुवर्ण आदि की भेंट अभक्ष्यः 'कुपहे धावति, अखादिम खादंति' (वव १ टी)। (कुमा)। For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ । अखाय वि [अखात ] नहीं खुदा हुआ। 'तल [] छोटा तलाव (पाश्र) । अखिल वि [अखिल] १ सर्व, सकल, परिपूर्ण (कुमा) । २ ज्ञान आदि गुणों से पूर्ण 'अखिले श्रगिद्धे श्रणिएप्रचारी' (सूत्र १, ७) । [] (भवि) । fa [ अगणित ] अवगणित, अपअट्ट व [अडित] अखूट, परिपूर्ण मानित (गा ४८४ पउम ११७, १४ ) । (कुमा) । अगणित व [अगण्यमान ] जो गुरणने में न आता हो, जिसकी श्रावृत्ति न की जाती हो; 'अगरिगज्जती नासे विज्जा' (प्रासू ६६ ) । अगस्थि पुं [अगस्ति, क] १ इस नाम अगत्थिय का एक ऋषि । २ वृक्ष विशेष (दे ६, १३३: अनु) । ३ एक तारा, अठासी महाग्रहों में ५४ व महाग्रह (ठा २, ३ ) । अन्न व [ अण् ] १ जिसकी गिनती न हो सके वह (उप ७२८ टी) । [] नहीं सुनने लायक, श्राश्रव्य gst देखो अक्खुडिअ (कुमा) । अखेण वि [अखेदज्ञ ] अकुशल, अनिपुण ( सूत्र १,१० ) । अखोड देखो अक्खोड + श्रास्फोट (पव २ टी ) । अखोहा स्त्री [अक्षोभr] विद्या-विशेष (उम ७, १३७) । अग पुं [अग] १ वृक्ष, पेड़ । २ पर्वत, पहाड़ (से, ४१); 'उच्चागयठारणलट्टसंठियं ( कष्प ) । अगर स्त्री [अगति] १ नीच गति, नरक या पशु-योनि में जन्म (ठा २, २) २ निरुपाय (अच्चु CE ) । अमन [ अग्रन्थिम ] १ कदली- फल, केला ( बृह १ ) । २ फल की फाँक, टुकड़ा (निचू १६) । aifee fo [] यौवनोन्मत्त, जवानी से उन्मत्त बना हुआ (दे १, ४० ) । अगंडूयग वि [अकण्डूयक] नहीं खुजलानेवाला ( सू २, २) । अगंथ वि [अग्रन्थ] १ धनरहित । २ पुंस्त्री. निर्ग्रन्थ, जैन साधु 'पावं कम्मं कुव्वमा एस महं गंथे विनाहिए ( श्राचा) । अगंधण पुं [अगन्धन] इस नाम की सर्पों की एक जाति, 'नेच्छति तयं भोत्तु कुले जाय । गंध' (दस २) । अ [दे. अ] कूप, इनारा (सुर ११, ८६; उव)। तडत्रि [] नाराका किनारा (विसे)। 'दत्त पुं [ दत्त ] इस नाम का एक राजकुमार (उत्त) । ददुर पुं [°दर्दुर] कुँए का मेढक, अल्पज्ञ, वह मनुष् जो अपना घर छोड़ बाहर न गया हो (गाया १,८) । अग पुं [अ] कूप के पास पशुनों के जल पीने के लिए जो गर्त बनाया जाता है वह (उप २०५) । पाइअसहमणवो अगड वि [ अकृत ] नहीं किया हुआ ( वव ६ ) । अगणि पुं [अग्नि] प्राग (जी ६) काय पुं [काय ] श्रग्नि के जीव (भग ७, १०) । मुह [ख] देव, देवता ( श्राचू । (भवि) । अगम पुं [अगम ] १ वृक्ष, पेड़, 'दुमा य पायवा रुक्खा श्रा (? अ) गमा विडिमा तह ' (दसनि १,३५)। २ वि. स्थावर, नहीं चलने वाला (महानि ४) । । अगमन [अगम ] श्राकाश, गगन (भग २०, २) । अगमिय वि [अगमिक] वह शास्त्र, जिसमें एक सदृश पाठ न हो, या जिसमें गाथा वगैरह पद्य हो ; 'गाहाइ श्रगमियं खलु कालियसुयं' (विसे ४४९ ) । अगम्म वि [अगम्य] १ जाने के प्रयोग्य । २ स्त्री. भोगने के प्रयोग्य, भगिनी, पर स्त्री आदि ( भविः सुर १२, ५२ ) । गामि वि [गामिन् ] पर स्त्री को भोगनेवाला, पारदारिक ( परह १, २) | अगय न [ अगद ] श्रौषध, दवाई ( सुपा ४४७ ) । अगय पुं [दे] दैत्य, दानव (दे १,६ ) । अगर पुंन [अगरु ] सुगन्धि काठ - विशेष (परह २, ५) । अगरल वि[ अगरल ] सुविभक्त, स्पष्टः 'अग"भासाए भासेइ' रलाए श्रममरणाए ( श्रप) । अगरु देखो अगर (कुमा) । For Personal & Private Use Only अखाय - अगीय अरुअवि [अगरुक ] बड़ा नहीं, छोटा, लघु (गउड) । अगरुलहु वि [अगुरुलघु ] जो भारी भी न हो और हलका भी न हो वह जैसे प्रकाश, परमाणु वगैरह (विसे) । नाम न ['नामन् ] कर्म- विशेष, जिससे जीवों का शरीर न भारी हलका होता है (कम्म १,४७ ) । अगलदत्त पुं [ अगडदत्त ] एक रथिक-पुत्र (महा) । अगलय देखो अगर (श्रीप) । अगहण [दे] कापालिक, एक ऐसे संप्रदाय के लोग, जो माथे की खोपड़ी में ही खाने-पीने का काम करते हैं (दे १, ३१) । अहिल वि [ अग्रहिल ] जो भूतादि से प्राविष्ट न हो, अपागल ( उप ५६७ टी) । [ज] एक राजा, जो वास्तव में पागल न होने पर भी पागल प्रजा के आवरण से बनावटी पागल बना था ( ती २१) । अगाढ वि [ अगाध ] अथाह, बहुत गहरा 'गाढपणे वि भाविप्पा' (सूत्र १,१३ ) । अगामिय वि [अग्रामिक ] ग्रामरहित, 'अगामियाए अडवीए' ( प ) । अगर [अकार ] 'अ' प्रक्षर (विसे ४८४) । अगर न [ अगार ] १ गृह, घर (सम ३७) । २ पुं. गृहस्थ, गृही, संसारी (दस १ ) । स्थ वि[स्थ] गृही, (श्राचा) । धम्म पुं. ['धर्म] गृहि धर्म, श्रावक-धर्म ( प ) । अगारग वि [अकारक ] अकर्ता (अनि ३० ) । अगारि वि [ अगारिन् ] गृहस्थ, गृही (सूश्र २,६) । अगारी स्त्री [अगारिणी] गृहस्थ स्त्री ( वव ४) । अगाल देजो अयाल ( स ८२) । अगाह वि [ अगाध ] गहरा, गंभीर ( पाच ) । अगणि देखो अग्गि ( संक्षि १२ ) । अगिला स्त्री [अग्लानि] प्रखन्नता, उत्साह (ठा ५, १) । अगला स्त्री [दे] श्रवज्ञा, तिरस्कार ( दे १, १७ ) । अगीय वि[ अगीत ] शास्त्रों का पूरा ज्ञान जिसको न हो वैसा ( जैन साधु ) ( उप ८३३ टी) । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगीयत्थ-अग्गि पाइअसद्दमहण्णवो अगीयस्थ वि [अगीतार्थ] ऊपर देखो ( ववभाग ही कारण होता है। जैसे आम, कोरंटक व | भाग ही कारण होता है। जैसे प्राम, कोरंटक उपलक्ष्य में मनाया जाता उत्सव, जिसको गुज१)। प्रादि वनस्पति (पएण १, ठा ४,१) । मणि राती भाषा में 'अग्घयणी' कहते हैं (सुपा अगुज्झहर वि [दे] गुप्त बात को प्रकाशित पुं [मणि] मुख्य. श्रेष्ठ, शिरोमणि (उप २३)। करनेवाला (दे १,४३)। ७२८ टी)। महिसी स्त्री [ महिषी] पट- | अग्गहि वि [आग्रहिन] प्राग्रही, हठी (सूप अगुण देखो अउण (पि २६५)। रानी (सुपा ४६) । °य वि [°ज] १ प्रागे १,१३) । अगुण वि [अगुण] १ गुणरहित, निर्गुण उत्पन्न होने वाला। २ पुं. ब्राह्मण। ३ बड़ा अग्गहिअ वि[दे] १ निर्मित, विरचित । २ (गउड)।२ पुं. दोष, दूषण (दस ५)। भाई। ४ स्त्री. बड़ी बहन (नाट)। लोग स्वीकृत, कबूल किया हुआ (षड्)। अगुणासी देखो एगूणासी (पव २४) । पुं[लोक मुक्तिस्थान, सिद्धि-क्षेत्र (श्रा १२)। अग्गाणी वि [अग्रणी] मुख्य, प्रधान, नायक अगुणि वि [अगुणिन] गुण-वजित, निर्गुण हत्य पुं [ हस्त] १ हाथ का अग्र-भाग 'दक्खिन्नदयाकलिनो अग्गारणी सयलवरिणय(गउड)। (उवा) । २ हाथ का अवलम्बन, सहारा (से सत्थस्स' (सुर ६,१३८)। अगुरु । वि [अगुरु] १ बड़ा नहीं सो, अग्गारण न [उद्गारण] वमन, वान्ति (चारु अगुरु) छोटा, लघु । २ पुंन. सुगन्धि काष्ठ अग्ग न [अग्र] १ प्रभूत, बहु । २ उपकार ७)। विशेष, अगुरु-चन्दनः 'धूवेण कि (पाचानि २८५)। भाव न [ भाव] अग्गाह वि[अगाध अगाध, गंभीरः 'खीराअगुरुणो किमु कंकणेण' ( कप्पू; | धनिष्ठा-नक्षत्र का गोत्र (जं ७, पत्र. ५००)। दहिणव्य अग्गाहा (गुरु ४)। पउम २,११)। माहिसी देखो महिसी (उत्त १६, १)। अग्गाहार पुं [अप्राधार] ग्राम-विशेष का अगुरुलहु । देखो अगुरुलहु (सम ५१, अग्ग वि [अश्य] १श्रेष्ठ, उत्तम (से ८,४४)। नाम (सुपा ५४५)। अगुरुलहुअठा १०)। २ प्रधान, मुख्य (उत्त १४)। अग्गाहार पुं[दे. अग्राहार] उच्च जीविका अगुल देखो अगुरुः 'संखतिणिसागुलुचंदणाई' अम्गओ प [अग्रतस् ] सामने, आगे (कुमा)। (सुख २,१३) । (निचू २)। अग्गंथ वि [अग्रन्थ] १ धनरहित। २ पुं. अग्गि " [अग्नि] नरकावास-विशेष, एक अग्ग न [अग्रव] प्रकर्ष (उत्त २०, १५)। जैन साधु (प्रौप)। नरक-स्थान (देवेन्द्र २७)। मंत, वंत वि अग्ग पुन [दे] १ परिहास । २ वर्णन (संक्षि अग्गक्खंध पुं[दे] रणभूमि का अग्रभाग (दे [मत् ] अग्निवाला (प्राकृ ३५)। हुत्त ४७)। १,२७)। देखो होत्त (उत्त २५,१६, सुख २५,१६) । अग्ग न [अग्र] १ आगे का भाग, ऊपर का अग्गल न [अर्गल] १ किवाड़ बन्द करने की अग्गि पुं स्त्री [अग्नि] १ प्राग, वह्नि (प्रासू भाग ( कुमा)। २ पूर्वभाग, पहले का भाग लकड़ी, पागल (दस ५,२)।२ पुं. एक महा २२); 'एस पुण कावि अरगी' (सट्ठि ६१)। (निचू १)। ३ परिमारण, 'अगं ति वा परिग्रह (सुज २०)। पासय पुं[पाशक] २ कृत्तिका नक्षत्र का अधिष्ठायक देव (ठा २, माणं ति वा एगट्ठा' (पाचू १)। ४ वि. प्रधान, | जिसमें पागल दिया जाता है वह स्थान (प्राचा | ३)। ३ लोकान्तिक देव-विशेष (प्रावम)। श्रेष्ठ (सूपा २४८)। ५ प्रथम, पहला (पाव २,१,५) । पासाय पुं [प्रासाद] जहाँ आरिआ स्त्री [कारिका] अग्नि-कर्म, होम १)। क्खंध पुं[स्कन्ध] सैन्य का अग्र आगल दिया जाता है वह घर (राय)। (कप्पू)। उत्त पुं[पुत्र] ऐरवत क्षेत्र के भाग (से ३,४०)। गामिग वि [गामिक] अग्गल वि[दे] अधिक, 'वीसा एकग्गला' एक तीर्थंकर का नाम (सम १५३)। कुमार अग्रगामी, आगे जानेवाला (स १४७)। ज (पिंग)। पुं[कुमार] भवनपति देवों की एक अवादेखो य (दे ६, ४६) । जम्म [°जन्मन] अग्गला स्त्री [अर्गला पागल, हुड़का(पाप)। न्तर जाति (पएण १)। कोण पुं[कोण] देखो य (उप ७२८ टी)। जाय [°जात] | अग्गलिअ वि [अर्गलित] जो पागल से बन्द पूर्व और दक्षिण के बीच की दिशा (सुपा देखो य (प्राचा)। जीहा स्त्री [जिह्वा] किया गया हो वह (सुर ६,१०)। ६८)। जस पुं[ यशस] देव-विशेष जीभ का अग्न-भाग । °णिय, °णी वि [°णी] अम्गवेअ [दे] नदी का पूर (दे १,२६)। (दीव) । जोय पुं[ द्योत] भगवान् महाअगुआ, मुखिया, नायक (कप्पा नाट)। तावस अग्गह पुं [आग्रह] अाग्रह, हठ, अभिनिवेश वीर का पूर्वीय बीसवें ब्राह्मण-जन्म का नाम पुं[तापस] ऋषि-विशेष का नाम (सुज (सूम १,१,३; स ५१३)। (प्राचू)। दृ वि [°स्थ] आग में रहा हुआ १०)। द्धन [1] पूर्वाध (निचू १)। अग्गहण न [अग्रहण] १ प्रज्ञान (सुर १२, (हे ४,४२६)। "ट्ठोम पुं[टोम] यज्ञ-विशेष "पिंड पुं[पिण्ड] एक प्रकार का भिक्षान्न ४६) । २ नहीं लेना (से ११,६८)। (पि १०:१५६)। थंभणी स्त्री[स्तम्भनी] (आचा) । पहारि वि [प्रहारिन्] पहले अग्गहण न [दे. अग्रहण] अनादर, अवज्ञा माग की शक्ति को रोकनेवाली एक विद्या प्रहार करनेवाला (आव १)। बीय वि (दे १,१७७ से ११,६८)। (पउम ७, १३६)। दत्त पुं[दत्त] १ [-] जिसमें बीज पहले ही उत्पन्न हो अग्गहणिया स्त्री [दे] सीमंतोन्नयन, गर्भाधान भगवान् पार्श्वनाथ के समकालीन ऐरवत क्षेत्र जाता है या जिसकी उत्पत्ति में उसका अग्र- के बाद किया जाता एक संस्कार और उसके के एक तीर्थकर देव (तित्थ)। २ भद्रबाहु Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमण्णवो अग्गिअ-अग्घाइज्जमाण स्वामी का एक शिष्य (कप्प)। दाग पुं| अग्गिअj [दे] इन्द्रगोप, एक जातिका क्षुद्र गोत्र, जौ वत्स गोत्र की शाखा है (ठा ७)। [दान] सातवें वासुदेव के पिता का नाम कीट (दे १,५३) । २ वि. मन्द (दे १,५३)। ४ अग्नि-कोण, दक्षिण-पूर्व दिशा (भवि)। (पउम २०,१८२)। देव ["देव देव- अग्गिआय पुं[दे] इन्द्रगोप, क्षुद्र कीट-विशेष | अग्गोदय न [अग्रोदक समुद्रीय वेला की विशेष (दीव)। भूइ पुं[भूति] १ भग वृद्धि और हानि (सम ७६) । वान् महावीर का द्वितीय गणधर (कप्प) । २ अग्गिच्च वि [आग्नेय] १ अग्नि-सम्बन्धी। अग्घ अक [राज् ] विराजना, शोभना, चमभगवान महावीर का पूर्वीय अठारहवें ब्राह्मण- २ पुं. लोकान्तिक देवों की एक जाति (गाया | कना । अग्धइ (हे ४,१००)। जन्म का नाम (प्राचू)। माणव पुं[माणव] १,८)। ३ न. गोत्र-विशेष, जो गोतम गोत्र अग्घ सक [आ-घ्रा] सूंघना। संकृ. अग्धेअग्निकुमार देवों का उत्तर-दिशा का इन्द्र (ठा __ की. शाखा है (ठा ७)। ऊण ( सम्मत्त १४२)। २,३) । माली स्त्री [°माली] एक इन्द्राणी अग्गिचाभ न [आग्नेयाभ ] देव-विमान | अग्घ सक [अर्ह ] योग्य होना, लायक (दीव)। वेस पुं [°वेश] १ इस नाम का विशेष (सम १४)। होना; 'कलं ण अग्घई' (गया १,८)। एक प्रसिद्ध ऋषि (णंदि)। २ न. एक गोत्र अग्गिझ वि [अग्राह्य लेने के अयोग्य (पउम | अग्घ सक [अर्घ ] १ अच्छी कीमत से (कप्प)। वेस पुं[वेश्मन] १ चतुर्दशी ३१,५४)। बेचना । २ अादर करना, सम्मान करना तिथि (जं) । २ दिवस का बाइपव मुहूर्त (चंद 'पहिएण पुणो भरिणयं, नुब्भेहि सिट्ठि! अम्गिम वि[अग्रिम] १ प्रथम पहला (कप्पू)। १०)। वेसायग पुं [वैश्यायन] १ कम्मि नयरम्मि। २ श्रेष्ठ, प्रधान, मुख्य (सुपा १)। अग्निवेश ऋषि का पौत्र (मंदिः स २२५) । गंतव्वं सो साहइ, परिणयं अग्घिस्सए जत्थ' अग्गियय पुंआग्नेयक इस नाम का एक २ अग्निवेश-गोत्र में उत्पन्न (कप्प)। ३ गोशा (सुपा ५०१)। वकृ. अग्घायमाण (गाया राजपुत्र (उप ६३७)। लक का एक दिक्चर (भग १५)। ४ दिन १,१)। अग्गिल देखो अग्गिल्ल = अग्निल (सुज २०) का बाइसवाँ मुहूर्त (सम ५१)। सकार पुं अग्ध पूं [अर्घ] १ एक देव-विमान (देवेन्द्र [संस्कार] विधि-पूर्वक जलाना, दाह देना अग्गिलिय देखो अग्गिम (पंचव २)। १:२) । २ पूजा (राय १००)। (आवम)। सप्पभा स्त्री [सप्रभा] भग- अग्गिल्ल पुं[अग्निल] एक महाग्रह (ठा २, | अग्घ [अर्घ] १ मछली की एक जाति (जीव वान् वासुपूज्य की दीक्षा समय की पालकी का ३)। ३)। २ पूजा सामग्री (णाया १, १६)। ३ नाम (सम)। °सम्म पुं[°शर्मन् ] एक अग्गिल्ल वि [अग्रिम] अग्रवर्ती (सिरि ४०६)। पूजा में जलादि देना (कुमा)। ४ मूल्य, मोल, प्रसिद्ध तपस्वी ब्राह्मण (प्राचा)। 'सिह पुं अग्गीय देखो अगीय (उप ८४०)। कीमत (निचू २) वत्त न [पात्र] पूजा [शिख] १ सातवें वासुदेव का पिता (सम अग्गीवय न [दे] घर का एक भाग (पउम का पात्र (गाउड)। १५२)। २ अग्निकुमार देवों का दक्षिण अग्ध वि [अर्ध्य] १ पूजा में दिया जाता दिशा का इन्द्र (ठा २, ३)। सिह पुं अग्गुच्छ वि [दे] प्रमित, निश्चित (षड्)। जलादि द्रव्य (कप्पू)। २ कीमती, बहुमूल्य [सिंह] एक जैन मुनि (उप ४८६)। सिहा अग्गे अ[अग्रे आगे, पहले (पिंग)। 'यण | (प्राप)। चारण पुं[शिखाचारण] अग्नि-शिखा में वि [तन मागे का, पहले का (प्रावम)। अग्धव सक[पूर् ] पूर्ति करना, पूरा करना। निर्बाधतया गमन करने की शक्ति वाला साधु सर वि [°सर] अगुमा, मुखिया, नायक अग्धवइ (हे ४, ६६)। (पव ६८)। सीह पुं[सिंह] सातवें वासु(श्रा २८)। अग्घविय वि [पूर्ण] १ भरा हुअा, संपूर्ण। २ देव के पिता का नाम (ठा है)। °सेण पुं [षेण ऐवत क्षेत्र के तीसरे और बाईसवें, अग्गेई स्त्री [आग्नेयी] अग्निकोण, दक्षिण पूरा किया गया (सुपा १०६, कुमा)। अग्धविय वि [अर्पित] पूजित, सत्कृत, तीर्थकर (तित्थ, सम १५३ )। होत्त न पूर्व दिशा (धरण १८)। सम्मानित (से ११, १६; गउड)। [होत्र १ अग्न्याधान, होम (विसे १६४०)। अग्गेणिय न [अग्रायणीय दूसरा पूर्व, बार अग्घा सक [आ+घ्रा] सूंघना। वकृ. २ पुं. ब्राह्मण (पउम ३५,६)। "होत्तवाइ हवें जैनागम का दूसरा महान भाग (सम२६)। | अग्याअंत, अग्घायमाण (गा ५६५; गाया वि[होत्रवादिन् ] होम से हो स्वर्ग की - अग्गेणी देखो अग्गेई (प्रावम)। १,८)। कवकृ. अग्घाइजमाण (पएण २८)। प्राप्ति माननेवाला (सूअ १,७)। होत्तिय अग्गेणीय देखो अग्गेणिय (णंदि)। वि [होत्रिक] होम करनेवाला (सुपा ७०)। अग्घाइ वि [आघ्रायिन्] सूंघनेवाला, 'सभ मरपउमग्वाइणि ! वारियवामे ! सहसु इण्हि' अग्गिअ पुं[अग्निक] १ यमदग्नि नामक एक (अणु २१५)। (काप्र २६४)। तापस (प्राचू)। २ भस्मक रोग, जिससे जो अग्गेय वि [आग्नेय] १ अग्नि-सम्बन्धी, अग्धाइअ वि [आघ्रात] सूंघा हुआ (गा कुछ खाय वह तुरन्त ही हजम हो जाता है। अग्नि का (पउम १२,१२६; विसे १६६०)। ६७ (विपा १,१; विसे २०४८)। । २ न. शस्त्र-विशेष (सुर ८, ४१)। ३ एक अग्घाइजमाण देखो अग्घा । For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्घाइर— अञ्चत्थ अघार वि [आघ्रातृ] सूंघनेवाला । स्त्री. री (गा ८८६) । अग्घाड सक [ पूर् ] पूर्ति करना, पूरा करना । अघाडइ (हे ४, १६९ ) । अग्घाड ) पुं [दे] वृक्ष-विशेष, अपामागं, अग्धाडग ) चिचड़ा, लटजीरा (दे १,८ पररण १) । अघाण व [] तृप्त, संतुष्ट (दे १, १८) । अग्घा [आघात ] सूंघा हुआ ( पात्र ) । अग्घायमाण देखो अग्ध = अधें । अग्घायमाण देखो अग्घा । अग्घियवि [राजित ] विराजित, शोभित (कुमा) : afa [ अर्धित] १ बहुमूल्य, कीमती 'अग्धियं नाम बहुमोल्लं' (निचू २) । २ पूजित (दे १,१०७ से २०२ ) । अग्घोदय न [अर्धोदक] पूजा का जल (श्रभि ११८) । अघन [अ] १ पाप, कुकर्म (कुमा) । २ वि. शोचनीय, शोक का हेतुः 'अघं बम्हरणभावं' (प्रयौ ८० ) । अघो देखो अहो (नाट) । अक्खु पुंन [अचक्षुस् ] १ ख के सिवाय art इन्द्रियाँ और मन ( कम्म १,१० ) । २ आँख को छोड़ बाकी इन्द्रिय और मन से होनेवाला सामान्य ज्ञान (दं १९ ) । ३ वि. श्रंवा, नेत्रहीन (कम्म ४)। दंसण न [दर्शन] आँख को छोड़ बाकी इन्द्रियां और मनसे होनेवाला सामान्य ज्ञान (सम १५) । 'दंसणावरण न [°दर्शनावरण] श्रचक्षुर्दर्शन को रोकने(D) पुं [स्पर्श] अंधकार, अंधेरा (गाया १, १४) । अक्स वि [अचाक्षुष ] जो श्राँख से देखा न जा सके ( प ह १, १) । अचक्रस वि [अचक्षुष्य ] जिसको देखने का मन न चाहता हो (बृह ३) । अचर वि [अचर ] पृथिव्यादि स्थिर पदार्थ, स्थावर (दस) । अचल वि[ अचल ] १ निश्चल, स्थिर (चा) । २ पुं. यदुवंश के राजा अन्धकवृष्णि के एक पुत्र का नाम ( अंत ३) । एक बलदेव का नाम (पव २०९) । ४ पर्वत, पहाड़ (गउड पाइअसद्दमहणवो १२०) । ५ एक राजा, जिसने रामचन्द्र के छोटे भाई के साथ जैन दीक्षा ली थी (पउम ८५, ४) । पुरन [ पुर] ब्रह्म-द्वीप के पास का एक नगर (कप्प) । “पन [त्मन् ] हस्तप्रहेलिका को ८४ लाख से गुरणने पर जो संख्या लब्ध हो वह, अन्तिम संख्या (इक) । 'भाय [भ्रातृ] भगवान् महावीर का rai गणधर (कप्प) । अचलपुं [अचल] छठवाँ रुद्र पुरुष (विचार ४७२) । अचल न [दे] १ घर । २ घर का पिछला भाग ३ वि. कहा हुआ । ४ निष्ठुर, निर्दय । ५ नीरस, सूखा (दे १, ५३ ) i अचला स्त्री [अचला ] पृथिवी । २ एक इन्द्राणी (गाया २ ) । अचिंत वि [अचिन्त ] निश्चिन्त, चिन्तारहित । अचित वि [अचिन्त्य | श्रनिर्वचनीय, जिसकी चिन्ता भी न हो सके वह, श्रद्भुत ( लहु ३ ) । अचितणिज्ज | वि [अचिन्तनीय ] ऊपर अचितणीअ | देखो (अभि २०३; महा) । अचिंतिय वि [अचिन्तित ] आकस्मिक, संभावित (महा) । अचित्त वि [अचिन्त] जीव-रहित, अचेतनः 'चित्तमचित्तं वा शेव सयं श्रजिन्नं गिरहेजा' ( दस ४) । अचियंत अचियन्त ) ( सू २, २, परह २, ३) । २ वि [] १ श्रनिष्ट, प्रीतिकर न. अप्रीति, द्वेष (प्रोघ २६१) । अचिरजुवइ देखो अइरजुवइ (दे १, १८ टी) । अचिरा देखो अइरा (१उम ३७, ३७) । अचिराभा स्त्री [अचिराभा] बिजली, विद्युत् ( पउम ४२, ३२) । अचिरेण देखो अइरेण ( प्रारू). । अव [अचेतन] चैतन्यरहित, निर्जीव ( परह १, २ ) । अचेल न [ अचेल ] १ वस्त्रों का प्रभाव । २ अल्प-मूल्यक वस्त्र । ३ थोडा वस्त्र (सम ४०) । ४ वि. वस्त्र-रहित, नम । ५ जीणं वस्त्र बाला । ६ अल्प वस्त्र वाला । ७ कुत्सित वस्त्र वाला, मैला, 'तह थोत्र-जुन्न - कुत्थियचेले - हिवि भएरगए अचेलोति' (विसे २६०१ ) । परिसह, परीसह पुं[परिषद, परीषह] For Personal & Private Use Only १६ व के प्रभाव से अथवा जीर्ण, अल्प या कुत्सित वस्त्र होने से उसे प्रदीन भाव से सहन करना (सम ४० भग ८८ ) । अचेल ) वि [ अचेलक १ वस्त्र-रहित, अचेलय । नम । २ फटा-टूटा वस्त्र वाला। ३ मलिन वस्त्र वाला । ४ अल्प वस्त्र वाला । ५ निर्दोष वस्त्र वाला; ६ श्रनियत रूप से वस्त्र का उपभोग करनेवाला (ठा १, ३); 'परिसुद्ध जिरण- कुच्छियथोवानिय यत्तभोगभोगेहि' । मुमुच्छारहिया, संतेहि श्रचेलया हुति' [ ( विसे २५९९ ) । [ अ ] जना, सत्कार करना । श्रच्चे (प) । श्रच्च (दे २, ३५ टी ) । कवकृ. अञ्चिज्जत ( सुपा ७८ ) । कृ. अच्चणिज्ज ( गाया १, १ ) । अच्च पुं [अर्च्य ] १ लव ( काल-मान) का एक भेद (कप्प ) । २ वि. पूज्य, पूजनीय ( हे १, १७७) । अच्चंग न [ अत्यङ्ग ] विलासिता के प्रधान श्रंग, भोग के मुख्य साधन; 'अच्चं गाणं च भोगो मा' (पंचा १) । अश्चंत वि [अत्यन्त ] हद से ज्यादा, प्रत्यधिक, बहुत (सुर ३,२२) । थावर वि [स्थावर ] अनादि काल से स्थावर-जाति में रहा हुआ ( श्रवम)। दूसमा स्त्री [' दुष्षमा ] देखो दुस्समदुस्समा (पउम २०, ७२ ) । अयंति वि [आत्यन्तिक ] १ श्रत्यन्त अधिक, श्रतिशयित। २ जिसका नाश कभी न हो वह, शाश्वत ( सू २, ६) । अचगवि [अर्चेक] पूजक (चैत्य १२) । अञ्चल fa [ अत्यर्गल] निरंकुश, अनियंत्रित (मोह ८७ ) । [अर्चन] पूजा, सम्मान (सुर ३, १३ सत्त १२ टी ) । अच्चणा स्त्री [अर्चना ] पूजा ( श्रचु ५७) । अचणिया स्त्री [अर्चनिका] अर्चन, पूजा (राय १०८) । अश्ञ्चत्त वि [अत्यक्त] नहीं छोड़ा हुआ, अपरित्यक्त (उप पृ १०७) । अच्चत्थ वि [अत्यर्थ] १ श्रतिशयित, बहुत Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ( परह १, १ ) । २ गंभीर अर्थ वाला (राय) । ३ क्रिवि. ज्यादा, अत्यंत (सुर १,७) । अन्य वि [अत्यद्भुत ] बड़ा श्राश्रयं-जनक ( प्रासू ४२ ) । पुं [अत्यय ] १ विपरीत आचरण (बृह ३) । विनाश, मरण ( उव) । अचयवि [अर्चक] पूजक, 'अणचयाणं च चिरंतरणाएं, जहारिहं रक्खवद्धति (विवे ७० टी) । अश्चर न [आचर्य ] विस्मय, चमत्कार अचरिअ (विक्र ९४; प्रबो १७; रंभा; भवि; अञ्चरीअ नाट) । हम वि [अत्यधम] प्रति नीच (कप्पू ) । Part [अर्चा] पूजा, सत्कार (गउड ) । 'अत्री [अर्चा] १ शरीर, देह (सूत्र १,१३, १७ १,१५,१८ २, २, ६ ठा १, पत्र १६ ) । २ लेश्या, चित्त वृत्ति (सूत्र १,१३, १७, १, १५, १८) । ३ ऐश्वर्य (ठा ३, १ -पत्र ११७) । अशासण पुं [अत्यशन ] पक्ष का बारहवां दिन, द्वादशी तिथि ( सुज १०, १४) । असणया स्त्री [अत्यासनता ] खूब बैठना, देर तक या बारंबार बैठना (ठा 8 ) । असणया स्त्री [अत्यशनता ] खूब खाना (ठा है)। अवसण न [ अत्यासन्न ] प्रति समीप. अश्वासन्न | खूब नजदीक (भग १, १ ; उवा) । अच्चालाइ वि [अत्याशातित ] अपमाअच्चासादिय नित हैरान किया गया (ठा १०६ भग ३, २) । अच्चासाय सक [अत्या + शातय् ] अपमान करना, हैरान करना । चकृ. अच्चासाएमाग (ठा १० ) । हेकृ. अच्चासाइत्तए (भग ३, २ ) । अचाहिअ ) वि [अत्याहित] १ महा-भीति, अच्च हिंद बड़ा भय । २ झूठा, श्रसत्य (स्वप्न ४७) । ३ ऐसा जखमी कार्य, जिसमें प्राणहानि की सम्भावना हो (ग्रभि ३७) । fa [ अर्चिस् ] १ कान्ति, तेज (भग २, ५) । २ श्रग्नि की ज्वाला ( पण १ ) । ३ किरण (राय) । ४ दीप की शिखा (उत्त (३) । ५ न. लोकान्तिक देवों का एक विमान (सम १४) । मालि पुं [ मालिन् ] १ सूर्य, रवि ( सू १, ६) । २ वि. किरणों से शोभित (राय) । ३ न लोकान्तिक देवों पासव का एक विमान (सम १४ ) । माली स्त्री [माली ] १ चन्द्र और सूर्य की तृतीय अग्रमहिषी का नाम (ठा ४, १) २ 'ज्ञातासूत्र' के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के एक अध्ययन का नाम (गाया २ ) । ३ शक्रेन्द्र की तृतीय श्रग्रमहिषी की राजधानी का नाम (ठा ४,२) । मालिणी [eat] चन्द्र और सूर्य की एक श्रग्रमहिषी का नाम (भग १०, ५; इक ) । अचिअ वि [अर्चित ] १ पूजित, सत्कृत (गा १५० ) । २ न. विमान विशेष (जीव ३, पत्र १३७) । अश्चिन्त देखो अचित्त (प्रोघ २२ सुर १२, २७) । अश्विीकर सक [अर्ची + कृ] १ प्रशंसा करना । २ खुशामद करना । प्रच्चीकरेइ । वकृ. अश्वकरंत ( निचू ५) । अच्चीकरण न [अर्चीकरण] १ प्रशंसा । २ खुशामद, 'अच्चीकरणं रणो, गुणवयरणं तं समासो दुविहं । संतमसंतं च तहा, पञ्चकखपरोक्स्खमेक्केकं । ( निचू ५) । अच्चुअ पुं [अच्युत] १ विष्णु ( श्रच् ५ ) । १२ बारहवां देवलोक (सम ३९) । ३ ग्यारहवां और बारहवां देवलोक का इन्द्र (ठा २, ३ ) । ४ अच्युत देवलोकवासी देव, 'तं चेच प्रारण श्रहिएगाणे पासंति' (विसे ६६६ ) । [नाथ ] बारहवां देवलोक का इन्द्र (भवि) । वपुं [पति ] इन्द्र-विशेष (सुपा ६१ ) । वडिंसग न [वितंसक ] विमान - विशेष का नाम (सम ४१ ) । सग्ग [व] बारहवां देवलोक (भवि ) । अच्चुअ पुंन [अच्युत ] एक देव-विमान (देवेन्द्र १३५ ) । आस्त्री [अच्युता] छठवें और सतरहवें तीर्थंकर की शासनदेवी (संति ६; १० ) । अच्चुईंद पुं [अच्युतेन्द्र ] ग्यारहवां और बारहवां देवलोक का स्वामी, इन्द्र-विशेष ( पउम ११७, ७) । अचुकs fa [ अत्युत्कट ] श्रत्यन्त उग्र (आम) । अग्ग वि [ अत्युग्र ] ऊपर देखो (पव २२४) । For Personal & Private Use Only अच्चब्भुय - अच्छ अच्चुच्च वि [ अत्युच्च ] खूब ऊँचा, विशेष उन्नत (उप ६८६ टी) । अच्चुट्टिय वि [अत्युत्थित] प्रकार्य करने को तैय्यार (सूत्र १, १४) । अक्षुण्ह वि [ अत्युष्ण ] खूब गरम (ठा ५, ३) । अच्चुत्तम वि [अत्युत्तम] प्रति श्रेष्ठ (कप्पू ) । अदयन [अत्युदक] १ बड़ी वर्षा ( श्रोष ३०)। २ प्रभूत पानी (जीव ३) । अच्चुदार वि [ अत्युदार ] अत्यन्त उदार ( स ६०० ) । अच्चुन्नयवि [ अत्युन्नत] बहुत ऊंचा (कप्प) । अच्चुव्भड वि [ अत्युद्भट ] अति-प्रबल (भवि ) । अच्चुवार पुं [अत्युपकार ] महान् उपकार (गा ५१४) । अच्चुवयार पुं [अत्युपचार] विशेष सेवासुश्रूषा (गा ५१४) । अच्चुत्राय वि [अत्युद्वात] अत्यन्त थका हुआ (बृह ३ ) । अच्चुसिण वि [ अत्युष्ण] अधिक गरम ( श्राचा २, १, ७) । अच्चे [ अति +३] १ श्रतिक्रान्त होना, गुजरना । २ सक. उल्लंघन करला । श्रच्चेइ ( उत्त १३, ३१ सूत्र १,१५, ८) । अच्चे सक [ अत्या + इ] व्याग करवाना। श्रच्चेही (सूत्र १, २, ३, ७) । अच्चेअर न [ आश्चर्य ] श्राश्रयं, विस्मय (विक्र १५) । अच्छक [ आस् ] बैठना । अच्छइ (हे १, २१४) । वकृ. अच्छंत, अच्छमाण (सुर ७, १३; गाया १, १) । कृ. अच्छि - यव्व, अच्छेयव्व (पि ५७० सुर १२ २२८) । अच्छ सक [ आ + लिद् ] १ काटना, छेदना । २ खींचना | अच्छे (प्राचा १, १, २, ३)। संकु. अच्छित्तु (श्रावक २२५), अच्छेत्तु (पिंड ३६८ ) । अच्छवि [ अच्छ] १ स्वच्छ, निर्मल (कुमा) । २ पुं. स्फटिक रत्न ( पव २७५) । ३ पुं. ब. आर्य देश-विशेष ( प्रव २७५) । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छ- अच्छिन्न पाइअसद्दमहण्णवो अच्छ पुं [ऋक्ष ] रीछ, भालू ( परह १, १) । अच्छवि [आच्छ] अच्छे देश में उत्पन्न ( पण ११) । अच्छपुं [अच्छ] मेरु पर्वत (सुज ५) । २ न. तीन बार श्रौटा हुआ स्वच्छ पानी ( पडि ) । अच्छरय पुं [आस्तरक] शय्या पर बिछाने का वस्त्र-विशेष (गाया १, १) 1 अच्छरसा ! स्त्री [ अप्सरस् ] १ इन्द्र की अच्छरा ) पटरानी (ठा) । २ 'ज्ञाताधर्मकथा' का एक अध्ययन ( गाया २ ) । ३ देवी (पउम २, ४१ ) । ४ रूपवती स्त्री ( प ह १, ४) । जल्दी (दे १, ४९ ) । "अच्छवि [अक्ष] ख, नेत्र (कुमा) । 'अच्छ [कच्छ ] १ अधिक पानीवाला प्रदेश २ लताओं का समूह। ३ तृरण, घास ( से ६, ४७ ) । अच्छन [दे] १ श्रत्यन्त, विशेष । २ शीघ्र, अच्छरा स्त्री [दे. अप्सरा ] चुटकी, चुटकी का आवाज (सू २,२,५४) । अच्राणिवय पुं [दे] १ चुटकी २ चुटकी बजाने में जितना समय लगता है वह, प्रत्यय समय ( ३६ ) | "अच्छा [वृक्ष] वृक्ष, पेड़ ( से ६,४७) । अच्छअ पुं [अक्षक ] १ बहेड़ा का वृक्ष । २ न. स्वच्छ जल ( से ६, ४७ ) 1 अच्छरिअ अच्छरिज अच्छरीअ अच्छल न [अच्छल] निर्दोषता, अनपराध (दे १, १०) । अच्छअर न [आचर्य] विस्मय, चमत्कार अच्छवि वि [अच्छवि] जैन-दर्शन में अच्छन [आच्छेदन] १ एक बा (कुमा) । जिसको स्नातक कहते हैं वह जीवनन्मुक्त योगी (भग २५, ६) । अच्छविकर पुं [अक्षपिकर ] एक प्रकार का मानसिक विनय (ठा ८) । अच्छहल्ल पुं [ऋक्षभल्ल] रीछ, भालू (पाश्र ) । छेदना ( निचू ३) । २ छीनना । ३ थोड़ा छेद करना, थोडा काटना (भग १५ ) । अच्छिक वि[दे] स्पृष्ट, नहीं छुआ हुआ (aa १ ) 1 अच्छरुल्ल वि [] अप्रीतिकर । २ पुं वेश, पोशाक (दे १, ४१) । अच्छज्ज वि [आच्छेद्य ] १ जबरदस्ती जो दूसरे से छीन लिया जाय ( पिंड ) । २ पुं. जैन साधु के लिए भिक्षा का एक दोष अच्छा स्त्री [अच्छा ] वरुण देश की राजधानी (पत्र २७५) । 'अच्छा स्त्री [का] गर्व, अभिमान (से, ४७)। ( श्राचा) । अच्छा अच्छंद व [अच्छन्द ] जो स्वाधीन न हो, पराधीन; 'अच्छंदा जे रण भुंजंति ण से चाइति चई' (दस २ ) । । अच्छक्क देखो अत्थक्क (गउड) 1 अच्छण न [आसन] १ बैठना (गाया १, १)। २ पालकी वगैरह सुखासन (प्रोघ ७८ ) घर न [गृह] विश्राम स्थान ( जीव ३) । अच्छगन [दे] १ सेवा, शुश्रूषा (बृह ३) । २ देखना, अवलोकन (वव १) । ३ अहिंसा, दया (दस ८ ) । अच्छणिउर न [ अच्छ निकुर ] अच्छनि कुरांग को चौरासी लाख से गुरणने पर जो संख्या लब्ध हो वह (ठा २, १) । अच्छणिरंग न [अच्छनिकुराङ्ग] संख्याविशेष, नलिन को चौरासी लाख से गुरणने पर जो संख्या लब्ध हो वह (ठा २,१) । अच्छण्ण वि [अच्छन्न ] श्रगुप्त, प्रकट (बृह ३) । अच्छभल्ल पुं [ऋक्षभल्ल] रीछ, भालू (दे १, ३७ परह १, १ ) | अच्छभल पुं [दे] यक्ष, देव-विशेष (दे १, ३७) । अच्छरआ देखो अच्छरा ( षड् ) । न [च] - स्कार (हे १, ५८ प्रयौ ४२ ) । [आच्छादन] ढकनेवाला, आच्छादक ( स ३५१) । अच्छायणन [आच्छादन] १ ढकना (दे ७, ४५) । २ वस्त्र, कपड़ा (प्राचा) । अच्छायणा स्त्री [आच्छादना] ढकना, श्राच्छादित करना ( ३ ) | २१ वह 'अच्छिणिमीलियमेत्तं गात्थि सुहं दुक्खमेव श्रबद्धं । गरए पेरश्राणं, ग्रहोरिणसं पच्चमाणा' (जीव ३) । पत्तन [पत्र] प्रख का पक्ष्म, पपनी (भग १४, ८) । बैग पुं [ वेधक] एक चतुरिन्द्रियजन्तु, क्षुद्र जीवविशेष (३६) । रोडय पुं [रोडक] एक चतुरिन्द्रियजन्तु, क्षुद्र कीट - विशेष (उत्त ३६) । लवि [मत्] १ आँख वाला प्राणी । २ चतुरिन्द्रियजन्तु ( उत्त ३६ ) । मल [म] आँख का मैल, कीट्ट (नि ३ ) । अच्छिंद सक [ आ + छिद्] १ थोड़ा छेद करना २ एक बार छेद करना । ३ बलात्कार से छीन लेना। वकृ. अच्छिदमाण (भग ८, ३) । For Personal & Private Use Only अच्छिंद पुं [अक्षीन्द्र ] गोशालक के एक दिक्चर (शिष्य) का नाम (भग १५ ) । अच्छिन वि [ अच्छेद्य ] जो तोड़ा न जा सके (ठा ३,२) । अच्छित्ति स्त्री [अच्छित्ति ] १ नाश का अभाव, नित्यता । २ वि. नाश - रहित (विसे) । [न] नित्यता-वाद, वस्तु को नित्य माननेवाला पक्ष (पत्र) । " अच्छायंत वि [अच्छातान्त ] तीक्ष्ण, धार- अच्छिद वि [ अच्छिद्र ] १ छिद्र-रहित, दार (पा) । निबिड, गाढ़ (जं २ ) । २ निर्दोष (भग २,५ ) । अच्छ[अक्षि] ख, नेत्र (हे १. ३३ अच्छिण्ण ) वि [आच्छिन्न] १ बलात्कार ३५) । अच्छिन्न से छीना हुआ । २ छेदा हुआ, चढण न [मन] प्रांख का मलना (बृह तोड़ा हुआ (पा) । २) । निमीलियन [निमीलित ] १ आँख को मूँदना, मींचना । २ आँख मिचने में जो समय लगे अच्छिण ) वि [अच्छिन्न] १ नहीं तोड़ा अच्छिन्न हुआ, अलग नहीं किया हुआ (ठा (१०)। २ श्रव्यवहित, अन्तर - रहित ( गउड ) । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पाइअसद्दमहण्णवो अच्छिप्प-अजिर अच्छिप्प वि अस्पृश्य] छूने के अयोग्य अच्छोडिअ वि [आच्छोटित] पटका हुआ, | अजागणा स्त्री [अज्ञान] जानकारी-रहित बे(सुपा २८१)। प्रास्फालित (कुप्र ४३३)। समझी; 'अधारणाए सजत्ती न कया तम्मि अच्छिप्पंत वि [अस्पृशत स्पर्श नहीं करता | अछिप्प वि [अस्पृश्य स्पर्श करने के अयोग्य, (श्रा २८)। हुमा (श्रा १२)। 'सो सुरणपोव्व अछिप्पो कुलुग्गयाणं, न उण अजाणुय वि [अज्ञायक] प्रज्ञ, नहीं जाननेअच्छिय वि [आसित] बैठा हुआ (पि ४८०, पुरिसो' (सुपा ४८७)। वाला (ठा ३, ४)। ५६५)। अज देखो अय = अज (पउम ११,२५,२६)।। अजाय वि [अजात] अनुत्पन्न, अनिष्पन्न । अच्छिवडण न [दे] आँख का मूंदना (दे १, अजगा देखो अयगर (भवि)। कप्प [कल्प] शास्त्रों को पूरा-पूरा नहीं ३६)। अजड पुं [दे] जार, उपपति (षड्)। जाननेवाला जैन साधु, अगीतार्थ; 'गीयस्थ अच्छिविअच्छि स्त्री [दे] परस्पर-आकर्षण, अजड वि [अजड] १ पक्क, विकसित जायकप्पो अगी खलु भवे अजाम्रो प्र' (धर्म आपस की खींचतान (दे १, ४१) । (गउड) । २ निपुण, चतुर (कुमा)। ३)। प्पिय पुं [कल्पिक] अगीतार्थ अच्छिहरिल्ल) देखो अच्छिघरुल्ल (दे अजम वि [दे] १ सरल, ऋजु (षड्)। २ जैन साधु (गच्छ १)। अच्छिहरुल्ल ) १, ४१)। जमाईन (पभा १५)। अजिअ वि [अजित] १ अपराजित, अपराअच्छी देखो अच्छि (रंभा) । अजय वि [अयन] १ पाप-कर्म से अविरत, अच्छुक्क न [दे] अक्षि-कूप-तुला, आँख का भूत । २ पुं. दूसरे तीर्थंकर का नाम (अजि नियम-रहित (कम्म ४)। २ अनुद्योगी, यत्न- १)। ३ नववें तीर्थंकर का अधिष्ठाता देव कोटर (सुपा २०)। रहित (अघो ५४)। ३ उपयोग-शून्य, बेख्याल (संति ७)। ४ एक भावी बलदेव (तो २१)। अच्छुत्ता स्त्री [अच्छुप्ता] १ एक विद्याधि (सुपा ५२२)। ४ क्रिवि. बे-ख्याल से, अनुप- बला स्त्री [बला भगवान् अजितनाथ की ष्ठात्री देवी (ति ८)। २ भगवान् मुनिसुव्रत योग से 'अजयं चरमाणो य पाणभूयाइ हिसइ शासनदेवी (पद २७)। सेण पुं[सेन] स्वामी की शासनदेवी (संति १०)। (दस ४; उवर ४ टी। १ एक प्रसिद्ध राजा (माव)। २ चौथा कुलकर अच्छुद्धसिरी स्त्री [दे] इच्छा से अधिक फल की प्राप्ति, असंभावित लाभ (षड्) । जय अजय षट्पद छद का एक भद (ठा १०)। ३ एक विख्यात जैन मुनि अच्छुल्लूढ वि [दे] निष्कासित, बाहर निकाला (अंत ४)। अजय गा स्त्री [अयतना] अनुपयोग, ख्याल हुआ, स्थान-भ्रष्ट किया हुआ (बृह १)। अजिअ ' [अजित] भगवान् मल्लिनाथ का नहीं रखना, गफलती (गच्छ ३)। अच्छेज देखो अच्छिज्ज (ठा ३, २, ४)। प्रथम श्रावक (विचार ३७८)। अजरवि अजर] १ वृद्धावस्था-रहित, बुढ़ापाअच्छेर न आश्चर्य] १ विस्मय, चमत्कार 'नाह [नाथ नववां रुद्र पुरुष (विचार अच्छेरग (हे १,५८)।२ पुंन. विस्मय-जनक वर्जित । २ पुं. देव, देवता (आवम)। ३ मुक्त अच्छेरय घटना, अपूर्व घटना (ठा १०, प्रात्मा (ोघ)। १३८)। कर वि [कर] विस्मय-जनक, अजिअ वि [अजीव जीव-रहित, अचेतन चमत्कार उपजानेवाला (श्रा १४)। अजरामर वि [अजरामर] १ बुढ़ापा और (कम्म १, १५)। अच्छोड सक [आ + छोटय । १ पटकना, मृत्यु से रहित, 'रगत्थि कोइ जगम्मि अजरा- अजिअ वि [अजय्य जो जीता न जा सके पछाड़ना। २ सिंचना, छिटकना; 'अच्छोडेमि | मरो' (महा)। २ न. मुक्ति, मोक्ष। ३ स्त्री. (सुपा ७५)। सिलाए, तिलं तिलं किं नु छिदामि' (सुर १५, | "रा विद्या-विशेष (पउम ७, १३६)। अजिया स्त्री [अजिता] १ भगवान् अजित २३; सुर २, २४५)। | अजस [अयशस् ] १ अपयश, प्राकत्ति | नाथ की शासन देवी (संति ६ । २ चतुर्थ अच्छोड पुं [आच्छोट] १ सिंचन। २ (उप ७६८)। °ोकित्तिणाम न [ 'कीति- तीर्थंकर की एक मुख्य शिष्या (तित्थ)। प्रास्फालन करना, पटकना (प्रोघ ३५७)। नामन् ] अपकीत्ति का कारण-भूत एक कर्म अजिण न [अजिन] १ हरिण प्रादि पशुओं अच्छोडण न आच्छोटन] १ सिंचन । २ (सम ६७)। का चमड़ा (उत्त ५; दे ७, २७)। २ वि. प्रास्फालन (सुर १३, ४१; सुपा ५६३; वेणी अजस्स क्रिवि [अजस्र] निरन्तर, हमेशा; | जिसने राग-द्वेष का सर्वथा नाश नहीं किया १०६) । ३ मृगया, शिकार (दे १, ३७)। 'आमरणंतमजस्सं संजमपरिपालणं विहिणा' | है वह (भग १५)। ३ जिन भगवान् के तुल्य अच्छोडाविव वि [दे. आच्छोटित] बंधित, (पंचा ७)। सत्योपदेशक जैन साधु, अजिरणा जिरणसंकासा, बंधाया हुआ (स ५२५; ६२६)। अजा देखो अया (कुमा)। जिणा इवावितहं वागरेमारणा' (प्रोप)। आच्छोडिअ बि [दे] प्राकृष्ट, खींचा हुआ; अजाण वि [अज्ञान] अनजान, मूर्ख (रयण | अजिण्ण देखो अइन्न = अजीर्ण (आव)। 'अच्छोडिअवस्था (गा १६०)। ८५)। अजियंधर पुं [अजितधर] ग्यारह रुद्रों में अच्छोडिअ वि [आच्छोटित सिक्त, सिंचा | अजाणअ वि [अज्ञायक अनजान, जानकारी- | आठवां रुद्र पुरुष (विचार ४७३) । हुआ (सुर २, २४५)। रहित (काल)। | अजिर न [अजिर] प्रांगन, चौक (सण)। For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीर-अजिअ पाइअसहमहण्णवो २३ अजीर ) देखो अइन्न = अजीर्ण ( वव १; अन्ज वि [आय १ उत्तम, श्रेष्ठ (ठा ४,२)।। णाल्गुनी नक्षत्र का अधिष्ठायक देव (ठा २, अजीरयणाया १,१३) । २ मुनि, साधु (कप्प)। ३ सत्यकार्य करने- । ३)। ४ न. उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र (ठा २, अजीरण देखो अइन्न = अजीर्ण (पिंड २७; वाला (वव १)। ४ पूज्य, मान्य (विपा १, ३)। पव १३१)। १)। ५ पुं. मातामह (निसी)। ६ पितामह | अजय पुं[आयक] १ मातमह, मां का अजीव अर्जीव अचेतन, निर्जीव, जड़ (गाया १,८)। ७ एक ऋषि का नाम बाप (पउम ५०, २) । २ पितामह, पिता का पदार्थ (नव २)। काय पुं[काय धर्मा- (णंदि)। ८ न. गोत्र-विशेष (णंदि)। ६ जैन पिता (भग ६, ३३); 'जं पुरण अजय-पजयस्तिकाय आदि अजीव पदार्थ (भग ७,१०)। साधू, साध्वी और उनकी शाखाओं के पूर्व में जयजियप्रथमझो दाणं परमत्थरो कलंक अजुअ ' [दे] वृक्ष-विशेष, सप्तच्छद, सतौना यह शब्द प्रायः लगता है, जैसे अजवइर, तयं तु पुरिसाभिमामीणं' (सूर १, २२०) । (द १, १७)। अजचंदगा, अजपोमिला (कप्प) । °उत्त अजय वि [अर्जक] १ उपार्जन करनेवाला, अजुअन [अयुत] दश हजार, 'दोएिण सहस्सा पुं[पुत्र] १ पति, भर्ता (नाट) । २ मालिक पैदा करनेवाला (सुपा १२४)। २ पुं. वृक्षरहाणं, पंच अजुयाणि हयाणं' (महा)। का पुत्र (नाट) । 'घोस पुं[ घोष] भगवान् विशेष (पएण १)। अजुअलबम ' [अयुगलपर्ण] सतौना (दे पार्श्वनाथ का एक गणधर (ठा ८) । मंगु पुं अजय ' [दे] १ सुरस नामक तृण । २ [ मङ्ग] एक प्राचीन जैनाचार्य (सार्ध २२)। गुरेटक नामक तृण (दे १, ५४)। ३ तृण, अजुअलवण्णा श्री [दे] इमली का पेड़ (दे | मिस्स वि [भिश्र] पूज्य, मान्य (अभि | घास (निचू ११)। १३) । समुद्द पुं[समुद्र] एक प्रसिद्ध अजल j[आर्यल] म्लेच्छों की एक जाति अजुत्त वि [अयुक्त] अयोग्य, अनुचित जैनाचार्य (साधं २२)। (परण १)। (विसे)। कारि वि [कारिन्] अयोग्य कार्य अज प्र[अद्य] आज (सुर २, १६७) । अजव न [आर्जव सरलता, निष्कपटता करनेवाला (सुपा ६०४)। त्त वि [तन] अधुनातन, प्राजकल का (नव २६)। अजुत्तीय वि[अयुक्तिक] युक्ति-शून्य, अन्याय्य (रंभा)। त्ता स्त्री [ता] आज कल (कप्प)। अजय (अप) देखो अज्ज = आर्य । खंड पुं (सुर १२, ५४)। प्पभिइ अ [प्रभृति] आज से ले कर | [खण्ड] आर्य-देश (वि)। 'अजुय देखो अउअ; पंच अजुयाणि हयाणं सत्त (उवा)। कोडीओ पाइक्कजरणारण' (सुख ६, १)। अजवया स्त्री [आर्जव] ऋजुता, सरलता | अन्ज पुं [दे] १ जिनेन्द्र देव । २ बुद्ध देव (दे अजेअ वि [अजय] जो जीता न जा सके, (पक्खि )। १, ५)। 'सो मउडरयणपहावेण अजेा दोमुहराया' अजवि वि [ आर्जविन् ] सरल, निष्कपट | अन्ज न [आज्य] घी, घृत (पास) । - (महा)। (प्राचा)। अज' देखो रि = ऋ। अजोग [अयोग] मन, वचन और काया अज्जविय न [आर्जव सरलता (सूत्र १, ५, अजं अ [अद्य आज (गा ५८) । के सब व्यापारों का जिसमें प्रभाव होता है २, २३)। अजंत वि [आयत् ] आगामी। काल पुं वह सर्वोत्कृष्ट योग, शैलेशी-करण (प्रौप)। | अज्जा स्त्री [आर्या] १ साध्वी (गच्छ २) । [°काल] भविष्य काल (पास)। अजोग वि [अयोग्य] अयोग्य, लायक नहीं २ गौरी, पार्वती (दे १, ५)। ३ प्रार्या छन्द अजहिजो प्र. [अद्ययः] आजकल (उप पृ . वह (नीचू ११)। (जं २)। ४ भगवान् मल्लिनाथ की प्रथम ३३४)। अजोगि पुं[अयोगिन] १ सर्वोत्कृष्ट योग को | शिष्या (सम १५२) । ५ मान्या, पूज्या स्त्री अन्जकालिअ वि [अद्यकालिक अाजकल का प्राप्त योगी। २ मुक्त आत्मा (ठा २,१; कम्म (पि १०६, १४३, १४५)। ६ एक कला (अणु १५८)। १४, ४७; ५०)। . (प्रौप)। अज्जग देखो अजय = अर्जक; 'अजगतरुमंजअज्ज सक [अर्ज ] पैदा करना, उपार्जन अज्जा स्त्री [आज्ञा] प्रादेश, हुकुम (हे २, रिव्व' (सुपा ५३)। करना, कमाना। अजइ (हे ४,१०८) । संकृ. अजग देखो अजय = आर्यक (निर १, १)। अज्जाय वि [अजात अनुत्पन्न, 'प्रजायस्सिअज्जिय (पिंग)। अन्जण सक [ अर्ज ] उपार्जन करना । संकृ. यरस्सवि एस सहावो त्ति दुग्घडं जाए' (धर्मसं अज्ज वि [अर्थ] १ वैश्य । २ स्वामी, मालिक अजणित्ता (सूअ १, ५, २, २३)। २७०)। अजण अर्जन] उपार्जन, पैदा करना अज्जाव सक [आ + ज्ञापय ] आज्ञा करना, अन्ज वि [आर्य] १ निर्दोष । २ आर्य-गोत्र में अजणण) (श्रा १२ सत्त १८); 'रज कोरस- हुकुम फरमाना। कृ. अज्जावेयव्व (सम उत्पन्न (णंदि ४६)। ३ शिष्ट-जनोचित,'प्रज्जाई। मेवं करेसुवायं तदजणणे' (उप ७ टी)। २, १)। कम्माई करेहि रायं' (उत्त १३,३२) । खउड अज्जम पं [अर्यमन् ] १ सूर्य (पि अजिअ वि [अर्जित] उपाजित, पैदा किया [खपुट] एक जैन प्राचार्य (कुप्र ४४०)। २६१) । २ देव-विशेष (जं ७) । ३ उत्तरा- | हुआ (श्रा १४)। For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमण्णवो अजिआ-अभावग अजिआ स्त्री [आर्यिका] १ मान्या, पूज्या ४)। दोस' [ दोष आध्यात्मिक दोष- अभवसिय वि [अध्यवसित] १ जिसका स्त्री। २ साध्वी, संन्यासिनी (सम ६५; पि क्रोध, मान, माया और लोभ (सून १, ६)। चिन्तन किया गया हो वह (प्रौप)। २ न., ४४८) । ३ माता की माता (दस ७)। ४ वत्तिय वि [प्रत्ययिक] चित्त-हेतुक, मन चिन्तन, विचार (अणु)। पिता की माता (स २५५) । से ही उत्पन्न होनेवाला शोक, चिन्ता आदि| अज्भवसिय न [दे] मुंड़ा हुआ मुंह (दे १, अज्जिड्डीअ वि [दे] दत्त, दिया हुआ (वंव (सूत्र २, २, १६)। विसोहि स्त्री[वशुिद्धि] ४०)। १ टी)। आत्म-शुद्धि (ोध ७४५)। संवुड वि अज्झसिय वि [दे] देखा हुआ, दृष्ट (दे १, अजिणण देखो अजणण (उप ६६४)। [संवृत] मनो-निग्रही, मन को काबू में रखने- ३०)। अज्जीव देखो अजीव, 'धम्माधम्मा पुग्गल, वाला (पाचा)। सुइ स्त्री [ श्रुति अध्यात्म- अज्झरस सक [आ + क्रुश] आक्रोश करना, शास्त्र, आत्म-विद्या, योग-शास्त्र (पराह २.१) अभिशाप देना । अज्झस्सइ (दे १.१३)। नह कालो पंच हुँति अजीवा' (नव १०)।। सुद्धि स्त्री [°शुद्धि] मन की शूद्धि (पाचू अज्झस्स विथआकष्ट] जिस पर माक्रोश अज्जु (अप) अ [अद्य आज (हे ४, ३४३; १)। सोहि स्त्री [शुद्धि] मनः-शुद्धि (प्राचू | अज्झस्सिय किया गया हो वह दि १,१३)। भविः पिंग)। अज्झहिय वि [अध्यधिक] अत्यंत, अतिशअज्जुअ (शौ) देखो अज = आर्य (नाट)। अज्झस्थिय वि[आध्यात्मिक प्रात्म-विषयक, यित (महा)। अज्जुआ (शौ) देखो अजा-आर्या (पि । आत्मा या मन से संबंध रखनेवाला (विपा १, अज्झा स्त्री [दे] १ असती, कुलटा । २ प्रशस्त १.०५) । १; भग २,१)। स्त्री । ३ नवोढ़ा, दुलहिन । ४ युवती स्त्री।६ अज्जुण ' [अर्जुन] १ तीसरापाण्डव (गाया अज्झत्थीअ देखो अज्झत्थिय (पव १२१)। यह (स्त्री) (दे १, ५०; गा ८३८, ९९८ १, १६) । २ वृक्ष-विशेष (गाया १, वजा ६४)। प्रौप) । ३ गोशालक के एक दिक्चर (शिष्य) अज्झप्पिा वि [आध्यात्मिक] १ अध्यात्म अज्झा सक [अधि+इ] अध्यन करना, का नाम (भग १५)। ४ न. श्वेत सुवर्ण, का जानकार (अज्झ २)। २ अध्यात्म-सम्बन्धी अज्झाअ पढ़ना । अज्झामिः (सुख २, १३)। सफेद सोना: 'सव्वज्जुरणसुवरणग्गमई' (प्रौप)। (सूअनि ६४)। हेकृ. अज्झाइउ (सुख २, १३)। ५ तृण-विशेष (पएण १)। ६ अर्जुन वृक्ष का | अज्झय वि [दे] प्रातिश्मिक, पड़ोसी (दे १, अज्झाअ सक [अध्यापय् ] पढ़ाना। कर्म. पुष्प (गाया १, ६)। अज्झाइजइ (सुख २, १३)। अजणगअर्जुनका १-६ ऊपर देखो। अज्झयण पुंन [अध्ययन] १ शब्द, नाम । अज्झाइअव्व वि [अध्येतव्य] पढ़ने योग्य, अज्जणय ७एक माली का नाम (अंत १८)। (चंद१)। २ पढना, अभ्यास (विसे)। ३ 'सुग्रं मे भविस्सइ त्ति प्रज्झाइप्रव्वं भवई' (दस अज्जू स्त्री [आर्या] सास, श्वश्र (हे १, ७७)। ग्रन्थ का एक अंश (विपा १, १)। ६, ४, ३)। अज्ञोग देखो अजोग = अयोग (पंच १)। अज्झयणि वि[ अध्ययनिन् ] पढ़ने वाला, अज्झाय पुं [अध्याय १ पठन, अभ्यास अजोगि देखो अजोगि (पंच १)। अभ्यासी (विसे १४६५)। (नाट) । २ ग्रन्थ का एक अंश (विसे १११५) अजोरुह न [दे] वनस्पति-विशेष (पएण १)। अझयाव सक [अधि + आप] पढ़ाना, प्राप)। अज्झक्ख वि [अध्यक्ष] अधिष्ठाता (कप्पू)। सीखाना । । अझयाविति (विसे ३१६६) । अज्झारुह [अध्यारुह] १ वृक्ष-विशेष । २ अज्म पु[दे] यह (पुरुष, मनुष्य) (दे १, वृक्षों के ऊपर बढ़नेवाली वल्ली या शाखा अज्झवस सक [अध्यव + सोj विचार करना, वगैरह (पएरण १)। अज्झत्त देखो अज्झप्प (सूप्र १, २, २, १२)। चिंतन करना। वकृ. अज्झवसंत (सुपा अज्झारोव पुं[अध्यारोप] आरोप, उपचार अज्झत्थ वि [दे] आगत, आया हुआ (द १, ५६५)। अज्झवसण । न [अध्यवसान] चिन्तन, (धर्मसं ३५२; ३५३) । अज्झवसाण विचार, आत्म-परिणाम; 'तो अज्झारोवण न [अध्यारोपण] १ प्रारोपण, अज्भत्थान [अध्यात्म] १ आत्मा में, आत्मअज्झप्प | संबंधी, प्रात्म-विषयक (उत्त १; कुमरेणं भरिणय, मुरिणपुंगव ! रइसुहझवस- ऊपर चढ़ाना। २ पूछना, प्रश्न करना (विसे प्राचा)।२ मन में, मन संबंधी, मनो-विषयक एंपि । कि इयफलयं जायइ ? (सुपा ५६५) २६२८)। (उत्त ६; सूअ १, १६, ४) । ३ मन, चित्त; प्रासू १०४: विपा १, २)। अज्झारोह पुं [अध्यारोह] देखो अज्झारुह 'अज्झप्पसारणयणं (दसनि १, २९) । ४ शुभ- अज्झवसाय पुं[अध्यवसाय विचार, आत्म- (सूम २, ३, ७, १८, १९)। ध्यान, 'अझप्प-रए सुसमाहि-अप्पा, सुत्तत्थं च | परिणाम, मानसिक संकल्प (प्राचाः कम्म ४, अभाव देखो अज्झाअ = अध्यापय् । अज्झाविप्राणइ जे स भिक्खू' (दस १०,१५)। ५ पुं.. ८२)। वेइ (सुख २,१३)। वक अज्झावअंत (हास्य प्रात्मा (प्रोघ ७४५)। जोग पुं[योग] अज्झवसिय वि [अध्यवसित] निश्चित, | १२४) । योग-विशेष, चित्त की एकाग्रता (सूत्र १,१६, (धर्मसं ४२८)। | अज्झावग देखो अज्झावय(दसनि १,१ टी)। - For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्मावण-अट्ठ पाइअसहमहण्णवो अज्झावण न [अध्यापन] पाठन (सिरि २७)। अज्झोववज्ज प्रक [अध्युप+ पद] प्रत्यासक्त अट्टमट्ट वि [दे] निरर्थक, व्यर्थ, निकम्मा अज्झावणा स्त्री [अध्यापना] पढ़ाना (कम्म होना, प्राक्ति करना। अज्झोववजइ (पि (सुख ५,८)। १,६०)। ७७)। भविप्रज्झोववजिहिइ (प्रौप)। अट्टमट्ट पुं[दे] १ आलवाल, कियारी (हे २, अज्मावय वि [अध्यापक ] पढ़ानेवाला, अझोववण्णा वि [अध्युपपन्न] अयंत १७४) । २ अशुभ संकल्प-विकल्प, पाप-संबद्ध शिक्षक, गुरु (वसु ; सुर ३, २६)। अझ चवन्न प्रासक्त (विपा १,२; गाया १, अव्यवस्थित विचार अज्भावस अक [अध्या + वस् ] रहना, २; महा; पि ७७)। 'प्रणवट्ठियं मणो जस्स झाइ बहुयाई भट्टमट्टाई। वास करना । वकृ. अमावसंत (उवा)। अभोववाय पुं [अध्युपपाद] अत्यन्त आस- तं चितियं च न लहइ, संचिणुइ य पावकम्माई' अज्झास पुं[अध्यास] १ ऊपर बैठना। २ | क्ति, तल्लीनता (पराह २,५) । (उव)। निवास स्थान (सुपा २०)। अझावणा देखो अज्झावणा; 'पसमो पसन्नव | अट्टय पुं [अट्टक] १ हाट, दूकान (श्रा १२)। अज्भासणा स्त्री [अध्यासना] सहन करना| यणो विहिरणा सव्वाणझावरणाकुसलो' (संबोध २ पात्र के छिद्र को बन्द करने में उपयुक्त २४)। द्रव्य-विशेष (बृह १)। अज्झासिअ वि [अध्यासित] १ आश्रित, | अट। सक [ अद् ] भ्रमण करना, धूमना । अट्टयक्कली स्त्री द] कमर पर हाथ रखकर अधिष्ठित । २ स्थापित, निवेशित (नाट)। । अट्ट अटइ (षड् हे १,१६५); परिपट्टइ खड़ा रहना (पान)। अज्झाय वि [अध्याहत १ उत्तेजित, 'सीय(हे ४, २३०)। अट्टहास पुं[अट्टहास] बहुत हंसना, खिलअट्ट सक [कथ ] क्वाथ करना। अट्टइ (हे लेणं सुरहिगंधमट्टियागंघेणं हत्थी अज्झाहो खिला कर हंसना (पि २७१)। वणं संभरेई (महा)। ४, ११७ षड्, गउड)। अट्टालग पुन [अट्टालक] महल का उपरि अट्टालय भाग, अटारी (सम १३७; पउम अज्झीण वि [अक्षीण] १ अक्षय, प्रखूट । २ | अट्ट अक [शुष ] सूखना, शुष्क होना । २,६)। न. अध्ययन (विसे ६५८)। अटुंति (से ५, ६१)। वकृ. अटुंत (से ५, अट्टि स्त्री [आति] पीड़ा, दुःख (प्राचा)। अभुववज देखो अज्झोववज (पि ७७ ७३)। अट्ट वि [आत] १ पीड़ित, दुःखित (विपा प्रौप)। | अट्टिय वि [आर्तित] शोकादि से पीड़ित, अभुववण्ण देखो अभोववण्ण (विपा १, १,१) । २ ध्यान-विशेष-इष्ठ-संयोग, अनिष्ट 'अट्टा अट्टियचित्ता, जह जीवा दुक्खसागरमुर्वेति' वियोग, रोग-निवृत्ति और भविष्य के लिए (मोप)। अज्भुववाय देखो अज्मोववाय(उप पृ२८१)। चिन्ता करना (ठा ४,१)। °ण विज्ञ] ट्टिय वि [अदित व्याकुल, व्यग्रः 'अट्टदुहअज्झसिअ वि [अध्युषित] प्राश्रित (पिंड | ट्टियचित्ता' (प्रौप)। ४५०)। अट्ट वि [ऋत] गत, प्राप्त (गाया १, १, भग अट्ठ पुं[अथे] संयम (सूत्र १,२,२,१६) । अज्झसिर वि [अशुषिर] छिद्र-रहित (प्रोष १२,२)। अट्ठ पुंन [अर्थ] ५ वस्तु, पदार्थ (उवा २; ३१३)। अट्ट पुंन [अट्ट] १ दूकान, हाट (श्रा १४)। अच्चु); 'अट्ठदंसी (सूत्र १, १४), 'अट्ठाई, अज्झेउ वि [ अध्येता पढ़नेवाला (विसे | २ महल के ऊपर का घर, अटारी (कुमा) । ३ हेऊई, पसिणाई' (भग २, १)। २ विषय, १४६५)। आकाश (भाग) २०,२)। "इंदियट्ठा' (ठा ६)। ३ शब्द का अभिधेय, अज्भेल्ली स्त्री [दे] दोहने पर भी जिसका दोहन | अट्ट वि [दे] १ कृश, दुर्बल। २ बड़ा, महान्। वाच्य (सूत्र १,६)। ४ मतलब, तात्पर्य (विपा हो सके ऐसी गैया (दे १,७)। ३ निर्लज, बेशरम । ४ आलसी, सुस्त। ५ पुं. २,१भास १८)। ५ तत्त्व, परमार्थ, 'तुब्भेअज्भसणा स्त्री [अध्येषगा] अधिक प्रार्थना, | शुक, तोता । ६ शब्द, आवाज । ७ न. त्थ भो भारहरा गिराणं, अटुं न याणाह पहिज विशेष याचना (राज)। ८ भूठ, असत्योक्ति (दे १, ५०)। वेए' (उत्त १२, ११); 'इनो चुएसु दुहमट्ठअज्झोयरग) [अध्यवपूरका १ साधु के अट्ट वि [दे] गया हुआ, गत (दे १,१०)। दुग्गं' (सूम १, १०, ६)। ६ प्रयोजन, हेतु अज्भोयरय लिए अधिक रसोई करना। २ अट्टहास पुं [अट्टहास] देखो अट्टहास (हे २,२३) । ७ अभिलाष, इच्छा, 'अठ्ठो भंते ! साधु के लिए बढ़ाकर की हुई रसोई (प्रौपः | भागेहि, हंता अट्ठो' (णाया १,१६: उत्त ३)। पव ६७)। अट्टण न[अट्टन] १ व्यायाम, कसरत (प्रौप)। ८ उद्देश्य, लक्ष्य (सूत्र १, २, १)। ६ धन, अझोल्लिआ स्त्री [दे] वक्षः-स्थल के आभू- | २ पुं. इस नाम का एक प्रसिद्ध मल्ल (उत्त पैसा (श्रा १४ प्राचा)। १० फल, लाभ; षण में की जाती मोतियों को रचना (दे १, ४)। साला स्त्री [शाला] व्यायाम-शाला, 'अट्ठजुत्तारिण सिक्खेज्जा णिरटारिण उ वजए' कसरत-शाला (प्रौपः कप्प)। (उत्त १)। ११ मोक्ष, मुक्ति (उत्त १)। कर अज्मोवगमिय वि [आभ्युपगमिक स्वेच्छा | अट्टण न [अटन] परिभ्रमण (धर्म ३)। पुं[°कर] । १ मंत्री२ निमित्त शास्त्र का से स्वीकृत (पएण ३४)। अट्टणा स्त्री [आवर्तना] प्रावृत्ति (प्राकृ ३१)। विद्वान् (ठा ४, ३) । जाय वि [जातार्थ] For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ पाइअसहमहण्णवो अट्ठ-अट्ठावय जिसकी आवश्यकता हो, जिसका प्रयोजन हो | की उम्र का (सुर २,१४६, ८,१०१)। विह | 'अढाणमेयं कुसला वयंति, दगेण जे सिद्धिमुयावहा 'अट्रेण जस्स कज्जं संजातं एस अट्ठजामो वि [विध] आठ प्रकार का (जी २४)। हरंति' (सूम १, ७)। य' (वव २)। जाय वि [ याच धनार्थी, वीस स्त्रीन [विंशति] अट्ठाईस (कम्म १, अट्ठाण न [आस्थान सभा, सभा गृह (ठा धन की चाहवाला (वव २)। सइय वि ५)। सद्रिस्त्री [षष्टि] संख्या-विशेष, अठसठ ५, १)। [शतिक सौ अर्थवाला, जिसका सौ अर्थ हो (पि ४४२-६)। समइय वि [सामयिक] | अट्राणउइ स्त्री [अष्टानवति] अठानबे, ६८ सके ऐसा (वचन प्रादि) (जं २)। °सेण पं जिसकी अवधि पाठ 'समय' की हो वह (औप)। (सम ६६) । [°सेन] देखो अडिसेण, देखो अत्थ अर्थ। सय न [शत] एक सौ आठ, १०८ (ठा अदाणउय वि [अष्टानवत] अठानबेवा, ६८ वाँ अट्ट त्रि.ब. [अष्ठन् ] संख्या-विशेष, पाठ, ८ १०)। सहस्स न [सहस्र एक हजार और (पउम ६८, ७८)। (जी ४१)। चत्ताल वि [°चत्वारिंश] आठ (प्रौप)। सामइय देखो °समइय (ठा | अटाणवइ देखो अट्राणउइ (कुप्र २१६)। अठतालीसवाँ (पउम ४८,१२६)। °चत्तालीस ८)। सिर वि [शिरस् , सिर] अष्ट-कोण, | अद्राणिय वि [अस्थानिक अपात्र, अनाश्रयः त्रिचत्वारिंशत् अठतालीस (पि ४४५) । पाठ कोण वाला (प्रौप) । °सेण पुं[सेन] 'अट्टारिणए होइ बहू गुणाणं, जेएगाणसंकाइ 'दुमिया स्त्री [ष्टिमिका] जैन साधुओं का देखो अट्रिसेण । 'हत्तर वि [सप्ततितम] | मुसं वएजा' (सूत्र १, १३) । ६४ दिन का एक व्रत, प्रतिमा-विशेष (सम अठत्तरवा (पउम ७८, ५७)। हत्तरि स्त्री अट्टायमाण वकृ [अतिष्ठत् ] नहीं बैठता हुआ ७७)। तालीस वि[चत्वारिंशत् ] अठ [सप्तति अठत्तर की संख्या, ७८ (सम ८६)।। (पंचा १६)। तालीस (नाट)। तीस त्रि [°ात्रिंशत् ] हा अ [धा] आठ प्रकार का (पि ४५१) । अट्ठार । त्रि. ब. [अष्ठादशन् ] संख्या अहॉरस विशेष, अठारह (पउम ३५, ७६७ संख्या-विशेष, अठतीस ( सम ६५: पि ४४२, अट्ठ न [काष्ट] काठ, लकड़ी (प्रयौ ७४)। संति ५)। वह वि [विध] अठारह प्रकार ४४५)। तीसइम वि [त्रिंश अठतीसवाँ अट्रंग वि [अष्टाङ्गा जिसका आठ अंग हो का (सम ३५)। (पउम ३८, ५८)। त्तरि स्त्री [°सप्तति] वह । णिमित्त न [निमित्त] वह शास्त्र अट्ठारसग न (अष्टादशक] १ अठारह का अठत्तर, ७८ की संख्या (पि ४४६) । त्तीस जिसमें भूमि, स्वप्न, शरीर, स्वर आदि पाठ विषयों के फलाफल का प्रतिपादन हो (सूत्र १, त्रि [त्रिंशत् ] अठतीस (सुपा ६५९; पि समूह (पंचा १४, ३) । २ वि. जिसका मूल्य अठारह मुद्रा हो वह (पव १११)। ४४५)। दस त्रि [दशन] अठारह, १८ १२) । महाणिमित्त न [महानिमित्त] अट्ठारसम वि [अष्टादश] १ अठारहवाँ (संति ३)। दसुत्तरसय वि [दशोत्तर- अनन्तर-उक्त अर्थ (कप्प)। (पउम १८,५८) । २ न. लगातार आठ दिनों शत् ] एक सौ अठारहवाँ (पउम ११८,१२०)। अटुंस वि [अष्टास्र] अष्ट-कोण (सूप २,१, का उपवास (गाया १,१)। दह त्रि [दशन] अठारह, १८ की संख्या १५)। अट्रारसिय वि [अष्टादशिक] अठारह वर्ष (पिंग)। पएसिय वि[प्रदेशिक पाठ अव- | अदिदि स्त्री [अष्टदृष्टि] योग की पाठ दृष्टियाँ, । की उम्र का (वव ४)। यव वाला (ठा १०)। पया स्त्री [पदा एक वे ये हैं :-मित्रा, तारा, बला, दीपा, स्थिरा, वृत, छन्द-विशेष (पिंग) °पाहरिअवि [प्राह- अट्ठारह कान्ता, प्रभा और परा (सिरि १२३)। देखो अटार (षड्, पिंग)। अट्ठाराह रिक आठ प्रहर संबंधी (सुर १५, २१८) । अट्टय न [अष्टक पाठ का समूह (वव १)। अट्रावण्ण) स्त्रीन [ अष्टापञ्चाशत् ] संख्या'भाइया स्त्री [भागिका] तरल वस्तु नापने अट्ठा स्त्री [अष्टा] १ मुष्टि, 'चउहि अट्टाहि लोयं अट्ठावन्न । विशेष, पचास और आठ, १८ का बत्तीस पलों का एक परिमाण (अणु)। करेइ' (जं २ स १८२)। २ मुट्ठीभर चीज | (पि २६५; सम ७४)। 'म न [म] तेला, लगातार तीन दिनों का अट्ठावन्न वि [अष्टापश्चाश] अठावनवाँ (पउउपवास (सुर ४,५५)। मंगल पुन [ मङ्गल] अट्ठा स्त्री [आस्था] श्रद्धा, विश्वास (सूअ २,१)। म ५८, १९) । स्वस्तिक आदि आठ मांगलिक वस्तु (राय)। अदा स्त्री [अर्थ] लिए, वास्ते 'तइया य मणी अट्ठावय '[अष्टापद] १ स्वनाम-ख्यात पर्वतमभत्तपुंन [मभक्त] तेला, लगातार तीन दिब्वो, समप्पिनो जीवरक्खट्ठा' (सुर ६, ६; विशेष, कैलास (पराह १, ४)। २ न. एक दिनों का उपवास (णाया १,१)। मभत्तिय ठा ५, २) । दंड पुं[दण्ड कार्य के लिए जाति का जुना (पराह १,४) । ३ चूत-फलक, वि [मभक्तिक] तेला करनेवाला (विपा २, की गई हिंसा (ठा ५, २)। जिस पर जुम्रा खेला जाता है वह (पण्ह १, १)। मी स्त्री [°मी] तिथि-विशेष, अष्टमी अद्वाइस वि [अष्टाविंश] अठाईसवाँ (पिंग)। ४) । ४ सुवर्ण, सोना (धरण ८)। "सेल पुं (विपा २, १) । मुत्ति पुं[मूर्ति] महादेव, अट्ठाइस स्त्रीन [अष्टाविंशति] संख्या- [शैल] १ मेरु-पर्वत । २ स्वनाम-ख्यात पर्वतशिव (ठा ६)। याल त्रि [°चत्वारिंशत् ] अट्ठाईस विशेष, अठाईस (पिंगः पि ४४२)। । विशेष, जहाँ भगवान् ऋषभदेव निर्वाण पाये अठतालीस (भवि)। वन्न त्रि [ पश्चाशत्] अट्ठाण न [अस्थान] १ अयोग्य स्थान (ठा ६; | थे 'जम्मि तुम अहिसित्तो, जत्थ य सिवसुक्खसंख्या-विशेष, अट्ठावन, ५८ (कम्म १, ३२)। विसे ८४५)। २ कुत्सित स्थान, वेश्या का | संपयं पत्तो। ते अट्ठावयसेला, सीसामेला गिरि"वरिस, वारिस वि [वार्षिक पाठ वर्ष ) मुहल्ला वगैरह (वव२)। ३ अयोग्य, गैरव्याजबी | कुलस्स' (धण ८)। For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठावय-अड्डिया पाइअसहमहण्णवो २७ अट्ठावय न [अर्थपद] गृहस्थ (दस ३,४)। अट्ठिय वि [आर्थिक] १ अर्थका कारण, अर्थ- अडडंग न [अटटाङ्ग] संख्या-विशेष, 'तुडिय अट्ठावय न अर्थपद अर्थ-शास्त्र, संपत्ति-शास्त्र । सम्बन्धी । २ मोक्ष का कारण (उत्त १)। या 'महातुडिय' को चौरासी लाख से गुणने (सूत्र १,६ पएह १,४)। अट्रिय वि [अर्थित] अभिलषित, प्रार्थित पर जो संख्या लब्ध हो वह (ठा ३, ४)। अट्ठावीस स्त्रीन [अष्टाविंशति] अठाईस, २८ (उत्त १)। अडण न [अटन] भ्रमण, धूमना (ठा ६)। (पि ४४२, ४४५)। अद्विय वि [अस्थित] १ अव्यवस्थित, अनि- अडणी स्त्री [दे] मार्ग, रास्ता दे १. १६) । अट्ठावीसइ स्त्री [अष्टाविंशति] संख्या-विशेष, यमित (पएह १, ३) । २ चंचल, चपल (से अडपल्लण न [दे] वाहन-विशेष (जीव)। अठाईस, २८ । विह वि [विध] अठाईस २, २४)। अडयणास्त्री [दे] कुलटा, व्यभिचारिणी अडया अद्विय वि [आस्थिक हड्डी-सम्बन्धी, हाड़ प्रकार का (पि ४५१)। स्त्री (दे १, १८; पान; गा २.४% का; 'अट्ठियं रसं सुणा अट्ठावीरादा दि अष्टाविंश] १ अठाईसवाँ ६६२, वजा ८६)। ' (भत १४२)। अद्विय वि [आस्थित] स्थित, रहा हुआ, (से | अडयाल न [दे] प्रशंसा, तारोफ (पराण २)। (पउम २८, १४१) । २ न. तेरह दिनों के | १, ३५)। अडयाल स्त्रोन [अष्टचत्वारिंशत् ] अठलगातार उपवास (णाया १,३।। अट्रिय पुं[अस्थिक १ वृक्ष-विशेष । २ न. अडयालीस तालीस, ४८ की संख्या (जीव अट्रासट्रि स्त्री [अष्टापष्टि] संख्या-विशेष, अठ ३; सम ७०)। सय न [शत एक सौ फल-विशेष, अस्थिक वृक्ष का फल (दस ५, सठ, ६८ (पिंग)। और अठतालीस, १४८ (कम्म २, २५)। अट्रासि । स्त्री [अष्टाशीति] संख्या-विशेष अडवडग न [दे] स्खलना, रुक-रुक चलना, अट्ठासीइ । अठासी, ८८ (पिंगः सम ७३)। आटुल्लय पुं [अस्थि] फल की गुट्ठी (पिंड 'तुरयावि परिस्संता अडवडणं काउमारद्धा' अट्ठासीय वि [अष्टाशीत] अठासीवाँ (पउम (सुपा ६४५)। अट्ठुत्तर वि [अष्टोत्तर] पाठ से अधिक ८८, ४४)। अडाव ! स्त्री [अटवि, वी] भयंकर जंगल, (प्रौप)। सय न [शत] एक सौ और अट्टाह न [अष्टाह] आठ दिन (णाया १,८)। अडवी गहरा वन (पएह १, १; महा)। आठ (काल)। सय वि [शततम] एक अडसहि स्त्री [अष्टषष्टि] अठसठ (पि ४४२)। अट्टाहिया स्त्री [अष्टाहिका] १ आठ दिनों सौ आठवाँ (पउम १०८, ५०)। म वि [तम] अठसठवाँ (पउम ६८,५१)। का एक उत्सव (पंचा८)। २ उत्सव (पाया अठ। देखो अट्र = अष्टन् (पिंग; पि ४४२, अडाड पुं[दे] बलात्कार, जबरदस्ती (दे १,८)। अड १४६; भगः सम १३४).। १, १९)। अट्ठि वि [अर्थिन प्रार्थी, गरजवाला, अभि अड सक [अट् ] भ्रमण करना, फिरनाः | अडिल्ल पुं[अटिल] एक जाति का पक्षी लाषी (प्राचा)। 'अडति संसारे (पराह १,१)। वकृ. अडमाण | (पएण १)। अद्वि [अस्थि] १ हड्डी, हाड़; 'अयं अट्ठी' (णाया १, १४)। डिल्ला स्त्री [अडिल्ला] छन्द-विशेष (पिंग)। (सूत्र २, १, १६)। २ फल की गुट्ठी (दस अड ' [अवट] १ कूप, इनारा (पास)। २ | अडोलिया स्त्री [अटोलिका] १ एक राज कूप के पास पशुओं के पानी पीने के लिए पुत्री, जो युवराज की पुत्री और गर्दभराज की अट्टि स्त्रीन [अस्थि, क] १ हड्डी, हाड़ जो गत किया जाता है वह (हे १, २७१) । बहिन थी। २ मूषिका, चूही (बृह १)। अट्ठिग (कुमाः परह १, ३)। २ जिसमें अड देखो तड = तट (गा ११७; से १, | अडोविय वि [अटोपित] भरा हुआ (पराह अट्ठिय बीज उत्पन्न न हुए हों ऐसा अपरिपक्व फल (बृह १) । ३ पु. कापालिक, 'अट्ठी अडइ । स्त्री [अटवि, वी] भयानक जंगल, अड्ड वि [दे] जो आड़े आता हो, बीच में विजा कुच्छियभिक्खू' (बृह १; वव २)। अडई वन (सुपा १८१, नाट)। बाधक होता हो वहा 'सो कोहाडो अड्डो "मिजा स्त्री [मिआ हड्डी के भीतर का रस अडडज्झिय न [दे] विपरीत मैथुन (दे १, आवडिओं' उप १४६ टी)। (ठा ३,४) । सरक्ख [°सरजस्क कापा- ४२)। अड्डक्ख सक [क्षिप् ] फेंकना, गिराना। लिक (वव ७)। सेण न [षेण] १ बत्स- अडखम्म सक [दे] संभालना, रक्षण करना। अड्डक्खइ (हे ४, १४३ षड् )। गोत्र की शाखारूप एक गोत्र। २ पुं. इस गोत्र कम. 'अडखम्मिज्जति सबरियाहि वणे' (दे १, | अड्डक्खिय वि [क्षिप्त] फेंका हुआ (कुमा)। का प्रवर्तक पुरुष और उसकी सन्तान (ठा ७)। अड्डण न [अड्डन] १ चर्म, चमड़ा । २ ढाल, अद्विय वि [अर्थिक] १ गरजू, याचक, प्रार्थी | अडखम्मिअ वि [दे] संभाला हुआ, रक्षित फलक; 'नवमुग्गवरणपडणढकियाजाणभीस(सूत्र १, २, ३) । २ अर्थ का कारण, अर्थ एसरीरा' (सुर २, ५)। सम्बन्धी । ३ मोक्ष का हेतु, मोक्ष का कारण अडड न [अटट] 'अटटांग को चौरासी | अड्डिा वि [दे] पारोपित (वव १ टी)। भूत; 'पसन्ना लाभइस्संति विउलं अट्ठियं सुयं' लाख से गुणने पर जो संख्या लब्ध हो वह अड्डिया स्त्री [अड्डिका] मल्लों की क्रिया-विशेष (उत्त १)। (ठा ३, ४)। (विसे ३३५७)। For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ पाइअसद्दमहण्णवो अड्ढ-अणंत महत (पंचा अण न [ऋणधारण अड्ढ देखो अद्ध = अर्ध (हे २,४१; चंद १० अण पुं [अनस्] शकट, गाड़ी (धर्म २)। एक पुत्र, लव (पउम ६७,६)। सर पुं[शर] सुर ६, १२६ महा)। अण देखो अण्ण = अन्य ; 'मरणहिप्रमावि काम के बाण (गा १०००)। "सेणा स्त्री अड्ढ वि [आढय १ संपन्न, वैभव-शाली, पिपाणं' (से ११, १६०२०)। [सेना] द्वारका की एक विख्यात गरिएका धनी (पानः उवा)। २ युक्त, सहित (पंचा अण न [ऋण १ करजा, ऋरण (हे १,१४१)। (गाया १, ५, १६) । १२)। ३ पूर्ण, परिपूर्णः 'विगुणमवि गुणड्द' २ कर्म (उत्त १)। धारग वि [धारक] अणंत पुं [अनन्त] चालू अवसर्पिणी काल के (प्रासू ७१)। करजदार, ऋणी (गाया १, १५)। बल वि चौदहवें तीर्थकर-देव. दिमतगणंतं च जिणं' अड्ढअक्कली स्त्री [दे] देखो अट्टयक्कली [बल] उत्तमर्ण, लेनदार (पग्रह १, २)। (पडि)। २ विष्ण, कृष्ण (पउम ५, १२२) । भंजग वि[भञ्जक] देउलिया (पएह १,३)। ३ शेष नाग (से ६,८६)। ४ जिसमें अनन्त अड्ढत्त वि [आरब्ध] शुरू किया हुआ, प्रारब्ध अण देखो गण (से ६, ६६) । जीव हों ऐसी वनस्पति कन्द-मल वगैरह (प्रोष ४१) । ५ न. केवल-ज्ञान (गाया १, ८)। ६ अण देखो जण; 'अएणं महिलाअणं रमंतस्स' अड्ढाइन्न ! वि [अर्धेतृतीय] ढाई (सम (गा ४४); ‘गुरुप्रणपरवस पिन किं ( काप अड्ढाइय १०१ सुर १,४४भविः विस आकाश (भग २, २) । ७ वि. नाश-वजित, ६१); 'दासप्रणाणं' (अच्चु ३२) । शाश्वत (सूत्र १,१,४; परह १,३)। ८ निःसीम, १४०१)। अपरिमित, असंख्य से भी कहीं अधिक (विसे)। अड्ढिय वि [कृष्ट] खींचा हुआ (से ५,७२)। अण देखो तण (मे ६, ६६)। ६ प्रभूत, बहुत, विशेष (प्रासू २६:ठा ४,१)। अटुट वि [अधेचतुर्थ] साढ़े तीन, 'अड्छु- अणअरद देखो अणवरय (नाट)। काइय वि[ कायिक अनन्त जीववालो बनट्ठाई सयाई' (पि ४५०)। अणइवर वि [अनतिवर] जिससे बड़कर स्पति, कन्द-मूल आदि (धर्म २)। काय पुं अड्डेज न [आढयत्व] धनीपन, श्रीमंताई दूसरा न हो, सर्वोत्तम; 'प्रच्छरायो....... | [काय] कन्द-मूल आदि अनन्त जीववाली (ठा १०)। अणइवरसोमचारुरूवानो' (प्रौप) । वनस्पति (पएण १)। खुत्तो अ[कृत्वस्] अड्ढेजा स्त्री [आढयेज्या] श्रीमंत से किया अणइवुटि स्त्री [अनतिवृष्टि] अवृष्टि, वर्षा का | अनन्त बार (जी ४४) । °जीव पुं [जीव] हुआ सत्कार (ठा १०)। अभाव; 'दुभिक्खडमरदुम्मारिईइअइबुट्ठी अगइ- देखो काइय (परण १)। जीविय वि अड्ढोरुग पुं [अोरुक] जैन साध्वियों के | पहनने का एक वस्त्र (प्रोघ ३१५)। वुट्टी य' (संबोध २)। [°जीविक] देखो काइय (भग ८,३)। णाण अगईइ वि [अनीति ईति-रहित, शलभादिअढ (अप) देखो अट्ठ = अष्टन् (पि ६७:३०४ न [ज्ञान] केवल-ज्ञान (दस २)। णाणि कृत उपद्रव से रहित 'अणईइपत्ता' (प्रौप)। वि [ज्ञानिन] केवल-जानी, सर्वज्ञ (सूत्र १, ४४२, ४४५)। अणंग पुं[अनङ्ग] १ काम, विषयाभिलाष, ६)। दंसि वि [दशिन सर्वज्ञ (पउम ४८, अढाइस (अप) स्त्रीन [अष्टाविंशति] संख्याविशेष, अठाईस, २८ (पि ४४५) । रमणेच्छा (श्रा १६; आव ६)। २ कामदेव, १०५)। पासि वि [दर्शिन ऐवत क्षेत्र के बीसवें जिन-देव (तित्थ)। 'मिस्सिया स्त्री अढारसग देखो अट्ठारसग (पिंड ४०२) । मन्मथ (गा २३३; गउडा कप्पू)। ३ एक राजकुमार, जो आनन्दपुर के राजा जीतारि का पुत्र [मिश्रिका] सत्यमिश्र भाषा का एक भेद अढारसम देखो अट्ठारसम (भग १८ णाया था (गच्छ २)। ४ न. विषय-सेवन के मुख्य जैसे अनन्तकाय से भिन्न प्रत्येक वनस्पति से मिली हुई अनन्तकाय को भी अनन्तकाय कहना अण अ [अ, अन् ] देखो मैं (हे २,१६०; अंगो के अतिरिक्त स्तन, कुक्षि, मुख आदि अंग (परण ११) । मासयन ["मिश्रक] देखो से ११, ६४)। (ठा ५, २)। ५ बनावटी लिंग आदि (ठा ५, अण सक [अण्] १ आवाज करना। २ जाना। 'मिस्सिया (ठा १०)। रह पुं[रथ विख्यात २)। ६ बारह अंग-ग्रन्थों से भिन्न जैन शास्त्र (विसे ८४४)। ७ वि. शरीर-रहित, अंग-हीन, राजा दशरथ के बड़े भाई का नाम (पउम २२, ३ जानना। ४ समझाना। प्रगइ (विसे १०१)। विजय पुणविजय] भरतक्षेत्र के मृत, 'पहरइ कह णु अणंगो, कह णु हु विधंति ३४४१)। कोसुमा बाणा' (गउड); पईवमज्झे पडई पयंगो, २४ वें और ऐरवत क्षेत्र के बीसवें भावी तीर्थअण पुं [अण] १ शब्द, आवाज । २ गमन, रूवाणुरत्तो हवई अणंगो' (सत्त ४८) । धरिणी कर का नाम (सम १५४) । वारिय वि गति (विसे ३४४०)। ३ कषाय, क्रोध आदि | स्त्री [गृहिणी] रति, कामदेव को पत्नी (सुपा [°वीर्य] १ अनन्त बलवाला। २ पुं. एक आन्तर शत्रु (विसे १२८७)। ४ गाली, ६६७)। पडिसेविणी स्त्री [प्रतिषेविणा] केवलज्ञानी मुनि का नाम (पउम १४,१५८)। आक्रोश, अभिशाप (तंदु)। ५ न. पाप (पएह अमर्यादित रीति से विषय-सेवन करनेवाली स्त्री ३ एक ऋषि, जो कार्तवीर्य के पिता थे (प्राचू १, १)। ६ कर्म (प्राचा)। ७ वि. कुत्सित, (ठा ५, २)। पविट्ट न [प्रविष्ट] बारह | १)। ४ भरतक्षेत्र के एक भावी तीर्थंकर का खराब (विसे २७६७ टी)। अंग-ग्रन्थों से भिन्न जैन ग्रन्थ (विसे ५२७)। नाम (ती २१)। संसारय वि[संसारिका अण पुं[अन] देखो अणंताणुबंधि (कम्म २, "बाण पुं [वाण] काम के बारण (गा। अनन्त काल तक संसार में जन्म-मरण पाने५; १४; २६)। ७४८)। लवण पुं [लबन] रामचन्द्रजी का। वाला (उप ३८४)। संग पुं[ सेन] १ चौथा Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणंतइ-अणप्प पाइअसहमहण्णवो २९ कुलकर (सम १५०)। २ एक अन्तकृद् मुनि अणगार वि[अनाकार] प्राकृति-शून्य, प्राकार- (आव ६)। ३ वि. निष्कारण, वृथा, निष्फल (अंत ३). रहितः 'उवलंभव्ववहाराभावो नाणगारं च' (निचू १; पण्ह २, १)। अणंतह पुं[अनन्तजित्] चालू काल के चौद- (विसे ६५)। दंड पुं[दण्ड निष्कारण हिंसा, बिना ही हवें जिन-देव; (पउम ५, १४८) । अणगारि पुं [अनगारिन्] साधु, यति, मुनि प्रयोजन दूसरे की हानि (सूत्र २, २) । अणंतग) १ देखो अणंत (ठा ५,३)। २ न. (सम ३७) । अणड पुं[दे] जार, उपपति (दे १,१८ षड्)। अणंतय । वस्त्र-विशेष (मोघ ३६)। ३ पुं. अणगारिय वि [आनगारिक] साधु-संबन्धी, ऐरवत क्षेत्र के एक जिनदेव (सम १५३)। अणडढ वि [अनर्ध] विभाग-रहित, प्रखण्ड मुनि का (विसे २६७३)। (ठा ३, ३)। अर्णतय न [अनन्तक] वस्त्र, कपड़ा (पब २)। अणगाल पुं [अकाल] दुर्भिक्ष, अकाल | अणण्ण वि [अनन्य] १ अभिन्न, अपृथग्भूत अणंतर वि [अनन्तर] १ व्यवधान-रहित, अव्य (निचू १)। २ मोक्ष-मार्ग, 'अणएणं चरमाणे वहित; 'अणंतरं चयं चइत्ता' (गाया १,८)। अणगिण वि [अनन] १ जो नंगा न हो, वस्त्रों से रण छरणे ण छणावए' (प्राचा)। ३ असा२. वर्तमान समय (ठा १०)। ३ क्रिवि. बाद से आच्छादित। २ पुं. कल्पवृक्ष की एक जाति, | धारण, प्रद्वितीय (सुपा १८९; सुर १, ७)। में, पोछे (विपा १, १)। जो वस्त्र देता है (तंदु)। तुल्ल वि [ तुल्य असाधारण, अनुपम (उप अणग्घ देखो अनघ (कुप्र १)। 'अणंतरहिय वि [अनन्तहित] १ अव्यवहित, ६४८ टी) । दसि वि [°दर्शिन] पदार्थ को अणग्घ वि [ऋणघ्न] ऋण-नाशक, कर्मव्यवधान-रहित (प्राचा)। २ सजीव, सचित्त, सत्य-सत्य देखनेवाला (प्राचा)। परम वि नाशक (दंस)। चेतन (निचू ७)। [परम संयम, इन्द्रिय-निग्रहः 'अगरणपरमे अणग्ध वि[अनये] १ अमूल्य, बहुमूल्य, अणंतसो अ[अनन्तशस् ] अनन्त बार (दं अणग्घेय कीमती (प्राव ४); 'रयणाई पाणी, णो पमाए कयाइवि' (प्राचा)। मण, ४५)। अरणग्घेयाई हुँति पंचप्पयारवरणाई' (उप मणस वि [ मनस्क] एकाग्र चित्तवाला, अणंताणुबंधि पुं [अनन्तानुबन्धिन] अनन्त ५६७ टी; स८०)। २ महान्, गुरु। ३ उत्तम, तल्लीन (प्रौपः पउम ९, ६३)। समाग वि काल तक आत्मा को संसार में भ्रमण करानेश्रेष्ठ; 'तं भगवंतं अरणहं नियसत्तीए अरणग्घभ [समान असाधारण, अद्वितीय (उप ५६७ वाले कषायों की चार चौकड़ियो में प्रथम तीए, सकारेमि' (विवे ६५ ७१) । टी)। चौकड़ी, अतिप्रचंड क्रोध, मान, माया और लोभ अणत्त वि [अनात्त प्रगृहीत, अस्वीकृत (ठा अणघ वि [अनघ] शुद्ध, निर्मल, स्वच्छ (पंचव (सम १६)। अणंस वि [अनंश] अखण्ड (धर्मसं ७०६)। अणत्त वि [अनाते अपीडित, 'दयावइमाईसुं अणच्छ देखो करिस = कृष् । अरगच्छइ (हे अणक पुं[दे] १ एक म्लेच्छ देश । २ एक अत्तमणत्ते गवसणं कुणई' (वव १) । ४, १८७)। म्लेच्छ जाति (परह १, १)। अगच्छिआर वि [दे] अच्छित्र, नहीं छेदा अणत्त वि [ऋगार्त] ऋण से पीड़ित (ठा अगक्ख पुं[दे] १ रोष, गुस्सा, क्रोध (सुपा अगज वि [अन्याय्य] अयोग्य, जो न्याय- . १३:१३०,६१० भवि)। २ लजा (स ३७६)। अणत्त वि [अनात्र] दुःखकर, सुख-नाशक 'णेरइमारणं भंते ! कि अत्ता पोग्गला अगत्ता अणक्खर न [अनक्षर] श्रुत-ज्ञान का एक | युक्त नहीं (पएह १, १)। वा' (भग १४, ६)। भेद-वर्ण के बिना संपर्क के, छींकना, चुटकी अणज वि [अनार्य] आर्य-भिन्न, दुष्ट, खराब, अगत्त न [दे] निर्माल्य, देवोच्छिष्ट द्रव्य बजाना, सिर हिलाना आदि संकेतों से दूसरे का पापी (पराह १, १, अभि १२३)। (दे १, १०)। अभिप्राय जानना (मंदि)। अणज्जव (अप) ऊपर दखा। खड पुरखण्ड] अगत्थ देखो अण? (पउम ६२, ४; श्रा २७ अणगार वि [अनगार] १ जिसने घर-बार अनार्य देश, (भवि ३१२, २)। सण)। त्याग किया हो वह, साधु, यति, मुनि (विपा अणज्झवसाय पुं[अनध्यवसाय] अव्यक्त अणथंत वकृ [अतिष्ठत् ] १ नहीं रहता १, १, भग १७, ३)। २ घर-रहित, भिक्षुक, ज्ञान, अति सामान्य ज्ञान (विसे ६२) हुआ। २ अस्त होता हुआ, 'प्रणयंते दिवसयरे भीखमँगा (ठा ६)। ३ पुं. भरतक्षेत्र के भावी अणज्झाय पुं[अनध्याय १ अध्ययन का जो चयइ उब्विहंपि आहार' (पउम १४ पांचवें तीर्थंकर का एक पूर्वभवीय नाम (सम अभाव । २ जिसमें अध्ययन निषिद्ध है वह काल १३४)। १५४)। (नाट)। अणन्न देखो अणण्ण (सुपा १८६; सुर १, 'सुय न [ श्रुत] 'सूत्रकृतांग' सूत्र का एक अध्य- अणट्ट वि [अनात तांग सूत्र का एक अध्य- अगट्ट वि [अनात पात-ध्यान से रहित, पात-ध्यान से रहित, ७; पउम ६, ६३) । यन (सूत्र २, ५)। 'अरगट्टा कित्ति पव्वए' (उत्त १८, ५०)। अणपन्निय देखो अणवण्गिय (भग १०,२) । अणगार वि [ऋणकार] १ करजा करनेवाला। अणट्ठ [अनर्थ] १ नुकसान, हानि (णाया अगप्प वि [अनl] अर्पण करने के अयोग्य २ दुष्ट शिष्य, अपात्र (उत्त १) ! । १,६ उप ६ टी)। २ प्रयोजन का अभाव | या अशक्य (ठा )। For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० arty वि [ अनल्प ] अधिक, बहुत ( औप ) । अणप्प [अनात्मन] निज से भिन्न सामा से परे (पउम ३७, २२) । 'जवि ['ज्ञ] १ निर्वाच२ पागल, भूताविष्ट, पराधीन ( निचू १) । वसगवि ['वंश ] परवश, पराधीन (पउम ३७, २२) । अप्प पुं. [दे] खड्ग, तलवार (दे १, १२) । अपि वि[अर्पित ] १ नहीं दिया हुआ २ साधारण, सामान्य, प्रविशेषित (ठा १० ) । "य ["नय] सामन्याप अणस्तर वि[अनभ्यन्तर] भीतरी तस्व को नहीं जाननेवाला, नर्भि तरा खु अम्हे मदरणगदस्स वृत्तंतस्स' (श्रभि ११) । अणभिग्गह न [ अनभिग्रह ] 'सर्वे देवा वन्द्याः' इत्यादि रूप मिथ्यात्व का एक भेद (भा६) । अभिगवन [अनभिपदिक] ऊपर (२१) । अभिग्गहिय वि [अनभिगृहीत] १ कदाग्रह - शून्य (श्रा ६) । २ अस्वीकृत (उत २८ ) । वि 7 [अनभिज्ञ] [मजान, निर्वाध अभि (अभि १७४; सुपा १६८ ) | अणभिन्न अभिलाप वि [ अनभिलाप्य] अनिर्वच नीय, जो वचन से न कहा जा सके ( लहु ७) । मिसवि [ अनिमिष] १ विकसित, खिला हुआ (सुर, १४३) २ निमेष-रहित, । पलक वर्जित (सुपा ३५.४) । अणय [अन्य] नीति अन्याय (था २७ स ५०१) । अणयार देखो अणगार ( पउम ११, ७) । अणरण्य [अनरण्य] साकेतपुर का एक राजा जो पीछे से ऋषि हुआ था (पउम १०, ८७) । 2 अणरह अणरिह वि [ अन ] प्रयोग्य, नालायक, (कुमा); 'गवि दिजति अरारिहे, अणरुह रिहत्ते तु इमो होई' (पंचभा) । रहू स्त्री [] नवोढ़ा, दुलहिन ( पड् ) । अणरामय पुं [दे] अरति, बेचैनी (दे १, ४५ भवि ) । पाइअसहमणो अणप्प - अणह अणराह पुं [दे] सिर में पहनी जाती रंगबिरंगी पट्टी (दे १२४ ) । अणरिक्क वि [दे] अवकाश-रहित, फुरसतरहित (दे १. २०)। २ दधि और आदि गोरस भोज्य (निचू १६ ) । अगर [] योग्य नालायक अगर (गाया १, १) । } T अणराय वि [अराजक ] राज-शून्य, जिसमें अणवत्थ वि [ अनवस्थ ] अव्यवस्थित, अनिराजा न हो वह (बृह १ ) । यमित, असमंजस (दे १, १३६) । अणवत्था स्त्री [अनवस्था ] १ अवस्था का अभाव ( उव) । २ एक तर्क -दोष (विसे) । ३ अव्यवस्था, 'जरगरणी जायइ जाया, जाया माया पिया य पुत्तो य । प्रणवत्था संसारे, कम्मवसा सव्वजीवाणं' (पिवे १०७) । अवदग्गवि (दे] १ अनन्त, अपरिमित निस्सीम (भाग ११) २ विनाश (सुम २, ५) । " , अणलं प [ अनलम् ] समर्थ (धाचा २, ५, १, ७) । tra वि [ अनवद्य] निष्पाप, निर्दोष, शुद्ध ( प्राकृ २१ ) । अगल पुं [अनल] १ अग्नि, आग (कुमा) । २ वि. श्रसमर्थं । ३ अयोग्य, 'अगलो अपच्चलोति होति होगो व एम (११) अणव वि [ ऋणवत् ] १ करजदार । पुं. दिवसका अगवन्निय देखो अगयि (श्रीप) अणवयग्ग देखो अगवद्ग्ग (सम १२५: परह 1, 3; 5) वयमाण a वाद नहीं करता ३)। अवगल्लfa [ अनवग्लान ] ग्लानि-रहित, अणवरय वि [ अनवरत ] १ सतत, निरन्तर, निरोग; श्रविच्छिन्न । २ न. सदा, हमेशा (गा २८० 2)। अणवराइस ( प ) वि [ अनन्यादृश ] श्रसाधारण, पतिीय (कुमा) । अपसरवि[अनपसर] प्राकस्मिक चि (पा) अवयव [ अनपकृत ] जिसका अपकार न किया गया हो वह ( उव) 'सट्टस अरण वगल्लस्स, निरुवकिटुस्स जंतुर एगे ऊसासनीसासे एस पात्ति वुबई' (ठा २, ४) । अणवमपि [ अनपत्य] सन्तान रहित निर्वंश (सुपा २५९) । 2 अणवज्जन [ अनवद्य] १ पाप का प्रभाव, कर्म का अभाव (सूत्र १, १, २ ) । २ वि. निर्दोष, निष्पाप (प ) | अणवाज दि [अगव] ऊपर देखो (विसे)। अणचटुप्प वि [अनवस्थाच्य] जिसको फिरसे दीक्षा न दी जा सके ऐसा गुरु अपराध करनेवाला (बृह ४) । २ न. गुरु प्रायश्चित्त का एक भेद (ठा ३,४) । अणवट्ठिय वि [अनवस्थित] १ श्रव्यवस्थित, नियमित (प्रा १३७३ र ४, ७६) २ मंच पर चितिं (सुर अस्थिर 'रणवट्टियं १२. १३०)। ३ [पत्य-विशेष नाप-विशेष (कम्म ४, ७३) । 1 वणिय पुं [ अणपत्रिक, अणपणिक ] वानव्यंतर देवों की एक जाति (पराह १, ४ भग १०, २) । For Personal & Private Use Only [ अनपवदत् ] १ अपहुआ। २ सत्यवादी ( वव torate वि [ अबाध ] बाधा रहित, निर्बाध ( सुपा २६८ ) । अगवेक्सि वि [अनपेक्षित] उपेक्षित, जिसकी परवाह न हो । अगक्खियवि [अनबेक्षित] १ नहीं देखा हुआ । २ श्रविचारित, नहीं सोचा हुआ । करिव [कारिन्] साहसिक । कारिया [कारिता ] साहस कर्म ( उप ७६८ टी) । अगसण न [ अनशन ] प्रहार का त्याग, उपवास (सम ११९ ) । असिव [अनशित] उपोषित, उपवासी ( धावम) | अगह वि [अनघ] निर्दोष, पवित्र (श्री गा २७२; से ६, ३) 1 अह वि [] अक्षत, क्षति-रहित, व्रणशून्य (दे १, १३ सुपा ६, ३३; सरण) । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणह - अणायरण अह न [ अनभस् ] भूमि, पृथिवी (से ६, | ३) । पण [] नष्ट, विद्यमान (दे १, ४८) । अबश्य वि [ दे] तिरस्कृत, भारित ( पर)। । अणा [अधुना ] इस समय ( प्राह ८० ) हारपुं [दे] खल्ल, खला, जिसका मध्यनीचा हो वह जमीन (दे १, ३८ ) । अणहिअअवि [अहृदय] हृदय-रहित निष्ठुर, निर्दव (प्राप गा ४९ ) । for a [ अनधिगत ] १ नहीं जाना हुआ। २ पुं. वह साधु, जिसको शास्त्रों का ज्ञान न हो, अगीतार्थं (वव १) । अहिण देखो अणभिण्ण ( प्राप) । अगद्दियास [अनण्यास] मसहिष्णु, सहन नहीं करनेवाला (उव) । अहिल न [ अगहिल्ल] गुजरात देश की अणहिल प्राचीन राजधानी, जो श्राजकल 'पाटन' नाम से प्रसिद्ध है ( ती २६० कुमा) । 'वाड न [पाटक] देखो अणहिल (गु १० १०८८८) | अणहीण व [अनधीन] स्वतन्त्र अनायत्त ( सँग १९९) । अहुल्लिय वि [दे] जिसका फल प्राप्त न हुआ हो वह (सम्मत्त १४३) । अणाइ वि [अनादि] प्रादि-रहित नित्य (सम १२५) । हिण, निण वि [निधन ] प्राद्यन्त-वर्जित शाश्वत ( उब सम्म ६५; ४) "मंत, "यंत वि [ मन्] धनादि काल से प्रवृत्त ( पउम ११५, ३२; भवि ) । अणाइल व [अनादेय] अनुपादेय ग्रहण करने के प्रयोग्य । २ नाम-कर्म का एक भेद, जिसके उदय से जीव का वचन, युक्त होने पर भी ग्राह्य नहीं समझा जाता है (कम्म १,२७) । अणाइय [अनादिक] चावि-रहित, निव्य (सम १२५ ) । अगाइयपि [अज्ञातिक] स्वजन हित (भग १, २)। अाइ [अजातीत ] पाये, पाठ (भग १.१) । पाइअसदमद्दण्णवो [ ऋणातीत ] संसार, दुनिया अगाइय (भग १, १) । अणाइय वि [ अनाहत ] जिसका आदर न किया गया हो वह (उप ८३३ टी) । अणाइल वि] [अनाविल] १ कति निर्मल (२१) । अणाईअ देखो जनाइय (११०३१ टी. पि ७०) 1 अगा अणाय (१) । गाउल वि (सूप्र [अनाकुल] व्याकुल, धीर (सूम १, २, २० गाया १, ८) । [ अनायुक] १ जिग-देव (सूम पुं १, ६) २ बुकात्मा सिद्ध (ठा । अणात वि [ अनायुक्त ] उपयोग-शून्य, बेरूपाल, असावधान ( प ) । अनारज्य देखो अगाइज (सम १५१) । अणाय [अनागत ] १ भविष्य काल, 'अरमागयमपस्संता, पप्पन्नगवेसगा । ते पच्छा परितति, खीणे श्राउम्मि जोब्बर' । (१,३,४) २. भविष्य में होनेवाला ( सू १,२ ) । द्धा स्त्री [[द्धा ] भविष्य काल ( नव ४२) । Profa [ अनर्गलत ] नहीं रोका हुआ (उवा) । अणागलिय वि [अनाकलित ] १ नहीं जाना हुआ, अलक्षित (गाया १, ६) । २ अपरिमित, 'अरणगलियतिव्त्रचंडरोस सप्परूवं विउब्वाइ' (उपा अणगार व [अनाकार ] १ साकाररहित आकृति - शून्य (ठा १०)। २ विशेषता रहित ( कम्म ४,१२ ) । ३ न. दर्शन, सामान्य ज्ञान (सम ६५) । अणाजीव वि [ अनाजीव] १ आजीविकारहित । २ श्राजीविका की इच्छा नहीं रखनेवाला । ३ निःस्पृह, निरीह (दस ३ ) । अणाजीवि वि [अनाजीविन] ऊपर देखो, 'गिलाई जीवी' (१) । अगा [] नार, अपति (दे १, १०) । [ अन ] १ जिसका आदर न किया गया हो वह, तिरस्कृत (श्रव ३) । २ पुं. जम्बूद्वीप का अधिष्ठायक एक देव (ठा २,३) । For Personal & Private Use Only ३१ श्री. जम्बूद्वीप के देव को राज पानी (३) । अणाणुगामिय वि [ अनानुगामिक] १ पीछे नहीं जानेवाला (ठा २,१२ न.-ज्ञान का एक भेद (दि) । अणादि देखो अगाइ (६०३) । अगादिय) देखो अणाश्य (११० अणादीय ठा ३, १ ) । अणादेज देखो अगाइ (पह १, २) । अगाभिगह न [ अनाभिग्रह] का मिथ्यात्व एक भेद (पंच ४, २) । अगाभोग [अनाभोग] १ अनुप बेपाली सावधानी (मान ४) २ न. मिव्याव विशेष (कम्म ४, ४१) । अणामिय [अनामिक] राम २ पुं. असाध्य रोग (तंदु) । ३ स्त्री, कनिष्ठांगुली के ऊपर की अंगुली । अणाव [अज्ञात] नहीं जाना था, परिचित ( प २४, १७) । अगाय [अनाक] माथैलोक, मनुष्य-लोक पुं से १, १) । अाय पुं [अनात्मन् ] श्रात्म-भिन्न श्रात्मा से परे (सम १) । अणायगवि [अनायक ] नायक-रहित (पक्ष्म ५६, ७०) । गायगव [अज्ञात क] स्वजन-रहित, श्रकेला (नि ९) । अणायन व [अज्ञायक] धान, निर्वाध ( नि ११) । अणायतन [ अनायतन ] १ वेश्या श्रादि अणायण f नीचे लोगों का घर ( दस ५, १ ) । २ जहाँ सज्जन पुरुषों का संसर्ग न होता हो वह स्थान ( परह २, ४ ) । ३ पतित साधुयों का स्थान (श्राव ३ ) । ४ पशु, नपुंसक वगैरह के संसगंवाला स्थान (ग्रोध ७६३) । अणायत [अनावन्त ] पराधीन (पउम २१, २६) । अणावर (पान) । अणायरण न [ अनावरण] अनाचार, खराब [अनादर] बहुमान, अपमान श्राचरण । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो अणायरणया-अणियण अणायरणया स्त्री [अनाचरण] ऊपर देखो गरीब, बेचारा (णाया १, ८)। ४ पुं. एक अणिग्गह वि [अनिग्रह] स्वच्छन्द, असंयत (सम ७१)। जैन मुनि (उत्त २०)। अणायरिय देखो अगज = अनार्य (पएह १. अगाहार पुं [अनाहार] एक दिन का उपवास अणिच वि [अनित्य नश्वर, अस्थायी (नव १; पउम १४, ३०)। (संबोध ५८)। २४ प्रासू ६५) । भावणा स्त्री [भावना] अणायार देखो अणागार = अनाकार (विसे)। अणाहि) वि [अनाधि, क] मानसिक सांसारिक पदार्थों की अनित्यता का चिन्तन अगायार पुं [अनाचार] १ शास्त्र-निषिद्ध अगाहिय) पीड़ा से रहित (से ३, ४४; पि (पव ६७)। णुप्पेहा स्त्री [नुप्रेक्षा] आचरण (स १८८)। २ गृहीत नियमों का । ३६५)। देखो पूर्वोक्त अर्थ (ठा ४, १)। जान-बूझ कर उल्लंघन करना, व्रत-भङ्ग अणाहिट्ठि पुं [अनाधृष्टि] एक अन्तकृद् मुनि अणि? वि [अनिष्ट] अप्रीतिकर, द्वेष्य (उव)। (वव १)। (अन्त ३)। अणिद्विय वि [अनिष्ठित] असंपूर्ण (गउड)। अणारिय देखो अणज्ज = अनार्य (उवा)। अणिइण देखो अणगिण (विचार २२)। अणिण देखो अणिरिण (नाट)। अणारिस वि [अनार्ष] जो ऋषि-प्रणीत न अणिइय वि [अनियत १ अनियमित, अध्य अणिदा स्त्री [दे. अनिदा] १ बिना ख्याल हो वह (पउम ११,८०)। वस्थित । २ पुं. संसार (भग ६,३३)। किये की गई हिंसा (भग १६, ५) । २ चित्त अणारिस वि [अन्यादृश] दूसरे के जैसा की विकलता। ३ ज्ञान का प्रभाव (भग १,२)।. अणिउंचिय वि अनिकुश्चित] टेढ़ा नहीं लिया बी अणिमन 1 पाठ सिद्धियों (नाट)। किया हुआ, सरल (गउड)। अणालत्त वि [अनालपित अनुक्त, अकथित, अणित में एक सिद्धि, अत्यन्त छोटा बन जाने की नहीं बुलाया हुअा (उवा)। । देखो अइमुत्त (दे ", ३८ हे शक्ति (पउम ७, १३६)। अणिउँत्तय १, १७८, कुमा)। अणिमिस न [अनिमिष फल-विशेष (दस अणालवय पुं[अनालपक] मौन, नहीं बोलना अणिएय वि [अनियत] अनियमित, अप्रति ५, १,७३)। (पान)। अणाव सक [आ + नायय] मंगवाना, प्ररणा- बद्धः 'अखिले अगिद्धे अणिएयचारी, अभयंकरे | अणिमिस वि अनिमिष, मेष] १ निमेष अणिमेस शून्य (सुर ३, १७३) । २ पुं. वेमि (सिरि ६४६)। भिक्खू प्रणाविलप्पा' (सूत्र १, ७, २८)। मत्स्य, मछली (दस ५, १) । ३ देव, देवता अणावरण वि [अनावरण] १ आवरण-रहित। अणिंदिय वि [अनिन्दित] १ जिसकी निन्दा (वव १ श्रा १६): 'नयण नयना देव,. २ न. केवल-ज्ञान (सम्म ७१)। न की गई हो वह, उत्तम (धर्म १)। २ पुं. देवता (विसे ३४८६)। अणाविअ वि [आनायित] मंगवाया हुआ | किन्नर देव की एक जाति (परण १)। अणिय न [अनीक] सैन्य, लश्कर (कप्प)। (सिरि ६६७ ७१८)। | अपिदिय वि [अनिन्द्रिय] १ इंद्रिय-रहित । अणिय न [अनृत] असत्य, झूठ (ठा १०)। अणाविट्रिो स्त्री [अनावृष्टि] वर्षा का प्रभाव २ पुं. मुक्त जीव । ३ केवलज्ञानी (ठा १०)। | अणिय न [दे] धार, अग्र-भाग (पएह २,२)। अणावुद्धि (पउम २०,८७सम ६०)। ४ वि. अतीन्द्रिय, जो इंद्रियों से जाना न जा अणिय वि [अनित्य] अस्थिर, अनित्य (उव)। अणाविल वि [अनाविल] १ निर्मल, स्वच्छ सके; 'नय विजइ तग्गहणे लिंगंपि परिणदियत्त- अणियट्ट पुं[अनिवर्त] १ मोक्ष, मुक्ति (आचा (गउड)। गो' (सुर १२,४८; स १६८; विसे १८६२)। १,५,१) । २ एक महाग्रह (ठा २, ३)। अणासंसि वि[अनाशंसिन् अनिच्छु, निस्पृह अणिदिया स्त्री [अनिन्दिता] ऊर्ध्व लोक में अणियट्रिवि | अनिवर्तिन् ] १ निवृत्त नहीं (बृह १)। | रहनेवाली एक दिक्कुमारी देवी (ठा ८)। होनेवाला, पीछे नहीं लौटनेवाला (प्रौप) । २: अणासण देखो अणसण (सूत्र १,२,१,१४)। अणिक वि [अनेक] एक से ज्यादा (नव ४३)। न. शुक्ल-ध्यान का एक भेद (ठा ४,१)। ३ पुं. अणासय पुं[अनाश,"क] अनशन, भोजना- वाइ वि [वादिन] प्रक्रियावादी (ठा ८)। एक महाग्रह (चंद २०)। ४ आगामी उत्सर्पिणी भावः 'खारस्स लोणस्स अगसएणं' (सूत्र १, अणिकिणी स्त्री [अनीकिनी] ऐसी सेना जिसमें काल में होनेवाले एक तीर्थंकर देव का नाम ७, १३)। २१८७ हाथी, २१८७ रथ, ६५६१ घोड़े और | (सम १५४)। अणासव वि[अनाश्रव] १ आश्रव-रहित । २ १०६३५ प्यादें हों (पउम ५६, ६)। अणियट्टि वि [अनिवृत्ति] १ निवृत्ति-रहित, पु. भाश्रव का प्रभाव, संवर । ३ अहिंसा, दया अणिक्खित्त वि [अनिक्षिप्त नहीं छोड़ा व्यावृत्ति-वजित (कर्म २, २) । २ नववाँ गुण(पएह २, १)। हुआ, अपरित्यक्त, अविच्छिन्न; 'अणिक्खित्तेणं स्थानक (कर्म २)। करण न [करण] अणासिय वि [अनशित] भूखा (सूत्र १, वोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पारणं भावेमाणे प्रात्मा का विशुद्ध परिणाम-विशेष (प्राचा)। ५, २)। विहरई' (उवा औप)। बादर न [°बादर] १ नववा गुण-स्थानक ।२ अणाह वि [अनाथ] २ शरण-रहित (निचू अणिगण ) देखो अणगिण (जीव ३; सम नववें गुण-स्थानक में प्रवृत्त जीव (प्राव ४)। ३)। २ स्वामि-रहित, मालिक-रहित। ३रंक, | अणिगिण १७)। अणियण देखो अणगिण (जीव ३)। For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणियय-अणुइण्ण पाइअसहमहण्णवो अणियय वि[अनियत] १ अब्यवस्थित, अनि- १,२,२)। २ निष्कपट, सरल (सून १,८)। अणु पु[दे] धान-विशेष, चावल की एक जाति यमित (उव)। २ कल्पवृक्ष की एक जाति, जो ३ निर्मम, नि:स्पृह (प्राचा)। वस्त्र देती है (ठा १०)। अणि विअिस्तिहा स्नेहरहित ( सन १.२. अणु स्त्री [तनु] शरीर, 'सुअणु' (गा २६६)। अणिया देखो अणिदा (पिंड)। २, ३०)। अणुअ देखो अणु = अणु (पान)। अणिया स्त्रो [द] धार, अन-भाग, गुजराती में | आणह वि [दे] १ सदृश, तुल्य । २ न. मुख, अणुअ वि [अज्ञ] अजान, मूर्ख (गा १८४. 'अरणी', 'संखारिणयाइ पइया' (धर्मवि १७)।। मुँह (दे १, ५१)। ३४५)। अणिरिक ति [दे परतन्त्र, पराधीन । (काप्र अणिय वि [अनिहत] अहत, नहीं मारा अणुअ ' [दे] १ प्राकृति, प्राकार। २ पुंस्त्री. ५५; गा ६६१)। हुअा। रिउ पुं [रिपु] एक अन्तकृद् मुनि धान्य-विशेष (दे १. ५२; श्रा १८)। अणिरिण वि [अनृण] ऋण-वजित, उऋण, (अन्त ३)। | अणुअ वि [अनुग] अनुसरण करनेवाला, अनृणी (प्रभि ४६, चारु ६६)। अणीस वि[अनीशाडस माफिक नहीं. 'अधम्मारगए' (विपा १,१)। अणिरुद्ध वि [अनिरुद्ध] १ अप्रतिहत, नहीं विलक्षण (स ३०७) । अणुअ वि [अनुज] १ पीछे से उत्पन्न । २ पुं. रोका हा । (सूअ १, १२)। २ एक अन्त- | अणीय न [अनोक सेना, लश्कर (प्रोप)। छोटा भाई । ३ स्त्री. छोटी बहिन (अभि ८२ कृद् मुनि (अन्त ।)। अणीयस पुं[अनीयस] एक अन्तकृद् मुनि का पउम २८,१००)। अणिल पुं [अनिल] १ वायु, पवन (कुमा)। नाम (अन्त ३)। अणुअंच सक [ अनु + कृष् ] पीछे खींचना। २ एक प्रतीत तीर्थकर का नाम (तित्थ)। ३ । २ अणीस वि [अनीश असमर्थ (अभि६०)।। जणासावअनाश असमथ (आभ६०)। सकृ.अणुआचाव (भवि)। राक्षस-वंशीय एक राजा (पउम ६, २६४)। अणीसकड देखो अणिस्सकड (धर्म २)। अणुअंप सक [ अनु + कम्प] दया करना । अणिला स्त्री [अनिला] बाईसवें तीर्थंकर की | अणीहा रम वि [अनिॉरिम] गुफा प्रादि में कृ. अणुअंपणिज (हास्य १४४)। एक शिष्या (पव ६)। | होनेवाला मरण-विशेष (भग १३, ८)। अणुअंपा स्त्री [अनुकम्पा] दया, करुणा (से अगिल्ल न [दे] प्रभात, सबेरा (दे १,१६)। अणु अ [अनु] यह अव्यय नाम और धातु के अणिस न [अनिश] निरन्तर, सदा, हमेशा | साथ लगता है और नीचे के अर्थों में से किसी अणुअंपि वि [अनुकम्पिन] दयालु, करुणा (गा २६२, प्रासू २६)। एक को बतलाता है; १ समीप, नजदीका करनेवाला (अभि १७३)। अणिसट्ठ वि [अनिसृष्ट] १ अनिक्षित । 'अरणकुंडल' (गउड)। २ लघु, छोटाः 'अरण अणुअत्तय वि [अनुवर्तक] अनुकूल आचरण अणिसिट्ठ २ असंमत, अननुज्ञात । ३ ऐसी गाम' (उत ३)। ३ क्रम, परिपाटी; 'अणुगुरु करनेवाला अनुसरण करनेवाला (विसे भिक्षा, जिसके मालिक अनेक हों और जो सब की (बृह १)। ४ में, भीतर 'अणुजत्त' (महा)। ३४०२)। अनुमति से ली न गई हो; साधु की भिक्षा का ५ लक्ष्य करना, 'अणु जिणं अकारि संगीयं अणुअत्ति देखो अणुवत्ति (पुप्फ ३२६) । एक दोष (पिंड औप)। इत्थीहिं' (कुमा); 'अणु धार संदट्ठभमोत्तिए अणुअर वि [अनुचर] १ सहायताकारी, सहअणिसीह वि [अनिशीथ शास्त्र-विशेष, जो तुह असिम्मि सञ्चविया' (गउड)। ६ योग्य, चर (पान) । २ सेवक, नौकर (प्रामा)। प्रकाश में पढ़ा या पढ़ाया जाय (प्रावम)। उचितः 'अरणजुत्ति' (सूत्र १,५,१)। ७ वीप्सा, | अणुअर वि [अनुचर] अनुसरण-कर्ता (हास्य अणिस्सकड वि [ अनिश्रीकृत ] जिस पर । 'अरणदिरण' (कुमा)। ८ बीच का भाग, ‘अणु- १२१)। दिसी' (पि ४१३)। ६ अनुकूल, हितकरः किसी खास व्यक्ति का अधिकार न हो, सर्व अणुअल्ल न [दे] प्रभात, सुबह (दे १, १६)। 'अणुधम्म' (सूत्र १,२,१)। १० प्रतिनिधि, साधारण (धर्म २)। अणुआ स्त्री [दे] लाठी (दे १, ५२)। 'अरणप्पभु' (निचू २)। ११ पीछे, बादः 'अरणअणिस्सा स्त्री [अनिश्रा] अनासक्ति, आसक्ति अणुआर पुं[अनुकार] अनुकरण (नाट) । मजरण' (गउड)। १२ बहुत, प्रत्यंत; अगवंक' का प्रभाव (उव)। अणुआरि वि [अनुकारिन् अनुकरण करने(मा ६२)। १३ मदद करना. सहायता करनाः वाला (नाट)। अणिस्सिय बि [अनिश्रित] १ अनासक्त, 'अणपरिहारि' (ठा ३,४)। १. निरर्थक भी अणुआस पुं [अनुकास] प्रसार, विकास प्रासक्तिरहित (सूत्र १, १६)। २ प्रतिबन्ध- इसका प्रयोग होता है, देखो अणुकम', 'अणु- (णाया १,१)। रहित, रुकावटरहित (दस !)। ३ अनाश्रित, सरिस'। अणुइअ पुंदे] धान्य-विशेष, चना (दे किसी के साहाय्य को इच्छा न रखनेवाला | अणु वि [अणु] १ थोड़ा, अल्प (पराह २,३)। (उत्त १६)। ४ न. ज्ञान-विशेष, अवग्रह-ज्ञान । २ छोटा (प्राचा)। ३ पुं. परमाणु (सम्म अणुइअ देखो अगुदिय । का एक भेद, जो लिंग या पुस्तक के बिना ही १३६)। "मय वि [ मत] उत्तम कुल, श्रेष्ठ अणुइण वि (अनुकीर्ण] १ व्याप्त, भरा हुआ। होता है (ठा ६)। बंश (कप्प)। "विरइ स्त्री [विरति देखो। २ नहीं गिरा हुमा, अपतितः 'अवाइएगपत्ता अणिह वि [अनीह] १ धीर, सहिष्णु (सूत्र । देसविरइ (कम्म १, १८)। अणुइएणपत्ता निद्ध यजरढपंडुपत्ता (प्रौप)। For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो अणुइण्ण-अणुगच्छ अणुइण्ण वि [अनुद्गीर्ण] बाहर नहीं निकला अणुकंपि वि [अनुकम्पिन] १ दयालु, कृपालु अणुकुण सक [अटु + कृ] अनुकरण करना । हुआ (प्रोप)। (माल ७२)। २ भक्ति करनेवाला (सूत्र अणुकुणइ (विक्र १२६)। अणुइण्ण देखो अणुचिण्ण। १, ३, २)। अणुकूल देखो अणुऊल (हे २, २१७) । अणुइण्ण देखो अणुदिण्ण। अणुकंपिअ बि [अनुकम्पित] जिस पर अनु- | अणुकूलण न [अनुकूलन] अनुकूल करना, अणुऊल वि [अनुकूल] अप्रतिकूल, अनुकूल कम्पा की गई हो वह (नाट)। प्रसन्न करना; 'तं कहइ । तम्मझे जिद्रुमुखी (गा ५२३)। तचित्तणुकूलणत्थं जं' (सुपा २३४) । अणुकड्ढ सक [अनु + कृप्] १ खींचना। अणुऊल सक [अनुकूलय ] अनुकूल करना। अणुकूलि वि [अनुकूलिन] अनुकूल-कारक, २ अनुसरण करना। वकृ. अणुकढमाण, भवि. अणुऊलइस्सं (पि ५२८)। अणुकड्ढेमाण (विपा १, १; णंदि)। 'सुहथिरजोगारणुकूलियो भरिणया' (संबोध २)। अणुओअ [अनुयोग] १ व्याख्या, टीका, अणुक्कंत वि [अन्वाक्रान्त प्राचरित, अनुसूत्र का विस्तार से अर्थ-प्रतिपादन (प्रोध २)। अणुकड्ढि स्त्री [अनुकृष्टि] अनुवर्तन, अनु ष्ठित (प्राचा)। २ पृच्छा, प्रश्न (अभि ४४)। सरण (पंच ५)। अणुक्त वि [अनुक्रान्त] आचरित, विहित, अणुओइय वि [अनुयोजित] प्रवर्तित, प्रवृत्त | अणुकड्ढिय वि [अनुकृष्ट] अनुकृत, अनुसृत अनुष्ठित; 'एस विही अणुकते माहणेणं मइकराया हुआ (णंदि)। (स १८२)। मया (प्राचा)। अणुओग देखो अणुओअ (विसे ६)। अणुकप्प पुं [अनुकल्प] १ बड़े पुरुषों के मार्ग | अणुक्कम सक [अनु + क्रम् ] क्रम से कहना। अणुओग पुं[अनुयोग सम्बन्ध (गु १७)। का अनुकरण । २ वि. महापुरुषों का अनुकरण | भवि. अणुकमिस्सामि (जीवस १)। अणुओगि पुं [अनुयोगिन] सूत्रों का व्या- करनेवाला, 'णारगचरगड्ढगाणं पुवायरियारण अणुक्कम सक [ अनु + क्रम् ] अतिक्रमण ख्याता प्राचार्य, 'अणोगी लोगाणं कल संसय- अणुकित्ति कुणइ, अणुगच्छइ गुणधारी, अणु __करना । वकृ. अणुक्कमंत (गूअ १, ५, १, रणासो दढं होइ' (पंचव ४)। कप्पं तं वियारणाहि' (पंचभा)। अणुओगिअ वि[अनुयोगिक] दीक्षित, मुनि- अणुकम पूं[अनुक्रम] परिपाटी, क्रम (महा)। | अणुक्कम देखो अणुकम (महा: नव १६) । शिष्य (णंदि)। । सो अ[शस् ] क्रम से, परिपाटी से अणुक्कमण न [अनुक्रमण] गमन, गति, अणुओयण न [अनुयोजन] संबन्धन, जोड़ना (जी २८)। (सूत्र १, ५, २, २१)। (विसे १३८५)। अणुकर सक [अनु + कृ] अनुकरण करना, अणुक्कुइअ वि [अनुकुचित थोड़ा संकुचित अणुकंप सक [अनु+कम्प्] १ दया करना। नकल करना । अणुकरेइ (स ४३६)। (पव ६२)। २ भक्ति करना । ३ हित करना । वकृ. अणु अणुकरण न [अनुकरण] नकल (वव ३ । । अणुक्कोस पुं[अनुक्रोश] दया, करुणा कंपंत (नाट)। कृ. अणुकंपणिज्ज, अणु अणुकह सक [अनु + कथय् ] अनुवाद करना, (ठा ४, ४) । कंपणीअ (अभि ६४: रयरण १५)। पीछे बोलना। अणुक्कोस पुं [अनुत्कर्ष] १ उत्कर्ष का अणुकण न [अनुकथन] अनुवाद (सूत्र १, अणुकंप वि [अनुकम्प्य] अनुकम्पा के योग्य अभाव । २ बि. २ उत्कर्षरहित (भग ८, (दे १, २२)। १०)। अणुकार ( [अनुकार अनुकरण, नकल अणुक्खित्त वि [अनुरिक्षप्त] ऊंचा न किया अणुकंप । वि [अनुकम्प, क] १ दयालु, अणुकंपय ) करुण । २ भक्त, भक्तिमान् (उत्त (कप्पू)। हुआ, 'दिटुं धणुक्खित्तमुहं एसो मग्गो कुल१२); 'हिप्राणुकंपएण देवेणं हरिणगमेसिरणा' अणुकारि वि [अनुकारिन] अनुकरण करने वहूणं' (गा ५२६)। (कप्प) । ३ हितकर, 'प्रायाणुकंपए णाममेगे, वाला, 'किन्नराणुकारिणा महुरगेएण' (महा)। अणुग वि [अनुग] अनुचर, नौकर (दे ७, नो पराणुकंपए' (ठा ४, ४)। अणुकिइ स्त्री [अनुकृति] अनुकरण, नकल; ६६) । अणुकंपण न [अनुकम्पन] १ दया, कृपा (वव पुवायरियाणं नाणग्गहणेण य तवोविहाणेसु अणुग वि [अनुग] अनुसरण-कर्ता (गच्छ ३)। २ भक्ति, सेवा; 'माउअणुकंपगट्ठाए' य अणुकिई करेई' (पंचू)। ३, ३१)। अणुकिण्ण वि[अनुकीर्ण व्याप्त, भरा हुआ | अणुगंतव्व देखी अणुगम = अनु + गम् । अणुकंपा स्त्री [अनुकम्पा] ऊपर देखो (रणाया (पउम ६१, ७)। अणुगंपा स्त्री [अनुकम्पा] करुणा, दया (स १, १); 'पायरियणुकंपाए गच्छो अणुकंपिनो अणुकित्तण न [अनुकीर्तन] वर्णन, प्रशंसा, १५८)। महाभागो' (कप्प-टी)। दाण न [°दान] श्लाघा (पउम ६३,७३)। अणुगंपिय वि [अनुकम्पित] जिस पर करुणा से गरीबों को अन्न आदि देना, 'अण- अणुकित्ति देखो अणुकिइ (पंचभा)। करुणा की गई हो वह (स ४७५) । कंपादाणं सड्ढयारण न कहिपि पडिसिद्ध' अणुकुइय वि [अनुकुचित] १ पीछे फेंका अणुगच्छ देखो अणुगम = अनु + गम् । अणु(धर्म २)। | हुपा । २ ऊंचा किया हुआ (निचू ८)। गच्छइ वकृ. अणुगच्छंत, अणुगच्छमाण For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ अणुगच्छण-अणुग्घायण पाइअसद्दमण्णवो (नाटा सूत्र १,१४) । कवकृ. अणुगच्छित वकृ. अणुगवेसेमाण (भग 7, ५)। कृ विच्छाएइ मियंक, तुसार(गाया १,२)। संकृ. अणुगच्छित्ता (कप्प)। अणुगवेसियव्व (कस)। वरिसो अणुगुणेवि' (गउड)। अणुगच्छग देखो अणुगमग (पुप्फ ४०८)। अणुगह देखो अणुग्गह = अनु + ग्रह (नाट)। अणुगुरु वि [अनुगुरु] गुरु-परम्परा के अनुअणुगच्छिर वि [ अनुगामिन् ] अनुसरण अणुगाहअ देखो अणु गाहअ (दे ८, २६) । सार जिस विषय का व्यवहार होता हो वह करनेवाला (सरण)। अणुगाम पुं[अणुग्राम] १ छोटा गाँव, (उत्त (बृह १)। अणुगन्ज प्रक [अनु +गर्ज ] प्रतिध्वनि ३)। २ उपपुर, शहर के पास का ग.व (ठा अणुगूल वि [अनुकूल] अनुकूल (स ३७८)। करना, प्रतिशब्द करना। वकृ, अणुगज्जे६,२) । ३ विवक्षित गाँव से दूसरा गांव, अणुगेज्झ वि [अनुग्राह्य अनुग्रह के योग्य, माण (णाया १, १८)। 'गाभाणुगाम दुइजमाणे' (विपा १, १; प्रौपः आचा)। कृपा-पात्र (प्राप)। अणुगम सक [अनु + गम्] १ अनुसरण करना, पीछे-पीछे जाना । २ जानना, समअणुगामि ) वि [अनुगामिन् , मिक] अणु अणुगेण्ह देखो अणुग्गह = अनु + ग्रह । अणुगामिय) १ अनुसरण करनेवाला, पीछे अणुगेरहंतु (पि ५१२) । झना । ३ व्याख्या करना, सूत्र के अर्थों का पीछे जानेवाला (प्रौप) । २ निर्दोष हेतु, शुद्ध अणुग्गह सक [ अनु + ग्रह ] कृपा करना, स्पष्टीकरण करना। कर्म. अणुगम्मइ (विसे कारण (ठा ३, ३)। ३ अवधिज्ञान का एक मेहरबानी करना। कृ अणुग्गहइदम्व, अणु६१३) । ववकृ. अणुगम्मंत, अणुगम्ममाण भेद (कम्म १, ८)। ४ अनुचर, सेवक (सू गाहिदव्य (शौ) (नाट)। (उप ६ टी सुपा ७८२०८)। संकृ. अणुगम्म १, २, ३)। अणुग्गह पुं [अनुग्रह] १ कृपा, मेहरबानी (सूप १, १४)। कृ. अणुगंतव्य (सुर ७, अणुगारि वि [अनुकारिन् ] अनुकरण (कप्पू)। २ उपकार (औप)। ३ वि. जिस १७६; पण्ण १)। करनेवाला, नकालची (महा; धर्मः ५, स पर अनुग्रह किया जाय वह (बव १)। अणुगम पुं [अनुगम] १ अनुसरण, अनुवर्तन अणुग्गह पुं [अनवग्रह] जैन साधुओं को (दे २,६१)। २ जानना, ठीक-ठीक समझना, अणुगिइ स्त्री [अनुकृति] अनुकरण, नकल रहने के लिए शास्त्र-निषिद्ध स्थान, निश्चय करना (ठा १)। ३ सूत्र की व्याख्या, (श्रा १)। 'गो गोयरे पो वरणगोणियाणं, पो बद्ध सूत्र के अर्थ का स्पष्टीकरण (वव १)। ४ अणुगिण्ह देखो अणुग्गह = अनु + ग्रह । वकृ. दुति य जत्थ गावो । अन्वय, एक की सत्ता में दूसरे की विद्यमानता अणुगिण्हमाण, अणुगिण्हेमाण (निर १, अराणत्थ गोणेहिसु जत्थ खुएणं, स उग्गहो (विसे २६०)। ६ व्याख्या, टीका (विसे १३ १ पाया १, १६)। सेसमणुग्गहो तु' (बृह ३)। ५७); अणुगम्मइ तेण तहिं, तो व अणुगमअणुगिद्ध वि [अनुगृद्ध] अत्यन्त आसक्तः, अणुग्गहिअ) वि [अनुगृहीत] जिस पर रणमेव वाणुगमो । 'अणुणोणुरूवो वा, जं अणुग्गहीअ कृपा की गई हो वह, प्राभारी लोलुप (सूत्र १,७)। सुत्तत्थाणमणुसरणं' (विसे ६१३)। अणुग्गिहीअ) (महाः सुपा १६२; स ६७)। अणुगिद्धि स्त्री [अनुगृद्धि] प्रत्यासक्ति (उत्त अणुगमण न [अनुगमन ऊपर देखो। अणुग्घाइम न [अनुद्धातिम] १ महा-प्राय श्चित का एक भेद (ठा ३,४)। २ वि. महाअणुगमिअ वि [अनुगत] अनुसृत (कुप्र अणगिल सक [अन + ग] भक्षण कर प्रायश्चित का पात्र (ठा ३,४)। ४३)। संर. अणुगिलित्ता (गाया १, ७)। अणुग्घाइय वि [अनुदातिक] १ अनुद्घातिक अणुगमिर वि [अनुगन्तु] अनुसरण करनेअणुगिहीअ वि [अनुगृहीत] जिस पर मेह नामक महा-प्रायश्चित का पात्र (ठा ५, ३)। वाला (दे ६, १२७)। रबानी की गई हो वह (स १४, १६३)। २ न. ग्रन्थांश-विशेष, जिसमें अनुद्घातिक अणुगय वि [अनुगत १ अनुसृत, जिसका अणुगीय वि [अनुगीत] १ पीछे कहा हृया, प्रायश्चित का वर्णन है (पएह २, ५) । अनुसरण किया गया हो वह (पएह १, ४)। अनूदित । २ पूर्व ग्रन्थकार के भाव के अनुकूल २ ज्ञात, जाना हुआ (विसे)। ३ अनुवृत्त, जो अणुग्धाय वि [अनुद्धात] १ उद्घात-रहित। किया हुअा ग्रन्थ, व्याख्यान आदि (उत १३)। पूर्व से बराबर चला पाया हो (पराह १, २ न. निशीथ सूत्र का वह भाग, जिसमें अनु३ जिसका गान किया गया हो वह, कीतित, द्घातिक प्रायश्चित्त का विचार है। 'उग्घायम३)। ४ प्रतिक्रान्त (विसे ६५६)। वरिणत । ४ न. गाना, गीत; 'उजाणे 'मत्त- गुग्घायं आरोवरण तिविहमो निसीहं तु' अणुगर देखो अणुकर। अरणुगरेइ (स ३३४)। | भिंगाणुगीए' (पउम ३३, १४८)। (प्राव ३)। वकृ. अणुगरिंत (स ६८)। अणुगुण वि [अनुगुण] १ अनुकूल, उचित, अणुग्घाय न [अनुद्घात] गुरु-प्रायश्चित्त अणुगरण देखो अणुकरण (कुप्र १७६)। योग्य (नाट) । २ तुल्य, सदृश गुरगवाला; (वव १)। अणुगवेस सक [अनु + गवेष ] खोजना, जाण अलंकारसमो, विहवो अणुग्घायण न [अणोद्धातन] कर्मों का नाश शोधना, तलाश करना । अणुगवेसइ (कस)। मइलेइ तेवि वढंतो। (प्राचा)। ३२)। For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ अगचीति देखो अणुचिंत। पाइअसद्दमहण्णवो अणुग्घास-अणुट्ठा अणुग्घास सक [ अनु + ग्रासय ] खीलाना, अणुचिय वि [अनुचित] अयोग्य (बृह १)। अणुजाय बि [अनुजात] १ पोछे से उत्पन्न। भोजन कराना; 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा अणुचीइ र २ सदृश, तुल्यः ‘वसभागुजाए' (मुज १२) । साइमं वा अणुग्घासेज वा अणुपाएज वा' अणुजीव सक [अनु+जीव ] आश्रय करना। (निसी ७) । वकृ. अणुग्घासंत (निचू ७)। अणुच वि [अनुच्च] ऊंचा नहीं, नीचा। अरगजीवंति (उत्त १५, १४)।... कुइय वि[कुचिक] नीची और अस्थिर अणुचय पुं[अनुचय] फैलाकर इकठ्ठा करना अणु जीवि वि [अनु जीविन] १ आश्रित, शय्या वाला (कप्प)। (उप पृ १५)। नौकर, सेवकः ‘पयईए चिय अगजीविवच्छले' अणुच्छहंत व [अनुत्सहमान] उत्साह नहीं अणुचर सक [अनु + चर् ] १ सेवा करना। (सुग ३३७: पानः स २४३)। तण न रखता हुअा (पउम १८,१८)। २ पीछे-पीछे जाना, अनुसरण करना। ३ [व] पाश्रय, नौकरी (पि ५६७)। अनिछत्त वि [अनुत्क्षिप्त नहीं छोड़ा हुआ, अनुष्ठान करना । अणुचरइ (पारा :) । अरण अणुजुंज सक [अनु + युज] प्रश्न करना। अध्यक्त (गउड २३८)। चरंति (स १३०)। कर्म. अणुचरिजइ। (विसे कर्म. अणुजुजते (धर्मसं २९३) । अणु पछत्त वि [अनुत्थित] १ गर्व-रहित, २५५४)। वकृ. अणुचरंत (पुप्फ ३१३) जत्ति स्त्री [अनुयुक्ति] योग्य युक्ति, उचित संकृ. अणुचरित्ता (चउ १४)। विनीत । २ स्फीत, समृद्ध । ३ सब से उन्नत, | न्याय (सन १, ३, ३)। अणुचर देखो अणुअर (उत्त २८)। सर्वोच्च, 'पडिवद्धं नवर तुमे, नरिदचकं पयाव- अणुजेदृ वि [अनुज्येष्ट] १ बड़े के नजदीक अणुचरग वि [अनुचरक सेवा करनेवाला विवडाप । गहवलयमणाच्छत्त धुवव्व; परियत्तइ | का (पात्रम)। २ छोटा, उतरता (पउम २२, परिद' (गउड)। (पत्र ६६)। ७६)। अणुचरिय वि [अनुचरित] अनुष्ठित, विहित, अणुच्छूढ वि [अनुक्षिप्त प्रत्यक्त, नहीं | अणु जोग देखो अणुओअ (ठा १.)। छोड़ा हुआ (गा ५२६)। किया हुआ (कप्प)। अणुज्ज वि [अनूज] उत्साह-रहित. अनुत्साही, अणज पुं[अनुज छोटा भाई (स ३८८)। हताश (कप्प)। अणुचि सक[अनु + च्य ] मरना, एक जन्म से दूसरे जन्म में जाना । संकृ. अणुचि " अणुजत्त न [अनुयात्र] यात्रा में, 'अएणया | अणुज वि [अनोजस्क] तेजरहित, फीका; अगुजत्तं निग्गो पेच्छइ कुसुमियं चूयं' (महा)। 'अणुजं दीररावयणं बिहरई' (कप) । ऊण (महा)। अणु जत्ता स्त्री [अनुयात्रा निर्गम, निःसरण अणुचिंत सक [अनु + चिन्त् ] विचारना, अणुज वि [अनूद्य] उद्देश्य, लक्ष्य (धर्म १)। (पिड ८८)। याद करना, सोचना। अणुचिते (संथा ६६)। अणुज्जा स्त्री [अनुज्ञा] अनुमति, सम्मति (पउम अणुजा सक [अनु + या] अनुसरण करना, वकृ. अणुचिंतेमाण (णाया १,१)। संकृ. ३८, २४)। पीछे चलना । अणुजाइ (विसे ७१६)। अणुचीइ, अणुचीति, अणुवीइ (प्राचा; सून अणुज्जा देखो अणोजा (आचा २, १५, ३)। १, १, ३, १३; दस ७)। अणुजाइ वि [अनुयायिन् ] अनुसरण करने- अणुजय वि [अनूर्जित] बल-रहित, निर्बल वाला (सुपा ४०५)। (बृह ३)। अणुचितण न [अनुचिन्तन] सोच-विचार, पर्यालोचन (आव ४)। अणुजाइ स्त्री [अनुयाति] अनुसरण (धर्म- अणुज्जुय वि[अनृजुक असरल, वक्र, कपटी वि ४६)। (गा ७८६)। अणुचिंता श्री [अनुचिन्ता] ऊपर देखो (पाव अणुजाण न [अनुयान १ पीछे-पीछे चलना। अणुज्झा सक [अनु + ध्या] चिन्तन करना, २ महोत्सव-विशेष, रथयात्रा (बृह १)। ध्यान करना । संकृ. अणुज्माइत्ता (आवम)। अणुचिट्ठ सक [अनु + स्था] १ अनुष्ठान अणुजाण सक [अनु + ज्ञा] अनुमति देना, अणुज्माण न [अनुध्यान] चिन्तन, विचार करना । २ करना । अणुचिट्टइ । (महा)। सम्मति देना। अणुजारगइ (उब)। भूका. (आवम)। अणुचिण्ण वि [अनुचीणे] १ अनुष्ठित, पाच- अगुजारिणत्या (पि ५१७)। हेकृ. अणुजा- अणुझा देखो अणुझा। वकृ. अणुभारत रित, विहितः 'मोहतिगिच्छा य कया, विरियागित्तए (ठा २,१)। (कुमा)। यारो य अणुचिएणो' (ग्रोध २४६) ।२ प्राप्त, अणुज णण न [अनुज्ञान] अमुमति, सम्मति | अणुझिअअ वि [दे] १ प्रयत, प्रयान-शील । मिला हुआ; 'कायसंफासमणुचिरणा एगइया (मून १, ६)। २ जागता, सावधान ( पड् )। पारणा उद्दाइया' (प्राचा) । ३ परिणमित अणुजाणावण न [अनुज्ञापन अनुमति लेना, अणुझिज्जिा वि अनुक्षयिन] क्षीण होने(जीव १)। अग जारणावरणविहिगा' (पंचा६.१३)। वाला (वजा १,२)। अणुचिण्णव वि [अनुचीर्णवत ] जिसने अणुजाणिय वि [अनुज्ञात सम्मत, अनुमत | अणु? वि [अनुत्य] नहीं उठा हुआ, स्थित अनुष्ठान किया हो वह (प्राचा)। (मुपा ५८४)। (ग्रोघ ७०)। अणुचिन्न देखो अणुचिण (सुपा १६२ - अणुजाय वि [अनुयात] १ अन्गत, अनुसूत । अणदा अणुजाय वि [अनुयात] १ अनुगत, अनुसृत अणुद्वा सक [अनु+स्था] १ अनुष्ठान करना, रयण ७५, पुष्फ ७५)। (उप १३७ टी)। | शास्त्रोक्त विधान करना। २ करना। कृ. अणु Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुट्ठाइ-अणुदिन्न पाइअसहमहण्णवो ३७ ट्ठियव्य, अणुढे अ (सुपा ५३७; सुर १४, अणुगीअ वि [अनुनीत] जिसका अनुनय अणुताव पुं[अनुताप] पश्चात्ताप (पानः स किया गया हो वह (दे ८, ४८) । १८४)। अणुटाइ वि [अनुष्टायिन् अनुष्ठान करने- अणुणेत देखो अणुगी। अणुतावय वि [अनुतापक] पश्चात्ताप करानेवाला (प्राचा)। | अणुण्णय बि [अनुन्नत] १ नीचा, नम्र (दस | बाला (सूअ २, ७,८)। अणुटाग न [अनुष्ठान] १ कृति। २ शास्त्रोक्त ५, १)। २ गवरहित, निरभिमानीः एत्थवि अणुतावि देखो अणुतप्पि (अ ७२८ टी)। विधान (आचा)। भिक्खू अरणगरगए विरणीए' (गून १, १६)। अणुत्त वि [अनुक्त अकथित (पंच ५) । अणुदाण न [अनुत्यान] क्रिया का प्रभाव अणुण्णव सक [ अनु + ज्ञापय ] १ अनु- अणुत्तंत देखो अणुवत्त। (उवा)। मति देना । २ अाज्ञा देना, हुकुम देना । कर्म, अणुत्तप्प वि [अनुत्त्रप्य] १ परिपूर्ण शरीर । अणुट्ठावग न [अनुष्टापन] अनुष्ठान कराना अणुराणविज इ (उवा) । वकृ. अणुणवेमाण २ पूर्ण शरीरवाला, 'होइ अगुत्तप्पो सो अत्रि(कस)। (ठा ६)। कृ. अणुण्णवेयव्य (ोघ ३८५ गलइंदियपडिप्पुराणो' (वव २)। अणुट्रिय वि [अनुष्ठित विधि से संपादित, टी)। संकृ. अणुगवित्ता, अणुष्णविय अणुत्तर वि [अनुत्तर] १ सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम विहित, किया हुआ (षड् : सुर ४, १६६)। (प्रावमः प्राचा २, २, ६)। (ठा १०)। २ एक सर्वोत्तम देवलोक का अणुट्रिय वि [अनुत्थित] १ बैठा हुअा। २ | अणुण्णवणया । स्त्री [अनुज्ञापना] १ अनु- नाम (अनु)। ३ छोठा, 'अणुत्तरो भाया' पालसी, प्रमादी (प्राचा)। अणुग्णवमा मति, सम्मति । २ आज्ञा, (पउम ६, ४) । ग्गा स्त्री [प्रया] एक अणुट्रियव्व देखो अणुदा । फरमाइश (सम ४४; अोध ३८४ टी)। पृथिवी, जहाँ मुक्त जीवों का निवास है (सूप अणुठुभ न [अनुष्टप] एक प्रसिद्ध छंद, अणुण्णव गी स्त्री [अनुज्ञापनी] अनुमति-प्रका १,६) । गाणि वि-[ज्ञानिन] केवलज्ञानी 'पञ्चक्खरगणणाए अण्ट ठुभारणं हवंति दस शक भाषा. अनुमति लेने का वाक्य (ठा ४,३)। (सूस १, २, ३)। "विमाण न [विमान सहस्सा (सुपा ६५६)। अणुण्णा स्त्री [अनुज्ञा] १ अनुमति, अनुमोदन एक सर्वोत्कृष्ट देवलोक (भग ६,६)। विवाइय अगु?अ देखो अणुट्ठा (सूत्र-२,२) । २ प्राज्ञा। कप्प [कल्प] वि [ोपपातिक ] अनुत्तर देवलोक में अणुण देखो अणुणी । अण्णह (भवि)। जैन साधुनों के लिए वस्त्र-पात्रादि लेने के विषय उत्पन्न (अनु) । बवाइयदसा स्त्री. ब. अणुणंत देखो अणु गी। में शास्त्रीय विधान (चभा)। [ पपातिकदशा] नववा जैन अंग-ग्रंथ अणुणय पुं[अनुनय विनय, प्रार्थना (महा: अणुण्णा स्त्री [अनुज्ञा] १ पठन-विषयक (अनु)। अभि ११९)। गुरु-आज्ञा-विशेष (अणु ३)। २ सूत्र के अर्थ का अणुत्याण देखो अणुट्ठाण (स ६४६)। अणुणाइ वि [अनुनादिन] प्रतिध्वनि करने | अध्ययन (वव १)। वाला, 'गजियसहस्स अण्णाइणा' (कप्प)। अणुस्थारय वि [अनुत्साह] हतोत्साह, निराश अणुग्णाय वि [अनुज्ञात] १ जिसको आज्ञा अणुणाय पुं[अनुनाद] प्रतिध्वनि. प्रतिशब्द दी गई हो वह । २ अनुमत, अनुमोदित (ठा अणुदत्त पुं[अनुदात्त] नीचे से बोला जाने(विसे ३१०४)। अणुणाय वि [अनुज्ञात] अनुमत, अनुमोदित अणुण्ह वि [अनुष्ण] ठंडा, जो गरम नहीं है वाला स्वर (बृह १)। वह (पि ३१२)। अणुदय (पंचू)। [अनुदय] १ उदय का अभाव । अणुणास पुन [अनुनास] अनुनासिक, जो अणुतड पुं[अनुतट] भेद, पदार्थों का एक २ कर्म-फल के अनुभव का प्रभाव (कम्म २, नाक से बोला जाता है वह अक्षर । २ वि. जाति का पृथक्करण; जैसे संतप्त लोहे को १३, १४, १५)। सानुस्वार, अनुस्वार-युक्त (ठा ७); कागस्सर- हथौड़े से पीटने से स्फुलिंग (चिनगारी) पृथक् । अणुदवि न [दे] प्रभात, सुबह (दे १, १६)। मणुणासं च' (जीव ३ टी)। होते हैं (ठा ५)। अणुदिअ वि [अनुदित] जिसका उदय न अणुगासिअ [अनुनासिक] देखो ऊपर का | अणुतडिया स्त्री [अनुतटिका] | ऊपर देखो हुआ हो (भग)। पहला अर्थ (वजा ६)। (पएण ११)। २ तलाव, द्रह आदि का भेद अणुदिअस न [अनुदिवस] प्रतिदिन, हमेशा अणुगी सक [अनु + नी] १ अनुनय करना, (भास ७)। (नाट)। विनय करना, प्रार्थना करना। २ समझाना, अणुतप्प अक [ अनु+तप् ] अनुपात करना, अणुदिज्जंत वि [अनुदीयमान] उदय में न दिलासा देना, सान्त्वना देना । वकृ. अणुणंतः पछताना । अरणुतप्पइ (स १८४)। प्राता हुआ (भग)। 'पुरोहियं तं कमसोगुणतं' (उत्त १४: भवि); अणुनप्पि वि [अनुतापिन] पश्चात्ताप करने- अणु दिग न [अनुदिन प्रतिदिन, हमेशा अणुगत (गा ६०२)। कवकृ. अणुणिज्जंत, वाला (वव)। (कुमा)। अणुणिजमाण, अणुगीअमाण (सुपा ३६७; अणताव सक [ अनु + तापय ] तपाना । अणुदिण) वि [अनुदित] १ उदय को से २,१६, पि ५३६)। संकृ. अणुतावित्ता (सूम २, ४,१०)। अणुदिन्न अप्राप्त । २ फल-दान में अतत्पर For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ हो । ( भग (कर्म) (भग १, २, ३); 'उदिएगा = उदित' (भाग १, ४, ७ टी) । अणुदिण्णव [अनुदीरित] १ जिसकी अणुदिन्न । उदीरणा दूर भविष्य २ जिसकी उदीरणा भविष्य में न हो १, ३) । अदिवि [अनुदित ] उदय को 'मिच्छत्तं जमुदिन्नं तं खीणं प्रगुदियं च उबसंत' (भग १, ३ टो) । दहन [दिवस ] प्रतिदिन, हेमेशा (सुर १, ११५). प्राप्त [ ] प्रभात प्रातः काल ( प‍ ) । अणुदिसा स्त्री [ अनुदिक ] विदिक्, अणुदिसी ईशान कोण श्रादि विदिशा (विसे २७००टी०६८, ४१३, कप्प ) । अणुद्दि [ अनुद्दिष्ट] जिसका उद्देश्य न किया गया हो वह (पग्रह २, १) । अणुद्धिय वि [अनुद्धृत] १ जिसका उद्धार न किया गया हो वह । २ बाहर नहीं निकाला हुया, 'जं कुरण भावसल्लं अशुद्धियं इत्थ सव्वमूल' (श्रा ४० ) । अणुद्ध्य वि [अनुद्भूत] अपरित्यक्त, नहीं छोड़ा हुआ (कप्प ) । पाइसम धम्म पुं [ अणुधर्म] गृहस्थ धर्मं (विसे) । अणुधम् पुं [अनुध ] ग्रनुकूल - हितकर धर्मः ' सोधम्मो मुणा पवेइया' ( सूत्र १२, १) । चारित्रि [ चारिन ] हितकर धर्म का अनुयायी, जैन-धर्मी (सूत्र १, २, २) । अम्मियवि [अनुधार्मिक ] धर्म के अनुकूल, धर्मोचितः 'एयं खु प्रधम्मियं तस्स' ( श्राचा) । अणुधाविर वि [अनुधावितृ] पीछे दौड़नेवाला (उप ७२८ टी) । अणुनाइ वि [अनुनादिन ] प्रतिध्वनि करने वाला (कप्प ) । अणुपवा वि [अनुप्रवाचयितृ] पढ़ानेवाला, पाठक, उपाध्याय (ठा ५, २) । अणुन्नत्रणी देखो अणुण्णवणी (ठा ४, १) । अन्ना देखो अण्णा (सुर ४, १३३३ प्रासू १८१) । अणुन्नाय देखो अणुष्णाय (प्रोध १: महा) । अणुपवाय देखो अणुत्पवाय = अनुप्र + वाचय् । अणुद्ध वि [अनूर्ध्व] ऊंचा नहीं, नीचा अणुपंथ पुं [अनुपथ] १ समीप का मार्ग अणुपविट्ठ वि [अनुप्रविष्ट] पीछे से प्रविष्ट (कुमा) । ( गाया १, १ कप्प ) । अणुद्धवि [अनुद्धत] सरल, भद्र, विनयी ( उप ७६८ टी) । ( कस) । २ मार्ग के समीप, रास्ता के पास (बृह २ ) । अणुद्धरि पुं [ अनुद्धरिन् ] एक क्षुद्र जन्तु, कुंथु (कप्प) । अणुनाय वि [ अनुज्ञात] श्रनुमत, जिसको अनुमति दी गई हो वह 'आहवणे मोकलयं अनायाए तर नाह' (सुपा ४७७ ) । अनास देखो अगास ( जीव ३ टी ) । अणुन्नव देखो अणुण्णव । वक्रू. अणुन्नवेमाण (ठा ५, ३) । कृ. अणुन्नवेयन्त्र ( कल ) । कृ. अणुन्नवेत्ता ( स ) । अन्ना देखो अण्णा ( श्रोघ ६३०; कस) । अणुपन्त वि [अनुप्राप्त ] प्राप्त, मिला हुआ (सुर ४, २११) । अणुपन्न वि [ अनुपन्न ] प्राप्त ( कुत्र ४०१ ) । अणुपयट्ट वि [अनुप्रवृत्त ] अनुसृत, अनुगत (महा) । पान [अनुदान ] दान का बदला प्रतिग्रहरण (संबोध ३४ ) । अणुदिण्ण - अणुपालणा अणुपरिवट्ट देखो अणुपरियट्ट= अनुपरि + वृत् । वकृ. अणुपरिमाण (पि २८९ ) । अणुपरिवाडि, 'डी स्त्री [अनुपरिपाटि, टी] अनुक्रम (से १५. ६६० पउम २०, ११, ३२, १९ ) । अणुपरिहारि वि [ अणुपरिहारिन् 'परिहारी' को मदद करनेवाला, त्यागी मुनि की सेवा-शुश्रूषा करनेवाला (ठा ३, ४) । अणुपरिहारि वि [अनुपरिहारिन् ] ऊपर देखो (ठा ३, ४ ) | अणुपवन्न वि [ अनुप्रपन्न ] प्राप्त (सू २, ३, २१) । For Personal & Private Use Only परिस [ अनुपरि + अट् ] घूमना, परिभ्रमण करना । संकृ. अणुपरियट्टित्ताणं 'देवे णं भंते महिड्दिए, पभू लवणस परियट्टित्ताणं हवसागच्छितए ?' (भग १८, ७) । कृ. अणुपरियट्टियन्त्र (गाया १, ६) । हेकृ. अणुपरियट्टेडं (गाया १, ६) । अणुपरियट्ट [अक [अनुपरि + वृत् ] फिरना, फिरते रहना 'दुक्खागमेव श्रावट्ट अगुपरियई । (श्राचा) । वकृ. अणुपरियट्टमाण श्राचा) । संकृ. अणुपरियट्टित्ता ( प ) । अणुधाव सक [अनु + धाव् ] पीछे दौड़ना । अणुपरियहृण न [ अनुपर्यटन ] परिभ्रमण a. अणुधावंत (से४, २१) । अणुधावण सक [अनुधावन ] पीछे दौड़ना अणुपरियदृण न [अनुपरिवर्तन ] परिवर्तन, अणुपालणा देखो अगुवालणा (विसे २५२० (मुपा ५०३) । फिरना (भग १, । (सूत्र १, १, २) । टी) । अणुपविस सक [ अनुप्र + विश् ] १ पीछे से प्रवेश करना। २ प्रवेश करना, भीतर जाना । पविस ( कप ) । वक्रु. अणुपवसंत ( नि २ ) । सं. अणुपविसित्ता (कप्प) । अणुपवेस पुं [अनुप्रवेश] प्रवेश, भीतर जाना। (निचू ७) । अणुस सक [ अनु + दृश् ] पर्यालोचन करना, विवेचना करना । संकृ. अणुपस्सिय ( सूत्र १,२, २ ) । अणुपस्सि वि [ अनुदर्शिन् ] पर्यालोचक, विवेचक (प्राचा) | अणुपाल सक [ अनु + पालय् ] १ अनुभव करना । २ रक्षण करना । ३ प्रतीक्षा करना, राह देखना । श्रगुपालेइ (महा); वकृ. 'सायासम् अणुपाते' (पक्खि); अणु पालित, अणुपामा (महा) । संकृ. अणुपालेऊण, अणुपालित्ता, अणुपा लिय (महा कप्प पि ५७०)। अणुपालण न [अनुपालन ] रक्षण, प्रतिपालन (पंचभा) । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ अणुपालिय-अणुबंधेल्ल पाइअसद्दमहण्णवो अणुपालिय वि [अनुपालित] रक्षित, प्रति- अणुप्पभु पुं[अनुप्रभु] स्वामी के स्थानापन्न, अणुप्पेसिय वि [अनुप्रेपित] पीछे से भेजा पालित (ठा ८)। प्रतिनिधि (निचू २)। हुआ (नाट)। अणुपास देखो अणुपस्स। वकृ.अणुपासमाण | अणुप्पया देखो अणुप्पदा। अणुप्पएइ (कस)। अणुप्पेह सक[अनुप्र + ईक्ष ] चिन्तन करना, (दसचू २)। हेकृ. अणुप्पयाउं (उदा)। विचारना अणुप्पेहंति (पि ३२३) । कृ. अणुअणुपिट्ठ न [अनुपृष्ठ] अनुक्रम, 'अणुपिट्ठः अणुप्पयाण देखो अणुप्पदाण (आचा)। प्पेहियब (पंसू १)। सिद्धाई' (सम्म)। अणुप्पवत्त सक [अनुप्र + वृत् ] अनुसरण अणुप्पेहा स्त्री [अनुप्रेक्षा] चिन्तन, भावना, अणुपिहा देखो अणुपेहा (द्रव्य ३५)। करना । हेकृ. अणुप्पवत्तए (विमे २२०७)। विचार, स्वाध्याय-विशेष (उत्त २९) । अणुपुंख न [अनुपुत] मूल तक, अन्त-पर्यन्तः अणुप्पवाइत्तु । वि [अनुप्रवाचायत अणुप्फास पुं[अनुस्पर्श] अनुभाव, प्रभावः 'अरणपुंखमावडंतावि प्रावया तस्स ऊसवा हुंति' | अणुप्पवाएत्तु ) अध्यापक, पाठक, पढ़ानेवाला 'लोहस्सेव अणुप्फासो मन्ने अन्नयरामवि' (कुप्र ३३)। (ठा ५, १: गच्छ १)। (दस ६)। अणुपुव्व वि [अनुपूर्च] क्रमवार, प्रानुक्रमिक र अणुप्पवाद पुं[अनुवाद] कथन (सूअ २, अणुफुसिय वि [अनुप्रोञ्छित] पोंछा हुप्रा, (ठा ४, ४)। क्रिवि. क्रमशः (पाप)। सो साफ किया हुआ (स ३४४)। [शस्] अनुक्रम से (प्राचा)। अणुप्पवाय सक[अनुप्र+वाचय ] पढ़ाना। अणुबंध सक [ अनु + बन्ध ] १ अनुसरण अणुपुव्व न [आनुपूर्व्य] क्रम, परिपाटी, अनुवकृ. अणुप्पवाएमाण (जं ३)। करना । २ संबन्ध बनाये रखना। अणुबंधंति अणुप्पवाय न [अनुप्रवाद] नववा पूर्व, बारक्रम (राय)। (उत्तर ७१)। वकृ. अणुबंधंत (वेरणी १८३)। अणुपुव्वी स्त्री [आनुपूर्वी] ऊपर देखो (पास)। हवें जैन अंग-ग्रन्थ का एक अंश-विशेष (ठा है)। कवकृ. अणुबंधीअमाणः अणुबंधिज्जमाण अणुपेक्खा स्त्री [अनुप्रेक्षा] भावना, चिन्तन, | अणुप्पविट्ठ देखो अणुपविट्ठ (कस)। विचार (पउम १४, ७७)। (नाट)। हेकृ. अणुबंधिहूँ (शौ) (मा ६)। अणुप्पवित्ति स्त्री [अनुप्रवृत्ति] अनुप्रवेश, । अनुगम (विसे २१६०)। अणुबंध पुं [अनुबन्ध] १ सततपन, निरन्तअणुपेहण न [अनुप्रेक्षण] ऊपर देखो (उप अणुप्पविस देखो अणुपविस। अगप्पविसइ | रता, विच्छेद का प्रभाव (ठा ६ उवर १२८)। १४२ टी)। (उवा) । संकृ. अणुप्पवेसेत्ता (निचू १)। २ संबन्ध (स १३८: गउड)। ३ कमों का अणुपेहा स्त्री [अनुप्रेक्षा] ऊपर देखो (पि अणुप्पवेस देखो अणुपवेस (नाट)। संबन्ध (पंचा १५)! ४ कर्मों का विपाक, ३२३)। अणुप्पवेसण न [अनुप्रवेशन] देखो अणुप- परिणाम (उबर ४, पंचा १८)। ५ स्नेह, अणुपेहि वि [अनुप्रेक्षिन] चिन्तन-कर्ता | वेस (नाट)। प्रेम (स २७६), (सूम १, १०,७)। अणुप्पसाद (शौ) सक [अनुप्र + सादय् ] 'नयरगाण पडउ वजं, प्रहह्वा वजस्स अणुप्पइन्न वि [अनुप्रकीर्ण] एक दूसरे से | प्रसन्न करना । अणुप्पसादेदि (नाट)। वडिलं किपि । मिला हुआ, मिश्रित (कप्प)। अणुप्पसूय वि [अनुप्रसूत] उत्पन्न, पैदा | अमुरिणयजणेवि दिट्ठ', अणुबंध जाणि कुवंति अणुप्पणी सक [अनुप्र + णी] १ प्रणय किया हुआ (प्राचा)। (मुर ४, २०)। ६ शास्त्र के प्रारम्भ में कहने करना। २ प्रसन्न करना। वकृ. अणुप्पणंत अणुप्पाइ वि [अनुपातिन्] युक्त, संबद्ध, । लायक अधिकारी, विषय, प्रयोजन और संबन्ध (उप पृ २८)। संबन्धी (निचू १)। (प्राव १)। ७ निबन्ध, प्राग्रह (स ४५८)। अणप्पिय वि [अनुप्रिय अनुकूल, इष्ट (सूम अणुप्पगंथ [अणप्रग्रन्थ] सन्तोषी, अल्प परि अणुबंध वि [अनुबन्धक] अनुबन्ध करने१, ७)। ग्रह वाला (ठा है)। वाला (नाट)। 'अणुप्त वि [अनुत्प्रयत् ] दूर करता, अणुप्पगंथ वि [अनुप्रग्रन्थ] ऊपर देखो | अणुबंधण न [अनुबन्धन] अनुकूल बन्धन हटाता हुआ; (उत्त २६, ४५, सुख २९, ४५)। (ठा )। जम्मि अविसरणहिययत्तोरण ते अणुप्पण्ण वि [अनुत्पन्न] अविद्यमान (नीचू अणुबंधणा स्त्री [अनुबन्धना] अनुसन्धान, गारवं वलरगति । विस्मृत अर्थ का सन्धान (पंचा १२,४५)। तं विसममणुप्तो गरुयाण विही खलो होइ' अणुप्पत्त देखो अणुपत्त (कप्प) । अणुबंधि वि [अनुबन्धिन] अनुबन्धवाला, (गउड)। अणुप्पदा सक [अनुप्र+दा] दान देना, फिर- अणुप्पेच्छ देखो अणुप्पेहः । अनुबन्ध करनेवाला (धर्म २ स १२७) । फिर देना । अणुप्पदेड (कस)। कृ. अणुप्प- 'तह पुव्विं किं न कयं, न वाहए अणुबंधिअ न [दे] हिका-रोग, हिचकी (दे दायव्य (कस) । हेकृ. अणुप्पदाउं (उवा)। जेरण मे समत्थोवि । १, ४४)। अणुप्पदाण न [अनुप्रदान दान, फिर-फिर एम्हि किं कस्स व कुणिमोत्ति धीरा ! अणुबंधेल्ल वि [अनुबन्धिन] विच्छेद-रहित, दान देना (प्राव ६)। अणुप्पेच्छ' (उव)। अनुगमवाला, अविनश्वर (उप २३३) । For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० अणुवाह } अनुबद्ध वि [ अनुबद्ध] १ बंधा हुआ, संबद्ध (से ११,६०)। २ सतत, अतिवेरा परपर वेय उदीरेंति' ( परह १, १ ) । ३ व्याप्त ( गाया १२) ४ प्रतिबद्ध ( गाया १, २ ) । ५ बहुत निरंतर राह १, १) । ६ उत्पन्न ( उत्तर १२ ) । अबद्ध [ अनुबद्ध] १ ग्रनुगत (पंचा ६, वि २७) । १ पीछे बंधा हुआ (सिरि ४४४ ) । अणुबूह देखो अणुवूह अणुभवि [अनुद्भट ] श्रनुद्धत, श्रनुत्वरण ( उत्त २ ) । | अणुब्भूय वि [अनुभूति] अप्रकट, अनुत्पन्न ( नाट) । अणुभअ देखो अणुभव = अनुभव (नाट) । अनुभव सक [ अनु + भू ] १ अनुभव करना, जानना, समझना । २ कर्मफल को भोगना । (पि४७५) सं. अणुभविज, अनुभवित्ता १ १ . अणुभविडं (नाटप ( उत्त १८ ) । अणुभव पुं [अनुभव ] १ ज्ञान, बोध, निश्रय (५) का भोग (से)। अनुभव [अनुभवन] उपर देखो (घा ४: वि २०६०) । अणुभवि वि [अनुभविन] अनुभव करनेवाला (बिसे १६५८) । अणुभव वि [अनुभव्य ] प्रसन्न भव्य ( संबोध ५४ ) | पाइअसमण्णवो अणुभावग वि [अनुभावक] बोधक, सूचक (धाम)। अणुभास तक [ अनु+भाष्] अनुवाद करना, कही हुई बात को उसी शब्द में, शब्दान्तर में या दूसरी भाषा में कहना । २ चिन्तन करना, 'aryभासद व मा ३) । व अणुभासयंत, अणुभासमाग २५१२) । १०४ अणुभाग [ अनुभाषण] अनुवाद उक्त बात का कहना (नाट) । ] अणुभासणा स्त्री [अनुभाषणा] ऊपर देख (ठा ५, ३ विसे २५२० टी) । अणुभासय वि [अनुभाषक ] अनुवादक, अनुबाद करनेवाला (विसे ३२१७) । अणुभासदंत देखो अणुभास अणुर्भुज सक [ अनु + भुज् ] भोग करना । वकृ. अणुर्भुजमाण ( सं १९ ) । अणुभाग [अनुभाग] १ प्रभाव माहात्म्य ( १.५१) २ शनि साम (२) । ३ कर्मों का विपाक -फल (सूत्र १, ५, १) । ४ कर्मों का रस, कर्मों में फल उत्पन्न करने की शक्ति वा रोधगुभागों (कम्म १.२ दी शक्तिः 'तारा रसो प्रणुभागो' (कम्म १, २ टी | ११) । ४, [["बन्ध] कर्ममें फल उत्पन्न करने की शक्ति का बनना (ठा २) । अणुभाय [अनुभाव ] १-४ ऊपर देखा अणुभाव f (प्रासू ३५० ठा ३, ३: गउडः श्राचा, सम ) । ५ मनोगत भाव की सूचक बेटा, जैसे भौंह का चढ़ाना वगैरह (नाट) । ६ कृपा, मेहरबानी ( स ३५५) । (४७५) व अनुभवत अणुभू श्री [अनुभूति] अनुभव (जिसे अणुमा अनुमाय् ] शोभित होना, चमकना । संकृ. अणुमालिवि ( भवि ) । अनुमिण सक [अनु+मा] घटकल से जानना । कर्म. अमिरिणजइ ( धर्मंसं १२१६), मी (दसनि ४,३०) १९११) | अणुभूय वि [ अनुभूत ] ज्ञात निश्चित (महा) पुत्र वि [ पूर्व ] पहले ही जिसका अनुभव हो गया हो वह (गाया १, १ ) । अणुभूस स [ अनु + भूप] भूषित करना शोभित करना । प्रभूसेदि (शौ) (नाट) । अणुम स्त्री [अनुमति] अनुमोदन, सम्मति (पार)। मेरो पलिया है (सुर ४, १४२ महा गामि वि [गामिन] पीछे-पीछे जानेवाला ( पि ४०५ ) । अणुमज्ज सक [ अनु + मस्ज् ] विचार अणुमा दमा, अनुमोदन करना। करना । संक्रू अणुमज्जत्ता ( जीवस १६६ ) । अणुमण्ण ) सक [अनु + मन] अणुवन्न } अनुमति अणुमर पक [अनु] सेना पीछेपीछे मरना; 'इय पारंपरमरणे प्रणुमरइ सहवो जान (पिंड २७४) । [ अणुमंत देखो अणुमा (विसे १६६० ) । [ अणुममान [] पीछे-पीछे एवं विचित अणुबम अनुपा लिग चरणमति (बाउ १५) - श्ररणरिहि (२२) अमरण न [ अनुमरण] ऊपर देखो (गउड) । अणुमहत्तर वि [ अनुमहत्तर ] मुखिया का प्रतिनिधि (निच् ३) । For Personal & Private Use Only अणु मण्णे, अणुमन्नइ (पि ४५७; महा ) । वकृ. | अणुमण्गमाण ( उवर ३१) । संकृ. अणमन्त्रिण (महा) 1 अणुमन्निय) वि [अनुमत] अनुमोदित, अणुमन्त्रिपरि[ अनुमत] अनुमोदित, अणुमय ) सम्मत ( उप पृ २६१) । अमर क [ अनु + मृ] १ मरना । २ सती होना, पति के मरने से मर जाना; के अनुमान [अनुमान] १ घटकल ज्ञान हेतु के द्वारा अज्ञात वस्तु का निर्णय ( गा ३४५३ ठा ४, ४) । अणुभाग [ अनुमान ] अभिप्राय-जान ( १.१३,२०) २ अनुसार (२७) अणुमाण सक [ अनु + मानय् ] अनुमान करना । संकृ. अणुमाणइत्ता (वव १) । अणुमा वि [ अणुमात्र ] बहुत थोड़ा थोड़ा परिमाणवाला ( दस ५, २) । 2 अमेअ व [अनुमेय] अनुमान के योग्य (मै ७३) । अणुमेरा श्री [अनुमर्यादा] मर्यादा हद ( कस) । मोइत्र [अनुमोदित] अनुमत संमत प्रशंसित (बाउर भवि अणुमय तक [अनु + मुद्] अनुमति देना, प्रशंसा करना मोय (उम (चउ ५८ ) । अणुमोयग वि [अनुमोदक ] अनुमोदन करने वाला (विसे)। अणुमोयण न [अनुमोदन ] अनुमति, सम्मति, प्रशंसा ( उवः पंचा ६ ) । अणुम्मुक्त वि [ अनुन्मुक्त ] नहीं छोड़ा हुआ (ver t, v) 1 - अणुम्मुह वि [अनुन्मुख] संवि "काही चिट्ठामिति (महा) - अणुय पुं [ अणुक ] धान्य- विशेष ( पत्र १५६ ) । अणुपा देतो अनुकंपा २१४) 1 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ अणुयत्त-अणुवच्चिअ पाइअसद्दमहण्णवो अणुयत्त देखो अणुवत्त = अनु + वृत् । अणु- अणुरागय वि [अन्वागत] १ पीछे पाया अणुलोम सक [अनुलोमय् ] १ क्रम से यत्ता (भवि)। वकृ. अणुयत्तंत, अणुयत्त- हुआ। २ ठीक-ठीक आया हुमा। ३ न. । रखना । २ अनुकूल करना । संकृ. अणुलोममाण (पंचभा; विसे १४५१)। संकृ. अणु- स्वागत (भग २, १)। इत्ता (ठा ६) यत्तिऊण (गउड)। अणुरागि देखो अणुराइ (महा)। अणुलोम न [अनुलोम] १ अनुक्रम, यथाक्रमः अणुयत्त देखो अणुवत्त = अनुवृत्त (भवि)। | अणुराय देखो अणुराग (प्रासू १११)। अणुराय देखो अणुराग (प्रासू १११)। 'वत्थं दुहागलोमेण तह य पडिलोमयो भवे अणुयत्तणा स्त्री [अनुवर्तना] १ बीमार की | अणुराहा स्त्री [अनुराधा नक्षत्र-विशेष (सम वत्थं' (सुर १६, ४८)। सेवा-शुश्रूषा करना (बृह १)। २ अनुसरण । अणुलोम वि [अनुलोम] सीधा, अनुकूल ३ अनुकूल वर्तन (जीव १)।. अणुरंध सक [अनु + रुध] १ अनुरोध (जं २) अणुयत्तिय वि [अनुवृत्त अनुकूल किया करना। २ स्वीकार करना। ३ आज्ञा का अणुल्लग देखो अणुल्लय (सुख ३६, १३०)। हुआ, प्रसादित (सुपा १३०)। पालन करना। ४ प्रार्थना करना। ५ अक. अगुल्लण वि [अनुल्बण] अनुद्धत, अनुद्भट अणुयरिय वि [अनुचरित] आचरित, अनु अधोन होना। कर्म. अणुरुधिजइ (हे ४, २४८ (बृह ३) ष्ठित (णाया १, १) प्रामा)। | अणुल्लय पुं [अनुल्लक] एक द्वीन्द्रिय क्षुद्र जन्तु अणुया देखो अणुण्णा (सूत्र २, १)। अणुरूअवि [अनुरूप] १ योग्य, उचित (उत्त ३६) अणुयाव देखो अणुताव (स १८३)। अणुरूव ।(से ६, ३६)। २ अनुकूल (सुपा | अणुल्लाव पुं [अनुल्लाप] खराब कथन, दुष्ट अणुयास पुं [अनुकाश] विशेष विकास ११२) । ३ सदृश, तुल्य (गाया १, १६) । व्य (णाया १, १६)। उक्ति (ठा ३)। (णाया १,१)। ४ न. समानता, योग्यता (सम्म) अणुव पुंदे] बलात्कार, जबरदस्ती (दे १, अणुरंगा स्त्री [दे] गाड़ी (बृह १)। अणुरोह पुं[अनुरोध] १ प्रार्थना, 'ता ममा गुरोहेण एत्थ घरे निच्चमेव प्रागंतव्वं' (महा)। अणुरंगि वि [अनुरङ्गिन ] अनुकरण-कर्ता गतव्य (महा)। अप अणुवइट्ट वि [अनुपदिष्ट] १ अ-कथित, अ२ दाक्षिण्य, दक्षिणता (पास)।. व्याख्यात । २ जो पूर्व-परम्परा से न माया हो, (सुज १०, ८)। अणुरोहि वि [ अनुरोधिन् ] अनुरोध करने- 'अगवट्ठ' नाम जं जो पायरियपरंपरागयं अणुरंगिय वि[अनुरङ्गित रंगा हुआ (भवि)। वाला (स १२१)।। (नीचू ११) अणुरंज सक अनु + रञ्जय् ] अनुरागी | अलग्ग वि [अनुलग्न] पीछे लगा हुआ (गा | अणुवउत्त वि [अनुपयुक्त] असावधान करना, प्रीरिणत करना। वकृ. अणुरंजअंत ३४५, सुर ३, २२६७ सूक्त ७) (विसे)। (नाट)। संकृ. अणुरंजिअ (नाट)। अणुलद्ध वि [अनुलब्ध] १ पीछे से मिला अणुवएस पुं[अनुपदेश] १ अयोग्य उपदेश अणुरंजण न [अनुरञ्जन राग, आसक्ति (विसे ! हुआ । २ फिर से मिला हुआ (नाट)। (पंचा १२)। २ उपदेश का प्रभाव । ३ २६७७)। कअणुलाव पुं [अनुलाप] फिर-फिर बोलना अणुरंजिएल्लय । वि [अनुरञ्जित] अनुरक्त अणुरंजिय अणुवओग वि [अनुपयोग] १ उपयोग-रहित। (ठा ७)। किया हुआ, अनुरागी बनाया अणुलिंप सक [अनु + लिप्] १ पोतना, २ उपयोग का प्रभाव, असावधानता (अणु)।। हुआ (जं ३, महा)। लेप करना । २ फिर से पोतना। संकृ. अणु- अणुवंक वि [अनुवक्र] अत्यंत वक्र, बहुत अणुरक्क वि [अनुरक्त] अनुराग-प्राप्त, प्रेम लिंपित्ता (पि ५८२)। हेकृ. अणुलिंपित्तए टेढ़ा; 'जाव अंगारप्रो रासि विश्र अणुवंकं परिप्राप्त (नाट)। (पि ५७८)। गमणं ण करेदि' (माल ६२)। अणुरज्ज अक [अनु + रङ्ग् ] अनुरक्त अणुलिपण न [अनुलेपन] लेप, पोतना (पएह अणुवंदण न [अनुवन्दन] प्रति-नमन, प्रतिहोना, प्रेमी होनाः 'अणुरजंति खणेणं जुवईउ २, ३)।४ खणेण पुण विरजंति' (महा)। प्ररणाम (साधं ३६) अणुलित्त वि [अनुलिप्त] लिप्त, पोता हुआ अणुवक देखो अणुवंक (पि ७४)। अणुरत्त देखो अणुरक्क (णाया १, १६)। अणुवक्ख वि[अनुपाख्य] नाम-रहित, अनिअणुरसिय वि [अनुरसित] बोलाया हुआ, अणुलिह सक [ अनु + लिह.] १ चाटना । वंचनीय (बृह १) आहूत (गाया १, ६)। २ छूना। वकृ. अणुलिहंत (सम १३१); | अणुवक्खड वि [अनुपस्कृत] संस्कार-रहित अणुराइ 1 वि [अनुरागिन् ] अनुराग- ‘गयणयलमणुलिहंत' (पउम ३६, १२) (पाक) (निचू १)। अणुराइल्ल) वाला, प्रेमी (स ३३०० महा: अणुलेवण न [अनुलेपन] १ लेप, पोतना अणुवञ्च सक [अनु + व्रज् ] अनुसरण सुर १३, १२०)।। (स्वप्न १४)। २ फिर से पोतना (पएण २) करना, पीछे-पीछे जाना। अणुवञ्चइ (हे ४, अणुराग पुं[अनुराग प्रेम, प्रीति (सुर ४, अणुलेविय वि [अनुलेपित] लिप्त, पोता हुआ; १०७)। २२८)। 'कम्माणुलेविनो सो' (पउम ८२, ७४) अणुवञ्चिअ बि [अनुव्रजित] अनुसृत (कुमा)/ For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ पाइअसद्दमहण्णवो अणुवजीवि-अणुवालण अणुवजीवि वि [अनुपजीविन्] १ अना- अणुबत्तणा स्त्री [अनुवर्त्तना] ऊपर देखो अणुवह न [अनुपथ] पीछे, 'कुमराणवहेण श्रित । २ आजीविका-रहित (पंचा १५)।। (उवर १४८)। सो लग्गो ' (उप ६ टी) । अणुवजुत्त वि [अनुपयुक्त] असावधान, | अणुवत्तय देखो अणुवत्तगः 'अन्नमन्नच्छंदाणु- अणुवहण न [अनुवहन] वहन, 'तवोवहाणंख्याल-शून्य (अभि १३१) । वत्तया' (णाया १, ३)। सुयाणमणुवहणं' (ध्रु १३५) । अणुवज सक [गम् ] जाना। अणुवजइ (हे अणुवत्ति स्त्री [अनुवृत्ति १ अनुसरण (स | अणुवह्य वि [अनुपहत] अविनाशित ४, १६२) | ४५६) । २ अनुकूल प्रवृत्ति । ३ अनुगम (विसे | अणुवज्ज सक [दे] सेवा-शुश्रूषा करना (दे ७०५)। | अणुवहुआ स्त्री [दे] नवोढ़ा स्त्री, दुलहिन (दे अणुवत्ति वि [अनुवतिन् ] अनुकूल प्रवृत्ति | अणुवजण न [दे] सेवा-शुश्रूषा (दे १,४१)। करनेवाला, भक्त, सेवकः । अनुवाइ वि [ अनुपातिन् ] १ अनुसरण अणुवजिअ वि [दे] जिसकी सेवा-शुश्रुषा | 'तुह चंडि ! चलणकमलाणुवत्तिणो कह करनेवाला (ठा)।२ सम्बन्ध रखनेवाला की गई हो वह (दे १, ४१) । ण संजमिजंति ।M (सम १५)। अणुवजिअ वि [दे] गत, गया हुआ (दे सेरिहवहसंकियमहिसहीरमाणेण व जमेण' अणुवाइ वि [ अनुवादिन् ] अनुवाद करने (गउड)।. वाला, उक्त अथं को कहनेवाला (सूत्र १, अणुवट्ट देखो अणुवत्त = अनु + वृत्। कृ. | अणुवत्ति वि [अनुवतिन् ] ऊपर देखो | १२ सत्त १४ टी। अणुवट्टणीअ (नाट)। (धर्भवि ५२; मोह १०२)। अणुवाइ वि [अनुवाचिन् ] पढ़नेवाला, अणुवट्टि देखो अणुवत्ति = अनुवतिन् (विसे | अणुवम वि [अनुपम] उपमा-रहित, बेजोड़, अभ्यासीः 'संपुन्नबीसवरिसो अणुवाई सव्वसु२४१७)। अद्वितीय (श्रा २७)। तस्स' (सत्त १४ टी)। भणुवड सक [अनु + पत् ] अभिन्न होना। अणुवमा स्त्री [अनुपमा] एक प्रकार का खाद्य | अणुवाएज वि [अनुपादेय] ग्रहण करने अणुवडइ (उवर ७१)। द्रव्य (जीव ३)। के अयोग्यः (प्रावम)। अणुवडिअ वि [अनुपतित पीछे गिरा हुआ | अणुवमिय वि [अनुपमित] देखो अगुवम अणुवाद देखो अणुवाय = अनुवाद (बिसे (हम्मीर ५०)। (सुपा ६८) ३५७७) । अणुवत्त सक [अनु + वृत्] १ अनुसरण अणुवय देखो अणुव्वय (पउम २, ९२) अणुवादि देखो अणुवाइ = अनुपातिन् (उत्त करना। २ सेवा-शुश्र षा करना। ३ अनुकूल अणुवय सक [अनु + वद् ] अनुवाद करना, बरतना। ४ व्याकरण आदि के पूर्व सूत्र के कहे हुए अर्थ को फिर से कहना । वकृ. अणु- अणुवाय पुं[अनुपात १ अनुसरण (पएरण पद का, अन्वय के लिए नीचे के सूत्र में वयमाण (प्राचा) . १७) । २ संबन्ध, संयोग (भग १२, ४)। जाना। प्रणवत्तइ (स ४२)। वकृ. अणुक्त, | अणुवरय वि [अनुपरत] १ असयत, अनि- ३ अागमन (पंचा ७) । अणुवतंत, अणुवत्तमाण (प्रातः विसे ग्रही (ठा २, १)। २ क्रिवि. निरन्तर. हमेशा अणुवाय पुं [अनुवात] १ अनुकूल पवन ३५६८) नाट)। कृ. अणुवट्टणीअ, अणु- (रयण २५) ।। (राय) । २ वि. अनुकूल पवन वाला प्रदेशवत्तणीअ,अणुवत्तियव्व (नाट; उप १०३१ अणुवलद्धि स्त्री [अनुपलब्धि] १ अभाव, स्थान (भग १६, ६) टी)। अप्राप्ति। २ अभाव-ज्ञानः 'दुविहा अणुवलद्धीउ अणुवाय वि [अनुपाय] उपाय-रहित, निरुअणुवत्त वि [अनुवृत्त] अनुत्पन्न (पिंड (विसे १६८२) । पाय (उप पृ १४)। अणुवलब्भमाण वि [अनुपलभ्यमान] जो अणुवाय पुं [अनुवाद] अनुभाषण, रक्त बात अणुक्त्त वि [अनुवृत्त] १ अनुसृत, अनुगत। उपलब्ध न होता हो, जो जानने में न प्राता को फिर से कहना (उवाः दे १, १३१)।। २ अनुकूल किया हुआ । ३ प्रवृत्त (वव २)। हो (दसनि १) अणुवायण न [अनुपातन अवतारण, उताअणुवत्तग वि [अनुवर्तक] अनुकूल प्रवृत्ति अणुवलेवय वि [अनुपलेपक] उपलेप-रहित, रना (धर्म २)। करनेवाला, सेवा करनेवाला (उव)। अलिप्त (पएह १,२)। अणुवायय वि [अनुवाचक] कहनेवाला, अणुवत्तग वि [अनुवर्तक] अनुसरण-कर्ता अणुवसंत वि [अनुपशान्त] प्रशान्त, कुपित | अभिधायक, 'पोसहसद्दो रूढीए एत्थ पव्वाणु(सूत्र १, २, २, ३२)। (उत १९)। वायत्रो भणियो' (सुपा ६१९)। अणुवत्तण न [अनुवर्त्तन] १ अनुसरण (स अणुवसम पुं[अनुपशम] उपशम का प्रभाव | अणुवाल देखो अणुपाल । वकृ. अणुवालेत २३६) । २ अनुकूल प्रवृत्ति (गा २६५)। ३ (उव) ।। (स २३) । संकृ. अणुवालिऊण (स १०२)। पूर्व सूत्र के पद का अन्वय के लिए नीचे के अणुवसु वि [अनुवसु] रागवाला, प्रीतिवाला अणुवालण न [अनुपालन] रक्षण, परिपालन सूत्र में जाना (विसे ३५६८)। (माचा) (प्राचा)। For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुवालणा- अणुसज्ज अणुवाणी [अनुपालना] १ ऊपर देखो (पं) । २ [कल्प ] साधु-गरण के नायक की अकस्मात मृत्यु हो जाने पर गण की रक्षा के लिए शास्त्रीय विधान (पंचभा) । अणुवालय वि [अनुपालक ] १ रक्षक, परिपालक । २ पुं. गोशालक के एक भक्त का नाम (भग २४, २० ) 1 अणुवास सक [ अनु + वासय् ] व्यवस्था करना । श्रणुवासेनासि (चाचा) अणुवास वुं [अनुवास] एक स्थान में श्रमुक काल तक रह कर फिर वहीं वास करना (पंचभा) 1 अणुवासन [अनुवासन] १ ऊपर देखो । २ यन्त्र द्वारा तेल श्रादि को प्रपान से पेट में चढ़ाना (गाया १, १३) । [अनुवासना ] ऊपर देखो (पंचभा गाया १, १३) कप्प पुं [कल्प ] अनुवास के लिए शास्त्रीय व्यवस्था (पंचभा) । अणुवास वि [ अनुपासक ] १ सेवा नहीं करनेवाला । २ पुं. जैनेतर गृहस्थ (निचू ८) । अणुवासर न [ अनुवासर] प्रतिदिन, हमेशा (सुर १, २४१) । अणुवित्ति स्त्री [अनुवृत्ति ] १ अनुकूल वर्तन (कुमा) । २ अनुसरण (उप ८३३ टी) । ' अणुद्धि [अनुविद्ध] संबद्ध, जुड़ा हुआ ( से ११, १५) । अणुविस सक [ अनु + विश् ] प्रवेश करना । विसंति (सिक्खा ७७ ) 1 अणुविहाण न [अनुविधान] १ अनुकरण । २ अनुसरण (विसे २०७) । अणुवीs स्त्री [अनुवीचि] अनुकूलता, 'वेयागुवीई मा कासि चोइच्तो गिलाइ से भुजो ' ( सू २, ४, १, १९ ) 1 अणुवीडू श्र [अनुविचिन्त्य ] विचार अणुवीई कर, पर्यालोचना कर (पि ५६३३ अणुवीति श्राचाः दस ७) | देखो अणुअणुवीतिय चिंत अणुइ } देखो अणुवी (सूत्र १, १२, अणुत्रीय २१, १०, १ ) अणुवूह सक [ अनु + बृंह ] श्रनुमोदन करना, प्रशंसा करना । श्रृवहे (कप्प ) । पाइअसद्दमहणवो ४३ न अणुवहेत्तु वि [अनुबृंहित] अनुमोदन करने अणुव्विवाग [अनुविपाक ] विपाक के अनुसार, 'एवं तिरिक्खे मरणयासुरेसु चउरं तांत तयविवागं ( सू १, ५, २) वाला (ठा ७ ) I सक agrats देखो अणुवीइ (जीव ) V अणु संक्रम [ अनुसं + क्रम् ] अनुसरण करना । संकमंति (उत्त १३,२५) । अणुसंग [अनुष] १ प्रसंग, प्रस्ताव (प्रसू ३६, भवि ) । २ संसर्ग, सोहबत; 'मज्झठिई पुरण एसा प्रसङगेणं हवन्ति गुण-दोसा' (सट्टि २८ २७ ) IV वेन [अनुवेदन] फल भोग, अनुभव (स ४०३) IV अणुसंगिअ वि [आनुषङ्गिक ] प्रासङ्गिक (प्रवि १५) । अणुवेल म्र [अनुवेल ] निरन्तर, सदा (पा)IM अणुवेलंधर पुं [अनुवेलन्धर ] नाग-कुमार देवों का एक इन्द्र (सम ३३ ) | अणुवेह देखो अणुप्पेह । वकृ. अणुवेहमाण ( सू २,१०) IV अणुव्वइय वि [ अनुव्रजित ] अनुसृत ( स ६८७) IV अणुसंचर सक [ अनुसं + चर् ] १ परिभ्रमण करना । २ पीछे चलना । प्ररसंचरइ ( श्राचाः सूत्र १, १०) 1 अणुसंज देतो अणुसज्जा असं जंति (पव ६८) IN | अणुव्वज सक [ अनु + व्रज् ] १ अनुसरण करना । २ सामने जाना । श्ररगुज्जे (सूत्र १, ४, १, ३) । अणुव्वय न [ अणुव्रत ] छोटा व्रत, साधुओं के महाव्रतों की अपेक्षा लघु व्रत, जैन गृहस्थ के पालने के नियम (ठा ५, १) 1 अणुसंघ सक [अनुसं + धा] १ खोजना, ढूंढना, तलाश करना। २ विचार करना । ३ पूर्वापर का मिलान करना । अणुसंमि (पि ५०० ) । संकृ. अणुसंधिवि ( भवि ) । अणुसंघण न [ अनुसंधान ] गवेषणा, अणुसंघाण ) खोज (संबोध ४४) । २ पूर्वापर की संगति (धर्मसं ३०३) अणुसंघण न [अनुसंधान] १ खोज, अणुसंधान शोध । २ विचार, चिन्तनः 'प्रत्तागुसंधरणपरा सुसावगा एरिसा हुति' ( श्रा २० ) । ३ पूर्वापर का मिलान (पंचा १२) वन [अनुव्रत] ऊपर देखो (ठा ५, अणुब्वय पुं [अणुव्रत ] श्रावक-धर्मं (पंचा १) १०, ८) वन [अनुव्रजन] अनुगमन (धर्मवि अणुव्वयय वि [अनुव्रजक ] अनुसरण करने ५४) 1 वाला, 'अन्नमन्नमरगुच्वया' (गाया १, ३) । अणुव्वया स्त्री [अनुव्रता ] पतिव्रता स्त्री ( उत्त २० ) IV अणुवेद सक [अनु + वेदय् ] अनुभव करना । वकृ. अणुवेदयंत (सूत्र १, ५, १) उग्णुवेध ) पुं [अनुवेध ] १ अनुगम, श्रन्वय, सम्बन्ध ( धर्मसं ७१२; ७१५) । २ संमिश्रण (पिंड ५६ ) IV [अ] प्रधीन, श्रायत्त, 'एवं तुब्भे सरागत्था श्रन्नमन्नमव्वसा' ( सू २, ३, ३) IV अणुव्वाण वि [अनुद्वान] १ प्रबन्ध, खुला हुआ (उप २११ टी ) । २ स्निग्ध, चिकना 'पव्वा किचिउवाणमेव किचिच होमर - aari (श्रोध ४८८ ) IV अणुव्विग्ग वि [अनुदुद्विन] खिन्न, खेदरहित (गाया १, ८ मा २८५) For Personal & Private Use Only अणुसंधिअ न [दे] अविच्छिन्न हिका, निरन्तर हिचकी (दे १, ५९ ) । अणुसंभर सक [ अनु + स्मृ] याद करना । संभर (दनि ४, ५५) अणुसंवेयण न [ अनुसंवेदन] १ पीछे से जानना । २ अनुभव करना ( श्राचा) |४ अणुसंसरस [ अनु + सृ] गमन करना, भ्रमरण करना; 'जो इमाम्रो दिसाग्रो वा विदिसाओ वा अणुसंसरइ' (श्राचा) IV अणुसंसर सक [ अनुसं + स्मृ] स्मरण करना, याद करना । अणुसंसरइ ( श्रचा) | अणुसज्ज अक [अनु + संजू ] १ अनुसरण करना, पूर्व काल से कालान्तर में अनुवर्तन Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ करना । २ प्रीति करना । ३ परिचय करना । सज्जन्ति ( स ) । भूका अगुसज्जित्था (भग ६,७) अणुसज्जणा स्त्री [अनुसज्जना ] अनुसरण, अनुवर्तन (वव १) I अणुवि [अनुशिष्ट] जिसको शिक्षा दी गई हो वह, शिक्षित (सुर ११, २६) । ga [ अनुशिष्ट ] १ शिक्षण, सीख, उपदेश (ठा ३, ३) । २ स्तुति, श्लाधा 'असट्टी य थुइ ति एगट्टा' ( वव १) । ३ श्राज्ञा, अनुज्ञा, सम्मतिः 'इच्छामो अस पञ्चजं देह में भयवं' (सुर ६, २०१) । अणुसमय न [ अनुसमय ] प्रतिक्षण (भग ४१, १) । अणुस [ अनुशय] १ पश्चात्ताप, खेद ( से २, १६) । २ गर्व, अभिमान (अणु) 1 अणुसर सक [ अनु + सृ] पीछा करना, अनुवर्तन करना । श्रसर (सरा ) । वकृ. अणुसरंत (महा) । कृ. अणुसरियव्व (ठा ५, १) अणुसर सक [ अनु + स्मृ] याद करना, चिन्तन करना । वकृ. अणुसरंत (पउम ६६, ७) कृ. अणुसरियन्त्र (श्रावम) I अणुसरण न [अनुस्मरण] श्रनुचिन्तन, याद करना (पंचा १ स २३१) अणुस देखो अणुस (सूत्र १, ३, ३) । अणुसरण न [ अनुसरण] १ पीछा करना । अणुसिट्ठि देखो अणुसट्ठि (प्रोघ १७३३ बृह २ अनुवर्तन (विसे ९१३) अणुसरि देखो अणुसार 'आसायरण परिहारो भतो सत्ती पवासरी (संबोध४) [अनुस्मर्तृ] याद करनेवाला ( विसे २ ) IV } अणुसरिच्छवि [अनुसदृश ] ९ समान, अणुसरिस तुल्य ( पउम ६४, ७० ) । २ योग्य, लायक ( से ११, ११५३ पउम ८५, २) अणुसार पुं [अनुस्वार ] १ वर्ण-विशेष, बिन्दी । २ वि. अनुनासिक वर्णं (विसे ५०१ ) । अणुसार पुं [अनुसार ] अनुसरण, अनुवर्तन (गउड़, भवि ) । २ माफिक, मुताबिक, 'कहियागुसारश्र सव्वमुवगयं सुमइरणा सम्म' (सार्धं 388)11 पाइअसहमणवो अणुसारि वि [ अनुसारिन् ] अनुसरण करने वाला (गउड स १०१३ सार्धं २९ ) IV अणुसास सक [ अनु + शास् ] १ सीख देना, उपदेश देना । २ श्राज्ञा करना । ३ शिक्षा करना, सजा देना । श्रगुसासंति (पि १७२ ) । वकृ. अणुसासंत ( पि ३९७) । कवकृ. अणुसासित (सुपा २७३ ) । कृ. अणुसासणिज (कुमा) । हेकृ. अणुसासिउं (पि ५७६) असासन [अनुशासन] १ सीख, उपदेश (सूत्र १,१५) । २ श्राज्ञा, हुकुम (सू १, २, ३) । ३ शिक्षा, सजा (पंचा ९) । ४ अनुकम्पा, दया 'अकंपत्ति वा असुसासरांति वा एगट्टा' (पंचचू) 1 अणुसासणा स्त्री [अनुशासना ] -ऊपर देखो ( गाया १,१३ ) IM अणुसासिय वि[अनुशासित ] शिक्षित (उत्त १पि १७३) । अणुसिक्खिर वि [अनुशिक्षितृ] सोखनेवाला, 'जं जं करेसि जं जं, जंपसि जह जह तुमं निप्रच्छेसि । तं तं प्रसिक्खिरीए, दोहो दिप्रहो ण संपडइ' । (गा ३७८ ) 1 १३ उत्त १० ) IV अणुसिण वि [ अनुष्ण] गरम नहीं वह, ठण्डा (कम्म १, ४६) अणुसील सक [ अनु + शीलय् ] पालन करना, रक्षण करना । अणुसीलइ (सण) | | अणुसुति वि [दे] अनुकूल (दे १,२५) अमर सक [ अनु + स्मृ] याद करना । अणुसुमरइ (धर्मवि ५६) । प्रयो. अणुसुमरावेइ (धर्मवि e५ ) IV [ अनु + स्वप्] सोने का अनुकरण करना । अरगुमुयइ ( तंदु १३) । अणुसूआ स्त्री [] शीघ्र ही प्रसव करनेवाली स्त्री (दे १, २३) । अणुसूय वि [ अनुस्यूत] अनुविद्ध, मिला हुआ (सू २, ३) । अणुसूयग वि [अनुसूचक ] जासूस की एक श्रेणी, For Personal & Private Use Only अणुसज्जणा - अणुहव 'सूया तहासूयग-पडिसूयग- सव्वसूयगा एव । रिसा यवित्तीय, वसंत सामंतनगरेषु । महिला कयवित्तीया, वसंति सामंतनगरेसु ॥' ( व १) अणुसेढि स्त्री [अनुश्रेणि] १ सीधी लाइन । २ न. लाइनसर (पि ६६; ३०४ ) Iv अणुसोय पुं [ अनुस्रोतस् ] १ श्रनुकूल प्रवाह (ठा ४, ४) । २ वि. अनुकूल, 'अणुसोयसुहो लोगो पडिसोश्रो श्रासमो सुविहिया ( दसचु २ ) । ३ न. प्रवाह के अनुसार, 'अणुसोय पट्टिए बहुजम्मि पडिसोयलद्धलक्खे | पडिसोयमेव अप्पा, दायनो होउकामे | ( दसचू २ ) । अणुसोय सक [ अनु + शुच् ] सोचना, चिन्ता करना, अफसोस करना। वकृ. अणुसोयमाण (सुपा १३३) । अणुस्सर देखो अणुसर = अनु + स्मृ । संकु. सरिता ( सू २, ७, १६) अणुस्सर देखो अणुसर = अनु + सृ । वकृ. अणुस्सरत (स १४० ) 1 अणुस्सरण न [ अनुस्मरण] चिन्तन करना, याद करना ( उवस ५३५) अणुस्सार पुं [अनुस्वार ] १ अनुस्वार, बिन्दी । २ वि. अनुस्वारवाला अक्षर, अनुस्वार के साथ जिसका उच्चारण हो वह (दि; विसे ५०३) अणुस्सु a [ अनुत्सुक ] उत्कण्ठा-रहित (सूत्र १, ६) V [अ] १ श्रवधारित (उत्त ५) । २ सुना हुआ (सूम १, २, २) । ३ न. भारत-श्रादि पुराण-शास्त्र (सूत्र १, ३, ४ ) । अहसक [अनु + हृ] अनुकरण करना, नकल करना । अरहरइ (पि ४७७)। अणुहरि वि [ अनुहृत] जिसका अनुकरण किया गया हो वह, अनुकृतः 'हरियं धीर तुमे, चरियं निययस्स पुपुरिसस । भरह- महानरवइरणो, तिहुया विक्खाय-कित्तिस्स' (महा) 1 अणुव सक [ अनु + भू] अनुभव करना । अरहव ( पि ४७५) । वकृ. अणुद्दवमाण (सुर १, १७१) । कृ. अणुहवियव्व, अणु Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुहवण-अणोवाहणय पाइअसहमहण्णवो हवणीय (पउम १७,१४; सुपा ५८१)। संकृ. अणेगंत पुं [अनेकान्त] अनिश्चय, नियम का अगोज वि [अनवद्य] निर्दोष, शुद्ध (णाया अणुहवेऊण, अणुहविउं (प्रारू, पंचा २) अभाव (विसे) । वाय पुं[वाद] स्याद्वाद, अणुहवण न [अनुभवन] अनुभव (स २८७)। जैनों का मुख्य सिद्धान्त, सत्व-असत्व आदि अणोज्जंगी स्त्री [अनवद्याङ्गी] भगवान् महाअणुहविय वि [अनुभूत] जिसका अनुभव अनेक विरुद्ध धर्मों का भी एक वस्तु में सापेक्ष वीर की पुत्री का नाम (प्राचू)। किया गया हो वह (सुपा है) स्वीकार, अणोज्जा स्त्री [अनवद्या] ऊपर देखो (कप्प) । अणुहारि वि [अनुहारिन्] अनुकरण करने 'जेरण विणा लोगस्सवि, ववहारो अणोण वि [अनवनत] नहीं झुका हुआ वाला, नक्कालची (कुमा) सबहा न निव्वडइ। (से १, १) अणुहार देखो अणुभाव (स ४०३, ६५६) 10 तस्स भुवणेकगुरुगो नमो अणे गंतवायस्स' अणोत्तप्प देखो अणुत्तप्प (पव ६४) (सम्म १६६) अणोम वि [अनवम] हीन-रहित, परिपूर्ण अणुहियासण न [अन्वध्यासन] धैर्य से सहन करना (जं २) अणेगंतिय बि [अनैकान्तिक] ऐकान्तिक (प्राचा)IV नहीं, अनिश्चित, अनियमित (भग १, १)। | अणोमाण न [अनपमान] अनादर का प्रभाव, अणुहु सक [ अनु + भू] अनुभव करना। अणेगावाइ वि [अनेकवादिन] पदार्थों को सत्कारः ‘एवं उग्गमदोसा विजढा वकृ. अणुहुँत (पउम १०३, १५२) । पइरिक्कया अयोमारणं । सर्वथा अलग-अलग माननेवाला, प्रक्रियावादअणुहुंज सक [अनु + भुञ्] भोग करना, मोहतिगिच्छा य कया, ___ मत का अनुयायी (ठा ८)IV भोगना । अणुहूंजइ (भवि)।। अणेच्छंत वि [अनिच्छत् ] नहीं चाहता विरियायारो य अणुचिरणो' अणुहुत्त देखो अणुहूअ (गा ६५६) (ोघ २४६) IV हुआ (उप ७६८ टी)। अणुहूअ वि [अनुभूत] १ जिसका अनुभव | अणेज वि [अनेज] निश्चल, निष्कम्प (प्राक)। अणोरपार वि [दे] १ प्रचुर, प्रभूत (प्रावम)। किया गया हो वह (कुमा)। २ न. अनुभव अणेज वि [अज्ञेय] जानने के प्रयोरय, | २ अनादि-अनन्त (पंचा १५; जी ४४)। ३ अति विस्तीर्ण (पण्ह १, ३) । (से ४, २७) ।। जानने के अशक्य (महा)। अणोरुम्मि वि [अनुद्वान] अ-शुष्क, गीला अणुहो सक [अनु + भू] अनुभव करना। अणेलिस वि [अनीदृश] अनुपम, असाधारण, अणुहोति (पि ४७५)। वकृ. अणुहोंत (पउम __ 'जे धम्मं सुद्धमक्खाति पडिपुराणमणेलिसं' १०६, १७) । कवकृ. अणुहोईअंत, अणु अणोलय न [दे] प्रभात, प्रातःकाल (दे १, (सूत्र १, ११) होइज्जंत, अणुहोइजमाण अणुहोईअमाण १६) TV अणेवंभूय वि [अनेवम्भूत] विलक्षण, अणोवणिहिया स्त्री [अनौपनिधिकी मानु( पड्)। कृ. अणुहोदव्व (शौ) (अभि विचित्र 'प्रणेवंभूयपि वेयणं वेदंति' (भग पूर्वी का एक भेद, क्रम-विशेष (अणु) IN अणूकप्प देखो अणुकप्प; 'एत्तो बोच्छं अणू अणोवणिहिया स्त्री [अनुपनिहिता] ऊपर अणेस देखो अण्णेस। वकृ. अणेसंत (नाट) देखो (पि ७७)कप्पं' (पंचभा)। अणेसण न [अन्वेषण] खोज, तलाश (महा) अणोल्ल वि [अना] १ शुष्क, सूखा हुआ अणूण वि [अनून] कम नहीं, अधिक अणेसणा स्त्री [अनेषणा] एषणा का अभाव (गा ५४१) । मण वि [मनस्क] अकरुण, (कुमा) अणूय!' [अनूप] अधिक जलवाला देश, (उवा) निष्ठुर, निर्दय (काप्र ८६) अणूवे जल-बहुल स्थान (विसे १७०३ अणेसणिज वि [अनेषणीय। अकल्पनीय, अणोवदग्ग वि [अनवदन] अनन्त (सूम १, वव ४)। जैन साधुनों के लिए अग्राह्य (भिक्षा-आदि) १२, ६) अणेअ वि [अनेक] देखो अणेक (कुमा अभि (ठा ३, १ रणाया १, ५) अणोवम वि [अनुपम] उपमा-रहित, अद्वि२४६) अणोउया स्त्री [अनृतुका] जिसको ऋतु-धर्म तीय (पउम ७६, २६; सुर ३, १३०)। अणेकज्झ वि [दे] चञ्चल, चपल (दे १, न आता हो वह स्त्री (ठा ५, २) अणोवमिय वि [अनुपमित] ऊपर देखो ३०)। (पउम २, ६३) अणोक्त वि [अनवक्रान्त] जिसका पराभव अणेकवि अनेक] एक से अधिक, बहुत न किया गया हो वह, अजित, 'परवाईहि अणोवसंखात्री [अनुपसंख्या] अज्ञान, अणेग ) (ोपः प्रासू ५३)। करण न सत्य ज्ञान का प्रभाव (सूत्र २, १२) ।। [करण] पर्याय, धर्म, अवस्था (सम्म १०६) अणोकता' (प्रौप) । अणोवहिय वि [अनुपधिक] १ परिग्रह'राइय वि [रात्रिक] अनेक रातों में होने- | अणोग्गह देखो अणुग्गह = अनवग्रहः 'नाग | रहित, संतोषी । २ सरल, अकपटी (भाचा)। वाला, अनेक रात संबन्धी (उत्सवादि) रगो संवट्टो अपोग्गहाँ (बृह ३) । अणोवाहणग।वि [अनुपानक] जूता(कस)। 'सोम [शस्] अनेक बार | अणोग्यसिय वि [अनवधर्षित] नहीं घिसा अणोवाहणय | रहित, जो जूता न पहिना हो (श्रा १४) हुमा, अमाजित (राय) 1 (ोपः पि ७७)। For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अणोसिय वि] [अनुपित] जिसने सन किया हो। २ व्यवस्थित 'प्रोसिए ग करे चा' (धर्मं ३ सूत्र १,१४) अणोहंतर वि [अनोन्तर] पार जाने के लिए मुशिखा एवं हंतरा एए. नोय श्रहं तरि अणोह (भाषा) 1 [अनपपट्टक] निरंकुश स्व च्छन्दी (गाया १, १६) अगोहीण वि [ अनवहीन ] हीनता-रहित ( १२०) [ [ भुज् ] भोजन करना, खाना । अइ (षड् ) । , 'गाई उता, संसारवम्मि विसारामि । पाइअसहमणवो मरांति धीरहिया, वराइट्टाराईव कुलाई' (गउड) अण्णत [ अन्यत्र ] दूसरे में भिन्न स्थान में (गा ६५५) । " अति श्री [दे] धवशा धरमान, निरादर (दे १, १७) IV अण्णत्तो देसी अश्नओ गा३ अण्णत्थ देखो अण्णत्त ( विपा १, २ ) । अण्णत्थ वि [ अन्यस्थ ] दूसरे (स्थान) में रहा हुआ (गा ५५० ) अण्णाण न [अज्ञान] १ अज्ञान, धजानकारी, मूर्खता (दे १, ७) । २ मिथ्या ज्ञान, झूठा ज्ञान (भग ८, २) । ३ वि. ज्ञान-रहित, (w, e) I' अण्णाण न [दे] वा विवाह काल में व को अथवा वर को जो दान दिया जाता है वह (दे १, ७) । अण्णाणि वि [ अज्ञानिन] ज्ञानरहित (१७) २ मिथ्याज्ञानी ( १) । ३ श्रज्ञान को ही श्रेयस्कर माननेवाला, अज्ञानवादी (सूत्र १,१२ ) अण्णमयवि [दे] पुनरुक, फिर से कहा अण्णाणिय वि [आज्ञानिक] १ नवादी हुप्रा (दे १, २८ ) । प्रज्ञानवाद का अनुयायी (श्राव ६ सम अण्णात्थवि [अन्य] यथार्थ, यया नाम तथा गुण वाला 'ठियमाणत्थे तयत्यनिरवेक्ख' (विसे)। अण्ण स [अन्य] दूसरा, पर (प्रासू १३१) । थिय ["तिर्विक, "यूबिक] अन्य दर्शन का अनुयायी (सम ६० ) । गहण न [" ग्रहण] १ गान के समय होनेवाला एक प्रकार का मुख विकार । १ पुं. गानेवाला, गावि, गवैया (नि १७) । धम्मिय वि [ धार्मिक ] भिन्न धर्मं वाला (श्रोव १५) । अण्ण न [अन्न] १ नाज, चावल आदि धान्य ( सू १, ४, २) । २ भक्ष्य पदार्थ (उत्त २० ) । ३ भक्षरण, भोजन (सूत्र १, २) । इलाय, गिलाय वि [ग्लायक] बासी अन्न को खानेवाला (१५, ३) "विधि अण्णय देखो अन्नय ( धर्मसं ३६२ ) । -- अण्णवर व [अम्यतर] दो में से एक (कप्प ) 1अण्णया श्र [ अन्यदा ] कोई समय में (उप ६ टी) अण्णव [अर्णय] १ समुद्र२ संचार 'असि महोपसि एगे तिणे दुस्तरे' (उत्त ५) । अण्णाय पुं [ अन्याय ] न्याय का अभाव (श्रा १२) स्त्री [विधि ] पाक-कला ( औप ) । V अण्ण न [ अर्णस् ] पानी, जल ( उत्त ५) । अण्णव [] १ आरोपित । २ खडित (षड् ) 1 अण्णा वि [दे] श्रार्द्र, गोला ( से ४, ९) । अण्णाय वि [ अन्याय्य ] न्याय से युत न्यायविरुद्ध 'विभासी न से समे होइ प्रपत्ते' (सूत्र १,१३) । अण्णाय्य (शौ) ऊपर देखो (मा २० ) । अण्णव न [ ऋणवत् ] एक लोकोत्तर मुहूर्त्त का नाम ( ज ७ ) । "अण्ण देखो कण (या ५१४, अण् न [अम्बह] प्रतिदिन हमेशा (पर्म अण्णारिन्छ नि [अभ्यारचा ] दूसरे के जैसा कप्पू) 8) 12 अण्ण पुं [दे] १ जवान, तरुण । २ धूर्त, अण्णह देखो अण्णत्त ( षड् ) 1 ठग । ३ देवर (दे १, ५५ ) । अण्णइअ वि [दे] १ तृप्त (दे १, १९ ) । २ सब विषयो में तृप्त, सर्वार्थ- तृप्त (षड् ) अण्णओ [ अन्यतस् ] दूसरे से दूसरी तरफ ( उत्त १)। देखो अन्नओ अण्णष्ण वि [ अन्योन्य] परस्पर घास में ( षड् ) अण्णण व [ अन्यान्य ] धीर धर, अलग अलग; अष्णमण्ण देखो अण्णण्ण = अन्योन्यः श्ररणममरतया (गाया १२) अण्णE ) [ अन्यथा ] अन्य प्रकार से, अण्णहा विपरीत रीति से, उलटा ( षड् ; महा) । 'भाव पुं [भाव ] वैपरीत्य, उलटापन (बृह ४) । अण्णदि देखो अण्णत ( पद् अगोसिय-अणिया अण्णा वि [अन्वाविष्ट ] १ व्याप्त ( भग १४, १) । २ पराधीन, परवश (भग १८ ६) । अण्णा श्री [आज्ञा ] माज्ञा, आदेश (गा २३: श्रभि ६३: मुद्रा ५७ ) toorg a [ अन्वादिष्ट ] श्रादिष्ट, जिसको वि आदेश दिया गया हो वह 'अन्जुपए मालागारे मोग्गरपारिणरणा जक्खेणं श्रराइट्ठे समाणे ' ( अंत २० ) । अण्णास ( प ) वि [ अन्यादृश] दूसरे के जैसा ( पि २४५ ) IV For Personal & Private Use Only १०९) । २ मूर्ख, अज्ञानी ( सूत्र १, १, २) । अण्णाय वि [ अज्ञात ] अविदित, नहीं जाना (२१) (प्रामा) अण्णारिस नि [ अन्याय ] दूसरे के जैसा (पि २४५) । अण्णास व [] विस्तृत, बिछाया हुआ ( षड् ) । अणिमाण देखो अण् अणियन [अन्वित] युग सहित (नूम १, १०; नाट) । - अणिया स्त्री [दे] देखो अण्णी (दे १, ५१) । अणिया श्री [अझिका] एक विख्यात जैन मुनि की माता का नाम ( ती ३६ ) । उत्त [पुत्र ] एक विख्यात जैन मुनि ( ती ३६) । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णी- अत्तकम्म अणी स्त्री [दे] १ देवर की स्त्री । २ पति की बहिन, ननद । ३ फूफा, पिता की बहिन (दे १,५१) अणुवि [अज्ञ] जान, निर्बोध, मूर्ख अण्णुअ ) ( षड् गा १८४ ) IV अणुण वि [ अन्योन्य ] परस्पर, आपस में (ड)। अण्णूण वि [ अन्यून ] परिपूर्ण ( उप पृ २२४ ) IV अण् सक [ अनु + इ ] अनुसरण करना (जिसे २५२२) (४६३)। अणिमाण (धीमान विद्या १, १) अण्णेस सक [ अनु + इप्] १ खोजना, ढूंढना, सहकीकात करना चाहना, वांछना । ३ प्रार्थना करना । प्रएसइ (पि १६३) । वकृ. अण्णेसंत, अण्णेसअंत, अण्णेसमाण (महा; काल) 1 अण्णेसण न [ अन्वेषण ] खोज, तलाश, तहकीकात (उप ६ टी) अण्णा स्त्री [अन्वेषणा ] १ खोज, तहकीकात (प्रा) । २ प्रार्थना ( श्राचा) । ३ गृहस्थ से दी जाती भिक्षा का ग्रहण (ा, ३, ४) । अण्सव [अन्बेषक] गवेषक (पत्र ७१) । [अस] [अन्वेषिन] खोज ( श्राचा) । V असिय वि [अन्वेषित ] जिसकी तहकी कात की गई हो वह, 'प्रोसिया सव्व तुनकहिच दिट्टा (महा) V अण्णो देखो अणुण्ण, 'अणोरणसमगुबद्ध रिपच्छयत्रो भरिणयविसयं तु' (पंचा ६; स्वप्न ५२ ) । अण्णोसरिज वि[दे] अतिकान् उषित (दे १, ३६ ) 1/ अ क [भुज् ] १ खाना, भोजन करना । २ पालन करना । ३ ग्रहण करना । अरहर for a [ अह ] दिवस, दिन 'पूव्वावरण्हकालसमसि' (उवा) V पाइअसद्दमणव अग ) [ आश्रव] कर्म-बन्ध के कारण अण्ड्य हिंसादि ( परह १, १, ५; औप ) IV 'अहा स्त्री [तृष्णा ] तृषा, प्यास (गा ε३) । अण्हेअअ वि [दे] भ्रान्त, भूला हुआ (दे १, RE) IN अतक्किय वि [अतर्कित ] १ श्रचिन्तित श्राकस्मिक; 'प्रतक्कियमेव एरिसं वसरणमहं पत्ता' (महा)। २ ठीक-ठीक नहीं देखा हुआ, अपरिलक्षित ( वव ८ ) । ३ क्रिवि. 'अतक्कियं बेव... विहरियो रायहत्थी' (महा) IV अपि [अ] छोटा किनारा, 'धत वातो सो व मग्गो' (बृह १ ) । अहाअ वि [ अतृष्णाक ] तृष्णा-रहित, निःस्पृह (प्रच्चु ४ ) अतत] [] [अतत्व] [साय भठ गैरव्याजी अतत्तन असत्य, झूठ, (उप ५०८) । अतत्थ वि [अत्रस्त ] नहीं डरा हुआ, निर्भीक (कुमा) 1 अतस्य [अवध्य] नाव भूठा (बाचा)। अतर देखो अयर (पव १ कम्म ५; भवि ) । अतव पुंन [ अतपस् ] १ तपश्चर्या का अभाव (२३) २ वि. तह (सह ४) अत [अस्तव] प्रशंसा, निन्दा (जुना) | अतसी देखो अयसी (परण १) । अतह वि [अवथ] सव्य, धन्यास्तविक, भूठा (सूत्र १,१, २: श्राचा) अवि [अतथा] उस माफिक नहीं, 'जाओ चिय कायव्वे उच्छाहेंति गरुयारण कित्ती । तातिर लति हिययाई' (गउड) अतार वि [अतार ] तरने को अशक्य ( पाया १, ६ १४) (हे ४, ११०; षड् ) । अहाइ (औप ) । अतिउट्ट सक [ अति + वृत् ] १ उल्लंघ धरोहर (कुमा)। करना । २ व्याप्त होना । तिउट्टइ (सूत्र १, १५, ६ टी) V अविट्ट र [अतिवृत] १२ अतारिम वि[अतारिम] ऊपर देखो (सूम १, ३, २) अतिउट्ट श्रक [ अति + त्रुट् ] १ खूब टूटना, टूट जाना । २ सब बन्धन से मुक्त होना । अतिउट्टइ (सूम १, १५, ५) For Personal & Private Use Only ४७ अनुगत, व्याप्तः 'जंसी गुहाए जलतिउट्टे विवादम्भ (१५ १,१२) अतित्थ न [ अतीर्थ] १ तीर्थं (चतुविध संघ) का अभाव, तीर्थं की अनुत्पत्ति । २ वह काल, जिसमें तीर्थं की प्रवृत्ति न हुई हो या उसका अभाव रहा हो ( पण १) । 'सिद्ध वि [सिद्ध] प्रतीर्थ काल में जो मुक्त हुया हो वह, 'प्रतित्थसिद्धाय मरुदेवी' (नव ५६) । अतिहि ली अहि अतीगाड़ [अगिाड] १ अति-निविड । २ क्रिवि. अत्यंत बहुत 'अतीगार्ड भीश्रो जक्खाहियो' (पउम ८, ११३) अतुल वि [ अतुल ] अनुपम, असाधारण ( परह १, १ ) 1 [अतुलित] मासाधारण, मद्रि अतुलिय तीय (भवि) अन्त देखो अष्प = ग्रात्मन् (सुर ३, १७४३ सम २७ दि लाभ [भ] स्वरूप की प्राप्ति, उत्पत्ति (कम्म २२५) अ] [आ] पति, दुःखित हैरान (गुर २ १४२ कुमा) . [आ] गृहीत लिया हुआ गाया १, १ ) । २ स्वीकृत, मंजूर किया हुआ (ठा २, ३) । ३ पुं. ज्ञानी मुनि (बृह १) | अत्तवि [आप्त ] १ ज्ञानादि-गुण-संपन्न, गुरणी । २ राग-द्वेष वर्जित, वीतराग ३ प्रायश्चित्तदाता गुरु, 'नारणमादी रिण प्रत्तारिए, जेरण प्रत्तो उ सो भवे । रागद्दोसपहीणो वा, जे व इट्ठा विसोहिए' (वच १०) ४ मोश, मुक्ति ( ११० ) । ५ एकान्त हितकर (भग १४, ६) । ६ प्राप्त, मिला हुआ (वय १०); 'तसे' (उत्त १२) । अत वि [आ] दुःख का नाश करनेवाला, सुख का उत्पादक (भग १४, ९) । अत [अ] यहां, इस स्थान में (नाट ) । "भव वि ["भवत्] पुज्य माननीय (अभि ६१;पि २३) । अत्तअ देखो अश्चय = प्रत्यय ( प्राकृ २१ ) 1 अतकम्मर [आत्मकर्मेन] १जिससे कर्म Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ पाइअसहमहण्णवो अत्त?--अत्थमिय बन्धन हो वह । २ पुं. प्राधाकर्म दोष (पिंड अत्तुक्करिस।[आत्मोत्कर्ष] अभिमान, अत्थ न [अस्त्र] हथियार, प्रायुध (पउम ८, ६५)V अत्तुक्कोस ) गर्वः 'तम्हा अत्तुकरिसो वजे- ५०; से १४, ६१)TV अत्तट्ट वि [आत्मार्थ] १ आत्मीय, स्वकीय यवो जइजणेणं' (सूत्र १, १३; सम ७१) अत्थ सक [अर्थय ] मांगना, याचना करना, (धर्म २)। २ . स्वार्थ, 'इह कामनियत्तस्स अत्तक्कोसिय वि [आत्मोत्कर्षिक] गर्विष्ठ, प्रार्थना करना, विज्ञप्ति करना । अत्थयए अत्तट्ठ नावरज्झई' (उत्त ८) अभिमानी (प्रौप)। (निचू ४) अत्तद्रिय वि [आत्मार्थिक] १ आत्मीय ।२ अत्तय पुंआत्रेय] १ अत्रि ऋषि का पुत्र अत्थ अक [स्था] बैठना । अत्थइ (प्रारा ७१)। जो अपने लिए किया गया हो, ‘उवक्खडं (पि १०; ८३)। २ एक जैन मुनि (विसे अत्थ। देखो अत्त - अत्र (कप्प; पि २६३, भोयण माहणाणं अत्तट्टियं सिद्धमहेगपक्खं' २७६९)। अत्थं । ३६१) (उत्त १२)IV अत्थंडिल वि [अस्थण्डिल] साधुनों के रहने अत्तण । देखो अप्प = आत्मन् (मुच्छ । अत्तो प्र[अतस्] १ इससे, इस हेतु से के लिए अयोग्य स्थान, क्षुद्र जन्तुओं से व्याप्त अत्तणअj२३६)। केरक वि [आत्मीय] (गउड) । २ यहां से (प्रामा) स्थान (प्रोघ १३) । निजी, स्वकीय (नाट; पि ४०१)IV अत्थ देखो अद्र अर्थ (कुमा; उप ७२८ अत्तण ! (शौ) वि [आत्मीय] स्वकीय, अत्यंत वकृ [अस्तं यत् ] अस्त होता हुआ अत्तणक अपना, निजका (पि २७७ नाट) ८८४ टी; जी १, प्रासू ६५; गउड); 'अरोइ (वजा २२) अत्तणिज्जिय वि [आत्मीय] स्वकीय (ठा अत्थे कहिए विलावो' (गोय ७); 'प्रत्थसहो अत्थकिरिआ स्त्री [अर्थक्रिया] वस्तु का फलस्थोय' (विसे १०३६; १२४३)। जोणि व्यापार, पदार्थ से होनेवाली क्रिया (धर्मसं अत्तणीअ (शौ) ऊपर देखो (स्वप्न २७) । स्त्री [योनि धनोपार्जन का उपाय, साम, दाम, दण्ड रूप अर्थ-नीति (ठा ३,३)। णय ४६६) अत्तमाण देखो आवत्त = या + वृत् ।। अत्थक्क न [दे] १ अकारड, अकस्मात्, बेअत्तय पुं [आत्मज] पुत्र, लड़का। या स्त्री पुं['नय] शब्द को छोड़ अर्थ को ही मुख्य समय (उप ३३० से ११, २४; था ३० [जा पुत्री, लड़की (विपा १. १) वस्तु माननेवाला पक्ष (अण)। सत्य न भवि); 'अत्थकगजिउभंतहित्थहिना पहिसअत्तव्व वि [अत्तव्य] खाने लायक, भक्ष्य [शास्त्र] अर्थशास्त्र, संपत्ति-शास्त्र (णाया १, जाआ' (गा ३८६)। २ वि. अखिन्न (वजा (नाट) १)। वइ पुं[°पति] १ धनी । २ कुबेर (वव ७)। वाय पुं[वाद] १ गुणवर्णन । अत्ता स्त्री [दे] १ माता, माँ (दे १, ५१; ६)। ३ क्रिवि. अनवरत, हमेशा (गउड)IV २ दोष-निरूपण । ३ गुण-वाचक शब्द। ४ चारु ७०) । २ सासू (दे १, ५१, गा ६६७; अत्थग्घ वि [दे] १ मध्य-वर्ती, बीच काः दोष-वाचक शब्द (विसे)। °वि वि [वित् ] 'सभए अत्थग्घे वा अोइराणेसुं धरणं पट्ट' (प्रोष हेका ३०)। ३ फूफा। ४ सखी (दे १,५१) ३४)। २ अगाध, गंभीर । ३ न. लम्बाई, अत्ता देखो जत्ता (प्रति ८२) अर्थ का जानकार (पिंड १ भा)। सिद्ध वि [सिद्ध] १ प्रभूत धनवाला (जं ७) । २ आयाम । ४ स्थान, जगह (दे १, ५४)। अत्ताण देखो अत्त = आत्मन् (पि ४०१)। अत्ताण वि [अत्राण] १ शरण-रहित, रक्षक पुं. ऐरवत क्षेत्र के एक भावी जिनदेव (तित्थ)। अत्थण न [अर्थन] प्रार्थना, याचना (उप | प.स्वत क्षेत्र के एक भावी जिनदेव (तित्य वजित (पण्ह १, १)। २ पुं. कन्धे पर लाठी लियन ािलीक] धन के लिए असत्य | ७२८ टी)। रखकर चलनेवाला मुसाफिर । ३ फटे-टूटे कपड़े बोलना (परह १, २)। लोयण न अत्थणिऊर पुन [अर्थनिपूर] देखो अच्छपहनकर मुसाफिरी करनेवाला यात्री (बृह १) [लोचन] पदार्थ का सामान्य ज्ञान (प्राचू | णिउर (अणु ६६) अत्ति पुं[अत्रि] इस नाम का एक ऋषि १)। लोयण न [लोकन] पदार्थ का अत्थणिऊरंग पुन [अर्थनिपूराङ्ग] देखो (गउड) निरीक्षण,V अच्छणिउरंग (अणु ६६) अत्ति स्त्री [अत्ति] पीड़ा, दुःख (कुमा; सुपा 'अत्थालोयण-तरला,इयरकईणं भमंति बुद्धीग्रो। अत्थथि वि [अर्थार्थिन् ] धन की इच्छा१८५)। हर वि [हर] पीड़ा-नाशक, दुःख अत्थच्चेय निरारम्भमेति हिययं कइन्दाणं ॥ वाला (उव १३६)। का नाश करनेवाला (अभि १०३) । (गउड)। अस्थम अक [अस्तम् + इ] अस्त होना, अदृश्य अत्तिहरी स्त्री [दे] दूती, समाचार पहुंचाने- अत्थ पु [अस्त] १ जहां सूर्य अस्त होता है। होना । अत्थमइ (पि ५५८)। वकृ. अस्थमंत वाली स्त्री (षड् ) वह पर्वत (से १०, १०))। २ मेरु पर्वत (पउम ८२, ५६)। अत्तीकर सक [आत्मी + कृ] अपने अधीन (सम ६५)। ३ वि. अविद्यमान (णाया १, | अत्थमण नअस्तमयन अस्त होना, अदृश्य करना, वश करना। अत्तीकरेइ; वकृ. अत्ती- १३)। "गिरि पुं[गिार] अस्ताचल (सुर होना (प्रोध ५०७; से ८, ८५; गा २८४)। करंत (निचू ४)। ३, २७७, पउम १६. ४५)। सेल पुं | अत्थमाविय वि [अस्तमापित] अस्त करअत्तीकरण न [आत्मीकरण] अपने वश [शैल] प्रस्ताचल (सुर ३, २२६)।चल वाया हुआ (सम्मत्त १६१)। करना (निचू ४) । पुं [चल] अस्त-गिरि (कप्पू)। अस्थमिय वि [अस्तमित] १ प्रस्त हुआ, For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्थयारिआ-अत्थुड पाइअसद्दमहण्णवो डूब गया, अदृश्य दृपा (प्रोध ५०७, महा ज्ञान; जैसे 'देवतत्त पुष्ट है और दिन में नहीं । (सुर २, १४२)। त्ता स्त्री [°ता] सत्व, सुपा १५५) । २ हीन, हानि-प्राप्त (ठा ४,३) । खाता है इस वाक्य से 'देवदत्त रात में खाता हयाती (उप पृ ३७४) । त्तिनय पुं[इतिअत्थयारिआ स्त्री [द] सखी, वयस्या (दे १ है ऐसा अनुक्त अर्थ का ज्ञान (उप ६६८)। नय] द्रव्याथिक नय (विसे ५३७) । 'नत्थि अत्थाह वि [अस्ताघ] १ अथाह, थाह-रहित, वि ["नास्ति] सप्तभङ्गी का तीसरा भङ्गअत्थर सक [आ + स्तु] बिछाना, शय्या गंभीर (गाया १, १४) । २ नासिका के ऊपर प्रकार, स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से विद्यमान करना, पसारना । अत्थरइ (उव) । संकृ. का भाग भी जिसमें डूब सके इतना गहरा और परकीय द्रव्यादि की अपेक्षा अविद्यअत्थरिऊग (महा) जलाशय (बृह ४)। ३ पुं. अतीत चौबीसी मान वस्तु अस्थरण न [आस्तरण] १ बिछोना, शय्या | में भारत में समुत्पन्न इस नाम के एक तीर्थंकर 'मह देसो सब्भावे देसोसब्भावपजवे निग्रयो। (से १४, ५०) । २ बिछाना, शय्या करना देव (पव ६)। तं दविप्रमत्थिनत्थि अ, आएसविसेसि जम्हा' (विसे २३२२)। अत्थाह वि [दे] देखो अत्थग्घ (दे १,५४, (सम्म ३७)। अत्थरय वि [आस्तरक] १ आच्छादन करने | नात्यप्पवाय न [ नास्तिप्रसाद बारहवें भवि)। वाला (राय)। २ पुं. बिछौने के ऊपर का अस्थि वि [अर्थिन] १ याचक, मांगनेवाला जैन अङ्ग-ग्रन्थ का एक भाग, चौथा पूर्व (सम वस्त्र (भग ११, ११; कप्प)। (सुर १०,१००)। २ धनी, धनवाला (पंचा)। अत्थरय वि [अस्तरजस्क] निर्मल, शुद्ध (भग | ३ मालिक; स्वामी (विसे)। ४ गरजू, चाहने अत्यिक न [आस्तिक्य] आस्तिकता, आत्मा११, ११)। परलोक आदि पर विश्वास (श्रा .; पुप्फ वाला; अत्यवण देखो अस्थमण (भवि) । 'घणो धणत्थियाणं, कामत्थीणं च ११०)। अत्थसिद्ध पुं [अर्थसिद्ध] पक्ष का दशवों सव्वकामकरो। । अत्थिय देखो अस्थि = प्रथिन् (महा औप) । दिवस, दशमी तिथि (सुज १०, १४)। सग्गापवग्गसंगमहेऊ जिणदेसिनो धम्मो ।' अस्थिय वि [अर्थिक धनी, धनवान् (हे २, अत्था देखो अट्ठा = प्रास्था। १५६)। (महा)। अत्था ।सक [ अस्ताय ] अस्त होना, अत्थि न [अस्थि हाड़, हड्डी (महा)। अस्थिय न [अस्थिक] १ हड्डी, हाड़ । २ पुं. अत्थाअ डूब जाना, अदृश्य होना । अत्थाइ; वृक्ष-विशेष । ३ न. बहु बीजवाला फल-विशेष प्रत्थाए (पउम ७३, ३५) । अत्थाप्रति (से अस्थि अ[अस्ति] १ सत्त्व-सूचक अव्यय है, (पराण १)। ७, २३) । वकृ. अत्थाअंत (से ७, ६६) । 'प्रत्थेगइया मुंडा भवित्ता अगाराप्रो अरणगारियं अत्थिय वि [आस्तिक] आत्मा, परलोक पव्वइया' (प्रौप); 'अस्थि णं भंते ! विमाणाई अत्थाअ वि [अस्तमित] अस्त हुआ, डूबा आदि की हयाती पर श्रद्धा रखनेवाला (जीव ३) । २ प्रदेश, अवयवः 'चत्तारि अत्थिहुआ 'तावधिय दिवसयरो प्रत्थानो विगयकि (धर्म २)। काया' (ठा ४, ४)। अवत्तव्व वि [°अवरणसंधानो' (पउम १०,६६से ६,५२)। | अस्थिर देखो अथिर (पंचा १२) । क्तव्य सप्तभङ्गी का पांचवाँ भङ्ग, स्वकीय अत्थाइया स्त्री [दे] गोष्ठी-मण्डप (स ३६) । अत्थीकर सक [अर्थी + कृ] प्रार्थना करना, द्रव्य आदि की अपेक्षा से विद्यमान और एक अत्थाण न [आस्थान] सभा, सभा-स्थान याचना करना । प्रत्थीकरेइ (निचू ४)। वकृ. ही साथ कहने को अशक्य पदार्थ; (सुर १,८०)। अत्थीकरंत (निचू ४)। 'सब्भावे पाइट्टो देसो देसो अउभयहा जस्स। अत्थाणिय वि [अस्थानिन] गैर-स्थान में तं अस्थिप्रवत्तव्वं च होइ दविनं विप्रप्पवसा'। अत्थीकरण न [अर्थीकरण] प्रार्थना, याचना लगा हुआ, 'प्रत्यारिणयनयहि (भवि)। (सम्म ३८)। (निचू ४)। अत्याणी स्त्री [आस्थानी] सभा-स्थान (कुमा)। काय [काय] प्रदेशों का प्रवयवों का अत्थु सक [आ+स्तु] बिछाना, शय्या करना। अत्थाणीअ वि [आस्थानीय] सभा-संबन्धी समूह (सम १०)। °णत्थवत्तव्व वि कर्म. अत्थुव्वइ, कवकृ. अत्थुव्वंत (विसे (कुप्र ७८)। [ नास्त्यवक्तव्य] सप्तभङ्गी का सातवाँ २३२१)। अत्थाम वि [अस्थामन् बल-रहित, निर्बल भङ्ग, स्वकीय द्रव्यादि की अपेक्षा से विद्यमान, अत्थुअ वि [आस्तृत] बिछाया हुआ (पान (गाया १,१)। परकीय द्रव्यादि की अपेक्षा से विद्यमान और विसे २३२१)। अत्थार पुं [दे] सहायता, साहाय्य (दे १,६; एक ही समय में दोनों धमों से कहने को अत्थुग्गह पुं[अर्थावग्रह] इन्द्रियों और मन णाम)। अशक्य पदार्थ; । द्वारा होनेवाला ज्ञान-विशेष, निर्विकल्पक ज्ञान अत्यारिय पुं [दे] नौकर, कर्मचारी (वव ६)। 'सब्भावासब्भावे, देसो देसो प्र उभयहा जस्स।। (सम ११, ठा २, १)। अत्थावग्गह देखो अस्थुग्गह (पएण ५)। तं अत्थिणत्यवत्तव्वयं च दवित्रं विअप्पवसा' अथुग्गहण न [अर्थावग्रहण] फल का निश्चय अत्यावत्ति स्त्री [अर्थापत्तिअनुक्त अर्थ को (सम्म ४०)। (भग ११, ११)। अटकल से समझना, एक प्रकार का अनुमान-! त्त न [व] सत्व, विद्यमानता, हयाती | अत्थुड वि [दे] लघु, छोटा; (दे १, ६)। For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० पाइअसहमहण्णवो अस्थुरण-अद्दहिय अत्थुरण न [दे. आस्तरण] बिछौना (स अन्धा । २ असर्वज्ञ, 'अदक्खुव ! दक्खुवाहियं राजा । ३ एक प्रसिद्ध राजकुमार और पीछे से सद्दहसु अदक्खुदसणा' (सूत्र १, २, ३)। जैन मुनि । ४ वि. आदराजा के वंशज । ५ अस्थुरिय वि [दे. आस्तृत] बिछाया हुआ अदण न [अदन] भोजन (बृह १)। नगर-विशेष (सूम २, ६)। कुमार पुं (स २३९, दे १, ११३)। अदत्त वि [अदत्त नहीं दिया हुआ (पएण [कुमार] एक राजकुगार और बाद में जैन अत्थुवड न [दे] भल्लातक, भिलावा वृक्ष का । १, ३)। हार विहार] चौर (पाचा)। मुनिः 'पद्दकुमारो दढप्पहारी प्र' (पडि) । फल (दे १,२३)। हारि वि [ हारिन्] चोर (सूत्र १,५,१) । "मुत्था स्त्री [मुस्ता] कन्द-विशेष, नागर अत्येक वि [दे] आकस्मिक, अचिन्तित (से दाण न [दान] चोरो (सम १०)। मोथा (ध २०)। मलग न [मलक] १ १२, ४७)। दागवेरमनन [दानविरमण] चोरी से हरा मामला। २ पोलु-वृक्ष को कली (धर्म अत्थोग्गह देखो अस्थुग्गह (सम ११)। निवृत्ति, तृतीय व्रत (पएह २, ३)। २)। ३ शरण वृक्ष को कलो (पव ४)। रिद्र अत्थोग्गहण देखो अत्थुग्गहण (भग ११, अदन्न देखो जरा सिरि ३१०)। पुं[रिष्ट] कमल कोया (आवम) । अदब्भ वि [अदभ्र अनल, बहुत (जं ३)। अद्द पुं [अब्द] १ मेघ, वर्षा, बारिश (हे २, अत्योडिग वि [दे] प्राकृट, खोंचा हुआ | अदय वि [अदय] निर्दय, निष्ठुर (निचू २)। ७६)। २ वर्ष, संवत्सर, संवत् (सुर १३, (महा)। अदिइ देखो अइइ (ठा २, ३)। ७०)। अत्थोभय वि [अस्तोभक] 'उत', 'वै' आदि अदिण्ण देखो अदत्त (ठा १)। अद्द पुं[अर्द] अाकाश (भग २०, २)। निरर्थक शब्दों के प्रयोग से प्रदुषित (सूत्र) आदित्त वि [अहम] १ दर्ष-रहित, नम्र (बृह १)। २ अहिंसक (प्रोष ३०२)। (बृह १)। अद्द पुन [दे] १ परिहास । २ वर्णन (संक्षि अत्थोवग्गह देखो अत्थुग्गह (पराण १५)। | अदिन्न देखो अदत्त (सम १०)। अथक्क न [दे] १ प्रकाण्ड, अनवसर, प्रक अदिस्स देखो अदिस्स (सम ६०; सुपा | अद्द सक [अ] मारना, पीटना (वव १०)। स्मात् ( षड् )। २ वि. पसरनेवाला, फैलने- | १५३)। अद्दइअ न [अद्वैत] १ भेद का प्रभाव । २ वाला (कुमा)। अदिहि स्त्री [अधृति अधीराई, धीरज का वि. भेद-रहित ब्रह्म वगैरह (नाट)। अथव्वण पुं [अथर्वण] चौथा वेद-शास्त्र अभाव (पान)। अद्दइज वि [आर्दीय] १आद्रकुमार-सम्बन्धी। (कप्प; गाया १, ५)। अदीण वि [अदीन] दीनता-रहित। सत्तु २ इस नाम का 'सूत्रकृताङ्ग सूत्र का एक अथिर वि [अस्थिर] १ चंचल, चपल, पुं[शत्रु] हस्तिनापुर का एक राजा (णाया | अध्ययन (सूत्र २, ६)। । १,८)। (कुमा)। २ अनित्य, विनश्वर (कुमा)। ३ अइंसण न [अदर्शन] १ दर्शन का निषेध, अढ़, शिथिल (ोघ) । ४ निर्बल (वव २)। अदु अ [दे] १ अानन्तयं-सूचक अव्यय, अब नहीं देखना (सुर ७, २४८)। २ वि. परोक्ष, (प्राचा) । २ इससे (सूत्र १, २, २)। ५ मजबूती से नहीं बैठा हुआ, नहीं जमा हुआ जिसका दर्शन न हो; “एक्कपएच्चिय हाहिति अदु अ [दे] १ अथवा, या (सूप १, ४, (अभ्यास); 'अथिरस्स पुवगहियस्स, वत्तणा जं मझ सदसणा इण्हि' (सुपा ६१७) । ३ इह थिरीकरणं' (एंचा १२) । णाम न २, १५, उत्त ८, १२: दसवू २, १४)। २ नहीं देखनेवाला, अन्धा। ४ थीणद्धी' या अधम [नामन्] नाम-कर्म का एक भेद (सम ६७) । अधिकारान्तर का सूचक (सूत्र १, ४, २, निद्रा वाला (गच्छ १; पव १०७)। भूअ, अद सक [अ] खाना, भोजन करना। हूय वि [भूत जो अदृश्य हुआ हो अदुत्तरं प्र[दे] प्रानन्तर्य-सूचक अव्यय, अब, अदइ, अदर (षड्)। (सुर १०, ५६, महा)। बाद (गाया १,१)। अद्दण । वि [दे] आकुल, व्याकुल (दे १, अदंसण देखो अईसण (पंचभा)। अदुय न [अद्रन] अ-शीघ्र, धीरे-धीरे (भग अद्दण्ण १५ बृह १, निचू १०)। अदंसण पुं [दे] चोर, डाकू (दे १, २६, ७,९) °बंधण न [बन्धन] दीर्घ काल के अद्दन्न देखो अद्दण्ण (सुख १, १४)। षड्)। लिए बन्धन (सूत्र २, २)। अद्दव वि [आद्रव] गला हुआ (आव ६)। अदंसिया स्त्री [अदंशिका] एक प्रकार की अदुव [दे] या, अथवा, औरः 'हिसेज अद्दव्य न [अद्रव्य अवस्तु, वस्तु का प्रभाव; मीठी चीज (पएण १७)। अदुवा पारगभूयाई, तसे अदुव थावरे' (दस (पंचा ३)। अदक्खु वि [अदृष्ट] १ नहीं देखा हुआ । २ ५,५ प्राचा)। अद्दह सक [आ+ द्रह] उबालना, पानी-तैल असर्वज्ञ (सूम १, २, ३)। अदोलि वि अदोलिन् स्थिर, निश्चल वगैरह को खूब गरम करना। प्रद्दहे इ, अद्दअदक्खु वि [अदक्ष] अनिपुण, अकुशल अदोलिर) (कुमा)। हेमिः संकृ. अद्दद्देत्ता (उवा)। (सून १,२, ३)। अद्द वि [आर्द्र] १ गोला, भीगा हुआ, अक- अद्दहिय वि [आहित] रखा हुआ, स्थापित अदक्खु वि [अदृश्य] १ नहीं देखनेवाला, ठिन (कुमा)। २ पुं. इस नाम का एक (विपा १, ६)। For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्दा-अद्भक्खण पाइअसहमहण्णवो अद्दा स्त्री [आर्द्रा] १ नक्षत्र-विशेष (सम कुडव, कुलव [कुडव, कुलव] एक टी)। रजिय वि [ राज्यिक] राज्य का २) । २ छन्द-विशेष (पिंग)। प्रकार का धान्य का परिमाण (राय)। प्राधा हिस्सेदार, अधं राज्य का मालिक अद्दाअ [दे] १ आदर्श, दर्पण (दे १, १४; क्खेत्त न [क्षेत्र] एक अहोरात्र में चन्द्र (विपा १, ६)। रत्त पुं [सत्र] मध्य पएण १५; निचू १३) । पसिण पुं[प्रश्न] के साथ योग प्राप्त करनेवाला नक्षत्र (चंद रात्रि का समय, निशीथ (गा २३१) । विद्या-विशेष, जिससे दर्पण में देवता का पाग- १०) खल्ला स्त्री [°खल्वा] एक प्रकार 'वेयाली स्त्री [°वेताली] विद्या-विशेष (सूप मन होता है (ठा १०)। विज्जा स्त्री [विद्या] का जूता (बृह ३)। घडय पुं [ घटक] २, २)। संकासिया स्त्री [मांसाश्यका] चिकित्सा का एक प्रकार, जिससे बीमार को आधा परिमाणवाला घड़ा, छोटा घड़ा (उवा)। एक राज-कन्या का नाम (आव ४)। सम दर्पण में प्रतिबिम्बित कराने से वह नीरोग °चंद पुं [°चन्द्र] १ आधा चन्द्र (गा | न [°सम] एक वृत्त, छन्द-विशेष (ठा ७)। होता है (वव ५)। ५७१) । २ गल-हस्त, गला पकड़ कर बाहर हार पुं [हार] १ नवसरा हार (रायः अद्दाइअ वि [दे] आदर्श वाला, आदर्श से करना (उप ७२८ टी)। ३ न. एक हथियार | प्रौप)। २ इस नाम का एक द्वीप । ३ समुद्रपवित्र (बृह १)। (उप पृ ३६५)। ४ अर्भ नन्द के आकारवाले विशेष (जीव ३) । हारभद्द [ भद्र] अद्दाग [दे] देखो अद्दाअ (सम १२३)। सोपान (णाया १,१)। ५ एक तरह का | अर्धहार-द्वीप का अधिष्ठाता देव (जीव ३)। अद्दि पुं[अद्रि] पहाड़, पर्वत (गउड)। बाण, 'एसो तुह तिवखणं सीसं छिदामि प्रद्ध- हारमहाभद्द [हारमहाभद्र] पूर्वोक्त ही अहिट्ठ वि [अदृष्ट] १ नहीं देखा हुआ (सुर चंदेण' (सुर ८, ३७) । चकवाल न अर्थ (जीव ३)। हारमहावर पुं हार१, १७२)। २ दर्शन का अविषय (सम्म [चक्रवाल] गति-विशेष (ठा ७)। चक्कि महावर] अर्धहार समुद्र का एक अधिष्ठायक पुं[°चक्रिन् ] चक्रवर्ती राजा से अधं देव (जीव ३)। हारवर पुं [ हारवर ] अद्दिय वि [आर्द्रित] भाद्र किया हुआ विभूति वाला राजा, वासुदेव (कम्म १, १२)। १ द्वीप-विशेष । २ समुद्र-विशेषः । ३ उनका भिगाया हुआ (विक्र २३)। °च्छद्र, छ? वि [°षष्ट] साढ़े पाँच (पि अधिष्ठायक देव (जीव ३)। हारवरभद्द पुं अद्दिय वि [अर्दित] पीटा हुआ, पीड़ित ४५०; सम १००)। म वि [ष्टिम] [हारवरभद्र] अर्धहारवर द्वीप का एक (वव १०)। साढ़े सात (ठा है)। णाराय न [°नाराच] अधिष्ठाता देव (जीव ३)। हारबरमहावर अदिस्स वि [अदृश्य देखने के अयोग्य या | चौथा संहनन, शरीर के हाड़ों की रचना- पुं [ हारवरमहावर] अर्धहारवर समुद्र का अशक्य (सुर ६, १२०; सुपा ८५ श्रा २७)। विशेष (जीव १)। णारीसर [ नारीश्वर] एक अधिष्ठाता देव (जीव ३)। हारोभास पुं अहिस्संत । वकृ. [अदृश्यमान] नहीं शिव, महादेव (कप्पू) । तइय वि [तृतीय] [हारावभास] १ द्वीप-विशेष । २ समुद्रअद्दिस्समाण दिखाता हुआ (सुपा १५४; ढाई (पउम ४८, ३५) । तेरस वि [त्रयो- विशेष (जीव ३) । हारोभासभद्द [हारा४५७)। दश साढ़े बारह (भग)। तेवन्न वि ["त्रिप वभासभद्र] अर्धहारावभास नामक द्वीप का अद्दीण वि [अद्रीण] क्षोभ को अप्राप्त, शाश] साढ़े दावन (सम १३४)। द्ध वि एक अधिष्ठाता देव (जीव ३)। हारोभास [धि चौथा भाग, पौपा (बृह ३)। नवम अक्षुब्ध, निर्भीक (पएह २, १)। महाभद्द पुं[हारावभासमहाभद्र] पूर्वोक्त वि [ नवम] माड़े पाठ (पि ४५०)। ही अर्थ (जीव ३)। हारोभासमहावर पुं अद्दीण देखो अदीण (मोघ ५३७) । 'नाराय देखो °णाराय (कम्म १, ३८)। [हारावभासमहावर अर्धहारावभास नामक अदुमाअ वि [दे] पूर्ण, भरा हुआ (षड्)। पंचम वि [पञ्चम] साढ़े चार (सम समुद्र का एक अधिष्ठाता देव (जीव ३)। अद्देस वि [अदृश्य देखने के अशक्य (स १०२) । पलिअंक वि [पर्यङ्क] आसन- हारोभासवर पुं [हारावभासवर] देखो १७०)। विशेष (ठा ५, १)। 'पहर पुं [प्रहर] पूर्वोक्त अर्थ (जीव ३)। ढ़य पुं [ढिक] अद्देसीकारिणी श्री [अदृश्यीकारिणी अदृश्य ज्यौतिष शास्त्र प्रसिद्ध एक कुयोग (गण एक प्रकार का परिमारण, आढ़क का प्राधा बनानेवाली विद्या (सुपा ४५४) । १८)। बब्बर पुं [बबर] देश-विशेष भाग (ठा ३, १)। अद्देस्सीकरण वि [अदृश्यीकरण] १ अदृश्य (पउम २७, ५)। मागहा, 'ही स्त्री करना । २ अदृश्य करनेवाली विद्या, 'किंपुण [मागधी] प्राचीन जैन साहित्य की प्राकृत अद्ध पुं [अध्वन्] मार्ग, रास्ता (महा; आचा)। विजासिज्झा अद्देस्सीकरणसंगमो वावि' (सुपा भाषा, जिसमें मागधी भाषा के भी कोई २ अद्धत पुं[दे] १ पर्यन्त, अन्त भाग (दे १, ४५५)। नियम का अनुसरण किया गया है। 'पोराण १८ से ६, ३२; पाप); 'भरिजंतसिद्धपहद्धंतो अद्दोहि वि [अद्रोहिन] द्रोह-रहित, द्वेष- मद्धमागहभासानिययं हवइ सुत्त (हे ४, २८७; (विक्र १०१)। २ पुं.ब. कतिपय. कईएक वर्जित (धर्म ३)। पि १६; सम ६०; पउम २,३४)। मास पुं (से १३, ३२)। अद्ध पुन [अर्ध] १ आधा (कुमा)। २ खण्ड, [ मास] पक्षः पनरह दिन (दे १०)। अद्धक्खण न [दे] १ प्रतीक्षा करना, राह अंश (पि ४०२)। करिस [कर्षे परि- मासिय वि [ मासिक] पाक्षिक, पक्ष- देखना (दे १, ३४)। २ परीक्षा करना (दे माण-विशेष, फल का पाठवा भाग (मरण)।। सम्बन्धी(महा)। यंद देखो चंद (उप ७२८ । १, ३४)। For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अद्धक्खन [] १ संज्ञा करना, इशारा करना, संकेत करना (दे १, ३४) । अद्धक्विअवि [अर्धाक्षिक ] विकृत प्रांख वाला (महानि ३ ) । अद्धजंत्री [दे. अर्धजङ्घा ] एक प्रकार अद्धजंधी ) का जूता, मोचक नामक जूता, जिसे गुजराती में 'मोड़ी कहते हैं (दे १, ३३, २५३६. १३९ ) । अद्धासिय वि[अभ्यासित] प्रश्रित (सुर ७, २१४ उप २६४ टी) । २ प्रारूढ ( स ६३० ) । अद्धि देखो दि 'धरणा बहिरंधरा, ते चित्र जीनंति मासे लोए। रग सुरति खलवणं, खलाए अनि (७०४)। अर[अ] यज्ञ याग ( पाच ) । अद्धरवि [दे] प्रच्छन्न, गुप्त 'तम्हा एयस्स अद्धि स्त्री [अधृति] धीरज का अभाव, चिट्टियमद्धरट्टिश्रो वेब पिच्छामि, तो राया तम्पिट्टिलग्गो' (सम्मत १६१ ) | अद्धा [. अद्धाद्धा ] दिन अथवा रात्रि का एक भाग (सत टी) । अपेडा श्री [अर्धपेटा ] सन्दूक के अर्थ भाग के प्राकवाली गृह-पंक्ति में भिक्षाटन (उत्त ३०, १६) । अविर [दे] १ मरडन भूषा 'मा कुरण श्रद्धविप्रारं (दे १, ४३ ) । २ मंडल, छोटा मंडल ( १ ४३ ) । ४ अद्धा स्त्री [दे. अद्धा ] १ काल, समय, वक्त, (ठा २, १ नव ४२ ) । २ संकेत ( भग ११, ११) । ३ लब्धि, शक्ति-विशेष (विसे) । प्र तत्त्वतः वस्तुतः । ५ साक्षात् प्रत्यक्ष (पिंग ) । ६ दिवस । ७ रात्रि ( सत्त εटी) । "काल [["काल] सूर्य आदि की क्रिया (परिभ्रमण) से व्यक्त होनेवाला समय, 'सूरकिरिया fafe गोदोहाकरियासु निरवेक्खो श्रद्धाकालो भराई (विसे)। छेय पुं [छेद ] समय का एक छोटा परिमारग, दो भावलिका परिमित काल ( पंच ) । पञ्चकखाण न [प्रत्याख्यान] अमुक समय के लिए कोई व्रत या नियम करना ( ६ ) । मीसय [] एक प्रकार की सत्य-मृपा भाषा (ठा १०) । मीसिया स्त्री ['मिश्रिता] देखो पूर्वोक्त अर्थ ( पण ११) । समय पुं [" सम] सर्व-सूक्ष्म काल ( पण ४) । अद्वाण [न] मार्ग, रास्ता (खाया १, १४ सुर ३,२२७) । सीसय न [" शीर्षक ] मार्ग का अन्त, अटवी आदि का अन्त भाग (वव ४, बृह ३) । पाइअसहमणवो अद्धक्खिअ - अधि | अद्वाण पुं [अध्वन् ] मार्ग, रास्ता 'हवइ सलाभं नरस्स श्रद्धाणं' ( सुख ८, १३) । "सीसयन ["शीर्षक] जहां पर संपूर्ण साथ के लोग आगे जाने के लिए एकत्र हों वह मार्ग (वय ४)। अद्धाणिव वि [आधिक] पथिक, मुसाफिर (४) । अधई (शौ) [ अथाकम् ] १ हाँ। २ और क्या । ३ जरूर, श्रवश्य (कप्पू ) । अर्थ [ अधस् ] नीचे (पि २४०)। अधट्ठ वि [अधृष्ट] अ- ढीठ (कुमा) । अणवि [ अन ] निर्धन, गरीब 'रम विववि मेोयविरो महइ । मग्गइ सरीरमधरणो, रोई जीए चिय कयत्थो ।' (ग) अणि वि [ अधनिन् ] धन-रहित, निर्धन (था १४) । अण्ण वि [अन्य] अकृतार्थं निन्द्य ( परह (१,१) । अधम देखो अहम (उत्त ) । अधमण्णव [अधमर्ण] करार देनदार अधमन्न ) ( धर्मवि १४६; १३५) । अधम्म [अधर्म] पाकर्म ( ११८३६) । अधुअवि [अर्धोदित] थोड़ा कहा हुआ (पि १५८ ) । अधुग्घाड वि [अर्धोद्घाट] श्राधा खुला 'मोरपाडा चना' (२०१०७) । अधुरि [अर्धचतुर्थ] हे सीन (सम १०१ विसे ६९३) । अदधुत्त वि [ अर्धोक्त ] थोड़ा कहा हुआ (१०) । अधुष वि [अ] १ मंगल परिवर विनश्वर ( स : ३९३ पंचा १६६ पउम २६, ३०)। २ अनियत ( आचा) । अजड वि [अ] टुकड़ेवाला, खण्डित २ क्रिवि. आधा-आधा जैसे ही विवेडा पाचवा महरा पति महरा (से६, ६६) । (दे S अद्धोरु देखी अदोग (२, ४४ प } अद्धोरुग ६७६) । अद्धोवमिय वि [अद्धोपम्य, अद्धौपमिक ] काल का वह परिमारण जो उपमा से समझाया जा सके, पल्योपम श्रादि उपमा-काल (ठा २, ४८) । अथ [ अधस् ] नीचे (२०) | अथ (शी) [ अथ] अबाद (यू)। For Personal & Private Use Only , नीतिः 'अधम्मेण चैव वित्ति कप्पेमाणे विहर (गाया १, १८) २ एक स्वतन्त्र श्रीर जो वस्तु जो जीन वगैरह को स्थिति करने में सहायता पहुंचाती है (सम २; नव ५) । ३ वि. धर्म - रहित, पापी (विपा १, १) । केड [केतु] पापिष्ठ (खाया १, १८) । खाइ वि [ ख्याति ] प्रसिद्ध पापी (दिपा १, १ ) । खाइ वि [ख्यायिन् ] पाप का उपदेश देनेवाला (भग ३, ७ ) । 'स्थिकाय [स्तिकाय ] अधम्म का दूसरा अर्थ देखो (अणु) । 'बुद्धि वि [बुद्धि] पापी, पापिष्ठ (उप ७२८ टी) । अधम्मिट्ठ वि [ अधर्मिष्ठ ] १ धर्म को नहीं करनेवाला (भग १२, २) २ महापापी, पापिष्ठ (गाया १, १८ ) । अम्मिट्ठ वि [अधर्मेष्ट ] अधर्म-प्रिय, पाप( १२, २) अम्मिट्ठे व [ अधमष्ट ] पापियों का प्यारा (भाग १२, २) । 1 अमिय देखो अहमिय(४१) अधर देखो अहर (उवा सुपा १३८ ) । अधवा (शौ) देखो अहवा (कप्पू) । अधा स्त्री [अधस् ] धो-दिशा, नीचली दिशा (डा ५)। अधि देखो अहि = अधि । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसदमद्दण्णवो करनेवाला 'गो य नरयं अनियमियप्पा' ११४, २१) । अनियट्टि देखो अणियट्टि (सम २६० कम्म २ सत्त ७१ टी ) । अधिगम देखो अहिगम (धर्मं २१ विसे २२ ) । अनिरुद्ध देखो अणिरुद्ध (अंत १४) । अनियय देखो अणियय ( प्रोघ २ ) । अभिगरण देखो अहिगरण (त्रि १) अधिगरणिया देखो अहिगरणिया (पण २१) । अनिल देखो अलि (हे १, २२८ कुमा) । अनिसट्ट देखो अणिसट्ट (ठा ३, ४) । अनिहारिम देखी जगहारिम (भरा डा 1 अनीहारिम २४) । अधिणा परवश (पि ε१३ हे ४, ४२७ ) । अधिगार देखो अहिगार (सूनि ५८ ) । ) (अप) वि [अधीन] धावत, अधि-अप अधि देखो अद्धि (सुपा ६५६) अधिकरण देवी अहिगरण ( परह १, २) । अधिगवि [अधिक] विशेष ज्यादा अधिमासग पुं [अधिमासक ] अधिक मास (Fing) अधिरोविअ [ अधिरोपित ] प्रारोपित, 'माधवोसो' (धर्मवि १२७) । अधीगार देखो अहिगार ( सूनि १८० ) । अधीयदेखी अहीय (उस २०२२) । अधीस व [अधीरा ] नायक प्रविपति (कुम्मा २३) । अधुत्र देखो अद्ध्रुव (गाया १, १, पउम १४, ४१) । = अथो देखो अहो प्रप (३४२) । अनंद स्त्री [अनन्दि] श्रमङ्गल, अकुशल 'तं मोउनि २७) । अनन्न देखो अणण्ण ( कुमा) । अनय देखो अणय (सुपा ३७१ ) । अनल देखो अगल (हे १, २२८: कुमा) | अनागय देखो अणागय (भग) । अनागार देखो अगागार (भग) । अना देखो अणय (सुपा ४७० ; पि ३८० ) । अनाउंफ () [अनारम्भ] पाप-हिव (कुमा) । अनालंफ (चूपै) वि [अनालम्भ ] श्रहिंसक, (कुमा अनिगिण देखो अणगिण ( सम १७ ) । अनिदाया अनिदाया} देखो अणिदा (पण ३४)। अनिमित्ती स्त्री [अनिमित्ती ] लिपि-विशेष (विसे ४६४ टी ) । अनियमिव [अनियमित] अव्यय स्थित । २ असंयत, इन्द्रियों का निग्रह नहीं ५३ अंतो छरहं मासारणं पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहती मन का करेस्ासि' (भग १५) । अन्नाण देखो अण्णाण श्रज्ञान (कुमाः सुर १, १५ महा; उवर ६५३ कम्म ४, ६, ११) । अन्नाणि देखो अण्णाणि (उपा० ) । अन्नाणिय देखो अण्णाणिय ( पउम ४, (२०) । अन्नाय देखो पहला और दूसरा (सुर ६, २; सुषा २५६६ सुर २, सम्म ६६: सुपा २३३: सुर २, ११५; सुपा, ३०८); 'नाएग जं न सिद्धं को खलु सहलो तयत्थमन्नाओ ?' (उन ७१८ टी) । अन्नारिस देखो अण्णारिस (हे १ १४२; महा) | अनु (घर) देखो अजहा (कुमा) । अनुकूल देखी अनुकूल (सुपा ४०४) । अनुराह देखी अनुमाह (अभि ४१)। अनुचिट्ठिय देखी अगुट्टिय ( स १५) । अनुज्जुय देखो अणुज्जु (पि ५७) । अनुव देखो अणुव = अनु + भू । वकृ. अनुवंत ( रंभा ) | अन्न व [] रा ( २,१०)। अन्न देणो अग (१२० प्रासू ४३ परह अनि नि [अम्यदीय] परकीय बना २, १ ठा-३, २५, १३ श्रा ६) । २२.३) । अन्नइय देखो अण्णइय (भवि ) । अन्नओ देखो अण्णओ। हुत्त क्रिवि ["मुख ] दूसरी तरफ (सुर ३, १३६) । अन्नत्तो देखो अण्णत्तो (कुमा) । (सुपा अन्नत्थ ) देखो अण्णत्थ (प्राचाः स १५०: अन्नत्यं कुमा)। अन्नदो देखो अण्गतो (कुमा) अन्नमन्न देखो अण्णमण्ण (गाया १. १) । अन्नन्न देखो अण्णग्ण (महा कुमा) । अन्नय पुं [अन्य] एक की सत्ता में ही दूसरे की विद्यमान जैसे नको ती धूम की सत्ता, नियमित सम्बन्ध (उप ४१३; स ६५१) । अन्नयर देखो अण्णयर (सुपा ३७० ) । अन्नया देखो अण्णा (महा) । अन्नव देखो अण्णव (सुपा ८५३ ५२६) । अन्नह देखो अण्ण (गुर १. १५६ कुमा) । अन्ना देखो अण्णा (पउम १०० २४३ महा सुर १, १४३ प्रासू ७) । अन्नहि देखो अहि (कुमा) । अनास्वी [] माता, जननी (दस ७, १६ १२) । अन्नाइटु वि [अम्वादिष्ट ] सान्त, 'तुमं र घाउसों कासवा ! मनं मन्ना समासे तवेरणं For Personal & Private Use Only = अण्णा य २०२३ अन्निजमाण देखो अणिजमाण (गाया १, १५) । अनिय देखी अजय अन्य [अन्नकासुत] एक विख्यात जैन मुनि ( उब ) । अनिया देखो अष्णिया (वा २६) । अन्नुत्ति स्त्री [अन्योक्ति ] साहित्य-प्रसिद्ध एक अलङ्कार (मोह ३७; सम्मत्त १४५ ) । अन्नुन्न । देखो अण्णुण्ण (हे १, १५६; अन्नुमन)। अन्नू वि [ अन्यून] अ-हीन (धर्मवि १२६ ) । अप्रेस देख अण्णेस व अन्नेखमाण (उप ६ टी) । अन्नेसण देखो अण्णेसण (सुर १०, २२८ सरण) । अम्नेसि अन्नेसिय अन्नेसणा देखो अण्णेसणा (ठा ३, ४ ) । अन्य वि[अन्वेषक] गवेषक, खोज करने वाला ( स ५३५) । देखो असि (५१६० (पि आचा अन्नोन्न देवो अण्णोष्ण (कुमा; महा)। अप श्री. ब. [ अप्] पानी, जल (सुज Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ पाइअसद्दमण्णवो अपइट्ठाण-अपरिग्गह २ राग-द्वेष आदि की इच्छा न रखकरन्दण- २ . मुक्तात्मा, अपय १०)। काय पं. [°काय] पानी के जीव अपडिण्ण) वि [अप्रतिज्ञ] १ प्रतिज्ञा- २ पुं. प्रमाद का प्रभाव, सावधानी (पराह अपडिन्न रहित, निश्चय-रहित (प्राचा)। २,१)। अपइट्ठाण देखो अप्पट्ठाण (प्राचा; ठा ४, २ राग-द्वेष आदि बन्धनों से वजित (सून १, अपय वि [अपद] १ पांव-रहित, वृक्ष, द्रव्य, ३.३)। ३ फल की इच्छा न रखकर अनु- भमि वगैरह पैर रहित वस्त (गाय भूमि वगैरह पैर रहित वस्तु (णाया १,८)। अपइटिअ पुं [अप्रतिष्टित १ नरक-स्थान ष्ठान करनेवाला, निष्काम; 'गन्धेसु वा चन्दण- २पं. मुक्तात्मा, 'अपयस्स पयं नत्थि (प्राचा)। विशेष (देवेन्द्र २६) । देखो अप्पइट्टि। माह सेटुं, एवं मुगीरणं अपडिन्नमा (सूम ३ सूत्र का एक दोष (बृह १; विसे)। अपइट्रिय देखो अप्पइट्रिय (ठा ४, १)। अपय स्त्री [अप्रज] सन्तानरहित (बृह १)। अपएस वि [अप्रदेश] १ निरंश, अवयवअपडिपोग्गल वि [अप्रतिपुद्गल] दरिद्र, | अपर देखो अवर (निचू २०)। २ वैशेषिक रहित (भग २०, ५)। २ पुं. खराब स्थान निर्धन (निचू ५)। दर्शन में प्रसिद्ध अवान्तर सामान्य (विसे (पंचा ७)। अपडिबद्ध वि [अप्रतिबद्ध] १ प्रतिबन्ध २४६१)। अपंग पुं[अपाङ्ग] १ नेत्र का प्रान्त भाग। रहित, बेरोक; 'अपडिबद्धो अनलो व्य' (पराह | अपरच्छ वि [अपराक्ष असमक्ष, परोक्ष २ तिलक । ३ वि. हीन अंग वाला (नाट)। २,५)। २ आसक्ति-रहित (पव १०४)। अपडिवाइ देखो अप्पडिवाइ (ठा ६; अोघ अपंडिअ वि [दे] अ-नष्ट, विद्यमान ( षड् )। (पएह १, ३)। ५३२, रणदि)। अपरद्ध देखो अवरज्म (कप्प)। अपंडिअ [अपण्डित] १ सद्बुद्धि-रहित (बृह अपडिसंलीण वि [अप्रतिसंलीन] असंयत, अपरतिया स्त्री [अपरान्तिका] छन्द-विशेष १) । २ मूर्ख (अच्चु ५)। इन्द्रिय आदि जिसके काबू में न हों (ठा ४, (अजि ३४)। अपकरिस पुं [अपकर्ष] ह्रास (धर्मसं अपराइय वि [अपराजित] १ अ-परिभूत ८३७)। अपडिहट्टु अ [अप्रतिहत्य न दे कर (पएह १, ४) । २ पुं. सातवें बलदेव के पूर्वअपगंड वि [अपगण्ड] १ निर्दोष । २ न. (कस; बृह ३)। जन्म का नाम (सम १५३)। ३ भरतक्षेत्र फेन, पानी का झाग (सूत्र १, ३)। अपडिय देखो अप्पडिहय (गाया १, का छठवाँ प्रतिवासुदेव (सम १५४)। ४ अपचय पुं[अपचय अपकर्ष, हीनता (उत्त उत्तम-पंक्ति के देवों की एक जाति (सम५६)। अपडीकार वि [अप्रतीकार] इलाज-रहित, ५ भगवान् ऋषभदेव का एक पुत्र (राज)। अपञ्च देखो अवच्च; ‘अपञ्चणि व्विसेसारिण उपाय-रहित (पएह १, १)। सत्ताणि' (पि ३६७)। ६ एक महाग्रह (ठा २,३)। ७ न, अनुत्तर देवअपडुप्पण्ण! वि [अप्रत्युत्पन्न] १ अ-वर्त- लोक का एक विमान–देवावास (सम ५६)। अपञ्चय पुं [अप्रत्यय] अविश्वास (पएह १, अपडप्पन्न , मान, अ-विद्यमान (पि १६३)। | ८ रुचक पर्वत का एक शिखर (ठा ८)। ६ जम्बूद्वीप की जगती का उत्तर द्वार (ठा २ प्रतिपत्ति में अ-कुशल (वव ६)। अपञ्चल वि [अप्रत्यल] १ असमर्थ । २ अपण? वि [अप्रनष्ट] नाश को अप्राप्त (सुर अयोग्य (नचू ११)। ४,२)। अपच्छ वि [अपथ्य] १ अ-हितकर (पउम ४, २४०)। अपराइया स्त्री [अपराजिता] १ विदेह-वर्ष की एक नगरी (ठा २, ३) । २ आठवें बलदेव अपत्त देखो अप्पत्त (बृह १, ठा ५, २, सूम ८२, ७२)। २ न. नहीं पचनेवाला भोजन, की माता (सम १५२)। ३ अंगारक ग्रह की 'धेवेण अपच्छासेवणेण रोगुब्व वड्ढेई' (सुपा १, १४)। अपत्तिअंत वकृ. [अप्रतियत् ] विश्वास एक पटरानी का नाम (ठा ४, १)। ४ एक ४३८)। नहीं करता हुआ (गा ६७८; पि ४८७)। दिशा-कुमारी देवी (ठा८)।५ प्रोषधि-विशेष अपच्छिम वि [अपश्चिम] अन्तिम (मंदिः (ती ७)। ६ अञ्जनाद्रि पर्वत पर स्थित एक पाम उप २६४ टी)। अपत्तिय देखो अप्पत्तिय (भग १६, ३; पुष्करिणी (ती २)। अपजत्त । वि [अपर्याप्त] १ अपर्याप्त, पंचा ७)। अपज्जत्तग) असमर्थ (गउड)। २ पर्याप्ति | अपत्थ देखो अपच्छ (उत्त ७; पंचा ७)। अपराजिय देखो अपराइय (कप्पः सम ५६ (आहारादि ग्रहण करने की शक्ति) से रहित १०२ ठा २, ३)। अपभासिय देखो अवभासिय = अपभाषित (ठा २, १; नघ ४) । नाम न [नामन् ] (वव १)। | अपराजिया देखो अवराइया (ठा २, ३)। नाम-कर्म का एक भेद (सम ६७)। अपमत्त देखो अप्पमत्त (प्राचा)। अपराजिया स्त्री [अपराजिता] १ भगवान अपज्जवसिय वि [अपर्यवसित] १ नाश अपमाण न [अप्रमाण] १ भूठा, असत्य मल्लिनाथ की दीक्षा-शिविका (विचार १२९)। रहित (सम्म ६१) । २ अन्त-रहित (ठा १)। (श्रा १२)। २ वि. ज्यादा, अधिक (उत्त २ पक्ष की दशवीं रात (सुज १०, १४)। अपडिच्छिर वि [दे] जड़-बृद्धि, मूर्ख (द १, | २४)। अपरिग्गह वि [अपरिग्रह] १ धन-धान्य | अपमाय वि [अप्रमाद] १ प्रमाद-रहित ।। मादि परिग्रह से रहित (पएह २, ३) । २ 7 . For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्गहा- अपेहय ममता-रहित, निर्ममः 'अपरिग्गहा अणारंभा भिक्खू तारणं परिव्वए' ( सूत्र १, १, ४) । अपरिग्गहा स्त्री [अपरिग्रहा ] वेश्या (वव २) । अपरिगहि स्त्री [अपरिगृहीता] १ वेश्या, कन्या वगैरह अविवाहिता स्त्री (पडि ) । २ पति- होना स्त्री, विधवा (धर्मं २ ) । ३ घरदासी । ४ पनहारी । ५ देव-पुत्रिका, देवता को भेंट की हुई कन्या ( श्राचू ५) । अपरिच्छण्ण वि [अपरिच्छन्न] १ नहीं 1 अपरिच्छन्न । ढका हुआ, अनावृत (वव ३) । २ परिवार रहित (वव १) । अपरिणयवि [ अपरिणत] १ रूपान्तर को अप्राप्त (ठा २, १) । २ जैन साधु की भिक्षा का एक दोष । (प्राचा) । अपरित वि [अपरीत ] अपरिमित, अनन्त ( पण १८ ) । अपरिसेस वि [अपरिशेष ] सब, सकल, निःशेष (परह १, २, पउम ३, १४० ) । अपरिहारियवि [अपरिहारिक ] १ दोषों का परिहार नहीं करनेवाला । ( श्राचा) । २ पुं. जैनेतर दर्शन का अनुयायी गृहस्थ ( निचू २) । अपवग्ग पुं [अपवर्ग] मोक्ष, मुक्ति (सुर १० सत्त ११) । अपविद्धवि [अपविद्ध] १ प्रेरित (से ७, ११) । २ न. गुरु-वन्दन का एक दोष, गुरु को वन्दन करके तुरन्त ही भाग जाना (शुभा २३) । अप वि [अप्रभ] निस्तेज (दे १, १६४) । अपहृत्य देखो अवत्थ (भवि ) । अपहार वि[ अपहारिन्] अपहरण करनेवाला ( स २१७) । अपहवि [अपहृत ] छीना हुआ ( पउम ७६, ५)। अपहुवि [अप्रभु] १ असमर्थ । २ नाथरहित, अनाथ ( पउम १०१, ३५) । पाव [पत्रित] पात्र रहित, भाजनवजित; 'नो कप्पइ निग्गंथीए अपाइयाए होत्तए ' ( कस) । पाउड वि [ अपावृत] नहीं ढका हुआ, वस्त्र-रहित, नम (ठा ५, १) । पाइअसद्दमद्दण्णवो अपादाण न [ अपादान ] कारक- विशेष, जिसमें पञ्चमी विभक्ति लगती है (विसे २११७) । अपाण न [ अपान] १ पान का अभाव । (उप ८४५) । २ पानी जैसा ठंढा पेय वस्तुविशेष | (भग १५ ) । ३ पुंन. अपान वायु । ४ गुदा (सुपा ६२० ) । ५ वि. जल- वर्जित, निर्जल (उपवास); 'छट्ठणं भतेरणं श्रपाणएणं' (जं २) । अपायावगम पुं [ अपायापगम ] जिनदेव का एक अतिशय (संबोध २ ) । अपार वि [अपार ] पार-रहित, अनन्त (सुपा ४५०)। अपारमग्ग पुं [] विश्राम, विश्रान्ति (दे १, ४३)। [प] १ पाप - रहित (सूत्र १, १, ३) । २ न. पुण्य (उव) । पावा [पापा ] नगरी-विशेष, जहां भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ था, यह आजकल 'पावापुरी' नाम से प्रसिद्ध है और बिहार से आठ माईल पर है (राज) । अपिट्ट वि [दे] पुनरुक्त, फिरसे कहा हु ( पड् ) । [अ] निट ( जीव १) । अपिह अ [ अपृथक् ] अ-भिन्न (कुमा) । अपुणबंधग ) वि [ अपुनर्बन्धक] फिर से अपुणबंधय उत्कृष्ट कर्मबन्ध नहीं करने वाला, तीव्र भाव से पाप को नहीं करने वाला (पंचा ३ उप २५३३ ६५१) । अणभव पुं [अपुनर्भव] १ फिर से नहीं होना । २ वि. जिससे फिर जन्म न हो वह, मुक्ति-प्रद ( परह २, ४) । अपुणभाव वि [अपुनर्भाव] फिर से नहीं होनेवाला (पंच १) । अणभव देखो अपुणब्भव (कुमा) । अपुणरागम पुं [अपुनरागम] १ मुक्त आत्मा । २ मुक्ति, मोक्ष ( दसचू १) । [ अपुनरावर्त्तक] १ अपुग रावत्तग ) अनुणवत्तय । फिर नहीं घूमने वाला, मुक्त श्रात्मा । २ मोक्ष, मुक्ति ( पि ३४३ श्रपः भग ११) । For Personal & Private Use Only ५५ अपुनरावर्तिन् ] मुक्त [अपुनरावृत्ति ] मोक्ष, अपुणरावत्ति पुं श्रात्मा ( पि ३४३) । वित्त मुक्ति (डि ) । अपुणरुत वि [अपुनरुक्त] फिर से श्रकथित, पुनरुक्ति-दोष से रहित; 'अपुरणरुतेहि महाविह संथुइ' (राय) । अपुणागम देखो अपुगरागम ( पि ३४३) । अपुणागमण [अपुनरागमन] १ फिर से नहीं माना। २ फिर से प्रनुत्पति; 'अपुरणागमरणाय वतं तिमिरं उम्मूलियं रविणा (गउड) | अपुग न [अपुण्य ] १ पाप । २ वि. पुण्यरहित, कम नसीब, हतभाग्य ( विपा १, ७) । अपुण्ण वि [अपूर्ण ] अधूरा, अपरिपूर्ण (विपा १, ७) । - gora [] आक्रान्त ( पड् ) । अपुत} वि [अ] अपुत्तिय ) ( सुपा ४१२ ३१४) । २ स्वजनरहित, निर्मम निःस्पृह (प्राचा) । अन्न देखो अपुग (गाया १, १३) । अमन [ अ ] नपुंसक ( ओघ २२३) । अपुल देखो अप्पुल्ल (चंड ) । अपुव्यवि [अपूर्व ] १ नूतन, नवीन । २ अद्भुत, आश्चर्यकारक । ३ असाधारण, अद्वितीय ( ४, २७० उप ६ टी) । करण [ग] १ आत्मा का एक अभूतपूर्व शुभ परिणाम ( श्राचा) । २ आठ गुणस्थानक (पव २२४, कम्म २, ९) । अ) पुं [अपूप] एक भक्ष्य पदार्थ, पूम्रा, अपूर्व पूड़ी (पः परण ३६ दे १, १३४ ६, ८१) । अपेक्ख सक [ अप + इक्षू_ ] अपेक्षा करना, राह देखना । हे अपेक्खिदुं (शौ ) ( नाट) । अपेच्छवि [अप्रेक्ष्य ] १ देखने के अशक्य | २ देखने के अयोग्य ( उव) । अपेय वि [ अपेय ] पीने के प्रयोग्य, मद्य आदि (कुमा) । अपेय व [अपेत ] गया हुआ, नऊः 'अपेय'चक्खु' (बृह १) । अपेय वि [अपेक्षक ] अपेक्षा करने वाला ( आव ४) । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ अपोरिसिय) वि [अपौरुषिक ] पुरुष से अपोरिसीय | ज्यादा परिमारण वाला, अगाध ( खाया १, ५, १४) । अपोरिसीय वि [अपौरुषेय] पुरुष से नहीं बनाया हुआ, नित्य (ठा १० ) । अपोह सक [ अप + ऊह् ] निश्चय करना, निश्चय रूप से जानना । पोह (विसे ५६१) । अपोह पुं [अपोह] १ निश्रय-ज्ञान (विसे ३६) । २ पृथग्भाव, भिन्नता (प्रोध ३ ) । अप्प देखो अत्त = प्राप्त; प्रप्पोलंभनिमित्तं पढमस्स गायज्झयणस्स श्रयमठ्ठे पण्णत्तेति | अप्पभरि बेम' (गाया १, २ ) । अप्प व [अल्प ] ? थोड़ा. स्तोक (सुपा २८०, स्वप्न ६७) । २ प्रभाव ( जीव ३ भग १४, १) । अप्प [आत्मन् ] १ आत्मा, जीव, चेतन ( गाया १, १ ) । २ निज, स्व 'प्रणा पण कमक्खयं करित्तए ' ( खाया १, ५) । ३ देह शरीर (उत्त ३) । ४ स्वभाव, स्वरूप (श्राचा)। घाइ वि [ 'घातिन् ] श्रात्म-हत्या करनेवाला ( उप ३५७ टी) । 'छंद वि[च्छन्द] स्वैरी, स्वच्छन्दी ( उप ८३३ टी) । 'जवि [ज्ञ] १ आत्मज्ञ ( हे २, ५३ ) । २ स्वाधीन (निचू १) । 'जोइ पुं [ 'ज्योतिस् ] ज्ञानस्वरूप, 'किजोइरयं पुरिसो अप्पत्जोइ ति रिगडिट्टो' (विमे । oणुवि [ज्ञ] श्रात्म-ज्ञानी (षड् ) । सवि [व] स्वतन्त्र, स्वाधीन (पान) पउम ३७, २२) । वह पुं [वध] श्रात्म-हत्या, अपघात (सुर २, १९६; ५, २३७) । वाइ वि [वादिन] आत्मा के अतिरिक्त दूसरे पदार्थ को नहीं माननेवाला (दि) । पाइस दमणवो अप्पट्ठाण पुंन [ अप्रतिष्ठान] १ मोक्ष, मुक्ति (प्राचा) । २ सातवीं नरक भूमि का बीचला आवास (सम २ ठा ५, ३ ) । बद्ध । अपइट्रिअ वि [अप्रतिष्ठित ] १ प्रति २ अशरीरी, शरीर-रहित (प्राचा २, १६, १२) । देखो अपइट्ठिअ । अपलिय वि [ अपक्वौषधि ] नहीं पकी हुई फल - फलहरी ( स ५० ) । अप्पओजग वि [ अप्रयोजक ] श्रगमक, - नायक ( हेतु ) ( धर्मसं १२२३) । [आत्मम्भरि] अकेलपेट्स, अप पुं [दे] पिता, बाप (दे १, ६) । अपक [ अ ] अर्पण करना, भेंट करना । अप्पेइ (हे १, ६३) । अप्पनइ (नाट)। संकृ. अप्पिअ (सुपा २८० ) । कृ. अप्पेयव्व (सुपा २६५: ५१६ ) । अप्पस देखो अपगास (नाट) । अप्पस तक [ श्लिष् ] श्रालिङ्गन करना । पास (षड् ) । स्वार्थी (उप ५७०) । अप्पकंप वि[अप्रकम्प] निश्चल, स्थिर (ठा १० ) । अप्पर वि[आत्मीय] स्वकीय, निजी (प्रामा) । अप्पक्क वि [अपक्क] नहीं पका हुआ, कच्चा (सुपा ४१३) । अप्प देखो अप्प (याव ४: श्राचा) । अप्पगास पुं [अप्रकाश ] प्रकाश का प्रभाव, अन्धकार ( निन्नू १ ) । अप्पगुत्ता स्त्री [दे] कपिकच्छू, कौंच वृक्ष (दे १, २९ ) । अप्पजाणुअ वि [आत्मज्ञ ] श्रात्मा का जानकार ( प्राकृ १८ ) । अप्पाणुअवि [अल्पज्ञ ] अज्ञ, मूर्ख (प्राकृ १८) । अप्पज्झवि [दे] श्रात्म-वश, स्वाधीन (दे १, १४) । अप्पडिआर वि [अप्रतिकार ] इलाज-रहित, उपाय-रहित ( मा ४३ ) । अप्पडिकंटय वि [अप्रतिकण्टक ] प्रतिपक्षशून्य प्रतिस्पध-रहित (राय) । अपड+म्म वि [ अप्रतिकर्मन् ] संस्काररहित, परिष्कार-वर्जितः 'सुरणागारे व अप्पडिकम्मे' ( परह २, ५ ) । अपडिक्कत वि [अप्रतिक्रान्त ] दोष से अनिवृत्त व्रत नियम में लगे हुए दूषरणों की जिसने शुद्धि न की हो वह (प) । अप्पांडकुद वि [अप्रतिक्रुष्ट ] श्रनिवारित, नहीं रोका हुआ (ठा २, ४) । For Personal & Private Use Only अपोरिसिय- अप्पडीबद्ध अप्पडिचक्क वि [ अप्रतिचक ] अतुल्य, समान (दि) । अप्पाडण्ण अपडिण्ण (आचा) । अप्पडिबंध पुं [ अप्रतिबन्ध] १ प्रतिबन्ध का प्रभाव । २ वि. प्रतिबन्ध - रहित (सुपा ६०८ ) । अप्पडिबद्ध देखो अपडिबद्ध ( उत्त २६ पि २१८) । अप्पडिबुद्ध वि [अप्रतिबुद्ध] १ अ-जागृत । २ कोमल, सुकुमार (अभि १९१) । अप्पडिमवि [अप्रतिम ] श्रसाधारण, धनु(उप ७६८ टी सुपा ३५) । अप्पडिरूव वि [अप्रतिरूप] ऊपर देखो (उप ७२८ टी) । अप्पडिलद्ध वि [ अप्रतिलब्ध] अप्राप्त ( गाया १, १ ) । अप्पडिलेस्स वि [अप्रतिलेश्य ] असाधारण मनो-बलवाला (प) । अप्पडिलेहण न [अप्रतिलेखन ] श्रपयँवेक्षरण, अनवलोकन, नहीं देखना (श्राव ६) । अप्पडिलेहा स्त्री [अप्रतिलेखना ] ऊपर देखो (कप्प) । पडिले हिय वि [अप्रतिलेखित ] श्र-पर्यवे क्षित, अनवलोकित, नहीं देखा हुआ (उवा) । अपडलोम वि[अप्रतिलोम ] अनुकूल (भग २५, ७ अभि २४) । अप्पडिवरिय पुं [अप्रतिवृत ] प्रदोष काल (बृह १) । अपडिवाइवि [अप्रतिपातिन् ] १ जिसका नाश न हो ऐसा, नित्य (सुर १४, २६) । २ श्रवविज्ञान का एक भेद, जो केवल ज्ञान को बिना उत्पन्न किये नहीं जाता (विसे) । अपहित्य वि [ अप्रतिहस्त ] असमान, अद्वितीय (से १३, १२) । अयि वि [अप्रतिहत] १ किसी से नहीं रुका हुम्रा ( परह २, ५ ) । २ श्रखण्डित, बाधितः अप्पsिहसासणे' (गाया १,१६) । ३ विसंवाद रहित 'अप्पडियवरनारणदंसरणघरे' (भग १, १) । अप्पडीबद्ध देखो अपडिबद्धः 'निम्ममनिरहंकारा निश्रयसरीरेवि अप्पडीबद्धा' (संथा ६० ) । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पढिय - अपहिय अप्पय [अल्पक] गोड़ी वाला, अल्प वैभववाला (सुपा ४३० ) । अप्पण न [अर्पण ] १ भेंट उपहार, दान (श्रा २७) । २ प्रधान रूप से प्रतिपादन (विसे १८४३) । अप्पण देखो अप्प = श्रात्मन् ( श्राचा; उत्त १३ महा; हे ४, ४२२) । अपण [आत्मीय] स्वकीय, निजकाः 'नो अप्परगा पराया गुरुरगो कइयावि होंति सुद्धारणं' (सद्धि १०५) । अप्पणय वि [आत्मीय] स्वकीय, निजी (५०,१६ सुपा २७१ हे २,१५३) । अप्पणा अ [ स्वयम् ] स्वयं, आप, निज, खुद ( प ) । अप्पणिज वि [आत्मीय] स्वकीय, अप्पणिज्जिय । स्वीय (ठा १ श्रवम) । अपणो x [ स्वयम् ] आप खुद, निज 'विप्रसंति प्रणो चेव कमलसरा' (हे २, 202)1 अप्पण्ण देखो अक्कम = आ + क्रम् अप्परगइ (माह ७३) । अप्पण्णुअ देखो अप्पजाणुअ = आत्मज्ञ अल्पज्ञ ( प्राकृ १८ ) | अप्पतक्किय वि [अतर्कित ] अवितर्कित (३०) 1 अप्पत्त पुंन [ अपात्र ] १ अयोग्य, नालायक, कुपात्र 'श्रवि हु प्रप्यंत्ता पररिद्धि नेय विसहृति' (सुर ३, ४५ मा १५७ ) । २ वि. धार-रहित, भाजन- शून्य (सुर १३, ४५ ) । अप्पत व [अपत्र] [१] पता से रहित (वृक्ष) (सुर ३, ४५) २ पांच से रहित (पक्षी) (१,१४)। अप्पन्त वि [ अप्राप्त ] अलब्ध, अनवाप्त (सुर १३,४५३ श्रोध ८६) । कारि वि [कारिन्] वस्तु का बिना स्पर्श किये ही ( दूर से) ज्ञान उत्पन्न करनेवाला, 'अप्पत्तकारि यरणं' (विसे) | अप्पति श्री [अप्राप्ति ] नहीं पाना (सुर ४, २१३) । अप्पत्तिव पुन [ अपस्वय] विधा (स ६६७; सुपा ११२) । ८ पाइअसद्दमहणवो अप्पत्तियन [अप्रीति] १ प्रीति प्रेम का प्रभाव (ठा ४, ३) । २ क्रोध, गुस्सा ( सूत्र १, १, २ ) । ३ मानसिक पीड़ा ( आचा ) । ४ अपकार (निचू १) । पद्धति नाणं तह दिति दाएं, सव्वंपि तेसि कयमप्यमाणं ( सत्त २० ) । अप्पमाय [अप्रमाद ] प्रमाद का प्रभाव (Fig 2) पत्तियवि [ अपात्रिक] पात्र-रहित, अप्पमेव वि [अप्रमेय ] १ जिसका मान आधार - वर्जित (भग १६, ३) । हो सके, अनन्त (पउम ७५, २३) । २ जिसका अपत्तियण न [ अप्रत्ययन] अविश्वास, ज्ञान न हो सके ( धर्म १ ) । ३ प्रमाण से अश्रद्धा (उप ३१२) । जिसका निश्चय न किया जा सके वह (परह १, ४) । अप्पय देखो अप्प ( उवः पि ४०१ ) । अपरिचत वि [अपरित्यक्त ] नहीं छोड़ा हुआ, मारियुक्त (गुफा ११० ) । अपरिवदि [अपरिपतत] नष्ट विद्यमान (श्रा ६) । अपत्य व [अ] १ प्रार्थना करने के अयोग्य । २ नहीं चाहने लायक (सुपा ३३६) । अप्पत्थ न [अप्रार्थन] १ धावा २ निन्द्रा प्रवाह (उत्त३२) । अप्पत्थिय वि [अप्रार्थित ] १ श्रयाचित । २ अनभिलषित, अवांछित (जं ३) । पत्थय, "पथिय[ि"प्रार्थक, "धिक] मरणार्थी, मौत को चाहनेवाला 'कीस गं एस प्रप्पत्थियपत्थए दुरंतपंतलक्खणे' (भग ३, २३ गाया १९७९) । अप्पर [िअप्रस्तुत] प्रसंग के अनुपयुक्त, यान्तर (सुपा १०२) । अप्पटु नि [अप्रद्विष्ट] जिसपर द्वेष न हो वह, प्रीतिकर (श्रोष ७४४) । अप्पदुस्समाण वह [अद्वयत्] द्वेष नहीं (१२)। अपपत्र [अप्राप्य ] प्राप्त करने के अशक्य (विसे २६००) । अप्पभाय न [ अप्रभात ] १ बड़ी सबेर । २ बि. प्रकाश-रहित, कान्तिपु भाए गय' (सुर ११, ११० ) । अप्पभुवि [अप्रभु] [धत (ग) २ पुं. मालिक से भिन्न, नौकर वगैरह (धर्म ३) । अप्पमजिय [अप्रमार्जित] साफ नहीं किया हुआ (उया)। अप्पमत्त वि [अप्रमत्त] प्रमाद-रहित, सावधान, उपयोगवाला (१रह २, ५३ हे १,२३१, अभि १८५) । संजय पुंस्त्री [संयत ] १ प्रमाद-रहित मुनि २ न. सातवां गुणस्थानक (भाग ३, ३) । अप्पमाण देखो अपमाण (बृह ३: परह २, ३ ); 'अमिता निरायमाणं सति विं तवमप्यमाणं । For Personal & Private Use Only ५७ अप्पलहुअ अफ वि [ अप्रलघुक] महान, बड़ा (से १, १ ) 1 [अप्रोचमान] मायक्ति अप्पलीण [अलीन] असंबद्ध सङ्ग (१४) अप्पलीयमाण नहीं करता हुआ (याचा अपवित्त वि[ अप्रवृत्त] प्रवृत्ति रहित (पंचा १४) । अप्पवित्ति श्री [अप्रवृति] प्रवृत्ति का अभाव ( धर्म १ ) । अप्पसंत वि[अप्रशान्त] प्रशान्त, कुपित (पंचा २) | अप्पसंसणिन व [अप्रशंसनीय] प्रशंसा के योग्य तंदु अपस वि [असा] १ सहने के अशक्य । २ सहन करने के प्रयोग्य (वव ७) । अप्पसण्ण वि [अप्रसन्न] उदासीन (नाट)। अप्पसत्य व [ अप्रशस्त ] अचार, सुन्दर, खराब (ठा ३, ३ भगः श्रा ४) । अव्यसन्तिय [अल्पसस्विक] मत्य सरव बाला, 'मायाकीरति तया पुरिसा' (सूत्र १, ४, १ ) 1 अप्पसारिय वि [ अप्रसारिक] निर्जन, विजन (स्थान) (उअ १७० ) । अप्पयंत [ अप्रभवत् ] समर्थ नहीं होता हुआ, नहीं पहुँच सकता हुआ (स ३०५) । अप्पय वि [ अप्रथित] १ अविस्तृत । २ अप्रसिद्ध ( गुफा १२५) । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो अप्पाअप्पि-अफल अप्पाअप्पि स्त्री [दे] उत्कण्ठा, औत्सुक्य (अप्पिडि विढय [अल्पर्द्धिक] अल्ल संपत्ति अप्फाल सक [आ + स्फालय] १ आस्फो(पिंग)। वाला (भगः पउम २, ७४) । टन करना, हाथ से आघात करना। २ ताडना, अप्पाउड वि [अप्रावृत अनाच्छादित, नग्न अप्पिण सक [अर्पय ] अर्पण करना, भेंट पीटना । ३ ताल ठोकना । अप्फालेइ (महा)। (सूम २, २)। करना, देना; 'अहीरोबि बारगेण अप्पिण' कवकृ. अप्फालिज्जत (राय)। संकृ. अप्फाअप्पाउय वि [अल्पायुष्क] थोड़ा आयु-| (आक) । अप्पिणामि (पि ५५७)। अप्पि- लिऊण (काप्र १८६ महा)। वाला (ठा ३, ३; पउम १४, ३०)। एंति (विसे ७ टी)। | अप्फालण न [आस्फालन] १ ताल ठोकना। अप्पाउरण वि [अप्रावरण] १ नग्न । २ न. | अप्पिणग न [अर्पण] दान, भेंट (उप २ ताड़न, आघात (गा ५४८० से ५, २२ वस्त्र का प्रभाव । ३ वस्त्र नहीं पहनने का | १७४)। सुपा ८७)। नियम (पंचा ५, पव ४)। अप्पिणिच्चिय वि [आत्मीय] स्वकीय, अप्फालिय वि [आस्फालित] १ हाथ से अप्पाण देखो अप्प = प्रात्मन् (पएह १, २, | निजी (भग)। ताडित, पाहत (पि ३११)। २ वृद्धि प्राप्त, ठा २, २प्रातः हे ३, ५६) । रक्खि वि अप्पिय वि [अर्पित] १ दिया हुआ, भेंट | उन्नत (राज)। [रक्षिन् ] आत्मा की रक्षा करनेवाला किया हुआ (विपा १, २, हे १, ६३)। | अप्फुद सक [आ + कम] १ आक्रमण (उत्त ४)। २ विवक्षित, प्रतिपादन करने को इष्टः 'जह करना। २ जाना, 'संझाराप्रो ब्व रगह अप्पाबहु न [अल्पबहुत्व] न्यूनाधिकता, दवियमप्पियं तं तहेव अस्थित्ति पजवनयस्स | अप्फुदइ मलिअरविअरं कुसुमरो' (से ६, अप्पाबहुय । कम-वेशीपन (नव ३२; ठा (सम्म ४२)। ३ पुं. पर्यायाथिक नय, प्रप्पि- ५७)। ४, २)। यमयं विसेसो सामनमरणप्पियनयस्स' (विसे)। अप्फुडिय देखो अफुडिय (जं २; दस ६)। अप्पावय वि [अप्रावृत] १ वस्त्र-रहित, अप्पिय वि [अप्रिय] १ अनिष्ट, अप्रीतिकर अप्फुण्ण वि [दे. आक्रान्त] पाक्रान्त, नग्न (पएह २, १)। २ खुला हुआ, बन्द (भग १, ५; विपा १, १)। २ न. मन का | दबाया हुअा (हे ४, २५८)। नरें किया हुआ (सूत्र १, ५, १)। दुःख । ३ चित्त को शंका, 'अदु णाईणं व | अप्फुण्ण वि [अपूर्ण] अपूर्ण, अधूरा अप्पाविय वि [अर्पित दिया हुआ (सुपा सुहीरणं वा अप्पियं दट्छु एगता होंति' (सूब (गउड)। १, ४, १, १४)। अप्फुण्ण | वि [दे. आपूर्ण] पूर्ण, भरा अप्पाह सक [सं + दिश] संदेश देना, अप्पीइ स्त्री [अप्रीति अप्रेम, अरुचि (सुपा अप्फुन्न । हुआ (दे १, २०; सुर १०, खबर पहुँचाना । अप्पाहइ (षड् ; हे ४, २६४)। १७०; पा); 'महया पुत्तसोएणं अप्फुन्ना १८०)। अप्पाहेइ (गा ६३२)। संकृ. अप्पीकय वि [आत्मीकृत आत्मा से संबद्ध समागी' (निर १, १)। अप्पाहटु, अप्पाहिवि (पि ५७७; (विसे)। अप्फुल्लय देखो अप्पुल्ल (गउड)। भवि)। अप्पुट्ठ वि [अस्पृष्ट] नहीं छूपा हुआ, असं- अप्फोआ स्त्री [दे] वनस्पति-विशेष (पएरण अप्पाह सक [आ + भाप् ] संभाषण युक्तः 'जं अप्पुट्ठा भावा ओहिनारणस्स हुंति | करना । अप्पाहइ (प्राकृ ७०)। पञ्चक्खा (सम्म ८१)। अप्फोड सक [आ + स्फोटय् ] १ आस्फाअप्पाह सक [अधि + आपय् ] पढ़ाना, अप्पुट्ठ वि [अपृष्ट] नहीं पूछा हुआ (सुपा | लन करना, हाथ से ताल ठोकना । २ ताड़न सीखाना। कर्म. अप्पाहिजइ (से १०,७४)। करना। वकृ. अप्फोडत (णाया १, ८; वकृ. अप्पाहत (से १०,७५) । हेकृ. अप्पा अप्पुण्ण वि [दे. आपूर्ण] पूर्ण ( षड् )।- सुर १३, १८२)। हेउं (पि २८६)। अपाहणी स्त्री [दे] संदेश, समाचार (पिंड अप्पुल्ल वि [आत्मीय प्रात्मा में उत्पन्न | अप्फोडण न [आस्फोटन] प्रास्फालन (हे २, १६३; षड् ; कुमा)। (गउड)। ४३०)। अप्फोडिय । वि [आस्फोटित] १ आस्फाअप्पाहण्ण न [अप्राधान्य] मुख्यता का जीवियमवि चयइ मह कज्जे' (सुपा ३११)। अप्फोलिय लित, आहत । २ न. प्रास्फाप्रभाव, गौणता (पंचा १; भास ११)। लन, आघात (पएह १, ३, कप्प) । अपाहिय वि [संदिष्ट] संदेश दिया हया | अप्पेयव्य देखो अप्प % अपंय । अप्फोया स्त्री [दे] वनस्पति-विशेष (राय (भषि)। अप्पोलि स्त्री [अप्रज्वलिता] कची फल ८० टी)। अप्पाहिय वि [अध्यापित] १ पाठित, फुलहरी (श्रा २१)। अप्फोव वि [दे] वृक्षादि से व्याप्त, गहन, शिक्षित (से ११, ३८१४, ६१)। २ न. | अप्पोल्ल वि [दे] पोल-रहित, नकर (बृह ३)। निबिड (उत्त १८)। सीख, उपदेश; 'अप्पाहियसरणं' (उप ५६२, अप्फडिअ वि [आस्फालित] भास्फालित, अफल वि [अफल] निष्फल, निरर्थक (द्र आहत (विसे २६८२ टो)। टी)। For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अफाय-अब्भणुजाण पाइअसद्दमहण्णवो अफाय पुं[दे] भूमि-स्फोट, वनस्पति-विशेष अबाहिरय वि [अबाह्य] भीतरी, आभ्यन्तर अभंग सक [अभि + अञ्] तैल आदि (पएण १)। (वव १)। से मर्दन करना, मालिश करना। अभंगइ, अफास वि [अस्पर्श] १ स्पर्श-रहित (भग)। | अबाहिरिय वि [अबाहिरिक] जिसके किले अभंगेइ (महा)। संकृ. अभंगिउं, अभं २ खराब स्पर्श पाला (सूत्र १, ५, १)। के बाहर वसति न हो ऐसा गाँव या शहर गेत्ता, अब्भंगित्ता (ठा ३, १; पि अफासुय वि [अप्रासुक] १ सचित्त, सजीव (बृह १) । २३४)। हेकृ. अब्भंगेत्तए (कस)। (भग ५,६)। २ अग्राह्य (भिक्षा) (ठा ३,१)। अबीय देखो अवीय (कप्प)। अब्भंग पुं [अभ्यङ्ग] तैल-मर्दन, मालिश अफुड वि [अस्फुट अस्पष्ट, अव्यक्त (सुर ३, अबुज्झ अ [अबुद्ध्वा ] नहीं जान कर, (निचू ३)। १०६; २१३; गा २६६; उप ७२८ टी)। 'केसिंचि तक्काइ अबुझ भावं' (सूत्र १, अब्भंगण न [अभ्यञ्जन] ऊपर देखो (गाया अफुडिअ वि [अस्फुटित] अखण्डित, नहीं १३, २०)। १, १, महा)। टूटा हुआ (कुमा)। अबुद्ध वि [अबुध] १ अजान, मूर्ख । (दस अब्भंगिएल्लय! वि [अभ्यक्त] तैलादि से २)। २ अविवेकी (सूम १, ११)। अब्भंगिय मदित, मालिश किया हुआ अफुस वि [अस्पृश्य स्पर्श करने के अयोग्य अबुद्धिय वि[अबुद्धिक] बुद्धि-रहित, मूर्ख (मोघ ८२, कप्प)। (भग)। अबुद्धीय (गाया १,१७सूत्र १,२,१ अब्भंतर न [अभ्यन्तर] १ भीतर, में (गा अफुसिय वि [अभ्रान्न] भ्रम-रहित (कुमा)। पउम ८, ७४)। ६२३)। २ वि. भीतर का, भीतरी (राय; अफुस्स देखो अफुस (ठा ३, २)। अबुह वि [अबुध] १ अजान । (सूत्र १, | महा)। ३ समीप का, नजदीक का (सम्बन्धी) अबंभ न [अब्रह्म] मैथुन, स्त्री-सङ्ग (पराह २, १; जी १)। २ मूर्ख, बेवकूफ (पएह १, (ठा ८)। ठाणिज्ज वि [ स्थानीय] १,४)। °चारि वि [°चारिन ब्रह्मचर्य नहीं नजदीक के सम्बन्धी, कौटुम्बिक लोग (विपा पालनेवाला (पि ४०५; ५१५) । अबोह वि [अबोध] १ बोध-रहित, अजान । १, ३)। तव पुं[तपस् ] विनय, वैयाअबद्धिय [अबद्धिक] 'कर्मों का आत्मा २ पुं. ज्ञान का प्रभाव (धर्म १)। वृत्य, प्रायश्चित्त, स्वाध्याय, ध्यान और कायोसे स्पर्श ही होता है, न कि क्षीर-नीर की अबोहि पुंस्त्री [अबोधि] १ ज्ञान का प्रभाव त्सर्ग रूप अन्तरंग तप (ठा ६)। परिसा तरह ऐक्य ऐसा माननेवाला एक निव- (सूअ २,६)। २ जैन धर्म की प्राप्ति । ३ बुद्धि- स्त्री [परिषद् ] मित्र आदि समान जनों की जैनाभास । २ न. उसका मत (ठा ७; विसे) । विशेष का प्रभाव (भग १,६)। ४ मिथ्या- सभा (राय)। लद्धि स्त्री [लब्धि अवधिअबल वि [अबल] बल रहित, निर्बल (पउम ज्ञान, 'प्रबोहि परियाणामि बोहि उवसंप- ज्ञान का एक भेद (विसे)। संबुक्का स्त्री ४८, ११७)। जामि' (प्राव ४)। ५ वि. बोधि-रहित स्त्री [शम्बूका भिक्षा की एक चर्या, गतिअबला स्त्री [अबला] स्त्री, महिला, जनाना विशेष (ठा ६)। सगडुद्धिया स्त्री [शक(पान)। अबोहिय न [अबोधिक] ऊपर देखो (दस | टोद्धिका] कायोत्सर्ग का एक दोष (पव ५)। अबस पुं[अबश] वडवानल (से १, १)। ६: सूत्र १, १, २)। अब्भंतर वि [अभ्यन्तर] भीतरी, भीतर अबहिद न [दे. अबहित्थ] मैथुन, स्त्री-सङ्ग अब स्त्री. ब. [अप] पानी, जल (श्रा २३)। का (जं ७ ठा २, १; परण ३६)। अब्भसि वि अभ्रंशिन] १ भ्रष्ट नहीं होने(सूत्र १, ६)। | अब्बंभ देखो अबंभ (सुपा ३१०)। अबहिम्मण वि [अबहिर्मनस्क] मिष्ठ, अब्बभण्ण न [अब्रह्मण्य] ब्रह्मण्य का वाला (नाट)। २ अनष्ट (कुमा)। अब्बम्हण्ण अभाव (नाट; प्रयौ ७६)। अब्भक्खइज देखो अब्भक्खा धर्म-तत्पर (आचा)। अबहिल्लेस । वि [अबहिलेश्य] जिसकी अब्बीय देखो अवीय (चेइय ७३८)। अब्भक्खण न [दे] अकीति, अपयश (दे अबहिल्लेस्स चित्त-वृत्ति बाहर न धूमती हो, अब्बुद्धसिरी स्त्री [दे] इच्छा से भी अधिक संयत (भगः परह २, ५)। फल की प्राप्ति (दे १, ४२)। अब्भक्खा सक [अभ्या + ख्या] झूठा अबाधा देखो अबाहा (जीव ३)। दोष लगाना, दोषारोप करना। अब्भक्खाइ अब्बुय पुं[अर्बुद] पर्वत-विशेष, जो आजअबाह पुं [अबाह] देश-विशेष (इक)। (भग ५, ७) । कृ. अब्भक्खइज्ज (आचा)। कल 'पाबू' नाम से प्रसिद्ध है (राज)। अबाहा स्त्री [अबाधा] १ बाध का प्रभाव अब्बुय न [अबुंद] जमा हुआ शुक्र और | अब्भक्खाण न [अभ्याख्यान] भूठा अभि(प्रोष ५२ भा; भग १४, ८)। २ व्यवधान, शोणित (तंदु ७)। योग, असत्य दोषारोप (पएह १,२)। अन्तर (सम १६)। ३ बाध-रहित समय अब्भ न [अभ्र] १ आकाश । (रायः पात्र)। अब्भ? देखो अब्भत्थिय; 'उ(अ)भटुपरि(भग)। २ मेघ, बादल (ठा ४, ४; पाप्र)। नाय (पिंड २८१)। अबाहिर प्र[अपहिस्] बाहर नहीं, भीतर | अब्भ सक [आ + भिद्] भेदन करना। अब्भड प्र[दे] पीछे जाकर (हे ४, ३६५)। (कुमा)। । अब्भे (प्राचा १, १, २, ३)। अब्भणुजाण सक [अभ्यनु + ज्ञा] अनुमति, (भग)। For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० पाइअसद्दमहणयो देना, सम्मति देना । श्रब्भगुजारिणस्सदि (शौ) अब्भवरिय वि [ अभ्यवहृत ] भुक्त (सुख (पि ५३४) । २, १७) । अब्भणुष्णाय त्रि [अभ्यनुज्ञात] अनुमत, संत (ठा ५, १) । अमणुना देखो अभगुणा। अब्भणुण्णा [अभ्यनुज्ञा ] श्रनुमति, सम्मति अब्भवहार पुं [ अभ्यवहार ] भोजन, खाना (राज) । (जिसे २२१) । अब्भवालुया स्त्री [] अभ्रक का चूर्ण अब्भिग देखो अभंग = अभि+श्रंज्। प्रयो. ( उत्त ३६, ७५) । अभिगावे ( प २३४) । अभव्य देखो अभवः प्रभव्वाणं सिद्धा एति एतिका भव्य ( प ८४) । अम्भस स [अभि+अस्] सोचना, अभ्यास करना । वकृ. अब्भसंत (स ६०६) । कु. अम्भसियन्व (सुर १४, ८५) । अम्भसण न [अभ्यसन] अभ्यास ( दसनि १) । अग्भिग देखो अब्भंग = अभ्यंग (गाया १, 26) 1 अभिगम देखो अभंग (प)। अभिगदेव अभांग (क) अब्भितर देखो अब्भंतर (कप्प; सं ७; पह ३, ५३ गाया १, १३) । अब्भणुन्नाय देखो अब्भणुष्णाय (गाया १, १ कप्प, सुर ३८८ ) । अब्भण्ण न [अभ्यर्ण] १ निकट, नजदीक । २ वि. समीपस्थ (पउम ६८.५८ ) । पुर [र] नगर- विशेष (२८५८ ) । अव्भन्त वि [अभ्यक्त ] १ तैलादि से मर्दित, मालिश किया हुआ । २ सिक्त, सींचा हुम्राः | 'दिसिदिभिमतपित्तवासा अब्भसिय वि [अभ्यस्त ] सीखा हुआ (सुर १, १८० ६, १६ ) 1 रसो' (गुर २७०)। अमहर [दे] अभ्रक ( पंच ३, ३९) । अभ्यस्थ वि [अभ्यस्त] पटित, शिक्षित अमहिय वि [अभ्यधिक] विशेष ज्यादा (मुपा १७) । (सम २० र १,१७० ) 1 अव्भाअच्छवि [अभ्या + गम् ] संमुख आना, सामने थाना । श्रव्वाश्रच्छ ( षड् ) । अब्भाइक्ख देखो अब्भक्खा। अब्भाइव, भाइक्वेज (प्राचा) । अन्त्यक [ अभि + अर्थय ] १ सत्कार करना । २ प्रार्थना करना । प्रभत्यम्ह (पि ४७०) । संकु. अब्भत्थइअ, अन्भत्थिअ (नाट) अमत्थणीय (भि७० ) । अम्भस्थण न [अभ्यर्धन] १ सत्कार २प्पू ४, १८४) । अब्भत्थणा } स्त्री [अभ्यर्थंना ] ९ श्रादर, अमरथणिया सत्कार ( ४, ४०)। २ से प्रार्थना, विज्ञप्ति (पंचा ११; सुर १, १९); 'न सहइ श्रब्भत्थरिणयं, असइ गयापि पट्टिसाइ दद्द्वारा भागुर, खसी को न बोहेर' ( वजा १२ ) । अम्भस्थिय वि[अभ्य]ि भारत सत्कृत । २ प्रार्थित (सुर १, २१) । अवभन्न देखो अब्भण्ण ( पाच ) । अम्भपडल न [दे] उपधातु - विशेष, भोडल, अभ्रक, प्रबरक (उत्त ३६, ७५) । अब्भपिसा [दे. अभ्रपिशाच ] राहु (दे १, ४२ ) । अभय पुं [अर्भक] बालक, बच्चा ( पाच ) । अम्भय [अभ्रक] अवजी ४) अम्भरयि वि [अभ्यर्हित] सरकारात (१)। पाहुन, अतिथि (सूप्र १, २, ३३ सुपा ५) । अभायत्त ) वि [दे] प्रत्यागत, वापस माया अब्भायत्थ ) हुग्रा (दे १, ३१) । अभास पुं [अभ्यास ] गुणकार (अणु ७४ पिंड ५५५) । अम्मासन [अभ्यास] १ निवट, नजदीक (१६०२ समीपवर्ती पा वि. स्थित ( पाच ) । ३ पुं. शिक्षा, पढ़ाई, सीख । ४] यावृत्ति (पास)। ५ बादत का ( ४, ४) । ६ आवृत्ति से उत्पन्न संस्कार (धर्म २ ) । ७ गरिणत का संकेत- विशेष (कम्म ४, ७८८३); [आभ्यारिक] भीतर अभितरि का, अन्तरंग (सम ६७६ कप्पः गाया १, १) । अब्भितरुद्धि पुं [ अभ्यन्तरोध्विन् ] कायोत्सर्ग का एक दोष, दोनों पैर के अंगूठों को मिलाकर और पृश्नियों को बाहर फैलाकर किया जाता ध्यान-विशेष ( चेइय ४८७) । अब्भागम पुं [अभ्यागम] १ संमुखागमन । अब्भिट्ठ वि [दे] संगत, सामने आकर भिड़ा २ समीप स्थिति (निचू २ ) । हुआ 'हृत्थी हत्थी समं श्रभिट्टो रहवरो अभागनिय [अभ्यागत] १ मु सह रहे' (पउम ६, १८२६८, २७ ) । अब्भागय । खागत । २ पुं. आगन्तुक, अभिड सक [ सं+ गम् ] संगति करना, मिलना । श्रभि (कुमा हे ४, १६४ ) । (१२) | [संगत] संगत, पुक (पाय अभास सक [ अभि + अस्] अभ्यास करना, प्रादत डालना; अध्भणुष्णा - अम्भुक्खणीया 'जं श्रब्भासइ जीवो, गुणं च दोसं च एत्थ जम्मम्मि । तं पावइ पर लोए, तेरा य अब्भास- जोएरण' (धर्मं २; भवि ) । अमाहय वि [ अभ्याहत ] आघात-प्राप्त (महा)। For Personal & Private Use Only अब्भितरओ अ [अभ्यन्तरतस ] १ भीतर से । २ भीतर में (आवम ) । दे १, ७८ ) । अभिडि वि [हे] सारत दे ७८) । अभिपि [अभिन्न] नेद (धर्म) । अध्भुज देव अभुदय (मे १५.२५ स ३०) | अन्भुक्ख सक [ अभि + उ ] सोचन करना । वक. अब्भुक्खंत ( वज्जा ८६) । अक्खण न [ अभ्युक्षण] सिंचन करना, छिड़काव ( स ५७९ ) । अब्भुक्खणीया स्त्री [अभ्युक्षणीया ] सीकर, सार, पवन से गिरता जल (बृह १) । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भुक्खिय-अभय पाइअसद्दमहण्णवो अब्भुक्खिय वि [अभ्युक्षित] सिक्त (स अब्भुत्त अक [प्र+दीप] १ प्रकाशित | अब्भुवगय दि [अभ्युपगत] १ स्वीकृत (सुर ३४०)। होना । २ उत्तेजित होना । अब्भुत्तइ (हे ४, । ६,५८) । २ समीप में गया हुआ (प्राचा)। अब्भुगम पुं[अभ्युद्गम] उदय, उन्नति १५२) । अब्भुत्तए (कुमा)। प्रयो. अब्भुत्तेति अब्भुववण्ण वि [अभ्युपपन्न] अनुग्रह-प्राप्त, (सूत्र १,१४)। (से ५,५९)। अनुगृहीत (नाटः पि १६३; २७६) । अब्भुग्गय वि [अभ्युद्गत] १ उन्नत । २ अन्भुत्तिअ वि [प्रदीप्त] १ प्रकाशित । २ अब्भुववत्ति स्त्री [अभ्युपपत्ति] अनुग्रह, उत्पन्न (गाया १,१)। ३ ऊंचा किया हुआ, उत्तेजित (से १५, ३८)। मेहरबानी (अभि १०४)। उठाया हुआ (प्रौप)। ४ चारों तरफ फैला अब्भुत्थ वि [अभ्युत्थ] उत्पन्न, 'पुव्वभवब्भु- अब्भुवे सक [अभ्युप + इ] स्वीकार करना। हुआ (चंद १८)। स्थसिरोहाओ' (महा)। अब्भुवेजामि (गाया ,१६ टी, पत्र २.५) । अब्भुग्गय वि [अभ्रोद्गत] ऊंचा, उन्नत अब्भुन्थ । देखो अब्भुट्ठा । वकृ. अब्भुत्थंत | अब्भो देखो अव्यो ( षड् )। (भग १२,५)। अब्भुत्था (से १२, १८)। संकृ. अब्भु- अब्भोक्खिय वि [अभ्युक्षित] सिक्त, सींचा अब्भुच्चय पुं [अभ्युच्चय] समुच्चय (भास | त्थित्ता (काल)। हुआ (सुर ६, १६१)। अब्भुदय पुं [अभ्युदय] १ उन्नति, उदय अब्भोज वि [अभोज्य] भोजन के अयोग्य अब्भुजय वि [अभ्युद्यत] १ उद्यत, उद्यम- (प्रयौ २६); 'अभुयभूयब्भुदयं लधुरणं नरभवं (पिंड १६०)। युक्त (गाया १, ५)। २ तैयार (णाया १, सुदीहद्धं' (उप ७६८ टो)। १; सुपा २२२)। ३ पुं. एकाकी विहार अब्भोय (अप) देखो आभोग (भवि) । अब्भुद्धर सक [अभ्युद् +धृ] उद्धार करना। (धम्म १२ टी)। ४ जिनकल्पिक मुनि (पंचव अब्भुद्धरामि (भवि) । अभोवगमिय वि [आभ्युपगमिक] अन्भुद्धरण न [अभ्युद्धरण] १ उद्धार (स | स्वेच्छा से स्वीकृत । स्त्री [1] स्वेच्छा से अब्भुट्ठ उभ [अभ्युत्+स्था] १ आदर करने ५४३) । २ वि. उद्धार-कारक (हे ४,३६४)। स्वीकृत तपश्चर्यादि की वेदना (ठा ४, ३) । के लिए खड़ा होना। २ प्रयत्न करना । ३ अब्भुन्नय देखो अब्भुण्णय (णाया १, १)। अव्हिड देखो अभिड । अव्हिडइ ( षड् )। तैयारी करना । अन्भुठेइ (महा)। वकृ. अब्भुब्भड वि [अभ्युद्भट] प्रत्युद्भट, विशेष अब्हुत्त देखो अब्भुत्त अव्हत्तइ (षड् )। अब्भुद्रमाण (स ४१६) । संकृ. अब्भुट्टित्ता उद्धत (भवि)। अभग्ग वि [अभग्न] १ अखण्डित, अत्रुटित (भग)। हेकृ. अब्भुट्टित्तए (ठा २, १)। अब्भुय न [अद्भुत] १ आश्चर्य, विस्मय (उप | (पडि)। २ इस नाम का एक चोर (विपा कृ. अब्भुट्टेयव्य (ठा )। ७६८ टी)। २ वि. आश्चर्य-कारक (रायः | १,१) । अब्भुट्टण न [अभ्युत्थान] आदर के लिए सुपा; ३५)। ३ पुं. साहित्य शास्त्र प्रसिद्ध अभत्त वि[अभक्त] १ भक्ति नहीं करनेवाला खड़ा होना (से १०,११)। रसों में से एक; (कुमा)। २ न. भोजन का प्रभाव (वव ७) । अब्भुट्ठा देखो अब्भुट्ठ। 'विम्हयकरो अपुवो, अभूयपुव्वो य जो g jार्थ] उपवास (प्राचू, पडि; सुपा अब्भुट्ठाण देखो अब्भुट्ठण (सम ५१: सुपा रसो होइ। ३१७)। 'ट्रिय वि [र्थिक] उपोषित, ३७६)। हरिसविसाउप्पत्ती, लक्खरगो अब्भुप्रो नाम' जिसने उपवास किया हो वह (पंचव २)। अन्भुठ्ठिय वि [अभ्युत्थित] १ सम्मान (अणु)। करने के लिए जो खड़ा हुआ हो (गाया १, अभय न [अभय] १ भय का अभाव, धैर्य अब्भुवगच्छ सक [अभ्युप + गम् ] १ ८)। २ उद्यत, तैयारः 'अन्भुट्ठिएसु मेहेसु' (राय)। २ जीवित, मरण का प्रभाव (सूत्र स्वीकार करना। २ पास जाना । प्रयो., संकृ. (गाया १,१: पडि)। १,६)। ३ वि. भय-रहित, निर्भीक (प्राचा)। अब्भुवगच्छाविय (पि १६३)। अब्भुढेत्तु [अभ्युत्थातृ ] अभ्युत्थान करने ४ पु. राजा थेगिक का एक विख्यात पुत्र और अब्भवगच्छाविअ वि [अभ्युपगमित] | मन्त्री, जिसने भगवान महावीर के पास दीक्षा वाला (ठा ५, १)। स्वीकार कराया हुआ, 'ताहे तेहि कुमारोह | ली थी (अनु १; गाया १, १)। कुमार पुं अब्भुण्णय वि [अभ्युन्नत] १ उन्नत, ऊंचा संबो मजं पाएत्ता अब्भुवगच्छाविमो विगयमो [°कुमार] देखो अनन्तरोक्त अर्थ (पडि)। (पएह १, ४)। चितेइ' (प्राक पृ ३०)। दय वि [°दय य-विनाशक, जीवित-दाता अब्भुण्णयंत वकृ. [अभ्युन्नयत् ] १ ऊंचा अब्भुवगम पुं [अभ्युपगम] १ स्वीकार, | (पडि)। दाण न [दान] जीवित-दान करता हुआ। २ उत्तेजित करता हुआ, | अङ्गीकार (सम १४५; स १७०)। २ तर्क- (पएह २, ४)। "देव पुं[देव] कईएक 'तीएवि जलंति दीववत्तिमब्भुएणतीए' (गा शास्त्र-प्रसिद्ध सिद्धान्त-विशेष (बृह १; सूप विख्यात जैनाचार्य और ग्रन्थकारों का नाम २६४)। १,१२)। (मुणि १०८७४गु १४; ती ४०; सार्ध अब्भुत्त अक [स्ना] स्नान करना । प्रभुत्तइ अब्भुवगमणा स्त्री [अभ्युपगमना] स्वीकार, ७३)। पदाण न [प्रदान] जीवित का (हे ५, १४) । वकृ. अब्भुत्तंत (कुमा)। । अङ्गीकार (उप ८०५)। दान (सूत्र १,६)। वत्त न [°वत्त्व निर्भयता, C. For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ पाइअसद्दमहण्णवो अभयंकर-अभिगम अभय (सुपा १८)। सेण [°सेन] एक | सामने, 'अभिगच्छरगया' (प्रौप)। २. चारों | अभिंगणार ग. देखो अब्भंगण (नाट; रंभा)। राजा का नाम (पिंड)। ओर, समन्तात; 'अभिदो' (स्वप्न ४२) । ३ | अभिजण अभयंकर वि [अभयंकर] अभय देनेवाला, बलात्कार, 'अभिप्रोग' (धर्म २)। ४ उल्लंघन, अभिकंख सक [अभि +काक्ष ] इच्छा अहिंसक (सूम १, ७, २८)। अतिक्रमण; 'अभिकंत' (आचा)। ६ अत्यन्त, __ करना, चाहना। अभिकखेजा (प्राचा) । वकृ. अभयकरा स्त्री [अभयकरा] भगवान् अभि- ज्यादाः 'अभिदुग्ग' (सूत्र १, ५, २)। ६ । अभिकखमाण (दस ६, ३)। नन्दन की दीक्षा-शिविका (विचार १२६)। लक्ष्य, 'अभिमुहै। ७ प्रतिकूल, 'अभिवाय' | अभिकंखा स्त्री [अभिकाङ्क्षा अभिलाषा, अभया स्त्री [अभया] १ हरीतकी, हरें, हरडई (आचा)। ८ विकल्प । ६ संभावना (निचू इच्छा (प्राचा)। (निचू १५)। २ राजा दधिवाहन की स्त्री का १)। १० निरर्थक भी इस अव्यय का प्रयोग अभिकखि । वि अभिकाडिक्षन] अभिनाम (ती ३५)। होता है, 'अभिमंतिय' (सुर १६, ६२)।। अभिकंखिरलाषी, इच्छुक (पि ४०५, सुपा अभयारिटू न [अभयारिष्ट] मद्य-विशेष १२६)। अभिअण पुं[अभिजन] १ कुल । २ जन्म- | (सूत्र १, ८)। अभिकंत वि [अभिक्रान्त] १ गत, अतिभूमि (नाट)। अभवसिद्धिय , पुं[अभवसिद्धिक अभव्य, क्रान्त; 'अभिकंतं च खलु वयं संपेहाए' अभिआवण्ण वि [अभ्यापन्न] संमुख-प्रागत अभवसिद्धीय । मुक्ति के लिये अयोग्य जीव (प्राचा)। २ संमुख गत । ३ आरब्ध । ४ (ठा २, २: एंदिः ठा १)। (सूत्र १, ४, २)। उल्लंधित (प्राचा सूत्र २, २)। अभविया वि[अभव्य] १ असुन्दर, अचारु अभिइ स्त्री [अभिजित् ] नक्षत्र-विशेष (ठा अमिक अनि जाना अभव्व (विसे)। २ . मुक्ति के लिये अयोग्य २, ३)। गुजरना। २ सामने जाना। ३ उल्लंघन जीव (विसे; कम्म ३,२३)। अभिइ सक (अभि + इ] सामने जाना, संमुख करना। ४ शुरू करना। वकृ. अभिक्कममाण अभाअ वि [अभाग] अस्थान, अयोग्य स्थान जाना । वकृ. अभिज्ञत (उप १४२ टी)। | (आचा) । संकृ. अभिक्काम (सूत्र १,१,२)। (से ८,४२)। अभिउंज देखो अभिमुंज। संकृ. अभि- अभिक्कम पुं [अभिक्रम] १ उल्लंघन । २ अभाइ वि [अभागिन्] अभागा, हत-भाग्य, उंजिय (ठा ३, ४; दस १०)। प्रारम्भ । ३ संमुख-गमन । ४ गमन, गति कमनसीब (चारु २६)। अभिओअ ) पुं [अभियोग] १ आज्ञा, . (प्राचा)। अभागधेज वि [अभागधेय] ऊपर देखो अभिओग हुकुम (प्रौपः ठा १०)। २ अभिक्ख प्र[अभीक्ष्ण] बारंबार (उप (पउम २८, ८६)। बलात्कार, 'अभियोगे अ निरोगे' (श्रा ५)। भिक्खण , १४७ टीठा २,४; वव ३)। अभाव पुं[अभाव] १ ध्वंस, नाश (बृह १)। ३ बलात्कार से कोई भी कार्य में लगाना अभिक्खा स्त्री [अभिख्या] नाम (विसे २ अविद्यमानता, असत्व (पंचा ३)। ३ (धर्म २)। ४ अभिभव, पराभव (प्राव ५)। १०४८)। असम्भव (दस १)। ४ अशुभ परिणाम ५ कार्मरण-प्रयोग, वशीकरण, वश करने का | अभिगच्छ सक [अभि + गम्] प्राप्त (उत्त १)। चूर्ण या मन्त्र-तन्त्रादि; करना। अभिगच्छइ (दस ४, २१, २२, ६, अभाविय वि [अभावित] अयोग्य, अनुचित 'दुविहो खलु अभिनोगो, दव्वे भावे य २.२)। (ठा १०; बृह ३)। होइ नायव्वो। अभिगच्छ सक [अभि + गम्] सामने दव्वम्मि होइ जोगो, विजा मंता य भावम्मि' अभावुग वि [अभावुक] जिसपर दूसरे के जाना । अभिगच्छंति (भग २, ५)। संग की असर न पड़ सके वह, “विसहरमरणी अभिगच्छणया स्त्री [अभिगमन] संमुखअभावुगदव्वं जीवो उ भावुगं तम्हा' (सुपा ६ गर्व, अभिभान (आव ५)। ७ प्राग्रह, हछ । गमन (प्रौप)। १७५ मोघ ७७३)। (नाट)। °पण्णत्ति स्त्री [°प्रज्ञप्ति विद्या- | अभिगच्छणा देखो अभिगच्छणया (वव विशेष (रणाया १,१६)। देखो अहिओय। १)। अभासगावि [अभाषक] १ बोलने की | अभासय शक्ति जिसको उत्पन्न न हुई हो | अभिओग पुं [अभियोग] उद्यम, उद्योग अभिगज अक [ अभि + गर्ज ] गर्जना, वह। २ नहीं बोलनेवाला। ३ पुं. केवल त्वग्- | (सिरि ५८)। खूब जोर से आवाज करना। वकृ. अभिइन्द्रियवाला, एकेन्द्रिय जीव । ४ मुक्त प्रात्मा अभिओगी स्त्री [आभियोगी] भावना-विशेष, | गज्जत (गाया १, १८ सुर १३, १८२)। (ठा २, ४भगः अणु)। ध्यान-विशेष, जो अभियोगिक देव-गति (नौकर- अभिगम देखो अभिगच्छ। कृ. अभिगमअभासा स्त्री [अभाषा] १ असत्य वचन । स्थानीय देव-जाति) में उत्पन्न होने का हेतु णीय (व ६७६)। २ सत्य-मिश्रित प्रसत्य वचन (भग २५, ३)। है (बृह १)। अभिगम पुं[अभिगम] १ प्राप्ति, स्वीकार निअ [अभि] निम्नलिखित अर्थों में से अभिओयण न [अभियोजन देखो अभि- (पवित्र)। २ आदर, सत्कार (भग २, ५)। किसी एक को बतलानेवाला अव्यय-१ संमुख, ओग (आव) परण २०) । ३ (गुरु का) उपदेश, सौख (णाया १, १)। For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिगमण-अभिणिव्वागड पाइअसद्दमहण्णवो माह का वीगिन्हित ४ ज्ञान, निश्चय (पव १४६)। ५ सम्य- दोक्षा ली थी (अंत ३)। २ इस नाम का अभिदइ (स १६३)। वकृ. अभिणंदंत क्त्व का एक भेद (ठा २, १)। ६ प्रवेश एक कुलकर पुरुष (पउम ३, ६५)। ३ (प्रौपः रणाया १, १; पउम ५, १३०)। (से ८, ३३)। मुहूर्त-विशेष । (सम ५१)। कवकृ. अभिणंदिजमाण (ठा ; णाया अभिगमण न [अभिगमन] ऊपर देखो अभिजण देखो अभिअण (स्वप्न २६)। (स्वप्न १६ गाया १,१२)। अभिजस न [अभियशस् ] इस नाम का अभिणंदिय वि [अभिनन्दित] जिसका अभिगमि वि [अभिगमिन् ] १ आदर | एक जैन साधुओं का कुल (एक प्राचार्य की अभिनन्दन किया गया हो वह (सुपा ३१०)। करने वाला। २ उपदेशक । ३ निश्चय-कारक। संतति) (कप्प)। अभिणंदण न [अभिनन्दन] १ अभिनन्दन । ४ प्रवेश करने वाला ५ स्वीकार करने अभिजाइ स्त्री [अभिजाति] कुलीनता, २ पुं. वर्तमान अवसर्पिणीकाल के चतुर्थ बाला, प्राप्त करने वाला (परण ३४)। खानदानी (उत्त ११)। जिनदेव (सम ४३)। ३ लोकोत्तर श्रावणमास। अभिगय वि [अभिगत] १ प्राप्त । २ अभिजाण सक [अभि +ज्ञा] जानना । (सुज १०)। सत्कृत । ३ उपदिष्ट । ४ प्रविष्ट (बृह १)। वकृ. अभिजाणमाग (आचा)। अभिणय पुं[अभिनय] शारीरिक चेष्टा के ५ ज्ञात, निश्चित (गाया १, १)। द्वारा हृदय का भाव प्रकाशित करना, नास्थअभिजात पु[अभिजात] पक्ष का ग्यारहवाँ क्रिया (ठा ४, ४)। अभिगहिय न [अभिग्रहिक] मिथ्यात्वदिन (सुज १०,१४)। अभिणव वि [अभिनव नूतन, नया (जीव विशेष (कम्म ४, ५१)। अभिजाय वि [अभिजात] १ उत्पन्न, 'अभिअभिगिज्म अक [अभि + गृधु] अति जायसहो' (उत्त १४) । २ कुलीन (राज)। अभिणिक्खंत वि अभिनिष्क्रान्त लोभ करना, प्रासक्त होना । वकृ. अभि अभिजंज सक [ अभि+ युज १ मन्त्र- दीक्षित, प्रवजित (स २७८) । गिभंति (सूत्र २, २)। तन्त्रादि से वश करना। २ कोई कार्य में अभिणिगिण्ह सक [अभिनि + ग्रह ] अभिगिण्ह । सक [अभि + ग्रह ] ग्रहण लगाना। ३ प्रालिंगन करना। ४ स्मरण रोकना, अटकाना। संकृ. अभिणिगिक अभिगिन्ह ) करना, स्वीकारना । अभि कराना, याद दिलाना। संह. अभिजुंजिय, (पि ३३१, ५६१)। गिएहइ (कप्प)। संकृ. अभिगिन्हित्ता, अभिजुंजियाणं, अभिजुंजित्ता (भग २, अभिणिचारिया स्त्री [अभिनिचारिका] अभिगिज्झ (पि ५८२ ठा २, १)। ५; सूअ १, ५, २, प्राचाभग ३, ५)। भिक्षा के लिए गति-विशेष (वव ४)। अभिग्गह [अभिग्रह] १ प्रतिज्ञा, नियम। अभिजुत्त वि अभियुक्त] १ व्रत-नियम में अभिणिपया स्त्री [अभिनिप्रजा] अलग(प्रोघ ३)। २ जैन साधुओं का प्राचार जिसने दूषण न लगाया हो वह (गाया १, अलग रही हुई प्रजा (वव )। विशेष (बृह १)। ३ प्रत्याख्यान, (नियम १४)। २ जानकार, पण्डित (णंदि)। अभिणिबुज्झ सक [अभिनि + बुध] विशेष) का एक भेद (प्राव ६)। ४ कदा ३ दुश्मन से घिरा हुमा (वेणी १२०)। जानना, इन्द्रिय आदि द्वारा निश्चित रूप से ग्रह, हठ (ठा २,१)। ५ एक प्रकार का | अभिभावी अभिध्याालोभ. लोलपता. | ज्ञान करना। अभिारणबुज्झए (विस ८१)। शारीरिक विनय (वव १)। आसक्ति (सम ७१; पण्ह १, ५)। अभिणिबोह [अभिनिबोध ज्ञान-विशेष, अभिग्गही स्त्री [अभिग्रहणी] भाषा का अभिझिय वि [अभिध्यित] अभिलषित, | मटणी भाषा का |.. भिजत | मति-ज्ञान (सम्म ८६)। एक भेद, असत्य-मृषा वचन (संबोध २१)। वांछित (पएरण २८)। अभिणियट्टण न [अभिनिवर्त्तन] पीछे अभिग्गहिय वि [अभिग्रहिक] अभिग्रह अभिट्रिअ वि[अभीष्ट] अभिलषित (वजा लौटना, वापस जाना (आचा)। वाला (ठा २,१ पव ६)। *१६४)। अभिणिविद् वि [अभिनिविष्ट] १ तीन अभिग्गहिय वि [अभिगृहीत] १ जिसके अभिठुय वि [अभिष्टुत] वणित, श्ला रूप से निविष्ट । २ प्राग्रही (उत १४)। विषय में अभिग्रह किया गया हो वह घित, प्रशंसित (प्राव २)। अभिणिवेस पुं[अभिनिवेश] आग्रह, हठ (कप्प; पव ६)। २ न. अवधारण, निश्चय अभिड्डुय देखो अभिदुय (सूत्र १, २, (गाया १, १२)। (परण ११)। अभिणिवेसि विअभिनिवेशिन् ] कदाअभिघट्ट सक [अभि + घट्ट] वेग से । अभिणअंत मी ग्रही (अज्झ १५७)। जाना। कवकृ. अभिघट्टिजमाण (राय)।। अभिणइज्जत । अभिणिवेह अभिनिवेध उलटा मापना अभिघाय पुं [अभिघात] प्रहार, मार-पीट, अभिणंद सक [अधि+नन्द्] १ प्रशंसा | (प्रावम)। हिंसा (पएह १, १; बृह ४)। करना, स्तुति करना। २ आशीर्वाद देना। अभिणिव्यागड वि [दे. अभिनिाकृत] अभिचंद पुं [अभिचन्द्र] १ यदुवंश के ३ प्रीति करना। ४ खुशी मनाना। ५ चाहना, भिन्न परिधि वाला, पृथग्भूत (घर वगैरह) राजा अन्धकवृष्णि का एक पुत्र, जिसने जैन , इच्छा करना। ६ बहुमान करना, पादर करना। (वव १, ६)। For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ पाइअसद्दमण्णवो अभिणिव्वट्ट-अभिनिवेसिय अभिणिव्वट्ट सक [अभिनि + वृत्] को ठगने के लिए लड़के जिसको रास्ता पर दुःख उपजाना, हैरान करना; 'नुदंति वायाहि रोकना, प्रतिषेध करनाः 'से मेहावी अभि- रख देते हैं (दे १, ४४)। अभिद्दवं गरा' (पाचा २, १६, २)। रिणव्वट्टज्जा कोहं च माणं च मायं च लोभं | अभिण्णाण न [अभिज्ञान] निशानी, चिह्न अभिदविय वि [अभिद्र त] उपद्रुत, हैरानः च पेज्जं च दोसं च मोहं च गभं च जम्मं (था १४)। किया हुआ (सुर १२, ६७)। च मारं च नरयं च तिरियं च दुक्खं च' अभिण्णाय वि [अभिज्ञात] जाना हुआ, अभिद्य देखो अभिद्दविय (गाया १, (प्राचा)। विदित (आचा)। स ५६)। अभिणिव्वट्ट सक [अनिर + वृत्] १ अभतज सक [ अभि + तर्ज ] तिरस्कार अभिधाइ वि [अभिधायिन् ] वाचक, संपादित करना, निष्पन्न करना। २ उत्पन्न करना, ताड़न करना । वकृ. अभितजेमाण कहनेवाला (विसे ३४७२)। करना। संकृ-अभिणिव्वदित्ता, (भग। (गाया १,१८)। अभिधार सक [अभि + धारय् ] १ चिन्तन | अभितत्त वि [अभितप्त] १ तपाया हुआ, | करना । २ स्पष्ट करना । अभिधारए (दस ५, अभिणिव्यदृ वि [अभिनिवृत्त] १ गरम किया हुआ (सूत्र १, ४, १, २७)। २, २५; उत्त २, २१); अभिधारयामो (सूम निष्पन्न । २ उत्पन्न, 'इह खलु अत्तत्ताए तेहि अभितव सक [अभि + तप्] १ तपाना । २, ६, १६) । वकृ. अभिधारयंत (उत्तनि तेहि कुलेहि अभिसेएण अभिसंभूषा अभि- २ पीड़ा करना, 'चत्तारि अगरिणो समारसंजाया अभिरिणव्वट्टा अभिसंबुड्ढा अभिसंबुद्धा भित्ता जेहि कूरकम्मा भितविति, बालं' (सूत्र अभिधारण न [ अभिधारण ] धारणा, अभिनिक्खंता अणुपुवेण महामुणी' (आचा)। १, ५, १, १३)। कवकृ. अभितप्पमाण; चिन्तन (बृह ३)। अभिणिव्वुड वि [अभिनिर्वत्त] १ मुक्त, 'ते तत्थ चिट्ठतिभितप्पमारणा मच्छा व जीवं अभिधेज [अभिधेय] अर्थ, वाच्य, अभिधेय पदार्थ (विसे १ टी)। मोक्ष-प्राप्त (सूअ १, २, १)। २ शान्त, तुवजोतिपत्ता' (सूत्र १, ५, १, १३)। अकुपित (प्राचा)। ३ पाप से निवृत्त (सूत्र अभिनंद देखो अभिणंद । वकृ. अभिनंदअभिताव सक [अभि + तापय्] १ तपाना, १, २, १)। माण (कप्प)। कवकृ. अभिनंदिजमाण गरम करना । २ पीडित करना । अभितावयंति (महा)। अभिणिसज्जा स्त्री [अभिनिषद्या] जैन (सूअ १, ५, १, २१, २२) । अभिनंदण देखो अभिणंदण (कप्प)। साधुओं के रहने का स्थान-विशेष (वव १)। अभिताव पुं[अभिताप] १ दाह । २ पीड़ा अभिनंदि स्त्री [अभिनंदि] आनन्द, खुशी; अभिणिसटू देखो अभिणिसिद्ध (सुज्ज ६)। (सूत्र १, ५, १, २, ६) । 'पावेउ अनंदिसेगमभिनंदि' (अजि ३७)। अर्भािणसिट्र वि [अभिनिसृष्ट] बाहर अभितास सक [ अभि + त्रासय् ] पास | अभिनिवखत देखो अभिणिक्खंत (प्राचा)। निकला हुआ (जीव ३ । उपजाना, भयभीत करना । वकृ. अभितासे अभिनिक्खम अक [अभिनिर + क्रम्] अभिणिसेहिया स्त्री [अभिनषेधिकी] जैन माण (णाया १, १८)। दीक्षा (संन्यास) लेना, दीक्षा लेने की इच्छा साधुनों के स्वाध्याय करने का स्थान-विशेष | अभित्थु सक [अभि + स्तु] स्तुति करना, करना, गृहवास से बाहर निकलना। वकृ. (वव १)। श्लाघा करना, वर्णन करना। अभित्थुणंति, अभिनिक्खमंत (पि ३६७)। अभिणिस्सव अक [अभिनिर् + स्र] अभित्थुणामि (पि ४६४ विसे १०५४)। वकृ. अभित्थुणमाण (कप) । कवकृ. अभिनिगिण्ह देखा अभिणिगिण्ह (प्राचा)। निकलना । अभिरिणस्सर्वति (राय ७४)। अभिणी सक अभि + नी] अभिनय करना, अभित्थुव्वमाण (रयण ९८)। | अभिनिबुज्झ देखो अभिणिबुज्झ । अभिनिनास्थ करना। वकृ. अभिणअंत (मै अभित्थुय वि [अभिष्टुत] स्तुत, श्लाधित बुज्झइ (विसे ६८)। ७५)। अभिनिबट्ट देखो अभिणिवट्ट । संकृ. अभि। (संथा)। कवकृ. अभिणइज्जत (सुपा ३५६)। अभिथु देखो अभित्थु । वकृ. अभिथुणंत निर्वाट्टत्ताणं (पि ५८३)। अभिणूम न [अभिनूम] माया, कपट (सुम अभिनिविट्ठ देखो अभिणिविट्ठ (भग)। १, २, १)। (कप्प; ठा ६)। अभिनिवेस सक [अभिनि + वेशय् ] अभिण्ण वि [अभिज्ञ] जानकार, निपुण अभिदुग्ग वि [अभिदुर्ग] १ दुःखोत्पादक १ स्थापन करना । २ करना। अभिनिवेसए (उप ५८०)। स्थान । २ अतिविषम स्थान (सूत्र १, ५, १, (दस ८, ५६)। अभिण्ण वि [अभिन्न] १ अत्रुटित, अवि१७)। अभिनिवेसिय न [अभिनिवेशिक] मिथ्या-. दारित, अखण्डित (उवा; पंचा ११)। | अभिदो (शौ) अ [अभितः] चारों ओर से त्व का एक प्रकार, सत्य वस्तु का ज्ञान होने २ भेदरहित, अपृथग्भूत (बृह ३)। (स्वप्न ४२)। पर भी उसे नहीं मानने का दुराग्रह (श्रा ६. अभिण्णपुड पुं [दे] खाली पुड़िया, लोगों । अभिद्दव सक [ अभि + दु] पीड़ा करना, | कम्म ४, ५१)। For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनिव्वट्ट - अभिलासिण अभिनिव्वट्ट देखो अभिणिव्वट्ट (कप्पः प्राचा) । अभिनिव्वट्ट श्रक [ अभिनि + वृत् ] पृथक् होना । वकृ. अभिनिव्वट्टमाण (सूत्र २, ३, २१) । अभिनिव्वट्ट सक [ अभिनिर् + वृत् ] खींचना । संकृ. 'कोसाम्रो असि अभिनिव्व ट्टिता ( सू २११६ ) । अभिनिव्वागड वि [अभिनिर्व्याकृत ] विभिन्न द्वार वाला ( मकान) । ( वव १ टी ) । अभिनिव्विटु वि [अभिनिर्विष्ट] संजात, उत्पन्न ( कप्प ) । अभिनिव्वुड देखो अभिणिव्वुड (पि २१९ ) । अभिनिसढ वि [ अभिनिःसट] जिसका स्कन्ध प्रदेश बाहर निकल आया हो वह (भग १५, पत्र ६६९) । अभिनिस्सव देखो अभिणिस्सव प्रभिनिस्सर्वत ( राय ७५ ) 1 अभिनित्सव क [अभिनि + खु] टपकना, झरना | अभिनिस्सवइ (भग) । अभिन्न देखो अभिण्ण ( प्राप्र ) । अभिन्ना देखो अभिण्णाण ( श्रोष ४३६; सुर ७, १०१) । अभिन्नाय देखो अभिण्णाय (कप्प ) । अभिल्लाणिय वि [अभिपर्याणित ] अध्यारोपित, ऊपर रखा हुआ (कुमा) । अभिपट्ट वि[अभिप्रवृष्ट ] बरसा हुआ ( प्राचा २, ३, १, १ ) । अभिपाइय वि [आभिप्रायिक ] अभिप्राय सम्बन्धी, मनःकल्पित (अणु) । अभिपाय [अभिप्राय ] आशय, मनपरिणाम ( आचास ३४० सुपा २६२ ) । अभिप्पेय वि [अभिप्रेत ] इष्ट; श्रभिमत (स २३) । अभिभव सक [ अभि + भू ] पराभव करना, परास्त करना । श्रभिभवइ (महा) । संकृ. अभिभविय, अभिभूय (भग ६, ३३ पह १, २) । पाइअसद्दमद्दण्णवो अभिभास सक [ अभि + भाष] संभाषण करना । अभिभासे ( प १६६ ) । अभिभूइ स्त्री [अभिभूति] पराभव, अभिभव (द्र ३० ) । अभिभूय वि [ अभिभूत ] पराभूत, पराजित (प्राचा सुर ४, ७५) । अभिमंजु देखो अभिमण्णु (हे ४, ३०५) । अभिमंत सक [ अभि + मन्त्रय् ] मंत्रित करना, मन्त्र से संस्कारना । संकृ. अभिमंतिऊण, अभिमंतिय (निचू १; श्रवम) । अभिमंतिय वि [ अभिमन्त्रित ] मन्त्र से संस्कारित (सुर १६, ६२) । अभिमन्न सक [ अभि + मन् ] १ अभि. मान करना । २ सम्मत करना। श्रभिमन्नइ ( विसे २१६०, २६०३ ) । अभिमय वि [ अभिमत ] इष्ट, अभिप्रेत (सू २, ४) । अभिमाण पुं [अभिमान ] अभिमान, ग ( निचू १) । अभिमार पुं [अभिमार] वृक्ष विशेष (राज)। अभिमुवि [अभिमुख] १ संमुख, सामने स्थित । २ क्रिवि. सामने (भग) । अभिमुवि [अभिमुखित ] संमुख किया हुआ (सूनि १४६) । अभियागम [ अभ्यागम ] संमुख प्रागमन (सूत्र १, १, ३, २) । अभियावन्न वि [ अभ्यापन्न ] संमुखप्राप्त (सूत्र १, ४, २,२८ ) । अभिरइ स्त्री [अभिरति] १ रति, संभोग । २ प्रीति, अनुराग, (विसे ३२२३) । अभिरम क [ अभि + रम् ] १ क्रीड़ा करना, संभोग करना। २ प्रीति करना। ३ तल्लीन होना, आसक्ति करना । श्रभिरमइ (महा) । वकु. अभिरमंत, अभिरममाण ( सुपा १२० गाया १, २, ४ ) । अभिरमियवि [ अभिरमित ] अनुरक्त किया हुआ, 'अभिरमियकुमुयवरणसंडं ससिमंडलं पलोयई (सुपा ३४ ) । अभिभव पुं [अभिभव ] पराभव, पराजय, तिरस्कार (प्राचा; दे १, ५७ ) । अभिभवण न [ अभिभवन ] ऊपर देखो अभिरमिय) वि [अभिरत ] १ अनुरक्त (सुपा अभिरमियवि [अभिरमित ] संयुक्त, 'जेगाभिरमियं परकलत्तं' (धर्मवि १२८ ) । (सुपा ४७९) । अभिरय ३४) । २ तल्लीन, तत्परः 'साहू € For Personal & Private Use Only ६५ तवनियम संजमाभिरया' (पउम ३७, ६३, स १२२) । अभिराम वि [ अभिराम ] सुन्दर, मनोहर (गाया १, १३३ स्वप्न ४५ ) । अभिराम सक [ अभि + रामय् ] तत्परता से कार्य में लगाना । श्रभिरामयंति (दस 8, ४, १) । अभिरुइय वि [अभिरुचित] पसंद, मनका अभिमत (गाया १, १, उवा; सुपा ३४४६ महा । अभिरुय सक [ अभि + रुच्] पसंद पड़ना, रुचना । श्रभिरुइ (महा) । अभिरूयंसि वि [ अभिरूपिन् ] सुन्दर रूप वाला, मनोहर (प्राचा २, ४, २, १ ) । अभिरुह सक [ अभि + रुह ] १ रोकना । २ ऊपर चढ़ना, आरोहना । संकृ. 'चत्तारि साहिए मासे बहवे पारगजाइया श्रागम्म । अभिरुज्भ कार्य विहरिसु, आरुहिया गं तत्थ हिंसिसु ' ( श्राचा) । अभिरोहिय वि [अभिरोधित ] चारों ओर से निरुद्ध, रोका हुआ (गाया १, ६) । अभिरोहिय वि [अभिरोहित ] ऊपर देखो, 'परचकरायाभिरोहिया'; ('परचक्रराजेनापरसैन्यनृपतिनाभिरोहिताः सर्वतः कृतनिरोधा या सा तथा' टी) (गाया १, ६) । अभिघ स [ अभि + लङ्घ् ] उल्लंघन करना । वकृ. अभिलंघमाण (गाया १, १) । अभिलाप वि [ अभिलाप्य ] कथन-योग्य, निर्वचनीय (आचू १) 1 १ शब्द, अभिलस सक [ अभि + लब् ] चाहना, वाहना । अहिलसइ ( उव) । अभिलापुं [ अभिलाप अभिलाव ) ध्वनि (ठा ३, १६ भास २७) । २ संभाषण (गाया १,८; विसे) । अभिलास [ अभिलाप ] इच्छा, चाह ( खाया १, ६; प्रयौ ६१ ) । अभिलास ) वि [अभिलाषिन् ] चाहने अभिलासिण) वाला, इच्छुक (वसु, स६५४ पउम ३१, १२८ ) । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अभिलासुगवि [अभिलाषुक ] अभिलाषी ( उप ३५७ टी) । अभिलोयण न [ अभिलोकन ] जहाँ खड़े रह कर दूर की चीज देखी जाय वह स्थान ( परह २, ४) । अभिलोयण न [अभिलोचन ] ऊपर देखो ( परह २, ४ ) । अभिवंद सक [ अभि + वन्द्] नमस्कार करना, प्रणाम करना । वकृ. अभिवंदंत ( पउम २३, ६); कृ. 'जे साहुणो ते अभिबंदियव्वा' (गोय १४); अभिवंदणिज्ज (विसे २६४३) । अभिवंद स्त्री [अभिवन्दना ] प्रणाम, नमस्कार (चेइय ६३९ ) । अभिवंद व [अभिवन्दक ] प्रणाम करने वाला ( प ) । अभिवड्ढ प्रक [ अभि + वृध् ] बढ़ना, बड़ा होना, उन्नत होना । श्रभिवड्ढामो भूका. श्रभिवड्ढित्था ( कष्प) । वकृ. अभिवड् ढेमाण (जं ७) । अभिवढि देखो अभिवुड्ढि (इक) । अभिवड्ढि देखो अहिवड्ढि (मुज्ज १० १२ टी) । अभिवड्ढिय वि [अभिवर्धिन] १ बढ़ाया हुमा २ अधिक मास । ३ अधिक मासवाला वर्ष (सम ५६; चन्द ११) । अभिवड्ढे सक [अभि + वधैय् ] बढ़ाना । श्रभिदेति (सुज्ज ६) । वकृ. अभिवड्ढेमाग (सुज ६) । संकृ. अभिवदेत्ता (सुज ६ ) | अभिवत्त वि[ अभिव्यक्त ] श्राविभूत ( धर्मंसं ८८ ) । अभिवृत्ति स्त्री [अभिव्यक्ति ] प्रादुर्भाव ( उप २८५) । अभिवय सक [ अभि + व्रज् ] सामने जाना । वक्र. अभिवयंत ( पाया १८ ) । अभिवाइय वि [अभिवादित] प्रणत, नमस्कृत ( सुपा ३१० ) । अभिवात पुं [ अभिवात ] १ सामने का पवन । २ प्रतिकूल (गरम या रूक्ष ) पवन (प्राचा) । अभिवाद । सक [ अभि + वादय् ] प्रणाम अभिवा करना, नमस्कार करना । श्रभि पाइअसहमणवो अभिलासुग- अभिसित्त अभिसंधि पुंस्त्री [अभिसंधि ] आशय, अभिप्राय (उप २११ टी) । अभिसंधिय वि [अभिसंहित] गृहीत, उपा (प्राचा) । वाइ (महा) | अभिवादये ( विसे १०५४ ) | | अभिसंधारण न [ अभिसंधारण ] पर्याa. अभिवायमाण ( श्राचा) । कृ. अभि- लोचन, विचारना (प्राचा) । वायणिज्ज (सुपा ५६८ ) । अभिवाय देखो अभिवात (प्राचा) । भवान [अभिवादन] प्रणाम, नमस्कार ( याचा दसवू ) । अभिवाहरण न [ अभिव्याहरण] बुलाहट, पुकार (पंचा २) । अभिवाहार पुं [अभिव्याहार] प्रश्नोत्तर, सवाल-जवाब (विसे ३३९६) । अभिविहि पुंस्त्री [अभिविधि] मर्यादा, व्याप्ति ( पंचा १५; विसे ८७४) । अभिवुद्धि स्त्री [अभिवृष्टि ] वृष्टि, वर्षा (पत्र ४०)। अभिसंभूय वि [अभिसंभूत] उत्पन्न, प्रादुभूत (प्राचा) । अभिसंबुद्ध वि [अभिसंबुद्ध] ज्ञान प्राप्त, बोध प्राप्त (प्राचा) | अभिसंवुड्ढ वि [अभिसंवृद्ध ] बढ़ा हुआ, उन्नत अवस्था को प्राप्त ( आचा) । अभिसमण्णागय वि [ अभिसमन्वागत ] अभिसमन्नागय १ अच्छी तरह जाना हुश्रा, सुनिर्णीत (भग ५, ४) । २ व्यवस्थित ( सू २,१) । ३ प्राप्त, लब्ध (भग १५३ कप्प गाया १, ८) । अभिवुड्ढ देखो अभिवढ । संकृ. अभिवुदित्ता (सुन १) । अभिवुढि स्त्री [अभिवृद्धि] १ वृद्धि, बढ़ाव। २ उत्तरभाद्रपद नक्षत्र का श्रधिष्ठाता देव (जं ७) । अभिसमागम सक [ अभिसमा + गम् ] अभिवुड्ढे देखो अभिवड्ढे । संकृ. अभिवुड्ढेत्ता (सुज ६) । अभिवेदणा स्त्री [अभिवेदना] प्रत्यन्त पीड़ा ( सू २, ५, १, १६) । अभिव्यंजण न [अभिव्यञ्जन] देखो अभिवत्ति (सूत्र १, १, १ ) । अभिव्याहार देखो अभिवाहार (विसे ३:१२)। अभिसंकण न [अभिशङ्कन] शंका, वहम (संबोध ४९ ) । १ सामने जाना । २ प्राप्त करना। ३ निर्णय करना, ठीक-ठीक जानना । संकृ. अभिसमागम ( श्राचा दस ५) । अभिसमागम पुं [अभिसमागम ] १ मुख गमन । २ प्राप्ति । ३ निर्णय (ठा ३, ४ ) । अभिसमे सक [अभिसमा+३ ] देखो अभिसमागम = अभिसमा + गम् । अभिसमेइ ( ठा ३, ४) । संकृ. अभिसमेच्च (बाचा) । अभिसर तक [अभि + सृ] प्रिय के पास जाना । वकृ. अभिसरंत ( मोह ε१) । अभिसरण न [ अभिसरण] १ सामने जाना, संमुख गमन ( परह १, १ ) । २ प्रिय के पास जाना (कुमा अभिसंका स्त्री [अभिशङ्का ] संशय, संदेह ( सू २, ६, १, १४) । अभिसंकि वि [अभिशङ्किन] १ संदेह करने- अभिसं पुं [ अभिपत्र ] १ आदि का अकं । २ मद्य मांस आदि से मिश्रित चीज ( पव ६) । वाला । २ भीरु, डरनेवाला; 'उज्जू माराभितंकी मरणा पमुचति' ( श्राचा पाया १, १८) । अभिसंग पुं [अभिष्वङ्ग ] श्रासक्ति (ठा ३, ४) । अभिसंजाय वि [ अभिसंजात] उत्पन्न ( श्राचा) । अभिसंधु सक [अभिसं + स्तु] स्तुति करना, वर्णन करना। वकृ. अभिसंधुणमाण ( गाया १, ८) । अभिसारिआ देखो अहिसारिआ (गा ८७१) । अभिसिच सक [ अभि + सिच् ] अभिषेक करना । अभिसिंचति (कप्प ) । कवकु. अभिसिचमाण (कप्प ) । प्रयो., हेकु. अभिसिंचा वित्त (पि ५७८ ) । For Personal & Private Use Only अभिसित्त वि [अभिषिक्त ] जिसका अभिषेक किया गया हो वह (भावम) 1 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | (ठा ७)। अभिसेअ-अमर पाइअसद्दमहण्णवो अभिसेअ) [अभिषेक] १ राजा, प्राचार्य अभिहेअ वि [अभिधेय] वाच्य, पदार्थ अमणुस्स पुं [अमनुष्य] १ मनुष्य-भिन्न देव अभिसेग प्रादिपद पर आरूढ़ करना (संथा. (विसे ८४१)। आदि (मंदि)। २ नपुंसक (निचू १)। महा)। २ स्नान-महोत्सव, 'जिणाभिसेगे' अभीइ स्त्री [अभिजित् ] १ नक्षत्र- अमत्त न [अमत्र] भाजन, पात्र (सूअ १,६)। (सुपा ५०)। ३ स्नान (प्रौपः स ३२)। ४ अभीजि विशेष (सम ८, १५)। २ पुं. एक जहां पर अभिषेक किया जाता है वह स्थान राजकुमार (भग १३, ६)। ३ राजा श्रेणिक अमम वि [अमम] १ ममता-रहित, निःस्पृह (पएह २, ५, सुपा ५००)। २ पुं. आगामी (भग)। ५ शुक्र-शोणित का संयोग, 'इह खलु | का एक पुत्र, जिसने जैन दीक्षा ली थी (अनु)। काल में होने वाले एक जिनदेव का नाम अत्तत्ताए तेहिं तेहिं कुलेहिं अभिसेएण अभि- | अभीरु वि [अभीरु] १ निडर, निर्भीक (सम १५३)। ३ युग्म रूप से होने वाले संभूया' (प्राचा १, ६, १)। ६ वि. प्राचार्य | (माचा)। २ स्त्री. मध्यम ग्राम की एक मूर्च्छना मनुष्यों की एक जाति (जं ४)। दिन के आदि पद के योग्य (बृह ३)। ७ अभिषिक्त | २५ वा मुहुर्त का नाम (चंद १०)। 'त्त वि (निचू १५)। अभेज्झा देखो अभिज्मा (पएह १,३)। [त्व] निःस्पृह, ममता-रहित (पंचव ४) । अभिसेगा स्त्री [अभिषेका] १ साध्वी, संन्या- अभोज वि [अभोज्य] भोजन के अयोग्य सिनी (निचू १५)। २ साध्वियों की मुखिया, अमय वि [अमय विकार-रहित, (गाया १, १६)। घर न [गृह] भिक्षा प्रवत्तिनी (धर्म ३ निचूह)। 'अमनो य होइ जीवो, कारणविरहा के लिए अयोग्य घर, धोबी आदि नीच जाति अभिसेज्जा स्त्री [अभिशय्या] देखो अभि जहेव मागासं। | का घर (बृह १)। णिसज्जा (वव १)। २ भिन्न स्थान (विसे समयं च होअनिच्चं, मिम्मयवडतंतुमाईयं' अम सक [अम्] १ जाना। २ अावाज ३४६१)। (विसे)। करना। ३ खाना। ४ पीडना। ५ अक. अभिसेवण न [अभिषेवण] पूजा, सेवा, रोगी होना, 'अम गचाईसु' (विसे ३४५३); अमय न [अमृत] १ अमृत, सुधा (प्रासू भक्ति (पउम १४, ४६)। 'अम रोगे वा' (विसे ३४५४)। अमइ (विसे ६६)। २ क्षीर समुद्र का पानी (राय)। ३ अभिसेवि वि [अभिषेविन सेवा-कर्ता (सूम ३४५३)। पुं. मोक्ष, मुक्ति (सम्म १६७ प्रामा)। ४ २,६, ४४)। अमग्ग पुं [अमार्ग] १ कुमार्ग, खराब रास्ता वि. नहीं मरा हुआ, जीवित; 'अमनो हं नय अभिस्संग पुं [अभिष्वङ्ग] प्रासक्ति (विसे (उब)। २ मिथ्यात्व, कषाय प्रादि हेय पदार्थ; विमुञ्चामि' (पउम ३३,८२)। कर पुं[कर] २९६४)। 'प्रमगं परियारणामि मग्गं उपसंपजामि' चन्द्र, चन्द्रमा (उप ७६८ टी)। किरण पुं अभिट्टु अ [अभिहत्य] बलात्कार करके, [किरण] चन्द्र (सुपा ३७७)। "कुंड पुं जबरदस्ती करके (प्राचा; पि ५७७)। (आव ४)। ३ कुमत, कुदर्शन (दंस)। [कुण्ड] चन्द्र, चाँद (श्रा २७) । °घोस पुं अभिहड वि [अभिहत] १ सामने लाया अमग्घाय पुं [अमाघात] १ द्रव्य का अ [घोष एक राजा का नाम (संथा) । फल हुआ (पंचा १३) । २ जैन साधुओं की भिक्षा | हरण । २ मारिनिवारण, अभय घोषणा (पंचा न [फल] अमृतोपम फल (णाया १, ६) । का एक दोष (ठा ३, ४)। मइय-मय वि[°मय] अमृत-पूर्ण (कुमाः अभिहण सक [अभि + हन] मारना, हिंसा अमञ्च पुं[अमात्य मन्त्री, प्रधान (प्रोप; सुर सुर ३,१२१, २३३)। मऊह पु[ मयूख करना (पि ४६६)। वकृ. अभिहणमाण ४, १०४)। चन्द्र (मै ६८) । "वल्लरि, वल्लरी स्त्री (जं ३)। अमञ्च पुं[अमर्त्य] देव, देवता (कुमा)। ["वल्लरि, री अमृतलता, वल्ली-विशेष, अभिहणण न [अभिहनन] अभिघात, हिंसा अमझ वि [अमध्य] १ मध्य रहित, अखण्ड गुडूची। वल्लि, वल्ली स्त्री [°वल्लि, (भग ८, ७)। (ठा ३, २) । २ परमाणु (भग २०, ६)। 'ल्ली] वल्ली-विशेष, गुडूची (श्रा २०; पव अभिहय वि [अभिहत] मारा हुआ, पाहत | अमण न [अमन] १ ज्ञान, निर्णय (ठा ३, ४)। वास पुं[°वर्ष] सुधा-वृष्टि (थाचा)। (पडि)। ४)। २ अन्त, अवसान (विसे ३४५३)। देखो अमिय = अमृत। अभिहा स्त्री [अभिधा] नाम, आख्या (सण)। | अमण रवि [अमनस्क] १ अप्रीतिकर, अमय पुं[दे] १ चन्द्र, चन्द्रमा (दे १,१५)। अभिहाण न [अभिधान] १ नाम, पाख्या अमणक्ख । अभीष्ट (ठा ३,३)। ३ मनरहित २ असुर, दैत्य (षड्)। (कुमा)। २ वाचक, शब्द (वव ९)। ३ | (पाव ४; सूम २, ४, २)। कथन, उक्ति (विसे)। अमणाम वि [अमनआप अनिष्ट, अमनोहर अमयघडिअ पुंदे. अमृतघटित] चन्द्रमा, अभिहाण न [अभिधान] १ उच्चारण (सम १४६; विपा १, १)। चाँद (कुप्र २१)। (सूअनि १३८)। २ कथन, उक्ति (घमंसं | अमणाम वि [अमनोम] ऊपर देखो (भगः अमयणिग्गम पु [दे. अमृतनिर्गम] १ ११११)। ३ कोशग्रन्थ (चेइय ७४)। विपा १,१)। चन्द्र, चन्द्रमा (दे १,१५)। अभिहिय वि [अभिहित] कथित, उक्त अमणाम वि [अवनाम] पीड़ा-कारक, दुःखो- अमर वि [आमर] दिव्य, देव-सम्बन्धी; 'प्रमरा (प्राचा)। त्पादक (सूम २,१)। पाउहभेया' (पउम ६१, ४९)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो अमर-अमुग अमर पुं[अमर] १ देव, देवता (पाप)। २ अमरिसिय वि [अमर्षित] १ मत्सरी, अस- तीर्थंकर देव का नाम (सम १५३)। भूय मुक्त आत्मा (औप)। ३ भगवान् ऋषभदेव हिष्ण (प्रावम; स ५६५) । वि [भूत अमृत-तुल्य (प्राउ)। "मेह पुं का एक पुत्र (राज)। ४ अनन्तवीर्य नामक | अमरी स्त्री [अमरी] देवी (कुमा)। [मेघ अमृतवर्षा (जं ३) । रुइ पुं भावी जिनदेव के पूर्वजन्म का नाम (ती अमरीस '[अमरेश] इन्द्र (चेइय ३१०)। [रुचि चन्द्र, चन्द्रमा (श्रा १६)। २१)। ५ वि. मरणरहित, 'पावंति अविग्घेणं अमल वि [अमल] १ निर्मल, स्वच्छ (उव; | अमिय वि [अमित] परिमाण-रहित, असंख्य, जीवा अयरामरं ठाणं' (पडि)। कंका स्त्री सुपा ३४) । २ पुं. भगवान ऋषभदेव के एक अनन्त (भग ५, ४, सुपा ३१; श्रा २७)। [कङ्का] एक नगरी का नाम (उप ६४८ पुत्र का नाम (राज)। गइ पुं[गति दक्षिण दिशा के एक इन्द्र टी)। केउ पुं [केतु] एक राजकुमार अमला स्त्री [अमला] शक की एक अग्र- का नाम, दिक्कुमारों का इन्द्र (ठा २, ३)। (दस) । गिरि पु [गिरि मेरु पर्वत (पउम महिषी का नाम, इन्द्राणी-विशेष (ठा ८)। । जस [यशस्] एक चक्रवर्ती राजा का ६५, ३७)। गेह न [गेह] स्वर्ग (उप अमवस्सा देखो अमावस्सा (पंचा १६, नाम (महा)। गाणि वि [ज्ञानिन्] १ ७२८ टी)। चन्दण न [°चन्दन] १ हरि- २०)। सर्वज्ञ (विसे)। २ ऐवत क्षेत्र के एक जिनचन्दन वृक्ष । २ एक प्रकार का सुगन्धित काष्ठ अमाइवि [अमायिन्] निष्कपट, सरल देव का नाम (सम १५३) । तेय पुं (पास) । तर पुं [तरु] कल्पवृक्ष (सुपा अमाइल (प्राचा ठा १०द्र ४७)। ["तेजस्] एक जैन मुनि का नाम (उप ४४)। दत्त पुं [ दत्त एक श्रेष्ठि-पुत्र का अमाघाय देखो अमग्घाय (उवा)। ७६८ टी)। बल पुं[बल] इक्ष्वाकु वंश के नाम (धम्म)। नाह पुं [°नाथ] इन्द्र (पउम अमाण वि [अमान] १ गवरहित, नम्र एक राजा का नाम (पउम ५,४)। वाहण पुं १०१, ७५)। पुर न [पुर] स्वर्ग (पउम (कप्प)। २ असंख्य, 'ठारगट्ठाणविलोइज्जमा- [ वाहन] दिक्कुमार देवों के एक इन्द्र का २,१४) । पुरी स्त्री [पुरी] स्वर्गपुरी, अमणमारणोसहिसमूहों (उब ६ टी)। नाम (ठा २, ३) । वेग पुं["वेग] राक्षस रावती (उप पृ १०५)। पभ पु[प्रभ] अमाय वि [अमात] नहीं समाया हुआ; वंश के एक राजा का नाम (पउम ५, २६१)। वानर-द्वीप का एक राजा (पउम ६, ६६)। 'सुसाहुवग्गस्स मणे प्रमाया' (सत्त ३५)। सिणिय वि [°ासनिक] एक स्थान पर 'वइ पुं[पति] इन्द्र (पउम १०१, ७०% अमाय वि [अमाय] निष्कपट, सरल (कप्प)। नहीं बैठनेवाला, चंचल (कप्प)। सुर १, १)। वहू स्त्री [वधू ] देवी | अमायि देखो अमाइ (भग)। अमिल न [दे] ऊन का बना हुआ वस्त्र (श्रा (महा)। सामि पुं[स्वामिन् ] इन्द्र अमारि स्त्री [अमारि] हिंसा-निवारण, जीवित १८) । २ पुं. मेष, भेड़ (प्रोष ३६८)। (विसे १४३६ टी)। सेण पुं[सेन १ दान (सुपा ११२)। बोस पुं[घोष अमिल वि [दे. आमिल] अमिल देश में एक राजा का नाम (दंस)। २ एक राजअहिंसा की घोषणा (सुपा ३०६)। पडह पुं बना हुआ (प्राचा २, ५, १, ५)। कुमार का नाम (णाया १, ८)। लय त्रि [पटह] हिंसा-निषेध का डिण्डिम, 'अमा अमिला स्त्री [अमिला] १ बीसवें जिनदेव [लय] स्वर्ग, 'चविउममरालयाए' (उप रिपडह च घोसावेइ' (रयण ६०)। की प्रथम शिष्या (सम १५२)। २ पाड़ी, ७२८ टी सुपा ३५)। "बई स्त्री [विती] छोटी भैंस (बृह १)। अमावसा । स्त्री [अमावास्या तिथि. १ देव-नगरी, स्वर्ग-पुरी (पान)। २ मयं अमावस्सा विशेष, अमावस (कपः सपा मिलाण) वि [अम्लान] १ म्लानलोक को एक नगरी, राजा श्रीसेन की अमावासा ) २२६; रणाया १, १०चंद अमिलाय रहित, ताजा, हृष्ट (सुर ३,६५ राजधानी (उप ६८६ टी)। भग ११,११)। २. कुरएटक वृक्ष । ३ न. अमरंगणा स्त्री [अमराङ्गना] देवी (था अमिज वि [अमेय] माप करने के लिए | कुरण्टक वृक्ष का पुष्प (दे १,३७)। २७)। अशक्य, असंख्य (कप्प)। अमु स [ अदस् ] वह, अमुक (पि ४३२) । अमरिंद पुं[अमरेन्द्र देवों का राजा, इन्द्र अमिझ न [अमेध्य] १ अशुचि वस्तु 'भरि- अमुअ स [अमुक] वह, कोई, अमका-ढमका (भवि)। यममिज्झस्स दुरहिगंधस्स' (उप ७२८ टी)। (मोघ ३२ भा; सुपा ३१४)। अमरिस पुं[अमर्ष १ असहिष्णुता (हे २, २ विष्ठा (सुपा ३१३) । अमुअ देखो अमय = अमृत (प्रासू ५१ गा १०५) । २ कदाग्रह (उत्त ३४)। ३ क्रोध, अमित्त पुंन [अमित्र] रिपु, दुश्मन (ठा, ९७६)। गुस्सा (पराह १, ३, पान)। ४,४; से ५, १७)। अमुअ देखो अमय = अमय (काप्र ७७७)। अमरिसण न [अमर्षण] १-३ ऊपर अमिय देखो अमय = अमृत (प्रासू गा| अमुअ वि [अस्मृत] स्मरण में नहीं पाया देखो। ४ वि. असहिष्णु; क्रोधी (पएह १,४)। २. विसे; आवमः पिंग)। कुंड न ["कुण्ड हुआ (भग ३, ६)। ५ सहिष्णु, क्षमाशील (सम १५३)। नगर विशेष का नाम (सुपा ५७८)। गइ अमुइ वि [अमोचिन्] नहीं छोड़नेवाला अमरिसण वि [अमसूण उद्यमी, उद्योगी स्त्री [गति] एक छन्द का नाम (पिंग)। (उव)। (सम १५३)। णाणि [ज्ञानिन] ऐरवत क्षेत्र के एक अमुग देखो अमुअ = अमुक (कुमा)। For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमुगत्थ-अय पाइअसहमहण्णवो ६९ अमुसार, १०, १२) सत्यवचन (सूप १, अमा अमुगत्थ वि [अमुत्र] अमुक स्थान में (सुपा | [दर्शिन्] १ ठीक-ठीक देखनेवाला (दस | अम्माइआ स्त्री [दे] अनुसरण करने वालो ६०२)। ६)। २ न. उद्यान-विशेष । ३ पुं. यक्ष-विशेष | स्त्री, पीछे-पीछे जानेवाली स्त्री (दे १,२२) । अमुण वि [अज्ञ] अजान, मूर्ख (बृह १)। (विपा १, ३) । पहारि वि [प्रहारिन्] अम्मो अ[ ? ] १ आश्चर्य-सूचक अमुणिय वि [अज्ञात] अविदित (सुर ४, | अचूक प्रहार करनेवाला, निशानबाज (महा) । | अव्यय (हे २, २०८; स्वप्न २६)। २ माता २०)। रह पुं [ रथ इस नाम का एक रथिक । का संबोधन, हे माँ (उवा; कुमा) । अमुणिय वि [अज्ञान] मूर्ख, अजान (पएह | (महा)। | अम्मोगइया स्त्री [दे] संमुख-गमन, स्वागत १, २)। अमोह [अमोह] १ मोह का प्रभाव, सत्य- करने के लिए सामने जाना; 'राया सयमेव अमुत्त वि [अमुक्त] अपरित्यक्त (ठा १०)। ग्रह (विसे)। २ रुचक पर्वत का एक शिखर अम्मोगइयाए निग्गओं (सुख २, १३)। अमुत्त वि [अमूर्त रूपरहित, निराकार | (ठा ८)। ३ वि. मोहरहित, निर्मोह (सुपा अम्मोस वि [अमर्ण्य अक्षम्य, क्षमा के स न (सुर १४, ३६)। ८३)। अयोग्य (सुपा ४८७)। अमुदग्गन [अमुदन] १ प्रतीन्द्रिय अमोह पुं[अमोघ] १ सूर्य-बिम्ब के नीचे अमुयग्ग। मिथ्याज्ञान विशेष, जैसे देवताओं अम्ह स [अस्मत् ] हम, निज, खुद (हे २, कभी-कभी दीखती श्याम प्रादि वर्णवाली रेखा के पुद्गलरहित शरीर को देखकर जीव का ६६ १४२)। केर, केर, श्चय वि (अणु १२१)। २. पुंन. एक देवविमान शरीर पुद्गल से निर्मित नहीं है ऐसा निर्णय [ीय अस्मदीय, हमारा (हे २, ६६; सुपा (देवेन्द्र १४४)। (ठा ७)। अमोहण न [अमोहन] १ मोह का प्रभाव अमुस वि [अमृष] सञ्चा, सत्य; 'अमुसे वरे अम्हत्त वि [दे] प्रमृष्ट, प्रमाणित ( षड् )। (वव १०)। २ वि. मुग्ध नहीं करनेवाला अम्हार । (अप) वि [अस्मदीय हमारा (कप्प)। अमुसा स्त्री [अमृवा] सत्यवचन (सूत्र १, अमोहा स्त्री [अमोघा] १ एक जम्बूवृक्ष, अम्हारय । (षड् , कुमा)। १०)। वाइ वि [°वादिन] सत्यवादी | जिसके नाम से यह जम्बूद्वीप कहलाता है अम्हारिच्छ वि [अस्मादृक्ष] हमारे जैसा (जीव ३)। २ एक पुष्करिणी (दीव)। (प्रामा)। अमुह वि [अमुख निरुत्तर (ववए)। । अम्म देखो अंब- आम्ल (उर २,६)। अम्हारिस वि [अस्मादृश हमारे जैसा (हे अमुहरि वि अमुखरिन् अवाचाल, मित- अम्मएव आम्रदेवा एक जैन प्राचार्य १,१४२० षड्)। भाषी (उत्त १)। (पब २७६; गा ६०६)। अम्हेश्चय वि [अस्माक] अस्मदीय, हमारा अमूढ वि [अमूढ] प्रमुग्ध, विचक्षण (णाया अम्मा देखो असावा (कुमाः हे २, १४९)। १, ६) । °णाण न [ज्ञान] सत्य-ज्ञान अम्मच्छ वि [दे] असंबद्ध (षड्)। अम्हो म [अहो] आश्चर्य-सूचक अव्यय (आवम)। दिट्ठि स्त्री [°दृष्टि] १ अम्मड देखो अंबड (ोप)। (षड्)। सम्यग्दर्शन (पव ६)। २ अविचलित बुद्धि (उत्त २)। ३ वि. अविचलित दृष्टि वाला, अम्मडी (अप) स्त्री [अम्बा] माता, म (हे | अय पुं[अग] १ पहाड़, पर्वत। २ साँप, सम्यग्दृष्टि (गच्छ १)। सर्प । ३ सूर्य, सूरज (श्रा २३)। ४, ४२४)। अमूस वि [अमृष] सत्यवादी (कुमा)। अम्मणुअंचिय न [दे] अनुगमन, अनुसरण अय पुं[अज] १ छाग, बकरा (विपा १,४)। (दे १, ४६)। २ पूर्वभाद्रपद नक्षत्र का अधिष्ठायक देव (ठा अमेज देखो अमिज (भग ११,११)। अम्मधाई देखो अंबधाई (विपा १,६)। २, ३)। ३ महादेव । ४ विष्णु । ५ रामअमेझ देखो अमिज्म (महा)। अम्मया स्त्री [अम्बा] १ माता, जननी चन्द्र । ६ ब्रह्मा। ६ कामदेव (श्रा २३)।८ अमोल्ल वि [अमूल्य] जिसकी कीमत न हो । (वा)। २ पांचवें वासुदेव की माता का महाग्रह-विशेष (ठा ६)। ६ बीजोत्पादक सके वह, बहुमूल्य (गउड; सुपा ५१६)। नाम (सम १५२)। शक्ति से रहित धान्य (पउम ११, २५) । अमोसलि न [दे. अमुशलि] वस्त्रादि निरीअम्महे (शौ) प्र. हर्ष-सूचक अव्यय (हे ४, करक g[करक] एक महाग्रह का नाम क्षण का एक प्रकार (प्रीघ २६५) । २८४)। (ठा २, ३) । वाल पुं[पाल] आभीर (श्रा अमोसा देखो अमुसा (कुमा)। अम्मा स्त्री [दे. अम्बा] माता, मां (दे १, २३)। अमोह वि [अमोघ १ प्रवन्ध्य, सफल | ५)। "पिइ, "पिउ, "पियर, पीइ पुं.ब. अय पुं[अय] १ गमन, गति (विसे २७६३ (सुपा ८३, ५७५) ।२ पुं. सूर्य के उदय ["पित मां-बाप, माता-पिता (वव ३ कप्पा श्रा २३)। २ लाभ, प्राप्ति । ३ अनुभव पौर प्रस्त के समय किरणों के विकार से होने | सुर ३,८३; ठा ३,१, सुर ३,८८७,१७०)। (विसे)। ४ न. पुरय (ठा १०)। ५ भाग्य, वाली रेखा विशेष (भग ३, ६)। एक | 'पेइय वि [पैतृक मां-बाप-संबन्धी (भग नसीब (श्रा २३)। यक्ष का नाम (विपा १,४)। 'दसि वि १,७)। अयन [अक] १ दुःख । २ पाप (श्रा २३)। For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० अन [ अयस् ] लोहा, लोह (श्रोष २ ) । "आगर ["आकर] [१] लोहे की खान ( नि ५) । २ लोहे का कारखाना (ठा ८ ) । "कंत, "क्वंत ["कान्त] लोहचुम्बक (आम) । [दे. 'कडिल्ल] कटाह (श्रोघ) । कुंडी स्त्री [ कुण्डी] लोहे का भजन - विशेष (विपा १, ६) । कोट्टय पुं [को] हे काल लोहे का गोला "पोट्ट' अयको व्व वट्ट" ( उवा) । गोलय [गोलक ] लोहे का गोला ( श्रा १९) । 'दव्बी स्त्री [दर्वी] लोहे की कड़छी या कर छुल, जिससे दाल, कढ़ी आदि हिलाया जाता है ( दे २, ७) । पाय न ['पात्र ] लोहे का भाजन । सलागा स्त्री [शलाका ] लोहे की सलाई (उप २११ टी) । अ क [ अ ] १ गमन करना, जाना । २ प्राप्त करना । ३ जानना । वकृ. अयमाण (सम २३) । अयं तक [ कृप्] [चना २ जोतना, चास करना। रेखा करना । अयंछइ (हे ४, १८७ ) । रवि | कर्षिन् ] कर्षणशील, खींचनेL बाला (मा)। अयं पुं [ अकाण्ड ] १ अनुचित समय (महा) । २ श्रकस्मात् हठात् (पउम ५, १६४३ से ४४ गउड ) । ३ क्रिवि अनधारित, (पाच)। अयंत व [ आयत् ] आता हुआ, प्रवेश करता हुआ (आम) 1 अतिवि [अयन्त्रित] अनादरणीय (उत्त २०, ४२) । अयं पर वि [अजल्पितृ] नहीं बोलनेवाला, मौनी (पि २९६ ५६६) । अयंपुल पुं [ अयंपुल ] गोशालक का एक शिष्य (भग ५)। अयंस [आदर्श] व कांच मुद्द ["मुख] इस नाम का एक द्वीप २ द्वीपविशेष का निवासी (इक) । असंधि वि[संधि] उपयुक्त कार्य को यथासमय करनेवाला ( श्राचा) । अयकश्यपुं [अयकरक] एक महाग्रह ( सुज २० ) । पाइअसहमणव । अथक } पुं [दे] दानव, असुर (दे १,६)। अगर पुं [अजगर ] अजगर, मोटा साँप ( एह १, १ पउम ६३, ५४ ) । अयड पुं [दे. अवट] कूप, कुंद्रा (दे १,१८ ) अयण न [अतन] सतत होना, निरन्तर होना (विसे ३५७८ ) 1 अयण न [ अन ] १ गमन । २ प्राप्ति, लाभ (विसे ८३ ) । ३ ज्ञान, निर्णय ( विसे ८३ ) । ४ गृह, मन्दिर; 'चंडियायां' ( स ४३५) । ५ वि. प्रापक, प्राप्त करनेवाला ( विसे ६६० ) । ६ पुंन. वर्ष का प्राधा भाग, जिसमें सूर्य दक्षिण से उत्तर में या उत्तर से दक्षिण में जाता है (ठा २, ४); 'एके श्रणे दिश्रहा, बीए रमणी होंति दीहाओ । विरहायणो उव्वो, इत्थ दुवे चे वति' (गा ८४६ ) । १ भक्षरण । २ खुराक, उर ८, ७) । अजान, मूर्ख (सुर ३, स्थूल, मोठा, महान् अयण न [ अदन] भोजन ( स १३० अणुवि [ अज्ञ] १६६ ) । अपणु वि (सण) । [अनु] अतंचि वि [] पुत्र, उपचित (दे १, ४७) । अरवि [अजर] वृद्धावस्थारहित 'अयरामरं ठा' (पडि, उब ) । अयर पुंग [अंतर ] १ सागर समुद्र ( २८ ) । २ समय का मान विशेष, सागरोपम (संग २१,२५० प ४३)। पि. तरने के अशक्य (बृह १) । ४ असमर्थ, अशक्त (निचू १) । ५ ग्लान, बीमार (बृह १) । अयरामर वि [अजरामर ] जरा धीर मरण से रहित (नव २ ) । २ न. मुक्ति, मोक्ष ( पउम ८, १२७ ) । अयल देखो अचल = अचल (पाच गउड उप पृ १०५; अंत ३; पउम ८५,४; सम ८८ कप्प; सम १९ ) । अथला देखो अचला (पउम १२०, अयस देखो अजस (गउडः १५३३ गा १७८ ) । १५९ ) । प्रासू २३० For Personal & Private Use Only अय-अर असं वि [ अयशस्विन् ] प्रजसी, यशोरहित, कीर्ति - शून्य (गउड ) । अयसि ? स्त्री [अतसी ] धान्य- विशेष, श्रलसी, अयसी तीसी (भगः ठा ७; गाया १, ५) । अया स्त्री [अजा ] १ बकरी । २ माया, श्रविद्या । ३ प्रकृति, कुदरत (हे ३, ३२ षड् । किवाणिज्ज [कृपाणीय] न्यायविशेषः जैसे बकरी के गले पर अनधारी छुरी पड़ती है उस माफिक अनधारा किसी कार्य का होना ( श्राचा) । पाल पुं ['पाल ] प्राभीर, बकरी चरानेवाला ( स २६० ) । वय [A] बकरी का बाड़ा (भग १६, ३) । अयागर देखो अय-आगर (ठा ८) । अयाण न [ अज्ञान] ज्ञान का अभाव (सत्त ६२) । अयाणवि [अज्ञ, अज्ञान] प्रजान, अज्ञानी, मूर्ख (श्रोध ७४; पउम २२, ५३ गा २७५; ७, ७३) । अयाणवि [अज्ञायक ] ऊपर देखो (पान; भवि ) । अयात देखो अजाणंत (मोघ ११ ) । अयाणमाण देखो अजाणमाण (नव ३९ ) । टी) अयाणिय देखी अजाणिव (उप ७२६ । अयाणुव देवी अजाणु (गुर ३, १९६० सुपा ५४३) । अयार पुं [अकार ] 'अ' अक्षर (विसे ४७८ ) । अयाल [अकाल] योग्य समय चित काल ( पउम २२, ८५) । अयालि ? [हे] दुर्दिग, मेवाच्छन्मदिवस (दे १, १३) । अवालियर [ अकालिक] शाकश्मिक प्रकाण्डोत्पन्न; 'पडउ पडउ एयस्स हत्थतले मालिया (भा) = अयि देखो अइ (हे २,२१७)। अयुजरेवइ स्त्री [दे] अचिर-युवति, नवोढा, दुलन (षड् ) 1. अयोमय देखो अओ-मय ( अंत १६) । अय्यावत्त (शौ) पुं [आर्यावर्त] भारत, हिन्दुस्तान (कुमा) । अय्युण (मा) देखो अज्जुण (हे ४, २१२ ) । अर पुं [अ] १ धूरी, पहिये के बीचका काष्ठ । २ अठारहवाँ जिनदेव और सातवाँ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अर-अरि - चक्रवर्ती राजाः 'सुमिरणे अरं महरिहं पासइ जरी घरो तम्हा' (श्राव २: सम ५३ उत्त (१८) । ३ समय का एक परिमाण, कालचक्र का बारहवाँ हिस्सा । ( ती २१) । "अर [क] १ किरण । गा ३४३ से १, १७) । २ हस्त, हाथ ( से १, २८ ) । ३ शुल्क, चुंगी ( से १, २८ ) । अरइ स्त्री [अरति ] अशं, मसा (घाचा २, १३, १) । । अरइ स्त्री [अरति] १ बेचैनी । (भगः श्राचाः उत्त२) । 'कम्म न ['कर्मन् ] अरति का हेतुभूत कर्मविशेष (1) परिसंह, परीसह [ परिषद, परोषह] भरति को सहन करना (पंच) मोहणिजन ["मोदtr] प्रत का उत्पादक कर्म विशेष (कम्म १) । रइस्त्री [रति] सुख-दुःख (ठा १ ) । "अरंग देखो तरंग (से २, २६) । अरंजर पुंन [अरअर ] घड़ा, जल-घट (ठा ४, ४) । "अरक्ख देखो वरक्ख ( से ६, ४४ ) । अरक्रवारी श्री [अराक्षरी] (W) I नगरी- विशेष भग ३, ५ ) । , अरग देखो अर (१ह २, ४ अवयव [अरहित] निरन्य रसतत 'अभियाभितावा' ( सू १, ५, १ ) । अरडु पुं [अरटु] वृक्ष - विशेष ( उप १०३१ उठी । अरण न [अरण] हिंसा ( उव) । रण [अरणि] १ वृक्ष-विशेष । २ इस वृक्ष की लकड़ी, जिसको घिसने पर अभि जल्दी पैदा होती है (श्रावमः रणाया १, १८ ) । अणी] [] रास्ता, मार्ग २ पंक्ति, कतार । (षड् ) । अरणिया श्री [अरणिका ] वनस्पति- विशेष (श्राचा) । [दे. अरणेटक] पत्थरों के टुकड़ों से मिली हुई सफेद मिट्टी (जी ३) । अरण्ण वि [आरण्य] जंगल में रहने वाला (सूम १, १, १, १९) । अरण्ण न [ अरण्य ] वन, जंगल (हे १, ६६)[सक] देवविमान पाइसम विशेष (सम ३९ ) । साण पुं [श्वन्] जंगली कुत्ता (कुमा) | अरण्यवि[आरण्यक] जंगली जंगल-यासी ( श्रभि ५२) । रवि [अरक्त ] राग-रहित, नीराग ( श्राचा) । अरन्न देखो अरण्ण (कप्पः उब ) । अरबाग पुं [दे] एक अनार्य देश, अरब देश ( प २०४) । अरमंतिया की [अरमन्तिका] घरमा कार्य में तत्परता (उवा) । अरव देखो अर (१०)। अरवि[अरजस्]-पम ६, १४६ ) । २ एक महाग्रह का नाम (ठा २३)नि धूलीरहित, निर्मल (प)। ४ न. पांचवें देव लोक का एक प्रतर (ठा ६) । ५ रजोगुण का अभाव; 'अरो य ग्रस्यं पत्तो पत्तो तर (उत १८ ) । अरय [अरत ] धनामनः। अस्य पुन [ अरजस्] एक देवविमान ( देवेन्द्र १४१) । अरया श्री [अरजा] कुमुद नामक विजय की राजधानी (४) । अरयति [अरत्नि] परिमाण विशेष अंग्रेजीवाला हाथ (ठा ४, ४) । अरर न [अरर ] १ युद्ध । २ ढकना । कुरी स्त्री [कुरी] नगरी विशेष (धम्म & टी ) । अररि पुंन [अररि] किवाड़, द्वार (प्रामा) । अरल न [दे] १ चोरी, कीट - विशेष । २ मशक, मच्छड़ (दे १, ५३) । अरलाया स्त्री [दे] चोरी, कीट विशेष (दे १, २६) । अरलु देखो अरहु ( प अरविंद न [अरविन्द ] २, ४) । ४२ ) । कमल, पद्म (पराह ७१ पूजा के योग्य, पूज्य अरस न [अरस ] तप-विशेष, निर्विकृति तप (संबोध ५८ ) । अरवि[ अहंन.] ( हे २, १११ ) २. जिन तीर्थकर (सम्म ६७) "मित्त ["मित्र ] एक व्यपारी का नाम (गच्छ २ ) । अरह देखो अरिह = श्रहं । । अरहर ( प्राकृ For Personal & Private Use Only २८ ) । वि [ अह ] १ प्रकट । २ जिससे कुछ भी न छिपा हो । ३ पुं. जिनदेव, सर्वज्ञ (ठा ४, १, ९) । अरह वि [अरथ] परिग्रहरहित ( भग ) । अरहंत व [ अर्हत] १ पूजा के योग्य, पूज्य (षड् हे २, १११ भग ८, ५) । २ पुं. जिन भगवान् तीर्थंकरदेव (प्राचा ठा ३, ४) । अरहंत वि [ अरहोन्तर् ] १ सर्वज्ञ, सब कुछ जाननेवाला । २पुं. जिन भगवान् (भग २,१) । अरहंत [अश्वान्त] निःनिर्म २ पुं. जिनदेव (भग)। अरहंत वह [ अश्यत् ] को नहीं छोड़ने २ (भग) | अपने स्वभाव . नेिधर देव अरहट्ट [अरघट्ट] धरत रहट, पानी का चरखा, पानी निकालने का यन्त्र विशेष (गा ४६० प्रासू ५५ ); भमिश्र कालमरणंतं श्ररफिलम (जीवा १) अरट्टिय [अरपट्टिक] घरहट बताने वाला ( कुप्र ५४ ) । अरहणा श्री [अगा] १ पूजा २ योग्यता ( प्राकृ २० ) । अरण्य पुं [अरहनक] एक व्यापारी का नाम (गाया १, ८) । अरन [ अन ] एक जैन मुनि का नाम (ger, €) 1 अराइ ! [अराति] रिपु, दुश्मन (कुया)। अराइ स्त्री [अरात्रि ] दिन, दिवस (कुमा) । अरागि वि [अरागिन् ] रागरहित, वीतराग ( पउम ११७, ४१) । अरि देखो अरे ( तंदु ५०; ५२ टी) । अरविंदर वि[दे] दीर्घं लम्बा ( दे १,४५) । अरस [अरस] रसरहित नीरस (खावा १, ५) । अरस पुं [ अर्शस् ] व्याधि-विशेष, बवासीर अरि पुं [अरि] दुश्मन, रिपु (पउम ७३,१९)। (२२) । [ षड्वर्ग ] छः श्रान्तरिक ' Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ | - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्यं ( सू १,१, ४) । दमण वि [दमन] १ रिपु विनाशक । २ पुं. इक्ष्वाकु वंश के एक राजा का नाम (पउम ५, ७) । ३ एक जैन मुनि जो भग वान् अजितनाथ के पूर्वजन्म के गुरु थे (पउम २०, ७) | दमणी स्त्री [दमनी ] विद्या विशेष ( पउम ७, १४५ ) । विद्धंसी स्त्री [विध्वंसिनी] रिपु का नाश करनेवाली एक विद्या (पउम ७, १४० ) । 'संतास पुं [संत्रास ] राक्षसवंश में उत्पन्न लता का एक राजा ( पउम ५, २६५ ) । 'हंत वि [हन्तृ] १ रिपु-विनाशक । २ पुं. जिनदेव (श्रावम) । अरिअल्लि पुंस्त्री [दे] व्याघ्र, शेर (दे १,२४) । अरिंजय पुं [अरिञ्जय] १ भगवान् ऋषभदेव का एक पुत्र । २ न. नगर- विशेष ( पउम ५, १०६ इक सुर ५, १०३) । अरिट्ठ पुं [अरिष्ट ] १ वृक्ष - विशेष (पराग १) । २ पनरहवें तीर्थंकर का एक गणधर (सम १५२ ) । ३ पुंन. एक देवविमान (देवेन्द्र १३३) । ४ न. गोत्र - विशेष, जो माण्डव्य गोत्र की शाखा है (ठा ७) । ५ रत्न की एक जाति ( उत्त ३४, ४ सुपा ९ ) । ६ फल-विशेष, रीठा (पण १७ उत्त ३४, ४) । ७ श्रनिष्टसूचक उत्पात (आचू)। णेमि, नेमि पुं ["नेमि] वर्तमान काल के बाईसवें जिनदेव (सम १७ अंत ५ कप्प; पडि) 1 रिट्ठा a [ अरिष्टा ] कुच्छ नामक विजय की राजधानी (ठा २, ३) । अरित्त न [ अरित्र ] पतवार, कन्हर, नाव की पीछे का डांड़, जिससे नाव दाहिने- बांये घुमायी जाती है (धर्मवि १३२) । अरिरिहो म [ अरिरिहो ] पादपूरक श्रव्यय (हे २, २१७) । अरिस देखो अरस (गाया १, १३) । अरिसल्ल । वि [ अर्शस्वत् ] बवासीर अरिसिल्ल) रोगवाला (पानः विपा १,७) । अरिहवि [अर्ह ] १ योग्य, लायक (सुपा २६९; प्रात्र) । २ पुं. जिनदेव ( औप ) । अहि स [ अ ] १ योग्य होना । २ पूजा के योग्य होना । ३ पूजा करना । अरिह (महा) । भरिहेति (भग) । पाइअसहमहण्णवो अरिह देखो अरह - अहं (हे २, १११ षड् ) । दत्त, दिग पुं [दत्त ] जैन मुनि-विशेष का नाम (कप्प ) । अरिहणा देखी अरहणा (प्राकृ २८ ) । अरिहंत देखो अरहंत = श्रहंद (हे २, १११ षड् ; गाया १, १ ) । 'चेइय न [चैत्य ] १ जिन मन्दिर (उवा प्राचू ) । सासण न [शासन] १ जैन श्रागम-ग्रन्थ । २ जिनश्राज्ञा । ( पराह २, ५) । 'अरु देखो तरु (से २, १, ५, ८५) । अरु वि [ अरुज् ] रोग - रहित ( तंदु ४६ ) । अरु देखो अरुव (तंदु ४६ ) । अरुगन [दे. अरुक] व्रण, घाव 'अरुगं हरा कुत्थई' (बृह ३) । अरुंतुद वि [अरुन्तुद] १ मर्म- वेधक । २ मर्म स्पर्शी 'इय तदरुंतुदवायावारोह विधियस्सावि ( सम्मत्त १५८ ) । अरुण पुं [अरुण] १ सूर्य, सूरज (से ३, ६) । २ सूर्य का सारथी । ३ संध्याराग, सन्ध्या की लाली (से ८, ७) । ४ द्वीपविशेष । ५ समुद्र - विशेष, 'गंतरण होइ अरुणो, अरुणो दीवो तम्रो उदही' (दीव) । ६ एक ग्रह-देवता का नाम (ठा २, ३ पत्र ७८) । ७ गन्धावती - पर्वत का अधिष्ठाता देव (ठा २, ३ पत्र ६९) ८ देव- विशेष (दि) । रक्त रंग, लाली । ( गउड) । १० न विमान विशेष (सम १४ ) । ११ वि. रक्त, लाल ( गउड) कंत न [कान्त ] देवविमान विशेष (उवा) । [कील] न [कील] देवविमान - विशेष (उवा)। गंगा स्त्री [गङ्गा] महाराष्ट्रदेश की एक नदी ( ती २८ ) । गव न [व] देव विमान विशेष (उवा) । उभय न [ध्वज ] एक देवविमान का नाम ( उवा)। प्पभ, पह न [भ] इस नाम का एक देवविमान (उवा) । भद्द [भद्र ] एक देवता का नाम (सुज १६) । "भूय न ["भूत] एक देवविमान (उवा) । महाभद्द [महाभद्र] देव- विशेष (सुज १९ ) । ' महावर पुं [ महावर ] १ द्वीपविशेष । २ समुद्र-विशेष (इक) । ' वडिंसय [वतंसक ] एक देवविमान (उवा) । For Personal & Private Use Only अरिअलि-अरूव 'वर [व] १ द्वीप - विशेष । २ समुद्रविशेष ( सुख १९ ) । "वरोभास पुं [वरावभास] १ द्वीप - विशेष । २ समुद्रविशेष ( सुख १९ ) । 'सिट्ठ न ['शिष्ट ] एक देवविमान (उवा) । भन [भ] देवविमान - विशेष (उवा) । अरुण न [] कमल, पद्म (दे १, ८) । अरुण पुंन [ अरुण] १ एक देव- विमान । ( देवेन्द्र १३१ ) । पभ पुं [प्रभ] १ अनुवेलन्धर नामक नागराज का एक प्रावासपर्वत । २ उस पर्वत का निवासी देव । (ठा ४, २; पत्र २२६) । [भ] कृष्ण पुद्गल - विशेष (सुख २० ) । अरुणिम पुंस्त्री [अरुणिमन् ] लाली, रक्तता; 'पाणिपल्लवारुणिमरमणीयं (सुपा ५८ ) । अरुण वि [अरुणित ] रक्त, लाल (गउड ) । अरुणुत्तरवडिंग न [अरुणोत्तरावतंसक ] इस नाम का एक देवविमान (सम १४ ) | अरुणोद पुं [अरुणोद] समुद्र-विशेष (सुज १९) । अरुणोदय पुं [अरुणोदक ] समुद्र-विशेष (भग) । अरुणोववाय पुं [अरुणोपपात ] ग्रन्थ-विशेष का नाम (दि) । अरु वि [ अरुष ] व्रण, घाव (सूत्र १, ३, ३) । अरु वि[ अरुज् ] निरोगी, रोगरहित (सम १ ज २१) । अरुह देखो अरह = श्रहंत (हे २,१११ ; षड; (भवि ) । अरु वि [अरुह] १ जन्मरहित । २ पुं. मुक्त आत्मा (पव २७५ भग १, १ ) । ३ जिन देव (पउम ५, १२२ ) । अरुह देखो अरिह = महं । प्ररुहसि ( प्रभि १०४) । वकृ. अरुहमाण ( षड् ) । अरु वि [अर्ह ] योग्य (उत्तर ८४) । अरुहंत देखो अरहंत = अर्हत (हे २, १११ षड् ) । अरुहंत वि [ अरोहत् ] १ नहीं उगता हुआ, जन्म नहीं लेता हुआ ( भाग १, १ ) । अरूव वि [ अरूप ] रूपरहित, श्रमूर्तः ( पउम ७५, २६) । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरूवि - अलय विवि [अरूपिन ] ऊपर देखो (ठा १, ३; श्राचा; पण १ ) । अरे [ अरे] १-२ संभाषण और रतिकलह का सूचक अव्यय ( हे २,२०१; षड् ) । अरे [अ] इन धर्मो का सूचक अव्यय१ आक्षेप २ विस्मय भाश्च ठट्ठा ( संक्षि ३८, ४७ ) । अरोअ क [ उत् + लस् ] उल्लास पाना, विकसित होना । श्ररोइ (हे ४, २०२३ कुमा) । अरोअअ [अरोचक] रोग-विशेष, अन्न की (२२) । परिहास, अ [ अरोचिन् ] प्ररुचि वाला, रुचिरहित; 'अरोइ प्रत्थे कहिए विलावो' (गोय ७) । अरोग a [ अरोग] रोगरहित (भग १८, १) । या स्त्री [" ता] श्रारोग्य, नीरोगता ( उप ७२८ टी ) । अरोगि वि [अरोगिन् ] नोरोग, रोग-रहित । "या स्त्री [ता ] श्रारोग्य, तंदुरुस्ती (महा) । अरोमा ) देखो यारोपधारोग्य (घाचा २, अरोय १५, २) । अरोस व [अरोष ] १ गुस्सा रहित । २-३ वृं. एक म्लेच्छ देश मीर उसमें रहनेवाली म्लेच्छ जाति ( प ह १, १) । अन [अ] १ बिच्छू के पुच्छ का अग्र भाग, ‘अलमेव विच्छुत्राणं, मुहमेव अहीर तह य मंदस्स । दिट्टि बियं पिसुरणाएं, सव्वं सव्वस्स भय जाय' (१९) । २ अलावे का एक सिहासन ( छाया २ ) । ३ वि. समर्थ (श्राचा) । 'पट्ट न [पट्ट] बिच्छू की पूंछ जैसे प्राकारवाला एक शस्त्र (विया १, ६) । "अल देखी तल (गा ७५ से १७८) अलं [ अम् ] १ पर्याप्त, पूर्णं; 'अलमाजती (सुर १३, २१) । २ प्रतिषेध, निवारण, बस ( उप २, ७) । अम [ अम् ] घर भूषा (मनि २०२) । १० पाइअसहमणवो अलंकर सक [अलं + कृ] भूषित करना, विराजित करना । श्रलंकरेंति (पि ५०९ ) । वक. अलंकरंत ( माल १४३ ) । संकृ. अलंकरिज (पि ५०१) पी. कर्म करा वी ( स ६४ ) । अलंकरण न [अलङ्करण] २ आभूषण, प कार ( रयण ७४, भवि ) । २ वि. शोभाकारक, 'मज्झमलोग्रस्स श्रलंकरण सुलोअरिंग' (चिक १४) । अलंकार २ [अ] सुशोभित, विभूषितः 'कि नयरमलं करियं जम्ममहेां तए महापुरिस ।' (सुपा ५८४ सुर ४, ११८ ) | अलंकार पुं [अलङ्कार ] १ शास्त्र - विशेष, साहित्यशास्त्र (सिरि ५५; सिक्खा २ ) । न. एक विमान (रेन्द्र १३५) । अलंकार पुं [अलंकार ] १ भूषण, गहना ( श्रपः राय ) । २ भूषा, शोभा (ठा ४, ४) । "सहा श्री [सभा] [भूषा- जार-घर भूषा-गृह, शृङ्गार-घर (इक) 1 अलंकारिय पुं [अलंकारिक ] नापित, नाई, हजाम (गाया १, १३) । कम्म न ["कर्मन] हजामत क्षीर कर्म (सामा १, १२) सहा श्री [["सभा ] हजामत बनाने का स्थान (गाया १, १३) । अयि [अ] विभूषित, सुशोवि १ भित (कप्प महा ) । २ न. संगीत का एक गुरा (३) । अलंकुण देखो अलंकर । अलंकुरांति ( रयर‍ ५२) । अलंच व [अध्य] १ उल्लंघन करने के अयोग्य (सुर १, ४१) । २ उल्लंघन करने के अशक्य (उप ५६७ टी) । अलंघणिय ) वि [अलङ्घनीय] ऊपर देखो अलंघणीय ) (महा, सुपा ६०१; पि ९६; नाट)। अलंप [] मुर्गा (दे १, १२) । अलबुसा स्त्री [अलम्बुषा] १ एक दिक्कुमारी देवी का नाम । (ठा ८ ) । २ गुल्म- विशेष । (चाय)। अलंभि स्त्री [अलाभ ] प्रप्राप्ति (श्रौष २३३ भा) । अल्का श्री [अलका] नगरी- विशेष पहले For Personal & Private Use Only ७३ प्रतिवायुदेव की राजधानी (उम २० २०१) । देखो अलया । अलक्ख पुं [अलक्ष] १ इस नाम का एक राजा, जिसने भगवान् महावीर के पास दीक्षा लेकर मुक्ति पाई थी (अंतु १८) । २ न. 'अंतगडदसा' सूत्र के एक अध्ययन का नाम । (पंत १८ ) । अलक्ख वि [अलक्ष्य ] लक्ष्य में न श्रा सके ऐसा (सुर १, १३६ महा) । अलमसमान नि [अलक्ष्यमाण ] जो पहि चाना न जा सकता हो, गुप्त (उप ५६३ टी) 1 अलक्खिय [अलक्षित] अशात अपरिचित । (से १३, ४५) । २ न पहचाना हुआ । (सुर ४ १४० ) । अलग देखो अलय = अलक (महा) । अलगा देखो अलया ( अंत १) । अलग्ग न [दे] कलंक देना, दोष का झूठा भारोप (दे १. ११)। अलचपुर (जुमा) | अलज व [अस] निर्लज, बेशरम (पराह १,२) । अलजिर वि [अलजालु] ऊपर देखो (गा न [अचलपुर ] कार-विशेष ०; ४४५; ६६१; महा) । अपाउन] [] पार्थ का परिवर्तन (दे १,४८) । अन्त [अलफ] घालता, जियाँ हाथपैर को लाल करने के लिए जो रंग लगाती हैं वह (धनु) । [अलक्तक] १ ऊपर देखो। घालता से रंगा हुआ अन्तय (मुपा ४०६) (धनु) । 'अलधोय देखो कलधोय (से ६, ४६) । अलमंजुल वि [दे] श्रालसी, सुस्त (१, ४६) । अलमंथु वि [ अलमस्तु ] १ समर्थं । २ निषेधक, निवारक । (ठा ४, २) । अलमल पुं [दे] दुर्दान्त बैल (दे १,२५) । अलमलवसह पुं [दे] उन्मत्त बैल (दे १, २५) । अलय न [दे] विद्रुम, प्रवाल (दे १, १६; भवि ) । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो अलय-अल्लय अलय पुं [अलक] १ बिच्छू का कांटा। अलावु देखो अलाउ (जं ३)। अलिल्ला स्त्री [अलिल्ला] इस नाम का एक (विपा १, ६)। २ केश, धुंघराले बाल । अलावू देखो अलाऊ (पि १४१, २०१)। छन्द (पिंग)। (पापः स ६६)। अलाह पुं[अलाभ] नुकसान, गैरलाभ; 'वव- अलीग) देखो अलिय = अलीक (सुर ४, अलया स्त्री [अलका] कुबेर की नगरी (पाम: हरमाणाण पुणो होइ सुलाहो कयावलाहो अलीय) २२३, सुपा ३००महा)। गाया १, ४)। देखो अलका । वा" (सुपा ४४६)। अलीबहू स्त्री [अलिवधू] भ्रमरी (कुमा)। अलव वि [अलप] मौनी, नहीं बोलनेवाला अलाहि देखो अलं (उब ७२८ टी; हे २,१८६ अलीसअ स्त्री [दे] शाक-वृक्ष, साग का (सूम २,६)। पाया १,१ गा १२७)। | पेड़ (द १, २७)। अलवलवसह पुं[दे] घूतं बैल (षड्)। अलि पुं [अलि] भ्रमर (कुमा)। उल न अलुक्खि वि [अरूक्षिन] . कोमल (भग अलस वि [अलस] १ आलसी, सुस्त (प्रासू | [कुल] भ्रमरों का समूह (हे ४, २५३)। ११, ४)। ७)। २ मन्द, धीमा (पाप)। ३ पुं.क्षुद्र कीट- "विरुय न विरुत] भ्रमर का गुजारव अलेसि वि [अलेश्यिन] १ लेश्यारहित । विशेष, भू-नाग, वर्षाऋतु में सांप सरीखा (पान)। २ पु: मुक्त प्रात्मा (ठा ३, ४)। लाल रंग का जो लम्बा जन्तु उत्पन्न होता है अलि पुत्री [अलि ] वृश्चिक राशि (विचार अलोग पुं [अलोक] जीव-पुद्गल आदि रहित वह (जी १५, पुष्फ २६५)। आकाश (भग)। अलस वि [दे] १ मधुर आवाजवाला, 'खं अलिअल्ली स्त्री [दे] १ कस्तूरी । २ व्याघ्र, अलोणिय वि[अलवणिक] लूणरहित, नमकअलसं कलमं जुलं' (पास)। २ कुसुम्भ रंग से शेर (दे १, ५६)। शून्या 'नय अलोणियं सिलं कोइ चट्टेई' रंगा हुआ । ३ न. मोम (दे १, ५२)। अलिआ स्त्री [दे] सखी (दे १, १६)। (महा)। अलस देखो कलस (से १, ६; ११, ४०; गा अलिआर न [दे] दूध (दे १, २३)। अलोय देखो अलोग (सम १)। ३६६)। अलिंजर न [अलिअर] १ घड़ा, कुम्भ (ठा अलोभ पुं [अलोभ] १ लोभ का प्रभाव, अलसग पुं[अलसक] १ विसूचिका रोग ४, २)। २ कुंड, पात्र-विशेष (द १, ३७)। । संतोष । २ वि. लोभरहित, संतोषी (भगः अलसय ) (उवा)। २ श्वयथु, सूजन (आचा)। अलिंजरअ पुं [अलिअरक] १ घड़ा (उवा)। उव)। अलसाइअ वि [अलसायित] जिसने पालसी रंगने का कुंडा, रंग-पात्र (पास)। अलोल वि [अलोल] अलम्पट, निर्लोभ (दस की तरह आचरण किया हो, मन्द (गा ३५२)। अलिंद न [अलिन्द] पात्र-विशेष, एक प्रकार - १० पि ८५) । अलसाय अक [ अलसाय ] आलसी होना, | का जलपात्र (ओघ ४७६)। अलोह देखो अलोभ (कप्प)। आलसी की तरह काम करना । अलसापइ अलिंदग पुं [अलिन्दक] १ द्वार का प्रकोष्ठ | अल्ल न [दे] दिन, दिवस (दे १, ५) । (पि ५५८) । वकृ. अलसायंत, अलसाय- (स ४७६)। २ घर के बाहर के दरवाजे का माण (से १४, १: उप पू ३१५; गच्छ १)। चौक। ३ बाहर का अग्र भाग (बृह २, राज)। अल्ल अक [नम्] नमना, नीचे झुकना । अलसी देखो अयसी (आचाः षड्; हे २, अलिंदय पुंन [आलिन्दक] धान्य रखने का प्रोभल्लंति (से ६, ४३)। ११)। पात्र-विशेष (अणु १५१)। | अल्लई स्त्री [आर्द्रकी लता-विशेष, आद्रकअला स्त्री [अला] १ इस नाम की एक देवी अलिण पुं [दे] वृश्चिक, बिच्छू (दे १, ११)। (ठा ६)। २ एक इन्द्राणी का नाम (णाया | अलिणी स्त्री [अलिनी] भ्रमरी (कुमा)। अल्लग देखो अल्लय = आर्द्रक (धर्म २)। २)। वडिसग न [°वतंसक अलादेवी | अलित्त न [अरित्र] नौका खेवने का डड़, अल्लस्थ सक [उत् + क्षिप् ] ऊंचा फेंकना। का भवन (णाया २)। चप्पू (आचा २, ३ १)। अल्लत्थइ (हे ४, १४४)। अला देखो कला (गा ६५७)। अलिय न [अलिक] कपाल (पाय)। अल्लत्थ न [दे] १ जलाा, गीला पंखा । २ अलाउ न [अलाबु] तुम्बी फल, लौकी, तुम्बा | अलिय न [अलीक] १ मृषावाद, असत्य केयूर, भूषण-विशेष (दे १, ५४)। (ोप प्रासू १५१)। वचन (पास)। २ वि. भूठा, खोटा; 'अलिअ- अल्लथिअ वि[उत्क्षिप्त] ऊंचा फेंका हुआ अलाऊ । स्त्री [ अलाबू ] तुम्बी-लता पोरुसालाव'-(पान)। ३ निष्फल, निरर्थक (कुमा)। अलाबू । (कुमा; षड्)। (पएह १, २) । वाइ वि [°वादिन] मृषा- अल्लय न आईक आदी, अदरक (जी है)। अलाय न [अलात] १ उल्मुक, जलता हुआ वादी (पउम ११, २७; महा)। "तिय न [त्रिक] आदो, हल्दी और कचूर काष्ठ (दे १,१०७; ओघ २१भा)। २ अङ्गार, अलिल्ल सक [ कथय् ] कहना, बोलना। (जी )। कोयला (से ३, ३४)। अलिल्लह (पिंग)। अल्लय वि [दे] परिचित, ज्ञात (दे १,१२)। अलावणी स्त्री [अलाबुवीणा] वीणा-विशेष अलिल्लह न [दे] १ छन्द विशेष का नाम। अल्लय पुं [अल्लक] इस नाम का एक (प्राकृ ३७)। । २ वि. अप्रयोजक, नियमरहित (पिंग)। । विख्यात जैन मुनि और ग्रन्थकार, उद्योतन For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्लल्ल-अवंग पाइअसहमहण्णवो सूरि का उपाध्याय-अवस्था का नाम (सुर अव प्र[अव निम्नलिखित अथों का सूचक | अवइ वि [अव्रतिन् ] व्रतशून्य, अविरत, १६, २३६)। अव्यय-१ निम्नता, 'अव इएण'। २ पीछेपन; | असंयत (बृह १)। अल्लल्ल [२] मयूर, मोर (दे १,१३)। 'प्रवचुल्ली' । ३ तिरस्कार, अनादरः 'अव- अवइण्ण वि [अवतीर्ण] १ उतरा हुआ, नीचे अल्लविय अप] देखो आलत्त = पालपित गणतं । ४ खराबी, बुराई; 'अवगुण । ५ आया हुआ। २ जन्मा हुआ (कप्पू: परम ७६, (भवि)। गमन । ६ अनुभव (राज)। ७ हानि, ह्रासः । २८)। अल्ला श्री [दे] माता, माँ (दे १,५)। 'प्रवक्कास' । ८ प्रभाव, 'अवलद्धि' । ६ मर्यादा अवइद (शौ) वि [अवचित एकत्रित, इकट्ठा अल्लि । देखो अल्ली। अल्लिइ ( षड्)। (विसे ८२)। १० निरर्थक भी इसका प्रयोग किया हमा (अभि ११७)। अल्लिअल्लिग्रह (दे १,५८; हे ४,५४) । होता है: 'प्रवट्ठ, अवगल्लं'। अवइद (शौ) वि [अपकृत] १ जिसका अहित वकृ. अल्लिअंत (से १२, ७१; पउम १२, अव सक [अ] १ रक्षण करना; 'अवंतु किया गया हो वह । २ न. अपकार, अहित मुरिगणो य पयकमलं' (रयण ९)।२ जाना, (चारु ४०)। अल्लिअ सक [उप + मृप] समीप में गमन करना । ३ इच्छा करना। ४ जानना। | अवइन्न देखो अवइण्ण (सुर ३, १२२)। जाना। अल्लिाइ (हे ४,१३६)। वकृ. अल्टि- ५ प्रवेश करना । ६ सुनना। ७ मांगना, अव उज्ज सक[अवकुब्ज ] नीचे नमना। अंत (कुमा)। प्रयो. अल्लियावेइ (पि ४८२; याचना। ८ करना, बनाना । । चाहना। १० संकृ. अवउजिय (पाचा २, १, ७)। प्राप्त करना। ११ आलिङ्गन । १२ मारना, अवउज्झ सक [अप + उज्झ] परित्याग अल्लिअ वि [आद्रित] गीला किया हुमा | हिंसा करना । १३ जलाना। १४ अक. प्रीति करना। छोड़ देना। संकृ. अवउज्झिऊण (गा ४४०)। करना । १५ तृप्त होना । १६ प्रकाशना ।। (बृह ३)। अल्लियावण न [आलायन] पालीन करना, १७ बढ़ना । अव (था २३; विसे २०२०)। अवउज्भ देखो अवबह । लिष्ट करना, मिलान (भग ८, ६)। अव पुं[अव] शब्द, आवाज (श्रा २३)।। अवउडग) देखो अवओडग (गाया १, २, अवउडय अनु)। अल्लिल्ल ' [दे] भमरा ( षड् )। अवअक्ख सक [दृश् ] देखना । अवमक्खइ अवउंठण न [अवगुण्ठन] १ ढकना। २ अल्लिव सक [ अर्पय ] अर्पण करना।। (हे ४, १८१: कुमा)। मुंह ढकने का वस्त्र, बूंघट (चारु ७०)। अल्लिवइ (हे ४,३६; भवि; पि १९६:४८५)। अवअक्खिअ न [दे] निवापित मुख, मुंडाया अबऊढ वि [अवगूढ] प्रालिंगित, 'संझावहूअल्ली सक[आ+ली] १ आना। २. हुमा मुंह (दे १,४०)। "अवऊढो णववारिहरोव्व विज्जुलापडिभिन्नो' अल्लीअ प्रवेश करना। ३ जोड़ना। ४ अवअच्छ न [दे] कक्षा-वस्त्र (दे १,२६)। | (हे २, ६ स ४६६)। आश्रय करना। ५ आलिंगन करना। ६ प्रक. अवअच्छ अक [हलाद् आनन्द पाना, खुश अवऊसण न [अपवसन] तपश्चर्या विशेष संगत होना । अल्लीपइ (हे ४, ५४)। भूका. होना । अवअच्छइ (हे ४, १२२)। (पंचा १९)। अल्लीसी (प्रामा) हेकु. अल्लीउं (बृह ६)। अवअच्छ सक [हलादय् ] खुश करना। | अवऊसण न [अपजोषण] ऊपर देखो (पंचा अल्लीण वि [आलीन] १ आश्लिष्ट । २ अवअच्छइ (हे ४, १२२)। १६)। आगत । ३ प्रविष्ट। ४ संगत । ५ योजित । अवअच्छि [दे] देखो अवअक्खिअ (दे | अबऊहण न [अवगृहन] प्रालिङ्गन (गा ६ थोड़ा लोन (हे ४, ५४)। ७ प्राश्रित १, ४०)। ३३४७ ५५९ वजा ७४)। (कप्प)। ८ तल्लीन, तत्पर (वव १०)। अवअच्छिअ वि [हलादित] १ हृष्ट, अवएड पू[अवएज] तापिका-हस्त, पात्रअल्लेस वि [अलेश्य लेश्यारहित (कम्म पाहलाद प्राप्त । २ खुश किया हुआ, हर्षित | विशेष (णाया १, १ टी-पत्र ४३) । ४, ५०)। (कुमा)। अवएस पुं [अपदेश] बहाना, छल (पाप)। अल्लोग देखो अलोग (द्रव्य १९) । अवअज्म सक [दृश] देखना। अवमझइ अवओडग न [अबकोटक] गले को मरोड़ना, अल्हाद पुं [आह लाद] खुशी, प्रमोद, प्रानन्द कृकाटिका को नीचे ले जाना (विपा १, २)। (प्राप्र)। अवअणिअ वि [दे] असंघटित, प्रसंयुक्त (दे बंधण न [°बन्धन] १ हाथ और सिर को अव म [अप] इन अर्थों का सूचक अव्यय- १, ४३) । पृष्ठ भाग से बाँधना (पएह १, २)। २ वि. १ विपरीतता, उल्टापन; 'प्रवकय, अवंगुय'। अवअण्ण पुं[दे] ऊखल, गूगल (द १,२६)।। रस्सी से गला और हाथ को मोड़कर पृष्ठ भाग २ वापसी, पीछेपन; 'अवकमई । ३ बुरापन, अवअत्त वि [अपवृत्त] स्खलित (से १०, के साथ जिसको बांधा जाय वह (विपा १, खराबपन; 'अवमग्ग, अवसद्द'। ४ न्यूनता, १८)। कमीः 'प्रवड्ढ' । ५ रहितपन, वियोगः 'प्रव- अवआस सक [दृश ] देखना । अवमासइ अवंग [अपाङ्ग] नेत्र का प्रान्त भाग (सुर बार । ६ बाहरपन; 'प्रवकमण। (हे ४,१८१ कुमा)। ३, १२४ ११,६१)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो अबंग-अवखेर अवंग [दे] कटाक्ष (दे १, १५)। अवकरिस पुं [अपकर्ष] अपकर्ष, ह्रास, संकृ. अवक्कमइत्ता, अवकम्म (कप्प, वव अवंगु । वि [दे. अपावृत] नहीं ढका | हानि (सम ६०)। अवंगुय हुआ, खुला (प्रौपः परह २, ४)। अवकलुसिय वि [अपकलुषित] मलिन अवकम सक [अव + क्रम] जाना। प्रवक्कअवंगुण सक [दे] खोलना। अवंगुणेज्जा (गउड)। मइ (भग)। संकृ. अवक्कमित्ता (भग)। (प्राचा २, २, २, ४)। अवकस सक [अव + कृष्] त्याग करना । अवक्कमण न [अपक्रमण] १ बाहर निकलना अवंचिअ वि [अवाश्चित] अधोमुख, अवाङ संकु. अवकसित्ता (चउ १४)। (ठा ५,२) । २ पलायन, भागना; "निग्गमणमुख (वज्जा १०)। अवकारि वि [अपकारिन्] अहित करने | मवक्कमणं निस्सरणं पलायणं च एगट्ठा' (वव अवचिअ वि [अवश्चित] नहीं ठगा हुआ वाला (पउम ६, ८५)। १०)। ३ पीछे हटना (रणाया १,१)। (वज्जा १०)। अवक्कमण न [अपक्रमण] अवतरण, 'उत्तअवंझ वि [अवन्ध्य सफल, अचूक (सुपा अवकिण्ण वि[अवकीर्ण] परित्यक्त (दे १, ३२५)। पवाय न [प्रवाद] ग्यारहवां १३०)। रावक्कमणं' (भग ६, ३३)। पूर्व, जैन ग्रन्थांश-विशेष (सम २६)। अवकिण्णगपुं [अपकीणक] करकण्डू अवक्कय पुं [अवक्रय भाड़ा, भाटि (बृह १)। अवकिण्णय नामक एक जैन महर्षि का पूर्व अवंतर वि [अवान्तर] भीतरी, बीच का अवक्कय वि [अपकृत जिसका अहित किया नाम (महा)। (आवम)। गया हो वह (चंड)। अवंति पुं[अवन्ति] भगवान आदिनाथ का | अवकित्ति स्त्री [अपकौति] अपयश (दे १, | अवक्करस पुं[दे] दारु, मद्य (दे १, ४६; एक पुत्र (ती १४)। पान)। अवकिदि स्त्री [अपकृत्ति] अपकार, अहित अवंति। स्त्री [अवन्ति,°न्ती] १ मालव देश। अवकरिस [अपकर्ष] हानि, अपचय (प्राकृ १२)। अवंती २ मालव देश की राजधानी, जो अवकास (विसे १७६६ भग १२, ५) । अवकीरण न [अवकरण] छोड़ना, त्याग, आजकल राजपूताना में 'उज्जैन' नाम से प्रसिद्ध अवकास पुं[अवर्ष ऊपर देखो (भग १२, उत्सर्ग (प्राव ५)। है (महा; सुपा ३६६ आवम)। गंगा स्त्री गङ्गा] आजीविक मत में प्रसिद्ध कालअवकीरिअ वि [दे. अवकीर्ण] विरहि अवकास पुं [अप्रकाश] अन्धकार, अंधेरा विशेष (भग २४, १)। वड्ढण पुं[°वर्धन] वियुक्त (दे १, ३८)। (भग १२, ५)। इस नाम का एक राजा (ग्राव)। सुकु- अवकीरियव्व वि [अवकरितव्य त्याज्य, | अवक्कोस पुं [अवक्रोश] मान, अहंकार (सम माल पुं[सुकुमाल] एक श्रेष्ठि-पुत्र, जो छोड़ने लायक (पएह १, ५) । ७१)। आर्यसुहस्ति प्राचार्य के पास दीक्षा लेकर | अवकृजिय न अवकृजित हाथ को ऊँचा- | अवक्ख सक [दृश्] देखना। प्रवक्खइ देव-लोक के नलिनीगुल्म विमान में उत्पन्न नीचा करना (निचू १७)। (षड्)। अवक्खए (भवि)। वकृ. अवहुआ है (पडि)। सेण पुं[पेण] एक राजा अवकेसि पुं[अवकेशिन्] फल-बन्ध्य वन- | क्खंत (कुमा)। (आक)। स्पति (उर २, ८)। अवक्खंद अबस्कन्द] १ शिबिर, छावनी, अवंदिम वि [अवन्ध] वन्दन करने के अवकोडक देखो अवओडग (पएह १, १)। सैन्य का पड़ाव । २ नगर का रिपु-सैन्य द्वारा अयोग्य, प्रणाम के अयोग्य (दसचू १)। वेष्टन, घेरा (हे २, ४. स ४१२) । अवकंख सक [अव + काङ्क्ष] १ चाहना । अवकंत वि [अपक्रान्त] १ पीछे हटा हुआ, अवक्खर [अवस्कर] पुरोष, विष्ठा (प्राक २ देखना। अवकंखइ (भग)। वकृ. अव- वापस लौटा हुआ (सुपा २६२; उप १३४ | २१)। कंखमाण (गाया १,६)। टी; महा) । २ निकृष्ट, जघन्य (ठा ६)। अवक्खारण न [अपक्षारण] १ निर्भत्सना, अवकत देखो अवकंत: 'कुमरोवि सत्थराम्रो | अवकंत पुं [अवक्रान्त] प्रथम नरक भूमि का कठोर वचन । २ सहानुभूति का प्रभाव (परह उतॄत्ता सरिणयमवर्कतो' (महा)। ग्यारहवाँ नरकेन्द्रक--नरक-स्थान विशेष अवकप्प सक [अव + कल्पय् ] कल्पना (देवेन्द्र ५)। अवक्खेव पुं[अवक्षेप] विघ्न, बाघा (विपा करना, मान लेना । अवकप्पंति (सूम १, ३, अवकंति स्त्री [अपक्रान्ति] १ अपसरण । २ निर्गमन (णाया १,८)। अवक्खेवण न [अवक्षेपण] १ बाधा, अन्तअवकय वि [अपकृत] १ जिसका अपकार अवक्कंति स्त्री [अवक्रान्ति गमन गति राय । २ क्रिया-विशेष, नीचे जाना। (प्रावम; किया गया हो वह (उव)। २ अपकार, | (माचा)। | विसे २४६२)। अहित (सुपा ६४१)। अवकम अक [अप + क्रम] १ पीछे अवखेर सक [दे] १ खिन्न करना। २ तिरअवकर सक [अप + कृ] अहित करना । हटना । २ बाहर निकलना । अवकमइ (महा, स्कार करना। अवखेरइ (भवि)। वकृ. अवप्रवकरेंति (सूम १, ४, १, २३)। कप्प)। वकृ. अवक्कममाण (विपा १,६)। खेत (भवि)। For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवग-अवञ्चिज पाइअसहमहण्णवो अवग पुन [दे. अवक] जल में होने वाली अवगरिस देखो अवक्करिस विसे (१५८३)। अवगृहण न [अवगूहन आलिंगन (सुर १४, वनस्पति-विशेष (सूत्र २, ३, १८)। । अवगल वि [दे] आक्रान्त ( षड् )। अवगइ स्त्री [अपगति] १ खराब गति । २ अवगल्ल वि [अवग्लान] बीमार (ठा २, ४)। अवगृहाविय वि [अवगृहित] प्राश्लेषित गोपनीय स्थान (सुपा ३४५) । अवगहण न [अवग्रहण] निश्चय, अवधारण | (स ६६६)। अवगंड न [अवगण्ड] १ सुवर्ण। २ पानी | | (पव २७३)। अवग्ग वि [अव्यक्त] १ अस्पष्ट । २ पृ. का फेन (सूम १, ६)। अवगाढ देखो ओगाढ (ठा १; भगः स १७२)। अगीतार्थ, शास्त्रानभिज्ञ साधु (उप ८७४) । अवगंतव्य देखो अवगम = अवगम् । अवगादु वि [अवगाहित] अवगाहन करने अवग्गह देखो उग्गह (पव ३०)। अवगच्छ सक [अव + गम् ] जानना । वाला (विसे २८२२)। अवग्गहण न [अवग्रहण] देखो उग्गह (विसे अवगच्छइ (महा) । अवगच्छे (स १५२) । अवगार पुं [अपकार] अपकार, अहित-करण १८०)। अवगच्छ अक [अप + गम् ] दूर होना, (सुर २, ४३)। अवच देखो अवय = अवच (भग)। निकल जाना । अवगच्छइ (महा)। | अवगारय वि [अपकारक] अपकार-कारक अवच इय वि [अपचयिक] अपकर्षप्राप्त, (स ६६०)। अवगण ) सक [अत्र+गणय अनादर अवगण करना, तिरस्कारना। वकृ. अबअवगारि वि [अपकारिन्] ऊपर देखो (स ह्रासवाला (प्राचा)। अवचय पुं[अपचय ह्रास, अपकर्ष (भग गणंत (श्रा २७)। संकृ. अवगणिय अवगास पुं [अवकाश] १ फुरसत (महा)। ११, ११ स २८२)। (पारा १०५)। अवगणणा स्त्री [अवगणना] अवज्ञा, अनादर २ जगह, स्थान (प्रावम)। ३ अवस्थान, अब अवचय पुं [अवचय] इकट्ठा करना (कुमा)। अवचयण न [अवचयन] ऊपर देखो (दे ३, (दे १, २७)। स्थिति (ठा ४, ३)। अवगणिय ) बि [अवगणित] अवज्ञात, अवगाह सक [अब + गाह. ] अवगाहन अवगणिय) तिरस्कृत (दे; जीव १)। करना । अवगाहइ (सरण)। अवचि प्रक [अप + चि हीन होना, कम अवगद वि [दे] विस्तीर्ण, विशाल (दे १, | अवगाह पुं [अवगाह] १ अवगाहन । २ जाना । अवचिजइ (भग)। अवचिजंति (भग अवकाश (उत्त २८)। २५, २)। अवगन्न देखो अवगण । अवगन्नइ (भवि)।। अवगाहण न [अवगाहन] अवगाहन, 'तित्था- | अवचि ।सक [अव+चि] इकट्ठा करना संकृ. अवन्निवि (भवि)। वगाहणत्थं आगंतव्वं तए तत्थ (सुपा ५६३)। | अवचिण )(फूल आदि को वृक्ष से तोड अवगाहणा देखो ओगाहणा (ठा ४, ३, विसे __ कर)। अवचिणइ (नाट)। भवि. अवचिणिस्स अवगन्निय देखो अवगणिय (सुपा ४२१; | २०८८)। (पि ५३१)। हेकृ. अवचिणेदुं (शौ) (पि भवि)। अवगम ६०२)। अवगिंचण न [दे. अववेचन] पृथक्करण (उप [अपगम] १ अपसरण (सुपा ३०२) । २ विनाश (स १५३; विसे ११८२)। पृ६६)। अवचिय वि [अवचित] हीन, ह्रासप्राप्त अवगिज्म देखो ओगिज्झ। संकृ. अव- (विसे ८६७)। अवगम सक [अव + गम्] १ जानना । २ | गिझिय (कप्प)। अवचिय वि [अपचित] इकट्ठा किया हुआ निर्णय करना। संकृ. अवगमित्तु (सार्ध अवगीय वि [अवगीत] निन्दित (उप पृ (पान)। ६३) । कृ. अवगंतव्व (स ५२६) । १८१)। अवचुण्णिय वि [अवचूर्णित] तोड़ा हुआ, अवगम पुं [अवगम] १ ज्ञान । २ निर्णय, अवगुंठण देखो अवउंठण (दे १, ६)। चूर-चूर किया हुआ (महा)। निश्चय (विसे १८०)। अवगुंठिय वि [अवगुण्ठित] प्राच्छादित अवचुल्ल पुं[अवचुल्ल] चूल्हे का पीछला भाग अवगमण न [अवगमन] ऊपर देखो (स | (महा)। (पिंडभा ३४)। ६७०, विसे १८६, ४०१)। अवगुण पुं अवगुण] दुगुण, दोष (हे ४, अवचल देखो ओऊल (णाया १, १६, पत्र अवगमिअवि [अवगत] १ ज्ञात, विदित ३६५)। २१६)। अवगय (सुपा २१८)।२ निश्चित अव- अवगुण सक [अव+गुणय ] खोलना, | अवच्च वि [अवाच्या १ बोलने के प्रयोग्य । धारित (दे ३, २३; स १४०)। उद्घाटन करना। अवगुणेजा (माचा २, २, २ बोलने के अशक्य (धर्मसं ६६८)। अवगय वि [अपगत] गुजरा हुआ, विनष्ट २, ४) । अवगुणंति (भग १५)। अवञ्च न [अपत्य संतान, बच्चा (कप्प; पाव (णाया १, १; दस १०, १६)। अवगूढ वि [अवगूढ] १ प्रालिंगित (हे २, १; प्रासू ८३)। व वि [वत् ] संतानअवगर सक [अप+कृ] अपकार करना, १६८)। २ व्याप्त (गाया १,८)। वाला (सुपा १०६)। अहित करना । अवगरेइ (स ६३६)। अवगूढ न [दे] व्यलीक, अपराध (दे १,२०)। अवचिज देखो अवचीय (सूपनि २०५) । For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो अवच्चीय-अवणम अवञ्चीय वि [अपत्यीय संतानीय, संतान- अवज्झाय वि [3.पध्यात] १ दुर्ध्यान का 'घाएण मो, सद्देण मई, चोजेण संबन्धी (ठा ६)। विषय। २ अवज्ञात, तिरस्कृत (णाया १,१४)। वाहवहुयावि। अवच्छण्ण न [दे] क्रोध से कहा जाता अवज्झाय (अप) देखो उवज्माय (दे १,३७)। अ अवठंभिऊण धणुहं वाहेणवि मुकिया पाणा' मार्मिक वचन (दे १, ३६)। अवट्ट सक [अप + वृत् ] घुमाना, फिरानाः (वज्जा ४६)। अवच्छेय पु[अवच्छेद] विभाग, अंश (ठा 'प्रवट्ट प्रवट्ट त्ति वाहरते कराणहारे रज्जुपरि अवठंभ पुं[दे] ताम्बूल, पान (दे १, ३६)। वत्तणजएसुं निजामएसुं अयंडम्मि चेव गिरि अवड ( [अवट] कूप, कुंआ (गउड)। अवछंद वि [अपच्छन्दस्क] छन्द के लक्षण सिहरनिवडियं पिव विवन्नं जाणवत्त' (स अवड पुं[दे] १ कूप, कुंआ। २ आराम, से रहित, छन्दोदोष-दुष्ट (पिंग)। अवडअ बगीचा (दे १,५३)। ३५५)। अवजस पुं[अपयशस्] अपकीति (उप पृ अवडअ पुं [दे] १ चश्चा, घास-फूस का पुतला, अवट्ट अक [अप+वृत् ] पीछे हटना । अव१८७)। तृण-पुरुष (दे १, २०)। दृइ (प्राकृ ७२)। अवजाण सक [अप+ज्ञा] १ अपलाप करना, अवडंक पुं[अवटंङ्क] प्रसिद्धि, ख्यातिः 'जणअवट्टा स्त्री [आवर्ता] राजमार्ग से बाहर को 'बालस्स मंदयं बीयं जं च कडं अवजागई कयावडंकेण निग्घिरणसम्मो णाम' (महा)। जगह (उप ६६१)। भुजो (सूम १, ४, १, २६)। अवडकिअवि [दे] कूप आदि में गिरकर अवटुंभ पुं [अवष्टम्भ] अवलम्बन, पाश्रय अवजाय पुं [अपजात] पिता की अपेक्षा मरा हुआ, जिसने आत्म-हत्या की हो वह (दे (पउम २६, २७, स ३३१)। हीन वैभववाला पुत्र (ठा ४, १)। १, ४७)। अवटुंभ अजिब्भ पुं [अपजिह व] दूसरी नरक अवष्टम्भ] दृढ़ता, हिम्मत (धर्मवि अवडाह सक[ उत् + क्रश.] ऊंचे स्वर से १४०)। पृथिवी का पाठवां नरकेन्द्रक-नरक-स्थान रुदन करना । प्रवडाहेमि (दे १, ४७) । अवटुंभ देखो अवठंभ । कर्म. अवट्ठभंति (स विशेष (देवेन्द्र ६)। अवडाहिअन [दे] १ ऊंचे स्वर से रोदन अवजीव वि [अपजीव] जीवरहित, मृत, ७४९)। (दे १, ४७)। २ वि. उत्कृष्ट ( षड्)। अवटुंभण न [अवष्टम्भन] अवलम्बन, अवडिअ विदे] खिन्न, परिश्रान्त (दे १, अचेतन (गउड)। अवट्ठहण सहारा (स ७५६ टी; ७४६)। अवजुय वि [अवयुत]. पृथग्भूत, भिन्न २१)। (वव ७)। अवटुद्ध वि [अवष्टब्ध] रोका हुआ (द्रव्य | अवडु पुं[अवटु] कृकाटिका, घंटी या घांटी, अवजन [अवद्य] १ पाप (परह २, ४)। २७)। कण्ठमरिण (पान)। २ वि. निन्दनीय (सूअ १, १, २)।। अवद्ध वि [अवष्टब्ध] १ अवलम्बित। २ अवडुअ ' [दे] उदूखल, उलूखल दि १,२६)। अवजस सक [गम्] जाना, गमन करना । आक्रान्त, 'प्रवट्ठद्धा महाविसाएणं' (स ५८४)। | अवडुल्लिअ वि [दे] कूप आदि में गिरा हुआ अवजसइ (हे ४, १६२)। वकृ. अवजसंत अवठ्ठव सक [अव + स्तम्भ ] अवलम्बन | (षड्)। (कुमा)। करना, सहारा लेना। संकृ. अवटुविअ (विक्र अवड्डा स्त्री [दे] कृकाटिका, घट्टी, गर्दन का अवज्ञा स्त्री [अवज्ञा] अनादर (स ६.४)। ६४)। ऊंचा हिस्सा (भग १५, पत्र ६७६)। अवझ वि [अवध्य] मारने के अयोग्य अवठाण न [अवस्थान] १ अवस्थिति, अबड्ढ वि अपार्ध १ प्राधा (सुज्ज १०)। (गाया १, १६)। अवस्था । २ व्यवस्था (बृह ५)। २ प्राधा दिन, 'प्रवड्ढं पचक्खाइ' (पडि; भग अवज्झ सक [दृश ] देखना (संक्षि ३६)। अवट्टिअ वि [अवस्थित] १ अवगाहन करके । १६, ३)। ३ प्राधे से कम (भग ७,१; नव अवज्झस न [दे] १ कटी, कमर । २ वि. स्थित (सूप १,६,११)। २ कर्म-बन्ध विशेष, | ४१)। क्खेत्त न [°क्षेत्र] १ नक्षत्र-विशेष कठिन (दे १, ५६)। प्रथम समय में जितनी कम-प्रकृतियों का बन्ध (चंद १०)। २ मुहूर्त-विशेष (ठा ६)। अवज्झा स्त्री [अवध्या] १ अयोध्या नगरी हो द्वितीय प्रादि समयों में भी उतनी ही अवण पुं [दे] १ पानी का प्रवाह । २ घर (इक)। २ विदेह वर्ष की एक नगरी (ठा प्रकृतियों का जो बन्ध हो वह (पंच ५,१२)। | का फलहक (दे १, ५५)। २, ३)। अवढि वि [अवस्थित] १ स्थिर रहनेवाला अबण न [अवन] १ गमन । २ अनुभव अवज्माण न [अपध्यान] बुरा चिन्तन, (भग)। २ नित्य, शाश्वत (ठा ३,३) । ३ जो (णंदिः विसे ८३)। दुर्ध्यान (सुपा ५४६; उप ४६६; सम ५०; बढ़ता-घटता न हो (जीव ३)। अवणण देखो अवणयण (पिंड ४७३)। विसे ३०१३)। अवट्रिइ स्त्री [अवस्थिति] अवस्थान (ठा ३, अवद्ध वि [अवनद्ध] १ संबद्ध, जोड़ा हुआ अवज्माण पुंन [अपध्यान दुर्व्यान, 'चउ- | ४ विसे ७५८)। (सुर २, ७) । २ आच्छादित (भग)। अवमाण विहो अवज्भाणो' (श्रावक अवठंभ सक [अव + स्तम्भ ] अवलम्बन अवणम अक [अव+ नम्] नीचे नमना। २८६ पंचा १, २३; संबोध ४५)। करना । संकू. वकृ. अवणमंत (राय)। For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवणमिय-अवदेस पाइअसहमहण्णवो ७६ अवणमिय वि [अवनत] अवनत (सुपा | अवण्हअ पुं[अपह्नव] अपलाप (षड्)। अवत्थरा स्त्री [दे] पाद-प्रहार, लात मारना ४२६)। अवण्हवण न [अपह्नवन अपलाप (प्राचा)। (दे १,२२)। अवणमिय वि [अवनमित] नीचे किया हुआ, अवण्हाण न [अवस्नान] साबुन आदि से अवस्था स्त्री [अवस्था] दशा, अवस्थिति (ठा नमाया हुआ (सुर २, ४१)। स्नान करना (णाया १, १३; विपा १, १)। ८, कुमा)। अवणय वि [अवनत नमा हुमा (दस ५)। अवतंस देखो अवयंस = अवतंस (कुमा)। अवस्थाण न [अवस्थान] अवस्थिति (ठा ४, अवणय पुं[अपनय] १ अपनय, हटाना (ठा अवतंस पुं[अवतंस] मेरुपर्वत (सुज ५) १; स ६२७: महा सुर १, २)। ८)। २ निन्दा (पव १४०; विसे १४०३ टी)।. अवसिय वि [अवतंसित] विभूषित अवस्थाव सक [अव + स्थापय् ] १ स्थिर अवणयण न [अपनयन हटाना, दूर करना | (कुमा)। करना, ठहराना । २ व्यवस्थित करना । हेकृ. (सुपा ११, स ४८३; उप ४९६)। अत्रत वि [अवतष्ट] तनूकृत, छिला हुआ अवस्थाविदुंः अवस्थावइदु (शौ) (पि अवणाम पुं [अवनाम] ऊर्ध्व गमन, ऊंचा (सूत्र १, ५, २)। ५७३; नाट)। जाना; 'तुलाए णामावरणामव्व' (धर्मसं २४२) matमव' (धर्मसं २४२)। अवतट्रि देखो अवयट्टि = अवतष्टि (सूम | अवस्थाविद ( शौ) विr अवसथापित] अवणि स्त्री [अवनि] पृथिवी, भूमि (उप १, ७)। अवस्थित किया हुआ (नाट)। ३३६ टी)। अवतारण न [अवतारण] १ उतारना । २ अवस्थिय देखो अवट्रिय (महाः स २७४) । अवणित देखो अवणी = अप + नो। योजना करना (विसे ६४०)। अवस्थिय वि [अवस्तृत ] फैलाया हुआ, अवणिंद पुं [अवनीन्द्र] राजा, भूप (भवि)। अवतासण न [अवत्रासन] डराना (पव ७३ प्रसारित (णाया १, ८)। अवणिय देखो अवणीय; 'तं कुरणसु चित्तनिटी)। अवत्थु न [अवस्तु] १ अभाव, असत्त्व (भविः वसणमवणियनीसेसदोसमलं' (विवे १३८)। अवतित्थ न [अपतीर्थ] कुत्सित घाट, खराब प्रावम)। २ वि. निरर्थक, निष्फल (पएह १, अवणी देखो अवणि (सुपा ३१०)। सर किनारा (सुपा १५)। पुंश्वर] राजा, भूमिपति (भवि)। अवत्त वि [अव्यक्त] १ अस्पष्ट (विसे) । २ अवधभ देखो अवठंभ । संकृ. प्रवर्थभिय अवणी सक [अप + नी] दूर करना, हटाना। कम उमर वाला (बृह १)। ३ असंस्कृत (गच्छ (चेइय ४८१)। प्रवणेइ, अवरोमि (महा)। वकृ. अवणित, १)। ४ पुं. देखो अवग्ग (निचू २)। अवदग्ग देखो अवयग्ग (सूम २, २, ५)। अवणेत (निचू १; सुर २, ८)। कवकृ. अवत्त वि [अवात] पवनरहित (गच्छ १)। | अवत्त वि [अवाप्त प्राप्त, लब्ध। अवणेज्जत (उप १४६ टी)। कृ. अवणेअ अवदल वि [अपदल] १ निःसार, सारअवत्त न [अवत्र आसन-विशेष (निचू १)।। रहित । २ कच्चा, अपक्व (ठा ४, ४)। अवनय विविथल अवदहण न [अवदहन] दम्भन, गरम लोहे अवणीय वि [अपनीत] दूर किया हुआ (सुपा ५४)। १,३४)। के कोश आदि से चर्म (फोड़े आदि) पर अवणीयवयण न [अपनीतवचन] निन्दाअवत्तव्व वि [अवक्तव्य] १ वचन से कहने दागना (णाया १, ४)। वचन (पाचा २, ४, १, १)। के अशक्य, अनिर्वचनीय। २ सप्तभंगी का अवदाण न [अवदान] शुद्ध कर्म (ती १५)। अवणेत देखो अवणी = अप + नी। चतुर्थ भंग; अवदाय वि [अवदात] १ पवित्र, निर्मला अवणोय पुं [अपनोद] अपनयन, हटाना 'प्रत्यंतरभूएहि अनियएहि दोहि समयमाईहि । | "दिरणयरकरावदार्य भत्तं पेहित्तु चक्खुणा सम्म' वयणविसेसाईनं दबमबत्तयं पडई' (सम्म (विसे ६८२)। (सुपा ४९१) । २ श्वेत, सफेद (पएह १, अवणोयण न [अपनोदन] अपनयन, दूरी. ४ पा)। अवत्तिय न [अव्यक्तिक] १ एक जैनाभास करण (स ६२१)। अवदार न [अपद्वार] १ छोटी खिड़की। मत, निह्नवप्रचालित एक मत । २ वि. इस अवण्ण वि [अवर्ण] १ वर्णरहित, रूपरहित २ गुप्त द्वार (उप ६६१)। मत का अनुयायी (ठा ७)। (भग)। २ . निन्दा (पंचव ४)। ३ अपकीर्ति अवस्थंतर न [अवस्थान्तर] जुदी दशा, भिन्न अबदाल सक [अव + दलय] खोलना । (ोघ १८४ भा)। व वि [°वत् निन्दक, अवस्था (सृर ३, २०६)। अवदालेइ (प्रौप)। संकृ. अवदालेत्ता (प्रौप)। 'तेसिं अवएणवं बाले महामोहं पकुवई' (सम अवस्थग वि [अपार्थक] १ निरर्थक, व्यर्थ ।। अबदालिय वि [अवदलित] विकसित, विज५१)। वाय पुं [°वाद] निन्दा (द्र २६)। २ असम्बद्ध अर्थवाला (सूत्र वगैरह) (विसे)। म्भित; 'अवदालियपुंडरीयनयणे' (प्रौपः परह अवण्ण न [दे] अवज्ञा, निरादर (दे १, | अवस्थद्ध वि [अवष्टब्ध] अवलम्बन-प्राप्त, १७)। जिसको सहारा मिला हो वह (णाया १,१८) अवदिसा ख्री [अपदिक] भ्रान्त दिशा अवण्णा स्त्री [अवज्ञा] निरादर, तिरस्कार अवत्थय वि [अपार्थक] निरर्थक (विसे REE (स ५२६) । (औप)। | टी)। | अवदेस देखो अवएस (अभि ७६) । For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमण्णवो अवहार-अवमाणण अवद्दार । देखो अवदार (णाया १, २, अवपुट्ट वि [अवस्पृष्ट] जिसका सशं किया अवभासय वि [अवभासक] प्रकाशक अबद्दल प्रारू)। गया हो वह, (विसे ३१७, २०००)। अवदाहणा स्त्री. देखो अवदहण (विपा १, 'जीए ससिकंतमणिमंदिराई अवभासि वि [अवभासिन् ] देदीप्यमान, निसि ससिकरावपुट्ठाई। प्रकाशने वाला (गउड)। अवदुस न [दे] उलूखल आदि घर का वियलियबाहजलाई रोयंतिव, अवभासिय वि [अवभासित प्रकाशित सामान्य उपकरण, गुजराती में जिसको 'राच ___ तरणितवियाई' (सुपा ३)। (विसे)। रचिलु" कहते हैं (दे १, ३०)। अवपुसिय वि [दे] संघटित, संयुक्त (दे १, | अवभासिय वि [अपभाषित] आक्रुष्ट, अवद्धंस पुं[अवध्वंस] विनाश (ठा ४, ४)। ३६)। अभिशप्त (वव १)। अवधंसि वि [अपध्वंसिन् विनाशकारक अवपूर सक [अव + पूरय ] पूर्ण करना। अवम देखो ओम (पाचा) (उत्त ४, ७)। अवपूरंति (स ७१२)। अवधार सक [अव + घारय् ] निश्चय अवपेक्ख सक [अवप्र +ईक्ष. ] अवलोकन अवमग पुं [अपमार्ग] कुमार्ग, खराब करना । कृ. अवधारियव्य (पंचा ३)। रास्ता (कुमा)। करना । अवपेक्खह (उत्त ६, १३)। अवधारण न [अवधारण] निश्चय, निर्णय अवप्पओग पुं [अपप्रयोग उलटा प्रयोग, अवमग्ग ' [अपामार्ग] वृक्ष-विशेष, चिचड़ा, (श्रा ३०)। लटजीरा (दे १, ८)। विरुद्ध प्रौषधियों का मिश्रण (बृह १)। अवधारणा स्त्री [अवधारणा] दीर्घकाल तक | अवमच्चु [अपमृत्यु अकाल मृत्यु, बिना अवफार पुं [अवस्फार विस्तार, फैलाव याद रखने की शक्ति (सम्मत्त ११८)। मौत मरण (द ६, ३; कुमा)। 'ता किमिमिणा अहोपुरिसियावप्फारपाएणं' अवधारिय वि [अवधारित] निश्चित, निर्णीत | (स २८८)। अवमज सक [अव + मृज् ] पोंछना, (वसु)। अवबंध [अवबन्ध] बन्ध, बन्धन (गउड)।| झाड़ना, साफ करना । संकृ. अवमन्जिऊण अवधारियव्य देखो अवधार । अवबद्ध वि [अवबद्ध बंधा हुआ, नियन्त्रित (स ३४८)। अवधाव सक [अप + धाव] पीछे दौड़ना। (धर्म ३)। अवमण्ण सक [अव + मन् तिरस्कार अवधावइ (सण)। वकृ. अवधावंत (स | अवबाण वि [अपबाण ] बाणरहित करना । अवमएणंति (उवर १२२) । २३२)। (गउड)। | अवमह [अवमर्द मर्दन, विनाश (परह अवधिका स्त्री [दे] उपदेहिका, दीमक (पएह | अवबुज्झ सक [अव + बुध् ] १ जानना । | १,१)। २ समझना, 'जत्थ तं मुझसी रायं, पेचत्थं | अवमहग वि [अवमर्दक] मर्दन करने वाला अवधीरिय वि [अवधीरित] तिरस्कृत, अप- नावबुज्झसे' (उत्त १८, १३) । वकृ. अव- (पाया १, १६)। मानित (बृह १, ४)। बुज्झमाण (स ८५) । संकृ. अवबुज्झेऊण अवमन्न सक [अव + मन्] अवज्ञा करना, अवधुण । सक [अव+धू] १ परित्याग (स १६७)। निरादर करना। अवमन्नइ (महा)। वकृ. अवधूण करना।२ अवज्ञा करना । संकृ.अबोहअवरोध१जान बोध (सपा अवमन्नंत (सूत्र १,३,४) संकृ. अवमन्निअवधूणिअ, अवधूणिअ (माल २३२वेणी | १७)। २ विकास (गउड)। ३ जागरण ऊण (महा)। (धर्म २) । ४ स्मरण, याद (आचा)। अवमन्निय) वि [अवमत] अवज्ञात, अवअवधूय वि [अवधूत १ अवज्ञात, तिरस्कृत अवबोह्य वि [अवबोधक अवबोध-कारक, अवमय गणित (सुर १६, १२७; महा; (ोघ १८ भा. टी)। २ विक्षिप्त (प्राव ४)। उव)। 'भवियकमलावबोहय, मोहमहातिमिरपसरभरअवनिद्दय पुं[अपनिद्रक] उजागर, निद्रा अवमाण पुं [अपमान] तिरस्कार (सुर १, का प्रभाव (सुर ६, ८३)। सूर' (काल)। २३५)। अवन्न देखो अवण्ण = प्रवर्ण (भग; उब: | अवबोहि अवबोधि १ ज्ञान । २ निश्चय, अवमाण पुंन [अवमान] १ अवज्ञा, तिरमोघ ३५१)। निर्णय (प्राचू १, विसे ११५४)। स्कार । २ परिमाण (ठा ४, १)। अवन्ना देखो अवण्णा (मोघ ३८२ भाः सुर | अवभास अक [अव + भास् ] चमकना, अवमाण सक [अव + मानय् ] अवगणना १६, १३१, सुपा ३७२)। प्रकाशित होना। अवगुण करना । अवमाणइ (भवि)। अवभास पु [अवभास] प्रकाश (सुज ३)। सक[दे] खोलना। अवगुणे अक्पंगुर (सून १, २, २, १३)। भव- अवभास पुं [अवभास] ज्ञान (धर्मसं | अवमाणण न [अवमानन] अनादर, अवज्ञा पंगुरे (दस ५, १, १८)। १३३३)। (पण्ह १, ५; औप)। अवपक्का स्त्री [अवपाक्या] तापिका, तबी, अबभासण वि [अवभासन] प्रकाश-कर्ता | अवमाणण न [अपमानन] तिरस्कार, अपछोटा तवा (णाया १, १ टी-पत्र ४३)। (सुख १,४०)। मान (स १०)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवमाणणा-अवर पाइअसहमहण्णवो ८१ अवमाणणा स्त्री [अवमानना] अवगणना अवयच्छ सक [अव + गम् ] जानना । अव- अवयाय पुं[अक्वाय अपराध, दोष (उप (काल)। यच्छइ (स ११३)। संकृ. अवयच्छिय १०३१ टी)। अवमाणि वि [अवमानिन्] अवज्ञा करने (स २१०)। | अवयाय वि [अवदात] निर्मल (सिरि वाला (अभि १६)। अवयच्छ सक [दृश] देखना। अवयच्छइ १०२७)। अवमाणिय वि [अपमानित] तिरस्कृत (से (हे ४,१८१)। वकृ. अवयच्छंत (कुमा)। अवयार पुं [अपकार] अहित-करण (स अवयच्छिय वि [दृष्ट] देखा हुमा (साया १, ४३७कुमा; प्रासू ६)। १०,६६; सुपा १०५)। अवयार पुं[अवतार] १ उतरना। २ देहाअवमाणिय वि [अवमानित] १ प्रवज्ञात, अवयच्छिय वि [दे] प्रसारित, 'फुकारपव- न्तर-धारण, जन्म-ग्रहण । ३ मनुष्य रूप में अनाहत (सुर २, १७६) । २ अपूरित, 'अव एपिसुरिणयमवयच्छियमकारमहा य (स देवता का प्रकाशित होनाः 'अज! एवं तुमं माणियदोहला' (भग ११, ११)। देवावयारो विय मागईए' (स ४१६, भवि) । अवमार पुं [अपस्मार] भयंकर रोग-विशेष, अवयज्म सक [ दृश् ] देखना । अषयज्झइ | ४ संगति, योजना (विसे १००८) । ५ प्रवेश पागलपन (आचा)। (हे १,१८१)। संकृ. अवयज्झिऊण (कुमा)। (विसे १०४३)। अवमारिय वि [अपस्मारित, रिक] अप अवयदि स्त्री [अवतधि] तनूकरण, पतला अवयार पुं[अवतार ग्मावेश (पद ८६)। स्मार रोग वाला (प्राचा)। करना (प्राचा)। अवयार पुं[दे] माघ-पूर्णिमा का एक उत्सव, अवमारुय ' [अवभारत] नीचे चलता पवन अवयट्रि वि [अवस्थायिन् अवस्थिति करने | जिसमें इख से दतवन आदि किया जाता है (गउड)। वाला, स्थिर रहने वाला (प्राचा)। (दे १, ३२)। अवमिच्चु देखो अवमच्चु (प्रारू)। अवयट्टि स्त्री [अवकृष्टि] आकर्षण (प्राचा)। अवयारण न [अवतारण] उतारना (सिरि अवमिय वि[दे] जिसको घाव हो गया हो | अवर्याड्ढ अ वि [दे] युद्ध में पकड़ा हुआ | में पकड़ा इमा १००४)। वह, वणित (बृह ३)। अवयारय देखो अवगारय (स ६९०)। अवमुक्त वि [अवमुक्त] परित्यक-(पि ५६६)। अवयण न [अवचन कुत्सित वचन, दूषित अवयारि वि [अपकारिन्] अपकार करने अवमेह वि [अपमेघ मेघ-रहित (गउड)। भाषा (ठा ६)। वाला (स १७६; विवे ७९)। अवय देखो अपय = अपद (सूत्र १, ८; ११)। अवयर सक [अव + ] १ नीचे उतरना। अबयालिय वि [अवचालित] चलायमान अवय न [अब्ज कमल, पद्म (पएण १)। २ जन्म ग्रहण करना। अवयरइ (हे १, किया हुआ (स ४२)। अपय वि [अवच] १ नोचा, अनुच्च (उत्त १७२)। वकृ. अक्बरंत, अवयरमाण अवयास सक [श्लिष्] प्रालिंगन करना। ३) । २ जघन्य, हीन, प्रश्रेष्ठ (सूत्र १, १०)। (पउम ८२, ६३; सुपा १८१)। संकृ. अव- । प्रवयासइ (हे ४, १६०)। कवकृ. अव.३ प्रतिकूल (भग १, ६)। यरिउ (प्रासू)। । यासिज्जमाण (प्रौप)। संकृ. अवयासिय अवयंस पुं [अवतंस] १ शिरोभूषण विशेष अवयरिअ पुं [दे] वियोग, विरह (द १, (णाया १, २)। (कुमाः गा १७३)। २ कान का प्राभूषण अक्यास सक [अव+काश ] प्रकट करना। (पाप)। अवयरिअ वि [अपकृत] १ जिसका अपकार संकृ. अवयासेऊण (तंदु)। अवयंस सक [अवतंसय ] भूषित करना। किया गया हो वह । २ न. अपकार, अहित- अवयास देखो अवगास (गउड, कुमा)। अवसअंति (पि १४२; ४६०)। करण; 'को हेऊ तुह गमणे तुह अवयरियं मए अवयास पुंश्लेष] आलिंगन (प्रोध २४४ कि व' (सुपा ४२१)। अवयक्ख सक [अप + ईक्ष ] अपेक्षा करना, अवयरिअ वि [अवतीर्ण] १ जन्मा हुमा। राह देखना। अवयक्खह (गाया १, ६)। अवयासण न [श्लेषण प्रालिंगन (बृह १)। वकृ. अवयक्खंत, अवयक्खमाण (णाया २ नीचे उतरा हुआ (सुर ६, १८६)। अवयासाविय वि [श्लेषित] प्रालिंगन कराया १,६ भग १०,२)। अवयव पु [अवयव] १ अंश, विभाग। २ । हुआ (विपा १, ४)। अवयक्ख सक [अव + ईच] १ देखना । अनुमान-प्रयोग का वाक्यांश (दसनि १; हे १, अवयासिय वि [श्लिष्ट] प्रालिंगित (कुमा; २ पीछे से देखना। वकृ. अवयक्खंत (प्रोष २४५)। पाप्र)। १८८ भा)। अवयवि वि [अवयविम् अवयव वाला (ठा अवयासिणी स्त्री [दे] नासा-रज्जु, नाक में अवयक्खा स्त्री [अपेक्षा अपेक्षा (णाया १, १; विसे २३५०)। डाली जाती डोर (दे १,४६)। अवयाढ देखो ओगाढ (नाट; गउड)। अवर वि [अपर] अन्य, दूसरा, तद्भिन्न (श्रा अवयग्ग न [दे] अन्त, अवसान (भग १, अवयाण नदे] खींचने की डोरी, लगाम २७ महा)। हा अ[था] अन्यथा (पंचा ! (दे १, २४)। १२ भा)। For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ पाइअसहमहण्णवो अवर अवलंब अवर स अपर] १ पिछला काल या देश । वह, अपराधीः 'सगडे दारए ममं अंतेउरंसि अकरिल्ल वि [उपरि] उत्तरीय वस्त्र, चादर (हे (महा) । २ पिछले काल या देश में रहा हुआ, अवरद्ध' (विपा १, ४. स २८)। ३ विना- २, १६६; कुमाः गउड पान)। पाश्चात्य (सम १३; महा)। ३ पश्चिम दिशा शित, नष्ट किया हुमा (णापा १, १)। | अवरिल वि[अपरीय] पाश्चात्य, पश्चिम दिशा में स्थित, 'अवरद्दारेणं' (स ६४६)। कंका अवरद्धिन वि [अपराधिक] १ अपराधी, संबन्धी; 'तो णं तुब्भे प्रवरिल्लं वरणसंडं गच्छेस्री [°कङ्का] १ घातकी-खंड के भरतक्षेत्र की । दोषी। २ पु. लूता-स्फोट । ३ सर्पादि-दंश । ज्जाह' (णाया १, ६)। एक राजधानी। २ इस नाम के 'जातधर्म- (पिंड १४)। अवरिहड्ढपुसण न [दे] १ प्रकीति, अजस। कथा' सूत्र का एक अध्ययन (णाया १, १६) । अवरद्धिग । पुंस्त्री [अपराधिक] १ सर्प २ असत्य, भूठ । ३ दान (दे १, ६०)। यह पुं ह] १ दिन का अन्तिम प्रहर (ठा अवरद्धिय ) दंश। २ फुनसो, छोटा फोड़ा अवरंड सक [दे] प्रालिङ्गन करना। अवरुडइ ४, २) । २ दिन का उत्तरी भाग (प्राच१७ (अघि ३४१; पिड) । (दे १.११, सुर ३, १८२; भवि) । कम. अवगा २६ प्रासू ५४)। दाहिण पं अवरा स्त्री अपरा] विदेहवर्ष की एक नगरी इंडिजइ (दे १, ११)। संकृ. अवरुंडिऊरण [दक्षम] १ नैऋत्य कोण । २ वि. नैऋत्य (ठा २, ३)। (दे १,११; स ४२१)। अगा में स्थित (पंचा २)। दाहिणा स्त्री अवरा स्त्री [अपरा] पश्चिम दिशा (पव १०६)। अवरंडण । न [दे] गालिङ्गन (भवि; पात्रः क्षिा ] पश्चिम और दक्षिण दिशा के अवराइया देखो अपराइया (पउम २५, १; अवरंडिअ । दे १,१:)। "च की दिशा, नैऋत कोण (वव ७)। फाणु जंठा २, ३)। अवरुत्तर पुं[अपरोत्तर] १ वायव्य कोण । .: [पार्ण] एड़ी, अड्डी का पिछला भाग अवराइस देखो अण्णाइस (षड् ; हे ४, २ वि. वायव्य कोण में स्थित (भग)। 1) राय [ रात्र] देखो अवरत्त: अवरुत्तरा स्त्री [अपरोत्तरा] वायव्य दिशा, या पात्र (प्राचा)। विदेह पुं[विदेह] अवराजिय देखो अपराइय (इक)। पश्चिम और उत्तर के बीच की दिशा (वव पहा विदेह नामक वर्ष का पश्चिम भाग (ठा २, अवराजिया देखो अपराइया (इक) । : पडि)। विदेहकूड न [विदेहकूट] अवराह पु [अपराध] १ अपराध, गुनाह अवरुद्ध वि [अवरुद्ध] घिरा हुआ (विसे विशेष का शिखर-विशेष (जं ४) । देखो (आव १)। २ अनिष्ट, बुराई; 'प्रवराहेसु गुरणेसु २६७५) । य निमित्तमेत्तं परो होइ' (प्रासू १२२)। अवरुप्पर देखो अवरोप्पर (कुमा; रंभा)। अवर स [अवर] ऊपर देखो (महाः णाया १, अवराह पुंदे] कटी, कमर (दे १, २८)। अवरुह प्रक[अव + रुह ] नीचे उतरना। 2: वव ७ पंचा २)। अवरायि न [अपराधित] १ अपराध, । अवरुहेहि ( मै १४)। यमुट वि [अपराङ मुख १ संमुख । गुनाह; 'जंपइ जणो महल्लं कस्सवि प्रवराहियं अवरूव देखो अपुव्य (प्राकृ ८५)। तत्पर (पि २६६)। जायं' (पउम १४, २५, स ३२०)। २ अप- अवरोप्पर) वि [परस्पर आपस में (हे ४, अवरच्छ देखो अपरच्छ (पएह १, ३)। । कार, अनिष्ट, अहित; अवरोवर । ४०६; गउड; सुपा २२; सुर ३, अवरज [द] १ गत दिन । २ आगामी 'सिरि चडिआ खंति फलई, पुण डालई ७६; षड्)। दिन । ३ प्रभात, सुबह (दे १,५६)। मोर्डति । अबरोह पुं [अवरोध] १ अन्तःपुर, जनान तोवि महदुम सउणाह, अवराहिउ न खाना (सुपा ६३) । २ अन्तःपुर में रहनेवाली अवरज्झ अक [अप + राध] १ अपराध करंति' (हे ४, ४५)।। स्त्री (विपा १,४)। ३ नगर को सैन्य से करना, गुनाह करना । २ नष्ट होना। अव. अवराहिल्ल वि [अपराधिन] अपराधी (प्राकृ घेरना (निचू ८)। ४ संक्षेप (विसे ३५५५) । रज्झइ (महाः उव)। वकृ. अवरभंत ५ प्रतिबन्ध, 'कहं सव्वत्थित्तावरोहोति' (विसे (राज)। अवरत्त पुं [अपररात्र, अवररात्र] रात्रि का १७२३) । जुवइ स्त्री [युवति] अन्तःपुर अवराहुत्त वि [अपराभिमुख] १ पराङ मुख । २ पश्चिम दिशा की तरफ मुंह किया की स्त्री (पि ३८७)। पिछला भाग (भग; पाया १, १)। हुआ (प्राव ४)। अवरोह पु[अवरोह ] उगनेवाला (तरण अवरत्त वि [अपरक्त १ विरक्त, उदास (उप अवरि आदि) (गउड)। पृ ३०८) । २ नाराज, नाखुश (मुदा २६७)। अब अ[उपरि] ऊपर (दे १,२६; प्राप्र)। अवरोह पुं[दे] कटि, कमर (दे १, २८)। अवरत्तअ) पुं[दे] पश्चाताप, अनुताप (दे अवरिक्क वि [दे] अवसररहित, अनवसर | अवलंब सक [अव + लम्ब्] १ सहारा अवरत्तेअ१, ४५; पाप)। (दे १, २०)। लेना, आश्रय लेना। २ लटकना । अवलंबइ अवरदक्खिणा देखो अवर-दाहिणा (पव अवरिगलिअ वि[अपरिगलित] पूर्ण, भरपूर (कस) । अवलंबेइ (महा)। वकृ. अवलंब(से ११, ८८)। माण (सम्म ५८)। कवकृ. अवलंबिजंत अवरद्ध न [अपराद्ध] १ अपराध, गुनाह (सुर अवरिज वि [दे] अद्वितीय, असाधारण (दे | (पि ३६७) । संकृ. अवलंबिऊण, अवलं२, १२१)। २ वि. जिसने अपराध किया हो १,३६; षड्)। बिय (प्राव ५; आचा २, १, ६)। हेकृ. For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ अवलंब-अवसं पाइअसद्दमण्णवो अवलंबित्तए (दसा ७)। कृ. अवलंबणिय, । अवलुअ देखो अवल्लय (प्राचा २,३,१,६)। अववक्कल वि [अपवलाल] त्वचारहित अवलंविअव्व (से १०, २६)। अवलुआ श्री [दे] क्रोध, गुस्सा (दे १,३६)। (गउड)। अवलंब [अनलम्ब, क] १ सहारा, अवत्त ति [अवलुप्त] लोप-प्राप्त (नाट)। अववक्का स्त्री [अवपाक्या] तापिका, छोटा अवलंबग आश्रय (श्रा १६) । २ वि. लट- अवलेअ) पुं[अवलेप १ अहंकार, गवं। तवा (भग ११, ११)। कनेवाला (प्रौप; वव ४) । ३ सहारा लेनेवाला | अवलेव । २ लेप, लेपन (पान) महा; नाट)। अववग्ग पुं[अपरगे] मोक्ष, मुक्ति (आवम)। (पच्च ८०)। ३ अवज्ञा, अनादर (गउड)। अववट्टण न [अपर्सन १.सरण । २ अवलंबण न [अवलम्बन] १ लटकना । २ अवलेह पुं[अवलेह] चटनी (वजा १०४) । कर्मपरमाणुषों की दीर्घ स्थिति को छोटी पाश्रय, सहारा (ठा ५, २; राय)। अवलेहणिया स्त्री [अवलेखनिका] १ बांस करना (पंच ५)। अवलंबणया स्त्री [अवलम्बनता] अवग्रह- ___ का छिलका (ठा ४,२)। २ धूलि आदि झाड़ने अववट्टणा स्त्री [अपवर्तना] ऊपर देखो (पंच ज्ञान (णंदि १७५)। का एक उपकरण (निचू १)। अवलंबि वि [अवलम्बिन् ] अवलम्बन अवलेहि । स्त्री [अवलेखि, का] १ बांस | अववत्त वि [अपवृत्त] १ वापस लौटा करनेवाला (गउड; विसे २३२६)। अवलेहिया का छिलका (कम्म १,२०)। हुआ। २ अपसृत (दे १, १५२)। अवलंबिय वि अवलम्बित] १ लटका । २ लेह्य विशेष (पव ४)। ३ चावल के आटा हुआ । २ आश्रित (गाया १, १)। के साथ पकाया हुआ दूध (पभा ३२)। अववरक अपवरक] कोठरी, छोटा घर अवलंबिर देखो अवलंबि (गा ३६७)। अवलोअ सक [अव+लोक् ] देखना, अव- (मुद्रा ८१)। अवलक्खण न [अपलक्षण] खराब लक्षण, लोकन करना । वकृ. अवलोअंत, अवलोए- अववह सक [अप+वह. ] बाहर फेंकना, दूर बुरी आदत (भवि)। माण (रयण ३६, रणाया १,१) संकृ. अव- हटाना । कर्म. अ उज्झइ (पंचा १६, ६)। अवलग्ग वि [अवलान] १ आरूढ़ । २ लगा लोइऊण (काल)। कृ. अवलोयणीय (सुपा अववाइअ वि [आपवादि] अपवाद-संबंधी हुपा, संलग्न (महा)। ७०)। (अज्झ १०८)। अवलत्त वि [अपलपित] अपडत, छिपाया अवलोग) पुंअवलोक] अवलोकन, दर्शन अववाइय वि [अपवादिक] अपवादवाला हुआ (स २१२)। अवलोय (उप ६८६ टी; सुपा ६ स २७६ (नाट)। अवलद्ध वि [अपलब्द्ध] अनादर से प्राप्त गउड)। | अववाय पुं [अपवाद] १ विशेष नियम, अपअवलोयण न [अवलोकन] १ दर्शन, विलो(ठा )। वाद (उप ७८१)। २ निन्दा, अवर्ण-वाद अवलद्धि स्त्री [अवलब्धि] अप्राप्ति (भग)। कन (गउड)। २ स्थान-विशेष, 'तुंगं अव (पएह २,२)। ३ अनुज्ञा, संमति (निचू १)। अवलय न [दे] घर, मकान (दे १, २३)। लोयणं चेव' (पउम ८०,४)। ३ शिखर-विशेष ४ निश्चय, निर्णय वाली हकीकत (निचू ५) । अवलव सक [अप + लप्] १ असत्य (ती ४)। बोलना। २ सत्य को छिपाना। कवकृ. अवलोयणी स्त्री [अवलोकनी] देवी-विशेष अववास सक [ अव+काश ] अवकाश देना, जगह देना । अववासइ (प्राप्र)। अवलविज्जत (सुपा १३२)। कृ. अवलव- (सम्मत्त १६०)। अववाह सक [अव + गाह. ] अवगाहन । अवलोव पुं [अपलोप] छिपाना, लोप करना णिज (सुपा ३१५)। (पएह १, २)। करना । अववाहइ (प्राप्र)। अवलाव पुं[अपलाप] अपह्नव (निचू १)। अवलोवणी स्त्री [अपलोपनी] विद्या-विशेष | अवविह पु [अवविध] गोशालक के एक अवलिअ न [दे] असत्य, झूठ (दे १,२२) । (पउम ७, १३६)। भक्त का नाम (भग ८, ५)। अवलिंब पुं[अवलिम्ब] जीव या पुद्गलों से अववीड पुं [अवपीड] निष्पीड़न, दबाना व्याप्त स्थान-विशेष (ठा २, ४)। अवल्लय न [दे. अवल्लक] नौका खेवने का | (गउड)। अवलिच्छअ वि [दे] अप्राप्त, अनासादित उपकरण-विशेष (आचा २, ३, १)। अववीडण न [अवपीडन] ऊपर देखो (से ६, ७८)। अवल्लाव [दे.अपलाप] असत्यकथन, (गउड)। अवलित्त वि [अवलित] व्याप्त (सूत्र १, | अबल्लावय । अपलाप (दे १, ३८)। अवस वि [अवश] १ अस्वाधीन, पराधीन अवव न [अवव संख्या-विशेष, 'अववाङ्ग को | (सूम १, ३, १)। २ स्वतन्त्र, स्वाधीन (से अवलित्त घि[अवलित] १ लिप्त। २ गर्विता चौरासी लाख से गुरगने पर जो संख्या लब्ध १,१)। 'प्रासो सढोवलित्तो, प्रालंबण-तप्परो हो वह (ठा २, ४)। अवस वि [अवश] अकाम, अनिच्छु (धर्मसं अइपमाई। | अवगन [अववाङ्ग] संख्या-विशेष, 'अडड' | एवं ठिोवि मन्नइ, अप्पाणं सुट्ठिभो मित्ति को चौरासी लाख से गुणने पर जो संख्या अवसं प्र[अवश्यम् ] अवश्य, जरूर, लब्ध हो वह (ठा २, ४)। निश्चय (हे ४, ४२७)। For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ पाइअसद्दमहण्णवो अवसउण-अवस्स अवसउण न [अपशकुन ] अनि-सूचक अवसरण देखो ओसरण (पव ६२)। अवसिद (शौ) वि [अवसित] समाप्त, पूर्ण निमित्त , खराब शकुन (प्रोष ८१ भा; गा | अवसरण न [अपसरण] १ पीछे हटना। (अभि १३३, प्रति १०६)। २६१; सुपा ३६३)। ___२ निवृत्ति (गउड)। अवसिद्धत पुं[अपसिद्धान्त] दूषित सिद्धांत अवसंकि वि [ अपशङ्किन ] अपसरण- | अबसरिय वि [आवसरिक] सामयिक, सम- (विसे २४५७; ६)। कर्ता (सूत्र १, १२, ४)। योपयुक्त (सरण)। अवसीय अक [अव + सद् ] क्लेश पाना, अवसक्क सक [अव + ष्वक्] पीछे हट | अवसरीर पुं [अपशरीर] रोग, व्याधिः खिन्न होना। वकृ. अवसीयंत (पउम ३३, जाना । अवसक्केजा (प्राचा)। 'सवावसरीरहियो' (उप ५६७ टी)। अवसक्कण न [अवध्वष्कण] अपसरण, पीछे अवसवस वि [अपस्ववश] पराधीन, पर- अवसुअ अक [उद् + वा] सूखना, शुष्क हटना (पंचा १३)। तन्त्र रणाया १, १६)। होना । अवसुप्रइ (षड्)। अवसक्कि वि [ अवष्वष्किन् ] पीछे हटने | अवसब न [अपसव्य वाम पार्श्व (णंदि | | अबसेअ ' [अवसेक सिंचन, छिड़काव वाला (प्राचा)। १५९)। (अभि २१०)। अवसण्ण वि [दे] झरा हुआ, टका हुआ | अवसव्वय न [अपसव्यक] शरीर का अवसेअ वि[अवसेय जानने योग्य (विसे (षड्)। दहिना भाग (उप पृ २०८)। २६७१)। अवसण्ण वि [अवसन्न] निमग्न, 'नागो अवसह पुं [आवसथ] घर, मकान (उत्त अवसें (अप) देखो अवसं (हे ४, ४२७)। जहा पंकजलावसरणों (उत्त १३, ३०)। ३२)। अवसद्द पुं[अपशब्द] १ अशुद्ध शब्द अवसह न [दे] १ उत्सव । २ नियम (दे अवसेण देखो अवसंः 'अवसेण भुजियव्वा (सुर १६, २४८) । २ खराब वचन (हे १, (पउम १०२, २०१)। १,५८)। १७२)। ३ अपकीति, अपयश (कुमा)। | अवसेस पुं [ अवशेष ] १ अवशिष्ट, बाकी अवसप्प अक [ अव + सुप्] पीछे हटाना। किया हुआ (से १०, ६३)। (सुपा ७७)। २ वि. सब, सर्व (उप २११ २ निवृत्त होना। ३ उतरना। अवसपंति टी)। अवसाण न [अवसान] १ नाश। २ अन्त (पि १७३)। अवसेसिय वि[अवशेषित] १ समाप्त भाग (गउड; पि ३६६)। अवसप्पण न [अपसर्पण] अपसरण, अप किया हुआ, पार पहुंचाया हुअा ( से ४, वर्तन (पउम ५६, ७८)। अवसाय पुं[अवश्याय हिम, बर्फ (गउड)। ४७)। २ बाकी का, अवशिष्ट (भग)। अक्सपि वि [अपसपिन] १ पीछे हटनेअवसारिअ वि [अप्रसारित] न फैला हुआ, अवसेह सक [गम् ] जाना। अवसेहइ (हे वाला। २ निवृत्त होनेवाला (सूम १, २, अविस्तारित ( से, १)। ४, १६२) । अवसेहंति (कुमा)। अवसारिअ वि [ अपसारित १ प्राकट, अवरोह प्रक [नश1 भागना, पलायन अवसप्पिय वि [अपसर्पित] १ अपमृत । खींचा हुआ (से १, १)। २ दूर किया हुआ, करना । अवसेहइ (हे ४, १७८; कुमा)। २ निवृत्त । ३ अवतीरणं (भवि)। हटाया हुआ (सुपा २२२)। अवसोइया स्त्री [अवस्वापिका] निद्रा (सुपा अवसप्पिणी देखो ओसप्पिणी (भग ३, २; अवसावण न [अवस्रावग] १ कोजी (बृह भवि)। १)। २ भात वगैरह का पानी (सूक्त अवसोग वि [अपशोक १ शोक-रहित । अवसमिआ (दे) देखो अंबसमी (दे १. ८६)। २ देव-विशेष (दीव)। अवसावणिया स्त्री [अवस्वापनिका] अवसय वि [अपशद] नीच, अधम (ठा ४, | अवसोण वि [अपशोण] थोड़ा लाल सुलानेवाली विद्या (धर्मवि १२४) । (गउड)। अवसिअ वि [अपसृत] पीछे हटा हुआ अवसोवणी स्त्री [अवस्वापनी] निद्रा (सुपा अवसर अक [अप+स] १ पीछे हटना। (से १३, ६३)। __ ४७)। २ निवृत्त होना । अवसरइ (हे १, १७२)। अवसिअ वि [अवसित] १ समाप्त, परि- अवस्स वि [अवश्य | जरूरी, नियत (पावम, कृ. अवसरियव्य (उप १४६ टी)। पूर्ण । २ ज्ञात, जाना हुआ (विसे २४८२) । आव ४)। कम्म न [°कर्मन् ] आवश्यक अवसर सक [अव + स] आश्रय करना। | अवसिज अक [अव + सद् ] हारना, क्रिया (प्राचू १)। करणिज वि [करणीय संकृ. 'प्रोसरणम् अवसरित्ता' (चउ १८)। | पराजित होनाः ‘एक्कोत्रि नावसिजई' (विसे अवश्य करने लायक कर्म, सामयिक आदि । अवसर पुं अवसर] १ काल, समय २४८४)। किरिया स्त्री [क्रिया] आवश्यक अनुष्ठान (पान)। र प्रस्ताव, मौका (प्रासू ५७; अवसित्त वि [अवसिक्त] सींचा हुआ (रंभा (भाचू १) । 'किच वि [कृत्य] आवश्यक (महा)। ३१)। . कार्य (दे)। For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवस्सं-अवहिय पाइअसहमहण्णवो अवस्सं अ[अवश्यम् ] जरूर, निश्चय (पि अवहर सक [गम्] जाना । अवहरइ (हे ४, । (णाया १, ६)। ३ चोरी (सुपा ४४६) । ४ ३१५)। १६२)। बाहर करना, निकालना (निचू ७)। ५ भागाअवस्सप्पिणी देखो अवसप्पिणी (संबोध | अवहर अक [ नश्] भाग जाना, पलायन कार (भग २५, ४)। ६ नाश, विनाश (सुर करना । अवहरइ (हे ४,१७८ कुमा)। ७, १२५)। अवस्साअ देखो अवसाय (विक्र)। अवहर सक [अप + ह] १ छीन लेना, अप- अवहार पुं[अवधार] निश्चय, निर्णय । व अवस्सिय वि [अवाश्रित आश्रित, अवलग्न हरण करना। २ भागाकार करना, भाग | वि[वत् 1 निश्चय वाला (ठा १०)। (अनु ६)। देना । अवहरइ (महा) अवहरेजा (उवा)। अवहार पुं [अवधार्य] ध्रुव राशि, गणितअवह सक [रच् ] निर्माण करना, बनाना। कवकृ. अवहरिजंत, अवहीरमाग (सुर प्रसिद्ध राशिविशेष (सुज १०, ६ टी)। अवहइ (हे ४, ६४)। ३, १४२; भग २५, ४ रणाया १, १८)। अवहारण न [अवधारण] निश्चय, निर्णय (से संकृ. अवहरिऊण, अवहट्ट (महा: प्राचा ११, १५; स १६६)। अवह स [ उभय ] दोनों, युगल (हे २, भग)। अवहारय वि [अपहारक] छीननेवाला, अप१३८)। अवहर सक [अप + ह] परित्याग करना। हरण करनेवाला (सूर ११, १२)। अवह वि अवह] न बहता हुआ, जो चालू नहीं संकृ. अवहट्ट (सूत्र १, ४, १, १७)। अवहारि वि [अपहारिन् अपहारक, छीननेहै, बंद; 'प्रोसप्पिणीइ अपहो इमाइ जाओ अवहर वि [अपहर] अपहारक, छीन लेने- वाला (सुपा ५०३)। तम्रो य सिद्धिपहो (धर्मवि १५१)। वाला (गा १५६)। अवहारिय वि [अवधारित] निश्चित (स अवहइ स्त्री [अपहति] विनाश (विसे २०- अवहरण न [अपहरण] छीन लेना (कुमाः ५७६; पउम २३, ६; सुपा ३३१)। सुपा २५०)। अवहाव सक [क्रप्] दया करना, कृपा अवहट्ट वि [दे] अभिमानी, गर्वित (दे १, अवहरिअ वि [गत] गया हुआ (कुमा)। करना । अवहावेइ (षड्; हे ४, १५१)। २३)। अवहरिवि [अपहृत छीन लिया हुआ अवहावसु (कुमा)। अवहट्ट देखो अवहर = अप+ हु। (सुर ३, १४१, कुम्मा ६)। अवहाविअवि [अवधावित] गमन के लिए अवह वि [अपहृत] ले लिया गया, छीना अवहस सक [अव, अप + हस्] तुच्छ प्रेरित (सिरि ४३४)। हुआ (सुपा २६६ पएह १, ३)। करना, तिरस्कार करना, उपहास करना। अव- अवहास पुं[अवभास] प्रकाश, तेज (गउड; अवहड वि [अवहृत] ऊपर देखो (प्रारू)। हसइ (णामा १, १८)। प्राप्र)। अवहड न [दे] मुसल (दे १, ३२)। अवहसिय वि[अप, अवहसित] तिरस्कृत, अवहासिणी स्त्री [अवहासिनी] नासारज्जु, अवण्ण पुं[दे] ऊखल, ओखल, उदूखल उपहसित (गाया १,८; सुर १२, ६७)। 'मोत्तव्वे जोत्तमपग्गहम्मि अवहासिणी मुक्का' (दे १, २६)। अवहाउ सक [दे] आक्रोश करना । प्रवहाडेमि (गा ६६४)। अपहत्य पुं [अपहस्त] मारने के लिए या (दे १, ४७ टी)। अवहासिय वि [अवभासित] प्रकाशित निकाल बाहर करने के लिए ऊंचा किया | अवहाडिअ विदे1 उत्कृष्ट. जिस पर आक्रोश | (सुपा १४२) । हुआ हाथ, 'अवहत्थेण हो कुमरों' (महा)। किया गया हो वह (दे १, ४७)। अवहि देखो ओहि (सुपा ८६, ५७८; विसे अवहत्थ सक [अपहस्तय] १ हाथ को | अवहाण न [अवधान] १ ख्याल, उपयोग ८२, ७३७)। ऊंचा करना। २ त्याग करना, छोड़ देना। (सुर १०,७१ कुमा)। २ ज्ञान, जानना (बसे अवहिह वि [दे] दर्पित, अभिमानी, गर्वित अवहत्थेइ (महा) । संकृ. अवहत्थिऊण, ८२)। अवहत्थेऊण (पि ५८६; महा)। अवहाय पुं[दे] विरह, वियोग (दे १, ३६)। अवहिट्ट न [दे] मैथुन, संभोग (सूम १, ६, अवहत्थरा स्त्री [दे] लात मारना, पाद-प्रहार अवहाय प्र[अपहाय] छोड़ कर, त्याग कर (दे १, २२)। (भग १५)। अवयि वि [अपहृत] छीन लिया हुआ अवहत्थिय वि [अपहस्तित] परित्यक्त, दूर अवहार सक [अव + धारय् ] निर्णय (पउम २०, ६६; सुर ११, ३२ सुपा ४१३)। किया हुआ (महाः काप्र ५२४; गा ३५३; | अवहिय वि [अपहित अहित (चंड)। सुपा १६३ मंदि)। (स १६६) । हेकृ. अवहारेउं (भास १६)। अवहिय वि [अवधृत] नियमित (विसे अवय वि [अपहत] नष्ट, नाश-प्राप्त (से | अवहार (अप) देखो अवहर = अप + ह। २६३३)।। १४, २८)। अवहारइ (भवि)। संकृ. अवहारिवि (भवि)। अवहिय न [अवधृत अवधारण (वव १)। अवय वि [अघातक] अहिंसक (ोष अवहार पुं[अपहार १ अपहरण (पएह १, अवहिय वि [अवहित] सावधान, ख्यालवाला ७५०)। | ३; सुपा २७५) । २ दूर करना, परित्याग (पामा महा: पाया १, २, पउम १०, ६५; For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो अवहिय-अविक्खग सुपा ४२३) । मण वि [ मनस् ] तल्लीन, अवहोडय देखो अवओडगः 'सो बद्धो अवहोड- | अवार वि [अपार] पार-रहित, अनन्त (मै एकाग्र-चित्त (सुपा है)। | एण' (सुख २, २५) । ६८)। अवहिय वि [रचित] निर्मित, बनाया हुअा अवहोमुह वि [उभयमुख दोनों तरफ मुंह अवार पु[दे] दूकान, हाट (दे १, १२)। (कुमा)। वाला (प्राकृ ३०)। अवारी स्त्री [दे] ऊपर देखो (दे १, १२) । अबहीण वि [अवहीन हीन, उतरता, कम अवहोल अक [अव + होलय ] १ झूलना। अवालुआ स्त्री [दे] होठ का प्रान्त भाग (दे दरजा वाला (नाटः पि १२०)। २ संदेह करना। वकृ. अवहोलन्त (गाया १,२८)। अवहीय वि [अपधीक] निन्द्य बुद्धिवाला, अवाव पुं[अवाप] रसोई, पाक । कहा स्त्री दुर्बुद्धि (पएह १, २)। [कथा] रसोई-सम्बन्धी कथा (ठा ४, २)। अवाइ वि [अपायिन्] १ दुःखी। २ दोषी, अवहीर सक [अव + धीरय] अवज्ञा अपराधी; 'निम्भिच्चसच्चवाई होइ अवाई य नेह (अप) देखो अवसे ( षड्) । करना, तिरस्कार करना । अवहीरेइ (महा)। लोएवि' (सुपा २७५)। वकृ. अवहीरंत (सुपा ३१२)। कवकृ. अवाह पुं[अवाह] देश-विशेष (इक)। अवहीरिजंत (सुपा ३७६)। संकृ. अव अवाईण वि [अवाचीन] अधोमुख (णाया अवाह। देखो अबाहा (प्रौप)। हीरिऊण (महा)। अवि प्र[अपि] निम्नलिखित अर्थों का सूचक अवहारण न [अवधीरण] अवहेलना, तिर- अवाईण वि [अवातीन] वायु से अनुपहत अव्यय-१ प्रश्न (से ५, ४) । २ अवधारण, स्कार (गा १४६, अभि६८ गउड)। (गाया १, १)। निश्चय (आचा: गा ५०२) । ३ समुच्चय (विसे अवहीरणा स्त्री [अवधीरणा] ऊपर देखो (से । अवाउड वि [अ-व्यापृत] किसी कार्य में ३५५१, भग १,७)। ४ संभावना (विसे १३, १६; वेणी १८)। ३५४८; उत्त ३)। ५ विलाप (पाप)। ६-७ न लगा हुआ (उप पृ ३०२) । अवहीरमाण देखो अवहर = अप + हु। वाक्य के उपन्यास और पादपूर्ति में भी इसका अवाउड वि [अप्रावृत] अनाच्छादित, नग्न, अवहारिअ वि [अवधीरित] अवज्ञात, तिर- दिगम्बर (णाया १, १, ठा ५, १) । प्रयोग होता है (आचाः पउम ८, १४६; षड्)। स्कृत (से ११, ७; गउड)। अवाडिअ विदे] बञ्चित, प्रतारित (षड्)। अवि अवि] १ प्रज। २ मेष (विसे अवहील देखो अवहीर । अबहीलह (सण)। अवाण देखो अपाण (पान; विपा १, ६)। १७७४)। अबहीला स्त्री [अवहेला] अनादर (सिरि अवाय पु [अपाय] पानी का प्रागमन (श्रा अविअ विदे] उक्त, कथित (दे १, १०)। १७६)। २३)। अविअ बि [अवित] रक्षित (दे ५, ३५) । अवहूय वि [अवधूत] मार भगाया हुआ अवाय वि [अपाय] भाग्यरहित (था २३)। अविअ अ [अपिच] विशेषण-सूचक अव्यय (संबोध ५२)। अवाय वि [अपाग] वृक्षरहित (श्रा २३)।। (पंचा ७, २१)। अबहेअ वि [दे] दया-योग्य, कृपा-पात्र (दे १, अवाय वि [अपाक] पापरहित (श्रा २३)। | अविअ अ [अपिच] समुच्चय-द्योतक अव्यय २२)। अवाय पुं[अवाय प्राप्ति (था २३)। (सुर २, २४६; भग ३, २)। अवहेड सक [मुच् ] छोड़ना, त्याग करना। अवाय पुं[अपाय १ अनर्थ, अनिष्ट (ठा १)। Maiचिका मेष भेड (प्राचा)। अवहेडइ (हे ४, ६१)। संकृ. अवहेडिउं २ दोष, दूषण (सुर ४, १२०) । ३ उदाहरण अविउ वि [ अवित् ] अश, मूर्ख (सट्ठि ४६)। विशेष (ठा ४, ३)। ४ विनाश (धर्म १)। अविउतिय वि [अव्युत्क्रान्तिक उत्पत्ति(कुमा)। अवहेडगन [अवहेटक] प्राधे सिर का ६ वियोग, पार्थक्य (एंदि)। ६ संशय-रहित रहित (भग)। अवहेडय । ददं, प्राधा सीसी रोग (उत्तनि ३)। निश्चयात्मक ज्ञान-विशेष (ठा ४, ४ गाद)। अविउसरण न [अव्युत्सर्जन] अपरित्याग, अवहेडिय वि [दे] नीचे की तरफ मोड़ा हुआ, देसि वि [°दर्शिन्] भावी अनर्थों को पास में रखना (भग)। अवमोटित (उत्त १२)। जाननेवाला (ठा ८द्र ४६)। "विजय न अविकंप वि [अविकम्प] निश्चल (पंचा १८, अवहेरि स्त्री [अवहेला] अवगणना, तिर [विचय, विजय] ध्यान-विशेष (ठा ४,२)। अवहेरी।स्कार (उप २६०, ५६७ टी भवि; अवाय पुं[अवाय] संशय-रहित निश्चयात्मक अविकरण न [अविकरण] गृहीत वस्तुओं को सपा २६१, महा)। ज्ञान-विशेष, मति ज्ञान का एक भेद (ठा ४, यथास्थान न रखना (बृह ३)। अवहेलअ वि [अवहेलक] तिरस्कारक (सुपा ४ दि)। विक्ख देखो अवेक्ख । प्रविक्खइ (महा)। अवाय वि [अम्लान] अम्लान, म्लानरहित, हेकृ. अविक्खिउं (स ३०७)। कृ. अविअवहेलण दि [अवहेलन] उपेक्षा करने वाला ताजाः 'अवायमल्लमंडिया' (स ३७२) । क्खणिज (विसे १७१६)।। (सूत्र २, ६, ५३)। अवायाण न [अपादान] कारक-विशेष, स्था- विक्खग वि [अपेक्षक] अपेक्षा करने वाला अवहोअ पुंदि] विरह, वियोग ( षड् )।। नान्तरीकरण (ठा ८; विस २०६६)। (विमे १७१६) । For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविक्खण-अविस्साम अधिक्खण न [अवेक्षण] श्रवलोकन, निरीक्षरण (भवि ) । aaraणन [ अपेक्षण] अपेक्षा, परवाह (विसे १७१६) । 'अविक्खा देखो अवेक्खा (कुमा) । अविक्खिय वि [अपेक्षित ] १ अपेक्षित । २ न. अपेक्षा, परवह; 'नाविक्खियं सभाए' (श्रा १४) । [कृति] विकार जनक वस्तुओं का त्यागी ( सू २, २ ) । अविडिय वि [ अविकटित] अनालोचित (वव १) । अविगप्प देखो अवियप (सुर ४, १८९) । अविगप्पगवि [अविकल्पक] १ विकल्परहित। २ न. कल्पना-रहित प्रत्यक्ष ज्ञान ( धर्मसं ७४० ) । अविगल fa [ अविकल ] प्रखण्ड, पूर्ण (उप २८३) । अबिगिच्छवि [अत्रिचिकित्स्य ] जिसका इलाज न हो सके ऐसा, असाध्य व्याधिः 'तालपुडं गरलाणं, जह बहुवाहीए खित्तिओ वाही । दोसारणमसेसाणं, तह प्रविगिच्छो मुसादोसो' (श्रा १२ ) । Maitri [अविगीत ] श्रगीतार्थं, शास्त्रों के रहस्य का अनभिज्ञ साधु (वव ३ ) । afare a [ अविग्रह] १ शरीर-रहित । २ युद्ध-रहित, कलह - वर्जित ( सुपा २३४ ) । ३ सरल, सीधा (भग) । ॰ग्गइ स्त्री [गति] प्रकुटिल गति ( भग १४, ५) । अविच्छवि [ अवस्य ] वीप्सारहित, व्याप्ति रहित (षड् ) । अविजाणय वि [ अविज्ञायक ] अनजान, मूर्ख ( सून १, ५, १ ) । अविज्ज वि [अबीज] बीजशक्ति से रहित ( पउम ११, २५) । अविणय पुं [अविनय ] विनय का अभाव (ठा ३, ३) । पाइस मण्णवो अविण्णा स्त्री [अविज्ञा] अनुपयोग, ख्याल का प्रभाव (सूत्र १, १, १ ) 1 'अविक्खिय त्रि [अवेक्षित] अवलोकित (सुपा अवितह वि [अवितथ] सत्य, सच्चा (महा ७२)। उव) । अविणयवइ अविणयवर । १८ ) । अविवई स्त्री [] [दे] जार, उपपति (दे १, तती, कुलटा (दे १, १८) । for a [ अ ] निद्रा-विच्छेदरहित (गा ६६ ) । अविदा 1 [ अद, दा] विषाद-सूचक अव्यय ( पि २२; स्वप्न ५८ ) । अविधि स्त्री [अविधि] १ विरुद्ध विधि । २ विधि का प्रभाव (बृह ३ मा १) । अविन्नाणवि [ अविज्ञान] १ प्रजान । २ अज्ञात, अपरिचित (पउम ५, २१६) । अवियड्ढ वि [ अविदग्ध] अनिपुण (सुपा ५८२) । अवियत्त न [अप्रीतिक] १ प्रीति का प्रभाव (ठा १० ) । २ वि. अप्रीतिकारक ( परह १, १) । अवियत्त वि [अव्यक्त ] श्रस्कुट, अस्पष्ट 'अवियत्तं सरणं प्रणागारं ' ( सम्म ६५ ) । अवि वि [ अविकल्प ] १ भेदरहित, 'वंजरगपजायस्स से पुरियो पुरियो त्ति निचमवियप्पो' (सम्म ३५) । २ क्रिवि. निःसंशय, संशयरहितः 'सर्विपनिव्विश्रप्पं इय पुरिसं जो भरिज अवियप्प' ( सम्म ३५ ) । अविया स्त्री [दे. अविजनयित्री ] वन्ध्या स्त्री (गाया १, २) । अवियाणय देखो अविजाणय ( श्राचा) । ears a [ अविरति] १ विराम का अभाव, अनिवृत्ति। २ पाप कर्म से श्रनिवृत्ति (सम १० परह २,५ ) । ३ हिंसा ( कम्म ४) । ४ ब्रह्म, मैथुन (ठा ६) । ५ विरति परिणाम का अभाव (सून २,२) । ६ वि. विरतिरहित (नाट) । वाय पुं [वाद] १ श्रविरति की चर्चा । २ मैथुन चर्चा (ठा ६) । अविरइयवि [अविरतिक] विरति से रहित, पापनिवृत्ति से वर्जित, पाप कर्म में प्रवृत्त (भगः कस) । For Personal & Private Use Only ८७ अविरत वि [ अविरक्त ] वैराग्यरहित (गाया १, १४) । अविश्य वि [ अविरत ] १ विरामरहित, विच्छिन्न (गा १५५) । २ पाप निवृति से रहित (ठा २, १) । ३ चतुर्थं गुणस्थानक वाला जीव (कम्म ४,६३) । ४ क्रिवि. सदा, हमेशा (पा) । सम्मद स्त्री ["सम्यदृष्टि ] चतुर्थं गुणस्थानक ( कम्म २२ ) । अविरल वि [ अविरल ] निथिए, धन (गाश १, १) । [अविरहिन् ] रिहर [अविराम ] १ विरामरहित । २ क्रिवि. निरन्तर हमेशा (पान) । अविराय व [अविलीन ] प्रभ्रष्ट (कुमा) । अविराहिय वि[अविराधित] खरित आराधित (भग १५ ) । अविरिय वि [अवीर्य ] वीर्यंरहित (भग) । अबिल पुं [दे] १ पशु । २ वि. कठिन (दे १, ५२ ) । अविलंबिय वि [ अविलम्बित ] विलम्बरहित, शीघ्र ( कप ) । अविला स्त्री [अबिला ] मेषी, भेड़ी (पा) । अविवेग [अविवेक] १ विवेक का प्रभाव २ वि. विवेकरहित । 'वंत वि "वत् ] अविवेकी ( पउम ११३, ३९) । अविसंधि वि [ अविसंधि ] पूर्वापर विरोध से रहित, संगत, संबद्ध ( श्रौप ) । अविसंवाद वि [अविसंवादिन् ] विसंवादरहित, प्रमाण भूत, सत्य (कुमाः सुर है, १७८)। अविर (कुमा) । अविराम अविसम वि[विषम ] सदृश, तुल्य (कुमा) । अविसाइ वि [ अविषादिन] विषादरहित ( परह २, १) । अविसेस वि [अविशेष ] तुल्य, समान (ठा २,३ उप ८७७) । अविसेसिय वि [ अविशेषित ] (ठा १०) । अविस्स न [अविश्र ] मांस और रुधिर (पव ४०) । अविस्साम वि [अविश्राम ] १ विश्रामरहित ( परह १,१) । २ क्रिवि. निरन्तर सदा (अ ७२८ टी) । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द अविहड पुं [दे] बालक, बच्चा (बृह १) । aafa [ अविभव ] दरिद्र (गउड ) । अविवा स्त्री [अविधवा ] जिसका पति जीवित हो वह स्त्री, सधवा ( गाया १,१) । अविहा देखो अविदा ( श्रभि २२४) । [घाट] अविकट (वव ७) । अविहाविअवि [] १ दीन, गरीब। २ न. मौन (दे १, ५६) । अहाविअवि [अविभावित] अनालोचित (गउड)। अविहि देखो अविधि ( दस १) | [] मत, उन्मत्त ( प‍ ) । अविहित व [ अविघ्नन् ] नहीं मारता हुआ, हिंसा नहीं करता हुआ 'वजेमित्ति परिण, संपत्तीए विमुञ्चई वेरा । श्रविहितोविन मुइ किलिट्टभावोत्ति वा तस्स' (ओघ ६० ) । अविहिंस वि [ अविहिंस] अहिंसक (प्राचा) । अविहिंसा स्त्री [अविहिंसा ] अहिंसा ( सूत्र १२, १) । अविहीर व [ अप्रतीक्ष] प्रतीक्षा नहीं करने वाला (कुमा) । अविडय वि [अविक ] आदर करनेवाला ( दस १०, १० ) । अवी देखो अवि (उत्त २०, ३८ ) । rais [ अविविच्य ] अलग न हो कर (भग १०, २) । अवीइय [अविचिन्त्य] विचार न कर (भग १०, २) । अवीय वि [अद्वितीय] १ श्रसाधारण, अनुपम (कुमा) । २ एकाकी, असहाय ( विपा १, २ ) । अवुक्क सक [ वि + ज्ञपय् ] विज्ञप्त करना, प्रार्थना करना । अवुकइ (हे ४, ३८) । वकृ. अयुक्त (कुमा) । पाइअसद्दमद्दण्णवो अवेक्ख तक [अप + ईक्ष ] अपेक्षा करना । श्रवेक्खइ (महा) । अवेक्ख सक [अव + ईत् ] अवलोकन करना । वेक्खाहि ( स ३१७) संकृ. अवेक्खिऊण ( स ५२७) । अवेक्खा स्त्री [अपेक्षा[] अपेक्षा, परवाह (सुर ३, ८४ स५१२) । अवेक्खवि [अपेक्षिन् ] अपेक्षा करनेवाला ( गउड) । अवेक्खिय वि [अपेक्षित ] जिसकी अपेक्षा हुई हो वह (अभि २१९ ) । अविवेक्षित ] अवलोकित ( अभि १६९ ) । अवेयवि [अपेत] रहित, वर्जित (विसे २२१३) । रुइ वि [°रुचि ] रुचि-रहित निरीह ( उप ७२८ टी) 1 अवेय ? वि [अवेद, क] १ पुरुष-वेदादि अवेयग वेद से रहित (पराग १ ) । २ मुक्त, मोक्ष प्राप्त (ठा २, १ ) अवेसि देखो अंबेसि (दे १, ८६ पात्र ) । अवेह देखो अवेक्ख = अव + ईक्ष् । अवेह ( सूत्र ) । अवोअड वि [अव्याकृत ] अव्यक्त, अस्पष्ट ( भास ७६ ) । अवोच्छिण देखो अवोच्छिष्ण (प्राचा) । अवोच्छित्ति देखो अव्वोच्छित्ति (ठा ५, ३) । अवोह सक [ अप+ऊहू ] १ विचार करना । २ निर्णय करना । श्रवोहए ( श्रावम) । अवोह पुं [अपोह] १ विकल्पज्ञान, तर्कविशेष । २ व्याग, वर्जन ( उप ९६७) । ३ निर्णय, निश्चय (दि) । अव्वभाव [अव्ययीभाव ] व्याकरणप्रसिद्ध एक समास (अ) । अव्यंग वि [अव्यङ्ग] अक्षत, अखण्ड ( ७ ) । अबुड्ढ व [अवृद्ध] तरुण, जवान (कुमा) । अग्गह देखो अविग्गह (ठा ५, १) । अवुह देखो अबुह (सरण) । अवूह देखो अवोह (गाया १, १ ) । अ क [अव + इ] जानना । श्रवेसि (विसे १७७३) । ras [ अप+इ] दूर होना, हटना । श्रवेद अव्वक्खित्त वि [ अव्याक्षिप्त ] १ विक्षेप( स २० ) । श्रवेह ( मुद्रा १९१ ) । रहित । २ तल्लीन, एकाग्र ( उत्त २० ) । अव्वंग न [अव्यङ्ग] १ पूर्ण अंग, पूरा शरीर । २ वि. श्रविकल, अन्यून, संपूर्ण; 'परिहियवं गधोयसियवसरणा' ( धर्मंवि १७, १५) । For Personal & Private Use Only अविहड - अव्वाइद्ध अव्वग्ग वि [अव्यग्र ] व्यग्रताशून्य, अनाकुल ( उत्त १५ ) । अव्त्रत्त ) वि [अव्यक्त ] १ अस्पष्ट, अस्फुट अव्वत्तय । उप ७६८ टी सुर ४, २१४ श्रा २७) । २ छोटी उमर का बालक, बच्चा ( निचू १८ ) । ३ अगीतार्थ, शास्त्र-रहस्यानभिज्ञ (साधु) ( धर्म २ याचा) । ४ पुं. अव्यक्त मत का प्रवर्तक एक जैनाभास मुनि (ठा ७) । ५ न. सांख्य मत में प्रसिद्ध प्रकृति (आम)। मय न [मत ] एक जैनाभास मत (विसे) । अव्यत्तव्व वि [ अवक्तव्य ] १ प्रवचनीय । २ पुं. कर्मबन्ध विशेष, नब जीव सर्वथा कर्मबन्धरहित होकर फिर जो कर्मबन्ध करे वह ( पव ५, १२) । अव्वत्तिय देखो अवत्तिय (औपः विसे श्रावम) । अव्यभिचारि वि [अव्यभिचारिन् ] ऐकान्तिक (पंचा २, ३७ ) । अव्यय न [अव्यय ] 'च' आदि निपात (चेइय ६८३) । अव्यय न [ अव्रत] १ व्रत का प्रभाव (श्रा १९; सम १३२) । २ वि व्रतरहित (विसे २५४२) । अव्यवि [अव्यय ] १ अक्षय, अखूट (सुपा ३२१) । २ नित्य, शाश्वत ( भग २, १ ) । अव्ववसिय वि [अव्यवसित] १ अनिश्चित, संदिग्ध । २ अपराक्रमी (ठा ३, ४ ) । अवसण वि [अव्यसन] १ व्यसन- रहित । २ पुंन. लोकोत्तर रीति से १२ वाँ दिन (जं ७ ) । अव वि [अव्यथ] १ व्यथारहित । २ न. निश्चल ध्यान (ठा ४, १; औप ) । roat a [ अव्यथित] १ श्रपीडित ( पंचा ५) । २ निश्चल (बृह १) । अव्वा स्त्री [ अर्वाक् ] पर से भिन्न, 'गो हव्वा णो पाराए' ( सू २, १,६ ) । roar स्त्री [दे. अम्बा ] माता, जननी ( दे १, ५; (षड् ) । अव्वाइद्ध वि [अव्याविद्ध] १ श्रविपर्यस्त अविपरीत । २ न. सूत्र का एक गुण, प्रक्षरों की उलट-पुलट का प्रभाव (बृह १; गच्छ २ ) । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्वागड असंगय roars वि [अव्याकृत ] अव्यक्त, अस्फुट ( आचा सत्त 2 टी ) । अव्वाण वि [आव्यान ] थोड़ा स्निग्ध (ग्रोध ४८८ ) । अव्वाबाह aि [ अत्र्याबाध] १ हरज-रहित, बाधा - वर्जित (श्राव ३ ) । २ न. रोग का अभाव (भग १८, १०)। ३ सुख ( श्रवम) । ४ मोल-स्वान, मुक्ति (भग १ १) ५. लोकान्तिक देव- विशेष (गाया १, ८ ) । अव्वाबाह पुंन [अव्याबाध] एक देवविमान ( देवेन्द्र १४५ ) । " अवाड वि [अव्यावृत] १ जो व्यवहार में न लाया गया हो, व्यापार-रहित । २ एक प्रकार का वास्तु (बृह ३ ) | अन्याय वि [अव्यापन्न] विनाश को प्राप्त (भग १, ७) । अव्वावार वि [अव्यापार] व्यापार-वर्जित ( स २०) । अव्वाय वि [अव्याहत ] १ रुकावट - वर्जित (ठा ४, ४ सुपा ८६ ) २ अनुपहत, प्राघातरहित (दि) । पुव्वावरत न ["पूर्वापरत्व] जिसमें पूर्वापर का विरोध या संग न हो ऐसा (वचन) (राम) अव्याहार [अव्याहार] न बोलना, मीन (पास)। अम्बादिय नि [अव्याहत ] न बुलाया हा जीव वा । अव्विरयवि [ अविरत ] विरति रहित (सट्ठि ८ ) । अव्वो अ. नीचे के अर्थों में से प्रकरण के अनुसार, किसी एक अर्थ का सूचक अव्यय - १ सूचना । २ दुःख । ३ संभाषण ४ अपराध । ५ विस्मय । ६ आनन्द । ७ आदर। ८ भय । ६ खेद | १० विषाद । ११ पश्चात्ताप; 'वो हरति वि तहवि न वेसा हवंति जुवईण । वो किंपि रहस्सं, मुांति धुत्ता जरणन्भहिश्रा ।। अपाय - 7 वो अज्जम्ह सप्फलं जीनं । वो अम्मि तुमे, नवरं जइ सान रिहि । (हे २०४ ) । अव्योगढ व [अव्याकृत] १ भविशेषित " १२ पाइअसद्दमद्दष्णवो (२) २ फैलाव-रहित (दसा ३) ३ नहीं बांटा हुआ । ४ अस्फुट, अस्पष्ट । ५ न. एक प्रकार का वास्तु (बृह ३) । अब्बोणि वि [अध्युन्नि, अव्यय[मन] १ [पान्तर-रहित, सतत, छेद विच्छेद(७) २ नियम्यात (गाउट)। अग्वोदित्ति श्री [अव्युच्छित्ति, अव्ययच्छित्ति ] १ सातत्य, प्रवाह, बीच में विच्छेद का प्रभाव, परंपरा से बराबर चला आना 1 (धानम) नय ["नव] वस्तु को किसी न किसी रूप से स्थायी माननेवाला पक्ष, द्रव्याथिक नय (भग ७, ३) । अव्वोच्छिन्न देखो अव्वोच्छिण (ओघ ३२२ स २५६) । अव्वोयड देखो अग्वोगड (भग १०, ४० भास ७१) । अस सक [ अ ] व्याप्त करना । असइ असए (षड् ) । [अं] होना । अस्सि; 'हाहा होमसिक (भाग १२) ि ( प्राप) । श्रत्थि (हे ३, १४६, १४७, १४८ ) । भूका. आसि, आसी (भग; उवा) । अस सक [ अ ] भोजन करना, खाना । मतदानास दोसोवित्वाही' (सार्धं १०६ : भवि ) । वकृ. असंत (भवि ) । कु. अपि ४३८) । अस व [ असत् ] अविद्यमान, श्रसत्; 'दुहप्रोग विरणस्संति, नो य उप्पज्जए असं (सू १, १, १, १६) । असइ स्त्री [असृति] १ उलटा रखा हुआ हस्त तल । २ धान्य मापने का एक परिमाण । ३ उससे मापा हुआ धान्य (अर खाया १, ७) । [अस] [दे. असस्थ] [भाव, विद्यमानता 'पढमं जईरण दाऊण, अप्परगा परणमिकरण पारेइ । श्रसईय सुविहियाणं, भुंजेइ य कर्यादिसालोमो' (उवा) । [ असकृत् ] अनेक बार, बारंबार (भवि आचा; उप ८३३टी) । असइ असई असई असई स्त्री [असती ] १ कुलटा, व्यभिचारिणी (सुपा ६) । २ दासी (भग ८, ९ ) । पोस For Personal & Private Use Only दह [ पोष] धन के लिए दासी, नपुंसक मा पशुओं का पालन 'असईपोसं च वजिजा' (या २२) । पोसणया श्री [पोषणा] देखो धनन्तरोक ] (पडि) | असउग पुंन [ अशकुन] अपशकुन (पंचा ७) । असं [अ] १ शङ्का-रहित, पर्सदिग्ध २ निडर, निर्भय (धाचा सुर २, २६) । असंकल वि [ अशृङ्खल ] शृङ्खला रहित, नियमित (कुमा)। असंकि वि [अशङ्किन] संदेह न करने वाला ( १, १, २) । अकिलि वि [असंक्लिष्ट] १ क्लेशरहित २ विशुद्ध, निर्दोष ( प प २,१) । असं वि [असंख्य ] संख्या-रहित, परिमाणरहित (सूपा ५६६: जी २७; ४० ) । असंख न [असंख्य ] सांख्य मत से भिन्न दर्शन (सुवा १६९) । = असंखंड स्त्रीन [दे] कलह, भगड़ा; 'जत्य य समरणीणमसंखडाईं गच्छम्मि नेव जायंति" ( गच्छ ३, ११) । स्त्री. डी (पव १०६) । असंखड न [] कलह, झगड़ा ( निचू १) । असंखडिय वि [दे] कलह करने वाला, झगड़ाखोर (बृह १) । असंख्य देखो असंख - प्रसंख्य ( सं ८५ ) । असंख्य वि[असंस्कृत ] १ संस्कार- हीन । २ संधान करने के अशक्य (राज) । अखिर [असंख्येय] गिनती या परि मारण करने के अशक्य ( नव ३५) । असंखिज्जय देखो असंखेज्जय ( श्रणु) । असंखेज्ज देखो असंखिज्ज (भग) । असंखेज' वि [असंख्येय] [असंख्यातां । भाग [भाग ] श्रसंख्यातवां हिस्सा (औप भग) । असंखेज्जय पुंन [असंख्येयक ] गणना-विशेष (ण) । असंग व [असङ्ग] १ निरसङ्ग, धनासक ( पण २ ) । २ पुं. श्रात्मा (प्राचा) । ३ मुक्त जीव । ४ न. मोक्ष, मुक्ति (पंचव ३ औप ) 1 असंगय न [दे] वस्त्र, कपड़ा (दे १,३४) । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो असंगहिय-असणि असंगहिय वि [असंगृहीत] १ जिसका संग्रह | असंथरमाण वकृ [दे. असंस्तरमाण] देखो । असगाह ) पुं[असग्रह] १ कदाग्रह (उप असग्गह। ६७२; सुपा १३४)। २ अतिन किया गया हो वह । २ अनाश्रित (ठा ८)। असंथरंत (वव ४ ओघ १८१)। असग्गाह ) निबन्ध, विशेष प्राग्रह (भवि)। असंगहिय वि[असंग्रहिक] १ संग्रह न करने असंधिम वि [असंधिम] संधान रहित, अखण्ड | असञ्च न असत्य] १ भूठ वचन (प्रासू वाला । २ पुं. नैगम नय का एक भेद (विसे)। (बृह ५)। १५१) । २ वि. झूठा (पएह १,२)। मोस असंगिअ ' दे] १ अश्व, घोड़ा। २ वि. | असंभंत पुं [असंभ्रान्त] प्रथम नरक का न [मृष भूठ से मिला हुमा सत्य (द्र २२)। • अनवस्थित, चञ्चल (दे १,५५)। । छठवां नरकेन्द्रक-नरक-स्थान विशेष (देवेन्द्र वाइ वि [°वादिन] झूठ बोलने वाला (सम असंघयण वि [असंहनन] संहनन से रहित। ५०; पउम ११, ३४) । मोस न [मृप २ वज्र, ऋषभ, नाराच आदि प्राथमिक तीन असंभव्व वि [असंभाव्य] जिसकी संभावना न सत्य और न भूठ ऐसा वचन (माचा)। संघयणों से रहित (निचू २०)। न हो सके ऐसा (श्रा १२)। मोसा स्त्री [मृषा] देखो अनन्तरोक्त अर्थ असंजण न [अमअन] निःङ्गता, अनासक्ति असंभावणीय वि [असंभावनीय] ऊपर (पंच १)। "संध वि [संध] १ असत्य(निचू १)। देखो (महा)। प्रतिज्ञ । २ असत्य अभिप्राय वाला (महा; असंजम वि [असंयम] १ हिंसा, झूठ प्रादि असंलप्प वि [असंलप्य] अनिर्वचनीय पएह १, २)। सावध अनुष्ठान (सूम १, १३)। २ हिंसा (अणु)। असज्ज र वकृ [असजत् ] संग न आदि पाप-कार्यों से अनिवृत्ति (धर्म ३)। ३ असंलोय पुं [असंलोक] १ अप्रकाश । २ वह असन्जमाण करता हुआ (प्राचा: उत्त १४)। अज्ञान (प्राचा)। ४ असमाधि (वव १)। । स्थान जिसमें लोगों का गमनागमन न हो, असज्झाइय वि [अस्वाध्यायिक] पठन-पाठन असंजय वि [असंयत] १ हिंसा आदि पाप भीडरहित स्थान (आचा)। का प्रतिबन्धक कारण (पव २६८)। कार्यो से अनिवृत्त (सूप १, १०)। २ हिंसा असंबर [असंवर पाश्रव, संवर का प्रभाव | असज्झाय पुं[अस्वाध्याय] अनध्याय, वह प्रादि करने वाला (भग ६,३)। ३ पुं. साधु काल जिसमें पठन-पाठन का निषेध किया गया भिन्न, गृहस्थ (आचा)। | असंवरीय वि [असंवृत] १ अनाच्छादित। । है (गच्छ ३, ३०)। असंजल [असंज्वल] १ऐरवत वर्ष के २ नहीं रुका हुआ (कुमा)। एक जिनदेव का नाम (सम १५३)। असंवुड वि [असंवृत] असंयत, पाप-कर्म से असड्ढ वि [अश्रद्ध] श्रद्धारहित (कुमा)। अनिवृत्त (सूप १, १, ३)। असढ वि [अशठ] सरल, निष्कपट (सुपा असंजोगि वि [असंयोगिन् १ संयोग | असंसइय वि [असंशयित असंदिग्ध (सूप ५५०) । करण वि [करण] निष्कपट भाव रहित । २ पुं. मुक्त जीव, मुक्तात्मा (ठा २, २) से अनुष्ठान करने वाला (बृह ६)। २,१)। असंसद वि [असंसृष्ट] १ दूसरे से न मिला असण न [अशन] १ भोजन, खाना (निचू असंत वकृ. [असत् ] १ अविद्यमान (नव हुमा (बृह २)। २ लेप-रहित (औप) । ३ ११)। २ जो खाया जाय वह, खाद्य पदार्थ ३३)। २ झूठ, असत्य (पग्रह १, २)। ३ । स्त्री. पिण्डैषरणा का एक भेद पव ६६)। (पव ४)। असुंदर, अचारु (पराह २, २)। असंसत्त वि [असंसक्त] १ अमिलित (उत्त असण पुं [असन] १ बीजक नामक वृक्ष असंत देखो अस = प्रश् । २)। २ अनासक्त (दस ८: उत्त ३)। (पएण १; गाया १,१ौपः पामः कुमा)। असंत वि [अशान्त] शान्तरहित, क्रुद्ध (पएह असंसय वि [असंशया १ संशय-रहित (बृह। २ न. क्षेपण, फेंकना (विसे २७६५)। २,२)। १) । २ क्रिवि. निःसंदेह, नकी (अभि ११०)। असणि पुंस्त्री [अशनि] १ एक प्रकार की असं वि [असत्व] सत्त्व-रहित, बल-शून्य असंसार पुं [असंसार संसार का प्रभाव, बिजली (सुज २०) । २. पुं. एक नरक-स्थान (पग्रह १, २)। मोक्ष (जीव १)। (देवेन्द्र २६)। असंथड वि [दे. असंस्तृत अशक्त, असमर्थ असंसि वि [अस्र सिन् अविनश्वर (कुमा)। असणि पुंस्त्री [अशनि] १ वज्र (पाप)। २ (प्राचा; बृह ५)। असक्क वि [अशक्य] जिसको न कर सके वह आकाश से गिरता अग्नि-कण (परण १)। ३ असंथरंत वकृ. [ दे. असंस्तरत् ] १ समर्थ (सुपा ६५१)। वज्र का अग्नि (जी ६)। ४ अग्नि (स ३३२)। न होता हुआ। २ खोज न करता हुआ (वव असक्क वि [अशक्त असमर्थ (कुमा)। । ५ अस्त्रविशेष (स ३८५)। पह पुं[प्रभ] ४) । ३ तृप्त न होता हुआ (ोध १८२)। असक्कय वि [असंस्कृत संस्कार-रहित (पएह रावण के मामा का नाम (से १२, ६१) । अशरण न दे. असंस्तरण] १ निर्वाह का १, २)। मेह पुं[मेघ] १ वह वर्षा जिसमें प्रोले अभाव (वृह १)। २ पर्याप्त लाभ का प्रभाव असक्कय वि [असत्कृत] सत्कार-रहित (पएह । गिरते हैं। २ अति भयंकर वर्षा, प्रलय-मेघ (पंचव:)। ३ असमर्थता, अशक्त अवस्था १, २)। (भग ७, ६)। वेग मुं['वेग] विद्याधरों (धर्ममियू)। असक्कणिज्ज वि [अशकनीय अशक्य(कुमा)। का एक राजा (पउम ६. १५७)। For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असणी-असि पाइअसहमण्णवो असणी स्त्री [अशनी] एक इन्द्राणी (ठा ४, असमवाइ न [असमवायिन् नैयायिक और असाढय न [असाढक] तृण-विशेष (AT वैशेषिक मत प्रसिद्ध कारण-विशेष (विसे १, पत्र ३३)। असणी स्त्री [अशनी] जिह्वा, जीभ 'प्रवखा- २०६६)। असाय न [असात] दुःख, पीड़ा (पराह १.१); णसणी कम्मारण मोहणं तह वयाण बंभं च असमजस वि [असमञ्जस] १ अव्यवस्थित, 'रागंधा इह जीवा, (सुख २, ४२)। गैरव्याजबी (प्राचाः सुर २, १३, सुपा दुल्लहलोयम्मि गाढ़मणुरता। असण्ण वि [असंज्ञ] संज्ञारहित, अचेतन । ६२३, उप १०००)। २ क्रिवि. अव्यवस्थित जं वेइंति असायं, कत्तो तं हंदि नरएवि' (लहुअ६)। रूप से (पास)। (सुर ८, ७६)। अण्ण वि [असंज्ञिन्] १ संज्ञि-भिन्न, असमिक्खिय वि [असमाक्षित] अना- वेयणिज्ज न [°वेदनीय दुःख का कारणमनोज्ञान से रहित (जीव) (ठा २, २)। २ लोचित, अविचारित (पएह १, २)। कार भूत कर्म (ठा २, ४)। सम्यग्दृष्टि भिन्न, जैनेतर (भग १, २)। सुय वि [कारिन्] साहसिक । कारिया स्त्री असार । वि [असार, क] निस्सार, सारन [श्रुत] जैनेतर शास्त्र (णंदि)। [कारिता] साहस कर्म (उस ७६८ टी)। असारय । रहित (महा: कुमा)। असत्त वि [अशक्त] असमर्थ (सुर ३, २४४; असरासय वि [दे] निर्दय, निष्ठुर हृदय | असारा स्त्री [दे] कदली-वृक्ष, केला का पेड़ १०,१७४)। वाला (दे १, ४०)। (दे १,१२)। असत्त वि [असक्त] अनासक्त (प्राचा)। । असलील वि [अश्लील असभ्य भाषा (मोह | असालिय पुंस्त्री [दे] सर्प की एक जाति असत्त न [असत्व प्रभाव, असत्ता (णंदि)। ८७)। (सूम २, ३, २४)। असत्ति स्त्री [अशक्ति] सामर्थ्य का प्रभाव । असव पुं [असु] प्राण, 'विउत्तासवो विन असासय वि [अशाश्वत भनित्य, विनश्वर 'मत वि [ मत् ] असमर्थ, अशक्त (पउम ठिो कंचि कालं' (स ३५७)। (णाया १, १; गा २४७)। ६६, ३६)। असवण्ण वि [असवर्ण] असमान, असाधारण | असाण न [असाधन] प्रसिद्धि (सुर ४, असत्थ वि [अस्वस्थ] अतंदुरुस्त, बीमार (सुर ३, १२७)। (सएण)। २४८)। असत्य न [अशस्त्र] १ शस्त्र-भिन्न । २ संयम, असवार पुं [अश्ववार] घुड़सवार (धर्मवि असाहारण वि [असाधार"] अतुल्य, अनुपम ४१)। निर्दोष अनुष्ठान (प्राचा)। (भगः दस)। असह वि [असह] १ असहिष्णु (कुमा; सुपा असद्द पु[अशब्द] १ प्रकीत्ति, अपयश असि [असि] ? खड्ग, तलवार (पान)। ६२०) । २ असमर्थ (वव १) । ३ खेद करने (गच्छ २) । २ वि. शब्दरहित (बृह ३)। २ इस नाम की नरकपाल देवों की एक जाति वाला (पान)। असद्ध वि [अश्रद्ध] श्रद्धारहित । स्त्री. 'द्धी (भग ३, ६)। ३ स्त्री. बनारस की एक नदी (उप पृ ३९४)। असहण वि [असहन] असहिष्णु, क्रोधी का नाम (ती ३८)। कुंड न [कुण्ड] मथुरा असन्नि देखो असण्णि (भग जी ४३)। (पा)। का एक तीर्थ-स्थान (ती ७)। चाय पुं असबल वि [अशबल] १ अमिश्रित । २ असहाय वि [असहाय] १ सहायरहित | [°घात] तलवार का घाव (पउम ५६, २५)। निर्दोष, पवित्र (पएह २, १)। (भग)। २ एकाकी (बृह ४)। °चम्मपाय न [°चर्मपात्र] तलवार को अहिज्ज वि [असाहाय्य] १ सहायताअसब्भ वि [असभ्य] अशिष्ट, जंगली (स म्यान, कोश (भग ३, ५)। धारा स्त्री ६५०)। भासि वि [भाषिन्] असभ्यरहित । २ सहायता का अनिच्छुक (उवा)। [धारा] तलवार की धार (उत्त १९)। असहीण वि [अस्वाधीन] परतन्त्र, पराधीन घेणु, "घेणुआ स्त्री [धेनु, धेनुका छुरी भापी (सुर ६, २१)। (गउडा पाम)। पत्त न [पत्र] १ तलवार असब्भाव पुं [असद्भाव] १ यथार्थता का | (दस ८)। (विपा १, ६)। २ तलवार के जैसा तीक्ष्ण अभाव, भूठ (पिंड)। २ वि. असत्य, प्रययार्थ असहु वि [असह्] १ असहिष्ण (उव)। पत्र (भग ३, ६)। ३ तलवार की पतरी (जीव २ असमर्थ, अशक्त (प्रोघ ३६; भा)। ३ (उत्त ३; प्रौप)। ३)। ४ पु. नरकपाल देवों की एक जाति (सम असम्भावि वि [असद्भाविन] झूठा, असत्य | बीमार, ग्लान (निचू १)। ४ सुकुमार, कोमल २६) । पुत्तगा स्त्री [°पुत्रिका] छरी (उप (महा)। (ठा ३, ३)। पृ ३३४)। "मुट्ठि स्त्री [मुष्टि] तलवार असब्भूय वि [असद्भूत] असत्य (भग)। असहेज देखो असहिज्ज (भग)। की मूठ (पान) । रयण न [रन चक्रवर्ती असम वि [असम] १ समान, असाधारण असागारिय वि [असागारिक] गृहस्थों के | राजा की एक उत्तम तलवार (ठा ७)। लट्टि (सुर ३, २४)। २ एक, तीन, पांच प्रादि आवागमन से रहित स्थान (वव ३)। स्त्री [यष्टि] खड्ग-लता, तलवार (विपा १, एकाई संख्या वाला विषम । सर पुं[ शर] असाढभूइ j [अषाढभूति] एक जैन मुनि ३)। वण न [वन] खड्गाकार पत्ते वाले कामदेव (गउड)। (पिंड ४७४)। वृक्षों का जंगल (पण्ह १, १)। वत्त देखो Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो असिइ-असोग पित्त] (से ३, ४२)। हर वि [धर] असील वि [अशील] १ दुःशील, असदा- | असुह न [अशुभ] १ अमंगल, अनिष्ट (सुर तलवार-धारक, योद्धा (से ६,१८)। हारा चारी (पएह १, २)। २ न. असदाचार, । ४, १६३) । २ पाप-कर्म (ठा ४, ४)। ३ देखो धारा (उव)। अब्रह्मचर्य । मंत वि [वत् ] १ अब्रह्मचारी वि. खराब, असुन्दर (जीव १; कुमा)। असिइ (अप) देखो असीइ (सण)। (मोघ ७७७)। २ असंयत (सून १, ७)। । णाम न [नामन] अशुभ फल देनेवाला असिण न [अशन] भोजन, खाना; 'अग्ग- असु पुं. ब. [असु] १ प्राण (स ३८३)। कर्म-विशेष (सम ६७)। पिंडं परिदृविजमाणं पेहाए, पुरा असिणा इना २ न. चित्त । ३ ताप (प्रातः वृष ५१)। असुह न [असुख दुःख (ठा ३, ३)। प्रवहारा इवा (पाचा २, १, ५, १)। असु देखो अंसु (प्राप्र)। असूअ सक[असूय् ] असूया करना । असूअसित्थ न [असिक्थ आटा लगे हुए हाथ असुइ वि [अशुचि १ अपवित्र, अस्वच्छ, एहि (मै ७)। या बर्तन का कपड़े से छना हुआ धोवन | मलिन (प्रौपः वव ३)। २ न. अमेध्य, विष्ठा | असूया स्त्री [असूचा] १ सूचना का प्रभाव। (पडि)। (ठा ; प्रासू १६६)। २ दूसरे के दोषों को न कह कर अपना ही असिद्ध वि [असिद्ध] १ अनिष्पन्न । २ तर्क- असुइ वि [अश्रुति] शास्त्रश्रवण-रहित (भग | दोष कहना (निचू १०)। शास्त्र प्रसिद्ध दुष्ट हेतु (विसे २८२४)। असूया स्त्री [असूया] असूया, असहिष्णुता असिय वि [अशित] भुक्त, खादित (पामः | असुईकय वि [अशुचीकृत अपवित्र किया । (दस)। सुपा २१२)। हुआ (उप ७२८ टी)। | असूरिय वि [असूर्य] १ सूर्यरहित, अन्धअसिय वि [असित] १ कृष्ण, श्वेतरहित | असुग पुं[असुक] देखो असु = असु (हे १, कारमय स्थान । २ पुं. नरक-स्थान (सूम १, (पान)। २ अशुभ (विसे)। ३ प्रबद्ध, प्र. १७७)। यन्त्रित (सूत्र १, २, १); 'सिया एगे अणु- | असुज्झत वि [अदृश्यमान नहीं दिखाता असेव्व देखो असिव (प्राप्र)। गच्छंति, असिया एगे अणुगच्छति' (प्राचा)। हुआ, 'अन्नपि जं असुज्झतं । भुंजतएण क्ख पुं [क्ष यक्ष-विशेष (सण)। रत्ति' (पउम १०३, २५)। (गउड)। असिय न [दे] दात्र, दाँती (दे १, १४)। असुणि वि [अश्रोत न सुननेवाला, 'अलि असेस वि [अशेष] निःशेष, सर्व (प्राप)। असियव्व देखो अस = अश् । यपयंपिरि अणिमित्तकोवणे असुरिण सुणसु मह वयणं' (वजा ७२)। | असो)[अशोक] १ देव-विशेष (राय असिलेसा स्त्री [अश्लेषा] नक्षत्र-विशेष असोग ८१)। २ पुंन. एक देवविमान असुद्ध वि [अशुद्ध] १ अस्वच्छ, मलिन । (सम ११)। २ न. मैला, अशुचि । विसोय पुं[विशो (देवेन्द्र १४२) । ३ शक्र आदि इन्द्रों का एक असिलोग पुं [अश्लोक] प्रकीति, अजस प्राभाव्य विमान (देवेन्द्र २६३)। वडिंसय धक] भंगी, मेहतर (सुर १६, १६५)। (सम १२)। पुंन [वतंसक सौधर्म देवलोक का एक असुभ देखो असुह = अशुभ (सम ६७ भग)। असिव न [अशिव १ विनाश । २ असुख । विमान (राय ५६)। असुय वि [अश्रुत न सुना हुआ (ठा ४, ३ देवतादि कृत उपद्रव (प्रोध ७)। ४ मारी ४)। णिस्सिय न [निश्रित शास्त्र-श्रवण असोग पुं [अशोक १ सुप्रसिद्ध वृक्ष-विशेष रोग (वव ४)। के बिना ही होनेवाली बुद्धि-ज्ञान (रादि)। (प्रौप)। २ महाग्रह-विशेष (ठा २, ३)। असिविण पुं [अस्वप्न ] देव, देवता | पुव्व वि [पूर्व] पहले कभी नहीं सुना हरा रंग (राय)। ४ भगवान् मल्लिनाथ का (प्रामा)। हुपा ( महा; गाया १,१; पउम ६५,१४)। चैत्य-वृक्ष (सम १५२) । ५ देव-विशेष (जीव असिव्व देखो असिव (वव ७ प्राप्र)। ३)। ६ न. तीर्थ-विशेष (ती १०)। ७ असुय वि [असुत] पुत्ररहित (उत्त २)। असिसुई स्त्री [अशिश्वी] शिशुरहित स्त्री यक्ष-विशेष (विपा १, ३)। ८ वि. शोक(प्राकृ २८)। असुर ' [असुर] १ दैत्य, दानव (पान)। रहित । चंद पुं[चन्द्र] १ राजा श्रेणिक २ देवजाति-विशेष, भवनपति और व्यन्तर असिह वि [अशिख] शिखारहित (वव ४)। का पुत्र, राजा कोणिक (आवम)। २ एक देवों की जाति (पएह १, ४)। ३ दास-स्था- प्रसिद्ध जैनाचार्य (साधं ७७)। ललिय पुं असीइ स्त्री [अशीति संख्या-विशेष, अस्सी, नीय देव (आउ ३६)। कुमार पुं [कुमार] [°ललित] चतुर्थ बलदेव का पूर्व-जन्मीय ८० (सम ८८)। म वि [तम अस्सीवाँ, भवनपति देवों की एक अवान्तर जाति (ठा नाम (सम १५३) । वण न [°वन] अशोक ८० वाँ (पउम ८०, ७४)। १, १; महा)। राय पुं [राज] असुरों वृक्षों वाला वन (भग)। वणिया स्त्री असीइग वि [अशीतिक] अस्सी वर्ष की का इन्द्र (पि ४००)। वंदि [बन्दिन] [वनिका ] अशोक वृक्ष वाला बगीचा उम्र वाला (तंदु १७)। राक्षस (से ६५०)। (णाया १, १६)। सिरि [श्री] इस असीम वि [असीमन्] निस्सीम, 'असीमंत- असुरिंद ' [असुरेन्द्र] असुरों का राजा, - नाम का एक प्रख्यात राजा, सम्राट अशोक भत्तिराएण (उप ७२८ टो)। इन्द्र-विशेष (णाया १, ८; सुपा ७७)। (विसे ८६२)। For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असोगा - अस्सोकंता असोगा श्री [अशोका] १ इस नाम की एक इन्द्राणी (ठा ४, १) । २ भगवान् श्री शीतलनाथ की शासनदेवी ( पव २७) । ३ एक नगरी का नाम ( पउम २०, १८६ ) । असोभण वि [अशोभन] असुन्दर, खराब (जम २२, १९) । असोय देखो असोग (भगः महा रंभा ) । असोय [ अश्वयुक् ] प्राश्विन मास (सम २९) । असोय वि [अशीच] १ शोषरहित (महा)। २ न. शौच का प्रभाव, प्रशुचिता । 'वाइ वि [["बादिम् ] मशीन को ही माननेवाला (२१८) । असोयणवा श्री [अशोचनता] शोक प प्रभाव (पक्खि ) । असोया देखो असोगा (हा २, ३ संधि ह) । असोहिय वि [अपक] कथा (बा) । [असोहि श्री [अशोधि] [१] शुद्धि २ बिरा (७८८) । [स्थान] १ पाप कर्म । २ अशुद्धि स्थान । ३ दुर्जन का संसगं । ४ श्रनायतन (बोध ७६३) । अस्सन [आस्य ] मुख, मुँह (गा ९८६) । अस्स [अस्व] १ द्रव्यरहित, निर्धन । २ २ निर्ग्रन्थ, साधु, मुनि (प्राचा) । कण्ण [अश्व] १ घोड़ा (उप ७६८ टी) । २ अश्विनी नक्षत्र का अधिष्ठायक देव (ठा २, ३) । ३ ऋषि-विशेष (जं ७) । [कर्ण] एक २ द्वीप का निवासी (दि) । कण्णी श्री [कर्णी ] वनस्पति-विशेष (१) । करण न करण] जहाँ घोड़ा रखने में प्राता हो वह स्थान, अस्तबल (घाचा २, १०,१४)। गी[श्रीव] पहले प्रति वासुदेव का नाम (सम १५३) । 'तर पुंस्त्री [तर] खच्चड़ ( पण १) | मुंह पुं [मुख] १-२ इस नाम का एक अन्तद्वीप और उसके निवासी ( ंदि; पण्ण १)। 'मेह पुं [°मेघ] यज्ञ - विशेष, जिसमें अश्व मारा जाता है (अणु) । सेपुं [°सेन] १ एक प्रसिद्ध राजा, भगवान् पाश्र्वनाथ का पिता ( पव ११) । २ एक महाग्रह का नाम ( चन्द २० ) । पाइअसद्दमहणव [र] विद्याधर वंश के एक राजा का नाम (पउम ५, ४२ ) । अस्सन [अस] १ अश्रु, आँसू । २ रुधिर, (२९) । अस्संख वि [असंख्य ] संख्या - रहित (उप १७) । अस्संगिन वि[दे] मास (षद्) । अस्संघयणि वि [असंहननिन् ] रहित, किसी प्रकार के शारीरिक रहित (भग)। अस्संजम देखो असंजम ( उ ) । असंजय वि [अस्वपत] १ दुरु की मातानुसार चलनेवाला था ३१)। अस्संजय देखो असंजय (उन) । अस्संदम [अश्धन्दम] मध-पालक (सुपा ६४५)। संहनन बन्ध से अस्सश्च देखो असच 'सुरिरणो हवउ वयणमस्सच्च' (उप १४६ टी) । अस्सण्णि देखी अस ि(जिये ११६) । अस्सत्थ ; [अश्वत्थ] वृक्ष-विशेष, पीप (नाट) 1 अस्सत्य वि [अस्वस्थ] रोगी बीमार ( सुर ३, १५१; माल ६५ ) । अस्सन्नि देखो असणि (सुर १४,६६० कम्म ४, २३) । २ अस्सम [आश्रम] १ स्थान, जगह ऋषियों का स्थान (अभि ६६ : स्वप्न २५ ) । अस्समिअ वि [अश्रमित ] श्रमरहितः अन भ्यासी (भग) । अस्सवार देखो असवार ( सम्मत १४२ ) । अस्सस प्रक [ आ + श्वस् ] श्राश्वासन लेना। हे. अस्ससिदुं (शौ) ( श्रभि १२० ) । अस्साइय वि [आस्वादित] जिसका आस्वादन किया गया हो वह (दे ) । अस्साएमाग देखो अस्साय = श्रास्वादय् । अस्साद सक [ आ + सादय् ] प्राप्त करना। अस्सादेति अस्सादेस्सामो (भग १५ ) । अस्साद सक [ आ + स्वादय् ] प्रास्वादन करना । अस्सादण देखो अस्सायण (सुज १०, १६) । अस्सादिय वि [आसादित] प्राप्त किया हुधा (भग १५) | For Personal & Private Use Only ९३ अस्साय देखो अस्साद् = आ + सादय् । अस्साय देखो अस्साद = आ + स्वादय् । वकृ. अस्साएमाण (भग १२, १) । कृ. अस्सायण (११२) । अस्साय देखो असाय (कम्म २, ७ भग ) । अस्सायण पुं [ आश्वायन] १ अश्व ऋषि का संतान ( जं ७) । २ अश्विनी नक्षत्र का गोत्र (इक) । अस्सावि वि [आस्राविन्] भरता हुआ, टपकता हुआ, सच्छिद्र 'जहा प्रस्साविरिण नावं जाध दुरूह (सूत्र १, १, २) । अस्सास सक [ आ + श्वासय् ] श्राश्वासन देना, दिलासा देगा धरसामग्रदि (शी) (पि ४०) । प्रस्सासि ( उत्त २,४० पि ४६१) । अस्सासण [आश्वासन] एक महाग्रह (सुख २०) । अस्सि श्री [अ] १ कोला पर आदि का कोना (ठा ६) । २ तलवार आदि का अग्र भाग -- धार (उप पृε६) । [अस] [अश्विन] ष्ठायक देव (ठा २, २) । अस्सी [अश्विनी] इस नाम का एक नक्षत्र (सम ८ ) । नक्षत्र का अधि अस्सिव [] भाव-प्राप्त 'विरागमेगमस्सिन' (वसुः ठा ७; संथा १८ ) । अस्सु न [अ] धांसू, 'यू' (१७)। अस्सु (शी) न [अ] भि ५९६ स्वप्न ८५) । अस्सुंक वि [अशुक्ल ] जिसकी चुंगी या फीस माफ की गई हो वह ( उप ५६७ टी ) । अस्सुद (शौ) देखो असुय = अश्रुत (अभि १९३) । अस्य वि [अस्मृत] याद नहीं किया हुआ (भग) । अस्सेसा देखो असिलेसा (सम १७ विसे २४०८) । अस्सोई स्त्री [आश्वयुज ] प्राश्विन मास की पूर्णिमा ( चंद १०) | अस्सोई स्त्री [ आश्वयुजी ] श्राश्विन मास की अमावस (सुख १०, ६ टी) देखो आसोया । अस्सोकंता स्त्री [अश्वोत्क्रान्ता] संगीत-शास्त्र प्रसिद्ध मध्यम ग्राम की पांचवीं मूच्र्छना (ढा ७) । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ अस्सोत्थ देखो अस्सत्थ (पि ७४) १५२३ ३०६) । अस्सोव्व वि [अश्रोतव्य ] सुनने के प्रयोग्य (सुर १४, २) । अ अ [अ] इन अर्थों का सूचक अव्यय - १ अब, बाद ( स्वप्न ४३; दं ३१; कुमा) । २ अथवा, और 'छिजउ सीसं ग्रह होउ बंधणं चयउ सव्वा लच्छी । पवन पालणे सुपुरिसारण जं होइ तं होउ ।' ( प्रासू ३ ) । ३ मंगल (कुमा) । ४ प्रश्न । ५ समुच्चय । ६ प्रतिवचन, उत्तर (बृह १)। ७ विशेष (ठा ७) । ८ यथार्थता, वास्तविकता ( विसे १२७९ ) । पूर्वपक्ष (विसे १७८३ ) । १०-११ वाक्य की शोभा बढ़ाने के लिए और पाद-पूर्ति में भी इसका प्रयोग होता है (सूत्र १, ७ पंचा १९) । अह न [ अह ] दिवस, दिन (श्रा १४ पान ) । अ [ अधस् ] नीचे (सुर २,३८ ) । ● लोग [लोक] पाताल लोक (सुपा ४० ) । वि[स्थ] नीचे रहा हुना, निम्न-स्थित ( पउम १०२, ६५) । अ स [ अदस् ] यह, वह ( पाच ) । अह न [दे] दुःख (दे १, ६) । अह न [ अध] पाप ( पाच ) । अह्° देखो अहा (हे १,२४५; कुमा) । कम, "करा ['क्रम] क्रम के अनुसार, अनुक्रम से श्रोघ ५ भा स ६ ) । क्खाय खाय न ख्यात] निर्दोष चारित्र, परिपूर्ण संयम (ठ. ५,२; नव २६; कुमा)। क्खायसंजय ख्यात संयत ] परिपूर्ण संयम वाला २५, ७)। °च्छंद देखो अहाछंद (सं त्थवि [स्थ] ठीक-ठीक रहा हुआ, यथास्थित (ठा ५, ३) । त्थ वि [र्थ ] स्तविक (ठा ५, ३) । प्पहाण श्र प्रधान] प्रधान के हिसाब से (भग १५ ) । [ई] [ अथकिम् ] स्वीकार सूचक अव्यय - हाँ, अच्छा (नाटः प्रयौ ५ ) । अहंकार [अहंकार ] अभिमान, गर्व (सूत्र १, ६; स्वप्न ८२) । 1 पाइअसहमहण्णवो [ अहर्निश ] रात-दिन, सर्वदा अहंकार व [ अहंकारिन् ] श्रभिमानी, गविष्ट (गउड) । अहंणिस न (पिंग) | अहकम्म देखो अहे कम्म ( पिंड १३५) । अहणवि [ अन ] निर्धन, धनरहित (विसे २८१२) । अहणिस न [ अहर्निश ] रात-दिन, निरन्तर (नाट) । अहन्ता [ अधस्तात् ] नीचे (भग) । अन्न वि [अन्य] प्रशस्य, हतभाग्य ( सुर २, ३७) । अहन्निस देखो अहणिस (सुपा ४६२ ) । अहम वि[अधम ] अधम, नीच (कुमा) । अतिवि [अमन्तिन् ] अभिमानी, गर्विष्ट (ठा १० ) । अहमहमिआ स्त्री [अहमहमिका ] मैं अहमहमिगया इससे पहले हो जाऊं ऐसी अहमहमिगा चेष्टा, अत्युत्कण्ठा (गा ५८० सुपा ५४६ १३२; १४८ ) । अहमंद [ अहमिन्द्र ] १ उत्तम श्रेणीय पूर्ण स्वाधीन देवजाति विशेष, ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान के निवासी देव (इक) । २ अपने को इन्द्र समझने वाला, गविष्ट 'संपइ पुण रायाणो नरिंद ! सब्वैवि श्रहमिदा' (सुर १, १२) । अहम्म देखो अधम्म (सूत्र १, १, २ भग; नव ६ सुर २, ४४: सुपा २५८; प्रासू १३६ ) । अहम्म वि [अधर्म्य ] धर्मच्युत, धर्मरहित, गैरव्याजबी (सण) । अहम्माणि वि [ अहम्मानिन] ( आवम ) । श्रभिमानी अहम्मि वि [अधर्मिन् ] धर्मं रहित, पापी (सुपा १७२ ) । अहम्मिट्ठ देखो अधम्मिट्ठ (भग १२, २० (राय) । अहम्मय वि [ अधार्मिक ] अधर्मी, पापी ( विपा १, १ ) । अहय वि [अहत] १ अनुबद्ध, अव्यवच्छिन्न (ठा 5 पत्र ४१८ ) । २ अक्षत, अखण्डित ( सू २, २ ) । ३ जो दूसरी तरफ लिया गया हो (चंद १९ ) । ४ नया, नूतन ( भग ८, ६) । For Personal & Private Use Only अस्सोत्थ - अहह अहर वि [दे] अशक्त, श्रसमर्थं (दे १, १७) । अहर पुं [अधर ] १ होठ, श्रोष्ठ (दि) । २ वि. नीचे का, नीचला ( परह १, ३ ) । ३ नीच, प्रधम ( परह १, २ ) । ४ दूसरा, अन्य (प्रामा) । ' गइ स्त्री [गति] प्रधोगति, दुर्गति, नीच गतिः 'अहर गई निति कम्माई ' (पिंड) । अहरिय वि [ अधरित ] तिरस्कृत ( सुपा ४७) । अहरी स्त्री [अधरी] पेषरण - शिला, जिस पर मसाला वगैरह पीसा जाता है वह पत्थर, सिलवट ( उवा) । लोट्ठ [लोष्ट] जिससे पीसा जाता है वह पत्थर, लोढ़ा (उवा) । अहरीकय वि [ अधरीकृत ] तिरस्कृत, श्रव गणित ( सुपा ४ ) । अहरीभूय वि [अधरीभूत] तिरस्कृत, 'उयरेण धरतीए, नररयणमिमं महप्पहं देवि ! प्रहरीभूयमसेसं, जयपि तुह रयरगगब्भाए' (सुपा ३५) । अहरु पुंन [अधरोष्ठ ] नीचे का होठ (पह १, ३; हे १; ८४ षड् ) । अहरेम देखो अहिरेम । श्रहरेमइ (हे ४, १६९)। अहरेमिअ वि [ पूरित ] पूरा किया हुआ (कुमा) । अद्दल वि [अफल ] निष्फल, निरर्थक (प्रासू १३५ रंभा । अहलंद न [ यथालन्द] पाँच रात का समय ( पव ७० ) । अहलंदि देखो अहालंदि (पव ७० ) । अहव देखो अहवा (हे १, ६७) । अवइ (प) देखो अहवा (कुमा) । अवण ) [ अथवा ] १ वाक्यालंकार में अहवा । प्रयुक्त किया जाता अव्यय (प्र) सूत्र २, २) २ या, अथवा (बृह १; निघू १ पंचा ३ हे १, ६७ ) । अव्व देखो अभव्व (गा ३६० ) । अहव्वग (श्रप) । अहव्वा स्त्री [दे] श्रसती, कुलटा स्त्री (दे १, १८) । | [ अथर्बन् ] चौथा वेद-शास्त्र 1 अहह श्र [ अह ] इन अर्थों का सूचक Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहा- अहिक्खिय श्रव्यय -१ ग्रामन्त्रण । २ खेद । ३ श्राश्रयं । ४ दुःख । ५ आधिक्य, प्रकर्ष (हे २, २१७ श्रा १४० कप्पू गा ६५६ ) । अहा [यथा ] जैसे, माफिक, अनुसार (हे १, २४५) । छन्द वि [च्छन्द ] १ स्वच्छ (८२२ टन. मरजी के अनुसार (बब २ ) । 'जाय वि ['जात] १ नम, प्रावरण-रहित (हे १, १४५ ) । २ न. जन्म के अनुसार ३ जैन साधुत्रों में दीक्षा काल के परिमाण के अनुसार किया जाता वन्दन- - नमस्कार ( धर्मं २ ) । णुपुत्री स्त्री [[[[नुपूर्वी ] यथाक्रम, धनुक्रम (छाया २ १ १८) । तच न ['तत्त्र] तत्व के बनार (भाग २१) देश ["तच्य] सत्य- पत्य (सम १६ ) । पंडिरूत्र वि 'प्रतिरूप] उचित योग्य (२ वि यथायोग्य (विपा १, १ ) । पवत्त वि [[प्रवृत्त] पूर्व की तरह ही प्रवृत्त भरि अतित (गाया १, ५) । २ न. आत्मा का राम विशेष (स ४०) पतिकरण [प्रवृत्तिकरण] श्रात्मा का परिणामविशेष (कम्म १) बायर व [बादर] निगार सार-रहित (खाया १, १) भूय [भूत ] तात्त्विक वास्तविक (ठा १, १ ) । राइजिय, रायणिय न [रात्निक ] यथाज्येष्ट, बड़े के क्रम से (गाया १ १ आचा) । 'रियन [ऋजु] सरलता के अनुसार | (आना) 'रिह न[] यथोचित (ठा २, १) । २ वि. उचित, योग्य (धर्मं १) । रीय न] [रीत] १ रीति के अनुसार । २ स्वभाव के माफिक (भग ५, २) छंद ]["छन्द] काल का एक परिमाण, पानी से भींजा हुआ , 1 साथ जितने समय में सूख जाय उतना समय कप्प) । बगास न [वकाश ] अवकाश अनुसार (२, ३) व [] पुत्र- स्थानीय (भग ३, ७)। संथड वि [°संस्तृत] शयन के योग्य (प्राचा)। संविभाग ['संविभाग ] साधु को दान देना (उवा) । सच्चन [ "सत्य] वास्तविकता, सचाई (प्राचा) । सत्ति न [शक्ति ] शक्ति के अनुसार (पं४) सुत्तन ["सूत्र] गम के अनुसार (सम ७७)। सुह न पाइजसरमहणयो ["सुख] दानुसार (गाया ११ भग "हुम [सूक्ष्म] वारभूत (भाग १) । देखो अह । अहाद [वधान्द] ज्ञात (साल), 'म इच्छानुसार (समय) ( आचा २, ७, १, २ ) । अहालदि [पवालन्दिन] ष्ठान करने वाला मुनि ( पव ७० ) । अहासंखड वि [] निष्कम्प, निश्चल (निचू २) । अहासल वि[अहास्य] हास्य-रहित (गुपा ६१०)। अहाह अ [अहाह] देखो अहह (हे २, २१७) । अहि देखो अभि (गउड पाय पंच ४) । अहि श्र [ अधि] इन अर्थों का सूचक अव्यय - १ माधिस्य विशेषता 'महिगंध, महिमास' २ अधिकार सत्ता 'गिव ऐचर्य 'महिद्वारा' ४ ऊंचा, ऊपर 'महिंड्डा' अहिं पुं [अहि] १ सर्प, साँप (पराण १: प्रासू १९ ३९६ १०५) । २ शेष नाग (पिंग ) । "च्छता श्री [] नगरी विशेष (खाया १, १६३ ती ७) । मड पुंन [मृतक ] प का मुर्दा (गाया १, ६) । ॰वइ पुं [पति] शेषनाग (सन् ६०) विि ["वृक्षिक] सर्प के मूत्र से उत्पन्न होने वाली वृश्चिक जाति (कुमा) | अहिअल न [दे] क्रोध, गुस्सा (दे १. ३६० षड् ) । अहिआअ न [ अभिजात ] कुलीनता, खानदानी (गा ३८ ) । अहिआई श्री [अभिजाति] कुलीनता (षद्) । अदिओर [दे] लोक-या पुं (दे १, २१) । ! [] या चित अहिउत्त वि [अभियुक्त ] १ विद्वान्, पण्डित । उपयोगी (पा) ३ शत्रु से घिरा हुमा (वेणी १२३ टि) । अहिऊर सक [अभि + पूरयू ] पूर्ण करना, व्याप्त करना । कर्म. अहिऊरिजंति (गउड) । अहिऊल सक [द] जलाना, दहना ९५ करना । ग्रहिकलह (हं ४, २०८) पड् : कुमा) । For Personal & Private Use Only अहिओ पुं [अभियोग ] १ संबन्ध (गउड) | २ दोषारोपण (२२६) । देखो अभिओअ (भवि) । अहिंद [अहीन्द्र] का राजा शेषनाग (अच्तु १) । २ श्रेष्ठ सर्प (कुमा) । रन [र] वासुकि नगर । वरणाह पुं [ पुरनाथ ] विष्णु, प्रच्युत (अच्चु २६ ) । अहिंसा र [अहिंसक ] हिंसा न करने वाला ( श्रध ७४७ ) । अहिंसण न [अहिंसन] अहिंसा ( धर्म 2 ) | अहिंसय देखी अहिंसा (२१) अहिंसा श्री [असा] दूसरे को किसी प्रकार से दुःख न देना ( निचू २० धर्मं ३ सूत्र १, ११) । अहिंसि [हिंसित] प्रमारित, अ ड़ित ( सू १, १, ४) । अहिकख देखो अभिकख वकृ. अहिकखंन ( पंचव ४) । अहिकंखिर वि [अभिकांक्षिन] अभिलापी, इच्छुक (सर)। अहिकखि देखो अहिकंखिर (सुन १, १२, २२) । अहिक वि[अधिकृत ] जिसका अधिकार चलता हो वह, प्रस्तुत (विसे १५८ ) । अहिकरणी देखो अहिंगरणी (ठा ८) । अहिकरण देखी अहिगरण ( निघू ४) । अधिकार देखो अहिगार (१४, १७) अधिकारि देखी अहिगारि (रंबा) । अद्दिकिय म [अधिकृत्य] अधिकार कर उद्देश्य कर (१) । जीवन-विन [हे] उभा (२, उपालंभ, उलहना (दे ३५) । अवि [अधिक्षिप्त ] १ तिरस्कृत । २ निन्दित । ३ स्थापित । ४ परित्यक्त । ५ क्षिप्त (नाट ) ! अविव सक [ अधि + क्षिप् तिरस्कार करना । २ फेंकना । ३ निन्दना । ४. स्थापित करना । ५ छोड़ देना । श्रहिक्खिas (उ) । हिक्खिवाहि ( स ३२६ ) । वकृ. अहिक्खिवंत (पउम ६५, ४४) । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ पाइअसद्दमण्णवो अहिक्खेव-अहिट्ठा अहिक्खेव पुं [अधिक्षेप] १ तिरस्कार । अहिगरण पुन [अधिकरण] १ युद्ध, लड़ाई | अहिजाण सक [अभि + ज्ञापहिचानना। २ स्थापन । ३ प्रेरणा (नाट)। (उप पृ २६८)। २ असंयम, पाप-कर्म से भवि. अहिजाणिस्सदि (शौ) (पि ५३४) । अहिखिव देखो अहिक्खिव वकृ. अहिखिवंत अनिवृत्ति (उप ८७२) । ३ प्रात्म-भिन्न बाह्य अहिजाय वि [अभिघात] कुलीन (भग ६, (स ५७)। वस्तु (ठा २, १)। ४ पाप जनक क्रिया ३३)। अहिग देखो अहिय% अधिक (विसे १९४३ (णाया १, ५)। ५ प्राधार (विसे ८४)। अहिझुंज देखो अभिमुंज। संकृ.अहि जुंजिय टी)। ६ भेट, उपहार (बृह १)। ७ कलह, विवाद अहिखीर सक [दे] १ पकड़ना। २ प्राधात (बृह १)। ८ हिंसा का उपकरण, 'मोहंघेण | अहिजुत्त देखो अभिजुत्त (प्रबो ८४)। करना । अहिखीरइ (भवि)। य रइयं हलउक्खलमुसलपमुहमहिगरणं' (विवे | अहिज सक [अधि+इ] पढ़ना, अभ्यास अहिगंध वि [अधिगन्ध] अधिक गन्ध वाला ११)। कड़, कर वि [°कर] कलहकारक | करना । अहिजइ (अंत २) । वकृ. अहिजंत, (गउड)। (सूत्र १, २, २, प्राचा)। "किरिया स्त्री अहिज्जमाण (उप १६६ टी; उवा)। संकृ. अहिगम सक [अधि+गम्] १ जानना । [क्रिया] पाप-जनक कृति, दुर्गति में ले | अहिन्जित्ता, अहित्ता (उत्त १; सूत्र १,१२) २ निर्णय करना । ३ प्राप्त करना। कृ. जानेवाली क्रिया (परह १, २)। "सिद्धत | हेकृ. अहिन्जिङ (दस ४)। अहिगम्म (सम्म १६७)। j["सिद्धान्त आनुषंगिक सिद्धि करनेवाला | अहिज्ज वि [अधिज्य] धनुष की डोरी पर अहिगम सक [अभि + गम् ] १ सामने सिद्धान्त (सूम १, १२)। चड़ाया हुआ (बाण) (दे ७, ६२)। जाना २ आदर करना। कृ. अहिगम्म अहिगरणी स्त्री [अधिकरणी] लोहार का अहिज वि[अभिज्ञ] जानकार, निपुरण (सरण)। एक उपकरण (भग १६, १)। खोडि स्त्री अहिजग (पि २६६, प्रारू; दस)। अहिंगम [अधिगम] १ ज्ञान (विसे | [खोटि] जिसपर अधिकरणी रखी जाती | अहिजण न [अध्ययन] पठन, अभ्यास (विसे ७ टी)। ६०८)। है वह काष्ठ (भग १६, १)। 'जीवाईणमहिगमो मिच्छत्तस्स खोवसमभावे' | अहिगरणिया । स्त्री [आधिकरणिकी] देखो अहिजाण (शौ) देखोअहिण्णाण (प्राकृ८७)। (धर्म २)। २ उपलम्भ, प्राप्ति (दे ७.१४)। अगिरणीया अहिंगरण-किरिया | अहिज्जाविय वि [अध्यापित] पाठित, पढ़ाया (सम ३ गुरु प्रादि का उपदेश (विसे २६७५)। । हुआ (उप पृ ३३)। १० ठा २, १; नव १७)। ४ सेघा, भक्ति (सम ५१) । ५ न. गुरु आदि | अहिंगरी [दे] अजगरिन, स्त्री अजगर (जीब अहिन्जिय वि [अधीत] पठित, अभ्यस्त (सुर के उपदेश से होनेवाली सद्धर्म-प्राप्ति-सम्य ८, १२१, उप ५३० टी)। क्व (सुपा ६४८) । रुइ स्त्री [रुचि] १ अहिंगार पुं [अधिकार] १ वैभव, संपत्तिः ।। अहिझिय वि [अभिध्यित] लोभ-रहित, सम्यक्त्व का एक भेद । २ सम्यक्त्व वाला "नियअहिगारणुरूवं जम्मरणमहिमं विहिस्सामो' | अलुब्ध (भग ६,३)। अहिट सक [अधि + ष्टा] करना । अहिट्ठए (पव १४५)। (सुपा ४१)। २ हक, सत्ता (सुपा ३५०)। अहिंगम देखो अभिगम (औप; से ८, ३३; ३ प्रस्ताव, प्रसंग (विसे ४८७)। ४ ग्रन्थ (दस ६,४,२)। अहिट्ठग वि [अधिष्ठक] अधिष्ठाता, विधायक, गउड)। विभाग (वसु)। ५ योग्यता, पात्रता (प्रासू अहिगमण न [अधिगमन] १ ज्ञान । २ कारक; १३५)। निर्णय । ३ प्राप्ति, उपलम्भ (विसे)। 'नासंदीपलिकेसु, न निसिजा न पीढए। अहिगारि रवि [अधिकारिन्] १ अमलअहिगमय वि [अधिगमक] जनानेवाला, अहिंगारिय दार, राज-नियुक्त सत्ताधीश निग्गंथापडिलेहाए, बुद्धवुत्तमहिट्ठगा' (दस ६,५५) । बतलानेवाला (विसे ५०३)। 'ता तप्पुराहिगारी समागमो तत्थ तम्मि खणे अहिटण देखो अहिट्ठाण (पंचा ७, ३३) । अहिंगमिय वि [अधिगत १ ज्ञात । २ (सुपा ३५०; श्रा २७)। २ पात्र, योग्य (प्रासू अहिट्ठा सक [अधि+स्था] १ ऊपर चलना। निश्चित (सुर १, १८१)। १३५; सण)। २ आश्रय लेना। ३ रहना, निवास करना । अहिगम्म देखो अहिगम = अधि + गम् ।। अहिगिश्च म [अधिकृत्य] अधिकार करके ४ शासन करना । ५ करना। ६ हराना । ७ अहिगम्म देखो अहिगम = अभि + गम् । (उवर ३६ ६८)। आक्रमण करना। ८ ऊपर चड़ बैठना । ६ अहिगय वि [अधिकृत] १ प्रस्तुत (रयण अहिघाय पुं[अभिघात] प्रास्फालन, आघात | वश करना । अहिट्ठइ (निचू ५); 'ता अहि३६) । २ न. प्रस्ताव, प्रसंग (राज)। (गउड)। 8 हि इमं रज्ज' (स २०४)। अहिट्ठजा (पि अहिगय वि [अधिगत] १ उपलब्ध, प्राप्त अहिछत्ता स्त्री [अहिच्छत्रा] नगरी-विशेष, २५२, ४६६)। वकृ. अहिटुंत (निचू ५)। (उत्त १०)।२ ज्ञात (दे ६, १४८)। ३ कुरुजंगल देश की प्राचीन राजधानी (सिरि कवकृ. अहिट्ठिजमाण (ठा ४, १)। संकृ. पुं. गीतार्थ मुनि, शास्त्राभिज्ञ साधु (वव १)। ७८)। अहिटे इत्ता (निचू १२)। हेक. आहटित्तए अहिगर ' [दे] अजगर (जीव १)। । अहिजाइ स्त्री [अभिजाति] कुलीनता (प्राप्र)। (वृह ३)। For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिट्ठाण - अह अहिट्ठाण न [ अधिष्ठान] १ बैठना (निचू ५) । २ श्राश्रयण (सूत्र १, २, ३ ) । ३ मालिक बनना ( श्राचा) । ४ स्थान, आश्रय ( स ४९६) । अहिट्ठायग वि [अधिष्ठायक] अध्यक्ष, अधिपति ( कुप्र २१९ ) । अट्ठावण न [ अधिष्ठापन ] ऊपर रखना (निचू ५) । अहिट्ठिय वि [अधिष्ठित] १ श्रध्यासित ( गाया १, १४) । २ अधीन किया हुआ (गाया १, १४) । ३ माक्रान्त, श्राचिष्ट (ठा ५, २) । अहिठाण न [अधिष्ठान] अपान- प्रदेश ( पव १३५)। हिड वि [दे. अभिद्रुत] पीड़ित, 'अहिडयं पीडिनं परद्धं च' (पा) । अहिणंद देखो अभिनंद । वकृ. अहिणंदमाण (पउम ११, १२०) कवल. अहिणंदिज्जमाण, अहिणंदीअमाण (नाट पि _५६३) । अहिणंदण देखो अभिणंदण (पउम २०,३०, भवि) । अहिणंदि वि [अभिनन्दिन् ] श्रानन्द मानने वाला ( स ६७७)। अहिणंदिय देखो अभिनंदिय (पउम ८, १२३ स १४) । अणय देखो अभिय (कप्पू ; सरण) । [अभिनव] १ सेतुबन्ध काव्य का कर्ता राजा प्रवरसेन (से १, ६) । २ वि. नूतन, नया (गाया १, १, सुपा ३३० ) । अहिणवेमाण देखो अहिणी । अणिवेमा देखो अहिणु । अहिणाण देखो अण्णाण (भवि ) । अबोह [अभिनिबोध ] ज्ञान-विशेष, मतिज्ञान ( पण २९ ) । वि[ अभिनि + वस् ] वसना, रहना । वकृ. अहिणिवसमाण (मुद्रा २३१) । अणिवि वि [अभिनिविष्ट ] श्राग्रह-ग्रस्त ( स २७३) । अहिणिवेस पुं [अभिनिवेश] आग्रह, हठ ( स ६२३: अभि ५) । अहिणिवेसि वि [अभिनिवेशिन् ] श्राग्रही (पि ४०५) । १३ पाइअसहमहण्णवो अहिणी स्त्री [ अह ] नागिन ( वजा ११४ ) । अहिणी देखो अभिणी वकृ. अहिणवेमाण (सुर ३, १५० ) । ६७ देखना । २ समान रूप से देखना । अहिपासए (सूम १, २, ३, १२) । अहिप्पाय देखो अभिप्पाय (महाः कप्पू ) । अहिणील वि [ अभिनील] हरा, हरा रंग अहिप्पेय देखो अभिप्पेय (उप १०३१ टी वाला (गउड) । अंहिणु सक [अभि + नु] स्तुति करना, प्रशंसना। वकृ.अहिणवेमाण (सुर ३,७७) । अहिण्ण वि [अभिन्न ] भेदरहित, अपृथग्भूत (गा २६५: ३८० ) । अहिण्णाण न [ अभिज्ञान] चिह्न, निशानी ( श्रभि १३) । अहिष्णु वि ५६) । [अभिज्ञ] निपुण, ज्ञाता (हे १, अहितत्त वि [ अभितप्त] तापित, संताप (उत २ ) । अहित्ता देखो अहिज्ज = अधि + इ । अहिदायग वि [अभिदायक ] देने वाला, दाता (सुपा ५४ ) । अहिदेवया स्त्री [अधिदेवता] अधिष्ठाता देव (सुपा ६०: कप्पू ) । अहिद्दब सक [अभि + द्रु] हैरान करना । श्रद्दिवंति ( स ३९३ ) । भवि. अहि विस्सइ (३६) । [अभिद्रुत] हैरान किया हुआ (५१४) । अहिधाव सक [ अभि + धावू ] दौड़ना, सामने दौड़ कर जाना। वकृ. अहिधावंत ( से १३, २९ ) । अह्निनाण } देखो अद्दिष्णाण (श्रा १६६ सुपा अहिना ) २५०) । अहिनिवेस देखो अहिणिवेस ( स १२५ ) । अहिपअ स [ ग्रह ] ग्रहण करना । श्रहिपचुइ (हे ४, २०६३ षड् ) । अहिपच्चुअंति (कुमा) । अहिपच्चुअ सक [आ + गम् ] श्राना। श्रहिपशु (हे ४, १६३) । अहिपच्चुइअ वि [आगत ] श्रायात (कुमा) । अहिपच्चुइअ न [दे] अनुगमन, अनुसरण (दे १, ४९ ) । अहिप क [ अभि + पत्] सामने श्राना हिपति (पव १०६) । अहिपास सक [ अधि + दृश] १ अधिक For Personal & Private Use Only ३४) । अहिभव देखो अभिभव (गउड) । अहिमंजु वृं [अभिमन्यु ] अर्जुन के एक पुत्र का नाम (कुमा) । अहिमंतण वि [अभिमन्त्रण ] मन्त्रित करना, मन्त्र से संस्कारना (भवि ) । अहिमंतिअ वि [अभिमन्त्रित] मन्त्र से संस्कृत (महा) । अहिमज्जु अहिम (देखो अहिमंजु ( कुमा; षड् ) । अहिमय वि [ अभिमत ] संमत, इष्ट (स २०० ) । अहिमयर वुं [अहिमकर ] सूर्य, रवि (पान) । अमिर पुं [अभिमर] घनादि के लोभ से दूसरे को मारने का साहस करने वाला (सुर १, ६८ ) । २ गजादिघातक ( विसे १७६४) । अहिमाण पुं [ अभिमान ] गर्व, अहंकार (प्रासू १७ सरण) । अहिमाणि वि [ अभिमानिन् ] श्रभिमानी, गर्विष्ठ (४३१) । अहिमार पुं [अभिमार ] वृक्ष - विशेष, 'एगँ महिमारदारुभं श्रग्गी' (उत्तनि ३) । अहिमास पुं [ अधिमास, क] अधिक अदमास मास (भाव १; निचू २० ) । अहिमुह वि [अभिमुख] संमुख, सामने रहा हुआ (से १, ४४: पउम ८, १९७९ गउड) । अहमुहूअ ) वि [अभिमुखीभूत] सामने अहिमुहीहूअ ) आया हुआ (पउम १२, १०५ ४५, ६) । अहिय वि [अधिक] १ ज्यादा, विशेष (श्रौप जी २७ स्वप्न ४० ) । २ क्रिवि. बहुत, अत्यन्त (महा) । अहिय वि [अहित] ग्रहितकर, शत्रु, दुश्मन (महा; सुपा ) । अहिय वि [अधीत ] पठित, श्रभ्यस्त; 'अहियम्रो पड़िवजय एगल्लविहारपडिमं सौ (सुर ४, १५४) । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ पाइअसहमहण्णवो अहिया-अहिवढिय अहिया स्त्री [अधिका] भगवान् श्रीनमिनाथ अहिरिअ देखो अहिरीअ (पिंड ६३१)। अहिलाव पुं[अभिलाप] शब्द, आवाज (ठा की प्रथम शिष्या (सम १५२) । अहिरीअ वि [अह्रीक निर्लज, बेशरम (हे २, २, ३)। अहियाइ देखो अहिजाब (षड्)। १०४)। | अहिलास पुं [अभिलाष] इच्छा, वाञ्छा, अहियाय देखो अहिजाय (पान)। अहिरीअ वि [दे] निस्तेज, फीका (दे १, | चाह (गउड)। अहियार पुंअभिचार शत्रु के वध के लिए | २७)। अहिलासि वि [अभिलाषिन्] चाहनेवाला किया जाता मन्त्रादि-प्रयोग (गउड)। अहिरीमाण वि[दे. अहारिन्, अहीमनस्] (नाट)। अहियार देखो अहिगार (स ५४३; पाः | १ अमनोहर, मन को प्रतिकूल । २ अलजा- | अहिलिअ न [दे] १ पराभव। २ क्रोध, गुस्सा मुद्रा २६६ सट्ठि ७ टी भविः दे ७, ३२)। कारक, 'एगयरे अन्नयरे अभिन्नाय तितिक्ख- (दे १, ५७)। अहियारि देखो अहिगारि (दे ६, १०८)। माणे परिब्बए, जे य हिरी, जे य अहिरीमाणा' अहिलिह सक [अभि + लिख] १ चिन्ता अहियास सक [अधि + आस् , अधि+ (आचा १, ६, २)। करना। २ लिखना । अहिलिहंति (मुद्रा सह ] सहन करना, कष्टों को शान्ति से | अहिरूव वि [अभिरूप] १ सुन्दर, मनोहर १०८)। संकृ, अहिलिहिअ (वेणी २५)। झेलना । अहियासइ, अहियासए, अहियासेइ | (अभि २११)। २ अनुरूप, योग्य (विक्र ३८)। | अहिलोयण न [अभिलोकन] ऊँचा स्थान (उव; महा)। कर्म. अहियासिज्जंति (भग)। | अहिरेम सक [] पूरा करना, पूर्ति करना। (पराह २, ४)। वकृ. अहियासेमाण (प्राचा)। संकृ. अहि- | अहिरेमइ (हे ४, १६६)। अहिलोल वि [अभिलोल] चपल, चञ्चल यासित्ता, अहियासेत्तु (सूप १, ३, ४, अहिरोइअ वि [दे] पूर्ण ( षड्) । (गउड)। प्राचा) हेकृ. अहियासित्तए (प्राचा)। कृ. | अहिरोहण न [अधिरोहण] ऊपर चढ़ना, अहिलोहिआ स्त्री [अभिलोभिका] लोलुपता, अहियासियव्व (उप ५४३)। आरोहण (मा ४०)। तृष्णा (से ३,४७)। अहियास वि [अध्यास, अधिसह] सहिष्णु | अहिरोहि वि [अधिरोहिन] ऊपर चढ़ने अहिल्ल वि [दे] धनवान्, धनी (दे १, १०)। (बृह १)। वाला (अभि १७०)। अहिल्लिया स्त्री [अहिल्या] एक सती स्त्री अहियासण न [अध्यासन अधिसहन] अहिरोहिणी स्त्री [अधिरोहिणी] निःश्रेणी, | (पराह १, ४)। सहन करना (उप ५३६; स १६२)। सीढ़ी (दे ८, २६)। अहिव [अधिप] १ ऊपरी, मुखिया (उप अहियासण न [अधिकाशन] अधिक भोजन, अहिल वि [अखिल] सकल, सब (गउडा । ७२८ टी)। २ मालिक, स्वामी (गउड)। अजीणं (ठा है)। रंभा)। ३ राजा, भुपः 'दुट्ठाहिवा दंडपरा हवंति' अहियासिय वि [अध्यासित, अधिषोढ] अहिलंख , सक [कास चाहना, अभि- (गोय ८)। अहिलंघलाष करना । अहिलंखइ, अहि- | अहिवइ वि [अधिपति] ऊपर देखो (गाया सहन किया हुअा (प्राचा)। अहिलक्ख लंघइ (हे ४, १६२); 'अहिल- १,८ गउड; सुर ६, ६२)। अहिर पुं [आभीर] अहीर, गोवाला (गा खंति मुअंति अरइवावारं विलासिणीहिअ- अहिवंजु देखो अहिमंजु (षड् )। ८११)। आई' (से १०, ५७)। अहिवंदिय वि [अभिवन्दित] नमस्कृत (स अहिरम देखो अभिरम । वकृ. अहिरमत अहिलक्ख वि [अभिलक्ष्य] अनुमान से | ६४१)। (समु १५४)। जानने योग्य (गउड)। अहिरम अक [अभि + रम् ] क्रीड़ा करना, अहिवज्जु देखो अहिमंजु (षड् )। संभोग करना । अहिरमदि (शौ) (नाट)। हेकृ. अहिलय सक [ अभि + लप्] संभाषण | अहिवड अक [अधि+ पत् ] क्षीण होना । अभिरमिदं (शौ) (नाट)। करना, कहना। कवकृ. अहिलप्पमाण (स | वकृ. 'एवं निस्सारे माणुसत्तणे जीविए अहिअहिरम्म वि [अभिरम्य] सुन्दर, मनोहर वडते' (तंदु ३३)। अहिलस सक [अभि + लष्] अभिलाष (भवि)। अहिवड सक[ अधि+पत् ] आना। वकृ. अहिराम वि [अभिराम] सुन्दर, मनोहर करना, चाहना। अहिलसइ (महा)। वकृ. अहिवडंत (राज)। (पाप)। अहिलसंत (नाट)। अहिवड्ढ देखो अभिवड्ढ अहिवड्ढामो अहिरामिण वि [अभिरामिन] आनन्द देने अहिलसिय वि [अभिलषित] वाञ्छित (सुर (कप्प)। वाला (सण)। ४, २४८)। अहिवढि स्त्री [अभिवृद्धि] उत्तर प्रोष्ठअहिराय अधिराज] १ राजा (बृह ३)। अहिलसिर वि [अभिलाषिन] अभिलाषी, | अहिवद्धि पदा नक्षत्र का अधिष्ठाता देवता २ स्वामी, पति (सण)। (सुज १०, १२; जं ७-पत्र ४६८)। अहिराय न [अधिराज्य] राज्य, प्रभुत्व अहिलाण न [अभिलान] मुख का बन्धन अहिवड्ढिय वि [अभिवर्धित] बढ़ाया हुआ (सट्ठि ७)। विशेष (गाया १, १७)। (स २४७)। ८४)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिवाणु देखो आहम । अहिवण्ण-अहुलण पाइअसहमहण्णवो 88 अहिवण्ण वि [दे] पीला और लाल रंग | अहिसरिअ वि [अभिसृत] १ प्रिय के समीप | फलमसालपरिणामावलंबि वाला (दे १, ३३)। गत । २ प्रविष्ट (आवम)। ____ अहिहरइ चूयाण' (गउड)। अहिलक्षण न जिविसहन] सहन करना अहिहर न [दे] १ देदकुल, पुराना देवमन्दिर। अहिवन्नु (ठा ६)। २ वल्मीक (दे १, ५७)। अहिवल्ली स्त्री [अहिवल्ली] नाग-वल्ली (सिरि अहिसाअ देखो अक्कम = आ + कम् । अहि- अहिहव सक [अभि + भू] पराभव करना, सापइ (प्राकृ ७३)। जीतना। अहिहवंति (स १६८) कर्म. अहिह. अहिवस सक [अधि+ वस्] निवास अहिसाम वि [अभिशाम] काला, कृष्ण | वीयंति (स ६६८)। करना, रहना। वकृ. अहिवसंत (स २०८)। वर्ण वाला (गउड)। अहिहाण न दे. अभिधान] वर्णन, प्रशंसा अहिवाइय वि [अभिवादित] अभिनन्दित | अहिसाय वि [दे] पूर्ण, पूरा (दे १, २०)।। (द १, २१)। (स ३१४)। आहसारण न [अभिसारण] १ पानयन | अहिहाण देखो अभिहाण (स १६५ गउड:अहिवायण देखो अभिवायण (भवि)। | (से १०, ६२) । २ पति के लिए संकेत स्थान सुर ३, २५; पात्र)। अहिवाल वि [अधिपाल] पालक, रक्षक | पर जाना (गउड)। अहिहू देखो अहिहव । कवकृ. अहिहूअमाण (भवि)। अहिसारिअ वि [अभिसारित पानीत (से (अभि ३७)। अहिवास पुं[अधिवास बासना, संस्कार १, १३)। अहिहूअ वि [अभिभूत पराभूत, परास्त (दे ७, ८७)। | अहिसारिआ स्त्री [अभिसारिका] नायक (द १, १५८)। अहिवासण न [अधिवासन] संस्काराधान को मिलने के लिए संकेत स्थान पर जानेवाली अही सक [अधि + इ पढ़ना। कर्म. ग्रही(पंचा ८)। स्त्री (कुमा)। यइ (विसे ३१६६)। अहिवासि वि [अधिवासिन्] निवासी | अहिसिअ न []१ अनिष्ट ग्रह की प्राशंका | अही स्त्री [अही] नागिन, सपिणी (जीव २)। (चेइय ६८७)। से खेद करना—रोना (दे १, ३०)। २ वि. अहीकरण न [अधिकरण] कलह, झगड़ा अहिवासिअ वि [अधिवासित ] सजाया | | अनिष्ट ग्रह से भयभीत (षड्)। (निचू १०)। हुया, तय्यार किया हुआ (दस ३, १ टी)। अहिसिंच देखो अभिसिंच । अहिसिंचह | अहोगा | अहीगार देखो अहिगार, 'सेसेसु अहीगारो, अहिविण्णा स्त्री [दे] कृत-सापत्न्या स्त्री, उप- (महा)। संकृ.अहिसिंचिऊण (स ११६)। उवगरणसरीरमुक्खेसु' (प्राचानि २५४)। पत्नी (द १, २५)। | अहिसिंचण न [अभिषेचन] अभिषेक (सम अहीण वि [अधीन] पायत्त, अधीन (पग्रह अहिसंका स्त्री [अभिशङ्का ] भ्रम, संदेह १२५)। २, ४)। (पउम ४२, २१)। अहिसित्त देखो अभिसित्त (महा सुर ८, | अहीण वि [अ-हीन] अन्यून, पूर्ण (विपा १, अहिसंका स्त्री [अभिशङ्का भय, डर (सूत्र ११६)। १. उवा)। १, १२, १७)। अहिसेअ देखो अभिसेअ (सुपा ३७; नाट)। | अहीय देखो अहिय = अधिक (पव १९४)। अहिसंजमण न [अभिसंयमन] नियन्त्रण अहिसोढ़ वि [अधिसोढ] सहन किया हुआ | अहीय वि [अधीत] पठित, अभ्यस्त; 'वेया (गउड)। (उप १४७ टी)। अहीया ए भवंति ताणं' (उत्त १५, १२, अहिसंधारण न [अभिसंधारण] अभिप्राय णाया १; १४ सं ७८)। (पंचा ६, ३६)। अहिस्संग पुं[अभिष्वङ्ग] आसक्ति (नाट)। अहीरग वि [अहीरक तन्तुरहित (फलादि) अहिसंधि पुत्री [अभिसंधि] अभिप्राय, अहिय वि [अभिहत] १ आघात-प्राप्त (जी १२)। प्राशय (पण्ह १, २; स ४६३)। (से ५, ७७)। २ मारित, व्यापादित (से १४, | अहीरु वि [अभीरु] निडर, निर्भीक (भवि)। १२)। अहिसंधि पुं[दे] बारंबार (दे १, ३२)। | अहीलास देखो अहिलासः 'देहम्मि महिलासो अहिहर सक [अभि + ह] १ लेना । २ अहिसकण पुंन [अभिष्वष्कण] संमुख (तंदु ४१)। उठाना । ३ अक. शोभना, विराजना। ४ गमन (पव २)। अहीसर पुं[अधीश्वर] परमेश्वर (प्रामा)। प्रतिभास होना, लगना; अहिसर सक [अभि + स] १ प्रवेश करना। 'बीयाभरणा अकयएणमंडणा अहुआसेय वि [अहुताशेय] अग्नि के अयोग्य २ अपने दयित-प्रिय के पास जाना। प्रयो., अहिहरंति रमणीयो। (गउड)। कर्म. अभिसारीअदि (शौ)(नाट)। हेकृ. अभिसुरणामो व कुसुमफलंतरम्मि अहुणा अ [अधुना] प्रभी, इस समय, प्राजसारिदु (शौ) (नाट)। सहयारवल्लीप्रो। कल (ठा ३, ३; नाट)। अहिसरण न [अभिसरण] प्रिय के समीप | इह हि हलिद्दाहयदविडसा अहुणि (पै) देखो अहुणा (प्राकृ १२७)। गमन (स ५३३)। मलीगंडमंडलानीलं । । अहुलण वि [अमार्जक] अनाशक (कुमा)। For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० पाइअसहमहण्णवो अहुल्ल-आ अहुल्ल वि [अफुल्ल अविकसित (कुमा)। केवल शास्त्र ही प्रमाण माना जाता हो ऐसा य सिवाभिलासिणों (पउम ३१, १२८ परह अहुवंत वकृ [अभवत् ] न होता हुआ वाद (सम्म १४०)। २,१)। (कुमा)। अहेउय वि [अहेतुक हेतुवर्जित, निष्कारण | अहो प्रअहो] इन अर्थों का सूचक अव्यय-- अहूण देखो अहीण = प्रहीन (कुमा)। (पउम ६३, ४)। १ विस्मय, प्राश्वर्य । २ खेद, शोक । ३ आमअहूव वि [अभूत] जो न हुआ हो पुब्ध अहेकम्म पुन [अधःकर्मन] १ अधोगति में | न्त्रण, संबोधन । ४ वितकं । ६ प्रशंसा।६ वि [पूर्व] जो पहले कभी न हुमा हो (कुमा)। ले जाने वाला कर्म। २ भिक्षा का पाषाकर्म असूया, द्वेष (हे २, २१७ प्राचाः गउड)। अहे प्र[अधस् ] नीचे (प्राचा)। कम्म दोष (पिंड ६५)। दाण न [दान] पाश्चर्य-कारक दान (उत्त न [कर्मन् प्राधाकर्म, भिक्षा का एक दोष | अहेसणिज्ज वि [यथैषणीय संस्काररहित, २ कप्प)। पुरिसिगा, 'पुरिसिया स्त्री (पिंड)। काय पुं[काय शरीर का नीचला | कोराः 'अहेसरिणजाई वत्थाई जाएजा' (प्राचा)। [पुरुषिका] गवं, अभिमान (स १२३; हिस्सा (सूप १, ४, १)। 'चर वि [चर] अहेसर पुं [अहरीश्वर] सूर्य, सूरज (महा)। २८८)। विहार पु[विहार] संयम का बिल आदि में रहने वाले सर्प वगैरह जन्तु | अहो देखो अह = अधस् (सम ३६; ठा २, २ माश्चर्यजनक अनुष्ठान (प्राचा)। (आचा)। तारग पुं [तारक] पिशाच- ३, १; भग; णाया १, १; पउम १०२, ८१% | अहो प्र[अहो] दीनता-सूचक अव्यय (अरण विशेष (पएण १) । दिसा स्त्री [ 'दिक् ] आव ३)। १९)। नीचे की दिशा (आचा)। लोग [लोक] करण न [करण] कलह, झगड़ा (निन् । अहो पुन [अहन दिन, दिवस (पिंग)। पाताल-लोक (ठा २, २)। वाय पुं[°वात] १०)। गइ स्त्री [गति] १ नरक या तिर्यश्च. | "णिस, निस, निसि न ["निश] रात और नीचे बहनेवाला वायु (पएण १)। २ अपान- योनि । २ अवनति (पउम ८०,४६)। गामि दिन, दिन-रातः 'णिरए णेर इयाणं अहोणिसं वायु, पर्दन (प्रावम)। 'विग्रड वि [विकट] वि [गामिन् दुर्गति में जानेवाला (सम पञ्चमाणाणं (सूत्र १, ५, १७ श्रा ५०), 'अंतो भित्त्यादिरहित स्थान, खुला स्थान; 'तंसि १५३; श्रा ३३)। 'तरण न ['तरण] कलह, अहोनिसिस्स उ (विसे ८७३)। 'रत्त पुं भगवं अपडिन्ने प्रहेवियडे अहियासए दविए झगड़ा (निचू १०)। मुह वि [°मुख] [ रात्र] १ दिन और रात्रि परिमित काल, (प्राचा)। सत्तमा स्त्री [°सप्तमी सातवीं अधोमुख, अवनत मुख, लजित (सुर २, १५८ पाठ प्रहर (ठा २, ४); 'तिरिश अहोरत्ता या अन्तिम नरकभूमि (सम ४१; गाया १, ३, १३५, सुपा २४२)। लोइय वि पुण न खामिया कयंतेणं' (पउम ४३, ३१) । १६; १६)। देखो अहो = अधस् । [लौकिक] पाताल लोक से संबन्ध रखने- २ चार-प्रहर का समय (जो २)। राइया अहे देखो अह = अथ (भग १, ६)। वाला (सम १४२)। "हि वि [ अवधि स्त्री [ रात्रिकी] ध्यानप्रधान अनुष्ठान-विशेष अहेउ पुं[अहेतु] १ सत्य हेतु का विरोधी, १ नीचे दर्जा का अवधिज्ञान वाला (राय)।। (पंचा १८; प्राव ४ सम २१)। राइंदिय हेत्वाभास (ठा ५, १)। २ वि. कारणरहित, २ पुंस्त्री. नीचे दर्जा का अवधिज्ञान, प्रव- न [रात्रिन्दिव] दिनरात (भग; प्रौप)। नित्य (सूत्र १, १, १)। वाय पुं [वाद] | विज्ञान का एक भेद (ठा २, २)। अहोरण न [दे] उत्तरीय वस्त्र, चारर (दे १, आगमवाद, जिसमें तर्क-हेतु को छोड़कर अहो प्र[अहनि] दिवस में, 'अहो य राम्रो ! २५; गा ७७१)। इम सिरिपाइअसद्दमहण्णवे अयाराइसहसंकलणो णाम पढ़मो तरंगो समत्तो। श्रा आ [आ] १ प्राकृत वर्णमाला का द्वितीय 'पाणीलकक्करुदंतुरं वरणं (गउड); 'मायब' | स्वर-वर्ण (प्रामा)। इन अर्थों का सूचक (से ६, ३१, विसे १२३५)। ५ समन्तात्, अव्यय-२ अ. मर्यादा, सीमाः 'आस- चारों प्रोर'अणुकंडलमा विवइएणसरसमुद्दे (गउड; विसे ८७४) । ३ अभिविधि, कवरीविलंघियंसम्मि' (गउडः विसे ८७५)। व्याप्ति; 'मामूलसिर फलिहथभाओं (कुमाः ६ अधिकता, विशेषताः 'आदीण' (सूम विसे ८७४)। ४ थोड़ापन, अल्पताः | १,५) । ७ स्मरण, याद (षड् )। ८ विस्मय, | आश्चर्य (ठा ५)। ९-१० क्रियाशब्द के योग में अर्थविस्तृति और विपर्यय; 'पारुहइ', 'पागच्छत (षड् ; कुमा)। ११ वाक्य की शोभा के लिए भी इसका प्रयोग होता है (णाया १,२)। १२ पादपूर्ति में प्रयुक्त किया जाता अव्यय (षड् २, १,७६) । For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ-आइग्ग पाइअसद्दमणयो आअड्डिअ वि [ व्यापृत] कार्य में लगा हुआ (कुमा) । [आ] नोचे, घः ( राय ३५, ३६) । [आ] इन अर्थो का सूचक अव्यय१ खेद (गा ε२६) । २ दुःख । ३ गुस्सा, क्रोध (कप्पू) 1 आणण देखो आयन्नण (गा ६५९ ) । आअत्ति देखो आयइ (पिंग ) । आस [य] जाना । 'अव्वो ण श्रमि घेतं' ऑअद देखो आगय (प्राकृ १२ संक्षि ) । (TRP) IN आश्रम देखो आगम ( श्रचु ७ श्रभि १८४ गा ४७६ स्वप्न ४८ मुद्रा ८३ ) । - आअमण देखो आगमण (से ३, २० मुद्रा १८७) अवि [दे] १ प्रत्यंत, बहुत । २ दीर्घं, लम्बा । ३ विषम, कठिन । ४ न. लोह, लोहा । ५ मुसल, मूषल (दे १, ७३) । आअ वि [आगत ] श्राया हुआ, 'पत्थंति पारोसा १२ १८ कुमा आअअवि [आगत ] आया हुआ (से ३, ४, १२, १८ गा ३०१) आअअवि [आयत ] लम्बा, विस्तीर्ण (से ११, ११); 'मरयविद्धं मोति मोरो पाउनाले तरगग्गलग्गं उपग्रबिंदु' (गा ३६४) । आ सक[कृप] १ सींचना २ पोतना, चास करना । ३ रेखा करना । प्राअंछइ (षड् ) । आअंतव्व देखो आगम = आ + गम् । आअंतुअ देखो आगंतुय (स्वप्न २०; अभि १२१) । - आपि देखो आकंपिय (से १०, ५१) । - अं[िआताम्र ] घोड़ा लाल से १,३१ सूर ३, ११० ) । 'आर्जव [कादम्ब] हंस पति- विशेष ( e, t) - आअक्ख सक [ आ + चक्षू ] कहना, बोलना, उपदेश करना। श्रायक्खाहि (भग) । कर्म. मासीदि (शी (नाट) घा क्खिद (शौ) (नाट) । . आअच्छ देखो आमच्छ । माधच्छइ ( षड् )। संह आअच्छि आणि (नाट पि २०१०४) - आअड्ड क [दे] परवश होकर चलना । ड्ड (दे १, ६९ ) । आअड्ड क [ व्या + पृ] व्यापृत होना, काम में लगना । श्रग्रड्डड्इ (सरणः षड् ) । प्राअड्डेड्ड (हे ४, ८१ ) । - अड्डि वि [दे] परवशचलित, दूसरे की प्रेरणा से पता हुआ (दे १,६०) । आअर सक [ आ + ] आदर करना, सत्कार करना । आरइ ( षड् ) 4 आअर न [दे] १ उदूखल, ऊखल । २ कूचं (दे १, ७४) । आअल्ल पुं [दे] १ रोग, बीमारी (दे १, ७५; पाय ) । २ वि. चंचल, चपल (दे १,७५) । देखो आयल्लया । . आअल्लि ) स्त्री [दे] झाड़ी, लताओं से निबिड आअल्ली ) प्रदेश (दे १, ६१) । आअन्य एक [ वेष ] कोपा मायद काँपना । (यह ) | आआमि देखो आगामि (अभि ८१) । आआस देखो आयंस ( षड् ) ।आआसतअ [दे] देखो आयासतल (षड् ) । आइ सक [अ + दा] ग्रहण करना, लेना । भाइजा (सूत्र १,७,२६) । भाइयत्ति (भग) । कर्म. श्राइयइ ( कसं ) । संकृ. आइतून, आयइत्ता, आइतु (प्राचा सूत्र १, १२ पि ५७७)। मो. माइयावैति (तुम २१) कृ. आइयव्य ( कस) । आइ [आदि] प्रथम पहला (सुर २, १३२) २ वगैरह प्रभृति (जो २)। ३ समीप, पास । ४ प्रकार, भेद । ५ अवयव, अंश। ६ प्रधान, मुख्य; 'इन आसंसंति निसीह ! दत्ताणोदिया कुमासूम, १४) ७ उत्पत्ति (सम्म १५ ) । संसार दुनया (सू १, ७) गर वि["कर] आदि प्रवर्तक (सन १२. भगवान् ऋषभदेव (पउन २८, २९) । गुण [गुण] सहभावी गुण (श्राव ४) । णाह पुं [नाथ ] भगवान् ऋषभदेव (भायम ) "तिस्थयर [["तीर्थकर]] भगवान् ऋषभदेव (दि) । "देव पुं [देव] भगवान् ऋषभदेव (सुर २ For Personal & Private Use Only १०१ १३२) । 'म (धाव २) [भ] प्रथम धाय, पहला "मूलन ["मूल] मुख्य कारण ( आचा) मोक्ख पुं [ 'मोक्ष ] संसार से छुटकारा, मोक्ष २ शीघ्र ही मुक्त होने वाली आत्मा इत्थोयो जे ग सेवंति श्रइमोक्खा हि ते जरा' ( सू २,७ ) । राय पुं [राज ] भगवान् ऋषभदेव (ठा ६) । वराह पुं [बराह] कृष्ण, नारायण (७, २) 1. आइ वि [आदिम् ] खानेवाला पंचा १८ e) आइ स्त्री [आजि ] संग्राम, लड़ाई (संथा ) 1आइअंतिय देखो अचंतिय (भग १२, ६) - [आई [] वाक्य की शोभा के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला अव्यय (भग ३, २) आईख गा स्त्री [दे] १ देवता-विशेष, आईस मिया -क-पिशाचिका देवी (पव आईखिणिया | २०७३ टी -पत्र १८२३ बृह १) । २ डोमिनी, चांडाली (बृह १ ) । आईंग न [दे] वाद्य-विशेष (पउम ३, ८७ ε६, ६) । आइंच देखो आयंच । प्रइंचइ (उवा) । आइंच देखो अक्कम = आ + क्रम्। श्रइंचइ ( प्राकृ ७३) । आईंचवार पुं [आदित्यवार ] रविवार (कुप्र ४११) आइंचिय वि [ आदित्यिक ] श्रादित्य-सबन्धी (सूप्रनि ८ टी) । आइंछ देखो आअंछ । आईइ (हे ४,१८७) । आइक्स तक [ आ + ] कहना, छप देश देना, बोलना; आइक्खइ ( उवा) । वकृ. आइक्खमाण (गाया १,१२ ) । हेकु. आइवित्त (M आइक्खन [आल्यावक] कहनेवाला, वक्ता ( परह २, ४ ) IV आइक्खण न [आयपान] कथन, उरदेश (बृह २) आइक्त्रिय वि [आसपात] उत (३२) | आइक्सिया की [आख्यायिका] १ बार्ता, कहानी (गाया १, १ ) । २ एक प्रकार की मैली विद्या, जिससे चाडात कालादि की परोक्ष बातें कहती हैं (ठा ) आइग्ग वि [आविन] उद्विम, खिन्न (पात्र ) । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श की उत्पत्ति स्वाकु वंश की शाखा का । १०२ पाइअसद्दमहण्णवो आइग्घ-आईणग आइग्घ सक [आ + प्रा] सूंघना । प्राइग्घइ, | आइत्तु वि [आदात] ग्रहण करने वाला | आइल्ल वि [आदिम] प्रथम, पहला प्राइग्घाइ ( षड् )। हेकृ. आइग्घि (कुमा) (ठा ७) आइल्लिय) (सम १२६% भग)। 'माइल्लियासु आइच अ [दे] कदाचित्, कोईबार (पएण | आइत्तूण देखो आइ = प्रा+दा।V तिसु लेसासु' (पएण १७; विसे २६२४) । १७–पत्र ४८५) आइत्थ न [आतिथ्य] अतिथि सत्कार (प्राकृ आइवाहिअ पुंआतिवाहिक] देव-विशेष, आइञ्च पुं [आदित्य] १ सूर्य, सूरज, रवि | २१)। जो मृत जीव को दूसरे जन्म में ले जाने के (सम ५६)। २ लोकान्तिक देव-विशेष (णाया आइदि स्त्री [आकृति] आकार (प्रातः स्वप्न | लिए नियुक्त है। १,८)। ३ न. देवविमान-विशेष । ४ पुं. २०)। 'काहे अमारणवंता अग्गिमुहा, तन्निवासी देव (पव)। ५ वि. आद्य, प्रथम आइद्ध वि [आविद्ध] १ प्रेरित (से७,१०)। आइवाहिमा तव पुरिसा। (सुज २०)। ६ सूर्य-संबन्धीः 'प्राइचे एं अइलंघेहिति ममं अच्चुया ! मासे' (सम ५६) । गइ पुं[गति] राक्षस | हुमा, परिहित (प्राक ३८) । तमगहणनिउणयरकंतार' | वंश के एक राजा का नाम (पउम ५,२६१)। आइद्ध वि [आदिग्ध] व्याप्त (गाया १, (अच्नु ८५) जस पुं[°यशस् ] भरत चक्रवर्ती का १) आइवाहिग पु [आतिवाहिक मार्गदर्शक एक पुत्र, जिससे इक्ष्वाकु वंश की शाखारूप आइन्न वि [आकीर्ण] १ व्याप्त, भरा हुआ (वासुदेवहिंडी पत्र १५)। सूर्यवंश की उत्पत्ति हुई थी (पउम ५,३; सुर (सुर १, ४६; ३, ७१) । २ पुं. वस्त्र दायक | आइस सक [आ + दिश् ] आदेश करना, २, १३४)। पभ न [प्रभ] इस नाम का कल्पवृक्ष (ठा १०)V हुकुम करना, फरमाना। प्राइसह (पि ४७१)। एक नगर (पउम ५,८२)। पीढ न [पीठ] आइन्न वि [आचीर्ण ] आचरित, विहित | वकृ. आइसंत (सुर १६, १३) ।। भगवान ऋषभदेव का एक स्मृतिचिह्न--पाद(प्राचा; चैत्य ४६)। आइसण वि [दे] उज्झित, परित्यक्त (दे १, पीठ (प्रावम)। रक्ख पुं [रक्ष इस नाम | आइन्न वि [आदीर्ण] उद्विग्न, खिन्नः 'पाइ- ७१) IV का लङ्का का एक राजपुत्र (पउम ५,१६६) । नाई पियराई तीए पुच्छंति दिव्व-देवन्न' आईण वि [आदीन] १ अतिदीन, बहत 'रय पुं [रजस् ] वानर वंश का एक (सुपा ५६७)। गरीब (सून १, ५)। २ न. दूषित भिक्षा विद्याधर राजा (पउम ८, २३४) । आइज्ज देखो आएज्ज (नव १५) । आइन्न पुं[दे] जात्यश्व, कुलीन घोड़ा (पएह (सूम १, १०) आईण पुं [दे] जातिमान् अश्व, कुलीन घोड़ा आइजमाण वकृ [आर्दीक्रियमाण] पाद्र' किया जाता, भीजाया जाता (आचा)। आइप्पण न [दे] १ आटा (गा १६६: दे (णाया १, १७)V आइजमाण देखो आढा = आ + ६ १,७८) २ घर की शोभा के लिए जो चूना | आईण । न[आजिन, क] १ चमड़े का बना आइट्ट वि [आदिष्ट] १ उक्त, उपदिष्ट (सुर | आदि का सफदा दी जाती है वह । ३ चावल आईणग) हुआ वस्त्र (णाया १, १; प्राचा)। ४, १०१) । २ विवक्षित (सम्म ३८)। के प्राटा का दूध । ४ घर का मण्डन-भूषण १ पुं. द्वीप-विशेष । २ समुद्र विशेष (जीव ३)। भद्द [भद्र] प्राजिन-द्वीप का अधिष्ठाता आइट्रवि [आविष्ट अधिष्ठित, पाश्रित (कस)N (दे १,७८)। आइट्टि स्त्री [आदिष्टि] धारणा (ठा ७)। आइय (अप) वि [ आयात ] आया हुआ | देव (जीव ३) । महाभद्द पुं[°महाभद्र] आइढि स्त्री [आत्मद्धि] प्रात्मा की शक्ति, (भवि) । देखो पूर्वोक्त अर्थ ( जीव ३)। महावर पुं आत्मीय सामर्थ्य (भग १०, ३)। [महावर] आजिन और प्राजिनवर नामक आइय वि [आचित] १ संचित, एकत्रीकृत। समुद्र का अधिष्ठाता देव (जीव ३)। वर पुं आइड्ढिय वि [आत्मद्धिक] प्रात्मीय शक्ति- २ व्याप्त , पाकीणं। ३ प्रथित, गुम्फित [वर] १ द्वीप-विशेष । २ समुद्र-विशेष । संपन्न (भग १०, ३)।। (कप्प; औप)V ३ आजिन और अजिनवर समुद्र का अधिष्ठाता आइढिय वि आकृष्ट] खींचा हुआ (हम्मीर | आइय वि [आहत आदरप्राप्त (कप्प)। देव (जीव ३)। वरभद्द पु[°वरभद्र] आइयण न [आदान] ग्रहण, उपादान (पण्ह प्राजिनवरद्वीप का अधिष्ठाता देव (जीव ३)। आइण्ण देखो आइन्न = (दे) (तंदु २०)। १, ३) । वरमहाभह पुं[वरमहाभद्र ] देखो आइण्ण देखो आइन्न (प्रौप; भग ७,८ हे आइग्रणया स्त्री [आदान] ग्रहण, उपादान अनन्तर उक्त प्रथं (जीव ३)। 'वरोभास पुं ३, १३४)। (ठा २, १) V [°वरावभास] १ द्वीप-विशेष । २ समुद्रआइत्त वि [आदीप्त थोड़ा प्रकाशित-ज्व आइरिय देखो आयरिय = प्राचार्य (हे १, विशेष (जीव ३) । वरोभासभ६ पुं लित (गाया १, १)। [°वरावभासभद्र] उक्त द्वीप का अधिष्ठायक आइत्त वि [आयत्त] अधीन, वशीभूत; 'तुज्झ आइल वि [आविल] मलिन, कलुष, अस्वच्छ देव (जीव ३)। वरोभासमहाभद्द पुं सिरी जा परस्स आइत्ता' (जीवा १०)IV (पएह १, ३)। [वरावभासमहाभद्र] देखो पूर्वोक्त अर्थ For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमद्दण्णव आउंचण न [आकुञ्चन] संकोच, गात्रसंक्षेप | ( कस) । आउंचणा स्त्री [आकुश्र्चना ] ऊपर देखो (धर्मं ३) | अउंचिअ वि [आकुचित] १ संकुचित । २ उठा कर धारण किया हुआ (से ६, १७) । आज वि [आकुचिन्] १ संकुचनेवाला । २ निश्चल (गउड)। 1 २ *आउंट देखो आउट्ट = प्रवर्तय् । प्रउंटावेमि ( गाया १, ५) । आईये देखो आइ = श्रादि (जी ७; काल ) । आइय वि [आतीत ] १ विशेष-ज्ञात । संसार-प्राप्त, संसार में घूमनेवाला ( आचा) । आईल पुंन [ आचील ] पान का थूकना (पव) 1 आउंट क [ आ + कुञ्च् ] संकोचना; प्रयो., संकृ. आउंट/वित्त (पव ५) आउंटण न [आकुटन] आवर्जन (पंचा १७, १९ ) 1. आईव प्रक [ आ + दीपू ] चमकना । वकृ. आईवमाग (महानि) । आईनीइ -आउट्टावण ( जीव ३) । ' वरोभासमहावर पुं [वराव भासमहावर] अजिनवराभास नामक समुद्र का अधिष्ठाता देव (जीव ३) । ° वरोभासवर [वरावभासवर ] देखो धनन्तरोक्त श्रर्थं ( जीव ३) | आनी स्त्री [आदिनीति ] सामरूप पहली राजनीति (सुपा ४६२) । V आईसर पुं [आदोश्वर] भगवान् ऋषभदेव ( सिरि ५५१) । आउ स्त्री [दे] १ पानी, जल (दे १, ६१) । २ इस नाम का एक नक्षत्र देव (ठा २, ३ ) । "काय, काय ["काय ] जल का जीव (उप ६८५; पण १) । काइय, काइय [कायिक] जल का जीव ( पण १ भग २४, १३) । 'जीव पुं [जीव] जल का जीव ( सूत्र १,११ ) । बहुल वि [बहुल] १ जल-प्रर । २ रत्नप्रभा पृथिवी का तृतीय काण्ड (सम ८८) आउ अ [दे] अथवा, या 'आउ पलोहेइ मं श्रजउत्तवेसे कोइ श्रमारगुसो, भाउ सच्चर्यं चेव प्रज्जउत्तोति' ( स ३४६) । आउ } [आयुष] १, जीवनआउअ ) काल (कुमाः रयण १६) । २ उमर, ar (गा ३२१) । ३ श्रायु के कारणभूत कर्मपुद्गल (ठा ८ ) । क्काल पुं [काल] मरण, मृत्यु (चा)। क्ख [य] मरण; मौत (विषा १, १०) । ॰क्खेम न [म] आयु-पालन, जीवन (भाचा)। विज्जा स्त्री [विद्या] वैद्यकशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, (धाव)। वे पुं['वेद] वैद्यक, चिकित्साशास्त्र (विपा १, ७) । आउंच सक [ आ + कुचय् ] संकुचित करना, समेटना । संकृ. आउंचिवि (अप) (भवि ) । आउंटण न [आकुञ्चन] संकोच, गात्र-संक्षेप (हे १,१७७) 1 आउंबालिय वि [दे] आप्लावित, डुबाया हुआ, पानी आदि द्रवपदार्थ से व्याप्त (पान) आउक्क ? देखो आउ = आयुष् (सुपा ६५५३ आउग भग ६, ३) आउच्छ सक [ आ + प्रच्छ् ] श्राज्ञा लेना, अनुज्ञा लेना । वकु. आउच्छंत, आउच्छ्रमाण ( से १२, २१ ४७ ) । संकृ. आउच्छिऊण, आउच्छिय (महा; सुपा ε१) आउच्छण न [आप्रच्छन ] श्राज्ञा, अनुज्ञा (गा ४७,५०० ) । V आउच्छणा स्त्री [आप्रच्छना] प्रश्न ( पंचा १२, २६) । आउच्छा स्त्री [ आपृच्छा ] श्राज्ञा (कुत्र १२४) । आउच्छिय वि [आपृष्ट] जिसकी प्राज्ञा ली गई हो वह (से १२, ६४) । आउज्ज देखो आओज धातोद्य (हे १, १५६) आउज पुं [आवर्ज] १ संमुख करना । २ शुभ क्रिया ( पण ३६ ) IV [आ] सम्मुख करने योग्य ( भावम) । आज [आयोज्य ] जोड़ने योग्य, सम्बन्ध करने योग्य (विसे ७४ ३२९६) । आउज्जिय वि [आतोधिक] वाद्य बजानेवाला (सुपा १६९) For Personal & Private Use Only १०३ आउज्जिय वि [आयोगिक ] उपयोगवाला, सावधान (भग २, ५ ) आउज्जिय वि [आवर्जित] संमुख किया हुआ (वरण ३६ ) । आउज्जिया स्त्री [आवर्जिका ] क्रिया, व्यापार ( श्रावम) । करण न [करण] शुभ व्यापारविशेष (पराण ३६) ।~ न [आवर्जीकरण] शुभ अ/उज्जीकरण व्यापार - विशेष ( प ३६) । आउट्ट सक [ आ + वृत् ]. १ करना । २ भूलाना । ३ व्यवस्था करना। ४ श्रक. संमुख होना, तत्पर होना । ५ निवृत्त होना । ६ घूमना फिरना । आउट्टर, आउट्टंति (भग ७, १; निचू ३) । वकृ. आउट्टंत (सम २२ ) । संकृ. आउट्टिऊण (राज) । हेकृ. आउट्टित्तए (कप्प ) । प्रयो, श्राउट्टावेमि ( णाया १, ५ टी) । आउ स [ आ + कुट्टू ] छेदन करना, हिंसा करना । आउट्टामो (प्राचा) । आउट्ट वि [आवृत्त] १ निवृत्त, पोछे फिरा हुमा (अ ६६८), 'दप्पकए वाउट्टे जइ खिसति तव तहेव ( बृह ३ ) । २ भ्रामित, भुलाया हुआ (अ ६००)। ३ ठीक-ठीक व्यवस्थित (प्राचा) । ४ कृत, विहित ( राज ) । आउ [आ] छेदन, हिंसा (सूत्र १, १) 1 आउट्ट आउट्टि वि [ आहत ] आदर-युक्त (पिंड ३१९ प ११२) । आउट्टण न [आकुट्टन ] हिंसा (सु १, १ ) | आउन [आवर्त्तन] १ प्राराधन, सेवा, भक्ति (वय १, ९) । २ श्रभिमुख होना, तत्पर होना (सूम १, १०)। ३ अभिलाषा, इच्छा ( आचा)। ४ घूमाना, भ्रमण । ५ निवृत्ति (सूत्र १, १० ) । ६ करना, क्रिया, कृति (राज) 1 आउट्टणया स्त्री [आवर्तनवा ] श्रपायज्ञान (दि) IV उणा आउट्टावण न [आवर्त्तन ] श्रभिमुख करना, तत्पर करना ( श्राचा २) । [आवर्त्तना ] ऊपर देखो (नि २) । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ पाइअसहमहण्णवो आउट्टि-आएस आउट्टि स्त्री [आकुट्टि] १ हिंसा, मारना (उप ६८५)। ४ पुं. गाँव का नियुक्त किया आउस वि[अयुष्मत् ] चिरायु, दीर्घायु (प्राचाः उव)। २ निर्दयता (आप १८)। हुआ मुखिया (दे १, १६)। आउसंत ) (सम २६ प्राचा) आउट्टि स्त्री [आवृत्ति] देखो आउट्टण = | आउत्त वि [आगुप्त] १ संक्षिप्त (ठा ३,१)। आउसणास्त्रो [आक्रोशना] अभिशाप, निर्भप्रावर्तन (वव १, १, २, १०; सूत्र १, १; २ संयत (भग)। सन (णाया १, १८; भग १५) । प्राचा)। ५ बार-बार करना, पुनः पुनः क्रिया आउत्थ वि [आत्मोत्थ] आत्म-कृत (वय ४) आउस्स देखो आउस = मा + कुश् । पाउ(सुज १२)। आउर वि [आतुर] १ रोगी, बीमार (दि)। स्सति (गाया १, १८) आउट्टि वि [आकुट्टिन] १ मारनेवाला, २ उत्कण्ठित । ३ दुखित, पीडित (प्रासू २८ आउस्स ' [आक्रोश दुवंचन, असभ्य वचन हिंसक; 'जाणं काएण गाउट्टी' (सूत्र)।२ (सूम १, ३, ३, १८) अकार्य-कारक (दसा)। आउर न [दे] १ लड़ाई, युद्ध। २ वि. बहुत। ३ गरम (दे १, ६५, ७६)। आउट्टि वि [दे] साढ़े तीन, ‘एगे पुण एवमा आउस्सिय वि [आवश्यक] १ जरूरी। २ | आउरिय वि [आतुरित] दुःखित, पीडित हंसु ता आउट्टि चंदा आउट्टि सूरा सव्वलोयं क्रिवि. जरूर, अवश्य (पएण ३६)। करण (प्राचा) प्रोभासेंति (सुज १६)। न [करण] १ मन, वचन और काया का शुभ व्यापार । २ मोक्ष के लिए प्रवृत्ति (पएण आउट्रिम वि [आकुटट्य] कूटकर बैठाने आउल वि [आकुल] १ व्याप्त (प्रौप)। योग्य (जैस सिक्के में अक्षर) (दसनि २,१७) २ व्यग्र (पाव)। ३ व्याकुल, दुःखित । ४ आउट्टिय देखो आउट्ट = प्रावृत्त (दसा)। संकीर्ण (स्वप्न ७३)। ५ पुं. समूह (विसे आउह न [आयुध] १शन, हथियार (कुमा)। ७००)। २ विद्याधर वंश के एक राजा का नाम (पउम आउट्टिय पुं[आकुट्टिक दण्ड-विशेष (भत्त आउल सक [आकुलय् ] १ व्याप्त करना। ५,४४) । घर न [गृह] शस्त्रशाला (ज)। २७)। २ व्यग्र करना । ३ दुःखी करना । ४ संकीर्ण घरसाला स्त्री [गृहशाला] देखो अनन्तरआउट्टिय वि [आकुट्टित] छिन्न, विदारित करना। ५ प्रचुर करना। कवक-आउ उक्त अर्थ (ज)। घरिय वि [गृहिक] लिज्जत, आउलीअमाण (महा; पि ५६३) आयुधशाला का अध्यक्ष-प्रधान कर्मचारी आउट्टिया स्त्री [आकुट्टिका] पास में प्राकर आउलि स्त्री [आतुलि] वृक्ष-विशेष (दे५,५)। (ज)। गार न [गार शस्त्रगृह (ौप)। करना (पंचा १५, १८)।। आउलिअ वि [आकुलित आकुल किया हुआ आउहि वि [आयुधिन् योद्धा, शस्त्रधारक आउट्ठ वि [आतुष्ट] संतुष्ट (निचू १)। (गा २५; पउम ३३, १०६, उप पृ ३२) (विसे)। आउड सक [आ+जोडय् ] संबन्ध करना, | आउलीकर सक [आकुली+कृ] देखो आउल- आऊड अक [दे] जुए में पण करना। आऊजोड़ना । कवकृ.आउडिजमाण (भग ५, ४)M आकुलय् । पाउलीकरेंति (भग) । कवकृ. डइ (दे १, ६६) आउड सक [आ+कुट ] १ कूटना, पीटना। आउलीकिअमाण (नाट) आऊडिय न [दे] द्यूत-पण, जुए में की जाती २ ताडन करना, प्राघात करना। आउडेइ आलीभव आउलीभूअ वि [आकुलीभूत] घबड़ाया ती प्रतिज्ञा (दे १,६८) (जं ३)। कवकृ. आउडिजमाण (भग ५, ४)।। हुआ (सुर २, १०) आऊर सक [आ + पूरय ] भरना, पूति आउड सक [लिख ] लिखना, 'इति कट्टु आउल्लय न [दे] जहाज चलाने का काष्ठमय करना, भरपूर करना । ऊरेइ (महा) । कृ. णामगं पाउडेइ' संकृ. आउडित्ता (जं ३- उपकरण (सिरि ४२४)। आऊरयंत, आऊरमाण (पउम) १०२, पत्र २५०)IV आउस अक [आ + वस् ] रहना, वास ३३ से १२, २८) । कवकृ. आऊरिजमाण आउडिय वि [आकुटित आहत, ताडित करना । वा. आउसंत (सम १) 10 (पि ५३७)। संकृ. आऊरिवि (अप) (भवि)। (जं ३-पत्र २२२)। आउस सक [आ + क्रुश ] प्राक्रोश करना, आऊरिय वि [आपूरित भरा हुमा, व्याप्त आउड्ड अक [ मस्ज् ] मजन करना, डूबना । शाप देना, निष्ठुर वचन बोलना। भाउसइ | (सुर २, १६९) उडुइ (हे ४, १०१ षड् )। (भग १५) । पाउसेज, पाउसेसि (उवा)। आऊसिय वि [आयूषित] १ प्रविष्ट । २ आउड्डिअ वि [मग्न] डूबा हुआ, तल्लीन आउस सक [आ + मृश् ] स्पर्श करना, संकुचित (णाया १,८) । छूना । वकृ. आउसंत (सम १)। आएज वि [आदेय ग्रहण करने के योग्य आउण्ण वि [आपूर्ण] पूर्ण, भरपूर, व्याप्त आउस सक [आ + जुष्] सेवा करना। उपादेय । णाम, नाम न [नामन्] कर्म'कुसुमफलाउएणहत्यहि' (पउम ८, २०३) वकृ. आउसंत (सम १)। विशेष, जिसके उदय से किसी का कोई भी आउत्त वि [आयुक्त] १ उपयोग वाला, आउस न [दे] कूचं (दे १, ६५)। क्षुरकर्म वचन ग्राह्य माना जाता है (सम ६७)। सावधान (कप्प)। २ क्रिवि. उपयोग-पूर्वक (नंदीटि. टिप्पनको आएस वि [ऐष्यत् ] आगामी, भविष्य में (भग)। ३ न. पुरीषोत्सर्ग, फरागत जाना (?) आउस देखो आउ = प्रायुष् (कुमा) । होने वाला (सूम १, २, ३, २०)। For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आएस-आकिट्टि पाइअसहमहण्णवो १०५ देश] १ उपदेश शिक्षा । योग्य (विसे २३) ।। प्रदेश आएस पुं[आदेश १ अपेक्षा। २ प्रकार, आओग्ग पुं [आयोग्य परिकर, सरंजाम आकंपण न [आकम्पन] ऊपर देखो (वव: रीति (णंदि १८४)। ३ वि. नीचे देखो (पिंड । (औप) धर्म)।। २३०) आओज पुंन [आयोग्य] वाद्य, बाजा (महा; आकंपिय वि [आकम्पित] ईषत् चलित, आएस देखो आवेस (भग १४, २)TV षड्)। कम्पित (उप ७२८ टी)। आएस पुं[आदेश १ उपदेश, शिक्षा। | आओज्ज विआयोज्य संबन्ध-योग्य, जोड़ने वापित प्राजिल पमध आएसग) २माज्ञा, हुकुम (महा)। ३ विवक्षा, योग्य (विसे २३)/ किया हुआ (पिंड ४३६) सम्मति (सम्म ३७)। ४ अतिथि, मेहमान | आओड सक [आ + खोटय् ] प्रवेश | आकड्ढ पुं [आकर्ष] खींचाव । विकड्ढि (सूम २, १, ५६) । ५ प्रकार, भेद; 'जीवे णं कराना, घुसेड़ना। आप्रोडावेंति (विपा १,६)।। स्त्री ["विकृष्टि] खींच-तान (भग १५)। भंते ! कालाएसेणं कि सपदेसे अपदेसे' (भग ६, | आओडण न [आकोलन] मजबूत करना (से ४. जीव २; विसे ४०३)। ६ निर्देश (निचू)। | ६, ६) . आकडूढण न [आकर्षण] खींचाव (निचू) V ७ प्रमाण, 'जाव न बहुप्पसन्नं ता मीसं एस आओडिअ वि [दे] ताडित, मारा हुआ (से आकड्ढिय वि [दे] बाहर निकाला हुआ, इत्थ पाएसो' (पिंड २१)। ८ इच्छा, अभि- ६, ६)। 'पुव्वं व वच्छ तीए निब्भच्छिया लाषा; देखो आएसि। ६ दृष्टान्त, उदाहरण | आओध प्रक[आ+ युध् ] लड़ना। प्रायो ता परित्तु गलयम्मि। 'वाघाइयमाएसो प्रवरद्धो हुज अन्नतरएणं' | धेहि (वेणि १११) । पच्छिमप्रसोगवरिणयादारेणाकड्ढिया (प्राचानि २६७)। १० सूत्र, ग्रन्थ, शास्त्र आओस सक [आ+ कुश, कोशय ] झत्ति॥ (धर्मवि १३३)(विसे ४०५)। ११ उपचार, पारोप; 'पाएसो आक्रोश करना, शाप देना। आप्रोसइ (निर १, आकण्णण न [आकर्णन] श्रवण (नाट) उवयारो' (विसे ३४,८८)। १२ शिष्ट-सम्मत, १) प्रामोसेजसि, पाप्रोसेमि (उवा)। कवकृ. आकण्णिय वि [आकर्णित] श्रुत, सुना 'बहुसुयमाइएणं तु, आओसेजमाग (अंत २२)।। हुआ (प्राचा) न बाहियगणेहिं जुगप्पहाणेहिं। आओस पुं[दे] प्रदोष-समय, सन्ध्याकाल आकदि देखो आकिदि (संक्षि )। आएसो सो उ भवे, (प्रोध ६१ भा) आकम्हिय वि [आकस्मिक] अकस्मात होने. अहवावि नयंतरविगप्पो' (वव २,८)- आओसणा श्री [आक्रोशना] निर्भर्त्सना, वाला, विना ही कारण होनेवाला; 'बज्झनिआएसण न [आदेशन] ऊपर देखो (महा) तिरस्कार (निर १, १)। मित्ताभावा जं भयमाकम्हियं तंति' (विसे ३४५१) आएसण न [आदेशन, आवेशन] लोहा | आओहण न [आयोधन] युद्ध, लड़ाई (उप वगैरह का कारखाना, शिल्पशाला (आचा २, ६४८ टी; सुर ६, २२०)। आकर पुं [आकर] १ खान। २ समूह २,२,१०; प्रौप) | आंत वि [अन्त्य] अन्त का (पंचा १८,३६)M आएसि वि[आदेशिन] १ आदेश करनेआकंख सक [आ + काळे ] चाहना, आ | आकस देखो आगस । माकसिस्सामो (प्राचा वाला । २ अभिलाषी, इच्छुक (प्राचा)। इच्छना । प्राकंखिहि (भवि) __२, ३, १, १५) हेकृ. आकसित्तए (पाचा आकंखा स्त्री [आकाङ्क्षा] चाह, इच्छा, २, ३, १, १५) आएसिय वि [आदिष्ट] जिसको आज्ञा दी अभिलाषा (विसे ८५६) आकार देखो आगार (कुमाः दै १३)। गई हो वह (भवि)। आकखि वि [आकाङ्क्षिन] अभिलाषी, आकास देखो आगास (भग)। आएसिय वि [आदेशिक] १मादेश संबन्धी। इच्छुक (प्राचा) आकासिय वि [दे] पर्याप्त, काफी (षड्) 1V २ विवाह आदि के जिमन में बचे हुए वे | आकंद अक [आ + क्रन्दु रोना, चिल्लाना। आकिइ स्त्री [आकृति] स्वरूप, प्राकार (हे खाद्य-पदार्थ जिनको श्रमणों में बांट देने का माकंदामि (पि ८८)। १, २०६)। संकल्प किया गया हो (पिंड २२६) आकंदिय न [आकन्दित] १ माक्रन्दन, रोदन।। | आकिंचण न [आकिश्चन्य ] निस्पृहता, आओ प्र[दे] अथवा, या; 'हंत किमेयंति, ! २ वि. जिसने आक्रन्दन किया हो वह (दे ७, निष्परिग्रहता; 'प्राकिंचणं च बभं च जइकि ताव सुविणो, पामो इंदजालं, आप्रो २७)। धम्मो' (नव २३)IV मइविन्भमो, पामो सच्चयं चेवत्ति' (स ४५४)। आकंप प्रक [आ + कम्प्] १ थोड़ा काँपना। आकिंचणया स्त्री [आकिश्चनता] ऊपर आओग पुं[आयोग] १ लाभ, नफा (प्रौप)। २ तत्पर होना । ३ पाराधन करना । संकृ.। देखो (सम १२०) iv २ अत्यधिक सूद के लिए करजा देना (भग)। आकंपइत्ता, आकंपइत्तु (राज)।V आकिंचणिय। देखो आकिंचण (पाचू, सुपा ३ परिकर, सरंजाम (प्रौप)। आकंप पुं [आकम्प] १ थोड़ा काँपना । २ आकिंचन्न ६०८)TV आओग पुं [आयोग] अर्थोपाय, अर्थोपार्जन माराधन (वव )। ३ तत्परता, पावर्जन | आकिट्रि स्त्री [आकृष्टि ] पाकर्षण (धर्म का साधन (सूम २, ७, २)TV (राज) वि १५)। १४ For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ आकिदि देखो आकिइ (कुमा) IV अकुंचक [आ + कुलय् ] संकोच करना । प्राकुंचइ; संक्र. आकुंचिवि ( प ) ( भवि) 1 आकुंचण न [आफुअन ] संकोच, संक्षेप ( सम्म १३३ विसे २४६२ ) IV आकुंचियवि [आकुचित] संकुचित, 'रुद्धं गलयं कुचिया धमरणीयो पसरिया विवरणा (सुर ४, २१८) IV आकुन [आकुष्ट] १२ वि जिस पर आक्रोश किया गया हो वह (दे ३, ३२) । आकुल दे आउल (कप्प) IV आकू न [आकूत ] १ इङ्गित, इशारा (उप ७२८ टी) । २ अभिप्राय (विसे २८ ) V आकेवलियन [आकेवलिक ] संपूर्ण (माचा) 1 आकोण न [आकोटन] कूट कर घुसेड़ना (१३) । आकोस देखो अक्कोस = श्राक्रोश (पंच ४, २३) आकोसाथ क [ आकोशाय् ] विकसित । । होना। कृ. आसावंत (पराह १, ४) आनंद (मा) देखो आनंद मानकंदामि (पि ८८) । 1 आखंच (प) सक [ आ + कृष् ] पीछे खींचना सं. आि आखंडल [आखण्डल] इन्द्र (गुवा ४७)। धन [धनुष्] द्र ( उप १८६ टी) । भूइ पुं [भूति] भगवान् महावीर के मुख्य शिष्य गौतम स्वामी ( पउम ११८, १०२ ) Iv आगइ श्री [आगति ] धागमन (भाषा: ि २१४६) । आगइल आकड (महा) आगंतव्य देखो आगम = आ + गम् आगंतगार न [आगम्यगार] धर्मशाला, आगंतार मुसाफिरखाना (श्रीप धाचा) 1 आगंतु वि [आगन्तृ] प्रानेवाला (सून) आगन्तु देखो आगम = आ + गम् । आगंतुग ) वि [आगन्तुक ] १ प्रानेवाला । अगंतुय २ प्रतिथि (स ४७१; चारु २४; सुपा ३३६; श्रोघ २१६) । ३ कृत्रिम, अस्वाभाविक (सुर १५, १०) 1/ पाइअसद्द मण्णवो आगंतूण देखो आगम = आ + गम् IV आप सक [ आ + कम्पय् ] कंपाना, हिलाना । वकृ. आगंपर्यंत (स ३३१, ४४३ ) | आगंपिय देखो आकंपिय (पउम ३४, ४३) आगच्छ सक [ आ + गम् ] आना, आगमन करना । श्रागच्छइ (महा) । भवि. (५२३)। वह आगच्छंत, आगच्छमाण ( कालः भग) । हेकु. आगच्छित्त (पि ५७८) | आगत देखो आगय (सुर २,२४८ ) । आगन्ती श्री [दे] कूप-तुला (१३) आगम सक [ आ + गम् ]१ श्राना श्रागमन करना। २ जानना । भवि. प्रागमिस्स (पि ५२३; ५६० ) । वकृ. आगममाण ( श्राचा) । संह आगंतॄण आगमेता, आगम्म (पि ५८१; ५८२: प्रौप) । कृ. आगंतव्त्र (सुपा १२) । हे. आगंतुं (काल) 1 आगम [आगम] १ समागम (च १४५) । २ ज्ञान जानकारी चोविठाणा श्रागमे क' (सुख २, १३) । आगम ु [आगम] १ भागमन से १४, पुं ७१) २ शास्त्र, सिद्धान्त (जी ४०)। कुल. वि [ कुशल ] सिद्धान्तों का जानकार (उत्त) "जवि ['ज्ञ ] शास्त्रों का जानकार ( प्रारू) । 'णीइ स्त्री ['नीति] आगमोक्त विधि (धर्मं २) "वि [] शात्रों का जानकार (प्राण) परसंत वि[" परतन्त्र ] सिद्धान्त के अधीन (पंच) । 'बलिय वि [[बलिक ] सिद्धान्तों का अच्छा जानकार (भग ८८) "ववहार ["व्यवहार] सिद्धान्तानुमोदित व्यवहार (वव ) 1 । 1 आगम सक [ आ + गम् ] प्राप्त करना । संकृ. आगमित्ता ( सू २, ७, ३६) आगमण न [आगमन ] श्रागमन (श्रा ४) । आगमि नि [आगमिन] आने वाला धागामो (विसे ३१५४) । आगमिअ वि [ आगमित ] विदित, ज्ञातः 'तत्थ श्रच्छंतो प्रागमिश्र (सुख १, ३) । आगमिय वि [आगमिक ] १ शास्त्र - संबन्धी, शास्त्र- प्रतिपादित (उवर १५१ ) । २ शास्त्रोक्त वस्तु को ही माननेवाला (सम्म १४२) । For Personal & Private Use Only आकिदि - आगहिअ आगमिर वि [आगन्तृ] भानेवाला, श्रागमन करनेवाला (1 आगमिस्स वि [ आगमिष्यत् ] १ आगामी, होनेवाला (पउम ११८६३) २ भानेवाला (सम १९५३) । आगमिस्सा स्त्री [आगमिष्यन्ती ] भविष्यकाल, 'धईमकालम्मि धागमिस्साए (पच ६०) IV आगमेस देखो आगमिस्स ( अंत १६ आगमेसि । श्रप) } (५) । आगम्म देखो आगम = आ + गम् । आगय वि [आगत ] १ माया २ उत्पन्न (गाया १, ७) IV आगर देखो आकर = आकर (श्राचाः उप ८३३ टी) । V आगरि वि [आकरिन ] धान का मालिक, खान का काम करनेवाला ( परह १,२ ) । V आगरिस [आ] १ प्रदान (विसे २७८०; सम १४७) । २ खींचाव (विसे २७८० हे १,१७७) । ३ ग्रहण कर छोड़ देना (धात (भग २५, ७) 1 आगरिस सक [ आ + कृष्] खींचना। व नागरिसंत (धर्मसं ३७२) । आगरिसग वि [आकर्षक ] १ खींचनेवाला । २ पुं. प्रयस्कान्त, लोह - चुम्बक ( श्रावम ) । V आगरिसण न [आकर्षण ] खींचाव ( सम्मत्त २१५ ) 1 आगरिसणी श्री [आकर्षणी] विद्या-विशेष (सुर १३, ८१) आगरिसियन [आकृष्ट] खींचा हुआ (मुदा १६६६ महा) । आगल सक [ आ + कलय् ] १ जानना । २ लगाना । ३ पहुँचाना । ४ संभावना करना । आगलेइ ( उव ) । आगलेंति (भग ३, २ ) । संकृ. 'हत्थि खंभम्मि आगलेऊण' (महा) । आगल व [आग्लान ] ग्लान, बीमार (बृह १) । आगस सक [ आ + कृष् ] खींचना | भागसाहि (प्राचा २, ३, १, १४) । संकृ. आगसि बिये २२२) आगह देखो आगाह । संकृ. आगहइत्ता (दस ५, १,३१) आगहिअ वि [आगृहीत ] संगृहीत ( विसे २२०४) Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगाढ-आचारिअ पाइअसहमहण्णवो १०७ आगाढ घि [आगाढ] १ प्रबल, दुःसाध्य; इवाइ वि [तिपातिन् ] विद्या प्रादि आपविय वि [दे] गृहीत, स्वीकृत (मए 'कडुगोसहंव आगाढरोगिरणो रोगसमदच्छे' (उप के बल से आकाश में गमन करनेवाला (प्रौप) २०)IV ७२८ टी); 'नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्ग- | आगासिथ वि [आकाशित] अाकाश को आघवेत्तग वि [आख्यापयितृक] उपदेष्टा, धीरण वा अन्नमन्नस्स मोए प्राइइत्तए, नन्नत्थ प्राप्त (पौप) वक्ता (प्राचा) पागढेहि रोगायंकेहि (कस)। २ अपवाद, आगासिय वि [आकर्षित] खींचा हुआ आघस सक [आ + घस् ] थोड़ा घिसना। खास कारण (पंचभा)।३ अत्यन्त गाढ (निचू)। | (ौप)।। माघसावेज (निचू)iv जोग पुं[योग] योग-विशेष, गणि-योग आगासिया स्त्री [आकाशिकी] प्राकाश में आघा सक [आ + ख्या] कहना । (प्राचा)। (प्रोष ५४८)। पण्ण न [प्रज्ञ] शास्त्र, गमन करने की लब्धि-शक्ति (सूअनि १६३) आघा सक [आ + घ्रा] सूंघना। वकृ. आघाआगमः 'पागाढपरणंसु य भावियप्पा' (वव)। आगाह सक [अव + गाह.] अवगाहन | यंत (उप ३५७ टी)V सुय न [श्रुत आगम-विशेष (निचू) । करना, स्नान करना। आगाहइत्ता (दस ५, आघाय वि [आख्यात कथित, उक्त (प्राचा)। १, ३१) आधाय वि [आख्यात] १ उक्त, कथित आगामि वि [आगामिन आनेवाला (सुपा आगिइ स्त्री [आकृति] आकार, रूप, मूर्ति | (सूत्र १, १३, २)। २ न. उक्ति, कथन (सूप १, १, २,१) (सुर २, २२; विपा १, १)। आगार सक [आ+ कराय ] बुलाना, आह्वान V आघाय पुं[आघात] १ एक नरक-स्थान आगिट्टि स्त्री [आकृष्टि] आकर्षण (सुपा | करना । संकृ. आगारेऊण (आव) IV २३२)। (देवेन्द्र २६)। २ विनाश (उक्त ५, ३२, सुख आगार न [आगार] १ घर, गृह (णाया १, आगी देखो आगिइ; 'छिण्णावलिरुयगागी१; महा)। २ वि. गृहस्थ, गृही (ठा)। "त्थ दिसासु सामाइयं न जं तासु' (विसे २७०७) आघाय पुं[आघात] १ वध। २ चोट, प्रहार वि [ स्थ] गृही (पि ३०९) (कुमा; पाया १,६)V आगु पु [आकु] अभिलाष, इच्छा (आक) आगार पुं[आकार] १ अपवाद (उप ७२८ | आघायंत देखो आघा=आ + प्रा। आघं देखो आघव। 'सूत्रकृतांग' सूत्र के प्रथम टी पडि)। २ इंगित, चेष्टा-विशेष (सुर ११, आघाव देखो आघव। प्राधावेइ (पि ८८; श्रुतस्कन्ध का दसवाँ अध्ययन (सूम १,१०)M२०२)TV १६२) । ३ प्राकृति, रूप (सुपा ११५)। आघंस सक [आ + घृष ] घर्षण करना आगारिय वि [आगारिक] गृहस्थ-संबन्धी आधुढ वि [आघुष्ट] घोषित, जाहिर किया (निचू)। (विसे) हुआ (भवि) । आघंस सक [आ + घृष्] घिसना, थोड़ा | आधुम्म प्रक [आ + घूर्ण ] डोलना, आगारिय वि [आकारित] १ आहूत । २ | घिसना । आघंसिज (आचा २, २, १, ४)। हिलना, कांपना, चलना। उत्सारित, परित्यक्त (आव)।। आघंस वि [आघर्ष] जल के साथ घिसकर | आधुम्मिय वि [आपूर्णित] डोला हुआ, आगाल पुं [आगाल] १ समान प्रदेश में जो पिया जा सके वह (पिंड ५०२)। कम्पित, चलित; 'आधुम्मियनयणजुओ' (पउम रहना । २ सम भाव से रहना (प्राचा) । ३ | आघंसण न आघर्षण] एक बार का घर्षण | १०, २७८७, | १०, ३२,८७, ५६)। उदीरणा-विशेष (राज)। आघोस सक [आ + घोषय ] घोषणा आगास पुंन [आकाश] आकाश, अन्तराल | आघयण न [दे] वध-स्थान (णाया १,६- करना, ढिंढोरा पिटवाना। आघोसेह (स १०)। (उवा) । 'गमा स्त्री [गमा] विद्या-विशेष, पत्र १६७)।। आघोसण न आघोषण] ढिंढोरा, घोषणा जिसके बल से आकाश में गमन कर सकता है आघव सक [आ + ख्या] १ कहना, उपदेश (महा)। (पउम ७, १४४) । गामि वि [°गामिन्] देना। २ ग्रहण करना। प्राघवेइ (ठा)। | आचक्ख सक [आ + चक्षु ] कहना। आकाश में गमन करने वाला, पक्षि-प्रभृति कवकृ. प्राधविजए (भग) । भूका. आघं (सूमः ___वकृ. आचक्खंत (पि २५, ८८; नाट)। (प्राचा)। जोइणी स्त्री ["योगिनी] पक्षि पि ८८)। वकृ. आघवेमाण (पि ४४)। हेकृ. आचक्खिद (शौ) वि [आख्यात] उक्त, विशेष, 'पागासजोइपीए निसुप्रो सद्दोवि वामआघवित्तए (पि ८८) कथित (अभि २००)।। पासम्मि' (सुपा १८५)। त्थिकाय पुं [स्तिकाय] आकाश-प्रदेशों का समूह, आघवणा स्त्री [आख्यान] कथन, उक्ति आवरिय वि [आचरित] १ अनुष्ठित, विहित। अखण्ड पाकाश-द्रव्य (पएण १)। थिग्गलन (णाया १, ६)। २ न. पाचरण (प्रासू १११)। [दे] मेघरहित आकाश का भाग (प्रावम)। | आघवइत्तु वि [आख्यायक] कथक, वक्ता, | आचाम सक [आ + चामय ] चाटना, फलिह, फालिय पुं [स्फटिक] निर्मल | उपदेशक (ठा ४, ४)AV खाना, पीना । वकृ. प्राचामंत (कुप्र ३६) । स्फटिक-रत्न (रायः प्रौप)। फालिया स्त्री आघविय वि [आख्यात उक्त, कहा हुमा आचार देखो आयार = प्राचार (कुमा) । [फालिका] एक मीठा द्रव्य (परण १७)। ! (पि ४४)। आचारिअ देखो आयरिय = आचार्य (प्राप)। For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०% पाइअसहमहण्णवो आचिक्ख-आण आचिक्ख सक [आ + चक्ष ] कहना। | आजुत्त वि [आयुक्त] अप्रमादी (नि)V आडोविअ वि [दे] आरोपित, गुस्सा किया कृ. आचिक्खणीय (स ४०) आजुज्म अक [आ+ युध् ] लड़ना । हेकृ. | हुपा (दे १,७०) आचिक्खिय वि [आख्यात] कथित, उक्त आजुज्झिदुं (शौ) (वेणी १२४) । आडोविअ वि [आटोपिक] पाटोपवाला, (स ११९) । V आजुह न [आयुध हथियार (मै २४) स्फारित (पएह १, ३)। आचुण्णिअ वि [आचूर्णित] १ चूर-चूर आजोज्ज देखो आओज (विसे १५०३)। | आढई स्त्री [आढकी वनस्पति-विशेष (पएण किया हुआ (पउम १७, १२०) ।। आडंबर पुं [आडम्बर] १ आटोप, ऊपरी १) V आचेलक्क न [आचेलक्य] १ वस्त्र का प्रभाव | दिखाव (पान)। २ वाद्य की आवाज (ठा)। आढग पुन [आढक] १ चार प्रस्थ (सेर) का (कप्प) । २ वि. आचार-विशेषः 'आचेलको एक परिमाण। २ चार सेर परिमित चीज धम्मो' (पंचा) ।। (पव) (प्रौपः सुपा ९७)। आच्छेदण न [आच्छेदन] १ नाश। २ वि. आडंबर पुं [आडम्बर] वाद्य-विशेष, पटह | आढत्त वि[दे] आक्रान्त, 'एर तरम्मि विजयनाशक (कुमा)IV (अणु १२८)। वम्मनरवइणा पाढत्तो लच्छिनिलयसामी सूरआजत्थ देखो आगम + आ = गम । पाजत्थइ आडंबरिल्ल वि [आडम्बरवत् ] आडम्बरी तेनो नाम नरवई (स १४०) (प्राकृ ७४)। (पास) आढत्त वि [आरब्ध] शुरू किया हुआ, प्रारब्ध आजाइ देखो आयाइ (ठा; स १७८)।V आडविय वि [दे] १ चूणित, चूर-चूर किया (प्रोघ ४८२, हे २, १३८) ।। आजि देखो आइ% प्राजि (कुमाः दे १,४६) हा (षड्)V आढत्तिअ) वि[आरब्ध प्रारंभ किया हुआ आज.रण पुं [आजीरण] स्वनामख्यात एक आडविय वि [आटविक] जंगल में रहनेवाला, आढविअ (मंगल २३, चेइय १४८) । जैन मुनि, 'पाजीरणो य गीग्रो' (संथा ६७)। जंगली (स १२१)। आढप्प देखो आढव । आजीव । [आजीव] १ आजीविका, आडह सक [आ + दह ] चारों ओर से आढय देखो आढग (महा ठा ३, १)V आजीवग जीवन निर्वाह का उपायः 'भाजी- जलाना । पाडहइ (पि २२२, २२३)। प्राड आढव सक [आ + रम् ] प्रारंभ करना, वमेयं तु प्रबुज्जमाणो पुणो पुरणो पिप्परियाहंति (पि २२२, २२३)। शुरू करना। प्राढवइ (हे ४, १५५, धम्म सूति' (सूम)। २ जैन साधु के लिए भिक्षा आडह सक [आ + धा] स्थापन करना, २२)। कर्म. पाढप्पइ, माढवीभइ (हे ४, का एक दोष-गृहस्थ को अपनी जाति, कुल | नियुक करना। आडहइ। संकृ. आडहेत्ता २५४)। मादि की समानता बतलाकर उससे भिक्षा | (ोप)। आढा सक [आ + ह] पादर करना, ग्रहण करना (ठा ३, ४)। ३ गोशालक मत | आडाडा स्त्री [दे] बलात्कार, जबरदस्ती (दे मानना । माढाइ (उवा)। वकृ. आढामाण, का अनुयायी साधु (पत)। ४ धन का समूह | १,६४) आढायमाण (पि ५०० प्राचा)। कवकृ. (सूम)/ आडासेतीय पुं[आडासेतीक] पक्षि-विशेष आइज्जमाण (प्राचा)। आजीवग पु [आजीवक] १ धन का गर्व पिण्ड आढा स्त्री [आदर] संमान (पव २-गाथा (सूप) । २ सकल जीव (जीव ३ टी)। देखो | आडि स्त्री [आटि] १ पक्षि-विशेष। २ मत्स्य १५५: संबोध ५५) IV आढिअ वि [आहत ] सत्कृत, सम्मानित आजीवय ।। विशेष (दे ८, २४) । (हे १, १४३) आजीवण न [आजीवन] १ आजीविका, आडियत्तिय पुं [दे] शिविका-वाहक पुरुष | आढिअ वि [दे] १ इष्ट, अभीष्ट । २ गणनीय, जीवन-निर्वाह का उपाय । २ जैन साधु के | (?) (स ५३७; ५४१)IV माननीय । ३ अप्रमत्त, उद्यक्त। ४ गाढ़, लिए भिक्षा का एक दोष (वव) निबिड (द १,७४)। आडुआल सक [दे] मिश्र करना, मिलाना। आजीवणा स्त्री [आजीवना] ऊपर देखो | (दंस; जीत)। आण सक [ज्ञा] जानना, 'किंव न पाणह आडुपालइ (दे १, ६६)। आजीवय देखो आजीवगः 'पाजीवयदिट्टतेणं आडुआलि पुं[दे] मिश्रता, मिलावट (दे १, एअं' (से १३, ३)। प्राणसि (से १५, २८); 'अमिमं पाइप्रकव्वं पढिउं सोउं च जे ण चउरासीतिजातिकुलकोडीजोरिणपमुहसयसहस्सा आडोय देखो आडोवाटोप (सुपा २६२)। आति' (गा २) । आणे (अभि १९७) भवंतीतिमक्खाया' (जीव ३)। आडोलिय वि [दे] रुद्ध, रोका हुआ (णाया आण सक [आ + णी] लाना, पानयन आजीविय वि [आजीविक] गोशालक के करना, ले पाना । पाणइ (पि १७; भवि) । मत का अनुयायी (पएण २०० उवा)। आडोव सक [आ + टोपय् ] १ आडंबर वकृ. आणमाणे (णाया १, १६)। हेकृ. आजीविया स्त्री [आजीविका] १ निर्वाह करना। २ पवन द्वारा फूलाना। प्राडोवेइ आणिवि (अप) (भवि) । (आव)। २ जैन साधु के लिए भिक्षा का एक (भग) । संकृ. आडोवेत्ता (भग)। आण ' [आन] १ श्वासोच्छ्वास, सांस । दोष (उत्त)। आडोष पुं[आटोप] आडम्बर (उवा; सण)। २ श्वास के पुद्गल (पएण)। For Personal & Private Use Only wwwinelibrary.org Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आण-आणाइ पाइअसद्दमहण्णवो १०६ आणण न आम मुख, मुँह (कुमा), मुख्य-शिष्य (सम आण देखो जागयान (चारु ८) आणंदा स्त्री [आनन्दा] १ देवी-विशेष, आणयण न [आनयन] लाना, प्रानना (श्रा आणंछ देखो आअंछ । आणंछइ ( षड्)। मेरु की पश्चिम दिशा में स्थित रुचक पर्वत | १४ स ३७६) । आणंत देखो आणी। पर रहनवाला एक दिक्कुमारा (ठा ८) आणव सक [आ+ज्ञपय] प्राज्ञा देना, आणंतरिय न [आनन्तर्य] १ अविच्छेद, २ इस नाम की एक पुष्करिणी (राज) फरमाना । पाणवइ, पाणवेसि (पउम ३३, व्यवधान का प्रभाव (ठा ४, ३) । २ अनुक्रम, | आणादय विआनन्दित १ हषप्राप्त १००, १८)। वकृ. आणवेमाण (पि परिपाटिः 'पारणंतरियंति वा अणुपरिवाडित्ति (ौप)। २ रामचन्द्र के भाई भरत के साथ ५५१)। कृ. आगवेयव्व (महा) । वा अणुक्कमेत्ति वा एगठ्ठा' (प्राचू) । दीक्षा लेनेवाला एक राजा (पउम ८५, ३)। आणव देखो आणावा + नायम् ।। आणंद अक [आ + नन्द् ] आनन्द पाना, आणंदिर वि [आनन्दिन् आनन्दी, खुश आणवण न [आज्ञपन] आज्ञा, प्रादेश, फरखुश होना। रहनेवाला (भवि)। माइश (उवाः प्रामा)। आणंद सक [ आ + नन्दय् ] खुश करना। आणक्ख सक [परि + ईक्ष ] परीक्षा पाणंदेदि (शौ) (नाट)। कृ. आणंदिअव्व करना । हेकृ. आणक्खेउं (ोष ३६) आणवण न [आनायन] मैंगवाना (सुपा (रयण १०) आणच्छ देखो आअंछ । आगच्छइ (षड् ) ५७८) आणंद [आनन्द] १ अहोरात्र का सोल- आण? वि [आनष्ट] सर्वथा नष्ट (उत्त १८, आणवणिय वि [आज्ञापनिक] माज्ञा फरहवा मुहूर्त (सुज १०, १३)। २ एक देव- | ५०; सुख १८, ५०)। मानेवाला (राय २५)। विमान (देवेन्द्र १३१)V आणण न [आनन] मुख, मुँह (कुमा)। आणवणिया स्त्री [आज्ञापनिका, आनायआणंद पुं[आनन्द] १ हर्ष, खुशी (कुमा)। आणण न [आनयन] लाना (महा)। निका] देखो दोनों आणवणी (ठा २, १) २ भगवान् शीतलनाथ के मुख्य-शिष्य (सम आणत्त वि [आज्ञप्त] प्रादिष्ट, जिसको हुकुम आणवणी स्त्री [आज्ञापनी] १ क्रिया-विशेष, १५२)। ३ पोतनपुर नगर का एक राजा, दिया गया हो वह (गाया १, ८; सुर ४, हुकुम करना। २ हुकुम करने से होनेवाला जो भगवान् अजितनाथ का मातामह था कर्मबन्ध (नव १६)। (पउम ५, ५२)। ४ भावी छठवाँ बलदेव आणत्ति स्त्री [आज्ञप्ति प्राज्ञा, हुकुम (अभि आणवणी स्त्री [आनायनी] १ क्रिया-विशेष, (सम १५४) । ५ नागकुमार-जातीय देवों के ८१)। अर वि [ कर] प्राज्ञाकारक, नौकर मँगवाना । २ मँगवाने से होनेवाला कर्म-बन्ध स्वामी धरणेन्द्र के एक रथ-सैन्य का अधिपति (से ११,६५)। किंकर वि [ किङ्कर] (नव १९)। देव (ठा ५, १) । ६ मुहूर्त-विशेष (सम ५१)। नौकर (पएह)। हर वि [हर] प्राज्ञा आणा स्त्री [आज्ञा] प्रादेश, हुकुम (प्रोष ७ भगवान् ऋषभदेव का एक पुत्र (राज)। वाहक, संदेश-वाहक (अभि ८१) ६०)। २ उपदेश, “एसा आणा निग्गंथिया' ८ भगवान् महावीर के एक साधु शिष्य का आणत्तिया स्त्री [आज्ञप्तिका] ऊपर देखो (भाचा)। ३ निर्देश, 'उववानो रिणद्देसो प्राणा नाम (कप्प)। ६ भगवान् महावीर के दस (उवाः पि ८८)। मुख्य उपासकों (श्रावक-शिष्य) में पहला विणो य होंति एगट्ठा' (वव)। ४ आगम, आणत्थ न [आनर्थ्य ] अनर्थता (समु (उवा)। १० देव-विशेष (जं; दीव)। ११ । सिद्धान्त (विसे ८६४ एंदि)। ५ सूत्र की १५०)।राजा श्रेणिक के एक पौत्र का नाम (निर | व्याख्या (प्रौप)। ईसर पुं["ईश्वर प्राज्ञा आणप (अशो) देखो आणव = आ + ज्ञपय । २, १)। १२ 'उपासगदसा' सूत्र का एक फरमानेवाला मालिक (विपा १, १)। जोग प्राणपयति (पि ४)। अध्ययन (उवा) । १३ 'अणुत्तरोपपातिक पुं[योग] १ आज्ञा का सम्बन्ध (पंचा)। आणपाण देखो आणापाण (नव ६)। २ शास्त्र के अनुसार कृति, 'पावं विसाइतुल्लं दसा' सूत्र का सातवाँ अध्ययन (भग)। १४ 'निरयावली' सूत्र का एक अध्ययन | आणप्प वि [आज्ञाप्य प्राज्ञा करने योग्य | प्राणाजोगो अ मंतसमो' (पंचव)। रुइ स्त्री [रुचि (सून १, ४, २, १५)। (निर २, १)। १५ ब. देश-विशेष (पउम सम्यक्त्व-विशेष (उत्त)। २ वि. ६८, ६६) । पुर न [पुर] नगर-विशेष आणम अक [आ + अन्] श्वास लेना। आगमों पर श्रद्धा रखनेवाला (पंच)। व वि (बृह)। रक्खिय पुं[रक्षित] स्वनामख्यात पारगमंति (भग)। [वत् ] आज्ञा माननेवाला (पंचा)। वत्त एक जैन साधु (भग)V आणमणी देखो आणवणी (भास १८ पि | न [°पत्र] प्राज्ञापत्र, हुकुमनामा (से १, आणंदण न [आनन्दन] १ खुशी, हर्ष (सुपा ८८ २४८)। १८)। ववहार पुं[व्यवहार] व्यवहार४४०) । २ वि. खुश करनेवाला, आनन्द- आणय पुन [आनत] १ देवलोक-विशेष विशेष (पंचा)। "विजय न [विचय, दायक (स ३१३, रयण ३; सण) (सम ३५)। २ पुं. उस देवलोक-वासी देव "विजय] धर्मध्यान-विशेष, जिसमें प्राज्ञा आगम के गुणों का चिन्तन किया जाता है आणंदवड पुंदे] पहली बार को रज- (उत्त)। आणंदवस स्वला का रक्त वन्न (गा ४५७; आणय पुन [आनत] एक देवविमान (देवेन्द्र । (आप) । दे १,७२ षड्)। १३५)। - आणाइ पु[दे] शकुनि, पक्षी (दे १,६४)। For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० पाइअसद्दमहणव आणाइस-आदित्त E) । संकृ. आणिय ( नाट) । आणिअवि [आनीत ] लाया हुआ (हे १, २०१८ आणाइत [ आज्ञावत् ] महा मानने आणि देवी आणी आणियन्त्र (रमण आणून [दे] १६४ आज्ञा । कृ. पुं श्वपच, डोम (दे ) । वाला (पंचा आसक [आ + नी] लाना, ले माना । आणे (महा) । कृ. आणेयव्त्र (सुपा ११३) सं. आऊण (महा) IV । । आणे सक [झा] जानना आणे (नाट) आणेसर देखो आणा - ईसर (श्रा १०) | आत देखो आय ग्रात्मन् (हा १) आतंब देखो आयंब - प्राताम्र ( स २६१) । V (कुप्र | आतित्थ देखो आइस्य (कुम १०० २८६) आत्त देखो अत्त = श्रात्मन् 'आत्तहियं खु दुहेण लब्भई' ( सू १, २,२,३०) आत्त देखो अत्त = प्रात्त (अरण २१) । [आत्मीय] स्वकीय (अरण २१) । = आणाय वि [आनायित] मँगाया हुआ (कुमा २,२१) । ] आणापाण[आनप्राण] १ श्वासोवास (प्रासू १०४) । २ श्वासोच्छ्वास-परिमित समय (तु) पति श्री ['पर्याप्ति श्वासोच्छ्वास लेने की शक्ति (भग ६, ४) । आणापाणु स्त्री [आनप्राण ] ऊपर देखो; 'भग २५, ५) आणापाय पुं [आनप्राणक] श्वास वास-परिमित काम (क) IV आणाम पुं [आनाम ] श्वास, अन्तःश्वास (भग)। आणामियवि [ आनामित ] १ थोडा नमाया हुना (पण्ह १, ४) । २ अधीन किया हुआ ( पउम १८, ३७ ) IV आणाल पुं [आलान] १ बन्धन । २ हाथी बाँधने की रज्जु— डोरी । ३ जहाँ पर हाथी बांधा जाता है वह स्तम्भ, कील (हे २, १७७ प्रामा ) । क्खंभ, खंभ [°स्तम्भ] जहाँ हाथी बांघा जाता है वह स्तम्भ (हे २, ११७ ) । आणाव देखो आणव : = आ + ज्ञपय् । श्ररणा । (१२६) आणावित (नुषा ३२३) आणावेयव्य (धाचा) । आणाव सक [ आ + नायय् ] मँगवाना । आणावइ ( भवि ) । संकृ. आणाविय (नाट) आणाव (अप) सक [ आ + नी] लाना । ( १२० ) । आणि [दे] देखो आडिल (दे १,७४) । आणिक्क वि [दे] टेढ़ा, वक्र (से ६, ८६ ) । आणिक न [दे] तिर्यक मैथुन (दे १, ६१) आणी सक [ आ + नी] लाना । कर्म. मासीद (वि५४८). 'आनंती गुणेसु, दोसेसु परं मुहं कुरणंतीए' (मुद्रा २३६) । संकु. आणीय (जिसे ११६) क आणि १२३) आणी त्रि [आनीत ] लाया हुआ (हे १, १०१६ काल) आणुन [] १ मुख, मुँह (दे १, ६२; षड् ) । २ आकार, श्राकृति (दे १, ६ ) । आणुओगिअ वि [आनुयोगिक] व्याख्याकर्ता (दि ५१) । आणुकंपिय वि [आनुकम्पिक] दयालु, कृपालु (राज) आदरिस देखो आयंस (कुमा; दे २, १०७ ) । V आदाउ वि [ आदातृ] ग्रहण करनेवाला (विसे १५६८ ) । आणुगामि वि [अनुगामिन् ] नीचे देखो (विसे ७३९) । ~ आणुगामिय वि [आनुगामिक] १ अनुसरण करनेवाला पीछे-पीछे जानेवाला (भग)। २ न. अवधिज्ञान का एक भेद (श्रावम) 1 } है, २९) । ३ आणुगुण्णन [आनुगुण्य] १ श्रौचित्य, आणुगुन्न अनुकूलता ( धर्मंसं १९८६) । आणुधम्मिय वि [आनुधर्मिक ] इतर धर्मवालों को भी अभीष्ट, सर्वधर्म-सम्मत (प्राचा) । आणुपाणु देखो आणापाणु (कम्म २४० ) ५, 1 आणुपुव्वन [आनुपूर्व्य] अनुक्रम, परिपाटी (निर १,१) परिपाटी आणुपुब्बी स्त्री [आनुपूर्वी] क्रम, (अणु) । णाम, नाम न [नामन् ] नाम - कर्म का एक भेद (सम ६७) आदाण देखो आयाण (ठा ४, १); 'गब्भा दारण संजयासि तुमं' (पउम १५,६०६ उवा) । आदाण न [ आर्द्रहण ] उबाला हुआ, गरम किया हुआ जल तेल आदि) (उवा) । आदाणियन [आदानीय] लाभ न (मुल 8, 2) 10 आणावण न [आनायन] दूसरे से मँगवाना, ‘सयमाणयणे पढमा बीया श्रारणावणेण श्रन्नेहि (संबोध ७) । आदाणीय देखो आयाणीय (कम) । आदाय देखो आया = आ + दा हुकुम = आदि देखो आइ आदि (कप्फ म १.२ ) । आइच (ठा ५, ३, आणायण न [ आज्ञापन ] आज्ञा, हम ( षड् ) । V आणावि वि [आज्ञापित] जिसको हुकुम किया गया हो वह, फरमाया हुआ (सुपा २५१) आशुलोम वि[आनुलोमक] ब्युरोम, अनुकूल, मनोहर (दस ७५६) आणुवित्ति स्त्री [अनुवृत्ति ] अनुसरण (सं ६१) आदिश देखो आय (२१८) आदिच्छा श्री [आदित्सा ] ग्रहण करने की इच्छा (प्राव) । आदि देखो आप (भाग IV आणाविवि [आनायित ] मँगवाया हुआ आणूग पुंन [ अनूप] सजलप्रदेश (धर्मंसं आदिट्ठ देखो आइट्ठ (अभि १०९ ) । (मुवा ३०५) - आदिश देखो आइच (बजा १६० ) । ६२१) । } बेला आयंस) (गा २०४६ प्रति आईस आदंसग ४) आद (शौ) देखो अत्त = श्रात्मन् (द्रव्य है)। आद देखो आइ = आ + दा । प्रदए (सूत्र १, ८, ११) 1/ For Personal & Private Use Only } वि [ दे ] श्राकुल, व्याकुल, घब डाया हुआ (उप पृ २२१ हे ४, आदन्न _४२२) । आयाणवि [आददान ] ग्रहण करता हुआ (१३) १४ आदर देखो आयर = आ + ह । आदरइ (हे v, t) ~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदित्तु-आभिओगिय पाइअसहमहण्णवो आदित्तु वि [आदात] ग्रहण करनेवाला | आपीण देखो आवीण (गउड) 'पभंकर न [ प्रभङ्कर] विमान-विशेष (सम (ठा ७) आपुच्छ सक [आ +प्रच्छ ] प्राज्ञा लेना, आदिय सक [आ + दा] ग्रहण करना। सम्मति लेना । मापुच्छइ (महा)। वकृ. आभक्खाण देखो अब्भक्खाण (उवा)V पादियइ (उवा)। प्रयो. आदियाति (सूम आपुच्छत (पि ३६७)। कृ. आपुच्छणीय आभट्ट वि [आभाषित] १ कथित, उक्त २, १)। (णाया १, १)। संकृ. आपुच्छित्ता, आपु- | (सुपा १५१) । २ संभाषित (सुर २,२४८) आदिल्ल 1 देखो आइल्ल (पि ५६५)। च्छित्ताणं, आपुच्छिऊण, आपुच्छिउं, आभरण न [आभरण] अलंकार, प्राभूषण आदिल्लग) आपुच्छिय (पि ५८२,५८३; कप्प; ठा | (पि ६०३)IV आदी स्त्री [आदी] इस नाम की एक महानदी आभव्य वि [आभव्य होने योग्य, संभाव्य (ठा ५, ३)। आपुच्छण न [आप्रच्छन] आज्ञा, अनुमति | आदीण वि [आदीन] १ अत्यंत दीन, बहुत (णाया १, ६) आभा स्त्री [आभा] प्रभा, कान्ति, तेज (कुमा; गरीब (सूम १, ५)। २ न. दूषित भिक्षा । आपुट्ठ वि [आपृष्ट] जिसकी प्राज्ञा या सम्मति औप)। 'भोइ वि [भोजिन् दूषित भिक्षा को लेने- ली गई हो वह (सुर १०,५१)। आभागि वि [आभागिन् भोक्ता, भोगी; वाला, 'आदीणभोईवि करेति पावं' (सूम १, | आपुण्ण वि [आपूर्ण] पूर्ण, भरपूर (दे १, | 'प्रणेगाणं जम्ममरणाणं प्राभागी भवेज' (वसुः १०) २०) । णाया १, १८) आदीणिय वि [आदीनिक] अत्यन्त दीन आभार पुं [आभार] बोझ, भार (सुपा संबन्धी, 'प्रादीरिणयं दुकड़ियं पुरत्या' (सूम पूरं"ससि' (कप्प) TV २३६) आपूर देखो आऊर । कर्म, आपूरिजइ आभास सक [आ + भाष्] कहना, संभाआदु (शौ) देखो अदु (त्रि १०) (महा)। वकृ. आपूरमाण, आपूरेमाण षण करना । आभासइ (हे ४, ४४७) आदेज देखो आएज (पएह १, ४) (भगः राय)IV आभास पुं[आभास] १ जो वास्तविक में आदेस देखो ओएसम्पादेश (कुमा; वव आपेड ) वह न होकर उसके समान लगता हो । २ २,८)IV आपेडु देखो आपीड (पि १२२, महा)। विपरीत, 'करणाभासेहिं (कुमा)। आदेस पुं [आदेश] व्यपदेश, व्यवहार (सूम | आपेल्ल) आभासिय पुं[आभाषिक] १ इस नाम का १, ८, ३)। देखो आएसम्पादेश (सूम आप्पण न [] पिष्ट, पाटा (षड् )। एक म्लेच्छ देश । २ उसमें रहनेवाली म्लेच्छ २, १, ५६)। आफंसपुं[आस्पर्श] अल्प स्पर्श (हे १,४४) जाति (पण्ह १, १)। ३ एक अन्तर्वीप । आधरिस सक [आ + धर्षय ] परास्त आफर पुं[दे] द्यूत, जुआ (दे १, ६३) । ४ उसमें रहनेवाला, 'कहि णं भंते ! आभाकरना, तिरस्कारना । आधरिसहि (आवम)M आफाल सक [आस्फालय ] प्रास्फालन सियमणुयाणं प्राभसियदीवे नाम दीवे' (जीव आधा देखो आहा (पिंड)। करना, आघात करना । संकृ. आफालित्ता, ३; ठा ४, २)। आधार देखो आहार = आधार (पएह २,५)। आफालिऊण (पि ५८२, ५८६)। आभासिय देखो आभद्र (निर)। आधोरण पुं [आधोरण] हस्तिपक, महावत, आफालग देखो अप्फालण (गा ५४६) | आभिओइय देखो आभिओगिय (महा) । हाथीवान (धर्मवि १३६) आफुण्ण वि [दे] आक्रान्त (अणु १९२) आभिओग पुं [आभियोग्य] १ किंकरआनय देखो आणय (मनु) IV आफोडिअन [आस्फोटित] हाथ पछाड़ना | स्थानीय देव-विशेष (ठा ४, ४) । २ नौकर, आनामिय देखो आणामिय (पएह १, ४)। (पएह १, ३) । किंकर (राय)। ३ किंकरता, नौकरी (दस आपण देखो आवण (अभि १८८) आबंध सक [आ + बन्ध् ] मजबूत बाँधना। | ६, २)TV आपण्ण देखो आवण्ण (अभि ६५) वकृ. आबंधत (हे १,७)। संकृ. आब- | आभिओगा स्त्री आभियोग्यामाभियोगिक आपत्ति स्त्री [आपत्ति प्राप्ति (संबोध ३५, धिऊण (पि ५८६)IV भावना (उत्त ३६, २५५) । पव १४६)। आबंध ' [आबन्ध] संबन्ध, संयोग (गउड)। आभिओगि वि[ आभियोगिन् ] किंकरआपाइय वि [आपादित] १ जिसकी पापत्ति | आबद्ध वि [आबद्ध] बंधा हुआ (स ३५८)। | स्थानीय देव (दस ६)IV की गई हो वह । २ उत्पादित, जनित (विसे | आबाहा स्त्री [आबाधा] १ अल्प बाधा | आभिओगिय वि [आभियोगिक] १ मन्त्र १७४६) (णाया १, ४)। २ अन्तर (सम १५)। ३ | आदि से आजीविका चलानेवाला (परण आपायण न [आपादन] संपादन (श्रावक | मानसिक पीड़ा (बृह) २०)। २ नौकर स्थानीय देव-विशेष (णाया ८२; पंचा ६, १६)IV आभंकर पुं [आभङ्कर] १ ग्रह-विशेष (ठा १,८)। ३ वशीकरण, दूसरे को वश में आपीड पुं[आपीड] शिरोभूषण (श्रा २८) २, ३)। २ न. विमान-विशेष (सम ८)। करने का मन्त्रादि-कर्म (पंचाः भहा)। For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ पाइअसहम अभिओगिय- आमुक । पुं आभिजोगिय [आभियोगित] वशीकरण श्रादि से संस्कृत (आव) । अभियोग देखी अभिओग (पण २० ) । अभिग्गहिअ वि [अभिग्रहिक ] १ अभिग्रहसंवन्धी (पंचा ४ २. मिध्यात्व विशेष (पंच ४, २ ) । २०५) जी श्री [भी] मानसिक निर्णय | आमर [आम] संघर्ष, घाघात (कुमा) उत्पन्न करानेवाली विद्या-विशेष (1 आभोव एक [ आ + भोग] देखना २ जानना । ३ ख्याल करना । श्राभोएइ (उवा खाया। वह आभोएमान (कम्प) संह. आभोइत्ता, आभोएऊण, आभोइअ ( दस ५ महा पंचव) आभोय पुं [आभोग] १ सर्प की फरणा (स ६१०)। २ देखो आभोग (भाव) महा सुर ३, ३२) । अभिग्गहिय वि [आभिग्रहिक ] १ प्रतिज्ञा से संबन्ध रखनेवाला । २ प्रतिज्ञा का निर्वाह करनेवाला ( भाव ) । ३ न मिथ्यात्व - विशेष (श्रा ६) ।' अभिनंदिय पुं [अभिनन्दित ] श्रावण मास (चंद ) । आभिट्ट } वि [दे] प्रवृत्त, 'याभिट्टे, परआभिडिय मरणं (पउम ४,४२, ६, १६२; वजा ४२ ) IV आम अ [आम] अनुमति - प्रकाशक श्रव्ययहाँ (गा ४१७; सुर २, २४५ स ४५६) । आम [ भवत् ] आप (प्राकृ १) IV आम [आम] १ रोग, पीड़ा ( से १, ४४) । २ 'वि. श्रपक्व, कच्चा (श्रा २०)। ३ प्रशुद्ध, अपवित्र (चा) जर [र] धनी से उत्पन्न बुखार (गा ५१) । आमद व [ आमयिन् ] रोगी (१) । आमंत्र [आम] १ स्वीकार सूचक अव्यय -- हाँ ( सुख २, १३) । २ प्रतिशय, अत्यन्त (धर्मसं ६४९) IV आभिणिबोहिग देखो आभिणिबोहिय ( धर्मसं ८२३) । आभिणिबोहिय न [आभिनिबोधिक ] इन्द्रिय और मन से होनेवाला प्रत्यक्षज्ञान-विशेष (सम ३३) । अभिप्पाइअ वि [आभिप्रायिक ] अभिप्राय- आमंड न [दे] बनावटी श्रामला का फल, बाला (१४५) । कृत्रिम श्रामलक (उप पृ २१४; उप १४५ टी ) । आभिसेक वि [आभिषेक्य ] १ श्रभिषेक के प्रोग्य (निर १, १) । २ मुख्य, प्रधानः 'आभिहरि परिक आभीर पुं [आभीर ] एक शूद्र-जाति, आभीरिय अहीर, गोवाला (सूत्र १, ८, सुर ९, ६२) । V आभूअ वि [आभूत ] उत्पन्न (निर १, १ ) आमेडिय] [] देखो आभिट्ट (उप४२) । आभोइल व [आभोगित] देखा या कल्प) हुम्रा । आभोग पुं [आभोग] १ विलोकन, देखना (उप १४०)। २ प्रवेश (२२२१) । ३ उपकरण, साधन (श्रोघ ३६ ) । ४ प्रतिलेखन (ओघ ३ ) । ५ उपयोग, ख्याल (भग) । ६ विस्तार (गाया १, १ ) । ७ ज्ञान, जानना (भग २५, ६; ठा ४) । देखो आभोय श्राभोग = भोगण न [आभोगन] ऊपर देखो (दि) । आभोगि वि [ आभोगिन् ] परिपूर्ण, 'जह कमलो निरवायी जाम्रो सुपा आमंडण न [दे] भाण्ड, पात्र (दे १, ६८ ) । आमंत सक [ आ + मन्त्रय् ] १ आह्वान आमंत स [ आ + मन्त्रय् ] १ बाान करना, संबोधन करना । २ अभिनन्दन करना । वकृ. वह आमंतेमाण (माचा संह. आमंतित्ता (कप्प ); आमंतिय (सूत्र १, ४) । आमंतण न [आमन्त्रण] आह्वान, संबोधन ( वव)। वयण न [*वचन] संबोधन-विभक्ति (बिसे २४२७) आमंतणी श्री [आमन्त्रणी]१ संबोधन की भाषा, प्राह्वान की भाषा ( दस ६) । २ भाठवीं संबोधन-विभ (ठा) आमंतिय वि [आमन्त्रित ] संबोधित (विपा १, ९ ) । V आमग देखो आम (गाया १, ६) । - आमघाय [अमाघात] मारिदान, हिंसा निवारण (पंचा ९, १५६ २०; २१) | आमज्ज सक [ आ + मृज् ] एक बार साफ करना । श्रमज्जेज ( श्राचा) । वकृ. आमज्जंत (नि) प्रयो. आमजावंत (नि) 1 For Personal & Private Use Only आम [आम] रोग, दर्द ( स ५६६; स्वप्न ६० ) । करणी स्त्री ['करणी] विद्या विशेष (सू २.२)। [आमराज] एक प्रसिद्ध राजा आमयवि [आम] संमत, अनुमत (विवे 225) 1v आमराय ( ती ७) 1 आमरिम [आम] स्पर्श (मिले ११०६) । आमलन [आमलक] मामला का फल ( सम्मत्त १५६ ) आमलाई श्री [आमलकी] मामला का पेड़ (8) IV आमलकप्पा स्त्री [आमलकल्पा] नगरी - विशेष ( गाया २, १ ) । आमला [आमरक] १ चारों ओर से मारना । २ विपाक श्रुत का एक अध्ययन (ठा १० ) । आमलग) पुंन [आमलक] १ श्रमला का आमलय ) पेड़ (ठा ४) । २ आमला का फल, 'मुक्खोवा धामलगो विय करतले देखियो भगवा' (वसुः कुमा आमलय न [दे] नूपुर-गृह, नूपुर रखने का. स्थान (दे १,६७) । । आमसिण वि [आम] १ थोड़ा चिकना २१२४३) । आमिल सक [ आ + मुच् ] छोड़ना आमित (भवि आमिस न [आमिष ] नैवेद्य (पंचा ६, २६ कुत्र ४२३; ती १३ ) V आमिसन [आमिष] १ मांस (खामा १, ४) २. मनोहर सुन्दर (से, ३१) । ३ श्रासक्ति का कारण, 'प्रामिसं सव्वमुज्झित्ता विहरिस्सामी निरामिसा (उत्त १४) । ४ आहार, फलादि भोज्य वस्तु (पंचा ६) आमुच एक [ आ + मुच्] १ छोड़ना २ उतारना । ३ पहनना । वकृ. आमुचंत ( धाक ३८) IV आमुक्कवि [आमुक्त] १ त्यक्त (गा ५३६६ गउड) । २ उतारा हुआ (आक ३८ ) । ३ परिहित (बेली १११ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुट्ठ-आनंदम पाइअसमयको आमुट्ठ वि [आमृष्ट] १ स्पृष्ट । २ उलटा आमोद ) देखो आमोअ (स्वप्न ५२; सुर ३, किया हुआ (प्रोध) । आमोय ४१: काल) आमोय [आमोक] कलवार-गुज्ज, कतवार का ढेर, कूड़े का पुञ्ज ( श्राचा २, ७, ३) आमोरअ वि [दे] विशेषज्ञ, अच्छा जानकार (दे १,६६) । आमुस सक [ आ + मृश ] थोड़ा या एक बार स्पर्श करना वह आनुसंत, आमुस माण (ठा १३ श्राचा; भग ८, ३) आमेडणा श्री [आडना] विपर्यस्त करना, आमोस [आमोष] पोर (१२) आमोस [आमर्श, [३] स्पर्श, ना 'फरिसमामोसो' ( परह २, १टी विसे ७८१) । उलटा करना ( परह १, ३) I आमेल पुं (दे) लट, जटा (दे १, ६२) IV आमेल [[][ आपद] फूलों की माला, जो आमेला - मुकुट पर पार की जाती है आमेल j) शिरोभूषण (हे १, १०५ प आमोस वि [आमोषक ] १ चोर, चोरी करनेवाला (ठा ५, २) । २ चोरों की एक onfer (ure P, $) 1 आमोसदि [आमशौषधि] लम्बि-विशेष, जिसके प्रभाव से स्पर्श मात्र से ही सब रोग नष्ट होते हैं ( परह २ १ श्रौष) आय आमुय सक [ आ + मुच् ] छोड़ना, त्यागना । श्रमु (गउड)। १२२: भग ६, ३३) । आमेह देखो आमेल मापी (२०६) आमेडि वि [आपीडित] वर्तसित शिरो भूषण से विभूषित ( से ६, २१) आमोअ क [आ + मुद्] खुश होना । संकृ. आमोएवि (अप) (भवि) । आमोअ [दे. आमोद ] हर्षं, खुशी (दे १, ६४) IV आमोअ पुं [आमोद ] सुगन्ध, अच्छी गन्ध (से १, २३) I. आमोअ पुं [आमोद] वाद्य विशेष ( राय ४६ ) आमोअअवि [आमोदक ] १ सुगन्ध उत्पन्न करनेवाला । २ मानन्द-जनक (४०) आमोअअवि [आमोदद] सुगन्ध देनेवाला ( से ६, ४०) । आमोइअनि [आमोदित] दृष्ट (भ) आमोक्ख [आमोक्ष] मोल, मुनि, पूर्ण छुटकारा (सूत्र १, १४, १३) आमोक्खा स्त्री [आमोक्ष ] १ छुटकारा । २ परमपि ४६० ) । मोड[]] (१६२) आमोडग न [आमोटक] १ वाय-विशेष (प्राच्) । २ फूलों से बालों का एक प्रकार का बन्धन ( उत्तनि ३ ) M आमोदन न [आमोटन ] थोड़ा मोड़ना (पह १, १) । सामोदिवि [आमोटित] मर्दित ( माल 20) 1 १५ । [आ] सम्बन्धी २ करे के बाल से उत्पन्न (वस्त्रादि ) ( श्राचा) । आय वि [आगत ] माया (काल) आयवि [आत] गृहीत 'आयचरित करे राम (३६) ४ आयइजणग न [आयतिजनक ] तपश्चर्याविशेष (पव २७१) । आयइत्ता देखो आइ = श्रा + दा आयंक पुं [आतङ्क] १ दुःख । २ पीड़ा (चाचा) ३ दुःसाध्य रोग, प्राशुपाती रोग [आ] १ लाभ प्राप्ति, फायदा (२पति-विशेष (१) कारण, हेतु (विसे १२२६ २६७९ ) । ४ अध्ययन, पठन (विसे १५८ ) । ५ गमन (विसे २७९२) ( औप ) 1 [[]] अध्ययनशास्त्रांश-विशेष ( च आयंकि वि [आतङ्किन] रोगी, रोग-युक्त २५०) TV (ठा ५, ३, टी-पत्र ३४२ ) । आरंगुल न] [आत्मा] परिमाण का एक भेद, 'जे जया मरणूसा, तेसि जं होइ मारणरूवं तु । भरियामणिया दमं तु (विसे ३४० टी) | आयंच सक [ आ + तञ्च् ] सींचना, छिड़कना । श्रयंचइ, श्रयंचामि (उवा) । आयंचणिया श्री [आवनिश] कुम्भकार का पात्र विशेष, जिसमें वह पात्र बनाने के समय मिट्टीवाला पानी रखता है (भग १५) । आर्यचणी स्त्री [ती] ऊपर देखो (भग १५) । आयंत वि [आचान्त] जिसने याचमन किया हो वह (गाया १, १ स १८९ ) आयंत देवो आयामा+या आयंवम वि [आत्मतम ] धात्मा को वि करनेवाला (ठा ४, २) आय [ आग] १ पाप । २ अपराध, गुनाह (श्री २३) । आयी [आत्मन] १ चात्मा, जीव (सम १) । २ निज स्वयं 'अहाल हुस्सगाई रयरगाई गहाय श्रयाए एगंततं श्रवक्कामंत (भग ३, २) । ३ शरीर, देह (लामा १ ८ ४ ज्ञान । आदि धारमा के इस (धाचा गुप्त वि [गुप्त ] संपत, जितेन्द्रिय 'आपत्ता जिई दिया' ( सूत्र ) । जोगि वि [" योगिन् ] मुमुक्षु, ध्यानी (म) "ट्ठि वि [र्थिन] मुमुधु 'एवं से भिक्खू पावडी' (सूप) "तंत वि [[व] स्वाधीन, स्व (राज) [ava] परम पदार्थ, ज्ञानादि रत्नन्वय (याचा पमाण ["प्रमाण] साढ़े तीन हाथ का परिमाण वाला (पद) पचाय म For Personal & Private Use Only १९३ का एक भाव | [["प्रवाद] बारहवें पेन भाग सातवां पूर्व (सम २५) ['भाव] १ ग्रात्म-स्वरूप । २ निज श्रभिप्राय (भग) ३ विषयासकि, विराइजो सम्ब प्रायभा (तुम) व [ज] पुत्र लड़का (भवि)। रक्खनि [र] र (गाया १, ८) । ववि [ वत् ] ज्ञानादि आत्मगुणों से संपन्न ( श्राचा)। हम्म वि [न] धारमा को अधोगति में जानेवा २ देखो आहाकम्म (पिंड) आय देखो आत्र 'किचायरक्खिम्रो जो पुरिसो सो होइ वरिससयाऊ' (सुपा ४५३) । आइ स्त्री [आयति] भविष्य काल (सुर ४, १३१) । आयंतम वि [ आत्मतमस् ] १ अज्ञानी, अजान । २ क्रोधी (ठा ४, २) आर्यदम वि [आत्मदम] १ मात्मा को शान् Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ पाइअसद्दमहण्णवो आयप-आयव रखनेवाला, मन और इन्द्रियों का निग्रह करने- आयड्ढि स्त्री [आकृष्टि] ऊपर देखो (गउडा । ६ निर्णय, निश्चय (सूत्र १, ६)। ७ निर्दोष वाला। २ अश्व आदि को संयत रहने को दे ६, २१)। स्थान (साधं १०६)। सिखानेवाला (ठा ४, २)। आयड्ढि पुं[दे] विस्तार (दे १, ६४)। आयर सक [आ+चर ] आचरना, करना। आयंप पुं [आकम्प] १ क.पना, हिलना। आयड्ढिय वि [आकृष्ट] खींचा हुआ (काल; | प्रायरइ (महा; उब)। वकृ. आयरंत, २ कैंपानेवाला (पउम ६६, १८)। कप्पू) IV आयरमाण (भग)। कृ.आयरियव्य (स १). आयंपिय वि [आकम्पित] कॅपाया हुआ (स आयण्ण सक [आ + कर्णय ] सुनना, | आयर पुं [आकर] १ खानि, खान । २ समूह ३५३) श्रवण करना । पापगणेइ (गा ३६५)। वकृ. (काल; कप्पू) ।। आयंब अक [वे ] काँपना, हिलना ।। आअण्णंत (से १, ६५; गा ४६५; ६४३)। आयर देखो आयार % प्राचार (पुष्फ ३५६)। प्रायंबइ (हे ४, १४७)।। संकृ. आयण्णिऊण (उवा)IV आयर पुं [आदर] १ सत्कार, सम्मान आयण्णण न [आकर्णन] श्रवण (महा)M (गउड) । २ परिग्रह, असंतोष (पएह १,५) । आयंब । वि [आताम्र] थोड़ा लाल | आयंबिर । (प्रोपः सुर ३, ११०, सुपा ६, । आयण्णिय वि [आकर्णित] सुना हुआ | ३ ख्याल, संभाल (कप्पू) । (उवा) IV आयरंग पुं [आयरङ्ग] इस नाम का एक आययंत वकृ [आददत् ] ग्रहण करता आयंबिल न [आचाम्ल] तपो-विशेष, आंबिल म्लेच्छ राजा (पउम २७, ६)iv (गाया १,८) । वड्ढमाण न [ वर्धमान] हुआ (सूत्र २, १)IV आयरण न [आचरण] प्रवृत्ति, अनुष्ठान (पडि)।। तपश्चर्या विशेष (अंत ३२; महा) आयत्त वि [आयत्त] अधीन, स्ववश (गा | आयरण न [आदरण] पादर (भग १२,५)। ३७६) IM आयंबिलिय वि [आचाम्लिक आम्बिल-तप आयरणा स्त्री [आचरणा] परंपरा का रिवाज का कर्ता (ठा ७; पण्ह २, १) । आयन्न देखो आयण्ण । वकृ. आयन्नंत (सुर (चेइय २५) ।। आयंभर । वि[आत्मम्भरि] स्वार्थी,अकेल१, २४७) । आयरणा स्त्री [आचरणा] पाचरण, अनुष्ठान आगंभरि पेटू (ठा ४, ३) आयन्नण देखो आयण्ण ग (सुर ३, २१०) (सट्ठि १४५: उवर १४५) । आयंव अक [आ+कम्प् ] कांपना, हिलना | आयम सक [आ + चम्] आचमन करना, | अयरिय वि [आचरित] १ अनुष्ठित, विहित, (प्रामा) कुल्ला करना। हेकृ. आयमित्तर (कप्प)। कृत (उवा) । २ न. शास्त्र-सम्मत चाल-चलन; आयंस आदर्श १ दर्पण (पग्रह १,४ वकृ. आयममाण (ठा ५) IV 'असढेरण समाइन्नं जं कत्थइ केरणइ असावज । आयंसन) सून १,१)। २ बैल आदि के गले आयमग न [आचमन] शुद्धि, शौच (श्रा न निवारियमन्नेहि य, बहुमणमयमेयमायरिय' का भूपण-विशेष (अण)। मुह पुं[°मुख १ | १२ गा ३३० निचू ; स २०६; २५२) ।। (उप ८१३) एक अन्तर्वीप। २ उसके निवासी मनुष्य (ठा | आयमिअ देखो आगमिअ (हे १. १७७)। | आयरिय पुं[आचार्य] १ गण का नायक, ४, २)। आयमिणी स्त्री [आयमिनी] विद्या-विशेष मुखिया (आवम)। २ उपदेशक, गुरु, शिक्षक आयक्ष देखो आइक्ख । प्रायक्वाहि (भग)M मायक्वाहि (भग)M (सूम २, २)। (भग १, १)। ३ अर्थ पढ़ानेवाला (भग अयग वि [आजक] देखो आय = आज आयय वि [आयत १ लम्बा. विस्तृत (उवाः | ८,८)IV (आचा) आयज्म अक [वेप् ] काँपना, हिलना । पउम ८, २१५) । २ पुं. मोक्ष (सूत्र १,२)/आयरिस देखो आयंस (हे २, १०५) । आयय सक [आ + दद् ] ग्रहण करना । आयल्ल अक [लम्ब् ] व्याप्त होना । २ आयज्झइ (हे ४, १४१ षड् )। वकृ. आयए, प्राययंति (दस ५, २, ३१; उत्त ३, लटकना; 'केसकलाउ खंधि प्रोगल्लइ, परिआयग्भंत (कुमा) ।। ७)। वकृ. पाययमाण (पिंड १०७) मोकलु नियंबि आयल्लई' (भवि) । आयट्ट सक [आ+ वर्त्तय ] १ फिराना, आययण न [आयतन] १ प्रकटीकरण (सूत्र आयल्लया स्त्री [दे] बेचैनी, 'मयरणसरविहुधुमाना। २ उबालना। वकृ. आअटुंत (से | १,६,१६)। २ आदान कारण (सूत्र १, रियंगी सहसा पायल्लयं पत्ता' (पउम ८, ५, ७५, ८, १६) । कवकृ. आयट्टिजमाण १२, ५)। १८६); 'विद्धो अणंगबाणेहि भत्ति आयल्लयं (णाया १,६)IV आययण न [आयतन] १ घर, गृह (गउड)। पत्तो' (सुर १६, ११०); "कि उण पिनवआयट्टण न [आवर्तन] फिराना (सुपा ५३०)। २ पाश्रय, स्थान (आचा)। ३ देव-मन्दिर अस्स मप्रणापल्लनं अत्तणो उइदेहिं अक्सरेहि आयड्ढ सक [आ + कृष् ] खींचना। (आवम)। ४ धार्मिक जनों का एकत्र होने णिवेदेमि' (कप्पू) । देखो आअल्ल । आयड्ढइ (महा)। कवकृ. आअड्ढिजत (से का स्थान, आयल्लिय वि [दे] आक्रान्त, व्याप्त (उप ५, २८)। संकृ. आयड्ढिऊण (महा)। 'जत्थ साहम्मिया बहवे सीलवंता बहुस्सुया ।। १०३१ टी भवि) । आयडूण न [आकर्षण] आकर्षण, खींचाव चरित्तायारसंपएणा आययणं तं वियाण हु' आयव पुं[आतपवत् ] अहोरात्र का २४वाँ (सुपा १२, ७६ गा ११८)।। (धम्म)। ५ कर्मबन्ध का कारण (प्राचा)। मुहूर्त (सुज १०, १३)IV For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयव-आयास पाइअसहमहण्णवो ११५ आयव वि [आतप] १ उद्योत, प्रकाश (गा १, १४, १७; तंदु २०)। पय न [पद] | आयारिमय न [आचारिमक] विवाह के ४६)। २ ताप, घाम (उत्त)। ३ न. मुहूर्त- ग्रन्थ का प्रथम शब्द (प्रण १४०) समय दिया जाता एक प्रकार का दान (स विशेष (सम ५१)। "णाम, 'नाम न | आयाण न [आयान] १ आगमन । २ अश्व । ७७) V [नामन नामकर्म का एक भेद (सम ६७)M का एक प्राभरण-विशेष (गउड) आयारिय वि [आकारित] १ पाहूत, बुलाया आयवत्त न [आतपत्र] छत्र, छाता (गाया आयाम सक [आ+ यमय ] लम्बा करना। हुआ (पउम ६१, २५)। २ न. पाह्वान-वचन, १, १)V कवकृ. आआमिजंत (से १०६)। संकृ. प्राक्षेप-वचन (से १३, ८० अभि २०५) ।। आयवत्त पुं[आर्यावर्त भारत, हिंदुस्तान आयामेत्ता, आयामेत्ताणं (भगः पि ५८३)Mआयाव सक [आ + तापय ] सूर्य के ताप (इक)। आयाम सक [आ + यम् ] शौच करना, | में शरीर को थोड़ा तपाना। २ शीत, आतप आयवा स्त्री [आतपा] १ सूर्य की एक अग्र- शुद्धि करना । मायामइ (पव १०६ टी)IV | प्रादि को सहन करना। वकृ. आयावंत पउम महिषी-पटरानी। २ इस नाम का 'ज्ञाता- आयाम सक [दा] देना, दान करना। प्राया- ६, ६१); आयाति (काल); आयात धर्मकथा' सूत्र का एक अध्ययन (णाया मेइ (भग १५)। संकृ.आयामेत्ता (भग १५)M (पउम २६. २१); आयावेमाण (महा भग)। आयाम पुं[आयाम लम्बाई, दैर्घ्य (सम २ | हेकृ. आयावेत्तए (कस)। संकृ. आयाविय आयस वि [आयस] लोहे का, लोह-निर्मित गउड) IV (प्राचा)IV (गउड निचू १) आयाम [दे] बल, जोर (दे १, ६५) आयाव पु [आताप] असुरकुमार-जातीय देवआयसी स्त्री [आयसी] लोहे का कोश (पराह आयाम न [आचाम्ल] तपो-विशेष, आयंबिलः । विशेष (भग १३, ६)। 'नाइविगिट्ठो उ तवो छम्मासे परिमियं तु | आयाव पुं [आताप] प्रातप-नामकर्म (पंच ५, आया देखो आय = प्रात्मन् । आयाम' (आचानि २७२; २७३) । १३७) IV आया सक [आ + या] आना, प्रागमन | आयाम । न [आचाम] अवस्त्रावरण, चावल आयावग वि [आतापक] शीत प्रादि को करना। प्रायति (सपा ५७)। प्रायाइंति | आयामग, आदि का पानी (प्रोध ३५.६ उत्त | सहन करनेवाला (सन २.२)IV मायाइंसु (कप्प) । वकृ. आयंत ।। १५)। आयावण न [आतापन] एक बार या थोड़ा आया सक [आ + दा] ग्रहण करना, स्वीकार आयामणया स्त्री [आयामनता] लम्बाई प्रातप आदि को सहन करना (गाया १,१६)। करना। आयइज्ज (उत्त ६)। कृ. आया(भग)। भूमि स्त्री [भूमि] शीतादि सहन करने का णिज्ज (ठा ६)। संकृ. आयाए, आदाय, आयामि वि [आयामिन् लम्बा (गउड) VM स्थान ( भग ६, ३३)। आयाय (कस कप्प; महा)। आयामुही स्त्री [आयामुखी] इस नाम की | आयावणया। स्त्री [आतापना] ऊपर देखो आयाइ स्त्री [आजाति] १ उत्पत्ति, जन्म (ठा एक नगरी (स ४३१) V आयावणा (ठा ३, ५)। १०)।२ जाति, प्रकार। ३ आचार, आचरण आयाय देखो आया -प्रा + दा । आयावय वि [आतापक] शीत प्रादि को (प्राचा)। ट्ठाण न[स्थान] १ संसार, आयाय वि [आयात] आया हुआ (पउम १४, सहन करनेवाला (पएह २, १)। जगत् । २ 'पाचाराङ्ग' सूत्र के एक अध्ययन १३०; दे १,६६; कुम्मा १६) । आयावल पु[दे] सबेर का तड़का, का नाम (ठा १०) आयार सक [आ + कारय् ] बुलाना, आह्वान आयावलय बालातप (दे १,७०; पान) आयाइ स्त्री [आयाति] १ आगमन । २ करना। पापारेदि (शौ) (नाट) । संकृ. आआ- आयावि वि [आतापिन् ] देखो आयावय उत्पत्ति, गर्भ से बाहर निकलना (ठा २, ३)। रिअ, आयारेऊण (नाटः स ५७८) । (ठा ४)। ३ आयति, भविष्य काल (दसा) आयार ' [आकार] १ आकृति, रूप (णाया | आयास सक [आ + यासय् ] तकलीफ आयाए देखो आया = आ + दा । १, १) । २ इङ्गित, इशारा (पान) IV | देना, खिन्न करना । आमासंति (पि ४६०)। आयाण पुंन [आदान] १ ग्रहण, स्वीकार | आयार ' [आकार] 'अ' अक्षर (कुप्र ३२) संकृ. आआसिअ (मा ४५) V (प्राचा)। २ इन्द्रिय (भग ५, ४)। ३ जिसका आयार पुं [आचार] १ आचरण, अनुष्ठान आयास पुं [आयास] १ तकलीफ, परिश्रम, ग्रहण किया जाय वह, ग्राह्य वस्तु (ठा ४ सूम (ठा २,३; प्राचा)। २ चाल-चलन, रीत-भात खेद (गउड) । २ परिग्रह, असन्तोष (पएह १, २,७)। ४ कारण, हेतु; 'संति मे तउ आयाणा (पउम ६३, ८)। ३ बारह जैन अङ्गग्रन्थों में ५)। लवि स्त्री [लिपि] लिपि-विशेष जेहि कीरइ पावगं (सूअ १, १); 'किंवा पहला ग्रन्थ, 'पायारपडमसुत्ते' (उप ६८०) । (पएह १).V दुक्खायाणं अट्टज्झाणं समारुहसि' (पउम ६५, ४ निपुण शिष्य (भग १, १)। क्खेवणी आयास देखो आयंस ( षड्) IV ४८)। ५ आदि, प्रथम (अणु)। स्त्री [क्षेपणी] कथा का एक भेद (ठा ४)। आयास देखो आगास (पउम ६६, ४०; हे आयाण न [आदान] १ संयम, चरित्र (सूम भंडग, भंडय न [ भाण्डक] ज्ञानादि का | १,८४) । तिलय न [तिलक] नगर१, १२, २२) । २१ आदेय, उपादेय (सून उपकरण-साधन (णाया १, १,१६) विशेष (भवि)/ For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ पाइअसद्दमहण्णवो आयासइत्तिअ-आरभ आयासइत्ति वि [आयासयित] सकलीफ | वकृ. आरंभंत (गा ४२, से ८, ८२) । संकृ. आरड सक [आ + रट्] १ चिल्लाना, बूम देनेवाला (अभि ६३)V आरंभइत्ता, आरंभिअ (नाट)V मारना । २ रोना । वकृ.आरडंत (उप १२८ आयासतल न [आकाशतल] चन्द्रशाला, | आरंभ पुं [आरम्भ] १ शुरूयात, प्रारम्भ | टी) । संकृ. आरडिऊण (महा)। घर के ऊपर की खुली छत (कुप्र ४९२) । (हे १, ३०)। २ जीव-हिंसा, वध (श्रा ७)। | आरडिअन [दे] १ विलाप, कन्दन । २ वि. आयासतल न [दे] प्रासाद का पृष्ठ भाग (दे ३ जीव, प्राणी (पएह १,१)। ४ पाप-कर्म चित्र-युक्त (दे १, ७५) । १,७२) । (आचा)। य वि [ज] पाप-कार्य से उत्पन्न | आरण पुं [आरण] १ देवलोक-विशेष (अनु; आयासलव न [दे] पक्षिगृह, नीड़ (दे १, (आचा)। "विणय पुं["विनय आरंभ का | सम ३६% इक)। २ उस देवलोक का निवासी अभाव । "विणइ वि [विनयिन्] आरंभ देवः 'तं चेव पारणच्नुय प्रोहीनाणेण पासंति' आयासिअ वि [आयासित] परिश्रान्त, खिन्न से विरत (प्राचा)। (संग २२१; विसे ६६६) (गा १६०) आरंभग।' [आरम्भक] १ ऊपर देखो | आरण पुंन [आरण] एक देवविमान (देवेन्द्र आयाहम्म वि [आत्मन्न] १ आत्मविनाशक । आरंभय ) (सूत्र २, ६)। २ वि. शुरू करने- १३५) २ न. आधाकर्म दोष (पिंड ६५) । वाला (विसे ६२८७ उप पृ३)। ३ हिंसक, आरण न [दे] १ अधर, होंठ । २ फलक (दे आयाहिण न [आदक्षिण] दक्षिण पावं से पाप-कर्म करनेवाला (प्राचा)IV भ्रमण करना ( उवा )। पयाहिण वि | आरणाल न [आरनाल] कांजी, साबूदाना [प्रदक्षिण ] दक्षिण पार्क से भ्रमण कर (गउड )। २ पाप-कार्य करनेवाला (उप __ (दे १,६७)।। आरणाल न [दे] कमल, पद्य (दे १, ६७)।। दक्षिण पावं में स्थित होनेवाला (विपा १, ८६६)IV आरण्ण वि [आरण्य जंगली, जंगल-निवासी १)। पयाहिणा स्त्री [प्रदक्षिणा] दक्षिण आरंभिअ ' [दे] मालाकार, माली (दे १, पार्श्व से परिभ्रमण, प्रदक्षिणा (ठा १)TV ७१)IV (से ८, ५६) आरंभिअ वि [आरब्ध] प्रारब्ध, शुरू किया आयु देखो आउ = आयुष् । वंत वि [°वत् ] आरण्णग) विआरण्यक] १ जंगली,जंगल शुरू किया आरण्णय } वि[ हुआ (भवि) IV आरण्णय निवासी, जंगल में उत्पन्न (उप चिरायुष्क, दीर्घ आयुवाला (परह १, ४)V आरंभिअ देखो आरंभ = आ + रम् ।। २२६७ सा)। २ न. शास्त्र-विशेष, उपनिषद्आर पुं [आर] १ इह-लोक, यह जन्म (सूत्र आरंभिया स्त्री [आरम्भिकी] १ हिंसा से | विशेष, (पउम ११, १०) IV १,२,१,८ १६,२८७ १,८,६)। २ मनुष्य सम्बन्ध रखनेवाली क्रिया। २ हिंसक क्रिया आरणिय वि [आरण्यिक] जंगल में बसनेलोक (सूत्र १, ६, २८)। ३ नुकीली लोहे से होनेवाला कम-बन्ध (ठा २,१; नव १७) वाला (तापस आदि) (सूत्र २, २) ।। की कील (कुप्र ४३४)। ४ न. गृहस्थपन आरक्ख न [आरक्ष्य कोतवाल का प्रोहदा, आरत वि [आरत १ थोड़ा रक्त (माचा)। (सूत्र १, २, १, ८) कोतवाली, प्रारक्षकता (सुख ३, १)। २ अत्यन्त अनुरक्त (पएह २, ४)। आर पुं[आर] १ मंगल-ग्रह (पउम १७, आरक्ख वि [आरक्ष] १ रक्षण करनेवाला १०८ सुर १०, २२४)। २ चौथा नरक का आरत्तिय न [आरात्रिक] भारती (सुर १०, (दे १, १५)। २ पुं. कोतवाल, नगर का एक नरकावास (ठा ६)। ३ वि. अक्तिन, १६; कुमा) रक्षक (पान)IV पूर्व का (सूत्र १,६) । आरद्ध वि [आरब्ध] प्रारब्ध, शुरू किया आरक्खग वि [आरक्षक] १ रक्षण करने हुआ (काल) IV आरअ वि [कारक कर्ता, करनेवाला (गा | वाला, त्राता (कप्पः सुपा ३५१)। २ पुं. आरद्ध वि [दे] १ बढ़ा हुआ। २ सतृष्ण, १७६; ३४८) । क्षत्रियों का एक वंश । ३ विं. उस वंश में ! उत्सुक । ३ घर में आया हुमा (दे १, ७५)।आरओ अ [आरतस् ] १ पूर्व, पहले, उत्पन्न (ठा ६) आरनाल देखो आरणाल = आरनाल (पाप)। अर्वाक् (सुअ १,८; स ६४३) । २ समीप में, आरक्खि वि [आरक्षिन् रक्षक, त्राता (ठा आरनाल न [दे] कमल, पद्म ( षड् )।v पास में (उप ३३१)। ३ शुरू कर के, प्रारम्भ ३, १; ओघ २६०)। आरनिय देखो आरणिय (सूत्र २, २, कर के (विसे २२८५)IV आरक्खिगा वि [आरक्षिक] १ रक्षक, २१) / आरओ अ[आरतस] पीछे से (गदि २४६ | आरक्खिय त्राता। २ पुं. कोतवाल (निचू | आरब देखो आरव ।। टी) V १,१६; सुपा ३३६; महाः स १२७, १५१) आरब्भ नीचे देखो। आरंदर वि [दे] १ अनेकान्त । २ संकट, | आरज्झ सक[आ +रा आराधन करना। आरभ देखो आरंभ = आ+रभ् । प्रारभइ व्याप्त (दे १, ७८)। मारज्झइ (प्राकृ ६८)। (हे ४, १५५ उवर १०)। वकृ. आरभंत, आरंभ सक [ आ + र] १ शुरू करना। आरज्झवि [आराध्य] पूज्य, माननीय (अच्च | आरभमाण (ठा ७) । संकृ. आरब्भ (विसे २ हिंसा करना । प्रारंभइ (हे ४, १५५)।। ७१) ७६५).V For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भामा आराहेत्ता, आरा संक. आरा- आपलङ्गन करना । प्रारुण आ + श्लिष् ] आरभड-आरूढ पाइअसहमहण्णवो आरभड न [आरभट] १ नृत्य का एक भेद आराडि स्त्री [आराटि] चीत्कार, चिल्लाहट | आरिय वि [आकारित] आहूत, बुलाया (ठा ४, ४) । २ इस नाम का एक मुहूर्तः । (सुख २, १५)। हुआः 'प्रारिप्रो अागारिनो वा एगट्ठा' 'छच्चेव य आरभडो सोमित्तो आराडी स्त्री [दे] देखो आरडिअ (दे १, (आव) ।। पंचभंगुलो होई (गणि)। आरिया देखो अजा = आर्या (प्रारू)। आरभड न [आरभट एक तरह की नाट्य- आराम पुं [आराम] बगीचा, उपवन (औप; | आरिल्ल वि [दे] अर्वाक् उत्पन्न, पहले जो विधि (राय ५४) । 'भसोल न [भसोल] पाया १,१)। उत्पन्न हुआ हो (दे १, ६३) । नाट्यविधि-विशेष (राय ५४)।' आराम पुंन [आराम] बगीचा, उपवनः 'पारा- आरिस वि [आर्ष] ऋषि-सम्बन्धी (कुमा) । आरभडा स्त्री [आरभटा] प्रतिलेखना-विशेष माणी (आचा २, १०, २) । आरिहय देखो आरहंत (दस १, १ टी)V (ोघ १६२ भा)। आरामिअ पुं[आरामिक] माली (कुमा) आरुग्ग देखो आरोग्ग = प्रारोग्यः 'पारुग्गआरभिय न [आरभित] नाट्यविधि-विशेष आराव पुं [आराव] शब्द, आवाज (स ५७७; बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दितु' (पडि)। (राय) IV गउड)। आरु? वि [आरुष्ट] क्रुद्ध, रुष्ट (पउम ५३, आरय वि आरत] १ उपरत । २ अपगत आराह सक [आ + राधय् ] १ सेवा १४१) (सून १, १५) करना, भक्ति करना । २ ठीक-ठीक पालन | आरुण्ण (अप ) सक [आ + श्लिष् ] आरय वि [आऽरत] उपरत, सर्वथा निवृत्त करना । पाराहइ, पाराहेइ (महा: भग)। आलिङ्गन करना । पारुण्णइ (प्राकृ ११६) (सूत्र १, ४, १, १, १, १०, १३)। वकृ. आराहंत (रयण ७०)। संकृ. आरा- आरुभ देखो आरुह =ा + रुह । वकृ. आरव पुं [आरव] शब्द, आवाज, ध्वनि हित्ता, आराहेत्ता, आराहिऊण (कप्पा आरुभमाण (कस)IV (सरण) भगः महा)। हेकृ. आराहिङ (महा) IV आरुवणा देखो आरोवणा (विसे २६२८) आरव पुं [आरब] इस नाम का एक प्रसिद्ध आराह बि [आराध्य पाराधन-योग्य (पारा | आरुस सक [आ + रुष् ] क्रोध करना, रोष म्लेच्छ-देश (पएह १, १) । ११)। । करना । संक. आरुस्स (सूत्र १,५)V आरव । वि[आरब अरब देश में उत्पन्न, आराहग वि [आराधक] १ आराधन करने- आरुसिय वि [आरुष्ट] क्रुद्ध, कुपित (गाया आरवगअरब देश का निवासी । स्त्री. वी वाला। २ मोक्ष का साधक (भग ३,१) १,२) । (गाया १, १) । आराहण न [आराधन] १ सेवना (पारा आरुह सक [आ + रुह. ] ऊपर चढ़ना, आरविंद वि [आरविन्द ] कमल-सम्बन्धी ११)। २ अनशन (राज)। ऊपर बैठना। आरुहइ (षड् ; महा)। (गउड)। आराहणा स्त्री [आराधना] १ सेवा, भक्ति। प्रारुहेइ (भग)। वकृ. आरुहंत, आरुहमाण आरस सक [आ + रस् ] चिल्लाना, बूम | २ परिपालन (णाया १, १२, पंचा ७)। (से ५, १६; श्रा३६)। संकृ. आरुहिऊण, मारना । वकृ. आरसंत (उत्त १९)। हेकृ. ३ मोक्ष-मार्ग के अनुकूल वर्तन (पक्खि)। आरुहिय (महा नाट)। हेकृ. आरुहिउं आरसिङ (काल) IV ४ जिसका पाराधन किया जाय वह (पारा| (महा) आरसिय न [आरसित] १ चिल्लाहट: बूम । | १)V आरुह वि [आरुह] उत्पन्न, उद्भूत, जातः २ चिल्लाया हुआ (विपा १, २) । आराहणा स्त्री [आराधना] अावश्यक, साम- 'गामारुह म्हि गामे, आरसिय पुं [आदर्श दर्पण (कहावली)। यिक आदि षट्-कर्म (अणु ३१)IV ____ वसामि नअरट्टिई ण माणामि । णापरिमाणं पइणो हरेमि आरह देखो आरभ । प्रारहइ (षड् ) । संकृ.| आराहणा स्ना [आराधना] भाषा का एक जा होमि सा होमि' (गा ७०५)। प्रकार (दस ७) iV आरहिअ (अभि६०)। आरुहण न [आरोहण] ऊपर बैठना (णाया आरहंत । वि [आर्हत] अर्हन का, जिन- आराहिय वि [आराधित] १ सेवित, परिआरहतिय । देव सम्बन्धीः 'प्रारहंतेहिं (दस १, २, गा ६३०) सुपा २०३; विपा १, ७ पालित (सम ७०)। १ अनुरूप, योग्य (स गउड) ६, ४, ४ पव २----गाथा १७०) V ६२३)। आरा स्त्री [आरा] लोहे की सलाई, पैने में | आरिट वि [दे] यात, गत, गुजरा हुआ आरुहण न [आरोहण] पारोपण, ऊपर चढ़ाना (पव १५५; राय १०६) डाली जाती लोहे की खीली (पएह १,१; (षड्)V | आरिय न [आत मागमन (राय १०१)। आरुहिय वि [आरोपित] १ स्थापित । २ स ३८) | ऊपर बैठाया हुआ (से ८, १३)V आरा म [आरात् ] १ अर्वाक् , पहले (दे | आरिय देखो अजायं। (भगः षड् | आरुहियो वि [आरूढा १ऊपर चढ़ा हया १, ६३) । २ पूर्व-भाग (विसे १७४०) ।। सुपा १२८; पउम १४, ३०; सुर ८, ९३)M आरूढ (महा)। २ कृत, विहितः 'तीए आराइअ वि दे] १ गृहीत, स्वीकृत । २ | आरिय वि [आरित] सेवित, 'आरिमो पाय- पुरमो पइराणा आरुहिया दुक्करा मए सामि' प्राप्त (दे १,७०)। रिमो सेवितो वा एगट्ठत्ति' (माचू)।V (पउम ८, १६१)IV For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ आरेइअ वि [दे] १ मुकुलित, संकुचित । २ भ्रान्त । ३ मुक्त (दे १, ७७) । ४ रोमाञ्चित, पुलकित (दे १, ७७ पाय) आरेण म [आरेण] १ समीप, पास प ३३६ टी) । २ अर्वाक, पहले ( विसे ३५१७) । ३ प्रारम्भ कर (विसे २२८४ ) | आरोअ धक [ उत् + लस्] विकसित होना, उस पाना मारो (हे ४ २०२) आरोअणा देखो आरोवणा (ठा ४ १ विरो २१२७) आरोइअ [हे] देसी आइन (पर आरोगा एक [दे] खाना, भोजन करना, आरोगना | आरोग्गइ (दे १, ६९ ) आरोग्ग न [आरोग्य ] एकासन रूप संयो ५८) आरोग्ग न [आरोग्य] १ नीरोगता, रोग का अभाव (ठा ४, ३; उव) । १ वि. रोगरहित, नीरोग (कप्प) । ३ पुं. एक ब्राह्मणोपासक का नाम (उप ५४० ) । आरोग्गरिवि [दे] रक्त रंगा हुआा (पद) V आरोग्गज वि [दे] भुक, खाया हुआ (दे १, ६) TV आरोद्धवि [दे] १ प्रवृद्ध, बढ़ा हुआ । २ गृहागत, घर में आया हुना (षड् ) आरोयन [आरोग्य ] १ योग, कुशल ९ नीरोगताः 'आरोया रोयं पसूया' (ग्राचा २, १५, ६) IV आरोल सक [ पु ] एकत्र करना, इकट्ठा करना, माल हे ४, १०२ ) IV आरोलिअ वि [पुञ्जित] एकत्रित, इकट्टा किया हुआ (कुमा) V आरोव एक [ आरोप ] ऊपर चढ़ाना, ऊपर बैठाना २ स्थापन करना । धारोये (हे ४, ४७). आता आरोविरं आरोपिऊण (भगबुमा महा) IV आरोषण न [आरोपण ] ऊपर चढ़ाना (मुपा २४६) । २ सम्भावना (दे १, १७४) | आरोणा श्री [आणा] १ ऊपर चढ़ाना २ प्रायश्चित्त- विशेष (वव १ ) । ३ प्रारूपणा, । पाइअसहमणव ४ प्रश्न, पर्यनुयोग व्याख्या का एक प्रकार । कार के योग्य; 'आलंकारि (विसे २६२७, २९२८) (जीव ) 1 आरोपिय] [आरोपित ] १ चढ़ाया था। आलंकिन वि [दे] पंगु किया हृषा (दे १, २ संस्थापित (महा पाच ६८) IV आलंदन [आम्द] समय का परमा विशेष, पानी से भींजा हुआ हाथ जितने समय सूख जाय उतने से लेकर पाँच अहोरात्र तक का काल (विसे) V में आरोस पुं [आरोष] १ म्लेच्छ देश - विशेष । २ वि उस देश का निवासी ( परह १ १६ बस) V 1 आरोसिन [आरोपित ] कोचित किया हुआ (से ६, ६९; भवि; दे १, ७०) । आरोह सक [ आ + रुह ] ऊपर चढ़ना, बैठना धरोहर (स) IV आरोह सक [ आ + रोहय् ] ऊपर चढ़ाना। कृ. आरोहइयञ्च (वव १) आरोह [आरोह] १ सवार, हाथी, घोड़ा मादि पर चढ़नेवाला (मे १२,७५२ ऊँचाई (सम्बाई ( ११ आरोह पुं [दे] स्तन, थन, चूँची (दे १, ६३) । । आरोहग वि [आरोहक ] १ सवार होनेवाला २ हस्तिपक, पीलवान, हाथी का रक्षक (औप ) 1 आरोहि वि [ आवेदन ] ऊपर देखो (TT) IV आरोहियन [आ] ऊपर बैठा हुआ ऊपर चढ़ा हुआ (भवि) आल न [दे] अनर्थक, मुधा (सिरि ८६४) आल न [दे] १ छोटा प्रबाह । २ वि . कोमल, मृदु (दे १, ७३) । ३ आगत ( रंभा ) - आन [आ] कारोप, दोषारोपस (स ४३३); 'न दिज कस्सवि कूडप्रालं ' ( सत्त २) | M 'आल देखो काल (गा ५५० से १, २६; ५, ६६) आल देखो जाल (से ५, ८५, ६,५६) "आजदेखी ताल 'समस राति मिाल किया ( से ६, ५६ ) IV आलइअ वि [आलगित ] यथास्थान स्थापित, योग्य स्थान में रखा हुआ (कप्प) । आल कि [आलविक] गृहीवा (भाषा) I आलश्य वि [आलगित ] पहना हुधा (धावा २, १५, ५) । आलंकारिय वि [आलङ्कारिक] १ प्रलंकारशास्त्र ज्ञाता । २ श्रलंकार-संबन्धी ।। ३ अलं आरेइअ - आलद्ध उपरो For Personal & Private Use Only आलंदिअ वि [आलन्दिक ] उपर्युक्त समय का उल्लंघन न कर कार्य करनेवाला (विसे) । आलंब सक [ आ + लम्बू ] श्राश्रय करना, सहारा लेना । संकृ. आलंबिय ( भास ११ ) । आलंब पुं [आलम्ब] श्राश्रय, आधार (सुपा ६३५) IV आय [दे] भूमि-य बनस्पति-विशेष जो आलंत्रण न [आलम्बन] १ श्रश्रय श्राधार, वर्षा में होता है (दे १, ६४ ) जिसका अवलम्बन किया जाय वह (गाया १, १ ) । २ कारण, हेतु, प्रयोजन (श्रावम घाचा आलंबणा स्त्री [आलम्बना ] ऊपर देखो (पि 260) 1 आदि वि[सम्बन] [लन करने आलंभिय न [आलम्भिक ] १ नगर- विशेष वाला, भावी (गर (ठा १) २ भगवती सूत्र के ग्यारहवें शतक का बारह उद्देश (भग ११, १२) आसंभिया श्री [आलम्भका] नगरी-विष (भग ११, १२) आलक [] प कुत्ता (मत १२५) आलक्खसक [आ + लक्षय् ] १ जानना । २ चिम से पहचानना म आउक्सिय वि[आउचित] १ज्ञात परिचित। २ चिह्न से जाना हुआ (गउड) V आलग्ग वि [आलग्न ] लगा हुआ, संयुक्त (से ५, ३३) आन्तविआलपित] संभाषित प्राभाषित ( पउम १६, ४२: सुपा २०८ श्रा ६) । आळतय देखो अल (उड गा९४६) आस्थ [दे] मयूर, मोर (१,६५) । आ[िआलब्ध] १२ संयुक्त ३ स्पृष्ट, छुआ हुआ । ४ मारा हुआ (नाट) । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलप्प-आलीढ पाइअसद्दमहण्णवो ११९ आलप्प वि [आलाप्य] कहने के योग्य, | आलाणिय वि [आलानित नियन्त्रित, मज- पित्तए (कस)। वकृ. आलिंपंत। प्रयो. निर्वचनीयः ‘सदसदणभिलप्पालप्पमेगं प्रणेगं' | बूती से बाँधा हुआ: 'दढ़भुयदंडालाणियकमला- आलिंपावंत (निचू ३)(लहुअ८)IV करिणी निवो समरसीहो (सुपा ४)IV आलिंपण न [आलेपण] १ लेप करना, विलेआलभ सक [आ + लभ् ] प्राप्त करना । आलाव पुं [आलाप] १ संभाषण, बातचीत पन (रयण ५५) । २ जिसका लेप होता है पालभिजा (उवर ११)IV (था ६)। २ अल्प भाषण (ठा ५)। ३ | वह चीज (निचू १२) IV आलभण न [आलभन] विनाशन (धर्मसं प्रथम भाषण (ठा ४) । ४ एक बार की उक्ति | आलिगा देखो आवलिआ (पंच ५, १४५) । ८८२) (भग ५, ४)। आलिन्त न [आलित्र] जहाज चलाने का आलभिया स्त्री [आलभिका] नगरी-विशेष आलावक देखो आलाग (सुज ८)। काठ-विशेष (पाचा २, ३, १, ६)।। (उवा, भग ११, २)। आलावग पुं [आलापक] पैरा, पैराग्राफ, आलित्त वि [आलित] खरण्टित, खरड़ा हुआ, आलय पुन [आलय] गृह, घर, स्थान (महा; | परिच्छेद, ग्रन्थ का अंश-विशेष (ठा २, २) । लिपा हुपा (पिंड २३४) IV गा १३५)। आलाबण न [आलापन] बांधने का रज्जु | आलित्त वि[आदता१चारों ओर से जला आलय पुन [आलय] बौद्धदर्शन-प्रसिद्ध | आदि साधन, बन्धन-विशेष। बंध पुं[°बन्ध] हुप्रा, 'जह आलित्ते गेहे कोइ पसुत्तं नरं तु विज्ञान-विशेष (धर्म ६६५, ६६६, ६६७) MM बन्ध-विशेष (भग ८, ६) V बोहेजा' (वव १,३; गाया १,१,१४)। २ आलयण न [दे वास-गृह, शय्या-गृह (दे १, | आलावण न [आलापन] आलाप, संभाषण न. आग लगनी, आग से जलना; 'कोट्टिमघरे ६६, ८, ५८)V (वजा १२४) वसंते आलित्तम्मि वि न डज्झई' (वय ४)। आलव सक[आ + लप्] १ कहना, बात- आलावणी स्त्री [आलापन] वाद्यविशेष (वजा | आलिद्ध वि [आश्लिष्ट] प्रालिगित (भग १६, चीत करना । २ थोड़ा या एक बार कहना। ८०)IV वकृ. आलवंत (गा ११८, अभि ३८), आल- आलास पुं[दे] वृश्चिक, बिच्छू (दे १,६१) ३. सुर ३, २२२)TV .. वमाण (ठा ४)। आलविऊण (महा), आलाहि देखो अलाहि ( षड् )। आलिद्ध वि [आलीढ] चखा हुआ, प्रास्वादित आलि पुं[अलि भ्रमर, भमरा, भौंरा (पडि) न (से ६, ५६) IV आलविय (नाट)। आलिसंदग पुंदे. आलिसन्दक] धान्यआलवण न [आलपन] संभाषण, बातचीत, आलि देखो आली (रायः पा) । वार्तालाप (प्रोघ ११३, उप १२८ टी श्रा आलिंग सक [आ + लिङ्ग] आलिङ्गन | विशेष (ठा ५, ३; भग ६, ७) IV १६ दे १, ५६; स ६६) IV करना, भेंटना, गले लगाना। आलिंगइ | आलिसिंदय पु [दे. आलिसिन्दक] ऊपर (महा) । संकृ. आलिंगिऊण (महा)। हेव. देखो (ठा ५, ३)। आलवाल न [आलवाल] कियारी, थांवला आलिंगिउं (महा)। (पान) Iv | आलिह सक [स्पृश् ] स्पर्श करना, छूना । आलिंग पुं[आलिङ्ग] वाद्य-विशेष (राय) आलस वि [आलस आलसी, सुस्त (भग प्रालिहइ (हे ४, १८२)। वकृ. आलिहंत | आलिंग वि [आलिङ्ग्य] १ आलिङ्गन करने १२, २)। 'त्त न [त्व] पालस, सुस्ती (नाट) योग्य । २ पुं. वाद्य-विशेष (जीव ३)V (श्रा २३)। आलिह सक [आ + लिख] १ विन्यास आलिंगण न [आलिङ्गन] आलिंगन, भेंट | आलसिय वि [आलसित] आलसी, मन्द करना, स्थापन करना। २ चित्र करना, (कप्पू)। वट्टि श्री[वृत्ति गाल या कपोल (भग १२, २) । चितरना या चित्र बनाना। वकृ. आलिहमाण का उपधान-तकिया, शरीर-प्रमाण उपधान आलसुय देखो आलसिय; 'सावि सायसीला (सुर १२,४०) ।। (भग ११, ११) पालसुया कुडिला' (सम्मत्त ५३) ।' आलिहिअ वि [आलिखित] चित्रित (सुर आलिंगणिया स्त्री [आलिङ्गनिका] देखो आलस्स पुंन [आलस्य] सुस्ती, 'पालस्सो १, ८७) । | आलिंगणत्रट्टि (जीव ३) । रणरणो ' (वजा १६२)। आलिंगिणी स्त्री [आलिङ्गिनी] जानु आदि के आली सक [आ + ली] १ लोन होना, प्रासक्त आलस्स न [आलस्य पालस, सुस्ती (कुमाः | नीचे रखने का तकिया (पव ८४) होना। २ आलिंगन करना। ३ निवास सुपा २५१)/ आलिंगिय वि [आलिङ्गित पाश्चिष्ट, जिसका करना । वकृ. आलीयमाण (गउड)V आलस्सि वि [आलस्यिन्] पालसी, सुस्त प्रालिंगन किया गया हो वह (काल)। आली स्त्री [आली] १ पंक्ति, श्रेणी। २ (गच्छ २, १)। | आलिंद पुं [आलिन्द] बाहर के दरवाजे के | सखी, वयस्या (हे १,८३)। ३ वनस्पतिआलाअ देखो आलाव (गा ४२८, ६१६ मै | चौकट्टे का एक हिस्सा (अभि १५६; अवि विशेष (णाया १, ३)। २८) V आलीढ वि [आलोढ] १ आसक्त, 'मामूलालोआलाण देखो आणाल (पान, से ५, १७ आलिंप सक [आ + लिप्] पोतना, लेप लधूलीबहुल परिमलालोढलोलालिमाला (पडि)। महा)। करना। आलिंपइ (उव)। हेकृ. आलिं- । २ न. प्रासन-विशेष (वव १)IV For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० आलीढ पुंन [आलीढ] योद्धा का युद्ध म का श्रासन - विशेष (वव १) । श्रासक्त, आलीण वि[आलीन] १ लीन, तत्पर (पउम ३२,९) । २ प्रालिंगित, प्राचिष्ट (कम्प आलीय [आदीपक] जानेवाला मान गाय १, २) आलीयमाण देखो आली = आ + ली आलील न [दे] समीप का भय, पास का डर (दे १, ६५ ) 1 आलीवग देखो आलीयग ( परह १, ३) आठवण न [आदीपन] बाग लगाना (दे १, ७१ बिपा १, १ ) आलीविय[आदीपित] बाग से जलाया हम (२४४)। आलु पुंन [आलु ] कन्द-विशेष, धातु (बा (श्रा २०) IV आलुई स्त्री [आलुकी] वल्ली-विशेष (पव १० ) खस [ दह] जलाना दाह देना। श्रालु खइ (हे ४, २०८ षड् ) V आलुंख सक [ स्पृशू ] स्पर्श करना, छूना। आलु खइ (हे ४, १८२) । आलुंखण न [स्पर्शन] स्पर्श, छूना (गउड आलुखिअ वि[स्पृष्ट] स्पृष्ट, छुआ हुआ (से १,२१ पा आलुखिअवि [दग्ध] जता हुआ (सुर. २०३) आलुंध सक [ स्पृश् ] छूना । आनुपद (प्राकृ ७४) IV आप सक [ आ + लुम् ] हरण करना । प्रापह (आचा) | V अपवि[आलुम्प] हार हरण करनेवाला, छीन लेनेवाला (आचा आलुयार वि[दे] निरर्थक, व्यर्थ, निष्प्रयोजन; 'तासिनो समग्र्ग ग्रह कि आनुवारभरि एहि (नुपा १४३) आलेक्ख वि [आलेख्य ] चित्रित, 'रति आलेय परिवट्टेडं लक्ख प्रालेक्ख दिरण्य पाइअसहमहणयो आलीढ - आव रावन २ से २, ४५ गा आलोअन [आलोचन] नीचे देखो (पह ६४१; गउड ) | २, १; प्रासू २४) । आलोअणा स्त्री [आलोचना ] १ देखना, बतलाना । २ प्रायश्चित के लिए अपने दोषों आलेट्टुअं } देखो आसिलिस । आलेच [आलेप] विलेपन, लेप निमित्तं च देवीयो यत्तयकयादा चंद' (महा) आलेवण न [आलेपन] १ लेप, विलेपन । २ जिसका लेप किया जाता है वह वस्तु; 'जे भिक्खु रति श्रालेवराजायं पडिग्गाहेत्ता' (निचू १२) आलेसिय वि [ आश्लेपित ] लिंगन कराया (२७६)। झाले पसंति । आलेह 9 [आलेख] चित्र (आम)। आलेदिज दि [आलेख] चिचित (महा) आलोअ सक [ आ + लोक् ] देखना, बिलोकन करता व आलोअंत आलो इंत, आलोएमाण (गा ५४६३ उप पृ ४३३ श्राचा) | कवकु. आलोकंत ( से १, २५) । संकृ. आलोएऊण, आलोइत्ता (काल ठा E) IV आलोअ सक [ आ + लोच् ] १ देखाना । २ गुरू को अपना अपराध कह देना । ३ विचार करना ४ पालोचना करता धालोएर (भग)। वह आलोअंत (ड) सं. आलोयता, आलो-इप २०२ ) । हे. आलोइत्तए (ठा २, १) । कृ. आलेएयव्व, आलोएइयन्त्र (उप ६८२ श्रोष ves) in आलोअ पुं [आलोक] १ तेज, प्रकाश (से २, १२) । २ विलोकन, अच्छी तरह देखना ( ओघ ३) । ३ पृथ्वी का समान भाग, सम भू-भाग ( ओघ ५३५) ४ गवाक्षादि प्रकाशस्थान ( आचा ) । ५ जगत्, संसार (श्राव ) । ६ ज्ञान ( परह १, ४) IV 7 आलुग देखो आलु (परण १) । आलोअगवि [ आलोच] आलोचना आलुगा स्त्री [] घटी, छोटा घड़ा (उप आलोअय । करनेवाला (श्रा ४०; पुप्फ ३५५: आलोविय वि [ आलोपित ] आच्छादित, ९६०) 1 ३६०) । ढका हुआ गाया १, १ को गुरु को बता देना। ३ विचार करना (भग १७, २० श्रा ४२: स ५०६ ) आलोइअ वि [आलोचित ] दृष्ट, निरीक्षित (से ६, ४) । आलोइअ वि [आलोचित ] प्रदर्शित, गुरु को बताया हुआ (ड) I आलोइअ देखो आलोअ + लोच् वि आलो [आलोकयितु] देखने वाला द्रष्टा (सम १५) । आलोइह वि[ आलोकवत्] प्रकाश-युक्त । (बजा १६०) / आलोकांत देखो आलोअ = श्रा + लोक् आलोग देखो आलोअघालोक घोष ५५) । 'नयर न [ "नगर] नगर- विशेष (पउम १८५७)1 आलोच देखो आलोअ = श्रा + लोच् । वकृ. आलोचैत (सुपा १०७)। संकु. आले. चिऊण (११७) | 'श्रत्थालो तरला, इनरकईगं भमंति बुद्धी । त एवं निरारंभ, ऐतिहिययं कदा (गउड) | For Personal & Private Use Only आलोचण देखो आलोअण (उप ३३२ ) | आलोढ सक [आ + छोडय् ] हिलोरना, मथन करना । संकृ. आलोडिवि ( प ) (सण)। आलोडिय आलोलिय } वि [आलोहित] मथित, हिलोरा हुधा 'आलोडिया य नयरी' (पउम ५३, १२६६ उप १४२ टी) आलोयण न [आलोकन ] गवाक्ष (उत्त १६, ४) IV आलोव सक [ आ + लोपय् ] आच्छादित करना। आलोवि२) । आलोच देखो आलोअ = धालोक 'मेरो भोपागम (रंभा आलोअण न [आलोकन ] विलोकन, दर्शन, आव वि [ यावत् ] जितना । श्रावंति (पि निरीक्षण (घोष ५६ भा) २६) आ अ [ यावत् ] जब तक, कह वि [कथ] देखो १२६३ श्रा १) कहं जब लग । कहिय ( विसे [ कथम् ] Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आव-आवत्ति पाइअसहमहण्णवो १२१ यावजीव, जीवन-पर्यन्त (आव)। कहा स्त्री आवजण न [आवर्जन] १ संमुख करना। आवण्ण वि [आपन्न] १ आपत्ति-युक्त । २ [कथा] जीवन-पर्यन्त, 'धरणा प्रावकहाए २ प्रसन्न करना (आचू )। ३ उपयोग, प्राप्त (गा ४६७)। सत्ता स्त्री [सत्त्वा] गुरुकुलवासं न मुंचंति' (उप ६८१)। कहिय ख्याल । ४ उपयोग-विशेष । ५ व्यापार-विशेष | गर्भिणी, गर्भवती स्त्री (अभि १२४) । वि [कथिक] यावजीविक, जीवन-पर्यन्त (विसे ३०५१) । आवण्ण वि [आपन] आश्रित (सूत्र १, १, रहनेवाला (ठा ६; उप ५२०) । आवज्जिय वि [आवजित] १ प्रसन्न किया | १, १६) आव पुं[आप] १ प्राप्ति, लाभ (पएह २, हुआ। २ अभिमुख किया हुआ (महा. सुर ६, आवत्त सक [आ + वृत् ] आना, 'नावत्तइ १)। २ जल का समूह। बहुल न [ बहुल] ३१; सुपा २३२)। करण न [°करण] नागच्छइ पुणो भवे तेण अपुरणरावित्ति' (चेइस देखो आउ-बहुल (कस)V व्यापार-विशेष (प्राचू )IV ३५६)। आव सक [आ+या] आना, प्रागमन करना | आवन्जिय देखो आउजिय = प्रातोद्यिक आवत्त प्रक [आ+ वृत्] १ परिभ्रमण 'वणवसिराणवि निच्चं आवइ निद्दासुहं ताण' (कुमा) करना । २ बदलना । ३ चक्राकार घूमना । ४ (सुपा ६४७) । आवेइ (नाट)। आवंति (संग आवज्जीकरण न [आवर्जीकरण] उपयोग- सक. पठित पाठ को याद करना। धुमाना। विशेष या व्यापार-विशेष का करना, उदीर- आवत्तइ (सूक्त ५१) । वकृ. अत्तमाण, १६२) आवआस सक [उप + गूह. ] आलिंगन पावलिका में कर्म-प्रक्षेप रूप व्यापार (प्रौपः आवत्तमाण (हे १, २७१, कुमा)IV करना । आवासइ (प्राक ७४)IV विसे ३०५०) आवत्त पुंआवर्त] १ चक्राकार परिभ्रमण आवइ स्त्री [आपद्] आपत्ति, विपत्, संकट आवट्ट अक [आ + वृत्] १ चक्र की तरह (स्वप्न ५६)। २ मुहूर्त-विशेष (सम ५१)। (सम ५७ सुपा ३२१; सुर ४, २१५; प्रासू घूमना, फिरना । २ विलीन होना। ३ सक.. ३ महाविदेह क्षेत्रस्थ एक विजय (प्रदेश) का शोषण करना, सुखाना। ४ पीड़ना, दुःखी | नाम (ठा २, ३)। ४ एक खुरवाला पशु५, १५६) IV करना। पावट्टइ (हे ४, ४१६ सून १, ५, | विशेष (पएह १, १)। ५ एक लोकपाल का आवंग [दे] अपामार्ग, वृक्ष विशेष, लटजीरा २)। वकृ. आवट्टमाण (से ५, ८०) नाम (ठा ४, १)। ६ पर्वतविशेष (ठा)। आवट्ट देखो आवत्त (प्राचाः सुपा ६४ सूम ७ मरिण का एक लक्षण (राय)। ८ ग्रामआवंडु वि [आपाण्डु] थोड़ा सफेद, फीका विशेष (आवम)। शारीरिक चेष्टा-विशेष, (गा २६५) । कायिक घ्यापार-विशेष; 'दुवालसावत्ते कितिआवट्टणा स्त्री [आवर्तना] प्रावर्तन (प्राकृ आवंडुर वि [आपाण्डुर] ऊपर देखो (से ६, | कम्मे' (सम २१)। कूड न [कूट] पर्वत७४)IV आवट्टिआ स्त्री [दे] १ नवोढ़ा, दुलहिन । २ . विशेष का शिखर-विशेष (इक)। आवंत देखो जावंत; 'मावती के यावंती लोगंसि यंत वक परतन्त्र स्त्री (दे १,७७) । [यमान दक्षिण की तरफ चक्राकार घूमनेसमणा य माहणा य' (प्राचा १, ४, २, ३; १, ५, २, १, ४, पि ३५७)V वाला (भग ११, ११)।V आवड देखो आवत्त = प्रावत्तं (राय ३०)। आवग्गण न [आवल्गन] अश्व पर चढ़ने की आवड सक [आ + पत्] १ आना, आगमन | आवत्त पुंन [आवत्त] १ एक तरह का जहाज करना । २ आ लगना । वकृ. आवडत (प्रासू (सिरि ३८३)। २ न. लगातार २५ दिनों कला (भवि) ।। का उपवास (संबोध ५८)। आवच्चेन्ज वि [अपत्यीय] अपत्य-स्थानीय आवडण न [आपतन] १ गिरना (से ६, आवत्त न [आतपत्र] छत्र, छाता (पान)। (कप्प) IV आवज देखो आओज्ज (हे १, १५६) IV ४२) । २ पा लगना (स ३८४) आवत्तण न [आवर्तन] चक्राकार भ्रमण (हे आवणवीहि स्त्री [आपणवीथि] १ हट्ट-मार्ग, २,३०)। पेढ़िया स्त्री [°पीठिका] पीठिकाआवज अक [अ+ पद्] प्राप्त होना, लागू होना। आवजइ (कस)। कृ. आवजियव्व बाजार । २ रथ्या-विशेष, एक तरह का मुहल्ला विशेष (राय) (परह २, ५)IV (राय १००)। आवत्तय पुं[आवर्तक] देखो आवत्त । १० आवज सक [आ + वर्ज.] १ संमुख आवडिअ वि [आपतित] १ गिरा हुआ | वि. चक्राकार भ्रमण करनेवाला (हे २, ३०)। करना। २ प्रसन्न करना; 'आवजंति गुणा | (महा) । २ पास में आया हुआ (से १४, ३)। आवत्ता स्त्री [आवर्ता] महाविदेह-क्षेत्र के खलु अबुहंपि जणं अमच्छरिय' (स ११)। आवडिअ वि [दे] १ संगत, संबद्ध (दे १, | एक विजय (प्रदेश) का नाम (इक) V आवज सक [आ+ पद्] प्राप्त करना । ७८, पात्र) । २ सार, मजबूत (दे १,७८) आवत्ति स्त्री [आपत्ति] १ दोष-प्रसंग, 'सव्वप्रावजई (उत्त ३२, १०३)। आवज्जे (सूत्र आवण पु[आपण] १ हाट, दूकान (णाया विमोक्खावत्ती' (विसे १६३४)। २ आपदा, १, १,२,१६, २०), आवज्जसु (सुख २,९) १, १, महा) । २ बाजार (प्रामा)IV कष्ट । ३ उत्पत्ति (विसे ६६) वापोत्यपादक आवणिय पुं[आपणिक सौदागर, व्यापारी | आवत्ति स्त्री [आपत्ति प्राप्ति (धर्मसं आवजन (पिंड ४३८)। (पाम)। ४७३) वि [आपतित] १ रनाः 'आवजति गा १६ For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ पाइअसद्दमहायो आवदि-आवासिय आवदि स्त्री [आवृति] आवरण (संक्षि ) ६, ७)। पविट्ठ वि [प्रविष्ट] श्रेणी से | कालेणं तेणं समएणं उत्तरड्ढभरहे वासे बहवे आवन्न देखो आवण (पउम ३४, ३०; णाया व्यवस्थित (भग)। बाहिर विबाद्य] मावाडा णाम चिलाया परिवसंति' (जं ३) ।। १,२: स २५६; उबर १६०)v विप्रकीर्ण, श्रेणि-बद्ध नहीं रहा हुआ (भग)M आवाणय न [आपाणक] दूकान, “भिन्नाई आवय पुं[आवर्त] देखो आवत्तः 'कि ति- आवलिय वि [आवलिन] वेष्टित (सूअनि आवाणयाई' (स ५३०)V कम बारसावयं' (सम २१)V २००)। आवाय पुन [आपात] अभ्यागम, प्रागमन आवय देखो आवड । वकृ. आवयंत, आवय- आवली स्त्री [आवली] १ पंक्ति, श्रेणी (पव ११११ टी)।1 माण (पउम ३३, १३ रणाया १, १,८)IV (पाप)। २ रावण की एक कन्या का नाम | आवाय देखो आवाग (था २३)V आवया स्त्री [आपगा] नदी (पानः स (पउम ६, ११)IV आवाय पुं [आपात] १ प्रारम्भ, शुरूआत ६१२)IV आवस सक [आ + वस् ] रहना, वास | (पान; से ११, ७५) । २ प्रथम मेलन (ठा आवया स्त्री [आपद्] आपदा, विपद्, दुःख | करना। पावसेजा (सूत्र १, १२) । वकृ. ४, १)। ३ तत्काल, तुरंत (श्रा २३)। ४ (पानः धरण ४२); 'पागारं आवसंता वि' (सूत्र १, ६)। पतन, गिरना (श्रा २३) । ५ सम्बन्ध, संयोग 'न गणंति पुबनेहं, न य आवसह पुं [आवस] १ घर, आय, (उवः कस)।। नीई नेय लोय-प्रववायं । स्थान (सून १, ४)। २ मठ, संन्यासियों आवाय पुं [आवाप] १ आवा, मिट्टी के पात्र नय भाविप्रावयाओ, पुरिसा का स्थान (पराह, हे २, १८७)।V पकाने का स्थान । २ पालवाल। ३ प्रक्षेप, महिलाण आयता' (सुर २, १८६) आवसहिय पुं[आवसायिक] १ गृहस्थ, गृही | फेंकना। ४ शत्रु की चिन्ता । ५ बोना, वपन आवर सक [आ + वृ] आच्छादन करना, - (सूम २, २)। २ संन्यासो (सूप्र २,७) V| (श्रा २३)। ढकना। कर्म. आवरिजइ (भग ६, ३३)। आवसिय वि [आवश्यक] १ अवश्य-कर्तव्य, | आवायण न [आपादन] सम्पादन, (धर्मसं कवकृ. आवरिजमाण (भग १५)। संकृ. आवस्सग जरूरो। २ न. सामयिकादि धर्मा १०६८)IV आवरित्ता (ठा)। आवस्सय नुठान, नित्य-कर्म (उब; दस १०० आवाल देखो आलवाल (धर्मवि १६,११२)। आवरण न [आवरण] १ आच्छादन करनेएंदि)। ३ जैन ग्रन्थ-विशेष, आवश्यक सूत्र आवाल न [दे] जल के निकट का प्रदेश वाला, ढकनेवाला, तिरोहित करनेवाला (सम (आवम) । णुअंग पुं[नुयोग] प्राव आवालय (दे २,७०)।। ७१ गाया १, ८)। २ वास्तु-विद्या (ठा श्यक सूत्र को व्याझ्या (विसे १)V आवाव देखो आवाय = पावाप । “ता स्त्री आवस्सय पुंन [आपाश्रय] १-३ ऊपर [कथा] रसोई सम्बन्धी कथा, वि. कथा शेष आवरणिज्ज वि आवरणीय] १ आच्छा- देखो। ४ प्राधार, आश्रय (विसे ८७४) ।। (ठा ४,२) दनीय । २ ढकनेवाला, पाच्छादन करनेवाला आवस्सिया स्त्री आवश्यकी] सामाचारी- | आवास पुं[आवास] १ वास-स्थान (Or (ौप) विशेष, जैन साधु का अनुरान-विशेष (उत्त पान)। २ निवास, अवस्थान, रहना (पराह आवरिय वि [आवृत] आच्छादित, तिरो- २६) 11 १, ४ प्रौप)। ३ पक्षि-गृह, नीड (वव १, हितः 'आवरिप्रो कम्मेहि' (निचू १) IV आवह सक [आ+ वह.] धारण करना, १)। ४ पड़ाव, डेरा (सुपा २५६; उप पृ आवरिसण न [आवर्पण] छिड़कना, सिंचन वहन करनाः 'थेवोवि गिहिपसंगो जइगो | १३०)। पव्वय पुं [ पर्वत रहने का सुद्धस्स पंकमावहई (बृह १)। पर्वत (इक)। (उव); 'णो पूयणं आवरिसण न [आवर्पण] सुगंध जल को वृष्टि तवसा आवहेजा (सू १, ७)। आवास । देखो आवस्सय = आवश्यक (पि आवासग, ३४८ अोघ ६३८ विसे ८५०) (अणु २५).V आवह वि [आवह ] धारण करनेवाला आवासणिया स्त्री [आवासनिका] प्रावासआवरेइया स्त्री [दे] करिका, मद्य परोसने (आचा)।V स्थान (स १२२)। का पात्र-विशेष (दे १, ७१)।। आवा सक [आ + पा] १ पीना। २ भोग आवासय न [आवासक] १ आव. आवलग न [आवलन] मोड़ना (पएह १, में लाना, उपभोग करना । हेकृ. 'वंतं इच्छसि जरूरी । २ नित्य-कर्तव्य धर्मानुष्ठान (हे ., आवेळ, सेयं ते मरणं भवे (दस २, ७) TV ४३, विसे ८५८)। ३ पुं. पक्षि-गृह, नी: आवलि स्त्री [आवलि] १ पङ्क्ति, श्रेणी आवाइया स्त्री [आवापिका] प्रधान होम, | (वव १,१) । ४ वि. संस्काराधायक, वासक । (महा) ।२ पुं. एक विद्यार्थी का नाम (पउम 'पत्थुयाए पक्खावाइयाए' (स ७५७) । ५ आच्छादक (विसे ८७५)।V ५, ६५)IV आवाग [आपाक] पावा, मिट्टी के पात्र आवासि वि [आवासिन् ] रहनेवाला, आवलिआ स्त्री [आवलिका] १ पंक्ति, श्रेणी पकाने का स्थान (उप ६४८ विसे २४६ ‘एगंतनियावासी' (उब)।। (राय)।२ क्रम, परिपाटी (सुज १०)। ३ | टी) TV आवासिय वि [आवासित] संनिवेशित, समय-विशेष, एक सूक्ष्म काल-परिमाण (भग | आवाड पुं[आपात] भीलों की एक जाति,'तेणं पड़ाव डाला हुआ (सुपा ४५६; सुर २, १)। For Personal & Private Use Only wwwinelibrary.org Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवाह - आवेढ आवाह एक [आ + बाबू] १ शांनिध्य के लिए देव या देवाधिष्ठित चीज को बुलाना । २ बुलाना आवाहित्व (अप) । संकृ. (भवि ) । V आवाह पुं [आबाध] पीड़ा, बाधा ( विपा १, E) IV आवार [आवाह] १ नवपरिणीता बघू कोवर के घर लाना ( परह २, ४) । २ विवाह के पूर्व किया जाता पान देने का एक उत्सव ( जीव ३) V आवाहण न [आवाहन ] ग्राह्वान (विसे १८८३) IV आवाहिय वि [आवाहित] १ बुलाया हुआ, श्राहूत (भवि) । २ मदद के लिए बुलाया हुआ देव या देवाधिष्ठित वस्तु 'एवं च भरतेां वाहियाई सत्थाई' (सुर ८, ४२ ) IV आनि [] १ प्रसव पीड़ा । २ वि. नित्य, शाश्वत देखा हुआ दे १, ७३) आवि [चापि ] समुच्चय-योतक (कप्प) । आविध [ आविस्] प्रकटता-सूचक अव्यय (सुर १४, २११) । आविअ सक [आ + पा] पीना, 'जहा दुमस्स पुष्फेसु भमरो श्राविश्र रसं ' ( दस १, २) । आवि वि [ आवृत ] प्राच्छादित (से ६, ६२) IV आविअ [] १ इन्द्रगोप, शुद्र कीटविशेष । २ वि मथित, आलोडित (दे १, ७६)। ३ प्रोत (दे १, ७६; पाग्रः षड् ) आविअ वि [ आविष] पविच-देशोत्पन्न (राय) । ३ दृष्ट । । ३ पाइअसमयवो आधिकम्म न [आविष्कर्म] प्रकट-कर्म प्रकटरूप से किया हुआ काम (प्राचा २, १५, ५)। आविग्ग वि [आविग्न] उद्विग्न, उदासीन ( से ९, ८६ १३, ९३३ दे ७, ६३) । आबिट्टु वि [आविष्ट] १ बात ध्यास (सम ५१ सुपा १८७ ) । २ प्रविष्ट ( सू २, ३ ) । ३ अधिष्ठित प्राश्रित (ठा ५३ भास ३९ ) । आविट्ठ वि [ आविष्ट ] भूत आदि के उपद्रव से युक्त (सम्मत्त १७३) IV आविद्ध वि [आविद्ध] परिहित, पहना हुआ (404) 1✓ | आविद्ध वि [दे] क्षिप्त, प्रेरित (दे १, ६३) । आविष्भाव [ आविर्भाव ] १ उत्पत्ति । २ प्रादुर्भाव, श्रभिव्यक्ति; 'श्राविब्भावतिरोभावमतपरिणामिदव्यमेवायं' (विसे) विमानी [हे] १ नवोदा, दुलहिन । २ परतन्त्र, पराधीन स्त्री (दे १७७) IV आविंध सक [ आ + व्यधू ] १ विधना । २ पहनना । ३ मन्त्र से अधीन करना । प्राविध आक । विष (are ३८) बाविभागो (पि ४८१) सुतं वा धादि घेज पिरिगवेज वा ( आचा २, १३, २० ) । कर्म. विज्झ ( उ ) आविंधण न मन्त्र से आविष्ट करना, मन्त्र से अधीन करना ( परह १. २० श्राक ३८) आविन्भूय वि [ आविर्भूत] १ उत्पन्न । २ प्रभूत (कम्प) अभिव्यक (मुर १४ ‘जं जं समयं जीवो, श्रविसई जेरंग जेण भावेण । सो सम्म तम्मि सम सुहामुहं बंधए कम्म (उय)" आविवक [ आविर् + भू] १ प्रकट होना। २ होता व (४) आविहू देलो आविन्भूय (स ७१८) | आयी देखी आवियाविस आनी वा जर वा रहस्से' (उत्त १, १७ सुख १, १७) । "कम देखो आर्थिकम्म (थापा २, १४, २) [आव्यथन] १ पहनना । २ आबोअ वि [आपीत] गीत २ शोषित । = १ । से १२, ११) Hasa [आवचि] निरन्तर, अविच्छिन्नः १२३ 'गब्भप्प भिइमावीइसलिलच्छेए सरं व सुसंतं । समयं मरमाणे, जीयंति जो कहं भरणइ ?' (सुपा ६५१) । मरण न [" मरण] मरण- विशेष (भग १३, ७) IV आवकम्पन [आयिष्कर्मन] १ उत्पत्ति २ अभिव्यक्ति (ठा ६, कप्प) आवीड सक [ आ + पीड् ] १ पीड़ना । २ दबाना। प्रवीड (सरण) । For Personal & Private Use Only आवीण न [आपीन] स्तन, धनगड) आवील देखो आमेल = श्रपीड ( स ३१५) । आबील देखो आबीद संक. आवलियाण ( श्राचा २, १, ८, १) । आबीलण न [आपीडन ] समूह, निचय (गउड) IV २११ आविल a [ आविल ] १ मलिन, अस्वच्छ (सम ५१) । २ श्राकुल, व्याप्त (सूत्र १, १५) । आविलिअ वि [दे] कुपित, क्रुद्ध ( षड् ) ।१२) । आविलुंपि वि [आकाङ्क्षित] भिलषित (दे १,७२) आविस सक [ आ + विश् ] प्रवेश करना, घुसना । प्रविसेइ ( सम्मत्त १७३) । आविस [ आ + विश् ] १ संबद्ध होना युक्त होना । २ सक. उपभोग करना, सेवना; 'परदारमाविसामित्ति' (विसे ३२५९ ) ; अक gg. [आवुक ] नाटक की भाषा में पिता, बाप (नाट) । V आवृण्ण वि [आपूर्ण] पूर्ण भरपूर (२, 808) 10 आवृत्त पुं [दे] भगिनी पति (श्रभि १८३ ) । आवुद वि [आवृत] ढका हुआ (प्राकृ ८, ~ आदि स्त्री [आवृति] श्रावरण (प्राकृ ८, १२) आबूर देखो आपूर = आ + पूरय् । वकु. आबूत (पउम ७६,८) आबूरिल माण ( स ३८२ ) । V आवरण न [आपूरण] पूति (स ४१९) आवरण न [आपूरण] पूर्ति (४३) I आवृरिय देखो आऊरिय ( पउम १४ ५२० ७७) आवेअ सक [ आ + वेदय् ] १ विि करना, निवेदन करना । २ बतलाना। आवेएइ (महा) | V आवेअ पुं [आवेग ] कष्ट, दुख ( से १०, ५७, ११.७२) आये देखो आवा आवेदिय कि [आवेष्टित] वेष्टित पिरा (२८) | आवे ) देखो आमेल दि २, २३४, आवेदय } कुमा) । आवे [आवेष्ट] १ वेष्टन । २ मण्डलाकार करना ( से ७, २७ ) V Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ आवेढणन [आवेष्टन ] ऊपर देखो (गउड, पि ३०४) । वे [आवेष्टित] १ चारों ओर से वेष्टित (भग १६, ६ उप पृ ३२७) । २ एक बारवेत (ठा आवेण न [आवेदन] निवेदन, मनो-भात्र का प्रकाश-करण (गउड दे ७, ८७) । आवेव वि [दे] १ विशेष आसक्त । २ प्रवृद्ध, बढ़ा हुआ ( षड् )IV आवेस एक [ आ + देश] भूवाविष्ट करना । संकृ. आवेसिऊण (१४) IV आवेस [आवेश] अभिनिवेश २ जोश । ३ भूतग्रह । ४ प्रवेश (नाट) 1 आवेसण न [आवेशन] शून्यगृह, 'श्रावेसरसभापवायु परिणयाला एगवा बासो' (आचा आस देखो अस्स = अन (प्राकृ २६) । [ आस् ] बैठना । वकृ. 'श्रजयं आसमाण व पाराबाई हिस' (४) । हेकृ.आसित्तए,आसइत्तए, आसइत्तु (पि ५७८, कस, दस ६, ५४ ) । | आस [अश्व] १ अश्व, घोड़ा (गाया १, १७) । २ देव - विशेष, अश्विनी नक्षत्र का अधिष्ठायक देव (जं) । ३ अश्विनी नक्षत्र (चंद २० ) । ४ मन, चित्त (पहा २) कृण्ण, कल [कर्ण] १ एक अन्तद्वीप। २ उसका निवासी (ठा ४, २ ) । ग्गीव [श्रीव] एक प्रसिद्ध राजा, पहला प्रतिवासुदेव (पउम ५, १५६) । तर पुं [तर] खच्चर (श्रा १८ ) । त्थाम वुं ['स्थामन्] द्रोणाचार्य का प्रख्यात पुत्र (कुमा) अ [ध्व] श का एक राजा (पउम ५. ४२) । "धम्म पुं ["धर्म] देखो पूर्वीक धर्म (५,४२) । "रवि [र] अश्वों को धारण करनेवाला (श्रीप) पुरव["पुर] नगर- विशेष (इक) 'पुरा, पुरी स्त्री ["पुरी ] नगरी विशेष (कस, । २, ३) । क्याी [मक्षिका] चतुरिन्द्रियजीव-विशेष (घोष १०७)। "महग, मदय ["मर्दक] अथ का मर्दन करनेवाला (गाया १, १०) मिस ["मित्र ] एक जैनाभास दार्शनिक, जो महागिरि के शिष्य कौण्डिन्य का शिष्य था और जिसने पाइअसहमहणवो आवेढण - आसगलिअ । सामुद्वेदिक पंथ चलाया था (डा ७) मुद्द आसंघ पुं [दे] १ श्रद्धा, विश्वास (सुपा ५२६ [ख] १एक अन्तद्वीप । २ उसका षड्)। २ श्रध्यवसाय, परिणाम ( से १,१५ ) । निवासी (डा ४.२) *मेह [मेप] य ३ प्राशंसा, इच्छा, चाह (गउड) विशेष (११, ४२)रह [र] आसंघा श्री [दे] १ इच्छा वाडा (१, घोड़ा गाड़ी (वा ११) वार [वार] ६३) । २ प्रासक्ति (मैं २ ) 1 पुड़सवार पु-या (गुपा २१४) । वाह आसंचिअ वि [दे] १ मध्यमसित २घुड़-चढ़या । अवणिया स्त्री [वाहनिका ] घोड़े की सवारी, पारित १०६६) संभावित कुमा घोड़े पर सवार होकर फिरना ( विपा १, ६) 1 स १३७) "सेण ["सेन] १ भगवान पार्श्वनाथ के पिता ( कप ) । २ पाँचवें चक्रवर्ती का पिता (सम १५२ ) [रोह]] [ढ़-सवार, । रोह पुं (१२) । आस पुंस्त्री [आश] भोजन, 'सामासाए पायरासाऍ (सू २ १) IV आस [अस] क्षेपण, फेंकना (विसे २०१५) IV आस न [आस्व] मुख, ह (छाया १, ८) आसइ वि [श्रयिन् ] श्राश्रय-स्थित, 'थंभासही जाया सा देवी सालमंजिल' (धर्मवि १४७) 1/ आतंक सक [ आ + शक् ] १ संदेह [आ] १ संदेह करना, संशय करना । २ अक भयभीत होना। सासंद (३०) । वह. आसंकंत आसं कमाग (नाट, माल ८३) । आसंका स्त्री [आशङ्का ] शङ्का, भय, वहम, संशय (सुर ६, १२१; महा; नाट) आसंकि वि [आशङ्किन् ] श्राशङ्का करनेवाला (गा २०५ ) । V आसंकिय वि [आशङ्कित] १ संदिग्ध, संशयित । २ संभावित (महा) । आसंकिर वि [आशङ्किट ] आशंका करनेआसंग [] बम-गृहदे, याला मी (१४, १७: या २०६ ) ६६) । । पुं आसंग [आ] पासति भ पुं १ प्रासक्ति, । २३ रोग (बाबा) V आसंगि वि [ आसङ्गिन] १ श्रसक्त २ संबन्धी, संयोगी (गउड)। स्त्री. णी (गउड) आसंघ सक[सं+ माचय ] १ संभावना करना। २ यवसाय करता स्थिर करना, निश्चय करना । आसंघइ ( से १५, ६० ) । वसंत (१५२ ३ For Personal & Private Use Only आसंजिअ वि [आसक्त ] पीछे लगा हुआ (सुर ८, ३०; उत्तर ε१) IV आसंदय न [आसन्दक] भासत-विशेष (धाचा महा) IV आसंदय न [आसन्दक] धान-विशेष मंच (११) आसंदाण न [आसन्दान ] भ श्रवरोध, रुकावट (गउड) 1 आसंदिया श्री [आसन्दिका ] छोटा मच (सूत्र १, ४, २, १५० गा ६६७ ) । आसंदी श्री [आसन्दी ] घासण-विशेष, म (सूत्र १, ६ दस ६, ५४) आसंधी श्री [अश्वगन्धी] वनस्पति-वशेष (३२४) । आसंबर वि [आशाम्बर ] १ दिगम्बर, नग्न ( प्रामा)। २ जैन का एक मुख्य भेद । ३ उसका धनुवायी ( २ ) IV आसंसइयवि [असंशयित ] संशय-रहित ( सू २,२, १६) | आस न [आशंसन] इच्छा, अभिलाषा (भास २५) आसंसा स्त्री [आशंसा ] अभिलाषा, इच्छा (भाषा)। आसंसि पि [आशंसित] अभिलषित (वा आसंसि वि [आशंसिन] अभिलाषी, इच्छा करनेवाला (प्राचा) V 08) 11 आसक्खयपुं [दे] प्रशस्त पक्षि- विशेष, श्रीवद (दे १,६७) । आसग देखो आस = अश्व (खाया १,१२) । आसगलिअ वि [दे] श्राक्रान्त, 'प्रासगलिश्रो तिब्वकम्मपरिगईए' ( स ४०४ ) IV आसगलिअ वि [दे] प्राप्त एवं विविशुद्धचितणेण खविनो कम्मसंघाओ, घासगलियं बोधिनी' (६७६)। - Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसज्ज - आसानर आसज्ज अ [ आसाद्य ] प्राप्त करके ( विसे ३०) IV [आ] विक्रम की तेरहवीं शताब्दी का स्वनाम - ख्यात एक जैन ग्रन्थकार (विवे १४३)। आसण न [आसन] १ जिसपर बैठा जाता है वह चौकी आदि ( आव ४) । २ स्थान, जगह (उत्त १, १ ) । ३ शय्या ( आचा) । ४ बैठना, उपवेशन (हा १) आसय पुं [आशय ] १ मन, चित्त, हृदय (सुर १३, ३६ पाए । २ भिप्राय (नू १, १५) आसय [दे] निकट समीप (दे १, ६५) आसणिय वि [आसनित] श्रासन पर बैठाया आसरिअ वि [दे] संमुख-प्रागत, सामने प्राया हुआ (स२६२) । हुम्रा (दे १, ६९) २ आसण्ण न [आसन्न] १ समीप, पास वि. समीपस्थ ( गउड) | देखो आसन्न आसत्त वि [आसक्त ] लीन, तत्पर (महा; प्रासू ६४) आसन्त वि [आसक्त ] १ नीचे लगा हुआ ( राय ३५) । २ पुं. नपुंसक का एक भेद, वीर्यपात होने पर भी श्री का मालिंगन कर उसके कक्षादि अंगों में जुड़कर सोनेवाला नपुंसक ( पव १०९ ) । सति स्त्री [आसक्ति ] भष्वङ्ग, तल्ल (कुमा) । आसत्थ पुं [अश्वत्थ ] पीपल का पेड़ (पउम ५३, ७) सत्य वि [ आश्वस्त ] ९ श्राश्वासन-प्राप्त स्वस्थ । २ विश्रान्त (गाया १, १, सम १५२ पउम ७, ३८ दे ७, २८) आसन्न देखो आसण (कुमा; गउड)। वत्ति वि [°वर्त्तिन्] नजदीक में रहनेवाला (सुपा ३५१) IV आसम पुं [आश्रम ] तापस आदि का निवास स्थान, तीर्थ-स्थान (परह १, ३० श्रौप ) । २ ब्रह्मचयं, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और भैभ्य ( संन्यास) ये चार प्रकार की अवस्था (पंचा १०) |V आसमपयन [ आश्रमपद ] तापसों के आश्रम से उपलक्षित स्थान (उत्त ३०, १७) । आसमिवि [ आश्रमिन् ] बालम में रहनेमाता, ऋषि, मुनि वगैरह (१) आसय अक [आ] बैठना । प्रासयंत (after 2) 1✓ आसय सक [ आ + श्री ] १ श्राश्रय करना, पाइअसमायो अवलम्बन करना । २ ग्रहण करना । प्रासयइ ( कप्प ) । वकृ. आसयंत (विसे ३२२ ) । आसय पुं [आशक] खानेवाला ( श्राचा) । आसय पुं [आश्रय] श्राधार, अवलम्बन (उप ७१४, सुर १३, ३) I आवक [ आ + ] धीरे-धीरे भरना, टपकना । वकृ. आसावमाण (माचा ) । आसव सक [ आ + स्रु ] श्राना, 'आसर्वादि मेला कम्मं परिणामेव भावासवो' (द्रव्य २९) । V आसव पुं [आश्रव] सूक्ष्म छिद्र, देखो; 'सयासव' (भाग १, ६) आसव टी) । [आसव ] मद्य, दारू (उप ७२८ आसव [आ] [१] [कमों का प्रवेशद्वार जिससे कर्मबन्ध होता है वह हिंसा आदि (ठा २, १) । २ वि. श्रोता, गुरु-वचन को सुनने(१) वि [ सक्तिन् ] हिंसादि में प्रासक्त (प्राचा) IV आसवन [] वास-गृह, शय्या-घर (दे १, ६६) ४ आसवाहिया स्त्री [अश्ववाहिका ] अश्व क्रीडा (४) । आसाअ सक [ आ + सादय् ] स्पर्शं करना, छूना। आसाएजा वकृ. आसायमाण (प्राचा २, ३, २, ३) । आसस क [ आ + स् ] श्रावासन लेना, विश्राम लेना । श्रससइ, आसससु (पि vee) V आसण न [आरासन] विनाश, हिंसा ( परह १, ३) । तु आससा श्री [आशंसा] अभिलाषा 'जेसि परिमाणं, तं दुदुं श्राससा हाई' (विसे २५१६) । आमसिय वि [ आश्वस्त ] श्राश्वासन-प्राप्त (स २७८) IV आसा [आशा ] १ प्राशा, उम्मीद (औप से १, १६ र ३, १७०) २ दिशा (उप For Personal & Private Use Only १२५ ६४८ टी) । ३ उतर रुचक पर बसनेवाली एक दिक्कुमारी, देवी विशेष (ठा ८) । आसाअ सक [ आ + स्वाद् ] स्वाद लेना, चखना, खाना । श्रासायंति (भग) । वकृ. आसाअअंत, आसाएंत आसायमाण (नाट से ३, ४२३ गाया १,१) । आसा सक [ आ + सादय् ] प्राप्त करना । - आसावे, ४५) " आसाअ तक [ आ + शातय् ] घनशा करना, अपमान करना । श्रसाएजा ( महानि ५ ) बर्क. आहार्यत, आसापमान (बा६ ठा ४) आसान [आस्वाद स्वाद, रस (गा ५६३ से ६, ६५, उप ७६८ टी) । २ तृप्ति ( से १,२६) । आसाअ [आस्वाद] स्वाद का बिलकुल भाव (४५) आसाअ देखो आसय = श्राश्रय ( तंदु ४५) । आसा [आसाद] प्राप्ति (से ६,६८) आसाइअ वि [आशातित ] १ भा तिरस्कृत (पुप्फ ४५४) । २ न. अवज्ञा, तिरस्कार (विवे ६२) । आसाइज पि [आस्वादित] चला था, थोड़ा खाया हुआ (से ५, ४६ ) V आसाइअ वि [आसादित] प्राप्त, लब्ध (हेका ३०; भवि ) । आसाढ पुं [आषाढ] १ श्रासाढ़ मास ( सम ३५) । २ एक निह्नव, जो श्रव्यक्तिक मत का उत्पादकथा (डा ७)। 'भूइ ! ["भूति] एक प्रसिद्ध जैन मुनि (कुम्मा २६ ) । आसादा [आषाढा] नक्षत्र- विशेष (ठा २) । प्राषाढ़ मास की आसाठी स्त्री [आषाढ़ ] पूर्णिमा (सुन) । आसाठी श्री [आवाढ] १ याषाढ़ की मास पूर्णिमा । २ आषाढ़ मास की अमावस (सुख १०, ६) IV आसादेत्तु वि [आस्वादयितृ ] श्रस्वा करनेवाला (ठा ७) आसाम पुं [आशामर] सातवें वासुदेव और बलदेव के पूर्वभवीय धर्मगुरु का नाम सम १५३) । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ पाइअसद्दमहण्णवो आसायण-आसुरीय आसायण न [आस्वादन] स्वाद लेना, चखना | आसासण पुं[आश्वासन] १ एक महाग्रह | आसिल पुं [आसिल] एक महर्षि (सूत्र १, (पउम २२, २७ रणाया १,६सुपा १०७)। (सुज २०)। २ वि. आश्वासन-दाता (कुप्र ३, ४,३) V आसायण न [आशातन] १ नीचे देखो | आसिलिट्ठ वि [आश्लिष्ट] प्रालिंगित (नाट)।। (विवे ६६)। २ अनन्तानुबन्धि कषाय का | आसासिअ वि [आश्वासित] जिसको आश्वा आसिलिस सक [आ+श्लिष् ] प्रालिंगन वेदन (विसे)।V सन दिया गया हो वह (से ११, १३६; सुर करना । हेकृ. आलेठुअं, आले? (हे आसायणा स्त्री [आशातना] विपरीत वर्तन, ४, २८)।। २, १६४)IV अपमान, तिरस्कार (पड़ि) IV | आसि सक [आ + श्रि] आश्रय करना। आसिसा देखो आसी = आशिष् (महा अभि आसार सक [आ+ सारय् ] तंदुरस्त करना, | ___ संकृ. आसिज्ज (आरा ६६)IV १३३)।। वीणा को ठीक करना । संकृ. आसारेऊरण आसि देखो अस = अस् । आसी देखो अस् = अस्। (सिरि ७६४)V आसि वि [आशिन] खानेवाला, भोजक आसार पुं[आसार] समीकरण, वीणा को (सट्ठि १३)।। आसी स्त्री [आशी] दाढ़ा (विसे)। "विस ठीक करना (कुप्र १३६)IV आसिअ वि [आश्विक] अश्व का शिक्षक, | [विष] १ जहरिला सांप, 'प्रासी दाढा तग्गयविसासीविसा मुणेयवा' (जीव १ टी आसार पुं [आसार] वेग से पानी का बरसना, 'दुवि य जो आसे दमेइ तं आसियं बिति (वव ४)। प्रासू १२०) । २ पर्वत-विशेष का एक शिखर (से १, २०; सुपा ६०६)IV आसिअ वि [आशित खिलाया हुआ, भोजित (ठा २, ३) । ३ निग्रह और अनुग्रह करने में आसारिय वि [आसारित ठीक किया हुआ, (से ८, ६३)।V समर्थ, लब्धि विशेष को प्राप्त (भग ८, १) 'प्रासारिया कुमारेण वीणा' (कुप्र १३६) आसिअ वि [आश्रित] आश्रय-प्राप्त (कप्प; | आसी स्त्री [आशिष् ] आशीर्वाद (सुर १, आसालिय पुंस्त्री [आशालिक] १ सर्प की | सुर ३, १७; से ६, ६५; विसे ७५६)V १३८)। वयण न [°वचन] आशीर्वाद एक जाति (पएह १, १)। २ स्त्री. विद्याआसिअ वि [आसित] १ उपविष्ट, बैठा हुआ (सुपा ४६०)। °वाय पुं[वाद] आशीर्वाद विशेष (पउम १२, ६४; ५२, ६)। (से ८, ६३)। २ रहा हुआ, स्थित (पउम | (सुर १२, ४३, सुपा १७४)।। आसावल्ली स्त्री [आशापल्ली] एक नगरी (ती | ३२,६६) V आसीण वि [आसीन] बैठा हुआ, 'नमिऊण १५) आसिअ देखो आसित्त (णाया १, १ कप्पः | आसीणा तो (वसु) IV आसावि वि [आस्राविन ] झरनेवाला, औप) ।। आसीवअ पुं[दे] दरजी, कपड़ा सीनेवाला सच्छिद्र (सूअ, १,११)V आसिअअ वि [दे] लोहे का, लोह-निर्मित (३१, ६६)। आसास सक [आ + शास् ] आशा करना, | (दे १,६७; सूत्र कृ० चूर्णी सू० गा २८५)। आसीसा देखो आसी = आशिष् ( षड् )। उम्मीद रखना । प्रासादि (वेणी ३०)IV आसिआ स्त्री [आसिका] बैठना, उपवेशन आसु पुंन [अश्रु] आँसू (संक्षि १७) ।। आसास अक [आ + श्वासय् ] आश्वासन (से ८, ६३)। आसु ) अ [आशु] शीघ्र, तुरंत, जल्दी (सार्ध देना, सान्त्वना करना । पासासइ (वजा १६)। आसिआ देखो आसी - आशिष् ( षड्)। आसुं । १८ महा; काल)। कार पुं[°कार] वकृ. आसासंत, आसासिंत (से ११, ८७ आसिंच सक [आ+ सिन् ] सींचना । श्रा १२)।V १ हिंसा, मारना । २ मरने का कारण, विसू चिका वगैरह (आव)। ३ शीघ्र उपस्थितः आसास [आश्वास] १ आश्वासन, सान्त्वना कर्म. प्रासित (चेइय १५१)IV 'प्रासुकारे मरणे, अच्छिन्नाए य जीवियासाए' (मोघ ७३; सुपा ८३ उप ६६२)। २ विश्राम | आसिण वि [आशिन्] खानेवाला, भोक्ता (आउ ६)। पण्ण वि [प्रज्ञ] १ शीघ्र(ठा ४, ३)। ३ द्वीप-विशेष (आचा) _ 'मसासिणस्स' (पउम २६, ३७)।V बुद्धि । २ दिव्य-ज्ञानी, केवल-ज्ञानी (सून १, आसास पुं [आश्वासक] विश्राम-स्थान, | आसिण पु[आश्विन आश्विन मास (पान)। ६; १४)।V ग्रन्थ का अंश, सर्ग, परिच्छेद, अध्याय (से २, आसित्त वि [आसिक्त] १ थोड़ा सिक्त (भग | आसुर वि [आसुर] असुर-संबन्धी (ठा ४, ४६)। २ वि. आश्वासन देनेवाला: 'नारणं ६, ३३) । २ सिक्त, सींचा हुआ (प्रावम)। ४ पाउ ३६)।V प्रासासयं सुमित्तुव्व' (पुप्फ ३८)।V ३ पुं. नपुंसक का एक भेद (पूप्फ १२८)। आसुरत्त न [आसुरत्व] क्रोधिपन, गुस्सा (दस आसासग[आशासक] बीजक-नामक वृक्ष आसित्तिया स्त्री [दे] खाद्य-विशेष, 'विसा- ८, २५)।V (औप)।V । हाहि पासित्तियानो भोचा कजं साधेति' (सुज आसुरिय पुं[आसुरिक] १ असुर, असुर रूप आसासण न [आश्वासन] १ सान्त्वना, १०, १७)। से उत्पन्न (राज)। २ वि. असुर-संबन्धी (सूम दिलासा (सुर ६, ११०, १२, १५; उप पू | आसियावाय देखो आसीवाय (सूत्र १, १४, २, २, २७)।। ५७)। २ ग्रहों के देव-विशेष (ठा २, ३) १६) आसुरीय वि [असुरीय] असुर-संबन्धी, For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसुरुत्त-आव पाइअसद्दमण्णको १२७ 'आसुरीयं दिसं बाला गच्छंति अवसातम' (उत्त | आसोई । स्त्री [आश्वयुजी] १ आश्विन आहणाविय वि [आघातित] पाहत कराया आसोया । मास की पूर्णिमा । २ आश्विन हुप्रा (स ५२७) V आसुरुत्त वि [आशुरुप्त] १ शीघ्र क्रुद्ध । २ मास की अमावस (सुज १०, ७, ६)। आहत्तहीय न [याथातथ्य] १ यथावस्थितअति कुपित (गाया १, १)IV आसोकंता स्त्री आशोकान्ता] मध्यम ग्राम पन, वास्तविकता । २ तथ्य-मार्ग--सम्यग्ज्ञान आसुरुत्त वि [आसुरोक्त प्रति कुपित (गाया की एक मूच्र्छना (ठा )V आदि। ३ 'सूत्रकृताङ्ग सूत्र का तेरहवाँ आसोत्थ पुं[अश्वत्य] पीपल का पेड़ (पएण १,१)। अध्ययन (सूअ १, १३; पि ३३५) । १, उप २३६) आसुरुत्त वि [आशुरुष्ट अति-कुपित (विपा आहम्म सक [आ + हम्म] पाना, प्रागमन आह सक [ ] कहना । भूका-पाहंसु, १,६) V करना । पाहम्मइ (हे ४, १६२) 11 आसूणि न [आशूनिन] १ बलिष्ठ बनाने आहु (कप्प)V आहम्मिअ वि [अधार्मिक] अधर्म-संबन्धी (दस..३१) आह सकाकाक्ष.] चाहना, इच्छा करना। V वाली खुराक । २ रसायन-क्रिया (सन१. आहइ (हे ४, १६२ षड्)। वकृ. आहंत | आहम्मिय वि [अधार्मिक] अधर्मी, पापी आसूणी स्त्री [आशूनी] श्लाघा, प्रशंसा (सून (कुमा) IV (सम ५१) १. ६, १५)।V आहंडल देखो आखंडल (हम्मीर १५) । आय वि [आहत] आघात प्राप्त, प्रेरित आसूणिय वि [आशूनित] थोड़ा स्थूल किया आहेतुं देखो आण। (कप्प) IV हुआ (पएह १. ३)। आहच अ[दे] १ अन्यथा। २ निष्कारण आहय वि[आहत] १ आकृष्ट, खींचा हुआ। आसूय न [दे औपयाचितक, मनौती (पिंड (वव १)। भाव पुं[भाव कादाचित्कता २ छीना हुआ (उप २११ टी) IV ४०५)।V (पव १०७ टी)। आहर सक[आ + ह] १ छीनना, खींच लेना। आसेअगय वि[आसेचनक] जिसको देखने | आञ्च न [दे] १ प्रत्यर्थ, बहुत, अतिशय (दे २ चोरी करना। ३ खाना, भोजन करना । से मन को तृप्ति न होती हो वह (दे १,७२) १, ६२)। २ अ. शीघ्र, जल्दी (प्राचा)। प्राहरइ (पि १७३)। कवकृ. आहरिज्जमाण आगमकाव वना र ३ कदाचित्, कभी (भग ६,१०)। ४ उप (ठा ३)। संकृ. आह? (पि २८६)। पालना । ३ आचरना । आसेवए (आप ६७)। स्थित होकर (आचा)। ५ व्यवस्था कर (सूत्र हेकृ. आहरित्तए (तंदु)iv आसेवण न [आसेवन] १ परिपालन, संरक्षण २,१)। ६ विभक्त कर (प्राचा)। ७ छीन कर (दसा) IV आहर सक [आ+ ह] लाना। आहराहि (सुपा ४३८) । २ आचरण (स २७१)। ३ आहच्चा स्त्री [आहत्या] प्रहार, आघात (भग (सून १, ४, २, ४), आहरेमो (सूम २, २, मैथुन, रतिरांभोग (दसचू १: पव १७०) ।' ५५)। आसेवणया, स्त्री [आसेवना] १ परिपालन आहट्ट न दे] देखो आहट्टु = दे (पब ७३ आहरण पुंन [आहरण] १ उदाहरण, दृशन्त आसेवणा (सूत्र १, १४)। २ विपरीत (ोघ ५३९ उस २६३,६५१)। २ अाह्वान, | टी)। आचरण (पव)। ३ अभ्यास (प्राचू)। ४ शिक्षा बुलाना (सुपा ३१७)। ३ ग्रहण, स्वीकार । आह? स्त्री [दे] प्रहेलिका, पहेलियाँ, बुझौः | का एक भेद (धर्म ३)। ४ व्यवस्थापन (प्राचा)। ५ आनयन, लाना वल; 'तेसु न विम्हयइ सयं प्राटुकुहेडएहिं आसेवा स्त्री [आसेवा] ऊपर देखो (सुपा व (पव ७३) V (सूत्र २, २)। आहटु देखो आहर = आ + ह ।। आहरण पुंन [आभरण] भूषण, अलंकार: आसेविध वि [आसेवित] १ परिपालित । आहड [आहृत] १ छीन लिया हुआ। २ 'देहे आहरणा बहू' (था १२ कप्पू) ।। २ अभ्यस्त (प्राचा)। ३ आचरित, अनुष्ठित चोरी किया हुआ (सुपा ६४३)। ३ सामने | आहरणा स्त्री [दे] खर्राट, नाक का खरखर (स ११८)IV लाया हुआ, उपस्थापित (स १८८)।V शब्द (ोघ २)V आसोअपुं [अश्वयुक् ] आश्विन मास आहड न [दे] सीत्कार, सुरत-शब्द ( षड् )Mआहरिसिय वि[आधर्षित] तिरस्कृत, भत्सित (रयण ३६)iV आहण सक [आ + हन] आधात करना, 'पाहरिसिमो दूओ संभंतेण नियन्तिमो' आसोअ वि [आशोक] अशोक वृक्ष संबन्धी मारना । पाहणामि (पि ४६६)। संकृ.। (आवम)। (गउड)V आहणिअ, आहणिऊण, आहणित्ता (पि | आहल्ल (अप) अक [आ + चल ] हिलना, आसोइया स्त्री [दे. आसोतिका] ओषधि ५६१,५८५, ५८२)। हेकृ. आहंतं (पि | चलना; 'न दंतपंतो पाहल्लइ, खलइ विशेष, 'आसोडयाइमीसं चोलं घुसिणं कुमुंभसं-५७६)। जीहा' (भवि)।V मीसं' (सुपा ३६७)।V आहण सक [आ + हन] उठाना । संकृ. | आहल्ला स्त्री [आहल्या] विद्याधर-राज की आसोई स्त्री [आश्वयुजी] आश्विन पूणिमा आह [?] णिय (राय १८२१)। एक कन्या (पउम १३, ३५)। आहणण न [आनन] प्राधात (उप ३६६)। आव सक [आ+ हवे] बुलाना। आह । For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ (धर्मवि ८ ) । संकृ. आहविउं, आहविऊण (धर्मवि ६८ सम्मत्त २१७) आह [ आहव] युद्ध, लड़ाई (पान सुपा २८८ धारा ४१ ) IV आवण न [ आहवान ] १ बुलाना । आहव्वण २ ललकारना (श्रा १२ सुपा ६०; पउम ६१, ३० स ६४ ) | आहविअ देखो आहूअ = आहूत (ती ४) । आहव्य [आभाव्य] शाक क्षेत्रादि ( पंचा ११, ३० पत्र १०५) । आव्वणी स्त्री [ आह्नानी ] विद्या - विशेष (सूम २२) । आहा सक [ आ + ख्या ] कहना । कर्म. हिजइ (पि ५४५); श्राहिजंति (कप्प) । आहा सक [ आ + धा] स्थापन करना । कर्म. श्राहिजइ (सू २, २ ) । हे. आहे (सूअ १, ९) । संकृ. आहाय (उत्त ५) | आहा स्त्री [आभा ] कान्ति, तेज (कप्पू ) 1 [ [] आश्रय, आधार (पिंड) । २ साधु के निमित्त आहार के लिए मन:प्रणिधान ( पिंड ) । कड वि [कृत ] श्रधा कर्म-दोष से युक्त (स १८८ ) । कम्म न ["कर्मन] १ साधु के लिए आहार पकाना। २ साधु के निमित्त पकाया हुआ भोजन, जो जैन साधु के लिए निषिद्ध है ( २२ ठा ३, ४ ) । कम्मियवि [कर्मिक] देखो पूर्वोक्त श्रथं (अनु) आहाण न [आधान] १ स्थापन। २ स्थान, श्राश्रयः सव्वगुणाहारणं' (श्राव ४; उवर २६ ) । आहाण } वचन याद न [आख्यान, क] १ उक्ति, आहागय कहावत, लोकोक्ति (सुर २, ६६; उप ७२८ टी) । आहात व [याथातथ्य ] सत्य, वास्त बिक (सू २१:२७) देशो आदतहीय आहार सक [ आ + हारय् ] खाना, भोजन करना, भक्षण करना । श्राहारइ श्राहारैति (भग)। वह. आहारेमाण (कप्प) भ. आहारिजस्समाण (भग)। हेक. आहा रित्तए, आहारेशए (क) कृ. आहारेयन्त्र (ठा ३) । आहार : [ आहार ] १ खुराक, भोजन (स्वप्न ६०: प्रासू १०४) । २ खाना, भक्षण (पत्र) । ३ न देलो आहारग (१०२१८ ) । पाइअसद्दमहणव पज्जन्ति स्त्री [पर्याप्त ] भुक्त आहार को खल और रस के रूप में बदलने की शक्ति (भग ६, ४) पोसह [पोषध] व्रत विशेष जिसमें प्राहार का सर्वथा या प्रांशिक त्याग किया जाता है (६) सण्णा श्री [संज्ञा] प्रहार करने की इच्छा (ठा ४) । आहार पुं [आधार ] १ आश्रय, अधिकरण (सुपा १२८ संथा १०३) । २ आकाश ( भग २०, २ ) । ३ श्रवधारण, याद रखना (पुप्फ ३५६) आहारगन [ आहारक] १ शरीर-विशेष, जिसको चौदह-पूर्वी, केवलज्ञानी के पास जाने के लिए बनाता है (ठा २, २) । २ वि. भोजन करनेवाला (ठा २, २) । ३ श्राहारक शरीरवाला (विसे ३७५) । ४ श्राहारक शरीर उत्पन्न करने का जिसे सामर्थ्यं हो वह (कप्प ) । "जुगल न ["युगल ] श्राहारक शरीर और उसके अंगोपाङ्ग (कम्म २, १७, २४) । णाम न [नामन् ] श्राहारक शरीर का हेतु भूत कर्म (कम्म १, ३३) । दुग न [द्विक ] देखो 'जुगल (कम्म २२८, १७) आहारण वि [आधारण] १ धारण करने वाला । २ श्राधार भूत ( से ६, ५० ) 1 आहारण वि [आहारण ] माकर्षक (से, Xo) 1~ | आहारय देखो आहारग (ठा ६, भगः परण २८ठा ५, १; कर्म १, ३७) । आहाराइगिया स्त्री [ याथारात्निकता ] यथाज्येष्ठ, ज्येष्ठानुक्रम ( कस) । आहारि वि [आहारिन् ] श्राहार-कर्ता (अन्क १११) । आहार [ आहार्य ] १ खाने योग्य । २ जल के साथ खाया जा सके ऐसा योग्य चूणंविशेष (पिंड ५०२ ) । V आहारिम वि [ आहार्य ] आहार के योग्य, खाने लायक (निचू ११ ) आहारिय वि [ आहारित] १ जिसने श्राहार किया हो वह, 'तस्स कंडरीयस्स रराणो तं पणीयं पारणभोयणं श्राहारियस्स समारणस्स ( गाया १, १९ ) । २ भक्षित, भुक्त (भग) । आहावगा स्त्री [आभावना ] अपरिगणना, गगना का अभाव (राज) | For Personal & Private Use Only आहव-आहिय आहावणा स्त्री [आभावना ] उद्देश्य (पिंड ३८१) आहाविअ ( सिरि ७५२) । आहाविर [आधारित ] दौड़ा हुआ [आधावित] दीनेवाला (सरण) आहास देखो आभास = आ + भाष । संकृ. आहासिषि (प) (भवि) 1 आहा म [ आहाह] आश्चर्य द्योतक अव्यय (हे २, २१७) आहि पुंस्त्री [आधि] मन की पीड़ा (धम्म १२ टी आहिआइ श्री [आभिजाति ] कुलीनता, खानदानी से १, ११) आहिआई स्त्री [आभिजाती ] कुलीनता (गा २८५)। आहिंड सक [ आ + हिण्ड् ] १ गमन करना, जाना । २ परिश्रम करना । ३ घूमना, परिभ्रमण करना । वकु. आहिंडंत, आहिंडेमाण ( उप २६४ टी; गाया १,१ ) । संकृ. आहिंडिय (महा स९९३) 1 आहिंडग ) वि [आहिण्डक ] चलनेवाला, आहिंडय परिभ्रमण करनेवाला (मो ११२ ११० श्रीप) । आहिक्क न [आधिक्य ] अधिकता ( विसे २०८७) IV आहिजाइ देखो आहिआइ (महा) । आहिजाई देखो आहिआई (गा २४) । आहितुंडिअ पुं [आहितुण्डिक] गारुडिक, सपहरिया, सपेरा ( मुद्रा ११९ ) 1 आहित्य वि [दे] १ चलित, गत २ कुपित, क्रुद्ध (दे १,७६; जीव ३ टी) । ३ आकुल, घबड़ाया हुआ (दे १, ७६० से १३, ८३३ पाय), माहिर उपिई घाउ रो भरियं च (जीव ) आहिद्ध वि [दे] १ रुद्ध, रुका हुआ । २ गलित, गला हुआ ( पढ़) आहिपत्त न [आधिपत्य ] मुखियापन, नेतृत्व (उप १०३१टी) । आहिय वि [आहित] १ स्थापित, निवेशित (ठा ४) २ सम्पूर्ण हितकर (शुभ) विरचित Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहिय-इइ पाइअसहमहण्णवो १२९ निर्मित (पास)। "गि [ग्नि अजि- आहुइ स्त्री [आहुति १ हवन, होम (गउड)। वधू के प्रवेश होने पर जो जिमाने का उत्सव होत्रीय ब्राह्मण (पउम ३५, ५)। २ होम का पदार्थ, बलि (स १७)। किया जाता है वह (पाचा २, १, ४)। आहिय वि [आहित] १ व्याप्त, 'अचिरेणा- आहुंदुर पुंदे] बालक, बच्चा (दे १, | आहेय वि [आधेय] १ स्थाप्य । २ प्राश्रित हिमो एस जलोयरवाहिणा' (कुप्र ४३)।२ आहुंदुरु J६६)। (विसे ६२४) जनित, उत्पादित। ३ प्रथित, प्रसिद्धि-प्राप्त आहुड न [दे] १ सीत्कार, सुरत समय का आहेर देखो आहीर (विसे १४५४) 10 (सू १, २, २, २६)। ४ सर्वथा हितकारी शब्द । २ परिणत, विक्रय, बेचना (दे १,७४) आहेवश्च न [आधिपत्य] नेतृत्व, मुखियापन (सूत्र १ २, २, २७) । | आहुड अक [दे] गिरना। पाहुडइ (दे १, (सम ८६)।। आहिय वि [आख्यात] कहा हुआ, प्रति- ६६) आहेवण न [आक्षेपण] १ माक्षेप । २ क्षोभ पादित, उक्त (परण ३३; सुज १६) V आ हुडिअ वि [दे] निपतित, गिरा हुआ (दे उत्पन्न करना (पएह १,२) आहियार पुं [अधिकार] अधिकार, सत्ता, १, ६६)। आहोअ देखो आभोग (से १, ४६ ६, ३) हक (पउम ५५, ८)। आहुण सक [आ + धु] कंपाना, हिलाना । गा ८८ गउड) V आहिवत्त देखो आहिपत्त (काल) | कवकृ. आहुणिज्जमाण (णाया १, ६)TV आहोअ देखो आभोय = प्रा+ भोजय । आहिसारिअ वि [अभिसारित] नायक-बुद्धि | आहुणिय वि [आधुनिक] १ आजकल का, | संकृ. आहोइऊण (स ५५) ।। से गृहीत, पति-बुद्धि से स्वीकृत (से १३,१७) नवीन । २ पुं. ग्रह-विशेष (ठा २, ३) आहीर [आहीर] १ देश-विशेष (कप्प)। आहुत्त न [दे. अभिमुख सम्मुख, सामने | आहाइ | आहोइअ वि [आभोगित] ज्ञात, दृष्ट (स २ शूद्र जाति विशेष, अहीर (सूस १, १)। 'कुमरोवि पहाविमो तयाहुत्तं' (महा भवि) V १५)' ३ इस नाम का एक राजा (पउम ६८, ६४)। आहूअ वि [आहूत] बुलाया हुआ (पास) आहोइअ वि [आभोगिक ] उपयोग ही श्री.री-अहीरिन (सुपा ३६०)। आहूअ पुं[आहूक] पिशाच-विशेष (इक) M जिसका प्रयोजन हो वह, उपयोग-प्रधान आहु सक [आ+ हवे] बुलाना। कृ. आहु- आहूअ वि [आभूत] उत्पन्न, जातः 'माहूमो | आभूत उत्पन्न, जातः 'पाहूमो (कप्प)v णिज (मौप)। से गब्भो' (वसु)। | आहोड सक [ ताडय् ] ताड़न करना, पिटना आहु [आ + हु] दान करना, त्याग करना । आहेउं देखो आहा=पा+पा। आहोडइ (हे ४, २७)। कृ. आहुणिज्ज (णाया १, १)। आहेड । पुंन [आखेट, क] शिकार, | आहोरण [आधोरण] हस्तिपक, महावत आहु म [आहु] अथवा, या (नाट) आहेडग मृगया (सुपा १९७; स ९७ (पामः स ३६६) IV आहु [दे] घूक, उल्लू (दे १, ६१) । आहेडय दे)। आहोहि वि [आधोवधिक] प्रवधिआहु देखो आह = बज । आहेडिय वि [आखेटिक] मृगया-सम्बन्धी, आहोहिय । ज्ञानी का एक भेद, नियत क्षेत्र आहुइ वि [आहोत्] दाता, त्यागी (णाया | 'माहेडियभसणेण' (सम्मत्त २२६) IV को अवधिज्ञान से देखनेवाला (भगः सम १, १) आहेण न [दे] विवाह के बाद वर के घर ६६) 'इम पाइअसहमहण्णवे आयाराइसहसंकलणो । बिइमो तरंगो समत्तो। इ[इ] १ प्राकृत वर्णमाला का तृतीय स्वर- वर्ण (प्रामा) । २-३ वाक्यालङ्कार और पादपूर्ति में प्रयुक्त किया जाता अव्यय (कप्प; हे २, ११७ षड् ) इ देखो इइ (उवा)। इ सक [] १ जाना, गमन करना। २ जानना । एइ, एंति (कुमा)। वकृ. एंत (कुमा)। संकृ. इच्चा (प्राचा)। हेल. इत्तए, "एत्तए (कप्पः कस)। इअहरा देखो इयरहा (प्राकृ ३७)।। इइम [इति] इन अयों का सूचक अव्यय१ समाप्ति (प्राचा)। २ अवधि, हद (विसे)। ३ मान, परिमाण (पव ८४)। ४ निश्चय (निचू २,१५)। ५ हेतु, कारण (ठा ३)। ६ एवम, इस तरह, इस प्रकार (उत्त २२)। देखो इति।। For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ओ [ इतस् ] १ इससे, इस कारण (पि १७४) । इस तरफ (सुपा ३९४) । ३ इस (लोक) में दिये २६०२ ) IV ओअ अ [ इतश्च] प्रसंगान्तर सूचक अव्यय (श्रा २८ ) IV या स्त्री [. इङ्खनिका ] निन्दा, ग (सूत्र १,२) । श्री [दे. इञ्जिनी] ऊपर देखो (सूझ १, २) देखो अंगार (पि १०२; जी ६ शाकम्पन [कर्मन ] कोयला आदि उत्पन्न करने का और बेचने का व्यापार ( पडि ) । सगडिया स्त्री [शकटिका] अंगीठी, माग रखने का बर्तन (भग) । इंगारडाह पुंन [अङ्गारदाह ] श्रावा, मिट्टी के पात्र पकाने का स्थान (श्राचा २, १०, २) । इंगाल व [आहार] भङ्गार-संवन्धी (दस ५) । ' इंगाला देखो अंगार (डा २,३) । इंगालय देखो इंगाल ( २० ) 1 गाली श्री [] का टुकड़ा ७६ पान इंगार इंगाल (१, इंगाली श्री [आङ्गारी] देखो इंगाल-कम्म (BTT RR) इंगिन [ङ्गित] इशारा संकेत अभिप्राय के अनुरूप पेटा (पाय )", " वि [] सारे से समनेवाला (प्रायः हे २, ८३ प २७६) । मरण न [मरण] मरणविशेष (पंचा) । इंगिअ जाणुअ देखो इंगिअज्ज ( प्राकृ १८ ) । इंगिगी [न] मर-विशेष धन क्रिया-विशेष (सन १३) अन[][दवृज्ञ का फल (कुमा पउम ४१, ६) । ईंगुई स्त्री [दी] वृक्ष-विशेष इसके इंगुदी } फल तैलमय होते हैं, इसका दूसरा नाम प्रा- विरोपण भी है, क्योंकि इसके तैल बहुत शीघ्र अच्छे होते हैं (धाचा अभि श्रभि से ७३) । [] सुँधा हुआ (दे १,८० ) । "ईगर देखो किन्नर से ८६१) 1 इंत देखो ए = आ + इ । पाइसहमण्णवो ३७) । इंद पुं [इन्द्र ] १ देवताओं का राजा, देवराज (ठा २) । २ श्रेष्ठ, प्रधान, नायक; 'रिद' (गउड), 'देविंद' (कप्प ) । ३ परमेश्वर, ईश्वर (ठा ४) । ४ जीव, श्रात्मा; 'इंदो जीवो सम्बोवलद्विभोगपरमेसरतणो (बिसे २२२३)। ५ ऐश्वर्यं -शाली ( श्रावम) । ६ विद्याधरों का प्रसिद्ध राजा ( पउम ६,२; ७, ८ ) । ७ पृथ्वीकाय का एक अधिष्ठायक देव (ठा ५, १) । ८ ज्येष्ठा नक्षत्र का अधिष्ठायक देव (ठा २, ३) । उन्नीसवें तीर्थंकर के एक स्वनामख्यात गणधर (सम १५२ ) । १० सप्तमी तिथि ( कप्प ) । ११ मेघ, वर्षा 'कि जयइ सवा मह भवेद (स १०५ ) । १२ न. देवविमान - विशेष (सम इ पुं [ 'जित् ] १ इस नाम का राक्षस वंश का एक राजा, एक लंकेश (पउम ५, २६२ ) । २ रावण के एक पुत्र का नाम (से १२५८) । ओपो गोव (पि १६८ ) । काइय ["काविक] श्रीन्द्रिय जीव-विशेष ( पण १) । कील पुं ['कोल] दरवाजा का एक अवयव (श्रौप) । कुंभ पुं [कुम्भ] १ बड़ा कसरा (राय) २ ज्यान विशेष ( छाया १, ९)। केड ["केतु] इन्द्र-ध्वज, इन्द्र यष्टि ( परह १, ४२, ४) "खील देखो कील (श्रीप २०६)। गाइय देखो काइय ( उत्त २६ ) । गाह पुं [ग्रह ] इन्द्रावेश, किसी के शरीर में इन्द्र का अधिष्ठान, जो पागलपन का कारण होता है 'ईदगाहा इवा खंदगाहा इवा' (भग ३, ७) । गोव, गोवा, गोवय पुं [गोप] वर्षा ऋतु में होनेवाला रक्त वर्णं का क्षुद्र जन्तु- विशेष, जिसको गुजराती में 'गोकुल गाय' कहते है (उत्र ३२: सुर २, ८७ जी १७पि १६८ ) । 'गह पुं [ग्रह] ग्रहविशेष ( जीव ३) । (रंग [[ग्नि] १ विशाखा नक्षत्र का अधिष्ठायक देव (अणु) । २ महा-विशेष (हा २, ३) गोव [श्री] महाविद्यायक देव-विशेष (हा २,३) "जसा श्री [ यशस् ] काम्पिल्य नगर के ब्रह्मराज की एक पत्नी (उत्त १३) । 'जाल न [जाल] माया-कर्म, छल, कपट (स ४५४) । 'जालि, 'जालिअ प ["जालिन, 'क] मायांची बाजीगर (४) सुपा २०३ ) | For Personal & Private Use Only इओ इंद "जुण्ण [विज्ञ] स्वनामस्यात वा वंश का एक राजा (पउम ५, ६ ) । ज्य पुं [ ध्वज ] बड़ी ध्वजा ( पि २ ) । उभया स्त्री [जा] इन्द्र द्वारा भरतराज को दिखाई हुई अपनी दिव्य अङ्गलि के उपलक्ष में राजा भरत से उस अङ्गलि के समान श्राकृति की की हुई स्थापना और उसके उपलक्ष में किया गया उत्सव ( आचू २० ) । णील पुंन ["नील] नीलम, गीलमणि राम-विशेष ( गउड पि १६० ) । तरु पुं [तरु] वृक्षविशेष, जिसके नीचे भगवान् संभवनाथ को केवल ज्ञान हुआ था ( पउम २०, २८ ) । त न] [व] १ स्वर्ग का श्राधिपत्य, इन्द्र का असाधारण धर्मं । २ राजत्व । ३ प्राधान्य (सुपा २५३) । दत्त पुं [दत्त ] इस नाम का एक प्रसिद्ध राजा (उप ε३६) । २ एक जैन मुनि (विपा २,७) । दिण्ण पुं [°दिन्न] स्वनाम - ख्यात एक जैन श्राचार्य (कप्प) । "धणु न [ धनुष्] १ - सूर्य की किरण मेघों पर पड़ने से श्राकाश में जो धनुष का आकार दीख पड़ता है वह । २ विद्याधरवंश के एक राजा का नाम ( पउम ८, १८६ ) । "नील देखो जी (पउम १ १३२) । पाडवा श्री [ प्रतिपत् ] कार्तिक ( गुजराती आश्विन मास के कृष्णपक्ष की पहली तिथि (ठा ४) । पुर न [ पुर] १ इन्द्र का नगर, अमरावती (उप पृ १२६ ) । २ नगर- विशेष, राजा इन्द्रदत्त की राजधानी ( उप ९३६) । पुरंग न [°पुरक] जैनीय देशवाटिक गए के चौथे कुल का नाम (कप्प ) । 'पभ [ "प्रभ] राक्षस वंश के एक राजा का नाम, जो लङ्का का राजा था ( पउम ५, २६१) । भूइ [भूति] भगवान् महावीर का प्रथम मुख्य शिष्य गीतमत्वामी (सम १६; १५२) । मह पुं [मह] १ इन्द्र की आराधना के लिए किया जाता एक उत्सव । २ आश्विन पूर्णिमा (ठा ४, २) । माली बी [["माली] राजा मादित्य की पत्नी (पदम १) । मुद्धाभित्ति पुं [° मूर्द्धाभिषिक्त ] पक्ष की सातवीं तिथि सप्तमी ( चंद्र १० ) । 'मेह ["मेघ] राक्षस वंश में उत्पन्न एक राजा (२६१) । [क] देखो इन्द्र (ठा ६) । २ नरक - विशेष । ३ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंद-इक्कण पाइअसहमहण्णवो १३१ द्वीप-विशेष । ४ न. विमान-विशेष (इक)। इंदाणी स्त्री [इन्द्राणी] १ इन्द्र की पत्नी (सुर| इंदियालीअ देखो इंद-जालिअ न भवामि 'याल देखो जाल (महा)। रह पुं[रथ] १, १७०)। २ एक राज-पत्नी (पउम ६, अहं खयरो नरपुंगव ! इंदियालीओ (सुपा विद्याधर वंश के एक राजा का नाम (पउम २१६) २४३)। ५, ४४)। राय [राज] इन्द्र (तित्य)। इंदासणि पुं [इन्द्राशनि] एक नरक-स्थान इंदिर पुं [इन्दिर ] भ्रमर, भमरा, भौंरा लट्रि स्त्री [यष्टि] इन्द्र-ध्वज (णाया १, (देवेन्द्र २६)। 'झंकारमुहरिदिराई' (विक्र २६)IV १)। लेहा स्त्री [ लेखा] राजा त्रिकसंयत इंदिदिर इन्दिन्दिर] भ्रमर, भमरा, भौंरा इंदिरा स्त्री [इन्दिरा] लक्ष्मी (सम्मत्त २२६)" की पत्नी (पउम ५, ५१)। वजा स्त्री (पाम दे १,७६)iv इंदीवर न [इन्दीवर] कमल, पद्म (पउम १०, [°वना] छन्द-विशेष का नाम, जिसके एक इंदिय पुन [इन्द्रिय] १ आत्मा का चिह्न, ज्ञान पाद में ग्यारह अक्षर होते हैं (पिंग)। वसु के साधन-भूत इन्द्रिय--श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, इंदु ([इन्दु चन्द्र, चन्द्रमा (पान) स्त्री [°वसु] ब्रह्मराज की एक पत्नी (राज)। जिह्वा, त्वक और मनः 'तं तारिर्स नो पयलेंति इंदुत्तरवडिंसग न [इन्द्रोत्तरावतंसक] देव- । वाय पुं[वात] एक माएडलिक राजा इंदिया' (दसचू १, १९ ठा ६)। २ अंग, विमान-विशेष (सम ३७) । (भवि) । वारण पुं [°वारण] इन्द्र का शरीर के अवयव; 'नो निग्गंथे इत्थीरणं इंदियाई इंदुर पुंस्त्री [उन्दुर] चूहा, मूषक (नाट) हाथी, ऐरावत (कुमा)। 'सम्म पु[शर्मन] मणोहराई मरणोरमाइं आलोइत्ता निज्झाइत्ता इंदोकत न [इन्दुकान्त] विमान-विशेष (सम स्वनाम-ख्यात एक ब्राह्मण (आवम) । साम भवई' (उत्त १६)। अवाय पुं[पाय] इन्द्रियों णिय पुं[सामानिक] इन्द्र के समान ऋद्धि द्वारा होनेवाला वस्तु का निश्चयात्मक ज्ञान-विशेष इंदोव देखो इंद-गोव (पायः दे १, ७६) । वाला देव (महा)। 'सिरी स्त्री [°श्री] राजा (पएण १५)। ओगाहणा स्त्री [विग्रहणा] इदोवत्त पुं[दे] इन्द्रगोप, कीट-विशेष (दे १, ब्रह्मदत्त की एक पत्नी (राज)। सुअ पुं इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न होनेवाला ज्ञान-विशेष [सुत] इन्द्र का लड़का, जयन्त (दे ६,१६)। (पएण १५)। जय पुं[जय] १ इन्द्रियों | इंद्र देखो इंद = इन्द्र (पि २६८) । 'सेणा स्त्री [°सेना] १ इन्द्र का सैन्य । २ का निग्रह, इन्द्रियों को वश में रखना; 'अजि- इंध न [चिह्न] निशानी, चिह्न (हे १, १७७; एक महानदी (ठा ५, ३)। णु देखो धणु इंदिएहि चरणं, कटुं व घुणेहि कीरइ असारं । | २, ५०; कुमा)। (हे १, १८७) । उह न [rयुध] इन्द्रधनु तो धम्मत्थीहि दव, जइअव्वं इंदियजयम्मि' इंधण न [इन्धन] १ इंधन, जलावन, लकड़ी (णाया १,१) । उहप्पभ पुं[युधप्रभ] (इंदि ४)। २ तपो-विशेष (पव २७०)। "ट्ठाण वगैरह दाह्य-वस्तु (कुमा)। २ अस्त्र-विशेष वानरद्वीप का एक राजा (पउम ६, ६६)। न [ स्थान] इन्द्रियों का उपादान कारण, (पउम ७१, ६४) । ३ उद्दीपन, उत्तेजन (उत्त मिअ पुं [मय] राजा इन्द्रायुधप्रभ का , जैसे श्रौत्रेन्द्रिय का आकाश, चक्षु का तेज वगैरह १४)। ४ पलाल, पुआल, तृण वगैरह, जिससे पुत्र, वानरद्वीप का एक राजा (पउम ६,६७)N (सूम १,१)। णिवत्तणास्त्री ["निर्वर्त्तना] फल पकाये जाते हैं (निचू १५)। साला स्त्री इंद पुन [इन्द्र] एक देवविमान (देवेन्द्र १४१) इन्द्रियों के आकार की निष्पत्ति (परण १५)।। [शाला] वह घर, जिसमें जलावन रक्खे इंद वि [ऐन्द्र] १ इन्द्र-संबन्धी (णाया १, °णाण न [ज्ञान] इन्द्रिय-द्वारा उत्पन्न ज्ञान, | जाते हैं (निचू १६) TV १)। २ न. संस्कृत का एक प्राचीन व्याकरण प्रत्यक्ष ज्ञान (वव १०)। स्थ पुं[र्थि] इंघिय वि [इन्धित] उद्दीपित, प्रज्वलित (बृह (आवम) । इन्द्रिय से जानने योग्य वस्तु, रूप-रस-गन्ध इंदगाइ पुं[दे] साथ में संलग्न रहनेवाले वगैरह (ठा ६) । पजत्ति स्त्री [पर्याप्ति] इक न [दे] प्रवेश, पैठ 'इकमप्पए पवेसणं' कीट-विशेष (दे १, ८१)। शक्ति-विशेष, जिसके द्वारा जीव धातुओं के (विसे ३४८३) . इंदग्गि पुंदे] बर्फ, हिम (दे १,८०)। रूप में बदले हुये आहार को इन्द्रियों के रूप में इक्क देखो एक्क (कुमाः सुपा ३७७; दं ४०) इंदग्गिधूम न [दे] बर्फ, हिम (दे १,८०)। परिणत करता है (पएण १)। "विजय पुं पाम प्रासू १०० कसः सुर १०, २१२ श्रा इंदड्ढलअ [दे] इन्द्र का उत्थापन (दे १, [विजय] देखो 'जय (पंचा १८)। विसय १० दं २१, रयण २ श्रा, पउम ११, ८२) [विषय देखो त्थ (उत्त ५) ३२) इंदमह वि [दे] १ कुमारी में उत्पन्न । २ न. इंदिय न [इन्द्रिय लिंग, पुरुष-चिह्न (धर्मसं | इक्कड पुं[इक्कड] तृण-विशेष (पएह २; ३; कुमारता, यौवन (दे १, ८१)। ९८१)। पराग १) । इंदमहकामुअ ' [दे. इन्द्रमहकामुक] | इंदियाल देखो इंद-जाल (सुपा ११७; महा)। इक्कड वि [ऐक्कड] इकड़ तृण का बना हुआ कुत्ता, श्वान (दे १, ८२, पान) इंदियाल देखो इंद-जालि: 'तूह कोउयत्थ- (पाचा २, २, ३, १४).v इंदा स्त्री [इन्द्रा] १ एक महानदी (ठा ५,३)। इंदियाल मित्थं विहियं मे खयरइंदियालेण' इक्कण वि. [दे] चोर, 'चुरानेवाला (दे १,८०); २ धरणेन्द्र की एक अग्र-महिषी (गाया २) (सुपा २४२); 'जह एस इंदियाली, दंसह 'बाहुलयामूलेसुं रइयायो जगमऐकणाप्रो उ। इंदा स्त्री [ऐन्द्री] पूर्व-दिशा (ठा १०)। | खणनस्सराई रूवाई' (सुपा २४३.)V । बाहुसरियाउ तोसे (स ७६) For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ पाइअसहमहण्णवो इकार-इट्टा इक्कार देखो एकारह (कम्म ६, ६९)। इगयाल स्त्रीन [एकचत्वारिंशत् ] एकचालीस, प्रत्यासक्ति, प्रबल इच्छा (पएह १, ३)। 'लोभ इकिक वि [एकैक] प्रत्येक (जी ३३, प्रासू | ४१ (कम्म ६, ५६)। [लोभ] प्रबल लोभ (ठा ६)। लोभिय ११८ सुर ८, ४२) । इगवीसइम वि [एकविंश] एक्कीसवाँ (पव वि [ लोभिक] महालोभी (ठा ६)। 'लोल इकिल्ल स्त्रीन [एकचत्वारिंशत् ] एकचालीस, पुं['लोल] १ महान् लोभ । २ वि. महा४१ (कम्म ६,५६) इगुचाल वि [एकचत्वारिंशत् ] संख्या-| लोभी (बह ६) इक्कुस न [दे] नीलोत्पल, कमल (दे १, विशेष, ४१-चालीस और एक (भगः पि इच्छा स्त्री [दित्सा] देने की इच्छा (भाव)। इच्छिय [इष्ट] इष्ट, अभिलषित, वाञ्छित (सुर ७६) इगुणवीस वि [एकोनविंश] उनीसा (पव ४, १५३) इक्ख सक [ ईक्ष ] देखना । इक्खइ (उव)। इच्छिय वि [ईप्सित प्राप्त करने को चाहा इक्ख (सून १, २, १, २१)। इगुणीस स्त्री [एकोनविंशति] उन्नीस (पव हुमा, मभिलषित (भगः सुपा ६२५) । इक्खअ वि [ईक्षक] देखनेवाला (गा ५५७) इगुवीस १८ कम्म ६, ५९)TV इच्छिय वि [इच्छित] जिसकी इच्छा की गई इक्खण न ईक्षण अवलोकन, प्रेक्षण (पउम इगुसहि स्त्री [एकोनषष्टि] उनसठ (कम्म ६, | इगुसाहनाएकानाष्टक हो वह (भग) Iv इक्खाउ देखो इक्खागु (विक ६४)। | इग्ग वि [दे] भीत, डरा हुमा (दे १, ७६)।| इच्छिर वि [ एषित] इच्छा करनेवाला इग्ग देखो एक (नाट)। इक्खाग वि [ऐक्ष्वाक] इक्ष्वाकु नामक प्रसिद्ध | (कुमा)। क्षत्रियवंश में उत्पन्न (तित्थ)। इच्छु देखो इक्खु (कुमाः प्रासू ३३)।" इग्घिअ वि [दे] भत्सित, तिरस्कृत (दे १, ८०) इच्छु वि [इच्छु] अभिलाषी (गा ७४०)। इक्खाग। [इक्ष्वाकु] १ एक प्रसिद्ध क्षत्रिय इच्छा देखो इ सक । इज्ज सक [आ + इ] माना, मागमन करना। इक्खागु राजवंश, भगवान ऋषभदेव का इचाइ पुन [इत्यादि] वगैरह, प्रभृति (जी ३)। वकृ. इज्जत, वैश। २ उस वंश में उत्पन्न (भग ९, ३३; इथेवं प्र[इत्येवम् ] इस प्रकार, इस माफिक 'विणयम्मि जो उवाएणं, चोइभो कुप्पई नरो। कप्पा प्रौपः प्रजि १३)। ३ कोशल देश (खाया (सूम १, ३)। दिव्वं सो सिरिमिजति, दंडेण पडिसेहए। १,८)। भूमि स्त्री [भूमि अयोध्या नगरी इच्छ सक[इष] इच्छा करना, चाहना । (दस ६, २, ४)। (प्राव २) इच्छइ (उवः महा) । वकृ. इच्छंत, इच्छ- इज्ज पुन [इज्या] यज्ञ, यागः "भिक्खट्ठा बंभइक्खु पुं[इक्षु] १ ईख, ऊख (हे २, १७ माण (उत्त १; पंचा ५)। इबमि' (उत्त १२, ३)11 पि ११७)। २ धान्य-विशेष, 'बरट्टिका' नाम इच्छ सक[आप+स् - ईप्स् ] प्राप्त करने काधान्य (श्रा १८)। गंडियात्री [गण्डिका] इना स्त्री [इज्या] १ याग, पूजा। २ ब्राह्मणों को चाहना । कृ. इच्छियव्व (वव १)। गंडेरी, ईख का टुकड़ा (माचा)। घर न का सन्ध्यार्चन (अणु ठा १०)। इच्छकार देखो इच्छा-कार (पडि)v [गृह उद्यान-विशेष (विसे)। चोयग न ... इज्जा स्त्री [दे] माता, जननी (अणु)। इच्छक्कार [इच्छाकार] 'इच्छा' शब्द (पंचा| [दे] ईख का कुचा (प्राचा)। डालग न १२, ४) V इजिसिय वि [इज्यैषिक] पूजा का मभिलाषी ["दे] १ ईख की शाखा का एक भाग (प्राचा)। इच्छा स्त्री [इच्छा] पक्ष की ग्यारहवीं रात्रि, (भग ९, ३३)। २ ईख का छेद (निचू १)। पेसिया स्त्री 'जयति-अपराजिया य ग(? इच्छा (मुख इज्मा मक[इन्ध् ] चमकना (हे २, २८)। [पेशिका] गए डेरी (निचू १६)। भिति वकृ. इज्ममाण (राय)। स्त्री [दे] ईख का टुकड़ा (निचू १६)। मेरग इच्छा स्त्री [इच्छा] प्रमिलाषा, चाह, वान्छा इट्टग [दे] सेवई, गु० सेव (पिंडनि० गा. न [ मेरक] गण्डेरी, कटे हुए ऊख के गुल्ले (उवा; प्रासू ४८)। कार पुंकारस्वकीय(प्राचा)। लाट्ठ स्त्री [ यष्टि] ईख की लाठी, इच्छा, अभिलाष (पडि)। 'छंद वि[च्छन्द] इट्टगा स्त्री [इष्टका नीचे देखो (पएह २, २, “इक्षु-दण्ड (माचू)। "वाड पुं[वाट] ईख इच्छा के अनुकूल (भाव ३)। णुलोम वि पिंड)। का खेत, 'सुचिरं पि अच्छमारणो नलयंभो [°नुलोम] इच्छा के अनुकूल (परण ११)। | इट्टगा स्त्री [दे] खाद्य-विशेष, सेव (पिंड इच्छुवाडमज्झम्मि' (माव ३)। साला न "गुलोमिय वि [°नुलोमिक] इच्छा के ४६१, ४६६, ४७२ )।[दे] १ ईख की लम्बी शाखा (प्राचा)। २ ईख | अनुकूल (माचा)। 'पणिय वि [ प्रणीत] | इट्टवाय देखो इट्टा-वाय (सम्मत्त १३७)।" की बाहर की छाल (निचू १६)। देखो उच्छा इच्छानुसार किया हुआ (प्राचा)। परिमाण | इट्टा स्त्री [इष्टका] इंट (गउड; हे २, ३४) । इग देखो एक (कम्म १, ८, ३३; सुपा ४०६; न [परिमाण] परिग्राह्य वस्तुषों के विषय | पाय, वाय पुं[पाक] ईंटों का पकना । श्रा १४० नव ८ पि ४४५ श्रा४; सम की इच्छा का परिमाण करना, श्रावक का | २ जहाँ पर इंटें पकाई जाती हैं वह स्थान ७५)IV पांचवां व्रत ()। मुच्छास्त्री [भूच्छा] | (ठा )। For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इट्टाल - इम इहाल न [ इट्टाल] ईंट का टुकड़ा ( दस ५, १, ६५) वि [इष्ट ] १ अभिलषित, श्रभिप्रेत, वाञ्छित (विपा १, १ सुपा ३७० ) । २ पूजित, सत्कृत (धौप) ३ ग्रागमोफ, सिद्धान्त से अविरुद्ध (उप ८८२) । इट्ठ न [ इष्ट ] १ स्वाभ्युपगत, स्व-सिद्धान्त (घमंस ५१९) । २ न. तपो- विशेष, निर्वि कृति-तप (सम्बोध ५८ ) । ३ यागक्रिया (स ७१३)। इट्ठि स्त्री [इष्टि ] इच्छा, अभिलाषा, चाह ( सुपा २४६ ) । २ याग - विशेष ( श्रभि २२७ ) । "इट्ठि स्त्री [ कृष्टि ] खींचाव, खींचना (गा १८) । [इडा ] शरीर के बाएँ भाग में स्थित नाड़ी (कुमा इकुर न [दे] गाड़ी (घोष ४७६ ) । - इडुरग न [दे] रसोई ढकने का बड़ा पात्र इङ्कुरय) ( राय १४० ) । इडरिया स्त्री [दे] मिष्टान्न-विशेष, एक प्रकार की मिठाई (सुपा ४८५) इड्ढ वि[ऋद्ध] ऋद्धि-सम्पन्न (भग) । इड्ढि स्त्री [ऋद्धि] १ वैभव, ऐश्वयं, सम्पत्ति (सुर ३, १७) । २ लब्धि, शक्ति, सामथ्यं (उत्त ३) । ३ पदवी (ठा ३,४) । गारव न [गौरव ] सम्पत्ति या पदवी प्रादि प्राप्त होने पर अभिमान धौर प्राप्त न होनेपर उसकी लालसा (सम २ ठा ३, ४) । पत वि [प्राप्त ] ऋद्धिशाली (परण ११ सुपा ३६० ) । म, मंतवि [मत्] ऋद्धिवाला (निचू १० ठा ६) । इढिसय वि [दे] याचक-विशेष, माँगन की एक जाति (भग ६, ३३ टी) । 'इष्ण देखो दिष्ण (से ४, ३५) । " इण्ण देखो किण्ण (से ८, ७१) । इह न [चिह्न] चिह्न, निशान ( से १, १२: षड् ) 1 " इण्छा स्त्री [तृष्णा ] तृष्णा, प्यास, स्पृहा (गा ६३) । पाइअसद्दमहणवो इण्डि [ इदानीम् ] इस समय इस वक्त दि १, ७६ पान ) । इतरेतरासय पुं [इतरेतराश्रय] तर्कशास्त्रप्रसिद्ध एक दोष, परार एक दूसरे की अपेक्षा (धर्मसं १९५८) इति देखो इइ (पि१८) । हास पुं ['हास] पूर्ववृत्तान्त, अतीतकाल की घटनामों का विवरण, पुरावृत्त (कप्प) । २ पुराणशास्त्र (भग) । इत्तए देखो इसक । इतर वि [ इत्वर ] १ ग्रल्प, थोड़ा ( भरतु) । २ अल्पकालिक, थोड़े समय के लिए जो किया जाता हो वह (ठा ६) । ३ थोड़े समय तक रहनेवाला (श्रा १६) । परिग्गहा बी [परिहा] थोड़े समय के लिए रक्खी हुई वेश्या, रखैल, रखात प्रादि ( भाव ६ ) । परिग्गहिया स्त्री [ परिगृहीचा ] देखो परिग्गहा (भाव ६ ) 1 इसरिय वि [ इत्वरिक ] ऊपर देखो (निचू २ माचा उवा; पंचा १० ) । ४ इतरिय देखो इयर (सूम २, २) । | इत्तरी स्त्री [इस्वरी] थोड़े काल के लिए रखी हुई वेश्या यादि (पंचा १) । णमो } व [ एतत् ] यह (वे १, ७१) । इलोप्पं [दे] यहाँ से लेकर, इतः प्रभृति (पाच) । इत (अप) अ [अत्र ] यहां पर (कुमा) 1 इत्ताहे म [ इदानीम् ] इस समय, इस वक्त, अधुना (पाय ) । इन्ति देखो इइ (कुमा) इत्तिय वि [ इयत्, एतावत् ] इतना (हे २, १५६; कुमाः प्रासू १३८ षड् ) । इप्तिरिय वि [इत्वरिक] अल्पकालिक, जो थोड़े समय के लिए किया जाता हो ( स ४६; विसे १२६५) । इन्तिल देखो इन्तिय (हे २, १५६) इतो देखो इओ (श्रा १७ ) । इचो देखो इओअ (भा १४) । इत्थ म [ अत्र ] यहाँ, इसमें (कप्पः कुमा प्रासू १४१) । | इत्थं म [ इत्थम् ] इस तरह, इस प्रकार (पण २) । थवि [स्थ] नियत प्राकारबाला, नियमित (जीव १) । For Personal & Private Use Only १३३ इत्थंथ वि [ इत्थंस्थ] इस तरह रहा हुआ (दस E, ४, ७) । इत्थत्थ पुं [ इत्यर्थ] वह श्रर्थं (भग) । इत्थत्थ पुं [त्र्यर्थं ] स्त्री-विषय (पि १६२ ) । इत्थयं देखो इत्थ (श्रा १२ ) । इत्थि बीन [स्त्री] महिला, नारी; 'इत्यीणि वा पुरिसारिण वा (भाचा २, ११, ३) । इत्थि ( स्त्री [स्त्री] जनाना, भौरत, महिला इत्थी ) (सूम २ २ ३ २, १३० ) । कला [का] स्त्री के गुण, स्त्री को सीखने योग्य कला (२) । कहा स्त्री [कथा] स्त्री-विषयक वार्तालाप (ठा ४) । पुंसंग पुंन [नपुंसक] एक प्रकार का नपुंसक (निचू १) । "णाम न [' नामन् ] कर्म- विशेष, जिसके उदय से स्त्रीत्व की प्राप्ति होती है ( गाया १८) । परिसह [परिषह ] ब्रह्मचर्यं (८८) । विप्पजह वि ['विप्रजह] १ स्त्री का परित्याग करनेवाला । २ पुं. मुनि, साधु (८) । वेद, वेय पुं ['वेद] १ स्त्री को पुरुष संग की इच्छा । २ कर्म-विशेष, जिसके उदय से स्त्री को पुरुष के साथ भोग करने की इच्छा होती है (भग; पण २३) । इत्थेण त्रि [खैण] स्त्रियों का समूह, स्त्री-जन 'लब्बसि किन महंतो दीरणाओ मारिसित्येरणा' ( उप ७२८ टी) । इदाणि देखो इयाणि (प्राचा) । इदाणि (शौ) देखो इयाणि ( प्राकृ ८७ ) । इदाणी } देखो इदाणि (संक्षि १९) । इदाणी इदिवित्त (सौ) न [ इतिवृत्त ] इतिहास ( मोह १२८ ) । इदुर न [दे] धान्य रखने का एक तरह का पात्र (अणु १५१) । -~ इदंड [दे] भौरा, मधुकर (दे १, ७९ ) । इग्गिधूम न [दे] तुहिन, हिम (बड्) । इद्धि देखो इडिट ( षड् ) । इध (शी) देखो इइ (हे ४, २६८) । इब्भ [इभ्य] धनी, मान्य (पा) । इन्भ पुं [दे] वणिक, व्यापारी (१, ७) । इभ पुं [इभ] हाथी, हस्ती (जं २; कुमा) । इभपाल पुं [ इभपाल] महावत ( सम्मत १५७) इस [इदम् ] यह (हे ३, ७२) । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ पाइअसहमहण्णवो इमेरिस-इसिण इमेरिस वि [एतादृश ऐसा, इसके जैसा (पडिठा २)। समिइ स्त्री [°समिति] प्रफुल्लासवेल्लिअमल्लिाप्रक्खतल्लएण' (विक (सण) V विवेक से चलना, दूसरे जीव को किसी २३)। इय देखो इम (महा)। प्रकार की हानि न हो ऐसा उपयोग-पूर्वक | इल्लिया स्त्री [इल्लिका] क्षुद्र जीव-विशेष, इय देखो इइ (षड् ; हे १, ६१; प्रौप)। चलना (ठा ८)। समिय वि [°समित] अन्न में उत्पन्न होनेवाला कीट-विशेष (जी इय न [दे] प्रवेश, पैठ (प्रावम) विवेक-पूर्वक चलनेवाला (विपा २, १) १६)। . इय वि [इत] १ गत, गया हुआ (सूअ १, | इल पुं [इल] १ वाराणसी का वास्तव्य इल्लीर न [दे] १ आसन-विशेष । २ छाता। ६)। २ प्राप्त; 'उदमित्रो जस्सीसो जयम्मि स्वनाम-ख्यात एक गृहपति-गृहस्थ (गाया ३ दरवाजा, गृह-द्वार (दे १,८३)। चंदुव्व जिणचंदो' (सार्ध ७१; विसे)। ३ २)। २ न. इलादेवी के सिंहासन का नाम इव इव] इन अर्थों का द्योतक अव्ययज्ञात, जाना हुपा (प्राचा)। (णाया २)। 'सिरी स्त्री [श्री] इल नामक १ उपमा । २ सादृश्य, तुलना। ३ उत्प्रेक्षा इयहिं अ [ इदानीम् ] हाल में, इस समय, । गृहस्थ की स्त्री (णाया २)। (हे २, १८२; सण)। अधुना (ठा, ३)। 'इलंतअ देखो किलंत (से ३, ४७)। इसअ वि [दे] विस्तीर्ण ( षड्)। इयर वि [इतर] १ अन्य, दूसरा (जी ४६; इला स्त्री [इला] १ पृथिवी, भूमि (से २, इसणा देखो एसणा (रंभा)। प्रासू १००)। २ हीन, जघन्य (प्राचा १, ११)। २ धरणेन्द्र की एक अग्र-महिषी (णाया इसाणी स्त्री [ऐशानी] ईशान कोण, पूर्व ६, २) २) । ३ इल नामक गृहस्थ की पुत्री (णाया और उत्तर के बीच की दिशा (नाट)। इयरहा अ [इतरथा] अन्यथा, नहीं तो, अन्य २)। ४ रुचक पर्वत पर रहनेवाली एक । प्रकार से (कम्म १, ६०)। इसि पुं [ऋषि] १ मुनि, साधु, ज्ञानी, महात्मा दिवकुमारी (ठा ८)। ५ राजा जनक की इयरेयर वि [इतरेतर] अन्योन्य, परस्पर (उत्त १२; अवि १४)। २ ऋषिवादि-निकाय माता (पउम २१, ३३)। ६ इलावर्धन नगर (राज)। में स्थित एक देवता (आवम)। कूड न का दक्षिण दिशा का इन्द्र, इन्द्र-विशेष (ठा २, इयाणि) अ [इदानीम] हाल में, इस ३)। गुत्त पुं[गुप्त] १ स्वनाम-ख्यात एक [°कूट] इलादेवी के निवास-भूत एक शिखर इयाणि समय (भग; पि १४४)। जैन मुनि (कप्प) । २ न. जैन मुनियों का एक (ठा ४)। पुत्त पुं[पुत्र] इलादेवी के इर देखो किल (हे २, १८६; नाट) ।। कुल (कप्प)। गुत्तिय न [गुप्तीय जैन प्रसाद से उत्पन्न एक श्रेष्ठि-पुत्र, जिसने नटिनी इरमंदिर पुं[दे] करभ, ऊँट (दे १,८१)। मुनियों का एक कुल (कप्प)। दास पुं पर मोहित होकर नट का पेशा सीखा और इराव पुं[दे] हाथी (दे १,८०)। [दास] १ इस नाम का एक सेठ, जिसने अन्त में नाच करते-करते ही शुद्ध भावना से इरावदी (शौ) स्त्री [इरावती] नदी-विशेष जैन दीक्षा ली थी। २ 'अनुत्तरोववाइदसा केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्ति पाई (प्राचू ) । वइ । (नाट)। सूत्र का एक अध्ययन (अनु २)। दत्त, दिण्ण पुं[पति] एलापत्य गोत्र का प्रादि पुरुष इरि देखो गिरि; "विझइरिपवरसिहरे' (पउम पुं[दत्त] एक जैन मुनि (कप्प)। पालिय (मंदि) । वडंसय न [वितंसक इलादेवी १०, २७)। पुं[पालित] ऐरवत क्षेत्र के पांचवें तीर्थंकर का प्रासाद (गाया २) IV . इरिण न [ऋण] करजा, ऋण (चारु ६६)। का नाम (सम १५३)। पालिया स्त्री इलाइपुत्त देखो इला-पुत्तः 'धन्नो इलाइपुत्तो | [°पालिता] जैन मुनियों की एक शाखा इरिण न [दे] कनक, सुवर्ण (दे १, ७६; चिलाइपत्तो प्रबाहमणो' (पडि) (कप्प) । भद्दपुत्त पुं भद्रपुत्र] एक जैन गउड)। इलिया स्त्री [इलिका] क्षुद्र जीव-विशेष, श्रावक (भग ११, १२)। भासिय न इरिय सक [ईर] जाना, गति करना। इरि चीनी और चावल में उत्पन्न होनेवाला कीट-: [भाषित] १ अंगग्रन्थों के अतिरिक्त जैन यामि (उत्त १८, २६; सुख १८, २६) । विशेष (जो १७) । आचार्यों के बनाए हुए उत्तराध्ययन आदि इरिया स्त्री [दे] कुटी, कुटिया (दे १,८०)। इली स्त्री [इली] शस्त्र-विशेष, एक जाति की शास्त्र (आवम) । २ 'प्रश्नव्याकरण' सूत्र का इरिया स्त्री [ ईर्या ] गमन, गति, चलना तलवार की तरह का हथियार (पएह १,३)। तृतीय अध्ययन (ठा १०)। वाइ, वाइय, (माचा). वह [पथ] १ मार्ग में | इल्ल पुं [दे] १ प्रतीहार, चपरासी। २ वादिय पुं[वादिन] व्यन्तरों की एक जाति जाना (ओघ ५४)। २ जाने का मार्ग, रास्ता लवित्र, दाँती। ३ वि. दरिद्र, गरीब । ४ (प्रौपः परह १, ४)। वाल पुं [पाल] १ (भग ११, १०)। ३ केवल शरीर से होनेकोमल, मृदु । ५ काला, कृष्ण वर्णवाला। ऋषिवादि-व्यन्तरों का उत्तर दिशा का इन्द्र वाली क्रिया (सूत्र २, २)। वहिय न (दे १, ८२) (ठा २, ३)। २ पाचवें वासुदेव का पूर्वभवीय [पथिक] केवल शरीर की चेष्टा से होनेवाला इल्लपुलिंद पुं[द] व्याघ्र, शेर (चंड)। नाम (सम १५३) । वालिय पुं[पालित] कर्मबन्ध, कर्म-विशेष (सूम २, २, भग ८, इल्लि [द] १ शार्दूल, व्याघ्र । २ सिंह। ऋषिवादिव्यन्तरों के एक इन्द्र का नाम (देव)। ८)। वहिया स्त्री [पथिकी] कषाय- ३ छाता (दे.१, ८३) इसिण पुं[इसिन] अनार्य देश विशेष (णाया रहित केवल कायिक क्रिया, क्रिया-विशेष इल्लिय विद] आसिक्त, उप्पेलणफुल्लाविग्रहल्ल- १,१)। For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसिणय-ईसर पाइअसहमहण्णवो १३५ इसिणय वि [इसिनक] इसिन नामक अनार्य | इस्सास पुं[इष्वास] १ धनुष, कामुक, शरा- संबन्धी (कप्पा सुपा ४०८ परह १, ३, स देश में उत्पन्न (णाया १,१७ इक)। सन । २ बाण-क्षेपक, तीरंदाज (प्रारू)। ४८१); 'इहलोयपारलोइयसुहाई सव्वाई तेण इसिया स्त्री [इषिका] सलाई, शलाका (सुप्र इह पुं[इभ] हाथी, हस्ती (प्रारू)। दिन्नाई' (स १५५)। इह अ.[इदानीम् ] इस समय, अधुना (प्राकृ ऊपर देखो (षड् ; पउम २१, ७)। इसु पुं [इष] बाण (पाप)। ८०)। इस्स वि [एष्यत् ] १ भविष्य काल, 'जुत्तं इह अ [इह] यहाँ, इस जगह (प्राचाः स्वप्न | इइई अ[इदानीम् ] हाल, संप्रति, इस समय संपयमिस्स' (विसे)। २ होनेवाला, भावीः | २२)। पारलोइय वि [ऐहिकपारलौकिक] (पान)। 'संभरइ भूय मिस्स' (विसे ५०८) । इस और परलोक से सम्बन्ध रखनेवाला (स। देखो इह = इह (प्रौपः श्रा १४)। इस्सर देखो ईसर (प्रार; पि ८७ ठा २, ३)। १५६)। भविय वि [ऐहभविक इस इहरहा। देखो इयर-हा (उप८६०; भत्त ३६; इस्सरिय देखो ईसरिय (पउम ५, २७०० सम जन्म संबन्धी (भग)। "लोअ, लोग । इहरा । हे २, २१२)। १३ प्रासू ७५)। [लोक] वर्तमान जन्म, मनुष्य-लोक (ठा ३; इहरा देखो इहई = इदानीम् (गउड) । इस्सा स्त्री [ईर्ष्या] द्रोह, असूया (उत्त ३४, प्रासू ७५; १५३), लोय, लोइय वि [ऐह- इहामिय देखो ईहामिय (पि ५४) । लौकिक] इस जन्म-संबन्धी, वर्तमान जन्म• इहिं अ [इह] यहाँ (रंभा) । ॥ इन सिरिपाइअसहमहण्णवे इसाराइसद्द संकलको णाम तइयो तरंगो समत्तो।। ईस पुं[दे] रोझ, हरिण की एक जाति ई [ई] प्राकृत वर्णमाला का चतुर्थ वर्ण, ईदिस देखो ईइस (स १४०; अभि १८२ स्वर-विशेष (प्रामा)। ईअ स [एतत् , इदम् ] यह (पि ४२६; ईर सक [ईर् ] १ प्रेरणा करना । २ कहना। ४२६) ३ गमन करना। ४ फेंकना। ईरेइ (विसे ईअ अ [इति] इस तरह, 'ईय मणोविस ईणं' १०६०); कृ. 'ठाणगमणगुणजोगजुंजण(विसे ५१४)। जुगंतरनिवातियाए दिट्ठीए ईरियव्वं' (पएह ईइ पुंस्त्री [ईति] धान्य वगैरह को नुकसान २, १)। भूकृ. ईरिद (शौ) (अभि ३०) । पहुंचानेवाला चूहा आदि प्राणि-गरण (औप) ईरिय वि[ईरित प्रेरित (विसे ३१४४) । ईइस वि [ईदृश] ऐसा, इस तरह का, इसके ईरिया देखो इरिया (सम १०; मोघ ७४८; समान (महा: स १५) । सुर २, १०४)। ईजिह प्रक [धा] तृप्त होना । ईजिहइ (प्राकृ ईरिस देखो ईइस (कुमा; स्वप्न ५५) । ईस न [दे] खूटा, खोला, कोलक (दे १, ईड देखो कीड = कोट; 'दुईसरिणबईडसारिन्छे (गा ३०)। | ईस सक [ई'] ईर्ष्या करना, द्वेष करना। ईडा स्त्री [ईडा] स्तुति (चेइय ८६८)। ईसाअंति (गा २४०)। ईण वि [ईन] प्रार्थी, अभिलाषी; 'प्राहाकडं | ईस पु [ईश देखो ईसर = ईश्वर (कुमाः चेव निकाममीणे' (सूत्र १, १०, ८)TV पउम १०२, ५८)। २ न. ऐश्वर्य, प्रभुता "ईण देखो दीण (से ८, ६१)। (पएण २)। ईति देखो ईह (सम ६०)। ईस देखो ईसि (कप्पू)। ईसत्थ न [इध्वस्त्रशास्त्र] धनुर्वेद, बाणविद्या (प्रौप; पण्ह १, ५); 'विन्नारगनाणकुसला ईसत्थकयस्समा वीरा' (पउम ६८, ४०; पि ११७)। ईसर पुंदे] मन्मथ, कामदेव (दे १, ८४)। ईसर पुं[ईश्वर] १ परमेश्वर, प्रभु (हे १, ८४)। २ महादेव, शिव (पउम १०६, १२)। ३ स्वामी, पति (कुमा)। ४ नायक, मुखिया (विपा १, १)। ५ देवताओं का एक प्रावास, बेलंधर देवों का आवास-विशेष (सम ७३)। ६ एक पाताल कलश (ठा ४, २) । ७ पाब्य, धनो (सुपा ४३६)। ८ ऐश्वर्य-शाली, वैभवी (जीव ३)। ६ युवराज । १० माण्डलिक, सामन्त-राजा। ११ मन्त्री (अणु )। १२ इन्द्र-विशेष, भूतवादि-निकाय का इन्द्र (ठा २, ३)। १३ पाताल-विशेष (ठा ४)। १४ एक राजा का नाम । १५ एक जैन मुनि (महानि ६)। १६ यक्ष-विशेष (पव २७)।" For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ पाइअसहमण्णवो ईसर [ईश्वर] अणिमा श्रादि माठ प्रकार ईसाण पुं [ ईशान ] अहोरात्र का ग्यारहवाँ के ऐसे सम्पन्न (धर २५ ) । (१०, १३) । ईसरियन [देश्यये] वैभव, प्रभुता, ईधरपन ( म ० ६३ ) 1/ ईसा भी [ईषा] लोकपालों की अप्रमाद ईसाणा श्री [रेशानी] ईशान कोण १०) । १ थियों की एक पार्थदा (२, २) नेन्द्र की एक परिषद् (जीव ३) एक काष्ठ (दे २, ६६) । ईसा स्त्री [ईर्षा] ईर्ष्या, द्रोह (गउड)। रोस [ष] क्रोध, गुस्सा (कप्पू) । ईसाइय वि [ईर्ष्यायित ] जिसको ईर्ष्या हुई हो वह (सुपा ६१) । । २ पिशा ३ हल का ईसाण [ईशान] १ शेषरा देवलोक (सम २ ) । २ दूसरे देवलोक का इन्द्र (ठा २, ३ ) । ३ उत्तर और पूर्व के बीच की दिशा, ईशान कोण (सुपा ९८ ) । ४ मुहूर्तविशेष (सम ५१) । ५ दूसरे देवलोक के निवासी देव (ठा १० ) । ६ प्रभु, स्वामी (विसे) । वडिंग न [वतंसक] विमानविशेष का नाम (सम २५ ) । [3] प्राकृत वर्णमाला का परचम अक्षर, स्वर - विशेष ( प्रामा) । २ उपयोग रखना, क्यांस करना 'उति उपयोगकर २११८) ३ गतिक्रिया (धानम (विसे [3] निम्नोक्तं भय का सूचक अव्यय - १ संबोधन, भ्रामन्त्रणं । २ कोप- वचन, क्रोधोक्ति । ३ मनुकम्पा, दया। ४ नियोग, । प्राश्वयं । ६ हुकुम ५ विस्मय, घाव मंगीकार स्वीकार । ७ प्रश्न, पृच्छा (हे २, २१७ ) । उ [तु] इन भय का सूचक प्रव्यय-१ विशेषण । २ कारण ( वब १) । -- . ईसाणी स्त्री [पेशानी]ईशान कोण २ । विद्या-विशेष (पउम ७, १४१)। ईसालु वि [ई] ईर्ष्या द्वेषी (महा मा ६३४ प्राप्त) ( पचम ३६, ४५) । ईसास देखो इस्सास; 'ईसासठ्ठाण' (निरपि | (डा ह स्वी. 'णी १६२) । ईसि [ ईषत् ] १ थोड़ा, अल्प (परण २६) २वशेष सिद्धिक्षेत्र - भूमि (सम २२ ) । पब्भार वि ['प्राग्भार] थोड़ा अवनत (पंचा १८ ) । पब्भारा स्त्री [प्रागभारा ] पृथिवीविशेष सिद्धि-क्षेत्र (ठा सम २२ ) । ईसिअ न [ ईष्यित ] १ ईर्ष्या, द्वेष (गा ५१० ) । २ वि. जिसपर ईर्ष्या की गई हो वह (दे २, १६) । ईसिअ न [दे] १ भील के सिर पर का पत्र - ।। इम सिरिपाइअसमद्दण्णवे ईधाराइसकललो रणाम चउत्यो तरंगो समत्तो ॥ उ उम्र [तु] इन भय का द्योतक भव्यय - १ समुच्चय, धौर (कप्प)। २ अवधारण, निश्चय ( भावम) ३ किन्तु परन्तु (डा ३ १) ४ नियोग, प्राज्ञा । ५ प्रशंसा । ६ विनिग्रह। ७ शंका की निवृत्ति ()। पादपूत के लिए भी इसका प्रयोग होता है (उब)। देखो उब 'उपो को (षद् २, १,६०)। [[]] निम्नोमय का सूचक प्रायय१ ऊँचा 'मे' (धानम) २ चिप ऊष्वंः 'उकर्मत' । रीत, उलटा 'उकम' (विसे)। ३ प्रभाव, रहितता; 'उकर' (गाया १, १ ) । ४ ज्यादा, For Personal & Private Use Only ईसर - उअ पुट, भीलों की एक तरह की पगड़ी। २ वि. वशीकृत, वश किया हुमा (दे १, ८४) । ईसि देखो ईसि (महा सुर २ १६० ? ईस पि १०२ ) । ई तक [ई] १ देखना। २ विचारना । ३ चेष्टा करना । ईहए (विसे २६१)। ईमान (उड सुपा विसे २५०) 'नाईदि ईहण न [ईहन ] नीचे देखो (प्राचू १) । ऊण मनु' (पच विये २५७ ) IV स्त्री [हा] १ विचार, ऊहापोह, विमर्श (खाया १, १ सुपा ५७२२ प्रयत्न (प्रोघ ३ ) । ३ मति- ज्ञान का एक भेद (पण १५ ठा ५) । ४ इच्छा ( स ६१२) । मिग, "मिय [ग] १ वृक, भेड़िया (खाया १,१ भग ११, ११) । २ नाटक का एक मेद (राय)। ईहा स्त्री [ईक्षा] प्रवलोकन, विलोकन (प्रौप)। ईहिय वि [ईहित] चेष्टित (सूम १, १, ३ ) २, विचारिता-विषयकृत (विसे २५७) । विशेष: 'उयोविय' (७ बिले ३५७२)। उअ म [दे] विलोकन करो, देखो (दे १, ८६ टी. हे २, १११) । उअ भ [ उत] इन अर्थों का सूचक अव्यय१ विकल्पना २ नम ३ प्रश्न, पृच्छा । ४ समुच्चय । ५ बहुत, प्रतिशय (हे १, १७२) । उअ [दे] ऋजु, सरल (षड् ) । उन देतो उब (गा ५० से ६६) उअ न [उद] पानी, जल । सिंधु वु ['सिन्धु ] समुद्र, सागर (पि ३४० ) । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उअ-उईर पाइअसहमहण्णवो १३७ उअ वि [उदन्न्] उत्तर, उत्तर दिशा में । उअवाब देतो उक्ट्ठाण (नाट) उआलंभ देखो उवालंभ = पा+लभ् । कृ. स्थित। महिहर महिधर हिमाचल- उअस्थिअ देखो उवद्रिय (से ११,७८) सआलंभणिज (नाट)। पर्वत (गउड)।-- उअदिट्ट देखो उवइट (नाट)। उआलंभ देखो उवालंभ = उपालम्भ (गा उअअ न [उदक] पानी, जल (गा ५३; से | अभुत्त देखो उवभुत्त (रंभा) ६, ८८)। उअभोग देखो उवभोग (नाट)। उआलभ देखो उआलंभ = उपा + लभ् । उअअ देखो उदय (से १०, ३१)। उअमिजत वकृ [उपमीयमान] जिसकी | उमालभेमि (त्रि ८२)। उअअन [उदर] पेट, उदर (से ६, ८८)।- | तुलना की जाती हो वह (काप्र ८६६)। उआलि स्त्री [दे] अवतंस, शिरोभूषण (दे १, उअअ वि [दे] ऋजु, सरल, सीधा (दे १, उअर न [उदर] पेट (कुमा)। ६०) ८८)। उ देखो वाहन उआस वि [उदास नीचे देखो (पिंग)। उअअद (शौ) देखो उवगय (नाट)। उअरि ७५) उआस देखो उवास = उपा + प्रास् । कवकृ. उअआरअ वि [उपकारक] उपकार करने- | उअरी स्त्री [दे] शाकिनी, देवी-विशेष (दे १, उमासिजमारण (हास्य १४०) वाला (गा ५०)। उआसीण वि [उदासीन] १ उदासी, दिलउअआर वि [उपकारिन्] ऊपर देखो (विक | उअ देखो उखम । उपाटि गोर । २ मध्यस्थ, तटस्थ (स ५४६; नाट)। २५)।(नाट)। उआहरण देखो उदाहरण (मन ३) । उअइव्व वि[उपजीव्य पाश्रय करने योग्य, उइ सक [उप+इ] समीप जाना। उएइ, सेवा करने योग्य (से ६, ६)। । देखो उवरोह (प्राप; नाट)। उअरोह । उएउ (पि ४६३)। उअऊह सक [उप + गृह.] प्रालिंगन | उअद्ध देखो उवलद्ध (नाट)। उइ अक [उद् + इ] उदित होना । उएइ करना । संक. उअऊहेऊण (पि ५८६)। उअविटुअ न [औपविष्टक] प्रासन (प्राक | (रंभा)। वकृ. उइयंत (रंभा)। उअएस देखो उवएस (गा १०१)। । १०) उइ देखो उउ; 'मन्नोवि हुँतु उइमो सरिसा परं उअंचण न [उदञ्चन] १ ऊँचा फेंकना । २ | उअविय वि [दे] उच्छिष्ट, 'इहरा भे णिसि. | ते (रंभा)। 'राय पुं[ राज] वसन्त ऋतु ढकने का पात्र, पाच्छादक पात्र (दे ४,११)। भत्तं उपवियं चेव गुरुमादी' (बृह १) (रंभा)। अंचिद् (शौ) वि [उदश्चित] १ ऊँचा | उअसप्प देखो उक्सप्प। उपसप्प (रुक्मि ५१)/ उइअ वि [उदित] १ उदय प्राप्त , उद्गत उठाया हुप्रा, ऊँचा फेंका हुमा (नाट)। उअसम । देखो उवसमं उप + शम् । (सुपा १२७) । २ उक्त, कथित (विसे २३३; उअसम्म ) उपसमइ, उवसम्मइ (प्राकृ ६६)| ८४६) । परक्कम पुं [पराक्रम] इक्षाकुउअंत पुं[उदन्त] हकीकत, वृत्तान्त, समाचार उअह प्र[दे] देखो, देखिए (दे १, ९८ | वंश के एक राजा का नाम (प उम ५, ६)। (पानः प्रामा)। प्राप्र)। | उइअ वि [उचित] योग्य, लायक (से ८, उअकिद (शौ) वि [उपकृत] जिसपर उपकार उअहस देखो उवहस । उग्रहसइ (प्राकृ ३४)। १०३)।। किया गया हो वह (पि १४)। उअहार देखो उवहार (नाट)। उइंतण न [दे] उत्तरीय वन, चादर (द १, उअकि विदे] पुरस्कृत, मागे किया हुमा | उअहारी स्त्री [दे] दोग्ध्री, दोहनेवाली स्त्री १०३कुमा)। (द १, १०७) | उइंद [उपेन्द्र] इन्द्र का छोटा भाई, विष्णु उअगअ देखो उवगय (गा ६४४)। उअहि पुं[उदधि] १ समुद्र, सागर (गउड)। का वामन अवतार, जो अदिति के गर्भ से हुआ उअचित्त वि [दे] अपगत, निवृत्त (दे १, २ स्वनाम-क्यात एक विद्याधर राजकुमार १०८) (पउम ५, १६६)। ३ काल परिमाण, साग- | उइट्ठ वि [अपकृष्ट] हीन, संकुचित; पाउसियउअजीवि वि [उपजीविन] माश्रित (अभि रोपम (सुर २, १३६)। ४ स्वनाम ख्यात | अक्खचम्मउइट्ठगंडदेस (णाया १,८)। एक जैन मुनि (पउम २०, ११७)। देखो उइण्ण देखो उदिण्ण (ठा ५, विसे ५०३)।उअज्झाअ देखो उवज्झाय (नाट)। उदहि। उइण्ण वि [उदीच्य] उत्तर दिशा-सम्बन्धी, उअट्टी स्त्री [दे] नीवी, स्त्री के कटि-वन की | उअहि देखो उवहि = उपधि (पचर)। उत्तर दिशा में उत्पन्न (प्रावम)। नाडी; 'उमट्टी उचो नीवी' (पाय)। उअहुजंत देखो उवभुंज।। उइन्न देखो ओइण्ण (सम्मत्त ७७)। उअहिअ देखो उवट्ठिय (प्राप)। उअहोअ देखो उवभोग (प्रबो ३०; नाट)। | उइयंत देखो उइ = उद् + इ । उअणि उआअ देखो उवाय (नाट)। उईण देखो उदीण (राय)।देखो उवणीय (प्राकृ ६)। उअणीअ. उआअण देखो उवायण (माल ४६) उईर देखो उदीर 'उईरेइ मइपीड' (श्रा उअण्णास देखो उवण्णास (नाट)। उआर देखो उराल (सुपा ६०७; कप्पू)। २७)। वकृ. उईरंत (पुष्फ १३) । संकृ. उअत्तंत देखो उव्वट्ट = उद् + वृत् । उआर देखो उवयार (षड्, गउड)। उईरइत्ता (सूम १, ६)। १८ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ पाइअसहमहण्णवो उईरण-उत्कंठा उईरण देखो उदीरण (ठा ४; पुप्फ १६५) उंछ पुं[दे] वस्त्र छापने का काम करने विशेष (विपा १, ७)। २ एक सार्थवाह का उईरणया) देखो उदीरणा (विसे २५१५ | वाला शिल्पी, छापी; जो कपड़ा छापता है, पुत्र (विपा १, ७)। पंचग, पणग न उईरणा ) टी; कम्मप १५८ विसे २६६२) छीट बनाता है वह (द १,९८पाम)। [पञ्चक] बड़, पीपल, गूलर, प्लक्ष और उंज सक [सिच्] सोंचना, छोड़कना । काकोदुम्बरी इन पांच वृक्षों के फल (सुपा उईरिय देखो उदीरिय (पुष्फ २१६) । उजिजा (राज)। भवि-उंजिस्सइ (सुपा ४६; भग ६, ३३)। पुप्फ न [पुष्प] उउ त्रि [ऋतु] १ ऋतु, दो मास का काल | गूलर का फूल (भग ६, ३३)। विशेष, वसन्त भादि छः प्रकार का काल उंज सक [युज ] प्रयोग करना, जोड़नाः उंबर वि [दे] बहुत, प्रचुर (दे १,९०)।(प्रौपः अन्त ७); 'उऊए', 'उऊई' (कप्प)। 'अहमवि उंजेमि तह किंपि' (धम्म ८ टी) उंबरउप्फ न [दे] नवीन अभ्युदय, अपूर्व २ स्त्री-कुसुम, रजो-दर्शन, स्त्री-धर्म (ठा ५, | उंजायण न [उायन] गोत्र-विशेष, जो उन्नति (दे १, ११६) २)। बद्ध पुं[बद्ध] शीत और उष्णकाल, वशिष्ठ-गोत्र की एक शाखा है (ठा ७)। उंबरय पुं[दे] कुष्ठ रोग का एक भेद (सिरि वर्षा-काल के अतिरिक्त पाठ मास का समय उजिअ वि [सिक्त] सिक्त, छीड़ का हुआ (ोघ २६; २६५, ३४८)। मास पुं | (सुपा १३६) उंबा स्त्री [दे] बन्धन (दे १,८६)। ['मास] १ श्रावण मास (वव १ टी )। २ उंड । विदे] १ गभीर, गहरा (दे १, तीस दिनवाला मास (सम)। य वि [ज] उंबी स्त्री [दे] पका हुमा गेहूँ (दे १, ८६; | उंडग८५ सुपा १५ उप १४७ टी; ठी | ऋतु में उत्पन्न, समय पर उत्पन्न होनेवाला उंडय | १० श्रा १६) । २ पुं. पिण्ड; 'बालाई | उबेभरिया स्त्री [दे] वृक्ष-विशेष (पएण १)। (पएह २, ५, णाया १, १); 'उयप्रगुरुवर- मंसउडग मज्जाराई विराहेज्जा' (ोघ २४६ | उभ सक [दे] पूत्ति करना, पूरा करना पवरधूवणउउयमल्लाणुलेवणविहीसु। गंधेसु भा)। ३ चलते समय पाव में पिण्ड रूप से (राज) रज्जमारणा रमंति धारिणदियवसट्टा' (वाया | लग जाय उतना गहरा कीचड़, कर्दम (ोष | उकिट्र देखो उक्किट (पिंग)। ३३ भा)। ४ शरीर का एक भाग, मांस पिंड; | उकुरुडिया [दे] देखो उक्कुरुडिया (निर संधि पुंस्त्री [[संधि] ऋतु का सन्धि-काल, | 'हिययउंडए' (विपा १, ५) १, १)। ऋतु का अन्त समय (प्राचा)। संवच्छर | उंडग न [दे] स्थंडिल, स्थान, जगह (दस उक्त वि [उत्क] १ उत्सुक, उत्कण्ठित (सुर पुं[संवत्सर] वर्ष-विशेष (ठा ५)। देखो | उंडुअ ४,१, ५, १,८७) ३, ५३)। एक विद्याधर राजा का नाम उइ = उउ । उंडल न [दे] १ मञ्च, मचान, उच्चासन। (पउम १०, २०)। उउंबर देखो उंबर = उदुम्बर (कुमाः हे १, २ निकर, समूह (दे १, १२६)। उक्त वि [उक्त] कथित (पिंग)। २७०; षड् ) उंडिया स्त्री [दे] मुद्रा-विशेष (राज)। उक्क न [दे] पाद-पतन, पांव पर गिर कर उउवहिय न [ऋतुबद्ध] मास-कल्प, एक उंडी स्त्री [दे] पिण्ड, गोलाकार वस्तु; 'तत्य नमस्कार करना (दे १, ८५)। मास तक एक स्थान में साधु का निवासा णं एगा वरमऊरी दो पुढे परियागते पिट्छुडीपंडुरे निव्वणे निरुवहए भिन्नमुट्ठिप्पमाणे उक्का वि [दे] प्रसृत, फैला हुआ (षड् )। नुष्ठान (पाचा २, २, ७)। मऊरीअंडए पसवति' (णाया १, ३)। उकंचण न [दे] १ झूठी प्रशंसा करना, उऊखल न [उदूखल] उलूखल, गूगल | उक्कंचणया उंदर । पुंस्त्री [उन्दुर] मूषक, चूहा (गउड; उऊहल । (कुमा; षड् ; हे १, १७१) खुशामद (णाया १, २)। २ उएट्ट पुं [दे] शिल्प विशेष (अण १४६) उंदुर । पण्ह १, १ उवाः दे १, १०२)।। ऊँचा करना, उठाना (सूम २, २)। ३ झाडू निकालना (निचू ५)। ४ घूस, रिशवत रुक्क उओग्गिअ वि [दे] सम्बद्ध, संयुक्त (षड् ) उंदु न [दे] मुख, मुंह (अणु २६)। (दसा २)। ५ मूर्ख पुरुष को ठगनेवाले धूर्त उं अ[दे] इन प्रों का सूचक अव्यय-१ | न [दे] मुह से वृषभ आदि की तरह अावाज का, समीपस्थ विचक्षण पुरुष के भय से थोड़ी क्षेप, निन्दा । २ विस्मय । ३ खेद । ४ ___ करना (अणु २६) । देर के लिए निश्चेष्ट रहना (प्रौप)। दीव पुं वितर्क । ५ सूचन (प्राक ७६)। | उंदुरअ पुं[दे] लम्बा दिवस (दे २, १०५)। [दीप] ऊँचा दंडवाला प्रदीप (अन्त)। उंघ प्रक [नि+द्रा] नींद लेना । उंघइ। उंदुरु पुंस्त्री [उन्दुरु] मूषक, चूहा (दस २, उक्छ ण न [दे] देखो उक्कंबण (राज)। (हे ४, १२)। | उंब ' [उम्ब] वृक्ष-विशेष, 'निबंबउंबउंबर' | उक्कंठ प्रक [उत् + कण्ठ ] उत्कण्ठा उंचहिआ स्त्री [दे] चक्रधारा (दे १, १०६)। (उप १०३१ टी)। करना, उत्सुक होना। उक्कंठेहि (मै ७३) । उंछ पुन [उञ्छ] भिक्षा (सूम १, २, ३ उंबर पुं[उदुम्बर] १ वृक्ष-विशेष, मूलर का | वकृ. उक्कंठंत (मै ६३) । हेकृ. उक्कंठिदु पेड़ (परण १)। २ न. गूलर का फल (शौ) (अभि १४७)। उंछ [उञ्छ] भिक्षा, माधुकरी (उप ६७७; | (प्राप्र) । ३ देहली, द्वार के नीचे की लकड़ी| उक्कंठा स्त्री [उत्कण्ठा उत्सुकता, औत्सुक्य मोघ ४२४) । (द १,६०)। दत्त पुं [दत्त] १ यक्ष- (हे १, २५, ३०)। For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कंठिय-उक्करिस पाइअसहमहण्णवो १३९ उक्कंठिय वि[उत्कण्ठित] उत्सुक (गा उक्कान्छा स्त्री [उत्कच्छा] छन्द-विशेष | उक्कनाह [दे] उत्तम प्रश्व की एक जाति उक्कंठिर ५४२: सुर ३, ८६ पउम ११, (पिग)। (सम्मत्त २१६) उक्कंठुलय) ११ वज्जा.)। उक्कच्छिा स्त्री [औपकक्षिकी ] जैन कस सक उत+क्रम] ऊँचा जाना । उक्कंड वि [उत्कण्डित] खूब छटा हुआ, | साध्वियों को पहनने का वस्त्र-विशेष २ उलटे क्रम से रखना। वकृ. उक्कमंत विशेष करिडत (पिंड १७१)। (ोघ ६७७)। (मावम)। संकृ. उक्कमिऊणं (विसे उक्कंडय सक [उत्कण्टय] पुलकित करना, उक्कज्ज वि [दे] अनवस्थित, चञ्चल (षड्)। ३५३१) 'दियसेवि भूप्रसंभावणाए उक्कटयंति अंगाई' उक्कट्टि स्त्री [अपकृष्टि] अपकर्ष, हानि | उक्कम पुं [उत्क्रम] उलटा क्रम, विपरीत (गउड)। (वुन १)। क्रम (विसे २७१)। उक्कंडय वि [उत्कण्टक] पुलकित, रोमाञ्चित | उक्कट्ठि स्त्री [उत्कृष्टि] उत्कर्ष, 'महता उक्कमण न [उत्क्रमण] ऊध्वं गमन । २ (गउड)। उक्कट्ठिसीहणादकलकलरवेणं' (सुज्ज १९ बाहर जाना (समु १७२)। उक्कंडा स्त्री [दे] घूस, रिशवत (दे १, पत्र २७८) । देखो उक्किट्टि। उक्कमित वि [उपक्रान्त १ प्रारब्ध । २ १२) उक्कड वि [उत्कट] १ तीव्र, प्रचण्ड, प्रखर क्षीण; 'प्रभागमितम्मि वा दुहे, महवा उक्कमिते उक्कंडिअ वि [दे] १ आरोपित। २ खण्डित (गदि; महा)। २ विशाल, विस्तीर्ण (कप्प; भवंतीए । एगस्स गती य भागती, विदुमं ता सुर १, १०६)। ३ प्रबल (उवाः सुर ६, सरणं ण मन्नइ।' (सूम १, २, ३, १७)। उक्त वि [उत्क्रान्त] ऊँचा गया हुआ | .१७२ )। उक्कर सक [नन् + कृ] खोदना। कवकृ. (भवि)। °उक्कड देखो दुक्कड (उप ६४६) उक्करिज्जमाण (आवम)। उक्कंति । स्त्री [दे देखो उक्कंदा (दे १, उक्कडिय वि [दे] तोड़ा हुमा, छिन्न (पाप)। उक्कर पु[उत्कर] १ समूह, संघातः 'सक्कउक्कडिय देखो उक्कुडय (कस)। उक्कंती८७)। उक्कड्ढ़ सक [उत् + कर्षय ] उत्कृष्ट करना, रुक्कररसड्ढे' (सुपा ५१८)। २ कर-रहित, उक्कंद वि [दे] विप्रलब्ध, ठगा हुआ, वञ्चित बढ़ाना। उक्कड्ढए (कम्म ५, ६८ टी )।-- राज-देय शुल्क से रहित (णाया १, १)। उक्कड्ढग पुंअपकर्षक] १ चोर की एक- उक्करड देखो उक्कर = उत्कर; 'कस्सावि उक्कंदल वि [उत्कन्दल] अंकुरित (गउड) जाति-जो घर से धन प्रादि ले जाते हैं। उत्तरीयं गहिऊरण को अ उक्करडो' उक्कदि । श्री [दे] कूपतुला (दे १, ८७) ।। २ जो चोरों को बुलाकर चोरी कराते हैं । ३ | (सिरि ७६५) उक्कंदी। चोर की पीठ ठोकने वाले, चोर के सहायक उक्करड [दे] १ अशुचि राशि। २ जहाँ उक्कंप प्रक [उत् + कम्प्] कांपना, (पएह १, ३ टी)। मैला इकट्ठा किया जाता है वह स्थान (श्रा हिलना। उक्कड्ढिय वि [उत्कर्षित] १ उत्पाटित, | २७; सुपा ३५५) ।। उक्कंप पुं[उत्कम्प] कम्प, चलन ( सण; उठाया हुआ । २ एक स्थान से उठा कर | उक्करिअ वि [दे] १ विस्तीर्ण, भायत । २ गा ७३५ )। अन्यत्र स्थापित (पिंड ३६१) आरोपित। ३ खण्डित (षड्)। उक्कंपिय वि [उत्कम्पित] १ चञ्चल किया | उक्कण्ण वि [उत्कर्ण] सुनने के लिए उत्सुक | उक्करिअ वि [उत्कीर्ण] खोदित, खोदा हुआ (राज) । २. न. कम्प, हिलन ; (से ६, १६) हुमा: 'टंकुक्करियव्व निचलनिहित्तलोयणा' 'णीसासुक्कंपिप्रपुलइएहिं जाणंति णचिउं उक्कत्त सक[उत् + कृत्] काटना, कतरना। (महा)।। धएगा। अम्हारिसीहि दिठे, पिसम्मि वकृ. उक्कत्तंत (सुपा २१६)। उक्करिद (शौ) वि [उत्कृत] ऊँचा किया अप्पावि वीसरिमो' (गा ३६१)। उक्कत्त वि [उत्कृत्त] कटा हुआ, छिन्न हुआ (स्वप्न ३६)। उक्कंपिय वि [दे] धवलित, सफेद किया (विपा १, २)। उक्कत्तण न [उत्कर्त्तन] काट डालना, छेदन उक्कारया स्त्री [उत्करिका] जैसे एरण्ड के हुआ (कप्प)। बीज से उसका छिलका अलग होता है उस (पुफ्फ ३८४)। उक्कंबण न [दे.अवकम्बन] काठ पर काठ उक्कत्तिय देखो उक्कत्त = उत्कृत्त (पउम तरह अलग होना, भेद-विशेष (भग ५, ४)।के हाते से घर की छत बाँधना, घर का ५६, २४)। उक्कारस सक [उत्+कृष्] १ खींचना । संस्कार-विशेष (बृह १)। उक्कत्थण न [उत्कथन] उखाड़ना (पएह २ गर्व करना, बड़ाई करना । वकृ. उक्करिसंत उक्कंबिय वि [दे. अवकम्बित] काठ से १,१)। (से १४, ६) बाँधा हुमा (राज)। | उक्कप्प पुं[उत्कल्प शास्त्र-निषिद्ध आचरण | उक्करिस देखो उक्कस्स = उत्कर्ष (उव; उक्कच्छ वि [उत्कच्छ] स्फुट, स्पष्ट (पिंग) (पंचभा) ।। | विसे १७६६) For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० रिसन [ उत्कर्षण] १ उत्कर्षं, बड़ाई, महत्व । २ स्थापन, प्राधान 'उम्मिल्लइ लायरणं परयच्छायाए सक्कय वयाणं । सनकसनकारकरि पययस्सवि पहावो ॥' (गउड) 1 उक्करिसिय वि [उत्कृष्ट ] सोच निकाला हुमा, उन्मूलित ( से १४, ३) । उक्कल देखो उक्कड (ठा ५, ३) । उक्कल अक [ उत् + कलू ] उत्कट रूप से बरतना । उक्कलइ (सुख २, ३७) । उक्कल वि[स्कल] १ धर्म-रहित २ न. चोरी (परह १, ३, टी) । २ पुं. देश-विशेष, जिसको प्राजकल frent man 'उड़िया' या 'उड़ीसा' कहते हैं (बो७८)। उक्कलंच एक [ उत् + लम्ब] फाँसी लटकाना । उक्कलंबे मि ( स ε३) । | उक्कलंबण न [ उल्लम्बन] फाँसी लटकाना । ( स ३५८) । उकला देखो उक्कलिया (उत्त ३६, १३८) । उक्कयि [] उबला हुआ गुजराती में "उसे"; "उसिणोदगं विसिय विचार २१७ ) । कलिया स्त्री [उत्कलिका] १ लता, मकड़ी एक प्रकार का कीड़ा जो जाल बनाता है; 'उक्क लियडे' (कप्प ) । २ नीचे की तरफ बहनेवाला वायु (जी ७) । ३ छोटा समुदाय, समूह - विशेष (ठा ३, १ ) । ४ लहरी, तरंग (राज)। ५ ठहर-ठहर कर तरंग की तरह चलनेवाला वायु (धाचा)। उक्कस सक [गम् ] जाना, गमन करना । उक्कसइ (हे ४, १६२; कुमा) । प्रयो. उसने वह उक्सायंत (१०)। उक्कस देखो ओकस । वकृ. उक्कसमाण (क) देश [क्कसित (मावा २, ३, १,१२ ) । उक्कस देखो उक्कुस ( कुमा) । उक्कस देखो उक्कस्स = उत्कर्ष (सूम १, १, ४, १२); 'तवस्सी इक्कसो' (दस ५, २, ४२) । अक्सन [कर्षण] अभिमान करना पाइअसहमणव ( सूम १, १३ ) । २ ऊँचा जाना। ३ निवर्तन, निवृत्ति । ४ प्रेरणा (राज) । [उत्कशायिन् उक्साइ वि [कशाविन] सत्कारादि के उक्किवि [उत्कृष्ट] उत्तम (दे १, १२८ दं २६ ) । २ फल का शस्त्र द्वारा लिए उत्कण्ठित (उा ३) । किया हुआ टुकड़ा ( दस ५, १, ३४ ) । उक्कि िश्री [उत्कृष्टि] हर्षध्वनि माद की आवाज (प्रौपः भग २, १) । देखो कट्ठ उक्साइ वि [उत्कषायिन् ] प्रबल कषायवाला (उत्त १५) । उक्कस्स क [ अप+कृष्] १ ह्रास प्राप्त होना, हीन होना । २ फिसलना, गिरना, पैर रपटने से गिर जाना । वकृ. उक्करसमाण (ठा ५) 1 उक्किगवि [ उत्कीर्ण] १ खोदित, खोदा हुधा (१८२) २ (२) । ५, उक्रस पुं १ [क]] गर्न अभिमान ( उसिपि [स्कृत] कटा हुआ (से १, १४, २) २ भतिशय उता ५१) । उत्तिण न [ उत्कीर्त्तन] १ कथन ( पउम (भवि)। ११८६३२ प्रशंसा वाचा ( १)। उक्षितिय [उत्कीर्त्तित] कपित, कहा हुधा (सुज्ज २० टी) । उक्करस वि[व] उ ज्यादा १ उत्कृष्ट से ज्यादा 'उस्काठिया ( ११ ) 'उक्कस्सा उदीरणया' (कम्मप १६६ ) । २भिमानी( १, १)। उक्का श्री [का] १ लुका, धाकाश से जो एक प्रकार का अंगार का गिरता है (घोष ३१० भा जी ६) । २ छिन्न-मूल दिग्दाह (धा) अग्नि-पिए (ठा ) ४ आकाश-वह्नि (दस ४) । मुह पुं ["मुख ] १ अन्तद्वीप - विशेष । २ उसके निवासी लोक (ठा ४, २) । वाय पुं [पात ] तारा का गिरना, लूका गिरना । (भग ३, ६) । उक्का स्त्री [दे] कूप-तुला (दे १, ८७) । उक्काम सक [ उत् + क्रामय् ] दूर करना, पीछे हटाना 'उस्कामति जीवं धम्मायो | तेरा ते कामा' (सन १ प ८०) । उरिया देखो उक्करिया (पण ११ मास ७) । उकालिय वि [ उत्कालिक ] वह शास्त्र, जिसका अमुक समय में ही पढ़ने का विधान न हो (ठा २, १) । उक्कास देखो उक्करस उत्कर्ष (भग १२, ५) । उक्कास वि [दे] उत्कृष्ट, ज्यादा से ज्यादा ( षड् ) । उक्कासिअ वि [दे] उत्थित, उठा हुधा (दे १, ११४) । उक्कि [उत्कृष्ट] ज्यादा पत्र वि १ ( १५ ) । २ पुंन. इमली भादि के पत्तों का उक्करिसण – उक्कुक्कुर समूह ( दस ५, १, ३४) । ३ लगातार दो दिन का उपवास (संबोध ५८ ) । १ उत्कृष्ट, For Personal & Private Use Only [कर्ण] १ चचित उपसि 'दोन्नायशरीरे (संदु २१) २ चोदा उखिर तक [+] सोनापा (सन २ १७) । [उत् कृ] पर अक्षर वगैरह का शस्त्र से लिखना । उक्कर (पि ४००)। किरणगन रणग न [उत्करणक] अक्षत प्रादि से बड़ाना, बचावा, वर्षापन 'पुप्फारहगाई किरलगाई पूर्ववतेवि सरकारि (धर्मनि ४९) । उरि देखो उकरिअ उत्की या १४; सुपा ५१८ ) । । उकीर देखो उशिर उनकीरवि (पशु)। व. उक्कीरमाण (भरणु) । उकीरिअ देखो उकरिअ उत्की (उप ३१५) । = उक्कीलिय न [ उत्क्रीडित] उत्तम क्रीड़ा (TOW EX, X)I उनि [स्फीति] कीलक से नियंत्रित, 'उक्कीलिउब्व परिभिउब्व सुन्नुव्व मुस्की (सुपा ४०५) । उक्कुंचण न [उत्कुलन] ऊँचे चढ़ाना ( सू २,२,६२) = [दे] मत्त उन्मत्त (२१, ६१) । क्र मक [उत् + स्था] उठना, खड़ा होना । उक्कुक्कुरइ (हे ४, १७, षड् ) । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ उक्कुज्ज-उक्खंडिअ पाइअसहमहण्णवो उक्कुज प्रक [उत् + कुब्ज्] ऊँचा होकर कत्थइ सुवरणं, कत्थई रुप्पयं, कत्थइ मरिण- (पएह १, १)। २ वि. जोर से चिल्लानेनीचा होना । संकृ. उक्कुन्जिय (प्राचा)। मोत्तियपवालाई' (महा)। वाला (राज)। उकुन्जिय न [उत्कूजित] अव्यक्त शब्द उक्कोट्टिय वि [दे] अवरोध-रहित किया उक्कोसण न [उत्क्रोशन] १ क्रन्दन । २ हुमा, घेरा उठाया हुअा (स ६३९)। निभर्सन, तिरस्कार; उक्कुट न [उत्कुष्ट] वनस्पति का कूटा हुमा उकोड न [दे] राज-कुल में दातव्य द्रव्य, 'उकोसणतजगताडणामो चूर्ण (प्राचा निचू १, ४)। राजा आदि को दिया जाता उपहार (वव अवमाणहीलणामो य। उक्कुट वि [उत्कृष्ट] ऊँचे स्वर से प्राकुष्ट १ टी)। मुणिणो मुरिणयपरभवा उक्कोडा स्त्री [दे] घूस, रिशवत (दे १, १२; दढप्पहारिव्व विसहंति' (उव)। पराह १, ३, विपा १, १)। उक्कोसा स्त्री [उत्कोशा] कोशानामक एक उक्कुडुग । वि [उत्कुटुक] प्रासन-विशेष, प्रसिद्ध वेश्या (धर्म वि १७)। उक्कुड्य , निषद्या-विशेष (भग ७, ६; भोध १५६ भाः गाया १,१)। स्त्री. उक्कुडुई | वाला, घुसखोर (णाया १, १; प्रौप)। | उक्कोसिअ वि [उस्कोशित] भत्सित, (ठा ५, १)। सिणिय वि [rसनिक] उक्कोडी स्त्री [दे] प्रतिशब्द, प्रतिध्वनि (दे तिरस्कृत, दुतकारा हुमा (उप पू ७८)। उत्कुटुक-प्रासन से स्थित (ठा ५, १) १,६४)। उक्कोसिअवि[उत्कर्षिन] देखो उक्कोस = उक्कुद प्रक [उत् + कू] कूदना, उछलना। उक्कोय वि [उत्कोप प्रखर, उत्कट (सण) स्कृष्ट (कप्पः भत्त ३७)। उकुद्दइ (उत २७, ५)। उक्कोयण देखो उक्कोवण (भवि)। उक्कोसिअ [उत्कौशिक] १ गोत्र-विशेष उक्कुरुआ देखो उक्कुरुडिया (ती ११)। उक्कोया स्त्री [उत्कोचा] १ घूस, रिशवत । का प्रवर्तक एक ऋषि । २ न. गोत्र-विशेष; उक्कुरुड पुं देखो उक्कुरुडी (कुप्र ५५)। २ मूर्ख को ठगने में प्रवृत्त धूर्त पुरुष का, 'रस्स एं प्रज्जवइरसेणस्स उक्कोपियगोत्तस्स उक्कु रुड पुं[दे] राशि, ढेर (दे १, ११०)। समीपस्थ विचक्षण पुरुष के भय से थोड़ी (कप्प)। उक्कुरुडिगा। स्त्री [दे] पूरा, कूड़ा डालने देर के लिए अपने कार्य को स्थगित करना | उक्कोसिअ वि [दे] पुरस्कृत, प्रागे किया उक्कुरुडिया की जगह (उव ५६३ टी विपा (राज)। हुमा (षड्)। उक्कुरुडी ) १, १, णाया १, २,दे १, उक्कोल पुं[दे] घाम, धूप, गरमो ( दे १, उक्कोसिया स्त्री [उत्कृष्टि] उत्कर्ष, माधिक्य ८७)। उक्कुस सक [गम] जाना, गमन करना। उक्कोवण न [उक्कोपन] उद्दीपन, उत्तेजन; उक्कोस्स देखो उक्कोस = उत्कृष्ट (विसे उक्कुसइ (हे ४, १६२)। 'मयणुक्कोवणे' (भवि)। ५८७)। उक्कुस वि [उत्कृष्ट] उत्तम, श्रेष्ठ (कुमा)। उक्कोविअ वि[उत्कोपित अत्यंत कुद्ध किया | उक्ख सक [उक्ष 1 सींचना (सूम २, उक्कूइय न [उत्कूजित] अव्यक्त महा-ध्वनि हुमा (उप पृ ७८)। २, ५५)। (पएह १,१)। उक्कोस सक [उत् + क्रुश] १ रोना, | उक्ख [उक्ष] १ संबन्ध (राज)। २ जैन उक्कूल वि [उत्कूल १ सन्मार्ग से भ्रष्ट चिल्लाना । २ तिरस्कार करना। वकृ. साध्वियों के पहनने के वन-विशेष का एक करनेवाला। २ किनारे से बाहर का। ३ न. उक्कोसंत (राज)। अंश (बह १)। चोरी (पएह १, ३)। उक्कोस वि [उत्कर्ष] उत्कृष्ट, प्रधान, मुख्य | उक्ख देखो उच्छ = उक्षन (पाम)। उक्कूब प्रक [उत् + कूज ] भव्यक्त भावाब (पंचा १, २)। उक्खइअ वि [उत्खचित व्याप्त, भरा हुमा करना, चिल्लाना। वक. उक्कूवमाण उक्कोस पु [उत्कर्ष] १ प्रकर्ष, अतिशयः । (से १, ३३)। (विपा १, निर ३, १)। 'उक्कोसजहन्ने अंतमुहत्तं चिय जियंति (जी | उक्खंड सक [उत् + खण्डय ] तोड़ना, उक्केर पुं[उत्कर] १ समूह, राशि, ढेर | ३८ पोप) । २ गर्व, अभिमान (सूम १, २, | टुकड़ा करना । वकृ. उक्खंडत (नाट)।(कुमाः महा)। २ करण-विशेष, कर्मों की| २. २९: सम ७१ ठा ४.४-पत्र २७४। २,२६सम ७१, ठा ४,४-पत्र २७४) । उक्खं ड दे] १ संघात, समूह । २ स्थपुट, स्थित्यादि को बढ़ाना (विसे २५१४)। ३ उक्कोस वि [उत्कृष्ट] उत्कृष्ट, अधिक से | विषमोलत प्रदेश (दे १, १२६)। मिन्न, एरण्ड के बीज की तरह जो अलग अधिक; 'सुरनेरइयाण ठिई उकोसा सागराणि | उक्खंडण न [उत्खण्डन] उत्कर्तन, विच्छेदन किया गया हो वह (राज)। तित्तीस' (जी ३६); 'कोसतिगं च मणुस्सा (विक २८)। उक्केर पुं[दे] उपहार, भेंट (दे १, ६६)। उकोससरीरमाणेणं' (जी ३२); 'तमो वियड उक्खंडिअ वि [उत्खण्डित] खण्डित, छिन्न उक्केल्लाविय वि [दे] उकेनाया हुमा, तीनो पडिगाहित्तए, तं जहा-उक्कोसा, खुलवाया हुमा: 'राइणा उक्केलियाई चोल्ल मज्झिमा, जहएणा' (ठा ३; उव)। उक्खंडिअ वि [दे] प्राकान्त, दवाया हुमा याई, निरूपियाई समन्तमो, जाब विट्ठ | उक्कोस [उत्क्रोश १ कुरर, पशि-विशेष (से १, ११२)। For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहणव उक्खंद - उक्खेवण उक्खिपण न [उत्क्षेपण] १ फेंकना, दूर करना । २ वि. दूर करनेवाला (कुमा) 1 उक्खाइद (शौ) वि [ उत्खातित ] उदधृत उक्खिवणा स्त्री [उत्क्षेपणा] बाहर करना, (उत्तर १७)। दूर करना (बृह १) । उक्खिविय देखो उक्खित्त (सुर २, १८०) उक्सा श्री [असा] स्थाली, भाजन-विशेष ( आचा २, १, १ ) । उक्खाय देखो उक्खय ( हे १, ६७६ गा २७३)। उक्खाल सक [ उत् + खन्, खालय् ] उक्खुंड पुं [दे] १ उल्मुक, भलात, मशाल उखाड़ना, उन्मूलन करना । संकृ. उक्खलइत्ता ( रंभा ) । २ समूह | ३ वस्त्र का एक अंश, अञ्चल (दे १,१२५) उक्खिण देखो उक्खण = उत् + खन् । उक्खिरामि (भवि)। संकृ, उक्खिणिवि (अप) (भवि ) । हुआ । , उक्खिण्ण नि [दे] १ की चूरिणत । २ प्रान्न, गुप्त । ३ शिथिल, एक तरफ से ढीला (दे १, उक्खित्त वि [ उत्क्षिप्त ] १ फेंका उक्खित्तय । २ ऊँचा उड़ाया हुआ ( पाच ) । ३ ऊँचा किया हुआ ( गाया १, १ ) । ४ उन्मूलित उत्पादित (राज) ५ बाहर निकाला हुआ ( परह २ १) । ६ उत्थित (पिंग ) । ७ न गेय- विशेष ( राय; ठा ४, ४) । चरयवि ['चरक] पाक पात्र से बाहर निकाले हुए भोजन को ही ग्रहण करने कानमाला (साधु) (पराह २ १) । र उक्खणि न [दे] खण्डित, निस्तुषीकृत उक्खिप्प देखो उक्खिव = उत् + क्षिप् । (दे १, ११५) । उक्सिय व[उक्षित] सिफा 'चंदरणोक्खियगायसरीरे' ( ( सू २, २, ५५; कप्यू) | उक्खणण न []सांना निस्तुपीकरण (दे १, ११५ टी । | उक्खत्त देखो उक्खय (पि ६०; १९३ [as a [दे] उड़ना प्रयो देश 'उक्लावि माढतो थूभो' (ती ७) । ४ उक्विक [ उप + क्षिप्] स्थापन करना, 'सुयस्स य भगवओो चेक नाम उक्खिविसामो (१९२) । १४२ उक्वंद पुं [अवस्कन्द] १ पेरा डालना। २ छल से शत्रु सैन्य को मारना (पराह १, २) । उक्खंभ पुं [उत्तम्भ ] श्रवलम्ब, सहारा (संपा) 1 उक्खभिय देखो उत्यंभिय (वि) उक्खभियन [ औत्तम्भिक ] अवलम्ब सहारा (राज)। उक्खडमड्डा [] पुनः पुनः, बारंबारः 'उक्खडमडत्ति वा भुजो भुजोत्ति वा पुणो पुणोति वा एम (१) । उक्खण सक [ उत् + खन्] उखाड़ना, उच्छेदन करना, काटना उक्खगादि ( प १ १) । कृ. उक्खणिऊण (नी १) कर्म, उक्खम्मति (पि ५४० ) । कवकृ. उक्खम्मंत ( से ७, २८) उक्खम्मि अन्य ( से १०, २१) । उक्खण सक [दे] खाँड़ना, मुसल वगैरह से व्रीहि सादि का छिलका दूर करना (द १. ११५) उक्खन [दे] धमकी (ड्)। उक्खणण न [ उत्खनन] उन्मूलन, उत्पाटन (११) । ५६६) । उक्खम्म' देखो उक्खण = उत् + खन् । उक्य [ उत्साव] १ उखाड़ा हुआ मूलतया १, ७ १, ६० प महा) २ खुला हुआ उद्घाटित 'एत्वन्तरम्मि पत्तो, सुदामाह तर्हि भव उक्खयखग्गा दिट्ठा, जुयारा तेरणवि दुवारे' (बुबा ४०० ) । उक्खल | देखो उऊखल (हे २, ९०; सूत्र उक्खलग १, ४, २, १२ ) । - उक्खलिय [दे. उत्पण्डित ] ज्यूलित, उत्पादित ( से ६, २) । उक्खलिया स्त्री [दे] थाली, पात्र विशेष उक्खली } (दे १, ८८); 'उक्खलिया थाली जा साणिमितं सा महाकम्मिया' ( निचू १) । वस्त पार्श्व में १३० ) । उक्खन सक [ उत् + क्षिपू] १ फेंकना । ऊँचा । ३ २] फेंका उड़ाना ४ बाहर करना । ५ काटना । ६ उठाना । उक्खिवेड (सूक्त ५६ ) । वकृ. 'पाएवि उक्खिवंती न लर्जात राट्टिया सुणेवत्था (बृह ३ ) । संकृ. क्विक्सप्प (पि २०३३ घाचा २, २, ३) । . उक्खिप्पंत, उक्सि प्पमाण ( से ६, ३५; परह १, ४), २१३ ) । For Personal & Private Use Only उक्खुड सक [तुड् ] तोड़ना, टुकड़ा करना । ४, ११६) उक्खुडिअ वि [तुडित] १ खण्डित, छिन्न, कुमा ४२१ गुफा २६२) । व्यय किया हुआ, खर्च किया हुआ 'एत्तियकाला इसिंह, उक्खुडियं सालिमाइयं नाउं । जोगं तो सहसा, पुणो पुकुट्ट हिय' (सुपा १५)। उक्खुत्त वि [ दे. उत्कृत्त ] काटा हुआ, 'रण' दुरदंतुक्खुत्तविसंवलियं तिलच्छेत्त' (गा ७६९) उक्लुब्ध अक [ उत् + शुभ् ] सुब्ब होना। उक्खुब्भइ ( प्राकृ ७५) तुह उरुचिअ ब [] फेंका हुआ (दे १, ४) । उक्खुलंप सक [दे] खुजवाना । संकृ. उक्खुपिया २,१६,२) । उक्खुदिअ वि [उरब्ध] शुन्य, क्षोभ प्राप्त सि७, १६) । उक्खेव पुं [उत्क्षेप] १ उत्पाटन, उन्मूलन ( प ) । २ ऊँचा करना (गड) ३ जो उठाया जाय वह; 'उक्खेवे निक्खेवे महल्लभाणम्मि' ( पिंड ५७०) । पुं उक्लेव [उपक्षेप] उपोद्घात भूमिका (उवा विपा १, २, ३, ४ ) उक्खेवग वि [उत्क्षेपक] १ ऊँचा फेंकने -- वाला । २ पुं. एक जाति का पंखा, व्यजनविशेष ( परह २, ५) । उक्लेवण न [उत्क्षेपण] १ फेंकना (पउम ३७, ५० ) । २ उन्मूलन, उत्पाटन (सूच २१ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्खेविअ-उग्गाल पाइअसद्दमण्णवो १४३ उक्खेविअ वि [उत्क्षेपित] जलाया हुआ उग्गमइ (वजा १६)। उग्गमेज (काल)। उग्गह पुं[अवग्रह] परोसने के लिए उठाया (घूप) (भवि) IV वकृ. उग्गमंत, उग्गममाण (सुपा ३८; | हुआ भोजन (सूम २, २,७३) । उक्खोडिअ वि [उत्खो टित] १ उत्क्षिप्त, | पएण १) उग्गहण न [अवग्रहण] इन्द्रिय द्वारा होनेउड़ाया हुआ (पास)। २ छिन्न, उखाड़ा उम्गम [उद्गम] १ उत्पत्ति, उद्भव वाला सामान्य ज्ञानः 'प्रत्याणे उग्गहरणं हुमा (दे १, १०५; १११) 'तत्थुरगमो पसूई पभवो एमाई होति एगट्ठा' प्रवग्गह' (विसे १७९) उग अक [उत् + गम्] उदित होना। (राज)। २ उदया 'सूरुगमो (सुर ३, उग्गहिअ वि [रचित] १ निर्मित, विहित उगइ (नाट)IV २५०) । ३ उत्पत्ति से सम्बन्ध रखनेवाला (कुमा)।.. उग (अप) वि [उद्गत उदित (पिंग)। | उग्गहिअ वि [अवगृहीत] १ सामान्य रूप उगाहिअ वि [दे] उत्क्षिप्त, फेंका हुआ १०)। से ज्ञात । २ परोसने के लिए उठाया हुमा (षड्) । (ठा १)। ३ गृहीत । ४ आनीत । ५ मुख में उगुणपन्न श्रीन [एकोनपश्चाशत् ] ऊनप | उग्गमण न [उद्गमन] उदय (सिरि ४२८० सुज्ज)। प्रक्षिप्त; 'तिविहे उग्गहिए पएणत्ते;-जं च चास, ४६ (सुज्ज १०, ६ टी)। उग्गिरणहइ, जं च साहरइ, जं च मासगम्मि | उग्गमिय वि [उद्गमित] उपार्जित (निन् उगुणवीसा स्त्री [एकोनविंशति उन्नीस, पक्खिवति (वव २, ८)। २)। १६ (सुज्ज १०, ६ टी) उग्गहिअ वि[दे] निपुरण-गृहोत, मच्छी तरह उगुणुत्तर न [एकोनसप्तति] उनहत्तर, ६६ | उग्गय वि [उद्गत] उत्पन्न, जात (पाव लिया हुआ दि १, १०४)। 'उगुणुत्तराई' (सुज्ज १०, ६ टी)। ३) । २ उदित, उदय-प्राप्त (सुर ३, २४७)। उग्गा सक [उद् + गै] १ ऊँचे स्वर से गान उगुनउइ स्त्री [एकोननवति नवासी, ८६ ३ व्यवस्थित (राज)। करना । २ वर्णन करना। ३ श्लाघा करना; (कम्म ६, ३०)। उग्गह सक [रचय ] रचना, बनाना, निर्माण 'उग्गाइ गाइ हसइ, उगुसीइ स्त्री [एकोनाशीति] उनासी, ७६ करना । करना । उग्गहइ (हे ४,६४)। असंवुडो सय करेइ कंदप्पं । उग्गह सक [ उद् + ग्रह ] ग्रहण करना। गिहिकज्जचिंतगो वि य, उग्ग प्रक [उद् + गम्] उदित होना। उग्गहेइ (भग) । संकृ. उग्गहित्ता (भग)। प्रोसन्ने देइ गेएहइ वा (उव) । उग्गे (पिंग)। वकृ. उग्गंत; 'देव ! पणयजउग्गह [अवग्रह] इन्द्रिय द्वारा होनेवाला वकृ. उग्गायंत (सुर ८, १८६)। कवकृ. णकल्लाणकंदुट्टविसट्टणुग्गंतमिह-(?हि)। राणुसामान्य ज्ञान-विशेष (विसे)। २ अवधारण, उग्गीयमाण (पउम २, ४१)। गारिणो' (धर्मा ५) निश्चय (उत्त)। ३ प्राप्ति, लाभ (पाचू)। उग्गाढ वि [उद्गाढ] १ प्रति गाढ़, प्रबल उग्ग सक [उद् + घाटय् ] खोलना। उग्गइ ४ पात्र, भाजन (पंचा ३)। ५ साध्वियों (उप ९८६ टीः सुपा ९४)। २ स्वस्थ, (हे ४, ३३) । का एक उपकरण (मोघ ६६६; ६७६) । ६ उग्ग वि [उप] १ तेज, तीव्र, प्रबल (पउम योनिद्वार (बृह ३) । ७ ग्रहण करने योग्य उग्गामिय वि [उद्गमित] ऊपर उठाया हुआ, ८३, ४)। २ पुं. क्षत्रिय की एक जाति, वस्तु (पएह १, ३)। ८ आश्रय, पावास- ऊँचा किया हुआ (सुख १, १४)। जिसको भगवान् प्रादिदेव ने आरक्षक-पद पर स्थान, वसति (प्राचा); 'पाहापडिरूवं उग्गहं | उग्गायंत देखो उग्गा ।। नियुक्त की थी (का ३, १)। वई स्त्री मोगिन्हित्ता' (णाया १, १)। ६ वह वस्तु, उग्गार पुं[उद्गार १ वचन, उक्ति ते [वती] ज्योतिः-शास्त्र-प्रसिद्ध नन्दा-तिथि जिसपर अपना प्रभुत्व हो, अधीन चीज (बृह उग्गाल पिसुणा जे ण सहति णिग्गुणा की रात (जं ७)। "सिरि पु [श्रीक] ३)। १० देव या गुरु से जितनी दूरी पर परगुणुग्गारे' (गउड)। २ शब्द, पावाज, राक्षस वंश का एक राजा, स्वनाम-ख्यात एक रहने का शास्त्रीय विधान है उतनी जगह, ध्वनिः 'तियसरहपेल्लियघणो राहदुंदुहिबहललंकेश (पउम ५, २६४)। सेण पुं[सेन] मर्यादित भू-भाग, गुर्वादि की चारों तरफ की गजिउग्गारो', 'अहिताडियकंसुग्गारझंझणामथुरा नगरी का एक यदुवंशीय राजा (णाया शरीर-प्रमाण जमीन; 'अरणजाएगह मे मिउ- पडिरवाहोयो' (गउड)। ३ डकार। ४ वमन, १, १६ अंत)। ग्गह' (पडि)। गंत, गंतग न [नन्त, प्रोकाई (नाटः कस); 'जिणझारणालणउग्गंठ सक [उत् + ग्रन्थ ] खोलना, गाँठ | क] जैन साध्वियों का एक गुह्याच्छादक डझंतमयणधूमुग्गारेणं पिव'"केसकलावेणं खोलना । संकृ. उग्गंठिऊण (हम्मीर १७)। वस्त्र, जांधिया, लँगोट: 'छादंतोग्गहणंत' | (स ३१३; निचू १०)। ५ जल का छोटा उग्गंध वि [उद्गन्ध] अत्यन्त सुगन्धित (बृह ३)। पट्ट, पट्टग पुन [°पट्ट, क] प्रवाह; 'उग्गालो छिछोली' (पान)। ६ (गउड)।। देखो पूर्वोक्त अर्थः 'नो कप्पइ निग्गंथाणं रोमन्थ, पगुरानाः 'रोमंथो उग्गालो (पास)।। उगाहणंतगं वा उग्गहपट्टगं वा धारित्तए वा उग्गाल पु[दे. उद्गाल] पान की पिचकारी उम्गम होना। उग्गच्छदि (शौ) (नाट) परिहरित्तए वा' (बृह ३)। (पव ३८)। आरक्षक-पद पर थी (ग, [ती For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ पाइअसहमहण्णवो उग्गाल ! [उद्गार ] विनिर्गम, बाहर निक- उग्गिरण न [ उद्गरण] १ वान्ति, वमन, लना (वव १) । कय । २ उक्ति, कथनः 'मासिणोवि श्रवमारणवचरगा ते परस्स न करेंति । हदुक्थे, साहू उगाहक [ उद् + ग्रह] ग्रहण करना 'भायरणवत्थाई पमइ, पमजइत्ता भायरगाई उग्गा' (उमा)। संकृ. उग्गाईन्सान समणं भगवं महावीरे लेणेव उनागन्छ' (उवा) IV 1 उग्गाह सक [ अव + गा ] प्रवगाहन करना, 'उग्गाहेंति नागाविहाओ चिच्छिासंहियाओं ( स १७) । महिष्य गंभीरा' (उब उग्गल स [उद् + गृ] कहना बोलना २ डकार करना। ३ उलटी करना, वमन करना । ४ उठाना। वह गलुग जय (गाया २ ८) संकृ. उग्गिलिता (कल), उग्गलेता (निर्फ ०)। उग्गिलिअ देखो उग्गिण्ण ( पाच ) 1 उग्गीय वि[उद्गीत] १ उच्च स्वर से गाया हुआ (दे १,१६३) । २ न. संगीत गीत, गान ( से १,६५) उग्गाह तक [ उद् + मह] १ तगादा करना । २ ऊँचे से चलना । उग्गाहइ (प्राकृ ७२ ) । उग्गाह पुं. देखो उग्गाहा (पिंग) उग्गहण न [ उद्ग्राहण] तगादा, दी हुई बीज की मांग (सुपा ५००) उग्गाहणि स्त्री [ उद्ग्राहणिका ] ऊपर देखो, 'उपालयापासम्म गयो तथा सोवि । उग्गाहणियाहेउँ' (सुपा ६३२) । उग्गाहणी स्त्री [ उद्ग्राहणी ] ऊपर देखो (इ) IV स्त्री [उद्गाथा ] छन्द- विशेष (पिंग)। उग्गाहिअ वि [दे. उद्ग्राहित] १ गृहीत, लिया हुआ । २ उत्क्षिप्त, फेंका हुआ । ३ प्रवर्तित (दे १, १३७) । ४ उच्चालित, ऊँचे से चलाया हुआ (पास २१३) उग्गाहिम वि [ अवगाहिम ] तली हुई वस्तु । (HTER, x)~ [गीर्ण] उत् कथित उग्गिन्न ) (भवि ) । २ वान्त, उद्गीरगं (खाया ११)। ३ उठाया हुआ, ऊपर किया हुआ 'उग्गिन्नखर गमबलं श्रवलोइय नरवईवि विम्हइम्रो । चितेड़ अहो धट्ठा, मज्झ वहट्ठा इह पट्ठिा' (सुर १६, १४७); 'निद्दय ! नियंबिणीवह कलंकमलिरगोव्व रे तुमं जाओ । उपसरं तिसा मलय (सुपा ५३८) उग्गर देखो उगल उग्रे (मुद्रा १२९)। वह गिरंत (काल) 1 उग्गीयमाण देखो उग्गा । , उग्गीर देखो उग्गिर । वकृ. 'खरगं उग्गीरंतो इत्यिवहृत्थं, हयासलोया' (सुपा १५८ ) । उग्गीरिअ देखो उग्गिण्णः 'उग्गीरिनो ममोवरि, जमजीहावीत्तरल करवाल (सुपा १५८) उग्गीव [उमीव] उति प्राशुक (कुमा) । वि[कृत ] उत्कण्ठित किया हुआ (उप १०३१ टी ) । उग्गुलुंछिआ स्त्री [दे] हृदय-रस का उछलना, भावोद्र ेक (दे १, ११८ ) M उग्गोव सक [उद् + गोपय् ] १ खोजना । २ प्रकट करना । ३ विमुग्ध करना। वकृ. 'इत्यी वा पुरिने वा मुक्ति एवं महं किएहसुत्तर्ग वा जाव सुकिल्लमुत्तगं वा पारमाणे पासति उग्गोमा गोद (भग १६, ६) । उग्गोषणा स्त्री [ उद्गोपना ] १ खोज, गवेषणा; 'एसरण गयेसरगा लग्गरगा य उग्गोवरणा य बोद्धव्वा । एए उ एसरगाए नामा एया होंति' (पिड ७३ ) । २ देखो उग्गमः उग्गम उग्गोवरण मग्गा य एगठ्ठियारि एयारिण' (पिंड ८५) उग्गोविय वि [ उद्गोपित ] विमोहित, भ्रान्तः 'उग्गोवियमिति बप्पा मन्नति (भग (64) 10 अप्पार्ण For Personal & Private Use Only उग्गाल - उग्घाइय उग्ध देखो उंब । उधर (षड्) । पट्टि श्री [] स शिरोभूषण दे उरघट्टी । १, ९० ) । उग्धड सक [ उद् + घाटय् ] खोलना (प्रामा) 1 + उग्घड प्रक [ उद्घ] तुलना । उघडइ (सिरि ५०४ ) । उग्धर्हति ( धर्मं वि७६)। उपडिअनि [उद्घाटित] खुला हुआ (धर्म वि ७७) । · उघडिअ वि उद्घाटित] खुला हुआ । २ जिन्न नष्ट किया हुआ (११,१२० उधर वि [उद्गृह] गृहस्थानी जिसने घरवार छोड़ कर संन्यास लिया हो वह, साधु 'चंदोग्य कालपक्खे परिहाई पए पए पमायपरो । तह उग्घरविग्धनिरं गणो विनय इच्छियं लह' ( गाया १, १० टी) उग्घवै देखो अग्धव । उग्धवइ (हे ४, १६९ टिः राज ) । उम्पसियन [अवधर्षित ] प ( राय ६७) । उग्धाअ पुं [दे] १ समूह, संघात ( दे १, १२६ स ७७६ ४३६० गउड से ५, ३४) । २ स्थपुट, विषमोन्नत प्रदेश (दे १,१२६) । उघा [उद्घात] १ प्रारम्भ, प्रारम्भः 'उम्दामी धारंभी' (पास) २ प्रतियात ठोकर लगना । ३ लघुकरण, भाग-पात (ठा ३) । ४ उपोद्घात, भूमिका ( विसे १३४८ ) । ५ हास (ठा ५,२) । ६ न. प्रायश्चित - विशेष । ७. निशीथ सूत्र का एक अंश, जिसमें उक्त प्रायश्चित्त का वर्णन है; 'उग्वायमग्वायं धारोव तिविमो निसीहं तु (मान ३) उग्घाअ सक [ उद् + घातय् ] विनाश करना । उरघाएइ (उत्त २६, ६) धामवि [उद्यातिम] १ लघु, छोटा । २ न. लघु प्रायश्चित्त (ठा ३) । उघाइयवि [उद्धातित ] १ विनाशित (ठा १०) २. प्रायश्वित्त (ठा) । 1 उघाइयवि [ उद्घातित ] लघु प्रायश्चित्त वाला (वव १) । उचाइयन [उद्घातिक] लघु प्रायश्चित Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्घाड-उच्चय पाइअसहमहण्णवो १४५ उग्घाड सक [ उद् + घाटय् ] १ खोलना। उग्घुस सक [मृज् ] साफ करना, मार्जन स्त्री [विचिका] ऊँचा-नीचा करना, जैसे२ प्रकट करना । ३ बाहर करना । उग्घाडइ करना । उग्घुसइ (हे ४, १०५)। तैसे रखनाः (हे ४, ३३)। उग्घाडए (महा)। संकृ उग्घुस सक [उद् + घुष] देखो उग्घोस। 'कह तंपि तुइ ण णानं जह सा उग्घाडिऊण (महा)। कृ. उग्घाडिअव्व संकृ. उग्घुसिअ (नाट)। प्रासंदिप्राण बहुप्राणं। (श्रा १६)। कवकृ. उग्घाडिज्जत (से ५, उग्घुसिअ वि [मृष्ट] माजित, साफ किया | १२)। हुआ (कुमा)। दसणलेहला पडिया' उग्घाड पुं[उद्घाट] प्रकट, प्रकाशः “किंतु उग्घोस सक [ उद + घोषय ] घोषणा (गा ६६७)। कमो बहुएहि उग्घाडो निययकम्माणं' (सिरि करना, ढिढोरा पिटवाना, जाहिर करना। |वाय पुं [वाद] प्रशंसा, श्लाघा (उप ७२८ ५२८)।. उग्घोसेह (विपा १, १) । वकृ. उग्घोसेमाण | टी) । देखो उच्चा।। उग्घाड देखो उग्घाड = उद् + घाट्य । हेकृ. (विपा १, १; पाया १, ५)। कवकृ. | उच्चइअ वि [उच्चयित] एकत्रीकृत, इकट्ठा 'तं जिणहरस्स दारं केरणवि नो सक्कियं उग्घोसिज्जमाग (विपा १, २ ।। __ किया हुआ (काल)। उघाडेउँ' (सिरि ५२८) । उग्घोस पुं [उद्घोष] नीचे देखो (स्वप्न | उच्चंडिय वि [दे] ऊँचा चढ़ाया हुआ (हम्मीर उग्घाड वि [उद्घाट] १ खुला हुआ, २१)IV २८)।V अनाच्छादित (पउम ३६, १०७)। २ थोड़ा उग्घोसणा स्त्री उद्घोषणा] डुग्गी पिटवाना, उच्चंतय पु [उच्चन्तग] दन्त-रोग, दाँत में बन्द किया हुआः 'उग्घाडकवाडउग्घाडणाए' ढिंढोरा पिटवा कर जाहिर करना (विपा होनेवाला रोग-विशेष (राज)। (प्राव ४)। ३ व्यक्त, प्रकट । ४ परिपूर्ण, उच्चपिअ विदे] १ दीर्घ, लम्बा, आयत (दे अन्यूनः एत्थंतरम्मि उग्घाडपोरिसोसूयगो उग्घोसिय वि [मार्जित] साफ किया हुआ, | १,११६)। २ आक्रान्त, दबाया हुआ, रोंदा बली पत्तो' (सुपा ६७) । 'उग्धोसियसुनिम्मलं व आयसमंडलतलं' (पएह । हुमाः 'सीसं उच्चपिन' (तंदु)। २, ५)। उग्घाडण न [उद्घाटन] १ खोलना (पाव उच्चडिअ वि [दे] उत्क्षिप्त, ऊँचा फेंका हुआ उग्घोसिय वि [उद्घोषित] जाहिर किया | ४)। २ बाहर करना, बाहर निकालना (उप पृ ३६७) हुआ, घोषित (भवि)। उच्चत्त वि [उत्त्यक्त] पतित, त्यक्त (पास) IV उग्घाडणा स्त्री [उद्घाटना] ऊपर देखो उघूण वि [दे] पूर्ण, भरपूर ( षड्)। उच्चत्तवरत्त न [दे] १ दोनों तरफ का स्थूल (प्राव ४) । उचिय वि [उचित योग्य, लायक, अनुरूप भाग। २ अनियमित भ्रमण, अव्यवस्थित उग्घाडिअ वि [उद्घाटित] १ खुला हुआ। (कुमाः महा)। ण्णु वि [s] विवेकी विवर्तन (दे १, १३६)। ३ दोनों तरफ से (उप ७६८ टी)। २ प्रकटित, प्रकाशित (से २, ३७) ऊँचा-नीचा करना (पान) उग्घायण न [उद्घातन] १ नाश, विनाश उच्च न [दे] नाभि-तल (दे १,८६) । | उच्चत्थ वि [दे] दृढ़, मजबूत (दे १, ६७)। (प्राचा)। २ पूज्य-स्थान, उत्तम जगह । ३ उच्च । वि [उच्च, क, उच्चस्] १ ऊँचा उच्चदिअ वि [दे] मुषित, चुराया हुआ | उच्चअ (कुमा)। २ उत्तम, उत्कृष्ट (ह २, । (षड) IV सरोवर में जाने का मार्ग (प्राचा २, ३) १५४ सूत्र १, १०)। च्छंद वि उग्घार पुं [उद्घार] सिञ्चन, छिड़काव उच्चप्प वि [दे] प्रारूढ़, ऊपर बैठा हुआ (दे [च्छन्दस् ] स्वैर, स्वेच्छाचारी (पराह 'विरिणतरुहिरुग्धारं निवडियो धरणिवट्टे १, १००)। १,२)। णागरी देखो 'नागरी (कप्प)। (स ५६८)। त्त न [व] १ ऊँचाई (सम १२ जी २८)। उञ्चय सक [उत् + त्यज ] त्याग देना. उग्घिट। वि [उघृष्ट] संघट, 'नमिरसुर- २ उत्तमता (ठा ४,१)। त्तभयग, त्तभ छोड़ देना । कृ. उञ्चयणिज (पउम ६६, उग्घु? किरोडुग्घिट्ठपायारवि' (लहुअ ४; यय पुं [त्वभृतक] जिससे समय और से ६, ८०)। वेतन का इकरार कर यथासमय नियत काम उच्चय पुं [उच्चय] १ समूह, राशिः 'रयरणोउग्घुट्ठ वि [उद्देष्ट] घोषित, उद्घोषित (सुर लिया जाय वह नौकर (राजा ठा ४, १)। च्चयं विसालं' (सुपा ३४ कप्प)। २ ऊँचा १०, १४सण); 'अमरवहुग्घुट्ठजयजयारवं' 'त्तरिया स्त्री [तरिका] लिपि-विशेष ढेर करना (भग ८, ६)। ३ नीवी, स्त्री के (महा)। (सम ३५) । थवणय न [स्थापनक] कटी-वस्त्र की नाड़ी (पास)। बंध पुं उग्घुट वि [दे] उत्प्रोञ्छित, लुप्त , दूरीकृत, लम्बगोलाकार वस्तु-विशेष, 'धएणस्स णं [°बन्ध] बन्ध-विशेष, ऊपर ऊपर रख कर विनाशित (दे १, ६६); 'उरघालिरवेणीमुह- अपगारस्स गीवाए अयमेयारूवे तवरूवलावन्ने चीजों को बाँधना (भग ८, ६) थणलग्गुग्घुट्ठमहिरा जगप्रसुमा' ( से ११, होत्था, से जहानामए करगगोवा इवा कुंडिया- | उच्चय पुं[अवचय] इकट्ठा करना, एकत्री१०२) गीवा इवा उच्चत्थवणए इवा' (अनु)। वचिआ, करण (दे २, ५६)। १९ For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ उच्चर सक [ उत् + चर ] १ पार जाना, उत्तीर्ण होना । २ कहना, बोलना । ३ प्रक. समर्थ होना, पहुँच सकना । ४ बाहर। निकलना । उचरए (सूक्त ४६ ); 'मूलदेवेण य निरूवियाई पासाई जाव दिट्ठ निसिया सिहत्थे हि वेदियमतारणयं मग्गसेहि । चितियं चः लाहमेएसि उच्चरामि कायव्वं च मए चइरनिज्जायण निराउहो संपयं, ता न परियासत चितिय भरिए (महा) | वकृ. 'भरिउचरंत परिश्रपि संभरपि सुरणो वराईए । परवाना (गा ३७७) । उच्चरण न [उच्श्चरण] कथन, उच्चारण; 'सिद्धसमक्खं सोहि वय उच्चरणाइ काऊरण' (सुपा ३१७) TV उच्चारयवि [उच्चरित] १ उत्तीर्ण, पार-प्राप्तः 'तीए हत्थिसंभमुच्चरियाए उज्झिऊरण भयं, जीवियदायगोत्ति मुरिणऊरण तुमं साहिलासं पलोइस्रो' (महा) । २ उच्चरित कथित उक्त (विसे १०८३) । उछन [उबलन] उन्मन उत्पीड़न (MA) I उयियि [उचालित ] चलित, गत (भवि ) [ दे] १ प्यासि (प) IV २ 3 विदारित उच्च सक [ उत् + चल्_ ] १ जाना । २ समीप में जाना। पुष्का ई गेरहंतो, अंतो उच्च [उचलित] १ गत गया हुआ २ समीप में आया हुआ 'जिरगभवदुवार ट्टिय उच्चल्लिय फुल्लमालिनोहस्स । विहिरणा पविट्टो है' चलना, (सुर ३, ७४) । - [उच्च [ उ] १ ऊँचा, 'तो तेरा हरिणा उच्चा हरिकरण लोय-पच्चक्खं । उबगीग्रो सो रणे (महा) । २ उत्तम, श्रेष्ठ (डा २, १) गोश, "गोवन [गोत्र] १ उत्तम गोत्र, श्र ेष्ठ - वंश । २ कर्म विशेष, जिसके प्रभाव से जीव उत्तम माने जाते कुल में उत्पन्न होता है (ठा २, ४, श्राचा) । वय पाइअसदमद्दण्णवो उत्तर- उचिजिर न] ["व्रत] [१] महाव्रत (उत १२ वि. उचारिअ व [उच्चारित] १ कथित उत महाव्रतधारी (उस १५ ) V २ पाखाना गया हुआ (राज) IV उच्चाल सक [ उत् + चालय् ] १ ऊँचा फेंकना । २ दूर करना। संकृ. 'उच्चालइय निहारिणसु श्रवा श्रासरणाओ घासणाओ खलईसु' (भाषा)। उच्चालयवि [उच्चालयितृ] दूर करनेवाला व्याननेवाला 'जाऐना उबालइयं से तं जाणेजा दुरालइयं (प्राचा) उच्च [] ९ श्रान्त, थका हुआ (प्रोघ १८) २. आलिंगन परिरम्भ (सुदा 288) उच्चाइय वि [दे. उत्त्याजित] उत्थापित, उठाया हुधा 'उच्चाइया नंगरा ( स २०६ ) । उच्चाग पुं [उच्चाग] हिमाचल पर्वत । यवि [ज] हिमाचल में उत्पन्न; 'उच्चागयठाणलट्ठसंठिये' (कप्प ) । [२] विपुल, विशाल (दे १. उद्या 20) 11 उच्चड सक [दे] १ रोकना, निवारना । २ क. अफसोस करना, दिलगीर होना ( हे २, १९३ टि) । [ [ उच्चाटन] १ एक स्थान से दूसरे स्थान में उठा ले प्राना, स्व-स्थान से भ्र करना । २ मन्त्र - विशेष, जिसके प्रभाव से श्रपने स्थान से उड़ायी जा सकती है; वस्तु 'उच्चारणयं भणमोहलाइ सव्र्व्वपि मह करगयं व' (सुपा ५६९ ) 1 उच्चाडणी स्त्री [उच्चाटनी ] विद्या-विशेष जिसके द्वारा वस्तु अपने स्थान से उड़ायी जा सकती है (सुर १३, ८१) उच्चार [ दे ] १ रोकनेवाला, निवारण करनेवाला । २ अफसोस करनेवाला, दिलगीरः "कि उल्लाती, उम्र रतीए कि भीमा नु । चाहिए वेवेति तीए भनि दिहरिमो " (हे २. १९३ ) 1 उच्चार सक [ उत् + चारय् ] १ बोलना, उच्चारण करना । २ मलोत्सर्ग करना, पाखाना जाना । उच्चारेइ (उवा) । वकृ. उच्चारयंत ( स १०७) उच्चारेमाग (कम्प गाया है १) कु. उारेयथ्या | उच्चार [ उच्चार] [१] उचारण २ विष्ठा, मलोत्सर्ग (सम १०; उवाः सुपा ६११) । उच्चार वि [दे] विमल, स्वच्छ (दे १, ९७) उच्चारण न [उच्चारण] रूथन, 'इसि हरस चारणढाए (घोष) 1 उच्चारिअ वि [दे] गृहीत, आत्त (दे १, ११४) । For Personal & Private Use Only उच्चालिय वि [उच्चालित ] उठाया हुआा, ऊँचा किया हुम्रा, उत्थापितः 'उच्चालियम्मि पाए इरियासमिस्स संकमट्टाएँ (श्रोघ ७४८ दनि ४५) । उच्चावसक [उच्चय् ] ऊँचा करना, उठाना। संकु. उच्चावइत्ताः 'दोवि पाए उच्चावइत्ता सम्म समेत समभिलोएवं (पण १७ ) 1उच्चावयवि [ उच्चावच ] १ ऊँचा और नीचा (गाया, १, १ पण ३४) । २ उत्तम और अधम (भग १५ ) । ३ अनुकूल और प्रतिकूल (भाग १, ९) । ४ श्रसमञ्जस, अव्यवस्थित (गाया १, १६) । ५ विविध नानाविष 'उच्चावयाहि सेाहि तस्सी भि भामरे (उत ) ६ उत्तर विशेष उत्तम; 'तए णं तस्स नारदस्स समरगोवासगस्स उचावहिं सीलव्त्रयगुणवेरमणपचक्खाणपोसहवामेहिप भाषेमाणस्स (उ श्रीप) । उच्चापिय वि[उचित] ऊंचा किया हुआ ( वा १३२) । उच्च धक [उत् + स्था] खड़ा होना उ (काल) IV उच्चिडिम वि [दे] मर्यादा- रहित, निर्लज्ज 'उमा' (पास) उक्षिण तक [उत्+चि] फूलको तोड़ कर एकत्रित करना, इकट्ठा करना । उच्चिइ (हे ४,२४१) । वकृ. उच्चिणंत (भवि) उच्चण न [उच्श्चयन ] श्रवचयन, एकत्रीकरण (सुपा ४६९) चिणिय [ख] इकट्ठा किया मा श्रवचित (पा) । उच्चिणिर वि [ उच्चेट ] फूल वगैरह को चुननेवाला (कुमा) Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उश्चिय-उच्छाय पाइअसद्दमहण्णवो १४७ उच्चिय देखो उचिय; 'तस्स सुमोच्चियपन्न- ८५)। २ वि. न्यून, हीना 'उच्छत्तं वा न्यून- उच्छप्पणा स्त्री [उत्सर्पणा] ऊपर देखो, त्तणेण संतोसमणुपत्ता' (उप १६६ टी)V त्वम्' (पएह २, १)IV "जिएपवयणम्मि उच्छप्पणाउ कारेइ विविउच्चिवलय न [दे] कलुषित जल, मैला पानी उच्छअ ' [उत्सव] क्षण, उत्सव (हे २, . हायो' (सुपा २०६; ६४६)। २२)। उच्छल अक [उत् + शल्] १ उछलना, (पान) उच्छअ वि [पृच्छक प्रश्न-कर्ता (गा ५०) ऊँचा जाना । २ कूदना । ३ पसरना, फैलना। उच्चुंच वि [दे] दृप्त, गर्विष्ठ, अभिमानी (दे उच्छइअ वि [उच्छदित] आच्छादित, | वकृ. उच्छलत (कप्प; गउड)।V १,६९) | 'पालंबउच्छइयवच्छयलो' (काल)। उच्छलण न [उच्छलन] उछलना (दे १, उच्चुग वि [दे] अनवस्थित (षड्)V उच्छंखल वि [उच्छल १शृङ्खला-रहित, ११८; ६, ११५) V उच्चुड प्रक [ उत् + चुड्] अपसरण | अवरोध-वजित, बन्धन-शून्य । २ उद्धत, निरं- उच्छलिअ वि [उच्छलित] उछला हुषा, करना, हटना । वकृ. उच्चुडंत (गउड ७३३)। कुश (गउड)। ऊँचा गया हुआ (गा ११७६२४; गउड)। उच्चुप्प सक[चट् ] चढ़ना, प्रारूढ़ होना, उच्छंखलिय वि [उच्छङ्कलित] प्रवरोध- | २ प्रसृत, फैला हुआ. 'ता ताण वरगंधो। ऊपर बैठना । उच्चुणइ (हे ४, २५६) IV रहित किया हुआ, खुला किया हुआः 'उच्छं- उच्छालयो छलिउँ पिव गधं गोसासचंदणवउच्चुप्पिअ वि [दे. चटित] आरूढ़, ऊपर खलियवणाणं सोहागं किंपि पवणाणं' एस्स' (सुपा ३८५) चढ़ा हुआ (दे १, १००)। (गउड)। उन्छलिर वि [उच्चलित] उछलनेवाला उच्चुरण [दे] उच्छिष्ट, जूठा ( षड् )। उच्छंग j [उत्सङ्ग] मध्य भाग; 'मउडुच्छंग- (धर्मवि १४, कुप्र ३७३)। उच्चुलउलिअ न [दे] कुतूहल से शीघ्र शीघ्र परिग्गहमियंकजोराहावभासियो पसुवइणो' उच्छल्ल देखो उच्छल। उच्छलइ (पि २२७); जाना (दे १, १२१)। (गउड से १०,२)। २ क्रोड, गोद, कोरा 'उच्छल्लंति समुद्दा' (हे ४, ३२६)।' (पाप); 'उच्छंगे णिविसेत्ता' (प्रावम)। ३ | उच्चुल्ल वि [दे] १ उद्विग्न, खिन्न । २ अधि उच्छल्ल वि[उच्छल] उछलनेवाला (भवि)। पृष्ट देश (ोप)। रूड, पारुढ । ३ भीत, डरा हुआ (दे १, | उच्छल्लणा स्त्री [दे] अपवर्तना, अपप्रेरणा: उच्छंगिअ वि [उत्सङ्गित] कोरा, कोली या १२७) । 'कप्पडप्पहारनियप्रारक्खियखरफरुसवयगतउच्चूड पुं [उच्चूड] निशान का नीचे लट गोद में लिया हुआ (उप ६४८ टी)। जणगलच्छल्लुच्छल्लणाहि विमणा चारगवसहि कता हुआ शृंगारित वस्त्रांश (उब ४४६)। उच्छंगिअ वि [दे] आगे किया हुआ, आगे पवेसिया' (पण्ह १, ३)। रखा हुअा (दे १, १०७)। उच्चूर वि [दे] नानाविध, बहुविध (राज)। उच्छल्लिअ देखो उच्छलिअ (भवि) । - उच्छंघ देखो उत्थंघ (हे ४, ३६ टो)। उच्चूल पुं[अवचूल] १ निशान का नीचे उन्छलिअ वि [दे] जिसकी छाल काटी गई उच्छंट पुं[दे] झड़प से की हुई चोरी (दे १, | लटकता हुआ शृङ्गारित वस्त्रांश (उप ४४६ हो वह, 'तरुणो उच्छल्लिया य दंतीहि' (दे १०१; पान)। टी)। २ औंधा-सिर-पैर ऊपर और सिर १,१११)। नीचे कर--खड़ा किया हुआ (विपा १, ६) उच्छटपुं[दे] चोर, डाकू (दे १,१०१) उच्छव देखो उच्छअ (कुमा)। २ उत्सेक उच्चे देखो उच्चिण। उच्चेइ (हे ४, २४१)। उच्छडिअ वि [दे] चुराई हुई चीज, चोरी | (भवि)। हेकृ. उच्चेउं (गा १५६)। का माल (दे १, ११२)। उच्छविअ न [दे] शय्या, बिछौना (दे १, उच्चय वि[उच्चेतस् ] चिन्तातुर मनवाला उच्छण न [प्रच्छन] प्रश्न, पूछना (गा १०३)। उच्छह सक [उत् + सह ] उद्यम करना। (पान)। उच्छण्ण देखो उच्छन्न (हे १, ११४)। वक. उच्छहं (दस ६, ३, ६)। उच्चेल्लर न [दे] १ ऊसर भूमि। २ जघन उच्छत न [अपच्छत्र] १ अपने दोष को उच्छह अक [उत् + सह. ] उत्साहित स्थानीय केश (दे १, १३६)। ढकने का व्यर्थ प्रयत्न, गुजराती में 'ढांकपि- होना । वकृ. उच्छहंत (भवि)। उच्चेव वि [दे] प्रकट, व्यक्त (दे १,६७)। छोडो'। २ मृषावाद, भूठ वचन (पराह | उच्छ हय वि [उत्सहित] उत्साह-युक्त उच्चोड पुं [दे] शोषण, 'चंदणुचोडकारी चंडो १,२)। (सरण)। देहस्स दाहाँ (कप्पू: प्राप)। उच्छन्न वि [उत्सन्न] छिन्न, खण्डित, नष्ट उच्छाइअ वि [अवच्छादित आच्छादित, उच्चोदय पुं [उच्चोदय चक्रवर्ती का एक देव(कुमाः सुपा ३८४) ढका हुआ (पउम ६१, ४२; सुर ३, ७१)। कृत प्रासाद (उत्त १३, १३)। उच्छप्प सक[ उत् + सर्पय ] उन्नत करना, उच्छाडिअ (अप) वि [अवच्छादित] ढका उच्चोल पुं[दे] १ खेद, उद्वेग। २ नीवी, स्त्री प्रभावित करना । उच्छप्पइ (सुपा ३५२)। हुप्रा (भवि)।.. के कटी-वन की नाड़ी (दे १, १३१) । वकृ. उच्छप्पंत (सुपा २९६)TV उच्छाण देखो उच्छ = उक्षन् (प्रामा)।.. उच्छ ' [उक्षन] बैल, वृषभ (हे २, १७)। उच्छप्पण न [उत्मग] उन्नति, अभ्युदय उन्धान पु[उच्छ्राय] उल्लेध, ऊगई (ठा उच्छ पु [दे] १ प्रांत का प्रावरण (दे १, (सुपा २७१) ।। For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ पाइअसहमहण्णवो उच्छाय-उच्छेव उच्छाय सक [अव + छादय् ] आच्छादन उच्छि? वि [उच्छिष्ट] जूठा, उच्छिट (सुपा 'रइणावि अणुच्छुराणा, करना, ढकना। संकृ. उच्छाइऊण (चेइय ११७७ ३७५; प्रासू १५८) वीसत्थं मारुएण वि अगालिद्धा । ४८५)10 उच्छिट्ट वि [उच्छिष्ट] अशिष्ट, असभ्य (दस | तिअसेहिवि परिहरिमा, उच्छायण वि [अवच्छादन] आच्छादक, एक, ३, १ टी)। पवंगमेहि मलिया सुवेलुच्छंगा' ढकनेवाला (स ३२३)। उच्छिण्ण वि [उच्छिन्न उच्छिन्न, उन्मूलित (से १०, २)। उच्छायण वि [उच्छादन] नाशक (स| (ठा ५)। उच्छुद्ध वि[दे] १ विक्षिप्त । २ पतित ३२३; ५६३)। उच्छित्त वि [दे] १ उत्क्षिप्त, फेंका हुआ। (मोघ २२० भा) । उच्छायणया। स्त्री [उच्छादना] १ उच्छेद, | २ विक्षिप्त, पागल (दे १, १२४) उच्छुभ सक [अप + क्षिप् ] आक्रोश उच्छायणा विनाश (भग १५) । २ व्यव- | उच्छित्त वि [उत्क्षिप्त] फेंका हया (ले ५, करना, गाली देना । उच्छुभह (भग १५)। च्छेद, व्यावृत्ति (राज)।V ६१; पात्र) उच्छभण न [उत्क्षेपण] ऊँचा फेंकना (पव उच्छार देखो उत्थार=पा + क्रम् (हे ४, उच्छित्त देखो उद्विग (से २, १; गउड)M किया . M७३ टी)। १६० टी) उच्छित्त वि [उसिक्त] सींचा हुआ, सिक्त उच्छर वि [दे] अविनश्वर. स्थायी (दे १, उच्छाल सक [उत् + शालय ] उछालना, ।। (दे १, १२३)। ऊँचा फेंकना। वकृ. उच्छालिंत (कुम्मा ४)। उच्छिन्न देखो उच्छिण्ण (कप्प)। उच्छुरण न [दे] १ ईख का खेत । २ ईख, उच्छालण न [उच्छालन] उछालना, उत्क्षे- उच्छिप्पंत देखो उक्खिव ।। ऊख (दे १, ११७) ।। पण (कुम्मा ५)। उच्छिय वि [उच्छित] उन्नत, ऊँचा (राज)। उच्छुल्ल पुं[दे] १ अनुवाद । २ खेद, उद्वेग उच्छालिअ बि [उच्छालित] फेंका हुआ, उच्छिरण वि [दे] उच्छिट, जूठा (षड्) (१.१ उत्क्षिप्त (सुपा ६७)IV उच्छिल्ल न दे] १ छिद्र, विवर (द १, उच्छूढ़ वि [६] प्रारूढ़, ऊपर बैठा हुआ उच्छास देखो ऊसास (मै ६८) ६५)। २ वि. अवजीर्ण (षड) (षड्) उच्छाह सक [उत् + साह्य] उत्साह उच्छु देखो इक्खु (पाना गा १४१; पि १७७; उच्छूट वि [उरिक्षप्त] १ त्यक्त, उज्झित दिलाना, उत्तेजित करना। उच्छाहर (सुपा ओघ ७७१; दे १,११७)। जंत न [यंत्र (गाया १, १ उव)। २ मुषित, 'चुराया ३५२) ईख पेरने का सांचा (दे ६, ५१)। हुया (राज)। ३ निष्कासित, बाहर निकाला उच्छाह [उत्साह] १ उत्साह (ठा २,१)। उच्छु [दे] पवन, वायु (दे १, ८५)। हुआ (औप)। २ दृढ़ उद्यम, स्थिर प्रयत्न (सुज २०)। ३ उच्छुअ वि [उत्सुक] उत्कण्ठित (हे २, उच्छूढ वि [उरक्षुब्ध] ऊपर देखोः 'उच्छूढउत्कंठा, उत्सुकता (चंद २०)। ४ पराक्रम, २२)। सरीरघरा अन्नो जीवो सरीरमन्नं ति' (उव बल । ५ सामर्थ्य, शक्ति (आचू १; हे १, उच्छुअन दे] डरते-डरते की हुई चोरी (दे| पि ६६) ११४; २, ४८; पउम २०, ११८) १,६५) उच्छूर देखो उल्लूर = तुड़ (हे ४, ११६ टि)। उच्छाह पुं [दे] सूत का डोरा (दे १,६२) उच्छुअरण न [दे] ईख का खेत (दे १, उच्छूल देखो उच्चूल (उव)। उच्छाहण न [उत्साहन] उत्तेजन, प्रोत्साहन ११७)। उच्छेअ पुं[उच्छेद] १ नाश, उन्मूलन (उप ५६७ टी)। उच्छुआर वि [दे] संछन्न, ढका हुअा (दे १, 'एगंतुच्छेअम्मिवि सुहदुक्खविअप्परणमजुत्त" उच्छाहिय वि [उत्साहित] प्रोत्साहित, (सम्म १८)। २ व्यवच्छेद, व्यावृत्तिः 'उच्छेप्रो उत्तेजित (पिंड)।। उच्छंडिअ वि [दे] १ बाण वगैरह से सुत्तत्थाणं ववच्छेउत्ति वुत्तं भवति' (नीचू १)।' उच्छिद सक [उत् + छिद्] उन्मूलन करना, पाहत। २ अपहृत, छीना हुआ (दे १, उच्छेयण न [उच्छेदन विनाश, उन्मूलन; उखाड़ना । संकृ. उच्छिदिअ (सूक्तः ४४) । १३५)। उच्छुग देखो उच्छुअ (सुर ८,६१)। भूय 'चितेइ एस समयो एयस्सुच्छेयरणे मझ उच्छिदण न [दे] उधार लेना, करजा लेना, वि [ीभूत] जो उत्कण्ठित हुआ हो (सुर | (सुपा ३३५)। सूद पर लेना (पिंड ३१७) । २, २१४)। उच्छेर अक[उत् + श्रि] १ ऊँचा होना, छपग वि [अवच्छिम्पक चोरों को| उच्छुच्छु वि [दे] दृप्त, अभिमानी (दे १, उन्नत होना। २ अधिक होना, अतिरिक्त खान-पान वगैरह की सहायता देनेवाला (पएह | ६९) होना। वकृ. उच्छेरंत (काप्र १९४) । उच्छुण्ण वि [उत्क्षुण्ण] १ खण्डित, तोड़ा उच्छेव पुं [उत्क्षेप] १ ऊँचा करना, उठाना। उच्छिपण न [उत्क्षेपण] १ ऊपर फेंकना। हमा, 'उच्छरण महिमं च निलिमं (पाप)। २ फकना (वय २, ४) Tv २ बाहर निकालना (पएह १,१)TV २ आक्रान्त, । उच्छेव पुं[उत्क्षेप] प्रक्षेप (वव ४) । For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्छेवण-उज्जाणिगा पाइअसहमहण्णवो १४९ उच्छेवण न [उत्क्षेपण] ऊपर देखो (से ६, | उजग्गिर न [उज्जागर] जागरण, निद्रा का | उज्जल वि [दे] देखो उजल्ल (हे २, २४)। अभाव (द १; ११७ वज्जा ७४)। १७४ टि)। उच्छेवण न [दे] घृत, घी (दे १, ११६)। उज्जग्गुज्ज वि [दे] स्वच्छ, निर्मल (दे १ उज्जलग वि [उज्ज्वलन चमकीला, देदीप्यउच्छेह पुं [उत्सेध] ऊँचाई (दे १, १३०)। ११३) । मानः 'जालुज्जलणगअंबरंव कत्थइ पयंतं उच्छोडिय वि [उच्छोटित] छुड़ाया हुमा, उजड वि [द] उजाड़, वसति-रहित (दे अइवेगचंचलं सिहि' (कप्प)। मुक्त किया हुआ. 'उच्छोडिय-बंधो सो रन्ना उज्जलिअ ' [उज्ज्वलित] तीसरी नरक-भूमि भरिणो य भद्द ! उवविससु' (सुर १, १०५); 'उक्किएणरयभरोरणयत का सातवाँ नरकेन्द्रक-नरक-स्थान विशेष 'पासट्ठियपुरिसेहिं तक्खरणमुच्छोडिया य से लजज्जरभूविसट्टबिलविसमा (देवेन्द्र ८)। बंधा' (सुर २, ३६)। थोउज्जडक्कविडवा इमाओ उजलिअ वि [उज्ज्वलित] १ उद्दीप्त, प्रकाउच्छोभ वि [उच्छोभ १ शोभा-रहित । ता उन्दरथलीओ' (गउड)। शित (पउम ११८, ८८ औप)। २ ऊँची २ न. पिशुनता, चुगली (राज)। उज्जणिअवि [दे] वक, टेढ़ा (दे १, १११)। ज्वालाओं से युक्त (जीव ३)। ३ न. उद्दीपन उच्छोल सक [ उत् + मूलय् ] उन्मूलन | उज्जम अक [ उद् + यम् ] उद्यम करना, (राज) करना, उखाड़ना । वकृ. उच्छोलंत (राज)। प्रयत्न करना। उज्जमइ (धम्म १४)। उजल्ल वि [दे] स्वेद-सहित, पसीनावाला, उच्छोल सक [उत् +क्षालय ] प्रक्षालन उज्जमह (उव)। वकृ. उज्जमंत, उज्जम मलिनः 'मुंडा कंडूविणठेंगा उज्जल्ला करना, धोना । बकृ. उच्छोलंत (निचू १७)। माण (पण्ह १, ३); 'रण करेइ दुक्खमोक्खं असमाहिया (सूप १, ३)। २ बलवान, प्रयो., वकृ. उच्छोलावंत (निचू १६) ।। उज्जममाणावि संजमतवेसु' (सूत्र १, १३) । बलिष्ठ (हे २, १७४)। उच्छोलण न [उत्क्षालन] प्रभूत जल से कृ. उज्जमिअव्व, उजमेयव्य (सुर १४, उजल्ल न [औज्ज्वल्य] उज्ज्वलता (गा ८३: सुपा २८७, २२४)। हेकृ. उज्जमिउं प्रक्षालन, 'उच्छोलणं च कक्कं च तं निज्ज ६२६) परियाणिया' (सूत्र १, १; औप)। (उव)। उजल्ला स्त्री [दे] बलात्कार, जबरदस्ती उच्छोलणा स्त्री [उत्क्षालना] प्रक्षालन उज्जम पुं [उद्यम] उद्योग, प्रयत्न (उवः | (दे १, ६७)। (दस ४)। जी ५० प्रासू ११५) । उज्जमण (अप) न [उद्यापन] उद्यापन, व्रतउच्छोला स्त्री [दे] प्रभूत जल, 'नहदंतकेरारो उज्जव अक [उद् + यत् ] प्रयत्न करना। वकृ. 'सु ठुवि उज्जवमाणं पंचेव करंति मे जमेइ उच्छोलधोयणो अजओ' (उव)।' समाप्ति-कार्य (भवि)। रित्तयं समणं' (उव)। उच्छोलित्तु वि [उत्क्षालयित] डूबोनेवाला, उजमि वि [उद्यमिन उद्योगी (कुप्र ४१६) उजवण देखो उज्जावण (भवि)। निमग्न करनेवाला ( सूत्र २, २, १८) - उज्जमिय (अप) वि [उद्यापित] समापित उजु देखो उज्जु (प्राचा; कप्प)। (व्रत) (भवि)। उजह सक [उद् + हा] प्रेरणा करना। उज्जम्ह अक [उत् + जम्भ ] जोर से संकृ. उज्जहित्ता (उत्त २७, ७)।। उजुअ देखो उज्जुअ (नाट)। उज्ज देखो ओय ओजस् (कप्प)। जभाई लेना। उज्जम्हइ (प्राकृ६४)। उज्जाअर पुं[उज्जागर] जागरण, निद्रा उज्ज न [ऊर्ज] १ तेज, प्रताप। २ बल उज्जय हि [उद्यत] उद्योगी, उद्युक्त, प्रयत्न- उज्जागर ) का प्रभाव (गा ४८२; वज्जा ७६)। शील (पामः काप्र १६६ गा ४४८) उज्जाडिअ वि दि] उजाड़ किया हया उजअणी । श्री [उज्जयनी, यिनि] "मरण न [ मरण] मरण-विशेष (पाचा) (भवि)।। उजइणी नगरी-विशेष, मालव देश की | उजयंत कुं[उज्जयन्त गिरनार पर्वत, 'इय | उजाण न [उद्यान] उद्यान, बगीचा, उपवन प्राचीन राजधानी, आजकल भी यह 'उज्जैन' उज्जयंतकप्पं, अवियप्पं जो करेइ जिणभत्तो (अणुः कुमा)। जत्ता स्त्री [ यात्रा] गोष्ठी, नाम से प्रसिद्ध है (चारु ३९; पि ३८६)। (ती; विवे १८); 'ता उज्जयंतसत्तंजएसु गोठ (गाया १, १)। पालअ, वाल वि उज्जंगल न [द] बलात्कार, जबरदस्ती। तित्थेसु दोसुवि जिरिणदे' (मुरिण १०९७५)। [पालक, पाल] बगीचा का रक्षक, माली २ वि. दीर्घ, लम्बा (दे १, १३५) । उज्जर वि [दे] १ मध्य-गत, भीतर का । (सुपा २०८, ३०५)। उज्जगरय पुं [उज्जागरक] १ जागरण, २ पुं. निर्जरण, क्षय (तंदु ४१)।' उज्जाणिअ वि [औद्यानिक] उद्यान-संबंधी, निद्रा का प्रभाव उज्जल अक [उद् + ज्वलू ] १ जलना। बगीचा का (भग १४, १)। 'जत्थ न उज्जगरप्रो, २ प्रकाशित होना, चमकना । उजलंति उज्जाणिअ वि [दे] निम्नीकृत, नीचा किया जत्थ न ईसा विसूरणं माणं। (विक्र ११४)। वकृ. उज्जलंत (शंदि)। हुमा (दे १, ११३)। सम्भावचाडुयं जत्थ, उज्जल वि [उज्ज्वल] १ निर्मल, स्वच्छ उज्जाणिआ। स्त्री [औद्यानिका] गोष्ठी, नत्थि नेहो तहि नत्थि' (भग ७, ८ कुमा)। २ दीप्त, चमकीला | उज्जाणिगा। गोठ: 'उज्जाणं जत्थ लोगो (वज्जा ६८)। । (कप्पा कुमा)। उज्जारिणमाए वच्चई (निचू ८ स १५१) । For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० पाइअसद्दमहण्णवो उज्जाणी-उज्मर उज्जाणी स्त्री [औद्यानी] गोष्ठी, गोठ को जानना। २ वि. उक्त मनो-ज्ञानवाला ७२८ टी)। ३ पुं. सूर्य, रवि । ४ एक प्रसिद्ध (सुपा ४८५) V (पएह २, १; औप)। वालिया स्त्री जैनाचार्य (गु ७; सार्ध ६२)1 उज्जायण न [उद्यायन] गोत्र-विशेष (सुज्ज [°वालिका] नदी-विशेष, जिसके किनारे उज्जोअय वि [उद्योतक] १ प्रकाशक । १०, १ टी)। भगवान महावीर को केवल-ज्ञान उत्पन्न हुआ २ प्रभावक, उन्नति करनेवाला (उर ८, १२) ।। उज्जाल सक [उत् + ज्वालय् ] उज्ज्वल था (कप्पः स ४३२) । सुत्त पुं[सूत्र] उज्जोइंत देखो उज्जोअ = उद् + द्योतय ।। करना, विशेष निर्मल करना। संकृ. उज्जा वर्तमान वस्तु को ही माननेवाला नय-विशेष उज्जोइय वि [उयोतित प्रकाशित (सम लियं (श्रावक ३७६)। (ठा ७)। सुय पुं[श्रुत] देखो पूर्वोक्त १५३; सुपा २०५)। उज्जाल सक [उद् + ज्वालय ] १ उजाला अर्थः ‘पच्चुप्पन्नग्गाही उज्जुसुनो गयविही उज्जोएमाण देखो उज्जोअ = उद् + द्योतय।। करना। २ जलाना। संकृ. उज्जालिय, मुणेअब्बो' (अण)। हत्थ पुं [हस्त] उज्जोमिआ स्त्री [दे] रश्मि, रस्सी (दे १, उज्जालित्ता (दस ५, प्राचा)। दाहिना हाथ (ोघ ५११)। ११५) उज्जालणन [उज्ज्वालन] जलाना (दस ५) उज्जु पुऋजु संयम (सूम १, १३, ७) उज्जोव देखो उज्जोअ = उद् + द्योतय । वकृ. उज्जालग न [उज्ज्वालन] उज्ज्वल करना उम्जुअवि ऋजुक] ऊपर दखा (माचार | उज्जाव उज्जुअ वि [ऋजुक] ऊपर देखो (प्राचाः | उज्जोवंत, उज्जोवयंत, उज्जोवेंत, उज्जो(सिरि ६८०) । कुमा ; गा १५६ ३५२)। वेमाण (पउम २१, १५; स २०७ ६३१; उज्जालय वि [उज्ज्वालक आग सुलगाने- उज्जुआ इअ वि [ऋजुकारित सरल किया । ठा) IV वाला (सूअ १, ७, ५) । हुमा (से १३, २०)। उज्जोवण न [उद्योतन ] प्रकाशन (स उज्जालिअ वि [उज्ज्वालित] जलाया हुआ, उज्जुग देखो उज्जुअ (पि ५७) । ६३१) ।। सुलगाया हुआ (सुर ६, ११७) ।। उज्जुत्त वि [उद्युक्त] उद्यमी, प्रयत्नशील उज्जोविय देखो उज्जोइय (कप्प; णाया १, उज्जावण न [उद्यापन] व्रत का समाप्ति(सुर ४, १५: पात्र) १; परह १, ४ पउम , १६०; स ३६) ।। कार्य (प्रारू)। उज्जुरिअ वि [दे] १ क्षीण, नट। २ शुष्क, उज्झ सक [उज्झ ] त्याग करना, छोड़ उज्जाविय विदे] विकासित (सण)। सूखा (दे १, ११२) देना । उज्झइ (महा) । कवकृ. उभिजमाण उज्जित देखो उज्जयंत (गाया १, १६); उज्जूढ वि [उद्व्यूढ] धारण किया हुआ (उप २११ टी)। संकृ. उझिअ, उज्झिउं, (संबोध ५३)। उज्झिऊण (अभि ६० पि ५७६; राज)। 'उज्जिंतसेलसिहरे, दिक्खा उज्जेणग पुं [उज्जयनक] श्रावक-विशेष, हेकृ. उज्झित्तए (गाया १,८) । कृ.उभिनाणं निसीहिया जस्स । एक उपासक का नाम (प्राचू ४)। यव्व (उप ५९७ टी)। तं धम्मचक्कट्टि, उज्जेणी देखो उजइणी (महा; काप्र ३३३) उज्झ पुं[उज्झ, उद्ध्य] उपाध्याय, पाठक ___अरिट्ठनेमि नमसामि' (पडि)। उज्जोअ सक [उद् + द्योतय] प्रकाश (विसे ३१९८) . उज्जीरिअ वि [दे] निर्भसिंत, अपमानित, करना, उद्योत करना । उज्जोएइ (महा)। वकृ. उज्झवि [उज्झक] त्याग करनेवाला, तिरस्कृत (दे १,११२)। उन्जोयंत, उज्जोइंत, उज्जोयमाण, उज्जो- उज्झग ) छाड़नवाला (सूत्र १, ३; उज्जीवण न [उज्जीवन] १ पुनर्जीवन, | एमाण (णाया १, १; सुपा ४७; सुर ८, जिलाना; 'तस्सपभावो एसो कुमरस्सुज्जीवणे ८७; सुपा २४२, जीव ३) उज्मण न [उज्झन परित्याग (उप १७६% जागो' (सुपा ५०४) । २ उद्दीपन (सण)। उज्जोअj [उद्योग] प्रयत्न, उद्यम (पउम | पृ ४०३ पउम १,६०; औप)V उज्जीविय वि [उज्जीवित] पुनर्जीवित, उज्झणया। स्त्री [उज्झना] परित्याग (उप ३, १२६; सूक्त ३६ पुप्फ २८, २९) । उज्झणा ५६३ आव ४)जिलाया हुआ (सुपा २७०)। उज्जोअ [उयोत] १ प्रकाश, उजेला। उज्झणि वि [दे] विक्रीत, बेचा हुआ। २ उज्जु वि [ऋजु] सरल, निष्कपट, सीधा गर वि [°कर] प्रकाशक; 'लोगस्स उज्जो- | निम्नीकृत, नीचा किया हुआ (षड् )IV (औप; आचा)। °कड़ वि [कृत] १ अगरे, धम्मतित्थयरे जिणे (पडिपानः हे उज्झमण न [दे] पलायन, भागना (दे १, निष्कपट तवस्वी (प्राचाः उत्त)। कड़ १, १७७)। २ उद्द्योत का कारण-भूत कर्म- १०३)। वि [कृत् ] माया-रहित आचरणवाला विशेष (सम ६७; कम्म १) । 'त्थ न [ ] उज्झमाण वि [दे] पलायित, भागा हुआ (आचा)। जड़, जड्ड वि [जड़] सरल शस्त्र-विशेष (पउम१२, १२८)। (षड् )। किन्तु मूर्ख, तात्पर्य को नहीं समझनेवाला उज्जोअग वि [उद्योतक] प्रकाशक, 'सव्व उज्झर पुं [निर्भर] पर्वत से गिरनेवाला जल(पंचा १६; उत्त २६) । मइ स्त्री [मति] जगुज्जयोगस्स' (णंदि)। प्रवाह, पहाड़ का झरना (णाया १, १; १ मनःपर्यव ज्ञान का एक भेद, सामान्य उज्जोअण न [उद्द्योतन] १ प्रकाशन, अब- गउडा गा ६३६)। 'वण्णी स्त्री ["पर्णी] मनोज्ञान, सामान्य रीति से दूसरों के मनोभाव भासन । २ वि. प्रकाश करनेवाला (उप , उदक-पात, जल-प्रपात (निचू ५) टी)V For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्भरिअ -उडव उमरिअ वि [दे] टेढ़ी नजर से देखा हुआ । २ विक्षिप्त । ३ क्षिप्त, फेंका हुआ । ४ परिofer(2, ERR) I उज्झल वि [दे] प्रबल, बलिष्ठ ( षड् ) । [] १ प्रति फेंका हुआ २ विक्षिप्त (षड् ) उज्झस पुं [दे] उद्यम, उद्योग, प्रयत्न (दे १, ५) । V [] (1 "उज्मा देखो अउज्झा (उप पृ ३७४ ) IV उभा [ उपाध्याय ] विधादाता गुरु शिक्षक, पाठक (महा; सुर १, १८० ) । उज्भासित्र [उद्भासिन् ] चमकनेवाला, देदीप्यमान, भारंभा [ [] वचनीय, लोकापवाद। २ वि. निन्दनीय । ३ कथनीय (दे ३, ५५ ) 1 [[]] १ परित्यक्त, विमुक्त (कुमा)। २ भिन्न (श्राव ४) । ३ न. परित्याग (ए)।" [क] एक सार्थवाह का पुत्र विया १२) IV [] शुष्क, सूबा हुआ निम्नीकृत, नीचा किया हुआ (प ) 1 1 २ स्त्री [ उज्झिता] एक सार्थवाहपत्नी (गाया १, ७) 1 [3] करभ (दिपा १, ६ हे २, ३४; उवा) । स्त्री. उट्टी (राज) I उद्धार [अवतार ] पाट, तीर्थ, जलाशय का तट; 'ग्रह तेरे बहुमरे सत्यमव । लगायत सिमरतलाए कुमारगया ( पउम २८,३०) । उगा देखो उट्टिया (धर्मसं ७८) उट्टिय वि [ औष्ट्रिक ] ऊँट सम्बन्धी । ॐ उट्टियय के रोधों का बना हुआ (ठा ५, ३ श्रघ ७०९ ) । ३ पुं. भृत्य, नौकर (कुमा) । ४ घड़ा, घट (उवा) । V [[ट्टिया श्री [ष्ट्रिका] पड़ा, घट (विपा १६) समण ["भ्रमण] भाजीविक-मत का साधु, जो बड़े घड़े में बैठ कर तपस्या करता है (प) IV उट्ठ क [उत् + स्था ] उठना, खड़ा होना । पाइअसद्दमहण्णवो । उद (हे ४,१७] महा) उट्ठेद्र (पि ३०९) । वकृ. उट्टंत (गा ३८२: सुपा २१९), उट्ठित (४३०११५३) कृ. उट्ठाय उट्ठित्त, उट्ठित्ता, उट्ठेत्ता (राजः श्राचाः पि ५०२) उडडं (उप २ ) 1 उवि [उत्थ] उत्थित, उठा हुआ (प्रोघ ७० उवा)। a) | इस प [पवेरा ] उठ बैठ (हे ४, ४२३) उट्ठपुं [ओष्ठ ] ओठ, अधर (सम १२५३ सुपा ५२३) उट्ठपुं [] जलचर-विशेष (सूम, ७, १५ उठ्ठग देखो उट्टा (धर्मवि १२० ) IV उभ सक [ अव + स्तभ्] १ आलम्बन देना सहारा देना । २ श्राक्रमण करना कर्म, उटुब्भइ (हे ४, ३६५) । संकृ. 'उट्ठभिया एगया कार्य (प्राचा १, ६, ३, ११) । = उट्ठवण न [उत्थापन ] उत्थापन, ऊँचा करना, उठाना (मोघ २१४; दे १, ८२) उठ्ठविय वि [उत्थापित] उत्पादित उठावा हुआ, खड़ा किया हुआ; 'सा सरिगयं उट्टविया भराइ किमागमकारण मुरहे' (सुर ६, (80) 11 उट्ठा देखो उ उ + स्था (प्रामा) उडा श्री [त्या] उत्पान जान उडाए उगाया ११ श्रीप) IV उट्ठाई व [उत्पादन] उठनेला (बाचा) वि अवि [उत्थित ] १ जो तैयार हुआ हो, ( १२, १६२ उत्पन्न उत्ति ( स ३७९ ) Tv उट्ठाइस देखो उट्टाविअ (उ 1 उद्वाण [उत्थान] १ उठान, ऊँचा होगा (ब) पिडा वोच्छिना परि महरा (से १२, २७) । २ उद्भव उत्पत्ति (खाया १,१४) ३ धारम्भ, प्रारम्भ (भग १५ ) । ४ उद्वसन, बाहर निकलगा (संदि) सुबन["श्रुत] शास्त्र-विशेष (दि) । " उट्ठाय देखो उट्ठ = उत् + स्था । उट्ठाव सक [उत् + स्थापय् ] उठाना । उाने (महा) । V 1 For Personal & Private Use Only उट्टाचण देखो उडवण (स) । उट्ठावण देखो उबट्ठावणः 'पन्चावरण विहिमुट्ठाचादिहिं निर उट्ठावणा देखो उबट्टावणा (भत्त २५) उद्वाचिअ वि [उत्थापित] उठाया द किया हुआ) २ उत्पातितः म उट्टावियो कली एस' (उप ६४६ टी) उडिं उडित - उडता १५१ - देखो उट्ठ = उत् + स्था | उत्तु उयिवि [उस्थित] उत्थित लड़ा हुआ (गुर ११) २१, ३) 'बिहीशिया व उड़िया एसा (सुपा २४१२ उति उप्त उपम्मि सूरें (अणु) । उद्यत, उद्युक्त ( श्राचा) । उति बाहर निकला हा घोष ६५ भा) IV उट्ठिर वि [उत्थातृ] उठनेवाला (सण) 1 उट्टिय [उषित] पुलकित, रोमा (घोष कुमा उट्टी (प) देखो उट्टिय (पिंग ) I लुभ उद्दुद्द } अ [ अव + ष्ठीव् ] थूकना । उट् ठुभंति, उट् ठुभह (पि १२० ), उट् ठुहह (भग १५ ) । संकृ. उट् उद्दइत्ता (भग १५) । उठि (मप) देखी उद्रिय (पिंग ५८१) । उढ पुंग [कुट] पट, कुम्भः 'पडिवक्खमरपुंजे लावर उडे अगगनकुंभे । पुरिससहिरिए कीस थरती थणे वहसि' (गा २६० ) "उ [कूट] समूह राशि 'सप्पी जहा अंडउडं भत्तारं जो विहिंसई' (सम ५१ ) | 'उड देखो पुढ (उवा महा ग६६० सुर २, १३ प्रासू ३९) उक [उटकू] एक ऋषि तापस-विशेष पुं (नि १२ ) 1 उडंव वि [ई] लिस, लिया हुआ (प ) । [उटज ] [ऋषि- श्राश्रम, पर्णशाला, पत्तों से बना हुआ घर (अभि १११ प्रति ८४ अभि ३७ स उडज उडय उडव १०); 'उडवावस' (पाच); Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ पाइअसहमहण्णवो उडाहिअ-उड्ढ 'जमहं दिया य रामो य, हुणामि महुसप्पिस। | उडुस देखो उद्दस (उत्त ३६, १३८)। 'कुसुमं यत्रोड्डीय, क्षुरिकाग्राल्लाघवेन संगृह्य । तेण मे उडओ दड्ढो, जायं सरगमो भयं' | उस दे] खटमल, खटकीरा, उड़िस (द पादाङ्गलिभिगच्छति, तद्विज्ञातव्यमुड्डिाहरणं (निचू १) १,९६) (दे १,१२१)।V उडाहिअ वि [दे] उत्क्षिप्त, फेंका हुआ उड्डहण पुं[] चोर, डाकू (दे १, ६१) उड्डिय वि [उड्डीन] उड़ा हुआ; 'तरुउड्डिय(षड् ) IV उड्डाअ [दे] उद्गम, उदय, उद्भव (दे १, | पक्खिणुव्व पगे' (धर्मवि १३६)। उडिअ वि [दे] अन्विष्ट, खोजा हुआ ( षड्)। ६१)। | उड्डिहिअ वि [दे] ऊपर फेंका हुआ (पान) । उडिउ पु[दे] उड़िद, उरद, माष, धान्य-विशेष उड्डाण न [उड्डयन] उड़ान, उड़ना: “मोरोवि उड्डी अक [उद्+डी] उड़ना । उड्डेइ, उड्डिति अहव घिप्पइ, हंत तइजम्मि उड्डाणे (सुर ८, | (पि ४७४)। वकृ. उड्डिअत, उड्डत (दे ६, (दे १, ६८) उडु पुं [उडु] एक देव-विमान (देवेन्द्र १३१)। ५२)।। ६४, उप १०३१ टी)। संकृ. उड्डऊण, पभ पुंन [प्रभ] उडु नामक विमान के | उड्डाण पुं[दे] १ प्रतिशब्द, प्रतिध्वनि । २ उड्डवि (पि ५८६; भवि) 0 पूर्व तरफ स्थित एक देव-विमान (देवेन्द्र कुरर, पक्षि-विशेष । ३ विष्ठा, पुरीष । ४ उड्डा स्त्री औडी] लिपि-विशेष, उत्कल देश १३८)। मज्झ पुंन [°मध्य] उडुविमान की लिपि (विसे ४६४ टीIV मनोरथ, अभिलाष । ५ वि. गर्विष्ठ, अभिमानी | के दक्षिण तरफ का एक देव विमान (देवेन्द्र (दे १, १२८)IV उड्डीण वि [उड्डीन] उड़ा हुमा (गाया १, उड्डामर वि [उड्डामर] उद्भट, प्रबल (कुप्र | १३८) । यावत्त पुंन [°कावर्त] उडुविमान १० पायः सुपा ४६४) के पश्चिम तरफ का एक देव-विमान (देवेन्द्र १४५) उड् डुअ पुं[दे] डकार, उद्गारर 'जंभाइएणं उड्डामर वि [उड्डामर] १ भय, भीति । २ १३८) । सिद्ध पुन [सृष्ट] उडुविमान के उड्डुएणं वायनिसग्गेणं' (पडि) V उड् डुइय आडम्बरवाला, टीपटापवाला (पान)।उत्तर तरफ का एक देव-विमान (देवेन्द्र पुं[दे] देखो उड्डुअ (चेइय उड्डामरिअ वि [उड्डामरित] भय-भीत किया उड्डोअ १३८)V ४३४ ४३७) । उडूडवाडिय पुं [उड्डुवाटिक] भगवान् उडु न [उड] १ नक्षत्र (पास) । २ विमान हुआ (कप्पू)। | उड्डाव सक [उद् + डायय] उड़ाना।। महावीर के एक गण का नाम (कप्प)। देखो विशेष (सम ६६)। प, व पुं[प] १ उड्डावइ (भवि)। वकृ. उड्डावंत (हे ४, उद्दवाइअ । चन्द्र, चन्द्रमा (प्रौपः सुर १६, २४६)। २ ३५२) | उड् डुहिअ देखो उडुहिअ (दे १, १३७) । - जहाज, नौका (दे १, १२२)। ३ एक की | उड्डाब वि [उड्डायक] उड़ानेवाला (पिंड ४७१) संख्या (सुर १६, २४६)। वइ पुं[पति] उड्डोय देखो उड़ डुअ (राज)। उड्डावण न [उड्डायन] १ उड़ाना, मत्तजल- उड्ढ न [ऊर्ध्व] १ ऊपर, ऊँचा (अणु) । २ चन्द्र (सम ३०; पएह १, ४)। वर पुं| [°वर सूर्य (राज) वायसुड्डावणेण जलकलुसणं किमिम' (कुमा)। वमन, उलटी; 'उड्ढणिरोहो कुट्ट' (बृह ३) । उडु देखो उउ (ठा २, ४, प्रोघ १२३ भा)। २ आकर्षण; 'हियउड्डावणे' (णाया १,१४)। ३ वि. उत्तम, मुख्यः 'महत्ताए नो उड्ढत्ताए उड बरिजिया स्त्री [उदुम्बरीया] जैन मुनियों उड्डाविअ वि [उड्डायित] उड़ाया हुआ (गा | परिणमंति' (भग ६, ३; आवम)। ४ खड़ा, की एक शाखा (कप्प)। ११०; पिंग)। दएडायमानः 'खाणुव्व उड्ढदेहो काउस्सग्गं तु उडहिअ न [दे] १ विवाहिता स्त्री का कोप। उड्डाविर वि [उड्डायित्] उड़ानेवाला (वजा | ठाइजा' (प्राव ६)। ५ ऊपर का, उपरितन ६४) । २ वि. उच्छिष्ट, जूठा (दे १, १३७) । (उवा)। कंडूयग पुं[कण्डूयक] तापसों उड्डास पुं [दे] संताप, परिताप (दे १,६६) का एक सम्प्रदाय जो नाभि के ऊपर भाग में उडूखल पुन [उडूखल] उलूखल, उदूखल उड्डाह पुं[उदाह] १ भयङ्कर दाह, जला उडूहल (पिड ३६१; प्राकृ ७) ही खुजलाते हैं (भग ११, ६)। काय पुं देना (उप २०८)। २ मालिन्य, निन्दा, उप- [काय शरीर का उपरितन भाग (राज)। उड्डु उडू] १ देश-विशेष, उत्कल, प्रोड़, घात (प्रोघ २२१) प्रोड नामों से प्रसिद्ध देश, जिसको आजकल काय पुं [काक] काक, वायसः 'ते उड्ढउड्डिअ वि [औडू] उड़ीसा देश का निवासी काएहि पखजमारणा अवरेहि खजंति सणप्फउड़ीसा कहते हैं (स २८६)। २ इस देश का (नाट) एहि' (सूप्र १,५,२,७)। गम वि [गम] निवासी, उड़िया; 'सगजवण-बब्बर-गाय मुरुं उड्डिअवि [दे] उत्क्षिप्त, फेंका हुआ (षड् ) ऊपर जानेवाला (सुपा ४५६)। गामि वि डोड्ड-भडग-' (पएह १, १) । उड्डिअंत देखो उड्डी = उत् + डी। ["गामिन्] ऊपर जानेवाला (सम १५३)। उड्डु वि [दे] कुंआ आदि को खोदनेवाला, उड्डिआहरण न [दे] छुरी पर रखे हुए फूल | °चर वि [°चर] ऊपर चलनेवाला, आकाश खनक (दे १,८५)। को पाँव की दो उँगलियों से लेते हुए चल में उड़नेवाला (गृध्रादि) (आचा)। "दिसा उड्डण [दे] १ बैल, साड़। २ वि. दीर्घ, जाना; 'छुरिअग्गमुक्कपुप्फ घेत्तुम पायंगुलीहि स्त्री [ "दिश् ] ऊर्ध्व दिशा (उवा प्राव ६)। लम्बा (दे १, १२३)।। उप्पयणं । तं उड्डिाहरणं 'रेणु पुं [ रेणु] परिमाण-विशेष, पाठ For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ उड्ढं-उत्तण पाइअसहमण्णवो श्वक्षणश्चक्षणिका (इक)। "लोग, लोय पुं संकृ. उण्णमिय (आचा २, १, ५) उण्हवण न [उष्णन] गरम करना (पिंड r°लोक] स्वर्ग, देव-लोक (ठा ५, ३, भग)। उण्णम वि [दे] समुन्नत, ऊँचा (दे १,८८) २४०)। 'वाय [वात] ऊँचा गया हुआ वायु, | उण्णय वि [उन्नत] १ उन्नत, ऊँचा (अभि उण्हिआ स्त्री [दे] कृसर, खिचड़ी (दे वायु-विशेष (जीव १)। २०६) । २ गुणवान्, गुणी (णाया १,१)। १,८८)। उड्ढं ऊपर देखो, 'उड्ढंजाण अहोसिरे झारण- ३ अभिमानी (सूत्र १, १६)। ४ न. अभि- उण्हीस पुंन [उष्णीष] पगड़ी, मुकुट ( हे कोट्ठोवगए' (भग १, १: महा था ३३) । मान, गर्व (भग १२, ५)। २,७५)। उड्ढंक न [दे] मार्ग का उन्नत भू-भाग (सूत्र उण्णय पुं[उन्नय नीति का प्रभाव (भग उण्होदयभंड पुंदे] भ्रमर, भमरा, भौंरा (दे १, २) ।। १२, ५) | १,१२०) उडूढल) पुं[दे] उल्लास, विकास (दे १, उण्णा स्त्री [ऊ] ऊन, भेड़ के रोम | उण्होला स्त्री दे] कीट-विशेष (आवम)।उड्ढल्ल ६१) (प्रावम)। पिपीलिया स्त्री ["पिपीलिका] उताहो अ[उताहो अथवा, या (वि ८५)। उड्ढविय वि [ऊधित] ऊँचा किया हुआ चींटी, जन्तु-विशेष (दे ६,४८) । उत्त वि [उक्त] कथित, अभिहित (सुर १०, (वजा १४६) । उण्णाअक वि [उन्नायक] १ उन्नति-कारक । ७६; स ३७६) उड्ढा स्त्री [ऊध्वा] ऊध्वं-दिशा (ठा ६)। २ पुन, छन्दःशास्त्र प्रसिद्ध मध्य-गुरु चतुष्कल | उत्त वि [उत] १ बोया हुआ। २ निष्पादित, उड्ढि [दे] देखो उद्धि (सुज १०, ८)। की संज्ञा (पिंग)। उत्पादितः 'देवउत्त अए लोए बंभउत्तेति उड्ढि देखो बुड्ढि (षड् )। उण्णाग पुं[उन्नाक] ग्राम-विशेष (प्रावम) यावर' (सूत्र १, १, ३) उड्ढि देखो इद्धि ( षड् )। उण्णाम पुं [उन्नाम] १ उन्नति, ऊँचाई (से. उत्त पु[दे] वनस्पति-विशेष (राज) उड्ढिय देखो उद्धरिअ = उद्धृत (रंभा)। उत्त वि [गुप्त] रक्षित (सूअ १, १, ३, ५)। ६, ५६)। २ गर्व, अभिभान । १ गर्व का उड्ढिया स्त्री [दे] १ पात्र-विशेष (स १७३)। उत्त देखो पुत्त (गा ८४ सुर ७, १५८)। कारण-भूत कर्म (भग १२, ५)V २ कम्बल वगैरह ओढ़ने का वस्त्र (स ५८६) अण्णाम सक [ उद+नमय 1 ऊँचा करना उत्तइयो वि [उत्तेजित] (दश. नि. गा. उणं देखो पुण = पुनर् (पिंड ८२)। उत्तुइय) १११. अग) TV (से ४, ५६) उण न [ऋण] ऋण, करजा (षड् )। उण्णामिय वि [उन्नमित] ऊँचा किया उत्तंघ देखो उत्थंघ = रुध् । उत्तंघइ (हे ४, उण । देखो पुण (प्रामाः प्रासू ६१, कुमा; हुआ ( गा १६, २५६; से ६, ७१) ।। उत्तंघ देखो उत्तंभ । उत्तंघइ (प्राकृ ७०) उण्णाल सक [उद् + नमय ] ऊँचा करना। उणपन्न स्त्रीन [ एकोनपञ्चाशत् ] उनचास, उरणालइ (प्राकृ ७५) । उत्तंत देखो वुत्तंत (षड् ; विक्र ३६)। ४६ (देवेन्द्र ६६) । उण्णालिय वि [दे] १ कृश, दुर्बल । २ उत्तंपिअ वि [दे] खिन्न, उद्विग्न (दे १, उणाइ पुं [उणादि] व्याकरण का एक | उन्नमित, ऊँचा किया हुआ (दे १, १३६) १०२)। प्रकरण (पएह २, २)। उण्णिअ वि [उन्नीत] वितकित; विचारित उत्तंभ सक [उत् + स्तम्भ ] १ रोकना । उणाइ पुं[दे] प्रिय, पति, नायक; 'उणाइ २ अवलम्बन देना, सहारा देना। कर्म. (से १३,७७)। साहढोल्लाः प्रियार्थे' (संक्षि ४७)। उत्तंभिज्जइ, उत्तंभिज्जेंति (पि ३०८)। उण्णिअ वि [और्णिक] ऊन का बना हुआ उणो देखो पुण (गउड पि ३४२; हे १,६५) ।। (ठा ६, ३; ओघ ७०६; ८६ भा)। उत्तंभण न [उत्तम्भन] १ अवरोध । २ उण्ण न [ऊर्ण] भेड़ या बकरी के रोम, अवलम्बन (उप पू२२१)।। रोआँ। देखो उन्न। कप्पास पुं[कापास] उण्णिद वि [उन्निद्र] १ विकसित, उल्लसित उत्तंभय वि [उत्तम्भक १ रोकनेवाला। ऊन, भेड़ के रोम (निचू १)। णाभ पुं (गउड)। २ निद्रा-रहित (माल ८५)। २ अवलम्बन देनेवाला, सहायक (उप पृ [नाभ] मकड़ी, कीट-विशेष (राज)। उण्णी सक [उद् + नी] १ ऊँचा ले जाना। २२०) 'उण्ण देखो पुण्ण = पूर्ण (से ८, ६१, ६५)। | २ कहना। भवि. उपरणेहं (विसे ३५८५)। उत्तंस पु[अवतंस] शिरो-भूषण, अवतंस उण्णअ सक [उद्+ नद्] पुकारना, आह्वान कवकृ. उण्ण इज्जमाण (राज)। (गउड दे २, ५७)। करना । उरणइ (प्रकृ ७४)। उण्णुइअ पुं[दे] १ हुँकार । २ आकाश की उत्तंस पुं[उत्तंस] कर्णपूरक, कनफूल, कर्णउण्णइ स्त्री [उन्नति] उन्नति, अभ्युदय (गा तरफ मुँह किए हुए कुत्ते की आवाज (दे | आवाज (द भूषण (पान)। ४६७) । १, १३२) । ३ वि. गर्वित; 'एवं भरिणो संतो उत्तइय वि [दे] उत्तेजित, अधिक दीपित उण्णइज्जमाण देखो उण्णो। उगाइयो सो कहेइ सव्वं तु' (वव २, १०) (दसनि ३, ३५) । उण्णम अक [उदु + नम्] ऊंचा होना, उण्ह पुं [उष्ण] १ प्रातप, गरमी (णाया | उत्तण वि [दे] गर्वित (सट्ठि ५६ टी)। उन्नत होना । वकृ. उण्णमंत (पि १६६)। १,१)। २ वि. गरम, तप्त (कुमा)। देखो उत्तुण। उणा हे १,६५)। २० For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ पाइअसद्दमण्णवो उत्तण-उत्तर उत्तण वि [उत्तृण] तृणवाली जमीन, | उत्तम्मिअ वि [उत्तान्त] खिन्न, दिलगीर (जं ४)। कोडि स्त्री [कोटि संगीतशास्त्र'खित्तखिलभूमिवल्लराई उत्तणघडसं कडाई (दे १, १०२; पात्र) प्रसिद्ध गान्धार-ग्राम की एक मूच्र्छना (ठा डझंतु' (पएह १, १)।। उत्तर प्रक [उत् + तृ] १ बाहर निकलना । ७)। "गंधारा स्त्री [गान्धारा] देखो उत्तणुअ वि [उत्तनुक] अभिमानी, गर्विष्ठ २ सक. पार करना। उत्तरिस्सामो (स पूर्वोक्त अथं (ठा ७)। गुण पुं [गुण] (पाप)। १०१)। वकृ. उत्तरंतः शाखा गुण, अवान्तर गुण (भग ७, ३)। उत्तत्त विउत्ता] अति-तप्त, बहुत गरम | 'पेच्छति प्रणिमिसच्छा पहिला 'चावाला स्त्री [चावाला] नगरी-विशेष (सुपा ३७) हलिअस्स पिट्ठपंडुरिअं । (प्रावम)। चूल[°चूड] गुरु-वन्दन का एक उत्तत्त वि [दे] अव्यासित, प्रारूढ़ (षड्) धूअं दुद्धसमुदुत्तरंतलच्छिं दोष, गुरु को वन्दन कर बड़े आवाज से 'मत्थउत्तत्थ वि [उत्वस्त] भय-भीत, त्रास-प्राप्त विप्र समाहा' (गा ३८८); एण वंदामि' कहना (धर्म २)। चूलिया स्त्री (पएह १, ३; पात्र)। 'उत्तरंताग य मरूं, खंघवारो तिसाए मरिउ- | [चूलिका] देखो अनन्तर-उक्त अर्थ (बृह ३; उत्तद्ध देखो उत्तरद्ध (पिंग) 11 मारतो' (महा)। संकृ. उत्तरित्तु (वि ५७७)। गुभा २५)। ड्ढ न [°धि] पिछला प्राधा हेकृ. उत्तरित्तए (पि ५७८)।, भाग उत्तरार्ध (जं ४)। दिसा स्त्री ["दिश्] उत्तप्प वि [दे] १ गवित, अभिमानी ( दे १, १३१; पात्र) । अधिक गुणवाला (दे. १३१)। उत्तर अक [अव + त] उतरना, नीचे पाना । उत्तर दिशा (सुर २, २२८) । द्ध न [1] पिछला आधा भाग (पिंग) । पगइ, °पयडि वकृ. उत्तरमाण, 'उत्तरमाणस्स तो विमाउत्तप्प वि [उत्तप्त] देदीप्यमान (राज)। गायो' (सुपा ३४०)। उत्तर वि [उत्तर] स्त्री [प्रकृति कर्मों के अवान्तर भेद (उत्त उत्तम पुं [उत्तम] एक दिन का उपवास १ श्रेष्ठ, प्रशस्त (पउम ११८, ३०) । २ ३३: सम ६६) । पञ्चस्थिमिल्ल [पा(संबोध ५८) प्रधान, मुख्य (सून १, ३)। ३ उत्तर-दिशा श्चात्य] वायव्य कोण (पि) । पट्ट पुं उत्तम वि [उत्तम] १ श्रेष्ठ, प्रशस्त, सुन्दर [प] बिछौना के ऊपर का वस्त्र (ोघ में रहा हुआ (जं १)। ४ उपरि-वर्ती, (कप्पः प्रासू ६) । २ प्रधान, मुख्य (पंचा ४)। उपरितन (उत्त २)। ५ अधिक, अतिरिक्त १५६ भा)। पारणग न [पारणक] ३ परम, उत्कृष्टः 'उत्तमकट्ठपत्त' (भग ७,६)। 'अट् ठुत्तर--' (प्रौप; सूत्र १, २)। ६ उपवासादि व्रत की समाप्ति, पारण (काल)। ४ अन्त्य, अन्तिम (राज)। ५ पुं. मेरु-पर्वत अवान्तर, भेद, शाखा; 'उत्तरपगई' (कम्म पुरच्छिम, 'पुरस्थिम पुं [पौरस्त्य] (इक)। ६ संयम, त्याग (दसा ५)। ७ १)। ७ ऊन का बना हुआ वस्त्र, कम्बल ईशान कोण, उत्तर और पूर्व के बीच की राक्षस वंश का एक राजा, स्वनाम-ख्यात एक वगैरह (कप्प)। ८ न. जवाब, प्रत्युत्तर (वव दिशा (गाया १,१; भगः पि६०२)। लंकेश (पउम ५, २६४)। "ट्ठ पुं[ 2] १)। ६ वृद्धि (भग १३, ४)। १० पुं. 'पोढवया स्त्री [प्रौष्टपदा] उत्तरा भाद्रपदा १ श्रेष्ठ वस्तु । २ मोक्ष (उत्त २)। ३ मोक्षऐरवत क्षेत्र के बाईसवें भावी जिनदेव का नक्षत्र (सुज ४)। फग्गुणी स्त्री [फाल्गुनी] मार्ग: 'जीवा ठिया परमट्टम्मि' (पउम २, नाम (सम १५४) । ११ वर्षा कल्प (कप्प)। उत्तर-फाल्गुनी नक्षत्र ( कप्पू: पि ६२) । ८१)। ४ अनशन, मरण (प्रोष ७)। १२ एक जैन मुनि, आर्य-महागिरि के प्रथम बलिस्सह पुं[बलिस्सह] १ एक प्रसिद्ध पण वि [f] लेनदार (नाट)। शिष्य (कप्प)। कंचुय पुं[कञ्चक] जैन साधु (कप्प) । २ उत्तर बलिस्सह नामक उत्तम वि [ उत्तमस् ] अज्ञान-रहित, बस्तर-विशेष (विपा १, २)। करण न स्थविर से निकाला हुआ एक गण, भगवान् 'तिविहतमा उम्मुक्का, तम्हा ते उत्तमा हुति' [°करण उपस्कार, संस्कार,विशेष-गुणाधान; महावीर का द्वितीय गण--साधु-संप्रदाय (आवनि ५५; कप्प)। 'खंडियविराहियाणं, (कप्प; ठा ६)। भदवया स्त्री [भाद्रपदा] उत्तमंग न [उत्तमाङ्ग] मस्तक, सिर (सम मूलगुणाणं सउत्तरगुरणाएं। नक्षत्र-विशेष (ठा ६)। मंदा स्त्री [°मन्दा] ५०; कुमा)। उत्तरकरणं कोरइ, जह मध्यम ग्राम की एक मूर्छना (ठा ७) । उत्तमा स्त्री [उत्तमा] १ ‘णायाधम्मकहा' सगड-रहंग-गेहाणं' (प्राव ५) 'महुरा स्त्री [°मथुरा] नगरी विशेष (दंस)। का एक अध्ययन (णाया २,१)। २ इन्द्राणी कुरा स्त्री ["कुरु] स्वनाम-ख्यात क्षेत्र-विशेष, वाय पुं [वाद] उतरवाद (आचा)। (णाया २, १ठा ४, १) 'उत्तरकुराए णं भंते ! कुराए केरिसए प्रागार- विक्किय, वेत्रिय वि वैक्रिय उत्तमा नी [उत्तमा] पक्ष की प्रथम रात्रि भावपाडोयारे पएणत्ते' (जीव ३)। कुरु स्वाभाविक-भिन्न वैक्रिय, बनावटी वैक्रिय (सुज्ज १०, १४)। [कुरु] १ वर्ष-विशेषः ‘उत्तरकुरुमाणु- (कम्म १: कप्प)। "साला स्त्री [शाला] उत्तम्म अक [उत् + तम्] खिन्न होना, सच्छरावो (पि ३२८ सम ७०%, पएह १, १ क्रीडा-गृह । २ पीछे से बनाया हुमा घर । उद्विग्न होना । उत्तम्मइ (स २०३)। वकृ. ४; पउम ३५, ५०) । २ देव-विशेष (जं २)। ३ वाहन-गृह. हाथी-घोड़ा आदि बाँधने का उत्तम्मतः उत्तम्ममाण (नाट)। संकृ. 'कुरुकूड न [ कुरुकूट] १ माल्यवंत पर्वत स्थान, तबेला (निचू ८)। साग, साहय उत्तम्मिअ (नाट)। | का एक शिखर (ठा ६)। २ देव-विशेष | वि [साधक] विद्या, मन्त्र वगैरह का For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरओ- उत्ताल सावन करनेवाले का सहायक (सुपा १५१; २६६) देखो उत्तरा । / उत्तरओ [ उत्तरतः ] उत्तर दिशा की तरफ (ठाः भग) । उत्तरंग न [ उत्तरङ्ग] १ दरवाजे का ऊपर का काg (कुमा) । २ वि. चपल, ( मुद्रा २६८ ) । चंचल उत्तरकुरु पुं.. [ उत्तरकुरु] १ देवभूमि स्वर्ग (स्वप्न ६० ) । २ स्त्री. भगवान् नमिनाथ की दीक्षा शिविर (विचार १२९) उत्तरण न [ उत्तरण] १ उतरना, पार करना (ठा ५, स ३६२) | २ अवतरण, नीचे आना (ठा १० ) 1 उत्तरणवरंडियास्त्र [ दे ] उडुप, जहाज, डोंगी (दे १. १५२) । उत्तर पाइअसद्दमहण्णवो उत्तरिज [उत्तरीय] चादर, उत्तरिया प्रा१, २४८) 'जरवि उत्तरियं (सुपा ५४६), रियवि [उत्तीर्ण] १ उत्तरानी आया हुआ (सुर ६, १५९ ) । २ पार पहुँचा हुआ (महा) उत्तरिय वि [ औतरिक, औतराह] देखो उत्तर (ठा १० विसे १२४५) । उत्तरिह वि [औत्तराद] उत्तर दिशा या काल में उत्पन्न या स्थित, उत्तर-सम्बन्धी, उत्तरीय; ग्रह उत्तरिल्लरुयगे' (सुपा ४२; सम १००; भग) । उत्तरीअ देखो उत्तरिय = उत्तरीय (कुमाः हे १,२४८ महा) 1 उत्तरीकरण न [उत्तरीकरण] उत्कृष्ट बनाना, विशेष शुद्ध करना; 'तस्स उत्तरीकरणेणं' ( पडि ) । उत्तरोड [उत्तरौध] १ ऊपर का मोठ (पि ३६७) । २ श्मश्र ू, मूँछ (राज) । पुं [ दे] विटप, अंकुर (दे १, [उत्तरक्रियिक] उत्तर वैक्रियनामक लब्धि से सम्पन्न (पंच २, २०)। उत्तरसँग देखो उत्तरा-संग (पव १८) ル उत्तरा स्त्री [उत्तरा] १ उत्तर दिशा (ठा १ = ) । २ मध्यम ग्राम की एक मूच्र्छना (ठा ७) । ३ एक दिशा-कुमारी देवी (ठा ४ दिगम्बर-मत प्रवर्तक प्राचार्य शिवभूति की स्वनाम ख्यात भगिनी (विसे) । ५ अहिच्छत्रा नगरी की एक वापी का नाम (ती) गंदा स्त्री ['नन्दा] एक दिक्कुमारी देवी (राज)। पह पुं [पथ ] उत्तरदिशा-स्थित देश, उत्तरीय देश ( २ ) । फग्गुणी देखो उत्तरफग्गुणी (सम ७ इक) "भहवया देखो उत्तर- भद्दवया (सम ७; इक) । यण न ["यण] उत्तरायण सूर्य का उत्तर दिशा में गमन, माघ से लेकर छ: महीना (सम ५३ ) "यया स्त्री ["यता ] गान्धार-ग्राम की एक मूच्र्छना (ठा ७) । वह देखो पह (महा; उब १४२ टी) । संग पुं [संग] उत्तरीय वस्त्र का शरीर में न्यास-विशेष, उत्तरासण (कप्पः भगः धौप ) । समा स्त्री [समा] मध्मम ग्राम की एक मुच्छेना (ठा ७) । साढा श्री [च]वशेष (समस नक्षत्र E; 1/ "हुत्त न [भिमुख ] १ उत्तर की तरफ । २ वि. उत्तर दिशा की तरफ मुँह किया हुआ (प्रोघ ६५०; श्रव ४) उत्तल ११६) । उत्तव वि[ उक्तवत् ] जिसने कहा हो वह (पि५६९) उत्तस अक [ उत् + बस् ] १ त्रास पाना, पीड़ित होना । २ डरना, भयभीत होना । वकृ. उत्तसंत (सुर १, २४६ १०,२२० ) I उत्तसिय वि [उत्त्रस्त] १ भयभीत । २ पीड़ित (सुर १,२४६) । उत्ता सक [ उत् + ताडय् ] १ ताड़ना, ताड़न करना। २ वाद्य बजाना । कवकृ. 'उताडिता दरिया कुडवाएं' (राय) 1 उत्तारण न [उत्ताडन] १ ताड़ना करना (कुमा) । २ वाद्य बजाना (राज) उत्तान वि[उत्तान ] १ उन्मुख, ऊध्वं - मुख (पंचा १०) २ चित्ता ६ ठा ४, ४) । ३ विस्फारित 'उत्तारणरणयरणपेच्छरिगज्जा पासादीया दरिसणिज्जा' (नौप ) । ४ निपुण, धकुशल 'उत्ताराम न साहए धम्मं (चम्म ८) 'साइय [शायिन ] चित सोनेवाला (रूस) । उत्ताणअ । ऊपर देखो ( भगः गा ११०; उत्ताणग कस) । For Personal & Private Use Only १५५ उत्तणपत्तव व [दे] एएड-सम्बन्धी (पती बरह) (दे१, १२० ) 1 ; उत्ताणि वि [उत्तानित ] १ चित्त किया हुआ (से ६, ८९ गा ४६० ) । २ चित्त सोनेवाला (दसा ) 1/ उत्तार सक [ अव + तारय् ] नीचे उतारना । वकृ. उत्तारेमाण (ठा ५) उत्तर सक [ उत् + तारय् ] १ पार पहुँचाना। २ बाहर निकालना। ३ दूर करनाः 'देहो नईए खित्तो, तो एए जइ नो उत्तारिंता तो हं मरिऊरण' (सुपा ३५७; काल ) उत्तार पुं [उत्तार ] १ उतरना, पार करना; 'असोप्रो संसारो पडिसोश्रो तस्स उत्तारों' (दस २) उत्तारा (उपर ३२) २ परित्याग ( १०४२)उतारनेवाला, पार करानेवाला सलहे जाजरामरणसागरोत्तारे । विपणम्मिगुणापर ! खगमवि मा काहिसि पमायं' ( प्रासू १३४) । उत्तरपुं [दे] आवास-स्थान, गुजराती में 'उतारों (सिरि ७०० ) 1 उत्तारण न [उत्तारण] १ उतारना २ दूर करना। ३ बाहर निकालना । ४ पार करना 'ताज मोहमहाग्रहिविसवेगा फुरंति तुह बाढं । तातार सम्हा जसं कुरा भए । (सुपा ५५७; विसे १०४०) । उत्तारयवि [ उत्तरक] पार उतारनेवाला (स ६४७) उत्तारिअवि [उत्तारित ] १ पार पहुँचाया हुआ। २ दूर किया हुआ । ३ बाहर निकाला हुआ 'तेरावि उत्तारियो भूमिविवराम्रो' (महा) 1 उत्ताल वि [उत्ताल ] १ 'महानू, बड़ा 'उत्ताल - तालवा बहि दिनमाला (सुपा ५०२ ) । २ उतावला, शीघ्रकारी; 'कवि उत्तालो अप्पडिले हियसेज्जं गिरहंतो' (सुपा ६२०) उद्धत ( १,१०१४ तल ताल विरुद्ध गान का एक दोष; 'गायंतो मा Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो उत्ताल-उत्थंघ पगाहि उत्ताल' (ठा ७); 'भीयं दुयमुप्पिच्छ- उत्तिटू अक [उत् + स्था] १ उठाना । २ उत्तुप्पिय वि [दे] स्निग्ध, चिकना (विपा त्यमुत्तालं च कमसो मुणेयव्वं' (जीव ३)। उदित होना । वकृ. 'उत्तिट्ठन्ते दिवायर (उत्त उत्ताल न [दे] लगातार रुदन, अन्तर-रहित ११, २४)। उत्तुय सक [उत् + तुद पीड़ा करना, क्रन्दन की आवाज (दे १,१०१)। . उत्तिण वि [उत्तृण] तृण-शून्य हैरान करना। वकृ. उत्तुयंत (विपा १, ७)। उत्तालण देखो उत्ताडण । "झंझावाउत्तिणधरविवर उत्तरिद्धि स्त्री [दे] गवं, अभिमान । २ वि. उत्तावल न [दे] उतावल, शीघ्रता । २ वि. पलोटेंतसलिलधाराहि । गवित, अभिमानी (दे १, ६६) शोधकारी, आकुल; 'हल्लुत्तावलिगिहदासिवि- कुड्डलिहियोहिदिअहं उत्तुर्व वि [दे दृष्ट, देखा हुआ (षड्)। हियतकालकरणिज्जे' (सुर १०, १)। रक्खइ अज्जा करअलेहि | उत्तहिअ वि [दे] उत्खाटित, छिन्न, नट उत्तास सक [उत् + त्रासय] १ भयभीत (गा १७०)। (द १,१०५:१११)।। करना, डराना। २पीड़ना, हैरान करना। | उत्तिांणा वि[उचाणित] तृण-रहित किया उन्न ह दे] किनारा-रहित इनारा, तटउत्तासेदि (शौ) (नाट) । कृ.उत्तासणिज्ज हुआ, 'झंझावाउत्तिरिणए घरम्मि' (गा १३५)।५ शून्य कूप (दे १, ६४)। (तंदु) उत्तिण वि [उत्तीर्ण] १ बाहर निकला हमा, उत्तेज वि[उत्तेजस् ] १ तेजस्वी, प्रखर । उत्तास पुं [उत्त्रास] १ त्रास, भय । २ 'उत्तिगणा तलागायो' (महा)। दिठं च महा- २ पुं. मात्रावृत्त का एक भेद (पिंग नाट)। हैरानी (कप्पू)। सरवरं, मज्जिनो जहाविहि तम्मि, उत्तिएणो उत्तेअण न [उत्तेजन] उत्तेजन (मुद्रा१९८)। उत्तासइत्तु वि [उत्त्रासयित] १ भय-भीत य उत्तरपच्छिमतीरें (महा)। २ पार पहुंचा | उत्तेइअ वि [उत्तेजित उद्दीपित, प्रोत्साकरनेवाला। २ हैरान करनेवाला (प्राचा)। हुना, पार-प्राप्त (स ३३२); "उत्तिएगा उत्तजिअ हित, प्रेरित (दस ३ पान) उत्तेड पुंद] बिन्दु ( पिण्ड १६); उत्तासणअ । वि [उत्त्रासनक] १ भयंकर, | समुई, पत्ता वीयभयं' (महा)। ३ जो कम उत्तेडय'सितो य एसो घडउत्तडएहि (स उत्तासणगउद्वेग-जनक । २ हैरान करने- हुआ हो; 'संचरइ चिरपडिग्गहलायरएत्तिवाला (पउम २२, ३५; रणाया १, ८) २६४) । सरणवेससोहग्गो' (गउड)। ४ रहित, 'सोहइ उत्थ न [उक्थ] १ स्तोत्र-विशेष । २ योगउत्तासिय वि [उत्त्रासित] १ हैरान किया अदोसभावो गुरणोव्व जइ होइ मच्छरुत्तिएरणो | विशेष (विसे) । हुआ । २ भयभीत किया हुआ (सुर १, २४७० (गउड)। ५ निपटा हुआ, जिसने कार्य समाप्त उत्थ वि [उत्थ] उत्पन्न, उत्थित (सुपा प्राव ४)V किया हो वहः ‘रहाणुत्तिएणाए' (गा ५५५)। | १९६; गउड )। उत्ताहिय वि [दे] उत्क्षिप्त, फेंका हुआ (दे ६ उल्लंधित, प्रतिक्रान्त (राज) उत्थ (शौ) देखो उट्र % उत् + स्था। उत्थेदि १, १०६) । उत्तिण्ण वि [अवतीर्ण] १ नीचे उतरा हुआ, (प्राकृ ९४) उत्ति स्त्री [उक्ति] वचन, वाणी (था १४ | _ 'रायादक्खो, तेण साहा गहिया, उत्तिएणो, सुपा २३; कप्पू)।। निराणंदो किंकायब्वविमूढ़ो गमो चं' (महा। उत्थइय वि [अवस्तृत] १ व्याप्त (से ४, ३८)। २ प्रसारित, फैलाया हुआ। ३ उत्तिंग [उत्तिङ्ग] १ गर्दभाकार कीट-विशेष उत्तित्थ पुंन [उत्तीथे] कुपथ, अपमार्ग (भवि) आच्छादित; 'प्रच्छरगमउयमसूरगउच्छ- (? (धर्म २; निचू १३)। २ चींटियों का उत्तिम देखो उत्तम (षड् ; पि १०१; हे १, स्थ)-इयं भद्दासणं रयावेई (गाया १, १; बिल; 'उत्तिंगपणगदगमट्टीमक्कडासंताणासंक- ४१; निचू १)। मणे (पडि)। ३ चोटियों की सन्तान (दसा उत्तिमंग देखो उत्तमंग (महा; पि १०१)। पि ३०६) उत्थंगिअ देखो उत्थंधिअ = उत्तम्भित (पि ३)। ४ तृण के अग्रभाग पर स्थित जल-बिंदु उत्तिन्न देखो उत्तिण्ण (काप्र १४६; कुमा)। ५०५) । (प्राचा)। ५ वनस्पति-विशेष, सर्पच्छत्रा, ! उत्तिरिविडि । स्त्री [दे] भाजन वगैरह का गुजराती में जिसको 'बिलाडी नी टोप' कहते हैं। उत्थंघ सक [उद् + नमय ] ऊँचा करना, उत्तिवडा ऊँचा ढेर, भाजनों की थप्पी 'गहरणेसु न चिट्ठिज्जा, उन्नत करना । उत्थंघइ (हे ४, ३६) । गुजराती में जिसको 'उतरेवड' कहते हैं (दे बीएसु हरिएसु वा। १, १२२); ‘फोडेइ बिरालो लोलयाए सारेवि | उत्थंध सक [उत् + स्तम्भ ] १ उठाना । उदगम्मि तहा निच्चं, उत्तिवडं' (उप ७२८ टी)। २ अवलम्बन देना। ३ रोकना (गउड से उत्तिगपरणगेसु वा' (दस ८,११)। उत्तंग वि [उत्तुङ्ग] ऊंचा, उन्नत (महा; ५, ६)। उत्थघेइ (गा ७२४)। ६ न. छिद्र, विवर, रन्ध्र (निचू १८ आचा कप्पू गउड)। उत्थंघ सक [ उत् + क्षिप्] ऊँचा फेंकना । २, ३, १, १६) । लोण न [°लयन] कीट उत्तुंड वि [उत्तुण्ड] उन्मुख, ऊर्ध्व-मुख उत्थंघइ (हे ४, १४४)। संकृ. उत्थंघिअ विशेष का गृह-बिल (कप्प) (गउड) उत्तिंगपणग पुंन [उत्तिङ्गपनक] कोटिका- उत्तुण वि [दे] गर्द-युक्त, दृप्त, अभिमानी नगर, चीटियों का बिल (दास ५, १, ५६) (दे १, ६६ गउड)। (कुमा)। For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्थंघ-उदग पाइअसद्दमण्णवो उत्थंघ पुं [उत्तम्भ] ऊर्ध्व-प्रसरण, ऊँचा 'अच्छुक्कुत्थरियमहल्लवाह उत्थुभण न [अवस्तोभन] अनिष्ट को शान्ति फैलाना (से ६, ३३)। भरनीसहा पडिया' (सुपा २०)। | के लिए किया जाता एक प्रकार का कौतुक, उत्थंघण न [उत्तम्भन] ऊपर देखो (गउड)।। २ उत्थित, उठा हुमा (दे ७, ६२)। थू-थू आवाज करना । (बृह १) । उत्थंघि वि [उत्तेपिन् ] ऊँचा फेंकना | उत्थल न [उत्स्थल] १ ऊँची धूल राशि, उद न [उद] जल, पानी; 'अवि साहिए दुवे (गउड)। उन्नत रजःपुञ्ज (भग ७, ६ टी)।२ उन्मार्ग, वासे सीमोदं अभोच्चा निक्खंते (प्राचा; उत्थंचिअ वि [उन्नमित] ऊँचा किया हुआ, कुपथ (से ८, ६)IV भग ३, ६)। उल्ल ओल्ल वि [f] उन्नत किया हुआ (कुमा) । उत्थलिअ न [ दे] १ घर, गृह । २ वि. पानी से गीला। (ोघ ४८६; पि १६१) । उत्थंघिअविरुद्ध] रोका हा (कुमा)। उन्मुख-गत, ऊँचा गया हुआ (दे १. १०७ गत्ताभ न [ग भ] गोत्र-विशेष उत्थंघिअवि [उत्तम्भित] उत्थापित, उठाया स १८०)। (ठा ७) । उत्थल्ल अक [उत् + शल्] उछलना, | उदइग देखो ओदइय (अणु) ।। हुआ (से ५, ६०)। कूदना। उत्थल्लइ (पड् ) उत्थंभि वि [उत्तम्भिन्] १ आघात-प्राप्त, उदइल्ल वि [उदयिन् ] उदयवान्, उन्नतिउत्थल्लपत्थल्ला स्त्री [दे] दोनों पावों से अवलम्बन करनेवाला शील, 'सिरिअभयदेवसूरी अपुव्वसूरो सयावि परिवर्तन, उथल-पुथल (दे १, १२२)। 'धारिज्जइ जलनिहीवि उदइल्लो' (सुपा ६२२)। उत्थल्ला स्त्री [दे] १ परिवर्तन (दे १, १३)। __कल्लोलोत्थंभिसत्तकुलसेलो। उदक उदङ्क जल का पात्र विशेष, जिससे २ उद्वर्तन (गउड)। नहु अन्नजम्मनिम्मित्र जल ऊँचा छिड़का जाता है (जं २)। उत्थल्लिअ वि [उच्छलित] उछला हुआ, सुहासुहो कम्म-परिणामो॥ उदंच सक [उद् + अञ्च् ] ऊंचा जाना 'उत्थल्लिअं उच्छलिग्रं (पान) (प्रासू १२७) । । (कुमा)। उत्थाइ वि [उत्थायिन् ] उठनेवाला (दे ८ | उत्थंभिअ वि [उत्तम्भित] १ अवलम्बित । उदंचण प [उदश्चन] १ ऊँचा फेंकना। १९) २ रुका हुआ, स्तम्भितः 'अइपीणत्थरणउत्थं १ वि. ऊँचा फेंकनेवाला (अणु)। उत्थाइय वि [उत्थापित] उठाया हुआ, भिप्रारगणे सुप्ररण सुसु मह वप्रण (गा | 'पब्वत्थाइयनरवरदेसे दंडाहिवं ठवइ महणं' | उचिर वि [उदश्चित] ऊँचा जानेवाला ६२४)। ३ बन्धन-मुक्त किया हुआ (स (कुमा)V (सुपा ३५२)IV ५६८) उदंत पुं[उदन्त हकीकत, समाचार, वृत्तान्त; उत्थाण न [उत्थान] १ वीर्य, बल, पराक्रम 'रिणअमेऊरण कइबलं बीमोदंतो व राहवस्स उत्थंभिर देखो उत्तंभि (वज्जा १५२) । (विसे २८-२६) । २ उत्थान, उत्पत्तिः उवरिणो ' (से ४,५५; स ३०; भग) / उत्थग्घ [६] संमर्द, उपमर्द (दे १, ९३) 'वंछावाही प्रसज्झो न नियत्तइ अोसहेहि कएहिं। तम्हा तीउत्थाणं निरुभियब्बं हिएसीहि' उदंप पुं [उदृप्त] कृष्णराज पुत्र उदय (नलउत्थप्पण देखो उट्ठयण (कुप्र ११७) । (सुपा ४०४) दव० रास० ऋषिवर्धन) उत्थय देखो उत्थइय (कप्प); 'निवडंति उत्थामिय (अप) वि [उत्थापित] उठाया उद्ग पुन [उदक] जल पानीः 'चत्तारि तणोत्थयकूपियासु तुंगावि मायंगा' (उप | हुआ (भवि)। उदगा पएणत्ता' (ठा ४; जी ५)। २ ७२८ टी)V वनस्पति-विशेष (दस ८, ११)। ३ जलाशय उत्थार सक[आ + क्रम् ] आक्रमण करना, उत्थर सक [आ + क्रम् ] आक्रमण (भग १, ८)। ४ पुं. स्वनाम-ख्यात एक दबाना । उत्थारइ (हे ४, १६० षड् ) करना। संकृ. उत्थरिवि (अप) (भवि) जैन साधु । ५ सातवें भावी जिनदेव (सूम उत्थार देखो उच्छाह = उत्साह (हे २, ४८० | उत्थर सक [अव + स्तु] १ आच्छादन करना, २, ७)। गब्भ पुं [ग] बादल, षड्) ढकना । २ पराभव करना। वकृ. उत्थरंत, अभ्र (भग २, ५) । दोणि स्त्री [°द्रोणि] उत्थरमाण (पराह १, ३; राज)। उत्थारिय वि [आक्रान्त] आक्रान्त, दबाया १ जल रखने का पात्र-विशेष, ठंढा करने के हुमा; 'उत्थारिअनंतरंगरिउवग्गों' (कुमा; सुपा उत्थर । सक [उत् + स्तु] आच्छादन लिए गरम लोहा जिसमें डाला जाता है वह ५४६ ) ।। उत्थल्ल करना (?)। उत्थरइ, उत्थल्लइ (भग १६, १)। २ जो अरघट्ट में लगाया (प्राकृ ७५) । उत्थिय देखो उद्रिय (हे ४,१६, पि ३०) जाता है वह छोटा घड़ा (दस ७)। पोग्गल उत्थरिअ वि [आक्रान्त] आक्रान्त, दबाया | उत्थिय देखो उत्थइअ (पंचा८ ) । न [पौद्गल] बादल, मेघ (ठा ३, ३)। हुआ; 'उत्थरिमोवग्गिनाई अक्कत' (पान; उत्थिय वि [तीर्थिक मतानुयायी, दर्शना- | मच्छ पुं[मत्स्य] इन्द्र-धनुष का खण्ड, भवि)। नुयायी (उवाः जीव ३)। उत्पात-विशेष (भग ३, ६)। माल पुंस्त्री उत्थरिय विदे] १ निस्सृत, निर्गत ( स | उत्थिय वि [यूथिक] यूथ-प्रविष्ट, 'पएण- [ माल जल का ऊपर चढ़ता तरंग, उदक४७३)। उत्थिय- (उवाः जीव ३)IV शिखा, वेला (ठा १०; जीव ३) । वत्थि स्त्री For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ [' वस्ति ] हृति, पानी भरने का मशक | उदयंत देखो उदि । सिहा स्त्री [शिखा ] सीम पुं [ 'सीमन् ] (गाया १, १८ ) । वेला (ठा १० ) । विशेष (क) 1 उदग्गवि [उद] १ सुन्दर, मनोहरः ' तत्तो दछु' तीए रूवं तह जोव्वरणमुदग्गं' (मुर १, १२२) । २ उग्र, उत्कट, प्रखर (ठा ४, राया १, १ सत्त ३० ) । ३ प्रधान, मुख्य 'उगवारितवो महेसी' (पत ११) ॥ उदड्ढ पुं [उद्दग्ध] एक नरक-स्थान ( देवेन्द्र २७) २३ उदन्तवि [उदात्त ] उदार, अकृपण (संबोध ३८) उदत्त वि[उदास ] स्वर-विशेष जी उच्च स्वर से बोला जाय वह स्वर ( विसे ८५२ ) उदन्ना स्त्री [उदन्या ] तृषा, तरस, पिपासा (उप १०३१ टी । | उदय देखो उद्ग (गाया १८ सम १५३३ उप ७२८ टी; प्रासू ७२; पण १) । उदय [उदय] लाभ (सू २६, २४) ル उदय पुं [उदय] १ अभ्युक्ष्य, उन्नति, 'जो एवंविपि कज्जं प्रायर, सो कि बंभदत्तकुमारस्स उदयं इच्छइ ?' (महा) । २ उत्पत्ति (विसे) ३ विपाक, कर्म-परिणाम । 'हमारण अभक्खारणदारण परधरविलोवरगाई । सत्रहन्नो उदो दसगुरिणश्रो एक्कसि कमाए (उप) । ४] प्रादुर्भाव उद्गम होए चंदा इ निव्यभा जाया सुरा' (महा); 'उदयमिनि साथमावि धरइ रत्तत्तणं दिवसनाहो । रिद्धी आि तुल्लच्चिय पूरण सप्पुरिसा ।' (प्रासू १२ ) । ५ भरतक्षेत्र के भावी सातवें जिनदेव (सम १५३ ) । ६ भरतक्षेत्र में होनेवाले तीसरे जिनदेव का पूर्व-भवीय नाम ( सम १५४ ) । ७ एक राजकुमार (पउम २१, ५६ ) यल [चल ] पर्यंत विशेष, जहाँ सूर्यं उदित होता है (सुपा 44 ) V स्वनाम - ख्यात पाइअसद्दमणको उदयण [ उदयन] १ राजा सिद्धराज का प्रसिद्ध मंत्री ( कुप्र १४३) । उदयण [उदयन] १ एन राजकुमार, कोशाम्बी नगरी के राजा शतानीक का पुत्र ( विपा १, ५) । २ एक विख्यात जैन राजा (कप्प ) । ३ न उन्नति, उदय । ४ वि उन्नत होनेवाला प्रवर्धमान (ठा ५, ३) I उदर न [उदर ] १ पेट, जठर (सूत्र १, ८) । २ पेट की बीमारी 'खयजरवरणलुप्रासाससोसोदराणि ( लहुन १५ ) 1 उदरंभरि वि [उदरम्भरि] स्वार्थी, श्रकेलपेटू (1 202) V उद्दिवि [उदरिन] पेट की बीमारीवाला ( परह २,५ ) V उदरिय वि [ उदरिक ] ऊपर देखो ( विपा १, ७) TV उदवाह वि [ उदवाह ] १ पानी वहन करनेवाला, जल वाहक । २ पुं. छोटा प्रवाह (भग २, A) IV उदसी [] [ उदश्चित् ? ] तक उदहि पुं [ उदधि] १ समुद्र, सागर (कुमा) २ भवनपति देवों की एक जाति, उदधिकुमार (पण्ह १, ४)। कुमार पुं [कुमार ] देवों की एक जाति ( पण १) । देखो उअहि उदाइ [उदायिन] १ एक जैन राजा, महाराजा कोणिक का पुत्र, जिसको एक दुष्ट ने जैन साधु बनकर धर्मच्छल से मारा था और जो भविष्य में तीसरा जिनदेव होगा (ठा ; ती ) । २ पुं. राजा कूणिक का पट्टहस्ती (भग १६, १) उदाइण देखो उदायण ( कुलक २३) । उदात्त देखो उदत्त (दि १७४ टी) । उदाय [उदायन] सिन्धु-देश का एक राजा, जिसने भगवान् महावीर के पास दीक्षा ली थी (ठा भग ३, ६) उदार देखो उराल (उप पृ १०८) उदासि वि [उदासिन्] उदास उदासीन । वन [व] श्रीदासीन्य ( मास ४५१) । उदासीण वि [उदासीन ] १ मध्यस्थ, तटस्थ (पह १, २ ) । २ उपेक्षा करनेवाला (ठा ६) । For Personal & Private Use Only उदाहड (राज) उद्ग्ग-उदीणा [उदाहृत] कथित तिल , उदाहर सक [उदा + हृ] १ कहना । २ दृष्टान्त देना। उदाहरति (पि १४१) 'मार्स नेव उदाहरि' (सप्त ४३) भूका. (भाचा उत्त १४, ६) राहू (सूच १, १२, ४) । वकृ. उदाहरंत (सूत्र १, १२, ३) उदाहरण न [उदाहरण] १ कथन, प्रतिपादन । २ दृष्टान्त (सूत्र १, १२, विसे) । उदाहिय [उदाहत] १ कथित प्रति पादित २शन्ति (धाचा खाया १०) उदादिय व [] लिप्त फेंका गया ( प ) उदाहु देखो उदाहर " [उदाहु [उताहो] अथवा या उ उदाहू देखो उदाहर | = उदाहो देखो उदाहु उताहो (स्वप्न ७० ) । उदि धक [उद् + इ] १ उन्नत होना । २ उत्पन्न होना । ( विसे १२९६० जीव ३ ) । वकृ. उदयंत (भाग ८२, ५ वा १२० । उदित (निये ४१०) । अवि [उदीक्षित ] अवलोकित (दे ६, १४४ ) IV उदिष्ण वि [ उदीच्य] उत्तर- दिशा में उत्पन्न (श्रावम) उण वि [ उदीर्ण] १ उदित, उदय-प्राप्त } उदिन्न } (ठा ५); 'इको वि इको विसम्रो उदिन्नो' (सत ५२ ) । २ फलोन्मुख (कर्म) ( पण १९ भग) । ३ उत्पन्न; 'जहा उदिरणो न कोलि काही (सत १ था. २७) । ४ उत्कट, प्रबल 'अगुत्तरोववाइयाणं भंते ! देवा कि उदिरा मोहा, उवसंतमोहा, खीरणमोहा ?' (भग ५, ४) । V उदिय वि [ उदित] १ उदित, उद्गत (सम ३६) २ उन्नत (ठा ४) । ३ उक्त, कथित (विसे २५७६) उदीण वि [ उदीचीन] १ उत्तर दिशा से संबन्ध रखनेवाला, उत्तर दिशा में उत्पन्न ( श्राचापि १६५) । पाईणा स्त्री [प्राचीना ] ईशान कोण (भग ५, १ ) 1 उदीणा स्त्री [उदीचीना ] उत्तर दिशा (ठा 3,3) 17 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदीर-उद्दाइत्ता पाइअसद्दमण्णवो १५९ उदीर सक [ उद् + ईरय ] १प्रेरणा करना। उदहल देखो उऊहल (प्राचा; पि ६६)। भवि. उद्दवेहिइ (भग १५)। कवकृ. उद्द २ कहना, प्रतिपादन करना। ३ जो कर्म उहनादे१जल-मानष । २ ककद, बैल के विज्जमाण (सूम २,१)। कृ. उद्दवेयव्व उदय-प्राप्त न हो उसको प्रयत्न-विशेष से कंधे का कूबड़ (दे १, १२३)। ३ मत्स्य (सूम २, ३) फलोन्मुख करना । उदीरइ, उदीरेंति (भगः विशेष । ४ उसके चर्म का बना हया वस्त्र उद्दव उद्रव, उपद्रव] १ उपद्रव । पंनि ७८)। भूका, उदी रिसं, उदीरेंसु (प्राचा)। २ विनाश, हिंसा; 'प्रारंभो उद्दवो' (श्रा ७)। (भग)। भवि. उदीरिस्संति (भग)। वकृ. उह वि आई गोला, पाद ( षड़)। उद्दवइत्तु वि [उद्घोत, उपद्रोत्] १ उपद्रव उदरेत (ठा ७); 'कुसलबइमुदीरंतो (उप उद्दअ वि [उद्यत] उद्यम-युक्त (प्राकृ २१)। कग्नेवाला। २ हिंसक, विनाशक; 'से हता ६०४)। कवकृ. उदीरिजमाण (पएण उदंड । वि [उद्दण्ड] १ प्रचण्ड, उद्धत छेत्ता भेत्ता लुपित्ता उद्दवइत्ता विलुपित्ता २३)। हेकृ. उदारेत्तए (कस) उदंडग (कुमा; गउड)। २ पुं. हाथ में अकडं करिस्सामि त्ति मन्नमाणे (आचा)। उदीरग देखो उदीरय (पंच ५, ५)IV दण्ड को ऊँचा रखकर चलनेवाले तापसों उद्दव ग न [उद्रवग, उपद्रवग] १ उपद्रव, उदीरय न [उदीरण] १ कथन, प्रतिपादन । की एक जाति (प्रौपः निचू १) हरकत; 'उद्दवरणं पुरण जारणसु अइवायविवजियं' २ प्रेरणा। ३ काल-प्राप्त न होने पर भी उदंतुर वि [उद्दन्तुर] १ जिसका दंत बाहर (पिंड; औप)। २ विनाश, हिंसा (सं ८४; प्रयत्न-विशेष से किया जाता कर्म-फल का । प्राया हो वह । २ ऊँचा (गउड) आचा)। अनुभव (कम्म २, १३)। उदंभ पुं[उद्दम्भ छन्द का एक भेद (पिग)। उद्दवण न [अपद्रावण] मृत्यु को छोड़कर सब उदीरणया) श्री [उदीरणा] ऊपर देखो उदंस पुं [उदंश मधुमक्षिका, मत्कुरण । प्रकार का दुःख, 'उद्दवणं पुरण जाणसु उदीरणा (कम्म २,१३,१); 'जं करणे आदि छोटा कीट (कप्प)। अइवायविवजियं पोर्ड' (पिंडभा २५; पिंड गोकड्डिय उदए दिजइ उदीरणा एसा' (कम्मप उद्दड्ढ पुं [उद्दग्ध] रत्नप्रभा नरक-पृथिवी १७)। १४३, १६६) का एक नरकावास (ठा ६)। मज्झिम पुं । उद्दवणया) स्त्री [उद्भवणा, उपद्रवणा] उदीरय वि [उदीरक] १ कथक, प्रतिपादक । उद्दवणा ) ऊपर देखो (भगः परह १,१)। [ मध्यम] रत्नप्रभा पृथिवी का एक नरकावास ! २ प्रेरक,प्रवर्तक; 'एकमेक्कं विसयविसउदीरएसु' उद्दवाइअ देखो उड् डुवाइय; 'समणस्स एं (ठा ६)। वित्त पुं[वित्त] देखो पूर्वोक्त (पराह १,४)। ३ उदीरणा करनेवाला, काल भगवग्री महावीरस्स एव गरणा हुत्था, तं०अर्थ (ठा ६)। विसिट [वशिष्ट] देखो प्राप्त न होने पर भी प्रयत्न-विशेष से कर्म गोदासे गणे उत्तरबलिस्सहगणे उद्देहगणे पूर्वोक्त अर्थ (ठा ६)। फल का अनुभव करनेवाला (कम्मप १५६)। चारणगणे उद्दवातित-(इन)-गणे विस्सवातिउहहर न दे. ऊर्ध्वदर] सुभिक्ष, सुकाल उदीरिद देखो उदीरिय (राय ७४) IN (इअ)-गणे कामड्ढ्ति -(अ)-गणे माणवगणे (बृह १) कोडितगणे (ठा ) उदीरिय वि [उदीरित] १ प्रेरित, 'चालियाणं उद्दम पुन. देखो उजम = उद्यम (प्राकृ २१)। घट्टियाणं खोमियाणं उदीरियाणं केरिसे सहो उद्दरिअ वि [दे] १ उत्खात, उखाड़ा हुआ उद्दविअ वि [उद्रुत, उपद्रुत] १ पीड़िता भवति' (रायः जीव ३)। २ कथित, प्रति- (दे १,१००)। २ स्फुटित, विकसित; 'फुडिनं । _ 'संघाइया संघट्टिया परियाविश्रा किलामिया पादित; 'धोरे धम्मे उदीरिए' (प्राचा)। फलिनं च दलिनं उद्दरि' (पाप)। उद्दविया ठाणाप्रो ठाणं संकामिया' (पडि)। ३ जनित, कृत, 'ससद्दफासा फरुसा उदीरिया' उद्दरिअ वि [उद् + दृप्त] गर्वित, उद्धत, । २ विनाशितः 'नाऊण विभंगेणं नियजिट्ठसुयस्स (आचा)। ४ समय-प्राप्त न होने पर भी । अभिमानी (गदि)। विलसियं, तो सो सकुटुबो उद्दविप्रो (सुपा प्रयत्न-विशेष से खींच कर जिसके फल का उद्दलण न [उद्दलन] विदारण (गउड)। | ४०६)। अनुभव किया जाय वह (कर्म) (पएण २३; उद्दव सक [ उद्, उप + द्र] १ उपद्रव उद्दवेत्त देखो उद्दवइत्तु (प्राचा) । भग) IV करना, पीड़ा करना । २ मारना, विनाश | उद्दा सक [उद् + दा] बनाना, निर्माण उदु देखो उउ (प्रापः अभि १८९; पि ५७)। करना, हिंसा करना; 'तए णं सा रेवई गाहा करना । उद्दाइ (भग)। उदुंबर देखो उंबर (कस)। वईणी अन्नया कयाइ तासि दुवालसण्हं उद्दा अक [अब + द्रा] मरना। उद्दाई, उदुरुह सक [ उद् +रुह. ] ऊपर चढ़ना। सवत्तीणं अंतरं जाणित्ता छ सवत्तीमो सत्थप्प- उद्दायाति (भग)। संकृ. उद्दाइत्ता (जीव दुरुहइ (पि ११८)। प्रोगेणं उद्दवेइ, उद्दवेइत्ता छ सवत्तीयो ३.ठा १० भाग) उदृखल देखो उऊखल (पि ६६)। विसप्पनोगेणं उद्दवेइ, उद्दवेइत्ता तासि उद्दाइआ स्त्री [द्रोत्री, उपद्रोत्री] उपद्रव उदृग पुंन [दे] पृथिवी-शिला (पंचा ८, १० । दुवालसएहं सवत्तीणं कोलरियं एगमेगं करनेवाली स्त्री 'ताए वा उद्दाइपाए कोइ टी)। हिरएणकोडि एगमेगं वयं सयमेव पडिवजेइ, संजो गहितो होज्जा' (प्रोध १८ भा टी)। उदलिय वि [दे] अवनत, नीना नमा हुआ २त्ता महासयएणं समणोवासएणं सद्धि उरा- उद्दाईन देखो उद्दाय% शुभ् । (षड् ) । लाइ भोगभोगाइ भुंजमाणी विहरई (उवा)। उद्दाइत्ता देखो उद्दा = अव + द्वा। For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० पाइअसहमहण्णवो उद्दाण-उद्देसिय उद्दाण स्त्री [दे] चूल्हा, चूल्ली, जिसपर रसोई | उद्दाहग वि [उद्दाहक] प्राग लगानेवाला | उद्दीविअ वि [उद्दीपित] प्रदीपित, प्रज्वालित पकाई जाती है (दे १,८७)।। (पएह १, ३)। (पान); 'चीयाए पक्खिविउ तत्तो उद्दीविरो उद्दाण वि [अवद्रात मृत, 'उद्दाणे भोइयम्मि उद्दिढ वि [उद्दिष्ट] १ कथित, प्रतिपादित जलगो' (सुर ६, ८८) चेइयाई वंदामि' (सुख १, ३) । (विपा २, १)। २ निर्दिष्ट (दस)। ३ दान उद्य वि [उद्रुत] पलायित (पउम ६, के लिए संकल्पित (अन्न, पानादि); 'णायउहाम वि [उद्दाम] १ स्वैर, स्वच्छन्द पुत्ता उद्दिट्ठभत्तं परिवज्जयंति' (सूम २, (पान)। २ प्रचण्ड, प्रखरः 'ता सजलजल उद्य वि [उपद्रत] हैरान किया हुआ (स ६)। ४ लक्षित (सूम २,६)। ५ न. उद्देश। १३१) हरुद्दामगहिरसद्देण ताण तं कहइ' (सुपा (पंचा १०)। कड वि [कृत] साधु के उद्देस देखो उदिस उद्देसइ (भवि) २३४)। ३ अव्यवस्थित (हे १, १७७)।। उद्देश से बनाया हुआ, साधु के निमित्त उद्देसउद्देश] १ पठन-विषयक गुर्वाज्ञा उद्दाम दे] १ संघात, समूह । २ स्थपुट, किया हुअा (भोजनादि) (दस १०)। (अणु ३)। २ नाम का उच्चारण (सिरि विषमोन्नत प्रदेश (दे १, १२६)। उद्दिता स्त्री दे. उद्दिष्टा] तिथि-विशेष, | १०)। ३ बाचन, सत्र-प्रदान, सत्रों के उद्दामिय वि [उद्दामित] लटकता हुआ, | अमावस्या (औप)। मूल पाठ का अध्यापन (पव १)V प्रलम्बित: 'तत्थ एं बहवे हत्थी पासति उदित्त वि [उदीप्त प्रज्वलित (बृह १) | उद्देस उद्देशा१ नाम-निर्देश पूर्वक वस्तुसरणद्धबद्धवम्मियगुडिते उप्पीलियकच्छे उद्दा- उद्दिस सक [उद् + दिश ] आज्ञा करना। निरूपरण (विसे)। २ शिक्षा, उपदेश; 'उद्देसो मियघंटे (विपा १, २)। कर्म. उद्दिसिज्जति (अणु ३)। पासगस्स एत्थि'। ३ व्यपदेश, व्यवहार उद्दाय अक [शुभ ] शोभना, शोभित होना, | उद्दिस सक [उद् + दिश् ] १ नाम (प्राचा)। ४ लक्ष्य । ५ अभिप्राय, मतलब अच्छा मालूम देना। वकृ. 'उववरणेसु परहुय- निर्देश-पूर्वक वस्तु का निरूपण करना। २ (विसे)। ६ ग्रन्थ का एक अंश (भग १, रुयपरिभितसंकुलेसु उद्दायंत रत्तईदगोव देखना । ३ संकल्प करना। ४ लक्ष्य करना । १)। ७ प्रदेश, अयवः 'खुब्भति खुहिअमनरा यथोवयकारुन्नविलविएसु' (णाया १, १)। ५ अंगीकार करना। ६ सम्मति लेना। ७ आवापालगहिरा समदुद्देसा' (से ५, १६% उद्दाइंत (णाया १, १ टी) समाप्त करना। ८ उपदेश देना। उदिसइ १, २०)।८ गुरुप्रतिज्ञा, गुरु-वचन (विसे)। उद्दार देखो उराल = उदारः 'देमि न कस्सवि (वव २, ७)। कर्म. 'दस अज्झयणा एक्क- ६ जगह, स्थान (कप्पू)।। जंपइ उद्दारजणस्स विविहरयणाई' (वज्जा सरगा दससु चेव दिवसेसु उदिस्संति' (उवा)। उद्देस वि [औदेश] देखो उद्देसिय = १२०)/ कवकृ. उद्दिसिजंत (पावम)। संकृ. 'गो प्रौद्देशिक (पिड २३०)। उद्दरिअ वि [दे] १ युद्ध से पलायित, रण तासि समीवं, पुच्छियं महुरवाणीए एक्कं | उद्देसण न [उद्देशन] १ पाठन, बाचना, द्रुत । २ उत्खात, उन्भूलित ( षड्) कन्नगं उद्दिसिऊण, करो तुब्में (महाः अध्यापन: 'उद्दिसण वायरगत्ति पाठण्या उद्दाल सक [आ + छिद्] खींच लेना, हाथ | वव ७); 'तदवसाणे य एक्का पवरमहिला चेव एगट्ठा' (पंचभाः परह २, ५)। २ बंधुमई उद्दिस्स कुमारउत्तमंगे अक्खए से छीन लेना । उद्दालइ (हे ४, १२५; अधिकारिता, योग्यता (ठा ४, ३)। षड्ः महा)। हेकृ. उद्दालेउं (पि ५७७) । पाक्खवइ (महा); लादासय (प्राचा २. | उद्देसण काल पु[उद्देशनकाल] मूलसूत्र के १ अभि १०४) । हकृ. उादासउ, उद्दि- अध्यापन का समय (णंदि २०६)IV उहाल पुं[अवदाल] १ दबाव, अवदलना सित्तए (वव १० भा; ठा २, १)। प्रयो. 'तंसि तारिसगंसि सयरिणज्जंसि"गंगापुलिण उद्देसणा स्त्री [ उद्देशना] ऊपर देखो उद्दिसावित्तए, उद्दिसावेत्तए (बृह १; वालुअउद्दालसालिसए' (कप्प; गाया १,१)। (पंचभा)IV कस)V २ वृक्ष-विशेष (जीव ३)। ३ अवसर्पिणी उद्देसिय न [औदेशिक १ भिक्षा का एक उद्दिसिअ देखो उद्दिष्ट्र (प्राचा २)। काल का प्रथम आरा-समय-विशेष (जं दोष, साधु के लिए भोजन-निर्माण । २ वि. उहिसिअ वि [दे] उत्प्रेक्षित, वितर्कित (दे | साधु निमित्त बनाया हुआ (भोजन) (कस); उद्दालिय वि [आच्छिन्न] छीना हुआ, १, १०६) 'उद्देसियं तु कम्म एत्थं उद्दिस्स कीरए खींच लिया गया (पामा कुमा; उप पृ ३२३); उद्दीरणा देखो उदीरणा; 'उद्दीरणउदयाणं जंति' (पंचा १७; ठा ; अंत)। 'दो सारबलिद्दावि हु तेहिं उद्दालिया' (सुपा जं नाणत्तं तय वोच्छं' (पंच ५, ६८)। | उद्देसिय वि [औद्देशिक] १ उद्देश-सम्बन्धी २३८)IV उद्दीवण न [उद्दीपन] १ उत्तेजन । २ वि. उद्देश से किया हुआ। १ विवाह आदि के उद्दावणया स्त्री [उपद्रावणा] उपद्रव, हैरानी उत्तेजक (मै ५८ रंभा)। उपलक्ष्य में किए गए जीमन में निमन्त्रितों के (राज)IV उद्दीवणिज वि [उद्दीपनीय] उद्दीपक, भोजन की समाप्ति के अनन्तर बचे हुए वे उद्दाह पुं [उदाह] १ प्रखर दाह । २ आग उत्तेजक; 'मयणुद्दीवणिज्जेहिं विविहेहि | खाद्य द्रव्य जिनको सर्वजातीय भिक्षुओं को (ठा १०) भूसणेहि' (रंभा)। देने का संकल्प किया गया हो (पिंड २२६)। For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देह-उद्धरय पाइअसहमण्णवो १६१ उद्देह पुं [उद्देह] भगवान् महावीर का एक उद्धण वि [दे] उद्धत, अविनीत ( षड् )M (जी ५१); 'जेण उद्धरिया विजा, आगासगमा गण-साधु समुदाय (ठा है; कप्प) उद्धत्थ वि [दे] विप्रलब्ध, वञ्चित (दे १, | महापरिएगाओ' (पावम) । ३ आकृष्ट, खींच। उद्देहलिया स्त्री [उद्देहलिका] वनस्पति-विशेष | ६६)। हुआ। ४ निष्कासित, बाहर निकाला हुआ; (राज)IV उद्धदेहिय न [और्वदेहिक] अग्नि-संस्कार 'उद्धरियसव्वसल्ल-' (पंचा १६)। ५ जीर्ण उद्देहिया ।स्रो [दे] उपदेहिका, दीमक, | आदि अन्त्येष्टि क्रिगा (स १०६) वस्तु का परिष्कार करना; 'जिणमंदिरं न उद्देही त्रीन्द्रिय जन्तु विशेष (जी १६ उद्धम सक [उद्+ हन] १ शंख वगैरह । उद्धरिय' (विवे १३३) ।। स ४३५; प्रोष ३२३); 'उवदेहीइ उद्देही' फूकना, वायु भरना। २ ऊँचा फेंकना, | उद्धरिअ वि [दे] अदित, विनाशित (षड् )।' (दे १,६३)V उड़ाना । कवकृ. उद्धम्मंताणं संखाणं सिंगाणं उद्धल [दे] दोनों तरफ को अप्रवृत्ति (षड् )। उद्दोहग वि [उद्घोहक] घातक, हिंसक | संखियाणं खरमुहीणं' (राय); 'पायालसहस्स- उद्धव [उद्धव] ऊधो, श्रीकृष्ण का चाचा, (पएह १, ३) IV वायवसवेगसलिलउद्धम्ममाणदगरयरयंधकार मित्र और भक्त (रुक्मि ४६) । उद्ध, देखो उड्ढ़ (से ३, ३३; पि ८३; महा: (रयरणागरसागर)' (पएह १, ३, प्रौप) IVउद्धव वि [दे] उत्क्षिप्त, फेंका हुपा (दे १, हे २, ५६ ठा ३, २)। उद्धर सक [उद् + ह] १ फँसे हुए को उद्धअ वि [उद्धत] १ उन्मत्त (से ४, १३, निकालना, ऊपर उठाना ।२ उन्मूलन करना। उद्धविअ वि [दे] अघित, पूजित (दे १, पान)। २ गर्वित, अभिमानी (भग ११, ३ दूर करना । ४ खोंचना । ५ जीर्ण मन्दिर १०७) १०)। ३ उत्पाटित (णाया १, १)। ४ | वगैरह का परिष्कार-संस्कार करना। ६ उद्धा । सक [उद् + धाव] १ दौड़ना, अतिप्रबल; 'उद्धततमंधकार-' (परह १,३) किसी ग्रंथ या लेख के अंश-विशेष को दूसरी | उद्धाअ वेग से जाना। २ ऊँचे जाना। उद्धअ देखो उद्धरिअ = उद्धृतः ‘पावल्लेण पुस्तक या लेख में अविकल नकल करना। उद्धाइ (पि १६५) । वकृ. उद्धंत, उद्धाअंत, उवेच्च व उद्धयपयधारणा उ उद्धारों' (वव भवि. उद्धरिस्सइ (स ५६६)। वकृ. पइनगरं उद्धायमाण (कप्पा से ६, ६६, १३, ६१, १०)/ पइगामं पायं जिणमंदिराई पूयंतो, जिन्नाई प्रौप) उद्धअवि [दे] शान्त, ठंढा (षड् ) उद्धरंतो' (सुपा २२४); उद्धाअ अक [ ऊर्ध्याय ] ऊँचा होना। वकृ. उद्धंत देखो उद्धा । 'जयइ धरमुद्धरंतो भरणीसारियमुहग्गचलणेण। उद्धाअमाण (से १३, ६१) । उद्धंस सक [ उत् + धृष्] १ मारना। २ रिणयदेहेण करेण व पंचंगुलिणा महाकुम्मो। उद्धाअ वि [ऊद्धाव] उद्घावित, ऊँचा गया आक्रोश करना, गाली देना । उद्धंसेइ (भग (गउड)। हुआः 'छिएणकडए वहंत उद्घारिणअत्तगरुड१५) । उद्धं सेंति (गाया १, १६)IV संकृ. उद्धरिउं, उद्धरिऊण, उद्धरित्ता, मग्गिप्रसिहरे' (से ६, ३६)।उद्धंस सक [ उद् + ध्वंस् ] विनाश करना। उद्धरिन्तु, उद्धटुटु (पंचा १६ प्रारू); उद्धाअ ' [दे] १ विषमोन्नत प्रदेश । २ संकृ. उद्धंसिऊण (स ३६२)। 'तं लयं सव्वसो छित्ता, उद्धरित्ता समूलया' समूह । ३ वि. थका हुआ, श्रान्त (दे १, उद्धंसण न [उद्धर्षण] १ आक्रोश, निर्भर्त्सन । (उत्त २३; पंचा १६); 'बाहू उद्धट्टु कक्ख टूटु कक्ख- १२४) २ वध, हिंसा (राज)। मणध्वजे (सूत्र १, ४); 'तसे पारणे उद्धटु उद्धाइअ वि [उद्धावित] १ फैला हुआ, उर्द्धसणा स्त्री [उद्धर्षणा] ऊपर देखो (ोध पादं रीइज्जा' (आचा २, ३, १, ४) iv विस्तीर्ण, प्रसृत (से ३, ५२)। २ ऊँचा ३८ भा); 'उच्चावयाहिं उद्धं पणाहि उद्धंसेंति, उद्धर (अप) देखो उद्धर (भवि) ।। दौड़ा हुआ (से २, २२) (गाया १, १६) उद्धरण न [उद्धरण] १ ऊपर उठाना। २ | उद्धार पुं [उद्धार] १ त्राण, रक्षण (कुमा)। उद्धंसिय वि [उद्धर्षित] आष्ट, जिसपर फंसे हुए को निकालना (गउड); 'दौणुद्धरणम्मि | २ ऋण देना, उधार देना (सुपा ५६७; धा आक्रोश किया गया हो वह (निचू ४) धणं न पउत्त' (विवे १३५) । ३ उन्मूलन।। १४)। ३ अपहरण (अण) । ४ अपवाद उद्धच्छवि वि [दे] विसंवादित, अप्रमाणित ४ अपनयन (सूत्र १, ४, ६)IV (राज)। ५ धारणा, पढ़े हुए पाठ को नहीं (दे १, ११४)IV उद्धरण वि [दे] उच्छिष्ट, जूठा (दे १, १९६) भूलनाः 'पाबल्लेण उवेच च व उद्धयपयधारणा उद्धच्छविअ वि[दे] सज्जित, तैयार (दे | उद्धरिअ वि [उद्धृत] १ उत्पाटित, उत्क्षिप्तः | उ उद्धारो' (वव १०)। 'पलिओवम न १, ११६) 'हक्खुत्तं उच्छूढं उक्खित्त-उप्पाडिनाई उद्धरिश्र | [पल्योपम] समय का एक परिमारण उद्धच्छिअ वि [दे] निषिद्ध, प्रतिषिद्ध (दे (पान) । २ किसी ग्रन्थ या लेख के अंश- (अणु) । समय पुं [°समय] समय-विशेष १, १११)। विशेष को दूसरे पुस्तक या लेख में अविकल (अणु) । सागरोवम न [°सागरोपम] उद्धटू टु देखो उद्धर । नकल कर देना समय का एक दीर्घ परिमाण (मणु)।V उद्धड वि [उद्धृत] उठा कर रखा हुआ 'एसो जीववियारो, संखेरूईण जाणणा-हे। उद्धरय वि [उद्धारक] उद्धार-कारक (कुप्र (धर्म ३)। संखित्तो उद्धरिमो, रुंदामो सुय-समुद्दामो। २)। २१ For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ उद्घाव देखो उद्धा Iv उद्धव न [उद्भावन] नीचे देखो (या १) । उद्भावणा श्री [उद्भावना] १ प्रत प्रवृत्ति । २ दूर-गमन, दूर क्षेत्र में जाना (धर्मं ३ ) । ३ कार्य गरे शीघ्र सिद्धि (वय १ उद्धि देखो बुद्धि (षड् ) IV उद्धि स्त्री [दे] गाड़ी का एक अवयव, गुजराती 'उंघ' (सुज १०, ८ टीठा ३, २ टी-पत्र १३३) = उद्विज देखो वद्धरिअ उद्धृत (था ४० श्रपः रायः वव १३ श्रपः पच २८) | उद्धमुह वि [ऊर्ध्वमुख ] मुँह ऊँचा किया हुधा (चंद ४) । धुंधलियन [] चलाया हुआ (सण) उयि देखो उद्धव (सण) उधुम सक [पृ] पूर्ण करना, पूरा करना । उद्धुमइ (हे ४, १५) IV उधुमास [उद्+मा] १ धावा करना २ जोर से धमनी को चलाना । उद्घुमाइ उडमाइ (षड् प्रामा) 1 । उमावि [मापित ] ठंडा किया हुआ, निर्वाचित ( से १,८) IV उमावि [] १ परिपूर्ण; 'मायाइ उद्धमाया' (कुमा); 'पहित्यमुदुमायं श्राहिरेइयं च जाग आउरणे' (दि) । २ उन्मत्तः 'मरंदरसुद्धुमात्रमुहल महुअर' ( से ६, ११) । उद्घय वि [ उद्धूत] १ पवन से उड़ा हुआ ( से ७, १४) । २ प्रसूत, फैला हुआ 'गंधुदुयाभिरामे' ( औप ) । ३ प्रकम्पितः 'वाउयविजयवेजयंती' (जीव ३) । ४ उत्कट, ( सम १३७ ) । ५ व्यक्त, प्रकट (कप्प) उदर [र] ऊँचा, उच्च उ प्रबल उच्च' (पात्र) । २ प्रचण्ड, प्रबल (सुर ३,३६; १२, १०६.) । उदूधुन्वंत उदूधुव्वामाण उदूधुनिय वि [ उद्धुषित ] रोमाथ 'श्रन्नोन पिएहि हसिउद्धु सिएहि खिप्यमाणो देखो उधू (ब) २ वि. रोमा पुलकित दे १, ११५२, १०० उसियम सीलनले संगती (मुर २१०१) 'सिमकेसर' (महा पाइअसद्दमहणव उद्धू सक [ उद् + धू] १ कँपाना, चलाना । २ चामर वगैरह बीजना, पंखा करना । कवकृ. उद्धवंत, उधुव्वमाण ( पउम २, ४० कप्प ) 1 उद्भूणिय देखो उद्ध्रुव (स) उदूभूद (शी) देखो उद्वार ३५ उद्दूल सक [ उद् + धूलय् ] १ व्याप्त करना । २ धूलि लगाना । उदूधुलेइ (हे Y, RE) IV उद्भू [उद्धूत] पूति को मङ्ग पर लगाना; 'जारमसारणसमुब्भवभूइसुहप्फंस सिजरंगीए । समप्प गवकावालिश्राइ उद्धृलणारंभो । (गा ४०८ ) । उनि उ]ि भूमि से लपेटा हुआ । २ व्याप्त; 'तिमिरोवलिनभवणं' (कुमा) 1 उणिवा श्री [उद्धृपनिका] भूप देना, 'कवि विरामपुरीसहि उवरियम्मि खिवित्ता उद्भूवरिणयं पयच्छति ।' (सुर १४, १०४) । उवि [भूषित] जिसको भूप किया गया हो वह (विक्र ११३) उद्घोस पुं [ उद्धर्ष] उल्लास, ऊँचा होना (सट्ठि ε५); 'जं जं इह सुहुमबुद्धीए चितिज तं सव्वं रोमुद्धोसं जणेइ मह अम्मी' (सुपा ६४) । नंद स [उद्+न] धभिनन्दन करता । कवकृ. उन्नंदिज्जमाणे' क. "हिममालासह सेहि उदिमाणे (कप्प) 1 उद्धाव - उप्प उन्नय देखो उण्णय (सुपा ४७६ सम ७१३ कप्प) उन्ना देखो उण्णा मय वि [मय ] ऊन का बना हुआ (सुपा ६४१) IV उन्नडियन [ उन्नाटित ] हर्षं द्योतक आवाज ( स ३७६) उन्नाम पुं [उन्नाम] १ ऊँचाई । २ अभिमान, (सम ७१) । उन्नामि वि [ उन्नमित] ऊँचा किया हुआ (पामा महा स ३७७) । उन्नाव [दे] देखो उगाडि 'ज्यालिश्रं उन्नामिश्र (पान) For Personal & Private Use Only उन्नाह ; [उन्नाह] ऊँचाई (पान) । उन्निअ देखो उण्णिअ = श्ररिंगक ( ओघ VOX)I उभिक्ख सक [उन्नि + खन्] उखाड़ना, उन्मूलन करना। भवि उन्निक्खिस्सामि (सूत्र २, १, ६) । कृ. उन्निक्वेयन्त्र ( सू २, १,७) । उन्निक्खमण न [ उन्निष्क्रमण] दीक्षा छोड़ कर फिर गृहस्थ होना, साधुपन छोड़कर फिर गृहस्थ बनना (उप १३० टी; ३६६) उन्नी देखो उण्णी । कवकृ. उन्नइज्ज माण उन्न न [ऊर्ण] ऊन, भेड़ या बकरी के रोम । "मय वि [मय ] ऊन का बना हुआ, 'गोवालियाण विदं नच्चाव फारमुत्तियाहारं । उपवासनियापहराभोगं ॥ उपरि } देखो उवरि (विसे १०२१; षड् ) । (सुपा ४३२) । (षड् ) । वि उन्न (अप) [विषण्ण] विषाय-प्राप्त उपरि देखो उधर खिन्न (षड् ) V उपवज्जमाण देखो उववाय = उप + वादय् । उन्नइ देखो उण्णइ (काल सुपा २५७ प्रासू उपसप्प देखो उवसप्प | उपसप्पइ ( षड् ) । २८; सार्धं ३४) । उन्नइजमाण देखो उनी सं. उपसप्पिय (नाट) । उन्नइय वि [उन्नीत] ऊँचा लिया हुआ (पउम १०५, ५७ ) IV उन्हाल (अप) पुं [ उष्णकाल ] ग्रीष्म ऋतु (भवि) 1 उपक्खर न [ उपस्कर ] घर का उपकरण (उत्त६६) उपंत न [ उपान्त] १ पिता या पीछे का भाग । २ वि. समीपस्थ (गा ९६३) । उपाणदिय पुंखी [ उपानत् ] जूता, अन्नदि पापाहिए मुत्तमाखा (मुपा २२) तह पहिया वाहिस्स (सुपा २) उप्प देखो ओप्प (पि १०४: = अर्पय् । उप्पेइ हे १,१६ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पइअ-उप्पाएत्तए पाइअसद्दमण्णवो १६३ उप्पइअ वि [उत्पतित] ऊँचा गया हुआ, बिना शास्त्राभ्यासादि के ही होनेवाली बुद्धि, को चौरासी लाख से गुणने पर जो संख्या उड़ा हुप्रा; 'सेवि य ागासे उप्पइए' (उवा स्वाभाविक मति (ठा ४, ४; पाया १,१) लब्ध हो वह (ठा २, ४)। सुर ३,६६)। २ उन्नत, ऊँचा (आचा)। उप्पन्न देखो उप्पण्ण (उवा: सुर २, १६०) उप्पला स्त्री उित्पला] १एक इन्द्राणी, काल ३ उद्भूत, उत्पन्न (उत्त २)। ४ न. उत्पतन, उप्पय सक [ उत् + पत्] उड़ना, कूदना।। नामक पिशाचेन्द्र की एक अग्र-महिषी (ठा उड़ना (ोप)। उप्पयइ (महा)। वकृ. उप्पयंत, उप्पयमाण ४, १)। २ इस नाम का 'ज्ञाताधर्मकथा' का उप्पइअ वि [उत्पाटित] उत्थापित, उठाया (उप १४२ टी; गाया १,१६) । संकृ. उप्प एक अध्ययन (गाया २, १)। ३ स्वनाम हुआ; 'खुडिउप्पइअमुणालं दळूण पिनं व इत्ता (प्रौप)। कृ. उप्पइअव्व (से ६,७८)। ख्यात एक श्राविका (भग १२, १)। ४ एक सिढिलवलनं एलिरिण' (से १, ३०) हेकृ. उप्पइउं (सुर ६, २२२)। पुष्करिणी (जीव ३) उप्पय देखो उपव। वकृ. उप्पअंत (से ५, | उप्पलिणी स्त्री [उत्पलिनी] कमलिनी, कमल उप्पड ( देखो उप्पय उत् + पत् ।। का गाछ या पौधा (पराग १)IV उप्पंक वि [दे] १ बहु, अत्यन्त । २ पुं. पङ्क, उप्पय पुं [उत्पात] १ उत्पतन, ऊँचे जाना, उप्पल्ल वि [दे] अध्यासित, आरूढ़ ( षड् )। कीचड़, काँदो । ३ उन्नति (दे १, १३०)। कूदना, उड्डयन । २ उत्पत्ति; 'प्रवट्ठिए चले उप्पव सक [उत् + प्लु] १ लाँघना, पार ४ समूह, राशि (दे १, १३०; पाम गउड; मंदपडिवाउप्पयाई य' (विसे ५७७)। 'निवय करना, तैरना। २ ऊँचा जाना, उड़ना । वकृ. स ४३७)IV पुं[निपात] १ ऊँचा-नीचा होनाः उप्पवंत, उप्पवमाण (से ५,६१, ८,८६)। उप्पंग पुं[दे] समूह, राशिः 'खरपवणुद्धय सायरतरंगवेगेहिं हीरए नावा। उप्पवइय वि [उत्प्रव्रजित जिसने दीक्षा 'एवपल्लवं विसरणा, पहिया गुरुकुल्लोलवसुट्ठियनंगरनियरेण धरियावि ॥ छोड़ दी हो वह, साधु होकर फिर गृहस्थ पेच्छंति चूअरुक्खस्स। अरणवरयतरंगेहि उप्पयनिवयं कुणंतिया वहई' बना हुमा (स ४८५) V कामस्स लेहिउप्पंगराइभं (सुर १३, १९७)। २ नाट्य-विधि का एक उप्पह पुं[उत्पथ] उन्मार्ग, कुमार्गः 'पंथाउ हत्थभल्लं व ॥' (गा ५८५) । प्रकार (जीव ३) IV उप्पहं नेति (निचू ३ से ४, २६; हेका | उप्पयण न [उत्पतन] ऊँचा जाना, उड्डयन उप्पज्ज प्रक [उत् + पद्] उत्पन्न होना । २५६) । जाइ वि [ यायिन् उलटे रास्ते (ठा १०; से ६, २४) । उप्पजति (कप्प)। वकृ. उप्पज्जत, उप्पज जानेवाला, विपथ-गामी (ठा ४, ३)TV उप्पयण न [उत्प्लवन] जल को लाँघना, माण (से ८,५५, सम्म १३४; भगः विसे उप्पा स्त्री देखो उप्पाय- उत्पाद (ठा १तैरना (से ५, ६०) ३३२२) पत्र १६ ठा ५, ३-पत्र ३४६)।। उप्पयणी स्त्री [उत्पतनी] विद्या-विशेष (सूत्र उप्पड सक [उत् + पत्] उड़ना, ऊँचा २, २, २७) । उप्पाइ वि [ उत्पादिन ] उत्पन्न होनेवाला जाना, कूदना (प्रामा) (विसे २८१९)। उप्परि (अप) देखो उवरि (हे ४, ३३४, उप्पड [उत्पट] श्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष, क्षुद्र पिंग)। उप्पाइत्ता देखो उप्पाय = उत् + पादय ।। कीट-विशेष (राज)V उप्परिवाडि, डी स्त्री [उत्परिपाटि, टी] उप्पाइत्तु वि [उत्पादयितु] उत्पादक, उत्पन्न उप्पडिअ देखो उप्पइअ (नाट)। उलटा क्रम, विपर्यास, विपर्ययः 'उप्परिवाड़ी करनेवाला (ठा ७) उप्पण सक [ उत् + पू) धान्य वगैरह को | वहणे चाउम्मासा भवे लहुगा' (गच्छ १)। | उप्पाइय न [औत्पातिक] भूकंप आदि सूप आदि से साफ-सुथरा करना। कर्म. 'साली | उप्परोप्पर अ [उपयु परि] ऊपर-ऊपर (स उत्पातों का सूचक शास्त्र (सूत्र १, १२, ६)। उप्पाइय वि [उत्पादित] उत्पन्न किया हुआ, वीही जवा य लुब्वंतु मलिज्जंतु उप्पणिज्जंतु | १४०)। 'उप्पाइयाविच्छिएणकोउहलत्ते (राय)। ये (पएह १, २) उप्पल न [उत्पल] १ कमल, पद्म (गाया १, १; भग)। २ विमान-विशेष (सम ३८)। उप्पणण न [उत्पवन सूप आदि से धान्य | उप्पाइय वि [औत्पातिक] १ अस्वाभाविक, कृत्रिमः 'उप्पाइयपव्वयं व चंकमत'। २ पाकवगैरह को साफ-सुथरा करना (दे १,१०३) ३ संख्या-विशेष, 'उप्पलंग' को चौरा . लाख स्मिक, अकस्मात होनेवाला: 'उप्पाइया वाही' उप्पण्ण वि [उत्पन्न] उत्पन्न, संजात, उद्भूत से गुणने पर जो संख्या लब्ध हो वह (ठा २, (राज)। ३ न. अनिष्ट-सूचक आकस्मिक उपद्रव, (भग नाट)। ४)। ४ सुगन्धि द्रव्य-विशेषः 'परमुप्पलगंधिए' उत्प, 'भो भो नावियपुरिसा सकन्नधारा समुउप्पत्त वि [दे] १ गलित । २ विरक्त (जं ३)। ५ पुं. परिव्राजक-विशेष (प्राचू | (षड् ) जया होह। दीसइ कयंतवयणं व भीममुप्पाइयं १)। ६ द्वीप-विशेष । ७ समुद्र-विशेष (पएण १५)। "वेंटग पुं[वृन्तक] आजीविक उप्पत्ति वि [उत्पत्ति] उत्पत्ति, प्रादुर्भाव जेए' (सुर १३, १८६) उप्पाए (उव) मत का एक साधु-समाज (प्रौप)। उप्पाएंत देखो उपाय = उत्+पादय। उप्पत्तिया स्त्री [औत्पत्तिकी] बुद्धि-विशेष, | उप्पलंग न [उत्पलाङ्क] संख्या-विशेष, 'हुहुय' उप्पाएत्तए) For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ पाइअसद्दमण्णवो उप्पाड - उप्पीलिय उप्पाड सक [उत् + पाटय् ] १ ऊपर | [ पूर्व प्रथमपूर्व, ग्रन्यांश-विशेष, बारहवें | ८, १७५; १२, ८७); 'उप्पिच्छमंथरगईहिं' उठाना। २ उखाड़ना, उन्मूलन करना। उप्पा- जैन अङ्ग-ग्रन्थ का एक भाग (सम २६) IV (भत्त ११६)। डेह (पएह १,१ स १५, काल)। कृ. उप्या- उप्पायग वि [उत्पादक] १ उत्पन्न करने- उप्पिण देखो उप्पण । वकृ. उप्पिरिणत (सुपा डणिज (सुपा २४६) । संकृ. उप्पाडिय वाला। २ पुं. त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष, कीट- ११)IV (नाट) विशेष (वव ८) | उपिपत्थ वि [दे] १ त्रस्त, भीत (दे १, उप्पाड सक[उत् + पादय् ] उत्पन्न करना। उप्पायण न [उत्पादन] १ उत्पादन, उपार्जन १२६ से १०, ६१; स ५७४; पुफ्फ ४४३; संकृ. उप्पाडिऊण (विसे ३३२ टी)। (ठा ३,४) । २ वि. उत्पादक, उपार्जक (पउम गउड); "कि कायब्वविमूढ़ा सरणविहूणा उप्पाड पुं [उत्पाट] उन्मूलन, उत्खनन । ३०, ४०)। भयुप्पित्था' (सुर १२, १६०)। २ कुपित, 'नयरणोप्पाडो' (उप १४६ टी ६८६ टो) उपायणया। स्त्री [उत्पादना] १ उपार्जन, क्रुद्ध । ३ विधुर, प्राकुल (दे १, १२६; उप्पायणा उत्पन्न करना। जैन साधु की | पा) उप्पाडण न [उत्पाटन] १ उत्थापन, ऊपर भिक्षा का एक दोष (ओघ ७४६ ठा ३, ४, | उप्पित्थ वि [दे] स्वास-युक्त (गीत) (राय उठाना । २ उन्मूलन, उत्खनन (स २६६; पिण्ड १)। ७७ टी) राज)। उप्पायय वि [उत्पादक] उत्पन्न-कर्ता (सुख | उप्पिय सक [उत् + पा] १ प्रास्वादन उपाडिय वि [उत्पाटित] १ ऊपर उठाया | २, २५)। करना । २ फिर-फिर स्वास लेना। वकृ. हुया (पान प्रारू)। २ उन्मूलित (आक)M उप्पाल सक [कथ् ] कहना, बोलना। उप्पा. उप्पियंत (पएह १, ३-पत्र ५५; राज) ।। उप्पाडिय वि [उत्पादित] उत्पन्न किया हुआ लइ (हे ४, २) । उप्पालसु (कुमा)। उप्पिय वि [अर्पित] अर्पण किया हुआ 'उप्पाडियरणागारणं खंदगसीसारण तेसि नमो' उप्पाव सक [उत् + प्लावय ] १ लैंचाना, (हे १, २६६)। (भाव १३) IV तैराना । २ कुदाना, उड़ाना। उप्पावेइ (हे | उप्पियण न [उत्पान] फिर-फिर स्वास लेना उप्पादअ वि [उत्पादक] उत्पन्न कर्ता (प्रयौ २, १०६) । कवकृ. उप्पियमाण (उवा) M (राज)। १७)। उप्पास सक [ उत्प्र + अस् ] हँसी करना। | उप्पियमाण देखो उप्पाव उत्पादीअमाण देखो उपाय = उत् + पादय् । उप्पासिति (सुख १, १६) उप्पिलण न [उत्सावन] लाँघना (पिंड ४२२)। उपाय सक [उत् + पादय् ] उत्पन्न करना, उप्पाहल न [दे] उत्कंठा, उत्सुकता (पास)। उप्पिलाव देखो उप्पाव। उप्पिलावेइ । वकृ. बनाना । उष्पाएहि (काल) । वकृ. उप्पाएत, उप्पिलावंत; 'जे भिक्खू सरणं नावं उप्पिउप्पि सक[ अपेय ] देना। उप्पिउ (कप्प)M लावेइ. उप्पिलावंत वा साइज्जई' (निचू १८) उप्पायंत (सुर २, २२, ६, १३)। संकृ. उपि अ [उपरि] ऊपर; 'कहि णं भंते ! जोइ- उप्पीड पुंदे. उत्पीड] समूह, राशि (से ४, उप्पाएत्ता (भग)। हेकृ. उप्पाइत्ता, उप्पा सिया देवा परिवसंति ? गोयमा ! उप्पि दीव- ३७ ए; उप्पाएत्तए (राज, पि ४६५, रणाया ) समुदाणं इमीसे रयणप्पभाए पुढ़वीए' (जीव १, ४)। कवकृ. उप्पादीअमाण (शौ) उत्पीडण न [उत्पीडन] १ कस कर बांधना। (नाट) IV ३ णाया १, ६ठा ३, ४ प्रौप) २ दबाना (से ८, ६७)।। उप्पाय धुन [उत्पात १ उत्पतन, ऊध्र्व-गमनः उम्पिगलिआ स्त्री [दे] हाथ का मध्य भाग, उप्पील सक [उत् + पीडय] १ कस कर 'नं सग्गं गंतुमणा सिखंति नहंगणुप्पायं' करोत्संग (दे १, ११८) IV बाँधना। २ उठवानाः 'सएणं वा गावं (सुपा १८०)। २ आकस्मिक उपद्रव; 'पव | उम्पिजल न [दे] १ सुरत, संभोग । २ रज, उप्पीलावेज्जा (पाचा २, ३, १, ११)। हणं च पासइ समुहमज्झे उप्पाएण छम्मासे धूली। ३ अपकीत्ति, अपयश (दे १, १३५) उप्पीलवेज्जा (पि २४०)। भमंतं ताहे अणेण तं उत्पायं उवसामियं' उप्पिजल वि [उत्पिजल] अति-पाकुल, उप्पील पुं[दे] १ संघात, समूह (दे १, (महा)। ३ माकस्मिक उपद्रव का प्रतिपादक | व्याकुल (कप्प) १२६; सुपा ६१, सुर ३, ११६, वज्जा ९०B शास्त्र, निमित्त-शास्त्र-विशेष (ठा ; सम ४७; उप्पिजल अक [ उत्पिञ्जलय् ] आकुल की पुफ्फ ७३; धम्म १२ टी); 'हुयासणो दहे परह १,४)। निवाय पुं["निपात चढ़ना | तरह आचरण करना। वकृ. उम्पिजलमाण सव्वं जालुप्पीलो विरणासए' (महा)। २ और उतरना (स ४११) (कप्प)।। स्थपुट, विषमोन्नत प्रदेश (दे १, १२६) उपाय पुं [उत्पाद] उत्पत्ति, प्रादुर्भाव (सुपा | उप्पिच्छ [दे] देखो उप्पित्थः 'प्राहित्थं उप्पीलण न [ उत्पीडन ] पीड़ा, उपद्रव ६ कुमा)। पव्वय पुं[पर्वत] एक प्रकार उप्पिच्छं च पाउल रोसभरियं च', 'भीयं दुय- (स २७.)। के पर्वत, जहां प्राकर कई व्यन्तर-जातीय देव- मुप्पिच्छमुत्तालं च कमसो मुणेयन्वं' (जीव ३); | उप्पीलिय वि [उत्पीडित] कस कर बांधा देवियां क्रीड़ा के लिए विचित्र प्रकार के शरीर 'हत्थी ग्रह तस्स सवडहुत्तो पहाविमो पाय- हमा, उप्पीलियचिधपट्टगहियाउहपहरणा' (पएह बनाते हैं (सम ३३, जीव ३)। पुव्व न रुप्पिच्छो', 'रक्खससेन्नपि पायरुप्पिच्छे (पउम । १, ३, विपा १, २) । For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पुअ-उबिबिर पाइअसद्दमहण्णवो १६५ उप्पुअवि [उत्प्लुत] उच्छलित, कूदा हुआ उप्फाल पुं[दे] खल, दुर्जन (दे १, ६०, उप्फुस सक [उत् + स्पृश् ] सिंचना, छिड(से ६, ४८; पण्ह १, ३) पाप)M कना । संकृ. उप्फुसिऊण (राज)। उप्पुंसिअ देखो उप्पुसिअ (से ६, ८५)। उप्फाल सक [उत् + पाटय् ] १ उठाना। उप्फेणउप्फेणिय किवि [दे] क्रोध-युक्त उप्पणिअ वि [उत्पूत] सूप से साफ-सुथरा २ उखाड़ना । उफ्फालेइ (हे २,१७४)V | प्रबल वचन से; 'उप्फेणउप्फेरिणयं सीहरायं किया हुअा (पान) उप्फाल सक [कथ् ] कहना, बोलना । एवं वयासी' (विपा १, ६-पत्र ६०)। उप्पुण्ण वि [ उत्पूर्ण ] पूर्ण, व्याप्त (स उप्फालेइ (हे २, १७४) ।। उप्फेस पुं[दे] १ त्रास, भय (दे १, ६४) । २५) । | उप्फाल वि [कथक] कहनेवाला, सूचक | २ मुकुट, पगड़ी, शिरोवेष्टनः 'पंच रायककुहा उप्पुलइअ वि [उत्पुलकित] रोमाञ्चित (स ६४४)। पएणत्ता, तं जहा-खग्गं छत्तं उपफेसं (स २८१)। उप्फालिअ वि [कथित] १ कथित । २ | उवाहणाउ बालवियणी' (ठा ५, १-पत्र उप्पुसिअ वि [उत्प्रोञ्छित] लुप्त, प्रोञ्छित ___३०३ औप; पाचा २, ३, २, २)/ सूचित (पाय; उप ७२८ टी स ४७८)। (से ६, ८५ गउड)। उप्फेसण न [दे] डराना, भयोत्पादन (सुख उरिफड अक [उत् + स्फिट ] कुण्ठित उप्पूर पुं[उत्थर ] १ प्राचुर्य ( पण्ह १, ___३, १)। होना, असमर्थ होना । उफ्फिडइ, उप्फेडइ। ३) । २ प्रकृष्ट-प्रवाह (प्रौप) V उप्फोअ ' [दे] उद्गम, उदय ( दे १, 'एमाइविगप्पणेहिं वाहिज्जमाणो उप्फि- फे)उपेक्ख (अप) देखो उविक्ख । उप्पेक्ख ६१) डइ परसू' (महा)(पिंग) IV उबुस सक [ मृज ] मार्जन करना, शुद्धि उपेक्स सक [उत्प्र + ईक्ष ] संभावना | उप्फिड अक [उत् + स्फिट ] मंडूक की करना, साफ करना । उबुसइ ( षड् )। करना, कल्पना करना। उप्पेक्खामि (स तरह कूदना, उड़ना । उप्फिडइ (उत्त २७, उब्बंध सक [उद् + बन्ध् ] १ फाँसी १४७) । उप्पेलेमि (स ३४६) IV ५)। वकृ. उप्फिडंत (पव २)। लगाना, फ.सी लगा कर मरना। २ वेष्टन उपेक्खा स्त्री [उत्प्रेक्षा] १ अलंकार-विशेष उप्फिडण न [उत्स्फेटन] कुण्ठित होना करना। वकृ. 'जलनिहितडम्मि दिट्ठा उब्बं २ वितरणा, संभावना (गा ३३९)। (स ६६८)। धंती इहप्पाणं' (सुपा १६०)। संकृ. उब्धं - उप्पेक्खिअ वि [उत्प्रेक्षित] संभावित, उटिफडिय वि [उत्स्फिटित] १ कुण्ठित । धिअ, उब्बंधिऊण ( नाट; पि २७०; विकल्पित (दे १, १०६) । २ बाहर निकला हुआ; 'कत्थइ नक्कुक्क स ३४६) V उप्पेय न [दे] अभ्यंग, तैलादि की मालिश त्तियसिप्पिपुडुप्फिडियमोत्तिया. नो' (सुर १३, उन्बंधण न [उदबन्धन] फांसी लगाना, 'पुब्वं च मंगलट्ठा उप्पेयं जइ करेइ गिहियाणं' २१३)।। उल्लम्बन (ie , ५)। (वव ६) उप्फुकिआ स्त्री [दे] धोबिन, कपड़ा धोने उब्बण बि [उल्बण] उत्कुट (पि २६६) । उप्पेल सक [ उद् + नमय ] ऊँचा करना, वाली (दे १, ११४)। उब्बद्ध वि [उद्बद्ध] १ जिसने फांसी लगाई उन्नत करना । उप्पेलइ (हे ४, ३६)। | उप्फुडिअ वि [दे] प्रास्तृत, बिछाया हुआ | हो वह, फाँसी लगा कर मरा हुमा। २ उप्पेलिअ वि [उन्नमित] ऊँचा किया हुआ, (दे १, ११३)। वेष्ठितः 'भुभंगसंघायउब्बद्धो' (सुर ८, ५७)। उन्नत किया हुआ (कुमा)। उप्फुण्ण वि [दे] अापूर्ण, भरा हुआ, ३ शिक्षक के साथ शत्तों से बँधा हुआ, शिक्षक उप्पेल्ल पुं [उन्नमन] ऊंचा करना (पउम ८, व्याप्त (दे १, ६२, सुर १, २३३, ३, के प्रायत्त (ठा ३); २७२) । २१५)। 'सिप्पाई सिक्खंतो, उप्पेस पुं[उत्पेष त्रास, भय, डर (से १०, | उप्फुन्न वि [दे] स्पृष्ट, छुपा हुआ (पव सिक्खावेंतस्स देइ जा सिक्खा। ६१) १५८ टी)। गहियम्मिवि सिक्खम्मि, उप्पेह्ड वि [दे] उद्भट, आडम्बरवाला उप्फुल्ल वि [उत्कुल] विकसित (पान से जं चिरकालं तु उब्बद्धो (बृह)।(दे १, ११६; पाना स ४४६)। ६, ६६)। उब्बिब वि [दे] १ खिन्न, उद्विग्न । २ शून्य उप्फ देखो पुप्फ (गा ६३६) उप्फुल्लिा स्त्री [उत्फुल्लिका] क्रीड़ा विशेष, ३क्रान्त । ४ प्रकट वेष वाला। ५ भीत, डरा उप्फण सक [ उत् + फण ] छाँटना, पवन पांव पर बैठ कर बारंबार ऊँचा-नीचा होना: पाँव पर बैठ कर बारंबार ऊँचा-नीचा होनाः | हुमा । ६ उद्भट (३१, १२७ वज्जा ६२)। में धान्य आदि का छिलका दूर करना । 'उप्फुलिपाइ खेल्लउ, | उब्बिंबल वि [दे] कलुष जलवाला (दे उप्फरणंति, भूका. उप्फरिणसु, भवि. उप्फ मा णं वारेहि होउ परिऊढा। १११ टी)V रिणस्संति (आचा २, १, ६, ४)।V मा जहणभारगरुई, | उब्बिंबल न [दे] कलुष जल, मैला पानी उप्फंदोल वि [दे] चल, अस्थिर ( दे १, पुरिसातो किलिम्मिहिई (दे १,१११)। १०२)। (गा १६६)V । उब्धिबिर वि [दे] खिन्न, उद्विग्न (कप्पू) । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ पाइअसदमहण्णवो उब्बुक्क उभिग उब्बुक्क सक [ उद् +बुक्क् ] बोलना, कहना। उब्भग्ग वि [दे] गुण्ठित. व्याप्तः 'तिमि- उब्भालिअ वि [दे] सूप आदि से साफ किया उब्बुक्कइ (हे ४, २) रोब्भग्गणिसाए' (दे १, ६५; नाट) हुप्रा, उत्पूतः 'उब्भालिग्रं उप्पुरिण' (पान)। उब्बुक्क न [दे]१ प्रलपित, प्रलाप । २ उम्भजि स्त्री [दे] कोद्रव-समह (राज) । उब्भाव अक [ रम् ] क्रीड़ा करना, खेलना । संकट । ३ बलात्कार (दे १, १२८) उन्भड वि [उद्भट] १ प्रबल, प्रचण्ड उम्भावइ (हे ४,१६८ षड् )। वकृ. उब्भाउब्बुड अक [ उद् + ब्रुड् ] तैरना । 'उब्भडपवरणपकं पिरजयप्पडागाइ अइपयर्ड' वंत (कुमा) उब्बुड [उद्बुड] तैरना। निबुड, (सुपा ४६ ); 'उब्भडकल्लोलभीसणारावे' उब्भावणया। स्त्री [उद्भावना] १ प्रभाउब्बुड्ड) निब्बुड्डण न [निब्रुड, ण] (गमि ४)। २ भयंकर, विकराल (भग ७, उन्भावणा वना, गौरव, उन्नतिः 'पवयणउभचुभ करना (पएह १,३; उप १२८ टी) ६)। ३ उद्धत, आडंबरी (पान); उब्भावण्या ' (ठा १०--पत्र ५१४)। २ उब्बुड्ड वि [उद्बुडित उन्मग्न, तीर्ण (गा | अइरोसो अडतोसो प्रदामो उत्प्रेक्षा, वितर्कणाः 'असब्भावउब्भावणाहिं' ३७; स ३६०)। दुजरोहिं संवासो। (णाया १, १२-पत्र १७४) । ३ प्रकाशन, उब्बुड्डण न [उद्ब्रुडन] उन्मज्जन (कप्पू) अइउन्भडो य वेसो पंचवि प्रकटीकरण (पंदि)।V उब्बुह अक [ उत् + क्षुभ् ] संक्षुब्ध होना। गरुयंपि लहुअंति।' (धम्म) उब्भाविअ न [रमण सुरत, क्रीडा, संभोग उब्बुहइ (प्राकृ ७५) । । उब्भम उद्भ्रम १ उद्वेग २ परिभ्रमण (दे १, ११७) उब्बूर वि [दे] १ अधिक, ज्यादा। २ पुं. (नाट)। उब्भास सक [उद् + भासय ] प्रकासंघात, समूह । ३ स्थपुट, विषमोन्नत प्रदेश | उन्भव अक [उद् + भू] उत्पन्न होना। शित करना । वकृ. उब्भासंत, उब्भात (दे १, १२६)। उब्भवइ (पि ४७५; नाट)। वकृ. उब्भवंत (पउम २८, ३६, ३, १५५) । उम्भ सक [ ऊर्ध्वय ] ऊँचा करना, खड़ा (सुपा ५७१, ६५६) । करना। उन्भेउ ( वज्जा ६४), उभेह ! उब्भव अक [ऊर्ध्वय ] ऊँचा करना, खड़ा उब्भासिय वि [उद्भासित] प्रकाशित (महा) V करना। (हेका २८२); उब्भ देखो उड्ढ़ (हे २, ५६; सुर २,६; उब्भव [उद्भव उत्पत्ति, प्रादुर्भाव (विसे 'भवरणाप्रो नीहरते जिणम्मि णाया १,२) चाउविहेहिं देवेहि । उन्भंड पुं [उद्भाण्ड] १ उत्कट भौड़, उन्भविय वि [ऊधित] ऊँचा किया हुआ इंतेहि य जंतेहि य बहुरूपा, निलंब हंडा, उन विदूषक; (उप पृ १३० वज्जा १४) कहमिव उब्भासियं गयणं ।' 'खरउत्ति कहं जारणसि उब्भाअ वि [दे] शान्त, ठंढा (दे १, ६६) (सुपा ७७)। देहागारा कहिति से हंदि। उब्भाम सक [उद् + भ्रामय् ] घुमाना। उन्भासुअ वि [दे] शोभाहीन (दे १, उभामेइ (राय १२६) ११०) छिक्कोवण उन्भंडो उब्भाम पुं [उद्भ्राम] १ प्ररिभ्रमण (ठा ___णीयासि दारुणसहावो। (ठा ६ टी)। उन्भासेंत देखो उब्भास ४)। २ वि. परिभ्रमण करनेवाला (वव २ न. गाली, कुत्सित-वचनः 'उन्भंडवयण-' उब्भि देखो उब्भिय = उद्भिद् (प्राचा)। (भवि) उन्मामइल्ला स्त्री [उद्भ्रामिणी] स्वैरिणी, उब्भिउडि वि [उद्धृकुटि] भौंह चढ़ाया उभंत विदे] ग्लान, बीमार (दे १, ६५; हुआ (गउड)। कुलटा स्त्री (वव ४ बृह ६) महा)। उब्भामय पुं [उद्भ्रामक जार, उपपति उब्भिज्जा स्त्री [उभेद्या] भाजी, एक उब्भंत वि [उद्भ्रान्त] १ प्राकुल, व्याकुल, (पिंड ४२०) तरह का शाक (पिंड ६२४)। खिन्न (दे १, १४३); उब्भामग पुं [उद्भ्रामक] १ पारदारिक, उब्भिंद सक [उद् + भिद्] १ ऊँचा करना, 'अवलंबह मा संकह इमा गहलंघिया परस्त्री-लम्पट (ोघ १० भा)। २ वायु-विशेष, | खड़ा करना । २ विकसित करना। ३ अंकुपरिभमइ। अत्थक्कगज्जिउभंतहित्थहिममा जो तुरण वगैरह को ऊपर ले उड़ता है (जी रित करना। ४ खोलना। कर्म. उभिज्जंति । पहिमजामा' (३८६); 'भवभमणुभंतमा ७) । ३ वि. परिभ्रमण करनेवाला (वव १) वकृ. उभिंदमाण (प्राचा २, ७)। णसा अम्हे' (सुर १५, १२३) । २ मूच्छित उम्भामिगा। स्त्री [उद्भ्रामिका] कुलटा कवकृ. 'भत्तिभरनिन्भरुब्भिज्जमाणघणपुलय(से १,८) । ३ भ्रान्तियुक्त, भौचक्का, चकित उब्भामिया । स्त्री, स्वैरिणी (वय ६, उप पूरियसरीरा' (सुपा ६५६ ६७ भग १६, ६)। (हे २, १६४)IV पृ २६४)। संकृ. उभिंदिय, उभिदिउं (पंचा १३; उभंत पुं[उद्भ्रान्त] प्रथम नरक-पृथिवी उब्भालण न [दे] १ सूप प्रादि से साफ- पि ५७४) का चौथा नरकेन्द्रक-एक नरक-स्थान सुथरा करना, उत्पवन । २ वि. अपूर्व, अद्वि- उब्भिग देखो उब्भिय = उद्भिद् (पएह १, देवेन्द्र ३)IV तीय (दे, १, १०३) षड्) For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उभिडण-उम्मत्तय पाइअसहमहण्णवो १६७ उभिडण ४ [उभेदन] लग कर अलग उब्भूइआ स्त्री [औद्भतिकी] श्रीकृष्ण वासु- उम्मंड पुं[दे] १ हठ । वि. उद्वृत्त (दे १, होना, प्राघात कर पीछे हटनाः देव की एक भेरी जो किसी आगन्तुक प्रयो- १२४) 'जेसुं चिय कुंठिजइ, जन के उपस्थित होने पर बजाई जाती थी | उम्मंथिय विदे] दग्ध, जला हुआ (वज्जा रहसुब्भिडणमुहलो महिहरेसु । (विसे १४७६) । ५२) । तेसुं चेय रिणसिज्जइ, उन्भेअ [उभेद] उद्गम, उत्पत्तिः 'उम्हा- | उम्मग्ग वि [उन्मन] १ पानी के ऊपर पाया पहिरोहंदोलिरो कुलिसो॥ अंतगिरियडसीमाणिवडियकंदलुब्भेयं' (गउड); हुआ, तीर्ण (राज)। २ न. उन्मजन, तैरना, (गउड)। 'अभिरणवजोब्बरणउन्भेयसुन्दरा सयलमगहरा- जल के ऊपर पाना (प्राचा)। जला स्त्री उब्भिण्ण वि [उभिन्न] १ अंकुरित राधा' (सुर ११, ११६) - [°जला] नदी-विशेष, जिसमें पत्थर वगैरह उब्भिन्न (प्रोष ११३); उन्भिन्ने पारिणयं उन्भेइम वि [उभेदिम स्वयं उत्पन्न होने | पडिय' (सुर ७, ११४) । २ उद्घाटित, खोला वाला, उन्भइम पुण सयरुह जहा सामुई | उम्मग्ग पुं[उन्मार्ग] १ कुपथ, उलटा रास्ता, वाला, उन्भेइमं पुण सयरुहं जहा सामुदं । हुप्रा । ३ न. जैन साधुओं के लिए भिक्षा का लोणं (निचू ११) । विपरीत मार्ग (सुर १, २४३, सुपा ६५) । एक दोष, मिट्टी वगैरह से लिप्त पात्र को उभ पुं[उभ] उभय, दोनों (पंच ६,५८) २ छिद्र, रन्ध्र (पाचा) ३ प्रकार्य करना खोलकर उसमें से दी जाती भिक्षा; 'छगणाह- उभओ अ [उभयतस् ] द्विधा, दोनों तरह (प्राचा)। गोवउत्तं उभिदिय जं तमुब्भिरणं' (पंचा| से, दोनों प्रोर से (उवः औप) उम्मग्गणा स्त्री [उन्मार्गणा] छिद्र, विवर १३; ठा ३, ४)। ४ वि. ऊँचा हुमा, खड़ा उभज्जायण देखो ओमज्जायण (सुज्ज १०, (आचा)। हुआ; 'हरिसवसुभिन्नरोमंचा' (महा) उम्मच्छ न [दे] १ क्रोध, गुस्सा (दे १, उब्भिय वि [उद्भिद्] पृथ्वी को फाड़कर उभय वि [उभय] युगल, दो, दोनों (ठा ४, १२५ से ११, १६; २०)। २ वि. असंबद्धः उगनेवाली वनस्पति (पएह १, ४)। ४)। "त्थ प्र[त्र] दोनों जगह (सुपा ३ प्रकारान्तर से कथित (दे १, १२५) ।। उब्भिय वि [ऊवित] ऊँचा किया हुआ, ६४८)। लेग पुं[लोक] यह और पर उम्मच्छर वि [उन्मत्सर] १ ईर्ष्यालु, द्वेषी खड़ा किया हुआ (सुपा ८६; महा: वज्जा जन्म (पंचा ११)। हा अ [था] दोनों (से ११, १४)। २ उद्भट (गा १२७६७५)। तरफ से, द्विधा (सम्म ३८)। ८८)IV उम्मच्छविअ वि[दे] उद्भट (दे १,११६)। उमच्छ सक [वञ्च ] ठगना, धूर्तना । उब्भिय न [उद्भिद्] १ लवण-विशेष, समुद्र के किनारे पर क्षार जलके संसर्ग से होनेउमच्छइ (हे ४, ६३ )। वकृ. उमच्छंत उम्मच्छिअ वि [दे] १ रुषित, रुष्टः २ वाला नोन (पाचा २, १, ६, ५)। २ पुंन. प्राकुल, व्याकुल (दे १, १३७ )। (कुमा)। खंजरीट, शलभ प्रादि प्राणी (संबोध २० | उमच्छ सक [अभ्या + गम् ] सामने पाना। उम्मज न [उन्मजन] तरण, तैरना। धर्मसं ७२ सूत्र १, ६, ८)iv उमच्छइ ( षड्)। "णिमन्जिया स्त्री ["निमज्जिका] उभचुभ उमा स्त्री [उमा गौरी, पार्वती (पान) । २ करनाः पानी में ऊँचा-नीचा होना (छ। उब्भीकय वि [ऊ/कृत] ऊँचा किया द्वितीय वासुदेव की माता (सम १५२) । ३ ३, ४) हुआ, 'उब्भीकयबाहुजुओ' (उप ५६७ टो)। देव-गणिका-विशेष (प्राचू)। ४ स्त्री-विशेष उम्मज्जग वि [उन्मजक] १ उन्मजन करनेउब्भुअ अक [ उद् + भू] उत्पन्न होना।। (कुमा)। साइ [स्वाति] स्वनाम धन्य वाला, गोता लगाने वाला। २ उन्मजन से उन्भुप्रइ (हे ४, ६०)। एक प्राचीन जैनाचार्य और विख्यात ग्रन्थकार ही स्नान करनेवाले तापसों की एक जाति उब्भुआग वि [दे] १ उबलता हुआ, अग्नि (साधं ५०) । (और; भग ११, ६) से तप्त जो दूध वगैरह उछलता है वह ( दे उमाण नाप्रवेश (आचा २.१.१) उम्मड्डा स्त्री [दे] १ बलात्कार, जबरदस्ती १, १०५, ७, ८१)। "उमार देखो कुमार (मच्छ २९) (द १,६७)। २ निषेध, अस्वीकार (उप उन्भग्ग विदे]चल, अस्थिर (दे १, १०२)। उमीस विउन्मिश्र] मिश्रित, 'पलिलसिरउब्भुत्त सक [उत् + क्षिप्] ऊंचा फेंकना। | पलिमपीवलकरणघुसणुमीसराहवणजलं'(कुमा) उम्मण वि [उन्मनस् ] उत्कण्ठित, उत्सुक उब्भुत्तइ (हे ४, १४४)। (उप पृ५८) । उमुय सक [उद्+मुच् ] छोड़ना। वकृ. | उम्मत्त पुं [दे] १ धतूरा, वृक्ष-विशेष । २ उन्भुत्तिअ वि [उत्क्षिप्त ऊँचा फेंका हुआ | __ उमुयंत (उत्त ३०, २३) एरण्ड, वृक्ष-विशेष (दे १, ८६) (कुमा)। | उम्मइअ वि [द] १ मूढ, मूर्ख (दे १, १०२)। उम्मत्त वि [उन्मत्त] १ उद्धत, उन्माद-युक्त उन्भुत्तिअ वि[द] उद्दीपित, प्रदीपित (पान)।। २ उन्मत्त (गा ४६८; वज्जा ४२)। (बृह १) । २ पागल, भूताविष्ट (पिंड ३८०)। उन्भूअ वि [उद्भूत] १ उत्पन्न (सुर ३, | उम्मऊह वि [उन्मयूख ] प्रभाशाली जला स्त्री [जला] नदी-विशेष (ठा २, ३)। २३६) । २ आगन्तुक कारण (विसे १४७६) (गउड)।। उम्मत्तय न द धतूरे का फल; “उम्मत्तय For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ पिच्छइ नन्नं विणा करणयं ” रसरसि (मोह २२ ) 1 उम्मत्थ सक [ अभ्या + गम् ] सामने श्राना । उम्मत्थइ ( हे ४, १६५ कुमा) 1 उम्मत्थव [] -मुख, विपरीत (१, ३) IV उम्मर पुं [दे] देहली, द्वार के नीचे की लकड़ी (दे १, ६५) उम्र १०० षड् ) [] उद उम्मल वि[दे] स्त्यान, कठिन, घट्ट (दे १, १) IV उम्मलणन [ उन्मर्दन] मसलना ( पाच ) 1 उम्मल्ल पुं [दे] १ राजा, नृप । २ मेघ, बारिश । ३ बलात्कार । ४ वि. पीवर, पुष्ट (दे १, १३१) । उम्मल्ला स्त्री [दे] तृष्णा (दे १, ६४ ) | उम्मण[सम्मधन] नाशक, विनाशकारी (मुर ३२३१)। उम्म अवि [ उन्मादित] उन्मत्त किया हुआ ( पउम २४, १५) उम्माडियन [दे] उत्सुक, जलता काष्ठ, गुजरातो में 'उबाद" (गिरि १८०) 1 उम्माण न [उन्मान] १ माप, माशा आदि तुला मान (ठा २, ४ ) । २ जो तौला जाता है वह (ठा १०) उम्माद देखो उम्माय ( भग १४, २) । उन्मादइत्तअ (शौ) वि [ उन्मादयितृ] उन्माद करानेवाला ( श्रभि ४२ ) । उम्मायक [ उद् + मद्] उन्माद करना, उन्मत्त होना । वकृ. उम्मायंत (उप ६८६ टी) । पाइअसहमह उम्मत्थ - उम्मूल उम्मुअ देखो उमुय । वकृ. जरणम्मि पीऊसमि वुम्मुतं चक्खु पसरणं सइ निक्खिवेज्जा" (उप २०) । उम्माहि वि [ उन्माथिन् ] विनाशक (महा- उम्मीलिय देखो उम्मिल्लिय (राज) 1 टि) 1 उम्सीस वि [उन्मिश्र ] मिश्रित, युक्त (सुपा उम्माहिय वि [ उन्माथित ] विनाशित (भवि) । ७८ प्रासू ३२ ) । उम्म पुंस्त्री [ऊर्मि] १ कल्लोल, तरंग (कुमा; दे ३.६ ) । २ भीड़, जन-समुदाय (भग २, १) । मालिपी स्त्री ["मालिनी] नदी-विशेष (ठा २,३) उम्मिंठ वि [३] हस्तिपक- रहित महावतरहित, निरंकुश 'उम्मिंठकरिवरो इव उम्मूलइनयसमूहं सो' (सुवा ३४८, २०३ ) | उम्मिण सक [ उद् + मी ] तौलना, नाप करना । कर्म. उम्मिणिजइ ( १२३) । उम्मियवि [ उन्मित ] प्रमित, कोडाकोडिमिया विहिरणो हाहा विचित्ता गदी' (रंभा उम्मुअ न [ उल्मुक ] अलात, लूका (पा) । उम्मुंघ सक [ उद् + मुच्] परित्याग करना । व उम्मुचंत (विसे २७५० ) । उम्मुकवि [उन्मुक्त]विक रहित 'ते वीरा बंधामुक्का नावकखति जीवियं' (१) २ उक्षिप्त (श्रीप)। ३ परित्यक्त (आम) 1 उम्मिलिए[उन्मीलितु] विकास मिसिरप पाि ८६) उम्मिल्ल अक [ उद् + मी ] १ विकसित होना । २ खुलना | ३ प्रकाशित होना । उम्मिल्लइ (गउड) । वकृ. उम्मिल्लत (से १०, ३१) उम्मिल्ल वि [ उन्मील] १ विकसित (पात्र से १०, ५०; स ७६) । २ प्रकाशमान ( से ११, ६४ उड) उम्मण [उम्मीडन] विकास, उल्लास (गड) 12 उम्मिलिय वि [उन्मीलित ] १ विकसित उल्लसित । २ उद्घाटित, खुला हुआ; 'तम्रो उम्मिल्लियारिण तस्स नयगारिग' (श्रावम स ) । २००३ प्रकाशित ४ बहिष्कृतः 'पंजरुम्मिल्लियमणिकरण गथुभियागे' (जीव ४) । ५ न. विकास (अणु) । उम्मिस [+मिप्] उम्मिस अक [ उद् + मिष्] ना खुलना, विकसना यह उनिसंत (विक्र २४), उम्मिलिय वि [ उन्मिषित ] १ विकसित, प्रभाग १४ १२न, विकास, उन्मेष ( जीव ३)। । उम्माय पुं [ उन्माद ] १ चित्त-विभ्रम, पागलपन (डा ६ महा) २ कामाधीनता, विषय में अत्यन्तासकि (उत्त १६३ बालिङ्गन (लिने) IV उम्माल देखो ओमाल (पान) 1 । उम्मालय व [ उन्मालित ] सुशोभित (भवि) । उम्माह [उन्माच] विनाश, 'निसेवितावि उम्मिस्स देखो उम्मीस (पत्र ६७) पुं ( कामभोगा) कति महियम्मा (महा) उम्माहय [उन्मायक] विनाशक, 'अहो वि उम्माहुतं विसमाल' (महाभ उम्मीला देखो उम्मण (कुमा गड उम्मीलगा श्री [उन्मीलना] प्रभव, उत्पत्ति (राज) - For Personal & Private Use Only उम्मुग्ग वि [ उन्मग्न] १ जल के ऊपर तै हुआ । २ न तैरना । 'निमुग्गिया स्त्री [" निमग्नता ] उभचुभ करना; 'से भिक्खू वा० उद्गंसि पवमाणे नो उम्मुग्गनिमुग्गिय करेज्जा' (आचा २, ३, २, ३) । उम्मुग्गा । स्त्री. देखो उम्मग्ग उन्मग्न उम्मुला (१३ १०४ २३४ आचा उम्मुटु वि [ उन्मृष्ट] स्पृष्ट, छुपा हुआ ( पाच ) 1 उम्मुदिअ वि [उन्मुद्रित ] १ विकसित, परित्याग, छोड़ (२उटसो हुआ 'उम्मुद्दिश्रो समुग्गो, तम्मज्भे लहुसमुग्गनिया (गुपा १४४) उम्मुयण न [ उन्मोचन] देना (सुर २, १२०) उम्मुयणा स्त्री [ उन्मोचना ] त्याग, उज्झन (बाल ५) 1 उम्मुह [दे] एस श्रभिमानी (३१. वि (दे षड् ) 1 उम्मुह वि [ उन्मुख ] १ संमुख (उप पृ १३४ ) । २ ऊर्ध्व - मुख ( से ६, ८२ ) 1 उम्मूढ वि [ उन्मूढ] विशेष मूढ़, श्रत्यन्त "वया श्री ["विसूचिका] रोगविशेष, हैजा (सुपा १६) उम्मूल [उन्मूल] उन्मूलन करनेवाला, विनाशक (गा ३५५) । उम्मूल सक [ उद्+ मूल्यू ] उखाड़ना, मूल से उखाड़ फैन उम्ले (महा)। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दे] देखो उमि, २४५)। उद्यकिया उम्मूलण-उलीण पाइअसद्दमण्णवो वकृ. उम्मूलंत, उम्मूलयंत (से १, ४. स | उयाइय न [उपयाचित] मनौती (सुपा | उरविय वि [दे] १ आरोपित। २ खण्डित, ५६६)। संकृ. उम्मृलिऊण (महा) ५७८)। छिन्न (षड् )IV उम्मूलण न [उन्मूलन] उत्पाटन, उत्खनन | उयाय वि [उपयात] उपगत (राज) उरसिज पुं[उरसिज] स्तन, थन (धर्मवि (पि २७८) उयारण न [अवतारण] निछावर, उतारा, ६६)। उम्मूलणा स्त्री [उन्मूलना] ऊपर देखो (पएह । हर्ष-दान, गुजराती में 'उवारणु" (कुप्र ६५) । उरस्स वि [उरस्य १ सन्तान, बच्चा (ठा १, १) उयाहु देखो उदाहु (सुर १२, ५६, काला हा साहु (3 ,२१ काला १०)। २ हार्दिक, आभ्यन्तरः 'उर स्सबलउम्मूलिअ वि [उन्मूलित] उत्पाटित, मूल नि उपाटित मलविसे १६१०) । समगणागय-' (राय)। से उखाड़ा हुआ (गा ४७५ सुर ३,२४५) उय्यकिय वि [दे] इकट्ठा किया हया उराल वि [उदार] १ प्रबल (राय)। २ उम्मेठ [दे] देखो उम्मिठ (पउम ७१, (षड्) IV प्रधान, मुख्य (सुज्ज १)। ३ सुन्दर, श्रेष्ठ २६ स ३३२)। उय्यल वि [दे] अध्यासित, आरूढ़ ( षड् )। (सूम १,६)। ४ अद्भुत (चन्द २०) । ५ उम्मेस [उन्मेष] उन्मीलन, विकास (भग उर पुन [ उरस् ] वक्षःस्थल, छाती (हे १, विशाल, विस्तीर्ण (ठा ५)। ६ न. शरीर१३, ४) । ३२)। अ, ग पुंस्त्री [ग] सर्प, साँप विशेष, मनुष्य और तिर्यच् (पशु पक्षी) इन उम्मोयणी स्त्री [उन्मोचनी] विद्या-विशेष (काप्र १७१) दोनों का शरीर (अणु) । 'उरगगिरिजलणसागरनह(सुर १३, ८१) तलतरुगणसमो अजो होइ। | उराल विउदार स्थूल, मोटा (सूम १,१, उम्ह पुत्री [ऊष्मन् ] १ संताप, गरमी, भमरमियधररिगजलरुहरविपवउष्णता; 'सरीरउम्हाए जीवइ सयावि' (उप समो असो समणो।' (अण) उराल वि [दे] भयंकर, भीष्म (सुज्ज १) ५६७ टी; गाया १, १: कुमा)। २ भाफ, तब पुं[तपस् ] तप-विशेष (ठा ४) उरालिय न [औदारिक ] शरीर-विशेष बाष्प (से २, ३२; हे २, ७४)। त्थ न [स्त्रि] अस्त्र-विशेष, जिसके फेंकने (सण)V उम्हइअ । वि [ऊष्मायित संतप्त, गरम से शत्रु सो से वेष्टित होता है (पउम ७१, उरिआ स्त्री [उड्रिका] लिपि-विशेष (सम ३५)। उम्हविय किया हुप्रा (से ४,१, पउम २, । ६६) परिसप्प पुंस्त्री [परिसर्प] पेट | उरितिय न [दे. उरसि-त्रिक] तीन सर६६ गउड) । से चलनेवाला प्राणी (सादि) (जो २०) वाला हार (प्रौप) । उम्हाअ अक [ऊष्माय्] १ गरम होना। सुत्तिया स्त्री [सूत्रिका] मोतियों को हार | उरिस देखो पुरिस (गा २८२)। २ भाफ निकालना । वकृ. उम्हाअंत, (राज) उरु वि [उरु] विशाल, विस्तीर्ण (पान)। उम्हाअमाण (से ६, १०; पि ५५८)। उर न [दे] प्रारम्भ, प्रारम्भ (दे १,८६) । उरुघुल्ल पुं[दे] १ अपूप, पूमा । २ खिचड़ी उम्हाल वि [ऊष्मवत् ] १ गरम, परितप्त। | उरंउरेण अ[दे] साक्षात् (विपा १, ३)। (द १, १३४) । २ बाष्प युक्त (गउड) उरत्त वि [दे] खण्डित, विदारित (दे १, उरुमल्ल उम्हाविअ न [दे] सुरत, संभोग (दे १, उरुमिल्ल वि [दे] प्रेरित (षड् ; दे १, १०८)। उरुसोल्ल ११७)। उरत्थ वि [उर:स्थ] १ छाती में स्थित । २ उयचिय वि [दे] देखो उविअ = परिकर्मितः छाती में पहनने का आभूषण (प्राचा २, | उरोरुह पुं[उरोरुह] स्तन, थन (पब ६२) ।। 'उयचियखोमदुगुल्लपट्टपडिच्छराणे' (गाया १, | १३, १)। उरोरुह न [उरोरुह] १ स्तन, थन। २ जैन १-पत्र १३) । - साध्वियों का उपकरण-विशेष (ोध ३१७ उरत्थय न [दे] वर्म, बस्तर, कवच (पान) साध्विय उरब्भ पंत्री [उरभ्र] मेष, भेड़ (गाया १, उयट्ट देखो उव्वट्ट = उद् + वृत् । उयटुंतिः भा)। उल देखो कुल (से १,२६, गा ११६, सुर भूका. उयट्टिसु (भग)। १ः परह १,१)V उयट्ट देखो उव्वट्ट = उद्वृत्त ।। उरब्भिअ वि [औरभ्रिक भेड़ चरानेवाला ३, ४१; महा)। उयत्त अक [अप + वृत्] हटना । उय- (सूअ २, २, २८) उलय । पुन [उलप] तृण-विशेष (सुपा उलव उभिज्ज । वि [उरभ्रीय] १ मेष-सम्बन्धी। २८१; प्राप्र)। त्तति (दस ३, १ टो)। उरम्भिय २ उत्तराध्ययन सूत्र का एक उलवी स्त्री [उलपी] तृण-विशेषः 'उलवी उयर वि [उदार] श्रेष्ठ, उत्तम; 'देवा भवंति अध्ययन; 'तत्तो समुद्धियमेयं उरन्भिज्जति वीरणं' (पास) विमलोयरकंतिजुत्ता' (पउम १०,८८) अज्झयणं' (उत्तनि राज) उलिअ वि [दे] असंकुचित नजरवाला, स्फार उयरिया स्त्री [अपवरिका] छोटा कमरा उरय पुं [उरज वनस्पति-विशेष (राज) दृष्टि (दे १, ८८) (सम्मत्त ११६) । उररि पुं[द] पशु, बकरा (दे १,८८)। उलित्त न [दे] ऊँचा कुंआ (दे १, ८६) उयविय देखो उविअ = (दे) (राय ६३ टी)।, उरल देखो उराल (कम्म १; भगः दै २२) उल.ण देखो कुलीण (गा २५३) । (जो २०) चुरस देखो पुरिस (गाविस्तीर्ण (पार २२ For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० पाइअसद्दमहण्णवो उलुउंडिअ-उल्लाल उलुउंडिअ वि [दे] प्रलुठित, विरेचित (दे | उल्लअण न [उल्लयन] अर्पण, समर्पण (से | उल्लरय न [दे] कौड़ियों का प्राभूषण (दे १, १, ११६) ११, ५१)। ११०)। उलुओसिअ वि [दे] रोमाञ्चित, पुलकित उल्लंक उल्लङ्क] काष्ठ-मय बारक (निचू उल्लल अक [उत् + लल्] १ चलित होना, (षड् ) १२) चञ्चल होना । २ ऊँचा चलना । ३ उत्पन्न उलुकसिअ वि [दे] ऊपर देखो (दे १, उल्लंघ सक [उत् + लघु ] उल्लंघन करना, होना । उल्ललइ (से ११, १३) । वकृ. अतिक्रमण करना। उल्लंघेज (पि ४५६)। उल्ललंत (काल) ११५)IV हेकृ. उल्लंघित्तए (भग ८, ३३)। उल्ललिअ वि [उल्ललित] १ चञ्चल (गा उलुखंड पुं [दे] उल्मुक, अलात, लूका (दे | उल्लंघ पुं [उल्लङ्घ] उल्लंघन, अतिक्रमण | ५६६) । २ उत्पन्न (से ६, ६८) १,१०७) । (संबोध ६) उल्ललिअ वि [दे] शिथिल, ढीला (दे १, उलुग पुं[उलूक] १ उल्लू, पेचक । २ देश- उल्लंघण न [उल्लङ्घन] १ अतिक्रमण, उत्प्लवन १०४) ।। विशेष (पउम ६८, ६६)। (परण ३६)। २ वि. अतिक्रमण करनेवालाः | उल्लव सक [उत् + लप] १ कहना। २ उलुग पुं [उलूक] उल्लू, घुक, पेचक (धर्मसं 'उल्लंघणे य चंडे य पावसमणे ति वुच्चइ' | बकना, बकवाद करना, खराब शब्द बोलनाः ६७१; १२६५)। (उत्त८) 'जं वा तं वा उल्लवइ' (महा)। वकृ. उल्लवंत, सलीमी औली विटा.विशेष (विसे | उलंठ वि [उल्लण्ठ] उद्धत; 'जति उल्लंठ- उल्लवेमाण (पउम ६४,८ सुर १, १९९). २४५४) वयणाई' (काल)। उल्लव सक [उद् + लू ] उन्मूलन करना। उलुन्ग वि [अवरुग्ण] बीमार (महा)। उल्लंडग पुं [उल्लण्डक] छोटा मृदंग, वाद्य- संकृ. उल्लविऊण । हेकृ. उल्लविउं। कृ. उलुग्ग वि [दे] देखो ओलुग्ग (महा)। विशेष (राज) उल्लविअव्य (प्राकृ ६६) : उलुफुटिअ वि [दे] १ विनिपातित, विना- उल्लंडिअ वि [दे] बहिष्कृत, बाहर निकाला उल्लवण न [उल्लपन] १ बकवाद २ कथन शित । २ प्रशान्त (दे १, १३८) V हुआ (पान) 'जइवि न जुज्जइ जह तह मगवल्लहनामउल्लउलुय देखो उलूः 'अह कह दिणमणितेयं, उल्लंबण न [उल्लम्बन] उद्बन्धन, फाँसी लगा | वणं' (सुपा ४६८)। उलुयाणं हरइ अंधत्तं' (सट्ठि १०८; सुर १, | कर लटकना (सम १२५) ।। उल्लविय वि [उल्लपित] १ कथित, उक्त। २ न. २६; पउम ६७, २४)। उक्ति, वचन; 'अंगपच्चंगसंठाणं चारुल्लवियउलुहंत पुं[दे] काक, कौआ (दे १, १०६) - उल्लक्क वि[दे] १ भग्न, टूटा हुआ । २ स्तब्ध; पेहणं' (उत्त) उलुहलिअ वि [दे] अतृप्त, तृप्तिरहित 'उल्लक्कं सिराजालं' (स २६४)। उल्लविर वि [उल्लपित्] १ वक्ता, भाषक । २ (दे १, ११७) उल्लट्ट देखो उबट्ट = उद्-वृत् । उल्लट्टइ बकवादी, वाचाट (गा १७२ सुपा २२६) । उलुहुलअ वि [दे] अवितृप्त, तृप्तिरहित | (प्राकृ ७२) IV उल्लस अक [ उत् + लस्] १ विकसित (षड् )। उल्लट्ट वि [दे] उल्लुण्ठित, खाली किया हुआ होना । २ खुश होना। उल्लसइ (षड्) । उलूअ 'उलूक] १ उल्लू, पेचक (पान)। (दे ७, ८१)। वकृ. उल्लसंत (गा ५६०; कप्प)। २ वैशेषिक मत का प्रवर्तक कणाद मुनि | उल्लट्टिय देखो उल्लट्ट-(दे); 'सो पुण नरो उल्लस देखो उल्लास (गउड)।। (सम्म १४६; विसे २५०८) । पविट्टो भट्ठो सत्याउ तं महापडवि । उल्लट्टिय- | उल्लसिअ वि [उल्लसित] १ विकसित । २ उलूखल देखो उऊखल (कुर्भ कूवोदगमिव कंठगएहि पाणेहि' (धर्मवि हषित (षड् : निचू )। उलूलु पुं[उलूलु मङ्गल ध्वनि (रंभा) १२४)। उल्लसिअ वि [दे. उल्लसित] पुलकित, उलूहल देखो उऊखल (हे १, १७१; महा) उह उल्लण वि [उल्बण] उत्कट (पंचा २) रोमाञ्चित (दे १, ११५)।V उल्ल वि आई] गीला, आर्द्र (कुमा; हे १, उल्लण न आीकरण] गीला करना (उवा उल्लाय वि [दे] लात मारना, पाद-प्रहार ८२)। गच्छ पुं[गच्छ] जैन मुनियों का ओघ ३६ से २, ८) (तंदु)। गण-विशेष (कप्प)। उल्लण न [दे] खाद्य वस्तु-विशेष, प्रोसामन उल्लाय वि[उल्लाप] १ वक्र वचन । २ कथन उल्ल सक [आर्द्रय ] १ गीला करना, प्रादें (पिंड ६२४)। करना। २ अक. आर्द्र होना । उल्लेइ (हे १, उल्लणिया स्त्री [आर्द्रयणिका] जल पोंछने उल्लाल सक [ उत् + नमय ] १ ऊंचा ८२)। वकृ. उल्लंत, उल्लिंत (गउड) । संकृ. का गमछा, टोपिया (उवा) । करना । २ ऊपर फेंकना । उल्लालइ (हे ४, उल्लेत्ता (महा)IV उल्लद्दिय वि [दे] भाराकान्त, जिसपर बोझा ३६) । वकृ. उल्लालेमाण (अंत २१)। उल्ल न [दे] ऋण, करजा; 'तो में उल्ले लादा गया हो वहा 'ग्रह तम्मि सत्थलोए उल्लाल सक [उत् + लालय् ] ताडन धरिऊरण (सुपा ४८६)IV उल्लद्दियसयलवसहनियरम्मि' (सुर २. २) M करना, बजाना । बकृ. उल्लालेमाण (राज)।। For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लाल-उल्लूह पाइअसहमहण्णवो १७१ उल्लाल पुन [उल्लाल] छन्द-विशेष (पिंग) M 'तह नाहिदहो जुब्बणघणेण उल्लुंठ वि [उल्लुण्ठ] उल्लंठ, उद्धत (सुपा उल्लालिअ वि [उन्नमित] २ ऊँचा किया लायन्नवारिणा भरिपो।। ४६५ सुर ६,२१५)V हुआ, ऊपर फेंका हुआ (कुमा; हे ४, नहु निटुइ जह उल्लिचिनोवि उल्लुंड अक [वि+रेचय ] झरना, ४२२)। पियनयरणकलसेहि (सुपा ३३) टपकना, बाहर निकलना। उल्लुडइ (हे ४, उल्लालिय वि[उल्लालित] ताडित (राज)। उल्लिक्क न [दे] दुश्चेष्टित, खराब चेष्टा | २६) । प्रयो. वकृ. उल्लुंडावंत (कुमा) । उल्लाव सक [ उत् + लप, लापय ] १ (षड् )IV उल्लुक्क वि [दे] त्रुटित, टूटा हुआ (दे १, कहना, बोलना। २ बकवाद करना । ३ | उल्लिंगण वि [उल्लिङ्गन] उपदर्शक (पव बुलवाना । ४ बकवाद कराना । वकृ. उल्लुक्क सक [तुड् ] तोड़ना। उल्लुक्कइ उल्लावंत, उल्लावेत (से ११, १०, गा उल्लिपण न [उपलेपन] उपलेप (पिंड | (हे १, ११६; षड्)। ५३६; ६५१, हे २, १६३)। ३५०)V उल्लुक्किअ वि [तुडित] त्रोटित, तोड़ा उल्लाव पुं [उल्लाप] १ शब्द, आवाज (से उल्लिया स्त्री [दे] राधा-वेध का निशाना, | हुआ (कुमा)। १, ३०)। २ उत्तर, जवाब (प्रोघ ५६ भा; "विधेयव्वा विवरीयभमतद्धचक्कोवरिथिउल्लिया' उल्लुग। स्त्री [उल्लुका] १ नदी-विशेष गा ५१४)। ३ बकवाद, विकृत वचन । ४ (स १६२) उल्लुगा (विसे २४२६) । २ उल्लुका नदी उक्ति, कथन (पउम ७०, ५८)। ५ संभाषण उल्लिर वि [आर्द्र] गीला (वज्जा ११२)। के किनारे का प्रदेश (विसे २४२५)। 'तीर 'नयणेहि को न दीसह न [ तीर] उल्लुका नदी के किनारे बसा उल्लिह सक [ उद् + लिह. ] १ चाटना। केण समारणं न होंति उल्लावा। हुमा एक नगर (विसे २४२४७ भग २६, ३)। २ खाना, भक्षण करना; 'उक्खलिउरिहअमुररी यियाणंदं जं पुण, उप रोरघरम्मि उल्लिहई' (दे १,८८) | उल्लुज्झण न [दे] पुनरुत्थान, कटे हुए हाथ ___ जणेइ तं माणुसं विरलं ॥' (महा)। पाँव को फिर से उत्पत्ति (उप ३८१) । उल्लाविअ वि [उल्लपित] १ उक्त, कथित। उल्लिह सक [उद् + लिख ] १ रेखा उल्लुट्ट अक [उत् + लुट् ] नष्ट होना, २ न. उक्ति, वचन (गा ५८९)M करना २ लिखना । ३ घिसना ।। ध्वंस पाना । वकृ. 'तहवि य सा रायसिरी उल्लाविर वि [उल्लपित] १ बोलनेवाला, | उल्लिहण न [उल्लेखन] १ घर्षण (सुपा उल्लुटुंती न ताइया ताहि' (उव। भाषक (हे २, १६३; सुपा २२९) । ४८)। २ विलेखन; 'वहुमाइ नहुल्लिहणे उल्लुट्ट वि [दे] मिथ्या, प्रसत्य, झूठा (दे १, उल्लासग वि [उल्लासक] १ विकसित होने ८६) वाला । २ प्रानन्दजनक (श्रा २७) उल्लिहिय वि [उल्लिखित] १ घृष्ट, घिसा उल्लुरुह ' [दे] छोटा शङ्ख (दे १, १०५) उल्लासण न [उल्लासन] विकास (सिरि हुमा (णाया १,२)। २ छिला हुआ, उल्लुलिअ वि [उल्लुलित] चलित (गा ५३६) तक्षित (पास)। ३ रेखा किया हुआ (सुपा ५६७)IV उल्लासि । वि उल्लासिन्] ऊपर देखो १९३; प्रासू ७) iv उल्लुव देखो उल्लव = उद् + लू । उल्लुवइ; उल्लासिर । (कप्पू लहुन १ प्रासू ६६)। संकृ. उल्लुविऊण (प्राकृ ६६)। उल्ली स्त्री [दे] १ चूल्हा ( दे १,८७)।२ | उल्लाह सक [उत् + लाधय् ] कम करना, उल्लुह अक [निस् + सू] निकला । उल्लुहइ दाँत का मैल; 'उल्ली दंतेसु दुग्गंधा' (महा)M हीन करना। वकृ. उल्लाहअंत (उत्तर ल; 'उल्ला दतसुदुग्गा (महा) । (हे ४, २५६)। ११)। उल्लीण वि [उपलीन] प्रच्छन्न, गुप्त उल्लुइंडिअ वि [दे] उन्नत, उच्छित (षड्)। उल्लिअ वि [दे] उपसर्पित; उपागत (माचा २, २, ३, ११)/ उल्लूढ वि [दे] १ पारूढ़ ( दे १, १०० (षड्)IV उल्लुअ वि [दे] १ पुरस्कृत, प्रागे किया | षड्) । २ अङ कुरित (द १,१००% पान)। उल्लिअ वि [आदित] गीला किया हुआ हुआ । २ रक्त, रँगा हुआ (षड्)। उल्लूढ सक [आ+रुह.] चढ़ना । (गउड हे ३, १६)IV उल्लुअवि [दे. उद्गत] उदय-प्राप्त (प्राकृ. उल्लूढइ (प्राकृ ७३)। उल्लिअ वि [दे] १ चीरा हुआ, फाड़ा हुआ ७७)/ उल्लूर सक [तुड] १ तोड़ना। २ नाश (उत्त १६, ६४)। २ उपालब्ध, उलाहना | उल्लुअ वि [उल्लून] १ उन्मूलित । २ न. करना । उल्लूरइ (हे ४, ११६, कुमा)। दिया हुआ (सम्मत्त ५२) उन्मूलन (प्राकृ ७०)। उल्लूरण न [तोडन] छेदन, खण्डन (गा उल्लिच सक [उद् + रिच ] खाली करना। उल्लुंचिअ वि [उल्लुश्चित] उखाड़ा हुमा, हेकृ. 'उल्लिचिऊण य समत्यो हत्थउडेहि | उन्मूलितः 'मुट्ठीहि कुंतलकलावा उल्लुंचिया| उल्लूरिअ वि [तुडित] विनाशित, 'उल्लूरिमसमुद' (पुप्फ ४०)। (सुपा ८० प्रबो ६८)IV पहिअसत्थेसु' (मि १० पाम)। उल्लिचिय वि [दे] उद्रिक्त, खाली किया | उल्लुटिअ वि [दे] संचूरिणत, टुकड़ा-टुकड़ा| उल्लूह वि [दे] शुष्क, सूखा: 'उल्लूहं च हुमा किया हुआ (दे १, १०९) नलवणं हरियं जायं' (मोघ ४४६ टी) For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ पाइअसहमहण्णवो उल्लेत्ता-उवकर उल्लेत्ता देखो उल्ल = आद्रय ।। ३ समस्तपन (राय)। ४ एकबार । ५ भीतर | उवएसणया। स्त्री [उपदेशना] उपदेश उल्लेव पुं [दे] हास्य, हँसी (दे १, १०२)। (आव ४)। उपएसणा । (राज; विसे २५८३)। उल्लेहड वि [दे] लम्पट, लुब्ध (दे १, १०४ | उव न [उद] पानी, जल; 'पाउवदाई च | उवएसिय वि [उपदेशित] उपदिष्ट; 'सामापात्र) । रहाणुवदाई च' (पाया १,७.-पत्र ११७) इयाणज्जुात्त वाच्छ उवएसिय गुरुजणण उल्लोइय न [दे] १ पोतना, भीत को चूना | उवअंठ वि [उपकण्ठ] समीप का, प्रासन्न (विसे १०८०; सण) वगैरह से सफेद करना (प्रौप)। २ वि. पोता । (गउड)। उवओग पुं [उपयोग] १ ज्ञान, चैतन्य हुआ (गाया १, १; सम १३७) उवइट्ट वि [उपदिष्ट] कथित, प्रतिपादित, (पएण १२; ठा ४, ४; दं ४)। २ ख्याल, उल्लोक वि [दे] त्रुटित, छिन्न (षड्) । शिक्षित (प्रोघ १४ भाः पि १७३)।। ध्यान, सावधानी: 'तं पुण संविग्गेरणं उल्लोच पुं[दे. उल्लोच] चन्द्रातप, चांदनी उवइण्ण वि [उपवीर्ण] सेवित (३६) उवोगजुएण तिव्वसद्धाए' (पंचा ४)। ३ (द १, ६८ सुर १२, १; उप १०७) । उवइय वि [उपचित] १ मांसल, पुष्ट (पएह प्रयोजन, आवश्यकता (सुपा ६४३)। उल्लोढ सक [उल्लोध्रय] लोध्र आदि से १, ४)। २ उन्नत (ोप)। उवओगि वि [उपयोगिन] उपयुक्त, योग्य, घिसना । उल्लोढिज्ज (पाचा २, १३, १) उवइय पुंस्त्री [दे] त्रीन्द्रिय जीव-विशेष, देखो प्रयोजनीयः ‘पत्ताईण विसुद्धि साहेउं गिराहए उल्लोय पुं[उल्लोक] १ अगासो, छत (णाया ओवइय (जीव १ टो; परण) जमुवप्रोगि' (सुपा ६४३; स ५)। १,१; कप्पः भग)। २ थोड़ी देर, थोड़ा | उबइस सक [उप + दिश] १ उपदेश देना, उवंग पुन [उपाङ्ग] १ छोटा अवयव, क्षुद्र भागः 'एवमादी सव्वे उबंगा भएणंति' (निचू सिखाना । २ प्रतिपादन करना। उवइसइ विलम्ब (राज) V १)। २ ग्रन्थ-विशेष, मूल-ग्रन्थ के अंश-विशेष उल्लोय देखो उल्लोच (सुर ३, ७०% कमा) (पि १८४)। उवइसंति (भग) । को लेकर उसका विस्तार से वर्णन करनेउल्लोल अक [उत् + लुल् ] लुठना, लेटना। उवउंज सक [उप + युज् ] उपयोग करना । वाला ग्रन्थ, टीका: संगोवंगाणं सरहस्साणं कर्म. उवउज्जति (विसे ४८०) । संकृ. वकृ. उल्लोलंत (निचू १७)। पुं. शोकाकुल स्त्री-रुदन शब्द (चउ० सगरचरिय)। उवउंजिऊण, उवउज (पि ५८५; निचू १)। चउण्हं वेयाणं' (प्रौप)। ३ 'औपपातिक' उल्लोल सक [उद् + लोलय ] पोंछना। उवउज पुं[दे] १ उपकार (दे १, १०८)। सूत्र वगैरह बाहर जैन ग्रन्थ (कप्पा जा उल्लोलेइ, संकृ. उल्लोलेत्ता (प्राचा २, २ वि. उपकारक (षड् )। १. सूक्त ७०)। | उवउत्त वि [उपयुक्त] १ न्याय्य, वाजबी । | उवंजग न [उपाञ्जन] मुक्षण, मालिश उल्लोल पुं[दे] १ शत्रु, दुश्मन (दे १, ६६)। २ सावधान, अप्रमत्त (उवः उप ७७३) । (पएह २, १)। उवऊढ वि [उपगूढ] प्रालिङ्गित (पान से उवकंठ देखो उवअंठ (भवि) २ कोलाहल (पउम १६, ३६) उल्लोल पुं[उल्लोल] १ प्रबन्धः 'उद्देसे १, ३८; गा १३३) उपकंठ न [उपकण्ठ] समीप (सिरि ११२१)। प्रासि णराहिवाण वियडा कहुल्लोला' (गउड)। उवजह सक [ उप+गूह. ] आलिङ्गन उवकदुअ (शौ) अ [उपकृत्य उपकार करके (प्राकृ८८) । २ वि. उद्भट, उद्धत; 'तरुणजणविन्भमुल्लोल- करना । उवऊहइ (प्राकृ ७४)। सागरे (स ६७)। ३ वि. उत्सुक; 'बहुसो | उवऊहण न [उपगृहन] प्रालिङ्गन (से ५, उवकप्प सक [उप + क्लू] १ उपस्थित घडतविहडंतसइसुहासायसंगमुल्लोले। हियए करना। २ करना; "उवकप्पइ करेइ उवणेइ ४८)IV च्चेय समप्पंति चंचला वीइवावारा' (गउड) । उवऊहिअ वि [उपगृहित] प्रालिङ्गित (गा वा होंति एकट्टा' (पंचभा)। उवकप्पंति (सूत्र १, ११) उल्लोब (अप) देखो उल्लोच (भवि)। ६२१) उवकप्प ' [उपकल्प] साधु को दी जानेउहव सक [वि + ध्मापय् ] ठंढ़ा करना, उवएइआ स्त्री [दे] शराब परोसने का पात्र वाली भिक्षा, अन्नपान वगैरह (पंचभा)। आग को बुझाना । उल्हवइ (हे ४, ४१६)। (दे १, ११८)। उवकय वि [उपकृत ] जिसपर उपकार उल्हविय वि [दे.विध्मापित] बुझाया हुआ, उवएस पुं [उपदेश] १ शिक्षा, बोध (उव)। किया गया हो वह, अनुगृहीत; 'अणुवकयपशान्त किया हुमा (पउम २, ६६)। २ कथन, प्रतिपादन । ३ शास्त्र, सिद्धान्त राणुग्गहपरायणा' (प्राव ४)। उल्हसिअ वि [दे] उद्भट, उद्धत, (दे १, (प्राचाः विसे ८६४)। ४ उपदेश्य, जिसके ११६) विषय में उपदेश दिया जाय वह (धर्म १)। उवकय वि [दे] सज्जित, प्रगुण, तैयार । (दे १,११६)V उल्हा अक [वि + मा] बुझ जाना । उल्लाइ उवएसग वि[उपदेशक] उपदेश देनेवाला; उवकर देखो उवयर = उप + कृ। उवकरेउ (स २८३) 'हिच्चाणं पुवसंजोगं, सिया किचोवएसगा' (उवा)। उव प्र[उप] निम्न लिखित अर्थों का सूचक | (सूत्र १, १)। उवकर सक [अव + कृ] व्याप्त करना । अव्यय-१ समीपता; 'उवदसिय (पएण उवएसण न [उपदेशन] देखो उवएस | भूका. 'महवा पंसुरणा उबकरिसु' (भाचा १, १)। २ सदृशता, तुल्यता (उत्त ३)। (उत्त २८ ठा ७ विसे २५८३) । ६, ३, ११)IV For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकरण-उवगप्पिय पाइअसद्दमहण्णवो १७३ उवकरण देखो उवगरण (प्रौप) वस्तु (ठा ४, २; स २८७)। ८ शब्द, उवक्खर पुं[उपस्कर] १ संस्कार । २ जिससे उवकस सक [उप + कष] प्राप्त होना, हथियार; "भुम्माहारच्छेए उवक्कमेणं च | संस्कार किया जाय वह (ठा ४, २)। 'नारीण वसमुवकसति (सूत्र १, ४)। परिणाए' (धर्म २)। ६ उपचार (स २०५)। उवक्ख र पुं [उपस्कर] घर का उपकरण, उवकसिअ वि [दे] १ सैनिहित । २ परिसे- १० ज्ञान, निश्चय। ११ अनुवर्तन, अनुकूल- साधन (सूअनि ५) वित । ३ सजित, उत्पादित (दे १, १३८) प्रवृत्ति (विसे ६२६; ६३०)। १२ संस्कार, | उवक्खरण न [उपस्करण] ऊपर देखो। उवकार देखो उवगार (धर्मसं ६२० टी) परिकर्म; 'खेत्तोवक्कमे (अण) । "साला स्त्री[शाला] रसोई-घर, पाकउव कारिया देखो उवगारिया (राय ८२) उवक्कम पुं[ उपक्रम ] अनुदित कर्मो को | गृह (निचू ६) उवकिइ । स्त्री [उपकृति] उपकार (दे ४, उदय में लाना (सूअनि ४७)। उवक्खा सक [उपा+ख्या] कहना । कर्म. उवकिदि६४८; ४५) । उवक्कमण न [उपक्रमण] उपर देखो (अणु; उवक्खाइज्जति (सूम २, ४, १०० भग १६, उपकुल न [उपकुल] नक्षत्र-विशेष, श्रवण ३-पत्र ७६२) उबर ४६; विसे ६११; ६१७; ६२१)IV आदि बारह (जं ७)। उवक्खा स्त्री [उपाख्या] उपनाम (धर्मसं उवक्कमिय वि [ ओपक्रमिक 1 उपक्रम से उवकुल पुंन [उपकुल] कुल नक्षत्र के पास ७२७)। सम्बन्ध रखनेवाला (ठा २, ४, सम १४५, का नक्षत्र (सुज्ज १०, ५) IV उवक्खाइत्तु वि [उपख्यापयितु] प्रसिद्धि पएण ३५)। उधकोसा स्त्री करानेवाला; 'अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवई उपकोशा] एक गरिएका, उवक्काम देखो उवक्कम = उप + क्रम् । कर्म. | कोशा वेश्या की छोटी बहिन (कुप्र ४५३) (सूत्र २, २, २६)। उवक्कामिज्जइ (विसे २०३६) उवक्खाइया स्त्री [उपाख्यायिका] उपकथा, उधकोसा स्त्री [उपकोशा] एक प्रसिद्ध वेश्या उवक्काम सक [उप + क्रम् ] दीर्घकाल में अवान्तर कथा (सम ११६) IV (उव) । भोगने योग्य कर्मों को अल्ल समय में ही उवक्खाण न [उपाख्यान ] उपाख्यान, उवकंत वि [उपक्रान्त] १ समीप में पानीत। भोगना। कम. उवक्कामिज्जइ (धर्मसं कथा (पउम ३३, १४६)। २ प्रारब्ध, प्रस्तावित (विसे ९८७)। ९४८) उवक्खित्त वि [उपक्षिप्त प्रारब्ध, शुरू किया उवक्कम सक [उप + क्रम् ] १ शुरू करना, उवक्कामण न [उपक्रमण] उपक्रम कराना हुआ (मुद्रा ९३) । प्रारम्भ करना । २ प्राप्त करना । ३ जानना। (श्रावक १९७)।V उवक्खिव सक [उप+क्षिप्] १ स्थापन ४ समीप में लाना । ५ संस्कार करना । उपक्कामण देखो उवक्कमण (विसे २०५०)। करना । २ प्रयत्न करना । ३ प्रारम्भ करना। ६ अनुसरण करना; 'सीसो गुरुणो भावं उवकेस पुं [उपक्लेश] १ बाधा। २ शोक | उवक्खिव (पि ३१९) । जमुवक्कमए' (विसे ६२९); 'ता तुब्भे ताव (राज)। उवक्खीण वि [उपक्षीण क्षय-प्राप्त (धर्मवि प्रवक्कमह लहुँ, जाव एयासि भावमुव उवक्खड सक [उप + स्कृ] १ पकाना, । ४२)। क्कमामि ति' (महा); 'जेणोवक्कामि रसोई करना। १ पाक को मसाले से | उवक्खे अ पुं[उपक्षेप] १ प्रयत्न, उद्योग । ज्जइ समीवमारिणज्जए (विसे २०३६); संस्कारित करना। उवक्खडेइ, उवक्खडिति । २ उपाय; 'ण भणामि तस्सिं साहरिणज्जे 'जगणं हलकुलियाईहिं खेत्ताई उवक्कमिजंति (पि ५५६) । संकृ.उवक्खडेत्ता (पाचा)। किदो उवखेयो' (मा ३६) से तं खेत्तोवक्कमे' (अणु)। वकृ. उवक्कमंत प्रयो. उवक्खडावेइ, उरक्खडाविति (पि ५५६; | उवक्खेव पुं [दे. उपक्षेप] बालोत्पाटन, (विसे ३४१८) कप्प) । संकृ. उवक्खडावेत्ता (पि ५५६)। मुण्डन (तंदु १७)। उवक्कम पुं[उपक्रम] १ प्रारम्भ, प्रारम्भ। उवक्खड वि [उपस्कृत] १ पकाया | उवग वि [उपग] १ अनुसरण करनेवाला २ प्राप्ति का प्रयत्न; 'सोच्चा भगवाणुसासणं उपक्खडिया हुआ । २ मसाला वगैरह से | (उप २४३ औप)। २ समीप में जानेवाला सच्चे तत्थ करेज्जुवक्कम' (सूत्र १, २, संस्कार-युक्त पकाया हुआ (निचू ८ पि ३०६; (विसे २५६५)। ३, १४)। ३ कर्मों के फल का अनुभव ५५६; उत्त १२, ११)। ३ पुंन. रसोई, उवगच्छ सक [उप + गम् ] १ समीप में (सूत्र १, ३; भग १, ४)। ४ कर्मों की पाक भरिणयामहारपसारा जह अज्ज उव आना। २ प्राप्त करना। ३ जानना। ४ परिणति का कारण-भूत जीव का प्रयत्न- क्खडो न कायव्वों (उप ३५६ टी; ठा ४,२ । स्वीकार करना । उवगच्छइ (उवः स २३७)। विशेष (ठा ४.२)। ५मरण,मौत, विनाश; पाया १, 5 प्रोघ ५४ भा)। म वि । उवगच्छति (पि ५८२)। संक. उवगच्छि'हुज्ज इमम्मि समए उवक्कमो जीवियस्स जइ rrम] पकाने पर भी जो कच्चा रह जाता | ऊण (स ४४)। मझ' (प्राउ १५; बृह ४)। ६ दूरस्थित है वह, मूंग वगैरह अन्न-विशेष; 'उवक्खडामं उवगणिय वि [उपगणित] गिना हुआ, को समीप में लाना: 'सत्थस्सोवक्कमणं णाम जहा चरणयादीणं उवक्खडियाणं जे ण | संख्यात, परिगणित (स ४६१)। उबक्कमो तेण तम्मि अ तमो वा सत्थसमी- सिझंति ते कंकडुयामं उवक्खडियाम भएणइ' उवगप्पिय वि [उपकल्पित] विरचित (स वीकरणं' (विसे, अण)। ७ प्रायुष्य-विघातक | (निचू १५)/ । ७२१) For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ उवगम देखो उवगच्छ । संकृ. उवगम्म (विसे १९९९) हे उबर्ग (निचू १९) · ४ उवयवि [ उपगत ] १ पास आया हु ( से १, १६; गा ३२१) । २ ज्ञात, जाना उदगिण्ह सक [ उप + ग्रह ] १ उपकार हुआ (सम ८८ उप पृ ५६; सार्धं १४४) । करना । २ पुष्टि करना । ३ ग्रहण करना । युक्त सहित (राम) प्राप्त (भग) उवगिरह (पि ५१२ ) ५. प्रक-प्राप्त (सम्म १) ६ स्वीकृत उपगीय वि[उपगीत] १ स्तापित । वरिंगत, । 'अज्झप्पबद्धमूला, श्रएणेहि वि उवगया २ न. संगीत, गीत, गान 'बागी किरिया ( उवर १५ ) । ७ अन्तभूत अन्तर्गत नमवि सुर्य दिवमुत्तिकर' (सार्थ 'जं च महाकप्पसुर्य, १०८) । उवगीयमाण देखो उगा जारिण श्र सेसारिण छेप्रसुत्तारिण । पराग ति कालिये उपारण' (fely REX)~ Sarfa [ उपकृत ] जिसपर उपकार किया गया हो वह ( स २०१) उवगर सक [उप + कृ] हित करना । उवगरेमि (२०) । वगरण न [ उपकरण] १ साधन, सामग्री, साधक वस्तु (प्रोध ६६६ ) । २ बाह्य इन्द्रियविशेष (विसे ११४)। उवगरिय न [उपकृत] उपकार (कुप्र ४५ ) । उस सक [ उप + कस ] समीप श्राना, पास माना । संकृ. उवगसित्ता (सूत्र १, ४) । वकृ. 'उपगतं पिता, पहिलोमा यहि भोगमा महाम (सम २०) उवगा सक [उप + गै] वर्णन करना, श्लाघा करना, गुरणगान करना । कवकृ. उवगाइज्जमाण, उवगिज्जमाण, उवगीयमाण (राय; भग ६, ३३: स ६३) । उवगार देखो उवयार उपकार (सुर २, ४३ ) ।' उबगारगवि [ उपकारक ] उपकार करने वाला ( स ३२१) उवचर सक [ उप + चर ] १ सेवा करना । उग्गह पुं [ उपग्रह] १ पुष्टि, पोषण (विसे २ समीप में घूमना-फिरना । ३ आरोप १८५० ) । २ उपकार ( उप ५६७ टी स करना । ४ समीप में खाना । ५ उपद्रव १५४) । ३ ग्रहरण, उत्पादन (मोघ २१२ करना । उवचरइ, उवचरए, उवचरामो, भा) । ४ उपधि, उपकरण, साधन (ओघ उवचरंति ( बृह १; पि ३४६ ४५५ ६६६) । श्राचा) । उबग्गह पुं [उपग्रह] सामीप्य - सम्बन्ध ( धर्मंसं उवचर सक [ उप + चर ] व्यवहार करना । ३६३) चरंति (६) उग्गहग वि [ उपग्राहक ] उपकार-कारक ( कुलक २३) । उबग्गहिअ न [उपगृहीत] उपकार ( तंदु ५०) 1 उवग्गहिअ वि [ उपगृहित ] १ उपस्थापित (२३) २ दि सिएहि उवग्गहिएहि उवसदेह ( तंदु) । ३ उपकृत (स १५६) । ४ उपष्टम्भित (राज) उवगिअ न [ उपकृत ] १ उपकार । २ वि. उबग्गहिअ देखो ओवग्गहिअ (पंच) गारव [उपकारिन्] ऊपर देखो (सुर ७, ११७) 1 पाइअसद्दमहणवो उवगम - उवचरिय जिसपर उपकार किया गया हो यह स उबग्गादिवि [उपपादिन] सम्बन्धी सम्बन्ध ६३९ ) । रखनेवाला ( स ५२) । उब गिज्जमाण देखो उवगा उबग्घाव [उपोद्वात] ग्रन्थ के धारम्भ का वक्तव्य, भूमिका (विसे १९२ ) । उपाय वि[उपघातक ] विनाशक (धर्म उवगारिया स्त्री [उपकारिका ] प्रासाद आदि की पीठिका ( रा १) IV ५१२) । उवघाइ वि [ उपघातिन् ] उपघात करनेवाला ( भास ८७ विसे २००८ ) | उपधाय वि [उपपातिक] १ कारक (विसे २००९ ) । २ हिंसा से सम्बन्ध रखनेवाला 'भूम्रो घाइए (औप) उवधाय [उपघात] १ विराधना, श्राघात (ओघ ७८८ ) । २ अशुद्धता (ठा ५) । ३ विनाश ( कम्म १, ५४ ) । ४ उपद्रव ( तंदु) । ५ दूसरे का शुभ-चिन्तन ( भास ५१) 'नाम न [ 'नामन् ] कर्म-विशेष, जिसके उदय से जीव अपने ही शरीर के पडजीभ, चोरवंत, रसोली यादि भवों से क पाता है वह कर्म (सम ६७ ) I उवघायण न [ उपघातन ] ऊपर देखो (विसे २२३) । उबचय [उपनय] १ वृद्धि (भग ६, ३) २ समूह (पिड २; श्रोष ४०७ ) । ३ शरीर (५) ४ इन्द्रिय-पर्याप्त (१५) । | उवचयण न [ उपचयन ] १ वृद्धि । २ परिपोषण पुष्टि (राज) | गूढ वि [उपगूढ] १ श्रालिङ्गित (गा ३५१; स ४४८) । २ न. आलिंगन (राज) । उवगूह तक [ उप + गुह ] १ आलिंगन करना । २ गुप्त रीति से रक्षण करना । ३ रचना करना, बनाना । कवकृ. उबगूहिजमाण (गाया ११ औप उवगूहणन [ उपगूहन] १ आलिंगन । २ प्रच्छन्न-रक्षरण । ३ रचना, निर्माण, श्रारुहराणेहि बालयह उदय[उपगूड] मालिंगित (श्रावम) उबगूहिय न [ उपगूहित] गाढ़ थालिंगन ( पव १६९ ) 10 उवग्ग न [ उपाय ] १ श्रप्र के समीप । २ धापाद नारा 'एसो चिय कालो पुरेव उगम' (aa १) For Personal & Private Use Only वचरयवि [ उपचरक ] १ सेवा के मिष से दूसरे के श्रहित करने का मौका देखनेवाला (सू २, २, २८ ) । २ पुं. जासूस, चर (धाचा २, ३, १, ५) उवचरिय वि [ उपचरित ] कल्पित (ध २४५)। उवचरिय वि [ उपचरित] १ उपासित, सेवित, बहुमानित (स ३० ) । २ न. उपचार, सेवा (पंचा ६) । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवचि-उवणय पाइअसहमहण्णवो उवचि सक [उप + चि] १ इकट्ठा करना। | उवजिण सक [उप + अर्ज.] उपार्जन उवट्ठाण न [उपस्थान] अनुष्ठान, प्राचार २ पुष्ट करना । उवचिणइ, उवचिणाइ उव- करना। उजिणेमि (स ४४३) (सूत्र १, १, ३, १४) । चिणंति। भूका. उवचिरिणसु । भवि. उवचि- उवज्झय । पुं [उपाध्याय] १ अध्यापक, | उवट्ठाणा स्त्री [उपस्थाना] जिसमें जैन साधुरिणस्संति (ठा २, ४, भग)। कर्म उवचि- उवज्झाय पढानेवाला (पउम ३६, ६०; लोग एक बार ठहर कर फिर भी शास्त्रज्जइ, उवचिजंति (भग)। षड् ) । २ सूत्राध्यापक जैन बुनि को दी जाती निषिद्ध-अवधि के पहले ही प्राकर ठहरे वह उवचिट्ठ सक [उप + स्था] उपस्थित होना, एक पदवी (विसे)। स्थान (वव ४) । उवज्झिय वि [दे] आकारित, बुलाया हुआ | उवट्राव देखो उवट्ठव। उवट्ठावेहि (पि समीप आना। उवचिठे, उवचिठ्ठज्जा (राज)। (पि ४६२) । ४६८)। हेकृ. उवठ्ठावित्तए, उवट्ठावेत्तए उवझाय देखो उवज्झाय (सिरि ७७)।" उवचिणिय देखो उवचिय (धर्मवि १०६)।-- (ठा)। उवट्टण देखो उध्वट्टण (राज) उवट्ठावणा देखो उवट्ठवणा (बृह ६) । उवचिय वि [उपचित ] १ पुष्ट, पीन उवटणा देखो उबट्टणा (भग; विसे २५१५ | उवट्रिय वि [उपस्थित] १ प्राप्तः 'जरणवाद(पराह १, ४ कप्प)। २ स्थापित, निवेशित टी)। मुवट्ठिों ' (उत्त १२) २ समीप-स्थित (प्राव (कप्प; परण २)। ३ उन्नति (प्रौप)। ४ व्याप्त उवट वि [उपस्थ एक स्थान में सतत प्रय- १०)। ३ तैय्यार, उद्यत (धर्म ३)। ४ (अणु) । ५ वृद्ध, बढा हुआ (पाचा)। स्थित (वव ४) । काल पुं [काल] पाने | आश्रित; निम्मत्तमुवट्टिो ' (आउ; सूत्र १, उवञ्चया स्त्री [उपत्यका] पर्वत के पास की की वेला, अभ्यागम समय (वव ४)। २)। ५ मुमुक्षु, प्रव्रज्या लेने को तैय्यार, नीची जमीन (ती ११)IV उवटुंभ पुं[उपष्टम्भ] १ अवस्थान (भग)। 'उवट्ठियं पडिरयं, संजयं सुतवस्सियं । उवच्छदिद (शौ) वि [उपच्छन्दित] २ अनुकम्पा, करुणा (ठा २) वुक्कम्म धम्मायो भंसेइ, महामोहं पकुव्वई अभ्यथित (अभि १७३)IV उवट्ठप्प वि [उपस्थाप्य १ उपस्थित करते | उवजंगल वि [दे] दीर्घ, लम्बा (दे १, योग्य । २ व्रत-दीक्षा के योग्य'वियत्त- उवठावणा देखो उवट्ठवणा (पंचा १७,३०)। किच्चे सेहे य उवटुप्पा य पाहिया' (बृह ६) उवडहित्तु वि [उपदहित] जलानेवाला, उवजा अक [उप + जन्] उत्पन्न होना। उवट्ठव सक [उप + स्थापय् ] युक्ति से 'अगणिकाएणं कायमुवडहित्ता भवई' (सूम उवजायइ (विसे ३०२९)। संस्थापित करना । उवट्ठयंति (सूम २, १ | २, २)। उवजाइ स्त्री [उपजाति छन्द-विशेष (पिंग)। २७)।। उवडिअ वि [दे] अवनत, नमा हुमा (षड्)। उवजाइय देखो उवयाइय (श्राद्ध १६; सुपा उवट्ठव सक [उप + स्थापय ] १ उपस्थित | उवणगर न [उपनगर] उपपुर, शाखा-नगर ३५४)। करना। २ व्रतों का प्रारोपण करना, दीक्षा (प्रौप)। उवजाय वि[उपजात] उत्पन्न (सुपा ६००)। देना। उवट्ठवेइ, उवट्ठवेह (महा; उवा)। | उवणच सक [उप + नर्त्तय ] नचाना, उवजीव सक [उप + जीव ] आश्रय लेना। हेकृ. उवट्ठवेत्तए (बृह ४)। नाच कराना । कवकृ. उवणश्चिज्जमाण उवजीवइ (महा)। (प्रौप)। उवट्ठवणा स्त्री [उपस्थापना] १ चारित्रउवजीवग वि [उपजीवक] प्राश्रित (सुपा | विशेष, एक प्रकार की जैन दीक्षा (धर्म २)। उवणद्ध वि [उपनद्ध घटित (उत्तर ६१)। ११९) २ शिष्य में व्रत की स्थापना; 'वयट्ठवणमु. उवणम सक [ उप + नम्] १ उपस्थित उबजीवि वि [उपजीविन १ प्राश्रय लेनेवट्ठवणा' (पंचभा)। करना, ला रखना। २ प्राप्त करना। उववाला ; 'न करेइ नेय पुच्छइ निद्धम्मा लिंग उवट्ठवणीय वि [उपस्थापनीय] देखो एमइ (महा)। वकृ. उवणमंत (उप १३६ मुवजीवो' ( उव) । २ उपकारक (विसे उपटुप्प (ठा ३)। टीः सूत्र १, २)। २८८६) उवजोइय वि [उपज्योतिष्क] १ अग्नि के उवट्ठा सक [उप + स्था] उपस्थित होना। | उवर्णामय वि [उपनमित ] उपस्थापित उवट्ठाएजा (भग)। (सरण)। समीप में रहनेवाला । २ पाक-स्थान में स्थितः उवट्ठाण न [उपस्थान] १ बैठना, उपवेशन उवणय वि [उपनत] उपस्थित (से १, ३६)। 'के इत्थ खत्ता उवजोइया वा अज्झावया वा (गाया १,१) । २ व्रत-स्थापन (महानि ७)। उवणय पुं[उपनय] १ उपसंहार, दृष्टान्त के सह खंडिएहिं (उत्त १२, १८)। ३ एक ही स्थान में विशेष काल तक रहना अर्थ को प्रकृत में जोड़ना, हेतु का पक्ष में उवज अक [उत् + पद्] उत्पन्न होना। (वव ४)। दोस पुं ['दोष] नित्यवास उपसंहार (पव ६६, ओघ ४४ भा)।२ उवजंति (सूम १, १, ३, १६)। दोष (वव ४)। "साला स्त्री [शाला] स्तुति, श्लाघा (विसे १४०३ टी; पव १४०)। उवजण न [उपार्जन] पैदा करना, कमाना आस्थान-मण्डप, सभा-स्थान (गाया १,१, ३ प्रवान्तर नय (राज)। ४ संस्कार-विशेष, (सुर ८, १४४ ।। निर १,१)। उपनयन (स २७२)। For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ पाइअसहमहण्णवो उवणय-उवद्दविय उवणय पुं [उपनय ] यज्ञोपवीत संस्कार, | उवणी सक [उप + नी] १ समीप में लाना, | उवदंस सक [उप + दर्शय् ] दिखलाना, उपहार, भेंट (राय १२७) ।। उपस्थित करना । २ अर्पण करना । ३ इकट्ठा | बतलाना । उवदंसइ (कप्पा महा) । उवदंसेमि उवणयण न [उपनयन] १ उपसंहार (वव करना। उवणेति (उवा); उत्रणेमो। भवि. (विपा १, १) । भवि. उवदंसिस्सामि १)। २ उपस्थापन (पिंड ४४१)। उवणेहिइ (पि ४५५, ४७४, ५२१)। (महा)। वकु. उवदंसेमाण (उवा)। कवकृ. कवकृ. उवणिज्जत (से ११, ५३)। संकृ. उवदंसिजमाण (गाया १, १३)। संकु. उवणयण न [उपनयन] उपवीत-संस्कार, 'से भिक्खुणो उवणेत्ता प्रणेगे' (सूत्र २, उवदंसिय (प्राचा २)। यज्ञ-सूत्र धारण संस्कार (पएह १, २) उवणिअ देखो उवणीय (मे ४, ५५)। उवदंस पुं[उपदंश] १ रोग-विशेष, गर्मी, उपणिक्खित्त वि [उपनिक्षिप्त व्यवस्थापित | उवगीअ न [उपनीत] उपनयन (अणु सुजाक । २ अवलेह, चाटना (चारु ६) (प्राचा २)। | २१७)। वयण न [वचन] प्रशंसा-वचन उवदसण न [उपदर्शन] दिखलाना (सण)। उणिक्खेव पुं [उपनिक्षेप] धरोहर, रक्षा | (पाचा २, ४, १, १)। कूड पुं[कूट] नीलवंत नामक पर्वत का पास रखा धन (वव उवणीय वि [उपनीत] १ समीप में लाया एक शिखर (ठा २, ३)।। उणिग्गम पुं[उपनिर्गम] १ द्वार, दरवाजा हुआ (पानः महा)। २ अर्पित, उपढीकित उवदंसिय वि [उपदशित] दिखलाया हुआ (से १२, ६८) । २ उपवन, बगीचा (गउड) (औप) । ३ उपनययुक्त, उपसहृत (विसे REET (सुपा ३११) । उणिग्गय वि [उपनिर्गत समीप में निकला टी; अरण) । ४ प्रशस्त, श्लाषित (आचा उवदंसिर वि [ उपदर्शिन् ] दिखलानेवाला २)। चरय पुं [°चरक] अभिग्रह विशेष हुआ (प्रौप)। को धारण करनेवाला साधु (प्रौप) (सरण) । उवणिज्जत देखो उवणी। उवदंसेत्तु वि [उपदर्शयितु] दिखलानेवाला उवणिमंत सक [ उपनि + मन्त्रय ] निमउवण्णत्थ वि [उपन्यस्त ] उपन्यस्त, उप (पि ३६०)। न्त्रण देना । भवि. उवरिणमंतेहिति (प्रौप)। ढौकितः 'गुन्विपीए उवएणत्थं विविहं पाण उवदव पुं [उपद्रव ऊधम, बखेड़ा (महा)। संक. उवणिमंतिऊण (स २०)। भोअणं । भुंजमाणं विवजिजा' (दस ५, उवदा स्त्री [उपदा] भेंट, उपहार (रंभा)। उपणिमंतण न [उपनिमन्त्रण] निमन्त्रण ३६) उवदाई स्त्री [उदकदायिका पानी देनेवाली (भग ८, ६)। उवण्णास पुं [उपन्यास] १ वाक्योपक्रम, 'पाउवदाई च रहाणेवदाई च बाहिरपेसणउणिवाय पुं [उपनिपात] सम्बन्ध (धर्मसं प्रस्तावना (ठा ४)। २ दृष्टान्त-विशेष (दस | कारिं ठवेति' (णाया १, ७)। ४५८)। १)। ३ रचना (अभि६८)। ४ छल प्रयोग उवदाण न [उपदान] भेंट, नजराना (भवि) उवणिविट्र वि [उपनिविष्ट] समीप-स्थित (प्रयौ २२)। उवदिस सक [ उप + दिश ] उपदेश देना । (राय)। उवतल न [उपतल] हस्त-तल की चारों ओर उवदिसइ (कप्प)।उवणिसआ स्त्री [उपनिपत् ] वेदान्त-शास्त्र, का पार्श्वभाग (निचू १)। उवताव पुं [उपताप] सन्ताप, पीड़ा (सूत्र | वेदान्त-रहस्य, ब्रह्म-विद्या (अच्नु ८) । उबदीव न [दे] द्वीपान्तर, अन्य द्वीप (दे १, उपणिहा स्त्री [उपनिधा] मार्गण, मार्गरणा १, ३)। उवदेसग वि [उपदेशक] व्याख्याता (प्रौप)।। (पंचसं)। उवताविय वि [उपतापित] १ पीड़ित । २ | तप्त किया हुआ, गरम किया हुआ (सुर २, | उवदेसणया देखो उवएसणया (विसे २६, उवणिहि पुंस्त्री [उपनिधि ] १ समीप में २२६; सण)। पानीत, धरोहर (ठा ५)। २ विरचना, निर्माण उवत्त वि [उपात्त] गृहीत (पउम २६, ४६; उवदेसि वि [उपदेशिन] उपदेशक (चारु (अणु)। सुर १४, १६०)। उपणिहि पुंस्त्री [उपनिघि उपस्थापन, अमा उवदेही स्त्री [उपदेहिका] क्षुद्र जन्तु-विशेष, | उवत्थड वि [उपस्तृत] ऊपर-ऊपर आच्छानत (अणु ५२) दीमक (दे १,६३)। दित (भग)। उपणिहिअ वि [औपनिधिक] १ उपनिधिउवत्थाण देखो उवट्ठाण (दसनि ४, ५५)। उवदव सक [उप+द्र.] उपद्रव करना, सम्बन्धी। "आ स्त्री [°की] क्रम-विशेष ऊधम मचाना । भवि. उवद्दविस्सइ (महा)। (अण ५२) उवत्थाणा देखो उवढाणा (पि ३४१)। उवद्दव देखो उवदव (ठा ५)। उवाणहिय वि [उपनिहित] १ समीप में उवस्थिय देखो उवट्ठिय (सम १७) । उबद्दवण न [उपद्रवण] उपद्रव करना, उपस्थापित । २ आसन्न-स्थित (सूत्र २, २)। उवत्थु सक [उप + स्तु] स्तुति करना, श्लाघा सर्ग करना (धर्म ३)। य पुं[क] नियम-विशेष को धारण करने- करना । उवत्थुणति (पि ४६४) । उवत्थुवंदि उवद्दविय वि [उपद्र त] पीड़ित, भय-भीत वाला भिक्षु (सूत्र २, २)। (शौ) (उत्तर २२)। किया हुआ (प्राव ४: विवे ७६) 11. For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवदुअ-उवयारण पाइअसहमहण्णवो उवद्दुअवि [उपद्रुत हैरान किया हुआ उवभुंजण न [उपभोजन] उपभोग (सुपा करना। उवयरेइ (सण)। कृ. उवयरियव्व (भत १०५)। (सुपा ५६४) । उवधाउ पुं [उपधातु] निकृष्ट धातु (संबोध उवमुत्त वि उपमुक्त १ उवयर सक[उप+चर ] १ आरोप करना। किया हो वह (वव ३)। २ अधिकृत (उप पृ । २ भक्ति करना । ३ कल्पना करना ४ चिकिउवधारणया स्त्री [उपधारणा] अवग्रह-ज्ञान । १२४)। सा करना। कवकृ. उवयरिजंत (सुपा (गदि १७४)। उवभो । पुं[उपभोग] १ भोजनातिरिक्त उवधारणया स्त्री [उपधारणा] धारणा, उवभोग भोग, जिसका फिर-फिर भोग किया उवयरण न [उपकरण] साधन, सामग्री; 'माए धारण करना (ठा ८)। जाय जैसे-वस्त्र-गृहादिः 'उवभोगो उ पुणो पुणो घरोवारणं अज हु गत्यि ति साहियं तुमए' उवधारिय वि [उपधारित] धारण किया उवभुजइ भवरणवलयाई (उत्त ३३, अभि (काप्र २६ गउड)। २ उपकार (सत्त ४१ हुआ (भग)। ३१)। २ जिसका एक बार भोग किया जाय टी) उवनंद पुं [उपनन्द] स्वनाम-ख्यात एक जैन | वह, प्रशन, पान वगैरह (भग ७, २; पडि)। उवयरिय वि [उपकृत] १ उपकृत । २ उपमुनि (कप्प) । उवभोग पुं[उपभोग] १ एक बार भोग, - कार (वजा १०)। उवनंद संक [उप + नन्द] अभिनन्दन करना। | आसेवन । २ अन्तरंग भोग (श्रावक २८४)। उवयरिय वि [उपचरित] पारोपित (विसे कवकृ. उवनंदिजमाण (कप्प) IV ३ धारण करना (ठा ५,३ टी—पत्र ३३८) २८३)। उवनगर देखो उवनयर (सुख २, १३) उवभोग्गा वि [उपभोग्य] उपभोग-योग्य उवयरिया स्त्री [उपचारिका] दासी (उप पू उवनयर देखो उवणयर (सुपा ३४१) । उवभोज (राज; बृह ३)। ३८७)। उवनिक्खित्त देखो उचणिक्खित्त (कस)। उवमा स्त्री [उपमा] १ सादृश्य, दृष्टान्त (अणुः उवया सक [उप + या] समीप में जाना। लवनिक्खेव सक [उपनि + क्षेपय] १ उवः प्रासू १२०)। २ सत्य (ठा १०)। ३ । उवयाई (सून १, ४,१,२७)। उवयंति धरोहर रखना । २ स्थापन करना। कृ. उव खाद्य-पदार्थ-विशेष (जीव ३)। ४ 'प्रश्नव्या- | (विसे १४१) निक्खेवियव्य (कस) करण' सूत्र का एक लुप्त अध्ययन (ठा १०)। उवनिग्गय देखो उवणिग्गय (णाया १, १)। उवयाइय वि [उपयाचित] १ प्रार्थित, अभ्य ५ अलङ्कार-विशेष (विसे ६६६ टी)। ६ । उवनिबंधण न [उपनिबन्धन] १ संबन्ध । । थित । २ न. मनौती, किसी काम के पूरा होने प्रमाण-विशेष, उपमान-प्रमाण (विसे ४७०)M २ वि. संबन्ध-हेतु (विसे १६३६) । पर किसी देवता की विशेष प्राराधना करने उबमाण न [उपमान] १ दृष्टान्त, सादृश्य । | उवनिमंत देखो उवणिमंत । उवनिमंतेइ, | का मानसिक संकल्प (ठा १० गाया १,८)। २ जिस पदार्थ से उपमा दी जाय वह (दसनि उवनिमंतेमि (कस, उवा)। उवयाण न [उपयान] समीप में गमन (सूप १)। प्रमाण-विशेष (सूत्र १,१२)। उवनिविट्ठ वि [उपनिविष्ट] समीपस्थित उवमालिय वि [उपमालित ] विभूषित, (राय २७)। उवयार पुं[उपकार] भलाई, हित (उव उवनिहिय वि [औपनिधिक] देखो उवणिसुशोभित गउड वजा ५८) 'अमलामयपडिपुन्न, कुवलयमालोवमालियमुहं च। हिय (पएह २, १)। उवयार पुं [उपचार] १ पूजा, सेवा, आदर, कणयमयपुराणकलसं, विलसंतं पासए पुरो' उवन्नत्थ वि [उपन्यस्त स्थापित (स ३१०)। भक्ति (स ३२, प्रति ४)। २ चिकित्सा, (सुपा ३४) उवन्नास [उपन्यास] निवेदन (दसनि १, शुश्रूषा (पंचा ६)। ३ लक्षणा, शब्द-शक्तिउवमिय वि [उपमित] १ जिसको उपमा दी विशेष, अध्यारोपः 'जो तेसु धम्मसद्दो सो गई हो वह । २ जिसकी उपमा दी गई हो उपप्पदाण न [उपप्रदान] नीति-विशेष, उवयारेण, निच्छएण इह' (दसनि १)। ४ वह (प्रावम)। ३ न. उपमा, सादृश्य (विसे उपप्पयाण दान-नीति, अभिमत अर्थ का । व्यवहार; 'गिउरणजुत्तोवयारकुसला' (विपा १, ६८५)। दान (विपा १, ३; गाया १,१)। २)। ५ कल्पना; 'उवयारो खित्तस्स विणिउवमेअ वि [उपमेय] उपमा के योग्य (मै उवप्पुय वि [उपप्लुत] उपद्रुत, भय से व्याप्त गमणं सरूवरो नत्यि' (विसे)। ६ आदेश ७३)। (राज) (प्रावम)। उवय पुं[दे] हाथी को पकड़ने का गड्ढा उवभुंज सक [ उप+भुज् ] उपभोग करना, | उवयारग वि [उपचारक] सेवा-शुश्रूषा करने(पास)। काम में लाना । उवभुंजइ (षड्)। वकृ. वाला (निचू ११) उव जंत (उप पृ १८०)। कवकृ. उअहुउवय देखो ओवय । वकृ. उवयंत (कप्प)। उवयारण न [उपकारण अन्य-द्वारा उपकार जंत, उवभुज्जत (से २,१० सुर ८,१६१)। उवय (अप) देखो उदय (भवि) करना; 'उवयारणपारणासु विणो पउंजिसंकृ. उवभुंजिऊण (महा)। | उवयर सक [उव+कृ] उपकार करना, हित । यन्वों' (पएह २, ३)। २३ For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ पाइअसद्दमहण्णवो उवयारय-उवलधु उवयारय वि [उपकारक उपकार करने. ल्ल वि [तन] ऊपर का, ऊर्ध्व-स्थित (सम उवलंभिज्जइ (पि ५४१)। वकृ. उवलंभेमाण वाला (धम्म ८ टी) ४३; सुपा ३५; भगः हे २, १६३; सम २२ (णाया १, १८) ।। उवयारि वि [उपकारिन् ] उपकारक (स ८६)। हुत्त वि [ अभिमुख] ऊपर की उवलंभ पुं [उपलम्भ] १ लाभ, प्राप्ति (सुपा २०८ विक २३, विवे ७६) तरफ (सुपा २६६)। ६) । २ ज्ञान (स ६५१) । ३ उलाहना; एवं उवयारिअ वि [औपचारिक] उपचार से उवरिं ऊपर देखो (कुमा)। बहूवलंभ (उप ६४८ टी)V संबन्ध रखनेवाला (उवर ३४) । उवरितण देवो उपरि-म (धर्मवि १५१) Vउवलंभ देखो उवालंभ = उपालम्भः 'उवलंउवयालि पुं[उपजालि] १ एक अन्तकृद् मुनि, भम्मि मिगावई नाहियवाई वि वत्तव्वे' उवरुध सक [उप + रुध् ] १ अटकाव जो वसुदेव का पुत्र था और जिसने भगवान् (दसनि १, ७५) IV करना। २ अड़चन डालना। ३ प्रतिबन्ध श्रीनेमिनाथजी के पास दीक्षा लेकर शत्रुञ्जय उवलंभण न [उपलम्भन] प्राप्ति (णंदि करना, रोकना। कर्म.उवरुज्झइ, उवधिज्जइ, पर मुक्ति पाई थी (अंत १४)। २ राजा (हे ४, २४८) iv २१०)। श्रेणिक का इस नाम का एक पुत्र, जिसने उवलंभणा स्त्री [उपलम्भना] उलाहना उवरुद्द पुं[उपरुद्र] नरक के जीवों को दुःख भगवान महावीर के पास दीक्षा लेकर अनुत्तर 'धएणं सत्यवाहं बहहि खेज्जणाहि य रुटणाहि देनेवाले परमाधामिक देवों की एक जातिः विमान में देव-गति प्राप्त की थी (अनु १)। य उवलंभणाहि य खेजमारणा य रुंटमारणा य 'रुद्दोवरुद्द काले अ, महाकाले त्ति यावरे' उवलंभेमारणा य धरणस्स एयमठे गिवेदेति' उवरइ स्त्री [उपरति] विराम, निवृत्ति (विसे (सम २८); 'भंजंति अंगमंगा रिग, ऊरुबाहुसि- | (गाया १,१८) २१७७, २६४०; सम ४४)। राणि करचरणा। कप्पेंति कप्पणीहिं, उवरुद्दा उवलक्ख सक [उप + लक्षय ] जानना, उवरंज सक [ उप + रञ्ज] ग्रस्त करना। पावकम्मरया' पहिचानना । उवलक्लेइ (महा) । संकृ. कर्म. उवरज्जदि (शौ) (मुद्रा ५८) । (सूम १, ५) उवलक्खेऊण (महा)। कृ. उवलक्खिज्ज उवरग देखो ओअरय; 'उवरगपविट्ठाए करणग- | उवरुद्ध वि [उपरुद्ध] १ रक्षित । २ प्रतिरुद्ध, (उप पृ.७) दारदेसट्ठिएण दि8 तं | अवरुद्ध; 'पासत्थपमुहचारीविरुद्धधरणभव्वसत्थाणे उवलक्ख पुं[उपलक्ष] ज्ञान, खबर, मालूम पुव्ववरिणयचेट्ठिय' (महा)। (साधं ९८ उप पृ ३८५) 'खित्ताई अणुवलक्खं रयणाई रुक्खगहणम्मि' उवरत्त वि [उपरक्त] १ अनुरक्त, राग-युक्त; उवरोह सक [उप+रोधय । अड़चन (कुप्र ३२६) V 'कुमरगुणेसूवरत्ता' (सूपा २५६)। २ राह से डालना। कृ. उवराहणाय (सुख १,४०) उपलक्ख ण न [उपलक्षण] १ पहिचान ग्रसित (पास)। ३ म्लान (स ४७३) उवरोह पुं [उपरोध] १ अड़चन, बाधा (सुपा ६१) । २ अन्यार्थ-बोधक संकेत उवरम अक [ उप + रम् ] निवृत्त होना, (विसे १४१३; स ३१६); 'भूत्रोवरोहरहिए' (श्रा ३०) विरत होना; 'भो उवरमसु एयानो असुभज्झ (आव ४)। २ पटकाव, प्रतिबन्ध (बृह १; | उवलक्खिअ वि[उपलक्षित] १ पहिचाना वसारणायो' (महा)। स १५) । ३ घेरा, नगर आदि का सैन्य द्वारा हुप्रा, परिचित (श्रा १२)TV उवरम पुं [उपरम] १ निवृत्ति, विराम, वेष्टन; 'उवरोहभया कीरइ सप्परिखो पुरवरस्स उवलग्ग वि [उपलग्न] लगा हुआ, लग्न (उप पृ ६३) । २ नाश (विसे ६२) पागारो' (बृह ३) । ४ निर्बन्ध, प्राग्रह 'पउमिणिपत्तोवलग्गजलबिदुनिचयचित्तं (कप्प; उवरय वि [उपरत] १ विरत, निवृत्त (आचा; (स ४५७) भवि) सुपा ५०८)। २ मृत (स १०४)1V उवरोहिअ वि [उपरोधित] जिसको उपरोध उवलद्ध वि [उपलब्ध] १ प्राप्त। २ विज्ञात; -निर्बन्ध किया गया हो वह (कुप्र १३५ उवरय देखो उवरगः 'उवरयगया दारं पिहिऊण 'जइ सव्वं उवलद्ध, जइ अप्पा भाविनो ४०६)। किपि मुणमुरांती चिट्ठई (महा)। उसमेण' (उवः णाया १, १३, १४) । ३ उवरल (अप) देखो उव्वरिय [दे (पिंग) उवरोहि वि [उपरोधिन्] उपरोध करने उपालब्ध, जिसको उलाहना दिया गया हो वह उवराग! पुं[उपराग] सूर्य या चन्द्र का वाला (आव ४) (उप ७२८ टी)। उवराय । ग्रहण, राहु-ग्रहण (पएह, १, २, | उवल पुं [उपल] १ पाषण, पत्थर (प्रासू उवलद्धि स्त्री [उपलब्धि] १ प्राप्ति, लाभ । से ३, ३६; गउड)। १७५) । २ टाँकी वगैरह को संस्कृत करने- २ ज्ञान (विसे २०६)V उवराय पुं[उपरात्र दिन, 'रामोवरायं अप वाला पाषाण-विशेष (पएण १)TV उवलद्धिय देखो उवलद्धः 'सत्तरत्तछुहियस्स मे डिन्ने अनगिलायं एगया भुंजे' (प्राचा)। उवलम्बण पुं[उपलम्बन] सांकल (सिकड) भक्खमुवलद्धियं, ता तुमं भक्खिस्स' (कुप्र उवरि भ[उपरि] ऊपर, ऊध्वं (उव)। भासा वाला एक प्रकार का दीपक (अनु)।। ५६) स्त्री [भाषा] गुरु के बोलने के अनन्तर ही उवलंभ सक [उप + लभ्] १ प्राप्त करना। उवलधु वि [उपलब्धृ] ग्रहण करनेवाला, विशेष बोलना (पडि)। म, मग, मय, २ जानना । २ उलाहना देना । कर्म, जाननेवाला (विसे ६२) । For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलभ-उपवीज उवलभ देखो उवलंभ = उप + लभ् । वकृ. उवलभंत ( पि ४५७) । संकृ. उवलब्भ (पि ५६० ) 1 उवलभत्ता ) स्त्री [दे] वलय, कङ्गन उवलयभग्गा ) (दे १,१२०) उवलल अक [ उप + लल्] क्रीड़ा करना, विलास करना । कवकु. उवललंत (महा) । प्रो. उवलालिमाण (खाया १.१) उवललयन [दे] सुरत, मैथुन (दे १, ११७) । उवललियन [ उपललित ] क्रीडा-विशेष (art, e) i उवलह देखो उवलंभ = उप + लभ् । संकृ. उपलहिय ( स ३२) उपलदिऊण (स ६१० ) । उबला सक [ उप + ला] १ ग्रहण करना । २ आश्रय करना। हेकृ. उवलाउं (वव १) | M बलि देखो उपहिमाचा २, ३, १, २) । उबपि एक [ उप + लिप्] सोपना, पोतना भवि उवि (२४९) । वपि सक [ उप + लिप् ] चुम्बन करना; 'बलाएं जो उ सीसागं जीहाए उवलिपए' ( गच्छ १,०१६) । उचलित वि [उपलिम] सीपा हुआ, पोता हुआ या ११) उवलीण देखो उवल्लीण अवि [दे] सलज्ज, लज्जा-युक्त (दे १, १०७) IV उवलेव पुं [ उपलेप] १ लेपना । २ कर्मबन्ध ( श्रौप ) । ३ संश्लेष (प्राचा) । ४ (११२) IV उवलेवण न [ उपलेपन ] ऊपर देखो (भग ११. ६; निचू १; श्रौप) उवलेविय वि [ उपलेपित ] लीपा हुआ, पोता हुआ (कप्प) उबलोभ सक [ उप + लोभय् ] लालच देना, लोभ दिखाना । संकृ. उवलोभेऊण (महा) 1 कोल लोहिय[उपलोभित] दी गई हो वह (उप ७२८६ टी) | उब िस [उप + ली]१ रहना, स्थिति पाइअसदमद्दण्णवो १७६ ६१९ ) । करना । २ आश्रय करना । उवल्लियइ (पि | उववसण न [ उपवसन] उपवास (सुपा १९६६ ४७४ ); 'तम्रो संजयामेव वासावासं उवल्लिज्जा' (श्राचा २, ३, १, १२) । उवल्लीण वि [ उपलीन] १ स्थित । २ प्रच्छन्न-स्थितः 'उवल्लीणा मेहुणधम्मं विरणवेंति' ( आचा २) | बबइ पुं [उपपति] जार (धर्मवि १२८) | | व क [उप+] उत्पन्न होना। २ संगत होना, युक्त होना । उवज्जइ भवि. उववज्जिeिs (भग) महा) । वकृ. उववज्जमाण (ठा ४) । संकृ. । उववज्जित्ता (भग १७, ६) । हे. उववज्जि (सूत्र २, १) IV [उपवर्जन] त्या 'असमंजसो ववज्जर्णामिह जायइ सव्वसंगचायाओं (सुपा ४७१) उववज्जमाण देखो उववाय = उप+वादय् IV वझवि [उपवाह्य] राज आदि का भ -प्रधान सेनापति आदि (१२५) Y उवज्झ वि [औपवाह्य ] प्रधान श्रादि का, प्रधान आदि को बैठने योग्य (दस १, २, ५) । उपयट्ट धरु [ उप + वृत्] त होना, मरना, एक गति से दूसरी गति में जाना । उवव (भग) व उपमाण (भ)। aaण न [ उपवन ] बगीचा ( खाया १, १, 432) 1 उववण्ण वि [उपपन्न] १ उत्पन्न, 'उववरणो मासम्म लोग' (उत १) २ संगत, युक्त (पंचा ६; उवर ४७ ) । ३ प्रेरित 'उववरणो पावकम्मुरणा' (उत्त १९ ) । ४ न. उत्पत्ति, जन्म (भग १४, १) उववत्ति स्त्री [ उपपत्ति ] १ उत्पत्ति, जन्म (ठा २) । २ युक्ति, न्याय (पउम २, ११७; उवर ४९ ) । ३ विषय । ४ संभव 'विसउत्ति वा संभउत्ति वा उवव त्ति त्ति वा एगट्टा (भाचू १) ववि [ उपप] उत्प 'देवी देवता उतारो भवंति (श्रीप 5) उववन्न देखो उववण्ण (भगः टा २, २३ स १५० १९२) raaण न [ उपपतन ] देखो उववाय = उपपात, 'उववय ं उववान (पंचभा For Personal & Private Use Only उपवाय वि [औपपादिक, औपपातिक ] १ उत्पन्न होनेवाला 'श्रत्थि मे आया उववाइए, नत्थि मे आया उववाइए' ( श्राचा) । २ देवरूप या नारक रूप से उत्पन्न होनेवाला ( परह १,४) उववाय सक [ उप + पादय् ] संपादन करना, सिद्ध करना । उववायए ( उत्त १, ४३; दस ८, ३३) । उबवाय पुं [उप + वादय् ] वाद्य बजाना । कवकृ. उपवज्जमाण, उववज्जमाण (कप्प राज ) । उववाय पुं [उपपात] १ देव या नारक जीव की उत्पत्ति - जन्म ( कष्प) । २ सेवा, श्रादर; 'आणावयनि चिट्टेति (भाग ३, ३) । ३ विनय । ४ श्राज्ञा 'उववाम्रो रिणद्देसो धारणा विराधो य होति एगडा (४) । ५ प्रादुर्भाव ( पण १६ ) । ६ उपसंपादन, संप्राप्ति (नि ५) कप्प ["कल्प ] साध्वाचार-विशेष, पारों के साथ रह कर संविग्न-विहार की संप्राप्ति (पंचभा) । य वि [ज] देव या नारक गति में उत्पन्न जीव (प्राचा) उपवास [उपवास] उपवास, धनाहार दिन-रात भोजनादि का श्रभाव (उवा महा) | उपवास [उपवासिन] जिसने उपवास किया हो वह (पउम ३३, ५१ सुपा ४७८ ) । ववासिय वि[ उपवासित] उपवास किया हुआ (भवि ) । उवविस देखो उपवी 'सम्बो (?) विद्य' (धर्मवि afga [ उपविष्ट ] बैठा हुआ, निषरण ( श्रावम) उबविणा व [उपविनिर्गत ] सतव निर्गत ( जीव ३) उवविस क [ उप + विश_] बैठना । उवविस (महा). उपविसिज (भि ३८) । वन [उपवेशन] बैठना (कुलक ७) । ~ उबवीअ न [उपयीत] १ यशसूत्र जानेक Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० पाइअसहमहण्णवो उववीड-उवसाम (गाया १,१६; गउड)। २ वि. सहित, युक्त रहित (सूम १, ६; धर्म ३)। २ नष्ट, अपगतः | उवसज्जण न [उपसर्जन] १ अप्रधान, गौण 'गुणसंपनोववीमो' (विसे ३४११)। 'उवसंतरयं करेह (राय)। ३ पु. ऐरवत क्षेत्र (विसे २२६२)। ३ सम्बन्ध (विसे ३००५)। के स्वनाम-धन्य एक तीर्थङ्कर-देव (पव ७)। उवसत्त वि [उपसक्त] विशेष प्रासक्तिवाला उववीड अ [उपपीड उपमर्दन, सिविणो मोह पुं[ मोह] ग्यारहवाँ गुण-स्थानक वीडं प्रालिगणेण गाढं पीडियो' (रंभा)। | (उत्त ३२) । (सम २६)। उवसह पुं [उपशब्द सुरत-समय का शब्द उबवूह सक [उप + बंह ] १ पुष्ट करना । उवसंति स्त्री [उपशान्ति] उपशम (प्राचा)। (तंदु)। २ प्रशंसा करना, तारीफ करना। संकृ. उवसंधारिय वि [उपसंधारित] संकल्पित उवसद्द पुन [उपशब्द] १ प्रच्छन्न शब्द । २ उबवूहेऊण (दसनि ३) । कृ. उबवूहेयन्त्र (निचू १)/ समीप का शब्द (तंदु ५०)। (दसनि ३)। उवसंपज्ज [उपसं+ पद्] १ समीप में उवसप्प सक [ उप + सृप्] समीप जाना। उववूहण न [उपबृंहण] १ वृद्धि, पोषण जाना । २ स्वीकार करना । ३ प्राप्त करना। संकृ. उवसप्पिऊण (महा: स ५२६) (पएह २,१)। २ प्रशंसा, श्लाघा (पंचा २) उवसंपजइ (स १६१)। वकृ. उवसंपन्जंत उवसप्पि वि [उपसपिन] समीप में जानेउबवूहा स्त्री [उपबृंहा] ऊपर देखोः “उववूह (वव १)। संकृ. उवसंपज्जिता, उवसंपजि- | वाला (भवि)। थिरीकणे वच्छल्लपभावणे अ8 (पडि)। त्ताणं (कप्प; उवा)। हेकृ. उवसंपजिउं उवस प्पिय वि [उपसर्पित] पास गया हुआ उववूर्णिय वि [उपबृंहणीय] पुष्टि-कर्ता (बृह १)। (निचू ८)। स्त्री. पट्ट-विशेष, राजा वगैरह के (पान)। उवसंपण्ण वि [उपसंपन्न] १ प्राप्त । २ भोजन-समय में उपभोग में आनेवाला पट्टा स्वसम [उप + शम्] १ क्रोध-रहित समीप-गत (धर्म ३)। (निचू ६) होना। २ शान्त होना, ठंडा होना। ३ नष्ट उवसंपया स्त्री [उपसंपद् ] १ ज्ञान वगैरह होना। उवसमइ (कप्पा कस महा)। कृ. उबबूहिय वि [उपबंहित] १ वृद्धि को प्राप्त, की प्राप्ति के लिए दूसरे गुर्वादि के पास जाना उवसमियव्य (कप्प)। प्रयो. उवसमेइ (विसे पृष्ट (स १५)। २ प्रशंसित (उप पू ३८६) (धर्म ३)। २ अन्य गुरु प्रादि की सत्ता का १२८४), उवसमावेइ (पि ५५२)। कृ. उवउववृहिर वि [उपबंहिन् ] १ पोषक, पुष्टि- स्वीकार करना (ठा ३, ३)। ३ लाभ, प्राप्ति समावियव्य (कप्प) V कारक । २ प्रशंसक (सण)। (उत्त २६) उववेय वि [उपेत] युक्त, सहित (णाया १, उवसम पु [उपशम] १ क्रोध का अभाव, उवसंहर सक [उपसं+ हृ] १ हटाना, दूर १; औप वसु; सुर १, ३४; विसे REEM क्षमा (प्राचा)। २ इन्द्रिय-निग्रह (धर्म ३)। करना। २ सकेलना, समेटनाः 'ता उवसंहर उवसंकम सक [उपसं+ क्रम् ] समीप ३ पन्द्रहवाँ दिवस (चंद १०)। ४ मुहूर्तइमं कोवं' (कुप्र २८५)। संकृ. 'उवसंहरिउं आना । वकृ. उवसंकमंत (दस ५, २,१०)। विशेष (सम ५१)। °सम्म न ["सम्यक्त्व] नीसेसदेवमायं गो जाव' (धर्मवि १८)। उवसंखड सक [उपसं + कृ] राँधना, सम्यक्त्व-विशेष (भग)। उपसंहरिय वि [उपसंहत] समेटा हुआ, | पकाना । कवकृ. उवसंखडिन्नमाण (आचा | उवसमणा स्त्री [उपशमना] पात्मिक प्रयत्न२, १, ४, २)। 'वंतरेण य उवसंहरिया माया' (महा) । विशेष, जिससे कर्म-पुद्गल उदय-उदीरणादि उवसंखा स्त्री [उपसंख्या] यथावस्थित पदार्थउपसंहार पुं [उपसंहार] संकोचन, समेट के अयोग्य बनाए जाय वह (पंच) ।। ज्ञान (सूम १, १२)। (द्रव्य १०)। उवसमि वि [उपशमिन् ] उपशमवाला उवसंगह सक [उपसं + ग्रह. ] उपकार उवसंहार पुं [उपसंहार] १ समाप्ति । २ | (विसे ५३० टी)। करना। कर्म. उवसंगहिजइ (स १६१)। उपनय (श्रा ३६) । उपसमिअ ' औपशमिक] कर्मों का उपउवसंघर सक [उपसं + ह] उपसंहार करना। उवसग्ग पुं[उपसर्ग] १ उपद्रव, बाधा (ठा | शम (प्ररण ११३) IV उवसंघरमि (भवि)। १०)। २ अव्यय-विशेष, जो धातु के पूर्व में उवसमिय वि [उपशमित] उपशम-प्राप्त उवसंघरिय देखो उवसंहरिय (भवि) जोड़े जाने से उस धातु के अर्थ की विशेषता (भवि)। उवसंघिय वि [उपसंहृत] जिसका उपसंहार करता है (पएह २, २)। उवसमिय वि [औपशमिक] १ उपशम से किया गया हो वह, समापित (विसे १०११) उवसग्ग वि [दे] मन्द, पाल सी (दे १, होनेवाला। २ उपशम से संबन्ध रखनेवाला उवसंचि सक [उपसं+ चि] संचय करना। ११३) । (सुपा ६४८) संकृ. उवसंचिवि (सण) उवसग्गिअ वि [उपसर्गित] हैरान किया | उवसाम सक [उप + शमय] १ शान्त उवसंठिय वि [उपसंस्थित] १ समीप में हुआ (सिरि १११७) ।। करना । २ रहित करना। उवसामेइ (भग)। स्थित । २ उपस्थित (सण)। उवसज्ज प्रक[उप+ सृज् ] पाश्रय करना। वकृ. उवसामेमाण (राज)। कृ. उवसामिउवसंत वि [उपशान्त] १ क्रोधादि विकार-। उवसजिजा (माचा २, ८, १) । यव्य (कप्प) । संकृ. उवसामइत्तु (पंच)। For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसाम-उवहिंड पाइअसहमहण्णवो १८१ उबसाम पुं [उपशम] उपशान्ति (सिरि उवसोभिय वि [उपशोभित] सुशोभित, २ उपस्थित करना। ३ अर्पण करना । उव२३५)TV विराजित (प्रौप)। हरइ हि ४, २५६)। भूका. उवहरिसु (ठा उवसाम देखो उवसम (विसे १३०६) । उवसोहा स्त्री [उपशोभा] शोभा, विभूषा| ६) उवसामग वि [उपशमक] १ क्रोधादि को (सुर ३, १०४)। उवहस सक [उप+हस् ] उपहास करना, उपशान्त करनेवाला (विसे ५२९; प्राव ४)। उवसोहिय वि [उपशोधित निर्मल किया हँसी करना । कृ उवहसणिज्ज (स ३)। Har रखनेवालाः 'जबसामग- | हुमा, शुद्ध किया हुमा (णाया १, १) उपहसिअ वि [उपहसित] १ जिसका उपसेढिगयस्स होइ उवसामगं तू सम्मत्तं' (पिसे | उवसोहिय देखो उवसोभिय (सुपा ५ भविः । हास किया गया हो वह (पि १५५)। २ न. २७३५) सार्ध ६६)। उपहास (तंदु)। उवसामण न [उपशमन] उपशान्ति, उपशम | | उवस्सग्ग देखो उवसग्ग (कस) IV उवहा स्त्री [उपधा] माया, कपट (धर्म ३)। (स ४६९) । उवस्सय पुं [उपाश्रय] जैन साधुओं के उवहाण न [उपधान] १ तकिया, उमीसा स्वसामणया स्त्री [उपशमना] उपशम (ठा निवास करने का स्थान (सम १८८; प्रोष (दे १, १४०; सुर १२, २५; सुपा ४)। २ ८)IV १७ भाः उप ६४८ टी) । तपश्चर्या (सूत्र १, ३, २, २१)। ३ उपाधि उवसामय देखो उवसामग (सम २६; विसे | उवस्सा स्त्री [उपाश्रा] द्वेष (वव १)। उवस्सिय वि [उपाश्रित] १ द्वेषी (वव १)। १३०२) 'सच्छपि फलिहरयणं उवहारणवसा कलिजए | २ अङ्गीकृत। ३ समीप में स्थित । ४ न. कालं' (उप ७२८ टी) उवसामिय वि [औपशमिक] १ उपशमसंबन्धी । २ पुं. भाव-विशेषः 'मोहोवसमस| द्वेष (राज) उवहार पुं [उपहार] १ भेंट, उपहार (प्रति हावो, सव्वो उवसामिनो भावो' (विसे ३४- उबस्सुदि स्त्री [उपश्रुति] प्रश्न-फल को जानने ७४)। २ विस्तार, फैलावः ‘पहासमुदप्रोव१४)/न. सम्यक्त्व-विशेष बिसे ५PRON के लिए ज्योतिषी को कहा जाता प्रथम वाक्य हारेहिं सव्वो चेव दीवयंत' (कप्प)IV उवसामिय वि [उपशमित] शान्त किया (हास्य १३०)। उवहारणया देखो उवधारणया (राज) हुमा (वव १)। उवह स [उभय दोनों, युगल (कुमाः है २, . उवहारिअ वि [उपधारित अवधारित, उवसाह सक [उप + कथ् ] कहना। उव१३८) निश्चित (सूत्र २, ७)। साहद (सण)। उवह अ[दे] 'देखो' अर्थ को बतलानेवाला उवहारिआ। स्त्री [दे] दोहनेवाली स्त्री (गा उवसाहण वि[उपसाधन] निष्पादक (सण)। अव्यय ( षड्)। उवहारी ७३१ दे १, १०८) IV उवसाहिय वि [उपसाधित] तैयार किया | उवहट्ट सक[समा +रभ् ] शुरू करना, उवहारुल्ल वि [उपहारवत् ] उपहारवाला हुआ (पाउम ३४, ८; सण)। प्रारम्भ करना। उत्रहट्टइ ( षड्)। (संक्षि २०)। उवसित्त वि [उपसिक्त सिक्त, छिड़का हुआ उवहड वि [उपहृत] १ उपढौकित, उपस्था का हुआ | उवहड वि [उपहृत] १ उपढौकित, उपस्था- | उवहास पु [उपहास] हँसी, ठट्ठा, दिल्लगी (रंभा)। पित (राज)। २ भोजन-स्थान में अर्पित भोजन (हे २, २०१) उबसिलोअ सक [उपश्लोकय ] वर्णन (ठा ३, ३)। उवहास वि [उपहास्य हँसी के योग्य करना, प्रशंसा करना। कृ. उपसिलोअइदब उवहण सक [उप+ हन] १ विनाश करना । 'सुसमत्थो वि हु जो, (शौ) (मुद्रा १६८) २ आघात पहुँचाना । उवहणइ (उव) । कर्म. जणयअज्जियं संपयं निसेवेइ । उवसुत्त वि उपसुप्त] सोया हुआ (से १५, उवहम्मइ ( षड् ) । वकृ. उवणंत (राज) सो अम्मि ! ताव लोए, ममंव उवहणण न [उपहनन] १ प्राघात। २ उवहासयं लहई' (सुर १, २३२)।। उवसुद्ध वि [उपशुद्ध] निर्दोष (सूत्र १, ६) विनाश (ठा १०)। उवहासणिज वि [उपहसनीय] हास्यास्पद उवसूइय वि [उपसूचित] संसूचित (सरण)। उवहत्थ सक [ समा + रच्] १ रचना, (पउम १०६, २०)। उवसेर वि [दे] रति योग्य (दे १, १०४) बनाना । २ उत्तेजित करना । उबहत्वइ (हे | उबहि उदधि] समुद्र, सागर (से ५, ४०; उबसेवण न [उपसेवन सेवा, परिचय (पव | ४, ६५) ४२; भवि) उबहस्थिय वि [समारचित] १ बनाया| उवहि पुत्री [उपाधि] १ माया, कपट उबसेवय वि [उपसेवक] सेवा कग्नेवाला, हुआ। २ उत्तेजित (कुमा)। (माचा)। २ कर्म (सूम १, २)। ३ उपभक्त (भवि) M उवहम्म देखो उवण। करण, साधन; "तिविहा उवही पएणत्ता' उवसोभ अक [उप + शुभ ] शोभना, विरा-उवह्य वि [उपहत] १ विनाशित (प्रासू | (ठा ३; अोघ २)IV जना। वकृ. उवसोभमाण, बसोभेमाण १३५) । २ दूषित (बृह १)V उवहिंड सक[उप + हिण्ड् ] पर्यटन करना, (भग; णाया १,१)V | उवहर सक [ उप + हृ] १ पूजा करना। घूमनाः 'भिक्खत्थं उवहिडे (संबोध ४१) Iv For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ Baff [उपहित] १ उपढौकित, प्रर्पित । २ निहित, स्थापित ( श्राचा; विसे ९३७) । ३ न. उपढौकन, अर्पण (निचू २० ) IV Tata [औपाधिक] माया से प्रच्छन्न विचरनेवाला ( खाया १, २) उपज सक [ उप + भुज् ] उपभोग करना, कार्य में लाना । उवहुंजइ (पि ५०७ ) । कवकृ. उहुज्जत (पि ५४६) । उवहुत्त बहुत देखी उपभुक्त (पाय से १०, ४५) । (पाश्र उवाइकम सक [ उपाति + क्रम् ] उल्लंघन करना। संकृ. उवाइकम्म ( श्राचा २, ८१) 1 V उपासक [उपातिनी] इजारा सं उपाणिता (२२,२,७) वाइण सक [ उप + याच् ] मनौती करना, किसी काम के पूरा होने पर किसी देवता की विशेष प्राराधना करने का मानसिक संकल्प करना। हेकृ. 'जति णं श्रहं देवारप्पिया ! दारगं वा दारियं वा पयामि, ताणं श्रहं तुब्भं जायं च दायं च भागं च अक्खयहि च वड्डेस्सामि त्ति कट्टु श्रीवाइयं 'उचाइणित्तए' (विपा १, ७) वाइसक [ उपा + दा] १ ग्रहण करना । २ प्रवेश करना हे. वाइणित्तए (डा ३) प्रयोतं रणो संताएं वच्चा राहियाएं भविव्हाणं सम्भूतारण जिरणपरत्ताणं भावारणं श्रभिगमरादुपाए एवम उचारणा वित्तए' (गावा १, १२) उवाइणाव सक [ अति + क्रम् ] १ उल्लंघन करना। २ गुजारना, पसार करना । उवाइ गावे । वकृ. उवाइणावेंत हॅकृ. उवाइणावेत्तए ( कस); उवाइणा वित्तए ( कप्प ); 'से गामंसि वा जाव संनिवेसंसि वा बहिया से णं संनिविट्ठ ं पेहाए कप्पs निग्गंधारण वा निम्गंधी वा तदिवस मिनखायरियाए गंतूरण पडिनियत्तए; नो से कप्पइ तं रर्याण तत्थेव उवाइणावेत्तए । जे खलु निग्गंथे वा निग्गंथी वा तं रर्याण तत्थेव उवाइणावेइ, वाणा या साइज से दुहबीक ममाणे श्रावज्जइ चउमासियं परिहारद्वाणं पाइअसद्दमद्दण्णवो । प्रग्धाइयं' ( कस); 'नो से कप्पड़ तं रर्याण उवाइणवित्त' (कप्प) IV वाणाचियवि [अतिक्रान्त]] १ उचित २ गुजारा हुआ, पसार किया हुआ, बिताया हुआ 'नो कप्पs निग्गंथाण वा निग्गथीण वा असणं वा ४ पढमाए पोरसीए पडिग्गाहेत्ता पच्छिमं पोरिसि उवाइरणावेत्तए । से य श्राहच उवाइणाविएसिया, तं नो अप्परगा भुंजेज्जा' ( कस) । उवागच्छ ) सक [ उपा + गम् ] समीप में उवागम आना । उवागच्छइ (भगः कप्प ) । भवि. उमागमिस्संति (घाचा २, ३, १२) संकृ. उवागच्छित्ता ) । गति (भग. कप्प . उवागत (कप ) 1 उवागम [ उपागम ] समीप में आगमन (राज)। उवागमण न [ उपागमन ] १ समीप में आगमन । २ स्थान, स्थिति ( श्राचानि ३११) । - मम सियागय वि [उपागत] समीप में धावा हुआ ( आचा २, ३, १, २) २ प्राप्त, 'एदिवस जीवो पाग मलों (अ) [उत्पादित] उपाड़ा हुआ (वि १, ६) वाया ? स्त्री [ उपानह् ] जूता (षड् ); उवाणहा । 'पुण्बमुत्तारियात्रो ज्याहाम्रो पएसु ठवियाश्रो' (सुपा ६१० सूझ १, ४, २, ६)। उवादा सक [ उपा + दा] ग्रहण करना । कर्म. उवादीयंति (भग)। संकृ. उवादाय, उदिता (भग) वह उपादीयमाण ( आचा २) । उवादाण न [ उपादान ] १ ग्रहण, स्वीकार । २ कार्यरूप में परिणत होनेवाला कारण । ३ जिसका ग्रहण किया जाय वह, ग्राह्मः उवाइय देखो उवयाइय (गाया १, २ सुपा १० महा) । बाई श्री [त्याची ] पोताको नामक विद्या की प्रतिपक्षभूत एक विद्या (विये २४५४) उपाए [उपादेय ] ग्राह्य ग्रहण करने ? वि उवाएय योग्य (विसे; स १४८) । For Personal & Private Use Only उवहिय उवास 'नाश्रोवादाणे च्चिय मुच्छा लोभोति तो रागो' (विसे २९७० ) 1 उपादि वि [उपजग्ध] उपभुत (राज) I उवाय पुं [ उपाय ] १ हेतु, साधन (उत्त ३२) । २ दृष्टान्तः 'उवाओ सोसाघम्मेण य विधम्मेण य' (प्राचू १) ३ प्रतीकार ( ठा 8,3)11 उवाय सक [ उप + याच् ] मनौती करना । वकृ. उवायमाण (गाया १, २ १७) | [उपायन] भेंट उपहार - राना ( उप २४५ सुपा २२४; ४१०, ग) डायगाव देवी उपाइनाप या कृ. । व उचायणावेत हे उपाय नावेत्तए (स) उपायणावित्तए (कण) 1 उवायाण देखो उवादाण (अच्चु १२ स २ विसे २ε७६) IV [उपायात] समीप में माया उवायाय हुआ (निर १, १) । वारूढ वि [ उपारूढ़ ] थारूढ़ ( स ३३१) । उवालंभ सक [ उपा + लभ् ] उलाहना देना । उवालम्भ (कप्प ) । वकृ. उवालंभंत (१६,४१) उपाभित्ता (बृह ४) उपालंभणिज (मात १५५) । उवालंभ पुं [उपालम्भ] उलाहना (गाया १, १; मा ४) । उवालद्ध वि [ उपालब्ध] जिसको उलाहना दिया गया हो वह 'उवालद्धो य सो सिवो बंभरणो' (निचू १ माल १६७) । उवालह सक [ उपा+लभू] उलाहना देना । भवि. उवालहिस्सं ( प्राप) - उवावत [उपावृत्त] रहस्य जो लेटने से धम-युक्त हुआ हो (चार ७०) 1 चिदशौ [उपावृतित] उपयुक श्रश्व से युक्त (चारु ७० ) IV उवास सक [ उप + आस् ] करना, सेवा करना, सुसमा सुपरणं सुतवस्सियं' ( सूत्र १, ९) । वकृ.. उवासमाण (ठा ६) । उपासना उवास पुं [ अवकाश ] खाली जगह, श्राकाश (ठा २, ४ ८ भग) Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासग-उव्वट्टण पाइअसद्दमहण्णवो १८३ उवासग वि [उपासक] १ सेवा करनेवाला। उविंद पुंन [उपेन्द्र] एक देव-विमान (देवेन्द्र सीनता (सम ३२) । कर वि [°कर] उपे२ पुं. जैन या बुद्ध दर्शन का अनुयायी गृहस्थ १४१) क्षक, उदासीन (श्रा २८)। (धर्मसं १०१३) | उविक्ख सक [ उप + ईक्ष ] उपेक्षा करना, उवेहा स्त्री [उत्प्रेक्षा] १ ज्ञान, समझ । २ उवासग वि [उपासक] १ उपासना करने- | अनादर करना। वकृ. उविक्खमाण (द्र | कल्पना । ३ अवधारण, निश्चय (प्रौप)। वाला, सेवक । २ पुं. श्रावक, जैन गृहस्थ । उवेहिय वि [उपेक्षित] अनाहत, तिरस्कृत (उत्त २)। 'दसा स्त्री [°दशा] सातवाँ | उविक्खा स्त्री [उपेक्षा] उपेक्षा, अनादर (उप १२६ सुपा १३५)। जैन अंग ग्रन्थ (सम १)। पडिमा स्त्री (काल)। "उव्व देखो पुव्य (गा ४१४)। [प्रतिमा] श्रावकों को करने योग्य नियमउविक्खिय वि[उपेक्षित तिरस्कृत, अनाहत उठवंत वि [उद्वान्त] १ वमन किया हुआ। विशेष (उत्त २) (सुपा ३६५)। २ निष्क्रान्त, निर्गत (अभि २०६) उवासण न [उपासन] उपासना, सेवा (स उविक्खेव पुं [उद्विक्षेप] हजामत, मुण्डन उव्वक्क सक [उद्+वम् ] १ बाहर निका५४३; मै ८६) (तन्दु) लना २ वमन करना । हेकृ. उव्यक्किउं (सुपा उवासणा स्त्री [उपासना] १ क्षौर-कर्म, | उवियग्ग वि [उद्विग्न] खिन्न, उद्वेग-प्राप्त हजामत वगैरह सफाई । २ सेवा, शुश्रूषाः | उव्यक्क । वि [उदान्त] १ बाहर निकाला (राज)। 'उवासणा मंसुकम्ममाइया, गुरुरायाईगणं वा उव्यक्किय हुआ (वव १)। २ वमन किया उवीव अक [उद्+विच् ] उद्वेग करना, उवासणा पज्जुवासरणया' (पावम)। हुप्रा. खिन्न होना । उवीवइ (नाट)। उवासय देखो उवासग (सम ११६)। 'संतोसामयपारणं, काउं उब्वक्कियं हयासेण । | उवे देखो उवि। उवेइ, उति (प्रौप) । वकृ. उवासय पुं [उपाश्रय] जैन मुनियों का जं गहिऊणं विरई, कलंकिया मोहमूढेरण' निवास-स्थान (उप १४२ टी) उर्वत (महा) । संकृ. उवेञ्च (सूत्र १, १४)। (सुपा ४३५) ।। उवासिय वि [उपासित] सेवित (पउम ६८, | उवेक्ख देखो उविक्ख। उवेक्खह (सुपा उव्वग्ग देखो ओवग्ग। संकृ. उव्वग्गिवि ४२)। ___३५४)। कृ. उवेक्खियव्व (स ६०)। (भवि) । उवाहण सक [उपा + हन] विनाश करना, उवेक्खिअ देखो उविक्खिय (गा ४२०) उव्वट्ट उभ [उद् + वृत, वत्तय ] १ मारना । वकृ. उवाहणंत (पएह १, २) | उवेञ्च देखो उवे।। चलना-फिरना। २ मरना, एक गति से दूसरी उवाहणा देखो उवाणहा (अनुः णाया १, उवेय वि [उपेत १ समीप-गत । २ युक्त, गति में जन्म लेना। ३ पिष्टिका आदि से १५) । सहित (संस्था () शरीर के मल को दूर करना। ४ कर्म-परउवाहि पुंस्त्री [उपाधि ] १ कर्म-जनित | उवेय वि [उपेय] उपाय-साध्य (राज)। मारगों की लघु स्थिति को हटाकर लम्बी विशेषण (प्राचा)। २ सामीप्य, संनिधि स्थिति करना। ५ पाश्व को चलाना-फिराना। उवेल्ल अक [प्र+सू] फैलना, प्रसारित होना।। (भग १, १)। ३ अस्वाभाविक धर्मः 'सुद्धोवि | ६ उत्पन्न होना, उदित होना। उब्वट्टइ उवेल्लइ (हे ४, ७७)। फलिहमणी उपाहिवसमो धरेइ अन्नत्त' (धम्म (भग)। वकृ. उव्यटुंत, उव्वट्टमाण, उअत्तंत ११ टी)। उवेस अक [उप + विश ] बैठना। वकृ. (भगः नाटः उत्तर १०७; बृह १)। संकृ. उवि सक [उप + इ] १ समीप आना । २ उवेसमाण (पिंड ५८६)। उध्वट्टित्ता, उहटु, उव्वट्टिय (जीव १; स्वीकार करना। ३ प्राप्त करना। उविति उवेह सक [उप + ईक्ष ] उपेक्षा करना, विपा १, १, प्राचा २, ७; स २०६)। (भग)। वकृ. उविंत (पि ४६३; प्रामा) तिरस्कार करना, उदासीन रहना। उवेहइ | हेकृ. उव्वट्टित्तए (कस)। उविअ देखो अविअ = अपि च (स २०६) (धम्म १६)। वकृ. उवेहंत, उवेहमाण (स उव्वट देखो उव्वट्टिय = उद्वृत्त (भग)। उविअ वि [उपेत] युक्त, सहित (भवि) । ४६; ठा ६)। कृ. उवेयिव्व (सण) उव्वट्ट वि [दे] १ नीराग, राग-रहित । २ उविअ न [दे] शीघ्र, जल्दी (दे १, ८६)। उवेह सक [उत्प्र + ईक्ष ] १ जानना, सम गलित (दे १, १२६)।२ वि. परिकर्मित, संस्कारितः 'णाणामरिणकझना । २ निश्चय करना । ३ कल्पना करना। उबट्टण न [उद्वर्तन] १ शरीर पर से मल णगरयणविमलमहरिहनिउणोवियमिसिमिसंतउहाहि । वकृ. उवेहमाण; 'उबेहमाणे अणु वगैरह को दूर करना। २ शरीर को निर्मल विरइयसुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठियपसत्यमाविद्धवेहमारणं बूया, उवेहाहि समियाए' (प्राचा)। करनेवाला द्रव्य–सुगन्धि वस्तु (उवा; णाया वीरढलए' (गाया १, १)। संकृ. उवेहाए (प्राचा)। १, १३) । ३ दूसरे जन्म में जाना, मरण । ४ उविंद [उपेन्द्र] कृष्ण (कुमा)। वजा उवेहण न [उपेक्षण] उपेक्षा, उदासीनता पार्श्व का परिवर्तन (प्राव ४)। ५ कर्म-पर स्त्री ["वज्रा] ग्यारह प्रक्षरों के पादवाला (संबोध १० हित २३)। माणुओं की ह्रस्व स्थिति को दीर्घ करना एक छन्द (पिंग)। उवेहा स्त्री [उपेक्षा तिरस्कार, अनादर, उदा- (पंच)। For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ पाइअसद्दमहण्णवो उव्वट्टण-उव्वासिय उठवट्टण न [उद्वर्तन] तुले से उसके बीज ४ ऊर्ध्व-स्थितः 'सो उव्वत्तविसाणो खंधवसभो | उज्वलिय वि [उद्वलित] पीछे लौटा हुआ को अलग करना (पिंड ६०३)।। जाओं (महा) । ५ घुमाया हुआ, फिराया | (महा)।उव्वट्टण न [अपवर्तन देखो उव्वट्टणा = | हुप्रा (प्राप)।। | उव्वस वि [उद्वस] उजाड़, वसति-रहित अपवत्तंना (विसे २५१४)। उव्वत्त वि [अपवृत्त] उलटा रहा हुअा, | (सुपा १८८ ४०६) उव्वट्टणा स्त्री [उद्वर्तना] १ मरण, शरीर विपरीत स्थित (से १, ६१) उव्यसिय वि [उद्वसित] ऊपर देखो (गा से जीव का निकलना (ठा २, ३) । २ पाश्वं उव्वत्तण न [उद्वर्तन] १ पार्श्व का परिव १६४ सुर २, ११६; सुपा ५४१) का परिवर्तन (प्राव ४)। ३ जीव का एक र्तन (गा २८३; निचू ४)। २ ऊँचा रहना, उव्वसी स्त्री [उर्वशी] १ एक अप्सरा (सरण)। प्रयत्न, जिससे कर्म-परमाणुओं की लघु स्थिति | ऊर्ध्व-वर्तन (ोघ १६ भा)। २ रावण की एक स्वनाम-ख्यात पत्नी (पउम दीर्घ होती है, करण-विशेष (भग ३१, ३२) उव्वत्तिय वि [उद्वर्तित] १ परिवर्तित, चक्रा ७४, ८) । उव्वट्टणा स्त्री [अपवर्तना] जीव का एक कार घुमा हुआ (स ८५); 'भमियं व वरणतरूहिं | उव्वह सक [उद् + वह.] १ धारण करना । २ उठाना । उब्बहइ (महा) । वकृ. प्रयत्न जिससे कर्मों की दीर्घ स्थिति का ह्रास उबत्तिययं व सयलवसुहाए' (सुर १२,१६६) उव्वहंत, उव्वहमाण (पि ३६७ से ६,५)। होता है (विसे २७१५ टी)। उव्वद्ध देखो उव्वड्ढ (महा)। कवकृ. उव्वुज्झमाण (गाया १,६)।' उव्वट्टिअ वि [उद्ववर्तित] साफ किया हुआ, उव्वम सक [उद् + वम् ] उलटी करना, उव्वहण न [उद्वहन] १ धारण । २ उत्था-- प्रमाजितः 'करोसेण वावि उव्वट्टिए' (पिंड पीछा निकाल देना। बकृ. उव्वमंत (से ५, पन । (गउड नाट) २७६)। ६; गा ३४१)। उव्वहण न[दे] महान् प्रावेश (दे १, ११०)। उव्वट्टिय वि [उदुवृत्त] किसी गति से | उव्यमिअ वि [उद्वान्त] उलटी किया हुमा, उव्वा स्त्री [दे] धर्म, ताप (दे १,८७)। बाहर निकला हुमा, मृतः 'पाउक्खएण उव्व- वमन किया हुआ (पास)। उव्वा अक [उद्+वा] १ सूखना, ट्टिया समाणा' (पएह १, १)। उव्वर अक [उद् + वृ] शेष रहना, बच उव्वाअ शुष्क होना। उब्वाइ, उन्धाअइ उव्वट्टिय वि [उद्वतित] १ जिसने किसी जानाः तुम्हाण 'देंतारण जमुब्बरेइ देज्जाह (षड् ; हे ४ २४०)। भी द्रव्य से शरीर पर का तैल वगैरह का साहूण तमायरेण' (उप २११ टी)। वकृ. उव्वाअ वि [उद्वात] शुष्क, सूखा (गउड) ।। मैल दूर किया हो वहः 'तमो तत्थट्टिो | उव्वरंत (नाट) । उव्वाअ । वि [दे] खिन्न, परिश्रान्त (दे १, चेव अभंगिनो उव्वट्टिो उपहखलउदगेहि उव्वर पुं[दे] धर्म, ताप (दे १. ८७) । उव्वाइअ १०२, बृह १, वव ४ पान गा पमजिओ' (महा)। २ प्रच्यावित, किसी पद उव्वरिअ वि [दे] १ अधिक, बचा हुआ, ७५८; सुपा ४३६) । से भ्रष्ट किया हुआ (पिंड) अवशिष्ट (दे १, १३२; पिगः गा ४७४; सुपा उव्वाउल न [दे] १ गीत । २ उपवन, बगीचा उठवड्ढ़ वि [उवृद्ध] वृद्धि प्राप्त (प्रावम) ११, ५३२; ओघ १६८ भा)। २ अनीप्सित, उव्वण वि [उल्बण] प्रचण्ड, उद्भट (उप पृ | अनभीष्ट । ३ निश्चित । ४ अगणित । ५ न. | उव्याडुल न [दे] १ विपरीत सुरत । २ ७०; गउडः धम्म ११ टी)। ताप, गरमी (दे १, १३२)। ६ वि. अति- मर्यादा-रहित मैथुन (दे १, १३३)। उव्वत्त देखो उव्वट्ट = उद् + वृत् । उव्वत्तइ क्रान्त, उल्लङ्घितः 'परदव्वहरणविरया निरया उठवाढ विदे] १ विस्तीर्ण, विशाल । २ (पि २८६)। वकृ. उव्वत्तंत, उव्यत्तमाण इदुहारण ते खलुवरिया' (सुपा ३६८)IV दुःखरहित (दे १, १२६)। (से ५, ४२, स २५८ ६२७) । कवकृ. उव्वरिअ न [अपवरिका] कोठरी, छोटा उव्वाण देखो उव्वाअ = उद्वात (कुप्र १६६)। उव्वत्तिजमाण (णाया १,३)। संकृ. उव्वघर (सुर १४, १७४) ।। उव्वाय देखो उवाय = उपाय (सून १,४, त्तिवि (भवि) ।। उव्वल सक [उद् + वल्] १ उपलेपन १, २)।उव्वत्त देखो उव्वट्ट (दे)। करना । २ पीछे लौटना । हेकृ. उव्वलित्तए उव्वार (अप) सक [उद्+वर्तय त्याग करना, उव्वत्त सक [उद् + वर्तय ] १ खड़ा | (कस) छोड़ देना। कर्म. उव्वारिजइ (हे ४, ४३८)। करना। २ उलटा करना। उव्वत्तंति (पव उव्वल सक[उद्+ वलय् | उन्मूलन करना। | उव्वाल उव्वल सक [उद् + वलय ] उन्मूलन करना। उव्वाल सक [कथ् ] कहना, बोलना। ७१) संकृ उव्वत्तिया (दस ५,१,६३) उव्वलए। वकृ. उज्वलमाण (पंच ५,१६६) उव्वालइ (षड) उव्वत्त वि [ उद्वर्त्त ] खड़ा करनेवाला उव्वलण न [उद्बलन] १ शरीर का उपलेपन- उव्वास सक [उद् + वासय् ] १ दूर (पव ७१)। विशेष (णाया १, १, १३) । २ मालिश, करना। २ देशनिकाला करना। ३ उजाड़ उव्वत्त वि [उत्त] १ उत्तान, चित्त (से अभ्यङ्गन (बृह ३, प्रौप)। करना । उब्वासइ (नाट; पिंग)। ५, ६२)। २ उल्लसित (हे ४, ४३४)। ३ उबलगा स्त्री [उद्वलना] १ उन्मूलन । २ उव्वासिय वि [उद्वासित] १ उजाड़ जिसने पार्श्व को धुमाया हो वह (प्राव ३)। उद्वलन-योग्य कर्म-प्रकृति (पंच ३, ३४)V किया हुमा (पउम २७, ११)। २ देश-बाहर For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उव्वाह-उब्वेल्ल पाइअसहमहण्णवो १८५ किया हुआ (सुपा ५४२) । ३ दूर किया | उब्वियणिज वि [उद्वेजनीय] उद्वेग-प्रद | उन्वीलय वि [अपव्रीडक] लज्जा-रहित हुआ (गा १०६)। (पउम १६, ३६, सुपा ५६७) । करनेवाला, शिष्य को प्रायश्चित्त लेने में उव्याह पुं[दे] धर्म, ताप (दे १, ८७)। उबिरेयग न [उद्विरेचन] खाली करना, शरम को दूर करने का उपदेश देनेवाला उव्वाह { [उद्वाह] विवाह (मै २१)। ‘एवं च भरिउविरेयणं कुब्वंतस्स' (काल) । (गुरु) (भग २५, ७; द्र ४६) । उवाह सक [ उद् + बाधय] विशेष उबिल्ल अक [उद् + वेल्] १ चलना, उव्वुज्झमाण देखो उठवह ।। प्रकार से पीड़ित करना। कवकृ. उवाहि- कोपना । २ सक. वेष्टन करना । वकृ. उब्धि- | उच्चुण्ण वि[दे] १ उद्विग्न । २ उसिक्त। जमाण (पाचा पाया १,२) । ल्लंत, उव्विल्लमाण (सुपा ८८; उप उम्बुन्न । ३ शून्य (दे १, १२३) । ४ उद्भट, उव्वाहिअ वि [दे] उत्क्षिप्त, फेंका हुआ | पृ७७)। उल्बण (दे १, १२३; सुर ३, २०५) । उव्विल्ल अक [प्र+स्] फैलना, पसरना। उव्यूढ वि [उद्व्यूढ] १ धारण किया हुमा, उव्याहुल न [दे] १ उत्सुकता, उत्कएठा | उब्विल्लइ (भवि) पहना हुआ (कुमा)। २ ऊँचा लिया हुआ, (भविः दे १,१३६) । २ वि. द्वेष्य, | उबिल्ल का उद+वेल 1Area ऊपर धारण किया हुआ (से ५, ५४, ६, अप्रीतिकर (दे १,१३६) 10 इधर-उधर चलना; 'उबिल्लइ सयपीए ११)। ३ परिणीत, कृत-विवाह (सुपा उव्याहुलिय वि [दे] उत्सुक, उत्कण्ठित | देवो आसन्नचवणुव्व' (धर्मवि ११२)10 (भवि)। उव्विल्ल वि [उद्वेल] चञ्चल, चपल (सुपा | उव्वअणाअवि उद्वजनाय उद्ध | उव्वेअणोअ वि [उद्वेजनीय उद्वेग-कारक उव्विआइअ वि [उद्वेदित] उत्पीडित (से | ३४) (नाट) १३, २६)। उबिल्लिर वि उद्वेलितृ 1 चलनेवाला, | उव्वेग पुं [उद्वेग] १ शोक, दिलगीरी (ठा उव्विक्क न [दे] प्रलपित, प्रलाप (षड् )। हिलनेवाला (सुपा ८८)। ३, ३) । २ व्याकुलता (भग ३, ६) । उव्विग्ग वि [उद्विग्न] १ खिन्न । २ भीत, | उव्विर अक [उद् + विज् ] उद्वेग करना, उव्वेढ सक [उद् + वेष्ट्] १ बाँधना । २ घबड़ाया हुआ ( हे २, ७६)। खिन्न होना । उव्विलइ (षड्) 10 पृथक् करना, बन्धन-मुक्त करना। उव्वेढइ उव्विग्गिर वि [उद्वेगशील] उद्वेग करने. उव्विव्य) देखो उब्धिय । उब्धिव्वइ, उब्वे- (षड् ), उव्धेडिज (प्राचा २, ३, २, २)। वाला (वाका ३८)। उव्वेअ अइ (प्राकृ ६८)IV | उव्वेढण न [उद्वेष्टन] १ बन्धन । २ वि. उबिज्ज देखो उब्विय । उविजइ (प्राकृ६८), उव्विव्व वि [दे] १ ऋद्ध, क्रोध-युक्त (षड्)। बन्धन-रहित किया हुआ (राज) उव्विजति (वै ८६)। संकृ उविजिऊरण २ उद्भट वेष वाला (पान)। | उव्वेढिअवि [उद्वेष्टित] १ बन्धन रहित (धर्मवि ११६) IV उव्विह सक [उत् + व्यध्] १ ऊँचा | किया हुया । २ परवेष्टित (दे ४, ४६) उव्विड वि [दे] १ चकित, भीत । २ क्लान्त, फेंकना । २ ऊँचा जाना, उड़नाः 'से जहाणा- उव्वेत्ताल न [दे] अविच्छिन्न चिल्लाना, क्लेश-युक्त (षड्) मए केइ पुरिसे उसु उव्विहइ' (पि १२६)। निरन्तर रोदन (दे १, १०१)। उव्यिडिम वि[दे] १ अधिक प्रमाण वाला। वकृ. 'माणसावि उम्विहंताई अणेगाई प्रास- | उव्वेय देखो उव्वेग (कुमाः महा) IV २ मर्यादा-रहित, निर्लज्ज (दे १,१३४; सयाई पासंति' (णाया १, १७ टी-पत्र उज्वेयग वि [उद्वेजक] उद्वेग-कारक (रयण चउ० पत्र २६७-३५६ पद्य)|V २३१)। वकृ. उव्विहमाण (भग १६)। ४०)। उविण्ण देखो उव्विग्ग (पि २१६)। संकृ. उबिहित्ता (पि १२६) IV | | उव्वेयणग। बि [उद्वेजनक] उद्वेग-जनक उव्विद्ध वि [उद्विद्ध] १ ऊँचा गया हुआ, उब्विह पुं [उद्विह ] स्वनाम-स्यात एक | उब्वेयणय ) (प्राउ परह १, १) उच्छूित (पएह १, ४)। २ गम्भीर, गहरा | उव्वेयणय पुन [उद्वेजनक] एक नरक-स्थान आजीविक मत का उपासक (भग ८, ५)। (देवेन्द्र २८) उव्वी पुं[उर्वी] पृथिवी (से २, ३०)। स (सम ४४; णाया १, १)। ३ विद्ध; 'कीलय- . उव्वेल अक [प्र+सू] फैलना। उन्बेलइ सएहिं धरणियले उब्बिद्धो' (संथा ८७) | पुं[श] राजा (कुमा)। (षड्)। उव्विद्ध वि [उद्विद्ध] जिसकी ऊँचाई का उब्बीढ देखो उब्बूढ (कुमा; हे १, १२०) । उव्वेल वि [उद्वेल] उच्छलित (से २, माप किया गया हो वह (पव १५८)। उव्वीढ वि [दे] उत्खात, खोदा हुप्रा (दे १, ३०) उव्विन्न देखो उव्विग्ग (हे २, ७६; सुर ४, उज्वेलिअ वि [उद्वेलित] फैला हुआ, २४८) | उव्वोढ वि [उद्विद्ध] उत्क्षिप्त, 'तस्स उसुस्स प्रसृत (माल १४२) उव्विय अक [उद् + विज् ] उद्वेग करना, उव्वीढस्स समाणस (पि १२६)। उज्वेल्ल देखो उठवेढ। उव्वेल्लइ (हे ४, उदासीन होना, खिन्न होना; 'को उविएज्ज उव्वील सक [अव + पीडय] पीड़ा २२३) । कर्म. उव्वेल्लिज्जइ (कुमा)। नरवर ! मरणस्स अवस्स गंतव्वे' (स १२६)। पहुँचाना, मार-पीट करना। वकृ. उव्वीले- उव्वेल्ल सक [उद् + वेल्ल ] १ सत्वर वकृ. उब्वियमाण (स १३६) माण (राज) जाना । २ त्याग करना । ऊँचा उड़ना, ऊँचा २४ For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जाना । ४ प्रक. फैलना, पसरना । वकृ. उव्वेल्लंत (पि १०७) उब्वेल्ल वि [उवेल ] १ उच्छलित, उछला हुआ; 'उब्वेल्ला सलिलनिही' (पउम ६, ७२ ) । २ प्रत फैला हुआ (पास) 'हरिसल्लाए (६२५) उब्वेल्लिन [उद्वेल्लित] १ कम्पित (गा ६०५) २ उरह ३) ३ प्रचारित (स २३५) | डब्बेस्टर [िउद्वेल्लि] सावर जानेवाला (कुमा) । वेदेखी पद् उठवे देखो उब्वेग (कुमा सुर ४, ३६; ११. १६४) । वि [ उद्वेजक ] उद्वेग-कारक, 'द्धा छिप्पेही, श्रवन्नवाई सयम्मई चवला । का कोहणसीला, सीसा उम्मेवना गुरुणा" (उब ) उव्वेषणय वि [उद्वेजनक ] उद्वेग-जनक ( पच्च ४५) । उव्वेव देतो देव ( २६२) । उब्वेसर [म्बेश्वर] इस नामका एक राजा (कुमा) । १ उबेद [वेध] ऊँचाई (सम १०४) २ गहराई (ठा १० ) । ३ जमीन का अवगाह (ठा १० ) 1 बेलिया श्री [उद्वेलि] त्यति विशेष (१) । ड्ड वि [दे] ऊँचा (राय) उसढ देखो ऊसढ = दे ( पव २ ) । उस [ उशनस् ] ग्रह-विशेष, शुक्र, भार्गव ( पाच ) 1 उससे [दे] बल (१, ११०) उस वि [उत्सक्त]] ऊपर बंधा हुआ खाया २.१1४ उस [] यति विशेष की एक जाति (६१) । उसपिणी देखो उस्सप्पिणी (जी ४०; विसे २७०९) । उस पुंन [वृषभ ] एक देव - विमान (देवेन्द्र १४०) पाइअसहमणव ० उसभ पु [ऋषभ, वृषभ ] ख्यात प्रथम जिनदेव (सम ४३ बैल, साँड़ ( जीव ३) । ३ वेष्टन पट्ट (पव २१६) । ४ देव - विशेष (ठा ८ ) । ३ ब्राह्मणविशेष (उत्त १) कंठ ["कण्ठ] बेल का गला । २ रत्न विशेष ( जीव ३) । कूड [["कूट] पर्यंत विशेष (ठा) नाराय न[* नाराच] संहनन-विशेष, शरीर बन्धविशेष (पंच)। दन्त ["दत्त] ब्राह्मण कुण्ड ग्राम का रहनेवाला एक ब्राह्मण, जिसके घर भगवान् महावीर अवतरे थे (कल्प ) पुरन ["पुर] नगर- विशेष (त्रिपा २, २ ) । पुरी स्त्री ['पुरी] एक राजधानी (ठा ८ ) । °सेण पुं[°सेन ] भगवान् ऋषभदेव के प्रथम गणधर (प्राचू १) । -- उसर ( [] (वि२५६) लिवि [ दे ] रोमाञ्चित, पुलकित ( षड् ) 1 उसह देखो उसभ ( हे १, १३१६ १३३ १४१ षड् कुमाः सम १५२ पउम ४, ३५) IV उससे [वृषभसेन] तीर्थंकर-विशेष २ जिनदेव की एक शाश्वती प्रतिमा (पव ५६) । उसा [ उषस् ] प्रभात-काल (गड) | उणि वि [उष्ण] गरम, सप्त रूप्पा ३, उसिण वि [उष्ण] गरम, तप्त (कप्प ठा ३, १) । ३ पुंन. गरम स्पर्श (उत्त १) । ३ गरमी, ताप (उत्त२) । उसिय वि[[]] व्याप्त, फैला हुआ (सम वि[उत्सृत] १३७) । उसिय वि [ उषित] रहा हुआ, निर्वासित ( से ८, ६३३ भत्त १२८) उसिर देखो उसीर उशीर (गु १, ४, 2,5) Iv विस (दे १, उसीर न [ उशीर ] सुगन्धि तृण- विशेष, खश (२५) । उसीर न [ दे] कमल दण्ड, ६४) उसु पुं [इषु] १ बाण, शर १) । २ धनुराकार क्षेत्र का क्षेत्र परिमाण १ स्वनामकप्प ) । २ (सूत्र १, ५, बारण स्थानीय For Personal & Private Use Only उव्वेल — उस्सग्ग 'धरणुवग्गा नियमा, जीवावगं विसोहइत्ताणं । सेसस्स छट्टभागे, जं मूलं तं उसू होई ( जो १) । कार, गार, यार [कार ] १ पर्वत - विशेष (सम ६६ ठा २, ३; राज ) । २ इस नाम का एक राजा । ३ स्वनाम ख्यात एक पुरोहित (उत्त १४) । ४ वि. बारण बनानेवाला (राज) । ५ स्वनाम - ख्यात एक नगर (उत्त १४) । उसुअ [दे] दोष, दूषण (१८१) उसुअन [ इषुक ] १ बाण के श्राकार का एक आभूषण । २ तिलक (पिंड ४२४) । उसुअवि [रमुक ] उत्कल (मुपा २२४) । उसुयाल न [दे] उदूखल (राज) I [[[दे] परिक्षा, शत्रुसैन्य का नाश करने के लिए ऊपर से आच्छादित गतं विशेष (उत १) | उस [दे] हिम श्रोसः 'अप्पहरिए प्रप्पु - स्पेसु' (बृह ४) । उस्संकलिअ वि [उत्संकलित ] निसृष्ट, परिव्यक्त (प्राचा २) | उ[] निरंकुश (पि २१३) । उस्संग पुं [उत्सङ्ग] क्रोड, कोला या कोरा (नाट) । उस्संघट्ट वि [उत्संघट्ट] शरीर-स्पर्शं से रहि ( उप ५५५) । उस्क्क क [ उत् + ष्वष्कू ] १ उत्कण्ठित होना । २ पीछे हटना । ३ सक स्थगित करना । संकृ. उस्सक्कइत्ता । प्रयो. उस्सक्कावइत्ता (ठा ६) । उस्सक सक [ उत् + ष्वष्क् ] प्रदीप्त करना, उत्तेजित करना । संकृ. उस्सक्किय ( श्राचा २, १,७, २) उसकण न [क] किसी कार्य को कुछ समय के लिये स्थगित करना (धर्मं ३) । [](पंचा १२, १०) 1 उसकि [धित] नियत काल के बाद किया हुआ (२१० ) - उस्सग्ग पुं [ उत्सर्ग] १ त्याग ( आव ५ ) । २ सामान्य विधि (उप ७८१ ) 1 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परसग्गि- उस्सुख उस्सग्गिवि [ उत्सर्गिन् ] उत्सर्ग - सामान्य नियम- का जानकार (पत्र ६४) । उसण वि [अवसन्न] निमग्न उस्सा (१४). उसण [दे] प्रायः, प्रायेण (राज) IV सहसा श्री [ललनिका] परिमाणविशेष, अरेका ६४ हिस्सा (इक) 1 = उस्सन्न देसो उस्सण्ण दे (सूत्र २, २, ६५; तंदु २७) । 'भाव पुं["भाव] बाहुल्यभाव ( घर्मंसं ७५६ ) 1 उन्नवि [उत्सन्न ] निज धर्म में घालसी साधु (१२) । पाइअसद्दमण साद (भग) व उस्ससिनमाण (डा १०) । उस्ससिय वि[उच्छ्वसित] १ उबारा प्राप्त । २ उल्लसित (उत्त २० ) । उस्सा स्त्री [उस्रा ] गैया, गौ (दे १, ८६) उस्सा [दे] देखो आसा (ठा ४, ४) "चारण ["चारण] घोस के लम्ब से गति करने का सामर्थ्यंबाला मुनि (पव ६८ ) । उस्सार सक [ उत् + सारय् ] १ दूर करना, हटाना। २ बहुत दिन में पाठनीय ग्रन्थ को एक ही दिन में पढ़ाना । वकृ. उस्सारिंत ( वह १) संकृ. उस्सारिता (महा) उस्सारइदव्य (शौ) (स्वप्न २० ) IV उस्सार पुं [ उत्सार] अनेक दिन में पढ़ाने योग्य ग्रन्थ का एक ही दिन में अध्यापन । * कप्प [कल्प ] पाठन संबन्धी प्रचारविशेष (बृह १) | उस्सारण - [ उस्मारक ] दूर करनेवाला । २ उत्सार-कल्प के योग्य (बृह १ ) 1 उस्सारण न [ उत्सारण] १ दूरीकरण । २ अनेक दिनों में पढ़ाने योग्य ग्रन्थ का एक ही दिन में अध्यापन 'अरिहइ उस्सारणं काउं' (बृह १ ) । उस्सारयवि [उत्सारित ] दूरीकृत, हटाया हुआ (संथा ५७ ) | उस्सास [उच्छवास] १ उस ऊंचा श्वास (परह १) । २ प्रबल श्वास (धाव २ ) । नाम न [" नामन् ] उसाँस - हेतुक कर्म- विशेष (सम ६७) । १८७ उस्पिण [उत्सेचन] १ वचन २ कूपादि से जल वगैरह को बाहर को खींचना (प्राचा) । ३ सिचन के उपकरण (प्राचा २) | उचिणा श्री [उत्सेचना ] देखो उरिसचण (उत्त ३०, ५) Iv कि देखो उसक हरिसकिया For Personal & Private Use Only । ( दस ५, १, ६३ ) । उसक्क सक [ मुच्] छोड़ना, त्याग करना है ४,९१) 1 उस्सिक सक [ उत् + क्षिप् ] ऊंचा फेंकना। उस्किइ (हे ४, १४४ ) 1 उसपण न [उत्सर्पण] १ उन्नति, पोषण २ वि उन्नत करनेवाला, बढ़ानेवाला; 'कंदप्पदप्प उत्सपणा वयरगाई जंपए जा सों (सुपा २०६)1/ वि [ उत्क्षिप्त ] १ ऊँचा फेंका हुआ । २ ऊपर रखा हुआ (स ५०३ ) 1 उस्सन वि [उत्स्विन्न] विकारान्त को प्राप्त, चित्त किया हुआ (दस ५, २,२१) । उस्सिय वि [उच्छ्रित] उन्नत, ऊँचा किया हुधा (कम) , उसपणा श्री [उत्सर्पणा] उन्नति प्रभावना ( उप ३२६) । उस्सिय वि [ उत्सृत] १ व्याप्त । २ ऊँचा किया हुंधा (कप्प) । उसपना श्री [उत्सर्पणा] विख्यात करना, प्रसिद्धि करना (सम्मत्त १६६ ) । उस्सप्पिणी स्त्री [उत्सर्पिणी] उन्नत काल विशेष, दश कोटाकोटि-सागरोम-परिमित काल-विशेष, जिसमें सब पदार्थों की क्रमशः उन्नति होती है (सम ७२ ठा १, १ पउम २०, ६८) । उस्सिय वि[उत्सृत ] श्रहंकारी (उत्त २६, Yε) Iv उस्सय पुं [उच्छ्रय] १ उन्नति, उच्चता (विसे ३४१) । २ अहिंसा ( एह २, १) । ३ शरीर (रान) 1 उस्सीस ] [] तकिया (सुपा ४३७ गाया १, १ श्रोध २३२) उस्सुआप एक [ उस्कयू ] जाकरित करना, उत्सुक करना। उस्सुनावेइ ( उत्तर ७१) 1V उस्सयण न [उच्छ्रयण] श्रभिमान, गर्व उस्सासय वि [उच्छ्वासक ] उसांस लेने- उस्सुंक ? वि [उच्छुक्ल ] शुल्क-रहित, करवाला (विसे २७१५) ( सू १, २)। उस्सर क [उत् + सृ] हटना, दूर जाना । उस्सरह (स्वप्न ६ ) । उस्सव सक [उत् + श्रि ] १ ऊँचा करना । २ खड़ा करना। उत्सवेहः संकृ. उस्सवित्ता (कम्प) प्रयोग उस्सविय (भाचा २, १) । उस्सुक्क ) रहित (कप्पः गाथा १, १ ) । उस्साह देखो उच्छाह (सूमनि ६२ ) । उस्सुक्क वि [उत्सुक ] उत्कण्ठित। उस्सुका [औत्सुक्य] अमुकता (भावक } उखड [उच्] मेरी स्वेच्छा-वग २२८ मेस ६५६ ९५७) पारी, निरश ( १४९ टी उस्सिंघिय वि [दे] प्राघ्रात, सुँघा हुआ (स २६०) । उस्सिंच तक [ उत् + सि] सिंचना, सिच् १ सेक करना । २ ऊपर सिंचना। ३ आक्षेप करना। ४ खाली करना 'पुराना नाम सिला' (घाचा २, ११, ११) - चति ( निचू १८ ) । वकृ. उस्सिंचमाण (STR, 8, 4) 1✓ उस्सुका वि [ उत्सुकयू ] उत्सुक करना, उत्कण्ठित करना । संकृ. उस्सुकावइत्ता (राज)। उस्सव पुं [उत्सव ] उत्सव (प्रभि १९४) । उसवणवा श्री [उच्छ्रयणता] र उस्सुगवि [उत्सुक ] उरकरि (१७१ २९ पह२, ३) | 1 करना, इकट्ठा करना (भग) । उस्सस अक [ उत् + श्वस् ] १ उच्छ्वास लेना, श्वास लेना । २ उल्लसित होना । उस्स उस्सुत वि [उत्सूत्र ] सूष-विरुद्ध सिद्धान्तविपरीत (वव १ उप १४६ टी) | उस्सुय देखो उस्सुग (भग ५, ४ प्रप) । उस्सु न [औत्सुक्य] उत्कएका, उत्सुकता उरिसक्किअ वि [मुक्त] मुक्त, परित्यक्त (कुमा) 1 उस Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ पाइअसहमहण्णवो उस्सूण-ऊरु कर वि [कर] उत्कण्ठा-जनक (णाया | उस्सेह [उत्सेध] १ ऊँचाई (विपा १,१)। उहर न [उपगृह] छोटा घर, प्राश्रय-विशेष १,१)। २ शिखर, टोंच (जीव ३)। ३ उन्नति, अभ्यु- (पराह १, १)। उस्सूण वि [उच्छून] सूजा हुआ, फूला हुआ दयः 'पडणंता उस्सेहा' (स ३६६)। । उहस सक[ उप + हस् ] उपहास करना । (उप ५६४ गउड; स २०३) ।। उहसइ (प्राकृ ३४)। उस्सेहंगुल न [उत्सेधागुल] एक प्रकार उस्सूर न [उत्सूर] सन्ध्या, शाम; 'बच्चामो उहार पुं [उहार] मत्स्य विशेष (राज)।। का परिमाण (विसे ३४० टी)। नियनयरे उस्सूरं वट्टए जेण' (सूर ७, ६३; उहिंजल पुं [दे] चतुरिन्द्रिय जन्तु विशेष उह स [उभ] दोनों, युग्म, युगल (षड् ) ।। उप पृ २२०)। (सुख ३६, १४६) उस्सेअ पुं[उत्सेक] १ सिंचन । २ उन्नति । उहट्ट अक [अप + घट्ट.] नष्ट होना। उहिंजलिआ स्त्री [दे] ऊपर देखो (उत्त ३६, ३ गर्व (चारु ४५) उहट्टइ (सम्मत्त १६२) १४६)। उस्सेइम वि [उत्स्वेदिम] आटा से मिश्रित उहद् टु देखो उबट्ट = उद् + वृत् ।। उहु (अप) देखो अहो = ग्रहो (सरण)। पानी, पाटा-धोया जल (कप्प; ठा ३, ३)। । उहय स [उभय] दोनों, युग्म (कुमाः भवि)। उहुर वि [दे] थवाङ, मुख, अधोमुख (गउड)। ।। इसिरिपाइअसद्दमण्णवे उपाराइसद्दसंकलणो णाम पंचमो तरंगो समत्तो ऊ ऊ पुं[ऊ] प्राकृत वर्णमाला का षष्ठ स्वर- ऊढा स्त्री [ऊढा] विवाहिता स्त्री (पान) । अमिगण न दे] पोखरणक, चुमना (धर्म २)। वणं (हे १, १ प्रामा)। ऊढिअय वि [दे] १ प्रावृत, आच्छादित । ऊमिणिय वि [दे] प्रोञ्छित, जिसने स्नान ऊ प्रदे] निम्नलिखित अर्थों का सूचक | २ न. पाच्छादन, प्रावरण (पान) । के बाद शरीर पोंछा हो वह (स ७५) । अव्यय-१ गर्दा, निन्दा; 'ऊ पिल्लज'। ऊण वि [ऊन न्यून, हीन (पउम ११८, ऊमित्तिअ न [दे] दोनों पाश्वों में प्राघात २ आक्षेप, प्रस्तुत वाक्य के विपरीत अर्थ की ११६)। वीसइम वि[विंशतितम उन्नी करना (दे १, १४२) । आशंका से उसे उलटाना; 'ऊ कि मए सवाँ (पउम १६, ८०) ऊर पुं[दे] १ ग्राम, गाँव । २ संघ, समूह भरिण। ३ विस्मय, आश्चर्यः 'ऊ कह ऊण न [ऋण] ऋण, करजा (नाट) ।। | मुरिणा प्रहयं । ४ सूचना; 'ऊ केरण ग (दे १, १४३)। ऊणंदिअ वि [दे] आनन्दित, हषित (दे १, ऊर देखो तर से ८,६५) विएणायं' (हे २, १६६ षड्)। १४१ षड् ) ऊअट्ट वि [अववृष्ट] वृष्टि से नष्ट (पान)V °ऊर देखो पूर (से ८, ६५; गा ४५; २३१)। अणिमा स्त्री [पूर्णिमा] पूर्णिमा', तो तोए ऊरण ऊरण मेष, भेड़ (रायः विसे) । ऊआ स्त्री [दे] यूका, (दे १, १३६) चेव ऊरिणमाए भरिऊरण भंडस्स वहणाई ऊरणी स्त्री [दे] मेष, भेड़ (दे १, १४०)। आस पुं [उपवास] भोजनाभाव (हे १, पस्थिनो पारसउलं' (महा)। ऊरणीअ वि [औरणिक भेड़ी चरानेवाला १७३)। ऊगिय वि [दे] अलंकृत (षड् )। ऊणिय वि [ऊनित] कम किया हुआ (जं (अणु १४४) । ऊज्माअ देखो उवज्झाय (हे १, १७३२)। ऊरय वि [पूरक] पूर्ति करनेवाला (भवि)। प्रामा)। ऊणिय पुं[ऊणिक] सेवक-विशेष (प्रश्नव्या० ऊरस वि [औरस] पुत्र-विशेष, स्व-पुत्र ऊड देखो कूड (से १२, ७८ गा ५८३)। पत्र १३)। | (ठा १०)। ऊढ वि [ऊद] वहन किया हुआ, धारण । ऊणोयरिआ स्त्री [ऊनोदरिता] कम पाहार | ऊरिसंकिअ वि [दे] रुद्ध, रोका हुमा (षड्)। किया हुआ; 'ऊढकलं वज्जुणपरिमलेसु सुरम- करना, तप-विशेष (भग २५, ७; नव २८) Mऊरी प्र[ऊरी] १ अंगीकार । २ विस्तार । दिरतेसु' (गउड)। ऊतालीस। स्त्री न [एकोनचत्वारिंशत कय वि [कृत] अंगीकृत, स्वीकृत (उप ऊढ वि [ऊद] परिणीत, विवाहित (धर्मसं ऊयाल । उनचालीस, ३६ (सुज २, ३, ७२८ टी)।१३९०) पत्र ५२, देवेन्द्र.२६४)।' । ऊरु पुं[ऊरु] जङ्घा, जाँघ (गाया १, १८ For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊरुदग्घ — ऊसुरुसुंभिअ कुमा) । 'जाल न [जाल ] जाँघ तक लटकनेवाला एक आभूषण (प) 1 ऊरुदग्ध वि [ऊरुदन्न] जंघा - प्रमाण (गहरा वरह) ( ) ऊरुद्दअस वि [ऊरुद्वयस ] ऊपर देखो (ब) 1 ऊस्मेत्त वि[ऊरुमात्र ] ऊपर देखो (षड् ) । ऊल पुं [दे] गति-भंग (दे १, १३९ ) । ऊल देखो कूल (गा १८६) ऊस पुं [ उस्र] किरण (हे १, ४३) । मालि पुं [मालिन] सूर्यं (कुमा) । ऊस [ऊप] क्षार-भूमि की मिट्टी (पण १ जी ४) । ऊस [दे] उपवान, उसीसा, तकिया (दे १, १४० षड् ) । ऊसह वि [] १२ न. उत्सर्जन, मलादि का त्यागः 'नो तत्थ ऊसढं पकरेला, तँ जहा; उच्चारं वा' (आचा २, २, १,३ ) [.] उच (प्राचा २, ४, २, ३ जीव ३) । २ ताजा; 'भद्दं भद्दएति वा, ऊसढं ऊसदेति वा, रतियं रसिए ति वा (प्राचा २, ४,२, २) ऊस न [] गतिभङ्ग (११२) ऊसण्ड्सहिया देखो उससहिया (पत्र २५४) । ऊसत्त देखो उसत्त (कप्पः श्रवम) । ऊसत्थ पुं [दे] १ जम्भाई । २ वि. (दे १, १४३) । - कुल ऊसरण न [ उत्सरण ] आरोहणः 'थाणूसरणं तम्रो सप्पय' (विसे १२०८ ) | ऊसय पुं [ उच्छ्रय] १ उत्सेध, ऊँचाई । २ उत्सेधांगुल (जीवस १०४) असल मक[+] कत्लवित होना। ऊसलाइ (हे ४, २०२; षड् ; कुमा) । पाइअसद्दमहण्णवो ऊस व [दे] पीन, पुष्ट (दे १, १४० ) । ऊसलिअ वि[उल्लसित]] उल्लखित पाडुभूत ऊसलिअ वि [दे] रोमाञ्चित, पुलकित (दे १, १४१ पान ) । ऊसव देखो उस्सव - उत्सव (स्वप्न ε३ ) ऊसव देखो उस्सब = उत् + श्रि । उत्सवेह (६४१) सं. ऊसवियप ऊसस सक [ उत् + श्वस् ] १ उसाँस लेना, ऊँचा साँस लेना । २ विकसित होना। ३ पुलकित होना । ऊससइ (पि ६४० ३१५) । वकृ. ऊससंत, ऊससमाण (गा ७४३ धरण ४ प ४६६ ) । ऊससन न [उच्छ्वसन] उसाँग लडि श्री [वि]] वासी की शक्ति ( कम्म १, ४४ ) ऊससिअ न [ उच्छ्वसित ] १ उसांस ) । ३ (पछि । २ मि. लक्षित पुलकित (स) 1 वाला ऊससिरदि [ उच्छ्वसित] उसांस लेने (२१४५)। ऊसात [] वेद होने पर शिथिल (दे १, १४१) । [] २ प्रति (दे भग) ऊसवि वि [] १ उद्भ्रान्त (दे १, १४३) । २ ऊँचा किया हुआ (दे १, १४३३ गाया १, ८३ पात्र) । ३ उद्वान्त, वमित (षड् ) । सवि[]]-स्थित (क)ऊसिकिअ वि [दे] प्रदीप शोभायमान (कुमा) 1 ऊसारिअ वि [ उत्सारित] दूर किया हुआ (महा; भवि) ऊसास [उच्छवास] १ उसास, ऊँचा श्वास (५) । २ मरण (बृह १ ) "णाम न ["नामन् ] कर्म विशेष (नम्म १ ४४) । १, १४१) । ऊसार सक [ उत् + सारय् ] दूर करना, ऊसर अक [ उत् + सृ] १ खिसकना । ३ दूर त्यागना । संकृ. ऊसारिवि ( श्रप) (भवि) । होना। ३ क स्यागना असर (भवि) ऊसार [दे] वर्त-विशेष (१, १४०) भिअन [दे] १ रोदनविशेष, गला बैठ सं. ऊसरिधि (भवि) 1 ऊसार पुं [ उत्सार] परित्याग (भवि) जाय ऐसा रुदन (दे १,१४२; षड् ) ऊसर [ऊपर] क्षार-भूमि, जिसमें बीज ऊसार [आसार] दृष्टि (हे १, कविअ वि [दे] विद्युत परियत दे पुं वेग वाली ऊसुक्किअ १, ७६ षड् ) । १४२) ४ न नाहीं पैदा होता है। ‘ऊगारवनवलिमद सारि वि [आसारिन ] वेग से बरसनेवाला ए' (सभ्य १७ भक्त ७३) ८, ऊमुग देखो अक ( ५१७ ) IV ऊसुग न [ दे] मध्य भाग ( याचा २, १, ६) । ऊसुम्मिअवि [दे] उसीसा या सिरहाना किया हुआ (षड् ) IV ऊसुर न [दे] ताम्बूल पान (हे २,१७४ ऊसुरुसुंभिअ [दे] देखो असुभिज (दे १, १४२) । - १८९ उसासव वि [उच्छ्वासक] वाला (विसे २७१४) । ऊसासिअ वि [उच्छ्वासित] बाधा-रहित किया हुआ (दे १२, २) IV ऊसाह पुं [उत्साह ] उत्साह, उछाह (मा १०) 1 ऊसिसक [+] ऊंचा करना, उन्नत करना । संकृ. ऊसिया (उत्त १०, ३५) ४ ऊसिक्क सक[ उत् + कू ] ऊँचा करना । संकृ. ऊसिक्किऊण (भाग १, ८ टी) । For Personal & Private Use Only ( पाच ) । ऊसित्त वि [ उत्सिक्त ] १ गर्वित । २ उद्धत । ३ बढ़ा हुआ । ४ प्रतिशायित (हे १, ११४) ऊसित [अक्ति](पा ऊसिय देखी उस्सिय प सरण) ऊसीस ऊसीसग = न] [उची '] उपमा, सिरहाना (गाया १, ७३ पात्र ऊसीसय 1 सुपा ५३; १२० ) । अअवि [क] उत्कति (वा २४३ कुमा) वि ऊमुअ [क] वहां से शुक उ तुम हो वह (हे १, ११४) । ऊसुइअ (गा ३१२) [उत्सुकत] उत्सुक किया हुआ ऊसुंभ [छन् + लस् ] उल्लसित होना। अनुंभ ( ४, २०२ ) I ऊसुंभिअ वि [ उल्लसित ] उल्लास प्राप्त (कुमा) Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० पाइअसहमहण्णवो ऊह-एक्क ऊह सक [ऊह. ] १ तर्क करना। २ संख्या-विशेष (राज)। ४ अोघ-संज्ञा, अव्यक्त | ऊहा स्त्री [ऊहा] तक, विचार-बुद्धि (आवम) । विचारना। ऊहइ (विसे ८३१), ऊहेंमि (सुर | ज्ञान (विसे ५२२: ४२३)। ऊहापोह ऊहापोह सोच-विचार, मन में ११, १८५) । संकृ. अहिऊण (प्राउ ५२)। ऊहंग न [ऊहाङ्ग] संख्या-विशेष (राज) होनेवाला तर्क-वितर्क (कुप्र ६१)। ऊह न [ऊधस् ] स्तन (विपा १, २)।। ऊहट्ट वि [दे] उपहसित (द १, १४०)। ऊहिअ वि [ऊहित] अनुमान से ज्ञात (से ६, ऊह पुं[ऊह] १ विचार, विवेक-बुद्धि ऊहसिय वि [उपहसित] जिसका उपहास | ४२)। (राज)। २ तर्क, वितर्क (सूम २, ४)। ३ किया गया हो वह (दे १, १४०)। V ए पु[ए] स्वर-वर्ण विशेष (हे १,१; प्रामा)। ॥ इस सिरिपाइअसहमण्णवे ऊपाराइसहसंकलणो छट्ठो तरंगो समत्तो ॥ ए पुं[ए] स्वर वर्ण-विशेष (हे १,१ प्रामा) एअ देखो एव = एव (कुमा) एकूण देखो अउण = एकोन (सुज्ज १६) ए प्र[ए, ऐ] इन पर्थों का सूचक अव्यय- एअ) देखो एवं 'एस वि सिरीष दिट्ठा' | एक देखो एक तथा एग (हे २, ६६; सुपा १ आमन्त्रण, सम्बोधन; 'ए एहि सवडहुत्तो एअं(से ३, ४६; गउड; पिंग) मज्झ' (पउम ८, १७४) । २ वाक्यालंकार, एअंत देखो एकंत (वेणी १८) ।। १४३, सम ६६ ५५; पउम ३१, १२८; वाक्य-शोभाः ‘से जहाणाम ए' (अणु)। ३ एआईस (अप) पुं. ब. [एकविंशति] गउड; कप्पू: मा १८; सुपा ४८६ मा ४१, पि ५६५; नाट; गाया १,१, गा ६१८%; स्मरण। ४ असूया, ईर्ष्या। ५ अनुकम्पा, एक्कीस (पिंग) काल; सुर ५, २४२, भगः सम ३६ पउम करुणा । ६ आह्वान (हे २, २१७ भविः गा ६०४) एयारिच्छ वि [ एतादृश] ऐसा, इसके २१,९३, कप्प)। वए देखो एगपए ए सक [आ + इ] पाना, प्रागमन करना। जैसा (प्रामा)। (गउड, सुर १, ३८)। सणिय वि [शएह (उवा)। भवि. एहिइ (उवा)। वकृ. एइज्जमाण देखो एय = एज् । निक] एक ही बार भोजन करनेवाला (पराह एंत (पउम ८, ४३; सुर ११, १४८), इंत एइय वि [एजित] कम्पित (राय ७४) २, १)। सत्तरि स्त्री [°सप्तति] संख्या(सुर ३, १३), एज्जत (पि ५६१), एजमाण एइस देखो एईस (सुख २, १७)। विशेष, ७१, एकहत्तर (सम ८२)। सरग, (उप ६४८टी) एईस वि [एतादृश ऐसा (विसे २५४६) सरय वि [सरक, सर्ग] एक समान, ए देखो एत्तिअ (उवा)। एउंजि (अप) अ [एवमेव १ इसी तरह। एक सरीखा (उवाः भग १६; पएह २, ५) । ए देखो एवं (उवा)। २ यही (भवि)IV सि अ[शस् ] एक बारः 'सव्वजहन्नो एअ वि [एत] पाया हुआ, प्रागत ( सम्मत्त एऊण देखो एगूण (पिंग)। उदयो दसगुरिणो एक्कसि कयाणं (भग); ११६) एंत देखो इ% इ । 'एक्कसि को पमानो जीवं पाडेइ भवसमु एअ स [एतत् ] यह (भगः हे १,११; महा)। एंत देखो ए=आ + इIV द्दम्मि' (सुर ८,११२); 'एक्कसि सीलकलंकिरिस वि [दृश] ऐसा, इसके जैसा एक देखो एक तथा एग (षड् ; सम ६६; अहं देज्जहिं पच्छित्ताई' (हे ४, ४२८)। (द्र ३२)। रूव वि [रूप] ऐसा, इस पउम १०३, १७२ हेका ११६ परह २, "सि अ[त्र] एक (किसी एक) में, प्रकार का (णाया १, १, महा)। ५, पउम ११४, २४; सुपा १६५; कप्प; 'एक्कसि न खु त्थिरो सित्ति पिमो कीइवि एअ देखो एग (गउड; नाट; स्वप्न ६०; सम ७१; १५३) । इआ अ [°दा] एक उवालद्धो (कुमा)। सि, सि अ १०६)। आइ वि [किन् ] अकेला समय में, कोई वक्त (हे २, १६२)। °ल [दा] कोई एक समय में (हे २, १६२)। (अभि १६०; प्रति ६५)। रह त्रि. ब. (अप) वि [क] एकाकी (पि ५६५)। °सिं अ[शस् ] एक बार (पि ४५१)। [दशन् ] ग्यारह की संख्या, दश मौर "लिय वि [किन्] एकाकी, अकेला (उप इ वि [किन्] अकेला (प्रयौ २३)। एक (पि २४५) । रहम वि [दश] ७२८ टी)। उइ स्त्री [नवति संख्या- इ पुं[दि] स्वनाम-ख्यात एक माएडलिक ग्यारहवाँ (भवि)। विशेष, एकानबे (सम ६५; पि ४३५)1V | (सूबा) (विपा १, १)। णउय कि For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ एक्क-एग पाइअसद्दमहण्णवो ["नवत] ६१ वाँ (पउम ६१, ३०)। एकसरिअंभ[दे] १ शीघ्र, तुरन्त । २ [चारिन्] अकेल-विहारी (सूम १, १३)। रसम वि [दश] ग्यारहवाँ (विपा १, संप्रति, आजकल (हे २, २१३; षड्)। चूड पुं[चूड] विद्याधर वंश का एक १, उवाः सुर ११, २५०)। 'रह त्रि. ब. एक्कसिरिआ अ [दे] शीघ्र, जलदी (प्राकृ राजा ( पउम ५, ४५ )। °च्छत्त वि [दिशन् ग्यारह, दश और एक (षड्)। [च्छत्र] १ पूर्ण प्रभुत्ववाला, अकण्टक; "सीइ स्त्री [शीति] संख्या-विशेष, एकासी एकसाहिल्ल वि [दे] एक स्थान में रहने । 'एगच्छत्तं ससागरं भुंजिऊरण वसुहं (पएह २, (सम ८८)। सीइविह वि [°शीतिविध वाला (दे १, १४६) । ४)। २ अद्वितीय (काप्र १८६)। जडि एकासी तरह का (पएण १;१७)। सीय वि एक्कसिंबली स्त्री [दे] शाल्मली-पुष्पों से नूतन | विजटिन् महाग्रह-विशेष (ठा २, ३) । [शीत] एकासीवाँ, ८१ वाँ (पउम ८१, फलवाली (दे १,१४६)। जाय वि [जात] अकेला, निस्सहायः १६)ोत्तरसय वि[ोत्तरशततम एक | एक्कसेस देखो एग-सेस (अणु १४७) । 'खग्गविसाणं व एगजाए' (पएह २, ५) । सौ एक वाँ, १०१ वाँ (पउम १०१, ७६)। एकह देखो एग (प्राकृ ३५) । 'वि [स्थ] इकट्टा, एकत्रित (भग १४,, सेयर [ दर] सहोदर भाई, सगा भाई एक्कार देखो एक्कारह (कम्म ६, १६) ६ उप पृ ३४१)। "8 वि [ार्थ एक (पउम ६, ६० ४६, १८)। यरा स्त्री | एक्कार पुं[अयस्कार] लोहार (हे १, १६६; अर्थवाला, पर्याय-शब्द (प्रोघ १ भा)। 'दु, [दरा] सगी बहिन (पउम ८, १०६) कमा) टुं श्र[व] एक स्थान में; 'मिलिया सव्वेवि एक वि [एकक अकेला (हेका ३१) । एक्की स्त्री [एका] एक (स्त्री) (निचू १)M एगळं (पउम ४७, ४४)। "ट्रिय वि [र्थिक] एक ही अर्थवाला, समानार्थक, एक वि [दे] स्नेह गर, प्रेम-तत्पर (दे १, एक्कूण देखो अउण (पि ४४५) । पर्याय-शब्द (ठा १)। ट्ठिय वि [स्थिक १४४)। एकेक्कम वि [दे] परस्पर, अन्योन्य (दे १, जिसके फल में एक ही बीज होता है ऐसा एक्कई (प्रस) वि [एकाकिन् ] एकाकी, १४५); 'सुहडा एक्केक्कम अपेच्छंता' (प उम आम वगैरह का पेड़ (परण १) । णासा स्त्री अकेला (भवि) । ६८, १५)। [नासा] एक दिक्कुमारो, देवी-विशेष एकंग न [दे] चन्दन, सुगन्धि काष्ठ-विशेष (प्राव १)। त्त न [] एक ही स्थान (दे १, १४४)। देखो एग (प्राकृ, ३५)। एक्कोल्लम में; 'एगत्ते ठिप्रो' (स ४७०) । 'स्थ देखो एक्कंत ' एकान्त] १ सर्वथा । २ तत्त्व, एग स [एक] १ एक, प्रथम-संख्या (अणु)। 8 (सम्म १०९; निचू १)। नासा देखो प्रमेय । ३ जरूर, अवश्य । ४ असाधारणता, | २ एकाकी, अकेला (ठा ४,१)। ३ अद्वितीय | णासा (ठा ८)। 'पए प [पदे] एक विशेष (से ४,२३)। ५ निर्जन, निराला (गा (कुमा)। ४ असहाय, निःसहाय ( विपा १, ही साथ, युगपत् (पि १७१)। पक्ख वि १०२)। देखो एगंत । २)। ५ अन्य, दूसरा; 'एवमेगे वदति मोसा' [ पक्ष] १ असहाय (राज)। २ ऐकान्तिक, एक्कक्क वि [एकैक] हर एक, प्रत्येक (पएह १, २)। ६ समान, सदृश, तुल्य अविरुद्ध (सूत्र १, १२)। पन्नास स्त्रीन (नाट)। (उवा)। इय देखो एगः 'अत्थेगइयारणं [पञ्चाशत् ] एकावन, पचास और एक । एक्कक्कम [दे] देखो एककेक्कम (से ५, नेरइयारणं एगं पलिमोवमं ठिई पन्नत्ता' (सम पन्नासइम वि [पञ्चाशत्तम एकावनवां, २; ठा ७ औप)। "इय वि [क] अकेला, ५१ वाँ (पउम ५१, २८)। पाइअ वि एक्कासित्थ न [एकसिक्थ] तपो-विशेष एकाकी (भग)। ओ अ [तस्] एक | [पादिक] एक पाँव ऊँचा रखनेवाला (पव २७१) तरफ (कप्प)। क्खरिय वि [क्षरिक] (आतापना में) (कस )। पासग घि एक्कग्ग देखो एग-ग्ग = एक-क (कुप्र ७६) एक अक्षरवाला (नाम) (अणु)। खंधी [पार्श्वक ] एक ही पावं की भूमि से एक्कघरिल्ल पुं [दे] देवर, पति का छोटा स्त्री [स्कन्ध] एक स्कन्धवाला (वृक्ष वगैरह) सम्बन्ध रखनेवाला (मातापना में) (पएह भाई (दे १, १४६) TV (जीव ३)। खुर वि [खुर] एक खुरवाला २, १)। पासिय वि [पाश्विक] देखो एक्कणड पुं[दे] कथक, कथा कहनेवाला (दे (गौ वगैरह पशु) (परण १)। ग वि पूर्वोक्त अर्थ (कस)। भत्त न [ भक्त १,१४५) [क] एकाकी, अकेला (श्रा १४)। ग्ग व्रत-विशेष, एकासन (पंचा १२)। भूय वि एक्कमुह वि [दे] १ धर्म-रहित, निधर्मी। २ | वि [प] तल्लीन, तत्पर (सुर १, ३०)। [भूत] १ एकीभूत, मिला हुभा (ठा १)। दरिद्र, निधन । ३ प्रिय, इष्ट ( दे १, १४८)। चक्खु वि [चक्षुष्क] एक अाँखवाला, २ समान (ठा १०)। "मण वि [°मनस् ] एक्कमेक वि [एकैक] प्रत्येक, हर एक एकाक्ष, काना (पएह २, ५)। चत्ताल वि एकाग्रचित्त, तल्लीन (सुर २, २२६) । (हे ३, १; षड् ; कुमा)। [°चत्वारिंश एकतालीसवाँ (पउम ४१, मेग वि [°एक] प्रत्येक, हर एक (सम एकल वि [दे] प्रबल, बलवान् ( षड्) V ७६)। °चर वि [°चर] एकाकी विहरने- ६७)। य वि [क] एकाकी, अकेला एक्कल्लपुडिंग न [दे] विरल-बिन्दु-वृष्टि, अल्प वाला (प्राचा)। चरिया स्त्री [°चर्या] (दस ५)। यवि [ग] अकेला जानेवाला बिन्दुवाली बारिश (दे १, १४७)V - एकाकी विहरना (आचा)। चारि वि (उत्त ३) । यर वि [तर] दो में से कोई For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ दा] एक (औप) | विशेष (रायले पदार्थ वि [एक कीस स्त्रीन [विशाल सण एकुणालीसवां (पउम ३६, १२ पाइअसहमहण्णवो एगंत-एजण भी एक (षड् ) । °या प्र[°दा एक समय ली] विविध प्रकार की मणियों से ग्रथित हार एगठाण न [एकस्थान] एक प्रकार का तप में (प्रारू; नव २४) । राइय वि[ रात्रिक] (औप) । विलीपविभत्ति न [वलीप्रवि- (पव २७१) IV एक-रात्रि-सम्बन्धी, एक रात में होनेवाला भक्ति] नाटक-विशेष (राय )। "वाइ पुं एगिदिय वि [एकेन्द्रिय] एक इन्द्रियवाला, (सम २१; सुर ६, ६०) । राय न [ रात्र] [वादिन] एक ही आत्मा वगैरह पदार्थ | केवल स्पर्शेन्द्रियवाला (जीव) (ठा७ )। एक रात्र (ठा ५, २)। ल्ल वि [एक] को माननेवाला दर्शन, वेदान्त-दर्शन (ठा | एगीभूत वि [एकीभूत] मिला हुआ, एकताएकाकी, अकेला (ठा ७; सुर ४, ५४)। ८)। वीस स्त्रीन [विंशति] संख्या- प्राप्त (सुपा ८६) ' 'विह वि [विध] एक प्रकार का (नव ३)। विशेष, एक्कीस (पउम २०, ७२) । सिण | एगूण देखो अउण। चत्ताल वि [चत्वा'विहारि वि [विहारिन] एकल-विहारी, न [शन, सिन] व्रत-विशेष, एकाशन अकेला विचरनेवाला (बृह १)। वीसइम | (धर्म २)। ह पुंन [ह) एक दिन __ चत्तालीस स्त्रीन [°चत्वारिंशत् ] उनचालीस वि [विंशतितम] एक्कीसवाँ (पउम २१, (प्राचा २, ३, १)। हच्च वि [हित्य] | (सम ६६)। चत्तालीसइम वि [°चत्वा८१)। वीसा स्त्री [विंशति] एक्कीस एक ही प्रहार से नष्ट हो जानेवाला (भग ७, । रिंशत्तम] उनचालीसवाँ (सम८६)। °णउइ (पि ४४५) । सट्ट वि [°षष्ट] एकसठवां, ६)। हिय वि [हिक] १ एक दिन | स्त्री [नवति नवासी (पि ४४४)। तीस ६१ वां (पउम ६१, ७५)। सटि स्त्री का उत्पन्न । २ पुं. ज्वर-विशेष, एकान्तर स्त्रीन [°त्रिंशत् ] उनतीस, २६ । तीसइम [पष्टि] एकसठ (सम ७५) । सत्तर वि ज्वर (भग ३,७)। यि वि [धिक एक वि [त्रिंशत्तम उनतीसवाँ, २६ वाँ (पउम [सप्तत] एकहतरवाँ, ७१ वां (पउम ७१, से ज्यादा (पंच)। देखो एअ, एक और एक्काल २६, ४६) । नउइ देखो उइ (सम ६४)। नउय वि [नवत] नवासीवाँ (पउम ८६, ७०)। समइय वि [सामयिक] एक एगंत देखो एकत (ठा ५ सूत्र १, १३, प्रोघ समय में होनेवाला (भग २४, १) । °सरिया ६५) । पन्न, पन्नास स्त्रीन [पञ्चाशत् ] ५५; पंचा ५; १०)। दिदि स्त्री [ दृष्टि १ जैनेतर दर्शन। २ वि. जैनेतर दर्शन को उनचास (सम ७०; भग)। पन्नास वि स्त्री [ सरिका] एकावली, हार-विशेष (जं [°पञ्चाश] उनपचासवाँ (पउम ४६, ४०)। १)। साडिय वि [शाटिक] एक वस्त्रमाननेवाला (सूत्र २, ६)। ३ स्त्री. निश्चित पन्नासइम वि [पञ्चाशत्तम] उनपचासम्यक्त्व, निश्चल सत्य-श्रद्धा (सूप १, १३)। वाला, 'एगसाडियमुत्तरासंगं करेइ' (कप्प; दूसमा स्त्री [°दुष्षमा] अवसर्पिणी-काल णाया १, १)। "सिअंअ [°दा] एक सवाँ (सम ६६) । वीस स्त्रीन [विंशति] समय में (षड्)। उन्नीस (सम ३६; पि ४४४; गाया १, सेल पुं [शैल] का छठवां और उत्सर्पिणी-काल का पहला पर्वत-विशेष (ठा २, ३)। १६) । वीसइ स्त्री [विंशति उन्नीस (सम आरा, काल-विशेष (सूअ १, ३)। पंडिय सेलकूड पुन बाल [पण्डित] साधु, संयत (भग)। बाल [शैलकूट एकशैल पर्वत का शिखर-विशेष ७३) । वीसइम, वीसईम, वीसम वि [विंशतितम] उन्नीसवाँ (णाया १, १८ (जं ४)। सेस पु[शेष] व्याकरण पुं[बाल] १ जैनेतर दर्शन को माननेवाला। २ असंयत जीव (भग)। वाइ वि [वादिन] पउम १६, ४५; पि ४४६)। "सट्र वि प्रसिद्ध समास-विशेष (अणु)। हा प्र [धा] एक प्रकार का (ठा १)। हुत्त प्र जैनेतर दर्शन का अनुयायी (राज)। वाय [°षष्ट] उनसठवाँ ५६ वा (पउम ५६, ८९)। पुं[वाद] जैनेतर दर्शन (सुपा ६५८)। 'सत्तर वि [सप्तत] उनसत्तरवाँ (पउम [सकृत् ] एक बार (प्रामा)। णिअ ६६, ६०)। सी, सीइ स्त्री [शीति] वि [किन्] अकेला (कसा ओघ २८ भा)। सुसमा स्त्री [°सुषमा ] काल-विशेष, दस त्रि. ब. [दशन् ] ग्यारह । अवसर्पिणी काल का प्रथम और उत्सपिणी उन्नासी (सम ८७; पि ४४४: ४४६) । सीय दिसुत्तरसय वि [दशोत्तरशततम] काल का छठवाँ पारा (णंदि)। वि [शीत] उन्नासीवाँ, ७६ वा (पउम एक सौ ग्यारहवाँ, १११ वाँ (पउम १११, एगंतिय वि [ऐकान्तिक] १ अवश्यंभावी | ७६, ३५) । देखो अउण । २४)। भोग पुं[भोग] एकत्र-बन्धन (विसे)। २ अद्वितीयः 'एगंतियं कम्मवाहि- एगूरुय पुं [एकोरुक] १ इस नाम का एक (निचू १)। मोस वि [°मर्श] १ प्रत्यु प्रोसह (स ५६२)। ३ जैनेतर दर्शन (सम्म अन्तद्वीप । २ वि. उसका निवासी (ठा ४, २)। पेक्षणा का एक दोष, वस्त्र को मध्य में ग्रहण | १३०)। एग्ग (अप) देखो एग (पिंग)। कर दोनों अंचलों को हाथ से घसीट कर एगतिय न [ऐकान्तिक] मिथ्यात्व का एक एज पुं[एज] वायु, पवन (प्राचा) TV उठाना (मोघ २६७)। यय वियत भेद वस्तु को सर्वथा क्षणिक आदि एक ही एजणया स्त्री [एजना] कम्प, काँपना (सपनि एकत्र संबद्ध (कप्प)। रिस देखो दस दृष्टि से देखना (संबोध ५२) ।। (पि ४३५)। "रसी स्त्री [दशी] तिथि- एगट्टि देखो एग्ग-सट्टि (देवेन्द्र १३९; सुज्ज एज्ज देखो एय = एज् । वकृ. एज्जमाण विशेष, एकादशी (कप्प; पउम ७३, ३४)। १२) (राय ३८) विण्ण स्त्रीन [पञ्चाशत् ] एकावन एगट्ठिया स्त्री [दे] नौका, जहाज (गाया १, एज्जत देखो ए = मा + इ । (पि २६५)। वलि, ली स्त्री [वलि, १६) एजण न [आयन] आगमन (वव ३)। For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एजमाण-एरिसिअ पाइअसद्दमहण्णवो १९३ एज्जमाण देखो ए = पा+इTV एत्तोअ दे] यहां से लेकर (दे १, १४४) एयाणि देखो इयाणिं (रंभा) । एड सक [एड] छोड़ना, त्याग करना । एत्थ अ [अत्र] यहां, यहां पर (उवाः गउडः एयावंत वि[ एतावत् ] इतना (पाचा) ।। एडेइ (भग)। कवकृ. एडिजमाण (णाया चारु १०३) । एरंड पुं[एरण्ड] १ वृक्ष-विशेष, रेंड, अंडी, १, १६) । संकृ. एडित्ता (भग) । कृ. एत्थी देखो इत्थी (उप १०३१ टी)। एरण्ड का पेड़ (ठा ४, ४; गाया १, १)। एडेयव्य (गाया १, ६) एत्थु (अप) देखो एत्थ (कुमा) २ तृण-विशेष (पएण १)। मिंजिया स्त्री एड सक [ एडय ] हटाना, दूर करना । एदंपज्ज न [ऐदंपय तात्पर्य, भावार्थ (उप [मिञ्जिका] एरण्ड-फल (भग ७, १)। एडेह; संकृ. एडेत्ता (राय १८) ८५६टी)। एरंड वि [ऐरण्ड] एरण्ड-वृक्ष-संबन्धी एडक पुं[एडक] मेष, भेड़ (उप पृ २३४)। एदिहासिअ (शौ) वि ऐतिहासिक] इति- (पत्रादि) (दे १, १२०)। एडया स्त्री [एडका] भेड़ी (षड्) हास-संबन्धी (प्राप) एरंडइय । [दे] पागल कुत्ता, 'एरंडए एण पुं[एण] कृष्ण मृग, हरिण (कप्पू)। दह देखो एत्तिअ (हे २, १५७; कुमाः एरंडय साणे एरंडइयसाणेत्ति हडक्क°णाहि स्त्री [ नाभि कस्तूरी (कप्पू) । काप्र ७७)। यितः' (बृह १) । एणंक [एणाङ्क] चन्द्र, चन्द्रमा (कप्पू)। एम (अप) अ [एवं] इस तरह, ऐसा (षड् । एरण्णवय न ऐरण्यवत] १ क्षेत्र-विशेष एणिज वि [एणेय] हरिण-संबन्धी, हरिण पिंग) (सम १२)। २ वि. उस क्षेत्र में रहनेवाला का (मांस वगैरह) (राज) IV एमइ (अप) अ[एवमेव] इसी तरह, ऐसा । (ठा २) 10 एणिज्जय पुं[एणेयक] स्वनाम-ख्यात एक ही (षड् ; वजा ६०)। एरवई स्त्री ऐरावती, अजिरवती नदीएमाइ । वि [एवमादि] इत्यादि, वगैरह राजा, जिसने भगवान महावीर के पास दीक्षा विशेष (राजः कस)। एमाइय। (सुर ८, २६ उव) ली थी (ठा ८) एरवय न [ऐरवत] १ क्षेत्र-विशेष (सम १२; एमाण वि [द] प्रवेश करता हुप्रा (दे १, एणिस पुं [एणिस] वृक्ष-विशेष (उप १:३१ ठा २, ३) । २ पृ. पर्वत-विशेष (ठा १०)। १४४) । टी)। एरवय वि [ऐश्वत ] ऐवत क्षेत्र का एमिणिआ स्त्री [दे] वह स्त्री, जिसके शरीर एणी स्त्री [एणी हरिणी (पान; परह १, ४)। (सुज १, ३)। को, किसी देश के रिवाज के अनुसार, सूत के एरवय वि [ऐरवत] ऐरवत क्षेत्र का रहनेयार पुं[°चार] हरिणी को चरानेवाला, धागे से माप कर उस धागे को फेंक दिया वाला (अरण)। "कूड न [कूट] पर्वतउनका पोषण करनेवाला (पएह १, १) जाता है (दे १, १४५) विशेष का शिखर-विशेष (ठा १०), एणुवासिअपुं[दे भेक, मेढ़क (दे १. १४७)। एमेअ ) अ [एवमेव] इसी तरह, इसी एराणी स्त्री [दे] १ इन्द्राणी व्रत का सेवन एणेज देखो एणिज (विपा १, ८)। एमेव प्रकार: 'ता भण किं करणिज्ज करनेवाली स्त्री (दे १, १४७)।एण्हं । [इदानीम् ] अधुना, संप्रति । एमेन ण वासरो ठाइ' (काप्र २६) हे १, एरावई श्री [ऐरावती] नदी-विशेष (ठा ५, एण्हि (महा: हे २, १३४) TV २७१) एताय देखो एत्तिअ%= एतावत; 'एतावं नर- २; पि ४६५)। एम्ब (अप) [एवम् ] इस तरह, इस लोओं' (जीवस १८७) । एरावण पुंऐरावण] १ इन्द्र का हाथो, जो । प्रकार (हे ४,४१८) एत्तअ वि [इयत्, एतावत् ] इतना (अभि कि इन्द्र के हस्ति-सैन्य का अधिपति देव है एम्बइ (अप) अ [एवमेव] इसी तरह, इस (ठा ५,१; प्रयौ ७८)। वाहण पुं[चाहन] ५६; स्वप्न ४०) प्रकार (हे ४, ४२०) । इन्द्रवाहन (उप ५३० टी)। एत्तए देखो इ% इ । एम्वहिं (अप) अ [ इदानीम् ] इस समय, एत्तहि (अप) प्र[इतस] यहां से (कुमा) अधुना (हे ४, ४२०)। एरावय पुंदावत] १ ह्रद-विशेष (राज)। एत्तहे देखो इत्तहे (कुमा)। २ ह्रद-विशेष का अधिष्ठाता देव (जीव ३)। एय अक [एज] १ काँपना. हिलना । २ एत्ताहे देखो इत्ताहे (हे २, १३४ कुमा)। ३ छन्दः-शास्त्रप्रसिद्ध पञ्चकला-प्रस्तार में आदि चलना । एयइ (कप्प) । वकृ. एयंत (ठा ७)। एत्तिअ । वि [इयत् , एतावत् ] इतना के ह्रस्व और अन्त के दो गुरु अक्षरों का प्रयो., कवकृ. एइज्जमाण (राज) एत्तिल । (हे २, १५७)। मत्त, मेत्त संकेत (पिंग) । ४ लकुच वृक्ष । ५ सरल और वि [ मात्र] इतना ही (हे १, ८१)IV एय [एज गति, चलन (भग २५, ४) । लम्बा इन्द्र-धनुष । ६ इरावती नदी का एत्तिक (शौ) देखो एत्तिअ% एतावत् (प्राकृ एयत देखा एकत (पउम १५, ५८, समीपवर्ती देश। ७ इन्द्र का हाथी (हे १, एयण न [एजन कम्प, हिलन; 'निरयणं २०८)। एत्तुल (अप) ऊपर देखो (हे ४,४०८ कुमा)। भाणं' (पाव ४)। एरिस बि [ईदृश] इस तरह का, ऐसा एत्तूण अ [द अधुना, इस समय (प्राकृ८०) एयणा स्त्री [एजना] १ कम्प। २ गति, (माचा; कुमार प्रासू २१) । एत्तो देखो इओ (महा)। | चलन (सूम २, २, भग १७, ३) । एरिसिअ (अप) ऊपर देखो (पिंग)। २५ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ " एल } एलग | [दे] कुशल ना दे १, १४४) । [ एड, एल] १ मृगों की एक जाति (विपा १, ४) । २ मेष भेड़ (मूत्र २,२) । मूअ, मूग वि ["मूक ] १ मूक, भेड़ की तरह अव्यक्त बोलनेवाला; 'जलएलमुग्रमम्मरणमलियवयरणजंपणे दोसा' ( श्रा १२: दस ५ श्राव ४ निचु ११ ) | एलगच्छ न [एलकाक्ष ] स्वनाम-ख्यात नगरविशेष ( अ २११ टी ) 1 एवं अ [ एवम् ] इस तरह इस रीति से, इस प्रकार ( १ १ १ २१) भूज हे । पुं [ भूत] १ व्युत्पत्ति के अनुसार उस क्रिया से विशिष्ट अर्थ को ही शब्द का अभिधेय मानानेवाला पक्ष (ठा ७) । २ वि. इस तरह का, एवं प्रकार (उप ८७७) । 'विध, विह वि [विध ] इस प्रकार का ( हे ४, ३२३ काल) 1 एलाच वि [ऐलापत्य ] एलापत्थ- गोत्र का (गंदि ४९ ) । एवश्य एलावा स्त्री [एलापत्या ] पक्ष की तीसरी रात (चंद १०, १४) पाइसम [श्य एतावत्] [दतना (प एलय देखो एल ( उवा पि २४० ) । एलविल व [] १ धनाव्य, धनी । २ पुं. एवंहास पुं [ एवंहास] इतिहास ( गउड R) IV वृषभ, बैल ( दे १, १४८) पड् ) । एल स्त्री [एला ] १ इलायची का पेड़ (से ७, ६२) । २ इलायची-फल (सुर १३, ३३) । रस पुं [स] इलायची का रस (परा २,५ ) 1 एलिस वि[ई] [ऐसा (७, २२) एघि [एलिङ ] धान्य- विशेष (पराह १) एलिया स्त्री [एडिका, एलिका ] १ एक जात की मृगी । २ भेड़िया (हे ३, ३२) IV एलिस देखो एरिस (सूत्र १,६,१) एतु [एलु] वृक्ष-विशेष (उप १०३१ टी) । एलुग (पुंन [एलुक ] देहली, द्वार के नीचे एतु ) की लकड़ी ( जीव ३ श्राचा २) | एवि [] निर्धन (दे १, १७४) IV एव [] इन अर्थों का सूचक अव्ययःअवधारण, निश्चय (ठा ३, ९ प्रासू १६) २ सादृश्य, तुल्यता । ३ चार- नियोग । ४ निग्रह | ५ परिभव । ६ श्रल्प, थोड़ा ( हे २, २१७ ) । एव देखो एवं (हे १, २६; पउम १५, २४) । वि । एव [इयत् एतावन्] इतना खुत्तो (कप्प । "तो [ कृत्वस् ] इतनी बार (भय) .१ " विसे ४४४) । Iv एवमाइ देखी एमाइ ( प १३) एवमेव } एमेव (हे देखो मे (१२०१) एलालु पुंन [एलालुक] भालू की एक एवामेव जाति, कन्द- विशेष (ऋतु ६ ) | एलाच्च न [ एलापत्य ] माण्डव्य गोत्र का एक शाखा गोत्र (ठा ७) । एयं देखो एवं (षड् ; अभि ७२ स्वप्न १० एव्व देखो एव = एव (अभि १३: स्वप्न ४० ) | एहि (प) अ [ इदानीम् ] इस समय अधुना (पड्) | २ एव्वारु पुं [इ] ककड़ी (कुमा) । एस सक [इ] १ इच्छा करना । खोजना ३ प्रकाशित करना एसह (पिंड ७५) एस [ आ + इ ] करना, 'तम्हा विरयमेसिज्जा' (उत्त १, ७ सुख १, ७) 1 एस सक [ आ + इ ] १ खोजना, शुद्ध भिक्षा की खोज करना। २ निर्दोष भिक्षा का ग्रहण करना। एसंति ( आाचा २, ६, २) । वकृ. एसमाण (ग्राचा २, ५, १ ) । संकृ. एसिता, एसिया (उत्तमाना हेह. । एसिए (याचा २२, १) १ एसबि [ए] भाषी पदार्थ होनेवाली वस्तु ( आव ५ ) । २ पुं. भविष्य काल ( दसनि १); 'कथंव संपइ गए कह कीरइ, किह व एसम्मि' (विसे ४२२ ) । 3 एवड (प) वि [ इयन् ] इतना ( हे ४, ४०८ कुमा; भवि ) । 'एस देखो देस भएको ए सस्वद्द जो परितो एसकालम् (गा ४०० ) IV || इस सिरियाई असदमा एमाल सत्तमो तरंगो समत्तो ॥ For Personal & Private Use Only एल -- एहिअ एसग वि [एक] अन्वेषक, गवेषक ( श्राचा) ।' एसज्जन [ ऐश्वर्य ] वैभव, प्रभुत्व, संपत्ति (ठा ७) । एस न [पण] १ अन्वेषण, खोज २ ग्रहण ( उत्त २ ) । एसणा को [एपणा] वेगवे १ अन्वेषण, खोज (प्राचा) । २ प्राप्ति, लाभः 'विसएस भियायंति' (सूत्र १,११) ३ प्रार्थना ( सू १, २) । ४ निर्दोष आहार की खोज करना (ठा ६) । ५ निर्दोष भिक्षा ( आचा २) । ६ इच्छा, अभिलाष (पिंड १) । ७ भिक्षा का ग्रहण (ठा ३,४) । समिइ स्त्री [° समिति ] निर्दोष भिक्षा का ग्रहण करना (ठा ५) । 'समिय व [समित ] निर्दोष भिक्षा को ग्रहण करनेवाला (उत्त ६ भग) Iv ग्रहण योग्य साया खोज करनेवाला एस व [एपणीय ] 8,4) 11 एसि[िए] (प्राचा) - एसिय वि [ एपिक] १ खोज करनेवाला, गवेषक । २ पुं. व्याध । ३ पाखण्डि - विशेष । (सूप १, २) ४ मनुष्यों की एक गोष जाति (श्राचा २, १, २) V एसिय[] धन्य भग ७, १) । २ निर्दोष भिक्षा (वव ४ ) | एसिय वि [ एपित] भिक्षा-चर्या की विधि से प्राप्त (सू २, १५६) । एस्सरिय देखो एसज्ज (उब ) । एह क [ ए ] बढ़ना, उन्नत होना। एहइ ( दीसतहमा ( दस 8 ) 1 एद (अप) वि[ईट ] ऐना, इसके जैसा (fr) " इत्तरि (अप) श्री [एकसप्तति ] संख्याविशेष ७१ (पिंग)। ] समय, इन्धन (उत्त १२, एहा श्री [ ए ४३; ४४)। एहि वि [ ऐहिक] इस जन्म-संबन्धी (मो ६२) । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐ-ओअव पाइअसहमहण्णवो १६५ ऐअ [अयि] इन अर्थों का सूचक अव्यय- १ संभावना । २ आमन्त्रण, संबोधन । ३ प्रश्न । ४ अनुराग, प्रीति । ५ अनुनयः 'ऐ बीहेमिः ऐ उम्मत्तिए' (हे १, १६६) ॥ इअ सिरिपाइअसद्दमहण्णवे ऐमाराइसद्द संकलणो अट्ठमो तरंगो समतो॥ ओ ओ] स्वर वर्ण-विशेष (हे १, १; ! ओअक्ख सक [दृश] देखना । प्रोअक्खइ ओअरण न [उपकरण] साधन, सामग्री (गा प्रामा) । (हे ४, १८१ षड् ) ६८१) ओ देखो अव = अप (हे १, १७२; प्राप्रः ओअग्ग सकवि +आप व्याप्त करना। ओअरण न [अवतरण] उतरना, नीचे आना कुमाः षड्) । प्रोगग्गइ (हे ४, १४१)। (गउड)। ओ देखो अव (हे १, १७२: प्रातः कुमाः ओअग्गिअ वि [व्याप्त] विस्तृत, फैला ! ओअरय पुं[अपवरक] कमरा, कोठरी (सुपा षड़)। ४१५) हुआ (कुमा)IV ओ देखो उव (हे १,१७२; कुमा) 14 ओअरिअ वि [अवतीर्ण] उतरा हुआ (पान) ओअग्गिअ वि[दे] १ अभिभूत, परिभूत। ओ देखो उभ = उत (हे १,१७३; कुमा)। ओअरिअविऔदरिका पेट-भरा, पेट्र, उदर ओ अ [ओ] इन अर्थों का सूचक अव्यय। २ न. केश वगैरह को एकत्रित करना (दे १, । भरने मात्र की चिन्ता करनेवाला (प्रोध १७२) १ वितकं । २ प्रकोप, विस्मय (प्राकृ ७८)iv ओअग्घिअ) वि [दे] प्रात, सूघा हुमा ओअरिया स्त्री अपवरिका] कोठरी, छोटा ओप[ओ] इन अर्थों का सूचक अव्यय- ओअघिअ (दे१, १६२ षड्) । कमरा (सुपा ४१५)।" त्ताप, अनुतापः 'भो न मए छाया इत्तिमाए' । तरफ मुड़ा हुआ (से ११, ११८)। तरफ मडामा मेर ओअल्ल देखो ओवट्ट = अप + वृत् । प्रोप्रल्लइ (हे २, २०३; षड्; कुमाः प्राप्र)। ३ (प्राकृ ७०)। ओअत्त वि [अपवृत्त] पौधा किया हुआ, ओअल्ल मक [अव+चल] चलना । संबोधन, आमन्त्रण (नाट-चैत ३४) ।। । उलटा किया हुआ: प्रोग्रत्ते कुभमुहे जललव - प्रोग्रलंति (पि १६७४८८) । वकृ. ओअ४ पादपूर्ति में प्रयुक्त किया जाता अव्यय करिणावि किं ठाइ ?' (गा ६५४)। लंत (पि १६७४८८) । (पंचा १; विसे २०२४) । ओअत्तअ बि [अपवर्तितव्य] १ अपवर्तन- ओअल्ल j[दे] १ अपचार, खराब आचरण, ओअ न [दे] वार्ता, कथा कहानी (दे १, योग्य । २ त्यागने योग्य, छोड़ने लायक १४६) अहित आचरण (षड् स ५२१)। २ कम्प, 'कुसुमम्मि व पव्वाअए भमरोअत्तम्मि' कांपना (षड्; दे १,१६५)। ३ गौनों का ओअअ वि [अपगत अपमृत; 'प्रोप्राभव-'। (से ३,४८)। बाड़ा । ४ वि. पर्यस्त, प्रक्षिप्त । ५ लम्बमान, (पि १६५)। ओअम्मअ वि [दे] अभिभूत, पराभूत लटकता हुआ (दे १, १६५)। ६ जिसको ओअंक दे] गजित, गर्जना (दे १, १५४) (षड) आँखें निमीलित होती हों वहः 'मुच्छिज्जतोओअंद सक [आ + छिद्] १ बलात्कार से ओअर सक [अव + त] १ जन्म-ग्रहण अल्ला अक्कंता णिप्रसमहिहरेहि पवंगा' (से छीन लेना । २ नाश करना । प्रोअंद३ (हे ४, करना। २ नीचे उतरना । प्रोयरइ (हे ४, १३, ४३)।V १२५; षड्) IV ८५) । वकृ. ओयरंत (ोघ १६१; सुर ओअल्लअ वि [दे] विप्रलब्ध, प्रतारित (षड् ) ओअंदणा स्त्री [आच्छेदना] १ नाश । २ १४, २१)। हेकृ. ओयरिउं (प्रारू)। कृ. ओअव सक [साधय् ] साधना, वश में जबरदस्ती छीनना (कुमा)। ओयरियव्व (सुर १०, १११)। करना, जीतनाः ‘गच्छाहि णं भो देवाणु For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ पिमा सिए महात्रा पत्यमिन विविधुसागरगिरिमेरा समचितमणिखुडारि अ प्रोग्रवेहि' (जं ३) । संकृ. ओअवेता (३) । ओअवण न [साधन ] विजय वश करना, स्वायत्त करना (जं ३ – पत्र २४८ ) | ओआज [] १ ग्रामाधीरा गांव का स्वामी । २ श्राज्ञा, श्रदेश । ३ हस्ती वगैरह छीना को पकड़ने का गर्त । ४ वि. अपहृत, हुधा (दे १, १६६ ) |v ओआअव पुं [दे] प्रस्त-समय (दे १, १६२ ) । ओआर सक [ अप + वारय् ] ढांकना, 'कहूं सुज्जं हत्थे श्रश्रारेसि' (मै ४६ ) । V ओआर [अपकार] अनिष्ट, हानि, क्षति (कुमा) arrer [a] व्यक्त यात्राज करना । गर ( प्राकृ ७३) । ओआर [अवतार ] १ तार (ठा १ गउड) । २ अवतार, देहान्तर-धारण (षड् ) । ३ उत्पत्ति, जन्म; 'प्रच्चंत मरणोयारो जत्थ ओघ देखो उंच । श्रइ (हे ४, १२ टि) जरारोगवाह' ( १३१) ४ प्रवेश ऑडल न [दे] केश-गुम्फ-रचना (विसे १०४०) ओआर देखो उवयार (षड् ) ओआरण न [अवतारण] उतारना, श्रवतारित पाइअसद्दमणव ओगवि [अवतीर्ण] उत्तरापथ गा ६३ ) | ओइत । न [दे] परिधान, वस्त्र (दे १, ओस १५५ } ओइल वि [दे] प्रारूढ (दे १, १५८) ओठणन [अवगुण्ठन] स्त्री के मुंह पर का वस्त्र, घूँघट ( अभि १६८ ) । ओउल्लिय वि [दे] पुरस्कृत, आगे किया हुआ (पडू ) 1 ओल [अ] - ञ्चल, प्रालम्ब (पाय ); 'मरगयलंबतमोत्तिश्रोऊल' (पउम ८ २८३) । देखो ओचूल IV । करना (दे ४, ४० ) । ओआरिज दि [अवतारित] उतारा हुआ ( से ११, ९३; उप ५६७ टी) 1 ओआल पुं [दे] छोटा प्रवाह (दे १, १५१) ओली [] १ खड्ग का दोष २ पंकि, श्रेणी (दे १, १६४) ओवल [३] बालातप सुबह का सूर्यताप (दे १, १६१) । ओशास देखो अवगास (हे १, १०२ २०); 'अम्हारिसारण सुंदर ! श्रोप्रासो कत्थ पावारणं' ( काप्र ९०३ ओआस देखो उववास (हे १, १७३३ प्रारू) । ओहि वि [ अवगाहित] जिसका अवगाहन किया गया हो वह (से १, ४, ८, १०० ) । | ओइंध सक [ आ + मुच् ] १ छोड़ देना, त्यागना, फेंक देना। २ उतार कर रख देगा "तो उज्भिकरण लजं श्रोई कंचुयं सरीराम्रो' ( पउम ३४, १६ ) ; तहेव य झडत्ति परिवाडीए प्रोधइति' ( श्राक ३८) [ओम् ] प्रणव मुख्य मन्त्राक्षर (पडि) । ओंकार पुं [ओङ्कार ] 'श्रीं' अक्षर (उत्त २५ ३१) । चल (दे १, १५०) 1 ओंदर देखो उंदर (षड् ) IV ओंवाल सक [ छादय् ] ढकना, श्राच्छादित करना । बालइ (हे ४, २१) चाल स [[]]बाना २ व्याप्त करना । बालइ (हे ४, ४१) औबालिअ वि [छादित ] ढका हुआ (कुमा) I जवाडि [प्लावित] वाया हुआ। २ व्याप्त (कुमा) | ओकंवण देखो उयण (घाचा २, २, ३, १ टी ) । कुमाओ[कृष्ट] खींचा हुआ। २ ओडिया देश ओकडूढ वि [अपकृष्ट] १ खींचा हुआ । २ ग. पण, सचान (उत्त १२) | ओकड्डग देखो उक्कड्ढग (पएह १, ३) । ओकरग पुं [अवकरक] विष्ठा (मन ३० ) । ओक्कस सक [ अब + कृष् ] १ निमग्न होना, गड़ जाना । २ खींचना। ३ वह जाना । वकृ. ओकसमाण ( कस) ओक्त वि [अन्य] निराकृत, पराजितः परवा अणोक्ता महाएि अगार्द्धसिजमारणा विहरंति' (श्रौप) IV ओकरुंदी देखो उ ११७४) For Personal & Private Use Only ओअवण-ओगाह ओणी श्री [दे] १. १५९) ओक्किअ न [दे] १ वास, वसन, श्रवस्थान । २ वमन, उल्टी (३१, १५१) ओक्खंच सक [ आ + कृप् ] खींचना । कर्म 'जह वह बोर तह वह गं परिरहमाणेण । भयवं ! तुरंगमेरगं, इहारिणयो श्रसमे तुम्ह' (सुर ११, ५१ ) - ओक्खंड सक [ अब + खण्ड ] तोड़ना, भांगना । कृ. ओक्खंडे अव्य ( से १०,२३ ) | ओक्खंडिअ वि [दे] आक्रान्त (दे १, ११२ ) । ओक्खं देखो अवबंद (सुर १०, २१० पउम ३७, २६ ओक्खल देखो उऊखल (कुमाः प्रा ) 1 ओक्खली [द] देखो उक्खली (दे १,१७४) । ओक्खमाण (शी) वि [ भविष्यत् ] भविष्य में होनेवाला, भावी (प्राकृ ९६ ) | ओक्खिण्णव [दे] १ श्रवकीर्णं । २ सप्ति, पूति] ( १, १२०) १ छन्न, ढका हुआ । ३ पार्श्व में शिक्षित (दे १,१३०) 1 ओखित वि[अपचित] फेंका हुआ (स) 1 ओखंच देखो ओक्खंच ओगम देखो अवगम क्र. ओगमिव्य (शी) मा ४८) | ओगय[पग] प्राप्त (१,२, २, १०) | ओगर देखो अं. मगर (पिंग) ओगलिअ वि [ अवगलित] गिरा हुआ, खिसका हुआ (गा २०५ ) 1 ओगसण न [ अपकसन] ह्रास (राज) ओगहिअ वि [ अत्रगृहीत] उपात्त, गृहीत (ठा ३) ओगाढ वि [ अबगाढ] १ ग्राश्रित, अधिष्ठित (ठा २, २) । २ व्याप्त ( गाया १, १६ ) । ३ निमग्न (ठा ४ ) । ४ गंभीर, गहरा (पउम २०, ६५ से ६, २६ ) 1 ओगास पुं [ अवकाश ] जगह स्थान (विवे १३६ टी) । ओगास [अवकाश] मार्ग, रास्ता (तुल पुं २२१ ओगाह सक [अब + गाह ] पाँव से चलना । ओगान (५७५) IV Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगाह--ओच्छाहिय पाइअसद्दमहण्णवो १६७ ओगाह सक [अब +गाह ] अवगाहन ओग्गहिय वि अवगृहीत १ अवग्रह-ज्ञान बड़ी कोठी-मिट्टी का पात्र-विशेष (प्ररण करना । श्रोमाहइ (षड्)। वकृ. ओगा- से जाना हुआ, अवग्रह का विषय । २ अनुज्ञा १५१)। हंत (प्राव २)। संकृ. ओगाहइत्ता, से गृहीत । ३ बद्ध, बँधा हुआ (उवा)। ४ ओचिदी (शौ) स्त्री [औचिती] उचितता, ओगाहित्ता (दस ५: भग ५, ४)। देने के लिए उठाया हुआ (प्रौप)। औचित्य (रंभा)। ओगाहण न [अवगाहन] अवगाहन (भग) ओग्गहिय वि [ अवग्रहिक 1 अनुज्ञा से ओचुंब सक [अव + चुम्ब् ] नुम्बन ओगाहणा स्त्री [अवगाहना] १ आधार-भूत गृहीत, अवग्रहवाला (औप)। करना । संकृ. ओचुंबिऊण (भवि) । अाकाश-क्षेत्र (ठा १)। २ शरीर (भग ६, ओग्गारण न [उद्गारण] उद्गार (चारु ७) । ओचुल्ल न [दे] नुल्हा का एक भाग (दे १, ८)। ३ शरीर परिमाण (ठा ४, १)। ४ १५३)। अवस्थान, अवस्थिति (विसे) । "णाम न ओग्गाल पुं [दे] छोटा प्रवाह ( दे १, ओचूल । देखो ओऊल (विपा १, २, मुर । १५१)। [°नामन् ] कर्म-विशेष (भग ६, ८)। ओचूलग ३,७०)। २ मुख से हटा हुमा ओग्गाल सक [रोमन्थाय] पगुराना, "णाम [नाम अवगाहनात्मक परिणाम | शिथिल–ढीला (वस्त्र); 'पोचूलगनियाथा' | चबाई हुई वस्तु का पुनः चबाना । प्रोग्गालाइ (भग ६, ८) ओगाहिम वि [अवगाहिम ] पक्वान्न ओञ्चय देखो अवचय (महा)। ओग्गालिर विरोमन्थायित] पगुरानेवाला, ओञ्चिया स्त्री [अवचायिका] तोड़ कर (पंचा ५) चबाई हुई वस्तु का पुनः चबानेवाला ओगिझ सक[अव + ग्रह.] १ आश्रय (फलों को) इकट्ठा करनेवाली (गा ७६७) । ओगिह लेना। २ अनुज्ञा-पूर्वक ग्रहण ओञ्चल्लर न दे] ऊपर-भूमि । २ जघन के करना । ३ जानना । ४ उद्देश करना । ओग्गाह देखो उग्गाह % उद् + ग्राहय् । रोम (दे १,१३६) IV ५ लक्ष्य कर कहना। भोगिरहइ (भग; प्रोग्गाहइ (प्राकृ ७२) । ओच्छ । वि[अवस्तृत] १ आच्छादित। कप्प) । संकृ. ओगिजिमय, ओगिण्हइत्ता, ओग्गिअ वि [दे] अभिभूत, पराभूत (दे १, ओच्छइय) २निरुद्ध, रोका हुआ (पएह १, ओगिमिहत्ता, ओगिणिहत्ताणं (प्राचा १५८)। ४; गउडः स १९४)IV रणाया १, १; कसः उवा)। कृ. ओघेत्तव्य ओग्गीअ [दे] हिम, बर्फ (दे १, १४६) ओच्छंदिअ वि [दे] १ अपहृत । २ व्यथित, (कप्प पि ५७०)। ओग्य देखो उग्घड । प्रोग्घइ (प्राकृ ७१)। पीड़ित (षड्) । ओगिण्हण न [अवग्रहण] सामान्य ज्ञान- ओग्घसिय वि [अवधर्षित] प्रमाजित, ओच्छण्ण वि[अवच्छन्न] आच्छादित, आग्धासय वि L अवघापत प्रमाजित, ओच्छ विशेष, अवग्रह (दि)। साफ-सुथरा किया हुमा (राय) IV ढका हुआः 'पिच्चोउगो असोगो ओच्छरगो ओगिण्हणया स्त्री [अवग्रह्णता] १ उपर | ओघ ओध] १ समुह, संघात (णाया १, सालरुक्खेरणं' (सम १५२) । देखो ओच्छन्न। देखो (शंदि)। २ मनो-विषयीकरण, मन से ५) । २ संसार, 'एते प्रोघं तरिस्संति समुदं ओच्छत्त न [दे] दन्त-धावन, दतवन (दे जानना (ठा ८)V ववहारिणो' (सूत्र १, ३)। ३ अविच्छेद १, १५२) IV ओगिन्ह देखो ओगिण्ह । संकृ. ओगि- अविच्छिन्नता (पएह १, ४)। ४ सामान्य, ओच्छन्न देखो ओच्छण्ण (स ११२, प्रौप) । न्हित्ता (निर १, १)। साधारण। सण्णा स्त्री [संज्ञा] सामान्य २ अवष्टब्ध, आक्रान्त (प्राचा)। ओगुंडिय वि [अवगुण्डित] लिप्त (बृह १) ज्ञान (परण ७)। देस पुं [देश ओच्छर (शी) सक [अव + स्तु] १ विछाना, ओगुठ्ठि स्त्री [अपकृष्टि] अपकर्ष, हलकाई, सामान्य विवक्षा (भग २५, ३)। देखो फैलाना। २ आच्छादित करना, ढोकना। तुच्छता (पउम ५६, १५) । ओह = अोध ।। प्रोच्छरीअदि (नाट---उत्तम १०५) । ओगृहिय वि [अवगृहित] प्रालिंगित ओघट्टिद (शौ) वि [अवघट्टित] पाहत ओच्छविय। वि अवच्छादित] आच्छा(णाया १, ६) । (प्रयौ २७) । ओच्छाइय | दित, ढका हुआ; 'गुच्छलयारुओग्गर पुं [ओगर] धान्य विशेष, ब्रोहि- ओघसर पुं[दे] १ घर का जल-प्रवाह । क्खगुम्मवस्लिगुच्छरोच्छाइयं सुरम्मं वेभारविशेष (पिंग) २. अनर्थ, खराबी, नुकसान (दे १, १७०; गिरिकडगपायमूल' (णाया १, १-पत्र २५ ओग्गह देखो उग्गह (सम्म ७५; उवः कसः सुर २, ६६) २८ टी महाः स १५०)। स ३५, ५६८)। ओघसिय देखो ओग्यसिय । अच्छाइवि नीचे देखो। ओग्गह सक [प्रति + इप्] ग्रहण करना । | ओघाययण न [ओघायतन] १ परम्परा से ओच्छाय सक [अब + छादय] आच्छादन प्रोग्गहइ (प्राकृ ७३) । पूजा जाना स्थान । २ तलाव में पानी जाने | करना। संकृ. ओच्छाइवि (भवि) । ओग्गहण देखो ओगिण्हण। पट्टग पुन | का साधारण रास्ता (पाचा २, १०, २) ओच्छायण वि [अवच्छादन] ढांकना, [पट्टक] जैन साध्वियों के पहनने का एक ओघेत्तव्व देखो ओगिण्ह । पिधान (स ५५७) । गुह्याच्छादक वन, जांघिया, लंगोट (कस)| ओचार पुं[दे. अपचार] धान्य रखने की ओच्छाहिय देखो उच्छाहियः For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ पाइअसहमहण्णवो ओच्छिअ-ओत्थरण 'प्रोच्छाहियो परेण व लद्धि ओझरी स्त्री [दे] प्रोझ, प्रांत का प्रावरण ओणामिय । वि [अवनमित] अवनत किया पसंसाहि वा समुत्तइओ। (दे १, १५७)। ओणाविय हुमा (से ५, ३६; ६, ४ गा १०३; भवि)। अवमारिणो परेण य जो ओझा सक [अप + ध्या] खराब चिन्तन ओणिअत्त प्रक [अपनि + वृत् ] पीछे एसइ माणपिंडो सो॥ करना । कवकृ. ओभंत (भवि) हटना, वापिस पाना। वकृ. ओणिअत्तंत (पिंड ४६५)। | ओज्मा देखो अउज्मा (उप पृ ३७४) । (से २,७)। ओच्छिअ न [दे] केश-विवरण (दे १, ओज्झाय देखो उवज्झाय (कुमाः प्रारू)। ओणिअत्त वि [अपनिवृत्त] पीछे हटा हुआ, १५०)। ओज्झाय वि [दे] दूसरे को प्रेरणा कर वापिस आया हुमा (से ५, ५८) ओच्छिण्ण वि [अवच्छिन्न] आच्छादितः | हाथ से लिया हुआ (दे १, १५६) ओणिमिल्ल वि [अवनिमीलित] मुद्रित, दा 'पत्तेहि य पुप्फेहि य प्रोच्छिएणपलिच्छिएणा' ओझावग देखो उवज्झाय (उप ३५७ टी) हुआ (से ६, ८७; १३, ८२)। (जीव ३)। ओ? पुं [ओष्ट] प्रोठ, अधर (पउम १, ओणियट्ट देखो ओनियट्ट (पि ३३३)। ओच्छंद सक [आ + क्रम्] १ आक्रमण | २४ स्वप्न १०४: कुमा)। ओणियव्व पुं [दे] वल्मीक, चीटियों का करना । २ गमन करना। अोच्छंदंति (से ओद्विय वि [औष्ट्रिक] उष्ट्र-सम्बन्धी, उष्ट्र | खुदा हुप्रा मिट्टी का ढेर (दे १, १५१)। १३, १६)। कर्म. ओच्छुदइ (से १०, ओणीवी स्त्री [दे] नीवी, कटि-सूत्र (दे १, के बालों से बना हुआ (कस स ५८६) १५०) ओच्छुण्ण वि [आक्रान्त] १ दबाया हुआ । ओडड्ढ वि [दे] अनुरक्त, रागी (दे १, ओणुगअ वि [दे] अभिभूत, पराभूत (दे १, २ उल्लंधित; 'मोच्छुएणदुग्गमपहा' (से १३, १५६)। ६३, १५, १३)। ओड्ड पुं[ओडू] १ उत्कल देश । २ वि. ओण्णिद्द न [औन्निद्रय निद्रा का प्रभाव ओच्छोअअ न [दे] घर की छत के प्रान्त उत्कल दश का निवासी, उड्या (पिग)। 'पोरिणदं दोब्बल्लं' (काप्र ८५; दे १, भाग से गिरता पानी; ओड्डिअ वि[ओडीय] उत्कल-देशीय (पिंग) ११७) 'रक्खेइ पुत्तनं मत्थएण ओढण न [दे] प्रोढ़न, उत्तरीय, चादर ओण्णिय वि[और्णिक ऊन का बना हुआ, ओच्छोअनं पडिच्छंती। (दे १, १५५) । ऊर्ण-निर्मित (कस)। अंसूहि पहिअधरिणी पोलि ओड्ढिगा स्त्री [दे] ओढ़नी (स २११)। ओणेज वि [उपनेय सांचे में ढाल कर जंतं ण लक्खेई' (गा ६२१)। ओढण न [दे] अवगुण्ठन (प्राकृ ३८)। बना हुआ फूल आदि, सांचे से बनता मोम का ओजिम्ह अक [ध्रा] तृप्त होना। प्रोजिम्इइ ओण देखो ऊण = ऊन (रंभा)। पुतला; 'पाउट्टिमउक्किन्नं प्रोगणे (? णे) (प्राकृ ६५)। ओणंद सक [अव+ नन्दु] अभिनन्दन ज्जं पीलिमं च रंगं च' (दसनि २, १७)। ओजर वि [दे] भीरु, डरपोक (षड्) करना। कवकृ. ओणंदिजमाण (कप्प) ओत्तलहअ ' [दे] विटप (दे १, ११६)। ओजल देखो उज्जल (दे)। ओणम अक [अव + नम् ] नीचे नमना। ओत्ताण देखो उत्ताण (विक्र २८)। ओजल्ल वि [दे] बलवान्, प्रबल ( १, वकृ. ओणमंत (से १, ४५) । संकृ. ओण- ओत्थ सक [स्थग ] ढकना। प्रोत्थइ (प्राकृ १५४)। मिअ, ओणमिऊण (प्राचा २: निचू १) ६५)। ओज्जाअ [दे] गजित, गरिव (दे १, ओणय वि [अवनत १ नमा हुआ (सुर २, ओत्थअ वि [अवस्तृत] १ फैला हुमा, प्रसृत १५४) । ४६) । २ न. नमस्कार, प्रणाम (सम २१) (से २, ३)। २ आच्छादित, पिहितः 'समंओझ वि [दे] मैला, अस्वच्छ, चोखा नहीं ओणल्ल अक [अव + लम्ब] लटकना, तो अत्थयं गयणं' (प्रावमः दे १, १५१ वह (दे १, १४८)। 'केसकलावु खंघे ओणल्लई' (भवि)। स ७७, ३७६)। ओभंत देखो ओझा = अप + ध्या। ओणविय घि [अवनमित] नमाया हुआ, ओत्थअ वि [दे] अवसन्न, खिन्न (दे १, अवनत किया हुआ (गा ६३५) । १५१)। ओज्भमण न [दे] पलायन, भाग जाना (दे | | ओणाम सक [अव + नमय ] नीचे नमाना, ओत्थइअ देखो ओच्छइय (गा ५६६ से १, १०३)। अवनत करना। ओणामेहि (मृच्छ ११०)।। ८, ६२; स ५७६) ।। ओझर पुं [निर्भर ] झरना, पर्वत से संकृ. ओणामित्ता (निचू)।। ओत्थर देखो ओच्छर। प्रोत्थरइ (पि ५०५; निकलता जल-प्रवाह (गा ६४०) हे १, ६८ ओणामणी स्त्री [अवनामनी] एक विद्या, नाट)। कुमाः महा)। जिसके प्रभाव से वृक्ष वगैरह स्वयं फलादि ओत्थर ' [दे] उत्साह (दे १, १५०)।। ओझरिअ [दे] देखो उज्झरिअ (दे १, देने के लिए अवनत होते हैं (उप पृ १५५; ओत्थरण न [अवस्तरण] बिछौना (पउम निचू १)। For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ओत्थरिअ-ओमट्ट पाइअसद्दमहण्णवो ओत्थरिअ वि [अवस्तृत] १ बिछाया हुआ। ओधूसरिअ वि [अवधूसरित] धूसर रंग- ओभासण न [अवभासन] १ प्रकाशन, २ व्याप्त (से ७,४७) । वाला, हलका पीला रंगवाला (से १०, उद्योतन (भग ८, ८)। २ आविर्भाव । ३ ओत्थरिअ वि [दे] १ आक्रान्त । २ जो २१)। प्राप्ति (सूत्र १, १२)आक्रमण करता हो वह (दे १, १६६) ओनडिय वि [अवनटित अवगणित, तिर- ओभासण न [अवभापण] याचना, प्रार्थना ओत्थल्ल देखो उत्थल्ल = उत् + स्तु । प्रोत्थ- स्कृतः 'चं मोनडियमरुणपह' (सम्मत्त २१४) (वव ८) ल्लइ (प्राकृ ७५)। ओनियट्ट वि [अवनिवृत्त] देखो ओणि- ओभासिय वि [अवभापित] १ याचित, ओत्थल्लपत्थल्ला देखो उत्थल्लपत्थल्ला (दे अत्त = अपनिवृत्त (कप्प) प्रार्थित (बव ६)। २ न. वाचना, प्रार्थना १, १२२) ओपल्ल वि [दे] अपदीर्ण, कुण्ठित; 'तते (बृह १)। ओत्थाडिय बि [अवस्तृत] बिछाया हुआ णं से तेतलिपुत्ते नीलुप्पल जाव असि खंधे ओभुग्ग वि [अवभुन] वक्र, बांकाः (गाया (भवि)। १,८-पत्र १३३)IV मोहरति, तत्थवि य से धारा प्रोपल्ला' (गाया ओत्थार सक [ अब + स्तारय् ] आच्छादित ओडिय वि [ अवमुक्त] छुड़ाया हुआ, १, १४)। करना । कर्म. प्रोत्थारिज्जति (स ६६८)। ओप्प वि [दे] स्ट, ओप दिया हुआ (षड् ) रहित किया हुआः तेणवि कड्ढिऊरणलक्खं ओदइग देखो ओदइय (अज्झ १३६) । पित्र सूई-प्रोभोडियो नियकुकुडो' (महा) । ओप्प सक [अर्पय ] अर्पण करना । प्रोप्पेइ । ओदइय पुंन [औदयिक] १ उदय, कर्म | ओम धि [अवम] असार, निस्सार (प्राचा (हे १, ६३) विपाक (भग ७, १४; विसे २१७४) । २ वि. २, ५, २, १)। ओप्पा स्त्री [दे] शाण प्रादि पर मरिण वगैरह उदय निष्पन्न (विसे २१७४; सूत्र १, १३) । ओम वि [ अवम] १ कम, न्यून, हीन ___ का घर्षरण करना (दे १,१४८) ३ पुं, कर्मोदय रूप भावः 'कम्मोदयसहावो (प्राचा)। २ लघु, छोटा (मोघ २२३ भा)। ओप्पाइय वि [औत्पातिक] उत्पात-सम्बन्धी सब्बो असुहो सुहोय मोदइओं (विसे ३४६४)। ३ न. दुभिक्ष, अकाल (ोघ १३ भा)। (प्रौप)। ४ वि. उदय होने पर होनेवाला (विसे 'कोह वि [ कोष्ट] ऊनोदर, जिसने कम ओप्पिअ वि [अर्पित समर्पित (हे १, ६३)।२१७४) । खाया हो वह (ठा ४) । चेलग, चेलय ओप्पिअ वि [दे] शाण पर घिसा हुआ, ओदच न [औदात्य ] उदात्तता, श्रेष्ठता वि [°चेलक] जीणं और मलिन वस्त्र धारण 'रिणवमउडोप्पिअपयशह' (दे १, १४८)। (प्रारू)। करनेवाला (उत्त १२, प्राचा)। रत्त पुं ओदज न [औदार्य] उदारता (प्रारू)। ओप्पील पुं[दे] समूह, जत्था (पान)। [ रात्र] १ दिन-क्षय, ज्योतिष की गिनती ओदण न [ओदन] भात, रोंधा हुआ चावल | ओप्पुंसिअ । देखो उप्पुसिअ (गउड; पि | के अनुसार जिस तिथि का क्षय होता है वह ओप्पुसिअ ४८६) । (पएह २, ५, प्रोध ७१४. चारु १) (ठा ६)। २ अहोरात्र, रात-दिन (प्रोध ओबद्ध वि [अवबद्ध] १ बंधा हुआ। २ ओदरिय विऔदरिक पेट-भरा, पेट भरने २८५) अवसन्न (वव १) ओमइल्ल वि [अवमलिन] मलिन, मैला (से के लिए ही जो साधु हुआ हो वह (निचू १) ओबुझ सक [ अव + बुध् ] जानना। ओदहण न [अबदहन] तप्त किए हुए लोहे २, २५) । वकृ. ओबुज्झमाग (प्राचा)। ओमंथ [दे] देखो ओमत्थ (पास) के कोश वगैरह से दागना (राज) । । ओव्भालग देखो उन्भालण (दे १, १०३) । ओमंथिय वि [द] अधोमुख किया हुमा, ओदारिय न [औदार्य] उदारता (प्रारू)। ओभग्ग वि [अवभग्न] भग्न, नष्ट (से ३, . नमाया हुआ (गाया १,१)। ओद्द वि [आहे] गोला (प्राकृ २०)। ६३, १०, २३)। | ओमंथिय वि [अवमस्तिक] शीर्षासन से ओइंपिअ वि [द] १ आक्रान्त । २ नट ओभावणा स्त्री [अपभ्राजना] लोक-निन्दा, स्थित, नीचे मस्तक और ऊँचे पैर रखकर (दे १, १७१)IV अपकीति (राज)। | स्थित (णंदि १२८ टी)। ओद्धंस सक [अव + ध्वंस्] १ गिराना । ओभास अक [अब + भास् ] प्रकाशना, ओमंस वि [दे] अामृत, अपगत (षड् ) । २ हटाना। ३ हराना। कवकृ. 'परवाईहिं। चमकना । वकु ओभासमाण (भग ११, ओमजण न [अवमजन स्नान-क्रिया (उप अरणोक्ता अरणउत्थिएहि अणोद्धंसिज्ज ६)। प्रयो. प्रोभासेइ (भग) प्रोभासंति, अोभा- ६४८ टी)। माणा विहरंति' (प्रौप)। सेंति (सुज १६) कृ. ओभासमाण (सूत्र ओमज्जायण पुं[अवमज्जायन] ऋषिओधाव सक [ अव + धाव ] पीछे दोड़ना। १, १४)। विशेष (जं ७, इक) ।। अोधावइ (महा)। ओभास सक [अब + भाष् ] याचना करना, ओमजिअ वि [अबमार्जित] जिसको स्पर्श ओधुण देखो अन्धुण । कर्म. अोधुव्वंति (पि | मांगना । कवकृ. ओभासिजमाण (निचू २)M कराया गया हो रह, स्पशित (स ५६७) ।। ५३६) । संकृ. ओधुणिअ (पि ५६१)। ओभास पुं[अवभास] १ प्रकाश (प्रौप)। आम? वि [अवमृर] स्था, छुपा हुमा (से ओधूअ वि [अवधूत] कम्पित (नाट)। २ महाग्रह-विशेष (ठा २, ३)। For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० पाइअसहमहण्णवो ओमत्थ-ओरंपिअ ओमत्थ वि [दे] नत, अधोमुख (पान)। ओमीस वि [अवमिश्र] १ मिश्रित ।२ ओयट्टण न [अपवर्तन] पीछे हटना, वापिस ओमस्थिय [] देखो ओमंथिय (प्रोष समीपस्य । ३ न. सामीप्य, समोपताः लौटना (उप ७६०) ३८६) 'सुचिरंपि अच्छमारणो, . ओयड्ढ़ सक [अप + कृप] खींचना । ओमल्ल न [निर्माल्य निर्माल्य, देवोच्छिष्ट वेरूलियो कायमणियप्रोमीसे। कवकृ. ओयढ़ियंत (पउम ७१, २६) । द्रव्य (षड् )। न उवेइ कायभावं, | ओयढिया। स्त्री [दे] ओढ़नी, प्रोढ़ने ओमल्ल विदे] घनीभूत; कठिन, जमा हुआ पाहन्नगुरोण नियएण ।' आयड्ढी ३ का वस्त्र, चादर, दुपट्टा (सुख (षड् )। (मोघ ७७२) V २,३०)। आमाण पू[अपमान अपमान, तिरस्कार आमुक वि [अवमुक्ता परित्यक्त (सम्मत्त ओयग देखो ओदण (पउम ६६,१६)। (उत्त २६)। ओयत्त वि [अववृत्त] अवनत, अधोमुख ओमाण न [अवमान] १ जिससे क्षेत्र वगैरह ओमुग्ग देखो उम्मग्ग (पि १०४: २३४) (पान) का माप किया जाता है वह, हस्त, दण्ड | ओमुन्छि अवि [अवमूच्छित] महा-मूर्छा ओयत्त सक [अप + वर्तय् ] उलटाना, वगरह मान ठार, ४।। २ जिसका माप को प्राप्त (पउम ७, १५८) खाली करने के लिए नमाना । संकृ. किया जाता है वह क्षेत्रादि (अण) ओमदरा विअिबसर्भक अधोमात 'ग्रोम आयात्तयाण (आचार, ओमाणण न [अवमानन, अप] अपमान, द्धगा धरणियले पति (सूत्र १, ५) । | ओयत्तग न [अपवर्तन] खिसकाना, हटाना तिरस्कार (स ६६७) । ओमय सक [अव + मुच् ] पहनना। (पिंड ५६३) । ओयविय विदे] परिकर्मित (पएह १, ४० ओमाय वि [अवमित] परिमित, मापा हुआ ओमुयइ (कप्प) । वकृ. ओमुयंत (कप्प)। प) । . आमुयत (कप्पीप) TV (सुज्ज है)। संकृ. ओमुइत्ता (कप्प) ओया स्त्री [ओजस् ] शक्ति, सामर्थ्य (णाया ओमाल देखो ओमल्ल = निर्माल्य (हे १, ३८; ओमोय पुं[ओमोक] पाभरण, आभूषण १, १०-पत्र १७०) कुमाः वज्जा ८८) (भग ११, ११) । ओया स्त्री [ओजस् ] १ प्रकाश (सुज्ज ६)। ओमाल प्रक [उप + माल] १ शोभना, | ओमोयर वि [अवमोदर] भूख की अपेक्षा २ माता का शुक्र-शोरिणत (तंदु १०)। शोभित होना । २ सकः सेवा करना, पूजना । न्यून भोजन करनेवाला (उत्त ३०) ओयाइअ देवो उवयाइय (सुपा ६२५दे संकृ. ओमालिवि (भवि) । कवकृ. 'अहवावि ओमोयरिय न [अवमोदरिक] १ न्यून ४, २२)। भत्तिपणमंततियसवहूसीसकुमुमदामेहि । ओमा- | भोजनत्व, तप-विशेष (याचा)। २ दुर्भिक्ष, ओयाय वि [उपयात] उपागत, समीप पहुँचा लिज्जतकमो, नियमा तित्थाहिवो होई' अकाल (पोध ७)। हुआ (णाया १, ६; निर १, १)। ओमोयरिया स्त्री [अवमोदरिता, 'रिका] (उप ६८६ टी) ओयार सक[ अव + तारय ] नीचे उतान्यून भोजन रूप तप (ठा ६)। ओमालिअ देलो ओमल्ल = निर्माल्य (प्राक | रना । संकृ. ओयारिया (दस ५, १, ६३)। ३४)IV अम्माय पुं[उन्माद] उन्मत्तता (संबोध २१)। ओयार पुं [अवतार] घाट, तीर्थ (चेश्य ओमालिअ वि [उपमालित] १ शोभित । ओय न [ओजस्] १ विषम संख्या, जैसे ५१८) ।। २ पूजित, अचित (भवि)। एक, तीन, पांच आदि (पिंड ६२६)।२ ओयारग वि [अवतारक] १ उतारनेवाला। ओमालिआ स्त्री [अवमालिका] चिमड़ी या आहार-विशेष, अपनी उत्पत्ति के समय जीव २ प्रवृत्ति करनेवाला (सम १०६) । मुरझाई हुई माला (गा १६४)। प्रथम जो आहार लेता है वह (सुअनि १७१) ओयारण देखो उयारण (कुप्र ७१) ओमास दु[अवमर्श] स्पर्श (से ६, ६७)। ओय वि [ओकस् ] गृह, घर (वव ५) ओयावइत्ता प्र[ओजयित्वा] १ बल दिखा कर । २ चमत्कार दिखा कर ! ३ विद्या आदि ओमिण सक [अव + मा] मापना, मान | ओय वि [ओज] १ एक, असहाय (सूत्र १, र (सूत्र १ का सामर्थ्य दिखा कर (जो दीक्षा दी जाय करना । कर्म. ओमिणिज्जइ (अणु) । ४, २, १)। २ मध्यस्थ, तटस्थ, उदासीन | __ वह) (ठा ४)। ओमिणण न [दे] प्रोखनक, विवाह की एक | (बह १)। ३. विषम राशि (भग २५,३) Myra1 चाह. सन्दर (दे १.१४६)। रीति, वर के लिये सासू की ओर से किया ओय न [ओजस्] १ बल (प्राचा) ।.२ २ समीप (दश अग० चू०, आख्या० कोश. हुमा न्योछावर (पंचा ८,२५)। प्रकाश, तेज (चंद ५)। ३ उत्पत्ति-स्थान पत्र ८७ गा०६) अंमय वि[अवमित] परिच्छिन्न, परिमित में आहत पुद्गलों का समूह (पएण ८; संग ओरंपिअ विदे]१ पाक्रान्त । २ नर (दे (गज्ज ) १८२) । ४ आर्तव, ऋतु-धर्म (ठा ३, ३)। १, १७१) । माल अक [अव + मील ] मुद्रित होना, ओयंसि वि [ओजस्विन्] १ बलवान् । ओरंपिअ वि [दे] पतला किया हुआ, छिला बन्द होना । वकृ.ओमीलंत (से ३, १) २ तेजस्वी (सम १५२; औप) ।। हुआ (पान) For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओरत्त-ओलिंप पाइअसहमहण्णवो २०१ ओरत्त वि [दे] १ गर्विष्ठ, अभिमानी।२ ओरी [दे] समीप (प्रास्या० कोष. पत्र-८५ ओलंबण न [अवलम्बन] सहारा, आश्रय । कुसुम्भ से रक्त । ३ विदारित, काटा हुआ गा० १५) । दीव पुं [दीप] शृङ्खला-बद्ध दीपक (दे १, १६५; पात्र)। ओरंज न [६] क्रीडा-विशेष (दे १,१५६)। (राज)। ओरद्ध देखो अवरद्ध % अपराद्ध (प्राकृ ५०)। ओरंभिय वि [उपरुद्ध आवृत्त, आच्छादित ओलंबिय वि[अवलम्बित प्राश्रित, जिसका ओरम अक [उप + रम् ] निवृत्त होना। (गा ६१४) सहारा लिया गया हो वह (निचू १)। २ ओरम (सूप्र १, २, १, १०)। ओरुण्ण वि [अवरुदित] रोया हुआ (गा लटकाया हुआ (औप)। ओरल्ली स्त्री [दे] लम्बा और मधुर आवाज ५३८)। ओलंबिय वि [उल्लंबित] लटकाया हुआ (दे १, १६४ पात्र)। (सूत्र २, २ प्रौप)। ओरुद्ध वि [अवरुद्ध] रुका हुआ, बन्द किया ओरस सक [अव + त ] नीचे उतरना। ओलंभ पुं[उपालम्भ] उलाहना, 'अप्पोलंभहुआ (गा ८००)। पोरसइ (हे ४, ८५)। णिमित्तं पढमस्स णायज्झयणस्स अयमठे ओरुभ सक[अव+रुह. ] उतरना । वकृ. पराणत्ते ति बेमि' (गाया १,१)। ओरस वि [उपरस] स्नेह-युक्त, अनुरागी ओरुभमाण (कस)। (ठा १०)। ओलखिअ वि [उपलक्षित] पहिचाना ओरुम्मा अक [उद् + वा] सूखना, सूख ओरस वि [औरस] १ स्वोत्पादित पुत्र, हा (पउम १३, ४२; सुपा २५४) । जाना । अोरुम्माइ (हे ४, ११)। ओलगि (अप) देखो ओलग्गि (सिरि ५२४)। स्व-पुत्र (ठा १०)। २ औरस्य, हृदयोत्पन्न ओलग्ग सक [अव + लग्] १ पीछे ओरुह देखो ओरुभ । वकृ. ओरुहमाण (जीव ३)। ओरसिअ वि [अवतीर्ण] उतरा हुआ (संथा ६३; कस)। लगना । २ सेवा करना । अोलग्गति (पि ओरुण न [अवरोहण] नीचे उतरना ४८८) । हेकृ. ओलग्गिउं (सुपा २३४; (कुमा)। ओरस्स वि [औरस्य] हृदयोत्पन्न, आभ्य- (पउम २६, ५५; विसे १२०८)। महा) । प्रयोः, संकृ. ओलग्गाविवि (सण)। न्तरिक (प्रारू)। ओरुहण न [अवरोहण] नीचे उतारना, | ओलग्ग वि [अवरुग्ण] १ ग्लान, बीमार । ओराल देखो उराल = उदार (ठा ४, १० अवतारण (पव १५५)। २ दुर्बल, निबंल (णाया १,१-पत्र २८ ओरोध देखो ओरोह = अवरोध (विपा १,६)। जीव १)। श्री विपा १, २)। ओराल देखो उराल (दे) (चंद १)। ओरोह देखो ओरुभ। वकृ. ओरोहमाण ओलग्ग वि [अवलग्न] पीछे लगा हुआ, ओराल न [औदार] नीचे देखो (विसे ६३१)। (कसा ठा ५)। अनुलग्न (महा)। ओरालिय न [औदारिक] १ शरीर विशेष, | ओरोह पुं[अवरोध] १ अन्तःपुर, जनानखाना ओलग्ग [दे] देखो ओलुग्ग (दे १, १६४) । मनुष्य और पशुत्रों का शरीर (प्रौप)।२ (प्रौप)। २ अन्तःपुर की स्त्री (सुर १, ओलग्गा स्त्री [दे] सेवा, भक्ति, चाकरी वि. शोभायमान, शोभा वाला (पास) । ३ १४३) । ३ नगर के दरवाजा का अवान्तर 'करेउ देवो पसायं मम अोलग्गाए' (स ६ औदारिक शरीर वाला (विसे ३७५) । णाम द्वार (गाया १, १; औप) । ४ संघात, ३९); 'पोलग्गाए वेलत्ति जंपिउं निग्गयो न [नामन] प्रौदारिक शरीर का हेतुभूत समूह (राज)। खुजो' (धम्म ८ टी)। ओलग्गि वि [अवलागिन् ] सेवा करनेकर्म (कम्म)। ओलअ [दे] १ श्येन पक्षी, बाज पक्षी। वाला । स्त्री-°णी (रंभा)। ओरालिय वि [दे] १ व्याप्त । २ उपलिप्त; २ अपलाप, निहव (दे १, १६०)। ओलग्गिअ वि [अवलन] सेवित (वज्जा 'दिट्ठोरुहिरोरालियसिरो' (सुख १, १३)। ओलअणी स्त्री [दे] नवोढा, दुलहिन (दे १, ३२) । ओरालिय वि [दे] १ पोंछा हुआ, 'मुहि | ओलावअ पुं[दे] श्येन, बाज पक्षी (दे १, करयलु देवि पुणु ओरालिउ मुहकमलु' (वि)। ओलइअ वि [दे. अवलगित] १ शरीर में १६०; स २१३)। २ फैल्लाया हुआ, प्रसारितः 'दसदिसि वहकयंबु सटा हुआ, परिहित (दे १ १६२पान)। ओलि देखो ओली = पाली (हे १,८३)। ओरालियो' (भवि)। २ लगा हुमा (से १, १६२)। ओलिदअ पुं[अलिन्दक] बाहर के दरवाजे ओराली देखो ओरल्ली (सुर ११, ८६)। | ओलइणी स्त्री [दे] प्रिया, स्त्री (दे १,१६०) । ओलंड सक [ उत् + लङ्घ] उल्लंघन का प्रकोष्ठ (गा २५४)। ओरिकिय न[अवरिङ्कित] महिष की आवाज, करना । पोलंडेंति (णाया १,१-पत्र ६१)। ओलिंप सक[दे] खोलना । कवकृ. 'ओलिंप. 'कत्थइ महिसोरिकिय कत्थइ ढुहुडहुडुहंतनइ- ओलंब देखो अवलंब = अवलम्ब । संक. [?लिप्प] माणे वि तहा तहेव काया सलिल' (पउम ६४, ४३)। ओलंबिऊण (महा)। कवाडम्मिविभासियन्वा' (पिंड ३५४) । ओरिल्ल मुं[दे] लम्बा काल, दीर्घ काल (दे ओलंब पुं[अवलम्ब नीचे लटकना (प्रौपः ओलिंप सक [अव +लिप्] लीपना, १, १५५)। स्वप्न ७३)। लेप लगाना। वकृ. ओलिंपमाण (राज)। २६ For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ पाइअसद्दमहण्णवो ओलिंभा-ओवट्ट ओलिभा स्त्री [दे] उपदेहिका, दीमक (दे | ओलेहड वि [दे १ अन्यासक्त । २ तृष्णा- ओवअण न [अवपतन नीचे गिरना, अधः १,१५३, गउड)। । पर । ३ प्रवृद्ध दे १, १७२)। पात (से ६, ७७; १३, २२)। ओलिभमाण देखो ओलिह। ओलोअ देखो अवलोअ। वकृ. ओलोअंत, ओवइणी स्त्री [अवपातिनी] विद्या-विशेष, ओलिन्त त्रि [अलित, उपलित] लीपा | ओलोएमाण (मा५: गाया १,१६,१,१)। जिसके प्रभाव से स्वयं नीचे पाता है या हुआ, कृतलेप (पएह १,३; उवः पान दे ओलोट्ट सक[अप + लुठ ] पीछे लौटना । | दूसरे को नीचे उतारता है (सूत्र २, २) । १, १५८; औप)। | वकृ. ओलोट्टमाण (राज)। ओवश्य वि [अवपतित] १ अवतीर्ण, नीचे ओलिती स्त्री [दे] खड्ग आदि का एक दोष | ओलोयण न [अवलोकन] १ देखना। २ | आया हुआ (से ६, २८ प्रौप)। २ आ पड़ा (दे १, १५६)। दृष्टि, नजर (उप पृ १२७) । हुना, प्रा डा हुआ (से ६, २६)। ३ न. ओलिप्प न दे] हास, हँसी (दे १, ओलोयण न [अवलोकन] गवाक्ष, 'दिट्ठा पतन (ग्रौप)। १५३)। | अन्नया तेरा प्रोलोयरणगएण' (मुख २, ६)। ओवश्य पुत्री दे] तीन इन्द्रियवाला एक ओलिप्पंती स्त्री [दे] खड्ग प्रादि का एक | ओलोयणा स्त्री [अबलोकना] १ देखना । क्षुद्र जन्तु 'से किं तं तेइंदिया ? ते दिया असोदोष (६१. १:६)। २ गोपरगा, खोज (क ) गविहा पराणत्ता, तं जहाः-प्रोवश्या रोहिओलिह सक [अब + लिह. ] प्रास्वादन | ओल्ल दे] १ पति, स्वामी । २ दण्ड गीया हत्थिसोंडा' (जीव १)। करना । कवकृ. ओलिज्ममाण (कप्प)। प्रतिनिधि पुरुष, राजपुरुष-विशेष (पिंग)। ओली सक [अव + ली] १ अागमन करना। ओल्ल देखो उल्ल = आद्र (हे, १, ८२, काप्र ओवइय विऔपचयिक उपचित, परिपुट २ नीचे आना। ३ पोछे अानाः नीयं च (राज)। काया प्रोलिति' (विसे २०६४)। ओल्ल देखो उल्ल = पाय । प्रोल्लेइ (पि | ले पि ओवगारिय बि [औपकारिक] उपकार करने ओली स्त्री [आली] पंक्ति, श्रेणी (कुमा)। १११)। वकृ. ओल्लंन (मे १३, ६६)। वाला (भग १३, ६)। ओली स्त्री दे] कुल-परिपाटी, कुलाचार | कवकृ. ओल्लिज्जंत (गा ६२१); ओवगारिय वि [औपकारिक] उपकार के ओल्ट्टण पुं[अवलटन] एक नरक स्थान निमित्त का, उपकारार्थक (देवेन्द्र ३०६) । ओलुंकी स्त्री [दे] बालकों की एक प्रकार की (देवेन्द्र २८)। ओवग्ग सक [अप + क्रम् ] १ व्याप्त ओल्लण न [आद्रेयण] गीला करना, भिजाना करना। २ ढकना, आच्छादन करना । क्रीड़ा (दे १, १५३)। ओलुंड सक [वि+रेचय ] झरना, टपकना, (पि १११)। प्रोदग्गइ, अोवग्गउ (से ४, २५, ३, ११)। बाहर निकालना । अोलुंडइ (हे ४, २६)1 ओल्लणी स्त्री [दे] माजिता, इलायची, दाल ओवग्ग सक[उप + वल्ग , आ + क्रम् ] १ आक्रमण करना। २ पराभाव करना । ओलुडिर घि [विरेचयित ] झरनेवाला चीनी आदि मसाला से संस्कृत दधि (दे १, (कुमा)। १५४)। प्रोवग्गइ (भवि) । संकृ. ओवग्गिवि (भवि)। ओवग्गहिय वि [औपग्रहिक] जैन साधुनों ओलुप पुं[अवलोप मसलना, मर्दन करना | ओल्लरण न [दे] स्वाप, सोना (दे १, १६३)। __ के एक प्रकार का उपकरण, जो कारण ओल्लरिअ वि [दे] सुप्त, सोया हुना (दे (गउड)। १६३; सुपा ३१२)। ओलुंपअ पुंदे] तापिका-हस्त, तवा का | विशेप से थोड़े समय के लिए लिया जाता है (पब ६०)। हाथा (दे १, १६३)। ओल्लविद (शौ) नीचे देखो (पि १११; मृच्छ ओवग्गिा वि [दे. उपवल्गित १ अभिभूत ओलुग्ग वि [अवरुग्ण] १ रोगी, बीमार १०५) । १ आक्रान्त (से ६, ३०; पान; सूर १३, (पाथ)। २ भग्न, नष्ट (परह १,१); आल्लिअ वि [आद्रित] पाद्र किया हुआ | 'सुक्का भुक्खा निम्मंसा अोलुग्गा अोलुग्ग- (गा ३३०, सरण)। ओवघाइय वि [औपघातिक] उपघात करने सरोरा' (निर १, १)। | ओल्ली स्त्री [दे] पनक, काई; गुजराती में वाला, पीड़ा उत्पन्न करनेवाला; 'सुयं वा ओलुग्ग वि [दे] १ सेवक, नौकर। २ 'ऊल' (चेइय ३७३)। जइ वा दिळं न लविज्जोवघाइयं (दस ८)। निस्तेज, निर्बल, बल-हीन (दे १, १६४)। ओल्हव सक [वि + ध्यापय् ] बुझाना। ओवञ्च सक [ उप+व्रज ] पास जाना, ३ निश्छाय, निस्तेज (सुर २, १०२: दे १, ठंढा करना। कवकृ. ओल्हविजंत (स 'सुहाए प्रोवञ्च वासहर' (भवि)। १६४: स ४६६: ५०४)। ३६२) । कृ. ओल्हवेयव्य (स ३६२)। ओवट्ट अक [अप + वृत्] १ पीछे हटना । ओलुग्गाविय वि [दे] १ बीमार । २ विरह, ओल्हविअ वि [दे] देखो उल्हविय (सुर| २ कम होना, ह्रास-प्राप्त होना। वकृ. पीड़ित (वज्जा ८६)। १०, १४६)। ओवटुंत (उप ७६२)। ओलुट्ट वि [दे] १ असंघटमान, असंगत। ओव न [दे] हाथी वगैरह को बाँधने के लिए ओवट्ट पुं [अपवर्त] १ ह्रास, हानि । २ मिथ्या, असत्य (दे १,१६४) । किया हुआ गत्तं (दे १, १४६)। २ भागाकार, (विसे २०६२)। For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओवट्टण - ओवासंतर ओट्ट [अपवर्त्तन] ह्रास, कमी (श्रावक २१६) । ओवणा श्री [अपवर्त्तना] भागाकार, भागहरण (राज) 1 ओट्टिन [] पाटु, सुखमद (दे १, १६२) । ओट्ट व [अ] वरसा हुआ जिसने वृष्टि की हो वह (से ६, ३४) । [दे. अपवर्ष] वृष्टि बारिश ओटू (१,२५) । २ मेघ - जल का सिञ्चन ( दे १, १५२ ) । ओट्टिइअ [औपस्थितिक] उपस्थिति के योग्य, नौकर (अमी ११) । ओवड क [ अव + पत्] गिरना, नीचे पड़ना । वकृ. ओवडंत ( से १३, २८) | ओवडण न [ अवपतन] १ अधःपात । २ झम्पा-पात (से २, ३२) । ओव[उपार्थ] माथे के करीब [रिका ] बारह कवल का ही श्राहार करना, तप-विशेष (भग७, १) । ओट [अपवृद्धि]हास (नि २० ) । ओवा श्री [] धोनी का एक भाग (दे १. १५१) । पाइअसरमणयो ओवम देखो ओवम्भः 'इंदियपच्चक्खं पिय श्रमारण श्रवमं च मइनाएं' (जीवस १४२ ) । ओनियन [औपमिक ] उपमा-सम्बन्धी (शु) । ओयमियन [औपम्य] १ उपमा (डा ओम्म अणु) । २ उपमान, प्रमाण (सूप्र १. १० ) 1 " ओवय सक [अब + पन्] १ नीचे उतरना । २] पड़ना ओत ओवयमाण कप्पः स ३७०; पि ३६३३ गाया १, १९) । ओवयण न [दे. अवपदन] प्रोङ्खरणक, चुमना (गाया १, १ – पत्र ३६ ) । ओवयणन [ अवपतन] तर नीचे उतरना (भग ३, २- पत्र १७७ ) । ओवयाइयय वि [ औपयाचितक ] मनौती से प्राप्त किया हुआ, मनौती से मिला हुआ (डा १०) | ओवयारिय[औपचारिक ] उपचारसंधीचा ६ पुप्फ ४:६) । ओवर [द] निकर, समूह (दे १, १५७) । ओववाइय वि [ औपपातिक ] १ जिसकी उत्पत्ति होती हो वह (पंच १)। १ पुं. संसारी, प्राणी ( श्राचा)। ३ देव या नारक जीव (दस ४) । ४ न. देव या नारक जीव का शरीर ( पंच १) । ५ जैन आगम ग्रन्थ विशेष, औपपातिक सूत्र ( प ) । ओववाइय वि [ औपपातिक ] एक जन्म से दूसरे जन्म में जानेवाला (सूम्र १, १, ११) । raefore a [ औपसर्गिक ] १ उपसर्ग से संबन्ध रखनेवाला, उपद्रव - समर्थ रोगादि । २ शब्द - विशेष, प्र, परा आदि अव्यय रूप शब्द (धरण) । ओवसमि पुंन [ औपशमिक ] १ उपशम । २ वि. उपशम से उत्पन्न । ३ उपशम होते पर होनेवाला (विले २१७४) । ओवण न [उपधन] बगीचा, धाराम (कुमा)। ओवणहियपुं [औपनिहित, औपनिधिक] भिक्षाचर विशेष; समीपस्थ भिक्षा को लेनेवाला साधु (ठा ५३ श्रीप) । ओवणहिया स्त्री [औपनिधिकी ] श्रानुपूर्वीविशेष, अनुक्रम विशेष (प) । ओवत्त सक [ अप + वर्त्तय् ] १ उलटा करना । २ फिराना, घुमाना । ३ फेंकना । ओतिय दत्त ५) क्र. ओवतेअय्य ( से १०, ५० ) । ओवत व [अपवृत्त] फिराया हुमा से ओवसेर [] चन्दन, सुगन्धि ६, ६१) । ओति [अपवर्त्तित] माया था। २ क्षिप्त (लाया १, १ -पत्र ४७ ) । ओवस्थाणियवि [ औपस्थानिक ] सभा का कार्यं करनेवाला नौकर । स्त्री. या (भग ११, (1). विशेष । २ वि. रति-योग्य (दे १, १७३) । ओवरसय देखो उवस्सय; 'घट्टिबइ श्रोवस्सयतर यं तेरणाइरक्खठ्ठा' (पव ८१) । ओवह सक [ अव + वह ] १ बह जाना, बह चलना। २ डूबना । कवकृ, ओवुब्भमाण For Personal & Private Use Only २०३ ओवहारिअ वि [ औपहारिक ] उपहारसंधी (विक ७५) ओवह [औषधिक] माया से गुम विचरनेवाला १,२) । ओवा [] आपात जनसमूह की गरमी ( ) | ओवाइय देसी ओवाइयन) ओवाइय देखो उवयाइय (सुपा ११३) । ओवाइ वि [आपपातिक] सेवा करनेवाला (ठा १०) । ओवाडण न [ अवपाटन ] विदारण, नाश (ठा २, ४ ) । भोवाडियन [अनपाटित] विचारित (श्रीप) ओवाय सक [ उप + याच् ] मनौती करना । यह ओवायंत, ओवाइयमाण (सुर १३, २०६३ गाया १,८- - पत्र १३४ ) । ओवा [अवपात] १ सेवा, भक्ति (ठा ३, २० औप ) । २ गर्त्त, गड्डा ( पह १, १ ) । ३ नीचे गिरना (पद १, ४) । ओवाय वि [औपाय ] उपाय-जन्य, उपायसंबन्धी (उत्त १२८ ) । ओवार सक [ अप + वारयू ] श्राच्छादन करना, ढकना । संह ओषारिज (पनि २१३) । ओवारि न [दे] धान्य भरने का एक प्रकार का लम्बा कोठा, गोदाम (राज) | ओवारिअ वि [दे] ढेर किया हुआ, राशिकृत (४८७४८) । ओवारिजन [अपवारित] पाि ढका हुआ (मै ६१) । ओवास क [ अब काश ] शोभना विराजना । श्रवासइ ( प्राप ) । ओवास अक [ अव + काश् ] अवकाश पाना, जगह मिलना । श्रवासइ ( प्राप्र कुमा ७, २३; प्राकृ ६६ ) । ओपास [अवकाश] अवकाश खाली जगह (पान प्राप्र से १, ५४ ) । [ओबास [उपवास] उपवास, भोजनाभाव पुं ( पउम ४२, ८९ ) । ओवासंतर पुंन [ अवकाशान्तर] आकाश, गगन (भग २०, २-पत्र ७७६) । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ पाइअसद्दमण्णवो ओवाह-ओसह ओवाह सक [अव + गाह ] अवगाहना। ओसकइत्ता, ओसक्किय, ओसक्किऊण ओसमिअ वि [उपशमित] शान्ति-प्राप्त प्रोवाहइ (प्राप्र)। (ठा ८७ दस ४; सुर २, १५)। (सम ३७)। ओवाहिअ वि [अपवाहित] १ नीचे गिराया ओसक विदे. अवष्वष्कित] अपसृत, पीछे ओसर अक[अव + तु] १ नीचे माना। हुवा (से ६, १६, १३, ७२)। २ घुमाकर हटा हुआ (दे. १, १४६; पान)। २ अवतरना, जन्म लेना। प्रोसरइ (षड्) । नीचे डाला हुआ (से ७,५५)। ओसक्कण न [अवष्वष्कण] १ अपसरण (स ) ओसर अक [अप + स] अपसरण करना, ओविअ वि [दे] १ आरोपित, अध्यासित । ६३)। २ नियत काल से पहले करना (धर्म पीछे हटना । २ सरकना, खिसकना, फिस२ मुक्त, परित्यक्त। ३ हृत, छीना हुआ। ३)। ३ उत्तेजन (बृह २)। लना । प्रोसरह (महा काल)। वक. ओसरंत ४ न. खुशामद। ५ रुदित, रोदन (दे १, (गा १८ ३६३; से ६, २६६, ८२, १२, ओसक्किय वि [अवष्वष्कित] नियत काल | १६७)। ६ वि. परिकर्मित, संस्कारित (कप्प)। ७ खचित, व्याप्त (प्रावम)। ८ | से पहले किया हुआ (पिड २६०)। ओसर सक [अव + स्] आना, तीर्थकर उज्ज्वालित, प्रकाशित (गाया १, १६) । ६ ओसट्ट अक [वि + सृप्] फैलना, पसरना। आदि महापुरुष का पधारना (उप ७२८ टी)। विभूषित, शृंगारित (प्राप) । देखो उविय। प्रोसट्टइ (गा ८५६)। ओसर पुं [अवसर] १ अवसर, समय (सूत्र ओविद्ध वि [अपविद्ध] १ प्रेरित, पाहत ओसट्ट वि [दे] विकसित, प्रफुल्लित (षड्) १, २) । २ अन्तर (राज)। (से ७,१२)। २ नीचे गिराया हुआ (से १३, । ओसडिअ विदे] पाकीणं, व्याप्त ( षड्)। ओमान अवसरण] १ जिन-देव का २६)। ओसढ न [औषध] दवा, इलाज, भैषज उपदेश स्थान (उप १३३, रयण १)। २ ओवील सक[अव + पीडय ] पीड़ा पहुं. (हे १, २२७)। साधुओं का एकत्रित होना (सूत्र १, १२)। चाना, मार-पीट करना। वकृ. ओवीलेमाण ओसढि वि औषधिक] वैद्य, चिकित्सक ओसरण न. अपसरण] १ हटना, दूर होना। (णाया १, १८-पत्र २३६)। (कुमा)। । २ वि. दूर करनेवालाः 'बहुपावकम्मोसरणं ओवीलय देखो उध्वीलय (पराह १, ३)। ओसण न [दे] उद्वेग, खेद (दे १ १५५)। (कुमा १)। ओवुब्भमाण देखो ओवह । ओसण्ण वि [अवसन्न] १ खिन्न (गा ३८२ ओसरिअ वि[६]१ पाकीर्ण, व्याप्त । २ ओवेहा स्त्री [उपेक्षा] १ उपदर्शन, देखना। से १३, ३०)। २ शिथिल, ढीला (वव ३)। आँख के इशारे से संकेतित या इंगित (षड्)। २ अवधोरणः 'संजयगिहिचोयणचोयणे य देखो ओसन्न। ___३ अधोमुख, अवनत । ४ न. अाँख का इशारा वावारोवेहा' (प्रोघ १७१ भा)। ओसण्ण वि [दे] त्रुटित, खण्डित (दे १, (दे १, १७१)। 'ओव्वण देखो जोव्यण (से ७, ६२)। १५६; षड् )। | ओसरिअ वि [अवसृत] प्रागत, पधारा हुआ ओव्वत्त अक [अप + वृत्] १ पीछे ओसण्णं प्र[दे] प्रायः बहुत कर (कप्प) ।। | (उप ७२८ टी)। फिरना, लौटना। २ अवनत होना। संकृ. ओसत्त वि [अवसक्त] संबद्ध, संयुक्त (णाया ओसरिअ वि [अपसृत] १ पीछे हटा हुआ १, ३; स ४४६)। ओवत्तिऊण (ोघ भा ३० टी)। (पउम १६, २३ पानः गा ३५१)। २ न. ओसधि देखो ओसहि (ठा २, ३)। ओव्वत्त वि [अपवृत्त] पीछे फिरा हुआ। ओसद्ध विद] पातित, गिराया हुआ (पास)। अपसरण (से २,८)। २ नमा हुआ, अवनत (से ८, ८४)। ओसन्न देखो ओसण = अवसन्न (सुर ४, ओसरिअ वि [उपसृत संमुखागत, सामने ओव्वेव्व देखो उव्वेव (संक्षि ३५)। ३४ गाया १, ५ संE; पुप्फ २१) । ३ आया हुआ; (पान)। ओस देखो ऊस - ऊष (दस ५, १, ३३)। न. एकान्तः 'पोसन्ने देइ गेएहइ वा' (उव)। ओसरिआ स्त्री [दे] अलिन्दक, बाहर के दरओस पुदे देखो ओसा (राज)। चारण ओसन्न वि [अवसन्न] निमग्न (दसचू १, वाजे का प्रकोष्ठ (दे १, १६१)। पुं[चारण] हिम के अवलम्बन से जाने ओसव पुं [उत्सव] उत्सव, आनन्द-क्षण वाला साधु (गच्छ)। ओसन्नं देखो ओसण्णं (कम्म १, १३, विसे (प्राप्र)। ओसक्क सक [ अव + ध्वष्क ] कम करना, २२७५) । ओसविय देखो ओसमिअ (पिंड ३२६)। घटाना। संकृ. ओसक्किया (दस ५,१,६३)। ओसप्पिणी स्त्री [अवपिणी] दश कोटा- ओसविय वि [उच्छयित] ऊँचा किया हुआ ओसक्क अक [अव + ष्वष्क] १ पीछे कोटि सागरोपमपरिमित काल-विशेष, जिसमें (पउम ८, २६६)। हटना, अपसरण करना । २ भागना, पलायन | सर्व पदार्थों के गुणों की क्रमशः हानि होती ओसव्विअ वि [दे] १ शोभा-रहित । २ न. करना। ३ उदीररण करना, उत्तेजित करना। जाती है (सम ७२, ठा १)। अवसाद, खेद (दे १,१६८)। प्रोसकइ (पि ३०२,३१५) । वकृ. ओसकंत, ओसम सक [उप + शमय ] उपशान्त ओसह न [औषध] दवाई, भैषज (प्रौप; ओसकमाण (से ५, ७३; स ६४)। संकृ. करना । भवि. अोसहिति (पिंड ३२६)। स्वप्न ५१)। For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसहि-ओहट्ट ओसहि, ही स्त्री [ओषधि] १ वनस्पति (पएरण १)। २ नगरी-विशेष (राज)। महिहर पुं [ महिधर] पर्वत-विशेष (अच्च ओसहिअ वि [आवसथिक चन्द्रार्घ-दानादि व्रत को करनेवाला (गा ३४६) । ओसा स्त्री [दे] १ अोस, निशा जल (जी ५; प्राचा; विसे २५७६) । २ हिम, बरफ (दे १, १६४)। ओसाअ पुं[दे] प्रहार की पीड़ा (दे १, १५२)। ओसा अवश्याय] हिम, ओस (से १३, ५२ दे ८, ५३)। ओसाअंत वि [दे] १ जभाई खाता हुआ आलसी। २ बैठता । ३ वेदना-युक्त (दे १, १७०)। ओसाअण वि दे] १ महीशान, जमीन का मालिक । २ पापोशान (षड् )। ओसाण न अवसान] १ अन्त (ठा ४)। २ समीपता, सामीप्य (सूत्र १, ४)। ओसाग न [अवसान] गुरु के समीप स्थान, गुरु के पास निवास (सूअ १, १४, ४)। ओसाणिहाण वि [दे] विधि-पूर्वक अनुष्ठित (दे १, १६३)। ओसाय पुं [अवश्याय] प्रोस, निशा-जल (जीवस ३१)। ओसायण न [अवसादन] परिशाटन, नाश (विसे)। ओसार सक [अप + सारय ] दूर करना । ओसारेहि (स ४०८)। कर्म. ओसारिजंतु (स ४१०) । संकृ. ओसारिवि (भवि)। ओसार [दे] गो-वाट, गो-बाड़ा (दे १, १४६)। ओसार पुं[अपसार] अपसरण (से १३, १४)। ओसार देखो ऊसार = उत्सार (भवि)। ओसार पुं[अवसार] कवच, बस्तर (से १२, ५६)। ओसारिअ वि [अपसारित] दूर किया हुआ, अपनीत (गा ६६ पउम २३, ८)। ओसारिअ वि [अवसारित] अवलम्बित, लटकाया हुआ (प्रौप)। पाइअसहमहण्णवो २०५ ओसास (अप) देखो ओवास = अवकाश ओसुद्ध वि [दे] १ विनिपतित (दे १, (भवि)। १५७) । २ विनाशित (से १३, २२)। ओसिअ वि [दे] १ अबल, बल-रहित (दे ओसुब्भंत देखो ओसुभ । १, १५०)। २ अपूर्व, असाधारण (षड्)। ओसुय न [औत्सुक्य] उत्सुकता, उत्कण्ठा ओसिअ वि [उषित] १ बसा हुअा, रहा हुमा (सूम १, १४, ४)। २ व्यवस्थित ओसोयणी स्त्री [अवस्थापनी 1 विद्या(सूम १, ४, १, २०)। ओसोवणिया विशेष, जिसके प्रभाव से दूसरे ओसिअंत वकृ. [अवसीदत् ] पीड़ा पाता ओसोवगी को गाढ़ निद्राधीन किया जा सकता है (सुपा २२०; पाया १, १६ हुआ (हे १,१०१ से ३, ५१)। कप्प)। ओसिंघिअ वि [दे] घात, सूंधा हुआ दे १, १६२ पास)। ओस्सक पुं [अवष्वष्क] अपसर्पण, पीछे ओसिंचित्तु वि [अपसेचयित ] अपसेक हटना (पत्र २)। ओस्सकण देखो ओसक्कण (पिड २८५)। करनेवाला (सूत्र २, २)। ओस्सा [दे] देखो ओसा (कस) । ओसिक्खिअ न [दे] १ गति-व्याघात । २ अरति-निहित (दे, १, १७३)। ओस्साड पुं [अवशाट ] नाश, विनाश (सण)। ओसित्त वि [अवसिक्त] भीजाया हुआ, ओह देखो ओघ (पएह १, ४, गा ५१८ सिक्त (पाचा २,१, १, १)। निचू १६; अोघ २: धम्म १० टी)। ५ सूत्र, ओसित्त वि [दे] उपलिप्त (दे १, १५८)। शास्त्र-सम्बन्धी वाक्य (विसे ६५७)। ओसिय वि [अवसित] १ पर्यवसित । ३, ओह सक [अव + तु] नीचे उतरना । उपशान्त (सूत्र १, १३)। २ जीत, पराभूत (विसे)। अोहइ (हे ४, ८५)। ओसिरण न [दे] व्युत्सर्जन, परित्याग (षड्)। । आह पुन आध१ उत्सग, सामान ओह पुन [ओघ] १ उत्सर्ग, सामान्य नियम; ओसीअ वि [दे] अधो-मुख, अवनत (दे: न (णं दि ५२)। २ सामान्य, साधारण (वव १,१५८) । १)। ३ प्रवाह (राय ४७ टो)। ४ सलिलओसीर देखो उसीर (पएह २, ५)। प्रवेश । ५ प्रास्त्रव-द्वार (पाचा २,१६, १०)। ओसीस अक [अप+ वृत्] १ पीछे ६ संसार (सूत्र १, ६, ६)। सूय न हटना। २ घूमना, फिरना। संकृ. ओसी- [श्रुत शास्त्र-विशेष (एंदि ५२)। सिऊण (दे १, १५२)।। ओहंक पुं[दे] हास हँसी (दे १, १५३)। ओसीस वि [अप + वृत्त] अपवृत्त (दे १, ओहंजलिया स्त्री [दे] क्षुद्र जन्तु-विशेष, १५२)। चतुरिन्द्रिय जीव-विशेष (जीव १)। ओसुअ वि [उत्सुक] उत्कण्ठित (प्राप्र)। ओहंतर वि [ओघतर] संसार पार करनेओसुंखिअ वि [दे] उत्प्रेक्षित, कल्पित (दे वाला (मुनि) : (प्राचा)। १६१)। ओहंस पुं [दे] १ चन्दन। २ जिसपर असुंभ सक [अव+पातय् ] १ गिरा चन्दन घिसा जाता है वह शिला, चन्द्रौटा देना। २ नष्ट करना। कर्म. मोसुभति या होरसा (दे १, १६८)। (स ७, ६१)। वकृ. ओसुंभइ (से ४, ओहट्ट प्रक [अप + घट्ट ] १ कम होना, ५४) । कवकृ. ओसुब्भंत (पि ५३५)। ह्रास पाना। २ पीछे हटना। ३ सक. ओसुक्क सक [तिज्] तीक्षण करना, तेज हटाना, निवृत्त करना। श्रोहट्टइ (हे ४, करना। प्रोसुक्कइ (हे ५, १०४)। ४१६)। ६४. ओहटुंत (से ८, ६०० सुपा ओसुक्क बि [अवशुष्क सूखा हुमा (पउम २३३)। ५३, ७६, ५, १४)। ओहट्ट [दे] १ अवगुण्ठन । २ नीवी, ओसुक्ख अक [अव+शुप] सूखना। कटि वस्त्र । ३ वि. अपसत, पीछे हटा हुआ वकृ. ओसुक्खं त (से ६,६३)। (दे १, १६६, भवि)। For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ पाइअसहमहण्णवो ओहट्ट-ओहासण ओहट्ट वि [अपघट्टक] निवारक, हटाने- ओहलिय वि [अवखलित] घिसा हुआ, ओहार पुं[दे] १ कच्छप। २ नदी वगैरह ओहदय वाला, निषेधक (विपा १, २, अंसुजलोहलियगंडयलो (सुर २, १८६; के बीच की शुष्क जगह, द्वीप। ३ अंश, गाया १, १६, १८)। विभाग (दे १, १६७)। ४ जलचर-जन्तुओहट्रिअ वि [दे] दूसरे को दबाकर हाथ से | ओहली स्त्री [दे ]ोध, समूह (सुपा ३६४।। विशेष (पएह १, ३)। गृहीत (दे १,१५६)। | ओहस सक [ उप + हस् ] उपहास करना। ओहार पुं [अवधार] निश्चय। व वि ओहट्ट पुं[दे] हास, हंसी (दे १, १५३)। | मोहसइ (नाट)। कवकृ. ओहसिज्जत (से | [वत् ] निश्चयवाला (द्र ४६)। ओहट्ठ वि [अवघृष्ट ] घिसा हुआ (पउम । १५, १०)। कृ ओहसणिज (स ८)। ओहारइत्तु वि [अवधारयितु] निश्चय करने३७, ३)। ओहसिअ न [दे] १ वस्त्र, कपड़ा। २ वि. वाला (राज)। ओहड वि [अपहृत नोचे लाया हुआ (दस | धूत, कम्पित (दे १, १७३)। | ओहारइत्तु वि [अवहारयितु] दूसरे पर ओहसिअ वि [उपहसित] जिसका उपहास मिथ्याभियोग लगानेवाला (राज)। ओहडणी स्त्री [दे] अर्गला (दे १, १६०)। किया गया हो वह (ग, ६०; दे १, १७३; ओहारण न [अवधारण] नियम, निश्चय ओहत्त वि [दे] अवनत (दे १, १५६)। स ४४८)। ओहत्थिअ वि [अपहस्तित] परित्यक्त, दूर | ओहाइअ वि[ दे ] अधो मुख (१, १५८)। ओहारणी स्त्री [अवधारणी] निश्चयात्मक किया हुआ (मै ३५)। ओहाइअ वि [अवधावित] चरित्र से भ्रट| भाषाः 'मोहारणि अप्पियकारिणि च भासं न ओहय वि [उपहत] उपघात-प्राप्त (णाया | (दसचू १, १)। भासिज सया स पुजो' (दस ८, ३)। ओहाडण न [अवघाटन] प्रायश्चित्त-विशेष आहारिणा स्त्री [अवधारिणी] ऊपर देख ओहय वि [अवहत] विनाशित (औप) । (वय १)। (भास १४)। | ओहाडण न [अवघाटन] ढकना, पिधान ओहाव सक [आ + क्रम् ] आक्रमण करना। कर्म. मोहरीमामि (पि ६८) । (वव १)। मोहावइ ( हे ४, १६०; षड् )। ओहर अक [अव + ह] टेढ़ा होना, वक्र ओहाडणी स्त्री [दे. अवघाटनी] १ पिधानी ओहाव अक [अव + धाव ] पीछे हटना । होना । २ सक. उलटा करना । ३ फिराना। (द १, १६१)। २ एक प्रकार की प्रोढ़नी वकृ. ओहावंत, ओहावेत (प्रोघ १२६; संकृ. ओहरिय (प्राचा २, १, ७)। (जीव ३) वव ८)। ओहर न [उपगृह] छोटा गृह, कोठरी (पएह | ओहाडिय वि[अवघाटित १ पिहित, बन्द | ओहावण न [अवधावन] १ अपसर्पण, १,१)। किया हुआः 'वइरामयकवाडोहाडियाओ' (जं पलायन (वव १)। २ दीक्षा से भागना, दीक्षा ओहरण न [अपहरण] उठा ले जाना, १-पत्र ७१) । २ स्थगित (आव ५)। । को छोड़ देना (वव ३)। अपहार (उप ६७६)। | ओहाण न [उपधान स्थगन, ढकना (वव ४)। ओहावण न [अवभावन] अपमान, अपकीर्ति ओहरण न [दे] १ विनाशन, हिंसा । २ ओहाण न [अवधान ] उपयोग, ख्याल (पिंड ४८६)। असंभव अर्थ की सम्भावना (दे १, १७४)। (प्राचा)। ओहावणा स्त्री [अपहापना] लाघव, लघुता ३ अस्त्र, हथियार (स ५३१; ६३७)। ४ | ओहाण न [अवधावन अवक्रमण, पीछे (जय २६)। वि. अाम्रात ( षड् )। हटना (निचू १६)। | ओहावणा स्त्री [अपभावना] तिरस्कार, ओहरिअ वि[दे. अपहृत] १ फेंका हुमा ओहाम सक [ तुलय् ] तौलना, तुलना अनादर (उप १२६ टी; स ४१०)। (मे १३, ३)। २ नीचे गिराया हुआ (से | करना। अोहामइ (हे ४, २५ )। वकृ. | ओहावणा स्त्री [आक्रान्ति] आक्रमण ३, ३७) । ३ उतारा हुआ, उत्तारित (प्रोघ ओहामंत (कुमा)। (काल)। ८०६)। ४ अपनीत; 'मोहरिप्रभरुव्व भार- ओहामिय वि [तुलित] तौला हुआ (पानः ओहाविअ वि [अपभावित] १ तिरस्कृत . वहाँ (श्रा ४०)। (सुपा २२४)। २ ग्लान, ग्लानि-प्राप्त (वव सुपा २६६)। ओहरिस वि [दे] १ आघात, सूंघा हुआ। ओहामिय वि [दे] १ अभिभृत (षड् )। ओहाविअ वि [अवधावित] पलायित, अप२. चन्दन घिसने की शिला, चन्द्रौटा (दे २ तिरस्कृत (स ३१३; प्रोघ ६०)। ३ बन्द सृत (दसचू १, २)। १, १६६)। किया हुमा, स्थगित; 'जह वीणावंसरवा ओहास पुं अवहास, उपहास] हँसी, ओहल देखो उऊखल (हे १, १७१ कुमा)। खगेण पाहामिमा सव्वा' (पउम ४६, ६)। हास्य (प्राप्र मै ४३)। ओहल सक [अब + खल्] घिसना। भवि- ओहार सक [अव +धारय ] निश्चय ओहासण न [अवभाषण] याचना, मांग, मोहलिही (सुपा १३६)। | करना । संकृ. ओहारिअ (अभि १६४)। । विशिष्ट भिक्षा (प्राव ४)। For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओहासिय-कइअ पाइअसद्दमण्णवो ओहासिय वि [अवभापित] याचित (पंचा ओहिण्ण वि [अपभिन्न] रोका हुआ, अट- १३, १०)। काया हुप्रा (मे १३, २४) । ओहित्थ न दे] १ विषाद, खेद । २ रभस, ओहि पुंस्त्री [अवधि] १ मर्यादा, सीमा, हद | | वेग। ३ वि. विचारित (दे १, १६८)। (गा १७०,२०६)। २ रूपि-पदार्थ का प्रती ओहिर देखो ओहीर । प्रोहिरइ (षड्)। न्द्रिय ज्ञान-विशेष (उवाः महा)। जिण पुं ओहिर देखो ओहर = अप + हु । कर्म, प्रोहि- ["जिन] अवधिज्ञानवाला साधु (परह २, रियामि (पि ६८)। १)। णाण न [ज्ञान अवधिज्ञान (वव ओहीअंत वि [अबहीयमान] क्रमशः कम १)। °णाणावरण न [ज्ञानावरण] अवधि होता हुअा (से १२, ४२) । ज्ञान का प्रतिबन्धक कर्म (कम्म १)। दंसण ओहीण वि [अवहीन] १ पीछे रहा हुआ न [°दर्शन] रूपी वस्तु का प्रतीन्द्रिय सामान्य (अभि ५६)। २ अपगत, गुजरा हुअा (से ज्ञान (सम १५)। °दसणावरण न [°दर्शना- १२,६७)। यरण] अवधिदर्शन का प्रावारक कर्म (ठा ओहीर अक [नि+दा] सो जाना, निद्रा लेना है)। नाण देन्यो णाण (प्रारू)। मरण (हे", १२) । वकृ. ओहीरमाण (णाया १, न ["मरण] मरण-विशेष (भग १३, ७)। १ विपा २, १; कप्प)। | ओहीर प्रक [स] खिन्न होना। वकृ. ओहिअ वि [अवतीर्ण] उतरा हुआ (कुमा)। ओहीरंतं च सीमंत' (पान)। आव [आधिक] प्रात्सागक, सामान्य | ओहीरिअ वि[अवधीरित] तिरस्कृत. परि- रूप से उक्त (अणु १६६ २००)। | भूत (पाचा २, १)। ओहीरिअ वि [दे] १ उद्गीत । २ अबसन्न, खिन्न (दे १, १६३)। ओह विदे] अभिभूत, पराभूत (दे १. १५८)। ओहुंज देखो उवहुंज। प्रोहुंजइ (भवि)। ओहड बि [दे] विफल, निष्फल (दे १, १५७)। ओहुप्पंत बि [आक्रम्यमाग] जिसपर आक्रमरण किया जाता हो वह (से ३, १८)। ओहुर वि [दे] १ अवनत, अवाङ मुख (गउड)। २ खिन्न, वेद-प्राप्त । ३ स्रस्त, ध्वस्त ओहुल्ल वि [दे] १ खिन्न । १ अवनत, नीचे झुका हुआ (भवि)। ओहूणग न [अवधूनन] १ कम्प। २ उल्लङ्घन । ३ अपूर्व करण से भिन्न ग्रन्थि का भद करना (प्राचा १, ६, १)। ओहूय वि [अवधूत] उल्लवित (बृह १)। ।। इन सिरिपाइअसद्दमहण्णवे ओपाराइसहसंकलणो णवमो तरंगो समत्तो। तस्समत्तीए असरविहाअोवि समत्तो।। क क[क] १ प्राकृत वर्ण-माला का प्रथम । ६१७) । वइय. वय, वाह वि [पय] १ वानर-द्वीप के एक राजा का नाम (पउम व्यजनाक्षर, जिसका उच्चारण-स्थान कराठ है कईएक (पउम ६१, १६, उवा, षड्; कुमाः ६,८३)। २ अर्जुन (हे २,६०)। हसिअ (प्रापः प्रमा) । २ ब्रह्मा (दे ५, २६)। ३ हे १, २५०) । य अ [अपि] कईएक न [हसित] १ स्वच्छ आकाश में अचानक किए हुए पाप का स्वीकार; 'कत्ति कडं मे (काल; महा) । विह वि [विध] कितने बोजली का दर्शन । २ वानर के समान विकृत पाप' (आवम)। ४ न. पानी, जल (स ६११)। प्रकार का (भग)। मुँह का हँसना (भग ३,६)। ५ सुख (सुर १६,५५)। देखो अक। कइ वि [कृतिन्] १ विद्वान्, पण्डित । २ | कइ देखो कवि = कवि (गउड सुर १, २७) । क देखो किम् (गउड, महा)। पुण्यवान् (सूम २, १, ६०)। °अर (अप) पुं[कवि श्रेष्ठ कवि (पिंग)। कअवंत देखो क्य-व = कृतवत् (प्राकृ ३५)। कइ अ [क्कचित्] कहीं, किसी जगह में मा स्त्री [व] कवित्व, कविपन (षड्) । कइ वि. ब.[कति कितना, 'तं भंते! कइदिसं (दसचू २, १४)। राय पुं[ राज] १ श्रेष्ठ कवि (पिंग) । २ प्रोभासेई' (भग)। अ वि [क] कतिपय, कइ अ [कदा] कब, किस समय ?; 'एआई 'गउडवहाँ' नामक प्राकृत काव्य के कर्ता कईएक; 'मोएमि जाव तुझं, पियरं कइएसु | उण मज्झो थणभारं कइ णु उव्वहइ ?' वाक्पतिराज-नानक कविः 'प्रासि कइराय इंधो दियहेसु' (पउम ३४,२७)। अव वि [°पय] रण। अव विपय] (गा ८०३)। वप्पइरामो त्ति पणइलो (गउड ७६७)। कतिपय, कईएक (हे १, २५०) । इस कइ पुं [कपि] बन्दर, वानर (पाप)। कइअ वि [क्रयिक] खरीदनेवाला, ग्राहक [चित ] कईएक (उप पृ ३) । 'त्य वि दीव पुं [द्वीप] द्वीप-विशेष, वानर-द्वीप किणंतो कइयो होइ, विक्किणंतो य वाणियो' [2] कितनावाँ, कौन संख्या का ? (विसे (पउम ५५,१६) । द्धय, धय पुं[ध्वज (उत्त ३५, १४)। य-व- कृतवत् (प्रा (दसचू २, १४) समय ?; 'एआई For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ पाइअसद्दमहण्णवो कइअंक-कंकडइय कइअंक । पु[दे] निकर, समूह (दे २, कईस पुं [कवीश] श्रेष्ठ कवि, उत्तम कवि | ४ इस नाम की एक रागिणी । ५ शास्त्र । कइअंकसइ । १३)। (पिंग)। ६ विकीर्ण केश (हे १, २१)। अइअव न [कैतव] कपट, दम्भ (कुमाः प्राप्र)। कईसर पुं [कवीश्वर] उत्तम कवि (रंभा)। कउहि वि [ककुदिन] वृषभ, बैल (अणु कइआ अकदा] कब, किस समय ? (गा कउ पुं[क्रतु] यज्ञ (कप्पू)। १४२)। १३८; कुमा)। कउ (अप) प्र[कुतः] कहाँ से (हे ४, ४१६)। कए । प्र[कृते वास्ते, निमित्त, लिए; कउअ विदे] १ प्रधान, मुख्य । २ पुंन करणं । 'तत्तो सो तस्स कए, खगेइ खाणीकइउल्ल वि [दे] थोड़ा, अल्प (दे १, २१)। चिन्ह, निशान (दे २, ५६)। कएण) उणेगठाणेसु' (कुम्मा १५; कुमा); कइंद पुं[कवीन्द्र] श्रेष्ठ कवि (गउड)। | कउच्छेअय पुं [कौशेयक] पेट पर बँधी हुई 'अवरएहमजिरीणं कएण कामो वहइ चाव' कइकच्छु स्त्री [कपिकच्छु] वृक्ष-विशेष, तलवार (हे १, १६२ षड् )। (गा ४७३); केवांच, कौंछ, कवाछ (गा ५३२)। कउड न [दे. ककुद] देखो कउह = ककुद | 'लजा चत्ता सीलं च खंडिग्नं अजसघोसणा दिएरणा। कइगई स्त्री [कैकयी] राजा दशरथ की एक (षड्)। रानी (पउम ६५, २१)। कउरअ [कौरव] १ कुरु देश का जस्स कएणं पिअसहि ! कउरव राजा । २ पुंस्त्री. कुरु वंश में सो चेन जो जो जानो' कइत्थ पुं [कपित्थ] १ वृक्ष-विशेष, कैथ का उत्पन्न । ३ वि. कुरु (देश या वंश) से संबन्ध (गा ५२५)। पेड़ । २फल-विशेष, कैथ, कैथा (गा ६४१)। रखनेवाला। ४ कुरु देश में उत्पन्न (प्रातः कएल्ल वि [कृत] किया हुआ (सुख कइम वि [कतम] बहुत में से कौन सा ? (हे| नाट हे १, १६२)। २, १५)। १, ४८; गा ११६)। कउल न [६] १ करोष, गोइँठा का चूर्ण (दे कओ अ [कुतः] कहाँ से ? (माचा; उव: कइयव्व देखो कइअव (तदु ५३) । रयण २६)। हुत्त क्रिवि [दे] किस तरफ कइयहा (अप) अ[कदा] कब, किस समय ? | कउल न [कौल] तान्त्रिक मत का प्रवर्तक 'कोहुत्तं गंतव्वं ? (महा)।। (सण)। ग्रन्थ, कौलोपनिषद् वगैरह । २ वि. शक्ति का कओ अ[क] कहाँ, किस स्थान में; 'को कइयाइ अ [कदाचित् ] किसी समय में उपासक । ३ तान्त्रिक मत को जाननेवाला। । वयामो ? (णाया १,१४)। (कुप्र ४१३)। ५ तान्त्रिक मत का अनुयायी। ५ देवता कोण्ह वि [कदुष्ण थोड़ा गरम (धर्मवि कइर देखो कयर = कतर (पिंड ४६६)। विशेष, ११२)। कइर पुंकदर] वृक्ष विशेष, 'जं कइररुक्ख- "विस सिज्जंतमहापसुदं कओल देखो कवोल (से ३, ४६) । हिट्टा इह दसकोडो दविणमत्थि' (श्रा १६) । सणसंभमपरोप्परारूढा । कइरव न [कैरव कमल, कुमुद (हे १, १५२)। गयणे च्चिय गंधडि कं अ[कम् ] उदक, जल (तंदु ५३) कइरव पुंन [कैरव कुमुद, 'कइरवो' (संक्षि ५)। कुणंति तुह कउलणारीयो' कंइ अ [दे] किससे, 'कंइ पंइ सिक्खिउ ए कइरविणी स्त्री [कैरविणी] कुमुदिनी, कमलिनी (गउड)। गइलालस' (विक १०२)। (कुमा)। कउलव देखो कउरव (चंड)। कंक पुं[कङ्क] १ पक्षि-विशेष (पराह १, १; कइलास पुंकैलास, श] १ स्वनाम-ख्यात कउसल पुन [कौशल] चतुराई, 'कउसलो' ४ अनु ४)। २ एक प्रकार का मजबूत पर्वत विशेष (पापः पउम ५; ५३; कुमा)। और तीक्ष्ण लोहा (उप ४६४)। ३ वृक्ष२ मेरु पर्वत (निचू १३)। ३ देव-विशेष, कउसल न [कौशल] कुशलता, दक्षता, विशेषः 'कंकफलसरलनयरण-' (उप १०३१ एक नाग-राज (जीव ३)। सय पुं[शय] होशियारी (हे १, १६२: प्राप्र)। टी)। पत्त न [पत्र] बाण-विशेष, एक महादेव, शिव (कुमा)। देखो केलास। कउह न [दे] नित्य, सदा, हमेशा (दे २, ५)। प्रकार का बाण, जो उड़ता है (वेणी १०२)। कइलासा स्त्री [कैलासा, शा] देव-विशेष कउह पुंन [ककुद] १ बैल के कंधे का लोह पुंन ["लोह] एक प्रकार का लोहा की एक राजधानी (जीव ३)। कुब्बड़ । २ सफेद छत्र वगैरह राज-चिह्न । (उप पृ ३२६; सुपा २०७)। वत्त देखो कइल्लबइल्ल पुं [दे] स्वच्छन्द-चारी बैल ३ पर्वत का अग्रभाग, टोंच (हे १, २२५) । "पत्त (नाट)। (दे २, २५) । ४ वि. प्रधान, मुख्यः । कंकइ पुं [कङ्कति] वृक्ष-विशेष, नागबलाकइविया स्त्री [] बरतन-विशेष, पीकदान, 'कलरिभियमहुरतंतीतलतालवंसकउहाभिरामेसु। नामक प्रोषधि (उप १०३१ टी)। पीकगानी (गाया १, १ टी-पत्र ४३) । सद्देसु रज्जमाणा, रमंती सोइंदियवसट्टा। कंकड पुं [कङ्कट] वर्म, कवच, 'रामो चावे कइस (अप) वि [कीदृश] कैसा (कुमा)। (णाया १, १७)। देखो ककुह । सकंकडे दिट्ठी देंतो' (पउम ४४, २१; प्रौप)। कईया (अप) देखो कइआ (सुपा ११६)। कउहा स्त्री [ककुम्] १ दिशा (कुमा)।२ कंकडइय वि [कङ्कटित कवचवाला, वर्मित कईवय देखो कइवय (पउम २८, १६)। । शोभा, कान्ति । ३ चम्पा के पुष्पों की माला। (पएह १, ३) । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंकडुअ-कंचुइजत पाइअसहमहण्णवो २०४ कंकडुअ) पुं [काङ्कटु क] दुर्भेद्य माष, कंख सक [काङ्क्ष ] चाहना, वांछना । कंखइ नाम (राज)। °सेल पुं [शैल] मेरुकंकडुग । उरद की एक जाति, जो कभी (हे ४, १९२ षड्)। पर्वत (कप्पू)। पकता ही नहीं; 'कंकडुप्रो विव मासो, सिद्धि | कखण न [काङ्क्षण] नीचे देखो (धर्म २)। कंचणग पुं [काश्चनक] १ पर्वत-विशेष न उवेइ जस्स ववहारों (वव ३)। कंखा स्त्री [काङ्क्षा] १ चाह, अभिलाष (सूप (सम ७२) । २ काञ्चनक पर्वत का निवासी कंकण न [कङ्कण] हाथ का आभरण-विशेष, | . १, १५) । २ आसक्ति, गृद्धि (भग)।३ देव (जीव ३)। कॅगन (श्रा २८ गा ६६)। अन्य धर्म की चाह अथवा उसमें प्रासक्ति कंचणा स्त्री [कञ्चना] स्वनाम ख्यात एक कंकण पुंदे] चतुरिन्द्रिय जन्तु की एक रूप सम्यक्त्व का एक अतिचार (पडि)। स्त्री (परह १, ४) । जाति (उत्त ३६, १४७)। मोहणिज्ज न ['मोहनीय] कर्म-विशेष कंचणार पुं [कञ्चनार] वृक्ष-विशेष (पउम कंकणी स्त्री [कङ्कण] हाथ का आभरण- (भग)। ५३, ७६; कुमा)। विशेष: 'सयमेव मंकणीए धरणीए तं कंकणी कैखि वि [काङ्क्षिन् ] चाहनेवाला (प्राचा; कंवणिया स्त्री काञ्चनिका] रुद्राक्ष माला बद्धा' (कुप्र १८५)। गउड सुर १३, २४३)। (प्रौप)। कंकति कति] ग्राम- विशेष (राज)। कंखिअ वि [काक्षित] १ अभिलषित । २ कंचा (पै) देखो कण्णा (प्राप्र)। कंकतिन्ज पुंस्त्री [काङ्कतीय] माधराज वंश में | कांक्षा युक्त, चाह्वाला (उवाः भग)। कंचि । स्त्री काश्चि, ची] १ स्वनाम-ख्यात उत्पन्न (राज)। .. कंखिर वि [काशित] चाहनेवाला, अभि- कंची। एक देश (कुमा)। २ कटी-मेखला, ककय पुं[कङ्कत] १ नागबला-नामक ओषधि । | लाषी (गा ५५; सुपा ५३७) । कमर का आभूषण (पान)। ३ स्वनाम-ख्यात २ सर्प की एक जाति । ३ पुंस्त्री. कंघा, केश कंगणी स्त्री [दे] वल्ली-विशेष, कांगनी एक नगर (सुपा ४०६) । सँवारने का उपकरण (सूत्र १,४)। (पएण १)। कंची स्त्री दे] मुशल के मुंह में रक्खी जाती कंकलास विकलास] कर्कोट, सांप की कंगु स्त्रीन [कङ्ग १ धान्य-विशेष, काँगन या लोहे की एक वलयाकार चीज, सामी या साम एक जाति (पान)। काँगो (ग ७; दे ७,१)। २ वल्ली-विशेष (दे २,१)। कंकसी स्त्री [दे] कंघी, केश संवारने का (पराग १)। कंचीरय न [दे] पुष्प-विशेष (वजा १०८)। उपकरण (ती १५)। कंगुलिया स्त्री [दे. कालिका] जिन-मन्दिर कंचीरय न [काञ्चीरत] सुरत-विशेष (वजा कंकाल न [कङ्काल] चमड़ी और मांस रहित की एक बड़ी आशातना, जिन-मन्दिर में या १०८)। अस्थि-पञ्जर, 'कंकालवेसाए' (श्रा १६); उसके नजदीक लघु या वृद्ध नीति का करना कंचु पुं[कश्चक] १ स्त्री का स्तनाच्छा कंचुअदक वस्त्र, चोली (पउम ६, ११; 'मह नरकरंककंकालसंकुले भीसरगमसाणे' (धर्म २)। पात्र)। २ सर्प-त्वक , सांप को केंचली, केचुली कंचण पुन [काश्चन] १ एक देव-विमान (वजा २०० दे २, ५३ )। कंकास पुंकिङ्कावंश] वनस्पति-विशेष; (देवेन्द्र १३१) । २ वि. सोने का, सुवर्ण का; (विसे २५१७)। ३ वर्म, कवच (भग ६,३३)। 'कंचणं खंड' (वजा १५८)। पह न [प्रभ] ४ वृक्ष-विशेष (हे १, २५; ३०)। ५ वस्त्र, (परण ३३)। १ रत्न-विशेष । २ वि. रत्न-विशेष का बना कपड़ा: 'तो उज्झिऊरण लज्जा (लज्ज), पोईंधइ ककिल्लि देखो कंकेल्लि (सुपा ५५६: कुमा)। हुप्रा (देवेन्द्र २६६) । पायव पुं[पादप] | कंचुयं सरीरानो' (पउम ३४, १५) । कंकुण देखो कंकण = दे (सुख ३६, १४७) । वृक्ष-विशेष (स ६७३)। कंचुइ पुं [कञ्चुकिन्] १ अन्तःपुर का प्रतीकंकेलि ( [कङ्केलि] अशोक वृक्ष (मै ६० कंचण पुं[काञ्चन] १ वृक्ष-विशेष । २ स्व- हार, चपरासी (णाया १, १; पउम ८, ३६ विक्र २८)। नाम-ख्यात एक श्रेष्ठी (उप ७२८ टी)। ३ सुर २, १०६)। २ साँप (विसे २५१७)। कंकेल्लि पुं[दे. कङ्केल्]ि अशोक वृक्ष (दे २, न. सुवर्ण, सोना (कप्प)। 'उर न [पुर] ३ यव, जव । ४ चरणक, चना । ५ जुमार, १२ गा ४०४ सुपा १४०० ५६२; कुमा)। कलिग देश का एक मुख्य नगर (प्राक)। अगहन में होनेवाला एक प्रकार का अन्न, कंकोड न [दे. कर्कोट १ वनस्पति-विशेष, | कूड न [°कूट] १ सौमनस-नामक वक्षस्कार जोन्हरी । ६ वि. जिसने कवच धारण किया ककरैल, एक प्रकार की सब्जी, जो वर्षा में पर्वत का एक शिखर (ठा ७)। २ देव- हो वह (हे ४, २६३)। ही होती है (द २, ७; पात्र)। २ पुं. एक विमान-विशेष (सम १२)। ३ रुचक पर्वत कंचुइअ वि [कञ्चकित] कबुकवाला (कुमाः नागराज । ३ सांप की एक जाति (हे १, का एक शिखर (ठा ८)। केअई स्त्री विपा १, २)। २६; षड्)। [केतकी] लता-विशेष (कुमा)। "तिलय कंचुइज पुं [कञ्चुकीय अन्तःपुर का प्रतीकंकोल पुं[कङ्कोल] १ कङ्कोल, शीतल-चीनी न [तिलक] इस नाम का विद्याधरों का हार (भग ११, ११)। के वृक्ष का एक भेद । २ न. उस वृक्ष का एक नगर (इक)। "त्थल न [स्थल] स्व- कंचुइज्जत वि [कञ्चकायमान] कनुक की फल: 'सकप्पुरेलाकंकोलं तंबोल (उप १०३१ नाम ख्यात एक नगर (दंस)। वलाणग न तरह प्राचरण करता: 'रोमंचकंचुइज्जतटी)। देखो कक्कोल। [बलानक] चौरासी तीर्थों में एक तीर्थ का सव्वगत्तो' (सुपा १८१)। For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० कंचुग देखो (सोप ६७६ निवे (सण) । २५२८) । कंचुगि देखो कंचुली [लिका ] कंचली, चोली (कप्पू) । छुल्ल स्त्री [दे] हार, कण्ठाभरण (भवि ) । कंजन [का] काञ्जिक (सुर ३१३३ कप्पू ) । कंट देखो कंटग (पिंड २०० ) । कंटअंत व [कण्टकायमान] १ करटक जैसा, कण्टक की तरह प्राचरता ( से ६, २४ ) । २ पुलकित होता ( ५८ ) । कंट अवि [कण्टकित ] १ करटकवाला (१,२२) २ माचित पुलकित (कुमा | पात्र ) । कंटइज्जत देखो कंटअंत (गा ६७) । कंटइल पुं [ कण्टकिल ] १ एक जात का बाँस । २ वि. कराटकों से व्याप्त (सूत्र १, ५) । चंदेल कंट(११ म [[]] (२, १७) । कंटकिल्ल देखो कंटइअ (दे २, ७५) । कंटग कंटय पाइअसहमणव [दे] देखो कंकोड = (दे) (पाच ६ २,७) । 'दे कंटोल कंठ [दे] १ सूकर, सूअर २ मर्यादा, सीमा (दे २,५१) । कंठ [कण्ठ] १ गला, घांटी (कुमा) । २ समीप, पास । ३ अञ्चल कंठे वत्थाईगं रिबद्ध गं ठिम्मि' (दे २, १८ ) । दरखलिअ वि ["दरस्खलित ] गद्गद ( पाच ) | मुरय न ["मुरज] पाभरण विशेष (खाया १,२) । "मुरवी स्त्री ["मुरवी] गले का एक श्राभरण ( प ) । मुही स्त्री ["मुखी] गले का एक भूषण (राज) सुचन ["सूत्र] १ सुरत- बन्ध-विशेष । २ गले का एक आभूषण (श्रीप)। कंठ [क] सरल, सुगम (निचू १५ ) । कंठकुंची श्री [] [१] स्वर के में बँधी हुई गाँठ । २ गले में लटकती हुई लम्बी नाडी-ग्रन्थि (दे २, १८) | कंठदीणार [दे] छिद्र, विवर (दे १, २४) । कंठमल न [दे] १ ठठरी, मृत-शिविका । २ यान पात्र, वाहन (दे २, २० ) । कंठमाल पुत्री [ कण्ठमाल ] रोग-विशेष (बुत्र ४७१)। कंठ [कण्ठक] स्वनामध्यात एक भीर. नायक (महा) । पुं [कण्टक] १ कांटा, कण्टक } (क्स: है १,३०)। २ रोमा पुलक (गा ६७)। ३ शत्रु, दुश्मन (गाया १, १) । ४ वृक्षिक की पूँछ ( वव ६) । ५ शल्य (विपा १, ८) । ६ दुःखोत्पादक वस्तु (उत्त १) ७ ज्योतिष-शास्त्र-सिद्ध एक योग ( गण १९ ) । बोंदिया स्त्री [° दे] कण्टकशाखा (याचा २, १, ५) । कंडाली स्त्री [दे] वनस्पति- विशेष, कण्टरिका भटका दे २, ४) । कंटियं वि [कण्टिक ] १ करटकवाला, कष्टक-युक्त । २ वृक्ष - विशेष ( उप १०३१ टी) । कंठाकंठि अ [कण्ठाकण्ठि] गले-गले में ग्रहण कर (गाया १, २ – पत्र ८८ ) । कंठा वि[ कण्ठवत् ] बड़ा गलावाला ( पनि १०१) । कंठिअ वुं [दे] चपरासी, प्रतीहार (दे २, १५) । कंठिआ स्त्री [ कण्ठिका ] गले का एक आभूषण (या ७५)। कंठीरअ देखो कंठीरव (किरात १७) । कंटिया at [कण्टिका ] वनस्पति- विशेष (बृह कंठीरव पुं [कण्ठीरव] सिंह, शार्दूल (प्रयो १; आचू १) | कसे २ २१) । कंटी स्त्री [दे] उपकण्ठ, कण्ठिका, पर्वत के कंड सक [ कण्ड् ] १ व्रीहि वगैरह का नजदीक की भूमि छिलका अलग करना । २ खींचना | ३ खुजवाना । वकृ. कंडंत (श्रोघ ४६८ गा ६६३); कंडित (गाया १, ७) । कंड न [काण्ड] १ अंगुल का असंख्याant 'एयाओ फलभरबंधुरिया भूमिखन्द्वराः कंटीग्रो निव्ववंति व भ्रमंदकरमंदप्राभोया' (गड)। कंचुग - कंडरीय भागः 'कंडंति एत्थ भन्नइ अंगुलभागो असंखेज्जो' ( व २६० टी) 1 २ कंड पुंन [काण्ड ] १ दण्ड, लाठी | निन्दित समुदाय । ३ पानी, जल । ४ पर्व । ५ वृक्ष का स्कन्ध । ६ वृक्ष की शाखा । ७ वृक्ष का वह एक भाग, जहां से शाखाएँ निकलती हैं। ८ ग्रन्थ का एक भाग ६ गुच्छ, स्तबक । १० अश्व, घोड़ा । ११ प्रेत, पितृ और देवता के यज्ञ का एक हिस्सा । १२ रोढ़, पृष्ठ भाग की लम्बी हड्डी । १३ खुशामद । १४ श्लाधा, प्रशंसा १५ गुप्तता, प्रच्छन्नता । १६ एकान्त, निर्जन । १७ तृणविशेष । १८ निर्जन पृथ्वी (हे १, ३०) । १६ अवसर, प्रस्ताव ( गा ६३३) २० समूह ( खाया १,८ ) । २१ बारा, शर ( उप ६६६ ) | २२ देव-विमान-विशेष (राज) २३ पर्यंत वगैरह For Personal & Private Use Only एक भाग (सम ६५) । २४ खण्ड, टुकड़ा, अवयव ( १ ) । च्छारिय पुं [हारिक ] १ इस नाम का एक ग्राम २ एक ग्रामनायक (वव ७) | देखो कंडग, कंडय । कंड पुं [दे] १ फेन, फोन । २ वि. दुर्बल विपदे २, २१) । २५८ ) । फंड (गा ६७ कंडगन [कण्डक] १ ती स्थान समुदाय ( पिंड ε६; १०० ) । २ विभाग, आदि का एक भाग (सूम १,६,१०) । कंडग पुंन [काण्डक] देखो कंड फाड ( याचा श्रावम ) । २५ संयम श्रेणि- विशेष ( बृह ३) । २६ इस नाम का एक ग्राम ( श्रचु १ ) | देखो कंडय । = देखो कंटइअ ( देखोट कंडन [कण्डन] व्रीहि वगैरह को साफ करना, तुष पृथक्करण (श्रा २० ) । कंडपंडया [] पवनका परदा (२ २५) । कंडय पुंन [काण्डक] देखो कंड = काण्ड तथा कंडग । २७ वृक्ष - विशेष, राक्षसों का त्या 'तुलसी भूयाण भवे, रक्खसा च कंडों' (ठा ८) २८ तावीज, गण्डा, यन्त्र 'बज्भंति कंडयाई, पउणीकीरंति अगयाई' (सुर १६, ३२) । कंडरीय [कण्डरीक] महापद्म राजा का एक पुत्र, पुण्डरीक का छोटा भाई, जिसने Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंडरीय-कंद पाइअसद्दमहण्णवो २११ वर्षों तक जैनी दीक्षा का पालन कर अन्त में यस्स जहा, कंडुयणं दुक्खमेव मूढस्स' (स' कंति स्त्री [कान्ति] १ तेज, प्रकाश (सुर २, उसका त्याग कर दिया था (गाया १, १६ ५१५; उव २६४ टी; गउड)। २३६) । २ शोभा, सौन्दर्य (पान)। ३ इस उव)। । कंडुयय देखो कंडुयगः 'अकंडुयएहि (पएह नाम की रावण की एक पत्नी (पउम ७४, कंडरीय वि [कण्डरीक] १ अशोभन, प्र- २,१-पत्र १००)। ११) । ४ अहिंसा (पराह २,१)। ५ इच्छा । सुन्दर । २ अप्रधान (सूअनि १४७ १५३)। कंडुरु पुं [कण्डुरु] स्वनाम-ख्यात एक राजा, ६ चन्द्र की एक कला (राज; विक १०७)। कंडलि स्त्री [कन्दरिका] गुफा, कन्दरा जिसने रामचन्द्र के भाई भरत के साथ जैनी पुरी स्त्री [°पुरी] नगरी-विशेष (ती)। म, कंडलिआ (पि ३३३; हे २, ३८ कुमा)। | दीक्षा ली थी (पउम ८५, ५)। ल्ल वि[मत्] कान्ति युक्त (प्रावमः गउड, कंडवा स्त्री [कण्डवा] वाद्य-विशेष (राय)। कंडू स्त्री [कण्डू] १ खुजलाहट, खुजवाना सुपा, १८८)। कंडार सक [उत् + क] खुदना, छील-छाल (णाया १,५)। २ रोग-विशेष, पामा, खाज कति स्त्री [कान्ति] १ परिवर्तन, फेरफार । कर ठीक करना । संकृ. (गाया १, १३)। २ गमन, गति (नाट-विक्र ६०)। 'गुणं दुवे इह पावइणो जम्मि , कंडूइ स्त्री [कण्डूति] ऊपर देखो (गा ५३२, कंतु [दे] काम, कामदेव (दे २, १)। जे देहणिम्मवरणजोव्वणदारगदक्खा । सुर २, २३)। कथक ] पुं[कन्धक अश्व की एक जाति एके घडेइ पढमं कुमरीणमंगं, कंडूइअ न [कण्डूयित] खुजवाना (सूअ १, कंथग (ठा ४, ३: उत्त २३); 'जहा से कंडारिऊण पनडेइ पुणो दुईओ (कप्पू)। ३, ३; गा १८१)। कथय । कंबोयाणं प्राइले कथए सिया' कंडावेल्ली स्त्री [काण्डवल्ली] वनस्पति-विशेष कंडूय देखो कंडुअ = कण्डूय । कडूयइ (महा)। । (उत्त ११)। (पएण १)। वकृ. कंडूयमाण (महा)। कंथा स्त्री [कथा] कथड़ी, गुदड़ी, पुराने वस्त्र कंडिअ वि [कण्डित] साफ-सुथरा किया हुआ से बना हुआ पोढ़ना (हे १, १८७)। कंडूयग वि [कण्डूयक खुजवानेवाला (ठा (दे १, ११५)। कथार पुं[कन्थार] वृक्ष विशेष (उप २२० कंडियायण न [कण्डिकायन] वैशाली कंडूयण देखो कंडुयण (उप २५६; सुपा | टी)। (बिहार) का एक चैत्य (भग १५)। १७६; २२७)। कथारिया। स्त्री [कन्थारिका, री] वृक्षकंडिल्ल पु[काण्डिल्य] १ कारिडल्य-गोत्र कंथारी । विशेष (उप १०३१ टी)। वण | कंडूयय देखो कंडूयग (महा)। का प्रवर्तक ऋषि-विशेष । २ पुंस्त्री. काएिडल्य न [वन] उज्जैन के समीप का एक जंगल. | कंडूर पुं[दे] बक, बगुला (दे २, ६)। गोत्र उत्पन्न । ३ न. गोत्र-विशेष, जो माण्डव्य | कंडूल वि [कण्डूल] खाजवाला, कराड-युक्त । जहां अवन्तीसुकुमार-नामक जैन मुनि ने अनगोत्र की एक शाखा है (ठा ७-पत्र ३६०)। (कुमा)। शन व्रत किया था (आक)। यण यन] स्वनाम ख्यात ऋषि- कंत सका कृत1 १ काटना, छेदना। २ कथर पु | कंत सक [कृत् ] १ काटना, छेदना। २ कंधेर पुं[कन्थेर] वृक्ष-विशेष (राज)। विशेष (चंद १०)। कातना, चरखे से सूता बनानाः 'सल्लं कंतंति कन्थेरी स्त्री [कन्थेरी] कण्टकमय वृक्ष-विशेष कंडु देखो कंडू (राज)। अप्पणों' (सूत्र १,८,१०)। कंतामि (पिंडभा (उर ३, २)। कंडु देखो कंदु (सूत्र १, ५)। ३५)। - कंद प्रक [कन्द्] कांदना, रोना। कंदइ (पि कंडुअ सक [कण्डूय् ] खुजवाना। कंडुप्रइ कंत वि [कान्त] १ मनोहर, सुन्दर (कुमा)। २३१)। भूका. कैदिसु (पि ५१६)। वकृ. (हे १, १२१, उव), कंडुपए (पि ४६२) । २ अभिलषित, वाञ्छित (गाया १, १)। ३ कंदंत (गा ५८४), कन्दमाण (णाया वकृ. कंडुअंत (गा ४६०); कंडुअमाण पुं. पति, स्वामी (पान)। ४ देव विशेष (सुज १,१)। (प्रासू २८)। १६)। ५ न. कान्ति, प्रभा (पाचा २,५,१)। कंद वि [दे] १८, मजबूत। २ मल, कंडुअ पुं[कान्दविक] हलवाई, मिठाई बेचने- कंत वि [क्रान्त] गत, गुजरा हुआ (प्राप)।।' कंत विक्रान्तीत जरा सा प्राप) उन्मत्त । ३ न. स्तरण, माच्छादन, (दे २, वाला; 'राया चिसेइ को कंडुयस्स जल- कंता स्त्री [कान्ता] १ स्त्री, नारी (सुर ३, ५१)। कंतरयणसंपत्ती ? (प्रावम)। कंद पुं[कन्द, क्रन्दित] व्यन्तर देवों की एक १४; सुपा ५७३) । २ रावण की एक पत्नी कंडुअ) पुं[कन्दुक] गेंद (दें ३, ५६; का नाम (पउम ७४, ११)। ३ एक योग जाति (ठा २, ३----पत्र ८५) । कंडग । राज)। दृष्टि (राज)। । कंद पुं[कन्द] १ गूदेदार और बिना रेशे की कंडुज्जुय वि [काण्डर्जु] बाण की तरह कतार न [कान्तार] १ अरण्य, जंगल जड़ जमीकन्द, सूरन, शकरकन्द, बिलारीकन्द, सीधा (स ३१७ गा ३५२)। (पाम)। २ दुष्ट, दूषित। ३ निराश्रय। ४ प्रोल, गाजर, लहसुन वगैरह (जी)। २ कंडुयग वि [कण्डूयक] खुजानेवाला (प्रौप)। पागल (कप्पू)।। मूल, जड़ (गउड) । ३ छन्द-विशेष (पिंग)। कंडुयण न [कण्डूयन] १ खुजली, खाज, कतार पुन [कान्तार] जल-फलादि-रहित कंद पुं[स्कन्द] कात्तिकेय, षडानन (कुमाः पामा, रोग-विशेष । २ खुजवानाः 'पामागहि- अरण्य, 'कंतारों' (सम्मत्त १६६)। हे २,५; षड् )। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ पाइअसद्दमहण्णवो कंदणया-कंस कन्दगया स्त्री [क्रन्दनता] मोटे स्वर से कंदिर वि [कन्दिन् कांदनेवाला (भवि)। २ न. पंजाब देश का एक नगर (ठा १०; लिल्लाना (ठा ४,१)। कंदी स्त्री [दे] मूला, कन्द-विशेष (दे २, १)। उप ६४८ टी)। 'पुर न [पुर नगरकंदप्प किन्दप] १ कामदेव, अनंग (पाप)। कंदु पुंस्त्री [कन्दु] एक प्रकार का बरतन, विशेष (पउम ८, १४३, उवा)। • कामोद्दीपक हास्यादिः 'कंदप्पे कुक्काए' जिसमें माण्ड वगैरह पकाया जाता है, हाँडा कंब वि [कम्र] १ कामुक, कामी । २ सुन्दर, (पडि पाया १, १)। ३ देव-विशेष (पत्र (विपा १, ३, सूत्र १, ५)। मनोहर (पि २६५)। ७३)। ४ काम-संबन्धी कषाय। ५ वि. काम | कंदुअ [कन्दुक] १ गेंद (पान; स्वप्न ३९; कंब देखो कंबा। युक्त, कामी(बृह १)। मै ६१) । २ वनस्पति-विशेष (पण्ण १)। कंबर [दे] विज्ञान (दे २, १३) । कंदुइअ पुं[कान्दविक] हलवाई, मिठाई कंबल पुन [कम्बल] १ कामरी, ऊनी कपड़ा कंदप्प वि [कान्दर्प] कान्दप-संबन्धी (पव बेचनेवाला (दे २, ४१, ६६३)। (प्राचा: भग)। २ पृ. स्वनाम-ख्यात एक कंदएि वि वान्दर्पिन कामोद्दीपक, कन्दर्प बलीबई (राज)। ३ गौ के गले का चमड़ा, | कंदुक देखो कंदुअ (सूत्र २, ३, १६)। कंदुग देखो कंदुअ (राज)।। सास्ना, गलकंबल, लहर (विपा १, २)। का उत्तेजक (बव १)। . कंदुट्ट न [दे] देखो कदोट्ट (पानः धर्मा ५; कंवा स्त्री [कम्बा] यष्टि, लकड़ी: “दिट्ठो कंदप्पिय [कान्दर्पिक] १ मजाक करने । __ सण)। तजणएणं, निसूडिउं कंबधाएहिः बद्धो' (सुपा वाला भाण्ड वगैरह (प्रौपः भग)। २ भाण्ड कंदुब्बय पुन [दे] कन्द-विशेष (सुख ३६, प्राय देवों की एक जाति (पएह २, २)। ३ ६८)। कबि । स्त्री कम्बि, म्बी १ दर्वी, हास्य वगैरह भाण्ड कर्म से प्राजीविका कंदुय देखो कंदुइअ (कुप्र१८)। कंबी। कड़छी । २ लीला-यष्टि, छड़ी, शोख चलानेवाला (पएण २०)। ४ वि, कामकंदोइय देखो कंदुइअ (सुपा ३८५)। से हाथ में रखी जाती लकड़ी (उप पृ २३७)। संबन्धी (बृह)। कंदोट्टन [दे] नील कमल (दे २, प्रामा कंबिया स्त्री [कम्धिका] पुस्तक का पुट्ठा, कंदर न [कन्दर] १ रन्ध्र, विवर (गाया १, षड्; गा ६२२: उत्तर ११७; कप्पु भवि)। किताब का प्रावरण पृष्ठ (राय ६६)। २) । २ गृहा, गुफा (उवा; प्रासू ७३)। कंध देखो खंध = स्कन्ध (नाट; वज्जा ३६)। कंबु [कम्बु १ शङ्ख (पएह १, ४)। २ इस कंदरा। स्त्री [कन्दरा] गुहा, गुफा (से ४, कंधरा स्त्री [कन्दरा] ग्रीवा, गरदन (पाम नाम का एक द्वीप (पउम ४५, ३२)। ३ कंदरी ६ राज)। सुर ४, १६६; गरण ६)। पर्वत-विशेष (पउम ४५, ३२)। ४ न. एक कदल कन्दल] १ अंकुर, प्ररोह (सुपा कंधार [] स्कन्ध, ग्रीवा का पीछला भाग, देव-बिमान (सम २२)। 'ग्गीव न [प्रीव] ४)। २ लता-विशेष (रणाया १,६)। . (उप पृ८६)। एक देव-विमान (सम २२)। कंदल न [दे] कपाल (दे २, ४)। कंप अक [कम्प] कांपना, हिलना। कंपइ कंबोय पुं[कम्बोज देश-विशेष (पउम २७, कंदलग पुं[कन्दलक] एक खुरवाला जानवर- (हे १, ३०)। वकृ. कंपंत, कंपमाण (महा; ७ स८०)।। विशेष (पराण १)। कप्प)। कवक कंपिजत (से ६, ३८, १३, कंबोय वि [काम्बोज] कम्बोज देश में उत्पन्न कंदलिअवि [कन्दलित] अंकुरित (कुमाः ५६) । प्रयो., वकृ. कंपावित (सुपा ५६३)। (स८०)। कंदलिल Sपि ५६५)। . . कंप पुं[कम्प] अस्थैर्य, चलन, हिलन (कुमा; कभार पुं.ब. [कश्मीर] इस नाम का एक कंदली स्त्री [कन्दली] १ लता विशेष (सुपा पाउ)। प्रसिद्ध देश (हे २, ६८ षड्)। जम्म न ६; पउम ५३, ७६)। २ अंकुर, प्ररोह; कंपड पुं[दे] पथिक, मुसाफिर (दे २, ७) [°जन्मन् ] कुंकुम, केसर (कुमा)। देखो 'दारिद्दमादलीवरणदवो' (उप ७२८ टी)। कंपण न [कम्पन] १ कम्प, हिलन (भवि)। कम्हार।। कंदली स्त्री [कन्दली] कन्द-विशेष (उत्त ३६, २ रोग-विशेष । वाइअ वि. [वातिक] कंभूर (अप) ऊपर देखो (षड्) । कम्प वायु नामक रोगवाला (अनु. ६)। कंस पुं[कंस] १ राजा उग्रसेन का एक पुत्र, कंदविय कान्दविक] हलवाई, मिठाई कंपि वि [कम्पिन्] कांपनेवाला (कप्पू)। श्रीकृष्ण का मातुल (पराह १, ४) । २ महादेचनेवाला (उप २११ टी)। | कंपिअ बि [कम्पित] कांपा हुमा (कुमा)। ग्रह-विशेष (ठा २, ३-पत्र ७८)। कांसा, कविंद पुं [क्रन्देन्द्र, क्रन्दितेन्द्र] कन्दित कंपिर वि [कम्पित] कांपनेवाला (गा ६५६; एक प्रकार की धातु (पाया १, ७-पत्र नामक देव-निकाय का इन्द्र (ठा २, ४-पत्र सुपा १५८ ; श्रा २७)। ११८) । णाभ पुं [नाभ] ग्रह-विशेष कंपिल्ल वि [कम्पवत् ] कांपनेवाला, अस्थिरः (सुज २०इक)। वण्ण पुं [वर्ण] 'निच्चमकंपिल्लं परभयाहि कंपिल्लनामपुर ग्रह-विशेष (ठा २,३-पत्र ७८)। चण्णाभ कंदिय पुंक्रन्दित] १ वारणव्यन्तर देवों की (उप ६ टी)। पुं ["वर्णाभ] ग्रह-विशेष (ठा २, ३) । एक जाति (पएह १,४. प्रौप) । २ न. रोदन, कंपल्लि पुं [काम्पिल्य] १ यदुवंशीय राजा संहारण पुं[संहारण] कृष्ण, विष्णु माक्रन्द (उत्त २)। अन्धकवृष्णि के एक पुत्र का नाम (अन्त ३)। (पिंग)। For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काटलिपुत्र का एक मास (सून १. एक जाति कंस-कग्घायल पाइअसहमहण्णवो २१३ कंस न [कांस्य] १ धातु-विशेप, कांसा । २ उद्वर्तन (पब २–गाथा ११५)। 'कुरुया स्त्री ककालुआ स्त्री [कारुका] १ कूष्माण्ड. वाद्य-विशेष । ३ परिमाण-विशेष । ४ जल [°करुका] माया, कपट (पव २)। वल्ली, कोहड़ा का गाछ; 'ककालुमा गोछडलिपीने का पात्र, प्याला (हे १, २६; ७०)। कक्क पुं[कर्क] १ चक्रवर्ती का एक देव-कृत । त्तवेंटा' (मृच्छ ५६)। 'ताल न [ताल] वाद्य-विशेष (जीव ३)। प्रासाद (उत्त १३, १३) । २ राशि-विशेष, कक्किड पुं[] कृकलास, गिरगिट; गुजराती पत्ती, पाई स्त्री [°पात्री] कांसा का बना कर्क राशि (धर्मवि ६६)। ___ में 'काकेडो' (दे २, ५)। हुआ पात्र-विशेष (कप्प; ठा)। पाय न ककंध पुं[कर्कन्ध] ग्रहाधिष्ठायक देव विशेष कक्कि पुं[कक्लिन्] भविष्य में होनेवाला [पात्र] कांसा का बना हुआ पात्र (दस ६)। ' (ठा २, ३)। कंसार [दे] कसार, एक प्रकार की मिठाई; ककंधु स्त्री [कर्कन्धु बैर का वृक्ष (पान)। कक्किय न [कक्लिक] मांस (सूम १, ११)। 'ता करेऊरण कंसारं तालपुडसंजुयं चेर्ग कक्कड पुं[कर्कट] कर्कराशि (विचार १०६)। ककअण पुंन [कर्केतन] रत्न की एक जाति विसमोयगं गोसे उवणेमि एयाणं' (स १८७)। कक्कड न [कर्कट] १ जलजन्तु विशेष, कुलीर (कप्पः पउम ३, ७५)। कंसारी स्त्री [दे] श्रीन्द्रिय क्षुद्र जन्तु की एक (पान)। २ ककड़ी, फल-विशेष (पव ४)। कक्करअ पुं[कर्केरक मणि-विशेष की एक जाति (जी १८)। ३ हृदय का एक प्रकार का वायु (भग १०, जाति (मृच्छ २०२)। कक्कोड न [कर्कोट] शाक-विशेष, ककरैल, कंसाल पु [कांस्याल] वाद्य-विशेष (हे २, कक्कडच्छ पुं [कर्कटाक्ष] ककड़ी, खीरा ___ ककोडा (राज) । देखो. कक्कोडय। ६२ सुपा ५०)। कक्कोडई स्त्री [कर्कोटकी] ककोडे का वृक्ष कंसाला स्त्री किसताला, कांस्यताला] वाद्य कक्कडिया स्त्री किर्कटिका, टी] ककड़ी ककरैल का गाछ (पारण १-पत्र ३३)। का एक प्रकार का निर्घोष, ताल (णंदि)। कक्कडी । (खीरा) का गाछ (उप ९६१) कक्कोडयन [कर्कोटक] देखो कक्कोड । कंसालिया स्त्री [कांस्यतालिका] एक प्रकार ककणा स्त्री [कलना] १ पाप । २ माया - २ . अनवेलन्धर-नामक एक २ पुं. अनुवेलन्धर-नामक एक नाग-राज : का वाद्य (सुपा २४२)। (पएह १, २)। ३ उसका प्रावास पर्वत (भग ३, ६; इक)। कसिअ पुं [कास्यिक] १ कसेरा, कँसारी, कक्कय पुंदे] गुड़ बनाते समय की इक्षु-रस कक्कोल कोल]१ वृक्ष-विशेष; शीतलकांस्य-कार (हे १, ७०)। २ वाद्य विशेष की एक अवस्था, इक्षु रस का विकार-विशेष चीनी के वृक्ष का एक भेद (गउड स ७१)। (सुपा २४२)। (पिंड २८३)। २ न. फल-विशेष, जो सुगंधी होता है (पएह कंसिआ स्त्री [कसिका] १ ताल (गाया १, कक्कर पुककर १ कंकर, पत्थर (विपा १, २, ५)। देखो ककोल। १७) । २ वाद्य-विशेष (प्राचा २)। २; गउड, सुपा ५९७; प्रासू १६८)।२ कक्कोली स्त्री कोलो] वृक्ष-विशेष (कप्र ककाणि पुंस्त्री [दे] मर्म स्थान, 'अरुस्स वि. कठिन, परुष (प्राचू ४) । ३ ककर २४६)। विझति ककारणो से' (सूत्र १, ५, २, आवाज वाला (उत्त ७)। कक्ख देखो कच्छ = कक्ष (उवः कप्प; सुर १, ककरणया स्त्री [कर्करणता] १ दोषोद्भावन, ८८ पउम ४४, १: पि ३१८, ४२०)। १५)। ककुध । देखो कउह = ककुद (पि २०६; दोषोद्भावनगभित प्रलाप (ठा ३, ३-पत्र कखग वि [कक्षाग] १ कक्षा-प्राप्त । २ पुं ककुभ । हे २, १७४)। १४७)। कक्षा का केश (तंदु ३६)। कक्कराइय न कर्करायित] १ कर्कर की कक्खड देखो कक्कस (सम ४१; ठा १, १: ककुह देखो कउह % ककुद (ठा ५,१ पाया तरह पाचरित । २ दोषोच्चारण, दोष-प्रकटन वज्जा ८४ उव)। १, १७ विपा १, २)। ५ हरिवंश का एक (प्राव ४)। कक्खड वि [दे] पीन, पुष्ट (दे २, ११; कप्प; राजा (पउम २२, ६६)। कक्कस वि [ककेश] १ कठोर, परुष (पाश्रः प्राचा; भवि)। ककुहा देखो कउहा (षड् )। सुपा ५८; पारा ६४ पउम ३१, ६६)। कक्खडंगी स्त्री [ दे] सखी, सहेली (द २, कक्क पुं[कल] १ उद्वर्तन-द्रव्य, शरीर पर २ प्रखर, चण्ड। ३ तीव्र, प्रगाढ (विपा १, १६)। का मैल दूर करने के लिए लगाया जाता द्रव्य १)। ४ अनिष्ट, हानिकारक (भग ६, ३३)। कक्खल [३] देखो कक्कस (षड्)। (सूत्र १.६निचू १)। २ न. पाप (भग ५ निष्ठुर, निर्दय (उग)। ६ चबा-चबा कर कक्खा देखो कच्छा कक्षा (पान; रणाया १२, ५)। ३ माया, कपट (सम ७१)। कहा हुआ वचन (प्राचा २, ४, १)। १, ८ सुर ११, २२१)। 'गरुग न [°गुरुक] माया, कपट (पण्ह १, कक्कस । [दे] दध्योदन, करम्ब (दे करघाड पुं[दे] १ अपामार्ग, चिरचिरा, २-पत्र २८)। कक्कसार २.१४)। | लटजीरा। २ किलाट, दूध की मलाई (दे कक्क पुंन [कल] १ चन्दन आदि उद्वर्तन द्रव्य ककसेण पुं[कर्कसेन] अतीत उत्सर्पिणी- २, ५४) । (दस ६, ६४)। २ प्रसूति-रोग आदि में काल में उत्पन्न एक स्वनाम ख्यात कुलकर कग्घायल पुं[दे] किलाट, दूध का विकार, किया जाता क्षार-पातन । ३ लोध्र आदि से | पुरुष (राज)। | दूध की मलाई (दे २, २२)। For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ पाइअसहमहण्णवो कञ्च-कच्छुरी कञ्च न [दे. कृत्य] कार्य, काम (दे २, २, कच्छ पुं. ब. [कच्छ] १ स्वनाम-ख्यात देश, नारद की वीणा (णाया १,१७)। ४ पुस्तक(षड्)। जो आजकल भी 'कच्छ नाम से प्रसिद्ध है विशेष (ठा ४, २)। कञ्च (१) देखो कज (प्राप्र)। (पउम ६८, ६५; दे २, १ टी)। २ जलप्राय | कच्छर पुं[दे] पङ्क, कीच, कर्द (दे २,२)। कञ्च न [काच काच, शीशा; 'कच्चं माणिक्क देश, जल-बहुल देश (णाया १, १-पत्र; कच्छरी स्त्री [कच्छरी] गुच्छ विशेष (पएण च समं आहरणे पउंजीअदि (कप्पू)। ३३; कुमा) । ३ कच्छा, लँगोट (सुर २, १-पत्र ३२)। कञ्चंत वि [कृत्यमान] पीड़ित किया जाता १६)। ४ इक्षु वगैरह की वाटिका (कुमाः | कच्छव (अप) पुं [कच्छ] स्वनाम-प्रसिद्ध (सूत्र १, २, १)। आचा २, ३)। ५ महाविदेह वर्ष में स्थित | देश-विशेष (भवि)। कचरा स्त्री [दे] १ कचरा, कच्चा खरबूजा। एक विजय-प्रदेश (ठा २, ३)। ६ तट, कच्छव देखो कच्छभ (पउम ३४, ३३ दे किनारा; 'गोलारणईए कच्छे, चक्खंतो राइप्राइ । १,१६७ (गउड)। २ कचरा को सूखाकर, तलकर और मसाला डालकर बनाया हुआ खाद्य-विशेष, एक पत्ताई' (गा १७१)। ७ नदी के जल से कच्छवी देखो कच्छभी (बृह ३)। वेष्टित वन (भग)। ८ भगवान ऋषभदेव का कच्छह देखो कच्छभ (पाप)। प्रकार का आचार, गुजराती में जिसको 'काचरी' कहते हैं, 'पुणो कच्चरा पप्पड़ा एक पुत्र (आवम)। ६ कच्छ-विजय का एक कच्छा स्त्री [कक्षा] १ विभाग, अंश (पउम राजा। १० कच्छ-विजय का अधिष्ठायक देव १६,७०)। २ उरो बन्धन, हाथी के पेट पर दिएणभेया' (भवि)। (जं ४) । ११ पाश्ववर्ती प्रदेश। १२ राजा बाँधने की रज्जू; 'उप्पीलियकच्छे (विपा १, कञ्चबार पुं[दे] कतवार, कूड़ा (सूक्त ४४)। वगैरह के उद्यान के समीप का प्रदेश (उप २-पत्र २३, औप)। ३ काँख, बगल कमाइणी स्त्री [कात्यायनी] देवी-विशेष, ९८६ टी)। १२ छन्द-विशेष, दोधक छंद (भग ३, ६, प्रामा)। ४ श्रेणी, पंक्ति; चएडी (स ४३७)। का एक भेद (पिंग)। कूड न [कूट] १ 'चमरस्स एं प्रसुरिंदस्स असुरकुमारएणो दुमस्स कञ्चायण पुं [कात्यायन] १ स्वनाम-ख्यात माल्यवन्तनामक वक्षस्कार पर्वत का एक पायत्तारिणयाहिवस्स सत्त कच्छाओ पररगत्ताओ' ऋषि-विशेष (सुज्ज १०)। १ न. कौशिक शिखर । २ कच्छ-विजय के विभाजक वैताढय (ठा ७)। ५ कमर पर बांधने का वस्त्र (गा गोत्र की शाखा-रूप एक गोत्र । ३ पुंस्त्री. उस पर्वत के दक्षिणोत्तर पाववर्ती दो शिखर ६८४)। ६ जनानखाना, अन्तःपुर (ठा ७)। गोत्र में उत्पन्न (ठा ७–पत्र ३६०) (ठा)। ३ चित्रकूट पर्वत का एक शिखर ७ संशय-कोटि । ८ स्पर्धा-स्थान । घर की कच्चायणी स्त्री [कात्यायनी] पार्वती, गौरी (जं ४)। हिव पुं [धिप] कच्छ देश भीत । १० प्रकोष्ठ (हे २, १७)। (पास)। का राजा (भवि)। हिवइ पुं[धिपति] कच्छा स्त्री [कच्छा] कटि-मेखला, कमर का कच्चि अ [कञ्चित् ] इन अर्थों का सूचक | कच्छ देश का राजा (भवि)। प्राभूषण (पान)। वई स्त्री [°वती] देखो अव्यय-१ प्रश्न । २ मंडल । ३ अभिलाप। कच्छ पुन [कच्छ] १ नदी के पास की कच्छगावई (जं ४)। वईकूड न [°वती४ हर्ष (पि २७१ हे २, २१७ २१८)। नीची जमीन । २ मूला आदि की बाड़ी कूट] महाविदेह वर्ष में स्थित ब्रह्मकूट पर्वत कच्चु (अप) ऊपर देखो (हे ४, ३२६)। (पाचा २, ३, ३, १)। का एक शिखर (इक)। कच्चूर [कचूर] वनस्पति-विशेष, कचूर, कच्छकर पु[दे] काछिआ, सब्जी बेचने- कच्छादब्भ पुं [दे. कक्षादर्भ] रोग विशेष वाला। (लोक प्र० ४६४, २, ३१---सर्ग)। काली हलदी (श्रा २०)। (सिरि ११७) । कचोल । पुन [कचोलक] पात्र-विशेष, कच्छगावई स्त्री [कच्छकावती] महाविदेह | कच्छ स्त्री [कच्छू] : खुजली, खाज, रोगकचोलय प्याला (पउम १०२, १२; भवि वर्ष का एक विजय-प्रदेश (ठा २, ३)। । विशेष (प्रासू २८)। २ खाज को उत्पन्न सुपा २०१)। कच्छट्टी स्त्री [दे] कछौटी, लँगोटी, कछनी करनेवाली औषधि, कपिकच्छ (पएह २, कच्छ कक्ष १ काँख, कखरी। २ वन, (रंभा -टि)। ५)। ल, ल्ल वि [मत् ] खाज रोगजंगल (भग ३, ६)। २ तृण, घास । ४ / कच्छभ पु[कच्छप] १ कूम, कछुपा (परह वाला (राज; विपा, १, ७)। शुष्क तृण । ५ वल्ली, लता। ६ शुष्क काष्ठों १,१ णाया १, १) २ राहु, ग्रह-विशेष कच्छुट्टिया स्त्री [दे. कच्छपटिका कछौटी, वाला जंगल। ७ राजा वगैरह का जनान (भग १२, ६)। रिंगिय न ["रिङ्गित लँगोटी (रंभा)। खाना। ८ हाथी को बाँधने की डोर । ६ ___ गुरु-वन्दन का एक दोष, कछुए की तरह कच्छुरिअ वि [दे] १ इर्षित, जिसकी ईर्ष्या पावं. वाजू । १० ग्रह-भ्रमण । ११ कक्षा, । चलते हुए वन्दन करना (बृह ३; गुभा)। की जाय वह । २ न. ईर्ष्या (दे २, १६)। श्रेणी । १२ द्वार, दरवाजा । १२ वनस्पति- कच्छभाणिया स्त्री [दे] जल में होनेवाली कच्छुरिअ वि [कच्छुरित] व्याप्त, खचित विशेष, गूगल । १४ विभीतक वृक्ष। १५ वनस्पति-विशेष (सूत्र २, ३, १८)। (कुम्मा ६ टी)। घर की भीत। १६ स्पर्धा का स्थान। १७ / कच्छभी स्त्री [कच्छपी] १ कच्छप-स्त्री, | कच्छुरी स्त्री [दे] कपिकच्छु, केवाँच (दे जल-प्राय देश (हे २,१७)। । कूर्मी। २ वाद्य-विशेष (पएह २, ५)। ३, २, ११)। For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कच्छुल–कट्ठा पाइअसहमहण्णवो २१५ कच्छल पुं[कच्छुल] गुल्म-विशेष (परण उत्तिगेण पासवइ, उवरुवरि या गावा कज्ज- | कट्टोरग पुं[दे] कटोरा, प्याला, पात्र-विशेष; १-पत्र ३२)। लावेई' (पाचा २, ३, १, १६)। वकृ. 'तो पासेहिं करोडगा कट्टोरगा मंकुप्रा कच्छुल्ल पुं [कच्छुल्ल] स्वनाम ख्यात एक कजलावेमाण (प्राचा २, ३, १, १६)।। सिप्पागो य ठविज्जति' (निचू १)। नारद मुनि (णाया १,१६)। कजलिअ देखो कज्जलइअ (से २, ३६; कट्ठ न [कष्ट] १ दुःख; पीड़ा, व्यथा (कुमा)। कच्छू देखो कच्छु (प्रासू ७२)। गउड)। २ पाप । ३ वि. कट-दायक, पीड़ा-कारक कच्छोटी स्त्री [दे] कछौटी, लंगोटी कन्जव [दे] १ विष्ठा, मैला । २ तृण (हे २, ३४६०)। हर न [गृह] कठ(रंभा-टि)। | कजवय ) वगैरह का समूह, कूड़ा, कतवार घरा, काठ की बनी हुई चारदीवारी (सुर २, कज वि [कार्य] १ जो किया जाय वह । २ (दे २,११; उप १७६ ५६३%; स २६४ १८१)। करने योग्य । ३ जो किया जा सके (हे २, दे ६, ५६, अणु)। कट्ठ न [काष्ठ] काठ, लकड़ी (कुमा; सुपा २४)। ४ न. प्रयोजन, उद्देश्यः 'न य साहेइ कन्जिय वि [कार्यिका कार्यार्थी, प्रयोजनार्थी __३५४) । २ पुं. राजगृह नगर का निवासी सकज्ज' (प्रासू २७, कप्पू)। ५ कारण, हेतु (वव ३)। एक स्वनाम-ख्यात श्रेष्ठीं। (प्रावम)। कम्मत (वव २)। ६ काम, काज; कजोवग पुं [कार्योपग] अठासी महाग्रहों न [कर्मान्त] लकड़ी का कारखाना (प्राचा 'अन्नह परिचितिज्जइ, में एक ग्रह का नाम (ठा २, ३-पत्र ७८) । २, २)। करण न [°करण] श्यामक-नामक सहरिसकंडुज्जएण हियएण। गृहस्थ के एक खेत का नाम (कप्प) । कार कज्माल न [दे] सेवाल, एक प्रकार की परिणमइ अन्नह च्चिय, पुं[कार] काठ-कर्म से जीविका चलानेवाला घास, जो जलाशयों में लगती है (दे २, ८)। कज्जारंभो विहिवसेरण' (अणु) । कोलंब पुं [कोलम्ब] वृक्ष की कटरि (अप) अ [कटरे] इन अर्थों का शाखा के नीचे झुकता हुआ अग्र-भाग (मनु)। द्योतक अव्यय-१ आश्चर्य, विस्मय; 'कटरि जाण वि [ज्ञ] कार्य को जाननेवाला (उप खाय पु[खाद] कीट-विशेष, घुण (ठा थणंतरु मुद्धडहे, जे मणु विच्चिन माई' (हे ९४८) सेण कुं[सेन अतीत उत्सर्पिणी ४)। दल न [दल] रहर की दाल ४, ३५०)।२ प्रशंसा, श्लाघाः ‘कटरि भालु काल में उत्पन्न स्वनाम ख्यात एक कुलकर (राज) । पाउया स्त्री [°पादुका] काठ का सुविसालु, कटरि मुहकमल पसन्निम' (धम्म जूता, खड़ाऊँ (अनु ४)। पुत्तलिया स्त्री. पुरुष (सम १५०)। ११ टी)। कजआ (शौ) स्त्री [कन्यका] कन्या, कुमारी | [पुत्तलिका] कठपुतली (अणु)। पेजा कटार (अप) न [दे] छुरी, क्षुरिका (हे ४, स्त्री [पेया] १ मूंग वगैरह का क्वाथ । २ (प्राकृ ५७)। कजउड पुं[दे] अनर्थ (दे २, १७)।। घृत से तली हुई तण्डुल की राब (उवा)। कट्ट सक [कृत् ] काटना, छेदना। कट्टर कजमाण वि [क्रियमाण जो किया जाता महु न [मधु] पुष्प-मकरन्द (कुमा)। (भवि)। संकृ. कट्टि, कट्टिवि, कट्टिअ हो वहः 'कज्जं च कज्जमाणं च प्रागमिस्स मूल न [मूल द्विदल धान्य, जिसका दो (रंभाः भविः पिंग)। टुकड़ा समान होता है ऐसा चना, मूंग आदि च पावगं (सूत्र १,८)। कट्ट वि [कृत्त] काटा हुअा, छिन्न (उप अन्न (बृह १)। हार पुं [हार] त्रीन्द्रिय कजल न [कज्जल] १ काजल, मसी। २ १८०)। जन्तु-विशेष, क्षुद्र कीट-विशेष (जीव १)। अब्जन, सुरमा ( कुमा)। पभा स्त्री कट्ट न [कष्ट] १ दुःख । २ वि. कष्ट-कारक, हारय पुं[हारक] कठहरा, लकड़हारा [प्रभा] सुदर्शना-नामक जम्बू-वृक्ष को उत्तर कष्टदाई (पिंग)। (सुपा ३८५) । दिशा में स्थित एक पुष्करिणी (जोव ३) । कट्टर पुन [दे] कढ़ी में डाला हुआ घी का कट्ठ वि [कृष्ट] विलिखित, चासा हुआ; 'खीरकजलइअ वि [कजलित] १ काजलवाला । बड़ा, खाद्य-विशेष (पिंड ६३७)। दुमहेट्ठपंथकट्ठोल्ला इंधणे य मीसो य' (प्रोघ २ श्याम, कृष्ण (पाय)। कट्टर न [दे] खण्ड, अंश, टुकड़ा: 'से जहा ३३६)। कजलंगी स्त्री [कजलाङ्गी] कज्जल-गृह, __ चित्तयकट्टरे इ वा वियाणपट्टे इ वा (अनु)। कट्ठण न [कर्षण ] आकर्षण, खींचाव दीप के ऊपर रखा जाता पात्र, जिसमें काजल कट्टराय न [दे] छुरी, शस्त्र-विशेष (स १४३)। (गउड)। इकट्ठा होता है, कजरौटी (अंत, णाया १, | कट्टारी स्त्री [दे] क्षुरिका, छुरी (दे २, ४)। कट्ठहार पुं [काष्ठहार] कठहरा, लकड़हारा, १-पत्र ६)। कट्टिअ वि [कत्तित] काटा हुआ, छेदित | काष्ठवाहक (कुप्र १०४)। कजला स्त्री [कजला] इस नाम को एक (पिंग)। कट्ठा स्त्री [काष्ठा] १ दिशा (सम ८८)।२ पुष्करिणी (इक)। कटु वि [कर्त] कर्ता, करनेवाला (षड्)। हद, सीमाः 'कवडस्स अहो परा कट्टा' (श्रा कजलाव अक [बुड्] डूबना, बूड़नाः कट्टु प्र[कृत्वा] करके (गाया १, ५; कप्प १६) । ३ काल का एक परिमाण, अठारह 'पाउसंतो समणा ! एयं ते णावाए उदयं । भग)। निमेष (तंदु)। ४ प्रकर्ष (सुज ६)। Jail Education International For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ पाइअसहमहण्णवो कट्ठिअ-कडप्प कट्रिअ ' [दे] चपरासी, प्रतीहार (दे २, हुई माननेवाला, जगत्कर्तृत्ववादी (सून १, कडक्खण न [कटाक्षण] कटाक्ष करना १,१) इ पुं दि ] देखो जोगि (भगः (भवि)। कट्रिअ वि [काष्ठित] काठ से संस्कृत भीत गाया १, १-पत्र ७४)। देखो कय - कडक्खिअ वि [कटाक्षित] १ जिसपर वगैरह (माचा २, २)। कृत। कटाक्ष किया गया हो वह (रंभा)। २ न. कट्रिण देखो कढिण (नाट-मालती ५९)। कडअल्ल पुं[दे] दौवारिक, प्रतीहार (दे २, कटाक्ष (भवि)। कट्रेअ वि [काटेय] देखो कट्रिअ-काष्ठित १५)। कडग पुंन [कटक] १ कड़ा, वलय, हाथ का (प्राचा २, २,१, ६)। कडअल्ली स्त्री [दे] कराठ, गला (दे २, १५)। आभूषण-विशेष (गाया १,१)। २ यवनिका, परदाः 'अन्नस्स सग्गगमणं होही कडंतरेण तं कट्ठोल देखो कट्ठ = कृट (पिंड १२)। कडइअ पुं[दे] स्थपति, बढई (द २, २२)। कडइअ वि [कटकित] वलय की तरह सब्वं । निसुयमुवज्झाएण' (उप १६६ टी)। कड वि [दे] १ क्षीण, दुर्बल । २ मृत, विनष्ट स्थित (से १२, ४१)। ३ पर्वत का मूल भाग। ४ पर्वत का मध्य (दे २,५१)। कडइल्ल पुं[दे] दौवारिक, प्रतीहार (दे २, भाग । ५ पर्वत की सम भूमि । ६ पर्वत का एक कड पुं[कट] १ गएड-स्थल, गाल (गाया १, १५)। भागः 'गिरिकंदरकडगविसमदुग्गेसु' (पञ्च ८२; १. पत्र ६५)। २ तृण, घास। ३ चटाई, कडंगर न [कडङ्गर तुष, छिलका, भूसा (सुपा पएह १, ३ रणाया १,४.१८)। ७ शिबिर, स्तरण-विशेष (ठा ४, ४. पत्र २७१)। १२९)। सेना रहने का स्थान (बृह २)। ८ पुं. देश४ लकड़ी, यष्टि; 'तेसि च जुद्धं लयालिट् ठुकडंत न [दे] मूली, कन्द विशेष । २ मुसल विशेष (णाया १,१-पत्र ३३)। देखो कडपासारणदंतनिवाएहि (वसु)। ५ वंश, (दे २, ५६)। कडय। बांस (विपा १, ६, ठा ४, ४)। ६ तृणकडंतर न [दे] पुराना सूपं आदि उपकरण कडच्छु स्त्री [दे] कर्ची, चमची, डोई (दे २, विशेष (ठा ४, ४)। ७ छिला हुआ काष्ठ (दे २, १६)। (पाचा २, २, १)। च्छेज्ज न [च्छेद्य] कडण न [कदन] १ मार डालना, हिसा कला विशेष (प्रौपः जे २)। "तड न ["तट] कडंतरिअ वि [दे] दारित, विदारित, विना करना । (कुमा)। २ नाश करना । ३ मर्दन । १ कटक का एक भाग । २ गण्ड-तल (णाया शित (दे २, २०)। ४ पाप। ५ युद्ध। ६ विह्वलता, पाकुलता १,१) । पूयणा स्त्री [ पृतना] व्यन्तरी. कडंब पुं [कडम्ब] वाद्य विशेष (विसे ७८ (हे १, २१७)। विशेष (विसे २५४६)। टी)। कडण न [कटन] १ घर की छत । २ घर कड वि [कृत १ किया हुआ, बनाया हुआ, कडंबा पुंस्त्री [कदम्बा] वाद्य-विशेष (राय पर छत डालना (गच्छ १)। रचित (भग; पण्ह २, ४, विपा १, १ कडण न [कटन] चटाई आदि से घर का कप्प; सुपा २६) । २ पुंन. युग-विशेष, सत्ययुग, कडंभुअ न [दे] १ कुम्भग्रीव-नामक पात्र- संस्कार, चटाई आदि से घर के पार्श्व भागों (ठा ४, ३) । ३ चार की संख्या (सूम १, विशेष । घड़े का कण्ठ-भाग (दें २, २०)। का किया जाता आच्छादन (प्राचा २, २, २)। "जुग न [ युग] सत्य-युग, उन्नति कडक देखो कडग (नाट–रत्ना ५८)। ३, १ टी; पव १३३)। का समय, आदि युग, १७२८००० वर्षों का कडकडा स्त्री [कडकडा] अनुकरण शब्द कडणा स्त्री [कटना] घर का अवयव विशेष यह युग होता है (ठा ४, ३)। जुम्म विशेष, कड़कड़ आवाज (स २५७; पि (भग ८,६)। पुं[युग्म] सम राशि-विशेष, चार से भाग ५५८ नाट-मालती ५६)। कडणी स्त्री [कटनी] मेखला, 'सुरगिरिकड. देने पर जिसमें कुछ भी शेष न बचे ऐसी रिणपरिट्रियचंदाइचारण सिरिमणुहरंति' (सुपा कडकडिअ वि [कडकडित] जिसने कड़कड़ राशि (ठा ४, ३)। जुम्मकडजुम्म पुं ६१५)। [युग्मकृतयुग्म] राशि-विशेष (भग ३४, आवाज किया हो वह, जीर्ण (सुर ३,१६३)। कडतला स्त्री [दे] लोहे का एक प्रकार का १)। जुम्मकलिओय [युग्मकल्योज] कडकडिर वि [कडकडायित] कड़-कड़ __ हथियार, जो एक धारवाला और वक्र होता राशि-विशेष (भग ३४, १)। जम्मतेओग आवाज करनेवाला (सण)। है (दे २, १६)। पुं[युग्मयोज] राशि-विशेष (भग ३४, कडक्किय न [कडकित] कड़कड़ आवाज कडत्तरिअ वि[दे देखो कडंतरिअ (भवि)। १)। जुम्मदावरजुम्म पुं [जुग्मद्वापर- (सिरि ६६२) । कडद्दरिअ वि [दे] १ छिन्न, काटा हुआ। युग्म] राशि-विशेष (भग ३४, १)। जोगि कडक्ख पुं[कटाक्ष] कटाक्ष, तिरछी चितवन, २ न. छिद्रता (षड)। वियोगिन] १ कृत-क्रिय (निचू १)। भाव-युक्त दृष्टि, आँख का संकेत (पापः सुर कडप्प [दे. कटप्र] १ समूह, निकर, २ गोतार्थ, ज्ञानी (ोध १३४ भा)। ३ १, ४३; सुपा ६)। कलाप दि २, १३; षड् गउड सुपा ६२; तपरवी (नित्तू १)। वाइ पुं [°वादिन] कडक्ख सक [ कटाक्षय ] कटाक्ष करना । भवि; विक्र ६५)। २ वस्त्र का एक भाग राष्ट्रि को नैसगिक न मानकर किसी की बनाई कडक्खइ (भवि) । संकृ. कडक्खेवि (भाव)। (दे २, १३)। For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडमड-कड्ढण डमड पुंन [दे] उद्वेग ( संक्षि ४७) । कड न [कटक] ऊख आदि की यष्टि (आचा २, १०, २ ) । कडय देखो कडग (सुर १, १६३० पात्र गउड महा सुपा १६२; दे ५, ३३) । लश्कर, सैन्य (ठा ) । १० पुं. काशी देश का एक राजा (महा) । ई स्त्री [ती] राजा कटक की एक कन्या (महा) । कडड पुं [ कडकड ] कड़कड़ आवाज, 'कत्थइ खरपवहारायकडम ( ? ) डभजंत दुमगहणं' (पउम ६४, ४४ ) । कडियन [दे] परावर्तित फिराया हुआ हुआ म पवि गिरिवरु' (सुपा १७६ ) । कान [] मारिल नरियर (२१०) । कडार [कडार ] १ वर्ण-विशेष, तामड़ा वर्णं, भूरा रंग । २ वि. कपिल वर्णवाला, भूरा रंग का, मटमैला रंग का (पारयण ७७ सुपा ३३३ १२) । कवि [कटिन] पटायाला (१४४) कडसक्करा स्त्री [दे] वंश शलाका, बाँस की कडिअ वि [ कटित ] १ कट-चटाई से सलाई वा १६) । माच्छादित (मप) २ कट से संस्कृत कप्प | (याचा २ २ १) एक दूसरे में मिला । ३ हुआ 'एकयिकटिया (श्रीप 1 कडसार न [कटसार] मुनि का एक उपकरण, आरून 'न वि लेइ जिरणा पिछ (? निविडि कसार' (विवार १२ ) । कडसी स्त्री [?] श्मशान, मसान (दे २, ६) । कडहू पुं [ कटभू ] वृक्ष - विशेष (बृह १ ) । [का] [भी] [] कड़ी सिकड़ी, अंजीर की लड़ 'यो निगुरो तत्तों' (सुपा ४१४) । कडाली स्त्री [दे. कटालिका] घोड़े के मुँह पर बांधने का एक उपकरण ( अनु ६) । काह [कटाह ] १ कड़ाह, लोहे का पात्र, लोहे की बड़ी कड़ाही ( अनु ६, नाटमुद्र ३) २ वृक्ष विशेष (पउम १३.७१) ३ पाँजर की हड्डी, शरीर का एक श्रवयव ( पराग १ ) । कडाइपस्थिन [दे] दोनों पावों का अपवर्तन पायों को घुमा-फिराना (दे २, २५) । कडि स्त्री [कटि] १ कमर, कटी (विपा १, २ अनु ६ ) । २ वृक्षादि का मध्य भाग २८ पाइअसद्दमद्दण्णवो । १ कटी-तट । (१) "वडन ["तट]२ मध्य भाग (राय) । 'पट्टथ न [पट्टक] घोती, वस्त्र- विशेष ( बृह ४ ) । पन्त न [प] १ सांदि वृक्ष की पत्ती २ पतली कमर ( अनु ५) । यल न [' तल ] कटीप्रदेश (भविन ["टीय] देखो कडिल (दे) का दूसरा अर्थ । दट्टी स्त्री [पट्टी ] कमर का पट्टा, कमरपट्टा (सुपा ३३१) । त्थन [ वस्त्र ] धोती, कमर में पहनने का कपड़ा (दे २, १७) । सुत्त न ['सूत्र ] कमर का आभूषण, मेखला (सम १८३३ पप्पू । हत्य["हस्त] कमर पर रखा हुआ हाथ (दे २, १७) । डिवि [ दे] प्रीणित, खुशी किया हुआ ( पड् ) । कडिखंभ पुं [दे] १ कमर पर रखा हुआ हाथ (पाय दे २, १७) । २ कमर में किया हुआ श्राघात (दे, २, १७ ) । कडि म [दे] - विशेष (सू २,२,७) । कडित्त देखो कालत्त (गाया १, १ टीपत्र ६) । कडिभिल्ल न [ दे ] शरीर के एक भाग में होनेवाला कुष्ठविशेष (२) । कडिल्ल वि [दे ]१ छिद्र-रहित, निश्छिद्र ( दे २, ५२: षड् ) । २ न. कटी-वस्त्र, कमर में पहनने का वस्त्र, पोटी वगैरह (दे २, ५२० पात्रः षड् सुपा १५२ कप्पू भविः विसे २६०० ) । ३ वन, जंगल, अटवी; संसारभवकडिल्ले, संजोगवियोग सोगतरुगहणे । तुम सत्यानाह उप ( पउम २, ४५ व २३ दे २, ५२ ) । ४ वि. गहन, निविड, सान्द्र; 'भिल्लि भिल्लायइकडिल्लं' (उप १०३१ टी दे २, ५२; षड्) । ५ श्राशीर्वाद, प्रासीस । ६ पुं. दौवारिक, प्रतीहार । ७ विपक्ष, शत्रु, दुश्मन (दे २, ५२; षड् ) । ८ कटाह, लोहे का बड़ा पात्र (ओघ २ ) ९ उपकरण- विशेष (दस ६) । For Personal & Private Use Only २१७ कही देखो कडि (सुवा २२१) । कड्ड अ } विशेष (ठा १) । ३ वि. तीता, तिक्त ) पुं [कटुक] १ कडुआ, तिक्त, रसकडुअ रस-वाला ( से १, ६१ कुमा) । ३ अनिष्ट ( परह २, ५) । ४ दारुण, भयंकर ( परह १, १) । ५ परुष, निष्ठुर (नाट - रत्ना ६६ ) । ६ स्त्री. वनस्पति- विशेष, कुटकी (हे २, १५५) । कडुअ (शौ) अ [कृत्वा ] करके (हे २, २७२) । कडुआल पुं [ दे ] घण्टा, घण्ट (दे २, ५७) । २ छोटी मछली (दे २, ५७; पात्र ) । बहुवि [कटुति] १ मा किया हुआ। २ दूषित (गउड ) । कटुइया श्री [कटुकी] वल्ली-विशेष कुटकी (१) । करुय क पुंस्त्री [ दे] देखो कडच्छुः 'धूवकडुच्छयहत्या' (सुपा ५१; पान निर ३, १ धम्म) । कडुयावि वि [दे] १ प्रहृत, जिस पर प्रहार किया गया हो वह (उप पृ ६५) । २ व्यथित, पीड़ित 'साय ( चोरधाडी) कुमारपहारकडुयाविया भग्गा परम्मुहा कया' (महा) | ३ हराया हुआ, पराभूत ४ भारी विपद् में फँसा हुआ (भवि ) । कडूइद (सी) वि [कृत] बटुक दिया कुचा (नाट कडेवर न [कलेवर] शरीर, देह ( राय हे ४, ३६५) कड्ढ सक [ कृष ] १ खींचना । २ वास करना । ३ रेखा करना । ४ पढ़ना । ५ उच्चारण करना । कड्डइ (हे ४, १८७ ) 1 वकृ. कडूढंत, कड्ढमाण (गा ६८७३ महा) । कवकृ. कदिज्जंत, कड्ढिज्जमाण ( से ५, २६६, ३६० परह १, ३) । संकृ. कड्ढिऊण, कडूढेउ, कड्ढित्तु कढिय (महा), 'कड्ढेतु, नमोक्कार' ( पंचव), कड्ढि ( पि ५७७ ) । कृ. कड्ढेयव्व (मुपा २३६) । कड्ड [क] लोचान (उत १२) । कटून [कर्षेण] [१] [सचा खींचाव, श्राकर्षण, Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ पाइअसहमहण्णवो कढणया-कणय (सुपा २६२) । २ वि. खींचनेवाला, प्राकर्षक | कण सक [कण] आवाज करना। करणइ कणकणकण अक [द] करण-करण अावाज (उप पृ २७७)। (हे ४, २३६)। करना । करणकरणकरणंति (पउम २६, ५३)। कड्ढणया स्त्री [कषणता] प्राकषण (उप कण पु[कण] १ करण, लेश; 'गुणकणमवि वकृ. कणकणकणंत (पउम ५३, ८६)। पृ २७७) परिकहिउ न सक्कई' (साध ७६)। २ कण कणग ' [कनकनक ] ग्रह-विशेष, कड्ढाविय वि [कर्षित] खींचवाया हुआ, विकीणं दाना (कुमा)। ३ वनस्पति-विशेष, | ग्रहाधिष्ठायक देव विशेष (ठा २, ३)। बाहर निकलवाया हुअा (भवि)। (परण १)। ४ पुं. एक म्लेच्छ देश (राज)। कणकणिअ वि [कणकणित] कण-करण कढिअ वि [दे] बाहर निकला हुआ, ५ ग्रह-विशेष, ग्रहाधिष्ठायक देव-विशेष अावाजवाला (कप्पू)। गुजराती में 'काढेलु'; 'तो दासीहिं सुरगउ ब्व (ठा २, ३–पत्र ७७)। ६ तण्डुल, प्रोदन कणखल न [दे] उद्यान-विशेष (सट्टि ६ टी)। कड्ढिो कुट्टिऊण बहिं (सिरि ६८६)। (उत्त १२)। ७ कनिक (प्राचा २, १)। कणग वि [कानक] सुवर्ण-रस पाया हुआ कविय वि [कृष्ट] १ आकृष्ट, खींचा हुआ ८ बिंदु: बिंदुइग्रं करणइन' (पान)। अ (कपड़ा) (पाचा २, ५, १, ५)। पट्ट वि (पएह १, ३)। २ पठित, उच्चारित (स वि [°वत् ] बिन्दुवाला (पान)। [कुंडग] [पट्ट] सोने का पट्टावाला (ग्राचा २, ५, १८२) पुं [कुण्डक] प्रोदन की बनी हुई एक कड्ढोकड्ढ न [कर्षापकर्ष ] खींचातान भक्ष्य वस्तु; 'करणकुंडगं चइताणं विट्ठभुंजइ कगग देखो कण (कप्प)। (उत्त १६)। सूयरो' ( उत्त १२)। पूपलिया स्त्री [पूपलिका] भोजन-विशेष, कणिक (पाटा) कणग [दे] देखो कणय = (दे) (पएह १, कढ सक [कथ्] १ क्वाथ करना। २ की बनाई हुई एक खाद्य वस्तु (प्राचा २,१)। उबालना। ३ तपाना, गरम करना। कढइ कणग पू[कनक] १ ग्रह विशेष, ग्रहाधिष्ठायक भक्ख पुं[भक्ष] वैशेषिक मत का (हे ४, २२०)। वकृ. कढमाण (पि प्रवर्तक एक ऋषि (राज)। वित्ति स्त्री देव विशेष (ठा २, ३-पत्र ७७)। २ २२१)। कवकृ. 'राया जंपइ एयं सिंचह रे रेखा-सहित ज्योतिः-पिण्ड, जो आकाश से [वृत्ति भिक्षा, भीख (सुपा २३४) । रे कढंततिल्लेरण' (सुपा १२०), कढीअमाण 'वियाणग पुं [वितानक] देखो कणग गिरता है (ोघ ३१० भा; जी ६)। ३ (पि २२१)। बिन्दु । ४ शलाका, सलाई (राज)।५ घृतवर वियाणग (सुज्ज २०; इक)। संताणय कढकढकढेंत वि [कडकडायमान] कड़-कड़ द्वीप का अधिपति देव (सुज १९)। ६ बिल्व पुं[संतानक] देखो कणग-संताणय आवाज करता (पउम २१, ५०)। वृक्ष, बेल का पेड़ (उत्तनि. ३)। ७ न. (इक)। द पुं[द] वैशेषिक मत का कढण न [कथन] क्वाथ करना, 'रागगुणेणं सुवर्ण, सोना (सं ६४; जी ३)। कंत वि प्रवर्तक ऋषि (विसे २१६४) । यण्ण वि पावइ खंडणकढणाई मंजिट्ठा' (कुप्र २२३)। [कान्त] १ कनक की तरह चमकता ["कीर्ण] बिन्दुवाला) (पान)। कढिअ न [दे] कढ़ी (पिंड ६२४)। (प्राचा २, ५, १) ।२ . देव-विशेष (दीव)। कण पुंकण] शब्द, आवाज (उप पृ१०३)। कुड न [कूट] १ पर्वत-विशेष का एक कढिअ वि [कथित] १ उबाला हुआ। २ | कणइकेउ पुं [कनकिकेतु] इस नाम का | शिखर (जं ४) । २ पुं. स्वर्ण मय शिखरवाला खूब गरम किया हुमा, 'कढिप्रो खलु निबरसो एक राजा (दंस)। पर्वत (जीव ३)। केउ पुं [केतु] इस अइकडुप्रो एव जाएई' (श्रा २७ प्रोध १४७; नाम का एक राजा (णाया १, १४)। सुपा ४६६)। कणइपुर न [कनकिपुर] नगर-विशेष, जो महाराज जनक के भाई कनक की राजधानी 'गिरि पुं[गरि] १ मेरु पर्वत। २ स्वर्णकढिआ स्त्री [दे] कढ़ी, भोजन-विशेष (दे थी (ती)। प्रचुर पर्वत (औप) । उभय पुं [ध्वज] २, ६७)। कणइर पुं [कर्णिकार ] कणेर, वनस्पति- इस नाम का एक राजा (पंचा ५)। पुर न कढिण वि[कठिन] १ कठिन, कर्कश, विशेष (पएण १-पत्र ३२)। [पुर] नगर विशेष (विपा २, ६) "पभ कढि गग। कठोर, परुष (पएह १, ३, पात्र)। कोकणइल्ल पुं [दे] शुक, तोता, सुग्गा, सुग्रा २ न. तृण-विशेष (प्राचा २, ३, ३) । ३ पुं[प्रभ] देव-विशेष (सुज १६)। पभा (दे २,२१ षड् ; पाप्र)। स्त्री [प्रभा] १ देवी-विशेष । २ 'ज्ञातापर्ण, पत्ता (परह २, ५)। धर्मसूत्र' का एक अध्ययन (णाया २, १)। कढोर वि [कठोर] १ कठिन, परुष, निष्ठुर । कणई स्त्री [दे] लता, वल्ली (दे २, २५ फुल्लिअ न [पुष्पित] जिसमें सोने के फूल २ पुं. इस नाम का एक राजा (पउम ३२, षड्। स ४१६७ पाप)। लगाए गए हों ऐसा वस्त्र (निचू ७७)। माला २३)। कणंगर न [कनगर पाषाण का एक प्रकार स्त्री [ माला] १ एक विद्याधर की पुत्री कण सक [क्वण] शब्द करना, आवाज - का हथियार (विपा १, ६)। (उत्त ६)। २ एक स्वनाम ख्यात साध्वी करना । कणइ (हे ४, २३६)। वकृ. कणंत कणकण पुं [कण कण कण-करण पावाज | (सुर १५, ६७) । रह पुं [रथ] इस नाम (सुर १०,२१८ वज्जा ६६)। (प्रावम)। का एक राजा (ठा ७, १०)। °लया स्त्री For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कणगसत्तरि-कणूया ['लता] चमरेन्द्र के सोम नामक लोकपाल देव की एक श्रग्रमहिषी (ठा ४, १ - पत्र २०४) । वियाग [वितानक] ग्रह विशेष ग्रहाधिष्ठायक देव-विशेष (ठा २ ३; पत्र ७७) । 'संताणग पुं [°संतानक] ग्रह-विशेष ग्रहाधिहादेव-विशेष (डा २३७७)[] १ सुवर्ण का एक आभूषण, सुवर्ण की मणियों से बना प्राभूषण ( अंत २७ ) । २ तप विशेष, एक प्रकार की तपश्चर्या (श्रौप) । ३. पुं. द्वीप - विशेष ४ समुद्र- विशेष ( जीव ३) । लिपविभत्ति स्त्री [विलप्रविभक्ति ] नाथ का एक प्रकार (राय) । बलिभद [["बलिभद्र ] कनकालि द्वीप का एक भादेवी) सिदामद पुं [ लिमहाभद्र] कनकावलिवर नामक समुद्र का एक अधिक देव (जीव )। महावर [लमहावर ] कनकावलिवर नामक समुद्र का एक अधिष्ठाता देव (ज) र [विलियर] १ २ इस नाम का एक इस नाम का एक द्वीप समुद्र कनकावलिवर समुद्र का अधिष्ठाता देव-विशेष ( जीव ३) । वलिवरभद्द पुं [विरभद्र ] कनकावलिवर द्वीप का एक अधिपति देव ( जीव ३) । वलिवरमहाभद्द [परमहाभद्र] महाबलिवर नागक द्वीप का एक अधिष्ठाता देव ( जीव ३ ) । विभास [लिवरावभास] १ इस नाम का एक द्वीप। २ इस नाम का एक समुद्र ( जीन २) लिपरोभासभद [विरावभासभद्र ] कनकावलिवराव - भास द्वीप का एक अधिष्ठाता देव ( जीव ३) । विविरोभासमहाभद्द [विलिवरावभासमहाभद्र] कनकावलिवरावभास द्वीप का एक देव जी ३) ि वरोभासमहावर [विरावभास महावर] कनकापतिवार का एक अधिष्ठाता देव ( जीव ३ ) । विविरोभास [विभासवर] कनकावलि - वरावभास-समुद्र का एक अधिष्ठाता देव (जीव ३) वली स्त्री [व] देखो वलि का पाइअसद्दमहण्णवो २१९ पहला और दूसरा धर्म (२७१) देखो क[ि]तिः 'कही कणय कनक । कणगसत्तरि स्त्री [कनकसप्तति] एक प्राचीन | नेत्र शास्त्र ( ३६ ) । कणगा स्त्री [कनका] १ भीम-नामक राक्षसेन्द्र की एक अग्रमहिषी (ठा ४, २ - पत्र ७७) २ चमरेन्द्र के सोम नामक लोकपाल की एक अग्र-महिषी (ठा ४, २) । ३ गायाधम्मकहा' सूत्र का एक अध्ययन (गाया २, १) ४-विशेष की एक जाति चतुरिन्द्रियजीव विशेष जीव १) । कणगुत्तम पुं [ कनकोत्तम ] इस नाम का एक देव (दीव) । काय पुं [दे] १ फूलों को इकट्ठा करना, अवचय । २ बारा, शरः श्रसिखेडयकरणयतोमर' (पउम ८ ८ १, १, दे २, ५६० पान ) । कणय पुन [ कनक ] एक देव विमान (देवेन्द्र १४४) । कणय देखो कणग = कनक (प्रोघ ३१० भा प्रासू १५६: हे १, २२८ उवः पात्र महा कुमा) पं. राजा जनक के एक भाई का नाम ( पउम २८, १३२ ) । ६ रावण का इस नाम का सुभट ( पउम ५६, ३२) । १० धतूरा, वृक्ष- विशेष (से ९, ४८) ११ वृक्षविशेष ( पराग १ - पत्र ३३) । १२ न. छन्द-विशेष (पिंग)। पव्यय [पत] देवी का गिरि (सुपा ४३) भय [य] सुवर्ण का बना हुआ (सुपा २० ) । भन [भ] विद्याधरों का एक नगर (इक) । ली स्त्री [ली] घर का एक भाग (गाया १, १ – पत्र १२ ) । वली स्त्री [वली ] देखो कणगावली । ३ एक राजपत्नी ( पउम ७, ४५) । कणयंदी स्त्री [दें] वृक्ष-विशेष, पाउरी, पाढल (२, ५८ ) । पणिय [कवितानक] देखो कणबाग ( २० ) । कवी स्त्री [दे] कन्या ( वजा १०८ ) । [] कणवीर पुं [करवीर ] १ वृक्ष-विशेष, कनेर ( हे १, २५३३ सुपा १५१ ) । २ न. कणेर का फूल ( परह १, ३) । For Personal & Private Use Only (पा)। कणिआर देखो कण्णिआर (कुमाः प्रात्र; हे २, ६५ ) । कणिआरिअ वि [दे] १ कानी आँख से जो देखा गया हो वह । २ न. कानी नजर से देखना (दे २, २४) | कणिका स्त्री [कणिका ] कनेक, रोटी के लिए पानी से भिजाया हुआ आटा (दे १, ३७) । कणिक वि[कणिक्क] मत्स्य-विशेष (जीव १) । कणिक्का देखो कणिका (श्रा १४) । कणि वि [कनिष्ट] छोटा लघु म १५, १२ : हे २, १७२) । २ निकृष्ट, जघन्य (मा)। कणिय न [ कणित] ९ श्रात्तं स्वर । २ आवाज यति मात्र ४) । } कणिय देखो कणिका (कप्प ) । २ कणिया करिका, चावल का टुकड़ा धापा २, १८) कुंड देख-कुंद (स ४५७) । कणिया स्त्री] [कविता] दीणा-विशेष (जीव ३) । afra [णि] श्रावाज करनेवाला (उप १०३० पान ) । कपिल न [ कनिल्य] नक्षत्र - विशेष का गोत्र (इ) । कांता स्वी[कनिष्ठिका] छोटी अंगुली वि० [१] श्लो० १७५३) कणिस न [कणिश ] सस्य-शीर्षक वाल्यका अग्र भाग (दे २,६ ) । कणिस न [दे] किशारु, सस्य- शुक, सस्य का तीक्ष्ण अग्र भाग (दे २, ६० भवि ) । कणीअ किनीयस् ] छोटा ल कणीअस 'तस्य भाया करणीससो पहू नाम' वेणी १०२ कप घेत १४) । कीजिया स्त्री [कनीनिका] १ तारा । २ छोटी उंगली (राज) । कणीर देखो कर (ट) । कणुय न [कणुक] त्वग् वगैरह का अवयव ( श्राचा २, १, ८ ) । कणूया देखो कणिया = करिणका ( कस) । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० पाइअसहमहण्णवो कणेड्ढि आ-कण्ह कणेढिआ स्त्री [दे] गुजा, धुंघची (दे २, [शोधन कान का मैल निकालने का एक वि. उस देश में उत्पन्न, वहां का निवासी २१)। उपकरण (निचू ४)। हार पुंगधार देखो (कप्पू)। कणेर देखो कणिआर (हे १, १६८: पि धार (मच्नु २४ स ३२७)। देखो कन्न। कण्णास पुं[दे] पर्यन्त, अन्त-भाग (दे २, २५८)। कण्णआर देखो कण्णिआर (प्राकृ ३०)। १४)। कणेरु । स्त्री [करेणु हस्तिनी, हथिनी । कण्णउज पुं [कान्यकुब्ज] १ देश-विशेष, कणि पुं[कणि] एक नरक-स्थान (देवेन्द्र कणेरुया । (हे २, ११६, कुमाः रणाया १, दोमाब, गङ्गा और यमुना नदी के बीच का २६)। १-पत्र ६४)। देश। २ न. उस देश का प्रधान नगर, जिसको कण्णिआ स्त्री [कर्णिका] १ पद्म-उदर, कमल कणोवअ न [दे गरम किया हुआ जल, तेल आजकल 'कन्नौज' कहते हैं (ती; कप्पू)। का बीज-कोष (दे ६, १४०)। २ कोण, वगैरह (दे २, १६)। कण्णंबाल न [दे] कान का प्राभूषण--- अस्त्र (अणुः ठा ८)। ३ शालि वगैरह के बीज का का मुख-मूल. तुष-मुख (ठा ८)। कुए डल वगैरह (दे २, २३)। कन्या राशि-विप, कन्या राशि कण्णिआर पुंकर्णिण फार] १ वृक्ष विशेष, 'हो य करणम्मि वट्टए उचो' (पउम १५, कणगा देखो कन्नगा (प्राव ४)। कनेर का गाछ (कुमाः हे २, ६५; प्राप्र)। कण्णन्छरी श्री [दे] गृह-गोधा, छिपकली (दे २ गोशालक का एक भक्त (भग १४, १०)। कण्ण पुंकण्व] इस नामका एक परिव्राजक, २, १६)। ३ न. कनेर का फूल (णाया १,६)। ऋषि विशेष (प्रौप, अभि २६२)। कण्णडय (अप) देखो कण (हे ४, ४३२: । कण्णिलायण नकर्णिलायन] नक्षत्र-विशेष कण्ण कर्ण १ कोटि भाग, अग्रांश (सुज का एक गोत्र (इक)। १,१)। २ एक म्लेच्छ-जाति (मृच्छ १५२)। कण्णल (अप) वि [कर्णाट] १ देश-विशेष, कण्णारह देखो कन्नीरह। कण्ण पुन [कर्ण] १ कान, श्रवण, श्रोत्र । कर्णाटक । २ वि. उस देश का निवासी कण्णुप्पल न [कर्णोत्पल] कान का आभूषण'करागाई' (पि ३५८; प्रासू २)। १ पुं. अङ्ग (पिंग)। विशेष (कप्पू)। देश का इस नाम का एक राजा, युधिष्ठिर कण्णलोयण पुंन [कर्णलोचन] देखो कण्णि कण्णेर देखो कणिआर (हे १, १६८)। का बड़ा भाई (गाया १, १६)। ३ काना, लायण (सुज १०, १६)। वस्तु के छोर का एक अंश (अग० सूत्र ५१, कण्गोच्छडिआ स्त्री [दे] दूसरे की वात कण्णल्ल पुंन [कर्णल] ऊपर देखो (मुज १०, १६)। "उर , अर न [पूर] कान का गुपचुप सुननेवाली स्त्री (दे २, २२)। अाभूपण (प्राप्र; हेका ४५) । गइ स्त्री । १६ टी)। कण्गोड्ढ स्त्री [दे] स्त्री को पहनने का [गति मेरु-सम्बन्धो एक डारी (जो १०)। कण्णस वि [कन्यस] अधम, जघन्य (उत कणोडिढआ वस्त्र विशेष, नीरङ्गी दे 'जयसिंह देव पुं [जयसिहदेव] गुजरात २, २० टी)। कण्णस्तरिय विदे] १ कानी नजर से देखा कण्णोढतीदे] देखो कण्णोच्छडिआदे देश का बारहवीं शताब्दी का एक यशस्वी राजा (ती)। दव देवा विक्रम की हुमा। २ न. कानी नजर से देखना (दे २, २४)। तेरहवीं शताब्दी का सौराष्ट्र-देशीय एक राजा कण्गोप्पल देखो कण्णुप्पल (नाट)। कण्णा स्त्री [कन्या] १ ज्योतिष-शास्त्र-प्रसिद्ध (ती)। धार [ धार] नाविक, निर्यामक कण्णोल्ली स्त्री [दे] १ चञ्चु, चोंच, पक्षी का एक राशि । २ कन्या, लड़की, कुमारी (कप्पू: गाया १, ८) । पाउरण पु.[प्रावरण] ठोर, ठोंठ । २ अवतंस, शेखर, भूषण-विशेष पि २८२)। चोलय न [चोलक] धान्य१ इस नाम का एक अन्तर्वी । २ उस अन्त (दे २, ५७)। विशेष, जवनाल (णंदि)। ण न [ नय] द्वीप का निवासी (पएरण १)। पावरण कण्णोवगणिआ स्त्री [कर्णोपकणिका] चोल देश का एक प्रधान नगर; 'चोलदेसावदेखो पाउरण (इक)। पीढ न [पीठ] कर्णाकर्णी, कानाकानी (दे १, ६१)। यंसे करणाणयनयरे (ती)। लिय न कान का एक प्रकार का प्राभूषण (ठा ६)। कण्गोस्सरिअ [दे] देखो कण्णरसरिय पर देखो ऊर (गाया १,८) । रवा स्त्री [ लोक] कन्या के विषय में बोला जाता (दे २, २४)। [रवा] नदी-विशेष (पउम ४०, १३) । भूठ (परह १, ३)। कण्ह पुं [कृष्ण] कन्द-विशेष (उत्त ३६, वालिया स्त्री [वालिका] कान के ऊपर कण्णाआस न [दे] कान का आभूषणभाग में पहना जाता एक प्रकार का आभूषण । कुण्डल वगैरह (दे २, २३)। कण्ह पुं [कृष्ण] १ श्रीकृष्ण, माता देवकी (ोप)। वेहणग न ["वेधनक] उत्सव- कण्णाइंधण न [दे] कान का आभूषण- और पिता वसुदेव से उत्पन्न नववाँ वासुदेव विशेष, कर्णवेधोत्सव (प्रौप) । सक्कुली स्त्री कुण्डल वगैरह (दे २, २३)। (णाया १,१६)। २ पांचवाँ वासुदेव और [शष्शुली] १ कान का छिद्र । २ कान की कण्णाड पुं [कर्णाट] १ देश-विशेष, जो बलदेव के पूर्व जन्म के गुरू का नाम (सम लंबाई (गाया १, ८)। सोहण न आजकल 'कर्णाटक' नाम से प्रसिद्ध है। २ १५३) । ३ देशावकाशिक व्रत को प्रतिचरित For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण्हई-कथ पाइअसहमहण्णवो २२१ करनेवाला एक उपासक (सुपा ५९२)। ४ । कण्हा स्त्री [कृष्णा] १ एक इन्द्राणी, ईशा- कत्तिकेअ ' [कार्तिकेय] महादेव का एक विक्रम की तृतीय शताब्दी का एक प्रसिद्ध नेन्द्र की एक अग्र-महिषी (ठा ८ --पत्र ४२६)। पुत्र, षडानन (दें ३, ५)। जैनाचार्य, दिगम्बर जैन मत के प्रवर्तक २ एक अन्तकृत स्त्री (अंत २५) । ३ द्रौपदी, कत्तिगी स्त्री [कार्तिकी] कात्तिक मास की शिवभूति मुनि के गुरू (विसे २५५३)। ५ पाण्डवों की स्त्री (राज)। ४ राजा थोगिक पूर्णिमा (पउम ८६, ३०; इक) । काला वर्ण (प्राचा)। ६ इस नाम का एक की एक रानी (निर १, ४)। ५ ब्रह्म देश कत्तिम वि [कृत्रिम] कृत्रिम, बनावटी (मुगा परिव्राजक, तापस (प्रौप)। ७ वि. श्याम-वणं, की एक नदी (प्रावम)। ८३; जं २)। काला रंगवाला (कुमा)। ओराल पुं कण्हुइ अ [कचित् ] क्वचित्, कहीं भी कत्तिय पुं[कात्तिक] १ कातिक मास (सम [ओराल वनस्पति-विशेष (पराग १-पत्र (सन १.१)। २ कर से (उत्त) ६५)। २ इस नाम का एक श्रेष्ठी (निर १, ३४)। कंद पुं[ कन्द] वनाति-विशेष, ३)। ३ भरत क्षेत्र के एक भावी तीर्थकर के · कण्हुई देखो कण्हुइ (सूत्र २, २, २१)। कन्द-बिशेष (पराण-पत्र ३६)। कण्णि पूर्व भव का नाम (सम १५४) । कतवार पुंदे] कतवार, कूड़ा (दे २,११)।। यार पुं[कगिकार] काली कनेर का गाछ कति देखो कइ = कति (पि ४३३, भग)। ___ कत्तिया स्त्री [कत्तिका] नक्षत्र-विशेष (सम (जीव ३)। "कुमार पुं [कुमार] राजा ११; इक)। कतु देखो कर = कतु (कप)। थेणिक का एक पुत्र (निर १, ४) । गोमी कत्तिया स्त्री [कति का] कतरनी, कैंची (सुपा कत्त सक [कृत् ] काटना, छेदना, कतरना। २१.)। स्त्री [गोमिन् काला शृगालः 'कराहगोमी कत्ताहि (पएह १,१)। वकृ. कत्तंत (ोष अनिता श्रीमतिकी जहा चित्ता, कंटगं वा विचित्तयं' (वव ६)। कात्तिक मास °णाम न [नामन] कर्म-विशेष, जिसके ' की पूर्णिमा (सम ६६) । २ कात्तिक मास की कत्त सक [कृत् ] कातना, चरखे से सूत । उदय से जीव का शरीर काला होता है। अमावास्या (चंद १०)। (राज)। पक्खिय वि [°पाक्षिक] १ क्रूर बनाना । वकृ. कत्तंत (पिंड ५७४)। कत्तिवविय वि [दे] कृत्रिम, दिखाऊ, 'कत्तिकर्म करनेवाला (सूत्र २, २) । २ बहुत काल कत्त वि [क्लृप्तनिर्मित (संक्षि ४०)। ववियाहि उवहिप्पहारगाहिं' (सूअनि. १,४)। तक संसार में भ्रमण करनेवाला (जीव) (ठा कत्त न [दे] कलत्र, स्त्री (षड्)। कत्तु वि [कर्त] करनेवाला, 'कत्ता भुता य १, १)। बंधुजीव गुं[बन्धुजीव] वृक्षः कत्तण न किर्तन] कातना (पिंड ६०२)। विशेष, श्याम पुष्पवाला दुपहरिया (जीव २)। कत्तण न [कर्त्तन] १ कतरना, काटना (सम कत्तोय [कुतः] कहाँ से, किससे? (पउम भूम, भोम पुं [भूम] काली जमीन १२५, उप पृ २)। २ वि. काटनेवाला, ४७, ८; कुमा)। 'चय वि ["त्य कहां से (आवम; विसे १४५८)। राइ, राई स्त्री कतरनेवाला (सुर १, ७२)। उत्पन्न ? (विसे १०१६) । [राजि, जी] १ काली रेखा (भग ६, ५; कत्व सक[ कत्य् ] श्लाघा करना, प्रशंसना । ठा ८)। २ एक इन्द्राणी, ईशानेन्द्र की एक कत्तणया स्त्री [कर्त्तनता] लवन, कतराई कत्थइ (हे १, १८७)। अग्र-महिषी (ठा ८; जीव ४)। ३ 'ज्ञाता.: (सुर १, ७२)। कत्थ अ [कुन:] कहाँ से ? (षड्)। धर्मकथा' सूत्र का एक अध्ययन-परिच्छेद कत्तर पु द] कतवार, कूड़ा; 'इत्तो य कत्थ प्र[क, कुत्र] कहाँ ? (षड् ; कुमाः प्रासू (णाया २, १) । "रिसि पं.rऋपि] इस कावलमूसयकत्तरबहुझाारातडपाभाह; केसब- १२३) । इ अ [चित् ] कहीं, किसी नाम का एक ऋषि, जिसका जन्म शंखावती : किसी विण्ठा' (सुपा २३७) । जगह (आचाः कप्प, हे २, १७४)। नगरी में हुआ था (ती)। °लेस, लेस्स वि कत्तरिअ वि [कृत्त, कत्तित] कतरा हुप्रा, कत्थ वि [कथ्य] १ कहने योग्य, कथनीय । [°लेश्य] कृष्ण-लेश्यावाला (भग)। °लेसा, काटा हुआ, लून (सुपा ५४६) । २ न. काव्य का एक भेद (ठा ४,४-पत्र लेस्सा स्त्री [°लेश्या] जीव का अति निकृष्ट कत्तरी स्त्री [कर्त्तर] कतरनी, कैंची (कप्प) । २८७)। ३ वनस्पति-विशेष (राज)। मनः-परिणाम, जघन्य-वृत्ति (भग; सम कत्तवीरिअ पुं [कात्ताय] नृप-विशेष (सम ११, ठा १, १) । वडिसय, बडेंसय न १५३; प्रति ३६)। कत्थंत देखो कह = कथय । [वितंसक] एक देव-विमान (राजा रणाया । कत्तव्य वि [कर्त्तव्य] १ करने योग्य (स कत्थभाण। स्त्री [कस्तभानी] पानी में होने२, १)। वल्लि, वल्ली स्त्री [°वल्लि, ल्ली] १७२) । २ न. कार्य, काज, काम (श्रा ६)। वाली वनस्पति-विशेष (पएण १-पत्र घल्ली-विशेष, नागदमनो लता (पएण १)। । कत्ता स्त्री [दे] अन्धिका-बूत को कपदिका, ३४)। सप्प सप] १काला साप (जीव कौड़ी (दे २,१)। कत्थूरिया, स्त्री [स्तूरी मृग-मद, हरिण २ राहु (सुज २०) । देखो कन्ह। , कत्ति स्त्री [कृत्ति] चर्म, चमड़ा (स ४३६; कत्थूरी की नाभि में होनेवाली सुगन्धित गउड गाया १,८)। __ वस्तु (सुपा १४७ स २३६; कप्पू)। कण्हई [कुतश्चित् ] किसी से (सूत्र १, कत्ति वि [कर्तृ ] करनेवाला, 'किरिया ण कथ वि [दे] १ अरत, मृत। २ क्षीण, दुर्बल २, ३, ६)। देखो कण्हुइ। कत्तिरहिया' (धर्मसं १४५)। (षड्)। For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ = कद (मा) देखो कड - कृत (प्राकृ १०३) कदम देखो कयग (हम्मीर ३४ ) । कदण देखो कडग = कदन (कुमा) । कदली देखो कयली (पराग १ -पत्र ३२ ) । कदु देखो कउ = ऋतु ( प्राकृ १२) । कदुअ (शी) [त्या] करके (प्रा८८) । कटुइया स्त्री [दे] बल्ली - विशेष, कद्दू, लौकी ( पण १ - पत्र ३३ ) । दुराण (मा) व [] थोड़ा गरम (१०२) । कद्दम पुंन [ कर्दम ] कीचड़, काँदो ( कुप्र (4)[r] farmer (yaln १६१) । कद्दम ) [ कर्दम ] १ क दो, कीच (परह कद्दमग ) १४) । २ देव विशेष, एक नागराज (भग ६, ३) । कदमि वि [म] युक्त, कीचड़ वाला (से ७, २०; गउड ) | कमि [दे] महिष, भैंसा (दे २, १५) । कन्न देखो कण्ण = करणं (सुर १२ सुर २, १७१; सुपा ५२४ धम्म १२ टी ठा ४, २; सुपा ६५; पान) । (यंस [स] कान का आभूषण (पान) । कन्न देखो कृष्ण (कुलक) एव देखो कण्ण-देव (कु ४) । वट्ट, विट्टि स्त्री [वृत्ति ] किनारा, अग्र भाग (कुप्र ३३१, ३३४ विचार ३२७ पत्र १२५ ) । कन्न उज्ज देखो कण्णउज्ज (कुमा) । कन्नगा स्त्री [ कन्यका ] कन्या, लड़की, कुमारी (सुर २ १२२ महा) । कन्नस [कनीयस् ] कनिष्ठ, जघन्यः 'मम' ( १५७ ) । कन्ना देखो कण्णा (सुर २, १५४ पान ) । कन्नाड देखो कण्णाड (भवि) । कन्नारि वि [दे] विभूषित, अलंकृत, 'आहे" कन्नारिउ गइंदु' (भवि ) । नीर [कर्णीरथ] एक प्रकार की शिविका, धनाढ्य का एक प्रकार का वाहन (गाया १, ३) । (अ) [कर्ण] काम अन्द्रिय (कुमा) । कश्य देख आर (कुमा पाइअसहम कनोली [] देखते ही पा कन्ह देखो कण्ह (सुपा ५६६, कप्प ) । सह न [सह ] जैन साधुओं के एक कुल का नाम (कप्प ) । कपंच देखो कमन्च (१३)। कपिंजल पुं [कपिञ्जल ] पक्षि- विशेष - १ चातक २ गौरा पक्षी ( परह १, १ ) । कपूर देखो कप्पूर (श्रा २७) । कप्प अक [ कृप्] १ समर्थ होना । २ कल्पना, काम में ग्राना । ३ सक. काटना, छेदना । कप्पइ, कप्पए ( कप महा पिंग ) | कर्म, कपिल ( ४,१५७). न (ne] ६) प्रयो. पावेज (नि कप्पा (निबू १७) । १७) कप सक [ कल्पय् ] १ करना, बनाना । २ वर्णन करना । ३ कल्पना करना । वकृ. कप्पेमाण (विपा १, १ ) । संकु. कप्पेऊण ( पंचव १) । कप्प वि [कल्प्य ] ग्रहण-योग्य ( पंचा १२) । कप्प पुं [कल्प ] १ प्रक्षालन (पिंड २६६६ २७१ ३०५ गच्छ २, ३२) । २ आचार, व्यवहार ( वव २ प ६९ ) । ३ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र । ४ कल्प-सूत्र ५ व्यवहारसूत्र ( वव ९ ) । ६ वि. उचित (पंचा १८, २०) । ["काल] प्रभूत काल (सूत्र १, १, ३, १६) । रवि ['धर] कल्प तथा व्यवहार सूत्र का जानकार (१) । कप [प] १ काल-विशेष देवों के दो हजार युग परिमित समय; 'कम्मारण कप्पिारणं काहि कप्पंतरेसु व्वेिस' (प्रच्चु १८ कुमा) । २ शास्त्रोक्त विधि, अनुष्ठान (ठा ६) । ३ शास्त्र - विशेष (त्रिसे १०७५ सुपा ३२४) ४ कम्बल - प्रमुख उपकरण ( ओघ ४० ) । ५ देवों का स्थान, बारह देवलोक (भग ५, ४ ठा २१० ) । ६ वारह देवलोक निवासी देव, वैमानिक देव (सम २ ) । ७ वृक्ष - विशेष, मनोवाञ्छित फल को देनेवाला वृक्ष, कल्प वृक्ष (कुमा) । शस्त्र - विशेषः 'प्रसिखेडयकप्पतोमर विहत्था' (पउम है, ७३) । अधिवास, स्थान ( बृह १) । १० राजा नन्द का एक मन्त्री (राज) । ११ वि. For Personal & Private Use Only कद - कप्पण समर्थ, शक्तिमान् (गाया १, १३) । १२ सदृश, तुल्यः 'केवलकर' (प्रावम परह २, २) । ट्ठ [स्] बालक, बच्चा (नव ७) । ट्ठ स्त्री ["स्थिति ] साधुनों का शास्त्रोक्त धनुहान (रह ६) "डिया की ["स्थिका] १ लड़की बालिका (४) । २) श्री [स्था] १ बालिका लड़की (६२ कुल-वधू (वव ३ ) । तरु पुं ['तरु] कल्पवृक्ष (प्रासू १६८ हे २, ७६ ) । स्थी स्त्री ['स्त्री] देवी, देव स्त्री (ठा ३)। दुम, 'दुम [म] कल्प वृक्ष ( धरण ६ महा) पाव [पादप ] कल्प वृक्ष (पडि, सुपा ३९ ) । पाहुड न [प्राकृत] जैन ग्रन्थ विशेष (ती) स्क्स [वृक्ष] कल्पवृक्ष (परह १, ४) बसिय न [वितंसक] विमान-विशेष २ विमानवाली बेष विशेष (निर) बसिया श्री [] जैन ग्रन्थ-विशेष स यस देव-विमानों का है ( राय निर १)["पिन] कल्प (सुपा १२९ ) । साल पुं ['शाल ] कल्प वृक्ष (उप १४२ टी) । 'साहि [शाखिन् ] कल्प वृक्ष (सुपा ३६९) । सुत्त न [सूत्र ] श्रीभद्रबाहु स्वामि-विरचित एक जैन ग्रन्थ (स) [] विशेष २ अन्ध-विशेष (दि) अ [ती] उत्तम जाति के देव-विशेष देवे धीर धनुसार विमान के निवासी देव (पह १५ [क] विधि को जाननेवाला (प) य [व] कर, बुङ्गी, राज-देय भाग ( विपा १, ३ ) । कप्पंत पु [कल्पान्त ] प्रलय-काल, संहारसमय (पू)। कप्पड [कपैंट ] १ कपड़ा, वस्त्र (पउम २५, १८ सुपा ३४४ स १८० ) । २ जीं वस्त्र, लकुटाकार कपड़ा ( परह १, ३ ) । कपडअवि [कार्पेटिक] भिक्षुक, भीखमंगा (गाया १८ सुपा १३८ बृह १) । प[िकापटिक] कपी, माया ( गाया १, ८ पत्र १५० ) । कप्पण न [कल्पन] छेदन काटना पा १३८) । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कप्पणा-कमल पाइअसद्दमण्णवो २२३ कप्पणा स्त्री [कल्पना] १ रचना, निर्माण । कप्पोववत्तिआ स्त्री [कल्पोपपत्तिका] देव- घटना । २ अधिक रहना । कमइ (पिंड २३१ २ प्ररूपण, निरूपण (निचू १)। ३ कल्पना, लोक विशेष में उत्पत्ति (भग)। पब ६१)। विकल्प (विसे १६३२)। कप्फल न [कट्फल] इस नाम की एक कम [क्रम् ] १ पाद, पग, पाव (सुर १, कप्पणी स्त्री [कल्पनी] कतरनी, कैची (पराह वनस्पति, कायफल (हे २, ७७)। ८)। २ परम्परा, 'नियकुलकमागयामो पिउगा १,१: विपा १, ४, स ३७१)। कप्फाड देखो कवाड = कपाट (गउड)। विज्जापो मज्झ दिन्नाओ' (सुर ३, २८) । कप्पर पुं[कर्पर खप्पर, कपाल, सिर की | कप्पाड [दे] देखो कफाड (पास) । ३ अनुक्रम, परिपाटी (गउड)। ४ मर्यादा, खोपड़ी (बृह ४; नाट)। देखो कुप्पर = कफ पुं[कफ] कफ, शरीर स्थित धातु विशेष सीमा (ठा ४)। ५ न्याय, फैसलाः ‘अविकपर। (राज)। प्रारिम कम ण करिस्सदि' (स्वप्न २१) । कप्परिअ वि [दे] दारित, चीरा हुआ (दे २, कफाड पुं[दे] गुफा, गुहा (दे २, ७)। ६ नियम (बृह १)। २० वजा ३४; भवि)। कबंध (शौ) देखो कमंध (प्राकृ८५)। कम पुं [क्लम] श्रम, थकावट, क्लान्ति (हे कप्पास पुं[कार्पास] १ कपास, रुई । २ कब्बट्ठी स्त्री [दे] छोटी लड़की (पिंड २८५) । २, १०६; कुमा)। ऊन (निचू ३)। कब्बड पूंन किबेट]१ खराब नगर, कप्पासत्थि पुं [कार्पासास्थि] त्रीन्दिय जीव- कब्बडग पुत्सित शहर (भगः परह १, कमंडलु पुन [कमण्डलु] संन्यासियों का विशेष, क्षुद्र जन्तु-विशेष (जीव १)। २)। २ पुं. ग्रह-विशेष, ग्रहाधिष्ठायक देव-बिशेष एक मिट्टी या काष्ठ का पात्र (निर ३, १; कप्पासिअ वि [कासिक] १ कपास पराह १, ४. उप ६४८ टी)। (ठा २, ३--पत्र ७८)। ३ वि कुनगर का बेचनेवाला (अणु १४६)। २ न. जैनेतर निवासी (उत्त ३०)। कमंध न [कबन्ध] रुंड, मस्तकहीन शरीर शास्त्र-विशेष (अणु ३६, णंदि)। कब्बर देखो कब्बुर (प्राकृ ७)। (हे १, २३६ प्रापः कुमा)। कप्पासिय वि [कार्पासिक] कपास का बना | कब्बाडभयय पुं[दे] ठीका पर जमीन खोदने | कमढ पुं[दे] १ दही की कलशी। २ हुआ, सूती वगैरह (अणु)। का काम करनेवाला मजदूर ठा ४.१-पत्र | पिठर, स्थाली। ३ बलदेव । ४ मुख, मुंह कप्पासी स्त्री [कासी रुई का गाछ (राज)। २०३)। (दें २,५५)। कप्पिआकप्पिअ न [कल्पाकल्प] एक जैन | कब्बुर । वि [कर्बुर] १ कबरा, चितक. कमढ । पूं. [कमठ, क] १ तापस-विशेष, शास्त्र (रणंदि २०२)। कब्बुरय । बरा, चितला (गउड, अच्चु कमढग जिसको भगवान् पाश्वनाथ ने बाद में ६)। २ . ग्रह-विशेष, ग्रहाधिष्ठायक देव कमढय जीता था और जो मरकर दैत्य हुपा कप्पिय वि [कल्पित] १ रचित, निर्मित (प्रौप) । २ स्थापित, समीप में रखा हुआः विशेष (ठा २, ३; राज)। था (णमि २२)। २ कूर्म, कच्छप (पान) । ३ वंश, बाँस । ४ शल्लकी वृक्ष (हे १, कब्बुरिअ वि [कर्बुरित] अनेक वर्णवाला, ‘से अभए कुमारे तं अल्लं मंसं रुहिर अप्प १६६)। ५ न. मैल, मल (निचू ३)। ६ चितकबरा किया हुआः 'देहकतिकब्बुरियकप्पियं करेई' (निर १,१)। ३ कल्पना निर्मित, विकल्पित (दसनि १)। ४ व्यवस्थित (प्राचा: साध्वियों का एक पात्र (निचू १; मोघ ३६ जम्मगिह' (सुपा ५४); 'मणिमयतोरणधोरसूत्र १, २) । ५ छिन्न, काटा हुआ (विपा भा)। ७ साध्वियों को पहनने का एक वस्त्र णितरुणपहाकिरणकब्बुरिग्रं( कुम्मा ६; पउम ८२, ११)। (मोघ ६७५; बृह ३)। कप्पिय वि [कल्पिक] १ अनुमत, अनिषिद्ध कभ (अप) देखो कफ (षड् )। कमण न [क्रमण] १ गति, चाल । २ प्रवृत्ति (उवर १३०) । २ योग्य, उचित (गच्छ १; कभल्ल न [दे] कपाल, खप्पर (अनु ५, उवा)। (प्राचू ४)। कमणिया स्त्री [क्रमणिका] उपानत्, जूता बब ८) । ३ पुं. गीतार्थ, ज्ञानी साधुः ‘कि वा कम सक [क्रम् ] १ चलना, पाँव उठाना। (बृह ३)। अकप्पिएणं' (वव १)। २ उल्लंघन करना। ३ अक. फैलना, कमणिल्ल वि [क्रमणीवत् ] जूतावाला, जूता कप्पिया स्त्री [कल्पिका] जैन ग्रन्थ-विशेष, पसरना। ४ होनाः 'मणसोवि बिसयनियमो पहना हुआ (बृह ३)। एक उपाङ्ग-ग्रन्थ (जं १; निर)। न क्कमइ जो स सव्वत्थ' (विसे २४६); कमणी स्त्री [क्रमण] जूता, नत् (बृह ३)। कप्पूर पुं [कर कपूर, सुगन्धि द्रव्य-विशेष 'न एत्थ उवायंतरं कमई' (स २०६)। वकृ. कमणी स्त्री [दे] निःश्रेणि, सीढ़ी (दे २,८)। (पएह २, ५; सुर २, ६; सुपा २६३)। कमंत (से २, ६)। कृ. कमणिज (प्रौप)। कमणीय वि [कमनीय] सुन्दर, मनोहर कप्पोवग पुं [कल्पोपक] १ कल्प-युक्त । २ | कम सक [ कम् ] चाहना, वाञ्छना । कवकृ. (सुपा ३४; २६२)। देव-विशेष, बारह देव लोक-वासी देव (परण कम्ममाण (दे २, ८५)। कृ. कमणीय कमल पं [दे] १ पिठर, स्थाली। २ पटह, २१)। (सुपा ३४; २६२); क.म्म (गाया १, १४ ढोल (दे २, ५४)। ३ मुख, मुँह (दे २, कप्पोववण्ण पुं [कल्पोपपन] ऊपर देखो टी-पत्र १८८)। ५४ षड्)। ४ हरिण, मृग; 'तत्थ य एगो (सुपा ८८)। कम अक [ क्रम् ] १ संगत होना, युक्त होना, कमलो सगब्भहरिणीए संगनो वसई' (सुर For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ कमल-कम्म पाइअसहमहण्णवो १५, २०२; दे २, ५४ अणुः कप्प; औप)। कमलंग न [कमलाङ्ग] संख्या विशेष, चौरासी ५ कलह, झगड़ा (षड्)। लाख महापद की संख्या (जो २)। कमला स्त्री [दे] हरिणी, मृगी (पान)। कमल पुंन [कमल] एक देव-विमान (देवेन्द्र कमला स्त्री [कमला] १ लक्ष्मी (पानः सुपा १४२)। अण पु [नयन] विष्णु, २७५)। २ रावण की एक पत्नी (पउम नारायण (समु १५२)। ७४, ६)। ३ काल नामक पिशाचेन्द्र की एक कमल न [कमल] १ कमल, पद्म, अरविन्द, अग्र-महिषी, इन्द्राणी विशेष (ठा ४, १)। ४ 'ज्ञाताधर्मकथा' सूत्र का एक अध्ययन (कप्प; कुमा; प्रासू ७१)। २ कमलाख्य (गाया २)। ५ छन्द-विशेष (पिंग)। अर इन्द्राणी का सिंहासन । ३ संख्या-विशेष, पुं[कर] धनाढ्य, धनी (से १, २६)। 'कमलांग' को चौरासी लाख से गुणने पर जो कर्मालणी स्त्री [कमलिनी] पद्मिनी, कमल संख्या लब्ध हो वह (जो २)। ४ छन्द का गाछ (पास)। विशेष (पिंग)। ५ पुं. कमलाख्य इन्द्राणी के कमलुब्भव पुं.[कमलोद्भव] ब्रह्मा (त्रि ८२)। पूर्व जन्म का पिता (णाया २)। ६ श्रेष्ठिविशेष (सुपा २७५)। ७ पिंगल-प्रसिद्ध एक कमव । अक[ स्वप] सोना, सो जाना। गण, अन्त्य अक्षर जिसमें गुरु हो वह गण कमवस । कमवइ (षड्)। कमवसइ (हे (पिंग)। ८ एकजात का चावल, कलम ४, १४६; कुमा)। कमसोम [क्रमशः] क्रम से, एक-एक करके (प्राप्र)। क्ख [क्षि] इस नाम का एक (सुर १, ११६)। यक्ष (सण)। जय न [जय] विद्याधरों कमिअ वि [दे] उपसर्पित, पास आया हुना का एक नगर (इक)। जोणि पुं[योनि] (दे २, ३)। ब्रह्मा, विधाता (पान)। पुर न [पुर] कमिय बि [क्रान्त] उल्लंघित (दस २, ५)। विद्याधरों का एक नगर (इक)। पभा कमेलग। पुंस्त्री [क्रमेलक] उष्ट्र, ऊँट (पाम: स्त्री [प्रभा] १ काल-नामक पिशाचेन्द्र की कमेलय उप १०३१ टी; करु ३३)। स्त्री. अग्र-महिषी (ठा ४, १)। २ 'ज्ञाता धर्मकथा' गी (उप १०३१ टी)। सूत्र का एक अध्ययन (णाया २)। बन्धु कम्म सक [कृ] हजामत करना, क्षौर-कर्म पुं[बन्धु] १ सूर्य, रवि (पउम ७०, ६२)। करना। कम्मइ (हे ४, ७२ षड् )। वकृ. २ इस नाम का एक राजा (पउम २२, १८)। कम्मंत (कुमा)। 'माला स्त्री [ माला] पोतनपुर नगर के कम्म सक [भुज ] भोजन करना। कम्मइ राजा आनन्द की एक रानी, भगवान् अजि (षड्) । कम्मेइ (हे ४, ११०)। तनाथ की मातामही–दादी (पउम ५,५२)। कम्म देखो कम % कम् 'रय पुं [रजस् ] कमल का पराग कम्म पुंन [कमन्] १ जीव द्वारा ग्रहण (पान) । वडिंसय न [वतंसक कमला- किया जाता अत्यन्त सूक्ष्म पुद्गल (ठा ४, नामक इन्द्राणी का प्रासाद (गाया २) । ४ कम्म १, १)। २ काम, क्रिया, करनी, 'सिरी स्त्री [श्री] कमला-नामक इन्द्राणी व्यापार (ठा १. आचा); 'कम्मा पारणफला' की पूर्व जन्म की माता का नाम (णाया २)। (पि १७२)। ३ जो किया जाय वह । ४ सुंदरी स्त्री [सुन्दरी] इस नाम की एक व्याकरण-प्रसिद्ध कारक-विशेष (विसे २०६६ रानी (उप ७२८ टी)। सेणा स्त्री [°सेना] ३४२०)। ५ वह स्थान, जहाँ पर चूना एक राज-पुत्री (महा)। अर, गर पुं वगैरह पकाया जाता है (पएह २, ५ - पत्र [कर] १ कमलों का समूह । २ सरोवर, १२३)। ६ पूर्व-कृति, भाग्य; कम्मत्ता दुभगा ह्रद वगैरह जलाशय (से १, २६; कप्प)। चेव' (सूस १, ३, १; आचा (षड्)। ७ पीड, मेल पुं [पीड] भरत चक्रवर्ती कार्मण शरीर । ८ कामरण-शरीर नामकम, का अश्व-रत्न (जं ३; पि ६२)। "सण पुं. कर्म-विशेष (कम्म २, २१)। "कर वि [सन] ब्रह्मा, विधाता (पान दे ७, ६२)। [कर] नौकर, चाकर (प्राचा)। देखो गार। करण न [करण] कर्म-विषयक बन्धन, जीव-पराक्रम-विशेष (भग ६,१)। कार वि [कार ] नौकर (पउम १७, ७)। 'किब्बिस वि [किल्बिष] कर्म-चाण्डाल, खराब काम करनेवाला (उत्त ३)। क्खंध पुं[स्कन्ध] कर्म-पुद्गलों का पिण्ड (कम्म ५)। गर देखो कर (प्रारू)। गार पुं [कार] १ कारीगर, शिल्पी (णाया १, है)। देखो कर। जोग पुं[योग] शास्त्रोक्त अनुष्ठान ( कम्म )। "ट्ठाण न [°स्थान] कारखाना (प्राचा)। हिइ स्त्री [स्थिति] १ कर्म-पुद्गलों का अवस्थानसमय (भग ६, ३)। २ वि. संसारी जीव (भग १४, ६)। "णिसेग पुं [निषेक] कर्म-पुद्गलों की रचना-विशेष (भग ६, ३)। 'धारय पुं [ धारय] व्याकरण-प्रसिद्ध एक समास (अणु)। परिसाडणा स्त्री [परिशाटना] कर्म-पुद्गलों का जीव-प्रदेशों से पृथक्करण (सूत्र १, १)। पुरिस पुं [पुरुष] कर्म-प्रधान पुरुष–१ कारीगर, शिल्पी (सूत्र १, ४, १)। २ महारम्भ करनेवाले वासुदेव वगैरह राजा लोग (ठा ३, १-पत्र ११३)। पवाय न [प्रवाद] जैन ग्रन्थांश-विशेष, प्राठवाँ पूर्व (सम २६) । 'बंध पुं[बन्ध] कर्म पुद्गलों का आत्मा में लगना, कर्मों से आत्मा का बन्धन (पाव ३)। भूमग वि [भूमिक] कर्म-भूमि में उत्पन्न (पएरण १)। भूमि स्त्री [भूमि कर्म-प्रधान भूमि, भरत क्षेत्र वगैरह (जी २३)। भूमिग देखो भूमग (पएण २३)। भूमिय वि [भूमिज] कर्म-भूमि में उत्पन्न (ठा ३, १-पत्र ११४)। "मास पुं[मास श्रावण मास (जो १)। मासग पुं[माषक] मान-विशेष, पाँच गुजा, पांच रत्ती (अणु)। य वि[ज] १ कम से उत्पन्न होनेवाला। १ कर्म-पुद्गलों का बना हुप्रा शरीर-विशेष, कार्मण शरीर (ठा २, १, ५, १)। या स्त्री [जा] अभ्यास से उत्पन्न होनेवाली बुद्धि, अनुभव (मंदि)। लेस्सा स्त्री [°लेश्या कर्म द्वारा होनेवाला जीव का परिणाम (भग १४, १) । वग्गणा स्त्री [°वर्गणा] कर्म-रूप में परिणत होनेवाला For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म-कय पाइअसद्दमहण्णवो २२५ पुद्गल-समूह (पंच)। वाइ वि [वादिन]। कामण करनेवाला (सुर १, ९८)। जोय देखो ग (परह १, २)। कन्ज वि [°काय] भाग्य को ही सब कुछ माननेवाला (राज)। [योग कार्मण-प्रयोग (गाया १, १४)। कृतार्थ, सफल-मनोरथ (णाया १, ८)। 'विवाग ' [विपाक] १ कर्म परिणाम, | कम्मण न [भोजन] भोजन (कुमा) । करण वि [करण] अभ्यासी, कृताभ्यास कर्म-फल । २ कर्म-विपाक का प्रतिपादक | कम्ममाण देखो कम = कम् । (बृह १, परह १; ३)। 'किच्च वि [कृत्य] ग्रन्थ ( कम्म १, १)। संबच्छर पुं| कम्मय देखो कम्मग (भगः पंच) । कृतार्थ, सफल मनोरथ (सुपा २७)। ग वि [संवत्सर] लौकिक वर्ष (सुज्ज १०)। कम्मव सक [ उप + भुज ] उपभोग करना। [क] १ अपनी उत्पत्ति में दूसरे की अपेक्षा 'साला स्त्री [°शाला] १ कारखाना। २ कम्मवइ (हे ४, १११; पड्)। करनेवाला, प्रयत्न-जन्य (विसे १८३७ स कुम्भकार का घटादि बनाने का स्थान (बृह कम्मवण न [उपभोग] उपभोग, काम में ६५३)। पुं, दास-विशेष, गुलाम; 'भयगभत्तं २)। "सिद्ध पुं[सिद्ध] कारीगर, शिल्पी | लाना (कुमा)। वा बलभत्तं वा कयगभत्तं वा' (निचू है)। (प्रावम)। °जीव [जीव] १ कारीगर । कम्मस वि [कल्मष] १ मलिन । २ न. पाप ३ न. सुवर्ण, सोना (राज)। ग्ध वि [न] २ कारोगरी का कोई भी काम बतलाकर (पाम; हे २,७९, प्रामा)। उपकार न माननेवाला, कृतघ्न (सुर २, ४४; भिक्षादि प्राप्त करनेवाला साधु (ठा ५,१)। कम्मा स्त्री [कमेन्] क्रिया, व्यापार (ठा ४, सुपा ५८८)। जाणुअ वि [ज्ञायक] दाण न [गदान] जिससे भारी पाप हो २-पत्र २१०)। कृतज्ञ, उपकार को माननेवाला (पि ११८) । ऐसा व्यापार (भग ८, ५)। यरिय कम्मार पुं [कार] १ लोहार, लोहकार °ण्णु वि [s] उपकार को माननेवाला, [य] कर्म से आर्य, निर्दोष व्यापार करने-__(विसे १५६८) । २ ग्राम-विशेष (आचू १) । किए हुए उपकार की कदर करनेवाला वाला (पएण १)। वाइ देखो वाइ कम्मार । वि [कमेकार, क] १ नौकर, (धम्म २६)। णुया स्त्री ["ज्ञता] कृतज्ञता, कम्मारग चाकर (स ५३७; ओघ ४,६४ (प्राचा)। एहसानमन्दी, निहोरा मानना (उप पृ८६) । कम्मारय टो)। २ कारीगर, शिल्पी (जीव ३)। कम्म वि [कार्मण] १ कर्म-सम्बन्धी, कर्मकम्मारिया स्त्री [कर्मकारिका] स्त्री-नौकर, त्थ वि [ार्थ] कृतकृत्य, चरितार्थ, सफलजन्य, कर्म-निर्मित, कर्म-मय । २ न. कर्मदासी (सुपा ६३०)। मनोरथ (प्रासू २३)। 'नासि वि [नापुद्गलों का ही बना हुमा एक अत्यन्त सूक्ष्म कम्मि । वि [कर्मिन् ] कर्म करनेवाला, शिन] कृतघ्न (ोध १६६) । न्न,न्नु शरीर, जो भवान्तर में भी आत्मा के साथ | कम्मिअ अभ्यासी देखो °णु; 'जं कित्तिजल हिराया विवेयनयही रहता है (ठा १; कम्म ४)। २ कर्म 'रणवकम्मिएण उअ पामरेण देट् ठूण पाउहारीयो। मदिरं कयन्नगुरू' (सुपा ३०१; महाः सं विशेष, कार्मण-शरीर का हेतु-भूत कर्म मोतव्वे जोत्तमपग्गहम्मि अवरासणी मुक्का।' ३३; श्रा २८)। पंजलि वि [प्राञ्जलि] (कम्म २, २१)। ३ कार्मरण-शरीर का (गा ६६४)। कृताञ्जलि, नमस्कार के लिए जिसने हाथ व्यापार (कम्म ३, १५९ कम्म ४)। २ पाप कर्म करनेवाला (सूत्र १, ७६)। ऊँचा किया हो वह (माब)। पडिकइ स्त्री कम्मइय न [कर्मचित, कार्मण] ऊपर देखो कम्मिया स्त्री [कमिका, कार्मिका] १ अभ्यास [प्रतिकृति] १ प्रत्युपकार (पंचा १६)। (पउम १०२, ६८)। से उत्पन्न होनेवाली बुद्धि (गाया १, १)। २ विनय-विशेष (वव १)। पडिकइया कम्मत ' [दे. कर्मान्त] १ कर्म-बन्धन का २ प्रक्षीण कर्म-विशेष, अवशिष्ट कर्म (भग)। स्त्री [प्रतिकृतिता] १ प्रत्युपकार (साया कारण (प्राचा; सूम २, २)। २ कर्म-स्थान, कम्हल न [कश्मल] पाप (राज)। १, २)। २ विनय का एक भेद (ठा ७)। कारखाना (दे २, ५२)। कम्हा अ [कस्मात् ] क्यों, किस कारण बलिकम्म वि [°बलिकर्मन् ] जिसने कम्मंत वि [ कुर्वत् ] १ हजामत करता से ? (प्रौप)। देवता की पूजा की है वह (भग २, ५, णाया हुमा । २ हजाम, नापित (कुमा)। साला कम्हार देखो कंभार (हे २, ७४) । ज न १, १६-पत्र २१०; तंदु)। मंगला स्त्री स्त्री [शाला] जहाँ पर उस्तरा-बाल बनाने | [ज] केसर, कुंकुम (कुमा)। [मङ्गला] इस नाम की एक नगरी (संथा)। का छुरा आदि सजाया जाता हो वह स्थान | कम्हिअ' [दे] माली, मालाकार (दे २, ८)। 'माल, 'मालय वि [°माल, क] १ जिसने (निचू ८)। - कम्हीर देखो कंभार (मुद्रा २४२; पि १२०; माला बनाई हो वह । २ पु. वृक्ष-विशेष, कनेर कम्मक्कर देखो कम्म-कर (प्राकृ २६)। ३१२) । का गाछ; 'अंकोल्लबिल्लसल्लइकयमालतमालकम्मग न [कर्मक, कार्मक, कार्मण] देखो कय पुं [कच ] केश, बाल (हे १, १७७ सालड्ढं' (उप १०३१ टी)। ३ तमिस्राकम्म = कामण (ठा २,२ परण २१; (भग)। कुमा)। नामक गुफा का अधिष्ठायक देव (ठा २, ३)। कम्मण न [कार्मण] १ कर्म-मय शरीर (दं | कय [क्रय] खरीदना (सुपा ३४४)। लक्खण वि [°लक्षण] जिसने अपने शरीर २२)। २ औषध, मन्त्र आदि के द्वारा मोहन, | कय देखो कड = कृत (प्राचा: कुमा; प्रासू १५)। चिन्ह को सफल किया हो वह (भग ६, ३३; वशीकरण, उच्चाटन आदि कर्म (उप १३४ | °उण्ण, उन्न वि [ पुण्य] पुण्यशाली, गाया १,१)। व वि [वत् ] जिसने टी; स १०८)। गारि वि [कारिन्] भाग्यशाली (स ६०७ सुपा ६०६) । क. किया हो वह (विसे १५५५)। वणमाल २६ For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૬ पियg [ वनमालप्रिय ] इस नाम का एक यक्ष (विपा २, १ ) 1) वम्म पुं [वर्मन् ] नृप - विशेष, भगवान् विमलनाथ का पिता (सम १५१) वीर ["वीर्य] का वो के पिता का नाम ( सुश्र १,८) । hi अ [ कृतम् ] अलम्, बस ( उबर १४४) । मंगला ओ [तला] धावती नगरी के समीप की एक नगरी (भग) । कयंत पुं [ कृतान्त ] १ यम, मृत्यु, मरण (सुपा १६६: सुर २,५ ) । २ शास्त्र सिद्धान्त; 'मरांति कथं तं जं कयंतसिद्धं उ सपरहि' ( सार्धं ११७ सुपा ११६ ) । ३ रावण का इस नाम एक सुभट ( पउम ५६, ३१) । "मुह [मुख ] रामचन्द्र के एक सेनापति का नाम (पउम ४, ६२ ) । वयण पं [वेदन] राम का एक सेनापति ( पउम ६४, २० ) । कसंध देखो कमंध ( हे १, २३६ षड् ) । कब देखो कलंब ( पण १; हे १,२२२) । कब पुं [कदम्ब] समूह, 'अप्पा प सर्वं जीवकथंबं च रक्बइ सयावि' (संबोध २०) । कबि वि [कदम्बित ] अलंकृत, विभूषित (कप्प) । कयंबुअ देखो कलंबुअ (कप्प) । कवि [कृत ] प्रयत्न-जन्य (धर्मसं २६६; ४१४) । tara [ क्रायक ] खरीदनेवाला (वव १ टी ) । कथा तु [कलक] १ -विशेष निर्मल २ न. कतक- फल, निर्मली - फल, पायपसारी; वह कपगमंजाई जलीयो विमोहित (विसे ५३६ टी । [] स कृपण (राज)। कड्डि [कपर्दिन] इस नाम का एक यक्ष देवता ( सुपा ५४२) । कयण न [कदन] हिंसा मार डालना ( हे १, २१७) । कत्थक [ कदर्थय ] हैरान करना, पीड़ा करना । कयत्थसे (धम्म ८ टी) कवकृ कथित (स) कत्थण न [कदर्थन ] हैरानी, हैरान करना, पीड़न (गुपा १०० मा ) । पाइअसद्दमहष्णवो कत्थणा स्त्री [ कदर्थना ] ऊपर देखो ( स ४७२: सुर १५, १ ) 1 कयत्थिय वि[कति] हैरान किया हुआ, पीड़ित (सुपा २२७ महा) । कयन्न वि [कदन्न] खराब अन्न (धर्मवि १३९ ) । कवि [कतम ] बहुत में से कौन ? (स ४०२) । कर वि[तर] दो में से कीन ? (हे ५८) । कयर पुं [क्रकर ] ४ वृक्ष-विशेष, करीर, कपर पुं [ऋकर] ४ वृक्ष-विशेष करीर, करील ( स २५६ ) । २ न. करीर का फल ( पभा १४) । [द] कदली-युज, केला का गाछ। २ न. कदली फल, केला (हे १, १६७)। कयल न [दे] अलिञ्जर, पानी भरने का बड़ा गगरा, भंभर, मटका (दे २, ४) । कर्याल, खी श्री [कदल, 'ली] बेला का गाय (महा) हे १, २२० ) । समागम पं [ समागम ] इस नाम का एक गाँव (आम) दर न [गृह] कदली-तम्भ से बनाया हुआ घर (नासुर ३, १४० ११६ ) । कयल्लय देखो कय = कृत ( सुख २ ३ ) । कयवर पुं [दे] १ कतवार, कूड़ा, मैला (गाया १, १ सुपा ३८० ८७ स २६४' भत्त ८६ पात्रः सरः पुप्फ ३१; निचू ७ ) । २ (१)। कवि श्री [दे. कचरोकिका] कूड़ा साफ करनेवाली दासी (गाया १, ७. पत्र ११७) | कवाड [का] कुकुट, कुकड़ा, मुर्गा (ड) | कयवाय पुं [कृकवाक] कुक्कुट, कुकड़ा, मुर्गा ( पात्र ) । यमन [कदशन] खराव भोजन (विवे (१३६) । कसेहर पुं [दे] कुकड़ा, मुर्गा ' कयमेहराण सुम्मइ आलावो भत्ति गोसम्मि' ( वजा ७२) । कया अ [कदा] कज, किस समय ? (ठा ३, ४ प्रासू १६९ ) । [कया [कदापि ] कभी भी किसी समय भी (उवा । For Personal & Private Use Only कयाई कयाइ कयाई २ कथं-कर [ कदाचित् ] कभी (उवा व किसी समय, 'यह पता कथाई' (सुपा ५०६; पि ७३ ) ! काति (भव १५) । कवान [याणक] बेचने योग्य वस्तु करिया (१२० ) । कयाणग पुंन. देखो कयाण 'देव निश्रवाहणारण कयागे किं न विक्केह' (सिरि ४७८) । कयार [दे] कलवार, कूड़ा, मैला २, (दे ११। भनि । कयावि देखो कयाइ = कदापि (प्रासू १३१) । योग [कयोग] नट-विशेष बहुरूपिया (बृह ४) । 3 " कर सक [] करना, बनाना । करइ (हे ४, २३४) । भूका. कासी, काही, काहीघ्र, करिसु करें मासिकासी ( ४,१६२: कुमा भग; कप्प ) । भवि. काहिs, काही, करिस्सइ, करिहि का, काहिमि (हे १४ प ५२३ कुमा) कर्म कज, करो करिज (भग हे ४, २५०) वह करंत करित करेंत, करेमाण ( प ५०६ रयण ७२ से २, १५; सुर २, २४०; उवा) । कवकृ. कज्जमाण, किरंत, कोरमाण ( ि५४७; कुमाः गा २७२ रयण ८९ ) । संकृ. करिता, करित्ताणं, करिदूण, काउं, काऊ, काऊणं, कट्टु, करिअ, किश्वा, कियाणं (कप्पः दस ३ षड् कुमाः भगः श्रभि ४१: सूत्र १,१, १; प्रौप) । हेक. काउं, करेत्तए (कुमा, भग ८, २) । कृ. कणिज्ज, करणीअ, करिअव्य, करेअव्व, कायव्य (दस १०; षड् ; स २१ प्रासू १४८ कुमा) । प्रयो. करावेइ, करा (३५५२) । कर [कर] एक महामह (गुन २० ) । [क] १ हस्त, हाथ (सुर १, ५४ ५७) २ महसूल, चुंगी (७६८ सुर १, ५४ फिर अंशु (उप ७६८ कुमा) हाथी की (कुम करका शिलाष्टि पक्खिले ( पउम १६, १५) । 'ग्गह [ग्रह] १ हाथ से ग्रहण करना 'द Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करअडी-करणी पाइअसद्दमहण्णवो २२७ करग्गहलुलियो धम्मिल्लो' (गा ५४४)। २ हुआ एक खाद्य द्रव्य, दध्योदन (पाप्रा दे २, करड पुंदे] १ व्याघ्र, शेर । २ वि. कबरा, पारिण-ग्रहण, शादी (राज)। य पुं[ज] १४ सुपा १३६) । चितकबरा (दे २, ५५)। नख (काप्र १७२)। रुह पुन [कररुह] करंबिय वि [करम्बित] व्याप्त, खचित (सुपा करडा स्त्री दि] लट्वा--१ एक प्रकार का १ नख (हे १, ३४)। २ . नृप-विशेष ३४ गउड)। करज वृक्ष। २ पक्षि विशेष, चटक । ३ भ्रमर, (पउम ७७, ८८)। °लाधव न ['लाघव करकंट पुं [करकण्ट] इस नाम का एक भौंरा । ४ वाद्य-विशेष (दे २, ५५): कला-विशेष, हस्त-लाघव (कप्प)। वंदण न परिव्राजक, तापस-विशेष (औप)। करडि पंकिरटिन्] हाथी, हस्ती (सुर २, [°वन्दन] वन्दन का एक दोष, एक प्रकार करकंड करकण्ड] एक जैन महषि ६६, सुपा ५०, १३६)। का शुल्क समझकर वन्दन करना (बृह ३)। (महा; पडि)। करडी स्त्री [दे, करटी] वाव-विशेष; 'अट्टसयं करअडी। स्त्री [दे] स्थूल वन, मोटा कपड़ा करकचिय वि [ककचित] करवत आदि से करडीणं' (ज २)। करअरी (दे २, १६)। फाड़ा हुषा (अणु १५४)। करड्यभत्त न [दे श्राद्ध-विशेष (पिंड)। करआ स्त्री [करका] करका, अोला, शिला करकड वि [दे. ककर कर्कट] १ कठिन, करण न किरण] १ इन्द्रिय (सुर ४, २३६% वृष्टि (अच्नु ६४)। परुष (उवा)। (कुमा)। २ आसन, पद्मासन वगैरह (कुमा)। करइल्ली स्त्री [दे] शुष्क-वृक्ष, सूखा पेड़ (दे करकडी स्त्री [दे. करकटी] चिथड़ा, निन्दनीय ३ अधिकरण, पाश्रय (कुमा)। ४ कृति, २, १७)। वस्त्र-विशेष, जो प्राचीन काल में वध्य पुरुष क्रिया, विधान (ठा ३, ४; सुर ४, २४५)। करंक पुं (दे. करङ्क १ भिक्षा-पात्र (दे २, को पहनाया जाता था (विपा १, २-पत्र ५ कारक-विशेष, साधकतम (ठा ३, १; ५५; गउड)। २ प्रशोक-वृक्ष (दे २, ५५)। २४)। विसे १६३६)। ६ उपाधि, उपकरण (प्रोष करंक पुंन [करङ्क] १ हड्डी, हाड़; 'करंकब करकय ' [क्रकच] करपत्र, करांत, पारा ६६६)। ७ न्यायालय, न्याय-स्थल (उप पृ यभीसणे मसागम्मि' (सुपा १७५)। २ (परण १,१)। ११७) । ८ वीर्य-स्फुरण (ठा ३,१-पत्र अस्थि-पञ्जर, हाड़-पञ्जर (उप ७२८ टी)। करकर [करकर] 'कर-कर' आवाज (णाया १०६)। ज्योतिः-शास्त्र-प्रसिद्ध बव-बालवादि ३ पानदान, पान वगैरह रखने की छोटी पेटी १, ६)। सुंठ पुंन [°शुण्ठ] तृण-विशेष करण (सुर २, १६५)। १० निमित्त, प्रयो'तंबोलकरंवाहिणीओ' (कप्यू)। ४ हड्डियों (पएह १-पत्र ४०)। जन (आबू १)। ११ जेल, कैदखाना (भवि)। का ढेर (सुर ६, २०३)। करकरिंग करकरिक] ग्रह-विशेष, ग्रहाधि १२ वि. जो किया जाय वह (मोघ २, भा करंज सक [भ ] तोड़ना, फोड़ना, ठायक देव-विशेष (ठा २, ३–पत्र ७८)। ३)। १३ करनेवाला (कुमा)। हिवइ पुं टुकड़ा करना । करंजइ (हे ४,१०६)। करा देखो कारण कारण करग देखो कारग= कारक (गदि ५०)। धिपति] जेल का अध्यक्ष (भवि) । करंज पुं[करञ्ज] वृक्ष-विशेष, करिआ (पएण करग पुं[करक] १ करका, प्रोला (श्रा २०; साला स्त्री [शाला] न्यायालय (दस० ७० १; दे १, १३; गा १२१)। प्रोध ३४३; जी ५)। २ पानी की कलशी, हारि० पत्र. १०८, २)। करंज पुं[दे] शुष्क-त्वक् , सूखी त्वचा (दे जल पात्र (अनु ५; श्रा १६; सुपा ३३६; करणया स्त्री [करणता] १ अनुष्ठान, क्रिया। ३६४)। देखो करय = करक। २ संयमानुष्ठान (णाया १, १-पत्र ५०)। करंजिअ वि [भन] तोड़ा हुआ (कुमा)। करगय देखो करकय (स ६६६)। : करणसाला स्त्री [करणशाला] न्याय-मन्दिर करंड पुन [करण्ड] वंशाकार हड्डी (तंदु करग्गह देखो कर-गह (सम्मत्त १७३)। (दस ३, १ टी)। ३५)। | करघायल पुं[दे] किलाट, दूध की मलाई करणि स्त्री [दे] क्रिया, कर्म (प्रणु १३७) । करंड ' [करण्ड, क १ करण्ड, (दे २, २२)। करणि स्त्री [दे] १ रूप, आकार (दे २, ७; करंडग डिब्बा, पेटिका (पएह १, ५ करच्छोडिया स्त्री [दे] ताली, ताल (सुख २, सुपा १०५ ४७५; पाप्र)। २ सादृश्य, समाकरडय ) श्रा१४:ठा ४,४)। । १५)। नता (प्रए)। ३ अनुकरण, नकल करना करंडिया स्त्री [करण्डिका] छोटा डिब्बा कर दि] अपवित्र अन्न को खानेवाला (गउड)। ४ स्वीकार, अंगीकार (उप पृ (णाया १, ७, सुपा ४२८)। । ब्राह्मण (मृच्छ २०७)। ३८५)। करंडी स्त्री करण्डी] १ डिब्बा, पेटिका (श्रा करड करट] १ काक, कौआ (उर १, करगिज्ज देखो कर = कृ। १४)। २ कुंडी, पात्र-विशेष (उप ५६३)। १४)। २ हाथी का गएड-स्थल (सुपा १३६; करगिल्ल वि [दे] समान, सश: 'मयरजमलकरंड्य न [दे] पीठ के पास की हड्डी (परह पात्र)। ३ वाद्य-विशेष (विक्र ८७)। ४ तोणीरकरणिल्लेणं पयामथोरेणं निरंतरेणं १,४-पत्र ७८)। कुसुम्भ-वृक्ष । ५ करीर-वृक्ष । ६ गिरगिट, च ऊरुजुयलेणं (स ३१२); 'बंधूयकरगिल्लेरण करंत देखो कर = कृ। सरट । ७ पाखंडी, नास्तिक । ८ श्राद्ध-विशेष सहावारुणेण अहरेण' (स ३१२)। करंब पुं [करम्ब दही और भात का बना . (दे २, ५५ टी)। करणीअ देखो कर = कृ। For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ पाइअसमण्णवो करपत न [करपत्र ] करपत्र क्रकच ( विपा करहुंच न [करहन ] छंद - विशेष (पिंग ) । १, ६) । [करहाट] वृक्ष-विशेष करहार करहाड शिफा कन्द, मैनफल (उ करभ [करभ] ११ गउड) | २ करभी स्त्री [करभी ] १ उष्टी, स्त्री- ऊँट, ऊंटनी ( पिंड ) । २ धान्य भरने का बड़ा पात्र (बृह २: कस) । देखो करही । करहाय [करहाटक] १ ऊपर देखो देश-विशेष कविसए चन्नर पनि सम्मि' ( स २५३) । करही देखो कर भी । ३ इस नाम का एक छन्द (पिंग) वि [ह] अँट सवार " करम [ [] क्षीरा, २, ६ पर)। उष्ट्री पर सवारी करने वाला (महा) । करमंद ( गउड) [करमन्द] वाला विशेष करमद्द पुं [करमर्द ] वृक्ष- विशेष, ( पण १ - पत्र ३२ ) । करौंदा करमरी स्त्री [दे] १५; षड् गा ५२७ पात्र ) । ; करय देखो करग (उप ७२८ टी पराण १: कुमा उत्र ७ ) । ३ पक्षि- विशेष ( परह १, १) । का गा करदी श्री [दे] मल्लिका बेला (दे २,१८ ) । करयर अक [ करकरा ] 'कर-कर' आवाज करना । वकु. करयरंत ( पउम १४, ३५) । कररुद [कर रुद्र] विशेष (पिग करलि ) स्त्री [कदलि, °ली ] १ पताका । करली । २ हरिण की एक जाति । ३ हाथी का एक आभरण (हे १, १२० कुमा) । करन [दे. करक] जल-पात्रः पालिकरवा नीरं पाएउ पुच्छिो' (सुपा २१४ : ६३१) । करवंदी स्त्री [करमन्दी] लता-विशेष, एक जात का पेड़ (दे, ८३५) । करवत्ति स्त्री [करपात्रिका ] जल-पात्रविशेष (१२) । तस्वी२ करवाल [रवाल] खड्ग, तलवार (पाच सुपा ६० ) । | कविया श्री [दे. कर्शकका] पान पान विशेष (सुपा Yes करवीर [करवीर ] वृक्ष विशेष, कनेर का गाव (गड)। करसी [हे] २, १७४) । करह पुं [करभ] १ ऊँट, उष्ट्र (पउम ५६, ४४ पाम कुमा; सुपा ४२७ ) । २ सुगंधी द्रव्य-विशेष (गउड ६६८ ) । कराइनी [दे] पेड़ (दे २१८ ) । करादल [करादल] राजा ( ती ३७ ) ! करावि कराल वि [कराल ] १ उन्नत, ऊँचा (ऋतु ५) २ रिसिका दंस लम्बा और बाहर निकला हो वह (गउड) । ३ भयानक, भयंकर (कप्पू) । ४ फाड़नेवाला। ५ विकसित ( से १०.४१ ) । ६ व्यवहित] ( से ११, ६९ ) । ७ वि. इस नाम का विदेह देश का राजा (पर्म १) | कराल सक [ कराल्यू ] १ फाड़ना, छिद्र करना । २ विकसित करना । करालेइ (से १०, ४१) । कलिअ वि [कलित ] १ दन्दुरित, लम्बा और बहिर्मित दंतवाला से १२, १०) | २ व्यवहित किया हुआ, अन्तरालवाला बनाया हुआ (से ११, ६) । ३ भयंकर बनाया हुआ (पू)। करली स्त्री [दे] दतवन, दाँत करने का काष्ठ (दे २, १२) । शुद्ध करावण न [कारण ] करवाना, बनवाना, निर्मापन (सुपा ३३२ धम्म ८ टी) । गली, सेमर का स्वनाम ख्यात एक वि [कारित ] कराया हुआ (स ५६४ महा) । करि [करिन] हाथी हस्ती (पाम प्रातु १६ ) | धरणट्ठाण न ['धरणस्थान ] हाथी को बाँधने का डोर - रज्जू, रस्सा ( पात्र ) || नाह [नाथ ] १ ऐरावण, इन्द्र का हाथी । २ उत्तम हस्ती (सुपा १०९ ) । बंधण [बन्धन ] हाथी पकड़ने का गर्त (पा) । मरपुं [मकर ] जल- हस्ती ( पाच ) । करिअ [करिक] एक माह (२०) | For Personal & Private Use Only करपत फरिसिद् करिअ देखो कर = कृ । करिअor f } करिआ स्त्री [] मदिरा परोसने का पात्र (दे २, १४) । करिता करित्ताणं करिण करिएडवर्ड (अप) देखो कायन्त्र (हे ४, करिएव्व । ४३८ कुमाः पि २५४) । करिंत देखो कर= कृ | करिणिग्रामो [करिणी] हस्तिनी ही करिणी} J (महा पउम ८०, ५३; सुपा ४ ) । करिण[फरिन ] हाथी, हल्ली रे दु करिणाहम ! कुजाय ! संतमह (उप ६ टी) । देखो कर = कृ । करिमरी [दे] देखो करमरी (गा ५४ ५५ ) । करिल्ल न [दे] १ वंशांकुर, बाँस का कोपड़, रेतीली भूमि में उत्पन्न होनेवाला वृक्ष-विशेष, जिसे अं खाते हैं (दे २१०) २ तरकारी- विशेष 'यापुरिसाइकु भिक रिल मंसाई' (विसे २९३ ) । ३ अंकुर, कन्दल (धनु) । ४ पुं. करील वृक्ष, करील (षड् ) । ५. वि. वंशांकुर के समान 'हाहा ते चेय करिल्ल पिययमा बाहुस यणदुल्ल लिये' (गउड ) | करिस देखो कड्ड र ४ १५७) करिसंत (मुर १,२३० ) । संक करिमिता (२०२) । करिस [क] १ बचाव २ विलेखन, रेखा-करण । ३ मान- विशेष, पल का चौथा हिस्सा ( जो १) । करिस देखो करीस (हे १, १०१ पात्र ) । रिसग वि[कर्षक] खेती करनेवाला, कृषीवल ( उत्त ३; श्रावम) = करिसण न [कर्पण] १ खींचाव, आकर्षण । २ चासना, खेती करना । ३ कृषि, खेती ( परह १, १ ) । करिसय देखो करसग (सुपा २, २६०, सुर २, ७७)। करिसावण पुंन [कार्षापण ] सिक्का विशेष (विसे ५०६ ) करिसिद (शी) किर्षित] १ २ चासा हुआ, खेती किया हुआ (हेका ३३१ ) । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करेअव्व! देखो कर = कृ। करेंत दखा कर% कृ। करिसिय-कलकल पाइअसद्दमण्णवो २२६ करिसिय वि [कृशित] दुर्बल किया हुआ करोडिया। स्त्री [करोटिका, टी] १ कुंडा, कलंकलीभागि वि [कलङ्कलीभागिन् दुःख(सूत्र १, ३)। करोडी बड़े मुँह का एक पात्र, कांस्य- व्याकुल (सूत्र २, २, ८१, ८३)। पात्र-विशेष (अए; दे ७, १५; पान) । २ कलंकलीभाव पं करीर पुं[करीर] वृक्ष-विशेष, करीर, करील कलकुलीभाव] १ दुःख (उप ७२८ टीः श्रा १६ प्रासू ६२) । स्थगिका, पानदान (णाया १,१ टी-पत्र से व्याकुलता। २ संसार-परिभ्रमण (आचा ४३) । ३ मिट्टी का एक तरह का पात्र करीस पुं[करोष] जलाने के लिए सुखाया २,१६,१२)। (ोप)। ४ कपाल, भिक्षा-पात्र (गाया १, कलंकवई स्त्री दे] वृति, बाड़ काटे आदि से हुअा गोबर, कंडा, गोइठा (हे १, १०१)। करुण देखो कलुण (स्वप्न ५३; सुपा २१६); ८)।५ परोसने का एक उपकरण (दे, २, परिच्छन्न स्थान-परिधि (दे २, २४)। 'उज्झद उयारभावं दक्खिणं करुणयं च कलंकिअघि [कलङ्कित] कलंकित, दागी (हे आमुयई' (गउड)। करोडी स्त्री [दे] एक प्रकार की चींटी, क्षुद्र द्र- ४, ४३८)। करुणा स्त्री [करुगा] दया, दूसरे के दुःख को जन्तु-विशेष (दे २, ३)। - कलंकिल्ल वि [कलङ्किन] कलंकवाला, दागी दूर करने की इच्छा (गउड; कुमा)। करोडी स्त्री [दे] मुरदा, शव (कुप्र १०२)। (कालः पि ५६५)। करुणाइय विकरुणायित] जिसपर करुणा कल सक [कलय] १ संख्या करना । २ कलंतर न किलान्तर ] व्याज, सूद (कुप्र की गई हो वह (गउड)। आवाज करना । ३ जानना । ४ पहिचानना। ३५५)। करुणि वि [करुणिन्] करुणा करनेवाला, ५ संबन्ध करना । कलइ (हे ४, २५६ कलंद पं कलन्द] १कुण्ड, कुण्डा, रंगदयालु (सरग)। षड)। कलयंति (विसे २०२६)। भवि. पात्र (उवा)। २ जाति से प्रार्य एक प्रकार करे सक [ कारय ] कराना । करेइ (प्राकृ कलइस्सं (पि ५३३) । कर्म. कलिजए (विसे । के मनष्य ठा -पत्र ३५८) । २०२६) । वकृ. कलयंत (सुपा ४) । कवकृ. कलंय पं कदम्ब १ वृक्ष-विशेष, नीप, कलिज्जत (सुपा ६४)। संकृ. कलिऊण, कदम का गाछ (हें १, ३०, २२२: गा ३७; कलिअ (महा अभि १८२)। कृ. कलणिज, कप्पू)। चीर न [चीर] शस्त्र-विशेष करेड [दे] कृकलास, गिरगिट, सरट (दे कल गीअ (सुपा ६२२; पि ६१)। (विपा १, ६–पत्र ६६)। चीरिया स्त्री २,५)। कल वि किल]१ मधुर, मनोहर (पास)।२। [चीरिका] तृण-विशेष, जिसका अग्र भाग करेणु पं [करेणु] १ हस्ती, हाथी । २ कनेर प. अव्यक्त मधुर शब्द (गाया १, १६) । ३ अति तीक्ष्ण होता है (जीव ३)। वालुया का गाछ; 'एसो करेगू (हे २,११६) । ३ कोलाहल, कलकल (चंद १६)। ४ कदम, स्त्री [ वालुका] १ कदम्ब के पुष्प के ग्राकारस्त्री. हस्तिनी हथिनी (हे २, ११६; रणाया १, कीचड, कांदो (भत १३०)। ५ धान्य-विशेष, वाली धूली। २ नरक की नदी; 'कलंबवा१, सुर ८, १३६) । दत्ता स्त्री [°दत्ता] गोल चना, मटर (ठा ५, ३)। "कंठी स्त्री लुयाए दहपुवो अणंतसो' (उत्त १६)। ब्रह्मदत्त चक्रवती की एक स्त्री (उत्त १३) । किण्ठी] कोकिला, कोयल (दे २, ३० कब स्वी21 वल्ली-विशेष. नालिका /दे °सेणा स्त्री [°सेना] देखो पूर्वोत अर्थ कप्पू) । मंजुल वि [ मजुलशब्द । २, ३)। (उत्त १३)। से मधुर (पान)। यंठ पुंकण्ठ काकिल, कलंबअन [कदम्बका कदम्ब-वृक्ष का पुष्प, करेणुआ नो [करेणु] हस्तिनी, हथिनी कोयल (कुमा)। यंठी देखो कण्ठी (सुर 'धाराहयकलंबुझं पिव समुस्ससियरोमकूवें (पान) महा)। ४, ४८)। "हंस पुं [हंस] एक पक्षी, राज-हंस (कप्प; गउड)। कलंबुआ [दे] देखो कलंबु (पएण १; करेअव्व कलंक पुंकलङ्क] १ दाग, दोष (प्रासू ६४)। सुज ४)। करेवाहिय वि [करबाधित राज-कर से : २ लाञ्छन. चिह्न (कुमा; गउड)। कलंबुआ स्त्री [कलम्बुका] १ कदम्ब पुष्प पीड़ित, महसूल से हैरान (औप)। कलंक सक [कलंय ] कलंकित करना। । के समान मांस-गोलक । २ एक गाँव का नाम, करोडपं दे] १ नारिकेल, नारियल । २ । कलंकइ (भवि)। कृ.कलंकियव्व (सुपा ४४८ जहाँ पर भगवान महावीर को कालहस्तो काक, कौपा । ३ वृषभ, बैल (दे २, ५४)। ५८१)। ने सताया था (राज)। करोडग पु[दे] पात्र-विशेष, कटोरा (निचू कलंक पुं. [दे] १ बाँस, वंश (दे २, ८)। कलंबुगा स्त्री [कलम्बुका] जल में होनेवाली २ बाँस की बनाई हुई बाड़ (णाया १,१८)। वनस्पति की एक जाति (सूम २, ३, १८)। करोडि स्त्री [करोटि] सिर की हड्डी (सुख, कलंकण न [कलङ्कन] कलंकित करना कलंबुय पुं[कदम्बक ] कदम्ब-वृक्ष (सुज २, २९)। (पव ८)। करोडिय पु[करोटिक] कापालिक, भिक्षुक- कलंकल वि [कलकल] असमंजस, अशुभ कलकल पुं [कल कल] १ कोलाहल, कलविशेष (णाया १,८-पत्र १५०)। (ौपः संथा)। कलरव (श्रा १४)। २ व्यक्त शब्द, स्पष्ट करेमाण देखो कर % कृ। For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० पाइअसद्दमहण्णवो कलकल-कला आवाज (भग ६, ३३, राय)। ३ चूना आदि कलय दे]१ अर्जुन वृक्ष । २ सोनार, कलहाअ देखो कलह = कलहाय । कलहाएदि से मिश्रित जल (विण १, ६)। सुवर्णकार (दे २, ५४)। (शौ) (नाट) । वकृ. कलहाअंत (गा ६०)। कलकल अक [कलकलाय ] 'कल कल' कलय पुं[कलाद] सोनार, सुवर्णकार (षड्)। कलहाइअ वि [कलायित] कलहवाला, यावाज करना । बकृ. कलकलंत, कल फलित, कलयंदि वि [दे] १ प्रसिद्ध, विख्यात । २ झगडाखोर (पान)। कलकलेत, कलकलमाण (पएह १, १, ३, स्त्री. वृक्ष-विशेष, पाडरी, पाढल (दे २, ५८)। कलहि वि [कहिन] झगड़ाखोर (दे ५, प्रौप)। कलयजल न [दे] ओष्ठ-लेप, होठ पर लगाया ५४)। कलकलिअ न [कलकलित] कोलाहल करना जाता लेप-विशेष (भवि)। कलहोय न [कलधौत] १ सुवर्ण, सोना ! कल यल देखो कलफल (हे २, २२ पान (सण) । २ चाँदी, रजत (गउड परह १, ४, कलकलिअ वि [कलकलित] कलकल शब्द गा ५३५) । पात्र)। से युक्त (सिरि ६६४)। कलयलिर वि कलकलायित कलकल करनेकलक्ख देखो कडक्ख = कटाक्ष (गा ७०२)। | कला स्त्री [क्ला] १ अंश, भाग, मात्रा वाला (वजा ६६)। कलचुलि गुं[करचुलि] १ क्षत्रिय-विशेष । कलरुदाणी स्त्री [कलरुद्राणी] इस नाम का (अनु ४) । २ समय का सूक्ष्म भाग (विसे २०२८)। ३ चन्द्रमा का सोलहवाँ हिस्सा २ इस नाम का एक क्षत्रिय-वंश (पिंग)। छन्द (पिंग)। कलण देखो करणः 'तोसुवि कलणेसु हासु । कलल न [कलल] १ वीर्य और शोणित का (प्रासू ६५) । ४ कला, विद्या, विज्ञान (कप्प; रायः प्रासू ११२) । पुरुष-योग्य कला के सुहसंकप्पो' (अच्नु ८२)। समुदाय, 'पाइज्जंति रडंता सुतत्ततवुतंबसंनिभं मुख्य बहत्तर और स्त्री-योग्य कला के मुख्य कलण न [कलन] १ शब्द, आवाज । २. कललं' (पउम ११८, ८); 'वसकललसेंभ चौसठ भेद हैं। 'बावत्तरी कला' (अरण); संख्यान, गिनती (विसे २०२८)। ३ धारण | सोरिणय-' (पउम ३६, ५६)। २ गर्भ 'बावत्तरिकलापंडियावि पुरिसा' (प्रासू १२६); करना (सुपा २५)। ४ जानना (सुपा १६)। | वेष्टन चर्म । ३ गर्भ के अवयव रूप रेत-विकार 'चउसट्ठिकलापंडिया' (णाया १, ३) । पुरुष५ प्राप्ति, ग्रहणः 'जुत्तं वा सयलकलाकलणं (गउड) । ४ काँदो, कीचड़, कर्दम (गउड)। कला ये हैं:-१ लिपि-ज्ञान । २ अंकगणित । रयणायरसुअस्स' (श्रा १६)। कललिय विकललित] कर्दमित, कीचवाला ३चित्र कला। ४ नाट्यकला। ५ गान, गाना। कलणा स्त्री [कलना] १ कृति, करणः 'जुगणं | किया हुआ, 'अरणोएणकलहविअलियकेसरकी ६ वादा बजाना। ७ स्वर गत (षड्ज, ऋषभ कंदप्प-दप्पं णिहुवरणकलणाकंदलिल्लं कुणंता' लालकललियद्दारा' (गउड)। वगैरह स्वरों का ज्ञान)। ८ पुष्कर-गत (मृदंग, (कप्पू)। २ धारण करना, लगाना; 'मज्झएहे । कलविंक पुं [कलविङ्क] पक्षि विशेष, चटक, मुरजादि विशेष वाद्य का ज्ञान)। ६ समताल सिरिखंडपंककलणा' (कप्पू)। गौरिया पक्षी, गौरैया (पान' गउड)। (संगीत के ताल का ज्ञान)। १० चूत कला। कणिज देखो कल = कलय् । कलवू स्त्री [दे] तुम्बी पात्र (दे २, १२ । कलत्त न [कलत्र] स्त्री, भार्या (प्रासू ७६)।। षड् )। ११ जनवाद (लोगों के साथ आलाप संलाप कलधोय देखो कलहोय (औप)। कलस पुंकलश] १ कलश, घड़ा (उवा करने की विधि)। १२ पांसे का खेल । १३ अष्टापद (चोपाट खेलने की रीति)। १४ कलभ पुंस्त्री [कलभ] १ हाथी का बच्चा गाया १,१)। २ स्कन्धक छन्द का एक भेद, शीघ्र-कवित्व । १५ दक-मृत्तिका (पृथक्करण(गाया १, १)। २ बच्चा, बालक; 'उवमासु । छन्द-विशेष (पिंग)। अपजत्तेभकलभदंतावहासमूरुजुधे' (हे १, ७)। कलस पुन [कलरा] १ एक देव विमान । विद्या)। १६ पाक कला । १७ पान-विधि (जलपान के गुरण-दोष का ज्ञान)। १८ वस्त्रकलभिआ स्त्री [कलभिका] हाथी का स्त्री- देवेन्द्र १४०।२ वादा-विशेष (राय ५० विधि (वस्त्र की सजावट की रीति)। १६ बचा (णाया १,१-पत्र ६३)। टी)। विलेपन-विधि । २० शयन-विधि । २१ आर्या कलम पु [दे. कलम] १ चोर, तस्कर (दे २, कलसिया स्त्री [कलशिका] १ छोटा घड़ा (छन्द विशेष) बनाने की रीति । २२ प्रहेलिका १०, पाम आचा)। २ एक प्रकार का उत्तम (अणु) । २ वाद्य विशेष (प्राचू १)। (विनोद के लिए पहेलियां-गूढ़ाशय पद्य)। चावल (उवा जै २; पान)। कलह पुं [कलह क्लेश, झगड़ा (उव; औप)। २३ मागधिका (छन्द विशेष) । २४ गाथा कलमल पुं[कलमल] १ पेट का मल (ठा ३, कलह देखो कलम (उवः पउम ७८, २८)।। (छन्द विशेष) । २५ गीति (छन्द-विशेष) । ३) । २ वि. दुर्गन्धि, दुर्गन्धवाला (उप ८३३) | कलह न [दे] तलवार की म्यान (दे २, ५; २६ श्लोक (अनुष्टुप् छन्द)। २७ हिरण्य कलमल पुन [दे] १ मदन-वेदन (संक्ष ४७)। पाम)। युक्ति (चांदी के आभूषण की यथास्थान २ कंपन, थरथराहट, घृणा: 'असुईए अट्ठीणं | कलह अक [कलहाय ] झगड़ा करना, योजना)। २८ सुवर्ण-युक्ति। २६ चूर्ण-युक्ति सोणियकिमिजालपूइमंसाणं । नामपि चितियं तड़ाई करना । वक कलहंत, कलहमाण (सुगन्धि पदार्थ बनाने की रीति) । ३० खलु कलमलयं जगइ यियम्मि' (मन ३३)। (पउन २८, ४, सुपा ११, २३३, ५४६)। आभरण-विधि (आभूषणों की सजावट)। कलय देखो कालय (हे १, ६७)। | कलहण न [कलहन] झगड़ा करना (उब)। ३१ तरुणी परिकम (स्त्री को सुन्दर बनाने For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ स्त्री-लक्षण (स्त्री के शुभाशुभ २३१)। २ मयूर-पिच्छ (एकल जाते हैं ( दे य कलाइया-कल्ल पाइअसद्दमहण्णवो २३१ की रीति) । ३२ स्त्री-लक्षण (स्त्री के शुभाशुम कलाव ( [कलाप १ समूह, जत्था (हे १, प्रासू ६०) । २ कलिंग देश का राजा (पिंग)। चिन्हों का परिज्ञान) । ३३ पुरुष लक्षण । ३४ २३१)। २ मयूर-पिच्छ (सुपा ४८)। ३ कलिंग पुं [कलिङ्ग] भगवान् शादिनाथ अश्व-लक्षण । ३५ गज-लक्षण । ३६ गो- शरधि, तूण, जिसमें बारण रक्खे जाते हैं (दे का एक पुन (तो १४)। लक्षण । ३७ कुक्कुट-लक्षण । ३८ छत्र. २, १५)। ४ कण्ठ का प्राभूषण (प्रौप)। कलिंच देखो किलिंच (गा ७७०)। लक्षण । ३६ दण्ड-लक्षण । ४० असि लक्षण। कलावगन [कलापक]? चार श्लोकों को कलिज ५ किलिस] कट, चटाई (निचू १७)। ४१ मणि-लक्षरण (रत्न-परीक्षा) । ४२ एक वाक्यता। २ ग्रीवा का एक आभरण कलिंज न [दे] छोटी लकड़ी (द २, ११) । काकणि-लक्षण (रत्न विशेष की परीक्षा)। (पएह २, ५)। कलिंब पुन [कलिम्ब] १ बाँस का पात्र४३ वास्तुविद्या (गृह बनाने और सजाने की कलावय न [कलापक] चार पद्यों की एक विशेष, 'कलिंबो वंसकप्परो' (गच्छ २)। २ रीति) । ४४ स्कन्धावार-मान (सैन्य परि- वाक्यता (सम्मत्त १८७)। । सूखी लकडी (भग ८,३)। माण) । ४५ नगर-मान । ४६ चार (ग्रह-चार कलावि पुंस्त्री [कलापिन्] मयूर, मोर (उप कलित्त न [कटित्र] कमर पर पहना जाता का परिज्ञान)। ४७ प्रतिचार (ग्रहों के वक्र- । ७२८ टी)। एक प्रकार का चर्म मय कवच (पाया १, गमन वगैरह का ज्ञान, अथवा रोगप्रतीकार- कलि पंकलि] एक नरकावास (देवेन्द्र २६)।। १; औप)। ज्ञान) । ४८ ब्यूह (सैन्य रचना)। ४६ प्रतिव्यूह कलि कलि१ कलह, झगड़ा (कुमा; कलिम न [दे] कमल, पद्म (हे २, ६)। (प्रतिद्वन्द्वि व्यूह)। ५० चक्र व्यूह । ५१ गरुड- प्रासू ६४)। २ युग-विशेष, कलि युग (उप कलिमल देखो कलमल = कलकल (तंदु ४१)। व्यूह । ५२ शकट व्यूह । ५३ युद्ध (मल्ल-युद्ध) ८३३)। ३ पर्वत विशेष (ती ५४)। ४ । कलिल वि [कलिल] गहन, घना, दुर्भद्य ५४ निशुद्ध । ५५ युद्धातियुद्ध (खड्गादि । प्रथम भेद (निचू १५)। ५ एक, अकेला । (पान)। शस्त्र से युद्ध)। ५६ दृष्टि-युद्ध । ५७ मुष्टि- (सूत्र १, २, २; भग १८, ४) । ६ दुइ पुरुष; कलुण वि [करुण] १ दोन, दया-जनक, युद्ध । ५८ बाहु युद्ध। ५६ लता-युद्ध । ६० 'दुट्ठो कली' (पान)। ओग, ओय ' | कृपा-पात्र (हे १, २५४ प्रासू १२६: सुर इषु-शास्त्र (दिव्यान-सूचक शास्त्र)। ६१ [°ओज युग्म-राशि विशेष (भग १८, ४; । २, २२६)। २ पुं. साहित्य शास्त्र-प्रसिद्ध त्सर-प्रपात (बड्ग-शिक्षा शास्त्र)। ६२ ठा ४, ३)। ओयकडजुम्म पुं[ ओज- | नव रसों में एक रस (अणु)। धनुर्वेद । ६३ हिरण्य-पाक (चाँदी बनाने की कृतयुग्म युग्म-राशि-विशेष (भग ३४, कलुणा देखो करुणा (राज)। रीति)। ६४ सुदर्ण-पाक । ६५ सूत्रक्रीड़ा १) °ओयकलिओय [°ओजकल्योज] कलुस वि [कलुष] १ मलिन, अस्वच्छ (एक ही सूत को अनेक प्रकार कर दिखाना)। युग्म-राशि विशेष (भग ३४, १) । °ओजते- 'कलिकलुस' (विपा १, १, पाप) । २ न. ६६ वस्त्र-क्रोड़ा। ६७ नालिका खेल (युत ओय पुं [ ओजत्र्योज] युग्म-राशि विशेष पाप, दोष, मैल (स १३२पाम)। विशेष)। ६८ पत्र-च्छेद्य ( अनेक पत्रों में (भग ३४, १)। आयदावरजुम्म पुं कलुसिअ विकलुषित] पाप-प्रस्त, मलिन अमुक पत्र का छेदन, हस्त-लाघव)। ६६ आजद्वापरयुग्म पुग्मन्गाशलवशष! (से १०,५; गउड)। कट-च्छेद्य (कट की तरह क्रम से छेद करने (भग ३४, १)। कुंड न [कुण्ड] तीर्थका ज्ञान)। ७० सजीव (मरी हुई धातु को तीय कलुसीकय वि [कलुषीकृत मलिन किया विशेष (ती १५)। "जुग न [युग] कलिफिर असल बनाना)। ७१ निर्जीव (धातु हुआ (उव)। युग (ती २१)। मारण, रसायण)। ७२ शकुन-रुत (शकुन | कलेर पुं[दे] १ कंकाल, अस्थि-पञ्जर । २ शास्त्र); (ज २ टी; सम ८३)। गुरु पुं कलि पु[दे] शत्रु, दुश्मन (दे २, २)। वि. कराल, भयानक (दे २, ५३)।। r°गमा कलाचार्य. विद्याध्यापक. शिक्षक कालअवि [कालन] १ युक्त, साहत (परह। कलेवर नकलेवर शरीर. देड (प्राउ ४८ (सुपा २५)। यरिय पुं [चार्य देखो १, २)। २ प्राप्त, गृहीत । ३ ज्ञात, विदित पिंग)। पूर्वोक्त अर्थ (णाया १,१)। वई स्त्री (दे २. ५६; पात्र)। । कलेसुय न [कलेसुक] तृण-विशेष (सूम [°वती] १ कलावाली स्त्री । २ एक पतिव्रता लिअ देखो कल = कलय। २, २)। स्त्री (उप ७३६; पडि) ! सवण्ण न[सवर्ण] कलिअ पं दे]१ नकुल, न्यौला, नेवल। ।२ कलोवाइ स्त्री [दे पात्र-विशेष (माचा २, १, संख्या-विशेष (ठा १०)। _ वि. गर्वित, गर्व-युक्त (दे २,५६)। २, १)। कलाइआ स्त्री [कलाचिका] प्रकोष्ठ, कोनी से कलिआ स्त्री [दे] सखो, सहेली (द २, ५६)। कल्ल न [कल्य] १ कल, गया हुआ या लेकर मरिणबन्ध तक का हस्तावयव (पास)। कलिआ स्त्री [कलिका] अविकसित पुष्प, आगामी दिन (पानः गाया १, १; दे८, कलाय '[कलाद सोनार, सुवर्णकार (पएह । कली (पाम; गा ४४२) । ६७) । २ शब्द, आवाज । ३ संख्या; गिनती १, २, णाया) १,८)। कलिंग [कलिङ्ग] १ देश-विशेष, यह देश (विसे ३४४२)। ४ प्रारोग्य, निरोगताः कलाय [कलाय] धान्य विशेष, गोल चना, उड़ीसा से दक्षिण की अोर गोदावरी के मुहाने 'कल्लं किलारुगं (बिसे ३४३६)। ५ प्रभात, मटर (ठा ३, ५, अनु ५)। पर है (पउम १८, ६७; अोघ ३० भा। सुबह (प्रण)। ६ वि. निरोग, रोग रहित गुरु पुं कलि पु [दे] शव. , । कलाचार्य, विद्याध्या For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ पाइअसद्दमण्णवो कल्लवत्त-कवि (ठा ३, ३ दे ८; ६५) । ७ वि. दक्ष, चतुर कल्लुग पुं [कल्लुक] द्वीन्द्रिय जीव-विशेष, | कवड्डिया स्त्री [कपर्दिका] कौड़ी, वराटिका (दे ८, ६५)। फीट की एक जाति (जीव ३)। (सुपा १४, ५४५)। कल्वत्त पुं [कल्यवर्त] कलेवा, प्रातर्भोजन, कल्लुय '[कल्लुक द्वीन्द्रिय जन्तु की एक | कवण वि [किम् ] कौन ? (पउम ७२, ८ जल-पान (स्वप्न ६०; नाट)। जाति (पएण १-पत्र ४४)। कुमा)। कल्लवाल j [कल्यपाल] कलवार, शराब कल्लुरिया [दे] देखो कुल्लरिया (राज)। कवय पुन [कवच] वर्म, बख्तर (विपा १, बेचनेवाला (मोह ६२)। कल्लेउय पुंन [दे] कलेवा, प्रातराश (प्रोष २. पउम २४, ३१, पान)। ४६४ टी)। कल्लविअ वि [दे] १ तीमित, आदित । २ | कवय न [दे] वनस्पति-विशेष, भूमिच्छत्र कल्लोडय पुं[दे] दमनीय बैल, साँड़ (प्राचा (दे २, ३) । विस्तारित, फैलाया हुआ (दे २, १८)। २, ४, २)। कवरी स्त्री [कवरी] केश-पाश, धम्मिल्ल (कुमाः कल्ला स्त्री [दे] मद्य, दारू (दे २, २)। कल्लोडिआ [दे] देखो कल्होडी (नाट)। वेणी १८३)। कल्लाकल्लिं) अ [कल्याकल्य] १ प्रतिदिन, | कल्लोल पुं[कल्लोल] तरंग, ऊमि (प्रौपः कवल सक [कवलय ] ग्रसना, हड़प करना। कल्ला कल्लिहर रोज (विपा १, ३, रणाया १, प्रासू १२७)। कवलेइ (गउड)। कर्म. कवलिज्जइ (गउड)। १८)। २ प्रति-प्रभात, रोज सुबह (उवाः कल्लोल वि [दे, कल्लोल] शत्रु, दुश्मन (दे कवकृ. कवलिज्जत (सुपा ७०)। संकृ. कवप्राप)। लिऊण (गउड)। कल्लाण न [कल्याण] सुवर्ण (सिरि ३७३)। कल्लोलिणी स्त्री [कल्लोलिनी] नदी (कप्पू)। कवल पुं [कवल] कवल, ग्रास (पब ४; कल्लाण पुंन [कल्याण] १ सुख, मंगल, क्षेमः कल्हार न [कह लार] सफेह कमल (परण औप)। 'गुणट्ठाणपरिणामे संते जीवाण सयलकल्लाणा' १ दे २, ७६)। कवलण न [कवलन] ग्रसन, भक्षण (काप (उप ६००महा प्रासू १४६) । २ निर्वाण, मोक्ष (विसे ३४४०)। ३ विवाह, लग्न १७०; सुपा ४७४)। कल्हि देखो कल्लिं (गा ८०२)। कवलिअ वि [कवलित] ग्रसित, भक्षित (वसु)। ४ जिन भगवान् का पूर्व भव से कल्होड ' [दे] वत्सतर, बछड़ा (दे २, ६)। | कल्होडी स्त्री [दे] वत्सतरी, बछिया (दे (पानः सुर २, १४६; सुपा १२१; ३१९) । ध्यवन, जन्म, दीक्षा, केवल-ज्ञान तथा मोक्षप्राप्ति रूप अवसर पंच महाकल्लारणा २, ६)। कवलिआ स्त्री [दे] ज्ञान का एक उपकरण सवेसि जिणाण होति णिप्रमेण' (पंचा )|| कव अक [कु] अावाज करना, शब्द करना। (आप ८)। ५ समृद्धि, वैभव (कप्प)। ६ वृक्ष-विशेष कवइ (हे ४, २३३)। कवल्ल पुं[दे] लोहे का कड़ाह (सून १, ५, (पएण १)। ७ तप विशेष (पव) । ८ देश- कवइय वि [कवचित] बख्तरवाला, वर्मित विशेष। ६ नगर विशेषः 'कल्लाणदेसे (पउम ७०,७१; प्रौप)। कवल्लि , स्त्री [दे] पात्र-विशेष, गुड़ वगैरह कल्लाणनयरे संकरो रणाम राया जिरणकबंध देखो कमंध (पण्ह १, ३, महा: गउड)। कवल्ली) पकाने का भाजन, कड़ाह, कराहा भत्तो हुत्था' (ती ५१) । १० पुण्य, 'डझतेण य गिम्हे कालसिलाए कवल्लिभूयाएं' कवग्ग पुं[कवर्ग] 'क' से 'हु' तक के पाँच शुभ-कर्म (आचा)। ११ वि. हित-कारक, (संथा १२०; विपा १, ३)। अक्षर (धर्मवि १४)। सुख-कारक (जीव ३: उत्त ३)। कडय न कवचिअ देखो कवइय (सिरि १३१६)। कवाल । पुन [कपाट] किवाड़, किवाड़ी [कृतक] नगर-विशेष (ती)। कारि वि | कवचिया स्त्री [कवचिका ] कलाचिका, कवाड (गउड मोपः गा ६२०) । [कारिन] सुखावह, मंगल-कारक (गाया प्रकोष्ठ (राज)। कवाल न [कपाल] १ खोपड़ी, सिर की हड्डी कवट्टिअ वि [कदर्थित पीड़ित, हैरान किया 'करकलिप्रकवालों (सुपा १५२)। २ घटकल्लाणि वि [कल्याणिन] कल्याण-प्राप्त | हुमा (हे १, १२४)। कर्पर, भिक्षा-पात्र (प्राचाः हे १, २३१) । (राज)। कवड न [कपट] माया, छम, शाठ्य (पामः कवास पुं[दे] एक प्रकार का जूता, अर्धजङ्घा कल्लाणी स्त्री [कल्याणी] १ कल्याण करने सुर ४, १६१)। वाली स्त्री (गउड)। २ दो वर्ष की बछिया कवडि देखो कवडि, 'तो भरणइ कवडिजक्खो कवि देखो इक = कपि (सर १, २४६) । (उत्तर १०३)। प्रज्जवि तं पुच्छसे एयं' (सुपा ५४२)। कवि पुं[कवि] १ कविता करनेवाला (सुर कल्लाल पुं[कल्यपाल] कलाल, दारू बेचने- | कबड्डु [कपर्द] बड़ी कौड़ी, वराटिका (दे १, १८ सुपा ५६२, प्रासू ६३)। २ शुक्र, वाला (अणु; प्राव ६)। ११०; जी १५)। ग्रह-विशेष (सुपा ५६२)। 'त्त न [व] कल्लि [कल्ये ] कल दिन, कल को (गा | कवड्डि पुं [कपर्दिन] १ यक्ष-विशेष (सुपा कविता, कवित्त (सुर १,४२) । देखो कई = ५०२)। ५१२) । २ महादेव, शिव (कुमा)। कवि । For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविअ - कस कविअ न [कविक ] लगाम (पात्र: सुपा २१३) । कविजल देसी कपिंजल (घाचा २) । कविकन्छु) देखो क 7 कवि १४ ३ १ २९ जीव ) | श्रा दे कविट्ठ देखा इत्थ (परण १० दे ३, ४५ ) । कविड न [दे] घर का पिछला आँगन (दे २, ε)। कवि देखो (उप ३०३१ टी) | कविच्छु देखो कइकच्छु ( स २३६) । कविल [] श्वान, कुत्ता (दे २,६६ पात्र ) । कबिल [कपिल] -विशेष, भूरा पुं १ रंग, तामड़ा वर्णं (उवा २ ) । २ पक्षि-विशेष ( परह १, ४) । ३ सांख्य मत का प्रवत्तक मुनि विशेष (श्रावमः औप ) । ४ एक ब्राह्मण महर्षि (उत्त ८ ) । ५ इस नामका एक वासुदेव ( गाया १, १६) । ६ राहु का पुद्गल - विशेष (२०) ७वि. भूरा रंग का मेला रंग का पम ६,७० से ७,२२) । स्त्री [1] एक ब्राह्मणी का नाम ( श्राच्) । श्री [दे. कपिलटोला ] जन्तुविशेष, जिसकी गुजराती में 'साड़ी' कहते हैं (जी १०) । कवि कविलास देखो कइलास; 'तेसुवि हवेज कविलासमेरगिरिसनिमा कुडा (उम्र)। कविलिन व [कपिलित ] कपिल रंगवाला किया हुआ, भूरे रंग से रंगित ( गउड ) । कविल्लुयन [दे] पात्र विशेष, कड़ाही (बृह (५) । कविस [कपिश] १ विशेष कालापीला रंग, बादामी, तमिति । वि. कपिरावयाला (पाप गड) | कवि न [] दारू, मद्य, मदिरा (दे २,२) । afar at [] अजङ्घा, एक प्रकार का जूता (दे २, ५) । कविसायण [कपिशावन] मच-विशेष गुड़ का दारू ( पण १७ – पत्र ५३२) । कविसीसग कविसीसय न] [कपिशीर्षक]] प्राकार का अग्र भाग ( श्रप गाया } १, १३ राय) । विसिय न [पिहसित] भाकाश में ३० पाइअसद्दमहणव अकस्मात् होनेवाली भयंकर आवाज करती (१२० । कवेल्लुय देखो कविल्लुय (ठा-पत्र ४१७) । को देखो को (पिट २१७) । कवोय पुं [कपोत] १ कबूत्तर, पारावत, परेवा (१७) २ म्लेच्छ देश-विशेष ( पउम २७, ७) । २ न कूष्माण्ड, कोहड़ा (भाग १५) । कवोल पुं [कपोल] गाल, गण्ड (सुर ३, १२० ४ १५) । कपोशण (मा) वि [दुर] थोड़ा गरम ( प्राकृ १) । कव्य न [का]] [[ ( ४, ४१) २. ग्रह-विशेष, शुक्र (सुर वि. वर्णनीय, २५३३.य, श्लापनीय है २, ७६) । इतवि [वत् ] काव्यवाला (हे २,१५९) । कव्य-न] [य] मांस (मुर १५३)। कब [] बालक बच्चा (गद ३, १६) कञ्चड देखो कब्बड (भवि) । कन्या श्री [कम्पा ] माया (सू० पू० पत्र १७५ सूत्र गा० ३४५. अध्या० ६ गा० १) । कवाड पुं [दे] दक्षिण हस्त, दाहिना हाथ (दे २, १०) । कव्याडि वि [] काँवर उठानेवाला, बहँगी से माल होनेवाला ( कुप्र १२१ ) । कव्याय [क्रव्याद] १ राक्षस, पिशाच ( पउम ७, १० दे २, १५ स २१३) । २ वि. कच्चा मांस खानेवाला ( पउम २२, ३५) । ३ मांस खानेवाला (पान) । कव्वाल न [ दे] १ कर्म - स्थान, कार्यालय | २ गृह, घर (दे २, ५२ ) । कस सक [ कप् ] १ ठार मारना । २ कसना, घिसना । ३ मलिन करना । कसंति (परण १३) व सिनमाण (सुपा ६१५) । कस [क] चर्म-ष्ट वायु (ह १, ३ गाया १, २ स २८७) । कस पुं [ष] १ कसौटी, कष-क्रिया; 'तावच्छेयकसेहि सुद्धं पासइ सुवन्नमुप्पन्नं' (सुपा ३८६ ) । २ कसौटी का पत्थर (पान) । ३ वि. हिंसक, मार डालनेवाला ठार मारने For Personal & Private Use Only २३३ वाला (ठा ४, १) । ४ पुंन, संसार, भव, जगत् ( उत्त ४) । ५ न. कर्म, कर्म-पुद्गलः "भो वाकस (विसे १२२८) | पट्ट, वपुं [पट्ट] कसौटी का पत्थर (६२६ र २,२४) हि दुखी [हि ] स की एक जाति ( पण १) । कसई श्री [दे] फल विशेष भरवणारी वनस्पति का फल (दे २, ६) । " क्रसट (वे) देखो कटु = कष्ट (हे ४, ३१४० प्रात) | सट्ट पुं [दे] कतवार, कूड़ा (ओघ ५५७ ) । सण [कृष्ण] १ व विशेष २ वि. कृष्ण वर्णवाला, काला, श्याम (हे २, ७५; ११० कुमा) पक्ख [पक्ष] कृष्ण पक्ष, बदी पखवारा ( पाच ) । सार पुं ["सार] विशेष २ हरि की एक १ । जाति (नाट - मृच्छ ३) । hara [कृत्स्न] सकल, सब, सम्पूर्ण (हे १, ७५) । कसणसिअ [दे] बलभद्र, वासुदेव का बड़ा भाई (दे २, २३) । कसरि [कृष्णित] काला किया हुआ ( पाच ) । कसमीर देखो कम्हीर (पउम ६८ ६५ ) । कसर पुं [दे] श्रधम बैल (दे २, ४ गा ७२५) नए सीतानि सौति हु का (? क) सरुव्व' (पुप्फ ६३) । कसर पुंन [दे. कसर] रोग-विशेष, कण्डूविशेष (?) तराभिभूषा वरतिस्त्रraise चिकयतगू' (जं २- - पत्र १६५ ) । कसरक न [दे. सरक] १ वर्षा-शब्द, खाते समय जो शब्द होता है वह 'खज्जइ न उ कसरक्क हि' (हे ४, ४२३; कुमा) । २ कुम फूल की कली ते गिरिसिहरापल्लवा ते करीरकसरका । लब्भंति करह ! तो जा ४६ कसव्त्र न [दे] बाष्प, भाफ । २ वि. स्तोक, अल्प । ३ प्रचुर व्याप्त (दे २, ५३) । ४ प्राद्र, गीला 'रुहिरकसव्वालं बियदी हरवण कोसन्मति (४२७ ३२, ५३ ५ कर्कश, पर 'बूढो पालास फलकसव्वाओं' (गउड) । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ पाइअसहमहण्णवो कसा-काइणी कसा स्त्री [कशा, कसा] चर्म-यष्टि, चाबुक, कस्सव पुं [काश्यप १ वंश-विशेष, 'कस्सव- कहण न [कथन कथन, उक्ति (धर्म १)। कोड़ा (विपा १, ६; सुपा ३४५)। वंसुत्तंसो' (विक्र ६५) । २ ऋषि-विशेष कहणा स्त्री [कथना] ऊपर देखो (अंत २ कसा देखो कासा ( षड् )। (अभि २६)। उप ४६७; ६६८)। कह सक [ कथय् ] कहना, बोलना । कहइ कहय देखो कहग (दे १, १४५) । कसाइ वि [कषायिन्] १ कषाय रंगवाला। २ क्रोध-मान-माया-लोभवाला (पएण १८ (हे ४,२)। कर्म. कत्थइ, कहिजइ (हे १, कहल्ल पुंन [दे] कर्पर, खप्पर (अंत १२) । १८७, ४, २४६)। वकृ. कहंत, कहिंत, कहा स्त्री [कथा] कथा, वार्ता, हकीकत (सुर प्राचा)। कहेमाण (रयण ७२; सुर ११, १४८) । २; २५०; कुमा; स्वप्न ८३)। कसाइअ वि [कषायित] ऊपर देखो (गा ववकृ. कत्थंत, कहिलंत, कहिजमाण कहाणग। द[कथानक] १ कथा, वार्ता ४८२ श्रा ३५, प्राचा)। (राज; सुर १, ४४, गा १९८; सुर १४, कहाणय) (श्रा १२, उप पृ ११६) । २ कसाय सक [कशाय ] ताड़न करना, ६४) । संकृ. कहिउ, कहिऊण (महा: प्रसंग, प्रस्तावः 'कयं से नाम जालिरिणत्ति मारना । भूका. कसाइत्था (आचा)। काल)। कृ. कहणिज्ज, कहियव्व, कहेयव्य, कहाणयविसेसेरण' (स १३३; ५६८) । ३ कसाय पुंकषाय] १ क्रोध, मान, माया कहणीय (सूम १, १, १; सुर ४, १६२; प्रयोजन, कार्य; 'कहाण्यविसेसेण समागो और लोभ (विसे १२२६ दं ३)। २ रससुपा ३१६; परह २, ४, सुर १२, १७०)। पाडलावह' (स ५८५)। विशेष कणेता (ठा १)। ३ वरण-विशेष, कर सककथ1क्वाथ करना. उबालना ।। कहाव सक। कथय कहलाना, बुलवाना। लाल-पीला रंग (उवा २२)। ४ क्वाथ, कहइ (षड् )। ___ कहावेइ (महा)। काढ़ा। ५ वि. कषैला स्वादवाला। ६ कषाय कह पुं [कफ] कफ, शरीरस्थ वातु-विशेष, कहावण [कार्षापण सिका-विशेष (हे २, रंगवाला। ७ सुगन्धी, खुशबूदार (हे २, बलगम (कुमा)। ७१, ६३ कुमा)। १६०)। कह देखो कहं (हे १, २६ कुमाः षड्)। कहाविअ वि [कथित] कहलाया हुअा (सुपा कसार [द] देखो कंसार (भवि)। कवि देखो कह-कहंपि (गउड उप ७२८ ६५, ४५७)। कसि वि [कषिन] मारनेवाला, विनाशक; टी)। "वि देखो कहं-पि (प्रासू ११४० कहि प्रक्व, कुत्र] कहां, किस स्थान 'चत्तारि एए कसिणो कसाया सिंचंति मूलाई कहिआ में? (उवाः भग; नाटः कुमाः कहिं कहआ अ [कथंवा] वितर्क और पाश्रय अर्थ । उव)। पुरणब्भवस्स' (सुख १,१)। कसिअ न [कशिका] प्रतोद, चाबुक 'अंघो कहित्तु वि [कथयित कहनेवाला, भाषक | को बतलानेवाला अव्यय (से ७, ३४)। मए भद्दवदीए कसिनं पाढतं' (प्रयौ १०८)। (सम १५)। कहं [कथम् ] १ कैसे, किस तरह ? कहिय विकथित] कथित, उक्त (उवः नाट)। कसिआ स्त्री. ऊपर देखो (सुर १३, १७०)। । (स्वप्न ४५; कुमा) । २ क्यों, किस लिए ? | कसिआ स्त्री [दे] फल-विशेष, अरण्यचारी कहिया स्त्री [कथिका] कथा, कहानी (उप (हे १, २६, षड्; महा) । कहपि प्र १०३१ टी)। नामक वनस्पति का फल (दे २, ६)। [कथमपि] किसी तरह (गा १४६) । कहु (अप) अ [कुतः] कहां से ? (पड् ) । कसिट (पै) देखो कट्ठ = कृष्ट ( षड्)। कहा स्त्री [कथा] राग-द्वेष को उत्पन्न कहेड वि [दे] तरुण, जवान (दे २, १३) । कसिण देखो कसण = कृष्ण, कृत्स्न (हे २, करनेवाली कथा, विकथा (प्राचा)। चि, कहेत्तु देखो कहित्तु (ठा ४, २)। ७५; कुमाः पाश्रः दे ४, १२)। 'ची प्र[चित् ] किसी तरह, किसी काअइंची। स्त्री [काकचिनी] गुजा, कसुमीरा स्त्री [कश्मीर] एक उत्तर भारतीय । प्रकार से (श्रा १२, उप ५३० टी)। "पि अ काइंची घुघची (प्राकृ ३०)। देश (प्राकृ २८० ३३)। [ अपि] किसी तरह (गउड)। काइअ वि [कायिक शारीरिक, शरीरकसेरु । पुंन [कशेरु, क] जलीय कन्द- कहकह कहकह] प्रमोद-कलकल, खुशी संबन्धी (श्रा ३४: प्रामा)। कसेरुय विशेष (गउड; पण्ण १)। का शोर (ठा ३,१-पत्र ११६: कप्प)। काइ ) स्त्री कायिकी १ शरीर-सर्वकसेराग न [कशेरुक] जलमें होनेवाली वन कहकह प्रक[कहकह्य] खुशी का शोर काइगा पी क्रिया, शरीर से निर्वृत्त ध्यास्पति की एक जाति (सूम २, ३, १८ प्राचा मचाना । वकृ. कहकहित (पएह १, २)। पार (ठा २,१: सम १०; नव १७)२ शौच२, १, ८, ५)। क्रिया (स ६४६)। ३ मूत्र, पेशाब (प्रोष कहकहकह पुं [कहकहकह] खुशी का शोर कसोति स्त्री [दे] खाद्य-विशेष, ‘महाहिं २१६, उप पृ २७८)। (भग)। कसोति भोचा कजं सधैति' (सुज १०, १७)। कहकह पुंकिथंकथा] बातचीत (पाचा २, काइंदी स्त्री [काकन्दी] इस नाम की एक कस्स [दे] पङ्क, कर्दम, काँदो (दे २, २)। १५, २) नगरी, बिहार की एक नगरी (संथा ७६)। कस्सय न [दे] प्राभृत, उपहार, भेंट (दे २, कहग वि [कथक १ कहनेवाला, (सट्टि काइणी स्त्री [दे] गुजा, लाल रत्ती (दे २, १२)। २३)। २ पुं. कथा-कार (उप १०३१ टी)। २१)। For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काई-काम पाइअसद्दमहण्णवो २३५ काई स्त्री [काकी] कौए की मादा (विपा १, वनस्पति-विशेष, चकसेनी, घुघची (अनु ३)। काकोणंद [काकोनन्द] इस नाम की एक देखो काग, काय = काक । म्लेच्छ जाति, 'मिच्छा कागोणंदा विक्खाया काउ स्त्री [कापोती] लेश्या विशेष, प्रात्मा काकंदग पुं [काकन्दक] एक जैन महर्षि महियलम्मि ते सूरा' (पउम ३४, ४१)। का एक प्रकार का परिणाम (भग; आचा)। (कप्प)। काठिण्ण न [काठिन्य] कठिनता (धर्मस 'लेसा स्त्री [ लेश्या] प्रात्म-परिणाम विशेष काकंदिय [काकन्दिक] एक जैन महर्षि ५१, ५४)। (समा ठा ३, १)। "लेस्स वि ["लेश्य (कप्प)। काढ पुं [काथ] काढ़ा (कुलक ११)। कापोत लेश्यावाला (पएण १७भग)। काकंदिया स्त्री [काकन्दिका] जैन मुनियों | काण नि [काण] काना, एकाक्ष (सुपा ६४३)। लेम्सा देखो लेसा (पएण १७)। की एक शाखा (कप्प)। काण वि [दे] १ सच्छिद्र, काना (प्राचा २, काउं देखो कर = कृ। काकंदी देखो काईदी (गाया १, ६; ठा। १, ८) । २ चुराया हुआ । कय पुं [क्रय काउंबर पुं[काकोदुम्बर] नीचे देखो (राज)। चुराई हुई चीज को खरीदना (सुपा ३४३; काउंबरी स्त्री [काकोदुम्बरी] पोषधि-विशेष, काकणि देखो कागणि (विपा १, २)। ३४४)। 'निबंबउंबउंबरकाउंबरिबोरि-' (उप १०३१ । काकलि देखो कागलि (ठा १०-पत्र ४७१)। काणच्छिनी दे] टेढ़ी नजर से देखना, टी परण १)। काग देखो काक (दे १, १०६; प्रासू ६०)। | काणच्छिया कटाक्ष (दे २, २४, भवि); काउकाम वि [का काम करने को चाहन- तालसंजीवगनाय पुं [तालसंजीवकन्या _ 'काणच्छियायो य जहा विडो तहा करेई वाला (प्रोघ ५३७)। य] काकतालीयन्याय (उप १४२ टी)। काउड्डावण न [कायोड्डावन] उच्चाटन, दूर- तालिज्ज, तालीअन [तालीया जैसे काणण न [कानन] १ चन, जंगल (पाप)। स्थित दूसरे के शरीर का आकर्षण करना कौए का अतर्कित आगमन और ताल-फल बगीचा, उपवन (अनुः प्रौप)। (णाया १, १४)। का अकस्मात् गिरना होता है ऐसा अवितकित काणत्थेव पुं[दे] विरल जल-वृष्टि, बूंद-बूंद काउदर पुं[काकोदर] साँप की एक जाति संभव, अकस्मात् किसी कार्य का होना (प्राचा; | बरसना (दे २, २६)। (पएह १, १)। दे ५, १५)। थल न [स्थल देश-विशेष काणद्वी स्त्री [दे] परिहास (दे २, २८)। काउमण वि [कर्तुं मनस् ] करने की चाह - (दे २, २७) । पाल पुं [पाल] कुष्ठ | काणिक्का स्त्री [दे] बड़ी ईंट (बृह ३)। वाला (उव; उप पृ ७०० सं ९०)। विशेष (राज) । °पिंडी स्त्री ["पिण्डी] काणिट्टा स्त्री [काणेष्टा ] लोहे की ईंट काउरिस पुं [कापुरुष] १ खराब आदमी, अग्र-पिएड (प्राचा २, १, ६) । देखो (वव ४)। नीच पुरुष । २ कातर, डरपोक पुरुष (गउड काय% काक। काणिआर देखो कण्णिआर (संक्षि १७) । सुर ८, १५०सुपा १६२)। | कागंदी देखो काइंदी (अनु २)। काणिय न [काण्य] अाँख का रोग, 'काणियं कारलदे बकबगला दे २.)। कागणि स्त्री [दे] १ राज्य, 'असोगसिरियो । झिम्मियं चेव, करिणयं खज्जियं तहा' (प्राचा)। काउसग्ग । पुंकायोत्सर्ग १ शरीर पर पुत्तो अंधो जायइ कागरिण' (विसे ८६२)। काणीण पुं [कानीन] कुंवारी कन्या से उत्पन्न काउस्सग के ममत्त कात्याग (उत्त २६)|| २ मांस का छोटा टुकड़ा (पीप)। पुत्र (भवि)। २ कायिक-क्रिया का त्याग । ३ ध्यान के कागणी देखो कागिणी (था २७ ठा)। कादंब देखो कायंब (पएह १, १)। लिए शरीर की निश्चलता (पडि)। कागणी स्त्री [काकिणी] सवा गुजा का एक कादंबरी देखो कायंबरी (अभि १८८) । काऊ देखो काउ (ठा १: कम्म ४, १३)। बांट (अणु १५५)। कादूसण वि [कदूषण] प्रात्मा को दूषित कागल पुं [काकल] ग्रीवास्थ उन्नत प्रदेश करनेवाला । स्त्री. °णिया (भग ६,५-पत्र काऊण) (अनु)। २६८)। काओदर देखो काउदर (स्वप्न ६८)। कागलि) स्त्री [काकलि, ली] १ सूक्ष्म कापुरिस देखो काउरिस (णाया १,१)। काओली स्त्री [काकोली] कन्द-विशेष, वन कागली । गीत-ध्वनि, स्वर-विशेष (सुपा काम पुकाम रोग, बीमारी (दसनि २, ५६ उप पू ३५) । २ देवी-विशेष, भगवान् स्पति-विशेष (पएण १)। १५)। एव देखो कामदेव (कुप्र ४११)। अभिनन्दन की शासन-देवी (पव २७)। काओवग पुं [कायोपग] संसारी प्रात्मा | 'ग्घ न [] प्रायंबिल तप (संबोध ५८)। कागिणी स्त्री [काकिणी] १ कौड़ी, कपर्दिका डहण पुं[ दहन] महादेव, शिव (वजा (सूम २, ६)। (उर ७, ३ उवः श्रा २८ टी)। २ बीस १८)। रुय देखो कामरूअ (धर्मवि ५६)। काओसग्ग देखो काउसग्ग (भवि)। कौड़ी के मूल्य का एक सिक्का (उप ५४५)। काम सक [कामय् ] चाहना, वाञ्छना। काक पुं[काक] १ कीमा, वायस (मनु ३)। ३ रत्न विशेष (सम २७, उप ९८६ टी)।। कामेइ (पि ४६१) । कामेति (गउड) । पक, २ ग्रह-विशेष, ग्रहाधिष्ठायक देव-विशेष (ठा कागी स्त्री [काकी] १ कौए की मादा (वा २ कामेंत कामअमाण (गा २५६; अभि २, ३–पत्र ७८)। 'जंघा स्त्री [जङ्घा] विद्या-विशेष (विसे २४५३)। ११)। काऊणं देखो कर-कृ । For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो काम-काय काम पुं[काम] १ इच्छा, कामना, अभिलाषा न [प्रभ] देवविमान-विशेष (जीव ३)। कामि वि [कामिन् अभिलाषी (कुप्र १५४)। (उत्त १४ाचा प्रासू ६६)। २ सुन्दर शब्द, रूप फास पुं[स्पर्श ग्रह-विशेष, ग्रहाधिष्ठाता कामिअ वि [कामित वाञ्छित, अभिलषित वगैरह विषय (भग ७,७; ठा ४,४)। ३ विषय देव-विशेष ( सुज २०)। महावण न (सुपा २५५)। का अभिलाष (कुमा)। ४ मदन, कन्दर्प (कुमाः [महावन बनारस के समीप का एक कामिअ वि [कामिक] १ काम-सम्बन्धी, प्रासू १)। ५ इन्द्रिय-प्रीति (धर्म १)। ६ चैत्य (भग १५)। रूअ पुं [ रूप] देश- विषय-सम्बन्धी (भत्त १११) । २ न. तीर्थमैथुन (पएण २)। ७ छन्द-विशेष (पिंग)। विशेष, जो आसाम में है (पिग)। लेस्स विशेष (ती २८)। ३ सरोवर-विशेष, जिसमें कत न [कान्त] देव-विमान-विशेष (जीव [लेश्य देव-विमान-विशेष (जीव ३)। ईप्सित जन्म मिलता है (राज)। ४ वि. ३)। कम न [कम] लान्तक देव-लोक वण्ण न [°वर्ग] एक देव-विमान (जीव इच्छा पूर्ण करनेवाला (स ३६०) ५ वि. के इन्द्र का एक यात्रा-विमान (ठा १०-पत्र ३)। सत्थ न [शास्त्र] रति-शास्त्र (धर्म इच्छुक, इच्छावाला, साभिलाष (विपा १, १)। ४३७)। काम वि [काम] विषय की २)। समणुण वि [समनोज्ञ] कामा- कामिआ स्त्री [कामिका] इच्छा, अभिलाषा; चाहबाला ( पराण २) । कामि वि सक्त, कामान्ध (प्राचा)। सिंगार न 'अकामियाए चिणंति दुक्ख' (पएह १, ३)। [कामिन] विषयाभिलाषी (प्राचा)। कृड [°शृङ्गार] देव-विमान विशेष (जीव ३)। कामिंजुल पुं [कामिजुल] पक्षि विशेष (दे न [°कूट] देव विमान-विशेष (जीव ३) । 'सिष्ट न [शिष्ट] एक देव-विमान-विशेष २, २६)। 'गम वि [गम] १ स्वेच्छाचारी, स्वैरी (जीव ३) । बिट्ट न [विर्त] देव-विमान- कामिड्ढि पुं[काद्धि] एक जैन मुनि, आर्य (जीव ३)। २ न देखो कम (जीव ३)। विशेष (जीव ३) । विसाइत्त स्त्री [वशा- मुहस्तिसूरि का एक शिष्य (कप्प)। गामि स्त्री [°गामी] विद्या-विशेष (पउम यिता] योगी का एक तरह का ऐश्वर्य, जिसमें कामिड्ढिय न [कामर्द्धिक] जैन मुनियों का ७, १३५)। गुण न [गुण] १ मैथुन योगी अपनी इच्छा के अनुसार सर्व पदार्थों एक कुल (कप्प) । (पएह १, ४)। २ शब्द-प्रमुख विषय (उत्त का अपने चित्त में समावेश करता है (राज)। कामिणी स्त्री [कामिनी] कान्ता, स्त्री (सूपा १४) । घड पुं [घट] ईप्सित चीज को "संसा स्त्री [शंसा] विषयाभिलाष (ठा देनेवाला दिव्य कलश (था १४)। जल न कामिय वि कामित] यथेष्ठ, जितना चाहे [°जल] स्नान-पीठ, जिसपर बैठकर स्नान कामं [कामम्] इन अर्थों का सूचक उतना (पिंड २७२)। किया जाता है वह पट्ट; "सिणाणपीढं तु अव्यय--१ अवधारण (सूम २, १)। २ कामुअ । वि [कामुक] कामी, विषयाभिलाषी कामजलं' (निचू १३) । जुग पुं[युग अनुमति, सम्मति (निचू १६)। ३ अभ्युपगम, कामुग । (मै २५; महा)। सत्थ न [ शास्त्र] पक्षि-विशेष (जीव ३) । उभय न [ध्वज]| स्वीकार (सूअ २, ६)। ४ अतिशय, अधिक्य काम-शास्त्र, रति-शास्त्र (उप ५३० टी)। देवविमान-विशेष (जीव ३) उझया स्त्री (हे २, २१७)। कामुत्तरवडिंसग न[ कामोत्तरावतंसक ] [ ध्वजा] इस नाम की एक वेश्या (विपा कामंग न [ कामाङ्ग] कन्दर्प का उत्तेजक देवविमान-विशेष (जीव ३)। १, २)। द्वि वि [र्थिन] विषयाभिलाषी स्नान वगैरह (सूप २, २)। काय पुं[काय] १ वनस्पति की एक जाति (रणाया १,१)। ड्ढिय पुं[द्धिक] १ जैन कामंदुहा स्त्री [काकदुधा] कामधेनु, ईप्सित (सूम २, ३, १६)। २ एक महाग्रह (मुज साधुनों का एक गण (ठाह-पत्र ४५१)। वस्तु को देनेवाली दिव्य गौ (पउम ८२, २०)। ३ पुंन. जीव-निकाय, जीव-समूह २ न. जैन मुनियों का एक कुल (राज)। 'एयाई कायाई पवेदिताई' (सूत्र १, ७, २)। 'यर न [ नगर] विद्याधरों का एक नगर कामंध पुं[कामान्ध विषयातुर, तीन कामी मंत वि [वत् ] बड़ा शरीरवाला (सूत्र (इक)। दाइणी स्त्री [°दायिनी] ईप्सित (प्रासू १७६)। २, १, १३)। वह पुं[वध जीव-हिसा फल को देनेवाली विद्या-विशेष (पउम ७, कामकिसोर पुं [दे] गर्दभ, गधा (दे २, (श्रावक ३४६)। १३५)। 'दुहा स्त्री [°दुघा] कामधेनु (श्रा ३०)। काय पुं[काय] १ शरीर, देह (वा ३, १; १६)। °देअ, देव पुं [देव] १ अनंग, कामग वि [कामक] १ अभिलषरणीय, वाञ्छ कुमा)। २ समूह, राशि (विसे ६००)। ३ कन्दर्प (नाट; स्पप्न ५५)। २ एक जैन नीय (पएह १, १) । २ चाहनेवाला, इच्छुक देश-विशेष (पएह १, १)। ४ वि. उस देश श्रावक का नाम (उवा)। धेणु स्त्री [धेनु] (सूत्र १, २, २)। में रहनेवाला (पएण १)। गुत्त वि गुप्त] ईप्सित फल देनेवाली गौ (काल)। पाल | कामण न [कामन] चाह, अभिलाषः 'परइ शरीर को वश में रखनेवाला (भग)। गुत्ति पुं[पाल] १ देव-विशेष (दीव)। २ बलदेव, त्थिकामणेणं जीवा नरयम्मि वच्चंति' (महा)। स्त्री [गुप्ति शरीर को वश में रखना, हलायुध (पास)। पिपासय वि [°पिपासक] | कामय देखो कामग (उवा)। जितेन्द्रियता (भग) । जोअ, जोग पुं विषयाभिलाषी (भग)। 'पुर न [पुर] इस कामि वि [कामिन] विषयाभिलाषी (प्राचा; [योग] शरीर व्यापार, शारीरिक क्रिया नाम का एक विद्याधर नगर (इक)। "प्पभ । गउड)। (भग) । जोगि वि [ योगिन्] शरीर-जन्य For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय-कारा पाइअसद्दमहण्णवो २३७ क्रियावाला (भग)। "द्विइ स्त्री [स्थिति] | कायंवरी स्त्री [कादम्बरी] १ मदिरा, दारू कार वि [ कार] करनेवाला (पउम १७,७)। मर कर फिर उसी शरीर में उत्पन्न होकर (पार पउम ११३, १०)। २ अटवी-विशेष कारंकड वि [दे] परुष, कठिन (दे २, ३०)। रहना (ठा २, ३) । "णिरोह [निरोध] (स ५५१)। । कारंड पुकारण्ड, क] पक्षि-विशेष; 'हंसशरीर-व्यापार का परित्याग (पाव ४)। कायक न [दे. कायक] हरा रंग की रूई से कारंडग कारंडवचक्कवाओवसोभियं' (भवि °तिगिच्छा स्त्री ["चिकित्सा] १ शरीर- बना हुआ वस्त्र (प्राचा २, ५, १)। कारंडव औप; स ६०१ रणाया १,१; परह रोग की प्रतिक्रिया। २ उसका प्रतिपादक कायस्थ [कायस्थ] जाति-विशेष, कायथ १,१ विक्र ४१)। शास्त्र (विपा १,८)। भवत्थ वि [भवस्थ] जाति, कायस्थ नाम से प्रसिद्ध जाति, लेखक, कारग वि [कारक] १ करनेवाला (पउम माता के उदर में स्थित (भग)। वझ j लिखने का काम करनेवाली मनुष्य-जाति (मुद्रा ८२, ५६, उप पृ २१५)। २ करानेवाला [वन्ध्य ग्रह-विशेष (राज)। समिअ वि ७६; मृच्छ ११७)। (श्रा ६; विसे)। ३ न. कर्ता, कर्म वगैरह [समित ] शरीर की निर्दोष प्रवृत्ति करने- कायपिउच्छा। स्त्री [दे] कोकिला, कोयल, व्याकरण प्रसिद्ध कारक (विसे ३३८४) । वाला (भग) । समिइस्त्री [ समिति] शरीर कायपिउला पिको (दे २, ३०; षड्)। ४ कारण, हेतु; 'कारणं ति वा कारगं ति की निदोष प्रवृत्ति (ठा ८)। कायर वि [कातर] अधीर, डरपोक (णाया वा साहारणं ति वा एगट्ठा' (प्राचू १)। ५ - १,१: प्रासू ५८)। काय पुं [काक] १ कोपा, वायस (उप पृ उदाहरण, दृष्टान्त (मोघ १६ भा)। ६ पुंन. २३ हेका १४८; वा २६)। २ वनस्पति कायर वि [दे] प्रिय, स्नेह-पात्र (दे २, ५८)। सम्यकत्व-विशेष, शास्त्रानुसार शुद्ध क्रियाः कायरिय वि [कानर] १ डरपोक, भयभीत, विशेष, काला उम्बर (पराग १-पत्र ३५)। 'जं जह भणियं तुमए तं तह करणम्मि अधीर: 'धोरणवि मरियव्वं कायरिएणावि कारगो होइ' (सम्य १४)। देखो काक, काग। कारण न [कारण] १ हेतु, निमित्त (विसे अवस्समरियव्वं' (प्रासू १०६)। २ पुं. । काय पुं[का च] काँच, शीशा (महा प्राचा)। काय पुं[द] १ काँवर, बहँगो, बोझ ढोने गोशालक का एक भक्त (भग ८, ५)। २०६८ स्वप्न १७) । २ प्रयोजन (प्राचा)। कायरिया स्त्री [कातरिका] माया, कपट के लिए तराजूनुमा एक वस्तु, इसमें दोनों ३ अपवाद (कप्प)। कारणिज्ज वि [कारणीय] प्रयोजनीय (स ओर सिकहर लटकाये जाते हैं (गाया १, ८ (सूत्र १, २, १)। टी-पत्र १५२)। कोडिय पुं[कोटिक कायल पुं[दे] १ काक, कौया (दे २, ५८ कांवर से भार ढोनेवाला (गाया १, ८ टी)। पात्र)। २ वि. प्रिय, स्नेह-पात्र (दे २, कारणिय वि [कारणिक] १ प्रयोजन से देखो काव । किया जाता (उवर १०८)। २ कारण से ५८)। कायलि देखो कागलि (नाट--मृच्छ १२)।। प्रवृत्त (वव २) । ३ . न्याय-कर्ता, न्यायाधीश काय पुं[दे] १ लक्ष्य, वेध्य, निशाना। २ कायवंझ [कायवन्ध्य] ग्रह-विशेष, ग्रहा. उपमान, जिस पदार्थ की उपमा दी जाय वह (सुपा ११८)। धिष्ठायक देव-विशेष (राज)। कारय देखो कारग (श्रा १६; विसे ३४२०) । कायव्य देखो कर = कृ। कायंचुल [दे] कामिन्जुल, जल-पक्षी कारव सक [ कारय् ] करवाना, बनवाना । विशेष (दे २,२६)। कायह वि [कायह] देश-विदेश में बना हया कारवेइ (उव) । वकृ. कारविंत (सुपा ६३२; कायंदी स्त्री [दे] परिहास, उपहास (दे २, (वस्त्र) : (प्राचा २, ५, १, ७)। पुप्फ ४७) । संकृ. कारवित्ता (कप्प) । काया स्त्री [काया] शरीर, देह (प्रासू ११२) । कारवण न [ कारण ] निर्मापन, बनवाना २८)। । (राज)। कायंदी देखो काइंदी (स ६)। कार सक [ कारय ] करवाना, बनवाना। कायंधुअ पुं[दे] कामिज़ुल, जल-पक्षी कारवस पुंकारवश] देश-विशेष (भवि)। कारेइ, कारेह (पि ४७२, सुपा ११३)। विशेष (दे २, २६)। कारवाहिय वि [कारबाधित] देखो करेभूका. कारेत्था (पि ५१७)। वकृ. कारयंत वाहिय (प्रौप)। कायंब । [कादम्ब, क] १ हंस-पक्षी (सुर १६, १०); कारेमाण (कप्प)। कवकृ. कायंबग ) (पान; कप्प)। २ गन्धर्व-विशेष । कारविय वि [कारित कराया हुआ (सुर १, कारिजंत (सुपा ५७) । संकृ. कारिऊण ३ कदम्ब-वृक्ष (राज)। ४ वि. कदम्ब-वृक्ष २२६)। (पि ५८४)। कृ. कारेयव्व (पंचा ६)। सम्बन्धीः 'कायंवपुष्फगोलयमसूरअइमुत्तयस्स कारह वि [कारभ] करभ-सम्बन्धी (गउड)। कार वि [दे] कटु, कड़वा, तीता (दे २ २६)। पुर्फ व' (पुप्फ २६८)। कारा स्त्री [काए] कैदखाना (दे २, ९०; कार पुन. देखो कारा = कारा (स ६११; पाप्र)। गार पुंन [गार] कैदखाना, जेल कायंबर न [कादम्बर] मद्य-विशेष, गुड़ का गाया १. १)। (सुपा १२२; सार्ध ५२)। °घर न [गृह] दारू; 'कायंबरपसन्ना' (पउम १०२, १२२)। कार [कार) १ किया, कृति, व्यापार (ठा कैदखाना (अच्च ८३)। मंदिर न [ मन्दिर] कायंबरी स्त्री [कादम्बरी] एक गुहा का नाम १०) । २ रूप, प्राकृति । ३ संघ का मध्य कैदखाना, जेलखाना (कप्पू) । (कुप्र६३)। भाग (वव ३)। | कारा स्त्री [दे] लेखा, रेखा (दे २, २६)। For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ पाइसरमहरणटो कारायणी स्त्री [] शाल्मलि वृक्ष, सेमर का कारेल्लय न [दे] करेला, तरकारी- विशेष पेड़ (२१८) । ( अनु ६ ) । कारात्र देखो कारव । कारावेइ (पि ५५२) । कारोडिय पुं [कारोटिक ] १ कापालिक, भवि काराविस्सं (पि ५२८ ) । भिक्षुक विशेष । २ ताम्बूल वाहक, स्थगीधर (श्रीप कारावण देखो कारवण ( परह १, ३ उप ४०९ ) । कारावयव [कारक ] करानेवाला, विधायक ( स ५५७) । काराविव [चरित] करवाया था, बनवाया हुआ (विसे १०१६ सुर ३, २४; १३) । कार [कारिन्] कर्ता, करनेवाला 'एपल्स कारिलो बालिस तमारोविया' (उप ५६७ टी) एरवत्स कारिणी ध (सुर ८, ५६ ) । कारिका देखो कारिया ( तंदु ४६ ) । कारिम वि[दे] कृत्रिम, बनावटी, नकली (दे २, २७ मा ४५७; षड् ; उप ७२८ टी स ११६; प्रासू २० ) । कारिय देखो कज्ज = कार्य (सूत्र १, २, ३, १० दस ६, ६५ ) । कारयवि [कारित ] कराया हुआ, बनवाया हुआ (परह २, ५ ) । कार्य (सूत्र गा १५१ ) । कारियलई स्त्री [दे] वल्ली - विशेष, करैला का गाछ (पराग १ - पत्र ३३) । कारिया स्त्री [कारिका ] करनेवाली कर्त्री (पा) । कारिल्ल देखो कारि (संबोध ३८ ) । कारिही श्री [दे] बत्ती विशेष करीता का गाछ (सुक्त १) । कारीस [कारी ] गोइठा की अग्नि, कंडा की आग (उत्त १२) । कारु [का] १ कारीगर, शिल्पी (पाच प्रासू ८०) २ नव प्रकार के कारु चर्मकर श्रादि । रुइज्जवि [कारुकी ] कारीगर से सम्बन्ध रखनेवाला (परा १, २ ) । कारुणिय वि [कारुणिक ] दयालु, कृपालु (ठा ४, २ सरण) । कारुण्ण ? न [कारुण्य ] दया, करुणा ( THE RE कारुन्न देखो कार = कारव् । कारेमाण कारेयव्व काल न [हे] तमिस्र, अन्धकार (दे २, २६ षड् ) । काल पुं [काल ] १ समय वक्त (जी ४९ ) । २ मृत्यु, मरण (विसे २०६७ प्रासू ११२ ) । ३ प्रस्ताव, प्रसंग, अवसर (विसे २०६७ ) । ४ विलम्ब, देरी ( स्वप्न ६१ ) । ५ उमर, यय ( स्वप्न ४२) ६(४२)। ७ पह-विशेष प्रहाधिष्ठायक देवविशेष (ठा २, ३ - पत्र ७८) । ८ ज्योतिः - शास्त्र प्रसिद्ध एक कुयोग ( गण १६ ) । सातवीं नरकपृथ्वी का एक नरकावास (ठा ५, ३ पत्र ३४१; सम ५८ ) । १० नरक के जीवों को दुःख देनेवाले परमाधार्मिक देवों की एक जाति (सम २८ ) । ११ बेलम्ब इन्द्र का एक लोकपाल (ठा ४, १ - पत्र १९८ ) । १२ प्रभजन इन्द्र का एक लोकपाल (ठा ४, १ – पत्र १६८ । १३ इन्द्र- विशेष, पिशाचनिकाय का दक्षिण दिशा का इन्द्र (ठा २, ३ - पत्र ८५ ) । १४ पूर्वीय लवण समुद्र के पातलों का मिठाता देव (ठा ४, २ - पत्र २२६ ) । १५ राजा कि का एक पुत्र (निर १, १ ) । १६ इस नाम का एक गृहपति ( गाया २ १) । १७ प्रभाव १५ पिशाच देवों की एक ( बृक्ष ४) । जाति (१) १२ विधि-विशेष (ठा & - पत्र ४४६ ) । २० वर्ण-विशेष, श्यामवर्ण (पण २ ) । २१ न. देव-विमान- विशेष (सम ३५) । २२ 'निरयावली' सूत्र का एक अध्ययन ( निर १, १ ) । २३ काली देवी का सिहासन (गाया २) २४ वि. कृष्ण काला रंग का (सुर २, ५) कंखि वि [काक्षिन] १ समय की अपेक्षा करनेवाला (प्राचा) । २ अवसर का ज्ञाता (उत्त ६) । कप्प पुं ['कल्प ] १ समय-सम्बन्धी शास्त्रीय विघान । २ उसका प्रतिपादक शास्त्र (पंचभा) । काल [काल] मृत्यु- समय (विसे २०६६ ) । कूड न [कूट] उत्कट 13 For Personal & Private Use Only कारायणीकाल विष-विशेष (सुपा २३८) सेव [क्षेप ] विलम्ब, देरी ( से १३, ४२ ) । "गप वि["गत] मृत्यु प्राप्त मृत (सामा १, १; महा चकन [च] बोस सागरोपम परिमित समय (दि) । २ एक भयंकर शस्त्र 'जाहे एवमवि न सक्कइ ताहे कालचक्कं विव्वई' (श्रावम) । 'चूला स्त्री ["चूडा ] अधिक मास वगैरह का अधिक समय (निचू १) । णु वि [ज्ञ] अवसर का जानकार (उप १७९ टी; आचा) । दट्ठ वि["दष्ट] मौत से मरा हुआ उप ७२० टी) । देव पुं [देव] देव - विशेष ( दीव) । धम्म पुं ["धर्म] मृत्यु मरण (गाया १, १ विपा १, २ ) । न्न, न्नु देखो oणु ( प २७६ वा १०९) परियाय [पर्याय ] मृत्यु- समय ( श्राचा) । परिहीण [परिहीन ] विलम्ब, देरी (राय) । पाल [प] देव निशेष, धरणेन्द्र का एक लोकपाल (ठा ४, १) । पास पुं ["पाश ] ज्योतिःशास्त्र प्रसिद्ध एक योग गरा १८) । "पिट्ट, वुद्ध न [पृष्ठ] धनुष । २ कर्ण का धनुष । ३ काला हरिण । ४ कौञ्च पक्षी ( पि ५३ ) । पुरिस पुं [पुरुष] जो पुंवेद कर्म का अनुभव करता हो वह (सूम १, ४, १, २ टी) । 'पभ पुं [" प्रभ] इस नाम का एक पर्वत (ठा १०) । 'फोडय पुंस्त्री ['स्फोटक ] प्राणहर फोड़ा स्त्री. "डिया ( रंभा ) "मास ["मास] मृत्यु समयः कालमा कालं किच्चा' (विपा १, १; २; भग ७, ९ ) । मासिणी स्त्री [मासिनी] गर्भिणी, वणी (५१) मिग [ग] कृष्ण मृग की एक जाति (२) । रेसि स्त्री ['रात्रि ] प्रलय-रात्रि, प्रलय काल (गउड ) । वडिसग न [वितंसक] देवविमान- विशेष, काली देवी का विमान (खाया २) वाइवि ["वादिन] जगत को कालकृत माननेवाला, समय को ही सब कुछ माननेवाला (दि) बासि [वर्षिन] सर पर रखनेवाला मे (ठा ४,३२६०) दोष ["संदीप ] सुर-विशेष, त्रिपुरासुर (याक)। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालंजर-कालुसिय पाइअसद्दमहण्णवो २३४ समय पुं [°समय] समय, वक्त (सुज कालब? न [दे. कालपृष्ठ] धनुष (दे २, कालिगी स्त्री [कालि की] संज्ञा-विशेष, बहुत ८) । 'समा स्त्री ["समा] समय-विशेष, २८)। समय पहले गुजरी हुई चीज का भी जिससे आरक का समय (जो २) । "सार पुं कालवेसिय पुं[कालवैशिक] एक वेश्या- स्मरण हो सके वह (विसे ५०८)। [°सार] मृग की एक जाति, काला मृग; पुत्र (ती ७) । कालिज्ज न [कालेय हृदय का गूढ़ मांस‘एको वि कालसारो ण देइ गंतुं पयाहिणव- काला स्त्री [काला] १ श्याम-वर्णवाली । २ विशेष (तंदु)। लंतो' (गा २५)। सोअरिय पुं[सौक- तिरस्कार करनेवाली (कुमा) । ३ एक कालिम पुंस्त्री [कालिमन् श्यामता, कृष्णता, रिक स्वनाम ख्यात एक कसाई (प्राक)। इन्द्राणी, चमरेन्द्र की एक पटरानी (ठा ५, । दागीपन (सुर ३, ४४: श्रा १२)। 'गरु, गुरु, यरु न [गुरु] सुगन्धि १)। ४ वेश्या-विशेष (ती ७)। कालिय पुं[कालिय] इस नाम का एक सर्प द्रव्य-विशेष, जो धूप के काम में लाया जाता कालाइक्कमय न [कालातिक्रमक] तप-विशेष, | (सुपा १६१)। है (णाया १,१; कप्प; औपः गउड)। यस, दिन के पूर्वार्ध तक आहार-त्याग (संबोध ५८)। आहार-त्याग (संबोध ५८)। कालिय वि [कालिक] १ काल में उत्पन्न. "सि न [यस] लोहे को एक जाति (हे कालाकोण पॅन [काललवण] काला नोन | काल-संबन्धी । २ अनिश्चित, अव्यवस्थितः १, २६६; कुमा, प्रातः से ८, ४६)। | या नमक (दस ३, ८)। 'हत्थागया इमे कामा कालिया जे प्रणागया' सवेसियपुत्त पुं [स्यवैशिकपुत्र] इस कालि पुं [कालिन] बिहार का एक पर्वत (उत्त ५ करु १६)। ३ वह शास्त्र, जिसको नाम का एक जैन मुनि जो भगवान पार्श्वनाथ । (ती १३)। अमुक समय में ही पढ़ने की शास्त्रीय प्राज्ञा की परम्परा में थे (भग)। कालिअसूरि पु[कालिकसूरि] एक प्रसिद्ध है (ठा २, १-पत्र ४६) । दीव पुं कालंजर पुं[कालअर] १ देश-विशेष (पिंग)। प्राचीन जैन प्राचार्य (विचार ५२६)। [द्वीप] द्वीप-विशेष (गाया १, १७---पत्र २ पर्वत विशेष (आवम) । देखो कालिंजर। कालिआ स्त्री [दे] १ शरीर, देह । २ काला- २२८)। पुत्त पुं [पुत्र] एक जैम मुनि कालक्खर सक [दे] १ निर्भर्त्सना करना, न्तर । ३. मेघ, बारिश (दे २,५८) । ४ मेघ- जो भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा में से थे फटकारना । २ निर्वासित करना, बाहर समूह, बादल (पाप)। (भग) । सण्णि वि [संज्ञिन] कालिकी निकाल देनाः 'तो तेणं भरिणया भजा, पिए! कालिआ स्त्री [कालिका] १ देवी-विशेष संज्ञावाला (विसे ५०६) । सुय न ["श्रुत] पुत्तो कालक्खरिया एसो, तो सा रोसेण (सुपा १८२)। २ एक प्रकार का तूफानी । दह शास्त्र जो अमुक समय में ही पढ़ा जा भरगइ तयभिमुह, मइ जीवंतीए इमं न होइ पवन (उप ७२८ टी; गाया १, ६)। सके (णंदि) । णुओग पुं[नुयोग ता जाउ दव्वंपिः किं कजइ लच्छीए, पुत्त-कालिंग पुं[कालिङ्ग] १ देश विशेष; 'पत्तो देखो पूर्वोक्त अर्थ (भग)। विउत्तारण पिउणा पिययम ! जम्मि' (सुपा कालिंगदेसओ' (श्रा १२)। २ वि. कलिङ्ग काली स्त्री काली] १ विद्या-देवी-विशेष ३६६; ४००)। देश में उत्पन्न (पउम ६६, ५५) । (संति ५) । २ चमरेन्द्र की एक पटरानी कालक्खर पुंन [कालाक्षर] १ अल्प जान, | कालिंगी स्त्री [कालिङ्गी] वल्ली-विशेष, तरबूज (ठा ५, १; गाया २,१)। ३ वनस्पतिअल्प-शिक्षा; २ वि. अल्प-शिक्षित; 'कालक्ख- का गाछ (पराग १)। विशेष, काकजङ्घा (अनु ४)। ४ श्यामवणेरदूसिक्खिन धम्मिन रे निंबकीडनसरिच्छ' | कालिंगी स्त्री [कालिङ्गी] विद्या विशेष (सूग्र | वाली स्त्री; 'सामा गायइ महुरं, काली गायइ खरं (गा ८७८)। २,२,२७)। च रुक्खं च' (ठा ७)। ५ राजा श्रेणिक की कालक्खरिअ वि [दे] १ उपालब्ध, निर्भ- कालिंजण न [दे] तापिच्छ, श्याम तमाल का एक रानी (निर १, १)। ६ चौथी जैन सिंत । २ निर्वासितः 'तहवि न विरमइ पेड़ (दे २, २६)। शासन-देवी (संति ६)। ७ पार्वती, गौरी दुलहो प्रणाहकुलडाए संगमे, तत्तो कालक्ख- कालिंजणी स्त्री [दे] ऊपर देखो (दे २, २६)। (पान)। ८ इस नाम का एक छंद (पिंग)। रिपो पिउणा' (सुपा ३८८); 'तो पिउणा कालिंजर पुं [कालिअर] १ देश-विशेष कालुण न [कारुण्य] दया, करुणा। वडिया कालेणं कालक्खरिपो' (सुपा ४८८)। (पिंग)। २ पर्वत-विशेष (उत्त १३) । ३ न. स्त्री [°वृत्ति भीख मांग कर प्राजीविका कालक्खरिअ वि [कालाक्षरिक] देरी से जंगल-विशेष (पउम ५८, ६)। ४ तीर्थ करना (विपा १, १)। अक्षर जाननेवाला, अशिक्षितः 'भो तुम्हाणं स्थान-विशेष (ती ७)। कालुणिय देखो कारुणिय (सूप १, १, मज्झे अहं एको कालक्खरिपो' (कप्पू)। कालिंदी स्त्री [कालिन्दी] १ यमुना नदी । कालग। पुंकालक] १ प्रसिद्ध जैनाचार्य | (पास) । २ एक इन्द्राणी, श केन्द्र की एक कालुणीय देखो कारुणिय (सून १,३,२,६)। कालय , (पुप्फ १४६७ २४०)। २ भ्रमर, पटरानी (पउम १०२, १५६) । कालुय पुंदे] प्राश्व की एक उत्तम जाति भौंरा (राज)। देखो काल (उवा, उप ६८६ । कालिंब [दे] १ शरीर, देह । २ मेघ, (सम्मत्त २१६)। दी)। बारिश दे २,५६)। कालुसिय न [कालुष्य] कलुषता, मलिनता कालय वि [दे] धूर्त, ठग (दे २, २८ । कालिश देखो कालिय = कालिक (राज)। (आउ)। For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० पाइअसहमहण्णवो कालुस्स-कासि कालुस्स न [कालुष्य कलुषपन (सा २)। काविलिय वि [कापिलीय] १ कपिल मुनि- तह भूयाई कयंतो, वत्थुसहावो इमो जम्हा' कालेज न [दे] तापिच्छ, श्याम तमाल का संबन्धी । २ न. कपिल मुनि के वृत्तान्तवाला (सुपा ६५१)। पेड़ (दे २, २६)। एक ग्रन्थांशः 'उत्तराध्ययन' सूत्र का आठवां | कासव पुं[कश्यप] १ इस नाम का एक कालेय न [कालेय] १ काली देवी का अपत्य। अध्ययन (सम ६४)। ऋषि (प्रामा)। २ हरिण की एक जाति । २ सुगन्धि द्रव्य विशेष, कालचन्दन (स ७५)। काविसायण देखो कविसायण (जीव ३)। । २ एक जात की मछली। ४ दक्ष प्रजापति ३ हृदय का मांस-खण्ड, कलेजा (सूत्र १, कावी स्त्री दे] नीलवर्णवाली, हरा रंग की। का जामाता । ५ वि. दारू पीनेवाला (हे १, ५,१, रंभा)। चीज (दे २, २६)। ४३ षड्)। कालोद देखो कालोय (जीव ३)। कावुरिस देखो कापुरिस (स ३७५)। कासव न [काश्यप] १ इस नाम का एक कालोदधि ' [कालोदधि] समुद्र-विशेष | कावेअ न [कापेय ] वानरपन, चञ्चलता गोत्र (ठा ७ गाया १, १ कप्प)। २ पुं. (पएह १, ५)। (अच्नु ६२)। भगवान ऋषभदेव का एक पूर्व पुरुष । ३ वि. कालोदाइ पु[ कालोदायिन्] इस नाम का कावोय वि [दे] काँवर वहन करनेवाला काश्यप गोत्र में उत्पन्न, काश्यप-गोत्रीय (ठा एक दार्शनिक विद्वान् (भग ७, १०)। (अणु ४६)। ७-पत्र ३६०; उत्त ७; कप्प; सूत्र १,६)। कालोय पुं [कालोद] समुद्र-विशेष जो कास देखो कड् = कृष् । कासइ (षड्) । ४ पुं. नापित, हजाम (भग ६,१० प्रावम)। घातकी-खण्ड द्वीप को चारों तरफ घिर कर ५ इस नाम का एक गृहस्थ (अंत १८)। ६ स्थित है (सम ६७)। कास प्रक [कास्] १ कहरना, रोग-विशेष न. इस नाम का एक 'अंतगडदसा सूत्र का से खराब आवाज करना। २ कासना, खांसी काव । पुं[दे] १ काँवर, बहँगी, बोझ अध्ययन (अंत १८)। को आवाज करना । ३ खोखार करना। ४ कावड , ढोनेके लिए तराजूनुमा एक वस्तु, छींक खाना । वकृ. कासंत, कासमाण (पएह । कासवनालिया स्त्री [काश्यपनालिका] श्रीइसमें दोनों ओर सिकहर लटकाये जाते हैं १, ३-पत्र ५४ प्राचा)। संकृ. कासित्ता । पर्णीफल (प्राचा २, १, ८, ६; दस ५, २, (जीव ३; पउम ७५, ५२)। कोडिय पु (जीव ३)। २१)। [कोटिक] काँवर से भार ढ़ोनेवाला कास पुंकाश, स] १ रोग-विशेष, खाँसी कासविजया स्त्री [काश्यपीया] जैन मुनियों (अणु) । देखो काय = (दे)। (णाया १,१३)। २ तृण-विशेष, कासः 'कास की एक शाखा (कप्प)। कावडि । स्त्री [दे] काँवर (कुप्र १२१; कुसुमंव मन्ने सुनिप्फलं जम्म-जीवियं निययं' कासवी स्त्री [काश्यपी] १ पृथिवी, धरित्री कावोडि २४४, दस ४, १ टी)। (उप ७२८ टी); 'कासुकुसुमंव विलं' (प्राप (कुमा)। २ कश्यकप-गोत्रीया स्त्री (कप्प) । कावडिअ पुंदे] वैवधिक, काँवर से भार ५८)। ३ उसका फूल जो सफेद और शोभाय 'रइ स्त्री [रति] भगवान् सुमतिनाथ की ढोनेवाला (पउम ७५, ५२)। मान होता है; 'ता तत्थ नियइ धूलि ससहरकावध पुकावध्य] एक महाग्रह, ग्रहाधि- हरहासकाससंकास' (सुपा ४२८; कुमा)। ४ कासा स्त्री [कृशा] दुर्बल स्त्री ( हे १, १२७७ ष्ठायक देव-विशेष (राज)। ग्रह विशेष, ग्रह-देव-विशेष (ठा २, ३)। ५ षड्)। काबलिअ वि [दे] असहन, असहिष्णु (दे। रस (ठा ७)। ६ संसार, जगत् (प्राचा)। कासाइया) स्त्री [काषायी] कषाय-रंग से २, २८)। कास देखो कंस - कांस्य (हे १,२६ षड्)। कासाई रंगी हुई साड़ी, लाल साड़ी (कप्प; कावलिअवि कावलिक] कवल-प्रक्षेप रूप उवा)। कासंकस वि [कासङ्कष] प्रमादी, संसार में आहार (भगः संग १८१)। कासाय वि[काषाय] कषाय-रंग से रंगा आसक्त (प्राचा)। हुमा वस्त्रादि (गउड)। कावालिअ पुंकापालिक] वाम-मार्गी, अघोर कासग देखो कासय; 'जेरण रोहंति बीजाई, सम्प्रदाय का मनुष्य (सुपा १७४, ३६७ दे जेण जीवंति कासगा' (निचू १)। कासार न [कासार] १ तलाव, छोटा सरोवर १, ३१ प्रबो ११५)। कासण न [कासन] खोखारना, खाटकार (सुपा १६६) । २ पक्वान-विशेष, कसार | (स १८६)। ३ पुं. समूह, जत्था (गउड)। कावालिआ । स्त्री [कापालिकी कापालिक- (मोघ २३५)। ४ प्रदेश, स्थान (गउड)। भूमि स्त्री कावालिणी व्रतवाली स्त्री (गा ४०८)। कासमद्दग [कासमर्दक] वनस्पति-विशेष, | [भूमि नितम्ब-प्रदेश (गउड)। काविट्ट न कापिष्ठ] देव-विमान-विशेष (सम गुच्छ-विशेष (पएण १-पत्र ३२)। कासार न [दे] धातु-विशेष, सीसपत्रक (दे २७ पउम २०, २३)। कासय पुं[कर्षक] कृषीवल, किसान (दे २, २७)। काबिल न [कापिल] १ सांख्य-दर्शन (सम्म कासव १,८७ पास); कासि पुं [काशी] १ देश-विशेष, काशी १४५)। २ वि. सांख्य मत का अनुयायी | 'जह वा लुणाइ सस्साई, जिला; 'कासित्ति जणवओं (सुपा ३१; उत्त कासवो परिणयाई छित्तम्मि। १८)। २ काशी देश का राजा (कुमा)। (औप)। For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कासिअ-किंजक पाइअसहमहण्णवो २४१ ३ स्त्री. काशी नगरी, बनारस शहर (कुमा)। काहावण पु[कार्षापण] सिक्का-विशेष (हे किंकर पुं[किङ्कर] नौकर, चाकर, दास (सुपा 'पुर न [पुर] काशी नगरी, बनारस शहर २,७१ पराह १, २ षड्। (प्राप्र)। ६० २२३)। "सच पुं[सत्य] १ पर(पउम ६,१३७)। राय पुं[ राज] काशी काहिय वि[काथिक] कथा-कार, वार्ता करने मेश्वर, परमात्मा। २ अच्युत, विष्णु (प्रचु देश का राजा (उत्त १८)। व पुं[प] | वाला (बृह १)। २)। काशी देश का राजा (प उम १०४, ११)। काहिल पुंदे] गोपाल, ग्वाला, स्त्री. ला किंकरी स्त्री [किङ्करी] दासी, नौकरानी 'वड्ढण पुं[°वर्धन] इस नाम का एक (दे २, ३८)। (कप्पू)। राजा, जिसने भगवान महावीर के पास दीक्षा | काहिल्लिआ स्त्री [दे] तवा, जिसपर पूरी प्रादि किंकाइअ देखो केकाइय (अणु २१२) । ली थी (ठा ८--पत्र ४३०)। पकायी जाती है (पान)। किंकायव्वया स्त्री [किंकर्तव्यता] क्या कासिअ न [दे] १ सूक्ष्म वन, बारीक | काहीअ देखो काहिय (गच्छ ३, ६)। करना है यह जानना। मूढ वि [ मूढ] कपड़ा। २ सफेद वस्त्र (दे २, ५६)। काहीइदाण न [कारिष्यतिदान] प्रत्युपकार किंकर्तव्य-विमूढ़, हक्काबक्का, भौंचक्का, वह कासिअन [कासित छींक, क्षुत् (राज)। की आशा से दिया जाता दान (ठा १०)। मनुष्य जिसे यह न सूझ पड़े कि क्या किया कासिज न [दे] काकस्थल-नामक देश (दे | काहे अ [कदा] कब, किस समय ? (हे २, जाय (महा)। २, २७)। | ६५; अंत २४ प्राप्र)। | किंकार पुन [ऋकार] अव्यक्त शब्द-विशेष कासिल्ल वि[कासिक] खांसी रोगवाला (विपा काहेणु स्त्री [दे] गुजा, लाल रत्ती (दे २, (सिरि ५४१)। १,७–पत्र ७२)। २१)। किंकिअ वि [A] सफेद, श्वेत (दे २, ३१) । कासी स्त्री [काशी] काशी, बनारस (गाया कि देखो किं ( हे १, २६; षड्)। | किंकिञ्चजड वि [किंकृत्यजड] हक्काबका, १,८)। राय पुं[राज] काशी का राजा कि सक [कृ] करना, बनाना; 'डुकियं करणे वह मनुष्य जिसे यह न सूझ पड़े कि क्या (पिंग)। स पुं [श] काशी का राजा (विसे ३३००)। कवकृ. किन्जत (सुर १, किया जाय (श्रा २७)। (पिंग)। "सर पुं[श्वर] काशी का राजा ६०; ३, १४, ५६)। किंकिणिआस्त्री [किङ्किणिका] क्षुद्र-घण्टिका, (पिंग)। किअ देखो कय = कृत (काप्र ६२५, प्रासू १५: करधनी (सुपा १५६)। काह सक [कथय ] कहना । काहयंते (सूम धम्म २४ मै ६५, वजा ४)। किंकिणी स्त्री [किङ्किणी] ऊपर देखो (सुपा १,१३, ३)। १५४; कुमा)। काहर देखो काहार (दस ४, १ टी)। किअ देखो किव = कृप (षड् )। किंकिल्लि देखो कंकिल्लि (विचार ४६१)। किअंत वि [कियत् ] कितना (सण)। काहल वि [दे] १ मृदु, कोमल । २ ठग, धूर्त किंगिरिड पुं[किङ्किरिट] क्षुद्र कीट-विशेष, (दे २, ५८)। किअंत देखो कयंत (अच्चु ५६)। त्रीन्द्रिय जीव की एक जाति (राज)। काहल वि [कातर] कातर, डरपोक, अधीर किआडिआस्त्री [कृकाटिका गला का उन्नत किंचम [किञ्च] समुच्चय-द्योतक अव्यय, और (हे १, २१४० २५४)। भाग (पान)। भी, दूसरा भी (सुर १, ४०; ४१)। काहल पुन [काहल] १ वाद्य-विशेष (सुर ३, किइ स्त्री [कृति] कृति, क्रिया, विधान (षडकिंचण न [किञ्चन] १ द्रव्य-हरण, चोरी ६६; प्रौपा एंदि)। २ अव्यक्त प्रावाज (पएह प्रातः उव)। कम्म न [कर्मन्] १ वन्दन, (विसे ३४५१)। २ अ. कुछ, किश्चित् (बव प्रणमन (सम २१)। २ कार्य-करण (भग काहला स्त्री [काहला] वाद्य-विशेष, महा १४,३)। ३ विश्रामणा (व्यव० गा०६२)। किंचण न [किश्चन] द्रव्य, वस्तु (उत्त ३२, किं स [किम् ] कौन, क्या, क्यों, निन्दा, -कि7 कौन क्या क्यों निन्दा ढक्का (विक्र ८७)। ,सुव ३२, ८)। काहलिया स्त्री [काहलिका] आभूषण-विशेष प्रश्न, अतिशय, अल्पता और सादृश्य को किंचहिय वि [किञ्चिदधिक] कुछ ज्यादा (पव २७१)। बतलानेवाला शब्द (हे १, २६; ३, ५८; (सुपा ४३०)। काहली स्त्री [दे] तरुणी, युवती (दे २,२६)। ७१ कुमाः विपा १, १; निचू १३); "किं किंचि अ [किञ्चित् ] अल्प, ईषत्, थोड़ा काहल्ली स्त्री [दे] १ खर्च करने का धान्यादि। बुल्लति मणीमो जाउ सहस्सेहि धिप्पंति' (जी १; स्वप्न ४७)। २ तवा, जिसपर पूरी या पूड़ी वगैरह पकायी | (प्रासू ४)। उण प्र[पुनः] तब फिर, किंचिम्मत्त वि [किञ्चिन्मात्र] स्वल्प, बहुत जाती है (दे २, ५६)। फिर क्या ? (प्राप्र)। थोड़ा, यत्किञ्चित् (सुपा १४२)। काहार पुं[दे] कहार, एक जाति जो पानी किंकत्तव्यया देखो किंकायव्यया (पाचा २, किंचूण वि [किश्चिदून] कुछ कम, पूर्ण-प्राय भरने और डोली वगैरह ढोने का काम करती (मोप)। है (दे २, २७ भवि)। किंकम्म पुं[किंकर्मन्] इस नाम का एक किंजक पुं [किअल्क] पुष्प-रेणु, पराग काहार पुंन [३] काँवर, बहँगो (सुज १०,६)। गृहस्थ (अंत)। (णाया १,१)। ३१ For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ किं पुं [दे] शिरीष वृक्ष, सिरस का पेड़ (२, ३१) | किं (शो) [किमिदम् किमेतत्] अ यह क्या ? (षड् कुमा) । किंतु अ [ किन्तु ] परन्तु लेकिन (सुर ४, २७) । किंथुग्ध देखो किंसुग्घ (राज) । किंदिय न [केन्द्र ] १ वर्तुल का मध्य-स्थल । २ ज्योतिष में इष्ट लग्न से पहला, चौथा, सातव और दसवां स्थानः 'किदियठारपट्टिय गुरुम' (सुपा ३९ ) । किंदुअ [कन्दुक] कन्दुक, गेंद (भवि ) । किंचर [] छोटी मनी (२, ३२) । किंनर [किन्नर ] १ व्यन्तर देवों की एक जाति (पह १, ४) । २ भगवान् धर्मनाथ जी के शासनदेव का नाम (संति ८ ) । ३ मद्र की रचना का अधिपति देव (हा ५, १) । ४ एक इन्द्र (ठा २, ३) । ५ देवगन्धर्वं, देव-गायक (कुमा) । कंठ पुं ['कण्ठ ] किन्नर के कण्ठ जितना बड़ा एक मरिण ( जीव ३) । किंनरी स्त्री [ किन्नरी ] किन्नर देव की स्त्री (कुमा) किंतु अ [किंनु ] पूर्वपक्ष, प्राक्षेप, आशंका का सूचक अव्यय ( १ ) । किंपि [किमपि] कुछ भी ( प्रासू ६० ) । किंपुरिस [किंपुरुष] १ व्यातारदेवों की एक जाति (परह १, ४) २ एक इन्द्र, किन्नर निकाय के उत्तर दिशा का इन्द्र ( ठा २. ३) । ३ वैरोचन बलोन्द्र की रथसेना का श्रधिपति देव (ठा ५, १ -पत्र ३०२ ) । " [क] मणि की एक जाति, जो किंपुरुष के कठ जितना बड़ा होता है। ( जीव २ ) । पाइअसहमह किंचोड वि [दें] स्खलित, गिरा हुआ, भुला pur (3.9) 1 फिर वि [[म] असार निःसार ( पराह २, ४ ) । किंवयंती स्त्री [किंवदन्ती] जनश्रुति, ( हम्मीर ३६ ) । जनरव किसारु [किंग्रारू] सस्य-कराया ती अग्र भाग (दे २, ६ ) । किंसुग्घ न [किंस्तुन्न] ज्योतिष प्रसिद्ध एक स्थिर करण (बिसे ३३५०) । किसुअ [किंशुक] १ पलाश का पेड़, यू, ढाक (सुर ३४६) । २ न. पलाश का पुष्प (हे १, २६३ ८६) । किकिंड [] स २३२) पु किक्किंधा स्त्री [किष्किन्धा ] नगरो-विशेष (से १४, ५५) । किकिंचि . [] १ पर्वत-विशेष ( पउम ६, ४५) । २ इस नाम का एक राजा ( पउम ६, १५४ १०, २० ) । पुर न ["पुर] नगर विशेष (पउन ६४२) । किया वि [कृत्य]] करने योग्य, कर्तव्य, फरज (सुपा ४६५ कुमा) । २ वन्दनीय, पूजनीयः ‘न पिटुओ न पुरस्रौ नेव किच्चारण पिट्ठग्र' (उत्त ३) । ३ पु. गृहस्थ (सूत्र १, १, ४) । ४ न. शास्त्रोक्त अनुष्ठान, क्रिया, कृति ( आचा २. २, २० सूत्र १, १, ४) । किच्चा देखो कर = कृ । किदि स्त्री [कृति] नवरीर काम २ चमड़े का वस्त्र । ३ भूर्जपत्र, भोजपत्र ४ कृत्तिका नक्षत्र (हे २, १२ = पड् ) । किंजक्ख - किट्टीकय पारण [प्रावरण] महादेव, शिव (कुमा) | "हर पुं [र] महादेव, शिव (षड् ) । किंचिरं [ कियचिरम् ] कितने समय अ तक, कब तक ? (उप १२८ टी) । किच्छ न [ कृच्छ ] १ दुःख कष्ट (ठा ५, १) । २ त्रि. कष्ट - साध्य, कट-युक्त (हे १, १२) दुःख से मुश्किल से (सुर, १४८) | For Personal & Private Use Only किज्ज वि [क्रेय] खरीदने योग्य, 'किल् किज्जमेव वा' (दस ७ ) । कित देखो कि कृ कंप व [] कृपण, कंजूस (दे २, ३१) | किंपाग [किम्पाक]-विशेष भू[िकृत्यमान] चित्र किया जाता, कट्टिय हि थिय महरा विसया कपा काटा जाता । २ पीड़ित किया जाता, सताया जाता (राज) । ( पुष्फ ३६२: प्रोप) २ न. उसका फल, जो देखने में और स्वाद में सुन्दर, परन्तु खाने किश्ञ्चण न [दे] प्रक्षालन, धोना; 'हरिश्रच्छेपण किट्टिया स्त्री [कीटिका ] वनस्पति-विशेष ( सू २६) २ प्रतिपादित २ः ठा ७) । से प्रारण का नाश करता है; किपागफलोवमा सिया' (सुर १२, १३८ ) । धन्यच च च पोता' (घोष १६८–पत्र ७२) । किच्चा स्त्री [कृत्या ] १ काटना, कर्त्तन (उप पृ ३५६ ) । २ क्रिया, काम, कर्म । ३ देव वगैरह की मूर्ति का एक भेद । ४ जादूगरी, जादू रोग-विशेष महामारी का रोग (हे १, १२० ) । ( पण १ भग ७, २) । फिट्टिल [किट्टिस] १ ली, सरसों, तिल श्रादि का तेल रहित चूर्ण (अणु) । २ एक किट्टिस न [किट्टिस] १ ऊन आदि का वाक प्रकार का सूत, सूता (गु आवम ) । बचा हुआ अंश । २ उससे बना हुआ सूता । ३ ऊन, ऊँट के बाल आदि की मिलावट का सूता (३४) । किट्टीकट्ट = किट्ट । किट्टीकय वि [ किट्टीकृत ] हुमा एकाकार जैसे सुज किज्जअ वि [कृत ] किया गया, निर्मित (पिंग)। किट्ट एक [ कीर्त्तव्] १ वाया करना, स्तुति करना । २ वर्णन करना । ३ कहना, बोलना । किट्टइ, किट्टेइ ( श्राचा भग) । वकृ. किट्टमाण ( पि २८९ ) । संकृ. कित्ता, किट्टित्ता (उत्त २६ कप्प ) । हेकृ. किट्टित्तए (कस) । किट्ट स्त्रीन [कि] १ धातु का मलमेल (उप ५३२) २ रंग-विशेष (उर ६, ५) ३ तेल, घी वगेरह का मैस स्त्री. ही किट्टण देखो कित्तण (बृह ३) । ( पभा ३३) । किट्टि स्त्री [किट्टि] १ अल्पीकरण-विशेष, विभाग- विशेष; 'प्रपुब्वविसोहीए अणुभागो - विभय किट्टी' (पंच १२ आवम ) । [कीर्तित] वति, प्रशंसित (सू २, प्रापस में मिला आदि का वि Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सून २, शेष (समा (सम पास न [ प किट्र-कित्तणा पाइअसद्दमण्णवो २४३ उसमें मिल जाता है उस तरह मिला हुआ किड्डाविया स्त्री [क्रीडिका] क्रीड़न-धात्री, । किणो अ[किमिति क्यों, किसलिए? (दे बालक को खेल-कूद करानेवाली दाई (णाया २, ३१ हे २, २१६ पान; गा ६७; महा)। किट्ठ वि [क्लिष्ट] क्लेश-युक्त (भग ३, २ १, १६-पत्र २११)। किण्ण वि [कीर्ण] १ उत्कीर्ण, खुदा हुआ जीव ३)। किढि वि [दे] १ संभोग के लिए जिसको ‘उवलकिएणब्व कट्टपडियव्व' (सुपा ५७१) । किट्ठ वि [कृष्ट] जोता हुआ, हल-विदारित एकान्त स्थान में लाया जाय वह (वव ३)। २ क्षिप्त, फेंका हुआ (ठा है)। (सुर ११, ५६; भग ३, २)। २ न. देव- २ स्थविर, वृद्ध (बृह १)। किण्ण पुं[किण्व] १ फलवाला वृक्ष-विशेष, विमान विशेष; 'जे देवा सिरिवच्छ सिरिदाम- किढिण न [किठिन] संन्यासियों का एक जिससे दारू बनता है (गउड प्राचा)। २ कंडं मल्लं किट्ट (? १ ) चावोएणयं अर- पात्र, जो बाँस का बना हुआ होता है (भग न. सुरा-बीज, किएव-वृक्ष के बीज, जिसका एणवडिसर्ग विमाणं देवत्ताए उववरणा' ७, ६)। दारू बनता है (उत्त २)। सुरा स्त्री [भुरा] (सम ३६)। किण सक [की] खरीदना। किणइ (हे ४, किएच-वृक्ष के फल से बनी हुई मदिरा किट्ठि स्त्री [कृष्टि] १ कर्षण । २ खींचाव, ५२)। वकृ. 'से किणं किणावेमाणे हणं (गउड) । आकर्षण । ३ देवविमान-विशेष (सम ६)। घायमाणे' (सूम २, १)। किणंत (सुपा किण्ण वि [दे] शोभमान, राजमान (दे २. कूड न [कूट] देवविमान-विशेष (सम ३६६) । संकृ. किणित्ता (पि ५८२) । प्रयो. ३०) । ६)। घोस न [घोष] विमान-विशेष किरणावेइ (पि ५५१)। किण्णं प्र[किंनम्] प्रश्नार्थक अव्यय (सम ९) । जुत्त न ["युक्त विमान-विशेष किण पुं [किण] १ घर्षण-चिह्न, घर्षण को (उवा) । (सम ९) । उभय न [ध्वज विमान-विशेष निशानी (गउड) । २ मांस-ग्रंथि। ३ सूखा | किर देखो किंनर (जं १, रायः इक)। (सम ६)। पभ न [प्रभ] देवविमान- घाव (सुपा ३७०; वजा ३६) । किण्णा अ[कथम] क्यों, क्यों कर, कैसे ? विशेष (सम ६)।वण्ण न [वर्ण] विमान- किगइय वि [दे] शोभित, विभूषित (पउम "किएगा लद्धा किराणा पत्ता' (विपा २, विशेष (सम ६)। सिंग न [शृङ्ग] १-पत्र १०६)। विमान-विशेष (सम ९)। सिट्ट न [शिष्ट] किगण न [क्रयण] कीनना, खरीद, क्रय किण्णु अकिंनु] इन अर्थों का सूचक एक देव-विमान (सम ६)। (उप पू २५८)। अव्यय-१ प्रश्न । २ वितर्क । ३ सादृश्य । किट्ठियावत्त न [कृष्ट थावर्त] देवविमान- किणा देखो किण्णा (प्राप्र; हे ३, ६६) ४ स्थान, स्थल। ५ विकल्प (उवाः स्वप्न विशेष (सम )। किणि वि [कयिन् ] खरीदनेवाला (सम्बोध । किट ठुत्तरवडिंसग न [कृष्ट्युत्तरावतंसक] | १६)। किण्ह देखो कण्ह (गा ६५, णाया १,१ इस नाम एक देव-विमान, देव-भवन (सम किणिकिण अक [किणिकिणय ] किण उर ६,५; परण १७)। किण आवाज करना। वकृ. किणिकिणित किण्ह न [दे] १ बारीक कपड़ा। २ सफेद किडग वि [क्रीडक] क्रीड़ा करनेवाला (सूत्र (ोप)। कपड़ा (दे २, ५६)। १, ४, १, २ टी)। | किणिय वि [क्रीत] कोना हुआ, खरीदा किण्हग पु[दे] वर्षाकाल में घड़ा आदि में किडि पुं[किरि] सूकर, सूपर (हे १, २५१, हुमा (सुपा ४३४)। होनेवाली एक तरह की काई (जीवस ३६) । षड्)। किणिय पुं [किणिक] १ मनुष्य की एक किण्हा देखो कण्हा (ठा ५, ३-पत्र ३५१; किडिकिडिया स्त्री [किटिकिटिका] सूखी | जाति, जो बाजा बनाती और बजाती है। कम्म ४, १३)। हड्डी की आवाज (णाया १,१-पत्र ७४) । (वव ३)। २ रस्सी बनाने का काम करने- कितव पुं [कितव] द्यूतकर, जूषारी (दे किडिभ पुं[किटिभ रोग-विशेष, एक प्रकार वाली मनुष्य जाति; 'किरिणया उ बरत्तामो का क्षुद्र कोढ़ (लहुन १५, भग ७, ६)। वलित' (पंचू)। | कित्त देखो किञ्च (संक्षि ५) । किडिया स्त्री [दे] खिड़की, छोटा द्वार (स | किणिय न [किणित] वाद्य-विशेष (राय)। कित्त देखो किट्ट - कीर्तय् । भवि. कित्तइस्सं ५८३)। किणिया स्त्री [किणिका छोटा फोड़ा, फुनसी (पडि)। संकृ. कित्तइत्ताण (पच ११६) । किड्ड अक [क्रीड्] खेलना, क्रीड़ा करना। 'अन्नेवि सई महियलनिसीय कित्तण न [कीर्तन] १ श्लाघा, स्तुतिः 'तव वकृ. किडुत (पि ३६७)। गप्पन्नकिणियपोंगिल्ला। य जिणुत्तम संति कित्तणं' (अजि ४; से ११, किड्डकर वि [क्रीडाकर] क्रीड़ा-कारक (प्रौप)। मलिएजरकप्पडोच्छइयविग्गहा १३३)। २ वर्णन, प्रतिपादन । ३ कथन, किड्डा स्त्री [क्रीडा] १ क्रीड़ा, खेल (विपा ____ कहवि हिडंति' (स १८०)। उक्ति (विसे ६४०; गउडः कुमा)। १,७) । २ बाल्यावस्था (ठा १०-पत्र | किणिस सक [शाणय् ] तीक्ष्ण करना, तेज | कित्तणा स्त्री [कीर्तना1 कीर्तन, वर्णन, ५१९)। करना । किरिणसइ (पिग)। | प्रशंसा (चेइय ७४८)। For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ पाइअसहमहण्णवो कित्तय-किरण कित्तय वि [कीर्तक] कीर्तन-कर्ता (पव | किब्बिस न [किल्बिष] १ पाप, पातक २१६ टी)। (पएह १, २)। २ मांस; 'निग्गयं च से | वस्त्र (दे २, ३३)। कित्तवोरिअ देखो कत्तवीरिअ (ठा ८)। बीयपासेणं किब्बिसं' (स २६३)। ३ पुं. किमु प्र[किमु] इन अर्थों का सूचक अव्ययकित्ता देखो किच्चा = कृत्या (प्राकृ ८)। चाण्डाल-स्थानीय देव-जाति (भग १२,५)। १ प्रश्न । २ वितर्क। ३ निन्दा । ४ निषेध ४ वि. मलिन । ५ अधम, नीच (उत्त ३)। (हे २, २१७, पिंग)। कित्ति स्त्री [कीर्ति] १ यश, कोत्ति, सुख्याति ६ पापी, दुष्ट (धर्म ३)। ७ कर्बुर, चितकबरा | किमय प्र[किमुत] इन अर्थों का सूचक (ौपः प्रासू ४३, ७४ ८२) । २ एक विद्या (तंदु)। देवी (पउम ७, १४१)। ३ केसरि-द्रह की अव्यय--१ प्रश्न । २ विकल्प । ३ वितर्क । किब्बिसिय पुं [किल्बिषिक] १ चाण्डालअधिष्ठात्री देवी (ठा २, ३-पत्र ७२)। ४ ४ अतिशय (हे २, २१८);'अमरनररायमहियं स्थानीय देव-जाति (ठा ३, ४-पत्र १६२) । ति पूइयं तेहिं, किमय सेसेहिं (विसे १०६१)। देव-प्रतिमा-विशेष (गाया १,१ टी-पत्र २ केवल वेषधारी साधु (भग)। ३ वि. किम्मिय न [दे. किम्मित] जड़ता, जाज्य ४३)। ५ श्लाघा, प्रशंसा (पंच ३)। ६ अधम, नीच (सूअ १, १, ३)। ४ पाप- (राज)। नीलवन्त पर्वत का एक शिखर (जं ४)। फल को भोगनेवाला दरिद्र, पंगु वगैरह किम्मीर वि [ किर्मीर] १ कर्बुर, कबरा ७ सौधर्म देवलोक की एक देवी (निर)। ८ (गाया १,१)। ५ भाएड-चेष्टा करनेवाला (पान)। २ गुं. राक्षस-विशेष, जिसको पुं. इस नाम का एक जैन मुनि, जिसके पास (ोप)। भीमसेन ने मारा था (वेणी ११७)। ३ वंशपाँचवें बलदेव ने दीक्षा ली थी (पउम २०, किब्बिसिया स्त्री कैल्बिषिकी] १ भावना- | विशेष: 'जाया किम्मीरवंसे' (रंभा)। २०५) कर वि [कर] १ यशस्कर, विशेष, धर्म-गुरु वगैरह की निन्दा करने की | किय देखो कीय (पिंड ३०६)। ख्याति-कारक (पाया १, १) । २ पृ. आदत (धर्म ३)। २ केवल वेष-धारी साधु कियंत वि [कियत् ] कितना ( सम्मत्त भगवान् आदिनाथ के एक पुत्र का नाम की वृत्ति (भग)। २२८)। (राज)। चंद पुं [चन्द्र] नृप-विशेष किम (अप) [कथम् ] क्यों, कैसे? (हे कियस्थ देखो कयस्थ (भवि)। (धम्म)। धम्म पुं[धर्म] इस नाम का ४,४०१)। कियब देखो कइअव (उप ७२८ टी)। एक राजा (दस)। धर पुं[धर] १ नृपविशेष (तंदु)। २ एक जैन मुनि, दूसरे किमण देखो किवण (प्राचा)। | किया देखो किरिया: 'हयं नाणं कियाहीणं बलदेव के गुरु (पउम २०, २०५)। पुरिस किमस्स पुं[किमश्व] नृप-विशेष, जिसने (हे २, १०४); 'मग्गरणसारी सद्धो पन्नपुं[पुरुष] कोत्ति-प्रधान पुरुष, वासुदेव इन्द्र को संग्राम में हराया था और शाप वरिणज्जो कियावरो चेव' (उप १६६; विसे वगैरह (ना)। म वि [मत् ] कोति- लगने से जो मरकर अजगर हुआथा (निचू १)। ३५६३ टी; कप्यू)। युक्त । मई स्त्री [मती] १ एक जैन किमी पुं [कृमि] १ क्षुद्र जीव, कीट-विशेष कियाडिया स्त्री [दे] कानबूट्टी, कान का साध्वी, (माक)। २ ब्रह्मदत्त चकवर्ती की (पएह १, ३) । २ पेट में, फुनसी में और ऊपरी भाग (वव १)। एक स्त्री (उत्त १३) । य वि [द] कोत्ति- बवासीर में उत्पन्न होनेवला जन्तु-विशेष कियाणं देखो कर = कृ। कर, यशस्कर (प्रौप)। (जी १५)। ३ द्वीन्द्रिय कीट-विशेष (पएह १, कियाणग न [क्रयाणक] किराना, नमक, कित्ति स्त्री [कृत्ति] चर्म, चमड़ा; 'कुत्तो १-पत्र २३)। य न [°ज] कृमि-तन्तु मसाला आदि बेचने योग्य चीजें (सुर १,६०)। अम्हाण वग्धकित्तीय' (काप्र ८६३; गा ६४० से उत्पन्न वस्त्र; 'कोसेज्जपटुमाई जं, किमियं किर पुं[दे] सूकर, सूअर (दे २, ३० षड्)। वज्जा ४४)। तु पवुच्चई' (पंचभा)। राग, राय पुं किर अ[किल] इन अर्थों का सूचक कित्तिम वि [कृत्रिम ] बनावटी, नकली [ राग] किरमिजी का रंग (कम्म १, २०; अव्यय--१ संभावना । २ निश्चय । ३ हेतु, (सुपा २४; ६१३)। दे २, ३२; पण्ह २, ४)। 'रासि पं निश्चित कारण। ४ वार्ता-प्रसिद्ध अर्थ। कित्तिय वि [कीर्तित] १ उक्त, कथितः [ राशि] वनस्पति विशेष (पएण १- ५ अरुचि । ६ अलीक, असत्य । ७ संशय, 'कित्तियवंदियमहिया (पडि)। २ प्रशंसित, । पत्र ३६)। संदेह (हे २, १८६; षड् गा १२६, प्रासू श्लाषित (ठा २, ४)। ३ निरूपित, प्रति- किमिघरवसण [दे] देखो किमिहरवसण १७ दस १)। ८ पाद पूर्ति में भी इसका पादित (तंदु)। प्रयोग होता है (कम्म ४, ७६)। कित्तिय वि [कियत् ] कितना (गउड)। किमिच्छय न [किमिच्छक] इच्छानुसार किर सक [क] १ फेंकना। २ पसारना, दान (गाया १, ८-पत्र १५०)। किन्न वि [क्लिन्न भाद्र, गीला (हे ४, ३२६)। फैलाना । ३ बिखेरना । वकृ. किरत (से ४, किमिण वि [कृमिमत् ] कृमि-युक्त; ५८ १४, ५७)। किन्ह देखो कण्ह (कप्प)। | 'किमिणबहुदुरभिगंधेसु' (पएह २, ५)। किरण पुंन [किरण] किरण, रश्मि, प्रभा किपाड वि [दे] स्खलित, गिरा हुआ (षड्)। किमिराय वि[दे] लाक्षा से रक्त (दे २, ३२)। (सुपा ३५१; गउड प्रासू ८२)। For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ किरणिल्ल-किलिस्सिअ पाइअसहमहण्णवो किरणिल्ल वि [किरणवत् ] किरणवाला, | किरोलय न [किरोलक] फल-विशेष, किरो-किलिकिंच अक [रम् ] रमण करना, क्रीड़ा तेजस्वी (सुर २, २४२)। । लिका वल्ली का फल (उर ६, ५)। करना । किलिकिंचइ (हे ४, १६८) । किराड)[किरात] १ अनार्य देश-विदेश | किल देखो किर%किल (हे २, १८६ गउड; किलिकिंचिअ न [रत] रमण, क्रीड़ा, संभोग किराय) (पव १४८) । २ भील, एक जंगली कुमा) । (कुमा)। जाति (सुर २, २७; १८०; सुपा ३६१; हे किलंत वि [क्लान्त] खिन्न, श्रान्त (षड्)। किलिकिल प्रक [किलकिलाय ] 'किल-किल' १,१८३)। किलंजन [किलिञ्ज] बांस का एक पात्र, आवाज करना । वकृ. किलिकिलंत (उप किरात (शौ) देखो किराय (प्राकृ ८६)। जिसमें गैया वगैरह को खाना खिलाया जाता १०३१ टी)। किरि देखो किर=किल (सिरि ८३२, ८३४)। है (उबा)। किलिकिलि न [किलिकिलि] इस नाम का किरि पुं किरि] भालू की आवाज: 'कत्थइ किलंज न [किलिञ्ज] तृण-विशेष (धर्मवि | एक विद्याधरनगर (इक)। किरित्ति कत्थइ हिरित्ति कत्थइ छिरित्ति १३५; १३६)। किलिकिलिकिल देखो किलकिल । वकृ. रिच्छाणं सद्दों (पउम ६४, ४५)। किलकिल अक [किलकिलाय ] “किल- फिलिकिलिकिलंत (पउम ३३, ८)। किरि किरि] सूकर, सूअर (गउड)। किल' पावाज करना, हँसनाः 'किलकिलइ किलिगिलियन [किलिकिलित] 'किल-किल' किरिआण देखो कयाण 'जम्मतरगहिअपुन्न ब्ब सहरिसं मणिकंचीकिकिरिगरिवेण' (कप्पू)। आवाज करना, हर्ष-द्योतक ध्वनि-विशेष (स किरिमाणो' (कुलक २१)। किलकिलाइय न [किलकिलायित] 'किल- ३७०: ३८५)। किरिइरिया । स्त्री [दे] १ कर्णोपकणिका, किल' ध्वनि, हर्ष-ध्वनि (प्रावम)। किलिट्ठ वि [क्लिष्ट] १ क्लेश-युक्त (उत्त ३२)। किरिकिरिआए एक कान से दूसरे कान गई किलणी स्त्री [दे] रथ्या, गली (दे २, ३१)। २ कठिन, विषम । ३ क्लेश-जनक (प्राप्रा हे हुई बात. गप । २ तहल, कौतुक (दे २, | किलम्म अक [क्लम् ] क्लान्त होना, खिन्न २.१०६ उव)। होना । किलम्मइ (कप्पू)। किलम्मसि (वजा किलिण्ण देखो किलिन्न (स्वप्न ८५)। किरिकिरिया स्त्री [दे] वाद्य-विशेष, बाँस | १२)। वकृ. किलम्मत (पि १३६)। किलित्त वि [क्लुप्त] कल्पित, रचित (प्रातः प्रादि की कम्बा-लकड़ी से बना हुआ एक किलाचक्क न [क्रीडाचक्र] इस नाम का षड़: हे १, १४५)। प्रकार का बाजा (पाचा २, ११, १)। एक छन्द--वृत्त (पिंग)। किलित्ति स्त्री [क्लूप्ति] रचना, कल्पना किरित्तण देखो कित्तण (नाट-माल ६७)। किलाड पु[किलाट] दूध का विकार-विशेष, (पि ५६)। मलाई (दे २, २२)। किरिया स्त्री [क्रिया] १ क्रिया, कृति, व्या किलिन्न वि [क्लिन्न] भाद्र', गीला (हे १, किलाम सक [क्लमय ] क्लान्त करना, खिन्न पार, प्रयत्न (सूत्र २, १; ठा ३, ३)। २ १४५; २, १०६)। करना, ग्लानि उत्पन्न करना। किलामेज किलिम्म देखो किलम्म । किलिम्मइ (पि शास्त्रोक्त अनुष्ठान, धर्मानुष्ठान (सूत्र २, ४ (पि १३६) । वकृ.किलामेंत (भग ५, ६)। पव १४६) । ३ सावध व्यापार (भग १७, । १७७)। वकृ. किलिम्मत (से ६, ८०, ११, कवकृ. किलामीअमाण (मा ४६)। १)। ४'ट्ठाण न [ स्थान] कर्मबन्ध का ५०)। किलाम पुलम खेद, परिश्रम, ग्लानिः किलिम्मिअ वि [दे] कथित, उक्त (दे २, कारण (सूत्र २, २; प्राव ४)। वर वि 'खमणिजो भे किलामो' (पडि;विसे २४०४)। ३२)। [°पर] अनुष्ठान-कुशल (षड् )। वाइ वि किलामणया स्त्री [क्लमना] खिन्न करना, किलिब देखो कीव (वय २; मै ४३)। [°वादिन] १ आस्तिक, जीवादि का अस्तित्व उत्पन्न करना (भग ३, ३)। माननेवाला (ठा ४, ४) । २ केवल क्रिया से किलिस अक [क्लिश् ] खेद पाना, थक किलामणा स्त्री [क्लमना] क्लम, क्लेश ही मोक्ष होता है ऐसा माननेवाला (सम जाना, दुःखी होना । वकृ. किलिसंत (पउम (महानि ४)। .१०६)। "विसाल न [विशाल] एक २१, ३८)। किलामिअ देखो क्लिंत (अणु १३३)। जैन ग्रन्थांश, तेरहवाँ पूर्व-ग्रन्थ (सम २६)। किलिस देखो किलेस; 'मिच्छत्तमच्छभीयाण, किलामिअ वि [क्लमित] खिन्न किया हुआ, किरीड ([किरीट] मुकुट, शिरो-भूषण हैरान किया हुआ, पीड़ित; 'तराहाकिलामि । किलिससलिलम्मि बुड्डाणं' (सुपा ९४)। (पान)। अंगो' (पउम १०३, २२, सुर १०,४८)। किालासवि [क्लाशत प्रायासित, क्लश. किरीडि [किरीटिन्] अर्जुन, मध्यम पाण्डव किलिंच न [दे] छोटी लकड़ी, लकड़ी का प्राप्त (स १४६) । (वेणी १९२)। टुकड़ा। दंतंतरसोहणयं किलिचमित्तंपि अवि-किलिस्स देखो किलिस = क्लिश । किलिस्सइ किरीत वि [कीत] कीना हुघा, खरीदा हुमा दिन्न' (भत्त १०२ पाप दे २, ११)। (महा: उव)। वकृ. किलिस्संत (नाट(प्राप्र)। किलिंचिअन [दे] ऊपर देखो (गा ८०)। माल ३१)। किरीय ([किरीय] १ एक म्लेच्छ देश । २ किलिंत देखो किलंत (नाट-मृच्छ २५: पि किलिस्सिअ वि [क्लिष्ट] क्लेश-प्राप्त, क्लेशउसमें उत्पन्न म्लेच्छ जाति (राज)। युक्त (उप पृ ११६)। For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ किलीण देखो किलिग (भवि ) । किलीव देखो कीव ( स ६० ) । किलेस अक [ क्लिश् ] क्लेश पाना, हैरान होना । किलेस (प्राकृ २७ ) । फिलेस [] [१] दाव (श्रीप २ दुःख, पीड़ा, बाधा (पउम २२, ७५ सुज २०)। ३ दुःखकारण कर्म शुभा । ४ शुभ कर्म (बृह १) । र वि [कर] क्लेशजनक ( पउम २२, ७५ ) । किलेसिय वि [लेशित ] दुःखी किया हुआ (मुर ४, १६७ १६९ ) । किव्हा देखो किडा (६१) । किस [कृप] इस नाम का एक ऋषि पुं १ कृपाचार्य ( हे १, १२८ ); भाइसयसमग्गं गंगेयं सउणी कीवं विदुरं दो जप की ( ? सरंग किवं ) श्रासत्या' (पाया १, १६- २०८ ) । देखो (मा) किविडी श्री [दे] १ किवाड़, पारद्वार २ घर का पिछला आँगन (दे, २, ६० ) । किविण देखो किवण (हे १, ४६० १२८० गा १३६: सुर ३, ४४ प्रासू ५१; परह १, १ ) । किवीडोणि[कृपीटयोनि] धनि (सम्मत २२६) । किस सक[] हसित करना, श्रपचित करना सिए (सू १, २, १, १४) । किस वि [कुश] १ (उपर दुर्बल, निर्बल ११३) । २ पतला ( हे १, १२८ ठा ४, २) । 1 किसर पुं [कृशर ] १ पक्वान्न विशेष, तिल, चावल और दूध की बनी हुई एक खाद्य चीज । २ खिचड़ी, चावल और दाल का मिश्रित भोजन-विशेष (हे १. १२० ) । किसर देवी केसर 'महमहिषदससि (हे १, १४६) । रं' किसरा स्त्री [ रा ] खिचड़ी, चावल दाल का मिश्रित भोजन विशेष (हे १, १२८ दे १,८८ ) । फिसल देखो किसलय हे १, २६९ कुमा) | किसलय व [सिल]ि मंकुरित नये अंकुरवाला (सुर ३, ३६) । किसलयन [[फसलब] [मून अंकुर १ ( २० ) । २ कोमल पत्ता ( जी 8 ) ; 'सोसियममाणतो भरण' ( पण १ ) । माला स्त्री [माला ] किवण वि [कृपण] १ गरीब रंक, दीन विशेष पनि १६ ) । (१,११७) २ दरिद्र, किसा देखो कासा (हे १, १२७) । निर्धन (राह १, २) कंजूस, दाता किसाणु [कृशानु] नि पछि बाग । ३ १ अग्नि, वह्नि, | (दे २, ३१) । ४ क्लीब, कायर ( सू २,२ ) । २ वृक्ष - विशेष, चित्रक वृक्ष । ३ तीन की किंवा स्त्री [कृपा ] दया, मेहरवानी ( हे १, संख्या (हे १, १२८; षड् ) । १२) ["पन्न] कृपा प्राप्त, फिसि श्री [कृप] ती पास बिले १६१५० । चन्नवि दयालु ( पउम ६५, ४७ ) । सुर १५, २००३ प्राप्र ) । किमाण न [कृपाण] तलवार (सुपा फिसिअ वि [कुशित] दुर्बलता-यात कुशवा खड्ग, १५८ हे १, १२८; गउड) । युक्त (गा ४० वजा ४० ) । किसिवि [कृषित] १ लिखित रेखा किया हुआ । २ जोता हुमा, कृष्ट । ३ खींचा ( १, १२० ) । किवा [कृपालु] दयालु दया करनेवाला ( पउम ३४, ५०, ९७, २० ) । किविड न [दे] लहान, अन्न साफ करने का स्थान । २ वि. खलिहान में जो हुम्रा हो वह (दे २,६०) । पाइअसद्दमणको किसंग वि [कृशाङ्ग] दुर्बल शरीर वाला (गा ६५७) । किसीवल पुं [कृषीवल ] कर्षक, किसान; 'पायं परस्स धन्नं भक्खति किसीवला पुब्वि (१५)। किसोर पुं [किशोर] बाल्यावस्था के बाद की वालावालका 'सीकिसोरोग्य हाम्रो निग्ग' (सुपा ५४१) । किसोरी श्री [किशोरी] कुमारी, अविवाहिता युवती (छाया १, २ ) । फिस्स देखो फिलिस सिंह किस्स इत्ता (सूत्र १, ३, २ ) । = कि देखो (धाचा कुमाभाग ३, २० ) कहूं किहं गाया १, १७) । For Personal & Private Use Only किलीणकीय कीअ देखो कीव ( षड् ; प्रात्र) । फीइस वि] [कीरा]] कैसा, किस तरह का (१४०) । कीक्स [कीकश] १ कृमि- जन्तु- विशेष । २ न हड्डी, हाड़ । ३ वि. कठिन, कठोर (राज)। कीचन देखो कीग (देशी १७७)। कीड देखो किड्ड = क्रीड् । भवि की डिस्सं (पि २२६) । की [कीट] १ कीड़ा, क्षुद्र जन्तु ( उव ) । २ की विशेष परिन्द्रियजन्तु की एक जाति (उत्तर) । - कीडइड वि [ कीटव.] कीड़ावाला क युक्त (गउड)। कोण न [कीडन] सेन, कीड़ा (सुर १, ११०)। कीडय [कटक] देखो कीड फीट (नाट = सुपा ३७० ) । [कीज] कीड़े के तन्तु से उत्पन्न होनेवला वस्त्र, वस्त्र-विशेष (अणु) । कीटा देखो किड्डा (गुर १११६ कीडाविया देखो किड्डाविया (राज) । कीडिया त्री [कीटिका ] पिपीलिका, चींटी (सुर १०, १७९ ) । [कीटी] ऊपर देखो (उप १४७ टी दे २, ३) । कीण तक [कीं] खरीदना, मोल लेना। कीद कील (प) भनि कीत्सि (पि ५११५३४) । कणा [कीनाश ] यम, जम (पान सुपा १८३ ) । गिद्द [ "गृह ] मृत्यु, मौत (उप १३६ टी) । कीदिस (शौ) देखो कीरिस (प्राकृ ८३)। कीय वि [कीत]] १ खरीदा या मोल लिया हुआ (सम ३६ परह २, १; सुपा ३४५) । २ जैन साधुनों के लिए भिक्षा का एक दोष (ठा ३, ४ ) । सूम १, २) ३ न क्रय, खरीद (दस ३; कड, गड वि [कृत] मूल्य देकर लिया हुआ (१२ सा के लिए मोल से कीना हुआ, जैन साधु के लिए भिक्षा दोष युक्त वस्तु (पि ३३० ) । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीरंत देखो कर: । कीयग--कु पाइअसहमहण्णवो २४७ कीयग पुं[कीचक] विराट देश के राजा का | कीला स्त्री [क्रीडा] खेल, क्रीडन (सुपा ३५८ । (विपा १, ३)। तित्य न [तीर्थ] १ साला, जिसको भीम ने मारा था (उप ६४८ | सुर १, ११७)। वास पुं [वास] क्रीड़ा जलाशय में उतरने का खराब मार्ग (प्रासू टी); 'नवमं दूयं विराडनयरं, तत्थ रणं तुम | करने का स्थान (इक)। १०)। २ दूषित दर्शन (सून १, १, १)। कि (? की) यगं भाउसयसमग्गं' (णाया १, | कीलाल न [कीलाल] रुधिर, खून, रक्त (उप ३ °तिथि वि [°तीर्थिन] दूषित मत का १६-पत्र २०६)। ८६ पा)। अनुयायी (कुमा)। दंडिम देखो डंडिम कीया स्त्री [कीका] नयन-तारा, ‘मरकतम- कीलालिअ वि [कोलित] रुधिर-युक्त, (णाया १, १-पत्र ३७)। दसण न सारकलित्तनयणकीयरासिवन्ने' (णाया १,१] खूनवाला (गउर)। [दर्शन] दुष्ट मत, दूषित धर्म (परण २)। टी--पत्र ६)। कलावण न [क्रीडन] खेल कराना (गाया दमणि वि [°दर्शनिन] १ दुष्ट दार्शनिक । कीर पुंदे. कीर] शुक, तोता, सुग्गा (दे २, १, २)। २ दूषित मत का अनुयायी (श्रा ६)। दिदि २१; उर १, १४)। कीलावणय न [क्रीडनक] खिलौना (निर स्त्री [दृष्टि] १ कुत्सित दर्शन (उत्त २८)। कीर कीर] १ देश-विशेष, काश्मीर देश । २ दूषित मत का अनुयायी (धम २)। २ वि. काश्मीर देश संबन्धी। ३ वि. काश्मीर कलिअन [क्रीडित] क्रीड़ा, रमण, क्रीड़न दिद्विय वि [ दृष्टिक दुष्ट दर्शन का अनुदेश में उत्पन्न (विसे ४६४ टी)। (सम १५; स २४१)। यायो, मिथ्यात्वी (पउम ३०, ४४) । पत्रकीलिअ वि [कीलित] खूटा ठोका हुआ, यण न [प्रवचन] १ दूषित शास्त्र । २ कीरमाणखा कर । "लिहियव्व कीलियव्व' (महाः सुपा २५४)। वि. दूपित सिद्धान्त को माननेवाला (अरण) । कीरल पुं[कीरल] देश-विशेष (पउम ६८. | कीलिआ स्त्री [कीलिका] १ छोटा खूटा, प्पावणिय वि ["प्रावनिक] १ दूषित खूटी (कम्म १, ३६) । २ शरीर संहनन- सिद्धान्त का अनुसरण करनेवाला (सूम १, कीरिस देखो केरिस (गा ३७४ मा ४)। विशेष, शरीर का एक प्रकार का बांधा, २, २)। २ दूषित आगम-संबन्धी (अनुष्ठान) कीरी स्त्री [कीरी] लिपि-विशेष, कीर देश की जिसमें हड्डियां केवल खूटी से बँधी हुई हों | (अणु)। भत्त न [ भक्त] खराब भोजन लिपि (विसे ४६४ टी)। ऐसा शरीर-बन्धन (सम १४६; कम्म १,३६)। (पउम २०, १६६)। °मार पुं [मार] १ कील प्रक[कीड् ] क्रीड़ा करना, खेलना। कीव पु [क्लीब] १ नपुंसक (वृह ४)। २ वि. कुत्सित मार (सूम २, २)। २ अत्यन्त मार, कीलइ (प्राप्र)। वकृ. कोलंत, कीलमाण कातर, अधीर (सुर २, १४ पाया १, १)। मृत-प्राय करनेवाला ताड़न (गाया १,१४)। (मुर १,१२१; पि २४०)। संकृ. कीलेत्ता, कीव पूं दे. कीव] पक्षि-विशेष (पएह १, रंडा स्त्री [रण्डा] राँड़, विधवा (था कीलिऊग (सुर १, ११७: पि २४०)। । १६) । रुव, रूव न [रूप] १ खराब कील वि[दे] स्तोक, अल्प, थोड़ा (दे २, कीस वि [कीदृश] कैमा, किस तरह का | रूप (उप ३६२ टी; परह १, ४) । २ माया२१)। (भगः पराण ३४)। विशेप (भग १२, ५)। लिंग न [लिङ्ग] कील देखो खील (पास)। कीस वि [किंस्त्र] कौन स्वभाववाला, कैसे १ कुत्सित भेष (दस)। २ पु. कीट वगैरह कील पुंन [दे कील] कंठ, गला (सूत्र १, ५, स्वभाव का (भग)। क्षुद्र जन्तु (विसे १७५४)। ३ वि. कुतीर्थिक, १,६)। कोस म [कस्मात् ] क्यों, किस से, किस दूषित धर्म का अनुयायी (भावम)। °लिंगि कीलण न [कीलन] कील से बन्धन, खोले में कारण से ? (उवः हे ३, ६८)। पुं[लिङ्गिन] १ कीट वगैरह क्षुद्र जन्तु नियन्त्रणः 'फरिणमणिकीलगदुक्खं विम्हरियं (मोघ ७४८)। २ वि. कुतीथिक, असत्य धर्म कीस देखो किलिस्स। कीसंति (उत्त १६, पुहविदेवीए' (मोह २०)। का अनुयायी (पएह १.२) । वय न [पद] कीलण न [कीडन] क्रीड़ा, खेल (प्रौप)। १५; वै ३३) । वकृ. कीसंत (वै ८३)। खराब शब्दा धाई स्त्री [ धात्री] बालक को खेल-कूद | कुमकु] १ अल्प, थोड़ा। २ निषिद्ध, निवा 'सो सोहइ दूसंतो, कइयणरइयाई करानेवाली दाई (गाया १,१)। रित । ३ कुत्सित, निन्दित (हे २, २१७; विविहकध्वाई। कीलणअ न [क्रीडनक] खिलौना (अभि से १, २६; सम्म १)। ४ विशेष, ज्यादा जो मंजिऊण कुवयं, अन्नपयं सुंदरं देइ' २४२)। (गाया १, १४)। उरिस पुं[पुरुष (वजा ६)। कोलणिआ। स्त्री [दे] रथ्या, गली (दे २, खराब आदमी, दुर्जन (से १२, ३३) । °चर वियप्प पुं[विकल्प] कुत्सित विचार कीलणी ३)। वि [°चर] खराब चाल-चलनवाला, सदाचार- (सुपा ४४)। रिस देखो 'उरिस (पउम कीला स्त्री [दे] १ नव-वधू, दुलहिन (दे २, रहित (प्राचा)। "डंड पुं[दण्ड] पाश- ६५, ४५)। संसग पुं [°संसर्ग] खराब विशेष, जिसका प्रान्त भाग काष्ठ का होता है। सोहबत, दुर्जन-संगति (धर्म ३)। सत्य पुन कीला स्त्री [कीला सुरत समय में किया जाता ऐसा रज्जु-पास (पएह १, ३)। डंडिम वि | [शास्त्र] कुत्सित शास्त्र, अनाप्त-प्रणीत हृदय-ताड़न विशेष (दे २, ६४)। [दण्डिम] दण्ड देकर छीना हुमा द्वन्य सिद्धान्त; 'ईसरमयाइया सव्ये कुसत्था' (निचू For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ पाइअसद्दमहण्णवो कु-कुंडग ११)। समय पुं [°समय] १ अनाप्त- । २ पहने हुए कपड़े का प्रांत भाग, अञ्चल कुंचिय पुं [कुश्चिक] इस नाम का एक जैन प्रणीत शास्त्र (सम्म १)। २ वि. कुतीथिक, उपासक (भत्त १३३)। कुशास्त्र का प्रणेता और अनुयायी (सम्म १)। कुऊहल न [कुतूहल] १ अपूर्व वस्तु देखने | कुंचिया देखो कोंचिगा। रूई से भरा हुआ 'सल्लिय वि [शल्यिक] जिसके भीतर की लालसा-उत्सुकता । २ कौतुक, परि. । पहनने का एक प्रकार का कपड़ा (जीत)। खराब शल्य घुस गया हो वह (पएह २,४)। हास (हे १, ११७; कुमा)। | कुंचिया स्त्री [कुश्चिका] कुब्जी, ताली (पिंड सील न [शील] १ खराब स्वभाव कुओ अ [कुतः] कहाँ से ? (षड्)। इ ३५६)। (प्राचा)। २ अब्रह्मचर्य, व्यभिचार (ठा ४, | [चित] कहीं से, किसी से (स १८५)। कुंजर [कुञ्जर] हस्ती, हाथी (हे १, ६६ ४)। ३ वि. जिसका आचरण अच्छा न हो वि अ [°अपि] कहीं से भी (काल)। पाम)। 'पुर न [पुर] नगर-विशेष, वह, दुराचारी (प्रोघ ७६३) । ४ अब्रह्मचारी, कुंआरी स्त्री [ कुमारी] वनस्पति-विशेष, हस्तिनापुर (पउम १५, ३४)। सेणा स्त्री व्यभिनारी (ठा ५, ३)। स्सुमिण पुन | कुवारपाठा, धीकुवार, घीगुवार (श्रा २०; [°सेना] ब्रह्मदत चक्रवर्ती की एक रानी [स्वप्न खराब स्वप्न (श्रा ६)।हण वि जी १०)। (उत्त २६)। वित्त न [वर्त] नगर[धन] अल्प धनवाला, दरिद्र (पण्ह २, . कुंकण न [दे] १ कोकनद, रक्त-कमल (पएण विशेष (सुर ३, ८८)। १-पत्र १००)। । १-पत्र ४०)। २ पुं. क्षुद्र जन्तु विशेष, कुंट वि[कुण्ट] १ कुब्ज, वामन (प्राचा)। कुत्रीका १ पृथिवी, भूमि, 'कसमयवि- चतुरिन्द्रिय कीड़े की एक जाति (उत्त ३६)।। २ हाथ-रहित हस्त-दीन (पव ११०नित सासणं' (सम्म १ टी-पत्र ११४; से १, कुंकण पुं[कोङ्कण] देश-विशेष (अणुः साधं ११ प्राचा)। २६) । °त्तिअ न [त्रिक] १ तीनों जगत्, ३४)। कुंटलविंटल न[दे] १ मंत्र-तंत्रादि का प्रयोग, स्वर्ग, मत्यं और पाताल लोक । २ तीन जगत् कुंकुण देखो कुंकण (सिरि २८६)। पाखण्ड-विशेष (प्रावम)। २ वि. मंत्रमें स्थित पदार्थ (प्रौप) । °त्तिअ वि ["त्रिज] कुंकुम न [कुङ्कुम] केसर, सुगन्धी द्रव्य- तंत्रादि से आजीविका चलानेवाला (आक)। तीनों जगत् में उत्पन्न वस्तु (आवम)। विशेष (कुमा; श्रा १८)। | कुंटार वि [दे] म्लान, सूखा, मलिन (दे २, 'त्तिआवण पुंन [त्रिकापण] तीनों जगत् कुंग पुं[कुङ्ग] देश-विशेष (भवि)। के पदार्थ जहाँ मिल सके ऐसी दूकान (भग; कुंच सक [कुन् ] १ जाना, चलना। २ । कुंटि स्त्री [दे] १ गठरो, गाँठ (दे २. ३४)। णाया १,१-पत्र ५३)। वलय न [°वलय] | अक. संकुचित होना। ३ टेढ़ा चलना २ शस्त्र-विशेष, एक प्रकार का औजार पृथ्वी-मण्डल (श्रा २७)। (कुमाः गउड)। 'मुसलुक्खलहलदंतालकुंटिकुद्दालपमुहसत्थाणं' कुअरी देखो कुआँरी (पि २५१)। (सुपा ५२६)। कुंच पुं[क्रौञ्च १ पक्षि-विशेष (पएह १, कुअलअ देखो कुवलय (प्राप्र)। कुंठ वि [कुण्ठ] १ मन्द, पालसी (था १६)। कुआँरी देखो कुमारी (गा २६८) । १; उप पृ २०८; उर १, १४)। २ इस २ मूर्ख, बुद्धि-रहित (आचा) । कुइअ वि [कुचित] सकुचा हुआ (पव ६२)। नाम का एक असुर (पास)। ३ इस नाम कुंठी स्त्री [दे] सँड़सी, चीमटा (वज्जा ११४)। का एक अनार्य देश। ४ वि. उसके निवासी कुइमाण वि [दे] म्लान, शुष्क (दे २, ४०)। लोग (पव २७४) । "रवा स्त्री [रवा] कुंड न [कुण्ड] १ कुंडा, पात्र-विशेष (षड्) । कुइय वि [कुचित] अवस्यन्दित, क्षरित दण्डकारण्य की इस नाम की एक नदी २ जलाशय-विशेष (णंदि)। ३ इस नाम (ठा ६)। (पउम ४२, १५)। वीरगन [वीरक] का एक सरोवर (ती ३४)। ४ आज्ञा, कुइय वि [कुपित] क्रुद्ध, कोप-युक्त (भवि) । एक प्रकार का जहाज (निचू १६)। रि आदेश; 'वेसमणकुंडधारिणोतिरियजंभगा देवा' कुइयण्ण पुं [कुविकर्ण] इस नाम का एक पुं[°ारि] कात्तिकेय, स्कन्द (पान)। देखो (कप्प) । 'कोलिय पुं[कोलिक] एक जैन गृहपति, एक गृहस्थ (विसे ६३२)। कोंच। उपासक (उवा)। ग्गाम पुं [ग्राम कुउअ पुन [कुतुप] स्नेह पात्र, घी तैल कुंचलन [दे] मुकुल, कली, बौर (दे २, | मगध देश का एक गाँव (कप्प; पउम २, वगैरह भरने का चमड़े का पात्र-विशेषः । ३६; पान)। २१)। धारि वि [धारिन्] आज्ञाकारी 'तुप्पाई को (? कु) उपाइं (पान) देखो (कप्प) । 'पुर न[पुर ग्राम-विशेष (कप्प)। कुंचि वि [कुश्चिन्] १ कुटिल, वक्र । २ कुंड न [दे] ऊख पेरने का जीर्ण काण्ड, कुतुव। मायावी, कपटी (वव १)। जो बाँस का बना हुआ होता है (दे २, ३३; कुउआ स्त्री [दे] तुम्बी-पात्र, तुम्बा (दे कुंचिगा देखो कोचिगा। २, १२)। कुंचिय वि [कुञ्चित] १ संकुचित (सुपा कुंडग पुन [कुण्डक] १ अन्न का छिलका कुउव देखो कुउअ (पिंड ५५७)। ५८)। २ कुण्डल के प्राकारवाला, गोलाकृति (उत्त १, ५, प्राचा २, १, ८, ६)। २ कुऊल न [दे] १ नीवी, नारा, इजारबन्द।। (ौपा जं २)। ३ कुटिल, वक्र (बव १)। । चावल से मिश्रित भूसा (उत्त १, ५)। For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंडभी-कुंभ पाइअसहमहण्णवो २४६ कुंडभी स्त्री [दे. कुटभी] छोटी पताका, कुंडलिअ पि [कुण्डलित] वर्तुं ल, गोल कुंती स्त्री [दे] मंजरी, बौर (दे २, ३४) । (प्रावम)। आकारवाला (सुपा ६२ कप्पू)। कुंती स्त्री [कुन्ती] पाण्डवों की माता का कंडमोअ पंन [कण्डमोद हाथी के पैर की | कुंडलिआ वि [कुण्डलिका] छन्द विशेष | नाम (उप ६४८)। विहार विहार प्राकृतिवाला मिट्टी का एक तरह का पात्र (पिंग)। नासिक-नगर का एक जैन मन्दिर, जिसका (दस ६, ५१)। कुडलोद पु । कुण्डलोद, इस नाम का एक जीर्णोद्धार कुन्तीजी ने किया था (ती २८)। कुंडल पुन कुण्डल] १ एक देव-विमान कुतापोट्टलय वि [दे ] चतुष्कोण, चार (देवेन्द्र १४५)। २ तप-विशेष; 'पुरिमट्ट | कुंडाग पुं [कुण्डाक] संनिवेश-विशेष, ग्राम कोनवाला, चौकोर (दे २, ४३)। या निविकृतिक तप (संबोध ५७)। विशेष (प्रावम)। कुंथु पुं[कुन्थु १ एक जिन-देव, इस प्रवकुंडि देखो कुडी (महा)। कुंडल पुन [कुण्डल] १ कान का आभूषण सर्पिणी काल में उत्पन्न सत्तरहवाँ तीर्थकर कुंडिअ पु [द] ग्राम का अधिपति, गाँव का | (भग; प्रौप)। २ पुं. विदर्भ देश के एक और छठवाँ चक्रवर्ती राजा (सम ४३; मुखिया (दे २,३७)। राजा का नाम (पउम ३०, ७७)। ३ द्वीप पडि)। २ हरिवंश का एक राजा (पउम विशेष । ४ समुद्र-विशेष । ५ देव-विशेष कुंडिअपेसण न [दे] ब्राह्मण विष्टि, ब्राह्मण २२,६८)। ३ चमरेन्द्र की हस्ति-सेना का (जीव ३)। ६ पर्वत-विशेष (ठा १०)। ७ को नौकरी, ब्राह्मण की सेवा (दे २, ४३)। अधिपति देव-विशेष (ठा ५,१-पत्र ३०२) । गोल आकार (सुपा ६२) । भद्द कुंडिगा । स्त्री [कुण्डिका ] नीचे देखो [ भद्र] कुडिया (रंभा अनु ५, भग, णाया २, ५)। ४ एक क्षुद्र जन्तु, त्रीन्द्रिय जन्तु की एक कुण्डल द्वीप का एक अधिष्ठायक देव (जीव जाति (उत्त ३६; जी १७)। ३)। मंडिअ वि ["मण्डित] १ कुण्डल कुंडिण न [कुण्डिन] विदर्भ देश का एक कुंद पुं[कुन्द ] १ पुष्प-वृक्ष विशेष (जं से विभूषित । २ विदर्भ देश का इस नाम का नगर (कुप्र ४८)। २)। २ न. पुष्प-विशेष, कुन्द का फूल एक राजा (पउम ३०, ७४)। महाभद्द कुंडी स्त्री [कुण्डी] १ कुण्डा, पात्र-विशेष; 'तेसिमहोभूमीए ठविया कुंडी य तेल्लपडिपं [महाभद्र] देव-विशेष (जीव ३)। (सुर २, ७६; णाया १,१)। ३ विद्यामहावर पुं [महावर] कुण्डलवर समुद्र पुन्ला' (सुपा २६९) । २ कमण्डल, संन्यासी धरों का एक नगर (इक)। ४ पुंन. छन्द विशेष (पिंग)। का अधिष्ठाता देव (सुज्ज १९)। वर पुं का जल-पात्र (महा)। | कुंदय वि [दे] कृश, दुर्बल (दे २, ३७)। [°वर] १ द्वीप-विशेष । २ समुद्र-विशेष ।। कुंढ देखो कुंठ (सुपा ४२२)। | कुंदा स्त्री [कुन्दा] एक इन्द्राणी, मानिभद्र ३ देव-विशेष (जीव ३)। ४ पर्वत-विशेष कुंढय न [दे] १ चुल्ली, चूल्हा । २ छोटा इंद्र की पटरानी (इक)। (ठा ३, ४)। वरभद्द पं [वरभद्र बरतन (दे २, ६३)। कुंदीर न [दे] विम्बी-फल, कुन्द्रन का फल कुण्डलवर द्वीप का एक अधिष्ठायक देव | कुंत पुं [द] शुक, तोता, सुग्गा (दे २,२१)। (दे २, ३६)। (जीव ३)। वरमहाभद्द '[°वरमहा- कुंत पुं[कुन्त] १ हथियार-विशेष, भाला कुंदुक पु[कुन्दुक्क] वनस्पति-विशेष (पएण भद्र] कुण्डलवर द्वीप का एक अधिष्ठाता (पराह १, १; अोप)। २ राम के एक सुभट १-पत्र ४१)। देव (जीव ३)। वरोभास पुं [°वराव- का नाम (पउम ५६, ३८)। कुंदुरुक्क पुं[कुन्दुरुक] सुगन्धि पदार्थ-विशेष भास] १ द्वीप-विशेष । २ समुद्र-विशेष कुंतल [कुन्तल] १ केश, बाल (सुर १, (णाया १,१-पत्र ४१ सम १३७) । (जीव ३)। 'वरोभासभद्द पुं[°वराव. १; सुपा ६१, २००)। २ देश-विशेष (सुपा कुंदुल्लुअ ' [दे] पक्षि-विशेष, उलूक, उल्लू भासभद्र] कुण्डलवरावभास द्वीप का अधि ६१, उब ४९५)। हार पुं[हार] (पास)। ष्ठाता देव (जीव ३)। वरोभासमहाभद्द धम्मिल्ल, संयत केश, बाँधे हुए बाल (पान)। कुंधर पुंदे] छोटी मछली (दे २, ३२)। पुं[°वरावभासमहाभद्र] देखो पूर्वोक्त अर्थ | कुंतल ' [दे] सातवाहन, नृप-विशेष (दे कुंपय पुन [कूपक] तैल वगैरह रखने का ( जीव ३) । वरोभासमहावर पुं २, ३६)। पात्र-विशेष (रयरग ३१)। [°वरावभासमहावर ] कुण्डलवरावभास कुंतला स्त्री [कुन्तला] इस नाम की एक कुंपल पुंन [कुट्मल, कुड्मल] १ इस नाम समुद्र का अधिष्ठायक देव-विशेष (जीव ३)।। रानी (दस)। का एक नरक । २ मुकुल, कली, कलिका "वरोभासवर ५ [वरावभासवर समुद्र- कंतला स्त्रीदे] करोटिका, परोसने का एक | (ह १, २५कुमा, षड्। विशेष का अधिपति देव-विशेष (जीव ३)। उपकरण (दे २, ३८)। कुंबर [दे] देखो कुंधर (पान)। कुंडला स्त्री [कुण्डला] विदेहवर्ष स्थित कुंतली स्त्री [कुन्तली] कुन्तल देश की रहने | कुंभ पुंकुम्भ] १-३ साठ, अस्सी और एक नगरी विशेष (ठा २, ३)। वाली स्त्री (कप्पू)। सौपादक की नाप (अणु १५१, तंदु २६) । कुंडलि वि [कुण्डलिन् ] कुण्डलवाला कुंताकुंति न [कुन्ताकुन्ति] बर्खे की लड़ाई ४ ज्योतिष-प्रसिद्ध एक राशि (विचार १०६)। (भास ३३)। । (सिरि १०३२)। । ५ एक बाजा (राय ४६)। ३२ For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० पाइअसहमहण्णवो कुंभ-कुच्चंधरा कुंभ पु[कुम्भ] १ स्वनाम-प्रसिद्ध एक राजा, कुंभी में पकना (पराह २, ५)। २ नरक की कुक्कुड पुं[कुर्कुट] चतुरिन्द्रिय जन्तु की एक भगवान् मल्लिनाथ का पिता (सम १५१, पउम एक प्रकार की यातना (सूत्र १, १, १)। जाति (उत्त ३६, १४८)। २०, ४५)। २ स्वनाम-ख्यात जैन महर्षि, | कुंभी स्त्री [कूष्माण्डी] कोहँड़ा का गाछ, कुक्कुड [कुक्कुट] १ कुक्कुट, मुर्गा (गा अठारहवें तीर्थंकर के प्रथम शिष्य (सम | ‘चलिगो कुंभीफल दंतुरासु' (गउड)। ५८२, उवा)। २ वनस्पति-विशेष (भग १५२)। ३ कुम्भकर्ण का एक पुत्र (से १२, | कुंभी स्त्री [६] केश-रचना, केश-संयम (दे २ । १५) । ३ विद्या द्वारा किया जाता हस्त६५)। ४ एक विद्याधर सुभट का नाम ३४)। प्रयोग-विशेष (वव १) । मंसय न [मांस(पउम १०, १३) । ५ परमाधामिक देवों को कुंभील पुंकुम्भील जलचर प्राणि-विशेष, क] १ मुर्गा का मांस । २ बीजपूरक वनस्पति एक जाति (सम २९)। ६ कलश, घड़ा | नक, मगर (चारु ६४)। का गुदा (भग १५)। (महाः कुमा) । ७ हाथी का गएड-स्थल | कुंभुन्भव पु [कुम्भोद्भव] ऋषि-विशेष, कुक्कुड वि [दे] मत्त, उन्मत्त (दे २, ३७) । (कुमा) । ८ धान्य मापने का एक परिमाण | अगस्त्य ऋषि (कप्यू)। कुक्कुडय न [कुक्कुटक] देखो कुक्कयय (अण) । तरने का उपकरण (निचू १)। कुकम्मि वि [कुकर्मिन् खराब कर्म करने (सूम १, ४, २, ७ टी)। १० ललाट, भाल स्थल (पव २)। ११ । वाला (सूय १, ७, १८)। कुक्कुडिया। स्त्री [कु+पुटिका. टी] अण्ण युं [कर्ण] रावण के छोटे भाई का कुकुला स्त्री [दे] नवोढा, दुलहिन (दे २, कुक्कुडी कुक्कुटी, मुर्गी (पाया १, ३, नाम (१५, ११) । आर पु [कार] विपा १, ३)। कुम्हार, घड़ा आदि मिट्टी का बरतन बनानेकुकुस [दे] देखो कुक्कुस (दस ५, १३४)।। कुक्कुडी स्त्री [कुक्कुटी] माया, कपट (पिंड वाला (हे १,८)। 'उर न [पुर] नगर कुकुहाइय न [कुकुहायित] चलते समय का २६७)। विशेष (दस)। गार देखो आर (महा)। शब्द विशेष (तंदु)। कुक्कुडेसर न [कुक्कुटेश्वर] तीर्थ-विशेष गगन [प] मगध-देश-प्रसिद्ध एक परिमारण कुकूल पु [कुकूल] करीषाग्नि, कंडे को । (ती १६) । (णाया १, ८-पत्र १२५) । °सेण पुं आग (पराह १, १)। कुक्कुर पु[कुक्कुर] कुत्ता, श्वान (पउम ['सेन] उत्सिपिणी काल के प्रथम तीर्थकर कुक्क देखो कोक्क । कुक्कइ (पि १६७ ६४, ८०; सुपा २७७)। के प्रथम शिष्य का नाम (तित्थ)। ४८८)। कुक्कुरुड पुं[दे] निकर, समूह (दे २, १३)। कुंभंड न [कूष्माण्ड] फल-विशेष, कोहड़ा, कुक्क पु [दे] कुत्ता, कुक्कुरः 'कुक्केहि कुक्कुस पुं[दे] धान्य प्रादि का छिलका, कुम्हड़ा (कप्पू)। कुक्काहि अ बुक्कभंते (मृच्छ ३६)। भूसा (दे २, ३६, दस ५, १, ३४)। कुंभार पुं[कुम्भकार] कुम्हार, घड़ा प्रादि कुक्कयय न [दे] प्राभरण-विशेष; 'अदु कुक्कुह पुं [कुक्कुभ] पक्षि-विशेष (गउड)। मिट्टी का बरतन बनानेवाला (हे १,८)। अंजणि अलंकारं कुक्कययं मे पयच्छाहि' | कुक्कुहाइअन[दे] चलते समय का अश्व वाय पु [पाक] कुम्हार का बरतन (सूत्र १, ४, २, ७) । देखो कुक्कु डय। का शब्द-विशेष (तंदु ५३)। पकाने का स्थान (ठा ८)। कुक्की स्त्री [दे] कुत्ती, कुक्कुरी (मृच्छ ३६)। कु की कुक्खि [दे. कुक्षि देखो कुच्छि (दे २, कुंभि पु[कुम्भिन् १हस्ती, हाथी (सण)। कुक्कुअ वि [कुत्कुच] भांड की तरह शरीर | ३४ प्रौप; स्वप्न ६१ करु ३३)। २ नपुंसक-विशेष, एक प्रकार का पंड पुरुष | के अवयवों की कुचेश करनेवाला (धर्म २; कुक्खिंभरि देखो कुच्छिंभरि (धर्मवि १४६)। का (पुष्फ १२७)। पव ६)। कुक्खेअअ देखो कुच्छेअय (संक्षि ६)। कुंभिक देखो कुंभिय (राय ३७)। कुक्कुअन [कौकुच्य] कुचेष्टा, कामोत्पादक कुग्गाह पुं [कुमाह] १ कदाग्रह, हठ (उप कुंभिणी स्त्री [दे] जल का गर्त (दे २, ३८)। अंग-विकार (पउम ११, ६७, प्राचा)। ८३३ टी)। २ जल-जन्तु विशेषः 'कुरगाह गाहाइयजंतुसंकुलो (सुपा ६२६)। कुंभिय वि [कुम्भिक] कुम्भ-परिमाणवाला कुक्कुअवि [कुकूज] प्राक्रन्दन करनेवाला कुच पु [कुच स्तन, थन (कुमा)। (ठा ४, २)। (उत्त २१)। कुक्कुआ स्त्री कुचकुचा अवस्यन्दन, क्षरण, कुचोज न [कुचोद्य कुतर्क (धर्मसं १९७५)। कुंभिल पुं [दे. कुम्भिल] १ चोर, स्तेन रस-रस कर चूना, रसना (बृह ६) । कुच पुं [कूर्च] कँघी, बाल सँवारने का उप(दे २, ६२; विक ५६) । २ पिशुन, दुर्जन | कुक्कुइअ वि [कौकुचिक] भाड़ की तरह | करण (उत्त २२, ३०)। (दे २, ६२)। कुचेष्टा करनेवाला, काम-चेष्टा करनेवाला कुञ्च न [कूर्च] १ दाढ़ी-मूंछ (पामा अभि कभिल्ल वि [दे] खोदने योग्ग (दे २, ३६)। (भगः औप)। २१२) । २ तृण-विशेष (पएह २, ३) देखो कुंभी स्त्री [कुम्भी] १ पात्र-विशेष, घड़े के कुक्कुइअ न [कौकुच्य] काम-कुचेष्टा, कुञ्चग। भाकारवाला छोटा कोष्ठ (सम १२५)। २ 'भंडाईण व नयरणाइयाण सवियारकरणमिह कुच्चंधग स्त्री [कूर्चधरा] दाढ़ी-मूछ, धारण कुंभ, घड़ा (जं ३)। पाग पुं [पाक] १. भरिणयं । कुक्कुइयं' (सुपा ५.६७ पडि)। । करनेवाली (प्रोष ८३ भा)। For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुच्चग-कुडंगा पाइअसहमहण्णवो २५१ कुञ्चग वि [कौर्चक शर नामक गाछ का बना कुच्छिय वि [कुत्सित] खराब, निन्दित, कुट्टिणी स्त्री [कुट्टिनी] कूटनी, दूती (कप्पू हुअा (प्राचा २, २, ३, १४)। । गहित (पंचा ७; भवि)। रंभा)। कुच्चग । देखो कुच्च (माचा २, २, ३, कुच्छिल्ल न [दे] १ वृति का विबर, बाड़ का कुट्टिम देखो कोट्टिम = कुट्टिम (भग ८, कुच्चय । काल)। ३ कूची, तृण-निर्मित छिद्र (दे २, २४) । २ छिद्र, विवर (पान)। राय; जीव ३)। तूलिका, जिससे दीवाल में चूना लगाया जाता । कुन्ले - [कौक्षेयक] तलवार, खड्ग कुट्टिय वि [कुट्टित] १ कूटा हुआ, ताड़ित है (उप पृ ३४३; कुमा)। (दे १, १६१ षड्)। (सुपा १५, उत्त १६)। २ छिन्न, छेदित कुञ्चिय वि [कूर्चिक] दाढ़ी-मूछवाला (बृह कुज पुं [कुज] वृक्ष, पेड़ (जं २)। (बह १)। कुजय पुं[कुजय] जूपारी, जूमाखोर (सूत्र कुट्ठ पुन [कुष्ठ] १ पंसारी के यहाँ बेची जाती कुच्छ सक [कुत्स् ] निन्दा करना, धिकारना। १, २, २)। एक वस्तु, कूठ (विसे २६३, परह २,५)। २ कृ. कुच्छ कुच्छणिज्ज (श्रा २७ पराह१. कुज्ज विकुब्ज १ कुब्ज, कबड़ा, वामन । रोग-विशेष, कोढ (वव ६)। (सुपा २; कप्पू)। २ पुंन. पुष्ष-विशेष (षड् )। कुट्ठ पुं[कोष्ट] १ उदर, पेटः 'जहा विसं कुच्छ पुंकुत्स] १ ऋषि-विशेष । २ गोत्र कुजय [कुन्जक] १ वृक्ष-विशेष, शतपत्रिका कुटुगयं मंतमूलविसारया। वेजा हणंति मंतेहिं' विशेष; 'थेरस्स णं अजसिवभूइस्स कुच्छसगु. (पउम ४२, ८ कुमा) । २ न. उस वृक्ष का (पडि)। २ कोठा, कुशूल, धान्य भरने का त्तस्स' (कप्प)। पुष्प; 'बंधेउं कुजयपसूणं' (हे १, १८१)। बड़ा भाजन (पण्ह २, १)। बुद्धि वि कुच्छ देखो कुच्छ = कुत्स् । कुज्झ सक [कुध ] क्रोध करना, गुस्सा! [बुद्धि] एक बार जानने पर नहीं भूलनेकुच्छग पुं [कुत्सक बनस्पति.विशेष (सूत्र करना । वुज्झइ (हे ४, २१७ षड् )। वाला (पएह २, १)। देखो कोट, कोढग। कुट्ट सक [कुट्टू] १ कूटना, पीटना, ताड़न कुट्ठ वि [कृष्ट] १ शपित, अभिशप्त । २ न. कुच्छणिज देखो कुच्छ = कुस् , 'अन्नेसि करना । २ काटना, छेदना। ३ गरम करना। शाप, अभिशाप-शब्दः 'उर्दु कुटु केहिं पेच्छता कुच्छरिणजे सारणाणं भक्खरिणजं हि' (श्रा ४ उपालम्भ देना। भवि. कुट्टइस्सं (पि ५२८)। आगया इत्थे' (सुपा २५०)। २७)। वकृ. कुट्टित (सुर ११, १)। कवकृ. कुट्टि- कुटुग पुन [कोष्ठक] शून्य घर (दस ५, १ कुच्छा स्त्री [कुत्सा] निन्दा, घृणा, जुगुप्सा जंत, कुट्टिजमाण (सुपा ३४०; प्रासू ६६; २०८२)। (ोघ ४४४: उप ३२० टी)। राय) । संकृ. कुट्टिय (भग १४, ८)। कुट्ठा स्त्री [कुष्टा] इमली, चिचा (बृह १)। कुद्धि वि [कुष्ठिन् कुष्ठ रोगवाला (सुपा कुच्छि पुंस्त्री [कुक्षि] १ उदर, पेट (हे १, कुट्ट ([कुट] घड़ा, कुम्भ (सूत्र २, ७)। २४३; ५७६)। ३५: उवाः महा)। २ अड़तालीस अंगुल का कुट्ट पुन [दे] १ कोट, किला: 'दिजंति कवा कुड पुं [कुट] १ घड़ा, कलश (दे २, ३५, मान (जं २) । किमि पुं [कृमि उदर में डाई कुट टुवरि भडा ठविज्जति' (सुवा ५०३)। गा २२६; विसे १४५६)। २ पर्वत। ३ हाथी उत्पन्न होनेवाला कीड़ा, द्वीन्द्रिय जन्तु-विशेष २ नगर, शहर (सुर १५, ८१)। वाल पुं। 33 वगैरह का बन्धन-स्थान (णाया १, १-पत्र (पराग १)। धार पुं[ धार] १ जहाज [पाल] कोतवाल, नगर-रक्षक (सुर १५, । । ६३) । ४ वृक्ष, पेड़; 'तड्डुवियसिहंडमंडियकुका काम करनेवाला नौकर) 'कुच्छिधारकन्न- ८१) डग्गो' (सुग ५६२)। कंठ पुं[कण्ठ] धारगन्भजसंजत्ताणावावारिणयगा' (गाया १, कुट्टण न [कुट्टन] १ छेदन, चूर्णन, भेदन पात्र-विशेष, घड़ा के जैसा पात्र ( दे २, ८-पत्र १३३)। २ एक प्रकार का जहाज । (औप)। २ कूटना, ताड़ना (हे ४, ४३८)। २०)। दोहिणी स्त्री [दोहिनी] घड़ा भर का व्यापारी (गाया १, १६)। पूर पुं कुटणा श्री [कुट्टना] शारीरिक पीड़ा (सूम दूध देनेवाली (गा ५३७)। [पूर] उदर-पूत्ति (वव ४)। वेयणा स्त्री १, १२)। [°वेदना] उदर का रोग-विशेष (जीव ३)। कुट्टणी स्त्री [कुट्टनी] १ मूसल, एक प्रकार कुडंग पुंन [कुटङ्क] १ कुञ्ज, निकुञ्ज, लता 'सूल पुन [ शूल] रोग-विशेष (गाया १, की मोटी लकड़ी, जिससे चावल आदि अन्न वगैरह से ढका हुआ स्थान (गा ६८० हेका १०५)। २ वन, जंगल (उप २२० टी)। १३; विपा १, १)। कूटे जाते हैं (बृह १)। २ दूती, कुटनी, कुच्छिंभरि वि [कुक्षिम्भरि] अकेलपेटू, पेटू, ३ बांस की जाली, बाँस की बनी हुई छत कुट्टिनी (रंभा)। स्वार्थी; 'हा तियचरितकुत्सि (? च्छिं) | कुट्टयरी स्त्री [दे] चंडी, पार्वती (दे २, ३५)। (बृह १) । ४ गह्वर, कोटर (राज)। ५ वंशभरिए !' (रंभा)। कुट्टा स्त्री [दे] गौरी, पार्वती (दे २, ३५)। गहन (णाया १, ८ कुमा)। कुच्छिमई स्त्री [दे. कुक्षिमती] गभिरणी, कुट्टाय पुं[दे] चर्मकार, मोची (दे २, ३७)। कुडंग पुन [दे. कुटङ्क] लता-गृह. लता से ढका आपन्न-सत्त्वा (दे २, ४१ षड्) । कुट्टित देखो कुट्ट = कुट्ट । हुआ घर (दे २, ३७) महा पाप षड्)। कुच्छिमधिका (मा) देखो कुच्छिमई (प्राकृ| कुट्रितिया देखो कोटुंतिया (राज)। कुडंगा श्री [कुटङ्का] लता-विशेष (पउम ५३, १०२)। | कुटुिंब [दे] देखो कोटुिंब (पाम)। ____७६)। For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ कुडंगी स्त्री [दे. कुटकी] बांस की जाली, एक्कपहारेण नित्रडिया वंसकुडेंगी' (महाः सुर १२, २०० उप पृ २८१) । कुटुंब देखो कुटुंब (महा गा ६०६) । कुडग देखो कुड ( श्रावमः सूत्र १,१२ ) । कुडभी स्त्री [कुटभी] छोटा पताका (सम ६०) । कुडयन [दे] लता - गृह, लता से श्राच्छादित घर, कुटीर, झोंपड़ी (ढे २,३७) । कुडय पुंन [कुटज] वृक्ष-विशेष, कुरैया ( गाया १. ६, परण १७ स १६४ ); 'कुडयं दलई' (कुमा) । कुडव पुं [कुडव ] अनाज या अन्न नापने का एक माप (गाया १, ७ उप पृ ३७० ) । कुडाल देखो कुड्डाल (उवा) । कुडिअ वि [दे] कुब्ज, वामन, नाटा ( पाच ) । कुडिआ स्त्री [दे] बाड़ का विवर (दे २, २४) । कुडिच्छ न [दे] १ बाड़ का छिद्र । २ कुटी, झोंपड़ी । ३ वि. त्रुटित, छिन्न (दे २, ६४ ) । कुडिल वि [कुटिल ] वक्र, टेढ़ा (सुर १, २०१२, ८६) । कुडलविडल न [दे. कुटिलविटल] हस्तिशिक्षा (राज) । कुडिल्ल न [दे] १ छिद्र, विवर ( पाच ) । २ वि. कुब्ज, कुबड़ा (पान ) । कुडिल्लय वि [दे. कुटिलक] कुटिल, टेढ़ा, वक्र (दे २, ४० भवि ) । कुडिच्चय देखो कुलिब्धय (राज) । कुडी स्त्री [कुटी] छोटा गृह, झोंपड़ी, कुटीर (सुपा १२०० वजा ६४ ) । कुडीर न [कुटीर ] झोंपड़ी, कुटी ( हे ४, ३६४; पउम ३३, ८५ ) । कुडीर न [दे] बाड़ का छिद्र (दे २, २४) । कुडुंग पुं [दे] लतागृह, लताओं से ढका हुआ घर (षड् गा १७५; २३२ अ ) । कुटुंब न [कुटुम्ब] परिजन, परिवार, स्वजनवर्ग (उवा महा; प्रासू १६७ ) । कुटुंब पुं [कुस्तुम्बक ] १ वनस्पति- विशेष, धनियाँ (पराग १ – पत्र ४० ) । २ कन्दविशेषः 'पलंडुलसरणवदे य कंदलीय कुडुंबए' ( उत्त ३६, ६८ का) । पाइस कुडंगी - कुत्तिय कुटुंबि वकृ. कुणंत, कुणमाण (गा १६५ सुपा ३६ ११३३ आचा) | वि [कुटुम्बिन, क] १ कुटुम्ब कुटुंबिअ ) युक्त, गृहस्थ । २ कुनबेवाला, } कर्षक (गउड) | ३ सम्बन्धी; 'सोभागुग्गुण समुद- कुणक्क पु [कुणक] वनस्पति- विशेष (पण कुडुबिए' (कप्प ) । १ - पत्र ३५) । कुटुंबीअ न [दे] सुरत, संभोग, मैथुन कुडव न [कुणप ] १ मुरदा, मृत शरीर ( पाच ) (षड् । गउड ) । २ वि. दुर्गन्धी ( हे १, २३१) । कुणाल पु. ब. [ कुणाल ] १ देश-विशेष (गाया १, ८ उप १८६ टी) । २ प्रसिद्ध महाराज अशोक का एक पुत्र ( विसे ८६१) । "नयर न ['नगर] एक शहर, उज्जैन; 'आसी कुणालनयरे' (संथा ) | कुर्डुभग पुं [दे] जल-मण्डूक, पानी का मेढक (निचू १) । कुडुक्क [दे] लता-गृह ( षड् ) । कुडुश्चिअ न [दे] सुरत, संभोग, मैथुन (दे २, ४१) । कुडुल्ली (अप) स्त्री [कुटी] कुटिया, झोंपड़ी (कुमा) । कुड्ड पुंन [कुड्य] १ भित्ति, भीत ( पउम ६८, ६ है २,७८); 'अज्जं गोत्ति प्रजं गोत्ति श्रज्जं गनोत्ति गणिरीए । पढमविदिद्धे कुड्डो लेहाहि चित्तलिओ (गा २०८ ) । ड्ड [] आश्चर्य, कौतुक, कुतूहल (दे २, ३३ पान षड् हे २, १७४) । कुड्डगिलोई [दे] गृह-गोधा, छिपकली (दे २, १९ ) । कुडवणी स्त्री [दे. कुडधलेपनी] सुधा, चूना, खड़ी, खटिका (दे २, ४२ ) । [कुड्डाल न [ दे ] हल के ऊपर का विस्तृत अंश (उवा) । कुढन [दे] १ चुराई हुई वस्तु की खोज में जाना (दे २, ६२; सुपा ५०३ ) । २ छीनी हुई चीज को छुड़ानेवाला, वापस लेनेवाला (दे २, ६२ ) । कुढारपुं [कुठार] कुल्हाड़ा, फरसा ( हे १, १६ षड् ) । कुढावय न [दे] अनुगमन, पोछे जाना (विसे १४३६ टी) । कुयि वि[दे] कूढ, मूर्ख, बेसमझा 'कूयंति नेउरा पुरण पुरणो कुढियपुरिसोव्व' (सुर ३, १४२) । कुढिय वि [दे] जिसके माल की चोरी हो गई हो वह (सुख २, २१ ) । कुण सक [कृ] करना, बनाना । कुराइ, कुणउ, कुरण (भगः महा सुपा ३२० ) । For Personal & Private Use Only कुणाला स्त्री [कुणाला ] इस नाम की एक नगरी (सुपा १०३) । कुणि पु [कुणि] १ हस्त-विकल, हूँठ, कुणिअ ) हाथ कटा मनुष्य ( पउम २, ७७ ) । २ जन्म से ही जिसका एक हाथ छोटा हो वह । ३ जिसका एक पॉव छोटा हो वह, खज (परह २, ५ – पत्र १५०; श्राचा) | कुणि स्त्री [] वृति-विवर, बाड़ का छिद्र (दे २, २४) । कुणिम पुंन [दे कुणप ] १ शव, मृतक, मुरदा (परह २, ३) । २ मांस (ठा ४, ४; श्रीप) । ३ नरकावास विशेष (सूत्र १, ५, १) । ४ शव का रुधिर, वसा वगैरह ( भग ७, ६) । कुणकुण क [ कुणुकुणाय् ] शीत से कम्प होने पर 'कड़कड़' श्रावाज करना । वकृ. कुकुत (सुर २, १०३) । कुण्हरिया स्त्री [दे] वनस्पति-विशेष (परण १ - पत्र ३५) । कुतती स्त्री [दे] मनोरथ, वाञ्छा (दे २, ३६) । कुटुंब पुं [कुस्तुम्ब] वाद्य-विशेष ( राय ४६) । कुटुंबर पुं [कुस्तुम्बर] वाद्य-विशेष ( राय ४६) । कुतुव पुंन [कुतुप ] १ तेल वगैरह भरने का चमड़े का पात्र (दे ५, २२) । देखो कुउअ । कुत्त [द] कुत्ता, कुक्कुर ( रंभा ) । कुत्त न [दे. कुतक] १, १ – पत्र ११) । कुत्तारवि [कुतार] योग्य तारक ( गच्छ १, ३०) । ठेका, इजारा (विपा कुत्तिय पुंस्त्री [दे] एक तरह का कीड़ा, चतुरिन्द्रियजन्तु विशेष; 'करालिय कुत्तिय विच्छू' (प्राप १७ पभा ४१ ) । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्तीकुमुअ कुती श्री [दे] कुली कुलकुरी (रंभा)। कुत्थ अ [ कुत्र ] कहाँ, किस स्थान में ? ( उत्तर १०४) । कुत्थ सक [को] सड़ाना, 'नो वाऊ हज्जा, नो सलिलं (पव १५८ टी), कुच्छे (? थे) ज्जा ( श्रणु १६१ ) । भवि. कुच्छि (? तिथ) हिई (पिंड २३८ ) । कृ. कुत्थ ( दसनि १०, २४) । कुत्ख देखो कढ कृत्यसि कुरव (गा ५०१ प्र) । कुरण श्री [ोधन ] सड़ना सह जाना ( वब ४ ) 1 कुत्थर न [दे] १ विज्ञान ( दे २,१३ ) । २ वृक्ष । कोटर बृज की पोल, गर (गुपा २४६) ३ सर्प वगैरह का बिल ( उप ३५७ टी) । कुत्थल देखो कोत्थल; 'कच्छ (? त्थ) लसमाउरो (धर्मवि २७) । कुटुंब [कुस्तुम्ब] बाय-विशेष (राय)। कुत्थंभरी स्त्री [कुस्तुम्बरी] वनस्पति- विशेष, धनियाँ ( पण १ - पत्र ३१ । । कुधुंद पुंन [कौस्तुभ ] मणि-विशेष जो विष्णु की छाती पर रहती है (हेका २५७) कुत्थुहवत्थ न [दे] नीवी, नारा, इजारबन्द (दे २, ३८ ) । कुदो देखो कुओ (हे १, ३७) । वि [] प्रभूत, प्रचुर (दे २,३४) । कुण [दे] रासक, रासा (दे २, ३८ ) । कुद्दव पुं [ कोद्रव ] धान्य- विशेष, कोदों, १२) । कुदाल [कुदाल] भूमिका साधन, गुदार, कुदारी (गुदा ५२५) २ - विशेष (२) । कुद्ध वि [क्रुद्ध] कुपित, क्रोध-युक्त (महा) । कुपचि ()[ कचित् ] किसी ( प्राकृ १२३) । में कुप्प सक [ कुप् ] कोप करना, गुस्सा करना। कुप्पइ (उवः महा) । वकृ. कुप्पंत ( सुपा १६७) । कृ. कुप्पियव्व ( स १ ) | कुप्प सक [ भापू] बोलना, कहना। कुप्पइ (भवि)। कुप्पन [कुप्य] सुवर्ण और चांदी को छोड़ कर अन्य धातु और मिट्टी वगैरह के बने हुए पाइअसमहणवी गृह- उपकरण, 'लोहाई उवक्खरो कुप्वं' (बृह १ पडि) । कुप्पढ [दे] १ गृहाचार, घर का रिवाज । २ समुदाचार सदाचार (दें २, ३६) । कुप्पर न [दे] सुरत के समय किया जाता हृदय ताड़न विशेष । २ समुदाचार, सदाचार । ३ नर्म, हासी, ठट्ठा (दे २, ६४) । कुप्पर [कूर्पर ] १ कफोणि, हाथ का मध्य भाग । २ जानु, घुटना श्रवयव - विशेष (जं ३) । कुपर [कर्पर] देखी कप्पर भीत को परत, भीत का जीर्ण-शीर्णं थर 'एयामो पाढाहरु जुमितियों (ग)। कुप्पल देखो कुंपल (पि २७७)। कुप्पास ३ रथ का [कृपस ] ज्यु, कांची, जनानी कुरती ( १, ७२ पा कुप्पिय [कुषित] १ कुपित, क्रुद्ध । २ न. कोम गुस्सा 'कुयिं नाम कुलि' (या ४) । कुप्पिस देखो कुप्पास हे १, ७२ ३ २, ४० ) । | कुदर [ कूपर ] भगवान् मल्लिनाथ का पुं शासनायिका (पर २६) कुबेरपुं [कुबेर ] भगवान् कुन्थुनाथ के प्रथम श्रावक का नाम ( विचार ३७८ ) । कुबेर [कुबेर] कुबेर यक्ष-राज, धनेश ( पात्र गउड)। २ भगवान् मल्लिनाथ का शासनाधिष्ठाता यक्ष विशेष (संति ८ ) । ३ कानपुर के एक राजा का नाम (पउम ७, ४५) । ४ इस नाम का एक श्रेष्ठी (उप ७२८ टी) एक जैन मुनि (कम्प) "दिसा [ "दश ] उत्तर दिशा (सुर २, ५)नयरी श्री ["नगरी] कुबेर की राजधानी, अलका (पान) । । ५ | साधु-गरा की एक कुबेरा [कुबेरा ] शाखा (कप्प ) । २५३ कुभंडिंद पुं [ कुभाण्डेन्द्र ] इन्द्र-विशेष, कुभा देवों का स्वामी (ठा २,३) । कुमर देखो कुमार (हे १, ६७ सुपा २४३; ६५६६ कुमा) । , कुमरी देखो कुमारी (कप्पू; पाग्र) । कुमार पुं [कुमार] प्रथम क पाँच वर्ष तक का लड़का (ठा १० पाया १२) २राज राम्या पुरुष (पराह १, ५) । ३ भगवान् वासुपूज्य का शासनापिठाता यत (संति ७)। ४ लोहार, सोहार 'पट्टिमाईहि कुमारेहि पिये (उत्त २३) ५ कार्तिकेय स्कन्द (पा६ शुक पक्षी । ७ घुड़सवार । ८ सिन्धु नद। ६ वृक्ष- विशेष, वरुण-वृक्ष ( हैं १, ६७ ) । १० विवाहित ब्रह्मचारी (सम ५० )ग्गाम पुं [आम] ग्राम-विशेष (आभा २३) । "मंदि [नदिन] इस नाम का एक सोनार (श्रावम) । धम्म पुं ['धर्म] एक जैन साधु (कण्य) बाल ["पाठ] विक्रम की बारहवीं शताब्दी का गुजरात का एक सुप्रसिद्ध जैन राजा (दे १, ११३ टी) । कुमार पुं [दे] कुमार का महीना, प्राश्विन मास (ठा २, १) । कुमारा श्री [कुमारा] इस नाम का एक संनिवेश, 'तम्रो भगवं कुमाराए संनिवेसे गधी' (भावम कुमारिय पुं [ कुमारिक ] कसाई, सौनिक (बृह १) । कुमारिया स्त्री [कुमारिका ] देखो कुमारी ( पि ३५० ) । कुमारी श्री [कुमारी] प्रथम की लड़की १ त्रय २ अविवाहित कन्या (हे ३, ३२) । ३ वनस्पति- विशेष पीकुमारी ( प ४) ४ नवमल्लिका । ५ नदी - विशेष । ६ जम्बू द्वीप का एक भाग । ७ वनस्पति- विशेष, अपराजिता । ८ सीता। बड़ी इलाची १० वन्ध्या ककड़ी की लता । ११ पक्षि-विशेष (हे . १२) । कुमारी स्त्री [दे कुमारी ] गौरी, पार्वती (दे २, ३५) । कुब्बड वि [दे] कुबड़ा, कुब्ज, वामन (श्रा 20) 1 कुब्बर पुं [कूबर] वैश्रमण के एक पुत्र का नाम ( अंत ५) । कुभंड पुं [कुभाण्ड ] देव- विशेष की जाति कुमुअ पुं [कुमुद] १ (ठा २, ३ - पत्र ८५) । बाग से १२४) For Personal & Private Use Only स इस नाम का एक २ महादेव का Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो कुमुअ-कुरुमाल एक विजय-युगल, भूमि-प्रदेष-विशेष (ठा २, कुम्मी स्त्री [ कूर्मी] १ कछई, कच्छपी। कुरिण न [दे] बड़ा जंगल, भयंकर अटवी ३-पत्र ८०)। ३ न. चन्द्र-विकासी कमल २ नारद की माता का नाम (पउम ११, (णाया १, ३-पत्र ६६: से १,२६)। ४ ५२)। पुत्त पुं[पुत्र दो हाथ ऊँचा इस कुरु पुं. ब. [कुरु] १ आर्य देश-विशेष, जो संख्या-विशेष, कुमुदाङ्ग को चौरासी लाख से नाम का एक पुरुष, जिसने मुक्ति पाई थी उत्तर भारत में है (णाया १,८; कुमा)। गुरगने पर जो संख्या लब्ध हो वह (जो २)। (औप)। २ भगवान् आदिनाथ का इस नाम का एक ५ शिखर-विशेष (ठा )। ६ वि. पृथ्वी में कुंम्ह पुंब. [कुश्मन] देश-विशेष (हे २,७४)। पुत्र (ती १४)। ३ अकर्म-भूमि विशेष (ठा मानन्द पानेवाला। ७ खराब प्रीतिवाला कुम्हड देखो कोहंड (प्राकृ २२)। ६) । ४ इस नाम का एक वंश (भवि) । ५ (से १, २६)। देखो कुमुद। कुम्हंडी देखो कोहंडी (प्राकृ २२)। पुंस्त्री. कुरु वंश में उत्पन्न, कुरु वंशीय (ठा कुमुअ पुं[कुमुद] देव-विशेष (सिरि ६६७)। कुय पुं[कुच] १ स्तन, थन । २ वि. शिथिल ६)। अरा, °अरी देखो नीचे चरा, 'चरी चंद पुं चन्द्र आचार्य सिद्धसेन दिवाकर (वव ७)। ३ अस्थिर (निचू)। (षड्) । खेत्त क्खेत्त न [क्षेत्र] १ की मुनि अवस्था का नाम (सम्मत्त १४१) कुयवा स्त्री [द] वल्ली-विशेष (परण- दिल्ली के पास का एक मैदान, जहाँ कौरव कुमुअंग न [ कुमुदाङ्ग] संख्या-विशेष, . पत्र ३३)। और पाण्डवों की लड़ाई हुई थी। २ कुरु 'महाकाल' को चौरासी लाख से गुणने पर कुरंग पुं[कुरङ्ग] १ मृग की एक जाति देश की राजधानी, हस्तिनापुर नगर (भवि; जो संख्या लब्ध हो वह (जो २)। (जं २)। २ कोई भी मृग, हरिण (पएह १, ती १६) । चंद पुं [°चन्द्र] इस नाम का कुमुआ स्त्री [कुमुदा] १ इस नाम की एक १; गउड)। स्त्री. "गी (पास)। °च्छी स्त्री एक राजा (धम्म प्रावम)। °चर वि[चर] पुष्करिणी (जं ४)। २ एक नगरी (दीव)।। [क्षी हरिण के नेत्र जैसे नेत्रवाली स्त्री, कुरु देश का रहनेवाला । स्त्री. चरा, कुमुइणी स्त्री [कुमुदिनी] १ चन्द्र-विकासी मृगनयनी स्त्री (वा २०)। चरी (हे ३, ३१) । जंगल न [°जङ्गल] कमल का पेड़ (कुमाः रंभा)। २ इस नाम कुरंटय पुं[कुरण्टक] वृक्ष-विशेष, पियवासा कुरु-भूमि, देश-विशेष (भवि; ती ७) । णाह की एक रानी (उप १०३१ टी)। (उप १०३१ टी)। पुं[ नाथ] दुर्योधन (गा ४४३: गउड)। कुमुद देखो कुमुअ (इक)। देव-विमान-विशेष कुरकुर देखो कुस्कुरु। वकृ. कुरकुराइंत दत्त g["दत्त] इस नाम का एक श्रेष्ठी (रंभा)। (सम ३३; ३५) । गुम्म न [गुल्म] देव और जैन महर्षि (उत २: संथा)। मई स्त्री विमान-विशेष (सम ३५)। "पुर न [पुर] कुरय पु [कुरक] वनस्पति-विशेष (पएण [मती] ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की पटरानी (सम नगर-विशेष (इक)। पभा स्त्री [ प्रभा] १-पत्र ३५)। १५२) । राय . [राज] कुरु देश का इस नाम को एक पुष्करिणी (जं ४)। वण कुरय न [कुरबक] पुष्प विशेष (वज्जा राजा (ठा ७)। वह पुं[पति] कुरु देश न [वन मथुरा नगरी के समीप का एक का राजा (उप ७२८ टी)। कुरर पु[कुरर] कुरर-पक्षी, उत्क्रोश (पएह जङ्गल (ती २१)। "गर [कर कुमुद कुरुकुया स्त्री [कुरुकुचा] पाँव का प्रक्षालन १, १, उप १०२६)। (ोध ३१८)। षएड, कुमुदों से भरा हुआ वन (पएह १, ४)। । कुररी स्त्री [दे] पशु, जानवर (दे २, ४०)। कुरुकुरु अक [कुरुकुराय ] 'कुर-कुर' आवाज कुमुदंग देखो कुमुअंग (इक)। कुररी स्त्री [कुररी १ कुरर पक्षी की मादा। करना, कुलकुलाना, बड़बड़ाना । कुरुकुराप्रसि कुमुदग न [कुमुदक] तृण-विशेष (सूम २ गाथा छन्द का एक भेद (पिंग)। ३ मेषी, २, २)। (पि ५५८) । वकृ. कुरुकुराअंत (कप्पू)। मेढ़ी (रंभा)। कुरुकुरिअन [दे] रणरणक, औत्सुक्य (दे कुमुली स्त्री [दे] चुल्ली, चूल्हा (दे २, ३९)। २,४२)। कुम्म पुं[कूर्म] कच्छप, कछुपा (पान)। कुरल पु [कुरल] १ केश, बाल; 'कुरल कुरुगुर देखो कुरकुरु । कुरुगुरेंति (स ५०३)। 'ग्गाम पुं[ग्राम] मगध देश के एक गाँव कुरलीहिं कलिप्रोतमालदलसामलो अइसरिणद्धौ' (सुपा २४ पास)। २ पक्षि-विशेष (जीव १)। कुरुचिल्ल पुं [दे] १ कुलीर, जल-जन्तु-विशेष। का नाम (भग १५)। २ न. ग्रहण, उपादान (दे २, ४१)। देखो कुम्मण वि[दे] म्लान, शुष्क, कुम्हलाया कुरली स्त्री [कुरली] १ केशों की वक्र सटा कुरुविल्ल । हुमा ( दे २, ४०)। (सुपा १; २४)। २ कुरल-पक्षिणी; 'कुरलिब्व कुरुच वि [दे] अनिष्ट, अप्रिय (दे २, ३६)। कुम्मार पुं[कूर्मार] मगध देश के एक गाँव नहंगणे भमई' (पउम १७, ७६)। कुरुड वि [दे १ निर्दय, निष्ठुर (दे २, ६३; का नाम (प्राचा २, १५, ५)। कुरवय [कुरबक] वृक्ष-विशेष, कटसरैया भवि) । २ निपुण, चतुर (दे २,५३; भवि)। कुम्मास पुं[कुल्माष] १ अन्न-विशेष, उरद (गा ६ मा ४०; विक्र २६%; स ४१४; कुमाः कुरुण न [दे] राजा का या दूसरे का धन (प्रोघ ३५६ परह २, ५)। २ थोड़ा भीजा (राज)। हमा मूग वगैरह धान्य (पएह २, ५-पत्र कुरा स्त्री [कुरा] वर्ष-विशेष, अकर्म भूमि- कुरुमाल सक[दे] टटोलना, धीरे धीरे हाथ १४८)। विशेष (ठा २, ३, १०)। फेरना। वकृ, कुरुमालत (कुप्र ४४) । For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरुय-कुलाल पाइअसद्दमण्णवो २५५ कुरुय न [दे.कुरुक] माया, कपट (सम ७१)। (५)। जाय वि [जात] कुलीन, खान- हर न [गृह] पितृगृह, पिता का घर (गा कुस्या स्त्री [दे. कुरुका] शरीर-प्रक्षालन, दानी कुल का (सुपा ५९८ पास)। जुअ १२१; सुपा ३६४ से ६, ५३) । राजीव स्नान (वब १)। वि [युत] कुलोन (पव ६४)। °णाम न वि [जीव अपने कुल की बड़ाई बतला कुरुर देखो कुरर (कुमा)। [नामन] कल के अनुसार किया जाता नाम कर पाजीविका प्राप्त करनेवाला (ठा ५,१) । कुरुल पु[दे] १ कुटिल केश, टेढ़ा बाल (दे (अणु) । "तंतु पुं[सन्तु] कुल-सतान, | यि न [ीय पक्षो का घर, नीड़ (पान)। २, ६३; भवि) । २ वि. निर्दय । ३ निपुण, कुल-संतति (वव ६) । तिलग पुन यार [चार] कुलाचार वंश-परम्परा चतुर (दे २, ६३)। [तिलक] कुल में श्रेष्ठ (भग ११, ११)। से चला आता रिवाज (वव १)। रिय पुं कुरुल अक [कु] पावाज करना, कौए का "त्थ वि [स्थ] कुलीन, खानदानी वंश का [य] पितृ-पक्ष की अपेक्षा से प्रार्य (ठा ३, बोलना । कुरुलहि (भवि)। (णाया १, ५)। थेर पुं[स्थविर] श्रेष्ठ १)। लय वि [लय] गृहस्थों के घर कुरुलिअ न [कुत] वायस का शब्द, कौए । साधु (पंचू) । दिगयर पुं ["दिनकर] भीख मांगनेवाला (सूत्र २, ६)। की आवाज (भवि)। कुल में श्रेष्ठ (कप्प)। दीव पु [दीप] कुल कर पुं[कुलङ्कर] इस नाम का एक राजा कुरुब देखो कुरु (पउम ११८, ८३; भवि)। कुल प्रकाशक, कुल में श्रेष्ठ (कप)। देव (पउम ८२, २६)। कुरुवग देखो कुरवय (सुपा ७७)। पुं["देव] गोत्र-देवता (काल) । देवया कुलप पुंकुलम्प इस नाम का एक अनार्य कुरुविंद पुं[कुरुविन्द] १ मरिण-विशेष, रत्न स्त्री [देवता] गोत्र-देवता (सुपा ५६७)। देश । २ उसमें रहनेवाली जाति (सूम २,२)। की एक जाति (गउड) । २ तृण-विशेष "देवी स्त्री [ देवी] गोत्र-देवी (सुपा ६०२)। कुलकुल देखो कुरकुर । कुलकुलइ (भवि) । (पएण १; पएह १, ४-पत्र ७८)। ३ धम्म पुं [धर्म] कुलाचार (ठा १०) । कुलक्ख पुं[कुलक्ष] १ एक म्लेच्छ देश । कुटिलिक-नामक रोग, एक प्रकार का जंघा पव्यय [पर्वत पर्वत-विशेष (सम ६६ २ उसमें रहनेवाली जाति (पएह १, १; इक)। रोगः 'एणीकुरुविदचत्तवट्टाणुपुत्वजंघे' (ोप)। सुपा ४३)। पुत्त पुं [पुत्र] वंश-रक्षक वित्त पुंन [वित भूषण-विशेष (कप्प)। कुलाग्घ पुं [कुलार्घ] एक अनार्य देश (पव पुत्र (उत्त १)। बालिया स्त्री [बालिका] कुरविंदा स्त्री [कुविन्दा] इस नाम की एक २७४)। कुलोन कन्या (सुर १, ४३; हेका ३०१)। वणिगभायां (पउम ५५, ३८)। कुलडा स्त्री [कुलटा] व्यभिचारिणी स्त्री, भूसण न [भूषण] १ वंश को दिपाने या पुंश्चली (सुपा ३८४)। कुरुविल्ल [दे] देखो कुरुचिल्ल (पान)। चमकाने वाला। २ पृ. एक केवली भगवान् कुलत्थ पुंस्त्री [कुलत्थ] अन्न-विशेष, कुलथी कुल पुंन [कुल] १ कुल, वंश, जाति (प्रासू । (पउम ३६,१२२)। मय पु[द] कुल का १७)। २ पैतृक वंश (उत्त ३) । ३ परिवार, अभिमान (ठा १०)। मयहारेया, महत्त (ठा ५, ३ णाया १,५) । स्त्री. त्था (श्रा कुटुम्ब (उप ६, ७७)। ४ सजातीय समूह रिया स्त्री [ महत्तरिका] कुल में प्रधान (पएह १,३)। ५ गोत्र (सुपा ८ ठा ४,१)। स्त्री, कुटुम्ब की मुखिया (सुपा७६; आवम)। कुलफसण [दे] कुल-कलंक, कुल का दाग, ६ एक प्राचार्य की संतति (कप्प)। ७ घर, य देखो ज (सुपा ५६८)। रोग पुं कुल की आपकीर्ति (दे २, ४२; भवि)। गृह (कप्पः सूत्र १, ४, १)। ८ सान्निध्य, [रोग] कुल व्यापक रोग (जं २)। वइ पुं कुलय देखो कुडव (तंदु २६ अणु १५१)। सामीप्य (प्राचा)। ६ ज्योतिष-शास्त्र-प्रसिद्ध [°पति] तापसों का मुखिया, प्रधान संन्यासी कुलय न [कुलक] तीन या चार से ज्यादा नक्षत्र-संज्ञा (सुज १०, इक); 'कुलो, कुलं' (सुपा १६०; उप ३१) । वंस [°वंश]/ परस्पर सापेक्ष पद्य (समत्त ७६) । (हे १, ३३) । °उव्व पु [पूर्व] पूर्वज, . कुल रूप वंश, वंश (भग ११, १०)। वंस कुलल पुं[कुलल] १ पक्षि-विशेष (पएह १, पूर्व-पुरुष (गउड) । कम पुं [क्रम] पुं[वश्य] कुल में उत्पन्न, वंश में संजात १)। २ गृद्ध पक्षी (उत्त १४)। ३ कुरर कुलाचार, वंश-परम्परा का रिवाज (सट्टि (भग ६, ३३) । वडिसय यु वतंसक] पक्षी (सूत्र १, ११)। ४ मार्जार, बिडाल; ७४) । कर देखो नीचे गर (ठा १०)। कुल-भूषण, कुल-दीपक (कप्प)। वहू स्त्री जहा कुक्कुडपायस्स पिच्चं कुललो भयं' 'कोडि स्त्री [कोटि] जाति-विशेष (पव। [वधू] कुलोन स्त्री, कुलाङ्गना (आव ५ ! (दस ४)। १५१; ठा ; १०) । कम देखो कम पि ३८७) । संपण्ण वि [संपन्न] कुलीन, । कुललय पुन [दे] कुल्ला, गंडूष (पव ३८) । (सट्ठि ६) । गर [कर] कुल की स्थापना __ खानदानी कुल का (प्रौप)। समय पुं| कुलव देखो कुडव (जो २)। करनेवाला, युग के प्रारम्भ में नीति वगैरह की [समय] कुलाचार (सूम १, १, १)। | कुलसंतइ स्त्री [दे] चुल्ली, चूल्हा (दे २, ३६)। व्यवस्था करनेवाला महापुरुष (सम १२६ | "सेल पुं [शैल] कुल-पर्वत (सुपा ६००% | कुलाअल पुं[कुलाचल] कुलपर्वत (त्रि ८२)। धरण ५)। गेह न [गेह] पितृ-गृह (सरण)। सं ११६) । °सेलया स्त्री [शैलजा कुल कुलाण देखो कुणाल (राज)। घर न[गृह] पितृ-गृह (ग्रौप)। ज वि पर्वत से निकली हुई नदी; कुलंसलयावि कुलाल j[कुलाल] कुम्भकार, कुम्हार (पामा [ज] कुलीन; खानदानी कुल में उत्पन्न | सरिया नूणं नीययरमणुसरई' (सुपा ६००)। गउड) । For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ पाइअसद्दमहण्णवो कुलाल-कुसी कुलाल पुं[कुलाट] १ मार्जार, बिलाड़। मर्थ, अशक्त । ३ छिन्न-पुच्छ, जिसकी पूँछ कुवेणी स्त्री [कुवेणी शस्त्र-विशेष, एक प्रकार २ ब्राह्मण, विप्र (सूप २, ६)। कट गई हो वह (दे २, ६१)। का हथियार (पएह १, ३-पत्र ४४) । कुलिंगाल पु [कुलाङ्गार कुल में कलंक | कुल्ल पुंन [दे] चूतड़; गुजराती में 'कुलो' | कुवेर देखो कुबेर (महा)। लगानेवाला, दुराचारी (ठा ४, १-पत्र (सुख ८, १३)। कुव्य सक [कृ, कुर्व] करना, बनाना । कुव्वइ १८५)। कुल्ल अक [कू ] कूदना । वकृ. 'मारुईरक्ख (भग)। भूका. कुवित्था (पि ५१७) । वकृ. कुलिअन [कुलिक खेत में घास काटने का साण बलं मुक्कवुक्कारपाइक्ककुल्तबग्गंतसे कुव्वंत, कुञ्यमाण (प्रोघ १५ भाः पाया छोटा काष्ठ-विशेष (अणु ४८)। णामुह (पउम ५३, ७६)। कुल्लउर न [कुल्यपुर] नगर-विशेष (संथा)। कुलिक । पु [कुलिक] १ ज्योतिष-शास्त्र कुस पुंन [कुश] तुरण-विशेष, दर्भ, डाभ, कुलिय) में प्रसिद्ध एक कुयोग (गण १८) कुल्लड न [दे] १ 'चुल्ली, चूल्हा (दे २,६३)। २ न. एक प्रकार का हल (पण्ह १, १)। २ छोटा पात्र, पुड़वा (दे २, ६३, पान)। काश (विपा १, ६ निचू १)। २ पं दाशकुल्लरिअ पुं[दे] कान्दविक, हलवाई, मिठाई रथी राम के एक पुत्र का नाम (पउम १००, कुलिय न [कुड्य १ भीत, भित्ति (सूत्र १, २)। ग्ग [ ] दर्भ का अग्र-भाग जो बनानेवाला (दे २, ४१)। २, १) । २ मिट्टी की बनाई हुई भीत (बृह कुल्लरिया स्त्री [दे] हलवाई की दुकान अत्यन्त तीक्ष्ण होता है (उत्त ७) । गगनयर २; कस)। (प्रावम)। न [ग्रिनगर नगर-विशेष, बिहार का एक कुलिया स्त्री [कुलिका] भीत, कुज्य (बृह २)। कुल्ला स्त्री [कुल्या] १ जल की नाली, सारिणी | नगर, राजगृह, जो आजकल 'राजगिर' नाम कुलिर पुंकुलिर मेष वगैरह बारह राशि (कुमाः हे २, ७६)। २ नदी, कृत्रिम नदी से प्रसिद्ध है (पउम २, ६८)। 'ग्गपुर न में चतुर्थ राशि (पउम १७, १०८) । [यपुर] देखो पूर्वोक्त अर्थ (सुर १,८१)। (कप्पू)। दृ पुं[वर्त] आर्य देश-विशेष (सत्त ६७ कुलिव्वय पुंकुटिव्रत] परिव्राजक का एक | कुल्लाग पुं[कुल्याक] संनिवेश-विशेष, मगध देश का एक गाव (कप्प)। टी)। 8 [य] आर्य देश-विशेष, जिसकी भेद, तापस-विशेष, घर में ही रहकर क्रोधादि। राजधानी शौर्यपुर थी (इक)। त्त न [क्त, का विजय करनेवाला (औप)। कुल्ली देखो कुल्ला (धर्मवि ११२)। कुल्लुडिया स्त्री [कुल्लुडिका] घटिका, घड़ी ति] प्रास्तरण-विशेष, एक प्रकार का कुलिस पुंन [कुलिश] वज्र, इन्द्र का मुख्य (सूस १,४,२)। विछौना (णाया १, १-पत्र १३) । त्थलप्रायुध (पामा उप ३२० टी)। "निणाय पुं कुल्लुरी स्त्री [दे] खाद्य-विशेष, गुजराती- पुर न [स्थलपुर नगर-विशेष (पउम २१, [निनाद] रावण का इस नाम का एक सुभट 'कुलेर' (पव ४)। ७६) । मट्टिया स्त्री [मृत्तिका] डाभ के (पउम ५६, २६) । मज्झ न [ मध्य] साथ कुटी जाती मिट्टी (निचू १८)। वर पुं एक प्रकार की तपश्चर्या (पउम २२, २४)। । | कुल्ह पुं[दे] शृगाल, सियार (दे २, ३४)। [वर] द्वीप-विशेष (अणु-टी)। कुलीकोस पुं[कुटीक्रोश पक्षि-विशेष (पएह कुवणय न [दे] लकुट, यष्टि, लड़की, छड़ी | कुस वि [कौश] दर्भ का बना हुआ (प्राचा १, १-पत्र ८)। (राज)। २, २, ३, १४)। कुलीण वि [कुलीन] उत्तम कुल में उत्पन्न | कुवलय न [कुवलय] १ नोलोत्पल, हरा रंग कुसण न [द] तीमन, पाद्र' करना (दे २, कुवलय न [कुवलय] १ नीलोत्पल, हरा रंग | (प्रासू ७१)। का कमल (पान)। २ चन्द्र-विकासी कमल | ३५)। कुलीर पुं [कुलीर] जन्तु-विशेष (पान दे २ | (श्रा २७) । ३ कमल, पद्म (गा ५)। कुसण न [दे] गोरस (पिंड २८२)। ४१)। कुवली स्त्री [दे] वृक्ष-विशेष (कुप्र २४६)। कुसणिय वि [दे] गोरस से बना हुआ करम्बा कुलुंच सक [दह , म्ल] १ जलाना। २ कुविद पुं[कुविन्द] तन्तुवाय, कपड़ा बुनने | आदि खाद्य, 'कुसु (? स) रिणयंति' (पिंड वाला (सुपा १८८)। वल्ली स्त्री [°वल्ली]] म्लान करना। संकृ. 'मालइकुसुमाई कुलुं २८२ टी)। चिऊण मा जारिण णिव्वुनो सिसिरो' (गा वल्ली-विशेष (परण १-पत्र ३३)। कुसल वि [कुशल] १ निपुण, चतुर, दक्ष, (४२६)। कुविय वि [कुपित] क्रुद्ध, जिसको गुस्सा अभिज्ञ (आचाः गाया १, २) । २ न. सुख, हुआ हो वह (पएह १, १; सुर २, ५, हेका कुलुक्किय वि [दे] जला हुआ, 'विरह्दवग्गि हित (राय)। ३ पुण्य (पंचा ६)। ७३; प्रासू ६४)। कुलुक्कियकायहो' (भवि)। कुविय देखो कुप्प = कुप्य (पएह १, ५; सुपा कुसला स्त्री [कुशला] नगरी-विशेष, विनीता, कुलोवकुल पुं [कुलोपकुल] ये चार नक्षत्र४०६)। साला स्त्री [शाला] बिछोना अयोध्या (आवम)। अभिजित, शतभिषा, पाद्री और अनुराधा प्रादि गृहोपकरण रखने की कुटिया, घर का कुसार देखो कूसार (स ६८९)। (सुज १०, ५)। वह भाग जिसमें गृहोपकरण रखे जाते हैं कुसी स्त्री [कुशी] लोहे का बना हुआ एक कुल्ल [दे] १ ग्रीवा, कण्ठ। २ वि. प्रस- । (पएह १, ४–पत्र ११३) । हथियार (दे ८, ५)। For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसीलव-कुहेडअ पाइअसहमण्णवो २५७ कुसीलव पुं [कुशीलव] अभिनयकर्ता नट ! कुसुमसंभव कुसुमसम्भव] वैशाख मास कुहण वि [क्रोधन] क्रोधी, क्रोध करनेवाला का लोकोत्तर नाम (सुज्ज १०, १६)। (पण्ह १, ४-पत्र १००)। कुसुंभ पुंन [कुसुम्भ] १ वृक्ष-विशेष, कसुम, कुसमाल वि [कुसमवत् ] फूलवाला (स कुणी स्त्री [दे] कूपर, हाथ का मध्य-भाग बरे (ठा ८-पत्र ४०५) । २ न. कुसुम का (सुपा ४१२)। पुष्प, जिसका रंग बनता है (जं २)। ३ कुस्माल पुंदे] चोर, स्तेन (दे २, १०)। कुहय पुंन [कुहक] १ वायु-विशेष, दौड़ते रंग-विशेष (श्रा १२)। कुसुमालिअ वि [६] शून्य-मनस्क, भ्रान्त हुए अश्व के उदर-प्रदेश के समीप उत्पन्न चित्त (दे २, ४२)। होता एक प्रकार का वायुः 'घरगज्जियकुसुंभिअ वि [कुसुम्भित कुसुम्भ रंगवाला कुसुमिअ वि [कुसुमित] पुष्पित, पुष्प हयकुहए (गच्छ २)। २ इन्द्रजालादि कौतुक; (श्रा १२)। युक्त, खिला हुप्रा (गाया १, १; पउम ३३, 'अलोलुए अक्कुहए अमाई (दस ६, ३)। . कुसुंभिल पुं[दे] पिशुन, दुर्जन, चुगलखोरी कुहर न [कुहर] १ पर्वत का अन्तराल (दे २, ४०)। कुसुमिल्ल वि [ कुसुमवत् ] ऊपर देखो (णाथा १,१-पत्र ६३); 'गेहंव वित्तरहिनं कुसुंभी स्त्री [कुसुम्भी] वृक्ष-विशेष, कुसुम (सुपा २२३)। णिज्जरकुहरं व सलिलसुरणविथ (गा का पेड़ (पात्र)। कुसुर [दे] देखो झसुर (हे २, १७४ टि)। ६०७) । २ छिद्र, बिल, विवर (परह १, ४, पासू २) । ३ पुं. ब. देश-विशेष (पउम १८, कसुम अक [ कुसुमय ] फूल पाना । कुसु- कुसूल पुं [कुशूल] कोष्ठ, अन्न रखने के लिए मंति (संबोध ४७)। मिट्टी का बना एक प्रकार का बड़ा पात्र कुहाड [कुठार] कुल्हाड़, फरसा (विपा १, (पान)। कुसुम न [कुसुम १ पुष्प, पूल (पाप्रा प्रासू ६ पउम १६, २४; स २:४)। कुस्सुमिण पुं [कुस्वप्न] दुष्ट स्वप्न (संबोध ३४) । २. इस नाम का भगवान् पद्मप्रभ कुहाडी स्त्री [कुठारी] कुल्हाड़ी, कुठार (उप ४२)। का शासनाधिष्ठायक यक्ष (संति ७)। केउ पु । कुह अक [कुथ ] सड़ जाना, दुर्गन्धी होना। [केतु] अरुणवर द्वीप का अधिष्ठायक देव कुहावणा स्त्री [कुहना] १ आश्चर्य-जनक, ( दीव )। चाय, चाव पुं[चाप] कुहइ (भवि; हे ४, ३६५) । दम्भ-क्रिया, दम्भ-चर्या । २ लोगों से द्रव्य कामदेव, मकरध्वज ( सुपा ५६; ५३०; कुह [कुह] वृक्ष, पेड़, गाछ: 'कुहा महीरुहा हासिल करने के लिए किया हुआ कपट-भेष महा)। ज्झय [ध्वज वसन्त ऋतु । वच्छा' (दसनि १)। (जीत)। (कुमा)। °णयर न ["नगर नगर-विशेष, कुह देखो कहं (गा ५०७ अ)। कुहिअ वि [दे] लिप्त, पोता हुआ (दे २, पाटलिपुत्र, आजकल जो 'पटना' नाम से कुहंड किष्माण्डा व्यन्तर देवों की एक ३५)। प्रसिद्ध है (आवम)। "दंत पृ[दन्त एक जाति (प्रौप)। | कुहिअ वि [कुथित] १ थोड़ी दुर्गन्धवाला तीर्थङ्कर देव का नाम, इस अवसर्पिणी काल | कुहंड न [कृष्माण्ड] १ कुम्हड़ा, पेठा, कोहँड़ा (गाया १, १२–पत्र १७३)। २ सड़ा के नववे जिनदेव, श्री सुविधिनाथ (पउम १, (कम्म ५, ८५)। हुआ (उप ५९७ टी)। ३ विनष्ट (गाया ३)। दाम न [दामन] फूलों की माला कुहंडिया स्त्री [कूष्माण्डी] कोहड़ा का गाछ १,१)। पूइय वि [पूतिक] अत्यन्त सड़ा (उवा)। धणु न [धनुष् ] कामदेव (कुमा)। (राय)। हुमा (पएह २, ५)। "पुरन [पुर] देखो ऊपरणयर (उप ४८६)। कुहक्क देखो कहय (धर्मवि १३५, कुप्र ८)। __ कुहिणी स्त्री [दे] १ कूपर, हाथ का मध्य बाण पुं[बाण] कामदेव (सुर ३, १६२; कुहग 3 3 7 भाग । २ रथ्या, महल्ला (दे २, ६२)। पाप्र)। रअ [रजस् ] मकरन्द (पान)। कुहग पु [कुहक] कन्द-विशेष, 'लाहिणीहू कुहिल पुंस्त्री [कुहुमत् ] कोयल पक्षी (पिंग)। रद पुं[रद] देखो दंत (पउम २०, ५)। य थीहू य, कुहगा य तहेव य' (उत्त ३६, कुहु स्त्री [कुहु] कोकिल पक्षी की आवाज 'लया स्त्री [°लता] छन्द-विशेष (अजि १५)। | ६६ का)। (पिंग)। 'संभव पुं[संभव] मधुमास, चैतमास | कुहड वि [दे] कुब्ज, कूबड़ा (दे २, ३६)। कुहुण देखो कुहण = कुहन (उत्त ३६, (अणु) । °सर पुं [शर] कामदेव (सुर ३, | कुहण' [कुहन] १ वृक्षों का एक प्रकार, वृक्षों ९६ का )। १०६)। अिर पुं[कर] इस नाम का की एक जातिः ‘से किं तं कुहणा ? कुहण कुहुव्वय पुं [कुहुव्रत कन्द-विशेष (उत्त ३६, एक छन्द (पिंग) । उह पुं[युध काम, प्रणेगविहा पराणत्ता' (पएण १-पत्र ३५)। ६८)। कामदेव (स ५३८)। "वई स्त्री [वती] २ वनस्पति-विशेष । ३ भूमि-स्फोट (पएण कुहेड पुं[दे] ओषधी-विशेष, गुरेटक, एक इस नाम की एक नगरी (पउम ५, २६)। १--पत्र ३०; प्राचा)। ४ देश-विशेष । ५ प्रकार का हरॆ का गाछ (दे २, ३५) । सिव पुं [सव] किंजल्क, पराग, पुष्प- इसमें रहनेवाली जाति (पएह १, १-पत्र कुहेड ) [कुहेट, क] १ चमत्कार रेणु (णाया १, १; औप)। १४. इक)। कुहेडअ) उपजानेवाला मन्त्र-तन्त्रादि ज्ञान; For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ पाइअसद्दमहण्णवो कुहेडग-कूव 'कुहेडविजासवदारजीवी न गच्छई सरणं (विपा १, २)। जाल न [जाल] पोखे कूय प्रक[कूज ] अव्यक्त आवाज करना। तम्मि काले' (उत्त २०, ४५) । २ आभारणक, का जाल, फाँसी (उत्त १९) । तुला स्त्री | वकृ. कूयंत, कूयमाण (प्रोघ २१ भा विपा वक्रोक्ति-विशेष; 'तेसुन विम्यइ सयं पाह- [तुला झूठी नाप, बनावटी नाप (उवा टुकुहेडएहि व' (पब ७३ टी; बृह १)। १)। पास न [पाश] एक प्रकार की कूय पुं [कूप] १ कूप, कुंआ (गउड)। २ घी, कुहेडग पुन [दे] अजमा (पंचा ५, ३०)। मछली पकड़ने का जाल (विपा १, ८)। तेल वगैरह रखने का पात्र, कुतुप (णाया १, कुहेडगा स्त्री [कुहेटका] कन्द-विशेष, °पओग पुं[प्रयोग] प्रच्छन्न पाप (प्राव १-पत्र ५८ प्रौप) । ददुर पुं [दर्दुर] पिण्डालु (पव ४)। ४)। लेह पुं [°लेख] १ जाली लेख, १ कूप का मेढ़क । २ वह मनुष्य जो अपना कूअ देखो कूव = कूप (चंड; हम्मीर ३०)। दूसरे के हस्ताक्षर-तुल्य अक्षर बना कर धोखे- घर छोड़ बाहर न गया हो, अल्पज्ञ (उप कूअमन [कूजन] १ अव्यक्त शब्द । २ वि. बाजी करना । २ दूसरे के नाम से भूठो चिट्ठी ६४८ टी । देखो कूव। ऐसी आवाज करनेवाला (ठा ३, ३)। वगैरह लिखना (पडि; उवा) । वाहि पुं कूर वि [क्रूर] १ निर्दय, निष्कृप, हिंसक कूअणया स्त्री [कूजनता] कूजन, अव्यक्त ! [°वाहिन्] बैल, बलीवदं (प्राव ५)। (पएह १, ३)। २ भयंकर, रौद्र (गाया १, शब्द (ठा ३, ३)। सक्ख न [°साक्ष्य भूठी गवाही (पंचा ८; सूत्र १, ७)। ३ पुं. रावरण का इस नाम कूइआ स्त्री [कूपिका कूई, छोटा कूप (चंड)। १)। सक्खि वि [साक्षिन भूठी साक्षी का एक सुभट (पउम ५६, २६) । कूइय न [कूजित] अव्यक्त आवाज (महाः देनेवाला (श्रा १४)। सक्खिज्ज न [सा कूर पुंन [कूर] वनस्पति-विशेष (सूम २, ३, सुर ३, ४८)1 क्ष्य] झूठी गवाही (सुपा ३७५) । सामलि | १६) । कूइया स्त्री [कूजिका] किवाड़ आदि का स्त्री [शाल्मलि] १ वृक्ष-विशेष के आकार | कूर न [कूर] भात, मोदन (दे २, ४३) । अव्यक्त आवाज (पिंड ३५६ टी)। का एक स्थान, जहाँ गरुड जातीय देवों का गडुअ, गड् डअ पुं [गडुक एक जैन कूचिआ स्त्री [कूर्चिका] दाढ़ी-मूंछ का बाल निवास है (सम १३ ठा २, ३)। २ नरक महर्षि (प्राचा; भाव ८)। (संबोध ३१)। स्थित वृक्ष-विशेष (उत्त २०)। गार न कूर प्र[ईषत् ] थोड़ा, अल्प (हे २, १२६ कूचिया स्त्री [कूचिका] बुद्बुद, बुलबुला, ["गार] १ शिखर के आकारवाला घर षड्)। पानी का बुलका (विसे १४६७)। (ठा ४, २) । २ पर्वत पर बना हुआ घर | कूरपिउड न दे] भोजन-विशेष, खाद्य-विशेष कूज अक [ कूज ] अव्यक्त शब्द करना । (पाचा २, ३, ३)। ३ पर्वत में खुदा हुआ (पावम)। कूजाहि (चारु २१)। वकृ. कूर्जत (मै २६)। घर (निचू १२)। ४ हिंसा-स्थान (ठा ४,२)। | कूरि वि [ऋरिन्] १ निर्दयी, कर चित्तवाला। कूजिअ न [कूजित अव्यक्त प्रावाज (कुमाः "गारसाला स्त्री [गारशाला] षड्यन्त्र २ निर्दय परिवारवाला (पएह १, ३) । मै २६)। वाला घर, षड्यन्त्र करने के लिए बनाया कूल न [दे] सैन्य का पिछला भाग (दे २, कूड सक [ कूटय् ] १ भूठा ठहराना । २ हुआ घर (विपा १, ३) । हच्च न [हित्य] अन्यथा करना। कूड़े (अणु ५० टी)। ४३ से १२, ६२)। पाषाण-भय यन्त्र की तरह मारना, कुचल कूल न [कूल] तट, किनारा (पाय; णाया डालना (भग १५)। कूड [दे. कूट] पाश, फाँसी, जाल (दे २, १, १६) । धमग पुंध्मायक एक प्रकार ४३; रायः उत्त ५; सूत्र १, ५, २)। कूड न [कूट] १ पाश, जाल, फ.स, फंदा (सूत्र का वानप्रस्थ जो किनारे पर खड़ा हो आवाज कूड पुंन कूट] १ असत्य, छल-युक्त, झूठा १, ५, २, १८, राय ११४)। २ लगातार कर भोजन करता है (प्रौप) । वालग, 'कूडतुलकूडमारणे' (पडि)। २ भ्रान्ति-जनक २७ दिन का उपवास (संबोध ५८)। वालय पुं [बालक एक जैन मुनि (आव; वस्तु (भग ७, ६)। ३ माया, कपट, छल, कूडग देखो कूड (प्रावम)। काल)। दगा, धोखा (सुपा ६२७)। ४ नरक (उत्त कूण अक [कूणय ] संकुचित होना, संकोच कूलकसा स्त्री [कूलङ्कषा] नदी, तीर को ५) । ५ पोड़ा-जनक स्थान, दुःखोत्पादक पाना (गउड)। तोड़नेवाली नदी (वेणी १२०)। जगह (सूअ १, ५, २, उत्त ६)। ६ शिखर, | कूणि वि [कूणित] संकोच-प्राप्त, संकोचित कूव पुंन [दे] १ चुराई चीज की खोज में टोंच (ठा ४, २, रंभा) । ७ पर्वत का मध्य भाग (जं २)। ८ पाषाणमय यन्त्र-विशेष, जाना (दे २, ६२, पान)। २ चुराई चीज (गउड)। कूणिअ वि [दे] ईषद् विकसित, थोड़ा खिला मारने का एक प्रकार का यन्त्र (भग १५)। को छुड़ानेवाला, छीनी हुई चीज को लड़ाई वगैरह कर वापस लेनेवाला; 'तए णं सा ९ समूह, राशि (निर १, १) । कारि वि | हुआ (दे २, ४४)। दोवदी देवी पउमणामं एवं वयासी-एवं [कारिन्] धोखेबाज, दगाखोर (सुपा ६२७)। कूणि पुंकूणिक] राजा श्रेणिक का पुत्र खलु देवा० जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वारव'ग्गाह पुं [ग्राह] धोखे से जीवों को (प्रौप) । तीए एयरीए कराहे रणामं वासुदेवे मम फंसानेवाला (विपा १, २)। स्त्री. "ग्गाहणी कूणिय वि [कूणित] सड़ा हुपा (कुप्र १६०)।। प्पियभाउए परिवसति; तं जइ णं से छरह Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूव-केक्कसी पाइअसद्दमण्णवो २५९ मासाणं ममं कूर्व नो हब्वमागच्छइ, तए णं के वि [कियत् ] कितना ? 'चिरेण अ किन्नरेन्द्र और किंपुरुषेन्द्र की अग्र-महिषी का अहं देवा० जं तुमं वदसि तस्स प्राणाप्रोवा- [चिरेण] कितने समय में ? (अंत २४)। | नाम, इन्द्राणी-विशेष (भग १०, ५ णाया यवयरणणिद्देसे चिट्ठिस्सामि' (गाया १, - चिरं प्र[चिरं] कितने समय तक ? (पि । २)। "माल न [ माल] वैताब्य पर्वत पर १६-पत्र २१५); 'दोवईए कूवग्गाहा' (उप १४६) । चिरेण देखो चिरेण (पि स्थित इस नाम का एक विद्याधर-नगर (इक)। ६४८ टी; दे ६, ६२)। १४६)। दूर न [दुर कितना दूर ? केउ पुं[दे] कन्द, काँदा ( दे २,४४)। कूव पुंकूप, क] १ कूप, कुआ, 'केदूरे सा पुरी लंका ? (पउम ४८, ४७)। केउ पुंन [केतु] एक देव विमान (देवेन्द्र कूवग गर्त (प्रासू ४५) । २ स्नेह-पात्र, महालय वि [°महालय] कितना बड़ा ? १३४)। कूवय ) कुतुप, कुप्पा (वजा ७२, उप (गाया १, ८) । महालिय वि [°महत् ] केउग) पुं[केतुक] पाताल-कलश-विशेष ४१२) । ३ जहाजका मध्य स्तम्भ, जहापर पाल कितना बड़ा ? (पएण २१)। महिड्ढिय केउय) (सम ७१, ठा ४,२–पत्र २२६)। बाधा जाता है (प्रौपा गाया १,८)। तुला वि [महद्धिक] कितनी बड़ी ऋद्धिवाला केऊर पुन [केयूर] १ हाथ का आभूषणस्त्री [तुला] कूपतुला, टेकुवा (दे १, ६३; (पि १४६)। विशेष, अङ्गद, बाजूबन्द (पान भग ६,३३)। ८७) । मंडुक्क पुं [मण्डूक] १ कूप का केअइ केकय देश-विशेष, जिसका प्राधा २ पुं. दक्षिण समुद्र का पाताल-कलश (पव मेढक । २ अल्पज्ञ मनुष्य, जो अपना घर भाग आर्य और आधा भाग अनार्य है, सिन्धु २७२)। छोड़ बाहर न जाता हो (निचू १)। देश की सीमा पर का देश (इक); 'केयइ- केऊरपुत्त पुं[गाय तथा भैंस का बच्चा कूवय पुं [कूपक] देखो कूध = कूप (रयरण अड्ढे च पारियं भरिणयं' (परण १; सत्त ६७ | (संक्षि ४७)। ३२)। स्वनाम-प्रसिद्ध एक जैन मुनि (अंत । केऊव पुं [केयूप] दक्षिण समुद्र का एक केअई स्त्री [केतकी] वृक्ष-विशेष, केवड़ा का पालाल-कलश (इक)। कूवर पुन [कूवर] १ जहाज का एक अवयव, वृक्ष (कुमाः दे ८, २५)। केंकाय अक [केकाय ] 'के-के आवाज जहाज का मुख-भागा 'संचुरिणयकट्ठकूवरा' केअग । [केतक] १ वृक्ष-विशेष, केवड़ा __ करना। वकृ. 'पेच्छइ तमो जड़ागि केसायंत (णाया १, ६-पत्र १५७)। २ रथ या केअय । का गाछ, केतकी (गउड)। २ महोपडियं' (पउम ४४,५४)। गाड़ी वगैरह का एक अवयव, युगन्धर (से न. केतकी-पुष्प, केवड़ा का फूल (गउड) । ३ केसुअ देखो किंसुअ (कुमा)। १२, ८४)। चिन्ह, निशान (ठा १०)। केकई स्त्री [कैकयी] १ राजा दशरथ की एक कृवल नदजवन-वस्त्र (द २,४३)। श्री श्री कितकी12 केवडा का गाछ या रानी, केकय देश के राजा का कन्या (पउम कूविय न [कूजित अव्यक्त शब्द, 'तह कहवि पौधा । २ केवड़ा का फूल (राय ३४)। २२, १०८ उप पृ ३७)। २ आठवें वासुदेव कुणइ सो सुरयकूवियं तप्पुरो जेण' (सुपा " केअल देखो केवल (अभि २६) । की माता (सम १५२)। ३ अपर-विदेह के ५८)। कूविय पुं[कूपिक] इस नाम का एक संनि विभीषण-वासुदेव की माता (प्रावम) । केअव देखो कइअव - कैतवः 'जं के प्रवेण वेश-गांव (मावम)। पिम्म (गा ७४४)। केकय पुंकेकय] १ देश-विशेष, यह देश केआ स्त्री [दे] रज्जु, रस्सी (दे २, ४४; कूविय विदे] मोष-व्यावर्तक, चुराई हुई प्राचीन वाहीक प्रदेश के दक्षिण की ओर चीज की खोज कर उसे लानेवाला (णाया भग १३, ६)। तथा सिंधु देश की सीमा पर स्थित है। २ इस देश का रहनेवाला (पराह १,१)। ३ १,१८-पत्र २३६)। २ चोर की खोज केआर पु[केदार] १ क्षेत्र, खेत (सुर २, करनेवाला (पाया १, १)। ७८) । २ पालवाल, क्यारी (पापः गा केकय देश का राजा (पउम २२, १०८)। कूविया स्त्री [कूपिका] १ छोटा कूप (उप ६६०)। | केकसिया स्त्री [कैकसिका] रावण की माता ७२८ टी) । २ छोटा स्नेह-पात्र, कुप्पी (राज)। केआरवाण पु[३] वृक्ष-विशेष, पलाश का का नाम (पउम ७, ५४)। कूवी स्त्री [कूपी] ऊपर देखो, 'एयानो अमय- पेड़ (दे २, ४५)। केका स्त्री [केका] मयुर-वाणी। रव पुं कूवीरो' (उप ७२८ टी)। केआरिआ स्त्री केदारिका] घासवाली व मयूर की आवाज, मयूर-शब्द (णाया कूसार पु[दे] गर्ताकार, गत्तं जैसा स्थान, जमीन, गोचर भूमि (कप्पू)। १, १--पत्र २५)। खड्डाः 'कूसारखलंतपो ' (दे २, ४४, केउ पुं [केतु] १ ध्वज, पताका (सुपा केकाइय न [केकायित] मयूर का शब्द (सुपा पान)। २२६)। २ ग्रह-विशेष (सुज २० गउड)। ७६)। कूहंड पु[कूष्माण्ड] व्यन्तर देवों की एक ३ चिन्ह, निशान (औप)। ४ तूल-सूत्र, रूई केक्कई देखो के कई (पउम ७६, २६)। जाति (पएह १, ४)। का सूता (गउड)। खेत्तन [क्षेत्र मेघ-वृष्टि केकय देखो केकय (पब २७४)। के सक [की] कीनना, खरीदना । केइ, केइ से ही जिसमें अन्न पैदा हो सकता हो ऐसा केक्कसी स्त्री [कैकसी] रावण की माता (पउम (षड्)। क्षेत्र-विशेष (प्राव ६)। मई स्त्री [मती]: १०३, ११४) । For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० पाइअसमणको केकाइय देखो केफाइया १३पत्र ६५) । केरी स्त्री [क्रकटी] वृक्ष-विशेष, करीर का गाछः 'निबंबबोरिकेरि - ( उप १०३१ टो) । केई देखो केकई (पउम १, ६४ २०, केल देखो कयल = कदल (हे १, १६७) । १८४) । [समारचित] साफ किया केमा देखो केाइय (राज) के वि [केय] बेचने की चीज (ठा केड केद्रय [केटभ] १ इस नाम का एक प्रतिवासुदेव राजा ( पउम ५, १५६ ) । २ दैत्य- विशेष (हे १, २४०; कुमा)| "["] श्रीकृष्ण नारायण (कुमा) । केत देखो केन्ति (हास्य १३९ ) । केत्तिअ ) वि [ कियत् ] कितना ? (हे २, केत्तिल । १५७; कुमाः षड् ; महा) । केतुल (अप) ऊपर देखो (कुमाप है ४, ४०८ ) । त्थु (प) अ [कुत्र ] कहाँ, किस जगह ? (हे ४, ४०५) । के देोकेति (हे २ १५७ केम ) (प्रप) देखो कहं (षड् हे ४, केम्व ४१८ ) । } ४०१ केय न [केत ] निशानी ( पव ४) । केयण [न] वस्तु देही चीज २ चंगेरी का हाथा (ठा ४, २ - पत्र २१८ ) 1 ३ संकेत, संकेत स्थान ( वव ४) । ४ धनुष की मूठ ( उत्त ह ) । ५ मछली पकड़ने का जाल ( सू १, ३, १ ) । ६ स्थान, जगह (माना) ७ कवलसंठित' (मूत्र ख पत्र ८२ गा० १७६) । १ गृह, घर । २ चिह्न, केव देखो केक (सुवा १४२)। केव्य [क्रेतव्य] खरीदने योग्य वस्तु ( उत्त ३५, १५) । . केर [दे संबन्धिन] केरय } H ३५९ ३७३; प्राप्रः भवि ) । केश्वन [कैरव] कुमुद सफेद कमल पा सुपा ४९ ) । २ कैतव, कपट (हे १, १५२) । केरिच्छवि [कील] कैसा, किस तरह का? (हे १, १०५: प्रात्रः काल ) । केरिस वि [कीदृश] कैसा, किस तरह का ? (धामा)। केलाइ हुआ (कुमा केलाय सक [समा + रचय ] करना, साफ कर ठीक करना। ४, ६५) । केलास [कैलास] राहू का कृष्ण पुन विशेष (२०)। समारचन केलायइ (हे २ इस केस [कैलास] १ स्वनाम प्रसिद्ध प विशेष (से ६, ७३: गउड कुमा) । नाम का एक नाग राज (इक) । ३ इस नागराज का श्रावास पर्वत (ठा ४, २) ५ मिट्टी का एक तरह का पात्र (निर १, ३) । देखो कइलास । केलिदेखी कलि (कुमा hot [] कन्द- विशेष (उत्त ३६, ६८ गुल १६,९८) । केलि | स्त्री [केलि, ली ] १ क्रीड़ा, खेल, केली ) मजाक (कुमा; पाच कप्पू) । २ परिहास, हाँसी, ठट्ठा (पाश्रः श्रोप) । ३ कामक्रीड़ा (कधीप) "आर वि ["कार] क्रीड़ा करनेवाला विनोदी (कण्पू) काणण [का] दान () "फिल । 'गिल वि ['किल] १ विनोदी, क्रीड़ा-प्रिय (सुवा ३१४)। २. यन्तरजातीय देव विशेष (सुपा ३२०)। ३. स्थावरोष (पउम ५५ १७ ) भवण ["भवन ] क्रीड़ा-गृह, विलास पर (कप्पू) विमान न ['विमान ] विलास महल ( कप्पू ) । "अग ["शयन] काम-शया कप्पू)। 'सेज्जा स्त्री [ शय्या ] काम शय्या ( कप्पू ) । ( १. १२० ) । केली स्त्री [] असती, कुलटा, व्यभिचारिणी स्त्री (२, ४४) लीगल व [कैली किल] केली किन स्थान में उत्पन्न (पउम ५५, १७) । ha देखो के (भगः पए १७ - पत्र ५४५३ विसे २०६१) । (मा For Personal & Private Use Only केाइय- केवलिअ केवइय वि [ कियत् ] कितना ? १३४; विसे ६४६ टी ) । सम केवट पुं [ कैवर्ण ] पोवर मलमार मा (पास २५० २,१० ) । केवड ( प ) देखो केत्तिअ (हे ४, ४०८ कुमा) । केवल वि [केवल ] १ अकेला, असहाय (ठा २, १ प ) । २ अनुपम, अद्वितीय (भग ६, ३३) । ३ शुद्ध, अन्य वस्तु ते यमिश्रित (दस ४४ संपूर्ण परिपूर्ण (निर ११) । ५. अनन्त, अन्त-रहित (विसे ८४ ) । ६ न. ज्ञान-विशेष, सर्वश्रेष्ठ ज्ञान, भूत, भावी वगैरह सर्वं वस्तुओं का ज्ञान, सर्वज्ञता ( विसे ८२७) । ● कप वि [कल्प ] परिपूर्ण, संपूर्ण (ठा ३, ४) । णाण न ['ज्ञान] सर्वश्रेष्ठ ज्ञान, संपूर्ण ज्ञान (ठा २, १ ) । गाणि नाणि वि [' ज्ञानिन] १ केवल ज्ञानवाला, सर्वज्ञ (प्य मीप) । २ पुं. इस नाम के एक अर्हन् देव, प्रतीत उत्सर्पिणी-काल के प्रथम तीर्थंकर ( पव ६ ) । ण्णाण, नाण; नाण देखो णाण (विसे ८२६; ८२ ८२३) । "दंसण न ["दर्शन] परिपूर्ण सामान्य ( कम्म ४, १२) । केवल [केवलम् ] केवल, सिर्फ मात्र ( स्वप्न ε२; ६३; महा) । केवल सक [ समा+रभू] चारम्भ करना, शुरू करना । केवलाइ ( षड् ) । केवल [केवलिन] केवल ज्ञानव वि सर्वज्ञ (भग) । पक्खिय वि [ पाक्षिक ] १ स्वयंबुद्ध । २ पुं. जिनदेव, तीर्थंकर (भग ६, ३१) । केवलिन [केपलिक] १ (ग) २ परिपूर्ण संपूर्ण सामाद के लिये (किले २६०१) । के लिअ वि [कैबलिक ] १ केवल-ज्ञान से संबन्ध रखनेवाला (दं १७) । २ केवलिप्रोक्त (सूत्र १,१४)। ३ केवल ज्ञानि - संबन्धी (ठा ४, २ ) । ४ न. केवल ज्ञान, संपूर्ण ज्ञान ( आव ४) । [[]][कैवल्य] केवल ज्ञान, केवलिए संपत्ते' (सत्त ६७ टी विसे ११५० ) । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली - कोंड केवली स्त्री [केवली ] ज्योतिष विद्या - विशेष (हास्य १२६, १२) । 1 केस पुं [केश] केश, बाल (उप ७६८ टी; यी २६) पुरन ["पुर] वेता पर स्थित एक विद्याधर नगर (इक) डोअ [लोच] केशों का उन्मूलन (भगः पराह २. ४) वाणिज न [वाणिज्य] देशवाले जीवों का व्यापार (भग ८, ५) । हत्थ, "हत्यय ["हस्त, क] केशपाश, समा रचित केश, संयत बाल (कप्प; पात्र ) । केस देखो केरिस | स्त्री. सी ( केस देखो किलेस (उप ७६८६ २२) । केसर ु [कवीश्वर] उत्तम कवि, ( उप ७२८ टी) । १३१) । टी धम्म श्रेष्ठ कवि केसर पुंन [केसर ] एक देवविमान (देवेन्द्र १४२) । केसर पुंन [केसर] १ पुष्प-रेणु, पराग, किंजल्क (१,५०० ६ १३२ सह के का बासरा से १,५०३ मुपा २१५३. उड पान ) । ४ न. इस नाम का एक उद्यान, काम्पिल्य नगर का एक उपवन (उत्त १७) । ५. फल- विशेष (राज)। ६ सुवर्णं, सोना । ७ छन्द-विशेष (हे १, १४६) विशेष (११२२) । कपड़े का टुकड़ा (भगः विसे २५५२ टी ) । केसरिल वि [ केसरवत् ] केसरवाला (गउड) । केसरी स्त्री [केसरी] देखो केसरिआ 'तिदं पाइअसदमद्दण्णवो डकुंडियछत छलुयंकुसपवित्तय केस रीहत्यगए' (गाया १, ५ - पत्र १०५ ) । केसब पुं [केशव] १ अर्ध चक्रवर्ती राजा (सम ) । २ श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण ( गउड) । केसि वि [केशिन] कलेशयुक्त ३११४) । केसि पुं [केशि] १ एक जैन मुनि, भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य (रायः भग) २ असुरविशेष, श्रश्व के रूप को धारण करनेवाला एक दैत्य, जिसको श्रीकृष्ण ने मारा था ( मुद्रा २६२ ) । १२४) । । विकसना, को देख कोक (दे २, ४५ टी केसरा श्री [केसरा] १ सिंह रह के स्वम को देको (उड स्कन्ध पर के बालों की सटा केसरा व सोहारों कोअंड देखो कोदंड (पास) । (प्रासू ५१; गउड; प्रामा) । कोआस [वि + कस्] केसरि [ केसरिन् ]१ सिंह, वनराज, खिलना कोमास (हे ४, १९५) । कण्ठीरव (उप ७२८ टी; से ८, ९४ परह कोआसिय वि [विकसित ] विकसित, प्रफुल्ल, १, ४) । २ हद - विशेष, नीलवन्त पर्वत पर खिला हुआ (कुमा नं २ ) । स्थित एक हद (सम १०४) । ३ नृप-विशेष, कोइल [कोकिल] १ कोयल, पिक (पग्रह भरत क्षेत्र के चतुर्थ प्रति वासुदेव (सम १, ४; उप २३३ स्वप्न ६१ ) । २ छन्द का १२४) दह [ह] ग्रह-विशेष (डा एक भेद (पिंग ) । च्य पुं [च्छद ] २, ३)। वनस्पति- विशेष, तलकण्टक ( पराण १७पत्र ५२७) । केसरिआ स्त्री [केसरिका] साफ करने का फेसि]] [[शिन]] देसी फेसन (७५ [केशिन्] २० ) । केसिअ वि [केशिक] केशवाला, बाल-युक्त । स्त्री. आ (सूम १, ४, २) । केसी स्त्री [केशी] सातवें वासुदेव की माता (२०, १५४) । 'केसी स्त्री [केशी] केशवाली स्त्री, 'विइराणकेसी' (पा) । केसुअ देखो किंमुअ (हे १, २००६ केह (प) वि[ कीट] [केसा, किस तरह का ? (भक पड्मा ) । केहिं ( प ) अ. लिए, वास्ते (हे ४, ४२५) । [व] कपट, दम्भ (हे १, १, गा कोइला भी [कित्य] श्री-कोयल, पिये 'कोइला पंचमं सर' (धरण पाच) कोइया स्त्री [दे] कोयला, काष्ठ के अंगार (दे २, ४ε)। For Personal & Private Use Only कोआ श्री [दे] (दे २, ४८ पात्र ) । को उग ? न [कौतुक] १ कुतूहल, अपूर्वं वस्तु कोउय | देखने का अभिलाष (सुर २, २२६) । २ प्राश्चर्य, विस्मय ( वव १) । ३ उत्सव (राय) । ४ उत्सुकता, उत्कण्ठा (पंचव १) । ५ दृष्टि-दोषादि से रक्षा के लिए किया जाता काजल का तिलक, रक्षा बन्धनादि प्रयोग (रायः औप विपा १, १ परह १, २ धर्मं ३ ) । ६ सौभाग्य आदि के लिए किया जाता स्नपन विस्मापन, धूर, होम वगैरह कर्म (वव १, गाया १, १४) । २६१ की अग्नि, कपात को [िकदुष्ण] थोड़ा गरम (धर्मवि को ११३) । उहल } देख १, २, ६६६ कुमाः प्रात्र) । 7 देखो कुऊहल ( हे १, ११७ कोहलि [कुतूहलिन] कुतुहली, कौतुकी, कुतूहल- प्रिय (कुमा) | को ऊहल कोऊहल्ल } देखो कुऊहल (कुमा; पि ६१ ) । aaj [कोङ्कण] देश-विशेष ( स ४१२ ) । कौन [कोङ्कणक] १ मनायें देश-विशेष (इक) । २ वि. उस देश में रहनेवाला ( परह १, १ जिसे १४९२) । ['रिपु ] कोंच पुं [क्रौन] १ इस नाम का एक अना देश (पराह १ १) २ विशेष (ठा ७)। ३ द्वीप - विशेष (ती ४५ ) । ४ इस नाम का एक असुर (कुमा) वि. को देश का निवासी (परह १, १ ) । रिवु पुं कात्तिकेय, स्कन्द (कुमा) । वर पुं ['वर ] इस नाम का एक द्वीप (धारा-टी) वीरग ["वीरक] एक प्रकार का जहाज (बृह १) । देखो कुंच । कोंचिगा श्री [कुचिका] ताली, कुंजी (उप १७०) । कोंचिय वि [कुचित ] श्राकुञ्चित, संकुचित पह १, ४) । कोंटलय न [ दे] १ ज्योतिष सम्बन्धी सूचना । २ शकुनादि निमित्त - सम्बन्धी सूचना 'पतंजणे कॉटला (घोष २२९ मा) । कोंठ देखो कुंठ (हे १. ११६ प ) 1 कोड देखो कु ( १, १०२) । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ पाइअसहमहण्णवो कोंड-कोट्ट कोंड पुं [कौण्ड, गौड] देश-विशेष (इक)। कोक्किय वि [व्याहृत] आहूत, बुलाया हुआ कोट्टंतिया स्त्री [कुट्टयन्तिका] तिल वगैरह कोंडल देखो कुंडल (राज)। "मेत्तग पुं (भवि)। को चूरने का उपकरण (णाया १, ७–पत्र ["मित्रक] एक व्यन्तर देव का नाम (बृह | कोक्कुइय देखो कक्कुइअ (कसः प्रौप)। ११७) । कोखुब्भ देखो खोखुब्भ वकृ. कोखुन्भमाण कोट्टकिरिया स्त्री [कोट्टक्रिया] देवी-विशेष, कोंडलग पुं[कुण्डलक] पक्षि विशेष (प्रौप)। (पि ३१६)। दुर्गा प्रादि रुद्र रूपवाली देवी (अणु २५) । कोंडलिआ स्त्री [दे]१ श्वापद जन्त-विशेष, । काञ्चप्पन द] अलकिनहत, भूठा भलाइ, कोण देखो कटण (उप १७६: पराड १.१)। साही, श्वावित् । २ क्रीड़ा, कीट (दे २,५०)। दिखावटी हित (दे २, ४६)। कोटर देखो कोडर (महा. हे ४, ४२२; गा कोंडिअ [दे] ग्राम-निवासी लोगों में फूट | कोच्चिय पुंस्त्री [दे] शैक्षक, नया शिष्य (वव ५६३ अ)। कराकर छल से गाँव का मालिक बन बैठनेवाला (दे २, ४८)। | कोच्छ न [कौत्स] १ गोत्र-विशेष । २ पुंसी. कावार पुकावार] इस नाम का एक कोंडिणपुर न [कौण्डिनपुर] नगर-विशेष | कौत्स गोत्र में उत्पन्न (ठा ७-पत्र ३६०)। मुनि, आचाय शिवभूति का एक शिष्य (विस (रुक्मि ५१)। कोच्छ वि [कौक्ष] १ कुक्षि सम्बन्धी, उदर से २५५२)। कोंडिया देखो कुंडिया (पएह २, ५)। सम्बन्ध रखनेवाला । २ न. उदरप्रदेश कोट्टा स्त्री [दे] १ गौरी, पार्वती (दे २, कोंडिण्ण देखो कोडिन्न (राज)। 'गणियायारकरणेरुकात्थ (? च्छ) हत्थी' (णाया ३५–१, १७४)। २ गला, गर्दन (उप कोंढ देखो कुंढ (हे १, ११६) । १, १-पत्र ६४)। ६६१)। कोंदुल्लु पुंदे] उलूक, उल्लू, पक्षि-विशेष कोच्छभास पुंदे. कुत्सभाष] काक, कोट्टाग पुं [कोट्टाक] १ वर्धकि, बढ़ई (दे २, ४६)। कौमा, वायसः 'न मणी सयसाहस्सो प्रावि- | (प्राचा २, १;२)। २ न. हरे फलों को कोत देखो कुत (पएह १, १ सुर २, २८)। ज्झइ कोच्छभासस्स (उव)। सुखाने का स्थान-विशेष (बृह १)। कोतल देखो कुंतल = कुन्तल (प्राकृ ६. | कोच्छेअय देखो कुच्छेअय (हे १, १६१ कोट्रिब पुंदे] द्रोणी, नौका, जहाज (दे संक्षि ४)। कुमाः षड्)। २, ४७)। कोंती देखो कंती (णाया १, १६-पत्र | कोज देखो कुज्ज (कप्प)। कोट्टिम पुन [कुट्टिम] १ रत्नमय भूमि कोजप्प न [दे] स्त्री-रहस्य (दे २, ४६)। (णाया १, २)। २ फरस-बंध जमीन, बँधी कोंभी देखो कुभी (प्राकृ ६)। कोजय देखो कुजय (णाया १, ८–पत्र हुई जमीन (जं १)। ३ भूमि-तल (सुर ३, कोक पुं [कोक] १ चक्रवाक पक्षी (दे ८, १२५)। १००)। ४ एक या अनेक तलावाला घर ४३)। २ वृक, भेड़िया (इक)। कोजरिअ वि [दे प्रापूरित, पूर्ण किया हुआ, (वव ४)। ५ झोंपड़ी, मढ़ी। ६ रत्न की कोकंतिय पुंस्त्री [दे] जन्तु-विशेष, लोमड़ी, | खान । ७ अनार का पेड़ (हे १, ११६; लोखरिया (पराह १, १)। स्त्री. या (गाया | कोज्झरिअ वि [दे] ऊपर देखो (दे २, प्राप्र)। १, १-पत्र ६५)। ५०)। कोट्टिम वि [ कृत्रिम ] बनावटी, बनाया कोकणद देखो कोकणय (संबोध ४७)। कोटर देखो कोट्टर (चेइय १५१)। हुआ, अकुदरती (पउम ६६, ३६)। कोकणय न [कोकनद] १ रक्त कुमुद । २ | कोर्टिब पुं[दे] गौ (निशीथ ३५६५ गा०)।। कोट्टिल) [कौट्टिक] मुग्दर, मुगरी, मुगरा, लाल कमल (पएण १; स्वप्न ७२)। कोटुंभ पुंन दे हाथ से आहत जल, 'कोटु भो। कोट्टिल्ल जोड़ी (राज; विपा १,६-पत्र ६६; कोकासिय [दे] देखो कोक्कासिय (पएह जलकरप्फालो (पास) । देखो कोट् टुंभ। १, ४-पत्र ७८)। कोट्टी स्त्री [दे] १ दोह, दोहन । २ विषम कोकुइय देखो कुक्कुइअ (ठा ६-पत्र ३७१)। | कोटीवरिस प्र[कोटीवर्ष] लाट देश की स्खलना (दे २, ६४)। कोक सक [व्या + हृ.] बुलाना, आह्वान प्राचीन राजधानी (विचार ४६)। कोटुंभ पुंन [दे] हाथ से आहत जल, करना । कोक्कइ (हे १, ७६; षड् ) । वकृ. | कोट्ट देखो कुट्ट = कुट्ट । कवकृ. कोट्टिजमाण कोट कोकंत (कूमा)। संकृ. कोक्किवि (भवि)। (प्रावम) । संकृ. कोट्टिय (जीव ३)। कोट टुम अकरम1 क्रीड़ा करना, रमण प्रयो. कोक्कावइ (भवि)। कोट्ट न [दे] १ नगर, शहर (दे २, ४५)। करना । कोट् टु मइ (हे ४, १६८)। कोकास पुं [कोकास] इस नाम का एक २ कोट, किला, दुर्ग (णाया १, ८-पत्र कोट्टुवाणी स्त्री [क्रोटुवाणी] जैन मुनिवर्षकि, बढ़ई (प्राचू १)। १३४, उत्त ३० बृह १, सुपा ११८)। गण की एक शाखा (कप्प)। कोक्कासिय [दे] देखो कोआसिअ (दे २, 'वाल गु[°पाल] कोटवाल, नगर-रक्षक को? देखो कुट्ठ = कुष्ठ (भग १६, ६; णाया (सुपा ४१३)। । १, १७)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोटू - कोणालग [कोष्ठ ] १ धारणा, अवधारित अर्थ का कालान्तर में स्मरण योग्य श्रवस्थान (दि १७६) । २ सुगन्धी द्रव्य-विशेष ( राय ३४) । कोट्ट | देखो कुटु = कोष्ठ (गाया १, १ ठा कोग ३, १ पान ) । ३ श्राश्रय-विशेष, कोय धावास विशेष (घोष २०० व १) । ४ अपवरक, कोठरी (दस ५, १ उप ४८६५वशेष (खाया २ १) । गार न [गार] धान्य भरने का घर २ भाण्डागार, भंडार ( श्रपः कप्प ) । ( पाया १, १ ) । कोहार न [कोठागार] भारवागार, भंडार ( पउम २, ३ ) । को वि[]] रोगी (आवा) । कोट्ठिया श्री [कोष्ठिका] छोटा कोह, लघु गुल (उमा)। कोट्टु पुं [क्रोष्टृ] शृगाल, सियार ( षड् ) । फोड देखो कोदंड (२५१) । कोडंडिय देखो को दंडिय (कप्प ) । कोडंयन [दे] कार्य, काम, काज (दे, २) कोड [दे] देखो कोडिअ ( पाच ) । कोडर न [कोटर ] गह्वर, वृक्ष का पोल भाग, विवर ( गां ५६२) । कोडल [फोटर] पक्षिविशेष (राज)। कोडा कोडि स्त्री [कोटाकोटि ] संख्या - विशेष, करोड़ को करोड़ने पर जो संख्या लब्ध हो वह (सम १०५० कप्पा उव) । कोडाल पुं [कोडाल] १ गोत्र - विशेष का प्रवर्तक पुरुष । २ न. गोत्र - विशेष ( कप्प ) । कोडि स्त्री [कोटि] १ धनुष का अग्र भाग (राय ११३२ मेद, प्रकार (२१५)। कोडि स्त्री [कोटि] १ संख्या विशेष, करोड़, १००००००० (गाया १, ८ सुर १, ६७; ४, ६१ ) । २ अग्र भाग, अरणी, नोक (से १२, २६ पान ) । ३ अंश, विभाग, भागः 'नथिक्कसो पएसो लोए वालग्गकोडिमित्तोवि' ( प ३९ ठा १) "कोडि देखी कोठा कोड ( सुपा २६९ ) । बद्ध वि [बद्ध ] करोड़ संख्यावाला (वव ३ ) । भूमि स्त्री ['भूमि] एक जैन तीर्थं (ती ४३) । सिला श्री ["शिला] एक ४८ पाइसमण्णवो २) सो [ "शस ] करोड़ों, अनेक करोड़ (सुपा ४२० ) । देखो कोडी । कोडिअ न [दे] १ छोटा मिट्टी का पात्र, लघु सराव, सकोरा (दे २,४७ ) । १ पुं. पिशुन, दुर्जन, चुगलखोर ( षड् ) । | कोडिअ [कोटिक] एक ( कप्प ) । २ एक जैन मुनि गए ठा)। कोडिअ वि [कोटित ] संकोचित ( धर्मसं ३८)। कोडिण न [ कौडिन्य ] १ इस नाम का कोडिन्न ) एक नगर (उप ६४८ टी) । २ वाशिष्ठ गोत्र की शाखा रूप एक गोत्र (कप्प ) । ३ पुं. कौडिन्य गोत्र का प्रवर्तक पुरुष । ४ वि. कौडिन्य गोत्रीय (ठा ७ – पत्र ३१० कप्प ) । ५ पुं. एक मुनि, जो शिवभूति का शिष्य था (विये २५५२) ६ महागिरिसूरि का शिष्य एक जैन मुनि (प) ७ गोतम स्वामी के पास दीक्षा लेनेवाले पाँच सौ तापसों का गुरू (उप १४२ टी) । स्त्री । बोडिना [कण्डिया] श्रीडिय-गोपीय नि (कप्प, श्री (प)। कोडिल्ल पु ं [दे] पिशुन, दुर्जन, चुगलखोर (३२, ४० षद्) । कोडिल्ल देखो कोट्टिल्ल (राज)। फोडिल [कौटिल्य] इस नाम का एक (१) कोडिल्लय न [कोटिल्यक] चाणक्य-प्रणीत नीति शास्त्र (प्र) । कोडिसाहिय न [कोटिसहित ] प्रत्याख्यान विशेष, पहले दिन उपवास करके दूसरे दिन भी उपवास की ली जाती प्रतिज्ञा ( पव ४) । कोडी देखो कोडि ( उव; ठा ३, १६ जी ३७) । करण न [करण ] विभाग, भजन (१०७)। णार न [नार] इस नाम का सोरठ देश का एक नगर ( ती ५६) । मातसा स्त्री ["मातसा] गान्धार ग्राम की एक मूच्र्छना (ठा ७-पत्र ३६३) । " वरिस न ["वर्ष] साठ देश की राजधानी, नगर-विशेष (एक पत्र १७४ ) बरिसिया स्त्री [वर्षिका ] जैन गुलि-गरा की एक For Personal & Private Use Only २६३ शाखा (कप्प ) । सर [श्वर] करोड़ पति नोटीस (गुदा ३) । कोडीण न [कोडीन ] १ इस नाम का एक गोत्र, जो कौत्स गोत्र की एक शाखा रूप है । २ वि. इस गोत्र में उत्पन्न (ठा ७ – पत्र ३६० ) । कोडुंब न [दे] कार्य, काज (दे २, २) । फोर्डबि देखो कुदुबि (६, १ १२५) । कोटुंबिय [कौटुम्बि] कुटुम्ब का स्वामी, परिवार का स्वामी, परिवार का मुखिया ( भग ) । २ ग्राम प्रधान, गाँव का श्रादमी (पराह १, ५ – पत्र ε४) । ३ वि. कुटुम्ब में उत्पन्न कुटुम्ब से सम्बन्ध रखनेवाला मुटु-एम्बन्धी (महा जीव ३)। कोडूसग पुं [कोदूषक ] अन्न- विशेष, कोदों की एक जाति (राज) । कोड [दे] देखो कुड्डू (द २, ३३ स ६४१; (दे ६४२ हे ४, ४२२; गाया १, १६ – पत्र २२४ उप ८१२ भवि ) । कोडम देखो कोम (कुमा)। कोडमिन [र] रति--विशेष कोड्डिय वि [दे] कुतुहली, कौतुकी, विनोद शील, उत्कण्ठित ( उप ७६८ टी ) । कोड्ढ ) पुं [कुष्ठि ] रोग-विशेष, रोग-विशेष कुश-रोग कोढ े पि ६६: गाया १, १३; श्रा २० ) । कोटिवि [कुष्ठिन] कु रोगी (बाचा) कोठिक ? वि [ कुष्ठिक ] कुष्ठरोगी, कुष्ठकोढिय ) ग्रस्त ( परह २. ५ विपा १, ७) । कोण वि [दे] १ काला, श्याम वर्णवाला (दे २, ४५) । २ पुं. लकुट, लकड़ी, यष्टि (दे २, ४२१ पास ३ मीणा बगैरह बजाने की लकड़ी, वीणा वादन- दण्ड ( जीव ३) । कोण । पुंन [कोण] कोन, अस्त्र, घर का कोणग एक भाग (गड दे २, ४२)। } कोणव पुं [कौ गप] राक्षस, पिशाच ( पाच ) । कोणायल पुं [कोणाचल ] भगवान् शान्तिनाथ के प्रथम श्रावक का नाम ( विचार १०८) । कोणाला [कोनाक] जलचर पक्षि-विशेष ( परह १, १ ) । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ पाइअसद्दमहण्णवो कोणाली-कोल कोणाली स्त्री [दे] गोष्ठी, गोठ (बृह १)। कोध पुं [कोध] इस नाम का एक राजा, कोयव वि [कौयव] 'कोयव देश में निष्पन्न कोणिअ । [कोणिक राजा श्रेणिक का जिसने दाशरथि भरत के साथ जैन दीक्षा ली (पाचा २, ५, १, ५) । देखो कोयवग। कोणिग पुत्र, नृप-विशेष (अंतः गाया १, थी (पउम ८५, ४)। कोयवग । पुं[दे] रूई से भरे हुए कपड़े १; महाः उव)। कोप्प देखो कुप्प = कुप । कोप्पड (नाट)। कोयवय ) का बना हुमा प्रावरण-विशेष, कोणु स्त्री [दे] लेखा, लकीर, रेखा (दे २,२६)। कोप्प पुंदे] अपराध, गुनाह (दे २, ४५) । | रजाई (गाया १,१७-पत्र २२६)। कोणेट्टिया स्त्री [दे] गुज्जा, गु० 'चरणोठी' कोप्प वि [कोप्य ] द्वेष्य, अप्रीतिकरः कोयवी स्त्री [दे] रूई से भरा हुआ कपड़ा ( अनु० वृ० हारि० पत्र० ७६) देखो, । 'प्रकोप्पजंघजुगला' (पएह १, ३)। (बृह ३)। चणोदिया। कोप्पर पू[कर्प]१ हाथ का मध्य भाग कोरंग पुं [कोरङ्क] पक्षि-विशेष (पएह १, कोण्ण पुं [दे. कोण] गृह-कोण, घर का (ोघ २६६ भा; कुमाः हे १, १२४) । २ १-पत्र ८)। नदी का किनारा, तट, तीर (ोघ ३०)। । एक भाग, कोना (दे २, ४५)। कोरंट ) पुं[कोरण्ट, क] १ वृक्ष-विशेष कोरंटग कोबेरी स्त्री [कौबेरी] विद्या-विशेष (पउम कोतव न [कौतव] मूषक के रोम से निष्पन्न (पाप)। २ न. इस नाम का भृगुकच्छ (भडौंच) शहर का एक उपवन सूता (राज)। ७, १४२)। कोभग । कोतुहल देखो कुऊहल (काल)। (वव १) । ३ कोरण्टक वृक्ष का पुष्प (पएह कोभक पक्षि-विशेष (अंतः कोभगक प्रौप)। १, ४; जं १)। कोत्तलंका स्त्री [दे] दारू परोसने का भाण्ड, कोमल वि [कोमल] मृदु, सुकुमार (जी १०; कारअ (शा) देखा कउरव (प्राकृ ८४) । पात्र-विशेष (२. १४)। पास कप्पू)। | कोरय। पुन [कोरक] फलोत्पादक मुकुल, कोत्तिअ वि [कौतुकिक] कौतूकी, कुतूहली कोमार वि [कौमार] १ कुमार से संबन्ध कोरव ) फल की कलो (पान); 'चत्तारि (गा ६७२)। रखनेवाला, कुमार-संबन्धी (विपा १, ७१)। कोरवा पन्नत्ता' (ठा ४, १-पत्र १८५)। कोत्तिअ पुं[कोत्रिक] १ भूमि-शयन करने २ कुमारी-संबन्धी (पान) । ३ कुमारी में कोरव देखो कउरव (सम्मत्त १७६) । वाला वानप्रस्थ (प्रौप)। २ न. एक प्रकार उत्पन्न (दे १, ८१)। स्त्री. रिया, "री कोरविआ स्त्री [कौरव्या] देखो कोरव्वीया का मधु (ठा ६)। (भग १५)। 'भिच न [ भृत्यवैद्यक (अणु १३०)। कोत्थ देखो कोच्छ = कौक्ष । शास्त्र-विशेष, जिसमें बालकों के स्तन पान- कोरव्व पुंस्त्री [कौरव्य] १ कुरु-वंश में उत्पन्न कोत्थर न [दे] १ विज्ञान (दे २, १३)। २ संबन्धी वर्णन है (विपा १, ७-पत्र ७५)। (सम १५२; ठा ६)। २ कौरव्य-गोत्रीय । कोटर, गह्वर (सुपा २४७; निचू १५)। कोमारी स्त्री [कौमारी] विद्या-विशेष (पउम ३ पुं. आठवाँ चक्रवर्ती राजा ब्रह्मदत्त (जीव कोत्थल पुं [दे] १ कुशूल, कोष्ठ (दे २, ७,१३७)। ४८)। २ कोथली, थैला (स १६२)। कोमुइया स्त्री [कौमुदिका] श्रीकृष्ण वासुदेव कोरब्बीया स्त्री [कौरवीया] इस नाम की कारा स्त्री [कारी] भौंरी, कीट-विशेष की एक भेरी, जो उत्सव की सूचना के समय षड्ज ग्राम की एक मूर्च्छना (ठा ७)। (बृह १)। बजाई जाती थी (विसे १४७६)। कोरिंट । देखो कोरंट (णाया १.१कोत्धुभ । पुं[कौस्तुभ] वासुदेव के वक्षः कोमुई स्त्री [दे] पूणिमा, कोई भी पूणिमा कोरिंदय पत्र १६; कप्प; पउम ४२, ८; कोत्थह स्थल की मरिण (ती १०० प्राप (दे २,४८)। कोरेंट ) प्रौपः उवा)। कोथुभ | महा: गा १५१ः परह १, ४)। कोमुई स्त्री [कौमुदी] १ शरद् ऋत की कोल पुंदे] ग्रीवा, नोक, गला (दे २, ४५)। कोदंड पुं [कोदण्ड] धनुष, धनु, कार्मुक, पूर्णिमा (दे २, ४८)। २ चन्द्रिका, चाँदनी कोल पुं [क्रोड] १ सूअर, वराह (पएह १, चाप (अंत १६)। (प्रौप; धम्म ११ टी)। ३ इस नाम की एक १-पत्र ७; स १११)। २ उत्सङ्ग, गोदा कोदंडिम देखो कु-दंडिम (जं ३ कप्प)। नगरी (पउम ३६, १००)। ४ कात्तिक की 'कोलीकय-' (गउड)। कोदंडिय पूर्णिमा (राय) । 'नाह पुं["नाथ चन्द्रमा, कोल पुं[कोल] १ देश-विशेष (पउम ९८, कोदूसग देखो कोडूसग (भग ६, ७)। चाँद (धम्म ११ टी)। महूसव पुं["महो- ६६) । २ घुण, काष्ठ-कीट (सम ३६) । ३ कोदव गेखो कुद्दव (भवि)। त्सव] उत्सव-विशेष (पि ३६६) । शूकर, वराह, सूअर (उप ३२० टी; णाया कोहविया स्त्री [दे] मातृवाहा, क्षुद्र कीट- कोमुदिया देखो कोमुइया (णाया १, ५- १, १, कुमाः पान)। ४ मूषिक के आकार विशेष (सुख १८, ३५)। पत्र १००)। का एक जन्तु (पएह १, १-पत्र ७)। ५ कोदाल देखो कुद्दाल (पएह १, १-पत्र कोमुदी देखो कोमुई = कौमुदी (णाया १, अस्त्र-विशेष (धम्म ५)। ६ मनुष्य की एक २३)। नीच जाति (प्राचू ४)। ७ बदरी-वृक्ष, बेर कोहालिया स्त्री [कुद्दालिका] छोटा कुदार, | कोयव वि [कौतव] चूहे के रोमों से बना का गाछ । ८ न. बदरी-फल, बेर (दस ५,. कुदारी (विपा १, ३)। हुआ (वस्त्र) (अणु ३४)। १; भग ६, १०)। पाग न [पाक नगर-- For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोल-कोस पाइअसहमहण्णवो २६५ की ला, शोरगुलवाला महालक] कोला विशेष, जहाँ श्रीऋषभदेव भगवान का मंदिर का प्रस्फुट शब्द (दे २, ५०; हेका १०५ कोल्लापुर न [कोल्लापुर] दक्षिण देश का एक है, यह नगर दक्षिण में है (ती ४५) । पाल। उत्त)। नगर, महालक्ष्मी का स्थान (ती ३४)। पुं[पाल] देव विशेष, धरणेन्द्र का लोकपाल कोलाहलिय वि [कोलाहलिका कोलाहल- कोल्लासुर पुंकोल्लासुर] इस नाम का एक (ठा ३,१-पत्र १०७)। "सुणय, सुणह वाला, शोरगुलवाला (पउम ११७, १६)। दैत्य (ती ३४)। पुंस्त्री [ शुनक] १ बड़ा शूकर, सूअर की कोलिअ पुं [दे] एक अधम मनुष्य जाति कोल्लुग [दे] देखो कोल्हुअ (वय १; बृह एक जाति, जंगली वराह (माचा २, १, (सुख २, १५)। ५)। २ शिकारी कुत्ता (पएण ११)। कोलिअ पुं [दे] कोली, तन्तुवाय, जुलाहा, कोल्हाहल न [दे] फल-विशेष, बिम्बी-फल स्त्री. "णिया (पराण ११)। वास पुन कपड़ा बुननेवाला (दे २, ६५: पंदि; पव २; (दे २, ३६)। [वास] काष्ठ, लकड़ी (सम ३६)। उप पृ २१०) । २ जाल का कीड़ा, मकड़ा कोल्हुअ ' [दे] १ शृगाल, सियार (दे २, कोल वि [कौल] १ शक्ति का उपासक, (दे २,२५, पामा श्रा २० आव ४ बृह १)। ६५, पामः पउम ७, १७ १०५, ४२)। तान्त्रिक मत का अनुयायी। २ तान्त्रिक मत कोलित्त न [दे] उल्मुक, लूका (दे २, ४६)। २ कोल्हू, चरखी, ऊख से रस निकालने का से संबन्ध रखनेवाला, 'कोलो धम्मो कस्स णो कोलिन्न न [कौलीन्य] कुलीनता, खानदानी कल (दे २, ६५; महा)। भाइ रम्मो' (कप्पू)। ३ न. बदर-फल- (धर्मवि १४६)। कोव सक [कोपय् ] १ दूषित करना। संबन्धी (भग ६, १०)। °चुण्ण न [°चूर्ण] कोलीकय वि [क्रोडीकृत] स्वीकृत, अंगीकृत । २ कुपित करना । कोवेइ (सूअनि १२५), बेर का चूर्ण, बेर का सत्तू (दस ५, १)। (गउड)। __ कोवइज्ज (कप्र ६४)। "द्विय न [स्थिक] बेर की गुठिया या कोलीण न [कौलीन] १ किंवदंती, लोक-वार्ता, कोव पुंकोप] क्रोध, गुस्सा (दि १,६; गुठली (भग ६, १०)। जन-श्रुति (मा ३७) । २ वि. वंश-परंपरागत, प्रासू १७५) । कोलंब पुं[दे] पिठर, स्याली (दे २, ४७३ कुलक्रम से पायात । ३ उत्तम कुल में उत्पन्न । कोवण वि [कोपन] क्रोधी, क्रोध-युक्त (पामा पान)। २ गृह, घर (दे २, ४७) । ४ तान्त्रिक मत का अनुयायी (नाट-महावी सुपा ३८५ सम ३४७; स्वप्न ८२)। कोलंब पुं[कोलम्ब] वृक्ष की शाखा का नामा १३३)। कोवाय पुंकोपैक अनार्य देश-विशेष (पव हुमा अग्र भाग (अनु ५)। कोलीर न [दे] लाल रंग का एक पदार्थ, । २७४)। कोलगिणी स्त्री [कोली, कोलकी] कोल- कुरुविन्द, 'कोलीररत्तणयणे (दे २, ४६)। कोवासिअ देखो कोआसिय (पास)। जातीय स्त्री (आचू ४)। कोलुण्ण न [कारुण्य दया, अनुकम्पा, करुणा कोवि वि [कोपिन् क्रोधी, क्रोध-युक्त (सुपा कोलघरिय वि [कौलगृहिक] कुलगृह- (निचू ११) । "पडिया, वडिया स्त्री २८१)श्रा २०)। संवन्धी, पितृगृह-संबन्धी, पितृगृह से संबन्ध | [प्रतिज्ञा] अनुकम्पा की प्रतिज्ञा (निचू | कोविअ वि [कोविद] निपुण, विद्वान्, अभिज्ञ रखनेवाला (उवा)। ११)। (आचाः सुपा १३०; ३६२) । कोलज्जा स्त्री [दे] धान्य रखने का एक तरह कोलेज पुंदे] नीचे गोल और ऊपर खाई कोविअ वि [कोपित] १ कुद्ध किया हुआ। का गर्त (प्राचा २, १,७)। के आकार का धान्य आदि भरने का कोठा । २ दूषित, दोष-युक्त किया हुआ, 'वइरो किर कोलर देखो कोटर (गा ५६३ अ)। (प्राचा २, १, ७, १)। दाहो वायणंति नवि कोवियं वयणं' (उव)। कोलब न [कौलव] ज्योतिष-शास्त्र में प्रसिद्ध कोलेय [कौलेयक श्वान, कत्ता (सम्मत्त कोविआ स्त्री [दे] शृगाली, सियारिन (दे एक करण (विसे ३३४८)। १६०; धर्मवि ५२)। २, ४६)। कोलाल वि [कौलाल] १ कुम्भकार संवन्धी। कोल्ल पुन [दे] कोयला, जली हुई लकड़ी का कोविआर [कोविदार] वृक्ष-विशेष (विक्र २ न. मिट्टी का पात्र (उवा)। टुकड़ा (निचू १)। । ३३)। कोलालिय' [कौलालिका मिट्टी का पात्र कोल्लइर न कोल्लकिर नगर-विशेष (पिंड कोविणी स्त्री [कोपिनी] कोप-युक्त स्त्री (श्रा बेचनेवाला (बृह २)। ४२७)। १२)। कोलाह पुं[कोलाभ] साँप की एक जाति कोल्लपाग न [कोल्लपाक] दक्षिण देश का एक कोशण (मा) वि [कदुष्ण] थोड़ा गरम नगर, जहाँ श्री ऋषभदेव का मन्दिर है (ती (प्राकृ १०२)। (पएह १)। ४५)। कोस पु[दे] १ कुसुम्भ रंग से रंगा हुआ कोलाहल दे] पक्षी की आवाज, पक्षी कोल्लर [दे] पिठर, स्थाली, थाली, थरिया | रक्त वस्न । २ समुद्र, जलधि, सागर (दे २, का शब्द (दे २,५०)। (दे २, ४७)। कोलाहल पुं [कोलाहल] तुमुल, शोरगुल, | कोल्ला देखो कुल्ला (कुमा)। कोस पु [क्रोश कोस, मार्ग की लम्बाई का रौला, हल्ला, बहुत दूर जानेवाला अनेक प्रकार कोल्लाग देखो कुल्लाग (अंत)। परिमारण, दो मील (कप्पा जी ३२)। ३४ For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ पाइअसहमहण्णवो कोस-कोहंड कोस पुं[कोश, प] १ खजाना, भण्डार अयोध्या नगरी (पउम २०, २८)। २ १५६)। १५ इस नाम का एक तापस (णाया १, १३१, पउम ५, २४)। २ अयोध्या-प्रान्त, कोसल देश (भग ७, ६)। । (भवि) । १६ पुंस्त्री. कौशिक गोत्र में उत्पन्न, तलवार की म्यान (सूप १,६) । ३ कुड्मल; कोसलिअ वि [कौशलिका१ कोसल देश कौशिक-गोत्रीय (ठा ७-पत्र ३६०)। १७ 'कमलकोसव' (कुमा) । ४ मुकुल, में उत्पन्न, कोसल देश-सम्बन्धी (भग २०, स्त्री. कोसिई (मा १६) । कली (गउड) । ५ गोल, वृत्ताकारः 'ता मुह- ८)। २ अयोध्या में उत्पन्न, अयोध्या संबन्धी कोसिया स्त्री [कोशिका] १ भारतवर्ष की मेलियकरकोसपिहियपसरंतदंतकरपसर' (सुपा (जं २)। एक नदी (कस) । २ इस नाम की एक विद्या२७; गउड) । ६ दिव्य-भेद, तप्त लोहे कोसलिअ न [दे. कौरालिक] प्राभूत, भेंट, धर-राज-कन्या (पउम ७, ५४)। ३ चमड़े का स्पर्श वगैरह शपथः 'एत्थ अम्हे | उपहार (दे २, १२; सण सुपा-प्रस्तावना का जूताः ‘कोसियमालाभूसियसिरोहरो विगयकोसविसएहि पच्चाएमो' (स ३२४)। ७ वसरणो य (स २२३)। देखो कोसी। अभिधान-शास्त्र, शब्दार्थ-निरूपक ग्रन्थ. जैसा कोसलिआ स्त्री [दे. कोशलिका ] ऊपर कोसियार पुं [कोशिकार १ कीट-विशेष, प्रस्तुत पुस्तक । ८ पुन. पानपात्र, चषक देखो (दे २, १२, सुपा-प्रस्तावना ५)। रेशम का कीड़ा (पराह १, ३)। २ न. (पान)। ८ न. नगर विशेष: 'कोसं नाम कोसल्ल न [कौशल्य] निपुणता, चतुराई रेशमी वस्त्र (ठा ५, ३)। नयर' (स १३३)। पाण न [पान] (कुमाः सुपा १६ सुर १०;८०)। कोसी स्त्री [कोशी] १ शिम्वी, छोमी, फली सौगंध, शपथ (गा ४४८)। हिव पुं कोसल्ल न [दे] प्राभृत, भेंट, उपहारः 'तं [धिप] खजानची, भंडारी (सुपा ७३)। (पान)। २ तलवार को म्यान (सूत्र २, १, पुरजरणकोसल्लं नरवइणा अप्पियं कुमारस्स कोसंब पुं [कोशाम्र ] फल-वृक्ष-विशेष (महा)। कोसी स्त्री [कोशी] देखो कोसिया (ठा ५, ( परण १-पत्र ३१)। गंडिया स्त्री कोसल्लया स्त्री [कौशल्य] निपुणता, चतुराई; ३–पत्र ३५१)। २ गोलाकार एक वस्तु [गण्डिका] खड्ग-विशेष, एक प्रकार की 'तह मज्झनीइकोसल्लया य खीणच्चिय 'कंचणकोसोपविट्ठदंताणं' (प्रौप)। तलवार (राज)। इयारिंग' (सुपा ६०३)। कोसुंभ वि [कौसुम्भ] कुसुंभ-सम्बन्धी (रंग) कोसंबिया स्त्री [कौशाम्बिका] जैनमुनि- | कोसल्ला स्त्री [कौशल्या] दाशरथि राम की (सिरि १०५७)। गण की एक शाखा (कप्प)। माता (अ पृ ३७४)। कोसुम वि [कौसुम] फूल सम्बन्धी, फूल का कोसंबी स्त्री [कौशाम्बी] वत्स देश की मुख्य- कोसल्लिअ न [दे. कौशलिक] भेंट, उपहार बना हुआ 'कोसुमा बाणा' (गउड)। नगरी (ठा १० विपा १,५)। (दे २, १२; महाः सुपा ४१३, ५२७; कोसग [कोशक] साधुओं का एक चर्म कोसुम्ह देखो कुसुंभ (संक्षि ४)। सरण)। कोसा स्त्री [कोशा] इस नाम को एक प्रसिद्ध मय उपकरण, चमड़े की एक प्रकार की थैली | कोसेअ । न [ कौशेय] १ रेशमी वस्त्र, वेश्या, जिसके यहाँ जैन महर्षि श्रीस्थूलभद्र कोसेज । रेशमी कपड़ा (दे २, ३३; सम (धर्म ३)। मुनि ने निर्विकार भाव से चातुर्मास (चौमासा) १५३; परह १, ४) । २ तसर का बना कोसट्टइरिआ स्त्री [दे] चण्डी, पार्वती, गौरी, किया था (विवे ३३)। हुआ वस्त्र (जीव ३)। शिव-पत्नी (दे २, ३५)। कोसिण वि [कोष्ण] थोड़ा गरम (नाट कोह पुं[क्रोध] गुस्सा, कोप (अोघ २ भाः कोसय न [दे कोशक] लघु शराव, छोटा वेणी)। ठा ४,१)। "मुंड वि [मुण्ड] क्रोधपान पात्र (दे २, ४७ पात्र)। कोसिय न [कौशिक १ मनुष्य का गोत्र रहित (ठा ५, ३)। कोसल न [कोशल] कुशलता, निपुणता, विशेष (अभि ४१; ठा ३६०)। २ बीसवें कोह पुं[कोथ सड़ना, शीर्णता (भग ३, ६)। चातुरी (कुमा)। नक्षत्र का गोत्र (चंद १०)। ३ पुं. उलूक, कोह पु [दे कोथ] कोथली, थैला (विसे कोसल न [दे] नीवी, नारा, इजारबन्द (दे घूक, उल्लू (पायः साधं ५६)। ४ साप- ___२६८८)। २, ३८)। विशेष, चण्डकोशिक-नामक दृष्टि-विष सर्प, कोह वि [कोधवत् ] क्रोध-युक्त, कोप-सहित कोसल । [कोसल क] १ देश-विशेष जिसको भगवान् श्रीमहावीर ने प्रबोधित 'कोहाए माणाए मायाए लोभाए.''पासायकोमलग (कुमाः महा) । २ एक जैन महर्षि, किया था (आवम)। ५ वृक्ष-विशेष । '६ गाए' (पडि)। सुकोसल मुनि (पउम २२, ४४)। ३ कोसल इन्द्र । ७ नकुल । ८ कोशाध्यक्ष, खजानची कोहंगक पु[कोभङ्गक] पक्षि-विशेष (प्रौप)। देश का राजा। ४ वि. कोशल देश में उत्पन्न ६ प्रीति, अनुराग । १० इस नाम का एक | कोहंमाण न [क्रोधध्यान] क्रोघ-युक्त चिन्तन (ठा ५, २)। ५ °पुर न [पुर] अयोध्या राजा। ११ इस नाम का एक असुर । १२ (भाउ ११)। नगरी (प्राक १)। सर्प को पकड़नेवाला, सपेरा, गारुड़िक । १३ कोहंड न [कूष्माण्ड] १ कुष्माण्डी-फल, कोसला स्त्री [कोसला] १ नगरी-विशेष, अस्थिसार, मज्जा। १४ शृंगाररस (हे १, । कोहँडा (पि ७६, ८६, १२७)। २ न. For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोहंडी-खइव पाइअसहमहण्णवो २६७ देव-विमान-विशेष (ती ५६) । ३ पृ. न्यन्तर- तह मरणे कोहलिए, अज्ज क्कूर देखो कूर = कूर । (वा २६)। श्रेणीय देव-जाति-विशेष (पव १९४)। कल्लंपि फुट्टिहिसि (गा ७६८)। कर देखो केर (हे २, ६६)। कोहंडी स्त्री कूष्माण्डी] कोहँडे का गाछ कोहली देखो कोहंडी (हे २, ७३; दे २, । क्खंड देखो खंड (गउड)। (हे १, १२४; दे २, ५० टी)। ५० टी)। क्खंभ देखो खंभ (से ३, ५६) । कोहण वि [क्रोधन] १ क्रोधी, गुस्साखोर | कोहल्ल देखो कोहल ( षड् )। क्खम देखो खम (पापू २७)। (सम ३७ पउम ३५, ७) । २ पु. इस नाम कोहल्ली स्त्री [दे] तापिका, तवा, पचन-पात्र- क्खलण देखो खलण (गउड)। का रावण का एक सुभट (पउम ५६, ३२)। विशेष (दे २, ४६)। "क्खिंसा देखो खिंसा (सुपा ५१०) । कोहल देखो कुऊहल (हे १, १७१)। कोहल्ली देखो कोहंडी ( षड् )। क्खु देखो खु (कप्पू: अभि ३७ चारु १४) । कोहलिअ वि [कुतूहलिन् ] कुतूहली, कोहि विक्रोधिन् क्रोधी, क्रोधी-स्वभाव का क्खत्त देखो खुत्त (गउड)। कुतूहल-प्रेमी । स्त्री. °आ (गा ७६८)। कोहिल्ल) गुस्साखोर (कम्म ४,१४०; बृह २)। | खेड्डु देखो खेड्डु (सुपा ५५२) । कोहलिआ स्त्री [कूष्माण्डिका] कोहड़ा का गाछ कौलव। क्खेव देखो खेवः 'खारक्खेवं व खए' (उप 'जह लंघेसि परवई निययवई "किसिय देखो किसिय = कृषित (उप ७२८ टी)। भरसहपि मोत्तूर्ण। ७२८ टी)। | क्खोडी देखो खोडी (पराह १, ३)। ॥ इअ सिरिपाइअसद्दमहण्णवे कयाराइसहसंकलणो दसमो तरंगो समत्तो॥ ख ( [ख] १ व्यंजन-वणं विशेष, इसका स्थान कण्ठ है (प्रामा; प्राप)। २ न. आकाश, गगनः 'गजंते खे मेहा' (हे १, १८७; कुमा; दे ६, १२१)। ३ इन्द्रिय (विसे ३४४३) । 'ग' [ग] १ पक्षी, खग (पाम दे २, ५०)। २ मनुष्य की एक जाति, जो विद्या के बल से आकाश में गमन करती है, विद्याधरलोक (मारा ५६)। देखो खय = खग। 'गइ स्त्री [गति] १ आकाश-गति । २ कर्मविशेष, जो आकाश-गति का कारण है (कम्म २,३; नव ११)। गामिणी स्त्री [गामिनी] विद्या-विशेष, जिसके प्रभाव से आकाश में गमन किया जा सकता है (पउम ७, १४५)। पुप्फ न [पुष्प] आकाश-कुसुम, असंभावित वस्तु (कुमा)। खअ । सक [खव् ] संपत्ति-युक्त करना। खउर खाइ, खउरइ (प्राकृ ७३)। वह वि [क्षयिन्१क्षयवाला, नाशवाला। २ क्षय रोगवाला, क्षय-रोगी (सुपा २३३; खइअ [क्षायिक] १ क्षय, विनाश, ५७६)। खइग उन्मूलन; 'से कि तं खइए ? खइए खइअ वि [क्षपित] नाशित, उन्मूलित (प्रौप; अट्ठरह कम्मपयडीणं खइएणं' (अणु)। २ भवि)। वि. क्षय से उत्पन्न, क्षय-संबन्धी, क्षय से खइअ वि खचित] १ व्याप्त, जटित । २ | संबन्ध रखनेवाला। ३ कर्म-नाश से उत्पन्न मण्डित, विभूषित (हे १, १६३; औप; स | 'कम्मक्खयसहावोखइओ' (विसे ३४६५; कम्म ११४)। १,१५; ३,१६; ४,२२; सम्य २३; प्रौप)। खइअ वि [खादित] १ खाया हुआ, भुक्त, खइत्त न [क्षेत्र] खेतों का समूह, अनेक खेत ग्रस्त (पानः स २५०; उप पू ४९)। २ (पि ६१)। आक्रान्तः 'तह य होंति उ कसाया। खइयो खइया स्त्री [खदिका खाद्य-विशेष, सेका हुमा जेहिं मणुस्सो कजाकजाई न मुणेई' ( स व्रीहि-धान, लावा; 'दहिघयपायसखइया११४)। ३ न. भोजन, भक्षणः 'खइएण व | निग्रोएं' (भवि)। पीएण व न य एसो ताइयो हवइ अप्पा' | खहर पुं[खदिर] वृक्ष-विशेष, खैर का गाछ (पञ्च ६२ ठा ४,४-पत्र २७६)। (माचा; कुमा)। खइअ वि [क्षयित क्षय-प्राप्त, क्षीण; 'किमि-खइर वि [खादिर] खदिर-वृक्ष-संबन्धी (हे १, कायखइयदेहो' (सुर १६, १६१)। ६७ सुपा १५१)। खइअ पु[दे] हेवाक, स्वभाव (ठा ४, ४- खइव [दे] देखो खइअ (ठा ४,४-पत्र पत्र २७६)। १७६ टी)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ इक)। पाइअसद्दमहण्णवो खउड-खंडावत्त खउड पु[खपुट] स्वनाम-प्रसिद्ध एक जैना- तुरियं तुरयं मा खंच मुंच मुकलयं' (सुपा पृथक्करण, पटके हुए घड़े की तरह पृथग्भाव चार्य (प्रावम; आचू)। १९८)। (भग ५, ४)। मल्लय पुंन [ मल्लक भिक्षाखर प्रक[क्षुभ् ] १ क्षुब्ध होना, डर से खंचिंय वि [कृष्ट] १ खींचा हुआ (स ५७४)। पात्र (पाया १, १६) । सो प्र[शस् ] विह्वल होना। २ सक. कलुषित करना । | २ वश में किया हुआ (भवि)। टुकड़ा-टुकड़ा, खण्ड-खण्ड (पि ५१६) । खउरइ (हे ४, १५५ कुमा); 'खउरेंति खंज प्रक[ख] लंगड़ा होना (कप्पू)। "भेिय देखो भेय (ठा १०)। धिइग्गहणं' (से ५, ३)। खंज वि [ख] लंगड़ा, पंगु, लूला (सुपा खंड न [दे] १ मुण्ड, शिर, मस्तक । २ ख उर वि [दे] कलुषित, 'दरदडविवरणविद्दु२७६)। दारू का बरतन, मद्य-पात्र (दे २,६८)। मरप्रक्खउरा' (से ५, ४७; स ५७८)। खंजन [खा] गाड़ी में लोहे के डंडे के पास खंडई स्त्री [दे] असती, कुलटा (दे २, ६७) । बांधा जाता सण आदि का गोल कपड़ाखउर न [क्षौर] क्षौर-कर्म, हजामत (हेका खंडग पुन [खण्डक] चौथा हिस्सा (पव जो तेल आदि से भीजाया हुआ रहता है, बि१८६)। डाः 'खजंजरणनयरगनिभा' (उत्त ३४,४)। खउर पुन [खपुर] खैर वगैरह का चिकना रस, गोंद (बृह ३; निचू १६) । कढिणय खंजण पु [खञ्जन] राहु का कृष्ण पुद्गल खंडग न [खण्टक] शिखर-विशेष (ठा है; विशेष (सुज्ज २०)। न [कठिनक] तापसों का एक प्रकार का खंजण पु[खञ्जन] १ पक्षि-विशेष, खजरीट खंडण न [खण्डन] १ विच्छेद, भजन, नाश पात्र (विसे १४६५)। (गाया १, ८)। २ कण्डन, धान्य वगैरह का (दे २,७०)। २ वृक्ष-विशेष; 'ताडवडखजखंखउरिअ वि [क्षुब्ध] कलुषित (पाअ; बृह जरणसुक्खयरगहीरदुक्खसंचारे' (स २५६)। छिलका अलग करनाः 'खंडणदलणाई गिह कम्मे (सुपा १४)। ३ वि. नाश करनेवाला, खरिअ विक्षौरित] मुण्डित, लुश्चित, केशखंजण पु[दे] १ कदम, कीचड़ (दे २,६६ नाशक (सुपा ४३२)। रहित किया हुआ (से १०, ४३) । पाप्र)। २ कजल, काजल, मषी (ठा ४,२)। खंडणा स्त्री [खण्डना] विच्छेद, विनाश ३ गाड़ी के पहिए के भीतर का काला कीच ख उरिअ वि [खपुरित खरण्टित, चिपकाया (कप्पू; निचू १)। (पएण १७-पत्र ५२५) । हुआ (निचू ५)। खंडपट्ट खण्डपट्ट] १ द्यूतकार, जूमारी खरीकय वि [खपुरीकृत] गोंद वगैरह की खंजर पु[दे] सूखा हुप्रा पेड़ (दे २, ६८)। । (विपा १, ३) । २ घूर्त, ठग । ३ अन्याय से तरह चिकना किया हुआ खंजा स्त्री [खा] छन्द-विशेष (पिंग)। व्यवहार करनेवाला (विपा १,३) । 'कलुसीको य किट्टीको य खंजिअ वि [खञ्जित] जो लंगड़ा हुआ हो, खंडरक्ख ' खण्डरक्ष] १ दाण्डपाशिक, खउरीको य मलिरिणयो। पंगूभूत (कप्पू)। कोतवाल (गाया १, १, पएह १, ३, प्रौप)। कम्मेहि एस जीवो, नाऊरणवि खंड सक [खण्डय ] तोड़ना, टुकड़ा करना, २ शुल्कपाल, चुंगी वसूल करनेवाला (गाया मुज्झई जेरण' (उव)। विच्छेद करना । खंडइ (हे ४, ३६७) । कवकृ १, १; विसे २३६०; प्रौप)। खओवसम पुक्षयोपशम] कुछ भाग का खंडिज्जत (से १३, ३२; सुपा १३४) । हेकृ. खंडव न [खाण्डव] इन्द्र का वन-विशेष, विनाश और कुछ का दबना (भग)। खंडित्तए (उवा)। कृ. खंडियव्य (उप जिसको अर्जुन ने जलाया था (नाट–वेणी खओवसमिय वि [क्षयोपशमिक] १ क्षयो६२८ टी)। ११४)। खंड [खण्ड] एक नरक-स्थान (देवेन्द्र २६)। पशम से उत्पन्न, क्षयोपशम-संबन्धी (सम कब न ["काव्य] खोटा काव्यग्रन्थ खंडा स्त्री [खण्ड] मिस्री, चीनी, शकर, खांड़ १४५, ठा २, १; भग)। २ पुंन. क्षयोपशम (सम्मत्त ८४)। (ोघ ३७३)। (भगः विसे २१७५)। खंड (अप) देखो खग्ग; 'सुंडीरहं खंडइ वसइ खंडा स्त्री [खण्डा] इस नाम की एक विद्याधरखंखर पुं [] पलाश-वृक्ष (ती ५३)। लच्छी (भवि)। कन्या (महा)। खंगार खङ्गार] राजा खेगार, विक्रम की खंड पुंन [खण्ड] १ टुकड़ा, अंश, हिस्सा खंडाखंडि प्रखण्डशस् ] टुकड़ा-टुकड़ा। बारहवीं शताब्दी का सौराष्ट्र देश का एक (हे २, ६७ कुमा)। २ चीनी, मिस्री (उर खण्डखण्ड (उवा; णाया १,६)। डीकय भूपति, जिसको गुजरात के राजा सिद्धराज वि [कृत] टुकड़ा-टुकड़ा किया हुआ (सुर ने मारा था (ती ५)। गढ पुं [गढ] 'छक्खंड-' (सण)। घडग पु[ घटक] १६, ५६)। नगर विशेष, सौराष्ट्र का एक नगर, जो आज भिक्षुक का जल-पात्र (णाया १, १६)। खंडामणिकंचण न [खण्डामणिकाञ्चन] कल 'जूनागढ़' के नाम से प्रसिद्ध है (ती २)। पवाया स्त्री [प्रपाता] वैताब्य पर्वत की। इस नाम का एक विद्याधर-नगर (इक)। खंच सक[कृष् ] १ खींचना । २ वश में एक गुफा (ठा २, ३)। भेय पु[ भेद] खंडावत्त न [खण्डावर्त इस नाम का एक करना। खंचइ (भवि); 'ता गच्छ तुरिय- विच्छेद-विशेष, पदार्थ का एक तरह का , विद्याधरनगर (इक)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंडाहंड-खग्गाखग्गि पाइअसद्दमण्णवो २६६ खंडाहंड वि [खण्डखण्ड] टुकड़ा-टुकड़ा स्त्री [°श्री] एक चोर-सेनापति की भार्या का खंधार देखो खंधावार (पउम ६६, २८ महाः किया हुपा (सुपा ३८५)। नाम (विपा १, ३)। विसे २४४१)। खंडिअ ' [खण्डिक] छात्र, विद्यार्थी । खंदग) पुं[स्कन्दक] १-२ ऊपर देखो। ३ खंधाल वि[स्कन्धवत् ] स्कन्धवाला (सुपा (प्रौप)। खंदय । एक जैन मुनि (उवः भगः अंतः सुपा । १२६)। खंडिअ वि [खण्डित छिन्न, विछिन्न (हे ४०८)। ४ एक परिव्राजक, जिसने भगवान् खंधावार पुं[स्कन्धावार छावनी, सैन्य का १, ५३; महा)। महावीर के पास पीछे से जैन दीक्षा ली थी | पड़ाव, शिविर (गाया १, ८ स ६०३, खंडिअ ' [दे] १ मागध, भाट, विरुद-पाठक । (पुष्फ ८४)। महा)। २ वि. अनिवार्य, निवारण करने को अशक्य खंदरुद्द न [स्कन्दरुद्र] शास्त्र-विशेष (धर्मसं खंधि वि [स्कन्धिन् स्कन्धवाला (प्रौप)। (दे २, ७८)। ६३५)। खंधिल्ल देखो खंधि (स ६६७) । खंदिल b [स्कन्दिल] एक प्रख्यात जैनाचार्य, खंडिआ स्त्री [खण्डिका] खण्ड, टुकड़ा | खंधी स्त्री. देखो खंध (ौप)। जिसने मथुरा में जैनागमों को लिपि-बद्ध किया (अभि ६२)। (गच्छ १)। | खंधीधार ' [दे] बहुत गरम पानी की धारा खंडिआ खी[दे] नाप-विशेष, बीस मन की खंध पंस्किन्धी भित्ति. भीत. दीवार (प्राचा (द २,७२) । नाप (सं २४)। २, १, ७, १)। खंप सक [सिच् ] सिञ्चना, छिड़कना । खंडी स्त्रो [दे] १ अपद्वार, छोटा गुप्त द्वार खंध पु [स्कन्ध] १ पुद्गल-प्रचय, पुद्गलों का खपइ (भाव) । (णाया १, १८–पत्र २३६)। २ किले का पिण्ड (कम्म ४, ६६)। २ समूह, निकर खंपणय न [दे] वन, कपड़ाः 'बहुसेयसिन्नछिद्र (गाया १, २-पत्र ७६)। (विसे ६००)। ३ कन्धा, काँध (कुमा)। ४ मलमइलखपणयचिकणसरीरों (सुपा ११)। खंडु (अप) देखो खग्ग । गुजराती में 'खांडु' पेड़ का धड़, जहाँ से शाखा निकलती है खंभ स्तिम्भ खंभा. थंभा (हे १, १८७; कहते हैं (प्राकृ १२१)। (कुमा) । ५ छन्द विशेष (पिंग)। करणी स्त्री २, ४ भगः महा)। खंडुअ न [दे] बाहु-वलय, हाथ का आभूषण[करणी] साध्वियों को पहनने का उपकरण खंभ सक [स्कम् ] क्षुब्ध होना, विचलित विशेष, बाजूबंद (मृच्छ १८१)। विशेष (मोघ ९७७)। मंत वि [मत् ] होना। खंभेजा, खंभाएजा (ठा ५, १-पत्र खंडुय देखो खंडग (पव १४३)। स्कन्धवाला (गाया १, १)। बीय पुं ")। बायपु २६२)। खंत पुं [दे] पिता, बाप (पिंड ४३२, सुख ['बीज स्कन्ध ही जिसका बीज होता है खंभतित्थ न स्तिम्भतीर्थ] एक जैन तीर्थ, २, ३,५८) ऐसा कदली वगैरह का गाछ (ठा ५, २)। गुजरात का प्राचीन 'खंभणा' गाँव (कुप्र खंत देखो खा। सालि पुं[शालिन् व्यन्तर देवों की एक ससा जाति (राज)। खंत वि [क्षान्त क्षमा-शील, क्षमा-युक्त (उप खंभल्लिअ वि [स्तम्भि] खंभे से बाँधा हुआ ३२० टो; कप्पू, भवि)। खंधग्गि पुं [दे. स्कन्धाग्नि] स्थूल काष्ठों की | खधाग्ग पुद. स्कन्धाग्नि स्थूल काष्ठा की (से १,८५)। | आग (दे २, ७०; पा)। खंतव्व वि [क्षन्तव्य] क्षमा-योग्य, माफ खंभाइत्त न स्तम्भादित्य] गूर्जर देश का करने लायक (विक्र ३८; भवि)। खंधमंस पुंदे] हाथ, भुजा, बाहू (दे २, एक प्राचीन नगर, जो आजकल 'खंभात' नाम से प्रसिद्ध है (ती २३)। खंति स्त्री [क्षान्ति] क्षमा, क्रोध का प्रभाव खंधमसी स्त्री [दे] स्कन्ध-यष्टि, हाथ (षड)। खंभालण न [स्तम्भालगन] खम्भे से बांधना (कप्प; महा प्रासू ४८)। खंधय देखो खंध (पिंग)। खंति देखो खा। (पएह १, ३)। खंधयदि स्त्री [दे. स्कन्धयष्टि] हाथ, भुजा, खंतिया । स्त्री [दे] माता, जननी (पिंड खक्खरग पुंन [दे] सूखी रोटी (धर्म २)। खंती ४३०० ४३१)। (दे २, ७१)। खग्ग पुं [खड्ग] १ पशु विशेष, गेंडा (उप खंद पुं[स्कन्द] १ कात्तिकेय, महादेव का खंधर पुंस्त्री [कन्धर] ग्रीवा, गला, गरदन (सण) । स्त्री. रा (महा)। १४८; पएह १. १)। २ पुन. तलवार, असि एक पुत्र (हे २, ५, प्रातः पाया १, १-पत्र (हे १, ३४; स ५३१)। घेणुआ स्त्री खंधलट्ठि स्त्री [दे. स्कन्धयष्टि] स्कन्ध-यष्टि, ३६)। २ राम का स्कन्द नाम का एक सुभट ["धेनु] छूरो, चाकू (दंस)। पुरा स्त्री (पउम ६७, ११)। कुमार पुं [कुमार] हाथ, भुजा ( षड्)। [पुरा] विदेह वर्ष की स्वनाम-प्रसिद्ध नगरी एक जैन मुनि (उव)। 'गह 'ग्रह] खंधवार देखो खंधावार (महा)। (ठा २, ३)। 'पुरी सी [पुरी] पूर्वोक्त ही स्कन्दकृत उपद्रव, स्कन्दावेश (जं २)। २ खंधाआर देखो खंधावार (प्राकृ ३०)। अर्थ (इक)। ज्वर-विशेष (भाग ३, ६)। मह [मह] खंधार पृ. ब. [स्कन्धार] देश-विशेष (पउम खग्गाखग्गि न [खड़गाखड्गि] तलवार को स्कन्द का उत्सव (णाया १,१)। 'सिरी १८,६६)। | लड़ाई (सिरि १०३२)। For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो खग्गि-खण खग्गि पुं [खगिन् जन्तु-विशेष, गेंडा खट्ट न [दे] १ तीमन, कढ़ी, झोर (दे २,६७) खडक्खड पुं [खटखट] खट-खट आवाज (कुमा)। । २ वि. खट्टा, अम्ल (पएण १-पत्र २७ । आंग्गअ [दे] ग्रामेश, गांव का मुखिया जीव १)। 'मेह पं [मेघ] खट्टे जल की खडक्खर देखो छडक्खर (सम्मत्त १४३) । (दे २, ६६)। वर्षा (भग ७, ६)। खडखड j [खडखड] देखो खाडखड खग्गी स्त्री [खड्गी] विदेह वर्ष की नगरी- खट्रंग न [दे] छाया, आतप का प्रभाव (दे (इक)। विशेष (ठा २, ३)। २,६८)। खडखडग वि [दे] छोटा और लम्बा (राज)। खग्गूड वि [दे] १ शठ-प्राय, धूर्त्त-सदृश खटंग न [खट्वाङ्ग] १ शिव का एक आयुध खडट्रोबिल पुंदे] एक म्लेच्छ जाति (मृच्छ (ोघ ३६ भा)। २ धर्मरहित, नास्तिक- (कुमा) । २ चारपाई का पाया या पाटी। ३ १५२)। प्राय (प्रोघ ३५ भा)। ३ निद्रालु । ४ रस- प्रायश्चित्तात्मक भिक्षा मांगने का एक पात्र । खडणा स्त्री [३] गैया, गौ (गा ६३६ अ)। लम्पट (बृह १)। ४ तान्त्रिक मुद्रा-विशेष; खडहड पुं[खटखट] साँकल वगैरह की 'हत्थट्ठियं कवालं, न मुयइ नूणं खणंपि खट्टगं। खच सक [खच् ] १ पावन करना, पवित्र आवाज, खटत्कार (सुपा ५.२)। खडहडी स्त्री [दे] जन्तु-विशेष, गिलहरी, करना । २ कसकर बांधना। खचइ (हे ४. सा तुह विरहे बालय, बाला कावालिणी जाया' गिल्ली (दे २,७२)। (वजा ८८)। ८६)। खडिअ देखो खट्टिअ (गा ६८२ अ)। खचिअ देखो खइअ = खचित (कुमा)। ३ खट्टक्खड पुं [खट्वाक्षक] रत्नप्रभा नामक पृथिवी का एक नकरकावास, 'कालं काऊण खडिअ देखो खलिअ (गा १६२ अ)। पिञ्जरित (कप्प)। खञ्चल्ल पुं [दे] ऋक्ष, भल्लूक, भालू (दे २, रयणप्पभाए पुढवीए खट्टक्खडाभिहाणे नरए खडिअ पुं[दे] दवात, स्याही का पात्र (धर्मवि पलिग्रोवमाऊ चेव नारगो उववन्नोत्ति' (स खडिआ श्री [खटिका] खड़ी, लड़कों को खच्चोल पुं[दे] व्याघ्र, शेर (दे २, ६६)। लिखने की खड़ी या खड़िया (कप्पू) । खज्ज पुखर्ज] वृक्ष-विशेष (स २५६)। खट्टा स्त्री [खट्वा] खाट, पलंग, चारपाई खज्ज वि [खाद्य] १ खाने योग्य वस्तु (पण्ह (सुपा ३३७; हे १, १६५) मल्ल [मल्ल] खडी स्त्री [खटी] ऊपर देखो (प्रारू)। १, २)। २ न. खाद्य-विशेष (भवि)। बीमारी की प्रबलता से जो खाट से उठ न खडुआ स्त्री [दे] मौक्तिक, मोती (दे २, ६८)। खज्ज वि [क्षय्य जिसका क्षय किया जा सकता हो वह (बृह १)। खडुक्क अक [आविस् + भू] प्रकट होना, खदिअ) [दे. खट्रिक] खटीक, सौनिक, सके वह (षड्)। उत्पन्न होना । खड्कंति (वजा ४६)। खट्टिक, कसाई (गा ६८२, सून २,२० दे खज्जंत देखो खा। खडुक्क । पुंस्त्री [दे] मुंड सिर पर उंगली २, ७०)। खज्जग देखो खज्ज = खाद्य (भग १५)। खडुग का आघात (वव १) । खड पुं [दे] एक म्लेच्छ-जाति (मृच्छ १५२)। खज्जमाण देखो खा। खड्ड सक [मृद्] मर्दन करना । खड्डइ (हे ४, खड न [दे] तृण, घास (दे २,६७; कुमा)। खज्जय देखो खज्ज = खाद्य (पउम ६६,१६)। खडइअ वि [दे] संकुचित, संकोच-प्राप्त (दे १२६)। खजअ विद] १ जीर्ण, सड़ा हुना। २ २, ७२)। खड्ड । न [दे] १ श्मश्र, दाढ़ी-मूंछ (दे २, उपालब्ध, जिसको उलाहना दिया गया हो वह खडंग न [पडङ्ग] छः अंग, वेद के ये छः खड्डग ६६; पाय)। २ बड़ा, महान् (विसे (दे २, ७८)। अंग-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, २५७६ टी)। ३ गत्तं के प्राकारवाला (उवा)। खजिर (अप) वि [खाद्यमान] जो खाया । छन्द, निरुक्त । वि वि [वित् ] छहों खड्डा स्त्री [दे] १ खानि, आकर (दे २,६६)। गया हो वह (सण)। अंगों का जानकार (पि २६५)। २ पर्वत का खात, पर्वत का गत्तं (दे २,६६)। खाज स्त्री [खर्जू ] खुजली, पामा (राज)। खडक्य पुन [खटत्कृत] पाहट देना, ध्वनि | ३ गतं, गड्डा, खड्डा (सुर २,१०३; स १५२; सुपा १५ श्रा १६; महा: उत्त २, पंचा ७)। खजूर [खजूर] १ खजूर का पेड़ (कुमा के द्वारा सूचना, सिकड़ी वगैरह की पावाज; खडि वि मिदित] जिसका मदन किया उत ३४) । २ न. खजूर का फल (पउम ४१, । 'वियडकवाडकडाणं खडकयो निसुरिणो तत्तो' गया हो वह (कुमा)। ६: सुपा ५७)। (सुपा ४१४)। खड़ ड्या स्त्री [दे] ठोकर, प्राघात; 'खड् डुया खातरी स्त्री खिजूरी] खजूर का गाछ (पान; खडकार पंखटत्कार] ऊपर देखो (सुर मे चवेडा में' (उत्त १, ३८)। पराग १)। ११, ११२; विक्र ६०)। खड्डोलय पुंदे] खड्डा, गत्तं, गड्ढा (स ३६३) । खजोअ [दे] नक्षत्र (दे २, ६६)। खडक्किआ। स्त्री [दे] खिड़की, छोटा द्वार खण सक [खन खोदना । खणइ (महा) । खज्जोअ पुं[खद्योत] कीट-विशेष, जुगनू, खडक्की (कप्पू; महाः २, ७१)। कर्म, खम्मइ, खणिज्जइ (हे ४, २४४) । (सुपा ४७; णाया १,८)। | खडकिय देखो खडक्य (धर्मवि ५६)। वकृ. खरणेमाण (सुर २, १०३)। संकृ. For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण-खमा पाइअसद्दमहण्णवो २७१ खणेत्तु (भाचा)। कवकृ. खन्नमाण (पि | खण्णु देखो खाणु ( दे २, ६६ षड्)। (ोघ ३०७ ठा ३, ४)। ४ प्र. शीघ्र, ५४०)। खण्णुअ ' [दे. स्थाणुक] कोलक, खोटी, | जल्दी (प्राचा २, १, ६)। दाणि वि. खण पुं [क्षण] काल-विशेष, बहुत थोड़ा खूटा (दे २, ६८ गा ६४; ४२२ अ)। [दानिक समृद्ध, ऋद्धि-संपन्न (प्रोध ८६)। समय (ठा २, ५; हे २, २०; गउड, प्रासू खत्त न दे] १ खात, खोदा हग्रा (दे २, खन्न दे] देखो खण्ण (पान)। १३४)। जोइ वि [योगिन] क्षणमात्र ६६, पान)। २ शस्त्र से तोड़ा हुआ (ोघ खन्नमाण देखो खण = खन् । रहनेवाला (सूअ १, १, १)। भंगुर वि ३४०)। ३ सेंध, चोरी करने के लिए दीवाल खन्नुअ [दे] देखो खग्णुअ (पास)। [भङ्गर] क्षण-विनश्वर, क्षणिक (पउम ८, में किया हुआ छेद (उप पृ ११६; गाया १, खपुसा स्त्री [दे] एक प्रकार का जूता १०५; गा ४२३; विवे ११४)। या स्त्री १८)। ४ खाद, गोबर (उप ५६७ टी)। (बृह ३)। [दा] रात्रि, रात (उप ७६८ टी। खगग पुं [खनक सेंध लगाकर चोरी खप्पर पुं [कपर] १ मनुष्य-जाति-विशेष, खणखग अक[ख गख गाय खण- करनेवाला (णाया १,१८)। खगण न ‘पत्ते तम्मि दसएणगेसु पवलं जे खप्पराएं खणखगखग खरण' आवाज करना। वरण- [खनन] सेंध लगाना (णाया १, १८)। बलं' (रंभा)। २ भिक्षा-पात्र, कपाल (सुपा खणंति (पउम ३६, ५३)। वकृ. खग- 'मेह पुं['मेघ] करोष के समान रसवाला ४६५)। ३ खोपड़ी, कपाल (हे १,१८१)। क्ख गंत (स ३८४)। मेघ (भग ७, ६)। ४ घट वगैरह का टुकड़ा (पउम २०, १६६) । खगग वि [खनक ] खोदनेवाला (रणाया खप्पर) वि [दे] रूक्ष, रूखा, निष्ठुर खत्त पु[क्षत्र] क्षत्रिय, मनुष्य जाति-विशेष खप्पुर) (दे २, ६६ पाम)। (सुपा १६७ उत्त १२)। खणण न [खनन] खोदना (पउम ८६, ६०; खम सक [क्षम् ] १ क्षमा करना, माफ खत्त वि [क्षात्र] १ क्षत्रिय-संवन्धी, क्षत्रिय उप पृ २२१)। करना । २ सहन करना । खमइ (उबर ८३; का। २ न. क्षत्रियत्व, क्षत्रियपन; 'प्रहह खगय देखो खग =क्षण (पाचा उवा)। महा)। कर्म, खमिज्जइ ( भवि)। कृ. खगय कि [खनक] खोदनेवाला (दे १, ८५)। अखत्तं करेइ कोइ इमो' (धम्म ८ टीः | खम्मियव्व (सुपा ३०७, उप ७२८ टी नाट)। खणाविय वि [खानित खुदाया हुआ (सुपा सुर ४, १६७)। प्रयो. खमावइ (भवि) । खत्तय पु[दे] १ खेत खोदनेवाला। २ ४५४० महा)। संकृ. खमावइत्ता, खमावित्ता (पडि सेंध लगाकर चोरी करनेवाला । ३ ग्रह-विशेष, काल)। कृ. खमावियव्व (कप्प)। खणि स्त्री [खनि खान, प्राकर (सुपा ३५०)। राहु (भग १२, ६)। खम वि [क्षम १ उचित, योग्य; 'सच्चित्तो खणिक ) देखो खणिय = क्षणिक; 'सद्दाइया खत्ति पुं [दे] एक म्लेच्छ-जाति (मृच्छ खणिग । कामगुणा खणिक्का' (थु १५२; आहारो न खमो मरणसा वि पत्थेउ' (पच्च १५२)। धर्मसं २२८)। ५४; पा)। २ समर्थ, शक्तिमान् (दे १, खत्ति पुंस्त्री [क्षत्रिन्] नीचे देखो, ‘खत्तीण खणित्त न [खनित्र] खोदने का अस्त्र, खन्ती १७. उप ६५०; सुपा ३)। सेटे जह दंतवक्के' (सूत्र १, ६, २२) । खमग पुं [क्षमक, क्षपक] तपस्वी जैन साधु खगिय वि [क्षणिक] १ क्षण-विनश्वर, खत्तिअ ' स्त्री [क्षत्रिय मनुष्य की एक जाति, (उप पृ ३६२ प्रोघ १४०० भत्त ४४)। क्षण-भंगुर (विसे १६७२)। २ वि. फुरसत क्षत्री, राजन्य (पिंग; कुमाः हे २, १८५; प्रासू ८०)। कुंडग्गाम पुं [कुण्डग्राम] वाला, काम-धंधा से रहितः 'नो तुम्हे विव खमण न [क्षपण] तपश्चर्या, बेला, तेला आदि तप (पिंड ३१२)। अम्हे खरिणया इय वुत्तु नीहरिओ' (धम्म नगर-विशेष, जहाँ श्रीमहावीर देव का जन्म हुआ था (भग ६, ३३)। कुंडपुर न खमण न [क्षपण, क्षमण] १ उपवास (बृह ८ टी)। वाइ वि ["वादिन] सर्व पदार्थ [कुण्डपुर] पूर्वोक्त ही अर्थ (आचा २, १; निचू २०)। २ पुं. तपस्वी जैन साधु को क्षण-विनश्वर माननेवाला, बौद्धमत का १५, ४)। "विजा स्त्री [°विद्या] धनु- (ठा १०-पत्र ५१४)। अनुयायी (राज)। विद्या (सूम २, २)। खमय देखो खमग (ओघ ५६४, उप ४८६; खणिय वि [खनित] खुदा हुआ (सुपा खत्तिणी । स्त्री [क्षत्रियाणी] क्षत्रिय जाति भत्त ४०)। खत्तियाणी । की स्त्री (पिंग कप्प) । खमा स्त्री [क्षमा] १ पृथिवी, भूमिः ‘उव्वूढखणी देखो खणि (पास)। खद्द न [दे] प्रभूत लाभ (पंचा १७, २१)। खमाभारो' (सुपा ३४८)। २ क्रोध का खणुसा स्त्री [दे] मन का दुःख, मानसिक खद्ध वि [दे] १ भुक्त, भक्षित (दे २, ६७ः | प्रभाव, क्षान्ति (हे २, १८)। वइ j पीड़ा (दे २, ६८)। सुपा ६१०; उप पृ २५२; सण; भवि)। [पति] राजा, नृप, भूपति (धर्म १६)। खण्ण न [दे] खात, खोदा हुअा (दे २, ६६ २ प्रकुर, बहुत; 'खद्धे भवदुक्खजले तरइ समण ५ [श्रमण] साधु, ऋषि, मुनि बृह ३; वव १)। विणा नेय सुगुरुतरि' (सार्थ. ११४ दे २, (पडि) । 'हर [धर] १ पर्वत, पहाड़ । खण्ण वि [खन्य खोदने योग्य (दे २, ३६)। ६७ पव २; बृह ४)। ३ विशाल, बड़ा | २ साधु, मुनि (सुपा ३२६) । For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ खमावणया। स्त्री [क्षमणा] खमाना, माफी खमावणा माँगना (भग १७, ३, राज)। खमाविय वि [क्षमित] माफ किया हुआ (हे ३, १५२; सुपा ३६४)। खमिय वि [क्षमित] माफ किया हुआ (कुप्र १६)। खम्म देखो खण = खन् । खम्मइ (प्राकृ ६८)। खम्मक्खम पं दे] १ संग्राम, लड़ाई । २ मन का दुःख । ३ पश्चात्ताप का निश्वास (दे २, ७६)। खय देखो खच । खाइ (षड्)। खय प्रक [क्षि क्षय पाना, नष्ट होना । खगइ (षड्)। खय देखो खग (पान) । ३ आकाश तक ऊँचा पहुँचा हुआ (से ६,४२)। राय पुं [ राज] पक्षियों का राजा, गरुड-पक्षी (पान) । वइ [पति] गरुड़-पक्षी (से १५, ५०)। खय न [क्षत] २ व्रण, घाव; 'खारक्खेवं व खए (उप ७२८ टी)। २ वि. वणित, घवाया हुआः 'सुगमोव्व कीडखो' (श्रा १४; सुपा ३४६; सुर १२, ६१)। यार स्त्री पुं[चार ] शिथिलाचारी साधु या साध्वी (वव ३)। खय वि [खात] खोदा हुआ (पउम ६१, ४२)। खय पुं [क्षय] १ क्षय, प्रलय, विनाश (भग ११, ११)। २ रोग-विशेष, राज-यक्षमा (लहुअ १५)। कारि वि [कारिन् नाशकारक (सुपा ६५५) । काल, गाल पुं [ काल] प्रलय-काल, (भविः हे ४,३७७)। 'ग्गि पुंनि ] प्रलय-काल की प्राग (से १२, ८१)। 'नाणि पुं[ज्ञानिन्] केवलज्ञानी, परिपूर्ण ज्ञानवाला, सर्वज्ञ (विसे ५१८)। समय पुं[समय प्रलय-काल (लहुअ २)। खयंकर वि [क्षयकर] नाश-कारक (पउम ७, ८१६६, ३४७ पुफ्फ ८२)। खरतकर वि [क्षयान्तकर ] नाश-कारक (पउम ७, १७०)। खयर पुंस्त्री [खचर] १ आकाश में चलनेवाला, पक्षी (जी २०)। २ विद्याधर, विद्या बल से आकाश में चलनेवाला मनुष्य (सुर पाइअसहमहण्णवो खमावणया-खरा ३,८८; सुपा २४०)। राय [ राज] | खर वि [क्षर] विनश्वर, अस्थायी (विसे विद्याधरों का राजा (सुपा १३४)। | ४५७)। खयर देखो खइर - खदिर (अन्त १२; सुपा | खरंट सक [खरण्टय ] १ धूत्कारना, निभं५६३)। त्संना करना । २ लेप करना। खरंटए (सूक्त खयरक वि [खादिरक] खदिर-सम्बन्धी । स्त्री. खरंट वि [खरण्ट] १ धूत्कारनेवाला, तिरका (सुख २, ३)। स्कारक । २ उपलिप्त करनेवाला । ३ अशुचि खयाल पुन [दे] वंश-जाल, बाँस का वन पदार्थ (ठा ४, १; सूक्त ४६)। (भवि)। खरंटण न [खरण्टन] १ निर्भर्त्सन, परुषखर अक [क्षर ] १ झरना, टपकना। २ भाषण (वव १)। २ प्रेरणा (ोघ ४० भा)। नष्ट होना । खरइ (विसे ४५५) । खरंटणा स्त्री [खरण्टना] ऊपर देखो (प्रोष खर वि [खर] १ निष्ठुर, रुखा, परुष, कठोर ७५)। (सुर २, ६ दे २, ७८; पान)। २ पुंस्त्री.. खरंटिअ वि [खरग्टित] निर्भसित (कुप्र गर्दभ, गधा (पएह १, १ पउम ५६, ४४)। ३१८)। ३ पुं. छन्द-विशेष (पिंग)। ४ न. तिल का! खरसृया स्त्री [दे] वनस्पति-विशेष (संबोध तेल (ोघ ४०६) । केट न [ कण्ट बबूल - वगैरह की शाखा (ठा ३, ४)। कंड न खरड [दे] हाथी की पीठ पर बिछाया काण्डा रत्नप्रभा पृथिवी का प्रथम कारा जाता पास्तरण (पब ८४)। अंश-विशेष (जीव ३)। कम्म न [कर्मना खरड सक [लिप्] लेपना, पोतना । संकृ. जिसमें अनेक जीवों की हानि होती हो ऐसा खरडिवि (सुपा ४१५)। काम, निष्ठुर धंधा (सुपा ५०५)। कम्मिअ खरड पुखरट एक जघन्य मनुष्य-जाति, वि [कर्मिन्] १ निष्ठर कर्म करनेवाला। 'प्रह केरगाइ खरडेणं किरिण हट्टम्मि वरुणव२ पुं. कोतवाल, दाण्डपाशिक (ोघ २१८)। णियस्स' (सुपा ३६२)। "किरण पुं[किरण] सूर्य, सूरज (पिंगः खरडिअ वि [दे] १ रूक्ष, रुखा । २ भग्न, सण)। दूसण पुं[दूषण] इस नाम का नष्ट (दे २,७६)। एक विद्याधर राजा, जो रावण का बहनोई खरडिअ वि [लित] जिसको लेप किया गया था (पउम १०, १७) । नहर पुं[ नखर] हो वह, पोता हुआ (पोष ३७३ टी)। श्वापद जन्तु, हिंसक प्राणी सुपा १३६; खरण न [दे] बबूल वगैरह की कण्टक-मय ४७४)। निस्सण पुं [°नि:स्वन] डाली (ठा ४, ३)। इस नाम का रावण का एक सुभट खरफरुस पुं [खरपरुष] एक नरक स्थान (पउम ५६, ३०)। "मुह पुं [मुख] (देवेन्द्र २७)। १ अनार्य, देश-विशेष । २ अनार्य देश-विशेष खरय पु [खरक] भगवान महावीर के कान का निवासी (पएह १, ४) । मुही स्त्री में से खीला (मांस कील) निकालनेवाला एक [मुखी] १ वाद्य-विशेष (पउम ५७, २३; वैद्य (चेइय ६६)। सुपा ५० औप)। २ नपुंसक दासी (वव खरय पु [दे] १ कर्मकर, नौकर (मोष ६) । यर वि [तर] १ विशेष कठोर । ४३८)। २ राहु (भग १२, ६)। (सुपा ६०६) । २ पुं. इस नाम का एक खरहर अक [खरखराय ] 'खर-खर' आवाज जैन गच्छ (राज)। सन्नय न [संज्ञक] करना । वकृ. खरहरंत (गउड) । तिल का तेल (मोघ ४०६) । साविआ स्त्री खरहिअ पुंदे] पौत्र, पोता, पुत्र का पुत्र [शाविका] लिपि-विशेष (सम ३५)। (दे २, ७२)। स्सर ५ [स्वर] परमाधार्मिक देवों की खरा स्त्री [खरा] जन्तु-विशेष, नेवला की तरह एक जाति (सम २६)। भुज से चलनेवाला जन्तु-विशेष (जीव २)। खरय पु [खरकामा [मुखी परह १, ४) For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरिअ - खव खरिअवि [दे] भुक्त, भक्षित (दे २, ६७ भवि ) । रिआ श्री [दे] नौकरानी दासी (श्रीष ४३८) । खरिंसु पुं [दे खरिंशुक ] कन्द-विशेष ( वा २० ) । रुट्टी श्री [खरोष्ट्री ] एक प्राचीन लिपि जी दाहिने सेवाऐं को लिखी जाती थी। गांधार लिपि । देखो, खरोट्टिआ (पण १) । खरुल्ल वि [दे] १ कठिन, कठोर । २ स्थपुट, विषम और ऊँचा (दे २.७० ) । खरोट्टि स्त्री [खरोष्ट्रका] लिपि-विशेष (सम ३५) । खल क [ स्खल ] १ पड़ना, गिरना । २ भूलना। ३ रुकना । खलइ (प्रा) । वक्र. खलंत, खलमाण ( से २, २७ मा ५४६ सुपा ६४१)। खल अक [ स्खल] अपसरण करना, हटना । लाहि (उत्त १२, ७) । खल . [ खलु ] पाद पूर्ति में प्रयुक्त होता श्रव्यय ( प्राकृ ८१ ) । | खल वि [खल] १ दुर्जन, अधम मनुष्य (सुर १, १९) । २ न. धान साफ करने का स्थान (जिपाका १४) । [] खलिहान या खलियान को साफ करनेवाला (माप प्रामा)। [](३२.७१) खलखल क [ खलखलाय् ] 'खल खल' श्रावाज करना । खलक्खलेइ (पि ५५८ ) । खलगंडिअ वि [दे] मत्त, उन्मत्त (दे २, ६७) । न] [[न] १ नीचे देखो (चाचा से ८, ५५; गा ४९६; वज्जा २६) । खळगा श्री [खलना] १ गिर जाना, निपतन (२,१४)। २ विराधना, अंजन ( घोष ७८८) । ३ श्रटकायत, रुकावट; 'होजा गुणो, रण खलणं करेमि जइ अस्स वसरपस्स' (उप ३३९ टी) । खलर्भालय वि [दे]क्षुब्ध, क्षोभ प्राप्त (भवि ) । खलहर | [ खलखल ] नदी के प्रवाह की खद्दल माणवाहिणी दिसि दिसि सुव्वं तखलहरासद्दो' (सुर ३, ११, २, ७५) । ३५ पाइअसद्दमहण्णवो खला अक [दे] खराब करना, नुकसान करना; 'तावि खलो खलाइ य' (पउम ३७,६३) । खवि [स्वलित] १ का २ रुका । गिरा हुआ पतित (हे २, ७७ पात्र ) । ३ न. अपराध, गुनाह । ४ भूल (से १, ε) खलिअ [खलिफ] खल से व्याप्त, जलखचित (दे ४, १०) । खणि पुंग [खलिन] १ लगाम ( पाच ) । २ कायोत्सर्ग का एक दोष ( पव ५) । खलिया स्त्री [खलिका ] तिल वगैरह का तैलरहित चूणं, खली, खरी (सुपा ४१४ ) । खलियार सक [ खली + कृ] १ तिरस्कार करना, धूटकारना । २ ठगना । ३ उपद्रव करना । खलियारसि खलियारेंति (सुपा २३७; स ४६८) । खलियार पुं [ खलिकार ] तिरस्कार, निर्भत्सना ( पउम ३६, ११६) । खलियारण न [खलीकरण] तिरस्कार ( पउम ३६, ८४) । खलियारणा स्त्री [खलीकरणा] वञ्चना, ठगाई ( स २८ ) । खलियारिअ वि [खलीकृत ] १ तिरस्कृत ( पउम ६९, २ ) । २ वश्चित, ठगा हुआ (स २ ) । खटिर [सलि] वलन करनेवाला ( वजा ५८ सरग ) । खली श्री [देखी] - ि वगैरह का स्नेहरहित २६ सुपा ४५ ४१६) । खलीकय देखो खलियारिअ (चउ ४४) । खलीकर देखो खडियारखी ती करेइ (स २७)। कर्म, खलीकरीयर, खसी (२८ सरण) । खलीण न [खलीन] देखो खलिण (सुप ७७; स ५७४) । २ नदी का किनारा 'मीरामयं खरामा (विपा १, १ पत्र - १९ ) । ---- खलु श्र [ खलु ] विशेष सूचक अव्यय ( दसनि ४, १६ ) । । - खलु [ख] इनका सूचक व्ययश्र १ अवधारण, निश्चय (जी ७) । २ पुनः, फिर (भाषा)। ३ पादपूर्ति और वाक्य की For Personal & Private Use Only २७३ शोभा के लिए भी इसका प्रयोग होता है ( आचा निचू १० ) । खित्त न [क्षेत्र] जहाँ पर जरूरी चीज मिले वह क्षेत्र (वव ८ ) । खलुक [] गली बैल, विनीत बैल (ठा ४, ३ – पत्र २४८ ) । २ प्रविनीत शिष्य, कुशिष्य (उत्त २७)। खलुकिज पुं [दे] १ गली बैल संबन्धी । २ न. उत्तराध्ययन सूत्र का इस नाम का एक अध्ययन ( उत्त २७) । खलुग देखो खलुय ( पव ६२ ) । खलुयन [ खलुक ] गुल्फ पाँव का मणिबन्ध ( विपा १, ६) । खल्लन [दे] १ बाड़ का छिद्र । २ विलास (दे २,७७)। ३. खाली रिक 'जाया सल्सकोला परिसोसियमंससोणिया परिणय (उप ७२८ टी; दे १, ३८ ) । ल्ल [] निम्न मध्य, जिसका मध्य भाग नीचा हो वह (दे १,३८) । अवि [दे] १ संकुचित, संकोच-युक्त २ प्रष्ट, हर्षयुक्त (दे २, ७९ । खलग पुंन [३] १ पत्र, पत्ता । २ पत्र खल्लय का दोना (सूत्र १, २, २, १६ टी; पिंड २१० बृह १) । } खलग पुन [दे] १ पत्र का रक्षण खल्लय करनेवाला चमड़ा, एक प्रकार का जूता (धर्मं ३) । २ थैला (उप १०३१ टी) । पक्षी [दे] वर्ग, चमड़ाखाल (२, ६६; पाम) । खल्लाड देखो खल्लीड (निचू २० ) । खहिय श्री [दे] (२,७०)। खहिड (प) देखो खली ( ४, २०६) । खड़ी की [] सिर का वह चमड़ा, जिसमें केश पैदा न होता हो (धाम) । | खल्लीड पुं [ खल्वाट] जिसके सिर पर बाल न हो, गंजा, चंदला (हे १, ७४; कुमा) । खल्लूड पुं [ खल्लूट ] कन्द- विशेष (परण १ –पत्र ३६) । खसक [ क्षपय् ] १ नाश करना। २ डालना, प्रक्षेप करना ३ उल्लंघन करना । खवेइ ( उव), खवयंति ( भग १८, ७) | कर्म. खविनंति (भग) । वकृ. खवेमाण (गाया Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ पाइअसहमहण्णवो खव-खाण १, १८) । संकृ. खवइत्ता, खवित्तु, खवेत्ता खस देश में रहनेवाला मनुष्य (पएह १-पत्र खाअ वि [खात] १ खुदा हुआ। २ न. खुदा (भग १५; सम्य १६, प्रौप)। १४ इक)। हना जलाशय; 'खामोदगाई' ( कप्प)। ३ खव पुं[दे] १ वाम हस्त, बायाँ हाथ । २ खसखस खसखस] पोस्ता का दाना, ऊपर में विस्तारवाली और नीचे में संकुचित गर्दभ, रासभ (दे २, ७७)। उशीर, खस (सं ६६)। ऐसी परिखा । ४ ऊपर और नीचे समान रूप खबग वि [क्षपक] १ नाश करनेवाला, क्षय खसफस अक [दे] खसना, खिसकना, गिर | से खुदी हुई परिखा (प्रौप) । ५ खाई, परिखा करनेवाला । २ पुं. तपस्वी जैन-मुनि (उवः पड़ना । वक खसफसेमाण (सुर २,१५)। पान)। भाव ८)। ३ वि. क्षपक श्रेणि में प्रारूढ़ | खसफसि वि [दे] व्याकुल, अधीर । हूअ खाइ स्त्री [खाति] खाई, परिखा (सुपा २६४) । (कम्म ५)। °सेढि स्त्री [श्रेणि] क्षपण- वि [भूत] व्याकुल बना हुआ (हे ४, खाइ स्त्री [ख्याति] प्रसिद्धि, कीति (सुपा क्रम, कर्मों के नाश की परिपाटी (भग ६, ४२२)। ५२६: ठा ३, ४)। ११, उबर ११४)। खसर देखो कसर = दे कसर (जै २ स | खाइ[दे] देखो खाई (पोप)। खडिदे] स्खलित, स्खलन-प्राप्त | ४८०)। खाइअ देखो खइअ = क्षायिक (विसे ४६) (द २,७१)। खसिअ देखो खइअ = खचित (हे १. १९३)। २१७५: सत्त ६७ टी)। खबग । न [क्षपण] १ क्षय, नाश (जीत)। | खसिअ न [कसित ] रोग-विशेष, खाँसी | खाइअ वि [खादित] खाया हुमा, भुक्त, खवणय २ डालना, प्रक्षेप (कम्म ४,७५)। (हे १,१८१)। भक्षित (प्राप; निर १, १)। ३ पृ. जैन-मुनि (विसे २५८५; मुद्रा ७८)। खसि बि [दे] खिसका हुआ (सुपा २८१)। खाइआ स्त्री [दे. खातिका] खाई, परिखा खवण देखो खमण, 'विहिय पक्खखवणे सो' खसु पुं[दे] रोग-विशेष, पामा, गुजराती में (दे २, ७३, पान सुपा ५२६) भग ५, ७; (धर्म २३)। पएह २,५)। 'खस' (सरण)। खवणा स्त्री [क्षपणा] अध्ययन, शास्त्र-प्रकरण " खह पुन [खह] आकाश, गगन (भग २०, खाई अ [दे] १-२ वाक्य की शोभा और (प्रणु २५०)। पुनः शब्द के अर्थ का सूचक अव्यय (भग ५, खवय पुं[दे] स्कन्ध, कंधा (दे २, ६७)। २-पत्र ७७५) । ४; औप)। खवय देखो खवग (सम २६; पारा १३; खह देखो ख (ठा ३, १)। खाइग देखो खाइअ = क्षायिक (सुपा ५५१)। आचा)। खयर देखो खयर (प्रौपः विपा १, १)। खाइम न [खादिम] अन्न-वजित फल, औषध खबलिअ वि [दे] कुपित, कुद्ध (दे २,७२) । खहयरी स्त्री [खचरी] १ पक्षिणी, मादा | वगैरह खाद्य चीज (सम ३६ ठा ४२; खवल्ल पुं [खवल्ल] मत्स्य-विशेष (विपा १, पक्षी । २ विद्यापरी, विद्याधर की स्त्री (ठा | औप)। ८-पत्र ८३ टी)। खाइर वि [खादिर] खदिर-वृक्ष-सम्बन्धी, खैर खवा स्त्री [क्षपा] रात्रि, रात । जल न खा । सक [खादा खाना, भोजन करना, का, कत्थई (हे १, ६७)। [जल] आवश्याय, हिम (ठा ४, ४)। खाअभक्षण करना । खाइ, खाइ, खाउ खाउय न [खाद्यक] खाद्यपदार्थ (मूलशुद्धि खविअ वि [क्षपित] १ विनाशित, ना किया (हे ४, २२८)। खंति (सुपा ३७०, महा)। गा० १७१, देवदिन्न कथा गा. ६ पछी)। हुआ (सुर ४, ५७; प्राप)। २ उद्वेजित (गा भवि. खाहिइ (हे ४, २२८)। कर्म. खजइ खाओबसम । देखो खओवसमिय (सुपा १३४)। (उव)। वकृ. खत, खायंत, खायमाण खाओवसमिअ५५१: ६४८ सम्य २३) । खव्व पुं [दे] १ वाम कर, बॉया हाथ । (करु १४, पउम २२, ७५; विपा १, १); खाओवसमिग देखो खाओवसमिअ (अज्झ २ रासभ, गधा (दे २, ७७)। 'खंता पिनंता इह जे मरंति, पुणोवि ते खंति ६८; सम्यक्त्वो ५)। खव्य वि [खवे] वामन, कुब्ज, नाटा (पान)। पिनंति रायं ! (करु १४)। कवकृ. खज्जत, खाडइ. वि [दे] प्रतिफलित, प्रतिबिम्बित खत्र्य वि [ख] लघु, थोड़ा; 'अखबगबो खज्जमाण (प उम २२, ४३: गा २४८६ (दे २, ७३)। को आसि' (सिरि ६७५)। पउम १७, ८१, ८२, ४०)। हेकृ. खाइर्ड (पि ५७३)। खाडखड पुं. [खाडखड] चौथी नरक-पृथिवी खपुर देखो कब्बुर (विक्र २८)। खाअ विख्यात प्रसिद्ध, विश्रुत (उप ३२६ का एक नरकावास (ठा ६)। खव्वुल न [दे] मुंह, मुख (दे २,६८)। ६२३; नव २७; हे २, ६०)। कित्तीय वि खाडहिला स्त्री [दे] एक प्रकार का जानवर, खस अक [दे] खिसकना, गिर पड़ना । खसइ [°कीर्तिक] यशस्वी, कीतिमान् (पउम ७, गिलहरी, गिल्ली (पराह १, १, उप पृ २०५ (पिंग)। ४८)। जस वि [यशस् ] वही अर्थ विसे ३०४ टी)। खस पुं. ब. खिस] १ अनार्य देश-विशेष, (पउम ५, ८)। खाण पुं [दे] एक म्लेच्छजाति (मृच्छ हिन्दुस्थान के उत्तर में स्थित इस नाम का खाअ वि [खादित भुक्त, भक्षित; खाउग्गि- १५२)। एक पहाड़ी मुल्क (पउम ६८ ६६) । २ पुंस्त्री. एण-(गा ६६८ भवि) । खाण न [खादन] भोजन, भक्षणः 'खाणेण For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाण-खिखिणिया पाइअसहमहण्णवो प्र पारणेण अतह गहिरो मंडलो अडअरणाए' ७ वि. कटु या चरपरा स्वादवाला, कटु चीज खालिअ वि [क्षालित] धौत, धोया हुआ (गा ६६२, पउम १४, १३६)। (पएण १७–पत्र ५३०)। ८ खारो चीज, (ती १३)। खाण न [ख्यान] कथन, उक्ति (राज)। नमकीन स्वादवाली वस्तु (भग ७, ६ सूत्र १, खावण न [ख्यापन] प्रतिपादन (पंचा १०, खाणि स्त्री [खानि] खान, पाकर (दे २, | ७)। तउसी [त्रपुषी] कटु पुषी, वनस्प ७)। ६६; कुमाः सुपा ३४८)। ति-विशेष (पएण १७)। तिल्ल न ["तैल] खावणा स्त्री [ख्यापना] प्रसिद्धि, प्रकथन; खाणि वि [खानित] खुदवाया हुआ (हे खारे से संस्कृत तैल (पएह २, ५)। 'मेह पुं 'अक्खाणं खावरणाविहाणं वा' (विसे)। [मेघ क्षार रसवाले पानी की वर्षा (भग ७, | खाबियंत वि [खाद्यमान] जिसको खिलाया खाणी देखो खाणि (पान)। ६)। वत्तिय वि [पात्रिक] क्षार-पात्र में | जाता हो वह, 'कागरिणमसाई खावियंत' खाणु । पुं[स्थाणु] स्थाणु, छा वृक्ष, अचल जिमाया हुआ। २ क्षार-पात्र का आधार भूत (विपा १, २-पत्र २४)।। खाणुय (पएह २,५; हे २,७: कस)। (प्रौप) । वत्तिय वि [वृत्तिक] खार में खावियग वि [खादितक] जिसको खिलाया खादि देखो खाइ = ख्याति (संक्षि ६)। फेंका हुआ, खार से सींचा हुआ (प्रौप; दसा | गया हो वह, 'कागरिणम सखावियगा' (पोप)। खाम सक [क्षमय ] खमाना, माफी मांगना। ६) । वावी स्त्री ["वापी] क्षार से भरी हुई खावेंत वि [ख्यापयन् ] प्रख्याति करता खामेइ (भग)। कर्म, खामिजइ, खामोअइ | वापी, कूमा (पएह १, १)। हुआ, प्रसिद्धि करता हुआ (उप ८३३ टी)। (हे ३, १५३) । संकृ. खामेत्ता (भग)। खारंफिडी स्त्री [दे] गोधा, गोह, जन्तु-विशेष खास प्रक[कास् ] खांसना, खाँसी खाना । खाम वि [क्षाम] १ कृश, दुर्बल; 'खामपं (दे २, ७३)। खासई (तंदु १६)। डुकवोलं' (उप ६८६ टी पात्र)। २ क्षीण, खारदूसण वि [खारदूषण] खरदूषण का, प्रशक्त (दे ६,४६)। खास पु [कास] रोग-विशेष, खाँसी की खरदूषण-सम्बन्धी (पउम ४५, १५)। बीमारी, खांसी (विपा १, १; सुपा ४०४; खामण न [क्षमण] खमाना (श्रावक ३६५ । खारय न दि] मुकुल, कली (दे २, ७३) । सण)। खामणा स्त्री [क्षमणा] क्षमापना, माफी खारायण [क्षारायण] १ ऋषि-विशेष । खासि वि [कासिन्] खांसी का रोगवाला मांगना, क्षमा-याचना (सुपा ५६४ विवे २ माण्डव्यगोत्र के शाखाभूत एक गोत्र (ठा। (सुपा ५७६)। ७६)। खामिय वि [क्षमित] १ जिसके पास क्षमा खासिअ न [कासित] खाँसी, खाँसना (हे १, खारि स्त्री [खारी] एक प्रकार की नाप, ३४ मांगी गई हो वह, खमाया हुआ (विसे २३८८; १८१)। सेर की तौल (गा ८१२)। हे ३, १५२)। २ सहन किया हुप्रा । ३ खासिअ पु[खासिक] १ म्लेच्छ देश विशेष । खारिंभरी स्त्री [खारिम्भरी खारी-परिमित विलम्बित, विलम्ब किया हुआ; 'तिरिण २ उसमें रहनेवाली म्लेच्छ जाति (पएह १, वस्तु जिसमें घट सके ऐसा पात्र भर दूध देने- । अहोरता पुण न खामिया मे कयंतेण (पउम । १-पत्र १४; इक; सूत्र १, ५, १) । वाली (गा ८१२)। ४३, ३१ हे ३, १५३)। खारिक न [दे] फल-विशेष, छुहारा (सिरि खि प्रक [क्षि क्षीण होना। कर्म, 'खिज्जइ खाय पुं[खाद] पाँचवी नरक-भूमि का एक ११९६)। भवसंतती' (स ६८४)। खीयंति, खीयंते (कम्म ६,६६, टी)। नरक-स्थान (देवेन्द्र ११)। खारिय वि [क्षारित] १ सावित, झराया खिइ स्त्री [क्षिति] पृथिवी, धरा (पउम २०, खायर देखो खाइर (कर्म ६)। हुआ (वव ६)। २ पानी में घिसा हुआ १५६; स ४१६)। 'गोयर पुं [गोचर] खार ( [क्षार] १ एक नरक-स्थान (देवेन्द्र (भवि)। मनुष्य, मानुष, प्रादमी (पउम ५३, ४३)। ३०) २ भुजपरिसपं को एक जाति (सूम २, खारी देखो खारि (गा ८१२; जो १)। पइट्ठ न [प्रतिष्ठ] नगर-विशेष (स ६) । ३, २५) । ५ बैर, दुश्मनी (सुख १, ३)। । खारूगणिय ' खारुगणिय पुं[क्षागणिक] १ म्लेच्छ देशविशेष । २ उसमें रहनेवाली म्लेच्छ जाति पाठ्य न [प्रतिष्ठित १ इस नाम का डाह पुंन [दाह] क्षार पकाने की भट्ठी एक नगर (उप ३२० टीः स ७) । २ राजगृह (पाचा २, १०, २) । 'तंत पुन [तन्त्र]| (भग १२, २)। नाम का नगर, जो आजकल बिहार में 'राजआयुर्वेद का एक भेद, वाजीकरण (ठा ८खारोदा स्त्री [क्षारोदा] नदी-विशेष (राज)। गिर' नाम से प्रसिद्ध है (ती १०)। सार पत्र ४२८)। खाल सक[क्षालय ] धोना, पखारना, पानी [°सार] इस नाम का एक दुर्ग (पउम खार पुं [क्षार] १ क्षरण, झरना, संचलन से साफ करना। कृ.खालणिज्ज (उप ३२६)। ८०,३)। (ठ)। २ भस्म, खाक (णाया १, १२)। खाल स्त्रीन [दे] नाला, मोरी, गंदगी निकलने खिंख अक [सिङ्घय ] खिखि भावाज करना। ३ खार, क्षार; लवण-विशेष (सूम १,७)। का मार्ग (ठा २, ३) स्त्री. खाला (कुमा)। खिखेइ । वक़. खिंखियंत (सुख २, ३३)। ४ लवण, नोन (बृह ४) । ५ जानवर-विशेष खालण न [क्षालन] प्रक्षालन, पखारना (सुपा खिंखिणिया स्त्री [किङ्किणिका] क्षुद्र घण्टिका (पएण १)। ६ सजिका, सजी (सूम १,४,२) ३२८)। (उवा)। For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ खिलणी श्री [[किङ्किणी] ऊपर देखो (हा १० णाया १, १, अजि २७ ) । खणी श्री [] २,७४) । श्री सियार (दे खिंग पुं [ खिङ्ग ] रंडीबाज, व्यभिचारी; 'गायरस' (रंभा ) खिस स [ खिं] निन्दा करना, ग करना, तुच्छकारना। खिसए (प्राचा) । कर्म (बृह १) खिसि अंत ( उप ५८८ ) । सिणिज (खाया १,३) । सिन [[सिन] अवरवाद, निन्दा यहाँ श्रीप)। [[सिना ] निन्दा, गह (श्रीषः उप १३४ टी) । खिसा स्त्री [खिसा ] ऊपर देखो (घोष ६०) ४२) । खिसिय[ खिसित ] निन्दित गि (ठा ६) । लिखिंड [३] कलास, गिरगिट, सर (दे २, ७४) । त्रिक्खियंत [खिखीयमान] आवाज करता ( परह १, ३ – पत्र ४६ ) । खिखिरी श्री [दे] डोम का प रोकने की लकड़ी (दे २, ७३) । विश्व पुंन [दे] खीचड़ी, कृसरा (दे १, १३४) । [ख] १ खेद करना, अफसोस करना । २ उद्विग्न होना थक जाना । खिज्जइ, खिज्जए ( स ३४० गउड पि ४५७) खिजियय (महा १३ खिज्जणिया स्त्री [ खेदनिका ] खेद क्रिया अफसोस, मन का उद्वेग (गाया १, १६पत्र २०२ ) । विज्जिजन [दे] आलम्भ, उलाहना (दे २.७४) । खजिअ वि [ खिन्न ] १ खेद प्राप्त । २ न. खेद (५५५) । ३ प्रणय-जन्य रोष (गाया १, ६-पत्र १६५ ) । खिखिन [ खेदितक ] छन्द-विशेष (अजि ७) । [द]] छेद करनेवाला, जिल होने की प्रादतवाला (कुमा ७, ६० ) । पाइअसद्दमद्दण्णवो सिन खिड्ड न [ खेल ] खेल, क्रीड़ा, मजाक, 'खिड्डेग मए भणियं एवं' (सुपा ३०२ ) ; 'बालत्तणं खिरी गमेई' (६८) र । कर fa [" कर ] खेल करनेवाला, मजाक करनेवाला (सुपा ७८)। खिoण वि [खिन्न] १ खिन्न, खेद प्राप्त । २ श्रान्त, थका हुआ (दे १, १२४; गा २२६) । खिoण देखो खाण (प्राप) खित्त वि [क्षिप्त ] १ फेंका हुआ (सुर ३, १०२; सुपा ३५७) । २ प्रेरित (दे १, ६३) । "इस "चिस ["चित] प्रान्त-चित चित्त विक्षिप्तमनस्क पागल ( १ २ घोष ४६७; ठा ५, १) | मण वि [मनस्] चित्त भ्रमवाला (महा) । वित्त देखो खेत (प्रासू पडि) देवया । श्री ["देवता] क्षेत्र का अधिष्ठायक देव (४७) बाल [पाल] देव-विशेष, क्षेत्र-रक्षक देव (सुपा १५२ ) । [क्षेत्र]] गोद लिया हुआ लड़का "त्ति (कुल २००)। वित्तयन [क्षिप्त ] छन्द-विशेष (प्रजि २४ २५) । [] तुकसान २वि. दीप्त प्रचलित (दे २, ७१) । वित्त वि[क्षैत्रिक] १ क्षेत्र सम्बन्धी । २ पुं. व्याधि-विशेष 'तापुर मरवाएं जह बहुवाही खिति वाही (था १२) । खिन्न देखो खिण्ण = खिन्न (पात्र: महा) । खिप्प अक [ कृप् ] १ समर्थ होना । २ दुर्बल होना । खिप्पड ( संक्षि ३५) । खिप्प वि [ क्षिप्र ] शीघ्र, त्वरायुक्त वि ['गति] १ शीघ्र गतिवाला । २ पुं. अमितगति इन्द्र का एक लोकपाल (ठा ४, १) । खिप्पं [ क्षिप्रम् ] तुरन्त, शीघ्र, जल्दी गइ (प्रासू ३७: पडि ) । खिप्पंत देखो खित्र । खिप्पामेव अ [ क्षिप्रमेव ] शीघ्र ही, तुरन्त ही ( ३ महा सिमा श्री [क्ष्मा] पृवित्री (पं)। खिर क [ क्षर ] १ गिरना, गिर पड़ना । २ टपकना, भरना । खिरड ( हे ४, १७३) । व. खरंत (पउम १०, ३२) । For Personal & Private Use Only खिखिणी - खीण खिरयवि [क्षरित ] १ टपका हुआ। २ गिरा हुआ (पा) । सिल [ खिल] पट-भूमि, ऊसर जमीन न ( परह १, २ – पत्र २६ ) । खिलीकरण न [ खिलीकरण] खाली करना, शून्य करना 'वजण कर (८)। खिल सक [ कीलय् ] रोकना, रुकावट डालना; ' भरगइ इमारणं बन्धव ! गमरणं खिले (१३७)। सिल [ खेल ] क्रीड़ा करना, केन करना, क तमाशा करना । वकृ. खिल्लत (सुपा ३६९) । खिल्ल [दें] फोड़ा, फुनसी; गुजराती में 'बी' (१०)। खिनन [खेलन] खिलौना खेलन (मुर १५, २०८ ) । कन्द- विशेष (संबोध [दे. लहड] कन्द विशेष खिल ( २०० पर्म २ ) । खिल्लुहडा स्त्री [दे] ४४) । खिव सक [ क्षिप् ] १ फेंकना । २ प्रेरना । ३ डालना । खिवइ, खिवेइ (महा) । व. खिमाण ( पाया १, २ ) । कवकृ. खिप्पंत (काल) । संकृ. खिविय ( कम्म ४, ७४) । कृ. खिवियव्व (सुपा १५० ) । खित्रण न [क्षेपण] १ फेंकना, क्षेपण (से १२, ३६) । २ प्रेरण, इधर-उधर चलाना (से ५, ३) । खिवियदि [क्षिप्त ] १ क्षिप्न, फेंका हुआ । २ प्रेरित (सुपा २)। खिव्व देखो खिव संकृ. 'ग्रह सिव्ऊिण सव्वं, पोए ते पत्थिया रयणभूमि' (धम्म १२ टी) । खिसक [दें] सरकना, खिसकना । संकृ. 'ग्रह नियगामे गच्छंतस्स खिसिऊण वाहणाहितोपडियं (सुपा ५२७; ५२८ ) । खोण देखो खिष्ण = खिन्नः 'कोवेत्थ सुरयखीणों (पउम ३२, ३) । खीण[क्षिण] य-प्राप्त नष्ट विधिन्न ( सम्म ६०; हे २, ३) । २ दुर्बल, कृश (भग २, ४) "दुद्द वि ["दुःख] दुःखरहित (सम १५३) । मोह वि ['मोह] १ जिसका मोह नष्ट हो गया हो वह (ठा ३, Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयमाणमुड ४) । २ न. बारहवाँ गुण - स्थानक (सम २६ ) । "राग व ["राग] [१] वीतराग राग-रहित। २. देव 2 खीयमाण वि [क्षीयमाण ] जिसका क्षय होता जाता हो वह (१८६ टी खीर न [क्षीर] बेला, दो दिन का उपवास (संबोध ५८)। "डिंडिर' ["डिण्डीर]] देव - विशेष ( कुप्र ७६)। 'डिंडिरा स्त्री [डिण्डीरा ] देवी विशेष ( कुप्र ७६) । वर [व] १ समुद्र-विशेष । २ द्वीप - विशेष ( युग्म १६) | खीर न [क्षीर ] १ दुग्ध, दूध (हे २, १७ प्रासू १३ : १६८ ) । २ पानी, जल (हे २, १७) पु. सीरवर समुद्र का अधिायक देव ( जीव ३ ) । ४ समुद्र विशेष, क्षीर-समुद्र (उम ६६, १०) कथंच ['कदम्ब] खीर व [क्षीरकित ] संजात-क्षीर, जिसमें दूध उत्पन्न हुआ हो वह; 'तए गं साली पत्तिया वत्तिश्रा गब्भिया पसूया श्रागयगन्धा पाइअसमण्णवो खीरा (? र) इया बद्धफला' (गाया १, ७) । खीरि वि [क्षीरिन्] १ दूधवाला । २ पुं जिसमें दूध निकलता है ऐसे वृक्ष की जाति ( उप १०३१ टी ) । रिमाण [ क्षीर्यवाण ] जिसका वि दोहन किया जाता हो वह ( श्राचा २, १, ४) । खीरिणी श्री [क्षीरिणी] दूधवाली (याचा ? २, १४) २ वृक्ष-विशेष (पण १ - पत्र ३१) । खीरी श्री [क्षैरेयी] खीर, पक्कान्त- विशेष (सुपा ६३६ पाच)। 1 इस नाम का एक ब्राह्मण उपाध्याय (पउम २१) ओली [काको] वनस्पति-विशेष, श्रीरविदारीः (पए १) "जल [ज] क्षीरसमुद्र, समुद्र- विशेष (दीप)। जलनिहि ं ["जखनिधि] नही पुं पूर्वी १९५) "दुम, "म [म] पेड़, जिसमें दूध निकलता दूधवाला है ऐसे वृक्ष की जाति (घोष २४९ निखील १) । धाई स्त्री [धात्री ] दूध पिलानेवाली दाई (या १, १) । पूर [पूर] उबलता हुआ दूध ( पण १७ ) । भ [भ] क्षीरवर द्वीप का एक अधिष्ठाता देव ( जीव ३)। मेह [मेघ] दूध समान स्वादवाले पानी की वर्षा ( तित्थ ) 'वई स्त्री [ती] प्रभूत दूध देनेवाली (बृह ३) । वर [र] द्वीप - विशेष (जीव २) वारिन ["वारि] क्षीरसमुद्र का । जल ( प ६६, १८) हर ["गृद, पु धर] क्षीर सागर ( वज्जा २४) । सव | । [व] लब्धि-विशेष, जिसके प्रभाव से वचन दूध की तरह मधुर मालूम हो । २] ऐसी वाला जीव (२१; श्रीप)। खीरोअ पुं [ क्षीरोद] समुद्र-विशेष, क्षीरसागर (हे २, १८२० गा ११७; गउड उप ५३० टी; स ३४४) । खीरोआ श्री [द] नदी (इकठा २,३) । खीरोद देखो खरो (का ७) । खोरोदक)[सारोदक] शीर-सागर } ८ः खीरोदय (खाया १, श्रीप खीरोदा देखो खीरोआ (डा १, ४ पत्र १६१) । खील } पु' [कील, क] खीला, खूँट, खूंटी (स १०६ धूम १, ११. हे खीलव १, १८१६ कुमा) । मग्ग पु [मार्गे ] मार्ग-विशेष, जहाँ धूली ज्यादा रहने से खूंटे के निशान बनाये गये हों (सूम १, ११) । खोलावण न [क्रीडन] खेल कराना, क्रीड़ा कराना । "धाई स्त्री [°धात्री] खेल-कूद करानेवाली दाई (छाया २ १२ २०)। खोलिया देखो कीलिआ (जीवस ४८ ) । खीलिया श्री [कीलिका] घोटी टी (धाम) खीव' [ची] मद-प्राप्त, मदोन्मत्त मस्त (दे, ८, ६३) । । खु अ [ खलु ] इन अर्थों का सूचक अव्यय - १ निश्चय, अवधारण । २ वितर्क, विचार । ३ संशय, संदेह । ४ संभायना ५ विस्मय, साथ हे २ ११० षड् गा ६ १४२ ४०१ स्वप्न ; कुमा) । खु देखो खुहा ( परह २, ४ सुपा १६८० गाया १, १३) । । खुंट पुं [दे] खूँट, खूँटी । मोडय वि [मोटक] लूटे को मोड़नेवाला आते छूटकर भाग जानेवाला । २ पुं. इस नाम का एक हाथी (नाट - पृच्छ ८४) । खंड [दे] लित, स्वना प्राप्त (दे वि २, ७१ ) । नाम की एक खुद (शी) सक [] १ जाना २ पीसना, कूटना । खुददि (प्राकृ ९३ ) । २७७ For Personal & Private Use Only खुइ स्त्री [क्षुति ] १ छोंक । २ छींक का निशान (गाया १, १६० भग ३, १) । खुइय [दे] १ । २ विध्यात शान्त, 'खुइया चिया' (कुप्र १४० ) । संणय [] नाक का छिद्र (२,७६२ पाच। बुंगाह [] अक्ष को एक उत्तम जाति खुणी स्त्री [दे] रथ्या, मुहल्ला (दे २.७६) । पुं (सम्मत २१६) । खंदक [५] सूख लगा द । (प्राकृ ६६ ) । सुंपा श्री [दे] वृष्टि को रोकने के लिए बनाया जाता एक तृणमय उपकरण (दे २, ७५) । खुंभण वि [क्षोभण] क्षोभ उपजानेवाला ( परह १, १ - पत्र २३ ) | खुज्ज अक [ परि + अस् ] १ फेंकना । २ निरास करना । खुबइ ( प्राकृ ७२ ) । खुज्ज ) वि [कुब्ज ] १ कूबड़ा । २ वामन खुज्जय ) (हे १, १८१३ गा ५३४) । ३ वक्र, टेड़ा (घोष) ४ एक पार्श्व से हीन (पव ११० ) । ५ न. संस्थान - विशेष, शरीर का वामन श्राकार (ठा ६; सम १४६; औप ) । स्त्री. खुज्जा (गाया १, १ ) । सुजिय वि [कुब्जिन] कूबड़ा (घाचा)। खुट्ट सक [तु] १ सोड़ना, लरित करना, टुकड़ा करना । २ श्रक. खूटना, क्षीण होना । ३ टूटना, त्रुटित होना। खुट्टइ (नाटसाहित्य २२९ ४११६) ति ( उव) । " खुट्ट वि [दे] त्रुटित, परित चित्र ( २, ७४ भवि ) । खुड देखो खुट्टा ( ४. ११६) । खुडेंति (से८, ४८ ) । वकृ. 'पवंगभिन्नमत्थया = Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाणा साहू सरण खुर पुं खुप प्रासू १७१) २७८ पाइअसहमहण्णवो खुडक-खुल्लिरी खुडंतदित्तमोत्तिया (पउम ५३, ११२ स लीनः 'अजरामरपहखुराणा साहू सरणं सुकय- खुय न [क्षुत] छौंक (चेइय ४३३)। ४४८) । संकृ. खुडिऊण (स ११३)। पुराणा' (चउ ३८ संथा)। खुर पुं[खुर] जानवर के पाँव का नख (सुर खुडक देखो खुडुक्क = (दे)। खुडकए (धर्मवि | खुण्ण वि [दे] परिवेष्टित (दे २,७५)। १, २४८ गउडः प्रासू १७१)। ७१)। खुत्त वि [दे] निमग्न, डूबा हुमा (दे २,७४० खर पुंक्षुिर] छूरा, उस्तरा (गाया १, ५ खुडक्किम [दे] देखो खुडुक्किअ (गा २२६)। णाया १,१; गा २७६:३२४; संथाः गउड)। कुमाः प्रयौ १०७)। पत्त न [°पत्र खुडिअ वि [खण्डित] त्रुटित. खण्डित, खुत्तोप[कृत्वस् ] बार, दफा (उबः । प्रस्तुरा या उस्तरा, छूरा (विपा १, ६)। विच्छिन्न ( हे १, ५३ षड् )। सुर १४, ६१)। खुरप्प पुन [क्षुरप्र] एक तरह का जहाज खुडुक्क सक [अप + क्रमय ] हटाना, दूर खुद्द वि [क्षुद] तुच्छ, नीच, दुष्ट, प्रधम (पएह (सिरि ३८३) । करना । खुडुक्कइ (प्राकृ ७०)। १, १, ठा ६)। खुरप्प पुं[क्षुरप्र] १ घास काटने का प्रस्त्र. खुद्द न [क्षौद्रय] क्षुद्रता, तुच्छता, नीचता | विशेष, खुरपा (सम १३४) । २ शर-विशेष, खुडुक अक [दे] १ नीचे उतरना। २ स्खलित (उप ९१५)। एक प्रकार का बाण (वेणी ११७)। होना । ३ शल्य की तरह चुभना । ४ गुस्सा खुद्दिमा स्त्री [क्षुद्रिमा] गान्धार ग्राम की एक से मौन रहना । खुडुक्कइ (हे ४, ३६५) । खुरसाण पुं [खुरशान] १ देश-विशेष मूर्छना (ठा ७–पत्र ३६३)। वकृ. खुडुक्कंत (कुमा)। (पिंग)। २ खुरशान देश का राजा (पिंग)। खुडुक्किम वि [दे] १ शल्य की तरह चुभा खुद्ध वि [क्षुब्ध] क्षोभ-प्राप्त, घबड़ाया हुआ खुरहखुडी स्त्री [दे] प्रणय-कोप ( षड् )। हुआ, खटका हुआ (उप ३५५) । २ रोष(सुपा ३२५)। खुरासाण देखो खुरसाण (पिंग) । मूक, गुस्सा से मौन धारण करनेवाला । श्री. खुधा स्त्री [क्षुध् ] भूख (धर्मसं १०६२)। खुरि वि [खुरिन] खुरवाला जानवर (माव "आ (गा २२६ अ)। खुधिय वि [क्षुधित क्षुधातुर, भूखा (सूम ३) । खुड्ड । वि [दे. क्षुद्र क्षुल्लक] १ लधु, १, ३, १)। खुरु पु खुरु] प्रहरण-विशेष, आयुध-विशेष खुड्डग, छोटा (दे २, ७४ कप्पः दस ३, खुन्न देखो खुण्ण = क्षुण्ण (पि ५६८)। (सुर १३, १६३)। माचा २, २, ३; उत्त १)। २ नीच, अधम खुन्न देखो खुण्ण = (दे) (पान)। खुरुक्खु डी स्त्री [दे] प्रणय-कोप (दे २, दुष्ट (पुप्फ ४४१)। ३ पु. छोटा साधु, लघु खुप्प सक [प्लुष्] जलाना । खुप्पइ (प्राकृ७६ शिष्य (सूत्र १, ३, २)। ४ पुंन, अंगुलीय- ६५) । खुरुप्प देखो खुरप्प (पउम ५६, १६; स विशेष, एक प्रकार की अंगूठी (ौपः उप | खुप्प अक [ मस्ज ] डूबना, निमग्न होना। १८४)। २०४)। खुप्पइ (हे ४,१०१)। वकृ. खुप्पंत (गउड; खल कदि वह गाँव जहाँ साधुओं को भिक्षा खुड्डमड्डा प्र[दे] १ बहु, अत्यन्त । २ फिर- कुमाः मोघ २३; से १३, ६७)। हेकृ. कम मिलती हो या भिक्षा में घृत प्रादि न फिर (निचू २०)। खुप्पिउं (तंदु)। मिलता हो (वव १)। खुड्डय देखो खुड्ड (हे २, १७४ षड; कप्पः । खुप्पिवासा स्त्री क्षुत्पिपासा] भूख और | खुल देखो खुम्म । खुलइ (प्राकृ ६६) । सम ३५; गाया १,१)। प्यास (पि ३१८)। खुलिअ देखो खुडिअ (पिंग)। खुब्भ अक [ क्षुभ् ] १ क्षोभ पाना, क्षुभित खुड्डाग देखो खुड्डग (प्रौप परण ३६ खुलुह पु[दे] गुल्फ, पैर की गांठ, फीली (दे खुड्डाय होना । २ नीचे डूबना। वकृ. खुब्भंत (ठा गाया १,७ कप्प)। "णियंठन ७.-पत्र ३८३)। २, ७५; पान)। [नैप्रेन्थ] उत्तराध्ययन सूत्र का छठवाँ खुब्भण न [क्षोभण] क्षोभ, घबड़ाहट खुल्ल न [दे] कुटी, कुटीर (दे २, ७४) । अध्ययन (उत्त ६)। खुल्ल (राज)। खुड्डिअ न [दे] सुरत, मैथुन, संभोग (दे २, । वि [क्षुल्ल, क] १ छोटा, लघु, खुभ प्रक[क्षुभ् ] डरना, घबड़ाना। खुभइ खुल्लग क्षुद्र (पएण १)। २ पुं. द्वीन्द्रिय जीव-विशेष (जीव १)। खुड्डिआ स्त्री [दे. क्षुद्रिका] १ छोटी, लघ्वी (रयण १८) । कृ. खुभियव्व (पण्ह २,३)। खुल्लग देखो खुड्डग (कुप्र २७६) । (ठा २. ३: प्राचा २.२.३)। २ डाबर. खुभिय वि [क्षुभित १ क्षोभ-युक्त, घबड़ाया खुल्लण (अप) देखो खुड्ड (पिंग)। नही खुदा हुमा छोटा तलाव (जं १; परह | हुआ (पएह १, ३)। २ न. क्षोभ, घबड़ाहट खुल्लय वि [क्षुल्लक] १ लघु, क्षुद्र, छोटा (प्रोघ)। ३ कलह, झगड़ा (बृह ३)। (भवि)। २ कपदंक-विशेष, एक प्रकार की खुणुक्खुडिआ स्त्री [दे] प्राण, नाक, नासिका खुम्म अक [क्षुध् ] भूख लगना। खुम्मइ कौड़ी (णाया १,१८–पत्र २३५)।। (दे २, ७६)। (प्राकृ ६६)। खुल्लासय पु[दे] खलासी, जहाज का खुवि [क्षुण्ण] १ मर्दित (गा ४४५; खुम्मिय वि [दे] नमित, नमाया हुया (णाया कर्मचारी-विशेष (सिरि ३८५)। निचू १) । २ चूरिणत (दे २, ४५)। ३ मग्न, १,१-पत्र ४७)। खुल्लिरी स्त्री [दे] संकेत (दे २, ७०) । For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुब खेमा खुब [प] जिसकी शाखा और मूल छोटे होते हैं ऐसा फूल (गाया १. १-पत्र ६५) [] विशेष कण्टक-रा कँटीला घास (दे २, ७५) । खुब्ब देखो खुभ । खुब्बइ ( षड् ) । वयन [] पसेका गुड़वा दोना (भ २) । देखो भ . खुप ६१६)। खुहा श्री [] भूखा (महा बुभुक्षा प्रासू १०३) परिसह परीसह । पुं [परिप, परीषह] भूख की वेदना को शान्ति से सहन करना ( उत्त २; पंचा १) । खुवि [भ] प्राप्त से १, ४६; सुपा २४१ ) ! २ क्षोभ, संत्रास (श्रोध ७) । खूण न [क्षूग] नुकसान, हानि (सुर ४, १९३३ महा) । २ अपराध, गुनाह (महा) । ३ न्यूनता, कमी (सुपा ७; ४३० ) । खेअ सक] [ खेदयू ] विप्न करना, छेद उपजाना। खेएइ (विसे १४७२ ; महा) । खेअ पुं [खेर ] १ खेद, उद्वेग, शोक (अ ७२) २ तकलीफ, परिश्रम (११५) ३ संयम, विरति ( उत्त १५) । ४ थकावट, श्रान्ति ( प्राचा) । ण्ण, न वि ['ज्ञ] निपुण, कुशल, चतुर, जानकार (उप १०८ श्रोध ६४७ ) । खेअ देखो खेत्त (सूत्र १, ६० प्राचा) । खेअ [क्षेप] त्याग, मोचन ( से १२, ४८ ) अण न [खेदन] १ खेद, उद्वेग । २ वि. खेद उपजानेवाला (कुमा ) | अर देखो खयर (कुमार) [प] विद्याधरों का राजा (पउम २८, ५७) । विपुं [धिपति ] विद्याधरों का राजा (पउम २८, ४४ ) । खेअरिंद] (१२) । खेअरी देखो खयरी (कुमा) । खेल [] मन्द बालो २२, ७७) । [वि] [ख] ग्नि किया हुआ स ६३४) । पाइअसद्दमहण खेचर देखो खेअर (ठा ३, १ ) । खेळणा श्री [खेदना] वेद-सूचक वाणी, (गाया १.१८ ) । [खे नरेन्द्र ] बेवरों का राजा खेड सक [ कृष्] खेती करना, चास करना । खेडइ (सुपा २७६ ); ग्रह अन्नया य दुन्निवि हलाएं खेडंति अप्पराच्चेव' (सुपा २३७ ) । खेड तक [ खेटय् ] हांकना एय ३३७; कुप्र ७१ ) । खेटन [ख] १ भूलो का प्राकारवाला नगर ( प परह १, २ ) । २ नदी और पर्वतों सेवेत नगर (२२) ३. मृगया, । शिकार (भवि खेडन [पेटक] फलक, ग्राम ३) । खेडन [ण] तो करना (सुपा २३७) । खेडग न [खेटन] खदेड़ना, पीछे हटाना ( उप २२९) । खेडगभग [खेलनक] खिलौना (नाट रत्ना ६२) । खेड [वेक] १ विष, जहर (हे २, ६) २ वर-विशेष (कुमा) । खेड वि [स्फेट क] नाशक, नारा करनेवाला (हे २६ कुमा) । खेडयन [खेटक ] छोटा गांव (पान सुर २, १९२) । खेदाग [खेलक] जेल करनेता, वि समासगिर (उप १०) | खेडिअ वि [कृष्ट ] हल से विदारित (दे १, १३६) । खेडिअ [स्फेटिक] १ नावाला, नधर २ अनादरवाला (हे २, ६) । खेड्ड अक [ रम् ] क्रीड़ा करना, खेल करना । खेड्डइ (हे ४, १६८ ) । खेड्डति (कुमा) । 1 न [ खेल ] १ क्रीड़ा, खेल, तमाशा, मजाक (हे २, १७४६ महाः सुपा २७ स५०९ ) । २ बहाना, छल 'मयखेड्डय विहेऊण' (सुपा ५२३) । खेडा श्री [कीडा] खेल तमाशा । (भौपः पउम ८, ३७: गच्छ २ ) । खेड़िया श्री] [[]] बारी दफा 'भद पछिमा [दे] 'भद्द ! (४) खेत [क्षेत्र]] [[धाकारा (बिसे २००८) | खेडू खेडूय For Personal & Private Use Only २७६ २ कृषि भूमि (बृह १) जमीन भूमि ४ देश, गाँव, नगर वगैरह स्थान ( कप्पः पंचू विसे) । ५ भार्या, स्त्री (ठा १० ) । * कप पुं [कल्प ] १ देश का रिवाज (बृह ६ ) | २ क्षेत्र - संबन्धी अनुष्ठान । ३ ग्रन्थ-विशेष, जिसमें क्षेत्र विषयक श्राचार का प्रतिपादन हो (पलिओन [पयोपम] काल का नाप - विशेष (अणु) रिय [[["] मार्य भूमि में उन मनुष्य (पण १) । देखो खित्त = क्षेत्र | खेत्तव [देव] राहु (मुख २० ) | पुं । [खेति वि[सेविन] क्षेत्राला का स्वामी (विसे १४६९) । खेमन [तेम] १ पुरान, कल्याण, हित ( पउम ६५, १७, गा ४६६; भत्त ३६; रण ६ ) । २ प्राप्त वस्तु का परिपालन (गाया १, ५) । ३ वि. कुशलता-युक्त, हितकर उपद्रव रहित (गाया १, १, दस ७ ) । ४. पाटलिपुत्र के राजा जितशत्रु का एक (१) "पुरी श्री ["पुरी] १ नगरी - विशेष (पउम २०, ७) । २ विदेहवर्ष की एक नगरी (ठा २,३) । खेमंकरपुं [क्षेमङ्कर ] १ कुलकर पुरुष - विशेष (पउम २५२२ ऐवत क्षेत्र के चतुर्थ कुलकर- पुरुष (सम १५३)शेष ग्रहाधिष्ठायक देव-विशेष (ठा २, ३ ) । ४ स्वनाम-प्रसिद्ध एक जैन मुनि (पम २१ ८० ) । ५ त्रि. कल्याण-कारक, हित-जनक ( २११ दो । खेमंधर पुं [ क्षेमन्धर ] १ कुलकर पुरुषविशेष ( पउम ३, ५२ ) ऐरवत क्षेत्र का पाँचवाँ कुलकर पुरुष - विशेष (सम १५३ ) । ३ वि. क्षेम धारक, उपद्रव रहित (राज) । खेम [क्षेमक] स्वनान- प्रसिद्ध एक अन्त कृद् जैनमुनि (अंत) । खेमराय [अंमराज] राजा कुमारपाल का एक पूर्व पुरुष (कुप्र५) । खेमलिज्जिया स्त्री [क्षेमलिया ] जैनमुनि-गण की एक शाखा ( कष्प) । खेमा श्री [मा] १ विदेह वर्ष की एक नगरी (ठा २, ३ ) । २ क्षेमपुरी - नामक नगरी - विशेष ( पउम २०, १० ) । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० पाइअसहमहण्णवा खेर-खोमग खेर पुं दे] एक म्लेच्छ जाति (मृच्छ १५२) । खेविय वि [खेदित] खिन्न किया हुआ खोडय पं. [स्फोटक] फोड़ा, फुसी (हे २, खेरि स्त्री [दे] १ परिशाटन, नाशः 'धएणखरि | (भवि)। वा' (बृह २)। २ खेद, उद्वग। ३ उत्कंठा, खेह पुंन [द] धूली, रज; 'बग्गिरतुर गखर- खोडिय पुं [खोटिक गिरनार पर्वत का उत्सुकता (भवि)। | खुरुक्खयखेहाइन्नरिक्खप हैं (सुर ११, १७१)। क्षेत्रपाल देवता (ती २)। खेल अक [खेल ] खेलना, क्रीड़ा करना, खोअ [क्षोद] १ इक्षु, ऊख । २ द्वीप-| खोडी स्त्री [दे] १ बड़ा काष्ठ (पएह १, ३तमाशा करना । खेलइ (कप्पू), खेलउ (गा विशेष, इक्षुवर द्वीप । ३ समुद्र-विशेष, पत्र ५३)। २ काष्ठ की एक प्रकार की पेटी १०६) । वकृ. खेलंत (पि २०६)। इक्षुरस समुद्र (अणु ६०)। (महा) । ३ नकली लकड़ी (३ प्राव वृ. हारि. खेल पु [दे] जहाज का कर्मचारी-विशेष खोइय वि [दे] विच्छेदित, 'सव्वे संघी पत्र ४२१)। (सिरि २८५)। खोइया' (सुख २, १५)। खोणि स्त्री [क्षोणि] पृथिवी, धरणी (सण)। खेल वि [खेल] खेल करनेवाला, नाटक का | खोउदय पुं [क्षोदोदक] समुद्र-विशेष (सूत्र वइ पुं[पति] राजा, भूपति (उप ७६८ पात्र (धर्मवि ६ ) स्त्री. "लिया (धर्मवि ६)। १, ६, २०)। टी)। खेल प[श्लेष्मन् श्लेष्मा, कफ, निष्ठीवन, खोओद देखो खोदोद (सुज १९)। खोणिद पुं [क्षोणीन्द्र] राजा, भूमिपति थूथू (सम १०; औप; कप्पः पडि)। खोटग । पु[दे] खूटी,खूटा (उप २७८ | (सरण)। खेलण । न [खेलन, क] १ क्रीड़ा, खोटय । स २६३)। | खोणी देखो खोणि (सुर १२, ६१; सुपा खेलणय खेल । २ खिलौना (आका स खोक्ख प्रक [खोख ] वानर का बोलना, २३८; रंभा)। १२७)। बन्दर का आवाज करना । खोक्खइ (गा खोद पुं [क्षोद] १ चूर्णन, विदारण (भग खेलोसहि स्त्री [श्लेष्मौपधि] १ लब्धि- १७१ प्र)। १७, ६)।२ इक्षु-रस, ऊख का रस (सूम विशेष, जिससे श्लेष्म पोषधि का काम देने खोक्खा। स्त्री [खोखा] वानर की आवाज १,६) । रस पं [रस] समुद्र-विशेष लगे (पएह २, १; संति ३)। २ वि. ऐसी खोखा , (गा ५३२) । (दीव) । वर [वर] द्वीप-विशेष (जीव लब्धिवाला (आवमः पव २७०)। खखुब्भ अक[चोक्षुभ्य ] अत्यन्त भयभीत खेल्ल देखो खेल = खेल् । खेल्लइ (पि २०६) । होना, विशेष व्याकुल होना । वकृ. खोखु खोद पुं [क्षोद] चूर्ण, बुकनी (हम्मीर ३४)। वकृ. खेल्लमाण (स ४४) । प्रयो. संकृ. ब्भमाण (प्रौप परह १,३)। खोज पुन [दे] मार्ग-चिह्न (संक्षि ४७) । खेल्लावेऊण (पि २०६)। खोदोअ) पुं [क्षोदोद] १ समुद्र-विशेष, खोदोद जिसका पानी इक्षु-रस के तुल्य खेल्ल देखो खेल = श्लेष्मन (राज)। खोट्ट सक [दे] खटखटाना, ठकठकाना, मधुर है (जीव ३; इक) । २ मधुर पानीवाली खेल्ला देखो खेलग (स २६५)। ठोकना । कवकृ. खोट्टिजंत (मोघ ५६७ वापी (जीव ३) । ३ न. मधुर पानी, इक्षुटी)। संकृ. खोट्टेउं (प्रोघ ५६७ टी)। खेल्लावण) न खेलनका १ खेल कराना, रस के समान मिठा जल (पएण १)। खेल्लावणय क्रीड़ा कराना । २ न. खिलौना खोट्टिय [दे] बनावटी लकड़ी (नंदीटिप्प. पत्र | खोद्द न [क्षौद्र] मधु, शहद (भग ७, ६)। (उप १४२ टी)। धाई स्त्री [ धात्री] खेल १४६)। खोभ सक [क्षोभय ]१ विचलित करना, खोट्टी स्त्री [दे] दासी, चाकरानी (दे २,७७)। करानेवाली दाई (राज)। धैर्य से च्युत करना। २ आश्चर्य उपजाना। खेल्लिअ न [दे] हसित, हँसी, ठट्ठा (दे २, खोड पुं. [स्फोट] फोड़ा (प्राकृ १८)। ३ रंज पैदा करना । खोभेइ (महा) वकृ. खोड पुं[दे] १ सीमा-निर्धारक काष्ठ, खूटा । खोभंत (पउम ३, ६६; सुपा ४६३) । हेकृ. खेल्लुड देखो खल्लूड (राज)। वि धामिक, धामष्ठ (द.२, ८०) । ३ खोभित्तए, खोभइउं (उवा: पि ३१६)। खेव क्षेप] १ क्षेपण, फेंकना (उप ७२८ ला (६.५८० पिण) ४ खोभ पंक्षोभ १ विचलता, संभ्रम (आव टी)। २ न्यास, स्थापना (विसे ९१२) । ३ शृगाल, सियार (मृच्छ १८३)। ५ प्रदेश, ५)। २ इस नाम का एक रावण का सुभट संख्या-विशेष (कम्म ४, ८१, ८४)। जगह; "सिंगक्खोडे कलहो' (प्रोष ७६ भा)। (पउम ५६, ३२)। खेव पुं क्षेप] बिलम्ब, देरी (स ७७५)। ६ प्रस्फोटन, प्रमार्जन (प्रोघ २६५) । ७ न. खोभण न [क्षोभण] क्षोभ उपजाना, विच राजकुल में देने योग्य सुवर्ण वगैरह द्रव्य | खेव पू[खेद] उद्वेग, खेद, क्लेश; 'न हु कोइ 'य सुवण वगैरह द्रव्य लित करनाः तेलोक्कखोभरणकरं' (पउम २, (वव १)। गुरू खेवं वचइ सीसेसु सत्तिसुमहेसु (?) ८२ महा)। खोडपज्जालि बुंदे] स्थूल काष्ठ की अग्नि खोभिय विक्षोभित विचलित किया हुआ (पउम ६७, २३)। (दे २, ७०)। खेवण न [क्षेपण] प्रेरण (णाया १, २)। (पउम ११७, ३१)। खोडय पू[क्ष्योटक] नख से चर्म का निष्पी-खोम ) नक्षौम] १ कासिक वस्त्र, खेवय वि [क्षेपक] फेंकनेवाला (गा २४२)। इन (हे २, ६)। खोमग कपास का बना हुआ वस्त्र (गाया Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोमिय-गंग पाइअसहमहण्णवो २८१ १, १-पत्र ४३ टी; उवा १) । २ सन का खोमिय वि [क्षौमिक] १ रेशम सम्बन्धी। खोसलय वि [दे] दन्तुल, लम्बे और बाहर बना हुअा वस्त्र (सम १२३; भग ११, ११, २ सन-सम्बन्धी (पव १२७)। निकले हुए दाँतवाला (दे २, ७७)। पएह २, ४) । ३ रेशमी वस्त्र (उप १४६%; खय देखो खोद (सम १५१; इक)। खोसिय वि [दे] जीणं-प्राय किया हुआ स २००) । ४ वि. अतसी-संबंधी, खोर । न [दे]पात्र-विशेष, कचोलक, कटोरा | (पिंड ३२१)। सन-संबन्धी, (ठा १०; भग १, १ | | खोरय । (उप पू१३५; रणदि)। खोह देखो खोभ = क्षोभय । खोहइ (भवि) । ११) । पसिण न [प्रश्न] विद्या-विशेष, खोल पु[दे] १ छोटा गधा (दे २,८०)। वकृ. खोत (से १५, ३३)। कवक, खोहिजिससे वस्त्र में देवता का आह्वान किया २ वस्त्र का एक देश (दे २, ८० ५, ३०० जंत (से २, ३)। जाता है (ठा १०)। बृह १)। ३ मद्य का नीचला कीट-कर्दम खोह देखो खोभ = क्षोभ (पएह १, ४ कुमा (प्राचा २,१, बृह १)। खोमिय न [क्षौमिक] १ कपास का बना खोल सुपा ३६७) । दे] गुप्तचर, जासूस (पिंड १२७) । खोहण देखो खोभण (श्रा १२; सुपा ५०२)। खोल्लन [दे] कोटर, गह्वर ‘खोल्लं कोत्थर' हुआ वस्त्र (कप्प)। (निचू १५)। खोहिय देखो खोभिय (सण)। । इअ सिरिपाइअसहमहण्णवे खमाराइसहसंकलणो एप्रारहमो तरंगो समत्तो॥ ग[ग] व्यञ्जन-वणं विशेष, इसका स्थान । न [°पद] गिरनार पर्वत का एक जल-तीर्थ गउरविय वि [गौरवित] गौरव-युक्त किया कण्ठ है (प्रामाः प्राप)। (ती ३)। हुआ, जिसका आदर-सम्मान किया गया 'ग वि[ग]१ जानेवाला। २ प्राप्त होने- गइल्लय देखो गय = गत (सुख २, २२)। हो वहा 'तज्जण्याई तत्थागयाइं थेवेहिं चेव वाला, जैसे-पारग, वसग (प्राचा; महा)। | गउ । पुं[गो] बैल, वृषभ, साँड़ (हे १, दियहेहि, गउरवियाई रयणायरेण' (सुपा गउअ १५८)। "पुच्छ पुन [पुच्छ] | ३५६, ३६०)। गअवंत वि [गतवत् ] गया हुआ (प्राकृ | १ बैल की पूँछ । २ बाण-विशेष (कुमा)। गउरी स्त्री [गौरी] १ पार्वती, शिव-पत्नी ३५) । | गउअ पुं [गवय] गो-तुल्य आकृतिवाला जंगली (सुपा १०६)। २ गौर वर्णवाली स्त्री। ३ गइ स्त्री [गति] १ ज्ञान, प्रवबोध (विसे पशु-विशेष, नील गाय (कुमा)। स्त्री-विशेष (कुमा)। पुत्त पुं[पुत्र] २५०२)।२ प्रकार, भेद (से १, ११)। ३ गउआ स्त्री [गो] गैया, गौ (हे १, १५८)। पार्वती का पुत्र, स्कन्द, कात्तिकेय (सुपा गमन, चलन, देशान्तर-प्राप्ति, ( कुमा)। गउड पुं [गौड] १ स्वनाम ख्यात देश, ४०१)। ४ जन्मान्तर-प्राप्ति, भवान्तर-गमन ठा (१,१ः बंगाल का पूर्वी भाग (हे १, २०२, सुपा गंअ देखो गय= गत; 'भीया . जहागयगई दं)। ५ देव, मनुष्य, तिर्यञ्च, नरक ३८६) । २ गौड़ देश का निवासी (हे १, पडिवज्ज गए' (रंभा)। और मुक्त जीव को अवस्था, देवादि-योनि २०२)। ३ गौड़ देश का राजा (गउड; गंग पुं[गङ्ग] मुनि-विशेष, द्विक्रिय मत का (ठा ५, ३)। तस पु [स] अग्नि कुमा)। वह पुं [वध] वाक्पतिराज का प्रवर्तक प्राचार्य (ठा ७; विसे २४२५)। और वायु के जीव (कम्म ३, १३, ४, १६)। बनाया हुआ प्राकृत-भाषा का एक काव्य-ग्रंथ दत्त पुं[°दत्त १ एक जैन मुनि, जो षष्ठ नाम न [ नामन्] देवादि-गति का कारण(गउड)। वासुदेव के पूर्वजन्म के गुरू थे (स १५३) । भूत कर्म (सम ६७)। पवाय पुं[प्रपात] गरण वि [गौण] मप्रधान, अमुख्य (दे २ नववे वासुदेव के पूर्वजन्म का नाम (पउम १ गति की नियतता (पएण १६)। २ | २०,७१)। ३ इस नाम का एक जैन श्रेष्ठी ग्रंथांश-विशेष (भग ८, ७)। | गउणी स्त्री [गौणी] शक्ति-विशेष, शब्द की | (भग १६, ५)। दत्ता स्त्री [ दत्ता एक गईंद पुं [गजेन्द्र] १ ऐरावण हाथी, इन्द्र- एक शक्ति (दे १, ३)। सार्थवाह की स्त्री का नाम (विपा १, ७)। हस्ती। २ श्रेष्ठ हाथी (गउड; कुमा) । पय गउरव देखो गारव (कुमाः हे १, १६३)। गंग देखो गंगा। पवाय पुं[प्रपात] ३६ For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ सोअ हिमाचल पर्वत पर का एक महान हद, जहाँ से गंगा निकलती है (ठा २३)। पुं [स्] गंगा नदी का प्रवाह (पि ८५) । गंगली स्त्री [] मौन, चुप्पी (सुपा २७८ ४८७)। गंगा स्त्री [गङ्गा ] १ स्वनाम प्रसिद्ध नदी (कस सम २७ कप ) । २ स्त्री-विशेष (कुमा) । ३ गोशालक के मत से काल-परिमाण विशेष ( भग १५ ) । ४ गंगा नदी की अधिष्ठायिका देवी (आम) । ५ भीष्मपितामह की माता का नाम (गाया १,१६) । कुंड न [ कुण्ड ] हिमाचल पर्वत पर स्थित हृद-विशेष, जहाँ से गंगा निकलती है (ठा ८) । कूड न [" कूट] हिमाचल पर्वत का एक शिखर (ठा २, ३) दीपु ['द्वीप ] द्वीप-विशेष, जहाँ गंगा देवी का भवन है (ठा २, ३ ) । 'देवी स्त्री ["देवी] गंगा की अधिष्ठायिका देवी, देवी विशेष (इक) । वत्त पु [वर्त्त] प्राय-विशेष (क) सय न["राव] गोशालक के मत में एक प्रकार का कालपरिमाण (भग १५) । सागर पुं ['सागर ] प्रसिद्ध तीर्थ-विशेष, जहां गंगा समुद्र में मिलती है (उत्त १८) | गंगेअ पु [गाव] १ गंगा का पुत्र भीष्मपितामह (खाया १, १६ वेणी १०४) । २ मत का प्रवर्तक प्राचार्य (धात्र १) । १ एक जैन मुनि, जो भगवान् पाश्र्वंनाथ के वंश के थे (भग ६, ३२) । गंज सक [ग] १ तिरस्कार करना । २ उल्लंघन करना । ३ मर्दन करना। ४ पराभव करना। गंजइ ( जय ५ ) । कृ. गंजगीय (firft 1) गंज पुं [हे] गाल (दे २,८१) । गंज पुं [गञ्ज ] भोज्य-विशेष, एक प्रकार की खाद्य वस्तु ( परह २, ५ - पत्र १४८ ) । साला स्त्री [शाला ] तृरण, लकड़ी वगैरह इन्धन रखने का स्थान ( निचु १५ ) । पाइअसहमण्णवो गंजण न [गअन] १ अपमान, तिरस्कार (गुपा ४८०) 'वेरिवि रगुप्पन्ना, बज्र्झति गया न चेव केसरिणो । संभाविज्जइ मरणं, नगंज धीरपुरिया (४२) २ कलंक, दागः 'गंजारहियो जन्मो' ( वजा १८) | गंजण वि [गअन] मर्दनकर्ता (सिरि ५४६ ) । गंजा स्त्री [आ] सुरा-गृह, मद्य की दूकान (दे २, ८५ टी ) । गंजिअ पुं [गाञ्जिक] कल्य-पाल, दारू बेचने वाला, कलाल (दे २, ८५ टी ) । गंजिअ वि [गञ्जिन] १ पराजित, अभिभूतः 'तर गरिमगंजिलो इव' (उप ६८६ टी) । २ हत, मारा हुआ, विनाशित (पिंग)। ३ पीड़ित (हे ४, ४०९) । गंजिल्ल वि [दे] १ वियोग प्राप्त, वियुक्त । २ भ्रान्त-चित्त, पागल (दे २,०३) । मंजुहिय व [दे] रोमाञ्चित, पुलकित (जय १२) । नाचना २ रचना, बनाना। गंठइ (हे ४, १२० षड् ) । गंठ देखो गंथ (राय; सून २, ५ धर्म २ ) । 9 [ दे] वरुड, इस नाम की एक गंठि स्त्री [गृष्टि ] एकबार व्यायो हुई गंय जाति (२४) । मंडिय[] ते गंद गौ (प्राकृ ८६५।१ - ३१ सर्ग) | गंजोल वि [दे] समाकुल, व्याकुल ( षड् ) । गंजोखिम [वि] [दे] १ रोमाञ्चित, जिसके रोम खड़े हुए हों वह (दे २, १००; भवि ) । २ न हँसाने के लिए किया जाता प्रंग-स्पर्श, गुदगुदी, गुदगुदाहट (दे २, १०० ) । गंठ तक [] २ ३२) । बाँस मंठि पुत्री [] १ गड जोड़ श्रादि की गिरह पर्व (हे १, ३५० ४, १२ : ) । ३ गठरी, गांठ (गाया १, १ प ) । ४ रोग-विशेष ( लहुन १५ ) । ५ राग-द्वेष का निविड़ परिणाम विशेष (उप २५३ ) : 'गंठित्ति सुदुब्भेश्रो कक्खघरूढगढगंठि व्व । जीवस्स कम्मजरिओ घरणरागद्दोसपरिणामा (जिसे १९९५) । "छेअ [] गाँठ तोड़नेवाला, चोरविशेष पाकेटमार ( २८६) भे [["भेद] का भेदन (१) भेवग For Personal & Private Use Only गंगली - गंड वि [द] १ ग्रन्थि को भेदनेवाला । २ पुं. चोर - विशेष (गाया १, १८ पह १, ३) । वण्ण [पर्ण] सुगन्धि गाछ विशेष (कप्पू ) । सहिय वि [सहित] १ गाँठयुक्त । २ न. प्रत्याख्यान- विशेष, व्रत- विशेष (धर्म २ पनि) । गंठिम न [प्रन्थिम] १ ग्रन्थन ते बनी हुई माला वगैरह ( परह २, ५ भग ६, ३३) । २-विशेष १२) | [वि][] पिरोया हुआ (कुमा) । १ विवि [अन्धिक] ( २ (५) । गठित व [न्धिमन्] सन्धि-युक्त - वाला (राज) । गंड [] १ वन, जंगल २ दाउपाशिक, कोतवाल । ३ छोटा मृग (दे २, १९ ) । ४ नापित, नाई ( दे २, ६६: आाचा २, १, २) ५ न गुच्छ समूह 'कुसुमदामद वियं' (महा) । गंड न [गण्ड] १ गाल, कपोल (भगः सुपा ८)। २ रोग विशेष, गण्डमाला; 'ता मा करेह बीयं गंडोवरिफोडियातुल्लं (उप ७६८ टी: श्राचा)। ३ हाथी का कुम्भस्थल ( पव २९) । ४ कुच, स्तन ( उत्त ८ ) । ५ ऊख का जत्था, इक्षु समूह ( उप पृ ३५९ ) । ६ छन्द-विशेष (पिंग) ७ फोड़ा, स्फोटक (उत्त १० ) । ८ गाँठ, ग्रन्थि (अवि १७ अभि १०४) भेज भेजअ ["भेदक ] चोर - विशेष पाकेटमार (अवि १७ अभि १८४) । "माणिया स्त्री ["माणिक] धान्य का एक प्रकार की नाप (राय) । मात्य स्त्री [माला] रोग-विशेष, जिसमें ग्रांत्रा फूल जाती है (सर) यल न ['तल] कपोलतल (मुर ४, १२७) ले श्री ["लेख] कपोल - पाली, गाल पर लगाई हुई कस्तूरी वगैरह की छटा (निर १,१० गउड) । वच्छा [का] पीनस्तनों से युक्त छातीवाली स्त्री ( उत्त ८ ) । वाणिया स्त्री [पाणि] बाँस का पात्र विशेष जो डाला से छोटा होता है (भग ७, ८) वास [["पाइयें] गाल का पार्श्वभाग (गड Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (आवम)। गंतव्व देखो गम = गम् । गंड-ध पाइअसहमहण्णवो २८३ गंड न [गण्ड] दोष, नाग (सूम १,६ गंडुअन गण्डु] प्रोसीसा, सिरहाना (महा)। गंथि वि [प्रन्थिन] रचना-कर्ता (सम्मत्त १६)। 'माणिया स्त्री [मानिका] पात्र-गंडअन [गण्डत् ] तुण-विशेष (दे २, १३६) । विशेष (राय १४०) 'विइवाय पुं[व्यति- ५)। गंथि देखो गंठि (पण्ह १, ३-पत्र ४४) । पात] ज्योतिष-शान-प्रसिद्ध एक योग (संबोध गंडल गण्डोल] कृमि-विशेष, जो पेट में | गंथिम देखो गंठिम (णाया १, १३)। ५४)। पैदा होता है (जी १५)। | गंदिला स्त्री [गन्दिला] देखो गंधिल (इक)। गंडइया स्त्री [गण्डकिका] नदी-विशेष गंडुवहाण न [गण्डोपधान] गाल का तकिया गंदोणी स्त्री [दे] क्रीड़ा-विशेष, जिसमें प्रख बंद की जाती है, आँख-मिचौनी (द २,८३)। गंडय पुं[गण्डक] १ गेंडा, जानवर-विशेष (पव ८४)। (पानः दे ७, ५७)। २ उद्घोषणा करने- गंडूपय पु[गण्डूपद] जन्तु-विशेष (राज)। गंदुअ देखो गेंदुअ (षड् )। वाला पुरुष, टेर लगानेवाला पुरुष (प्रोध | गंडूल देखो गंडुल (पएह १, १-पत्र २३)। मंडल देखोगंडल (पण्ड १.१-पत्र २३)। गंध पुं[गन्ध] १ गन्ध, नासिका से ग्रहण ६४४)। करने योग्य पदार्थों की वास, महक (औप; , गंडूस पुं [गण्डूष] पानी का कुल्ला (गा गंडली स्त्री [दे] गडेरी, ऊख का टुकड़ा (उप | | २७०; सुपा ४४६), 'बहुमइरागंडूसपाणं" भग; हे १, १७७)। २ लव, लेश (से ६, पृ१०६)। ३)। ३ चूर्ण-विशेष (पएह १,१)। ४ (उप ६८६ टी)। गंडा देखो गंठि = ग्रन्थि (प्राकृ १८)। वानव्यन्तर देवों की एक जाति (इक)। ५ गंडूस [गण्डूष] पानी का कुल्ला (सूअनि न. देव-विमान-विशेष (निर १, ४)। ६ वि. गंडाग पुं [गण्डक] नाई, हजाम (प्राचा गन्धयुक्त पदार्थ (सूम १, ६)। उडी स्त्री २, १, २, २)। गंत देखो गा। ["कुटी] गन्ध-द्रव्य का घर (गउड; हे १, गंडि पुं [गण्डि] जन्तु-विशेष (उत्त १)। ८)। कासाइया स्त्री [ काषायिका] गंडि वि [गण्डिन्] १ गण्डमाला का रोग- गंता । सुगन्धि कषाय रंग की साड़ी (उवाः भग ६, वाला (प्राचा)। २ गण्ड रोगवाला (पराह गंतिय न [गन्तुक तृण-विशेष (पएण १- ३३)। गुण पुं [गुण] गन्धरूप गुण पत्र ३३)। (भग)। "ट्टय न [ट्टक] गन्ध-द्रव्य का गंडिया स्त्री [गण्डिका १ गँडेरी, ऊख का | गंती स्त्री [गन्त्री गाड़ी, शकट (धम्म १२ चूर्ण (ठा ३, १-पत्र ११७) 'ड्ढ़ वि टुकड़ा (महा) । २ सोनार का एक उपकरण टी सुपा २७७)। [ढथ] गन्धपूर्ण, सुगन्धपूर्ण (पंचा २)। (ठा ४, ४) । ३ एक अर्थ के अधिकारवाली गंतुं देखो गम = गम् । "णाम न [नामन् गन्ध का हेतुभूत कर्मग्रन्थ-पद्धति (सम १२६)। गंतुंपञ्चागया स्त्री [गत्वाप्रत्यागता] भिक्षा विशेष (अणु) । तेल्ल न ["तैल] सुगन्धित गंडिल देखो गंधिल (इक)। तैल (कप्पू)। दव्व न ["द्रव्य सुगन्धित चर्या-विशेष, जैन मुनियों की भिक्षा का एक गंडिलावई देखो गंधिलावई (इक)। वस्तु, सुवासित द्रव्य (उत्त १)। "देवी स्त्री प्रकार (ठा ६)। ["देवी] देवी-विशेष, सौधर्म देवलोक की गंडी स्त्री [गण्डी] १ सोनार का एक उपकरण गंतुकाम वि [गन्तुकाम] जाने की इच्छा एक देवी (निर १, ४)। "द्धणि स्त्री (ठा ४, ४-पत्र २७१) । २ कमल की वाला (श्रा १४)। [ध्राणि] गन्ध तृप्ति (णाया १, १-पत्र कणिका (उत्त ३६)। तिंदुगन [तिन्दुक] गंतुमण वि [गन्तुमनस् ] ऊपर देखो २५; औप)। 'नाम देखो °णाम (सम यक्ष-विशेष (ती ३८)। पय पुं[पद] (वसु) ।। ६७)। मय पुं[मृग] कस्तूरी मृग, हाथी वगैरह चतुष्पद जानवर (ठा ४, ४)। गंतूण) कस्तुरिया हरिन (सुपा २)। "मंत वि पोत्थय पुंन [ पुस्तक] पुस्तक-विशेष (ठा | गंतूणं । देखा [वत्] १ सुगन्धित, सुगन्ध-युक्त । २ ४, २)। गंथ देखो गंठ-ग्रन्थ । गंथइ (पि ३३३) । अतिशय गन्धवाला, विशेष गन्ध से युक्त गंडीरी स्त्री [दे] गण्डेरी, ऊख का टुकड़ा | कर्म. गंथीति (पि ५४८)। (ठा ५, ३–पत्र ३३३) । मादण, (दे २, ८२)। गंथ पुं[ग्रन्थ १ शास्त्र, सूत्र, पुस्तक (विसे 'मायण ["मादन] १ पर्वत-विशेष, इस मंडीव न [गाण्डीव] १ अर्जुन का धनुष ८६४; १३८३) । २ धन-धान्य वगैरह बाह्य नाम का एक पहाड़ (सम १०३; पएह २, (बेणी ११२)। मिथ्यात्व, क्रोध, मान आदि माभ्यन्तर उपधि, २ठा २,३–पत्र ६६)। २ पुंन. पवंतगंडीव न [दे. गाण्डीव धनुष, कामुक (दे। परिग्रह (ठा २, १७ बृद्ध १ विसे २५७३)। विशेष का एक शिखर (ठा २, ३-पत्र २,८४ महा पात्र)। ३ धन, पैसा (स २३६) । ४स्वजन, संबन्धी ८०)। ३ न. नगर-विशेष (इक)। 'बई गंडीवि पुगाण्डीविन अर्जुन, मध्यम लोग (पएह २, ४)। ईअ पुं [तीत] स्त्री [वती] भूतानन्द-नामक नागेन्द्र का पाण्डव (वणी ५८)। जैन साधु (सूम १,६)। आवास-स्थान (दीव)। वट्टय न [वर्तक] गंतूणदेखो गम = गम् । For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ पाइअसद्दमण्णवो गंधण-गगणंग सुगन्धित लेप-द्रव्य (विपा १, ६)। वट्टि गधव्य वि [गन्धर्व] १ गंधर्व-संबन्धी, गंधर्व १ गन्धमादन पर्वत का एक शिखर (जे ४)। स्त्री ["वर्ति गन्ध-द्रव्य की बनाई हुई गोली से संबन्ध रखनेवाला (जं १; अभि ११५)। २ वैताब्य पर्वत का शिखर-विशेष (ठा )। (णाया १, १ प्रौप)। वह पु [वह]/ २ पुं. उत्सव-हीन विवाह, विवाह-विशेषः | गंधिल्ली स्त्री [दे] छाया, छह (उप १०३१ पवन, वायु (कुमाः गा ५४२)। 'वास पुं 'गंधव्वेण विवाहेण सयमेव विवाहिया' टी)। [वास] १ सुगन्धित वस्तु का पुट । २ चूर्ण (आवम)। ३ न. गीत, गान (पान)। गंधुत्तमा स्त्री [गन्धोत्तमा] मदिरा, सुरा विशेष (सुपा ९५) । समिद्ध वि ["समृद्ध] गंधवि वि [गन्धर्विन गानेवाला (ती ३)। (दे २, ८६)। १ सुगन्धित, सुगन्ध-पूर्ण। २ न. नगर-विशेष गंधव्विअ वि [गान्धर्विक] १ गंधर्व-विद्या गंधेल्ली स्त्री दे] १ छाया, छांह। २ मधु(भावम; इक)। सालि पुं[शालि] सुग- में कुशल (सुपा १९९)। मक्षिका (दे २,१००)। न्धित व्रीहि, धान (आवम )। हत्थि पुं गंधा स्त्री [गन्धा नगरी-विशेष (इक)। गंधोदग। न [गन्धोदक] सुगन्धित जला [हस्तिन] उत्तम हस्ती, जिसकी गन्ध से दूसरे गंधाण न [गन्धान] छन्द-विशेष (पिंग)। | गंधोदय, सुगन्ध-वासित पानी (प्रौपः विप, हाथी भग जाते हैं (सम १; पडि)। हरिण पुगंधार गन्धार] देश-विशेष, कन्धार (स [हरिण कस्तुरिया हिरन (कप्पू)। हारग ३८)। २ पर्वत-विशेष (स ३६)। ३ न. गंधोल्ली स्त्री [दे] १ इच्छा, अभिलाषा। २ पुं[हारक] १ इस नाम का एक म्लेच्छ नगर-विशेष (स ३८) । रजनी, रात (दे २, ६६)। देश। २ गन्धहारक देश का निवासी (पएह गंधार ' गान्धार] स्वर-विशेष, रागिनी गंप्पि १, १-पत्र १४)। विशेष (ठा ७)। गंप्पिणु खा गम = गम् । गंधण ' [गन्धन] एक सर्प-जाति (दस | गंधारी स्त्री [गान्धारी] १ सती-विशेष, कृष्ण गंभीर न [गाम्भीर्य] १ गम्भीरता। २ २,८)। वासुदेव की एक स्त्री (पडि अंत १५)। २ अनौद्धत्य (सूपनि ६६)। गंधपिसाय पुंदे] गन्धिक, पसारी (दे २, विद्यादेवी-विशेष (संति ६)। ३ भगवान् | गंभीर वि [गम्भीर] १ गम्भीर, प्रस्ताघ, ८७)। नमिनाथ की शासनदेवी (संति १०)। अतुच्छ, गहरा (प्रौपः से ६, ४४; कप्प)। गंधय देखो गंध (महा)। गंधारी स्त्री [गान्धारी] विद्या-विशेष (सूम २ पुंन. गहन-स्थान, गहन प्रदेश, जहाँ प्रतिगंधलया स्त्री [दे] नासिका, प्राण (दे २,८५)। शब्द उत्थित हो (विसे ३४०४; बृह १)। २, २, २७)। गंधावइगन्धापातिन् स्वनाम-प्रसिद्ध ३ पुं. रावण का एक सुभट (पउम ५६, ३) । गंधवाह पुं [गन्धवाह] पवन (समु १८०)। गंधावाइ । एक वृत्त, वैताब्य पर्वत (इक; ठा ४ यदुवंश के राजा अन्धकवृष्णि का एक पुत्र गंधव्य पुं[गन्धर्व १ देव-गायक, स्वर्ग-गायक । २, ३-पत्र ६६; ८०; ठा ४, २-पत्र | (अंत ३)। ५ न. समुद्र के किनारे पर स्थित (उत्त १ सण)। १ एक प्रकार की देव-जाति, २२३)। इस नाम का एक नगर (सुर १३, ३०)। व्यंतर देवों की एक जाति (पएह १, ४, गंधि वि [गन्धिन] गंध-युक्त, गंधवाला | 'पोय न [पोत] नगर-विशेष (णाया १, औप)। ३ यक्ष-विशेष, भगवान् कुन्थुनाथ का | (कप्प; गउड)। १७)। 'मालिणी स्त्री [ मालिनी] महाशासनाधिष्ठायक यज्ञ (संति ८)। ४ न. गंधिअ वि [दे] दुर्गन्ध, खराब गन्धवाला (दे विदेह-वर्ष की एक नगरी (ठा २ ३)। मुहूर्त-विशेष (सम ५१)। ५ नृत्य-युक्त गीत, २, ८३)। गंभीरा स्त्री [गम्भीरा] १ गंभीर-हृदया स्त्री गान (विपा १, २)। कंठ न [°कण्ठ] रत्न | गंधिअ [गान्धिक] गन्ध-द्रव्य बेचनेवाला, | (वव ५)। २ मात्रा-छन्द का एक भेद की एक जाति (राय)। घर न [गृह] पसारी (दे २, ८७)। (पिंग)। ३ क्षुद्र जंतु-विशेष, चतुरिन्द्रय जीव संगीत-गृह, संगीतालय, संगीत का अभ्यास- गंधिअ वि [गन्धिक] गंध-युक्त, 'सुगन्धवर विशेष (पएण १)। स्थान (जं १)। णगर, "नगर न['नगर] गन्धगन्धिए' (प्रौप)। मालावीr°शाला गंभीरिअन [गाम्भीय गम्भीरता, गम्भीरपन असत्य-नगर, संध्या के समय में प्रकाश में दारू वगैरह गन्धवाली चीज की दूकान (वव (हे २, १०७)। दीखता मिथ्या-नगर, जो भावी उत्पात का गंभीरिम पुंस्त्री [गाम्भीर्य] ऊपर देखो सूचक है (अण; पब १६८)। 'पुर न [पुर] गंधिअ वि [गन्धित] गन्ध-युक्त, गन्धवाला (सण)। देखो °णगर (गउड)। 'लिवि स्त्री [लिपि] (स ३७२: गा ५४५, ८७२)। गगण न [गगन] भाकाश, अम्बर (कप्पः स लिपि-विशेष (सम ३५)। विवाह पुगंधिल पुंगन्धिल] वर्ष-विशेष, विजय-क्षेत्र- ____३४८)। णंदण न [ नन्दन वैतान्य पर्वत ["विवाह] उत्सव-रहित विवाह, स्त्री-पुरुष । विशेष (ठा २, ३, इक)। पर का एक नगर (इक)। वल्लभ, वल्लह को इच्छा के अनुसार विवाह (सण)। साला गंधिलावई स्त्री [गन्धिलावती] १ क्षेत्र. न [वल्लभ] वैताब्य पर्वत पर का एक नगर स्त्री [शाला] गान-शाला, संगीत-गृह, संगी- विशेष, विजयवर्ष-विशेष (ठा २, ३; इक)। (राज; इक)। तालय (वव १०)। २ नगरी-विशेष (द ६१)। कूड न [ कूट] गगणंग पुन [गगनाङ्ग] छन्द-विशेष (पिंग)। For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गग्ग-गण पाइअसहमहण्णवो २८५ गडिअदेखो गमग गडुअखा गम-गम् । गग्ग ' [गर्ग] १ ऋषि-विशेष । २ गोत्र- गज्ज प्रक [गर्ज ] गरजना, गड़गड़ाना, घड़- सो जक्खो गडयर्ड पकुन्वंतो (सुपा २८१; विशेष, जो गौतम गोत्र की एक शाखा है। घड़ाना । गजइ (हे ४, ६८) । वकु. गर्जत, । ५४२)। (ठा ७)। गज्जयंत (सुर २, ७५, रयण ५८)। गडयड प्रक [दे] गर्जन करना, भयानक गग्ग पुं[गर्ग] १ एक जैन महर्षि (उत्त २७, गज्जण न [गर्जन] १ गर्जन, भयानक ध्वनि, आवाज करना । वकृ. गडयडंत (सुपा १)। २ विक्रम की बारहवीं शताब्दी का मेघ या सिंह का नाद । २ नगर-विशेष (उप १९४)। एक श्रेष्ठी (कुप्र १४३)। ७६५)। गडयडी स्त्री [दे] वज्र-निर्घोष, गड़गड़ आवाज, गग्ग पुंगार्ग्य गर्ग गोत्र में उत्पन्न ऋषि- | गजणसह पुं [दे. गर्जनशब्द] पशु और | मेघ ध्वनि (दे २, ८५; सण) ।। विशेष (उत्त २७)। हाथी की आवाज (दें २,८८)। गडवड न [६] गडबड़, गोलमाल (सुपा गग्गर वि [गद्गद] १ गद्गद प्रावाजवाला, गजफल) वि [दे] देश-विशेष में उत्पन्न ५४१)। प्रति अस्पष्ट वक्ता (प्राप्र)। २ प्रानंद या दुःख गजल (वस्त्र) (आचा २,५,१,५७)। से अव्यक्त कथन (हे १, २१६; कुमा)। गज्जभ पु [गर्जभ] पश्चिमोत्तर दिशा का गग्गरी स्त्री [गर्गरी गगरी, छोटा घड़ा (दे पर्वन (आवम)। | गडुल न [दे] चावल वगैरह का धोया-जल, चावल प्रादि का धोवन (धर्म २)। २, ८६७ सुपा ३३६)। गज्जर पुं[दे] कन्द-विशेष, गाजर, गजरा, गड्ड पुंस्त्री [गत] गड़हा, गड्ढा (हे २, ३२ गग्गिर देखो गग्गरः 'रुजगग्गिरं गेग्नं' (गा इसका खाना धर्म-शास्त्र में निषिद्ध है। (श्रा प्रापः सुपा ११४)। स्त्री. गड्डा (हे १, ८४३; सण)। १६; जी ६)। ३५)। गच्छ सक [गम्] १ जाना, गमन करना। गजल वि [गर्जल] गर्जन करनेवाला (निचू गड्डु न [दे] शकट, गाड़ी (तो १५)। २ जानना। ३ प्राप्त करना। गच्छइ (प्रातः गड्डुरिगा । स्त्री [दे] भेड़ी, मेषी, ऊर्णायुः षड्)। भवि. गच्छ (हे ३, १७१ प्राप्र)। | गज्जह देखो गजभ (आवम)। गड्डुरिया । 'गड्डरिंगपवाहेणं गयाणुगइयं जणं वकृ. गच्छंत, गच्छमाण (सुर ३, ६६; गजि स्त्री [गजि] गर्जन, हाथी वगैरह की | वियाएंतो' (धम्म; सूत्र १, ३, ४)। भग १२, ६)। संकृ. गच्छिअ (कुमा)। आवाज (कमा सुपा ८६ उप पृ११७)। गड्डरी स्त्री [दे] १ छागी, अजा, बकरी (दे हेकृ. गच्छित्तए (पि ५६८)। २,८४)। २ भेडी, मेषी (सट्ठि ३८)। | गजिअ वि [गजित] १ जिसने गर्जन किया | गच्छ पुन [गच्छ] १ समूह, सार्थ, संघात गड्डह पुंस्त्री [गर्दभ] गदहा, गधा, खर (हे हो वह, स्तनित (पास)। २ न. गर्जन, मेघ (स १४८)। २ एक प्राचार्य का परिवार २, ३७) । वाहण पुं [वाहन] रावण, वगैरह की आवाज (पएह १, ३)। (ग्रौपः सं ४७)। ३ गुरु-परिवारः 'गुरुपरिवारो दशानन (कुमा)। गच्छो, तत्थ वसंताण गिजरा विउला' (पंचव; गाजत्तु। विगाजत गजन करनवाला, गड्डिआ। स्त्री [दे] गाड़ी, शकट (ोध ३८६ गजिर गरजनेवाला (ठा ४, ४-पत्र गडी टी; दे २,८१ सुपा २५२) । धर्म ३)। वास पुं [वास] गुरु-कुल में २६६; गा ५५)। गड्ढ न [दे] शय्या, बिछौना (दे २, ८१) । रहना, गच्छपरिवार के साथ निवास (धर्म गजिल्लिअ न [दे] १ गुदगुदी, गुदगुदाहट । गढ देखो घड = घट् । गढइ (हे ४, ११२) । ३) । "विहार पु[विहार] गच्छ की २ अंग-स्पर्श से होनेवाला रोमांच, पुलक | गढ पुंस्त्री [दे] गढ, दुर्ग, किला, कोट (दे २, सामाचारी, गच्छ का प्राचार (वव १)। 'सारणा स्त्री [°सारणा] गच्छ का रक्षण (षड्)। ८१; सुपा २५; १०५)। स्त्री. गढा (कुमा)। गझ वि [ग्राह्य ग्रहण-योग्य (स १४० | गढिअ वि [घटित] गढ़ा हुमा, जटित विसे १७०७)। (कुमा)। गच्छागच्छिं अ. गच्छ-गच्छ से होकर (प्रौप)। गट्टण पुंगट्टन] धरणेंद्र की नाट्य-सेना का | गढिअ वि [प्रथित] १ गूंथा हुआ, निबद्ध गच्छिल्ल वि [गच्छवत् ] गच्छवाला, गच्छ अधिपति (राज)। 'नेहनिगडगढियाणं' (उप ६८६ टी; पण्ह १, में रहनेवाला (बृह १)। गढिया स्त्री [दे] गठिया, गुठलीः 'अंबगट्ठिया' । ४) । २ रचित, गुम्फित, निर्मित (ठा २, १)। गज देखो गय = गज (गड् ; प्रास १७१ (निचू १५) । ३ गृद्ध, आसक्त; (प्राचा २, २, २. परह इक)। °सार पुं[सार] एक जैन मुनि, गड न [गड] १ विस्तीर्ण शिला, मोटा पत्थर १, २)। दण्डक-ग्रन्थ का कर्ता (दं ४७)। (दे २,११०)। २ गत, खाई (सुर १३,४१)। गण सक [गणय् ] १ गिनना, गिनती करना। गज पुं [दे] जव, यव, अन्न-विशेष (दै २, गड (मा) देखो गय = गत (प्राप्र)। २ पादर करना । ३ अभ्यास करना, पावृत्ति ८१, पा)। गडयड पुंन [३] गर्जन, भयानक ध्वनि, हाथी | करना । ४ पर्यालोचन करना । गणइ, गणेइ गन्ज न [गद्य] छन्द-रहित वाक्य, प्रबन्ध (ठा वगैरह की आवाज; 'ता गडयडं कुणंतो, | (कुमाः महा)। वकृ. गगंत, गणेत (पंचा ४,४-पात्र २८७)। समागमो गयवरो, तत्थ' 'इत्थंतरे सयं चिय, ४. से ४,१५)। कृ.गणेयव्ध (उप ५५५) । For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ पाइअसहमहण्णवो गण-गद्दभिल्ल ओ तस् ] अनेकशगण का (स ६२९) जिन] १ गण का स्वामी गण पुं[गण] १ समूह, समुदाय. यूथ, थोक गणणाइआ स्त्री [दे. गण-नायिका] पार्वती, गणेत्तिआ) स्त्री[दे] १ रुद्राक्ष का बना (जी ३४; कुमा; प्रासू ४, ७५; १५१) । २ चण्डी, शिवपत्नी (दे २, ८७)। गणेत्ती हुआ हाथ का आभूषण-विशेष गच्छ, समान आचार व्यवहारवाले साधुओं गणय देखो गणग (प्रौप; सुपा २०३)। (णाया १,१६-पत्र २१३; प्रौपा भग; का समूह (कप्प)। ३ छन्दः-शास्त्र प्रसिद्ध गणसम वि [दे] गोष्ठी-रत, गोठ में लीन (दे महा)। २ प्रक्ष-माला (दे २,८१)। मात्रा-समूह (पिंग) । ४ शिव का अनुचर २,८७)। गणेसर पुं [गणेश्वर] १ गण का नायक । (पामः कुमा)। ५ मल्लों का समुदाय (अणु) । गणायमह पुंदे] विवाह-गणक (दे २, ८६)। | २ छन्द-विशेष (पिंग)। ओम [तस् ] अनेकशः, बहुशः (सून गणाविअ वि [गणित] गिनती कराया हा गण्ण वि [गण्य] गणनीय, संख्येय (संबोध २, ६) । नायग पुं [नायक] गण का मुखिया (गाया १, १)। 'नाह [नाथ] | गणि वि [गणिन] १ गण का स्वामी, गण गण्णा (मा) स्त्री [गणना] गिनती (प्राक १ गण का स्वामी, गण का मुखिया (सुपा का मुखिया। स्त्री. गणिणी (सपा ६०२)। १०२)। २,१०)। २ गणधर, जिनदेव का प्रधान २५. प्राचार्य, गच्छनायक. साध-समदाय का गत्त न [गात्र] देह, शरीर (प्रौपः पाना सुर शिष्य (पउम १२, ६) । ३ प्राचार्य, सूरि नायक (ठा ८)। ३ जिनदेव का प्रधान साधु- २, १०१)। र (सार्ध २३) । भाव पुं [भाव विवेक- शिष्य (पउम ११, १०) । ४ परिच्छेद गत्त देखो गड (भग १५)। स्त्री. गत्ता (सुपा विशेष (गउड) । राय पुं[राज] १ निश्चय, सिद्धान्त (शंदि)। "पिडग न २१४)। सामन्त राजा (भग ७, ६)। २ सेनापति [°पिटक] १ बारह मुख्य जैन आगम ग्रन्थ, गत्त न [दे] १ ईषा, चौपाई या चारपाई की (प्राव ३; कप्प) । वइ पुं[पति] १ गण द्वादशाङ्गी (सम १:१०६) । २ निर्यक्ति लकड़ी-विशेष। २ पंक, कर्दम (दे २,९६)। का स्वामी। २ गणेश, गजानन, शिवपुत्र वगैरह से युक्त जैन पागम (प्रौप)। ३ पु. | ३ वि. गत, गया हुआ (षड्) । (गा ३७२ गउड)। ३ जिनदेव का मुख्य शिष्य, यक्ष-विशेष, जिन-शासन का अधिष्ठायक देव गत्तण वि [कर्तन काटनेवाला, छेदक (सूत्र गणधर (सिग्घ २) । सामि ["स्वामिन्] (संति ४)। ४ निश्चय-समूह, सिद्धान्त-समूह १, १५, २४)। गरण का मुखिया, गणधर (उप २८० टी)। (णंदि)। "विज्जा स्त्री [विद्या] १ शास्त्र. गत्तडि । स्त्री [दे] १ गवादनी, गोचर-भूमि गत्ताडी विशेष । २ ज्योतिष और निमित्त शास्त्र का हर पुं[धर] १ जिनदेव का प्रधान शिष्य (दे २,८२)। २ गायिका, गाने वाली स्त्री (षड् दे २, ८२)। (सम ११३) । २ अनुपम ज्ञानादिगुण-समूह ज्ञान (णंदि)। गत्थ वि [ग्रस्त कवलित, ग्रास किया हुआ; को धारण करनेवाला जैन साधु, प्राचार्य गणि पुंस्त्री [गणि अध्ययन, परिच्छेद, प्रकरण वगैरहः 'सेजंभवं गणहर' (प्रावम; पव 'अइमहच्छलोभगच्छा (? त्या)' (पएह १, (णंदि १४३)। गणिम न [गणिम गिनती से बेची जाती २७६) । हरिद [धरेन्द्र] गणघरों में ३–पत्र ४४ नाट-चैत १४६)। गद सक [ग] बोलना, कहना । वकृ. गदंत श्रेष्ठ, प्रधान गणधर (पउम ३, ४३, ५८, | वस्तु, संख्या पर जिसका भाव हो वह (श्रा (नाट-चैत ४५)। १)। हारि पुं[धारिन्] देखो हर (गण । १८ रणाया १, ८)। गदि देखो गइ = गति (देवेन्द्र ३५१) । २३ सार्ध १)।जीव पु [जीव गण गणिम न [गणिम] १ गणना, गिनती, संख्या। गदुअ (शौ) [गत्वा] जाकर (प्राकृ ८८) । के नाम से निर्वाह करनेवाला (ठा ५, १)। २ वि. संख्येय, जिसकी गिनती की जा सके गद्द देखो गज्ज = गद्य (प्राकृ २१) । विच्छेइय, विच्छेदय, विच्छेयय पुं वह, (अणु १५४)। गदतोय पुं[गदेतोय] लोकान्तिक देवों की [वच्छेदक साधु-गण के कार्य की चिन्ता गणिय वि [गणित] १ गिना हुआ। २ न. एक जाति (सम ८५: णाया १, ८)। करनेवाला साधु (पाचा २, १, १०० ठा ३, गिनती, संख्या (ठा जं २)। ३ जैन गद्दब्भ पुंदे कटु-ध्वनि, कर्ण-कटु अावाज ३. कप्प)। हिवइ [धिपति १ शिवसाधुनों का एक कुल (कप्प)। ४ अंक गणित, (दे २, ८२, पाम स १११, ४२०)। पुत्र, गजानन, गणेश (गा ४०३, पात्र)। गणित-शास्त्र (दि; अणु) । लिवि स्त्री गद्दभ देखो गद्दह = गर्दभ (प्राक)। २ जिनदेव का प्रधान-शिष्य (पउम २६,४)। [लिपि] लिपि-विशेष, अंक-लिपि (सम गद्दभय देखो गद्दहय (भाचा २, ३, १ गणग पुं [गणक] १ ज्योतिषी, जोशी, ३५)। आवम)। ज्योतिष शास्त्र का जानकार, दैवज्ञ (णाया गणिय गणिक] गरिणत-शास्त्र का ज्ञाता, गहभालागर्दभाला स्वनाम-प्रसिद्ध एक १, १)। २ भंडारी, भाण्डागारिक (णाया १, 'गणियं जाणइ गणिमा' (अणु)। परिव्राजक (भग)। १-पत्र १९)। | गणिया स्त्री [गणिका] वेश्या, गणिका (श्रा गहभालि पुं [गर्दभालि] एक जैन मुनि (ती गणण न गणन] गिनती, संख्यान (वव १)। १२ विपा १, २)। गणणा श्री [गणना] गिनती, संख्या, संख्यान गणिर वि [गणयितु] गिनती करनेवाला (गा गद्दभिल्ल पुं [गर्दभिल्ल] उज्जयिनी का एक (सुर २, १३२: प्रासू १००० सूत्र २, २)।। २०८)। राजा (निचू १० पि २६१, ४००)। (पाद)। For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्दभी-वाम्म पाइअसहमहण्णवो गद्दभी स्त्री [गर्दभी] १ गधी, गदही (पि गब्भर देखो गहर; 'गब्भरो (प्राकृ २५; संक्षि गमग वि [गमक] बोधक, निश्चायक (विसे २६१) । २ विद्या-विशेष (काल) ३१५) । गद्दह पुं [गर्दभ] १ गदहा, गधा, खर (सम गंब्भाहाण न [गर्भाधान] संस्कार-विशेष गमण न [गमन] गमन, गति (भगः प्रासू ५०; दे २, ८० पाना हे २, ३७)। २ इस (राय १४६)। १३२)। २ वेदन, बोध (गदि)। ३ व्या. नाम का एक मंत्रि-पुत्र (वृह १) | | गभिज्ज पुंदे. गर्भज] जहाज का निम्न ख्यान, टोका। ४ पुष्य वगैरह ना नक्षत्र (राज)। गह न [दे] कुमुद, चन्द्र-विकासी कमल (दे श्रेणी का नौकर 'कुच्छिधारकन्नधारगन्भिज (? ज्ज) संजत्ताणावावारिणयगा' (गाया १, गमणया। स्त्री [गमन गमन, गति 'लोगंत२,८३) गमणा गमणयाए' (ठा ४, ३); 'पायवंदए गद्दहय पुं गर्दभक] १ क्षुद्र जन्तु-विशेष, जो | ८-पत्र १३३, राज)। पहारेत्थ गमणाए' (णाया १,१-पत्र २६ TV गोशाला वगैरह में उत्पन्न होता है (जी गम्भिण । वि[गर्भित] १ जिसको गर्भ गमणिग्ज देखो गम = गम् । १७) । २ देखो गद्दह (नाट) गब्भिय । पैदा हुआ हो वह. गर्भ-युक्त (हे गमणिग स्त्री [गमनिका ] १ संक्षिप्त, गद्दही देखो गद्दभी (नाट-मृच्छ ५८; निचू १, १०८; प्राप्रः गाया १, ७)। २ युक्त, ध्याख्यान, दिग्-दर्शन (राज)। २ गुजारना, सहित; 'वेडिसदलनीलभित्तिगम्भिरणय' (कुमाः १०)। अतिक्रमण; 'कालगमणिया एत्थ उवामो' गद्दिअ वि [दे] गर्वित, गर्व-युक्त (दे २,८३)। (उप ७२८ टी)। गभिल्ल देखो गम्भिज्ज (णाया १, १७गद्ध ( [गृध्र] पक्षि-विशेष, गोध, गिद्ध गमणी स्त्री [गमनी] १ विद्या-विशेष, जिसके पत्र २२८)। (प्रौप)। प्रभाव से आकाश में गमन किया जा सकता गम सक [गम् ] १ जाना, गति करना, गन्न वि [गण्य] १ माननीय, प्रादरास्पदः । है (णाया १, १६-पत्र २१३)। २ जूताः चलना। २ जानना, समझना। ३ प्राप्त 'हियमप्पणो करतो, कस्स न होइ गरुनो 'सब्बोवि जणो जलं विगाहि तो उत्तारइ करना। भूका. गमिही ( कुमा)। कर्म. गुरुगन्नो', 'सव्वो गुणेहि गन्नो' (उव) । २ न. गम्मइ, गमिज्जइ (हे ४, २४६)। कवकृ. गमणीप्रो चरणाहितो' (सुपा ६१०) । गणना, गिनती; 'मुल्लस्स कुण्इ गन्न' (सुपा गम्ममाण (स ३४०) । संकृ. गतु, गमिअ, गमणीअ देखो गम = गम् । २५३) गंता, गतूण, गंतूणं (कुमाः षड् ; प्राप्र; गमय देखो गमग (विसे २६७३) - गब्भ पु[गर्भ] १ कुक्षि, पेट, उदर (ठा ५, प्रौपः कस), गडुअ, गडिअ, गदुअ (शौ); गमार वि [दे. ग्राम्य ] अविदग्घ, मूर्ख १)। २ उत्पत्ति-स्थान, जन्म-स्थान (ठा २, (संक्षि ४७)। । (हे ४, २७२, पि ४८१; नाट-मालती ३)। ३ भ्रूण, अन्तरापत्य (कप्प)। ४ | ४०), गमेप्पि, गमेप्पिणु, गप्पि, गंप्पिणु गमाव देखो गम = गमय । गमावइ (सरण) मध्य, अन्तर, भीतर का (णाया १, ८) (अप); (कुमा) । हेकृ. गंतुं (कसः श्रा १४) । गमिअ वि [गमिक] प्रकारवाला (वव १)। गरा स्त्री [करी] गर्भाधान करनेवाली कृ. गंतव्य, गमणिज्ज, गमणीअ (णाया गमिद वि [दे] १ अपूर्ण। २ गूढ़ । ३ विद्या-विशेष (सूत्र २, २) घर न [गृह] | १,१; गा २४६ उवः भग; नाट)। स्खलित ( षड् )। भीतर का घर, घर का भीतरी भाग (णाया गम सक [गमय ] १ ले जाना । २ व्यतीत | गमिय वि [गमित] १ गुजारा हुमा, प्रतिक्रांत १,८) ज वि [°ज] गर्म में उत्पन्न करना, पसार करना, गुजारना। गति होनेवाला प्राणी, मनुष्य, पशु वगैरह (पउम | (गउड)। २ ज्ञापित, बोधित, निवेदित १०२, ६७) 1/थ वि [स्थ] १ गर्भ में (गउड); 'बुहा ! मुहा मा दियहे गमेह (विसे ५५६) रहनेवाला। २ गर्भ से उत्पन्न होनेवाला (सत्त ४)। कर्म. गमेजंति (गउड)। वकृ. गमिय न [गमिक ] शास्त्र विशेष, सदृश गमंत (सुपा २०२)। संकृ. गमिऊण (पि) मनुष्य वगैरह (ठा २, २) 'मास पुं पाठवाला शास्त्र: 'भंग-गणियाई गमियं सरिहे गमित्तए (पि ५७८)। [मास] कात्तिक से लेकर माघ तक का सगर्म च कारणवसेण' (विसे ५४६; ४५४)। महीना (वव ७)। य देखोज (जी २३) गम [गम] १ गमन, गति, चाल (उप गमिर वि [गन्तु] जानेवाला (हे २, १४५)।। "वई स्त्री [वतः] गर्भिणी स्त्री (सुपा २७६) २२० टो)। २ प्रवेश (पउम १, २६)। ३ वक्कंति स्त्री [°व्युत्क्रान्ति] १ गर्भाशय शास्त्र का तुल्य पाठ, एक तरह का पाठ, गप्पिणु में उत्पत्ति (ठा २, ३) वक्कंतिअ वि जिसका तात्पर्य भिन्न हो (दे १, १, विसे गमेर देखो गमार (संक्षि ४७)। [व्युत्क्रान्ति:] गर्भाशय में जिसकी ५४६; भग)। ४ व्याख्या, टीका विसे गमेस देखो गोस। गमेसइ (हे ४, १८६) । उत्पत्ति होती है वह (सम २ २५)। हर ६१३)। ५ बोध, ज्ञान, समक (अणुः एंदि)। | गमेसंति (कुमा) देखो घर (सुर ६, २१; सुपा १८२)। ६ मार्ग, रास्ता (ठा ७) ।। गम्म विनिम्ब] १ जानने याग्य। २ जो गभर न [गहर] १ कोटर, गुहा । २ गहन, गम ' [गम] १ प्रकार (वव १) । २ वि. | जाना जा सके (बर १७०; सुपा ४२६) । विषम स्थान (माव ४. पि ३३२) जंगम (महानि ४)। ३ हराने योग्य, अाक्रमणोय (सुर १२६; गमेपिप देखो गम = गम् ।। For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ १५, १४४) । ४ जाने योग्य । ५ भोगने योग्य – स्वपत्नी वगैरह (सुर १२,५२) । गमन [गम्य ] गमन, 'अगमगमं सुविणेषु धन्नं' ( सुख ८, १३ ) |/ गम्ममाण देखो गम = गम् । गय वि [] १ णित, भ्रमित, घुमाया गया ( दे २, ९९; षड् ) । २ मृत, मरा हुआ, निर्जीव (दे २, 88 ) 1 [ग] १ गया हुआ (सुपा ३३४ ) । २ प्रतिक्रान्त, गुजरा हुआ (दे १, ५६ ) । ३ विज्ञात, जाना हुआ (गउड) । ४ नष्ट, हत ( उप ७२८ टी) । ५ प्राप्तः 'आधईगयंपि सुहए' (प्रासू ८३ १०७ ) । ६ स्थित रहा हुआ 'मग' (उत्त १) । ७ प्रविष्ट, जिसने प्रवेश किया हो (ठा ४, १) ८ प्रवृत्त (सून १, १, १ ) । ६ व्यवस्थित ( भौप ) । १० न. गति, गमन; 'उसभो गईंदमयगलसुललियगयविक्कभो भवं ( वसु सुपा ५७८ श्राचा) । 'पाणवि [प्राण] मृत, मरा हुग्रा (श्रा २७) राय वि [ग] राग-रहित, वीतराग, निरीह (उप ७२८ टी) । वइया, वई स्त्री ['पतिका ] १ विधवा, रॉड (श्रौप पउम २६, ४२)। २ जिसका पति विदेश गया हो वह स्त्री प्रोषित भत्तृका (गा ३३२ पउम २६, ४२ ) वयवि [ 'वयस् ] वृढ, बुड्डा (पाच)। णुगइअ वि ["नुगतिक ] अंध, परम्परा का अनुयायी, अंधश्रद्धालु ( उवर ४६ ) । पुं [ग] १ हाथी, हस्ती, कुंजर (प्र श्रपः प्रासू १५४; सुपा ३३४ ) । २ एक अंतकृत् जैन मुनि, गज सुकुमाल मुनि ( अंत ३) । ३ इस नाम का एक सेठ (उप ७६८ टी) । ४ रावण का एक सुभट ( पउम ५६, २) र न [ पुर] नगर - विशेष, कुरु देश का प्रधान नगर, हस्तिनापुर (उप १०१४; महास) कण्ण, कन्न पुं [कर्ण] १ द्वीप - विशेष । २ उसमें रहनेवाला (जीव ३; ठा ४,२) कलभ पुं [कलभ] हाथी का बच्चा (राय)। 'गय वि[ ँगत] हाथी के ऊपर श्रारूढ़ ( प ) 'ग्गपय पुं [पद ] पर्वत- विशेष ( श्राक ) ( त्थ वि [स्थ] हाथी के ऊपर स्थित (पउम ८,८६) पुर पाइअसद्दमणवो देखो 'उर (सूत्र १, ५, १) बंधय पुं ["बन्धक ] हाथी को पकड़नेवाली जाति (सुपा ६४२) । मारिणी स्त्री [मारिणी] वनस्पति- विशेष, गुच्छ विशेष (पराग १ - पत्र ३२) । मुह ! [मुख] १ गणेश, गणपति, शिव-पुत्र ( पाच ) । २ यक्ष - विशेष (गरण ११) " राय [° राज] प्रधान हाथी, श्र ेष्ठ हस्ती (सुपा ३८९ ) वइ पुं [पति] गजेन्द्र, श्रेष्ठ हस्ती (गाया १, १६; सुपा २८६ ) / वर [व] प्रधान हाथी वरारिपुं [वरारि] सिंह, शाल, वनराज (उम १७, ७६) बहू स्त्री [ वधू] हथिनी, हस्तिनी (पा) बीही स्त्री ["बीथी] शुक्र वगैरह महाग्रहों का चार क्षेत्र विशेष (ठा E)°ससण पुं [° श्वसन] हाथी की सूँड (प) सुकुमाल पुं ['सुकुमाल ] एक प्रसिद्ध जैन मुनि, उसी भव में मुक्ति-गत जैन साधु-विशेष (अंत, पडि) रिपुं [र] सिंह, पञ्चानन (वि) रोह पु [रोह ] हस्तिपक, महावत (पा) गय पु [ गद] रोग, बिमारी (प्रोपः सुपा ५७८) गयंक पु [गजाङ्क] देवों की एक जाति, दिक्कुमार देव (प)। यंद[गजेन्द्र ] श्रेष्ठ हाथी (गड) गयकंठ पु' [गजकण्ठ ] रत्न- विशेष (राय ६७)। कन्न ' [ गजकर्ण] प्रनायें देश-विशेष ( पव २७४ ) गयग्गपय न [गजाप्रपद] दशाकूट का एक तीर्थ (प्राचानि ३३२) । गयण न [गगन] 'ह' अक्षर (सिरि ११६)। मणि पु [मणि] सूर्य (कुप्र ५१ ) । गयण न [गगन] गगन, आकाश, अम्बर (हे २, १६४; गउड) + गइ पु [गति] एक राजकुमार (दस) ° चर वि [चर] श्राकाश में चलनेवाला, पक्षी, विद्याधर वगैरह (सुपा २५०) [मण्डल ] एक राजा (दस)। | मंडल गयणरइ पुं २,८८ ) 1 [ दे ] मेघ, मेह, बादल (दे गयणिंदु पुं [गगनेन्दु ] विद्याधर वंश के एक राजा का नाम (पउम ५, ४५), For Personal & Private Use Only गम्म - गरिम गयनिमीलिया श्री [गजनिमीलिका ] उपेक्षा, उदासीनता ( स ५१ ) 1 गयमुह पुं [ गजमुख ] अनायें देश-विशेष ( पव २७४) । गयसाउल ) वि [दे] विरक्त, वैरागी (दे गयसाउल्ल ८७ षड् ) I गया स्त्री [ गदा] लोहे का या पाषाण का - विशेष, लोहे का मुगदर या लाठी (राय) । हर [र] वासुदेव ( उत्त ११) । गया स्त्री [ गदा ] एक देव विमान (देवेन्द्र १३३) । - गया स्त्री [ गया ] स्वनाम प्रसिद्ध नगर- विशेष ( उप २५१) । गर वि ['कर] करनेवाला, कर्त्ता (सण) गर [गर ] १ विष-विशेष, एक प्रकार का जहर (नि १) । २ ज्योतिष शास्त्र - प्रसिद्ध वादिकरणों में से एक (विसे ३३४८) । गरण देखो करण ( रयण ε३) । गरल न [गरल ] १ विष, जहर (पात्र प्रासू ३९) । २ रहस्य । ३ वि. अव्यक्त, अस्पष्ट 'अ-गरला ए प्र-मम्मणाए ( श्रौप ) । गरलिगाबद्ध वि [गरलिकाबद्ध ] निक्षिप्त, उपन्यस्त (निचू १) | गरह सक [ गर्ह ] निन्दा करना, घृणा करना । गरहइ, गरहह (भग) । वकृ. गरहंत (द्र १५) । कवकृ. गर हिज्ज माण (गाया १. ८ ) । संकृ. गरहित्ता (प्राचा २, १५) । हे गरहित्तए ( कस; ठा २, १ ) । कृ. गरहणिज्ज, गरहणीय, गरहियव्व (सुपा १८४ ३७९ परह २, १) गरहण न [गर्हण] निन्दा, घृणा (पि १३२) । - रहणया ? स्त्री [गर्हणा] निन्दा, घृणा (भग गरहणा ) १७, ३३ श्रौपः परह २,१) । रहा स्त्री [ग] निन्दा, घृणा (भग) 1 गरहिअ वि [गर्हित] निन्दित, घृणित (सं ६३: द्र ३३३ सरण) 1 गरिअ वि [कृत ] किया हुआ, निर्मित (दे ७, ११) । गरिट्ठ वि [ गरिष्ठ ] प्रति गुरु, बड़ा भारी (सुपा १० १२८ प्रासू १५४) गरिम पुंस्त्री [गरिमन् ] गुरुता, गुरुत्व, गौरव (हे १, ३५ सुपा २३ १०६) । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरिह - गलत्थ गरिह देखो गरह गरिहइ गरिहामि (महान पडि) 1 रिपुं [ग] निन्दा, ग (प्रा) - गरिहणया देखो गरहणया (उत्त २६, १) । गरिहा स्त्री [ग] निन्दा, घृणा, जुगुप्सा (प्रोघ ७६१ स १६० ) । V गरु देखो गुरु 'गरुयरगत्ताए खिविकरण' (सुपा २१४) । गरुअवि [गुरु] गुरु, बड़ा महान (हे है, १०६; प्रात्रः प्रासू ३६ ) IV अ क [ गुरुकार बनाना । गरुएइ (पि १२३); 'हाल सरेहि सिरी सारिखेड ] गुरू करना, बड़ा अह सराग हंसेहिं । विश्व एए अप्पाणं णवर गरुअंति (हेका २५५) । एक [ गुरुकारय् ] १ बड़ा गरुआ गरुआअ बनना । बड़े की तरह श्राचरण करना । गरुआइ, गरुश्राश्रइ (हे ३, १३८ ) । गरुअवि [गुरुकृत] बड़ा किया हुआ (से ६, २०; गउड) | गरुई स्त्री [गुर्वी] बड़ी, ज्या महती गरुगी (हे १, १०७; प्रात्रः निचू १ ) गरुक्क देखो गरुअ 'गवजोव्वणरूप्रपसाहिणा सिंगार' (प्राप) } गरुड देखो गरुल (संति ९; स २६५: पिंग) | छन्द-विशेष (पिंग) त्वन[ख] - विशेष, उरगान का प्रतिपक्षी अन (पउम १२, १२०७१, ६६ विष्णु, वासुदेव (पउम ६१, ५७) ["व्यूह ] सेना की एक प्रकार की (महा; पि २४० ) । V [] वह पुं रचना गरुडंक पुं [गरुडाङ्क] १ विष्णु, वासुदेव । २ इक्ष्वाकु वंश के एक राजा का नाम (पउम ५, ७) गरुल पुं [गरुड] एक देव - विमान (देवेन्द्र १३४) । गरुल पुं [गरुड ] १ पक्षि-राज, पक्षि-विशेष (पराह १, १)। २ यश-विशेष भगवान् शान्तिनाथ का शासन-यक्ष (संति ८ ) । ३ भवनपति देवों की एक जाति, सुपर्णकुमार ३७ पाइअसहमणव देव (पह १, ४) । ४ सुपर्णकुमार देवों का इन्द्र (सूम १, ६) केउ [केतु] देखो "मय (राज) । उभय, द्वय पुं ['ध्वज ] १ गरुड़ पक्षी के चित्रवाली ध्वजा (राय) । २ वासुदेव कृष्ण देव-जातिविशेष सुकुमार देव धामः समः पिव्यूद देखो गरुड-चूह (२), सत्य न [शस्त्र] दान-विशेष (महा) सण न [सन] बासन-विशेष (राव) ववाय [प] शास्त्र-विशेष, जिसको याद करने से देव थत होते हैं (ठा १०)। देखो गरुड | गरुबी देखो गरुई (कुमा) 1 गलक [ गल् ] १ गल जाना, सड़ना । २ खतम होना, समाप्त होना। ३ भरना, टपकना, गिरना । ४ पिघलना, नरम होना । ५. सक. गिराना, टपकाना; 'जाव रती गलई' (महा) व 'नवेण रस-सोएहि गलतम् मसुदर' (महा सुर ४, ६ सुपा २०४) । गलित (परह १ ३ प्रासू ७२ ) । प्रयो, ब. गटाचेमान (शाया १, १२) । गळ पुं [गल] १ गला, श्रीवा, कण्ठ गलअ ) ( सुपा ३३ पान ) । २ वडिश, वंसी, मछली पकड़ने का काँटा (उप १८८० विपा १३ ८ सुर८१४०) गज्जि स्त्री [गर्जि] गले की गर्जना (महा) - "गब्जिय न ['गर्जित] गल-गर्जन (महा) लाय वि ['लात ] गले में लगाया हुआ, कण्ठ-न्यस्त (श्रीप गलई श्री [गलकी] वनस्पति-विशेष (राज)। गलग देखो गलअ (परह १, १ ) 1गलत्थ देखो खिव । गलत्थइ (हे ४, १४३, मनि) । गलत्थण न [क्षेपण ] १ क्षेपण करना, फेंकना । २५५३पा २८ ) । गलत्थलिअ वि [दे] १ क्षिप्त, फेंका हुआ । २ प्रेरित (३२,८७) 1 गलत्थल पुं [दे] गलहस्त, हाथ से गला पकदमा (खाया १, २ पराह १, २ प ५३) गलत्थल्लिअ [दे] देखो गलत्थलिअ ४३८, ६१) (से ५, For Personal & Private Use Only २८६ गलत्था स्त्री [दे] प्रेरणा 'गरुयाणं चिय भुवरणम्मि श्रावया न उरण हुति लहुयारण । गोलगत्वा ससिरान वाराण (उप ७२८ टी) । गलथि [क्षिप्त ] १ प्रेरित (सुपा ६३५) । २ फेंका हुआ (दे २, ८७ कुमा) । ३ बाहर निकाला हुआ (पास) 1 गलद्वअ 1 [दे] प्रेरित, लिस ( पद् गलहस्थि वि [गलहस्तित ] गला पकड़कर बाहर निकाला हुमा (वजा १३८ ) । गलाण देखो गिलाण (नाट - चैत ३४) । - गोल देखो गल = गल; 'मच्छुव्व गर्ल गिलित्ता' (दस १, ६) गलि । वि [गलि, क] दुर्विनीत, दुर्दम गलिअ ) (श्रा १२; सुपा २७६) ५ गद्दह पुं [गर्दभ ] अविनीत गदहा (उत्त २७ ) । 'बइल पुं [" बलीवर्द] दुर्विनीत बैल (कप्पू ) । , [व] दुर्दम घोड़ा (उत्त १) । गलिज वि [गलित] १ गला हुमा, विमला हुधा (कप्प) २ शासित प्रशासित (जुमा)। ३ स्खलित, पतित (से १, २) । ४ नष्ट, नाशप्राप्त (सुपा २४३; सरण) - गलिअ वि [दे] स्मृत, याद किया हुआ (दे २,८१) गलिंत देखो गल = गल गलिय वि [गलीय, गल्य] गले का (पि ४२४) गरि नि [गरिन्] निरन्तर पिता टपकताः 'बहुसोगगलिरनयण' (श्रा १४ ) । गलुल देखो गरुल ( प्रच्चु १; षड् ) । - गलोई । स्त्री [गुडूची] वल्ली-विशेष, गलोया गिलोय, गुरुच (हे १, १२४ जी १०) IM गल्ल पुं [गल] १ गाल, कपोल (दे २, ८१ उवा)। २ हाथी का गण्ड-स्थल, कुम्भ स्थल (ड्) मसूरिया श्री ["मसूरिका] गाल का उपधान (जीत) ग न [दे] १ स्फटिक मणि (प्रायः पि २१६) गल्लत्थ देखो गलत्थ । गल्लत्थइ (षड् ) । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० पाइअसद्दमहण्णवो गल्लप्फोड-गह गल्लप्फोड [दे] डमरुक, वाद्य-विशेष (दे गवेस सक [गवेषय ] गवेषणा करना, गसण न [ग्रसन] भक्षण, निगलना (स खोजना, तलाश करना। गवेसइ (महा: षड्)। ३५७) । गल्लूरण न [दे] मांस खाते हुए कुपित शेर भूका. गवेसित्था (पाचा)। वकृ. गवसंत, गसिअ वि [ग्रस्त] भक्षित, निगलित (कुमा; को गर्जना (माल ६०)। गवेसयंत, गवेसमाण (श्रा १२, सुपा ४१० सुर ६, ६०, सुपा ४८६)। गल्लोल्ल न [दे] गडक, पात्र-विशेष (निचू १)M सुर १, २०२गाया १, ४)। हेकृ. गवे चू १) सुर १, २०२; पाया १, ४)। हेकृ. गवे- गह सक [प्रथ ] गूंथना, गठना। गहेति गव पुंस्त्री [गो] पशु, जानवर (सूत्र १,२,३) सित्तए (कप्प)। । (सूअनि १४०) गवक्ख पुंगवाक्ष] १ गवाक्ष, वातायन, गवेसइत्त वि [गवेषयितु] खोज करनेवाला, गह सक [ग्रह. ] १ ग्रहण करना, लेना। झरोखा (प्रौप; परह २, ४)। २ गवाक्ष के गवेषक (ठा ४, २)TV २ जानना । गहेइ (सण) । वकृ. गहंत (श्रा आकृति का रत्न-विशेष (जीव ३)५°जाल न गवेसग वि [गवेषक] ऊपर देखो (उप पृ २७)। संकृ. गहाय, गहिअ, गहिऊण, [जाल १ रत्न-विशेष का ढेर (जीव ३ ३३) गहिया, गहेरं (पि ५६१; नाटः पि ५८६; राय)। २ जालीवाला वातायन (प्रौप) गवेसण न [गवेषण खोज, अन्वेषण (प्रौपः । खाज, अन्यषण (आप। सूत्र १, ४,११,५, २)। कृ. गहीअव्य, गवच्छ [दे] आच्छादन, ढकना (राय)। सुर ४, १४३)। . गहेअव्व (रयण ७०० भग)। गवच्छिय विदे] पाच्छादित, ढका हुआ गवेसणया स्त्री [गवेषणा ईहा-ज्ञान, संभा गवेसण या स्त्री [गवेषणा] ईहा-ज्ञान, संभा- गह ग्रह] १ ग्रहण, मादान, स्वीकार (रायः जीव ३)। वना-ज्ञान (णंदि १७४) (विसे ३७१; सुर ३, ६२)। २ सूर्य, चन्द्र गवत्त न [दे] घास, तृण (दे २, ८५)। गवसणया । स्त्री [गवेषणा] १ खोज, अन्वे- वगैरह ज्योतिष्क-देव (गउड परह १, २) । गवत्थिय देखो गवच्छिय (पउमच० ४१ गवेसणा षण (प्रौपः सुपा २३३)। २ ३ कर्म का बन्ध (दस ४)। ४ भूत वगैरह शुद्ध भिक्षा की याचना (ोघ ३)। ३ भिक्षा का आक्रमण, आवेश (कुमाः सुर २, १४४)। गवय [गवय] गो की आकृति का जंगली का ग्रहण (ठा ३, ४)। ५ गृद्धि, आसक्ति, तल्लीनता (आचा)। ६ पशु-विशेष, नील गाय (पएह १, १)। गवेमय देखो गवेसग (भवि)। संगीत का रस-विशेष (दस २) खोभ पुं गवर पुं [दे] वनस्पति-विशेष (परण १- गवेसाविय वि [गवेषित] १ दूसरे से खोज- [ क्षोभ राक्षस वंश के एक राजा का नाम, पत्र ३४) वाया हुआ, दूसरे द्वारा खोज किया गया (स एक लंकेश (पउम ५, २६६)५ गन्जिय न गवल पुंगवल] १ जंगली पशु-विशेष, २०७; प्रोध ६२२ टी)। २ गवेषित, अन्वे- [गर्जित] ग्रहों के संचार से होनेवाली जंगली महिष (पउम ८८, ६) । २ न. महिष षित, खोजा हुआ (स १८)। प्रावाज (जीव ३)4 गहिय वि [गृहीत] का सिंग (पएण १७; सुपा ६२)। गवेसि वि [गवेषिन] खोज करनेवाला, भूतादि से प्राक्रान्त, पागल (कुमा; सुर २, गवा स्त्री [गो] गैया, गाय (पउम ८०, १३) गवेषक (पुप्फ ४४०)।" १४४M°चरिय न [चरित] १ ज्योतिषगवादगी देखो गवायणी (प्राचा २,१०,२) गवेसिअ वि [गवेषित] अन्वेषित, खोजा शास्त्र (वव ४)। २ ज्योतिष-शास्त्र का परिज्ञान (सम ८३)M "दंड पुं[दण्ड] दण्डाकार गवायणी स्त्री [गवादनी] गोचर-भूमि (दे हुआ (सुर १५, १२६) ।। गव्व पु [ग] मान, अहंकार, अभिमान (भग ग्रह-पंक्ति (भग ३, ७) 'नाह पुं [ नाथ २, ८२) १५, पव २१६) १ सूर्य, सूरज (श्रा २८)। २ चन्द्र, चन्द्रमा गवार वि [दे] गँवार, छोटे गाव का निवासी गब्बर न [गह वर] कोटर, गुहा (स ३६३)। (उप ७२८ टी) मुसल न [मुसल] (वजा ४)। गवालिय न [गवालीका गौ के विषय में गाव्व विगावन् । अभिमानी, गर्व-युक्त (था| मुसलाकार ग्रह-पंक्ति (जीव ३)1 °सिंघाडग अनृत भाषण (पएह १, २)। । १२: दे ७, ६१) न [शृङ्गाटक] १ पानी-फल के आकारगविट्ठ वि [गर्विष्ट] विशेष अभिमानी, गर्व वाली ग्रहपंक्ति (भग ३, ७)। २ ग्रह युग्म, गविअ वि [दे] अवधृत, निश्चित ( षड् )। __ करनेवाला (दे १, १२८)। ग्रह की जोड़ी जीव ३) हिव [धिप गविट्र वि [गवेषित] खोजा हुआ (सुपा गव्यिय वि [गर्वित गव-युक्त, जिसको अभि- सूर्य, सूरज (श्रा २८) १५४६४०; स ४८४ पान)। । मान उत्पन्न हुभा हो वह (पाय; सुपा २७०) गह ग्रह] १संबंध (धर्मसं ३६३)। २ गविल न [दे] उत्तम कोटि की चीनी, शुद्ध गम्बिर वि [गर्विन] अहंकारी, अभिमानी पकड़, धरना (सूत्र १, ३, २, ११, धर्मवि मिस्त्री (उर ५, ६)। (हे २, १५६ हेका ४५)। स्त्री. री (हेका ७२)। ३ ग्रहण, ज्ञान (धर्मसं १३६४) गवेधुआ स्त्री [गवेधुका] जैनमुनि-गण की। ४५) °भिन्न न [भिन्न जिसके बीच से ग्रह का एक शाखा (कप्प) । गस सक [प्रस्] खाना, निगलना, भक्षण गमन हो वह नक्षत्र (वव १) ५ °सम न गवेलग पुंस्त्री [गवेलक] १ मेष, भेड़ (णाया करना । गसइ (हे ४, २०४ षड्)। वकृ. [सम] गेय काव्य का एक भेद (दसनि २, १, १, प्रौप)। २ गौ और भेड़ (ठा ७)। गसंत (उप ३२० टी) २३)। For Personal & Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गह- गाडि [गृह] पर मकान वह [पति] गृहस्थ, गृही, सँसारी (पउम २०, ११६; प्राप्र ) ( वइणी स्त्री [पत्नी] गृहिणी, स्त्री (सुपा २२६) [दे. कलोल ] राहु ग्रहविशेष (दे २, ८६ पात्र) । गहगद अक [दे] हर्षं से भर जाना, पूर्ण होना । गहगहइ (भवि) 1 गहन [ग्रहण] १ चादाग, स्वीकार (से४, ३३ प्रासू १४ ) । २ आदर, सम्मान । ज्ञान, अवबोध ( से ४, ३३) । ४ शब्द, आवाज (याचा २, ३, ३; श्रवम) । ५ वि. ग्रहण करनेवाला | ६ न. इन्द्रिय (विसे १७०७) । ७ चन्द्र-सूर्य का उपराग --ग्रहण (भग १२, ६) । = वि. ग्राह्य, जिसका ग्रहण किया जाय वह (उत्त ३२) । न. शिक्षाविशेष (आव) 1 गहण न [ग्राहण] ग्रहरण कराना, अंगीकार 'जोधासि भवेरम कराना (कुमा) 1 गहण न [ग्रहण ] १ प्रादान का कारण । २ श्राक्षेपक, 'चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति' (उत्त ३२, २२) प्रानन्द गहण न [गन] अरण्य-क्षेत्र (प्राचा २, ३, ३, १४ विदुग्गन [विदुर्ग] पर्यंत के एक प्रदेश में स्थित समुदायम २, २, ८) । ग्रहण वि [गन] १ निबिड़, दुर्भेद्य, दुर्गम; 'काले अरणाइरिणहरणे जोणीग्रहणम्मि भीसणे इत्थ' (जी ४९ ) 'फलसारणलिगिगणा' (गउड)। २ वन, झाड़ी, घना कानन (पान भग) । ३ वृक्ष - गह्वर, वृक्ष का कोटर ( विपा १, ३ - पत्र ४९ ) । new[] frier-, fr जल-रहित प्रदेश (दे २, ८२ श्रचा २, ३, ३) २ बन्धक, धरोहर, गिरवी (मुपा २४८) IV गणय न [दे] गहना, आभूषण (सुपा १५४) । यात्री [ग्रहण ] ग्रहरण, स्वीकार, उपादान (श्रीप)। गणी गुदाशय, पाइअसद्दमणवो गहणी श्री [ग्रहणी] कुति, पेट (१०६) गहणी स्त्री [दे] जबरदस्ती हरण की हुई स्त्री, बांदी या बंदी (दे २, ८४ से ६, ४७ ) 1 गहत्थि [गमस्ति] रवि (पास) 1 गदर [][ [गी-पक्षी (दे २, ४ पान) 1 गहूण (अप) देखो गहव ( षड् ) ~ ( सक [गै] १ गाना, श्रालापना । २ वर्णन करना । ३ श्लाघा करना । गाइ, गाइ (हे ४, ६ ) । वकृ. गंत, गाअंत, गायमाण (गा ५४६ प ४७६ पउम ६४, २४) । कवकृ. गिज्जत ( गउड गा ६४२ सुपा २१ सुर ३, ७९ ) । संकृ, गाइडं (महा) 1 गाअ पुं [गो] बैल, वृषभ, साँड़ (हे १, १५८) । [गृहपति] कृपक खेती करनेवाला गान [गा] १ शरीर, देह (सम ६०) २ शरीर का अवयव (श्रौप) । गाअ वि [ गायक ] गानेवाला (कुमा) । गाअंक पुं [गवाङ्क] महादेव, शिव (कुमा) गागवि [ गायन] गानेवाला, गवैया (सुपा ५५ सण) । गाइल व [गीत] १ गाया हुआ, 'निरे तो गाइयं गीयं' (सुपा १६) । २ न. गीत, गान, गाना ( आव ४) १ निकुंज । २ वन, जंगल । विषम स्थान । ५ रोदन । अनर्थों का संकटः 'गहरो' हर पुंन [गह्वर ] ३ दंभ, कपट ६ गुफा । ७ अनेक (प्राकृ २४) १४ गहब (पान) । गहवइ वि [दे] १ ग्रामीण, गांव का रहने - वाला (दे २, १००)। २ पुं. चन्द्रमा, चाँद (दे २, १०० पान वा १५) । गहिअ वि [दे] वक्रित, मोड़ा हुआ, टेढ़ा, किया हुआ (दे २, ८५ ) M गहि वि [गृहीत ] १ उपात्त, स्वीकृत ( श्रपः ठा ४, ४) । २ पकड़ा हुआ ( परह १, ३ ) । ३ ज्ञात, उपलब्ध, विदित ( उत्त २ षड् ) IM गहिअ वि [गृद्ध] प्रसक्त, तल्लीन (श्राचा) । गहिआ स्त्री [दे] १ काम भोग के लिए जिसकी प्रार्थना की जाती हो वह स्त्री (दे २, ८५)। २ ग्रहण करने योग्य स्त्री ( षड् ) । गहर व [गभीर] गहरा, गम्भीरताप (दे १, १०१ का ६२५; कप्पः गउड; ग्रीक प्रात्र) 1 गहिल वि [ प्रहिल ] भूतादि से श्राविष्ट, पागल (१४) । गहिलिय ) वि [दे. ग्रहिल ] श्रावेश-युक्त, 7 गहिल्ल | पागल, भ्रान्त-चित्त (पउम ११३, ४३ षड् ; श्रा १२३ उप ५६७ टीः भवि ) । गहीअ देखो गद्दिअ = गृहीत (श्रा १२३ रयण ६८) । श्री [ह] वारा, गांड़ (परा १. अन्य देवो गइ ग्रह ४; श्रप) = | गहीर देखो गभीर (प्रासू ६) हरिजन [गाभी] गहराई, गम्भीरपन (हे २, १०७) गहीरिम पुंस्त्री [गभीरिमन् ] गहराई, गम्भीरता (हे ४, ४१९ ) 1. For Personal & Private Use Only गा गाअ २६१ गाइआ स्त्री [गायिका ] गानेवाली स्त्री (गा ६४४) । गाइर वि [गाथक] गानेवाला, गवैया (सुपा ५४) गाई स्त्री [गो] गैया, गौ (हे १,१५८ दे ४, १८; गा २७१ सुर ७, 22) [गब्यून] १ कोस, कोश, दो उजा धनुष-प्रमाण जमीन (पि २५४० औप; इक जी १८: विसे [२] दो कोरा, फोरम ( गाउ गाउअ गाऊअ) [२] १२) । गागर [दे] स्त्री को पहनने का वस्त्र-विशेष, लहँगा, घरा या घाघरा गुजराती में 'घाघरों' ( प १४२ मरस्य विशेष (परास) गागरी [दे] देखो गायरी ( प ६२) । गालि पुं [गाग]ि एक जैनमुनि (उत्त १०) 1 गागेज्ज व [दे] मथित, मथा हुआ, श्रालोfret(2, 4) गाजा श्री [] गोड़ा, दुलहन (दे २, ८८) गाडि [] विधुर (२०२ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ पाइअसहमहण्णवो गाढ-गारि गाढ वि [गाढ] १ गाढ़, निबिड़, सान्द्र (पात्र; (प्राचा) । २ वि. गाँव की सीमा में रहनेवाला | गामुअवि [गामुक जानेवाला (स १७५)। सुर १४, ४८)। २ मजबूत, दृढ़ (सुर ४, (दसा १)। ३ पुं. जैनेतर दार्शनिक-विशेष गामेइआ स्त्री [ग्रामेयिका] गाँव की रहने२३७) । ३ क्रिवि. अत्यन्त, अतिशय (कप्प) (सूम २,२) वाली स्त्री, गवार स्त्री (गउड)। गाण न [गान] गीत, गाना (हे ४, ६) गामगोह पुं[दे] गाँव का मुखिया (द २, गामगोह पुं[दे] गाँव का मुखिया (दे २, गामेणी स्त्री दे] छागी, मजा, बकरी (दे २, ८६) गाण वि [गायन] गवैया, गीत-प्रवीण (दे | ८४) २, १०८) गामड पुं [ग्रामक गाँव, छोटा गाँव (श्रा | गामेय देखो गामेयग (धर्मवि १३७)। गाणंगणि पुं [गागङ्गणिक छः ही मास गामण न [दे. गमन] भूमि में गमन, भू-सर्पण गामेयग वि [ग्रामेयक] गाँव का निवासी, के भीतर एक साधु-गण से दूसरे गण में (भग ११, ११)। गँवार (बृह १)। जानेवाला साधु (बृह १)। गामणह न [दे] ग्राम-स्थान, ग्राम-प्रदेश गामेरेड [दे] देखो गामरोड (षड् )। गाणी स्त्री [३] गवादनी, गोचर-भूमि (दे २, गामेलुअ) देखो गामिल्ल (मृच्छ २७५, ८२) गामणि देखो गामगी (दे २, ८६ षड्)। गामेल्ल विपा १, १:विसे १४११)। गाथा देखो गाहा (भग; पिंग)। गामणिसुअ ' [दे] गाँव का मुखिया (दे | गामेस [ग्रामेश] गाँव का अधिपति (दे गाध वि [गाध] अस्ताघ-रहित, कम गहरा २, ८९) २, ३७)। (दे ५, २४)। गामणी पुंदे] गांव का मुखिया (दे २, ८६ वायनगया. गायक सिरि गाम पुं [ग्राम] १ समूह, निकरः 'चवलो प्रामा)। ७०१)। इंदियगामो' (सुर २, १३८)। २ प्राणि-समूह, गामणी वि [ग्रामगी] १ श्रेष्ठ, प्रधान, नायक | गायरी स्त्री[दे] गर्गरी, गगरी, कलशी, छोटा जन्तु-निकर (विसे २८६६) । ३ गाँव, वसति, (से ७,६०, धरण १ गा ४४६ षड्)।२ घड़ा (दे २, ८६)। ग्राम (कप्पः रणाया १, १८ औप)। ४ पुं. तृण-विशेष (दे २, ११२)। 'गार वि [कार] कारक, कर्ता (भवि)। इन्द्रिय-समूह (भगः प्रौप)। कंडग, कंडय | गामपिंडोला पुंदे] भीख से पेट भरने के | पुं[कण्टक] १ इन्द्रिय-समूह रूप काँटा लिये गाँव का प्राश्रय लेनेवाला भीखारी गार पुंदे. प्रावन् पत्थर, पाषाण, ककूड़ (भग प्रौप)। २ दुर्जनों का रूक्ष पालाप, (प्राचा)। (वव ४)। गाली (आचा) घायग वि [ घातक] गाँव गामरोड पुं [दे] छल से गाँव का मुखिया | गार न [अगार गृह, घर, मकान (ठा ६)। का नाश करनेवाला (पराह १,३)णिद्धमण बन बैठनेवाला, गाँव के लोगों में फूट उत्पन्न स्थ पुंस्त्री [स्थ] गृहस्थ, गृही (निचू १)। न [निर्धमन] गाँव का पानी जाने का कर गाँव का मालिक होनेवाला (दे २, ६०)। "स्थिय पुत्री [स्थित] गृहस्थ, गृही, संसारीः रास्ता, नाला (कप्प)१°धम्म पुं[धर्म] 'गारत्थियजरणउचियं भासासमिमो न भासिन्जा' | गामहण न [दे] ग्राम-स्थान, गाँव का प्रदेश १ विषयाभिलाष, विषय की वाञ्छा (ठा (पुप्फ १८१ठा ६)। (दे २,६०)। २ छोटा गांव (पान) १०)। २ इन्द्रियों का स्वभाव । ३ विषय 'गारय वि [कारक] कर्ता, करनेवाला (स गामाग पुं[ग्रामाक] प्राम-विशेष, इस नाम प्रवृत्ति (माचा)। ४ मैथुन (सूत्र १, २, १५१)। का एक सन्निवेश (आवम)। २)। ५ शब्द, रूप वगैरह इन्द्रियों का गारव पुन [गौरव १ अभिमान, अहंकार । | गामार वि [दे. ग्रामीण] ग्रामीण, छोटे गाँव विषय (पएह १, ४)। ६ गांव का धर्म, गाँव २ अभिलाष, लालसाः 'तमो गारवा पएणत्ता' का रहनेवाला (वजा ४)। का कर्तव्य (ठा १०) द्ध पुन [धे आधा गामि वि [गामिन्] जानेवाला (गा १६७; (ठा ३, ४; श्रा ३५, सम ८)। ३ महत्व, गाँव । २ उत्तर भारत, भारत का उत्तरप्रदेश गुरुत्व, प्रभाव (कुमा)। ४ आदर, सम्मान प्राचा) । स्त्री. णी (कप्प)। (निचू १२) मारी श्री ["मारी] गाव भर (षड् : प्राप्र) । गामिअ वि [ग्रामिक] १ देखो गामिल्ल (दे में फैली हुई बीमारी-विशेष (जीव ३)५ रोग | गारवित वि [गौरवित] १ गौरवान्वित, २, १००) । २ ग्राम का मुखिया (निचू २)। पुं[ रोग] ग्राम-व्यापक बीमारी (जं २) महत्त्वशाली। २ गर्वीला, अभिमानी। ३ । ३ विषयाभिलाषी (प्राचा)। वइ पुं [पति] गांव का मुखिया (पास)। लालासावाला, अभिलाषी (सूत्र १, १, १)। गामिणिआ स्त्री [गामिनिका] गमन करनेणुग्गाम न [नुग्राम एक गाँव से दूसरे वाली स्त्री, 'ललिअहंसबहुगामिणिपाहि (अजि गारविल्ल वि [गौरववत् ] ऊपर देखो गाँव (औप)। यार पुं [चार] विषय २६)। (कम्म १, ५६) (प्रावम)। गामिल्लवि [ग्रामीण ] गाँव का गारहत्थ वि [गार्हस्थ] गृहस्थ-सम्बन्धी, गृहस्थ गामउड पुं[दे] गाँव का मुखिया (दे २, गामिल्लुअनिवासी, गवार; (पउम ७७, का (पव २३५)। गामऊड ८६ बृह ३)। गामीण ) १०८ विसे १ टी; दे ८, गारि पुंस्त्री [अगारिन्] गृही, संसारी, गृहस्थ गामतिय न [प्रामान्तिक १ गाँव की सीमा ४७) । स्त्री. °ल्ली (कुमा)। (उत्त ५, १९)। For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाब्ध (उत्त बी. डारी, भाण्डागा कराना । गाहे गारिहत्थिय-गिड्डिया पाइअसहमहण्णवो २६३ गारिहस्थिय स्त्रीन [गाईस्थ्य] गृहस्थ-संबन्धी, गास [प्रास] पास, कवल (सुपा ४८८)। [पति] १ गृहस्थ, गृही, संसारी (ठा ४, संसारि-संबन्धी । स्त्री. 'या (पव २३५) । गास पुं[प्रास भोजन (पव ९५) ४ सुपा २२६)। २ धनी, धनाब्ध (उत्त गारुड विगारुड] १ गरुड़-संबन्धी। गाह देखो गह = ग्रह् । कर्म. गाहिजइ (प्राप्र)। १)। ३ भंडारी, भाण्डागारिक (सम २७)। गारल्ल २ सर्प के विष को उतारनेवाला, स्त्री. °णी (णाया १, ५ उवा)। सर्प-विष को दूर करनेवाला । ३ पुं. सर्प विष गाह सक [ग्राहय् ] ग्रहण कराना । गाहेइ गाहाल ' [ग्राहाल] कीट-विशेष, श्रीन्द्रिय को दूर करनेवाला मन्त्र (उप १८६ टी से (ोप)। गाह सक [गाह ]१ गाहना, ढूँढ़ना। २ जन्तु विशेष (जीव १)। १४,५७) । ४ न. शास्त्र विशेष, मन्त्र-शास्त्रविशेष, सर्पविष-नाशक मन्त्र का जिसमें वर्णन पढ़ना, अभ्यास करना। ३ अनुभव करना । गाहावई स्त्री [ग्राहावती] १ नदी-विशेष । २ द्वीप-विशेष । ३ ह्रद-विशेष, जहां से हो वह शास्त्र (ठा )1'मंत पुं[मन्त्र] ४ टोह लगाना । गाहदि (शौ); (मृच्छ ७२) । कवकृ. गाहिज्जत (वजा ४)। सर्प-विष का नाशक मन्त्र (सुपा २१९)M ग्राहावती नदी निकलती है (जं ४) । "विउ वि [वित् ] गारुड मन्त्र का जानकार, गाह पु[गाध प्रस्ताघ-रहित, थाह (ठा ४, गाहाविय वि [प्राहित] जिसको ग्रहण गारुडात्र का जानकार (उप ९८६ टी) कराया गया हो वह (सुर ११, १८३) । ४)। गाल सकगालय ] १ गालना, छानना ।। गाह पुग्राह] १ गाह, कुंभीर, नक, जल- | गाहिणी स्त्री [गाहिनी] १ गाहने वाली २ नाश करना । ३ उल्लंघन करना, अतिक जन्तु-विशेष, मगर (दे २,८६ गाया १,४० स्त्री । २ छन्द-विशेष (पिंग)। मण करना । गालयइ (विसे ६४)। वकृ.. जी २०) । २ आग्रह, हठ (विसे २६८६ पउम गाहिपुर न [गाधिपुर] नगर-विशेष (गउड) गालेमाण (भग ६, ३३)। कवकृ. गालि १६, १२) । ३ ग्रहण, पादान (निचू १)। गाहिय वि [ग्राहित] १ जिसको ग्रहण जंत (सुपा १७३) प्रयो. गालावेइ (णाया ४ गारुड़िक, सर्प को पकड़नेवाली मनुष्य- कराया गया हो वह । २ भ्रामित, उकसाया १, १२)। जाति (बृह १) वई स्त्री [वती] नदी- हुमा (सूम १, २,१)। गालण न [गालन] छालना, गालना (पएह विशेष (ठा २, ३–पत्र ८०)। गाहीकय वि [गाथीकृत] एकत्रित, इकट्ठा १, १, उप पृ ३७९)। गाहग वि [ग्राहक] १ ग्रहण करनेवाला, | किया हुआ (सूपनि १, १६) । गालणा स्त्री [गालना] १ गालना, छानना । लेनेवाला ( सुपा ११)। २ समझनेवाला, | गाहु स्त्री [गाहु] छन्द-विशेष (पिंग)। २ गिरवाना । ३ पिघलवाना (विपा १, १) जाननेवाला (सुपा ३४३)। ३ समझानेवाला, | गाहुलि पुंस्त्री [दे] ग्राह, नक, मगर, क्रूर जलगालवाहिया स्त्री [दे] छोटी नौका, डोंगी; शिक्षेक, प्राचार्य, गुरु (औप)। ४ ज्ञापक, | जन्तु विशेष (दे २, ८६)! 'एत्यंतरम्मि समागया गालवाहियाए निजाबोधक । स्त्री. गाहिगा (पोप) गाहुल्लिया देखो गाहा = गाथा (सुपा २६४)। मया' (स ३५१)। गाहक वि [ग्राहक] प्राप्ति करनेवाला, 'गाहगं | गिठि [गृष्टि] १ एक बार व्यायी हुई। २ गालि स्त्री [गालि] गाली, गारी, अपशब्द, सयलगुणाणं' (स ६५२)। एक बार व्यायी हुई गाय (हे १, २६)। असभ्य वचन (सुपा ३७०)। गिंधुअ [दे देखो गेटुअ (पान)। गाहण न [ग्राहण] १ ग्रहण कराना । २. गालिय वि [गालित] १ छाना हुआ। २ ग्रहण, पादाना 'गाहण तवचरियस्सा गहणं गिंधुल्ल [दे] देखो गेंठुल्ल (पाम)। अतिक्रान्त । ३ विनाशित । ४ क्षिप्त; 'गालियचिय गाहणा होंति' (पंचभा) । ३ शास्त्र, गिंभ (अप) देखो गिझ (हे ४, ४४२)। गिह देखो गिझ षड्)। सिद्धान्त (वव ४) । ४ बोधक-वचन, शिक्षा, मिठो निरंकुसो वियरिओ रायहत्थी (महा)। उपदेश (पएह २, २)। गिजत देखो गा। गाली स्त्री [गाली] देखो गालि (पव ३८)। गाहणया। श्री [ग्राहणा] ऊपर देखो (उप | गिझ अक [गृध] प्रासक्त होना, लम्पट गाव (अप) देखो गा। गावइ (पिंग) । वकृ. गाहणापू ३१४, प्राचा; गच्छ १) होना। गिज्झइ (हे ४, २१७)। गिज्झह गावंत (पि २१४)। गाय देखो गाहग (विसे ८३१ स ४६८)। (णाया १,८)। वकृ. गिभंत (पौष)। गाव (प्रप) देखो गव्व (भवि)। गाहा स्त्री [गाथा] अध्ययन, ग्रन्थ-प्रकरण कृ. गिझियव्य (पएह २, ५)। गाव वि [दे] गत, गया हुमा, गुजरा हुआ (उत्त ३१, १३)। गिज्म वि [गृह्य, ग्राह्य १ ग्रहण करने गाहा स्त्री गाथा] १ छन्द-विशेष, आर्या, योग्य। २ अपनी तरफ में किया जा सके गाव पुं[ग्रावन] १ पत्थर, पाषाण __ गोति (ठा ५, ३, अजि ३७, ३८)। २ ऐसा (ठा ३, २) गावाण (पान)। २ पहाड़, गिरि (हे ३, प्रतिष्ठा। ३ निश्चयः 'सेसपयाण य गाहा' गिट्टि देखो गिठिः 'वारेंतस्सवि बला दिट्ठी ५६)। (प्राव ४) । ४ 'सूत्रकृतांग' सूत्र का सोलहवाँ | गिटिव्व जवसम्मि' (उप ७२८ टीः पाम: गावि (अप) देखो गम्विय (भवि)। गा ६४०)। गावी स्त्री [ग] गौ, गैया (हे २, १७४ विपा | गाहा स्री [दे] गृह, घर, मकान; 'गाहा घर | गिड्डिया स्त्री [दे] गेड़ी, गेंद खेलने की लकड़ी १,२: महा)। गिहमिति एगट्ठा (वव ८)। वइ पुत्री (पव ३८) For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ पाइअसद्दमहण्णवो गिण-गिह गिण देखो गण = गणय् । गिणंति (सट्ठि कोंकण देश में वर्षाकाल में किया जाता एक गिला स्त्री [ग्लानि १ बीमारी, रोग। २ १७) 10 प्रकार का उत्सव (बृह १) °णई स्त्री खेद, थकावट (ठा ८)। गिह देखो गह = ग्रह । गिराहइ (कप्प)। ["नदी] पर्वतीय नदी (पि ३८५)1 °णाल गिलाण देखो गिला; 'गिलाणइ कज्जे वकृ. गिण्हंत, गिण्हमाण (सुपा ६१६; पुं[नार] प्रसिद्ध पर्वत-विशेष, जो काठिया- (स ७१७)। णाया १,१)। संकृ. गिहिउं, गिबिह- वाड़ में आजकल भी 'गिरनार के नाम से गिलाण वि [ग्लान] १ बीमार, रोगी (सूत्र ऊण, गिहित्ता (पि ५७४ ५८५ ५८२)। विख्यात है (प्री ३)। दारिणी स्त्री [°दा १, ३, ३)। २ अशक्त, असमर्थ, थका हुआ हेकृ. गिण्हित्तए (कप्प)। कृ. गिहियव्य, रिणी] विद्या-विशेष (पउम ७, १३६)। (ठा ३, ४)। ३ उदासीन, हर्ष-रहित (णाया गिण्हेयव्य (अणु; सुपा ५१३)। 'नई देखो गई (सुपा ६३५) । पक्खंदण । १, १३, हे २, १०६)। गिण्हण देखो गहण - ग्रहण (सिरि ३४७; न [प्रस्कन्दन] पहाड़ पर से गिरना (निचू गिलाणि स्त्री [ग्लानि] ग्लानि, खेद, थकावट पिंड ४५६ तंदु ५०) ११) । यडय न [कटक] पर्वत का मध्य (ठा ५, १) गिण्हणा स्त्री [ग्रहण] उपादान, प्रादान भाग (गउड)। पन्भार पुं[प्राग्भार] गिलायय वि [ग्लायक] ग्लानि-युक्त, लान (उत्त १६, २७) पर्वत-नितम्ब (संथा)। राय [ राज मेरु गिण्हाविअ वि [ग्राहित] ग्रहण कराया हुआ पर्वत (इक)। वर पुं[वर] प्रधान पर्वत, (प्रौप)। (धर्मवि ११६) उत्तम पहाड़ (सुपा १७६)५ वरिंद पुं गिलासि पुंस्त्री [ग्रासिन्] व्याधि-विशेष, गिद्ध पुं [गृध्र] पक्षि-विशेष, गीध (पाम: [°वरेन्द्र] मेरु पर्वत (श्रा २७)। सुआ स्त्री भस्मक रोग (आचा)। स्त्री. णी (प्राचा)। पाया १; १६) ["सुता] पार्वती, गौरी (पिंग)। गिलिअ वि [गिलित] निगला हुमा, भक्षित गिद्ध वि [गृद्ध] पासक्त, लम्पट, लोलुप गिरि पुं[दे] बीज-कोश (दे ६, १४८)। (परह १, २, प्राचू ३)। गिरिंद [गिरीन्द्र] १ श्रेष्ठ पर्वत । २ मे गिलिअवंत वि [गिलितवत् ] जिसने गिद्धपिटु न [गृद्ध स्पृष्ट, गृधपृष्ठ] मरणपर्वत । ३ हिमाचल (कप्पू)। भक्षण किया हो वह (पि ५६६) ।। विशेष, आत्महत्या के अभिप्राय से गीध आदि गिरिकन्नी देखो गिरि-कण्णी (पव ४)। गिलोइया । स्त्री दे] गृह-गोधा, छिपकली को अपना शरीर खिला देना (पव १५७)। गिरिडी स्त्री [दे] पशुओं के दात को बाँधने गिलोई (सुपा ६४०; पुप्फ २६७) ।। गिद्धि स्त्री [गृद्धि] एक देव-विमान (देवेन्द्र का उपकरण-विशेष; 'दंतगिरिडि पबंधई' गिल्लि स्त्री [दे] १ हाथी की पीठ पर कसा (सुपा २३७) १३४) । जाता होदा, हौदा (णाया १,१-पत्र ४३ गिद्धि स्त्री [गृद्धि] आसक्तिः, लम्पटता, गाय गिरिनयर न [गिरिनगर] गिरनार पर्वत' टी औप)। २ डोली, दो आदमी से उठाई के नीचे का नगर, जो आजकल 'जूनागढ' (सूत्र १, ६) जाती एक प्रकार की शिविका (सूअ २, २; के नाम से प्रसिद्ध है (कुप्र १७६) । गिन्हणा देखो गिण्हणा (उत्त १६, २७)। दमा ६) | गिरिफुल्लिय न [गिरिपुष्पित] नगर-विशेष गिव्वाण पुं [गीर्वाण] देव, सुर, त्रिदश गिह्म पुं [ग्रीष्म] ऋतु-विशेष, गरमी का (पिड ४६१)। (उप ५३० टी)। मौसिम (हे २, ७४; प्राप्र)। गिरिस [गिरिश] महादेश, शिव (पानः | गिह्मा स्त्री. देखो गिमः "गिम्हासु' (सुख २, | गिह न [गृह घर, मकान (प्राचाः श्रा २३; दे, ६, १२१)। वास पुं[°वास] कैलाश स्वप्न ६४)पस्थ पुंस्त्री [स्थ] गृहस्थ, गृही, ३७) । पर्वत (से ६, ७५)। संसारी (कप्पः द्र ५)। स्त्री. त्था (पउम गिर सक [ग] १ बोलना, उच्चारण करना। गिरीस पु [गिरीश] १ हिमालय पर्वत। ४६, ३३)। 'नाह [नाथ] घर का २ गिलना, निगलना । गिरइ (षड् )। २ महादेव, शिव (पिंग)। मालिक (श्रा २८) लिंगि पुंस्त्री [लिगिरा स्त्री [गिर] वाणी, भाषा, वाक् (हे गिल सक [ग] गिलना, निगलना, भक्षण गिन् गृहस्थ, गृही, संसारी (दस)। वइ करना । संकृ. गिलिऊण (नाट)। पुंस्त्री ["पति] गृहस्थ, गृही, घर का मालिक गिरि पु [गिरि] १ पहाड़, पर्वत (गउडा गिलण न [गरण] निगरण, भक्षण (हे ४, (ठा ५, ३; सुपा २३४) वास ' १.२३)। °अडी स्त्री तिटी] पर्वतीय | ४५५) वास] १ घर में निवास । २ द्वितीयाश्रम, नदी (गउड ) कण्णई, कण्णी स्त्री गिला । अक गलै] १ ग्लान होना, बीमार संसारिपनः 'गिहवासं पासं पिव मन्नंतो वसइ [कर्णी] वल्ली-विशेष, लता-विशेष (पएण | गिलाअ होना। २ खिन्न होना, थक जाना। दुक्खिनो तम्मि' (धम्म सूत्र १, ६) विट्ट १-पत्र ३३, श्रा २०)। कूड न [°कूट] ३ उदासीन होना। गिलाइ, गिलायइ, मिला- पुं [वर्त] द्वितीय आश्रम, संसारिपन १ पर्वत का शिखर । २ पुं. रामचन्द्र का एमि (भगः कसः आचा) । वकृ. गिलायमाण (सूत्र १, ४, १), "सम पुं [श्रम] घरमहल (पउम ८०, ४) । 'जण्ण पुं[यज्ञ] (ठा ३, ३)। वास, द्वितीयाश्रम (स १४८)। For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिहिकोइला गुंदल गिहिकोइला स्त्री [गृहकोकिला ] गृहगोधा, छिपकली (७५८) । गिद्दमेहि पुं [गृहमेधिन् ] गृहस्थ (धर्मवि RE) IV [[वि] [गृहपति ] देश का अधिपति सूबे दार. 'सह विवि देस्स गायगो' (पत्र ८५) गिहि पुं [गृहिन्] गृही, संसारी, गृहस्थ ( श्रोष १७ भाः नव ४३ ) ५ धम्म पुं ["धर्म] गृहस्थ धर्म, श्रावक-धर्म (राज) + लिंग न [लिङ्ग] गृहस्थ का वेश (बृह १ ) 1गिहिणी की [गृहिणी] गृहिणी भार्या श्री ( सुपा ८३ श्रा १६) । गिहीअ [वि] [गृहीत]] बात, उपात्त ग्रहण किया हुआ (स ४२८ ) | गिलुग देखो गिलुय ( श्राचा २, ५, १, ८) । गिलु पुं [गृ है लुक ] देहली, द्वार के नीचे की लकड़ी ( निचू १३ ) । गी श्री [ गिर्] वाणी, भाषा, वाकू 'विरजन छायापच गोविलसि जस्स ( गीआ श्री [गांता] श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञानमय उपदेश, छन्द-विशेष (नि) । गोइ श्री [गीति] धन्य-विशेष धार्या नृत का एक भेद । २ गान, गीत (ठा ७ उप १३० टी) । " गोइया स्त्री [गीतिका ] ऊपर देखो ( श्रौप गाया १,१) । पाइअसहमणवो ! (श्रीप)। २ पुं. गन्धवं देवों का एक इन्द्र (इक, भग, ३, ८) । ३ गन्धवं सेना का प्रधिपति देव-विशेष (ठा ७) । ४ वि. संगीत प्रिय नान-प्रिय (विपा १, २ ) । गीवा की [प्रीथा] कण्ठ, गरदन (पा) गुंड देखो गुच्छ (हे १,२६) । गुंछा स्त्री [दे] १ बिन्दु । २ दाढ़ी-मूंछ । ३ अधम, नीच (दे २, १०१) । गुंज प्रक [हस् ] हँसना, हास्य करना । गुजइ (हे ४, १६६) । गुंज [ अ ] १ गुन-गुन करना, भ्रमर आदि का आवाज करना । २ गर्जना, सिंह वगैरह का आवाज करना 'गु ंजंति सीहा' (महा) । वकृ. गुंजंत (गाया १, १ – पत्र ५ भा)। गुंज पुं [गुअ] १ गुल्जारव करता वायु (पउम १३, ४३) । २ पर्वत-विशेषः 'गुजवरपव्वयं ते' (पउम ८, ९०; ९४ ) । गुंजा स्त्री [गुआ ] १ लता-विशेष (सुर २, ६) २ फल-विशेष, पणी (खाया ११ गा ३१० ) । ३ भम्भा, वाद्य-विशेष (प्राचा) । ४ परिणाम-विशेष (ठा ४, १) । ५ गुञ्जारव, जन, गुन-गुन आवाज "गुंजाचक्ककुहरोवगूढं' (राय) । ६ वायु- विशेष, गुल्जारव करनेवाला पा] (जीव १ जी ७) फल, 'द्दल न ['फल] फल- विशेष, घुंघची (सुर २६ २६१) गुंजालिआ श्री [गुलिका] गंभीर तथा टेढ़ी वापी - वावली या बावड़ी ( श्राचा २, ३, ३, १) गुंजालिया स्त्री [गुआलिका] वक्र-सारिणी, टेड़ी कियारी (खावा १,१) । २ गोल पुष्करिणी ( नि १२ ) । ३ वक्र नदी ( पण ११) I गीय [गीत] पद्यमयवान व जो गाया जाय वह (पराह २३२ कथित, प्रतिपादित (गाया १, १ ) । ३ प्रसिद्ध, विख्यात ( संथा ) । ४ न. गान, ताल और बाजे के अनुसार गाना ( जं २ उत्त १ ) । ५ संगीत कला, गान - कला, संगीत - शास्त्र का परिज्ञान ( गाया १, १ )। ६ पुं. गीतार्थ, उत्सर्ग और अपवाद वगैरह का जानकार जैन साधु, विद्वान् जैन मुनि (उप ७७३) ५ "जस ["यशस्] इन्द्र-विशेष, गन्धर्व देवों का एक इन्द्र (२३) * [] १वान मुनि उप २२ ४ सुपा १२७) । २ संगीत - रहस्य (मै १४) । "पुरन ["पुर] नगर- विशेष (४.५ गुंजाविनि [हासित] हँसाया हुआ (कुमा ७, ४१) गुंजिअ न [गुञ्जित ] गुन-गुन श्रावाज, भ्रमर वगैरह का शब्द (कुमा) गुंजिर वि [गुअितृ] गुन-गुन आवाज करनेवाला (उप १०३१ टी ५३).! ° रइ स्त्री [*रति] १ संगीत-क्रीड़ा | गुंजुल्ल देखो गुंजोल्ल गुजुल्लइ (हे ४, २०२ ) । For Personal & Private Use Only २६५ गुंजेल्लिभ वि [दे] पिण्डीकृत, इकट्ठा किया हुआ (दे २, २) । गुंजोल्ल सक [ वि + लुल् ] बिखेरना । गुरौंजोल्लइ (प्राकृ ७३) । गुंजोल्लक [ उत् + लस् ] उल्लास पाना, विकसित होना। ना ४१०२) । गुंजोल्लिअ वि [उल्लसित] विकसित, विक सित (कुमा) - गुंठ सक [ उद् + धूलय्, गुण्ठ् ] धूल वाला करना, घुली के रंग का करना, घूसरित करना । गुठइ (हे ४, २६) । वकृ. गुंठत (कुमा) । गुंठ पुं [दे ] श्रधम अश्व, दुg घोड़ा (दे २, १४५४२ वि. मायावी, कपटी (वव ३) । गुंठा श्री [हे] मापा, ३) गुंठिअ वि [गुण्ठित] १ धूसरित । २ व्यास ३ आच्छादित (दे १,८५) गुंठी स्त्री [दे] नीरंगी, स्त्री का वस्त्र-विशेष (दे २, १० ) 1 गुंड न [दे] मुस्ता से उत्पन्न होनेवाला - विशेष (३२, ११) । 2 गुंडण न [ गुण्डन] धूलि का लेप, धूल का शरीर में लगाना; 'रयरेणुगु' उरगारिण य नो सम्मं सहसि' (गाया १, १ –पत्र ७१ ) । V गुंडिअ वि [गुण्डित] भूमि-ति पूर्णि युक्त (पाच) २ लिप्स पता हमारा (बिया १, २ पत्र २४ ) घिरा हुआ; 'सउणी जह पसुगुडिया' (सूत्र १, २, १ ) । ४ श्राच्छादित, प्रावृत ( श्रावा) । ५ प्रेरित (१३) गुंथण न [ग्रन्थन] गूँथना, गठना ( रयण १८) | गुंद पुं [गुन्द्र ] वृक्ष-विशेष (पान) I गुंदल [दे. गुन्दल] श्रानन्दयनि खुशी की धावाज, हर्ष की तुलयनि 'मतबरकामिणीसंपद (सुर ३ ११५)। 'हरिसी कलहेहि यमेनं हरिसद काउं' (सुपा १३७ ) । २ हर्ष -भर, श्रानन्दसंदोह खुशी की वृद्धि द पुरु', 'धार' दत्ते लीलाव परिकलियों (सुपा २२ १३६) । वि. श्रानन्द Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ मग्न, खुशी में लीन 'तैं वह द प्रादि(सुपा १३४) । गुंदवडय न [दे] एक प्रकार की मिठाई, गुजराती में जिसको ''व' कहते हैं (सुपा ४८५ ) 1 गुंदा } स्त्री [दे] १ बिन्दु २ प्रथम, नीच (दे २, १०१) गुंपा गुं स [ न्यू ] गठना गुंबद (प्राह ६३) । गुंफक [ गुम्फू]थना, गठना । गुफइ (षड् ) वकृ. गुंफत (कुमा) । गुंफ[गुम्फ] रचना, चना, अन्यन १ ( उप १०३१ टी दे १, १५०६, १४२ ) । गुंफ थुं [दे] गुप्ति, कारागार, जेल ε0)13 (दे २, गुंफण न [दे] गोफन, पत्थर फेंकने का प्रस्नविशेषः ''करण फेरणसुंकार एहि' (सुर २,८) । M गुंफी स्त्री [दे] शतपदी, क्षुद्र कीट विशेष, गोजर, नखरा (दे २, ११) । गुग्गुलु देखो गुग्गुल (स ४३६) । गुच्छ । पुं [गुच्छ ] १ गुच्छा, गुच्छक, गुच्छय ) स्तबक (उत्त २; स्पप्न ७२ ) । २ वृक्षों । फूलों की एक जाति (१) ३ पत्तों का समूह (१) । गुच्छ देशी गोच्छव (घोष ६६० ) । गुच्छिवि [ गुच्छित] गुच्छा वाला, गुच्छयुक्तः 'निच्चं गुच्छिया' (राय) । - गुज देखो गोल (गुपा २०१) । गुज्जर [गूजर ] १ भारत का एक प्रान्त, गुजरात देश (पिंग) २ लि. पुनरात का निवासी । स्त्री. री (नाट) । गुढ एक [ गुड् ] नियन्त्रण करना। प्रवेद ( संबोध ५४ ) । गुग्गुल 1 [गुग्गुल] सुगन्धित द्रव्य-विशेष गूगल या गुग्गुल (सुपा १२१ ) । गुग्गुली श्री [गुग्गुल] इगल का पेड़ (जी गुड [गुड] १ युद्ध, ईख का विकार, साल १०) । गुजरात गुजरता श्री [गुर्जर]] रात देश (सार्थ ६८) । गुलिअ वि [दे] संघटित (पर)। गुज्म [गुध] एक देव-जाति (दस ७ ५३) । पाइअसहमष्णवो गुज्भं पिव तक्खरणा फुट्ट" ( उप ७२८ टी) । ३ लिंग, पुरुष - चिह्न । ४ योनि, स्त्री - चिह्न (धर्मं २) । ५ मैथुन, संभोग ( परह १, ४) हर [वि] [["धर] इस बात को प्रकट नहीं करने वाला (दे २४३) । हर वि ["हर] रहस्यभेदी गुप्त बात को प्रसिद्ध करनेवाला (२, ε३) । , गुज्मअ ) [गुह्यक] देवों की एक जाति } गुरुभंग (ठा ५, ३) 2 वि [ गुह्य] १ गोपनीय, छिपाने गुवमाअ योग्य (खाया १.१ हे २,१२४) २. बात रहस्य 'सिमेतिणियियगर्य । • गुट्ठ न [दे] स्तम्ब, तृण-काण्ड 'अज्जु - गुट्ट व तस्स जाई' (उवा) । भत्त गुटु देखो गोट्टु (पाय मत १६२ ) । गुट्ठी देखो गोट्ठी (सूक्त ५८ ) । गुड सक [ गुड् ] १ हाथी को कवच वगैरह से सजाना । २ लड़ाई के लिए तय्यार करना, सजाना 'गुरु गदे पीहरपकपाइक्के' (सुपा २८८ ) । कवकृ. 'गुडित्र गुडिज्जं - भ' (१२८७) गुडदालिअ वि [दे] पिएडीकृत इकट्ठा किया (२,१२)। गुडा स्त्री [गुडा ] १ हाथी का कवच । २ अश्व का कवच ( विपा १, २ ) । गुडिअ व [गुडित ] कवचित, वर्मित, कृतसंनाह (से १२, ७३ ८७ विपा १, २ ) । गुडिआ श्री [गुटिका ] गाली (गा १०७) । गुडीलडिओ श्री [हे] चुम्बन (दे २, ११) तंबू, गुड्डर न [दे] बीमा या सेमा, रो, डेरा -गृह (सिरि ४६२ ६४४) । गुण एक [ गुण] १ गिनना २ प्रावृति करना, याद करना । गुणइ (सूक्त ५१ हे ४, ४२२) (उर)। वह गुणमाण (उप ३१९) । गुण [गुण] उचारण (मनि २०) २ पुं । रसना, मेखला (आाचा २, २, १, ७) । शक्कर (हे १, २०२ प्रासू १५१) । २ एक प्रकार का कवच (राज)। सरथ न ["सार्थ] नगर - विशेष (प्राक ) । For Personal & Private Use Only गुंदवडय - गुण गुणन [गुण] १ गुण, पर्याय, स्वभाव, धर्म (ठा ५, ३) । २ ज्ञान, सुख वगैरह एक ही साथ रहनेवाला धर्म (सम्म १०० १०९) । ३ ज्ञान, विनय, दान, शौर्य, सदाचार वगैरह दोष-प्रतिपक्षी पदार्थ (कुमा उत्त १६ श्रणु; ठा ४, ३ से १, ४) । ४ लाभ, फायदा 'विहवेहि गुणाईं मग्गंति' (हे १, ३४, सुपा १०३) । ५ प्रशस्तता, प्रशंसा (गाया १, १) । ६ रज्जू, डोरा, धागा ( से १, ४) । ७ व्याकरण- प्रसिद्ध ए, आ और प्रर् रूप स्वर -विकार (सुपा १०३) । ८ जैन गृहस्थ को पालने का विशेष व्रत (पंचव ३) । ε रूप, रस, गन्ध वगैरह द्रव्याश्रित धर्मः 'गुग-पच्चाखत्तरणश्रा गुरणीवि जाश्रो घडाव्व www (art, t; 2) to प्रत्यञ्चा, धनुष का रोदा (कुमा) । ११ कार्य, प्रयोजन ( भग २, १० ) । १२ अप्रधान, प्रमुख्य, गौण (हे १, ३४ ) । १३ अंश, विभाग (भर) । १४ उपकार, हित (पंचा ५) कर [क] १ लाम-कारक २ उपकार-कारक (पंचा)। कार [कार] गुणा करना, अभ्यास-राशि (सम १०) चंद 1 ["चन्द्र ] १ एक राजकुमार (भावम)। २ एक जैन मुनि और ग्रन्थकार । ३ श्रेष्ठिविशेष (राज) "ट्ठाण न ["स्थान] का स्वरूप-विशेष, मिध्यादृष्टि वगेरह यह गुण-स्थानक (कम्म ४ प १० ) । "ठि [र्थिक ] गुण को प्रधान माननेवाला मत न-विशेष (सम्म १०७) ि [य] गुणी, गुरणवान् (सुर ३, २० १३०) । ण्ण, ण्णु, ग्न, भ्नु वि["श] गुरण का जानकार (गउड; उवर ८६; उप ५३०टी सुपा १२२) पुरिसपुं [पुरुष] गुणी पुरुष ( सू १, ४) मंत वि [वत् ] गुणी, गुण-युक्त (प्राचा २,१, ६) । रयणसंबच्चन ["रत्नसंवत्सर] तपश्चर्या-विशेष (भग) । व, वंत वि [वत् ] गुणी, गुरण-युक्त (श्रा ३६; उप ८७५) । व्वय न [ व्रत] जैन गृहस्थ को पालने योग्यत विशेष (पडि ) "सिलय न ["शिलक] राजगृह नगर का एक चैत्य (गाया १, १ ) 1 'सेfor [श्रेणि] कर्म-पुद्गलों की रचना Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण-गुम्म पाइअसहमहण्णवो २६७ विशेष (पंच)। 'सेण [सेन] इस नाम १५)। ३ स्व-पर की रक्षा करनेवाला, गुप्ति- गुप्त न [दे] १ शयनीय, शय्या । २ वि. का एक प्रसिद्ध राजा (स ६) । हर वि युक्त, मन वगैरह की निर्दोष प्रवृत्तिवाला | गोपित, रक्षित (दे २, १०२)। ३ समूह, [धर] १ गुणों को धारण करनेवाला, गुणी। (उप ६०४)। ४ एक स्वनाम-प्रसिद्ध जैनाचार्य मुग्ध, घबड़ाया हुप्रा, व्याकुल (दे २, १०२, २ तन्तु-धारक । स्त्री. रा (सुपा ३२७) । (प्राक)। से १, २, २, ४)। गयर [कर] गुणों की खान, अनेक गुण- गुत्त देखो गोत्त (पात्र भग; भावम)। गुप्पय देखो गो-पय (सूक्त ११)। वाला, गुणी (पउम १५, ६८ प्रासू १३४) । गुत्तण्हाण न [दे] पितृ-तर्पण (दे २, ६३)। गुप्फ पुं[गुल्फ] फीली, पैर की गाँठ (स गुण देखो एगूणः 'गुणसट्ठि अपमत्ते सुराउबंधं गुत्ति स्त्री [गुप्त] १ कैदखाना, जेल (सुर १, ३३) हे २,१०)। तु जइ इहागच्छे' (कम्म २, ८, ४, ५४; ७३, सुपा ६३)। २ कठघरा (सुपा ६३)। गुफगुमिअ वि [दे] सुगन्धी, सुगन्ध-युक्त ३ मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति ५६ श्रा ४४)। 'गुण वि [गुण] गुना, पावृत्तः 'वीसगुणो को रोकना। ४ मन वगैरह की निर्दोष (दे २, ६३)। तीसगुणों (कुमाः प्रासू २६)। प्रवृत्ति ठा २, १; सम ८)। गुत्त वि गुब्भ देखो गुप्फ (षड्)। गुणण न [गुणन] १ गुणकार (पव २३६)। [गुप्त] मन वगैरह की निर्दोष प्रवृत्तिवाला, | गुभ सक [गुफ्] गूंथना, गठना। गुभइ २ ग्रन्थ-परावर्तन, प्रावृत्तिः 'गुणणु (? गुण- संयत (पएह २, ४)। पाल पुं [पाल] ! (हे १, २३६) । गणु) प्पेहासु प्र असत्तो' (पिंड ६६४)। जेल का रक्षक, कैदखाना का अध्यक्ष (सुपा गुम सक [ म् ] घूमना, पर्यटन करना, गुणणा स्त्री [गुणना] ऊपर देखो (सम्यक्त्वो ४६७) 1 °सेण पुं [ सेन] ऐरवत क्षेत्र में | भ्रमण करना । गुमइ (हे ४, १६१) । १५)। उत्पन्न एक जिनदेव (सम १५३)। | गमगम का गमगमाय 1१ 'गुमगुणयालीस स्त्रीन [एकोनचत्वारिंशत् 1| गुत्ति स्त्री [गुप्ति] गोपन, रक्षण (गु १२)। गुमगुमाअ गुम आवाज करना। २ मधुर उनचालीस, ३६ (राय ५६) गुत्ति स्त्री [दे] १ बन्धन (दे २,१०१; भवि)। अव्यक्त ध्वनि करना। वकृ. गुमगुमंत, गुणबुढि स्त्री [गुणवृद्धि] लगातार पाठ २ इच्छा, अभिलाषा। ३ वचन, आवाज । गुमगुमित, गुमगुमायंत (प्रौप; णाया १, दिनों का उपवास (संबोध ५८)। ४ लता, वल्ली। ५ सिर पर पहनी जाती १; कप्प पउम ३३, ६)। गुणसेण पुं[गुणसेन] एक जैन आचार्य जो फूल की माला (दे २,१०१)। गुमगुमाइय वि [गुमगुमायित] जिसने सुप्रसिद्ध हेमाचार्य के प्रगुरु थे (कुप्र १९)। गुत्तिदिय वि [गुप्तेन्द्रिय] इंद्रिय-निग्रह करने 'गुम-गुम' आवाज किया हो वह (प्रौप) । गुणा स्त्री [दे] मिष्टान्न-विशेष (भवि)। वाला, संयतेंद्रिय (भगः णाया १, ४)। | गुमिअ वि [भ्रमित] भ्रमित, घुमाया हुआ गुणाविय वि [गुणित] पढ़ाया हुमा, पाठितः गुत्तिय वि [गौप्तिक] रक्षक, रक्षण करने क्षण करने (कुमा)। 'तत्थ सो प्रजएण सयलारो घणुब्वेयाइयाओ वाला: 'नगरगुत्तिए सहावेई' (कप्प)। महत्थविजाप्रो गुणाविप्रो' (महा)। गुत्तिय वि [गौत्रिक] गोती, समान गोत्र गुमिल वि [दे] १ मूढ़, मुग्ध । २ गहन, गहरा । ३ प्रस्खलित । ४ प्रापूर्ण, भरपूर (दे गुणि वि [गुणिन् गुण-युक्त, गुणवाला (उप | वाला, गोतिया (कुप्र ३४४)। ५६७ टी गउड प्रासू २६)। गुत्तिवाल देखो गुत्ति-पाल (धर्मवि २६)। २, १०२)। गुणिअ वि [गुणित] १ गुना हुआ, जिसका | गुत्थ वि [ग्रथित] गुम्फित, गूंथा हुआ (स गुमुगुमुगुम देखो गुमगुम । वकृ. गुमुगुमुगुणा किया गया हो वह (श्रा ६)।२चितित, | ३०३; प्रापः गा ६३; कम्पू) । गुमंत, गुमुगुमुगुमेंत (पउम २, ४०; ६२,६)। याद किया हुआ (से ११, ३१)। ३ पठित गुत्थंड पु [दे] भास-पक्षी, पक्षि-विशेष (दे अधीत (ओघ ६२)। ४ जिस पाठ की आवृत्ति २, ६२)। गुम्म अक [मुह.] मुग्ध होना, घबड़ाना, व्याकुल होना । गुम्मइ (हे ४, २०७)) की गई हो वह, परावर्तित (वव ३)। गुद पुंस्त्री [गुद] गाँड़, गुदा (दे ६, ४६)। गुम्म पुं[गुल्म] परिवार, परिकरः 'इत्थीगुणिल्ल वि [गुणवत् ] गुणी, गुण-युक्त गुद्दह न [गोद्रह] नगर-विशेष (मोह ८८)। गुम्मसंपरिवुडे (सूम २, २, ५५) । (पि ५६५)। गुप्प अक [गुप् ] व्याकुल होना। गुप्पइ गुण्ण देखो गोण्ण (अणु १४०)। गुम्म पुन [गुल्म] १ लता, वल्ली, वनस्पति| (हे ४, १५०; षड्)। वकृ. गुप्पंत, विशेष (परण १)। २ झाड़ी, वृक्ष-घटा गुण्ह (अप) देखो गिण्ह । गुण्हइ (प्राकृ गुप्पमाण (कुमा ६, १०२, कप्प; औप)। (पान)। ३ सेना-विशेष, जिसमें २७ हाथी, ११९)। गुप्प वि [गोप्य] १ छिपाने योग्य। २ न २७ रथ, ८१ घोड़ा और १३५ प्यादा हों गुत्त न [गोत्र] साधुत्व, साधुपन (सूत्र २, एकान्त, विजन (ठा ४,१)। ऐसी सेना (पउम ५६, ५)। ४ वृन्द, समूह ७, १०)। गुप्पई स्त्री [गोष्पदी] गौ का पैर डूबे उतना (भोप; सूत्र २,२) । ५ गच्छ का एक हिस्सा, गुत्त वि [गुप्त] गुप्त, प्रच्छन्न, छिपा हुआ गहरा ,'को उत्तरि जलहि, निब्बुहुए गुप्पई- जैनमुनि-समाज का एक अंश (ोप)। ६ (णाया १,४. सुर ७,२३४)। २ रक्षित (उत्त नीरे' (धम्म १२ टी)। स्थान, जगह (मोघ १९३)।. For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ पाइअसहमहण्णवो गुम्मइअ-गुहिर गुम्मइअ वि [दे] १ मूढ़, मूर्ख (दे २,१०३, गति-विशेष, भारीपन से ऊँचा-नीचा गमन गुलुंछ पुं[गुलुञ्छ] गुच्छ, गुच्छा (दे २, ओघ १३६; पान षड्)। २ प्रपूरित, पूर्ण (ठा ८)। लाघव न [ लाघव सारासार, ६२)। नहीं किया हुआ ( षड्)। ३ पूरित, पूर्ण अच्छा और बुरापन (वव ४)। सज्झिल्लग गुलुगुंछ देखो गुलगुंछ = उत् + क्षिप् । गुलुकिया हुआ (दे २,१०३)। ४ स्खलित । - पुं[सहाध्यायिक] गुरु के भाई (बृह ४)। गुछइ (हे ४, १४४)। ५ संचलित, मूल से उच्चलित । ६ विघटित. गुरुई देखो गरुई (णाया १,१)। गुलुगुंछ सक [उत् + नमय ] ऊँचा वियुक्त ( दे २,१०३; षड्)। गुरुणी स्त्री [गुर्वी] १ गुरु-स्थानीय स्त्री (सुर करना, उन्नत करना । गुलुगु छइ (हे ४,३६)। गुम्मड देखो गुम्म । गुम्मडइ (हे ४, २०७)। ११, २११)। २ धर्मोपदेशिका, साध्वी (उप गुलुगुछिअ वि[ उन्नामत ऊंचा किया हुआ, गुम्मडिअ वि [मोहित] मोह-युक्त, मुग्ध ७२८ टी)। उन्नमित (दे २, ६३; कुमा)। किया हुआ (कुमा ७, ४७)। गुरेड न [गुरेट] तृ-विशेष (दे १, ५४)। गुलुगुंछिअ वि [दे] बाड़ से अन्तरित (दे गुम्मागुम्मि अ. जत्थाबन्ध होकर (प्रौप)। गुम्मिअ वि [मुग्ध] १ मोह प्राप्त , मूढ़ गुल देखो गुड = गुड (ठा ३, १; ; णाया २, ६३)। गुलगुल देखो गुलगुल । गुलुगुलंति (भवि)। १,८ गा ५५४; औप)। (कुमा ७, ४७)। २ धुणित, मद से घूमता वकृ. गुलुगुलेत (पि ५५८)। हुआ (बृह १)। गुल न [दे] चुम्बन (दे २, ६१)। गुलुगुलाइय) देखो गुलगुलाइअ (औप; गुम्मिअ [गौल्मिक] कोतवाल, नगर- | गुलगुंछ सक [उत् + क्षिप् ] ऊँचा गुलुगुलिय परह १, ३ स ३६६)। रक्षक (प्रोघ १६३ ७६६) । फेंकना। गुलगुछइ (हे ४, १४४)। संकृ. गुलुच्छ वि [दे] भ्रमित, घुमाया हुआ, गुम्मिअ वि [दे] मूल से उखाड़ा हुआ, उन्मूगुलगुंछिऊण (कुमा)। (दे २,६२)। लित (दे २, ६२)। गुलगुंछ देखो गुलुगुंछ = उद् + नमय । गुलुच्छ पु[गुलुच्छ] गुच्छा, स्तबक(पान). गुम्मी स्त्री [दे] इच्छा, अभिलाषा (दे २, गुलगुछइ (हे ४, ३६)। गुल्लइय वि [गुल्मवत् ] लता-समूहवाला, गुलगुल अक [गुलगुलाय् ] 'गुलगुल' आवाज | गुल्म-युक्त (गाया १, १-पत्र ५)। गुम्मी स्त्री [गुल्मी] शतपदी, यूका, खटमल, करना, हाथी का हर्ष से चिंघाड़ना या बोलना। | गुव देखो गुप्त = गुप् । गुवंति (भग १५)। जू (उत्त ३६, १३६ सुख ३६, १३९)। वकृ. गुलगुलंत, गुलगुलेंत (उप १०३१ टी "गुवलय देखो कुवलय; 'मुद्दियगुवलयनिहाणं' गुम्ह सक गुम्फ ] गूथना, गठना। गुम्हदु उवा पउम८, १७१, १०२, २०)। (णंदि)। (शौ) (स्वप्न ५३)। गुलगुलाइअ) न [गुलगुलायित हाथी की गवालिया[दे] देखोगोआलिआ (जी १७)। गुलगुलिय गर्जना (जं ५; सुपा १३७) 1 गुह्य देखो गुज्झ (हे २, १२४) । गुविअ वि [गुप्त] व्याकुल, क्षुब्ध (ठा ३, गुलल सक [चाटौ कृ] खुशामद करना । गुल ४-पत्र १६१)। गुरव देखो गुरुः 'जो पुरवे साहीणे धर्म लइ (हे ४, ७३) । वकृ. गुललंत (कुमा)। गुविल वि [गुपिल] १ गहन, गहरा, गाढ़, साहेइ पोढबुद्धिओ' (पउम ६, ११४)। गुललावणिया स्त्री [गुडलावणिका] एक निबिड़ (सुर ६, ६६ उप पु ३०; पण्ह १, गुरु पुं[गुरु] १ शिक्षक, विद्या-दाता, | तरह की मिठाई, गोलपापड़ो। २ गुड़धाना ३)। २ न. झाड़ी, जंगल (उप ८३३ टी); गुरुअ पढ़ानेवाला (वव १; अणु)। २ (पव २५६; सुज २० टी)। 'इक्को करइ कम्म, धर्मोपदेशक, धर्माचार्य (विसे ६३०)। ३ गुलहाणिया स्त्री [गुडधानिका खाद्य-विशेष इक्को प्रणुहवइ दुक्कयविभारं । माता, पिता वगैरह पूज्य लोग (ठा १०)। (पव ४)। इको संसरइ जियो, ४ बृहस्पति, ग्रह-विशेष (पउम १७, १०८ गुलिअ वि [दे] मथित, विलोड़ित (दे २, जरमरणचउग्गइगुविलं' (पच्च ४४)। कुमा)। ५ स्वर विशेष, दो मात्रावाला मा, | १०३ षड्)। २ . गेंद, कन्दुक; 'कंदुओ गुविल वि [दे] चीनी का बना हुपा, मिस्रीई वगैरह स्वर, जिसके पीछे अनुस्वार या गुलिओ' (पाप)। वाला (मिष्टान्न) (उर ५, १०)। संयुक्त व्यञ्जन हो ऐसा भी स्वर-वर्ण (पिंग)। | गुलिआ स्त्री [दे] १ बुसिका। २ गेंद, गुग्विणी स्त्री [गुर्विणी] गर्भवती स्त्री (सुपा ६ वि. बड़ा, महान् (उवा से ३, ३८)। ७ कन्दुक । ३ स्तबक, गुच्छा (दे २, १०३)।। २७७)। भारी, बोझिल (ठा १, १; कम्म १)। ८ गुलिआ स्त्री [गुलिका] १ गोली, गुटिका गुह देखो गुभ । गुहइ (हे १, २३६) । उत्कृष्ट, उत्तम (कम्म ४, ७२; ७६)1 °कम्म (महाः गाया १, १३; सुपा २६२)। २ गुह पुं [गुह] कात्तिकेय, एक शिव-पुत्र वि [कर्मन] कर्मों का बोझवाला, पापी वर्णक द्रव्य-विशेष, सुगन्धित द्रव्य-विशेष (पास)। (सुपा २६५)। कुल न ["कुल] १ धर्मा- । (प्रौपा रणाया १, १-पत्र २४)। गुहा स्त्री [गुहा] गुफा, कन्दरा (पामा ठा २, चार्य का सामीप्य (पंचा ११)। २ गुरु- गुलुइय वि[दे] गुल्मित, गुल्मवाला, लता ३ प्रासू २७१)। परिवार (उप ६७७)। गइ स्त्री [गति] | समूहवाला (प्रौपः भग)। गुहिर वि [दे] गम्भीर, गहरा (पामा कप्प)। For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ गूढ-गो पाइअसद्दमहण्णवो गूढ वि [गूढ] गुप्त, प्रच्छन्न, छिपा हुआ गेण्हिऊण, गेण्हिअ (भगः पि ५८६, गेहि वि [गेहिन] नीचे देखो (णाया १; (पएह १, ४ जी १०)। दंत पुं [दन्त] कुमा) । कृ. गेण्हियव्व (उत्त १)। १ एक अन्तर्वीप, द्वीप-विशेष । २ द्वीप-विशेषण्ह ण न ग्रहणा प्रादान, उपादान, लेना रोहिअ वि [गेहिक] १ घरवाला, गृही। २ का निवासी (ठा ४,२) । ३ एक जैन मुनि। (उप ३३६; स ३७५)। पुं. भर्ता, धनी, पति (उत्त २)। ४ 'अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र का एक अध्यगेण्हणया स्त्री [ग्रहणा] ग्रहण, पादान (उप गेहिअ [गृद्धिक] अत्यासक्त, लोलुप, लालची थन (अनु २)। ५ भरत क्षेत्र का एक भावी ५२६)। (पएह १, ३)। चक्रवर्ती राजा (सम १५४)। गेहाविय वि [ग्राहित ग्रहण कराया हुआ गेहिणी स्त्री [गेहिनी] गृहिणी, स्त्री (सुपा गृह सक [गुह.] छिपाना, गुप्त रखना। (स ५२६ महा)। ३४१; कुमाः कप्पू)। वकृ. गृहंत (स ६१०)। गो गेण्हिअ न [दे] उरः-सूत्र, स्तनाच्छादक-वस्त्र गृह न [गूथ] गू, विष्ठा (तंदु)। [गो] भूप, राजाः 'तइयो गो भूपपसुर स्सिणो त्ति' (वव १) 'माहिसक न गृहण न [गृहन] छिपाना (सम ७१)। गेद्ध देखो गिद्ध (प्रौप)। ["माहिषक] गौ और भैंस का झुंड या गूहिय वि [गृहित] छिपाया हुआ (स १८६)। समूह 'निव्वुयं गोमाहिसकं' (स ६८६)। गृह । (अप) देखो गिण्ह । गृन्हइ (कुमा)। गेरिअनागैरिका १ गेरु, लाल रङ्ग गृह संकृ. गृण्हेप्पिण (हे ४.३१४)। गेरुअ) की मिट्टी (स २२३, पि ६०० गो पू[गो] १ रश्मि, किरण (गउड)। २ गेअ वि [गेय] १ गाने योग्य, गाने लायक, ११८)।२ मणि-विशेष, रत्न की एक जाति स्वर्ग, देव-भूमि (सुपा १४२) । ३ बैल, गीत (ठा ४, ४–पत्र २८७, वजा ४४)। (पएण -पत्र २६)। ३ वि. गेरु रंग का बलीवदं । ४ पशु, जानवर । ५ स्त्री. गया। २ न. गीत, गान; 'मणहरगेयझणीए (सुर (कप्पू) । ४ पुं. त्रिदण्डी साधु, सांख्य मत 'अपरप्पेरियतिरियानियमियदिग्गमणपोरिणलो का अनुयायी परिव्राजक (पव ६४)। गोव्व' (विसे १७५८; पउम १०३, ५० ३, ६६; गा ३३४)। गेलण्ण) न ग्लान्य रोग, बीमारी, ग्लानि सुपा २७५)। ६ वाणी, वाम् (सूत्र १, गेंठुअ न [दे] स्तनों के ऊपर की वस्त्र-ग्रन्थि गेलन्न (विसे ५४०, उप ४६६ प्रोष १३)। ७ भूमिः ‘ज महइ विझवणगोयराण (दे २, ६३)। ७७ २२१)। लोपो पुलिदाण' (गउड; सुपा १४२)। गेठुल्ल न [दे] कञ्चक, चोली (दे २, ६४)। गेविज । न [वेयक] १ ग्रीवा का प्राभू- आल देखो °वाल (पुप्फ २१६) । इल्ल वि गेंड न [दे] देखो गेंठुअ (दे २, ६३)। गेवेज्ज षण, गले का गहना (ोप, णाया [मत् ] गो-युक्त, जिसके पास अनेक गौ हो गेंडुई स्त्री [दे] क्रीड़ा, खेल, गम्मत, विनोद गेवेज्जय) १, २)। २ ग्रैवेयक देवों का वह (दे २, ६८)। °उल न [कुल] १ विमान (ठा ) । ३ पुं. उत्तम श्रेणी के देवों (दे २,६४) । गौओं का समूह (प्राव ३)। २ गोष्ठ, गोगेंदुअ पुं[कन्दुक] गेंद, गेंदा, खेलने की एक को एक जाति (कप्प; औपः भग; जी ३३; बाड़ा; 'सामी गोउलगनों (आवम)। उलिय वस्तु (हे १, ५७; १८२; सुर १, १२१)। वि [कुलिक] गो-कुलवाला, गो कुल का गेवेय देखो गेवेज (प्राचा २, १३, १)। गेज वि [दे] मथित, विलोड़ित (दे २,८८) मालिक, गोवाला (महा)। 'किलंजय न गेह पुन [गेह घर, 'न नई न वणं न उज्जडो [किलअक] पात्र-विशेष, जिसमें गौ को गेजल न [दे] ग्रीवा का प्राभरण (दे २, । गेहो (वजा ६८)। खाना दिया जाता है (भग ७, ८)। कीड १४)। गेज्म वि [ग्राह्य] ग्रहण-योग्य ( हे १,७८)। गेह न [गेह गृह, घर, मकान (स्वप्न १६ पुं[ कीट] पशुओं की मक्खी, बघी (जी १६) । क्खीर, खीर न [°क्षीर] गैया गउड)। जामाउय पुं [जामातृक घरगेडण न [दे] १ फेंकना, क्षेपण । २ दे देनाः जमाई, सर्वदा ससुर के घर में रहनेवाला का दूध (सम ६० पाया १, १)। गह 'तत्तबगेडएकए ससंभमा आसमाउ लहुँ' g["ग्रह] गाय की चोरी, गौ को छीनना जामाता (उप पृ ३६६) । "गार वि (उप ६४८ टी)। [कार] १ घर के आकारवाला। २ पुं. (पएह १, ३)। ग्गहण न [ग्रहण] गेडु न दे] १ पङ्क, कीच, काँदो । २ यव, कल्पवृक्ष की एक जाति (सम १७) । लु गो-ग्रहण (णाया १,१८)। जिसजा स्त्री अन्न-विशेष (दे २,१०४)। वि [वत] घरवाला, गृही, संसारी (षड्)। [निषद्या] पासन विशेष, गौ की तरह गेड्डी स्त्री [दे] गेड़ी, गेंद खेलने की लकड़ी सिम [श्रम] गृहस्थाश्रम (पउम ३१, बैठना (ठा १, १)। "तित्थ न [तीर्थ १ (कुमा)। गौनों का तालाब आदि में उतरने का रास्ता, गेण्ह देखो गिण्ह । गएहइ (हे ४, २०६; उव: गेहि वि [गृद्ध] लोलुप, प्रत्यासक्त (ओघ क्रम से नोची जमीन (जीव ३)। २ लवण महा)। भूका. गेल्हीप (कुमा)। भवि. ७)।. समुद्र वगैरह की एक जगह (ठा १०) गेरिहस्सइ (महा) । वकृ. गेण्हत, गेण्हमाण गेहि स्त्री [गृद्धि] मासक्ति, गाय, लालच त्तास वि [ त्रास] १ गौमों को त्रास (सुर ३,७४ विपा १,१) । संकृ. गेण्हित्ता, (स ११३; परह १, ३)। देनेवाला । २ . एक कूटग्राह का पुत्र (विपा For Personal & Private Use Only wwwinelibrary.org Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो गोअ - गोडा गौधों का बाड़ा (निचू ८) हणन ['धन] गौधों का समूह (गा ६०६: सुर १, ४९ ) । गोअ देखो गोव = गोपय् । कृ. गोअणिज्ज ( नाद - मालती १२१) । ( परह १, १ ) । ३ एक अन्तद्वीप द्वीप - विशेष । ४ गोकरण- द्वीप का निवासी मनुष्य (ठा ४, २) । गोकिलिंज देखो गो- कलिंजय ( राय १४ = ) । गोक्खुरय पुं [गोक्षुरक] एक औषधि का नाम, गोखरू ( स २५६ ) । - गोश्चय पुं [दे] प्राजन दण्ड, कोड़ा, चाबुक (दे २, ७) । गोअंट [दे] १ गौ का चरण । २ स्थलशृङ्गाट, स्थल में होनेवाला शृङ्गाट या सिंघाड़ा का पेड़ (दे २, ६८ ) । गोअग्गा नी [दे] रथ्या, मुहल्ला (दे २, १६) । गोच्छ देखो गुच्छ ( से ६, ४७; गा ५३२) । लग्न- विशेष, गौधों को चरा कर लौटने गोअल्ला स्त्री [द] दूध बेचनेवाली स्त्री (दे २, गोच्छ । पुंन [गोच्छक] पात्र वगैरह गोच्छग | साफ करने का वस्त्र खण्ड (कस परह २, ५ ) । गोच्छन [ दे] गोमय, गो- विष्ठा (मृच्छ ३४) । गोच्छा स्त्री [द] मञ्जरी, बौर (दे २, १५) । गोच्छिय देखो गुच्छिय (भौपः गाया १, १ ) । गोड देखो गोच्छड (नाट - मृच्छ ४१) । गोजलोया बी [गोजलौका] क्षुद्र कीट-विशेष, द्वीन्द्रिय जन्तु - विशेष ( पण १५) । गोज्ज पुं [दे] १ शारीरिक दोषवाला बैल (सुपा २८१) । २ गानेवाला, गवैया, गायक; वीणावं ससरणाहं, गोयं ननदृछत्तगोज्जेहिं । बंदिजण सहरिसं, जयसद्दालायां च कयं ( पउम ८५, १९ ) । गोटू पुं [गोष्ठ ] गोबाड़ा, गौधों के रहने का स्थान (महाः पउम १०३, ४० ; गा ४४७ ) । गोट्ठा माहिल पुं [ गोष्टामाहिल ] कर्म-पुलों को जीव प्रदेश से अबद्ध माननेवाला एक जैनाभास श्राचार्य (ठा ७) । ३०० १, २) । दास पुं [दास] १ एक जैनमुनि, भद्रबाहु स्वामी का प्रथम शिष्य । २ एक जैनमुनिगरण (कप्पा ) 1 दोहिया स्त्री [° दोहिका ] १ गौ का दोहन । २ आसन विशेष, गौ दुहने के समय जिस तरह बैठा जाता है उस तरह का उपवेशन (ठा ५, १) दु[ि] गौ को दोहने(a) [°धूलिका ] का समय, सायंकाल 'वेलव्व गोधूलिया' (भा) । पय 'पयन [प्पद] १ गौ का खुर डूबे उतना गहरा 'लद्धम्मि जम्मि जीवाण जायइ गोपयं व भवजलही' (आप ६६) । २ गोपद-परिमित भूमि (अणु) । ३ गौ का खुर (ठा ४, ४) । भद्द पुं [भद्र ] श्रेष्ठिविशेष, शालिभद्र के पिता का नाम (ठा १०)। 'भूमि स्त्री [भूमि] गौधों को चरने की जगह (श्रावम) । म वि [°मत् ] गौवाला ( विसे १४९८ ) । मंड न [मृत ] गौ का शव (गाया १, ११- –पत्र १९७३) । न[*मय ] गोवर, गौ का मल, गो-विष्ठा मय (भग ५, २) । 'मुत्तिया स्त्री [" मूत्रिका ] १ का मूत्र, गोमूत्र (प्रोघ ६४ भा) । २ गोमूत्र के आकारवाली गृहपंक्ति (पंचत्र २) । "मुहिअ न ['मुखित] गौ के मुख की आकारवाली दाल (गाया १, १८) । रहग [रथक] तीन वर्ष का बैल (सूत्र १, ४, २) । रोयण स्त्रीन ['रोचन] स्वनामख्यात पीत वर्णं द्रव्य - विशेष, गोमस्तक स्थित शुष्क-पित्त (सुर १,१३७) । स्त्री. 'णा (पंचा ४) । हणिया श्री [लेहनिका] ऊषर भूमि (निच् ३)। °लोम वुं [°लोम] १ गौ | (जीव १) । 'बइ पुं [°पति ] १ इन्द्र । २ सूर्यं । ३ राजा (सुपा १४२ ) । ४ महादेव । ५. बैल (हे १,२३१) । वइय पुं [प्रतिक] गौत्रों की चर्या का अनुकरण करनेवाला एक प्रकार का तपस्वी (गाया १, १५) । वय देखो 'पय (राज) । 'वाड पुं [वाट ] गौओं का बाड़ा (दे १,१४९) । व्वइय देखो • वय ( प ) । साला स्त्री [शाला ] ६८) । गोअर [ गोचर ] छात्रालय (दस ५, २२) । गोअलिणी बी [गोपालिनी] ग्वालिन, भूमि डम्म जुन्हादहीय महणेा । पुन्निमगोग्रलिणीए मक्खर्गापडुन निम्मविओो ।' (धर्मवि ५५) । गोआ स्त्री [गोदा] नदी-विशेष, गोदावरी नदी, 'गोश्रारणइकच्छकुडंगवासिरा दरिअसीहे (गा १७५) । गोआ स्त्री [दे] गगरी, कलशी, छोटा घड़ा (दे २, ८९) । गोआअरी स्त्री [ गोदावरी ] नदी-विशेष, गोदावरी (गा ३५५) । गोआलिआ स्त्री [दे] वर्षा ऋतु में उत्पन्न होनेवाला कीट - विशेष (दे २, १८) । गोआवरी देशो गोआअरी (हे २, १७४) गोडर न [गोपुर] नगर या किले का दरवाजा (सम १३७, सुर १, ५६ ) । गोलिय वि [गोकुलिक ] गो-धन पर नियुक्त गोट्ठि देखो गोट्ठी (श्रावम) । पुरुष, गोकुल- रक्षक (कुप्र ३१ ) । गोंजी गोठी '} स्त्री [दे] मंजरी, बौर (दे २, १५)। गोंड देखो कोड = कौण्ड (इक) । का रोम, बाल । २ द्वीन्द्रिय जन्तु विशेष गोंड न [दे कानन, वन, जंगल (दे २, १४) गोट्ठी स्त्री [गोष्ठी] १ मण्डली, समान वय गोंडी स्त्री [दे] मंजरी, बौर (दे २, ε५) । गोंदल देखो गुंदल (भवि ) । गोंदीण न [ दे] (दे २, १७) । गोंफ पुं [गुल्फ] ( परह १, ४) । मयूर-पित्त, मोर का पित्त पाद-ग्रन्थि, पैर की गाँठ गोकण्ण । पुं [गोकर्ण] १ गौ का कान । गोकन्न २ दो खुरवाला चतुष्पद - विशेष गोट्ठिल पुं [गौष्ठिक] एक मण्डली के गोट्ठिलग सदस्य, मित्र, समान वयस्क दोस्त गोडिलय (गाया १, १६ – पत्र २०५; विपा १, २ -- पत्र ३७ ) । For Personal & Private Use Only वालों की सभा ( प्राप्र दसनि १; गाया १, {६) । २ वार्तालाप, परामर्श (कुमा) । गोड पुं [गौड ] १ देश-विशेष (स २८६) । २ वि. गौड़ देश का निवासी ( परह १, १ ) । गोड पुं [दे] गोड़, पाव, पैर (नाट - मृच्छ ke) F गोडा स्त्री [गोला ] नदी - विशेष, गोदावरी (गा ५८; १०३) । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोडी-गोमय पाइअसहमहण्णवो ३०१ गोडी स्त्री [गौडी] गुड़ की बनी हुई मदिरा, कुल-देवी (श्रा १४)। फुस्सिया स्त्री गोमाणसिया स्त्री [गोमानसिका] शय्यागुड़ का दारू (बृह २)। | [स्पर्शिका] वल्ली-विशेष (पएण १)। कार स्थान-विशेष (जीव ३)। गोड्डु वि [गौड] १ गुड़ का बना हुआ। २ | गोत्त पुन [गोत्र] १ पूर्वज पुरुष के नाम से गोमाणसी स्त्री [गोमानसी] ऊपर देखो मधुर, मीठा (भग १८, ६)। प्रसिद्ध अपत्य-संतति (गदि ४६; सुज्ज | (जीव ३)। गोड्ड[दे] देखो गोड (मृच्छ १२०)। १०, १६)। २ वि. वाणी का रक्षक (सूम गोमि । वि [गोमिन] जिसके पास अनेक गोण [दे] १ साक्षी (दे २, १०४)। २ | १,१३, ६)। गोमिअ गौ हों वह, (अणुः निचू २)। बैल, वृषभ, बलीवदं (दे २, १०४; कुमा, गोत्ति वि [गोत्रिन् ] समान गोत्रवाला, गोमिअ देखो गोम्मिअ (राज)। हे २, १७४ सुपा ५४७ प्रौपा दस ५, १ कुटुम्बी, स्वजन (सुपा १०६)। गोमिआ[दे] देखो गोमा (अणु २१२)। पाचा २, ३, ३ उप ६०४ विपा १, १) गोत्ति देखो गुत्ति (स २४२)। गोमिक (मा) [गौरवित] समानित (प्राकृ 'इन्न वि [वत् ] गाय वाला, गौमों का | गोत्तिअ वि [गोत्रिक] समान गोत्रवाला, १०१)। मालिक (मुपा ५४७)। °वइ पुंस्त्री [पति] | स्वजन, भाई-बंद (श्रा .७)। गोमी स्त्री [दे] कनखजूरा, त्रीन्द्रिय जन्तुगौत्रों का मालिक, गौ वाला (सुपा ५४७)। | गोत्थुम देखो गोथुभ (इक)। विशेष (जी १६)। गोण (शा) पुंन [गो] बैल, 'गोणो, गोणं' | | गोत्थूभा देखो गोथूभा (इक)। गोमुह पुंगोमुख १ यक्ष-विशेष, भगवान् (प्राकृ८८)।| गोथुम, पुगोस्तूप] १ ग्यारहवें जिन ऋषभदेव का शासन-यक्ष (संति ७)। २ एक गोण वि [गौण] १ गुण निष्पन्न, गुण-युक्त, गोथूभ ) देव का प्रथम-शिष्य (सम १५२; अन्तर्वीप, द्वीप विशेष ! ३ गोमुख-द्वीप का यथार्थ (विपा १, २, प्रौप)। २ अप्रधान, पि २०८)। २ वेलन्धर नागराज का एक निवासी मनुष्य (ठा ४, २)। ४ न. उपलेपन अमुख्य (प्रौप)। प्रावास-पर्वत (सम ६६)। ३ न. मानुषोत्तर | (दे २,६८)। गोणंगणा स्त्री [गवाङ्गना] गैया, गाय (सुपा पर्वत का एक शिखर (दीव)। ४ कौस्तुभ- गोमुही स्त्री [गोमुखी] वाद्य-विशेषः (मरण; रल (सम, १५८)। राय)। गोणत्त । पुन [दे] वैद्य का औजार रखने गोथभा स्त्री [गोस्तपा] १ वापी-विशेष, | गोमुही [गोमुखी] वाद्य-विशेष (राय ४६, गोणत्तय का थैला (उप ३१७; स ४८४) गोणस पुं [गोनस] सर्प की एक जाति, अंजन पर्वत पर की एक वापी (ठा ३,३)। अणु १२८). २ शकेंन्द्र की एक अनमहिषी की राजधानी | गोमेअ [गोमेद] रत्न की एक जाति, फरण-रहित साँप की एक जाति (पण्ह १, (ठा ४, २)। गोमेज्ज राहुरत्न (कुमा ७०उत्त २)। १, उप पृ ४०३)। गोणा स्त्री [दे] गाय, गैया, गऊ (षड् )। गोदा स्त्री [द गोदा] नदी-विशेष, गोदावरी | गोमेह पुंगोमेध] १ यक्ष-विशेष, भगवान् (षड् गा ६५५)। नेमिनाथ का शासन-देव (सं ८)। २ यज्ञगोणिक पु[दे] गो-समूह, गौत्रों का समूह (दे | गोध पु [गोध] १ म्लेच्छ देश । ३ गोध विशेष, जिसमें गौ का वध किया जाता है २, ६७ पाप) (पउम ११, ४१)। गोणिय वि [दे] गौओं का व्यापारी (वव है)। देश का निवासी मनुष्य (राज)। गोम्मिअपु गौल्मिक] कोतवाल, नगरगोणी स्त्री [दे] गाय, गैया (ोघ २३ भा)। गोधा स्त्री [गोधा] गोह, हाथ से चलनेवाली रक्षक (पएह १, २)। गोण्ण देखो गोण = गौण (कप्पा पाया १, एक साँप की जाति (पएह १, १, पाया | गोम्ही देखो गोमी (राज)। १-पत्र ३७)। गोन्न देखो गोण (णाया १, १६-पत्र | गोय देखो गोत्त (सम ३३; कम्म १) गोतिहाणी स्त्री [दे.गोत्रिहायणी] गोवत्सा, २००)। "वाइ पि [वादिन] अपने कुल को उत्तम गौ की बछड़ी (तंदु ३२)। गोपुर देखो गोउर (उत्त अभि १८५)। । माननेवाला, वंशाभिमानी (प्राचा)। गोत्त पुंगोत्र] १ पर्वत, पहाड़; (श्रा १४)।। २ न. नाम, अभिधान, आख्या (से १५, गोप्पहेलिया स्त्री [गोप्रहेलिका] गौत्रों को गोय न [दे] उदुम्बर- गूलर वगैरह का फल १०)। ३ कर्म-विशेष, जिसके प्रभाव से चरने की जगह (प्राजा २, १०, २)। (प्राव ६)। प्राणी उच्च या नीच जाति का कहलाता गोफणा स्त्री [५] गोफन, पत्थर फकन का | ग गोफणा स्त्री [दे] गोफन, पत्थर फेंकने का | गोय न [गोत्र] मौन, वाक्-संयम (सूम १. है (ठा २, ४)। ४ ऍन. गोत, वंश, कुल, . अस्त्र-विशेष (राज)। १४, २०)। वाय पु[वाद] गोत्र-सूचक जाति; 'सत्त मूलगोत्ता पएणत्ता' (ठा ७) गोमदा स्त्री [दे] रथ्या, मुहल्ला (दे २.६६)। वचन (सूअ १, ६, २७)। "क्खलियन [ स्खलित] नाम-विपर्यास, गोमाअागोमाया शृगाल. सियार.गीदड | गोयम पु गोतम ऋषि-विशेष (ठा ७)। एक के बदले दूसरे के नाम का उच्चारण गोमाउ (नाट-मृच्छ ३२०, पि १६५ २ छोटा बैल (औप)। ३ न. गोत्र-विशेष (से ११, १७)। "देवया स्त्री [देवता] | गाया १, ४; स २२६ पाप)।" (कप्पा ठा ७) For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ पाइअसहमहण्णवो गोयम-गोव गोयम वि [गौतम] १ गोतम गोत्र में उत्पन्न, , [खर] गर्दभ की एक जाति (पएण १)। पुरुष का निन्दा-गर्भ आमन्त्रण (णाया १, गोतम-गोत्रीय; जे गोयमाते सतविहा पएणत्ता' "गिरि पुं["गिरि] पर्वत-विशेष, हिमाचल ६)। ३ निष्ठुरता, कठोरता (दस ७)।(ठ ७; भग जं १)।२ पृ. भगवान् महावीर (निचू १)। मिग पुं [मृग] १ हरिण की गोल ' [गोल] १ वृक्ष-विशेष, 'कदम्बगोलका प्रधान-शिष्य (भग १४, ७; उवा)। एक जाति । २ न. उस हरिण के चमड़े का णिहकंटअंतरिणअंगे' (अच्च ५८)। २ गोला३ इस नाम का एक राज-कुमार, राजा बना हुआ वस्त्र (प्राचा २, ५, १)। कार, वृत्ताकार, मण्डलाकार वस्तु (ठा ४,४, अन्धकवृष्णि का एक पुत्र, जो भगवान् नेमि- गोरअ देखो गोरव (गा ८९) । अनु ५) । ३ गोलक, कुंडा (सुपा २७०)। नाथ के पास दीक्षा लेकर शत्रुब्जय पर्वतपर गोरंग वि [गौराङ्ग] गोरा शरीरवाला, ४ गेंद, कन्दुक (सूत्र १, ४) मुक्त हुआ था (अन्त २)। ४ एक मनुष्य- शुक्ल शरीरवाला (कप्पू)। | गोल पुंस्त्री [दे] गोला, जार से उत्पन्न, कुंड जाति, जो बैल द्वारा भिक्षा माँग कर अपना गोरंफिडी स्त्री [दे] गोधा, गोह, जन्तु-विशेष । (दस ७, १४)। स्त्री. °ली (दस ७, १६)। निर्वाह चलाती है (णाया १, १४) । ५ एक (दे २, ६८) गोलग ! [गोलक] ऊपर देखो (सूम २, ब्राह्मण (उप ६१७)। ६ द्वीप विशेष (सम गोरडित विदा सस्त, ध्वस्त (षड)। गोलय ) २. उप पृ ३९२ काल)।.' ८०, उप ५६७ टी) । केसिज न गोरव न [ गौरव ] १ महत्व, गुरुत्व (प्रासू । गोलव्वायण न [गौलव्यायन] गोत्र-विशेष [केशीय] 'उत्तराध्ययन' सूत्र का एक अध्य- ____३०) । २ पादर, सम्मान, बहुमान (विसे । (सुज १०,१६)। यन, जिसमें गौतम स्वामी और केशिमुनि का गोला स्त्री [दे] गौ, नैया (दे २, १०४; ३४७३, रयण ५३) । ३ गमन, गति (ठा है)। संवाद है ( उत्त २३ ) । सगुत्त वि गोरविअ विगौरवित सम्मानित, जिसका पान) । २ नदी, कोई भी नदी। ३ सखी, [सगोत्र गोतम गोत्रीय (भग; आवम)। सहेली, संगिनी (दे २, १०४)। गोदावरी प्रादर किया गया हो वह (दे ४, ५)। सामि पु [स्वामिन] भगवान् महावीर नदी (दे २, १०४; गा ५८; १७५; हेका गोरव्व वि [गौरव्य गौरव-योग्य (धर्मवि के सर्व-प्रधान शिष्य का नाम (बिपा १,१ २६७: पि ८५; १६४; पात्र; षड् )। पत्र २)। ६४ कुप्र ३७७)। गोलिय पुं [गौडिक] गुड़ बनानेवाला (वव गोयमजिया। स्त्री [गौतमार्यिका जैनमुनि- गार गोरस पुंन [गोरस] गोरस, दूध, दही, मट्ठा )। गोयमेजिया गण की एक शाखा (राजा या छाछ वगैरह (णाया १, ८ ठा ४, १)।- गोलिया स्त्री [दे] १ गोली, गुटिका (राय; कप्प)। गोरस पुं [गोरस] वाणी का आनन्द (सिरि अणु)। गैद, लड़कों के खेलने की एक चीज; गोयर पु [गोचर] १ गौत्रों को चरने की १४०)। 'तीए दासीए घडो गोलियाए भिन्नो' (दसनि जगह, ‘णो गोयरे णो वरणगारिणयाणं' (बृह गोरह [दे] हल में जोतने योग्य बैल २) । ३ बड़ा कुण्डा, बड़ी, थाली (ठा ८)। ३)। २ विषयः 'अंबुरुहगोयरं गमह (आचा २, ४२, ३)। "लिंछ, 'लिच्छ न [लिन्छ, “लिच्छ] सयं ' (गउड)। ३ इन्द्रिय का विषय, प्रत्यक्षः गोरा स्त्री [दे] लाङ्गल-पद्धति, हल-रेखा । २ १ चुल्ली, चूल्हा। २ अग्नि-विशेष (ठा 'इन राया उज्जाणं तं कासी नयणगोमर चक्षु, आँख । ३ ग्रीवा, गर्दन या डोक (दे २, ८-पत्र ४१७) । सव्वं' (कुमा)। ४ भिक्षाटन, भिक्षा के लिए १०४)। | गोलियायण न [गोलिकायन] १ गोत्र-विशेष, भ्रमण (मोघ ६६ भाः दस ५, १)। ५ | गोरि देखो गोरी (हे १, ४)। जो कौशिक गोत्र की एक शाखा है । २ वि. भिक्षा, माधुकरी (उप २०४)। ६ वि, भूमि गोरिअन गौरिका विद्याधर का नगर-विशेष गोलिकायन-गोत्रीय (ठा ७)। में विचरनेवालाः 'विझवणगोयराण पुलिंदारण' । (इक)। गोली स्त्री [दे] मथनी या मथानी, मनिया, (गउड)। चरिआ स्त्री [चर्या] भिक्षा के गोरी स्त्री [गौरी] १ शुक्ल-वर्णा स्त्री (हे ३, दही मथने की लकड़ी, रही (दे २, ६५)। लिए भ्रमण (उप १३७ टी. पउम ४, ३)। २८) । २ पार्वती, शिव-पत्नी (कुमाः सुपा गोल्ल न दे] बिम्बी-फल, कुन्दरुन का फल भूमि स्त्री [भूमि] १ पशुओं को चरने की २४०; गा १) । ३ श्रीकृष्ण की एक स्त्री का (गाया १,८ कुमा)। जगह (दे ३, ४०)।२ भिक्षा-भ्रमण की नाम (अंत १५)। ४ इस नाम की एक विद्या-गोल्ल [गौल्या १ देश-विशेष (प्रावम)। जगह (ठा ६)। वत्ति वि [वर्तिन् । देवी (संति ६)५ कूड न [°कूट] विद्याधर २ न. गोत्र-विशेष, जो काश्यप गोत्र की भिक्षा के लिए भ्रमण करनेवाला (गा २०४)। शाखा है। ३ वि, गौल्य गोत्र में उत्पन्न गोयरी स्त्री [गौचरी] भिक्षा, माधुकरी (सुपा गोरी स्त्री [गौरी] विद्या-विशेष (सूत्र २, २, (ठा )। २६६)। २७)। गोल्हा स्त्री [दे] बिम्बी, वल्ली-विशेष, कुन्दरुन गोर [गौर] १ शुक्ल-वर्ण, सफेद रंग। २ | गोरूव न [गोरूप] प्रशस्त गाय (धर्मवि की लतर (दे २, ६५ प्रावमः पाप्र)। वि. गौर वर्णवाला, शुक्ल (गउडः कुमा)। ११२) । गोव सक [गोपय ] १ छिपाना । २ रक्षण ३ प्रवदात, निर्मल (णाया १,८)। 'खर पुंगोल पुं[दे] १ साक्षी (दे २, ६५)। २ करना । गोवए, गोवेइ (सुपा ३४६, महा)। For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाँव, (कुमाः गोपेन्द्र] १ गोव-गहण पाइअसहमहण्णवो ३०३ कवकृ. गोविजंत (सुपा ३३७) सुर ११, गोवालि पु [गोपालिन्] ग्बाला. गोप, गोसण्ण वि [दे] मूर्ख, बेवकूफ (दे २, ६७; १६२ प्रासू ६५) । अहीर (सुपा ४३२, ४३३)। षड्)। गोव पुंगोप] गौनों का रक्षक, ग्वाला, गोवालिगी स्त्री [गोपालिनी] गोप-स्त्री, अही- गोसाल पुं. ब. [गोशाल] १ देश-विशेष गोवअ गोपाल (उवा ७ दे २, ५८ रिन, ग्वालि (सुपा ४३२)। गोसालग (पउम ६८, ६५)। २. भगवान् कप्पु) । °जिरि ["गिरि] पर्वत-विशेष गोवालिय पू गोपालिक] गोप, अहीर, । महावीर का एक शिष्य, जिसने पीछे अपना 'गोवगिरिसिहरसंठियचरमजिणाययणदारमव| ग्वाला (सुपा ४३३)। आजीविक मत चलाया था (भग १५)। रुद्धं (मुणि १०८९७)। गोवड्ढण देखो गोवद्धण (पि २६१)। गोवालिया स्त्री [गोपालिका] गोप-स्त्री, गोपी, गोसाविआ स्त्री [दे] १ वेश्या, वारांगना गोवण न [गोपन] १ रक्षण । २ छिपाना । ग्रहीरिन (णाया १, १६)। (मृच्छ ५५) । २ मूर्ख-जननी (नाट-मृच्छ गोवाली स्त्री [गोपाली] वल्ली-विशेष (पएण (श्रा २८; उप ५९७ टी)। ७०) गोवद्धण पुं [गोवर्धन] १ पर्वत-विशेष (पि १)। गोसिय विदे] प्रभातिक, प्रातःकाल-संबन्धी २६१) । २ ग्राम विशेष (पउम २०, ११५)। गोविष वि [दे] प्रजल्पाक, नहीं बोलनेवाला (सण) गोवय वि [गोपक] छिपानेवाला, ढाकनेवाला (दे २,१७)। गोसीस न [गोशीर्ष चन्दन-विशेष, सुगन्धित (संबोध ३४)। गोविअ वि गोपित १ छिपाया हुआ । २ काष्ठ-विशेष (पएह २, ४, ५, कप्प; सुर ४, गोवर पुन [द] गोबर, गोमय, गो-विष्ठा (दे रक्षित (सुर १, ८८ निर १, ३)। १४. सण)। २, ६६; उप ५६७ टी)। गोविआ स्त्री [गोपिका] गोपांगना, प्रहीरिन गोवर पुंगोवर] १ मगध देश का एक गाँव, । (कुमा; गा ११४)।। गोह पुंदे] १ गाँव का मुखिया (दे २,८६)। २ भट, सुभट, योद्धा (दे २, ८६, महा)। गौतम-स्वामी की जन्मभूमि (आक)। २ गोविंद पु [गोपेन्द्र] १ स्वनाम-ख्यात एक | ३ जार, उपपति (उप पृ२१५)। ४ सिपाही, वरिणग-विशेष (उप ५६७ टो)। योग-विषयक ग्रन्थकार। २ एक जैनमुनि पुलिस (उप पृ ३३५) । ५ पुरुष, मादमी, गोवल न [गोबल] १ गोधन, गोकुल, गौओं (पंचव; एंदि)। मनुष्य (मृच्छ ५७)। का समूह; 'रिति गोवलाई' (सुपा ४३३)। गोविंद पु गोविन्द] १ विष्णु, कृष्ण । २ २ गोत्र-विशेष (सुज १०)। गोह पुंदे] कोतवाल आदि र मनुष्य (सुख एक जैन मुनि (ठा १०)। "णिज्जुत्ति स्त्री गोवलायण देखो गोवल्लायण (सुज १०)। ३, ६)। २ वि. ग्रामीण, ग्राम्य, गवार या [नियुक्ति इस नाम का एक जैन दार्शनिक गोवलिय पुं [गोबलिक] ग्वाला, अहीर गँवारू, देहाती (सुख २, १३)। ग्रन्थ (निचू ११)। (सुपा ४३३)। गोविल्ल न [दे] कञ्चुक, चोली (दे २, ६४)। गोहा देखो गोधा (दे २, ७३; भग ८,३)। गोवल्ल पुन [गोवल] गोत्र-विशेष (सुज १०, गोवी स्त्री [दे] बाला; कन्या, कुमारी, लड़की गोहिया स्त्री [गोधिका] १ गोधा, गोह, जल१६ टी)। गोवल्लायण वि गोवलायन १ गोवल गोत्र । जन्तु-विशेष (सुर १०, १८६) । २ साँप की (दे २, ६६)। एक जाति (जीव २) । ३ वाद्य-विशेष में उत्पन्न । २ न. गोत्र विशेष (इक) गोवी स्त्री [गोपी] गोपांगना, अहीरिन (सुपा गोवा पु [गोपा] गौओं का पालन करने- ४३५) (अणु)। वाला, ग्वाला (प्रामा)। गोव्वर [दे] देखो गोवर (उप ५६३, ५९७ गोहर न [दे] गोमय, गो-विष्ठा (दे २, ६६)। गोवाय सक [गोपाय 1१ छिपाना। २ टी)। गोहूम पु[गोधूम] अन्न-विशेष, गेहूँ (कस)।। रक्षण करना । वकृ. गोवायंत (उप ३५७)। गोस पुंन [दे] प्रभात, सुबह, प्रातःकाल (दे २,६६; सण गउडा वव ६; पंचव २ गोहेर गोवाल पु [गोपाल] गौ पालनेवाला, ग्वाला, । पुं गोधेर] जन्तु-विशेष, साँप | पाना षड् ; पघ ४)। गोहेरय ) की तरह का जानवर (पउम ४८, अहीर (दे २,२८)। गुज्जरी स्त्री [गुजेरी] भैरव रागवाली भाषा-विशेष, गुजरात के गासाधय पुंगासाधत] गापाल, गोसंधिय पुं [गोसंधित] गोपाल, ग्रहीर ६२ ६१)। अहीरों का गीत (कुमा)। | (राज)। ग्गह देखो गह = ग्रह (गउड)। गोवालय पुगोपालक] ऊपर देखो (पउम गोसग्ग पुंन [दे गोसर्ग] प्रातःकाल, प्रभात गहण देखो गहण = ग्रहण (अभि ५६)। (दे २, ६६ पास)। | गहण देखो गहण = ग्रहाण (कुमा)। एक जैनमुनि ॥ इन सिरिपाइअसद्दमहण्णवे गाराइसद्दसंकलणो बारहमो तरंगो समत्तो॥ For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ पाइअसहमहण्णवो घ-घडा घ पुं [] कण्ठ-स्थानीय व्यञ्जन वर्ण-विशेष घग्घर न [दे] घुघरा, घघरा, लहँगा, स्त्रियों (जं १)। २ प्रेरित, चालित (पण्ह १, ३) । (प्रापा प्रामा) के पहनने का एक वन (दे २, १०७)। ३ स्पृष्ट, छुआ हुमा (जं १, राय)। घअअंद न [दे] मुकुर, दर्पण (षड्) । घग्घर ( [घर्घर) १ शब्द-विशेष (गा८००)। घट्ट वि [घृष्ट] १ घिसा हुआ (हे २ १७४; घई (अप)म पाद-पूरक और अनर्थक अव्यय २ खोखला गला: 'घग्घरगलम्मि' (३६,१७)। प्रौप सम १३७)। (हे ४,४२४ कुमा) । ३ खोखला आवाज: 'रुयमाणी घग्घरेण-घड सक[घट] १ चेश करना। २ घओअ) पुं[घृतोद] १ समुद्र-विशेष, सद्देण' (सुर २, ११२)। ४ न. श्यावल, करना, बनाना। प्रक. परिश्रम करना। ४ घओद , जिसका पानी घी के तुल्य स्वादिष्ट शैाल या सेवार वगैरह का समूह (गउड) संगत होना, मिलना। घडइ (हे १, १९५) है (इका ठा ७)। २ मेघ विशेष (तित्थ) ३ घट सक[ घटू] १ स्पर्श करना, छूना। वकृ. घडत, घडमाण (से १,५; निचू १)। वि. जिसका पानी घी के समान मधुर हो ऐसा २हिलना, चलना । ३ संघर्ष करना । ४ । कृ. घडियव्य (णाया १, १-पत्र ६०)। जलाशय । स्त्री. आ,दा (जीव ३ राय) पाहत करना। घट्टइ (सुपा ११६)। वकृ. घड सक [घटय ] १ मिलाना, जोड़ना, घंघ ( [दे] गृह, मकान, घर (दे २, १०५) घटुंत (ठा ७) । कवकृ. घट्टिजंत (से २, संयुक्त करना । २ बनाना, निर्माण करना। साला स्त्री [शाला] अनाथ-मण्डप, ३ संचालन करना । घडेइ (हे ४, ५०) । भिक्षुओं का प्राश्रय-स्थान (प्रोध ६३६ वव घट्ट सक [घट्टय] हिलाना । संकृ. घट्टियाण | भवि. घडिस्सामि (स ३६४)। वकृ. घडंत ७. प्राचा) । (दस ५,१,३०)। (सुपा २५५) । संकृ. घडिअ (दस ५, १)। घंघल (अप) न [झकट] १ झगड़ा, कलह घट्ट पक [भ्रंश ] भ्रष्ट होना । घट्टइ (षड्)। (हे ४, ४२२) । २ मोह, घबराहट (कुमा)। घट्ट [दे] १ कुसुम्भ रंग से रंगा हुआ वन्न । घड ' [घट] घड़ा, कुम्भ, कलश (हे १, १६५)। कार पुं[°कार] कुम्भकार, मिट्टी घंघलिअ वि [दे] घबड़ाया हुमा (संवे ६; २ नदी का घाट । ३ वेणु, वंश, बाँस (दे २, का बरतन बनानेवाला (उप पृ ४१५) । धर्मवि १३४)। 'चेडिया स्त्री [ चेटिका] पानी भरनेवाली घंघोर वि [दे] भ्रमण-शोल, भटकनेवाला (दे घट्ट [घट्ट] १ शर्कराप्रभा नामक नरक-भूमि दासी, पनहारिन (सुपा ४६०)। दास पुं २,१०६)। का एक नरकावास (इक) । २ पुंन. जमाव [दास] पानी भरनेवाला नौकर, पनिहारा घंचिय पुं[दे] तेली, तेल निकालनेवालाः (श्रा २८)। ३ समूह, जत्थाः 'हयघट्टाई' प्राचा)। दासी स्त्री [°दासी] पानी भरने(सुपा २५६) । ४ वि. गाढ़ा, निबिड; 'मूल गुजराती में 'घांची' (सुर १६, १९०)। वाली, पनिहारी (सूत्र १, १५) । घडकररुहो' (सुपा ११)। घंट पुंस्त्री [घण्ट] घण्टा, कांस्य-निर्मित वाद्य घड वि [दे] सृष्टीकृत, बनाया हुआ (षड् )। घटुंसुअ न [दे. घटयंशुक वस्त्र-विशेष, विशेष (मोघ ८६ भा)। स्त्री. 'टा (हे १, बूटेदार कौसुम्भ वस्त्र (कुमा)। घडइअ वि [ दे] संकुचित (षड्) । १९५; राय) । घडग पुं[घटक छोटा घड़ा (जं २; अणु)। घट्टण वि [घट्टन] चालाक, हिला देनेवाला घंटिय पुं [घण्टिक] चाण्डाल का कुल-देवता, (पिंड ६३३)। घटगार देखो घड-कार (वव १)। यक्ष-विशेष (बृह १)। घट्टण न [घट्टन] १ छूना, स्पर्श करना । २ घडचडग पुं [घटचटक] एक हिंसा-प्रधान घंटिय पुं[घाण्टिक] घण्टा बजानेवाला चलाना, हिलाना (दस ४)। संप्रदाय (मोह १००)। (कप्प) घट्टणग पुं[घट्टनक] पात्र वगैरह को चिकना घंटिया स्त्री [घण्टिका] १ छोटी घण्टी घडण स्त्रीन [घटन] १ घटना, प्रसंग (वि करने के लिए उस पर घिसा जाता एक प्रकार (प्रामा)। २ किकिणी, धुंधुरू (सुर १,२४८; | १३) । २ अन्वय, संबंध (चेइय ४६७)। का पत्थर (बृह ३)। जं२)। ३ प्राभरण-विशेष (णाया १, ६)। घडण न [घटन] १ घड़ना या गढ़ना, कृति, घट्टणया। स्त्री [घट्टना] १ आघात, माहधंस पुं[घर्ष घर्षण, घिसन (णाया १, घट्टणा नन (प्रौपाठा ४,४)।२ चलन, निमाण (से ७, ७१)। २ यल, चेष्टा, परि१-पत्र ६३)। हिलन (प्रोष है)। ३ विचार । ४ पृच्छा श्रम (अनु ४; पएह २,१)। घंसण न [घर्षण] घिसन, रगड़ (स ४७)। (बृह ४)। ५ कदर्थना, पीड़ा (आचा)।६ घडणा स्त्री [घटना] मिलान, मेल, संयोग घंसिय वि [घर्षित] घिसा हुमा, रगड़ा हुआ __ स्पर्श; छूना (पएण १६)। (सूम १, १, १)। (मौप)। घट्टय देखो घट्ट (महा)। घडय देखो घडग (जं २)। घक्कूण देखो घे। घट्टिय वि [घट्टित] १ पाहत, संघर्ष-युक्त घडा स्त्री [घटा] समूह, जत्था (गउड)। For Personal & Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घडाघडी-धम्मोडी पाइअसद्दमण्णवो ३०५ घडाघडी स्त्री [दे] गोष्ठी, सभा, मण्डली ५६७ टी)। ८ प्रतिशय, अधिक, अत्यन्त घणोदहि पुं[घनोदधि] पत्थर की तरह (षड्)। (राय)। ६ कठिन, तरलता-रहित, स्त्यान कठिन जल-समूह (सम ३७)। वलय न घडाव सक [घटय] १ बनाना। २ । (जी ७; ठा ३, ४)। १० न. देवविमान- ["वलय वलयाकार कठिन जल-समूह बनवाना। ३ संयुक्त करना, मिलाना । विशेष (सम ३७)। ११ पिण्ड (सूत्र १, (पएण २)। घडावइ (हे ४, ३४०)। संकृ. घडावित्ता १,१)। १२ वाद्य-विशेष (सुज्ज १२)। घण्ण पुं[दे] १ उर, वक्षस् , छाती। (प्रावम)। °उदहि देखो घणोदहि (भग)। "णिचिय २ वि. रक्त, रंगा हुआ (दे २, १०५)। ३ घडि वि [घटिन घटवाला (अणु १४४)। वि ["निचित अत्यन्त निबिड़ (भग ७, ८, धात्य, मार डालने योग्य (सूत्र कृ० २-७, घडि स्त्री [घटी] देखो घडिआ = घटिका औप)। तव न [तपस् ] तपश्चर्या- पत्र ४१०)। (प्रासू ५५)। मंतय, मत्तय न [ मात्रक विशेष (उत्त ३)1 दंत पुं [दन्त] १ | घत्त सक [क्षिप] १ फेंकना, डालना। छोटे घड़े के आकार का पात्र-विशेष (राज इस नाम का एक अन्तद्वीप। २ उसका २ प्रेरणा । घत्तइ (हे ४,१४)। सकृ. कस) । जंत न [यन्त्र] रेंट, रेंहट, पानी निवासो गनुष्य (ठा ४, २)। गाल न 'अंकामो घत्तिऊण वरवीणं' (१उम ७८, निकालने का कल (पास)। ["माल] वैताब्य पर्वत पर स्थित विद्यावर २०; स ३५१)। घडिअ वि [घटित] १ कृत, निमित (पान)। नगर-विशेष (इक)। मुइंग पुं [मृदङ्ग] घत्त सक [ग्रह ] ग्रहण करना। भवि. २ संसक्त संबद्ध, श्लिष्ट, मिला हुआ (पाय: मेघ की तरह गम्भीर आवाजवाला वाद्य धत्तिस्सं (प्रयौ ३३)। स १६४ औपः महा)। विशेष (प्रौप)। रह पुं [रथ] एक जैन घत्त सक [गवेषय ] खोजना, ढूँढ़ना, अनुघडिअघडा स्त्री [दे] गोष्ठी, मण्डली (दे मुनि (पउम २०; १६) । वाउ पुं[°वायु] संधान करना। घत्तइ (हे ४, १८६) । संकृ २. १०५)। स्त्यान वायु, जो नरक-पृथ्विी के नीचे है घत्तिअ (कुमा) घडिआ स्त्री [घटिका] १ छोटा घड़ा, (उत्त ३६) । वाय पुं[वात] देखो वाउ कलशी (गा ४६० श्रा २७)। २ घड़ी, घत्त सक [यत् ] यत्ल करना, उद्योग करना। (भग; जी ७)। वाहण पुं [वाहन] घत्तह (तंदु ५६) । मुहूर्त (सुपा १०८)। ३ समय बतानेवाला विद्याधरों के राजा का नाम (पउम ५,७७)। यन्त्र, घटी-यन्त्र, घड़ी (पान) 1 लय न "विज्जुआ स्त्री [विद्युता] देवी-विशेष, घत्त वि [घात्य] १ मार डालने योग्य । २ [°लय] घण्टागृह, घण्टा बजाने का स्थान एक दिक्कुमारी देवी का नाम (इक)। समय जो मारा जा सके (पि २८१, सूप २, ७. (सर ७, १७)। पुं[समय] वर्षा-काल, वर्षा ऋतु (कुमा घडिआ। स्त्री [दे] गोष्ठी, मण्डली (षड् ; घत्तण न [क्षेपण] फेंकना (कुमा) । पान)। घडी दे २, १०५)। घणंगुल पुंन [घनाङ्गल] परिमाण-विशेष, घत्ता स्त्री [घत्ता] छन्द विशेष (पिंग) । घडिगा देखो घडिआ (सूम १, ४, २, १४)। घत्ताणंद न [घत्तानन्द] छन्द-विशेष (पिंग)। सूची से गुना हुआ प्रतरांगुल (अणु १५८) । घत्ति [दे] शीघ्र, जल्दी (प्राकृ ८१) ।। घडी स्त्री [घटी] देखो घडिआ (स २३८ घणसंमद्द पु [धनसंमद] ज्योतिष-प्रसिद्ध घत्तिय विक्षिप्त प्रेरित (स २०७) । प्रारू)। योग विशेष, जिसमें चन्द्र या सूर्य ग्रह अथवा घत्त वि [घातुक] मारनेवाला, घातक. जल्लाद घडुक्कय पुं[घटोत्कच] भीम का पुत्र (हे नक्षत्र के बीच में होकर जाता है वह योग (उत्त १८. ७) । ४, २६६)। (सुज्ज १२-पत्र २३३)। घत्थ वि [ग्रस्त गृहीत, पकड़ा हुआ (पिंड घडुब्भव वि [घटोद्भव १ घट से उत्पन्न । घणघ गाइय न [घनघनायित] रथ की ११६)। २ पुं. ऋषि-विशेष, अगस्त्य मुनि (प्रारू)। . धनधनाहट या गड़गड़ाहट, अव्यक्त शब्द घत्थ वि [ग्रस्त १ भक्षित, निगला हुआ, घढ न [ दे ] थूहा, टीला, स्तूप (पान)। विशेष (पएह १, ३)। कवलित (पउम ७१, ५१ः परह १, ५)। घण पुं[घन] १ मेघ, बादल (सुर १३, घगवाह पुं [दे] इन्द्र, स्वर्गपति (दे २. | २ आक्रान्त, अभिभूत (सुपा ३५२: महा) । ४५, प्रासू ७२) । २ हथौड़ा (दे ६, ११)। घम्म पुं [धर्म] घाम, गरमी, संताप. धूप ३ गणित-विशेष, तीन अंकों का पूरण करना, | घणसार पुं[घनसार] कपूर (पाप्रा भवि)। (दे १, ८७; गा ४१४) । २ पसीना, स्वेद जैसे दो का घन पाठ होता है (ठा १०-पत्र मंजरी स्त्री मञ्जरी] एक स्त्री का नाम (हे ४, ३२७) । ४६६; विसे ३५४०)। १ वाद्य का शब्द(कप्पू)। घम्मा स्त्री [धर्मा] पहली नरक-पृथिवी (ठा७)। विशेष, कांस्यताल बगैरह (ठा २, ३)। घणा स्त्री [घना] धरणेन्द्र की एक अग्र-महिषी, घम्मोई स्त्री [दे] तृण-विशेष (दे २. १०६)। ५ वि. दृढ़, ठोस (प्रौप)। ६ अविरल, इन्द्राणी-विशेष (णाया २, १-पत्र २५१) घम्मोडी स्त्री [दे] १ मध्याह्न काल । २ निबिड़, निश्छिद्र, सान्द्र (कुमाः औप)। ७ घणा स्त्री [घृणा] घृणा, जुगुप्सा, गर्दा (प्राप्र) मशक, मच्छर, क्षुद्र जन्तु-विशेष । ३ ग्रामणी गाढ़, प्रगाढ़; 'जाया पीई घणा तेसि' (उप | घणिय न [घनित] गर्जना, गर्जन (सुज २०) नामक-तृण (दे २, ११२) । ३६ For Personal & Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ घय न [घृत] घी, घृत (हे १, १२६; सुर १६,६३) आसव [व] जिसका वचन घी की तरह मधुर लगे ऐसा लब्धिमान् पुरुष ( श्रावम ) । किट्ट न [किट्ट ] घी का मैल (धर्म २ ) 1 (ट्टिया स्त्री [कि ट्टिका ] घी का मैल ( पव ४) । गोल न [गोल] घी और गुड़ की बनी हुई एक प्रकार की मिठाई, मिटान्न विशेष (सुपा ६३३) । °घट्ट पुं [°घट्ट] घी का मैल (बृह १) । पुन्नपुं [पूर्ण] घेवर, मिष्टान्न विशेष (उप १४२ टी)। पूर [र] घेवर या धीवर, मिष्टान्न विशेष (सुपा ११) ५ “ समित्त पुं [° पुष्यमित्र ] एक जैन मुनि, श्रार्यरक्षित सूरि का एक शिष्य (घाचू १) 'मंड [ण्ड ] ऊपर का घी, घृतसार ( जीव ३) मिल्लिया स्त्री ["इलिका घी का कीट, क्षुद्र जन्तु- विशेष (जो १६ ) । [A] ] बरसने वाली वर्षा (जं ३ ) । वर पुं [व] द्वीपविशेष (इक)। "सागर [°सागर] समुद्र - विशेष ( दीव) 1 घयण पुं [ दे] भाण्ड, भड़ा, भडवा (उप २०४ २७५ पंचव ४) । घयपूस पुं [ घृतपुष्य ] एक जैन महर्षि (कुलक २२) । घर न [गृह] घर, मकान, गृह (हे २, १४४; ठा ५, प्रासू ७५)। "कुडी स्त्री [कुटी] १ घर के बाहर की कोठरी । २ चौक के भीतर की कुटिया ( श्रोघ १०५ ) । ३ स्त्री का शरीर (तंदु)। कोइला, कोइलिआ [कोकिला ] गृहगोधा, छिपकली (पिंड, सुपा ६४० ) । गोली स्त्री ['गोली ] गृहगोधा, छिपकली (दे २, १०५१ । गोहिआ [गोधिका ] छिपकली, जन्तु-विशेष (दे २, १९) । जामाज्य पुं ["जामातृक ] घर जमाई, ससुर घर में ही हमेशा रहनेवाला जामाता (गाया १, १६) । °स्थ पुं [स्थ] गृही, संसारी, घरबारी (प्रासू १३१) । ' नाम न [नामन] असली नाम, वास्तविक नाम (महा) 1 वाडयन [पाटक] ढकी हुई जमीन वाला घर (पान)। वार न [द्वार] घर का दरवाजा ( काम १९५) उणि पाइअसद्दमहण्णवो [शकुनि] पालतू जानवर ( वव २ ) । 'समुदाय [समुदानिक ] श्राजीविक | मत का अनुयायी साधु ( प ) । सामि [स्वामिन] घर का मालिक (हे २, १४४ ) | सामिणी श्री [स्वामिनी ] गृहिणी, स्त्री (पि २ ) । सूर [ शूर] अलीक शूर, झूठा शूर, घर में ही बहादुरी दिखानेवाला ( दे ) 1 घरंगण न [गृहाङ्गण] घर का श्रांगन, चौक (गा ४४० ) । घरकूडी स्त्री [गृहकूटी ] स्त्री-शरीर ( तंदु ४० ) । घरग देखो घर ( जीव ३) । घरघंट पुं [दे] चटक, गौरैया पक्षी (दे २, १०७ पात्र) । घरघर ( जं १) । [दे] गला का श्राभूषण - विशेष [घर] जाता, चक्की, अन्न पीसने घरट्ट का पाषाण यन्त्र (गा ८०० सण) । घरट्ट पुं [दे] श्ररघट्ट, श्ररहट, पानी का चरखा (निचू १) । घरट्टी स्त्री [घरट्टी ] शतघ्नी, तोप (दे ३, १०)। धरणी देखो घरिणी 'तं वरधररिंग वररिंग व' (७२८ टी प्रासू ४५) । घरयंद पुं [दे] प्रादर्श, दर्पण, शीशा (दे २, १०७) । घरस पुं [दे. गृहवास] गृहाश्रम, गृहस्थाश्रम (बृह ३ ) । घरसण देखो घंसण (सण) । घरित वि [गृहवत् ] घरवाला, गृहस्थ (प्राकृ ३५) । घरिणी स्त्री [गृहिणी] घरवाली, स्त्री, भार्या, पत्नी (उप ७२८ टी से २, ३८ सुर २ १०० कुमा) । घरिल्ल पुं [गृहिन्] गृही, संसारी, घरबारी (गा ७३६) । घरिल्ला स्त्री [गृहिणी ] घरवाली, स्त्री, पत्नी (कुमा) । घरिल्ली स्त्री [ दे. गृहिणी ] गृहिणी, पत्नी (दे २, १०६) । घरिस वु [घर्ष ] घर्षण, रगड़ ( णाया १, १६) । For Personal & Private Use Only घय - घसी रणन [घ] घर्षण, रगड़ ( स ) 1 घरोइला स्त्री [दे] गृहगोधा, छिपकली, बिस्तुइया ( पि १६८ ) । घरोल न [दे] गृह भोजन विशेष (दे २, १०६) घरोलिया ? स्त्री [दे] गृहगोधिका, छिपकली; घरोली ) गुजराती में 'घरोली' (परह १, १; दे २, १०५) । घलघल पुं [घलघल ] 'घल-घल' आवाज, saft - विशेष (विपा १, ६) घल्ल सक [ क्षिपू ] फेंकना, डालना, घालना । इ, घति (भवि हे ४, ३३४; ४२२ ) । [] श्रनुरक्त, प्रेमी (दे २,१०५ ) । ) पुं [दे] द्वीन्द्रिय जीव की एक घल्लय १३० ३६, १३० ) । घल्लिअ वि [क्षिप्र] फेंका हुम्रा, डाला हुआ (भवि) । वि [] घटित निर्मित किया हुआ; विघल्लियो तिक्खखरगगुरुषान' 'रु' (सुपा २४९) । घस सक [ घृप् ] १ घिसना, २ मार्जन करना, सफा करना । घसइ ( महाः षड् ) संकृ. 'घसिऊण प्ररणिकट्ठे अग्गी पज्जालियो मए पच्छा' (सुर ७, १८६) । सीन [दे] १ फटी हुई जमीन, फाटवाली भूमि (घाचा २, १०, २ ) । २ शुषिर भूमि, पोली जमीन । ३ क्षार भूमि (दस ६, ३२) । घसण देखो चंसण (सुपा १४: दे १, १६९ ) । - घसणिअ वि [दे] श्रन्विष्ट, गवेषित (षड् ) । घणी स्त्री [घर्षण] सर्प-रेखा, टेढ़ी लकीर ( स ३५७ ) : घसा स्त्री [दे] १ पोलो जमीन । २ भूमिरेखा, लकीर (राज)। सिवि [घृष्ट] घिसा हुआ, रगड़ा हुआ (दसा ५) घसिर वि [ प्रसितृ ] बहु-भक्षक, बहुत खाने वाला (ओघ १३३ भा) । घसी स्त्री [दे] १ भूमि राजि, लकीर । २ नीचे उतरना, भवतरण (राज) । घसी स्त्री [दे] जमीन का उतार, ढाल (भाचा २, १, ५, ३) । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाइयव्व दखो घाय% हन् । घसुमर-घिणिल्ल पाइअसहमहण्णवो घसुमर वि [घस्मर] खाने की आदतवाला, घाणिदिय न [घ्राणेन्द्रिय] नासिका, नाक घारण न [घारण] विष की असर से होनेखाधुक (प्राकृ २८)। (उत्त २६)। वाली बेचैनी (सुपा १२४)। घाइ वि [घातिना घातक, नाशक, हिसक घाय सक[हन् मारना, मार डालना, विनाश घारिय वि [घारित] जो विष की असर से (गा ४३७ विसे १२३८; भग)। कम्म न करना। वकृ. घाएह (उव) । वकृ. 'घाएंत । बेचैन हुआ हो; 'तत्तो भोगो। सम्वत्थ [कर्मन्] कर्म-विशेषः ज्ञानावरण, दर्शना- रिउभंडहवे' (पउम ६०, १७) । घायंत तदुवघाया विसघारियभोगतुल्लोत्ति' (उप वरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म (पउम २४, २६; विसे १७६३)। कवकृ. 'से ४४२); 'विसवा (? पा) रियस्स जह वा (अंत)। 'चउक्क न [चतुष्क] पूर्वोक्त चार धणे चिलाएणं चोरसेगावइणा पंचहि चोर- घणचन्दणकामिणीसंगो ( उवर ६७); कर्म (प्रारू)। सरहिं सद्धि गिहं घाइजमाणं पासई' (णाया 'विसघारियो सि धत्तूरियो सि मोहेण किंव घाइअ विघातित] १ मारित, विनाशित १,१८)। वकृ. घाइयव्य (पउम ६६, ३४)। ठगिमो सि' (सुपा १२४; ४४७)।। (गाया १, ८ उव)। २ घवाया हुआ, जो घाय सक [घातय् ] मरवाना, दूसरे द्वारा घारिया स्त्री [दे] मिष्टान्न-विशेष, गुजरातो में शक्ति-शून्य हुमा हो, सामर्थ्यरहित; करणाई मार डालना, विनाश करवाना। वकृ. जिसे 'धारी' कहते हैं (भवि)। घाइयाई जाया ग्रह वेयणा मंदा' (सुर ४, घायमाण (सूत्र २,१)। कृ. घाइयव्व (पउम घारी स्त्री [६] १ शकुनिका, पक्षि-विशेष (दे ६६, ३४)। २३९)। २, १०७; पाम) । २ छन्द-विशेष (पिग)। घाइआ स्त्री [घातिका] १ विनाश करनेवाली घाय [घात गमन, गति (सुज १, १)। घास सक [घृष्] १ घिसना। २ पोड़ा. स्त्री, मारनेवाली स्त्री (जं २) । २ घात, घाय पुं[घात] १ प्रहार, चोट, वार (पउम करना । कर्म. घासइ (सूम १, १३, १५)। हत्या । ३ घाव करना (सुर १६, १५०)। ५६, २५)। २ नरक (सूम १, ५, १)। ३ घास पुं[घास] तृण, पशुत्रों को खाने का घाइज्जमाण) देखो घाय =हन । हत्या, विनाश, हिंसा (सूत्र १, १, २) । ४ तृण (दे २, ८५; प्रौप)। संसार (सूत्र १, ७) घास पुं [प्रास] १ कवल, कौर (प्रौपः उत्त घाइयव्व देखो घाय = घातय् । -- घायग वि [घातक] मार डालनेवाला, विना- २) राहार. भोजन (आचा: मोघ ३३०)। घाइर वि [प्रायिन् सूंघनेवाला (गा ८८६) शक (स २६४; सुपा २०७)। घास पुं[घर्ष] घर्षण, रगड़; 'जो मे उवजिघाउकाम वि [हन्तुकाम] मारने की इच्छा- घायण न [हनन] १ हत्या, नाश, हिंसा प्रो इह कररुहधसणेण चरणधासेरण' (सुपा वाला (पाया १,१८)। (सुपा ३४६; द्र २६) । २ वि. हिंसक, मार घाएंत देखो घाय% हन् । डालनेवाला (स १०८)। घासंसणा स्त्री [ग्रासैपणा] प्राहार-विषयक घायण पुं [दे] गायक, गवैया (दे २, १०८ घाड प्रक[भ्रश ] भ्रष्ट होना, च्युत होना। शुद्धि अशुद्धि का पर्यालोचन (प्रोध ३३८)। घाडइ (षड्)। हे २, १७४, षड् )। घि देखो घे । भवि. घिच्छिइ (विसे १०२३)। घायणा स्त्री [हनन] मारना, हिंसा, वध | घाड पुं [घाट] १ मित्रता, सौहार्द (बृह (पएह १, १)। कर्म. धिप्पंति (प्रासू ४)। संकृ चित्तण णाया १,२)। २ मस्तक के नीचे का भाग | घायय देखो घायग (विसे १७६३ स २९७) (कुमा ७,४६) । हेकृ.घित्तं (सुपा २०६)। (णाया १,८-पत्र १३३) ।' । कृ. चित्तव्य (सुर १४, ७७)। घायय पुं [घातक] नरक-स्थान विशेष घाडिय वि [घाटिक वयस्य, मित्र (णाया (देवेन्द्र २६, ३०)। घिअ न [घृत] घी, घीव, प्राज्य (गा २२) । १, २ बृह १)। घिअ वि [दे] भत्सिंत, तिरस्कृत, अवधीरित घायावणा स्त्री [घातना] १ मरवाना, दूसरे घाडेरुय [दे] खरगोश की एक जाति (?) द्वारा मारना । २ लूटपाट मचवानाः 'बहुग्गा- घि) ग्रीष्म]१गरमी की ऋतु, ग्रीष्म 'जे तुह संगसुहासारज्जुनिबद्धा दुहं मए रुद्धा। मवायावरणाहिं ताविया' (विपा १, ३)। प्रिंसु काल; घिसिसिरवासे' (मोघ ३१० घाडेख्यससया इव प्रबंधणा ते पलायंति' घार अक [घारय् ] १ विष का फैलना, भाः उत्त २, ८; पि ६; १०१)। २ गरमी, (उप ७२८ टी)। विष की प्रसर से बेचैन होना । २ सक, विष अभिताप (सूअ १, ४, २)। घाण पुं[दे] १ घानी, कोल्हू, तिल-पीड़न से बेचैन करना । ३ विष से मारना । कर्म. घिट्ट वि [द] कुब्ज, कूबड़ा (दे २, १०८)। यन्त्र (पिंड)।२ घान, चक्की आदि में एक 'घारिजतो य तो विसेण' (स १८९)। हेकृ. घि? वि [घृष्ट] घिसा हुआ, रगड़ा हुआ (सुपा बार डालने का परिमाण (सुपा १४) घारिजिउं (स १८९) २७८ गा ६२६ अ)। घाण पुंन [घ्राण] नाक, नासिकाः 'दो घाणा' घार पुं[दे] प्राकार, किला, दुर्ग (दे २, घिणा स्त्री [घृणा] १ जुगुप्सा, अरुचि । २ (पुराण १५, उप ६४८ टी दे २,७६)। १०८)।' दया, अनुकम्पा (हे १, १२८)। "रिस पुन [र्शस् ] नासिका में होने- घारंत पुं[दे] घृतपूर, घेवर, एक प्रकार की घिणिल्ल वि [घृणावत् ] घृणावाला, नफवाला रोग-विशेष, पीनस (ोघ १८४ भा) मीठाई (दे २, १०८)। रत करनेवाला (पिंड१७६)। For Personal & Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ पाइअसद्दमहण्णवो चित्त-धे घित्तण । देखो घि। घि देखो घि। पित्त (अप) वि [क्षिप्त] फेंका हुआ, डाला घुणहुणिआ) स्त्री [दे] कर्णोपकणिका, घुरघुरि पुं[दे] मण्डूक, मेढक, भेक, बॅग हुआ (भवि)। घुणाहुणी कानाकानी (दे २, ११ (दे २, १०६)। घित्तुमण वि [ग्रहीतुमनस् ] ग्रहण करने महा)। घुरघुरु) देखो धुरुधुर। घुरुहुरइ (महा)। की इच्छावाला (सुपा २०६)। घुणिय वि [घुणित] धुणों से विद्ध, घुना हुआ घुरुहुर वकृ.घुरघुरुमाण (महा)। (बृह १)। घुल देखो घुम्म । घुलइ (हे ४, ११७)। घुण्ण देखो घुम्म । वकृ. घुग्णंत (नाट)। घुलिकि स्त्री [दे] हाथी की प्रावाज, करि-शब्द घिस सक [प्रस् ] असना, निगलना, भक्षण घुण्णिअ वि [घूर्णित] १ घुमा हुआ। २ (पिंग)। करना । घिसइ (हे ४, २०४)। भ्रान्त, भटका हुआ (दे ८, ४६)। घुलघुल अक [घुलघुलाय ] 'घुल-घुल' घिसरा स्त्री [दे] मछली पकड़ने का जालघुत्तिअ वि [दे] गवेषित, अन्वेषित, खोजा आवाज करना। वकृ. घुलघुलाअमाण (पि विशेष (विपा १, ८-पत्र ८५) । ५५८)। हुआ (दे २,१०६)। घिसिअ वि [ग्रस्त] कवलित, निगला हुआ, धुलिअ वि [घूर्णित] चक्राकार घुमा हुआ घुन्न । देखो घुम्म । घुमइ (पिंग)। वकृ. भक्षित (कुमा ७, ४६)। (कुमा)। घुम घुन्नंत (पएह १, ३)। धुंघुरुड पुं [ दे] उत्कर, ढग, ढेर, समूह घुल्ला स्त्री [द] कीट-विशेष, द्वीन्द्रिय जन्तु की (दे २, १०६)। घुमघुमिय वि [घुमधुमित] १ जिसने 'घुम एक जाति (परण :)। घुट पु[६] घुट, एक बार पीने योग्य पानी ; घुम' आवाज किया हो वह । २ न. 'घुम-घुम घुसण देखो घुसिण (कुमा)। ध्वनिः 'महुरगंभीरघुमघुमियवरमद्दल' (सुपा आदि (हे ४, ४२३)। घुसल सक [मथ् ] मथना, विलोड़ना। घुग्घ । (प्रा) पुन [घुग्धिका] कपि-चेष्टा, ५०)। घुसलइ (हे ४, १२१)। घुग्घिअ) बन्दर की चेष्टा (हे ४, ४२३; घुम्म अक [धुर्ण ] घूमना, चक्राकार फिरना। घुसलिअ वि [मथित] मथित, विलोड़ित कुमा) । घुम्मइ ( हे ४, ११७ षड्) । वकृ. घुम्मत, (कुमा)। घुग्घुच्छण न [दे] खेद, तकलीफ, परिश्रम घुम्ममाण (हेका ३३; रणाया १, ६)। संकृ. | घुसिण न [घुसण] कुंकुम, सुगन्धित द्रव्य(दे २, ११०)। घुम्मिऊण (महा)। विशेष, केसर (हे १, १२८)। घुम्मण न [घूर्णन चक्राकार भ्रमण (कुमा)। घसिणल्ल वि घुिसृगवत् ] कुंकुमवाला, घुग्घुरि पुंदे] मण्डूक, भेक, मेढक (दे २, घुम्माविअ वि [घूर्णित धुमाया हुआ (वजा ! कुंकुम-युक्त (कुमा)। घुग्घुस्मुअ वि [दे] निःशंक होकर गया हुआ १२२)। घुसिणि वि [दे] गवेषित, अन्विट (दे २, (पड़)। घुम्मिय वि [र्णित] घुमा हुआ, चक्र की १०६)। घुग्घुस्सुसय न [दे] साशंक वचन, आशंका- । तरह फिरा हुआ (सुपा ६४)। घुसिम न [दे] घुसृण, कुंकुम (षड् )। युक्त वारणी (दे २, १०६)। घुम्मिर वि [घूर्णित घूमनेवाला, फिरनेवाला, । घुसिरसार न [दे] अवस्नान, विवाह के अवघुघुघुघुघुघ अक [घुघुघुघाय] 'घुघु' | चक्राकार घूमनेवाला (उप पृ ६२ गा १८० सर में स्नान के पहले लगाया जाता मसूरादि आवाज करना, घूक या उल्लू का बोलना। गउड)। का पिसान, उबटन (दे २, ११०)। वक्र. घुघुघुघुघुघेत (पउम १०५, ५६) घुयग पुं[दे] एक तरह का पत्थर, जो पात्र घुसुल देखो घुसल । वकृ. घुसुलंत, घुसुलित घुघुय प्रक [घुघूय] ऊपर देखो। वकृ. | वगैरह को चिकना करने के लिए उस पर | (पिंड ५८७ ५७३)। घुघुयंत (गाया १,८–पत्र १३३)IV घिसा जाता है, खराद या चरखी (पिंड)। घुसुलण न [मथन] विलोड़न (पिंड ६०२) । घुट्टग पुं[घृष्ट क] लिपे हुए पात्र को घिसने घुरहुर देखो घुरघुर। वकृ. घुरहुरंत (श्रा घूअ पुंस्त्री [घूक] उलूक, उल्लू, पक्षि विशेष का पत्थर (पिंड १५)। १२)। (णाया १, ८ पउम १०५, ५६)। स्त्री. घूई घुघुणिअ न [दे] पहाड़ की बड़ी शिला घुरुक अक [दे] घुरकना, घुड़कना, गरजना।। (विपा १,३) रि पुं[रि] काक, कौमा, (दे २, ११०) _ 'घुरुकंति वग्धा' (महा)। वायस (तंदु)। घुट्ठ वि [घुष्ट] घोषित, ऊंची आवाज से स घुरुकार पुं [घुरुत्कार] सूपर आदि की घूणाग पुं[घूणाक] स्वनाम-ख्यात सन्निवेशजाहिर किया हुआ (पउन २,११६, भाव)। मावाज (किरात)। विशेष, ग्राम-विशेष (माचू १)। धुडुक प्रक [गर्ज ] गरजना, गर्जारव घुरुधुर प्रक [घुरघुराय ] घुरघुराना, 'घुर- घूरा स्त्री [दे] १ जंघा, जाँघ । २ खलका, करना । धुडकइ (हे ४, ३६५)। घुर' आवाज करना, व्याघ्र वगैरह का बोलना। शरीर का अवयव विशेषः 'गद्दभारण वा घूरामो घुण पुं[घुण] काष्ठ-भक्षक कीट, घुन (ठा घुरुधुरंति (पि ५५८)। वकृ. घुरघुरायंत कप्पेति' (सूम २, २, ४५)। . ४१. विसे १५३६)। (सुपा ५०५)। घे देखो गह = ग्रह । घेइ ( षड्)। भवि.. For Personal & Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घेउर-घोसिअ पाइअसहमहण्णवो ३०४ धेच्छं (विसे ११२७)। कर्म. घेप्पइ (हे ४, घोणा स्त्री [घोणा] १ नाक, नासिका (पान)। घोलिर वि [घूर्णित] घूमनेवाला, चक्राकार २५६)। कवकृ. घेप्पंत, घेप्पमाग (गा २ घोड़े की नाक । ३ सूअर का मुख-प्रदेश फिरनेवाला (गा ३३८ स ५७८; गउड)।' ५८१; भगः स १५२)। संकृ. घेऊण, (से २, ६४ गउड)। घोस सक [घोषय ] १ घोषणा करना, ऊँची घक्कूण, घेक्कूग, घेत्तुआण, घेत्तुआणं, घोर अक [घुर् ] निद्रा में 'घुर-घुर' आवाज आवाज से जाहिर करना । २ घोखना, ऊँची घेत्तूण, घेत्तूणं (नाट-मालती ७१; पि | करना। घोरंति (गा ८००)। वकृ. घोरंत आवाज से अध्ययन करना, जोर-जोर से बोल ५८४ हे ४, २१०; पि; उवः प्राप्र)। हेकृ. (स ४२४ उप १०३१ टी)। कर पढ़ना या रटना। घोसइ (हे १, २६०; घेतं , घेत्तूण (हे ४, २१; पउम; ११८, घोर विदे] १ नाशित, विनाशित । २ पुं. प्रामा)। प्रयो. घोसावेइ (भग) ।। २४) । कृ. घेत्तव्व (हे ४, २१०० प्राप्र)। गीध, पक्षि-विशेष (दे २, ११२)। घोस पु[घोष] १ ऊँची आवाज (स १०७; घेउर पुन [दे] घेवर, घृतपूर, मिटान-विशेष; घोर वि [घोर] भयंकर, भयानक, विकट (सून कुमा; गा ५४) । २ आभीर-पल्ली, अहीरों का 'सा भणइ नियगेहेवि हु घयघेउरभोयणं समा। १, ५, १; सुपा ३४५सुर २, २४३ प्रासू महल्ला, अहीर टोली (हे १,२६०)। ३ गोष्ठ, कुणई' (सुपा १३)। १३६) । २ निर्दय, निष्ठुर (पान)। गौत्रों का बाड़ा (ठा २,४-पत्र ८६ पास)। ४ घेक्कूण देखो घे। घोरि पु[दे] शलभ-पशु की एक जाति (दे स्तनितकुमार देवों को दक्षिण दिशा का इन्द्र घेत्तमण वि [ग्रहीतुमनस् ] ग्रहणकरने २, १११) । (ठा २, ३)। ५ उदात्त प्रादि स्वर-विशेष की इच्छावाला (पउम १११, १६)। घोल देखो घुम्भ । घोलइ (हे ४, ११७)। (वव १०)। ६ अनुनाद (भग ६, १) । ७ न घेप्प । वकृ. घोलंत (कप्प; गा ३७१, कुमा)। देव-विमान-विशेष (सम १२, १७)। सेण घेप्पंत देखो घे। घोल सक [घोलय ] १ घिसना, रगड़ना। २ पुं[सेन] सातवें वासुदेव का पूर्वजन्म का घेप्पमाण मिलाना (विसे २०४४ से ४, ५२)। धर्म-गुरू, एक जैन मुनि (पउम २०, १७६) । घेवर दे] देखो घेउर (दे २, १०८)। घोल न [दे] कपड़े से छाना हुआ दही (पमा घोस न [घोष] लगातार ग्यारह दिनों का घोट्ट । सक [पा] पीना, पान करना। उपवास (संबोध ५८) । घोट्टय । घोट्टइ (हे ४,१०)। वकृ. घोट्ट- घोलण न [घोलन घर्षण, रगड़ (विसे । घोसण न [घोषण] १ ऊँची आवाज (निचू यंत (स २५७)। हेकृ. घोट्टि (कुमा)। २०४४) । १)। २ घोषणा, ढिंढोरा पिटवाकर जाहिर घोड देखो घुम्म । घोडइ (से ५, १०)। । घोलणा स्त्री [घोलना] पत्थर वगैरह का पानी ) घोड । पुंस्त्री [घोट, क] घोड़ा, अश्व, करना (राय)। की रगड़ से गोलाकार होना (स ४७)। घोढग हय (दे २, १११; पंच ५२; घोलवड न द] एक प्रकार का खाद्य | घोसणा स्त्री [घोषणा] ऊपर देखो (णाया घोडय ) उवा; उप २०८)। २ पुं. कायो- घोलवडय द्रव्य, दहीबड़ा (पभा ३३ श्रा १,१३; गा ५२४) ।। त्सर्ग का एक दोष (पव ५)। रक्खग पुं २०; सुपा ४६५) । घोसय न दे] दर्पण का घरा, दर्पण रखने घोलाविअ वि[घोलित] मिश्रित किया हुआ, का उपकरण-विशेष (अंत)। ग्गीव [ग्रीव अश्वग्रीव-नामक प्रतिवासुदेव, मिलाया हुआ (से ४, ५२) । घोसाडई स्त्री [घोषातकी] लता-विशेष नविशेष(माविमा मह न मिखघोलिअन [दे] १ शिलातल। २ हठ-कृत, (पएण १७-पत्र ५३०) । जैनेतर शास्त्र-विशेष (अणु)। बलात्कार (दे २, ११२)। घोसाडिया देखो घोसाडई (राय ३१)। घोडिय पु[दे] मित्र, वयस्य (बृह ५)। | घोलिअ वि [घुर्णित] घुमाया हुआ (पास)। घोलिअ वि [घूर्णित] अत्यन्त लीन, 'अज घोसालई । स्त्री [दे] शरद् ऋतु में होनेघोडी स्त्री [घोटी] १ घोड़ी। २ वृक्ष-विशेषः घोसाली वाली लता-विशेष (दे २, १११; रक्खिनो जविएसु भईव घोलियो' (सुख २, 'सीयल्लिघोडिवच्चूलकयरखइराइसकिरणे' (स परण १-पत्र ३३)। २५६)। घोलिअ वि [घोलित] आम को तरह घोला घोसावग न [घोषण] घोषणा, डोंडी या डुग्गी घोण न [घोग] घोड़े की नाक (सण)। हुमा (सूम २, २, ६३)। पिटवा कर जाहिर करना (उप २११ टी)। घोणस पु [घोनस] एक प्रकार का साँप घोलिअ वि [घोलित] रगड़ा हुआ, मर्दित घोसिअ वि [घोषित] जाहिर किया हुमा (पउम ३६, १७)। | (प्रौप)। (उव)। ॥ इन सिरिपाइअसहमहण्णवम्मि घमाराइसहसंकलणो तेरहमो तरंगो समतो॥ For Personal & Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० चन [च] श्रथवा, या 'चसद्यो विगप्पेणं' (पंच ३, ४४ ) । [च] तालु स्थानीय व्यञ्जन वर्ण-विशेष ( प्रापः प्रामा) । [च] इन ग्रथों में प्रयुक्त किया जाता अव्यय - १ श्रौर, तथा (कुमा; हे २, २१७) । २ पुन:, फिर (कम्म ४, २३ ६६ प्रासू ५) । अवधारण, निश्चय (पंच १३ ) । ४ भेद, विशेष ( निचू १) । ५ प्रतिशय, श्राधिक्य ( श्राचा; नित्र ४) । ६ अनुमति, सम्मति ( निचू १) । ७ पाद-पूर्ति, पाद- पूरण ( निचू १) । चआ स्त्री [ त्वक् ] चमड़ी, त्वचा (षड् ) । अवि [शक्ति ] जो समर्थ हुआ हो, शक्त ( से ६, ५१ ) । चइअ देखो चविअ (पउम १०३, १२९ ) । चइअ वि[त्यक्त] मुक्त, परित्यक्त (कुमा ३, ४९)। चइअ वि [ त्याजित] छुड़वाया हुआ, मुक्त कराया हुआ (श्रोघ ११५) । चइअ देखो चय = त्यज् । इअ देखो चु चइइअ देखो चेइअ ( षड् ) । चइउं } देखो चय = त्यज् । चइऊण चइऊण देखो चु । चइत्त देखो चेइअ (हे २, १३ कुमा) चइत्त पुं [ चैत्र] मास- विशेष, चैत्र मास (हे १, १५२) । चइत्ता देखो चु । चइत्ताणं चइयव्व } देखो चय = त्यज् । चइद (शौ) वि [ चकित ] भीत, शंकित (भि २१३) । चइयव्त्र देखो चु ।चवि [ चतुर् ] चार, संख्या- विशेष, ४ (उवा कम्म ४, २ जी ३३ ) | आलीस स्त्रीन [' चत्वारिशत] चौघालीस, ४४ ( पि ७५; १६६)। [काष्टा ] चारों दिशा (कुमा) 'कट्ठी स्त्री ["काष्ठी] चौकठा, चौकठ, पाइअसद्दमहण्णवो च चौखटा, द्वार के चारों ओर का काठ, द्वार का ढाँचा (निचू १) । कोण वि ["कोण ] चार कोणवाला, चतुरस्र (गाया १, १३) । ग न देखो चउक्क = चतुष्क (दं ३०) गइ स्त्री [गति] नरक, तिर्यंग्, मनुष्य और देव की योनि ( कम्म ४, ६६ ) । गइअ वि [गतिक ] चारों गति में भ्रमण करनेवाला ( श्रा 8 ) । 'गमण न [गमन ] चारों दिशाएँ (प) | गुण, गुणवि [गुण ] चौगुना (हे १, १७१; षड् ) ५ चत्ता स्त्री [ चत्वारिंशत् ] संख्या विशेष, चौमालीस (भग) । चरण पुं [ चरण ] चौपाया, चार पैर के जन्तु, पशु (उप ७६८ टी सुपा ४०६ ) । चूड [चूड] विद्याधर वंश के एक राजा का नाम ( पउम ५ ४५) । ट्ठ देखो तथ (२, ३३) । द्वाणवडिअ वि [स्थानपतित] चार प्रकार का (भग) । उइ स्त्री [नवति] संख्या-विशेष, चौरानबे, ९४ ( प ४४६) । ' [नवत] चौरानबेवा, ६४ वाँ (पउम १४, १०६) । णवइ देखो उइ (सम ९७ श्रा ४४) । ण्ण (अप) | देखो 'पन्न (पिंग ) तिस, तीस न [ त्रिंशत् ] चौतीस ३४ ( भगः औप ) । ~ 'तीसइम देखो 'तीसइम ( पउम ३४, ६१ ) तीसा स्त्री देखो 'तीस ( प्रारू) 1 तालीस वि [' चत्वारिंश ] चौघालीसवाँ, ४४ वाँ (पउम ४४, ६८) । त्तीसइम वि ['त्रिंश ] १ चौतीसवाँ ३४ वाँ (कप्प ) । २ न. सोलह दिनों का लगातार उपवास (गाया १, १पत्र ७२) । 'त्थवि [थ] १ चौथा (हे १, १७१) । २ पुंन उपवास (भग) । 'त्थंच उत्थ पुंन [थचतुर्थ] एक एक उपवास (भग) । त्थभत्त न [ "थभक्त ] एक दिन का उपवास (भग) । त्थभत्तिय वि [ भक्तिक] जिसने एक उपवास किया हो वह (पह २ १ ) । "त्थिमंगल न [ थीम - ङ्गल] वधू-वर के समागम का चतुर्थं दिन, जिसके बाद जामाता अकेला अपने घर जाता है, चौठारी (गा ६४६ अ )। त्थी स्त्री [थी ] For Personal & Private Use Only चचउ १ चौथी । २ संप्रदान- विभक्ति, चतुर्थी विभक्ति (ठा ८ ) । ३ तिथि - विशेष (सम 2 ) ४ दंत देखो 'इंत (राज)। 'दस त्रि. ब. [ दशन् ] संख्या - विशेष, चौदह ( नव २; जी ४७) । दसपुव्वि ['दशपूर्विन् ] चौदह पूर्व ग्रन्थों का ज्ञानवाला मुनि (श्रोध २ ) । दसम वि. देखो इसम (गाया १, १४) । दसहा ["दशधा ] चौदह प्रकार से ( नव ५ ) 1. 'दसी स्त्री ['दशी] तिथि विशेष, चतुर्दशी (रण ७१) । [दन्त] ऐरावत, इन्द्र का हाथी (कप्प ) । इस देखो 'दस (भग) 1 इस पुवि देखो 'दसपुव्वि (भग ५, ४) । ° इसम वि [°दश] १ चौदहवाँ, १४ वा (पउम १४, १५८ ) । २ पुंन, लगातार छः दिनों का उपवास (भग) । इसी देखो 'दसी (कप्प ) 1 दसुत्तरसय वि [ दशोत्तरशततम] एक सौ चौदहवाँ, ११४ वाँ (पउम ११४, ३५) दह देखो दस (पि १६६६ ४४३) । दही देखो 'दसी (प्रा)। द्दिसं, "द्दिसिं घ [दिशू ] चारों दिशाओं की तरफ, चारों दिशाओं में (भगः महा ठा ४, २) द्धा अ [धा] चार प्रकार से (उ) । नाण न ["ज्ञान] मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यंव ज्ञान (भग महा) नाणि वि["ज्ञानिन् ] मति वगैरह चार ज्ञानवाला (सुपा ८३ ३२० ) पण्ण देखो 'पन्न । पण्गइम वि [पचाश] १ चौवन ५४ वाँ । २ न. लगातार छब्बीस दिनो का उपवास (खाया २ -- पत्र २५१) । पन्न, पन्नास स्त्रीन [पश्चासत् ] चौवन, ५४ (पउम २०, १७ सम ७२ कप्प ) । पन्नासइम वि [पचाशत्तम] चौवनत्राँ, ५४ वाँ (पउम ५४, ४८ ) । पय देखो ८पय ( खाया १, ८, जी २१) । पाल न [पाल] सूर्याभ देव का प्रहरण-कोश (राय) । पइया, प्पइया स्त्री [पदिका ] १ छन्द - विशेष (पिंग)। २ जन्तु - विशेष की एक जाति ( जीव २) । पई स्त्री [पदी ] देखो 'पइया (सुपा १६० ) । पन्न देखो पन्न (सम ७२) पय पुंस्त्री ['पद] १ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ चउक्क-चउरुत्तरसय पाइअसद्दमहण्णवो चौपाया प्राणी, पशू (जी ३१)। २ न. ६४, ४७)1°स्सट्टि देखो सट्टि (कप्पू) (पाय; वेणी ६६)। २ क्रिवि. निपुणता से ज्योतिष-प्रसिद्ध एक स्थिर करण (विसे साल न[शाल] चार शालाओं से युक्त घर होशियारी से; 'केसी गायइ चउर" (ठा ७)।३३५०)1 °प्पह पु [पथ] चौहट्टा, (स्वप्न ५१) हट्ट, हट्टय पुंन [ हट्ट, क] चउरंग वि [चतुरङ्ग] १ चार अंगवाला, चौराहा, चौरास्ता (प्रयौ १००)। 'प्पुड | चौहट्टा, बाजार (महाः था २७ सुपा ४५५४ चार विभागवाला (सैन्य वगैरह) (सण)। वि [°पुट] चार पुटवाला, चौसर, चौपड़ हत्तर वि [सप्तत] चौहत्तरवाँ, ७४ वा २ न. चार अंग, चार प्रकार (उत्त ३)। (विपा १, १)। °Cफाल वि ["फाल] देखो चउरंगय न [चतुरङ्गक] एक तरह का जुआ प्पुड (णाया १,१-पत्र ५३)1 °ब्बाहु चौहत्तर, सत्तर और चार (पि २४५ (मोह ८६)।वि ['बाहु] १ चार हाथवाला । २ पु. २६४)1 हा अ [धा] चार प्रकार से चउरंगि वि [चतुरङ्गिन चार विभागवाला चतुर्भुज, श्रीकृष्ण (नाट)1 ब्भुअ [भुज] (ठा ३, १; जी १६)। देखो चो (सैन्य वगैरह)। स्त्री. °णी (सुपा ४५६) । देखो बाहु (नाटः सूथ १, ३.१)। भंग | चउक्क न [चतुष्क] चौकड़ी, चार वस्तुओं का चउरत विचितरन्त] १ चार पर्यन्तवाला, पुंन [ भङ्ग] चार प्रकार, चार विभाग (ठा समूह (सम ४०; सुर १४, ७८, सुपा १४); चार सीमाएँवाला। २ पुं. संसार (प्रौप)। ४, १)। भंगी स्त्री [भङ्गी] चार प्रकार, 'वरणचउक्केण (श्रा २३)। स्त्री. ता ["ता] पृथिवी, धरणी (ठा ४, १)। चार विभाग (भग )1 भाइया स्त्री चउक्का दे. चतुष्का चौक, चौराहा, जहाँ चउरत न [चतुरन्त] चक्र, पहिया (चेइय [भागिका] चौसठ पल का एक नाप चार रास्ता मिलता हो वह स्थान, चौमुहानी (दे ३४३)। (अणु) । 'मट्टिया स्त्री [ मृत्तिका] कपड़े ३,२ षड् ; गाया १, १, प्रौपः कप्पः अणु; चउरंस वि [चतुरस्र चतुष्कोण, चार के साथ कूटी हुई मिट्टी (निचू १८)। मंड- बृह १; जीव १; सुर १; ६३; भग)। २ कोणवाला (भगः प्राचाः दं १२)। लग न [ मण्डलक] लग्न मण्डप, विवाह- माँगन, प्रांगरण (सुर ३,७२) ।। चउरसा स्त्री [चतुरंसा] छन्द विशेष (पिंग)। मण्डप (सुपा ६३)1°मासिअ देखो चार- चउक्कर दे] कात्तिकेय, शिव का एक पुत्र | चउरय पंदे] चौरा, चतरा, गाँव का म्मासिअ (श्रा ४७)। मुह, 'मुह पु सभा-स्थान (सम १३८ टो)। ["मुख १ ब्रह्मा, विधाता (पउम ११, चउक्कर वि [चतुष्कर ] चार हाथवाला, चउरस्स देखो चउरंस (विसे २७६७)। ७२, २८, ४८)। २ वि. चार मुंहवाला, चतुर्भुज (उत्त ८)। चउरचिंध पु[दे] सातवाहन, राजा शालिचार द्वारवाला (प्रौपा सण)। वग्ग धून | चउकिआ स्त्री [दे. चतुष्किका] प्रांगन, वाहन (दे ३,७)। [°वर्ग] चार वस्तुओं का समुदाय (निचू छोटा चौक (सुर ३, ७२) चउराणण वि [चतुरानन] १ चार मुंहवाला। १५)। वण्ण, वन्न स्त्रीन [पश्चाशत्] चउज्झाइया स्त्री [दे] नाप-विशेष (भग २पु. ब्रह्मा, विधाता (गउड)। चौवन, पचास और चार, ५४ (पि २६५; चउरासी । स्त्री [चतुरशीति संख्या-विशेष, २७३; सम ७२)1°वार वि [द्वार] चार चउड [चोड] देश-विशेष (सम्मत्त ६०)। चउरासी। चौरासी, ८४ (जी ४५सण दरवाजेवाला (गृह) (कुमा)। "विह वि चउद देखो चउ-दस (संबोध २३)। उवाः पउम २०, १०३ सम ६०; कप्प)। [विध] चार प्रकार का (६ ३२; नव ३)। चउद्दह वि [चतुर्दश] चौदहवाँ (प्राकृ ५)। चउरासीइम वि [चतुरशीतितम] चौरावीस स्त्रीन [°विंशति चौबीस, बीस और स्त्री. ही (प्राकृ ५)। सीवाँ, ८४ वां (पउम ८४, १२, कप्प)।चार. २४ (सम ४३; दं १; पि ३४)। चउपंचम वि [चतुष्पश्च] चार या पाँच चउरासीय स्त्रीन [चतुरशीति चौरासी, वीसइ (अप)। स्त्री [विंशति] बीस और (सूम २, २, २१)। 'चउरासीयं तु गणहरा तस्स उत्पन्ना' (पउम चार, चौबीस (पि ४४५) वीसइम वि चउपाडिवय न [चतुष्प्रतिपत् ] चार [विंशतितम] १ चौबीसवाँ (पउम २४, पडवा या परिवा तिथियाँ (पव १०४)। चउरिदिय वि [चतुरिन्द्रिय] त्वक् , जिह्वा, ४०)। २ न. ग्यारह दिनों का लगातार उप- चउपाय पं[चतुष्पाद] एक दिन का उप- नाक और चक्षु इन चार इन्द्रियवाला (जन्तु) वास (भग)। "व्वग्ग देखो वग्ग (माचा | वास (संबोध ५८) (भग ठा १, १; जी १८)। २, २)। 'व्वार पुन [वार] चार बार, | चउप्फल वि [चतुष्फल] चौगुना, 'मद्दल-चउरिमा स्त्री [चतुरिमन् चतुरता, चतुराई, चार दफा (हे १, १७१; कुमा)। "विह वाय चउप्फललोय (सिरि १५७)। चातुर्य, निपुणता (सट्ठि १६)। देखो 'विह (ठा ४, २)। व्वीस देखो चउबोल स्त्रीन [चौबोल] छन्द-विशेष चउरिया) स्त्री [दे] लग्न-मण्डप, मड़वा, 'वीस (सम ४३)1°ब्बीसइम देखो वीस- (पिंग) । स्त्री. ला (पिंग)। चउरी विवाह-मण्डप, गुजराती में चोरी इम (णाया १, १)। सहि स्त्री [°षष्टि] | चउम्मुह पु[चतुर्मुख दो दिन का उपवास, (रंभाः सुपा ५५२)। चौसठ, साठ और चार (सम ७१; कप्प)M बेला (संबोध ५८) चउरुत्तरसय वि [चतुरुत्तरशततम एकसौ "सटिम वि [पष्टितम] चौसठवाँ (पउम | चउर वि [चतुर] १ निपुण, दक्ष, होशियार चारवाँ, १०४ वॉ (पउम १०४, ३५) । For Personal & Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ पाइअसद्दमण्णवो चउवीस-चंडंसु चउवीस वि [चतुर्विंश] चौबीसवाँ (पव चंकम्म अक [चक्रम्य देखो चंकम । वकृ. चंचल्लिअ वि [चश्चलित] चञ्चल किया चंकम्मत, चंकम्ममाण (गा ४६३; ६२३ हुआ, 'मणयारिणलचंचे (? च) ल्लिअकेसराई चउवीसिगा स्त्री [चतुर्विशिका] समय-मान- उप पृ २३:; परह २, ५, कप्प) (विक २६)। विशेष, चौबीस तीर्थकर जितने समय में होते | चंकम्मण देखो चंकमण (णाया १,१- | चंचा स्त्री [चश्चा] १ नरकट की चटाई। हैं उतना काल-एक उत्सपिणी या एक अव- | पत्र ३८)। २ चमरेन्द्र की राजधानी, स्वर्ग-नगरी-विशेष । सपिणी-काल (महानि ४) कम्मिअ देखो चंक्रमिअ (से ११, ६६) ३ घास का पूतला (दीव)। चउवेद वि चतुर्वेद] चारों वेदों का चंकार पुंचकार] च वर्ण, 'च' अक्षर | चंचाल (अप) देखो चंचल (सण)। चउवेय ज्ञाता, चतुर्वेदी, चौबे (धर्मसं (ठा १०)। चंचु स्त्री [चञ्चु] चोंच, पक्षी का ठोर (दे चउव्वेद १२३८, मोह १०) चंग वि [दे. चङ्ग] सुन्दर, मनोहर, रम्य | ३, २३)। चउसट्रिआ स्त्री [चतुःषष्टिका] रसवाली (दे ३, १; उप पृ १२६, सुपा १०६; करु चंचुच्चिय न [दे. चञ्चुरित, चचूञ्चित] चीज तौलने का एक नाप, चार पल का एक ३५; धम्म ६ टो, कप्पूः प्रातः सणः भवि)। माप (अणु १५१)। कुटिल गमन, टेड़ी चाल (प्रौप)। चंग क्रिवि [दे] अच्छा, ठीक (२५)। चउसर वि[दे चौसर, चार सरा (लड़ी)वाला चंगदेव पुं [चङ्गदेव] हेमाचार्य का गृहस्था- चंचुमालइय वि[दे] रोमाञ्चित, पुलकित वस्था का नाम (कुप्र २०)। (कप्पा औप)। (हार आदि) (सुपा ५१०, ५१२)। चंगवेर पुन [दे] काठ का तख्ता (नाचा २, | चंचुय पुं[चकचुक] १ अनार्य देश-विशेष । चउहत्य पु[चतुर्हस्त] श्रीकृष्ण (सुख ६, १)। ४, २, ३) । २ उस देश का निवासी मनुष्य (पएह १,१)। चउहार पु [चतुराहार] चार प्रकार का चंगवेर पुदे] काष्ठ-पात्री, काठ का बना चंचुर वि [चञ्चुर चपल, चंचल (कप्पू)। पाहार, प्रशन, पान, खादिम और स्वादिमः हा छोटा पात्र-विशेष; 'पीहए चंगवेरे ये' चंछ सक [तक्ष ] छिलना । चंछइ (षड्)। 'कंतासिज्जंपि न संछवेमि चउहारपरिहारो' (दस ७)। चंड सक [पि 1 पीसना । चंडइ (षड्)। (सुपा ५७३)। चंगिम पुत्री [दे. चङ्गिमन्] सुन्दरता, चओर पुन [दे] पात्र-विशेष, “भुत्तावसारणे चंड देखो चंद (इक)। सौन्दर्य, श्रेष्ठता, चारुपन (नाट)। स्त्री. मा य प्रायमणवेलाए प्रवणीएसु चोरेसु' (विबे १०० उप पृ १८१, सुपा ५, १२३; चंड वि [चण्ड] १ प्रबल, उग्र, प्रखर, तीव्र (स २५२) २६३)। (कप्प)। २ भयानक, डरावना (उत्त २६; चओर पुत्री [चकोर] पक्षि-विशेष चंगेरी स्त्री [दे] टोकरी, चंगेली, डलिया, औप)। ३ अति क्रोधी, क्रोध-स्वभावी (उत्त चओरग (पएह १, १; सुपा ३७) । १,१० पिंगणाया १,१८)। ४ तेजस्वी, कठारी, तृण आदि का बना पात्र-विशेष चओवचइय वि [चयोपचयिक] वृद्धि- (विसे ७१०; परह १, १)। तेजिल (उप पृ ३२१)। ५ पुं. राक्षस वंश के हानिवाला (उप २५८ टी प्राचा)। एक राजा का नाम (पउम ५, २६४)। चंच देखो चंछ । चंचइ (प्राकृ ६५)। ६ क्रोध, कोप ( उत्त १)। किरण मुं चंकम अक [चक्रम् ] बार बार चलना। चंच पु[चश्च] १ पङ्कप्रभा नरक-पृथिवी ! [किरण] सूर्य, रवि (उप पू ३२१) । २ इधर उधर घूमना। ३ बहुत भटकना । का एक नरकावास (इक)। २ न. देव- कोसिय पुं[कौशिक] एक सर्प, जिसने ४ टेढ़ा चलना। ५ चलना-फिरना। वकृ. विमान-विशेष (इक)। भगवान् महावीर को सताया था (कप्प)। चंकमंत (उप १३० टी ९८६ टी)। हेकृ. चंचपुड पुन [दे] प्राधात, अभिघातः 'खुर- दीव पुं[द्वीप] द्वीप-विशेष (इक )। चंक मिउं (स ३५६)। कृ. चंकमियव्व | वलणचंचपुडेहि धरणिप्रलं अभिहणमाणं' पज्जोअ पुं [प्रद्योत] उज्जयिनी के एक (पि ५५६) । प्राचीन राजा का नाम (प्रावम)। भाणु चंकमण न [चक्रमण] १ इधर उधर चंचप्पर न [दे] असत्य, भूठ, अनृत; 'चंच- पुं[भानु] सूर्य, सूरज (कुम्मा १३) । रुद्द भ्रमण । २ बहुत चलना। ३ बार बार । परं न भरिणमो (दे ३, ४)। पु[रुद्र] प्रकृति-क्रोधी एक जैन प्राचार्य चलना। ४ टेढ़ा चलना । ५ चलना-फिरना। चंचरीअ ' [चश्चरीक भ्रमर, भौंरा (दे | (भाव १७)। वडिंसय पुं गवतंसक] (सम १०६ णाया १, १)। नृप-विशेष (महा) । वाल पु[पाल] नृपचंकमिय वि [चंक्रमित] १ जिसने चंक्रमण | चंचल वि [चञ्चल] १ चपल, चन्चल (कप्पः । विशेष (कप्पू)। सेण पु[सेन] एक या भ्रमण किया हो वह । २-६ ऊपर देखो। चारु १)। २ पुं. रावण के एक सुभट का राजा का नाम (कप्पू)। आलिय न [लीक] (उप ७२८ टी निचू १)। | नाम (पउम ५२, ३६)। क्रोध-वश कहा हुमा भूठ (उत्त १)। - चंकमिर वि [चंक्रमित] चंक्रमण करनेवाला चंचला स्त्री [चश्चला] १ चन्चल स्त्री। २ चंडसु पु [चण्डांशु] सूर्य, सूरज, रवि छन्द-विशेष (पिंग)। (कप्पू)। For Personal & Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंडण-चंद पाइअसद्दमहण्णवो ३१३ चंडण देखो चंदणः 'चंडणं, चंडणो' (प्राकृ | (पउम ५६, २)। ६ राशि-विशेष (भवि)। पव्वय [पर्वत वक्षस्कार पर्वत-विशेष ७ आहादक वस्तु। ८ कपूर । ६ स्वर्ण, (ठा २, ३)1 °पुर न [पुर] वैताब्य पर्वत चंडमा चन्द्रमस् ] चन्द्रमा, चाँद (पिंग)। सोना। १० पानी, जल (हे २, १६४)। पर स्थित एक विद्याधर-नगर (इक)। 'पुरी चंडा स्त्री [चण्डा] १ चमरादि इन्द्रो की ११ एक जैन प्राचार्य (गच्छ ४)। १२ एक स्त्री [पुरी नगरी-विशेष, भगवान् चन्द्रप्रभ मध्यम परिषद् (ठा ३, २, भग ४, १) । २ द्वीप का नाम, द्वीप-विशेष (जीव ३)। १३ की जन्म-भूमि (पउम २०, ३४)। °प्पभ भगवान् वासुपूज्य की शासनदेवी (संति१०)। राधावेध की पुतली का बायां नयन, अखि का वि [प्रभ] १ चन्द्र के तुल्य कान्तिवाला। चंडातक न [चण्डातक] स्त्री का पहनने का गोला (णंदि)। १४ न. देवविमान-विशेष २ पुं. पाठवें जिनदेव का नाम (धर्म २)। ३ वन, चोला, लहँगा (दे ३, १३)। (सम ८)। १५ रुचक पर्वत का एक शिखर चन्द्रकान्त, मरिण-विशेष (पएण १)। ४ एक चंडार पुन [द भएडार, भाण्डागार (कुमा)। (दीव)। अंत देखो कंत (विक्र १३६) । जैन मुनि (दस)। ५ न. देवविमान-विशेष चंडाल पुं[चण्डाल] १ वर्णसंकर जाति उत्त देखो गुत्त (मुद्रा १९८)। °कत पुं (सम ८)। ६ चन्द्र का सिंहासन (गाया २,। विशेष, शूद्र और ब्राह्मणी से उत्पन्न (प्राचाः [कान्त] १ मणि-विशेष (स ३६०)। २ १)। प्पभा स्त्री [प्रभा] १ चन्द्र की एक सूप १, ५) । २ डोम (उत १; अणु)। न. देवविमान-विशेष (सम ८)। ३ वि. चन्द्र अग्र-महिषी (ठा ४,१)। २ मदिरा-विशेष, चंडालिय वि [चाण्डालिक] चण्डाल-संबन्धी, की तरह आहादक (प्रावम)। कंता स्त्री एक जात का दारू (जीव ३)। ३ इस नाम चण्डाल जाति में उत्पन्न (उत्त १)। [कान्ता] १ नगरी-विशेष (उप ६७३) । की एक राज-कन्या (उप १०३१ टी)। ४ चंडाली स्त्री [चण्डाली] १ चण्डाल-जातीय २ एक कुलकर-पुरुष की पत्नी (सम १५०)। इस नाम की एक शिविका, जिसमें बैठकर स्त्री। २ विद्या-विशेष (पउम ७, १४२)। कूड न ['कूट] १ देवविमान विशेष (सम भगवान् शीतलनाथ और महावीर-स्वामी चंडिअ विदे] कृत, छिन्न, काटा हुपा ( दे ८)। २ रुचक पर्वत का एक शिखर (ठा ८) दीक्षा के लिए बाहर निकले थे (प्रावम)। गुत्त [गुप्त मौर्यवंश का एक स्वनाम- प्पह देखो पभ (कप्प; सम ४३)। भागा चंडिक्क पुन [दे. चाण्डिक्य] रोष, गुस्सा, विख्यात राजा (विसे ८६२)। चार पुं स्त्री [भागा] एक नदी (ठा ५, ३)। क्रोध, रौद्रता (दे ३, २; षड्; सम ७१)। [चार चन्द्र की गति (चंद १०)। चूड, मंडल पुंन [°मण्डल] १ चन्द्र का मण्डल, चंडिक्किअ वि [दे. चाण्डिक्यित] १ रोष °चूल [चूड] विद्याधर वंश का एक चन्द्र का विमान (जं ७; भग)। २ चन्द्र का युक्त, रौद्राकारवाला, भयंकर (णाया १, १; स्वनाम प्रसिद्ध राजा (पउम ५, ४५; दस)। बिम्ब (पएह १,४)। मग्ग पुं[मार्ग] १ पएह २, २, भग ७, ८ उवा)। °च्छाय पुं[च्छाय] अंग देश का एक चन्द्र का मण्डल-गति से परिभ्रमण । २ चन्द्र चंडिज्ज [दे] कोप, क्रोध, गुस्सा । २ वि. राजा, जिसने भगवान् मल्लिनाथ के साथ दीक्षा का मण्डल (सुज ११)। मणि पुं[मणि] पिशुन, खल, दुर्जन (दे ३, २०)। ली थी (णाया १,८)। जसा स्त्री [यशस्] चन्द्रकान्त, मरिण-विशेष (विक्र १२६ )। चंडिम पुंस्त्री चण्डिमन्] चण्डता, प्रचण्डता एक कुलकर पुरुष की पत्नी (सम १५०)। माला स्त्री[माला] १ चन्द्राकार हार, चन्द्र(सुपा ६६) झय न [ध्वज देवविमान-विशेष (सम हार । २ छन्द-विशेष (पिंग)1°मालिया स्त्री चंडिया स्त्री [चण्डिका] देखो चंडी (स ८)1 °णक्खा स्त्री [नखा] रावण की ["मालिका] वही पूर्वोक्त अर्थ (ोप) । २६२; नाट)। बहिन का नाम (पउम १०, १८)। णह पुं मुही स्त्री [°मुखी] १ चन्द्र के समान चंडिल वि [दे] पीन, पुष्ट (दे ३, ३)। [ नख] रावण का एक सुभट (पउम ५६, ग्राह्लादक मुखवाली स्त्री। २ सीता-पुत्र कुश चंडिल [चण्डिल] हजाम, नापित (दे ३, ३१)। णही देखो °णक्खा (पउम ७,६८)। की पत्नी (पउम १०६, १२)। रह २ पाम गा २६१ अ)। °णागरी स्त्री [ नागरी] जैन मुनि-गण की [रथ] विद्याधर वंश का एक राजा (पउम चंडी स्त्री [चण्डी] १ क्रोध-युक्त स्त्री, एक शाखा (कप्प)। दरिसणिया स्त्री ५, १५, ४४)। "रिसि पुं ऋषि] एक कर्कशा और उग्र स्त्री (गा ६०८)। २ पार्वती, [दर्शनिका] उत्सव-विशेष, बच्चे के पहली जैन ग्रन्थकार मुनि (पंच ५)। लेस न गौरी, शिव-पत्नी (पान)। ३ वनस्पति- बार के चन्द्र-दर्शन के उपलक्ष्य में किया जाता [ लेश्य देवविमान-विशेष (सम ८)। लेहा विशेष (पराग १) देवग वि [देवक] उत्सव (राज)। दिण न [दिन] प्रति- स्त्री [°लेखा] १ चन्द्र की रेखा, चन्द्रकला । चण्डी का भक्त (सूअनि ६०)। पदादि तिथि (पंच ५)। दीव पुं[द्वीप] २ एक राज-पत्नी (ती १०)। वडिंसग न चंद पुं[चन्द्र] १ चन्द्र, चन्द्रमा, चाद (ठा द्वीप-विशेष (जीव ३)। द्ध न [1] प्राधा [वितंसक] १ चन्द्र के विमान का नाम -२, ३, प्रासू १३, ५५, पान)। २ नृप-विशेष चन्द्र, अष्टमी तिथि का चन्द्र (जीव ३)। (चंद १८)। २ देखो चंडवडिंसग (उत्त (उप ७२८ टी)। ३ रामचन्द्र, दाशरथी राम पडिमा स्त्री [प्रतिमा] तप-विशेष (ठा २, १३)। वण्ण न [°वर्ण] एक देवविमान (से १, ३४)। ४ राम के एक सुभट का नाम ३)। पन्नत्ति स्त्री [ प्रज्ञप्ति] एक जैन | (सम ८)। वयण वि [वदन] १ चन्द्र (पउम ५६, ३८)। ५ रावण का एक सुभट | उपाङ्ग ग्रन्थ (ठा २,१-पत्र १२६) के तुल्य पाहादजनक मुंहवाला । २ पुं. For Personal & Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ विमाण राक्षस-वंश का एक राजा, एक लंकापति ( पउम ५, २६६) । त्रिकंप पुंन ["विक्रम्प ] चन्द्र का विकम्प-क्षेत्र (जो १० ) । न [विमान ] चन्द्र का विमान (जं ७ ) । 'विलासि वि [ विलासिन् ] चन्द्र के तुल्य मनोहर (राय) । वेग पुं ['वेग] एक विद्याधर- नरेश (महा) । संवच्छर पुं [ संवत्सर ] वर्ष विशेष, चान्द्र मासों से निष्पन्न संवत्सर (चंद १० ) । साला स्त्री [शाला ] अट्टालिका, अटारी (दे ३, ६) ४ सालिया स्त्री [शालिका ] अट्टालिका ( गाया १, १ ) । सिंग न [शृङ्ग] देवविमान विशेष (सम ८ ) 1 सिटून [शिष्ट ] एक देवविमान (सम ८) । सिरी स्त्री [श्री] द्वितीय कुलकर पुरुष की माँ का नाम ( श्राचू १) । सिहर [शिखर ] विद्याधर वंश का एक राजा ( पउम ५, ४३) । सूरसावणिया, सुरपासणिया स्त्री [सूरदर्शनिका] बालक का जन्म होने पर तीसरे दिन उसको कराया जाता चन्द्र और सूर्य का दर्शन और उसके उपलक्ष्य में किया जाता उत्सव (भग ११, ११ विपा १, २) । सृरि पुं ["सूरि] स्वनामविख्यात एक जैन आचार्य (सण) 1 सेण [सेन] १ भगवान् आदिनाथ का एक पुत्र । २ एक विद्याधर राज कुमार (महा) | °सेहर [शेखर ] १ भूप - विशेष ( ती ३८ ) । २ महादेव, शिव ( पि ३६५ ) । हास पु ['हास] खड्गविशेष, तलवार से १४, ५२; गउड) । चंदपु [चन्द्र] संवत्सर-विशेष, जिसमें अधि मास न हो वह वर्षं (सुज्ज ११) । उडु पु [ऋतु] कुछ अधिक उनसठ दिनों की एक ऋतु (सुज १२) । परिवेस पु [परिवेष ] चन्द्र-परिधि ( प्र १२० ) । पहा स्त्री [प्रभा] देखो चद- पभा (विचार १२६; कुप्र ४५३ ) । वदी स्त्री [विती ] एक नगरी (मोह ८८) । चंद वि[चान्द्र ] चन्द्र-संबन्धी (चंद १२) । "कुल न [°कुल] जैन मुनियों का एक कुल ( गच्छ ४) । चंदअ देखो चंद = चन्द्र (हे २, १६४ ) | चंदइल्ल पु [दे] मयूर, मोर (दे ३, ५) । पाइअसद्दमहणवो चंदंक पु [चन्द्राक] विद्याधर वंश का एक स्वनाम - प्रसिद्ध राजा (पउम ५, ४३ ) । चंदग [चन्द्रक] देखो चंद । विज्झ, " लद्ध ['वेध्य] राधावेध 'चंदगविज्ॐ केवलसरिसं समाउपरिहीणं (संथा १२२; निचू ११) । चंदट्ठिआ स्त्री [दे] १ भुज, शिखर, कन्धा । २ गुच्छा, स्तबक (दे ३, ६) । चंदण पुं [ चन्दन] १ एक देवविमान (देवेन्द्र १४३) । २ रत्न की एक जाति (उत्त ३६, ७७) । ३ पुं. द्वन्द्रिय जीव-विशेष, प्रक्ष का जीव ( उत्त ३६, १३० ) । चंद पुंन [चन्दन] १ सुगन्धित वृक्ष-विशेष चन्दन का पेड़ (प्रासू ६) । २ न. सुर्गान्धित काष्ठ-विशेष, चन्दन की लकड़ी (भग ११, ११ हे २, १५२ ) । ३ घिसा हुआ चन्दन (कुमा) । ४ छन्द-विशेष (पिंग ) । ५ रुचक पर्वत का एक शिखर (जं) । कलस पुं [ कलश ] चन्दन-चर्चित कुम्भ, माङ्गलिक घट (प) । 'घड पुं [घट] मंगलघड़ा ( जीव ३) । बाला स्त्री [बाला] एक साध्वी स्त्री, भगवान् महावीर की प्रथम शिष्या (पडि ) । वइ पुं [पति ] स्वनाम - ख्यात एक राजा ( उप १८६ टी) । चंदणग पुंन [चन्दनक] १ ऊपर देखो । २ पं. द्वीन्द्रियजन्तु विशेष, जिसके कलेवर को जैन साधु लोग स्थापनाचार्य में रखते हैं (परह १, १३ जी १५) । चंदणी [चन्दना] भगवान् महावीर की प्रथम शिष्या, चन्दनवाला (सम १५२ कप्प ) । चंदणि स्त्री [दे] श्राचमन, कुल्ला। 'उयय न [° उदक] कुल्ला फेंकने की जगह ( श्राचा २, १, ६, २) । चंदणी स्त्री [दे] चन्द्र को पत्नी, रोहिणी; 'चंदो विय चंदणीजोगो' (महा) चंद [चन्द्रम] चन्द्रमा, चाँद (भग) । चंदरुद्द देखो चंड-रुद्द (पंचा ११,३५) चंदवडाया स्त्री [दे] जिसका प्राधा शरीर ढका और भाषा नंगा हो ऐसी स्त्री (दे ३,७) । [चन्द्रा] चन्द्र-द्वीप की राजधानी चंदा ( जीव ३) । For Personal & Private Use Only चंद-चंदिमाइय चंदाअव पुं [चन्द्रातप] ज्योत्स्ना, चन्द्रिका, चन्द्र की प्रभा, चाँदनी ( से १, २७) । देखो चंदायय । चंदाणण पुं [ चन्द्रानन] ऐखत क्षेत्र के प्रथम जिनदेव (सम १५३ ) । चंदाणणा स्त्री [चन्द्रानना] १ चन्द्र के तुल्य प्रह्लाद उत्पन्न करनेवाली, चन्द्रमुखी । २ शाश्वती जिन-प्रतिमा विशेष (ठा १, १) । चंदाभ वि [चन्द्राभ] १ चन्द्र के तुल्य श्राहाद जनक । २ पुं. प्राठवाँ जिनदेव, चन्द्रप्रभ स्वामी ( २ ) । ३ इस नाम का एक राज कुमार ( पउम ३, ५५) । ४ न. एक देवविमान (सम १४ ) । चंद्रायण न [ चान्द्रायण] तप-विशेष, जिसमें चन्द्रमा के घटने-बढ़ने के अनुसार भोजन के कौर घटने-बढ़ाने पड़ते हैं (पंचा १९) । चंदायण न [ चन्द्रायण ] चन्द्र का छः छः मास पर दक्षिण और उत्तर दिशा में गमन (जो ११) । चंदायय देखो चंदाअव । १ आच्छादनविशेष, वितान, चंदवा (सुर ३, ७२ ) । चंदाला न [दे] ताम्र का भाजन- विशेष (सूम १, ४, २) । चंद्रावत न [ चन्द्रावर्त्त ] एक देवविमान (सम ८ ) । चंदाविज्भय देखो चंदग विज्झ (दि) । चंदिवि [चान्द्रिक ] चन्द्रका चन्द्र-संबन्धी ( पव १४१) । - चंदिआ स्त्री [चन्द्रिका ] चाँदनी, चन्द्र की प्रभा, ज्योत्स्ना (से ५.२; गा ७७)। चंदिकोज्जलीय वि [दे. चन्द्रिकोज्ज्वलित ] चन्द्र-कान्ति से उज्वल बना हुआ (चंद ) 1. चंदिण न [दे] चन्द्रिका, चन्द्रप्रभाः 'मेहारण दारणं चंदारण, चंदिणं तरुवराग फलनिवहो । सप्पु रिसा विढत्तं, सामन्नं सयललोभाणं ।।' (श्रा १० ) । चंदिम देखो चंदम (पः कप्प) । २ एक जैन मुनि ( अनु २ ) । चंदिमा स्त्री [चन्द्रिका ] चन्द्र की प्रभा, ज्योत्स्ना, चाँदनी (हे १, १८५ ) । चंदिमाइय न [चान्द्रिक ] 'ज्ञाता में कथा सूत्र का एक अध्ययन (राज) । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदिल-चक्कल पाइअसद्दमहण्णवो ३१५ चंदिल पुं[चन्दिल] नापित, हजाम (गा| न [वन] चम्पक वृक्षों की प्रधानतावाला चक्रवर्ती राजा (सण)। पाणि पुं["पाणि] २६१; दे ३, २) । वन (भग)। १ चक्रवर्ती राजा, सम्राट् । २ वासुदेव, अर्धचंदुत्तरवडिंसग न [चन्द्रोत्तरावतंसक] चंपयवडिसय [चम्पकावतंसक] सौधर्म | चक्रवर्ती राजा (पउम ७३, ३)। पुरा, एक देवविमान (सम ८)। देवलोक में स्थित एक विमान (राय ५६)। "पुरी स्त्री [पुरी] विदेह वर्ष की एक नगरी चंदेरी स्त्री [दे] नगरी-विशेष (ती ४५)। चंपा स्त्री [चम्पा] अंग देश की राजधानी, | (ठा २,३; इक) 1 °प्पहु देखो पहु (सण)* चंदोज । न [दे] कुमुद, चन्द्र-विकासी नगरी-विशेष, जिसको आजकल 'भागलपुर यर पुं[चर] भिक्षुक, भीखमंगा (उप चंदोजय । कमल (दे ३, ४)। कहते हैं (विपा १, १; कप्प) पुरी स्त्री ६१७)। रयण न [रत्न] प्रस्त्र-विशेष, चंदोत्तरण न [चन्द्रोत्तरण] कौशाम्बी नगरी [पुरी] वही अर्थ (पउम ८, १५६)। चक्रवर्ती राजा का मुख्य प्रायुध (पएह १,४) ।। का एक उद्यान (विपा १, ५-पत्र ६०)। चंपा स्त्री. देखो चंपय । कुसुमन [°कुसुम] 'वइ पुं[पति] सम्राट् (पिंग) । वइ, चंदोयर [चन्द्रोदर] एक राज-कुमार चम्पा का फूल (राय)।वण्ण वि [वर्ण] 'वट्टि पुं [वर्तिन् ] छः खण्ड भूमि का चम्पा के फूल के तुल्य रंगवाला, सुवर्ण-वर्ण। अधिपति राजा, सम्राट् (पिंगः सण ठा ३, चंदोवग न चिन्द्रोपा] संन्यासी का एक स्त्री. ण्णी (अप) (हे ४, ३३०)। १; पडि प्रासू १७५) । वट्टित्त न उपकरण (ठा ४, २)। चंपारण (अप) पुं [चम्पारण्य] १ देश [वर्तित्व] सम्राटपन, साम्राज्य (सुर ४, चंदोवराग पुं[चन्द्रोपराग] चन्द्र-ग्रहण, विशेष, चंपारन, तिरहुत कमिश्नरी (विहार) का ११)। वत्ति देखो वट्टि (पि २८९)/ चन्द्रमा का ग्रहण, राहु-ग्रास (ठा १०; भग एक जिला। २ चंपारन का निवासी (पिंग)। "विजय पुं[विजय] चक्रवर्ती राजा से जीतने योग्य क्षेत्र विशेष (ठा ८)। "साला चंपिअ वि [दे] चाँपा हुआ, दबाया हुआ, चंद्र देखो चंद (हे २, ८०; कुमा)। स्त्री [शाला] वह मकान, जहाँ तिल पेरा मर्दित (सुपा १३७ १३८)। जाता हो, तैलिक गृह (वव १०)। सुह पु चंप सक [दे] चाँपना, दाबना, दबाना। चंपिअन [दे] आक्रमण, दबाव (तंदु ४४)। [ शुभ, सुख देव-विशेष, मानुषोत्तर पर्वत चंपइ (पारा २५) । कर्म. चंपिजइ (हे ४, चंपिजिया स्त्री [चम्पीया] जैन मुनिगण का अधिपति देव (दीव)1°सेणपु[सेन] ३९५)। की एक शाखा (कप्प)। स्वनाम-ख्यात एक राजा (दस) हर पुं चंप सक [चर्च 1 चर्चा करना। चंपइ चंभ [दे] हल से विदारित भूमि-रेखा (दे | [धर] १ चक्रवर्ती राजा, सम्राट् (सम (प्राप्र) । संकृ. चंपिऊण (वजा ६४)। ३,१)। १२६ पउम २, ८५ ४, ३६; कप्प)। २ चंप सक [आ+रुह.] चढ़ना। चंपा चकप्पा स्त्री [दे] त्वक् , त्वचा, चमड़ी (दे | वासुदेव, अर्ध-चक्री राजा (राज)। (प्राकृ ७३)। | चकिद देखो चइद (कुमा)। चक्क न [चक्र] एक देवविमान (देवेन्द्र १३३)चंप देखो चंपय (राय ३०)। चकोर पुंस्त्री [चकोर] पक्षि-विशेष, चकोर चक्कआअ देखो चक्कवाय (पि ८२) । चंपग पुन [चम्पक] एक देवविमान (देवेन्द्र पक्षी (सुपा ४५७) 1 स्त्री. रा (रयण ४६) चक्कंग ' [चक्राङ्ग] पक्षि-विशेष (सुपा ३४)। चक्क पुं [चक्र] १ पक्षि-विशेष, चक्रवाक चंपग देखो चंपयः 'असुइट्टाणे पडिया, चंपग चक्कणभय न [दे] नारंगी का फल (द ३, पक्षि (पान कुमा; सरण); 'तो हरिसपुलइयंगो माला न कीरइ सीसे' (प्राव ३)। चक्को इव दिट्ठउग्गयपयंगो' (उप ७२८ टी)। चंपडण न [दे] प्रहार, आघातः 'सरभसचलं | चक्कणाय न [दे] ऊमि, तरङ्ग, कल्लोल (दे २ न. गाड़ी का पहिया (पएह १, १)। ३ तविअडगुडिअगंधसिंधुरणिवहवलणचंपडणस- समूह (सुपा १५०; कुमा)। ४ अन-विशेष मुप्पइया......धूलीजालोली' (विक्र ८४)। (पउम ७२, ३१, कुमा) । ५ चक्राकार चक्कम 1 अक [भ्रम् ] घूमना, भटकना, चकम्म भ्रमण करना । चक्कमइ (दे २, चंपण न [दे] चॉपना, दबाना (उप १३७ प्राभूषण, मस्तक का प्राभरण-विशेष (प्रौप)। ६)। चक्कम्मइ (हे ४, १६१) । वकृ. टी)।६ व्यूह-विशेष, सैन्य की चक्राकार रचना चकमंत (स ६१०)।चंपय पुं[चंपक १ वृक्ष-विशेष, चम्पा का विशेष (णाया १, १; प्रौप) । कंत पुं चक्कम्मविअ वि [भ्रमित] घुमाया हुआ, पेड़ (स १५२; भग)। २ देव-विशेष (जीव [कान्त] देव-विशेष, स्वयंभूरमण समुद्र का | अधिष्ठाता देव (दीव)1°जोहि ["योधिन्] ३) । ३ न. चम्पा का फूल (कुमा)। 'माला फिराया हुमा (कुमा)। स्त्री [माला] १ छन्द-विशेष (पिंग)। २ १ चक्र से लड़नेवाला योद्धा (ठा )२ चक्कय देखो चक्क (परण १)। चम्पा के फूलों का हार (प्राव ३) । लया वासुदेव, तीन खंड पृथिवी का राजा (भाव | चक्कल न [दे] कुण्डल, कर्ण का आभूषण । स्त्री [लता] १ लताकार चम्पक वृक्ष । २ १) उभय पुं[ध्वज चक्र के निशान- २ दोलाफलक, हिंडोला का पटिया (दे ३, चम्पक वृक्ष की शाखा (जं १, औप)। वण वाली ध्वजा (जं १)। पहु पुं[प्रभु] २०)। ३ वि. वत्तुल, गोलाकार पदार्थ (दे। For Personal & Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ३, २०; भवि वजा ६४ प्रवमः षड् )। ४ विशाल, विस्ती (दे १२० चक्कलि वि [] चक्राकार किया हुआ (से ११,६८३०४ गउड) भिण्ण वि [[भिन्न] गोलाकार खएड, गोल टुकड़ा (बृह १) चकवाई [चक्रवाकी] चक्रशक-पक्षी का मादा, चकवी, चकई ( रंभा ) । चक्रवा) [ चक्रवाक] पति-विशेष. चक्कत्राय ahar (गाया १, १, परह १, १३ स ३३७ कप्पू; स्वप्न ५१ ) । चक्कवाल न [ चक्रवाल] १ चक्राकार भ्रमण, 'इज न पडवाले' (पुष्क १००)। २ मण्डल, चक्राकार पदार्थ, गोल वस्तु (परण ३६: श्रपः खाया १, १६) । ३ गोल जलाशय, 'संसारचक्कवाले' ( पच ५२ ) । ४ गोल जल समूह, जल राशि; 'जह खुहियचक्कवाले पोयं रयणभरियंसमुद्दम्मि । निजामगा धरिती' ( पच्च ७९ ) । ५ श्रावश्यक कार्य, नित्य कर्म (पंचव ४) ६ समूह, राशि, ढेर ( भाउ) । ७ पुं. पर्वत-विशेष (ठा १० ) । विक्खंभ ["विक्रम्] चक्राकार घेरा, गोल परिधि (भग; ठा २, ३) सामावारी स्त्री ["सामाचारों] नित्यकर्म विशेष (४) चकवाला स्त्री [चक्रवाला ] गोल पंक्ति, चक्राकार श्रेणी (ठा ७) । चक्काअ देखो चकवाय (हे १,८) चक्काग न [ चक्रक] चक्राकार वस्तु, 'चक्कागं मंजस रामो गोद ल पि १६७) । चकार [चकार] रातव वंश का एक राजा, एक लंकापति ( पउम ५, २६३) । बद्ध न [ब] शकट, गाड़ी (दस ५, १) । चक्काय पुन. देखो चक्कवाय 'मिलियाई वाया (७६८ ) I चक्काह पुं [ चक्राभ] सोलहवें जिन देव का प्रथम शिष्य (सम १५२ ) चाय [चकाधिप ] चक्रवर्ती राजा, पुं साद (सण) । चादिव (सरण) 1 [काधिपति] ऊपर देखो पारसमणी चकि वि [ चक्रिन, चक्रिक ] १ चक्रचक्किय वाला, } चक्र-विशिष्ट । २ पुं. चक्रवर्ती राजा, सम्राट् (सण) । ३ तेली ४ कुम्भार ( कप औप: गाया १, १ ) । 'साला स्त्री [शाली ] तेल बेचने की दुकान (वव ९) [च] यभीत 'गंभीरसमा दुराया धनविरुवा (उत्त ११) । दुप्पसिया चक्किय पुं [चाक्रिक] १ चक्र से लड़नेवाला योद्धा । २ भिक्षुक की एक जाति (श्रीप गाया १, १ ) । चक्किया कि [ शक्नुयात् ] सके, कर सके, समर्थ हो सके ( कप कमपि ४६५) चक्की स्त्री [चक्रः ] छन्द - विशेष (पिंग) । चक्कुलंडा स्त्री [दे] सधैं की एक जाति (दे ३, ५) । चक्केसर पुं [चक्रेश्वर ] १ चक्रवर्ती राजा (भवि ) २ विक्रम की तेरहवीं शताब्दी का एक जैन ग्रन्थकार मुनि (राज) । चक्केसरी स्त्री [चक्रेश्वरी ] १ भगवान् श्रादिनाथ की शासनदेवी (संति ९ ) । २ एक विद्या देवी (संति ५) । [दे] भग्नि-नेद, पति-विशेष (दे ३,२) । चक्ख (प) सक [ आ + चक्षू ] कहना । चक्ख ( प्राकृ ११९ ) 1 चक्ख सक [ आ + स्वादय् ] चीखना, स्वाद लेना । चक्खइ (पि वकृ. चक्खंत (गा १७१ ) । चक्न चक्खं अंत (२०२) संह चक्खिऊण (से १३, ३९) । हेकृ. चक्खिउं चखना, २०२ ) । कवकृ. ( वज्जा ४६ ) । चक्खडिअ न [दे] जीवितव्य, २, ६) । चक्खण न जीवन दे [आस्वादन] आस्वादन, चीखना ( उप पृ २५२ ) । चक्खिन वि [अस्वादित] पास्वादित, भीखा चक्खिअ वि [अस्वादित] प्रास्वादित, चीखा हुआ (हे ४, २५८; गा ६०३: वज्जा ४६ ) । चक्विंदिय न [चक्षुरिन्द्रिय] मयनेन्द्रिय, आँख, चक्षु (उत्त २६, ६३) । For Personal & Private Use Only कलि-चगोर [च] १, नेप चक्षु (हे १, ३३, सुर ३, १५३३ सम १ ) । २ पुं. इस नाम का एक कुलकर पुरुष ( पउम २४३) ३ न देखो नीचे सण (कम्म ३, १७; ४, ६ ) । ४ ज्ञान, बोध (ठा ३, ४) दर्शन वोन (माचा [का] देव-विशेष, कुण्डलोद समुद्र का श्रधिष्ठाता देव ( जीव ३) | कंता स्त्री [ कान्ता ] एक कुलकर पुरुष की पत्नी (खम १५०) सन ["देशन] चक्षु से वस्तु का सामान्य ज्ञान (सम १५ ) । "सडिया श्री ["दर्शनप्रतिज्ञा] पाल से देखने का नियम, नयनेन्द्रिय का संयम युक्त ( १ २ २ ) । देव वि [देव] ज्ञानदाता (सन १ पडि) पहिलेहा त्रो [प्रतिलेख] पांख से देखना (निन्द्र १) । परिमाण न [परिज्ञान] रूप-विषयक ज्ञान, आँख से होनेवाला ज्ञान (प्राचा) | पह पुं [पथ ] नेत्र मार्ग, नयन-गोचर ( परह १३) फाल [स्पर्श] दर्शन, भव लोकन ( प ) । 'भीय वि [भीत ] अवलोकन मात्र से ही डरा हुप्रा (प्राचा) । "म, संत [िमन] १ (वि) २. एक का नाम (सम १५० ) । 'लोल वि ['लोल] देखने का शौकीन, जिसकी नयनेन्द्रिय संयत न हो यह (स)। लोलुप [प] वही पूर्वोक्त श्रर्थं ( कस) । लोयणलेस्स वि [लोकनलेश्य ] सुरूप, सुन्दर रूपवाला (रायः जीव ३) वित्तिय वि [वृत्तिहत] दृष्टि से परिचित (पत्र स [श्रवस् ] सर्प, साँप ( स ३३४) । चक्खुड्डुण न [दे] प्रेक्षणक, तमाशा दे २,४) । चर देखी 'चक्खुस (श्रावम) चक्खुरक्खगी स्त्री [दे] लज्जा, शरम (दे १, ७) । चक्खुस वि [ चाक्षुष] प्राँख से देखने योग्य वस्तु, नयन- प्राह्म (परह १, १ विसे ३३११) । चक्खुहर वि [चक्षुर्हर] दर्शनीय (राय १०२) । चगोर देखो चुओर ( प्रारू) । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चच्च-चडुलग पाइअसद्दमण्णवो चच्च सक [चर्च ] चन्दन आदि का विलेपन | चञ्चिय वि[चर्चित विलिप्त (चेइय ८४५)। चडचडचड अक [चडचडाय ] 'चडकरना । चच्चेई (धर्मवि १५)। चच्चुप्प सक [अर्पय् ] अर्पण करना, चड' आवाज करना। चडचडचडंति (विपा चञ्च पुं[चर्च] हेमाचार्य के पिता का नाम | देना । चच्चुप्पइ (हे ४, ३६)। (कुप्र २०)। चच्छ सक [तक्ष ] छिलना, काटना। चडड पुं[चटट] ध्वनि-विशेष, बिजली के गिरने की आवाज (सुर २, ११०)। चश्च पुं[चर्च] समालम्भन, चन्दन वगैरह चच्छइ (हे ४, १९४)। का शरीर में उपलेप (दे ६, ७६)। चच्छिअ वि [तष्ट] छिला हुमा (कुमा)। चडण न [आरोहण] चढ़ना, ऊपर बैठना चच्चर न [चत्वर] चौहट्टा, चौरास्ता, चौराहा, चज सक [दृश ] देखना, अवलोकन (था १४ प्रासू १०१, उप ७२८ टी; पोष करना । चज्जइ (दे ३, ४ षड्)। ३०; सट्ठि १४२; वज्जा ५४)।। चौक (णाया १,१; पएह १,३; सुर १,६२, चज्जा स्त्री [चयों] १ आचरण, वर्तन । २ चडपड अक [दे] चटपटाना, छटपटाना, (हे २, १२ कुमा)। चलन, गमन । ३ परिभाषा, संकेत (विसे क्लेश पाना। वकृ. चडपडंत (मुद्रा ७२)। चच्चरिअ पुंदे. चञ्चरीक] भ्रमर, भौंरा | २०४४)। चडय पुंस्त्री [चटक पक्षि-विशेष, गौरैया (षड्)। चन्जिय वि [दृष्ट] अवलोकित, देखा हुआ | पक्षी (द २,१०७) । स्त्री. या (दे ८, ३६)। चच्चरिया श्री [चर्चरिका] १ नृत्य-विशेष (महा)। चडवेला स्त्री देखो चवेडा (पण्ह १, ३(रंभा)। २ देखो चञ्चरी (स ३०७)। चटुअ देखो चटुअ (गा १६२)। पत्र ५३)। चच्चरी स्त्री [चर्चरी] १ गीत-विशेष, एक चट सक[दे चाटना, अवलेह करना; 'न चडावण न [आरोहण] चढ़ना (उप १५२)।. प्रकार का गाना 'वित्थरियचचरीरवमुहरियउ- य अलोणियं सिलं कोइ चट्टेई (महा)। चडाविय वि [आरोहित] चढ़ाया हुआ, जाणभूभागे' (सुर ३,५४); 'पारंभियचच्चरी- चट्ट पुन [दे] १ भूख, बुभुक्षा; 'जीवंति ऊपर स्थापितः 'रणखंभउरजिगहरे चडाविया गोया' (सुपा ५५)। २ गानेवाली टोली, उदहिपडिया, चट् टुच्छिन्ना न जीवंति' (सूक्त करण्यमयकलसा' (मुरिण १०६०१ सुर १३, गानेवालों का यूथः ‘पवत्तें मयणमहूसवे ७०)। २ पुं. चट्टा, विद्यार्थी । साला स्त्री ३६: महा)। निग्गयासु विचित्तवेसासु नयरचच्चरीसु', 'कहं [शाला] चटशाला, चटसार, छोटे बालकों चडाविय वि [दे] प्रेषित, भेजा हुआ; नीयचच्चरी अम्हाण चच्चरीए समासन्न की पाठशाला (बृह १)। 'चाउद्दिसिपि तेणं चडावियं साहणं तत्रा परिव्वयई' (स ४२)। ३ छन्द-विशेष चट्ट वि [चट्टिन] चाटनेवाला (कप्पू)। सोवि' (सुपा ३६५)। (पिंग)। ४ हाथ की ताली की आवाज (प्राव १) चट्ठ पु[दे] दारु-हस्त, राठ की चडिअ वि [आरूढ] चढ़ा हुआ, पारूढ़ चटटुअ कलछी, परोसने का पात्र-विशेष (सुपा १३७; १५३, १५६; हे ४, ४४५)। चञ्चसा स्त्री [दे] वाद्य-विशेष, ‘पटुसयं चच्च चडिआर पुं [दे] पाटोप, आडम्बर (दे सारणं, अट्ठसयं चच्चसावायगाणं' (राय)। चटुल - (दे ३, १, गा १६२ अ)। चच्चा स्त्री [दे] १ शरीर पर सुगन्धि पदार्थ चड सक [आ + रुह ] चढ़ना, ऊपर चडु पुं [चटु] १ प्रिय वचन, प्रिय वाक्य । का लगाना, विलेपन (द ३, १६ पायः जं बैठना, आरूढ़ होना । चडइ (हे ४, २०६)। २ व्रती का एक प्रासन । ३ उदर, पेट । ४ १; रणाया १, १, राय)। २ तल-प्रहार, संकृ. चडिउं, चडिऊण (सुपा ११४कुमा)। पून. प्रिय संभाषण, खुशामद (हे १, ६७ हाथ की ताली ( दे ३, १६ षड् )।चड पु[दे] शिखा, चोटी (दे ३, १)। प्राप्र) आर वि [ कार] खुशामद करनेचञ्चार सक [उपा + लभ ] उपालम्भ देना, चडक्क पून [दे] १ चटत्कार, चटका (हे वाला, खुशामदी (पएह १, ३)। आरअ उलाहना देना । चच्चारइ (षड्)। ४, ४०६, भवि)। २ शस्त्र-विशेष (पउम वि [ कारक खुशामदी (गा ६०५)। चञ्चिक्क वि [दे] १ मण्डित, विभूषितः चडुकारि वि [चटुकारिन्] खुशामदी (पिंड 'चंदुज्जयचच्चिक्का दिसाउ' (दे ३, ४); चडकारि वि [चटत्कारिन] 'चटत्' शब्द ४१४)। 'तणुप्पहापडलचच्चिक्को (धम्म ६ टी); करनेवाला (पवन प्रादि) (गउड)। चडुत्तरिया स्त्री [दे] १ उतरचढ़। २ 'साहू गुणरयणचच्चिक्का' (चउ ३६)।२ चडग देखो चडय (पएण १)। वाद-विवाद (मोह ७)। पुन. विलेपन; चन्दनादि सुगन्धि वस्तु का चडगर पुं[दे] १ समूह, यूथ, जत्था (पउम चडुयारि देखो चड़ कारि (पिंड ४८९)। शरीर पर मसलना (हे २, ७४); 'चचिक्को' ६०,१५; रणाया १, १-पत्र ४६)। २ चडुल वि [टुल] १ चंचल, चपल (से २, (षड् ); 'कुकुंमचच्चिकछुरियगो' (पउम आडम्बर, आटोप; 'महया चडगरत्तणेणं । ४५; पउम ४२, १६) । २ कंपवाला, हिलता २८, २८ टी); 'पेच्छइ सुवन्नकलसं सुरचंदण- प्रत्यकहा हणई' (दसनि ३)। हमा (से १, ५२)। पंकचचिक्क' (उप ७६८ टी); 'घणलेहिद- चडचड पु[चडचड] 'चडचिड' आवाज चडलग वि [दे. चटुलक] खण्ड-खण्ड किया पंकचच्चिको (मृच्छ ११०)। (विपा १, ६)। हुआ, 'विदुलगचडुलगछिन्ने (सूनि ७१)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ चडुला श्री [ दे ] रत्न - तिलक, सोने की मेखला में लटकता हुआ रत्न-निर्मित तिलक (दे ३, ८) । चडुलातिलय न [ दे ] ऊपर देखो (दे ३, ८) । चडुलिया स्त्री [ दे ] अन्त भाग में जला हुआ पास का पूला पास की घाँटी (रादि)। चड सक [मृद्] मर्दन करना, मसलना । (हे ४, १२६) प्रयो. चाव (सुपा ३३१) । चड्ड सक [ पिष्] पीसना । चहुइ (हे ४, १८५) । A चड्ड सक [ भुज् ] भोजन करना, खाना । चहुइ (हे ४, ११० ) 1 चडून [दे] तेल-या, जिसमें दीपक किया जाता है गुजराती में 'बाई' (सुपा ६२० बृह १) । चण [भोजन] १ भोजन खाना। २ खाने की वस्तु, खाद्य सामग्री (कुमा) । चङ्गावी श्री [चट्टावली ] इस नाम की एक नगरी, जहाँ श्रीघनेश्वर मुनि ने विक्रम की ग्यारहवीं सदी में सुरसुंदरी-चरिष' नामक प्राकृत काव्य रचा था (सुर १६, २४९ ) । ड्ड वि [ मृदित] मसला हुआ, जिसका मर्दन किया गया हो वह (कुमा) । चड्डि वि [पिष्ट] पीसा हुमा (कुमा) । चढ देखो चड = श्रा + रुह । संकृ. चढिऊण ( सम्मत्त १५९ ) । ~ चढण देखो चडण (संबोध २८ ) । चण पुं [ चणक ] चना, अन्न- विशेष चणअ ) ( जं ३: कुमा; गा ५५७; दे १,२१) । चणइया स्त्री [चणकिका] मसूर, अन्न- विशेष (ठा ५, ३) चणग देखी चणअ (बुपा ६३१ सुर है, १४८) गाम पुं [ग्राम ] ग्राम- विशेष, गौड़ देश का एक ग्राम (राज) | पुर न [" पुर] नगर- विशेष, राजगृह नगर का असली नाम (राज) । चणयग्गाम देखो चणग-गाम (धर्मवि ३८ ) । चोट्टिया स्त्री [दे] गु ंजा । गु० 'चगोट्टी', देखो कोणेट्ठिया ( अनु० वृ० हारि० पत्र ७६) । 7 पाइअसद्दमहण्नयो [] तनुचा सूत बनाने का यन्त्र, तकली (दे ३, १ धर्मं २) चत्तवि [ त्यक्त] छोड़ा हुआ, परित्यक्त (परह २, १ कुमा १, १६ ) । २ सूत की टी ( नव्या० ८०, १) । चत्तर देखो चश्चर (पि २६६; नाट) । चत्ता देखो चत्तालीसा (उवा ) 1चत्ता स्त्री [चर्चा] १ शरीर पर सुगन्धी वस्तु काविलेपन २ विचार, वर्षा (प्राह ३०) / चत्ताल वि [ चत्वारिंश ] चालीसवाँ (पउम ४०, १७) । चत्तालीस न [ चत्वारिंशत् ] १ पालीस ४० 'बत्तालीस विमानस् (सम ६६ कप्प ) । २ वि. चालीस वर्ष की 'चत्तालीसत्स विना (तंदु) IV चत्तालीसा श्री [चत्वारिंशत् ] जालीस ४०; 'तीसा चत्तालीसा (पराग २ ) । चत्थरि पुंस्त्री [दे. चस्तरि] हास, हास्य (दे ३, २) चपेटा श्री [दे तमाचा (षड् ) चपेटा] कराघात, वप्पड़, चप्पक [ आ + क्रम् ] श्राक्रमण करना, दबाना । संकृ. चप्पिवि (भवि) 1 चप्पक [ चर्च_] १ श्रध्ययन करना । २ कहना । ३ भत्र्सना करना । ४ चन्दन आदि से विलेपन करना । चप्पइ ( प्राकृ. ७५ संक्षि ३५) | चप्पडग न [दे] काष्ठ यन्त्र - विशेष ( परह १, ३ - पत्र ५३ ) | चप्परण न [दे] तिरस्कार, निरास ( 8 ) चप्पलअवि [दे] १ असत्य, झूठा (कुमा८, ७१) २ बहुनियावाद बोल वाला (षड् ) । V चप्पिय वि [आक्रान्त ] ग्रामान्त दबाया (भवि चप्पुडिया ) स्त्री [ चप्पुटिका ] चपटी, चुटकी चप्पुडी के साथ ली की ताली ( णाया १, ३ - पत्र १५; दे ८, ४३ ) 1 चफल न [दे] शेखर-विशेष, एक तरह चप्फलय का शिरोभूषरण । २ वि. असत्य, } भूठा, मिध्याभाषी (दे २, २०१ हे २, ३ कुमा ८,२५) । For Personal & Private Use Only चडुला - चमर चमक पुं [ चमत्कार ] विस्मय, आश्चर्यः 'संजयचक्क पम्मी उप ७६) *रवि ["कर] विस्मयजनक (सण) 1 चमक सक [ चमत् + कृ ] विस्मित चमक्कर करना, आश्चर्यान्वित करना । चमस्के, चमति (विये ४२४८) चमकरंत विक्र ९६ ) चमकार [ चमत्कार ] धारचर्य, विस्मय (सुर १०, ८ वजा २४) । चमकिन वि[चमत्कृत] विस्मित पाश्च र्यान्वित (सुपा १२२) चमड ) सक [भुज् ] भोजन करना, खाना । } ११०) M . चढ सक [दे] १ मर्दन करना, मसलना । २ प्रहार करना । ३ कदर्थन करना, पीड़ना । ४ निन्दा करना । ५ आक्रमण करना । ६ उद्विग्न करना, खिन्न करना। कवक चमजिन (घोष १२०१) चढण न [भोजन ] भोजन, खाना (कुमा) । चमडण न [दे] १ मन मोष १८७ भा स २२ ) । २ आक्रमण ( स २०६३ पीड़न ४ प्रहार १९३५.नन्दघोष ७६) । ६ वि. जिसकी कदर्थना की जाय वह (प्रोघ २३७ ) । V [ चढणा को [दे] ऊपर देखो (१) । चमढिअवि [दे] मदत, विनाशित (वव २) चमर [चमर ] पशु - विशेष, जिसके बालों का चामर या चँवर बनता है; 'वराहरुरुचमरसेलिएर म १४, १०५ प ११ । २ पुं. पांचवें जिनदेव का प्रथम शिष्य ( सम १५२) । ३ दक्षिण दिशा के असुरकुमारों का इन्द्र (ठा २, ३ ) । चंच पुं [च] चमरेन्द्र का भावास पर्वत (भग ११६) चंच स्त्री ['चवा] चमरेन्द्र की राजधानी, स्वर्गपुरी - विशेष (गाया २ ) । पुर न ['पुर] विद्याधरों का नगर - विशेष (इक) । - चमर पुन [चामर] पंवर पामर, बालजन (हे १,६०) धारी, दारी श्री Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमरी - चरण ["पारिणी] चागर बीजने या डीलानेवाली स्त्री (सुपा ३३ सुर १०, १५७) चमरी श्री [चमरी] चमर-यशु की मादा, मुरही गाय से ७, ४८ स ४४१; श्रौपः महा) । चमस न [चमस] चमचा, कलछी दव ( श्रपः महा) । चमुक्कार पुं [चमत्कार ] १ आश्चर्य, विस्मयः 'पेच्छागयसुर किन्नर चित्तचमुक्कारकारयं (सुर १३. ε७) । २ बिजली का प्रकाशः 'ताव य विचारवंतर पंडो' (सुर २, ११०) । पाइअसद्दमद्दण्णवो चम्मटुअ धक [ चर्मयष्टीय् ] धर्म-यष्टि | की तरह प्राचरण करना । वकृ. चम्मट्ठिअंत (कप्पू) 1 चम्म ( परह १, १ ) [यम्मार २६८८ ) । [ चर्मास्थिल ] पति-विशेष चम्मारय पुं [ चर्मकारक ] ऊपर देखो ( प्राप) 1 [चर्मकार ] चमार, मोची (विसे चम्मियन [ चर्मित ] चर्म से बँधा धर्म-वेष्टित (श्रीप)। चम्मे पुं [ चर्मेष्ट] प्रहरण-विशेष, चमड़े से वेष्टित पाषाणवाला आयुध ( परह १, १ ) 1 चमू श्री [ चमू] सेना, सैन्य, लश्कर (श्रावम)। २ सेना-विशेष, जिसमें ७२१ हाथी, ७२६ रथ, २१८७ घोड़े और ३६४५ पैदल हों ऐसा लश्कर (पउम ५६, ६) 1 चम्मन [ धर्मन् ] द्याल, त्वक्, चमड़ा, खाल (हे १, ३२ स्वप्न ७० प्रासू १७१ ) "किड व ["किट] चमड़े से सीमा हुआ (भग १२, ९) कोस, कोसय [कोश, । पुं ° ] १ चमड़े का बना हुआ थैला २ एक तरह का चमड़े का जूता (घोष ७२८ श्राचा २, २, ३) 'कोसिया श्री [" कोशिका ] चमड़े की बनी हुई थैली (म २२ डि[ खण्डिक] १ चमड़े का परिधानवाला । २ सब उपकरण चमड़े का ही रखनेवाला (खाया १, १५) वि [क] चमड़े का बना हुआ चय (२२) पक्सि [पक्षिन ] चमड़े की पाखवाला पक्षी (ठा ४, ४ – पत्र २०१)। [] चमड़े का पट्टा व (विपा १, ६) पाय न ['पात्र ] चमड़े का पात्र ( आचा २, ६, १) । यर चय पुं [ च्यव] व्यव, जन्मान्तर- गमन ( ठा ८ कप्प ) 1 [कर ] मोची, चमार ( स २०६६ दे २, ३७) रयण न ["रत्न] चक्रवर्ती का रत्न - विशेष, जिससे सुबह में बोये हुए शालि उसी दिन पक कर खाने योग्य हो जाते हैं पर २१२) क्ख पुं [वृक्ष] चयण न [चयन] इकट्ठा करना (पव २)। विशेष (भग ३)+ २ ग्रहण, उपादान (ठा २, ४) । चम्मट्ठि स्त्री [चर्मयष्टि ] चमं-मय यष्टि, चमं चयण न [त्यजन] त्याग, परित्याग (सट्ठि दण्ड, चमड़ा लगी हुई घड़ी (कम्यू ३) 2 चम्मेगी [चर्मेष्टक] शख-विशेष (राय २१) स्त्री. गा (अरण १७५) चय चय सक [ त्यज् ] छोड़ना, त्याग करना । चयइ (पान हे ४, ८६ )। कर्म. चइज्जइ ( उव) । वकृ. चयंत (सुपा ३८८ ) । संकृ. चइअ, चइउं, चिश्चा, चइऊण, चइत्ता, पत्ताणं चन्तु (कुमा उत्त १० महा उवा उत्त १ ) । कृ. चइयव्व (सुपा ११६ ४०५; ५२१) । - चय सक [ शकू ] सकना, समर्थ होना । चयइ (हे ४, ८६ ) । वकृ. चयंत (सूत्र १, ३, ३ से ६, ५० ) 1 २) । चय प्रक [च्यु] मरना, एक जन्म से दूसरे जन्म में जाना । चयइ (भवि ), चयंति (भग) । वक्क. चयमाण (कप्प) । चय पुं [चय ] १ शरीर, देह ( विपा १, १ उवा) । २ समूह, राशि, ढेर (विसे २२१६; सुपा ५७१६ कुमा) । ३ इकट्ठा होना (अणु) । ४ वृद्धि ( श्राचा) [च] ईटों की रचना-विशेष (पिड For Personal & Private Use Only ३१६ चयणन [भववन] १ मरण जन्मान्तर-मन (ठा १ – पत्र १९ ) । २ पतन, गिर जाना । * कप पुं [कल्प ] १ पतन - प्रकार, चारित्र वगैरह से गिरने का प्रकार । २ शिथिल साधुयों का विहार (गच्छ १ ; पंचभा) M चयणन [च्यवन] युति, प्रश, क्षय (नंदु 88)1~ चरस [ चर्] १ गमन करना, चलना, जाना । २ भक्षरण करना। ३ सेवना । ४ जानना । चरइ ( उव महा) । भूका चरिंसु ( गउड ) । भवि चरिस्सं ( प १७३) । वकृ. चरंत, चरमाण ( उत्त २: भगः विपा १, १ ) । संह चरित्र, चरिऊन (नाट १० श्रावम) । हेक. चरिडं, चारए (श्रोध ६५० क) कृ. चरित्र (भाग १, ३३) प्रयो चारियन्त्र ( पण १७ – पत्र ४९७) । चर [चर] रामन गति २ (सा भाव दूत, जासूस (पाथ भवि चर [र] जंगम प्राणी (२४) । 'चर वि [°चर] चलनेवाला ( श्राचा) Iv चरती श्री [चरन्ती] जिस दिशा में भगवान् जिनदेव वगेरह ज्ञानी पुरुष विचरते हों वह (याव १) चरग पुं [चरक] १ देखो चर = चर । २ संन्यासियों का भुड विशेष बंध घूमने वाले त्रिदण्डियों की एक जाति (भगः गच्छ २) । ३ भिक्षुकों की एक जाति (परण २०) । ४ दंशमशकादि जन्तु (राज) । V चरचरात्री [चरचरा ] 'चर-चर' श्रावाज ( स २५७) । चरड पुं [चरट] लुटेरे की एक जाति (धम्म १२ टी सुपा २३२३ ३३३) । चरण पुंग [चरण] १ संयम, पारिका 'सम्म धनाराचरणा पत्ते अटुमटुमेला' (संबोध २२) २ माचरण (सुमन १२४) । चरण न [ चरण] १ संयम, चारित्र, व्रत, नियम (ठा ३, १ श्रघ २३ विसे १) । २ चरना, पशुओं का तृणादि-भक्षरण (सुर २, ३) । ३ पद्य का चौथा हिस्सा (पिंग ) । ४ गमन, बिहार (दि १,१०,२५ सेवन, आदर ( जीव २) । ६ पाद, पाँव Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० (२७) करण [करण] संयम का न मूल और उत्तर गुण ( सून १, १ सम्म १४)*करण[करणानुयोग] संयम के मूल और उत्तर गुणों की व्याख्या (नि १५) कुसील [° कुशील] चारित्र को मलिन करनेवाला साधु, शिथिलाचारी साधु (२) [न] किया को मुख्य माननेवाला मत (प्राचा) । मोह पुंन [ मोह ] चारित्र का प्रावारक कर्म-विशेष ( कम्म १ ) । चरम वि [चरम ] १ अन्तिम अन्त का, पर्यन्तवर्त्ती (ठा २, ४, भग ८, ३० कम्म ३, १७४, १६ १७ ) । २ अनन्तर भव में मुक्ति पानेवाला । ३ जिसका विद्यमान भव अन्तिम हो (वा २, २) काल [काल] मरणसमय (पंचव ४) । जलहि [ जलधि] अन्तिम समुद्र, स्वयंभूरमण समुद्र ( लहु २ ) । चरमंत [चरमान्त] रूप से धन्तिम सम से प्रान्त वर्त्ती (सम ६६ ) । चरय देखो चरग (औप गाया १, १५) । चरि पुंस्त्री [चरि ] १ पशुओं को चरने की जगह । २ चारा, पशुओं को खाने की चीज, घास ( कु १७) चरिगा देखी चरिया रिका (राज) 1 चरित न [ चरित्र ] १ चरित, आचरण । २ व्यवहार (भवि प्रासू ४० ) । ३ स्वभाव, प्रकृति (कुमा) = चरितन [ चरित्र ] जीवन-कथा, जीवनी, [कहानी] (सम्म १२० ) -- चरित न [ चारित्र ] संयम, विरति, व्रत, नियम (ठा २, ४४, ४ भग) कप पुं [कल्प ] संयमानुष्ठान का प्रतिपादक ग्रन्थ (पंचभा) | मोहन [मोह ] कर्म-विशेष, संयम का प्रावारक कर्म (भग) | मोहणिज न [ मोहनीय] वही पूर्वोक्त श्रथ (ठा २, ४) ५ | चरित्त न [चारित्र] आंशिक संयम, धावक-धर्म (पडि भग, २) 1 यार [चार] संयम का अनुष्ठान (ड) रिय[] चारित्र से चार्थ विशुद्ध चारवाला, साधू, मुनि (पण १) - पाइअसहमण्णवो चरित्ति श्री [चारित्रिम]] संयमवावा, साधु, मुनि ( उप ६६९ पंचव १) । चरिम देखो चरम (१,१०० २४) चरि (सुपा ५२८ ) IV परियन [चरित] चेष्टित, प्राचरण । । M ( प प्रा ६) २ जीवनी, जीवन-चरित (सुपा २) ३ चरण-ग्रन्थ (सुवा ६५८) ४ सेवित, श्राश्रित (पह १, ३) चरिया स्त्री [चरिका] १ परिब्राजिका, संन्यासिनी ( ओघ ५८ ) । २ किला और नगर के बीच का मार्ग (सम १३७; पण १, १ ) घरिया श्री [चर्या] १ मार 'दुक्करपरिया विराम १४ १५२ ) । २ गमन, गति, विहार (सूत्र १,१, ४) ३ गाड़ी (माया० पत्र ११ वा. १८) चरीया देखो चरिया = चर्या; 'तरणफासो परीयाकार जोगमू' (पंच ४,२०) [च] पाली-विशेष पार-विशेष (श्रीपः भवि [ चरक ] चर-पुरुष, जासूस, दूत • चरुगण देखो चारुइणव (एक) - चरल्लेव ३, [[व] [] नाम माया (दे १६) चल सक [ चल् ] १ चलना, गमन करना । २ प्रक. काँपना, हिलना । चलइ ( महा; गउड)। वकृ. चलंत, चलमाण (गा ३५६६ र ३४० ) हे चलिडं (गा ४८४) । प्रयो, संकृ. चलइत्ता (दस ५, १ ) चल वि [चल] १ चंचल, अस्थिर ( स ४२० ; वजा ६६ ) । २ पुं. रावण का एक सुभट ( पउम ५६, ३९ ) 1 चच[च] १ चंचल, पस्विर वि[चलचल 'चलचलयको डिमोडणकराईं नयरलाई तरुगी' ( वज्जा ६० ) । २ पुं. घी में तली जाती हुई चीज का पहला तीन धान ( निचू ४) । चल [चरण] पवि, पैर, पाद सौप से ६, १३) ५५ मालिया स्त्री [मालिका ] पैर का श्राभूषण-विशेष (पराह २, ५३ श्रीप) । "बंदण न [वन्दन] पैर पर सिर झुका कर प्रणाम, प्रणाम- विशेष (पउम २०६) । ८, चरम - चव [चलन] चलना, गति, चाल, प्रथा, रिवाज ( से ६, १३) । For Personal & Private Use Only चलणा स्त्री [ चलना] १ चलन, गति । २ कम्प हिलन (भग १२, ९) १ पुं चलणाउह पुं [ चरणायुध] कुक्कुट, मुर्गा (दे ३, ७) । चळणाओ (षड् ) । चलणिवा श्री [चलनिका] नीचे देखो घोष ६७६) । [दे चरणायुध] ऊपर देखी चलगिया) स्त्री [चलनिका, 'नी] जैन चलणी साध्वियों को पहनने का कटि वस्त्र (पव ६२ ) । चलणी स्त्री [ चलनी ] १ साध्वियों का एक उपकरण (प्रोध ३१५ भा) । २ पैर तक का कीच ( जीव ३ भग ७, ६) 1 चल १०२, ६) चलाचल [दे] पटपटाई, पंचलता (पम (पउम ११२, ९) । पलिंदिय[] [चाच] पं परिवर करने में श्रसमर्थ, जिसकी इन्द्रियां काबू में न हो वह (प्राचा २, ५, १ ) चलिअन [च] विकलता, घ १ स्थेयं, चंचलता ( पाच ) । २ वि. चला हुआ, कम्पित (धान)३ प्रवृत (पाम घोप) ४ विनष्ट ( धम्म २ ) । - परि वि [चलित ] चलनेवाला परिवर चपल, चंचल चलिरभमराली' (उप १८६३ सुपा ७६६ २५७ स ४१ ) । चल्ल देखो चल = चल् । चल्लइ (हे ४, २३१; षड् ) चढण न [दे] जयनांशुक कटियन (प)। चल्लि स्त्री [दे] नाचते समय की एक प्रकार की गति (पू) चल्लि स्त्री [दे] मदन - वेदना ( संक्षि ४७) । बहिअ देखो चलिज र २१ ५०) 1 चत्र सक [ कथय् ] कहना, बोलना । चवइ (हे ४, २) कर्म, पवित्र (कुमा) वह चवंत (भवि ) । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चव - चाउम्मासी में जाना । चक [] मरना, ४२३३)संह चविण (प्रा) कृ. चविय (३३) । चव पुं [व] मरण, मौत 'मन्नंता अपुरण, (उत्त ३, १४) । चवचव पुं [चवचव] 'चव चव' आवाज, ध्वनि विशेष (श्रोध २८६ भा) । चवन [व] १ मरण जन्मान्तरप्राप्ति (सुर २, १३६, ७, ८; दं ४) । २ पतन, गिर जाना (बृह १ ) । चवल वि [ चपल] १ चंचल, अस्थिर (सुर १२, १३६. १०३) । २ बाल, ध्या कुल ( प ) । ३ पुं. रावण का एक सुभट ( पउम ५६, ३९ ) । बल [दे] श्रग्न-विशेष, बोड़ा (या १६) | चवलय पुं [दे] धान्य- विशेष, गुजराती में 'चोळा' (पव १५४) । जन्मान्तर ३) । चविअ वि [च्युत] मृत जन्मान्तर-प्राप्त (कुमा २,२६) । चविअवि [कथित] उक्त, कहा हुआ (भवि ) । [वि] श्री [चविका ] वनस्पति- विशेष ( पण १७ - पत्र ५३१ ) । चा चविला चवेला } 2 श्री [चपेटा] तमाचा म (हे १, १४६; कुमा) । (कुम २४९)। श्री [] बिजली (जीव चट्ट वि[] चवेडी [दे] १ लिटर-संपुट २ संपुट समुद्र विवादे ३,३ ) । वेण न [दे] वचनीय, लोकापवाद (दे ३, ३) । चवेला देखो पविडा (प्रा)। चव्य तक [ पर्व_ ] चबाना (१४) चव्य (शौ) देखो पचपचम्यदि (प्राकृ १३) । = [चव्यकिअ] [] [दे] धवलित चुने से पोता 'क्याने नासिया (सुपा ४५५)। चव्वण न [ चर्वण ] चबाना (दे ७, ८२) । चव्वाइ देखो चव्वागि (राज) चाक ? [चार्याक] नास्तिक, बृहस्पति चव्याग का शिष्य, लोकायतिक (प्रयो ७८ राज ) । } ४१ पाइअसद्दमद्दण्णवो चव्वागिव [चार्याकिन] १ वानेवाला। २ दुर्व्यवहारी ( वव ३ ) । विवि [चर्चित ] पाया हुआ (गुर १३, १२३) चस सक [ चधू ] चखना, प्रास्वाद लेना । व. चसंद (शौ ) ( रंभा ) । हेकृ. चसिदुं (शौ ) ( रंभा ) । चसग । [ चषक ] १ दारू पीने का प्याला चसय ) ( ज ५ पान ) । २ पान-पात्र, प्याला (सुर २, ११ पउम ११३, १० ) । ३ पक्षिविशेष (६, १४५) चहुंविया श्री [दे] पुटकी, पुटकीभर 'जोग-प्यास्थय [चातुर्थिक] रोग पुतियामेरालेये (कास) । चहुट्ट प [दे] चिपकना, चिपटना लगना गुजराती में 'ट' रे मूड ह सीलाइ बहुट्टए जहा ( जे १२ ) । मनन ( २, २० वा १०): 'मरण-अमरो- सीए मुहारविदेचिय चट्टों (उप ७२८ टी) । - वि [दे] चिपका हुआ, लगा चहुट्ट ( चहुट्टिय ) हुआ (धर्मवि १४१ उप ७२८ टी: कुछ २७) । चोड पुं [दे] एक मनुष्य जाति (भवि ) । चाइ वि [ त्यागिन् ] १ त्याग करनेवाला, छोड़नेवाला । २ दानी, दान देनेवाला, उदार (सुर १, २१७, ४, ११८ ) । ३ निःसंग, निरीह, संयमी (चाचा) । चाय वि [ त्याजित] छोड़वाया हुआ (घर्मंवि ८)। चाय वि [शक्ति ] जो समर्थ हुआ हो (पउम ७, १२१० सूत्र १, १४) 'सव्वोवाएहि जया घेतूण न चाइया सुरिंदेणं । ताहे ते नेरइया' (पउम ११८, २४) चाटजंगी श्री [चार्यङ्गी] सुन्दर मंगवाली स्त्री (प्राकृ २९ ) । चावंड [चामुण्ड] राक्षस-वंश का एक राजा, एक लापति (पम २६३)। चाडकाल न [चतुष्काल] चार वक्त, चार समय (विसे २५७६) । चाउकोण वि [चतुष्कोण ] चार कोनावाला, चतुरस्र ( जीव ३) । - For Personal & Private Use Only ३२१ चाउरघंट (वि [ चतुर्घण्ट] चार घंटावाला, चाउघंट } चार घण्टानों से युक्त (गाया १, १ भग ९, ३३० निर १ ) । चाउनाम न [चातुर्याम ] चार महाव्रत, साधु- धर्म - हिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह के चार साधु-य (खाया १, ७ डा ४, १ ) । 'चा उज्जायन [ चातुर्जात] दालचीनी, तमालपत्र, इलायची और नागकेसर ( उप पृ १०१ महा)। चाउत्थिग देखो चाउत्थिय (उत्तनि ३) । धे चौथे दिन पर होनेवाला ज्वर, चौथिया बुखार ( जीव ३) । चाउसिया श्री [चतुर्दशिका] तिथि-विशेष, चतुर्दशी, चौदस 'हीण पुरण चाउसिया' (बा)। पाउदसी श्री [चतुर्दशी] ऊपर देखो (भग जो ३) । चाउद्दाह (अप) त्रि. ब. [ चतुर्दशन ] चौदह, १४ (पिंग ) । चाउदिसि देखो -दिसि (महाः सुपा ३६५) चाउपाय न [ चतुष्पाद] चतुर्विध, चार प्रकार का ( उत्त २०, २३; सुख २०, २३) । चाउमा पुन [ चातुर्मास] १ चौमासा, चाउम्मास जैसे श्राषाढ़ से लेकर कार्तिक S तक के चार महीने (उप पृ ३६० पंचा १७) । २ आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन मास की शुक्ल चतुर्दशी; 'पक्खिए चाउमासे' ( लहुन १६ ) । चाउम्मासिअ वि [ चातुर्मासिक ] १ चार मास सम्बन्धी, जैसे श्राषाढ़ से लेकर कार्तिक तक के चार महीने से सम्बन्ध रखनेवाला ( गाया १, ५३ सुर १४, २२८ ) । २ न. आषाढ़, कात्तिक और फाल्गुन मास की शुक्ल चतुर्दशी तिथि, पर्व- विशेष (श्रा ४७; अजि ३८) । चाउम्मासी स्त्री [चातुर्मासी] चार मास, चौमासा, भाषाढ से कार्तिक, कार्तिक से फाल्गुन शौर फाल्गुन से भाषाढ़ तक के चार महीने ११०५०) । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ पाइअसहमहण्णवो चाउम्मासी-चारण चाउम्मासी स्त्री [चातुर्मासी] देखो चाउ- । अल्ल-उपगोत्र या वर्ग: 'पउरचारग्वेज्जलोएण' चाय देखो चाव (सुपा ५३० से १४, १५, म्मासिअ (धर्म २; आव)। (महा)। पिंग) चाउरंग देखो चउरंग (पउम २, ७५)। चाउस्साला स्त्री [चतुश्शाला] चारों तरफ चाय पुं [त्याग १ छोड़ना, परित्याग (प्रासू चाउरंगि देखो चउरंगि (भगः णाया १, के कमरामों से युक्त घर (पव १३३ टी)। । ८ पंचव १)। २ दान (सुर १, ६५)। १-पत्र ३२) चाएंत देखो चाय = चय। चायग] [चातक] पक्षि-विशेष, चातकचाउरांगज वि [चतुरङ्गीय] १ चार अंगों चाँउंडा श्री [चामुण्डा] स्वनाम-ख्यात देवी चायव पक्षी (सण, पाम, दे ६, ६०)। से सम्बन्ध रखनेवाला । २ न. 'उत्तराध्ययन' (हे १, १७४) । काउअ पुं [कामुक] चार सक [चारय ] चराना, खिलाना। सूत्र का एक अध्ययन (उत्त ४)।. महादेव, शिव (कुमा)। चारेइ (धर्मवि १४३)। चाउरंत देखो चरंत (सम १, ठा ३, १; चाग देखो चाय = त्याग (पंचव १)। चार पुं[चार१ गति, गमन; 'पायचारेण हे १, ४४)। चागि देखो चाइ (उप पृ १०५)। (महा, उप पृ १२३ रयण १५) । २ भ्रमण, चाउरंत [चातरन्ता चक्रवर्ती राजा. चाड विदे] मायावी, कपटी (दे ३, ८)। परिभ्रमण (स १९)। ३ चर-पुरुष, जासस सम्राट् (परह १, ४) २ न. लग्न-मण्डप, चाडु पुन [चाटु] १ प्रियवाक्य । २ खुशामद (विपा १, ३, महा; भवि)। ४ कारागार, चौरी (स ७८) (हे १, ६७; प्राप्र) । यार वि [ कार] कैदखाना ( भवि)। ५ संचार, संचरण चाउरंत न [चातुरन्त] भरत-क्षेत्र, भारतवर्ष खुशामदी (पएह १, २)। (प्रौप)। ६ अनुष्ठान, पाचरण (माचानि (चेइय ३४०, ३४१)। चाडुअ न [चाटुक] ऊपर देखो कुमा)। ४५; महा) । ७ ज्योतिष-क्षेत्र, प्राकाश (ठा चाउरंत न [चतुरन्त] चक्र, पहिया (चेइय | चाणक पुं[चाणक्य १ राजा चन्द्रगुप्त का २, २)। (३४४) । स्वनाम-प्रसिद्ध मन्त्री (मुद्रा १४४)। २ एक चार पुं[दे] १ वृक्ष-विशेष, पियाल वृक्ष, चाउरक वि [चातुरक्य] चार बार परिणत। मनुष्य-जाति (भवि)। चिरौंजी का पेड़ (द ३, २१; अणु; पएण गोखीर न ["गोक्षीर] चार बार परिणत चाणक्की स्त्रीचाणक्यी] लिपि-विशेष (विसे १६)। २ बन्धन-स्थान (दे ३, २१)। ३ किया हुआ गो-दूध, जैसे कतिपय गौत्रों का | ४६४ टी)। इच्छा, अभिलाष (दे ३, २१, भविः सुण दूध दूसरी गौओं को पिलाया जाय, फिर | चाणिक्क देखो चाणक्क (आक)। ५११)। ४ न. फल-विशेष, मेवा-विशेष उनका अन्य गौनों को, इस तरह चार बार चाणर पु [चाणूर] मल्ल-विशेष, जिसको (परण १६) । वकय पु[क्रय बेचनेपरिणत किया हुआ गो-दुग्ध (जीव ३)। । श्रीकृष्ण ने मारा था (पएह १, ४, पिंग)। चाउल वि [दे] चावल का, 'तहेव चाउल चामर पुन [चामर] चँवर, बाल-व्यजन (हे | (सुपा ५११)। पिटुं' (दस ५, २, २२)। १, ६७)। २ छन्द-विशेष (पिंग)। गाहि | चारए देखो चरचर् । चाउल पुं[दे] चावल, तण्डुल, (दे ३, ८ वि['प्राहिन् ] पर बीजनेवाला नौकर। चारग दे [चारक] देखो चार (पौपः णाया प्राचा २, १, ३, ६, ८ उप पृ २३१, स्त्री. णी (भवि)। छायण न [च्छायन] १,१७ परह १,३, उप ३५७ टी)। "पाल मोघ ३४४; सुपा ६३६, रयण ६० कप्प)। स्वाति नक्षत्र का गोत्र (इक) उझय पुं| [पाल] जेलखाना का अध्यक्ष (विपा १, चाउल्लग न [दे] पुरुष का पुतला-कृत्रिम [ध्वज] चामर-युक्त पताका (प्रौप)। ६-पत्र ६५) । पाला पुं [पालक] पुरुष (निचू १)। धार वि [ धार चामर बोजनेवाला (पउम कैदखाना का अध्यक्ष; जेलर (उप पू ३३७)। चाउवण्य देखो चाउवन्न (सम्मत्त १६२)। ८०, ३८)। भंड न [ भाण्ड] कैदी को शिक्षा करने चाउवन्न । वि [चातुर्वर्ण्य] १ चार वर्ण- चामरच्छ न [चामरध्य] गोत्र-विशेष (सुज्ज का उपकरण (विपा १, ६)। हिव पुं चाउठवण्ण विाला, चार प्रकार वाला। २ १०,१६)। [धिप] कैदखाना का अध्यक्ष, जेलर (उप पुं. साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका का चामरा ली. उपर देखो (प्रौपः वसुः भग ६, पृ३३७)। समुदाय (ठा ५, २–पत्र ३२१); 'चाउव्व चारण [दे] ग्रंन्थि-च्छेदक, पाकेटमार, चोरएणस्स समरणसंघस्स (पउम २०,१२०)। | चामीअर न [चामीकर] सुवणं, सोना विशेष (दे ३, ६)। ३ न. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये (पाम; सुपा ७७ णाया १, ४)। चारण पु[चारण] १ आकाश में गमन करने चार मनुष्य-जाति (भग १५)। चामुंडराय पुं [चामुण्डराज गुजरात का को शक्ति रखनेवाले जैन मुनियों की एक चाउव्विज्ज देखो चाउवेज (ती ७)। । एक चौलुक्य वंश का राजा (कुप्र ४)। जाति (प्रौप; सुर ३, १५; अजि १६)। २ चाउवेज्जन [चातुर्वैद्य] १ चार प्रकार | चामुंडा देखो चाँउंडा (विसे पि)। मनुष्य-जाति-विशेष, स्तुति करनेवाली जाति की विद्या-न्याय, व्याकरण, साहित्य और चाय देखो चय = शक्। वकृ. चायंत, भाट (उप ७६८ टी प्रामा)। ३ एक जैन धर्म-शास्त्र । २ पुं. चौबे, ब्राह्मणों का एक | चाएंत (सूम १, ३, १; वव १)। मुनि-गण (ठा)। For Personal & Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारणिआ-चि पाइअसहमहण्णवो ३२३ चारणिआ श्री [चारणिका] गणित-विशेष चारुणय पुं [चारुनक] ऊपर देखो (प्रौप)। चावल्ल न [चापल्य] ऊपर देखो (स ५२९)। (प्रोष २१ टी)। स्त्री. "णिया (प्रौपः णाया १,१)। चावाली स्त्री [चावाली] ग्राम-विशेष, इस चारभड पुं[चारभट] शूर पुरुष, लड़वैया, चारुर्वाच्छ पुं. ब. [चारुवसि] देश-विशेष नाम का एक गाँव (भावम)। सैनिक (पएह १, २, १, ३, बृह १)। (पउम ९८, ६४)। चाविय वि [चर्वित] चबाया हुमा (धर्मवि चारभड ' [चारभट] लुटेरा (पिंड ५७६)। चारुसेणी स्त्री [चारुसेनी ] छन्द-विशेष | ४६; १४६)। चारय देखो चारग (सुपा २०७; ल १५)। (पिंग)। चाविय वि [च्यावित] मरवाया हुमा (पएह चारवाय पुं[दे] ग्रीष्म ऋतु का पवन (दे चाल सक [चालय ] १ चलाना, हिलाना, २,१)। कंपाना । २ विनाश करना। चालेइ (उवाचावेडी स्त्री [चापेटी विद्या-विशेष, जिससे स ४७४। महा) । कम. चालिज्जइ (उव)। दूसरे को तमाचा मारने पर बीमार आदमी का चारहडी श्री [चारभटी] शौर्यवृत्ति, सैनिक- | वकृ. चालंत, चालेमाण (सुपा २२४; जीव रोग चला जाता है (वव ५)। वृत्ति (सुपा ४४१, ४४२; हे ४, ३६६)। ३)। कवकृ. चालिजमाण (णाया १, १)। चारागार न [चारागार कैदखाना, जेलखाना हेकृ. चालित्तए (उवा)। चावोण्णय न [चापोन्नत] विमान-विशेष, (सुर १६, १७)। | चालण न [चालन] १ चलाना, हिलाना एक देव-विमान (सम ३६)। चारि स्त्री [चारि] चारा, पशुओं के खाने (रंभा)। २ विचार (विसे १००७)। चास पुं [चाप पक्षि-विशेष, स्वर्ण-चातक, की चीज, पास आदि (मोघ २३८)। चालण न [चालन] शंका, प्रश्न, पूर्वपक्ष पपीहा, लहटोरवा (पएह १, १; पएण १७; चारि वि [चारिन्] १ प्रवृत्ति करनेवाला। (चेइय २७१)। पाया १, १ मोघ ८४ भाः उर १, १४)। (विसे २४३ टीः उव; पाचा)। २ चलने चालणा स्त्री [चालना] शंका, पूर्वपक्ष, आक्षेप चास [दे] चास, हल-विदारित भूमि-रेखा, वाला, गमन-शील (प्रौप; कप्पू)। (अणु; बृह १)। खेती (दे ३, १)। चारिअ वि [चारित] १ जिसको खिलाया चार्लाणया स्त्री [चालनिका] नीचे देखो (उप चाह सक [वाञ्छ.] १ चाहना, वाछना । गया हो वह (से २, २७)। २ विज्ञापित, । १३४ टी)। २ अपेक्षा करना । ३ याचना । चाहइ, चाहसि जताया हुआ (पएण १७–पत्र ४६७)। चालणी स्त्री [चालनी] पाखा, छानने का (भविः पिंग)। चारिअ [चारिक] १ चर पुरुष, जासूस पात्र चलनी या छलनी (प्रावम)। चाहिणी स्त्री [चाहिनी] हेमाचार्य की माता (परह १, २, पउम २६, ६५); 'चोरुत्ति चालवास पुं [दे] सिर का भूषण-विशेष का नाम (कुप्र २०)। चोरिवत्ति य होइ जो परदारगामित्ति' (विसे चाहिय वि [वाञ्छित] १ वाञ्छित, अभि२३७३) । २ पंचायत का मुखिया पुरुष, चालिय वि [चालित चलाया हुमा, हिलाया लषित । २ अपेक्षित । ३ याचित (भवि)। समुदाय का अगुमा (स ४०६)। हुमा; 'पुष्फवईए चालियाए सियसंकेयपडागाए' चाहुआग पुं [चाहुयान] १ एक प्रसिद्ध चारित्त देखो चरित्त-चारित्र (मोघ ६ भाः (महा)। क्षत्रिय-वंश, चौहान वंश। २ पुंस्त्री. चौहान उप ६७७ टी)। |चालिर वि [चालयितु] १ चलानेवाला । ___वंश में उत्पन्न (सुपा ५५९)। चारित्ति देखो चरित्ति (पुप्फ १५.)। २ चलनेवालाः 'खरपवणचाडुचालिरददग्गिस चि देखो चिण। कर्म.चिव्वइ,चिम्मइ, चिज्जति चारियव्व देखो चर = चर् । रिसेण पेम्मेण' (वज्जा ७०)। (हे ४, २४३; भग)। चारिया स्त्री [चर्या] १ आचरण, इधर-उधर | चाली स्त्री [चत्वारिंशत् ] चालीस, ४० चिअ अ [एव] निश्चय को बतलानेवाला गमन, जीविका । २ चेष्टा (उत्त १६, ८१; | (उवा)। अव्ययः 'अणुबद्धं तं चिन कामिणीणं' (हे २, ८२ ८४८५)। चालीस स्त्रीन [चत्वारिंशत् ] चालीस, ४० १८४; कुमाः गा १६, ४६ दं १)। चारी स्त्री [चारी] देखो चारि = चारि (स (महाः पिंग) स्त्री. °सा (ति ५)। चिअप [इव] १-२ उपमा और उत्प्रेक्षा ४८७, प्रोध २३८ टी)। चालुक्क पुंस्त्री [चौलुक्य] १ चालुक्य वंश का सूचक अव्यय (प्राप्र)। चारु वि [चारु] १ सुन्दर, शोभन, प्रवर में उत्पन्न । २ पुं. गुजरात का प्रसिद्ध राजा (उवाः प्रौप)। २ पुं. तीसरे जिनदेव का कुमारपाल (कुमा)। चिअ वि[चित] १ इकट्ठा किया हुमा प्रथम शिष्य (सम १५२)। ३ न. प्रहरण- | चाव सक [चर्व ] चबाना । कृ. चावयव्व (भग) । २ व्याप्त (सुपा २४१) । ३ पुष्ट, विशेष, शस्त्र-विशेष (जीव १; राय)। (उत्त १६, ३८) मांसल (उप ८७५ टी)। चारुइणय ( [चारकिनक] १ देश-विशेष । चाव पुं[चाप धनुष, कामुक (स्वप्न ५५) चिअन [चित] ईंट मादि का ढेर (अरण २ वि. उस देश का निवासी (पीप; अंत)। चावल न [चापल चपलता, चंचलता (अभि १५४)। स्त्री. "णिया (प्रौप)। २४१)। चिअ देखो चित्त = चित्त प्राकृ २६)। For Personal & Private Use Only www linelibrary.org Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिंच ) सक [ मण्ड ] विभूषित करना, चिंचअ ) प्रलंकृत करना । चित्र, चिचग्र (हे ४, ११५; षड् ) । चिंच अवि [मण्डित] शोभित, विभूषित, अलंकृत (पउम १५, १३; सुपा ८८ महा पायः प्रापः कुमा) । चिंच अवि [] चलित, चला हुआ (दे ३, १३) । चिंचणिआ चिंचणिगा चिंचणी ३२४ चिआ स्त्री [ त्विष् ] कान्ति, तेज, प्रभा ( षड् ) 1 चिआ देखो चिया (सुपा २४१; महा) । चिइ स्त्री [चिति] १ उपचय, पुष्टि, वृद्धि चिंचिअ वि [मण्डित ] भूषित, श्रलंकृत ( पव २) २ इकट्ठा करना ( उत्त ६) । ३ बुद्धि, मेघा (पान) । ४ भीत वगैरह बनाना । ५ चिता ( परह १, १ -पत्र ८ ) । न] [कर्मन् ] वन्दन, प्रणाम विशेष (प्राव ३) । (कुमा) । चिंचिणिआ चिंचिणिचिंचा चिंचिणी कम्म चिह्न देखो चेइअ (उप ५६७; चैत्य १२; पंचा १) । चिंचिल्ल सक [मण्डय् ] विभूषित करना, अलंकृत करना | चिचिल्लइ (हे ४, ११५ षड् ) । चिचिल्लिअ वि [मण्डित ] विभूषित, अलंकृत, सँवारा हुआ ( पान कुमा) । चिइगा देखा चिrगा (जं १ ) । चिइच्छ तक [चिकित्स् ] १ दवा करना, इलाज करना । २ शंका करना, संशय करना । चिइच्छइ (हे २, २१४, २४० ) । चिइच्छवि [चिकित्सक ] १ दवा करनेवाला, इलाज करनेवाला । २ पुं. वैद्य (मा ३३) । चिइय देखो चिंतियः 'जेण एस सुचरियतवोवि सुचिजिरणदव गोवि' (महा) । चिउर पुं [चिकुर ] १ केश, बाल (गा १८८) । २ पीत रंग का गन्धद्रव्य - विशेष (परग १७- पत्र ५२८३ राय ) । [दे] देखो चिंचिणी (कुमा सुपा १२; ५८३) । चिंचणी स्त्री [दे] घरट्टिका, अन्न पीसने की चक्की (दे ३, १० ) । - चिंचा स्त्री [चना] १ तृण की बनाई हुई चटाई वगैरह । पुरिस पुं [पुरुष] तृण का मनुष्य, जो पशु, पक्षी श्रादि को डराने के लिए खेतों में गाड़ा जाता है (सुपा १२४) । पाइअसद्दमहण्णवो चिंचा स्त्री [दे. चिवा] इमली का पेड़ (दे ३, १०० पात्र; विपा १, ६; सुपा १२४३ ५८२५८३) । चिआ - चिकुर चिंता स्त्री [चिन्ता ] १ विचार, पर्यालोचन ( पान; कुमा) । २ अफसोस, शोक, दिलगीरी (सुर २, १६१० सूत्र २. १३ प्रासू ६१ ) । ३ ध्यान (श्राव ४ ) । ४ स्मृति, स्मरण (दि) । ५ इष्ट-प्राप्ति का संदेह (कुमा) । रवि [" तुर] शोक से व्याकुल (सुर ६, ११) । दिवि [दृष्ट] विचार- पूर्वक देखा हुमा (पान) । मइअ वि [मय ] चिन्ता युक्तः 'सम चितामइथं काऊ पिनं' (गा १३३) । मणि पुं [मणि] १ मनो छत को देनेवाला रत्न-विशेष, दिव्य मरिण (महा) । २ वीतशोक नगरी का एक राजा (पउम २०, १४२) । वर वि [पर] चिन्ता-मग्न (पउम १०, १३) । चिंतायग) वि [चिन्तक ] चिन्ता करनेवाला चिंतावग ) ( आवम ) । स्त्री. 'गा (सुपा २१) । चिंतिय वि [चिन्तित ] १ विचारित, पर्यालोचित (महा) । २ याद किया हुआ, स्मृत ( छाया १, १; षड् ) । ३ जिसको चिता उत्पन्न हुई हो वह ( जीव ३ श्रौप ) । ४ न. स्मरण, स्मृति (भग ६, ३३३ औप ) । चिंतिर वि [चिन्तयितृ ] चिन्ताशील, चिन्ता करनेवाला (श्रा २७ सरण) । चिंध न [चिह्न] १ चिह्न, लाञ्छन, निशानी ( हे २, ५०: प्राप्र णाया १, १६ ) । २ ध्वजा, पताका (पान) । पट्ट पुं [पट्ट] निशानी रूप वस्त्र- खण्ड (गाया १, १ ) । रिस [पुरुष] १ दाढ़ी-मूँछ वगैरह पुरुष की निशानी वाला नपुंसक, हिजड़ा । २ पुरुष का वेष धारण करनेवाली स्त्री वगैरह (ठा ३, १) । चिंतणा स्त्री [चिन्तना] ऊपर देखो (उप चिंधाल वि [चिह्नवत् ] चियुक्त, निशानी१८६ टी) । वाला (पउम १०६, ७ ) । चिंतग वि [[चिन्तक ] चिन्ता करनेवाला, विचारक (उप पृ ३३३; ३३६ टी) । चिंतण न [ चिन्तन ] १ विचार, पर्यालोचन (महा) । २ स्मरण, स्मृति (उत्त ३२ महा) 1 चिंतणिया स्त्री [चिन्तनिका ] याद करना, चिन्तन करना (ठा ५, ३) । चिंधाल वि[दे] १ रम्य, सुन्दर, मनोहर । २ मुख्य, प्रधान, प्रवर (दे ३,२२) । चिंतयवि [चिन्तक ] चिन्ता करनेवाला ( स चिंधिय वि [चिह्नित] चिह्न युक्त (पि २६७) । ५६५; निर १, १ ) । चिल्ली [] ी का पहनने का वस्त्रविशेष, लहँगा (दे ३, १३) । चिकिच्छ देखो चिइच्छ । चिकिच्छामि (स ४८५) । कृ. चिकिच्छि अव्व ( श्रभि १९७ ) । चिकुर देखो चिउर (पि ५०६) । [] इमली का पेड़ (श्रोध २६; दे ३, १०; सुपा ५८४३ पान ) । चिंत सक [ चिन्तय् ] १ चिन्ता करना, विचार करना । २ याद करना। ३ ध्यान करना । ४ फीकिर करना, अफसोस करना । चितेइ, चितेमि (उवः कुमा) । वकु. चिंतंत, चिंतेंत, चिंतित, चिंतयंत, चिंतयमाण, चिंतेमाण (कुमा; उव; पउम १०, ४ अभि ५७; हे ४,३२२,३१०, सुर ४, २३) । कवकृ. चिंतिज्जंत (गा ६५१ ) । संकृ. चिंतिउं, चिंतिऊण ( महागा ३५८ ) । कृ. चिंतणीय, चिंतियन्त्र, चिंतेयव्व (उप ७३२ पंचा २: पउम ३१, ७७ सुपा ४४५) । - चिंत वि [चिन्त्य ] चिन्तनीय, विचारणीय, विचार-योग्य (उप ६८५ ) । चिंतव देखो चिंत= चितय् । चितवइ (कुमा भवि) । चिंतविय वि [चिन्तित ] जिसकी चिंता की गई हो वह (भवि ) । For Personal & Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिक्क- चित्त २ चिक्क वि [दे] १ स्तोक, थोड़ा, अल्प । न. क्षुत्, खींक ( षड् ) । चिक्कण वि[चिक्कण] चिकना, स्निग्ध ( प ह १, १ सुपा ११) । २ निबिड, घना; 'जं 'पावं चिक्कणं तर बर्द्ध' (सुर १४, २०६ ) । ३ दुर्भेद्य, दुःख से छूटने योग्य ( परह १, १ ) । चिक्का स्त्री [दे] १ थोड़ी चीज । २ हलकी मेघ-वृष्टि, सूक्ष्म छींटा (दे ३, २१) । चिक्कार पुं [ चीत्कार ] चिल्लाहट, चिंघाड़ (सण) । चिक्किण देखो चिक्कण (कुमा) । चिक्खअग वि [दे] सहिष्णु, सहन करने (षड् ) । चिक्खल पुं [दे] कर्दम, पंक, कीच (दे ३, ११ हे ३, १४२: परह १, १ ) । चिक्खलन [[चिक्खल्लक ] काठियावाड़ का एक नगर ( ती २ ) । चिक्खिल चिखल्ल [दे] देखो चिक्खल्ल (गा ६७; चिखिल्ल ३२४६ ४४५; ६८४ श्रौप ) । चिगिचिगाय अक [ चिकचिकाय् ] चकचकाट करना, चमकना । वकृ. चिगिचिगायंत (सुर २, ८६) । चिच्छिग देखो चिइच्छअ (विवे ३० ) । चिगिच्छण न [ चिकित्सन] चिकित्सा, इलाज (उप १३५ टी) । चिमिच्छय देखो चिइच्छअ ( स २७८; गाया १, ५ – पत्र १११ ) । चिगच्छा स्त्री [[चिकित्सा ] दवा, प्रतीकार, इलाज (स १७) । संहिया स्त्री [संहिता ] चिकित्सा शास्त्र, वैद्यक - शास्त्र ( स १७) । चिच वि [] १ चिपटी नासिकावाला, बैठी हुई नाकवाला (दे ३, ६) । २ न. रमण, संभोग, रति (दे ३, १० ) । चिश्च वि [ त्याज्य ] छोड़ने योग्य, परिहरणीयः 'खरकम्माई पि चिचाई' (सुपा ४६८ ) । चिचरवि [दे] चिपटी नासिकावाला (दे ३, ९) । चिच्चा देखो चय = त्यज् 1चिश्चि पुं [चिश्चि ] चीत्कार, चिल्लाहट, भयंकर आवाज 'चिची सर - ' ( विपा १, २ - पत्र २९ ) । पाइअसद्दमद्दण्णवो ३२५ चिश्चि पुं [दे] हुताशन, अग्नि (दे ३, १०) । चिन्ह न [ चिह्न] निशानी, लांछन (हे २, चिट्ठ [दे] अत्यन्त अतिशय ( भाचा १, ४, २, २) । ५०; गउड)। चिट्ठ अक [स्था] बैठना, स्थिति करना । चिट्ठइ (हे १, १६) । भूका. चिट्टिसु ( आचा) । वकृ. चिड़ंत, चिट्ठेमाण (कुमा; भग) । संकृ. चिट्ठिडं, चिट्ठिऊण, चिट्टिण, चिट्ठित्ता, चिट्ठित्ताण (कप्प; हे ४, १६ राज; पि) । हे. चिट्ठित्तए (कप्प ) । कृ चिट्ठणिज, चिट्ठिअव्व ( उप २६४ टी भग) । चिट्ठ देखो चेट्ठ । वकू. चिट्टमाण (पंचा २) । चितुव[स्था] बैठनेवाला, ठहरनेवाला (भग ११, ११; दसा ३) । चिन [स्थान] खड़ा रहना (पव २) । चिट्ठण न [ चेष्टन ] चेष्टा, प्रयत्न (हि २२) । चिट्ठा [स्थान ] स्थिति, बैठना, अवस्थान (बृह ६ ) । चिठ्ठा देखो चेट्ठा (सुर ४, २४५; प्रासू १२५) । चिट्ठिय वि [चेष्टित] १ जिसने चेष्टा की हो वह ( परह १, ३, रणाया १, १ ) । २ न. चेष्टा प्रयत्न, ( पह२, ४) । चिट्ठिय वि [स्थित ] १ प्रवस्थित रहा हुआ । २ न. अवस्थान, स्थिति (चंद २०) । चिडिग पुं [चिटिक] पक्षि- विशेष ( परह १, १) । चिण सक [चि] १ इकट्ठा करना । २ फूल वगैरह तोड़कर इकट्ठा करना । चिणइ (हे ४, २३८ ) । भूका. चिरिंग (भग) । भवि. चिहि (हे ४, २४३) । कमं. चिणिज्जइ ( ४, २४२) । संकृ. चिणिऊण, चिणेऊण (षड् ) । इकट्ठा किया हुआ चिण देखो चण (श्रा १८ ) । चिण देखो चित्त ( प्राकृ २६ ) । चिणि वि [चित ] (सुपा ३२३, कुमा) । चिणोट्ठी स्त्री [दे] गुरौंजा, घुँघची, लाल रत्ती, गुजराती में 'चरणोठी' (दे ३, १२) । - चिण्ण वि [चीर्ण] १ श्राचरित, प्रनुष्ठित ( उत्त १३) । २ अंगीकृत, श्राहत (उत्त ३१) । ३ विहित, कृत (उत्त १३) । For Personal & Private Use Only चित्त क [ चित्र ] चित्र बनाना, तसवीर खींचना । चित्ते (महा) । कवकृ चित्तिज्जंत ( उप पृ ३४१ ) । चिन्तन [चित्त ] १ मन, अन्तःकरण, हृदय (ठा ४, १; प्रासू ε१; १५५ ) । २ ज्ञान, चेतना ( श्राचा) । ३ बुद्धि, मति ( श्रव ४) । ४ अभिप्राय, आशय (प्राचा) । ५ उपयोग, ख्याल (अणु) 1 ण्णु वि [ज्ञ] दिल का जानकार (उप पृ १७६ ) । निवाइ वि [निपातिन् ] अभिप्राय के अनुसार बरतनेवाला (चा) । 'मंत वि [ वत् ] सजीव वस्तु (सम ३९; आचा) । चित्त देखो चइन्त = चैत्र ( रंभा जं २ कप्प ) 1चित्त न [ चित्र ] १ छवि, श्रालेख्य, तसवीर (सुर १, ८६ स्वप्न १३१) । २ भाश्चर्य, विस्मय (उत्त १३ ) । ३ काष्ठ-विशेष (अनु ५) । ४ वि. विलक्षण, विचित्र (गा ६१२ प्रासू ४२ ) । ५ अनेक प्रकार का, विविध, नानाविध (ठा १० ) । ६ अद्भुत, प्रावयंजनक ( विपा १, ६६ कप्प ) । ७ कबरा, चितकबरा (गाया १, ८) ८ पुं. एक लोकपाल (ठा ४, १ - - पत्र १९७ ) । पर्वत - विशेष ( परह १, ५-पत्र ६४ ) । १० चित्रक, चीता, श्वापद विशेष (गाया १, १ - पत्र ६५) । ११ नक्षत्र विशेष, चित्रा नक्षत्र; 'हत्यो चित्तो य तहा, दस बुद्धिकराई नाणस्स' (सम १७ ) । उत्त पुं [गुप्त ] भरत क्षेत्र के एक भावी जिनदेव (सम १५४ ) । "कणगा स्त्री ["कनका ] देवी- विशेष, एक विद्युत्कुमारी देवी (ठा ४, १) । कम्म न [कर्मन् ] श्रालेख्य, छवि, तसवीर (गा ६१२) । 'कर देखो 'गर (अणु) । कह वि [" कथ] नाना प्रकार की कथाएँ कहनेवाला ( उत्त ३ ) । "कूड पुं [ कूट ] १ सीतानदी के उत्तर किनारे पर स्थित एक वक्षस्कार- पर्वत (जं ४ ) । २ पर्वत - विशेष ( पउम ३३, ९) । ३ न. नगर विशेष, जो प्राजकल मेवाड़ में 'चित्तौड़' नाम से प्रसिद्ध है ( रयण ६) । ४ शिखर - विशेष (ठा २, ३) । कखरा स्त्री [क्षरा ] छन्द-विशेष Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ पाइअसहमहण्णवो चित्तंग-चिर (प्रजि २५)। 'गर पुं[कर] चित्रकार, चितकबरा (पान)। २'. जंगली पशु-विशेष, चिप्पिअ ' [दे] नपुंसक-विशेष, जन्म के चितेरा (सुर १, १०४ रणाया १, ८) हरिण के प्राकारवाला द्विखुरा पशु-विशेष | समय में अंगूठे से मर्दन कर जिसका अंडकोश 'गुत्ता स्त्री [गुप्ता] १ देवी-विशेष, सोम- (जीव १, पएह १, १)। दबा दिया गया हो वह (पव १०६ टी)। नामक लोकपाल की एक अग्र-महिषी (ठा ४, | चित्तलि पुंस्त्री [चित्रलिन] साँप की एक चिप्पिडय पुं[दे] अन्न-विशेष (दसा ६)। १)। २ दक्षिण रुचक पर्वत पर बसनेवाली जाति (पएण १)। चिबुअन [चिबुक] होठ के नीचे का अवएक दिक्कुमारी, देवी-विशेष (ठा ८)। पक्ख | चित्तलिअ वि [चित्रलित, चित्रित] चित्र- यव, ठोढ़ी (कुमा)। ["पक्ष १ वेणु-देव नामक इन्द्र का एक युक्त किया हुआ, 'पढम विप्र दिअद्धे कुड्डो | चिन्भड न [चिर्भिट] खीरा, ककड़ी, फललोकपाल, देव-विशेष (ठा ४, १)। २ क्षुद्र रेहाहि चित्तलिओं' (गा २०८)। विशेष, गुजराती में 'चीभडु' (दे ६, १४८)। जन्तु-विशेष, चतुरिन्द्रिय कीट-विशेष (जीव चित्तविअअ वि [दे] परितोषित (षड्) चिब्भडिया स्त्री [चिभिटिका] १ वल्ली१)। फल, फला, फलय न [फलक चित्तवीणा स्त्री चित्रवीणा वाद्य-विशेष विशेष, ककड़ी का गाछ । २ मत्स्य की एक तसवीरवाला तख्ता (महा: भग १५ पि (राय ४६)। जाति (जीव १) ५१९)। 'भित्ति स्त्री [भित्ति] १ चित्र-चित्ता स्त्रीचित्रा १ नक्षत्र-विशेष (सम २)। चिब्भिड देखो चिब्भड (सुपा ६३०; पाम)। वाली भीत। २ स्त्री की तसवीर (दस)। २ देवी-विशेष, एक विद्यत्कुमारी देवी (ठा | चिमिट्ट वि[चिपिट] चिपटा, बैठा हुआ, "यर देखो गर (गाया १,८)1 रस ४.१)। ३ शक्रेन्द्र के एक लोकपाल की चिमिढ, दबा हुमा (नाक) (गाया १,८; [स] भोजन देनेवाली कल्पवृक्षों की एक ३ शक्रेन्द्र ने स्त्री, देवी-विशेष (ठा ४, १-पत्र २०४)। पि २०७; २४८) । जाति (सम १७ पउम १०२, १२२)। ४ पौषधि-विशेष(सुर १०,२२३; पएण १७) चिमिण वि[दे] रोमश, रोमाञ्चित, पुलकित, "लेहा स्त्री [ लेखा] छन्द-विशेष (पजि चित्ताचिल्लडय। [दे] जंगली पशु-विशेष गद्गद (दे ३, ११ षड् ) । १३)°संभूइय न ["संभूतीय चित्र चित्ताचेल्लरय । (माचा २,१, ५, ३, ४) चिय देखो चेइअ = चैत्या 'सो अन्नया कयाइ मौर संभूत नामक चाण्डाल-विशेष के वृत्तान्त चित्तावडी स्त्री [चित्रपटी] वस्त्र-विशेष, छींट चियपरिवाडि कुणंतमो नयरे' (सम्मत्त १५६)। वाला 'उत्तराध्ययनसूत्र' का एक अध्ययन (उत्त (बूटीदार) मादि कपड़ा; 'उवविट्ठा "चित्ता- चियका) स्त्री [चिता] मुर्दे को फेंकने के १२)। सभा स्त्री [°सभा] तसवीरवाला वडिमसूरयम्मि विन्भमवई कमलया 2 (स चियगा) लिए चुनी हुई लकड़ियों का ढेर गृह (णाया १,८)1°साला स्त्री [शाला ७३८)। | (पएह १, ३–पत्र ४५; सुपा ६५७; स चित्र-गृह (हेका ३३२)। |चित्ति पुं[चित्रिन] चित्रकार, चितेरा (कम्म | ४१६)। चित्तंग पुं[चित्राङ्ग] पुष्प देनेवाले कल्प १, २३)। चियत्त देखो चत्त (भग २, ५; १०, २; वृक्षों की एक जाति (सम १७) ) चित्तिअ वि [चित्रित चित्र-युक्त किया । कप्प, निचू १) । चित्तग देखो चित्त=चित्र (उपपू ३०) हमा (मौपा कप्प, उप ३६१ टी दे १,७५)। चियत्त विदे] १ अभिमत, सम्मत (ठा ३, चित्तजाणुअ देखो चित्त-ण्णु (प्राकृ १८)। चित्तिया स्त्री [चित्रिका] स्त्री-चीता, श्वापद- | ३)। प्रीतिकर, राग-जनक (औप)। ३ चित्तठिअ वि [दे] परितोषित, खुश किया विशेष की मादा (पएण ११)। प्रीति, रुचि । ४ अप्रोति का प्रभाव (ठा ३, हुप्रा (दे ३, १२)। चित्ती देखो चेत्ती (सुन १०, ७)। ३-पत्र १४७)। चित्तण न [चित्रण] चित्र-कर्म (धर्मवि ३४) चित्ती स्त्री चैत्री] चैत्र मास की पूर्णिमा चियया देखो चियगा (पउम ६२, २३)। चित्तदाउ पुं[दे] मधु-पटल, मधपुड़ा (दे | (इक)। चियाग ) देखो चाय = त्याग (ठा ५, १; ३, १२)। चिहविअ) विदे] निर्णाशित, विनाशित | चियाय , सम १६)। चित्तपत्तय ' [चित्रपत्रक] चतुरिन्द्रिय | चिहाविअ (दे ३, १३; पापः भवि) चिर न [चिर] १ दीर्घ काल, बहुत काल जीव की एक जाति (स्त ३६, १४६)।। चिन्न देखो चिण्ण (सुपा ४ सणः भवि)। (स्वप्न ८३; गा १४७)। २ विलम्ब, देरी चित्तपरिच्छेय वि[दे] लघु, छोटा (भग, | चिप्प सक [दे] १ कूटना । २ दबाना । कर्म.. (गा ३४) । ३ वि.दीर्घ काल तक रहनेवाला: 'वि (? चि)-प्पिजसि जं तस्सिं केरणवि गोमद्द "हियइच्छियपियलंभा चिरा सया कस्स जायंति चित्तय देखो चित्त = चित्र (पाम)। वसहेण' (दे २,९६ ट)। संकृ. चिप्पित्ता | (वजा ५२) आरअ वि [कारक] चित्तयलया स्त्री [चित्रकलता] वल्ली-विशेष (बृह २)। विलम्ब करनेवाला (गा ३४)1 जीवि वि (हम्मीर २८)। चिप्पग पुन [दे] कूटी हुई छाला गुजराती में [जीविन्] दीर्घ काल तक जीनेवाला (पि चित्तल वि [दे] १ मण्डित, विभूषित । 'चेपो' (कस २, ३० टि)। ५६७)। जीविअ वि [जीवित दीर्घ २ रमणीय, सुन्दर (दे ३, ४)। | चिप्पड देखो चिविड (धर्मवि २७)।' काल तक जीया हुमा, वृद्ध (वाघ २, ३४)। चित्तल वि [चित्रल] १ चितला, कबरा, चिप्पय देखो चिप्पग (कस २, ३० टि)। । "ट्टिइ, हिइय, द्विईय वि ["स्थितिक] For Personal & Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिर-चिविढ लम्बा प्रायुष्यवाला, दीर्घं काल तक रहनेवाला (भगः सूत्र १, ५, १ ); 'एयाइँ फासाइँ फुसति बालं, निरंतरं तत्थ चिरट्टिईयं' ( सूम्र १, ५, २) । अ [रात्र] बहु काल, दीर्घ काल ( श्राचा) । चिरक [चर ]१ बिलम्ब करना । २ आलस करना । चिरश्रदि (शौ) (पि ४६० ) । चिरं अ [ चिरम् ] दीर्घं काल तक, अनेक समय तक (स्वप्न २६ जी ४९ ) । तण वि ["तन] पुराना, बहुत काल का (महा) 1चिरञ्चयवि [ चिरचित ] चिरकाल से उपचित- इकट्ठा किया हुआ या बढ़ा हुआ (पंच ५, १६७) । चिरडी स्त्री [दे] वर्ण-माला, अक्षरावली; 'डिपि प्रयागंता लोभा लोएहि गोरवन्भहिमा' (दे १, ε१) । चिरडिल्लि [दे] देखो चिरिडिल्लि (पाम ) । चिरमालक [ प्रति + पालय् ] परिपालन करना । चिरमाल ( प्राकृ ७५ ) । चिरया स्त्री [दे] कुटी-झोपड़ी (दे ३, ११) । चिरस [ चिरस्य ] बहुत काल तक (उत्तर १७६६ कुमा) । चिराअ देखो चिर = चिरम् । चिरायइ ( स १२) | चिरासि (मै६२ ) । भवि. चिराइस्सं (गा २० ) । वकृ. चिराअमाण (नाट - मालती २७) । चिराइय वि [ चिरादिक] पुराना, प्राचीन (राया १, १ प ) । चिराईय वि [ चिरातीत ] पुराना, प्राचीन ( विपा १, १ ) । चिराउ [ चिरात् ] चिर काल से, लम्बे समय से (कुप्र ३६७) । चिराणय (अप) वि [चिरन्तन] पुरातन, पुराना, प्राचीन (भवि ) । चिरादण वि [चिरन्तन ] ऊपर देखो (बृह ३) । चिरावक [ [चर ] १ विलम्ब करना । २ श्रालस करना । ३ सक. विलम्ब कराना, रोक रखना चिरावर (भवि ) । चिरावेह (काल); 'माणे चिरावेहि' ( पउम ३,१२९ ) । चिरावि वि [चिरायित ] १ जिसने विलम्ब किया हो वह । २ विलम्बत, रोका गया । ३ न विलम्ब, देरी, 'भरिणम्रो चंदाभाए कि अन चिरावियं सामि !' (पउम १०५, १०१) । पाइअसद्दमहण्णवो चिरिंचिरा स्त्री [दे] जलधारा, वृष्टि (दे ३, १३) । चिरिक्का स्त्री [दे] १ पानी भरने का चर्मभाजन, मशक । २ अल्प वृष्टि । ३ प्रातः काल, सुबह (दे ३, २१ ) । चिरिचिरा [दे] देखो चिरिंचिरा (दे ३, १३) । चिरिडी देखो चिरडी (गा १९१ अ ) । चिरिडिहिल न [दे] दधि, दही (दे ३,१४)। चिरिहिट्टी स्त्री [दे] गुञ्जाः घुंगची, लाल रत्ती (दे ३, १२) । चिलाअ [[किरात] १ श्रनायें देश-विशेष | २ किरात देश में रहनेवाली म्लेच्छ-जाति, भिल्ल, पुलिंद (हे १, १८३ २५४ परह १, १ श्रप; कुमा) । ३ धन सार्थवाह (व्यापारी) का एक दास - नौकर (खाया १, १८) । चिलाइया स्त्री [किरातिका ] किरात देश की रहनेवाली स्त्री, किरातिन ( खाया १, १ ) चिलाई स्त्री [किराती ] ऊपर देखो (इक) । पुत [पुत्र ] एक दासी पुत्र धौर जैनमहर्षि (पडि गाया १, १८) चिलाद देखो चिलाअ ( प्राकृ १२ ) । चिलिचिलिआ स्त्री [दे] धारा, वृष्टि (षड् )। चिलिचि लिय वि [दे] भीजा या भींगा हुआ, भद्रित, गोला ( तंदु ३८ ) । चिलिचिल्ल | वि[दे] श्रार्द्र, गीला ( परह चिलिचिल १. ३ –पत्र ४५; दे ३, चिलिचील | १२) । चिलिण [दे] देखो चिलीण; 'छक्कायसंजमम्मि चिलि सेहन्महाभावी' (प्रोघ १६५) । चिलिमिणी [दे] यवनिका, परदा, चिलिमिलिगा श्राच्छादन-पट ( श्रोष भा चिलिमिलिया चिलिमिली सूम २, २,४८० कस श्रोघ ७८ ८० ) । चिलीण न [दे] प्रशुचि, मैला, मल-मूत्र; ‘सबंति चिलोणे मच्छियाओ घणचंद मोत्तुं' ( उप १०३१ टी ) । चिल्ल पुं [दे] १ बाल, बच्चा, लड़का (दे ३, १०) । २ चेला, शिष्य ( श्रवम) चिल्ल पुं [चिल्ल] १ वृक्ष-विशेष (राज) । २ न. पुष्प - विशेष । For Personal & Private Use Only ३२७ 'पूयं कुति देवा, कंचरण कुसुमेसु जिवरिदाणं । इह पुरा चिल्लदलेसुं, नरेण पूया विरइयव्वा ।।' ( पउम ६६, १९ ) । चिल्लन [दे] सूर्प, सूप, छाज ( प्राकृ २८ ) । चिल्लअ न [दे] देदीप्यमान, चमकताः 'मंडयोगप्पगारएहि केहि केहिंवि श्रवंगविलयपत्तलेहनामएहि चिल्लएहि' (प्रजि २८ औप ) । चिल्लग [दे] देखो चिल्लिय (पह १,४पत्र ७१ टी ) । चिल्लड [] देखो चिल्लल (दे) (प्राचा २, ३, ३) । चिल्ली [चिल्लणा] एक सती स्त्री, राजा क की पत्नी (पडि) 1 चिल्लय न [दे] प्रपचक्षु, खराब घाँख (पह १, १ टी -पत्र २५) । चिल्लल पुं [चिल्वल ] १ प्रनायें देश-विशेष । २ उस देश का निवासी (इक) 1 चिलल पुंखी [दे] १ श्वापद पशु- विशेष, चीता (परह १, १ -पत्र ७ गाया १,१ - पत्र ६५) । स्त्री. 'लिया (पराग ११) । न. काँदोवाला जलाशय, छोटा तलाव मादि (गाया १, १ - पत्र ६३) । ३ देदीप्यमान, चमकता (गाया १, १६ -पत्र २११) । चिह्ना [दे] चील, पक्षि- विशेष, शकुनिका (दे ३, १८, ८ पान ) । चिल्लिय वि [दे] १ लोन, श्रासक्त (गाया १, १) । २ देदीप्यमान (गाया १, १ श्रौप (कप्प ) । चिल्लिरि पुं [दे] मशक, मच्छर, क्षुद्र जन्तुविशेष (दे ३, ११) 1 चिल्लूर न [दे] मुसल, एक प्रकार की मोटी लकड़ी जिससे चावल आदि मन कूटे जाते हैं (दे ३, ११) । चिल्हय पुं [दे] चक्र-मार्ग, पहिये की लकीर, गुजराती में 'चीलो' (सुपा २८० ) । चिविट्ठ चिविड } वि [चिपिट] चिपटा, बैठाया धँसा हुआ (नाक); 'चिविडनासा' (पि २४८ पउम २७, ३२; गउड) । चिविडा स्त्री [चिपिटा ] गन्ध- द्रव्य-विशेष (दे ३, ७१) । चिविढ देखो चिविड (सुर १३, १८१) । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ पाइअसहमहण्णवो चिहुर-चुक्क चिहुर [चिकुर] केश, बाल (पामा सुपा | करेऊण' (सुपा ५८४) । २ क्षुद्र कीट-विशेष, | चुंचुलि पुं[दे] १ चुंच चोंच । २ जुलुक, २८१)। झींगुर (कुमा; दे १, २६)। पसर, एक हाथ का संपुटाकार (दे ३, २३)। ची । देखो चेइअ (हे १, १५१; सार्थ चीवटी स्त्री [दे] भल्ली, भाला, शन-विशेषचंचलिअ विदे]१ अवधारित, निश्चित । चीअ ५७ ६३)। चीअनचिता मुर्दे को फूंकने के लिए चीवर न[चीवर वस्त्र, संन्यासियों या भिक्षुओं २न. तृष्णा, लालच, सस्पृहता (हे ३,२३)। चनी हुई लकड़ियों का ढेर 'चीए बंधुस्स व ! के पहनने का कपड़ा (सुर ८, १८८; ठा | चुंचुलिपूर पुं [दे] चुलुक चुल्लू, पसर (दे भट्ठिाई रुअई समुच्चिरणइ' (गा १०४)। चीइ देखो चेइअ (सुर ३, ७५)। चीहाडी स्त्री [दे] चीत्कार, चिल्लाहट, पुकार, चुछ वि [दे] परिशोषित, सूखाया हुआ (दे चीड वि [दे] काला काँच की मणिवाला | हाथी की गर्जना या चिघाड़ना (सुर १०, ३, १५)। चुंछिअ वि [दे] सूखा हुआ, परिशोषितः (सिरि ९८०)। | १८२)। चीण वि [चीन] १ छोटा, लघु, 'चीणचिमि-चीही स्त्री [दे] मुस्ता का तृण-विशेष (दे ३, 'चुंछियगल्लं एयं, मा भत्तार हला कुणसु' (सुपा ३४६)। ढवंकभग्गणास' (णाया १, ८-पत्र १३३)। १४; ६२)। २ पुं. म्लेच्छ देश-विशेष, चीन देश (पएह | चु अक [च्यु] १ मरना, जन्मान्तर में जाना। चुंट सक [चि फूल वगैरह को तोड़ कर १, १, स ४४३) । ३ चीन देश का निवासी, २ गिरना । भवि. चइस्सामि (कप्प)। संकृ. इकट्ठा करना । वकृ. चुंटंत (सुपा ३३२)। चीनी या चीना (पण्ह १,१). ४ धान्य-विशेष, चइऊण, चइत्ता, चइअ (उत्त ६ ठा चुटिर विदे] चुननेवाला (दे६, ११६ टी)। व्रीहि का भेद (सण); 'चीणाकूर छलिया- ८. भग)। कृ. चइयव्व (ठा ३, ३)। चुंढी स्त्री [दे] थोड़ा पानीवाला अखात जलातक्केण दिन्न' (महा)। पट्ट पुं [पट्ट] चुअ अक [श्चुत् ] झरना, टपकना। शय (णाया १, १-पत्र ३३)। चीन देश में होनेवाला वन-विशेष (पएह १, चुअइ (हे २, ७७)। चुपालय [दे] देखो चुप्पालयः ४)। °पिटु न [°पिष्ट] सिन्दूर-विशेष (राय; | चुअ सक [ त्यज् ] त्याग करना, परिहार 'ताव य सेज्जासु ठियो, पएण १७)। करनाः 'एयमटुंमिगे 'ए' (सूम १, १, २, चंदगइखेयरो निसासमए । चीणंसु [चीनांशु, क] १ कीट-विशेष, १२) पालएण पेच्छइ, चीणंसुय। जिसके तन्तुओं से वस्त्र बनता है चुअवि [च्युत] १ च्युत, मृत, एक जन्म निवडतं रयणपज्जलिय' (बृह १)। २ चीन देश का वस्त्र-विशेष से दूसरे जन्म में अवतीर्ण (भगः महा; ठा (पउम २६, ८०)।घीणंसुसमूसियधयविराइय' (सुपा ३४ अणु, ३, १)। २ विनष्टः 'चुपकलिकलुस (अजि चुंब सक [चुम्ब] चुम्बन करना। चुबइ १८)। ३ भ्रष्ट, पतित (णाया १, ३) २)। चीया स्त्री. देखो चीअ = चिता: 'चीयाए चुइ स्त्री [च्युति च्यवन, मरण (राज)। (हे ४, २३९)। वकृ. चुंबत (गा १७६; ५१९)। कवकृ. चुबिज्जत (से १, ३२)। पक्खिउं तत्तो उद्दीविभो जलणो' (सुर ६, चुंकारपुर न [चुकारपुर] एक नगर (सम्मत्त १४५)। संकृ. चुंबिवि (अप) (हे ४, ४३६) । कृ. चुचुअ ' [दे] शेखर, अवतंस, मस्तक का चुंबिअव्व (गा ४६५)। चीर न [चीर] वस्त्र-खण्ड, कपड़े का टुकड़ा भूषण (दे ३, २६)। चुंबण न [चुम्बन] चुम्बन, चुम्बा चूमा (गा (मोघ ६३ भा श्रा १२; सुपा ३६१)1 कंडूस | चुचुअ पुं[चुञ्चुक] १ म्लेच्छ देश-विशेष। २१३; कप्पू)। गपट्ट [कण्डूसकपट्ट] जैन साधुनों का २ उस देश में रहनेवाली मनुष्य जाति चुंबिअ वि [चुम्बित] १ चुम्बा लिया हुआ, एक उपकरण, रजोहरण का बन्धन-विशेष कृत-तुम्बन । २ न. चुम्बन, चुम्बा (दे ६, (निचू ५)। चुंचुण पुं [चुचुन] इभ्य (धनी) जाति- ९८)। चीरग पु[चीरक] नीचे देखो (गच्छ २)। विशेष, एक वैश्य-जाति (ठा ६–पत्र ३५८) चुंबिर वि [चुम्बित्] चुम्बन करनेवाला चोरिय पुंचीरिक] १ रास्ता में पड़े हुए चुंचुणिअ वि [दे] १ चलित, गत । २ (भवि)। चीथड़ों को पहननेधाला भिक्षुक । २ फटा-टूटा च्युत, नष्ट (दे ३, २३)। चुंभल पुं[दे] शेखर, अवतंस, शिरो-भूषण कपड़ा पहननेवाली एक साधु-जाति (णाया चुंचुणिआ स्त्री [दे] गोष्टी की प्रतिध्वनि।। (दे ३, १६)। १, १५-पत्र १९३)। २ रमण, रति, संभोग । ३ इमली का पेड़ । चुक भक [भ्रंश] १ चूकना, भूल करना । चीरिया स्त्री [चीरिका] नीचे देखो (सुर ८, ४ युत-विशेष, मुष्टि-बूत । ५ यूका, खटमल, | २ भ्रष्ट होना, रहित होना, वन्चित होना। १८८)। क्षुद्र कीट-विशेष (दे ३, २३)। ३ सक. नष्ट करना, खण्डन करना । चुक्कइ चीरी स्त्री [चीरी] १ वस्त्र-खण्ड, वस्त्र का चुंचुमालि वि [दे] १ प्रलस, मालसी, दीर्घ-1 (हे ४, १७७; षड् ); 'सो सम्वविरइवाई, ट्रकड़ा. 'तो तेण निययवत्थंचलाउ चीरीउ। सूत्री (दे ३,१८) चुक्कइ देसं च सव्वं च (विसे २६८४)। For Personal & Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुक-चुल्ल पाइअसद्दमण्णवो ३२६ चुक्क वि [भ्रष्ट] १ चूका हुमा, भूला हुमा, अप्रीति । ५ व्यतिकर, सम्बन्ध । ६ वि. अल्प, | चुन्नण न [चूर्णन] चूर-चूर करना (रवा विस्मृत; 'चुक्कसकेमा', 'चुक्कविणपम्मि' थोड़ा । ७ मुक्त, त्यक्तः । ८ प्राघात, सूंघा (गा ३१८, १९५) । भ्रष्ट, वञ्चित, रहित | हुआ (दे ३, २२)। चुन्नि देखो चुण्णि (विचार ३५२; चंड)। 'दसणमेत्तपसरणे चुक्का सि सुहाण बहुप्राणं चुणिअ वि [दे] विधारित, धारण किया चुन्निअ देखो चुण्णिअ (पएह २, ४)। (गा ४६५; चउ ३६; सुपा ८७)। ३ अन- हुमा (दे ३. १५)। चुनिआ देखो चुण्णिआ (भास ७)।वहित, बे-ख्याल (से १, ६) चुण्ण सक [चूर्णय ] चूरना, टुकड़ा-टुकड़ा चुप्प वि [दे] सस्नेह, स्निग्ध (दे ३, १५) ।। चुक्क पुं[दे] मुष्टि, मुट्ठी (दे ३, १४)। करना । संकृ. चुण्णिय (राज)। चुप्पल पुं[दे] शेखर, अवतंस (दे ३, १६)। चुक्कार पुं[दे] पावाज, शब्द (से १३, चुण्ण पुन [चूर्ण ] १ चूर्ण, पूर, बुकनी, चुप्पलिअ न [दे] नया रंगा हुआ कपड़ा २५)। बारीक खण्ड (बृह १ हे १, ८४ प्राचा)। । (दे ३, १७)। चुक्कुड ( [दे] छाग, बकरा, अज (दे २ पाटा, पिसान (पाचा २,२,१)। ३ घूली, चुप्पालय पुंदे] झरोखा, गवाक्ष, वातायन, रज, रेण (दे ३,१७)। ४ गन्ध द्रव्य का रज, | जंगला (दे ३.१७)। चुक्ख [दे] देखो चोक्ख (सूक्त ४६)। बुकनी (भग ३, ७)। ५ चूना (हे १, ८४० चुरिम न [दे] खाद्य-विशेष (पव ४)।चुचुग । न [चूचुक] स्तन का अग्र भाग, विपा १, २)। ६ वशीकरणादि के लिए चुलचुल प्रक [चुलचुलाय् ] उत्कण्ठित चुच्चुय थन का वृन्त, चूची (पराह १, ४, किया जाता द्रव्य-मिलान (णाया १, १४)। होना, उत्सुक होना। वकृ. चुलचुलंत (गा राय)। 'कोसय न [कोशक भक्ष्य-विशेष (पएह ४८१)। चुचूय पुंन [चुचूक] स्तन का अग्र भाग, | २,५)।। चुलणी स्त्री [चुलनी] १ दुपद राजा की स्तनों की गोलाई, चूची (राय ६४)।- चुण्ण न [चौर्ण] पद-विशेष, गम्भीरार्थक पद, स्त्री (णाया १, १६, उप ६४८ टी)। चुच्छ वि [तुच्छ] १ अल्प, थोड़ा, हलका। महार्थक शब्द (दसनि २)। २ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की माता (महा)1°पिय २ हीन, जघन्य, नगण्य (हे १, २०४० चुण्णइअ वि [दे] चूर्णाहत, चूरन से पाहत; g["पितृ] भगवान् महावीर का एक मुख्य षड्) जिस प्रकार चूर्ण फेंका गया हो वह (दे ३, उपासक (उवा)। चुज न [दे] माश्चर्य (द ३, १४, सठ्ठि । १७; पात्र)। चुलसी स्त्री [चतुरशीति] चौरासी; अस्सी चुण्णा पुं [चूर्णक] वृक्ष-विशेष (प्राचा २, | और चार, ८४ (महा: जी ४७); 'चुलसीए चुडण न [दे] जीर्णता, सड़ जाना (ोध | १०, २३)। नागकुमारावाससयसहस्सेसु' (भग)। ३४६)। चूण्णा स्त्री चूिर्णा] छन्द-विशेष, वृत्त-विशेष चलसीड देखो चलसी (पउम २०. १० चुलिअ न [दे] गुरु-वन्दन का एक दोष, (पिंग)। जं २)। चुण्णाआ स्त्री [दे] कला, विज्ञान (दे ३, चुलिआला स्त्री [चुलियाला] छन्द विशेष वन्दन करना (गुभा २५)। (पिंग)। चुडली [दे] देखो चुडुली (पव २)। । चुण्णासी स्त्री [दे] दासी, नौकरानी (दे ३, चुलुअ पुंन [चुलुक] चुल्लू, पसर, एक हाथ चुडिली देखो चुडुली (तंदु ४६)। का संपुटाकार (दे ३, १८; सुपा २१६ चुण्णि स्त्री [चूर्णि] ग्रन्थ की टीका-विशेष चुडप्प न [दे] १ खाल उतारना (दे ३, ३)। प्रासू ५७)।(निचू)। २ घाव, क्षत (गउड)। ३ चमड़ी, त्वचा चुलुक्क देखो चालुक्क (द १, ८४ टी) ।" चुण्णिअ वि [चूर्णित] १ चूर-चूर किया हुआ (पास)। चुलुचुल प्रक [स्पन्द् ] फड़कना, फरकना, (पान) । २ धूली से व्याप्त (दे ३, १७)। चुडुप्पा स्त्री [दे] त्वचा, चमड़ी, खाल (दे थोड़ा हिलना । चुलुबुलइ (हे ४, १२७)। चुण्णिआ स्त्री [चूर्णिका] भेद-विशेष, एक चुलुचुलिअ वि [स्पन्दित] १ फरका हुमा, तरह का पृथग्भाव, जैसे पिसान का अवयव चुडुली स्त्री [दे] उल्का, अलात, जलती हुई कुछ हिला हुआ। २ न. स्फुरण, स्पन्दन लकड़ी, उल्मुक (दे ३, १५, पामः सुर १३, अलग-अलग होता है (परण ११)। (पास)। १५६ स २४२)। चण्णिय वि [चूर्णिक] गणित-प्रसिद्ध सर्वा-चुलुप्प पुं[दे] छाग, प्रज, बकरा (दे ३, चुण सक [चि] चुनन, चुगना, पक्षियों का | बशिष्ट अंश (सुज्ज १०, २२–पत्र १८५; १६)। खाना। चुरणइ (हे ४, २३८); 'कानो लिंबो| १२-पत्र २१९) | चुल्ल ( [दे] १ शिशु, बालक । २ दास, हलि चुराई' (सूक्त ८६)। चुदस देखो चउ-हस (सुर ८, ११८)। नौकर (दे ३, २२)। ३ वि. छोटा, लघु चुणअ [दे] १ चाण्डाल । २ बाल, बच्चा। चुन्न देखो चुण्ण (कुमाः ठा ३, ४ प्रासू (ठा २, ३)1 ताय पुं[तात पिता का ३ छन्द, इच्छा । ४ प्रचि, भोजन की। १० भाव २; पभा ३१)। | छोटा भाई, चाचा (पि ३२५)। "पिउ पुं ४२ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० पाइअसद्दमहण्णवो चुल्लग-चेइ [पित] चाचा, पिता का छोटा भाई (विपा चूडा देखो चूला (सुर २, २४२, गउड; प्रयुत को चौरासी लाख से गुणने पर जो १,३)५°माउया स्त्री ['मातृ १ छोटी माँ, | गाया १, १, सुपा १०४)। संख्या लब्ध हो वह (ठा २, ४ जीव ३)। माता की छोटी सपत्नी, विमाता, सौतेली माँ चूडल्लअ (अप) देखो घृड (हे ४. ३६५) चूलिया देखो चूला (सम ६६; सुर ३, १२, (उप २६४ टीः रणाया १,१; विपा १, ३)। चूर सक [चूरय , चूर्णेय ] खण्ड करना, | एंदि; निचू १; ठा ४, ४)।' २ चाची, पिता के छोटे भाई को स्त्री (विपा १, तोड़ना, टुकड़ा-टुकड़ा करना। चूरेमि (धम्म चूव (अप) देखो चूअ (भवि)। ३–पत्र ४०)। सगय, सयय पुं. ६ टी)। भवि. चूरइस्सं (पि ५२८)। वकृ. चूह सक [क्षिप्] फेंकना, डालना, प्रेरणा। [°शतक] भगवान् महावीर के दश मुख्य चूरंत (सुपा २६१, ५६०)। चूहइ (षड् ) उपासकों में से एक (उवा)। हमवंत पुं चूर (अप) पुन [चूर्ण] चूर, भुरभुरः 'जिह चे प्र[चेत् ] यदि, जो, अगर (उत्त १६); [हिमवत् ] छोटा हिमवान् पर्वत, पर्वत. गिरसिंगहु पडिअ सिल, अन्नुवि चूरु करेइ' | ‘एवं च को तित्थं, न चेदचेलोत्ति को विशेष (ठा २, ३; सम १२; इक)। हिम(हे ४, ३३७)। गाहो?' (विसे २५८६)। वंतकूड न [ हिमवत्कूट] १ क्षुद्र हिमवान् चे देखो चय = यज्। चेइ, (भाचा)। संकृ. चूरण देखो चुन्नण (कुप्र २.३)। पर्वत का शिखर-विशेष । २ पुं. उसका | चेचा (कप्पा मोप)। अधिपति देव-विशेष (जं ५)। हिमवंतचूरिअ वि [चूर्ण, चूर्णित] चूर-चूर किया |चे । देखो चि। चेइ. चेअइ, ए, चेअए गिरिकुमार पुं [हिमवगिरिकुमार] हुआ, टुकड़ा-टुकड़ा किया हुग्रा (भवि)। चेअ(षड्)। देव-विशेष, जो क्षुद्र हिमवत्कूट का अधिष्ठायक | चूरिम पुन [दे] मिठाई विशेष, चूर्मा लड्डू चेअक [चित् ] १ चेतना, सावधान है (जं ४)/ (पव ४ टी)। होना, ख्याल रखना। २ सुष पाना, स्मरण चुल्लग न [दे] संदूक (कुप्र २२७ २२८)। चूल' देखो चूला। मणि न [ मणि]| करना, याद पाना। चेयइ (स ५३८)। ३ चुल्लग [दे देखो चोल्लक (प्राक) विद्याधरों का एक नगर (इक)। सक. जानना। ४ अनुभव करना। चेयए चुल्लिो (पावम)। चूलअ [दे] देखो चूड (नाट)। स्त्री [चुल्लि, 'ल्ली] चूल्हा, जिसमें | | चेअ सक [चेतय ] १ ऊपर देखो। २ चुल्ली आग रखकर रसोई की जाती है वह चूला श्री [चूडा] १ चोटी, सिर के बीच की देना, अपरण करना, वितरण करना । ३ (दे १, ८७; सुर २, १०३)।। केश-शिखा (पास)। २ शिखर, टोंचा 'प्रवि चुल्ली स्त्री [दे] शिला, पाषाण-खण्ड ( दे | करना, बनाना; 'जो अंतराय चेएई (सम चलइ मेरुचूला (उप ७२८ टी)। ३ मयूर ५१) । चेराइ, चेएसि, चेएमि (प्राचा)। वकृ. शिखा। ४ कुक्कुट-शिखा। ५ शेर की चुल्लुच्छल प्रक [दे] छलकना, उछलना; केसरा। ६ कुंत वगैरह का अग्र भाग। ७ चेते[ए]माण (ठा ५, २-पत्र ३१४; 'चुल्लुच्छलेइ जे होइऊण्यं, रित्तयं कणकरणेइ। सम ३६) विभूषण, अलंकार; भरियाई ण खुम्भंती सुपुरिसविन्नाणभंडाई ।' 'तिविहा य दव्वचूला,सञ्चित्ता मोसगा य प्रचित्ता। चेअ अ [एव] अवधारण सूचक अव्यय, (सूअनि ६६ टी)। निश्चय बतानेवाला अव्यय (हे २, १८४)। कुक्कुड सीह मोरसिहा, चूलामणि अग्गकुंतादी। चुल्लोडय पुं[दे] बड़ा भाई (दे ३, १७)। चेअ न [चेतस्] १ चेत, चेतना, ज्ञान, चूला विभूसणंति य, सिहरंति य होंति एगट्ठा चूअ [दे] स्तन-शिखा, थन का अग्न भाग, चैतन्य (विसे १६६१; भग १६)। २ मन, (निचू १)। चूची (दे ३, १८)। चित्त, अन्तःकरण (दस ५, १, ठा ६, २)।' ८ अधिक मास । ६ अधिक वर्ष। १० ग्रन्थ चेइ [चेदि] देश-विशेष (इक सत्त ६७ चूअ ' [चून] १ वृक्ष-विशेष, माम्र, प्राम का परिशिष्ट (दसचू १) । कम्म न ["कर्मन] टी)Y वइ पुं [ पति] चेदि देश का राजा का गाछ (गउड; भगः सुर ३, ४८)। २ संस्कार-विशेष, मुण्डन (आवम)। मणि (पिंग)V देव-विशेष (जीव ३) । वडिसगन [वतं- पुंस्त्री [मणि] १ सिर का सर्वोत्तम आभूषण चेई पुन [चैत्य] १ चिता पर बनाया सक] सौधर्म विमान-विशेष (राय)। वडिंसा विशेष, मुकुट-रत्न. शिरो-मणि (प्रौपः । चेअ) हुआ स्मारक, स्तूप, कबर या कब्र वगैस्त्री [वतंसा] शक्रेन्द्र को एक अग्र-महिषी, राय)। २ सर्वोत्तम, सर्व-श्रेष्ठ; 'तिलायचूला रह स्मृति चिह्न 'मडयदाहेसु वा मडयथूभियासु इन्द्राणी-विशेष (इका जीव ३)। मणि नमो ते' (घण १)। वा मडयचेइएसु वा (माचा २, २, ३)। चूआ स्त्री [चूता शक्रेन्द्र की एक अग्र- चूलिय पुंचूलिक] १ अनार्य देश-विशेष । २ व्यन्तर का स्थान, व्यन्तरायतन (भगः महिषी, इन्द्राणी-विशेष (इका ठा ४, २)। २ उस देश का निवासी (पएह १,१)। ३ उवाः राय; निर १, १; विपा १,१, २)। चूचुअ पुन [चूचुक] स्तन का अग्रभाग स्त्रीन. संख्या विशेष, चूलिकांग को चौरासी ३ जिन-मन्दिर, जिन-गृह, प्रहन्मन्दिर (ठा (प्राकृ ११) लाख से गुणने पर जो संख्या लब्ध हो वह ४,२-पत्र ४३०, पंचभा, पंचा १२ चूड [दे] चूड़ा, बाहु-भूषण, वलयावली (इका ठा २, ४)। स्त्री. या (राज)। महा द्र ४, २७); 'पडिमं कासी य चेइए (दे ३, १८७, ५२, ५६; पाप्र)। चूलियंग न [चूलिकाङ्ग] संख्या-विशेष, रम्मे' (पव ७६)। ४ इष्ट देव की मूर्ति, For Personal & Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइअ-चोअअ पाइअसहमहण्णवो ३३१ अभीष्ट देवता की प्रतिमाः 'कल्लारणं मंगलं । अगारीहिं प्रगाराई चेइमाई भवंति (माचा २, 'ईसादासेण प्राविठे, कलुपाविलवेयसे ।। चेइयं पज्जुवासामो' (प्रौपः भग)। ५ अहं- १, २, २), 'चेइमं कइमेग?' (बृह २, कस) जे अंतरायं चेएइ, महामोहं पकुव्वई प्रतिमा, जिन-देव की मूत्ति (ठा ३, १; उवाः चेंध देखो चिंध (प्राप्र)। (सम ५१)। परह २, ३, आव २; पडि); 'बिइएवं चेच्चा देखो चे = त्यज् । चेया देखो चेयणाः 'पत्तेयमभावाप्रो, न रेणुउप्पाएणं नंदीसरवरे दीवे समोसरणं करेइ, | चे? अक [चेष्ट्] प्रयत्न करना, आचरण । तेल्लं व समुदए चेया' (विसे १६५२) तहिं चेइयाई वंदइ' (भग २०, ६); "जिण- करना । वकृ. चेटुमाण (काल)। चेल नाचेला वस्त्र, कपड़ा (प्राचा बिबे मंगलचेश्यंति सययन्नुणो बिति' (पव चेटू देखो चिट्ठ = स्था (दे १, १७४)। चेलय । औप) । कण्ण न [कर्ण] ७६)। ६ उद्यान, बगीचा; 'मिहिलाए चेइए चेट्टण न [स्थान स्थिति, अवस्थान (वव ४)। व्यजन-विशेष, एक तरह का पंखा (स ५४६)वच्छे सीअच्छाए मणोरमे (उत्त ६.६)। ७ चेटण देखो चिठ्ठण = चेष्टन (उपपं ११)। गोल न [गोल] वस्त्र का गेंद कन्दुक सभा-वृक्ष, सभा-गृह के पास का वृक्ष । ८ चबूतरा- चेट्ठा स्त्री [चेष्टा] प्रयत्न, पाचरण (ठा ३, (सूम १, ४, २)। "हर न [गृह] तम्बू, वाला वृक्ष । ६ देवों का चिह्न-भूत वृक्ष। १० | १, सुर २, १०६)। | पट-मण्डप, रावटी (स ५३७)।वह वृक्ष जहाँ जिनदेव को केवल ज्ञान उत्पन्न चेट्रिय देखो चिट्रिय = चेष्टित (प्रौपः महा) चेलय न [दे] तुला-पात्र; "दिलीतूलाए भुवणं, होता है (ठा ८ सम १३:१५६)। ११ वृक्ष, चेड दे] बाल, कुमार, शिशु (दे ३,१०० तुलंति जे चित्तचेलए निहियं' (वजा ५६)। पेड़; 'वारण हीरमाणम्मि चेइयम्मि मणोरमे पाया १, २; बृह १)। चेलिय देखो चेल: 'रयणकंचरणचेलियबहुधन्नचेड (उत्त ६, १०)। १२ यज्ञ स्थान । १३ | भरभरिया' (पउम ६६, २५; आचा)। पुं [चेट, क] १ दास, नौकर मनुष्यों का विश्राम-स्थान ( षड्; हे २, चेडग (औप; कप्प) । २ नृप-विशेष, चेल्प न [दे] मुसल, मूषल (दे ३, ११)।' चेडय) वैशालिका नगरी का एक स्वनाम चेल्ल) [दे] देखो चिल्ल (द) (पउम ६७, १०७)। खंभ पुं[स्तम्भ] स्तूप, थूभ, प्रसिद्ध राजा (पाचू १, भग ७,६ महा)। चेल्लअ १३, १६ स ४६६ दसनि १ (सम ६३, राय; सुज्ज १८)। 'घर न ३ मैला देवता, देव की एक जघन्य जाति | उप २६८)। [गृह जिन-मन्दिरः अहंन्मन्दिर (पउम २, | (सुपा २१७)। चेल्लग ) [दे] देखो चिल्लग (पएह १, १२; ६४, २६)1 जत्ता स्त्री [ यात्रा चेडिआ स्त्री [चेटिका] दासी, नौकरानी चेल्लय। ४-पत्र ६८ ती ३३)। जिन-प्रतिमा-सम्बन्धी महोत्सव-विशेष (धर्म (भग ६, ३३; कप्पू)। चेव प्र [एव, चैव] १ अवधारण सूचक ३)। थूभ [स्तूप] जिन-मन्दिर के चेडी स्त्री चेटी] ऊपर देखो (प्रावम)। अव्यय, निश्चयदर्शक शब्द; 'जो कुणइ परस्स समीप का स्तूप (ठा ४, २ ज १)। दव्व चेडी स्पीमारी. बाला. लडकी (पान दुहं पावइ तं चेव सो प्रणंत-गुणं (प्रासू २६: न ["द्रव्य देव-द्रव्य, जिन-मन्दिर-संबंधी चेत्त न [चैत्य] चैत्य-विशेष (षड् ) । महा); 'अवहारणे चेवसद्दो यं' (विसे स्थावर या जंगम मिल्कत (वव ; पञ्चभाः चेत्त चैत्र १ मास-विशेष, चैत मास ३५६५)। २ पाद-पूरक अव्यय (पउम ८, उप ४०७; द्र ४)1 परिवाडी स्त्री [ परि (सम २६; हे १, . १५२)। २ जैन मुनियों ८८)। पाटी] क्रम से जिन मन्दिरों की यात्रा (धर्म का एक गच्छ (बृह ६)। चेव प्र[इव] सादृश्य-द्योतक अव्यय, 'पेच्छइ २)1 'मह पुं[मह] चैत्य-सम्बन्धी उत्सव चेत्ती स्त्री [चैत्री] १ चैत मास की पूरिणमा। गरणहरवसह सरयरवि चेव तेएणं' (पउम ३, (आचा २, १, २) । रुक्ख पुं[वृक्ष] २ चैत मास की अमावस (सुज १०, ६)। ४; उत्त १६, ३)। १ चबूतरावाला वृक्ष, जिसके नीचे चौतरा चेदि देखो चेइ (सण)। चो देखो चउ (हे १, १७१, कुमाः सम ६०; बांधा हो ऐसा वृक्ष । २ जिन-देव को जिसके | चेदीस पुं[चेदीश] चेदि देश का राजा औपः भग; रणाया १,१; १४; विपा १, १; नीचे केवल ज्ञान उत्पन्न होता है वह वृक्ष । (सण)। __ सुर १४, ६७)। आला स्त्री [°चत्वारिं३ देवताओं का चिह्न भूत वृक्ष । ४ देव-सभा चेयग वि[चेतक] दाता, देनेवाला ( उप | शत् ] चालीस और चार, ४४ (वसे २३०४)। के पास का वृक्ष (सम १३, १५६ ठा८)। ९५७)। वट्रि स्त्री [°षष्टि] चौसठ, ६४ (कप्प) । 'वन्दण न ["वन्दन] जिन-प्रतिमा की चेयण चेतन] १ आत्मा, जीव, प्राणी | वत्तरि स्त्री [°सप्तति] सत्तर और चार, ७४ मन, वचन और काया से स्तुति (पव १; (ठा ४,४)।२ वि. चेतनावाला, ज्ञानवाला (सम ८४)। संघ १; ३)। वंदणा स्त्री [°वन्दना] | भुवि चेयणं च किमरूवं' (विसे १८४५)। चोअ सक [चोदय] १ प्रेरणा करना। वही पूर्वोक्त अर्थ (संघ १)। वास पु चेयणा स्त्री [चेतना ज्ञान, चेत, चैतन्य, सुध, | २ कहना। चोएइ (उवः स १५) । कवकृ. [°वास जिन-मन्दिर में यतियों का निवास | ख्याल (प्राव ६ सुर ४, २४५)। चोइज्जत, चोइजमाण (सुर २,१० पाया (दस)। हर देखो "घर (जीव १, पउम चेयण नचैतन्य] ऊपर देखो (विसे १, १६) । संकृ. चोइऊण (महा)। ९५, ६२, सुपा १३, द्र ६५, उवर १६०)। चेयन्न । ४७५, सुपा २०सुर १४, ८)। चोअअ वि [चोदक] प्रेरक, प्रश्न-कर्ता, पूर्वचेइअ वि [चेतित] कृत, विहितः 'तत्थ २ चेयस देखो चेअ = चेतस् । पक्षी (अणु)। For Personal & Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ पाइअसहमणव चोणअ न [चोदन ] प्रेरण, प्रेरणा (भत्त चोप्पड न [म्रक्षण] घी, तेल वगैरह स्निग्ध ३६६ उत्त २८ ) | व्ययस्स जोगं विचिदिकायो वस्तु प्रश्न करता २ चोइ वि [चोदित] प्रेरित (स १५ गुपा १५०; प; महा) । चोर तक [ चोदय् ] सीखना, शिक्षण देना। चोर पोहच चोक [दे] देखो चुक्क = (दे) (महा) 1 चोक्ख वि [दे] चोखा, शुद्ध, शुचि, पवित्र, (या ११ उप १४२१ भग, ३३ रायः श्रप) । चोक्खलि वि [दे] चोखाई करनेवाला, शुद्धता वाला (पिंड ६०३) । चोक्खा श्री [चांक्षा] परिव्राजिका-विशेष, इस नाम की एक संन्यासिनी (गाया १, ८ ) । चोज्ज न [दे] श्राचर्य, विस्मय (दे ३, १४; सुर ३, ४, सुपा १०३, सट्ठि १५६; महा) । चोल न [चीर्य ] पोरी, चोर-कर्म 'सहेन हिंसं श्रलियं, चोज्जं श्रबंभसेवणं' (उत्त ३५, ३० गाया १,१८ ) । चोज्जन [ चोद्य] १ प्रश्न, पृच्छा । २ २. सा-योग्य (गा , ४०६ ) 1 चोट्टी श्री [हे] नोटी, शिक्षा दे ३१) चोड न [दे] वृन्त, फल और पत्ती का बन्धन, (विक २८ ) 1 चोट [] विवृ-विशेष बेल का पेड़ (दे ३, १९) । । [] १ कलह, झगड़ा (निचू २० ) २ काष्ठानयन आदि जघन्य कर्म (सू २, २ ) । चोत्त पुन [ दे ] प्रतोद, प्राजन- दण्ड, चोत्तअ ) चाबूक (दे ३,१६३ पात्र) । चोद [ वे ] देखी चोय (पह २, ५ १५०) । चोद देखो चोअअ (प्रोघ ४ भा) । - चोदणा स्त्री [चोदना] प्रेरणा, किसो प्रभाव शाली व्यक्ति की ओर से कुछ कहने या करने के लिए होनेवाला संकेत (घर्मंसं १२४० ) । चोपड सक[_] fनग्ध करना, घी तेल वगैरह लगाना | चोपडा (४, १९१) क्र. चोप्पडमाण (कुमा) । डाई (सुपा ४३० ) । चोपडिय चोप्पाल [] प ४ [चतुष्पाल] सूर्यास देव की धा-शाला (राव १३) । चोपाल न [दे] मत्तवारण, वरण्डा ( जं २) । चोकुल वि [दे] स्निग्ध, स्नेहवाला, प्रेम-युक प्रेमी (३,१५) चोय ? न [दे] त्वचा, छान (पएह २, चोयग । ५ - पत्र १५० टी) । २ ग्राम वगैरह का संछा (निचू १५ प्राचा २, १, १० ) । ३ गन्ध द्रव्य - विशेष (अरण जीव १० राय ) । चोयग देखो चोअअ (दि) । चोयणा स्त्री [ चोदना ] प्रेरणा (स १५; उप ६४ टी)। चोयय पुं [दे] फल- विशेष (अणु १५४) । चोयालीस श्री [चतुत्वारिंशत] पौवा लीस, ४४ (चेइय ३९२ ) । चोर [चोर] तस्कर, दूसरे का पन पुरानेवाला (हे ३, १३४; पह १, ३)। कीड पुं [" कीट] विष्ठा में उत्पन्न होता कीट ( जी १७) । चोरकार पुं [चौर्यकार] चोर, तस्कर 'चोरंकारकरं जं धूलमदत्तं तयं वज्जे' (सुपा ३३४) । चोरग वि [ चोरक] १ चुरानेवाला । २ पुंन. वनस्पति- विशेष (परण १ - पत्र ३४) । चोरण न [चोरण] १ चोरी, चुराना (सुर ८, १२२) । २ वि. चोर चोरी करनेवाला (भवि ) । चोरली स्त्री [दे] श्रावण मास की कृष्ण चतुर्दशी (२, १९) । चोराग [चोराक] संनिवेश विशेष इस नाम का एक छोटा गाँव ( श्रावम) । । चोराव सक [ चोर ] चोरी करना चोरावे ( प्राकृ ६० ) चोरासी । देखो चउरासी (पि४३६ चोरासाइ } ४४६) पर चोरिअन [चौर्य] चोरी, अपहरण (हे २, १०७ ठा १, १; प्रासू ६५; सुपा ३७६ ) । For Personal & Private Use Only चोणअ-- चोव्वड चोरिअ वि [चौरिक] १ चोरी करनेवाला ( ४१ ) २. पर जासूस (पराह १,१) । चोरिअवि [चोरित ] चुराया हुआ (विसे ८५७) । चोरिआ श्री [ चौर्य, चोरिका ] चोरी, अपहरण (गा २०६ षड्; हे १, ३५; सुर६, १७८) । चोरिकन [चौरिय] ऊपर देशो (पराह १,३) । 3 चोरी श्री [चौरी] चोरी (२७) चोल वि [दे] १ वामन, कुब्ज (दे ३, १८) । २. पुरुष चिह्न, लिङ्ग (पव ६१) ३ न. गन्य-द्रव्य-विशेष, मंजिष्ठा (वर ६, ४) । पट्ट [पट्ट] जैन मुनि का कटि-वस्त्र (श्रोघ ३४) । य पुं [ज] मजीठ का रंग (तर ६४ ) 1 न चोल पुं [चोल] देश-विशेष, द्रविड़ और कलिङ्ग के बीच का देश (पिंग; सण) । - चोलअ न [दे] कवच, वर्म (नाट) । पोलअ [चील क] संस्कार- विशेष, चोलग } मुण्डन; 'विहिणा चूलाकम्मं बालागं चोलयं नाम' (प्रावमः परह १, २ ) । चोलुक्क देखो चालुक्क (ती ५) । चोलोयणग [चूलापनयन] १ चूलोपचोलोवणय | नयन, संस्कार- विशेष, मुंडन चोलोवणयण (गाया १, १ - पत्र ३८ ) । J २ शिखा धारण, चूड़ा-धारण (भग ११, ११ - पत्र ५४४ प ) । चोल्लक [दे] देखो चोलग (पएह २, ४ ) । चोलक [] प १२ चोल्लग } श्रावम, उत्त ३) । २ वि. क्षुद्रक, छोटा, लघु ( उप पृ ३१ ) । चोपन [] बोरा, गोक 'परं यम समक्खं तोलेह चोल्लए'; 'राइणा उक्केल्लावियाई चोल्लयाई' (महा) । चोवन्तरि स्त्री [चतुःसप्तति] सत्तर और चार, ७४ (पंच ५, १८ ) । चोवालय पुंग [चतुर्द्वार] चोवारा, ऊपर का शयनगृह; 'इम्रो य एगा देवी हत्थिमिठे श्रासत्ता । णवरं हत्थी चों- ( ? चो ) वालया हत्येण प्रवतारे' (दस २, १० टी) । चोबड देलो चोप्पड ( षड् ) । पोप्पड = Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ བ བ བ གས་འག་ ཝ་ ཐབས ( -छंद पाइअसहमहण्णवो श्चम [एव] अवधारण-सूचक अव्यय (हे २ चिअ देखो चिअ = एव (हे २, १८४ १८४ कुमा; षड्)। कुमा)। देखो चेव = एव (पि ६२ जी ३२)। ॥ इम सिरिपाइअसहमहण्णवम्मि चयाराइसद्दसंकलणो चउहसमो तरंगो समत्तो। छ का १ तालु-स्थानीय व्यजन वर्ण- नउय विणवत] छानबेवा, ६६ वाँ | छ उम पुंप [छद्मन्] १ कपट, शठता, माया विशेष (प्रापः प्रामा)। २ आच्छादन, ढकना: (पउम ९६, ५०)। °प्पण्ण, पन्न स्त्रीन (सम १,षड्)। २ छल, बहाना (हे २, 'छ ति य दोसारण छायणे होइ' (आवम)। पञ्चाशत् ] छप्पन, ५६ (राज; सम ११२; षड्)। ३ प्रावरण, पाच्छादन (सम छ त्रि. ब. [षष् ] संख्या-विशेष, छः; 'छ ७३)1 °प्पन्न वि [पञ्चाश] छप्पनवाँ १.ठा २, १) छडियामो जिणसासणम्मि' (श्रा ६ जी ३२; (पउम ५६, ४८)। भाय पुं[भाग] छउम न [छद्मन] ज्ञानावरणीय प्रादि भग १, ८)। उत्तरसय वि [उत्तर छठवाँ हिस्सा (पि २७०)। भासा स्त्री चार घाती कर्म (चेइय ३४६) । शततम] एक सौ और छठवाँ (पउम १०६, [भाषा] प्राकृत, संस्कृत, मागधी, शौरसेनी, छउमत्थ वि[छमस्थ] १ प्रसवंज्ञ, संपूर्ण ४६)। कम्म न [कर्मन् छः प्रकार के पैशाचिका और अपभ्रंश ये छः भाषाएँ ज्ञान से वञ्चित । २ राग-सहित, सराग (ठा कर्म, जो ब्राह्मणों के कर्तव्य हैं, यथा (रंभा)। 'मासिय, म्मासिय वि [षाण- ४, १, ६, ७)। यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और मासिक] छः मास में होनेवाला, छः मास छउलूअ देखो छलूअ (राजः विसे २५०८)। प्रतिग्रह (निच १३)1 काय न ["काय | सम्बन्धी (सम २१, औप)। वरिस वि | छंकुई स्त्री [दे] कपिकच्छू, वृक्ष-विशेष, वार्षिक] छः वर्ष की उम्रवाला (सार्घ छः प्रकार के जीव, पृथिवी, अग्नि, पानी, केवाँच, कवाछ (दे ३, २४)। वायु, वनस्पति और श्रस जीव (श्रा ७; २६)। वीस देखो °व्वीस (पिंग)। 'विह विविध छः प्रकार का (कसः छट पु[दे] छोंटा, जल का छोटा, जलपंचा १५) । गुण, ग्गुण वि [गुण] च्छटा । २ वि. शीघ्र, जल्दी करनेवाला (दे छगुना (ठा ६; पि २७०)। नव ३)। "व्वीस स्त्रीन [विंशति] चरण पुं [°चरण] भ्रमर, भौंरा (कुमा)। जीवछव्वीस, बीस और छः (सम ४५)1 °वी छंट सक [सिच् ] सींचना। छटसु (सुपा सइम वि [°विंशतितम] १ छब्बीसवाँ निकाय [जीवनिकाय] देखो काय २६८)। (प्राचा)। २६ वाँ (पउम २६, १०३)। २ लगातार उइ, °णवइ [णवति] छंटण न [सेचन] सिंचन, सिंचना (सुपा बारह दिनों का उपवास (गाया १, १)। संख्या-विशेष, छानबे, १६ (सम १८ अजि 'सट्रि स्त्री [पष्टि] संख्या विशेष, साठ । १३६; कुमा)। १०)1 त्तीस स्त्रीन [°त्रिंशत् ] संख्या और छः (कम्म २, १८)। स्सार स्त्री छंटा स्त्री [दे] देखो छंट (पान)। विशेष, छत्तीस, ३६ (कप्प)। तीसइम [सप्तति] छिहत्तर (कम्म २, १७)। छंटिअवि [सिक्त] सींचा हुआ (सुपा १३८)।वि [ त्रिंशत्तम] छत्तीसवाँ (पउम ३६, हा देखो °द्धा (कम्म १५; ८)। ४३ पएण ३६)॥ दस त्रि. ब [षोडशन्] छंड देखो छड्डु = मुच् । छंडइ (पारा ३२ षोडश, सोलह । इसहा प्र [षोडशधा] छइ देखो छवि = छवि (वा १२)। भवि)। सोलह प्रकार का (वव ४)। दिसि न | छइअ वि स्थगित] आवृत्त, पाच्छादित, छडिअ वि [दे] छन्न, गुप्त (षड् )। [°दिश] छः दिशाएँ-पूर्व, पश्चिम, तिरोहित (हे २, १७ षड् )। छंडिअ वि [मुक्त] परित्यक्त, छोड़ा हुमा उत्तर, दक्षिण, ऊध्वं और अधोदिशा (भग) छइल विदे] विदग्ध, चतुर, होशियार द्धा [धा] छः प्रकार का (कम्म १, छइल्ल (पिंग दे ३, २४, गा ७२०० वजा छंद सक [छन्द्] १ चाहना, बान्छना। २ ३८)। नवइ, नुवइ नउइ देखो। पामः कुमा) । अनुज्ञा देना, संमति देना। ३ निमन्त्रण "पणउइ (कम्म ३, ४, १२; सम ७०) छउअ वि [A] तनु, कृश, पतला (दे ३, २५)। देना । कवक For Personal & Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ पाइअसहमहण्णवो छंद-छण 'अंतेउरपुरबलवाहणेहि छगण न [स्थगन] पिधान, ढकना (वव ४)। छडा स्त्री [दे] विद्युत, बिजली (दे ३, २४)। घरसिरिघरेहि मुणिवसभा । छगग न [दे] गोमय, गोबर (उप ५६७ टी, छडा स्त्री [छटा] १ समूह, परम्परा (सुर ४, कामेहि बहुविहेहि य पंचा १३ निचू १२)। | २४३ वा १२)। २ छींटा, पानी की बूंद __छंदिजतावि नेच्छंति' (उव)। छगणिया स्त्री [दे] गोइंठा, कंडा (अनु ५)। (पान)। संकृ. छंदिअ (दस १०)। छगल पुंस्त्री [छगल] छाग, अज, बकरा | छडाल वि [छटावत् ] छटावाला (पउम छंद पुंन [छन्द] १ इच्छा, मरजी, अभिलाषा (पएह १,१७ प्रौप)। स्त्री. ली (दे २,८४)। ३५, १८)। (प्राचाः गा २०२; स २३६ उव: प्रासू ११)। 'पुर न [°पुर नगर-विशेष (ठा १०)। छडिय वि [छटित सूप प्रादि से छंटा या २ अभिप्राय, प्राशय (प्राचा भग)। ३ वशता, छग्ग देखो छक्क (दं ११)। | फटका हुआ (तंदु २६; राय ६७)। अधीनता (उत्त ४; हे १, ३३)। चारि वि छग्गुरु पु [षड्गुरु] १ एक सौ और अस्सी छड्ड सक [छर्दय , मुच् ] १ वमन करना। [चारिन] स्वच्छन्दी, स्वैरी (उप ७६८ दिनों का उपवास । २ तीन दिनों का अवास २ छोड़ना, त्याग करना । ३ डालना, गिराना। टी) । इत्त वि[वत् ] स्वैरी (भवि)। (ठा २,१)। छडुइ (हे २, ३६, ४,६१, महाः उव)। "अणुवत्तण न [ नुवर्तन ] मरजी के छच्छंदर पुन [दे] छछु दर, मूसे या चूहे कर्म. छड्डिजइ (पि २६१)। वकृ. बड्डत अनुसार बरतना (प्रासू १४)। णुवत्तय की एक जाति (सं १६) । (भाग) । संकृ. छड्डेउं भूमीए खीर जह पियइ वि [नुवर्त्तक] मरजी का अनुसरण छज्ज प्रक [राज] शोभना, चमकना। टुट्ठमजारी (विसे १४७१)। छड्डित्त (वव २)।करनेवाला (गाया १, ३)। छज्जइ (हे ४,१००)। छड्डण न [छर्दन, मोचन] १ परित्याग, छंद पुंन [छन्दस्] १ स्वच्छन्दता, स्वैरिता छजिअ वि [राजित] शोभित, अलंकृत विमोचन (उप १७६; पोघ ८६)। २ वमन, (उत्त ४) । २ अभिलाष, इच्छा। ३ प्राशय, (कुमा)। वान्ति (विपा १, ८)। अभिप्राय (सूत्र १, २, २, प्राचा; हे १, छजिआ स्त्री [दे] पुष्प-पात्र, चंगेरी (स छड्डय वि [छर्दक छोड़नेवाला (कुप्र ३१७)। ३३)। ४ छन्दः-शास्त्र (सुपा २८७ औष)। २ पुं. एक सेठ का नाम (कुप्र ३६६) ।। ५ वृत्त, छन्द (वज्जा ४) । ण्णुय वि[ज्ञ] छट्टा [दे] देखो छंटा (षड्)। छड्डवण न [छर्दन, मोचन] १ छुड़वाना, छन्द का जानकार (गउड)। छ? वि [षष्ठ] १ छठवाँ (सम १०४ हे १, | मुक्त करवाना। २ वमन कराना। ३ वि. छदण पुन [छादन] ढकना, ढक्कन (राय | २६५)। २ न. लगातार दो दिनों का उपवास वमन करानेवाला । ४ छुड़ानेवाला (कुमा)। (सुर ४, ५५) । 'क्खमण न [क्षमण, छड्डवय वि [छर्दक, मोचक त्याग करानेछंदण न [छन्दन] निमन्त्रण (पिंड ३१०)। क्षपण] लगातार दो दिनों का उपवास | वाला, प्याजक (दे २, ६२)। छंदण न [वन्दन] वन्दन, प्रणाम, नमस्कार (अंत ६; उप पू ३४३)। "क्ख मय पुं छड्डावण देखो छड्डवण (सुपा ५१७)। (गुभा ४)। [क्षमक, क्षपक] दो-दो दिनों का बराबर छडाविय वि [छर्दित, मोचित] १ बमन छंदणा स्त्री [छन्दना] १ निमन्त्रण (पंचा उपवास करनेवाला तपस्वा (उप ६२२)। कराया हुअा। २ छुड़वाया हुआ (भावमा १२) । २ प्रार्थना (बृह १)। भत्तन [भक्त लगातार दो दिनों का | बृह १) छंदा स्त्री [छन्दा] दीक्षा का एक भेद, अपने उपवास (धर्म ३)। भत्तिय वि[भक्तिक] छडि स्त्री [छर्दि] वमन का रोग (षड्; हे २, या दूसरे के अभिप्राय-विशेष से लिया हमा | लगातार दो दिनों का उपवास करनेवाला ३६)। संन्यास (ठा २, २; पंचभा)। (पएह १, १)IV छड्डि स्त्री [छर्दिस् ] छिद्र, दूषण; 'जो छदि वि [छन्दित] अनुज्ञात, अनुमत | छट्ठी स्त्री [पष्टी] १ तिथि-विशेष (सम २६)। जग्गइ परछड्डुि, सो नियछड्डीए कि सुयइ' (मोघ ३८०)। २ निमन्त्रित (निचू २)। २ विभक्ति-विशेष, संबन्ध-विभक्ति (णंदि, | (महा)। छंदों देखो छंद = छन्दस् (प्राचा: अभि १२६)। हे १, २६५)। ३ जन्म के बाद किया जाता छड्डिय वि [छर्दित, मुक्त] १ वान्त, उत्सव-विशेष (सुपा ५७८). छड्डियल्लिय । वमन किया हुआ। २ त्यक्त, छक्क वि [षट्क] छक्का, छ: का समूह; | 'अंतररिउछक्कापक्कंता (सुपा ५१६; सम छड सक [आ + रुह ] आरूढ़ होना, | मुक्त (विसे २६०६; दे १, ४६; औप)। ३५)। चढ़ना। छडइ ( षड्) छण सक [क्षण ] हिंसा करना। छणे छडक्खर पुं[दे] स्कन्द, कात्तिकेय (दे (प्राचा)। प्रयो. छणावेइ (पि ३१८)। छग देखो छ = षष् (कम्म ४)। २, २६)। छण सक [क्षण् ] छेदन करना। छगह छग न [दे] पुरीष, विष्ठा (पएह १, ३ छडछडा स्त्री [छटच्छटा] सूर्प (सूप) वगैरह । (सूम २, १, १७)। पत्र ५४, प्रोघ ७२)। से अन्न को झाड़ते समय होता एक प्रकार का | छण पुं[क्षण] १ उत्सव, मह (हे २,२०)। छग देखो छक्क (पव २७१)। अव्यक्त पावाज (णाया १,७–पत्र ११६) २ हिंसा (पाचा)। चंद पुं[चन्द्र] शरद For Personal & Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छणण छरु ऋतु को पूर्णिमा का चन्द्रमा ( स ३७१) । ससि पु ["राशिन् ] वही पूर्वोक अर्थ (सुपा १०६) arra [at] हिंसन, हिंसा (प्राचा) । खणि [क्षणेन्दु] शरद ऋतु की पूर्णिमा का चन्द्र (सुपा ३३ ४०४ ) । प्र [] बिराया हुमा (बृह १; प्राप ) । २ प्राच्छादित, ढका हुआ (गा ५८० ) । ३ न माया, कपट (सूम १, २, २ ) । ४ निर्जन, विजन, रहस् । ५ क्रिवि. गुप्त रीति से, प्रच्छन्न रूप से; 'जं छरणं आयरियं, तइया जरगरणीए जोव्वरणमए । पाइअसद्दमद्दण्णवो छत्ततिया स्त्री [छत्रान्तिका ] परिषद् - विशेष, सभा-विशेष (बृह १)। छत्तच्छय ( प ) [ सप्तच्छद] वृक्ष-विशेष, सीना पतिवन (सरा) - प्रसन्न न [दे] पास, तुल (पाच) । पण देखो छत्तिवन (प्रा)। छत्ता स्त्री [छत्रा ] नगरीविशेष (धान)। छत्तार पुं [ छत्रकार ] छाता बनानेवाला कारीगर ( पण १ ) । साह ु [छत्राभ] वृक्ष-विशेष 'एम्योहसत्तिवरणे, साले पियए पियंछत्ता (सम १५२) । छन्ति [त्रिन] ( भास ३३) । तण डावाला [सप्तपर्ण] वृक्ष-विशेष, सतौना, १ २६५० कुमा तं पडिव (? यड) ज्जइ छत्त इहि सुही यतहिं' (उप ७२८ टी) । छष्णायन [दे. पालक] विकारिक, तिपाई, संन्यासियों का एक उपकरण (भगः पः गाया १, ५) । बस न [चत्र] व्याता, भावपराव (खाया १. ५ प्रासू ५२ ) । धार [° धार] छाता धारण करनेवाला नौकर ( जीव ३ ) | पडागा स्त्री [पताका ] १ युक्त २ के ऊपर की पताका (भौप ) । पलासय न [पय] मंगला नगरी का एक जैस (भग) । °भंग पु' [°भङ्ग] राज-नाश, नृपमरण (राज) 1 हार देखो धार ( भावम) । इच्छत न [तिच्छत्र ] १ न के ऊपर का छाता (सम १३७ ) । २ पुं. ज्योतिषशास्त्रसिद्ध योग-विशेष (सुख १२) छत न [छत्र] लगातार तैंतीस दिनों का उपवास (संबोध १८) पुंग एक देवविमान (देवेन्द्र १४० ) । ३ पुं. ज्योतिष प्रसिद्ध एक योग जिसमें चन्द्र आदि ग्रह छत्र के आकार से रहते हैं (सुज १२ पत्र २१३) इस वि [वत् ] छातावाला ( सुख २, १३) । कार वि [कार ] छाता बनानेवाला शिल्पी (अणु १४९) । ँग पुंन [क] वनस्पतिविशेष (सू २, ३, १६) । छत] [छात्र] विद्यार्थी, अभ्यासी ( छप्पति श्री [दे] १ चंपत पड़ ३३१ १६९ टी) । तमाचा । २ चपाती, रोटी, फुलका थप्पड़, प्रतोय [छत्रीक] वनस्पति-विशेष, वृक्ष विशेष (पण ११५ । छत्तोय [छत्रप] वृक्ष-विशेष (श्रीपत)। दत्तोद [छत्रीप]]-विशेष (श्रीच; पण १ - पत्र ३१; भग) | छदमत्थ देखो छउमत्थ ( द्रव्य ४४) । - छवण देखो छडवण (राज) 1छद्दसमवि [ षड्दश ] छः या दश ( सू २, २, २१) । छप्पइया स्त्री [ षट्पदिका ] युका, जॅ (श्रोघ ७२४) । इप्पती श्री [दे] नियम-विशेष, जिसमें पद्म लिखा जाता है (दे३, २५) । चप्प वि [दे. पद्मशक] विदग् छप्पण्णय ) चतुर, चालाके (३, २४ पात्र वजा ५८ ) । For Personal & Private Use Only 'द्वप्पत्तिश्रावि खज्जइ, निप्पत्ते पुत्ति ! एत्थ को देसो ? । नित्रपुरिसेवि रमिज्जइ, परपुरिसविवज्जिए गामे' ३३५ (गा ८८७) । प्पन्न [दे] देखो छप्पण्ण (जय ) 1 छप्पय [ षट्पद] १ अमर, भरा हे १, २६५: जीव ३ ) । २ वि छः स्थानवाला । ३ छः प्रकार का (विसे २८६१ ) । ४ न. छन्द - विशेष (पिंग ) । छब्ब छब्बग छद्दी स्त्री [दे] शय्या, बिछौना (दे ३, २४) । छन्न वि [क्षण] हिंसा प्रधान, हिंसा जनक ( १९२६) छन्न देखो छष्ण (कप्पः उप ६४८ टी प्रासु ८२) । छप्पड़गिड वि [ पट्पदिकात् ] यूका-युत खम्मुद [ख] यूकावाला (बृह ३), पुंन [दे] पात्र - विशेष (भाचा २, १, ८, १० पिंड ५६१; २७८) । पी वगैरह को छानने का उपकरणा-विशेष 'गाईको [] मालेग्न सम्पू एहि संसर्ग च नाऊ ( ओघ ५५८ ) 1 इन्भामरी श्री [पचामरी] एक प्रकार की बीला (खाया १, १७ पत्र २२९ ) । छमच्छम अक [ छमच्छमाय् ] 'छम छम' श्रावाज करना, गरम चीज पर दिया जाता पानी की आवाज । छमच्छमइ ( वज्जा ८८ ) 1 छम देखो छमा । रुह पुं [रुह] वृक्ष, पेड़, दरख्त (कुमा) । छमलय पुं [दे] सप्तच्छद, वृक्ष-विशेष, सतीनातिन दे३, २५) । छमा स्त्री [क्षमा, क्ष्मा] पृथिवी, घरिणी, भूमि (हे २, १८) । हर [धर] पर्वत, पहाड़ ( षड् ) । देखो छ । मी स्त्री [शमी ] वृक्ष - विशेष, अग्नि-गर्भ वृक्ष (हे १, २६५) । छम्म देखो छउम (हे २, ११२ षड्; पउम ४०, ५ सरण) । कार्तिकेय ( १, २६५ ) । २ भगवान् विमलनाथ का श्रविष्ठायक देव (संति ८ ) । यन [द] १ प पत्ती, पत्र, पत्ता (श्री)। २ प्रावरण, श्राच्छादन ( से ६, ४७ ) । छयन [क्षत] १ व्रण, घाव (हे २, १७) | २ पीडित ( १, २,२) । छयल [दे] देखा छल्ल (रंभा) । छरु पुं [त्सरु ] खड्ग-मुष्टि, तलवार का हाथा (पराह १, ४) व्यवाय न ["प्रवाद] खड्ग-शिक्षा-शाख (२) । ! Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ छल देखो छ = षष् (कम्म ६, ६) । छल सक [ छलयू ] ठगना, छलिज्जेज्जा (स २१३) । संकृ. छलिउँ, वञ्चना । छलिकण (महा) । कृ. छलिअन्य (श्रा १४) । छलन [छल] १ कपट, माया ( उव) । २ व्याज, बहाना (पाच प्रासू ११४) । ३ श्रथंविघात, वचन विघात, एक तरह का वचनयुद्ध (सूम १, १२) । ययण न [यतन ] खल वचन-विचात (११२) । लंस [प] षट्कोण छः कोरावाला (ठा) । 3 इलेसिअ [ पत्रिक] छः कोरावाला (२.१.१५) । छल न [न] प्रक्षेपण, फेंकना (प्राचानि ११) । छलण न [छलन] ठगाई, वञ्चना (सुर ६, १०१) । छलणा स्त्री [ छलना ] ( श्रोष घोष ७८५ उप ७७६) कपट (विसे २५४५) । [प] १ ठगाई, वञ्चना । छल, २ माया, 202) 1 अर्थवाला (जिसे छलसीअ बीन [पडशीति] संख्या-विशेष अस्सी और छः, ८६ (भग) । छलसीइ स्त्री. ऊपर देखो (सम १२) । छलिअ वि [छलित ] १ वञ्चित, विप्रतारित, ठगा हुआ (भवि महा) । २ शृङ्गार-काव्य । ३ चोर का इशारा, तस्कर -संज्ञा (राज) । [दे] व चालाक, चतुर दे ३, २४० पान ) । छलिअन [क] गाय- विशेष (मा ४) । छलिअ वि[स्खलित ] स्खलन प्राप्त (झोघ 652) 1 हलिया देखो हालिया चीकू नियात ah दिन' (महा) । छलुअ ] पुं, [ षडुलूक ] वैशेषिक मत- प्रवछलुग तक कणाद ऋषि (कप्पा ठा ७ छलूअ विसे २३०२) पत् वएसानो छलूउत्ति' (विसे २५०८; २४५५ ) । बड़ी श्री [दे] त्वचा, बल्कल, खाल (दे ३, २४: जी १३३ मा ११५; ठा ४, १, गाया १, १३) । पाइअसद्दमहणव छल्लुय देखो छलुअ (पि १४८) । छव देखो छ । छमि ( सुपा ५७३) । छबडी स्त्री [दे] चर्म, चाम, चमड़ा (दे ३, २५) । छवि स्त्री [छवि] १ कान्ति, तेज (कुमा पाच)। २ अंग, शरीर ( परह १ १) चर्मं, चमड़ी ( पात्र जीव ३) । ४ श्रवयव ( पडि ) । ५ अंगी, शरीरी (ठा ४, १) ६ अलङ्कार-विशेष (अणु) । °च्छेअ पुं [[]] का विवेद भवन ( पडि ) । च्छेयण न [च्छेदन] अंग (११) साजन [आण] चमड़ी का श्राच्छादन, कवच, वर्म (उत्त २ ) । छवि वि [स्पृष्ट] छूआ हुआ (श्रा २७) । विपन्न [छविपर्वन् ] श्रदारिक शरीर ( उत्त५, २४) । छीय वि[छविमत् ] १ कान्तिवाला । २ घन, निबिड़ ( आचा २, ४, २, ३) । बग [दे] देखो ब्यय (राज)। विवि [] पिहिताच्यादित (उड) छह (अप) देखो छ + षष् ( पि ४४१ ) । छहत्तर वि [ षट्सप्तत] छिहत्तरवाँ, ७६ वाँ (पउम ७६, २७)। छत्तरि स्त्री [ षट्सप्तति ] छिहत्तर, ७६ (पव १९) । छाल देखो | छाव ( प्राकृ १५) । छाइअ वि [छादित] माच्छादित, उका हुमा (पउम ११२, ५४० कुमा) । वि छाल [ छायापत् ] यायावाला कान्ति युक्त (हे २, १५१ ब ) | प्रदीप, दीपक सर्वज्ञता की पूर्वावस्था से (सम ११; पण ३६) । For Personal & Private Use Only छल - छायणी संबन्ध रखनेवाला छाओग वि [ छायोपग] १ छाया-युक्त, छायावाला ( वृक्षादि ) २ पुं. सेवनीय पुरुष, माननीय पुरुष (डा ४, ३) डागल नि [दागल] १ -संबन्धी (डा ५, ३) । २ पुं. अज, बकरा । स्त्री. ली (पि २३१)। छागलिय पुं [छागलिक ] छागों से प्राजीविका करनेवाला, अजा-पालक (त्रिपा १, ४) । छाग न [दे] १ धान्य वगैरह का मलना (दे ३, ३४ ) । २ गोमय, गोबर (दे ३, ३४३ सुर १२, १७ गाया १, ७ जीव १) । ३ वस्त्र, कपड़ा (दे ३, ३४६ जीव ३ ) । छाणण न [दे] छानना, गालनः 'भूमीपेहरणजलछारगरणाई जयगाओ होइ न्हाणाई' (सठ्ठि ४५ टी) । छाणवइ (अप) देखो छण्णवइ (पिंग) डागो श्री [दे] १ धान्य वगैरह का मलन | २ वस्त्र, कपड़ा (दे ३, ३४) । ३ गोमय, गोबर (दे ३, ३४; धर्मं २ ) । छाणी स्त्री [दे] कंडा, गोवर का इन्धन (पव ३८) । छाय वि [ छात] व्रणाङ्कित, घाववाला (दस ६, २, ७) छाय सक [ छादय् ] आच्छादन करना, ढकना । छायइ (हे ४, २१) । वकृ. छायंत ( पउम ७, १४) । छाय वि [दे. छात] १ बुभुक्षित, भूखा (दे ३, ३३३ पात्र उप ७६८ टी श्रोघ २६० भा) । २ कृश, दुर्बल (दे ३, ३३: पात्र) । छाइ [दे] ३ तह छाइयं च दीवं मुजाहि' (वव ७; दे ३, ३५) । २ वि. सहा, समान तुल्य ऊन, अधूरा (दे ३, ३५) । ४ सुरूप, सुडौल, रूपवान् (दे ३, ३५; षड् ) । छाई देखो छाया (षड् ) । छायंसि वि [छायावत्] कान्तिमान् तेजस्वी (सम १५२ ) । छायण न [छादन] श्राच्छादन, ढकना (पिंग; महा ११) । छाई स्त्री [दे] माता, देवी, देवता (दे ३, छायण न [छादन] १ घर की छत, खाज २६) । (पिंड ३०३ ) । २ ढक्कन, आवरण । ३ वस्त्र, कपड़ा (सुख ७, १५) । छाया [] डेरा, पड़ाव, खानी छायणी वायणी 'यो व ठिमी एसो कुणिता गिछार्याण' (श्रा १२ महा) । छाउमत्थ न [छामस्थ्य ] छद्मस्थ अवस्था (सडिटी)। छाउमत्थिय वि [छाद्मस्थिक] केवलज्ञान उमस्थिय वि [दुमस्थिक] केवलज्ञान उत्पन्न होने के पहले की अवस्था में उत्पन्न, Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया-छिच्छय पाइअसहमण्णवो छाया स्त्री [छाया] १ आतप का प्रभाव, और छः ७६ (पउम १०२, ८६; सम ८५)। छिदिऊण, हिंदित्ता, छिदित्त, छिंदिय, छाँह (पास)। २ कान्ति, प्रभा, दीप्ति (हे १, म वि [तम] छिहत्तरवाँ (भग)। छेत्तूण (पि ५८५; भग १४,८; पि ५०६ २४६ प्रौप; पात्र)। ३ शोभा (प्रौप)। ४ छावलिय वि [षडावलिक] छः प्रावलिका- ठा ३, २; महा)। कृ. छिंदियव्य (परह प्रतिबिम्ब, परछाई (प्रासू ११४; उत्त २)। परिमित समयवाला (विसे ५३१) । २, १)। हेकृ. छेत्तुं (भाषा) ५ धूप-रहित स्थान, अनातप देश (ठा २, | छास? वि [षट्पष्ट] छियासठवाँ (पउम | छिंदण न [छेदन] छेद, खण्डन, कर्तन ४) गइ स्त्री [गति] १ छाया के अनुसार (प्रोघ १५४ भा)। गमन । २ छाया के अवलम्बन से गति (पएण छासी स्त्री [दे] छाछ, तक्र, मठ्ठा (दे ३, २६) छिदावण न [छेदन] कटवाना, दूसरे द्वारा १६)। पास पुं [पाच] हिमाचल पर छासीइ स्त्री [षडशीति] छियासी, अस्सी | छेदन कराना (महानि ७)।स्थित भगवान् पाश्र्वनाथ की मूत्ति (ती ४५) और छः। म वि [तम] छियासीवाँ, ८६ छिंदाविय वि [छेदित] विछिन्न कराया छाया स्त्री दि] १ कीति, यश, ख्याति । २ वाँ (पउम ८६,७४)। गया (स २२६) । भ्रमरी, भमरो, भौरी (दे ३, ३४) । छाहत्तरि (अप) देखो छावत्तरि (पि २४५)। छिपय पु[छिम्पक] कपड़ा छापने का काम छायाइत्तय वि [छायावत् ] छायावाला, छाहत्तरि देखो छावत्तरि (पव २३६) . करनेवाला (दे १,९८ प्राप)। था / ० २०३)। छाहा स्त्री [छाया] १ छाह, पातपछिकन दे]क्षत छौंक (दे ३.३६: कूमा)। छायाला स्त्री [ षट्चत्वारिंशत् ] छियालीस, छाया का प्रभाव । २ प्रतिबिम्ब, परछाई | छाही छिक्क वि [दे. छुप्त] स्पृष्ट, छूमा हुआ )(षड् ; प्राप; सुर २, २४७) ६, चालीस और छः, ४६ (भग)। ६५ हे १, २४६ गा ३४)। (दे ३, ३६. हे २, १३८२ से ३, ४६ स छायालीस स्त्रीन. ऊपर देखो (सम ६६ कप) ४४४)1 परोइया स्त्री [प्ररोदिका ] छाही स्त्री [दे] गगन, आकाश । 'मणि पुं छायालीस वि [षट्चत्वारिश] छियालीसवाँ, | वनस्पति-विशेष (विसे १७५४)। | [मणि] सूर्य, सूरज (दे ३, २६)। ४६ वा (पउम ४६, ६६) छिक्क वि [छीत्कृत] छी-छी आवाज से छार वि [क्षार] १ पिघलनेवाला, झरनेवाला। | छिअ देखो छीअ (दे ८, ७२; प्रामा)। माहूत; 'पुविपि वीरसुणिमा छिक्काछिक्का २ खारा, लवण-रसवाला। ३. लवण, छिछई स्त्री [दे] असती, कुलटा (हे २, पहावए तुरिय' (प्रोघ १२४ भा)। नोन, नमक । ४ सजी, सजीखार । ५ गुड़ । १७४; गा; ३०१, ३५०; पाम, धर्मरत्न छिकंत वि [दे] छींक करता हुआ (सुपा (हे २, १७, प्राप्र)। ६ भस्म, भूति (विसे लघुवृत्तिपत्र ३१, १)। । ११६)। १२५६ स ४४ प्रासू १४५; णाया १,२)। छिछटरमण न [दे] क्रीड़ा-विशेष, चक्षु-छिका स्त्री [दे] छिक्का, छींक (स ३२२) ।' ७ मात्सर्य, असहिष्णुता (जीव ३)। स्थगन की क्रीड़ा (दे ३, ३०)। छिकारिअ वि [छीत्कारित] छी-छी आवाज छार पु[दे] अच्छभल्ल, भालूक (दे ३, २६)। छिछय पुं[दे] १ देह, शरीर । २ जार, से आहूत, अव्यक्त आवाज से बुलाया हुआ उपपति। ३ न. फल-विशेष, शलाटु-फल छारय देखो छार (श्रा २७)। | (मोघ १२४ भा टी)। छारय न [दे] १ इक्षु-शल्क, ऊख की छाल छिकिय न [दे] छींकना, छींक करना (स छिछोलो स्त्री [दे छोटा जल-प्रवाह (द ३, (६, ३, ३४) । २ मुकुल, कली (दे३, ३४ ३२४) २७; पा)। पाम)। छिक्कोअण वि [दे] असहन, असहिष्ण छिंड न [दे] १ चूड़ा, चोटी (दे ३, ३५; | (दे ३, २६)। छारिय वि[छारिक क्षार-सम्बन्धी (दस ५, पाम)। २ छत्र, छाता। ३ धूप-यन्त्र (देछिक्कोट्रली स्त्री [दे]१ पैर की अावाज । ३, ३५) । छाल पुं[छाग प्रज, बकरा (हे १, १९१)। २ पाँव से धान्य का मलना। ३ गोइठा का छिडिआ स्त्री [दे] १ बाड़ का छिद्र। २ | छालिया स्त्री [छागिका] प्रजा, छागी (सुर टुकड़ा, गोबर-खण्ड (दे ३, ३७)। अपवादः 'छ छिडिप्रानो जिएणसासणम्मि छिक्कोलिअ विदे1 तनु, पतला, कृश ७, ३०; सण)। (पव १४८ श्रा६)। (द ३, २५)। छाली स्त्री [छागी] ऊपर देखो (प्रामा)। छिंडी स्त्री [दे] बाड़ का छिद्र (णाया १, छिक्कोवण [दे] देखो छिक्कोअण (ठा छाव [शाव] बालक, बच्चा, शिशु (हे १, २-पत्र ७९)। ६-पत्र ३७२)। २६५ प्राप्र; वव १) छिंद सक [छिद् छेदना, विच्छेद करना। छिग्ग (शौ) सक [छुप्] छूना। छिग्गदि छावण देखो छायण (बृह १)। छिदइ (प्राप्र महा)। भवि. छेन्छ (हे ३, (प्राकृ६३) छावद्वि स्त्री [षट्षष्टि] छाछठ, छियासठ, १७१)। कर्म, छिज्जा (महा)। वकृ. छिचोलय पु[दे] देखो छिव्वोल्ल (पाप) ६६ (सम ७८ विसे २७६१)। छिंदमाण (णाया १,१) । कवकृ. छिज्जत, छिच्छई देखो छिछई (षड्) छावत्तरि स्त्री [षट्सप्तति] छिहत्तर, सत्तर छिज्जमाण (श्रा ६, विपा १, २)। संकृ. | छिच्छय देखो छिछय (षड्)।। ४३ For Personal & Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पामा दर्जल छिन्न वि [छिन्न त निश्चित १, ५, २, १२) छिजंत? देखो छिंद ३३८ पाइअसद्दमण्णवो छिच्छिकार-छिवाडी छिच्छिकार पुं[छिच्छिकार] निवारण-सूचक छित्तर [दे] देखो छेत्तर (स ८ २२३ | छिप्पाल ([दे] सस्यासक्त बैल, खाने में लगा या घृणा-सूचक शब्द, छिः, छि (पिंड ४५१) उप पृ ११७; ५३० टी)। हुमा बैल (दे ३, २८)। छिछि प्रदें घिधिक् छि छि, धिक्- | छित्ति स्त्री [छित्ति] छेद, विच्छेद, खएडन | छिप्पालुअन [] पूछ, लागूल (द २, धिक् , अनेक धिक्कार (हे २, १७४ षड्) (विसे १४५८ लहुम ५)। २६) छिज्ज देखो छिद - छिद् । हेकृ. छिजिउ छित्तु वि [छेतृ] छेदनेवाला (पव १)। छिप्पिंडी श्री[दे] १ व्रत-विशेष । २ उत्सव(तंदु)। छिद्द देखो छिड्ड (णाया १, २, ठा ५, १; | डिणाया १२ ठा५.१ विशेष । ३ पिष्ट, पिसान (दें ३, ३७)। छिन्ज वि[छेद्य १ खण्डित किया जा सके। पउम ६४, ६)। छिप्पिअ वि[दे] क्षरित, झरा हुआ, टपका २ छेदने योग्य (सूम २, ५)। ३ न. छेद, छिद्द पु[दे] छोटी मछली (दे ३, २६) । हुआ (पास)। विच्छेद, द्विधाकरण; 'पावंति बंधवहरोहछिज छिप्पीर न [दे] पलाल, पुपाल, तृण (दे ३, छिद्दिय वि [छिद्रित] छिद्र-युक्त, छिद्रवाला मरणावसारणाई" (मोघ ४६ भा; पुप्फ २८)। (गउड)। छिप्पोल्ली स्त्री [दे] प्रजादि की विष्ठा (निच १)। छिजत वि [क्षीयमाण] क्षय पाता, दुर्बल छिन्नविछिन्न] १ खण्डित, त्रुटित, छेद-युक्त | छिब्भ सकr क्षिप्] फेंकना । छिभंति होता, 'छिजतेहिं अणुदिणं, पञ्चक्खम्मिवि (भगः प्रासू १४६)। २ निर्धारित, निश्चित तुमम्मि अंगेहि' (गा ३४७)। (बृह १)। ३ न. छेद, खण्डन (उत्त १५)। छिमिछिमिछिम अक [छिमिछिमाय] 'ग्गंथ वि [ग्रन्थ] स्नेह-रहित, स्नेह-मुक्त | 'छिम-छिम' आवाज करना। वकृ. छिमि (पण्ह २, ५)। २ पुं. त्यागी, साधु, मुनि, छिज्जमाण छिमिछिमंत (पउम २६, ४८)। छिड्ड न [छिद्र] १ छिद्र, विवर (पउम २०, निर्ग्रन्थ (ठा )।च्छेय [च्छेद] नय छिरा स्त्री [शिरा] नस, नाड़ी, रग (ठा २, विशेष, प्रत्येक सूत्र को दूसरे सूत्र की अपेक्षा १६२; अनु ६; उप पृ १३८)। २ अवकाश, से रहित माननेवाला मत (एंदि)। द्वाणतरहिरि १; हे १,२६६)। अवसर (पएह १, ३) । ३ दूषण, दोष (सुपा भालू की आवाज (पउम ९४, वि [ध्वान्तर] मार्ग-विशेष, जहाँ गाँव, ३६०)। पाणि पुं[पाणि] एक प्रकार ४५)। नगर वगैरह कुछ भी न हो ऐसा रास्ता (बृह का जैन साधु (प्राचा २, १, ३)। " छिल्ल न [दे] १ छिद्र, विवर (दं ३, ३५; १)। मडंब वि [ मडम्ब] जिस गाँव या छिड्ड पुंन [छिद्र] प्राकाश, गगन (भग २०. षड्)। २ कुटी, कुटिया, छोटा घर । ३ शहर के समीप में दूसरा गाँव वगैरह न हो २-पत्र ७७५)। बाड़ का छिद्र (दे ३, ३५)। ४ पलाश का (निचू १०)। रुह वि [रुह] काट कर छिण्ण देखो छिन्न (णाया १, १८ सूत्र पेड़ (तो )। बोने पर भी पैदा होनेवाली वनस्पति (जीव | छिल्लर न [दे] पल्वल, छोटा तलाव (दे ३, १० परण ३६)। छिण्ण पुं [दे] जार, उपपति (दे ३, २७; २८ सुर ४, २२६)। छिन्नाल वि[दे हल की जात का बेल आदि षड् )। छिल्लर वि[दे] असार, छिछरु, खालीं। (उत्त २७, ७)। छिण्णच्छोडण न [दे] शीघ्र, तुरन्त, जल्दी छिल्ली स्त्री [दे] शिखा, चोटी (दे ३, २७)। छिन्नालिंगा । स्त्री [दे] स्थलचर पक्षि-विशेष (दे ३, २६)। छिण्णालिंगा (अंग वि. प्र०५८)। देखो | छिध सक [स्पृश्] स्पर्श करना, छूना । छिण्णयड विदे] टंक से छिन्न (पास)। छिण्णालिआ। छिवइ (हे ४, १८२) । कर्म. छिप्पइ, छिविछिण्णा स्त्री [दे] असती, कुलटा (दे ३, २७)। छिप्पन [क्षिप्र] जल्दी, शीघ्र । तूर न जइ (हे ४, २५७)। वकृ. छिवंत (गा छिण्णाल पुं[दे] जार, यार, उपपति, छिनाला | [तूर्य शीघ्र । २ बजाया जाता एक बाजा, २६६)। कवकृ. छिप्पंत, छिक्जिमाण या छिनरा (द ३, २७ षड्) तुरही (विपा १, ३, रणाया १,१८)। (कुमाः गा ४४३, स ६३२ श्रा १२)। छिण्णालिआ। स्त्री [दे] असती, कुलटा, छिवट्ठ [दे] देखो छेवट्ठ (कम्म २, ४)। छिण्णाली पुंश्चली, छिनारी, छिनाल, छिप्पन [दे] १ भिक्षा, भीख (दे ३, ३६; छिवण न [स्पर्शन] स्पर्श, छूना (उप १८७ व्यभिचारिणी। (मृच्छ ५५; दे ३, २७)। सुपा ११५) । २ पुच्छ, लांगूल (दे ६, ३६; टीः ६७७)। छिण्णोव्भवा स्त्री [दे] दूर्वा, दूब (घास), . पाप्र) छिया स्त्री [दे] श्लक्षण कष, चीकना चाबुक; - दाभ (दे ३, २६)। छिप्पंत देखो छिव = स्पृश् । 'छिवापहारे ये (पाया १, २-पत्र ८६ छित्त देखो खित्त क्षेत्र (औप; उप ८३३ छिप्पंती स्त्री [दे] १ व्रत-विशेष । २ उत्सव पएह १, ३; विपा १, ६)। टी; हेका ३०)। | विशेष (दे ३, ३७) छिवाडिआ। स्त्री [दे] १ वल्लि वगैरह की छित्त वि [दे] स्पष्ट, छूमा हुआ (दे ३, २७ छिप्पंदूर न [दे] १ गोमय-खण्ड, गोबर- छिवाडी फली, सीम या सेम (जं १)।२ गा १३; सुपा ५०४ पाम)। खण्ड । २ वि. विषम, कठिन (दे ३, ३८) पुस्तक-विशेष, पतले पन्नेवाली ऊँची पुस्तक, For Personal & Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छिविअ-छुरिय पाइअसहमण्णवो ३३६ जिसके पन्ने विशेष लम्बे और कम चौड़े हों | छीरल पुंक्षीरल] हाथ से चलनेवाला एक छुण्ण वि [क्षुण्ण] १ चूर्णित, चूर-चूर किया ऐसी पुस्तक (ठा ४, २; पब ८०)। तरह का तन्तु, साँप की एक जाति (पएह हुमा । २ विहत, विनाशित । ३ अभ्यस्त (हे छिविअ वि [स्पृष्ट] १ छूमा हुमा (दे ३, १,१)। २,१७ प्राप्र)IV २७) २ न. स्पर्श, छूना (से २, ८) छीवोल्लअ [दे] देखो छिन्वोल्ल (गा ६०३)। छुत्त वि[छुन] स्पृष्ट, छूमा हुमा (हे २, छिविअ न [दे] ईख का टुकड़ा (दे ३, २७)।। छु सक [क्षुद्] १ पीसना। २ पीलना। १३८ कुमा)।' छिवोल्लअ [३] देखो छिन्योल्ल (गा ६०५ कर्म. छुजाइ (उव)। कवकृ. छुज्जमाण (संथा छत्ति स्त्री [दे] छूत, अशौच (सूक्त ८६) छुद्दहीर पुं [दे] १ शशि, बच्चा, बालक । छिन्य विदे] कृत्रिम, बनावटी (दे ३, छुअ देखो छीअ (प्राप्र)। २ शशी, चन्द्रमा (दे ३, ३८)। २७)। छुअ देखो छुव । छुअइ (प्राकृ ७६)। छदिया देखो छुड्डिया (पराह २, ५-पत्र । छिब्बोल न [दे] १ निन्दार्थक मुख-विकूणन, छुई स्त्री [दे] बलाका, बकपंक्ति (दे ३, ३०)। १४६)। अरुचि-प्रकाशक मुख-विकार-विशेष । २ विकू छुछुई स्त्री [दे] कपिकच्छु; केवाँच का पेड़ छद्ध देखो खुद्ध (प्राप्र)। रिणत मुख (दे ३, २८)। (दे ३, ३४)। छिह सक [स्पृश] स्पर्श करना, छूना । छुद्ध वि [द] क्षिप्त, प्रेरित (सण)। छुछुमुसय न [दे] रणरणक, उत्सुकता, छुध वि [क्षुध भूखा (प्राकृ २२) ।। छिहइ (हे ४, १८२)। उत्कण्ठा (दे ३, ३१)। छुन्न पुन [क्षुण्ण] क्लोब, नपुंसक (पिंड छिहंड न [शिखण्ड] मयूर की शिखा (णाया | छंद वि [आ+ क्रम् ] आक्रमण करना । ४२५)। १,१-वत्र ५७ टी)। | छुदइ (हे ४, १६० षड् )। छुन्न देखो छुण्ण; 'जंतम्मि पावमइणा छुन्ना छिहंडअ पुंदे] दही का बना हुआ मिष्टान्न, | छंद सक [दे] बहु, प्रभूत (दे ३, ३०)। छन्नेण कम्मरण (संथा ५६)। दविसर; गुजराती में जिसे "सिखंड' कहते हैं छुप्पंत देखो छुव। (दे ३,२६)। छुक्कारण न [धिक्कारण] धिक्कारना, छुब्भ प्रक [क्षुभ्] क्षुब्ध होना, विचलित निंदा (बृह २)। छिहंडि पुं [शिखण्डिन्] १ मयूर, मोर।। होना । छुन्भंति (पि ६६)। छुच्छ वि [तुच्छ] तुच्छ, क्षुद्र, हलका (हे २ वि. मयूरपिच्छ को धारण करनेवाला छुब्भत्थ [दे] देखो छोब्भत्थ (दे ३, ३३)। (गाया १,१-पत्र ५७ टी)। १, २०४)। छुभ देखो छुह । छुभइ, छुभेइ (महा; रयण । छुच्छुक्कर सक [छुच्छु+कृ] 'छु-छु । २०)। संकृ छभित्ता (पि ६६)। छिहली स्त्री (दे] शिखा, चोटी (बृह ४) । आवाज करना, श्वानादि को बुलाने को | छुमा देखो छमा (दसचू १)। लिहा स्त्री [स्पृहा] स्पृहा, अभिलाष (कुमा; आवाज करना । छुच्छुक्करेति (प्राचा)। छर सक [छुर] १ लेप करना, लीपना । हे १, १२८ षड्)। खुजमाण देखो छु। २ छेदन करना, छेदना। ३ व्याप्त करना छाहांडाभल्ल न [द दधि, दही (दे ३, | लट प्रकाछिटाछटना. बन्धन-मुक्त होना।। (वा १२० पउन २८,२८) छुट्टइ (भवि)। छुट्टह (धम्म ६ टी)। छुर [क्षुर] १ छुरा, नपित का अस्त्र । २ छिहिअ वि [स्पृष्ट] छूमा हुआ (कुमा)। छुट्ट वि [छुटित] छूटा हुआ, बन्धन-मुक्त । पशु का नख, खुर। ३ वृक्ष-विशेष, छीअ स्त्रीन [क्षुत] छिक्का, छींक (हे १, (सुपा ४०७, सूक्त ८६)। गोखरू। ४ बाण, शर, तोर (हे २, १७ ११२, २, १७ मोघ ६४३, पडि)। स्त्री. छुट्ट वि[दे] छोटा, लधु (पान)। प्राप्र)। ५ न. तृण-विशेष (पएण १)।"आ (श्रा २७)। घरय न [गृहक] नापित के छुरा वगैरह छुट्टण न [छोटन] छुटकारा, मुक्ति (श्रा छीअमाण वि [क्षुवत् ] छींक करता (प्राचा रखने की थैली (निचू १)। २७)। २, २, ३)। छुरण न [क्षुरण] अवलेपन (कप्पू)।छुट्ट वि [दे] १ लिप्त । २ क्षिप्त, फेका हुमा छीण वि [क्षीण क्षय-प्राप्त, कृश, दुर्बल (हे छुरमड्डि पुं[दे] नापित, हजाम (दे ३, ३१)। (भवि)। छुरहत्थ पु[दे. क्षुरहस्त] नापित, हजाम २, ३, गा ८४)। छुडु अ [दे] १ यदि, जो (हे ४, ३८५; (दे ३, ३१)। श्रीयंत वि [क्षुवत् ] छींक करता (ती) ४२२) । २ शीघ्र, तुरन्त (हे ४, ४०१)। छुरिआ श्री [दे] मृत्तिका, मिट्टी (दे ३,३१) छोर न [क्षीर] जल, पानी । २ दुग्ध, दूध छुड्ड वि [क्षुद्र] क्षुद्र, तुच्छ, हलका, लघु छुरिआ । स्त्री [क्षुरिका] छुरी, चाकू (महा; (हे २, १७) गा ५६७) । 'बिराली स्त्री छुरिगा सुपा ३८१, स १४७)। [बिडाली] वनस्पति-विशेष, भूमि-कूष्माण्ड छुड्डिया स्त्री [क्षुद्रिका] पाभरण-विशेष छुरिय वि [छुरित] १ व्याप्त । २ लिप्त (पएण १-पत्र ३५) ।। (परह २, ५-पत्र १५६ टो) । (पउम २८, २८)। For Personal & Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० पाइअसद्दमद्दण्णवो छुरी स्त्री [क्षुरी] छुरी, चाकू (दे २, ४, छेअ वि [दे. छेक] १ विशुद्ध, निर्मल (पंचा प्रासू ६५) । ३, ३५० ३८ ) । २ न. कालोचित हित (धर्मसं ५४३) । खुल्लु ि छुल्ल देखो छुड्ड (सुपा १५९) छुल्लुच्छुल देखो चुल्लुच्छल । च्छुलेइ (सूप्रनि ९६ टी) । छुव सक [ छुप् ] स्पर्श करना छूना । कर्म. छुप छुविज्जइ ( है ४, २४९ ) । कवकृ. छुप्पंत (उप ३३६; ७२८ टी) । [क्षिप्] फेंकना, डालना । छुहइ (उव; हे ४, १४३) । संकृ. छोटूण, छोढणं ( स ८५, विसे ३०१ ) । छुहा स्त्री [सुधा] १ श्रमृत, पीयूष (हे १, २६५: कुमा) । २ खड़ी, मकान पोतने का श्वेत द्रव्य-विशेष, चूना (दे १, ७८ कुमा) । अ [र] चन्द्र, चन्द्रमा ( पड् ) । हा स्त्री [ क्षुध् ] क्षुधा, भूख, बुभुक्षा १, १७; दे २, ४२) । (हे हाइअ वि [ क्षुधित ] भूखा, बुभुक्षित (पान) । छुहाउल वि[क्षुदाकुल] ऊपर देखो (गा ५८१) । छुहालु वि [क्षुधालु ] ऊपर देखो (उप पृ १६० १५० टी) । हि [क्षुधित] ऊपर देखो (उन; उप ७२८ टी प्रासू १५० ) 1 छुहिअ वि [दे] लिप्त, पोता हुआ (दे ३, ३०) । छूढ वि [क्षिप्त ] क्षिप्त, प्रेरित (हे २, १२७; कुमा) । २ | छूहि न [दे] पार्श्व का परिवर्तन ( षड् ) । छेअ सक [ छेदय् ] १ छिन्न करना । २ तोड़वाना, छेदवाना । कर्म, खेइज्जति (पि ५४३) । संकृ. छेपत्ता (महा) । छेअ [दे] १ अन्त, प्रान्त, पर्यन्त (दे ३, ३८६ पात्रः से ७, ४८; कम्म १, ३९ ) । २ देवर, पति का छोटा भाई (दे ३, ३८) । ३ एक देश, एक भाग (से १, ७) । ४ निर्विभाग अंश (कम्म ४, ८२ ) । छेअवि [छेक] निपुण, चतुर, हुशियार (पाच प्रासू १७२; श्रपः गाया १, १ ) । यास्य [चार्च ] शिल्पाचार्य, कलाचार्यं (भग ७, ६) । छेअ पुं [छेद] १ नाश, विनाशः 'विज्जाच्छेमो को भद्द' (सुर ५, १९४ ) । २ खण्ड, विभाग ( से १, ७) । ३ छेदन, कर्तन; 'जीहाछे' (गा १५३० से ७, ४८ ) । ४ छः जैन आगम ग्रन्थ, वे ये हैं-निशोथसूत्र, महानिशीथसूत्र, दशा - श्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहारसूत्र, पञ्चकल्पसूत्र (विसे २२६५) । ५ छिन्न विभाग, अलग किया हुआ अंश (से ७, ४८ ) । ६ कमी, न्यूनता (पंचा १६ ) । ७ प्रायश्चित्त- विशेष (ठा ४, १) ८ शुद्धिपरीक्षा का एक अंग, धर्म-शुद्धि जानने का एक लक्षण, निर्दोष बाह्य श्राचरण 'सो छेएण सुद्धोत्ति (पंचव ३ ) । रिह न [[]] प्रायश्चित्तविशेष (ठा १०) । छेअअ ? वि [ छेदक ] छेदन करनेवाला, अग काटनेवाला (नाट; विसे ५१३) । छेअण न [छेदन] १ खण्डन, कर्त्तन, द्विधा करण (सम ३६ प्रासू १४० ) । २ कमी न्यूनता, ह्रास (प्राचा)। ३ शस्त्र, हथियार ( सू २, ३) । ४ निश्चायक वचन ( बृह १) । ५ सूक्ष्म श्रवयव ( बृह १) । ६ जलजीव - विशेष (सू २३ ) । छेडावण न [छेदोपस्थापनीय] जैन संयम - विशेष, बड़ी दीक्षा ( नव २६० पंचा ११) ओवद्वावणिय न [ छेदोपस्थापनीय ] ऊपर देखो (सक) । छेड [दे] देखो छिंड (दे ३, ३५) । Baf [] देखो छिंछई (गा ३०१) । [] १ शिखा, चोटी । २ नवमालिका, लता-विशेष (दे ३, ३१) । छेंडी स्त्री [दे] छोटी गली, छोटा रास्ता (दे ३, ३१) छेग देखो छेअ = छेक (दे ३, ४७) । छेज्ज देखो छिज्ज ( दसनि २ महा) 1 छेज्जा स्त्री [छेद्या] छेदन - क्रिया (सूत्र १, ४) । छेण पुं [दे] स्तेन, चोर ( षड् ) । V छेत्त देखो खेत्त (गा है उप ३५७ टी; १६४ भवि ) । For Personal & Private Use Only छुरी- छेवट्ठ छेत्तर न [दे] सूप बगैरह पुराना गृहोपकरण (दे ३, ३२) । छेत्तसोवजयन [दे] खेत में जागना (दे ३, ३२) । छेत्तु वि [छेट] छेदनेवाला, काटनेवाला (प्राचा) 1 छेद देखो छेअ = छेदय् । कर्म. छेदीति (पि ५४३)। संकृ. छेदिऊण, छेदेत्ता (पि ५८६; भग) । छेद देखो छेअ = छेद (पउम ४४, ६७६ श्रीप बब १) । छेदअ वि [छेदक] छेदनेवाला (पि २३३) । छेदण वि [छेदन] छेदन कर्ता । स्त्री. जी (स ७६६) । छेदोवटुावणिय देखो छेओबट्टावणिय ( ठा ३, ४) छेध पुं [दे] १ स्यासक, चन्दनादि सुगन्धि वस्तु का विलेपन । २ चोर, चोरी करनेवाला (दे ३, ३९) । छेप्प न [दे. शेप ] पुच्छ, लाङ्गल, पूँछ (गा ६२; विपा १, २ गउड ) | छेभय पुं [दे] चन्दन श्रादि का विलेपन, स्यासक (दे ३, ३२) । छेल पुंस्त्री [दे] श्रज, छाग, बकरा (दे छेलग ३, ३२ स १५० ) । स्त्री. लिआ, छेलयली (पि २३१३ परह १, १ - पत्र १४ ) । . लावण न [दे] १ उत्कृष्ट हर्ष-ध्वनि । २ बाल क्रीडन । ३ चीत्कार, ध्वनि-विशेष; 'छलावरणमुक्किट्ठाइ बालकोलावणं च सेंटाइ' (प्रावम) । छेलियन [दे] सेण्टित, नाक छींकने का शब्द, अव्यक्त ध्वनि विशेष ( परह १, ३ विसे ५०१) । छेली स्त्री [दे] थोड़े फूलवाली माला (दे ३, ३१) । छेवग न [ दे] महामारी या मारी वगैरह फैली हुई बीमारी (वव ५० निचू १) । छेवट्ट । न [ दे. सेवार्त्त, छेदवृत्त ] १ छेव ) संहनन-विशेष, शरीर रचना - विशेष, जिसमें मर्कट-बन्ध, बेठन और खीला न होकर यों ही हड्डियाँ आपस में जुड़ी हों ऐसी Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेवाडी-जह पाइअसहमहण्णवो ३४१ छोढूण देखो छह । छोदणं । देखो छुह। शरीर-रचना (सम ४४ १४६; भग; कम्म छोडि श्रीदे] छोटी, लध्वी, क्षुद्र (पिंग)। ३ न. अभ्याख्यान, कलंक-पारोपण, दोषारोप १, ३६)। २ कर्म-विशेष, जिसके उदय से छोडिअ विछोटित १ छोड़ा हुआ, बन्धन (बृह १; वव २)। ४ न. वन्दन-विशेष, दो पूर्वोक्त संहनन की प्राप्ति होती है वह कर्म मुक्त किया हुआ; 'वत्थानो छोडियो गंठो' खमासमरग-रूप वन्दन (गुभा १)। ५ आघात; (कम्म १, ३६) (सुपा ५०४ स ४३१)। २ घट्टित, आहत 'कोवेण धमधमंतो दंतच्छोभे ये देइ सो छेवाडी [दे] देखो छिवाडी (पव ८०; (पएह १, ४-पत्र ७८)। तम्मि' (महा)। निचू १२ जीव ३)। छोडिअ देखो फोडिअ (प्रौप)। छोम देखो छउम (णाया १,६-पत्र १५७) । छेह पुंदे.क्षेप] प्रेरण, क्षेपण; 'तो वन- छोहण वि [दे] छोड़कर (कुप्र ३१) । छोयर ' [दे] छोरा, लड़का, छोकरा (उप परिणामोणमभुममावलिरुब्भमाणदिविच्छेहो' पृ २१५)। छोलिअ देखो छोडिअ = छोटित (पिंग)।। छेहत्तरि (अप) देखो छाहत्तरि (पिंग)। छोप्प वि [स्पृश्य स्पर्श-योग्य, छूने लायक छोअ पुं[दे] छिलका (सूम २, १, १६)। छोल्ल सक [तक्ष ] छीलना, छाल उतारना। छोल्लइ ( षड्)। कर्म. छोल्लिज्जंतु (हे ४, छोइअ ' [दे] दास, नौकर (दे ३३)। (माचा २, १५, ५)। ३६५)। छोइआ स्त्री [दे] छिलका, ईख वगैरह की | छोभ पुं[दे] पिशुन, खल, दुर्जन (दै ३, | छाल (उप ७६८ टी); 'उच्छुखंडे पत्थिए | ३३)। देखो छोभ । | छोल्लण न [तक्षण] छीलना, निस्तुषीकरण, छिलका उतारना (गाया १, ७)। छोइयं पणामेई' (महा)। छोब्भ वि [क्षोभ्य क्षोभ योग्य, क्षोभणीय; 4 छोल्लिय वि [तष्ट] छिलका उतारा हुआ, तुषछोकरी स्त्री [दे]छोकरी,लड़की (कप्र५३) 'होति सत्तपरिवज्जिया य छोभा (? भा)। रहित किया हुआ (उप १७५)। छोट्टि स्त्री [दे] उच्छिष्टता, जूठाई (पिंड | सिप्पकलासमयसत्यपरिवज्जिया' (पएह १, | छोह पुं[दे] १ समूह, यूथ, जत्था। २ विक्षेप ५८७) ३-पत्र ५५)। (दे ३, ३६)। ३ माघात; 'ताव य सो छोड सक [छोटय] छोड़ना, बन्धन से मुक्त छोन्मत्थ विदे] अप्रिय, अनिष्ट (दे ३, ३३) मायंगो छोहं जा देइ उत्तरिजम्मि' (महा)। करना । छोडइ, छोडेइ (भवि महा)। संकृ. छोभाइत्ती स्त्री [दे] १ अस्पृश्या, छूने छोह पुं[क्षेप १ क्षेपण, फेंकना; 'निर्यादट्टि.. छोडिवि (सुपा २४६)। के अयोग्या। २ द्वेष्या, अप्रीतिकर स्त्री ( दे च्छोहनमयधाराहि (सुपा २६८)। छोडय वि [दे] छोटा, लघु (वज्जा १६४)। ३, ३९)। छोहर [दे] देखो छोयर (सुपा ५५२) । छोडाविय वि [छोटित] छुड़वाया हुआ, | छोभ [दे ] देखो छोब्भ (दे ३, ३३ टि)। छोहिय वि [क्षोभित क्षोभ-प्राप्त, घबड़ाया बन्धन-मुक्त कराया हुमा (स ६२)। २ निस्सहाय, दीन (पएह १, ३-पत्र ५५)। हुमा, व्याकुल किया गया (उप १३७ टी)। ॥ इम सिरिपाइअसहमहण्णवम्मि छमाराइसहसंकलणो पंचदसमो तरंगो समत्तो॥ ज पुंज तालु-स्थानीय व्यंजन वर्ण-विशेष जअकार पुं [जयकार जीत, अभ्युदय (प्राक जइपु[यति] १ साधु, जितेन्द्रिय, संन्यासी (प्रामाः प्राप)। (प्रौप; सुपा ४४४)। २ छन्द-शास्त्र में प्रसिद्ध ज स [यत् ] जो, जो कोई (ठा ३, १७ जी जअड मक [त्वर त्वरा करना, शीघ्रता करना। विश्राम-स्थान, कविता का विश्राम स्थान ८ कुमा; गा १०६)। जाडइ (हे ४,१७० षड्)। वकृ. जअडंत (धम्म १ टी)। ज वि [ज उत्पन्न, 'आसाइयरससेयो होइ (हे ४, १७०)। प्रयो. जमडावंति (कुमा)। जइ वि [यति] जितना (वव १) विसेसेण णेहजो दहणों (गा ७६८); 'भारं-जअल वि[दे] छन्न, पाच्छादित, ढका हमा | जइम [यदा] जिस समय, जिस वक्त (प्राप्र)। भज (प्राचा)। (षड्)। | जइम [यदि यदि, जो, अगर (सम १५५; For Personal & Private Use Only - Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ पाइअसहमहण्णवो जइ-जंप विपा १, १)। वि [ अपि] जो भी | जउण । स्त्री [यमुना] भारत की एक [संतार्य] जाँघ तक पानीवाला जलाशय (महा)। अँउण प्रसिद्ध नदी, जमुना (ठा १, २, हे (पाचा २, ३, २)। जइ अ [यत्र] जहाँ, जिस स्थान में (षड् ) अँउणा ) १, ४, १५८)। जंघाच्छेअ [दे] चत्वर, चौक (दे ३, जइ वि [जयिन्] जीतनेवाला, विजयी | जउणा देखो अँउणा (वजा १२२: प्राकृ ११)। ४३)। (कुमा)। जओ प्रयत:] १ क्योंकि, कारण कि, चूँकि जंघामय रवि [दे] जंघाल, द्रुत-गामी, वेग जइअव्य वि [जेतव्य] जीतने योग्य (प्रवि । (श्रा २८)। २ जिससे, जहाँ से (प्रासू ८२, जंघालुअ से जानेवाला (द ३, ४२ षड् )।१२)। १४८) जंघाल वि [जङ्घाल] द्रुत-गामी (दे ८,७८)। जइआ प्र[यदा] जिस समय, जिस वक्त जं यत् 1 १ क्योंकि, कारण कि। २ जत सकयन्त्र १ वश करना, काबू में (उब हे ३, ६५)। दाक्यान्तर का संबन्ध-सूचक अव्यय (हे १,२४, करना । २ जकड़ना, बाँधना (उप पृ १३१)।। जइच्छा स्त्री [यदृच्छा] १ स्वतन्त्रता। २ महा, गा ६६)। 'किंच अ[किश्चित् ] जंत न [यन्त्र] १ कल, युक्ति-पूर्वक शिल्प स्वेच्छाचार (राज)। १ जो कुछ, जो कोई (पडि परह १, ३)। प्रादि कर्म करने के लिए पदार्थ-विशेष, तिलजइण वि [जैन] १ जिन-देव का भक्त, जिन- २ असंबद्ध, प्रयुक्त, तुच्छ, नगण्य (पंचव ४)। यन्त्र आदि (जीव ३; गा ५५४: पडि; महा; धर्मी । २ जिन भगवान् का, जिन-देव से जंकयसुकय वि [दे] अल्प सुकृत से ग्राह्य, . कुमा)। २ वशीकरण, रक्षा वगैरह के लिए सैबन्ध रखनेवाला (विसे ३८३; धम्म ९ टी; थोड़े उपकार से अधीन होनेवाला (द ३, किया जाता लेख प्रयोग (पएह १, २)। ३ सुर ८, ६४) । स्त्री. °णी (पंचा ३)। ४५) संयमन, नियन्त्रण (राय)। पत्थर पुं जइण वि [जयिन्] जीतनेवाला; 'मणपवण- जंगम वि [जंगम] १ चलनेवाला, जो एक [प्रस्तर] गोफण का पत्थर (पएह १, २) ।। जइएवेगं (उवा; णाया १,१-पत्र ३१) स्थान से दूसरे स्थान में जा सकता हो वह "पिल्लणकम्म न [पीडनकर्मन यन्त्र द्वारा जण विजिबिना वेगवला. वेग-यत (ठा ६, भवि)। २ छन्द-पिशेष (पिंग)। तिल, ईख आदि पीलने या पेरनेका धंधा (पडि)५ पुरिस पुं[°पुरुष] यन्त्र-निर्मित त्वरा-युक्त 'उवइयउप्पश्यचवलजइणसिग्यवे- जंगल [जङ्गल] १ देश-विशेष, सपादलक्ष देश (कुमा; सत्त ६७ टो)। २ निर्जल प्रदेश पुरुष, यन्त्र से पुरुष की चेष्टा करनेवाला पुतला गाहि' (प्रौप)। (बृह १)। ३ न. मांस; 'गयकुंभवियारिय (प्रावम)५ वाडचुल्ली स्त्री [पाटचुल्ली] जइत्त वि [जैत्र] १ जीतनेवाला, विजयी (ठा ६)। २ पुं. नृप-विशेष (रंभा)।, मोत्तिएहि जं जंगलं किएई (वजा ४२) । इक्षु-रस पकाने का चूल्हा (ठा ८-पत्र | जंगा स्त्री [दे] गोचर-भूमि, पशुओं को चरने ४१७) 1 "हर न [गृह] धारा-गृह, पानी जइत्ता देखो जय = जि । | की जगह (दे ३, ४०)। का फवारावाला स्थान (कुमा)। जइय वि [जयिक जयावह, विजयी (णाया | जंगिअ वि [जाङ्गमिक] १ जंगम वस्तु से जंत देखो जा = या । १, ८–पत्र १३३)। संबन्ध रखनेवाला, जंगम-संबन्धी। २ न. जंतण न [यन्त्रण] १ नियन्त्रण, संयमन, जइय वि [ यष्ट्र] याग करनेवाला, 'तुब्भे जंगम जीवों के रोम का बना हुआ कपड़ा काबू । २ रोकनेवाला, प्रतिरोधक, (से ४, जइया जन्नाणं (उत्त २५, ३८)। (ठा ३, ३, ५, ३; कस)। जययव्य देखो जय = यत् ।। जंगुलि स्त्री [जालि] विष उतारने का मन्त्र, | जंतिअ पुं [यान्त्रिक] यन्त्र-कर्म करनेवाला, जइवा अ[यदि वा] अथवा, या (वव १)। कल चलानेवाला (गा ५५४)। विष-विद्या (ती ४५)। जइस (अप) वि [यादृश] जैसा, जिस तरह जंगुलिय पुंजाङ्गलिका गारुड़िक, विषमन्त्र जतिअ वि [यन्त्रित नियन्त्रित, जकड़ा हमा का (षड्) का जानकार, विषहरिया (पउम १०५,५७) (पउम ५३, १४५) १४ जउ न [जतु] लाक्षा, लाख, लाह (ठा ४,४; जंगोल स्त्रीन [जाङ्गल] विष-विधातक तन्त्र, जंतु पुं[जन्तु] जीव, प्राणी (उत्त ३ सण)। उप पू २४)। विष-विद्या, आयुर्वेद का एक विभाग जिसमें जंतुग न [जन्तुक] जलाशय में होनेवाला जउ पुं[यदु] १ स्वनाम-ख्यात एक राजा। विष की चिकित्सा का प्रतिपादन है (विपा। तृण-विशेष (पराह २, ३–पत्र १२३)। २ सुप्रसिद्ध क्षत्रिय वंश (उव)। गंदण पुं। १, ७.-पत्र ७५) । स्त्री.°ली (ठा ८)। जंतुय विजान्तुक] जन्तुक नामक तृण का ['नन्दन] १ यदुवंशीय, यदुवंश में उत्पन्न । जंघा स्त्री [जङ्घा] जाँघ, जानु के नीचे का (आचा २, २, ३, १४) । २ श्रीकृष्ण (उव)। भाग (प्राचाः कप्प)। °चर वि [°चर] जंप सक [जल्प ] बोलना, कहना। जंपइ जउ पुं[यजुष] वेद-विशेष, यजुर्वेद पादचारी, पैर से चलनेवाला (अणु)। चारण (प्राप्र)। वकृ. जंपंत, जंपमाण (महा: गा [चारण] एक प्रकार के जैन मुनि, जो १९८; सुर ४, २)। संकृ. जंपिऊण, जउण पुं[यमुन] स्वनाम-प्रसिद्ध एक राजा अपने तपोबल से आकाश में गमन कर सकते जंपिऊणं, जंपिय (प्रारू, महा)। हेकृ. (उप ४५७)। हैं (भग २०, ८ पब ६७)। संतारिम वि जंपिउं (महा)। कु. जंपिअव्व (गा २४२)। ४६) For Personal & Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंपण - जक्ख जंपण न [जल्पन] उक्ति, कथन, कहना (१२ उड २ मुख जंपण न [दे] मुँह (दे ३, ५१; भवि) । भाषक जंपय वि [जल्पक] बोलनेवाला, ( परह १.३) । ला जंपा न [जम्पान] १ वाहन विशेष सन, शिविका विशेष (ठा ४, ३३ श्रौप; सुपा ३९३; उप ९५६) । २ मृतक-यान, शव-यान ( सुपा २१९ ) । जंबुअ ) पुं [जम्बुक ] १ सियार, गीदड़ जंबुग ) ( प्रासू १७१ उप ७६८ टी पउम १०५, ६४ ) । २ न. जम्बूवृक्ष का फल, जामुन (सुपा २२ ) । जंबुल 8 [दे] १ वानीर, बेंत २ न. मद्यभाजन, सुरापात्र (दे ३, ४१) । जंबुल्ल वि [दे] जल्पाक, वाचाट, बकवादी (पास)। पिय[] जिसको देखे उसी को जंबुवई देखो जंबवई (अंतः पडि चाहनेवाला (दे ३, ४४; पात्र ) । पिय वि [जल्पित] कथित, उक्त (प्रासू १३० ) । जंपिय देखो जंप | पिर वि [जल्पितृ] १ जल्पाक बाचाट (दे २, ε७) । २ बोलनेवाला, भाषक (हे २, १४५: श्रा २७ गा १९२: सुपा ४०२ ) । पेक्विरमगिर[दे] जिसको देखे जंपेच्छिर मग्गिर उसी की याचना करनेवाला (षड् ; ३, ४४) । १ कीर्ति, श्रपयश जंबई स्त्री [जाम्बवती ] श्रीकृष्ण की एक पत्नी ( अंत १४ श्राचू १ ) जंबर्धत [ जाम्बवत् ] एक विद्याधर राजा (कुल २५९)। जंबा न [दे] १ बाल वाल जलमल, सिवार या सेवार (दे ३, ४२: पात्र) । जंबाल पुंग [जम्बाल] १, पंक (पाठा ३, ३) २ जन (सूम १, ७) । जंबीर ( अ ) न [जम्बीर ] नीबू या नीबू, फल- विशेष (सरण) । पाइअसद्दमहण्णवो जंबुअ पुं [दे] १ वेतस वृक्ष, बेंत । २ पश्चिम दिपा (५२) । जंबु [] [जम्बु] जम्बु, सिपार 'जंबून हुन पउम १०५ ५७२ एक प्रसिद्ध जैन मुनि, सुधर्म-स्वामी के शिष्य, अन्तिम केवली (कप्प बसु वा १,१२ न. जम्बू वृक्ष का फल, जामुन (श्रा ३६) । [ज] जम्बुका 'सेवित जंबू भयो' (संबोध४७) । जंबु देखो जंबू (कम्प: कुमाइक: पम ५६ २२ से १३, ८६ ) । जंबू श्री [ जम्बू ] १ वृक्ष-विरोध, जामून का पेड़ (गाया १, १ औप ) । २ जंबू वृक्ष के आकार का एक रत्नमय शाश्वत पदार्थ, सुदर्शना, जिसके कारण यह द्वीप जंबूद्वीप कहलाता है (१) ३ पुं. एक सुप्रसिद्ध जैन मुनि, सुधर्म-स्वामी का मुख्य शिष्य (जं १) । दीव पुं [द्वीप ] भूखण्ड विशेष, सब द्वीप और समुद्रों के बीच का द्वीप, जिसमें यह भारत आदि क्षेत्र वर्तमान है (जे १ इक) दीवग वि[" द्वीपक] जम्बूद्वीपसंबधी जम्बूद्वीप में उत्पस (डा ४, २९) "दीवपणति श्री ["द्वीपक्षम] घाम-ग्रन्थ विशेष जिसमें जंबूद्वीप का वर्णन है (१) पीड पेट न ["पीठ] सुदर्शना का अधिष्ठान प्रदेश नं ४ इक) पुरन ["पुर] नगर विशेष (क)जक्स "मालि ["मालिन] रावल का एक पुत्र रावण का एक सुभट ( पउम ५६, २२: से १६) मेषपुर ["मेघपुर ] विद्या घर-नगर- विशेष (एक) "संड ["पण्ड ] ग्राम विशेष (धाम ) "सामि ["स्वामिन] सुप्रसिद्ध जैन मुनि विशेष (प्रावम) । । [जम्बूक] सिपार, गीदह ( ८४ भा) । जंबूणय न [जाम्बूनद] १ सुवर्ण, सोना (सम ६५; पउम ५, १२९ ) । २ पुं. स्वनामप्रसिद्ध एक राजा (पउम ४८, १८) । जंबूलय पुन [जम्बूलक ] उदक-भाजन-विशेष (उवा) । जंभ [दे] तुष, भूणा, धान्य र का छिलका (दे ३, ४० ) 1 For Personal & Private Use Only | ३४३ जंभंत देखो जंभा = जृम्भ् । जंभग वि [जृम्भक] १ माई लेनेवाला। २. व्यन्तरदेवों की एक जाति (कम्प, सुपा ४० ) । जंभणभण) वि [दे] स्वच्छन्द-भाषी, जो जंभणभण - मरजी में भावे वह बोलनेजंभणय वाला (षड् ; दे ३, ४४) जंभणी श्री [जृम्भणी] तन्त्र-प्रसिद्ध विद्या विशेष (सू २ २ पउम ७, १४४ ) । जंभय देखो जंभग (खाया १, १ अंतः भग १४, ८) । जंभल पुं [दे] जड़, सुस्त, मन्द (दे ३, ४१) । जंभा श्री [जृम्भा] जमाई. जुम्भण (विपा १) । जंभा स्त्री [जृम्भा] एक देवी का नाम (सिरि २०३ ) । जंभा जंभाअ [जुम्भू ] भाई लेगा। } जंभाई, जंभाई (हे ४, १५७; २४०; प्रात्रः षड् ) । वकृ. जंभंत, जंभाअंत (गा ५४६; से ७, ६५० कप्प) । जंभाइअ न [जृम्भित] [जृम्भित] जँभाई, भाई जुम्भा ( पडि ) । जंभियन [जृम्भित] १ भाई ९ पु. ग्राम-विशेष, जहाँ भगवान् महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था यह गाँव पारसनाथ पहाड़ के पास की ऋजुबालिका नदी के किनारे पर था (कप्प ) । [यक्ष] १ व्यन्तर देवों की एक पुं जाति (पह १, ४ प २ धनेश, कुबेर, यक्षाधिपति ( प्राप्र ) । ३ एक विद्याधर- राजा, जो रावण का मौसेरा भाई था ( पउम ८, १०२४ द्वीप-विशेष ५ समुद्र-विशेष (चंद १९ ) । ६ श्वान, कुत्ता 'ग्रह प्रायविराया पवयम्' १९३ मा)। कदम ["कम] १ केसर, अगर चन्दन, कपूर धीर कस्तूरी का समभाग मिचरण (भवि) २ द्वीप-विशेष ३ समुद्र-विशेष (बंद २०) मा [ह] यज्ञावेश, यक्षकृत उपद्रव ( जीव ३ जं २ ) । णायग पुं [नायक ] यक्षों का अधिपति, कुबेर (अणु) । दित्त न ['दीप्त ] देखो नीचे दित्य (पव २६) । दिन्ना स्त्री ['दत्ता ] महर्षि स्थूलभद्र की बहिन, एक जैन साध्वी Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ पाइअसहमहण्णवो जक्खरत्ति-जघण (पडि)। भद्द ' [भद्र] यक्षद्वीप का | जक्खुत्तम पु [यक्षोत्तम] यक्ष-देवों की एक कदर्थन, पीड़नः सिण चिय वम्महणायगस्स अधिपति देव-विशेष (चंद २०)। मंडलप- | अवान्तर जाति (पएण १)। जगजगडणापसत्तस्स' (उप ५३० टी)। विभत्ति स्त्री [ मंण्डलप्रविभक्ति एक तरह | जक्खेस पुं[यक्षेश] १ यक्षों का स्वामी । | जगडिअ वि [दे] विद्रावित, कथित (दे ३, का नात्य (राय)। मह ["मह] यक्ष | २ भगवान् अभिनन्दन का शासन-यक्ष (संति | ४४; साधं ९७ उव) । .. के लिए किया जाता महोत्सव (पाचा २, १, ७)। जगडिअ वि [दे] लड़ाया हुआ (धर्मवि २)। महाभद्द पुं[महभद्र] यक्ष द्वीप | जग न [यकृत् 1 पेट की दक्षिण-ग्रन्थि | ३१)। का अधिपति देव (चंद २०) महावर पुं. जगर पुं[जगर] संनाह, कवच, वर्म (दे ३, [ महावर] यक्ष समुद्र का अधिष्ठाता देव जग पुंदे] जन्तु, जीव, प्राणी; 'पुढो जगा विशेष (चंद २०)। राय पुं["राज १ परिसंखाय भिक्खू' (सूम १, ५, २०)। | जगल न [दे] १ पङ्कवाली मदिरा, मदिरा यक्षों का राजा, कुबेर । २ प्रधान यक्ष (सुपा | जग पुन [जगत् ] प्राणी, जीवः 'पुढविजीवे ४६२)। ३ एक विद्याधर राजा (पउम ८, का नीचला भाग (दे ३, ४१) । २ ईख की मदिरा का नीचला भाग (दे ३, ४१; पान)। हिसिना जे प्रतनिस्सिया जगें (दस ५, १, १२४) । घर पुं [वर] यक्ष-समुद्र का अधिपति देव-विशेष (चंद २०) । इट्ट वि | ६८. सूत्र १, ७, २० १, ११, ३३)। |जगार पुं[दे] राब, यवागू (पव ४)। [विष्ट] यक्ष का प्रावेशवाला, यक्षाधिष्ठित जग न [जगत् ] जग, संसार, दुनियाँ (स | जगार पु[जकार] 'ज' अक्षर, 'ज' वर्ण (ठा ५, १, वव २)। दित्तय, लित्तय २४६; सुर २, १३१) । गुरु पुं[गुरु (निचू १)। न [दिप्तक] १ कभी-कभी किसी दिशा में १ जगत् में सर्व-श्रेष्ठ पुरुष। २ जगत् का | जगार पुं[यत्कार] 'यत्' शब्द 'जगारुद्दिट्टाणं बिजली के समान जो प्रकाश होता है वह, पूज्य । ३ जिन-देव, तीर्थंकर (सं २१ पंचा| तगारेण निद्देसो कीरई' (निचू १)। प्राकाश में व्यन्तर-कृत अग्नि-दीपन (भग ३, ४)। जीवण वि [ जीवन] १ जगत् को | जगारी स्त्री [जगारी] अन्न-विशेष, एक प्रकार ६; वव ७)। २ आकाश में दीखता अग्नि- जीलानवाला । २ पु. जिन-दव (राज) का क्षुद्र अन्न; 'असणं मोयरणसत्तगमुग्गजयुक्त पिशाच (जीव ३) । वेस [वेश] 'णाह [नाथ] जगत् का पालक, परमेश्वर, | गारीई' (पंचा ५)। यक्ष-कृत आवेश, यक्ष का मनुष्य-शरीर में जिन-देव (पंदि)। पियामह पिता- | जगत्तम वि जगदुत्तम जगत्-श्रेष्ठ, जगत् प्रवेश (ठा २,१) हिव पुं[धिप] मह] १ ब्रह्मा, विधाता। २ जिनदेव (णंदि)। में प्रधान (पएह २, ४)। १ वैश्रमण, कुबेर, यक्ष राज । २ एक विद्या. पगास वि [प्रकाश जगत् का प्रकाश करनेवाला, जगत्प्रकाशक (पउम २२, ४७)। धर राजा (पउम ८, ११३)। हिवइ पुं | जग्ग अक [जाग] १ जागना, नींद से उठना। २ सचेत होना, सावधान होना । जग्गइ, [धिपति देखो पूर्वोक्त अर्थ (पात्र; पउम पहाण न [प्रधान] जगत् में श्रेष्ठ जग्गि (हे ४, ८० षड् प्रासू ६८)। वकृ. (गउड)। जग्गंत (सुपा १८५)। प्रयो. जग्गावइ (पि जक्खरत्ति स्त्री [दे. यक्षरात्रि] दीपालिका, जगई स्त्री [जगती] १ प्राकार, किला, दुर्ग दीवाली, कात्तिक वदि अमास का पर्व (दे ३, (सम १३; चैत्य ६१)। २ पृथिवो (उत्त १) जग्गण न [जागरण] जागना, निद्रा-त्याग ४३)। | जगईपव्यय पुं [जगतीपर्वत] पर्वत-विशेष | (मोघ १०६)। जक्खा स्त्री [यक्षा] एक प्रसिद्ध जैन साध्वी, | (राय ७५)। जग्गविअ वि [जागरित जगाया हुमा, नोंद जो महर्षि स्थूलभद्र की बहिन थी (पडि)। जगजग अक [चकास्] चमकना, दीपना । से उठाया हुआ (सुपा ३३१)। जक्खिंद ' [यक्षेन्द्र] १ यक्षों की स्वामी, वकृ. जगजगंत, जगजगेंत (पउम ७७, | | जग्गह पुं[यग्रह] जो प्राप्त हो उसे ग्रहण यक्षों का राजा (ठा ४,१)। २ भगवान् २३, १४, १३४)। करने की राजाज्ञा, 'रएगा जरगहो घोसियो परनाथ का शासनाधिष्ठायक देव (पव २६; | जगड सक [दे] १ झगड़ना, झगड़ा करना, । (प्रावम)। संति ८)। कलह करना। २ कदर्थन करना, पीड़ना । जग्गाविअ देखो जग्गविअ (से १०, ५६)। जविखणी स्त्री [यक्षिणी] १ यक्ष-योनिक स्त्री, | ३ उठाना, जागृत करना । वकृ. जगडंत जग्गाह देखो जग्गह (प्राक)। देवियों की एक जाति (प्रावम) । २ भगवान् (भवि) । कवकृ.जगडिज्जंत (पउम ८२, ६; जग्गिअ वि [जागृत] जगा हुआ, त्यक्त-निद्र श्रीनेमिनाथ की प्रथम शिष्या (सम १५२)। | राज)। (गा ३८५, कुमाः सुपा ५६३)। जक्खिणी स्त्री [यक्षिणी] देखो जक्खा जगडण न [दे] नीचे देखो (उव)। जग्गिर वि [जागरित] १ जागनेवाला। २ (मंगल २३)। जगडण वि [दे] १ झगड़ा करानेवाला ।२ सावचेत रहनेवाला (सुपा २१८)। जक्खी स्त्री [याक्षी] लिपि-विशेष (विसे कदर्थना करानेवाला (धर्मवि ८६ कुप्र४२६) जघणन [जघन] कमर के नीचे का भाग, ४६४ टो)। जगडणा स्त्री [दे] १ झगड़ा, कलह । २, ऊरुस्थल (कप्पा औप)। For Personal & Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जच्च - जण पाइअसद्दमहणव जच्च पुं [दे] पुरुष, मरद, श्रादमी (दे ३, जजरिय वि [जर्जरित ] जीर्णं किया गया, ४०) । खोलता किया हुआ, पुराना (डा ४, ४ गुर ३, १६५; कस) । जजिंग नाम ( ती १५) । जज्जियन [ यावज्जीव] जीवनपर्यन्त जज्जीव) जिन्दगी भर 'जज्जीव प्रहिगरणं (पिड ५०६ : ५१२ ) । [जबिक] एक जैन प्राचार्य का जश्च वि [जात्य ] १ उत्तम जातवाला, कुलीन, उत्तम, सुन्दर (खाया १, १ मा १२० सुपा ७७ कप्प ) । २ स्वाभाविक, अकृत्रिम (दु) ३ सजातीय, विजाति-मिश्रण से रहित, शुद्ध ( जीव ३ ) 1 जञ्चजण न [ जात्याअन] १ श्रेष्ठ प्रजन, सुन्दर भजन ( खाया १, १ ) । २ मर्दित भजन, तैल वगैरह से मदित श्रव्जन (कप्प ) । जयंदण [] ग सुगन्धि इव्य न १ विशेष, जो धूप के काम में आता है । २ कुंकुम, केसर (दे ३, ५२ ) । उत्तम जबंध वि [जात्यन्ध] जन्म से धन्या जन्मांध (सुपा ३९५) । जच्चण्णिय ) वि [जात्यम्वित] सुकुल में जयन्निय उत्पन्न जाति का सूप, १०; बृह ३) । जच्चास पुं [जात्यश्व, जात्याश्व ] जाति का घोड़ा ( प ४, २९) । जश्चिय ( प ) वि [जातीय] समान जाति का (सरण) । जथिर न [ चिर] तक (वव ७) । [जच्छ सक [ यम् ] १ उपरम करना, विराम करना । २ देना, दान करना। जच्छइ (हे ४, २१५; कुमा) । जहाँ तक जितने समय जच्छ पुं [ यक्ष्मन् ] रोग विशेष, यक्ष्मा, क्षयरोग (प्रा २२) । [] स्वन्द, स्वेर (दे ३, ४३, छेद षड् ) । जज देखो जय = यज् । वकृ. जजमाण (नाट-राह ७२)। जजु देखो जउ = यजुष् ( णाया १, ५; भग) जन वि [जय्य] जो जीता जा सके वह जीतने को शक्य (हे २, २४) । जवर वि[जर्जर] जी, सच्छिद्र, खोखला, जाँजर, झाँझरा या झाँझर (गा १०१ सुर ३, १३९) । जज्जर सक [जर्जरय् ] जीर्णं करना, खोखला करना। यह जज्जरित, जजरिजमाण (नाटचैत २३ सुपा १४) । ४४ जट्ट पुं [ज] १ देश-विशेष (भव ) । २ उस देश का निवासी ( है २, ३०) जटु वि [इ] यजन किया हुआ, याद किया हुना ( स ५५) । जन [इट] वजन, याग, यज्ञ (उत्त १२, ४०; २५, ३०) । जट्ठि स्त्री [ यष्टि ] लकड़ी, 'जट्टिमुट्ठिलउडपहारेहिं (महाः प्राप्त)। जब [ज] १ घचेतन, जीव. रहित पदार्थ २ मूर्ख, श्रालसी, विवेक शून्य (पाश्रः प्रासू ७१) । ३ शिशिर, जाड़े से ठंढा होकर चलने को अशक (पान) । जड देखो जढ ( षड् ) । as 7 श्री [जा] सटे हुए बाल मिले हुए If I ( २५७ सुपा २५१ ) । "धर वि [धर ] १ जटा को धारण करनेवाला । २ पुं. जटाधारी तापस, संन्यासी । पुं (पउम ३१, ७५) धारि [धारिन्] देखो पूर्वोक्त अर्थ (पउम ३३, १) । ~ जडहारि देखो जड-धारि ( कुप्र २६३ ) । - जहा [जटायु] स्वनाम-प्रसिद्ध बुद्ध 9 जहा } -- (स्व-प्रा ४०) । जहागि] [जटाकिन ] ऊपर देखो (प ४१, ६५) । जलवि[ जटावत् ] जटायुक्त, जटाधारी (हे २, १४९) । जडासुर १७७)। [जटासुर] धनुर-विशेष (देखी जडि वि [जटिन् ] १ जटावाला, जटायुक्त । २. जटाधारी तापस (भीक मत १०० ) । जदिअ व [जटिक] देखो जडि (कुत्र वि २६३) । For Personal & Private Use Only ३४५ जडिअ वि [जटित ] पिहित, ढका हुभा ( सिरि ५१९) । [डिअ [. जटित] जहि जड़ा हुआ, (२४१ महा पाओ , जडिम पुंस्त्री [जडिमन ] जड़ता, जड़पन, जाय (सुपा ९ ) जडियाइलग पुं [दे. जटिकादिलक] ग्रहजहिमालय विशेष महाधिहायक देव-विशेष (ठा २, ३ चन्द २० ) । जडिल व [जटिल] १ जटावाला, जटायुक्त ( उवा कुमा २, ३५ ) । २ व्याप्त, खचितः 'उल्लसियवहलजालो लिजडिले जलणे पवेसो वा' (सुपा ४६५) । ३ पुं. सिंह, केसरी । ४ जटाधारी तापस (हे १, १६४; भग १५; पत्र ६४ ) । जडिलय ! [दे. जटिलक] राहू, ग्रह-विशेष ( सुज २० ) । - जडिलिय वि [जटिलित ] जटिल किया 7 जडिलिला, जटायुक्त किया हुआ (मुपा १२५२६९) । जडित वि [जटिन ] गटावाला, जटाधारी (चंड ) । जगुळ देवो जडि (भाग १४ – पत्र ६०० ) । जड्ड वि [दे] अशक्त, असमर्थ ( पव १०७) । जड्डु न [जाड्य ] जड़ता, जड़पन (उप ३२० टी; सार्धं १३० ) । -- जड्डू देखो जड ( १०७ पंचा जड्डू [२] हामी हस्ती (घोष २३० बृह १) । स्त्री जड्डा जी [दे] वाहा, शीत (सुर १३, २१४० पिग ) । । जढ वि[स्थत] परित्यक्त मुक्त बजित (हे ४, २५८, प्रोघ १० ); 'जइवि न सम्मत्तजढों' सत्त ७१ टी) | जडल जठर पेट उदर हे १,२२४० जढर न ] जढल ) प्राः षड् ) । जण तक [ जनयू] उत्पन्न करना, पैदा करना जो जति (प्रासू १५० १०८० महा) जयति ( माचा) व जणंत, जमाण (सुर १३, २१; द्र ३६६ उव) 1 जण [जन] १ मनुष्य, मानव, ग्रादमी, पु लोग, व्यक्ति (श्रौप; श्राचाः कुमाः प्रासू Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ पाइअसहमण्णवो जणइ-जण्हई ६५; स्पप्न १६)। २ देहाती मनुष्य (सूत्र जणमेअअ पु [जनमेजय] स्वनाम-प्रसिद्ध जगी स्त्री [जनी] स्त्री, नारी, महिला (णाया १, १.२)। ३ समुदाय, वर्ग, लोक (कुमाः नृप-विशेष (चारु १२)। २-पत्र २५३; पउम १५, ७३)।। पंचव ४)। ४ वि. उत्पादक, उत्पन्न करने- जणमेजय देखो जणमेअअ (धर्मवि ८१) जणु देखो जणि (हे ४,४४४ कुमा; षड्)। वालाः 'जेरण सुहझप्पजणं' (विसे ६६०)। जणय वि [जनक] १ उत्पादक, उत्पन्न जणुकलिआ स्त्री [जनोत्कलिक मनुष्यों 'जत्ता स्त्री [ यात्रा] जन-समागम, जनकरनेवाला: दिट्ठिबियं पिसुणाणं सव्वं का छोटा समूह (भग)। संगतिः 'जगजत्तारहियार होइ जइत्तं जईण सव्वस्स भयजणयं' (प्रासू १६) । २ पुं. पिता, जणुम्मि स्त्री [जनोमि] तरंग की तरह सया (दंस ४)। 'हाण न[स्थान] १ दण्डबाप (पान; सुर ३,२५ प्रासू ७७)। ३ देखो मनुष्यों की भीड़ (भग)। कारण्य, दक्षिण का एक जंगल । २ नगरजण = जन (सूअ १,६)।४ मिथिला का जणेमाण देखो जण = जनय । विशेष, नासिक (ती २८)। वइ पुं[पति] एक राजा, राजा जनक, सीता का पिता जणेर (अप) वि [जनक १ उत्पादक, पैदा लोगों का मुखिया (प्रौप)। वय पुं[ब्रज] (पउम २१, ३३)। ५ ऍन. ब. माता-पिता, करनेवाला । २ पुं. पिता, बाप (भवि)।'' मनुष्य-समूह (पउम ४, ५)। वाय ', माँ-बाप; 'जं किपि कोई साहइ. तज्जयाई जणेरि (अप) स्त्री [जननी माता, माँ (भवि)। [°वाद] १ जन-श्रुति, किंवदन्ती, उड़ती खबर कुएंति तं सव्वं' (सुपा ३५६, ५६८ )ीजण पुं [यज्ञ १ यज्ञ, याग, मख, ऋतु (सुपा ३००)। २ मनुष्यों की आपस में 'तणआ स्त्री [तनया] राजा जनक की (प्रातः गा २२७)। २ देव-पूजा। ३ श्राद्ध चर्चा (प्रौप) । ३ लोकापवाद, लोक में पुत्री, राजा रामचन्द्र की पत्नी, सीता, जानकी (जीव ३)! इ, जाइ वि [याजिन्] यज्ञ निन्दाः 'जणवायभएणं' (अव १)। स्सुइ (से १, ३७) । दुहिया, धूआ [ दुहित] करनेवाला (औपः निचू १)। 'इज वि स्त्री [ श्रुति ] किंवदन्ती । विवाय पुं वही अर्थ (पउम २३, ११:४८, ४) [नीय १ यज्ञ-सम्बन्धी, यज्ञ का। २ [पवाद] लोक में निन्दा (गा ४८४) । 'नदण पु[नन्दन] राजा जनक का पुत्र, न. 'उत्तराध्ययन' सूत्र का एक प्रकरण (उत्त जणइ स्त्री [जनिका] उत्पादिका, उत्पन्न भामण्डल (पउम ६५, २५)" नंदणी २५)। 'ट्ठाण न [ स्थान] १ यज्ञ का करनेवाली (कुमा)। स्त्री [नन्दनी] सीता, राम पत्नी, जानकी स्थान । २ नगर-विशेष, नासिक (ती २०)। जणइउ पु[जनयित्] १ जनक, पिता (पउम १४, ४६ )1 दिणी स्त्री 'मुह न [°मुख यज्ञ का उपाय (उत्त २५)। जणइत्तु (राज)। २ वि. उत्पादक, उत्पन्न [ नन्दिनी] वही अर्थ (पउम ४५, १६) वाड ' [वाट] यज्ञ-स्थान (गा २२७)। करनेवाला (ठा ४, ४)। "निवतणया स्त्री [ नृपतनया1 राजा | सेट्ट [श्रेष्ठ] श्रेष्ठ यज्ञ, उत्तम याग जणउत्त पु[दे] ग्राम का प्रधान पुरुष, गाँव जनक की पुत्री, सीता (पउम ४८, ६०) (उत्त १२)। का मुखिया (दे ३, ५२ षड़)। २ विट, "पुत्ती स्त्री [पुत्री] वही अर्थ (रयरण ७८)। जण्ण देखो जन्न = जन्य (धर्मसं १००)। भाण्ड, भाँड़, विदुषक (दे ३, ५२) । सुअ पु[सुत] जनक राजा का पुत्र, जण्णय देखो जणय (प्राप्र)। जणंगम पुं [जनङ्गम] चाण्डाल, 'रायणो भामण्डल (पउम ६५, २८)। सुआ स्त्री जण्णयत्ता स्त्री [दे. यज्ञयात्रा] बरात, हुंति रंका य बंभरणा य जणंगमा' (उप | [सुता] जानकी, सीता (पउम ३७, ६२; विवाह की यात्रा, वर के साथियों का गमन १०३१ टी पान) से २, ३८; १०, ३)। (उप ६५४)। जणग देखो जगय (भग; उप पृ २१६ सुर | जणयंगया स्त्री [जनकाङ्गजा] जानकी, जण्णसेणी स्त्री [याज्ञसेनी] द्रौपदी, पाण्डव२, १३७)। सोता, राजा रामचन्द्र की पत्नी (पउम पत्नी (वेणी ३७)। जणण न [जनन] १ जन्म देना, उत्पन्न ४१, ७८)। जण्णहर पु[दे] नर-राक्षस, दुष्ट-मनुष्य करना, पैदा करना (सुपा ५६७; सुर ३, ६; जणवय पु[जनपद] १ देश, राष्ट्र, जन (षड्)। द्र ५७) । २ वि. उत्पादक, जनक (उर ६, स्थान, लोकालय (औप)। २ देश-निवासी | जण्णिय पुं[याज्ञिक] याजक, यज्ञ करानेवाला ६ कुमा; भवि ); 'जरणमरणपसायजणणा' जन-समूह, प्रजा (पएह १, ३, प्राचा)। (प्रावम)। (वसु)।जणवय वि [जानपद देश में उत्पन्न, देश | जण्णोवईय । न [यज्ञोपवीत यज्ञ-सूत्र, जणगि। स्त्री [जननि, नी] १ माता, ___ का निवासी (आचा)। जण्णोववीय , जनेऊ (उत्त २; प्रावम)। जणणी अम्बा (सुर ३, २५; महा; पाम)। | जणस्सुइ स्त्री [जनश्रति 1 किंवदन्ती, जण्योहण पुं [दे] राक्षस, पिशाच (दे २ उत्पन्न करनेवाली नी, उत्पादिका (कुमा)।. अफवाह, कहावत (धर्मवि ११२)।। जगद्दण पु [जनार्दन श्रीकृष्ण, विष्णु जणि (अप) प्राइव] तरह, माफिक, जैसा जहन [दे] १ छोटी स्थाली। २ वि. (उप ६४८ टी; पिंग)। ( हे ४, ४४४० षड्)। कृष्ण, काले रंग का (दे ३, ५१)। जगप्पवाद जनप्रवाद जन-रव, लोकोक्ति, | जणिअ वि [जनित ] उत्पादित, उत्पन्न जण्हई स्त्री [जाह्नवी] गंगा नदी, भागीरथी अफवाह (मोह ४३)। किया हुआ (पान)। For Personal & Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जण्हली-जमलोइय पाइअसद्दमहण्णवो जण्हली श्री [दे] नीवी, नारा, इजारबन्द | जन्न देखो जण्ण (पराह १, २, ४ पउम ऐरवत वर्ष के एक भावी जिन-देव (पब ७)।। (दे ३, ४०)। 'पुरी स्त्री [पुरी] जम की नगरी, मौत का जण्हवी स्त्री [जाह्नवी] १ सगर चक्रवर्ती जन्न वि [जन्य] १ जन-हित, लोक-हितकर स्थानः 'को जमपुरीसमाणे समसाणे एवकी एक पत्नी, भगीरथ की जननी (पउम (सूम २, ६, २)। २ उत्पन्न होने योग्य मुल्लवइ? (सुपा ४६२)। पभ [प्रभ] ५, २०१)। २ गङ्गा-नदी, भागीरथी (पउम (धर्मसं २८०) । यमदेव का उत्पात-पर्वत, पर्वत-विशेष (ठा ४१, ५१ कुमा)। जन्नत्ता। स्त्री [दे] बरात, गुजराती में 'जान' १०)1 °भड पुं[भट] यमराज का सुभट जण्हु पुं[जह्न ] भरत-वंशीय एक राजा जन्ना (सुपा ३६६% उप ७६८ टी)। (महा)। मंदिर न [ मन्दिर] यमराज का (प्राप्र; हे २, ७५)। 'सुआ स्त्री [सुता] जन्नसेणी देखो जण्णसेणी (पार्थ ४) । धर, मृत्यु-स्थान (महा)। लय न [लय] गङ्गा-नदी, भागीरथी (पान)। जन्नु देखो जाणु (पउम ६८, १०)। पूर्वोक्त ही अर्थ (पउम ४५, १०)। जण्हआ स्त्री [दे] जान. घुटना (पाप)। जन्नोवइय देखो जण्णोवईय (सुख २,१३)। जमग [यमका १ पक्षि-विशेष। देवजण्हुकन्ना स्त्री [जह कन्या गंगा-नदी | जनोवर्दय देखो जण्णोवईय (गाया १, विशेष (जीव ३)। ३ पर्वत-विशेष (जीव ३; १६--पत्र २१३)। सम ११४इक)। ४ द्रह-विशेष, दह, झील जत्त देखो जय = यत् । भवि. जत्तिहामि जन्हवी देखो जण्हवी (ठा, ६)। (जीव ३; इक)। देखो जमय । - (निर १,१)। जप देखो जव = जप् (षड्)। जमगं [दे एक साथ, एक ही जत्त पुं[यत्न] उद्योग, उद्यम, चेष्टा (उप | जपिर विजिपिता जाप करनेवाला (षड)जमगसमगं समय में, युगपत् (धम्म ११ जप्प देखो जंप। जप्पइ ( षड्)। जप्पंति टी रणाया १, ४, प्रौप; विपा १, १)। जत्ता स्त्री [यात्रा] १ देशान्तर-गमन, देशाटन (पि २६६)। जमणिया स्त्री [जमनिका] जैन साधु का (ठा ४, १; औप) । २ गमन, गतिः 'जत्तत्ति | जप्प पुं [जल्प] १ उक्ति, कथन । २ छल उपकरण-विशेष (राज)। होइ गमणं' (पंचभाः प्रौप)। ३ देव-पूजा के का उपालम्भ रूप भाषण (राज)। जमदग्गि पुं [जमदग्नि] तापस-विशेष, इस निमित्ति किया जाता उत्सव-विशेष, अष्टाहिका, | जप्प वि [याप्य] गमन कराने योग्य । नाम का एक संन्यासी, परशुराम का पिता रथ-यात्रा आदिः 'हुँ नायं पारद्धा सिद्धाययणेसु | जाण न [°यान] वाहन-विशेष, शिविका (पि २३७)। जत्तानो (सुर ३, ३८)। ४ तीर्थ-गमन, (दे ६, १२२)। जमदग्गिजडा स्त्री [यमदग्निजटा] गन्धतोर्थ-भ्रमण (धर्म २)। ५ शुभ-प्रवृत्ति (भग | जप्पभिइ प्रयत्प्रभृति जब से, जहाँ से | द्रव्य-विशेष, सुगन्धबाला (उत्तनि ३)। १८, १०)। जप्पभि लेकर (गाया १, १ कप्प) जमय देखो जमग ५ न. अलंकार-शास्त्र में जत्ता स्त्री [ यात्रा] संयम-निर्वाह (उत्त | जप्पिअ वि [जल्पित] १ उक्त, कथित प्रसिद्ध अनुप्रास-विशेष । ६ छन्द-विशेष (पिंग)। (प्राप)। २ न. उक्ति, वचन (अच्चु २) । जमल न [यमल] १ जोड़ा, युग्म, युगल जत्ति स्त्री [दे] १ चिन्ता । २ सेवा, सुश्रूषाः |जम सक [यमय ] १ काबू में रखना, (णाया १,१, हे २,१७३ से ५, ५६)। 'प्रजाणणाए तज्जत्ती न कया तम्मि केणवि' नियन्त्रण करना । २ जमाना, स्थिर करना । २ समान श्रेरिण में स्थित, तुल्य पंक्तिवाला (श्रा २८)। जमेइ (से १०, ७०)। संकृ. जमइत्ता (राय)। ३ सहवर्ती, सहचारी (भग १५)। जत्तिअ देखो यत्तिअ (उवा २० टि)। (प्रौप)। ४ समान, तुल्य (रायः प्रौप) 1 °ज्जुणभंजा जत्तिय वि[यावत् ] जितना (प्रासू १५६; जम पुं [यम १ अहिंसादि पाँच महाव्रत, पु र्जुनभञ्जक] श्रीकृष्ण वासुदेव (पराह | साधु का व्रत (गाया १, ५, ठा २, ३)। प्रावम)। १, ४)1 पद, पय न [पद] १ प्रायजत्तो देखो जओ (हे २, १६०)। २ दक्षिण दिशा का एक लोकपाल, देव- श्चित्त-विशेष (निचू १)। २ आठ अंकों की जत्थ अ [यत्र जहाँ, जिसमें (हे २, १६१; विशेष, जम-देवता, जमराज (पराह १,१ संख्या (पएण १२) । पाणि पु पाणि] प्रासू ७६)! पाप हे १, २४५)। ३ भरणी नक्षत्र का मुष्टि, मुट्ठी (भग १६, ३)। जदि देखो जइ= यदि (निचू २)। अधिपति देव (सुज्ज १०)। ४ किष्किन्धा जमलिय वि [यमलित] १ युग्म रूप से नगरी का एक राजा (पउम ७, ४६)। ५ स्थित (राय)। २ सम-श्रेणि रूप से अवस्थित जदिच्छा देखो जइच्छा (बृह ३; मा १२)। तापस-विशेष (आवम)। ६ मृत्यु, मौत (प्राव (णाया १, १, प्रौप)। जदु देखो जउ = यदु (कुमा: ठा८)। ४; महा)। ७ संयमन, नियन्त्रण (भावम)। जमलोइय वि [यमलौकिक] १ यमलोकजद्दर पुन [दे] वस्त्र-विशेष (सम्मत्त २१८ काइय पुं[कायिक असुर-विशेष, परमा- सम्बन्धी, यमलोक से सम्बन्ध रखनेवाला। २१६)। धार्मिक देव, जो नारकी के जीवों को दुःख २ परमाधार्मिक देव, असुरों की एक जाति जधा देखो जहा (ठा २, ३, ३; १) । देते हैं (पएह १, १)। 'घोस पुं[ घोष] | (सूत्र १, १२) । For Personal & Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ पाइअसहमहण्णवो जमा-जयंती जमा स्त्री [यामी] दक्षिण दिशा (ठा १०पत्र ४७८) जमालि जमालि] स्वनाम-ख्यात एक राज-कुमार, जो भगवान् महावीर का जामाता था, जिसने भगवान् महावीर के पास दीक्षा ली थी और पीछे से अपना अलग पन्थ निकाला था (णाया १,८;ठा ७)। जमावण न [यमन] १ नियन्त्रण करना । २ विषम वस्तु को सम करना (निच१) जमिअ वि [यमित] नियन्त्रित, संयमित, काबू में किया हुआ (से ११, ४१; सुपा ३)। जमुणा देखो अँउणा (पि १७६; २५१)। जमू स्त्री [जमू] ईशानेन्द्र की एक अग्र महिषी का नाम (इक)। जम्म प्रक [जन्] उत्पन्न होना । जम्मइ (हे| ४, १३६; षड्)। वकृ. जम्मत (कुमा); 'जम्मंतीए सोगो, बहतीए य बढ़ए चिता (सूक्त ८८)। जम्म सक [जम्] खाना, भक्षण करना। जम्मइ (षड्)। जम्म पुंन [जन्मन्] जन्म, उत्पत्ति (ठा ६ महा: प्रासू ६०)। जम्मण न [जम्मन्] जन्म, उत्पत्ति, उत्पाद (हे २, १७४ णाया १, १; सुर १, ६)। जम्मा श्री [याम्या] दक्षिण दिशा (उप पू ३७५)। जम्हाअ) देखो जंभाअ । जम्हाअइ, जम्हाह जम्हाहइ, जम्हाहाइ (प्राकृ जम्हाड़ा) ६४)। जय सक [जि] १ जीतना। २ अक. उत्कृष्टपन से बरतना । जयइ (महा) । जयंति (स ३९)। संकृ. जइत्ता (ठा ६)। जय सक [यज्] १ पूजा करना । २ याग करना । जयइ (उत्त २५, ४) । वकृ, जअमाण (अभि १२५)। जय प्रक [यत्] १ यत्न करना, चेष्टा करना। २ ख्याल करना, उपयोग करना । जयइ (उव) । भवि. जइस्सामि (महा)। वकृ. जयंत, जयमाण (स २६०० श्रा २६, प्रोष १२४ पुप्फ २४१)। कृ. जइयव्य (उव; सुर १, ३४)। जय न [जगत् ] जगत्, दुनियाँ, संसार सयलदेसम्मि' (मुरिण १०६००)। ३ स्वनाम(प्रासू १५५; से ६, १)। त्तय न [त्रय] ख्यात जैनाचार्य-विशेष (सुपा ६५८); 'सिरिस्वर्ग, मत्यं गौर पाताल लोक (सुपा ७६ | जयसिंहो सूरी सयंभरीमण्डलम्मि सुप्रसिद्धो' ६५) नाह ['नाथ] परमेश्वर, परमा- (मुणि १०८७२)। "सिरि श्री [ श्री] स्मा (पउम ८६, ६५)। °पहु ( [प्रभु] विजयश्री, जयलक्ष्मी (पावम)। सेण पुं परमेश्वर (सुपा २८ ८६) । "गणंद वि [°सेन] स्वनाम-प्रसिद्ध एक राजा (महा)। [नन्द जगत् को आनन्द देनेवाला (पउम वह वि ["वह] १ जय को वहन करने११७, ६)। वाला, विजयी (पउम ७०, ७, सुपा २३४)। जय वि[यत १ संयत, जितेन्द्रिय (भास २ विद्याधर-नगर-विशेष (इक) वहपर ६५)। २ उपयोग रखनेवाला, ख्याल रखने- न [विहपुर] एक विद्याधर-नगर (इक)।। वाला (उत्त १ प्राव ४) । ३ न. छठवाँ गुण- विास न [वास विद्याधरों का एक स्थानक (कम्म ४,४८)। ४ ख्याल, उपयोग, स्वनाम-ख्यात नगर (इक)। सावधानता (णाया १,१-पत्र ३३); 'जय जय पुं [यत प्रयत्न, चेष्टा, कोशिश (दस ५, चरे जयं चिठे (दस ४)। जय [जव वेग, शोव-गमन, दौड़ (पान) || जय पुंस्त्री [जया] तिथि-विशेष-तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी तिथि (जं १) जय पुं[जय १ जय, जीत, शत्रु का पराभव ! (प्रौपः कुमा)। २ स्वनाम-प्रसिद्ध एक चक्र जय देखो जया = यदा । पभिइ प्र वर्ती राजा (सम १५२) । उर न [°पुर] ["प्रभृति] जब से, जिस समय से (स नगर-विशेष (स ६) । 'कम्मा स्त्री [कर्मा विद्या-विशेष (पउम ७, १३६) । 'घोस पुं जयंत [जयन्त] १ इन्द्र का पुत्र (पान)। [घोष] १ जय-ध्वनि । २ स्वनाम-प्रसिद्ध २ एक भावी बलदेव (सम १५४) । ३ एक एक जैन मुनि (उत्त २५) । 'चंद पुं जैन मुनि, जो वज्रसेन मुनि के तृतीय शिष्य [°चन्द्र] १ विक्रम की बारहवीं शताब्दी का थे (कप्प)। ४ इस नाम के देव-विमान में कन्नौज का एक अन्तिम राजा । २ पन्नरहवीं रहनेवाली एक उत्तम देव-जाति (सम ५६) । शताब्दी का एक जैनाचार्य (रयण १४)। ५ जंबूद्वीप को जगती के पश्चिम द्वार का एक जत्ता स्त्री [ यात्रा] शत्रु पर चढ़ाई (सुपा अधिष्ठाता देव (ठा ४, २) । ६ न. देव५४१) । पडाया स्त्री [°पताका] विजय विमान-विशेष (सम ५६)। ७ जम्बूद्वीप की का झंडा (श्रा १२)। 'पुर देखो °उर (वसु)। जगती का पश्चिम द्वार (ठा ४, २)। ८ रुचक मंगला स्त्री [ मङ्गला] एक राज-कुमारी पर्वत का एक शिखर (ठा ४) । (दस ३) । लच्छी स्त्री [ लक्ष्मी] जय- जयंती स्त्री [जयन्ती] १ पक्ष को नववीं रात लक्ष्मी, विजयश्री (से ४, ३१, काप्र ७४३)। (सुज १०, १४)। २ भगवान् मरनाथ की वत वि [°वत् ] जय-प्राप्त, विजयी (पउम दीक्षा-शिविका (विचार १२६)। ६६.४६) । वल्लह [वल्लभ] नृप-विशेष जयंती स्त्री [जयन्ती] १ वल्ली-विशेष, अरणो, (दस १)। संध [सन्ध] पुण्डरीक- वर्ष गाँठ (पएण १)। २ सप्तम बलदेव की नामक राजा का एक मन्त्री (प्राचू ४)। माता (सम १५२)। ३ विदेह वर्ष की एक संधि पुं[°सन्धि] वही पूर्वोक्त अर्थ नगरी (ठा २, ३) । ४ अंगारक-नामक ग्रह को (भाव ४) सह पुं[शब्द] विजय-सूचक एक अग्र-महिषी (ठा ४, १)। ५ जम्बूद्वीप आवाज (भोप) । "सिंह पुं[सिंह] १ के मेरु से पश्चिम दिशा में स्थित रुचक पर्वत सिंहल द्वीप का एक राजा (रयण ४४) । २ पर रहनेवाली एक दिक् कुमारी देवी (ठा ८) । विक्रम की बारहवीं शताब्दी का गुजरात का ६ भगवान् महावीर को एक उपासिका (भग एक प्रसिद्ध राजा, जिसका दूसरा नाम 'सिद्ध- १२, २) । ७ भगवान् महावीर के भाठवें राज था: 'जेण जयसिंहदेवो राया भरिणऊण गणधर की माता (मावम)। ८ अंजनक घोष] १ जय । चंद पुं कप्प)। ४ इस For Personal & Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयण-जल पाइअसद्दमण्णवो ३४६ पर्वत की एक वापी (ती २४)। ६ नवमी जर वि [ जरत् ] जीर्ण, पुराना, वृद्ध, बूढ़ा जरि वि [जरिन्] जरा-पुक्त, वृद्ध, बूढा (दे तिथि (ज ७)। १० जैन मुनियों की एक (कुमाः सुर २, ६६, १०४)। स्त्री. ई (कुमाः ३, ५७, उर ३, १)। शाखा (कप्प)। गा ४७२ अ)। ग्गव पुं[गव] बूढा बैल जरिअ वि [ज्वरित] ज्वर-युक्त, बुखारवाला जयण न [यजन] १ याग, पूजा । २ अभय- (बृह, अनु ४)। "ग्गवी स्त्री [गवी (गा २५६; सुपा २८६)। दान (पएह २,१)। बूढी गाय (गा ४६२) 'ग्गु पुं[गु] १ जल अक [ज्वल् ] १ जलना, दग्ध होना। जयण न [यतन] १ यत्न, प्रयत्न, चेरा, बूढ़ा बैल । २ स्त्री. बूढी गाय; 'जिएणा य २ चमकना । जलइ (महा)। वकृ. जलंत उद्यम; 'जयणघडण-जोग-चरितं' (अनु) । २ | जरग्गवो पडिया' (पउम ३३, १६)। (उवा; गा २६४)। हेकृ. जलि (महा)। यतना, प्राणी की रक्षा (पग्रह २, १)। जर देखो जरा (कुमाः अंत १६ वव ७)। प्रयो., वकृ. जलिंत (महानि ७)। जयण वि[जवन] वेगवाला, वेग-युक्त (कप्प)। जरंड वि [दे] वृद्ध, बूढा (दे ३, ४०)। जल देखो जड (श्रा १२ प्राव ४) । जयण न [जयन] १ जीत, विजय (मुद्रा २६८ कप्पू) । २ वि. जीतनेवाला (कप्प)। जरग्ग वि [जरत्क] जीर्ण, पुराना (मनु ५)। जल न [जाड्य] जड़ता, मन्दता; 'जलधोय-. जललेवा (साधं ७३ से १, २४)।' जयण न [दे] घोड़े का बख्तर, हय-संनाह जरठ वि [जरठ] १ कठिन, पुरुष । २ जीणं, जल पुं [ज्वल] देदीप्यमान, चमकीला (सूम (दे ३, ४०)। पुराना (णाया १,१-पत्र ५)। देखो १, ५, १)। जयणा स्त्री [यतना] १ प्रयत्न, चेष्टा, कोशिश जरढ। जल न [जल] वीर्य (वजा १०२)। कंत (निचू १)। २ प्राणी की रक्षा, हिंसा का जरड वि [दे] वृद्ध, बूदा (दे ३, ४०)। पुंन [कान्त] एक देवविमान (देवेन्द्र परित्याग (दस ४)। ३ उपयोग, किसी जीव जरढ देखो जरठ (पि १९८; से १०, ३८)। १४४)। कारि पुंस्त्री ["कारिन्] चतुरिको दुःख न हो इस तरह प्रवृत्ति करने का ३ प्रौढ, मजबूत (से १, ४३)। न्द्रिय जन्तु-विशेष (उत्त ३६, १४६)। 'य ख्याल (निचू १; सं ६७ औप)। जरण न [जरण] जीर्णता, प्राहार का हजम वि [ज] पानी में उत्पन्न (श्रु ६८)। जयद्दह [जयद्रथ सिन्धु देश का स्वनाम- | होना, हाजमा (धर्मसं ११३५)। वारिअ पुं [वारिक] चतुरिन्द्रिय जन्तु प्रसिद्ध एक राजा, जो दुर्योधन का बहनोई जरय पु [जरक] रत्नप्रभा नामक नरक पृथिवी की एक जाति (सुख ३६, १४६)। था (णाया १, १६)। का एक नरकावास (ठा ६–पत्र ३६५) । जल न [जल] १ पानी, उदक (सूम १, ५, जया प्र[यदा] जिस समय, जिस वक्त (कप्प; मज्भ पुं[मध्य] नरकावास-विशेष (ठा | -विशेष (ठा २; जी २)। २ पुं. जलकान्त-नामक इन्द्र का काल)। ६) वित्त वर्त] नरकावास-विशेष एक लोकपाल (ठा ४, १)। कंत पुं जया स्त्री [जया] १ विद्या-विशेष (पउम ७, (ठा ६) । विसिटू पुं [विशिष्ट] नर- ["कान्त १ मणि-विशेष, रत्न की एक जाति १४१) । २ चतुर्थ चक्रवर्ती राजा की अग्र- कावास-विशेष (ठा ६)। (पएण १, कुम्मा १५)। २ इन्द्र-विशेष, महिषी (सम १५२) । ३ भगवान् वासुपूज्य जरलद्धि वि [दे] ग्रामीण, ग्राम्य (दे उदधिकुमार-नामक देव-जाति का दक्षिण दिशा की स्वनाम स्यात माता (सम १५१)। ४ जरलविअ, ३, ४४)। का इन्द्र (ठा २, ३)। ३ जलकान्त इन्द्र का तिथि-विशेष-तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी जरा स्त्री [जरा] बुढ़ापा, वृद्धत्व (प्राचा, कसः एक लोकपाल (ठा ४, १)1 करप्फाल j तिथि (सुज १०)। ५ भगवान् पार्श्वनाथ की प्रासू १३४) । कुमार पूं [कुमार] [करास्फाल] हाथ से पाहत पानी (पाम)। शासनदेवी (ती ६)। ६ प्रोषधि-विशेष श्रीकृष्ण का एक भाई (अंत)। संध पुं. करि पुत्रो [करिन] पानी का हाथी, (राज)। [सन्ध] राजगृह नगर का एक राजा, जल-जन्तु विशेष (महा)। कलंब पुं जयार ' [जकार] १ 'ज' अक्षर । २ जका- नववा प्रतिवासुदेव, जिसको श्री कृष्ण वासुदेव [कदम्ब] कदम्ब वृक्ष की एक जाति रादि अश्लील शब्दः 'जत्थ जयारमयारं समरणी ने मारा था (सम १५३) । "सिंध पुं (गउड)। कीडा, कोला स्त्री [क्रीडा] जंपइ गिहत्यपच्चर्ख (गच्छ ३, ४)। [सिन्ध] वही पूर्वोक्त अर्थ (पएह १,४- पानी में की जाती क्रीड़ा, जल-केलि (णाया जयिण देखो जइश = जयिन् (पएह १, ४)। पत्र ७२) सिंधु पुं [सिन्धु] वही १,२)। केलि स्त्री [ केलि] जल-क्रीड़ा जर अक[] जीर्ण होना, पुराना होना, बूढ़ा | पूर्वोक अर्थ (णाया १, १६ पत्र २०६७ (कुमा)। 'चर देखो यर (कप्प; हे १, होना । जरइ (हे ४, २३४)। कर्म. जीरइ, पउम ५, १५६)। १७७)। 'चार [चार] पानी में चलना जरिज्जइ (हे ४, २५०) । वकृ. जरंत जरा स्त्री [जरा] वसुदेव की एक पत्नी (कुप्र (माचा २, ५, १)। 'चारण '[चारण] (अच्नु ७६) १६)। जिसके प्रभाव से पानी में भी भूमि की तरह जर पु [ज्वर] रोग-विशेष, बुखार (कुमा)। जराहिरण (अप) देखो जल-हरण (पिंग)। चला जा सके ऐसी अलौकिक शक्ति रखनेजर पुं[जर] १ रावण का एक सुभट (पउम | जरि वि [ज्वरिन्] बुखारवाला, ज्वर से वाला मुनि (गच्छ २)। चारि पुंगरिन्] ५६, ३)। २ वि. जीणं, पुराना (दे ३,५९)। पीड़ित (सुपा २४३)। पानी में रहनेवाला जेतु (जी २०)। For Personal & Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघ, अभ्र (सपा)। हर पुजल्सग पुं दी पाइअसहमहण्णवो जलइय-जव 'चारिया स्त्री [चारिका] क्षुद्र जन्तु-विशेष, | [वीर्य] १ इक्ष्वाकु वंश का एक स्वनाम- जलिअ वि [ज्वलित] १ जला हुआ, प्रदीप्त चतुरिन्द्रिय जीव की एक जाति (राज)। ख्यात राजा (ठा ८)। २ क्षुद्र कीट-विशेष, | (सूत्र १, ५, १)। २ उज्वल, कान्ति-युक्त "जंत न [यन्त्र] पानी का यन्त्र, पानी का चतुरिन्द्रिय जन्तु की एक जाति (जीव १)। (पएह २, ५)। फवारा (कुमा)णाह पुं[ नाथ समुद्र, सय न [°शय] कमल, पद्म (उप १०३१ | जलिर वि [ज्वलित] जलता, सुलगता सागर (उप ७२८ टी)५ °णिहि पुं["निधि] | टी)५ साला स्त्री [शाला] प्रपा, पानी (धर्मवि ३५; कुप्र ३७६)। समुद्र, सागर (गउड) °णीली स्त्री ['नीली]. पिलाने का स्थान, याऊ (श्रा १२)। सूग न जलूगा । स्त्री [जलौकस् ] १ जन्तु शैवाल (दे ३, ४२)। तुसार पुं [तुषार] [शूक] १ शैवाल । २ जलकान्त-नामक जलूया विशेष, जोंक, जलिका, जल पानी का विन्दु (पाप) थंभिगी श्री | इन्द्र का एक लोकपाल (ठा ४, १)। °सेल ___ का कीड़ा (पउम १: २४; पण्ह १, १)। [स्तम्भिनी] विद्या-विशेष (पउम ७, [शैल] समुद्र के भीतर का पर्वत (उप २ पक्षि-विशेष (जीव १)। १३६) । 'द पुं [द] मेघ, प्रभ्र (मुद्रा ५६७ टी)। हत्थि पु[ हस्तिन] जल-जलूसग ' [दे] रोग-विशेष (उप पृ ३३२)। २६२, पव.१८)। द्दा स्त्री [द्रिा] पानी हस्ती, पानी का एक जन्तु (पाप)। हर पु जलोयर न [जलोदर] रोग-विशेष, जलन्धर, से भीजाया हुआ पंखा (सुपा ४१३)। [धर] १ मेघ, अभ्र (सुर २, १०४७ से १, जठराम (सण)। "निहि देखो "णिहि (प्रासू १२७)। "पभ ५६)। २ एक विद्याधर सुभट (पउम १२, जलोयरि वि [जलोदरिन्] जलन्धर रोग से पुं [प्रभ] १ इन्द्र-विशेष, उदधिकुमार- ६५)। हर पु[भर] जल-समूह (गउड)। पीड़ित (राज)। नामक देव-जाति का उत्तर दिशा का इन्द्र हर न [गृह] समुद्र, सागर (से १, ५६)। जलोया देखो जलूथा (जी १५)। (ठा २, ३)। २ जलकान्त नामक इन्द्र का हरण न [हरण] १ पानी की क्यारी जल्ल पुं [दे. जल्ल] १ शरीर का मैल, सुखा एक लोकपाल (ठा ४, १)। य न [ज] (पान)। २ छन्द-विशेष (पिंग)। "हि । पसीना (सम १०, ४०; प्रौप)। २ नट की कमल, पद्म (पउम १२, ३७; प्रौप; पएण [धि] १ समुद्र, सागर (महा सुपा २२३)। एक जाति, रस्सी पर खेल करनेवाला नट १) य देखो 'द (कालः गउड से १, २ चार की संख्या (विवे १४४)। "सय पुन | (पएह २, ४० प्रौपः णाया १,१)। ३ २४)। यर पुंस्त्री [°चर] जल में रहने- [शय सरोवर, तलाव (सुर ३, १)। बन्दी, दिरुद-पाठक (गाया १,१)। ४ एक वाला ग्राहादि जन्तु (जी २०)। स्त्री.री जलइय पु[जलकित] जलकान्त-नामक इन्द्र म्लेच्छ देश। ५ उस देश में रहनेवाली म्लेच्छ (जीव २)। रंकु पुं[रङ्क] पक्षि-विशेष, का एक लोकपाल (ठा ४.१-पत्र १९८)।। जाति (पएह १, १-पत्र १४)। वेंक पक्षी (गा ५७८ गउड)। रक्खस ' जलंजलि [जलाञ्जलि] तर्पण, दोनों हाथों | जल्लार पुं [जल्लार] १ स्वनाम-प्रसिद्ध एक [ राक्षसराक्षस की जाति (पएण १)। | में लिया हुआ जल (सुर ३, ५१, कप्पु)।। अनार्य देश । २ जल्लार देश का निवासी 'रमण न [रमण] जल-क्रीड़ा, जल-केलि | जलग [ज्वलक] अग्नि, प्राग (पिंड)। (णाया १, १३)। 'रय [रय] जलप्रभ- | जलजलिअ वि [जलजलित] 'जल-जल जल्लिय न [दे. जल्लक शरीर का मैल (उत्त नामक इन्द्र का एक लोकपाल (ठा ४, १)। शब्द से युक्त (सिरि ६६४)। २४)। 'रासि पुं[ राशि] समुद्र, सागर (सुपा जलजलिंत वि [जाज्वल्यमान] देदीप्यमान | जल्लोसहि स्त्री [दे. जल्लौषधि एक तरह १९५; उप २६४ टी)। रुह पुन [रुह] चमकता (कप्प)। की आध्यात्मिक शक्ति, जिसके प्रभाव से शरीर पानी में पैदा होनेवाली वनस्पति (पएण १)। जलण पुं [ज्वलन] १ अग्नि, वति (उप | के मैल से रोग का नाश होता है (पएह २, रूव पुं [ रूप] जलकान्त-नामक इन्द्र का ६४८ टी)। २ देवों की एक जाति, अग्नि- १, विसे ७७६)। एक लोकपाल (भग ३,८)। लल्लिर न कुमार-नामक देव-जाति (पएह १, ४)। ३ जव सक [यापय ] १ गमन करवाना, [लिल्लिर] पानी में उत्पन्न होनेवाली वस्तु वि. जलता हुआ। ४ चमकता, देदीप्यमानः | भेजना। २ व्यवस्था करना। जवइ (हे ४, विशेष (दंस १) । वायस पुंस्त्री ["वायस] 'एईए जलजलपोवमाएं (उव ६४८ टी। ४०)। हेकृ. जवित्तए (सूम १, ३, २)। जलकौआ, पक्षि-विशेष (कुमा)। वासि वि ५ जलानेवाला (सूत्र १, १, ४)। ६ न. कु जवणिज्ज, जवणीय (णाया १, ५; हे [वासिन्] १ पानी में रहनेवाला। २ पुं. अग्नि सुलगाना (पण्ह १, ३)। ७ जलाना, १, २४८)। तापसों की एक जाति, जो पानी में ही निमग्न भस्म करना (गच्छ २)1 जडि पं जव सक [यापय ] काल-यापन करना, रहते हैं (औप)। 'वाह पुं[वाह] १ मेघ, [जटिन्] विद्याधर वंश का एक राजा पसार करना । जति (पिंड ६१६)। अभ्र (उप पू ३२ सुपा ८९)। २ जन्तु- । (पउम ५, ४६)। "मित्त पं ["मित्र] | जव सक [जप्] जाप करना, बार-बार विशेष (पउम ८८, ७) 'विच्छय पु स्वनाम-ख्यात एक प्राचीन कवि (गउड)। मन ही मन देवता का नाम स्मरण करना, [वृश्चिक] पानी का बिच्छू, चतुरिन्द्रिय जलावण न [ज्वालन] जलाना, दग्ध करना | पुनः पुनः मन्त्रोच्चारण करना । जवइ (रंभा); जन्तु-विशेष (पएण १) वीरिय पुं (पएह १, १)। 'तप्पंति तवमणेगे जवंति मंते तहा सुविनाओं For Personal & Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जव -जसा ( सुपा २०२ ) । वकृ. जवंत (नाट) । कवकृ. जविज्जंत (सुर १३, १८६ ) । जब पुं [प] आप, पुनः पुनः मन्त्रोच्चारण, बार-बार मन ही मन देवता का नाम स्मरण (२१२० ) । वपुं [व] १ अन्न- विशेष, जव या जौ (गाया १.१ परह १-४ ) । २ परिमारण विशेष श्राठ की माप (डा ) "गाली श्री ['नाली] वह नाली जिसमें जौ बोए जाते हों (प्राचू १) मन [मव्य ] १ तप-विशेष ( पउम २२, २४) । २ आठ यूका का एक नाप (२५) मा श्री [["मध्या] व्रत विशेष प्रतिमा विशेष (४१) राय ['राज] नृप-विशेष (बृह ) सा स्त्री [" वंश ] वनस्पति- विशेष (पराग १) जब [जय] वेग दोशीम गति पुं (कुमा) । 3 जब पुंन [यव] एक देवविमान (देवेन्द्र १४०) नाल [नालक] कन्या का कंचुक (दि ८८) नन [न] यव - निष्पन्न परमान्न, भोज्य-विशेष, जव की खीर, जाउर (पव २५६ ) 1/ जवजव पुं [यवयव ] अन्न- विशेष, एक तरह का यव-धान्य (ठा ३, १) जवण न [दे] हल की शिखा, हल की चोटी (दे ३, ४१) । जवण न [अपन] जाप, पुनः पुनः मन्त्र का उच्चारण; 'श्रहिणा दट्ठस्स जए को कालो मंस जवसम्म (पउम ६६०९) । जवण वि [जवन] १ वेग से जानेवाला (उप ७६८ पुं. वेग, ७२. शीघ्र गति (धावम) । पाइअसद्दमहणवो जवणालिया स्त्री [यवनालिका ] कन्या का बुक (धाम) 1 जवणिआ स्त्री [ यवनिका ] परदा (दे ४, १; सण कप्पू) जवणिज्ज देखो जव = यापय् जवणी स्त्री [यवनी] परदा, घाण्यादक पट (६२, २५) । २ संचारियर दूती (श्रमि ५७) - जवणी श्री [बावनी]१ यवन की श्री । २ यवन की लिपि (सम ३५; विसे ४६४ टी) 1 जवणीअ देखो जव = यापय् जयपचमाण [दे] जायश्व का वायु-विशेष प्रारण वायु (गउड) 1 जयण [यवन] १ ले देश-विशेष ( पउम ६८, ६४ ) । २ उस देश में रहनेवाली मनुष्य जाति ( प १ १ ३ यवन देश का राजा (कुमा)। जवण न [यापन ] निर्वाह, गुजारा, (उत्त ८) । - जवणा स्त्री [यापना ] ऊपर देखो ( पव २ ) । जवणानिया श्री [यवनानिफा ] लिपि-विशेष (राज) 1 जवय पुं [दे] जव का अंकुर (दे ३, ४२ ) । जवरय जवली स्त्री [दे] जव, वेगः 'गच्छति गव्यनेहेण पवरतुरयाहिरूढ़ा जवलीए" (सुपा २७६)। जववारय [दे] देखो जवरय (पंचा ८) जवस न [यवस] १. पास 'गिद्विव्य जवसम्म ' (उप ७२८ टी उप पृ ८४) । २ गेहूं वगैरह धान्य (मामा २३, २) - जब स्त्री [जपा] १ ली-विशेष, जवा-गुण्य का वृक्ष । २ गुड़हल का फूल, अड़हुल का पुष्प (कुमा) जवास पुं [वास] वृक्ष-विशेष, रक्त पुष्पवाला वृक्ष - विशेष; 'पाउसि जवासो (श्रा २३ पण १) जावा (प १७) - जवि जविण } वि [जमिन] १ गवाला वेग-युक्त सुपा ११२ ) । २ पु. अश्व, घोड़ा (राज) 1 १ जबिअ वि [जपित] जिसका जाप किया गया हो वह ( मन्त्र आदि) (सिरि ३६६ ) । २५. अध्ययन प्रकरण आदि बंश (तुन ग्रंथांश २, १३) । जवि [थापित] १ गमित गुजरा हुआ। २ नाशित (कुमा) । जस पुं [ यशस् ] कीर्ति, इज्जत, सुख्याति ( धौपः कुमा) । २ संयम, त्याग विरति (वव १ दस ५, २) । ३ विनय ( उत्त ३ ) । ४ भगवान् प्रनन्तनाथ का प्रथम शिष्य (सम १५२ ) । ५ भगवान् पार्श्वनाथ For Personal & Private Use Only ३५१ का आठवां प्रधान शिष्य (कप्प ) 1 कित्ति स्त्री [कीर्त्ति ] सुख्याति, सुप्रसिद्ध (सू ; श्राचू १) । भद्द पुं ['भद्र ] स्वनामख्यात एक जैन प्राचार्य (कप्पः सार्धं १३ ) । "म. मंत वि [वत्] १ यशस्वी, इतदार, कीत्तिवाला ( परह १, ४) । २ पुं. स्वनामप्रसिद्ध एक कुलकर पुरुष (सम १५० ) 1 'वई स्त्री ["वती ] १ द्वितीय चक्रवर्ती सगरराज की माता (सम १५२ ) २ तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी की रात्रि (चंद १०) । 'म्म पुं ['वर्मन ] स्वनाम - ख्यात नृप - विशेष (गउड) वाय पुं [वाद] साधुवाद, यशोगान, प्रशंसा (उप १८६ टी) । "विजय पुं ["विजय] विक्रम की बहारों शताब्दी का एक जैन सुप्रसिद्ध प्रकार न्यायाचार्य श्रीमान यशोविजय उपाध्याय (राज) हर [पर] १ भारतवर्ष का भूत कालिक अठारहवाँ जिन देव (पव ८) । २ भारतवर्ष के एक भावी जिन देव ( पव ४६ ) । ३ एक राजकुमार (धम्म) । ४ पक्ष का पाँचवाँ दिन (जं ७ ) । ५ वि. यश को धारण करनेवाला, यशस्वी ( जीव ३) । देखो जसो जसंसि पुं [यशस्विन् ] भगवान् महावीर के पिता का एक नाम (प्राचा २, १५, ३० कप्प ) 1 जसद पुं [जसद् ] धातु-विशेष, जस्ता (राज) । जसदेव पुं [यशोदेव] एक प्रसिद्ध जैनाचार्यं ( प २७६ ) 1 जसभद्द पुं [ यशोभद्र ] १ पक्ष का चतुर्थ दिवस (सुज्ज १०, १४) । २ एक राजर्षि, जो वागड देश के रत्नपुर नगर का राजा था और जिसने जैनी दीक्षा ली थी. जो धाचार्य हेमचन्द्र के गुरु थे (मुत्र ७ १८) ३ न. उड्डुवाटिक गण का एक कुल (कप्प ) 1 जसवई श्री [यशोमती] भगवान् महावीर की दौहित्री का नाम ( आचा २१५, ३) जसस्सि वि [ यशस्विन् ] यशस्वी, कीर्तिमान् (सूत्र १६, श्रु १४३) । जसहर न [ यशोदर ] एक देव-विमान (देवेन्द्र १४९) । जसा स्त्री [यशा ] कपिलमुनि की माता ( उत्त ८) । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जसो" देखो जस 'आ श्री ["दा] १ नन्द नामक गोप की पत्नी (गा ११२ ६५०)। २ भगवान् महावीर की पत्नी (कम्प) कामि वि ["कामिन] यश चाहते वाला (दस २) कित्तिनाम न [कीर्त्ति नामन] कर्म-विशेष, जिसके प्रभाव से सुयश फैलता है (सम ६७) 'घर [र] धरणेन्द्र के पश्य सैन्य का अभिपति देव (हा ५, १) । २ न. ग्रैवेयक देवलोक का प्रस्तर (एक) हरा श्री ["धरा] १ दक्षिण पर्वत पर रहनेवाली एक दिशाकुमारी देवी (ठा ८२ जम्बू-वृक्ष विशेष सुदर्शना ( जीव ३) । ३ पक्ष की चौथी रात्रि (जो ४ ) 1 जसोधर देखो जस-दर ( सुज १०, १४) । - जसोधरा देखो जसो हरा ( सुज १०, १४) 1 जसोया स्त्री [ यशोदा] भगवान् महावीर की क पत्नी का नाम ( आचा २, १५, ३) । - जह सक [हा] त्याग देना, छोड़ देना । जहइ (पि ६७) । वकृ. जहंत ( वव ३) । कृ. जहणिज्ज (राज) । संकू. जहित्ता (पि १८२) । ० जह [य] जहाँ, जिसमें ( हे २, १६१) । जह [ यथा ] जिस तरह से जैसे (ठा १ स्वप्न २०) कमन ["क्रम] क्रम के अनुसार, अनुक्रम (पंचा 8 ) 1 क्खाय देखो अक्खाय (श्रावम) 1ट्ठिय वि [स्थित ] वास्तविक, सत्य (सुर १, १६२३ सुपा ५७ ) । स्थवि [] वास्तविक सत्य (पंचा १५) स्थनामवि [र्थनामन् ] नाम के अनुसार गुणवाला (१६) | "थवा वि [र्थवादिन] सत्य-वक्ता (सुर १४, १६) पन [ याथात्म्य ] वास्त विकता, सत्यता (राज) । °रिह न [हें] उचितता के अनुसार (सुपा ११२ ) वट्टिय वि [" वृत्त] सत्य, यथार्थं (सुपा ५२९ ) + "विहित्री ["विधि] विधि के अनुसार 'नहगामिणिपमुहाम्रो जहविहिरगा साहियव्वानो' (सुर १, २८) खन[*संख्य] संख्या । के क्रम से, क्रमानुसार (नाट) । देखो जहा = । यथा ॥ जहण न [जघन] कमर के नीचे का भाग (गा १६६ : गाया १, ९ ) 1 पाइअसमण्णवो जहणरोद [] [अरु जंघा ( पुं जाँघ ३, -88)11 जहणा श्री [दान ] परित्याग (संबोध५१) जहणूसव न [दे] अर्धोरुक, जघनांशुक, जहणूसुअ 5 श्री को पहनने का यन-विशेष (दे ३, ४५६ षड् ) । जण वि [जघन्य] निकुष्ट, हीन, प्रथम } नाय (सम का मग का है है की जहन्न । १, ३८ दं ६) । = = । । जहा देखो जद्द हा (पि १५०) संह. जहाइता, जहाय ( सू १ २ १ प ५६१) । जहा देखो जह यथा ( हे १६७० कुमा) । जुत्त वि [युक्त ] यथोचित योग्य (सुर २. २०१) जेन [येष्ठ] ज्येष्ठता के क्रम से (म) नाम [नामक] । वि जिसका नाम न कहा गया हो, श्रनिर्दिष्ट- नामा, कोई जीव ३) तल ग ["वध्य] सध्य वास्तविक माला) तन ["तथ] सत्य वास्तविक (राज) वह न [याचाराच्य] वास्तविकता, सत्यता 'जाणासि णं भिक्खु जहास (१.६२ सूत्र का एक अध्ययन (सूत्र १, १३) । *पट्टकरण [["प्रवृत्तवरण] मारमा का परिणाम विशेष (धाचा) भूय वि ["भूत] सच्चा वास्तविक (खाया ११ राणिया स्त्री ["रात्निकता ] ज्येष्ठता के क्रम से, बड़प्पन के अनुसार ( कस) रुह देखो जहरिह (४६३) पिन ["वृत्त] जैसा हुआ हो वैसा यथार्थ ( २४) ५ सति नीत ['शक्ति ] शक्ति के अनुसार (पंचा स ३) । जहाजाव वि [दे. यथाजात] जड़ मूर्ख बेवकूफ (दे १. ४१ प १.३) जहि देखो जह पत्र (हे २- १६१३ या । = जहिं ( १३१ ; प्रासू ५६) । जहिये देखो जहिं (पिट २८) 1 जदिन्छ न [यथेच्छ] इच्छा के अनुसार (सुपा १९ पिंग) 1 जहिच्छिय न [ यथेप्सित ] इच्छानुकूल, इच्छानुसार (पंचा १) For Personal & Private Use Only जसो जाइ हिच्छिया श्री [यहच्छा]] मरजी स्वेच्छा स्वच्छन्दता (गा ४५३३ विसे ३९९६ स ३३२) जदिट्ठिल [युधिष्ठिर] पाराहु-राजा का ज्येष्ठ पुत्र, ज्येष्ठ पाण्डव (हे १, १०७ प्राप्र ) । जहिमा स्त्री [दे] विदग्ध पुरुष की बनाई गाथा (दे ३, ४२) जगद्विल देखो जहिट्ठिल (हे १- १६ १०७) 1 1 जतन [यथोक्त] कनानुसार (ि जअ [यचैव] जैसे ही (से २०१९) IV च्छ देसी जद्दिच्या २ जहोइन [ यथोदित] कवितानुसार (धर्म ३) । जोइय [यथोचित ] योग्यता - न के जद्दोषिय सार (सेम सुवा ४७१) जा श्रक [जन्] उत्पन्न होना । जाइ (हे ४. १२६) वह जायंत (कुमा) संकृ 'एक्के च्चिय निव्विणा पुणो-पुणो जाइडं. च मरिउं च' ( स १३० ) । जा सक [या ] १ जाना, गमन करना । २ प्राप्त करना । ३ जानना । जाइ (सुपा ३०१ ) । जंति (महा) । वकृ. जंत (सुर ३,१४३ १०, ११७) । कवकृ. जाइजमाण ( परह १,४) । जा सक [य] सकता, समर्थ होना "किंतु मम एव न जाइ पव्य', 'हा कि जायइ प्रज्झाइउं' (सुख २, १३) । जा देखो जाब = यावत् (हे १, २७१ कुमाः सुर १५.१३८ ) । = जान देखो जायजाप (हास्य १३२ ) । (प्राकृ जाओ देखो जाया जाम (६६) १ जाअर देखो जागर (मुद्रा १८७ ) । जाओ श्री [यातृ] देवर-भार्या देव की पहनी, देवरानी (प्राकृ ४३) । जाइ स्त्री [जाति] १ पुष्प - विशेष, मालती (कुमा) । सामान्य नैयायिकों के मत से एक धर्मविशेष, जो व्यापक हो, जैसे मनुष्य का मनुष्यत्व, गो का गोत्व (विसे १६०१ ) । ३ जात, कुल, गोत्र, वंश, ज्ञाति (ठा ४ २ सून ६, १३० कुमा) । ४ उत्पत्ति, जन्म ( उत्त ३ पडि ) । ५ क्षत्रिया वैश्य आदि जाति (उत्त३)+ पुष्प-प्रधान जाई का पेड़ (पण १)। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाइ-जाणय ७ मद्य-विशेष (विपा १२५ आजीव [" आजीव] जाति की समानता बतला कर भिक्षा प्राप्त करनेवाला साधु (ठा ५, १) 1 "पैर [स्थविर] साठ की उम्र का मुनि (ठा ३,२) । नाम न ['नामन] कर्म विशेष (सम ६७ ) + पसण्णा श्री [*प्रसन्ना] जाति के पुष्पों से वासित मदिरा ( जीव ३) फल न [° फल ] १ वृक्ष - विशेष । २ फल- विशेष, जायफल, एक गर्म मसाला (सुर १३, ३३; सण) । 'मंत वि [ मत् ] उच्च जाति का ( श्राचा २, ४, २) । मय [द] जाति का अभिमान (ठा १० ) । बतिया स्त्री [पत्रिका ] १ सुगन्धित फलवाला वृक्ष - विशेष । २ फल- विशेष, एक गर्म मसाला (सरण) । “सर पुं [स्मर] १ पूर्व जन्म की स्मृति । २ वि. पूर्व जन्म का स्मरण करनेवाला, पूर्व-जन्म का ज्ञानवाला; 'जाइसराई मन्ने इमाई नयणाई सो र ४, २००) सरण [स्मरण] पूर्व जन्म की स्मृति ( उत्त १९ ) । सर देखो 'सर (कप्प विसे १६७१६ उप २२० टी) । जाइ स्त्री [जाति] १ न्याय - शास्त्र - प्रसिद्ध दूषणाभास - प्रसत्य दूसरण (धर्मसं २६० स७११) । २ माता का वंश (पिंड ४३८ ) । जाइ देखो जाया (षड् ) । जाइ स्त्री [दे] १ मदिरा, सुरा, दारू (दें ३, ४५) । २ मदिरा-विशेष (विपा १, २ ) । जाइ वि [ याजिन ] यज्ञ कर्ता ( दसनि १, १४६)) । - जाइ नि [वायिन् ] जानेवाला (डा ४.३) । जाइअ वि [ याचित] प्राप्ति माँगा मा ( विसे २५०४ गा १६५ ) । जाइअ देखो जाय = जात ( वज्जा १४४) । जाइच्छवि [वाहच्कि] १ इच्छाजाइच्छिय / नुसार यथेच्छ ( धर्मसं १२) । २ इच्छानुसारी (घर्मंसं ६०२) । जाइच्छिवि [यादृच्छिक ] स्वेच्छा-निर्मित (Part RX) *~ जाइज्जत देखो जाय = यातय् । जाइजमाण } देखो जाय = याच् । ४५ पाइअसहमहणयो | जाइणी स्त्री [याकिनी] एक जैन साध्वी जिसको सुप्रसिद्ध जैन प्रत्यकार श्री हरिभद्र सूरि अपनी धर्म-माता समझते थे (उप १०३९) । जाइयव्वय न [ यातव्य ] गमन, गति ( सुख २. १७) । जाईअ वि [ जातीय ] जाति-सम्बन्धी ( धावक ४० ) । जाउन [ जायु ] क्षीरपेया, यवागू, मांड की कांजी, पीसा-विशेष (पिंड ६२५) - जाउ म [जातु] कदाचित् कभी ( उवकु ११) । जाउ म [जातु] किसी तरह (उप ५४७) । [] पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्र का गोत्र (एक) । जाउ स्त्री [यातृ] १ देवर-पत्नी देवरानी । २ वि. जानेवाला (संक्षि ४) । जाउया श्री [यातृका] देवर-पत्नी, पति के छोटे भाई की स्त्री, देवरानी (लामा १.१६) । जाउर पुं [ दे ] कपित्थवृक्ष, कैथ का फल (दे ३,४५) । जाउल पुं [जातुल] वल्ली-विशेष (परण १ - पत्र ३२ ) 1४ जाउहाण पुं [ यातुधान] राक्षस (उप १०३१ टी. पा जाग पुं [याग ] १ यज्ञ, अध्वर, होम, हवन (पउन १४० ४० १०१२ देवा (गाया १, १ ) 1. जागर अक [ जागृ] जागना, निद्रा-स्याग करना । जागरइ (षड् ) । वकृ. जागरमाण (विसे २७१६) । कृ. जागरित्तए, जागरेत (रुणः कस)। जागर वि [जागर ] १ जानेवाला जागता ( भाचा कप्पा २५) । २पुं. जागरण, निद्रा त्याग ( मुद्रा १८७ भग १२, २० सुर १३, ७) जागरातु पि [ जागरित] भागनेवाला (या २३) । जागरिअ [ जागृत] जागा हुआ. निद्रारहित, प्रबुद्ध (गाया १, १६ श्र २५) । जागरिअ [ जागरिक] निद्रा-रहित (भन १२, २) । For Personal & Private Use Only ३५३ जागरिया श्री [ जागरिका, जागर्यो ] जागरण, निद्रा त्याग (खाया १, १३ औप जागरुअ वि [जागरुक] जागता जागा हुआ, जागने के स्वभाववाला (धर्मवि १३५) । जाजावर वि [यायावर ] गमनशील, विश्व ( सम्मत्त १७४) । जाडी स्त्री [दे] गुल्म, लता-प्रतान (३३, ४५) जाण सक [ज्ञा] जानना, ज्ञान प्राप्त करना, समझना । जारणइ (हे ४, ७) । वक्कू. जाणंत, जाणमाण (कप्पः विपा १, १ ) । संकृ. जाणिऊण, जाणित्ता, जाणित्तु (पि ५६६ महा; भग) । हेक. जाणिउँ (पि २०६). जाणियन्त्र (भगः १२ ) । जाण पुंन [ यान] १ रथादि वाहन, सवारी ( श्रपः परह २, ५ ठा ४, ३)। २ यानपात्र, नौका, जहाज; 'नाणं संसारसमुद्दतारणे बंधुरं जाणं' (पुफ्फ ३७ ) । ३ गमन, गति (राज) पत्त, वतन ["पात्र] महान नौका (नमि ५ सुर १३,३१) १ 'साला श्री [शाला] १ तबेला, अस्तबल । २ वाहन बनाने का कारखाना (भौपः माचा २,२,२) । जाण न [ज्ञान] ज्ञान, बोध, समझ (भग कुमा ' [ जानत् ] जानता हुआ, 'जाएं काएस खाउट्टी' (सू २, ४, १ परणे माराया' (माचा) । जाणई स्त्री [ जानकी] सीता, राम-पत्नी ( पउम १०६, १८ से ६, ६ ) 1जाग वि [ ज्ञायक ] जानकारी जाननेवाला (सूत्र १, १, १ महा सुर १०, ६५) । जागी देखो जाई (पउम ११७, १८) । जाणण न [दे] बरात, गुजराती में 'जान'; 'जो तदत्याए समुचियोत्ति जाणाम (उप ५६७ टी) 1 जाणण न [ ज्ञान ] जामना, जानकारी, समझ, बोध (हे ४, ७; उप पु २३३ सुपा ४१६ सुर १०, ७१; रयण १४३ महा) । जाणणया । स्त्री. ऊपर देखो (उप ५१६; जाणणा विसे २१४५ धाचू ) 1मणः ३) । जाणय देखो जाग (भग; महा) 1 1 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायगाथा २४) १ माँगनेवार ३५४ पाइअसहमहण्णवो जाणय-जाल जाणय वि [ज्ञापक] जनानेवाला, समझाने- | जाम देखो जाव = यावत् (पारा ३३)। जाय वि [यात] गत, गया हुआ (सूत्र १, वाला (औप) जामाइ देखो जामाउ (पिंड ४२४)। ३, १)। २ प्राप्त (सूत्र १, १०)। ३ न. जाणया स्त्री [ज्ञान] ज्ञान, समझ, जानकारी; जामग्गहण न [यामग्रहण] प्राहरिकत्व, गमन, गति (प्राचा)। 'एएसि पयाणं जाणजाए सवरणयाए' (भग)। जाय पु. [जात] गीतार्थ, विद्वान् जैन मुनि पहरेदारी (सुख २, ३१) । जाणवय वि [जानपद] १ देश में उत्पन्न, जामाउ । [जामातृ, क] जामाता, देश-संबन्धी (भगः णाया १,१-पत्र .)।। जामाउय । दामाद, लड़की का पति (पउम जायग वि [याचक] १ माँगनेवाला। २ पुं. भिक्षुक (श्रा २३; सुपा ४१०)। जाणाव सक [ज्ञापय् ] ज्ञान कराना, ८६,४ हे १, १३१, गा ६८३)। जायग वि [याजक] यज्ञ करानेवाला (उत्त जनाना । जाणावइ, जाणावेइ (कुमाः महा)। जामि स्त्री [जामि, यामि] बहिन, भगिनी | हेकृ. जाणाविउं, जाणावेउं (पि ५५१)। (राज)।। जायण न [याचन] याचना, प्रार्थना (श्रा कृ. जाणावेयव्व (उप पृ २२)। जामिअ देखो जामिग (धर्मवि १३५) । १४; प्रति ६१)।जाणावगन ज्ञापन] ज्ञापन, बोधन (पउम जामिग पुं [यामिक] प्राहरिक, पहरुप्रा. जायण न [यातन] कदर्थन, पोड़न (पराह ११, ८८ सुपा ६०६)। पहरू, पहरेदार (उप ८३३) ।' १, २)।जाणावणा । स्त्री [ज्ञापनी ] विद्या-विशेष | जामिणी स्त्री [यामिनी रात्रि, रात (उप जायणया। स्त्री [याचना] याचना, प्रार्थना जाणावणी (उप पृ४२, महा) - जायणा मांगना (उप पृ ३०२, सम ४०%; ७२८ टो)। जाणाविय विज्ञापित जनाया, विज्ञापित, जामिल्ल देखो जामिग (सुपा १४६; २६६)। स २९१) मालूम कराया, निवेदित (सुपा ३५६) जामेअ पु [यामेय] भानजा, भागिनेय, जायणा स्त्री [ यातना] कदर्थना, पीड़ा आवम) बहिन का पुत्र (धर्मवि २२) ।। (पण्ह १. १) जाणि वि [ज्ञानिन्] ज्ञाता, जानकार (कुमा)। जाय सक [ याच प्रार्थना करना, माँगना। जायणी स्त्री [याचनी] प्रार्थना की भाषा जाणिअ वि [ज्ञात] जाना हुआ, विदित वकृ. जायंत (वराह १, ३)। कवकृ. जाइ (ठा ४, १)। (सुर ४, २१४, ७, २६)। जायव पुस्त्री [यादव] यदुवंश में उत्पन्न जंत (पउम ५, ६८) यदुवंशीय (गाया १, १६ पउम २०,५६)। जाणु न [जानु] १ घोंटू, घुटना। २ ऊरु जाय सक [यातय् ] पीड़ना, यन्त्रणा करना । जाएइ (उव)। कवकृ. जाइज्जत और जंघा का मध्य भाग (तंदुः निर १, ३; जाया स्त्री [यात्रा] निर्वाह, गुजारा, वृत्ति । माय वि [ मात्र] जितने से निर्वाह हो णाया १,२)।(पएह १, १)। सके उतना; 'साहुस्स बिति धीरा जाया मायं जाणु । बि [ज्ञायक] जाननेवाला, ज्ञाता, जाय देखो जाग (णाया १, १) च प्रोमं च (पिंड ६४३)।जाणुअजानकार (ठा ३, ४, गाया १, जाय वि [जात] १ उत्पन्न, जो पैदा हुआ जाया स्त्री [जाया] स्त्री, औरत, (गा ६; | हो (ठा)। २ न. समूह, संघात, (दंस सुपा ३८६)। जाणे अ [जाने] उत्प्रेक्षा-सूचक अव्यय, । ४)। ३ भेद, प्रकार (ठा १० निचू १६)। जाया देखो जत्ता (पण्ड २, ४, सन १,७)। मानो (अभि १५०)। __ ४ वि. प्रवृत्त (प्रौप)। ५ पुं. लड़का, पुत्र जाया स्त्री [जाता] चमरेन्द्र आदि इन्द्रों की जाम सक [ मृज् ] मार्जन करना, सफा (भग ६, ३३; सुपा २७६)। ६ न. बच्चा , बाह्य परिषत् (भगः ठा ३, २)। करना । जामइ (नाट–प्राप८० टी) संतानः 'जायं तोए जइ कहवि जायए पन्न- जायाइ पुं [यायाजिन्] यज्ञ-कर्ता, याजक, जाम पुंगान] १ प्रहर, तीन घण्टा का जोगेण' (सुपा ५६८)। ७ जन्म, उत्पत्ति यज्ञ करानेवाला (उत्त २५, १)। समय (सम ४४; सुर ३, २४२)। २ यम, । (णाया १, १) कम्म न [कर्मन] | जार पुं [जार] १ उपपति, यार (हे १,१७७)। अहिमा आदि पाँच व्रत । ३ उम्र-विशेष, १ प्रसूति-कर्म (णाया १; १)। २ संस्कार- २ मरिण का लक्षण-विशेष (जीव ३)। आठ से बत्तीस, बत्तीस से साठ और साठ से विशेष (वसु) तेय [तेजस् ] अग्नि, जारिच्छ वि [यादृक्ष] ऊपर देखो (प्रामा)। अधिक वर्ष की उम्र (पाचा)। ४ वि. यम- वलि (सम ५०), निद्या स्त्री [निदूता] जारिस वि [यादृश] जैसा, जिस तरह का संबन्धी, जमराज का (सुपा १०५), "इल्ल मृत-वत्सा स्त्री (विपा १, २) वि मूअ (हे १, १४२)। वि[वन् ] १ प्रहरवाला (हे २, १५९)। वि [क] जन्म से मूक (विपा १. १) जारेकण्ण न [जारेकृष्ण] गोत्र-विशेष, जो २ पुं. प्रारिक, पहरेदार, यामिक (सुपा प्रूव न [रूप] १ सुवर्ण, सोना (प्रौप)। वाशिष्ठ गोत्र की एक शाखा है (ठा ७)। ५) दिसा स्त्री [°दिश ] दक्षिण २ रूप्य, चादी (उत्त ३५): ३ सुवर्ण- जाल सक [ज्वालय ] जलाना, दग्ध करना; दिशा (सुपा ४०५)। वई स्त्री [°वती] निर्मित (सम ६५), 'वेय पुं["वेदस् ] 'तो जलियजलगजालावलीसु जालेमि नियदेह' रात्रि, रात (गउड)।अग्नि, वह्नि (उत्त १२) । (महा) । संकृ. जालेवि (महा)। For Personal & Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाल-जि पाइअसहमहण्णवो ३५५ जाल न [जाल] १ समूह, संघात (सुर ४, जालाब सक [ज्वालय् ] जलाना, दाह देना। जावं देखो जाव (पउम ६८, ५०)1 ताव १३५; स ४४३) । २ माला का समूह, दाम- वकृ. जालावंत (महानि ७)। प्र[तावत्] १ गणित-विशेष । २ गुणाकार निकर (राय)। ३ कारीगरीवाले छिद्रों से युक्त जालाविअ वि [ज्वालित] जलाया हुआ (ठा १०)। गृहांश, गवाक्ष-विशेष, झरोखा (औपः रणाया १, (सुपा १८६)। जावंत देखो जावइअ (भग १, १)। १)। ४ मछली वगैरह पकड़ने का जाल, पाश- जालि पुं [जालि] १ राजा श्रेणिक का एक जावग देखो जावय = यापक (दसनि १) विशेष (पएह १,१)। ४ मछली वगैरह पकड़ने पुत्र, जिसने भगवान् महावीर के पास दीक्षा की जाल, पाश-विशेष (पएह १,१,४)। ५ पैर जावण न यापन] १ बिताना, गुजारना । ली थी (अनु १)।२ श्रीकृष्ण का एक पुत्र, का आभूषण-विशेष, कड़ा (प्रौप)५ कडग जिसने दीक्षा ले कर शत्रुञ्जय पर्वत पर मुक्ति २ दूर करना, हटाना (उप ३२० टी)। पुं[कटक] १ सच्छिद्र गवाक्षों का समूह। पाई थी (अंत १४)। जावणा स्त्री [यापना] ऊपर देखो (उप ७२८ २ सच्छिद्र गवाक्ष-समूह से अलंकृत प्रदेश जालिय पुं [जालिक जाल-जीवि, वागुरिक, टी)। (जीव ३)। 'घरग न [गृहक] सच्छिद्र बहेलिया, चिड़ीमार (गउड)। जावणिज वि [यापनीय] १ जो बीताया जाय, गुजारने योग्य । २ शक्ति-युक्त; जावगवाक्षवाला मकान (राय; पाया १,२) जालिय वि [ज्वालित] जलाया हुआ, सुलपंजर न [°पञ्जर] गवाक्ष (जीव ३)। गाया हुआ (उवः उप ५६७ टी)। गिजाए मिसीहिलाए' (पडि) । "तंतन हरग देखो घरग (प्रौप)। जालिया स्त्री [जालिका] १ कञ्चुक (पएह । [तन्त्र] ग्रन्थ-विशेष (धर्म २)।। जाल पुंज्याल] ज्वाला, अग्नि-शिखा, आग १, ३-पत्र ४४गउड) । २ वृन्त (राज)। जावय वि [यापक] १ बीतानेवाला । २ पुं. की लपट (सुर ३, १८८० जी ६)। जालुग्गाल ( [जालोद्गाल] मछली पकड़ने तर्क-शास्त्र-प्रसिद्ध काल-क्षेपक हेतु (ठा, ४, जालंतर न [जालान्तर] सच्छिद्र गवाक्ष का का साधन-विशेष (अभि १८३)। मध्यभाग (सम १३७)। जाव देखो जावइअ (प्राचा २, २, ३, ३)। जावय वि [जापक] जीतनेवाला, 'जिणाणं जालंधर पुं[जालन्धर] १ पंजाब का एक जाव सक [ यापय्] १ गमन करना, गुजा जावयाणं' (पडि)। स्वनाम-ख्यात शहर (भवि) । २ न. गोत्र- रना । २ बरतना। ३ शरीर का प्रतिपालन जावय पुं [यावक] अलक्तक, भलता, लाख विशेष (कप्प) करना । जावइ (प्राचा) । जावेइ (हे ४, का रंग (गउड सुपा ६६)।। जालंधरायण न [जालन्धरायण गोत्र- ४०) जावए (सूत्र १, १, ३) जाव सय वि [यावसिक १ धान्य से गुजारा विशेष (प्राचा २, १५)। जाव अ [यावत् ] इन अर्थों का सूचक | करनेवाला (बृह १) । २ घास-वाहक (प्रोध जालग देखो जाल = जाल (पएह १, १,५ अव्यय-१ परिमाण । २ मर्यादा । ३ अव- | २३८) प्रौपः रणाया १, १)। धारण, निश्चय; जावदयं परिमाणे मज्जाया- | जाविय वि [यापित] बीताया हुमा (णाय! जालग पुं[जालक] द्वीन्द्रिय जीव की एक एवधारणे चेइ' (विसे ३५१६; गाया १, १,१७) । जाति, मकड़ी (उत्त ३६, १३० ) ७) जीव स्त्री न [ज्जीव जीवन पर्यन्त जास पुं [जाप] पिशाच-विशेष (राज)। (माचा)। स्त्री: °वा (विसे ३५१८ औप) । जालघडिआ स्त्री [दे] चन्द्रशाला, अट्टालिका, जासुमग । [जपासुमनस्] १ जपा जीविय वि [जीविक] यावज्जीव-संबन्धी अटारी (दे ३, ४६)। जासुमिण का वृक्ष, पुष्पप्रधान (परण १, (स ४४१) । देखो जावं । जासुयण गाया १,१)।२ न. जपा का जालय देखो जाल = जाल (गउड)। जाव ( [जाप] मन ही मन बार बार देवता फूल (गाया १,१; कप्प) जालवगी स्त्री [दे] संवाद, सम्हाल, खबरः | का स्मरण, मन्त्र का उच्चारण (सुर ६, जाग पं [जाहक] जन्तु-विशेष, जिसके गुजराती में 'जाळवण' (सिरि ३८५) । १७४ सुपा १७१) शरीर में काटे होते हैं, साही या साहिल जाला स्त्री [ज्वाला] १ अग्नि की शिखा (प्राचा; जावइ द] वृक्ष-विशेष (पएण १-पत्र | (पराह १, १; विसे १४५४)।सुर २, २४६)। २ नवम चक्रवर्ती की माता ३४।। जाहत्व न [याथार्थ्य] सत्यपन, वास्तविकता (सम १५२)। ३ भगवान् चन्द्रप्रभ की जावइअ वि [यावत् ] जितना; 'जावइया (विसे १२७६)। शासनदेवी (संति )। वयरणपहा' (सम्म १४४ भत्त ६४) | जाहासंख देखो जहा-संखः 'जाहासंखमिमीणं जाला प्रयदा] जिस समय जिस काल में; जावई स्त्री जातिपत्री7१कन्द-विशेष (उत्त | नियकज साहुवामा य' (उप १७६) 11 'ताला जाग्रंति गुणा, जाला ते सहिएहिं ३६, ६८ सुख ३६, ६८)। २ गुच्छ वनस्पति | जाहे अ[यदा] जिस समय, जब, (हे ३, घेप्पंति' (हे ३, ६५) की एक जाति (पएण १--पत्र ३४)। ६५ महा: गा९८)। जालाउ पुं [जालायुष्] द्वीन्द्रिय जन्तु- जावईय पं [जातिपत्रीक] कन्द-विशेष | जि (प्रप) देखो एव-एव (हे ४, ४२०; कुमा; विशेष, मकड़ी (राज) (उत्त ३६, ६८) - वजा १४) For Personal & Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जिअ प्रक [ जीवू ] जीना, प्राण धारण करना । जिग्रइ, जिउ ( हे १, १०१) । वकु. जिअंत (गा ६१७) । 'जिअ ' [जीव] श्रात्मा, प्राणी, चेतन (सुर २, ११३ जी ६; प्रासू ११४, १३० ) M °लोअ ['लोक] संसार, दुनियाँ (सुर १२, १४३) ~ जिअ न [जित] जीत, जय ( प्राकृ ७० ) । "गासि वि [काशिन् ] जीत से शोभनेवाला विजेता (सम्मत २१७) । सत्तु पु ['शत्रु ] श्रंग-विद्या का जानकार दूसरा रुद्र-पुरुष ( विचार ४७३) । - जिअ वि [जित ] १ जीता हुआ, पराभूत, अभिभूत (कुमा; सुर ३, ३२) । २ परिचित (विसे १४७२) । पवि [त्मन्] जितेन्द्रिय, संयमी (सुपा २७६) । भाणु पुं [" भानु ] राक्षस- वंश का एक राजा, एक लंका - पति (पउम ५, २५६ ) । सत्तु पुं [ शत्रु ] १ भगवान् अजितनाथ का पिता (सम १५०) । २ नृप-विशेष (महा; विपा १ ५)से पुं [सेन] १ जैन श्राचार्यविशेष । २ नृप - विशेष । ३ एक चक्रवर्ती राजा । ४ स्वनामख्यात एक कुलकर (राज) रिपुं [र] भगवान् संभवनाथजी का पिता (सम १५० ) 1 जिअंती स्त्री [जीवन्ती] वल्ली-विशेष (पराण १) । जिअव वि [ जीतवत् ] जय प्राप्त (पराह fa [जितेन्द्रिय ] इन्द्रियों को वश में रखनेवाला, संयमी १, १) । - जिइंदिय जिएंदिय ( पउम १४, ३९ हे ४,२८७) जिंघ सक [घ्रा ] सूँघना, गन्ध लेना । कृ. जिंघणिज्ज (कप्प ) । जिंघण न [प्राण] सूँघना, गन्ध-ग्रहण (स ५७७ ) 1 जिघणा स्त्री [घ्राण ] ऊपर देखो (श्रोष ३७६) । - जिंघि वि [घ्रात] सुँघा हुआ ( पाच ) । - जिंड पुंन [दे] कन्दुक, गेंद : जिडहगेड्डिइरमण' (पव ३८ धर्मं २ ) । पाइअसहमहण्णवो जिंभ जिंभा जिंडुह ' [दे] कन्दुक, गेंद (पव ३८ ) । | देखो जंभाय । जिभ ( श्रभि २४१) । वकृ. जंभाअंत (से ११, ३०) । जिंभिया स्त्री [जृम्भा] जम्भाई, जृम्भण, मुख विकाश (सुपा ५८३) - जिगीसा स्त्री [जिगीषा] जय की इच्छा (कुप्र २७८) । जिग्घ देखो जिंघ | जिग्धइ (निचू १) । जिग्धिअ वि [दे] प्रात सुँधा हुआ (दे ३, ४६) जिचण } देखो जिण = जि । जिट्ठ वि [ ज्येष्ठ ] १ महान्, वृद्ध, बड़ा ( २३४; कम्म ४,८३) । २ श्रेष्ठ, उत्तम । ३ पुं. बड़ा भाई; 'जिट्टं व करिठ्ठ' पिहूँ' ( धर्मं २) भूइ पुं [भूति] जैन साधुविशेष (ती १७) । मृली स्त्री [मूली ] ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा (इक) । जिटु पुं [ ज्येष्ठ ] मास- विशेष, जेठ (राज) । जिट्ठा स्त्री [ ज्येष्ठा] १ भगवान् महावीर की पुत्री । २ भगवान् महावीर की भगिनी (विसे २३०७) । ३ नक्षत्र विशेष ( जं १ ) | देखो जेा जिट्टाणी बी [ ज्येष्ठा ] बड़े भाई की पत्नी, जिठानी या जेठानी (सुपा ४८७) । जिट्टिणी स्त्री [ ज्यैष्ठी] जेठ मास की अमावस (सट्टि ७८ टी)। जिण सक [जि] जीतना, वश करना । जिइ (हे ४, २४१; महा ) | कर्म. जिगिज्जइ, जिव्वइ (हे ४, २४२ ) । वकृ. जिणंत, जिणयंत (पि ४७३; पउम १११, १७) । कवकृ. जिव्यमाण ( उत्त ७, २२ ) । संकृ. जिणित्ता, जिणिऊण, जिणेऊण, जेऊण, जेडआण (पि हे ४, २४१; षड् ; कुमा) । कृ. जिणिउं, जेडं (सुर १, १३०० रंभा ) । फू. जिव, जिणेयव्व, जेयव्व (उत्त ७, २२; पउम १६, १६; सुर १४, ७६ ) 1जिण पुं [जिन] १ राग श्रादि अन्तरंग शत्रुओं को जीतनेवाला, अर्हन् देव, तीर्थंकर (सम १ ठा ४, १ सम्म १ ) । २ बुद्ध देव, बुद्ध भगवान् (दे १, ५) । ३ केवल - ज्ञानी, For Personal & Private Use Only जिअ - जिण सर्वज्ञ ( पराग १) । ४ चौदह पूर्व ग्रन्थों का जानकार (उत्त ५) । ५ जैन साधु-विशेष, जिनकल्पी मुनि । ६ अवधि-ज्ञान प्रादि प्रतीकेन्द्रिय ज्ञानवाला (पंचा ४० ठा २, ४) । ७ वि. जीतनेवाला (पंचा ३, २०) ५ इंद पुं [इन्द्र] प्रन् देव (सुर ४, ८१) 1 कप्प [कल्प ] एक प्रकार के जैन मुनियों का श्राचार, चारित्र - विशेष (ठा ३, ४ बृह १) । कपि ["कल्पिक] एक प्रकार का जैन मुनि ( ६६९) किरिया स्त्री ["क्रिया ] जिनदेव का बतलाया हुआ धर्मानुष्ठान (पंचव १) घर न [गृह] जिन-मन्दिर (भग २, ८ गाया १, १६ - पत्र २१० ) । 'चंद पुं [चन्द्र ] १ जिनदेव, मन् देव (कम्म ३, १ अजि २९ ) । २ स्वनाम-ख्यात जैन श्राचार्य विशेष ( १२ ) । जत्ता स्त्री [यात्रा] अन् देव की पूजा के उपलक्ष में किया जाता उत्सव - विशेष, रथ यात्रा (पंचा ७) । णाम [नामन] कर्म-विशेष जिसके प्रभाव से जीव तीर्थंकर होता है (राज) दत्त पुं ["दत्त] १ स्वनाम प्रसिद्ध जैनाचार्य विशेष ( गण २६; सार्धं १५० ) । २ स्वनाम -ख्यात एक जैन श्रेष्ठी (पउम २०, ११६) दव्त्र न [द्रव्य ] जिन-मन्दिर सम्बन्धी धनादि वस्तु 'वहंतो जिरणदव्वं तित्थगरतं लहइ जीवों (उप ४१८ दंस १) दास पुं ["दास] १ स्वनाम प्रसिद्ध एक जैन आसक ( ६ ) । २ स्वनाम-ख्यात एक जैन मुनि और ग्रन्थकार, निशीथ सूत्र का चूर्णिकार (निचू २०) 1 देव पुं [देव] १ अन देव (गु ७) । २ स्वनाम - प्रसिद्ध जैनाचार्य ( भाक) । ३ एक जैन उपासक (प्राचू ४) । धम्म पुं [ ] जिनदेव का उपदिष्ट धर्मं, जैन धर्म (ठा ५, २; हे १; १८७ ) । " [नाथ ] जिनदेव, धन देव (सुपा २३५) पडिमा स्त्री ["प्रतिमा] अर्हन् देव की मूर्ति (गाया १, १६-पत्र २१०; रायः जीव ३) 'जिरणपडिमादंसणेण परिबुद्ध ( दसचू २ ) । पवयण न ["प्रवचन] जैन भागम, जिनदेव-प्रणीत शान (बिसे १३५०) । पत्थ वि [प्रशस्त ] तीर्थंकर - भाषित, जिनदेव -कथित ( पह २, Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ जिणंद-जिम्ह पाइअसहमहण्णवो ५)। पहु [प्रभु] जिन-देव, अहंन देव जिणंद देखो जिणिंदः 'सचे जिणंदा सुरविंद- जित्त देखो जिअ % जित (महा; सुपा ३६५; (उप ३२० टी) । पाडिहेर न [प्रातिहार्य] वंदा' (पडि; जी ४८)। जिन-देव को अर्हता-सूचक देव-कृत अशोक जिणकप्पि पुं[जिनकल्पिन्] जैन मुनि का जित्ति) वि[यावत् ] जितना (हे २, वृक्ष प्रादि पाठ बाह्य विभूतियां, वे ये हैं-१ | एक भेद (पंचा १८, ६)। जित्तिल । १५६ षड्)। अशोक वृक्ष, २ सुर-कृत पुष्प-वृष्टि, ३ दिव्य- जिणग न [जयन] जय, जीत (सण)। जित्तुल (अप) ऊपर देखो (कुमा)। ध्वनि, ४ चामर, ५ सिंहासन, ६ भामण्डल, जिणपह पुं [जिनप्रभ] एक जैन प्राचार्य जिध (अप) अ [यथा] जैसे, जिस तरह से ७ दुन्दुभि-नाद, ८ छत्र (दंस १)। पालिय (ती ५)। पुं[पालित] चम्पा नगरी का निवासी एक | जिणिंद पुं [जिनेन्द्र] जिन भगवान्, अहंन् जसको श्रेष्ठि-पुत्र (णाया १, ६) बिब न देव (प्रासू ५२)। "गिह न [गृह] जिन जिन्नासिय वि [जिज्ञासित जानने के लिए ["बिम्ब] जिन-मूत्ति, जिन-देव की प्रतिमा मन्दिर (सुर ३, ७२)। चंद पुं[°चन्द्र] जिन-देव (पउम १५, ३६) । इष्ट, जानने के लिए चाहा हुआ (भास ७५) । (पडि पंचा ७) । भड [भट] स्वनामप्रसिद्ध एक जैन प्राचार्य, जो सुप्रसिद्ध जैन जिणिय वि [जित] पराभूत, वशीकृत (सुपा जिन्नुद्धार पुं. [जीर्णोद्धार ] पुराने और टूटेग्रन्थकार श्रीहरिभद्र सूरि के गुरु थे (सार्थ | ५२२, रयण २७)। फूटे मन्दिर आदि को सुधारना (सुपा ३०६). ५८)। भद पु[भद्र] स्वनाम-प्रसिद्ध जिणिसर देखो जिणेसर (सम्मत्त ७६७७)। जिब्भ पुं. [जिह्व] एक नरक-स्थान (देवेन्द्र जैन प्राचार्य और ग्रन्थकार (प्राव ४)। जिणिस्सर देखो जिणेसर (पंचा १६)। ६; २६)। भवण न [ भवन] अहंन मन्दिर (पंचव जिणुत्तम [जिनोत्तम] जिन-देव (अजि जिब्मा स्त्री [जिहवा] जीभ, रसना (पग्रह ४)1°मय न [ मत] जैन दर्शन (पंचा ४) २, ५, उप १८६ टी)। ४) माया स्त्री [°मात] जिन-देव की जिणेद देखो जिणिंद (चेइय ६०)। जिभिंदिय न [जिहवेन्द्रिय रसनेन्द्रिय, जननी (सम १५१) । मुद्दा स्त्री [मुद्रा] जिणेस पुं [जिनेश] जिन भगवान्, महंन् जीभ (ठा ४, २)। जिनदेव जिस तरह से कायोत्सर्ग में रहते | जिब्भिया स्त्री [जिहिवका १ जीभ । २ देव (सुपा २६०)। हैं उस तरह शरीर का विन्यास, पासन जीभ के प्राकारवाली चीज (जं ४)। जिणेसर पुं[जिनेश्वर] १ जिन देव, महन विशेष (पंचा ३) । यंद देखो 'चंद (सुर जिम सक [जिम् , भुज] जोमना, भोजन देव (पउम २,२३)। २ विक्रम की ग्यारहवीं १,१०, सुपा ७६) । रक्खिय पुं[रक्षित] करना, खाना । जिमइ (हे ४, ११०; षड्)।. शताब्दी के स्वनाम-ख्यात एक प्रसिद्ध जैन स्वनाम-ख्यात एक सार्थवाह-पुत्र (णाया १, माचार्य और ग्रन्थकार (सुर १६, २३ जिम (अप) देखो जिध (षड् ; भवि)।९) व पुं[पति जिन-देव, महंन्-देव | सार्घ ७६; गु ११)। जिमण न [जेमन, भोजन] जीमन, भोजन (सुपा ८६)। 'वई स्त्री [वाच् ] जिनजिण्ण वि [जीर्ण] १ पुराना, जर्जर (हे १, (श्रा १६, चैत्य ५६) देव की वाणी (बृह १) वयण न [°वचन] १०२; चारु ४६ प्रासू ७६) । २ पचा हुआ। जिमण न [जेमन] जिमाना, भोज (धर्मवि जिन-देव की वाणी (हा ६)- वयण न _ 'जिएणे भोमरणमत्ते' (हे १, १०२) । ३ ["वदन] जिनदेव का मुख (प्रौप) । वर पुं वृद्ध बूढा (बृह १)। सेट्टि [श्रेष्ठिन्] जिमिअ वि [जिमित, भुक्त] १ जिसने ["वर] अहंन देव (पउम ११, ४, अजि १) १ पुराना सेठ । २ घोष्ठि पद से च्युत (आव भोजन किया हुआ हो वह (पठम २०, १२७; 'वरिंद पुं[वरेन्द्र महन् देव (उप ७७६) पुष्प ३५७ महा)। २ जो साया गया हो वह, 'वल्लह वल्लभ] स्वनाम-हयात एक जैन जिण्ण (अप) देखो जिअ = जित (पिंग) । भक्षित (दे ३, ४६) माचार्य और प्रसिद्ध स्तोत्र-कार (लहुम १७)।जिण्णासा स्त्री [जिज्ञासा] जानने की इच्छा जिम्म देखो जिम % जिम् । जिम्मइ (हे ४, वसह पुं[वृषभ] महंन देव (राज) (पंचा ३)। २३०)। 'सकहा स्त्री [ सक्थि] जिन-देव की अस्थि जिणि), जिम्ह पुं [जिझ] १ मेघ-विशेष, जिसके (भग १०, ५) । सासण न [शासन] जिण्णी (अप) दखा जिाणय (पिग)। बरसने से प्रायः एक वर्ष तक जमीन में चिकजैन दर्शन (उत्त १८ सूम १, ३, ४) जिण्णोब्भवा स्त्री [दे] दूर्वा, दूब (घास) (दे | नापन रहती है (ठा ४, ४-पत्र २७०)। 'हंस पु[हंस] एक जैन प्राचार्य (६ ४७)। ३, ४६)। २ वि. कुटिल, कपटी, मायावी (सम ७१)। हर देखो 'घर (पउम ११, ३, सुपा ३६१ जिण्ड वि [जिष्णु] १ जित्वर, जीतनेवाला, ३ मन्द, मलस (जं २)। ४ न. माया, कपट महा)। हरिस पुगहषे] एक जैन मुनि विजयी (प्रामा)।२j. अर्जुन, मध्यम पांडव | (वव ३) । (रयण ६४) ययण न [यतन] जिन- (गउड)। ३ विष्णु, श्रीकृष्ण । ४ सूर्य, रवि। जिम्ह न [जैम्ह] कुटिलता, वक्रता, माया, देव का मन्दिर (पंचव ४)।५ इन्द्र, देव-नायक (हे २, ७५)। कपट (सम ७१)। For Personal & Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ पाइअसहमहण्णवो जिव-जीविओसविय जिव देखो जीवः 'मायाइ अहं भरिणमो कायव्वा | जीरण न [जीर्ण] १ अन्न पाक । २ वि. जीव न [जीव] सात दिन का लगातार वच्छ जिवदया तुमए' (धर्मवि ५)। पुराना, पचा हुमाः 'अजीरणं' (पिड २७)। उपवास ( संबोध ५८), 'विसि? न जिव (अप) देखो जिध (कुमाः षड्; हे। जीरय न [जीरक] जीरा, मसाला-विशेष | | [विशिष्ट] वही अर्थ (संबोध ५८) । जिह। ४, ३३७) (सुर १, २२)। जीवंजीव ' [जीवजीव १ जीव-बल, आत्मजिहा देखो जीहा (षड्)।. पराक्रम (भग २, १)। २ चकोर-पक्षी, जीअ देखो जीय = जीव् । जीआइ (गा १२४, जीरव सक [जीरय ] पचाना। जीरवइ | चकवा (राज)।हे १,१०१) । वकृ. जीअंत (से ३, १२; (कुप्र २६६)। जीवंत देखो जीव = जीव् । मुक्त पुं[°मुक्त] गा ८१६)। जीव अक [ जीव ] १ जीना, प्राण धारण जीवन्मुक्त, जीवन-दशा में ही संसार-बन्धन से जीअ देखो जीव = जीव (गउड) । ५ पानी, | करना। २ सक. आश्रय करना । जीवइ । मुक्त महात्मा (अच्चु ४७)। जल (से २, ७)। (कुमा)। वकृ. जीवंत, जीवमाण (विपा जीवग पु [जीवक] १ पक्षि-विशेष (उप १,५ उप ७२८ टी)। हेकृ. जीविउं (प्राचा)। ५८०)। २ नृप-विशेष (तित्थ)। जीअ देखो जीविअ (हे १, २७१; प्राप्रः सुर | संकृ. जीविअ (नाट)। कृ. जीविअव्व, जीवजीवग पु[जीवजीवक चकोर पक्षी, २, २३०)। जीवणिज (सूत्र १,७) । प्रयो. जीवावेहि चकवा (पएह १, १-पत्र ८) । जीअ न [जीत] १ आचार, रिवाज, प्रथा, रूढ़ि (पि ५.२)। जीवण न [जीवन] १ जीना, जिन्दगी (विसे (प्रौपः राय, सुपा ४३)। २ प्रायश्चित से ३५२१; पउम ८, २५०) । २ जीविका, सम्बन्ध रखनेवाला एक तरह का रिवाज, जीव पुन [जीव] १ आत्मा, चेतन, प्राणी प्राजीविका (स २२७; ३१०)। ३ वि. जैन सूत्रों में उक्त रीति से भिन्न तरह के (ठा १, १ जी१, सुपा २३५); 'जीवाई' जिलानेवाला (राज)। वित्ति स्त्री ["वृत्ति प्रायश्चितों का परम्परागत प्राचार (ठा ५, (पि ३६७)। २ जीवन, प्राण-धारण; | आजीविका (उप २६४ टी)। २)। ३ प्राचार-विशेष का प्रतिपादक ग्रन्थ 'जीवोत्ति जीवणं पाणधारणं जीवियंति | जीवमजीव पुं[जीवाजीव चेतन और जड़ (ठा ५, २; वव १)। ४ मर्यादा, स्थिति, पज्जाया' (विसे ३५०८ सम १)। ३ पुं. | पदार्थ (अाघम)। व्यवस्था (रणंदि) कप्प पुं [कल्प] १ बृहस्पति, सूर-गुरु (सुपा १०८)। ४ बल, | जोवम्मुत्त देखो जीवंत-मुक्क (उवर १६१)। परम्परा से प्रागत प्राचार । २ परम्परागत पराक्रम (भग २,१)। ५ देखो जीअ = जा जीवयमई स्त्री [दे] मृगों के आकर्षण के प्राचार का प्रतिपादक ग्रन्थ (पंचा जीत)। जीव । काय j [काय] जीव-राशि, साधन-भत व्याध-मगी (दे ३.४६)।कप्पिय वि [कल्पिक] जीत कल्पवाला जीव-समूह (सूत्र १, ११) 'ग्गाह न जीवा स्त्री [जीवा] १ धनुष की डोरी (स (ठा १०) धर वि [धर] १ आचार- [ग्राह] जिन्दे को पकड़ना (णाया १, २)। __३८४) । २ जीवन, जीना (विसे ३५२१) । विशेष का जानकार । २ स्वनाम-ख्यात एक "णिकाय पुं [निकाय] जीव-राशि (ठा | ३ क्षेत्र का विभाग-विशेष (सम १०४)। जैनाचार्य (णंदि)।ववहार [व्यवहार] ६)1 स्थिकाय पुस्तिकाय जीवपरम्परा के अनुसार व्यवहार (धर्म २ |ज वाउ पुं [जीवातु] जिलानेवाला औषध, समूह, जीव-राशि (भग १३,४; अणु)। दय जीवनौषध (कुमा)। पंचा १६) वि [दय] जीवित देनेवाला (सम १)। जीवाविय वि [जीवित] जिलाया हुआ (उप जीअण देखो जीवण (नाट-चैत २५८)। दया स्त्री [°दया] प्राणि-दया, दुःखी जीव ७६८ टी)। का दुःख से रक्षण (महानि २४ । देव पुं जीअव वि [जीवितवत् ] जीवितवाला. ["देव] स्वनाम-ख्यात प्रसिद्ध जैन आचार्य जीवि वि [जीविन] जीनेवाला (गा ८४७)। श्रेष्ठ जीवनवाला ( १) और ग्रंथकार ( सुपा १)। पएस पुं जीविअ वि [जीवित] १ जो जिन्दा हो । जीआ स्त्री [ज्या की डोर (कुमा)। [प्रदेशजीव] अन्तिम प्रदेश में ही जीव की २ न. जीवित, जीवन, जिन्दगी (हे १, २७१; २ पृथिवी, भूमि । ३ माता, जननी (हे २, स्थिति को माननेवाला एक जैनाभास दाशं- प्राप्र)। 'नाह पुं[नाथ] प्राण-पति ११५, षड्) निक (राज)। पएसिय पुं[प्रादेशिक] (सुपा ३१५)। "रिसिका स्त्री ["रिसिका] जीण न दे. अजिन] जीन, अश्व की पीठ देखो पूर्वोक्त अर्थ (ठा ७)। लोग, लोय वनस्पति-विशेष (पएण १-पत्र ३६)।पर बिछाया जाता चर्ममय आसन (पव ८४)। पुं [ लोक] १ जीव-जाति, प्राणि-लोक, जीविआ स्त्री [जीविका] १ आजीविका, जीमृअ पुं [जीमूत] १ मेघ, वर्षा (पान जीव-समूह (महा)। विजय न [विचय निर्वाह-साधक वृत्ति (ठा ४, २; स २१८; गउड)। २ मेघ-विशेष, जिसके बरसने से जीव के स्वरूप का चिन्तन (राज) विभत्ति णाया १, १)। जमीन दश वर्ष तक चिकनी रहती है स्त्री [°विभक्ति] जीव का भेद (उत्त ३६)। जीविओसविय वि [जीवितोत्सविक] (ठा ४, ४)। 'बुढिय न [वृद्धिक] अनुज्ञा, संमति, जीवन में उत्सव के तुल्य, जीवनोत्सव के जीर देखो जर =ज। अनुमति (एंदि)। समान (भग ६, ३३, राय)। (महानि २ जीवित] १ For Personal & Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जीविओसासिय-जुगवं पाइअसहमहण्णवो जीविओसासिय वि [जीवितोच्छवासिक] जुअलिअ वि [दे] द्विगुणित (दे ३, ४७)। जुजुरूड वि [दे] परिग्रह-रहित (दे ३, ४७)। जीवन को बढ़ानेवाला (भग ६, ३३) । जुअलिय देखो जुगलिय (णाया १, १)। जुग पु [युग] १ काल-विशेष-सत्य, त्रेता, जीविगा देखो जीविआ (स २१८)। जुअली स्त्री [युगली] युग्म, जोड़ा (प्राकृ ३८)। द्वापर और कलि ये चार युग (कुमा) । २ जीह प्रक [लज् ] लजा करना, शरमाना। जुआण देखो जुवाण (गा ५७, २४६)। पांच वर्ष का काल (ठा २, ४-पत्र ८६; जीहइ (हे ४, १०३ षड्)। जुआरि स्त्री [दे] जुआरि, अन्न-विशेष (सुपा सम ७५)। ३ न. चार हाथ का यूप (प्रौपः जीहा स्त्री [जिहवा ] जीभ, रसना (प्राचाः "५४६; सुर १,७१)। परह १, ४)। ४ शकट का एक अंग, धुर, स्वप्न ७८)। ल वि [वत् ] लम्बी जुइ स्त्री [द्युति] कान्ति, तेज, प्रकाश, चमक गाड़ी या हल खींचने के समय जो बैलों के जीभवाला (पउम ७, १२० नमि ८; सुर (प्रौप; जीव ३) । म, मंत वि[ मत् ] कन्धे पर रखे जाते हैं (उप पृ १३६ उत्त २, ६२)। तेजस्वी, प्रकाशशाली ( स ६४१; पउम २)। ५ चार हाथ का परिमाण (अरण)। जीहाविअ वि [लज्जित] लजा-युक्त किया १०२, १५६)। ६ देखो जुअ= युग । °Cपवर वि [प्रवर] - गया, लजाया गया (कुमा)। जुइ स्त्री [युति] संयोग, युक्तता (ठा ३, ३) युग-श्रेष्ठ (भग) 1 पहाण वि [प्रधान] जु देखो जुज (कुमा)। कवकृ. जुज्जंत (सम्म जुइ पुं [युगिन्] स्वनाम ख्यात एक जैन | १ युग-श्रेष्ठ (रंभा)। २ पुं. युग-श्रेष्ठ जैन १०७ से १२, ८७)। प्राचार्य की एक उपाधि (पव २६४, गुरु मुनि (पउम ३२, ५७)। जुत्रो [युध] लड़ाई, युद्धः 'जुधि''वातिभए १) बाहु पु [बाह] १ विदेह वर्ष में जुईम वि [द्युतिमत्] तेजस्वी (सुप्र १, घेप्पई' (विसे ३०१६) । उत्पन्न स्वनाम-प्रसिद्ध एक जिनदेव (विपा जुअ [दे] निश्चय-सूचक अव्यय (सा ४)। २, १)। २ विदेह वर्ष का एक त्रिजुउच्छ सक [जुगुप्स् ] घृणा करना, खएडाधिपति राजा (प्राचू ४)। ३ मिथिला जुअ देखो जुग (से १२, ६०; इक; पएह निन्दा करना। जुउच्छ। (हे ४, ४ षड्से का एक राजा (तित्थ)। ४ वि. यूप या खंभा १, १)। ६ युग्म, जोड़ा, उभय (पिंग; सुर की तरह लम्बा हाथवाला, दीर्घ-बाहु (ठा ६) २, १०२; सुपा १९०)। जुउच्छिय वि [जुगुप्सित] निन्दित मच्छ पुं[मत्स्य] की एक जाति (विपा जुअवि [युत युक्त, संलग्न, सहित (दे १, (निचू ४)। १, ५-पत्र ८४ टी) संवच्छर पुं ८१ सुर ४, ६४)। जुंगिय विदे] जाति, कर्म या शरीर से [संवत्सर] वर्ष-विशेष (ठा ५, ३)। जुअ देखो जुव (गा २२८; कुमाः सुर २, हीन, जिसको संन्यास देने का जैन शास्त्रों में जुगंतर न [युगान्तर] यूप-परिमित भूमि१७७)। निषेध है (पुप्फ १२५)। भाग, चार हाथ जमीन (पएह २, १)। जुअइ स्त्री [युवति] तरुणी, जवान स्त्री जुंगिय वि [दे] १ काटा हुआ (पिंड ४४६)। "पलोयणा स्त्री [प्रलोकना] चलते समय (गउड; कुमा)। २ दूषित (सिरि २२३)। चार हाथ जमीन तक दृष्टि रखना (भग)। जुअंजुअ (अप) प्र [युतयुत] जुदा-जुदा, जुज सक [युज ] जोड़ना, युक्त करना। जुगंधर न [युगन्धर] १ गाड़ी का काष्ठअलग-अलग, भिन्न-भिन्न (हे ४, ४२२)। जुंजइ (हे ४, १०६)। वकृ. झुंजत (प्रोघ विशेष, शकट का एक अवयव (जं१)। २ जुअण [दे] देखो जुअल = (दे) (षड्) 11 ३२६) । पुं. विदेह वर्ष में उत्पन्न एक जिन-देव (माचू जुअणद्ध पुं[युगनद्ध ज्योतिष प्रसिद्ध एक जुंजण न [योजन] जोड़ना, युक्त करना, | १)। ३ एक जैन मुनि (पउम २०, १८)। योग, जिसमें बैल के कंधे पर रखे हुए युग- किसी कार्य में लगाना (सम १०६)। ४ एक जैन प्राचार्य (प्रावम)। जुमा या जुपाठ की तरह चन्द्र और सूर्य झुंजणया। स्त्री [योजना] १ ऊपर देखो जुगल न [युगल] युग्म, जोड़ा, उभय (अणु, तथा नक्षत्र अवस्थित होते हैं वह योग (सुज झुंजणा (ौप; ठा७)। २ करण-विशेष राय)। १२–पत्र २३३)। मन, वचन और शरीर का व्यापार; 'मणव जुगलि वि [युगलिन्] स्त्री-पुरुष के युग्म रूप जुअय न [युतक] जुदा, पृथक् (दे ७, ७३) यणकायकिरिया पन्नरसविहाउ झुंजणाकरणं' से उत्पन्न होनेवाला (रयरण २२)। (विसे ३३६०)। जुअरज न [यौवराज्य ] युवराज का भाव जुगलिय वि [युगलित] १ युग्म-युक्त, द्वन्द्वया पद, युवरापन (स २६८)। सृजम [दे] देखो मुंजुमय (उप ३१८)। सहित (जीव ३) । २ युग्म रूप से स्थित जअल न [युगल] १ युग्म, जोड़ा, उभय जुजिअ वि [दे] बुभुक्षित, भूखा (गाया १, (राज)। (पान)। २ वे दो पद्य जिनका अर्थ एक १-पत्र ६६, ६८ टी)। | जुगव वि [युगवत् ] समय के उपद्रव से दूसरे से सापेक्ष हो (था १४)। जुजुमय न [दे] हरा तृण-विशेष, एक . वर्जित (अणु, राय)। जुअल पु [दे] युवा, तरुण, जवान (दे प्रकार की हरी घास, जिसको पशु चाव से जुगव । म [युगपत् ] एक ही साथ, ३, ४७)। खाते हैं (स ४८७)। | जुगवं एक ही समय में, 'कारणकज For Personal & Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो जुगुच्छ-जुसि विभागो दीवपगासाण जुगवजम्मेव' (विसे जुडिअ वि [दे] आपस में जुटा हुआ, लड़ने | जुन्हा देखो जुण्हा (सुपा १५७) । . ५३६ टी; प्रौप)। के लिए एक दूसरे से भीड़ा हुमाः 'सुहडेहिं जुप्प देखो मुंज जुप्पइ (हे ४, १०६) । जुगुच्छ देखो जुउच्छ । जुगुच्छइ (हे ४, समं सुहडा जुडिया तह साइणावि साईहि जुप्पसि (कुमा)। (उप ७२८ टी)। ४)IV जुम्म न [युग्म] १ युगल, दोनों, उभय (हे जुगुच्छणया। स्त्री [जुगुप्सा] घृणा, जुण्ण वि [दे] विदग्ध, निपुण, दक्ष (दे ३, २, ६२ कुमा)। २ पुं. सम राशि (प्रोष जुगुच्छा तिरस्कार (स १६७ प्राप्र) ४०७; ठा ४, ३–पत्र २३७)। पएसिय वि[प्रादेशिक सम-संख्य प्रदेशों से निष्पन्न जुगुच्छिय वि[जुगुप्सित घृणित, निन्दित | जुण्ण वि [जीर्ण] जूना, पुराना (हे १, १०२९ गा ५३४)। (भग २५, ४) (कुमा) जुम्म न [युग्म] परस्पर सापेक्ष दो पद्य जुण्णदुग्ग न [जीर्णदुर्ग] नगर-विशेष, जो| जुग्ग न [युग्य] १ वाहन, गाड़ी वगैरह यान माजकल भी 'जूनागढ' नाम से प्रसिद्ध है। (प्राचा)। २ शिविका, पुरुष-यान (सूम २, (सिरि ३६१)। जुम्ह स [युष्मत् ] द्वितीय पुरुष का वाचक २, (ती २)। २)। ३ गोल्ल देश में प्रसिद्ध दो हाथ सर्वनाम, 'जुम्हदम्हपयरणं (हे १, २४६) । का लम्बा-चौड़ा यान-विशेष, शिविका-विशेष जुण्ह देखो जोण्ह = ज्योत्स्न (सुज १९)। जुरुमिल्ल वि [दे] गहन, निबिड़, सान्द्रः (णाया १,१ौप) । ४ वि. यान-वाहक | जुण्हा स्त्री [ज्योत्स्ना] चाँदनी, चन्द्रिका, 'दुहजुरुमिल्लावत्थं' (दे ३, ४७)। प्रश्व प्रादि। ५ भार-वाहक (ठा ४, ३)। चन्द्र का प्रकाश (सुपा १२१, सण)। जुव पुं[युवन्] जवान, तरुण (कुमा)। "यरिया, रिया स्त्री [चया] वाहन की जत्त सकायुक्तय] जोतना । संकृ. जुत्तित्ता राअ:पुं[ राज] गद्दी का वारिस (उत्तरागति (ठा ४, ३-पत्र २३६)। (ती १५)। धिकारी) राजकुमार, भावी राजा (सुर २, जुग्ग वि [योग्य] लायक, उचित (विसे जुत्त वि [युक्त] १ संगत, उचित, योग्य १७५, अभि ८२) । २६६२ से ३१, प्रासू ५६ कुमा)। (णाया १, १६; चंद २०)। २ संयुक्त, जोड़ा जुबइ स्त्री [युवति तरुणी, जवान स्त्री (हे जुग्ग न [युग्म] युगल, द्वन्द्व, उभय (कुमा हुआ, मिला हुआ, संबद्ध (सूत्र १, १, १, १, ४. औप; गउड प्रासू ६३ कुमा)। प्राप्र प्राप)। पाचू) । ३ उद्युक्त, किसी कार्य में लगा हुआ जुवंगव ' [युवगव] तरुण बैल (प्राचा २, जुज देखो जुंज। जुबइ (हे ४,१०६, षड् )। (पव ६४)। ४ सहित, समन्वित (सूम १, जुजंत देखो जु। १, ३, प्राचा)। °सिंखिज्जन [सिंख्येय] जुवरज न [यौवराज्य] १ युवराजपन (उप । संख्या-विशेष (कम्म ४, ७८)। जुज्झ अक [युध् ] लड़ाई करना, लड़ना। २११ टी; सुर १६, १२७)। २ राजा के जुज्झइ (हे ४, २१७; षड् ) विकृ. जुज्झत, जुत्ताणंतय पुन [युक्तानन्तक] गणना- मरने पर जब तक युवराज का राज्याभिषेक जुज्झमाण (सुर ६, २२२, २, ५१) । संकृ. विशेष (अणु २३४)। न हुमा हो तबतक का राज्य (माचा २, ३, जुज्झित्ता (ठा ३, २) । प्रयो. जुज्झावेइ जुत्तासंखेज्जय देखो जुत्तासंखिज (अणु १)। ३ राजा के मरने पर और युवराज के २३४)। राज्याभिषेक हो जाने पर भी जबतक दूसरे (महा) । वकृ. जुझावेत (महा)। कृ. जुत्ति स्त्री [युक्ति] १ योग, योजन, जोड़, युवराज की नियुक्ति न हुई हो तबतक का जुज्मावेयव्य (उप पृ २२५)। संयोग (प्रौपः पाया १, १०)। २ न्याय, राज्य (बृह १)। 'जुज्झ न [युद्ध लड़ाई, संग्राम, समर (णाया उपपत्ति (उप ६५०; प्रासू ६३)। ३ साधन, जुवल देखो जुगल (स ४७८ पउम ६५, १,८ कुमा; कप्पू: गा ६८४)। "इजुद्ध हेतु (सूम १, ३, ३)। ग्ण वि [ ] नातियुद्ध] महायुद्ध, पुरुषों की बहत्तर युक्ति का जानकार (मोप) । °सार वि जुवलिय देखो जुगलिय (भगः प्रौप)। कलाओं में एक कला (मोप)। [सार] युक्ति-प्रधान, युक्त, न्याय-संगत, | जुवाण देखो जुव (पउम ३, १४६; णाया जुज्झण न [योधन] युद्ध लड़ाई (सुपा प्रमाण-युक्त (उप ७२८ टी)। सुवण्ण न १.१७ कूमा)। ५२७)। [सुवणे] बनावटी सोना (दस १०, ३६)। जुवाणी देखो जुवई (पउम ८, १८४)। जुझिअ वि [युद्ध] १ लड़ा हुमा, जिसने "सेण पु[षेण] ऐरवत वर्ष के अष्टम संग्राम किया हो वह (से १५, ३७) । २ न. जिन-देव (सम १५३)। जुम्वण । देखो जोव्वण (प्रासू ४६, जुव्वणत्त) ११६); 'पढमं चिय बालतं, युद्ध, लड़ाई, संग्राम (स १२६)। | जुत्तिय वि[यौक्तिक] गाड़ी वगैरह में जो जोता 'तत्तो कुमरत्तजुव्वणताई (सुपा २४३)। जुट्ठ वि [जुष्ट] सेवित (प्रामा)। जाय, 'जुत्तियतुरंगमाणं' (सुपा ७७)। जुसिअ वि [जुष्ट] सेवित; 'पाएण देह लोगो जुन [दे] मूल, प्रसत्या, 'मा ? तुमं जुट्ठ जुद्ध देखो जुझ= युद्ध (कुमा)। उवगारिसु परिचिए व जुसिए वा (ठग ४, जंपसि' (धर्मवि १३३)। | जुन्न देखो जुण्ण (सुर १, २४४) संयोगयुक्ति] १ समर (सा For Personal & Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुहिडिर-जेत्त पाइअसद्दमण्णवो जुहिहिर ) देखो जहिटिल (पिंगः उप जूयय । पुं [युपक] शुक्ल पक्ष की द्वितीया । पूर्वोक्त ही अर्थ ( गा ५४८)। हिवइ जुहिट्ठिल ६४८ टी; गाया १, १६- जवय आदि तीन दिनों में होती चन्द्र की प्राधिपति यथ-नायक (उत्त ११)। जुहिटिल्ल ) पत्र २०८० २२६) । कला और संध्या के प्रकाश का मिश्रण (अणू जहन यूथ] युग्म, युगल, जोड़ा (पाचा २, जुहु सक [हु] १ देना, अर्पण करना । २ १२०; पव २६८)। ११, २) । काम न ["काम] लगातार चार हवन करना, होम करना । जुहुणामि (ठा | जूर सक [गह] निंदा करना। जूरंति (सूप दिनों का उपवास (संबोध ५८)। ७-पत्र ३८१; पि ५०१)। २, २,५५)। जूहिय वि [यूथिक] यूथ में उत्पन्न (प्राचा जूअ न [यूत] जुमा, द्यूत (पास)। कर जूर अक[ ऋध् ] क्रोध करना, गुस्सा करना। २, २) । वि [°कर] जुआरी, जुए का खिलाड़ी (सुपा | जूरइ (हे ४, १३२ षड् )। | जूहियठाण न [यूथिकस्थान] विवाह-मण्डप ५२२)। कार वि [कार] वही पूर्वोक्त जूर अक [खिद] खेद करना, अफसोस करना। वाली जगह (प्राचा २, ११, २)। अर्थ (णाया १,१८)। कारि वि [कारिन] जूरइ (हे ४, १३२; षड्)। जूर (कुमा)। जूहिया स्त्री [यूथिका] लता-विशेष, जूही जुपारी (महा)। केलि स्त्री [ केलि] द्यूत- ! भवि. जूरिहिइ (हे २, १९३) । वकृ. का पेड़ (पएण १पउम ५३, ७६)। क्रीड़ा (रयण ४८)। खलय न [खलक] | जूरंत (हे २, १९३)। जूही स्त्री [यूथी] लता-विशेष, माधवी लता जुआ खेलने का स्थान (राज) । केलि | जूर अक [जूर] १ झरना, सूखना । २ (कुमा) । देखो केलि (रयण ४७)। सक. वध करना, हिंसा करना (राज)। जे प्र. १ पाद-पूत्ति में प्रयुक्त किया जाता जूअ यूप] १ जुमा, धुर, गाड़ी का अवयव जूरण न [जूरण] १ सूखना, झरना । २ अव्यय (हे २, २१७) । २ अवधारण-सूचक विशेष जो बैलों के कन्धे पर डाला जाता है, निन्दा, गर्हण (राज)। अव्यय (उव)। जुअड़ ( अ पृ १३६ )। २ स्तम्भ-विशेष जूरव सक [वञ्च् ] ठगना, वंचना । जेअवि [जेय जीतने योग्य (रुक्मि ५०)। 'जूप्रसहस्सं मुसल सहस्सं च उस्सवेह' (कप्प)। जूरवइ (हे ४, ६३)। जेअ विजेतजीतनेवाला (सूत्र १, ३, १, ३ यज्ञ-स्तम्भ (जं ३)। ४ एक महापाताल- जूरवण वि [वश्चन्] ठगनेवाला (कुमा)। ११, ३, १, २)। कलश (पव २७२)। जूरावण न [जूरण] झुराना, शोषण (भग जेउ वि [जेत] जीतनेवाला, विजेता (भग जूअअ पुंदे] चातक पक्षी (दे ३, ४७)। ३, २)। २०, २)। जूअग पुं[यूपक] देखो जूअ यूप (सम | जूराविअ वि [क्रोधित] क्रुद्ध किया हुआ, जेउआण ! 'कोपित (कुमा)। जेउं देखो जिण = जि । जूअग यूपक] सन्न्या की प्रभा और चन्द्र जूरिअ वि [खिन्न खेद-प्राप्त (पास)। जेऊण की प्रभा का मिश्रण (ठा १०)। जूरुम्मिलय वि [दे] गहन, निबिड, सान्द्र जेक्कार पुं[जयकार] 'जय-जय' अावाज जूआ स्त्री [यूका] १ जूं, चीलड़, खटमल, क्षुद्र | (द ३, ४७) । । स्तुतिः 'हुति देवाण जेक्कारों (गा ३३२) । कीट-विशेष (जी १६)। २ परिमाण-विशेष, शिष, जूल सा जूर कृष् । फूल (गा ३५४)। जेटू देखो जि? - ज्येष्ठ (हे २, १७२, महा: पाठ लिक्षा का एक नाप (ठा ६ इक)। जूव देखो जूअ = द्यूत (णाया १, २-पत्र उवा)। 'सेजायर वि [शय्यातर] यूकाओं को ७६)। जेटु देखो जि? = ज्येष्ठ (महा)। स्थान देनेवाला (भग १५)। जूव । देखो जूअ यूप (इक; ठा ४, जेट्ठा देखो जिट्ठा (सम ८ माचू ४) मुल जूआर वि [द्यूतकार] जुपारी, जुए का जूवय २)। पुं[मूल] जेठ मास (ौपा गाया १, खेलाड़ी (रंभा; भवि, सुपा ४००)। जूस देखो झूस (ठा २, १: कप्प)। १३)। मूली स्त्री [मूली] जेठ मास की जुआरि । वि [द्यूतकारिन् जुआ खेलनेजूस पुन [यूष] जूस, मूंग वगैरह का क्वाथ, पूर्णिमा (सुज १०)। कढी (प्रोघ १४७ ठा ३, १)। जूआरिअ वाला, जुए का खेलाड़ी (द्र ४३, सुपा ४०० ४८८; स १५०)। जेद्वामूली स्त्री [ज्येष्ठामूली] १ जेठ मास की जूसअ वि [दे] उत्क्षिप्त, फेंका हुआ (षड् )। | जूसणा स्त्री [जोषणा] सेवा (कप्प)। पूर्णिमा । २ जेठ मास की अमावस्या (सुज जूझ देखो जुज्झ=युध् । कृ.यूझियव्य(सिरि जूसिय वि [जुष्ट] १ सेवित (ठा २, १)। १०२५)। २ क्षपित, क्षीण (कप्प)। | जेण देखो जइण = जैन (सम्मत्त ११७) । जूड पुं [जूट] कुन्तल, केश-कलाप (दे ४, जूहन [यूथ] समूह, जत्था (ठा १०; गा जेण प्र[येन] लक्षण-सूचक अव्यय, भमररुमं २४ भवि)। ५४८)1°वइ पुं [पति समूह का अधि- जेण कमलवणं' (हे २, १८३; कुमा)। जूय न [यूप] लगातार छः दिनों का उपवास पति, यूथ का नायक (से ६, ६८ णाया १, जेत्त वि [यावत् ] जितना। स्त्री. °त्ती (संबोध ५८)। । १; सुपा १३७) हिव पुं[धिप] (हास्य १३०) । For Personal & Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो जेत्त-जोइस जेत्त देखो जइत्त (पि ६१) कना । जोइ (कुमा)। भूका. जोइंसु २१७) । ४ रामचन्द्र का स्वनाम-ख्यात एक जेत्ति वि[यावत ] जितना (हे २, (भग)। वकृ. °जोअंत (कुमाः महा) सुभट (पउम ६७, १०)। जेत्तिल १५७; गा ७१ गउड)जोअ सक [द्योतय ] प्रकाशित करना। जोइ पुं [ज्योतिस्] १ प्रकाश, तेज (भग; जेत्तिक (शौ) ऊपर देखो (प्राकृ ६५)। जोमइ (सूत्र १, ६, १३); 'तस्सवि य ठा ४, ३)। २ अग्नि, वह्नि; 'सप्पि जहा जेत्तुल (अप) ऊपर देखो (हे ४, ४३५) । गिहं पुण बालपंडिया जोयए दुहिया' (सुपा जहा पडियं जोइममें (सूत्र १, १३) । ३ जेत्तुल्ल ६११) । जोएज्जा (विसे ६१२)। प्रदीप अादि प्रकाशक वस्तु; 'जहा हि अंधे सह जेद्दह देखो जेत्तिअ (हे २, १५७; प्राप्र)। जोअ सक [योजय] १ समाप्त करना, जाइणावि' (सूप १, १२)। ४ अग्नि का जेम सक [जिम् , भुज ] भोजन करना। खतम करना। २ करना। जोएइ (सुज्ज काम करनेवाला कल्पवृक्ष (सम १७)। ५ जेमइ (हे ४, ११०; षड्)। वकृ. जेमंत १०. १२–पत्र १८०: १८१; सुज १२- ग्रह, नक्षत्र आदि प्रकाशक पदार्थ (चंद १)। (पउम १०३, ८५)। पत्र २३३)। ६ ज्ञान । ७ ज्ञान-युक्त। ८ प्रसिद्धि-युक्त। जेम (अप) अ [यथा] जैसे, जिस तरह से जोअ सक [योजय ] जोड़ना, युक्त करना। ६ सत्कर्म-कारक (ठा ४, ३)। १० स्वर्ग । (सुपा ३८३; भवि) । जोएइ (महा) । वकृ. जोइयब्व, जोएअव्व ११ ग्रह वगैरह का विमान (राज)। १२ जोयणिय, जोयणिज्ज (उप ५६६ स ज्योतिष शास्त्र (निर ३, ३)। अंग पु जेमण न [जेमन] जीमन, भोजन (प्रोष जेमणग) ८८ प्रौप)। ५६८० प्रौपः निचू १)। [°अङ्ग] अग्नि का काम करनेवाला कल्पजोअ पु[दे] १ चन्द्र, चन्द्रमा (दे ३, ४८)। जेमणय न [दे] दक्षिण अंग, गुजराती में | वृक्ष-विशेष (ठा १०)। रस न [रस] 'जमणु" (दे ३, ४८)। | २ युगल, युग्म (णाया १, १ टी-पत्र रत्न की एक जाति (णाया १,१) । देखो जोइस = ज्योतिस्। जेमणी स्त्री [जेमनी] जीमन (संबोध जोअ देखो जोग (अवि २५; स ३६१जोइअपु[दे] कोट-विशेष, खद्योत, जुगुनू, कुमा) वडय न [वटक चूर्ण-विशेष, पटबीजना (दे ३, ५०)। जेमावण न [जेमन] भोजन कराना, खिलाना पाचक चूर्ण, हाजमा (स २५२)। जोइअ वि [दृष्ट देखा हुआ, विलोकित (सुर (भग ११, ११) जोअंगण [दे] देखो जोइंगण (भवि)। ३,१७३; महा भवि)। जेमाविय वि [जेमित] भोजित, जिसको जोअग वि [द्योतक] १ प्रकाशनेवाला २ न. जोइअ वि [योजित ] जोड़ा हुआ (स भोजन कराया गया हो वह (उप १३६ टी) व्याकरण-प्रसिद्ध निपात वगैरह पद (विसे २६४) ।। जेमिय वि [जेमित] जोमा हुआ, जिसने | १००३) जोइअ देखो जोगिय (राज)। भोजन किया हो वह (गाया १, १-पत्र जोअड पु [दे] खद्योत, कीट-विशेष, जुगनू जोइंगण पु [दे] कीट-विशेष, इन्द्र-गोप (दे ४१ टी) (षड्)। ३, ५०)। जेयव्व देखो जिण - जि । जोअण न [दे] लोचन, नेत्र, चक्षु, अाँख जोइक पुन [ज्योतिष्क] प्रदीप मादि प्रकाजेव (शौ) देखो एव = एव (रंभा; कप्पू)। शक पदार्थः कि सूरस्स दसपाहिगमे जाइक्कंजेव (अप) देखो जिव (हे ४, ३६७) जोअण न [योजन १ परिमाण-विशेष, चार तरं गवेसीयदि' (रंभा)। जेवड (अप) देखो जेत्तिअ (हे ४, ४०७) । कोश (भग; इक) । २ संबन्ध, संयोग, जोड़ना जोइक्ख पुं[दे. ज्योतिष्क] १ प्रदीप, दीपक जेव्व (शौ) देखो एव = एव (पि; नाट)। (पएह १, १)। (दे ३, ४६; पव ४; वव ७)। २ प्रदीप जेह (अप) वि [यादृश्] जैसा (हे ४, जोअण न [यौवन] युवावस्था, तरुणता, प्रादि का प्रकाश (ोघ ६५३) ।। ४०२ षड्) । जवानी (उप १४२ टी; गा १९७)। | जोइणी स्त्री [योगिनी] १ योगिनी, संन्याजेहिल [जेहिल] स्वनाम ख्यात एक जैन जोअणा स्त्री [योजना] जोड़ना, संयोग सिनी । २ एक प्रकार की देवी, ये चौसठ है मुनि (कप्प)। करना (उप पृ २२१)। (संति ११) जो । सक [ दृशू ] देखना । जोइ (सण); | जोआ स्त्री [द्यो] १ स्वर्ग। २ प्रकाश जोइर वि[दे] स्खलित (दे ३, ४६)। जोअ 'एसा हु वंकवंक, जोयइ तुह सुंमुहं | (षड़)। जोइस न [दे] नक्षत्र (दे ३, ४६) जेण' (सुर ३, १२६) । जोयंति (स ३६१)। जोआवइत्त वि [योजयितु] जोड़नेवाला, जोइस देखो जोइ = ज्योतिस् (चंद १; कप्प; कर्म. जोइजइ (रयण ३२)। वकृ. जोअंत | संयुक्त करनेवाला (ठा ४, ३)। विसे १८७०; जो १; ठा ६) राय ' (धम्म ११ टी; महाः सुर १०, २४४)। जोइ वि [योगिन्] १ युक्त, संयोगवाला। [ राज] १ सूर्य । २ चन्द्र (सुज २०१८)।कवकृ. जोइज्जत (सुपा ५७) । । २ चित्त-निरोध करनेवाला, समाधि लगाने- "लय पुं [ालय] सूर्य प्रादि देव (उत्त जोअ अक [द्युत् ] प्रकाशित होना, चम- वाला । ३ पुं. मुनि, यति, साधु (सुपा २१६ ३६)। For Personal & Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोइस-जोणि पाइअसद्दमहण्णवो ३६३ जोइस पुंज्यौतिष १ देवों की एक जाति, जोग देखो जुग्ग-युग्मः 'सपाउयाजोग जोगो पुरण होइ अक्कूरो' (धम्म १२ सुर २, सूर्य, चन्द्र, ग्रह आदि (कप्प औपः दंड २७)। | समाजुत्त' (राय ४०) । २०५; महा: सुपा २०८)। २ न. सूर्य प्रादि का विमान (ति १२; जो जोगि देखो जोइ = योगिन् (कुमा)।जोग पुं[योग] नक्षत्र-समूह का क्रम से चन्द्र १)।३ शास्त्र-विशेष, ज्योषिष-शास्त्र (उत्त | जोगिंद पुं[योगीन्द्र] महान् योगी, योगोश्वर | और सूर्य के साथ संबंध (सुज १०,१) २)। ४ सूर्य प्रादि का चक्र । ५ सूर्य प्रादि (रयण २६) का मार्ग, आकाशः 'जे गहा जाइसम्मि चारं | जोगायोग] १ व्यापार, मन, वचन और जोगिणी देखो जो इणी (सुर ३, १८६) Iv चरंति' (पएण ३)। शरीर की चेटा (ठा ४, १; सम १० स जोगिय वि यौगिक] दो पदों के सम्बन्ध जोइस पुंज्यौतिय] १ सूर्य, चन्द्र प्रादि ४७०)। २ चित्तनिरोध, मन:-प्रणिधान, से बना हुअा शब्द, जैसे-उप-करोति, अभिदेवों की एक जाति (कप्प; पंचा २)। २ समाधि (पउम ६८, २३; उत्त १) । ३ वश घेणयति (पएह २, २-पत्र ११४)। २ वि. ज्योतिष शास्त्र का जानकार, जोतिषी करने के लिए या पागल प्रादि बनाने के यन्त्र-प्रयोग से बना हुमा (उप पृ९४)। लिए फेंका जाता चूर्ण-विशेष; जोगो मइमोह जोगीसर देखो जोईसर (स २०१)। (सुपा १५६)। करो सीसे खित्तो इमाण सुत्ताण' (सुर ८, जोइसिअ वि [ज्योतिषिक] १ ज्योतिष जोगेसरी स्त्री [योगेश्वरी] देव-विशेष (सण)। जोगेसी स्त्री [योगेशी] विद्या-विशेष (पउम शास्त्र का ज्ञाता, दैवज्ञ, जोतिषी (स २२; २०१)। ४ सम्बन्ध, संयोग, मेलन (ठा १०)। ५ ईप्सित वस्तु का लाभ (णाया १, ५)। सुर ४, १००८ सुपा २०३) । २ सूर्य, चन्द्र ७, १४२)। जोग्ग वि [योग्य] योग्य, उचित, लायक आदि ज्योतिष्क देव (ोप; जी २४; परण ६ शब्द का अवयवार्थ-सम्बन्ध (भास २४)। २) (ठा ३, १; सुपा २८)। २ प्रभु, समर्थ, | ७ बल, वीर्य, पराक्रम (कम्म ५) "क्खेम राय पुं[राज] १ सूर्य, रवि । २ न [°क्षेम] ईप्सित वस्तु का लाभ और शक्तिमान् (निचू २०)। चन्द्रमा (पएण २)। जोग्गा स्त्री [दे] चाटु, खुशामद, (दे ३,४८)। उसका संरक्षण (णाया १, ५)। स्थ वि जोइसिंद ' [ज्योतिरिन्द्र] १ सूर्य, रवि । [स्थ] योग-निष्ठ, ध्यान-लीन (पउम ६८, जोग्गा स्त्री [योग्या] १ शास्त्र का अभ्यास २ चन्द्र, चन्द्रमा (ठा ६) २३)।त्थ पुं [°ार्थ] शब्द के अवयवों (भग ११, ११; जं ३)। २ गर्भधारण में जोइसिण पु [ज्योत्स्न] शुक्ल पक्ष (जो का अर्थ, व्युत्पत्ति के अनुसार शब्द का अर्थ समर्थ योनि (तंदु) (भास २४)। दिढि स्त्री [दृष्टि] चित्त जोज देखो जोअ = योजय। भवि. जोजजोइसिणा स्त्री [ ज्योत्स्ना] चन्द्र की प्रभा, निरोध से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान-विशेष इस्सामि (कुप्र १३०)। कृ. जोज (उत्त चन्द्रिका, चाँदनी (ठा २,४) पक्ख पुं[पक्ष (राज) 1 °धर वि [धर] समाधि में २७,८) - शुक्ल पक्ष (चंद १५)भा स्त्री [भा] कुशल, योगी (पउम ११६, १७)। परि जोड सक [ योजय ] जोड़ना, संयुक्त चन्द्र की एक अग्र-महिषी (भग १०, ५)। व्वाइया स्त्री ["परिव्राजिका] समाधि- करना। वकृ. जोडत (सुर ४ १९)। जोइसिणी स्त्री [ज्यौतिषी] देवी-विशेष प्रधान वतिनी-विशेष (णाया १) पिंड | संकृ. जोडिऊण (महा)। (परण १७–पत्र ४६६) jr'पिण्ड] वशीकरण आदि के प्रयोग से जोड पुन [दे] १ नक्षत्र (दे ३, ४६ पिए)। जोई स्त्री [दे] विद्युत्, बिजली (दे ३, ४६; प्राप्त की हुई भिक्षा (पंचा १३, निचू १३) २ रोग-विशेष (सण)। मुद्दा स्त्री [मुद्रा] हाथ का विन्यास-विशेष जोड (अप) स्त्री [दे] जोड़ी, युगल; 'एरिस जोईरस देखो जोइ-रस (कप्प; जीव ३)। (पंचा ३)1 °व वि [°वत् ] १ शुभ जोड न जुत्त' (कुप्र ४५३)। जोईस पुं योगीश] योगीन्द्र, योगि-राज प्रवृत्तिवाला (सूत्र १, २,१)। २ योगी, जोडिअ पू [दे] व्याध, बहेलिया, चिड़ीमार समाधि करनेवाला (उत्त ११) वाहि वि जोईसर पुं [योगीश्वर] ऊपर देखो (सुपा [वाहिन] १ शास्त्र ज्ञान की आराधना | जोडिअ वि [योजित] जोड़ा हुआ. संयुक्त ८३, रयण ६) के लिए शास्त्रोक्त तपश्चर्या को करनेवाला। किया हमा (सुपा १४६ ३५१) जोउकण्ण न [योगकर्ण] गोत्र-विशेष (सुज २ समाधि में रहनेवाला (ठा ३, १-पत्र जोण j [योन, यवन] म्लेच्छ देश-विशेष १२०) Y°विहि पुंस्त्री [विधि शास्त्रों की १०, १६ टी)। (णाया १,१)। आराधना के लिए शास्त्र-निर्दिष्ट अनुष्ठान, जोउकण्णिय न [योगकर्णिक] गोत्र-विशेष | जोणि स्त्री योनि] १ उत्पत्ति-स्थान (भगः तपश्चर्या-विशेष; 'इय वुत्तो जोगविही', 'एसा (सुज्ज १०, १६)। सं ८२, प्रासू ११५)। २ कारण, हेतु , जोकार देखो जेक्कार (गा ३३२ अ)। जोगविही (अंग) 1 सत्थ न [शास्त्र] चित्त उपाय (ठा ३, ३, पंचा ४)। ३ जीव का जोक्ख वि [ दे] मलिन, अपवित्र (दे ३, निरोध का प्रतिपादक शास्त्र (उवर १६०) उत्पत्ति-स्थान (ठा ७)। ४ स्त्री-चिन्ह, भग ४८) जोग देखो जोग्गः 'इय सो न एत्थ जोगो, (अरण)1°विहाग न [विधान] उत्पत्ति For Personal & Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ पाइअसद्दमहण्णवो जोणिय-मख शास्त्र (विसै १७७५)। "सूल न ['शूल] (मोघ १० भा)। २ धान्य का मर्दन, अन्न- "द्वाण न [°स्थान] सुभटों का युद्ध-कालीन योनि का एक रोग (णाया १, १६)। मलन (ोघ ९० भा)। शरीर-विन्यास, अंग-रचना-विशेष (ठा १; जोणिय वि [योनिक, यवनिक] अनार्य जोवारि स्त्री [दे] अन्न-विशेष, जुपारि (दे निचू २०)। ३, ५०)। देश-विशेष से उत्पन्न । स्त्री. या (इक; जोहणा देखो जोहा (मै ७१)। जोविय वि [दृष्ट] विलोकित (स १४७) । प्रौप; गाया १,१-पत्र ३७)। जोव्वण न [यौवन] १ तारुण्य, जवानी जोहा स्त्री [योधा] भुज-परिसपं की एक जोण्णलिआ स्त्री [दे] अन्न-विशेष, जुपारि, (प्रातः कप्प) । २ मध्य भाग (से २, १) जाति (सूम २, ३, २५) । जोन्हरी (दे ३, ५०)। जोव्वणणार । न [दे] वयः-परिणाम, वृद्धत्व, जाहार सकाद] जुहारना जोहार सक [दे] जुहारना, जोहार करना, जोण्ह वि [ज्योत्स्न १ शुक्ल, श्वेत, 'कालो जोव्यगवेअबुदापाः 'जोब्बणणीरं तरु- प्रणाम करना। कर्म. जोहारिज्जइ (प्राक वा जोएहो वा केणणुभावेण चंदस्स (सुज | णतणे वि विजिएंदियाण पूरिसाण' (दे २५, १३)। १९)। २ पुं. शुक्र पक्ष (जो ४)। जोहार पुं[दे] जोहार, प्रणाम (पव ३८)। जोण्हा स्त्री ज्यिोत्स्ना] चन्द्र-प्रकाश (षड् जोव्वणिया स्त्री [यौवांनका ] यौवन, जोहि वि [योधिना लड़नेवाला, सभट काप्र १९७)। जवानी (राय) (पव ७१)। जोव्वणोवय न [दे] बूढापा, वृद्धत्व, जरा . जोहाल वि [ज्योत्स्नावत् ] ज्योत्स्ना जोहि वि [योधिन्] लड़नेवाला, लड़ वैया । (दे ३, ५१)। वाला, चन्द्रिकायुक्त (हे २, १५६)। (प्रौप)। जोस देखो जुस = जुष्। वकृ. जोसंत जोत्त देखो जुत्त = युक्त (कुप्र ३८१)। | जोहिया स्त्री [योधिका] जंतु-विशेष, हाथ (राज)। प्रयो., संकृ. जोसियाण (वव ७) से चलनेवाली एक प्रकार की सर्प-जाति जोत्त । न [योक्त्र, क] जोत, रस्सी या | जोस पुं [झोष] अवसान, अन्त (सूत्र १, (जीव २) जोत्तय चमड़े का तस्मा, जिससे बैल या २, ३, २ टि)। घोड़ा, गाड़ी या हल में जोता जाता है | जिअ (शौ) अ [दे] अवधारण-निश्चय जोसिअ वि [जुष्ट सेवित (सूत्र १, २,३) (पएह २,५,गा ६६२)। ज्जे का सूचक भव्यय (प्राकृ १८) । जोसिआ स्त्री [ योषित् ] स्त्री, महिला, जोव देखो जोअ = दृश् । जोवइ (महा। भवि) जेव । (शौ) । देखो एव = एव (पि २३; नारी (षड् ; धर्म २)। जेव्व) ८५)। जोव पु [दे] १ बिन्दु। २ वि. स्तोक, जोसिणी देखो जोण्हा (अभि ३१)। उझड देखो झड । झडइ (हे ४, १३० टि)। थोड़ा (दे ३, ५२)। जोह अक युध् ] लड़ना । जोहइ (भवि)- झहराविअ वि [दे] निवासित, निवासजोवण न दे १ यन्त्र. कल; 'भाउज्जोवण' | जोह [योध] सुभट, योद्धा (प्रौप कुमा) प्राप्त (षड्)। ॥ इन सिरिपाइअसहमहण्णवम्मि जमाराइसहसंकलणो सोलहमो तरंगो समत्तो॥ म ' [झ] १ तालु-स्थानीय व्यजन वर्ण- भंख सक [दे] स्वीकार करना । झंखहु 'घणनासापो गहिलीभूमो झंखइ नरेस ! एस धुवं । विशेष (प्रामाः प्राप)। २ ध्यान (विसे (अप) (सिरि ८६४) । सोमोवि भरणा झंखसि तुमेव बहुलोहगहगहिरो' ३१९८) । झंख प्रक [सं+तप्] संतप्त होना, संताप (था १४)। भंकार [झङ्कार] नूपुर वगैरह की आवाज __ करना । झंखइ (हे ४, १४०)। मंख सक [उपा+लभ ] उपालंभ देना, (सुर ३, १८ पडि; सण)। मंख प्रक [वि + लप] विलाप करना, उलाहना देना । झंखइ (हे ४, १५६)। मंकारिअ न [दे] भवचयन, फूल वगैरह का बकवाद करना। झंखइ (हे ४, १४८)। मंख मक [निर् + श्वस् ] निश्वास लेना । मादान या चुनना (द ३,५६)।" __ वकृ. भखंत (कुमा); | झंखइ (हे ४, २०१)। For Personal & Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंख-झणझणारव पाइअसहमहण्णवो मंख वि [दे] तुष्ट, संतुष्ट, खुश (दे ३, ५३)। झंडली स्त्री [दे] असती, कुलटा (दे ३,५४) । झज्झरी स्त्री [दे] दूसरे के स्पर्श को रोकने भंखण न [उपालम्भ] उपालम्भ, उलाहना | झंडुअ पुंदे] वृक्ष-विशेष, पीलु का पेड़ (दे के लिए चांडाल लोग जो लकड़ी अपने पास (कुमा) रखते हैं वह (दे ३, ५४)। भखर पुं दे] शुष्क तरु, सूखा पेड़ (दे | झंडली स्त्री [दे] असती, कुलटा। २ क्रीड़ा, झड प्रक[शद्] १ झड़ना, पके फल आदि ३,५४)। खेल (दे ३, ६१) का गिरना, टपकना। २ हीन होना। ३ सक. भखरिअ [दे] देखो झंकारिअ (दे ३, ५६) भैदिय वि [दे] प्रद्रुत, पलायित, भगाया हुआ झपट मारना, गिराना । झडइ (हे ४,१३०)। भखावण वि [संतापक] संताप करनेवाला (षड्)। वकृ. झडंत (कुमा)। कवकृ. 'वासासु सीय(कुमा)।झंप सक [भ्रम् ] घूमना, फिरना । झंपइ वाएहिं झडिजंतो' (प्राव १)। संकृ. 'झडिझखिर वि [निःश्वसित] निःश्वास लेनेवाला ऊण पल्लविल्ला, पुणोवि जायंति तरुरवा तुरियं। (कुमा ७, ४४) । झंप सक [आ + च्छादय् ] झाँपना, | धीराणवि धरणरिद्धी, गयावि न हु दुल्लहा एवं' । मंझ पुं[भंझ] कलह, झगड़ा (सम ५०)। पाच्छादन करना, ढकना । झपइ (पिंग)। (उप ७२८)। कर वि [कर] कलहकारी, फूट करानेवाला संकृ. भपिऊण, झपिवि (कुमाः भवि)। झडत्ति प्र[झटिति] शीघ्र, जल्दी, तुरंत, (सम ३७) । पत्त वि [प्राप्त क्लेश-प्राप्त भंप सक [आ%Dक्रामय ] आक्रमण कर- (उस ७२८ टी; महा)। (सूम १, १३)। वाना। झंपइ (प्राकृ ७०) झडप्प प्र[दे] शीघ्रता, जल्दी (उप पू११० झंझण ।अक [झंझणाय ] 'झन-झन' झंपण वि [भ्रमण] भ्रमण-कर्ता (कुप्र ४)। | रंभा)। मंझणक शब्द करना। झंझणइ (गा भंपण न [भ्रममा परिभ्रमण, पर्यटन (कूमा) झडप्प सक [आ + छिदा झपटना, झपट ५७५ प्र) । झंझणक्कइ (पिंग)। झंपणी स्त्री [दे] पक्ष्म, आँख की बरौनी, पाँख मारना, छीनना । झडप्पमि (भवि)। संकृ. मंझणा स्त्री [झझना] "झन-झन' शब्द झडप्पिवि (भवि) के बाल (दे ३, ५४ पाम)। (गउड)। झडप्पड न [दे] झटपट, झटिति, शीघ्र (हे मंझा स्त्री [झझा वाद्य-विशेष, झांझ, झाल झंपा स्त्री [झम्पा] एकदम कूदना, झम्पा-पात ४, ३८८)। (राय ५० टी)। (सुपा १९८) मडप्पिअ वि [आच्छिन्न] छीना हुआ झंझा स्त्री [मझा] १ प्रचण्ड वायु-विशेष | मंपिअ वि [दे] १ त्रुटित, टूटा हुमा। २ (भवि) (गा १७०) सण)। २ कलह, क्लेश, झगड़ा घट्टित, पाहत (दे ३, ६१) झडि प्रझिटिति] शीघ्र, जल्दी, तुरन्तः (उक: बृह ३)। ३ माया, कपट । ४ क्रोध, | "झडि आपल्लवइ पुणो' (गा ६१३)।गुस्सा (सूत्र १, १३)। ५ तृष्णा, लोभ किया हुमा (पिंग); 'पईवो झपिनो झत्ति झडिअ वि [दे] १ शिथिल, ढीला, सुस्त (सूत्र २, २)। ६ व्याकुलता, व्यग्रता (महा); 'तप्रो एवं भणमारणस्स सहत्येणं (गा २३०)। २ श्रान्त, खिन्न, ( षड् )। (प्राचा)। झंपिनं मुहकुहरं सुमइस्स गाइलेणं' (महानि ३ झड़ा हुआ, गिरा हमाः 'करच्छडाझडियझझिय वि [झझित] बुभुक्षित, भूखा ४)। पक्खिउले (पउम ६६, १५)। (णाया १,१)। झक्किअन [दे] वचनीय, लोक-निन्दा (दे ३, झडित्ति देखो झडत्ति (सुर २, ४) । भंट सक [भ्रम्] घूमना, फिरना। अंटइ ५; भवि)। मडिल देखो जडिल (हे १, १९४)। (हे ४, १६१)। झख देखो भंख = वि + लप् । वकृ. झखंत झडी स्त्री [दे] निरन्तर वृष्टि, झड़ी गुजराती मंट अक [गुञ्ज] गुजारव करना। वकृ. (जय २३) में 'झडी (दे ३, ५३)। . 'झंटतभमिरभमरउलमालियं मालियं गहिउ" | भगड [दे] झगड़ा, कलह (सुपा ५४६; भग सक [जुगुप्स् ] घृणा करना । झण्इ (सुपा ५२६)। ५४७)। (षड् ) भंटण न [भ्रमण] पर्यटन, परिभ्रमण झग्गुली स्त्री[दे] अभिसारिका, प्रिय से मिलने झणझण अक [झगझगाय ] 'झन-झन' (कुमा)। के लिए संकेत स्थान पर जानेवाली स्त्री या | आवाज करना। वकृ. झणझणंत (प्राप) ।। मंटलिआ ली [दे] चंक्रमण, कुटिल गमन न्यायिका (विक्र १०१)। झणज्झणि अ वि [झणझणित] 'झन-झन' (दे ३, ५५)। झज्झर पुं [झर्मर] १ वाद्य-विशेष, झाँझ। पावाजवाला (पिंग)। झटिअ वि [दे] जिस पर प्रहार किया गया २ पटह, ढोल । ३ कलि-युग । ४ नद-विशेष | झणझण देखो झणझण । झणझणइ (वजा हो वह, प्रहृत (दे ३,५५)। (पि २१४)। मंटी स्त्री [दे छोटा किन्तु ऊँचा केश-कलाप झपझपारव पुं [झणझणारव] 'झन-झन | शब्द से युक्त (ठा १०)10 आवाज (महा)। For Personal & Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो झणझणिय-झाम झणझणिय देखो झणज्झणिअ (सुपा ५०)। झलहलिय वि [दे] क्षुब्ध, विचलितः 'घर- झाइ वि [ध्यायिन] चिन्तन करनेवाला, झणि देखो झुणि (रंभा) हरियधरं झलहलियसायरं चलियसयलकुलसेल' | ध्यान करनेवाला (आचा)। झत्ति देखो झडत्ति (हे १,४२, षड्; महा । (कुलक ३३)। भाइअ वि [ध्यात] चिन्तित (सिरि १२५५)। सुर २, ६)। झला स्त्री [दे] मृगतृष्णा, धूप में जल-ज्ञान, झाउ वि [ध्यात ध्यान करनेवाला, चिन्तक झत्थ वि [दे] गत, गया हुआ। २ नष्ट (दे | व्यर्थ तृष्णा (दे ३, ५३; पात्र)। (प्राद ४)। भलुंकिअ) वि [दे] दग्ध, जला हुपा (दे| झपिअ वि [दे] पर्यस्त, उत्क्षिप्त ( षड्) झाड न [दे. भाट] १ लता-गहन, निकुञ्ज, झलुंसिअ ३, ५६) । झाड़ी (दे ३, ५७, ७, ८४ पान; सुर ७, झप्प देखो झण। झप्पइ (षड् )। झल्लरी स्त्री [झल्लरी] वलयाकार वाद्य-विशेष, हुडग बाजा, झाल, झालर (ठा १०; औपः सुर २४३) । २ वृक्ष, पेड़; 'पापल्ली झाडभेअम्मि' झमाल न [दे] इन्द्रजाल, माया-जाल (दे ३, ३, ६६, सुपा ५०; कप्प) (दे १, ६१); "दिवो य तए पोमाडज्झाडयस्स भय पुंस्त्री [ध्वज ध्वज, पताका (हे २, २७ इमम्मि पएसे विरिणग्गयो पायो (स १४४)। झल्लरी स्त्री [दे] अजा, बकरी (चंड)। औप) । स्त्री. या (औप)। झाड न [झाटन] १ झोष, क्षय, क्षीणता। झल्लोझल्लिअ वि[दे] संपूर्ण, परिपूर्ण, भरपूर (भवि)। २ प्रस्फोटन, झाड़ना (राज) झर प्रक [क्षर ] झरना, टपकना, चूना, झवणा स्त्री [क्षपणा] १ नाश, विनाश (विसे | झाडल न [दे] कसि-फल, डोडों, कपास (दे गिरना । झरइ (हे ४, १७३) । वकृ. झरंत ६६१) । २ अध्ययन, पठन (विसे (५८) ३,५७) । (कुमाः सुर ३, १०)। झस पु [झष १ एक देवविमान (देवेन्द्र झाडावण स्त्रीन [भाटन] झड़वाना, सफा भर सक [स्मृ] याद करना । झरइ (हे ४, कराना, मार्जन कराना । स्त्री. णी (सुपा १४०)। २ एक नरक-स्थान (देवेन्द्र ११) ७४; षड्)। कृ. झरेयव्य (बृह ५)। ३७३) । भस पुझिष] १ मत्स्य, मछली (परह १, झरंक पुं[दे] तृण का बनाया हुआ झाण वि ध्यान] ध्यानकर्ता (श्रु १२८)। १)। २ °चिधय पुं [चिह्नक] कामदेव, झरत । पुरुष, चश्चा (दे ३, ५५)। | भाण- पुंन [ध्यान] १ चिन्ता, विचार, स्मर (कुमा)। झरग वि [स्मारक चिन्तन करनेवाला, ध्यान उत्कण्ठा-पूर्वक स्मरण, सोच (पाव ४; ठा झस पुंदे] १ अयश, अपकीति । २ तट, करनेवाला; 'भणगं करगं झरगं पभावगं ४, १, हे २, २६)। २ एक ही वस्तु में किनारा । ३ वि. तटस्थ, मध्यस्थ । ४ दीर्घपाएदसणगुणाणं (मंदि)। मन को स्थिरता, लौ लगाना (ठा ४,१)। गंभीर, लम्बा और गंभीर, बहुत गहरा (दे ३ मन आदि की चेन का निरोध । ४ दृढ़ भरभर पुं झरझर निझर या झरना ३,६०)। ५ टंक से छिन्न (दे ३,६०० प्रादि का ‘झर-झर' आवाज (सुर ३, १०)। प्रयत्न से मन वगैरह का व्यापार (विसे ३०७१, ठा ४, १)। भरण न [क्षरण] झरना, टपकना, पतन झसय पुं[झषक छोटा मत्स्य (दे २,५७) । (वव १)। भाणंतरिया स्त्री [ध्यानान्तरिका] १ दो झसर पुन [द] शस्त्र-विशेष, प्रायुध-विशेष; | झरणा स्त्री [क्षरणा] ऊपर देखो (आवम)। ध्यानों का मध्य भाग, वह समय जिसमें ‘सरझसरसत्तिसब्बल-' (पउम ८, ६५)। प्रथम ध्यान की समाप्ति हुई हो और दूसरे भर पुं[A] सुवर्णकार, सोनार (दे ३,५४)। झसिअ वि[दे] १ पर्यस्त, उत्क्षिप्त । २ का प्रारम्भ जबतक न किया गया हो और झरिय वि [क्षरित] टपका हुआ, गिरा हुआ, | प्राकष्ट, जिसपर आक्रोश किया गया हो वह अन्य अनेक ध्यान करने के बाकी हो (ठा, पतित (उवः प्रोघ ७६०)। (दे ३, ६२) भग, ५, ४)। २ एक ध्यान समाप्त होने पर झरुअ [दे] मशक, मच्छड़ (दे ३, ५४) Mझसिंध ( [झपचिह्न काम, स्मर (कुमा) शेष ध्यानों में किसी एक को प्रथम प्रारंभ झलकिअ वि [दग्ध] जला हुआ, भस्मीभूत; | झसुर न [दे] १ ताम्बूल, पान (दे ३, ६१; करने का विमश (बृह १) 'जयगुरुगुरुविरहानलजालोलिझलकियं हिययं' गउड) । २ अर्थ (दे ३, ६१)। झाणि वि [ध्यानिन्] ध्यान करनेवाला (सुपा ६५७; हे ४, ३६५) । झा सक [ध्यै चिन्ता करना, ध्यान करना। _(मारा ८६)। झलझल अक [जाज्वल ] झलकना, चम झाइ, झाइ (हे ४, ६)। वकृ झायंत, माम सक [दह ] जलाना, दाह देना, दग्ध कना, दीपना । वकृ. झलझलंत (भवि)। भायमाण (प्रारू; महा)। संकृ. भाऊणं करना । झामेइ (सूम २, २, ४४)। वकृ. झलझलिआ स्त्री [दे] झोली, कोथली, थैली (पारा ११२) । हेकृ. झाइत्तए (कस)। कृ. झामंत (सूम २, २, ४४) । झायव्य, झेय, भाइयव्व, भाएयव्य | माम वि [दे] दग्ध, जला हुआ (आचा २, भलहल देखो झलझल। महहलह (सुपा (कुमाः पारा ७८ प्राव ४. ति १० सुर १,१)। "थंडिल न [स्थण्डिल] दग्ध १८६) । वकृ. झलहलंत (श्रा २८)। १४, ८४)। भूमि (प्राचा २, १, १) For Personal & Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाम-झूस पाइअसद्दमहण्णवो ३६७ झाम वि [ध्याम] अनुज्ज्वल (पएह १, २- झिमिय । न [दे] शरीर के अवयवों की झुट्ठ वि [दे] झूठ, अलीक, असत्य (दे ३, पत्र ४०)। झिम्मिय जड़ता (प्राचा) भामण न [दे] जलाना, प्राग लगाना प्रदीप- झिया देखो मा । झियाइ, झियायइ (उवाः भुण सक [जुगुप्स् ] घृणा करना, निन्दा नक (वव २) भगः कस; पि ४७६)। वकृ. मियायमाण करना । झुणइ (हे ४, ४; सुपा ३१८) । झामर वि [दे] वृद्ध, बूढ़ा (दे ३, ५७)। (णाया १,१-पत्र २८६०) झुणि पुं[ध्वनि] शब्द, आवाज (हे १, ५२ भामल न [दे] १ आँख का एक प्रकार का झिरिड न [दे] जीणं कूप, पुराना इनारा (दे षड् ; कुमा)। रोग, गुजराती में 'झामरों'। २ वि. झामर ३, ५७)। झुणिअ वि [जुगुप्सित] निन्दित, घृणित रोगवाला (उप ७६८ टी श्रा १२) । झिलिअ वि [दे] झोला हुआ, पकड़ी हुई (कुमा) । झामल वि [ध्यामल] श्याम, काला (धर्मसं __ वह वस्तु जो ऊपर से गिरती हो (सुपा १७८)। हो (सुपा १७८)। मुत्ती स्त्री [दे] छेद, विच्छेद (दे ३, ५८)। ८०७)। झिल्ल अक [स्ना] झीलना, स्नान करना। झुमुसुमुसय न [दे] मन का दुःख (दे ३ झामलिय वि [ध्यामलित] काला किया झिल्लइ (कुमा) IV ५८) । हुना (कुप्र ५८)। झिल्लिआ स्त्री [झिल्लिका कीट-विशेष, त्रीन्द्रिय झुलुक्क पुं[दे] अकस्मात् प्रकाश (प्रात्मानु झामिअ वि [दे] दग्ध, प्रज्वलित (दे ३, जीव की एक जाति, झिल्ली(पाना परण १) ५६ वव ७ प्रावम)। २ श्यामलित, काला : झिल्लिरिआ स्त्री [दे] १ चीही-नामक तृण। झुल्ल अक [अन्दोल] झूलना, डोलना, किया हुआ । ३ कलंकित: 'घणदड्ढपयंगाएवि २ मशक, मच्छड़ (दे ३, ६२)।। लटकना । वकृ. मुलंत (सुपा ३१७)। जीए जा झामिनो नेय' (सार्थ १६)10 झिल्लिरी स्त्री [दे] मछली पकड़ने की एक झुल्लण स्त्रीन [दे] छन्द-विशेष । स्त्री. °णा काय वि [ध्मात] भस्मीकृत, दग्ध, जला तरह की जाल (विपा १, ८-पत्र ८५) (पिंग)। हुपा (एंदि)। झिल्ली स्त्री [दे] लहरी, तरंग (गउड) मुल्लुरी स्त्री [दे] गुल्म, लता, गाछ (दे ६, झायव्य देखो झा। झिल्ली स्त्री [झिल्ली] १ वनस्पति-विशेष भारुआ स्त्री [दे] चीरी, क्षुद्र जन्तु-विशेष | (पएण १: उप १०३१ टी)।२ कीट-विशेष, झुस देखो झूस । संकृ. झूसित्ता (पि २०६)। (दे ३, ५७)। झींगूर (गा ४६४) | असणा देखो झूसणा (राज)। झावण न [ध्मापन] देखो झाम ग (राज) Mझीण वि क्षीण] दुर्बल, कृश (हे २, ३; झुसिय देखो भूसिय (बृह २)। झावणा न [धमापना] दाह, जलाना, अग्नि- पात्र)। झुसिर न [शुषिर] १ रन्ध्र, विवर, पोल, संस्कार (आवम) मीण न [दे] १ अंग, शरीर । २ कोट, | खाली जगह (गाया १, ८, सुपा ६२०)। भाषणा देखो अझावणा (संबोध २४) । कीड़ा (दे ३, ६२) । २ वि. पोला, झूछा (ठा २, ३; पाया १, भिखग न दे गुस्सा करना (उप १४२ टा) झीरा स्त्री [दे] लजा, शरम (दे ३, ५७) । २; परह १,२)। झिखिअ न [दे] वचनीय, लोकापवाद, लोक-.. झंख पुं[दे] तुणय-नामक वाद्य (दे ३,५८) निन्दा (दे ३, ५५) । झूझ देखो जूझ । झूझंति (संबोध १८) । झिगिर ) पंक्षिद्र कीट-विशेष. त्रोन्द्रिय झुझिय विदे] १ बुभुक्षित, भूखा (पएह | झर सकस्मि याद करना, चिन्तन करना । झिगिरड) जीव की एक जाति, झींगूर या १,३-पत्र ४६) । २ झुरा हुमा, मुरझा भूरइ (हे ४, ७४)। वकृ. झूरंत (कुमा)। झिल्ली (जीव १) हुआ (भग १६, ४)। झूर सक [जुगुप्स् ] निन्दा करना, घृणा झिझिअ वि [दे] बुभुक्षित, भूखा (बृह ६) झुझुमुसयन [दे] मन का दुःख (दे ३, करना झिंझिणी) स्त्री [दे] एक प्रकार का पेड़, ५८)। 'निरुवमसोहग्गमई, दिळूणं तस्स रूवगुणरिद्धि । झिझिरी लता-विशेष (उप १०३१ टी: मुंटण न [दे] १ प्रवाह (दे ३, ५८)। २ इंदो वि देवराया, भूरइ नियमेण नियरूवं' प्राचा २, १,८ बृह १) पशु-विशेष, जो मनुष्य के शरीर की गरमीसे (रयण ४)। झिजंत 1 विक्षीयमाण] जो क्षय को जीता है और जिसका रोम कपड़े के लिये झूर अक [धि भुरना, क्षीण होना, सूखना । झिजमाण प्राप्त होता हो, कृश होता हुआ बहुमूल्य है (उप ५५१)। (से ५, ५८; ७२८ टीः कुमा)। वकृ. झूरंत, भूरमाण (सण; उप पृ. २७)। झिज्झ अक [क्षि] क्षीण होना। झिझड झुपडा स्त्री [दे] झोपड़ी, तृण कुटीर, तुण- | झूर वि [दे] कुटिल, वक्र, टेढ़ा (दे ३, ५६)। (प्राकृ ६३)। निर्मित घर (हे ४, ४१६ ४१८) | झरिय वि [स्मृत चिन्तित, याद किया हुआ मिज्झिरी स्त्री [दे] वल्ली-विशेष (माचा २, मुंबणग नदे] प्रालम्ब (णाया १,१)। (भवि) १,८, ३) झुज्झ देखो जुझ = युध् । मुज्झइ (पि | झूस सक [जुष ] १ सेवा करना । २ प्रीति भिण्ण देखो झीण (से १, ३५ कुमा)। २१४)। वकृ. भुज्झत (हे ४, ३७६)। | करना । ३ क्षीण करना, खपाना । वकृ. For Personal & Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ पाइअसहमहण्णवो भूसणा-टगर झूसमाण (प्राचा) । संकृ. भूसित्ता, | झोंडलिआ स्त्री [दे] रास के समान एक झोसमाण, झोसेमाण (सुपा २६ प्राचा)। भूसित्ताणं, भूसेत्ता (औपः पि ५८३; प्रकार की क्रीड़ा (दे ३, ६०) संकृ. 'संलेहणाए सम्म झोसित्ता निययदेहं . अंत २७) मोड सक [शाटय ] पेड़ आदि से पत्र तु' (सुर ६, २४६) । झूसणा स्त्री [जोषणा] सेवा, आराधना (उवाः वगैरह को गिराना । झोडइ (पि ३२६)। मोस सक [गवेषय] खोजना, अन्वेषण अंत; प्रौपः णाया १,१)। झोड न [दे] १ पेड़ आदि से पत्र आदि का करना । झोसेहि (बृह ३)। गिराना। २ जीर्ण वृक्ष (णाया १, ११.- झोस सक [झोषय ] डालना, प्रक्षेप करना । भूसरिअ वि [दे] १ प्रत्यर्थ, अत्यन्त । २ कृ झोसेयव्व (वव १)। स्वच्छ, निर्मल (दे ३, ६२)। पत्र १७१)। झोडण न [शाटन] पातन, गिराना (पण्ह १, झोस [झोष] राशि-विशेष, जिसके डालने भूसिय वि [जुष्ट] १ सेवित, आराधित १-पत्र २३)। से समान भागाकार हो वह राशि (वव १)। (णाया १, १; प्रौप) । २ क्षपित, क्षिप्त झोडप्प पुं[दे] १ चना, अन्न-विशेष । २ | झोस पुं[दे] झाड़ना, दूर करना (ठा ५,२)। परित्यक्त (उवाः ठा २, २)। सूखे चने का शाक (दे ३, ५६)। भोसण न दे] गवेषण, मार्गरण; 'प्राभोगणं भेंडुअ पुं [दे] कन्दुक, गेंद (दे ३, ५६) । | झोडिअपुं[दे] व्याध, शिकारी, बहेलिया ति वा मग्गणं ति वा झोसणं ति वा एगटुं' भेय देखो मा । (वय २)। मेर पुंदे] पुराना घण्टा (दे ३, ५६) भोलिआ) स्त्री [दे. झोलिका झोली, झोसणा देखो झूसणा (सम ११६; भग)। झोटिंग [दे] देव-विशेष (कुप्र ४७२) । झोल्लिआ थैली, कोथली (दे ३, ५६; सूत्र झोसणा स्त्री [जोषणा] अन्त समय की भोट्टी स्त्री [दे] अर्ध-महिषी, भैंस की एक २, ४)।। आराधना, संलेखना (श्रावक ३७८)। जाति (दे ३, ५६) | झोस देखो झूस। झोसेइ (माचा)। वकृ. झोसिअ देखो झूसिय (प्राचा: हे ४, २५८). ॥ इन सिरिपाइअसद्दमहण्णवम्मि झयाराइसहसंकलणो सत्तरहमो तरंगो समत्तो॥ ट पुं [2] मूर्द्ध-स्थानीय व्यञ्जन वर्ण-विशेष । भित्ति, भीत। ५ तट, किनारा (दे ४, ४)। | टंकिया स्त्री [टङ्किका] पत्थर काटने का प्रस्त्र, (प्रामाः प्राप)। ६ खनित्र, कुदाल (दे ४, ४० से ५, ३५)। टॉकी (सम्मत्त २२७)। टउया स्त्री [दे] आह्वान-शब्द, पुकारने की ७ वि. छिन्न, छेदा हुआ, काटा हुमा (दे टंबरय वि [दे] भारवाला, गुरू, भारी (दे आवाजः गुजराती में 'टौको' (कुप्र ३०६)। ४, ४)। ४, २)। टंक पु[टङ्क] चित्र-विशेष, सिका पर का टंकण पुं [टङ्कन] म्लेच्छ की एक जाति, टक्क [टक] देश-विशेष (हे १, १६५)।' चित्र (पंचा ३, ३५)। (विसे १४४४)।" टक्क वि [टक्क] १ टक्क देशीय । २ पुं. भाट टंक पुंटङ्क] १ तलवार आदि का अग्र भाग __ की एक जाति (कुप्र १२) । (पराह १,१-पत्र १८)। २ एक प्रकार टंकवत्थुल [दे] कन्द-विशेष, एक जाति टक्कर पुंदे] ठोकर, अंग से अंग का प्राघात का सिक्का (श्रा १२, सुपा ५१३)। को तरकारी (श्रा २०) ।। (सुर १२, ६७ वव १) ३ एक दिशा में छिन्न पर्वत (णाया १,१-टंका स्त्री दे] १ जंघा, जांघ (पास)। २ टकरा श्रीदे] टकोर, मुंड-सिर में उंगली पत्र ६३)। ४ पत्थर काटने का प्रन, टॉकी. स्वनाम-ख्यात एक तीर्थ (ती ४३)। का प्राघात (वव १ टी)। छेनी (से ५, ३५; उप पृ ३१५)। ५ टकार पुंटङ्कार धनुष का शब्द (भवि) । टक्कारा स्त्री [दे] अरणि-वृक्ष का फूल ( दे परिमाण-विशेष, चार मासे की तौल (पिंग)। टंकार पुं[दे] प्रोजस् , तेज (गउड)। ४,२) ६ पक्षि-विशेष (जीव १) टंकिअ विदे] प्रसृत, फैला हुमा (दे ४,१) टगर पुतिगर] १ वृक्ष-विशेष, तगर का टंक [दे] १ तलवार, खड्ग । २ खात, टंकिम वि [टङ्कित] टाँकी से काटा हुआ वृक्ष। २ सुगन्धित काष्ठ-विशेष (हे १. खुदा हुमा जलाशय । ३ जङ्घा, जाँध । ४ । (दे ४,५०) । २०५; कुमा) 10 For Personal & Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टच्चक-टोलंब पाइअसहमहण्णवो ३६६ टश्चक पुं [दे] लकड़ी आदि के आघात की | टिंबरुणी स्त्री [दे] ऊपर देखो (पि २१८)-टुंबय पुं [दे] आघात-विशेष, गुजराती में आवाज (कुप्र ३०६)। टिक्क न [दे] १ टीका, तिलक । २ सिर का 'बो' (सुर १२, ६७)।टइआ स्त्री[दे] जवनिका, परदा (दे४,१) स्तबक, मस्तक पर रक्खा जाता गुच्छा (दे | टुट्ट अकटू टूटना, कट जाना। छुट्टइ टप्पर वि [दे] विकराल कर्णवाला, भयंकर | ४, ३)।। (पिंग)। वकृ. टुटुंत (स ६, ६३)। कानवाला (दे ४, २; सुपा ५२० कप्पू)। टिक्किद (शौ) वि [दे] तिलक विभूषित । टुप्परग न [दे] जैन साधु का एक छोटा पात्र टमर पुं[दे] केश-चय, बाल-समूह (दे ४,१)ल (कप्यू) । (कुलक ११)। टयर देखो टगर (कुमा) टिग्घर वि [दे] स्थविर, वृद्ध, बूढा (दे। टूवर पुं [तूवर] १ जिसको दाढ़ी-मूछ न टलटल प्रक [टलटलाय ] 'टल-टल' पावाज | ४, ३)। उगी हो ऐसा चपरासो। २ जिसने दाढ़ी-मूंछ करना । वकृ. टलटलंत (प्रासू १६३)। कटवा दी हो ऐसा प्रतिहार (हे १, २०१६ | टिट्टिभ पुं [टिट्टिभ १ पक्षि-विशेष, टिटि कुमा)। टलटलिय वि [टलटलित] 'टल-टल' प्रावाज । हरी, टिटिहा । २ जल-जन्तु विशेष (सुर १०, टेंट दे]१ मध्य-स्थित मरिण-विशेष । वाला (उप ६४८ टो)। १८५) । स्त्री. भी (विपा १, ३) वि. भीषण (कप्पू)। टलवल प्रक[दे] १ तड़फड़ाना, तड़पना । टिट्रियाव सक [दे] बोलने की प्रेरणा करना, टेंटा स्त्रीदा जुमाखाना, जुमा खेलने का २ घबराना, हैरान होना । टलवलंति (धर्मवि "टि-टि आवाज करने को सिखलाना। अड्डा (दे ४, ३)।३८) । वकृ. टलवलंत (सरि ६०८)। टिट्टियावेइ (णाया १, ३) । कवकृ. टिट्टिया- टेंटा स्त्री दे] १ अक्षि-गोलक । २ छाती का टलिअ वि [दे] टला हुआ, हटा हुआ (सिरि वेजमाण (णाया १, ३–पव ६४)। शुष्क व्रण (कप्पू)। ६८३)। टिप्पणय न [टिप्पनक] विवरण, छोटी ठेंबरूय न [दे] फल-विशेष (माचा २, १, टसर न [दे] विमोटन, मोड़ना (दे ४, १) टीका (सुपा ३२४)। टसर [वसर] टसर, एक प्रकार का सूता | टिप्पी स्त्री [दे] तिलक, टीका (दे ४, ३)। (हे १, २०५६ कुमा) । टेकर न [दे] स्थल, प्रदेश (दे ४,३)। टोकण नादादारू नापने का बरतन टसरोट्ट न [दे] शेखर, अवतंस (दे ४, १)। टिरिटिल्ल सक [भ्रम् ] घूमना, फिरना, टोकणखंड (दे ४, ४)। टहरिय वि [दे] ऊँचा किया हुआ, 'टहरिय- चलना । टिरिटिल्लइ (हे ४, १६१)। वकृ. टोपिआ स्त्री [दे] टोपी, सिर पर रखने का कन्नो जामो मिगुव्व गीइं कह सोउं (धर्मवि | टिरिटिल्लंत (कुमा)। सिला हुआ एक प्रकार का वस्त्र (सुपा २६३)। १४७; सम्मत्त १५८)। टिल्लिक्किय वि [दे] विभूषित (धर्मवि ५१) टोप्प [दे] श्रेष्ठि-विशेष (स ४५१)।. टार पुंदे] अधम, अश्व, हठी घोड़ा (दे टिविडिक्क सक [मण्डय] मण्डित करना, टोप्पर पुन [दे] शिरस्त्राण-विशेष, टोपी ४, २); 'प्रइसिक्खिनोवि न मुमइ, प्रणयं (पिंग)। विभूषित करना । टिविडिक्कइ (हे ४, ११५; टारम्ब टारत्त' (श्रा २७)। २ टट्टू, छोटा | टोल पुं[दे] १ शलभ, जन्तु-विशेष । २ कुमा)। वकृ. टिविडिकंत (सुपा २८)।घोड़ा (उप १५५) । पिशाच (दे ४, ४, प्रासू १६२) गइ स्त्री टिविडिकिअ वि [ मण्डित] विभूषित, टाल न [दे] कोमल फल, गुठली उत्पन्न होने | [गति गुरु-वन्दन का एक दोष (पव २) अलंकृत (पास)। के पहले की अवस्था वाला फल (दस ७) गइ स्त्री [कृति प्रशस्त प्राकारवाला टेंट वि[दे] छिन्न-हस्त, जिसका हाथ कटा टिंट। [दे] देखो टेंटा (भवि) । साला (राज) टिंटा) स्त्री [शाला] जुमाखाना, जुमा हुमा हो वह (दे ४, ३, प्रासू १४२; १४३)M टोल [दे] १ टिड्डी, टिडी (पब २)। २ खेलने का अड्डा (सुपा ४६५)। टुंटुण्ण अक [टुण्टुणाय ] 'टुन टुन आवाज | यूथ (कुप्र५८)। टिंबरु नदे] वृक्ष-विशेष, तेंदू का पेड़ करना। वकृ.टुंटुण्णंत (गा ९८५; कार टोलंब [दे] मधूक, वृक्ष-विशेष, महमा टिंबरुअ)(दे ४, ३, उप १०३१ टी; पाम)ल ६६५) का पेड़ (दे ४, ४)। ॥ इन सिरिपाइअसहमहण्णवम्मि टयाराइसहसंकलणो अट्ठारहमो तरंगो समत्तो॥ For Personal & Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो ठ-ठाण ठ पुं[ठ] मूधं-स्थानीय व्यञ्जन वर्ण-विशेष ठरिअ वि [दे] १ गौरवित । २ ऊर्ध्व- ठविअ वि [स्थापित रखा हुआ, संस्थापित (प्रामाः प्राप) स्थित (दे ४, ६) (षड् ; पि ५६४ ठा ५, २)। ठइअ वि [दे] १ उत्क्षिप्त, ऊपर फेंका ठलिय वि [दे] खाली, शून्य, रिक्त किया | ठविआ स्त्री [दे] प्रतिमा, मूर्ति, प्रतिकृति हुआ। २ पु. अवकाश (दे ४, ५)। गया (सुपा २३७)। ठइअ वि [स्थगित] १ आच्छादित, ढका ठल्ल वि[दे] निर्धन, धन-रहित, दरिद्र (दे ठविर देखो थविर पि १६६)। हुमा। २ बन्द किया हुआ, रुका हुआ (स १७३) । ठा अक [स्था] बैठना, स्थिर होना, रहना, ठव सक [स्थापय ] स्थापन करना। ठवइ, ठइअ देखो ठविअ (पिंग)। गति का रुकाव करना । ठाइ, ठाअाइ (हे ४, ठंडिल्ल देखो थंडिल्ल (उव)। ठवेइ (पिंग; कप्प; महा) । ठवे (भग)। वकृ. १६ षड्) । वकृ. ठायमाण (उप १३० ठवंत (रयण ६३) । संकृ. ठविउं,ठविऊण, ठंभ देखो थंभ = स्तम्भ । कर्म. ठंभिज्जइ | टी) । संकृ. ठाइऊण, ठाऊण (पि ३०६ (हे २, ६) ठवित्ता, ठवित्तु, ठवेत्ता (पि ५७६; ५८६; पंचा १८)। हेकृ. ठाइत्तए, ठाउं (कस; ठंभ देखो थंभ = स्तम्भ ( हे २, ६; षड् )। ५८२; प्रासू २७; पि ५८२)। प्राव ५) । कृ. ठाणिज्ज, ठायव्य, ठाएठकुर । पु [ठक्कुर] १ ठाकुर, क्षत्रिय, ठवण न [स्थापन] स्थापन, संस्थापन (सुर यव्य (णाया १, १४; सुपा ३०२; सुर ६, ठक्कुर राजपूत (स ५४८ सुपा ४१२ २, १७७)। ३३)। सट्ठि ९८)। २ ग्राम वगैरह का स्वामी, ठवणा स्त्री [स्थापना] १ प्रतिकृति, चित्र, ठाइ वि [स्थायिन् ] रहनेवाला, स्थिर होनेनायक, मुखिया (प्रावम)। मूत्ति, आकार (ठा २, ४; १०; अणु)। २ | वाला (ोप, कप्प)। ठक्कार [ठःकार] 'ठः' अक्षर 'तम्मि चलंते स्थापन, न्यास (ठा ४, ३)। ३ सांकेतिक ठाएयव्य देखो ठा।.. करिमयसित्ताइ महीइ तुरगखुरसेरणी। लिहिया वस्तु, मुख्य वस्तु के अभाव या अनुपस्थिति ठाएयव्व देखो ठाव। रिऊरण विजए मंतो ठक्कारपंति व्व' (धर्मवि में जिस किसी चीज में उसका संकेत किया ठाण पुं[दे] मान, गवं, अभिमान (दे ४, २०)। जाय वह वस्तु (विसे २६२७)। ४ जैन ठग सक स्थिग] बन्द करना, ढकना । साधुओं की भिक्षा का एक दोष, साधु को ठाण पुंन [स्थान] १ स्थिति, अवस्थान, गति ठय । ठगेइ, ठएइ (सट्ठि २३ टी; सुख २, भिक्षा में देने के लिए रखी हुई वस्तु (ठा ३, की निवृत्ति (सून १,५,१; बृह १)। २ स्वरूप४–पत्र १५६) । ५ अनुज्ञा, संमति (शंदि)। प्राप्ति (सम्म १)। ३ निवास, रहना (सूत्र ठग पुं [ठक] ठग, धूर्त, वञ्चक (दे २, ६ पर्युषणा, आठ दिनों का जैन पर्व-विशेष १, ११; निचू १)। ४ कारण, निमित्त, हेतु ५८; कुमा)। (निचू १०)। कुल पुन [कुल] भिक्षा के (सूत्र १, १, २, ठा २, ४)। ५ पर्यंक ठगिय वि[दे] वञ्चित, ठगा हुआ, विप्र- लिए प्रतिषिद्ध कुल (निचू ४)1 °णय पुं आदि प्रासन (राज)। ६ प्रकार, भेद (ठा तारित (सुपा १२४)। [ नय] स्थापन को ही प्रधान माननेवाला १०; पाचू ४)। ७ पद, जगह (ठा १०)। ठगिय देखो ठइय = स्थगित (उप पृ ३८८)। मत (राज)। पुरिस पुं[°पुरुष पुरुष की ८ गुण, पर्याय, धर्म (ठा ५, ३; प्राव ४)। ठट्ठार पुं[दे] ताम्र, पितलमादि धातु के बर्तन मूर्ति या चित्र (ठा ३, १; सूत्र १, ४, १)। ६आश्रय, प्राधार, वसति, मकान, घर (ठा बनाकर जीविका चलानेवाला, ठठेरा (धर्म २)- यरिय पुं[चार्य जिस वस्तु में प्राचार्य ४, ३)। १० तृतीय जैन अंग-ग्रन्थ 'ठाणांग' ठड्ढ वि [स्तब्ध] हक्काबक्का, कुण्ठित, का संकेत किया जाय वह वस्तु (धर्म २)। सूत्र (ठा १)। ११ ठारणांग' सूत्र का अध्ययन, जड़ (हे २, ३६ वज्जा ६२)। सच्चन [ सत्थ] स्थापना-विषयक सत्य, परिच्छेद (ठा १,२,३,४,५)। १२ कायोत्सर्ग ठप्प वि [स्थाप्य स्थापनीय, स्थापन करने | जिन भगवान् की मूर्ति को जिन कहना यह (औप)। भट्र वि[भ्रष्ट] १ अपनी जगह योग्य (ोघ ६)। स्थापना-सत्य है (ठा १०; परण ११)। से च्युत (णाया १, ६) । २ चारित्र से पतित ठय सक [स्थग्] बन्द करना, रोकना। ठवणा स्त्री [स्थापना] वासना (णंदि १७६)। (तंदु)1 इय वि [तिग] कायोत्सर्ग ठएंति (स १५६)। ठवणी स्त्री [स्थापनी] न्यास, न्यास रूप से करनेवाला (प्रौप)। यय नायत] ठयण [स्थगन] १ रुकाव, अटकाव । २ वि. __रखा हुपा द्रव्य (श्रा १४)। "मोस पुं ऊँचा स्थान (बृह ५)। रोकनेवाला । स्त्री. °णी (उप ६६९) [मोष] न्यास की चोरी, न्यास का अपलाप; ठाण न [स्थान] १ कुंकण (कोंकण) देश का ठयण न [स्थगन] बन्द करना, 'अच्छिठयणं । 'दोहेसु मित्तदोहो, ठवरणीमोसो असेसमोसेसु' एक नगर (सिरि ६३६)। २ तेरह दिन च' (पंचा २, २५)। (धा १४)। का लगातार उपवास (संबोध ५८)। For Personal & Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणग-डंडारण पाइअसहमहण्णवो ३७१ ठाणग न [स्थानक शरीर की चेष्टा-विशेष ठावणया। देखो ठवणा (उप ६८६ टी; ठा| ठिय वि [स्थित १ अवस्थित (ठा २, ४)। (पंचा १८, १५)। ठावणा १ बृह ५)। २ व्यवस्थित, नियमित (सूम १, ६)। ३ ठाणि वि [ स्थानिन् ] स्थानवाला, स्थान- ठावय [स्थापक] स्थापन करनेवाला (णाया | खड़ा (भग ६, ३३)। ४ निषएण, बैठा हुआ युक्त (सूम १, २, उव)। १, १८ सुपा २३४)। (निचू १; प्राप्र कुमा)। ठाणिज देखो ठा। ठावर वि [स्थावर रहनेवाला, स्थायी (मच्तु | ठिर देखो थिर (अच्तु १; गा १३१ प्र)। ठाणिज विदे] १ गौरवित, सम्मानित (दे | ठिविअ न [दे] १ ऊर्ध्व, ऊँचा । २ निकट, ४, ५)। २ न. गौरव (षड्) iv ठाविअ वि [स्थापित स्थापित, रखा हुआ समीप । ३ हिक्का, हिचकी (दे ४, ६)। ठाणुकडिय । वि [स्थानोत्कटुक १ उत्क (ठा ३, १; श्रा १२ महा)। ठिव्व सक [वि + घुट ] मोड़ना। संकृ. ठाणक्कडयटक प्रासनवाला पिण्ह २, | ठावित्त वि [स्थापयितु] ऊपर देखो (ठा | ठिव्विऊण (सुपा १६) । १, भग)। २ न. प्रासन-विशेष (इक)। ठोण वि [स्त्यान] १ जमा हुआ (घृत मादि) ठाणु देखो खाणु। खंड न [°खण्ड] १ ठिअअ न [दे] ऊध्वं, ऊँचा (दे ४, ६)। । (कुमा)। २ ध्वनि-कारक, मावाज करनेस्थाणु का अवयव । २ वि. स्थाणु की तरह ठिइनी [स्थिति] १ व्यवस्था, क्रम, मर्यादा, | वाला । ३ न. जमाव । ४ भालस्य । ५ प्रतिऊँचा और स्थिर रहा हुमा, स्तम्भित शरीर- नियमः 'जयठिई एसा'(ठा ४.१७ उप ७२८ ध्वनि (हे १,७४, २, ३३)। वाला (णाया १,१-पत्र ६६)। टी)। २ स्थान, अवस्थान (सम २)। ३ । ठेठ पुन [दे] ढूंठा, हूँठ, स्थाणु (जं १)। ठाम (अप)। देखो ठाण (पिंग; सण)। अवस्था, दशा (जो ४८)। ४ प्रायु, उम्र, तुक सक [हा] त्याग करना। ठुक्का (प्राकृ काल-मर्यादा (भग १४, ५, नव ३१; पएण ठाय पुं [स्थाय] स्थान, आश्रय (सुख २, ४० प्रीप)। क्खय पुक्षय! आयु का ठेर पुंस्त्री [स्थविर] वृद्ध, बूढ़ा (गा ८८३ क्षय, मरण (विपा २, १)1 °पडिया देखो प्र, पि १६६); ठाव सक [स्थापय ] स्थापन करना, रखना। वडिया (कप्प)। बंध पु [बन्ध] 'पउरजुवाणो गामो, महुमासो ठावइ, ठावेइ (पि ५५३; कप्पा महा)। वकृ. कर्म-बन्ध की काल-मर्यादा (कम्म ४, ८२)। जोपणं पई ठेरो। ठावंत, ठावित (चउ २० सुपा ८८)। संकृ. वडिया स्त्री [ पतिता] पुत्र-जन्म-सम्बन्धी जुएणसुरा साहीणा, असई ठावइत्ता,ठावेत्ता (कसः महा) कृ. ठाएयव्व उत्सव-विशेष (णाया १,१)। . मा होउ किं मरउ ? (सुपा ५४५)। ठिक्क न [दे] पुरुष-चिह्न (दे ४, ५)। (गा १९७) । स्त्री. री (गा ६५४ प्र)।ठावण न [स्थापन] स्थापन, धारण (पंचा ठिकरिआ स्त्री [दे] ठिकरी, घड़ा का टुकड़ा | ठोड पुं[दे] १ जोतिषी, दैवज्ञ । २ पुरोहित । (श्रा १४)।. । (सुपा ५५२)। ॥ इस सिरिपाइअसहमहण्णवम्मि ठयाराइसहसंकलणो एगणवीसइमो तरंगो समत्तो।। ड पुंड] मूद्ध-स्थानीय व्यजन वर्ण-विशेष | वृश्चिक आदि डसा हो, 'जह सबसरीरगयं डंड न [दे] वन के सीए हुए टुकड़े (दे (प्रामाः प्राप)। विसं निरुभित्तु डंकमारिणति' (सुपा ६०६)। ४,७)। डओयर न [दकोदर] पेट का रोग-विशेष, | डंकिय देखो डक = दष्ट (वै ८९)। डंडगा स्त्री [दण्डका] दक्षिण देश का एक जलोदर (निचू १)। डंगा स्त्री [दे] डाँग, लाठी, यष्टि (सुपा २३८; प्रसिद्ध प्ररण्य-जंगल (सुख)। डंक [दे] १ डंक, वृश्चिक (बिच्छू) मादि का | ३८८ ५४६) डंडय ' [दे] रथ्या, महल्ला (दे ४, ८)। काँटा (पएह १,१)। २ देश-स्थान, जहाँ पर | डंड देखो दंड (हे १, १२५; प्राप्र)। | डंडारण्ण न [दण्डारण्य] दक्षिण का एक For Personal & Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ पाइअसद्दमहण्णवो डंडि-डाउ प्रसिद्ध जंगल, दण्डकारण्य (पउम ६८, डज्म ) डवडव भ[दे] ऊंचा मुंह कर के वेग से डझंत देखो डह ।। इधर-उधर गमन (चंड) डंडि। स्त्री [दे] सिले हुए वन-खण्ड (दे ४, डज्झमाण) डव्व [दे] वाम हस्त, बायाँ हाथ; गुजराती डंडी परह १,३) ड? देखो डक्क = दष्ट (हे १, २१७) V . में 'डाबो' (दे ४, ६) डंबर पुं[दे] धर्म, गरमी, प्रस्वेद (दे ४, ८) डड्ढ वि [दग्ध] प्रज्वलित, जला हुमा (हे डस देखो डंस । इसइ (हे १, २१८, पि डंबर पुं [डम्बर] प्राडम्बर, पाटोप (उप १, २१७ गा १४६) २२२) । हेकृ. डसिउं (सुर २, २४३)10 डड्ढाडी स्त्री [दे] दव-मार्ग, प्राग का रास्ता १४२ टी पिंग) डंभ देखो दंभ (हे १, २१७) । डसण न [दशन] १ दंश, दत से काटना डंभण न [दम्भन] दागने का शस्त्र-विशेष (हे १, २१७) । २ दाँत (कुमा) (विपा १, ६)। विशेष (दे ४, ७)। डसण वि [दशन] काटनेवाला (सिरि ६२०)। डंभण न [दम्भन वंचना, ठगाई (पव २)। डब्भ पुं[दर्भ] डाभ, कुश, तृण-विशेष (हे | डसिअ वि [दष्ट] डसा हुमा, काटा हुआ डंभणया। स्त्री [दम्भना] १ दागना । २ १,२१७)। (सुपा ४४६; सुर ६, १८५) डंभणा । माया, कपट, दम्भ, वञ्चना (उप डमडम प्रक [डमडमाय ] 'डम-डम' डह सक [दह. ] जलाना, दग्ध करना। पृ ३१५पएह २, १) आवाज करना, डमरू आदि का प्रावाज डहइ, डहए (हे १, २१८ षड् महा; उव)। डंभिअ [दे] जुआरी, जुए का खेलाड़ी (दे होना । वकृ, डमडमंत (सुपा १९३) भवि. डहि हिइ (हे ४, २४६)। कवकृ. डमडमिय वि [डमडमायित जिसने 'डम- डउभंत, डज्झमाण (सम १३७, उप पृ३३ डंभिअ वि [दाम्भिक] वञ्चक, मायावी, डम' आवाज किया हो वह (सुपा १५१, | सुपा ८५) । हेकृ. डहिउँ (पउम ३१, १७)। कपटी (कुमाः षड्)। ३३८)। कृ. डज्झ (ठा ३, २; दस १०)। डंस सक [दंश् ] डसना, काटना । डंसइ, डमर पुन [डमर] १ राष्ट्र का भीतरी या डंसए (षड्) डहण न [दहन] १ जलाना, भस्म करना बाह्य विप्लव, बाहरी या भीतरी उपद्रव डंस पुं[दंश क्षुद्र जन्तु-विशेष, डाँस, मच्छर (बृह १)। २ पुं. अग्नि, वह्नि माग (कुमा)। ३ (णाया १,१, जं २: पद ४; प्रौप)। २ (जी १८)। वि.जलानेवाला: 'तस्स सुहासुहडहणो प्रप्पा डंस पु[देश १ दन्त-क्षत। २ सपं आदि का कलह, लड़ाई, विग्रह (पएह १,२; दे ८, जलणो पयासेई' (पारा ८४) ३२)। काटा हुआ घाव। ३ दोष । ४ खंडन । ५ दाँत डहर पुं[दे] १ शिशु, बालक, बच्चा (दें ४, डमरुअ) पुंन [डमरुक] वाद्य-विशेष, ६ वर्म, कवच । ७ मर्म-स्थान (प्राकृ १५) पामः वव ३ दस ६,१; सून १,२, डमरुग, कापालिक योगियों के बजाने का डंसण पुन [दंशन] वर्म, कवच, 'डंसो १, २, ३, २१, २२, २३)। २ वि. लघु, बाजा, डमरू (दे २,८६; पउम ५७,२३; सुपा (प्राकृ १५) । छोटा, क्षुद्र (ोध १७८,२६० भा)। ग्गाम ३०६ षड्)। डक वि [दष्ट] डसा हुआ, दाँत से काटा हुआ पुं[प्राम] छोटा गाँव (वव ७)। डर अक[ स् ] डरना, भय-भीत होना। (हे २, २; गा ५३१)। डहरक [दे] वृक्ष-विशेष । २ पुष्प-विशेषः डरइ (हे ४, १९८) डक वि [दे] दन्त-गृहीत, दाँत से उपात्त (दे | 'डहरकफुल्लणुरत्ता भुंजंती तप्फलं मुसि' डर पुं[दर] डर, भय, भीति (हे १, २१७ (धर्मवि ६७)। सण) डक स्त्रीन [डक्क] वाद्य-विशेष (सुपा १६५) । डहरिया स्त्री [दे] जन्म से अठारह वर्ष तक डरिअ वि [त्रस्त] भय-भीत, डरा हुआ | की लड़की (वव ४)। डक्कुरिजंत वकृ [दे] पीडित होता हुआ | (कुमाः सुपा ६५५ सण)। | डहरी स्त्री [दे] अलिञ्जर, मिट्टी का घड़ा (दे (सूत्र० चू० गा० ३१५)। डल पुं[दे] लोष्ट, मिट्टी का ढेला (दे ४,७)। ४, ७) डगण न [दे] यान-विशेष (राज)। डल्ल सक [पा] पीना । डल्लइ (हे ४, १०) डाअल न [दे] लोचन, पाँख, नेत्र (दे ४,६). डगमग अक [दे] चलित होना, हिलना, डल्ल न [दे] पिटिका, डाला, डाली, बाँस डाइणी स्त्री [डाकिनी] १ डाकिनी, डायन, कापना । डगमगीति (पिंग)। डल्लग) का बना हुआ फल-फूल रखने का | चुडैल, प्रेतिनी । २ जंतर मंतर जाननेवाली डगल न [दे] १ फल का टुकड़ा (निचू १५)। | पात्र (दे ४, ७ आवम)। स्त्री (पएह १, ३, सुपा ५०५; स ३०७; २ ईंट, पाषाण वगैरह का टुकड़ा (ोष डल्ला स्त्री [दे] डाला, डाली (कूप्र २०६)। महा)। ३५६ ७८ भा)। डल्लर वि [पात] पीनेवाला (कुमा)। डाउ पुं[दे] १ फलिहंसक वृक्ष, एक जाति डग्गल पुं[दे] घर के ऊपर का भूमि-तल, | डव सक[आ + रम् ] आरम्भ करना, शुरू का पेड़। २ गणपति की एक तरह की छत (दे ४, ८)। ! करना । डवइ (षड्) प्रतिमा (दे ४, १२) For Personal & Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाग-डोंब पाइअसहमहण्णवो ३७३ डाग पुन [दे] भाजी, पत्राकार तरकारी (भग | डिंडुयाण न [डिण्डुयाण नगर-विशेष (कुप्र विशेष, जो पानी निकालने के काम में आता ७, १०२, दसा १; पव २)। है (दे ४, ११)। डाग न दे डाल, शाखा (प्राचा २,१००२)। डिफिअ विदे] जल-पतित, पानी में गिरा झुंडअपुंदे] १ पुराना घण्टा (दे ४,११)। डागिणी देखो डाइणी (१, ३, ४)। हुमा (दे ४, ६)। | २ बड़ा घण्टा (गा १७२)। डामर वि [डामर] भयंकर, 'डमडमियडमरुया- डिंब पुंन [डिम्ब] १ भय, डर (से २, १९)। डुंडुक्का स्त्री [दे] वाद्य-विशेष (विक्र ८७)। डोवडामरों (सुपा १५१)। २ पुं. स्वनाम- | २ विघ्न, अन्तराय (णाया १, १-पत्र ६; डंडुल्ल अक [भ्रम् ] घूमना, फिरना, चक्कर ख्यात एक जैन मुनि (पउम २०, २१)। प्रौप) । ३ विप्लव, डमर (जं २)। लगाना । डुडल्लइ ( पड्)। डामरिय वि [डामरिक] लड़ाई करनेवाला, डिंब पुं[डिम्ब] शत्रु-सैन्य का भय, पर-चक्र डंब पुंदे] डोम, चाण्डाल, श्वपच (दे ४, विग्रह-कारक (पएह १,२)। का भय (सूत्र २, १, १३)। ११,२,७३, ७,७६)। देखो डोंब (पव ६)। डाय न दे] देखो डाग (राज)। डिंभ अक [संस्] १ नीचे गिरना। २ डुजय न [दे] कपड़े का छोटा गट्ठा, वस्त्रडायाल न दि] हयं-तल, प्रासाद भूमि, ध्वस्त होना, नट होना । डिभइ (हे ४,१६७; खण्ड; "खिविउं वयणम्मि डुजयं अहयं, बद्धा छत (प्राचा २, २, १)। ___षड्) । वकृ. डिंभंत (कुमा ७, ४२)। रुक्खस्स थुडे (सुपा ३६६)। डाल स्त्रीन [दे] १ डाल, शाखा, टहनी (सुपा डिंभ पुंन [डिम्भ] बालक, बच्चा, शिशु डुल अक [दोलय ] डोलना, काँपना, हिलना। १४०; पंचा १६ हे ४, ४४५)। २ शाखा | (पाम हे १, २०२, महा; सुपा १६); 'अह डुलइ (पिंग)। का एक देश (प्राचा २, १, १०)। स्त्री. दुक्खियाई तह भुक्खियाइंजह चितियाई डुलि पुं[दे] कच्छप, कछुआ (उप पृ १३६)। 'ला (महा; पायः वजा २६), "ली (दे ४, डिभाई' (विवे १११)। ६ पञ्च १०; सरणः निचू १)। डुहुडुहुडुह अक [डुहडुहाय ] 'छह-छह डिभिया स्त्री [डिम्भिका] छोटी लड़की | आवाज करना, नदी के वेग का खलखलाना। डाव पुंदे] वाम हस्त, बांया हाथ, गुजराती (णाया १, १८)। में 'डाबो' (दे ४, ६)। वकृ. 'डुहुडुहुडुहंतनइसलिल' (पउम ६४, डिक्क अक [गर्ज ] साँड़ का गरजना। डाह देखो दाह (हे १, २१७) गा २२६ डिक्कइ (षड्)। कर | डेकुण पुं[दे] मत्कुण, खटमल, क्षुद्र कीट५३५; कुमा)। डिड्डर पुं[दे] भेक, मण्डूक, मेढ़क, बेंग (दे ४, विशेष (षड्)। डाहर पुं[दे] देश-विशेष (पिंग)। डेड डुर पुं[दे] दर्दुर, भेक, मण्डूक, मेढ़क, डाहाल पुंदे] देश-विशेष (सुपा २६३)। डित्थ पुंडित्थ] १ काष्ठ का बना हुआ बंग (षड्)। डाहिण देखो दाहिण (गा ७७७; पिंग)। हाथी । २ पुरुष-विशेष, जो श्याम, विद्वान्, डेर वि [दे] केकटाक्ष, नीची-ऊँची पाखवाला डिअली स्त्री [६] स्थूण, खंभा, खूटी (दे ४, सुन्दर, युवा और देखने में प्रिय हो ऐसा पुरुष (पिंग)। (भास ७७)। डेव सक [डिप् ] उल्लंघन करना, कूद डिंडव विदे] जल में पतित (षड्)। डिप्प अक [दीप ] दोपना, चमकना। जाना, अतिक्रमण करना। वकू. डेवमाण डिडि पुंदण्डिन्] राजकर्मचारी-विशिष्ट अधिकार-संपन्न (भव. वृ० कथा पत्र-४७०, डिप्पइ, डिप्पए (षड्)। डिप्प अक [वि+गल] १ गल जाना, सड़ श्लोक ४)। डेवण न [डेपन] उल्लंघन, अतिक्रमण (प्रोघ डिडिम न [डिण्डिम] डुगडुगी, डुग्गी, वाद्य जाना। २ गिर पड़ना। डिप्पड; डिप्पए डोअj[दे] काष्ठ का दाथा, दाल, शाक विशेष (सुर ६ १८१)। (षड्)। पादि परोसने का काष्ठ पात्र-विशेष गुजराती डिंडिम न [डिण्डिम] कासे का पात्र (प्राचा डिमिल न [दे] वाद्य-विशेष (विक्र ८७)। में 'डोयो' (दे ४, ११, महा)। २, १, ११, ३)। डिल्ली स्त्री [द जल-जन्तु-विशेष (जीव १)। डिडिल्लिअनदा१खलि-सचित वस्त्र, तैल- डिव सक [डिप ] उल्लंघन करना। डिव (वव डोअण न [दे] लोचन, अाँख (दे ४, ६)। किट्ट से व्याप्त कपड़ा। २ स्खलित हस्त (दे | १)। डोंगर देखो डुंगर (प्रोभा २० टी)। डीण विदे] अवतीर्ण (दे ४, १०)। डोंगिली स्त्री [दे] १ ताम्बूल रखने का भाजन डिंडि स्त्री [६] सिले हुए वस्त्र खण्ड (दे ४, डीणोवय न [दे] उपरि, ऊपर (दे ४, १०)। विशेष । २ ताम्बूलिनी, पान बेचनेवाले की ७)। बंध [°बन्ध] गर्भ-संभव (निचू डीर न [दे] कन्दल, नवीन अंकुर (दे४,१०)। स्त्री, तमोलिन (दे ४, १२) । ११)। डंगर दे] शैल, पर्वत, गुजराती में 'डुंगर' डोंगी स्त्री [दे] १ हस्तबिम्ब, स्थासक । २ डिंडीर पुन [डिण्डीर] समुद्र का फेन, समुद्र- । (दे ४, ११, हे ४, ४४५; जे २)। पान रखने का भाजन विशेष (दे ४,१३)। कफ (उप ७२८ टी; सुपा २२२)। । डुंघ पुं[दे] नारियल का बना हुआ पात्र- | डोंब [दे] १ म्लेच्छ देश-विशेष । २ एक For Personal & Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ पाइअसहमहण्णवो डोंबिलग-ढंढल्लिअ म्लेच्छ-जाति, डोम (पएह १, १, इक पव भूलना। २ संशयित होना, सन्देह करना। डोलायमाण देखो डोलाअंत (निचू १०)। ६)। ३ देखी डुंब (पास)। वकृ. डेलंत (अच्चु ६०)। डोलाविय वि [दोलित] कम्पित, हिलाया डोंबिलगा दे] १म्लेच्छ देश-विशेष । २ डोल पुं[दे] १ लोचन, पाख, नयना गुज- हुआ (पउम ३१, १२४)। डोंबिलय ) एक अनार्य जाति (पएह १, १; राती में 'डोलो' (दे४,६)। २ जन्तु-विशेष डोलिअ पुंदे] कृष्णसार, काला हिरन (दे इक)। ३ डोम, चाण्डाल (स २८६)। (बृह १)। ३ फल-विशेष (पंचव २)। ४, १२) बोल तारिदिय जीव की एक जाति डोलिर वि[ दोलावत् ] डोलनेवाला, काँपनेडोकरी स्त्री [दे] बूढ़ी स्त्री (कुप्र ३५३)। वाला; 'दरडोलिरसीस' (कुमा)। डोड [दे] ब्राह्मण, विप्र (सुख ३, १)। (उत्त ३६, १४८; सुख ३६, १४८)। डोल्लगग पु[दे] पानी में होनेवाला जन्तुडोडिणी स्त्री [दे] ब्राह्मणी (अनु० ६६ सूत्र)। डोला स्त्री दोला] हिंडोला, झूलना या झूला विशेष (सूत्र २, ३)। डोडिणी स्त्री [दे] ब्राह्मणी (अणु ४६) । (हे १, २१७; पाप)। डोव [दे] देखो डोअ (गदि उस पृ २१०)। डोड्ड पुं[दे] एक मनुष्य-जाति, ब्राह्मण डोला स्त्री [दे] डालो, शिविका, पालवी (दे | वी.वा पभा २७) •'दिदो तक्खणजिमिनो निग्गच्छंतो बहि डोड्डोः ४,११)। डोसिणी स्त्री [दे] ज्योत्स्ना, चन्द्र-प्रकाश, 'तो तस्सुदरं फालिम' (उप १३६ ठी)। डोलाअंत वि [दोलायमान] संशय करने- चांदनी ( षड्)। डोर पुं[दे] डोर, गुण, रस्सी (गा २११ वाला, ढुवाडोल (अच्चु ७)। डोहल पुं [दोहद ] १ गर्भिणी स्त्री का वजा ६६)। डोलाइअवि[दोलायित] संशयित, डॅवाडोला अभिलाष । मनोरथ, लालसा (हे १, २१७, डोल अक [ दोलय् ] १ डोलना, हिलना, | "भडस्स डोलाइ हिमश्र' (गा ६६६)। । (कुमा)। ॥ इन सिरिपाइअसद्दमहण्णवम्मि डयाराइसहसंकलणो वीसइमो तरंगो समत्तो।। ढ पुं [6] व्यन्जन वर्ण-विशेष, यह मूर्धन्य ढंकुग पुं[दे] मत्कुण, खटमल (दे ४, १४)। ढंढ पु[ढण्ढण] एक जैन महर्षि, ढाढण है, क्योंकि इसका उच्चारण मूर्द्धा से होता | ढंकुण पुंढ-कुण] वाद्य-विशेष (पाचा | ऋषि (सुख २, ३१) । है (प्रामाः प्राप)। २,१११)। ढंढ वि [दे] दाम्भिक, कपटी (सम्मत्त ३१)। ढंक दे] काक, वायस, कौमा ( दे ४, ढंख देखो ढंक = (दे) (पि २१३, २२३)। । ढंढण पुढण्ढन] स्वनाम-ख्यात एक जैन १३; जं २ प्राप: सण; भविः पाप्र) 'वत्थुल न [वास्तुल] शाक विशेष, एक ढंखर पुन [दे] फल पत्र से रहित डाल, मुनि (विवे ३२पडि)। | 'हँखरसेसोवि हु महुअरेण मुक्को ण मालई- ढंढणी स्त्री [दे] कपिकच्छ, केवाँच, वृक्षतरह की भाजी या तरकारी (धर्म २)। विडवों (गा ७५५; वज्जा ५२) ढंक पुं [ढङ्क] कुम्भकार-जातीय एक जैन विशेष (दे ४, १३)। उपासक (विसे २३०७)। ढंखरअ [ दे] ढेला। गु० ढेखारा (पाख्या- ढंढर पुं [दे] १ पिशाच । २ ईर्ष्या (दे ढंक देखो ढक्क । भवि. ढंकिस्सं (पि २२१)। नकम० को० नागश्री आख्यानक पत्र ४ पद्य ६१) ढंकण न [दे. छादन] १ ढकना, पिधान | ढंढरिअ पु[दे] कर्दम, पंक, कादा, काँदो (प्रासू ६० अणु) | ढंखरी स्त्री [दे] वीणा-विशेष, एक प्रकार की ढंकण देखो ढिंकुण (राज)। वीणा (दे ४, १४)। | ढंढल्ल सक [ भ्रम् ] घूमना, फिरना, भ्रमण ढंकणी श्री [दे. छादनी] ढकनी, पिघानिका, | ढंढ [दे] १ पंक, कीच, कर्दम, काँदो (दे | करना । ढंढल्लइ (हे ४, १६१) । ढकने का पात्र-विशेष (दे ४, १४)।- ४, १६)। २ वि, निरर्थक, निकम्मा (दे ४, ढंढल्लिअ वि [भ्रान्त] म्रान्त, घूमा हुमा ढंकि देखो ढक्किम (सिरि ५२९)। ।१६ भवि)। (कुमा)। For Personal & Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढंढसिअ-ढोअ पाइअसहमण्णवो ढंढसिअ [दे] १ ग्राम का यक्ष । २ गाँव दोष, बड़े स्वर से प्रणाम करना (गुभा २५)। ढिल्ल वि [दे] ढीला, शिथिल (पि १५०)। का वृक्ष (दे ४, १५)। ३ वि. वृद्ध, बूढ़ा; 'ढडर-सड्डाण मग्गेण । ढिल्ली स्त्री [ढिल्ली] भारतवर्ष की प्राचीन ढंढुल्ल देखो ढंढल्छ । ढंढुल्लइ (सण)। (साधं ३८)। और अद्यतन राज-धानी, दिल्ली शहर (पिंग)। ढंढोल सक [गवेषय ] खोजना, अन्वेषण ढणिय वि [ध्वनित] शब्दित, ध्वनित (सुर | | 'नाह पुं[नाथ दिल्ली का राजा (कुमा)। करना । ढंढोलइ (हे ४, १८६)। संकृ. | १३, ८४)। ढुंदुल्ल सक [भ्रम् ] घूमना, फिरना, चलना। ढंढोलिअ (कुमा)। ढमर न [दे] १ पिठर, स्थाली या थाली (दे | दुहुल्लइ (हे ४, १६१) । ढुठुल्लन्ति (कुमा)। ढंढोल्ल देखो ढुंदुल्ल । संकृ. ढंढोल्लिवि ४, १७ पात्र)। २ गरम पानी, उष्ण जल ढुंढुल्ल सक [गवेषय् ] हूँढ़ना, खोजना, (सण)। (दे ४, १७)। अन्वेषण करना । ढु'ढुल्लइ (हे ४, १८६)। ढंस अक [वि + वृत् ] धसना, धसकर ढयर पु [दे] १ पिशाच (दे ४, १६ दुंदुल्लग न [गवेषण] खोज, अन्वेषण (कुमा)।रहना, गिर पड़ना। ढंसइ (हे ४, ११८)। पाय) । २ ईर्ष्या, द्वेष (दे ४, १६) । दुंदुल्लिअ वि [गवेषित] अन्वेषित, ढूँढा हुमा वकृ, ढंसमाण (कुमा)। ढल अक [दे] टपकना, नीचे पड़ना, (पास)। ढंसयन [दे] अयश, अपकीति (दे ४,१४) गिरना। २ झुकना। वकृ ढलंत (कुमा); दुक्क सक [ढोक्] १ भेंट करना, अर्पण ढक्क सक [छादय् ] १ ढकना, आच्छादन ढलतसेयचामरुप्पीलो' (उप ६८६ टी)। करना। २ उपस्थित करना । ३ प्रक, लगना, करना, बन्द करना । ढक्कइ (हे ४, २१)। ढलिय विदे1 झुका हुमा (अ पृ११८)। प्रवृत्ति करना। ४ मिलना। वकृ. दुक्कंत भवि. ढक्किस्सं (गा ३१४)। क. 'डक्किढाल सक [दे] १ ढालना, नीचे गिराना । (पिंग)। कवकृ. दुक्कंत (उप १८६ टी; ज्जउ कूवाई (सुर १२, १०२)। संकृ. २ झुकाना, चामर वगैरह का वीजना। पिंग)। 'तत्थ ढक्किडं दार', ढक्किऊण, ढक्केढालए (सुपा ४७)। ढुक्क सक [प्र + विश] ढुकना, घुसना, ऊण (सुपा ६४०) महाः पि २२१)। कृ. ढलहलय वि[दे] मृदु, कोमल, मुलायम (वजा प्रवेश करना। ढुक्कइ (प्राकृ ७४) । ढक्केयव्य (दस २)। ११४)। दुक्क वि [दे. ढोकित] १ उपस्थित, हाजिर ढक्क पुं [ढक्क] १ देश-विशेष । २ देश- | ढलिय वि [दे] गिरा हुआ, स्खलित (वजा | (स २५१) । समालत (पिग)। ३ प्रवृत्ता विशेष में रहनेवाली एक जाति (भवि)। ३ वितिउं ढुक्को' (श्रा २७ सण भवि)। भाट की एक जाति (उप पृ ११२)। ढालिअ वि [दे] नीचे गिराया हमा, ढुक्कलुक्क न [दे] चमड़े से मढ़ा हया ढक्कय न [दे] तिलक (दे ४, १४)। 'सीसामो ढालिगो सूरो (सुर ३, २२८)। वाद्य-विशेष (सिरि.४२६) । ढक्करि वि [दे] अद्भुत, पाश्चर्य-जनक | ढाव पुं[दे] अाग्रह, निबन्ध (कुमा)। दुक्किअ वि [ढौकित] ऊपर देखो (पिंग)। दुम ) सक[भ्रम् ] भ्रमण करना, घूमना। (हे ४, ४२२)। | लिंक पुं [ढिङ्क] पक्षि-विशेष (पएह १, १ ढुस । ढुम ढुसइ (हे ४, १६१, कुमा)। ढक्कवत्थुल देखो ढंक-वत्थुल (पव ४)। पत्र ८)। दुरुतुल्ल देखो दुंदुल्ल = भ्रम् । वकृ. दुरुङल्लंत ढक्का स्त्री [ढक्का ] वाद्य-विशेष, रंका, लिंकण [दे] क्षुद्र जन्तु-विशेष, गौ (वजा १२८)। हिंकुध मादि को लगनेवाला कीट-विशेष नगाड़ा, डमरू (गा ५२६; कुमाः सुपा २४२)। ढेंक पुं [ ढेङ्क] एक जल पक्षी, पक्षि-विशेष (राव जी १८) ढक्किअ वि [छादित] बन्द किया हुआ, (वज्जा ३४)। ढिंकलीआ श्री [दे] पात्र-विशेष (सिरि ढंका स्त्री [दे] १ हर्ष, खुशी। २ ठेकुवा, आच्छादित (स ४६६ कुमा)। ४२६)। ढकि न [दे] बैल की गर्जना (अणु लॅकली, कूप-तुला (दे ४, १७)।ढिंग देखो ढिंक (राज) २१२; सुख ६, १)। ढेंकिय देखो ढिक्किय (राज)। ढिंढय वि [दे] जल में पतित (दे ४,१५)। ढग्गढग्गा स्त्री [दे] 'ढग-ढग' आवाज, ढेकी स्त्री [दे] बलाका, बक-पंक्ति (दे पानी वगैरह पोने की आवाजः 'सोरिणयं ढिक्क अक [गजे ] साँड़ का गरजना। ४, १५)। ढग्गढग्गाए घोट्टयंतो' (स २५७) । ढिक्कइ (हे ४, ६९)। वकृ. ढिक्कमाण ढेकुण पुं[दे] मत्कुण, खटमल (दे ४, १४)। (कुमा)। ढिअ वि [दे] धूपित, धूप दिया हुआ ढज्जंत देखो डज्मंत (पि २१२; २१९)। ढिक्कय न [दे] नित्य, हमेशा, सदा (दे डड्ढ पु [दे] भेरी, वाद्य-विशेष (दे ४, १५)। ढेणियालग। पुस्त्री [डेणिकालक] पक्षि| ढिक्किय न [गर्जन] साँड़ की गर्जना ढेणियालय विशेष (पएह १, १)। स्त्री. ढड्ढर पुं [ दे ] राहु (सुज्ज २०)। लिया (अनु ४)। ढड्ढर पु[दे] १ बड़ी प्रावाज, महान ध्वनि | ढिढिस न [ढिढिस] देव-विमान-विशेष | ढेल वि [दे] निधन, दरिद्र (दे ४, १६)।(प्रोध १५६) । २ न. गुरु-वन्दन का एक , (इक) । ढोअ देखो दुक्क = ढोक । ढोएज्जह (महा)। For Personal & Private Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ पाइअसद्दमहण्णवो ढोइय-णं ढोइय विढौकित] १ भेंट किया हुआ। २ ढोयणिया स्त्री [ढौकनिका] उपहार, भेंट ढोवग । न [ढौकन, क] १ भेंट करना, उपस्थित किया हुआ (महाः सुपा १६८ (धर्मवि ७१)। ढोवणय । अर्पण करना (कुमा)। २ उपहार, भवि) ढोल्ल पु[दे] प्रिय, पति (संक्षि ४७; हे भेंट (सुपा २८०) ढोघर वि [दे] भ्रमण-शील, घुमक्कड़, ४, ३३०) घूममेवाला (दे ४, १५)। ढोल्ल [दे] १ ढोल, पटह । २ देश विशेष, ढोविय वि [ढौकित] उपस्थापित, उपस्थित ढोयण देखो ढोवण (चेइय ५२: कुप्र १९८) जिसकी राजधानी धौलपुर है (पिंग) I किया हुआ (स ५०८)। ॥ इन सिरिपाइअसद्दमहण्णवम्मि ढयाराइसहसंकलणो एक्कवीसइमो तरंगो समत्तो। ण तथा न ण [ण, न] व्यञ्जन वर्ण-विशेष, इसका णई देखो गई (गउड; हे २, ६७; गा १६७ लाख से गुणने पर जो संख्या लब्ध हो वह उच्चारण-स्थान मूर्दा है, इससे यह मूर्धन्य | सुर १३, ३५) । (ठा २, ४; इक)। कहाता है (प्राप, प्रामा)। | णइअ वि[नयिक नय-युक्त, अभिप्राय-विशेष- णउअंग न [नयुताङ्ग] 'प्रयुत' को चौरासी णम [न] निषेधार्थक अव्यय, नहीं, मत वाला (सम ४०)।। से गुणने पर जो संख्या लब्ध हो वह (ठा २, (कुमाः गा २; प्रासू १५९)। उण, उणा, णइअ देखो णी = नी । ४; इक)। 'उणाइ, "उणोप [पुनः] न तु, नहीं णमासय न [दे] पानी में होनेवाला फल णउइ स्त्री [नवति] संख्या-विशेष, नब्बे, ६० कि (हे १, ६५ षड्)। संतिपरलोगवाइ विशेष (दे ४, २३)। (सम ६४)। वि [शान्तिपरलोकवादिन] मोक्ष और णउइय वि [नवत] १० वाँ (पउम ९०, | णइराय न नौरात्म्य आत्मा का प्रभाव । परलोक नहीं है ऐसा माननेवाला (ठा )। ३१) वाद पुं [वाद] आत्मा के अस्तित्व को ण स [तत् ] वह (हे ३, ७०; कुमा)। Jणउल पुं० [नकुल] १ न्योला, नेवला (परह नहीं माननेवाला दर्शन, बौद्ध तथा चार्वाक १,१; जी २२)।२ पाँचवाँ पाएडव (गाया. ण स [इदम्] यह, इस (हे ३, ७७ उप मत (धर्मसं ११८५)। ६६० गा १३१, १६६) १, १६)। णई स्त्री [नदी] नदी, पर्वत आदि से निकला णउल पुं [नकुल] वाद्य-विशेष (राय ४६)। ण वि [ज्ञ] जानकार, पण्डित, विचक्षण वह स्रोत जो समुद्र या बड़ी नदी में जाकर (कुमा २,८८) णउली स्त्री [नकुली] एक महौषधि (ती ५)। मिले (हे १, २२६; पात्र) । कच्छ पुं णअ देखो णव = नव (गा १०००; नाट | "उली स्त्री [नकुली] विद्या-विशेष, सर्प-विद्या [°कच्छ] नदी के किनारे पर की झाड़ी | चैत ४२) । दीअ ' [द्वीप] बंगाल का (णाया १,१)५°गाम पु[ग्राम] नदी | की प्रतिपक्ष विद्या (राज)। एक विख्यात नगर, जो न्याय-शास्त्र का केन्द्र के किनारे पर स्थित गाँव ( प्राणाहणं म[दे] इन प्रर्थों का सूचक अव्यय-१ गिना जाता है, जिसको आजकल 'नदिया' [नाथ] समुद्र, सागर (उप ७२८ टी) प्रश्न । २ उपमा (प्राकृ ७६) कहते हैं (नाट-चैत १२६) वइ पु [पति समुद्र, सागर (पएह १, णं अ. १ वाक्यालंकार में प्रयुक्त किया जाता णअंचर देखो णत्तंचर (चंड)। ३)। संतार पु[संतार] नदी उतरना, अव्यय (हे ४, २८३ उवाः पडि)।२ प्रश्नणइ स्त्री [नति १ नमन, नम्रता । २ अव- जहाज आदि से नदी पार जाना (राज) सूचक अव्यय, ३ स्वीकार-द्योतक अव्यय सान, अन्त (राय ४६) । "सोत्त पुं[स्रोतस् ] नदी का प्रवाह (राज)। णइ अ. १ निश्चय-सूचक भव्यय, 'गईए गई (हे (प्राप्र; हे १, ४)। णं (शौ) देखो जणु (हे ४, २८३)। २, १८४; षड्)। २ निषेधार्थक अव्यय; णउ (अप) देखो इव (कुमा)। णं (अप) देखो इव (हे ४, ४४४; भविः सण 'नइ माया नेय पिया' (सुर २, २०६)। णउअन [नयुत] 'नयुतांग को चौरासी | पडि)। For Personal & Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गअ -- मंदि अब [दे] रुद्ध रोका हुया (षड् ) Iv गंग पुं [दे] लंगर, जहाज को जल-स्थान में थामने के लिए पानी में जो रस्सी आदि डाली जाती है वह (उप ७२८ टी; सुर १३,१६३३ स २०२) । गर न [ लाङ्गल] हल, जिससे खेत जोता जंगल | और बोया जाता है (पउम ७२, ७३; परह १, ४ पाच ) । जंगल पुंन [] चचु, चांच, चोंच; 'जडाउरणो रुट्टो । नहणंगलेसु पहरइ, दसारणणं विउलवच्छयले' (पउम ४४, ४० ) । जंगल [] एक देव-विभाग (देवेन्द्र १३३) । गलिय पुं [लाङ्गलिक ] हल के आकार वाले शस्त्र - विशेष को धारण करने वाला सुभट (कप्पः श्रप) मंगूलन [लाल] पुण्छ, पूँछ (हा ४, २० १,२५६) लिवि [लाङ्गुलिन] १ लम्बी पूँछवाला २ पुं. वानर, बन्दर (कुमा) । जंगलि पुं [लाङ्गलिन्] बलभद्र, हली (कुमा) | विशेष (सम २९) सिंग न [शृङ्ग एक णंदयावन्त विमान (देवेन्द्र १३३) । २पुं. [नन्दायसे] १ एक देवदावत विमान (देवेन्द्र १३३) २५. चतुरिन्द्रिय जीव की एक जाति (उत्त ३६, १४८ ) । ३ न लगातार एक्कीस दिनों का उपवास (संबोध ५८ ) । णंदा स्त्री [नन्दा] १ भगवान् ऋषभदेव की एक पत्नी (पउम ३, ११९) । २ राजा श्रेणिक की एक पत्नी और अभयकुमार की माता ( गाया १.१ ) । ३ भगवान् श्री शीतलनाथ की माता (सम १५१) ४ भगवान् महावीर के श्रचलभ्रातृ नामक गणधर की माता (श्रावम) । ५ रावण की एक पत्नी ( पउम ७४, १० ) । ६ पश्चिम रुचक-पर्वत पर रहनेवाली एक दिपकुमारी देवी (ठा ८) ७ ईशानेन्द्र की एक महिषी की राजधानी (४२)। ८ स्वनाम ख्यात एक पुष्करिणी (ठा ४, ३) । । ज्योतिष शास्त्र में प्रसिद्ध तिथि विशेषप्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी तिथि (चंद १०) | गंदा स्त्री [दे] गो, गेया (दे ४, १८) । दावत [नन्दावर्त्त ] १ एक प्रकार का स्वस्तिक ( सुपा ५२ ) । २ क्षुद्र जन्तु की एक जाति ( जीव १ ) । ३ न देव-विमानविशेष (सम २) | गोलि [लागूलिन, क] १ गंगोलिय ) द्वीप - विशेष । २ उसका निवासी मनुष्य (पि १२७ ठा ४, २) । } तन [दे] वस्त्र, कपड़ा (कसः श्रव ५) । णंद अक [न] १ खुश होना, धानन्दित होना २ समृद्ध होगा। ए (ड्)। वह मंदिजमाण (धौप) कृ. मंदि अब अन्य (प) पाइअसद्दमहण्णवो वाला ( प ) 1 कंत न ["कान्त ] देवविमान - विशेष (सम २९ ) कूड न [कूट ] एक देव-विज्ञान (सम २१ मायन [ध्वज ] एक देव विमान (सम २६ ) 'पभ न [" प्रभ] देव-विमान- विशेष (सम २) मई ली [ती] [एक अन् साध्वी (प्रन्त २५; राज ) । मित्त पुं [*मित्र ] भरतक्षेत्र में होने वाला द्वितीय वासुदेव (सम १५४) । लेस न [ 'लेश्य ] एक देव - विमान (सम २९) । 'वई स्त्री [ती] १ सातवें वासुदेव की माता (पउम २०, १८६) । २ रतिकर पर्वत पर स्थित एक देव-नगरी ( दीव) 1 वण्णन [वर्ण] देव-विमान गूलि देखो गोलि (पव २६२) । - द स्त्री [नन्दा] पक्ष की पहली (प्रतिपदा), णंगोल देखो णंगूल (णाया १, ३ पि १२७ ) । षष्ठी और एकादशी तिथि ( सुख १०, १५) । द न [दे] १ ऊख पीलने या पेरने का काण्ड । २ कुएडा, पात्र विशेष (दे ४,४५) । दग पुं [नन्दक] वासुदेव का खड्ग (पह १.४) नंदण [नन्दन] १ पुत्र, सड़का (गा ६०२) । २ राम का एक स्वनाम -ख्यात सुभट (पउम ६७, १०) । ३ स्वनामख्यात एक बलदेव (सम ६३ ) । ४ भरतक्षेत्र का भावी सातवा वासुदेव (सम १५४ ) । ५ स्वनाम - प्रसिद्ध एक ी (उप ५५०) ६ शिक राजा का एक पुत्र (निर १,२ ) । ७ मेरु पर्वत पर स्थित एक प्रसिद्ध वन (ठा २, ३, इक ) । ८ एक चैत्य (भग ३, १) । ९ वृद्धि ( परह १, ४) । १० नगर विशेष (उप ७२८ टी) M कर वि [कर ] वृद्धि कारक । कूड न [कूट ] नन्दन वन का शिखर (राज) । भद्द [भद्र ] एक जैन मुनि (कप्पं ) । वण न [वन] १ स्वनाम -ख्यात एक वन जो मेरु णंद पुं [नन्द ] १ स्वनाम प्रसिद्ध पाटलिपुत्र नगर का एक राजा (मुद्रा १६८; गंदि) । २ भरत क्षेत्र के भावी प्रथम वासुदेव (सम १५४) । ३ भरत क्षेत्र में होने वाले नववें तीर्थंकर का पूर्व-भवीय नाम (सम १५४) । ४ स्वनाम - प्रसिद्ध एक जैन मुनि (पउम २०, २० ) । ५ स्वनाम -ख्यात एक श्रेष्ठी (सुपा ६३८) । ६ न. देव- विमान विशेष (सम २६ ) । ७ लोहे का एक प्रकार का वृत्त आसन (गाया १, १ – पत्र ४३ टी) । वि. समृद्ध होने ४८ देवमान (सम २१) "सिद्ध ["सृष्ट] 1 न देव-विमान- विशेष (सम २६) सिरी स्त्री [*श्री] स्वनाम - स्यात एक नवी ३७) ५ सेणिया स्त्री [सेनिका] एक जैन साप्पी ( अंत २५) । णंद! [नन्द ] गोप- विशेष, श्रीकृष्ण का पाल गोपाल ( वा १२२) । ३७७ पर्वत पर स्थित है (सम २ ) । २ उद्यानविशेष ( निर १, ५) णंदण पुं [ दे ] भृत्य, नौकर, दास (दे ४, १६ ) 1 णंदण पुंन [नन्दन] एक देव-विमान (देवेन्द्र १४३२ न. (दि ४२) णंदणा त्री [नन्दना ] लड़की, पुत्री (पान) । णंदणी स्त्री [नन्दनी] पुत्री, लड़की (सिरि १४०) णंदतणय ' [ नन्दतनय ] श्रीकृष्ण (प्राकृ २७) णंदमागग पुं. [नन्दमानक] पक्षी की एक जाति (परह ११) For Personal & Private Use Only मंदि पुंस्त्री [नन्दि] १ बारह प्रकार के वाद्यों का एक ही साथ आवाज ( परह २, ५, दि) । २ प्रमोद, हर्ष (ठा ५, २) । ३ मतिज्ञान आदि पाँचों ज्ञान (दि) । ४ वाञ्छित अर्थ की प्राप्ति । ५ मंगल (बृह १, श्रजि ३८ ) । ६ समृद्धि (श्रणु) । ७ जैन Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ पुं. आवत्त श्रागम ग्रंथ - विशेष (दि) । ८ अभिलाष चाह (सम ७१ ) । ग्राम की एक मूर्छना (ठा ७) । १० स्वनाम ख्यात एक राजकुमार (विपा १, १ ) । ११ एक जैन मुनि, जो अपने आगामी भव में द्वितीय बलदेव होगा ( पउम २०, ११० ) । १२ वृक्ष - विशेष (पउम २०, ४२ ) देखो यावत्त (इ) 1° उड्ढ एक प्राचीन कवि का नाम (कप्पू ) । रवि [क] मंगल-कारक (कप्पः गाया ११) गाम ["धाम] ग्राम-विशेष (उप ६१० मा १५ घोल [घोष] १ बारह प्रकार के वाद्यों की आवाज (दि) । २ न. देवविमान विशेष ( सम १७) पुण्यगन [चूर्णक] होठ पर लगाने का एक प्रकार का चूर्ण (सूत्र १, ४, २) तूर न [° तूर्य ] एक साथ बजाया जाता बारह तरह का वाद्य (बृह १) पुर न [ पुर] साण्डिल्य देश का एक नगर (उप १०३१ टी)। "फल पुं [फल] वृक्षविशेष (गाया १, ८१५) ५ भाग न [भाजन ] उपकरण विशेष (बृह १) । 'मित्त पुं ["मित्र ] १ देखो णंद- मित्त (राज)। २ एक राजकुमार, जिसने भगवान् मल्लिनाथ के साथ दीक्षा ली थी (गाया १, ८) मुरंग [द] एक प्रकार का मृदंग, वाद्य-विशेष (राय)) ॰मुद्द न [मुख] पक्ष-विशेष (राज) यर देखो कर (उम ११८, ११७) । यावत्त पुं [आवर्त्त] १ स्वस्तिक विशेष (श्रीपु; परह १, ४) । २ एक लोकपाल देव (ठा ४, १) । ३ क्षुद्र जन्तु विशेष ( पण १) ४ न. देवविमान - विशेष ( राज ) । राय पुं [राज ] पाण्डयों के समकालीन एक राजा (खावा १, १६ – पत्र २०८ ) । राय पुं [रांग ] समृद्धि में हर्ष (भग २, ५) ५ रुक्ख पु [" वृक्ष ] वृक्ष - विशेष (पराग १ ) । वड्ढणा देखो वद्धणा (इक) बद्ध पुं [वर्धन ] १ भगवान् महावीर का ज्येष्ठ भ्राता (कप्प ) । २ पक्ष-विशेष (क) एक राजकुमार ( विपा १, ६) । ४ न, नगर- विशेष (सुपा वा स्त्री [वर्धना] १ एक ८) वान्छा, गान्धार [वृद्ध] कर, ० पाइअसद्दमहणवो दिक्कुमारी देवी (ठा ८) २ एक करो (ठा ४, २) सेण ["पेण] ऐश्व बु वर्ष में उत्पन्न चतुर्थ जिन -देव (सम १५३) । २ एक जैन कवि (अजि ३८ ) । ३ एक राजकुमार (ठा १० ) ४ स्वनाम ख्यात एक जैन मुनि (ब) देव-वशेष (राज) "सेवा श्री [पेणा] पुष्करिणी विशेष (जीव ३) २ एक दिनकुमारी देवी (बी) - "सेणिया श्र ["पेणि] राजा श्रेणिक की एक पत्नी (अंत) सर ["स्वर] १ देखो दीसर (राज) २ बारह प्रकार के वाद्यों का एक ही साथ प्रावाज ( जीव ३ ) । मंदिअ न [दे] सिंह की चिल्लाहट, दहाड़ (दे ४, १६ ) 1मंदिअ नि [नन्दित] जैनमूनि विशेष ( कम )। दक्ख [] नदियोस ] [ नन्दिघोष] दिघोस पु (राय ४६) । दिज्जन [ नन्दीय ] जैन मुनियों का एक (कम्प । समुद्र (बीप) २ ४,१९)। नाव विशेष वाद्य + दि त्री [नन्दिनी] पुत्रौ, लड़की ( पउम ४९, २) पित्र ["पित] भगवान् महावीर का एक स्वनाम ख्यात गृहस्थ उपासक (उवा) 1 नंदिणी स्त्री [दे] गऊ, गैया, गाय (दे ४, १८० पात्र) णंदिल पुं [नन्दिल] श्रायेंमंगु के शिष्य एक जैनमुनि (दि ५०)। दिस्सर [नन्दीश्वर ] १ एक द्वीप २ नंदीसर एक समुद्र ( सुज १६) । ३ एक देव- विमान (देवेन्द्र १४४) गंदी देखो मंदि (महाः श्रोष ३२१ भा; परह १, १ औ सम १५२ ; गंदि ) । गंदी स्त्री [दे] गाय या पात्र) 1 ४, १ णंदोसर पुं [ नन्दीश्वर ] स्वनाम प्रसिद्ध एक द्वीप (गाया १, ८६ महा)। °वर पुं [वर] नन्दीश्वर-द्वीप (ठा ४, ३) वरोद पुं ["वरोद ] समुद्र- विशेष ( जीव ३ ) 1नंदुत्तर [नन्दोत्तर] देव-विशेष, नागकुमार के भूतानन्द-नामक इन्द्र के रच- सैन्य का अधिपति देव (ठा ५, १; इक) । वडिं ३ पुं | For Personal & Private Use Only दिअ - णक्खन्नण [क] एक देव - विमान (सम २६) णंदुत्तरा स्त्री [नन्दोत्तरा ] १ पश्चिम रुचक पर्वत पर रहनेवाली एक दिक्कुमारी देवी (ठा ८ इक) । २ कृष्णानामक इन्द्राणी की एक राजधानी ( जीव ३ ) । ३ पुष्करिणीविशेष (ठा ४, २) । ४ राजा श्रेणिक की एक पत्नी ( अंत ७) । णकार [णार नक्षर '' या 'न' अक्षर (दिवे २०१७) - णक्क पु [नक्र ] १ जलजन्तु- विशेष, ग्राह, नाका (पराह १, १, कुमा) । २ रावण का एक स्वनाम ख्यात सुभट (पउम ५६, २८) क्क पुं [दे] १ नाक, नासिका (दे ४, ४६३ विपा १, १३ औप ) । २वि मूक, वाचावाचा-शक्ति से रहित, गूँगा (दे ४, ४६ ) सिरा बी ["सरा ] नाक का छिद्र (पा) । णक्कंचर पुं [नक्तञ्चर ] १ राक्षस । २ चोर । ३ बिडाल । ४ वि. रात्रि में चलने फिरने१. १७७)। णक्ख पुं' [ नख] नख, नाखून (हे २,६६; प्रा) अवि [ज] नख से उत्पन्न ( गा १७१) आ["आयुध] सिंह, मृगारि (कुमा) । णक्खत न [नक्षत्र] कृत्तिका, पश्विनी, भरणी बादि ज्योतिष्क विशेष (पायः प् १०) दमण ' ["दमन] राक्षस वंश का एक राजा, एक लंकेश (पउम ५२६६मास ["मास] ज्योतिष शान में प्रसिद्ध समय-मानविशेष (r "मुह न ["मुख] यदि (रा "संवच्छर पुं [संवत्सर] ज्योतिष-शास्त्रप्रसिद्ध वर्ष विशेष (ठा ६) । णक्खत्त वि [ नक्षत्र ] १ क्षत्रिय जाति के प्रयोग्य कार्य करनेवाला (धर्मवि ३ ) । २ न. एक देव-विमान न्द्र १४२) - णक्खत्त वि [नाक्षत्र ] नक्षत्र-सम्बन्धी, नक्षत्र का (७) । - क्वतमि [दे. नक्षत्रनेमि ] विष्णु, नारायण (दे ४, २२) । क्खन्नण न [] नख और कटक निकालने का शस्त्र - विशेष (बृह १) । ~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णक्खि-डिअ पाइअसहमहण्णवो ३७६ सुपा १६) | णचा ? देखो णा = ज्ञा। बाल, कोतवाल पाया थापा १, १८ लाल (णाया (निचू ४) नर्तन-शील णक्खि वि [नखिन्] सुन्दर नखवाला (बृह | २, ७५; ३, ७७) । हेकृ. णश्चिउं (गा णट्टर वि [नर्तक नाचनेवाला, नचवैया ३६१) कृ. णश्चियव्व (पउम ८०, ३२)। णट्टग (प्राप्राणाया १,१; औप)। स्त्री. णख देखो णक्ख (कुप्र ५८)। प्रयो. कवकृ. णचाविजत (स २६) ई (प्राप्र; हे २, ३० कुमा)। णग देखो णय = नग (पराह १, ४. उप ३५६ णञ्च न [ज्ञत्व] जानकारी, पण्डिताई (कुमा)। णट्टार पुं [नाट्य कार] नाट्य करनेवाला टी; सुर ३, ३४) । राय पुं [राज] मेरु | णच न [नृत्य नाच, नृत्य (दे ५, ८)। पर्वत (ठा ६)। [°वर] पुं [वर] श्रेष्ठ णञ्चग वि नर्तक] १ नाचनेवाला। पुं. नट, गट्टाबअ वि [नर्तक नचानेवाला (कप्पू)। पर्वत (गाया १, १) । वरिंद पुं°वरेन्द्र] नचवैया (वव ६)। णट्टिया स्त्री [नर्तिका] नटी, नर्तकी, नाचनेमेरु-पर्वत (पउम ३, ७६)। णचण न [नर्तन नाच, नृत्य (कप्पू)। वाली स्त्री (महा)। णगर न [नकर, नगर] शहर, पुर (बृह १ णचणी स्त्री [नर्तनी] नाचनेवाली स्त्री (कुमा, णट टुमत्त पुन मत्त स्वनाम-ख्यात एक कप्प; सुर ३, २०) गुत्तिय, गोत्तिय पुं विद्याधर (महा)। [गुप्तिक नगर रक्षक, कोटपाल, कोतवाल, ण? [नष्ट] एक नरक स्थान (देवेन्द्र २८) । | णवाणखाणा शा। दरोगा (गाया १,१८ औप; पएह १, २; २ न. पलायन (कुप्र ३७) । णचाविअ वि [नर्तित नचाया हुमा (प्रोष णाया १, २)। घाय [घात शहर में णट्र वि [नष्ट] १ नष्ट, अपगत, नाश-प्राप्त २६५; ठा ६)। लूट-पाट (णाया १, १८)। "णिद्धमण न (सूम १, ३, ३; प्रासू ८६) । २ पुंन. अहो[निर्धमन] नगर का पानी जाने का रास्ता, णचासन्न न [नात्यासन्न] अति समीप में रात्र का सतरहवाँ मुहूर्त (राज)। सुइअ वि मोरी, खाल (णाया १, २)। रक्खिय पुं नहीं (पाया १,१)। [ श्रुतिक१ जो बधिर-बहरा हुआ हो [रक्षिक] देखो 'गुत्तिय (निच ४) णञ्चिर वि [नर्तित] नचवैया, नाचनेवाला, (णाया १,१-पत्र ६३)। २ शास्त्र के वास पुं [वास] राजधानी, पाटनगर | नर्तन-शील (गा ४२०; सुपा ५४, कुमा)। वास्तविक ज्ञान से रहित (राज)। (जं १-पत्र ७४)। णच्चिर वि [दे] रमण-शील (दे ४, १८)। णव वि [नष्टवत् ] १ नाश-प्राप्त । २ न. णगरी देखो णयरी (राज)। णच्चुण्ह वि [नात्युष्ण जो अति गरम न | अहोरात्र का एक मुहूर्त (राज)।" णगाणिआ स्त्री [नगाणिका] छन्द-विशेष | हो (ठा ५, ३)। णड अक [गुप्] १ व्याकुल होना। २ (पिंग)। णज सक [ज्ञा] जानना । गज्जइ (प्राप्र)। सक. खिन्न करना। एडइ, गडति (हे ४, णगिंद पुं [नगेन्द्र] १ श्रेष्ठ पर्वत (पउम णज वि [न्याय्य न्याय-संगत (प्राकृ. १६) १५०; कुमा)। कर्म. एडिजइ (गा ७७)। ६७, २७)। २ मेरु पर्वत (सूम १, ६)। कवकृ. णडिज्जत (मुपा ३३८) । णगिण वि [नन] नंगा, वस्त्र-रहित (प्राचा णजमाग णड देखो णट्ट = नट् । गडइ (प्राकृ ६६). उप पृ ३६३)। णजर वि [दे] मलिन, मैला (दे ४, १९) णड देखो णल = नड (हे २, १०२)। णग देखो णग (तंदु ४५)। णभर वि [दे] विमल, निर्मल (दे४, १९)। णड पुं[नट] १ नर्तकों की एक जाति, नट णग्ग वि [नग्न] नंगा, वस्त्र-रहित (प्रातः दे (हे १, १६५, प्राप्र)। ४, २८)। "इ णट्ट अक [नट 1१ नाचना । २ सक. हिंसा खाइया स्त्री [ जित् ] गधार देश करना । गट्टइ (हे ४, २३०)। [खादिता] दीक्षा-विशेष, नट की तरह का एक स्वनाम-ख्यात राजा (प्रौपः महा)। णग्गठ विदे] निर्गत, बाहर निकला हुना णट्ट पुं[नट] नर्तकों की एक जाति; 'रणच्चंति कृत्रिम साधुपन (ठा ४, ४)। गट्टा पभरणंति विप्पा' (रंभा: सणः कप्प)। डालनालला भाल, कपाल (ह १,४७, (षड्-पृष्ठ १८१)। णट्ट न [नाट्य] नृत्य, गीत और वाद्य, २५७; गउड)। गग्गोह पुं [न्यग्रोध] वृक्ष-विशेष, बड़ का नट-कर्म (णाया १, ३, सम ८३)। पाल णडालिआ स्त्री [ललाटिका] ललाट-शोभा, पेड़ (पाप; सुर १, २०५)५ परिमंडल न पुं [पाल] नाट्व-स्वामी, सूत्रधार (प्राचू कपाल में चन्दन आदि का विलेपन (कुमा)। [परिमण्डल] संस्थान-विशेष, शरीर का १)1°मालय [मालका देव-विशेष, णडाविअ वि [गोपित] १ व्याकूल किया प्राकार-विशेष (ठा ६)। खण्डप्रपात गुहा का अधिष्ठायक देव (ठा २. हुमा । खिन्न किया हुआ (सुपा ३२५) ।। णघुस पुं[नघुष] स्वनाम-ख्यात एक राजा ३) अरिअ पुं [चायें] सूत्रधार णडि वि गुपित] व्याकुल (से १०, ७०; (पउम २२, ५५)। (मा ४)। सण) । णचिरा देखो अइरा= अचिरात् (पि ३६५)।-ण नृत्या नाच, नृत्य (से १,८, कप्पू) डिअ विदे] १ वञ्चित, विप्रतारित (दे णञ्च प्रक [नृत् ] नाचना, नृत्य करना। णट्टअ न [नाट्यक] देखो णट्ट = नाय ४१६)। २ खेदित, खिन्न किया हुमा (दे णच्चइ (षड् ) वकृ. णचंत, णञ्चमाण (सुर । (मा ४)। ४,१६, पानः गाया १,६) णजंत देखो णा = ज्ञा । For Personal & Private Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० गढी श्री [नदी] नट की श्री (गाडा ६) २ लिपि विशेष (जिसे ४६४ टी) ३ नाचनेवाली स्त्री (बृह ३ ) 1 डुली स्त्री [दे] कच्छप, छु (दे ४,२० ) N णडूल न [ नड्डुल ] १ नगर विशेष (मोह ८८) । २ पुं. देश-विशेष ( ती १५ ) 1 [जी] [[]] नेक, मेग (३४,२०) [दे] रख मैथुन ९ दुदिन, मेघाच्छन दिवस (दे ४, ४७) ड डुली देखो णडुली (दे ४, २०) 1 दात्री [ननान्] पति की बहिन, ननद (1.1) 1 णु [ ननु ] इन ग्रंथों का सूचक श्रव्यय१ अवधारण, निषय (प्रा १६११) । २धाका ३४ प्रश्न (उष सरण प्रति ५५ ) । णण्ण पुं [दे] १ कूप, कुआँ। २ दुर्जन, खल । ३ बड़ा भाई (दे ४, ४६ ) । णत्त न [नक्त ] रात्रि, रात (चंद १०) | पत्त देखो 'निवेशयनियनियुक्त परिपुत्तनतपुत्ती (मुवा ६) णत्तंचर देखो णकंचर (कुमा; पि १७० ) । णत्तण न [ नर्तन] नाच, नृत्य (नाट - शकु ८०) । णत्ति स्त्री ६७ टी) 1 [ज्ञप्ति ] ज्ञान ( धर्मसं ८२८, दि णन्ति पुं [नप्तृक] १ पौत्र, पुत्र का पुत्र पोता । २ दौहित्र, पुत्री का पुत्र, नाती ( हैं १. १२७ कुमा।. पतिआ } स्त्री [नत्री ] १ पुत्र की पुत्री, णती पौत्री (कुमा) । २ पुत्री की पुत्री, नातिन, नतिनी (राज) 1 णन्तु 4 [मप्लू, क] देखो णत्तिअ तुअ (निर २, ११, १३७, सुपा १६२: विपा १, ३) । देखो णत्तिआ (बृह १; विपा १,२ ) । पाइअसद्दमहो नढी-मि णणिआ देखो णतिभा ( ७.१५) १५) । णप्प सक [ज्ञा] जानना । गुप्पद (प्रात्र) 1 त्थ वि [ न्यस्त] स्थापित, निहित ( णाया णभ देखो णह = नभस् (हे १, १८७ कुमा १, १ ३; विसे ε१६) । वसु) 1 णत्थण न [दे] नाक में छिद्र करना (सुर णभसूश्य पुं [ नभःशूरक ] कृष्ण पुलविशेष, राहु ( सुख २० ) IV १४, ४१) । त्था स्त्री [दे] नासा-रज्जु, नाथा या नाथ (३४, १७० उवा 1 स्थि[स्] [भावक व्यय । (सप्प उवा सम्म ३९ ) - सुआ । णी [क] १ पौत्र की श्री २ दौहित्र की स्त्री ( विपा १, ३) । तुई देखो णत्ती ( विपा १, ३ कप्प तुणि [न] १ पौष, पोता २ प्रपौत्र परपोता (दस ७, १८) । णत्थि वि [ नास्तिक ] १ परलोक श्रादि नहीं माननेवाला (प्रा) २. नास्तिकमत का प्रवर्तक, चार्वाक वाय पुं. [वाद] नास्तिक दर्शन (उप १३२ टी) । णत्थियवाद दि [नास्तिकयादिन] धात्मा आदि के अस्तित्व को नहीं माननेवाला (धर्मवि ४) IV [न] नाद करना, श्रावाज करना । वकृ. णदंत (सम ५० नाट - मृच्छ १५५) । पद [न] नादावाद गवां मझे विस्सरं नयई नद' (सम ५० ) । नदी देखो गई (से ६, ६५; पण ११) । णहिअ वि [दे] दुःखित (दे ४, २० ) I दिअ न [ नर्दित] घोष, आवाज, शब्द (राज) - वि [न] १ परिहित, प्राच्छादित (गा ५२० प ७,१२ सुपा १५५) २ निबन्त्रित, बँधा हुआ (सुपा ३५५)। । वि [न] कवचित, वर्मित (धर्मवि ४) । णद्ध वि [दे] प्रारूढ़ (दे ४, १८ ) 1 बवय न [ दे] १ श्रघृणा, घृणा या धिन का अभाव । २ निन्दा (दे ४, ४७) णपत [अप्रभूत] [परांत परिपूर्ण रवि अपर्याप्त, पत[ अप्रभवत् ] [पय] होता (ग) 1 पुंसन [नपुंसक] नपुंसक, स्लीव, पुंसंग नाम बंड (घोष २१ श्रा १६ नामर्द, (श्रोघ णपुंसय ठा ३, १ सम ३७: महा) । वैय [वेद] कर्म-विशेष, जिसके उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के स्पर्श की वाळछा होती है (ठा) 1 For Personal & Private Use Only [नम् ] नमन करना, प्रणाम करना । मामि (भग)। वकृ. णमंत, णममाण ( पि ३६७; आचा) । कवकृ णभिज्जंत (६, २५) . णमिण, णमिऊणं, णमेऊण (जो १; पि ५८५; महा) । कृ. णमणिन, णमिवम्बर ४६० उप २११ टी पउम ६, २१) । संकृ. णमिअ ( कम्म ४, १) 1 मंस तक [ नमस्यू ] नमन करना, नमस्कार करना । मंसइ (भग) । वकृ. णमंसमाण (गाया १ १० भग ) । संकृ. णमंसित्ता (ठा ३, १० भग) । हेकु. णमंत्तिए (आ) कृ णमंसणिज, णमंसियव (श्रीप सुपा २५ ४६) - णमंसण न [ नमस्यन ] नमन, ( पनि ५.भग 1 णमंसणया णमंसणा नमस्कार श्री [नमस्यना] प्रणाम, सिवि [ नमस्थित ] जिसको नमन किया गया हो वह (पह२, ४) । - णमकार देखो णमोकार (उप३०६)। [मन] प्रति प्रणाम, नमना (दे ७, १६: रयण ४६ ) । णमसिअ न [दे] उपयाचितक, मनौती (दे ४, २२) । मि [नमि] १ स्वनाम-क्यात एकीसवा जिन देव (सम ४३ ) । २ स्वनाम - प्रसिद्ध राजर्षि (उत्त ३९ ) । भगवान् ऋषभदेव का एक पौत्र (धरण १४ ) 1 णमिअवि [न] प्रव, जिसने नमन किया हो वह 'पडिवक्खरायाणो तस्स राइणो मिया (महा) 1 णमिअ वि [ नमित ] नमाया हुआ (गा (80) M णमिअ देखो णम । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमिआ–णरय पाइअसहमहण्णवो ३८१ णमिआ स्त्री [नमिता] १ स्वनाम-ख्यात एक | के अनेक धर्मों में किसी एक को मुख्य रूप से | [नाथ] राजा, भूपाल (सुपा ६; सुर १, स्त्री। २ 'ज्ञाताधर्मकथासूत्र' का एक अध्ययन स्वीकार कर अन्य धर्मों की उपेक्षा करनेवाला ___६१)4 °पहु पुं [प्रभु राजा, नरेश (उप (णाया २) मत, एकांश-ग्राहक बोध (सम्म २१; विसे ७२८ टी; सुर २, २४) 'पौरुसि पुं णमिर वि [नम्र नमन करनेवाला (कुमा; ६१४० ठा ३, ३)। ५ विधि (विसे ३३६५) [पौरुषिन् राज-विशेष (उप ७२८ टी) सुपा २७ सण)। 'चंद पुं['चन्द्र] स्वनाम-ख्यात एक जैन लोअपु[लोक मनुष्य लोक (जी २२; णमुइ पुं[नमुचि] स्वनाम-ख्यात एक मन्त्री ग्रन्थकार (रंभा)1 °स्थि वि [°ार्थिन] सुपा ४१३) वइ [पति नरेश, राजा (महा)। न्याय चाहनेवाला (श्रा १४)। °व, वत वि (सुर १, १०४)। °वर पु[°वर] १ राजा, णमुदय पुं [नमुदय] माजीविक मत का | [वत् ] नीतिवाला, न्याय-परायण (सम नरेश (सुर १, १३१, १५, १४)। २ उत्तम एक उपासक (भग ५, १०)। ५० सुपा ५४२), "विजय पु[विजय] पुरुष (उप ७२८ टो)°वरिंद [वरेन्द्र] णमेरु पु [नमेरु] वृक्ष-विशेष (सुर ७, १६; विक्रम की सतरहवीं शताब्दी के एक जैन मुनि, राजा, भूमि-पति (सुपा ५६; सुर २, १७६)४ स ६३३)। जो सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री यशोविजयजी के गुरू ___ वरीसर पुं[वरेश्वर श्रेष्ठ राजा (उत्त णमो नमस् ] नमस्कार, नमन (भगः थे (उवर २०२) १८)1 °वमभ, वसह पुं [वृषभ] १ कुमा)। णयचक्क न [नयचक्र] एक प्राचीन जैन | देखो उसभ (पराह १, ४, सम १५३)। णमोकार पुं [नमस्कार] १ नमन, प्रणाम | प्रमाण-ग्रन्थ (सम्मत्त ११५)।. २ राजा, नृपति (पउम ३, १४) ३ . (हे १, ६२, २, ४)। २ जैन-शास्त्र में प्रसिद्ध णयण न [नयन] १ ले जाना, प्रापण (उप | हरिवंश का एक स्वनाम-प्रसिद्ध राजा (पउम एक सूत्र-मन्त्र-विशेष (विसे २८०५) १३४)। २ जानना, ज्ञान । ३ निश्चय (विसे २२, ६७) ५ वाल पुं [पाल] राजा, 'सहिय न [ सहित] प्रत्याख्यान-विशेष, ९१४)। ४ वि. ले जानेवालाः 'वयणाई भूपाल (सुपा २७३) वाहण पुं[वाहन] व्रत-विशेष (पडि) सुपहनयणाई' (सुपा ३७७)। ५ पुन, आँख, स्वनाम-ख्यात एक राजा (पाक १; सण) णमोयार देखो णमोकार (चंड)। नेत्र, लोचन (हे १, ३३, पान)। जल न "वेय पुं[वेद] पुरुष वेद, पुरुष को स्त्री के [जल] अश्रु , अाँसू (पान)। स्पर्श की अभिलाषा (कम्म ४)। सिंघ, णम्म पुंन [नर्मन] १ हाँसी, उपहास । २ णयय पुं[दे. नवत] ऊन का बना हुआ क्रीड़ा, केलि (हे १, ३२ श्रा १४ दे २, "सिंह, सीह पुं["सिंह] १ उत्तम पुरुष, ६४, पाम)। आस्तरण-विशेष (णाया १,१-पत्र १३)। श्रेष्ठ मनुष्य (सम १५३; पउम १००, १६)। २ अर्ध भाग में पुरुष का णयर देखो णगर (हे १, १७७; सुर ३, २० णम्मया स्त्री [नर्मदा] १ स्वनाम प्रसिद्ध नदी और प्रधं भाग में सिंह का आकारवाला, श्रीकृष्ण, नारायण (सुपा ३८०)। २ स्वनाम-ख्यात एक राज- औपः भग)। (णाया १, १६सुंदर [सुन्दर] स्वणयरंगणा स्त्री [नगराङ्गना] वेश्या, गणिका पत्नी (स ५)। नाम-ख्यात एक राजा (धम्म) (श्रा २७)। णय देखो णद = नद्ः 'विस्सरं नयई नदं' हिव पुं णयरी स्त्री [नगरी] शहर, पुरी (उपाः पउम [धिप] राजा, नरेश (गा ३६४७ सुपा (सम ५०)। ३६, १००)। २५)। णय पुं [नग] १ पहाड़, पर्वत (उप पु २५६; णर [नर] १ मनुष्य, मानुष, पुरुष (हे १, णरइंदय पुं [नरकेन्द्रक] नरक-स्थान-विशेष सुपा ३४८)। २ वृक्ष, पेड़ (हे १, १७७)। २२६; सूत्र १, १, ३)। २ अर्जुन, मध्यम | (देवेन्द्र १) देखो णग। पाण्डव (कूमा)। "उसभ पुं [वृषभ] णरकंठy निरकण्ठ] रत्न की एक जाति णय अ [नच] नहीं (उप ७६८ टी)। श्रेष्ठ मनुष्य, अंगीकृत कार्य का निर्वाहक पुरुष (राय ६७) . णय [नत] १ नमा हुअा, झुका हुआ, प्रणत, (प्रौप) कंतप्पवाय पुं [कान्तप्रपात नम्र (णाया१,१)। २ जिसको नमस्कार किया हृद-विशेष (ठा २,३) । कता स्त्री [कान्ता] स णरसिंह पु [नरसिंह] १ बलदेव, 'तत्तो गया हो वह 'नीसेसवियडपडिवक्खनयकमो नदी-विशेष (ठा २, ३; सम २७)। कता लोयम्म बलदेवो नरसिंहो त्ति पसिद्धो (कुप्र विक्कमो राया'(सुपा ५६६)। ३ न. देवविमान- | कूड न [कान्ताकूट ] रुक्मि पर्वत १०३) । २ एक राजकुमार (कुप्र १०६)। विशेष (सम ३७) सच्च पुं [सत्य] का एक शिखर (ठा ८) दत्ता स्त्री णरगनरक] नारक जीवों का स्थान श्रीकृष्ण, नारायण (अच्चु ७)। [दत्ता] १ मुनि-सुव्रत भगवान् की णरय (विपा १, १, पउम १४, १६; श्रा णय पुनय] १ न्याय, नीति (विसे ३३६५; शासनदेवी ( राज) २ विद्यादेवी-विशेष ३; प्रासू २९; उव)। 'वाल, वालय सुपा ३४८ स ५०१)। २ युक्ति (उप ७६८)। (सति ५) : देव पुं[देव] चक्रवर्ती राजा पुं[पाल, क] परमाधार्मिक देव, जो नरक ३ प्रकार, रीतिः 'जलणा वि घेप्पई पवणा (ठा ५, १) नायग पुं [ नायक] राजा, के जीवों को यातना (पीड़ा) देते हैं (पउम अयगो य केणइ नएण' (स ४५४)। ४ वस्तु नरपति ( उप २११ टी)। 'नाह पुं, २६, ५१८, २३७) । For Personal & Private Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ पाइअसद्दमहण्णवो णराच-वरंगय णराच! पुन [नाराच १ लोहमय बाण। णलाडंतव वि [ललाटन्तप] ललाट को | नव योजन का परिमाणवाला (ठा ) णराअ२ संहनन-विशेष, शरीर की रचना तपानेवाला (कुमा)। 'णउइ, 'नउइ स्त्री [ नवति] संख्या-विशेष, का एक प्रकार (हे १,६७)। ३ छन्द-विशेष | णलिअन [दे] गृह, घर, मकान (दे ४, । निन्यानबे, ६९ (सम ६६, १००)। 'नज्य (पिंग)। २० षड्) वि [नवत ९६ वाँ (पउम ६६, ७५)। णरायण [नारायण] श्रीकृष्ण, विष्णु | लिण न [नलिन] १ लगातार तेईस दिन का 'नवइ देखो णउइ (कम्म २, ३०) ।। (पिंग)। । उपवास (संबोध ५८)। २ पुंन. एक देव- 'नवमिया स्त्री [नवमिका] जैन साधु का णरिंद पुं नरेन्द्र] १ राजा, नरेश (सम विमान (देवेन्द्र १३२) । व्रत-विशेष (सम ८८) । म वि [°म १५३; प्रासू १०७, कप्प)। २ गारुड़िक, णलिण न [नलिन] १ रक्त कमल (रायः नववा (उवा)।°मी स्त्री [ मी] तिथि-विशेषः सर्प के विष को उतारनेवाला (स २१६)। चंद १० पाप्र)। २ महाविदेह वर्ष का एक पक्ष का नववा दिवस (सम २६)1°मीपक्ख कत न [कान्त] देव-विमान-विशेष (सम | विजय, प्रदेश-विशेष (ठा २, ३)। ३ पुं[मीपक्ष] आठवाँ दिन, अष्टमी (जं ३)। २२) पह पुं[पथ] राज-मार्ग, महापथ 'नलिनांग' को चौरासी लाख से गुणने पर जो णवकार देखो णमोकार (सट्टि १; चैत्य ३०; (पउम ७६, ८) । वसह पुं [वृषभ] श्रेष्ठ संख्या लब्ध हो वह (ठा २, ४, इक) । ४ सण)। राजा (उत्त ६) देव-विमान विशेष (सम ३३; ३५)। ५ णवकारसी स्त्री [नमस्कारसहित] प्रत्याणरिंदुत्तरवडिसग न नरेन्द्रोत्तरावतंसक] रुचक पर्वत का एक शिखर (दीव)कूड ख्यान-विशेष, व्रत-विशेष (संबोध ५७)। देव-विमान-विशेष (सम २२) । [ कूट] वक्षस्कार-पर्वत-विशेष (ठा २, णवख (प्रप ) वि [नव अनोखा, नूतन, नया णरीस [नरेश राजा, नरपतिः 'सो भर ३) गुम्म न [गुल्म] १ देव-विमान- (हे ४, ४२२)। स्त्रीःखी (हे ४, ४२०)। हद्धनरीसो होही पुरिसो न संदेहो' (सुर १२, विशेष (सम ३५) । २ नृप-विशेष (ठा ८)। णवणीअ पुन [नवनीत] नयनू, मक्खन, मसका ३ अध्ययन-विशेष (प्राव ४) । ४ राजा (कप्प; औप; प्रामा); 'अणलहअोव्व नव८०)। णरीसर पुं [नरेश्वर राजा, नरपति (पजि श्रेणिक का एक पुत्र (राज)। वई स्त्री णीयो' (पउम ११८, २३)। [वती] विदेह वर्ष का एक विजय, प्रदेश णवणीइया स्त्री [नवनीतिका] वनस्पति विशेष (ठा २, ३)। णरुत्तम पु [ नरोत्तम ] श्रीकृष्ण (सिरि - विशेष (पएण १) णलिणंग न [नलिनाङ्ग] संख्या-विशेष, पद्म णवपय न [नवपद] नमस्कार-मन्त्र (सिरि ४२)। को चौरासी लाख से गुरणने पर जो संख्या | ५७६) णरुत्तम पुं[नरोत्तम] उत्तम पुरुष (पउम लब्ध हो वह (ठा २, ४ इक)। णवमालिया स्त्री [नवमालिका] पुष्प-प्रधान ४८, ७५)। णलिणि । स्त्री [नलिनी] कमलिनी, पद्मिनी वनस्पति-विशेष, बसंती नेवारी, नेवार (कप्प) णरेंद देखो णरिंद (पि १५६ पिंग)। णलिणी । (पायः गाया १,१)। गुम्म णवमिया स्त्री [नवमिका] १ रुचक पर्वत पर णरेसर देखो णरीसर (उप ७२८ टी; सुपा देखो णलिण-गुम्म (निर २, १; विसे) रहनेवाली एक दिक्कुमारी देवी (ठा ८)। ५५, ५६१)। °वण न [वन] उद्यान-विशेष (गाया २) २ सत्पुरुष-नामक इन्द्र की एक अग्र-महिषी णल न [नड] तृण-विशेष, भीतर से पोला लिगोदग पुं [नलिनोदक] समुद्र-विशेष (ठा ४, १)। ३ शक्रेन्द्र की एक पटरानी शराकार तृण (हे २, २०२; ठा ८) (दीव) (ठा ८) णवय देखो णव-ग (पंचा १७, ३०) ।। जल न [नल] १ ऊपर देखो (पएण १; उप मल्लय न दे] १ वृति विवर, बाड़ का छिद्र । णवय देखो णयय (णाया १, १७)। १०३१ टी; प्रासू ३३)। २ पुं. राजा राम णवयार देखो णवकार (पंचा १: पि ३०६)। चन्द्र का एक सुभट (से ८,१८)। ३ वैश्रमण कर्दमित, कीचवाला (दे ४, ४६) णवर सक [कथ ] कहना । कर्म. गवरिजइ का एक स्वनाम-ख्यात पुत्र (अंत ५)। णव देखो गम । णवइ (षड् ; हे ४, १५८ (प्राकृ.७७) कुब्बर, कूवर पुं[कूबर] १ दुर्लघपुर | २२६)। णवर प्र. १ केवल, सिर्फ फक्त (हे २,१८७; का एक स्वनाम-ख्यात राजा (पउम १२, णव वि [नव] नया, नूतन, नवीन (गउड; णवरं कुमाः षड् उवाः सुपा ८ जी २७ ७२) । २ वैश्रमण का एक पुत्र (प्रावम) प्रासू ७१) वहुया, बहू स्त्री [वधू] गा १५) । २ अनन्तर, बाद में (हे २, १८८; "गिरि पु[गिरि] चण्डप्रद्योत राजा का नवोढ़ा, दुलहिन (हका ५१; सुर ३, ५२)। प्राप्र)। एक स्वनाम-ख्यात हाथी (महा)। णव त्रि. ब. [नवन्] संख्या-विशेष, नव, वरंग । [नवरङ्ग, क] १ नूतन रंग, णलय न [दे] उशीर, खस का तृण (दे ४, (ठा ६)५°इ स्त्री [ति] संख्या-विशेष नब्बे, णवरंगय । नयाँ वर्ण (सुर ३, ५२)। २ १६७ पास)। | ६० (सण)। ग न [क] नव का समुदाय छन्द-विशेष (पिंग)। ३ कौसुम्भ रंग का णलाड देखो गडाल (हे २, १२३; कुमा)। (द ३०)। जोयणिय वि [योजनिक] | वस्त्र (गउड गा २४१, सुर ३, ५२, पान) For Personal & Private Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णवरत्ति-णाइ पाइअसहमहण्णवो ३८३ णवरत्ति स्त्री [नवरात्रि] नव दिनों का | णव देखो णा - ज्ञा । | णहंसि वि [नखवत् ] नखवाला (दस ६, आश्विन मास का एक पर्व (सट्ठि ७८)। णव्वा त [दे] १ ईश्वर, धनाढ्य, भोगी। णवरि अ[दे] शीघ्र, जल्दी, (प्राकृ ८१)। २ नियागी का पुत्र, सूबेदार का लड़का (दे | णहमुह '[दे] पूक, उल्लू (दे ४, २०) । वरि । देखो णवर (हे २, १८८ से १, ४, २२)। णहर पुं[नखर] नख, नाखून (सुपा ११, णवरिअ३६, प्रामाः सुर, २६ षड्, गा णस सक [नि + अस् ] स्थापन करना। १७२)। नसेज्ज (विसे ९४३)। कर्म, नस्सए (विसे | णहरण [दे] नखी, नखवाला जन्तु, श्वापद णवरिअ न [दे] सहसा, जल्दी, तुरन्त (दे ६७०)। संकृ नसिऊण (स ६०८)। (वज्जा १२)। ४, २२; पाम) णस प्रक [नश् ] भागना, पलायन करना। णहरणी स्त्री [नखहरणी] नहरनी, नख णवरु देखो णवर (चंड)। एसइ (पिंग)। उतारने का शस्त्र (पंचव ३)। णसण न [न्यसन न्यास, स्थापन (जीव १) णहराल पुं [नखरिन् नखवाखा श्वापद जंतु णवलया स्त्री [दे] वह व्रत, जिसमें पति का नाम पूछने पर उसे नहीं बतानेवाली स्त्री णसा स्त्री [दे] नस, नाड़ी असुईरसनिज्झरणे (उप ५३० टी)। पलाश की लता से ताड़ित की जाती है (हे हड् छुक्करडम्मि चम्मनसनद्धे' (सुपा ३५५) णहरी स्त्री [दे] क्षुरिका, छुरी (दे ४, २०) ४, २१)। णसिअ वि [नष्ट] नाश-प्राप्त (कुमा)। णहवल्ली स्त्री [दे] विद्युत्, बिजली (दें णस्स देखो नस = नश् । एस्सइ, एस्सए, णवल्ल देखो णव = नव (हे २, १६५ कुमाः __४, २२)। णहारु न [स्नायु] स्नायू, रग, नस, नाड़ी। उप ७२८ टी)। (षड् , कुमा)। वकृ. नस्संत, नस्समाण णहि पुं[नखिन् नख-प्रधान जन्तु, श्वापद णवसिअ न [दे] उपयाचितक, मनौती (दे (श्रा १६; सुपा २१५) IV जन्तु (अणु)। ४, २२ पाप वजा ८६)1णस्सर वि [नश्वर] विनश्वर, भंगुर, नाश णहि विनखिन्] ऊपर देखो (अणु १४२)।णवा स्त्री [नवा] १ नवोढ़ा, दुलहिन । २ पानेवाला; खणनस्सराई रूदाई' (सुपा णहि अनिहि] निषेधार्थक अव्यय, नहीं युवति स्त्री (सूप १, ३, २)। ३ जिसको २४३)। (स्वप्न ४१; पिंग, सण)। दीक्षा लिए तीन वर्ष हुए हों ऐसी साध्वी णस्सा स्त्री [नासा] नासिका, घ्राणेन्द्रिय णहु अ [नखलु] ऊपर देखो (नाट--मृच्छ (वव ४)। ४ अ. प्रश्नार्थक अव्यय, अथवा (नाट-मृच्छ ६२) २६१ रणाया १, ६). नहीं ? (रयण ६७)। णह देखो णक्ख (सम ६०; कुमा)। णा सक [ज्ञा] जानना, समझना । भवि. णवि प्र.१ वपरीत्य-सूचक अव्यय, 'गवि हा णह न [नभस् ] १ आकाश, गगन (प्रातः हे पाहिह (विसे १०१३)। णाहिसि (पि वणे' (हे २, १७८ कुमा)। २ निषेधार्थक १, ३२) १२ पुं. श्रावण मास (दे २०१६) । ५३४)। कर्म, रणवइ, रणज्जइ (हे ४, अव्यय (गउड)। अर वि [°चर] १ आकाश में विचरनेवाला २५२)। कवकु. णज्जत, णज्जमाण (से णविअ देखो णमिअ = नत (हे ३, १५६) (से १४ ३८) । २ पुं. विद्याधर, आकाश- १३, ११, उप १००१ टी)। संकृ. णाउं, भवि)। विहारी मनुष्य (सुर ६, १८६)। केउमंडिय णाऊण, णाऊणं, णच्चा, णचाणं (महा: णविअ वि [नव्य] नूतन, नया (पाचा २, न [ केतुमण्डित ] विद्याधरों का एक पि ५८६; औपः सूत्र १, २, ३; पि ५८७) । २,३) नगर (इक)। 'गमा स्त्री [गमा] प्राकाश- कृ. णायव्व, णेअ (भग, जी६; सुर ४, णवीण वि [नवीन] नूतन, नया (मोह ८३; गामिनी विद्या (सुर १३, १८६) गामिणी ७०%; दं २, हे २, १६३ नव ३१) धर्मवि १३२) । स्त्री [गामिनी] श्राकाश गामिनो विद्या णा अ [न] निषेध-सूचक अव्यय (गउड)। णवुत्तरसय वि [नवोत्तरशततम] एक सौ (सुर ३, २८)। चर देखो 'अर (उप | पाअअदेखो णायग (प्राकृ २६)। नववा (पउम १०६, २७)। ५६७ टी) च्छेदणय न [च्छेदनक] णाअक्क । णवुल्लडय (अप) देखो णव = नव (कुमा) नख उतारने का शस्त्र (पाचा २, १, ७, १)Mणाअक्क (अप) देखो णायग (पिंग)। णवोढा स्त्री [नवोढा] नव-विवाहिता स्त्री, 'तिलय न [तिलक] १ नगर-विशेष । णाइ पुंज्ञाति] इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न दुलहिन (काप्र १६७) । २ सुभट-विशेष (पउम ५५, १५) वाहण क्षत्रिय-विशेष । 'पुत्त पुं [°पुत्र] भगवान् णवोद्धरण न [दे] उच्छिष्ट, जूठा (दे ४, पुं[वाहन] नृप-विशेष (सुर ६, २६) श्री महावीर (प्राचा)। सुय ( [सुत] २३)। "सिर न [शिरस् ] नख का अग्र भाग भगवान श्री महावीर (आचा) णव्व [दे] आयुक्त, गाँव का मुखिया (दे (भग ५, ४) "सिहा स्त्री ["शिखा] नख णाइ स्त्री [s] १ नात, समान जाति का अग्र भाग (कप्प)५ °सेण पुं[सेन] (पउम १००,११ शोप; उवा)। २ माताणव्व वि [नव्य] नूतन, नया, नवीन राजा उग्रसेन का एक पुत्र (राज) हरणी पिता आदि स्वजन, सगा (णाया १, १)। (श्रा २७)। स्त्री [हरणी] नख उतारने का शस्त्र (बृह ३) ३ ज्ञान, बोध (प्राचा; ठा ५, ३) । For Personal & Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ पाइअसद्दमण्णवो णाइ-णाण णाइ (अप) देखो इव (कुमा) भवनपति देवों की एक अवान्तर जाति (सम णागपरियावणिया स्त्री [नागपरियापनिका] णाइ (अप) नीचे देखो (भवि)। ६६) केसर पुं [केसर] पुष्प-प्रधान | एक जैन शास्त्र (णंदि २०२)। णाई देखो ण = न (हे २, १६०; उवा)। वनस्पति-विशेष (राज)। ग्गह पु[ग्रह] णागर वि [नागर] १ नगर-सम्बन्धी। २ नाग देवता के प्रावेश से उत्पन्न ज्वर आदि णाइणी (अप) स्त्री [नागी] नागिन, सर्पिणी नगर का निवासी, नागरिक (सुर ३, ६६; (जीव ३)M°जण्ण, जन्न पुं[यज्ञ] नाग महा)। (भवि) पूजा, नाग देवता का उत्सव (णाया १; णागरिअ नागरिक नगर का रहनेवाला णाइत्त [दे] जहाज द्वारा व्यापार णाइत्तग) करनेवाला सौदागर (उप पृ १०१, ८)1 जुण पुं [र्जुन] एक स्वनाम- (रंभा)। उप ५६२)। ख्यात जैत प्राचार्य (णंदि)। दंत [दन्त णागरिआ स्त्री [ नागरिका] नगर में णाइय वि [नादित] १ उक्त, कथित, खूटी (जीव ३) दत्त पुं[दत्त १ एक रहनेवाली स्त्री (महा)। पुकारा हुआ (णाया १,१ औप)। २ न. स्वनाम-ख्यात राज-पुत्र (ठा ३, ४; सुपा णागरी स्त्री [नागरी] १ नगर में रहनेवाली आवाज, शब्द (णाया १, १)। ३ प्रतिशब्द, ५३५) । २ एक श्रेष्ठि-पुत्र (आक) पइ पुं स्त्री। २ लिपि विशेष, हिन्दी लिपि (विसे प्रतिध्वनि (राय) । [पति नाग कुमार देवों का राजा, नागेन्द्र । ४६४ टी) णाइल पुं[नागिल] १ स्वनाम-ख्यात एक (प्रौप) "पुर न [पुर] नगर-विशेष णागिद पुं [नागेन्द्र] १ नाग देवों का इन्द्र । जैन मुनि (कप्प)। २ जैन मुनियों का एक (पउम २०, १०) बाण पुं[बाण] २ शेषनाग (सुपा ७७; ६३६)। वंश (पउम ११८, ११७)। ३ एक श्रेष्ठी दिव्य अस्त्र-विशेष (जीव ३)4 भद्द पुं णागिणी स्त्री [नागी] १ नागिन । २ एक (महानि ४)। [भद्र] नाग द्वीप का अधिष्ठाता देव (सुज्ज (तुष्ज वणिक-पुत्री (कुप्र ४०८)। णाइला स्त्री [नागिला] जैन मुनियों की १६) भूय न [भूत जैन मुनियों का पशिसोपाल (राज णाइली एक शाखा (कप्प)। एक कुल (कप्प) महाभद्द[महाभद्र] जागीस्त्री/नागी नागिन, सपिणी (प्राव ४)। णाइल्ल देखो णाइल (विचार ५३४) । नागद्वीप का एक अधिष्ठायक देव (सुज्ज १६)Mणागेंद देखो णागिंद (णाया १, ८)। णाइव वि [ज्ञातिमत् ] स्वजन-युक्त, महावर पुं ["महावर नाग समुद्र का णागोद नागोद] एक समुद्र (सुज्ज १६) नातेदार (उत्त ४) अधिपति देव (सुज्ज १६; इक) "मित्त पुं| णाड़ देखो णट्ट = नाश्च (णाया १, १ टीणाउ वि [ज्ञात ] जानकार, जाननेवाला [मित्र] स्वनाम-ख्यात एक जैन मुनि, जो | पत्र ४३) आर्य महागिरि के शिष्य थे (कप्प)4 "रायणाज विनाटकीय नाटक-सम्बन्धी णाउडु पुं [दे] १ सद्भाव, सन्निष्ठा । २ पुं[ राज] नागकुमार देवों का स्वामी, नाटक में भाग लेनेवाला पात्र (णाया १, अभिप्राय । ३ मनोरथ, वाम्छा (दें ४, ४७)M इन्द्र-विशेष (पउम ३, १४७)। रुक्ख पुं जाउल्ल वि [दे] गोमान्, जिसके पास अनेक [वृक्ष] वृक्ष-विशेष (ठा ८)Mलया स्त्री णाडइणी स्त्री [नाटकिनी] १ नर्तकी, गैया हों (दे ४, २३)। लता बल्ला-विशष, ताम्बूला लता (पएण नाचनेवाली स्त्री (बृह ३) गाउं । १) वर [°वर] १ श्रेष्ठ सर्प। २ णाऊण --देखो णा = ज्ञा - णाडग। न [नाटक] १ नाटक, अभिनय, उत्तम हाथी (ौप)। ३ नाग समुद्र काणाडया नाट्य-क्रिया (बृह १, सुपा १,३५६, पाऊणं अधिपति देव (सुज्ज १६) वल्ली स्त्री सार्थ ६५)। २ रंग-शाला में खेलने में उपयुक्त णाग पुंन [नाक] स्वर्ग, देवलोक (उप ७१२) [°वल्ली] लता-विशेष (सरण) सिरी स्त्री काव्य (हे ४, २७०) । णाग [नाग] १ सर्प, साँप (पउम ८, ["श्री] द्रौपदी के पूर्व जन्म का नाम (उप णाडाल देखो णडाल (गउड)। १७८)। २ भवनपति देवों की एक प्रवान्तर ६४८ टो)" सुहुम न [सूक्ष्म] एक जाति, नाग-कुमार देव (मंदि)। ३ हस्ती, णाडि स्त्री [नाडि] १ रज्जु, वरना। २ जैनेतर शास्त्र (अरण)4 °सेण पुं[सेन] हाथी (प्रौप)। ४ वृक्ष-विशेष (कप्प)। ५ नाड़ी, नस, सिरा (कुमा)। एक स्वनाम ख्यात गृहस्थ (प्रावम) हत्थि स्वनाम-ख्यात एक गृहस्थ (अंत ४)। ६ एक पुं[हस्तिन् ] एक प्राचीन जैन ऋषि णाडी स्त्री [नाडी] ऊपर देखो (हे १, २०२)। प्रसिद्ध वंश । ७ नाग-वंश में उत्पन्न (राज)। (रणदि)। | णाडीअ पु[नाडीक] वनस्पति-विशेष (भग ८ एक जैन आचार्य (कम्प)। ६ स्वनाम १०, ७) ख्यात एक द्वीप । १० एक समुद्र (सुज्ज १६)। णागणिय न [नाग्न्य नग्नता, नंगापन णाण न [ज्ञान] ज्ञान, बोध, चैतन्य, बुद्धि ११ वक्षस्कार-पर्वत विशेष (ठा २, ३)। (सूअ १, ७)। (भग ८, २. हे २,४२, कुमाः प्रासू २८)।१२ न. ज्योतिष-प्रसिद्ध एक स्थिर करण | णागदत्ता स्त्री [नागदत्ता] चौदहवें जिनदेव धर वि [°धर] ज्ञानी, जानकार, विद्वान् (विसे ३३५०)। कुमार पुं[कुमार] | की दीक्षा-शिविका (विचार १२९) । (सुपा ५०८)। "पवाय न [प्रवाद] For Personal & Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमणो णाम न [नामन्] नाम, आख्या अभिधान (विपा ११ से २५) कम्म न ['कर्मन् ] कर्म-विशेष, विचित्र परिणाम का कारण-भूत कर्म (स ६७)। °धिज्ज, 'वेज्ज 'यन [व] नाम, माया (कव्य सम ७१; पउम ४,८०) पुरन [र] एक विद्याधर नगर (इक) मुद्दा स्त्री [मुद्रा ] नाम से अंकित मुद्रा (पउम ५, ३२) । | सच्च वि ['सत्य ] नाम मात्र से सच्चा, नामधारी (ठा १०) अ देखो 'धेय (पउम २०, १७६६ स्पप्न ४३) । णामण न [ नमन ] नमाना नीचा करना (विसे ३००८ ) 1 V जाणता स्त्री [नानाता]] ऊपर देखो (विसे णाममंतक्ख पुं [दे] अपराध, गुनाह (गउड) । णामागोत न [नामगोत्र ] १ यथार्थं नाम । २१६१) २ न.म तथा गोत्र ( सुज १६ ) 1 णामियवि [नमित] नमाया हुआ (सार्थ a) 1 णामिय न [नामिक] वाचक शब्द, पद (विसे णाणकणारइअ जैन ग्रन्यांश-विशेष, पाँचवाँ पूर्वं (सम २६ ) । माया देखो यार (पडि) व, वंत वि [वत् ] ज्ञानी, विद्वान् ( पि ३४८ प्राचा ४९) विवि [ "वित् ] ज्ञान वेत्ता (चा) [चार] ज्ञान-विषयक शाक विधि (राज)वरण न [वरण] ज्ञान का आच्छादक कर्म ( धरण ४४ ) रणजन [वरणीय] अनन्तर उक्त अर्थ (सम ६६ श्रप) णाणक न [दे] सिक्का, मुद्रा (मृच्छ १७ } राज ) णाणग अन्तर णाणत न [नानात्व] भेद, विशेष (घोप ६१८ ) । जुदा-जुदा बा हि वि["विध] जाणा [नाना] भर १८ अनेक प्रकार का, विविध (जीव ३, सुर ४, २४५, दं १३) । [शान्]ि शानो जानकार, विद्वान् (भाचाः उव) । - णादिय देखो जाइय (कण) 1 नाभि पुं [नाभि ] १ स्वनाम ख्यात एक कुलकर पुरुष, भगवान् ऋषभदेव का पिता (सम १५० ) । २ पेट का मध्य भाग । ३ गाड़ी का एक अवयव (दस ७) नंदण पुं [नन्दन] भगवान् ऋषभदेव (पउम ४,६८ ) । णाम एक [नमय्] १ नमागा, भीचा करना । २ उपस्थित करना। ३ अर्पण करना । गामेइ (हेका ४६ ) । वकृ. गामयंत (विले २०६०)। संह. णामिता (भित्र १) - णाम [नाम ] १ परिणाम, भाव (भग २५, ५) । २ नमन ( विसे २१७६) णाम [नाम] संभावना सूचक अव्यय (सूम १, १२.३) । णाम अ [नाम ] इन अर्थों का सूचक अव्यय - संभावना ( से ५, ४) । २ श्रामन्त्रण संबोधन (बृह ३३ जं १ ) । ३ प्रसिद्धि, ख्याति (कप्प ) । ४ अनुज्ञा, अनुमति (विसे) । ५-६ वाक्यालंकार पाद-पूर्ति में भी इसका प्रयोग होता है (ठा ४, १ राज ) 1 ४९ [ न्याय] १ अक्षपाद - प्रणीत न्यायशास्त्र (सुख ३, १; धर्मवि ३८ ) । २ सामयिक श्रादि षट् कर्म (३१) - णाय [नाद] अनुनासिक वार अक्षर-विशेष (सिरि ११६ ) IV वि [ न्याय्य ] न्याय-युक्त (सूत्र १, १३, १००३) । V णामुक्कसि न [दे] कार्य, काम, काज णमोक्कसिअ ) (हे २, १७४; दे ४, २५) । गाय व [] भिमानी (४, २३) । जाय देखो णाग (काप्र ७७७ कप्पू श्रौपः गउड बजा १४; सुपा ६३६ पउम २१, ४९) २१) धम्मा श्री ["धर्मकथा] जैन श्रागम-ग्रंथ - विशेष (सम १ ) ) णाय पुं [नाद] शब्द, श्रावाज, ध्वनि (प्रौप; णायग पुं [नायक ] हार के बीच की मि पउम २२, ३८ स २१३) । सुमेरु ( स ६८६ ) । ६) णाय पुं [ न्याय ] १ न्याय नीति ( प्रौपः स १५६६ श्राचा) । २ उपपत्ति, प्रमारण (पंचा ४; विसे)। कारिवि [कारिन्] न्याय - कर्त्ता ( १ ) गर वि [° कर ] १ न्यायकर्ता. न्यायाधीश (१४) । or वि ['ज्ञ] न्याय का जानकार (उप ३४६) ३८५ [नाक] स्वर्ग, देव-लोक (पास) 1 [ज्ञात] १ भगवान् महावीर (सूत्र १, २,२,३१) २ वि प्रसिद्ध (सूम १६.२१) णाय वि [ज्ञात ] १ जाना हुमा, विदित (उ सुर २, ३९ ) । २ ज्ञाति संबन्धी, सगा, एक बिरादरी का (कप्पः प्राउ ६) । ३ वंशविशेष में उत्पन्न ( श्रौप) । ४ पुं. वंशविशेष (ठा ६) । ५ क्षत्रिय - विशेष (सूत्र १, ६ कप्प ) । ६ न. उदाहरण, दृष्टान्त (उव; सुपा १२८ कुमार ['कुमार] ज्ञात- ' वंशीय राज - पुत्र (गाया १, ८) कुल न [कुल ] वंश - विशेष (परह १, ३) 'कुटचंद पुं [कुलचन्द्र ] भगवान् श्री महावीर ( याचा ) 1 कुलनंदण [ कुलनन्दन ] भगवान् श्री महावीर (पराह १०११। पुचपुं [पुत्र ] भगवान् श्री महावीर ( श्राचा) । V "मुणि ["मुनि] भगवान् श्री महावीर (पराह २.१ "विहि श्री ["विधि] माता या पिता के द्वारा संबन्ध, संबन्धिपन (वब ६) संडन [पण्ड] उद्यान-विशेष जहाँ भगवान् श्रीमहावीर देव ने दीक्षा ली थी ( श्राचा २, ३, १) ५ य पुं [सुत] भगवान श्रीमहावीर "सुप [ "भुत ] 'ज्ञाता कथा' नामक जैन आगम ग्रन्थ (गाया For Personal & Private Use Only णाय tar [नायक ] नेता मुखिया, अयुधा ( उप ६४८ टी, कप्पः सम १३ सुपा २२ ) । पुं [दे] समुद्र मार्ग से व्यापार करनेवालावर वारा सुकरा श्रासि नाम नायत्ता' (उप ५६७ टी)। नायर देखो णागर (महा; सुपा १८८ ) । णायरिय देखो नागरिय (सुर १४, १३३ ) । fat (f) णायरी देखो नागरी (भवि) णायन्त्र देखो णा = ज्ञा । णार पुं [नार] चतुर्थं नरक- पृथिवी का एक प्रस्तर (इक) णारइअ वि [नारकिक] १ नरक पृथिवी में उत्पन्न, नारकी । २ पुं. नरक का जीव (हे १,७६) Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ णारंग 1 [नारज] वृक्ष-विशेष संतरे का वृक्ष । २ न. फल- विशेष, कमला नीबू, संतरा ( पउम ४१, ९; सुपा २३०६ ५६३३ गउड; कुमा) । - णार देखी णार नारक (जिसे १२०० ) । नारद देखो णारय (प्रयौ ५१ ) 1 णारदीअ वि [ नारदीय ] नारद-सम्बन्धी, नारद का (प्रयो ५१ ) । णारय [नारद] १ मुनि-विशेष नारद ऋषि (सम १५४ उप ६४० टी) । २ गन्धवं सैन्य का अधिपति देव - विशेष (ठा ७) । rta वि [नारक] १ नरक में उत्पन्न, नरकसंबन्धी, नरक का 'जायए नारयं दुक्खं' (सुपा १६२) २. नरक में उत्पन्न प्राणी नरक । का जीव (भग)। णारसिंह वि [ नारसिंह ] नरसिंह- सम्बन्धी (उप ६४६ टी) 1 णाराव [नाराच] तौलने की छोटी तराजू, कोटा; 'नाराय निरक्खर लोहवंत दोमुह य तुझ कि भरिणमो । गुंजाए समं करणयं तोलंतो कह न लज्जे सि ?' ( वज्जा १५८ १५६ ) । णाराय देखो जराअ (हे १, ६७; उवा; सम १४९ अजि १४) । तुला, गु० ताजूडी (पुष्प माला ४६६) न [व] संहननविशेष पउम १०९) । राजा [नारायण] १ विष्णु, श्रीकृष्ण (कुमास ६२२) २ - ( पउम ५, १२२७३,२० ) । णारायण [नारायण] एक ऋषि (म १, ३, ४, २) दुर्गा (गउड)। णारि देखो णारी (कप्पः राज) 1 कंता स्त्री ["कान्ता ] नदी - विशेष (सम २७ ठा २, ३). णारिएर ) [ नारिकेल] १ नारियल का णारिएल ) पेड़ । २ न. नारियल या नरियर का फल ( अभि १२७; पि १२८ ) । देखो णालिअर [दे] सरकार स्थान (पाच) - [दे] १ लि साँप आदि का रहने का स्थान, विवर २ कूसार, गर्त्ताकार स्थान (दे ४, २३) । णाली की [नाली ] १ वनस्पति-विशेष एक लता (पण १) २ घटिका, घड़ी (जीव ३)। णाल न [नाल ] १ कमल - दण्ड ( से १, २८ ) । णाली स्त्री [नाली ] १ द्यूत-विशेष (दस ३, २ गर्भ का आवरण ( उप ६७४) । ४) २ तीन और सोलह अंगुल लंबी णालंदइज्ज वि [नालन्दीय ] १ नालन्दालद्री या लग्गी (बांध) (१) । संबन्धी । न. नालंदा के समीप में प्रतिपादित अध्ययन विशेष सूत्र सूत्र का सातवाँ अध्ययन ( सू २, ७) णाली स्त्री [नाडी] नाड़ी, नस, सिरा ( विपा १.१ णालीय वि [नालीय] नाल-संबन्धी (प्राचा) 1 णालंदा श्री [नालन्दा] राजगृह नगर का एक णालीया देखो गाडिला ( प १, २, १८) । मुहाला कल्पसू २७) णावइ (अप) देखो इव (हे ४, ४४४ भवि ) । णालंपिअ न [दे] श्राक्रन्दित श्राक्रन्द-ध्वनि णावण [दे] दान वितरण (पराह १, (दे ४, १४) । ३ –पत्र ५३) । पालंवि ' [दे] कुन्तल, देश कला (दे ४० २५) । णालय न 1 णावा की [दे] प्रचति, अंजली, परिमाण विशेष ( पव १०६ टी) I [नालक] यूत- विशेष (मोह ८६) णाला ? स्त्री [नाडि] नाड़ी, नस, सिरा (से १, णालि ) २८; कुमा) 1 णालि स्त्री [नाल ] परिमाण-विशेष, अंजली ( श्रावक ३५ ) । णालि वि [] त्रस्त, गिरा हुआ ( षड् ) । णालिअ वि [दे] मूढ़, मूर्ख, अज्ञान (से ४, ४२२) । पालिअर देखो णारिएर (दे २, १० पउम १. २०) दीव [द्वीप] द्वीप-विशेष कम्म १ १६ [य] देवी- विशेष, गौरी, णालिआ ) स्त्री [नालिका ] १ नाल, डंडी, णालिगा | कमल की डंडी ( दस ५, २, १८ ) । २ परिमाण- विशेष, दंड, धनुष (भर १५७) । ३ श्रधं मुहूर्त का समय; 'दो नालिया मुहुत्तों' (३२) ४ नली 'जह उ किर नालिगाए धरिणयं मिदुरूयपोम्हभरियाएं' (धर्मसं ६८० ) ।। "खेडून [ख] चव-विशेष (जं २ टीपत्र १३९) । पालिआ स्त्री [नालिका ] १ धल्ली- विशेष (दे २, ३) । २ घटिका, घड़ी, काल नापने का एक तरह का यन्त्र ( पात्र विसे ε२७) । ३ अपने शरीर से चार अंगुल लम्बी लाठी (ओष ३६) ४ चतु-विशेष एक तरह का नारिंग न [नारिङ्ग ] नारंगी का फल, मीठा नीबू, कमला नीबू (कप्पू ) । णारी की [नारी] १नी, धौरत, जनाना, महिला (हेका २२८ प्रासू १२ १५६ ) । पाइअसद्दमद्दण्णवो २ नदी - विशेष ( इक ) । कंतप्पवाय पुं ["कान्ताप्रपात ] द्रह-विशेष (ठा २, ३ ) । देखो णारि । रु णारोह णारंगणास जुआ (औप भग ६, ७) । 'खेड्डा [क्रीडा] एक तरह की त-क्रीड़ा (प्रौप) । गालियर देलो णारिएर (गाया १२) । पालिएरी श्री [नारिकेली] मरियर का गाय (गडपि १२२) । For Personal & Private Use Only णावा श्री [भी] नौका, जहान, ना (भगः उवा) वाणि[वाणिज] समुद्र मागं से व्यापार करनेवाला (गाय १८) णावापूरय [दे] लुक, पुल्लू 'तिहि गावापूएहिं श्रायामई (बृह १) । णाविअ पुं [नापित] नाई, हजाम (हे १, २३०६ कुमाः षड् ) । 'माला स्त्री [शाला ] नाइयों का अड्डा (श्रा १२ ) । • णाविअ [नाविक] जहाज चलानेवाला गोवा या नाव हांकनेवाला, मल्लाह, केवट, माँ (गाया १, ६ सुर १३, ३१) । णास देखो णस्स । णासइ ( षड् ; महा) । वकृ णासंत (सुर १, २०२२, २५) । कृ. णायिय्य (सुर ७, १२६) णास सक [ नाशय् ] नाश करना। णासइ (हे ४, ११) खास (महान णास पुं [नाश] नाश, ध्वंस (प्रासू १५३; पान) र वि ["कर] नाश-कारक (सुर १२, १६४) - णास पुं [भ्यास] १ स्थापनमा २६ उप १०२) २ धरोहर या अमानत रखने योग्य धन आदि (उप ७६८ टी धर्म २ ) । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णासग-णिअंबिणी. पाइअसद्दमहण्णवो ३८७ णासग वि [नाशक] नाश करनेवाला (सुर णाहिणाम न [दे] वितान के बीच की रस्सी ३)। २ अवश्य-भाविता (ठा ४,४ सूप १,१, २, ५८) । | (दे ४, २४)। २) पव्वय पुं [पर्वत] पर्वत-विशेष (जीव णासण न [नाशन] १ पलायन, अपक्रमण णाहिय वि नास्तिक] १ परलोक प्रादि ३)। वाइ वि [वादिन] 'सब कुछ भवितभागना (धर्म २)। २ वि. नाश करनेवाला (से | को नहीं माननेवाला। २ पु. नास्तिक मत व्यता के अनुसार ही हुअा करता है, प्रयल ३,२७: गण २२) । स्त्री. णी (से ३, २७) का प्रवर्तक । वाइ.वादि विवादिना वगैरह अकिश्चित्कर हैं। ऐसा माननेवाला, णासग न न्यासनापन, रखना, व्यव- नास्तिक मत का अनुयायी (सुर ६, २०; स भाग्यवादी या दैववादी (राज)। स्थापन (अणु)। १६४), वाय पं [वाद] नास्तिक-दर्शन णिअंटिअ वि [नियन्त्रित] १ नियमित । णासणा स्त्री [नासना] विनाश (विसे ६३६) (गच्छ २) । २ न. प्रत्याख्यान-विशेष, हृट से या रोगी से णासव सक [नाशय] नाश करना । णाहिविच्छेअ दे] जघन, कटी के अमुक दिन में अमुक तप करने का किया णासवइ (हे ४, ३१)। णाहीए-विच्छेअ नीच का भाग (दे ४; हुमा नियम (पब ४)। णासविय विनाशित] नष्ट किया हुआ, २४)। णिअंटिय वि [नियन्त्रित] १ बँधा हुआ, भगाया हुआ (उप ३५७ टी; कुमा) । णि अ [नि] इन प्रों का सूचक अव्यय-१ जकड़ा हुमा। २ न. अवश्य-कर्तव्य नियमणासा स्त्री [नासा] नाक, घ्राणेन्द्रिय (गा २२ | निश्चय (उत्त १)। २ नियतपन, नियम (ठा विशेष (ठा १०) १०)। ३ आधिक्य, अतिशय (उत्त १; विपा पाचा कुपा)। णिअंठ वि [निर्ग्रन्थ] १ धन रहित। २ पुं. १, ६)। ४ अधोभाग, नीचे (सण)। ५ जैनमुनि, संयत, यति (भग; ठा ३, १; णासि वि [नाशिन] विनश्वर, नष्ट होनेवाला नित्यपन । ६ संशय । ७ अादर । ८ उपरम, ५, ३) । ३ जिन भगवान (सूत्र १, ६)।(विसे १९८१)। विराम । ६ अन्तर्भाव, समावेश । १० समी-णिअंठ पुं [निन्थ ] भगवान् बुद्ध (कुप्र णासिक देखो णासिक (णंदि १६५)। पता, निकटता। ११ क्षेप, निन्दा । १२ ४४२) णासिक न [नासिक्य] दक्षिण भारत का एक बन्धन । १३ निषेध । १४ दान। १५ राशि, णिअंठि देखो "णिग्गंथी। पुत्त पुं [पुत्र] स्वनाम-प्रसिद्ध नगर, जो आजकल भी 'नासिक समूह। १६ मुक्ति, मोक्ष (हे २, २१७; १ एक विद्याधर-पुत्र, जिसका दूसरा नाम नाम से प्रसिद्ध है, जहाँ शूपर्णखा की नाक २१८)। १७ अभिमुखता, संमुखता (सूत्र १, सत्यकि था (ठा १०)। २ एक जैनमुनि, जो कटी थी; पंचवटी (उप पृ २१३, १४१ टी)। है)। १८ अल्पता, लघुता (पएह १, ४)। भगवान् महावीर का शिष्य था (भग ५, ८)। णासिगा स्त्री [नासिका] नाक, घ्राणेन्द्रिय णि प्र[निर 1इन अर्थों का सूचक अव्यय णिठिय वि [नैर्ग्रन्थिक] १ निर्ग्रन्थ-संबन्धी। (महा)। १ निश्चय (उत्त ६) । २ प्राधिक्य, अतिशय । २ जिन देव-संबन्धी ५ स्त्री.या; 'एसा प्राणा णासिय वि [नाशित] नष्ट किया हुआ (महा)। (उत्त १)। ३ प्रतिषेध, निषेध (सम १३७; रिणयंठिया' (सूम १, ६)।णासियव्व देखो णास = नश् । सुपा १६८)। ४ बहिर्भाव । ५ निर्गमन, | णिअंठी देखो णिग्गंथी (ठा )। णासिर वि [नशित] नष्ट होनेवाला, विनश्वर | निष्क्रमण (ठा ३, १; सुपा १३)। णिअंत वि [नियत] स्थिर (सूत्र १,८० (कुमा)। णिअ सक [दृश ] देखना । रिणमइ (षड्; १२) । णासीकय वि [न्यासीकृत] धरोहर या हे ४,१८१)। वकृ. णित (कुमाः महा; णिअंत वि [नियत् ] बाहर निकलता • अमानत रूप से रखा हुआ (श्रा १४)। सुपा २६६) । संकृ. निएउं (भवि)।। (सम्मत्त १५६)। णासेक देखो णासिक (उप १४१)। जिअ वि [निज] आत्मीय, स्वकीय (गा णितिय वि [नियन्त्रित] संयमित, जकड़ा णाह पुं[नाथ] स्वामी, मालिक (कुमाः प्रासू १५०/ कुमाः सुपा ११)। हुआ, बैंधा हुआ (महा; सण)। १२६६) णिअ वि [नीत] ले जाया गया (से ५, ६ णिअंधण न [दे] वस्त्र, कपड़ा (दे ४, २८)। णाहड [नाहट] एक राजा का नाम (ती | णिअंब पुं[नितम्ब] १ पर्वत का एक भाग, णि वि [नीच नीच, जघन्य, निकृष्ट (कम्म | पर्वत का वसति-स्थान (मोघ ४०)। २ स्त्री णाहल पुं[लाल] म्लेच्छ की एक जाति की कमर का पीछला भाग, कमर के नीचे (हे १, २५६; कुमा)। णिअ देखो णिव (सूम २, ६, ४५) का भाग, चूतड़ (कुमाः गउड)। ३ मूल भाग णाहि देखो णाभि (कुमाः कप्पू)। रुह पुं | णिअइ स्त्री [निकृति माया, कपट, छल, (से ८,१०१)। ४ कटी-प्रदेश, कमर (जं ४)। [रुह] ब्रह्मा, चतुर्मुख (अच्च ३६)। धोखा (पएह १, २)। णिअंबिणी स्त्री [नितम्बिनी] १ सुन्दर णाहिं (अप) म [नहि नहीं, नाहीं (हे ४, | णिअइ स्त्री [नियति] १ नियतपन, भवित- नितम्बवाली स्त्री। २ स्त्री, महिला (कप्पू ४१६; कुमाः भवि) व्यता, होनी, भाग्य, नियमितता (सूत्र १.१, पान सुपा ५३८V For Personal & Private Use Only . Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साब)। ३८८ पाइअसहमहण्णवो णिअंस-णिअय णिअंस सक [नि+ वस् ] पहनना। रिणयं-णिअट्टि स्त्री [निवृत्ति १ निवर्तन, पीछे णिअत्त देखो णिअट्ट = निवृत्त (पउम २२, सइ (महा)। संकृ.णियंसित्ता (जीव ३ | हटना (प्राचू १)। २ अध्यवसाय-विशेष ६२: गा ६५८; सुपा ३१७)। पि ७४) । प्रयो. णियंसावेइ (पि ७४) (सम २६)। ३ मोह-रहित अवस्था (सूत्र णिअत्तण न [निवर्तन] १ भूमि का एक णिअंसण न [दे. निवसन] वस्त्र, कपड़ा १, ११) बायर न [ बादर] १ गुण- नाप (उवा) । २ निवृत्ति, व्यावर्तन (प्राव ४)। (दे ४, ३८; गा ३५१, पाम गउडः परह | स्थानक-विशेष (सम २६)। २ पुं. गुण-णिअत्तणिय वि [निवर्तनिक ] निवर्तन १, ३; सुपा १५१ हेका ३१ ।। स्थानक-विशेष में वर्तमान जीव (प्राव ४)। परिमाणवाला (भग ३, १)। णअंसणि स्त्री [निवसनी] वस्त्र, कपड़ा | णिअट्रिय वि [निवर्तित] व्यावत्तित, पीछे | णिअत्ति देखो णिअट्टि (उत्त ३१) । (पब ६२)। हटाया हुआ (ौप)। णिअत्थ वि [दे] १ परिहित, पहना हुआ णिअक्क सक [दृश ] देखना। रिणका | णिअट्टिय वि [निर्वतित] रचित, निर्मित, (दे ४, ३३; प्रावमः भवि)। २ परिधापित, (प्राप्र) बनाया हुआ (प्रौप)। जिसको वस्त्र आदि पहनाया गया हो वह णिअक्कल विदे] वर्तुल, गोलाकार पदार्थ | णि अट्टिय वि [न्यर्दित] अनुगत, अनुसृत | 'रिणयत्था तो गणियाए' (विसे २६०७)। (दे ४, ३६; पाप्र)। (ोप)। |णिअद सक [नि + गद] कहना, बोलना। णिअग वि [निजक] आत्मीय, स्वकीय (उवा)। णिअड न [निकट] १ निकट, समीप, नज- सिप्रददि (शौ) (नाट-चैत ४५)। वकृ. दीक, पास (गा ४०२; पान सुपा ३५२)। णिअंदत (नाट)। णिअच्छ सक [दृश ] देखना । णिमच्छइ २ वि. पास का, समीप का (पान)। णिअद्दिय देखो णिअट्टिय = न्यदित (राज)। (हे ४, १८१)। वकृ. गिअच्छंत, णिअ णिअडि वि [निकृतिन् मायावी, कपटी णिअद्धण न [दे] परिधान, पहनने का वस्त्र च्छमाण (गा २३८; गउडा गा ५००)। (दस ६, २३)। संकृ. णिअच्छिऊण, णिअच्छि (सुर (षड्)। णिअडि स्त्री [निकृति] की हुई ठगाई को | | णिअम सक [नि+ यमय ] नियन्त्रित १, १५७; कुमा)। कृ. णि अच्छियव्व ढकना-छिपाना (राय ११४) । (गउड)|v करना, नियम में रखना । संकृ. णिअमेऊण णिअच्छ सक [नि + यम् ] १ नियमन | णिअडि स्त्री [दे. निकृति] माया, कपट (पि ५८६)। (दे ४, २६, परह १, २, सम ५१; भगणिअम सक [नि + यमय ] १ रोकना। करना, नियन्त्रण करना। २ अवश्य प्राप्त करना। ३ जोड़ना। संकृ. णिअच्छइत्ता १२, ५, सूत्र २, २, गाथा १, १ २ वचन से कराना। ३ शरीर से कराना । प्राव ५)। (सूम १, १, १, २) निप्रमे (प्राचा २, १३, १)। णिअडिअ वि [निगडित नियन्त्रित, जकड़ा णिअम णिअच्छ अक [नि+ गम् ] १ संगत होना, नियमा१निश्चय (जी १४) । हुप्रा (गा ५५६; उप पृ ५२; सुपा ६३)। युक्त होना। २ सक. अवश्य प्राप्त करना। २ ली हुई प्रतिज्ञा, व्रतः 'परिवाविज्जइ णिअडिअ वि [निकटिक] समीप-वर्ती, णिप्रमा रिंगमसमत्ती तुमे मज्झ (उप ७२८ नियच्छइ (सून १, १, १, १०, १, १, २, | पार्श्व में स्थित (कप्पू)। १७; १, १, २, १८) टी)। ३ प्रायोपवेशन, संकल्प-पूर्वक अनशनणिअच्छि वि [दृष्ट] देखा हुआ (पास)। | णिअडिल्ल वि [निकृतिमत्] कपटी, मायावी मरण के लिए उद्यम (से ५, २)। "साप (ठा ४, ४ औपः भग ८, ६) [°सात् ] नियम से (प्रौप)। सो प्र णिअट्ट अक [नि+ वृत् ] निवृत्त होना, पीछे हटना, रुकना । णिमट्टइ (सण)। वकृ. णिअड्ढ सक [नि+ कृष] खींचना ।। [शस् ] निश्चय से (श्रा १४) । णियट्टमाण (प्राचा)। संकृ. नियड्ढिऊणं (सम्मत्त २२७)। णिअमण न [नियमन] नियन्त्रण, संयमन णिअण वि [नग्न] नंगा, वस्त्र-रहित (पव (विसे १२५८)। णिअट्ट सक [निर + वृत्] बनाना, २७१)। णिअमिय वि [नियमित] नियम में रखा रचना, निर्माण करना (प्रौप)। णिअत्त वि [निकृत्त] काटा हुअा, छिन्न हुआ, नियन्त्रित (से ४, ३७)। णिअट्ट सक [नि+ अ ] अनुसरण करना (भग ६, ३३)। णिअय न [दे] १ रत, मैथुन । २ शयनीय, (औप)। णिअत्त वि [नित्य] शाश्वत, अविनश्वर; - शय्या। ३ घट, घड़ा, कलश (दे ४, ४८)। णिअट्ट पुं [निवर्त] व्यावर्तन, निवृत्ति अणि । 'सुक्खं जमनियत्तं' (तंदु ३३; सूत्र १, १, ४ वि. शाश्वत, नित्य (दे ४, ४८ पान; यट्टगामीणं' (आचा)। सूत्र १,८ राय)। णिअट्ट वि [निवृत्त] व्यावृत्त, पीछे हटा हुआ | णिअत्त देखो णिअट्ट = नि + वृत् । णिमत्तइ | | णिअय वि [निजक] निजका, स्वकीय, (धर्म २)। (महा पि२८६) । वकृ.णिअत्तंत,णिअत्त- प्रात्मीय, अपना (पाम)। णिअट्टि वि [निवत्तिन] निवृत्त होनेवाला माण (गा ७६, ५३७ से ५, ६७ नाट)। णिअय वि [नियत] नियम-बद्ध, नियमानुसारी (धर्मसं ७६४)। प्रयो. रिणप्रत्तावेहि (पि २८६)। (उवा)। For Personal & Private Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिअया - णिउत्त णिअया स्त्री [नियता ] जम्बू-वृक्ष विशेष, जिससे यह जम्बूद्वीप कहलाता है (एक) । णिअर [निकर] राशि, समूह, जत्था, ढेर (गा ५६६; पान (गउड ) । अरण [दे] एड शिक्षा (४९) । अअवि [] राशि रूप से स्थित (दे ४, ३८ ) । जिल न [ दे ] नूपुर या पायजेब, स्त्री का पादाभरण - विशेष (दे ४, २८ ) । frre [निगड] बेदी विप। १, ६) । देखो णिगल । ! णिअलाइअ वि [निगडित] सांकल से णिअलाविअ नियन्त्रित जकड़ा हुआ (गा णिअलिअ ४५४६ ५०० पास नउड से ५, ४८ ) । [दे. नियह] हाहादेव विशेष (ठा २,३) । अल्लवि [निज ] स्वकीय, आत्मीय (महा) । णिअस देखो णिअंस । नियसइ (सुपा ६२ ) । णिअसन देखी णिअंसण (देवा ५६६ काप्र २०१) । २ । णिअसिय वि [निवसित] परिहित, पहना हुआ (सुपा १५३)। जिअ देखो जिव (नाट मालती १२० ) । श्री [निदा]-सा] ( १०३) । निआ देखो णिजय (३) बाइ वि = (दे) । [यादिन] नित्यवादी पदार्थको निय मानवता (4) जिआइव देखो णिका (११) । जिआग [नियाग] १ नियत योग निश्चित पूजा ३ मोक्षः मुक्ति (याचा १, १, २ ) । ४ न. आमन्त्रण देकर जो भिक्षा दी जाय वह (दस ३) । णिआग देखो णाय = न्याय ( श्राचा) । णिआण न [निदान ] १ आरम्भ, सावद्य व्यापार (सूत्र १,१०,१) । २ रोग- कारण, रोग की पहचान (पिंड ४५९ ) । आिण न [ निदान ] १ कारण, हेतुः 'अहो अप्पं नियाणं महंतो विवान' ( स ३९० पान छाया १, १३) । २ किसी व्रतानुष्ठान की फल प्राप्ति का अभिलाष - पाइअसहमणव 1 संकल्प - विशेष (श्रा ३३ ठा १० ) । ३ मूल कारण (भाषा)। कड वि [] जिसने अपने शुभानुष्ठान के फल का अभिलाष किया हो वह (सम १५३) कारि विणिज तक [नि युज् ] जोड़ना, संयुक्त [कारिन्] वही अनन्तर उक्त श्रर्थं (ठा ६) । णिआण न [निपान] कूप या तालाब के पा पशुओं के जल पीने के लिए बनाया हुआ जलकुण्ड, ग्राहाय, हौदी, चरी करना, किसी कार्य में लगाना । कर्म. पिउंजीअसि ( पि ५४६ ) । वकृ. णिडंजमाण (सूम १.१०) सं. निजिऊण, निरंजिय ( स १०४ महा)। कृ. णिउंजियच्य १० कुमा णिउंज पु [निकुञ्ज ] १ गहन, लता प्रादि से निविड़ स्थान (कुमा २१७ २ (१२३) । णिरंभ ' [निशुम्भ ] कुम्भका एक पुत्र (से १२.६२) । णिउंभिला स्त्री [निकुम्भिला ] यज्ञ-स्थान ( से १५, ३६) । पग्गं पइसहं पइनिया' (उप ७२८ टी) । णिआणि स्त्री [ दे ] खराब तृणों का उन्मूलन (दे ४, ३५) । णिआम देखो णिअम = नियमय् । संकृ. उबग्गा णिजनिता ग्रामोलाए परिवए णिआम देखो सिम (१.१००) । ( १.३, २) । णिआमगवि [नियामक ] नियम-कर्ता, णिश्रमय नियन्ता (सुपा ३१९) २ निश्चायक, विनिगमक ( विसे ३४७०, स १७० ) । णिआमिअवि [नियमित ] नियम में रखा हुधा, नियन्त्रित (स २६३ ) । जिआव [नियाग] प्रशस्त धर्म (सुध १ १, २, २०) । आर सक [काणेक्षित कृ] कानी नजर से देखना । मिाइ (हे ४, ६६) । मिरिज वि] [ क्षितीकृत] नजर से देखा हुआ, श्राधी नजर से देखा हुग्रा । २ न. श्राधी नजर से निरीक्षण (कुमा) । हि [निदाघ ] १ ग्रीष्म काल, ग्रीष्म ऋतु । २ उष्ण, धर्म, गरमी (गउड) । जिअ [क] निश्य का निए पिंडे दिज्जई' ( श्राचा २, १, १, १ ) । जिग [दे. निश्य, नैत्यिक] निव्या णिइय शाश्वतं श्रविनश्वर (परह २,४ पत्र १४१ सून १ १ ४२ ४ दि श्राचा, सम १३२ ) । विवि [निष्कृप] निर्दय कठोर (प्राह २६) णिउअ वि [निवृत ] परिवेष्ठित, परीक्षित ( हे १, १३१) । णिउअ वि [नियुत ] सुसंगत; सुविष्ट (गाया १, १८ ) । For Personal & Private Use Only ३२८९ णिउंचिअ वि [निकुचित] संकुचित, सकुचा हुआ थोड़ा मुड़ा हुधा या २६३ से ६. १६३ पात्रः स ३३५) । णिउक्क वि [दे] तूष्णीक, मौन रहनेवाला (दे ४, २७ पात्र) । किण [दे] १ वायस काक, कौया। २ वि. मूक, वाक् शक्ति से हीन (दे ४, ५१) । णिउज्जन [न्युब्ज ] आसन-विशेष (दि १२८ टी) । णिउज्जम वि [निरुद्यम ] उद्यम रहित, आलसी (सू २, २) | णिउड क [ मस्जू, नि + ब्रुड् ] मज्जन करना, डूबना । रिउड्डुइ (हे १, १०१ ) । a. णिउडुमाण (कुमा) । णिउड्ड वि [मग्न, निब्रुडित ] हबा हुआ, निम (१० १५ १५.७४) । णिउणवि [निपुण] १ दक्ष, चतुर, कुशल (पान स्वप्न ५३ प्रासू ११ जी ६) । २ सूक्ष्म, जो सूक्ष्म बुद्धि से जाना जा सके (जो २ राय ) । ३ क्रिवि. दक्षता से, चतुराई से, कुशलता से जीव ३) । उणवि [निपुण] १ नियत गुणवाला । २ निश्चित गुण से युक्त (राज)। ३ सुनिश्चित, नित (पंचा ४) । डिणिय वि [नैपुणिक] निपुण, दक्ष, चतुर (हा ९) । णिउत्त वि [नियुक्त ] १ व्यापारित, कार्य में लगाया हुआ (पंचा ८) । २ निबद्ध (विसे TEC) I Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० णिउस [निवृत्त]] विरत, उपरत, विपुल, विरक्त (प्रा)। सिवि [निर्वृत] पिन सिद्ध ( उत्तर १०४) । = तिब्ब देखो डिंजनि पुग् उिति श्री [निवृत्ति ] विराम (प्राह णिउद्धन [नियुद्ध ] बाहु-युद्ध, कुस्ती (उप २१२) । । णिउर पुं [निकुर ] वृक्ष - विशेष (गाया १, ε पत्र १६० ) । २ जिउर न [नपुर ] की के पल का एक आभरण, पजनी, पायल (हे १, १२३; कुमा) । गिरवि[दे] नि, काटा हुआ जी, पुराना (षड्)। बिन [ निकुरम्ब] समूह, जत्था (पाथ सुर ३, ९१; गा ४९५; सुपा ४५४) । णिउब न [ निकुरुम्ब] समूह, जत्था (स ४३७; गा ४६५ श्रपि १७७ ) । पिउल पुं [दे] गाठ, गठरी 'एवं बहु भरणऊ समप्पियो दविगनिउलोत्ति' (महा) । णिऊढ वि [निगूढ ] गुप्त, प्रच्छन्न, छिपा (४५)। } देखो णी=गम् । दि सक [निन्दु]] निन्दा करना, बुराई करना, जुगुप्सा करना। रिगदामि (पडि ) । वकृ. दिंत (28) www.forester (garaa), दिशा दिनाचा २ २ १ १ व ४०) हे जिंदिरं निदित्तए (महा ठा २१) कृ. णिदियव्य, जिंदणिज (पराह २ १ उप १०३१ टी खाया १, ३) । जिंद वि [निन्द्य ] निन्दा योग्य, निन्दनीय (१) । दि (अप) श्री [निद्रा] नींद निद्रा (अपि)। णिएअवि [नियत ] नियम-युक्त, 'श्रणिए जिंदण न [निन्दन] निन्दा, घृणा, जुगुप्सा वारी (६५) (उप ४४६ ७२८ टी) । दिया देखो दिणा (उत्त २२, १) । जिंदणा स्त्री [निन्दना ] निन्दा, जुगुप्सा (धीप घोष ७२१ प २, १) । गिद्य [निन्दक ] निन्दा करनेवाला (पउम १०.२१) । | जिंदा स्त्री [निन्दा] घृणा, जुगुप्सा (श्राव ४) । मंदिअ वि [निन्दित] जिसकी निन्दा की गई हो वह बुरा (गा २६७ प्रासू १५८ ) । जिंदिणी स्त्री [दे] कुत्सित तृणों का उन्मूलन (दे ४, ३५) । जिंदु स्त्री [निन्दु ] मृत-वत्सा स्त्री, जस बच्चे जीवित न रहते हों ऐसी स्त्री ( अंत ७ श्रा १६) । fraj [निम्ब] नीम का पेड़ (हे १, २३०६ प्रासू २६ ) । णिंबोलिया स्त्री [निम्बगुलिका ] नीम का (१५)। णिएल्ल देखो णिअल्ल = निज ( आवम ) । णिओअ सक [ नि + योजय् ] किसी कार्य में लगाना मोदि (शी) (माट-विक्र ५) । जिओज देलो जियोग से २६ अभि २७; सण से ३४८) । १० श्राज्ञा, प्रादेश ( स २१४) । णिओइल [नियोजित ] नियुक्त किया हुप्रा, किसी कार्य में लगाया हुआ (स ४४२; श्रभि EC ) 1 णिओइअ वि [ नैयोगिक ] नियोग-सम्बन्धी ( प्राकृ ९) । णिओग [नियोग] मोक्ष, मुक्ति (१, १, १६, ५) । णिओग पु' [नियोग] १ नियम, आवश्यक कर्तव्य (विसे १८७६ पंचव ४) । २ सम्बन्ध, नियोजन (१) अनुयोग, सूप की पाइअसहमणव व्याख्या (विसे) ४ व्यापार, कार्यं ( वव २) । ५ अधिकार- प्रेरण (महा) ६ राजा नृप प्राज्ञा- विधाता ( जीत ) । ७ गाँव, ग्राम८ क्षेत्र, भूमि (बृह १) संयम ध्यान (सू १, १६) | देखो णिओअ । पुरन [ पुर] १ राजधानो । २ देश, राष्ट्र । ३ राज्य (जीव) । । णिओग वि [नियोगिन] नियोग विशिष्ट नियुक्त प्राप्त अधिकारी (७१) णिओजिय देखो णिओइअ (श्रावम) । वि जिंतूग For Personal & Private Use Only णिउत्त-- णिकायणा णिकर पुं [निकर] समूह, जत्था, राशि, ढेर, (कप्पू)। णिकरण न [निकरण] १ निश्चय, निर्णय । २ निकार, दुःख उत्पादन (प्राचा) । णिकरियवि [निकरित] सारीकृत, सर्वथा संशोधित ( प ) । णिकस देखो जिस (२१२) । णिकाइय वि [निकाचित] १ व्यवस्थापित नियमित (दि) । २ प्रत्यन्त निबिड़ रूप से हुआ ( कम ) ( उवः सुपा ५७६ ) । न. कर्मों का निबिड़ रूप से बन्धन (ठा ४, २ ) । णिकाम सक [नि + कामय् ] अभिलाष करना किामना (१,१०० ११) । णि समयंत (सूम १ १०.११) णिकानन [निकाम ] हमेशा परिमाण से ज्यादा खाया जाता भोजन (पिंड ६४५) । णिक्षम [निकाम] १ नियनि २ अत्यन्त अतिशय ( सू २, १०) । णिकाममीण वि [निकाममीण ] श्रत्यन्त प्रार्थी (सूत्र १,१०,८ ) । णिकाय सक [ नि + काचय् ] १ नियमन करना, नियन्त्रण करना । २ निबिड़ रूपसे बांधना । ३ निमन्त्रण देना । णिकाईति (भग) । भूका. पिकासु (भगः सून २, १ ) । भवि. किाइस्संति (भग) । संकृ. णिकाय (भाषा)। णिकाय पुं [निकाय] १ समूह, जत्था, यूथ, वर्ग: राशि (प्रोध ४०७ विसे ६००; दं २८)मुति (भाषा) ३ आवश्यक अवश्य करने योग्य अनुष्ठान - विशेष ( मणु) । "काय ["काय ] जीव-राशि, छत्रों प्रकार के जीवों का समूह ( दस ४) । णिकाय पुं [निकाच ] निमन्त्रण, न्यौता (सम २१) । णिचय देखो णिकाइय जे समातहिए का कम्मारविनिकाया (सिरि १२२) | णिकायण न [निकाचन ] निमन्त्रण ( fis ४७५) । णिकायणा स्त्री [निकाचना ] १ कारण - विशेष जिससे कमों का निविड़ बल्ब होता है दि २५१५ भाग २ निविड़ बन्धन । ३ दापन, दिलाना (राज) । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिकिंत - णिकिंचण णिकिंत सक [नि + कृत् ] काटना, छेदना । गिकिंत (पुप्फ ३३७ उव) । शिकितए ( उव काल) । णिकिंतय वि [निकर्तक ] काट डालनेवाला (काल) 1 णिकुट्ट सक [नि + कुट्टू ] १ कूटना । २ काटना । कुिट्ट, रिकुट्टेमि (उवा) । णिकूणिय वि [निकूणित ] टेढ़ा किया हुम्रा, वक्र किया हुआ (दे १,८८ ) । fuhag [निकेत ] गृह, श्राश्रय, निवासस्थान (गाया १, १६, उत्त २० श्राचा) । णिकेयणन [निकेतन ] ऊपर देखो (सुर १३, २१; महा) । णिको १५) । [निकोच ] संकोच, सिमट (दे ७, णिक वि[दे] सुनिर्मल, सर्वथा मल-रहित ( गाया १, १ ) । णिक्क देखो णिक्ख = निष्क (प्राकृ २१) । frasta fa [frष्कैतव ] १ कपट रहित, निर्माय (कुमा) । २ कपट का प्रभाव, निष्कपटपन (गा ८५) । fries for [frosङ्कट] १ प्रावरण-रहित ( श्रौप) । २ उपघात रहित (सम १३७ ) । णिकखि वि [निष्काङ्क्षिन् ] श्रभिलाषारहित (उत्त १६, ३४) । णिकखिय न [निष्काङ्क्षित ] १ प्राकांक्षा का श्रभाव । २ दर्शनान्तर की प्रनिच्छा (उत्त २; पडि ) । पाइअसहमणव ३९१ णिकंति स्त्री [निष्क्रान्ति ] निष्क्रमण, बाहर | णिक्कल वि [दे] पोलापन से रहित (सुपा १, भग १५ ) । निकलना ( प्राकृ २१) । णिकंतु वि [निष्क्रमितृ] बाहर निकलनेवाला (ठा ३, १) । । णिक्कंद क [नि + कन्द] उन्मूलन करना निक्कंदइ (सम्मत्त १७४) । णिकंप वि [निष्क्रम्प ] कम्प-रहित, स्थिर (हे २, ४ अभि २०१) । णिकज्जवि [] अनवस्थित, चंचल (दे ४, ३३ पात्र) । fung वि [निष्कृष्ट ] कृश, दुर्बल, क्षीण (ठा ४, ४ ---पत्र २७१) । णिक्कड वि [दे] १ कठिन (दे ४, २९ ) । २ पुं. निश्चय, निर्णय ( षड् ) । णिक्कड्ढि वि [निष्कृष्ट, निष्कर्षित ] बाहर खींचा हुआ, बाहर निकाला हुआ ( स ६०; २१५) । णिकण वि [निष्कण] धान्य-करण-रहित, अत्यन्त गरीब (विपा १, ३) । | णिक्कंखिय वि [निष्काङ्क्षित, क] १ श्राकांक्षा-रहित । २ दर्शनान्तर के पक्षपात से रहित ( सू २, ७ औप, राय) । णिक्कंचण वि [निष्काञ्चन] सुवर्ण-रहित, धन-रहितः निःस्व, निर्धन (सुपा १६८ ) । णिकंटय वि [निष्कण्टक ] कण्टक-रहित, बाधारहित, शत्रु-रहित ( सुपा २०८ ) । णिकंड वि [निष्काण्ड ] १ काण्ड रहित, स्कन्ध-वर्जित, २ श्रवसर - रहित (गा ४६८ ) । णिक्कंत वि [निष्क्रान्त] १ निर्गत, बाहर निकला हुआ (से १,५६ ) । २ जिसने दीक्षा ली हो वह, गृहस्थाश्रम से निर्गत ( श्राचा) । किंता वि [निष्कान्तार ] परण्य से निर्गत, (ठा ३, १) । णिक्कम श्रक [ निर् + क्रम् ] १ बाहर निकलना । २ दीक्षा लेना, संन्यास लेना । किमान (४८१) । वकृ. णिक्कमंत (हेका ३३२ मुद्रा ८२) । णिक्कम पु' [निष्क्रम] नीचे देखो (नाटमुद्रा २२४) । णिक्कमण न [निष्क्रमण ] १ निर्गमन, बाहर निकलना ( मुद्रा २२४) । २ दीक्षा, संन्यास (प्राचा) । णिक्कम्म वि [निष्कर्मन् ] कर्मरहित, मुक्तिप्राप्त, मुक्त (द्रव्य १४) । णिकम्म वि [निष्कर्मन् ] १ कार्य- रहित, निकम्मा (गा १६९ ) । २ मोक्ष, मुक्ति । ३ संवर; कर्मों का निरोध, ( श्राचा) । णिक्कय पु' [निष्क्रय ] १ बदला, उऋणपन (सुपा ३४१; पउम ७ १२६ ) । २ भृति, वेतन, मजूरी (हे २, ४) । णिकरण न [निकरण ] १ तिरस्कार । २ परिभव । ३ विनाश (संबोध १६ ) । णिकरुण वि [निष्करुण] करुणा-रहित, दया वर्जित (नाट - मालती ३२ ) । णिक्कल वि [निष्कल ] कला-रहित (सुपा १ ) । For Personal & Private Use Only णिक्कलंक वि [निष्कलङ्क ] कलंक- रहित, बेदाग (स ४१८ महा; सुपा २५३ ) । णिक्कलुण देखो णिक्करुण ( परह १, १ ) । किस वि [निष्कलुष] १ निर्दोष, निर्मल । २ निरुपद्रव, उपद्रव रहित ( से १२, ३४) । freas for [frese] कपट रहित (उप १६०) । fear a [rosaच ] कवच-रहित, ववर्जित (ठा ४, २) । णिक्कस क [ निर् + कस् ] बाहर निक लना किसे (सूत्र १, १४, ४) । णिक्कस सक [ निर + कस्] निकासना, बाहर निकालना | कर्म णिक्कसिज्जइ ( उत्त १) । किसण न [निष्कसन ] निर्गमन (राज) । णिक्कसाथ वि [निष्कषाय ] १ कषाय-रहित, क्रोधादि वर्जित (उ) । २ पुं भरत क्षेत्र के एक भावी तीर्थंकर देव (सम १५३ ) । णिक्का स्त्री [नीका] वाम - नासिका (कुमा) । णिक्काम वि [निष्काम ] श्रभिलाषा-रहित णिकारण वि [निष्कारण ] १ कारण रहित, अहेतुक (सुर २, ३६) २ क्रिवि. विना कारण (प्रव ६) । णिकारण वि [निष्कारण] निरुपद्रव, 'ने निक्कारणो दहो' (पिंड ५१६ ) । णिकारणिय वि [निष्कारणिक] कारणरहित, हेतु-शून्य ( श्रोध ५) । णिकारिम वि [निष्कारण ] विना कारण (आख्यानक० २३ अधिकार, भावादेयाकथा, पद्य ५२५) । णिक्काल सक [ निर् + कासय् ] बाहर निकालना । संकु. निकालेडं ( सुपा १३ ) । णिक्कालिअ देखो णिक्कासि ( ती १५ ) । णिक्कास g [निष्कास] नीकास, बाहर निकालना (धर्मवि १४९ ) । णिक्कासि fa [frostसित ] बाहर निकाला हुमा (राज) । निक्किचण वि [निष्किन] निर्धन, घररहित, निःस्व, गरीब ( श्रावम) । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ णिकिटु वि [निकृष्ट ] प्रथम, नीच, हीन, जघन्य; 'अइनिक्कि पाविटुयावि अहा' (श्रा १४; २७; सुपा ५७१; सट्ठि १५८ ) । णिकिण सक [निर् + की] निष्क्रय करना, खरीदना । णिक्किणासि ( मृच्छ ε१) । णित्तिम वि [निष्कृत्रिम ] प्रकृत्रिम, असली, स्वाभाविक (उप १८६ टी) । forfafa [favor] क्रिया-रहित, प्रक्रिय ( परह १, २ ) । fufha वि [निष्कृप] कृपा-रहित, निर्दय ( पाच गा ३०; सुपा ४०९ ) । णिक्कीलिय वि [निष्क्रीडित] गमन, गति ( पव २७१) । णिक्कुड [ निष्कुट ] तापन, तपाना (राज) । णिक्कूइल स्त्री [दे] जीता हुआ, विनिर्जित (दे १, ४) । कोड [निष्फोटन] बन्धन - विशेष ( परह १, ३-पत्र ५३ ) । णिकोर सक [निर् + कोरय् ] १ दूर करना । २ पात्र वगैरह के मुँह का बन्द करना । ३ पात्र आदि का तक्षण करना। णिक्कारेइ (ह १) । णिक्कोरण न [निष्कोरण] १ पात्र आदि के मुँह का बन्द करना। २ पात्र आदि का तक्षरण (बृह- १) । णिक्ख [दे] १ चोर । २ सुवर्णं, काञ्चन (दे २,४७) । णिक्ख पुंन [निष्क] दीनार, मोहर, मुद्रा, अशर्फी, रुपया (हे २, ४) । णिक्खंत देखो णिक्कंत (सूम १ ८ सम १५१३ कस) । णिक्खंध व [निःस्कन्ध] स्कन्ध-रहित डाली - रहित (गा ४६८ अ ) । णिक्खणण न [निखनन] गाड़ना ( कुप्र १६१) । णिक्खत्त वि [निःक्षत्र ] क्षत्र-रहित, क्षत्रियरहित ( पि ३१९ ) । णिक्खम मक [ निर् + क्रम्] १ बाहर निकलना । २ दीक्षा लेना, संन्यास लेना । futans (भग) । णिखमंति ( कप्प ) । भूका. क्खिमिसु (कप्प) । भवि. क्खि fufeg - णिगड णिक्खुड वि [दे] अकम्प, स्थिर (दे ४, २८) । णिक्खुड पुंन [निष्कुट ] १ कोटर, खोखला, विवर ( तंदु २६) । २ पृथिवी खण्ड (विसे १५३८ पंच २, ३२) । ३ गृहाराम, उपवन, घर के पास का बगीचा ( राय २५) । |णिक्खुड पुं [निष्कुट ] भूमि खण्ड (विसे १५३८) । णिक्खुत्त न [दे] निश्चित नक्की, चोक्कस, अवश्यः 'पत्ते विणासकाले नासइ बुद्धी नराण निक्खुतं' (पउम ५३, १३८); 'वत्ता दाहामि निक्खुतं' (पउम १०, ८५) । णिक्खुरिअ वि [दे] महद, अस्थिर (दे ४, ४०) । णिकखेड पुं [निष्खेट] अधमता, नीचता, दुष्टता (सुपा २७६ ) 1 वि [निक्षिप्त ] १ न्यस्त, स्थापित णिक्खेत्तव्य देखो णिक्खिव = नि + क्षिप् । णिक्खेव पुं [ निक्षेप] १ न्यासः स्थापन (अणु) । २ परित्याग, मोचन (प्राचा २, १, १, १) । ३ धरोहर, धन प्रादि जमा रखना ( पउम ६२, ६) । णिक्खेवण न [ निक्षेपण] १ निक्षेप, स्थापन ( प ६) । २ व्यपस्थापन, नियमन (विसे १२) । ( पाच परह १, ३) । २ मुक्त, परित्यक्त (गाया १, १ व २ ) । ३ पाक-भाजन में स्थित (पह २ १ ) । चरवि ['चर] पाक-भाजन में स्थित वस्तु को भिक्षा के लिए खोजनेवाला (परह २, १, श्रप) । णिक्क्प्पिमाण नीचे देखो । णिक्खिव सक [नि + क्षिप् ] १ स्थापन करना, स्वस्थान में रखना। २ परित्याग करना । णिक्खिवद्द (महा) । णिक्खिवंत ( निचू १६) । कवकृ. णिक्खिप्पमाण (आचा) । संकृ. णिक्खिवित्ता, णिक्खिविअ, णिक्खिविडं ( कस पि ३१६; नाट-विक्र १०३; वव १ ) । कृ. णिक्खिविअव्व, क्ति (पह १, १; विसे ११७) । णिक्खिव सक [ नि + क्षिप् ] नाम श्रादि भेदों से वस्तु का निरूपण करना । निक्खिवे (१०) । भवि निक्खिविस्सामि ( श्रणु १० ) 1 णिक्खेवणया स्त्री [निक्षेपणा ] स्थापना, णिक्खेवणा विन्यास ( उवा कप्प ) । णिक्खेव [निक्षेपक] निगमन, उपसंहार णिक्खेविय वि [निक्षिप्त ] १ न्यस्त, स्था(बृह १) । पित। २ मुक्त, परित्यक्त (सण) । णिक्खेविय वि [निक्षेपित ] ऊपर देखो (भवि ) । णिक्खोभ ) पुं [ निःक्षोभ ] क्षोभ-रहित, णिक्खोह निष्कम्प (सम १०६; चउ ४७) । णिखय देखो क्खिय ( कुप्र २२३) । खिव्व न [निखर्व] संख्या-विशेष, सौ खवं, सौ अरब (राज)। निखिल वि [निखिल ] सर्वं सकल, सब ( मर नाट - महावीर ६७ ) । णिगंठ देखो णिअंठ (विसे १३३२) । णिक्खिवण न [ निक्षेपण] १ स्थापन । २ णिगड सक [ निगडय् ] नियन्त्रित करना, डालना (सुपा ६२६; पडि ) । बाँधना । संकृ. निगडिऊण ( कुप्र १८५७ ) । णिक्खिव पुं [ निक्षेप ] १ स्थापन । २ न्यास-स्थापन, धरोहर, धन आदि जमा रखना (SIT P8) 1 पाइअसहमणव मिस्संति ( कप ) । वकृ. णिक्खममाण (छाया १, ५, पउम २२, १७) । संकृ. freeम्म ( कप ) । हेक. णिक्खमित्तए ( कप्प कस) । णिक्खम पुंन [निष्क्रम ] निर्गमन । २ दीक्षा ग्रहण (ठा १० दस १० ) । furaमण न [निष्क्रमण ] ऊपर देखो (सुख १३: रणाया १, १६३ पउम २३, ४) । णिक्खय वि [निखात ] गाड़ा हुआ (कुत्र २५) । णिक्य वि [दे निक्षत] निहत, मारा हुना (दे ४, ३२; पान ) । णिक्खवि वि [निक्षपित ] नष्ट किया हुआ, विनाशित (३१) । णिक्खसर व [] मुषित, जो लूट लिया गया हो, अपहृत सार (दे ४, ४१) । णिक्खाविअ वि [दे] शान्त, उपशम-प्राप्त ( षड् ) । For Personal & Private Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिगडिय-णिग्गिण्ण पाइअसहमहण्णवो ३६३ णिगडिय वि [निगडित नियन्त्रित (हम्मीर | संकृ. णिगिज्झिय, णिग्घेउं (ठा ७; कप्पा उप पू ३३२)। ३ द्वार, दरवाजा (से २, राज) । कृ. णिगिहियव्व (उप पू २३)। २)। ४ बाहर जाने का रास्ता (से ८, ३३)। णिगढ पुगदे] धर्म, घाम, गरमी (दे ४, णिगुंज अक [नि+गुञ्ज] १ पूजना ५ प्रस्थान, प्रयाण (बृह १)। २७)। अव्यक्त शब्द करना । २ नीचे नमना। वकृ.. णिग्गमण न [निर्गमन] १ निःसरण, बाहर णिगण वि [नम] नंगा, वस्त्र-रहित (सूम १, णिगुंजमाण (रणाया १,६-पत्र १५७)। निकलना (णाया १, २, सुपा ३३२. भग)। णिगुंज देखो णिउञ्ज = निकुन्ज (आवम)। । २ पलायन, भाग जाना। ३ अपक्रमण णिगद सक [नि+गद्] १ कहना । २ णिगुण वि [निगुण] गुण-रहित (पएह | (वव १)। पढ़ना, अभ्यास करना। वकृ. णिगदमाण १, २)। णिग्गमिअ वि [निर्गमित बाहर निकाला (विसे ८५०)। णिगुरंब देखो णिउरंब (पएह १, ४)। हुआ, निस्सारित (श्रा १६)। णिगूढ वि [निगूढ] १ गुप्त , प्रच्छन्न (कप्प)। णिग्गमिय वि [निर्गमित] गमाया हुआ, णिगम पुं [निगम] १ प्रकृष्ट बोध (विसे २ मौनी, मौन रहनेवाला (राज)। पसार किया हुआ (सम्मत्त १२३)। १२८७)। २ व्यापार-प्रधान स्थान, जहाँ णिगृह सक [नि + गुह. 1 छिपाना, गोपन | णिग्गय वि[निर्गत निःसृत, बाहर निकला व्यापारी, विशेष संख्या में रहते हों ऐसा शहर करना। णिगृहइ (उवः महा)। णिगृहति हुआ (विसे १५४०; उवा)। जस वि प्रादि (पएह १, ३, प्रौपा प्राचा)। ३ व्या (सट्टि ३२) । संकृ. णिगूहिऊण (स ३३५)। । [यशस् ] जिसका यश बाहर में फैला पारि-समूह (सम ५१)। णिगृहण न [निगूहुन] गोपन, छिपाना | हो (णाया १, १८) । मोअ वि [मोद] णिगमण न [निगमन] अनुमान प्रमाण का (पंचा १५)। जिसकी सुगन्ध खूब फैली हो (पान)। एक अवयव, उपसंहार (दसनि १)। णिगूहिअ वि [निगूहित] छिपाया हुआ. णिग्गय वि [निर्गज] हाथी-रहित (भवि)। णिगमिअ वि [दे] निवासित ( षड्)। गोपित (सुपा ५१८)। णिग्गह देखो णिगिण्ह । कृ.णिग्गहियव्व णिगर [निकर समूह, राशि, जत्था (विपाणिगोअ [निगोद] अनन्त जीवों का एक (सुपा ५८०)। १, ६, उवा)। साधारण शरीर-विशेष (भगः पराण १)। णिग्गह पुं [निग्रह] १ दण्ड, शिक्षा (प्रासू णिगरण न [निकरण] कारण, हेतु (भग | जीव पुं[जीव] निगोद का जीव (भग १७०) प्राव ६)। २ निरोध, अवरोध, २५, ६ कम्म ४, ८५)। रुकावट (भग ७, ९)। ३ वश करना, काबू णिगरिय वि [निकरित] सर्वथा शोषित | णिग्ग देखो णिग्गमनिर् + गम् । वकृ. में रखना, नियमन (प्रासू ४८)। "द्वाण न (पएह १, ४)। _णिग्गंत (भवि)। ["स्थान] न्याय-शास्त्र-प्रसद्धि प्रतिज्ञा-हानि णिगल देखो णिअल। २ बेड़ी के माकार का | णिग्गंठिद (शौ) वि [निप्रथित] गुम्फित, प्रादि पराजय-स्थान (टा १, सूप १, १२)। सौवणं माभूषण-विशेष (प्रौप)। अथित (पि ५१२)। णिग्गहण न [निग्रहण] १ निग्रह, शिक्षा, णिगलिय देखो णिगरिय (जे २)। णिग्गतु देखो णिग्गम = निर् + गम्। णिग्गंतूण) दएड (सुर १६, ७)। २ दमन, नियमन, णिगाम देखो णिकाम = निकाम (पिंड णिग्गंथ देखो णिअंठ (प्रौपः मोघ ३२८; नियन्त्रण (प्रासू १३२)। प्रासू १३६, ठा ५, ३)। णिग्गहिय वि [निगृहीत] १ जिसका निग्रह णिगाम न [निकाम] प्रत्यन्त, अतिशय (ठा | णिग्गंथ वि [नैर्ग्रन्थ 1 निर्ग्रन्थ-सम्बन्धी किया गया हो वह (सं ११५)। २ पराजित ५, २ श्रा १६)। (णाया १, १३, उवा)। पराभूत (प्रावम)। णिगास पुं[निकर्ष ] परस्पर संयोजन, णिग्गंथी स्त्री [निर्ग्रन्थी] जैन साध्वी (णाया णिग्गहीय देखो णिग्गहिय (सुख १, १)। मिलाना, जोड़ (भग २५, ७) । १,१,१४. उवाः कप्प; प्रौप)। णिग्गा स्त्री [दे] हरिद्रा, हलदी (दे ४, २५)। णिगिज्झिय देखो णिगिण्ह । णिग्गच्छक [निर+गम 1 बाहर णिग्गाल पुन निगाल] निचोड़, रस, 'सीसणिगिढ़ देखो णिक्किट्ठ (सुपा १८३)। णिग्गम निकलना । णिग्गच्छइ (उवा; घड़ी निग्गाल' (तंदु ४१)। . णिगिण वि [नग्न] नग्न, नंगा (आचा २, कप्पू)। वकृ. णिग्गच्छंत, णिग्गच्छमाण, णिग्गालिय वि [निर्गालित] गलाया हुआ २, ३, २, ७, १; पि १३३)। णिग्गममाण (सुपा ३३०० णाया १,१, (उप पृ८४)। णिगिणिण न [नाग्न्य] नंगापन, नग्नता सुपा ३५६) । संकृ. णिग्गच्छित्ता, णिगं-णिग्गाहि वि [निग्राहिन निग्रह करनेवाला (उत्त ५, २१ सुख ५, २१)। तूण (कप्पः स १७)। हेक.णिग्गंतुं (उप (उत्त २५, २)। णिगिण्ह सक [नि+ ग्रह] १ निग्रह ७२८ टी)। | णिग्गिण्ण वि [दे. निर्गीर्ण] १ निर्गत, करना, दण्ड करना, शिक्षा करना । २ | णिग्गम [निर्गम] १ उत्पत्ति, जन्म (विसै | बाहर निकला हुआ (दे ४, ३६, पाम)। २ रोकना। ३ प्रक. बैठना, स्थिति करना।। १५३६)। २ बाहर निकलना (से ६, ३६ | वान्त, वमन किया हुमा (से ५, २६)। For Personal & Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ णग्गिन्ह देखो णिगिन्छ । णिग्गिए हामि (विसे २४८२) । णिग्गिलिय वि [निर्गलित] वान्त, वमन किया हुआ ( स ३५८ ) । णिग्गुंडी स्त्री [निर्गुण्डी] श्रौषधि-विशेष, वनस्पति संभालू (पराग १ ) । णिग्गुण व [निर्गुण] गुण-रहित, गुण-हीन (गा २०३: उवः परह १, २. उप ७२८ टी ) । णिग्गुष्णन [ नैर्गुण्य ] गुण-रहितपन, णिग्गुन्न । गुण-हीनता, निर्गुणत्व ( वसु भत्त १४) । णिग्गूढ वि [निगूढ ] स्थिर रूप से स्थापित ( सू २, ७) । णिग्गोह पु [न्यग्रोध] वृक्ष-विशेष, बरगद, बड़ का पेड़ (पउम २०, ३६० षड् )| परिमंडल [परिमण्डल ] शरीर-संस्थान-विशेष, वटाकार शरीर का प्राकार (सम १४६; ठा ६) । णिग्घंट ( णिग्घटु ) देखो णिघंटु (कप ) । णिग्धटु वि [दे] कुशल, निपुण, चतुर (दे ४, ३४) । णिग्घण देखो णिग्विण (विक्र १०२ ) । णिग्वत्तिअवि [ दे] क्षिप्त, फेंका हुआ ( पाच ) । णिग्धाइय वि [निर्धातित ] १ प्राघात-प्राप्त चाहत । २ व्यापादित, विनाशित (गाया १ १३) । णिग्धाय पुं [निर्घात ] राक्षस वंश का एक राजा ( पउम ६, २२४ ) । णिग्घाय पुं [निर्घात ] १ आघात, 'रंगरतुंगतु रंगमखुरग्गनिग्धायवि हरियं धरणिं' (सुपा ३) । २ बिजली का गिरना ( स ३७५० जीव (१) । ३ व्यन्तर-कृत गर्जना (ठा १० ) । ४ विनाश ( सू १, १५ ) । णिग्वायण न [निर्घातन] नाश, विनाश, उच्छेदन (पडि सुपा ५०३) । णिग्घिण वि [निर्घुण] निर्दय, करुणा-रहित (गा ४५२; परह १, १; सुर २, ६१ ) । णिग्घेउं देखो णिगिन्छ । णिग्घोर वि [दे] निर्दय, दया-हीन (दे ४, ३७) । पाइअसद्दमहणव णिग्घोस पुं [निर्घोष ] महान् अव्यक्त शब्द (ह १; सम १५३) । णिबंटु पुं [निघण्टु] शब्द-कोश, नाम संग्रह ( श्रपः भग) । घिस [निकष ] १ कसौटी का पत्थर (अणु) । २ कसौटी पर की जाती सुवणं की रेखा (सुवा ३९१) । णिचय पुं [निचय] संग्रह, संचय (सूत्र १, १०, ६) । णिवय [निचय] १ समूह, राशि । २ उपचय, पुष्टि (श्रो ४०७; स ३६६; प्राचा महा) । णिचिअ वि [निचित] १ व्याप्त, भरपूर ( अजि ५) । २ निबिड़, पुष्ट (भग) । णिचुल पुं [निचुल] वृक्ष-विशेष, वंजुल वृक्ष ( स १११: कुमा) । णिश्च वि [नित्य] १ अविनश्वर, शाश्वत (प्राचाः श्रप) । २ न. निरन्तर, सर्वदा, हमेशा (महाः प्रासू १४; १०१ ) । च्छणिय वि ["क्षणिक ] निरन्तर उत्सववाला (गाया १, ४) । मंडिया स्त्री [मण्डिता ] जम्बू वृक्ष - विशेष ( इक ) । वाय [बाद ] पदार्थों को नित्य माननेवाला मतः 'सुहदुक्खसंपश्रोगो न जुज्जइ निच्चवायपक्वम्मिं (सम १८)। सो अ [°शस् ] सदा सर्वदा, निरन्तर (महा)। लोअ, लोग, लोग [लोक] १ एक विद्याधर राजा (पउम ६. ५२ ) । २ ग्रहाधिष्ठायक देव-विशेष (ठा २, ३) । ३ न नगर - विशेष ( पउम ६, ५२; इक) । ४ वि. सर्वदा प्रकाशवाला (कप्प ) । णिश्च देखो णीय = नीच (सम ५५ ) । णिश्चक्खु वि [निश्चक्षुस् ] चक्षु-रहित, नेत्रहीन, प्रन्धा (पउम ८२, ५१ ) । चट्ट (प) वि [ गाढ़ ] गाढ़, निबिड (हे ४, ४२२) । त्रिय देखो णिच्छ (प्रयौ २१ पि ३०१) । णिञ्चर देखो णिव्वर । रिणच्चरइ (हे ४० ३ टि ) । णिञ्चल सक [ क्षर् ] झरना, टपकना, चूना । लिइ (हे ४, १७३) । प्रयो. चिलावेइ (कुमा) । For Personal & Private Use Only णग्गिण्ड - णिच्छक णिश्चल सक [ मुच् ] दुःख को छोड़ना, दुःख का त्याग करना। चिलइ (हे ४, २ टि ) । भूका. णिच्चलीम (कुमा) । चिल वि [निश्चल ] स्थिर, दृढ़, अचल (हे २, २१; ७७) । पय न [पद] मुक्ति, मोक्ष (पंचव ४) । निश्चित वि [निश्चिन्त ] चिन्ता-रहित, बेफिक्र (विक्र ४३३ प्रासू २७; सुपा २२५) । चिट्ठ वि [निश्चेष्ट ] चेष्टा-रहित (सुपा १४) । णिश्चिद (शौ) देखो णिच्छिय ( पि ३०१ ) । णिच्चुज्जोअ पुं [नित्यो द्योत ] नन्दीश्वर द्वीप के मध्य की दक्षिण दिशा में स्थित एक अंजनगिरि (पव २६९ ) । णिच्चुज्जोअ ) वि [नित्योद्योत] १ सदा णिज्जीव) प्रकाशयुक्त । २ पुं- ग्रह-विशेष ज्योतिष्क देव विशेष (ठा २, ३ ) । ३ न. एक विद्याधर नगर (इक) । णिच्चुड्ड वि [दे] १ उदवृत्त, बाहर निकला हुप्रा ( षड् ) । २ निर्दय, दया- हीन ( पाच ) । चिविग्गवि [नित्योद्विग्न] सदा खिन्न (दस ५, २) । णिच्चेट्ठ देखो णिचिट्ठ (गाया १, २; सुर णिच्चेयण वि [निश्चेतन] चेतना-रहित ३, १७२) । (महा) । णिच्चोउया स्त्री [नित्यर्तुका ] हमेशा रजस्वला रहनेवाली स्त्री (ठा ५, २) । णिच्चोय सक [दे] निचोड़ना । निच्चोयइ ( कुप्र २१५ ) । णिच्चोरिक्क न [निचौर्य ] १ चोरी का प्रभाव । २ वि. चोरी - रहित ( उप १३९ टी ) । णिच्छइय वि [नैश्चयिक ] १ निश्चयसम्बन्धी । २ पुं. निश्चय नय, द्रव्यार्थिक नय, परिणाम-वाद (विसे) । णिच्छउमवि [निश्छद्मन् ] १ कपट रहित, माया - वर्जित (गणप सुपा ३५० ) । २ क्रिवि. बिना कपट (सार्धं ५१ ) । णिच्छक वि [दे] १ निर्लज्ज, बेशरम, घृष्ट, ढीठ (बृह १ वव ५ ) । २ अवसर को नहीं जाननेवाला, श्रसमयज्ञ ( राज ) । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिच्छम्म-णिज्जा पाइअसहमहण्णवो ३६५ णिच्छम्म देखो णिच्छउम (उव; साधं १४५) | णिच्छुभण न [निक्षेपण] निःसारण, | णिजण वि [निर्जन] १ विजन, मनुष्यणिच्छय सक [निर् +चि] निश्चय करना, निष्कासन (निचू १)। रहित, सुनसान। २ न. एकान्त स्थान (गउड)। निर्णय करना। वकृ. णिच्छयमाण (उप णिच्छुभाविय वि [निक्षेपित] निस्सारित णिज्जप्प वि [निर्याप्य] १ निर्वाह-कारक । ७२८ टी)। बाहर निकाला हुआ (णाया १,८)। २ निबल, बल को नहीं बढ़ानेवाला 'अरसणिच्छय पु' [निश्चय] १ निश्चय, निर्णय णिच्छुह सक [नि+क्षिप्] डालना। विरससीयलुवखणिजप्पपाणभोयणाई' (पएह (भगः प्रासू १७७)। २ नियम, अविनाभाव | निच्छुहइ (सुख ७,११)। २, ५)। (राज)। ३ नय-विशेष, द्रव्याथिक नय, णिकछुणा स्त्री [निक्षेपणा] बाहर निकलने मिलक णिज्जर सक [ निर् + जू] १ क्षय करना, वास्तविक पदार्थ को ही माननेवाला मत, की प्राज्ञा, निर्भत्सना (णाया १, १६ टो नाश करना । २ कर्म-पुद्गलों को प्रात्मा से परिणाम-वाद (बृह ४, पंचा १३)। कहा पत्र २००)। अलग करना । णिज्जरेइ, गिजरए, गिजरेंति स्त्री [कथा] अपवाद (निचू ५)। णिच्छूट वि [निक्षिन] १ उद्वृत्त, निर्गत (भग, ठा ४, १)। भूका. रिएजरिसु, रिणज्जणिच्छल्ल सक [छिद्] छेदना, काटना । (हे ४, २५८)। २ फेंका हुआ, निक्षिप्त रेंसु (पि ५७६, भग) । भवि. णिज्जरिस्संति पिच्छल्लइ (हे ४, १२४) । (प्रामा)। ३ निस्सारित, निष्कासित (णाया | (टा ४, १)। वकृ. णिज्जरमाण (भग १८, णिच्छल्लिअ वि [छिन्न] काटा हुआ (कुमा; १,८-पत्र १४६ १, १६-पत्र १९६)। ३)। कवकृ. णिज्जरिजमाण (ठा १०० स २५८ गउड)। णिच्छूट न [निष्ट थूत] थूक, खखार (विसे णिच्छाय वि [निश्छाय] कान्ति-रहित, | ५.१) । शोभा-हीन (पएह १, २)। णिच्छोड सक [निर + छोटय् ] १ बाहर णिज्जरण न [निर्जरण] नीचे देखो (प्रौप)। णिच्छारय वि [निस्सारक] सार-रहित, निकलने के लिए धमकाना। २ निर्भर्त्सन णिज्जरणा स्त्री [निर्जरणा] १ नाश, क्षय । 'निच्छारयछारयधूली' (श्रा २७)। करना। ३ छुड़वाना। णिच्छोडेइ, णिच्छोडेंति २ कर्म-क्षय, कर्म-नाश । ३ जिससे कर्मों का णिच्छिड्ड वि [निश्छिद्र] छिद्र-रहित (णाया (णाया १,१६,१८)। णिच्छोडेजा (उवा)। बिनाश हो ऐसा तप (नव १; सुर १४,६५)। १, ६, उप २११ टी)। संकृ. णिश्छोडइत्ता (भग १५)। णिज्जरा स्त्री [निर्जरा] कर्म-क्षय, कर्म-विनाश गिच्छिण्ण वि [निच्छिन्न] पृथक्-कृत, अलग णिच्छोडग न [निश्छोटन] निर्भत्सन, बाहर (प्राचा; नव २४)। किया हुआ, काटा हुआ (विसे २७३)।। निकालने की धमकी (उव)। णिज्जरिय वि [निर्जीर्ण] क्षीण, विनाशणिच्छिद्द देखो णिच्छिड्ड (स ३५०)। णिच्छोडणा स्त्री [निश्छोटना] ऊपर देखो प्राप्त (तंदु)। (णाया १, १६-पत्र १६६)। णिच्छिन्न देखो णिच्छिण्ण (पुप्फ ४६३; णिजव वि [निर्याप] निर्वाह करानेवाला णिच्छोडिअ वि [निश्छोटित] सफा किया | महा)। (पंचा १५, १४)। णिच्छिय वि [निश्चित निश्चित, निर्णीत, हुप्रा (पिंड २७६)। णिच्छोल सक [निर् + तक्ष ] छीलना, प्रसदिग्ध (णाया १, १; महा)। णिज्जवग वि [निर्यापक १ निर्वाह करने वाला । २ आराधक, आराधन करनेवाला छाल उतारना । निच्छोलेइ (निचू १)। वकृ. णिच्छीर वि [निःक्षीर] क्षीर रहित, दुग्ध (ोघ २८ भा)। ३ पुं. जैनमुनि-विशेष, णिच्छोलंत (निचू १) । संकृ.निच्छोलिऊण वजित (पएण १)। जो शिष्य के भारी प्रायश्चित्त का भी ऐसी (महा)। णिच्छुड वि [दे] निर्दय, करुणा-रहित (दे णिजातय वि [नियन्त्रित] नियमित, अंकुशित तरह से विभाग कर दे कि जिससे वह उसे निबाह सके (ठा ८ भग २५, ७) । ४, ३२)। (सुर ३, ४)। णिच्छुट्ट वि [निश्छुटित] निमुक्त, छूटा णिजिण्ण देखो णिजिण्ण (ठा ४, १)। | णिजवणा स्त्री [निर्यापना] १ निगमन, हुआ (सुर ६, ७२)। णिझुंज देखो णिउंज = नि + युज् । निमुंजइ दशित अर्थ का प्रत्युच्चारण (विसे २६३२) । णिच्छुभ सक [नि + क्षिप्] १ बाहर (कुप्र ३४८) । २ हिंसा (पएह १, १)। निकालना। फेंकरना । णिच्छुभइ (भग)। णिजुद्ध देखो णिउद्ध (निचू १२)। णिज्जवय देखो णिज्जवग (मोघ २८ भा टी कर्म. रिणच्छब्भइ (पि ६६) । कवकृ. णिच्छु- णिजोजण न [नियोजन] नियुक्ति, कार्य में द्र ४६)। भमाण विपा १,२)। सक.णिच्छुाभत्ता, लगाना, भारअर्पण (उप १७९ टो)। णिज्जविउ वि [निर्यापयितु] ऊपर देखो णिच्छुभिङ (भग; निर १, १)। प्रयो. णिजोजिय देखो णिओइय (उप १७६ टी)। (पव ६४)। रिणच्छुभावेइ (णाया १,८)। णिज वि [दे] सुप्त, सोया हुआ (दे ४, २५,णिज्जा अक [निर + या] बाहर निकालना। णिच्छुभ [[निक्षेप] निष्कासन (पिंड णिज्जायंति (भग)। भवि. णिज्जाइस्सामि ३७५)। | णिज्जंत देखो णी = नी। (औप)। वकृ. णिजायमाण (ठा ५, ३)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ पाइअसहमहणवो णिज्जाण न [निर्याण ] १ बाहर निकलना, | णिज्जुक्ति स्त्री [नियुक्ति ] व्याख्या, विवरण, निर्गम (ठा ५, ३) २ श्रावृत्ति रहित गमन टीका (विसे ६६५३ श्रोध २ : सम १०७ ) । ( श्रप) । ३ मोक्ष, मुक्ति (श्राव ४) । णिज्जुद्ध देखो णिउद्ध (स ४७० ) । णिज्य वि[नैर्याणिक] निर्याण संबन्धी, णिज्जूढ वि [निर्यूढ ] १ निस्सारित, निष्कानिगम-संबन्धी (भग १३, ६० नित्र ८ ) । ( १, १ –पत्र ६४) २ अमनोज्ञ, णिज्जामग। पुं [ निर्यामक ] कर्णधार, णिज्जामय । जहाज का नियन्ता (विसे २६५६; गाया १, १७: श्रौपः सुर १३, ४८) । णिज्जामण न [निर्यापन] बदला चुकाना, 'वेररिज्जामरणं' ( वव १ ) । णिज्जामय [निर्यामक] १ बीमार की सेवा-शुश्रूषा करनेवाला मुनि ( पव ७१) । २ वि. आराधना-कारक ( पव- गाथा १७) । णिज्जामिय वि [नियमित ] पार पहुँचाया हुआ, तारित (महा) । णिज्जाय पुं [दे] उपकार (दे ४, ३४) । णिज्जाय वि [निर्यात ] निर्गत, निःसृत (सु उप पृ २८९ ) । णिज्जायण न [निर्यातन] वैर-शुद्धि, बदला (महा) । णिज्जायणा स्त्री [निर्यातना] ऊपर देखो (उप ४३१ टी) । णिज्जा वय देखो णिज्जामय (भवि ) । णिज्जास पुं [निर्यास] वृक्षों का रस, गोंद, ( सू २, १) । णिज्जिअ वि [निर्जित] जीता हुधा, पराभूत ( श्रोध १८ भा टी; सुर ६, ३६६ श्रप) । णिज्जिण सक [निर् + जि] जीतना, पराभव करना । निजिरगइ (भवि) संकृ. निज्जिणिऊण; (महा) । गिजिणिय देखो णिज्जिअ ( सुपा २६) । णिजिण) वि [निर्जीर्ण] नाश प्राप्त, णिजिन्न | क्षीण (भग; ठा ४, १) । णिज्जीववि [निर्जीव ] जीव-रहित, चैतन्य वर्जित (प्रौपः श्रा २०; महा) । णिज्जुंज [निर् + युज ] उपकार करना (पिंड २६ टी) । णिज्जुत वि [निर्युक्त ] १ संबद्ध, संयुक्त (विसू १०८५६ श्रघ १ भा) । २ खचित, जड़ित ( श्रौप ) । ३ प्ररूपित, प्रतिपादित ( श्रावम) । असुन्दर (ओघ ५४८ ) । ३ उद्घृत, ग्रन्थान्तर से श्रवतारित ( दसनि १) । णिज्जूढ वि [नियू'ढ] रहित, 'निद्वाणं रसनिज्जूढं ' (दस ८, २२) । णिज्जूह सक [ निर् + यूह ] १ परित्याग करना । २ रचना, निर्मारण करना । कर्म. गिज्जू हिजइ (पि २२१) । हेकु. णिज्जू हित्तए (वव २) । कृ. णिज्जूहियव्व (कप्प ) । णिज्जूह पुं [दे. नियूँ ह] १ नीव्र, छदि, गृहाच्छादन, पाटन (दे ४, २८ स १०६) । २ गवाक्ष, गोख; ‘इय जाब चितए मंती गिज्जूहट्टियो' (धम्म ९ टी; वव १) । ३ द्वार के पास का काष्ठ- विशेष (गाया १, १पत्र १२ परह १, १ ) । ४ द्वार, दरवाजा (सुर २,८३) । णिज्जूहग वि [निर्यूहक ] ग्रन्थान्तर से विज्जूहण न [नियूँ हण] देखो णिज्जूहणा उद्धृत करनेवाला ( दसनि १, १४) । ( उत्त ३६, २५१; पव २ ) । णिज्जुहूणया [निर्यू हा ] १ निस्साणिज्जूहणा रण, बाहर निकालना (वव १) । परित्याग (ठा ४, २) । ३ विरचना, निर्माण (विसे ५५१) । णिज्जूहिअ देखो गिव्वूढ ( दसनि १, १५) । णिज्जूहिअ वि [नियूँ हित] रहित (पव १३४) । णिजोअ पुं १ प्रकार, राशि । २ पुष्पों का अवकर (दे ४, ३३) । णिज्जोअ ) पुं [नियोग ] १ उपकरण, णिज्जोग ) साधन (राय ४५ ४६ पिंड २६) । २ उपकार ( पिंड २६) । जिअ ) पुं [दे. निर्योग ] निज्जोग } सामग्रीः 'पायरिणजोगो' (प्रोघ परिकर, ६६८६ णायाः १, १ – पत्र ५४) । णिज्जोमि पुं [दे] रज्जू, रस्सी (दे ४, ३१) । णिज्झ श्रक [ स्निह ] स्नेह करना । णिज्झइ (प्राकृ २८) । For Personal & Private Use Only णिज्जाण - णिकिय णिज्झर अक [क्षि] क्षीण होना । णिज्भरह (हे ४, २०: षड् ) । वकृ. णिज्भरंत (कुमा ६, १३) । णिज्भर वि [दे] जी, पुराना (दे ४, २६) । णिज्भर पुं [निर्भर] झरना, पहाड़ से गिरता पानी का प्रवाह (हे १, १८, २, १० ) । किरण न [निर्भरण ] ऊपर देखो (पउम ε४, ५२: सुर ६, ६४, सुपा ३५५) । णिकरणी स्त्री [निर्भरणी] नदी, तरंगिणी (कुमा) । | णिउझा सक [नि+ध्यै] देखना, निरीक्षण करना । णिज्भाइ, णिज्भाइ (हे ४, ६ ) । वकृ. णिज्झाअंत, णिज्झाएमाण (मा ४ प्राचा २, ३, १ ) । संकृ. णिज्झाइऊण, णिज्भात्ता (महा; आचा) । गिझा सक [निर्+ध्यै] विशेष चिन्तन करना । संकृ. णिज्माइत्ता (प्राचा) । णिज्झाइ वि [निध्यायिन् ] देखनेवाला (प्राचा) । भाइ वि [निध्यातृ] देखनेवाला, निरीक्षक (उत्त १६; सम १५) । णिमात्तु वि [निर्ध्या ] प्रतिशय चिन्तन णिज्भाइय वि [निध्यात ] १ दृष्ट, विलोकित करनेवाला (ठा ) । ( स ३५२: धरण ४५ ) । २ न. दर्शन, निरीक्षरण (महा - पृष्ठ ५८ ) । णिज्झाडिय वि [निर्धाटित ] विनाशित (उप ६४८ टी) । णिज्य वि [] निर्दय, दया-रहित (दे ४, ३७)। णिज्भाय वि [निध्यात ] दृष्ट, विलोकित (सुर ६, १०८ सुपा ४४८ ) । णिज्भूर वि [दे] जीणं, पुराना (दे ४, २६) । णिज्भोड सक [छि ] छेदना, काटना । ज्झिाडइ (हे ४, १२४) । णिज्भोडण न [छेदन] छेदन, कत्तंन (कुमा) । णिज्भोसइन्तु वि [निर्दोषयितृ] क्षय करनेवाला, कर्मों का नाश करनेवाला ( श्राचा) । णिक वि [दे] १ टंक - च्छिन्न । २ विषम, श्रसमान ( ४, ५० ) । णिट्टंकिय वि [निष्टङ्कित ] निश्चित, श्रवधारित (सुपा २६० ) । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिट टुअ-णिण्व पाइअसद्दमहण्णवो ३६७ णिटुअ अक [क्षर ] टपकना, चूना। | ३६) । 'ट्रि वि [र्थिन् मुमुक्षु, मोक्ष का णिण्ण वि [निम्न] १ नीचा, मघस्तन (उत्त णिटुअइ (हे ४, १७३)। । इच्छुक (प्राचा)। १२ उव १०३१ टी)। २ क्रिवि. नीचे, अधः णिट् टुइअ धि [क्षरित टपका हुमा (पाम)। णिट्ठिय वि [नैष्ठिक] निष्ठा-युक्त, निष्ठावाला | (हे २, ४२)। णिटटुह अक [वि + गल] गल जाना, | (पएह २, ३)। णिज्णक्खु क्रि [निस्सारयति] बाहर निकानष्ट होना । णिट् टुहइ (हे ४, १७५)। णिदीव पु [निष्ठीव थूक, मुँह का पानी लता है, 'ठाणापा ठाणं साहरति, बहिया वा णि? देखो णिवा = नि+स्था । निदुइ (भवि) (रंभा)। रिणएणक्खु' (माचा २, २, १)। णिण्णगा स्त्री [निम्नगा] नदी, स्रोतस्विनी णिट्ठय । सक [नि + स्थापय ] १ समाप्त णिट्टीवण स्त्रीन [निष्ठीवन] थूक, खखार । णिट्ठव (पएण १; पण्ह २, ४)। २ थूकना (सट्ठि ७८ टी)। स्त्री 'णा (वव करना, पूर्ण करना । २ अन्त करना, णिण्ण? वि [निनष्ट] नाश-प्राप्त (सुर ६, खतम करना। ३ विशेष रूप से स्थापन ६२)। करना, स्थिर करना । भूका. पिट्ठवंसु (भग णिट् ठुअ न [निष्ठयूत] थूक (कुलक ३०)। णिग्णय पु [निर्णय] १ निश्चय, अवधारण २६. १) । संकृ. णिविध (पिंग)। कृ. णिट् ठुभय वि [निष्ठीवक थूकनेवाला (पएह | (हे १, ६३)। २ फैसला (सुपा ६६)। णिट्ठयणिज्ज (उप ५९७ टी)। २, १, प्रौप)। णिण्णया देखो णिण्णगा (पाम)। णिट्रवण न [निष्ठापन] १ अन्त करना, णिट् ठुयण देखो निट्ठीवण (चेइय ६३)। । णिण्णार वि [निर्नगर नगर से निर्गत (भग समाप्ति । २ वि. नाश-कारक, खतम करने णिट्ठुर , वि[निष्ठुर] निष्ठुर,परुष, कठिन वाला (सुपा १६१; गउड)। ३ समाप्त करनेणिट् ठुल (प्रातः हे १,२५४ पान; गउड)। णिण्णाला स्त्री [दे] चञ्चु, चोंच (दे ४, वाला (जी ५)। णिटुबय वि [निष्ठापक] समाप्त करनेवाला णिट् ठुवण न [निष्टीवन] १ थूक, खखार णिण्णास सक [निर + नाशय ] विनाश (आव ६)। (वव १) । २ वि. थूकनेवाला (ठा ५, १)। करना । वकृ. निन्नासिंत (सुपा ६५४)। णिविअ वि [निष्ठापित] १ समाप्त किया | णिट् ठुह अक [नि+ स्तम्भ ] निष्टम्भ |णिण्णास पुं[निर्णाश] विनाश (भवि)। हुमा (पंचव २)। २ विनाशित (से ६,१)। करना, निश्चेष्ट होना, स्तब्ध होना । पिट् ठु | णिण्णासिय वि [निर्णाशित] विनाशित णिवा अक [नि + स्था] खतम होना, हइ (हे ४, ६७; षड् )। (सुर ३, २३१, भवि)। समाप्त होना । गिट्ठाइ (विसे ६२७)। निट छह अक [नि+ष्ठी ] थूकना | णिण्णिद वि [निनिद्र] निद्रा-रहित (गा णिट्ठा स्त्री [निष्ठा] १ अन्त, अवसान, समाप्ति निट ठुहसी (तंदु ४१)। ९५६)। (विसे २८३३; सुपा १३) । २ सद्भाव (पाचू णिट ठुद्द वि [दे] स्तब्ध, निश्चेष्ट (दे ४, णिण्णिमेस वि [निनिमेष] १ निमेष-रहित, १)। भासि वि [भाषिन्] निष्ठा-पूर्वक बिना पलक झपकाये, एक-टक । २ चेष्टाबोलनेवाला, निश्चय-पूर्वक भाषण करनेवाला णिट् ठुहण न [दे. निष्ठीवन थूक, मुंह का | रहित । ३ अनुपयोगी (ठा ५, २)। णिण्णी सक [निर + णी] निश्चय करना । (प्राचा)। णिद्वाण न [निष्ठान] सर्व-गुण-युक्त भोजन | णिट् ठुहावण वि [निष्टम्भक] निश्चेष्ट करने- | संकृ. निण्णइउं (धर्मवि. १३६)। णिण्णीअ वि [निर्णीत] निश्चित, नक्की वाला, स्तब्ध करनेवाला (कुमा)। (दस ८, २२)। किया हुमा (श्रा १२)। णिद्राण न [निष्टान] १ दही वगैरह व्यञ्जन णि ठुहिअ न [दे] थूक, निष्ठीवन, खखार (दे ४, ४१)। णिण्णुण्णअ वि [निम्नोन्नत] ऊंचा-नीचा, (ठा ४, २; पएह २, ५) । २ समाप्ति (निचू णिड [दे] पिशाच, राक्षस (दे ४, २५)। विषम (अभि २०६)। १)। कहा स्त्री [कथा] भक्त-कथा-विशेष, णिडल न[ललाट] भाल, ललाट (पि णिण्णेह वि [निःस्नेह] स्नेह-रहित (हे ४, दही वगैरह व्यञ्जन की बात-चीत (ठा ४, | णिडाल २६०० पउम १००, ५७, सुपा ३६७; सुर ३, २२२; महा)। २)। २८)। णिण्हइया स्त्री [निहविका] लिपि-विशेष णिट्ठावण देखो णिट्ठवण (सुपा ३५७)। णिड्ड न [नीड] पक्षि-गृह (पान)। (सम ३५)। णिट्ठिय वि [निष्ठित] १ समाप्त किया हुआ, णिड्डहण न [निर्दहन] जला देना (उप ५६३ णिण्हग [निह्नव] १ सत्य का अपलाप पूर्ण किया हुअा (उप १०३१ टो; कम्म ४, | | टी)। णिण्हय करनेवाला, मिथ्यावादी (मोध ७४) । २ नष्ट किया हुआ, विनाशित (सुपा | णिड डह देखो णिट्टुअ । मिड डुहइ (कुमाः |णिण्हव । ४० भाठा ७; प्रौप) २ अप४४६) । ३ स्थिर (से ५, ७) । ४ निष्पन्न, | षड्)। लाप (सध ४१)। सिद्ध (माचा २, १, ९)। ५ पुं. मोक्ष, मुक्ति | णिणाय पु[निनाद] शब्द, आवाज, ध्वनि णिण्हव सक [नि + हनु] अपलाप करना। (माचा)। वि[ ]] कृतकृत्य (परण | (णाया १,१, पउम २,१०३; से ६,३०)। गिएणहवह (विसे २२६६ हे ४, २३६) । वाला गिदी, खखार (महा टम्मक] निश्चेष्ट का For Personal & Private Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना करने पार उतरनाख कायरात्रि ३९८ पाइअसहमहण्णवो णिण्हवग-णिय कर्म. णिएहवीशदि ( शौ) (नाट-रत्ना | णित्थणण न [निस्तनन] विजय-सूचक ध्वनि मए तीए' (सुर ६, ८२, उप ९९७ साधं ३६)। वकृ.णिण्हवंत, णिण्हवेमाण (उप (सुर २, २३३)। २११ टीः सुर ३, २०१)। | णित्थर सक [निर् + तृ] पार करना, णिदरिसण देखो णिदंसण (उवः उप ३८४)। णिण्हवग वि [निहावक] अपलाप करने- पार उतरना। रिपत्थरेइ (सुपा ४४६); णिदरिसिम वि [निदर्शित] उपदर्शित, बतवाला (ोघ ४८ भा)। 'णित्थरति खलु कायरावि पायनिज्जामय- लाया हुआ (धर्मसं १०००)। णिण्हवण न [निह्नवन] अपलाप (विपा १, गुणेण महएणव' ( स १६३ ) । कवकृ. णिदा स्त्री [दे] १ वेदना-विशेष, ज्ञान-युक्त २; उव)। णित्थरिजंत (राज)। कृ. णित्थरियव्व वेदना (भग १६, ५)। २ जानते हुए भी णिण्हवण वि [निह्नवन] अपलाप-कर्ता (णाया १, ३, सुपा १२६)। की जाती प्राणि-हिंसा (पिंड)। (संबोध ५)। णित्थरण न [निस्तरण] पार-गमन, पार- णिदाण देखो णिआण (विपा १, १; अंत णिण्हविद देखो णिण्हुविद (नाट-शकु प्राप्ति (ठा ४, ४उप १३४ टी)। १५; नाट–वेणी ३३)। १२६)। णित्थरिअ देखो णित्थिण्ण (उप १३४ टी)। णिदाया देखो णिदा (पएण ३५)। णिण्हुय वि [निहनुत] अपलपित (सुपा णित्थाण वि[निःस्थान] स्थान-रहित, स्थान |णिदाह ( [निदाघ] १ धर्म, घाम, उष्ण । २६८)। भ्रष्ट (णाया १, १८)। २ ग्रीष्म-काल, गरमी का मौसिम । ३ जेठ णिण्हुव देखो णिण्हव = नि + हू । कर्म. मास (आव ५)। णिएहुविज्जंति (पि ३३०)। जित्थाम वि [निःस्थामन्] निबल, कमजोर, णिदाह [निदाघ] तीसरा नरक का एक णिण्हुविद (शौ) वि [नि + हत] अप मन्द (पान गउड सुपा ४८६) । नरक-स्थान (देवेन्द्र ८)। लपित (पि ३३०)। णित्थार सक [निर् + तारय] १ पार णिदाह ' [निदाह] असाधारण दाह (प्राव णितिय देखो णिच (प्राचा: ठा १०)। उतारना, तारना । २ बचाना, छुटकारा णितुडिअ वि [नितुडित] टूटा हुआ, छिन्न देना। णित्थारसु (काल)। णिदेस पु [निदेश] प्राज्ञा, हुकुम (कुप्र (मच्चु ५४)। णित्थार पुं[निस्तार] १ छुटकारा, मुक्ति। ४२६)। णित्त देखो णेत्त (पाम; सुपा २६१, लहुअ २ बचाव, रक्षा । ३ उद्धार (गाया १,६ णिदेसिअ वि [निदेशित] १ प्रदर्शित । २ टी-पत्र १६६ सुर २, ५१, ७, २०१ उक्त, कथित (पउम ५, १४५) । णित्तम वि [निस्तमस् ] १ अन्धकार-रहित । सुपा २६६)। णिदोच्च न [दे] १ भय का प्रभाव । २ २ अज्ञान-रहित (अजि ८)। णित्थारग वि [निस्तारक] पार जानेवाला, | स्वास्थ्य, तंदुरुस्ती (पव २६८) । णित्तल वि [दे] अनिवृत्त (भग १५)। पार उतरनेवाला (स १८३)। णिभाण न [निद्राध्यान] निद्रा में होता णित्ति (अप) देखो णाइ (भवि) । णित्थारणा स्त्री [निस्तारण] पार-प्रापण, ध्यान, दुर्ध्यान-विशेष (माउ)। णित्तिस वि [निस्त्रिंश] निर्दय, करुणा-हीन पार पहुँचाना (जं ३)। णिबंद वि [निर्द्वन्द्व] द्वन्द्व-रहित, क्लेश-वजित (सुपा ३१५)। णिस्थारिय वि [निस्तारित] बचाया हुआ, (सुपा ४५५)। णित्तिरडि वि [दे] निरन्तर, अव्यवहित (दे | रक्षित, उद्धृत (भग; सुपा ४४६)। णिभ वि [निर्दम्भ] दम्भ-रहित, कपट-रहित ४,४०)। णिस्थिण्ण) विनिस्तीर्ण]१ उत्तीर्ण, पार- (सुपा १४७) । णित्तिरडिअ वि [दे] त्रुटित, टूटा हुमा (दे णित्थिन्न प्राप्त णिथिएणो समुई (सणिद्दडी (अप) देखो णिहा = निद्रा (पि ५६६)। ३६७)। २ जिसको पार किया हो वह, णिहडढ वि [निदग्ध] १ जलाया हुआ, णित्तुप्प वि[दे] स्नेह-रहित, घृत आदि से "रिणत्थिना आवया गरुई (सुर८.८९) भस्म किया हुआ (सुर १४, २६ अंत १५)। वजित (बृह १)। 'निथिएणभवसमुद्दों' (स १३६)। २ पुं. नृप-विशेष (पउम ३२,२२)। ३ रत्नणित्तुल वि [निस्तुल] १ निरुपम, असाधारण णिदंस सक [नि + दर्शय ] १ उदाहरण प्रभा-नामक नरक-पृथिवी का एक नरकावास (उप पृ ५३)। २ क्रिवि. असाधारण रूप बतलाना, दृष्टान्त दिखाना। २ दिखाना। (ठा ६)। मज्म पुं[मध्य] नरकावाससे 'परणहा नित्तुलं मरसि' (सुपा ३४५)। रिणदंसेइ (पिंग )। वकृ. णिदंसंत (सुपा विशेष, एक नरक-प्रदेश (ठा ६)। वित्त पुं णित्तुस वि [निस्तुष] तुष-रहित, भूसा | ८६)। [वर्त] नरकावास-विशेष (ठा ६)। से रहित, विशुद्ध (पएह २, ४, उप १७९ णिदसण न [निदर्शन] १ उदाहरण, दृष्टान्त | सिह पुं [वशिष्ट] नरक-प्रदेश-विशेष टी)। (अभि २०३) । २ दिखाना (ठा १०)। । (ठा ६)। णित्तेय वि [निस्तेजस् ] तेज-रहित (णाया णिसिअ वि [निदर्शित प्रदर्शित, दिखाया णिदय वि [निर्दय] दया-हीन, करुणा-रहित, हुमाः ‘एवं विचितिऊणं निर्दसिमो नियकरो । निष्ठुर (पएह १, १७ गउड)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ । (श्रा २७)। णिद्दलण-णिद्धम पाइअसद्दमहण्णवो णिद्दलण न [निर्दलन] १ मर्दन, विदारण णिदिस सक [निर् + दिश] १ उच्चारण णिद्धम वि [दे] अविभिन्न-गृह, एक ही घर (आचा)। २ वि. मर्दन करनेवाला (वजा | करना, कथन करना। २ प्रतिपादन करना, में रहनेवाला (दे ४,३८)। निरूपण करना। निद्दिसइ (विसे १५२६)। णिद्धमण न [दे] खाल, मोरी, पानी जाने का णिद्दलिअ वि [निर्दलित] मर्दित, विदारित कर्म. णिहिसइ (नाट-मालवि ५३)। हेव. रास्ता (दे ४, ३६; उर २, १०० ठा ५, १, (पाम सुर ५, २२२, साधं ७९)। निद्देट हुँ (पि ५७६)। कृ. णिहिस्स, | भावमः तंदुः उवः गाया १, २)। णिदह सक [निर + दह ] जला देना, णिद्देस (विसे १५२३)। णिद्धमण न [निर्मान] १ तिररकार, प्रवभस्म करना। निद्दहइ (महा. उप)। णिद्द-णिदुदुक्ख वि [निर्दुःख दुःख-रहित, सुखी | हेलना (उप पू ३४६)। २. यक्ष-विशेष हेज्जा (पि २२२)। (सुपा ५३७)। (माव ४)। णिहा प्रक [नि + द्रा] निद्रा लेना, नोंद मिटरटेनेजारी देश-विशेष (इक)।। णिद्धमाय वि [दे] अविभिन्न-गृह, एक ही घर करना। णिद्दाइ (षड्) । वकृ.णिदाअंत |णिदूसण वि [निर्दूषण] निर्दोष (धर्मवि में रहनेवाला (दे ४, ३८)। २०)। णिद्धम्म वि [दे] एकमुख-यायी, एक ही तरफ णिद्दा स्त्री [निद्रा] १ निद्रा, नींद (स्वप्न ५९; णिद्देस ' [निर्देश] १ लिग या अर्थ-मात्र का जानेवाला (दे ४, ३५)। कप्यू)। २ निद्रा-विशेष, वह निद्रा जिसमें कथन (ठा ८-पत्र ४२७)। २ विशेष का णिद्धम्म वि [निर्धर्मन] धर्म-रहित, अधर्मी एकाध मावाज देने पर ही प्रादमी जाग उठे अभिधान, 'अविसेसियमुद्देसो विसेसियो होइ (कम्म १,११)। अंत वि [वत् ] निद्रानिद्देसो' (विसे १४६७; १५०३)। ३ णिद्धय वि [दे] देखो णिद्धम (दे४, ३८)। युक्त, निद्वित्त (से १, ५६)। करी स्त्री निश्चय पूर्वक कथन (विसे १५२६)। ४ प्रति | णिद्धाइऊण देखो णिद्वाव। [°करी लता-विशेष (दे ७, ३४)। "णिद्दा | पादन, निरूपण (उत्त १; णंदि)। ५ आज्ञा, णिद्वाड सक [निर + धाट्य] बाहर निकाल स्त्री [निद्रा] निद्रा-विशेष, वह निद्रा जिसमें | हुकुम (पान, दस ६,२)। ६ वि. जिसको देना । कर्म. निद्धाडिजई (संबोध १६)। बड़ी कठिनाई से भादमी उठाया जा सके देश-निकाले की आज्ञा हुई हो वह (पउम ४, णिद्धाडण न [निर्धाटन] निस्सारण, निष्का(कम्म १, ११; सम १५)। "ल, लु वि ८२)। सन, बाहर निकालना (पएह १,१)। [°वत् ] निद्रावाला (संक्षि २०; पि ५६५; णिदेसग, वि [निर्देशक निर्देश करने- णिद्धाडाविय वि [निर्धाटित] अन्य द्वारा प्राप्र)। "वअ वि [ प्रद] निद्रा देनेवाला णिसय वाला (विसे १५०६ १५००)। बाहर निकलवाया हुआ, अन्य द्वारा निस्सारित सि ६, ४३)। णिद्दोत्थ न [निदौःस्थ्य] १ दुःस्थता का (महा)। णिद्दाअ वि [निद्रात] जो नींद में हो (से १, णिद्धाडिय वि [निर्धाटित] निस्सारित, प्रभाव (वव ४)। २ वि. स्वस्थ, दुःस्थता- | ५६)। रहित (वव ७)। निष्कासित (पामा भवि)। णिद्दाअ वि [निर्दाव] अग्नि-रहित (से १, णिद्धारण न [निर्धारण] १ गुण या जाति ५६)। णिद्दास विनिदाष पाषाहत, पण मादि को लेकर समुदाय से एक भाग का णिद्दाअ वि [निय] दाय-रहित, पैतृक धन वजित, विशुद्ध (गउडः मुर १, ७३)। पृथकरण। २ निश्चय, अवधारण (विसे से वजित (से १, ५६)। णिद्ध न [स्निग्ध] स्नेह, रस-विशेष (ठा १ ११६८)। अग)। २ वि. स्नेह-युक्त, चिकना (हे २, णिद्धाव सक [निर+धान दौड़ना। णिद्दाइअ वि [निद्रित] निद्रा-युक्त (महा)। १०६ उवः षड)। ३ कान्ति-युक्त, तेजस्वी संकृ. णिद्धाइऊण (महा)। णिहाणी स्त्री [निद्राणी] विद्यादेवी-विशेष (बृह ३)। णिद्धाविय वि [निर्धावित] दौड़ा हुमा, (पउम ७, १४४)। णिद्धत वि [निर्मात अग्नि-संयोग से विशो- धावित (महा)। णिदाया देखो णिदा (पएण ३५)। धित, मल-रहित (पराह १, ४, प्रौप)। णिद्भुण सक [निर् + धू] १ विनाश णिद्दारिअ वि [निर्दारित] खण्डित, विदारित |णिद्धंधस वि [दे] १ निर्दय, निष्ठुर (दे ४, करना। २ दूर करना। संकृ. निडुणे, णिधूय (५, ८३, १३, ६५)। ३७, मोघ ४४५, पामा पुप्फ ४५४, सद्धि (दस ७, ५७सूम १, ७)। णिद्दाव वि [निर्दाव] १ दावनल-रहित । २. २६; सुपा २४५; श्रा ३६)। २ निर्लज्ज, णिझुणिय , वि [निर्धूत] १ विनाशित, जंगल-रहित (से ६, ४३)। बेशरम (विवे १२८)। | णिद्धय नष्ट किया हुमा। २ अपनीत णिहिट विनिर्दिष्ट] १ कथित, उक्त (भग)। जिण विनिर्धन] धन-रहित. अकिंचन (सुपा ५६६: प्रौप)। २ प्रतिपादित, निरूपित (पंचा ३ दंस)। (हे २, १०णाया १, १८ दे ४, ५, उप णिम वि [निर्धूम] १ धूम-रहित (कप्प; णिदिद, वि[निर्देष्ट्र] निर्देश करनेवाला ७६ टी; महा)। पउम ५३, १०)। २ एक तरह का अपलक्षण (विसे १५०४ विक्र ६४)। |णिद्धण्ण वि [निर्धान्य] धान्य-रहित (तंदु)।। (व २)। For Personal & Private Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० पाइअसहमहण्णवो णिय-णिप्पुलाय णिय देखो णिद्धय (जीव ३)। करना, पंख तोड़ना। णिप्पंखेति (विपा १, | णिप्परिग्गह वि [निष्परिग्रह] परिग्रह-रहित णिद्धोअ वि [निधौत] १ धोया हुआ (गा ८)। (उत्त १४)। ६३६ से १४, १६; स १६१)। २ निर्मल, णिप्पंद वि [निष्पन्द] चलन-रहित, स्थिर णिप्पलिवयण वि [निष्प्रतिवचन] निरुत्तर, स्वच्छ, 'निरोयउदयकंखिर-(वजा १५८)। । (से २, ४२)। उत्तर देने में असमर्थ (सम ६०)। णिद्धोभास वि [स्निग्धावभास] चमकीला, णिप्पकंप वि [निष्प्रकम्प] कम्प-रहित, स्थिर णिप्पसर वि [निष्प्रसर] प्रसर-रहित, स्निग्धपन से चमकता (णाया १,१-पत्र ४)। (सम १०६ परह २, ४)। जिसका फैलाव न हो (पि ३०५)। णिधण न [निधन] विनाश, मृत्यु, मौत | णिप्पक्ख वि [निष्पक्ष पक्ष-रहित (गउड)। |णिप्पह देखो णिप्पभ (से १०, १२, हे २, (नाट-मृच्छ २५२)। | णिप्पगल वि [निष्प्रगल] टपकनेवाला, झरने | ५३)। णिधत्त वि [निधत्त] निकाचित, निश्चित वाला, चूनेवाला (मोघ ३५, प्रोघ ३४ भा)। णिप्पाइय देखो णिप्फाइय (कुप्र १६६) । (ठा -पत्र ४३४)। णिप्पच्चवाय वि [निष्प्रत्यवाय] १ प्रत्यवाय- | णिप्पाण वि [निष्प्राण] प्राण-रहित, निर्जीव णिधत्त न [निधत्त] १ कर्मों का एक तरह रहित, निर्विघ्न (प्रोघ २४ टी)। २ निर्दोष, का अवस्थान, बधे हुए कर्मों का तप्त सूची- विशुद्ध, पवित्र, 'णिप्पच्चवायचरणा कर्ज णिप्पाल देखो णेपाल (धर्मवि १६)। समूह की तरह अवस्थान । २ वि. निबिड़ | साहति' (सार्ध ११७)। णिप्पाव पुं[निष्पाप] एक दिन का उपवास भाव को प्राप्त कर्म-पुदल (ठा ४, २)। णिप्पच्छिम वि [निष्पश्चिम १ अन्तिम, (संबोध ५८)। णिधत्ति स्त्री [निधत्ति करण-विशेष, जिससे अन्त का (से १२, २१)। २ परिशिष्ट, णिप्पाव देखो णिप्फाव (पि ३०५)। कर्म-पुद्गल निबिड़ रूप से व्यवस्थापित होता है णिप्पिच्छ वि [दे] १ ऋजु, सरल । २ दृढ़, अवशिष्ट, बाकी का; 'णिप्पच्छिमाई असई (पंच ५)। दुक्खालोपाई महुअपुप्फाई (गा १०४)। मजबूत (दे ४, ४६)। णिधम्म देखो गिद्धम्म % निर्धमन् (मोघ ३७ णिप्पट्ट वि[दे] अधिक (दे ४, ३१)। णिप्पिट्ट वि [निष्पिष्ट] पीसा हुआ (दे ८, भा)। णिप्पट्ट वि [निःस्पष्ट] अस्पष्ट, अव्यक्त।। २० सरण)। णिधाण देखोणिहाण (नाट-महावीर १२०)। 'पसिणवागरण वि[प्रश्नव्याकरण] निरु- | णिप्पिट्ट न [निष्पिष्ट] पेषण की समाप्ति णिधूय देखो णिझुण। त्तर किया हुआ (भग १५ णाया १,५; । (पिंड ६०२)। उवा)। णिप्पिवास वि [निष्पिपास] पिपासा-रहित, णिन्नाम सक [निर + नमय ] नमाना, तृष्णा-वर्जित, निःस्पृह (पण्ह १, १; णाया झुकाना। णिन्नामए (सूम १, १३, १५)। णिप्पट्ट वि [निःस्पृष्ट] नहीं छूआ हुआ । पसिणवागरण वि [प्रश्नव्याकरण] १, १, सुर १, १३)। णिनीय देखो णिण्णीअ (धर्मवि ५)। निरुत्तर किया हुआ (भग १५)। णिप्पिवासा स्त्री [निष्पिपासा] स्पृहा का णिपट्ट न [दे] गाढ़ (प्राकृ ३८)। |णिप्पडिझम्म वि [निष्प्रतिकर्मन्] संस्कार अभाव (वि १८)। णिपडिय वि [निपतित] नीचे गिरा हुआ | रहित, परिष्कार-वजित, मलिन (सम ५७; | णिप्पिह वि [निःस्पृह] स्पृहा-रहित, निर्मम (सण)। सुपा ४८५)। (हे २, २३, उप ३२० टी)। णिपा सक [नि+पा] पीना । संकृ. निपीय णिप्पडियार वि [निष्प्रतिकार] निरुपाय, |णिप्पीडिअ वि [निष्पीडित] दबाया हुआ (सम्मत्त २३०)। प्रतिकार-वजित (पराह २, ४) । (से ५, २५)। णिपाइ वि [निपातिन्] १ नीचे गिरने | णिप्पीलण न [निष्पीडन] दबाव, दबाना णिप्पणिअ वि[दे जल-धौत, पानी से धोया बाला। २ सामने गिरनेवाला (सून १, ५) । (प्राचा)। | हुआ (षड् )। णिपूर पु[निपूर] नन्दीवृक्ष (प्राचा २, १, णिप्पण्ण देखो णिप्फण्ण (गा ६८९)। | णिप्पीलिय देखो णिप्पीडिअ। २ निचोड़ा हुमाः निप्पीलियाई पोत्ताई' (स ३३२)। णिप्पण्ण वि [निष्प्रज्ञ] बुद्धि-रहित, प्रज्ञा-णिप्पंसण न [निष्पुंसन] १ पोंछना, णिप्पअंप देखो णिप्पकंप (से ६, ७८)। शून्य (उप १७६ टी)। मार्जन । २ अभिमर्दन (हे२, ५३)। णिप्पएस वि [निष्प्रदेश १ प्रदेश-रहित । णिप्पत्त वि [निष्पत्र] पत्र-रहित (गा ८८७ णिप्पुन वि [निष्पुण्य] पुण्य-रहित (कुप्र २ पुं. परमाणु (विसे)। वव १)। ३१८)। णिप्पंक वि[निष्पङ्क ] कर्दम-रहित, पाँक णिप्पत्ति । देखो णिप्फत्ति (पंचा १८ संक्षि णिप्पद्दि६)। णिप्पुन्नग वि [निष्पुण्यक] १ पुण्य-रहित । रहित (सम १३७७ भग)। २ पुं. स्वनाम-ख्यात एक कुलपुत्र (सुपा ५४५)। णिप्पकिय वि [निष्पकिन् ] पंक-रहित | णिप्पन्न देखो णिप्पण्ण (कुप्र २०८)। णिप्पुलाय पुं[निष्पुलाक] आगामी चौबीसी (भवि)। णिप्पभ वि [निष्प्रभ] निस्तेज, फीका में होनेवाले एक स्वनाम-ख्यात जिन-देव (सम णिप्पंख सक [निर + पक्षय ] पक्ष-रहित (महा)। For Personal & Private Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिप्पुलाय-णिब्भन्छणा पाइअसहमहण्णवा ४.१ णिप्पुलाय वि [निप्पुलाक] नारित्र-दोष से णिप्फुर पु [निम्फुर] प्रभा, देज (गउछ।। णिवोह [निबोध : प्रकृट बाध, उत्तम रहित (दस १०, १। णिप्फेड [निस्फेट] निर्गमन, बाहर निक- ज्ञान । २ अनेक प्रकार का बोध (विसे णिफंद देखा गिप्पंद । हे २. 22. गाया लना : उप पृ २५२)। २१८७)। १, २, सुर ३, १७२) । गिफेडय वि [निस्फेटक] बाहर निकालन-णि नोहण न नियोधन अवाच. समझाना णिप्फंस वि [दे] निस्त्रिंश, निर्दय। पह)। वाला । सूअ २, २, ८५.)। (पउम १०२, १२। णिप्फज अक [निर + पद्] नोपजना, उप- णिप्फे डय वि [निस्फेाटत] १ निस्सारित, णिबंध पुं [निर्वन्ध] अाग्रह (गा ६७५: जना, सिद्ध होना। गिफजइ (म ६१६)। निष्कासित (सून २, २)। २ भगाया हुआ. महः पुर ३,८ वकृ.णिप्फज्जमाण (पण्ह १, ४)। नसाया हुआ (पुप्फ १२५)! ३ अपहृत, छीना णिबंधण न [निर्वत निबन्धन हेतु, णिप्फडिअ वि [निस्फटित] १ विशीरणं। हुपा (ठा ३, ४)। कारण, 'सारी रियनिवणं धणं' (काल)। २ जिसका मिजाज ठिकाने पर न हो। ३ णिप्फेडिया स्त्री [नि फेटिका] अपहरण, गिव्य देखो णिब्बल-र+पद् । गिब्यअंकुश-रहित (उप १२८ टी)। | चोरी; एसा पढमा सीसनिप्फेडिया' (सुख २, लय (प्राकृ ६४।। णिप्फण्ण वि [निप्पन्न नीपजा हुमा, बना, १३; पव १०७)। ____णिव्बल वि [निर्वल] बल-रहित- दुर्बल हुप्रा, सिद्ध (से २, १२: महा)। णिप्फेस पुंदे] शब्द-निर्गम, आवाज निक- (प्राचा)। णिप्फत्ति वि [निष्पत्ति] निष्पादन, सिद्धि । लना (दे ४, २६)। णिब्बहिं प्र[निर्बहिस्] अत्यन्त बाहर (ठा (उवः उप २८० टी; साधं १०६)। णिप्फेस पुं[निष्पेष] १ पेषण, पीसना।। ६-पत्र ३५२) । णिष्फन्न देखो णिप्फण्ण (कप्पः णाया १, २ संघर्ष (हे २, ५३)। णिब्बाहिर वि [निर्बाह्य] बाहर का, बाहर |णिबंध सक [नि + बन्ध् ] १ बाँधना । २ गया हाः 'संजमनिब्बाहिरा जाया' (उवा)। णिप्फरिस वि [दे] निर्दय, दया-हीन (दे ४, २ करना । निबंधइ (भग)। णिबुक्क वि [दे] १ निर्मूल, मूल-रहित । २ ३७)। णिवंध सक [नि + बन्ध् ] उपार्जन करना।। क्रिवि. मूल से; 'रिणब्बुक्कछिएणधय-' (पग्रह णिप्फल वि [निष्फल] फल-रहित निरर्थक बिति (पंचा ७.२२) १, ३-पत्र ४५)। (से १४, २६; गा १३६)। णिबंध पुन [निबन्ध] १ संबन्ध, संयोग णिब्बुड्ड देखो णिबुड्ड % निमग्न (स ३६०; णिप्फाअ देखो णिप्फाव (प्राप्र)। (विसे ६६८)। २ आग्रह, हठ (महा); गउड)। णिप्फाइऊण देखो णिप्फाय । 'रिणबन्धारिण' (पि ३५८)। णिभंछण देखो णिब्भच्छण (उव ३०३)। णिप्फाइय वि [निष्पादित] नोपजाया हुआ, णिबंधण न [निबंधन] कारण, प्रयोजन, णिभंजण न [दे] पक्वान्न के पकाने पर जो बनाया हुआ, सिद्ध किया हुआ (विसे ७ टीः निमित्त (पान; प्रासू ६६)। शेष घृत रहता है वह (पभा ३३)।। उप २११ टी; महा)। णिबद्ध वि [निबद्ध] १ बँधा हुआ (महा)। णिभंत वि [निर्धान्त] निःसंदेह, संशयणिप्फाय सक [निर + पादय् ] नीप २ सयुक्त, संबद्ध (से ६,४४)। | रहित (ति १४)। जाना, बनाना, सिद्ध करना । संकृ. गिप्फाइ णिबिड वि [निबि] सान्द्र, घना, गाढ़ णिब्भग्ग न [दे] उद्यान, बगीचा (दे ४, ऊण (पंचा ७)। (गउडः कुमा)। णिप्फायग वि [निष्पादक] नीपजानेवाला, णिविडिय वि [निबिडित] निबिड़ किया णिब्भग्ग वि [निर्भाग्य] भाग्य रहित, कमबनानेवाला, सिद्ध करनेवाला (विसे ४८३; हुप्रा (गउड)। नसीब, प्रभागा (उप ७२८ टी; सुपा ३८५)। ठा ६ उप ०२८)। णिबुक्क [दे देखो णिब्बुक्क (पराह १, ३-- णिभच्छ सक [निर + भर्स 1१ तिरणिप्फायण न [निष्पादन] नीपजाना, निर्माण, कृति (प्राव ४)। पत्र ४६)। स्कार करना, अपमान करना, अवहेलना णिबुड प्रक[नि+मज् ] निमजन करना, करना. आकोश-पूर्वक अपमान करना । णिप्फाव पुं निष्पाव] धान्य-विशेष, वल्ल डूबना। वकृ. णिवुड्डिजंत, निबुड्डमाण . गिब्भच्छेइ, णिभच्छेजा (णाया १, १८ (हे २, ५३; पएण १, ठा ५, ३ श्रा १८)। ' (अच्यु १३; उवा)। उवा) । संकृ. णिब्भच्छिअ (नाट-मालती णिप्फाव [निष्पाव] एक माप, बॉट-विशेष णिबड़ विनिमन] डूबा हुमा, निमग्न (गा १७१)। (अणु १५५)। ३७ सुर ३, ५१, ४, ८०)। णिभच्छण न [निर्भर्मन] तिरस्कार, ड भक न+स्फिद बाहर णिबण न [निमज्जन] डूबना, निमजन ___अपमान, परुष वचन से पहेलना (पएह १. निकलना। वकृ. णिप्फिडंत (स ५७४)। (पउम १०, ४३)। ३: गउह)। णिप्फिडिअ वि [निस्फिटित निर्गत, बाहर णिबोल देखो णिबुद्ध = नि + मस्ज । वकृ. णिमल्छणा श्री [निर्भर्त्सना] ऊपर देखो निकला हुमा (पउम ६, २२७, ८०, ६०)। णिवोलिजमाण (राज)। (भग १५ रणाया १.१६)। ५१ For Personal & Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ पाइअसहमहण्णवो णिब्भच्छिअ-णिम्म णिभच्छिा वि [निर्भसित] अपमानित, णिभिअ । देखो णिहुअ (परह २, ३, गा (सूघ २, २) । ३ शास्त्र-विशेष, भविष्य प्रादि अवहेलित (गा ८६८; सुपा ४.७)। णिभुअ J८००)। जानने का एक शास्त्र (ोघ १६; भा ८)। णिन्भय बि [निर्भय] भय-रहित, निडर णिभेल सक [निर् + भेलय ] बाहर करना। ४ अतीन्द्रिय ज्ञान में कारण-भूत पदार्थ (ठा (णाया १, ४, महा)। कवकृ.णिभेल्लंत (पएह १, ३-पत्र ४५)। ८)। ५ जैन साधुनों की भिक्षा का एक दोष णिभर सक[निर+भृ] भरना, पूर्ण णिभेलण नदे] गह, घर, स्थान (कप्प)। (ठा ३, ४) । पिंड [पिण्ड भविष्य करना । कवकृ. णिब्भरत (से १५, ७४)। णिम सक नि+असा स्थापन करना । प्रादि बतला कर प्राप्त की हुई भिक्षा (आचा णिभर वि [निभर] १ पूर्ण, भरपूर (से १०, णिमइ (हे ४, १६६ षड् )। णिमेइ (पि २, १,६)। १७)। २ व्यापक, फैलनेवाला (कुमा)। ३ ११८) । वकृ. णित (से १, ४१)। णिमित्ति वि [निमित्तिन्] निमित्त-शास्त्र का क्रिवि. पूर्ण रूप से 'मेघो य रिणब्भरं वरिसई' जानकार (कुप्र ३७८)। णिमंत सक [नि + मन्त्रय ] निमन्त्रण देना, (प्रावम)। णिमित्तिअ देखो मित्तिअ (सुपा ४०२) । न्यौता देना । रिणमंतेइ (महा)। वकृ. गिनणिभिद सक [निर + भिताड़ना, विदा णिमिल्ल अक [नि+मोल ] भाँख मूंदना, तेमाण (प्राचा २, २. ३) । संकृ.णिमंतिरण करना । कवकृ णिभिजत, णि भ प्राख मोचना । रिणमिल्लइ (हे ४, २३२) । जमाग (से १४, २६, भग १८, २, जीव ऊण (महा)। णिमिल्ल वि [निमीलित जिसने नेत्र बंद णिमंतण न [निमन्त्रग] निमन्त्रण, न्यौता, किया हो, मुद्रित-नेत्र (से ६,६१, ११, ५०)। णिभिच वि [निर्भीक] भय-रहित, निडर बुलावा (उप पृ ११३)। णिमिल्लण देखो णिमीलण (राज)। (सुपा १४३, २४६; २७५) । | णिमंतणा स्त्री [निमन्त्रणा] ऊपर देखो (पंचा णिमिस अक [नि + मिष् ] आँख मूदना । १२)। णिभिज्जत र णिमंतिय वि [निमन्त्रित] जिसको न्यौता निमिसंति (तंदु ५३)। णिभिज्जमाण देखा गणाच्भद। णिमिस पुं [निमिष] नेत्र-संकोच, अक्षिपिडिभट्ट वि [दे] आक्रान्त (भवि) । दिया गया हो वह (महा)। णिमग्ग वि [निमग्न] डूबा हुआ (पउम णिनिभण्ण वि [निर्भिन्न] १ विदारित, तोड़ा मीलन, पलक मारने भर का समय (गा ३८५; सुपा २१६; गउड)। हुआ (पान) । २ विद्ध (से ५, ३४)। १०६, ४; प्रौप)। जला स्त्री [°जला] णिमीलण न [निमीलन] अक्षि-संकोच (गा नदी-विशेष (जं ३)। णिभीअ वि [निर्भीक] भय-रहित, निडर ३६७, सून १, ५, १, १२ टी)। (से १३, ७०)। णिमज्ज अक [नि+मरज] डूबना, निम |णिमीलिअ वि [निमीलित] मुद्रित (नेत्र) णिभुग्ग वि [दे] भग्न, खण्डित (दे ४, जन करना। णिमजइ (पि ११८) । वकृ. (गा १३३; से ६, ८६ महा)। ३२)। णिमज्जंत (गा ६०६, सुपा १४)। निमिश्री एक विद्याधर-नगर णिभुय देखो णिभुअ (चेइय ५८६)। णिमज्जग विनिमज्जका १ निमजन करनेणिब्भव [निर्भेद] भेदन, विदारण (सुपा वाला। पुं. वानप्रस्थाश्रमी तापस-विशेष, जो णिमे सक [नि+मा] स्थापन करना । ३२७)। स्नान के लिए थोड़े समय तक जलाशय में णिमेसि (गउड)। णिब्भेयण न [निर्भेदन] ऊपर देखो (सुर । निमग्न रहते हैं (प्रौप)। णिमेण न [दे] स्थान, जगह (दे ४, ३७) । २, ६६)। णिमज्जण न [निमज्जन] डूबना, जल-प्रवेश णिमेल स्त्रीन [दे] दन्त-मांस (दे ४, ३०) । णिभरिय वि [निर्भरित] प्रसारित, फैलाया (सुपा ३५४)। स्त्री. °ला (दे ४, ३०)। हुअा (उन १२, २६)। णिमाणिअ देखो णिम्माणि - निर्मानित णिमेस पुं[निष] निमीलन, अक्षि संकोच, णिभ देखो णिह = निभ (उवः जं ३)। (भवि)। पलक का गिरना, पलक (श्रा १६; उव)। णिभच्छा देखो णिभच्छण (पिंड २१०)। णि म सक [नि + युज ] जोड़ना। णिमेइ णिमेसि देखो णिमे । णिभंग पुं[निभङ्ग भजन, खण्डन, त्रोटन (प्राकृ ६७)। णिमेसि वि [निमेपिन] प्रांख मूंदनेवाला णिमिअ विन्यस्त स्थापित, निहित (कुमाः । मा (सुपा ४४)। णिभाल सा [नि+भालय 1 देखना, से १, ४२; स ६, ७६० सण)। णिम्म सक [निर + मा] बनाना, निर्माण निरीक्षण करना । रिणभालेहि (प्रावम)। णिमिअ वि [दे] पाघ्रात, सूंघा हुआ (षड् )। करना । णिम्मइ (षड्)। णिम्मेइ (धम्म वकृ. णिमालयंत (उप पृ ५३) । कवकृ. णिमिण देखो णिम्माण = निर्माण (कम्म १, १२ टी) । कवकृ. णिम्माअंत (नाटणिमालिजंत (उप ६८६ टी)। २५)। मालती ५४)। णिमालिय वि [निभालिस] दृष्ट, निरीक्षित णिमित्त न [निमित्त] १ कारण, हेतु (प्रासू णिम्म पुंस्त्री [नैम] जमीन से ऊँचा निकलता (उप पृ ५८)। १०४)।२ कारण-विशेष, सहकारि कारण प्रदेश (राय २७) । For Personal & Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिम्मइअ - णिम्मोअणी पाइअसहमहण्णवो णिम्मइअ वि [निर्मित ] रचित, कृत (गा णिम्मल्ल न [निर्माल्य ] देव का उच्छिष्ट ५००; ६०० प्र ) । द्रव्य देवता पर चढ़ाई हुई वस्तु का बचा खुचा ( हे १, ३८ षड् ) । णिम्मव सक [निर् + मा] बनाना, रचना, करना । णिम्मवइ (हे ४, १६: षड् ) । कर्म. निम्मविजंति (वजा १२२) । मिव स [ निर + मापय् ] बनवाना, कराना (ठा ४, ४ कुमा) । जिम्मवत्तु वि [निर्मापयितृ] बनवानेवाला (ठा ४, ४) । णिम्मवण न [निर्माण ] रचना, कृति (उप ६४८ टीपा २३, ६५, ३०५) । णिम्मवण न [ निर्माण ] बनवाना, कराना (कप्पू) । णिम्मविअवि [निर्मित ] बनाया हुआ, रचित (कुमाः गा १०१ सुर १६, ११) । णिम्मविअ वि [निर्मार्पित] बनवाया हुआ (कुमा) । णिम्मह सक [गम् ] १ जाना, गमन करना । २ . फैलना । णिम्महइ (हे ४, १६२ ) । कु. णिम्मत निम्महमाण ( से ७, ६२ १५, ५३; स १२६) । निम्मंथण न [निर्मथन] १ विनाश । २ वि. विनाशक; 'तह य पयट्टसु सिग्धं गत्थनिम्मंथणं तिथं' (सुपा ७१) । णिम्मंसवि [निर्मास] मांस-रहित, शुक (गाया १, १, भग) i म्मिंसा स्त्री [दे] देवी-विशेष, चामुण्डा (दे ४, ३५) । म्मिं वि [दे. निःश्मश्रु ] तरुण, जवान, युवा (दे ४, ३२) । frfear देखो मिच्छि = निर्मक्षिक (नाट) । fuम्मच्छ सक [नि + क्ष] विलेपन करना । रिणम्मच्छइ (भवि) । णिम्मच्छण न [निम्रक्षण] विलेपन (भवि) । णिमच्छर वि [निर्मात्सर्य ] मात्सर्य- रहित, ईर्ष्या - शून्य ( उप पृ ८४ ) । मिच्छवि [निम्रक्षित ] विलिप्त (भवि )। मिच्छन [निर्मक्षिक] १ मक्षिका प्रभाव । २ विजन, निर्जनता ( श्रभि ६८ ) । मिजाय वि [निर्मर्याद] मर्यादा- रहित, बेहया (दे १, १३३) । णिम्मज्जिय वि [निर्मार्जित] उपलिप्त (स ७५)। मिण वि[ निर्मनस् ] मन-रहित (द्रव्य १२) । म्मियवि [निर्मनुज ] मनुष्य-रहित (सण) । fणम्मद्दगवि [निर्मर्दक] १ निरन्तर मदन करनेवाला । २ पुं. चोरों की एक जाति (१रह १, ३) । णिम्मद्दिय वि [निर्मर्दित] जिसका मदन किया गया हो ( परह १, ३) । णिम्मम वि [निर्मम ] १ ममता-रहित, निः स्पृह (अच्चु ९६; सुपा १४०)। २ पुं. भारतवर्ष के एक भावी जिनदेव (सम १५४) । ff []गत गया हुग्रा (दे ४, ३४) । णिम्मल वि [निर्मल ] मल-रहित, विशुद्ध ( स्वप्न ७०; प्रासू १३१) । २ पु. ब्रह्मदेवलोक का एक प्रस्तर (ठा ६) । मिह पुं [निर्मथ ] १ विनाश । २ वि. विनाशक (भवि ) । निम्महण न [ निर्मथन] १ विनाश । २ वि. विनाश-कारक (सुपा ७५) स्त्री. णो (सुर १६, १८४) । णिम्महिअ वि [गत ] गया हुम्रा (कुमा) । [म्मिहिअ वि [निर्मथित] विनाशित (हेका ५०) । ४०३ निम्माणि वि [निर्मित ] रचित बनाया हुधा (कुमा) । णिमाणि वि [निर्मानित ] श्रपमानित, तिरस्कृत (भवि ) । णिमाणुस वि [निर्मानुष ] मनुष्य-रहित (सुपा ४४४) । स्त्री. सी (महा) । णिम्माय वि [निर्मात] १ रचित, विहित, कृत (उव; पात्र वजा ३४ ) । २ निपुण, अभ्यस्त, कुशल (प: कप्प ); 'नाहियसत्थेसु निम्माया परिवाइया' (सुर १२, ४२ ) । निम्मायन [निर्माय ] तप-विशेष, निविकृतिक तप (संबोध ५८ ) । निम्मालिअ देखो णिम्मल्ल ( प्राकृ १९ ) । मिाव सक [ निर् + मापय् ] बनवाना, करवाना | रिगम्मावइ (सरण) । कु. निम्मावित्त (सू २१, २२) । निम्माविवि [निर्मापित ] बनवाया हुआ, कारित कराया हुआ (सुपा २६७ ) । णिम्मि वि [निर्मित ] रचित, बनाया हुआ (ठा प्रासू १२७) । वाइ वि [वादिन] जगत् को ईश्वरादि-कृत माननेवाला (ठा ८ ) । णिम्मिस्स वि [निर्मिश्र ] १ मिला हुआ, मिश्रित । [ली] श्रत्यन्त नजदीक का स्वजन, जैसे माता, पिता, भाई, भगिनी, पुत्र और पुत्री (वव १० ) । णिम्मीस वि [निर्मिश्र] मिश्रण-रहित (देवेन्द्र २०)। For Personal & Private Use Only । णिम्मा देखो णिम्म । णिम्माइ (प्राकृ ६४) निम्माअंत देखो णिम्म । णिम्माइअ देखो णिम्माय (पि ५९१ ) । णिम्माण सक [निर् + मा] बनाना, करना, रचना सिम्मारणइ (हे ४, १६: षड् ; प्राप्र ) । णिम्माण न [निर्माण ] १ रचना, बनावट, कृति । २ कर्म - विशेष, शरीर के अंगोपांग के निर्माण में नियामक कर्म विशेष (सम ६७ ) । णिम्माण वि [निर्मान] मान-रहित (से ३, ४५) । णिम्माणअ वि [निर्मायक ] निर्माण कर्ता, बनानेवाला (से ३, ४५) । 1 मी अवि [] श्मश्रु-रहित, दाढ़ी-मूँछ वर्जित (षड् ) । णिमुक्कवि [निर्मुक्त] मुक्त किया गया (सुपा १७३) । णिमुक्ख पुं [निर्माक्ष] मुक्ति, छुटकारा | (विसे २४६८ ) । णिम्मूल वि [निर्मूल ] मूल-रहित, जिसका मूल काटा गया हो वह ( सुपा ५३५) । णिम्मेर वि [निर्मर्याद] मर्यादा रहित, नि (ठा ३, १ श्रपः सुपा ६) । णिम्मोअ पुं [निर्मोक ] कञ्चुक, केंचुल सर्प की त्वचा (हे २, १८२; भत्त ११० से १, ६०) । णिम्मोअणी स्त्री [निर्मोचनी ] कञ्चुक, निर्मोक (उत्त १४, ३५) । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ पाइअसहमहण्णवो जिम्मोडण-णिरवज णिम्मोडण न [निर्मोटन] विनाश (मै ६१)। णिरक्क पुं [दे] १ चोर, स्तेन । २ पृष्ठ, जिरप्प पुं[दे] १ पृष्ठ, पीठ। २ वि. उद्वेणिम्नोल्ल वि [निर्मूल्य] मूल्य-रहित: पीठ । ३ वि. स्थित (दे ४, ४६)। (कुमा)। णिरक्किय वि [निराकृत अपाकृत, निरस्त जिरप्पण वि [निरात्मीय] अस्वकीय, परणिम्मोह वि [निर्मोह] मोह-रहित (कुमाः (उत्त ६, ५६) । - कोय (कुप्र ८६)। श्रा १२)। णिरक्ख सक [निर् + इक्ष J निराक्ष णिरभिग्गह वि [निरभिग्रह] अभिग्रह-रहित णिरइ स्त्री [निऋति] मूल-नक्षत्र का अधि- । करना, देखना। रिणक्खइ (हे ४, ४१८); । (प्राव ६)। ठायक देव (ठा २, ३) तोवि ताव दिट्टीए रिणरक्खिजा (महा)। णिरभिराम वि [ निरभिराम ] असुन्दर, णिरडगार वि [निरितचार अतिचार-रहित. णिरक्खर वि [निरक्षर] मूर्ख, ज्ञान-रहित | अचारु (पएह १, ३)। र दूषण-वजित (सुपा १००)। (कप्पू: वज्जा १५८)। णिरभिलप्प वि [निरभिलाप्य ] अनिर्वचणिरइसय वि [निरतिशय अत्यन्त, सर्वा-: णिरगार वि [निराकार ] आकार-रहितः नीय, वाणी से बतलाने को अशक्य (विसे । 'निरगारपच्चक्खाणेवि अरहंताईणमुग्मित्या', धिक (काल)। ४८८). णिरईआर देखो णिरइयार (सुपा १०० (संबोध ३८)। रयण १८)। णिरग्गल वि [निरर्गल] १ रुकावट से रहित णिरभिस्संग वि [निरभिष्वङ्ग] प्रासक्तिणिरंकुस वि[निरङ्कश] अंकुश-रहित, स्व- (सुपा १६२: ४७१)। २ स्वच्छन्दी, स्वरी, रहित, निःस्पृह (पंचा २, ६)। च्छन्दी कुमाथा २८)। । निरंकुश (पाक्ष)। |णिरय पुं[निरय] १ नरक, पाप-भोग-स्थान णिरच्चण वि [निरचन] अर्चन-रहित (ठा ४, १: प्राचा सुपा १४०)। २ नरकणिरंगण वि [निरङ्गण] निलेप, लेप-रहित स्थित जीव, नारक (ठा १०) पाल पुं (प्रौप; उवः णाया १, ११-पत्र १७१)। । णिरट्र । वि [निरर्थ, क] १ निरर्थक, [पाल] देव-विशेष (ठा ४, १)। विलिया णिरंगा स्त्री [दे] सिर का अवगुण्ठन, पूंघट णिरटुंग। निष्प्रयोजन, निकम्मा (उत्त २०)। स्त्री [वलिका] १ जैन आगम-ग्रन्थ विशेष (दे ४, ३१, २, २०)। २ न. प्रयोजन का प्रभावः 'रिणरछगम्मि (निर १,१)। २ नरक-विशेष (परण २)। णिरंजण वि [निररुजन] निर्लेप, लेप-रहित विरो, मेहुणामो सुसंवुडो' (उत्त २, ४२) । णिरय वि [निरत] असक्त, तत्पर, तल्लीन (स ५८२, कप्प)। णिरण वि [निऋण] ऋण-रहित, करज से (उप ६७६; उव; सुपा २६)। णिरंतय वि [निरन्तक] अन्त-रहित (उप [ मुक्त (सुपा ५६३, ५६६) । १०३१ टी)। णिरय वि [नीरजस्] रजो-रहित, निर्मल णिरणास देखो णिरिणास = नश्। गिरणिरंतर वि [निरन्तर अन्तर-रहित, व्यव- (भगः गा८७) णासइ (हे ४, १७८)। धान-रहित (गउड; हे १, १४)। णिरणुकंप वि [निरनुकम्प] अनुकम्पा-रहित, णिरव सक [बुभुक्ष ] खाने की इच्छा करना। णिरंरतराय वि [निरन्तराय] १ निर्विघ्न, हिरवइ (षड्)। निर्दय (णाया १, २; बृह १)। णिरव सक [आ + क्षिप] प्राक्षेप करना । निर्बाध । २ व्यवधान-रहित, सतत; 'धम्मं णिरणुक्कोस वि [निरनुक्रोश] निर्दय,, रिणरवइ (षड्)। करेह विमलं च निरन्तराय' (पउम ४४, दया-शून्य (णाया १, २; प्रासू ६८)। णिरणुताव वि [निरनुताप] पश्चात्ताप-रहित णिरवइक्व वि [निरपेक्ष ] अपेक्षा-रहित निरीह निःस्पृह (विसे ७ टी)। णिरंतरिय वि [निरन्तरित] अन्तर-रहित, (गाया १,२) । णिरवकंख वि [निरवकाङ्क्ष] स्पृहा-रहित. व्यवधान-रहित (जीव ३)। णिरणुतावि वि [निरनुतापिन] पश्चात्ताप निःस्पृह (औप)। णिरंध वि [नारन्ध्र छिद्र-रहित (वक्र ६७)। वजित (पव २७४)। णिरवकखि वि[निरवकाडिक्षन] निःस्पृह णिरंबर वि [निरम्बर] वस्त्र-रहित, नग्न णिरत्थ वि [निरस्त अपास्त, निराकृत (वव (गाया १.६)। (प्रावम)। णिरत्थ । वि[निरर्थ, क] अपार्थक,निकम्मा, णिरवगाह वि [निरवगाह] अवगाहन-रहित णिरंभास्त्री [निरम्भा] एक इन्द्राणी, वैरोचन । णिरत्थग निष्प्रयोजन (दे ४,१६; पउम (षड्)। इन्द्र की एक अग्र-महिषी (ठा ५, १: इक)। णिरत्थय ६५, ४; पण्ह १, २: उवः सं हिरवग्गह वि [निरवग्रह] निरंकुश स्वणिरंस वि [निरंश] अंश-रहित, अखण्ड, च्छन्दी, स्वरी (पाम)। सम्पूर्ण (विसे)। __णिरन्नय पुं[निरन्वय] अन्वय-रहित (धर्मसं णिरवञ्च वि [निरपत्य अपत्य-रहित, निःसंतान णिरंह वि [निरहस्] निर्मल, पवित्र; 'मडयं । ४६६)। (भग; सम १५०)। व वाहिमो सो निरंहसा तेण जलपवाहेण' जिरप्प प्रक [स्था] बैठना। रिजरप्पइ (हे हिरवज वि [निरवद्य] निर्दोष, विशुद्ध (दस (धर्मवि १४६)। ४, १६) । भूका. गिरगोन (कुमा)। ५, १; सुर ८, १८३)। For Personal & Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिरवणाम - निरालंब णिरवणाम देखो णिरोण (म ( उव ) । णिरवयक्ख देखो णिरवइक्ख (गाया १, ६; पउम २. ३) । णिरवयववि [निरवयव ] श्रवयव-रहित, निरंश (विसे) । णिवयास वि [निरवकाश ] श्रवकाश-रहित ( गउड ) । [निरपराध] अपराध रहित, णिरवराहवि बेगुनाह (महा) । णिरवराहि वि [निरपराधिन् ] ऊपर देखो ( भाव ६ ) । furaja वि [निरवलम्ब ] सहारा रहित, असहाय ( परह १, ३ ) । णिरवलाव वि [निरपलाप ] १ प्रपलापरहित । गुप्त बात को प्रकट नहीं करनेवाला, दूसरे को नहीं कहनेवाला (सम ५७ ) । णिrain वि [निरपशङ्क] दुःशंका- वर्जित (भवि ) । णिरवसर वि [निरवसर ] अवसर - रहित ( गउड) । रिसाण वि [निरवसान ] अन्त-रहित ( गउड ) । णिरवसेस वि [निरवशेष ] सब, सकल (हे १, १४ षड् ; से १, ३७) । far as [निर + वह ] निर्वाह करना, निबाहना । निरवजा (संबोध ३९ ) । रिवाय वि [निरपाय ] १ उपद्रव-रहित, विघ्न वर्जित । २ निर्दोष, विशुद्ध (श्रा १६; सुपा २७५) । णिरविक्ख . णिरवेक्ख पि ३४१३ से ६, ७५; सूअ णिरवेच्छ १, ६; पंचा ४ निचू २०; नाट - चैत २५७) । णिरस सक [निर् + असू ] प्रपास्त करना । fures (सण) । देखो णिरवइक्ख (श्रा उव णिरसण वि [निरशन ] माहार-रहित, उपोषित (उप; सुपा १८१) । णिरसण न [निरसन] निराकरण, हटा देना, दूर करना, खंडन (चेइय ७२४ ) । रिस वि[[नरसि] खड्ग-रहित (गउड) । पाइअसहमणवो णिरसिअ वि [निरस्त ] परास्त, अपास्त (दे णिरागार वि [निशकार ] १ प्रकृति-रहित ५, ५६ ) । २ अपवाद - रहित ( धर्म २ ) । णिराणंद वि [निरानन्द ] श्रानन्द-रहित, शोकातुर (महा) । णिराणिउ ( श्रप) श्र. निश्चित, नक्की (कुमा) । गिराणुकंप देखो णिरणुकंप 'रिक्किवणिरागुकंपो सुरियं भावणं कुणई' (ठा, ४, ४), 'अह सो गिरा कंपो ( संथा ८४ पउम २६, णिरस्साय वि [निरास्वाद ] स्वाद रहित ( उत्त १६, ३७ ) । णिरस्सावि वि [निरास्राचिन ] नहीं टपकने - वाला, छिद्र रहित । स्त्री. 'णी (उत्त २३, ७१: सुख २३, ७१) । णिरहारि वि [निराहारिन] आहार-रहित, रिहंकार वि [निरहंकार ] गवं रहित ( उ ) । उपोषितः 'हवउ व वक्कलधारी, निरहारी बंभचेरवयधारी' (सुपा २५२ ) । णिरहिगरण वि [निरधिकरण] अधिकरणरहित, हिंसा-रहित, निर्दोष (पंचा १९ ) । णिरहिगरण वि [निरधिकरणिन् ] ऊपर देखो (भग १६, १) । णिरहिलास वि [निरभिलाष] इच्छा-रहित, निरीह (गउड) | णिरहेउ णिरहे उग निरहेतुग [निर्हेतु, 'क] निष्कारण, कारणरहित ( घर्मंसं ४४३; ४१७; ४०० ) । निराइअ वि [निरायत ] लम्बा किया हुआ, विस्तारित ( से४, ५२ ७, ३६) । णिराउस वि [निरायुष् ] आयु-रहित ( प्राकृ ३१) । णिराउ वि [निरायुध ] प्रायुध-वर्जित, निःशस्त्र (महा) । निराकर सक [ निरा + कृ ] १ निषेध णिरागर करना। २ दूर करना, हटाना । ३ विवाद का फैसला करना । निराकरिमो ( कुप्र २१५ ) । संकृ. णिराकिच्च (सूत्र १, १, १, १, ३, ३१, ११) । णि करिअ वि [निराकृत] निषिद्ध (धर्मवि १४६) । णिरागरण न [निराकरण] निरास, निवारण, निषेध, रोक (पंचा १७, १९ ) । णिरागरण न [ निराकरण ] १ निषेध, प्रतिषेध (पंचा १७) । २ फैसला, निपटारा ( स ४०९ ) । गिरिवि [निराकृत ] हटाया हुआ, दूर किया हुआ (पउम ४६, ५१; ६१, ५६ ) । निरागस वि [निराकर्ष ] निर्धन, रंक (निचू २) । For Personal & Private Use Only ४०५ २५) । णिराणुवत्ति वि [निरनुवर्तिन] १ अनुमरण नहीं करनेवाला । २ सेवा नहीं करनेवाला ( उव) । } णिरादवि [दे] नट, विनाश प्राप्त (दे ४, ३०) । निराबाध वि [निराबाध] प्राबाधा-रहित, निराबाह ) हरकत-रहित (प्रभि १११ पा २५३; ठा १० श्राव ४ ) | णिरामगंध वि [निरामगन्ध ] दूषण रहित, निर्दोष चारित्रवाला (प्राचा: सूम १, ६) । निरामय वि [निरामय ] रोग-रहित, नोरोग (सुपा ५७५) । णिरामिसवि [ निरामिष ] श्रासक्तिहीन, निरीह, निरभिष्वङ्ग; 'आमिसं समुज्झित्ता विहरिस्साम गिरामिसा' ( उत्त १४, ४६ ) | णिराय वि [दे] १ ऋजु, सरल । (दे ४, ५० पान ) । १ प्रकट, खुला । ३ पुं. रिपु, शत्रु (दे ४, ५० ) । ४ वि. लम्बा किया हुआ ( से २, ४० ) । गिराय वि [दे] अत्यन्त प्रचुर अधिक ( सुख २, ७) । णिरायंक वि [निरातङ्क ] श्रातङ्क -रहित, नीरोग (प) । णिरायरिय देखो णिरागरिय ( पउम ६१, ४६) । विवि [निरातप ] श्रातप-रहित (गउड)। णिरायार देखो णिरागार ( पउम ६, ११८ ) । णिरायास वि [निरायास ] परिश्रम रहित ( पह २,४ ) । णिरारंभ वि [निरारम्भ ] श्रारम्भ-वर्जित (सुपा १४०, गउड) । णिरालंब वि [ निरालम्ब ] श्रालम्ब-रहित (गा ६५; धारा ८ ) । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ निरालंबण वि [निरालम्बन] आलम्बन-रहित ( श्रपः णाया १, ६) । निरालंबण वि [निरालम्बन] श्राशंसा-रहित, संशय-रहित, प्रार्थना - रहित, इच्छारहित, अनुमान रहित ( श्राचा २, १६, १२) । णिरालय वि [निरालय ] स्थान- रहित, एकत्र स्थिति नहीं करनेवाला (श्रीप) । णिरालोय वि [निरालोक ] प्रकाश-रहित, (निर १, १ ) । rajafa [निकाङ्क्षिन ] श्राकांक्षारहित, निःस्पृह (सूत्र १, १०) । णिरावयवख वि [निरपेक्ष ] अपेक्षा-रहित, निरीह ( रणाया १, १, ६ भत्त १४८ ) । णिरावरण वि [निरावरण] १ प्रतिबन्धकरहित (प) । २ नग्न (सुर १४, १७८ ) । णिरावराह वि [निरपराध ] श्रपराध-रहित (सुपा ४२३) । णिराविक्ख ? देखो णिरावयक्खः 'विसएसु णिरावेक्खरिणराविक्खा तरंति संसार । कंता' (भत्त ४६; पउम ६, ८, १००, ११) निरास वि [निराश ] १ श्राशा-रहित, हताश (उम ४४, ५ε; दे ४, ४८ संक्षि १९) । २ न. श्राशा का अभाव ( परह १, ३) । सिवि [] नृसंश, क्रूर (षड् ) । णिरासंस वि [निराशंस ] श्राकांक्षा-रहित, निरीह (सुपा ६२१) । निरासयवि [निराश्रय ] निराधार ( वज्जा १५२) । free a [ निराश्रव] श्राश्रव-रहित, कर्मबन्धन के कारणों से रहित ( परह २, ३) । णिरासस देखो णिरासंस ( श्राचा २,१६,६ ) । णिराह वि [दे] निर्दय, निष्करुण (दे ४, ३७) । णिरिअ वि [दे] श्रवशेषित, बाकी रखा हुआ (दे ४, ४८ ) । णिरिइ देखो णिरइ (सुज्ज १०, १२) । किवि [] नत, नमा हुआ (दे ४, ३० ) । णिरिंगी [दे] देखो णीरंगी (गउड) । निरिधरण वि [निरिन्धन] इन्धन - रहित ( भग ७, १) । निरिक्ख तक [ निर् + ईक्षू ] देखना, श्रवलोकन करना । णिरिक्ख, णिरिक्खए पाइअसद्दमहणव ( सण महा) । वकृ. णिरिक्त, णिरिक्खमाण (सरण उप २११ टी) । संकृ. णिरिक्खिऊण (सण) । कृ. णिरिक्खणिज्ज (कप्पू ) । णिक्खिण न [निरीक्षण ] अवलोकन (गा १५० ) । प्रलोकित, णिरिक्खणा स्त्री [निरीक्षणा] अवलोकन, प्रतिलेखना (श्रोध ३ ) । णिरिक्खिअ वि [निरीक्षित ] दृष्ट (कप्पू पउम ४८४८) । गिरिग् सक [नि + ली ] ९ श्राश्लेष करना, श्रालिंगन करना । २ अक . छिपना । गिरिग्धइ (हे ४, ५५) । णिरिग्धिअ वि [निलीन ] श्राष्टिष्ट, प्रालिंगित (कुमा) । णिरिण वि [निॠण ] ऋण मुक्त, उऋण (ठा ३, १ टी -पत्र १२० ) । णिरिणास सक [ गम् ] गमन करना परिणासह (हे ४, १६२ ) । । णिरिणास सक [ पिप् ] पीसना । गिरिगासइ (हे ४, १८५) । णिरिणास प्रक [नश् ] पलायन करना भागना । गिरिणासइ (हे ४, १७८ कुमा) । णिरिणासिअ वि [गत ] गया हुआ, यात (कुमा) । । निरिणासि वि [[पष्ट ] पीसा हुआ (कुमा) । णिरिणिज्ज सक [पिप्] पीसना । गिरि जिइ (हे ४, १८५ ) । णिरिणिज्जिअ वि[[पष्ट ] पीसा हुआ (कुमा) । णिरित्ति स्त्री [निरिति ] एक रात्रि का नाम ( कप्प ) । णिरीह वि [ निरीह ] निष्काम, निःस्पृह (कुमाः ४२१) । णिरु (अप) प्र. निश्चित, नक्की (हे ४, ३४४६ सुपा ८६ सरण; भवि ) । णिरुअ देखो णिरुज (विसे १५८५ सुपा ४४६) । णिरुक [निरुईजीकृत ] नीरोग किया गया ( उप ५६७ टी) । णिरंभ सक [नि + रुधू ] निरोध करना । रिभइ ( श्रौप ) । कवकृ. णिरंभमाण, भिंत (स ५३१; महा) । संकृ. णिरु For Personal & Private Use Only निरालंबण - णिरुत्ति भइत्ता (सूत्र १, ४, २ ) । कृ. णिरुभियव्व, णिरुद्धव्व (सुपा ४०४; विसे ३०८१) । णिरंभण न [निरोधन] अटकाव, रुकावट ( सू २, ५ भवि ) । णिरुकंठ वि [निरुत्कण्ठ ] उत्कण्ठा-रहित, निरुत्साह (नाट ) | णिरुग्घ देखो णिरिग्घ । णिरुग्घइ (षड् ) । णिरुच्चार वि [निरुच्चार ] १ उच्चार -पुरीषोत्सर्ग के लिए लोगों के निर्गमन से वर्जित ( खाया १, ८ पत्र १४६ ) । २ पाखाना जाने से जो रोका गया हो ( परह १, ३) । णिरुच्छव वि [निरुत्सव ] उत्सव-रहित ( श्रभि १८९ ) । णिरुच्छाह वि [निरुत्साह ] उत्साह होन ( से १४, ३५) । णिरुज वि [निरुज] १ रोग-रहित । २ न. रोग का अभाव । सिख न ["शिख] एक प्रकार की तपश्चर्या (पव २७१) । णिरुज्जम वि [निरुद्यम] उद्यम रहित, आलसी (उवस ३१०, सुपा ३८४) । funga [] नहीं उठनेवाला (उत्त १:३०) | निरुत्त वि [निरुक्त] १ उक्त कथित (सत्त ७१) । २ न. निश्चित उक्ति (अणु) । ३ व्युत्पत्ति (विसे २ ६६३) । ४ वेदाङ्ग शास्त्र-विशेष; जिसमें वैदिक शब्दों को व्याख्या है (श्रीप) 1 णिरुन्त वि [निरुक्त ] १ अनुक्त, अकथित, दृष्टान्त 'किंतु निरुतो भावो परस्स नजइ कवित्ते ' ( सिरि ८४९) । २ व्युत्पत्ति-युक्त (सिरि ३१ ) | रुित क्रिवि [] १ निश्चित, नक्की, चोकस (दे ४, ३० पउम ३५, ३२० कुमाः (सरणः भवि ), 'तहवि हु मरइ निरुत्तं पुरिसो संपत्थिए काले' (पउम ११, ६१ ) । २ वि. निश्चिन्त, चिन्ता-रहित (कुमा) | णिरुत्तत्त वि [निरुत्तप्त ] विशेष ताप-युक्त, संतप्त (उ) । णिरुत्तम वि [निरुत्तम ] अत्यन्त श्रेष्ठ (काल)। णिरुत्तर वि [निरुत्तर ] उत्तर-रहित किया हुआ, परास्त (सुर १२, ६६) । णिरुत्ति स्त्री [निरुक्ति ] व्युत्पत्ति (विसे ε६२) । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिरुत्तिअ-णिली पाइअसद्दमहण्णवो ४०७ णिरुब्भन देखो गिरंभ। णिरुत्तिअ वि [नैरुक्तिक] व्युत्पत्ति के अनुसार णिरुवम वि [निरुपम असमान, असाधारण णिरूविअ वि [निरूपिन] १ देखा हुया (से जिसका अर्थ किया जाय वह शब्द (अरण)।। (प्रौप महा)। १३, १३; सुपा ५२३) । २ मालोचना कर णिरुत्तिय न [नरुत्तिक] निरुक्ति, व्युत्पत्ति; णिरुवयरिय वि [निरुपचरित] वास्तविक, कहा हुआ । ३ विवेचित, प्रतिपादित (हे २, 'नो कथवि नारिणत्ति निरुत्तिय चेइसद्दस्स' तथ्य (गाया १, ५) । ४०)। ४ दिखलाया हुआ । ५ गवेषित (प्रारू)। (संबोध-१२)। णिरुवयार वि [निरुपकार] उपकार-रहित णिरूसुअ वि [निरुत्सुक] उत्कण्ठा-रहित णिरुदर वि [निरुदर] छोटा पेटवाला, (उव)। (गउड)। अनुदर । स्त्री. रा (पएह १, ४)। णिरुवलेव वि [निरुपलेप] लेप-वजित, प्र. णिरूह ' [निरूह] अनुवासना-विशेष, एक णिरुद्ध वि [निरुद्ध] १ रोका हुआ (णाया लिप्त (कप्प); 'रयरणमिव णिरुवलेवा' (पउम तरह का विरेचन (णाया १, १३) । १,१) । २ आवृत, आच्छादित (सूत्र १, २, १४, ६४)। णिरेय वि [निरेजस् ] निष्कम्प, स्थिर ३) । ३ . मत्स्य की एक जाति (कप्प)। णिरुवसग्ग वि [निरुपसर्ग] १ उपसर्ग-रहित, (भग २५, ४)। णिरुद्ध वि [निरुद्ध] थोड़ा, संक्षिप्त (सूत्र १, उपद्रव-वजित (सुपा २८७) । २ पुं. मोक्ष, णिरंयण वि [निरेजन] निश्चल, स्थिर १४, २३)। मुक्ति (पडि; धर्म २) । ३ न. उपसर्ग का (कप्पः प्रौप)। णिरुद्वव्या प्रभाव (दव ३)। णिरोणाम पुं [निरवनाम नम्रता-रहित, णिरुवह्य वि [निरुपहत] १ उपघात-रहित, गर्वित, उद्धत (उव) । णिरुलि घुश्री [दे] कुम्भीर-नक्र की प्राकृति- अक्षत (भग ७, १)। २ रुकावट से शून्य, जिरोय वि [नीरोग रोग-रहित (प्रौप; णाया वाला एक जन्तु (दे ४, २७)। अप्रतिहत (सुपा २६८)। १, १)। णिरुवकिट्ट देखो णिरुवक्किट्ठ (भग)। णिरुवहि वि [निरुपधि] माया-रहित, णिरोव पुं [दे] प्रादेश, प्राज्ञा, रुक्का (सुपा णिरुवक्कम विनिरुपक्रम] १ जो कम न निष्कपट (दसनि १)। २२४)। किया जा सके वह (मायुष्य) (सर २.१३२णिरुवार सक ग्रहJ ग्रहण करना । रिगरु-णिरोक्यार वि अनिरुपकारापकर सुपा २०४)। २ विघ्नरहित, अबाध, 'नियबारइ (हे ४, २०६)। नहीं माननेवाला (मोघ ११३ भा)। निरुवक्कमविक्कमप्रकृतसमग्गरिउचक्को' (सुपा णिरुवारिअ वि [गृहीत] उपात्त, गृहीत णिरोवयारि वि[निरुपकारिन्] ऊपर देखो (कुमा)। • (उव)। णिरुवकय वि [दे] अकृत, नहीं किया हुआ णिरुवालभ वि [निरुपालम्भ] उपालम्भ- णिरो णिरुवालंभ वि [निरुपालम्भ] उपालम्भ-णिरोविअ देखो णिरूविअ (सुपा ४५६%; शून्य (गउड)। महा)। णिरुवक्किट वि [निरुपक्लिष्ट] क्लेश-वजित, णिसव्विग्ग वि [निरूद्विग्न] उदग-रहित गिरोह [निरोध] रुकावट, रोकना (ठा दुःखरहित (भग २५, ७)। (णाया १,१-पत्र ६)। ४, १७ प्रौपः पान)। णिरवक्केस वि [निरुपक्लेश] शोक प्रादि णिरुस्साह वि [निरुत्साह] उत्साह-हीन णिरोग वि [निरोधक] रोकनेवाला (रंभा)। केशों से रहित (ठा ७)। (सूम १, ४, १)। णिरोहण न [निरोधन] रुकावट (पएह १, णिरुवक्ख विनिरुपाय] शब्द से न कहा णिरूव सक [नि + रूपय] १ विचार कर १)। जा सके वह, अनिर्वचनीय (धर्मसं २४१; कहना । २ विवेचन करना। ३ देखना । ४ णिलंक पुं[दे] पतग्रह, पोकदान, ष्ठीवन दिखलाना । ५ तलाश करना । निरुवेइ पात्र, थूकने का पात्र (दे ४, ३१)। णिरुवग वि [निरुपक] प्रतिपादक (सम्मत्त (महा) । वकृ. णिरूविंत, निरूवमाण णिलय पुं[निलय] घर, स्थान, माश्रय (से १९०) (सुर १५, २०५; कुप्र २७५) । संकृ. २, २गा ४२१; पाम)। णिरुवगारि वि [निरुपकारिन्] उपकार को णिरूविऊण (पंचा ८) । कृ.णिरूवियव्य णिलयण न [निलयन] वसति, स्थान नहीं माननेवाला, प्रत्युपकार नहीं करनेवाला (पंचा ११) । हेकृ. निरूविउं (कुप्र २०८)। (विसे)। (प्रावम)। -णिरूवण न [निरूपण] १ विलोकन, निरी णिलाड न [ललाट] भाल, कपाल (कुमा)। णिरुबग्गह वि [निरुपग्रह] उपकार नहीं क्षण (उप ३३७)। २ वि. दिखलानेवाला णिलिअ देखो णिलीअ । णिलिअइ (षड्) । करनेवाला (ठा ४, ३)। स्त्री. °णी (पउम ११, २२) । णिलिंत नीचे देखो। णिरुवट्राणि वि [निरुपस्थानिन] निरुद्यमी, णिरूवणया स्त्री [निरूपणा] निरूपण (उप गिलिज । सक[नी + ली]१ प्राश्लेष करना, आलसी (प्राचा)। णिलीअभेंटना, गले से लगाना । २ दूर णिरुवदव वि [निरुपद्रव] उपद्रव-रहित, णिरूवाविअ वि [निरूपित] गवेषित, जिस करना। ३ प्रक. छिप जाना। णिलिजइ णिलीप्राबाधा-वजित (औप)। की खोज कराई गई हो वह (स ५३६७४२) अइ (हे ४,५५)। णिलिजिजा (कप्प)। वकृ. ६३०)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निलीइर - वित्तण विज प्रक [नि + सद्] सोना । विजइ (उत्त २७, ५) । विट्ट सक [ नि + वर्तय् ] निवृत्त करना । १. १०,२१) । विट्ट एक [नि + ] निवृत होना, लौटना, हटना । २ रुकना । वकु. णिवट्टंत (सुपा १६२ ) । fraट्ट वि [निवृत्त] १ निवृत्त हटा हुआ, प्रवृत्ति-विमुख । २ न. निवृत्ति (हे ४, ३३२) । हुन त, तिरोहित (गाया मिलेग निलेपक] कोबी (निवट्टण निवर्तन प्रवृत्ति न १ निवृत्ति, निरोध २ जहां रास्ता बन्द होता हो वह स्थान (गाया १, २ - पत्र ७६ ) । विट्टम वि [निर्वर्तित] पका हुआ, फलित, सिद्ध धाचा २४, २, ५) । निवड प्रक [नि + पत्] नीचे पड़ना, नीचे गिरना । रिगवड ( उब षड् महा) । वकृ. णिवडंत, णिवडमाण (गा. ३४६ सुर ३, १२७) । संकृ. णिवडिऊण, विडिअ ( दस ३ महा ) । डिण [निपतन] गवन (राज) णिवडिअ वि [निपतित] नीचे गिरा हुआ ( से १४, ३४ गा २३४; उप पृ २६ ) । विडिर वि [निपतितृ] नीचे गिरनेवाला (सुपा ४९ । ४०८ णिलित, णिलिजमाण, गिलीअंत, मिलीअमाण (कम्प सू २२ कुमाः उप ४७४) । णिलीइर वि [निलेतृ] प्राश्लेष करनेवाला, भेंटनेवाला (कुमा) । णिलुक्क देखो णिलीअ । णिलुकइ (हे ४, ५५, षड् ) । वकृ. णिलुक्कंत (कुमा) । णिलुक्क सक [ तुड् ] तोड़ना । णिलुक (११)। णिलुक्क वि [दे. निलीन ] १ निलीन, खूब १, ८ से १५२ गा ६४; सुर ६, ५, उव: सुपा ६४०)। २ लीना विवे १०) । णिलुकण न [निलयन ] छिपना ( कुप्र २५२ ) | लिंक [दे] देखो लिंक (दे ४, ३१) । हिंण न [निच्छन] शरीर के किसी अवयव का छेदन (उवा पडि ) । पाइ सहमणव पिल्लूर सक [हि] छेदन करना, काटना । गिल्लूरइ (हे ४, १२४) । पिल्लूरह (धारा ६८) । गिल्लूरण न [छेदन] छेद, विच्छेद (कुमा)। जिल्लूरिय वि [ छिन्न ] काटा विच्छिन्न श्रावत्तविदुमाह्यनिल्लूरियदविय( २५८ ) । हुआ, गिल्ले वि [निर्लेप ] लेप-रहित (विसे ३०८३) । विकसित (कुमा) । सिवि [दे] निर्गत, निःसृत, निर्यात (४१६) । पिल्लालिअ वि [निर्दोलित ] निःसारित, बाहर निकाला हुआ (गाया १, १८पत्र १३३: सुर १२, २३५: महा) । णिहि सक [ निर् + लिख ] घिसना (२, २,२,३) । सिक [मुच] छोड़ना, या करना । पिल्लु छइ (हे ४, ε१) । जिल्लुंछिअवि [मुक्त] त्यक्त, छोड़ा हुआ (कुमा) । वि[] विनाशित (विक्र २५) ४) । पिल्लेवण न [निर्लेपन] १ मल को दूर करना ( वव १) । २ वि. निर्लेप, लेप-रहित (प्रोध १६ भा) काल ["काल] हाल जिस समय नरक में एक भी नारक जीव न हो (भग) । वि (भग)। [निर्लेपित] १ लेप-रहित कुलट गया हुआ जिहणन [निलेखन] उर्तन खन ( आचा २, ३; २ ) । णिल्लोह । लुब्ध (सुपा ३६१० श्रा १२३ णिल्लोभ वि [निर्लोभ ] लोभ-रहित, श्र भवि ) । वि[नृप] राजा, नरेश (कुमार ४७)। "aणय वि[संम्बिग] राज संबन्धी, राजकीय (सुपा ५३९ ) । णिवइ पुं [ नृपति] ऊपर देखो (ठा ३, १, पउम ३०, ६) । मग्ग पुं [मार्ग ] राजमार्ग जाहिर रास्ता (पउम ७६, १९) । णिवइअ वि [निपतित] १ नीचे गिरा हुआ ( गाया १, ७) । २ एक प्रकार का विष (ठा ४, ४) । णिवन्तु वि [निपतितृ] नीचे गिरनेवाला (ठा ४, ४) । । णिवच्छण न ४, ४० ) । णिवज्ज श्रक [ निर + पन्] निष्पन्न होना, नोपजना, बनना । विज्जइ (पड् ) । विज्ज क [नि + सद्] बैठना । विज्जसु ( स ५०९) वह विनमाण (११०३) प्रयो वेद (निर १ १) । लिच्छ देसो छ ( प ६६) । लिच्छवि [[निर्लक्षण] १. बेवकूफ ( उप ७६७ टी) । २ अपलक्षरणवाला, खराब (श्रा १२) । हिज्ज वि [निर्लज्ज ] लजा-रहित (हे २, १९७; २०० ) । णिज्जिम पुँको [निलेजिमन] पिन, बेशरमी (हे १, १५) श्री. मा (हे १, ३५) । : लिस क [ उत् + लस् ] उल्लासना, विकसना । ल्लिस (हे ४, २०२ ) । मिस [सित] खासत किया हुआ विण[नियण] बैठा हुआ (महा १ संथा ६५ ७३) । २ पुं. कायोत्सर्ग-विशेष, जिसमें धर्म आदि किसी प्रकार का ध्यान न किया जाता हो वह कायोत्सर्ग ( भाव ५ ) । विपुं ['निषण्ण] जिसमें प्रार्त और रौद्र ध्यान किया जाय वह कायोत्सर्ग (श्राव ५) । For Personal & Private Use Only विष्णुस्सिय [निषण्णोत्त] काय विशेष, जिसमें धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान किया जाता हो वह कायोत्सर्गं ( भाव ५) । [दे] अवतारण, उतारना (दे णिवत्त देखो णिवट्ट = माण ( (नाट - शकु (पि ५५२) । = नि + वृत् । वकृ. १ ). विणीअ १०८ ) । प्रयो. रिगवत्तावेमि णिवन्त देखो णिवट्ट = निवृत्त (षड् ; कप्प) । विण देशो विट्टण (महा हे २, २० कुमा) । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिवत्तय - णिवुड्ढ वित्तय वि [निवर्त्तक] १ वापस आनेवाला, लौटनेवाला । २ लौटानेवाला, वापस करनेवाला ( है २, ३०; प्राप्र ) । वित्त स्त्री [ निवृत्ति ] निवत्तन ( उव) । णिवत्तिअवि [निवर्त्तित] रोका हुआ, प्रतिषिद्ध ( स ३६४) । विति वि [निर्वर्त्तित] निष्पादित, 'निव त्तिया सवपूया' (स ७६३) । पिडि देखी शिवन्ति ( १ ) । विनदेखो विण्ण (७६०)। शिवय धक [नि + पत्] समानान्त होना । निवयंति (पव ८४ टी ) । fras देखो fras | शिवइजा, (कृष्ण का ३,४) व णिवयंत ( उप १४२ टी; सुर ४, ६५: कप्प ) । विय [निपात] नीचे गिरना, श्रधः - पतन (सुर १५, १६७)। शिवरुण [निवरुण] वृक्ष-विशेष (उप पुं १०३१ टी) । णिवस क [नि + वस् ] निवास करना, रहना । रिणवस (महा) । वकृ. णिवसंत ( सुपा २२५) । हेकृ. णिवसिड (सुपा ४६३) । णिवसण न [निवसन] वस्त्र, कपड़ा (ग्रभि १३९; महाः सुपा २०० ) । विसिय वि [निवसित] जिसने निवास किया हो वह (महा) विसिर वि [निवसितृ ] निवास करनेवाला () विह सक [ गम् ] जाना, गमन करना । (४१५२) । विदे विह अक [नश] भागना, पलायन करना । ४. १७० ) । शिवहर [वि] पीसना ४, १५)। णिवह पुन [निषद] समूह राशि जत्था से २, ४२० र १, ३१ प्रा १४४) ताफलना १५२ ) । विहन [] समृद्धि (४,२६) वैभव । निर्वाह वि [नष्ट ] नाश- प्राप्त (कुमा) । निवि [पिष्ट] पीसा हुआ (कुमा शिवाइ वि [निपातिन् ] गिरनेवाला ( श्राचा) । ५२ ४=९ निवारण करनेवाला, रोकनेवाला, 'उवसग्गनिवारण एसो ( पनि १० ) । शिवाय देखो णिवारग (उप ५३० टी) । णिवारि वि [निवारिन्] निवारक, प्रतिपेधक । स्त्री. रिणी (महा) । पिारयवि [निवारित] रोका हुआ निषिद्ध (भगः प्रासू १६९)। शिवास [निवास] १ निवन रहता। २ वासस्थान, देश (कुमा महा) णिवासि वि [निवासिन्] निवास करनेवालारहनेवाला (महा)। णिविअ देखो णिमिअ = न्यस्त ( से १२.३० ) | णिविट्ट देखो णिवट्ट = निवृत्त (सरण) । बैठा जिवि [निविष्ट] १ स्थित ठा हुधा (महा)। २ श्रासक्त, लीन (राज) । विट्ठि वि [निर्विष्ट ] लब्ध, उपात्त. गृहीत (ठा ५.२ ) । कप्पट्ठि स्त्री [कल्पस्थिति ] जैन साधुनों का एक तरह का श्राचार (ठा ५, २) । णिविड देखो णिचिड (षड्; हे १, २४०) । णिविटिज देखो फिबिडिय (गड पि २४० ) । शिवाय वि [ निवात] पवन-रहित, स्थिर णिवित्ति खो [निवृत्ति ] १ निवर्तन. उपरम प्रवृत्ति का प्रभाव (विसे २७६८ स १५४) । ( परह २ ३ स ४०३ ७४३) । २ वापस लौटना प्रत्यावर्तन (सुपा ३३२ ) । णिवायण न [निपातन] १ गिराना, निपा- णिविद्ध वि [दे] १ सोकर उठा हुआ । २ तन, ढाहना ( परह १, २ ) । २ व्याकरणप्रसिद्ध शब्द- सिद्धि, प्रकृति आदि के बिना विभाग किये ही श्रखण्ड शब्द की निष्पति (विले २३) । निराश, हताश । ३ उद्भट । ४ नृशंस, निर्दय (३४, ४८) । (दे विचार एक [निवार ]निवारण करना, निषेध करना, रोकना । रिणवारेइ (उव महा) । यात (महा) व निवारीअंत, निवारिमाण (नाट–मुख १५४६ १३५) । . णिवारिवव्य, णिवारेयश्व (सुषा ४८२: महा निवा[निवारक] निषेध करनेवाला रोकनेवाला (सुर १, १२६; सुपा ६३९ ) । निवारण न [निवारण] १ निषेध, वावट (भग ६.३३) । २ शीत आदि को रोकनेवाला, गृह, वन भादि: 'न मे निवारणं प्रत्थि, छवित्ताणं न विजई (उत्त २७) । ३ वि. णिविन्न वि [निर्विज्ञ] विशिष्ट ज्ञान से रहत (तंबु ४५) । जिविस [नि विश् ] ना. अक + बैठना दिसंत (१२) । णिविस (घ) देखो मिस (मनि णिविसि [ निवेष्ट ] बेठनेवाला (सण) निवममाण वि[म्युद्यमान] नीयमान जो ले जाया जाता हो वह ( आचा २, ११, ३) । शिवुडु र [निदृष्ट] वरसा हुमा (धाचा २, ४, १, ४) । णिवुड सक [नि+बधे ] व्या १ करना, छोड़ना । २ हानि करना । वकृ. निवुड्माण (११) संक. णिवु हिता (१) णिवाण न [निपान] कूप या तालाब के पास पशुओं के जल पीने के लिए बनाया हुआ जल - कुण्ड, चरही ( स ३१२ ) । 'साला स्त्री [शाला] पशुओं का पानी पिलाने का स्थान (महा) । विएजाणिवाय देखो णिवाड । शिवाय (कुमा) । माण शिवा (१३१) । पाइअसद्दमणव णिवाड सक [ नि + पातय् ] नीचे गिराना । (६०) व निवाडयंत (स ६८) णिचाइना (जीव ) fणवाडि वि [निपातित ] नीचे गिराया हुआा जिवाहिर वि [निपातयितु] नीचे गिराने वाला ( स ) । शिवाय [दे] स्वेद, पसीना (३४, ३४२ सुर १२, ८) । शिवाय [निपास] १ पान अधःपतन, गिरना (गा २२२ सुपा १०३ ) । २ संयोग, संबन्धः ‘दिट्ठिणिवाना ससिमुहीए' (गा १४८: उत्त २० गउड) । ३ च प्र श्रादि व्याकरणप्रसिद्ध अय्यय राह २ २ २०३ ) ४ विनाश (पिंड)। For Personal & Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० पाइअसमायो णिवुड्ढि स्त्री [निवृद्धि] १ वृद्धि का अभाव | णिवेसण न [ निवेशन] गृह, घर (उत्त (ठा २, ३ ) । २ दिन की छोटाई (भग) । णिवुण देखो गिउण (प्रच्नु ε६) । वित्त देखो शिवट्ट = निवृत्त ( स ५८८ ) । forget [ निवृति ] परिवेष्टन (प्राकृ १२ ) । शिवूढ देखो णिव्वूढ (सू २, ७, ३८ ) । निवेश एक [नि + वेद ] सम्मानपूर्वक १३, १८) । णिवेसात्रियवि [निवेशित] बैठाया हुआ (महा)। णिव्व न [नीघ्र ] छदि, पटल प्रान्त ( ४, ४८ पान ) । विन[नी] खगर के ऊपर का खरेल (दि १५९)। ज्ञापन करना, अर्ज करना। २ अर्पण करना । ३ मालूम करना। कर्म. रिगवेइजइ (निचू १ ) संकृ. णिवेइऊण ( स ५६६ ) । हेक. णिवेएडं (पंचा १५) । कृ. णिवेयगीअ ( स १२० ) । णिवेग व [निवेदक ] सम्मानपूर्वक ज्ञापन करनेवाला, प्रार्थी (सुपा २६८ ) । णिव्व न [दे] १ ककुद, चिह्न २ व्याज, बहाना (दे ४, ४०)। [निर्वल ] वल्कल-रहित, णिव्वक्कर वि [द] परिहास-रहित, सत्य (कुत्र १६७) । from fa (पि ६२) । देखो गिव्वत्त = निर् + वत्तंय् । णिव्वट्ट संकृ. णिव्यट्टित्ता (ठा २, ४ ) । विट्ट (प) देखो विट्ट (हे ४, ४२२ टि)। णिब्वट्टग व [निवर्तक] बनानेवाला, कर्ता ( श्राव ४) । व्विट्टिम देखो विट्टिम ( दस ७, ३३ ) । निव्वट्टिय वि [निर्वर्तित] निष्पादित, बनाया हुआ (प्राचा २, ४, २) । गिवड एक [च] दुःख को छोड़ना रिव्ess ( पड् ) । पिट [भू] होगा, जुदा १ पृथक् होना। २ सष्ट होना। रिगव्वss (हे ४, ६२) । 1 णिव्वड देखो णिव्वल = निर्+ पद् (सुपा १२२) । ब्लिडि वि [भूत] पृथ-भूत जो जुदा हुआ हो (से ६, ८८) २ स्पष्टीभूत, जो व्यक्त हुआ हो (सुर ७, १०४) । विडिअ वि [निष्पन्न ] सिद्ध, कृत, निवृत्त (पाच): पत्तयन्याय सम्म इमीए विडिया' (सुपा १२२) । rose [a [] नग्न, नंगा (दे ४, २८ ) । विवि [निर्माण] चित वर्जित, बिना घाव का ( गाया १,३: औप ) । णिव्वण्ण एक [निर्+ वर्ण] श्लापा करना, प्रशंसा करना। २ देखना । वकृ. व्विण्णंत (से ३, ४४, उप १०३१ टी; महा) । णिवेअण [ निवेदन] १ सम्मान पूर्वक णिवेअणय ज्ञापन, विनय (पंचा १ } निवू ११) । २ नैवेद्य देवता को अर्पित श्रन्न आदि (पउम ३२. ३) णिवेणा स्त्री [निवेदना ] ऊपर देखो (खाया १,५ ) पिंड [ "पिण्ड ] पुं देवता को अर्पित ग्रन्न श्रादि, नैवेद्य ( निजू । ११) । णिवेअय देखो णिवेअग (सुपा २२५ स ५१६) । विश्व [निवेदित] सम्मान शापित (महा भवि णिवेदइत्तअ वि [निवेदयितृ] निवेदन करनेवाला अभि १३९) । निवेस सक [मि + वेश ] स्थापना करना, बैठाना शिवेस शिवेनेद (सा कप्प ) । संक्र. णिबेसत्ता, निषेसिडें गिवेसऊण णिवेसित्ता, निवेसिय ( उत ३२ महा सण कप्प; महा) । कृ. १९४ ) | वेिस [निवेश] १ स्थापन, प्राधान (ठा १३ उप पृ २३० ) । २ प्रवेश (निचू ४) । ३ श्रावास स्थान, डेरा (बृह १) । गिवेस [नृपेश] महाराजा चक्रवर्ती राजा (सुपा ४६३) । णिवेसण न [निवेशन] १ स्थान, बेठना (घाचा २ एक हो दरवाजेवाले अनेक गृह ( श्राव ४) । For Personal & Private Use Only शिवुटि णिव्यर णिव्वत्त सक [ निर् + वर्त्तय् ] बनाना, करना, सिद्ध करना । णिव्वत्तेइ (महा) । संकृणिव्यत्तिऊण, विऊण (मा)। वित्त एक [निर्वृत्तम्] गोल बनाना, वर्तुल करना । कवकृ. णिव्वत्तिजमाण (भग) । विश्वत व [निर्वृत] रचित निर्मित ( महाः श्रौप ) । वित्त व [निर्वयें] बनाने योग्य, साध्य ( प्राकृ २० ) । जिव्यन्त न [निन] निष्पत्ति, रचना, धना (उप १० ) । विकरणिया, गिरजा श्री [धिकराणी] श बनाने की क्रिया (ठा २, १, भग ३, ३) । वित्तणया स्त्री [निर्वर्त्तना ] ऊपर देखो मिठप्रत्तणा (पररण ३४ उत्त ३) । णिव्यत्तय वि [निर्वर्त्तक] निष्पन्न करनेवाला, बनानेवाला (विसे ११४२३ स ५६३ हे २, ३०) । णिव्यत्ति श्री [निर्वृत्ति ] निष्पत्ति, विनिर्माण (पिसे २००२) देखो ब्यति । वित्तिय [न] निष्पादित बनाया हुप्रा ( स ३३६: सुर १५, २२१: संक्षि १० ) । व गोलाकार निव्यतिय [[]]कार किया हुधा (भाग [] परिभुक्त (दे ४, १८) णिव्वय अक [ निर + वृ ] शान्त होना, उपशान्त होना । कृ. णिव्वयणिज्ज (स ३०१) । गिव्वय वि [निर्वृत] १ उपशान्त, शम-प्राप्त (१४, २) २ परित परिणामप्राप्त ( दसनि १ ) । विवि [नि] सहित नियमव्रत-रहितः रहित (पउम २८८ उप २६४ टी ) । व्णिन [निर्वचन ] १. निरुक्ति, शब्दार्थ कथन ( ग्राम ) । २ उत्तर, जवाब (ठा १० ) । ३ वि. निरुक्ति करनेवाला, निर्वाचकः 'जाव दविप्रोवोगो, अपच्छिमविप्रप्पनिव्वयरणों' ( सम्म ८ ) । णिव्ययणिज्ज पिम्पर एक देखो णिव्वय = निर् + वृ । [ कथय् ] दुःख कहना Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिव्वर - णिव्विइगिच्छ पाइअसहमहण्णवो fers (हे ४, ३) । भूका रिव्वरही णिव्वहण न [ निर्वहण ] निर्वाह, अन्त, (कुमा) । कम. नाटक की एक संधि (सुपा १७५. कुल ३७५) । roaण न [दे] विवाह, शादी (दे ४, (३६) । 'कह तम्मि निव्वरिज्जइ, । froar or [ वि + श्रम् ] विश्राम करना णिव्वाइ (हे ४, १५९) । वकृ. णित्र्वाअंत (5,5) 1 व्विाघाम व [निर्व्याघातिम] व्याघातरहित, स्खलना-रहित ( श्रौप) । froवाघाय वि [निर्व्याघात] १ व्याघातवर्जित (गाया १, १ भगः कप्प ) । २ न. व्याघात का प्रभाव ( पण २ ) । froaघाया स्त्री [निर्व्याघाता ] एक विद्यादेवी ( पउम ७ १४५) । णित्र्वाणन [निर्वाण ] १ मुक्ति, मोक्ष, निवृति ( विसे १९७५) । २ सुख, चैन, शान्ति, दुःख निवृत्ति; 'निउणमणो निव्वाणं सुंदरि निस्संसयं कुणई' (उप ७२८ टीः पउम ४६, १६) । ३ बुझाना, विध्यापन ( आव ४) । ४ वि. बुझा हुआा; 'जह दीवो व्विाणों (विसे १९६१; कुप्र ५१ ) । ५ पुं. ऐरवत वर्ष में होनेवाले एक जिन- देव का नाम (सम १५४) । णिव्वाण न [निर्वाण ] तृप्ति (दस ५, २, ३८) । दुक्खं कंडुज्जुए हिमए । अदाए पडिबिंब व जम्मि दुक्खं न संकमइ ( स ३०६ ) । व्विर क [छिद्] छेदन करना, काटना । रिव्ars ( हे ४, १२४ ) । व्विरण न [ कथन ] दुःख निवेदन ( गा २५५) । froat वि [छिन्न ] काटा हुआ, खण्डित (कुमा) । णिव्वल सक [ मुच् ] दुःख को छोड़ना । रिव्वलेइ (हे ४, ९२ ) । णिव्वल श्रक [ निर + पद्] निष्पन्न होना, सिद्ध होना, बनना । रिपव्वलइ (हे ४, १२८) । णिव्वल देखो णिच्ञ्चल = क्षर् । गिव्वलइ (हे ४, १७३ टि) । णिव्वल देखो णिव्वड =भू। वकृ. शिव्वलंत, णिव्वलमाण (से १, ३६, ७, ४३) । roat वि [] १ जल-धौत, पानी से ३ विघटित, घोया हुआ । २ प्रविगरिणत वियुक्त (दे ४, ५१) । froar on [निर + वापय् ] ठंढा करना, बुझाना | रिब्ववेहि (स ४५५)। रिगव्ववसु (काल) । वकृ. णिव्यवंत (सुपा २२५)। कृ. णिव्ववियव्व (सुपा २१० ) । णिव्यवण न [निर्वापण] १ बुझाना, शान्त करना । २ वि. शान्त करनेवाला, ताप को बुझानेवाला (सुर ३, २३७ ) । विवि वि [निर्वापित] बुझाया हुआ, ठंढा किया हुआ (गा ३१७; सुर २, ७४) । णिव्व क [ निर + वह ]१ निभना, निर्वाह करना, पार पड़ना। २ प्राजीविका चलाना | रिगव्वहइ ( स १०५ वज्जा ६) । कमं. रिव्हर (पि ५४१) । वकृ. णिव्वहंत (श्रा १२० कु ३३ ) । कृ. निव्वहियव्व ( कुप्र ३७५ ) । णिव्वह सक [ उद् + वह ] १ धारण करना । २ ऊपर उठाना । णिव्वहइ (षड् ) । णिव्वाण न [ दे] दुःख-कथन (दे ४, ३३) णिव्वाणि पुं [ निर्वाण ] । म्रुतीत उत्सर्पिणी-काल में संजात एक जिनदेव (पव ७) । णिव्वाणी स्त्री [ निर्वाणी ] भगवान् श्री शान्तिनाथ की शासन- देवी (संति १; १० ) । foot [निर्वाण ] बीता हुआ, व्यतीत ( से १४, १४) । जिब्वाय वि [ विश्रान्त] १ जिसने विश्राम किया हो वह (कुमा)। २ सुखित, निर्वृत ( से १३, २३) । णिव्वाय वि [निर्वात ] वायु-रहित ( छाया १, १. औप ) । णिव्वालिय वि [भावित ] पृथक् किया हुआ ( से १४, ५४ ) । णिव्वाव देखो णिव्वव । णिव्वावेमि ( स ३५२) । संकृ. णिव्वाविऊण (निचू १) । For Personal & Private Use Only ४११ व्याव [निर्वा] घी, शाक प्रादि का (१) । हा स्त्री [कथा] एक तरह की भोजन कथा (ठा ४, २ ) । जिव्वावइत्तअ ( शौ ) वि [निर्वापयितृक ] ठंढा करनेवाला (पि ६०० ) । णित्र्यावण न [निर्वापण] बुझाना, विध्यापन ( दस ४) । व्यावणान [निर्वापणा ] बुझाना, ठंढा करना, उपशान्ति ( गउड) । व्यायवि [निर्वाप] श्राग बुझानेवाला (सूत्र १, ७, ५) । णिव्वाविवि [निर्वापित] ठंढा किया हुआ ( गाया १, १ दस ५, १) । वासन [निर्वासन] देश निकाला ( स ५३४; कुप्र ३४३ ) । णिव्वासणा स्त्री [निर्वासना ] ऊपर देखो ( पउम ε६, ४१) । णिव्वाह पुं [निर्वाह ] १ निभाना, पार-प्राप्ति । २ श्राजीविका, जीवन-सामग्री 'निव्वाहं किंपि दाउँ च' (सुपा ४८८ ) । विगवि [निर्वाहक ] निर्वाह करने वाला ( रंभा । निव्वाहण न [ निर्वाहण १ निर्वाह, निभाना (सुपा ३९४ ) । २ निस्सार करना (राज) । णिव्वाहिअ वि [निर्वाहित ] श्रतिवाहित, बिताया हुआ गुजारा हुआ ( से ६, ४२ ) । गिब्वाहिअ वि [निर्व्याधिक] व्याधि-रहित, नीरोग (से ६, ४२ ) । णिविअप्प देखो णिब्विगप्प (सम्म ३३) । णिव्विआर वि [निर्विकार ] विकार-रहित (गा ५०६ ) । णिव्विइअ वि [निविकृतिक] १ घृत विकृति - जनक पदार्थों से रहित ( प ) । २ न. प्रत्याख्यान - विशेष, जिसमें घृत प्रादि विकुतियों का त्याग किया जाता है ( पव ४, पंचा ५) । णिब्बिगिच्छ वि [निर्विचिकित्स ] फलप्राप्ति में शंका- रहित (कस धर्म २ ) । |णिब्बिगिच्छ न [निर्विचिकित्स्य ] फलप्राप्ति में सन्देह का अभाव (उत्त २८ ) । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ निव्विगच्छा स्त्री [निर्विचिकित्सा ] फलप्राप्ति में शंका का प्रभाव (श्रीप पडि ) । णिविंद सक [[+] विद्] अच्छी तरह विचारना । निव्विदए ( दस ४, १६:१७) । निव्विद सक [निर् + विद्] घृणा करना रिव्विदेज्ज ( सू १, २, ३, १२) । । 1 [कल्प ] १ सन्देहणिव्विगप्प रहित, निःसंशय (कुमाः गच्छ २) । २ भेद रहित ( सम्म ३३ ) | विगइय देखो निव्विय (संबोध ५८ ) । गप्प न [निर्विकल्पक] बौद्ध-प्रसिद्ध प्रत्यक्ष ज्ञान विशेष ( धर्मसं ३१३) । निव्विगिअ देखो णित्रिइअ ( पव २) | for [[ ] विघ्न-रहित बाधावर्जित (सुपा १८७ सण) । णिव्विचित वि [निर्विचिन्त ] चिन्ता-रहित निश्चिन्त (सुर ७, १२३) । विज क [निर + विद्] निवॆद पाना, विरक्त होना । रिब्विज्जेज्जा ( उव) । णिव्त्रिज्जवि [निर्विद्य] खं (उत्त ११, २) | frog fa [निर्वृष्ट] उपार्जित, 'नानिव्विट्ठ भई ( पिंड ३७० ) । विट्ठ व [दे] उचित, योग्य (दे ४, ३४ ) | निव्विट्ट वि [निर्विष्ट ] उपमुक्त, आसेवित, परिपालित ( पात्र अणु) । "काइय न [" कायिक] जैन शास्त्र में प्रतिपादित एक तरह का चारित्र (अरगु; इक ) । व्विण्णव [निर्विण्ण] निर्वेद प्राप्त, खिन्न (महा) । ३२) । णिब्धित्त वि [दे] सो कर उठा हुआ (दे ४, णिव्वित्ति देखो णिव्यत्ति । २ इन्द्रिय का श्राकार, द्रव्येन्द्रिय-विशेष (विसे २९६४) । णिव्विद देखो णिव्विंद = निर्+विद् (सूत्र १, २, ३, १२) । णिforgia वि [निर्विजुगुप्स] घृणा रहित (धर्मं १) । निव्त्रिन्न देखो गिव्विण्ण ( उव) । णिविभागवि [निर्विभाग ] विभाग रहित (दंस ५) । णिव्वय देखो गिव्विइअ (संबोध ५७; कुलक १२) । पाइअसहमण्णवो विण व [निर्विजन] १ मनुष्य-रहित । २ न. एकान्त स्थल (सुर ६, ४२ ) । गिब्बर वि [दे] चिपट, बैठा हुआ; 'श्रइरिणव्विरनासा' (गा ७२८ टि) ! णिविराम व [निविराम ] विराम-रहित (उप पृ १८३) । णिच्चिलब क्रिवि [निर्विलम्ब] विलम्ब-रहित, शीघ्र (सुपा २५५ कुप्र ५२ ) । णिविवेअ वि [निर्विवेक ] विवेक-शून्य (सुपा ३२३: ५००; गउड, सुर ८, १८१ ) 1 निव्विस सक [निर + विश् ] त्याग करना । निव्विसेज (स) । वकु. णिविसंत (राज)। ििवस सक [निर + त्रिश्] उपभोग करना (पिड ११६ टी) । णिव्विस वि [निर्विष] विष-रहित ( प ) । णिव्विसंक वि [नित्रिंशङ्क] शंका- रहित, निर्भय (सुर १२, १९) । णिव्विसमाण न [निर्विशमान] १ चारित्र विशेष (ठा ३, ४ ) । २ वि. उस चारित्र को पालनेवाला (ठा ६) । “कप्पट्ठिइ स्त्री ["कल्पस्थिति ] चारित्र - विशेष की मर्यादा ( कस) । विवि [निर्देशक ] उपभोग-कर्ता (पिंड ११९ ) । सिवि [निर्विषय ] १ विषयों की अभिलाषा से रहित (उत्त १४) । २ धनर्थक, निरर्थंक (पंचा १२; उप ε२५) । ३ देश से बाहर किया हुप्रा, जिसको देशनिकाले की सजा हुई हो वह (सुर ε, ३६; सुपा ५६६ ) णिध्यिसि वि [निर्विशिष्ट] विशेष-रहित, । णिव्विइगिच्छा - णिव्वूढ णिवुअवि [निवृत] निर्वृति-प्राप्त (स ५६३ कप्प) । For Personal & Private Use Only णिव्वुइ स्त्री [निर्वृति] १ निर्वाण, मोक्ष, मुक्ति (कुमा; प्रासू १६४) । २ मन की स्वस्थता निश्चिन्तता (सुर ४, ८ ) । ३ सुख, दु:ख निवृत्ति (श्राव ४) । ४ जैन साधुग्रों की एक शाखा (कप्प ) । ५ एक राजकन्या (उप १३६) । करवि ["कर] निर्वृतिजनक ( पण १) । जण वि ['जनक] निर्वृति का उत्पादक (गा ४२१ ) । णिच्वुइकरा श्री [निर्वृतिकरा ] भगवान् सुमतिनाथ की दीक्षा शिविका ( विचार १२) । frogs देखो frog णिव्वुड वि [निर्वृत] ( दस ३, ६, ७) । (कुमा; श्राचा) । अचित्त किया हुआ जिव्बुड्ड देखो णिबुड्डु = नि+मस्ज् । वक्र. णिव्वुड्डुमाण (राज) । णिब्बुड्ढ देखो णिवुड्ढ । वकृ. णिवुड्ढेमाण (सुन ६ --पत्र ८० ) । संकृ. णिव्वुडूढेत्ता (सुज ६) । णिव्वुड्ढ वि [नियू' ढ] निर्वाहित, निभाया हुआ (गा ३२ ) । णिव्वुत्त देखो वित्त (गा १५५) । णिव्वुत्त देखो णिव्वत्त = निवृत (पिंग ) । णिव्युत्ति देखो वित्त (गा ८२८ ) । णिव्वुद देखो णिव्वुअ ( संक्षि )। णिव्बुदि देखो णिव्वुइ (प्राकृ ८) । णिव्वुब्भ देखो वह = निर् + वह । निव्वूढ व [निर्व्यूढ] १ जिसका निर्वाह किया गया हो वह । २ कृतः विि (गा २५५ से १, ४६ ) । ३ जिसने किया हो वह पार प्राप्त ( विवे ४४ ) व्यक्त, परिमुक्त ( से ५, ६२ ) । ५ बा निकाला हुआ, निस्सारित; 'निम्बूढा य पएस तत्तो गाढप्पोसमावन्ना' (उप १३१ टी ) । मित समान, तुल्य (उप ५३० टी) । निव्विसी स्त्री [निर्विषी ] एक महौषधि णिव्विसेस वि [निर्विशेष ] १ विशेष-रहित, (ती ५) । समान, साधारण ( स २३ सम्म ६६ प्रासू ६८) । २ अभिन्न, जो जुदा न हो ( से १५, ६५) । ५७) । णिव्वीय देखो णिव्विइअ (संबोध ५७ ) । णिव्वीरा स्त्री [निर्वीरा ] पुत्र-रहित विधवा स्त्री (मोह ४९) । food at [निर्विकृति ] तप-विशेष (संबोध णिव्वूढ वि [दे] १ स्तब्ध (दे ४, ३३) । न. घर का पश्चिम प्रांगन ( दे ४,२६ ) । णिव्वूढ वि [निर्व्यूढ] किसी ग्रंथ से उद्धृत कर बनाया हुआ ग्रन्थ ( दसनि १, १२) । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिवेअ-णिसाम पाइअसहमहण्णवो णिवेअ पुं [निर्वेद] मुक्तिको इच्छा णिसंत विनिशान्त] १ श्रुत, सुना हुआ णिसन्न देखो णिसण (उवः णाया १, १)। (सम्मत्त १६६)। (णाया .,१४: उवा)। २ अत्यन्त ठंढ़ा णिसम सक[नि + समय 1 सुनना । वकृ. गिब्वेअ ' [निर्वेद] १ खेद, विरक्ति (कुमा (मावम)। ३ रात्रि का अवसान, प्रभात, णिसमेंत (आवम) । कवकु. णिसम्मत द्र ६२) । २ संसार को निगुणता का प्रव- | जहा णिसते तवरणचिमाली, पभासई केवल- । (गउड) संकृ. णिसमिअ, णिसम्म (नाट. धारण-निश्चय (ज्ञान) करना (उप ६८६)। भारहं तु' (दस ६.१, १४)। वेणी ६८; उवाः प्राचा)। णिव्वेअण न [निर्वेदन] १ खेद, वैराग्य। णिसंस वि [नृशंस] क्रूर, निर्दय (सुग णिसमण न [निशमन] श्रवण, आकर्णन २ वि. वैराग्यजनक । स्त्री. णी (ठा ४, २)। ४०६) । (हे १, २६६; गउड)। णिवे? सक [निर + वेष्टय ] १ नाश णिसग्ग ' [निसर्ग] १ स्वभाव, प्रकृति (ठा णिसम्म अक [नि+सद् ] १ बैठना । २ करना, क्षय करना। २ घेरना । ३ बांधना। २, १७ कुप्र १४८) । २ निसर्जन, त्याग सोना, शयन करना । णिसम्मउ (से ६, वकृ. णिव्वेटुंत (विसे २७४५, प्राचा २, (विसे)। १७)। हेकृ. णिसम्मिउं (से ५, ४२) । ३, २)। णिसग्ग वि निसर्ग] स्वभाव से होनेवाला, णिसर देखो णिसिर कवकृ. निसरिजमाण णिव्वेढ सक [निर + वेष्टय त्याग स्वाभाविक (सुपा ६४८)। (भग)। करना । णिवेढेइ (सुज्ज २, १)। 'णिसग्ग न [नैसर्ग] जात्यन्ध की तरह णिसल्ल देखो णिस्सल्ल (श्रा ४०)। मिजोर मान वेशय मजबती स्वभाव से प्रज्ञता (सूम २, ३, १६)। णिसह देखो णि लढ (इक)। से बेष्टन करना । णिव्वेढिज, रिणब्बेडेज्ज णिसग्गिय वि [नैसगिक] स्वाभाविक (सण)। णिसह देखो णिस्सह (षड् )। (आचा २, ३, २; पि ३०४)। णिसज्ज पुं. देखो णिसज्जा निसज्जे वियड- णिसह सक [नि + सह ] सहन करना। णिव्वेढ वि [दे] नग्न, नंगा (दे ४,२८)। णाएं (वव १)। रिणसहइ (प्राकृ ७२)। णिव्वेद देखो णिव्वेअ (उत्त २६, २)। णिसज्जा स्त्री [निषद्या] १ प्रासन (दस ६)। णिसा स्त्री [निशा] अन्धकारवाली नरकणिश्वेर वि निर्वैर वैर-रहित (अच्चु ५६)। २ उपवेशन बैठना ( दव ) । देखो। भूमि (सू णिव्वेरिस वि दे] १ निर्दय, निष्करुण। णिसिज्जा। |णिसा [निशा] १ रात्रि, रात (कुमा, प्रासू २ अत्यन्त, अधिक (दे ४, ३७)। णिसट्ट वि [निसृष्ट] १ निकाला हुआ, । ५५)। २ पीसने का पत्थर, शिलौट, सिलवट णिवेल्ल अक [निर + वेल्लू ] फुरना. सत्य । त्यक्त १, १६) । २ दत्त, दिया हुआ (णाया (उवा)। अर पुं[कर] चन्द्र, चाँद (हे १, ठहरना, साबित होना। रिणव्वेल्लइ (पि १०७) १,१-पत्र ७१)। ८ षड्) । अर पुं[°चर] राक्षस (कप्पू: से णिवेल्लिअ वि [निर्वेल्लित] प्रस्फुरित, स्फूर्ति- णिसट्ठ वि [दे] प्रचुर, बहुत (मोघ ८७)।। १२, ६६)। अरेंद पुं [चरेन्द्र] राक्षसों युक्त (से ११, १६)। का नायक, राक्षस-पति (से ७,५६) । नाह णिस? (अप) वि [निषण्ण] बैठा हुआ णिव्वेस वि [निष] द्वेष-रहित (से १५, (सए)। पुं[ नाथ] चन्द्रमा (सुपा ४१६)। 'लोढ ६५)। णिसढ [निषध १ हरिवर्ष क्षेत्र से उत्तर न [°लोष्ट] शिला-पुत्रक, पोसने का पत्थर, णिव्वेस [निवेश] १ लाभ, प्राप्ति (ठा में स्थित एक पर्वत (ठा २, ३)। २ स्वनाम लोढ़ा (उवा)। वइ पुं[पति चन्द्र, चाँद, ५,२) । २ व्यवस्था, 'कम्मारण कप्पियाणं ख्यात एक वानर, राम-सेनिक (से ४,१०)। चन्द्रमा (गउड)। देखो णिसि । काही कमतरेसु को णिव्वेस' (अच्नु १८)। ३ बैल, सौढ़ (सुज ४) । ४ बलदेव का एक णिसाण सक [नि+ शाणय ] शान पर णिव्वेहणिया स्त्री [निर्वेधनिका] वनस्पति- पुत्र (निर १,५; कुप्र ३७२) । ५ देश-विशेष। चढ़ाना, पैनाना, तीषण करना । संकृ. निसाविशेष (सूप २, ३, १६)। ६ निषष देश का राजा(कुमा)। ७ स्वर-विशेष णिऊण (स १४३)। णिव्योढव्य विनिर्वोढव्या निर्वाह-योग्य, (हे १, २२६; प्राप्र)। कूड न [कूट] णिसाग न [निशाण] शान, एक प्रकार का वहन करने योग्य, निभाने लायक (प्राव ४)। निषध पर्वत का एक शिखर (ठा २, ३)। निषध पर्वत का एक शिखर (ठा २, ३)। पत्थर, जिस पर हथियार तेज किया जाता णिव्योल सक [क] क्रोध से होठ को मलिन दह पुं[द्रह] द्रह-विशेष (जं ४)। है (गउड सुपा २८)। करना । णिव्वोलन (हे ४, ६६)। जिसण्ण वि निषण्ण] १ उपविष्ट, स्थित णिसाणिय वि [निशाणित] शान दिया णिवोलण न [करण] क्रोध से होठ को (गा १०८ ११६, उत्त २०) । २ कायोत्सर्ग हुमा, पैनाया हुमा, तीक्ष्ण किया हुमा, पैना, मलिन करना (कुमा)। का एक भेद (प्राव ५)। धारदार, नुकीला प ५६)। णिस देखो णिसा (कुमा; पउम १२, ६५)। णिसण्ण वि [निःसंज्ञ] संज्ञा-रहित से ६. णिसाम देखो णिसम । णिसामेइ (महा) । ३८)। वकृ. णिसामेंत (सुर ३, ७८)। संकृ. णिस सक [नि + अस् ] स्थापन करना। णिसत्त वि [दे] संतुर मंतोष-क (दे ४, णिसामिऊग, णिमामित्ता (महा: - णिसेइ (प्रौप)। २)। For Personal & Private Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ पाइअसद्दमहण्णवो णिसाम-णिसुढिअ णिसाम वि [निःश्याम] मालिन्य-रहित, णिसिद्ध वि [निपिद्ध] प्रतिषिद्ध, निवारित णिसीहिआ स्त्री [निशीथिका] १ स्वाध्यायनिर्मल (से ६, ४७)। (पंचा १२)। भूमि, अध्ययन-स्थान (पाचा २, २, २)। णिसामण देखो णिसमण (सुपा २३)। णिसिय विन्यस्त] स्थापित (धर्म ७३)। २ थोड़े समय के लिए उपात्त स्थान (भग णिसामिअ वि [दे. निशमित] १ श्रुत, णिसियण न [निषदन] उपवेशन (पव)। १४, १०)। ३ प्राचाराङ्ग सूत्र का एक प्राकणित (दे ४, २७; गा २६)। २ उप- णिसिर सक [नि + सृज] १ बाहर निका- अध्ययन (पाचा २, २, २)। शमित, दबाया हुआ। ३ सिमटाया हुआ, लना । २ देना, त्याग करना। ३ करना। णिसीहिआ स्त्री [नेपेधिकी] १ स्वाध्यायसंकोचितः 'नस्सामियो फणाभोयो' (स णिसिरइ (भास ५, भग); "रिणरवराहाण । भूमि (सम ४०)। २ पाप-क्रिया का त्याग ३५८)। निसि रंति जे न दंडं, तेवि हु पाविति निव्वाणं" (पडि; कुमा)। ३ व्यापारान्तर के निषेध रूप णिसामिर वि [निशमयितु] सुननेवाला (सुर १५, २३४) । कम. निसिरिज्जइ, प्राचार (ठा १०)। देखो णिसेहिया । निसिरिज्जए (विले ३५७) : तकृ. निसिरंत णिहिणी जी निशीथिनी] रात्रि, रात णिसाय वि [दे] प्रसुप्त (दे ४, ३५)। (पि २३५)। कवकृ. निसिरिजमाण (पि (उप पृ १२७) । 'नाह पुं [नाथ] चन्द्रमा णिसाय वि [निशात] शान दिया हुआ, २३५) । संकृ. णिसिरित्ता (पि २३५)। (कुमा)। तीक्ष्ण (पान)। प्रयो. निसिराति (पि २३५)। णिसुअ वि [दे. निश्रुत श्रुत, प्राणित णिसाय निषाद] १ चाण्डाल, एक प्राचीन णिसिरण न [निसर्जन] १ निस्सारण (भास जाति (दे ४,३५) । २ स्वर-विशेष (ठा ७)। २)। २ त्याग (णाया १,१६)। महा, पाय)। णिसावंत वि [निशातान्त तीक्ष्ण धार णिसिरणया) स्त्री [निसर्जना] १ त्याग, णिसंद [निसुन्द] रावण का एक सुभट णिसिरणा दान (आचा २, १, १०)। पिडा वाला (पान)। णिसास सक [निर + श्वासय् ] निःश्वास | २ निस्सारण, निष्कासन (भग)। णिसुंभ सक [नि + शुम्भ ] मार डालना, |णिसीअ अक [नि + पद् बैठना। णिसीआइ डालना। वकृ. णिस्सासएंत (पउम ६१, व्यापादन करना । कवकृ. णिसुंभंत, णिसु(भग)। वकृ. णिसीअंत, णिसीअमाण ७३)। भंत (से ५, ६६, १४,३; पि ५३५)। णिसास देखो णीसास (पिंग)। (भग १३, ६; सूअ १, १, २)। संकृ. णिसुंभ पुं [निशुम्भ] १ स्वनाम-ख्यात एक णिसी इत्ता (कप्प) । हेकृ. णिसीइत्तए णिसि देखो णिसा (हे १, ८; ७२; षड् : राजा, एक प्रतिवासुदेव (पउम ५, १५६ (कस)। कृ. णिसीइयव्य (णाया १, १, सुर १, २७) । पालअ पुं [पालक] पव २११) । २ दैत्य-विशेष (पिंग)। भग)। छन्द-विशेष (पिंग)। भत न [भक्त] न भक्त णिसीअण न [निषदन] उपवेशन, बैठना | णिसुंभण न [निशुम्भन] १ मर्दन, व्यापादन, रात्रि-भोजन (ोघ ७८७ )। भुत्त न (उप २६४ टी; स १८०)। विनाश । २ वि. मार डालनेवाला (सूत्र १, [भुक्त] रात्रि भोजन (सुपा ४६१)। णिसीआवण न [निषादन] बैठाना (कस ४, णिसुंभा स्त्री [निशुम्भा] स्वनाम-ख्यात एक णिसिअ देखो णिसीअ रिणसिप्रइ ( सण; २: टी)। कप्प) । संकृ. रिणसिइत्ता (कप्प)। ___ इन्द्राणी (गाया २; इक)। | णिसीढ देखो णिसीह - निशीथ (हे १, २१६; णिसुभिय वि [निशुम्भित] निपातित, व्यासिअ वि [निशित] शान दिया हुआ, कुमा)। पादित (सुपा ४६०)। तीक्ष्ण (से ५, ४६; महाः हे ४, ३३०)। णिसीदण देखो णिसीअण (प्रौप)। णिसुट्ट । वि दे] ऊपर देखो (हे ४, सिक्क सक [नि+सिच् ] प्रक्षेप करना, णिसीह पुन [निशीथ] १ मध्य रात्रि (हे १, णिसुट्ठि | २५८ से १०, ३६) । डालना। संकृ. णसिक्किय (माचा)। | २१६; कुमा)। २ प्रकाश का प्रभाव (निचू णिसुड देखो णिसुढ = नम् । निसुडइ (षड् )। णिसिज्जा देखो णिसज्जा (कप्प; सम ३५; ३)। ३ न. जैन आगम-ग्रन्थ विशेष (रणंदि)। णिसुड्ढ देखो णिसुट्ट (हे ४, २५८ टि)। ठा ५, १) । ३ उपाश्रय, साधुनों का स्थान णिसीह पुं [नृसिंह] उत्तम पुरुष, श्रेष्ठ मनुष्य णिसुढ अक [नम्] भार से आक्रान्त होकर (पंच ४)। (कुमा)। नीचे नमना, झुकना। णिसुढइ (हे ४,१५८)। सिज्झमाण देखो णिसेह = नि + षिध् । णिसीहिअ वि [नैशीथिक] निज के लिए णिसुढ सक [नि + शुम्भ ] मारना, मार णिसिट्ठ वि [निसृष्ट] १ बाहर निकाला __ लाया गया है ऐसा नहीं जाना हुआ भोज-। कर गिराना । कवकृ. णिसुढिजत (से ३, २ दत्त, प्रदत्त (पाच)। नादि पदार्थ (पिड ३३६)। णिसुढिअ वि [नत] भार से नमा हुआ ३ अनुज्ञात (बृह १)। ४ बनाया हुआ। णिसीहिआ स्त्री नैपेधिकी] १ शव-परिष्ठा- (पान)। क्रिवि. 'आमयहराई ...पउमो निहो निसिट्ठ पन-भूमि, श्मशान-भूमि (अणु २०)। २ णिसुढिअ वि [निशुम्भित] निपातित (से उवरणमेई' (उप ६८६ टी)। - बैठने की जगह (राय ६३)। १२, ६१)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिसुढिर-णिस्साण पाइअसहमहण्णवो ४१५ णिसुढिर वि [नम्र] भार से नमा हुआ णिसेवि वि [निपेविन] ऊपर देखो (स १०)। णिस्संस वि [निःशंस] श्लाघा-रहित (पग्रह (कुमा)। |णिसेविय वि [निषेवित] १ सेवित, पाहत णिसुण सक [नि+श्र] सुनना, श्रवण करना । | (आवम)। २ आश्रित (उत्त २०) । णिस्संसय वि [निःसंशय] १ संशय-रहित । निसुबइ, रिणसुरणेइ, रिगसुणेमि (सण महाणिसेह सकनि +षिधन निषेध करना, २ क्रिवि. निःसंदेह, निश्चय (अभि १८४; सट्ठि १२८) । वकृ, निसुणंत, निसुणमाण निवारण करना। निसेहइ (हे ४, १३४) । आवम)। मुपा १०६; सुर १२, १७४)। कवकृ. कवकृ. निसिझमाण (सुपा ५७२) । णिस्सक सक [नि + ष्वक् ] कम करना, निमुणिज्जत (सुपा ४५, रयण ६४)। हेत. निसेहिउं (स १६८) । कृ. निसेहि घटाना। संकृ. निस्सक्किय (ग्राचा २,१, संकृ निसुणिरं, निसुणिऊण, णिसुणिऊणं यव्वा सययंपि माया' (सत ३५)। (सुपा १४: महा; पि ५८५)। हिस्सण पुं[निःस्वन] शब्द, अावाज (कुप्र णिसेह पुं [निषेध] १ प्रतिषेध, निवारण णिसुद्ध वि [दे] १ पातित, गिराया हुआ २७) । (उवः प्रासू १८१)। २ अपवाद (प्रोघ ५५)। णिस्सण्ण वि [निःसंज्ञ] संज्ञा-रहित (सूम (दे ४, ३६, पाम से ५ ६८)।] णिसेहण न [निपेधन] निवारण (आवम) ! णिसुभंत देखो णिसुंभ = नि + शुम्भ। णिसेहणास्त्री [भिषेधना] निवारण (प्राव १)। णिस्सत्त विनिःसत्त्व] धैर्य-रहित, सत्वणिसूग देखो णिस्सूग (सुपा ३७०)। णिस्ड देखो सुढ = नि + शुम्भ । हेकृ. जिसेहिया देखो णिसीहिआ = नैषेधिको। हीन (सुपा ३५६) । निसडिउं (मुपा ३६६)। १ मुक्ति, मोक्ष । २ श्मशान-भूमि । ३ बैठने णिस्सन्न देखो णिसण्ण (रयण ५) । णिसृढ देखो गिसह = नि + सह । निसूढइ का स्थान। ४ नितम्ब, द्वार के समीप का हिस्सम्म प्रा [निर + श्रम् ] बैठना । (प्राकृ ७२)। भाग (राज)। | वकृ. णिस्सम्मंत (से ६, ३८)। णिसेग देखो णिसेय (पंच ५, ४६)। णिस्स वि [नि.स्व] निर्धन, धन-रहित णिस्सय पुं[निश्रय देखो णिस्सा (संबोध (पान)। यर वि [कर] १ निधन-कारक। १६)। गिसेज्जा स्त्री [निषद्या] वन, कपड़ा (पव १२७ टी)। । २ कर्म को दूर करनेवाला (पाचा २, १६, णिस्सर अक [निर + सू] बाहर निकलना । रिणस्सरइ (कप्प) । वकृ.णिस्सरंत (नाटणि सेज्जा देखो णिसज्जा (उवः पव ६७)। णिसेझ वि [निषेध्य] निषेध-योग्य (धर्म- । णिस्संक [दे] निर्भर (दे ४, ३२)। चेत ३८)। |णिस्संक वि [निःशङ्क] १ शङ्का-रहित णिस्सरण वि [निःसरण] निर्गमन, बाहर णिसेणि देखो णिस्सेणि (सुर १३, १६०)। (सूप २, ७, महा)। २ न. शङ्का का निकलना (ठा ४, २)। णिसेय पुं [निषेक] १ कर्म-पुद्गलों की | अभाव (पंचा)। हिस्सरण वि [निःशरण] शरण-रहित, रचना-विशेष (ठा ६)। २ सेचन, सींचना: णिस्संकिअ वि [निःशङ्किता१शङ्का- तारण-बजित (पउम ७३, ३२)। 'ता संपइ जिणवरबिंबदंसरणामयनिएण पीरिण- रहित (ोष ५६ भाः रणाया १, ३)। २ न. णिस्सरिअ वि [दे] त्रस्त, खिसका हुप्रा (दे ज्जउ नियदिट्टि' (सुपा २६६); 'कामावि शङ्का का अभाव (उत्त २८)। कुणति सिरिखंडरसनिसेयं' (मुपा २०)। णिस्संग वि [निःसङ्ग] सङ्ग-रहित (सुपा णिस्सल्ल वि [निःशल्य] शल्य-रहित (उप णि सेव सक [नि + सेव् ] १ सेवा करना, १४०)। ३२० टीद्र ५७)। आदर करना। २ आश्रय करना। निसेवइ, णिस्संचार वि [निःसंचार] संचार-रहित, णिन्सस अक [निर + श्वस् ] निःश्वास निसेवए (महाः उव)। बकृ.णिसेवमाण गमनागमन-वजित (णाया १,८)। लेना। निस्ससइ, णिस्ससंति (भग)। वकृ. (महा)। कवकृ. णिसेविज्जंत (ोध ५६)। णिस्संजम वि [ निस्संयम ] संयम-रहित णिस्ससिज्जमाण (ठा १०)। णिस्सह वि [निःसह] मन्द, अशक्त (हे १, (पउम २७, ५) । कृ. निसेणिज्ज (सुपा ३७)। णिसेव सक [नि+सेव] आचरना । णिस्संत वि [निःशान्त] प्रशान्त, अतिशय १३, ६३; कुमा)। णिसेवए (अज्झ १७६)। शान्त (राय)। णिस्सा स्त्री [निश्रा] १ पालम्बन, प्राश्रय, णिसेवग देखो णिसेवय (सूय २, ६, ५)। णिस्संद देखो जीसंद (पराह १, १; नाट- सहारा (ठा ५,३) । २ अधीनता (उप १३० टी)। ३ पक्षपात (वय ३)। णिसेवणा स्त्री [निपेवणा] सेवा, भजना मालती ५१)। (उत्त ३२, ३)। णिस्संदेह वि [निस्संदेह ] संदेह-रहित, णिस्साण न नाण] निश्रा, अवलम्बन णिसेवय वि [निषेवक] १ सेवा करनेवाला, निश्चय, निःसंशय (काल)। (पएह १, ३)। पान [पद अपवाद सेवक । २ आश्रय करनेवाला (पुप्फ २५१)। णिस्संधि वि [निस्सन्धि] सन्धि-रहित, साधा (बृह १)। णिसेवा स्त्री [निपेवा] ऊपर देखो (सम्मत्त । से रहित (पराह १, १)। हिस्साण पुन [दे] वाद्य-विशेष, निशान; १५५: संबोध ३४)। णिस्संस वि [नृशंस] क्रूर, निर्दय (महा)। 'वज्जिरनिस्सारणतूररवगज्जो' (धर्मवि ५६)। For Personal & Private Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो णिस्सार -णिहाआ हमा ( षड्)। णिस्मार सक [निर + सारय ] बाहर २ मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण (प्रौपः णंदि)। ३ णिहत्त देखो णिवत्त (भग)। निकालना । निस्सारइ (कुप्र १५४)। मभ्युदय, उन्नति (उत्त८)। णिहत्तण न [निधत्तन] कर्म का निविड़ णिस्सार वि[निःसार]१ सार-हीन, णिस्सेयसिय वि [नैःश्रेयसिक ] मुमुक्षु, बन्धन (भग)। णिस्सारग निरर्थक (प्रणुः सूत्र १, ७; मोक्षार्थी (भग १५)। णित्ति देखो णित्ति (राज)। प्राचा)। २ जीणं, पुराना (आचा)। णिस्सेस वि [निःशेष] सर्व, सब, सकल णिहम्म सक [नि + हम्म् ] जाना, गमन णिस्सारय वि [निःसारक] निकालनेवाला | (उप २००)। करना । णिहम्मइ (हे ४, १६२) । (उप २८० टी)। | णिह वि[निभा १ समान, तुल्य, सदृश (से । णिय वि [निहत] मारा हुमा (गा ११८; णिस्सारिय वि [निःसारित १ निकाला १, ५८ गा ११४ दे १, ५१)। २ न. सुर ३, ४६)। हुमा। २ च्यावित, भ्रष्ट किया हुआ (सूत्र बहाना, व्याज, छल (पान)। णिय वि [निखात] गाड़ा हुआ (स ७५६)। णिह वि [निह] १ मायावी, कपटी (सून १, णिहर प्रक [नि + हृ] पाखाना जाना णिस्सास पुं [निःश्वास] निःश्वास, नीचा ६)। २ पीड़ित (सून १, २, १)। ३ न. (प्रामा)। श्वास (भग)। २ काल-मान-विशेष (इक)। प्राघात-स्थान (सूत्र १, ५, २)। णिहर अक [आ + क्रन्द] चिल्लाना । णिहरइ ३ प्रारण-वायु, प्रश्वास (प्राप्र)। - णिह वि [स्निह] रागी, राग-युक्त (प्राचा)। (षडू)। णिस्साहार वि [नि:स्वाधार निराधार, णिहंतव्य देखो णिहण = नि + हन् । णिहर प्रक [निर + सू] बाहर निकलना । आलम्बन-रहित (सरण) । | णिहंस पुं[निघर्ष घर्षण (गउड)। णिहरइ ( षड्)। णिस्सिंग वि [निःशृङ्ग] शृग-रहित (सुपा णिहंसण न [निघर्षण] घर्षण, रगड़ (से ५, णिहरण देखो णीहरण (णाया १, २३१३)। ४६; गउड)। पत्र ८६)। णिस्सिघिय न [नि:शिवित अव्यक्त शब्द-णिहट ट प्र.१ जुदा कर, पृथक करके (प्राचा)। णिहव देखो णिहुव। णिहवइ (नाट; पि विशेष (विसे ५०१)। २ स्थापन कर (रणाया १,१६)। ४१३)। णिसिंच अक [निर् + सिच ] प्रक्षेप करना, डालना, फेंकना। वकृ.णिस्सिचमाण १७४)। णिहव [निवह] समूह ( षड्)। (राज)। संकृ. णिस्सिचिया (दस ५, १) । णिहण सक [नि + हन् ] १ निहत करना, णिहस सक [नि + धृष ] घिसना । संकृ. णिस्सिणेह वि [निःस्नेह] स्नेह-रहित (पि मारना । २ फेंकना। णिहणामि (कुप्र णिहसिऊण (उब)। १४०)। २६२)। णिहणाहि ( कप्प )। भूका- णिहस ' [निकष १ कषपट्टक, कसौटी का णिस्सिय वि [निश्रित] १ आश्रित, णिहरिणसु (प्राचा)। वकृ. निहणंत (सण)। पत्थर (पान)। २ कसौटी पर की जाती अवलम्बित (ठा १०; भास ३८) । २ प्रासक्त, संकृ.णिहणित्ता (पि ५८२) । कृ. णिहंतव्व रेखा (हे १, १८६; २६०; प्राप्र)। अनुरक्त, तल्लीन (सूम १, १, १, ठा ५, २)। (पउम ६, १७)। णिहस पुं [निघ] घर्षण, रगड़ (से ६, ३ न. राग, आसक्ति (ठा ५. २)। णिण सक [नि + खन्] गाड़ना। 'निहणंति ३३) । णिस्सिय वि [निश्रित] १ निश्चय से बद्ध धरा धरणीयलम्मि' (वज्जा ११८)। हेकृ. णिहस [दे] वल्मीक, सर्प प्रादि का बिल (सूम २, ६, २३)। २ पक्षपाती, रागी । 'चोरो दव्वं निहणि उम् भारद्धो' (महा)। (दे ४, २५) । (वव १)। । णिहण न [दे] कूल, तीर, किनारा (४, णिहसण न [निघषेण] घर्षण, रगड़ (से, णिास्सय वि [निःसृत ] निर्गत, निर्यात २३)। १० गा १२१; गउड; वज्जा ११८)। (भास ३८)। णिहण त [निधन] १ मरण, विनाश (पामः । णिहसिय वि [निघर्षित] घिसा हुप्रा (वजा णिस्सील वि [निःशील] सदाचार-रहित, जी ४६)। २ पुं. रावण का एक सुभट १५०)। दुःशील (पउम २, ८८ ठा ३, २)। (पउम ५६, ३२)। णिहा नी [निहा] माया, कपट (सूत्र १,८)। णिस्सग वि इनिःशूक] निर्दय, निष्करुण णिहणण न [निहनन] निहति. मारना णिहा सक [ निधा ] स्थापना करना । (श्रा १२)। (महा; स १६३)। निहेउ (स ७३८)। कवकृ.णिहिप्पंत (से णिस्सेज्जा देखो णिसेज्जा (पव १२७)। णिहणिअ वि [निहत] मारा हा (सुपा ,६७) । संकृ.णिहाय (सूम १,७)। णिस्सेणि स्त्री [निःश्रेणि] सीढ़ी (पण्ह १, १५८; सण)। ! णिहा सक [नि + हा] त्याग करना। संकृ. १; पाप्र)। णिहत्त सक [निधत्तय ] कर्म को निबिड़ . णिहाय (सूम १, १३)। णिस्सेयस न [निःश्रेयस ] १ कल्याण, रूप से बाँधना। भूका. णिहतिसु (भग)। : णिहा । सक [दृश] देखना। णिहाइ, मंगल, क्षेम (ठा ४, ४; पाया १, ८)। भवि. णिहत्तेस्संति (भग)। णिहाआणिहाप्राइ ( षड्)। For Personal & Private Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिहाण-णीछूट पाइअसहमहण्णवो ४१७ णिहाण न [निधान] वह स्थान जहाँ पर णिहिल वि [निखिल] सब, सकल (अच्चु णिहो अ [न्यग् ] नीचे (सूत्र १, ५,१, ५)। धन आदि गाड़ा गया हो, खजाना, भण्डार पारा ५५)। णिहोड सक [नि + वारय] निवारण करना, (उवा: गा ३१८ गउड)। णिहिल्लय देखो णिहिअ (सुख २, ४३)। निषेध करना। णिहाय ' [दे] १ स्वेद, पसीना (द ४, ४६)। णिही स्त्री [दे] वनस्पति-विशेष (राज)। रिणहोडइ (हे ४, २२) । वकृ. णिहोडंत २ समूह, जत्था (दे ४, ४६; से ४, ३८ णिहीण वि [निहीन न्यून (कुप्र ४५४)। । (कुमा)। स ४४६ भविः पान; गउड सुर ३, २३१)। णिहीण वि [निहीन] तुच्छ, खराब, हलका, णिहोड सक [ पातय् ] १ गिराना । २ नाश णिहाय पुं[निघात] प्राघात, प्रास्फालन क्षुद्र, "अस्थि निहीणे देहे कि रागनिबंधणं करना । णिहोडइ (हे ४, २२)। (से १५, ७०; महा)। तुज्झ ? (उप ७२८ टी)। | णिहोडिय वि [पातित] १ गिराया हुमा णिहाय देखो णिहा= नि +धा, नि + हा। णिहु स्त्री [स्निहु] औषधि-विशेष (जीव १)। (दंस ३) । २ विनाशित (उव ५६७ टी)। णिहाय पुं [निट्ठाद] अव्यक्त शब्द (सुख | णि वि [निभृत] १ गुप्त, प्रच्छन्न, छिपाणी सक [गम् ] जामा, गमन करना । णोइ हुमा (से १३,१५; महा)। २ विनीत, अनुद्धत - (हे ४, १६२; गा ४६ अ) भवि. णीहसि णिहार ' [निहार] निगम (पएह १, ५ (से ४, ५६) । ३ मन्द, धीमा (पाम महा)। (गा ७४६)। वकृ. जिंत, णत (से ३, २; ४ निश्चल, स्थिर (उत्त १६)। ५ असंभ्रान्त, गउड; गा ३३४; उप २६४ टीः गा ४२०)। णिहारिम न [निहरिम] जिसके मृतक संभ्रमरहित (दस ६)। ६ घृत, धारण किया। संकृ. जिंतूण, नीउं (गउड विसे २२२) । शरीर को बाहर निकालकर संस्कार किया हुमा । ७ निर्जन, एकान्त । ८ अस्त होने के णी सक [नी] १ ले जाना । २ जानना । ३ जाय उसका मरण (भग)। २ वि. दूर जानेलिए उपस्थित (हे १, १३१)। ६ उपशान्त ज्ञान कराना, बतलाना । ऐइ, रणयइ (हे ४, वाला, दूर तक फैलनेवाला (पएह २, ५)। । | (परह २, ५)। ३३७; विसे ६१४)। वकृ, णेत (गा ५०% णिहाल देखो णिभाल। णिहालेहि (स णिहुअ वि [दे] १ व्यापार-रहित, अनुद्युक्त, कुमा)। कवकृ. णिज्जंत, णीअमाण (गा १००)। वकृ. णिहालंत, णिहालयंत (उप | निश्चेष्ट (दे ४, ५०; से ४, १० सूम १,८ ६८२ अ से ६, ८१, सुपा ४७६)। संकृ. ६४८ टी; ६८६ टो)। संकृ. णिहालेर्ड बृह ३) । २ तूष्णीक, मौन (दे ४, ५०; णइअ, उ, णेउआण, णेऊण (नाट(गच्छ १)। कृ.णिहालेयव्य (उप १००७)। | सुर ११, ८४)। ३ न. सुरत, मैथुन (दे ४, मृच्छ २६४ कुमा; षड्; गा १७२) । हेकृ. ५० षड्)। णिहालण न [निभालन] निरीक्षण, अवलोकन णिहअण देखो णिहुवण (गा ४८३)। णेउं (गा ४६७, कुमा)। .अ, णेअव्व (उप पृ ७२, सुर ११, १२, सुपा २३)। (पउम ११६, १७; गा ३३६)। प्रयो. णिहुआ स्त्री [दे] कामिता, संभोग के लिए णिहालिअ वि [निभालित] निरीक्षित ऐयावइ (सण)। प्रार्थित स्त्री (दे ४, २६)। (पापः स १००)। णीअअ वि [दे] समीचीन, सुन्दर (पिंग)। णिहुण न [दे] व्यापार; धन्धा (दे ४. २६)। णीआरण न [दे] बलि-घटी, बलो रखने का णिहि वि [निधि] १ खजाना, भंडार (णाया णिहुत्त वि [दे] निमग्न, हूबा हुआ (पउम | छोटा कलश (दे ४, ४३)। १, १३)। २ धन मादि से भरा हुआ पात्र । १०२, १९७)। णीइ स्त्री [नीति] १ न्याय, उचित व्यवहार, (हे १, ३५, ३, १६ ठा ५, ३); 'अच्छेरंव णिहुत्थिभगा स्त्री [दे] वनस्पति-विशेष न्याय्य व्यवहार (उप १८६; महा)। २ नय, रिणहि विष सग्गे रज्जं व अमप्रपाणं व (परण १-पत्र ३५)। वस्तु के एक धर्म को मुख्यतया माननेवाला (गा १२५)। ३ चक्रवर्ती राजा की संपत्ति णिहुव सक [ कामय् ] संभोग का अभिलाष मत (ठा ७) । सत्थ न [शास्त्र] नीतिविशेष, नैसर्प आदि नव निधि (ठा )। करना । णिहुवइ (हे ४, ४४)। प्रतिपादक शास्त्र (सुर ६, ६५; सुपा ३४०) 'नाह पुं [ नाथ] कुबेर, धनेश (पास)। णिहुवण न [निधुवन सुरत, संभोग (कप्पू: महा)। णिहि पुत्री [निधि लगातार नव दिन का काप्र १९४); 'णिहुवणचुंबिप्रणाहिकूविमा' णीका स्त्री [नीका ] कुल्या, नहर, सारणि उपवास (संबोष ५८)। (मै ४२)। (कुमा)। णिहिअ वि [निहित] स्थापित (हे २, णिहअ न [दे] १ सुरत, मैथुन (दे ४,२६)। णीखय वि [निःक्षत] निखिल, संपूर्णः 'नय प्राप्र)। २ वि. अकिञ्चित्कर (विसे २६१७)। देखो नीखयवक्खाणं तीरइ काऊण सुत्तस्स' (विचार णिहिण्ण वि [निर्मिन] विदारित (अच्नु णीहूय। णिहेलण न [दे] १ गृह, घर, मकान (द ४, णीचअ न [नीचैस् ] १ नीचे, अधः (हे णिहित्त देखो णिहिअ (गा ५६५, काप्र | ५१ हे २, १७४; कुमा, उप ७२८ टी; स १, १५४) । २ वि. नीचा, प्रधः-स्थित ६०६ प्राप्र)। १८० पामः भवि)।२ जघन, बी के कमर (कुमा)। णिहिप्पंत देखो णिहा = नि+धा। | के नीचे का भाग (द ४, ५१)। | णीछूट देखो णिच्छूट (णंदि)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ पाइअसद्दमण्णवो णीजूह-जोलुंछ णीजूह देखो णिज्जूह = दे. निमूह (राज)। णीर न [नीर] जल, पानी (कुमाः प्रासू ६७)। ३)। ३ रामचन्द्र का एक सुभट, वानरणीड देखो णिड (गा १०२; हे १, १०६)। निहि पुं["निधि] समुद्र, सागर (सुपा विशेष (से ४, ५)। ४ छन्द-विशेष (पिंग)। णीण सक [गम् ] जाना, गमन करना। | २०१)। रुह न [रुह] कमल (ती ३)। ५ पर्वत-विशेष (ठा २, ३)। ६ न. रत्न रणीणइ (हे ४, १६२)। णोणंति (कुमा)। वाह पुं[वाह] मेघ, अभ्र (उप पृ ६२)। की एक जाति, नीलम (णाया १, १)। ७ णीण सक [नी] १ ले जाना। २ बाहर ले हर पुं[गृह] समुद्र, सागर (उप पृ ११६)। वि. हरा वर्णवाला (परण १, राय) । कंठ जाना, बाहर निकालना; 'सारभंडाणि णीणेइ, "हि पु[धि] समुद्र (उप ६८६ टी)। पुं [कण्ठ] १ शक्रेन्द्र का एक सेनापति, असारं अवउज्झई (उत्त १६, २२) । भवि. कर पुं [कर] समुद्र (उप ५३० टो)। शक्रेन्द्र के महिष-सैन्य का अधिपति देव-विशेष नीणेहिइ (महा)। वकृ. णीणेमाण। कवकृ. । णीरंगी स्त्री [दे. नीरङ्गा] सिर का अवगुण्ठन, (ठा ५, १; इक)। २ मयूर, मोर (पान नीणिज्जंत. णीणिज्जमाग (पि ६२; शिरोवस्त्र, घूघट (दे ४, ३१, पात्र) । कुप्र २४७ )। ३ महादेव, शिव (कुम प्राचा) । संकृ. णोणेऊण, णीणेत्ता (महा णीरंज सक [भज] तोड़ना, भगना । २४७)। कणवीर पुं [करवीर ] हरे उवा)। णीरंजइ (हे ४, १०६)। रंग के फूलोंवाला कनेर का पेड़ (राय) । णीणाविय वि [नायित] दूसरे द्वारा ले | णीरंजिअ वि [भग्न] तोड़ा हुमा, छिन्न 'गुफा स्त्री [गुफा] उद्यान-विशेष जाया गया, अन्य द्वारा मानीत (उप १३६ (कुमा)। (प्रावम) : मणि पुंस्त्री [मणि] रल-विशेष, टी)। णीरंध वि [नोरन्ध्रनिश्छिद्र (कप्पू)। नौलम, मरकत (कुमा)। लेस वि [ लेश्य] णीणिअ वि [गत गया हुआ (पास)। णीरण न [दे] घास,चाराः 'विमलो पंजलमग्गं नोल लेश्यावाला (परण १७)। 'लेसा स्त्री णीणि वि [नीत] १ ले जाया गया (उप | नीरिंधणनीरणाइसंजुतं' (सुपा ५०१)। [ लेश्या] अशुभ अव्यवसाय-विशेष (सम ५६७ टी; सुपा २६१)। २ बाहर निकाला जीरय वि नीरजस]१रजो-रहित, निर्मल, ११ ठा १)। "लेस्स देखो लेस (परण हुप्रा (णाया १, ४); 'उयरप्पविठ्ठछुरिमाए १७)। लेस्सा देखो 'लेसा (राज)। °वंत | शुद्धः सिद्धि गच्छइ णीरो' (गुरु १६ पएण नीणिमो प्रतपन्भारो' (सुपा ३८१)) पुं [वत् ] १ पर्वत-विशेष (ठा २, ३ सम ३६, सम १३७ पउम १०३, १३४; सार्ध १२)। २ द्रह-विशेष (ठा ५, २)। ३ न. णीणिआ स्त्री [नीनिका] चतुरिन्द्रिय जन्तु ११२)। २ पुं. ब्रह्म-देवलोक का एक प्रस्तट शिखर-विशेष (ठा २, ३)। की एक जाति (जीव १)। णील वि [नील] कच्चा, पाद (माचा २, ४, णीम ( [नीप] १ वृक्ष-विशेष, कदंब का पेड़। णीरव सक [आ + क्षिप] प्राक्षेप करना । २ न. फल-विशेष (दस ५, २, २१)। पीरवइ (हे ४, १४५)। २,३)। केसी स्त्री ["केशी] तरुणी, युवति (वव ४)। णीम पुं[नीप] वृक्ष-विशेष, कदम्ब का पेड़ णीरव सक [बुभुक्ष ] खाने को चाहना। णीलकंठी स्त्री [दे] वृक्ष-विशेष, बाण-वृक्ष (दे (पएण १; प्रौपः हे १, २३४)। पीरवइ (हे ४, ५) । भूका. गीरवीन ४, ४२)। णीमम वि [निर्मम ममत्व-रहित (अझ | णीला स्त्री [नीला] १ लेश्या-विशेष, एक तरह १०६)। णीरव वि [आक्षेपक] आक्षेप करनेवाला का प्रात्मा का अशुभ परिणाम (कम्म ४, णीमी देखो णीवी (कुमाः षड्)। (कुमा)। १३; भग) । २ नीलवर्णवाली स्त्री ( षड्) । णीय वि [नीच] १ नीच, अधम, जघन्य | णीरस वि [नीरस रस-रहति, शुष्क (गउड; णीलिअ वि [निःसृत] निर्गत, निर्यात (उवा; सुपा १०७) । २ वि. अधस्तन (सुपा महा)। ६००)। "गोय न [गोत्र] १ क्षुद्र गोत्र । णीरसजल न [नीरसजल] आयंबिल तप णीलिअ वि [नीलित नील वर्ण का (उप २ कर्म-विशेष, जो क्षुद्र जाति में जन्म होने (संबोध ५८)। पृ ३२)। का कारण है (ठा २, ४ प्राचा)। ३ वि. णीराग) वि नीराग राग-रहित, वीतराग णीलिआ देखो णीला (भग)। नीच गोत्र में उत्पन्न (सूम २, १)। णीराय (गउड; कुप्र १२५, कुमा)। णीलिम पुंस्त्री [नीलिमन् नीलत्व, नीलापन, णीरेणु वि [नीरेणु] रजो-रहित, धूल-रहित णीय वि [नीत] ले जाया गया (माचा; उवः | (गउड)। हरापन (सुपा १३७)। सुपा ६)। णीरोग वि [नीरोग] रोग-रहित, तंदुरुस्त | णीली स्त्री [नीली] १ वनस्पति-विशेष, नील णीय देखो णिच्च = नित्य (उव) । (जीव ३)। (परण १; उर ६,५) । २ नोल वर्णवाली स्त्री णीयंगम वि [नीचंगम नीचे जानेवालाणील प्रक|निर +सबाहर निकलना । (षड्) ३ माँख का रोग (कुप्र २१३)। (पुप्फ ४४३)। पीलइ (हे ४, ७६)। णोलुंछ सक [क] १ निष्पतन करना। २ णीयंगमा स्त्री [नीचंगमा] नदी, तरंगिणी | णील पुं [नील] १ हरा वर्ण, नीला रंग (ठा पाच्छोटन करना। णीलुछइ (हे ४, ७१; (भत्त ११६)। १)। २ ग्रहाधिष्ठायक देव-विशेष (ठा २, षड्) । वकृ. णीलुंछत (कुमा)। For Personal & Private Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ णीलुक्कणीडिया पाइअसहमहण्णवो णीलुक्क सक [गम् ] जाना, गमन करना। णीसत्त वि [निःसत्त्व सत्त्व-हीन, बल-रहित णीसा देखो णिस्सा (कप्प)। णीलुक्कइ (हे ४, १६२)। (पउम २१, ७५; कुमा)। णीसाइ वि [नि:स्वादिन स्वाद-रहित (प्रवि णीलुप्पल न [नीलोत्पल] नील रंग का णीसद्द वि [निःशब्द] शब्द-रहित (दे ७, कमल (हे १, ८४ कुमा)। २८ भवि)। णीसाण देखो गिस्साण = (दे) धर्मवि ८०)। णीलुय g[दे] अश्व की एक उत्तम जाति णीसर अक [रम्] क्रीड़ा करना, रमण करना। णीसामण्ण । वि [निःसामान्य] १ प्रसा(सम्मत्त २१६)। णीसरह (हे ४, १६८) कृ. णीसरणिज्ज णीसामन्न धारण (गउड सुपा ६१ हे २, णीलोभास पुं[नीलावभास] १ ग्रहाधि- (कुमा)। २१२)। २ गुरु (पान)। ष्ठायक देव-विशेष (ठा २, ३)। २ वि. नील- सर अक [निर + स] बाहर निकलना। णीसार सक [निर + सारय् ] बाहर च्छाय, जो नीला मालूम देता हो (णाया | णीसरइ (हे ४, ७६)। वकृ. नीसरंत निकालना । गीसारइ (भवि) । कर्म. नीसा(ोघ ४५८ टी)। रिज्जइ (कुप्र १४०)। णीव [नीप] वृक्ष-विशेष, कदम्ब का पेड़ णीसरण न [निःसरण] फिसलन, रपटन णीसार पुं [दे] मण्डप (दे ४, ४१)। (हे १, २३४; कप्प णाया १, ६)। (वव ४)। णीसार वि [निःसार सार-रहित, फल्गु (से ३,४८)। णीवार पुनीवार] वृक्ष-विशेष, तिल्ली का | णीसरण न [निःसरण] निर्गमन (से ६, पेड़ (गउड)। १८)। णीसारण न [निःसारण] निष्कासन, बाहर णीवार पु [नीवार] ब्रीहि-विशेष (सून १, णीसरिअ वि [निःसृत ] निर्गत, निर्यात निकालना (सुर १५, २०३) । ३, २, १६)। (सुपा २४७)। णीसारय वि [निःसारक] बाहर निकालने णीवी स्त्री [नीवी] मूल-धन, पूँजी। २ नारा, णीसल वि [निःशल] १ निश्चल, स्थिर। वाला (से ३, ४८)। इजारबन्द (षड् , कुमा)। २ वक़्ता-रहित, उत्तान, सपाट; 'नीसलतड़िय- णीसारिय वि [निःसारित निष्कासित (सुर णीसंक देखो णिस्संक = निःशंक (गा ३४५ चंदायएहि मंडियचउक्कियादेस' (सुर ३,७२)।। ५, १८८)। कुमा)। णीसल्ल वि[निःशल्य शल्य-रहित (भवि)। णीसास देखो णिस्सास (हे १, ६३; कुमा; णीसंक [दे] वृषभ, बैल (षड्)। णीसव सक [नि + श्रावय ] निर्जरा करना, प्राप्र)। णीसंकि देखो णिस्संकिअ (विसे ५६२ | क्षय करना । वकृ. नीसवमाण (विसे | णीसास । वि [निःश्वास, क] निःश्वास णीसासया लेनेवाला (विसे २७१५:२७१४)। २७४६)। सुर ७, १५५)। णीसाहार देखो णिस्साहारः “नीसाहारा य णीसंख वि [निःसंख्य संख्या-रहित, प्रसंख्य णीसवग देखो णीसवय (मावम)। (सुपा ३५५)। | णीसवत्त वि [निःसपत्न] शत्रु-रहित, विपक्ष | पडइ भूमीए (सुर ७, २३)। णीसंचार देखो णिस्संचार (पउम ३२, १)। रहित (मृच्छक पि २७६) । णीसित्त वि [निष्षिक्त ] अत्यन्त सिक्त (षड्)। णीसंद ' [निःष्यन्द] रस-स्नुति, रस का णीसवय वि [निःश्रावक] निर्जरा करनेवाला णीसीमिअ वि [६] निर्वासित, देश-बाहर झरन (गउड)। (विसे २७४६)। किया हुआ (दे ४, ४२)। णीसंदिअ वि [निःष्यन्दित] झरा हुमा, णीसस अक [ निर + श्वस् ] नीसास लेनाः | णीसेयस देखो णिस्सेयस (जीव ३) । टपका हुआ (पास)। श्वास को नीचा करना। णीससइ (षड्)। णीसंदिर वि [निःष्यन्दित] झरनेवाला, टप- वकृ. जीससंत, णीससमाण (गा ३३; णीसेणि स्त्री [निःश्रेणि] सीढ़ी (सूर १३, कनेवाला (सुपा ५६)। कुप्र ४३, प्राचा २, २, ३)। संकृ. णीस णीसेस देखो णिस्सेस (गउड, उव)। णीसंपाय वि [दे] जहाँ जनपद परिश्रान्त सिअ, ण.ससिऊण (नाट: महा)। हुमा हो वह (दे ४, ४२)। णीससण न [निःश्वसन निःश्वास (कुमा)। णीहट्टु अ. निकाल कर (प्राचा २, ६, २)। णीसट्र वि [निःसृष्ट] १ विमुक्त (पएह १, णीससिअ न [निःश्वसित] निःश्वास (से णीहट्टु पनि + सृत्य बाहर निकल कर १- पत्र १८) । २ प्रदत्त (बृह २)। ३ क्रिवि. १, ३८)। (पाचा २, २०१० ४)। अतिशय, अत्यन्तः ‘णीस?मचेयणो ण वा णीसह वि [निःसह] मन्द, अशक्त (हे १, णीहड वि [निहत] १ निर्गत, निर्यात झरई (उव)। १३; कुमा)। (पाचा २; १, १)। २ बाहर निकाला हुआ णीसण पुं[निःस्वन] मावाज, शब्द, ध्वनि णीसह वि [निःशाखा शाखा-रहित (या (सुर १३, १९२; कुप्र ५६)। | २३०)। णीहडिया स्त्री नितिका अन्य स्थान में णीसणिआ। श्री [दे] निःश्रेणि, सीढ़ी (दे | णीसा श्री [दे] पीसने का पत्थर (बस ले जाया जाता द्रव्य (बह २, २०१८)। णीसणी ४,४३)। 05 गु० भाणु । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुमा, उपविष्ट (गउडा गाया णीहूय विदेश प्रकिमि ४२० पाइअसद्दमहण्णवो णीहम्म–णे णीहम्म अक [निर + हम्म् ] निकलना। णीहास वि [निहोस] हास-रहित (उत्त २२, गुवण्ण वि [निषण्ण] बैठा हुमा, उपविष्ट गीहम्मइ (हे ४, १६२)। २८)। (गउड णाया १, ५; स २४२); 'पासम्मि णीहम्मिअ वि [निहम्मित निर्गत, निस्सृत णीहूय वि [दे] अकिञ्चित्कर, कुछ भी नहीं | नुवरणा' (उप ६४८ टी)। कर सकनेवाला; 'पवयगणीहूयाणं' (प्रावनि | णुव्व सक [प्र = काशय् ] प्रकाशित णीहर प्रक [निर + स्] १ बाहर निक- ७८७) । देखो णिहुआ। करना । गुब्वइ (हे ४,४५)। वकृ. गुज्यंत लना । णीहरइ (हे ४, ७६) । वकृ. नीहरंत | गुम[नु] इन अर्थों का सूचक अव्यय-१ (कुमा)। (सु ४८२)। संकृ. णीहरिअ (निवृह)। व्यंग्य ध्वनि। २ वक्रोक्ति (स ३४६)। ३ णुसा स्त्री [स्नुषा] पुत्र-वधू, पुत्र की भार्या कृ. णीहरियव्य (सुपा ५६०)। वितकं (सरण)। ४ प्रश्न । ५ विकल्प । ६ (प्रयो १०५)। णीहर अक[आ + क्रन्द्] आक्रन्द करना, अनुनय । ७ हेतु, प्रयोजन । ८ अपमान । ६ णूउर देखो णिउर= नूपुर (षड ; हे १, चिल्लाना । गीहरइ (हे ४, १३१) । अनुताप, अनुशय। १० अपदेश, बहाना १२३)। णीहर अक [निर + हृद् ] प्रतिध्वनि (गउड; हे २, २१७ २१८)। णूण वि [न्यून] कम, ऊन (उप पृ ११६)। करना । वकृ. णीहरंत, णीहरि अंत (से ५, | णु अनु]। १ निन्दासूचक अव्यय (दस २, जूण [नूनम्] इन अर्थों का सूचक १)। २ विशेष (सिरि ६५१)। णणं अव्यय-१ निश्चय, अवधारण । २ णीहर सक [ निर + सारय् ] बाहर निका- | °णुअ वि [ज्ञक] जानकार (गा ४०५)। तर्क. विचार। ३ हेतु, प्रयोजन । ४ उपमान। लना । हेकृ. णीहरित्तए (भग ५, ४)। कृ. | णुक्कार पुं [नुक्कार] 'नुक्' ऐसी आवाज | ५ प्रश्न (हे १, २६ प्राप्रा कुमाः भगः प्रासू णीहरियव्य (सुपा ४८२)। (राय)। १२; बृह १ श्रा १२)। णीहर अक [निर + ह] पाखाना जाना, णुजिय वि [दे] बन्द किया हुआ, मुद्रितः | 'तण व नूतन पुरीषोत्सर्ग करना । नीहरइ (हे ४, २५६)। 'कड्डिया गेण छुरिया, णुजियं से वयणं, णूपुर देखो णूउर (चारु ११)। णीहरण न [निस्सरण, निर्हरण] १ निर्ग- | छिन्ना य हत्था' (स ५८६)। णूम सक [छादय् ] १ ढकना, छिपाना । मन, निगम, बाहर निकालना (विपा १, ३, गुत्त वि [नुत्त] १ प्रेरित । २ क्षिप्त, फेंका णूमइ (हे ४, २१)। मंति (णाया १, णाया १, १४) । २ परित्याग (निचू १)। हुआ (से ३, १५)। १६) । वकृ. णूमंत (गा ८५६)। ३ अपनयन (सूम २, २)। गुम सक [नि + अस् ] स्थापन करना। णूम न [दे] १ प्रच्छादन, छिपाना। २ णीहरिअ देखो णाहर = निर + सु। णुमइ (हे ४, १६६)। असत्य, झूठ (पएह १,२)। ३ माया, कपट णीहारअ वि [निःसृत निर्गत, निर्यात (सुरम सक [छादय 1 ढकना, पाच्छादन (सम ७१)। ४ प्रच्छन्न स्थान, गुफा वगैरह १, १५५, ३, ७५, पाम)। (सूम १, ३, ३, भग १२,५)। ५ अन्धकार, करना । णुमइ (हे ४, २१)। णीहरिअ वि [निर्बादित] प्रतिध्वनित (से | माड़ अन्धकार (राज)। णुमज्ज अक [नि + सद्] बैठना। गुमजह णूम न [दे] कर्म (सूत्र १, ३, ३, २) । ११, १२२)। (षड्)। गिह न [गृह] भूमि-गृह (प्राचा २, ३, गाहारजन, शब्द आवाज, ध्वनि (द णुमज्ज प्रक [नि+ मस्ज ] डूबना । | ४, ४२)। रणुमज्जइ (हे १, ६४)। णीहरि अंत देखो णोहर=निर् + ह्रद्। मिअ वि [छादित ढका हुआ, छिपाया णुमज्ज अक [शी] सोना, मूतना। णुमज्जइ हुमा, (से १, ३२: पाम कुमा)। णीहार पुंनोहार] १हिम, तुषार (अच्तु (प्राकृ ७४)। | मिअ वि [दे] पोला किया हुआ (उप पृ ७२; स्वप्न ५२, कुमा)। २ विष्ठा या मूत्र गुमज्जण न [निमज्जन] डूबना (राज)। ३६३)। का उत्सर्ग (सम ६०)। गुमण्ण वि [निषण्ण] बैठा हुआ, उपविष्ट णूला स्त्री [दे] शाखा, डाल (दे ४, ४३) । णीहारण न [निस्सारण] निष्कासन (ठा २, (षड् , हे १, १७४)। णे म. पाद-पूत्ति में प्रयुक्त होता मव्यय (राज)। णीहारि वि [निर्झरिन्] १ निकलनेवाला। णुमण्ण । वि [निमग्न] डूबा हुआ, लीन णेअ देखो णा = ज्ञा। गुमन्न २ फैलनेवाला, 'जोयणणीहारिणा सरेण' णेअ देखो णी = नी। (हे १, ६४ १७४) । अवि नैक भनेक, बहुत (पउम ६४, (मावम; सम ६०)। गुमिअ वि [न्यस्त स्थापित (कुमा)। ५१) । विह वि ["विध] भनेक प्रकार का णीहारि वि [निर्झदिन] घोष करनेवाला, णुमिञ वि [छादित] ढका हुआ (कुमा)। (पउम ११३, ५२)। गूजनेवाला (ठा १० पि ४०५)। गुल्ल देखो णोल्ल । णुल्लइ (पि २४४)। णेअ म नैव नहीं ही, कदापि नहीं, कभी णीहारिम देखो णिहारिम (ठा २.४ पौष गुवण्ण वि [दे] सुन, सोया हुमा (द ४, नहीं (से ४, ३०; गा १३६; गउड; सुर २, णाया १,१)। २५)। १८६) सरण)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णेअब्ब-णेवच्छिय पाइअसद्दमहण्णवो ४२१ णेउआण ? देखो णी = नी। णे अव्व देखो णी = नी। णेगुण्ण न [नैर्गुण्य] निगुणता, निःसारता णेमित्तिअ) विनैमित्तिक] १ निमित्तणेआइअ वि [नैयायिक, न्याय्य न्याय (भत्त १६३)। मित्तिग । शास्त्र से संबन्ध रखनेवाला (सुर णेआउअ से अबाधित, न्यायानुगत, न्यायो- णेचइय पुं [नै चयिक ] धान्य प्रादि का ६, १७७)। २ कारणिक, निमित्त से होनेचित; 'णेप्राइअस्स मग्गस्स दुट्टे अवयरई बहुं' | थोकबन्द व्यापारी (वब ४)। वाला, कारण से किया जाता, कदाचित्का (सम ५१; औपः परह २, १)। णेच्छइअ वि [नैश्चयिक ] निश्चयनय- 'उववासो मित्तिगमो जनो भरिणयों (उप णेआउय । वि [ नेतृ] १ ले जानेवाला सम्मत, निरुपचरित, शुद्ध (विसे २८२)।। ६८३ उबर १०७)। ३ निमित्त शास्त्र का णेउ (सूत्र १, ८, ११)। २ प्रणेता, णेच्छंत वि [नेच्छत् ] नहीं चाहता हुआ जानकार (सुर १, २३८)। ४ न. निमित्त रचयिता (सूम १, ६, ७)। (हेका ३०६)। शास्त्र (ठा )। णेआवण न [नायन] अन्य-द्वारा नयन, णेच्छिय वि नैच्छित इच्छा का अविषय, णेमी स्त्री [नेमी] चक्र-धारा (दे १, १०९) । पहुँचाना (उप ७४६)। अनभिलषित (जीव ३)। जेम्म वि [दे. निभ] तुल्य, सदृश, समान णेआविअ वि नायित अन्य द्वारा ले जाया णेट्ठिअ वि [नैष्ठिक] पर्यन्त-वर्ती (पएह (पएह २, ४-पन्न १३०)। गयाः पहुँचाया हुआ (स ४२; कुप्र २०७) । णेम्म देखो णेम = नेम (पएह १, ५–पत्र णेउ वि [ने] नेता, नायक (पउम १४, णेड देखो णिड्ड (कुमाः हे १, १०६)। ६२, सूत्र १, ३, १)। जेडाली स्त्री [दे] सिर का भूषण-विशेष णेरइअ वि [नैरयिक] १ नरक-संबन्धी, नरक (दे ४,४३)। में उत्पन्न (हे १,७६)। २ पुं. नरक का | जेड्ड देखो णिड्ड (हे २, ६६ प्राप्र षड् )। जीव, नरक में उत्पन्न प्राणी (सम २, विपा णेउड्ढ पुं[दे] सद्भाव, शिष्टता (दे ४, णेड्ढरिआ स्त्री [दे] भाद्रपद मास की शुक्ल णेरडअ वि नैऋतिक] नैऋत कोण, दक्षिण दशमी का एक उत्सव (दे ४, ४५)। णेउण न [नैपुण] निपुणता, चतुराई (अभि पश्चिम विदिशा (अणु २१५)। णेत्त पुन [नेत्र] नयन, अाँख, चक्षु (हे १, १३२)। रई स्त्री नैऋती] दक्षिण और पश्चिम के णेउणिअ त्रि [नैपुणिक] १ निपुण, चतुर ३३ प्राचा)। बीच की दिशा (सुपा ६८ ठा १०)। णेत्त पुं[नेत्र] वृक्ष-विशेष (सूत्र २,२,१८)। (ठा ६)। २ न. अनुप्रवाद-नामक पूर्व-ग्रन्य णेरुत्त न [नरुक्त] १ व्युत्पत्ति के अनुसार की एक वस्तु (विसे २३६०)। णेद्दा देखो णिहा (पि १९२; नाट)। प्रथं का वाचक शब्द (मरण)। २ वि. निरुक्त णेपाल देखो णेवाल (उप पृ ३६७)। णे उणिअ देखो णेउण्ण (दस ६, २, १३)। शास्त्र का जानकार (विसे २४)। णेम स [नेम] १ अर्ध, प्राधा (प्रामा)।२ रुत्तिय वि नरुक्तिक] व्युत्पित्ति-निष्पन्न णेउण्ण न [नैपुण्य] निपुणता, चतुराई | निपुणता, चतुराई न. मूल, जड़ (पएह १, ३, भग)। उन्न ।(दस ६, २० सुपा २६३)। (विसे ३०३७)। णेम न [दे] कार्य, काज (राज)। णेरुत्ती स्त्री [नरुक्ति] व्युत्पत्ति (विसे २१८२)। णेउर न [नूपुर स्त्री के पाँव का एक आभू णेम पुन [दे] कार्य, काम, काज (पिंड ७०)। णेल वि [नैल] नील का विकार (भगः प्रौप)। पण, पायल (हे १, १२३ गा १८८)। णेउरिल्ल वि [ नूपुरवत् ] नूपुरवाला (पि णेलंछण देखो णिहंछग (स ६६६)। णेम देखो जेम्म = दे (पएह २, ४ टी-पत्र णेलच्छ पु[दे] नपुंसक, पंड (दे ४, ४४ १३३)। १२६; गउड)। णेमाल पुं. ब. [नेपाल] एक भारतीय देश, पाया हे २, १७४) । २ वृपभ, बैल (दे णेत नेपाल (पउम ६८, ६४)। गेलय पुं[दे. नेलन] रुपया (पव १११) । णेत देखोणी = गम् । णेमि पुनेमि] १ स्वनाम-ख्यात एक जिनणेकंत देखो णिक्कत (गा ११)। देव, बाइसवें तीर्थकर (सम ४३; कप्प)। लिच्छी स्त्री [दे] कूपतुला, डेकवा ( दे णेग देखो णेअ = नैक (कुमाः पएह १, ३)। २ चक्र की धारा (ठा ३, ३, सम ४३)। ३ ४, ४४)। चक्र परिधि, चक्के का घेरा (जीव ३)। ४ णेलच्छ देखो णेलच्छ (पि ६६)।। णेगम पुं निगम] १ वस्तु के एक अंश को स्वीकारनेवाला पक्ष-विशेष, नय-विशेष (ठा आचार्य हेमचन्द्र के मातुल-मामा का नाम | | णेव देखो णेअ = नैव (उव; पि १७०) । ७)। २ वणिक . व्यापारीः 'जिणधम्म- (कुप्र २०। चद पु.चन्द्रJएक जना- वच्छ देखो णेवत्थ (से १२.६७. प्रति भाविएणं, न केवलं धम्मो घणामोवि। चार्य (सार्ध ६२)। ६ प्रौपः कुमाः पि २८०)।। नेगमप्रडहियसहसो, जेण कयो अप्पणो णेमित्त देखो णिमित्त (आवम)। वच्छण न [दे] अवतारण, नीचे उतारना सरिसो' (श्रा २७)। ३ न. व्यापार का णेमित्ति वि [निमित्तिन् ] निमित-शास्त्र (दे ४, ४०)। स्थान (प्राचा २, १, २)। का जानकार (सुर १, १४४ सुपा १५४)। । णेवच्छिय देखो वस्थिय (पि २८०)। णेऊण) देखोणी = नी । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ पाइअसद्दमहण्णवो णवत्थ-व्हाण णेवत्थ न [नेपथ्य] १ वस्त्र प्रादि की रचना, | हर देखो णेहुर (पएह १. १)। णोजुग न [नोयुग] न्यून युग (सुज्ज ११)। वेष की सजावट, नाटक आदि में परदे के | णेहल पुंस्नेिहल] छन्द-विशेष (पिंग)। णोदिअ देखो णोल्लिअ (राज)। भीतर का स्थान जिसमें नट-नटी नाना प्रकार हल वि [स्नेहल1 स्नेही, स्नेह युक्त, णोमल्लिआ स्त्री [नवमल्लिका] सुगन्धि फूलका वेश सजाते हैं; रंगशाला, नाट्यशाला 'पियराई नेहलाई, अणुरत्तानो गिहिणीमो' | वाला वृक्ष-विशेष, नेवारी, वासंती (नाट (णाया १, १)। २ वेष (विसे २५८७; सुर (धर्मवि १२५)। पि १५४)। ३, ६२, सणः सुपा १५३)। णेहालु वि[स्नेहवत् ] स्नेह-युक्त, स्निग्ध | णोमालिआ स्त्री [नवमालिका] ऊपर देखो णेवत्थण न [दे] निरुंछन, उत्तरीय वन का (हे २, १५६)। (हे १, १७०, गा २८१; षड्, कुमा; अञ्चल (कुमा)। णेहुर पुं[नेहुर] १ देश-विशेष, एक अनार्य | अभि २६)। णेवस्थिय वि [नेपथ्यित] जिसने वेष-भूषा देश। २ उसमें वसनेवाली अनार्य जाति णोमि पुं[दे] रस्सी, रज्जु (दे ४, ३१) । की हो वह 'पुरिसनेवत्थिया' (विपा १, ३)। (पएह १, १-पत्र १४)। गोलइआ। स्त्रो [दे] चञ्चु, चोंच, चाँच (दे णेवाइय वि निपातिक] निपात-निष्पन्न | णो मनो] इन अर्थों का सूचक अव्यय-१ णोलच्छा ४, ३६)। नाम, अव्यय प्रादि (विसे २८४०; भग)। णोल्ल सक [क्षिप् , नुद्] १ फेंकना । प्रेरणा निषेध, प्रतिषेध, अभाव (ठा &कसः गउड)। करना। पोल्लइ (हे ४, १४३; षड्)। णेवाल पुं [नेपाल] १ एक भारतीय देश, २ मिश्रण, मिश्रताः 'नोसद्दो मिस्सभावम्मि' नेपाल (उप पू ३६३; कुप्र ४५८)। २ वि. | णाल्लेइ (गा ८७५)। कवकृ. णोल्लिज्जत (विसे ५०)। ३ देश, भाग, अंश, हिस्सा (सुर १३, १९९)। नेपाल-देशीय नेपाली (पउम ६६; ५५)। (विसे ८८८)। ४ अवधारण, निश्चय (राज)। णोल्लिअ विनोदित] प्रेरित (से ६, ३२, णेविज न नैवेद्य देवता के आगे धरा आगम पुं [ आगम] १ पागम का | णेवेज्ज हुआ अन्न आदि ( सं १२२, पाया १,६; पण्ह १, ३; स ३४०) । प्रभाव । २ पागम के साथ मिश्रण। ३ | श्रा १६)। | णोव्व पुं[दे] पायुक्त, सूबा या सूबेदार राजणेव्वाण देखो णव्वाण - निर्वाण (प्राचा आगम का एक अंश (आवमा विसे ४६ | प्रतिनिधि (दे ४,१७)। ५०, ५१)। ४ पदार्थ का अपरिज्ञान सुर ६, २० स ७४४)। णोहल लोहल] अव्यक्त शब्द-विशेष (षड् णेवुअ देखो णिव्वुअ (उप ७३० टी)। (दि)। "इंदिय न [इन्द्रिय] मन, | पि २६०; संक्षि ११)। णेव्वुइ देखो णिव्बुइ (उप ४६८ टी)। अन्तःकरण, चित्त (ठा ६; सम ११; उप णोहलिआ स्त्री [नवफलिका] १ ताजी णेसग्गिय देखो णिसग्गिय (सुपा ६)। ५९७ टी)। कसाय पुं[कपाय] कषाय फली, नवोत्पन्न फली (हे १, १७०)। २ णेसजि वि निपचिन्प्रासन-विशेष से के उद्दीपक हास्य वगैरह नव पदार्थ, वे ये नूतन फलवाली (कुमा)। ३ नूतन फल का उपविष्ठ (पव ६७ पंचा १८)। हैं-हास्य, रतिः परति, शोक, भय, जुगुप्सा, उद्गमः 'गोहलिप्रमप्पणो कि ए मग्गसे, णेसजिअ वि निषधिक] ऊपर देखो (ठा पुंवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद (कम्म १, १७; मग्गसे, कुरवप्रस्स' (गा ६)। ५, १: प्रौपः पएह २, १; कस)। ठा)। केवलनाण न [कवलज्ञान णोहा स्त्री स्नुषा] पुत्र की भार्या, पुत्रवधू, णेसत्थि पुंदे] वरिणग् मन्त्री, वणिक् प्रधान अवधि और मनःपर्यव ज्ञान (ठा २, १)। | पतोहू, बहू (पि १४८संक्षि १५)। *गार पुकारना शब्द (राज) । गुण णअ वि [ज्ञक] जानकार (गा २०३) । णेसत्थिया । स्त्री [नैसृष्टिकी, नैशस्त्रिकी] वि [ गुण अयथार्थ, अवास्तविक (अणु)। णास देखो णास = न्यास (स्वप्न १३४)। सत्थी १ निसर्जन, निक्षेपण। २ "जीव पुं[जीव] १ जीव और अजीव से प्णुअ देखो ण्णअ (गा ४०५) । निसर्जन से होनेवाला कम-बन्ध (ठा २, १; भिन्न पदार्थ, अवस्तु । २ अजीव, निर्जीव । | ण्हं अ. १-२ वाक्यालंकार और पादपूत्ति में नव १८)। ३ जीव का प्रदेश (विसे)। तह वि [तथ] णेसप्प पुं [नैसर्प] निधि विशेष, चक्रवर्ती प्रयुक्त किया जाता अव्यय (कप्प; कस)। | जो वैसा ही न हो (ठा ४, २)। राजा का एक देवाधिष्ठित निधान ( ठाणो ण्हव सक [स्नपय् ] नहलाना, स्नान कराना। प्रदे] इन अर्थों का सूचक अव्यय(उप ६८६ टी)। गहवेइ (कुप्र ११७)। कवकृ. ण्हविजंत १ खेद । २ आमन्त्रण । ३ विचित्रता । ४ णेसर [दे] रवि, सूर्य (४,४४)। (सुपा ३३)। संकृ. ण्हविऊण (पि २१३) । वितर्क । ५ प्रकोप (प्राकृ ८०)। णेसाय देखो णिसाय = निषाद (राज)। |ण्हवण न [स्नपन] स्नान कराना, नहलाना णों [न] पुरुष, नरः ‘णोवावाराभावम्मि णेसु पुन [दे] १ ओष्ठ, ओठ, होंठ । २ पाँव (कुमा)। अरणहा खम्मि चेव उवलद्धी' (धर्मस | 'तह निक्खिवंतमंता कूवम्मि निहित्तणेसुजुर्ग ण्हविअ वि [स्नपित जिसको स्नान कराया १२५३, १२५६)। (उप ३२० टी)। गया हो वह (सुर २, ५८; भवि) । । णेह पुंस्नेह] १ राग, अनुराग, प्रेम (पाप)। णोक्ख वि [दे] अनोखा, अपूर्व (पिंग)। |हा । अक [स्ना] स्नान करना, नहाना । २ तैल मादि चिकना रस-पदार्थ । ३चिकनाई, णोगोण्ण वि [नोगौण] अयथार्थ (नाम) | ण्हाण एहाइ (हे ४, १४)। रहाणेइ, चिकनाहट (हे २, ७७, ४, ४०६, प्राप्र)। । (अणु १४०)। । रहाणेति (पि ३१३)। भवि. एहाइस्सं निहित्तणेसुमा योनी For Personal & Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्हाण-तओ पाइअसद्दमहण्णवो ४२३ (पि ३१३)। वकृ. पहायमाण (णाया १, ण्हाय वि [स्नात] जिसने स्नान किया हो जिसको स्नान कराया गया हो सह (महा १३)। संकृ. व्हाइत्ता, हाणित्ता (पि | वह, नहाया हुआ (कप्प; औप)। भवि)। ३१३)। व्हायमाण देखो हा पहाविअ ' [नापित हजाम, नाई (हें १, पहाण न [स्नान] नहाना, नहान (कप्प; प्रहारु न [स्नायु १ प्रस्थि-बन्धनी सिरा, २३०; कुमा); 'घेत्तूण एहावियं पागएण प्राप्र)। पीढ पुंन [पीठ] स्नान करने का नस, धमनी (सम १४६; पण्ह १, १ ठा, मुडावियो कुमरो' (उप ६ टी)। पसेवय पट्टा (णाया १,१)। २,१, प्राचा)। २ अयादश श्रेणी में की एक | पुं [प्रसेवक ] नाई की अपने उपकरण व्हाणमल्लिया स्त्री [स्नानमल्लिका] स्नान- श्रेणी, कुम्हार, पटेल आदि (लोकप्रकाश | रखने की थैली (उत्त २)। योग्य पुष्प-विशेष, मालती-पुष्प (राय ३४) । ४६४ पत्र, सर्ग ३१)। ण्हु प [दे] निश्चय-सूचक अव्यय (जीवस ण्हाणिआ स्त्री [स्नानिका] स्नान-क्रिया बहाव देखो ण्व। रहावइ, एहादेइ (भविः १८०)। (पराह २, ४-पत्र १३१)। पि ३१३)। वक. पहावअंत (पि ३१३)। ण्हुसा स्त्री [स्नुषा] पुत्र-वधू, पुत्र की भार्या, कहाणिय वि [स्नानित] जिसने स्नान किया | संकृ. पहाविऊण (महा)। पतोहू (प्रावम पि ३१३) । हो वह (पव ३८)। | हाविअ वि [स्नपित] नहलाया हुमा, | ण्हुहा देखो ण्डसा (सिरि २५१) । ॥ इन सिरिपाइअसद्दमहण्णवे णाप्राराइसहसंकलणो, अइएसेण नपाराइसद्द संकलणो बाईसइमो तरंगो समत्तो॥ त पुं[त] दन्त-स्थानीय व्यञ्जन वर्ण-विशेष ताएण अहं भरिणपो. | तइस (अप) वि [तादृश] वैसा, उस तरह (प्राप्र; प्रामा)। भगिणी ठाणम्मि दायव्वा' का (हे ४; ४०३, षड्)। त स [तत् ] वह (ठा ३, १; हे १,७ (सुर १, १२३)। तई स्त्री [त्रयो] तीन का समुदाय (सुपा ५८)। कप्प; कुमा)। तइअहा (अप) अ [तदा] उस समय (भवि; तईअ देखो तइअ = तृतीय (गा ४११, भग) । त स [त्वत्] तू । कय वि [कृत] तेरा तउ । न [त्रपु] धातु-विशेष, सीसा, सण)। किया हुआ (स ६८०)। तउअ रोंगा (सम १२५ मौप; उप ९८६ तइआ अ [तदा] उस समय (हे ३, ६५, गा त देखोतया = स्वच् । 'होसि वि[ दोषिन्] | टी; महा)। पट्टिआ स्त्री [पट्टिका कान १२)। का प्राभूषण-विशेष (द ५, २३)। १ चर्म-रोगो । २ कुष्ठी (पिंड ४७५)। | तइआ स्त्री [तृतीया] तिथि-विशेष, तीज (सम तउस न [त्रपुष] देखो तउसी (राज)। तअ देखो तव तपस् (हास्य १३५)। तइ। । २९)। _ 'मिजिया स्त्री [मिञ्जिका क्षुद्र कीट-विशेष, वि [तति] उतना (वव १)। | तइया स्त्री [तृतीया] तीसरी विभक्ति (चेइय | श्रीन्द्रिय जन्तु की एक जाति (जीव १)। तइ (अप) म [तत्र] वहाँ, उसमें (षड्)। ६८३)। तउस न [त्रपुष] खीरा, ककड़ी (दे ८,३५)। तइम [तदा] उस समय (प्राप्र)। तइल देखो तेल्ल (उप ६२९) । तउसी स्त्री [त्रपुषी] कर्कटी-वृक्ष, खीरा का तइअ वि [तृतीय] तीसरा (हे १,१०१ तइलोई स्त्री [त्रिलोकी] तीन लोक-स्वर्ग, गाछ (गा ५२४) । कुमा)। मत्यं और पाताल (सुपा ६८)। तए म[ततस् ] उससे, उस कारण से । २ तइअ (अप) वि [त्वदीय] तुम्हारा (भवि)। तइलोक। न [त्रैलोक्य ] ऊपर देखो बाद में (उत्त १; विपा १,१)। तइअप [तदा] उस समय तइलोय । (पउम ३, १२५, ८, २०२० स तएयारिस वि [त्वादृश] तुम जैसा, तुम्हारी 'भणिमो रन्ना मंती, ५७१, सुर ३, २०; सुपा २८२, ३५ तरह का (स ५२)। मइसागर तइय पव्वयंतेरण।। ४४८)। | तओ देखो तए (ठा ३, १, प्रासू ७८)। Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ पाइअसहमहण्णवो तं-तक तं प्र[तत् ] इन अर्थों को बतलानेवाला तंतिसम न [तन्त्रीसम] तन्त्री-शब्द के तुल्य तंबच्छिवाडिया स्त्री [दे] ताम्र वर्ण का पव्यय-१ कारण, हेतु (भग १५)। २ या उससे मिला हुमा गीत, गेय काव्य का | द्रव्य-विशेष (पएण १७)। वाक्य-उपन्यास; 'तं तिप्रसबंदिमोक्ख' (हे २, | एक भेद (दसनि २, २३)। तंबटक्कारी स्त्री [दे] शेफालिका, पुष्प-प्रधान १७६; षड् ); 'तं मरणमणारंभे वि होइ, तंती स्त्री [तन्त्री] १ वीणा, वाद्य-विशेष | लच्छो उण न होई' (गा ४२)। "जहा प (कप्पः प्रौप, सर १६. )।२ वीणा- | तबरत्ती स्त्री [द गेहूं में कुकूम की छाया (द [ यथा] उदाहरण-प्रदर्शक अव्यय (प्राचा विशेष (पएह २, ५)। ३ ताँत, चमड़े की ५, ५) । मरण)। रस्सी (विपा १,६ सुर ३, १३७)। तंबा स्त्री [दे] गौ, घेनु, गैया (दे ५, १; गा तंआ देखो तया = तदा (गउड)। तंती स्त्री [दे] चिन्ता; 'कामस्स तत्तति' ४६०, पानः वज्जा ३४) । तंट न [दे] पृष्ठ, पीठ (दे ५, १)। (गा २)। | तंबाय पुं [तामाक] भारतीय ग्राम-विशेष तंड न [दे] लगाम में लगी हुई लार । २ वि. तंतु पुं [तन्तु] सूत, तागा धागा (पउम १, (राज)। मस्तक-रहित । ३ स्वर से अधिक (दे ५, १३)। 'अ, ग [क] जलजन्तु-विशेष | तंबिम पुंस्त्री [ताम्रत्व] अरुणता, ईषद् रक्तता १६)। (पउम १४, १७, कुप्र २०६)। 'ज, य न (गउड)। तंडव (अप) देखो तड्डव । तंडवहु (भवि.) । [°ज] सूती कपड़ा (उत्त २, ३५) । वाय तंबिय न [ताम्रिक] परिव्राजक का पहनने तंडव अक [ ताण्डवय् ] नृत्य करना । तंड पुं [वाय] कपड़ा बुननेवाला, जुलाहा (श्रा का एक उपकरण (प्रौप)। वेंति (प्रावम)। २३) । साला स्त्री [शाला] कपड़ा बुनने | संबिर वि [दे] ताम्र वर्णवाला (हे २, ५६; तंउव न [ताण्डव] १ नृत्य, उद्धत नाच (पान. का घर, ताँत-घर (भग १५) । गउडः भवि)। जीव ३; सुपा ८६)। २ उद्धताई 'पासंडितुं तंतुक्खोडी स्त्री [दे] तन्तुवाय का एक उप- | तंबिरा [दे] देखो तंबरत्ती (दे ५, ५) । डाइचंडतंडवाडंबरेहि कि मुद्ध' (धम्म ८ टी। करण (दे ५, ७)। | तंबुक्क न [दे] वाद्य-विशेष: 'बुक्कतंबुक्कसदुकर्ड तंडविय वि [ताण्डवित] नचाया हुमा, तंदल देखो तंडल (पउम १२, १३८)।२। (सुपा ५०)। नर्तित (गउड)। मत्स्य-विशेष (जीव १) । °वेयालिय न तंबरेम पुं[स्तम्बेरम] हस्ती, हाथी (उप पु तंडविय (अप) देखो तड्डविअ (भवि)। [°वैचारिक] जैन ग्रन्थ-विशेष (णंदि)। तंडुल पुं [तण्डुल] चावल (गा ६६१)। | तंदुलेज्जग तन्दुलीयक वनस्पति विशेष | तंबेही स्त्री [दे] पुष्प-प्रधान वृक्ष-विशेष, देखो तंदुल। (पएण १)। शेफालिका (दे ५, ४)। तंत न [तन्त्र] १ देश, राष्ट्र (सुर १६, ४८)। तंदूसय देखो तिदूसय (सुर १३, १९७)। देखो टिस तंबोल न [ताम्बूल] पान (हे १, १२४ २ शास्त्र, सिद्धान्त (उवर ५) । ३ दर्शन, मत तंब पुं[सतम्ब तृणादि का गुच्छा (हे २, कुमा)। (उप ६२२) । ४ स्वदेश-चिन्ता । ५ विष का । ४५; कुमा)। तंबोलिअ पुं[ताम्बूलिक] १ तमोली, पान औषध विशेष (मुद्रा १०८)। ६ सूत्र, ग्रन्थांश बेचनेवाला (श्रा १२) । २ पान में होनेवाला विशेषः ‘सुत्तं भरिणयं तंतं भणिज्जए तम्मि | तंब न [ताम्र] १ धातु-विशेष, ताँबा (विपा व जमत्थों (विसे)। ७ विद्या-विशेष (सुपा १, ६, हे २, ४५)। २ पुं. वर्ण-विशेष । तंबोलिया नाग। ४६६) । न्नु वि [ज्ञ] तन्त्र का जानकार ३ वि. अरुण वर्णवाला, लाल (पएण १७ तंबोली स्त्री [ताम्बूली] पान का गाछ (षड्ः (सुपा ५७६) । वाइ पुं[वादिन] विद्या प्रौप)। चूल पुं [चूड] कुक्कुट, मुर्गा(सुर३, जीव ३) । विशेष से रोग आदि को मिटानेवाला (सुपा ११) । 'वण्णी स्त्री [पर्णी] एक नदी का तंभ देखो थंभ (षड् )। नाम (कप्पू)। "सिह पु[शिख] कुक्कुट, तंस [व्यंश तीसरा हिस्सा (पंच ५, ३७; मुर्गा (पान)। तंत वि [तान्त] खिन्न, क्लान्त (णाया १,४; ३६ कम्म ५, ३४)। विपा १, १)। तंबकरोड पुंन [दे] ताम्र वर्णवाला द्रव्य तंस वि [त्र्यस्त्र] त्रि-कोण, तीन कोनवाला तंतडी स्त्री [दे] करम्ब, दही और चावल का विशेष (पएण १७)। (हे १,२६, गउडा ठा १, गा १०, प्रामा बना भोजन-विशेष (दे ५, ४) । | तंबकिमि दे] कीट-विशेष, इन्द्रगोप (दे | प्राचा)। ५, ६ षड़)। तक्क सक [तर्क ] तक करना, अनुमान तंतवग । पुं [तान्त्रवक] चतुरिन्द्रिय जंतु तंतवय की एक जाति (सुख ३६, १४६ तंबकुसुम पुन [दे] वृक्ष-विशेष, कुरुबक, करना, अटकल करना । तक्केमि (मै १३)। उत्त ३६,१४६)। | कटसरैया (दे ५, ६ षड्)। संकृ. तकियाणं (प्राचा)। तंतिय पुं [तान्त्रिक वीणा बजानेवाला तंबक न [दे] वाद्य-विशेषः 'प्रणायतबक्केसु तक्क न [तक] मट्ठा छाछ (ोध ८७ सुपा (अणु)। वज्जतेसु' (ती १५)। ५८३ उप पृ११९)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक्क-तडउडा पाइअसहमहण्णवो ४२५ तक्क [तक] १ विमर्श, विचार, अटकल- तगरा स्त्री [तगरा] संनिवेश-विशेष (स पत्र ११) । कवकृ. तजिज्जत (उप्र पृ १३४; ज्ञान (श्रा १२ठा ९)। २ न्याय-शास्त्र (सुपा ४६८) उप १४६ टी)। २८७)। | तगरा स्त्री [तगरा] एक नगरी का नाम (सुख तजण न [तर्जन] भत्र्सन, तिरस्कार (प्रौपः तकणा स्त्री [दे] इच्छा, अभिलाष (दे ५, ४)। २,८)। उवः पउम ६५,५३)। तक्य वि [तर्कक] तकं करनेवाला (पएह | तग्ग न [दे] सूत्र-कंकण, धागे का कंकरण तजणा स्त्री [तर्जना] ऊपर देखो (पएह (दे ५, १; गउड)। २, १; सुपा १)। तक्कर पुं[तस्कर] चोर (हे २, ४ औप)। तगंधिय वि [तदुगन्धिक] उसके समान | तजणी स्त्री [तर्जनी] दूसरी अंगुली, अंगूठे के तक्कलि स्त्री [दे] कदली-वृक्ष, केले का गाछ | गंधवाला (प्रासू ३४)। पासवाली अंगुली, प्रदेशिनी (सुपा १; कुमा)। (प्राचा २१, ८, ६)। तश्च वि तृतीय] तीसरा (सम ८; उवा)। तज्जाय वि तज्जात] समान जातिवाला, तक्कलि ) स्त्री [दे] वलयाकार वृक्ष-विशेष तच्च न [तत्त्व] सार, परमार्थ (प्राचाः आरा तुल्य-जातीय (प्राव ४)। तक्कली (पएण १)। ११५) । वाय पुं[वाद] १ तत्त्व-वाद, जजावि वि [तर्जित गिल भत्सित तका स्त्री [तक] देखो त = तर्क (ठा १: परमार्थ-चर्चा । २ दृष्टिवाद, जैन अंग-ग्रंथ- तजिअ (स १२२ सुका २६२, भवि)। सूत्र १, १३, प्राचा)। विशेष (ठा १०)। तजित ] तक्काल क्रिवि [तत्काल] उसी समय (कुमा)। तच नतिथ्य] १ सत्य, सचाई (हे २, २१; तजिज्जत देखो तज्ज। तक्किा वि [तार्किक तर्कशास्त्र का जानकार उत्त २८) । २ वि. वास्तविक, सत्य (उत्त तज्जेमाण (प्रच्च १०१)। । ३)। "त्थ पुं[ ] सत्य, हकीकत (पउम तट्टवट्ट न [दे] प्राभरण, प्राभूषण; 'सरिणयं सरिणयं बालत्तणामो तक्कियाणं देखो तक्क = तकं । ३, १३) "वाय पुं [वाद] देखो ऊपर वाय (ठा १०)। तणुयाई तट्टवट्टाई। तक्कु पुं[त'] सूत बनाने का यन्त्र, तकुमा, अवहरिवि नियधरानो तचं प्र[त्रि:] तीन बार (भग; सुर २, तकला, चरखा (द ३, १)। २६)। हारेइ रहम्मि खिल्लतो' तक्कुय पुं[दे] स्वजन-धर्ग, 'सम्माणिया | तञ्चित्त वि [तच्चित्त] उसी में जिसका मन (सुपा ३६६)। सामंता, अहिणंदिया नायरया, परिप्रोसिमा लगा हो वह, तल्लीन (विपा १, २)। तट्टिगा स्त्री [दे. तट्टिका] दिगंबर जैन साधु तक्कुयजणा त्ति' (स ५२०)। का एक उपकरण (धर्मसं १०४६; १०४८)। | तच्छ सक [तक्ष ] छिलना, काटना । तच्छइ तक्ख सक [तक्ष] छिलना, काटना । | तट्टी स्त्री [दे] वृति, बाड़ (दे ५, १)। (हे ४, १६४ षड्) । संक. तच्छिय (सूत्र तक्वइ (षड; हे ४, १९४)। कर्म. तक्खि | तट्ट वि [त्रस्त] १ डरा हुआ, भीत (हे २, १, ४, १) । कवकृ, तच्छिजत (सुर १, जइ (कुप्र १७) । वकृ. तक्खमाण (अणु)। १३६; कुमा)। २ न. मुहूर्त-विशेष (सम २८)। ५१)। तक्ख ताक्ष्य गरुड़ पक्षी (पान)। तच्छ वि [तष्ट] छिला हुमा, तनूकृतः तक्ख पुं[तक्षन् ] १ लकड़ी काटनेवाला, तट्ट वि [तष्ट] छिला हुआ (सूत्र १, ७) । तच्छिअ'ते भिन्नदेहा फलगं तच्छा (सूम तव न [त्रस्तप मुहूर्त-विशेष (सम ५१)। १, ५, २, १४० १, ४, १, २१, उत्त १६, बढ़ई । २ विश्वकर्मा, शिल्पी-विशेष (हे ३, तट्ठि वि [तष्टिन्] तनूकृत, कृशतावाला (सूम ५६ षड्) । "सिला स्त्री ["शिला] प्राचीन ऐतिहासिक नगर, जो पहले बाहुबलि की तच्छण स्त्रीन [तक्षण] छिलना, कर्तन (पग्रह १, ७, ३०)। तहि । पुत्वष्ट्र] १ तक्षक, विश्वकर्मा राजधानी थी, यह नगर पंजाब में है (पउम १, १) स्त्री. णा (णाया १, १३)। तङ (गउड)। २ नक्षत्र-विशेष का अधि. ४, ३८ कुप्र ५३)। तच्छिड वि [दे] कराल, भयंकर (दे ५, ष्ठायक देव (ठा २, ३)। तक्खग पुं [तक्षक] १-२ ऊपर देखो। ३ | तट्टु पुं [त्वष्ट] अहोरात्र का बारहवाँ स्वनाम-प्रसिद्ध सर्प-राज (उप ६२५)। तच्छिज्जत देखो तच्छ। मुहूर्त (सुज १०, १३)। तक्खण न [तत्क्षण] १ तत्काल, उसी समय तच्छिल वि [दे] तत्पर (षड्)। तड सक [तन् ] १ विस्तार करना । २ (ठा ४, ४) । २ क्रिवि. शीघ्र, तुरन्त (पास)। तजा देखो तया = त्वच (दे १, १११)। करना । तडइ (हे ४, १३७) । तक्खय देखो तक्खग (स २०६; कुप्र तज सक [तर्जय ] तर्जन करना, भर्सन तड पुंन [तट किनारा, तीर (वाग्रा कुमा)। १३६))। करना । तजइ (भवि)। तज्जेइ (णाया १, स्थ वि ["स्थ] १ मध्यस्थ, पक्षपात-हीन । तक्खाण देखो तक्ख = तक्षन् (हे ३, ५६; १८) वकृ. तजंत, तजित तजयंत, २ समीप स्थित (कुमाः दे ३, ६०)। षड्)। तज्जमाण, तजेमाण (भवि, सुर १२, तडउडा [दे] देखो तडवडा (जीव ३; तगर देखो टगर (पएह २, ५)। २३३; णाया १, राज; विपा १, १-। जं१)। ५४ EM For Personal & Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (कुमा)। ४२६ पाइअसहमहण्णवो तडकडिअ-तणुभव तडकडिअ वि [दे] अनवस्थित (षड् )। २)। ३ द्वार के ऊपर का भाग (से १२, तणिअ वि [तत] विस्तीर्ण, फैला हुमा तडकार पुं [तटकार] चमकारा, 'तडितडक्कारो' (सुपा १३३)। तडी श्री [तटी] तट, किनारा (विपा १,१; तण वितिन] १ पतला (जी ७) । २ कृश, तडतडा प्रक [तडतडाय ] तड़-तड़ आवाज दुर्दल (पंचा १६) । ३ अल्प, थोड़ा (दे ३, तड्डु । सक [तन्] १ विस्तार करना। २ ५१)। ४ लघु, छोटा (जीव ३)। ५ सूक्ष्म होना। वकृ. तडतडंत, तडतडेंत, तडतड्डव करना । तड्डइ, तड्डवइ (हे ४.१३७)। (कप्प)। ६ स्त्री. शरीर, काय (दे २, ५६ तडयंत (राज; णाया १, &; सुपा १७६) । भूका-तड्डवीप (कुमा)। जी ८)। तणुई, तण श्री [तन्वी] तडतडा स्त्री [तडतडा] तड़-तड़ आवाज (स तऋविअ । वि [तत] विस्तीर्ण, फैला हुआ ईषत्प्रारभारा-नामक पृथ्वी (ठा ८ इक)। २५७)। तड्डिअ ) (पानः महा; कुमाः सुर ३, पज्जत्ति स्त्री [°पर्याप्ति] उत्पन्न होते समय तडफड) अकादे] तड़फना, छटपटाना, ७२)। जीव द्वारा ग्रहण किये हुए पुद्गलों को शरीर तडफड तड़फड़ाना, व्याकुल होना। तड | तड्डु स्त्री [तर्दु] काठ की करछो (प्राकृ रूप से परिणत करने की शक्ति (कम्म ३, प्फडइ (कुमा; हे ४, ३६६, विवे १०२)। २०)। १२)। भव वि [ उद्नव] १ शरीर से तडफडसि (सुर ३,१४८)। वकृ. तडफडंत, तण सक [तन्] १ विस्तार करना। २ उत्पन्न । २ पुं. लड़का (भवि)। भवा स्त्री डतफडंत (उप ७६८ टी; सुर १२, १६४, करना । तणइ, तणए (षड्) । कर्म. तणि- [ उद्भवा] लड़की ( भवि ) । भू पुंस्त्री सुपा १७६; कुप्र २६)। ज्जए (विसे १३८३)। [भू] १ लड़का । २ लड़की (माक)। 'य तडफडिअ वि [दे] १ सब तरफ से चलित, तण न [दे] उत्पल, कमल (दे ५, १)। वि [ज देखो भव (उत्त १४)। रुह तड़फड़ाया हुआ, व्याकुल (दे ५, ६; स तण न [तृण] तृण, घास (प्राप्रा उव) । इल्ल | पुंन रुह] १ केश, बाल (रंभा)। २ पुं. ५८९)। वि[वत् ] तृणवाला (गउड)। जीवि पुत्र, लड़का (भवि)। वाय पुं[वात] तडमड वि [दे] क्षुभित, क्षोभ प्राप्त (दे ५, विजीविन घास खाकर जीनेवाला (सुपा सूक्ष्म वायु-विशेष (ठा ३, ४)। ३७०) राय पुं [ राज] ताल-वृक्ष, ताड़ | तडयड वि [दे] क्रिया-शोल, सदाचार-युक्त तणुअ वि [तनुक] ऊपर देखो (पउम १६, का पेड़ ( गउड )। "विंटय, वेटय पुं (सट्ठि १०७)। ७ आव ५, भग १५; पाप) । [वृन्तक] एक क्षुद्र जंतु-जाति, त्रीन्द्रिय तडयडंत देखो तडतडा। तणुअ सक [तनय ] १ पतला करना । २ जन्तु-विशेष (राज)। तडवडा स्त्री [दे] वृक्ष-विशेष, पाउली का तणग वि [तृणक] तृण का बना हुआ कृश करना, दुर्बल करना । तणुएइ (गा ६१; पेड़ (दे ५, ५)। काप्र १७४)। (माचा २, २, ३, १४)। तणुआ । अक [तनुकाय] दुर्बल होना, तडाअ न [तडाग] तालाब, सरोवर (गा| तणय पुं [तनय] पुत्र, लड़का (सुपा २४७; तणुआअ कृश होना । तणुभाइ, तणुप्रातडाग। ११०पि २३१; २४०)। ४२४)। अइ, तणुप्रापए (गा ३० २६२, ५६) वकृ. तडि स्त्री [ तडित् ] बिजली (पाप)। डंड तणय वि [दे] संबन्धी, 'मह तणए' (सुर ३, तणुआअंत (गा २९८)। पुं [दण्ड] विद्युइंड (महा)। केस j ८७ हे ४, ३६१)। [केश] राक्षस-वंशीय एक राजा, एक लंका तणुआअरअ वि [ तनुत्वकारक ] कृशता तणयमुद्दिआ स्त्री [दे] अंगुलीयक, अंगूठी पति (पउम ६, ९६)। "वेअ [वेग (दे ५, ६)। उपजानेवाला, दौर्बल्य-जनक (गा ३४८)। विद्याधर वंश का एक राजा (पउम ५, तणया स्त्री [तनया] लड़की, पुत्री (कुमा)। | तणुइअ वि [तनूकत] दुबंल किया हुआ, १८)। तणरासि । वि [दे] प्रसारित फैलाया कृश किया हुआ (गा १२२; पउम १६, ४)। तडिअ वि [तत] विस्तृत, फैला हुआ (पान; तणरासिअहुआ (दे ५, ६)। नणुई स्त्री [तन्वी] १ पृथ्वी-विशेष, सिद्धपाया १, ८-पत्र १३३)। तणवरंडी स्त्री [दे] उडुप, डोंगी, छोटी नौका शिला (सम २२)। २ पतला शरीरवाली, तडिआ स्त्री [तडित् ] बीजली (प्रामा)। कृशांगी, कोमलांगी स्त्री (षड्)। तडिण वि [दे] विरल, अत्यल्प (से १३, | तणसोल्लि स्त्री [दे] १ मल्लिका, पुप्प- ताइकय वि तनूकृत पतला किया हुआ तणसोल्लिया । प्रधान वृक्ष-विशेष (दे ५,६ पाया १,१६)। २ वि. तृण-शून्य (षड़)। तणुग देखो तणुअ (जं २, ३)। तडिणी स्त्री [तटिनी] नदी, तरंगिणी तणहार तृणहार] १ त्रीन्द्रिय जन्तु तणुज देखो तणु-य (धर्मवि १२८)। (सरा)। तणहारय । की एक जाति ( उत्त ३६, तणुजम्म पुं[तनुजन्मन् ] पुत्र, लड़का तडिम न [तडिम] १ भित्ति, भीत। २ कुट्टिम, १३८)। २ वि. घास काटकर बेचनेवाला, (धर्मवि १४८)। पाषाण प्रादि से बंधा हुआ भूमितल (से २, | घसियारा (अणु १४६)। तणुभव देखो तणु-भव (धर्मवि १४२)। For Personal & Private Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तणुवी-तम्भत्तिय पाइअसहमहण्णवो ४२७ तणुवी देखो तणुई (हे २, ११३, | तत्तडिअ न [दे] रंगा हुआ कपड़ा (गच्छ २ तद्धित प्रत्यय की प्राप्ति का कारण-भूत तणुवीआ (कुमा)। २, ४६)। अर्थ (अणु)। तण स्त्री [तनू ] शरीर, काया (गा ७८; | तत्ति स्त्री [तृप्ति] तृप्ति, संतोष (कुमा, करु तधा देखो तहा (ठा ३,१७)। पाम दं ५)। २ ईषत्प्रारभारा-नामक पृथिवी | २६) । "ल्ल वि [मत् ] तृप्ति-युक्त, तन्नय देखो तण्णय (सुर १४, १७४)। (ठा ८)। अ वि [ज] १ शरीर से तन्हा देखो तण्डा (सुर १, २०३; कुमा)। उत्पन्न । २ पृ. लड़का, पुत्र (उप ६८६)। तत्ति स्त्री [दे] १ आदेश, हुकुम (दे ५, २०; तप देखो तव = तपस् (चंड)। 'अतरा स्त्री [कतरा] ईषत्प्रारभारा-नामक सण)। २ तत्परता (दे २०)। ३ चिन्ता, तप्प सक [तप्] १ तप करना। २ अक. पृथिवी, जिसपर मुक्त जीव रहते हैं, सिद्धविचार (गा २, ५१; २७३ मा सुपा २३७ गरम होना। तप्पइ, तप्पंति (पिंग; प्रासू शिला (सम २२)। रुह पुंन [रुह] केश, २८०)। ४ वार्ता, बात (गा २; वज्जा २)। रोम, बाल (उप ५६७ टी)। ५ कार्य, प्रयोजन (पएह १, २; वव १)। तप्प सक [तपय ] तृप्त करना। वकृ. तण इय देखो तणुइअ (गउड)। तत्तिय वि [ तावत् ] उतना (प्रासू १५६)। तप्पमाण (सुर १६, १६)। हेक. 'न इमो तणेण (अप) प्र. लिए, वास्ते (हे ४, ४२५; तत्तिल । वि [दे] तत्पर (षड् ; दे ५, ३; जीवो सक्को तप्पेउं कामभोगेहि' (प्राउ ५०)। कुमा)। तत्तिल्लगा ५५७: प्रासू ५६)। कृ. तप्पेयव्व (सुपा २३२) । तणेसि दे] तृण-राशि ( दे ५,३, षड् )। तत्तु (अप) देखो तत्थ = तत्र (हे ४, ४०४७ । तप्प न [तल्प] शय्या, बिछौना (पान)। तण्णय ( [तर्णक] वत्स, बछड़ा (पान: गा कुमा)। अवि [ग] शय्या पर जानेवाला, सोनेतत्तुडिल्ल न [दे] सुरत, संभोग (दे ५, ६)। वाला (पराह १, २)। १६; गउड)। तत्तुरिअ वि [दे] रजित ( षड्)। तप्प पुन [तप्र] डोंगी, छोटी नौका (पएह तण्णाय वि [दे] प्राद', गीला (दे ५, २; | तत्तो देखो तओ (कुमा; जी २९)। "मुह १, १; विसे ७०६)। पाम गउडा से १, ३१, ११, १२६)। वि [°मुख जिसका मुँह उस तरफ हो वह | तप्प पूंन [तप्र] नदी में दूर से बहकर आता तण्हा स्त्री [तृष्णा] १ प्यास, पिपासा (सुर २, २३४)। हुमा काष्ठ समूह (णंदि ८८ टी)। (पान)। २ स्पृहा, वाञ्छा, इच्छा (ठा २, ३ | तत्तोहुत्त न दे] तदभिमुख, उसके सामने | तप्पक्खिअ वि [तत्पाक्षिक] उस पक्ष का प्रौप)। लु, लुअ वि [°वत् ] तृप्णा- (गउड)। (था १२)। वाला, प्यासा 'समरतण्हालू' (पउम ८,८७; तत्थ म [तत्र] वहाँ, उसमें (हे २, १६१)। तप्पज न [तात्पर्य] तात्पर्य, मतलब (राज)। ८, ४७)। | भव वि [भवत् ] पूज्य ऐसे आप (पि तप्पण न [तर्पण] १ सक्तु, सतुपा, सत्तू (पराह तण्हाइअ वि [वृष्णित] तृषातुर, अति प्यासा | २६३)। य वि [त्य] वहाँ का रहनेवाला २, ५) । २ स्त्रीन. तृप्ति-करण, प्रीणन (सुपा (धर्मवि १४१)। (उप ५६७ टी)। १९३)। ३ स्निग्ध वस्तु से शरीर की मालिश तत देखो तय = तत (ठा ४, ४)। | तत्थ वि [त्रस्त भीत, डरा हुमा (हे २,१६१ (णाया १,१३)। तत्त न [तत्त्व] सत्य स्वरूप, तथ्य, परमार्थ कुमा)। तप्पणग न [दे] जैन साधु का पात्र-विशेष, (उप ७२८ टी; पुप्फ ३२०)। ओ म | तत्थ देखो तच्च = तथ्य (धर्मसं ३०४ णदि । तरपणी (कुलक १०)। [तस् ] वस्तुतः (उप ६८६)। णु वि तप्पणाडुआलिआ स्त्री [दे] सक्तमिश्रित ज्ञ] तत्व का जानकार (पंचा १)। तत्थरि [त्रस्तरि] नय-विशेषः 'तत्थरिनएण भोजन (दश वै० चू०, वसुदेवहिंडी, धम्मितत्त पुं[तप्त] १ तीसरी नरक-भूमि का एक | ठविमा सोहउ मज्झ थुई' (अच्चु ४)। लहिंडी)। नरक-स्थान (देवेन्द्र ८)। २ प्रथम नरक- | तदा देखो तया%D तदा (गा ६६६)। तप्पभिई प्र[तत्प्रभृति तबसे, तबसे लेकर भूमि का एक नरक-स्थान (देवेन्द्र ४)। तदीय वि [त्वदीय] तुम्हारा (महा)। (कप्प; णाया १, १)। तत्त वि [तप्त गरम किया हुआ (सम १२५ तदो देखो तओ (हे २, १६०)। तप्पमाण देखो तप्प = तप॑य । तद्दीअचय न [दे] नृत्य, नाच (दे ५, ८)। विपा १, ६ दे १, १०५)। जला स्त्री [°जला] नदी-विशेष (ठा २, ३)। तहिअस । न [दे] प्रतिदिन, अनुदिन, | तप्पर वि [तत्पर] आसक्त (दे ५, २०)। तद्दिअसि हररोज (दे ५, ८ गउड; | तप्पुरिस पुं [तत्पुरुष] व्याकरण-प्रसिद्ध तत्त प्र[तत्र] वहाँ । भव, होंत वि [°भवत् ] पूज्य ऐसे माप (पि २६३; तद्दिअह समास-विशेष (अणु)। पा)। तद्दोसि देखो त-होसि = त्वग्दोषिन् । अभि ५६)। तप्पेयव्व देखो तप्प = तर्पय् । तत्तदूसुत्त न [तत्त्वार्थसूत्र] एक प्रसिद्ध जैन | तद्धिय पुं [तद्धित] १ व्याकरण-प्रसिद्ध तब्भत्तिय वि [तभक्तिक] उसका सेवक दर्शन-ग्रन्थ (मझ ७७)। प्रत्यय-विशेष (पएह २, २; विसे १००३)।। (भग ५, ७)। तपय। For Personal & Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तम १, ३२ । सातवीं तमप्पभानमा जीत ४२८ पाइअसहमहग्णवो तब्भव-तरंगलोला तब्भव पु [तद्भव वही जन्म, इस जन्म तमस देखो तम = तमस् , 'अंतरियो वा तय न [य] तीन का समूह, त्रिका 'कालके समान पर-जन्म। मरण न [ मरण] | तमसे वा न वंदई, वंदई उ दौसंतो' (पव२)। तए वि न मयं' (चउ ४५; श्रा २८)। वह मरण, जिससे इस जन्म के समान हो तमस्सई स्त्री तमस्वती घोर अन्धकारवाली तय देखो तया= तदा। पभिइ अ परलोक में भी जन्म हो, यहाँ मनुष्य होने से रात (बृह १)। [प्रभृति] तब से (स ३१६) । प्रागामी जन्म में भी जिससे मनुष्य हो ऐसा तमा स्त्री [तमा] १ छठवीं नरक-पृथिवो तय देखो तया = त्वच । 'क्खाय वि मरण (भग २१, १)। (सम ६६ ठा ७)। २ अधोदिशा (ठा १०)। [खाद] त्वचा को खानेवाला (ठा ४, १)। तब्भारिय [तद्भार्य] दास, नौकर, कर्म तमाड सक [भ्रमय ] घुमाना, फिराना। | तया अ[तदा] उस समय (कुमा)। चारी, कर्मकर (भग ३, ७)। तमाडइ (हे ४, ३०)। वकृ. तमाडंत तया स्त्री [त्वच ] १ त्वचा, छाल, तब्भारिय [तद्भारिक] ऊपर देखो (भग (कुमा)। चमड़ी (सम ३६)। २ दालचीनी (भत्त तब्भूम विभौम] उसी भूमि में उत्पन्न तमाल पुं [तमाल] १ वृक्ष-विशेष (उप ४१) । मंत वि [मत् ] त्वचा १०३१ टीः भत्त ४२)। २ न. तमाल वृक्ष वाला (गाया १,१)। "विस पू[विष] (बृह १)। तर्भात [1] शीघ्र, जल्दी (प्राकृ ८१)। का फूल (से १, ६३)। सपं की एक जाति (जीव १)। तम प्रक [तम्] १ खेद करना। २ सक. तमिस पुं[तमिस्र] पाँचवाँ नरक का एक तयाणंतर न [तदनन्तर] उसके बाद (प्रौप)। इच्छा करना । तमइ (प्राकृ. ६६)। नरक-स्थान (देवेन्द्र ११)। तयाणि । अ[तदानीम् ] उस समय (पि तमिस न [तमिस्त्र] १ अन्धकार (सूम १, तयाणि ) ३५८ हे १, १०१)। तम पुं[दे] शोक, अफसोस (दे ५, १)। ५, १)। गुहा स्त्री [गुहा] गुफा-विशेष तयाणुग वि [ तदनुग] उसका अनुसरण तम पुंन [तमस् ] १ अन्धकार । २ अज्ञान करनेवाला (सून १, १, ४)। (हे १, ३२; पि ४०६; प्रौप; धर्म २)। तमिसंधयार पुतमिस्रान्धकार] प्रबल | तर अक [४] कुशल रहना, नीरोग रहना। "तम पु[तम] सातकी नरक-पृथिवी का अन्धकार, घोर अंधेरा (सूम १, ५, १)। । जीव (कम्म ५, पंच ५)। 'तमप्पभा स्त्री तरई (पिंड ४१७)। तमिस्स देखो तमिस (दे २,२६)। [तरना] सातवों नरक-पृथिवो (अणु)। तर अक[स्वर ] त्वरा होना, जल्दी होना, तमी स्त्री [तमी] रात्रि, रात (गउड)। 'तमा स्त्री [तमा] सातवीं नरक-पृथिवी तेज होना । तर (विसे २६०१)। तमुकाय देखो तमुक्काय (भग ६, ५–पत्र (सम ६६, ठा ५)। तिमिर न ["तिमिर] तर अक [ शक् ] समर्थ होना, सकना । तरइ २,६८)। १ अन्धकार (बृह ४)। २ अज्ञान (पडि) । (हे ४, ८६)। वकृ. तरंत (मोघ ३२४) । तमुक्काय तमस्काय] अंधकार-प्रचय (गा | ३ अन्धकार-समूह (बृह ४)। "प्पभा स्त्री तर सक[४] तैरना, तरइ (हे ४, ८६)। [प्रभा] छठवों नरक-पृथिवी (पएण १)। तमुय वि [तमस् ] १ जन्मान्ध, जात्यन्ध । कर्म, तरिज्जइ, तीरइ (हे ४, २५०; गा तमंग तिमझ] मतवारण, घर का वरण्डा, २ अत्यन्त अज्ञानी (सूम २, २)। ७१)। वकृ. तरंत, तरमाण (पामः सुपा छजा (सुर १३, १५६)। तमोकसिय वि [तमःकाधिक] प्रच्छन्न क्रिया | १८२)। हेकृ. तरिउं तरीडं (गाया १, तमंधयार [तमोन्धकार] प्रबल अन्धकार करनेवाला (सूत्र २, २)। १४ हे २, १९८)। कृ. तरिअव्व (श्रा (पउम १७, १०)। तम्म प्रक[तम् ] खेद करना। (गा ४८३)। १२; सुपा २७६)। तमण न [दे] चूल्हा, जिसमें आग रखकर | तम्म देखो तम = तम् । तम्मइ (प्राकृ. ६६)। तर न [तरस् ] १ वेग । २ बल, पराक्रम । रसोई की जाती है वह (दे ५, २)। तम्मण वि [तन्मस् ] तल्लोन, तच्चित्त (विपा मल्लि वि [°मल्लि] १ वेगवाला। २ बल वाला। 'मल्लिहायण वि [ मल्लिहायन तमणि पुंस्त्री [दे] १ भुज, हाथ । २ भूर्ज, वृक्ष-विशेष की छाल, भोजपत्र (दे २, २०) । तरुण, युवा (प्रौप)। तम्मय चि [तन्मय] १ तल्लीन, तत्पर । २ तमय पुं[समक] १ चौथा नरक का एक उसका विकार (पएह १, १) । । तरंग पुं तरङ्ग] १ कल्लोल, वीचि, लहर (परह १,३; औप)। गंदण न [नन्दन] नरक-स्थान (देवेन्द्र १०)। २पाँचवीं नरक- ताम्म न [दे] वस्न, कपड़ा (गउड)। नृप-विशेष (दंस ३) । 'मालि पुं[मालिन भूमि का एक नरक-स्थान (देवेन्द्र ११)। | तम्मिर वि [तमिन्] खेद करनेवाला (गा| मन मारमा तमस न [तमस् ] अन्धकार, 'तमसाउ मे ५८६)। १ एक नायिका। २ कथा-ग्रंथ-विशेष (दंस ३)। दिसा य' (पउम ३६, ८)। तय वि [तत विस्तार-युक्त (दे १, ४६; से तरंगलोला स्त्री [तरङ्गलोला] बप्पभट्टिसूरितमस वि तामस] अन्धकारवाला (दस ५, इस ५, २, ३१; महा)। २ न. वाद्य-विशेष (ठा २, २, ३१; महा)। २ न. वाद्य-विशेष (ठा २, कृत एक अद्भुत प्राकृत जैन कथा-ग्रंथ (सम्मत्त १, २०)। १३८)। For Personal & Private Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरंगि-तलसारिअ पाइअसहमहण्णवो ४२६ तरंगि वि [तरङ्गिन] तरंग-युक्त (गउड; तरलि वि [तरलिन्] हिलानेवाला (कप्पू)। ७६) । २ न. स्वरूप; 'धरणितलसि' (कप्प), कप्पू)। तरलिअ वि [तरलित] चंचल किया हुआ 'कासवितलम्मि (कुमा)। ३ हथेली (जं १)। तरंगिअ वि [तरङ्गित] तरंग-युक्त (गउड; (गा ७८ उप पृ ३३; साधं ११५) । ४ तला, भूमिकाः 'सत्ततले पासाए' (सुर से ८, ११, सुपा १५७)। तरवट्ट पुंदे] वृक्ष-विशेष, चकबड़, पमाड, २,८१)। ५ अधोभाग, नोचे (पामा १, तरंगिणी त्रो [तरङ्गिणी] नदी, सरिता | , पवार (दे ५, ५, पान)। १)। ६ हाथ, हस्त (कप्प, पएह २, ५)। (प्रासू ६६ गउड सुपा ५३८)। तरस न [दे) मांस (दे ५, ४)। ७ मध्य खण्ड (ठा ८)। तलवा, पानी के तरंगिणीनाह पुं [तरङ्गिणीनाथ] समुद्र, | तरसा प्र [ तरसा] शीघ्र, जल्दी (सुपा | नीचे का भाग या सतह (पएह १,३)। ताल सागर (वज्जा १५६) । ५८२)। पुंन [ताल] १ हस्त-ताल, ताली। २ तरंड । पुन [तरण्ड, क] डोंगी, नौका तरंडय) (सुपा २७२, ५००, सुर ८, १०६ वाद्य-विशेष (कप्प)। पहार पुं[प्रहार] तरा स्त्री स्वरा] जल्दी, शीघ्रता (पाप)। तमाचा, चपेटा (दे) । भंगय न [ भङ्गक] पुफ्फ १०५)। तरिअव्व देखो तर = त । तरग वि [तर, °क] तैरनेवाला, तैराक (ठा हाथ का प्राभूषण-विशेष (प्रौप)। वट न तरिअव्य न [दे] उडुप, एक तरह की छोटी नौका (दे ५, ७)। [पट्ट] बिछौने की चद्दर (वज्जा १०४)। तरच्छ पुंस्त्री [तरक्ष] श्वापद जन्तु-विशेष वट्ट न [पत्र] ताड़ वृक्ष का पत्ता (वज्जा तरिउ वि[तरी] तैरनेवाला (विसे १०२७)। व्याघ्र की एक जाति (पएह १, १, णाया तरिउ देखो तरतु। १०४)। १, १; स २५७) । स्त्री. च्छी (पि १२३)। तरिया स्त्री [दे] दूध आदि का सार, मलाई तल पुन [तल] १ वाद्य-विशेष (राय ४६) । भल्ल पुंस्त्री [भल्ल] श्वापद जन्तु-विशेष (प्रभा ३३)। २ हथेली; 'अयमाउसो करतले' (सूम २, १, (पउम ४२, १२)। तरिहि प्र[तहि] तो, तब (सुर १, १३२९ १६)। ताल वृक्ष की पत्ती (सूत्र १, ५, तरट्ट वि [दे] प्रगल्भ, धृष्ट, समर्थ, चतुर, ११, ७१)। १२) । वर पुं[वर] राजा ने प्रसन्न होकर हाजिरजवाब तरट्टो' (प्राकृ ३८)। तरी स्त्री [तरी] नौका, डोंगी (सुवा १११, जिसको रत्न-जटित सोने का पट्टा दिया हो तरट्टा । स्त्री [दे] प्रगल्भ स्त्री, प्रौढा नायिका, दे ६, ११०; प्रासू १४६)। वह (अणु २२)। तरमा होशियार स्त्री 'झागण ददि चिरं तरु[तरु] वृक्ष, पड़, गाछ (जी १४० | तलअंट सकभ्रिमा भ्रमण करना, घूमना, तरुणी तरट्टी' (कप्पू: काप्र ५६६); 'अट्ठव प्रासू २६)। फिरना । तलमंटइ (हे ४,१६१)। आगयानो तरुणतरट्टामो एयानो' (सुपा ४२)। तरुण वि [तरुण] जवान, मध्य वयवाला तलआगत्ति [दे] कूप, इनारा (दे ५,८)। तरण न [तरण] १ तैरना (श्रा १४: स| (पउम ५, १९८)। तलओडास्त्री [दे] वनस्पति-विशेष (पएण १) ३५६; सुपा २६२)। २ जहाज, नौका तरुण वि [तरुणक] बालक, किशोर तरुणय) (सूत्र १, ३, ४)। २ नवीन, नया (विसे १:२७)। तलण न [तलन] तलना, भर्जन (पएह तरणि पुं [तरणि] १ सूर्य, रवि (कुमा)। (भग १५)। स्त्री. गिगा, णिया (आचा। १,१)। २ जहाज, नौका। ३ घृतकुमारी का पेड़, २,१)। तलप्प अक [तप्] तपना, गरम होना। घीकुमार का पेड़ । ४ अर्क वृक्ष, प्रकवन तरुणरहस पुन [दे] रोग, बीमारी (प्रोध ! तलप्पइ (पिंग)। वृक्ष (हे १, ३१)। तलप्फल पुं [दे] शालि, व्रीहि, धान (दे तरतम वि [तरतम] न्यूनाधिक, 'तरतम- तरुणिम पुंस्त्री [तरुणिमन्] यौवन, जवानी जोगजुत्तेहिं' (कप्प)। (कप्प)। तलवत्त पुं [दे] १ कान का प्राभूषण-विशेष तरमाण देखो तरतु। तरुणी स्त्री [ तरुणी] युवति स्त्री, जवान स्त्री (दे ५, २१, पाम)। २ वरांग, उत्तमांग तरल वि [तरल] चंचल, चपल (गउड; पाम: । (गउड स्वप्न ८२, महा)। (दे ५, २१)। कप्पू: प्रासू ६९; सुपा २०४० सुर २, ८६)। तल सक [तल्] तलना, भूजना, तेल प्रादि तलवर पुं[दे. तलवर] नगर-रक्षक, कोतवाल तरल सक [तरलय् ] चंचल करना, चलित | में भूनना । तलेज्जा (पि ४६०) । वकृ. तलेंत (णाया १,१; सुपा ३; ७३; प्रौप; महा। करना । तरलेइ (गउड)। वकृ. तरलंत (विपा १, ३)। हेकृ. तलिजिउ (स २५८)। ठा कप्पा राया मणुः उवा)। (सुपा ४७०)। तल न [दे] १ शय्या, बिछौना (दे ५, १६ तरलण न [तरलन] तरल करना, हिलानाः | षड्)। २ पुं. ग्रामेश, गाँव का मुखिया (दे रन [तालवृन्त] व्यजन, पंखा (हे तलवेट 'करणाडीणं कुणंता कुरलतरलणं (कप्पू)। ५, १९)। तरलावि वि [तरलित] चंचल किया हुमा, तल पुं [तल] १ वृक्ष-विशेष, ताड़ का पेड़ तलसारिअ वि [दे] १ गालित । २ मुग्ध, चलायमान किया हुमा (गउडा भवि)। । (णाया १, १ टी-पत्र ४३, पउम ५३, मूर्ख (दे५, ६)। तलवोंट), ६७ प्राप)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो तलहट्ट-तस तलहट्ट सक [सिच्] सींचना । तलहट्टइ, तल्लेस वि [तल्लेश्य] उसी में जिसका २ धान्य को खेत से काटकर भक्षण योग्य तलहट्टए (सुपा ३६३)। वकृ. तलहटुंत | तल्लेस्स) अध्यवसाय हो, तल्लीन, तदासक्त बनाने की क्रिया (सुपा ५४६)। ३ तवा, (सुपा ३९३)। विपा १, २, राज)। पूषा आदि पकाने का पात्र (द २, ५६)। तलहट्टिया स्त्री [दे] पर्वत का मूल, पहाड़ तल्लोविल्लि स्त्री [दे] तड़फड़ना तड़फना, तवणीय देखो तवणिज (सुपा ४८)। के नीचे की भूमिः तलहटी, तराई, गुजराती व्याकुल होनाः 'थोडइ जलि जिम मच्छलिया | तवमाण देखो तव = तप । में-तळेटी (सम्मत्त १३७)। तल्लोविल्लि करंत' (कुप्र८६)। | तवय वि [दे] व्यापृत, किसी कार्य में लगा तलाई स्त्री [तड़ागिका ] छोटा तालाब | तव प्रक [तप्] १ तपना, गरम होना । २ | हुमा (दे ५, २)। (कुमा)। सक. तपश्चर्या करना । तवइ (हे १, १३१; | तवय पुं [तपक] तवा, भूनने का भाजन तलाग। न [तड़ाग तालाब, सरोवर (प्रौप; गा २२४)। भूका. तविसु (भग)। वकृ. (विपा १, ३, सुपा ११८७ पास)। तलाय हे १, २०३; प्रातः गाया १, तवमाण (श्रा २७)। | तवसि देखो तवस्सिः 'पयमितपि न कप्पइ 4 उव)। तब सक [तापय ] गरम करना। तवेइ | इत्तो तवसीण जं गंतुं' (धर्मवि ५३, १६)। तलार पुं [दे] नगर-रक्षक, कोतवाल (दे ५, (भग)। | तवस्सि वि [तपस्विन्] १ तपस्या करनेवाला ३, सुपा २३३, ३६१; षड् ; कुप्र १५५)। तव पुंन [तपस् ] तपस्या, तपश्चर्या (सम (सम ५१ उप ८३३ टी)। २ पुं. साधु, मुनि, तलारक्ख पुं [दे. तलारक्ष] ऊपर देखो ऋषि (स्वप्न १८)। (श्रा १२)। ११ नव २६; प्रासू २८)। गच्छ पुं [गच्छ] जैन मुनियों की एक शाखा, गण तविअ वि [तप्त] तपा हुमा, गरम (हे २, तलाव देखो तलाग (उवाः पि २३१)। १०५; पात्र)। विशेष (संति १४)। गण पुं [गण] तलिअ वि [तलित] भूना हुआ, तला हुआ तविअ वि [तापित] १ गरम किया हुआ। पूर्वोक्त ही अर्थ (द्र ७०)। °चरण, चरण (विपा १, २)। २ संतापितः 'एयाए को न तविनो, जयम्मि न [°चरण] १ तपश्चर्या, तपः-करण (सूम तलिआन [दे] उपानह, जूता, (प्रोष लच्छीए सच्छंद' (सुपा २०४ महाः पिंग)। तलिगा ३९ ९८; बृह १)। १, ५, १; उप पू ३६०; अभि १४७)।२ तविअ वि [तपित] तीसरी नरक-भूमि का तलिण वि [तलिन] १ प्रतल, सूक्ष्म, बारीक तप का फल, स्वर्ग का भोग (णाया १, ६)। (पएह १, ४; औप; दे ५, ६)। २ तुच्छ, चरणि वि [°चरणिन्] तपस्या करनेवाला एक नरक स्थान (देवेन्द्र ८)। क्षुद्र (से १०, ७) । ३ दुर्बल (पाप)। (ठा ५, ३) । देखो तवों । सविआ स्त्री [तापिका] तवा का हाथा (दे १, १६३)। तलिम पुन [दे] १ शय्या, बिछौना (दे ५, | तव देखो थव (हे २, ४६; षड् )। तवु देखो तउ (पउम ११८, ८)। २०; पान; णाया १, १६-पत्र २०१७ तव देखो थुण । तवइ (प्राकृ ६७)। तवो देखो तओ (रंभा)। २०२ गउड)। २ कुट्टिम, फरस-बन्द जमीन तबग्ग पुं [तवर्ग] 'त से लेकर 'न' तक पाँच | तवो देखो तब = तपस् । 'कम्म न [ कर्मन्] (द ५, २०; पात्र)। ३ घर के ऊपर की अक्षर । पविभत्ति न [प्रविभक्ति] | तपः-करण (सम ११)। धण पुं [धन] भूमि । ४ वास-भवन, शय्या-गृह । ५ भ्राष्ट्र, नाट्य-विशेष (राय)। ऋषि, मुनि (प्रारू)। 'धर पुं [धर] भूनने का भाजन-बरतन (दे ५, २०)। तवण पुंतिपन] १ सूर्य सूरज (उप १०३१ तपस्वी, मुनि (पउम २०, १९५; १०३, तलिमा स्त्री [तलिमा] वाद्य-विशेष (विसे | टी; कुप्र २१५)। २ रावण का एक प्रधान १०८) । वण न [वन] ऋषि का प्राश्रम ७८ टी, गदि टी)। सुभट (से १३, ८५)। ३ न. शिखर-विशेष | (उप ७४५; स्वप्न १६)। तलुण देखो तरुण (णाया १, १६; रायः (दीव)। तव्वणिय वि [दे] सौगत, बौद्ध, बुद्ध-दर्शन वा १५)। | तवण पुं[तपन] तीसरी नरक-भूमि का एक | का अनुयायी; 'तव्वणियाण बियं विसयसुहतलेर [दे] देखो तलार (भवि)। नरक-स्थान (देवेन्द्र ८) तणयास्त्री [तनया] | कुसत्थभावणाघरिणयं' (विसे १०४१)। तल्ल न [दे] १ पल्वल, छोटा तालाब (दे तापी नदी (हम्मीर १५)। तव्वन्निग वि [दे. तृतीयवर्णिक] तृतीय ५, १६) । २ तुण-विशेष, बरू (दे ५, १६; | तवणा स्त्री [तपना] प्रातापना (सुपा ४१३)।। पाश्रम में स्थित (उप पृ २६८) । पएह २, ३) । ३ शय्या, बिछौना (दे ५, तवणिज न [तपनीय] सुवर्ण, सोना (पएह तविह वि [तद्विध] उसी प्रकार का (भग)। १६ षड्)। । १,४; सुपा ३९)। तस प्रक [त्रस् ] डरना, त्रास पाना । तसइ तल्लक पुं [तल्लक] सुरा-विशेष (राज)। तवणिज पुंन [तपनीय] एक देव-विमान | (हे ४, १९८) । कृ. तसियव्व (उप ३३६ तल्लड न [दे] शय्या, बिछौना (दे ५, २)।। (देवेन्द्र १३२)। टी)। तल्लिच्छ वि [दे] तत्पर, तल्लीन, (दे ५, तवणी स्त्री [दे] १ भक्ष्य, भक्षण-योग्य कण तस पुं [स] १ स्पर्श-इन्द्रिय से अधिक ३; सुर १, १३ पास)। मादि (द ५, १; सुपा ५४८ वज्जा ६२)। इन्द्रियवाला जीव, द्वीन्द्रिय आदि प्राणी (जीव For Personal & Private Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहा देखो तह = तथा (कु ] १ मुक्त जामिना ताप-युक्त (सूत्र १, १५)। भूत उस रूप ] उस प्रानिपुण, चतुर, १२, १७) यिन] मुनि, ससण-ताडिअ पाइअसहमहण्णवो ४३१ जी २) । २ एक स्थान से दूसरे स्थान में तह वि [तथ्य तथ्य, सत्य, सच्चा (सूम ताअ देखो ताव = ताप (गा ७९७, ८१४; जाने-आने की शक्तिवाला प्राणी (निचू १२)। १, १३)। हेका ५०)। काइय पुं [कायिक] जंगम प्राणी, तह पु[तथ] प्राज्ञाकारक, दास, नौकर (ठा ताअ पुं [तात] १ तात, पिता, बाप (सुर द्वीन्द्रियादि जीव (पण्ह १, १)। काय पुं. ४,२-पत्र २१३)। १, १२३; उत्त १४)। २ पुत्र, वत्स (सूम [ काय] १ स-समूह (ठा २, १)। २ तह न [तथ्य] १ स्वभाव, स्वरूप जंगम प्राणी (प्राचा)। "णाम, नाम न तहीय (सूपनि १२२)। २ सत्य वचन (सूम ताअ सक [3] रक्षण करना। कृ. तायव्व [नामन्] कर्म-विशेष, जिसके प्रभाव से १, १४, २१)। (श्रा १२)। जीव त्रसकाय में उत्पन्न होता है (कम्म १; | तहं देखो तह % तथा (औप)। ताअप्प न [तादात्म्य तद् पता, अभेद, सम ६७)। रेणु ["रेणु] परिमाण- तहरी श्री [दे] पङ्कवाली सुरा (दे ५, २)। । अभिन्नता (प्राकृ २४)। विशेष, बत्तीस हजार सात सौ अड़सठ पर तहल्लिआ स्त्री [दे] गो-वाट, गौनों का बाड़ा, ताइ वि [त्यागिन् त्याग करनेवाला (गा माणुओं का एक परिमाण (अणु, पव २५४)। | गोशाला (दे ५, ८)। २३०)। 'वाइया स्त्री ["पादिका] त्रीन्द्रिय जन्तु- तहा देखो तह = तथा (कुमा; गउड; आचा; ताइ वि [तायिन्] रक्षक, परिपालक (उत्त विशेष (जीव)। तसण न [प्रसन] १ स्पन्दन, चलन, हिलन | प्रात्मा । २ सर्वज्ञ (प्राचा) । 'भूय वि | ताइ वि [तापिन] ताप-युक्त (सूम १, १५)। (राज) । २ पलायन (सूप १, ७)। [भूत उस प्रकार का (पउम २२, ६५)। ताइ वि [त्रायिन] रक्षक, रक्षण करनेवाला तसनाडी स्त्री [त्रसनाडी] त्रस जीवों के रहने रूव वि [ रूप] उस प्रकार का (भग (उत्त २१, २२)। का प्रदेश, जो ऊपर-नीचे मिलाकर चौदह | १५)। वि वि [वित् ] १ निपुण, चतुर ताइ वि [तायिन्] उपकारी (सूत्र १, २, रज्जू परिमित है (पव १४३) । | २ . सर्वज्ञ (सूम १, ४, १) । हिम २, १७) । तसर देखो टसर (कप्पू)। [हि] वह इस प्रकार (उप ६८६ टो)। ताइपुं [त्रायिन्] मुनि, साधु (दसनि २, तहि देखो तह = तथा (गा ८७८ उत्त ६)।। तसिअ वि [दे] शुष्क, सूखा (दे ५, २)। तहिंम[तत्र] वहाँ, उसमें (गा २०६ ताइअ वि [त्रात रक्षित (उव)। तसिअ वि [तृषित] तृषातुर, पिपासित, तहि प्रातः गा २३४, ऊरु १०५)। ताउं (अप) देखो ताव = तावत् (कुमा)। प्यासा हुआ (रयण ८४)। तहिय वि [तथ्य सत्य, सच्चा, वास्तविक ताठा (चूपै) देखो दाढा (हे ४, ३२५)। तसिअ वि [त्रस्त] भीत, डरा हुआ (जीव | (णाया १,१२)। ताड सक [वाडय] १ ताड़न करना, ३; महा)। तहियं भ[तत्र] वहाँ, उसमें (विसे २७८)। पीटना । २ प्रेरणा करना, प्राघात करना। तसियव्य देखो तस = त्रस्। तहेय [तथैव] उसी तरह, उसी प्रकार ३ गुणाकार करना । ताडइ (हे ४, २७)। तहेव (कुमा; षड्)। तसेयर वि [त्रसेतर] एकेन्द्रिय जीव, स्थावर भवि. ताडइस्सं (पि २४०)। वकृ. ताडित | ता प्रतिद्] उससे, उस कारण से (हे ४, प्राणी (सुपा १९८)। (काल) । कवकृ. ताडिजमाण, ताडीअंत, २७८ गा ४६ ६७; उव)। ताडीअमाण (सुपा २६; पि २४०, अभि तह म [तथा] १ उसी तरह (कुमाः प्रासू ता देखो ताव = तावत् (हे १, २७१, गा | १५१) हेव. ताडिउं (कप्पू)। कृ. ताडिअ १६ स्वप्न १०)। २ और, तथा (हे १, १४१, २०१)। (उत्त १९)। ६७) । ३ पाद-पूर्ति में प्रयुक्त किया जाता | ताम[तदा] तब, उस समय (रंभाः कुमा ताड पुं[ताल] ताड़ का पेड़ (स २५६) । अव्यय (निचू १)। कार पुंकार] 'तथा' ताडंक पुं[ताडक] कान का प्राभूषणशब्द उच्चारण (उत्त २६)। णाण वि ताम[तहिं] तो, तब (रंभा; कुमा)। विशेष, कुण्डल (दे ६, ६३ कप्पू: कुमा)। [ज्ञान] प्रश्न के उत्तर को जाननेवाला (ठा | तात्री [ता] लक्ष्मी (सुर १६, ४८)। ६)। २ न. सत्य ज्ञान (ठा १०)। "त्तिम तास [तद्] वह । गंध पुं [गन्ध १ त ताडण न [ताडन] १ ताड़न, पीटना (उप [इति स्वीकार-द्योतक भव्यय-वैसा ही उसका गन्ध । २ उसके गन्ध के समान गन्ध ९८६ टी गा ५४६)। २ प्रेरणा, प्राघात (जैसा आप फरमाते हैं) (णाया १, १)। (पएण १७)। फास [स्पर्श] १ (से १२, ८३)। 'य प्र[च] १ उक्त अर्थ की दृढ़ता-सूचक उसका स्पर्श । २ वैसा स्पर्श (पएण १७)। ताडाविय वि [ताडित] पिटवाया गया (सुपा अव्यय । २ समुच्चय-सूचक अव्यय (पंचा २)। 'रस पुं [रस १ वह स्पर्श । २ वैसा २८८)। 'वि प्र["पि] तो भी (गउड) । 'विह वि स्पर्श (पण १७) वन रूपी ताडिअ देखो ताड = ताडय् । ["विध] उस प्रकार का (सुपा ४५६)। वह रूप । २ बैसा रूप (पएण १७-पत्रताडिअ वि [ताडित १ जिसका ताडन देखो तहा। ५२२)। किया गया हो वह, पीटा हुमा (पाम)। २ For Personal & Private Use Only . Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ जिसका गुणाकार किया हो वह; 'इक्कासीई साकरणकारणारामइताडिया होई' (श्रा ) । ताडिअय न [दे] रोदन, रोना (दे ५, १०) । सामान देखो ताडवाड ताडी स्त्री [ताडी] वृक्ष - विशेष ( गउड ) । ताडीअंत ताडीअमाण } देखो ताड = ताडय् ताण न [ त्राण ] १ शरण रक्षण कर्ता (सुपा ५७४) । २ रक्षण (सम ५१ ) । वाण [नान] संगीत-प्रसिद्ध स्वर-विशेष पुं 'लाखा एलपणा' (ध) तान [वान] इरावाना (किरात (१५) । ताणि वि [ तानित ] ताना हुआ ( ती १५) । ताद देखो ताअ = तात ( प्राकृ १२) । सदस्य न [साद] तदभाव, उसके लिए (भावक १२४, १२७ । सादन] [तादयस्थ्य]] स्वरूप का अपभ्रंश वही अवस्था, प्रभिन्नरूपता ( धर्मंसं ४०४; ४०५ ४१९) । । तादिस देखी तारिस (गा ७३८ प्रासू १४) ताम देखो तम्म = तम् । तामइ (गा ८५३) । ताम (अप) देखो ताव = तावत् ( हैं ४, ४०६३ भवि ) । तामर वि [दे] रम्य सुन्दर (दे ५, १०; पान) । तामरस न [तामरस] कमल, पद्म (दे ५, १३ पात्र) । तामरसन [ दे] पानी में उत्पन्न होनेवाला पुष्प (दे ५; १० ) । तालि पुं [तामलि] स्वनाम-यात एक (भग ३, १; श्रा ६) । तामलिप्ति स्त्री [ताम्रलिप्ति ] एक प्राचीन नगरी, वंग देश की प्राचीन राजधानी (उप ८८भग ३, १; पण १ ) । तामखित्तिया श्री [ताम्रलिप्तका] न वंश की एक शाखा (कप्प) । तामस न [तामस ] १ अन्धकार । २ अन्धकार-समूह (३२३) । तामस वि [ तामस ] तमोगुणवाला ( पउम ८, ५०; कुप्र ४२८ ) । त्थ न [ख] कृष्ण वर्ण का प्रस्त्र - विशेष ( पउम ८, ५० ) । पाइअसहमहणयो तामहि ? (अप) देखो ताव = तावत् (षड् ; तामहिं । भवि पि २६१; हे ४, ४०६ ) । तायण न [त्राण] रक्षण (धर्मवि १२८ ) । तायत्तीसग पुं [त्रयस्त्रिंशक ] गुरु- स्थानीय देव-जाति ( १ ) तायतीसा श्री [त्रयत्रिशत्] १ संख्याविशेष, तेत्तीस । २ तेत्तीस संख्यावाला, तेत्तीस 'तापसीसा लोगपाला' (पि४४० कप्प)। तायव्व देखो ताअ = त्रै । वार [तार] चौथी नरक का एक स्थान पुं १ (देवेन्द्र १०)। २ शुद्ध मोती । ३ प्रणव ओंकार । ४ मायाबीज, 'ह्रीं' अक्षर । ५ तर, तैरना है १, १०७) । निर्मल, स्वच्छ ( से 8, देदीप्यमान (पात्र) । ३ ४४ मति ऊँचा तार वि [तार ] १ ४२) । २ चमकता, मति से ताविजय - ताल ['तनय] वानर- विशेष अङ्गद (से १३, ७) । पह [पथ ] प्राकाश, गगन (M)। 'हु [प्रभु ] चन्द्रमा (उप १२० टीमेसी श्री ["मैत्री] निःस्वार्थ मित्रता (कप्पू ) । यण न [न] कनीनिका का चलना, आँख की पुतली का हिलन 'भरणं ताराय निय' (सुपा १८७ ) इ [पति ] चन्द्रमा ( उड) । For Personal & Private Use Only तारि वि [ तारिन्] तारनेवाला, तारक ( सम्मत्त २३० ) । तारिम वि [तारिम] तरणीय, तैरने योग्य ( भास ह३) । तारिय वि [तारित ] पार उतारा हुआ (भवि)। तारिया स्त्री [तारिका ] तारा के आकार की एक प्रकार की विभूषा, टिकली, टिकिया; 'विचित्तलंबततारियाइन्नं' (सुर ३, ७१) । तारिस वि [ताer] (कल्प प्राप्त कुमा) १२५) । तारी श्री [तारी] तारकजातीय देवी (पय १९, ४) । तारुअवि [ तारक] तारनेवाला (मेय ५२१) । तारुण्ण ) न [ तारुण्य ] तरुणता, यौवन तारुन्न ) ( गउड, कप्पू, कुमाः सुपा ३१९ ) । ताल देखो ताड = ताडय् । तालेइ (पि २४० ) 1 वकृ. तालेमाण (विपा १, १ ) । कवकृ. तालिज्जत, सालिखमाण ( उम ११० १०पि २४० ) । स्वर ( राय मा ४२४) ५ न चांदी (ती २) । ६ पुं. वानर- विशेष ( से १, ३४) । "बई श्री [ती] एक राजकन्या (४) । [तारंग न [वारङ्ग]] तरंग-समूह (से, ४२) तारंग वि [ तारक] तानेवाला पार उतारने बाला (३२) २. नृप-विशेष द्वितीय प्रतिवासुदेव (पउम ५ १५६) सूर्य आदि नव ग्रह (ठा ६) देखो तारय । तारगा स्त्री [तारका ] १ नक्षत्र ( सूत्र २, ६) । २ एक इन्द्राणी, पूर्णभद्र नामक इन्द्र की एक पटरानी (ठा ४, १) । देखो तारया । तारण न [ तारण] १ पार उतारना (सुपा २५७) २ वि. तारनेवाला (सुपा ४१७) । तारन्तर पुं [दे] मुहूतं (दे ५, १०) | तारय देखो तारग (सम १३ प्रासू १०१) । ४ ताल सक [तालय् ] न इन्द-विशेष (ग)। करना संहताले ताल [वाल] -विशेष (परा १.४) । २ वाद्य-विशेष कंशिका (पराह २, ५) ताली (दस २ ) । ४ चपेटा, तमाचा ( से ६, ५६) । ५ वाद्य-समूह (राज)। ६ आजीवक मत का एक उपासक (भग ८, ५) । ७ न. ताला, द्वार बन्द करने की कल (उप ३३३ ) 1 ८ ताल वृक्ष का फल (दे ६, १०२) । उड [पुट ] तत्काल प्राण-नाशक विष- विशेष १, १४ सुपा १२७ २१९) [ज] १ ग्रुप-विशेष (१) २ वि. तारया देखो तारगा । ३ आँख की तारा ग गा १४० २५४) । वारा श्री [तारा] १ बॉल की पुतली (गा ४११०४३५) । २ नक्षत्र (ठा ५, १ से १, २४) सुधी की स्त्री से १,३४) । ४ सुभूम चक्रवर्ती की माता ( सम १५२ ) । ५ नदी - विशेष (ठा १० ) । ६ बौद्धों की शासनदेवी ( कुप्र ४४२ ) । “उर न [ पुर] तारंगास्थान (कु ४४२) बंद [चन्द्र] एक राजकुमार (धम्म ७२ टी) तणय पुं उ श्री. सी (प्रा ताला लगाना, बन्द (मुपा ४२० ) Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३३ तालक-ति पाइअसहमहण्णवो ताल की तरह लम्बी जाँघवाला (णाया १, तालिअ वि [ताडित] पाहत, पीटा हुआ तावं देखो ताव = तावत् (भग )। ८) । मय पु[ध्वज] १ बलदेव (णाया १, ५)। ताएँ (अप) देखो ताव % तावत् (मावम) । २ नृप-विशेष (दस १)। ३ तालअंट सक[ भ्रमय् ] घुमाना. फिराना। तावहिं । (कुमा) शत्रुजय पहाड़ (ती '१)। पलंब पुं! तालिमंटइ (हें ४, ३०) तावण पुंतापन] चौथी नरकभूमि का एक [प्रलम्ब] गोशालक का एक उपासक (भग तालिअंट न [तालवृन्त] व्यजन, पंखा (स नरकस्थान (देवेन्द्र ८)। २ वि. तपानेवाला ८; ५) पिसाय पु [पिशाच] दीर्घ- ३०८) (त्रि ९७) काय राक्षस (पएण १) पुड देखो उड नालिअंटिर वि [भ्रमयितु] घुमानेवाला | तावण न [तापन] १ गरम करना, तपाना (श्रा १२) । यर पुं [°चर] एक मनुष्य (निचू १) । २ पृ. इक्ष्वाकु वंश का एक जाति, चारण (मोघ ७६६) विंट, वित, तालिज्जंत देखो ताल = ताडय।। राजा (पउम ५, ५) बेंट, °वोंट न [वृन्त] व्यजन, पंखा (पि | तालिस देखो तारिस (उत्त ५, ३१) । ताणिज्ज देखो ताव = तापय् । ५३, नाट–वेणी १०४ हे १, ६७; प्राप्र)M ताली स्त्री [नाली] १ वृक्ष-विशेष (चारु ६३)। तावत्तीस ) । देखो तायत्तीसय (प्रौप, र 'संवड प टा ताल के पत्रों का संपट. छन्द-विशेष (पिंग) 'पत्तन [पत्र] तावत्तीमग पि ४४५, ४३८, काल)। " ताल-पत्र-संचय (सूम १, ५, १) सम ताल-वृक्ष के पत्ता का बना हुआ पंखा तावत्तीसा देखो तायत्तीसा (पि ४३८) । वि [°सम] ताल के अनुसार स्वर, स्वर (चारू ६३)। विशेष (ठा ७) तालु । न [तालु, क] तालु, मुंह के अन्दर तावस पुं [तापस] १ तपस्वी, योगी, तालक पु[ताडङ्क] १ कुण्डल, कान का | तालुअ संन्यासि-विशेष (प्रौप)। २ एक जैनमुनि का ऊपरी भाग, तलुप्रा (सत्त ४६) णाया १, १६) (कप्प) गेह न [गेह] तापसों का मठ प्राभूषण-विशेष । २ छन्द-विशेष (पिंग)। तालुग्घाडणी स्त्री [तालोद्धाटनी] विद्यातालंकि पुंस्त्री [तालङ्किन] छन्द-विशेष M विशेष, ताला खोलने की विद्या (वसु)। तावसा स्त्री [तापसा] जैन मुनियों की एक स्त्री. णी (पिंग) शाखा (कप्प) तालगन [तालका ताला, द्वार बन्द करने तालुर पुं[दे] १ फेन, फीण । २ कपित्थ तावसी स्त्री [तापसी] तपस्विनी, योगिनी का यन्त्र (उस ३३६ टी)। वृक्ष, कैथ का पेड़ (दे ५,२१) । ३ पानी का (गउड) तालण देखो ताडण (प्रौप)। आवर्त (दे ५, २१; गा ३७, पान)। ४ पुं. ताविअ वि [तापित] तपाया हुआ, गरम पुष्प का सत्व (विक्र ३२)। तालणा श्री [ताडना] चपेटा प्रादि का | किया हुया (गा ५३; विपा १, ३, सुर ३, तालेवि देखो ताल = तालय । प्रहार (पएह २, १७ प्रौप)। २२०)। तालप्फली स्त्री [दे] दासी, नौकरानी (दे ५, | ताव सक [तापय् ] १ तपाना, गरम करना। ताविआ स्त्री [तापिका] तवा, पूना आदि | २ संताप करना, दुःख उपजाना। ताति पकाने का पात्र (दे २, ५६)। २ कड़ाही, (गा ८५०)। कर्म. ताविज्जति (गा ७)। कृ. तालय देखो तालग (सुपा ४१४; कुप्र २५२) छोटा कड़ाह (पावम)। तावणिज (भग १५)। तालसम न [तालसम] गेय काव्य का एक ताविच्छ पुन [तापिच्छ] वृक्ष-विशेष, तमाल ताव पुं [ताप] १ गरमी, ताप (सुपा ३८६; भेद (दसनि २, २३)। | का पेड़ (कुमा; दे १, ३७; सुपा ५८)। कप्पू) । २ संताप, दुःख (प्राव ४)। ३ सूर्य, | तालहल पुं[दे] शालि, व्रीहि (दे ५, ७)। तावी स्त्री [तापी] नदी-विशेष (पउम ३५, रवि। दिसा स्त्री [दिश] सूर्य-तापित १,गा २३६) ताला म [तदा] उस समय, 'ताला जाति दिशा (राज) तास पुं [त्रास] १ भय, डर (उप पृ ३५) । गुणा, जाला ते सहिपएहि धिप्पंति' (हे ३, ताव [ तावत् 1 इन अर्थों का सूचक २ उद्वेग, संताप (पएह १,१)। ६५, काप्र ५२१) अव्यय । १ तबतक (पउम ६८, ५०)।२ तासण वि [त्रासन] त्रास उपजानेवाला ताला स्त्री [दे] लाजा, खोई, धान का लावा प्रस्तुत अर्थ (प्रावम)। ३ अवधारण, निश्चय। (पएह १, १)।-- (दे ५, १०)। ४ अवधि, हद । ५ पक्षान्तर । ६ प्रशंसा। तासि वि [बासिन्] १ त्रास-युक्त, त्रस्त । तालाचर पुं[तालचर] ताल (वाद्य) बजाने- ७ वाक्य-भूषा । ८ मान । ६ साकल्य, २ त्रास-जनक (ठा ४, २, कप्पू)।वाला (निचू १५) । संपूर्णता। १० तब, उस समय (हे १,११)। तासिअ वि [त्रासित] जिसको त्रास उपतालाचर पुं[तालाचर] १प्रेक्षक-विशेष, तावअ वि [तावक] त्वदीय, तुम्हारा (प्रच्चू जाया गया हो वह (भवि)। तालायर ताल देनेवाला प्रेक्षक (णाया | ५३) १,१)। १ नट, नर्तक प्रादि मनुष्य-जाति | तावइअ वि[ तावत् 1 उतना (सम १४४ | ताहे अ [तदा] उस समय, तब (हे ३, ६५)।। (बृह ३)।। भग)। | ति[त्रिः] तीन बार (मोघ ५४२)। For Personal & Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ पाइअसहमहण्णवो ति-ति ति देखो तइअ = तृतीय (कम्म २, १६)M त्रिंशत् ] १ संख्या-विशेष, ३३ । २ तेतीस पुरुषार्थ (ठा ४, ४-पत्र २८३; स ७०३; °भाग, भाय, हा '[ भाग] तृतीय | संख्यावाला, तेत्तीस (कप्पः जी ३६; सुर १२, उप पृ २०७)। २ लोक, वेद और समय भाग, तीसरा हिस्सा (कम्म २; गाया १, १३६; दं २७) 4 °दंड न [°दण्ड] १ हथि- इन तीन का वर्ग । ३ सूत्र, अथं और उन १६-पत्र २१८ कप्पू) यार रखने का एक उपकरण (महा) । २ तीन दोनों का समूह (प्राचू १; प्रावम) वण्ण ति देखो थी; 'उलूलु गायति झुरिण सभत्तिपुत्ता दण्ड (प्रौप)। दंडि पुं[दण्डिन्] संन्यासी, पुं[पर्ण] पलाश वृक्ष (कुमा) 'वरिस वि तिम्रो चच्चरियाउदिति' (रंभा) सांख्य मत का अनुयायी साधु (उप १३६ टीः [वर्ष] तीन वर्ष को अवस्थावाला (वव सुपा ४३६ महा)। "नवइ स्त्री [नवति] १ । ३) वलि स्त्री [°वलि] चमड़ी की तीन ति त्रि.ब. [त्रि] तीन, दो और एक (नव ४; संख्या विशेष, तिरानबे । २ तिरानबे संख्या- रेखाएँ (कप्पू) वलिय वि [°वलिक] महा) अणुअन ["अणुक] तीन पर वाला (कम्म १, ३१)1 पंच त्रि.ब. तीन रेखावाला (राय) वली देखो वलि माणों से बना हुआ द्रव्य; 'प्रणप्रतएहि [पञ्चन्] पंद्रह (मोघ १४), 'पंचासइम (गा २७८; प्रौप)4 बट्ट [पृष्ठ] भरतपारद्धदब्ने निअरणनं ति निद्देसा' (सम्म वि | °पश्चाश] त्रिपनवा (पउम ५३, १५०)- १३६) उण वि [गुण] १ तीनगुना । क्षेत्र के भावी नवम वासुदेव (सम १५४) ।। २ सत्व रजस् और तमस् गुणवाला (अच्चु पह न [°पथ] जहाँ तीन रास्ते एकत्रित । "वय न [पद] तीन पाववाला (दे ८, १)। ३०) उणिय वि [गुणित] तीनगुना होते हों वह स्थान (राज)। पायण न वहआ स्त्री [पथगा] गंगा नदी (से ६, (भवि) उत्तरसय वि [उत्तरशततम] [पातन] १ शरीर, इन्द्रिय और प्राण इन ८ अच्नु ३) वायणा नी ["पातना] एक सौ तीसरा, १०३ वा (पउम १०३, तीनों का नाश। २ मन, वचन और काया देखो पायग (पएह १, १) "विटु, १७६) उल वि ['तुल] १ तीन को का विनाश (पिंड)। 'पुंड न [°पुण्ड] विट्ठु पुं [पृष्ठ, विष्टु] भारतक्षेत्र में जीतनेवाला। २ तीन को तौलनेवाला (णाया तिलक-विशेष (स ) पुर [°पुर] १ उत्पन्न प्रथम अध-चक्रवर्ती राजा का नाम १, :-पत्र ६४) ओयन [ ओजस्] दानव-विशेष । २ न, तोन नगर (राज) (सम ८८ पउम ५, १५५) वह वि विषम राशि-विशेष (ठा ४, ३) कंड, पुरा स्त्री [पुरा] विद्या-विशेष (सुपा [विध] तीन प्रकार का (उवाः जी २० कंडग वि [°काण्ड, क] तीन काण्डवाला, ३६७) भंगी स्त्री [भङ्गी] छन्द-विशेष नव ३)4 विहार पुं ["विहार राजा तीन भागवाला (कप्पू: सूत्र १, ६)4°कडुअ (पिंग)महुर न [मधुर] घी, शकर और कुमारपाल का बनवाया हुआ पाटण का न [कटुक सोंठ, मरीच और पीपल मधु (अण)। मासिआ स्त्री [त्रैमासिकी] एक जैन मन्दिर (कुप्र १४४) संकु (अण)M करण देखो 'गरण (राज)M जिसकी अवधि तीन मास की है ऐसी एक [शङ्क] सूर्यवंशीय एक राजा (अभि ८२)। शकु- सूयवशाय एक काल न [काल] भूत, भविष्य और वर्त्त- प्रतिमा, व्रत-विशेष (सम २१) 'मुह वि संझ न [ सन्ध्य] प्रभात, मध्याह्न और मान काल (भगः सुपा ८८) ५ काल देखो | [°मुख] १ तीन मुखवाला (राज)। २ पुं. सायंकाल का समय (सुर ११, १०६)। 'काल (सुपा १६६)। खंड वि ['खण्ड] भगवान् संभवनाथजी का शासन-देव (सति सद वि ["पष्ट] तिरसठवाँ, ६३ वाँ (पउम तीन खण्डवाला (उप १८६ टी) खंडा- ७) रत्त न [रात्र मीन रात (स ६३, ७३)4 सढि स्त्री [ षष्टि] तिरसठ, हिवः ["खण्डाधिपति] अर्ध चक्रवर्ती ३४२); 'धम्मपरस्स मुहुत्तोत्रि दुल्लहो किंपुण ६३ (भवि)। सत्त त्रि.ब. [सप्तन्] राजा, वासुदेव (पउम ६१, २६) गडु, तिरत्त' (कुप्र ११८)1 राति न [राशि एकीस (श्रा ६)। सत्तखुत्तो प्र[सप्त'गडुअ देखो कडा (स २५८: २६३) । जीव, अजीव और नोजीव रूप तीन राशियाँ कृत्वस् ] एकीस बार (णाया १, ६; सुपा गरण न [करण] मन, वचन और काया (राज) लोअन ['लोकी] स्वर्ग, मत्यं ४४६) समइय वि [°सामयिक] तीन (द्र २०) गुण देखो 'उण (अणु)।- और पाताल लोक (कुमा; प्रासू ८६; सं १) समय में उत्पन्न होनेवाला, तीन समय की 'गुत्त वि [गुप्त] मनोगुप्ति आदि तीन 'लोअण पु[लचन] महादेव, शिव अवधिवाला (ठा ३,४) सरय न [सरक] गुप्तिवाला, संयमी (सं ८)- गोण वि (श्रा २८ पउम ५, १२२, पिंग) लोअ. तीन सरा या लड़ीवाला हार (णाया १, [कोण] तीन कोनेवाला (राज)। चत्ता पुज पुं[लोकपूज्य धातकीषण्ड के विदेह १ प्रौपा महा)। २ वाद्य-विशेष (पउम ६६, स्त्री [°चत्वारिंशत् ] तेतालीस (कम्म ४, में उत्पन्न एक जिनदेव (पउम ७५, ३१) ४४). °सरा स्त्री [°सरा] मच्छली पकड़ने ५५) 4 जय न [जगत् ] स्वर्ग, मत्यं 'लोई स्त्री [लोकी] देखो लोअ (गउड का जाल-विशेष (विपा १, ८) सरिय न और पाताल लोक (ति १)। जयण पुं भत्त १५२) लोग देखो लोअ (उप पृ ["सरिक] १ तोन सरा या लड़ी वाला हार ['नयन] महादेव, शिव (से १५, ५८ सुपा ३) वई स्त्री [पदी] १ तीन पदों का समूह। (कप्प)। २ वाद्य-विशेष (पउम ११३,११)। १३८, ५६६; गउड) तुल देखो 'ठल । २ भूमि में तीन बार पाँव का न्यास (ौप)। ३ वि. वाद्य-विशेष-संबन्धी (पउम १०२, (णाया १, १ टी-पत्र ६७), 'त्तिस । ३ गति-विशेष (अंत १६). वग्ग पुं १२३)-1 °सीस पुं[ शीर्ष ] देव-विशेष (अप) देखो त्तीस । त्तीस श्रीन [त्रय- [वर्ग] १ धर्म, अर्थ और काम ये तीन : (दीव), 'सूल न [शूल] शस्त्र-विशेष (पउम For Personal & Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ति - विंदुय १२,३४: स ६६९) सूलपाणि पुं [शूलपाणि] १ महादेव, शिव । २ त्रिशूल का हाथ में रखनेवाला सुभट ( पउम ५६, ३५) । सूलिया ['शूलिका] छोटा त्रिशूल ( सू २, ५, १) हत्तर वि ['सप्तत] तिहतर, ७३ वाँ (पउम ७, २६) १ हा [धा] तीन प्रकार से (पि ४५१; अणु) "हुण, हुण, वणन ['भुवन] १ तीन जगत्, स्वर्ग, मर्त्य और पाताल लोक (कुमा सुर १, ८ प्रासू ४९: अच्यु १९ ) । २ पुं. राजा कुमारपाल के पिता का नाम ( कुप्र १४४) । हुअणपाल पुं ["भुवन पाल ] राजा कुमारपाल का पिता ( कुप्र १४४) हुअणालंकार [भुवनालंकार ] रावण के पट्टहस्ती का नाम (पउम ८१, १२२) विहार [भुवनविहार ] पाटण (गुजरात) में राजा कुमारपाल का बनवाया हुआ एक जैन मन्दिर ( कुप्र १४४ ) । देख ते । "ति देखो इअ = इति (कुमाः कम्म २, १२३ २३) । - ति (प) अक [तिम, स्तिम् ] १ श्रद्र होना। २ सक. आर्द्रा ं करना । तिग्र ( प्राकृ १२० ) 1 तिन [क] १ तीन का समुदाय (श्रा १; उप ७२८ टी)। २ वह जगह जहाँ तीन रास्ते मिलते हों (सुर १, ६३ ) ५ संजअ धुं [°संयत] एक राजर्षि (पउम ५, ५१ ) देखो तिग । तिअ वि [त्रिज] तीन से उत्पन्न होनेवाला (राज) । तिअंकर जैनमुनि (राज) । [त्रिकंकर ] स्वनाम -ख्यात एक तिअग न [त्रिकक] तीन का समुदाय (विसे २४३) । तिअडा श्री [त्रिजटा ] स्वनाम-ख्यात एक राक्षसी (से ११, ८७) तिअभंगी स्त्री [त्रिभङ्गी] छन्द-विशेष (पिंग ) । - तिअयन [त्रितय ] तीन का समूह (विसे १४३२) । - पाइअसद्दमणवो तिअलुक्क ) न [ त्रैलोक्य] तीन जगत्तिअलोय । स्वर्गं मत्यं और पाताल लोक ( धर्मा ६०; लहुआ 8 ) । - - तिअस [ त्रिदश ] देव, देवता (कुमा) सुर १, E) + 'गअ पुं [ "गज ] ऐरावत या ऐरावण हाथी, इन्द्र का हाथी (से छ, ६१)1 ° नाइ पुं [नाथ ] इन्द्र (उप ६८६ टी; सुपा ४४) पहु पुं [प्रभु ] इन्द्र, देव-नायक (सुपा ४७ १७६) रिसि पुं [ऋषे] नारद मुनि (कुत्र २७३) । °लोग [लोक] स्वर्गं (उप १०१ ) विलया स्त्री ['वनिता] देवी, स्त्री देवता (सुपा २१७ ) । 'सरि श्री [ 'सारत् ] गंगा नदी (कुप्र ) । 'सेल ['शैल] मेरु पर्वत ( सुपा ४८ ) । लय पुंन [लय] स्वर्गं ( कुप्र १६ उप ७२८ टी सुर १, १७२ ) + हिव पुं [धिप ] इन्द्र (सुपा ३४ ) ५ हिवइ पुं [धिपति ] इन्द्र (सुपा ७६ ) + तिअससूरि पुं [ त्रिदशसृरि ] ( सम्मत्त १२० ) । - बृहस्पति तिअसिंद पुं [ त्रिदशेन्द्र ] इन्द्र, देव-पति ( वज्जा १५४) । तिअसेंद देखो तिअसिंद (चेइय १०) तिअसीस पुं [ त्रिदशेश] इन्द्र, देव-नायक (हे १, १०) 1 तिआमा स्त्री [त्रियामा] रात्रि, रात (श्र ४६) । ति इक्ख सक [ तितिक्ष ] सहन करता । तिक्खए ( श्राचा) । वकृ. तिइक्खमाण (प्राचा) 1 तिइक्खा स्त्री [तितिक्षा] क्षमा, सहिष्णुता ( श्राचा) । तिइज्ज ) वि [ तृतीय ] तीसरा पि ४४६; तिइय | संक्षि २०) 1 } तिउक्खर न [ त्रिपुष्कर (भजि ३१) । वाद्य-विशेष तिट्ट सक [ त्रोटय् ] १ तोड़ना । २ परत्याग करना । तिउट्टिज्जा (सूत्र १, १, १, १) - तिउट्ट श्रक [ त्रुट् ] १ टूटना । २ मुक्त होना; 'सब्वदुक्खा तिउट्ट' (सूम १, १५.५) For Personal & Private Use Only ४३५ वि [, त्रुटित] १ टूटा हुआ । २ पसृत (श्राचा) । तिड [] कलाप, मोर- पिच्छ ( पाच ) 1 तिउडग पुंन [त्रिपुटक] धान्य विशेष (दसनि ६, ८ व १५६) । तिउडयन [दे] १ मालब देश में प्रसिद्ध धान्यविशेष (श्रा १८ ) । २ लौंग, लवंग (श्रा पत्र ६ ) 1 [त्रिपुर] एक विद्याधर नगर (एक) । तिउर पुं [ त्रिपुर ] श्रसुर-विशेष (त्रि ६४ ) 1 पुं [नाथ ] वही (त्रि ८७) - तिउरा स्त्री [त्रिपुरी] नगरी-विशेष, चेदि देश की राजधानी (कुमा) 1 तिउल वि [दे] मन, वचन और काया को पीड़ा पहुँचानेवाला, दुःख का हेतु ( उत्त २) । तिऊड देखो तिकूड (से ८, ८३ ११, ८) - तंगिआ श्री [दे] कमल-रज (दे ५, १२) । - तिंगिच्छ देखो तिमिच्छ ( इक) । तिमिच्छायण न [ चिकित्सायन ] नक्षत्र - गोत्र - विशेष (इक) । तिंगच्छि स्त्री [दे] कमल-रज, पद्म का राज, पराग (दे ५, १२; गउड हे २,१७४; जं४) । तितवि [तीमित] भींजा हुना (स ३३२ हे ४, ४३१) । - तिंतिण वि [दे] बड़बड़ करनेवाला, तिंतिणिय | बड़बड़ानेवाला, वाञ्छित लाभ न होने पर खेद से मन में जो श्रावे सो बोलनेवाला (वव १ ठा६ - पत्र ३७१; कस ) |तिंतिणी श्री [तिन्त्रिणी ] १ चिंचा, इमली का पेड़ (श्रभि ७१) । तिंतिणी स्त्री [दे] बड़बड़ाना (वव ३) । दुइणी स्त्री [तिन्दुकनी ] वृक्ष-विशेष (कुप्र १०२ ) 1तिंदुग [तिन्दुक] १ वृक्ष-विशेष, तेंदू तिंदुका पेड़ (पापउम २०, ३७ सम १५२; पण १७ ) । २ न. फल- विशेष ( पण १७ ) । ३ श्रावस्ती नगरी का एक उद्यान (विसे २३०७) । तिदुग ? [तिन्दुक ] त्रीन्द्रियजन्तु की तिंदुय एक जाति (उत्त ३६, १३६; सुख ३६, १३९) J Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ति (२, ३ , १२७) के दक्षिा स्थत पर्वत ४३६ पाइअसद्दमहण्णवो तिंदूस-तितिक्खया तिंदूस । पुन [तिन्दुस, क] १ वृक्ष विशेष तिगिंछ [तिगिन्छ] द्रह-विशेष (इक) तिज वि [तार्य तैरने योग्य (भास ६३) तिंदूसग (परण १)। २ कन्दुक, गेंद तिगिंछायण न [तिगिञ्छायन] गोत्र-विशेष तिड्ड पुंस्त्री [दे] अन्न-नाश करनेवाला कीट, तिंदूसय' (णाया १, १८ सुपा ५३)। (सुज्ज १०, १६ टी)। | टिड्डी (जी १८)। स्त्री. ड्डो (सुपा ५४६)। ३ क्रीड़ा-विशेष (भावम)। तिगिछि ' [तिगिञ्छि] १ पर्वत-विशेष तिड्डव सक [ ताडय् ] ताड़न करना। तिकल्ल न [त्रैकाल्य तीनों काल का विषय | (ठा २, ३-पत्र ७०; इक सम; ३३)। तिडव इ (प्राकृ ७६)। (पएह २, २)। २ द्रह-विशेष, निषध पर्वत पर स्थित एक तिण न [तृण] तृण, घास (सुपा २३३, तिकूड पुं[त्रिकूट] १ लंका के समीप का | ह्रद (ठा २, ३-पत्र ७२)। अभि १७५; स १७९)1 सूय न ["शूक एक पहाड़, सुवेल पर्वत (पउम ५, १२७)। तिगिच्छ सक [चिकित्स] प्रतीकार करना, | तृण का अग्र भाग (भग १५) हत्थय पुं २ शीता महानदी के दक्षिण किनारे पर इलाज करना, दवा करना । तिगिच्छइ (उत्त [हस्तक] घास का पूला (भग ३, ३)। १६, ७६; पि २१५, ५५५) स्थित पर्वत-विशेष (ठा २, ३–पत्र ८०)। तिणिस पुं[तिनिश] वृक्ष-विशेष, बेंत (ठा सामिय ' [स्वामिन्] सुवेलपर्वत का तिगिच्छ पुं[चिकित्स] वैद्य, हकीम | ४, २; कम्म १, १६ औप)। (वव ५)। तिणिस न [दे] मधु-पाल, मधपुड़ा (द ५, स्वामी, रावण (पउम ६५, २१)। तिगिच्छ पु[तिगिच्छ] १ द्रह-विशेष, ११, ३, १२) । तिक्ख वि [तीक्ष्ण] १ तेज, तीखा, पैना निषध पर्वत पर स्थित एक द्रह (इक)। २ | तिणिस वि [तैनिश] तिनिश-वृक्ष-संबंधो, (महा गा ५०४)। २ सूक्ष्म । ३ चोखा, न. देवविमान-विशेष (सम ३८)। | बेंत का (राय ७४)। शुद्ध (कुमा)। ४ परुष, निष्ठुर (भग १६, तिगिच्छ न [ चैकित्स] चिकित्सा-शास्त्र तिणीकय वि [तृणीकृत तृण-तुल्य माना ३)। ५ वेग-युक्त, क्षिप्र-कारी (जं २)। ६ (सिरि ५६) हुमा (कुप्र५)। क्रोधी, गरम प्रकृतिवाला । ७ तीता, कडुवा तिगिच्छग । वि [चिकित्सक ] प्रतीकार तिण्ण एक [तिम् ] १ भाद्र होना। ८ उत्साहो । ६ मालस्य-रहित। १० चतुर, तिगिच्छय ) करनेवाला । २ पु. वैद्य, हकीम तिण्णाअइ २ सक. आद्र करना। तिएणादक्ष। ११ न. विष, जहर । १२ लोहा । (ठा ४, ४: पि २१५, ३२७) । अइ (प्राकृ ७५) १३ युद्ध, संग्राम । १४ शस्त्र, हथियार । १५ तिण्ण वि [तीर्ण] १ पार पहुंचा हुमा (प्रौप)। समुद्र का नोन । १६ यवक्षार । १७ श्वेत. तिगिच्छण न [चिकित्सन] चिकित्सा २ शक्त, समर्थ (से ११, २१)। कुष्ठ । १८ ज्योतिष-प्रसिद्ध तीक्ष्ण गण, यथा (पिंड १८८)। अश्लेषा, प्राी, ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र (हे तिगिच्छय न [चैकित्स्य] चिकित्सा-कर्म तिण्ण न [स्तैन्य] चोरी, तिलतिएणतप्परो' (उप ५६७ टी)। २, ७५, ८२)। (ठा -पत्र ४५१)। तिण्ण देखो ति = त्रि । भंग वि [ भङ्ग] तिक्ख सक [तीक्ष्णय् ] तीक्षण करना, तिगिच्छा स्त्री [चिकित्सा प्रतीकार, इलाज, त्रि-खण्ड, तीन खण्डवाला (अभि २२४)। दवा (ठा ३, ४) सत्थ न [°शास्त्र] तेज करना । तिखेइ (हे ४, ३४४)। आयुर्वेद, वैद्यकशास्त्र (राज)। "विह वि [विध] तीन प्रकार का (नाटतिक्खण न [तीक्ष्णन] तेज-करण, उत्तेजन चैत ४३)। तिगिच्छायण न [तिगिच्छायन] गोत्र(कुमा) । तिण्णिा पुं[तिनिक देखो तित्तिअ = विशेष (सुज्ज १०, १६)। तिक्याल सक [तीक्ष्णय् ] तीक्ष्ण करना । तित्तिक (इक)। तिगिच्छि देखो तिगिछि (ठा २, ३-पत्र कर्म. तिक्खालिज्जति (सुर १२, १०६)। तिण्ह देखो तिक्ख (हे २, ७५; ८२; पि ८० सम ८४; १०४ पि ३५४) तिक्खालिअ वि [दे] तीक्षण किया हुआ ३१२)।तिगिच्छिय [चैकित्सिक] वैद्य, चिकित्सक (दे ५, १३ पात्र) तिण्हा देखो तण्हा (राजः वज्जा ६०)। (पउम ८. १२४) तिक्खुत्तो प्र[त्रिस् ] तीन बार (विपा तिग्ग वि तिग्म] तोक्षण, तेज (हे २, ६२)। तितउ पुं[तितउ] चालनी या चलनी, पाखा, १, १ कप्प; प्रौपः राय) प्राटा या मैदा छानने का पात्र (प्रामा)। तिग्घ वि [त्रिन] तिगुना, तीन-गुना (राज)। तिग देखो तिअ = त्रिक (जी ३२; सुपा ३१; तिचूड त्रिचूड] विद्याधर वंश का एक तितय देखो तिअय (वव १) णाया १,१) वस्सि वि [वशिन] राजा (पउम ५, ४५)। तितिक्ख देखो तिइक्ख। तितिक्खइ, मन, वचन और शरीर को काबू में रखनेवाला; तिजड [त्रिजट] १ विद्याधर वंश के एक तितिक्खए ( कप्पः पि ४५७ )। वकृ. 'नरस्स तिगवस्सिस्स विसं तालउड जहा राजा का नाम (पउम १०,२०)। २ राक्षस तितिक्खमाण (राज)। (सुपा १६७)। वंश का एक राजा (पउम ५, २६२) । तितिक्खण न [तितिक्षण] सहन करना तिगसंपुण्ण न [त्रिकसंपूर्ण] लगातार तीस तिजामा। स्त्री [त्रियामा] रात्रि, रात (कुप्र दिन का उपवास (संबोध ५८)। लो त्रियामा] रात्रि, रात (कुप्र (ठा ६) तिजामी २४७; रंभा)। तितिक्खया देखो तितिक्खा (पिंड ६६६)। For Personal & Private Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तितिक्खा - तिमिस्सा तितिक्खा देखो तिइक्खा (सम ५७ ) । - तित वि [ तृप्त ] तृप्त, संतुष्ट, खुश (विसे २४०६ पदे १, १६; सुपा १६३) । - तितवि [तिक्त ] १ तोता, कडुग्रा (गाया (१६) । २ पुं. तीता रस (ठा १) तित्ति देखो तत्ति = दे (सिरि २७; संबोध ६) । तित्ति स्त्री [तृप्ति ] तृप्ति, संतोष (उअ ५९७ टी; दे १, ११७; सुपा ३७५; प्रासू १४० ) । तित्ति [दे] तात्पर्यं, सार (दे ५, ११; षड ) 1 तित्तिअ वि[ तावत् ] उतना ( हे २, १५६) तित्ति [तित्तिक ] १ म्लेच्छ देश-विशेष । २ उस देश में रहनेवाली म्लेच्छ जाति ( परह १ १) । देखो तिण्णिअ तित्तिर) [तित्तिरि ] पक्षि- विशेष, तीतर तित्तिर ) या तित्तिर (हे १,६०; कुप्र ४२७ ) । तित्तिरि वि [दे] स्नान से श्रद्र (दे ५, १२) । तित्तिलवि [ तावत् ] उतना (षड् ) । तित्तिल्ल पुं [दे] द्वारपाज, प्रतीहार (गा ५५६) । - तित्तुअवि [दे] गुरु, भारी (दे ५, १२) । तित्तल ( प ) देखो तिन्तिल (हे ४, ४३५) । तित्थ [त्रिस्थ ] साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका का समुदाय, जैनसंघ (विसे १०३५) । तित्थ पुं [त्र्यर्थ] ऊपर देखो (विसे १३०३) । तित्थ न [ तीर्थ ] प्रथम गणधर (दि १३० टी) 1 - तित्थ न [ तीर्थ ] १ ऊपर देखो (विसे १०३३ ठा १) । २ दर्शन, मत (सम्म ८ विसे १०४ ) । ३ यात्रा स्थान, पवित्र जगह (धर्म २ रायः श्रभि १२७ ) । ४ प्रवचन, शासन, जिन देव प्रणीत द्वादशाङ्गी (धर्मं ३)। ५ पुंन. अवतार, घाट, बगैरह में उतरने का रास्ता (विसे १०२६० विक्र ३२, प्रति ८२ प्रासू १०) कर, गर देखो यर (सम ६७ कप्प; पउम २०, ८; हे १, १७७) 1 जत्ता स्त्री [यात्रा] तीर्थगमन ( २ ) 1णाह, नाह पु [नाथ] जिन देव ( स ७६१ उप पृ ३५०६ सुवा ६५९; सार्धं ४३; सं ३५)1°रवि [र] १ तीर्थं का प्रवत्तक । २ पुं. जिन देव, जिन भग पाइअसद्दमद्दण्णवो वान् (गाया १८ हे १,१७७ सं १०१) स्त्री. री (दि) + 'रणाम न [करनामन् ] कर्म-विशेष, जिसके उदय से जीव तीर्थंकर होता है (B) 1 [राज ] जिनदेव ( उप ४००) सिद्ध पु' [सिद्ध] तीथं प्रवृत्ति होने पर जो मुक्ति प्राप्त करे वह (११) | नायग पु [धिनायक ] जिनदेव ( उप १८६ टी) विपुं [धिप ] संघनायक, नि-देव (उप १४२ टी) + हिवइ पुं [धिपति ] जिनदेव, जिन भगवान् (पान) । विप्प सक [ तर्पय् ] तृप्त करना, हेक. 'न इमा जीवो सक्को तिप्पेडं कामभोगेहिं ( पच्च [ ५५)। कृ. तिप्पियव्व (पउम ११, ७३) । तिप्प अक [तिप्] १ भरना, चूना । २ अफसोस करना। ३ रोना ४ सक, सुख तप्प २, २, ५५ ) । वकु. तिप्पमाण (गाया १, ४३७ १ – पत्र ४७ ) । प्रयो. वकृ. तिप्पर्यंत (सम ५१) । तिप्प पुंन [ प ] अपान आदि घोने की क्रिया, शौच (गच्छ २, ३२) । तिप्प वि [तृम] संतुष्ट, खुश (हे १,१२८) तिप्पण न [तेपन] पीड़न, हैरानी ( सू २, २,५५) विष्पणया स्त्री [तेपनता ] श्रश्रु-विमोचन, रोदन (ठा ४, १ श्रीप) । तित्थंकर [ तीर्थङ्कर ] देखो तित्थ-यर (चेइय ६५१) । तित्थि वि [ तार्थिन् ] १ दार्शनिक, दर्शनशास्त्र का विद्वान् । २ किसी दर्शन का अनुयायी (गु ३) । तित्थिवि [तीर्थिक ] ऊपर देखो (प्रबो ७४) । तित्थीय वि [ तीर्थीय] ऊपर देखो (वि ३१९६) तित्थेसरपुं [ तीर्थेश्वर ] जिन देव, जिन भगवान् (सुवा ५१८६६ २६० ) । तिदस देखो तिअस (नाट - विक्र २८) । तिदिवन [त्रिदिव] स्वर्ग, देवलोक (सुपा _१४२; कुप्र ३२० ) । तिमिंगिल पुं' [ दे ] मत्स्य, मछली, तिमि ( मत्स्य) को निगलनेवाला मत्स्य (दे ५, १३) । तिमिंगिल पुं [तिमिङ्गिल] मत्स्य की एक जाति (दे ५, १३० से ७, ८ परह १, १ ) गिल पुं [गल] एक प्रकार का महान् मत्स्य, बड़ी भारी मछली ( सू २,६) । तिमिंगिलि पु' [तिमिङ्गिलि ] मत्स्य की एक जाति (पउम २२,८३) तिमिगिल देखो तिमिंगिल = तिमिङ्गिल ( उप ५१७) 1 तिमिच्छय } पुं [दे] पथिक, मुसाफिर (दे तिध (प) देखो तहा ( हे ४, ४०१ कुमा) । तिमिच्छाह । ५, १३) । तिन्न देखो तिष्ण (सम १) । - तिमिण न [दे] गोला काष्ठ (दे ५, ११) । - तिन्न वि [दे] स्तोमित, श्राद्र, गोला (गाया तिमिर न [तिमिर ] १ अन्धकार, अँधेरा १, ६) (पड़ि कप्प ) । २ निकाचित कर्म ( धर्मं २ ) । तिपन्न देखो ते वण्ण (पंच ५, १८) । तिप्प सक [ तिप् ] देना । तिप्पइ (पिंड २७) । तिप्प श्रक [ तृप ] तृप्त होना । वकृ. तिप्पंत (पिंड ६४७) For Personal & Private Use Only तिप्पाय न [त्रिपाद] तप-विशेष, नीवी (संबोध ५८ ) 1 टिम ( प ) देखो तद्दा ( हे ४, ४०१ भवि; कम्म १ ) 1 तिमि पु' [तिभि ] मत्स्य की एक जाति (पराह १, १) - ३ अल्प ज्ञान ! ४ अज्ञान ( श्राचू ५) । ५ पुं. वृक्ष - विशेष ( स २०६ ) । - तिमिरिच्छ पुं [दे] वृक्ष-विशेष, करंज का पेड़ (दे ५, १३) । तिमिरिस पुं [दे] वृक्ष-विशेष (पण १ पत्र ३३) । तिमिल स्त्रीन [तिमिल] वाद्य-विशेष ( पउम ५७, २२) । स्त्री. ला (राज) । - तिमिस पुं [तिमिष] एक प्रकार का पौधा, पेठा, कुम्हड़ा (कप्पू ) 1तिमिसा at [तिमिस्रा ] वेता पर्यंत } को १, १ - पत्र १४ ) 1 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ पाइअसहमहण्णवो तिम्म-तिलोक तिम्म अक [स्तीम् ] भीजना, आद्रं होना। उत्पत्ति-स्थान ( महा) जोणिअ वि तिल [तिल] १ स्वनाम-प्रसिद्ध मन्न-विशेष, वकृ. तिम्ममाण (पउम ३५, २०)। [ योनिक] तिर्यग्-योनि में उत्पन्न (सम २ तिल (गा ६६५; णाया १, १, प्रासू ३४, तिम्म सक [तिम्] १ भाद्रं करना । २ भगः जीव १; ठा ३, १)4 जोणिणी स्त्री | १०८)। २ ज्योतिष्क देव-विशेष,ग्रह-विशेष (ठा प्रक. गीला होना । तिम्मइ (प्राकृ ७४) । [ योनिका] तियंग-योनि में उत्पन्न स्त्री २,३)। कुट्टी स्त्री [°कुट्टी] तिल की बनी हुई संकृ. तिम्मे (पिंड ३५०)। जन्तु, तिर्यक् स्त्री (पएण १७-पत्र ५०३) एक भोज्य वस्तु, तिलकुट (धर्म २) पप्पतिम्म देखो तिग्ग (हे २, ६२) । "दिसा दिसि स्त्री ["दिश ] पूर्व प्रादि डिया स्त्री [ पर्पटिका] तिल की बनी हुई एक दिशा (प्रावम; उवा)। पव्वय पुं[पर्वत] खाद्य चीज,तिल-पापड़(पएण १), पुप्फवण्ण तिम्मिअ वि [स्तीमितआद्र', गीला, (दे बीच में पड़ता पहाड़, मार्गावरोधक पर्वत पुं[पुष्पवर्ण] ज्योतिष्क देव-विशेष, ग्रह१, ३७)। (भग १४, ५) । "भित्ति स्त्री [भित्ति] विशेष (ठा २, ३) । मल्ली स्त्री [मल्ली] तिया स्त्री [स्त्रिका स्त्री, महिला; 'होही तुय बीच की भीत (प्राचा) 'लोग पुं[लोक एक खाद्य वस्तु (धर्म २) संगलिया स्त्री तियवज्झा फुडं जो पत्थिमे जीयं' (सुख मयं लोक, मध्य लोक (ठा ५, ३) । वसइ [संगलिका] तिल की फली (भग १५) । स्त्री [ वसति तिर्यग्-योनि (पएह १, १)। सक्कुलिया स्त्री [°शष्कुलिका] तिल की तियाल देखो ते-आलीस (कम्म ६, ६०)। तिरिच्छ वि [तिरश्चीन] १ तिर्यग् गत बनी हुई खाद्य वस्तु-विशेष, तिलखुजिया (राज). तिरकर सक[तिरस् + कृा तिरस्कार करना, टेढ़ा गया हुआ (राज)। २ तियंग्-संबन्धी तिलइअ वि तिलकिता तिलक की तरह अवधीरणा करना । कृ. तिरकरणीअ (नाट)। (उत्त २१, १६)। आचरित, विभूषितः 'जयजयस इतिलइयो तिरिच्छि देखो तिरिअ (हे २, १४३, षड्मंगलणी तिरकार पुं[तिरस्कार] तिरस्कार, अपमान, ' (धर्मा ६)।तिरिच्छिय देखो तेरिच्छिय (प्राचा २, १५, तिलंग तिलङ्ग] देश-विशेष, एक भारतीय अवहेलना (प्रबो ४१; सुपा १४४)। तिरक्करिणी । स्त्री [तिरस्करिणी] यवनिका, दक्षिण देश, आंध्र प्रांत (कुमा, इक)। तिरक्खरिणी । परदा (पि ३०६, अभि |तिरिच्छी स्त्री [तिरश्ची] तिर्थक्-स्त्री (कुमा)। तिलगकरणी स्त्री [तिलककरणी] १ तिलक १८६) तिरिड पुं[दे] एक जाति का पेड़, तिमिर करने की सलाई। २ गोरोचनाः पीले रंग का तिरक्ष देखो तिरिच्छ (प्राकृ १६ ३८)। वृक्ष (दे ५, ११)। तिरिडिअवि [दे] १ तिमिर-युक्त । २ विचित एक सुगंधित द्रव्य, जो गाय के पित्ताशय से तिरि । प्रतियक ] तिरछा, टेढ़ा (प्राकृ तिरिअं८०, १९) (दे ५, २१) निकलता है (सूम १, ४, २, १०)।तिरिड्डि पुं[दे] उष्ण वात, गरम पवन (दे तिलग, पुं[तिलक] १ वृक्ष-विशेष (सम तिरिअ वि [तैरश्च] तिथंच का, "तिरिया तिलय । १५२ प्रौपः कप्पा गाया १, ५, १२)। मणुया य दिव्वगा उवसग्गा तिविहाहियासिया तिरिश्चि (मा) देखो तिरिच्छि (हे ४,२६५)। उप ६८६ टी गा १६)। २ एक प्रतिवासु(सूत्र १, २, २, १५) देव राजा, भरतक्षेत्र में उत्पन्न पहला प्रतितिरीड पुंन [किरीट] मुकुट, सिर का प्राभूषण तिरिअ वि[तिर्यच् ] १ वक्र, कुटिल, (परह १, ४, सम १५३)। वासुदेव (सम १५४)। ३ द्वीप-विशेष । ४ तिरिअंच बाँका (चंद २ उप पृ ३६६ समुद्र-विशेष (राज) । ५ न. पुष्प-विशेष तिरीड पुं[तिरीट] वृक्ष-विशेष (बृह २)। तिरिक्ख । सुर १३, १९३)। २ . पशु, (कुमा)। ६ टीका; ललाट में किया जाता तिरिच्छ पक्षी आदि प्राणी; देव, नारक पट्टय न [पट्टक] वृक्ष-विशेष की छाल का चन्दन आदि का चिह्न (कुमा धर्मा ६) । ७ और मनुष्य से भिन्न योनि में उत्पन्न जन्तु बना हुआ कपड़ा (ठा ५, ३-पत्र ३३८)। एक विद्याघर-नगर (इक)। (धरण ४४, हे २, १४३, सूअ १, ३,१; तिरीडि वि [किरीटिन मुकुट-युक्त, मुकुट-निजीसी तिलपटी तिल की बनी हुई उप पृ१८६ प्रासू १७६ महा: पारा ४६; | विभूषित (उत्त ६, ६०)। एक खाद्य वस्तु, तिलपट्टी (पव ४ टी)।. पउम २, ५६; जी २०)। ३ मत्र्यलोक, मध्य | तिरोभाव पु [तिरोभाव] लय, अन्तर्धान तिलितिलय पुं[दे] जल-जन्तु विशेष (कप्प)लोक (ठा ३, २)। ४ न. मध्य, बीच (विसे २६६६)। (अणु; भग १४, ५); "तिरियं असंखेजाणं तिरोवइ वि [दे] वृति से अन्तहित, बाड़ से तिलिम स्त्रीन [दे] वाद्य-विशेष (सुपा २४२; दीवसमुद्दाणं मझ मज्मेण जेणेव जंबुद्दीवे व्यवाहत (दे ५,१३)। सण)। श्री.मा (सुर ३, ६८)। दीवे' (कप्प) गइ स्त्री [गति १ तिर्यग्- तिरोहा सक [तिरस+धा] अन्तहित करना, तिलुक्क न [त्रैलोक्य स्वर्ग, मत्यं और योनि (ठा ५, ३)। २ वक्र गति, टेढ़ी चाल, लोप करना, अदृश्य करना । तिरोहंति (धर्मवि पाताल लोक (दं २३)। कुटिल गमन (चंद २)। भग पुं। २४)। तिलुत्तमा देखो तिलोत्तमा (सम्मत्त १८८)। जिम्भक] देवों की एक जाति (कप्प) तिरोहिअ वि [तिरोहित लुप्त, अन्तहित, तिलेल्ल न [तिलतैल] तिल का तेल (कुमा)। जोणि स्त्री [ योनि] पशु, पक्षी आदि का प्रदृश्य, आच्छादित, ढका हुआ (राज)। तिलोक देखो तिलुक्क (सुर १, १२)। For Personal & Private Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोत्तमा - तुंगिय पाइसम तिलोत्तमा स्त्री [तिलोत्तमा ] एक स्वर्गीय | तिसा स्त्री [तृपा ] प्यास, पिपासा (सुर ह, अप्सरा (उप ७६८ टी; महा ) 1 तिलोदग ) न [ तिलोदक ] तिल का धोवन--- तिलोदयाचा कप्प) - विहन [ते] तेल, तेल (युत ३५० कुम २४० ) 1 तिल्ल न [तिल्ल] छन्द- विशेष (पिंग ) । - तिल्लग वि [ तैलक ] तेल बेचनेवाला, तेलो ( बृह १ ) । तिलहडी स्त्री [दे] गिलहरी, गु० खीसकोली (नंदी टि. पत्र. १३३ मुद्रित) मारवाड़ी में तालोडी, ताली । - तिलोदा स्त्री [तैलोदा] नदी- विशेष (नित्र १)। ति (घ) देखी लहा (हे ४, ११७) । विषण्णी श्री [प्रियर्णी] एक महीयधि (ती ५) । तिवाय सक [त्रि + पातय् ] मन, वचन और काय से नष्ट करना, जान से मार डालना। तिवायए (सूम १, १, १, ३) । तिविक्रम पुं [त्रिविक्रम ] जैनमुनि 'गहिया नियएहि ( ? तिपएहि ) मही, तिविमो तेरावा (६) तिविडा स्त्री [दे] सूची, सूई (दे ५, १२) । तिविडी स्त्री [दे] पुटिका, छोटा पुड़वा (दे ५, १२) । - तिव्व वि [ तीन ] १ प्रबल, प्रचण्ड, उत्कट (भग १५ आचा) । २ रौद्र, भयानक, डरावना ( सू १, ५, १) । ३ गाढ़, निबिड़ (पराह १, १) । ४ तिक्त, कहुआ (भग ६, ३४) । ५ प्रकृष्ट, उत्तम, प्रकर्ष-युक्त (गाया १, १. पत्र ४ ) । - विभ्य [.] जो] दुआ, जो कठिनता से सहन हो सके (दे ५, ११; सून १, ३, ३. १, ५, १६२, ६३ श्राचा) २ अत्यन्त अपिक, ग्रध्यर्थं (दे ५ः ११: वर्ग २) श्रोफ परह १, ३, पंचा १५ श्राव ६; उवा) । - तिसंथ वि [त्रिसंस्थ] तीन बार सुनने से अच्छी तरह याद कर लेने की शक्तिवाला ( घर्मंसं १२०७ ) । - तिसला स्त्री [त्रिशला ] भगवान् महावीर की माता का नाम (सम १५१ ) । सुअ पुं [["सुत] महावीर (पउन १, ३३) २०६; पात्र) तिसाइय (वि [ तृपित ] तृषातुर, प्यासा तिसिय (महा १४ र tet) 1 } म तिसिर पुं. व. [ त्रिशिरस् ] १ देश-विशेष ( प २०६५) २. विशेष ६६ ४६ ) । ३ रावण का एक पुत्र (से १२, ५६ ) । तिस्सगुत्त देखो तीसगुत्त (राज)। तिह (अप) देखो तहा (कुमा) । तिहि पंत्री [तिथि ] पंचदश चन्द्र कला से युक्त काल, दिन, तारीख (चंद १० १००)। प तीअनि [ अतीत ] १ गुजरा हुम्रा, बीता धापा ४४९ भग) २. भूतकाल (61 ३, ४) वीइल [वि] ज्योतिष-प्रसिद्ध कर विशेष (विसे ३३४८) तीमण न [तीमन] कढ़ी, खाद्य-विशेष, भोर | तीअभि [तृतीय] तीसरा (सम १२०० २०) 1 लि (२, ३५ सा तीमिअवि [तीमित ] आद्र, गोला ( कुप्र ३७३) । वीय वि [ तैत] तीन (सूप, १, २,२, २३) । तीर क [शक् ] समर्थ होना । तीरइ (हे ४,८६) । वीर एक [ती]] ] समाप्त करना, परिपूर्ण करना । तोरई, तीरेइ (हे ४, ८६, भग) । संकृ. तीरिता (कप्प ) । तीर पुन [ तीर] किनारा, उट पार (स्वप्न ११६ प्रासू ६० ठा ४, १३ कप्प ) 1 तीरंगम वि [ तीरंगन ] पार-गामी, पार जाने वाला ( आचा) । वीर [तोरस्य तीरार्थे] साधु, मुनि, पुं , श्रमण ( दसनि २, ६ ) 1तीरिय वि [तारित ] समापित, परिपूर्ण किया हुआ (पव ५) । रिया [दे] शर या वीर रखने का थैला, सरकरा, तूर, (?) पासत्थं धरणुवरं, संघियो तोरियास' (स २६७) For Personal & Private Use Only TE तीस न [ त्रिंशत् ] १ संख्या विशेष, तीस, ३० । २ तीस-संख्यावाला ( महा; भवि ) । तीस ? स्त्री [ त्रिंशत् ] ऊपर देखो (संक्षि 7 तीस २१) वरिस वि ["वर्ष] तीस S 1 वर्ष की उम्र का ( पउम २,२८ ) । तीसइम वि [त्रिंश ] १ तीसवां (पउम ३०, ६८) । २ न. लगातार चौदह दिनों का उपवास (गाया १, १) । [त्रिंशक] तीस वर्ष की उम्रवाला der ( तंदु १७) । तीसगुत्त पुं [तिष्यगुप्त ] एक प्राचीन श्राचार्यविशेष, जिसने अन्तिम प्रदेश में जीव की सत्ता का पन्थ चलाया था (ठा ७) 1 (OT) ~ सीसभद्द [तिष्यभद्र ] एक नमून तीसम वि [त्रिंश ] तीसवाँ (भवि) 1 तीसा श्री, देखो तीस (हे १, १२) । तीसिया स्त्री [त्रिंशिका ] तीस वर्ष के उम्र की स्त्री ( वव ७) । तु अ [तु] इन ग्रंथों का सूचक अव्यय - १ भिन्नता, भेद, विशेषण (श्रा २७ विसे ३०३५) । २ श्रवधारण, निश्चय (सूत्र १, २, २) । ३ समुच्चय (सूम १, १, १ ) । ४ कारण, हेतु (निचू १) । ५ पाद-पूरक अव्यय (विसे ३०३५; पंचा ४) । - तुअ सक [तुद्] व्यथा करना, पीड़ा करना । तुम हो यावत्ता (डा ३, २) । तुअर पुं [तुवर ] धान्य- विशेष, रहर (जं १) । - तुअर मक [स्वर] स्वरा होता, शीघ्र होगा. जल्दी होना तुर (गा ६०२ ) । तुंग वि [तुङ्ग] १ ऊँचा, उच्च (गा २५६; औप)। २ पुं. छन्द-विशेष (पिंग ) । - तुंगार [ तुङ्गार ] निकोल का जन पुं पवन (धाम)। तुंगिम पुंखी [ तुङ्गिमन् ] (सुपा १२४० वजा १५० कप्पू: सरण) । - तुंगिय पुं [तुङ्गिक ] १ ग्राम- विशेष (मात्रम ) । २ पर्वत- विशेष 'तुंगे लुंगियसिहरे गंतुं तिब्वं तवं तवई ( कुप्र १०२) । ३ पुंस्त्री गोत्र - विशेष में उत्पन्न 'जसभद्दं तुंगियं चेत्र' (दि) । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो तुंगिया-तुण्णाय तुंगिया स्त्री [तुङ्गिका] नगरी-विशेष (भग)। तुंबिल्ली स्त्री [दे] १ मधु-पटल, मधपुड़ा। तुट्टिर वि त्रुिटित] टूटनेवाला (कुमाः सण)। तुंगियायण न [दुङ्गिकायन] एक गोत्र का | २ उदूखल, ऊखल (दे ५, २३)। तुट्ठ वि [तुष्ट] तोष-प्राप्त , तृप्त, संतुष्ट, खुश नाम (कप्प)। तुंबी स्त्री [तुम्बी] १ तुम्बी, अलाबू, लौकी, (सुर ३, ४१; उवा)। तुगा स्त्री [द] १ रात्रि, रात (दे ५, १४)। कद्द (दे ५, १४) । २ जैन साधुओं का एक | तुहि स्त्री [तुष्टि] १ खुशी, प्रानन्द, संतोष १प्रायुध-विशेष; 'मसिपरसुकुंततुंगोसंघट्ट- | पात्र, तपरनी (सुपा ६४१)। । (स २००; सुर ३, २५; सुपा २४६; निर (काल)।तुंबुरु पु [तुन्बुरु] १ वृक्ष-विशेष, टिंबरू १,१)। २ कृपा, मेहरबानी (कुप्र १)। तुंगीय पु[तुङ्गीय पर्वत-विशेष (सुर १, का पेड़ (दे ४, ३) । २ गन्धर्व देवों की एक तुड प्रक[ तुड] टूटना, अलग होना । तुडइ २००)। जाति (पएण १; सुपा २६४)। ३ भगवान् हुंड स्त्रीन [तुण्ड] १ मुख, मुँह (गा ४०२) । सुमतिनाथ का शासनाधिष्ठायक देव (संति तुडि स्त्री [टि] १ न्यूनता, कमी । २ दोष, २ अग्र-भाग (निचू १)। स्त्री. डी: कि ७)। ४ शक्रेन्द्र के गन्धर्व-सैन्य का अधिपति दूषण (हे ४, ३६०) । ३ संशय, संदेह (सुर कोवि जीवियत्थी कंडयइ अहिस्स तुंलीए' देव-विशेष (ठा ७)। ३,१६१)।(सुपा ३२२) । दुडिअ न. [ तुटिक ] अन्तःपुर, रनवासः तुंडीर न दे] मधुर-बिम्बी-फल (दे ५, तुक्खार पु[दे] एक उत्तम जाति का अश्व 'तुटिकमन्तःपुरमपदिश्यते' (जोवाभि चू०)। या घोड़ा, 'अन्नं च तत्थ पत्ता तुक्खारतुरंगमा तुडिअ न [तुटिक] अन्तःपुर, जनानखाना तुंडूअ पु[दे] जीर्ण घट, पुराना घड़ा (दे बहुविहीया' (सुर ११, ४६; भवि) । देखो (सुज १८-पत्र २६५)। तोक्खार। तुडिअ वि [त्रुटित ] टूटा हुआ, विच्छिन्न तुंतुक्खुडिअ वि [दे] स्वरा-युक्त (दे ५, | तुच्छ पुंस्त्री [तुच्छा] रिक्ता तिथि, चतुर्थी, (अच्चु ३३ दे १, १५६; सुपा ८५)। नवमी तथा चतुर्दशी तिथि (सुज्ज १०, तुडिअन [दे. त्रुटित १ वाद्य, वादित्र, तुंद न [तुन्द] उदर, पेट (दे ५, १४, उप १५)। बाजा (प्रौप राय जं ३ पण्ह २, ५)। २ ७२८ टी)। तुच्छ वि [दे] अवशुष्क, सूखा, नीरस बाहु-रक्षक, हाथ का प्राभरण-विशेष (प्रौप; तुंदिला वि[तुन्दिल] बड़ा पेटवाला, तोंदल (दे ५, १४)। ठा ८ पउम ८२, १०४ राय)। ३ संख्यातुंदिल्ल (कप्पू पि ५६५; उत्त ७)। तुच्छ वि [तुच्छ] १ हलका, जघन्य, निकृष्ट, विशेषः 'तुडिअंग को चौरासी लाख से गुणने तुंब न [तुम्ब ] तुम्बी, अलाबू, लौकी (पउम हीन (णाया १, ५; प्रासू ६६) । २ अल्प, पर जो संख्या लब्ध हो वह (इकठा २,४)। २६.३४ प्रोध ३८: कुप्र १३६)। २ गाड़ी | थोडा (भग १, ३३)। ३ शन्य, रिक्त. खाली । ४ साँधा, फटे हुए वन प्रादि में लगायी जाती की नाभिः 'न हि तुबम्मि विट्ठ प्ररया (प्राचा)। ४ असार, निःसार (भग १८, पट्टी, पेवन (निचू २)।साहारया हुंति' (आवम) । ३ 'ज्ञाताधर्मकथा' ३)। ५ अपूर्ण (ठा ४, ४)। तुडिअंग न [दे. त्रुटिताङ्ग] १ संख्यासूत्र का एक अध्ययन (सम) वण न विशेष, 'पूर्व' को चौरासी लाख से गुणने पर तुच्छइअ) वि[दे] रज्जित, अनुराग-प्राप्त विना संनिवेश-विशेष, एक गांव का नाम तुच्छय (दे ५, १५)। जो संख्या लब्ध हो वह (इका ठा २, ४)। (सार्ध २५) वीण वि [वीण] वीणा २ पुं. वाद्य देनेवाला कल्प-वृक्ष (ठा १०० तुच्छिम पुंस्त्री [तुच्छत्व] तुच्छता (वज्जा विशेष को बजानेवाला (जीव ३) ५ वीणिय सम १७, पउम १०२, १२३)।१५६)। वि [°वीणिक] वही पूर्वोक्त अर्थ (प्रौपः | तुडिआ स्त्री [तुडिता] लोकपाल देवों के तुज न [तूर्य वाद्य, बाजा (सुज १०)। पएह २, ४; णाया १,१)। | अग्र-महिषियों की मध्यम परिषद् (ठा तुट्र प्रक[ट् ,तुड्] १टूटना, छिन्न होना, ३, २) तुंब न [तुम्ब] पहिए के बीच का गोल प्रव खण्डित होना । २ खूटना, घटना, बीतना। तुडिआ नो [दे. तुटिका] बाहु-रक्षिका, यव (गदि ४३) । वीणा स्त्री [वीणा] तुट्टइ (महा: सण हे १,११६); 'प्रणवरयं वाद्य-विशेष (राय ४६)! हाथ का आभरण-विशेष (पएह १, ४, देंतस्सवि तुट्टति न सायरे रयणाई' (वजा गाया १,१, टी-पत्र ४३)। तुंबरु देखो तुबुरु (इक)। १५६) । वकृ. तुटुंत (सरण)। तुणय पु[दे] वाद्य-विशेष (दे ५, १६)। तुबा स्त्री [तुम्बा] लोकपाल देवों की एक तुट्ट वि [टिन टूटा हुआ, छिन्न, खण्डित तुण्णग देखो तुण्णाग (राज)। अभ्यन्तर परिषद् (ठा ३, २)। | (स ७१८ सूक्त १७; दे १, ६२)। तुण्णण न [तुन्नन] फटे हुए वस्त्र का सन्धान तु'बाग पुन [तुम्बक कद्द , लौकी (दस ५,१ | तुट्टण न [त्रोटन] विच्छेद, पृथक्क्तरण (सूम (उप पृ ४१३)। १, १,१, वजा ११६)। तुण्णाग , पुं[तुन्नवाय] वन को साँधनेतुबिणीनी [तुम्बिनी] वल्ली-विशेष (हे ४, तुट्टिअ वि [त्रुटित, तुडित] छिन्न, खण्डित तुण्णाय । वाला, रफू करनेवाला, शिल्पी ४२७ राज)। (कुमा)। (दि; उप पृ २१०; महा) For Personal & Private Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुणिय - तुलग्ग तु हुमा (बृह १) - तु [तुति ] रफू किया हुआ, साँधा [तूष्णीम् ] मौन, चुप्पी, चुपकी, चुपचाप, चुपकेसे, मौन होकर (भवि ) । तुहि [दे] सूकर, सूधर (दे ५, १४) । तुहि देखो तुहि = तूष्णीम् (प्राक ३२ ) । तुहि वि [ तूष्णीक] मौन रहा हुआ, } मौन रहनेवाला, चुप रहनेवाला (प्रागा २५४ सुर ४, १४८) तुहिक वि [दे] मृदु-निश्चल (दे ५, १५) । देखो तुfor (स्वप्न ४२ ) । तुत्त देखो तो (सुपा २३७ ) ।तुद देखो तुअ । तुदए ( षड् ) । वकु. तुदं ( विसे १४७० ) । तुद पुं [तोद] प्रतोद, अरदार डंडा, चाबुक (सूत्र १, ५, २, ३ ) । तुन्नण न [तुन्नन] रफू करना ( गच्छ ३, ७ ) । - तुन्नाय देखो तुष्णाय ( दि १६४ ) । तुन्नार पुं [तुन्नकार] रफू करनेवाला शिल्पी (धर्मवि ७३) । [दे] १ कौतुक । २ विवाह, शादी। ३ सर्षप, सरसों, धान्य-विशेष । ४ कुतुप, घी श्रादि भरने का चर्म-पात्र (दे ५, २२) । ५ वि. प्रक्षित, चुपड़ा हुआ, घी श्रादि से लिप्त तुपइअ तुप्पलिअ तुष्पविअ २००)। ६ स्निग्ध, स्नेह-युक्त (दे ५, २२ प्रोध ३०७ भा) । ७ न. घृत, घी (से १५, ३८ सुपा ६३४; कुमा)। [] वेष्टित (२६) । - तुमंतु [दे] क्रोध-कृत मनो-विकार विशेष (ठा ८ – पत्र ४४१ ) । तुमंतुम पुं [दे] १ तूकारवाला वचन, तिरष्कार वचन, तू तू (सूम १, ६, २७) । २ वाक्- कलह 'अप्पतु मंतु में' ( उत्त २९, ३९) । ३ वि. तूकारे से बात कहनेवाला (संबोध १७) । तुमुल पुं [तुमुल] १ लोमहर्षण युद्ध, भयानक संग्राम (गउड)। २ न. शोरगुल (पान)। ५६ पाइअसद्दमहणव तुम्ह स [ युष्मत् ] तुम, श्राप ( हे १, २४६) । तुम्हकेर वि [ त्वदीय] तुम्हारा (कुमा) । तुम्हर वि [ युष्मदीय ] श्रापका, तुम्हारा (हे १, २४६, २, १४७) । तुम्हार (प) ऊपर देखो (भवि ) । तुम्हारस [ युष्मदृश ] आपके जैसा, तुम्हारे जैसा (दे १, १४२३ गउड महा) । तुम्हेश्य वि [यौष्माक ] श्रापका, तुम्हारा (हे २, १४६: कुमा, षड् ) । तुट्ट क [ त्वग् + वृत् ] पार्श्व को घुमाना, करवट फिराना । तुयट्टइ, (कप्पः भग) । तुट्टेज, तुयट्टे जा (भगः श्रौप ) । हेकृ. तुयट्टित्तए (प्राचा) । कृ. तुयट्टियव्व (गाया १,१ भग, श्रप) । तुरंग पुं [तुरङ्ग] अश्व, घोड़ा (कुमा; प्रासू ११७)। २ रामचन्द्र का एक सुभट (पउम ५६,३८) तुरंगम पुं [तुरङ्गम] अश्व, घोड़ा (पान पिंग ) 1 वि [दे] घी से लिप्त (गा तुरंगिआ स्त्री [तुरङ्गिका ] घोड़ी (पा) । | ५२० अ ) । तुरंत देखो तुर तुयट्टण न [ त्वग्वर्तन ] पार्श्व-परिवर्तन, करवट फिराना (श्रोध १५२ भाः श्रौप) । [वर्तन] करवट बदलवाना । (प्राचा) । तुयावइत्ता देखो तुअ । तुर प्रक [ त्वर] खरा होना, जल्दी होना, शीघ्र होना । वकृ. तुरंत, तुरंत, तुरमाण, तुरेमाण (हे ४, १७२: प्रासू ५८ षड् ) । तुर ] स्त्री [त्वरा ] शीघ्रता, जल्दी (दे ५, तुरक्क पुं [दे तुरुष्क ] १ देश-विशेष, तु किंस्तान । २ श्रनायें जाति- विशेष, तुर्क (ती १४) तुरग देखो तुरय (भग ११, ११; राय ) । “मुह पुं [मुख] अनार्य देश- विशेष (सूत्र १, ५टी) मेढ़ग! [°मेढ्रक ] श्रनायें देश - विशेष ( सू १, ५, १ टी) 1 तुरमणी देखो तुरुमणी (सट्टि ५७ टी) । तुरमाग देखो तुर । For Personal & Private Use Only ४४१ तुरय पुं [तुरग ] १ श्रश्व, घोड़ा (परह १, ४) । २ छन्द - विशेष (पिंग) देहपिंजरण न[* देहापअरण] अश्व को सिगारना, सँवा रना, शृंगार करना (पान)। देखो तुरग । तुरयमुह देखो तुरंग-मूह ( पत्र २७४) । वरावाला, जल्दबाज (से ४, ३० ) । तुरिअ वि [त्वरित] १ स्वरा-युक्त, उतावला (पाश्र हे ४, १७२: श्रौपः प्राप्र ) । २ क्रिवि. शीघ्र जल्दी (सुपा ४६४: भवि ) इवि [गति] १ शीघ्र गतिवाला । २ पुं. श्रमितगति नामक इन्द्र का एक लोकपाल (ठा ४, १ ) 1 तुरिअ वि [तुर्य] चौथा, चतुर्थ (पुर ४, २५०; कम्म ४, ६६; सुपा ४६४ ) । निद्दा [निद्रा ] मरणदशा (उप पृ १४३) तुरिअ न [तूर्य ] वाद्य, वावित्र, बाजा; 'तुरिया संनिनाएण, दिव्वेगं गगणं फुलै (उत्त २२, १२) । तुरिमिणी देखो तुरुमणी (राज) 1तुरी स्त्री [दे] १ पीन, पुष्ट । २ शय्या का उपकरण (दे ५, २२) । तुरु न [दे] वाद्य-विशेष (विक्र ८७) । तुरुक्क न [तुरुष्क ] सुगन्धि द्रव्य-विशेष, जो धूप करने में काम प्राता है, लोबान, सिल्हक (सम १३७ णाया १, १ पउम २, ११० श्रौप तुरुक्क पुं [तुरुष्क] १ देश-विशेष, तुर्किस्तान । २ वि. तुर्किस्तान का ( स १३) । तुरुक्की स्त्री [तुरुष्की] लिपि-विशेष (विसे ४६४ टी) । तुरुमणी स्त्री [दे] नगरी-विशेष ( भत्त ६२ ) । तुरें } देखो तुर । तुरेमाण तुल सक[ तोलय् ] १ तौलना। २ उठाना। ३ ठीक-ठीक निश्चय करना । तुलइ तुलेइ (हे ४, २५; उव; वज्जा १५८ ) । वकृ. तुलंत (पिंग ) । संकृ. तुलेऊण ( बृह १ ) । कृ. तुलेअव्व (से ६, २६) । तुल' देखो तुला (सुपा ३६) । - तुलंगा देखो तुलग्गा (मच्छु ८०) तुलग्गन [दे] काकतालीय न्याय (दे ५, १५ से ४, २७) 1 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ तुलग्गा स्त्री [दे] यदृच्छा, स्वैरिता, स्वेच्छा, अपनी मंशा (विक्र ३५) । तुलन [तुलन] तौलना, तोलन (कप्पू वजा १५७) 1 तुला स्त्री [तुलना ] तौलना, तोलन (उप २७४ स६२) । । तुलसी श्री [दे. तुलसी] लता-विशेष, तुलसी (दे ५, १४ परण १; ठा ८ पात्र) । तुला स्त्री [तुला ] १ राशि- विशेष (सुपा ३९ ) २ तराजू, तौलने का साधन ( सुपा ३६०, गा १६१) । ३ उपमा, सादृश्य ( सू २, २) । समवि [म] राग-द्वेषसे रहित, मध्यस्थ (बृह ६) । तुला स्त्री [तुलना ] तौल, वजन ( धर्मंवि तुसार न [तुषार] हिम, बर्फ, पाला ( पाच ) । ६) । तुलय वि [ तोलक ] तौलनेवाला (सुपा तुलसिआ स्त्री [तुलसिका] नीचे देखो १६७) 1 " करपुं [र] चन्द्र, चन्द्रमा (सुपा ३३) । तुसारअर देखो तुसार-कर (त्रि १०३) । तुसिण देखो दुसणीअ (संबोध १७) । सिणिय वि [ तूष्णीक] मौनी, चुप, तुसिणीय वचन- रहित ( छाया १, १ (कुमा) । तुला स्त्री [तुला ] १०५ या ५०० पल का एक नाव (अरण १५४ ) । तुलिअ वि [तुलित] १ उठाया हुम्रा, ऊँचा २०ा (पात्र ) | गुना हुआ (राज) । तुले अव देखो तुल तुल्ल वि[तुल्य] समान, सरीखा (भगः प्रासू १२; १४६ ) 1 तुवट्ट देखो तुयट्ट । तुवट्टे (वव ४) । [व] शयन, लेटना (वव ४) । वर [व] खरा होना, शीघ्र होना, तेज होना । तुवरद्द (हे ४, १७० ) । वकृ. तुरंत (४,१७०) । प्रयो. वकृ. तुवराअंत (नाट - मालती ५० ) । तुवर पुंन [तुवर ] १ रस - विशेष, कषाय रस (दे ५, १६ ) । २ वि. कषाय रसवाला, कसैला ( से ८, ५५ ) । तुवरा देखो तुरा (नाट - महावीर २७) । तुवरी स्त्री [तुवरी] अन्न- विशेष, अरहर (T १८ गा ३५८ ) । तुस पुं [ तुष ] १ कोद्रव - कोदव या कोदो श्रादि तुच्छ धान्य (ठा ८) २ धान्य का छिलका, भूसी (दे २, ३६) । - पाइअसहमहण्णवो तुसणीअ वि [ तूष्णीक] मौनी (अज्झ १७९) । तुसली स्त्री [दे] धान्य-विशेष, 'तं तत्थवि तो तुसलि वावइ सो किरिणवि वरबीयं' (सुपा ५४५); ‘देवगिहे जंतीए तुज्झ तुसली अरणाया' (सुपा १३ टि) । पत्र २८ ठा ३, ३) | तुसिणी श्र [ तूष्णीम् ] मौन, चुप्पी 'तइप्रा तुसिणीए भुंज पढमो' (पिंड १२२: ३१३) । तुसिय पुं [तुषित] लोकान्तिक देवों की एक जाति (गाया १, ८ सम८५) तुसेअजंभ न [दे] दारु, लकड़ी, काष्ठ (दे ५, १६) । तुस्स देखो तूस - तुष् । तुस्सइ (विसे ε३२) । [] तुम 'तणय वि[संधन्] तुम्हारा, तुमसे संबन्ध रखनेवाला (सुपा ५५३) । तुहग पुं [तुहग] कन्द की ३६, १९ ) 1 एक जाति (उत्त तुहार (अप) वि [ त्वदीय] तुम्हारा ( हे ४, ४३४)। तुहिण न [तुहिन] हिम, तुषार, बर्फ (पान) । इरि ['गिरि] हिमाचल पर्वत (गउड) । "कर [र] चन्द्रमा (कप्पू ) । गिरि देखो (सुपा ६५८ ) । लय [य] हिमालय पर्वत (सुपा ८८ ) । तुहिणायल' [तुहिनाचल] हिमालय पर्वत ( धर्मंवि २४ ) । तुलग्गा - तूह तूणइल्ल पु° [ तूणावत् ] तूणा नामक वाद्य बजानेवाला (परह २, ४; औप कप्प ) । - तूणय पुं' [ तूणक] वाद्य-विशेष (अचा २, ११, १) । तूणा ) स्त्री [तूणा] १ वाद्य विशेष (राय तू । इषुधि भाया (जं३; पि १२७) । - तूयरी स्त्री [तूवरी] रहर अरहर (पिड ६२३) । तूर देखो तुरव । तुरइ (हे ४, १७१: षड् ) । वकृ. तुरंत, तुरंत, तूरमाण, तूरेमाण (हे ४, १७१; सुपा २६१; षड ) । तूर पुन [सूर्य ] वाद्य, बाजा, तुरही (हे २,६३, षड्, प्रा ) [ पति ] नटों का नटों का मुखिया (बृह १) - तुसोदगन [तुषोदक] ब्री तुसोदय ) घौत-जल-पोवन (राजः कल्प) । तूरेमाण} For Personal & Private Use Only तूरमाण } देखो तूर = तुरख । तूरविअ वि [वरित] जिसको शीघ्रता कराई गई हो वह (से १२, ८३ ) । - तूरिय पुं [तौर्थिक ] वाद्य बजानेवाला, बजनियाँ ( स ७०५ ) । - तूरी स्त्री [दे] एक प्रकार की मिट्टी (जी ४) । - देखो तूर = तुरव । तूल न [तूल] रुई, रूमा, बीज-रहित कपास ( श्रपः पात्रः भवि ) । तूलिअ न. नीचे देखो; 'नगु विणासिज्जइ महग्घियं तूलियं गंडुयमाइयं' (महा) । तूलिआ स्त्री [तूलिका ] १ रूई से भरा मोटा बिछौना, गद्दा, तोशक (दे ५, २२) । २ तसवीर - चित्र बनाने की कलम (गाया १, ८) । तूलिनी स्त्री [दे] वृक्ष विशेष, शाल्मली का पेड़ (दे ५, १७) 1 तूलिल्ल वि [ तूलिकावत् ] तसवीर बनाने की कलमवाला, कूचिका-युक्त (गउड) | तूली श्री [तूली] देखो तूलिआ (सुर २, ८२: पउम ३५ २४; सुपा २६२ ) । - तूवर देखो तुवर (विपा १, १ - पत्र १६ ) । - तूस क [ तुष ] खुश होना। तूसइ, तसए ( हे ४, २३६ संक्षि ३६० षड् ) । कृ. तूसिया ( परह २, ५) । तूअ ' [दे] ईख का काम करनेवाला (दे ५, १६) । तूण पुन [तूण] इषुधि, भाथा, तरकस, तूणीर तूह देखो तित्थ (हे १, १०४ २, ७२ कुमा (हे १, १२५ षड् कुमा) । दे ५, १६) । - Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तूण ते १७) । तूण [दे] पुरुष, प्रादमी (दे ५, ते देखो ति = त्रि आलीस स्त्रीन [चत्वारिंशत् ] १ संख्या-विशेष चालीस और तीन की संख्या २ तेमालीस की संख्यावाला (सम ६८ ) + आलीसइम वि [' चत्वारिंश ] तेप्रालीसवाँ, ४३वाँ (पउम ४३, ४९) + आसी स्त्री [अशीति] १ संख्याविशेष, अस्सी और तीन । २ तिरासी की वाला ( पि ४४५) आसीइम वि [ अशीतितम] तिरासीवाँ (सम ६६ पउम ८३, १४) + इंदिय पुं ["इन्द्रिय ] स्पर्श, जीभ और नाक इन तीन इन्द्रियवाला प्राणी (डा २, ४ की १७) 'ओब [ "ओजस् ] विषम राशि -विशेष (ठा ४, ३) ५ ° उइ स्त्री [°नवति] तिरानवे, नब्बे और तीन ३ (सम १७) वडय वि ["नवत] तिरानबेवा, ६३ वाँ (कप्पः पउम ३, ४० ) । णत्र देखो उइ (सुपा ६५४) । तीस, 'त्तीस खीन [ त्रयस्त्रिं शत् ] तेतीस तीस और तीन (भगः सम 1 श्रीस १६५ प ४४७) तीसइम वि [ त्रयस्त्रिंश ] तेतीसवाँ (पउम १२, १४०) बट्टि श्री [पष्टि] तिरसठ साठ और तीन ६३ (पि २६५ ) | वण, वन्न मीन [ पचाशत् ] त्रेपन, पचास और तीन, ५३ (हे २, १७४; षड् ; सम ७२ ) । 'वत्तरि स्त्री [सप्तति] तिहत्तर ( पि २६५) । बीस [] स बीस धीर तीन, २३ (सम ४२; हे १, १६५ ) । वीस, "बीसइमन [प्रयोविंश ] तेईसवाँ (म २०, ८२, २३, २६; ठा ६) । संझन [["सम्ध्य] प्रातः मध्याक पीर सायंकाल का समय (सम्म ६६, ११ )। सट्टि श्री [] देखो 'बट्ठ (सम ७७) सीइ श्री ["अशीति] तिरासी, बस्सी धीर तीन (सम कप) सीइम वि ["अशीत] तिरासीवाँ (कप्प) । तेज तक [तेज ] तेज करना, पैमाना पार तेज करना, तीवण करना तेय (प) तेअ देखो तइअ = तृतीय ( रंभा ) । तेज ' [ तेजस् ] १ कान्ति दीसि, प्रकाश, प्रभा (उवा भग; कुमा; ठा ८ ) । २ ताप, पाइअसहमष्णवो श्रभिताप (कुमा सूत्र १, ५, १ ) । ३ प्रताप । अभिताप (कुमाः सूप १, ५, १२ प्रताप ४ माहात्म्य, प्रभाव । ५ बल, पराक्रम (कुमा) 1 मंत वि [ 'विन् ] तेजवाला, प्रभा-युक्त (पराह २, ४) बोरिव [*वीर्य ] भरत चक्रवर्ती के प्रपौत्र का पौत्र, जिसको आदर्श भवन में केवलज्ञान हुआ था (ठा ८ ) 1. तेअ न [स्तेय ] चोरी (भग २, ७) । तेअ देखो अव (भग)। तेअ पुं [?] टेक, स्तम्भ । तेअंसि वि [तेजस्विन् ] तेजवाला, तेज-युक्त (श्रीष, पण ४ भाग; महाः सम १४२० रयण पउम १०२, १४१ ) 1. तेअग देखो तेअय (जीव ) । तेण न [तेजन] १ तेज करना, पैगाना। २ उत्तेजन ( हे ४, १०४ ) । ३ वि. उत्तेजित करनेवाला (कुमा) । तेअय न [ तैजस] शरीर सहचारी सूक्ष्म शरीर - विशेष (ठा २, १, ५, १६ भग) । तेअलि [तेतलिन] (जं १ इक) । २ एक नाम (गाया १,१४)। पुत्त पुं राजा कनकरथ का एक मन्त्री (गाया १, १४) । पुरन [ पुर] नगर- विशेष (गाया १, १४) । सुय[सुत] देखो 'पुत (राज) । देखो तेतलि । [पुत्र ] तेज धक [प्रदीप्] दीपना, १ मनुष्य जाति विशेष मन्त्री के पिता का चमकना । २ जलना । तेश्रवइ (हे ४, १५२; षड् ) । - तेअवाल देखो तेजपाल (हम्मीर २७) । - तेअवियर [ प्रदील] (कुमा)। जला हुआ २ चमका हुमा, उद्दीप्त (पान) । अवियनि [तेजित] तेज किया हुआ दे ८, १३) । अस्सि ' [ तेजस्विन् ] इक्ष्वाकु वंश के एक राजा का नाम (पउम ५, ५) । ते श्री [तेजा] पक्ष की तेरहवीं राज ( सुज्ज १०, १४) । तेआ श्री [तेजस्] प्रयोदशी तिथि (ओ ४; जं ७ ) । For Personal & Private Use Only ४४३ तेआ श्री [त्रेवा] युग-विशेष दूसरा युग 'तेम्राजुगे य दास रही रामो सीयालक्खरणसंजुवि' (ती २६) । तेजा देवो तेजय (सम १४२ प ६४ ) । तेआलि ' [दे] वृक्ष-विशेष (पण १, १ – पत्र ३४) । - तेइच्छ न [ चैकित्स्य ] चिकित्सा-कर्म, प्रतीकार (दस ३) । इच्छा श्री [चिकित्सा] प्रतीकार, इलाज, तेइच्छिय देखो तेगिच्छिय (विपा १, १ ) - दवा (प्राचाः गाया १, १३) । तेइच्छी श्री [चिकित्सा, चैकिस्सी] प्रतीकार, इलाज ( कप ) । तेइज्जग वि [ तार्तीयीक] १ तीसरा । २ अवर-विशेष जाड़ा देकर तीसरे-तीसरे दिन पर आनेवाला ज्वर, तिजारा (उत्तनि ३ ) । तेइल देखो तेअंसि (सुर ७, २१७; सुपा ३३) । ते ० ' [ तेजस् ] १ आग, अग्नि (भग; दं १३) २ ले विशेष तेजोलेश्या (भग कम्म ४, ५० ) । ३ अग्निशिख नामक इन्द्र का एक लोकपाल (ठा ४; १) । ४ ताप, अभिताप (सूत्र १, १, १ ) ।५ प्रकाश उद्योद (सू २१) "आय देखो "काय (भग) कंत [कान्त ] लोकपाल देवविशेष (ठा ४, १) काइयपु [कायिक ] अग्नि का जीव (ठा ३, १) काय [" काय] धन का जीव ( प ३५५ ) - "क्काइय देखो काय पण १ जीव १) प्यभ[स] अग्निशल नामक इन्द्र का एक लोकपाल (ठा ४, १) फास पुं [स्पर्श] उष्ण स्पर्श ( श्राचा) 1 लेस [वि]] [["लेश्व] ] तेजो-नेवाला (भग)। "लेसा श्री ["लेश्या] तप-विशेष के प्रभाव से होनेवाली शक्ति- विशेष से उत्पन्न होती तेज की ज्वाला (ठा ३, १० सम ११ ) । - "लेस्स देखो 'लेस (परण १७) 'लेस्सा देखो "लेसा (२३)सिंहपु [शिख] एक लोकपाल (ठा ४, १) । - ● सोय न [ शौच ] भस्म श्रादि से किया जाता शौच (ठा ५, २) । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ते देखो तेअय (पव २३१ ) । तेण तेंडुअन [दे] वृक्ष-विशेष, टींबरू का पेड़ (दे तेणग ५, १७) । तेणय तेंदु [तिन्दुक ] १ वृक्ष- विशेष, तेंदु का ( १ BIDE तेंदुग ४२, ७) । २ गेंद, कन्दुक (पउम १५, १३) । तेंदु [दे] कन्दुक, गेंद (छाया १,८) तेंबरु पुं [दे] क्षुद्र कीट-विशेष, त्रीन्द्रिय जन्तु | की एक जाति ( जीव १) । गच्छ देखो तेइच्छ (सुर १२, २११ ) । - ते व [[चिकित्सक ] १ चिकित्सा करनेवाला। २ पुं. वैद्य, हकीम (उप ५६४) । तेगिच्छा देखो तेइच्छा (सुर १२,२११) । तेच्द्रिायण देखो तिंगिच्छायण (राज) | गिच्छि देखो तिििछ (राज) । - तेगिच्छिय वि [चैकित्सिक]' १ चिकित्सा | करनेवाला | २ पुं. वैद्य, हकीम । ३ न. चिकित्सा-कर्म, प्रतीकार-करण साला स्त्री [शाला] दवाखाना, चिकित्सालय (गाया १, १३ - पत्र १७६ ) 1तेचत्तारीत देखो ते आलीस (प्राकृ ३१) । तेज देखो तेज = तेज्य | तेजई, ( प्राकृ ७५) । तेजपुं [तेज] देश-विशेष (सम्मत २१६) । तेजंसि देखो तेअंसि (पि ७४) । - तेजपाल पुं [तेजपाल ] गुजरात के राजा वीरवल का एक यशस्वी मंत्री ( ती २) । तेजलपुर न [ तेजलपुर ] गिरनार पर्वत के पास मंत्री तेजपाल का बसाया हुआ एक नगर ( ती २ ) । तेजसि देखो तेअंसि (वव १) । - तेज्ज (श्रप)देखो चय = त्यज् । तेजइ (पिंग)। संकृ. तेज्जिअ (पिंग)। तेज्जिअ ( प ) वि [ त्यक्त] छोड़ा हुआ (पिंग) । तेडसक [ दे ] बुलाना । तेडंति (सम्मत्त १६१) ड्ड [दे] १ शलभ, अन्न-नाशक कीट, टिड्डी । २ पिशाच, राक्षस (दे ५, २३) । ते [तेन] १ लक्षण-सूचक श्रव्यय, 'भमररुनं तेण कमलवणं' (हे २, १८३३ कुमा) । २ उस तरफ (भग)। पाइअसहमहण्णवो पु' [स्तेन] चोर, तस्कर ( श्रोध ११; कसः गच्छ ३ प्रोघ ४०२ ) । ओगg [' प्रयोग ] १ चोर को पु चोरी करने के लिए प्रेरणा करना। २ चोरी के साधनों का दान या विक्रय (धर्मं २ ) । - तेणिअ ) न [स्तैभ्य ] चोरी, तेणिक्क) का ग्रहण (श्रा १४ परह १, ३) । तेणिस वि [ तैनिश ] तिनिशवृक्ष-संबन्धी, बेंत का (भग ७, ९ ) । दत वस्तु श्रोध ५६९; तेण स्त्री [स्तेना ] चोर-स्त्री ( सम्मत्त १६१ ) । तेष्ण न [स्लैन्थ] चोरी, पर-द्रव्य का अपहरण ( निचू १) । हाइअ वि [ तृष्णत ] तृष्णा-युक्त, प्यासा ( से १३, ३) |--- तेतलि पुं [तेतलिन] १ धरणेन्द्र के गन्धसेना का (इक) । २ देखो तेअलि ( गाया १, १४ - पत्र १६० ) । ---- तेतिल देखो तीइल (जं ७) । - तेत्तिअवि [ तावत् ] उतना (प्रातः गउड गा ७१; कुमा) । तेत्तिक (शौ) देखो तेत्तिअ ( प्राकृ १५) । तेत्तिर देखो तित्तिर ( जीव १) । - तिलवि [ तावत् ] उतना (हे २, १५७ कुमा) । तेत्तिल न [तैतिल] ज्योतिष-प्रसिद्ध करणविशेष (सूनि ११ ) 1 तेतुल ) (अप) ऊपर देखो (हे ४, ४०७ तेल ) कुमा; हे ४, ४३५ टि) - कुमा) । - तेन्न देखो तेण्ण ( कस) । तेउ तेलोक तेर ) त्रि. ब. [ त्रयोदशन् ] तेरह, दस तेरस और तीन (श्रा ४४, ६ २१ कम्म २, २६; ३३) । -- तेरच्छ देखो तिरिन्छ तिर्यच् (प्राकृ १९ ) । - तेरस देखो तेरसम (कम्म ६, १६ : पव ४६ ) | तेरसम वि [ त्रयोदश] तेरहवाँ (सम २५ गाया १, १ - पत्र ७२) । - तेरसयात्री [दे] जैन मुनियों की एक शाखा ( कप ) 1 तेत्थु (अप) देखो तत्थ = तत्र (हे ४, ४०४ कुमा) 1. तेल न [तैल] १ गोत्र-विशेष, जो माण्डव्य गोत्र की एक शाखा है (ठा ७) । २ तिल का विकार, तेल ( संक्षि १७ ) । तेद्दह देखो तेत्तिल (हे २, १५७ प्रात्रः षड् तेलंग पुं. व. [तैलङ्गः] १ देश-विशेष । २ पुंखी. देश-विशेष का निवासी मनुष्य, तैलंगी (पिंग)। होनेवाला (भग) । २ तीन मास-संबन्धी (सुर ६, २११:१४, २२८ ) ।तेम्व देखो तेम (हैं ४,४१८ ) । तेर वि [ त्रयोदश] तेरहवाँ (कम्म ६, १६) तेर (अप) वि [ त्वदीय] तेरा तुम्हारा (प्राकृ १२० ) । । तेरी [त्रयोदशी ] १ तेरहवाँ । २ तिथि - विशेष, तेरस (सम २९; सुर ३, १०५) । तेरसुत्तरस्य वि [ त्रयोदशोत्तरशततम ] एक सौ तेरहवाँ, ११३ वाँ (पउम ११३, ७२) । For Personal & Private Use Only तेरह देखो तेरस (हे १, १६५३ प्राप्र ) । तेरासि पुं [त्रैराशिक ] नपुंसक (पिंड ५७३) । तेरासिअ वि [ त्रैराशिक ] १ मत- विशेष का अनुयायी, त्रैराशिक मत - जीव, जीव और नोजीव इन तीन राशियों को मानने वाला ( श्रौप; ठा ७) । २ न. मत विशेष (सम ४०; विसे २४५१; ठा ७) । - तेरिच्छ देखो तिरिच्छ = तियंच् ( पव ३८ ) । तेरिच्छ देखो तिरिच्छ = तिरबीनः 'दिव्वं व मगुस्सं वा तेरिच्छ वा सरागहिए ( भाप २१) । - तेरच्छ न [ तिर्यक्त्व ] तियंचपन, पशुपक्षिपन (उप १०३१ टी) । तेरिच्छिवि [ तैरश्चिक ] तिर्यक् संबन्धी (प्रोघ २९९; भग)। - तेम (प्रप) देखो तह = तथा (पिंग) 1 तेमासिअ वि [ त्रैमासिक ] १ तीन महीने में तेलाडी स्त्री [तैलाटी] कोट-विशेष, गंधोली (दे ७, ८४) । [तेलुक तेलोअ तेलोक्क न [ त्रैलोक्क] तीन जगत-स्वर्ग, मत्यं और पाताल लोक (प्रासू ε७; प्राप्र णाया १, ४, पउम ८. ७६६ हे १,१४८, २, ६७ षड्, संक्षि १७ ) । "सिवि ["दर्शिन् ] सर्वज्ञ, सर्वदर्शी Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेल्ल—तोसलि (श्रोध ५६६) । णाह पुं [नाथ ] तीनों जगत् का स्वामी, परमेश्वर (षड् ) 1 मंडण न[* मण्डन] १ तीनों जगत् का भूषण । २ पुं. रावण का पट्ट-हस्ती ( पउम ८०, ६०) । तेल न [तैल] तेल, तिल का विकार, स्निग्ध द्रव्य- विशेष ( हे २,६८; प्रणु पव ४ ) केला स्त्री [केला ] मिट्टी का भाजन-विशेष (राज) + 'पल्लन [पल्य ] तैल रखने का मिट्टी का भाजन-विशेष (दसा १०) । • पाइया स्त्री [पायिका] क्षुद्रजन्तु-विशेष ( श्रावम) । तेल्लग न [तैलक] सुरा-विशेष ( जीव ३ ) । तेल्लिअ पुं [तैलिक] तेल बेचनेवाला (वव E)| तेल्लोअ तेल्लोक } देखो तेलुक (पि १९६; प्राप्र ) तेवें ? (अप) देखो तह = तथा ( हे । ४, ३६७; कुमा) । तेववि [पष्ट] frre की संख्यावाला, जिसमें तिरसठ अधिक हो ऐसी संख्या 'तिन्नि बट्टाई पावादुयसयाई' (पि २६५) । तेवड (प) वि [ तावत् ] उतना ( हे ४, ४०७, कुमा)। daण्णासा स्त्री [ त्रिपञ्चाशत् ] त्रेपन, ५३ (प्राकृ ३१) । - तेवीस स्त्री [तोविंशति ] तेईस ( प्राकृ ३१) | तेत्तर देखो ते वत्तरि (कम्म ५, ४) । तेह (अप) वि [ तादृश् ] उसके जैसा, वैसा (हे ४, ४०२; षड् ) । ~ तेहिं (अप) प्र. वास्ते, लिए ( हे ४, ४२५३ कुमा तेहिय वि [यादिक] तीन दिन का ( जीवस ११) । - तेत्तरि देखो ते वन्तरि (१७९) । तो देखो तओ (श्राचाः कुमा) । तो [ तदा] तब उस समय (कुमा) । तोअय पुं [दे] चातक पक्षी (दे ५, १८) । तोंड देखो लुंड (हे १, ११६३ प्राप्र ) । तोंडी [दे] करम्ब, दही-भात की बनी हुई एक खाद्य वस्तु (दे ५, ४) । पाइअसद्दमद्दण्णवो तोक्कय वि [दे] बिना ही कारण तत्पर होनेवाला (दे ५, १८) । - तोक्खार देखो तुक्खारः 'खुरखुरखयखोणीय_लग्नसंखतोक्खारलक्खजुनों' (सुर १२, ११) । तोटअ न [त्रोटक ] छन्द-विशेष (पिंग) 1 तोड सक [तुड्] १ तोड़ना, भेदन करना । २. टूटना । तोडइ (हे ४, ११६) । वकृ. तोडत (भवि ) । संकृ. तोडिलं (भवि), तोडित्ता ( ती ७) 1 तोड पुं [त्रोड] त्रुटि (उप पृ १८) । तोडण वि [दे] असहन, असहिष्णु (दे ५, १८) 1 तोडण न [तोदन ] व्यथा, पीड़ा-करण (राज) । तोडर न [दे] टोडर, माल्य-विशेष (सिरी १०२३) । तोडहिआ स्त्री [दे] वाद्य-विशेष (प्राचा २, ११) तोडिअ वि [त्रोटित ] तोड़ा हुम्रा (महा सण तोड [दे] क्षुद्र कोट - विशेष, चतुरिन्द्रिय जीव की एक जाति (राज) । - तो न [ग] रधि, भाषा, तरकस, तूणीर ( पाच औप हे १, १२५: विपा १, ३) । तोर पुन [तूणीर] शरधि, भाषा ( पात्र हे १, १२४ भवि ) । ~ तो न [तोत्र ] प्रतोद, बैल को मारने या हॉकने का बाँस का आयुध-विशेष पैना, सोंटा, चाबुक (पान; दे ३, १६: सुपा २३७ सुर १४,५१) । तोडि [] देखो तोंड (पा) । तोदग वि [ तोदक ] व्यथा उपजानेवाला, पीड़ा-कारक (उत्त २० ) 1तोमर पुंन [दे. तोमर ] मधपुडा, मधुमक्खी का घर या छत्ता 'ग्रह उड्डियाउ तोमर मुहाउ महुमक्खियाउ सव्वत्तो' ( घर्मंवि १२४ ) । | तोमर पुं [तोमर ] १ बाण-विशेष, एक प्रकार काबा (पह १, १ सुर २, २८ औप ) । २ न. छन्द - विशेष (पिंग) । तोमरिअ पुं [दे] १ शस्त्र का प्रमार्जन करनेवाला (दे ५, १८) । २ शस्त्र - मार्जन (षड् ) । For Personal & Private Use Only ४४५ तोमरिगुंडी स्त्री [दे] वल्ली-विशेष (पान) 1 तोमरी स्त्री [] वल्ली, लता (दे ५, १७) । - तोम्हार (श्रप) देखो तुम्हार (पि ४३४) । तोय न [तोय ] पानी, जल ( परह १, ३ वजा १४; दे २, ४७ ) + धरा, धारा, स्त्री ["धारा] एक दिक्कुमारी देवी ( इकठा ८ ) । पटू, पिटून [[पृष्ठ ] पानी का उपरिभाग (परह १, ३ श्रीप) । तोय [तोद] व्यथा, पीड़ा (ठा ४, ४) तोरण न [ तोरण] १ द्वार का अवयव विशेष, बहिर्द्वार (गा २६२ ) । २ बन्दनवार, फूल या पत्तों की माला ( झालर ) जो उत्सव में लटकाई जाती है (भौप)। उर न [° पुर] नगर- विशेष (महा) तोरविअ वि [दे] उत्तेजित (पान; कुप्र १६२) । [दे] नेत्र का रोग विशेष तोरामदा स्त्री ( महानि ३ ) । तोल देखो तुल= तोलय् । तोलह, तोलेइ (पिंग, महा) । वकृ. तोलंत (वजा १५८ ) । कवकृ. तो लिज्जमाण (सुर १५, १४) । कृ. तोलियव्व ( स १६२ ) 1तोल पुंन [दे] मगध देश प्रसिद्ध पल, परिमारण- विशेष ( तंदु) । तोलण पुं [दे] पुरुष, आदमी (दें ५; १७) । - तोलण न [तोलन ] तौल करना, तौलना, नाप करना (राज)। तोलिय वि [ तोलित ] तौला हुआ (महा) 1 तोल्ल न [तौल्य, तौल] तौल, बजन ( कुप्र १४९) । तोवट्ट पुं [दे] १ कान का प्राभूषण- विशेष । कमल की करिंका (दे ५, २३) । तो स [तोष ] खुशी करना, सन्तुष्ट करना । तोसइ ( उव) | कर्म. तोसिबइ (गा ५०८ ) 1 तोस [तोष ] खुशी, श्रानन्द, संतोष (पाम; सुपा २७५) रवि [कर] संतोषकारक (काल) । तोस न [दे] धन, दौलत (दे ५, १७ ) 1तोसलि पुं [तोसलिन] १ ग्राम- विशेष । २ देश-विशेष । ३ एक जैन भाचार्य (राज) । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ पाइअसहमहण्णवो तोसलिय-थंभण पुत्त [पुत्र एक प्रक प्रसिद्ध जैन प्राचार्य 'त्ति प्र [इति ] उपालम्भ-सूचक अव्यय 'त्थरु देखो थरु (पि ३२७)। (प्रावम) (प्राकृ ७८)। स्थल देखो थल (काप्र ८७)। तोसलिय पुं [तोसलिक] तोसलि-ग्राम का | °त्ति देखो इअ = इति (कप्पः स्वप्न १०; सण स्थली देखो थली (पि ३८७)। प्रधीश क्षत्रिय (प्रावम)स्थ देखो एत्थ (गा १३२)। त्थव देखो थव = स्तु । वकृत्थवंत तोसवि वि [तोषित] खुश किया हुआ, स्थ वि [स्थ] स्थित, रहा हुआ (आचा) (नाट)। तोसिअ । संतोषित (हे ३, १५०; पउम | "त्थ देखो अत्थ (वान १५) । 'स्थवअ देखो थवय (से १, ४०; नाट)। ७७,८८) स्थअ देखो थय = स्तृत (से १,१)। 'त्थाण देखो थाण (नाट)। तोहार (अप) देखो तुहार (पिंग; पि ४३४) त्थउड देखो थउड (गउड)। 'त्थाल देखो थाल (कुमा)। 'त्त वि [५] त्राण-कर्ता, राक्षक; 'सकलत्तं | 'त्थंब देखो थंब (चारु २०)। 'थिअ देखो थिअ (गा ४२१)।संतुट्ठो सकल तो सो नरो होइ' (सुपा ३६६) 'त्थंभ देखो थंभ (कुमा)। "स्थिर देखो थिर (कुमा)। त्तण देखो तण (से १, ६१). | 'त्थंभण देखो थंभण (वा १०)।" 'त्थोअ देखो थोअ (नाट–वेणी २४)। ॥ इन सिरिपाइअसद्दमण्णवम्मि तयाराइसहसंकलयो तेवीस इमो तरंगो समत्तो॥ थ ' [थ] दन्त-स्थानीय व्यजन-विशेष (प्राप; थउड न [ स्थपुट ] १ विषम और उन्नत | थंब वि [दे] विषम, असम (दे ५, २४) ।। प्रामा)। प्रदेश (दे २, ७८)। २ वि. नीचा ऊँचा थंब पुं[स्तम्ब] तृण आदि का गुच्छ (दे ८, थ अ. १-२ बाक्यालंकार और पाद-पूर्ति में (गउड)। __४६ ७७१, कुप्र २२३)।प्रयुक्त किया जाता अव्ययः 'कि थ तयं थउडिअ वि [स्थपुटित] १ विषम और थंभ प्रक [स्तम्भ ] १ रुकना, स्तब्ध होना, पम्हुढं जं थ तया भो जयंत पवम्मि ' उन्नत प्रदेशवाला। २ नीचा-ऊँचा प्रदेशवाला स्थिर होना, निश्चल होना। २ सक. क्रिया(णाया १,१-पत्र १४८; पंचा ११)।(गउड)। निरोध करना, अटकाना, रोकना, निश्चल °थ देखो एत्थ (गा १३१, १३२; सण)। | थउड्ड न [दे] भल्लातक, वृक्ष-विशेष, भिलावा करना। यंभइ (भवि)। कम. थंभिज्जइ थइअ वि [स्थगित] आच्छादित, ढका हुआ (दे ५, २६) । (हे २, ६)। संकृ. थंभिउं (कुप्र ३८५)। (से ५, ४३; गा ५७०)।थइ। स्त्री [स्थगिका ] पानदानी, पान थंग सक [उद् + नामय् ] ऊँचा करना, थंभ पुं[स्तम्भ घेरा, 'थंभतित्थत्थंभत्थं एइ थइआ । रखने का पात्र, पानदान (महा), इत्त | उन्नत करना । थंगइ (प्राकृ ३५)। रोसप्पसरकलुसिलो नाह संगामसीहो' (हम्मीर मुं[वत् ] ताम्बूल-पात्र-वाहक नौकर (कुप्र थंडिल न [स्थण्डिल] १ शुद्ध भूमि, जन्तु २२)। 'तित्थ न [तीर्थ] एक जैन तीर्थ ७१), 'धर पुं ["धर] ताम्बूल-पात्र का रहित प्रदेश (कस; निचू ४) । २ क्रोध, गुस्सा (हम्मीर २२)। वाहक नौकर (सुपा १०७) 4 वाहक पुं (सूत्र १, ६)। | थंभ पुं[स्तम्भ] १ स्तम्भ, थम्भा, खम्भा (हे ["वाहक] पानदानी का वाहक नौकर (सुपा थंडिल्ल ' [स्थण्डिल] क्रोध, गुस्सा (सूत्र १. / २, ६ कुभा; प्रासू ३३) । २ अभिमान, गर्व, १०७)। देखो थगिय। ६,१३) । अहंकार (सूम १,१३, उत्त ११) "विज्जा थइआ श्री [दे] थेली, थैली, कोथली या थंडिल्ल न [स्थण्डिल] शुद्ध भूमि (सुपा ५५८ स्त्री ["विद्या] स्तब्ध-बेहोश या निश्चेष्ट बसनी-कमर में बाँधने की रुपयों की थैली (प्राचा) करने की विद्या (सुपा ४६३) 'संबलथइपासणाहो', 'दंसिया सवलत्थई (? इ) थंडिल्ल न [दे] मण्डल, वृत्त प्रदेश (दे ५, थंभण न [स्तम्भन] १ स्तब्ध-करण, या' (कुप्र १२ ८०) २५)। थांना (विसे ३००७, सुपा ५६६)। २ थइउं देखो थय = स्थगय ।थंत देखो था। स्तब्ध करने का मन्त्र (सुपा ५६९)। ३ For Personal & Private Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थंभणया-थयण पाइअसहमहण्णवो गुजरात का एक नगर, जो आजकल 'खंभात' थग्गया स्त्री [दे] चंचु, चोंच (दे ५, २६) थणलोलुअस्तिनलोलुप दूसरी नरक थग्ध सक [स्ताघ ] जल की गहराई को | भूमि का एक नरक-स्थान (देवेन्द्र ७)।। [पुर नगर-विशेष, खंभात (सिग्ध १)। नापना । कर्म. थग्विज्जए (पब ८१)। थणिअ पु[स्तनित ] एक नरक-स्थान थंभणया स्त्री [स्तम्भना] स्तब्ध-करण (ठा | थग्घ पू[दे] थाह, तला, पानी के नीचे की (देवेन्द्र ६, २६)। । भूमि, गहराई का अन्त, सीमा (दे ५,२४)। थणिय न [स्तनित] १ मेघ का गर्जन (वजा थंभणिया स्त्री [स्तम्भनिका] विद्या-विशेष थग्या स्त्री [दे] ऊपर देखो (पाप)। १२ दे ५, २७)। २ आक्रन्द, चिल्लाहट (धर्मवि १२४)। (सम १५३)। ३ पु. भवनपति देवों की थट्ट पुन [ दे ] १ ठ, भीड़, झुण्ड, समूह, थंभणी स्त्री [स्तम्भनी] स्तम्भन करनेवाली एक जाति (औप; पण्ह १, ४)4 कुमार यूथ, जत्थाः 'दुद्धरतुरंगथट्टा' (सुपा २८८), विद्या-विशेष (णाया १,१६)। पु[कुमार] भवनपति देवों की एक जाति 'विहडइ लहु दुट्ठानिट्ठदोघट्टथर्ट्स' (लहुअ ४) । थंभय देखो थंभ = स्तम्भ (कुमा)। (ठा १,१)। २ ठाठ, ठाट, तड़क-भड़क, सजधज, आडम्बर थंभिय वि [स्तम्भित] १ स्तब्ध किया हुषा, थणिल्ल सक [चोरय् ] चुराना, चोरी करना। (भवि)। थमाया हुआ (कुप्र १४१; कुमाः कप्प; थपिल्लइ (प्राकृ ७२)। | थट्टि स्त्री [दे] पशु, जानवर (दे ५, २४)। औप) । २ जो स्तब्ध हुआ हो, अवष्टब्ध थड पुन [दे] ठछ, यूथ, समूह (भवि) । थणिल्ल वि [ स्तनवत् ] स्तनवाला (कप्पू)। (स ४६४) थणुल्लअ पु[स्तनक] छोटा स्तन (गउड) । - थक्क अक [स्था] रहना, बैठना, स्थिर होना । थड्ढ वि [स्तब्ध १ निश्चल । २ अभिमानी | थण्णु देखो थाणु (गा ४२२)। गविष्ठ (सुपा ४३७; १८२)। थक्कइ (हे ४, १६; पिंग) । भवि. थक्किस्सइ थत्तिअ न [दे] विश्राम (दे ५, २६)।(पि ३०६)। थढिअ वि [स्तम्भित] १ स्तब्ध किया | थद्ध देखो थड्ढ (सम ५१, गा ३०४, थक्क प्रक [फक्] नीचे जाना । थक्कइ हुआ । २ स्तब्ध, निश्चल । ३ न. गुरु-वन्दन वज्जा १०)। (हे ४,८७)। का एक दोष, अकड़ कर गुरु को किया | थन्न न [स्तन्य स्तन का दूध । जीवि वि थक्क अक [श्रम् ] थकना, श्रान्त होना। जाता प्रणाम (गुभा २३)। [°जीविन् ] छोटा बच्चा (सुपा ६१६) । थक्कंति (पिंग)। धण अक स्तिन्] १ गरजना। २ प्राकन्द | थप सक [ स्थापय ] रखना, थप्पी करना । थक्क वि [स्थित] रहा हुआ (कुमाः वज्जा करना, चिल्लाना । ३ आक्रोश करना। ४ थप्पइ (सिरि ८९७)। ३८; सुपा २३७: पारा ७७ सट्ठि ६)। जोर से नीसास लेना। वकृ. थणंत (गा थप्पण न [स्थापन] न्यास, न्यसन (कुप्र थक्क पु[दे] १ अवसर, प्रस्ताव, समय (दे २६०)। ११७) ५,२४वव ६ महा: विसे २०६३)। २ | | थण पुं [स्तन] थन, कुच, पयोधर,चूची (प्राचाः | थप्पिअ वि [स्थापित] रक्खा हुआ, न्यस्त वि. थका हुआ, श्रान्त; 'थक्कं सव्वशरीरं | कुमाः काप्र १६१)। जीवि वि [जीविन्] (पिंग)। हियए. सूलं सुदूसहं एई (सुर ७, १८५, ४ | स्तन-पान पर निभनेवाला बालक (श्रा १४)। | थब्भ अक [स्तभ ] अहंकार करना । वई स्त्री [°वती] बड़े स्तनवाली (गउड)। थब्भइ (सूत्र १, १३, १०) । थक्किम वि [श्रान्त] थका हुआ (पिंग)। विसारि वि [विसारिन् । स्तन पर थक्कव सक [स्थापय ] स्थापन करना, | थब्भर पु[दे] अयोध्या नागरी के समीप फैलनेवाला (गउड), सुत्त न [ सूत्र] रखना । थक्कवइ (प्राकृ १२०)। उरः-सूत्र (दे)। हर पुं[भर] स्तन का का एक द्रह-दइ या झील (ती ११)। थमिअ वि [दे] विस्मृत (दे ५, २५)।थग देखो थय = स्थगय। भवि. थगइस्सं भार या बोझ (हे १,१८६)। (पि २२१)। थगंधय पु[स्तनन्धय] स्तन-पान करनेवाला थय सक [स्थगय] पाच्छादन करना, थगण न [स्थगन] पिधान, ढकना, संवरण, बालक, छोटा बच्चा; 'निययं थणं धयंतं आवृत करना, ढकना। थएइ, थएसु (पि प्रावरण, आच्छादन, पर्दा (दे २, ८३ ठा थपंधर्य हंदि पिच्छंति' (सुर १०, ३७; । ३०६, गा ६०५)। भवि. थइस्सं (गा अच्तु ६३)। ३१४) । हेकृ. थइउं (गा ३६४)। थगथग प्रक [थगथगाय ] धड़कना, थणण न [स्तनन] १ गर्जन, गरजना (सन थय वि [स्तृत] व्याप्त, भरपूर (से १, १)। काँपना। वकृ. थगथगित (महा)। १, ५, २) । २ आक्रन्द, चिल्लाहट (सूत्र १, थय पु[स्तव] स्तुति, स्तवन, गुण-कीर्तन थगिय वि [स्थगित] पिहित, पाच्छादित, ५, १)। ३ आक्रोश, अभिशाप (राज)। ४ (अजि ३६ सं ४४)। प्रावृत (दस ५, १; आवम)। आवाजवाला नीसास (सूत्र १, २, ३)। थयण न [स्तवन] ऊपर देखोः 'थुइथयणथगिय देखो थइ । ग्गाहि [प्राहिन्] थणय पु [स्तनक] दूसरी नरक-भूमि का वंदरणनमंसरणाणि एगट्ठिआणि एयाई' ताम्बूल-वाहक नौकर (सुपा ३३६)। । एक नरक-स्थान (देवेन्द्र ६)। (आव २)। For Personal & Private Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ पाइअसहमहण्णयो थर-थाला थर पु[३] दही की तर, दही के ऊपर की थव सक [स्तु] स्तुति करना। वकृ. थवंत | थाण देखो ठाण (हे ४, १६; विसे १८५६; मलाई (दे ५, २४)। (नाट)। उप पू ३३२)। थरत्थर | अक [दे] थरथरना, काँपना । | थव देखो थय = स्तव (हे २, ४६; सुपा थाणय न [स्थानक] पालवाल, कियारी (दे थरथरथरत्थरइ, थरथरेइ, थरहरइ (सट्टि | ४४१) थरहर) ६६, पि २०७० सुर ७, ६, गा थव पुं[दे] पशु, जानवर (दे ५, २४)। थाणय न [दे] १ चौकी, पहरा; 'भयाणया १६५) । वकृ. थरथरंत, थरथथवइ पुं[स्थपति] वर्धकि, बढई (दे २, अडवि त्ति निविट्ठाई थाण्याई', 'तो बहुवोराअंत, थरथराअमाण, थरथरेंत (ोध २२)। लियाए रयणीए थाणयनिविट्ठा तुरियतुरिय४७०; पि ५५८ नाट–मालती ५५; पउम थवइय वि [स्तबकित] स्तबकवाला, गुच्छ- मागया सवरपुरिसा' (स ५३७, ५४६)। २ ३१, ४४)। युक्त (णाया १, १ प्रौप)। पं. चौकीदार, चौकी करनेवाला आदमी, थरहरिअ वि [दे] कम्पित (दे ५, २७ भविः थवइल्ल वि [दे] जाँघ फैलाकर बैठा हुआ पहरेदारः 'पहायसमए य विसंसरिएK थाणसुर १,७; सुपा २१, जय १०) थरु पुं[दे. त्सरु खड्ग-मुष्टि, तलवार की (दे ५, २६) एसुं' (स ५३७)। मूठ (दे ५, २४)। थवक पंद] थोक, समूह, जत्थाः 'लब्भइ थाणिज्ज वि [३] गौरवित, सम्मानित (दे थरुगिण पुं [थरुकिन] १ देश-विशेष। २ कुलवहुसुरए थवकमो सयलसोक्खाणं' (वजा थाणीय वि [स्थानीय] स्थानापन्न (स ६६७)। पुंस्त्री. उस देश का निवासी। स्त्री. गिणिआ थवण देखो थयण (प्राव २) थाणु पुं[स्थाणु] १ महादेव, शिव (हे २, थल न [स्थल] १ भूमि, जगह, सूखी जमीन थवणिया स्त्री [स्थापनिका] न्यास, जमा ७ कुमाः पाप्र)। २ ठूठा वृक्ष (गा २३२ (कुमा; उप ६८६ टी)। २ ग्रास लेते समय रखी हुई वस्तु; 'कन्नगोभूमालियथवरिणयअव पाप); 'दवदड्ढथाणुसरिसं' (कुप्र १०२)। ३ खोला। ४ स्तम्भ (राज)। खुले हुए मुंह की फाँक, खुले हुए मुंह की हारकूडसक्खिज' (सुपा २७५)। थाणेसर न [स्थानेश्वर] समुद्र के किनारे पर खाली जगह (वव ७) इल्ल वि [वत् ] थवय पुं [स्तबक फूल आदि का गुच्छ (दे का एक शहर (उप ७२८ टीः स १४८)। स्थल-युक्त (गउड), कुक्कुडियंड न [ कुक्कु- | २, १०३; पा)। थाम वि [दे] विस्तीर्ण (दे ५, २५) । ट्यण्ड] कवल-प्रक्षेप के लिए खुला हुआ मुख थविआ स्त्री दे] प्रसेविका, वीणा के अन्त थाम न [स्थामन्] १ बल, वीर्य, पराक्रम (वव ७) ५ °चार पुं [°चार] जमीन में | में लगाया जाता छोटा काष्ठ-विशेष (दे २, (हे ४, २६७ ठा ३, १)। २ वि. बलचलना (प्राचा)। 'नलिणी स्त्री [ नलिनी] २५)। युक्त (निचू ११) । व वि [वत् ] बलवान् जमीन में होनेवाला कमल का गाछ (कुमा) थविय वि [स्थापित] न्यस्त, निहिति (भवि) (उत्त २) । 'य वि [ज] जमीन में उत्पन्न होनेवाला | थविय वि [स्तुत] जिसकी स्तुति की गई हो थाम पुन [स्थामन्] १ बल । २ प्राण 'धा (पएण १; पउम १२, ३७), यर वि वह, श्वाधित (सुपा ३४३)। (? था) मो वा परिहायइ गुणणु (? गुण[चर] १ जमीन पर चलनेवाला । २ जमीन थविर वि [स्थविर] वृद्ध, बूढा (धर्मवि गणु) प्पेहासु प्र प्रसत्तो' (पिंड ६६४)। पर चलनेवाला पंचेन्द्रिय तियंच प्राणी (जीव थाम न [दे. स्थान] स्थान, जगह (संक्षि ३; जी २०; प्रौप) । स्त्री. री (जीव ३)। थवी दे] देखो थविआ (दे २, २५) । ४७स ४६, ७४३); (सेवालियभूमितले थलय पुं[दे] मंडप, तृणादि-निर्भित गृह (दे फिल्लुसमारणा य थामथामम्मि (सुर २, ५, २५)। थसल वि[दे] विस्तीर्ण (दे ५, २५)। १०५)। थलाहगा। स्त्री [दे] मृतक-स्मारक, शव को थह पं दे ] निलय, आश्रय, स्थान (दे ५, थार [दे] धन, मेघ (दे ५, २७) । थलहिया गाड़कर उस पर किया जाता एक प्रकार का चबूतरा (स ७५६, ७५७)। थारुणय वि [थारुकिन] देश-विशेष में था देखो ठा। थाइ (भवि)। भवि. थाहिइ थली स्त्री [स्थली] जल-शून्य भू-भाग (कुमाः उत्पन्न । स्त्री. "णिया (ोप)। देखो (पि ५२४)। वकृ. थंत (पउम १४, १३४० पात्र) घोडय ' [ घोटक] पशु-विशेष थरुगिण । भवि) । संकृ. थाऊण (हे ४, १६)। . (वव ७) थाल पुन [स्थाल] बड़ी थलिया, भोजन थली स्त्री [स्थली] ऊँची जमीन (उत्त ३०, थाइ वि [स्थायिन्] रहनेवाला। णी स्त्री । करने का पात्र (दे ६, १२; अंत ५, उप १७ सुख ३०, १७) [°नी] वर्ष-वर्ष पर प्रसव करनेवाली घोड़ी । २५७)। थल्लिया स्त्री [दे. स्थालिका] थलिया, छोटा (राज)। थालइ वि [स्थालकिन] १ थालवाला। २ थाल, भोजन करने का बरतन (परम २०, थागत न [दे] जहाज के भीतर घुसा हुमा पु. वानप्रस्थ का एक भेद (प्रौप)।१६६) पानी (सिरि ४, २५)। | थाला स्त्री [दे] धारा (षड्)। For Personal & Private Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थाली - थुइवाय थाली [स्थाली ] पाक-पात्र, हाँडी, बटलोही (ठा ३, १; सुपा ४८७) । पाग वि [पाक ] हाँड़ी में पकाया हुआ (ठा ३, १) । [ स्थापय् ] १ स्थिर करना । २ रखना । थावए (उत्त २, ३२) । थाचा स्त्री [स्थापत्या ] द्वारका-निवासी एक गृहस्थ स्त्री (गाया १, ५) पुत्त पुं [पुत्र ] स्थापत्या का पुत्र, एक जैन मुनि (गाया १, ५; अंत ) 1 थावण न [स्थापन ] न्यास, श्राधान (स २१३) - थावय पुं. [स्थापक ] समर्थं हेतु, स्वपक्षसाधक हेतु (ठा ४, ३ – पत्र २५४) । थावर वि[स्थावर ] १ स्थिर रहनेवाला । २ पुं. एकेन्द्रिय प्राणी, केवल स्पर्शेन्द्रियवालापृथिवी, पानी और वनस्पति आदि का जीव (ठा ३, २; जी २ ) । ३ एक विशेष नाम, एक नौकर का नाम (उप २१७ टी) काय पं. ["काय ] एकेन्द्रिय जीव (डा २, " णाम, नाम न [नामन्] कर्म-विशेष, स्थावरत्व-प्राप्ति का कारण-भूत कर्म (पंच ३ः सम ६७ ) | १) घास [दे] कुदाल (भाव० टिप्पण-पत्र ५६, १) । थासग । [स्थासक]भाव, थाय शीशा (विपा १, २ – पत्र २४) २ दर्पण के श्राकार का पात्र विशेष (भौपः अनु, गाया १, १ टी) । ३ अश्व का श्राभरणविशेष (राज) 1 थाह पुं [दे] १ स्थान, जगह । २ वि. श्रस्ताघ, गंभीर जल-वाला । ३ विस्तीर्णं । ४ दीर्घ, लम्बा (दे५, ३०) थाह[स्थाघ ] थाह, तला, गहराई का अन्त, सीमा (पाश्र विसे १३३२ गाया १, ६; १४; से ८, ४० ) । थाहि पुं [दे] श्रालाप, स्वर विशेष (सुपा १६) । बिजन [स्थित] रहा हु ( २०० विले १०३५; भवि) | बिदेशी ठिङ्ग (से २१८ गड 1थिंदिणी श्री [हे] विशेष विदिदि ' (सम्म १४९) । ५७ । पाइअसद्दमहणव थिंप श्रक [ तृप् ] तृप्त होना, संतुष्ट होना । थिंप [ [ [ए] तुप्त होना, संतुर होना चिप (प्रा)। भविहित प्रात्र म २२ टीसंह, विपिन (प्रात्र ८ २२ टी । V ४४६ थिरणाम वि[दें] चल-चित्त पंचल-मस्क (दे ५, २७) 1 चिरण्णेस वि [दे] स्थिर, पंच)। थिरसीस वि[] १ निर्भीक, निडर । २ निर्भर । ३ जिसने सिर पर कवच बाँधा हो वह (दे ५, ३१) थिरिम पुत्री [स्थैर्य ] स्थिरता (1 थिरकण न [स्थिरीकरण] स्थिर करना एक करना, जमाना (श्रा ६; रयण ६९ ) । थिल्ल वि [] गुप्त (चउपन्न० विबुधानंद)। थिल्लि स्त्री [दे] याग-विशेष—१ दो घोड़े की बग्घी । २ दो खच्चर प्रादि से वाह्य यान ( सू २, २६२; गाया १, १ टी -पत्र ४३ श्रप) विविधिप मक [विवःधिवाय् ] 'विव-विव आवाज करना । वकृ. थिविथिवंत ( विपा १, ७) बिबुग) [स्तिबुक ] जल-विन्दु (विसे धिय ७०४ ७०५ सम १४९) संक्रम । । ['संक्रम] कर्म-प्रकृतियों का श्रापस में संक्रमण - विशेष (पंचा ५) [] मत्त द्वार भीत में किया हुआ दरवाजा ( दस ५, १, १५) । २ फटेफुटे वस्त्र में किया जाता संधान, वस्त्र आदि फुटे वन में किया जाता संधान पत्र घादि के पंडित भाग में लगाई जाती जोड़ पर १७ विसे १४३९ टी) = थिग्गल पुंन [दे] १ छिद । २ गिरने के बाद दुत (ठीक) किया हुआ गृह-भाग (माचा २, १, ६, २) । बिया देखो थेन स्पेयं (संबोध ४९ ) । थिण्ण वि [स्त्यान] कठिन, जमा हुआ (हे १, ७४२, २१ से २, ३०) देखो क्षीण थिष्ण वि [दे] १ स्नेह-रहित दयावाला । २ श्रभिमानी, गव-युक्त (दे ४, ३० ) 1नि वि [] गति अभिमानी (पान) 1 विष्प देखो थिप बिव्य (हे ४, ११०) face । । थिप्प अक [ वि + गल ] गल जाना । fers (हे ४, १७५ ) 1 धिबुक [स्बुिक ] कन्द-विशेष (गुल २६, ee) [मिक [स्तिम् ] [] करना, गोला आद्र करना। हेक, थिमि (राज)। थिमिअ वि [दे. स्तिमित] स्थिर, निश्चल (दे ५, २७ से २, ४३३८, ६१ गाया १, १ विपा १, १; परह १, ४३२, ५३ प सुज १; सूत्र १, ३, ४ ) । २ मन्थर, धीमा ( पाच ) । थिमिअ पुं [स्तिमित ] राजा अन्धकवृष्णि के एक पुत्र का नाम ( अंत ३) । थिम्म सक [स्तिम् ] १ श्रद्र करना । एक चाद्र होता विम्ब (प्रा १२० ) । थिर [स्थिर ] १, निष्कम्प (बिपा १. १ सम १९६३ गाया १८ ) । २ निष्पन्न, संपन्न (दस ७ ३२) नाम, । "नाम न ["नामन] कर्म-विशेष, जिसके उदय से बन्द हड्डी आदि धययों की स्थिरता होती है (कम्म १, ४९; सम ६७ ) "बलिया श्री [["लिका] जन्तु-विशेष, सर्प की एक जाति (जी २) । For Personal & Private Use Only , बीहु दुखो [दे] कन्द-विशेष (उ २६ पुंस्त्र εε) IV बिंदु [स्तिभु] वनस्पति- विशेष (राज)। थी श्री [श्री] श्री. महिला नारी, भौरत (हे २, १३०, कुमा, प्रासू ६५) थीण देखो थिण्ण (हे १, ७४ दे १, ११; कुमा; पात्र) गिद्ध स्त्री [गृद्धि] निकृष्ट निद्रा-विशेष (ठा है; विसे २३४ उत्त ३३, ५) ४ °द्धि स्त्री [ 'द्धि ] अधम निद्रा-विशेष (सम १५) ५ द्वियवि [क] त्यान निद्रा बाला (विसे २३५) थु श्र. तिरस्कार सूचक अव्यय ( प्रति ८१) । धुअ वि[स्तुत] जिसकी स्तुति की गई हो वह, प्रशंसित (दे ८ २७ धरण ५० प्रजि १८) । थुइ । धुअ देखो धुण ६ ( प्राकृ ६७) थुइ श्री [स्तुति] स्तव, ए-कीर्तन (कुमा चैत्य १; सुर १०, १०३) । भुइवाय [स्तुतिपाद] प्रशंसा७४४) ( चेहय Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० थुक्क प्रक [थूत् + कृ] १ थूकना । २ सक. तिरस्कार करना, थुतकारना, अनादर के साथ निकालना । थुक्केइ (वजा ४६ ) । संकृ. किऊण (सुपा ३४६ ) I थुक्क न [ थूत्कृत ] थूक, कफ, खखार (दे ४, ४१) IV थुक्का [त्कार ] तिरस्कार (राय) 1 थुक्का स [ धूत्कार ] तिरस्कार करना । ran थुक्कारिजमाण (पि ५६३) । थुक्किअ वि [दे] उन्नत, ऊँचा (दे ५, २८) I [कृत ] का हुआ (दे ५, २८ सुपा ३४६) थुन [दे. स्थुड ] वृक्ष का स्कन्धः 'चीरीउ करेऊण बद्धा ताण थुडेसु' (सुपा ५८४ | ३६६) । थुकिअयन [दे] रोष-युक्त वचन (पान) । थुकिअ न [दे] १ अल्प-कुपित मुँह का संकोच, थोड़ा गुस्सा होने से होता मुँह का संकोच । २ मौन, चुपकी (दे ५, ३१) । थुडहीर न [दे] चामर (दे ५,२८) । थुण सक [स्तु] स्तुति करना, गुण वर्णन करना । थुइ (हे ४,२४१)। कर्म. थुव्वइ, थुणिजइ (हे ४, २४२)। वकृ. थुणंत (भवि) । कवकृ. थुब्वंत, थुव्त्रमाण (सुपा सुर४,६६, स७०१) । संकृ. थोऊण (काल) । हेकृ. थोक्तुं (मुणि १०८७५) । कृ. धुव्व, थोअव्व (भवि; चैत्य ३५० से ७१०) । थुन [स्तवन ] गुण-कीर्तन, स्तुति (सुपा ३७) ff [a] स्तुति करनेवाला (काल) । थुण्ण वि [दे] दृप्त, श्रभिमानी (दे ५, २७) । तन [स्तोत्र ] स्तुति, स्तुति-पाठ (भवि ) । थुत्थुक्काfरय वि [ थुथुत्कारित ] थुतकारा हुमा, तिरस्कृत, अपमानित (भबि)। पाइअसद्द मण्णवो थुक्क - योग वि[दे] परिवर्तित बदला हुआ (दे ५, थेण पुं, [स्तेन] चोर, तस्कर (हे १,१४७) । २७) । लिवि [] १ हृत, छीना हुआ । २ भीत, डरा हुआ (दे ५, ३२) थेप्प देखो थिप्प। पेप्पर (पि २०७; संक्षि ३४) थुल्ल वि [स्थूल ] मोटा ( हे २, ६६ प्रामा) 1 वि [स्थूल ] मोटा तगड़ा । स्त्री. ल्ली (पिंड ४२६) । ध्रुव देखो थुण । थुवइ (प्राकृ ६७ ) I थुवअवि [स्तावक ] स्तुति करनेवाला (हे १, ७५) Iv वन [स्तवन ] स्तुति, स्तव (कुप्र ३५१ ) 1 ब्व } देखो थुण धुव्वंत थू प्र. निन्दा-सूचक अव्यय 'थू निल्लजो लोम्रो' (हे २, २००; कुमा) 1 थूण पुं [दे] अश्व, घोड़ा (दे ५, २६) । थूण देखो तेण = स्तेन ( हे २,१४७) I थूणा स्त्री [ स्थूणा ] खम्भा, खूँटी (षडू ; पण १५) । - थूणाग पं [स्थूणाक] सन्निवेश-विशेष, ग्रामविशेष (श्रावम) । थू [दे] घृणा सूचक अव्यय (चंड ) । - भपं [ स्तूप ] थूहा, टोला, गृह, स्मृति स्तम्भ (विसे ६९८ सुपा २०६३ कुप्र १६५; श्राचा २, १, २) धूभिया बी [स्तूपिका ] १ छोटा स्तूप थूभियागा ) (श्रौष ४३६; श्रप) । २ छोटा शिखर (सम १३७) | थूरी स्त्री [दे ] तन्तुवाय का एक उपकरण (दे ५, २८) थूल देखो थुल (पा; पउम १४, ११३ उवा भद्द [भद्र] एक सुप्रसिद्ध जैन महर्षि (हे १, २५५ पडि) IV थूलघोण पुं [दे] सुकर, वराह (दे ५, २६) 1 थूव । देखो थूभ ( दें ७, ४०, सुर १, ५८ ) । थूह थूह [] १ प्रासादका शिखर (दें ५, ३२ पान ) २ चातक पक्षी । ३ वल्मीक, दीमक (दे ५, ३२ ) V थुथूकार पुं [थुथूत्कार ] तिरस्कार ( प्रयौ 58)1~ | थेअ वि [ स्थेय] १ रहने योग्य । २ जो रह सकता हो । ३ पुं. फैसला करनेवाला, न्यायाधीश ( ४, २६७) थोअ पुं [दे] १ रजक, धोबी । २ मूलक, मूला, कन्द- विशेष (दे ५, ३२) । थोअव्व थोऊण देखो थुन [] शय्या, बिछौना (दे ५, २८) [] कन्द-विशेष (श्रा २०; जी ९) । थोक देखो थोक (प्राकृ ३८) | थुलम' [दे] पट-कुटी, तंबू, वस्त्र-गृह, कपड़-थेज्ज न [ स्थैर्य ] स्थिरता (विसे १४) । कोट, खेमा (दे ५, २८ ) | थेज देखो थेअ (वय ३) । थोक थोग १ वृद्ध, बूढ़ा (हे १,१६६ । रवि [स्वविर ] २, ८६, भग ६, ३३) । २ पुं. जैन साधु ( श्रोष १७ कप्प) कप्प पुं [कल्प] १ जैन मुनियों का प्राचार - विशेष, गच्छ में रहनेवाले जैन मुनियों का अनुष्ठान । २ श्राचारविशेष का प्रतिपादक ग्रन्थ (ठा ३, ४ श्रध ६७०) कपि ["कल्पिक] आचारविशेष का प्राश्रय करनेवाला, गच्छ में रहनेवाला जैन मुनि ( पव ७० ) / भूमि स्त्री ["भूमि] स्थविर का पद (ठा ३, २) । " वलि वि[लि] १ जैन मुनियों का समूह । २ क्रम से जैन मुनि गएण के चरित्र का प्रतिपादक ग्रंथ विशेष (दि कप्प) । थेर [दे. स्थविर] ब्रह्मा, विधाता (दे ५, २१: पाद्म) । थेरासण न [दे. स्थविरासन] पद्म, कमल (दे५, २६)। थेरिअ न [स्थैर्य ] स्थिरता (कुमा) थेरिया बी [स्थविरा ] १ वृद्धा, बुढ़िया थेरी ) ( पात्र; श्रोष २१ टी ) । २ जैन साध्वी (कप्प) । For Personal & Private Use Only थेरोसण न [दे. स्थविरासन] अम्बुज, कमल, पद्म (षड् ) । थेव पुं [दे] बिन्दु (दे ५,२९; पान; षड् ) । थेव देखो थोव (हे २, १२५ पान; सुर १, १८१) कालिय वि [कालिक] अल्प काल तक रहनेवाला (सुपा ३७५) । थेवरिअ न [दे] जन्म-समय में बजाया जाता वाद्य (दे ५, २६) । थोअ देखो थोव (हे २, १२५; गा ४६; गउड; effer 2) ~ } देखो थोव (दे २, १२५: जो १ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ थोडेरुय-दंड पाइअसहमहण्णवो थोडेरुय देखो घाडेरुय (उप ७२८ टो)। वइकारा हत्ति य अकारणा योभया हुंति (बृह थोव । वि [स्तोक] १ अल्प, थोड़ा (हे थोणा देखो थूणा (हे १, १२५) १; विसे REE टी) थोवाग २, १२५, उवः श्रा २७ मोघ थोत्त न [स्तोत्र] स्तुति, स्तष (हे २, ४५, | थोर देखो थुल्ल (हे १, २५५, २, ६६ पउम २५६ विसे ३०३०)। २. समय का एक सुपा २६६) परिमाण (ठा २, ३; भग)।" २.१६ से १०, ४२) थोह न [दे] बल, पराक्रम (दे ५, ३०)। थोत्तुं देखो थुण । थोर विदे] क्रम से विस्तीर्ण अथ च गोल थोहर पं स्त्री [दे] वनस्पति-विशेष, थूहर का थोभ । [स्तोभ, क] 'च', 'वै प्रादि (द ५, ३०; वज्जा ३६) । पेड़, सेहुँड (सुपा २०३) । स्त्री. री (उप थोभय निरर्थक अव्यय का प्रयोग; 'उय- थोल पु[दे] वन का एक देश (दे ५,३०)। १०३१ टीः जी १० धर्म ३) 10 ॥ इम सिरिपाइअसहमहण्णवम्मि थयाराइसहसंकलणो चउव्वीसइमो तरंगो समत्तो ।। द [दे] दन्त स्थानीय व्यजन-वणं विशेष | दइच्च [दैत्य] दानव, असुर (हे १, १५१ । दओभास पुं[दकावभास] लवण-समुद्र (प्रापः प्रामा) कुमाः पाप्र)। गुरु पुं[गुरु] शुक्र, में स्थित वेलंधर-नागराज का एक प्रावासदअच्छर पं[दे] ग्राम-स्वामी, गाँव का | शुक्राचार्य (पास)। पर्वत (इक) । अधिपति (दे ५, ३६)IV दइन्न न [दैन्य दीनता, गरीबपन, गरीबी | दंठा देखो दाढा (नाट-मालती ५६) दअरी स्त्री [दे] सुरा, मदिरा, दारू (दे ५, । (हे १, १५१)। दंठि वि [दंष्टिन] बड़े दांतपाला, हिंसक ३४)। दइव पुंन [दैव] देव, भाग्य, अदृष्ट, प्रारब्ध, जन्तु ( नाट–वेणी २४) दइ स्त्री [दृति मशक, चर्म-निर्मित जल-पात्र पूर्व-कृतकर्म (हे १, १५३; कुमाः महाः दंड सक [दण्डय ] सजा करना, निग्रह (मोघ ३८) IN पउम २८, ६०); 'महवा कुविनो दइवो | करना । कवकृ. दंडित (प्रासू ६६) दइअ वि [दे] रक्षित (दे ५, ३५) । परिस कि हणइ लउडेण' (सुर ८, ३४) दंड ' [दण्ड] १ जीव-हिंसा, प्राण-नाश दइअ पुंस्त्री [दृतिका] मशक, चर्म-निर्मित | ज, णु प [] ज्योतिषी, ज्योतिः- (सम १ णाया १, १, ठा १)। २ अपराधी जल-पात्र, चमड़े का बना हुआ वह थैला को अपराध के अनुसार शारीरिक या माथिक जिसमें पानी भरकर लाते हैं। 'दइएण देव% दैव । दण्ड, सजा, निग्रह, दमन (ठा ३, ३, प्रासू वत्थिणा वा' (पिंड ४२)। स्त्री. °आ (भण दइवय न [दैवत] देव, देवता (पएह २, १; ६३; हे १, १२७)। ३ लाठी, यष्टि (उप १५२, पिंडभा १४)। हे १, १५१; कुमा) ५३० टौः प्रासू ७४)। ४ दुःख-जनक, दइअ वि [दयित] १ प्रिय, प्रेम-पात्र दइविग वि [दैविक देव-संबन्धी, दिव्य, परिताप-जनक (प्राचा) । ५ मन, वचन और 'जामो वरकामिणीदइनों (सुर १, १८३)। उत्तम (स ५०६)। शरीर का अशुभ व्यापार (उत्त १६; दं २ अभीष्ट, वाञ्छित, 'भम्हाण मणोदइयं दइव्व देखो दइव (हे १, १५३; २, ६६ ४६)। ६ छन्द-विशेष (पिंग)। ७ एक जैन दंसमवि दुल्लहं मन्ने (सुर ३, २३८)। कुमाः पउम ६३, ४)। उपासक का नाम (संथा ६१)। ८ पुन. ३ पुं. पति, स्वामी, भर्ता (पामः कुमा)M उत्ति (शौ) म [द्राग] शीघ, जल्दी परिमाण-विशेष, १९२ अंगुल का एक नाप यम वि [तम] १ अत्यन्त प्रिय। २ पृ. (प्राकृ९५) (इक)। प्राज्ञा (ठा ५, ३)। १०पुन, पति, भर्ता (पउम ७७, ६२) | दउदर । न [दकोदर] रोग-विशेष, सैन्य, लश्कर, फौज (पएह १४ ठा ५,३)।दइआ स्त्री [दयिता] स्त्री, प्रिया, पत्नी दओदर जलोदर, पानी से पेट का फूलना "अल पुं[कल] छन्द-विशेष (पिंग) जुझ (कुमा; महाः सुर ४, १२९) 1V (णाया १, १३; विपा १, १) ।। न [युद्ध] यष्टि-युद्ध (माचा)। णायग For Personal & Private Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ पाइअसहमणवो दंड-दंतिदिन ["नायक] १ दण्ड-दाता, अपराधविचार- दंडण न [दण्डन] दण्ड-करण, शिक्षा (सूप चरंति धीरा' (प्रासू १६५) । २ जितेन्द्रिय कर्ता । २ सेनापति, सेनानी, प्रतिनियत | २, २, ८२,८३)। (गाया १, १४, दस १०) सैन्य का नायक (पएह १, ४, प्रौप, कप्पा | दंडपासिंग ' [दाण्डपाशिक] कोतवाल | दंत पुं [दन] दाँत, दशन (कुमाः कप्पू)। णाया १, १)। णीइ स्त्री [नीति] नीति- (मोह १२७) । कुडी स्त्री [कुटी] दंष्ट्रा, दाढ (तंदु) च्छ विशेष, अनुशासन (ठा ) पह [पथ] दंडलइअ वि [दण्डलातिक] दण्ड लेनेवाला, पुं ["च्छद] प्रोष्ठ, प्रोठ, होठ (पान)। मार्ग-विशेष, सीधा मार्ग (सूत्र १, १३) M अपराधी (वव १) धावण न [ धावन] १ दाँत साफ करना, पासि पु[पाश्चिन, पाशिन] १ दण्ड दंडावण न [दण्डन] सजा कराना, निग्रह दतवन करना । २ दांत साफ करने का काष्ठ, दाता । २ कोतवाल (राजा श्रा २७) कराना (श्रा १४)। दतवन (पएह २,४; निचू ३)। पक्खालण 'पुंछणध न [प्रोञ्छनक] दण्डाकार झाडू | दंडाविअ वि [दण्डित] जिसको दण्ड दिलाया न [प्रक्षालन] वही पूर्वोक्त अर्थ (सून १, (जं ५)। °भी वि [भी] दण्ड से डरने- | गया हो वह (मोघ ५६७ टी) ४,२) पाय न [पात्र] दात का बना हुआ वाला, दण्ड-भीरु (प्राचा)। लत्तिय वि | दंडि वि [दण्डिन] १ दण्ड-युक्त । २५. पात्र (आचा २.६,१), 'पुर न [पुर] नगर[°लात] दण्ड लेनेवाला (वव १) °बइ पुं दण्डधारी प्रतीहार, दरवान (कुमाः नं ३)। विशेष (वव १) पहोयण न [प्रधावन] [पति सेनानी, सेनापति (सुपा ३२३) दंडि° देखो दंडी (कुप्र ४४) । देखो धावण (दस ३), माल पुं[ माल] 'वासिग, वासिय पुं [दाण्डपाशिक] | दंडि [दण्डिक] १ सामन्त राजा (पव | वृक्ष-विशेष (जं २) । "वक पुं [व] कोतवाल ( कुप्र १५५ स २६५; उप १०३१ | २६८)। २ राज कुलानुगत पुरुष (पव ६१)। दन्तपुर नगर का एक राजा (वब १)। टी)। वी रय पु[वीर्य] राजा भरत के ३ दाण्डपाशिक, कोतवाल (धर्मसं ५६६ ) वलहिया स्त्री [°वलभिका] उद्यान विशेष वंश का एक राजा जिसको आदर्श-गृह में | दंडिअ वि [दण्डित] जिसको सजा दी गई (स ७०) । वाणिज्ज न [वाणिज्य] केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था (ठा ८Mरास | हो वह, कैदी (सुपा ४६२)। हाथी-दाँत वगैरह दाँत का व्यापार (धर्म २)। पुं [ रास] एक प्रकार का नाच (कप्पू)। दंडिअ वि [दण्डिक] १ दण्डवाला। २ पुं. र पुं[कार] दात का काम करनेवाला इय वि [यत] दण्ड की तरह लम्बा राजा, नृप (वव ४)। ३ दण्ड-दाता, अपराध- शिल्पी (पएण १)। (कस; प्रौप)। यइय वि [यतिक] | विचार-कर्ता (वव १)। दंतकार पुं दन्त कार] दाँत बनानेवाला पैर को दण्ड की तरह लम्बा फैलानेवाला | दैडिआ स्त्री [दे] लेख पर लगाई जाती राज- शिल्पी (अणु १४६) । (ौप; कस. ठा ५, १) रक्खिग ji मुद्रा, ठप्पा, मोहर (बृह १)। दंतकुंडी स्त्री [दन्तकुण्डी] दाढ, दंष्ट्रा (तंदु [रक्षिक] दण्डधारी प्रतीहार (निचू ६)। दंडिक्किा वि [दे] अपमानित, 'दंडिकियो ४१)। . परण न [रण्य] दक्षिण भारत का एक समाणो तमवद्दारेण नीरोई' (उप ६४८ टी) देतवक्क पुं[दान्तवाक्य] चक्रवर्ती राजा प्रसिद्ध जंगल (पउम ४१, १; ७६, ५)। दंडिणी स्त्री [दे.दण्डिनी] रानी, राज-पत्नो (सून १, ६, २२)। सिणिय वि [सनिक दण्ड की तरह | (पिंड ५००)। दंतवण न [दे. दन्तपवन] १ दन्त-शुद्धि । २ पैर फैला कर बैठनेवाला (कस) । देखो देडिम वि दण्डिम] १ दण्ड से निवृत्त ।। दतवन, दाँत साफ करने का काष्ठ (दे २, १२ दंडग, दंडय ।। २ न. सजा करके वसूल किया हुआ द्रव्य | ठा--पत्र ४६०; उवा; पब ४)। दंड पुदण्ड] १ दण्ड-नायक, सेनापति (वव । (गाया १,१-पत्र ३७)। दंतवण्ण पुंन [दे. दन्तपवन] दतवन (दस १)। २ उबाल, उफानः 'उसिणोदगं तिंदडुक्क- दंडी स्त्री [दे] १ सूत्र-कनक । २ साँधा हुआ ३, ६) लियं फासुयजलंति जइ कप्प' (पव १३६, वस्त्र-युग्म (दे ५, ३३) । ३ साँधा हुआ जीर्ण दंतसोहण न [दन्तशोधन] दतवन (उत्त पिंड १८ विचार २५७) वन (णाया १,१६-पत्र १६६ परह १, १६, २७) दंडग । [दण्डक] १ कणं कुण्डल नगर ३-पत्र ५३) दंताल पुंस्त्री [दे] शस्त्र-विशेष, घास काटने दंडया का एक राजा (पउम १, १६)। दंत वि [ददत् ] दान कर्ता, दाता (पिंड का हथियार (सुपा ५२६) । स्त्री. ली २ दण्डाकार वाक्य-पद्धति, ग्रन्थांश-विशेष ५९४)। (राज)। ३ भवनपति प्रादि चौबीस दण्डक, दंत पुं[दान्त] दो उपवास, बेला (संबोध दति [दन्तिन] १ हस्ती, हाथी (पान)। पद-विशेष (दं १)। ४ न. दक्षिण भारत २ पर्वत-विशेष (पउम १५, ६) का एक प्रसिद्ध जंगल (पउम ३१, २५) दंत वि दान्त] दो उपवास (संबोध ५८)। दंतिअ पुंदे] शशक, खरगोश, खरहा (दे 'गिरि पुं[गिरि] पर्वत-विशेष (पउम ४२, दंत [दे] पर्वत का एक देश (दे ५, ३३) ५, ३४)। १४)। देखो दंड (उप ८६१; बृह १; सूप दंत वि [दान्त] १ जिसका दमन किया गया दंतिदिन वि [दान्तेन्द्रिय] जितेन्द्रिय २, २, पउम ४०, १३) | हो वह वश में किया हुआः 'दंतेण चित्तेण इन्द्रिय-निग्रही (प्रोध ४६ भा)।. For Personal & Private Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिक- दक्खिणा दंतिक्क न [दे] चावल का घाटा (बृह १) । दंत न [दे] मां (घमंस १११ ) ~ दतिया श्री [दन्तिका] एक वृक्ष-विशेष, बडी सतावर ( पण १ – पत्र ३२ ) । V दंती श्री [दन्ती] स्वनाम स्वात वृक्ष (पण १ - पत्र ३६ ) । दंतुक्खपि [तोलूखलिक] तापस विशेष, जो दाँतों से ही व्रीहि या धान वगैरह को निस्तुष कर खाते है (निर १३) दंतुर नि [दग्दुर] उन दाँतवाला, जिसके दाँत उभड़-खाबड़ हो । २ ऊँचा-नीचा स्थान; विषम स्थान (दे २, ७७) । ३ भागे श्राया हुआ, आगे निकल आया हुआ (कप्पू ) । रियवि [दरित ] ऊपर देखो, 'विचित पसायर (वा १०३ २००) 1 बंद [] १ व्याकरण-प्रसिद्ध पद प्रधान समास । २ न. परस्पर-विद्ध ( श्रणु) शीत - उष्ण, सुख-दुःख आदि युग्म । ३ कलह, क्लेश । ४ युद्ध, संग्राम (सुपा १४७ कुमा) । दंप पुं.ब. [ दम्पति ] स्त्री-पुरुष युगल जोड़ा, पति-पत्नीसह यह धम्मम्मि समुखमा नि (विरि २४८ ) IV दंभ [दम्भ] १ माया कपट (हे १ पुं १२७) । २ छन्द - विशेष (पिंग ) । ३ ठगाई, वचना ( पव २) | भगवि ठग, [भ] दम्भी, पाखंडी पूर्ती 'भगो त्ति निभच्छो' (सुख २,१७) भोलि [दम्भोखि] ( २७०)। पुं वज्र कुप्र बतलाना । दसिंव, १०४) (पाथः कुमा) 1 स स [ दर्श] दिखलाना, (हे ४,३२: महा) व दंसअंत श्रभि 1 इंस (भगः सुपा ९२ दक्खा श्री [द्राक्षा] १ ली-विशेष दाख या अंगूर का पेड़ २ फल- विशेष, दाख, अंगूर (कप्पू गुपा २१७ ५३२ ) 1 दक्खायत्री श्री [दाक्षायणी] गौरी, शिवपत्नी ( पाच ) IV दक्खिण [दक्षिण] १ दक्षिण दिशा में मिति(गुर १०२ निपुण, (प्रामा३हिर अनुकूल ४ अपसव्य वामेतर दाहिना (कुमा धी) 1 "मी [पश्चिमा] दक्षिण मौर पश्चिम के बीच की दिशा, नैऋत कोरण (श्रम) पुत्र स्त्री [पूर्वा] श्रग्नि कोण (चंद १) । देखो दाहिण । कवकृ. दंसिज्जंत (सुर २, सिअ (नाट) । कृ. ४५४) इंसिय दंस तक [ दंश ] काटना दांत से काटना स (नाटाहित्य ७३) दंतु (चाचा) व. दंसमाण (प्राचा) | स[देश] डांस, बड़ा मदद (भग दक्खिणत वि [दाक्षिणात्य ] दि १ मच्छड़ दक्क दक्षिण दिशा श्राचा) २ दन्त-क्षत, सर्प या अन्य किसी में उत्पन्न (राज) 1 विषैले कीड़े से काटा हुआ घाव (हे १, २६० टि) दक वि] [दष्ट] जो दाँत से काटा गया हो वह ( षड् ) IV दक्ख सक [दृश् ] देखना, अवलोकन करना । यस्यामि थियो (भि ११६ विक्र दक्खिणा स्त्री [दक्षिणा ] १ दक्षिण दिशा (जो १) । २ दक्षिण देश (कप्पू) । ३ धर्म पाइअसद्दमणचो दंस [दर्श ] सम्यक्त्व, तत्त्व-श्रद्धा (श्रावम ) । -- दंसग वि [दर्शक] दिलानेवाला (४१) दंसण पुंग [दर्शन] १ भवलोकन, निरीक्षण ( पुप्फ १२४ स्वप्न २६ ) । २ चक्षु, नेत्र, आँख (से १, १७) । ३ सम्यक्त्व, तत्त्वश्रद्धा (ठा १५. ३) । ४ सामान्य ज्ञानः 'सामन्नागणं दंसणमे' ( सम्म ५५ ) । ५ मत, धर्मं । ६ शास्त्र- विशेष (ठा ७; ८ पंचा १२) । मोहन [मोह] तत्व श्रद्धा का प्रतिबन्धक कर्म-विशेष (कम्म १, १४) मोहणिजन [ मोहनीय] कर्म-विशेष (ठा २, ४ भववरण न [वरण] कम - विशेष, सानान्य- ज्ञान का भावरक कर्म (ठा १) वरगिज न [वरणीय ] पूर्वोक्त ही अर्थ (सम १५) । देखो दरिसण दंसण न [दंशन] दाँत से काटना ( से १, (१७)1 सण वि [दर्शनन] १ किसी धर्म का धनुयायी (सुपा ४९९) २ दार्शनिक दर्शनशास्त्र का जानकार (कुप्र २६: कुम्मा २१ ) । ३ तत्व-श्रद्धालु (अणु) I दंसणिआ श्री [दर्शन] दर्शन, लोकन 'सुरशिया (श्री १.१) सय वि. [ दर्शनीय [] देखने योग्य, } दंसणीअ ) दर्शन योग्य ( सू २, ७ अभि ६८ महा) । । साव सक [ दर्शय् ] दिखलाना सावेद (प्राह ७१) IV इंसान न [दर्शन] दिखाना (२१) (उप | सावि वि [ दर्शित ] दिखलाया हुआ (सुपा २८६) | १६६ ) । संकृ. इंसिया सिवि [दर्शिन]] देखनेवाला (घाचा; कुप्र ४१३ दं २३) । | इंसि वि[दर्शित] दिखलाया हुआ (पास) दंसिअ दसिंत इंसित देखो सद ४५३ २७) । प्रयो. दक्खावs (पि ५५४) । कर्म, दीसह (ब) दिस्समाण, । कत्रकृ. दीसंत, दीसमाण ( ५ ७३ नाटचैत ७१) दक्खु द आज पग, दणं, दिस्स दिवस, दिस्सा (प महा; पि ५८५: सूत्र १, ३, २, १०पि ३३४) । हे. द ठं (कुमा) । कृ. दट्ठब्ब, दिट्ठव्व (महा उत्तर १०७ ) I दक्ख सक [ दर्शय् ] दिखलाना, 'सोवि हु दक्ख बहुकोउयमंततंताई (सुपा २३२ ) । दक्ख वि [द] निपुण, चतुर होशियार (कप्पः सुपा २८९ श्रा २८ ) । २. भूतानन्द नामक इन्द्र के पदाति-सैन्य का अविपति देव (ठा ५, १३ इक) । ३ भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी का एक पौत्र ( पउम २१, २७) 1 दुक्ख देखो दक्खा (पउम ५३, ७६; कुमा) I दक्खज्ज ' [दे] गृध्र, गोध, पक्षि-विशेष (दे ५, ३४) Iv दक्खण न [दर्शन] [१] अलोकन निरीक्ष २वि देखनेवाला, निरीक्षक (कुमा) 1 दक्खव स [ दर्शय् ] दिखलाना, बतलाना । दक्aas ( हे ४, ३२ ) 1 दक्सपिअर [दर्शित] दिखलाया हुआ For Personal & Private Use Only و Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ पाइअसहमहण्णवो दक्खिणापुव्वा-दढ कर्म का पारितोषिक, दान, भेंट (कप्पू: सूत्र [मश्चक] स्फटिक रत्न का मञ्च (जं १) दडवड [दे] १ घाटी, दर्रा, प्रवस्कन्द (दे २, ५) कखि वि [ कानिक्षन्] दक्षिणा मंडव पुं [मण्डप] १ मण्डप-विशेष, ५,३५, हे ४,४२२; भवि)। २ शीघ्र, जल्दी का अभिलाषी (पउम ३०, ६३), 'यण जिसमें पानी टपकता हो (पएह २, ५)। (चंड) न [यन] १ सूर्य का दक्षिण दिशा में २ स्फटिक रत्न का बनाया हुआ मण्डप दडि स्त्री [दे] वाद्य-विशेष (भवि) । गमन । २ कर्क की संक्रान्ति से धन की (जे १) मट्टिया, मट्टी स्त्री [मृत्तिका] दड्ढ वि [दग्ध] जला हुआ (हे १, २१७ संक्रान्ति तक के छः मास का काल (जो १ पानीवाली मिट्ठी (बह ४; पडि)। २ भग). १) वध, वह पुं [पथ] दक्षिण देश कला-विशेष (जं२) रक्खस पुं[ राक्षस] दडढालि स्त्री [दे] दव-मार्ग (षड्) (कप्पू: १४२ टी) जल-मानुष के आकार का जंतु-विशेष (सूत्र १, ७) दक्खिणापुव्वा देखो दक्खिण-पुव्वा (पव दढ वि [दृढ] १ मजबूत, बलवान्, पोढ़ रय पुन [रजस्] उदक-बिन्दु, जल-कणिका (कप्प) °वण्ण ' [°वर्ण] (प्रौपः से ८, ६०)। २ निश्चल, स्थिर, १०६) निष्कम्प (सूम १, ४, १, श्रा २८)। ३ दक्खिणिल्ल वि [दाक्षिणात्य दक्षिण दिशा ज्योतिष्क ग्रह-विशेष (सुज्ज २०) वारग, समर्थ, क्षम (सूम १, ३, १)। ४ प्रतिमें उत्पन्न या स्थित (सम १००० पउम ६, 'वारय पुं [वारक] पानी का छोटा घड़ा निबिड, प्रगाढ़ (राय)। ५ कठोर, कठिन १५६)। (रायः णाया १, २)। सीम पुं["सीमन्] (पंचा ४)। ६ क्रिवि. अतिशय, अत्यन्त वेलंघर नागराज का एक प्रावास-पवंत दक्खिणेय वि [दाक्षिणेय] जिसको दक्षिणा (चा १,७)। केउ पु[ केतु] ऐरखत (राज) दी जाती हो वह (विसे ३२७१)। क्षेत्र के एक भावी जिन-देव का नाम (पव | दग न [दक स्फटिक रल (राय ७५) । दक्खिण्णन [दाक्षिण्य] १ मुलाहजा, ७) णेमि देखो नेमि (राज)+ धणु दक्खिन्न । मुरव्वतः 'दक्णिपणेण वि एंतो "सोयरिअ वि [ शौकरिक सांख्य मत [धनुष] १ ऐरवत क्षेत्र के एक भावी सुहन सुहावेसि अम्ह हिप्राई' (गा ८५; स्वप्न का अनुयायी (पिंड ३१४) । कुलकर का नाम (सम १५३) । २ भरत-क्षेत्र ६८)। २ उदारता, प्रौदार्य । ३ सरलता, दच्चा देखो दा के एक भावी कुलकर का नाम (राज) मार्दव (सुर १, ६५, २, ६२, प्रासू)। दच्छ देखो दक्ख % दृश् । भवि, दच्छ, 'धम्म वि [धर्मन] १ जो धर्म में निश्चल ४ अनुकूलता (दंस २) दच्छसि, दच्छिहिसि (प्राप्र; उत्त २२, ४४ | हो (बृह १)। २ देव-विशेष का नाम दक्खिय वि[दर्शित] दिखलाया हुआ (भवि)। गा ८१९) (भावम) °धिईय वि [धृतिक] अतिशय दक्खु देखो दक्ख = दृश् । दच्छ देखो दक्ख = दक्षः रोगसमदच्छं पोसह । धैर्यवाला (पउम २६, २२) नेमि पुं (उप ७२८ टीः परह २, ३-पत्र ४५ | देखो दक्ख = दक्ष (सूप १, २, ३)। ["नेमि राजा समुद्रविजय का एक पुत्र, दक्खु हे २, १७) जिसने भगवान् नेमिनाथ के पास दीक्षा ली दक्खु वि [पश्य, द्रष्ट्र] १ देखनेवाला। २ | थी और सिद्धाचल पर्वत पर मुक्ति पाई थी पुं. सर्वज्ञ, जिन-देव (सूम १, २, ३) दच्छ वि [दे] तीक्ष्ण, तेज (दे ५, ३३)। दमंत (अंत १४), "पइण्ण वि [प्रतिज्ञ] १ दक्खु वि [दृष्ट] १ विलोकित । २ पुं. सोर स्थिर-प्रतिज्ञ, सत्य-प्रतिज्ञ । २ पु. सूर्याभ देव सर्वज्ञ, जिन-देव (सून १, २, ३)। दट्ठ वि [दष्ट] जिसको दाँत से काटा गया हो का आगामी जन्म में होनेवाला नाम (राय)। दग न [दक १ पानी, जल (सं ५१; दै ३४ । वह ( षड् ; महा) प्पहारि वि [प्रहारिन्] १ मजबूत प्रहार कप्प)। २ . ग्रह-विशेष, ग्रहाधिष्ठायक देव करनेवाला। २ पुं. जैनमुनि-विशेष, जो विशेष (ठा २, ३) । ३ लवण-समुद्र में स्थित दट्ठ वि [दृष्ट] देखा हुआ, विलोकित (राज) पहले चोरों का नायक था और पीछे से एक आवास पर्वत (सम ६८) गब्भ पुं दटुंतिय वि [दार्शन्तिक जिसपर दृशन्त दीक्षा लेकर मुक्त हुमा था (णाया १,१८ [गर्भ अभ्र, बादल (ठा ४, ४) तुंड दिया गया हो वह अर्थ (उप पृ १४३) महा), भूमि स्त्री [भूमि एक गाँव का पं तुण्ड] पक्षि-विशेष (पएह १,१)Mदहव्व देखो दक्ख = दृश । नाम (प्रावम)। मृढ वि [°मूढ] नितान्त 'पचवन्न पुं [पञ्चवर्ण] ज्योतिष्क देव मूखं (दे १, ४) रह पुं [रथ] १ एक विशेष, एक ग्रह का नाम (ठा २, ३) दद् ठु वि [द्रष्ट्र ] देखनेवाला, प्रेक्षक, दर्शक . कुलकर पुरुष का नाम (सम १५०)। २ 'पासाय पुं.[प्रासाद] स्फटिक रत्न का (विसे १८६५)। भगवान श्री शितलनाथजी के पिता का नाम बना हुमा महल (जं १). "पिप्पली श्री | दट् ठुआण ) (सम १५१)रहा स्त्री [रथा] लोकपाल पिप्पली वनस्पति-विशेष (पएण १)Mदट्छ देखो दक्ख = दृश ।। प्रादि देवों के अग्र-महिषियों की बाह्य परिषद् भास पुं. [भास] वेलन्धर नागराज का दट् ठूण । (ठा ३, १-पत्र १२७), उ पुं एक प्रावास-पर्वत (सम ७३)। मंचग पु दद् ठूणं ) । [युष्] भगवान महावीर के समय | दज्झमाण | देखो दह = दह। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दढगालि-दमण पाइअसहमहण्णवो ४५५ में तीर्थकर-नामकर्म उपार्जन करने वाला एक दहर [दे. दर्दर] कुतुप मादि के मुंह पर दप्पणिज वि [दर्पणीय बल-जनक, पुष्टिमनुष्य (ठा -पत्र ४५५)। २ भरत- बाँधा जाता कपड़ा (पिंड ३४७, ३५६ राय | कारक (णाया १, १; पएण १७ औपः क्षेत्र के एक भावी कुलकर पुरुष का नाम (सम । ६८; १००) कप्प) १५४) । दहर वि [दे. दर्द १ घना, प्रचुर, अत्यन्तः दप्पि वि [दर्पिन अभिमानी, गर्विष्ठ (कप्पू)। दढगालि बी [दे] वस्त्र-विशेष, धोया हुआ __'गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिएणपंचंगुलितला | दप्पिअ वि [दर्पिक] दर्प-जनित (उबर सदश वस्त्र (पव ८४; दसनि १, ४६ टी) (सम १३७)। २ पु. चपेटा, हस्त-तल का देखो दाढगालि आघात (सम १३७प्रौपः णाया १,८)। दप्पिअ वि [दर्पित अभिमानी, गर्वित (सुर दढिअ वि [दृढित] दृढ़ किया हुमा (कुमा) ३ माघात, प्रहारः 'पायदहरएणं कंपयंतेव | ७, २००; पण्ह १, ४)। दणु । [दनुज] दैत्य, दानव (हे १, मेइरिणतलं' (णाया १, १)। ४ वचनाटोप दपिट्ठ वि [दपिष्ट] अत्यन्त महंकारी (सुपा दणुअ२६७; कुमाः षड्) इंद, एंद पुं (पएह १, ३-पत्र ४४)। ५ सोपान-वीथी, २२) । [इन्द्र] १ दानवों का अधिपति (गउड से सीढ़ी (सम १३७) । ६ वाद्य-विशेष (जं २)M दप्पुल्ल वि [दर्पवत् ] अहंकारवाला (हे २, १, २)। २ रावण, लंकापति (पउम ६६, | दद्दरिगा देखो दद्दरिया (राय ४६)। १५६ षड् ) १०) व पुं[पति] देखो इंद (पउम | दद्दरिया स्त्री [दे. दर्दरिका] १ प्रहार, प्राघात दब्भ पु[दर्भ] तृण-विशेष, डाभ, काश, १, १, ७२, ६० सुपा ४५) (णाया १, १६) । २ वाद्य-विशेष (राय)। कुशा (हे १, २१७) 'पुप्फ पु[पुष्प] दत्त वि [दत्त] १ दिया हुमा, दान किया | दद् पुदद्र] दाद, क्षुद्र कुष्ठ-रोग (भग | साँप को एक जाति (पएह १.१-पत्र ८) हुमा, वितीर्ण (हे १, ४६)। २ न्यस्त, दब्भायण ।न-दार्भायन, दायाचना स्थापित (जे १)। ३. स्व-नाम-श्यात | दददरपंदर प्रहार. प्राघात (धर्मवि | दाब्भयायण ) चित्रा नक्षत्र का गान (क' एक श्रेष्ठि-पुत्र (उप ५६२, ७६८ टी)। ४ सुज १०) २००५८टा)। ४ ८५) IN भरत-वर्ष के एक भावी कुलकर षुरुष (सम | ददुर [दर्दुर] १ भेक, मेढ़क, बेंग (सुर दब्भिय न [दार्भिक] गोत्र-विशेष (सुज १०, १५३)। ५ चतुर्थ बलदेव के पूर्व-जन्म का | १०, १८७: प्रासू ४५)। २ चमड़े से अवनद्ध १६ टी) नाम (सम १५३)। ६ भरत-क्षेत्र में उत्पन्न | मुहवाला कलश (पएह २, ५)। ३ देव- दम सक [दमय ] निग्रह करना, दमन करना, एक मर्ष-चक्रवर्ती राजा, एक वासुदेव (सम विशेष (णाया १, १३) । ४ राहु, ग्रह-विशेष रोकना। दमेइ ( स २८६)। कर्म. दम्मइ ६३)। ७ भरत-क्षेत्र में प्रतीत उत्सर्पिणी (सुज्ज १९)। ५ पर्वत-विशेष (णाया १, (उव) कवकृ, दमत (उव)। संकृ. दमिऊण काल में उत्पन्न एक जिन-देव (पव ७)। ८ १६)। ६ वाद्य-विशेष (द ७, ६१; गउड)। (कुप्र ३६३)। कृ. दमियव्व, दम्म, दमेयव्य एक जैनमुनि (आक)। ६ नृप-विशेष (विपा ७ न. दर्दुर देव का सिंहासन (णाया १, (काल; आचा २, ४, २; उव) १,७)। १० एक जैन प्राचार्य (कुप्र ६)। १३)वडिंसय न [वतंसक] देव-विशेष, दम पु [दम] १ दमन, निग्रह । २ इन्द्रिय११ न. दान, उत्सर्ग (उत्त १) सौधर्म देवलोक का एक विमान (णाया निग्रह, बाह्य वृत्ति का निरोध (पएह २, ४, दत्त न [दात्र दाँती, घास काटने का हँसिया | १, १३) । णंदि)। 'घोस पुं[घोष] चेदि देश के (दे १, १४)। दद्दुरी स्त्री [दर्दुरी] स्त्री-मेढक, भेकी (णाया एक राजा का नाम (णाया १, १६) दंत दत्ति स्त्री [दत्ति] एक बार में जितना दान १, १३)। पुं[°दन्त] १ हस्तिशीर्षक नगर के एक दिया जाय वह, अविच्छिन्न रूप से जितनी ददुल वि [दद्रुमत्] दाद-रोगवाला (सिरि राजा का नाम (उप ६४८ टी)। २ एक जैन भिक्षा दी जाय वह (ठा ५, १, पंचा १८) ११६) IV मुनि (विसे २७६६) धर पुं["धर] एक दत्तिय पुत्री [दत्तिका] ऊपर देखो, 'संखो | दधि देखो दहि (सम ७७; पि ३७६)। जैन मुनि का नाम (पउम २०, १९३) दत्तियस्स' (वव ९)। -दद्ध देखो दड्ढ (सुर २, ११२; पि २२२)।+दमग देखो दमय (णाया १, १६; सुपा दत्तिय पुदत्रिक वायु-पूर्ण चर्म (राज) दप्प दर्पा १ महंकार, अभिमान, गर्व ३८५ वव ३ निवू १५ बृहउव)/ दत्तिया स्त्री [दात्रिका] १ छोटी दाँती, घास (प्रासू १३२)। २ बल, पराक्रम, जोर (से | दमग वि दमक] दमन करनेवाला (निचू काटने का शस्त्र-विशेष (राज)। २ देनेवाली । ४, ३)। ३ घृष्टता, ढिठाई (भग १२, ५)। ) स्त्री, दान करनेवाली बी (चारु २) | । ४ अचि से काम का प्रासेवन (निचू १) दमण देखो दमणक (राय ३४. १२१)। दत्थर पुं[दे] हस्त-शाटक, कर-शाटक (दे दप्पण पु[दर्पण] १ काच, शीशा, आदर्श दमण न [दमन] १ निग्रह, दान्ति। २ वश (णाया १, १, प्रासू १६१)। २ वि. दर्प- में करना, काबू में करना; 'पंचिदियदमणपरा ददंत देखो दा।। जनक (पएह २, ४) (माप ४०)। ३ उपताप, पीड़ा (पएह १, For Personal & Private Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ पाइअसहमहण्णवो दमणक-दल ३)। ४ पशुमों को दी जाति शिक्षा (पउम दयावण । वि [दे] दीन, गरीब, रंक (दे | दरिहि । वि [दरिदिन , क] ऊपर देखो १०३, ७१) दयावन्न ५, ३५ भविः पउम ३३, ८६) दरिद्दिय 'अम्हे दरिद्दिणो, कह विवाहमंगलं दमणक) पुन [दमनक] १दौना, सुगन्धित दर सक[] आदर करना। दरइ (षड्)M रन्नो य पूयं करेमो' (महा सण पि २५७)। दमणगपत्रवाली वनस्पति-विशेष (पराह दर पुंन [दर] भय, डर (कुमा)। २ अ. | दरिदिय वि [दरिद्रित] दुःस्थित, जो धनदमणय) २, ५, पएण १ गउड)। छन्द- ईषत, थोड़ा, अल्प (हे २, २१५)। रहित हुमा हो (महा; पि २५७) 17 व (पिग) । ३ गन्ध-द्रव्य-विशेष (राज) दर पुन [दर] १ गुफा, कन्दरा। २ गतं, । दरिद्दीहूय वि [दरिद्रीभूत] जो निधन हुमा दमदमा प्रक [दमदमाय ] आडम्बर | गडा. गढा या गडहा, दरार, 'ते य दरा हो (ठा ३, १) करना । दमदमाइ, दमदमाइ (हे ३, १३८) मिढया ते य' (धर्मवि १४०) दरिस सक। दर्शय दिखलाना, बतलाना । दमय वि [दे. द्रमक] दरिद्र, रंक, गरीब दरिसइ, दरिसेइ (हे ४, ३२; कुमा; महा)। (दे ५, ३४; विसे २८४५) । हे २, २१५; बृह ३) वकृ. दरिसंत (सुपा २४)। कृ. दरिसणिज्ज, दमयंती स्त्री [दमयन्ती] राजा नल की पत्नी | दरंदर पु [दे] उल्लास (दे ५, ३७)। दरिसणीय (प्रौपः पि १३५, सुर १०, ९)। का नाम (पडि कुप्र ५४, ५६)। दरमत्ता स्त्री [दे] बलात्कार, जबरदस्ती दरिसण देखो दंसण = दर्शन (हे २, १०५)। दमि वि [दमिन्] जितेन्द्रिय (उत्त २२) । । (दे ५, ३७)। "पुर न [पुर] नगर-विशेष (इक)। दमिअ वि [दमित] निगृहीत, रोका हुमा | दरमल सक [मर्दय] १ चूर्ण करना, आवरणी स्त्री [वरणो] विद्या-विशेष (गा ८२३; कुप्र ४८) विदारना। २ आघात करना। दरमलड (पउम ५६, ४०) दमिल द्रविड] १ एक भारतीय देश । (भवि)। वकृ. दरमलंत (भवि) दरिसणिज्ज न [दर्शनीय] १ प्राकृतिक रूप । २ पुंस्त्री. उसके निवासी मनुष्य, द्राविड़ (कुप्र दरमलिय वि [मर्दित ] आहत, चूर्णित २ अवलोकन (तंदु ३६) १७२; इक; औप) । स्त्री. °ली (णाया १, (भवि)। दरिसणिज । देखो दरिस । २ न. भेंट, उप१; इकभोप) दरिसणीय हार; 'गहिऊण दरिसरणीयं दमेयव्व देखो दम दमय । दरवलिअ वि [दे] उपभुक्त (कुमा)। संपत्तो राइणो मूलं' (सुर १०,६) दरवल्ल दे] ग्राम-स्वामी, गाँव का मुखिया दरिसाव देखो दरिस । वकृ.दरिसावंत (उप दम्म [म्म] सोने का सिक्का, सोना- | (दे ५, ३६)4 "णिहेल्लग नै [दे] शून्य पृ१८८)। मोहर (उप पृ ३८७; हे ४, ४२२) । गृह, खाली घर (द ५, ३७) वल्लह पुं दरिसाव पुं[दर्शन ] दर्शन, साक्षात्कार दम्मत देखो दम = दमय । [वल्लभ] १ दयित, प्रिय (दे ५, ३७) । २ | 'एसो य महप्पा कइवयघरेसु दरिसावं दाऊण दय सक [दय ] १ रक्षण करना। २ कृपा कातर, डरपोक (षड् )M "विंदर वि [दे] पडिनियत्तई (महा); 'पईव इव दाउं खणमेगं करना । ३ चाहना । ४ देना । दयइ (प्राचा)। १ दीर्घ, लम्बा । २ विरल (दे ५,५२) | दरिसावं पुणोवि प्रईसणीहोई' (सुपा ११५)। वकृ. दअंत, अमाण। (से १२, ६४० ३, दरस (शौ) देखो दरिस। दरसेदि (प्राकृ दरिसाव पु[दर्शन दिखावा (वय १) १२; अभि १२) दरिसावण न [दर्शन] १ दर्शन, साक्षात्कार दय न [दे. दक] जल, पानी (दे ५, ३३; दरि न [दरी] कन्दरा, गुफाः 'दरीणि वा' (प्राव १)। २ वि. दर्शक, दिखलानेवाला बृह १)। सीम पुं [ सीमन् लवरण-समुद्र (प्राचा २, १०, २) (भवि) में स्थित एक प्रावास-पर्वत (सम ६८)। दर देखो दरी। अर पु चर] किनर दरिसि वि [दर्शिन्] देखनेवाला (उवा; पि दय न [दे] शोक, अफसोस, दिलगीरी (दे ५, (से ६, ४४) ।। १३५; स ७२७) ३३) दरिअ वि [प्त गविष्ठ, अभिमानी (हे १, दरिसिअ वि [दर्शित ] दिखलाया हमा दय देखो दव = दव (से १, ५१, १२, ६५) १४४ पास)। | (कुमाः उव) 'दय वि [°दय] देनेवाला (कप्पा पडि) । दरिअ वि [दीर्ण] १ डरा हुआ, भीत (कुमाः दरी स्त्री [दरी] गुफा, कन्दरा (णाया १,१ सुपा ६४५)। २ फाड़ा हुआ, विदारित से ६, ४४; उप पू २६८; स ४१३) दया स्त्री [दया] करुणा, अनुकम्पा, कृपा (अंत ७) दरुम्मिल्ल वि [दे] घन, निबिड (दे ५, ३७) । (दस ६,१) वर वि [पर] दयालु दरिअ (अप) पुं [दरिद्र छन्द-विशेष (पिंग) दल सक [दा] देना, दान करना, अपरण (पउम २६, ४०, उप पृ १६१) दरिआ स्त्री [दरिका] कन्दरा, गुफा (नाट- करना । दलइ (कप्पः कस); 'जं तस्स मोल्लं दयाइअ वि [दे] रक्षित (दे ५, ३५)। विक्र८४) तमहं दलामि' (उप २११ टी)। वकृ. दलदयालु वि [दयालु] दयावाला, करुण (हे १, दरिद्द वि [दरिद्र] १ निधन, निःस्व, धन- माण, दलेमाण (कप्पा णाया १, १६:१७७; १८० पउम १६, ३१; सुपा ३४० | रहित । २ दीन, गरीब (पान; प्रासू २३; पत्र २०४ठा ४, २-पत्र २१६) संकृ. श्रा १६) कप्पू) दलित्ता (कप्प) ६६) For Personal & Private Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दल-दव्व पाइअसहमहण्णवो दल प्रक [दल्] १ विकसना। २ फटना, दलिअ वि [दे] १ निकूणिताक्ष, जिसने दवहुत्त न [द] ग्रीष्म-मुख, ग्रीष्म काल का खण्डित होना, द्विधा होना; 'अहिसअरकि- टेढ़ी नजर की हो वह । २ न. उँगली (दे ५, प्रारम्भ (३५, ३६) रणणिरंबविमं दलइ कमलवणं (गा ५२) । काष्ठ, लकड़ी (दे ५, ५२, पात्र) दवाव सक [दापय् ] दिलाना। दवावेइ ४६५); "कुडयं दलइ' (कुमा) । वकृ. दलंत दलिजंत देखो दल = दलय । (महा) । वकृ. दवावेमाण (णाया १,१४)। (से १,५८) दलिद्द देखो दरिद (हे १,२५४; गा २३०) संकृ. दवावेऊण (महा)। हेकृ. दवावेत्तए दल सक [ दलय] चूर्ण करना, टुकड़े-टुकड़े (कस)। दलिहा प्रक[दरिद्रा] दुर्गत होना, दरिद्र होना। करना, विदारना। वकृ. 'निम्मूलं दलमागो दवावण न [दापन] दिलाना (निचू २) सयलंतरसत्तुसिन्नबल' (सुपा ८५)। कवकृ. दलिद्दाइ (हे १, २५४)। भूका. दलिद्दाईन दवाविअ वि [दापित] दिलाया हुआ (सुपा (संक्षि ३२) - दलिज्जत (से ६, ६२) । संकृ. दलिऊण १३०; स १६३; महा: उप पृ ३८५; दलिल्ल वि [दलवत् ] दल-युक्त, दलवाला | ७२८ टी)। (सण)। दल न [दल] १ सैन्यः लश्कर, फौज (कुमा)। दविज पुन [द्रव्य १ अन्वयी वस्तु, जीव दलेमाण देखो दल = दा २ पत्र. पत्ता, पंखड़ी या पंखुड़ी; 'तूहवल्लहस्स आदि मौलिक पदार्थ, मूल वस्तु (सम्म ६; गोसम्मि प्रासि पहरो मिलाणकमलदलों दव सक [द्र ] १ गति करना । २ छोड़ना। विसे २०३१)। २ वस्तु, गुणाधार पदार्थ (हेका ५१, गा ५, १००२५७, ३९६; दवए (विसे २८)। (ओघ ५, आचा; कप्प)। ३ वि. भव्य, ५६२, ५६१, सुपा ६३.)। ३ धन, दव [व] १ जंगल का अग्नि, वन की मुक्ति के योग्य (सूत्र १, २, १)। ४ भव्य, सम्पत्ति । ४ समूह, समुदाय, गरोह (सुपा | भाग (दे५, ३३)। २ वन, जंगल। ग्गि सुन्दर, शुद्ध (सून १, १६)। ५ राग-द्वेष से ६३८)। ५ खण्ड, भाग, अंश (से ६, ६२)। [नि] जंगल का अग्नि (हे १, १७७; विरहित, वीतराग (सूम १, ८) णुओग दलण न [दलन] १ पीसना, चूर्णन (सुपा प्राप्र)। पुं [नुयोग] पदार्थ विचार, वस्तु की १४. ६१९) । २ वि. 'चूर्ण करनेवाला (सुपा | दव मीमांसा (ठा १०)। देखो दव्य ।। द्रव] १ परिहास (दे ५, ३३) । २ २३४ ४६७, कुप्र १३२, ३८३)। पानी, जल (पंचव २) । ३ पनीली वस्तु, दविअ वि [द्रविक] संयम वाला, संयम युक्त, दलमाण देखो दल = दा ।। संयमी (प्राचा) रसीली चीज (विसे १७०७)। ४ वेगः 'दव दविअ वि [द्रवित] द्रव-युक्त, पनीली वस्तु दलमाण देखो दल = दलम् ।। दवचारी' (सम ३७)। ५ संयम, विरति | (ोघ) दलमल देखो दरमल। वकृ. दलमलंत(भवि)। (प्राचा) कर वि [कर] परिहासकारक दविड देखो दविल (सुपा ५८०) दलय देखो दलदा । दलयइ (प्रौप)। भवि. (भग ९, ३३) कारी, गारी स्त्री कारा] दविडी स्त्रीद्राविडी] लिपि-विशेष, तामिल दलइस्संति (प्रौप) । वकृ. दलयमाण (पाया एक प्रकार की दासी, जिसका काम परिहास भाषा (विसे ४६४ टी)। १,१-पत्र ३७, ठा ३.१-पत्र ११७)। जनक बातें कर जी बहलाना होता है (भग दविण न [द्रविण] धन, पैसा, संपत्ति (पाम: संकृ. दलइत्ता (प्रौप)। ११, ११ गाया १, १ टी. पत्र ४३)।। कप्प) दलय सक [दापय ] दिलाना दलयइ दवण न [दवन] यान, वाहन (सूमनि दविय न [द्रव्य १ घास का जंगल, वन में (कप्प)। १०८) घास के लिए सरकार से अवरुद्ध भूमि (आचा दलबट्ट देखो दरमल । दलवट्टइ (भवि) दवणय देखो दमणय (भवि)। २, ३, ३, १)। २ तृण आदि द्रव्य-समुदाय दलवट्टिय देखो दलमलिय (भवि) दवदव । [द्रवद्रवम् ] शीघ्र, जल्दी; । (सून २, २, ८) दलाव सक [दापय् ] दिलाना। दलावेइ दवदवस्ल 'दवदवचरा पमत्तजणा' (संबोध दविल पुं[द्रविड] १ देश-विशेष, दक्षिण (पि ५५२) । वकृ. दलावेमाग (ठा ४, २) १४. उत्त १७,८); 'दवदवस्स न गच्छेजा' (दस देश-विशेष, मद्रास प्रांत। पुंस्त्री. द्रविड़ देश का दलिअ वि [दलित १ विकसित, खिला हुमा ५, १, १४); 'जह वणदवो वणं दवद- | निवासी मनुष्य, द्राविड़ (पएह १,१-पत्र (से १२, १)। २ पीसा हुआ (पास); वस्स जलिमो खणेण निद्दहई' (धर्मवि ८६) १४)।। ‘दलिमनपसालितंडुलधवलमि अंकासु राईसु' दवदवा स्त्री [द्रवद्रवा] वेगवाली गति, दव्य देखो दविअ = द्रव्य (सम्म १२; भग; (गा ६६१)। ३ विदारित, खण्डित (३१, 'नाऊरण गयं खुहियं नयरजणो धाविमो दव- विसे २८ अरणः उत्त २८)। ६धन, पैसा. १५६, सुर ४, १५२) । दवाए' (पउम ८, १७३)। संपत्ति (पामा प्रासू १३१) । ७ भूत या दलिअ न [दलिक] १ चीज, वस्तु, द्रव्य (मोघ दवर पुं[दे] १ तन्तु, डोरा, धागा (दे ५, | भविष्य पदार्थ का कारण (विसे २८, पंचा ५५), 'जह जोग्गम्मिवि दलिए सव्वम्मिन ३५; भावम)। २ रज्जु, रस्सी (णाया ६)।८ गौण, अप्रधान । ६ बाह्य, अतथ्य कोरए पडिमा (विसे १६३४) । २ पण्डित (पंचा ४, ६)। द्विय पुं [र्थिक, स्थित, (बृह० क० भा० उ० ४)। दरिया स्त्री [दे] छोटी रस्सी (विसे) । स्तिक] द्रव्य को ही प्रधान माननेवाला For Personal & Private Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ पाइअसहमहण्णवो दव्व-दह पक्ष, नय-विशेषः ‘दव्वट्ठियस्स सवं सया १) धणु ([धनुष ] ऐरवत क्षेत्र के | दसण्ण पुं [दशाणे] देश-विशेष (उप २११ अणुप्पन्नमविणटुं' (सम्म ११, विसे ४५७) एक भावी कुलकर पुरुष (सम १५३)Mटी कुमा) कूड न [कूट] शिखर-विशेष "लिंग न [लिङ्ग] बाह्य वेष (पंचा ४) पएसिय वि [प्रादेशिक] दस अवयव- (आवम) "पुर न [पुर नगर-विशेष "लिंगि वि ["लिङ्गिन भेषधारी साधु (गु वाला (ठा १०)/पुर देखो "उर (महा) (ठा १०) भद्द पुं[भद्र] दशाणंपुर १०) लेस्सा स्त्री [ लेश्या शरीर आदि पुब्वि वि [ पूर्विन्] दस पूर्व-प्रन्थों का का एक विख्यात राजा, जो अद्वितीय पाडम्बर पौद्गलिक वस्तु का रंग, रूप (भग)। वेय अभ्यासी (ोघ १) बल ["बल] | से भगवान् महावीर को वन्दन करने गया था पुं[वेद] पुरुष आदि का बाह्य आकार भगवान् बुद्ध (पात्र हे १, २६२) म वि और जिसने भगवान् महावीर के पास दीक्षा (राज) यरिय पु. [चार्य] अप्रधान [म] १ दसवाँ (राज)। २ चार दिनों का ली थो (पडि), वइ पुं [पति दशाणं आचार्य, प्राचार्य के गुणों से रहित आचार्य लगातार उपवास (प्राचा पाया १, १; सुर देश का राजा (कुमा)। (पंचा ६) ४, ५५)५°मभत्तिय वि [मभक्तिक | दसतीण न [दे] धान्य-विशेष (पएण १दव्व न [द्रव्य] योग्यता, 'समयम्मि दब- चार दिनों का लगातार उपवास करनेवाला | पत्र ३४)।। सद्दो पायं जं जोग्गयाए रुढो त्ति, णिरूवच- (पएह २, ३) मासिअ वि [ माषिक] दसन्न देखो दसण (सत्त ६७ टी) रितो' (पंचा ६, १०)। दस मासे का तौलवाला, दस मासे का परि- | दसा स्त्री [दशा] १ स्थिति, अवस्था (गा दव्वहालया स्त्री [द्रव्यहलिका] वनस्पति माणवाला (कप्पू)। °मो स्त्री [°मी] १ | २२७, २८४ प्रासू ११०)। २ सौ वर्ष के विशेष (परण १-पत्र ३५) ।। दसवीं । २ तिथि-विशेष (सम २९) मुद्दि- प्राणी की दस-दस वर्ष की अवस्था (दसनि दधि देखो दव्वी (षड् ) याणंतग न [ मुद्रिकानन्तक] हाथ की १)। ३ सूत या ऊन का छोटा और पतला उंगलियों को दस अंगूठियाँ (प्रौप) मुह धागा (मोघ ७२५) । ४ ब. जैन मागमदबिदिअ न [द्रव्येन्द्रिय] स्थूल इन्द्रिय पुं [मुख रावण, राक्षस-पति (हे १, ग्रन्थ-विशेष (मणु) २६२, प्राप्र; हेका ३३४)4 °मुहसुअ पुं दसार पु[दशाह] १ समुद्रविजय प्रादि दश दव्वी स्त्री [दर्वी] १ की, कलछी, चमची, डोई [मुखसुत] रावण का पुत्र, मेघनाद आदि यादव (सम १२६; हे २, ८५; अंत २; (पास) । २ साँप को फन (दे ५, ३७) (से १३, ६०)°य देखो ग (ठा १०) वाया १, ४--पत्र ६९) २ वासुदेव, "अर कर [कर] साँप, सर्प (दे ५, | रत्त न [ रात्र] दस रात (विपा १, ३)M श्रीकृष्ण (णाया १, १६) । ३ बलदेव ३७ पराग १) 'रह पुं[रथ] १ रामचन्द्रजी के पिता का | (प्रावम) । ४ वासुदेव की संतति (राज)। दव्वी स्त्री [दे] वनस्पति-विशेष (पएण १ नाम ( सम १५२, पउम २०, १८३)।२ णेउ पुं["नेत्] श्रीकृष्ण (उव)। नाह प्रतीत उत्सपिणी-काल में उत्पन्न एक कुलकर | पुं [ नाथ] श्रीकृष्ण (पाम) पत्र ३४)। वइ पुं पुरुष (ठा दस त्रि. ब. [दशन] दस, नौ और एक (हे -पत्र ४४७) 4 रहसुय पुं [पति] श्रीकृष्ण (कुमा)। [ रथसुत] राजा दशरथ का पुत्र--राम, दसिया देखो दसा (सुपा ६४१) १, १६२: ठा ३, १-पत्र ११६; सुपा लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न (पउम ५६, ८७) २६७) V उर न [पुर] नगर-विशेष वअण पु[°वदन] राजा रावण (से १०, दसु पुं[दे] शोक, दिलगीरी (दे ५, ३४) (विसे २३०३) कंठ पुं[कण्ठ] रावण, ५) °वल देखो बल (प्राप्र) विह वि दसुत्तरसय न [दशोत्तरशत] १ एक सौ एक लंका-पति (से १५, ६१) कंधर पुं [विध] दस प्रकार का (कुमा)। वेआ- दस । २ वि. एक सौ दसवाँ, ११० वाँ [ कन्धर] राजा रावण (गउड) कालिय लिअ न [वैकालिक] जैन आगम-ग्रन्थ- (पउम ११०, ४५)। न [कालिक] एक जैन आगम-ग्रंथ (दसनि विशेष (दसनि १; एंदि) हा म [धा] | दसुय पुं[दस्यु लुटेरा, डाकू, चोर, तस्कर १) °ग न [क] दश का समूह (दं ३८ नव १२) गुण वि [गुण] दस दस प्रकार से (जी २४)4°णण पुं[नन] | (उत्त १०, १६) । राक्षसेश्ववर रावण (से ३, ६३) गुना (ठा १०) गुणिअ वि [गुणित] हिया | दसेर दे] सूत्र-कनक (दे ५, ३३)। स्त्री [हिका] पुत्र-जन्म के उपलक्ष्य में दस-गुना (भग; श्रा १०) 'ग्गीव पुं दस्स देखो दस = दर्शय् । कृ. दस्सणीअ [ग्रीव] रावण (पउम ७३, ८) दस किया जाता दस दिनों का एक उत्सव (कप्प)M (स्वप्न ६५) ।। मिया स्त्री ['दशमिका] जैन साधु का दसग वि [दशक] दस वर्ष की उम्र का दस्सण देखो दसण (मै २१) एक धार्मिक अनुष्ठान, प्रतिमा-विशेष (सम (तंदु १७)। दस्सु पु[दस्यु] चोर, तस्कर (श्रा २७) । १०० दिवसिय वि [°दिवसिक] दस दसण ( [दशन] १ दाँत, दन्त (भगः कुमा) दह सक [दह ] जलना, भस्म करना। दिन का (णाया १, १-पत्र ३७)4 'द्ध २ न. दंश, काटना (पव ३८) च्छय पुं दहइ (महा)। कर्म. दहिबइ (हे ४, २५६), पुंन [T] पाँच, ५ (सम ६०; णाया १, [च्छद] होठ, प्रघर, गोठ (सुर १२,२३४) दज्झइ (भाचा)। बकृ. दहंत (श्रा २८)। For Personal & Private Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दह - दाणपारमिया पाइअसद्दमहष्णवो पुं कबड, दवनंत, दुश्ममाण (नाट - मालती | दस्थिर ] [ दे] दधिवर, वही पर की दहित्थार । मलाई, खाद्य-विशेष ( 18) 1~ ३०पि २२२ ) ॥ ५, दद [द्र] हद, महा जलाशय झोल सरोवर (मग उवा खाया १, ४ पत्र २६ गुफा १२०) कुडिया की [फुल्लिका] वल्ली विशेष ( पण १) वई, वई स्त्री [ती] नदी - विशेष (ठा २, ३ - पत्र ८० ४) IV दह देखो दस ( हे १, २६२: दं १२; पि २६२: पउम ७८, २५० से १३, ६४; प्राप्र; से १४, १६; ३, ११; १०, ४ पउम ८, ४४; प्रात्र) I दहिभुद [] कपि वानर (दे २, ४४) दहिय ' [दे] पक्षि-विशेष 'वं लाभयतित्तिरिदहियमोरं मारंति श्रदोस वि के वि घोर (कुप्र४२७) दहणन [दन] १ बाह भस्मीकरण २ 9. अग्नि, वकि पर ११२२ सुपा ४७४; श्रा २८ ) V दहणी श्री [दहनी] विद्या-विशेष (पढम ७ (26) Iv दोशी श्री [दे] स्थाली, पलिया, परिया (x, 18) दहावण वि [ दाहक ] जलानेवाला (सण) | दहि न [दधि] दही, दूध का विकार (ठा ३ १; गाया १, १ ; प्रा . ) ( घण पुं ['घन] दधि - पिण्ड, अतिशय जमा हृना दही (परण १७- पत्र ५२९) । मुह ["मुख ] १) । २ एक १ द्वीप - विशेष ( पउम ५१, नगर ( पउम ५१, २ ) । ३ पर्यंत विशेष (राज) वण्ण, वन्न पु [पर्ण] १ एक राजा, नृप - विशेष (कुप्र ६९ ) । २ वृक्षविशेष (प्रौपः सम १५२ ; पण १ - पत्र ११) वासुवा श्री ["वासु] वनस्पतिविशेष (जीव ) बाण ' ["वाहन] सूप-विशेष (महा) सर [सर] बाह्यद्रव्य- विशेष, मलाई, (दे ३, २१, ५, ३६) दहि [दधि] १ दही, 'जुन्हा दहीय महणेण' (धर्मवि ५५); 'श्रयं तु दही' (सू २,१,१६ ) । २ तेला, लगातार तीन दिन का उपवास (संबोध ५८ ) IV दहिउप्फ न [दे] नवनीत, नैनूँ, मक्खन (दे 2,2x) 1 दहि [३] कैथ का पेड़ (दे ५, ३५ ) । दहिण देखो दाहिण (नाट वेणी ६७ ) । ~ विशेष पित्य या , दास [द] देना, उत्सर्ग करना । दाइ, देइ (भवि हे २, २०६३ श्राचा महा कस ) । भवि दाहं, दाहामि, दाहिमि (हे ३, १७० श्राचा)। कर्म, दिजइ ( हैं ४, ४३८) । वकृ. देश, दि तदेवमाण (मुर १, २१२० गा २३३ ४६४; हे ४, ३७९ बृह १३ गाया १, १४ – पत्र १०६) दिलंत, । कवकृ. दिज्जमाण, दीअमाण (गा १०१; सुर ३, ७११० ४ सम ३६ प ५०२ मा ३३) । संकृ. दच्चा, दाउँ, दाऊण (विपा १, १; पि ५८७ कुमा; उव) । हेकु. दाउं (उषा) - दायव्य देव (सुर १. ११० । सुपा २१३ ४४४ ५३२) हे देयं (४४४१) 1 दा देखो दग + 'थालग न [स्थालक ] जल से गीला थाल (भग १५ - पत्र ६८० ) M कलस ['कलश ] पानी का छोटा घड़ा 1 "कुंभ [" कुम्भ ] जल का घड़ावरग पु ['बारक] जल का पास-विशेष भाग १५ – पत्र ६८० ) 1 दाडं देखो दा = दा । दा ओरियवि [दाकोदरिक] जलोदर रोगवाला (विपा १, ७) 1v दाक्खव (अप) देखो दक्खव । दाक्खवइ ( प्राकृ ११९ ) 1 दाघ देखी दाह हि १, २६४) दाडिम न [दाडिम] फल-विशेष धनार (महा) दाडिमी [दाडिमी] अनार का पेड़ (पि स्त्री २४०) दाढगाल देखो ढगाल (सन १,४६ टी) | दाढा स्त्री [ दंष्ट्रा ] बड़ा दाँत, दन्त विशेष, चौड़, चहू, दाढ़ (हे २, १३०; गउड) दाडि [ष्ट्रिन] १ दाह्रावाला २. व । हिंसक पशु (वेणी ४६) र बराह " कि दाढी भयभीओ निययं गृहं केसरी रियई' (परम ७ १८ 1 = दा देखो ता = तावत् (से ३, १०) दाल देखी दाव दर्शय् वाएद्र (बिसे ८४४)| कमं. दाइजइ (विसे ४६० ) । कवकु. दाइ - जमाण (कप्प) IV दाअ पुं [दे] प्रतिभू, जामिनदार, जमानत करनेवाला (दे, १८) M दाअ पुं [दाय ] दान, उत्सर्ग ( खाया १, १ - पत्र ३७ ) । दाइ वि [दायिन् ] दाता, देनेवाला (उप १६२) दाइअ वि [दर्शित] दिखलाया हुआ (विसे १०१२) दाइअ पुं [दायिक ] १ पैतृक संपत्ति का हिस्सेदार (उप ४७; महा २ योशिक समान - गोत्रीय (कप्प ) । For Personal & Private Use Only ४५६ दाअ = दर्शय् 1 दाइमाण देखो वा इन [देवक] पाणिग्रहण के समय वर-वधू को दिया जाता द्रव्य (सिरि ४६९ ) । दाउ वि [दातृ] दाता, देनेवाला (महाः सं १ सुपा ११) बाढि श्री [दे] दादी, मुख के नीचे का भाग, श्मश्रु, ठुड्ढी के नीचे या ठुड्डी पर के बाल (दे २, १०१ ) 1 दादिभालि श्री [दृष्ट्रि कान्छि] [१] दादा ? [दंष्ट्रिकावलि दाढिगालि की पंक्ति । २ वस्त्र-विशेष (हनी) 1 दाण न [दान दाण पुंन [दान ] १ दान, उत्सर्ग, त्यागः 'एए हवंति दारणा' (पउम १४, ५४ कप प्रासू ४८; ९७ १७२ ) २ हाथो का मद (पाय षड् ; गउड) । ३ जो दिया जाय वह (e) "विश्व ["विरत] एक राजा (सुपा १००) साला श्री ["शाखा] सत्रागार (तो ८ ) । दाणंतरात्र न [ दानान्तराय ] कर्म-विशेष, जिसके उदय से दान देने की इच्छा नहीं होती है (राय) 1 दाणपारमिया श्री [दायपारमिता] दान, उत्सर्ग, समर्पण, 'देतस्स हिरन्नादी अभासा देहमादियं चेविती जा सादापारमिया (धर्म ७.१७) । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० पाइअसहमहण्णवो दाणव-दालिअ दाणव पुं[दानव] दैत्य, असुर, दनुज (दे १, दामी स्त्री [दामी] लिपि-विशेष (सम ३५) दारिआ नो [दारिका] लड़की (स्वप्न १५ १७७: अच्चु ४१ प्रासू ८६) ।। दामोअर पुं[दामोदर] १ श्रीकृष्ण वासुदेव | गाया १, १६ महा) । दाणविंद [दानवेन्द्र] असुरों का स्वामी | (ती ४)। २ अतीत उत्सर्पिणी काल में भरत- दारिआ स्त्री दि] वेश्या, वारांगना (दे ५, (णाया १,८ पउम ६२, ३६ प्रासू १०७)M क्षेत्र में उत्पन्न नववा जिनदेव (पब ७) ३८) दाणि स्त्री [दे] शुल्क, मुंगी (सुपा ३६० | दायग वि [दायक] दाता, देनेवाला (उप | दारिहन दारिद्रय] १ निधनता। २ दीनता ५४८) ७२८ टी महा; सुर २, ४४; सुपा ३७८) (गा ६७१; महा प्रासू १७३)। ३ पालस्य दागि। अ[इदानीम् ] इस समय, अभी दायण न [दान देना, 'दायणे अनिकाए निकाए म | (प्रामा)। दाणिं (प्रति ३६ स्वप्न २० हे १,२६ अब्भुट्ठाणेत्ति प्रावरे (सम २१), 'तवा- | दारिद्दिय विदारिद्रित] दरिद्रता-प्राप्त, दरिद्र दाणी । ४, २७७: अभि ३७; स्वप्न ३३)M विहारणं तह दागदाप (? य) णं' (सत्त २६) (पउम ५५, २५)। दाथ विद्वा.स्था १ द्वार पर स्थित। २ | दायणा स्त्री [दापना] पृष्ट अर्थ को व्याख्या | दारु न [दारु काष्ठ, लकड़ी (सम ३९; कुप्र पुं.प्रतीहार, द्वारपाल, चपरासी (दे६,७२) (बिसे २६३२) १:५; स्वप्न ७०), 'ग्गाम पुं [ग्राम दादलिआ स्त्री दे] अंगुली, उंगली (दे ५, | दायय देखो दायगः 'अजिअसंतिपायया हंतु ग्राम-विशेष (पउम ३०, ६०) दंडय पुन मे सिवसुहाण दायया' (प्रजि ३४) ["दण्डक] काष्ठ दण्ड, साधुनों का एक दापण न [दापन] दिलाना, 'अब्भुट्टाणं दायव्व देखो दादा उपकरण (कस) पव्वय पुं[पर्वत] अंजलिकरणं तहेवासणदापणं' (सत्त २६ टी) दायाद पुं [दायाद] पैतृक संपत्ति का भागी पर्वत-विशेष (जीव ३) पाय न [[पात्र] दार, पुत्र, सपिंड कुटुम्बी (आचा)। दाम न [दामन्] १ माला, सज् (पएह १, काष्ठ का बना हुआ भाजन (ठा ३, ३) ।। ४. कुमा)। २ रज्जु, रस्सी (गा १७२; हे | दायार वि [दायार] याचक, प्रार्थी (कप्प) । "पुत्तय पुं [पुत्रक] कठपुतला (अच्नु ८२) १, ३२)। ३ पुं. वेलन्धर नागराज का एक दार सक [दारय ] विदारना, तोड़ना, चूर्ण 'मड पुं[ मड] भरत-क्षेत्र के एक भावी प्रावास-पर्वत (राज)। बंत वि [वत् ] करना । वकृ. दारंत (कुमा) । जिन-देव के पूर्व जन्म का नाम (सम १५४) ।। मालावाला (कुमा)। | दार पुं[दे] कटी-सूत्र, काँची (दे ५, ३८) "संकम पुं[संक्रम] काष्ठ का बना हुमा दामट्टि [दामस्थि] सौधर्म देवलोक के इन्द्र दार पुन [दार] कलत्र, स्त्री, महिला (सम पुल, सेतु (आचा)। के वृषभ-सैन्य का अधिपति देव (इक) । ५० स १३७ सुर ७, २०१, प्रासु ६५) दारुअदारुक] १ श्रीकृष्ण वासुदेव का दामड्ढि पुं[दामद्धि] ऊपर देखो (ठा ५, 'दव्वेण अप्पकालं गहिया वेसावि होइ परदार' एक पुत्र, जिसने भगवान् नेमिनाथ के पास १-पत्र ३०३) (सुपा २८०) दीक्षा लेकर उत्तम गति प्राप्त की थी (अंत दामण न [दामन] बन्धन, पशुओं का रस्सी | दार न [द्वार] दरवाजा, निकलने का मार्ग ३)। २ श्रीकृष्ण का एक सारथि (रणाया १, से नियन्त्रण (पव ३८) (प्रौप; सुपा ३६७) गला स्त्री ["गिला] १६) । ३ न. काष्ठ, लकड़ी (पउम २६, ६) दामण स्त्रीन [दामनी] पशु को बाँधने को दरवाजे का पागल (गा ३२२) , त्थ दारुइज वि [दारुकीय काष्ठ-निर्मित, लकड़ी डोरी-रस्सी, पगहा (धर्मवि १४४)। स्त्री.. वि [स्थ] १ द्वार पर स्थित। २'.दरवान, का बना हुआ पव्वय पुं[पर्वत] काष्ठ ण (सुज १०, ८) प्रतीहार (बृह १; दे २,५२) ५°पाल, प्वाल का बना हुआ मालूम पड़ता पर्वत (राय ७५)।। पुं[°पाल] दरवान, द्वार-रक्षक (उप ५३० दामणी स्त्री [दामनी] १ पशुओं को बाधने दारुण वि [दारुग] १ विषम, भयंकर, भीषरण टी; सुर १०, १३९; महा) वालय, की रस्सी (भग १६, ६)। २ भगवान् कुन्थु (णाया १, २ पाप गउड)। २ क्रोध-युक्त, वालिय पुं. [ पालक, पालिक] दरवान, नाथ की मुख्य शिष्या (तित्थ)। ३ स्त्री और रौद्र (वव १)। ३ न. कष्ट, दुःख (स ३२२)। प्रतीहार (पउम १७, १६ सुपा ४६६)। पुरुष का रज्जु के आकारवाला एक शुभ ४ दुर्भिक्ष, अकाल (उप १३६ टी)। लक्षण (पएह २, ४ टी-पत्र ८४ पएह २, दार पुं[दारक] शिशु, बालक, बच्चा दारुणी स्त्री [दारुणी] विद्यादेवी-विशेष ४- पत्र ६८ ७६ २) दारग। (उप पृ ३०८, सुर १५, ११६ (पउम ७, १४.) । दामणा स्त्री [दे] १ प्रसव, प्रमूति । २ नयन, कप्प)। देखो दारय ।। दालग न [दारण] विदारण, खण्डन (पएह प्राख (दे ५, ५२) दारद्धंता स्त्री [३] पेटी, संदूक (दे ५, ३८) १,१) दामिय वि [दामित] संयमित, नियन्त्रित दारय वि [दारक करनेवाला, विध्वंसक दालि स्त्री [दे. दालि] १ दाल, दला हमा (सण) - (कुप्र १३०) । २ देखो दारग (कप्प) चना, अरहर, मूंग आदि अन्न (सुपा ११, दामिली स्त्री [द्राविडी] द्रविड़ देश की लिपि | दारिअ वि दारित] विदारित, फाड़ा हुमा सण) । २ राजि, रेखा, लकीर (मोघ ३२३)में निबद्ध एक मन्त्र-विद्या (सूप २, २) IV (पान) दालिअ न [दे] नेत्र, आँख (दे ५, ३८) For Personal & Private Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दालिद्द-दिअर पाइअसद्दमण्णवो ४६१ दालिद्द देखो दारिद (हे १, २५४ प्रासू दात देखो दाव - दापय ।। दाहिणिल्ल देखो दक्खिणिल्ल (पउम ७, १७ ७०) दास पु[दश दर्शन, अवलोकन ( षड्) विपा १,७)। दालिदिय देखो दारिदिय (सुर १३, ११६; दास पुं[दास] १ नौकर, कर्मकर (हे २, दाहिणी स्त्री [दक्षिणा] दक्षिण दिशा (कुमा)।। वजा १३८)। २०६; सुपा १२२, प्रासू १७५; स १८; दि वि. ब. [द्वि] दो, दो को संख्यावाला दालिम देखो दाडिम (प्राप्र)। कप्पू । २ धोबर, मल्लाह 'केवट्टो धीवरो दासो' (हे १, ६४ से ६, ५३) ।। 'दालियंब न [दालिकाम्ल] दाल का बना | (पान)। चेड, चेटग पुं[चेट] १ | | दि देखो दिसा (गा ८६६), करि पुं हुमा खाद्य-विशेष (पएह २, ५) ।। छोटी उम्र का नौकर । २ नौकर का लड़का [करिन् दिग्-हस्ती (कुमा) 'ग्गइंद पूं दालिया स्त्री [दालिका] देखो दालि (उवा) (महा; णाया १, २) सञ्च पुं[सत्य] [गजेन्द्र] दिग्-हस्ती (गउड) 'ग्गय पुं दाली देखो दालि (ओघ ३२३)।। श्रीकृष्ण (अच्चु १७) [गज] दिग् हस्ती (स ११३)(चक्कसार दाव सक [दय ] दिखलाना, बतलाना। दासरहि पुं[दाशरथि] राजा दशरथ का | न [चक्रसार] विद्याधरों का एक नगर दावइ, दावेइ (हे ४, ३२, गा ३१५)। वकृ. | पुत्र, रामचन्द्र (से १, १४)। (इक)म्मोह पुं[ मोह] दिशा-भ्रम (गा दावंत (गा ६२०) दासी स्त्री [दासी] नौकरानी (प्रौपः महा) ८८६) । देखो दिसा ।। दाव सक[दापय 1 दिलाना, दान करवाना। | दासीखबडिया स्त्री [दासीकटिका] जेन | दिअन दे] दिवस, दिन (दे ५, २६); दावेइ (कस)। वकृ. दात (पउम ११७, मुनियों की एक शाखा (कप्प) । __ 'राइंदिमाई' (कप्प) २६) सुपा ६१८) । हेकृ. दावेत्तए (कप्प)M दाह पुं[दाह] १ ताप, जलन, गरमी। २ | दिअ [द्विज] १ ब्राह्मण, विप्र (कुमा; दाब देखो ताव = तावत् (से ३, २६; स्वप्न | दहन, भस्मीकरण (हे १, २६४; प्रासू १८)। पामः उप ७६८ टी)। २ दन्त, दाँत । ३ १२; अभि ३९) ___३ रोग-विशेष (विपा १, १) जर पुं ब्राह्मण आदि तीन वर्ण–बाह्मण, क्षत्रिय दाव पुंदाव१ वन, जंगल । २ देव, देवता [ज्वर] ज्वर-विशेष (सुपा ३११) वर्क और वैश्य । ४ अण्डज, अण्डे से उत्पन्न (से ६, ४३)। ३ जंगल का अग्नि (पान) Mतिय वि [व्युत्क्रान्तिक] जिसको दाह होनेवाला प्राणी। ५ पक्षी। ६ वृक्ष-विशेष, 'ग्गि ' [नि] जंगल की आग (हे १, उत्पन्न हुआ हो वह (णाया १, १-पत्र टिंबरू का पेड़ (हे १, १४) राय पुं ६७) गणल, नल पुं[नल] जंगल | ६४) [ राज] १ उत्तम द्विज । २ चन्द्रमा (सुपा की आग (सण; सुपा १६७ पडि) | दाहं देखो दा = दा - ४१२: कुप्र १६) दावण न [दामन छान, पशुओं को पैर में दाग वि [दाहक] जलानेवाला (उवर ८१)Mदिक पुं[द्विक] काक, कौमा (उप ७६८ टो)। बांधने की रस्सी (कुप्र ४३६)। दाहण न [दाहन] जलाना, भस्म कराना दिअ पूं[द्विप] हस्ती, हाथी (हे २, ७६) । दावण न [दापन] दिलाना (सुपा ४६६) (पउम १०२, १६१) दिअ न [दिव] स्वर्ग, देवलोक (पिंग)। दावणया स्त्री [दापना] दिलाना (स ५१; दाहविय वि [दाहित] जलवाया हुआ, प्राग लोअ, लोग पुं [ लोक] स्वर्ग, देवलोक पडि) लगवाया हुआ (हम्मीर २७) ।। (पउम २२, ४५; सुर ७, १)। दावद्दव पुं [दाबद्रव] वृक्ष-विशेष (णाया १, दाहिण देखो दक्षिण (भग; कस; हे १, दिअ वि[दित] छिन्न, काटा हुप्रा (धम्मो ११-पत्र १७१)। ४५, २, ७२, गा ४३३, ८१६) दारिय १)। दावर द्वापर] १ युग-विशेष, तीसरा युग। वि [ द्वारिक] दक्षिण दिशा में जिसका दिअ वि [हत] हत, मार डाला हुपा, 'चंदेण २ न. द्विक, दो; 'नो तियं नो चेव दावर' द्वार हो वह । २ न. अश्विनी-प्रमुख सात | | व दियराएण जेण पाणंदियं भुवणं' (कुप्र (सूम १, २, २, २३)। जुम्म पुं[युग्म] नक्षत्र (ठा ७). पञ्चत्थिम वि १६)राशि-विशेष (ठा ४, ३---पत्र २३७) । [ पश्चिमीय] दक्षिण और पश्चिम दिशा | दिअंत ' [दिगन्त] दिशा का प्रान्त भाग दावाव सक [दापय् ] दिलाना। संकृ. के बीच का भाग, नैऋत कोण (भग)। (महा)। दावावेउं (महा) पह ' [°पथ] १ दक्षिण देश की ओर का दिअंबर वि [दिगम्बर १ नग्न, नंगा, वस्त्रदाविअ वि[दशित] दिखलाया हुआ, प्रदर्शित रास्ता । २ दक्षिण देशा 'गच्छामि दाहिणपह' | रहित । २ पुं. एक जैन संप्रदाय (भविः उवर (पाम, से १, ५३, ५, ८०) (पउम ३२, १३) पुरथिम वि[पूर्वीय] | १२२; कुप्र ४४३)। दाविअ वि [दापित] दिलाया हुआ (सुपा | दक्षिण और पूर्व दिशा के बीच का भाग, दिअझ पुं [दे] सुवर्णकार, सोनार (दे २४१) अग्नि-कोण (भग) वित्त वि [व] ५,३६) दावि वि [द्वावित] १ झराया हुमा, टप- दक्षिण में पावर्तवाला (शंख आदि) (ठा ४, | दिअधुत्त पुं[दे] काक, कौमा (दे ५,४१) काया हुआ। २ नरम किया हृमा (अच्चु । २–पत्र २१६) | दिअर पुं [देवर] पति का छोटा भाई (गा ५८) दाहिणा देखो दक्खिणा (ठा ६ सुज्ज १०)M ३५ प्राप्र पाप हे १,१४६, सुपा ४८७)। For Personal & Private Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ पाइअसद्दमहण्णवो दिअलिअ-दिण दिज्जंत देखो दादा दिअलिअ वि [दे] मूर्ख, अज्ञानी (दे ५, ३९)M दिगु पु[द्विगु] व्याकरण-प्रसिद्ध एक समास (सूत्र २,२) कीव पुं [क्लीब नपुंसकदिअली स्त्री [दे] स्थूणा, खम्भा, खूटी (अणुः पि २६८) विशेष (निचू ४) जुद्ध न [युद्ध] (पान) | दिग्गु देखो दिगु (अणु १४७) युद्ध-विशेष, पाँख की स्थिरता की लड़ाई दिअस पृन [दिवस दिन, दिवस (गउडा दिग्ध देखो दीह (हे २,६१; प्रातः संक्षि | (पउम ४,४४)। 'बंध पुं[बन्ध नजर पि २६४) कर [कर] सूर्य, रवि (से | १७; स्वप्न ६८ विसे ३४६७) गंगूल, बाँधना (उप ७२८ टी), म, मंत वि १,५३) 'नाह [ नाथ] सूर्य, सूरज [मत् ] प्रशस्त दृष्टिवाला, सम्यग-दर्शी (पउम १४, ८३)यर देखो कर (पास)। (सूत्र १, ४, १माचा)राय पुं[राग] देखो दिवस । | दिग्घिआ स्त्री [दीर्घिका] वापी, सीढ़ीवाला १ दर्शन-राग, अपने धर्म पर अनुराग (धर्म दिअसिअ न [दे] १ सदा-भोजन (दे ५, कूप-विशेष (स्वप्न ५६, विक्र १३६) । २)। २ चाक्षुष-स्नेह (अभि ७४) °ल्ल वि ४०)। २ अनुदिन, प्रतिदिन (दे ५, ४०, दिच्छा स्त्री [दित्सा] देने की इच्छा (कुप्र ['मत् ] प्रशस्त दृष्टिवाला (पउम २८, पान) २६६) २२)M°वाय पू[पात १ नजर डालना दिअह देखो दिअस (प्राप्र; पा) । दिज देखो दिअ = द्विज (कुमा)। (से १०, ५)। २ बारहवाँ जैन अंग-ग्रंथ (ठा दिअहुत्त न [दे] पूर्वाह का भोजन, दुपहर दिज वि [देय १ देने योग्य । २ जो दिया १०–पत्र ४६१)M वाय [वाद] का भोजन (दे ५, ४०) जा सके । ३ पुंन. कर-विशेष (विपा १, १) बारहवाँ जैन अंग-ग्रन्थ (ठा १% सम १) दिआ अ [दिवा] दिन, दिवस (पान गा "विपरिआसिआ स्त्री [विपर्यासिका, दिज्जमाण सादा-दा। ६६; सम १६; पउम २६, २६) "णिस "सिता] मति भ्रम (सम २५) "विस पुं न ["निश] दिन-रात, सदा (पिंग), 'राअ दिट्ठ वि [दिष्ट] कथित प्रतिपादित, कहा ["विष] जिसकी दृष्टि में विष हो ऐसा सर्प न [रात्र] दिन-रान, सर्वदा (सुपा ३१८)। हुआ (उप ७६८ टी) (से ४, ५०) सूल न [शूल] नेत्र का देखो दिवा ।। दिट्ठ वि [दृष्ट] १ देखा हुआ, विलोकित (ठा रोग-विशेष (णाया १, १३-पत्र १८१)। दिआहम पु [दे] भास पक्षी (दे ५, ३६) ४, ४ स्वप्न २८ प्रासू १११)। २ अभिमत | दिदि स्त्री [दृष्टि] तारा, मित्रा प्रादि योग-दृष्टि दिआइ देखो दुआइ (पान) (अणु)। ३ ज्ञात, प्रमाण से जाना हुआ (उप (सिरि ६२३) ८८२, बह १)। ४ न. दर्शन, विलोकन दिदिआ प्र[दिष्टया] इन पर्थो का सूचक दिइ स्त्री [इति] मशक, चमड़े का जल-पात्र (ठा २, १) पाढि वि [पाठिन् चरक(अनु ५; कुप्र १४६) । अव्यय-१ मंगल । २ हर्ष, आनन्द, खुशी। सुश्रुतादि का जानकार (मोघ ७४) दिउण वि [द्विगुण] दूना, दुगुना (पि २६८) ३ भाग्य से (हे २,१०४, स्वप्न १६ अभि 'लाभिय [°लाभिक दृष्ट वस्तु को ही दित देखो दादा ९५; कुप्र ६५) दिक्काण पुं [द्रेष्काण मेष प्रादि लग्नों का ग्रहण करनेवाला जैन साधु (पएह २, १) दिट्ठिआ स्त्री [दृष्टिका, जा] १ क्रियादसवाँ हिस्सा (राज) दिट न दृिष्ट] प्रत्यक्ष या अनुमान प्रमाण | विशेष--दर्शन के लिए गमन । २ दर्शन से दिक्ख सक [दीक्ष] दीक्षा देना, प्रव्रज्या से जानने योग्य वस्तु (धर्म सं ५१८६५१९)M कर्म का उदय होना (ठा २,१-पत्र ४०) देना, संन्यास देना, शिष्य करना। दिक्खे साहम्मव न [साधर्म्यवत् ] अनुमान का || दिट्ठीआ स्त्री [दृष्टीया] ऊपर देखो (नव १८)। (उव) । वकृ. दिक्खंत (सुपा ५२६) एक भेद (अणु २१२)। दिक्ख देखो देवख । दिक्खइ (पि ६६) 10 दिटुंत पुं[दृष्टान्त] उदाहरण, निदर्शन | दिट्टीवाओबएसिआ स्त्री [दृष्टिवादो पदेशिकी] संज्ञा-विशेष (दं ३३)।दिक्खा स्त्री [दीक्षा] १ प्रवज्या देना, दीक्षण (ठा ४, ४; महा) दितुल्लय वि [दृष्ट] देखा हुअा, निरीक्षित (मोघ ७ भा)। २ प्रव्रज्या, संन्यास (धर्म २) दिदुतिअ वि [द्राान्तिक] १ जिस पर दिक्खि वि [दीक्षित] जिसको प्रव्रज्या दी उदाहरण दिया गया हो वह (विसे १००५ (प्रावम)। दिड्ढ़। देखो दढ (नाट-मालती १७; से गई हो वह, जो साधु बनाया गया हो वह टी)। २ न. अभिनय-विशेष (ठा ४, ४ दिढ १, १४ स्वप्न २०५; प्रासू ६२) । (उव)। पत्र २८५) दिण पुन [दिन] दिवस (सुपा ५६ दं २७ दिगंछा देखो दिगिंछा (पि ७४) दिव्व देखो दक्ख = दृश् ।। जी ३५; प्रासू ६५), इंद पुं[इन्द्र] दिगबर देखो दिअंबर (इक; आवम)। दिहि स्त्री [दृष्टि] १ नेत्र, पाँख, नजर (ठा सूर्य, रवि (सण) कय पुं [कृत् ] दिगिया स्त्री [जिघत्सा] बुभुक्षा, भूख (सम ३, १; प्रासू १६७ कुमा)। २ दर्शन, मत सूर्य, रवि (राज) कर पु[कर] सूर्य, ४०, विसे २५६४ उत्त २; पाचू) ।। (पएण १६ ठा ४, १)। ३ दर्शन, भव- सूरज (सुपा ३१२), 'नाह पुं [नाथ] दिागच्छ सक [जिघत्स] खाने को चाहना । लोकन, निरीक्षण (अणु)। ४ बुद्धि, मति सूर्य, रवि (महा) बंधु [ बन्धु वकृ. दिगिच्छंत (माचाः पि ५५५) । (सम २५; उत्त २)। ५ विवेक, विचार सूर्य, रवि (पुप्फ ३७) मणि पु[मणि] दिदुिआ अष्टयामानन्द, खुशी। For Personal & Private Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन [ दिव् ] स्वर्ग, देखना २९४) । उड; भवि) Mदिद्ध वि रयणिकरि स्त्री दिणिंद-दिव्व पाइअसहमहण्णवो ४६३ सूर्य, दिवाकर (पाना से १, १८; सुपा २३) Mदिदिक्खा । स्त्री [दिदृक्षा] देखने को इच्छा दिव न [दिव् ] स्वर्ग, देवलोक (कुप्र ४३६; मुह न [मुख] प्रभात, प्रातःकाल | दिदिच्छा (राजः सुपा २६४)IV भवि)। (पाप) यर देखो कर (गउड; भवि) Mदिद्ध वि [दिग्ध] लिप्त (निचू १) दिवड्ढ वि [द्वयपाध] डेढ़ , एक और प्राधा | दिन्न देखो दिण्ण (महा: प्रासू ५७)। ७ श्री (विसे ६६३; स ५५सुर १०, २०८; सुपा (पउम १३८) वइ पु [पति सूर्य, गौतम स्वामी के पास पांच सौ तापसों के । ५८० भविः सम ६६ सुज्ज १:१०,ठा ६)। रवि (पि ३७६) साथ जैन दीक्षा लेनेवाला एक तापस (उप दिवस । देखो दिअस (हे १, २६३; उवः १४२ टी कुप्र २६३)। ८ एक जैन प्राचार्य दिवह दिणिंद पु[दिनेन्द्र] सूर्य, रवि (सुपा २४०)M प्रासू १२; सुपा ३०७; बेणी ४७). (कप्प) दिणेस पुं[दिनेश] १ सूर्य, सूरज (कप्पू)। पुहुत्त न [पृथकत्व] दो से लेकर नव | दिन्नय दत्तक] गोद लिया हुआ पुत्र (ठा | दिन तक का समय (भग) २ बारह की संख्या (विवे १४४)। १०-पत्र ५१६)। दिण्ण वि [दत्त] १ दिया हुआ, विताण दिप्प अक [दीप1१ चमकना। २ तेज | इत्ति पंकीति] चाण्डाल, भंगी (दे दिवा देखो दिआ (णाया १, ४, प्रासू १०) (हे १, ४६ प्राप्र; स्वप्न; प्रासू १६४)। होना । ३ जलना । दिप्पइ (हे १, २२३)। २ निवेशित, स्थापित (पएह १, १)। ५, ४१), "कर [कर] सूर्य, सूरज वक. दिप्पंत, दिप्पमाण (से ४, ८, सुर (उत्त ११) कित्ति [कीति] नापित, ३ पृ. भगवान् पार्श्वनाथ के प्रथम गण१४, ५६, महा: पएह १, ४, सुपा २४०); हजाम (कुप्र २८८)M°गर देखो कर (णाया धर (सम १५२)। ४ भगवान् श्रेयांसनाथ का 'दिप्पमाणे तवतेएण' (स ६७५) १, १; कुप्र ४१५) 'मुह न [°मुख पूर्वजन्मीय नाम (सम १५१)। ५ भगवान् दिप्प मक [ तृप्] तृप्त होना, सन्तुट होना। प्रभात (गउड) यर देखो कर (सुपा ३६ चन्द्रप्रभ का प्रथम गणधर (सम १५२)। दिप्पइ (षड्) ३१४)। यरत्थ न [करास्त्र] प्रकाश६ भगवान् नमिनाथ को प्रथम भिक्षा देनेवाला | दिप्प वि दीप्र] चमकनेवाला, तेजस्वी (से कारक अस्त्र-विशेष (पउम ६१, ४४) । एक गृहस्थ (सम १५१)। देखो दिन्न । १,६१४ दिण्ण देखो दइन्न (राज)। . दिवायर पु[दिवाकर] १ सिद्धसेन नामक दिप्प (अप) पुं [दीप १ दीपक । २ छन्द विख्यात जैन कवि और तार्किक । २ पूर्वधर दिण्णेल्लय वि [दत्त] दिया हुमा (प्रोघ २२ | विशेष (पिंग)।। मुनि (सम्मत्त १४१) भा. टी) दिप्पंत पु[दे] अनर्थ (दे ५, ३६) दिवि देखो देव; 'दिविणावि काणपुरिसेदित्त वि दीप्त १ ज्वलित, प्रकाशित (सम रणव एसा दासी अहं च विप्पवरो एगया दिट्ठोए १५३; अजि १४ लहुअ ११)। २ कान्ति- दिप्पमाण दिस्सामो' (रंभा) युक्त, भास्वर, तेजस्वी (पउम ६४, ३५; सम दिप्पिर देखो दिप्प = दीप्र (कुमा)। दिविअ [द्विविद] वानर-विशेष (से ४, ८, १२२) । ३ तीक्ष्णभूत, निशित (सम १५३, | दियाव सक [दा] देना । दियावेइ (पंचा १३, १३, ८२) लहुन ११)। ४ उज्ज्वल, चमकीला (गदि)। १२)। दिविज वि [दिविज १ स्वर्ग में उत्पन्न । २ ५ पुष्टः परिवृद्ध (उत्त ३४)। ६ प्रसिद्ध (भग | दिरय पुं[द्विरद हस्ती, हाथी (हे १,६४)M पुं. देव, देवता (अजि ७) २६, ३)। ७ मारनेवाला (मोघ ३०२) दिलंदिलिअ [दे] देखो दिल्लिदिलिअ (गा दिविट्ठ देखो दुविद (राज)। "चित्त वि ['चित्त हर्ष के अतिरेक से ७४१) | दिवे (अप) देखो दिवा (हे ४, ४१६ कुमा)। जिसको चित्त-भ्रम हो गया हो वह (बृह ३) दिलिदिल प्रक[ दिलदिलाय ] 'दिल दिल दिव्व वि [दिव्य] १ स्वर्ग-सम्बन्धी, स्वर्गीय दित्त वि [दन] १ गर्वित, गर्व-युक्त (प्रौप)। आवाज करना । वकु. दिलिदिलंत (पउम | (स २ ठा ३, ३) । २ उत्तम, सुन्दर, मनोहर . २ मारनेवाला । ३ हानि-कारक (प्रोष १०२, २१)। (पउम ८, २६१; सुर २, २४२, प्रासू ३०२) इत्त वि [ चित्त] २ जिसके मन दिलिवेढय पु[दिलिवेष्टक] एक प्रकार का १२८)। ३ प्रधान, मुख्य (प्रौप)। ४ देवमें गर्व हो । २ हर्ष के अतिरेक से जो पागल । ग्राह, जल-जन्तु की एक जाति (पएह १, १)M सम्बन्धी (ठा ४, ४० सूत्र १, २, २)। ५ न. हो गया हो वह (ठा ५, ३–पत्र ३२७) दिल्लिंदिलिअ [दे] बालक, शिशु, लड़का | दिल शपथ-विशेष, आरोप की शुद्धि के लिए किया दित्ति स्त्री [दीप्ति] कान्ति, तेज, प्रकाश (पानः (द ५, ४०) स्त्री. आः बाला, लड़की जाता अग्नि-प्रवेश प्रादि (उप ८०४)। ६ सुर ३, ३२; १०, ४६; सुपा ३७८)4म (गा ७४१)। प्राचीन काल में अपुत्रक राजा की मृत्यु हो वि[ मत् ] कान्ति-युक्त (गच्छ १) दिव उभ [दिव]१ क्रीड़ा करना। २ जाने पर जिस चमत्कार-जनक घटना से राजदित्ति स्त्री [दीप्ति उद्दीपन (उत्त ३२, १०) जीतने की इच्छा करना । ३ लेन-देन करना। गद्दी के लिए किसी मनुष्य का निर्वाचन होता ल्ल वि [मत् ] प्रकाशवाला (सम्मत्त ४ चाहना, वांछना। ५ प्राज्ञा करना। था वह हस्ति-गर्जन, अश्व-हेषा आदि प्रलौ१५६) दिवइ, दिवए (षड्)। किक प्रमाण (उप १०३१ टी माणुस दिप्पंत देखो दिप्प = दीप् ।। For Personal & Private Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिस्स ४६४ पाइअसद्दमण्णवो दिव्व-दीव न [ मानुष] देव और मनुष्य संबन्धी हकी- यत्ता (उप ७६८ टी), जत्तिय देखो कतों का जिसमें वर्णन हो ऐसी कथा-वस्तु यत्तिय (उवा), 'डाह ' [दाह ] दिस्सं देखो दक्ख = दृश । (स २) दिशाओं में होनेवाला एक तरह का प्रकाश, जिसमें नीचे अन्धकार और ऊपर प्रकाश दिव्य न [दिव्य] १ तेला, तीन दिन का दिस्समाण लगातार उपवास (संबोध ५८)। २ वि. देव दीखता है; यह भावी उपद्रवों का सूचक है दिस्समाण देखो दिससम्बन्धी; 'तिरिया मण्या य दिव्वगा, उव- (भग ३, ७) गुवाय पु [अनुपात] | दिस्सा देखो दक्ख = दृश् । सग्गा तिविहाहियासिया' (सूत्र १, २, २, दिशा का अनुसरण (परण ३) 'दंति पुंदिहा प [द्विधा] दो प्रकार (हे १, ६७)। ["दन्तिन्] दिग्-हस्ती (सुपा ४८) दाह दिहि स्त्री [धृति धैर्य, धीरज (हे २, १३१ कुमा)4 °म वि [ मत् ] धैर्य-शाली, देखो डाह (भग ३,७)"दि पुं[ आदि] | दिव्व देखो दइव (सुपा १६१) ।। मेरु पर्वत (सुज्ज ५) देवया स्त्री [°देवता] धीर (कुमा) दिव्व देखो देवः 'अमोहं दिव्वदंसणंति' (कुप्र दिशा की अधिष्ठात्री देवी (रंभा)'पोक्खि | दीअ देखो दीव = दीप (गा १३५, ५४७) ।। ११२) IV. पुं [प्रोक्षिन्] एक प्रकार का वानप्रस्थ दीअअ देखो दीवय (गा १३५) ।। दिव्वाग पु [दिव्याक सर्प की एक जाति (औप) भाअ ' [भाग] दिग्भाग दीअमाण देखो दादा। (पएण १) (भगः प्रौपः कप्पू: विपा १, १) मत्त न | दीण वि [दीन] १ रंक, गरीब (प्रासू २३)। दिव्वासा स्त्री [दे] चामुण्डा, देवी-विशेष ["मात्र] प्रत्यल्प, संक्षिप्त (उप ७४६) २ दुःखित, दुःस्थ (णाया १,१)। ३ हीन, (दे ५, ३६) 'मोह पु.["मोह] दिशा का भ्रम (निचू | न्यून (ठा ४, २)। ४ शोक ग्रस्त, शोकातुर दिस सक [दिश् ] १ कहना। २ प्रतिपादन | १६) यत्ता स्त्री [ यात्रा] देशाटन, मुसा- (विपा १, २; भग)। करना । दिसइ (भवि) । कवकृ. दिस्समाण फिरी (स १६५) यत्तिय वि[यात्रिकदीणार दीनार] सोने का एक सिक्का (राज) दिशामों में फिरनेवाला (उवा). लोय पु. (कप्पः उप पृ९४५६७ टी)। दिस पुं[दिश] एक देव-विमान (देवेन्द्र [ आलोक] दिशा का प्रकाश (विपा १,दीपक (अप) पूंन [दीपक छन्द-विशेष ६) वह पुं [पथ] दिशा-रूप मार्ग दीपक (पिंग) दिस वि [दिश्य] दिशा में उत्पन्न (से ६, (पउम २, १००)५ °वाल पुं [पाल] दीव देखो दिव = दिव । वकृ. 'अखेहि कुसु५०)। दिकपाल, दिशा का अधिपति (स ३६६)M लेहि दीवयं (सूस १, २, २, २३)। दिसा स्त्री [दृषद् ] पत्थर, पाषाण (षड्) "वेरमण न [विरमण] जैन गृहस्थ को दीव सक[दीपय ]१दीपाना, शोभाना। दिसाइ देखो दिसा-दि (सुज्ज ५ टी-पत्र पालने का एक नियम-दिशा में जाने-माने २जलाना। ३ तेज करना। ४ प्रकट करना। ७८) का परिमाण करना (धर्म २) व्वय न ५ निवेदन करना। दीवइ (प्रोष ४३४)। दिसा. श्री [दिश ] १दिशा, पूर्व प्रादि [व्रत] देखो वेरमण (प्रौप)। "सोस्थिय दीवेइ (महा)। वकृ. दीवयंत (कप्प)। दिसि : दस दिशाएँ (गउड; प्रासू ११३ पुं [स्वस्तिक] स्वस्तिक-विशेष (प्रौप)M संकृ. दीवेत्ता (ोघ ४३४; कस)। कृ. दिसी महा: सुपा २६७; पण्ह १, ४, सोवत्थिय पु[सौवस्तिक] १ स्वस्तिक विशेष, दक्षिणावर्त स्वस्तिक (पएह १, ४)। दं ३१, भग)। २ प्रौढ़ा स्त्री (से १, १६) दीव पुं[दीप] १ प्रदीप, दिया चिराग, प्रालोक २ न. एक देव-विमान (सम३८)। ३ रुचक अक्क न [चक्र] दिशाओं का समूह (गा (चारु १६; णाया १,१)। २ कल्पवृक्ष की पर्वत का एक शिखर (ठा ८) हत्थि पुं ५३०)। कुमरी स्त्री [कुमारी] देवी एक जाति, प्रदीप का कार्य करनेवाला [हस्तिन दिग्गज, दिशात्रों में स्थित ऐरवत विशेष (सुपा ४०)। कुमार पुं [कुमार] | कल्पवृक्ष (सम १७) °चंपय न [चम्पक] प्रादि पाठ हस्ती। हथिकूड पुन [हस्तिभवनपति देवों की एक जाति (परण २; दिया का ढकना, दीप-पिधान (भग ८, ६) कूट] दिशा में स्थित हस्ती के प्राकारवाला औप) कुमारी देखो कुमरी (महा: सुपा 'गली स्त्री [ली] १ दीप-पंक्ति। २ शिखर-विशेष, वे पाठ हैं—पद्मोत्तर, नील४१)। गअ [गज] दिग्-हस्ती (से दीवाली, पर्व-विशेष, कार्तिक वदी प्रमावस वन्त, सुहस्ती, अजनगिरि, कुमुद, पलाश, २, ३, १०, ४६) गइद [गजेन्द्र] (दे ३, ४३), वली स्त्री [वली] प्रवतंस और रोचनगिरि (जं ४) . दिग्-हस्ती (पि १३९) चक्क देखो "अक्क पूर्वोक्त ही प्रथं (ती १६) (मपा ५२३ महाचक्कवाल न चक्र- दिसेभ पु[दिगिभ] दिग्गज, दिग्-हस्ती दीव द्वीप] १ जिसके चारों ओर जल वाल] १ दिशाओं का समूह । २ तप-विशेष | (गउड)। भरा हो ऐसा भूमि-भाग (सम ५१ठा १०)। (निर १, ३) 'चर पुं[चर] देशाटन दिस्स वि [दृश्य] देखने योग्य, प्रत्यक्ष ज्ञान २ भवनपति देवों की एक जाति, द्वीपकुमार करनेवाला भक्त (भग १५) जत्ता देखो का विषय (धर्मसं ४२८)। देव (पएह १,४० औप)। ३ व्याघ्र (जीव १)। For Personal & Private Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीव-दीहोकर पाइअसहमहण्णवो ४६५ कुमार पु[कुमार] एक देव-जाति (भग हरिणों के आकर्षण करने के लिए रखी जाती | दर्शी (पउम २६, २२, ३१, १०६)/ 'बाहु १६, १३) ण्णु वि [ज्ञ] द्वीप के मार्ग है (दे ५, ५३)। ३ व्याघ-संबन्धी पिंजड़े | पुं[बाहु] १ भरत-क्षेत्र में होनेवाला तीसरा का जानकार (उप ५६५) सागरपन्नत्ति | में रखा हुआ तितिर पक्षी (रणाया १, १७- वासुदेव (सम १५४)। २ भगवान् चन्द्रप्रभ स्त्री [°सागरप्रज्ञप्नि] जैन ग्रन्थ-विशेष, जिसमें | पत्र २३२) का पूर्व जन्मीय नाम (सम १५१) भद्द द्वीपों और समुद्रों का वर्णन है (ठा ३, २- दीविआ स्त्री [दीपिका] छोटा दिया, लघु | पुं[भद्र] एक जैन मुनि (कप्प), मद्ध पत्र १२६) प्रदीप (जीव ३)। वि [व] लम्बा रास्तावाला (पाया १, दीव पुं[द्वीप सौराष्ट्र का एक नगर, दीव दीविञ्चग वि[प्या द्वीप में उप्पन्न, द्वीप में | १८; ठा २,१५,२-पत्र २४०) मद्ध (पव १११) । पैदा हुआ (णाया १, ११-पत्र १७१) । वि [द्ध] दीर्घकाल से गम्य (ठा ५,२-पत्र दीव दे] वृकलास, गिरगिट (दे ५, नीली दीवी (अप) देखो देवी (रंभा)। बोर्ड २४०) 'माउ न [युप् ] लम्बा आयुष्य ४१) । (ठा १०)। रत्त, "राय पुन ["रात्र] १ दीवअ ' [दीपक] १ प्रदीप, दिया, चिराग, | दीवी स्त्री [दीपिका] लघु प्रदीप, छोटा दिया | दीवि ब्व तीइ बुद्धी' (श्रा १६) । लम्बी रात । २ बहु रात्रिवाला, चिर-काल पालोक (गा २२२: महा)। २ वि. दीपक, (संधिः १७ राज) राय [राज एक प्रकाशक, शोभा-कारक (कुमा)। ३ न. छन्ददीवूसव पुं[दीपोत्सव] कातिक बदी अमावस, राजा (महा), लोग पुं [लोक] वनस्पति विशेष (अजि २६) दीवाली, दीपावली (ती १९)। का जीव (प्राचा)। लोगसत्थ न [लोकदीवंग पुदीपाङ्ग] प्रदीप का काम देनेवाले दीसंत । .४ देखो दक्ख = दृश् ।। शरू] अग्नि, वह्नि (प्राचा)वेयड्ढ j कल्पवृक्ष की एक जाति (ठा १०) ["वताव्य] स्वनाम-ख्यात पर्वत (ठा २, दीवग देखो दीवअ = दीपक (था ६पावम) दीह वि[दीघे] १ प्रायत, लम्बा (ठा ४, ३–पत्र ६९) सुत्त न [सूत्र १ बड़ा दीवड [दे] जलजन्तु-विशेष, ‘फुरतसिप्पि| २ प्रार; कुमा)। २ पुं. दो मात्रावाला स्वर सूता (निचू ५)। २ पालस्य, ‘मा कुरणसु संपुडं भमंतभीमदीवर्ड' (सुर १०, १८८)। (पिंग)! ३ कोशल देश का एक राजा (उप दीहसुत्तं परकजं सीयलं परिगणंतो' (पउम दीवण न [दीपन प्रकाशन (मोघ ७४)। पू ५८) काय [काय] अग्निकाय ३०, ६)1 °सेण पु[सेन] १ अनुत्तरदीवणा स्त्री [दीपना] प्रकाशः 'थुप्रो संतगुण (माचा०मध्य०१-१-४) कालिगी स्त्री देवलोक-गामी मुनि-विशेष (अनु २) । २ इस दीवणाहिं (स ६७५) । [कालिकी] संज्ञा-विशेष, बुद्धि-विशेष, जिससे अवसर्पिणी काल में उत्पन्न ऐरवत क्षेत्र के सुदोघं भूतकाल की बातों का स्मरण और दीवणिज वि [दीपनीय] १ जठराग्नि को पाठवें जिन-देव (पव ७) उ, उय वि सुदीर्घ भविष्य का विचार किया जा सकता बढ़ानेवाला (णाया १, १-पत्र १६)।२ [युष , "युक] लम्बी उम्रवाला, बड़ी है (दं ३२, विसे ५०८)। कालिय वि | शोभायमान, देदीप्यमान (पएण १७)। आयुवाला, चिरंजीवी (हे १, २० ठा ३, १; [कालिक] १ दीर्घ काल से उत्पन्न, चिरंतना दीवयं देखो दीव - दिव् । पउम १४, ३०) सण न [सन] शय्या 'दोहकालिएक रोगातकणं' (ठा ३, १)१२ दीवयंत देखो दीव = दीपय । (जं १) दीर्घकाल-सम्बन्धी (प्रावम) जत्ता स्त्री दीवायण पुं[द्वीपायन, द्वैपायन] एक दीह देखो दिअह (कुमा) [ यात्रा] १ लम्बी सफर। २ मरण, मौत प्राचीन ऋषि, जिसने द्वारका नगरी जलाने दीहंध वि [दिवसान्ध] दिन को देखने में (स ७२६)°डक वि [दष्ट] जिसको का निदान किया था, और जो अागामी असमर्थ; रत्तिधा दोहंधा' (प्रासू १७६)। सॉप ने काटा हो वह (निचू १) "णिद्दा उत्सर्पिणी काल में भरत-क्षेत्र में एक तीर्थंकर दीहजीह [दे] शंख (दे ५, ४१) स्त्री ["निद्रा] मरण, मौत (राज) दंत होगा (अंत १५; सम १५४० कुप्र ६३)। पुं[°दन्त] १ भारतवर्ष का एक भावी चक्र. दीपि? देखो दीह-पट्ट (सिरि ६०५)।दीविद्वीपिन् व्याघ्र की एक जाति, वर्ती राजा (सम १५४)। २ एक जैनमुनि दीहर देखो दीह = दीर्घ (हे २, १७१; सुर दीविअ चीता (गा ७६१ णाया १,१ (अंत) 'दसि वि [दर्शिन] दूरदर्शी, २, २१८ प्रासू ११३)4 °च्छ वि [°क्ष पत्र ६५; पएह १, १) दूरन्देशी (सुर ३, ३; सं ३२)। दसा लम्बी पाखवाला, बड़े नेत्रवाला (सुपा दीविअ वि [दीपित] १ जलाया हुआ (पउम श्री. ब. [°दशा] जैन ग्रंथ-विशेष (ठा १०) १४७)। २२, १७)। २ प्रकाशित (मोघ)। "दिदि वि [दृष्टि] १ दूरदर्शी, दूरन्देशी। दीहरिय वि [दीपित] लम्बा किया हुआ दीविअंग [दीपिकाङ्ग] कल्प-वृक्ष की एक २ श्री. दीर्घ-दर्शिता (धर्म १) पट्ठ पुंग (गउड)। जाति जो अन्धकार को दूर करता है (पउम | [पृष्ठ] १ सर्प, साँप (उप पृ २२)। २ दीहिया स्त्री [दीर्घिका] वापी, जलाशय-विशेष १०२, १२५)। यवराज का एक मन्त्री (बृह १) पास पु (सुर १, ६३; कप्पू)। दीविआ स्त्री [दे] १ उपदेहिका, क्षुद्र कीट- | [पार्थ] ऐरवत क्षेत्र के सोलहवें भावी जिन- दीहीकर सक [दी/ + कृ] लम्बा करना। विशेष । २ व्याष की हरिणी, जो दूसरे । देव (पव ७) पेहि वि [प्रेक्षिन] दूर- दोहीकरेंति (भग)। For Personal & Private Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ पाइअसहमहण्णवो दु- दुक्ख दु देखो तु (दे २,६४) दुआ दु देखो दव = द्रु । कर्म = दुयए ( विसे २८) । .. [], संख्या-विशेषवाला (हे १, ९४; कम्म १३ उवा) 1 [] वृक्ष, पेड़, गाछ ( उर ५) । दुइल्ल (प्रप) वि [ द्विचतुर ] दो-चार, दो या २ सत्ता, सामान्य (विसे २८ ) | चार (प्राकृ १२० ) । न [यावर्त ] दृष्टिवाद का एक सूत्र दुक्कप्प पुं [दुष्कल्प ] शिथिल साधु का आचरण, पतित साधु का प्राचार (पंचभा) । (सम १४७ ) | दुक्कम्म न [दुष्कर्मन् ] दुष्ट कर्म. मसदाचरण (सुपा २८ १२०; ५०० ) 1 दुइअ ) वि [द्वितीय] दूसरा (हे १, १०१ दुई | २०१६ कुमाः कप्पूः रयण ४) । दुक्कय न [दुष्कृत ] पाप-कर्म (परह १, १३ पि४६) [[]] दो बार दो दफा (सुर १६, दुउँछ सक [ जुगुप्स् ] निन्दा करना, दुउच्छ । घृणा करना। दुउंछर, दुउच्छ (हे ४, ४) ५५) [दुर] इर्थों का सूचक श्रव्यय१ प्रभाव । २ दुष्टता, खराबी । ३ मुश्किल, कठिनाई । ४ निन्दा ( हे २, २१७ प्रासू १५८ सुवा १४३३ गाया १, १३ उवा) 1 अन [ द्रुत ] अभिनय विशेष ( राय ५३) । दुअ न [द्विक] युग्म, युगल, जोड़ा (से ६२१) । दुअवि [] १ पीड़ित, हैरान किया हुप्रा (उप ३२० टी) । १ वेग-युक्त। ३ क्रिवि. शीघ्र, जल्दी (सुर १०,१०१६ अणु) । विलं बिअ न [विलम्बित ] १ छन्द- विशेष । २ अभिनय - विशेष (राय) 1 V अक्खर पुं [दे] पण्ड, नपुंसक (दे ५, ४७) I [क्षर ] १ श्रज्ञान, मूर्ख, अल्पज्ञ ( उप १२९ टी)। २ पुंस्त्री, दास, नौकर (पिंड)। श्री रिया (श्रावम) 1 दुअणुअ . [द्वणुक] दो परमाणुओं का स्कन्ध (विसे २१६२) । दुअर वि [दुष्कर] मुश्किल, कठिनाई से जो किया जा सके वह (प्राकृ २६) । दुअल न [दुकूल] १ वस्त्र, कपड़ा । २ महिन वस्त्र, सूक्ष्मवस्त्र (हे १, ११६; प्राप्र ) । देखो दुकूल 17 दुआ [[द्वजाति] ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यये तीन वर्ण (हे १, ६४; २, ७६ ) । दुक्ख वि [दुराख्येय ] दुःख से कहने योग्य (ठा ५, १ –पत्र २६६ ) 1 दुउण वि [द्विगु ] दूना, दुगुना (दे ५, ५५ है १, ६४) अर वि [तर] दूने से भी विशेष, अत्यन्त ( से ११,४७ ) I दुडणिअवि [ द्विगुणित ] ऊपर देखो (कुमा) 1 दुल देखो अल्ल (प्राप्र गा ५६६; षड् ) । ढुंडुह ) पु [दुन्दुभ] १ सर्प की एक जाति दुंदुभ ) (दे ७, ५१) । २ ज्योतिष्क-विशेष, एक महाग्रह (ठा २, ३ –पत्र ७८ ) IV दुंदुभि देखो दुंदुहि (भग ε, ३३) ।× दुंदुमिअ न [दे] गले की श्रावाज (दे ५, ४५; षड् ) IV दुमिण स्त्री [] रूपवाली स्त्री (दे ५, ४५) । दुंदुहि पुंस्त्रो [दुन्दुभि] वाद्य-विशेष (कप्पः सुर ३, ६८ उड; कुप्र ११८) ती [] सरित् नदी (दे ५, ४८ ) । दुक देखो दुक्कड (द्र ४७ ) IV दुकप देखो दुक्कप्प (पंच) दुकम्म न [दुष्कर्मन् ] पाप, निन्दित या काम (श्रा २७० भवि) 1 दुकाल ' [दुष्काल ] अकाल, दुर्भिक्ष (सिरि ४१) IV दुकिय देखो दुक्कय (भवि) 1 दुकूल पु [दुकूल ] १ वृक्ष विशेष । २ वि. दुकूल वृक्ष की छाल से बना हुआ वस्त्रादि ( गाया १, १ टी -पत्र ४३ ) | दुक्कंदिर वि [दुम्कन्दिन् ] अत्यन्त आक्रन्द करनेवाला (भवि) 1 [द्वार] दरवाजा, प्रवेश-मागं (दे १, ७६ ) 1दुक्कड न [दुष्कृत ] पाप कर्म, निन्द्य श्राचरण दुआरा वि [ दुराराध ] जिसका श्राराधन (सम १२५ हे १, २०६३ पडि) 1 कठिनाई से हो सके वह (परह १, ४) दुक्कडि वि [दुष्कृतिन्, क] दुष्कृत दुआरी [द्वारिका ] १ छोटा द्वार । २ | दुक्कडिय करनेवाला, पापी (सूत्र १, ५, गुप्त द्वार, अपद्वार (गाया १, २ ) । १०पि २१९ ) । For Personal & Private Use Only दुक्कर वि [दुष्कर ] जो दुःख से किया जा सके, मुश्किल, कष्ट साध्य (हे ४, ४१४; पंचा १३) आरअवि ['कारक ] मुश्किल कार्य को करनेवाला (गा १७३३ हे २, १०४) करण न [करण] कठि कार्य को करना (द्र ५७) कारिवि [कारिन] देखो आरअ ( उप १६० ) । दुक्कर न [ दे] माघ मास में रात्रि के चारों प्रहर में किया जाता स्नान (दे ५, ४२ ) । दुक्करकरण न [दुष्करकरण] पाँच दिन का लगातार उपवास (संबोध ५८ ) । दुक्कह वि [] अरुचि वाला, अरोचकी (सुर १, ३६ जय २७) । दुक्काल पुं [दुष्काल] प्रकाल, दुर्भिक्ष (सार्व ३०) । दुक्किय देखो दुक्कय (भवि ) Iv दुक्कुक्कणिआ स्त्री [दे] पीकदान, पदा (दे ५, ४८) । दुक्कुल न [दुष्कुल] निन्दित कुल (धर्मं १) । - दुक्कुह वि [दे] १ असहन, श्रसहिष्णु, चिड़चिड़ा । २ रुचि -रहित (दे ५, ४४) । दुक्ख पुन [दुःख] ९ असुख, कष्ट, पीड़ा, क्लेश, मन का क्षोभ (हे १, ३३), 'दुक्खा सारीरा माणसा व संसारे (संथा १०१; आचार भगः स्वप्न ५१ ५८ प्रासू ६६; १५२; १८२) । २ क्रिवि. कष्ट से, मुश्किल से, कठिनाई से (वसु) । ३ वि. दुःखवाला, दुःखित, दुःखयुक्त ( वै ३३) ४ खो. 'क्खा (भग) रवि [र] दुःख-जनक (सुपा १५) । तवि [[ ] दुःख से पीड़ित (सुपा १६१ स ६४२ प्रासू १४४ ) । "तगवेसण न [गवेषण] दुःख से पीड़ित की सेवा, प्रार्त्त शुश्रूषा (पंचा १९) । 'मज्जिय वि [ अर्जित दुःख ] जिसने दुःख उपार्जन किया हो वह (उत्त ६) राह वि [राध्य ] दुःख से प्राराधन-योग्य ( वज्जा Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुक्ख-दुग्गम्म पाइअसहमहण्णवो ४६७ ११२) वह वि [वह] दुःख-प्रद | दुक्खुर देखो दुखुर (पि ४३६) दुगुंछिय वि [जुगुप्सित] घृणित, निन्दित ( पउम १५, १००)। सिया स्त्री दुक्खुल देखो दुकुल (अवि २१)।। (ोष ३०२) [सिका] वेदना, पीड़ा (ठा ३, ४)। दुक्खोह ' [दुःखौघ] दुःख-राशि (पउम | दुगुंदुग पुं [दौगुन्दुक] एक समृद्धि-शाली देखो दुइ दुःख ।। १०३, १५५; सुपा १६१) ।। देव (सुपा ३२८)। दुक्ख न [दे] जघन, स्त्री के कमर के पीछे दुक्खोह वि [दुःक्षोभ कष्ट-क्षोभ्य, सुस्थिर दुगुच्छ देखो दुगुंछ । दुगुच्छइ (हे ४, ४, का भाग चूतड़ (दे ५, ४२)। (सुपा १६१, ६२६)। ___षड्)। वकृ. दुगुच्छंत (पउम १०५, दुक्ख अक [ दुःखाय ] १ दुखना, दर्द दुखंड वि [द्विखण्ड] दो टुकड़ेवाला (उप ७५) । कृ. दुगुच्छणीय (पउम ८०, २०). होना । २ सक. दुःखी करना; "सिरं में ६८६ टीः भवि) दुगुण देखो दुउण (ठा २, ४ पाया १, १; दुक्खेई' (स ३०४)। दुक्खामि (से ११, दुखुत्तो देखो दुक्खुत्तो (कस) दं सुर ३, २१६). १२७) । दुक्खंति (सूम २, २, ५५)। दुगुण सक [द्विगुगय] दुगुना करना। दुक्खड देखो दुक्कर (चार २३) दुखुर पुं [द्विखुर] दो खुरवाला प्राणी, गौ, दुगुणेइ (कुप्र २८५) भैस मादि (पएण १)। दुक्खण न [दुःखन] दुखना, दर्द होना. दुगुणिअ देखो दुउणिअ (कुमा)। (उप ७५१, सूअ २, २, ५५) दुग न [द्विक] दो, युग्म, युगल, जोड़ा (नव दुगुल्ल । देखो दुअल्ल (हे १, ११६ कुमाः १०. सुर ३, १७ जी ३३) दुक्खम वि [दुःक्षम] १ असमर्थ । २ दुगूल) सुर २, ८० २) दुगोत्ता स्त्री [द्विगोत्रा] वल्ली-विशेष दुगंछ देखो दुगुंछ । वकृ. दुगंछमाण (उत्त अशक्य (उत्त २०, ३१) ४, १३) । कृ. दुर्गछणिज्ज (उत्त १३, १६ | (पएण १)। दुक्खर देखो दुक्कर (स्वप्न ६६)। पि ७४) दुग्ग न [दे] १ दुःख, कष्ट (दे ५, ५३; दुक्खरिय पु [दुष्करिक ] दास, नौकर दुगंछणा स्त्री [जुगुप्सना] घृणा, निन्दा षड् परह १, ३)। २ कटी, कमर (द ५, (निचू १६) (पउम ६५, ६५) ५३) । ३ रण, संग्राम, युद्धः 'पाढतं च दुक्खरिया स्त्री [दुष्करिका ] १ दासी, दुगंछा स्त्री [जुगुप्सा] घृणा, निन्दा (पान; णेणिमं दुग्गं' (स ६३६) ।। नौकरानी (निचू १६) । २ वेश्या, वाराङ्गना कुप्र ४०७) । देखो दुगुंछा।। दुग्ग वि [दुर्ग] १ जहाँ दुःख से प्रवेश किया (निचू १) जा सके वह, दुर्गम स्थान (भग ७, ६ विपा दुक्खल्लिय (मप) वि [दुःखित] दुःख-युक्त दुगंध देखो दुग्गंध (पउम ४१, १७)। १, ३)। २ जो दुःख से जाना जा सके (सूप (भवि)। दुगच्छ। सक [जुगुप्स् ] घृणा करना, १, ५, १) । ३ पुंन. किला, गढ़, कोट दुगुंछ निन्दा करना। दुगच्छइ, दुगुछइ दुक्खविअ वि [दुःखित] दुःखी किया हुआ (षड्; हे ४, ४)। वकृ. दुगुंछंत, दुगुंछ (सुपा १४८) नायग ["नायक] किले (उप ६३४; भवि)।। माण ( कुमाः पि ७४; २१५ )। संकृ. का मालिक (सुपा ४६०)। दुक्खाव सक [ दुःखय् ] दुःख उपजाना, दुगुंछिउं ( धर्म २)। कृ. दुगुंछणीय दुग्गइ स्त्री [दुर्गति] १ कुगति, नरक आदि दुःखी करना। दुक्खावेइ (पि ५५६)। (पउम ४६, ६२) कुत्सित योनि (ठा ३, ३, ५, १; उत्त ७, वकृ. दुक्खावेत (पउम ५८, १८) । कवकृ. १८ प्राचा)। २ विपत्ति, दुःख । ३ दुर्दशा, दुगसंपुण्ण न [द्विगसंपूर्ण] लगातार बीस दुक्खाविज्जत (प्रावम)। बुरी अवस्था। ४ कंगाजियत, दरिद्रता (पराह दिन का उपवास (संबोध ५८)। दुक्खावणया स्त्री [दुःखना] दुःखी करना, १, १; महा ठा ३, ४ गच्छ २)। दुगुंछग वि [जुगुप्सक घृणा करनेवाला दर्द उपजाना (भग ३, ३)।(माव ३)। दुग्गठि स्त्री [ दुर्ग्रन्थि ] दुष्टप्रन्थि, गिरह, दुक्खि वि [दुःखिन्] दुःखी, दुःख-युक्त दुगुंछण न [जुगुप्सन] घृणा, निन्दा (पि | कठिन गांठ (पि ३३३) दुग्गंध ([दुर्गन्ध] १ खराब गन्ध । २ वि. (प्राचा)।--- खराब गन्धवाला, दुर्गन्धि (ठा ८-पत्र ४१८, दुक्खिअ वि [दुःखित] दुःख-युक्त, दुखिया दुगुंछणा देखो दुगंछणा (प्राचा)। सुपा २१: महा)। (हे २, ७२: प्राप्र प्रासू ६३; महा सुर दुगुंछा देखो दुगंछा (भग) कम्म न | दुग्गंधि वि [दुर्गन्धिन] दुर्गन्धवाला (सुपा ३, १६१) कर्मन् ] देखो पीछे का अर्थ (ठा १०)MY८७)। दुक्खुत्तर वि [दुःखोत्तार] जो दुःख से पार मोहणीय न ['मोहनीय] कर्म-विशेष, दुग्गम वि [दुर्गम] जो कठिनाई से जाना किया जाय, जिसको पार करने में कठिनाई जिसके उदय से जीव को अशुभ वस्तु पर जा सके वह (धर्मवि ४)। हो (पएह १, १)। घृणा होती है (कम्म १)। दुग्गम । वि [दुर्गम] १ जहाँ दुःख से दुक्खुत्तो प्र[द्विस् ] दो बार, दो दफा दुगुंछि वि [जुगुप्सिन् ] घृणा करनेवाला, दुग्गम्म प्रवेश किया जा सके वह (पउम (ठा ५,२-पत्र ३०८)। नफरत करनेवाला (उत्त २,४६,८) । ४०, १३, भोध ७५ भा); 'पडिवक्खनरिंद For Personal & Private Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ दुग्गम्' (सुर ६, १३५) । २ न. कठिनाई, मुश्किल (ठा ५. १) । दुग्गवि [दुर्गत] १ दरिद्र, घन-हीन (ठा ३, ३३ गा १८) । २ दुःखी, विपत्ति ग्रस्त ( पान ठा ४, १ – पत्र २०२ ) । दुग्गय न [दुर्ग] १ दरिद्रता । २ दुःख दोहंतो जिणदव्वं दोहिच्चं दुग्गयं लहइ' (संबोध ४ ) Iv grief [ह] जिसका ग्रहण दुःख से हो सके वह (उप पू ३६० ) 1दुग्या स्त्री [दुर्गा] १ पार्वती, गौरी, शिवपत्नी (पान सुपा १४८ ) । २ देवी- विशेष (चंड ) । ३ पक्षि- विशेष (श्रा १६) । दुग्गाई स्त्री [दुर्गादेवी ] १ पार्वती; दुग्गाऐवी शिव- पत्नी गौरी । २ देवी दुग्गादेई विशेष (षड् हे १, २७० दुग्गावी कुमा) । रमण [रमण ] महादेव, शिव (षड् ) V दुग्गासन [ दुर्मास ] दुर्भिक्ष, श्रकाल (पिंडभा ३३) । दुग्गज्म व [दुर्गा, दुर्ग ६ ] जिसका ग्रहण दुःख से हो सके वह (सुपा २५५) । - दुग्गूढ वि [दुढ] अत्यन्त गुप्त, अतिप्रच्छन्न ( वव ७ ) 1 दुग्गे देखो दुग्गज्म (से १, ३) दुग्ध व [दुर्घ] जिसका श्राच्छादन दुःख से हो सके वह ‘पारद्धसीउराहतर हवे प्रणदुग्धदुर्घट्टया' (१रह १, ३ - पत्र ५४) । Paras for [दुर्घ] दुःख से हो सके वह, वि क- साध्य (सुपा ९३ ३६५ ) । दुग्धड वि [दुर्घट] श्रसंगत (धर्मवि २७० ) । [दुर्घटित] १ दुःख से संयुक्त । २ खराब रीति से बना हुआ; 'दुग्धडिअमंचअस्स व खरणे खणे पाप्रपडणे' (गा ε१०) । दुग्घर न [दुर्गृह] दुष्ट घर (भवि) 1 दुग्धास [दुर्गास] दुर्भिक्ष, प्रकाल (बृह ३) । दुग्घुट्ट दुग्ध ं [दे] हस्ती, हाथी, करी (दे ५, ४४ भवि दुघण [दुघण] एक प्रकार का मुद्गर, मोंगरी, मुँगरा (पह १, ३ – पत्र ४४ ) | पाइअसद्दमहणव दुचक्क न [द्विचक्र] गाड़ी, शकट (श्रोघ ३८३ भाइ [[पति] गाड़ी का अधिपति या मालिक ( श्रोष ३८३ भा) IV दुचिष्ण देखो दुश्चिण्ण (पि ३४०; औप) । दुच्चन [ दौत्य ] दूत-कर्म, समाचार पहुँचाने का कार्य (पान)। दुश्च देखो दोश्च = द्वितीय, द्विस् (कप्प) Iv दुखंडि वि [] १ दुर्ललित । दुर्विदग्ध, दुः शिक्षित (दे ५, ५५; पात्र ) । दुबाल वि [दे] १ कलह-निरत, झगड़ाखोर । २ दुखरित, दुष्ट प्राचरणवाला । ३ परुषभाषी, कड़ा बोलनेवाला (दे ५, ५४ ) । दुश्चज्ज ) वि [दुस्त्यज ] दुःख से त्यागने दुच्चय योग्य (कुमाः उप ७६८ टो) 1 दुञ्चर वि [दुश्चर ] १ जिसमें दुःख से दुश्चरिअ ) जाया जाय वह (प्राचा) । २ दुःख से जो किया जाय वह (उप ६४८ टी; पउम २२, २०) ५ लाढ पुं [लाढ] ऐसा ग्राम या देश जिसमें दुःख से जाया जा सके (प्राचा) । दुच्चरिअन [दुश्चरित] १ खराब आचरण, दुष्ट वर्तन (पउम ३५, १२ उप पृ १११ ) । २ वि. दुराचारी (दे ५, ४५) दुच्चार वि[दुश्वार] दुराचारी (भवि दुश्चारि वि [दुश्चारिन्] दुराचारी, दुष्ट श्राचरणवाला (स ५०३) । स्त्री. णी (महा) 1 दुचिंतिय वि [दुश्चिन्तित ] १ दुष्ट चिन्तित (पउम ११८, ६७) । २ न खराब चिन्तन (पडि) 1 दुचिच्छिवि [दुश्चिकित्स] जिसका प्रतीकार मुश्किल से हो वह ( स ७६१) । दुश्चिण्ण न [ दुखीर्ण] १ दुष्ट प्राचरण, दुश्चरित । २ दुष्ट कर्म – हिंसा आदि । ३ वि. दुष्ट संचित, एकत्रित की हुई दुष्ट वस्तु (विपा १, १ गाया १, १६) । दुश्चेट्ठिय न [दुश्चेष्टित] खराब चेष्टा, शारीfor दुष्टाचरण (as; सुर ६, २३२) । दुच्छक्क वि [द्विषट्क] बारह प्रकार का 'मूलं दारं पइद्वाणं, श्राहारो भायणं निही । दुच्छक्कस्सावि धम्मस्स, सम्मत्तं परिकित्तियं' (श्रा ६) । For Personal & Private Use Only दुग्गय – दुज्झोसिअ दुच्छड्ड वि [दुश्छर्द] दुस्त्यज दुःख से छोड़ने योग्य; 'दुच्छड्डा जीवियासा जं' (धर्मवि १२४) 1 दुच्छेज वि [दुश्छेद ] जिसका छेदन दुःखसे हो सके वह (पउम ३१, ५९ ) । दुक्क देखो दुच्छक ( धर्मं २ ) 1 दु' [द्विजटिन ] ज्योतिष्क देव- विशेष, एक महाग्रह (ठा २,३) । दुजय देखो दुज्जय (महा) 1 दुजीह पुं [[द्वजिह व] १ सर्प सौंप । २ दुर्जन, खल पुरुष (सट्ठि ६३; कुमा) 1 दुज्जंत देखो दुज्जित (राज) । - दुज्जण पुं [दुर्जेन] खल, दुष्ट मनुष्य (प्रासू २०४०; कुमा) 1 दुज्जय वि [दुर्जय ] जो कष्ट से जीता जा सके ( उप १०३१ टी; सुर १२, १३८ सुपा RE) Iv दुज्जाय न [दे] व्यसन, कष्ट, दुःख, उपद्रव (दे ५, ४४ से १२, ६३; पान ) । दुजा व [दुर्जात] दुःख से निकलने योग्य वि ( से १२, ६३) । दुजा न [दुर्यात] दुष्ट गमन, कुत्सित गति (भाचा) । दुज्जित पुं [दुर्यन्त ] एक प्राचीन जैनमुनि (कप्प ) 1 दुज्जीवन [दुर्जीव] आजीविका का भय (विसे ३४५२) । दुज्जीह देखो दुजीह (वजा १५० ) । दुज्जेअ वि [दुर्जेय ] दुःख से जीतने योग्य (सुपा २४८; महा) 1 दुज्जोहण पुं [दुर्योधन] धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ पुत्र (ठा ४, २) । दुभवि [दोह्य] दोहने योग्य (दे १, ७) दुभाग न [दुर्ध्यान] दुष्ट चिन्तन ( धर्मं २ ) । - दुभाय वि [दुर्ध्यात ] जिसके विषय में दुष्ट चिन्तन किया गया हो वह (धर्मं २ ) । दुज्झोसय वि [दुर्जोष] जिसकी सेवा से हो सके ऐसा (भाचा) I दुझोसय वि [दुःक्षप] जिसका नाश कष्ट साध्य हो वह (भाचा) । दुज्मोसिअ वि [दुर्जोषित ] दुःख से सेवित ( भाषा) 1 Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुज्झोसिअ-दुद्धिणी पाइअसहमहण्णवो ४६६ दुज्झोसिअ वि [दुःक्षपित] कष्ट से नाशित | दुत्तर वि [दुस्तर] दुस्तरणीय, दुलंध्य (सुपा | दुद्दिवि [दुष्ट] १ बुरी तरह से देखा (प्राचा)। ४७; ११५; सार्ध ६१) हुआ। २ वि. दुष्ट दर्शनवाला (पएह १, दुढ वि [दुष्ट] दोष-युक्त, दूषित (ोघ १६२, दुत्तडी स्त्री [दुस्तटी] १ नदी । २ खराब २-पत्र २६)। पान; कुमा) प पु [त्मन् दुष्ट जीव, | किनारा वाली नदी (धम्म १२ टी) दुद्दिण न [दुर्दिन] बादलों से व्याप्त दिवस पापी प्राणी (पउम ६, १३६, ७५, १२) दुत्तव वि [दुस्तप] कष्ट से तपने योग्यः दुःख (मोघ ३६०)। दुट्ठ वि [दे. द्विष्ट] द्वेष-युक्त (प्रोघ ७५७; | से करने योग्य (तप) (धर्मा १७) दुद्देय वि [दुर्देय दुःख से देने योग्य (उप कस); 'प्ररत्तदुटुस्स' (कुप्र ३७१)। दुत्तार वि [दुस्तार दुःख से पार करने | ६२४) दुट्ठाण न [दुःस्थान] दुष्ट जगह (भग १६, योग्य, दुस्तर (से ३, २५, ६,१०) | दुद्दोलना स्त्री [दे] गौ, गैया (षड्)। दुत्ति प्रदे] शोध्र, जल्दी (दे ५, ४१; दुद्दोली स्त्री [दे] वृक्ष-पंक्ति, पेड़ों की कतार दुटठु अ[दुष्टु] खराब, असुन्दर (उप ३२० पान) (दे ५, ४३ पात्र) टी; निर १, १, सुपा ३१८ हे ४, ४०१)। दुत्तिइक्ख ! देखो दुतितिक्ख (प्राचाः दुद्ध न [दुग्ध] दूध, क्षीर (विपा १, ७) । दुण्णय देखो दुन्नय (विक्र ३७; प्रावम)। दुत्तितिक्ख । राज)। जाइ स्त्री [जाति] मदिरा-विशेष, जिसका दुण्णाम न [दुर्नामन्] १ अपकीति अपयश । दुत्तंड पुं [दुस्तुण्ड] दुमुख, दुर्जन, (सुपा | स्वाद दूध के जैसा होता है (जीव ३)। २ दुष्ट नाम, खराब पाख्या। ३ एक प्रकार 'समुद्द पुं ["समुद्र] क्षीर-तमुद्र, जिसका का गर्व (भग १२, ५)। दुत्तोस वि [दुस्तोष] जिसको संतुष्ट करना | पानी दूध की तरह स्वादिष्ट है (गा ३८८)। दुण्णिअ वि [दून पीड़ित, दुःखित (गा कठिन हो वह (दस ५)10 दुद्धंस वि [दुवस] जिसका नाश मुश्किल दुस्थ न [दे] जघन, स्त्री की कमर के नीचे से हो (सुर १, १२) दुण्णिअ देखो दुन्निय (राज)। | का भाग (दे ५, ४२)। दुद्धगंधिअमुह पुं[दे] बाल, शिशु, छोटा दुण्णिअत्थ न [दे] १ जघन पर स्थित | दुत्थ वि [दुःस्थ] दुर्गत, दुःस्थित (ठा ३, लड़का (दे ५, ४०)।वस्त्र । २ जघन, स्त्री के कमर के नीचे का ३; भवि) दुद्धगंधिअमुही स्त्री [दे] छोटी लड़की भाग (दे ५, ५३) । दुत्थ न दिौःस्थ्य] दुर्गति, दुःस्थता (सुपा | | (पान)। दुण्णिक वि [दे] दुश्चरित, दुराचारी (द| २४४); 'नहि विधुरसहावा हुति दुत्थेवि दुद्धट्टी । स्त्री [दे] १ प्रसूति के बाद तीन धौरा' (कुप्रा ५४)। दुद्धट्ठी दिन तक का गो-दुग्ध (पभा ३२)। दुण्णिकम वि [दुनिष्क्रम जहाँ से निकलना | दुस्थिअ वि [दुःस्थित] १ दुर्गत, विपत्ति- २ खट्टी छाछ से मिश्रित दूध (पव ४-गा कष्ट-साध्य हो वह (राज ७, ६) ग्रस्त (रयण ७५; भवि, सण)। २ निर्धन, | २२८) दुण्णिक्खित्त वि [दे] १ दुराचारी । २ | गरीब (कुप्र १४६) । दुद्धर वि [दुर्धर] १ दुवंह, जिसका निर्वाह कष्ट से जो देखा जा सके (दे ५, ४५)। दुत्थुरहंड पुंस्त्री [दे] झगडाखोर, कलह-शील मुश्किल से हो सके वह (पएण १-पत्र ४ दुण्णिक्खेव वि [दुर्निक्षेप] दुःख से स्थापन | (दे ५, ४७)। स्त्री. °डा (दे ५, ४७) । सुर १२, ५१)। २ गहन, विषम (ठा ६, करने योग्य (गा १५४) भवि) । ३ दुर्जय (कुमा)। ४ पुं. रावण का दुत्थोअ पुं[दे] दुर्भग, प्रभागा (दे ५, ४३) दुण्णिवोह देखो दुन्निबोह (राज)। एक सुभट (पउम ५६, ३०)।। | दुदंत वि [दुर्दान्त] उद्धत, दमन करने को दुण्णिमिअ वि [दुनियोजित] दुःख से | दुद्धरिस वि [दुर्धर्ष] १ जिसका सामना अशक्य, दुर्दमः 'विसयपसत्ता दुइंतइंदिया जोड़ा हुमा (से १२, १६) देहिणो बढे (सुर ८, १३८ गाया १,५; कठिनता से हो सके, जीतने को अशक्य (पग्रह दुण्णिमित्त न [दुनिमित्त] खराब शकुन, २, ५, कप्प)। सुपा ३८०) महा) अपशकुन (पउम ७०, ५)। दुईस वि [दुर्दश] दुरालोक, जो कठिनाई | दुद्धवलेही स्त्री [दे] चावल का आटा डालकर दुण्णिविट्ठ वि [दुर्निविष्ट] दुराग्रही, हठी, | से देखा जा सके (उत्तर १४१) पकाया जाता दूध (पव ४-गाथा २२८)। जिद्दी (निचू ११) । दुईसण वि [दुर्दर्शन] जिसका दर्शन दुर्लभ | दुद्धसाडी स्त्री [दे] द्राक्षा मिलाकर पकाया दुण्णिसीहिया स्त्री [दुर्निषद्या] कट-जनक हो वह (गा ३०)। जाता दूध (पव ४-गाथा २२८)। स्वाध्याय-स्थान (पएह २, ५) दुहम वि [दुर्दम] १ दुर्जय, दुनिवार (सुपा दुद्धिअ न [दे] कद्द, लौकीः गुजराती में दुण्णेय वि[दुर्जेय जिसका ज्ञान कष्ट-साध्य । २४); 'दुद्दमकद्दमें (श्रा १२) । २ पुं. राजा _ 'दूधो; (पाप)। हो वह (उवर १२८ उप ३२८)। अश्वनीव का एक दूत (आक) दुद्धिणिआ नो [दे] १ तैल मादि रखने दुतितिक्ख वि [दुस्तितिक्ष] दुस्सह, जो दुहम [दे] देवर, पति का छोटा भाई (दे| दुद्धिणो का भाजन । २ तुम्बी (दे ५, दुःन से सहन किया जा सके वह (ठा ५,१) ५, ४)। | ५४)। For Personal & Private Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० पाइअसहमहण्णवो दुद्धोअहि-दुप्पतर दुद्धोअहि पु[दुग्धोदधि] समुद्र-विशेष, | दुपएसिय वि [द्विप्रदेशिक] दो प्रदेशवाला दुप्पञ्चप्पेक्खिय वि [दुष्प्रत्युत्प्रेक्षित] ठीकदुद्धोदहि जिसका पानी दूध की तरह (भग ५, ७)। ठीक नहीं देखा हुआ (पव ६)। स्वादिष्ठ है, क्षीरसमुद्र (गा ४७५; उप २११ दुपक्ख पु[दुष्पक्ष] दुष्ट पक्ष (सूत्र १, ३, दुप्पजीवि वि [दुष्प्रजीविन् दुःख से जीनेटी)। वाला (दसचू १) दुद्धोलणी स्त्री [दे] गो-विशेष, जिसको एक | दुपक्ख न. [द्विपक्ष] १ दो पक्ष'(सूम १, २, दुप्पडित वि [दुष्प्रतिकान्त] जिसका बार दोहने पर फिर भी दोहन किया जा सके । ३)। २ वि. दो पक्षवाला (सूत्र १, १२, ५) प्रायश्चित ठीक-ठीक न किया गया हो वह ऐसी गाय, कामधेनु (दे ५, ४६)। दुपडिग्गह न [द्विप्रतिग्रह] दृष्टिवाद का (विपा १, १) दुधा देखो दुहा (अभि १६१)। एक सूत्र (सम १५७)। दुप्पडिगर वि [दुष्प्रतिकर] जिसका प्रतीकार दुनिमित्त देखो दुण्णिमित्त (श्रा २७)। दुपडोआर वि[द्विपदावतार दो स्थानों में दुःख से किया जा सके (बृह ३)। दुन्नय पुं [दुर्नय] १ दुष्ट नीति, कुनीति । २ जिसका समावेश हो सके वह (ठा २, १) दुप्पडिपूर वि [दुष्प्रतिपूर] पूरने के लिए अनेक धर्मवाली वस्तु में किसी एक ही दुपडोआर वि [द्विप्रत्यवतार] ऊपर देखो | अशक्य (तंदु)। धर्म को मानकर अन्य धर्म का प्रतिवाद करने- (ठा २, १) दुप्पडियाणंद वि [दुष्प्रत्यानन्द] १ जो वाला पक्ष (सम्म १५)। ३ वि. दुष्ट नीति, दुण्मज्जिय देखो दुप्पमन्जिय (सुपा ६२०)। किसी तरह संतुष्ट न किया जा सके। २ प्रति अन्याय-कारी (उप ७६८ टी) कारि वि दुपय वि [द्विपद] १ दो पैरवाला। २ पुं. कष्ट से तोषणीय (विपा १,१-पत्र ११; "कारिन् अन्याय करनेवाला (सुपा ३४६) मनुष्य (गाया १,८ सुपा ४०६)। ३न. ठा ४, ३) दुन्निकम देखो दोनिक्कम (भग ७,६ टीगाड़ी, शकट (मोघ २०५ भा)। दुप्पडियार वि [दुष्प्रतिकार] जिसका प्रतीपत्र ३०७) दुपय पुं[द्रपद] कांपिल्यपुर का एक राजा | कार दुःख से हो सके वह (ठा ३, १-पत्र दुन्निग्गह वि [दुर्निग्रह जिसका निग्रह दुःख (णाया १, १६) ११७ ११६ स १८४; उव)। से हो सके वह, अनिवार्य (उप पृ १५३)। दुपरिश्चय वि [दुष्परित्यज] दुस्त्यज, दुःख | दुप्पडिलेह वि [दुष्प्रतिलेख] जो ठीक-ठीक से छोड़ने योग्य (उप ७६८ टीः रयण ३४) न देखा जा सके वह (पव ८४)। दुन्निबोह वि [दुर्निबोध] १ दुःख से जानने दुपरिच्चयणीय वि [दुष्परित्यजनीय, दुप्पडिलेहण न [दुष्प्रतिलेखन] ठीक-ठोक योग्य । २ दुर्लभ (सूत्र १, १५, २५) । दुष्परित्यज] ऊपर देखो (काल)। नहीं देखना (आव ४)। दुनिमित्त देखो दुण्णिमित्त (श्रा २७)। दुपस्स देखो दुप्पस्स (ठा ५, १-पत्र | दुप्पडिलेहिय वि [दुष्प्रतिलेखित] ठीक से दुन्नियन [दुर्नीत दुष्ट कर्म, दुष्कृत; 'बंधति २६६) नहीं देखा हुआ (सुपा ६१७)। दुपुत्त [दुष्पुत्र] कुपुत्र, कपूत (पउम २६, दुप्पडिवूह वि [दुष्प्रतिबृह] १ बढ़ाने को दुन्नियत्थ वि [दे] विट का भेषवाला, निन्द- | २३) । अशक्य । २ पालने को अशक्य (प्राचा)। नीय वेष को धारण करनेवाला, केवल जघन दुपेच्छ वि [दुष्प्रेक्ष] दुर्दशं, प्रदर्शनीय दुप्पडिहण वि [दुष्प्रतिबृहण] ऊपर पर ही वस्त्र-पहिना हुआ 'लोए वि कुसंसग्गी- (भवि)। देखो (प्राचा)। पियं जणं दुनियत्थमइवसणं निदई' (उव) दुप्पइ पुं[दुष्पति] दुष्ट स्वामी (भवि) दुप्पणिहाण न [दुष्प्रणिधान] दुष्प्रयोग, दुन्निरिक्ख वि [दुनिरीक्ष्य जो कठिनाई से दुप्पउत्त वि [दुष्प्रयुक्त] १ दुरुपयोग करने- अशुभ प्रयोग, दुरुपयोग (ठा ३, १, सुपा देखा जा सके वह (कप्प; भवि)। वाला (ठा २, १-पत्र ३९)। २ जिसका दुन्निवार वि [दुर्निवार रोकने के लिए दुरुपयोग किया गया हो वह (भग ३, १) दुप्पणिहिय वि [दुष्प्रणिहित] दुष्प्रयुक्त, अशक्य, जिसका निवारण मुश्किल से हो जिसका दुरुपयोग किया गया हो वह (सुपा दुप्पउलिय। वि [दुष्प्रज्वलित ठीक-ठीक दुप्पउल्ल नहीं पका हुमा, अधपका (उवा, ५५८) । सके वह (सुपा १२३, महा)पंचा १) दुप्पणीहाण देखो दुप्पणिहाण; 'कयसामइदुन्निवारणीअ वि [दुर्निवारणीय, दुर्निवार] दुप्पओग ([दुष्प्रयोग दुरुपयोग (दस ४) प्रोवि दुप्पणीहाणं' (सुपा ५५३)। ऊपर देखो (स ३४३; ७४१)। | दुप्पओगि वि [दुष्प्रयोगिन् दुरुपयोग | दुप्पणोल्लिय वि [दुष्प्रणोद्य] दुस्त्यज, छोड़ने दुन्निसण्ण वि [दुनिषण्ण खराब रीति से करनेवाला (पएह १,१-पत्र ७)। को अयोग्य (सूम १, ३, १)। बैठा हुआ (ठा ५, २-पत्र ३१२) । दुप्पक वि [दुष्पक्व] देखो दुप्पउल्ल (सुपा दुप्पण्णवणिज्ज वि [दुष्प्रज्ञापनीय] कष्ट दुप देखो दिअ-द्विप (राज)। ४७२)। से प्रबोधनीय (माचा २, ३, १)। दुपएस वि [द्विप्रदेश १ दो अवयववाला। | दुप्पक्खाल वि [दुष्प्रक्षाल] जिसका प्रक्षा- दुप्पतर वि [दुष्प्रतर] दुस्तर (सूत्र १, २ पुं. द्वथणुक (उत्त १) लन कष्टसाध्य हो वह (सुपा ६०८)। For Personal & Private Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुप्पधंस-दुब्भिक्ख पाइअसद्दमण्णवो दुप्पधंस वि [दुष्प्रधर्ष] दुर्धर्ष, दुर्जय (उत्त दुप्पहंस वि [दुष्प्रध्वंस्य जिसका नाश | | दुब्बलिय न [दौर्बल्य] श्रम, थाक, थकावट &; पि ३०५)। कठिनाई से हो सके वह (गाया १, १८-- (पाचा २, ३, २, ३)। दुप्पमज्जण न [दुष्प्रमार्जन] ठीक-ठीक | पत्र २३६) ।। दुब्बुद्धि वि [दुर्बुद्धि] १ दुष्ट बुद्धिवाला, सफा नहीं करना (धर्म ३)। | दुप्पहंस वि [दुष्प्रधृष्य ] अजेय, दुर्जय खराब नियतवाला (उप ७२८ सुपा ४४, दुप्पमज्जिय वि [दुष्प्रमार्जित अच्छी तरह । (गाया १,१८)। ३७६)। २ श्री. खराब बुद्धि, दुष्ट नियत से सफा नहीं किया हुमा (सुपा ६१७)। दुप्पह वि [दुष्प्रभ] जो दुःख से सूझ सके | (था १४)। दुप्पय देखो दुपय = द्विपद (सम ६०)। | वह; दुर्गम (मोह ७२) दुब्बोल्ल पुंदे] उपालम्भ, उलहना या दुप्पयार वि [दुष्प्रचार] जिसका प्रचार दुप्पाय न [दुष्पाप] तप-विशेष, पायंबिल उलाहना (दे ५, ४२)। दुष्ट माना जाता है वह, अन्याय-युक्त (कप्प)| तप (संबोध ५८)। दुब्भ वि [दुग्ध] दोहा हुआ। २ न. दोहन दुप्परक्कत वि [दुष्पराक्रान्त] बुरी तरह दुप्पिउ पुं[दुपितृ दुध पिता (सुपा ३८७; (प्राकृ ७७)। से आक्रान्त (प्राचा)। भवि)। दुब्म देखो दुह = दुह ।। दुप्परिअल्ल वि [दे] १ अशक्य (द ५, ५५; | दुप्पिच्छ देखो दुपेच्छ (सुर २, ५ सुपा | | दुब्भग वि [दुर्भग] १ कमनसीब, प्रभागा । पाम से ४, २६, ६, १८ गा १२२) । २ | १२) २ अप्रिय, अनिष्ट (पएह १, २; प्रासू १४३)। द्विगुण, दुगुना । ३ अनभ्यस्त, अभ्यास-रहित दुप्पिय वि [दुष्प्रिय] अप्रिय भासि णाम, नाम न [ नामन] कर्म-विशेष (द ५, ५५) । वि [ भाषिन] अप्रिय-वक्ता (सुपा ३१४)। जिसके उदय से उपकार करनेवाला भी लोगों दुप्परिइअ वि [दुष्परिचित] अपरिचित दुप्पुत्त देखो दुपुत्त (पउम १०५, ७२; भविः को अप्रिय होता है (कम्म ?; सम ६७) । (से १३, १३) कुप्र ४०५) करा स्त्री [करा] दुभंग बनानेवाली विद्यादुप्परिचय देखो दुपरिच्चय (उत्त ८)। | दुप्पूर वि [दुष्पूर] जो कठिनाई से पूरा | विशेष (सूत्र २, २) दुप्परिणाम वि [ दुष्परिणाम] जिसका | किया जा सके (स १२३)।। दुब्भग्ग न [दौर्भाग्य] दुर्भगता, लोक में परिणाम खराब हो, दुर्विपाक (भवि)। दुप्पेक्ख देखो दुपेच्छ (सण)। अप्रियता (पिंड ५०२) दुप्परिमास वि [दुष्परिमर्प] कष्ट-साध्य | दुम्भरणि स्त्री [दुर्भरणि] दुःख से निर्वाह, दुप्पेक्खणिज्ज वि [दुष्प्रेक्षणीय] कष्ट से | स्पर्शवाला (से ६, २४)। __ होउ अजणणो तेसि दुब्भरणी पडउ तदु. दर्शनीय (नाट–वेणी २५) । दुप्परियत्तण देखो दुप्परिवत्तण (तंदु)। दरस्सावि' (सुपा ३७०) । टुप्पेच्छ देखो दुपेच्छ (महा)। दुप्परिल्ल वि दे] दुराकर्ष, 'मालिहिम दुब्भाव पुं [दुर्भाव] १ हेय पदार्थ (पउम दुप्परिल्लपि णेइ रएणं धणु वाहो' (गा दुप्पोलिय देखो दुप्पउलअ (श्रा २१) । ८६, ६६)। २ असद्-भाव, खराव-असर १२२)। दुप्फड वि [ दुष्फ 1 मुश्किल से फटने | 'पिसणे व जेगा को भावो' (मर ३. दुप्परिवत्तण वि [दुष्परिवर्तन १ जिसका योग्य (त्रि ८३)। परिवर्तन दुःव से हो सके वह । २ न. दुःख दुप्फरिस वि [दुःस्पर्श] जिसका स्पर्श खराब | दुब्भाव पुं [द्विभाव विभाग, जूदाई (सुर से पीछे लौटना (तंदु)। दुप्फास हो वह (पउम २६, ४६; १०१, ३,१६) दुप्पवंच पुं[दुष्प्रपञ्च दुष्ट प्रपंच (भवि) दुफास .७१, ठा भग) दुब्भाव [द्विर्भाव] द्वित्व, दुगुनापन (चेइय दुप्पवण [दुष्पवन] दुष्ट वायु (भवि)। | दुफास वि द्विस्पश] स्निग्ध पार दुफास वि [द्विस्पर्श] स्निग्ध और शोत | दुप्पवेस वि [दुष्प्रवेश जहाँ कष्ट से प्रवेश आदि अविरुद्ध दो सर्शों से युक्त (भग)। दुब्भासिय न [दुर्भाषित] खराब वचन हो सके वह (णाया १,१; पउम ४३, १२ | दुब्बद्ध वि [दुर्बद्ध] खराब रोति से बंधा | (पउम ११८, ६७ पडि)। स २५:; सुपा ४५५) । तर वि [तर] | हुप्रा (प्राचा २, ६, ३)। दुब्भि पुंन [दुरभि] १ खराब गन्ध (सम प्रवेश करने को अशक्य (पएह १, ३- दुब्बल वि [दुर्बल निर्बल, बल-होन (विपा ४१)। २ वि. अशुभ, खराब, असुन्दर (ठा पत्र ४५)। १,७; सुपा ६०३; प्रासू २३), पच्चव- | १)। ३ वि. खराब गन्धवाला, दुर्गन्धि दुप्पसह पुं[दुष्प्रसह] पंचम अरे के अन्त | मित्त पुंन [प्रत्यवमित्र] दुर्बल को मदद | (प्राचा)। गंध [गन्ध] पूर्वोक्त ही अर्थ में होनेवाला एक जैन प्राचार्य, एक भावी करनेवाला (ठा ) (ठा १, प्राचाः णाया १, १२) सद्द पुन. जैन सूरि (उप ८०६)। दुब्बलिय वि [दुर्बलिक] दुर्बल, निबल [शब्द] खराब शब्द (णाया १, १२) दुप्पस्स वि [ दुर्दर्श ] जो मुश्किल से | (भय १२, २), पूसमित्त पुपुष्य- | दुभिक्ख पुंन [दुर्भिक्ष] १ दुष्काल, अकाल, दिखलाया जा सके वह (ठा ५, १ टी- मित्र] स्वनाम-प्रसिद्ध एक जैन प्राचार्य | वृष्टि का प्रभाव (सम ६०; सुपा ३५८); पत्र २६६) (ठा ७ ती ७)। 'मासन्ने रणरंगे, मूढे खते तहेव दुभिक्खे । For Personal & Private Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ जस्स मुहं जोइज्जइ, सो पुरिसो महीयले विलो' (रण ३२) । २ भिक्षा का अभाव (ठा ५, २) । ३ वि. जहाँ पर भिक्षा न मिल सके वह देश श्रादि (ठा ३, १-पत्र ११८ ) 1दुब्भिज्ज देखो दुब्भेज्ज (पउम ८०, ६) IV दुब्भूइ स्त्री [ दुर्भूति ] शिव, अमंगल (बृह ३ ) ~ दुब्भूयन [दुर्भूत] १ नुकशान करनेवाला जन्तु - टिडी वगैरह (भग ३, २ ) । २ न. अशिव, अमंगल ( जीव ३) । दुब्भूय वि [दुर्भूत] दुराचारी (उत्त १७, १७) । भेज [दुर्भेद्य ] तोड़ने को अशक्य (पि ८४ २८७; नाट - मृच्छ १३३) दुब्भेय वि [दुर्भेद] ऊपर देखो (राय) 1 दुभग देखो दुब्भग (नव १५ ) ।-दुभव न [द्विभव ] वर्तमान और प्रागामी जन्म, 'बुभवहइसज्जो' (श्रा २७) दुभाग [द्विभाग] भाषा, अँध (भग ७, १) । दुम सक [ धवलय् ] १ सफेद करना। २ चूना श्रादि से पोतना । दुइ (हे ४, २४) । दुमसु (गा ७४७ ) । वकृ. दुमंत (कुमा) । दुम [द्र्म] १ वृक्ष, पेड़, गाछ (कुमा; प्रासू ६; १४६ ) । २ चमरेन्द्र के पदातिसैन्य का एक अधिपति (ठा ५, १ - पत्र ३०२ इक) । ३ राजा श्रेणिक का एक पुत्र, जिसने भगवान् महावीर के पास दीक्षा लेकर अनुत्तर देवलोक की गति प्राप्त की थी ( अनु २ ) । ४ न एक देव- विमान (सम ३५) कंतन [कान्त ] एक विद्याधरनगर (इ) पत्तन [पत्र ] १ वृक्ष का पत्ता । २ 'उत्तराध्ययन' सूत्र का एक अध्ययन ( उत्त १० ) पुफिया स्त्री [पुष्पिका ] 'दशवैकालिक' सूत्र का पहला अध्ययन (दस १) राय [राज ] उत्तम वृक्ष (ठा ४, ४) ४ सेण पुं [ सेन] १ राजा श्रेणिक का एक पुत्र, जिसने भगवान महावीर के पास दीक्षा लेकर अनुत्तर देवलोक में गति प्राप्त की थी ( अनु २ ) । २ नववें बलदेव और वासुदेव के पूर्व जन्म के धर्म-गुरु (सम १५३, पउम २०, १७७) पाइअसहमणवो दुमंतय पु ं [दे] केश-बन्ध, धम्मिल्ल - बंधी चोटी, जूड़ा (दे ५, ४७) दुब्भिज्ज-दुरभवसिय दुम्महिला स्त्री [दुर्महिला ] दुष्ट स्त्री (श्रो ४६४ टी) । दुमण न [ धवलन] चूना आदि से लेपन, सफेद करना (परह २, ३) । दुमणी स्त्री [दे] सुधा, मकान आदि पोतने का श्वेत द्रव्य-विशेष, चूना (दे ५, ४४) । दुमत वि [ द्विमात्र ] दो मात्रावाला स्वर(हे १, ६४ ) 1 दुमास वि [द्वैमासिक ] दो मास का, दो मास - सम्बन्धी ) सण) 1 दुमिअवि [धवलित ] चुना आदि से पोता हुआ, सफेद किया हुआ (गा ७४७; सुज्ज २०) 1 दुमिल देखो दुम्मिल (पिंग) 1 दुमुह [द्विमुख] एक राजर्ष (उत्त ९) । दुमुह देखो दुम्मुह = दुर्मुख ( पि ३४० ) । दुमुहुत्त न [दुर्मुहूर्त] खराब मुहूर्त, दुष्ट समय (सुपा २३७) । दुम्मुह देखो दुमुह = द्विमुख (महा) - दुम्मुह पुं [दुर्मुख ] बलदेव का धारणी देवी से उत्पन्न एक पुत्र, जिसने भगवान नेमिनाथ के पास दीक्षा लेकर मुक्ति पाई थी ( अंत ३, पह १, ४) । मक्ख वि [दुर्मोक्ष] जो दुःख से छोड़ा दुम्मुह पुं [दे] मर्कट, वानर, बन्दर (दे ५, जा सके (सूत्र १,१२ ) 1 ४४) । V दुम्म देखो दूम = दावय् । दुम्मइ (भवि ) । दुम्मेति, दुम्मेसि (गा १७७; ३४० ) | कर्म. दुम्मिज (गा ३२० ) M दुम्मेह वि [दुर्मेधस् ] दुर्बुद्धि, दुर्मति (पह १, ३) । - दुम्मोअ वि [दुर्मोक ] दुःख से छोड़ा योग्य (अभि २४४ ) 1 दुयणु देखो दुअणुअ ( धर्मसं ६४० ) 1 दुरइक्कम वि [दुरतिक्रम] दुर्लव्य, जिसका उल्लंघन दुःख साध्य हो वह (प्राचा) । दुरइक्कमणिज्ज वि [दुरतिक्रमणीय] ऊपर देखो (गाया १, ५) । दुरंत वि [दुरन्त] १ जिसका परिणामविपाक खराब हो वह, जिसका पर्यन्त दुष्ट हो वह (गाया १, ८ परह १, ४ –पत्र ६५ स ७५०, उवा) । २ जिसका विनाश कष्ट - साध्य हो वह (तंदु) 1 दुम्माण पुं [दुर्मान ] झूठा अभिमान, निन्दित गर्व (अच्चु ५४ ) । दुम्मार [दुर्मार] विषम मार, भयंकर ताड़न; 'दुम्मारेण मनो सोवि' (श्रा १२) । दुम्मारि स्त्री [दुर्मारि] उत्कट मारी-रोग (संबोध २) । दुम्मारुय पुं [दुर्मारुत] दुष्ट पवन (भवि ) । दुम्मिअवि [दून] उपतापित, पीड़ित (गा ७४; २२४ ४२३ भवि का ३० ) । ~ दुम्मिल स्त्रीन [दुर्मिल] छन्द-विशेष । स्त्री. °ला (पिंग) 1 दुम्मइ वि [दुर्मति] दुर्दुद्धि, दुष्ट बुद्धिवाला (श्रा २७ सुपा २५१ ) । दुम्मणी श्री [दे] झगड़ाखोर स्त्री (दे ५, ४७; षड् ) । दुम्मण वि [दुर्मनस्] १ दुर्मना, खिन्नमनस्क, उद्विग्न-चित्त, उदास (विपा १, १ सुर ३, १४७) । २ दीन, दोनतायुक्त ३ द्विष्ट, द्वेष-युक्त (ठा ३, २ - पत्र १३० ) । दुम्मण क [दुर्मनायू ] उद्विग्न होना, उदास होना । वकृ- डुम्मणाअंत, दुम्मणायमाण (नाट - महावी ६६, मालती १२८ रण ७९ ) 1 दुरंदर वि[दे] दुःख से उत्तीर्णं (दे ५, ४६ ) | दुम्मणिअ न [दौर्मनस्य ] उदासी, उद्वेग, दुरवख वि [दरक्ष ] जिसकी रक्षा करना चिन्ता, बेचैनी (दस ६, ३) कठिन हो वह (सुपा १४३) । दुम्मणिअ न [दौर्मनस्य ] दुष्ट मनो-भाव, मन का दुष्ट विकार, दुर्जनता ( दस १, ३, ८) । दुरक्खर वि [दुरक्षर ] पुरुष, कठोर, कड़ा (वचन) (भवि) 1 दुरग्गह पुं [दुराग्रह] कदाग्रह (कुप्र ३७१) | दुम्मय पुं [द्रमक ] भिखारी, भीखमंगा (दस दुरज्भवसिय न [ दुरध्यवसित] दुष्ट चिन्तन ७, १४) IV (सुपा ३७७)। For Personal & Private Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुरणुचर-दुरोदर पाइअसहमहण्णवो ४७३ दुरणुचर वि [दुरनुचर] जिसका अनुष्ठान दुरायार वि [दुराचार] १ दुराचारी, दुष्ट दुरुत्त न [दुरुक्त] दुष्टोक्ति, दुष्ट वचन कठिनता से हो सके वह, दुष्करः ‘एसो जईण | आचरणवाला (सुर २, १९३, १२, २२६ (साध १०१) धम्मो दुरणुचरो मंदसत्ताण' (सर १४, ७५; वेणी १७१)। २ . दुष्ट माचरण (भवि)Mदुरुत्त वि[द्विरुक्त] १ दो बार कहा हुमा, ठा ५, १-पत्र २६६; गाया १,१)। | दुरायारि वि [दुराचारिन्] ऊपर देखो | पुनरुक्त । २ दो बार कहने योग्य (रंभा)। दुरणपाल वि [दुरनुपाल] जिसका पालन | (भवि)।। कष्ट-साध्य हो (उत्त २३)।। दुराराह वि [दुराराध] जिसका पाराधन दुरुत्तर वि [दुरुत्तर] १ दुस्तर, दुर्लघ्य दुरप्प पुं [दुरात्मन्] दुष्ट (सूप १, ३, २) । २ न. दुष्ट उत्तर, अयोग्य आत्मा, दुर्जन | दु:ख से हो सके वह (कप्प) ।। जवाब (हे १, १४)।(उव; महा)। दुरारोह वि[दुरारोह जिस पर दुःख से चढ़ा दुरभास ( [दुरभ्यास] खराब प्रादत | | जा सके वह, दुरध्यास (उत्त २३, गा ४६८)M दुरुत्तर वि [द्वि-उत्तर] दो से अधिक । सय वि [ शततम] एक सौ दो वां, १०२ वाँ (सुपा १६७)। दुरालोअपुं[दे] तिमिर, अन्धकार (दे ५, (पउम १०२, २०४)। दुरभि देखो दुब्भि (अणुः पउम २६,५०, १०२, ४४पण्ह २, ५ प्राचा) | दुरालोअ वि [दुरालोक] जो दुःख से देखा दुरुत्तार वि [दुरुत्तार] दुःख से पार करने योग्य (सुपा २६७) दुरभिगम वि [दुरभिगम १ जहाँ दुःख से जा सके, देखने को अशक्य (से ४, ८६ | दुरुद्धर वि [दुरुद्धर] जिसका उद्धार कठिनाई गमन हो सके वह, कष्ट-गम्य (ठा ३, ४)। कुमा) । से हो वह (सूत्र १, २, २)। २ दुर्बोध, कष्ट से जो जाना जा सके (राज) दुरालोयण वि [दुरालोकन] ऊपर देखो, दुरवणीय वि [दुरुपनीत जिसका उपनय दुरमञ्च पुं [दुरमात्य] दुष्ट मंत्री (कुप्र 'दुरालोयणो दुम्मुहो रत्तनेत्तों' (भवि) | दुरावह वि [दुरावह] दुर्धर, दुर्वह (पउम दूषित हो ऐसा (उदाहरण) (दसनि १)/ २६१) दुरुवयार वि [दुरुपचार] जिसका उपचार दुरवगम बि [दुरवगम दुर्बोध (कुप्र ४८) M ६८, ६) दुरवगम्म देखो दुरवगम (चेइय २५९)। दुरास वि [दुराश] १ दुष्ट आशावाला। कष्ट-साध्य हो वह (तंदु)। २ खराब इच्छावाला (भविः संक्षि १६) । दुरुव्वा स्त्री [दूर्वा] तृण-विशेष, दूब (स दुरवगाह वि [दुरवगाह दुष्प्रवेश, जहाँ | प्रवेश करना कठिन हो वह (हे १, २६, सम दुरासय वि [दुराशय] दुष्ट प्राशयवाला १२४ उप ३१८)। (सुपा १३१) । दुरुह सक [आ + रुह ] आरूढ होना, १४५) चढ़ना । दुरुहइ (पि ११८ १३६)। वकृ. दुरासय वि [दुराश्रय] दुःख से जिसका दुरस वि [दूरस] खराब स्वादवाला (भगः | माश्रय किया जा सके वह, पाश्रय करने को दुरुहमाण (प्राचा २, ३, १) । संकृ. णाया १, १२; ठा८)। अशक्य (पण्ह १, ३, उत्त १) दुरुहित्ता, दुरुहित्ताणं, दुरुहेत्ता (भगः दुरसण पुं [द्विरसन] १ सर्प, साँप । २ । महा; पि ५८३: ४८२)।दुर्जन, दुष्ट मनुष्य (सुपा ५९७) दुरासय वि [दुरासद] १ दुष्प्राप्य, दुर्लभ । दुरूढ वि [आरूढ] अधिरूद, ऊपर चढ़ा दुरहि देखो दुरभि (उप ७२८ टीः तंदु)।। २ दुर्जय । ३ दुःसह (दस २, ६ राज) हुमा (णाया १, १, २, १; प्रौप) दुरहिगम देखो दुरभिगम (सम १४५ विसे | दुरिअ न [दुरित] पाप (पाम; सुपा २४३) Mदरूववि १०९) दुरिअ न [दे] द्रुत, शीघ्र, जल्दी (षड्) कुडोल (ठा ८श्रा १६)। २ मलमूत्र का दुरहिगम्म वि [दुरभिगम्य] दुःख से जानने दुरिआरि स्त्री [दुरितारि] भगवान् संभवनाथ कर्दम (सूत्रकृ० चूर्णी गा० ३१७) ।। योग्य, दुबोध 'अत्थगई विनयवायगहण- | को शासनदेवी (संति )। दुरूव विदूरूप] पशुचि प्रादि खराब वस्तु लीणा दुरहिगम्मा' (सम्म १६१)। दुरिक्ख वि [दुरीक्ष] देखने को अशक्य (सूत्र १, ५, १, २०)। दुरहियास वि [दुरध्यास, दुरधिसह] (कुमा) दुरूह देखो दुरुह । संकृ. दुरूहित्तु, दुरूदुस्सह, जो कष्ट से सहन किया जा सके | दुरिट्र न [दुरिष्ट] खराब नक्षत्र (दसनि १, हिया (सूत्र १, ५, २, १५); 'जहा प्रासा(णाया १, १, प्राचा: उप १०३१ टी, स १०५) । विणि नावं जाइअंधो दुरूहिया' (सूत्र १, दुरिट्ट न [दुरिष्ट] खराब यजन-याग (दसनि । ११, ३०)। दुराणण पुं [दुरानन] विद्याधर वंश का एक १,१०५) दुरूहण न [आरोहण] अधिरोहण, ऊपर राजा (पउम ५, ४५) दुरुक्क वि [दे] थोड़ा पीसा हुआ, ठीक ठीक | चढ़ बैठना (स ५१) ।। दुराणुवत्त वि [दुरनुवर्त] जिसका अनुवर्तन नहीं पीसा हुआ (प्राचा २, १, ८) । दुरेह पुं [द्विरेफ] भ्रमर, भौंरा (पान हे कष्ट-साध्य हो वह (वव ३) दुरुदुल्ल सक [भ्रम्] १ भ्रमण करना, १,६४) दुराय न [द्विरात्र] दो रात (ठा ५, २ | घूमना। २ गँवाई हुई चीज की खोज में | दुरोअर न [दुरोदर] जुमा, घृत (पाम) कस) । घूमना । वकृ. दुरुदुलंत (सुर १५, २१२) दुरोदर देखो दुरोअर (कर्पूर २५) ६० Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ पाइअसहमण्णवो दुलंघ-दुव्वसण दुलंघ देखो दुलंघ (भवि)। की ग्यारहवीं शताब्दी का गुजरात का १४, ६१)। वित्त न [वर्त] बारह दुलंभ देखो दुल्लंभ (भवि) । एक प्रसिद्ध राजा (गु १०) राय पुं पावतवाला बन्दन, प्रणाम-विशेष (सम २१)। दुलह वि [दुर्लभ] १ जिसकी प्राप्ति दुःख [राज] वही अर्थ (सार्ध ६६; कुप्र ४)। दुवालसंग स्त्रीन [द्वादशाङ्गी] बारह जैन से हो सके वह (कुमाः गउड; प्रासू लंभ वि [ लम्भ] जिसकी प्राप्ति दुःख से आगम-ग्रन्थ, 'पाचारांग' प्रादि बारह सूत्र ग्रन्थ १३४)। २ पृ. एक वरिणक-पुत्र (सुपा हो सके वह (पउम ३५, ४७ सुर ४, २२६ | (सम १; हे १, २५४) । स्त्री/गी (राज) । ६१७) । देखो दुल्लह ।। वै ६८) । | दुवालसंगि वि [द्वादशाङ्गिन बारह अंगदुलि पुंस्त्री [दे] कच्छप, कछुआ (दे ५, ४२; दुवई स्त्री [द्रुपदी छन्द-विशेष (स ७१) ग्रन्थों का जानकार (कप्प) - उप पृ १३५)। दुवण न [दावन उपताप, पीड़न (पएह १, | दुवालसम वि [द्वादश] १ बारहवाँ । २ २) न. लगातार पाँच दिनों का उपवास (माचा दुल्ल न [हे] वस्त्र, कपड़ा (दे ५, ४१)। दुवण्ण । वि [दुर्वर्ण] खराब रूपवाला (भगः पाया १.१ ठा ६; सण)। स्त्री.मी (णाया दुल्लंघ वि [दुर्लङ्क] जिसका उल्लंघन कठिनाई दुवन्न ठा ८)। से हो सके वह, अलंघनीय (पउम १२, ३८ दुवय [दुपद] एक राजा, द्रौपदी का पिता | दुविट्ठ पुं[द्विपृष्ठ, द्विविष्टप] १ भरत४१हेका ३१; सुर २,७८)। (णाया १,१६; उप ६४८ टी) सुया स्त्री दुविट क्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल में दुल्लंभ वि [दुर्लभ] दुराप, दुष्प्राप्य (उप पू [सुता] पाण्डव-पत्नी, द्रौपदी (उप ६४८ उत्पन्न द्वितीय अधं-चक्री राजा (सम १५८ १३६ सुपा १६३, सण) टी)। टी पउम ५, १५५)। २ भरत-क्षेत्र में उत्पन्न दुल्लक्ख वि [दुर्लक्ष] १ दुविज्ञेय, जो दुःख दुवयंगया स्त्री [दुपदाङ्गजा] राजा द्रुपद की होनेवाला पाठवाँ अर्ध-चक्रो राजा, एक वासुसे जाना जा सके, अलक्ष्य (से ८,५, स | लड़की, द्रौपदी, पाण्डवों की पत्नी ( उप देव (सम १५४)। ९६; वजा १३६, श्रा २८)। २ जो कठि- ६४८ टी) दुविभज वि [दुर्विभाज्य जिसका विभाग नाई से देखा जा सके (कप्पू)। दुवयंगरुहा स्त्री [दुपदाङ्गरहा] ऊपर देखो करना कठिन हो वह-परमाणु (ठा ५,१दुल्लग्ग वि [दे] अघटमान, प्रयुक्त (दे ५, (उप ६४८ टी)। पत्र २६६) ।। दुवयण न [दुर्वचन] खराब वचन, दुष्ट उक्ति दुविभव्य देखो दुविभव्य (ठा ५, १ टी)। दुल्लग्ग न [दुर्लन] दुष्ट लग्न, दुष्ट मुहूर्त | (पउम ३५, ११) । दुवियड्ढ वि [दुर्विदग्ध] दुश्शिक्षित, जान(मुद्रा २१५) दुवयण न [द्विवचन] दो का बोधक | कारी का झूठा अभिमान करनेवाला (उप दुल्लब्भ। देखो दुल्लह, “किं दुल्लभं जणो व्याकरण-प्रसिद्ध प्रत्यय, दो संख्या की वाचक ८३३ टी) दुल्लम गुणग्गाही' (गा ६७५, निचू ११) विभक्ति (हे १, १४; ठा ३, ४-पत्र १५८)M दुवियप्प दुर्विकल्प] दुष्ट वितर्क (भवि) । दुल्हलिज बि [दुर्ललित] १ दुष्ट पादतवाला। दुवार दुवार । देखो दुआर (हे २, ११२; प्रति देखो दुआर (हे २.११ दविलय पुंदुविलक] एक अनार्य देश, 'दु २ दुर इच्छावालाः 'विलसइ बेसाण गिहे | दुवाराय । ४१; सुपा ४८७); 'एगदुवाराए' (? दु) विलय-लउसबुक्कस-' (पव २७४)।विविविलारोहिं दुल्ललिओ', 'कीलइ दुल्ललिय | (कस) पाल पुं[पाल] दरवान, प्रतोहार बालकोलाए' (सुपा ४८५; ३२८)। ३ | (सुर १, १३४, २, १४८), वाहा स्त्री दावह वि[द्विविध] दो प्रकार का (हे १: [बाहा] द्वार-भाग (प्राचा २, १, ५) ९४ नव ३)~ व्यसनी पादतवाला दुवीस स्त्रीन [द्वाविंशति] बाईस २२ (नत्र 'धन्ना सा पुन्नुकरिसनिम्मिया दुवारि वि [द्वारिन्] १ द्वारवाला। २ पुं. २०; षड् ) तिहुयणेवि तुह जगणी। दरवान, प्रतीहारः 'बहुपरिवारो पत्तो राय दुव्यण्ण) देखो दुवण्ण (पउम ४१, १७ जोइ पसूओ सि तुमं दोणुद्धरणिक दुवारी तहि वरुणों' (सुपा २६५) ।। दुव्वन्न पएह १, ४)। दुलियो' (सुपा २१६)। दुवारिअ वि [द्वारिक दरवाजावाला, 'अब- दुव्यय न [दुव्रत] १ दुट नियम । २ वि. ४ दुविदग्ध, दुःशिक्षित (पान)। ५ न. गुयदुवारिए' (कस). दुष्ट व्रत करनेवाला। ३ व्रत-रहित, नियमदुराशा, दुर्लभ वस्तु की अभिलाषा (महानि | दुवारिअ [दौवारिक] दरवान, द्वारपाल | वर्जित (ठा ४, ३; विपा १, १)। । (हे १, १६०; संक्षि ६; सुपा २६०) दुव्ययण न [दुर्वचन] दुष्ट उक्ति, खराब दुल्लसिआ स्त्री [दे] दासी, नौकरानी (दे ५, दुवालस त्रि.ब. [द्वादशन] बारह, १२ वचन (पउम ३३, १०६; विसे ५२०; उव (कप्पः कुमा) मुहित्तअ वि [ मौहूर्तिक] गा २६०)। दुलह चि [दुर्लभ] १ दुराप, जिसकी प्राप्ति । बारह मुहूतों का परिमाणवाला (सम २२)Mदुव्वल देखो दुब्बल (महा)। "बिह वि [विध] बारह प्रकार का (सम दुव्वसण न [दुर्व्यसन] खराब पादत, बुरी जी ५०; प्रासू ११; ४६, ४७) । २ विक्रम । २१) हा प्र[धा] बारह प्रकार (सुर । प्रादत (सुपा १८४; ४८९; भवि)। For Personal & Private Use Only wwwinelibrary.org Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुव्वसु-दुस्सह पाइअसहमहण्णवो दुव्वसु वि [दुर्वसु] अभव्य, खराब द्रव्य दुबिलसिय न [दुर्विलसित] १ स्वच्छन्दी | दुस्सउण न [दुश्शकुन] अपशकुन (णमि (प्राचा)। मुणि पुं[मुनि मुक्ति के लिए विलास । २ निकृष्ट कार्य, जघन्य काम, नीच २०)। अयोग्य साधु (प्राचा)। काम (उप १३६ टी)। दुस्संचर वि [दुस्संचर] जहाँ दुःख से जाया दुवह वि [दुर्वह] दुर्धर, जिसका वहन दुव्विसह वि [दुविषह] अत्यन्त दुःसह, | जा सके, दुर्गम (स २३१, संक्षि १७)। कठिनाई से हो सके वह (स १६१, सुर १, असह्य (गा १४८, सुर ३, १४४, १४, दुरसंचार वि [दुस्संचार] ऊपर देखो (सुर १४)। २१०)। दुव्वा देखो दुरुव्वा (कुमा; सुर १, १३८)। दुव्विसोझ वि [दुर्विशोध्य शुद्ध करने को दुम्त पुं[दुष्यन्त चन्द्रवंशीय एक राजा, दुव्वाइ वि [दुर्वादिन] अप्रियवक्ता (दस अशक्य (पंचा १७)। शकुन्तला का पति (पि ३२६)। ६,२)। दुबिहिअ न [दुर्विहित] दुष्ट अनुष्ठान दुस्संबोह वि [दुस्संबोध] दुर्बोध्य (प्राचा)। (दसपू १, १२)। दुस्सज्झ वि [दुस्साध्य] दुष्कर (सुपा ८ दुव्वाय पुं[ दुर्वाक्] दुर्वचन, दुष्ट उक्तिः | दुबिहिय वि [दुर्विहित] १ खराब रीति से | ५६६)। 'वयणेणवि दुब्बाभो न य कायव्वो परस्स किया हुआ, 'दुविहियविलासियं विहिणो' दुस्सण्णप्प देखो दुसन्नप्प (वृद्ध ४)। पीडयरों (पउम १०३, १४३)। (सुर ४, १५, ११, १४३)। २ असुविहित, दुस्सत्त वि [दुस्सत्त्व] दुरात्मा, दुष्ट जीव दुव्बाय पु[दुर्वात] दुष्ट पवन (णमि ४)। अयशस्वी (माव ३)। (पउम ८७,६)। दुव्वार वि [दुर] दुःख से रोकने योग्यव्वोझ वि [दुर्वाह्य दुवंह, दुःख से ढोने दुस्सन्नप्प देखो दुसन्नप्प (कस)। अवार्य (से १२, ६३, उप ६८६ टी; सुपा योग्य (से ३, ५, ४, ४४० १३, ६३; वजा दुस्समदुस्समा स्त्री [दुष्षमदुष्पमा] काल१९७७ ४७१, अभि ११६)। विशेष, सर्वाधम काल, अवसपिरणी काल का दुव्वारिअ देखो दुवारिअ = दौवारिक (प्राप्र)। | दुव्वोझ वि [दे] दुर्घात्य, दुःख से मारने छठवाँ और उत्सपिणी काल का पहला पारा, दुव्वाली स्त्री [दे] वृक्ष-पंक्ति (पान)। योग्य (से ३, ५)। इसमें सब पदार्थों के गुणों की सर्वोत्कृष्ट हानि दुव्वास पुं[दुर्वासस् ] एक ऋषि (अभि | दुसंकड न [दुःस्संकट] विषम विपत्ति होती है, इसका परिमारण एक्कीस हजार ११८)। (भवि)। वर्षों का है (ठा १, ६, इक)। दुब्विअड वि [दुर्विवृत] परिधान-वजित, दुसंचर देखो दुस्संचर (भवि)। दुस्समदुसुसमा स्त्री [दुष्षमसुषमा] बेया| दसंथ वि द्विसंस्था नग्न, नंगा (ठा ५, २–पत्र ३१२) । दो बार सुनने से ही | लीस हजार कम एक कोटाकोटि सागरोपम का उसे अच्छी तरह याद कर लेने की शक्तिवाला दुम्विअड्ढ वि [दुर्विदग्ध] ज्ञान का भूठा परिमाणवाला काल-विशेष, अवसर्पिणी काल (धर्मसं १२०७)। दुव्विअद्ध अभिमान करनेवाला, दुश्शिक्षित का चतुर्थ और उत्सर्पिणी काल का तीसरा (पाना गा ६५)। दुसन्नप्प वि [दुस्संज्ञाप्य दुर्बोध्य (ठा ३, | पारा (कप्पः इक)। ४-पत्र १६५)। दुग्विजाणय वि [दुर्विज्ञेय] दुःख से जानने दुस्समा स्त्री [दुष्षमा] १ दुष्ट काल । २ दुसमदुसमा देखो दुस्समदुस्समा (भग एक्कीस हजार वर्षों के परिमाणवाला कालयोग्य, जानने को अशक्य 'अकुसलपरिणाम विशेष, अवसर्पिणी-काल का पाँचवाँ और मंदबुद्धिजणदुन्विजाणए' (पएह १, १)। दुसमसुसमा देखो दुस्समसुसमा (ठा १)। उत्सपिणी काल का दूसरा पारा (उप ६४८; दुन्विढप्प वि [दुरर्ज दुःख से अजन करने दुसमा देखो दुस्समा (भग ६, ७, भवि)। योग्य, कठिनाई से कमाने योग्य (कुप्र २३८)। दुसह देखो दुस्सह (हे १, ११५, सुर १२, दुस्समाण देखो दुस्स। दुग्विणीअ वि [दुविनीत] अविनीत, उद्धत १३७, १३६)। दुस्सर पुं[दुःस्वर] १ खराब आवाज, (पउम ६६, ३५; काल)। दुसाह वि [दुस्साध] दुःसाध्य, कष्ट-साध्य कुत्सित कण्ठ । २ कर्म-विशेष, जिसके उदय दुविण्णाय वि [दुर्विज्ञात] असत्य रीति से (पउम ८६, २२)। से स्वर कर्ण-कटु होता है (कम्म १, २७; जाना हुआ (प्राचा)। दुसिक्खिअ वि [दुशिक्षित] दुर्विदग्ध नव १५) । णाम, नाम न [ नामन्] दुविभज देखो दुविभज (राज)। (पउम २५, २१)। दुःस्वर का कारण-भूत कर्म (पंचः सम ६७)। दुविभव्व वि [दुर्विभाव्य दुर्लक्ष्य, दुःख दुसुमिण देखो दुस्सुमिण (पडि)। दुस्सल वि [दुश्शल] दुविनीत, अविनीत से जिसकी मालोचना हो सके वह (ठा ५, दुसरुल्लयन [दे] गले का प्राभूषण-विशेष (बृह १)। १ टी-पत्र २६६)। (स ७६)। दुस्सह वि [दुस्सह] जो दुख से सहन हो दुन्विभाव वि [दुर्विभाव] ऊपर देखो दुस्स सक [द्विष् ] द्वेष करना। वकृ. सके, असह्य (स्वप्न ७३ हे १, १३, ११५; (विसे)। दस्समाण (सूत्र १, १२, २२)। For Personal & Private Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ दुस्सहिय वि [दुस्सो] दुःख से सहन किया हु ( १, ३, १) । दुस्सासण पुं [दुश्शासन] दुर्योधन का एक छोटा भाई, कौरव- विशेष ( चारु १२; वेणी १०७) । दुस्साड वि [दुसंहत] दुःख से एकत्रित किया हुआ, 'दुस्साहर्ड धरणं हिच्चा बहु संचिणिया रयं (उत्त ७, ८) । दुस्साह[िदौस्साधिक] दुस्साध्य कार्यं को करनेवाला (पि ८४) । सिक्ख वि [दुशिक्ष] दुष्ट शिक्षावाला, दुश्शिक्षित दुर्विदरध (उप १४९ टी कुप्र २८३) । दुस्सिक्खिअपि (गा ६०३ ) । [दुश्शिक्षित ] ऊपर देखो | दुरिसज्जा स्त्री [दुश्शय्या ] खराब शय्या ( दस ८) । दुस्सिलिट्ठ वि [दुश्लिष्ट ] कुत्सित श्लेष - वाला (पि १३६) । दुसेजा देखो दुरिसज्जा (उव) । हक [ह] दूहना, दूध निकालना । दुज्जह (महा)। कर्म. दुहिज्जइ, दुब्भइ (हे ४, २४५) भवि. दुहिहिद, दुब्भिहिर ( हे ४, २४५) । दुह सक [ द्रुह ू] द्रोह करना, द्वेष करना, वैर करना । दुइ (विचार ६४७ ) । दुह देखो दोह=दोह (राज) । दुह देखो दुक्ख = दुःख (हे २, ७२ प्रासू २६:२८; १६२) । 'अवि [द] दुःख देनेवाला, दुःख जनक (सुपा ४३४) । वि [f] दुःख से पीड़ित (विपा १, १ सूपा ३३८ ) । यि वि[र्तित] दुःख से पीड़ित (प)। ट्ठपुं [] नरक स्थान ( सू १, ५, १) । त देखो ट्ट (उप पृ पाइअसहमहण्णवो ७६; ७२८ टी) | फास ! [स्पर्श ] दुःख जनक स्पर्श (गाया १, १२) । भागि वि [भागिन् ] दुःख में भागीदार (सुपा ४३१) । [मृत्यु] अपमृत्यु, अकाल मौत (सुर ८, ५३) । " विवाग पुं [विपाक ] दुःख रूप कर्म-फल ( विपा १, १) । 'सिज्जा, "सेज्जा स्त्री [ "शय्या ] दुःख जनक शय्या (ठा ४, ३)। वह वि [°विह] दुःख-जनक (पउम ८२, ११; सुर ८, १६२: प्रासू १६६ ) । दुह देखो दुहा (भग ८०८) । दुअवि [] चूति, चूर-चूर किया हुआ (दे ५, ४५) । दुहअ वि [दुर्हत] खराब रीति से मारा हुम्रा (प्राचा) । दुहअ वि [द्विहत] दो से मारा हुमा दुहि (प्राचा) । दुहअ देखो दुब्भग (षड् ) । दुहओ प्र [ द्विधातस् ] दोनों तरफ से, उभय प्रकार से (प्राचाः ठा ५, ३, कसः भग; पुप्फ ४७० श्रा २७) । [दुग्ध] जिसका दोहन किया गया हो वह (दे १, ७) । 'दुज्झ वि ["दोहा ] एक बार दोहने पर फिर भी दोहने योग्य; फिर-फिर दोहने योग्य (दे १, ७, ५, ४६) । दुस्सी वि [दुश्शील] दुष्ट स्वभाववाला । २ व्यभिचारी (पराह १, १ सुपा ११० ) । स्त्री. "ला ( पाच ) । दुहंड वि [द्विखण्ड ] दो टुकड़ेवाला 'किच्चेव बिबं (? गो) दुहंड' (भा) । दुहरा देखो दुब्भग (कम्म ३, ३) । सुमिण पुंन [दुस्स्वप्न ] दुष्ट स्वप्न, खराब स्वप्न -- सपना ( परह १, २ ) । दुहिआ [दुहितृ] लड़की, पुत्री (सुपा १७६; ३, ३५) । 'दइअ पुं [दयित] जामाता (सुपा ४५७) । [] २ वि. दुहट्ट वि [दुर्घट्ट] दुनिरोध, दुर्वार (खाया दुद्दिण [द्रहिण] ब्रह्मा, चतुर्मुखः 'प्रवि १.८) । श्रुतिकटु ( परह १, २) । हात्ती तु श्रलं रिण पहावा' दुण देखो दुधण (पह १, १ – पत्र १८ ) । दु [ह] प्रहरण-विशेष, 'चम्मेदृ'घरणमोट्ठियमोग्गरवरफलिहजंत पत्थर दुहणतो - कुवेणी -' ( पह १, ३ –पत्र ४४ ) । दुहन [दोहन ] दोह, दोहना (परह १, २) । दुहदुहग पुं [दुहदुहक] 'दुहन्दुह' श्रावाज ( राय १०१ ) । दुह देखो दूव (पि ३४०; हे १, ११५ टी) । स्त्री. वी° (पि २३१ ) । दुहा प्र [द्विधा ] दो प्रकार, दो तरफ, उभयथा (जी ८ प्रासू १४४) । अवि [कृत ] जिसको दो खण्ड किये गये हों वह ( प्राप्र कुमा) । दुहार सक [द्विधा + कृ] दो खण्ड करना । कर्म. दुहाइज, दुहाकिजइ (प्रा हे १, दुस्सहिय- दूअ १७) । कवकृ. कज्जमाण, 'किजमाण (पि ५४७ ४३६) । संकृ. काउं (महा) । दुहाव सक [छिद्] छेदना, छेदा करना, खण्डित करना । दुहावइ (हे ४, १२४ ) । दुहास [दुःख] दुःखी करना, दुभाना, दुखाना (प्रामा) । दुहावण वि [दुःखन] दुःखी करनेवाला (सण) । दुद्दाविअ वि [ छिन्न] खण्डित (पान; कुमा) । दुहाविव [दुःखित] दुःखी किया हुआ (गउड)। For Personal & Private Use Only दुहि वि [दुःखिन्] दुःखी, व्यथित, पीड़ित ( उप ६८६ टी) । स्त्री. णी (कुमा) । दुहिअ वि [दुःखित] पीड़ित, दुःखयुक्त (हे २, १६४, कुमा; महा) । (१६) । दुहित पुं [दौहित्र] लड़की का लड़का, नात (उप ७४) । दुहित्तिया स्त्री [दौहित्रिका ] लड़की की लड़की, नतिनी (उप वृ ७४) । दुहिती [दौहित्री] लड़की की लड़की, नतिनी या नातिनः 'पुत्ती तह दुहित्ती होइ य भजा सवक्की य' (श्रु ११७ ) । हिदिआ (शौ) स्त्री [दुहितृ] लड़की, कन्या ( प्राकृ ६५) । दुहिल वि [द्रहिल] द्रोही, द्रोह करनेवाला (विसे SEE टी) । दू सक [ दू] १ उपताप करना। २ काटना। क. 'दुज्जंतु उच्छू' (परह १, २) । अ [दूत] दूत, संदेश- हारक (पाम पउम ५३, ४३४६) । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूआ-दूसि पाइअसहमहण्णवो दूआ देखो धूआ (षड्)। दमण देखो दुम्मण %D दुर्मनस् (सूम १, दूलह देखो दुल्लह (संक्षि १७) । दुई देखो दूई। पलासय न [पलाशक] दूस अक [ दुष्] दूषित होना, विकृत होना। एक चैत्य (उवा)। | दुमणाइअ वि [दुर्मनायित] जो उदास हुआ | दूसइ (हे ४, २३५, संक्षि ३६)। हो, उद्विग्न-मनस्क (नाट-मालती ६६)' दूइज सक [5] गमन करना, विहरना, दस सक[ दूषय ] दोषित करना, दूषणजाना । दूइजइ (प्राचा)। वकृ. दूइज्जत, दूमिअ [दून, दावित] संतापित, पीड़ित | दोष लगाना । दूसइ (भवि), दूसेइ (बृह ४)। दूइज्जमाण (मोप: णाया १, १; भगः । | (सुपा १०० १३३; २३०)। दूस न [दृष्य १ वस्त्र, कपड़ा (सम १५१, प्राचा: महा)। हेकृ. दूइजित्तए (कस)। दूमिअ वि [धवलित] सफेद किया हुआ (हे | कप्प)। २ तंबू, पट-कुटी (दे ३, २८)। दूइत्त न [दूतीत्व दूती का कार्य, दूतीपन ४, २४; कप्प)। गणि पु [गणिन् ] एक जैन प्राचार्य (पउम ५३, ४५)। दूयाकार न [दे] कला-विशेष (स ६०३)। । (दि)। "मित्त पुं ["मित्र मौर्यवंश के दुई स्त्री [दूती] १ दूत के काम में नियुक्त की | दूर न [दूर] १ अनिकट, असमीप: 'रुसेव नाश होने पर पाटलिपुत्र में अभिषिक्त एक हुई स्त्री, समाचार-हारिणी, कुटनी (हे ४, जस्स कित्तो गया दूर' (कुमा)। २ अतिशय, राजा (राज)। हर न [गृह] तंबू, पट३६७)। २ जैन साधुनों के लिये भिक्षा का | प्रत्यन्तः 'दूरमहरं डसते' (कुमा)। ३ वि. | कुटी (स २६७)। एक दोष (ठा ३, ४-पत्र १६६)। "पिंड दूरस्थित, असमीपवर्ती (सूत्र १, २, २)। दूसअवि [दूषक] दोष प्रकट करनेवाला [पण्ड] समाचार पहुंचाने से मिली हुई | ४ व्यवहित, अन्तरित (गउड)। ग वि | (वज्जा ६८)। भिक्षा (प्राचा २. १, ६)। देखो दूई। [ग] दूरवर्ती, असमीपस्थ (उप ६४८ टी | दूसग वि [दूषक] दूषित करनेवाला (सुपा दूण वि [दून] हैरान किया हुमाः 'हा पिय कुमा)। गइ, 'गइअ वि [गतिक] १ २७५; सं १२४)। दूर जानेवाला । सौधर्म प्रादि देवलोक में दूसग वि [दूषक ] दूषण निकालनेवाला, वयंस दूढो (? णो) मए तुम (स ७६३)। उत्पन्न होनेवाला (ठा ८)। तराग वि | दोष देखनेवाला (धर्मवि ८५) । दूण पुं[दे] हस्ती, हाथी (दे ५, ४४; षड्)। ["तर] अत्यन्त दूर (पएण १७)। "त्थ वि | दूसण न [दूषण] दूषित करना (मज्झ ७३)। दूण (अप) देखो दुउण (पिंग)। [स्थ] दूरस्थित, दूरवर्ती (कुमा)। भविय दूसण न [दूषण] १ दोष, अपराध । २ दूणावेढ वि [दे] १ अशक्य । २ तड़ाग, पुं[भव्य दीर्घ काल में मुक्ति को प्राप्त कलंक, दाग (तंदु)। ३ पुं. रावण की मौसी तलाव, तालाब (दे ५, ५६)। करने की योग्यतावाला जीव (उप ७२८ । का लडका (पउम १६,२५)। ४ वि. दूषित दूभ प्रक [दुःखय ] दूभना, दुःखित होना, टी)। 'य देखोग (सूम १, ५, २)। करनेवाला (स ५२८)। 'तम्हा पुत्तोवि दूभिज्जा पहसिज्ज व दुज्जणों 'वत्ति वि [वर्तिन् ] दूर में रहनेवाला | दूसम वि [दुष्षम] १ खराब, दुष्ट । २ पुं. (श्रा १२)। (पि ९४)। लइय वि [लियिक] मुक्ति काल-विशेष, पाँचवाँ पारा; 'दूसमे काले दूभग देखो दुब्भग (णाया १, १६-पत्र गामी (माचा)। "लय [°ालय १ दूर (सट्ठि १५६ )। दूसमा देखो दुस्सम. स्थित आश्रय । २ मोक्ष । ३ मुक्ति का मार्ग दुस्समा (सम ३६; ठा १, ६)। सुसमा दुभग्ग न [दौर्भाग्य] दुष्ट भाग्य, खराब (प्राचा)। देखो दुस्समसुसमा (ठा २, ३, सम ६४)। नसीब (उप पृ ३१)। दूरंगइअ देखो दूर-गइअ (प्रौप)। दूसमा देखो दुस्समा (सम ३९; उप ८३३ दूम सक [दू, दावय् ] परिताप करना, दूरंतरिअ वि [दूरान्तरित] अत्यन्त-व्यवहित टी; से ३४)। संताप करना। दूमइ, दूमेइ (सुपा प्राप्र (गा ६५८)। हे ४, २३)। कर्म. दूमिज्जइ (भवि) । दूसर देखो दुस्सर (राज)। दूरचर वि [दूरचर] दूर रहनेवाला (धम्मो | वकृ. दूमेंत (से १०, ६३)। कवकृ. दूमि दूसल वि [दे] दुभंग, प्रभागा (दे ५, ४३; जंत (सुपा २६६)। दूराय सक [दूराय] दूरस्थित की तरह दूम देखो दुम = धवलय् (हे ४, २४)। मालूम होना, दूरवर्ती मालूम पड़ना। वकृ. १ दूसह देखो दुस्सह (हे १, १३, ११५) । दूमक। वि [दावक] उपताप-जनक, पीड़ा- दूरायमाण (गउड)। | दूसहणीअ वि [दुस्सहनीय] दुस्सह, असह्य दूमग जनक (पएह १, ३, राज)। दूरीकय वि [ दूरीकृत] दूर किया हुमा (पि ५७१)। दूमण वि [दावक] उपताप करनेवाला (सूम | (श्रा २८)। दूसासण देखो दुस्सासण (हे १, ४३)। १, २, २, २७)। दूरीहूअ वि [दूरीभूत] जो दूर हुमा हो दूसाहिअ वि [दौस्साधिक] दुसाध जाति दूमण न [दवन, दावन] परिताप, पीड़न (सुपा १५८) । में उत्पन्न, अस्पृश्य जाति का (प्राकृ १०)। (पएह १,१)। दूरुल्ल वि [दूरवत् ] दूरस्थित, दूरवर्ती दूसि [दूषिन् ] नपुंसक का एक भेद दूमण न [धवलन सफेद करना (वव ४)।। (माव ४) । | 'दोसुवि वेएसु सज्जए दूसो' (बृह ४)। For Personal & Private Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो दूसिअ-देव | देयमाण देखो दादा। दृसिअ वि [दूषित १ दूषण-युक्त, कलङ्क- देक्खंत (अभि १४१)। संकृ. देक्खि पुं["किल्बिष चाण्डाल-स्थानीय देव-जाति युक्त (महा: भवि)। २ पुं. एक प्रकार का (अभि १६६) । (ठा ४, ४)। "किब्बिसिय पु[किल्बिनपुंसक (बृह ४)। देक्खालिअ वि [दर्शित] दिखाया हुआ, षिक] एक अधम देव-जाति (भग ६, ३३)। दसिआ स्त्री[दृषिका] अाँख का मेल (कुमा)। बतलाया हमा (सुर १,१५२)। 'किब्बिसीया स्त्री ["किल्बिषीया] देखो दूसुमिण देखो दुस्सुमिण (कुमा)। देख (अप) देखो देक्ख । देखइ (भवि)। देवकिब्बिसिया (बृह १)। 'कुरा स्त्री दूहअ वि [दुःखक] दुःख-जनक, 'प्रसईणं देह देखो दिद्र = दृष्ट (प्रति ४०)। [कुरा] क्षेत्र विशेष, वर्ष-विशेष (इक)। दूहनो चंदों' (वज्जा १८)। देण्ण देखो दइण्ण (णाया १,१-पत्र ३३)। "कुरु पु[कुरु] वही अर्थ (पण्ह १, ४, दहद वि [दे] लज्जा से उद्विग्न (दे ५, देपाल [देवपाल] एक मंत्री का नाम सम ७०; इक)। कुल देखो उल (पि ४८)। (ती २)। १६८; कप्प)। कुलिय पु[कुलिक] पुजारी दूहय देखो दोधअ (सिरि ६६१)। देप्प देखो दिप्प = दीन् । वकु.-देप्पमाण (प्रावम)। 'कुलिया देखो उलिआ (कुप्र दूहल वि[दे] दुभंग, मन्दभाग्य (दे ५, ४३)। (कुप्र ३४४) । १४४) गइ स्त्री [गति] दैवयोनि (ठा ५, दूहब देखो दुब्भग (हे १, ११५; १९२ देय । ३)। गणिया स्त्री [गणिका] देव-वेश्या, कुमा; सुपा ५६७; भवि)। अप्सरा (णाया १,१६) । "गिह न [गृह] दूहब सक [दुःखय् ] दूभाना, दुःखी करना। देर देखो दार = द्वार (हे १,७६, २, १७२, देव-मन्दिर (सुपाः १३, ३४८)। गुत्त पुं दूहवेइ (सिरि १६७)। दे ६, ११०)। [गुप्त] १ एक परिव्राजक का नाम (प्रौप)। दूहवि वि [ दुःखित] दुःखी किया हुआ देव उभ [दिव] १ जीतने की इच्छा | २ एक भावी जिनदेव (तित्थ) । चंद पुं दूभाया हुआ; कि केवि दूहविया' (कुम्मा करना। २ पण करना। ३ व्यवहार करना।। ['चन्द्र एक जैन उपासक का नाम (सुपा १२) । ४ चाहना। ५ आज्ञा करना। ६ अव्यक्त ६३२) । सुप्रसिद्ध श्री हेमचन्द्राचार्य के गुरू दूहिअ वि [दुःखित] दुःख-युक्त (हे १, १३, शब्द करना। ७ हिंसा करना। देवइ का नाम (कुप्र १९)। च्चय वि [ क] संक्षि १७)। दे अ. इन अर्थों का सूचक अव्यय । १ संमुख १ देव की पूजा करनेवाला। २. मन्दिर (संक्षि ३३)। का पुजारी (कुप्र ४४१, ती १५)। °च्छंदग करण । २ सखी को आमन्त्रण (हे २, देव पुन [देव १ अमर, सुर, देवता; 'देवाणि, देवा' (हे १, ३४; जी १६, प्रासू न [च्छन्दक] जिनदेव का पासन (जीव १९२)। ८६)। २ मेघ । ३ आकाश । ४ राजा, ३; राय)। जस पुं[ यशस् ] एक जैन दे अ [दे] पाद-पूरक अव्यय (प्राकृ ८१)। नरपति; 'तहेव मेहं व नहं व माणवं न देव मुनि (अंत ३, सुपा ३४२) । जाण न देअ देखो देव (मुद्रा १६१; चंड)। देवत्ति गिरं वएज्जा' (दस ७, ५२, भास | [यान देव का वाहन (पंचा २)। जिण देअर देखो दिअर (कुमाः काप्र २२४ महा)। ६६)। ५ पु. परमेश्वर, देवाधिदेव (भग । पुं[जिन] एक भावी जिनदेव का नाम देअराणी स्त्री [देवरपत्नी] देवरानी, पति के १२, ६; दंस ५सुपा १३)। ६ साधु, (पव ७)। 'ड्ढि देखो देविड्ढि (ठा ३, छोटे भाई की बहू (दे १, ५१)। मुनि, ऋषि (भग १२, ६)। ७ द्वीप-विशेष । ३; राज)। गाअअ ' [ नायक नीचे देखो (अच्चु ३७) । गाह पुं [नाथ] १ ८ समुद्र-विशेष (पएरण १५)। ६ स्वामी, देई देखो देवी (नाट-उत्त १८)। नायक (प्राचू ५)। १० पूज्य, पूजनीय इन्द्र । २ परमेश्वर, परमात्मा (अच्च ६७)। देउल न [देवकुल] देव-मन्दिर (हे १; (पंचा १)। उत्त वि [ उत] देव से 'तम न [तमस् ] एक प्रकार का अन्ध१७१; कुमा)। णाह पुं["नाथ मन्दिर | बोया हुआ । २ देव-कृत; 'देवउत्ते अयं लोए' कार (ठा ४, २) । थुइ, थुइ स्त्री का स्वामी (षड्)। वाडय पुंन[पाटक] (सूअ १, १, ३)। उत्त वि [गुप्त १ [स्तुति देव का गुणानुवाद (प्राप्र)। दत्त मेवाड़ का एक गाँव; 'देउलवाडयपत्तं तुट्टण देव से रक्षित (सूत्र १, १, ३)। २ ऐरवत पुं["दत्त व्यक्तिवाचक नाम (उत्त ; सीलं च अइमहग्ध' (वज्जा ११६) । क्षेत्र के एक भावी जिनदेव (स १५४)। उत्त पिंड; पि ५६६) । दत्ता स्त्री [ दत्ता देउलिअ वि [देवकुलिक] देव स्थान का पता देव-पत्र (सन १, १.३)।। व्यक्ति-वाचक नाम (विपा १, १,ठा १०)। परिपालक (ोघ ४० भा)। उल न [कुल] देव-गृह, देव-मन्दिर (हे दव्व न [द्रव्य] देव-संबन्धी द्रव्य (कम्म देउलिआ स्त्री [देवकुलिका छोटा देव-स्थान १, २७१; सुपा २०१)। उलिया स्त्री १, ५६)। "दार न [द्वार] देव-गृह विशेष (उप पृ ३६६ ३२० टी)। [कुलिका] देहरी, छोटा देव-मन्दिर (कुप्र का पूर्वीय द्वार, सिद्धायतन का एक द्वार देत देखो दा = दा। १४४)। कन्ना स्त्री [ कन्या देव-पुत्री | (ठा ४, २)। दारु पुं[दारु] वृक्ष-विशेष, देक्ख सक [दृश्] देखना; अवलोकन (णाया १,८)। कहकहय पु[कहकहक] देवदार का पेड़ (पउम ५३, ७६) । दाली करना। देक्खइ (हे ४, १८१)। वकृ.। देवताओं का कोलाहल (जीव ३) । किब्बिस । स्त्री [दाली] वनस्पति-विशेष, रोहिणी । कुलिका] देहरी, २१)। उलिया (हे For Personal & Private Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव - देवव्विसिया , ( १७ पत्र १२० ) दिष्ण, दिन [दत्त] व्यक्तिवाचक नाम एक सा पुत्र ( राज गाया १, २ – पत्र ८३ ) । दीव ["द्वीप] द्वीप-विशेष (जीव ३) दूस [दूष्य ] देवता का वस्त्र, दिव्य वस्त्र ( जीव ३) । देव [देव] १ परमेश्वर, परमात्मा, (सुपा ५०० ) । २ इन्द्र, देवों का स्वामी (५) । नट्टिया स्त्री [नर्तिका ] गानेवाली देवी देव-नटी ( जि २१) | 'नगरी स्त्री ["नगरी ] अमरावती, स्वर्ग-पुरी (१२, १५) डिक्सोभ ["प्रति क्षोभ ] तमस्काय अन्धकार ( भग ६, ५ ) । [[परिक्षोभ ] कृष्ण-राजि (भग ६५ [पर्यंत] पर्यट विशेष (ठा २, ३ – पत्र ८० ) । पसाय [प्रसाद] राजा कुमारपाल के पितामह का नाम (५) 'फलिह पुं ["परिष] तमस्काय अन्धकार (भग ६, ५) । भद्द " [भ] १ देव-द्वीप का अधिष्ठाता देव ( जीव ३) २ एक प्रसिद्ध जैनाचार्य (सार्धं ८३) । भूमि स्त्री [भूमि ] १ स्वर्ग, देवलोक । २ मरण मृत्यु 'ग्रह अन्नया य सिट्टी बिरदेवो देवभूमिमगुपतों (५२) । महामद [महाभद्र] देव-द्वीप का अद्विता देव (जीव ) महावर [महावर ] देव नामक समुद्र का अधिष्ठायक देव-विशेष ( जीव ३; इक)। रइ पुं [रति] एक राजा (भत १२२) । रक्ख पुं [रक्ष] राक्षस वंशीय एक राज कुमार ( पाउन ५, १६६) । रण न [रण्य] तमः काय, अन्धकार ( ४, २) रमण न ["रमण] १ सौभाञ्जनी नगरी का एक उद्यान (विपा १, ४) । २ रा का एक उद्यान (पउन ४५, १५) राय [राज] इन्द्र (पत्रम P, R; ve, e) 'ffe [*] नारद मुनि (पउम ११, ६८ ७८,१० ) । 'लोअ, 'लोग [क] १ स्वर्ग (भाग णाया १, ४ सुपा ६१५३ श्रा १६) । २ देव-शाति 'विहाणं भंते देवलोना पण्णत्ता ? गोयमा चउब्विहा देवलोगा पण्णत्ता, तं जहा - भवरणवासी, वारणमंतरा जोइसिया, वेमारिया' (भग ५, ९ ) । 1 पाइअसहमष्णयो "लोगगमण न [लोकगमन ] स्वर्ग में उत्पत्ति; पानोवगमरणाई देवलोगगमरणाई कुसुपचायाया पूवहिनामा' (सम १४२) "वर ' [" वर ] देव-नामक समुद्र का अधिष्ठाएक एक देव जी ३) बहू [] देवांगना, देवी (ग्रजि ३० ) । सती स्त्री [*संशति] देवकुल प्रतिबोध २ देवता के प्रतिबोध से ली हुई दीक्षा (ठा १० - पत्र ४०२ ) संणिवाद [सन्निपात] देव-समागम (ठा ३, १) । २ देव-समूह । ३ देवों की भीड़ (राय) । "सम्म ['शर्मन] । १ इस नाम का एक ब्राह्मण ( महा) । २ ऐरवत क्षेत्र में उत्पन्न एक जिनदेव (सम १५३) । 'साल न ['शाल] एक नगर का नाम ( उप ७६८ टी) । सुंदरी स्त्री [सुन्दरी] देवांगना, देवी (प्रजि २८ ) । "सुय देखो "स्य (पत्र ७) सेग बु [सेन] १ शतद्वार नगर का एक राजा, जिसका दूसरा नाम महापद्म था (ठा - पत्र ४५९ ) । २ ऐरवत क्षेत्र के एक जिनदेव ( पव ७) ३ भरत क्षेत्र के एक भावी जिनदेव के पूर्वभव का नाम ( ती १९ ) । ४ भगवान् नेमिनाथ का एक शिष्य, एक प्रन्तकृद् मुनि (अंत)। स्सन [ 'स्व] देव- द्रव्य, जिनमन्दिर-संबन्धी धन (पंचा ५) । स्य पुं ["भुख] भरतशेष के छ भनी दे (सम १५३) । ° हर न [गृह] देव-मन्दिर ( उप ४११) । इदेव ' [तिदेव] श्रन् 2 १२) [["नन्द] ऐवत क्षेत्र में बागामी उत्सर्पिणी काल में उत्पन होनेवाले बीस मिनदेव चौबीसवें (१२४)श्री [निन्दा] १ भगवान् महावीर की प्रथम माता ( श्राचा २, १५, १) । २ पक्ष की पनरहवीं रात्रि का नाम (कप्प ) प ["नुप्रिय ] भद्र, महाराय, महानुभाव, सरल-प्रकृति (श्री ११ महाअ [चायें] एक सुप्रसिद्ध जैन श्राचार्यं ( ७ ) । रन्न देखो रण (भग ६, ५) । २ देवों का क्रीड़ास्थान (जो ६) । °य पुंन [य] स्वर्ग ( उप २६४ टी ) । हिदेव पु [धिदेव ] परमेश्वर, परमात्मा, जिनदेव (सम ४३ सं For Personal & Private Use Only ४७६ ५) । विपुं [धिपति ] इन्द्र, देवनायक (सू १, ६) । देव न [देव] एक देव-विमान देवेन्द्र १३३) । कुरु स्त्री [कुरु] भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी की दीक्षा शिविका का नाम (विचार १२१ ) [क] कमानदार घूमटवाला दिव्य आसन-स्थान (भाषा २, १५, ५)7 "तमिस्स न ["तमिस्र] धन्यकार-राशि, समस्कार (भग ६,५२६० दिन्ना श्री [दत्ता ] भगवान वामुज्य की दीक्षा-शिविका (विचार १२) पलिक्सोभ ["परिक्षांम] कृष्णराजि, कृष्णवर्णं पुगलों की रेखा (भग ६, ५ - पत्र २७० ) । रमण [रमण] नन्दीश्वर द्वीप के मध्य में पूर्व दिशा स्थित एक अंजनगिरि ( पत्र २६९ टी) । वूद पुं [["व्यूह] तमस्काय (भग ६५ प २६८ ) । देव देखो दइव (उप ३५६ टी; महा हे १ १५२ टी स्तु[ि"श] जौतिष-शास्त्र का जानकार (गुपा २०१) पर [पर] भाग्य पर ही श्रद्धा रखनेवाला ( षड् ) । देवइ स्त्री [देवकी] श्रीकृष्ण की माता, आगामी उस काल में होनेवाले एक तीर्थंकर देव का पूर्व भव (पउम २०, १८५ सम १५२ : १५४) | देखो देवकी । देवउप्फ न [दे] पत्रपुष्प, पका हुआ फल (दे ५, ४९) । देवं देखो दा = दा । गहिउं [. दिव्याङ्ग] देव नन (उ ७३८) । देवगणन [देवा]" चरन' (सम्म १६० ) । देवधर देखो देवपगार (मन ६, १ २६८) । देवधगार [देवान्धकार] तिमिर-निचय अन्धकार का समूह (टा ४, २) । देवकिव्विस पुं [देवकिल्बिष ] एक प्रथम देव जाति (ठा ४, ४ पत्र २७४) । देवकिच्चिसिया स्त्री [ देवकेल्बिांपकी ] भावना- विशेष, जो अधम देव-योनि में उत्पत्ति का कारण है (ठा ४, ४) । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० पाइअसद्दमण्णवो देवकी-देसि | देव्यजाणुअ । देखो देव्व-ज (प्राकृ १८)। सशि अन्यकारी और देवकी देखो देवई । गंदण पं. [नन्दन] | देवोद पं. [देवोद] समुद्र-विशेष (जीव ३, गुण-स्थानक (पव २२) । "विराहय वि श्रीकृष्ण (वेणी १८३)। [विराधक] व्रत आदि में प्रांशिक दूषण देवय वि [दैव्य] देव-सम्बन्धी (पव १२५) । | देवोववाय पं देवोपपात] भरतक्षेत्र में लगानेवाला (भग ८, ६)। "विराहि वि देवय न [दैवत देव, देवता (सुपा १५७)। आगामी उत्सपिणी काल में होनेवाले तेईसवें ["विराधिन] वही अर्थ (णाया १, ११देवय देखो देव = देव (महा; गाया १,१८)। | जिन-देव (सम १५४)। पत्र १७१) । विगास न [वकाश देवया स्त्री [देवता] १ देव, अमर (मभि देव्य देखो दिव्य = दिव्य (उप ६८६ टी)। श्रावक का एक व्रत (सुपा ५६२)। विगा११७ अरण) । २ परमेश्वर, परमात्मा (पंचा देव्व देखो दइव (गा १३२, महा; सुर ११, सिय न [वकाशिक] वही अर्थ (प्रौप; ४. अभि ११७); ‘एसो य देवो णाम सुपा ५६६) । हिव पुं[धिप] राजा देवर देखो दिअर (हे १, १८६; सुपा ४८५)। अणाराहणीमो विरणएण' (स १२८)। ज, (पउम ६६, ५३) । हिवइ पुं[धिदेवराणी देखो देअराणी (दे १, ५१)। °ण्ण, णु वि [s] जोतिषी, ज्योतिष पति] राजा (बृह ४)। देवसिय वि देवसिक] दिवस-संबन्धी (प्रोष शास्त्र को जाननेवाला (षड् ; कप्पू)। देस देखो वेस = द्वेष (रयण ३६) । ६२६, ६३६; सुपा ४१९)। देसंतरिअ वि [देशान्तरिक भिन्न देश का. देवसिआ स्त्री [देवसिका] एक पतिव्रता स्त्री, देवण्णुअ । विदेशी (उप १०३१ टी कुप्र ४१३) । जिसका दूसरा नाम देवसेना था (पुप्फ ६७) । देस पं देश] एक सौ हाथ परिमित जमीन, देसग देखो देसय (द्र २६)। देविंद पुं [देवेन्द्र] १ देवों का स्वामी, इन्द्र 'हत्यसयं खलु देसो' (पिंड ३४४)। 'देस देसण न [देशन] कथन, उपदेश, प्ररूपण (हे ३, १६२ णाया; १, ८, प्रासू १०७)। पु.[ देश सौ हाथ से कम जमीन (पिंड (दं १)। २ वि. उपदेशक, प्ररूपक । स्त्री. २ एक प्रसिद्ध जैनाचार्य और ग्रन्थकार (भाव ३४४)। राग पुं[ राग] देश-विशेष °णी (दस ७)। २१)। सूरि . [ सूरि] एक प्रसिद्ध जैना(माचा २, ५, १,७)। देसणा श्री [देशना] उपदेश, प्ररूपण चार्य और ग्रन्थकार (कम्म ३, २४)। देस सक [देशय् ] १ कहना, उपदेश देना। देविंदय पुं [देवेन्द्रक] देवविमान-विशेष २ बतलाना। वकृ. देसयंत (सुपा ४८५; देसय वि [देशक] १ उपदेशक, प्ररूपक (देवेन्द्र १२८)। सुर १५, २४८)। संकृ. देसित्ता (हे १, (सम १) । २ दिखलानेवाला, बतलानेवाला देविड्ढि स्त्री [देवद्धि] १ देव का वैभव । ८८)। (सुपा १८६)। २ पुं. एक सुप्रसिद्ध जैन प्राचार्य और ग्रन्थकार देस पं देश] १ अंश, भाग (ठा २, २ | देसराग वि [ देशराग] 'देशराग' देश में (कप्प)। कप्प)। २ देश, जनपद (ठा ५, ३; कप्पा बना हुआ, 'देसरागाणि वा' (प्राचा २, ५, देविय वि [दैविक] देव-संबन्धी (सुर ४, २३६)। प्रासू ४२)। ३ अवसर (विसे २०६३)। १, ७)। देविल पुं [देविल] एक प्राचीन ऋषि (सूत्र ४ स्थान, जगह (ठा ३, ३)। कहा स्त्री दास वि [षिन् ] द्वेष करनेवाला (रयण [कथा] जनपद-वार्ता (ठा ४, २)। काल १, ३, ४, ३)। देखो याल (विसे २०६३)। 'जइ पुं. देसि । विदेशिन् १ अंशी, प्रांशिक, देवी स्त्री [देवी] १ देव-स्त्री (पंचा २)। २ ["यति] श्रावक, उपासक, जैन गृहस्थ देसि भागवाला (विसे २२४७) । २ रानी, राज-पत्नी (विपा १, १५) । ३ दुर्गा, (कम्म २ टीः आउ)। णु वि ["ज्ञ] | दिखलानेवाला । ३ उपदेशक (विसे १४२५, पार्वती (कप्पू)। ४ सातवें चक्रवर्ती और देश की स्थिति को जाननेवाला (उप १७६ भास २८)। अठारहवें जिन-देव की माता (सम १५१; टी)। भासा स्त्री [भाषा] देश की बोली देसिअ वि [देश्य, दैशिक] देश में उत्पन्न, १५२)। ५ दशवें चक्रवर्ती की अग्र-महिषी (बृह ६) । भूसण पुं [भूषण] एक देश संबन्धी (उप ७६८ टी: अच्च ६)। सद्द (सम १५२)। ६ एक विद्याधर-कन्या (पउम केवलज्ञानी महर्षि (पउम ३६, १२२)। पू[शब्द] देशीभाषा का शब्द (वजा ६)। 'याल पुं [ काल] प्रसंग, अवसर, योग्य देसिअ वि [देशित] १ कथित, उपदिष्ट । देवीकय वि[देवीकृत] देवी से बनाया हुमा, समय (पउम ११, १३) । 'राय वि २ उपदर्शित (दै २२, प्रासू ५२, १३३; 'अणिमिसणपणो सभलो जीए देवीको [राज] देश का राजा (सुपा ३५२)। भवि)। लोगों (गा ५६२)। वगासिय देखो वगासिय (सुपा ५६९)। देसिअ वि [देशिक] बृहत्क्षेत्र-व्यापी, देवुकलिआ स्त्री [देवोत्कलिका] देवों की विरइ स्त्री [विरति] श्रावक धर्म, जैन | विस्तीर्ण (भाचा २, १, ३, ७)। ठठ, देवों की भीड़ (ठा ४, ३) । गृहस्थ का व्रत, अणुव्रत, हिंसा आदि का देसिअ वि [देशिक] १ पथिक, मुसाफिर देवेसर ' [देवेश्वर] इन्द्र, देवों का राजा प्रांशिक त्याग (पंचा १०)। "विरय वि | (पउम २४, १६, उप पू ११५) । २ उप(कुमा)। [विरत] श्रावक, उपासक । २ न. पाँचवाँ । देष्टा, गुरु (विसे १४२५) । ३ प्रोषित, प्रवास भाषा भूषण] एक शब्द] देशीभाषा का कथित, उपदिष्ट । For Personal & Private Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देसिअ - दोभाय पाइअसद्द महण्णवो में गया हुआ (सुर १०. १६२ ) । सहा स्त्री दोइ देखो दो = द्विधा (बृह ३) । [सभा ] धर्मशाला (उप पृ ११५) । दोंर [दे] देखो दोबुर (षड् ) । देसिअ देखो ट्रेनसिअ; 'पडिक्कमे देसिश्रं सव्वं' दोकिरय वि [द्विक्रिय] एक ही समय में दो (पडि, श्रा ६) । क्रियाओं के अनुभव को माननेवाला (ठा ७) । देवि वि [देशितवत् ] जिसने उपदेश दोकर देखो दुक्कर (भवि ) । दिया हो वह ( सून १, ६, २४) । दोक्खर देसिलग देखो देसिअ = देश्य (बृह ३) । (बृह ४) । देसी स्त्री [देशी] भाषाविशेष, अत्यन्त प्राचीन प्राकृत भाषा का एक भेद (दे १, ४) । 'भामा स्त्री [°भाषा] वही अर्थ (गाया १ १. धौप) । [ द्वि-अक्षर ] षण्ड, नपुंसक देसृण वि [देशोन] कुछ कम, अंश की कमीवाला (सम २ १०३ दं २८ ) । देस्स वि [दृश्य] १ देखने योग्य । २ देखने को शक्य ( स १६९) । देह देखो देक्ख । देहई, देहए (उत्त १९ ६ पि ६६) । वकृ. देहमाण (भग ६, ३३) । देह पुंन [देह] १ शरीर, काय (जी २८ कुप्र १५३ प्रासू १५) । २ पुं. पिशाच- विशेष (इ) पण १) । रयन [रत ] मैथुन ( वा १०८ ) । देहं बलिया स्त्री [देहबलिका ] भिक्षावृत्ति, भीख की प्राजीविका (खाया १, १६ – पत्र १६) । देहणी स्त्री [दे] पंक, कर्दम, कादा, काँदो (दे ५, ४८ ) । देहरय (अप) न [देवगृहक] देव-मन्दिर (वजा १०८ ) । देहली स्त्री [देहली] चौखट, द्वार के नीचे की लकड़ी (गा ५२५ दे १, ९५; कुप्र १६३) । देहि [देहिन] श्रात्मा, जीव ( स १६५ ) । देहुर (अप) न [देवकुल] देव-स्थान, मन्दिर (भवि ) । दो [द्विधा ] दो प्रकार से, दो तरह (सुपा २३३ ३१२) । दो त्रि. ब. [ द्वि] दो, उभय, युग्म (हे १; ε४) । दो Î [ दोस् ] हाथ, बाहु (विक्र ११३० रंभा कप्पू) । दो [द्विपदी] छन्द - विशेष (पिंग ) । दोआलपुं [दे] वृषभ, बैल (दे ५, ४९) । ६१ दोखंड देखो दुखंड (भवि ) । दोखं डअ वि [द्विखण्डित ] जिसके दो टुकड़े किए गए हों वह (भवि ) । दोगंछि वि [जुगुप्सिन्] घृणा करनेवाला (पि ७४) । दोगञ्च न [दौर्गत्य] १ दुर्गति, दुर्दशा (पंचत्र ४) । २ दारिद्रय, निर्धनता (सुपा २३० ) । दोगुंछि देखो दोग॑छि (पि २१५) । दोदय पुंन [दोगुन्द] एक देव-विमान (देवेन्द्र १४५) । दोगुंदुय पुं [दौगुन्दक] उत्तम-जातीय देवविशेष (सुपा ३३) । दोग्ग न [ दे] युग्म, युगल (दे ५, ४१: षड्)। दोग्गइ देखो दुग्गइ (सुर ८, १११) । कर [र] दुर्गंति-जनक (पउम ७३, १०) । दोग्गश्च देखो दोगश्च (गा ७६) । घ) [ ] हाथी, हस्ती ( पि ४३६, दोग्धो दोषट्ट ४६१) । दोचूड पु' [द्विचूड] विद्याधर वंश के एक राजा का नाम ( पउम ५, ४५ ) । दोश्च वि [ द्वितीय] दूसरा (सम २, ८ विपा १, २) । दोश्च न [दोत्य] द्वतपन, दूत- कर्म ( खाया १, ८गा८४) । दोश्चं अ [ द्विस् ] दो बार दो वक्तः एवं च निसामित्ता दोच्च तच्वं समुल्लवंतस्स (सुर २, २६) । दोचंग न [द्वितीयाङ्ग] १ दूसरा भंग । २ पकाया हुआ शाक (बृह १) । ३ तीमन, कढ़ी (प्रोष २६७ भा) । दोजीह पु' [द्विजिहव] १ दुर्जन । २ साँप (सुर १, २०) । दोझ वि [दोहा ] दोहने योग्य ( चाचा २, ४, २) । For Personal & Private Use Only ४८१ दोण ' [ द्रोण] १ धनुर्वेद के एक सुप्रसिद्ध श्राचार्य, जो पाण्डव और कौरवों के गुरू थे ( गाया १. १६ वेणी १०४ ) । २ एक प्रकार का परिमाण (जो २) । रहन ["मुख] नगर, जल और स्थल के मार्ग वाला शहर (पह १, ३ कप्पः श्रौर)। नेह पुं [*मेघ] मेघ - विशेष, जिसकी धारा से बड़ी कलशी भर जाय वह वर्षा (विसे १४५८ ) । "सुया स्त्री [सुता ] लक्ष्मण की स्त्री का नाम, विशल्या (पउम ६४, ४४ ) । दोण पुं [दे] १ श्रयुक्त, गाँद का मुखिया २ हालिक, हलवाह, हल जोतनेवाला, हरवारा (दे ५, ५१) । दोणका स्त्री [दे] सरघा, मधुमक्खी (दे ५, ५१) । दोणी स्त्री [द्रोणी] १ नौका, छोटा जहाज (ह १, १ दे २, ४७ घम्म १२ टी ) । २ पानी का बड़ा कुँडा (अरण कुत्र ४४१ ) । दोत्तडी स्त्री [दुस्तटी] दुष्ट नदी, 'एकत्तो सद्द लो अन्नत्तो दोत्तडी वियडा (उप ५३० सुपा ४६३) । दोत्थ न [दौस्स्थ्य ] दुस्स्थता, दुर्दशा, दुर्गंति ( ४६ ७) । दोद्दाण वि [दुर्दान ] दुःख से देने योग्य (effer x) 1 दोदिअ पुं [दे] -कूपः चमड़े का बना हुश्रा भाजन- विशेष (दे ५, ४९) । दो वि [ दो ] दोहन कर्ता ( दस १, १ टी ) । दोधअ न [ दोधक ] छन्द - विशेष दोधक (पिंग)। } दोधार पुं [द्विधाकार ] द्विधाकरण, दो भाग करना (ठा ५, ३ पत्र ३४६ ) । दोनिकम वि [दुर्निक्रम] म्रव्यन्त कष्ट से चलने योग्य (भग ७, ६ – पत्र ३०५ ) । दोबुर पुं [दें] तुम्बुरु, स्वर्ग-गायक (षड् ) । दोब्बलिय देखो दुब्बलिय (माचा २, ३, २, ३) । दोब्बल्ल न [दौर्बल्य] दुर्बलता ( प २८७ कात्र ८५) । दोभाय वि [द्विभाग ] दो भागवाला, दो खण्डवाला (उप १४७ टी) । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ पाइअसहमहण्णवो दोमणंसिय-दोहि दोमणंसिय वि [दौर्मनस्यिक खिन्न, शोक- दोविह देखो दुविह (उत्त २: नव ३)। दोसियण्ण न [दोषिकान] बासी अन्न ग्रस्त (ठा ५, २–पत्र ३१३)। दोवेली स्त्री [दे] सायंकाल का भोजन (दे ५, । (राज)। दोमणस्स न [दौर्मनस्य वैमनस्य, द्वेष, । दोसिल्ल वि [दोषवत् ] दोष-युक्त (धम्म मन की दुप्ता (सन २, २, ८२, ८३)। दोव्वल देखो दोब्बल (से ४, ४२, ८, ११ टी)। दोमासिअ वि [द्वैमासिक] दो मास का ८७)। दोसिल्ल वि [दे] द्वेष-युक्त, द्वेषी (विसे (भगः सुर १४, २२८)। स्त्री. आ (सम दोस देखो दूस = दूष्य (प्रौप; उप ७६८ टी)। १११०)। २१)। दोस पुं [दोष दूषण, दुगुण, ऐब (मौपः । दोसीण न [दे] रात का बासी अन्न (पग्रह २, दोमिय (अप) देखो दृमिअ = दावित (भवि) । सुर १, ७३, स्वप्न ६० प्रासू १३) । न्नु ५ ओघ १४५) । वि [s] दोष का जानकार, विद्वान् (पि | दोसील वि [दुरशील] दुष्ट स्वभाववाला (पव दोमिली स्त्री [दोमिली] लिपि-विशेष (राज)। १०५)। ह वि [१] दोष-नाशक; 'कुवंति ७३) । दोमुह वि [द्विमुख] १ दो मुँहवाला । २ पोसह दोसहं सुद्ध' (सुपा ६२१)। दोसोलह त्रि. ब. [द्विषोडशन् ] बत्तीस, पुं. नृप-विशेष (महा) । ३ दुर्जन (गा २५३)। दोस पुंदे] १ अर्ध, प्राधा (दे ५, ५६)। २ ३२ (कप्पू)। दोर पुं. [दे] १ डोरा, धागा, सूत (पउम ४, कोप, क्रोध, गुस्सा(दे ५, ५६ षड् )। ३ द्वेष, दोह सक [ह.] द्रोह करना । वकृ. दोहंत ५०; कुप्र २२६; सुर ३, १४१)। २ छोटी द्रोह (प्रौपः कप्पा ठा १; उत्त ६; सून १, (संबोध ४)। रस्सी (मोघ २३२; ६४ भा)। ३ कटि-सूत्र दोह पं. [दोह] दोहन (दे २, ६४)। १६; पएण २३, सुर १, ३३; सण; भविः दोह वि [दोझ दोहने योग्य (भास ८९)। कुप्र ३७१)। दोरिया देखो दोरी (सिरि ६३)। दोह [द्रोह] ईर्ष्या, द्वेष (प्रातः भवि)। दोस पु [दोस] हाथ, हस्त, बाहु (से दोरी स्त्री [दे] छोटी रस्सी (श्रा १६)। दोहग्ग न [दौर्भाग्य] दुष्ट भाग्य, दुरदृष्ट, २,१)। | कमनसीबी (पएह १, ४. सुर ३, १७४; गा दोल प्रक [दोलय] १ हिलना । २ झूलना। दोसणिज्जत (दे] चन्द्र, चन्द्रमा, चांद (दे दोलइ (हे ४, ४८) । दोलंति (कप्पू)। ५,५१)। २१२)। दोसा स्त्री [दोषा] रात्रि, रात (सुर १,२१)। दोहग्गि वि [दौर्भागिन्] दुष्ट भाग्यवाला, दोलणय न [दोलनक] झूलन, अन्दोलन दोसाकरण न दे] कोप, क्रोध (दे ५,५१)। कमनसीब, मन्द-भाग्य (श्रा १६)। (दे ८, ४३)। दोसाणिअ विदे] निर्मल किया हुआ (दै दोहण न [दोहन] दोहना, दूध निकालना दोलया। स्त्री [दोला झूला, हिंडोला (सुपा (पएह १, १)। वाडण न [ पाटन ] दोला । २८६ कुमा)। दोसायर [दोषाकर] १ चन्द्र, चाँद (उप दोहन-स्थान (निचू २)। दोलाइय वि [दोलायित] १ हिला हुआ। ७२८ टी; सुपा २७५) । २ दोषों को खान, दोहणहारी स्त्री [दे] १ दोहनेवाली स्त्री (दे २ संशयित (हेका ११९)। दुष्ट (सुपा २७५)। १, १०८ ५, ५६) । २ पनिहारी, पानी दोलायमाण वि [दोलायमान] १ हिलता दोसारअण पुंदे. दोषारत्न] चन्द्र, चाँद भरनेवाली स्त्री, पनहारिन (दे ५, ५६) । हुमा । २ संशय करता हुमा (सुपा ११७ (षड्)। दोहणी स्त्री [दे] पंक, कादा, कर्दम (दे ५, गउड)। | दोसासय पुं[दोषाश्रय] दोष-युक्त, दुए ४८)। दोलिया देखो दोला (सुर ३, ११६)। (पउम ११७, ४१)। दोहय वि [दोहक दोहनेवाला, (गा ४६२)। दोलिर वि [दोलायत झूलनेवाला (कुमा)। दोसि वि दोपिन् ] दोषवाला, दोषी (कुप्र दोहय वि [द्रोहक] द्रोह करनेवाला, ईर्ष्यालु दोव पुं[दोव] एक अनार्य जाति (राज)। ४३८)। (उप ३५७ टी; भवि)। दोवई स्त्री [द्रौपदी] राजा द्रुपद की कन्या, दोसिअ ' [दौष्यिक] वस्त्र का व्यापारी दोहल 'दोहद] गर्भिणी स्त्री का मनोरथ पाण्डव-पत्नी (गाया १,१६, उप ६४८ टी; (श्रा १२ वजा १६२)। (हे १, २१७; २२१; कप्प)। पडि)। दोसिण [दे] देखो दोसीण (पएह २, ५)। दोहा अद्विधा] दो प्रकार (हे १, ९७)। दोवयण देखो दुवयण = द्विवचन (हे १, दोसिणा [दे] नीच देखो (ठा २, ४-पत्र दोहाइअ वि [द्विधाकृत] जिसका दो खण्ड ६४ कुमा)। ८६)। °भा स्त्री [ भा] चन्द्र की एक पट- किया गया हो वह (हे १, ६७ कुमा)। दोवार (अप) देखो दुवार (सण)। रानी (ठा ४, १; इक पाया २)। दोहासल न [दे] कटी-तट, कमर (दे ५, दोवारिज । [दौवारिक] द्वारपाल, दर- दोसिणी स्त्री [दे. दोषिण] ज्योत्स्ना, चन्द्र- ५०)। दोवारिय ) वान, प्रतीहार (निचू ; णाया प्रकाश (दे ५, ५०); 'ससिजुबहा दोसिणी दोहि वि [दोहिन] झरनेवाला, टपकनेवाला १, १७ भग ६, ५, सुपा ४२६)। जत्थ' (कुप्र ४३८)। । (गा ६३६)। For Personal & Private Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहि-धण पाइअसहमहण्णवो ४८३ दोहि वि [द्रोहिन द्रोह करनेवाला (भवि)। दोहित्ती स्त्री [दौहित्री] लड़की की लड़की, द्रवक (अप) न [दे. भय भय, डर, भीति नतिनी (महा)। (हे ४,४२२)। दोहिण्ण वि [द्विभिन्न] द्विखण्ड, जिसका दोहूअ [दे] शव, मृतक, मुरदा (दे ५, द्रह ' [ह्रद] बड़ा जलाशय, सरोवर, झील दो टुकड़ा किया गया हो वह (प्राकृ ५१)। ४६)। (हे २, ८०कुमा)। दोहित पं. दिौहित्र लड़की का लड़का, नाती | °होस देखो दोस= (दै); 'वजियराग बोसो दहि (अप) स्त्री [दृष्टि] नजर (हे ४, ४२२)। (दै ६, १०६; सुपा ३९४) । (कुप्र ३०)। द्रोह देखो दोह - द्रोह (पि २६८)। ॥ इम सिरिपाइअसहमहण्णवम्मि दमाराइसहसंकलणो पंचवीसइमो तरंगो समत्तो॥ धपुं[ध] दन्त-स्थानीय व्यञ्जन वर्ण-विशेष धंस सक [ध्वंसय] १ नाश करना। २ | धज्जुण धृष्टद्युम्न] राजा द्रुपद का (प्राप; प्रामा)। दूर करना । धंसइ (सूत्र १, २, १)। धंसेइ | धटुंज्जुण्ण एक पुत्र (हे २, ६४ रणाया धअ देखो धव (गा २०)। (सम ५०)। । १, १६; कुमा; षड् पि २७८)। धंख पुं [ध्वाङक्ष] काक, कौमा (उप ८२३ | धंसाड सक [मुच् त्याग करना, छोड़ना। | धड न [दे] घड़, गले से नीचे का शरीर पंचा ११)। धंसाडइ (हे ४, ६१)। (सुपा २४१)। धंग पुं[दे] भौंरा, भ्रमर, भमरा (दे ५,५७)। धंसाडिअ वि [मुक्त परित्यक्त, छोड़ा हुआ धडहडिय न [दे] गर्जना, गरिव (सुपा धंत न [ध्वान्त] अन्धकार, अँधेरा (सुर १, (कुमा)। १२ करु ११)। धंसाडिअ वि [दे] व्यपगत, नष्ट (दे ५, धण न [धन] १ वित्त, विभव, स्थावरधंत न [ध्वान्त] प्रज्ञान (देवेन्द्र १)। जंगम सम्पत्ति (उत्त ६; सूम २, १, प्रासू धंत न [दे] अति, अतिशय, अत्यन्तः 'धंत- धगधग भक [धगधगाय् ] १ 'धग्-धम्' ५१; ७६; कुमा)। २ गणिम, परिम, मेय, पि सुप्रसमिद्धा' (पञ्च २६; विसे ३०१६; आवाज करना । २ जलना, अतिशय जलना। या परिच्छेद्य द्रव्य-गिनती से और नाप आदि बृह १)। वकृ. धगधगंत (णाया १, १, पउम १२, से क्रय-विक्रय योग्य पदार्थ (कप्प) । ३ पुं. धंत वि [ध्मात १ अग्नि में तपाया हुआ ५१, भवि)। कुबेर, धन-पतिः 'सुध णो सिट्ठी धरणोव्व (णाया १, १; औपः पराण १, १७; विसे धगधगाइअ वि [धगधगायित] 'धग-धग्' धणकलिओं' (सुपा ३१०) । ४ स्वनाम-ख्यात ३०२६; अजि १४)। २ शब्द-युक्त, शब्दित एक श्रेष्ठी (उप ५५२) । ५ धन्य सार्थवाह का मावाजवाला (कप्प)। (पिंड)। एक पुत्र (णाया १, १८)। इत्त, इल्ल धगधग्ग देखो धगधग। वकृ धगधग्गअधंधा श्री [दे] लज्जा, शरम (दे ५, ५७)। वि [वत् ] धनी, धनवाला (कुप्र २४५; माण (पि ५५८)। धंधुक्कय न [धन्धुक्कय] गुजरात का एक पि ५६५; संक्षि ३०)। "गिरि पुं["गिरि] धग्गीकय वि [दे] जलाया हुआ, अत्यन्त नगर, जो आज कल 'धंधूका' नाम से प्रसिद्ध एक जैन महर्षि, जो वज्रस्वामी के पिता थे प्रदीपितः 'अग्गी धग्गीको ब्व पवणेणं (था है (सुपा ६५८; कुप्र २०)। (कप्प; उप १४२ टी)। 'गुत्त [गुप्त धंधोलिय (मप) वि [भ्रमित] धुमाया हुआ एक जैन मुनि (प्रावम)। गोव पुं[गोप] (सरण)। धज देखो धय = ध्वज (कुमा)। धन्य सार्थवाह का एक पुत्र (णाया १,१८)। धंस प्रक [ध्वंस् ] नष्ट होना । धसइ, धसए धट्र देखो धिट्र (हे १, १३०; पउम ४६, डूढ पुं [य] एक जैनमुनि (कप्प)। । २६ कुमा १, ८२)। । गंदि पुंस्त्री [ नन्दि] दुगुना देव-द्रव्य, 'देव For Personal & Private Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ पाइअसहमहण्णवो धणंजय-धत्तरटुग दव्वं दुगुरणं घणणंदी भएणई' (दस १)। पाण्डव (वेणी ११०)। २ वहि, अग्नि। ३)। द्धय पु. [ध्वज] नृप-विशेष (ठा "णिहि ' [निधि] खजाना, भण्डार (ठा ३ सर्प-विशेष । ४ वायु-विशेष, शरीर-व्यापी ८)। 'द्धर वि ["धर] धनुविद्या में निपुण, ५. ३)। "स्य वि ["र्थिन धन का अभि- पवन । ५ वृक्ष-विशेष (हे १, १७७, २, धानुष्क (राजः पउम ६, ८७)। "पिट न लाषो (रयण ३८)। "दत्त ['दत्त १ १८५ पड्)। ६ उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र का [पृष्ट] १ धनुष का पृष्ठ-भाग। २ धनुष एक सार्थवाह । २ तृतीय वासुदेव के पूर्व गोत्र (इक)। ७ पक्ष का नववा दिन (जो | के पीठ के प्राकारवाला क्षेत्र (सम ७३) । जन्म का नाम (सम १५३; एंदिः पावम)। ४)। ८ श्रेष्ठि-विशेष (प्राव ४)। ६ एक पुहत्तिया स्त्री [पृथक्त्विका ] दो कोस, "देव पुं [देव] १ एक सार्थवाह, | राजा (प्रावम)। गव्यूति (पएण १)। "वेअ, वेअ पुं मएि डक-गणधर का पिता (प्रावम; पाच धणि [ध्वनि ] शब्द, आवाज (विसे, [°वेद] धनुर्विद्या-बोधक शास्त्र. इषु-शास्त्र १)। २ धन्य सार्थवाह का एक पुत्र (णाया १५०)। (उप ६८६ टीः सुपा २७०; जं २)। हर १; १८) । पइ देखो वइ (विपा २.१)। धणि स्त्री [ध्राणि] १ तृप्ति, सन्तोष (प्रौप)। देखो 'धर (भवि)। पवर प्रवर] एक श्रेषी (महा)। २ अतृप्ति उत्पन्न करने की शक्ति; 'भमिरिण- | धण पूंन [धनुस 1 ज्योतिष-प्रसिद्ध एक 'पाल पुपाल] धन्य सार्थवाह का एक वितरयाई' (पिते १६५३) । राशि (विचार १०६; संबोध ५४) । ल्ल वि पुत्र (णाया १, १८)। देखो वाल। धणि वि [धनिन] धनिक, धनवान् (हे २, [मन् ] धनुषवाला (प्राकृ ३५)। 'पभा स्त्री [प्रभा कुण्डलधर द्वीप की १५६)। धणुक्क । ऊपर देखो (एकदि; अणु; हे १, राजधानी (दीव)। °मंत, मण वि [वत्] धणि पुं [धनिक] यवन-मत का प्रवर्तक धणुह । २२; कुमा)। धनी, धनवान (पिंगः हे २, १५६; चंड)। पुरुष-विशेष (मोह १०११०२)। धणुही स्त्री [धनुष] कामुक, 'वसाम्रो व मित्त पुरा मित्र एक जनमुनि (पउम धणिअ वि [धनिक] १ पैसादार, धनी (दे| धरणहीमो गुणबद्धामोवि पयइकुडिलाप्री' २०, १७१)। य [द] १ एक साथ (कुप्र २७४ स ३८१)। वाह (सुपा ५०६)। २ एक विद्याधर राजा, जो राजा रावण की मौसी का लड़का था धणेसर [धनेश्वर] एक प्रसिद्ध जैनमुनि धणिअनदे] अत्यन्त, गाढ़, अतिशय (दे (पउम ८, १२४)। ३ कुवेर (महा)। ४ और ग्रन्थकार (सुर १, २४६; १६, २५०)। ५,५८, प्रौपः भगः महा: कप्पः सुर १, वि. धन देनेवाला; 'धणो घणत्थिाणं' १७५; भत्त ७३; पच्च ८२, जीव ३; उत्त धण्ण पुं[धन्य] १ एक जैनमुनि। २ (रयण ३८)। 'रक्खिय पुं [रक्षित] १ वव २ स ६६७)। 'अनुतरोपपातिकदसा' सूत्र का एक अध्ययन धन्य सार्थवाह का एक पुत्र (णाया १, १८)। धणि वि [धन्य धन्यवाद के योग्य, (अनु २)। ३ यक्ष-विशेष (विपा २, २)। 'बइ पुं[पति] १ कुबेर (गाया १, ४- प्रशंसनीय, स्तुतिपात्र; 'जाण घरिणयस्प ४ वि. कृतार्थ । ५ धन-लाभ के योग्य । ६ पत्र उप पृ१८०; सुपा ३८)। २ एक पुरो निवडंति रणम्मि असिवाया' (पउम | स्तुति-पात्र, प्रशंसनीय । ७ भाग्यशाली, राजकुमार (विपा २, ६)। वई श्री ५६. २५ अच्नु ४२)। भाग्यवान् (गाया १, १; कप्प; प्रौप)। [वता] एक साधंवाह-पुत्री (दंस १)। धणिआ स्त्री [दे] १ प्रिया, भार्या, पत्नी | धण्ण देखो धन = धान्य (श्रा १८; ठा ५, वंत, वत्त देखो मंत (हे २, १५६%; । (दे ५, ५८; गा ५८२; भवि) । २ धन्या, ३, वव १)। चंड)। वह पुं[वह] १ एक श्रेष्ठी (दंस | स्तुति-पात्र स्त्री ( षड्)। धण्णंतरि धन्वन्तरि] १ राजा कनकरथ १)। २ एक राजा (विपा २,२)। चाल धणिटा श्री धिनिया नक्षत्र-विशेष (सम । का एक स्वनाम-ख्यात वैद्य (विपा १.८)। देखो पाल। २ राजा भोज के समकालिक । १०० १३; सुर १६, २४६ इक)। २ देव-वैद्य (जय २)। एक जैन महाकवि (घण ५०)। "संचया धणी स्त्री [दे] भार्या, पत्नी। २ पर्याप्ति। धण्णाउस वि दे] १ जिसको आशीर्वाद श्री [संचया] एक वरिणग्-महिला (महा । ३ जो बँधा हुआ हाने पर भी भय-रहित हो सम्म पुं शर्मन] एक वणिक् (गच्छ दिया जाता हो वह । २ पुं. आशीर्वाद (दे | वह (दे ५, ६२), 'सयमेव मंकणीए धणीए। ५,५८)। २)। "सिरी स्त्री ["श्री] एक वणिग्-महिला । तं कंकणी बद्धा' (कुप्र १८५)। (माव ४) सेण पुं [सेन] एक राजा धत्त वि [दे] १ निहित, स्थापित (प्रावम)। (दंस ४)। ल वि [°वत् ] धनी (प्राप्र)। धणु पुन [ धनुष्] १ धनुष, चाप, कामुक २ पुं. वनस्पति-विशेष (जीव १)। "वह वि [वह] १ घन को धारण (षड् , हे १, २२)। २ चार हाथ का करनेवाला, धनी। २ पुं. एक श्रेष्ठी (दंस परिमाण (अणुः जी २६)। ३ पुं. परमा धत्त वि [धात्त निहित, स्थापित (राज)। ४) । ३ एक राजा (विपा २, २)। धार्मिक देवों की एक जाति (सम २६)। धत्तरट्रग पुं [धार्तराष्ट्रक] हंस की एक 'कुडिल न [कुटिलधनुष्] वक्र धनुष जाति, जिसके मुंह और पॉव काले होते हैं धणंजय पुं [धनञ्जय] १ अर्जुन, मध्यम (राय)। 'गह पु[ग्रह] वायु-विशेष (बृह। (पएह १, १) । For Personal & Private Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धत्ती-धम्म पाइअसहमहण्णयो ४८५ धत्ती स्त्री [धात्री] १ धाई, उपमाता, दाई | धमणि । स्त्री [धमनि, नी] १ भना, [ख्याति] धर्म से ख्यातिवाला, धर्मात्मा (स्वप्न १२२) । २ पृथिवी, भूमि । ३ प्राम धमणी धमनी, धौंकनी। २ नाड़ी, सिरा । (प्रौप)। गुरु पं [गुरु] धर्म-दर्शक गुरु, लकी-वृक्ष, प्रविले का पेड़ (हे २,८१) । देखो (विपा १, १, उवा: अंत २७)। धर्माचार्य (द्र १)। गुव वि [गुप] धर्मधाई। धमधम अक [धमधमाय ] 'धम्-धम्' रक्षक (षड् )। 'घोस पुं[घोष] कईएक धत्तूर पु [धत्तर] १ वृक्ष-विशेष, धतूरा। प्रावाज करना; 'धमधमइ सिरं धणियं जायइ जैन मुनि और प्राचार्यों का नाम (पाचू १; ती २ न. धतूरा का पुष्प (सुपा १२४) । सूलंपि भज्जए दिट्ठी' (सुपा ६०३)। वकृ. ७ पाव ४, भग ११, ११)। 'चक न धत्तूरिअ वि [धात्तूरिक] जिसने धतूरा का धमधमंत, धमधमाअत, धमधमेत (सुपा [चक्र] जिनदेव का धर्म-प्रकाशक चक्र (पव नशा किया हो वह (सुपा १२४० १७६)। ११४, नाट-मालती ११६ पाया १,८)। ४०; सुपा १२)। 'चकवट्टि [चक्रधत्य वि [ध्वस्त ध्वंस-प्राप्त, नट, नाश हुआ धमास पुं [धमास] वृक्ष-विशेष (परण वर्तिन्] जिन-देव (प्राचू १)। चक्कि पुं (हे २, ७६; सण)। १७)। [चक्रिन्] जिन भगवान् (कुम्मा ३०)। धन्न देखो धण्ण = धन्य (कुमा; प्रासू ५३; | धमिअ विध्मात] जिसमें वायु भर दिया जगणी स्त्री जननी] धर्म की प्राप्ति ८४: १५५; उवा)। गया हो वहः 'धमिलो संखों (कुप्र १४६)। करानेवाली स्त्री, धर्म-देशिका (पंचा १६)। धन्न न [धान्य] १ धान, अनाज, अन्न (उवाः धमिय वि [ध्मात] प्राग में तपाया हुमा, °जस पुं[यशस् ] जैनमुनि-विशेष का सुर १, ४६) । २ धान्य विशेष; 'कुलत्थ तह __'धमियकणयं फुकाए हारविदं हुज्ज' (मोह नाम (माव ४)। जागरिया स्त्री [जागर्या] धन्नय कलाया' (पव १५६)। ३ धनिया ४७)। (दसनि ६)। कीड पुं [कीट] नाज में धम्म पु [धर्म १ एक देव-विमान (देवेन्द्र १ धर्म-चिन्तन के लिए किया जाता जागरण १४३) । २ एक दिन का उपवास (संबोध (भग १२, १)। २ जन्म से छठवें दिन में होनेवाला कोट, कीट-विशेष (जी १७) । किया जाता एक उत्सव (कप्प) । ज्झय पुं "णिहि पुंस्त्री [निधि] धान रखने का घर, ५८)। धम्म पुंन [धर्म] १ शुभ कर्म, कुशल-जनक कोष्ठागार, भंडार (ठा ५,३ )। पत्थय पु [ध्वज] १ धर्म-द्योतक ध्वज, इन्द्र-ध्वज (राय)। २ ऐरवत क्षेत्र के पांचवें भावी [प्रस्थक] धान का एक नाप (वव १)। अनुष्ठान, सदाचार (ठा १० सम १, २, प्राचा; जिन-देव (सम १५४)। सूम १६, प्रासू ५२, ११४० सं ५७)। २ ज्झाण न "पिडग न [पिटक] नाज का एक नाप [ध्यान] धर्म-चिन्तन, शुभ ध्यान-विशेष (वव १)। जिय न [पुञ्जितधान्य] पुण्य, सुकृत (सुर १, ५४ भाव ४)। ३ (सम ६) । उझाणि वि [ ध्यानिन्] धर्म स्वभाव, प्रकृति (निचू २०)। ४ गुण, पर्याय इकट्ठा किया हुआ अनाज (ठा ४, ४)। 'विक्खित्त न [विक्षिप्रधान्य] विकीर्ण (ठा २, १)। ५ एक अरूपी पदार्थ, जो ध्यान से युक्त (आव ४)। "ट्रिवि आर्थिन] अनाज (ठा ४, ४)। °विरल्लिय न [विरल्लितजोव को गति-क्रिया में सहायता पहुँचाता है | धर्म का अभिलाषी (सून १, २, २ । (नव ५)। ६ वर्तमान अवसर्पिणी काल में णायग वि ["नायक] १ धर्म का नेता धान्य] वायु से इकट्ठा किया हुआ अनाज (ठा ४.४) । संकड्ढिय न [ संकर्पितधान्य] उत्पन्न पनहरखें जिन-देव (सम ४३, पडि)। (सन १; पडि)। ण्णु वि [ज्ञ] धर्म का खेत से काटकर खले-खलिहान में लाया गया ७ एक बरिणत (उप ७२८ टी)। ८ स्थिति, ज्ञाता (दंस ४) । "तित्थयर पुं ["तीर्थकर] धान्य (ठा ४, ४)। गार न [गार] मर्यादा (प्राचू २)। ६ धनुष, कामुक (सुर जिनभगवान् (उत्त २३; पडि)। "त्य न कोष्ठागार, धान रखने का गृह (निचू ८)। १,५४, पाम) । १० एक जैन मुनि (कप्प)। [ ] अस्त्र-विशेष, एक प्रकार का हथियार धन्ना स्त्री [धान्य अन्न, अनाज: 'सालिज- ११ 'सूत्रकृताङ्ग' सूत्र का एक अध्ययन (सम (पउम ७१, ६३)। स्थि देखो ट्ठि (पंचव वाईयाओ धन्नामो सव्वजाईप्रो (उप ४२)। १२ प्राचार, रीति, व्यवहार (कप्प)। ४)। स्थिकाय पुस्तिकाय] गति९८६ टी)। 'उत्त पुं[पुत्र] शिष्य (प्रारू)। उर न क्रिया में सहायता पहुंचाने वाला एक प्ररूपी धन्ना स्त्री [धन्या] एक स्त्री का नाम (उवा)। ["पुर] नगर-विशेष (दंस १) । कखिम पदार्थ (भग)। दय वि [य] धर्म की धम सक ध्मिा ] १ धमना, धौंकना, प्राग में वि [काक्षित] धर्म की चाहवाला (भग)। प्राप्ति करानेवाला, धर्म देशक (भग)। दार तमाना। २ शब्द करना। ३ वायु पूरना । | कहा स्त्री [कथा] धर्म-सम्बन्धी बात न [ द्वार] धर्म का उपाय (ठा ४, ४) । धमइ (महा)। धमेइ (कुध १४६)। वकृ. (भग; सम १२०; णाया २)। कहि वि | दार पु.ब. [दार] धर्म-पत्नी (कप्पू) । धमंत (निचू १)। कवकृ. धम्ममाण (उवाः । [कथिन] धर्म-कथा कहनेवाला, धर्म का दास [दास] भगवान महावीर का णाया १,९)। उपदेशक (मोघ ११५ भा; था ६)। कामय एक शिष्य और उपदेशमाला का कर्ता धमग विध्मायक वमनेवाला (प्रौप)।। वि [ कामक] धर्म की चाहवाला (भग)। (उव)। "देव पुं[दय] एक प्रसिद्ध जैन धमण न [धमन] १ प्राग में तपाना (माचानि काय पुंकाय धर्म का साधन-भूत शरीर (प्राचार्य (साध ७८) । °देसग, दसा वि १, १,७)। २ वायु-पूरण (पएह १, १)। (पंचा १८)। क्खाइ वि [ख्यायिन्] [ देशक] धर्म का उपदेश करनेवाला (राज; ३ वि. भस्ना, धमनी, भाथी (राज)। धर्म-प्रतिपादक (प्रौप )। क्खाइ वि भगः पडि)। 'धुरा श्री [°धुरा] धर्मरूप For Personal & Private Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ धुरा (गाया १, ८) । 'नायग देखो 'णायग (भग)। पडिमा स्त्री [प्रतिमा] १ धर्मं की प्रतिज्ञा । २ धर्मं का साधन-भूत शरीर (ठा १) । पण्णन्ति स्त्री ["प्रज्ञप्ति ] धर्म की प्ररूपणा ( उवा) । पदिणी (शौ) स्त्री [पत्नी] धर्मं-पत्नी, स्त्री, भार्या (अभि २२२) । पिवासय वि[पिपासक] घमं के लिए प्यासा (भग) । [°पिवासिय] वि ['पिपासित ] धर्मं की प्यासवाला ( तंदु) । पुरिस [ पुरुष ] धर्म-प्रवर्तक पुरुष (ठा ३, १) । पलजण वि [ "प्ररअन ] धर्म में आसक्त (गाया, १, १८) प्वाइ वि [प्रवादिन] धर्मोपदेशक (प्राचानि १, ४, २) । ह [प्रभ] एक जैन प्राचार्य ( रयण ५८ ) ।प्पावाडय वि [प्रावादुक] धर्म-प्रवादी, धर्मोपदेशक (प्राचानि १, १४, १ ) । बुद्धि वि ["बुद्धि] धार्मिक, धर्मं-मति । २ पुं. एक राजा का नाम (उप ७२८ टी) । °मित्त पुं ['मित्र ] भगवान् पद्मप्रभ का पूर्वभवीय नाम (सम १५१) । [द] धर्म-दाता, घमं देशक (सम १) । रुइ स्त्री ["रुचि] १ धर्म-प्रीति ( धर्मं २ ) । २ वि. धर्म में रुचिवाला (ठा १० ) । ३ पुं. एक जैन मुनि ( विपा १, १ उप ६४८ टी) । ४ वाराणसी का एक राजा (प्रावम) । लाभ पुं ['लाभ] १ धर्म की प्राप्ति । २ जैन साधु द्वारा दिया जाता श्राशीर्वाद (सुर ८ १०६) । लाभिअ वि ['लाभित] जिसको 'धर्मलाभ' रूप आशीर्वाद दिया गया हो वह ( स ह६) । 'लाह देखो लाभ ( स ३९ ) । 'लाहण न. [लाभन] धर्मलाभ -रूप श्राशीर्वाद देना; 'कयं धम्मलाहणं' ( स ४६९ ) । लाहिअ देखो 'लाभिअ ( स १४८ ) । वंत वि [वत् ] धर्मंवाला ( श्राचा) । वय पुं [व्यय ] धर्मार्थं दान, धर्मादा (सुपा ६१७) । " "" ] धर्मं का जानकार (भाषा)। विज्ज [वैद्य] धर्माचार्यं ( पंचव १) । व्वय देखो वय (सुपा ६१७) । सद्धा स्त्री [श्रद्धा] धर्म-विश्वास ( उत्त २९ ) । सण्णा देखो 'सन्ना (भग ७, सम ६ ) । सत्य न [' शास्त्र ] धर्मं प्रतिपादक शास्त्र (दंस ४) । “सन्ना स्त्री [संज्ञा] १ धर्म-विश्वास । २ धर्म - बुद्धि ( परह १, ३) । "सारहि पु["सारथि] धर्मंरथ का प्रवर्तक, (७)ला की [शाला ] धर्म-स्थान ( करु ३३) । सील fa [शील ] धार्मिक (सूम २, २) । सीह [सिंह] १ भगवान् श्रभिनन्दन का पूर्वभवी नाम (सम १५१) । २ एक जैन मुनि (संथा ६८) । सेण पुं [सेन] एक बलदेव का पूर्वभवीय नाम (सम १५३) । इगर fa [दिकर ] धर्म का प्रथम प्रवर्तक । २ पुं. जिन देव ( धर्मं २ ) । णुट्ठाण न [नुष्ठान] धर्म का आचरण ( धर्मं १) । गुण्ण वि [s] धर्मं का अनुमोदन करनेवाला ( सू २२ गाया १, १८ ) । •ाणुयवि["नुग] धर्मं का अनुसरण करनेवाला (प)। रिपुं [चार्य] धर्मंदाता गुरु (सम १२० ) ।वाय पुं [वाद ] १ धर्मं चर्चा । २ बारहवाँ जैन अंग-ग्रन्थ, दृष्टिवाद (ठा १०) । हिगरणिय पुं [धिकरणिक] न्यायाधीश, न्यायकर्त्ता (सुपा ११७) । हिगारि वि [धिकारिन्] धर्म-ग्रहण के योग्य ( धर्म १ ) | धम्मवि [धर्म्य ] धर्म-युक्त धर्मं-संगतः 'जं तुम कहेसि तमेव धम्मं' ( महानि ४, द्र ४१) । धम्ममण पुं [दे] वृक्ष - विशेष (उप १०३१ टी; पउम ४२, ६) । धम्ममाण देखो धम । धम्मय पुं [दे] १ चार अंगुल का हस्त- व्रण । २ चण्डी देवी की नर बलि (दे ५, ६३) । धम्मि वि [ धर्मिन् ] १ धर्म-युक्त, द्रव्य, पदार्थं । २ धार्मिक, धर्म-परायण (सुपा २१ ३३६, ५०६, वजा १०६) । धम्म वि [ धमिन् ] तर्कशास्त्र - प्रसिद्ध पक्ष ( धर्मसं 25 ) । धम्मिअ ) वि [धार्मिक ] १ धर्म-तत्पर, धर्मधम्मिग ) परायण (गा १६७ उप ८९२ परह २, ४) । २ धर्म-सम्बन्धी (उप २६४; पंचा) । ३ धार्मिक-संबन्धी (ठा ३, ४ ) । धम्मिटु वि [ धर्मिष्ठ ] प्रतिशय धार्मिक (चौप सुपा १४० ) । For Personal & Private Use Only धम्म- धर धम्मिट्ठ वि [ धर्मेष्ट ] धर्मं- प्रिय (श्रौप) । धम्मिट्ठ वि [ धर्मीष्ट ] धार्मिक जन को प्रिय (श्रीप) । धम्मिल्ल ) पुंन [ धम्मिल्ल ] १ संयत केश, घम्मे } SIT हुए बाल की 'पटिया या जूड़ा'; बीच में फूल रखकर ऊपर से मोतियों की या अन्य किसी रत्न की लड़ियों से बँधा हुआ केश-कलाप (प्रात्रः षड् ; संक्षि ३) । २ पुं. एक जैन मुनि ( भाव ६) । धम्मीसर पुं [ धर्मेश्वर] प्रतीत उत्सर्पिणीकाल में भरतवर्ष में उत्पन्न एक जिन- देव (पव ७) । धम्मुत्तर वि [ धर्मोत्तर ] १ गुणी, गुणों से श्रेष्ठ (प्राचू ५ ) । २ न धर्म का प्राधान्यः 'धम्मुत्तरं वढ्ढडे (पडि ) । धोग वि[धर्मोपदेशक ] धर्मं का } धम्मोवएसय ) उपदेश देनेवाला (खाया १, १६ सुपा १७२ धर्मं २ ) । यसक [] पान करना, स्तन-पान करना । वकृ. धयंत (सुर १०, ३७) । धय पुंस्त्री [ध्वज ] ध्वजा, पताका (हे २,२७ या १, १६० परह १, ४० गा ३४ ) । स्त्री. या (पिंग)। 'वड पुं [पट] ध्वजा का वस्त्र (कुमा) । धय पुं [दे] नर, पुरुष (दे ५, ५७) । [ [] गृह, घर (दे ५, ५७) । धयरट्ठ [ धृतराष्ट्र] हंस पक्षी (पा) । धर सक [धृ] १ धारण करना । २ पकड़ना । धरइ, धरेइ (हे ४, २३४ ३३६ ) | कर्म. धरिज (पि ५३७) । वकृ धरंत, धरमाण ( सरण; भवि गा ७९१) । कवकृ. धरंत, धरेंत, धरिज्जंत, धरिज्जमाण ( से ११, १२७; १४, ८१; राज; परह १, ४; श्रौप ) । संकु. धरिडं ( कुप्र ७ ) । कृ. धरियन्क (सुपा २७२) । घर क [ धर ] पृथिवी का पालन करना । व. घरत (सुर २, १३० ) । धरन [दे] तूल, रूई (दे ५, ५७)। धर पुं [धर ] १ भगवान् पद्मप्रभ का पिता (सम १५० ) । २ मथुरा नगरी का एक राजा ( गाया १,१६) । ३ पर्वत, पहाड़ से ८, ६३; पान) । रवि [र] धारण करनेवाला (कप्प) । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धरग्ग-धसल पाइअसद्दमहण्णवो ४८७ धरग्ग [दे] कपास (दे ५, ५८)। धराविअ वि [धारित] पकड़ा हुमा (स धवल वि[धवल] १ सफेद, श्वेत (पामा धरण पुं [धरण] १ नाग-कुमार देवों का | २०६; सुपा ३२५; संक्षि ३४) । २ स्थापितः | सुपा २८५)। २ पुं. उत्तम बैल (गा ६३८)। दक्षिण-दिशा का इन्द्र (ठा २, ३, प्रौप)। 'धरावियं मडयं' (कुप्र १४०)। ३ न. छन्द-विशेष (पिंग)। "गिरि पं २ यदुवंशीय राजा अन्धक-वृष्णि का एक धरिअ वि [धृत] १ धारण किया हुआ (गा [गिरि कैलास पर्वत (ती ४६)। गेह पुत्र (अंत ३)। ३ श्रेष्ठि-विशेष (उप ७२८ । १०१; सुपा १२२) । २ रोका हुआ (स न [गेह] प्रासाद, महल (कुमा)। चंद पुं टी; सुपा ५५६) । ४ न. धारण करना २०६)। [चन्द्र] एक जैन मुनि (दं ४७)। रव पुं (से ३, ३, सार्ध ६, वजा ४८)। ५ सोलह घरिजंत । धरघृ। [व] मंगलगीत (सुपा २६५)। हर न तोले का एक परिमाण (जो २)। ६ धरना धरिजमाण [गृह] प्रासाद, महल (श्रा १२, महा)। देना, लंघन-पूर्वक उपवेशन (पव ३८)। ७ धरिणी स्त्री [धरिणी] पृथिवी, भूमि (पाप)। धवल सक [धवलय ] सफेद करना । धवलइ तोलने का साधन (जो २)। ८ वि. धारण धरित्ती स्त्री [धरित्री] पृथिवी, भूमि (धु (पि ५५७) । कवकृ. धवलिज्जत (गउड)। करनेवाला (कुमा)। पभ पुं[प्रभ] १२७; सम्मत्त २२६)। धवलक्क न [धवलार्क] ग्राम-विशेष, जो धरणेन्द का उत्पात-पर्वत (ठा १०)। धरिम न [धरिम] १ जो तराजू में तौल कर आजकल 'धोलका' नाम से गुजरात में प्रसिद्ध धरणा लो [धरणा] देखो धारणा (णंदि)। बेचा जाय वह (श्रा १८ णाया १,८)। धरणि स्त्री [धरणि] १ भूमि, पृथिवी (प्रौप; २ ऋण, करजा (णाया १,१) । ३ एक धवलण न [धवलन] सफेद करना, श्वेती तरह की नाप, तौल (जो २)। । करण (कुमा)। कुमा)। २ भगवान् भरनाथ की शासन-देवी धवलसउण दे] हंस (दे ५,५६; पाम)। (संति १०)। ३ भगवान् वासुपूज्य की प्रथम । धारयव्य देखो धर = धू। शिष्या (सम १५२, पव ६)।खील पु धरिस अक [धृष्] १ संहत होना, एकत्रित | धवला स्त्री [धवला] गौ, गैया (गा ६३८)। [कील] मेरु पर्वत (सुज ५)। 'चर . होना । २ प्रगल्भता करना, ढीठाई करना। धवलाअ अक [धवलाय ] सफेद होना । [चर] मनुष्य (पउम १०१, ४७)। °धर ३ मिलना, संबद्ध होना । ४ सक. हिंसा संबद होना । ४ सक. हिंसा धवलाअंत (गा ६) पुं धर] १ पर्वत, पहाड़ (अजि १७)।। करना, मारना । ५ अमर्ष करना, सहन नहीं | रना । ५ अमर्ष करना. सहन नहीं धवलाइअ वि [धवलायित] १ उत्तम बेल २ अयोध्या नगरी का एक सूर्य-वंशीय राजा करना । धरिसइ (राज)। की तरह जिसने कार्य किया हो वह । २ न. (पउम ५, ५०)। धरप्पवर पु[धरप्रवर] ! धरिस सक [धर्षय ] क्षुब्ध करना, विचलित उत्तम वृषभ की तरह पाचरण (साधं ६)। मेरु पर्वत (अजि १५) । धरवइ पुं [धर• करना । धरिसेइ (उत्त ३२, १२)। धवलिम पुंस्त्री [धवलिमन] सफेदपन, शुक्रता, पति मेरु पर्वत (प्रजि १७)। धरा स्त्री धरिसण न [धर्षण] १ परिभव, अभिभव । सफेदी (सुपा ७४)। [धरा] भगवान् विमलनाथ की प्रथम धवलिय वि [धसलित] सफेद किया हुआ २ संहति, समूह । ३ अमर्ष, असहिष्णुता । शिष्या (सम १५२) । यल न ["तल] (भवि)। ४ हिंसाः ५ बन्धन, योजन (निचू १, राज)। भूमि-तल, भू-तल (गाया १, २)। वइ पुं धवली स्त्री [धवली] उत्तम गौ, श्रेष्ठ गैया ६ प्रगल्भता, धृष्टता, ढीठाई (प्रौप)। [पति] भू-पति, राजा (सुपा ३३४) । (गउड)। वटु न [पृष्ठ] मही-पीठ, भूमि-तल धरत देखो धर = धृ। धव्व पु [दे] वेग (द ५, ५७)। (महा)। हर देखो धर (से ६, ३६)। धव पुंधिय१ पतिः स्वामी (गाया १, | धस प्रकधिस1१ घसना । २ नीचे १वव ७)।२ वृक्ष-विशेष (पएण १; उप धरणिंद पुं [धरणेन्द्र] नाग-कुमारों की जाना । ३ प्रवेश करना। घसइ, घसउ १०३१ टी प्रौप)। दक्षिण दिशा का इन्द्र (पउम ५, ३८)। । (पिंग)। धवक प्रक [दे] धड़कना, भय से व्याकुल धस [धस ] 'धस् ' ऐसा पावाज, गिरने धरणिसिंग पुं [धरणिशृङ्ग] मेरु पर्वत होना, धुकधुकाना । धवक्कइ (सण)। की भावाज; 'धसत्ति महिमंडले पडिमों (सुज ५)। धवक्किय वि [दे] धड़का हुआ, भयसे व्माकुल (महा; णाया १, १-पत्र ४७)। धरणी देखो धरणि (प्रासू २३; पि ५३; से बना हुआ (सण)। | धसक पुं[दे] हृदय की घबराहट की आवाज, २, २४; कुप्र २२)। धवण न [धावन] धौन, चावल मादि का गुजराती में 'धासको तो जायहिमधसका धरा स्त्री [धरा] पृथिवी, भूमि (गउड़; सुपा। (श्रा १४० कुप्र ४३५)। २०१) । 'धर, 'हर पुं [धर] पर्वत, | धवल ' [दे] स्व-जाति में उत्तम (दे ५, धसक्किा वि [दे] खूब घबड़ाया हुआ था पहाड़ (से ६, ७६, ३८ स २६९ ७०३ ५७)। १४)। उप ७६८ टी)। | धवल न [धवल] लगातार सोलह दिन का असल वि [दे] विस्तीर्ण, फैला हुआ (दे ५, धराधीस पु [धराधीश राजा (मोह ४३)। उपवास (संबोध ५८) । ५८)। For Personal & Private Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ पाइअसद्दमहण्णवो धसिअ-धारयमाण धसिज वि [धसित] घसा हुआ (हम्मीर धाड सक [निर + सारय् ] बाहर निका- घामई। स्त्री [धातकी] वृक्ष-विशेष, धाय लना। संकृ. धाडिऊण (कुप्र ८३)। कवकृ. धायई का पेड़ (पएण १: पउम ५३, धारात भा] धारण करना। धाइ, धाइ धाडिज्जत (पउम १७, २८ ३१, ११६)। ७६ ठा २, ३; सम १५२) । खंड पु. धामए (षड्) । कर्म, धीयए (पिंड)। धाड सक [ध्राट ] प्रेरणा करना । २ नाश [खण्ड] स्वनाम-ख्यात एक द्वीप (ठा २, करना । धाति (सूपनि ७०)। कवकृ.। ३; अणु)। संड पुं [°षण्ड] स्वनामधा सक [ध्य ध्यान करना, चिन्तन करना। धाडीयंत (पएह १,३-पत्र ५४)। ख्यात एक द्वीप (जीव ३ ठा ८ इक)। धाति (संक्षि ७६)। धाडण न [ध्राटन] बाहर निकालना (वव धार सक [धारय् ] १ धारण करना । २ धा सक [धाव ] १ दौड़ना । २ शुद्ध करना, करजा रखना । धारेइ (महा)। वकृ. धारंत, धोना । धाइ, धामइ (हे ४, २४०)। भवि. धाडण न [घाटन] १ प्रेरणा । २ नाश धारअंत, धारेमाण, धारयमाण, धारित धाहिइ (षड्)। (प्रौप)। (सुर ३, १९६; नाट-विक्र १०६; भगः धाइज विधावित] दौड़ा हुआ (से ८, ६८ धाडय वि [दे. ध्राट ] डाका डालनेवाला, सुपा २५४, २६४) । हेकृ. धारिलं, भवि)। 'धाडयपुरिसा हया तत्थ' (सिरि ११४६) । धारेत्तए, धारित्तए, (पि ५७३, कस; ठा धाइअसंड देखो धायइ-संड; (महा)। धाडावि वि [निस्तारित] बाहर निकाली ५, ३) । कृ. धारणिज, धारणीय, धारे यव्य (गाया १,१: भग ७, ८; सुर १४, धाई देखो धत्ती (हे २, ८१, पव ६७)।४ हुमा, निर्वासित (पउम २२, ८)। ७७; सुपा ४८२)। धाई का काम करने से प्राप्त की हुई भिक्षा धाडि वि [दे] निरस्त, निराकृत (दे ५, धार न [धार] १ धारा-संबन्धो जल । २ वि (ठा ३, ४)। ५ छन्द-विशेष (पिंग)। "पिंड धारण करनेवाला (राज)। ["पिण्ड] धाई का काम कर प्राप्त की धाडिअ वि [निःसृत] बाहर निकला हुआ धार वि [दे] लघु, छोटा (दे ५, ५६)। हुई भिक्षा (पव ६७)। (कुमा)। धारग वि [धारक] धारण करनेवाला (कप्प; धाई देखो धायई; (उप ६४८ टी)। धाडि पुं[दे] पाराम, बगीचा (दे ५, उप पृ ७५ सुपा २५४)। धाउ पु[धातु] १ सोना, चांदी, तांबा, ५६)। लोहा, राँगा, सीसा और जस्ता ये सात वस्तु धाडि वि [निस्सारित] निर्वासित, बाहर धारण न [धारण] १ धारने की अवस्था । २ ग्रहण । ३ रक्षण, रखना। ४ परिधान (जी ३)। २ गेरु, मनसिल प्रादि पदार्थ (से निकाला हुआ (पउम १०१, ६०; स २६८ करना । ५ अवलम्बन (ोपः ठा ३, ३)। ४, ४; पण्ह १, २) । ३ शरीर-धारक उप ७२८ टो)। वस्तु-कफ, वात, पित्त, रस, रक्त, मांस, धारणा स्त्री [धारणा] १ मर्यादा, स्थिति धाडी स्त्री [धाटी] १ डाकुओं का दल (सुर (प्रावम)। २ विषय ग्रहण करनेवाली बुद्धि (ठा मेद, अस्थि, मजा और शुक्र (प्रौप; कुप्र २, ४० प्रारू)। २ हमला. आक्रमण, धावा ८ दंस ५)। ३ ज्ञात विषय का अविस्मरण १५८)। ४ पृथिवी, जल, तेज और वायु ये (कप्पू)। (विसे २६१)। ४ अवधारण, निश्चय चार महाभूत (सूप १, १, १)। ५ ब्या- | धाण देखो धण्ण = धन्य (वजा १०)। (प्रावम)। ५ मन को स्थिरता । ६ घर का करण प्रसिद्ध शब्द-योनि, 'भू', 'पच्' आदि धणा स्त्री [धाना] धनिया, एक प्रकार का एक अवयव, धरनो या धरन (भग ८, २) । (मणु)। ६ स्वभाव, प्रकृति (स २४१)। मसाला (दे ७, ६६ प्रारू)। ववहार ( [व्यवहार] व्यवहार-विशेष ७ नाट्य-शास्त्र प्रसिद्ध मालत्तिका-विशेष धाणुक्क वि [धानुष्क] धनुर्धर, धनुर्विद्या में (ठा ५, २)। (कुमा २, ६६)। °य वि [ज] १ धातु से निपुण (उप पृ ८६; सुर १३, १६२, वेणी धारणा स्त्री [धारणा] मकान का खंभा, उत्पन्न । २ वस्त्र-विशेष (पंचभा)। ३ नाम, ११४: कुप्र ४५२)। धरन (पाचा २, २, ३, १ टी पव १३३) । शब्द (मए) । वाइअ वि [वादिक] धारिअ न [दे] फल-भेद (दे ५, ६०)। मौषधि प्रादि के योग से ताम्र प्रादि को सोना धारणिज देखो धार- धारय । वगैरह बनानेवाला, किमियागर (कुप्र ३६७)। धाम पुन [धामन्] अहंकार, गवं । २ रस धारणी स्त्री [धारणी] १ धारण करनेवाली आदि में लम्पटता। ३ वि. गवं-युक्त । ४ (प्रौप)। २ ग्यारहवें जिनदेव की प्रथम धाउ पुं[धात पणपन्नि नामक व्यन्तर देवों रस प्रादि में लम्पट (संबोध १६) । शिष्या (सम १५२) । ३ वसुदेव प्रादि अनेक का एक इन्द्र (ठा २, ३)। धाम न [धामन] बल, पराक्रम (प्रारा ६३; राजानों की रानी का नाम (अंतः पाचू १, धाउसोसण न [धातुशोषण] मायंबिल तप सरण)। विपा २, १० पाया १,१)। (संबोध ५८)। धाय वि [ध्रात] १ तृप्त, संतुष्ट (प्रोघ ७७ । धारणीय देखो धार = धारय । धाड मक [निर + सू] बाहर निकलना। भाः सुर २, ६७) । २ न. सुभिक्ष, सुकाल धारय देखो धारग (मोघ १, भवि)। धाडइ (हे ४; ७९)। । (बृह ५)। धारयमाण देखो धारधारय । For Personal & Private Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा-धी धारा श्री [] रा पुनः रा-भूमि का अग्रभाग (दे ५, ५९ ) । धारा स्त्री [धारा] १ अन के आगे का भाग, धार (गउडः प्रासू ε२ ) २ प्रवाह गाली (महा)। ३ श्रश्व की गति- विशेष (कुमाः महा) । ४ जल धारा, पानी की धारा । ५ वर्षा, वृष्टि । ६ द्रव पदार्थों का प्रवाह रूप से पतन (गउड) । ७ एक राज - पत्नी (प्रावम) । "कच कदम्ब] कदम्ब की एक वापर विभाषदनेवाला (चित्र [व] भार पुं [ (कुमा जाति जो सुपा ५४ ) । = घर घर मे (२०१) धायी देखी घाई पानी (उप १३ ध्येय ध्यान योग्य निय न [ वारि] धारा से गिरता जल (भग १३ ६) वारि ["वारिक] जहाँ धारा से पानी गिरता हो वह (भग १३, ६) । "देव वि[स] वर्षों से सिक्त (क) "हर देखी घर (सुर १२, ११५) । धारा श्री [धारा] माल देश की एक नगरी ( मोह ८८ ) । स ६६ सुर २, ११२३ १६, ६८ ) । धाहा स्त्री [दे] धाह, पुकार, चिल्लाहट ( पउम ५३, ८ः सुपा ३१७, ३४० ) । धाहावियन [दे] पाह, पुकार, विल्लाहट (स ३७०; सुपा ३८०; ४६६; महा) । चाहिय वि [] पायित भागा हुमा (धम्म ११ टी धारावास पुं [दे] १ भेक, मेढ़क, बेंग (दे ५, ६३: षड् ) । २ मेघ (दे ५, ६३) । चार दि[पारिन] धारण करनेवाला (प कप्प) । धारित देखो धार धारय् । धारिट्ठन [धाष्ट] घृष्टता, उद्दण्डता, गर्व, साहस (प्राख्या० म० कोश० अ० २३ भावटीका कथा पद्य ५२९ ) । धारिणी देवी धारणी (श्रीप)। धारित्तए देखो धार = धारय् । धारिय वि [धारित ] धारण किया हुआ (भविः प्राचा) । धारी देखो घती हे २, ०१) । धारी देखो धारा (कुमा) । धारेलए धारेयव्य) धावक [ धाव ] १ दौड़ना । २ शुद्ध करना, धोना । धावइ (हे ४,२२८ २३८ ) 1 वकु. धावंत, धावमाण (प्रासू ८४ महा कम संघाविऊण (महा)। घावण न [पावन] १ वेग से गमन, दौड़ना। (१७) २ प्रशालन, पोना (कुम १६४) । ६२ } पाइअसहमणव घावण [धावनक] दौड़ते हुए समाचार पहुँचाने का काम करनेवाला, हरकारा, संदेसिया (सुपा १०५ २९५) । धावण्या स्त्री [धान ] स्तन-पान करना ( उप ८३३) । धावमाण देखो धाव | धाविअ वि [ धावित] दौड़ा हुप्रा (भवि) । देखो धार = धारय् । A धि अ [ धिक् ] धिक्कार, छी: (रंभा ) । धिइ स्त्री [ धृति] १ धैर्य, धीरज (सूत्र १, ८; षड् ) । २ धारण (प्रावम) । ३ धारणा, ज्ञात विषय का अविस्मरण (विसे) । ४ धरण, अवस्थान (सूत्र १, ११) । ५ हिंसा ( परह २, १ ) । ६ धैर्यं की अधिष्ठायिका देवी । ७ देवी की प्रतिमा विशेष (राज खाया १, १ टी --पत्र ४३) । पतिगिच्छि ग्रह की घष्ठायिका देवी (इक; ठा २३) । "कूट ["कूट] [भूतिदेवीका अथिति शिखर- विशेष (४) घर [र] १ एक अन्तकृद् महर्षि २ 'अंतगड-दसा' सूत्र का एक अध्ययन (१८) म 'मंत [ मत्] पोरवाल (डा पह २. ४) । मिश्री [वि] तेला, सगातार तीन दिन का उपवास (संबोध ५८ ) । धिक्कय वि [धिक्कृत ] १ धिक्कारा हुआ ( वव १ ) । २ न. धिक्कार, तिरस्कार (६)। ४८९ धिक्कार g [धिकार ] १ धिक्कार, तिरस्कार ( परह १, ३ द्र २६ ) । २ युगलिक मनुष्यों के समय की एक दण्ड-नीति (ठा ७ पत्र ३६८ ) । धिक्कार सक [ धिक् + कारय् ] धिक्कारना तिरस्कार करना । कवकृ. धिक्कारिजमाण (२६३) । धिज्जन [] धीरज, धृति (हे २, ६४ ) | वि करने योग्य (गाया १, १) । धिक्करण न [धिक्करण] तिरस्कार, धिक्कार (खाया १, १६) । चिकरिअ प [धिक्कृत] विस्कारा हुआ (शुभ १४०) । For Personal & Private Use Only (छाया ११) । धिजाइ पुंस्त्री [ द्विजाति, धिग्जाति ] ब्राह्मण, वित्र स्त्री. 'तत्थ भद्दा नाम धिनाणी' (धाम) | 1 भिजाइयी [ द्विजातिफ, धिग्जा भिजाई तप] ह्मणविप्र (महा उप १२६६ प्राव ३) । धिज्जीवि [ धिग्जीवित] निन्दनीय जीवन (२.२) । धिट्ठ वि [ धृष्ट] ढोठ, प्रगल्भ । २ निलंज्ज, बेशरम ( हे १, १३०६ सुर २, ६ मा ६२७; १४) । धिटुज्जुण्ण देखो घट्टज्जुण्ण (पि २७८ ) । घिट्ठिम पुत्री ['धृष्टत्व] घृष्टता, ढीठाई (सुपा १२० ) । धिद्धो ? अ [ धिक् धिक् ] छी: छी: ( उव; थिथी। धिप्प अरु [ दीपू ] दीपा, चमकना । धिप्पइ (हे १, २२३) । पिप्पिर व [दीम] देदीप्यमान चमकीला (कुमा) । थिय म [ धिक् ] धिक्कारी धिय मुंडिय' (उप ६३४ ) । धिरत्थु [धिगस्तु ] धिक्कार हो (गाया १, १६; महा; प्रारू) । धिसण पु' [धिषण ] बृहस्पति, सुर-गुरु (पास)। | धिसि अ [ धिक् ] धिक्कार, छी: (सुपा ३६५; सरण) । भी देखो धी मंगना भीए मल्लीद राईसरवंदि भाए मंगल १२.२० ) । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो धी-धुत्ती धुणित्तए । देखो धुण। धुणिया देखो धुण। धी स्त्री [धी] बुद्धि, मति (पाम; णाया १, धीवर पुं [धीवर] १ मछलीमार, अछुपा, (हे ४,५६; प्राचाः पि १२०) । कर्म. धुव्वइ, १६; कुप्र ११६ २४७ प्रासू २०) । धण ___ मल्लाह, जालजीवी (कुमाः कुप्र २४७)। २ वि. धुरिणजइ (हे ४, २४२) । वकृ. धुणंत (सुपा वि [धन] १ बुद्धिमान, विद्वान् । २ . उत्तम बुद्धिवाला (उप ७८टी; कुप्र २४७) । १८५)। संकृ.धुणिऊण, धुणिया, धुणेऊण एक मन्त्री का नाम (उप ७३८ टी)। म, धुअ देखो धुव = धान् । धुइ (गा १३०) (षड् ; दस ६, ३) । हेकृ. धुणित्तए (सूप मंत वि [°मत् ] बुद्धिशाली, विद्वान् धुअ सक [धु] १ कंपाना । २ फेंकना। ३ १, २, २) । कृ. धुणेज (माचू १) । (उप ७२८ टी; कप्पः राज)। त्याग करना। वकृ. धुअमाण (से १४, धुणण न [धूनन] १ अपनयन । २ परित्याग, धीन [धिक ] धिक्कार, छोः (उव; वै । ६६)। सी छोड़ना (राज)। | धुअ विधुव - ध्रुव (भवि)। छन्द-विशेष | धुणणा स्त्री [धूनना] कम्पन, हिलना (मोघ धीआ स्त्री [दुहित] लड़की, पुत्री (मृच्छ (पिंग)। १६५ भा)। १०९; पि ३६२: महा भवि, पच्च ४२)। धुअ वि [धूत ] १ कम्पित । २ न. कम्प धुणा देखो धुणगा (उत्त २६, २७)। धीइ देखो थिइः 'तुच्छा गारवकलिया चलि(प्राकृ ७०)। धुणाव सक [धूनय ] कंपाना, हिलाना । धुअ वि [धुत] १ कम्पित (गा ७८ दे १, | दिया दुब्बला य धीईए' (पव ६२ टी)। १७३)। २ त्यक्त (प्रौप)। ३ उच्छलित | धुणावइ (वजा ६) । धीउल्लिया स्त्री [दे] पुतली (स ७३७)। | (से ४, ४)। ४ न. कर्म (सूम २, २)। ५ | धुणाविअ बि [धूनित] कॅपाया हुअा (उप धीमल न [धिमल] निन्दनीय मैल (तंदु मोक्ष, मुक्ति (सूत्र १, ७)। ६ त्याग, संग. | ७६८ टो)। ३८)। त्याग, संयम (सूत्र १, २, २. प्राचा)। धुणि देखो झुणि (षड् )। धीर अक [धीरय ] १ धीरज धरना । "वाय पुं [वाद] कर्म-नाश का उपदेश २ सक. धीरज देना, आश्वासन देना। धीरेंत धुणिऊण । (प्राचा)। (गउड)। धुअगाय पुं[दे ] भ्रमर, भौंरा, भमरा (दे धुणिय वि [धूत] कम्पित, हिलाया हुआ धीर वि [धीर] १ धैर्यवाला, सुस्थिर, प्र- ५, ५७ पान)। 'मत्थयं धुरिणय (सुपा ३२०, २०१)। चञ्चल (ये ४, ३०; गा ३६७, ठा ४, ! धुअण देखो धुवण (पव १०१)। २)। २ बुद्धिमान्, पण्डित, विद्वान् (उप | धुअराय पुं[दे] ऊपर देखो (षड )। धुणेज्ज। ७६८ टीः धर्म २)। ३ विवेकी, शिष्ट (सून धुंधुमार पुं [धुन्धुमार] नृप-विशेष (कुप्र धुण्ण वि [धाव्य] १ दूर करने योग्य । २ १, ७)। ४ सहिष्णु (सूम १, ३, ४)। २६३)। न. पाप । ३ कर्म (दस ६, १; दसा ६)। ५ . परमेश्वर, परमात्मा, जिन-देव । ६ ! धुंधुमारा स्त्री [दे] इन्द्राणी, शची (दे धुत्त वि [धूर्त] १ ठग, वञ्चक; प्रतारक गणधर-देव (आचाः प्राव ४)। (प्रासू ४० श्रा १२)। २ जुना खेलनेवाला। धीर न [य] धीरज, धीरता (हे २, ६४ | धुक प्रक [क्षुध] भूख लगना । धुक्कइ | ३. धतूरे का पेड़। ४ लोहे की काट-मैल। कुमा)। (प्राकृ ६३)। ५ लवण-विशेष, एक प्रकार का नोन (हे २, धीरव सक [धीरय ] सान्त्वना देना, | धुक्काधुक्क प्रक[कम्प्] काँपना, 'धुक धुक्' ३०)। दिलासा देना। कर्म, धीरविज्जति (कुप्र होना । धुक्काधुक्कइ (गा ५८३)। धुत्त वि [दे] १ विस्तीर्ण (दे ५, ५८) । २ २७३)। धुक्कुधुअ विदे] उल्लसित,उल्लास- आक्रान्त (षड्)। धीरवण न [धीरण] धीरज देना, सान्त्वना धुक्कु धुगिअ युक्त (द ५, ६०)। धुत्त एसक [धूतय ] ठगना । धुत्तारसि (वव १)। धुक्कुधुअ देखो धुक्काधुक्क । वकृ. धुक्कु धुत्तार (सुपा ११४) । वकृ. धुत्तयंत (श्रा धीरविय वि [धीरित] जिसको सान्त्वना धुअंत (भवि)। १२)। दी गई हो वह, प्राश्वासित (स ६०४)। धुक्कोडिअन [दे] संशय, संदेह (वजा १०)। धुत्तारा सारा धुत्तारिअ वि [धूत्तित] ठगा हुमा, वञ्चित धीराअ अक [धीराय ] धीर होना, धीरज | धुगुधुग अक [धुगधुगाय ] 'धुग् धुग्'. (उप ७२८ टी)। धरना । वकृ. धीराअत (से १२, ७०)। आवाज करना । वकृ. धुगुधुगंत (पएह १, धुत्ति स्त्री [धूति] जरा, बुढ़ापा (राज)। धीराविअ देखो धीरविय (पि ५५६)। ३-पत्र ४५)। धुत्तिअ वि [धूतित] वञ्चित, प्रतारित (सुपा धीरिअ देखो धीर = धैर्य (हे २, १०७)। धुट् ठुअ देखो धुडुअ। धुठुअइ (हे ४ ३२४ श्रा १२) । धीरिअ देखो धीरविय (भवि)। ३६५)। धुत्तिम पुंस्त्री [धूर्तत्व धूर्तता, धूर्तपन, ठगाई धीरिम पुंस्त्री [धीरत्व] धैर्य, धीरज (उप पू धुण सक [५] १ कँपाना, हिलाना। २ दूर (हे १, ३५, कुमाः श्रा १२)। ६२; सुपा १०६; भविः कुप्र १५०)। । करना, हटाना। ३ नाश करना । धुणइ, धुणाइ । धुत्ती स्त्री [धूर्ता] धूर्त स्त्री (वजा १०६)। For Personal & Private Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धुत्तीरय- धूमाअ धुत्तीरय न [धत्तूरक ] धतूरे का पुष्प ( वजा १०६) । धुधुअ (अप) क [शब्दाय् ] आवाज करना । धुधुइ (हे ४, ३९५) । धुप्प देखो धिप्प | धुप्पड ( प्राकृ ७० ) । धुम्म ' [ धूम्र] धूम, भुमा २ व विशेष, कपोत-वर्णं । ३ वि. कपोत वर्णवाला । क्ख [क्ष ] एक राक्षस (से १२, ६० ) । धुर न. देखो धुरा (उप पृ ६३ ) । घुर [र] ज्योति ग्रह-विशेष (ठा २, ३) । २ कर्जदार, ऋणी 'जस्स कलसम्म हिडाई तस्स सुरव] सम्मे पुराविदेपुरा' (गुवा ४२६) । धुरंधर वि [धुरन्धर ] १ भार को वहन करने में समर्थ, किसी कार्य को पार पहुँचाने में शक्तिमान, भारवाहक (से ३, ३६) २ नेता मुखिया ममा ( सर उत्तर २० ) । ३ पुं. गाड़ी, हल आदि खींचनेवाला बैल (दे ८, ४४)। । धुरा श्री [र] गाड़ी वगैरह का अ भाग, धुरी ( उव)। २ भार, बोझा । ३ चिता (हे १.१६) धारव ["धार] भूरा को वहन करनेवाला, धुरन्धर (पउम ७, १७१) । धुरी श्री [धुरी] बक्ष, पुरा, गाड़ी का चूषा (g) धुरीण वि [धुरीण] धुरन्धर, मुखिया, श्रप्रा ( धर्मवि १३६ सम्मत्त ११८ ) । ध्रुव सक [ धावू ] धोना, शुद्ध करना । धुवइ, ध्रुवंति (हे ४, २३८; गा ४३३० पिंड २८ ) । वकृ. धुवंत (से८, १०२ ) । कवकृ. धुव्वंत, धुव्वाण (गा ५६३ से ६, ४५; वजा २४ प ५३८ ) । धुव सक [धृ] कंपाना, हिलाना। धुवइ (हे ४५) घुम्बइ (कुमा)। कवकृ. धुव्वंत (कुमा) । वि [व] निश्चल, स्थिर (जीव ३) २ नित्य, शाश्वत, सर्वदा स्थायी (ठा ५, ३; सून २, ४) । ३ श्रवश्यभावी ( सू २, १) ४ निश्चित नियत ( श्राचा) । ५ पुं. अश्व के शरीर का भाव (कुमा ६ गोल, पाइअसहमहणयो । मुक्ति ७ संयम, इन्द्रियादि-निग्रह (सूम १ २, १) । ८ संसार (अरगु) । १ न. मुक्ति का कारण, मोक्ष-मार्ग ( आचा ) । १० कर्म (अ) ११ यति 'मो frees' (ठा ६) । कम्मिय पु["कर्मिक ] लोहार यादि शिल्पी (१) चार वि [चारिन] मुमुक्षु, मुक्ति का अभिलाषी ( श्राचा)। णिग्गह पु [निग्रह] श्रावश्यक, अवश्य करने योग्य अनुष्ठान- विशेष (अणु) । मग्गपुं [मार्ग] मुक्ति-मार्ग, मोक्ष - मार्ग (सूत्र १, ४, १) । राहु पुं [ राहु] राहु- विशेष (सम २९ ) । वण्ण [व] १ संयम । २ मोक्ष, मुक्ति । ३ शाश्वत यश (भाचा)। देखो धुअ = ध्रुव । धुवण न [घाचन] १ प्रानो ७२ ३४७; स २७२ ) । २ वि. कँपानेवाला, हिलानेवाला श्री. णी (कुमा) व न [भूपन] धूप देना धूमपान पुंन १ । ( दस ३, ६) । धुविया स्त्री [ ध्रुविता] कर्म-विशेष, ध्रुवकर्म-प्रकृति (पंच ५६६) । देखो धुव = धाव् । धुव्वइ ( संक्षि धुव्व ३६) धुव्वंत देखो धव = धृ | धुत देखो घुयपाव् । } धुव्वमाण धुहअ वि [दे] पुरस्कृत, आगे किया हुआ धूअ वि [धूत ] देखो धुअ = धुत (प्राचाः दस ३, १३; पि ३१२; ३६२: सूत्र १, ४, २) । धूञ देखो ४९१ धूण ' [दे] गज, हाथी (दे २,६० ) । धूणिय वि [धूनित ] कम्पित (कुप्र ६८ ) । धूम पुं [धूम] १ हींग आदि बधार (पिंड २५०)। २ क्रोध, गुस्सा । ३ वि. क्रोधी (संबोध १९) । घूम [धूम] १ धूम, धुषाग्नि-चिह्न पुं (ग) २ द्वेष प्रति २१) "इंगाल पुं ब. [ ङ्गार ] द्वेष और राग (घोष २८८ था [केतु] ज्योतिष्क ग्रह-विशेष (ठा २, ३ परह १, ५) २ धिग्नि भाग (उत्त २२ ) | For Personal & Private Use Only ३ अशुभ उत्पात का सूचक तारा-पुज्ज (गड)। चारण पुं [चारण] धूम के अवलम्बन से प्रकाश में गमन करने की शक्तिवाला मुनि-विशेष (गन्छ २) "जोणि [योनि] बादल, मेघ (पा) । उभय (राज) । दोस पुं [दोष ] देखो भिक्षा का एक दोष, द्वेष से भोजन करना ( श्राचा २, १३) । द्वय पुं [ध्वज ] वह्नि, अग्नि (पाय उप १०३१टी) । पभा, पहा स्त्री [प्रभा ] पाचवीं नरक- पृथिवी (ठा ७ प्रात) [] उप २६४८) 1 [पट] धूम - समूह ( हे २, १६८ ) । वण्ण वि [व] पार चला साया १, १७) । सहा स्त्री [शिखा ] धुएँ का अग्रभाग (ठा ४, २) । धूमंग पुं [दे] भ्रमर, भौंरा, भमरा (दे ५, ५७) । धूमण न [ धूमन ] धूम - पान ( सू २, १) । धूमदार न [दे] गवाक्ष, वातायन, भरोखा (दे ५) । धूमद्धय [दे] १ तड़ाग, तलाव, तालाब २ महिष, भैंसा (दे ५, ६३) । धूमद्धयमहिसी स्त्री. ब. [ दे] कृत्तिका नक्षत्र (६२) । धूव = धूप (सुपा ६५७ ) । १५) । धूअ न [ धूत ] पहले बँधा हुआ कर्म, पूर्व- धूममहिसी स्त्री [दे] नीहार, कुहरा, कुहासा कर्म (सू २२,६५) । (दे ५, ६१; पाच) । धूमपलियाम वि [दे] गर्त में डालकर प्राग लगाने पर भी जो कच्चा रह जाय वह (निचू धूआ श्री [दुद्दिद] लकी पुत्री हे २ धूमरी श्री [] मीहार, कुहासा (दे ५० १२६ १४) । ६१) । २ तुहिन, हिम ( षड ) । धूमसिहा ) स्त्री [दे] नीहार, कुहासा (दे ५, } धूमा ६१ ठा १० ) । धूमा देखो धूमाअ । घूमाइ (प्राकृ ७१) । धूमाअ श्रक [ धूमायू ] १ धुन करना । २ जलाना । ३ धूम की तरह श्राचरना। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ पाइअसद्दमहण्णवो धूमाभा-ध्रुवु धूमाअंति (से ८.१६; गउड)। वकृ. धूमायंत धूव ' [धूप] १ सुगन्धि द्रव्य से उत्पन्न घेवय धैवत] स्वर-विशेष, 'धेवयस्सरसं(गउड से १, ८)। धूम । २ सुगन्धि द्रव्य-विशेष, जो देव-पूजा पराणा भवंति कलहप्पिया' (ठा ७-पत्र धूमाभा स्त्री [धूमाभा] पाँचवों नरक-पृथिवी प्रादि में जलाया जाता है (णाया १,१; ३६३)। (पउम ७५, ४७)। सुर ३, ६५)। घडी स्त्री [°घटी] धूप- धोअ सक [धाव ] धोना, शुद्ध करना, धृमिअ वि [धूमित १ धूमयुक्त (पिंड)। २ पात्र, धूप से भरी हुई कलशी (जं १)। जंत पखारना । धोएजा (पाचा)। वकृ, धोयंत छौंका हुआ (शाक पादि) (दे ६;८८)। न [यन्त्र] धूप-पात्र (दे ३, ३५)। (सुपा ८५)। धूमिआ स्त्री [दे] नीहार, कुहासा (दे ५, धूवण न [धूपन] १ धूप देना । २ धूम-पान, धोअ वि [धौत] धोया हुआ, प्रक्षालित (से ६१ पान; ठा १०; भग ३, ७; अणु)। रोग की निवृत्ति के लिए किया जाता धूम का १, २५, ७, २०० गा ३६६)। धूयरा देखो धूआ (सूत्र १, ४, १, १३)। पानः 'धूवणे त्ति वमणे य व त्थीकम्मविरेयणे' | धोअग वि [धावक] १ धोनेवाला । २ पुं. (दस ३, ६)। वट्टि स्त्री [त्ति धूप की धूरिअ वि [दे] दोर्ष, लम्बा (दे ५, ६२) । धोबी (उप पृ ३३३)। बनी हुई वत्तिका, अगरबत्ती (कप्पू)। धोअण वि [धावन] धोना, प्रक्षालन (श्रा घूरिअब दे] अश्व, घोड़ा (दे ५, ६१)। धृवि वि [धृपित] १ तापित, गरम किया, २० रयण १८ प्रोघ ३४७) । धूलडिआ (अप) देखो धूलि (हे ४, ४३२) । हुआ । २ हींग आदि से छौंका हा (चार धोइअ देखो धोअ = धौत (गा १८)। धृलि । स्त्री [धूलि, ली] धूल, रज, रेणु ६)। ३ धूप दिया हुआ (प्रौप; गच्छ १)। धोज वि [धुर्य] १ धुरीण, भार-वाहक । २ धूली (गउड; प्रासू २८८४)। कब, धृसर पुं [धूसर] १ हलका पीला रंग, ईषत् | अगुमा, नेता, धुरन्धर (वव १)। कलब पुं [कदम्ब] ग्रीष्म ऋतु में विक पाण्डु वर्ण। २ वि. धूसर रंगवाला, ईषत् धोरण न [दे] गति-चातुर्य (प्रौप)। सनेवाला कदम्ब-वृक्ष (कुमा) । जंघ वि पाण्डु वर्णवाला (प्रासू ८४; गा ७७४, से ६, धोरणि । स्त्री [धोरणि, णी] पंक्ति कतार [जङ्क] जिसके पाँव में धूल लगी हो वह | ___८२)। धोरणी (सुपा ४६ भविः षड्)। (वव १०)। धूसर वि [ धूसर] धूल से धूसरिअ वि [धूसरित] धूसर वर्णवाला धोरिय देखो धोज (सुपा २८२)। लिप्त (गा ७७४ ८२६) । "धोउ वि (पान भवि)। धोरुगिणी स्त्री [धोरुकिनिका] देश-विशेष [धोत] धूल को साफ करनेवाला (सुपा घे सक धा] धारण करना । धेइ (संक्षि में उत्पन्न स्त्री (णाया १,१-पत्र ३७)। ३३६) । [पथ] धूलि-बहुल मार्ग ३३); 'धेहि धीरत्तं' (कुप्र १००)। धोरेय वि [धौरेय] देखो धोज (सुपा (प्रोध २४ टी)। वरिस पुं [व] धूल धेअ) वि [ध्येय] ध्यान-योग्य (अजि ६५०)। की वर्षा (प्रावम)। हर न [गृह] वर्षा ऋतु धेज १४ रणाया १,१)। धोब देखो धोअ = धान् । धोवइ (स १५७; में लड़के लोग जो धूल का घर बनाते हैं वह | घेउल्लिया देखो धीउल्लिया (सुख ३, १)। पि ७८) ! धोवेजा (प्राचा)। वकृ. धोवंत (उप ५९७ टी)। धेज वि [धेय ] धारण करने योग्य (णाया | (भाव (भवि) । कवकृ. धोव्वंत, धोव्वमाण (पउम धूलिहडी स्त्री [दे] पर्व-विशेष, होली धूलि १०, ४४ रणाया १,८)। कृ. धोवणिय हडीरायत्तणसरिसा सव्वेसि हसरिणज्जा' धेज न धैिर्य] धीरज, धीरता (पएह २, । (णाया १,१६)। (कुलक ५)। धोवण देखो धोअण (पिंड २३)। धूलीवट्ट पुं[दे] अध, घोड़ा (दे ५, ६१)। घेणु स्त्री [धेनु] १ नव-प्रसूता गौ। २ सवत्सा धोक्य देखो धोवग (दे८, ३६): धूव सक [धूपय] धूप करना । धूवेज गौ। ३ दूधार गाय (हे ३, २६; चंड)। ध्रुबु (अप) प्र[ध्रुवम् ] अठल, स्थिर (हे (पाचा २, १३) । वकृ. धूवेंत (पि ३६७)। धेर देखो धीर = धैर्य (विक्र १७)। ॥ अ सिरिपाइअसहमहण्णवम्मि धपाराइसहसंकलणो छब्बीसइमो तरंगो समत्तो।। For Personal & Private Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प-पइट्ठवण पाइअसहमहण्णवो ४९३ न देखो ण १ प्राकृत भाषा में नकरादि सब शब्द णकारादि होते हैं, अर्थात् मादि के नकार के स्थान में नित्य या विकल्प से 'ण' होनेका व्याकरणों का सामान्य नियम है (प्राप्र २, ४२ दे ५, ६३ टीः हे १, २२६ षड् १, ३, ५३), और प्राकृत-साहित्य-ग्रन्थों में दोनों तरह के प्रयोग पाए जाते हैं । इससे ऐसे सब सब शब्द एकार के प्रकरण में मा जाने से यहाँ पर पुनरावृत्ति कर व्यर्थ में पुस्तक का कलेवर बढ़ाना उचित नहीं समझा गया है। पाठकगण णकार के प्रकरण में मादि के 'ण' के स्थान में सर्वत्र 'न' समझ लें । यही कारण है कि नकारादि शब्दों के भी प्रमाण कारादि शब्दों में ही दिए गए हैं। प [प] १ प्रोष्ठ-स्थानीय व्यज्जन वर्ण- ३ रक्षक; 'भूवई', 'तिप्रसगणवई', 'नरवई' पइच्छन्न पुं[प्रतिच्छन्न ] भूत-विशेष विशेष (प्राप)। २ पाप-त्यागः ‘पत्ति य (सुपा ३६; अजि १७ १६) । ४ श्रेष्ठ, (राज)। पाववज्जणे (प्रावम)। उत्तमः धरणिधरवई' (अजि १७ )। घर न पइज्ज (अप) वि [पतित] गिरा हुया (पिंग)। पप्र[प्र] इन अर्थों का सूचक अव्यय-१ [गृह] ससुराल ( षड्)। वया, व्वया पइज (अप) वि [प्राप्त] मिला हुआ, लब्ध प्रकर्षः 'पोस' ( से २, ११)। २ स्त्री [व्रता] पति-सेवा-परायण स्त्री, (पिंग)। प्रारम्भ; 'परणमिम', 'पकरेइ (जं १; कुलवती स्त्री, सती (गा ४१७, सुर ६,६७)। भग १,१)। ३ उत्पत्ति। ४ ख्याति, | हर देखो घर (हे १, ४)। पइजा देखो पइण्णा (भविः सण)। प्रसिद्धि । ५ व्यवहार । ६ चारों ओर से पइ देखो पडि (ठा २, १; कालः उवर २१)। पइट्ठ वि [दे] १ जिसने रस को जाना हो (निचू हे २, २१७)। ७ प्रत्रवरण, मूत्र | पइअ वि [दे] १ भत्सित, तिरस्कृत । २ | वह् । २ विरल । ३ पुं. मार्ग, रास्ता (दे (विसे ७८१)। ८ फिर-फिर (निचू ३ न. पहिया, रथ-चक्र (द ६, ६४)। १७)। ६ गुजरा हमा, विनष्टः 'पासुन' पइड देखो पग-प्रकृति से २.४५)। । पइटु देखो पगिट्ठ (सट्टि ५ टी)। (ठा ४, २-पत्र २१३ टी)। पइउं देखो पय = पच् । पट्ट वि [दे] प्रेषित, भेजा हुआ, 'जह प्रहपं वि [प्राच् ] पूर्व तरफ स्थित (भवि) ।। पइउवचरण न [प्रत्युपचरण] प्रत्युपचार, कुमर मिच्छो अभयपइटुं जिरणस्स पडिबिब' पअंगम पुं[प्लवङ्गम] छन्द-विशेष (पिंग)।। प्रति-सेवा (रंभा)। (संबोध ३)। पअंघ पुं [प्रजङ्घ] राक्षस-विशेष (से १२, पइऊल देखो पडिकूल (नाट-विक्र ४५) । पइट्ठ पुं [प्रतिष्ठ] भगवान् सुपार्श्वनाथ के पईवया देखो पइ-बया (णाया १, १६ पिता का नाम (सम १५०)। पअब्भ देखो पगब्भ % प्रगल्भ (प्राकृ ७८)। पत्र २०४)। पइट्ट वि [प्रविष्ट] जिसने प्रवेश किया हो पइ अप्रति१ अपेक्षा-सूचक (दसनि ३, वह (स ४२६)। पइक (अप) देखो पाइक्क (पिंग)। १)। २ लक्ष्य, तरफ, मोरः ‘भरुयच्छं पइ | पइव सक [प्रति-स्थापय् ] मूर्ति आदि चलियं (सम्मत्त १४१, धर्मवि ५६)। | पइकिदि देखो पडिकिदि (नाट-शकु ११६)। को विधि-पूर्वक स्थापना करना । पटुवेज्जा पइ पुं [पति] १ घव, भर्ता, परवरिश करने- पइक देखो पाइक (पिंगः पि १९४)। (पंचा ७, ४३)। वाला (पान, गा १५६ कप्प)।२ मालिक। पइगिइ देखो पडिकिदि (स ६२५)। पइट्ठवण देखो पइट्ठावण (राज)। For Personal & Private Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ पट्ठा श्री [प्रतिष्ठा] १ चादर, सम्मान २ कीर्ति, यश । ३ व्यवस्था ( हे १, २०६ ) । ४ स्थापना, संस्थापन (दि) । ५ प्रवस्थान, स्थिति (पंचा ८) ६ मूर्ति में ईश्वर के गुणों का प्रारोपण; 'जिरबिबारण पइट्ठ कइया विहु आइसंतस्स' (सुर १६, १३) । ७ श्राश्रय, प्राधार (श्रौप ) । पट्टा स्त्री [ प्रतिष्ठा] १ धारणा, वासना ( दि १७६) । २ समाधान, शंका निरासपूर्व स्वपक्ष-स्थापन ( चेद्र ५३५) । पट्ठाण [प्रतिष्टान ] मूल प्रदेश ( राम पुं २७) । पट्ठाण न [प्रविष्ठान] १ स्थिति भवस्थान का पट्टा रमणिजे त्याम ( पउम ४२, २७ ठा) । २ आधार, श्राश्रय (भग) । ३ महल आदि की नींव ( पत्र १४८ ) । ४ नगर - विशेष (ग्राक २१) । , पट्ठावक देखो पट्ठावय ( खाया १, १६ पावग राज ) । पट्टावण न [ प्रतिष्ठापन] १ संस्थापन (पंचा ७) । २ व्यवस्थापन ( पंचा ७) । पट्टाचयवि [प्रतिष्ठापक] प्रतिष्ठा करने. बाला ( प २२० ) । द्वाविवि [प्रतिष्ठापित] संस्थापित (स ६२७०५) । पट्टि व [प्रतिष्ठित] प्रतिबद्ध, रुका हुआ (प्राचा २, १६, १२) । पट्टिय व [प्रतिष्ठित] नियत अवस्थित १ (उवा) २ धाति रामरतीरपट्टिया पुरिया दालि (प्रा००) व्यवस्थित धाचा २, १७४ गौरवान्वित (हे १८ पइन्नय देखो पन्नग (चेइय १९) । पणियय वि [ प्रतिनियत] नियम-संगत, पद्मा देखी पणा (सुर १, १ नियमित (धर्मवि २६६ ) । ) । पइप्प देखो पलिप्प । वकृ. पइप्पमाण (मा ४१६)। पइप्पईय न [प्रतिप्रतीक ] प्रत्यंग, हर अंग ( रंभा ) । पण [दे] विपुल, विस्तृत (दे ६, ७) । पण वि [प्रतीर्ण] प्रकर्षं से तीर्णं (प्राचा)। पण वि [ प्रकीर्ण, क] १ विक्षिप्त पण त्यापइएलएम प्पला तुमं सा पडिच्छए एंतं' (गा १४० ) । २ श्रनेक प्रकार से मिश्रित (पंचू ) । ३ बिखरा हुआ (ठा ६) १) । ५ न ग्रंथ - विशेष, । ४ विस्तारित (बृह तीर्थंकर देव के पाइअसहमहण सामान्य शिष्य द्वारा बनाया हुआ ग्रंथ (दि) । कहा श्री [कथा] उत्सर्ग सामान्य नियम 'उस्सग्गो पइएण कहा भएरण्ड श्रववादो नियका भएराई (नि २) तब [ "तपस् ] तपश्चर्या विशेष (पंचा १९)। पइण्णा श्री [प्रतिज्ञा] १ शपथ नाट मालती १०६) २ नियम (श्रीप पंचा १८ ) । ३ तर्कशास्त्र प्रसिद्ध अनुमान प्रमाण का एक अवयव, साध्य वचन का निर्देश ( दसनि १ ) । पइण्णाद (शी) वि [प्रतिज्ञान] जिसकी प्रतिज्ञा की गई हो वह (मा १५) । पण [ प्रतिज्ञात्] शा 'मणि' (उत १० सुख, १०) । पइत्त देखो पउत्त = प्रवृत्त (भवि ) । पइत वि [ प्रदीप्त ] जला हुम्रा, प्रज्वलित ( से १५, ७३) । पइत्त देखो पवित्त = पवित्र (सुपा ७४) । पइदि (शी) देखो पराइ (कु ६१) दिन [ प्रतिदिन ] हर रोज (काल) । [दिग्ध] मिलिप्त (सूम १, । पद्रिय ५, १) । पइदियह न [प्रतिदिवस ] प्रतिदिन, हर रोज (सुर १, ५०)। पइमियय वि [प्रतिनियत ] मुकर्रर किया हुआ, नियुक्त किया हुआ ( श्रावम) । पइन देखो पइन्ग = प्रती (पराह २ १ टी - पत्र १०५ ) । पइन्न देखो (६)। पइभव व [प्रतिभय] प्रत्येक प्राणी को भय उपजानेवाला (गाया १, २ परह १, १३ श्रौप) । पइभा श्री [प्रतिभा] वृद्धि-विशेष प्रत्युत्पन्न मति (पुप्फ ३३१) । For Personal & Private Use Only पइट्ठा – पइसर पइभाणाण न [ प्रतिभाज्ञान] प्रतिभा से उत्पन्न होता ज्ञान, प्रातिभ प्रत्यक्ष ( धर्मंसं १२०९) । पइमुह वि [प्रतिमुख] संमुख (उप ७४४) । पइर सक [वप्] बोना, वपन करना । २१०२). (घाचा २, ( श्राचा २, १०, २) | कर्म. पइरिज्जंति (स ७१३) । १०, २) भनि परित । परिक्क वि [दे. प्रतिरिक्त] १ शून्य रहित (दे ६, ७१ से २, १५ ) । २ विशाल, विस्तीर्ण (६, ७१) ( १.५८४ प्रचुर विपुल (घोष २४६ - पत्र १०३ ) । ५ नितान्त, श्रत्यन्त 'चरिक्कनुहाए महाकुलाए विहारभूमीए ( कप्प ) । ६ न. एकान्त स्थान, विजन स्थान, निर्जन जगह (दे ६, ७१ स २३५ ७५५ गा८८ उप २६३ ) । पल (प) देखो पढम ( प ४४९) । पइलाइया स्त्री [प्रतिलादिका ] हाथ के बल चलनेवाली सर्प की एक जाति (राज) । पहल [ दे. पदिक] १ -विशेष ग्रहाचा देव-विशेष (ठा २ ३) २ रोग-विशेष (ए २५) । पइव पुं [ प्रतिव ] एक यादव का नाम (राज) । पइवरिसन [ प्रतिवर्ष ] हरएक वर्षं (पि २२० ) । पाइप [प्रतिवादिन] प्रतिवादी, प्रतिपक्षी (firit Ryan) पइविसि वि [ प्रतिविशिष्ट ] विशेष-युक्त, विशिष्ट (उवा) । पइविसेस [ प्रतिविशेष ] विशेष, भेद, भिन्नता ( विसे ५२ ) । पइस देखो पविस । पइसइ (भवि ) । पइसंति (दे १. १४ टि) कर्म परिवद ( भनि । वकृ. पइसंत ( भवि ) । कृ. पइसियव्व (२३४) । इसमय [प्रतिसमय] हर समय, प्रतिक्षण (पि २२० ) । पइसर देखो पविस । पइसरइ (भवि ) । Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउज्ज देखो पउंज। पइसार-पउम पाइअसहमहण्णवो ४६५ पइसार सक [प्र + वेशय् ] प्रवेश कराना। पउंजग वि [प्रयोजक] प्रेरक, प्रेरणा करने- सच्चरणविहाणं जायइ परिणदियाणंपि' (सुपा पइसारइ (भवि)। वाला (पंचव १)। ४७२; महा) । २ तैयार, तय्यार (दंस ३)। पइसारिय वि [प्रवेशित] जिसका प्रवेश पउंजग वि [प्रयोजन प्रयोग करनेवाला | पउणाड पुं [प्रपुनाट] वृक्ष-विशेष, पमाड कराया गया हो वह, 'पइसारियो य नरि' । (पउम १४, १०)। देखो पओअण। का पेड़, चकवड़ (दे ५, ५ टि)। (महा: भवि)। पउंजणया)नी [प्रयोजना] प्रयोग (प्रोष पउत्त प्रक[प्र+ वृत् ] प्रवृत्ति करना । कृ. पइहंत पुं दे] जयन्त, इन्द्र का एक पुत्र | पउंजणा ११४); 'दुक्खं कीरह कवं' । पात्तदव्य (शो) (नाट-शकू ८७)। कब्वम्मि कए पउंजणा दुक्खं' (वज्जा २)। पउत्त वि [प्रयुक्त] जिसका प्रयोग किया पइहा सक [प्रति + हा त्याग करना। पउंजिअ विप्रयुक्त जिसका प्रयोग किया | गया हो वह (महाः भवि)। २ न. प्रयोग संकृ. पइहिऊण (उव)। (णाया १. १)। गया हो वह (सुपा १४०; ४४७) । पई देखो पइ = पति (षड्; हे १, ४ सुर पउंजित्त वि[प्रयोक्त] प्रवृत्ति करनेवाला ! पउत्त पु[पौत्र] लड़के का लड़का, पोता १,१७६)। (प्राकृ १० श्रु ११७)। (ठा ५, १)। पईअ वि [प्रतीत] १ विज्ञात । २ विश्वस्त। पउत्त न [प्रतोत्र] प्रतोद, प्राजन, चाक, पैना पउंजित्तु वि [प्रयोजयितु] प्रवृत्ति करनेवाला (दसा १०)। ३ प्रसिद्ध, विख्यात (विसे ७०६)। (ठा ५, १)। पउत्त वि [प्रवृत्त जिसने प्रवृत्ति को हो वह पईअ न [प्रतीक] अंग, अवयव (रंभा)। (उवा)। पईइ स्त्री [प्रतीति] १ विश्वास । २ प्रसिद्धि पउज्जमाण । पउत्ति श्री [प्रवृत्ति] १ प्रवर्तन (भग १५)। (राज)। पउट्ट प्र[परिवृत्य मार कर । परिहार | २ समाचार, वृत्तान्त (पानः सुर २, ४८ पईव देखो पलीव । पईवेइ (कस)। [परिहार] मर कर फिर उसी शरीर में ३, ८४) । ३ कार्य, काज, काम । वाउय वि पईव पुं [प्रदीप] दीपक, दिया (पामः उत्पन्न होकर उस शरीर का परिभोग करना, [°व्यापृत कार्य में लगा हुमा (प्रौप)। जी १)। ‘एवं खलु गोसाला ! वरणस्सइ-काइयानो पउट्ट पउत्ति स्त्री प्रियुक्ति बात, हकीकत (उप परिहारं परिहरति' (भग १५---पत्र ६६७)। पईव वि [प्रतीप] १ प्रतिकूल (हे १, पृ २२८ राज)। २०६) । २ पुं. शत्रु, दुश्मन (उप ६४८ टी; पउट्ट वि [परिवर्त] १ परिवर्त, मर कर पउत्तिदश्य देखो पउत्त -प्र+वृत् । हे १, २३१)। फिर उसी शरीर में उत्पन्न होना । २ परिवतं पउत्तु [प्रयोक्त] १ प्रयोगकर्ता । २ प्रेरणा पईस (अप) देखो पइस । पईसइ (भवि)। वाद; 'एस ण गोयमा ! गोसालस्स मंखलि कर्ता । ३ कर्ता, निर्माता। स्त्रीत्ती (तंदु पउ (अप) वि [पतित] गिरा हुआ (पिंग)। पुत्तस्स पउट्टे' (भग १५–पत्र ६६७)।। ४५)। पउअ देखो पागय = प्राकृत (प्राकृ ५)। पउ? वि [प्रवृष्ट ] बरसा हुआ (हे १, पउत्थ न [दे] १ गृह, घर (दे ६, ६६)। पाउअ [दे] दिन, दिवस (दे६, ५)। १३१)। २ वि. प्रोषित, प्रवास में गया हुआ; 'एहिइ पउअ न [प्रयुत] मख्या-विशेष, ‘प्रयुताङ्ग पउट्ट [प्रकोष्ठ] हाथ का पहुँचा, कलाई और | सोवि पउत्थो अहं अ कुप्पेज्ज सोवि अणुणेज'. को चौरासी लाख से गुणने पर जो संख्या केहुनी के बीच का भाग (पएह १, ४-पत्र (गा १७ ६६७ हेका ३०, पउम १७, ३; लब्ध हो वह (इका ठा २, ४)। ७८ कप्पः कुमा)। वजा ७६, विवे १३२, उवः दे ६, ६६; पउअंग न [प्रयुताङ्ग] संख्या-विशेष, 'प्रयुत' पउट्ठ वि [प्रजुष्ट] १ विशेष सेवित । २ न. भवि)। वइया स्त्री [पतिका] जिसका को चौरासी लाख से गुणने पर जो संख्या अति उच्छिष्ट (चंड)। पति देशान्तर गया हो वह स्त्रो (मोघ ४१३; लब्ध हो वह (ठा २, ४)। पउ? वि [प्रद्विष्ट] द्वेष-युक्त 'तो सो पउट्ठ सुपा ५०८)। चित्तो (सुपा ४७५)। पउंज सक [प्र+ युज्] १ जोड़ना, युक्त पउद्दव्य देखो पउंज। पउढन [दे] १ गृह, घर। २ पुं. घर का करना। २ उच्चारण करना। ३ प्रवृत्त पउप्पय देखो पओप्पय (भग ११, ११ टी)। करना। ४ प्रेरणा करना। ५ व्यवहार पश्चिम प्रदेश (दे ६, ४)। पउप्पय देखो पओप्पय-प्रपौत्रिक (भग करना । ६ करना । पउंजइ (महा; भविः पि पउण अक [प्रगुणय] तन्दुरुस्त होना, ११, ११ टी)। ५०७)। पति (कप्प)। वकृ. पउंजंत, नीरोग होनाः 'अन्नस्स चिगिक्छाए पउणइ | पउम न [पद्म] १ सूर्य-विकासी कमल (हे पउंजमाण (प्रौप; पउम ३५, ३६) । कवकृ. प्रन्नो न लोगम्मि' (धर्मसं ११८४)। २, ११३; पएह १, ३; कप्प; औपः प्रासू पउज्जमाण (प्रयौ २३)। कृ. पउंजिअव्त्र, पउण पु[दे] १ व्रण-प्ररोह । २ नियम- | ११३)। २ देव-विमान-विशेष (सम ३३ पउज्ज (पएह २, ३, उप ७२८ टी विसे विशेष (दे ६, ६५)। ३५) । ३ संख्या-विशेष; 'पद्मांग को चौरासी ३३८४), पउद्दव्य (अप) (कुमा)। पउण वि [प्रगुण] १ पटु, निर्दोष; 'कह लाख से गुणने पर जो संख्या लब्ध हो वह For Personal & Private Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ पाइअसहमहण्णवो पउमग-पउमावई (ठा २, ४, इक) । ४ गन्ध-द्रव्य-विशेष ३०)। द्धय पुं[ध्वज एक भावी राजर्षि, ["शेखर] पृथ्वीपुर नगर के एक राजा का (प्रौप; जीव ३)। ५ सुधर्मा सभा का एक जो महापद्म नामक जिनदेव के पास दीक्षा नाम (धम्म ७)। "गर पुं [कर] १ सिंहासन (णाया २)। ६ दिन का नववाँ लेगा (ठा ८)। नाह देखो °णाभ (उप कमलों का समूह । २ सरोवर (उप १३३ मुहूत्तं (जो २)। ७ दक्षिण रुचक-पर्वत का ६४८ टी)। पुर न [पुर] एक दक्षिणात्य टी)। सिण न [सिन] पद्माकार प्रासन एक शिखर (ठा ८)। ८ पुं. राजा रामचन्द्र, नगर, जो आजकल 'नासिक' नाम से प्रसिद्ध (जं १)। सीता-पति (पउम १,५, २५, ८)। है (राज)। प्पभ पुं [प्रभ] इस अव पउमग पुन [पद्मक] केसर (दस ६, ६४) । पाठवाँ बलदेव, श्रीकृष्ण के बड़े भाई। १० सर्पिणी काल में उत्पन्न षष्ठ जिन-देव का नाम (कप्प)। °प्पभा स्त्री [प्रभा] एक पुष्कइस अवसपिणीकाल में उत्पन्न नववाँ चक्रवर्ती पउमप्पह [पद्मप्रभ] विक्रम की तेरहवीं शताब्दी का एक जैन प्राचार्य (विपा ३)। राजा, राजा पद्योत्तर का पत्र (पउम ५. ! रिणी का नाम (इक)। यह देखो पभ १५३; १५४ )। ११ एक राजा का (ठा ५, १, सम ४३; पडि)। भद्द पुं पउमा स्त्री [ पद्मा] १ लक्ष्मी । २ देवीनाम (उप ६४८ टी)। १२ माल्यव नामक [भद्र] राजा श्रेणिक का एक पौत्र (निर विशेष । ३ लौंग, लवंग । ४ पुष्प-विशेष, पर्वत का अधिष्ठाता देव (ठा २, ३)। १३ २, १)। °मालि पुं[ मालिन्विद्याधर कुसुम्भ-पुष्प (प्राकृ २८)। भरतक्षेत्र में आगामी उत्सर्पिणी में उत्पन्न वंश के एक राजा का नाम (पउम ५, ४२)। पउमा स्त्री [पद्मा] १ बीसवें तीर्थंकर श्री होनेवाला पाठवा चक्रवर्ती राजा (सम १५४)। मुह देखो पउमाणण (षड् )। रह पुं मुनिसुव्रतस्वामी की माता का नाम (सम १४ भरत क्षेत्र का भावी आठव बलदेव (सम | [रथ] १ विद्याधर-वंश का एक राजा १५१)। २ सौधर्म देवलोक के इन्द्र की एक १५४) । १५ चक्रवर्ती राजा का निधि, जो (पउम ५, ४३)। २ मथुरा नगरी के राजा पटरानी का नाम (ठा -पत्र ४२६; पउम रोग-नाशक सुन्दर वस्त्रों की पूर्ति करता है जयसेन का पुत्र (महा)। राय [राग] १०२, १५६)। ३ भीम नामक राक्षसेन्द्र की (उप ६८६ टी)। १६ राजा श्रेणिक का रक्त-वर्ण मणि-विशेष (१३६; १६६ ) । एक पटरानी (ठा ४, १-पत्र २०४)। ४ एक पौत्र (निर २, १)। १७ एक जैन मुनि 'राय पुं[राज] धातकोखण्ड की अपर एक विद्याधर कन्या का नाम (पउम ६, का नाम (कप्प)। १८ एक ह्रद (कप्प)। कंका नगरी का एक राजा, जिसने द्रौपदी का २४)। ५ रावण की एक पत्नी (पउम ७४, १६ पद्म-वृक्ष का अधिष्ठाता देव (ठा २, ३)। अपहरण किया था (ठा १०)। रुक्ख पुं १०)। ६ लक्ष्मी (राज)। ७ वनस्पति-विशेष २० महापद्म नामक जिनदेव के पास दीक्षा (परण १-पत्र ३६)। ८ चौदहवें तीर्थकर ["वृक्ष १ उत्तर-कुरुक्षेत्र में स्थित एक वृक्ष लेनेवाला एक राजा, एक भावी राजर्षि (ठा श्रीअनन्तनाथ को मुख्य शिष्या का नाम (पव (ठा २, ३)। २ वृक्ष-सदृश बड़ा कमल ८)। गुम्म न [गुल्म] १ पाठवें देव ६)। सुदर्शना-जम्बू की उत्तर दिशा में (जीव ३)। °लया स्त्री [लता] १ कमलिनी, लोक में स्थित एक देव-विमान का नाम (सम स्थित एक पुष्करिणी (इक)। १० दूसरे पमिनी (जीव ३ भग; कप्प)। २ कमल के ३५) । २ प्रथम देवलोक में स्थित एक देव बलदेव और वासुदेव की माता का नाम । आकारवालो वल्ली (णाया १,१)। वडिंसय, विमान का नाम (महा)। ३ पुं. राजा ११ लेश्या-विशेष (राज)। वडेंसय न [°ावतंसक] पद्मावती-देवी का श्रेणिक का एक पौत्र (निर २,१)। ४ एक सौधर्म नामक देवलोक में स्थित एक विमान पउमाड [दे] वृक्ष विशेष, पमाड़ का पेड़ भावी राजर्षि, महापद्म नामक जिनदेव के चकवड़ (दे ५, ५)। (राजः णाया २–पत्र २५३)। वरवेइया पास दोक्षा लेनेवाला एक राजा (ठा ८)। स्त्री [वरवेदिका] १ कमलों की श्रेष्ठ पउमाणण पुं[पद्मानन] एक राजा का नाम चरिय न [°चरित] १ राजा रामचन्द्र वेदिका (भग) ३ जम्बूद्वीप की जगतीके (उप १०३१ टी)। की जीवनी-चरित्र । २ प्राकृत भाषा का ऊपर रही हुई देवों की एक भोग-भूमि (जीव पउमाभ [पद्माभ] षष्ठ तीर्थंकर का नाम एक प्राचीन ग्रंथ, जैन रामायण (पउम ११८, ३)। "वूह पुं [°व्यूह] सैन्य की पद्माकार (पउम १, २)। १२१) । णाभ [ नाभ] १ वासुदेव, रचना (पएह १, ३) । °सर पुं[सरस] पउमार [दे] देखो पउमाड (दे ५. ५ टि)। विष्णु (पउम ४०, १) २ आगामी उत्सर्पिणी- कमलों से युक्त सरोवर (णाया १,१; कप्पा पउमावई स्त्री [पद्मावती] १ जम्बूद्वीप के काल में भरतक्षेत्र में होनेवाला प्रथम जिन-देव महा)। 'सिरी स्त्री [श्री] १ अष्टम चक्र- सुमेरु पर्वत के पूर्व तरफ के रुचक पर्वत पर का नाम (पव ४६) । ३ कपिल-वासुदेव के वर्ती सुभूमराज की पटरानी (सम १५२)। रहनेवाली एक दिक्कुमारी-देवी (ठा)। २ एक माएडलिक राजा का नाम (णाया १, २ एक स्त्री का नाम (कुमा)। सेण पुं भगवान पार्श्वनाथ की शासन-देवी, जो नाग१६--पत्र २१३)। दल न [दल] [°सेन] १ राजा श्रेणिक के एक पौत्र का राज धरणेन्द्र की पटरानी है (संति १०)। कमल-पत्र (प्रारू)। दह पुं [°द्रह] विविध नाम, जिसने भगवान महावीर के पास दीक्षा ३ श्रीकृष्ण की एक पत्नी का नाम (अंत प्रकार के कमलों से परिपूर्ण एक महान् ह्रद । ली थी (निर १,२)। २ नागकुमार-जातीय | १५)। ४ भीम-नामक राक्षसेन्द्र की एक का नाम (सम १०४ कप्पा पउम १०२, एक देव का नाम (दीव)। सेहर पुं पटरानी (भग १०,५)। ५ शक्रेन्द्र की एक For Personal & Private Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमावत्ती-पओग पाइअसहमहण्णवो पटरानी (णाया २-पत्र २५३)। ६ चम्पे- पउरिस पुंन [पौरुष] पुरुषत्व, पुरुषार्थ, पएस [प्रदेश] १ जिसका विभाग न हो श्वर राजा दधिवाहन की एक श्री का नाम | पउरुस ।वीरता, मरदानी (हे १, १११, सके ऐसा, सूक्ष्म अवयव (ठा १,१)। २ (माव ४)। ७ राजा कूणिक की एक पत्नी १६२); 'पउरुसा' (प्राप्र); 'पउरुसं' (संक्षि | कर्म-दल का संचय (नव ३१)। ३ स्थान, (भग ७,९)। अयोध्या के राजा हरिसिंह जगह (कुमा ६,५९)। ४ देश का एक भाग, की एक पली (धम्म ८)। ६ तेतलिपुर के पउल सक [पच् ] पकाना। पउलइ (हे प्रान्त (कुमा ६)। ५ परिमाण-विशेष, निरंशराजा कनककेतु की पत्नी (दंस १)। १० ४,६० दे ६, २६)। अवयव-परिमित माप। ६ छोटा भाग। ७ कौशाम्बी नगरी के राजा शतानीक के पुत्र पउलण न [पचन पकाना, पाक (पएह १, परमाणु । ८ घणुक । ६ त्र्यणुक, तीन उदयन की पत्नी (विपा १, ५)। ११ शैलक परमाणुगों का समूह (राज)। कम्म न पुर के राजा शैलक की पत्नी (णाया १,५)। पउलिअ वि [पक] पका हुआ (पास)। [कर्मन्] कर्म-विशेष, प्रदेश-रूप कर्म १२ राजा कूणिक के पुत्र कालकुमार की पउलिअ वि [प्रज्वलित] दग्ध, जला हुआ (भग)। 'ग न [प] कर्मों के दलिकों का भार्या का नाम । १३ राजा महाबल की भार्या | (उवा)। परिमाण (भग)। 'घण वि ["घन] निबिड का नाम (निर १, १५ पि १३६)। १४ पउल्ल देखो पउल । पउल्लइ (षड् हे ४,६० प्रदेश (प्रौप)। णाम न ['नामन्] कर्मबीसवें तीर्थकर श्रीमुनिसुव्रतस्वामी की माता | टि)। विशेष (ठा ६)। णाम [नाम कमका नाम (पद ११)। १५ पुण्डरीकिणी पउल्ल वि [पक्क] पका हुआ (पंचा १)। द्रव्यों का परिणाम (ठा ६)। बंध j नगरी के राजा महापम की पटरानी (पाचू | पउल्लग न [पचनक] रसोई का पात्र (दशवै० । [बन्ध] कर्म-दलों का भात्म-प्रदेशों के साथ १)। १६ रम्यनामक विजय की राजधानी वृ० हारि० पत्र ९७, २)। संबन्धन (सम ९)। संकम पुं[संक्रम (जं ४)। | पउविय वि [प्रकुपित] विशेष कुपित, कुद्ध कर्म-द्रव्यों को भिन्न स्वभाव वाले कर्मों के रूप पउमावत्ती (मप) स्त्री [पद्मावती] छन्द में परिणत करना (ठा ४, २)। विशेष (पिंग)। पउस सक [प्र+द्विष ] द्वेष करना। पठ-पएसण न [प्रदेशन] उपदेश, 'पएसणयं सेजा (मोघ २५ भा)। णाम उवएसो' (माचू १)। पउमिणी स्त्री [पद्मिनी] १ कमलिनी, पउसय विदे] देश-विशेष में उत्पन्न । श्री.पएसय वि [प्रदेशक] उपदेशक, प्रदर्शका कमल-लता (कप्प; सुपा १५५)। २ एक श्रेष्ठी "सिया (प्रौप)। की श्री का नाम (उप ७१८ टी)। _ 'सिद्धिपहपएसए वंदे (विसे १०२५)। पउस्स देखो पउस । पउस्ससि (कुप्र ३७७)। पएसि प्रदेशिन्] स्वनाम-ख्यात एक पउमुत्तर पुं[पद्मोत्तर] १ नववे चक्रवर्ती वकृ. पउस्संत, पउस्समाण (राजा अंत | राजा, जो श्री पार्श्वनाथ भगवान् के केशिश्रीमहापयराज के पिता का नाम (सम २२)। संकृ. पउस्सिऊण (स ५१३)। नामक गणधर से प्रबुद्ध हुमा था (रायः कुप्र १५२)। २ मन्दर पर्वत के भद्रशाल वन का पउहण (अप) देखो पवहण (भवि)। १५५ श्रा ६)। एक दिग्हस्ती पर्वत (इक)। | पऊढ न [दे] गृह, घर (दे ६, ४)। पएसिणी श्री [दे] पड़ोस में रहनेवाली श्री पउमुत्तरा श्री [पद्मोत्तरा] एक प्रकार की |पए म [प्रगे] पहले, पूर्व; "तित्थगरवयण पड़ोसिनी (दे ६, ३ टी)। शकर, खाँड, चीनी (पाया १,१७-पत्र करणे मायरिमाणं कयं पए होई (भोध पएसिणी श्री [प्रदेशिनी] मंगुष्ठ के पास पएण २२६; १७)। ४७ भा); 'जइ पुण वियालपत्ता पए व पत्ता की उंगली, तर्जनी (मोष ३६०)। उवस्सयं न ल. (मोघ १९८)। पउर वि [प्रचुर] प्रभूत, बहुत (हे १,१८०० पएसिय देखो पदेसिय (राज)। कुमा, सुर ४, ७४)। पएणियार पुं [प्रैणीचार] व्याध की एक पउर वि [पौर] १ पुर-संबन्धी, नगर से संबन्ध जाति, जो हरिणों को पकड़ने के लिए पओअ [पयोद मेघ (दस ७, ५२)। हरिणी-समूह को चराते एवं पालते हैं (पएह पओअ देखो पओग (हे १, २४५; मभि । रखनेवाला। २ नगर में रहनेवाला (हे १, १, १-पत्र १४)। सण; पि ८५)। १६२)। पउरव पुपौरव पुरुनामक चन्द्र-वंशीय पएर पु[दे] १ वृति-विवर, बाड़ का छिद्र। पओअण न [प्रयोजन] १ हेतु, निमित्त, मार्ग रास्ता।३कंठदीनार नामक भूषण- कारण (सू १, १२)। २कार्य, काम नृप का पुत्र (संक्षि ६)। विशेष। ४ गले का छिद्र । ५ दीननाद, मात- ३ मतलब (महा; उत्त २३ स्वप्न ४८)। पउराण (मप) देखो पुराण (मवि)। स्वर। ६ वि. दुरशील, दुराचारी (दे ६, पओइद (शौ) वि [प्रयोजित] जिसका पउरिस वि [पौरुषेय] पुरुष-कृत, पुरुष का प्रयोग कराया गया हो वह (नाट-विक बनाया हुमाः 'वेदस्स तह यापउरिसमावा पएस पुं[दे] प्रातिवेश्मिक, पड़ोसी (३६, १०३)। (धर्मस ८९२). पओग[प्रयोग] प्रयोजन (सूम २,७.२)। For Personal & Private Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ पाइअसद्दमहण्णवो पओग-पंच पओग ' [प्रयोग] १ शब्द-योजना (भास पओरासि पुं [पयोराशि] समुद्र (सम्मत्त पंका स्त्री [पङ्का] चौथो नरक-भूमि (इक; ६३)। २ जीव का व्यापार, चेतन का १७४)। कम्म ३,५)। प्रयत्न; 'उप्पानो दुविगप्पो पोगजणियो य | पओल पुं[पटोल] पटोल, परवर, परोरा पंकाभा स्त्री [पङ्काभा] चौथी नरक-पृथिवी विस्ससो चेव' (सम २५, ठा ३, १; सम्म (परण १)। (उत्त ३६, १५८)। १२९; स ५२४)। ३ प्रेरणा (श्रा १४)। पओली स्त्री [प्रतोली] १ नगर के भीतर का | पंकावई स्त्री [पङ्कावती] पुष्कल नामक विजय ४ उपाय (ग्राचु १)। ५ जीव के प्रयत्न में | रास्ता (प्रण) । २ नगर का दरवाजा; 'गोउ। के पश्चिम तरफ की एक नदी (इक ज ४)। कारण-भूत मन प्रादि (ठा ३, ३)। ६ वाद- पोली ये' (पान सुपा २६१; श्रा १२ उप पंकिय वि [पङ्कित] पंक-युक्त, कीचवाला विवाद, शास्त्रार्थ (दसा ४)। कम्म न | पृ ८५; भवि)। (भग ६, ३, भवि)। [कर्मन मन आदि की चेष्टा से प्रात्म- | पओवद्राव देखो पन्जयथाव । परोवट्ठावेहि पंकिल वि [पङ्किल] कर्दमवाला (श्रा २८; प्रदेशों के साथ बँधनेवाला कर्म (राज)। ( पिका गा ७६६; कप्पू: कुप्र १८७) । 'करण न [°करण] जीव के व्यापार द्वारा पओवाह पुं[पयोवाह] मेघ, बादल (पउम पंकेरुह न [पङ्केरुह] कमल, पद्म (कप्पू: कुप्र होनेवाला किसी वस्तु का निर्माणः 'होइ उ । एगो जीववावारो तेण जं विवि १४१)। ८,४६ से १, २४. सुर २, ८५)। पंख पुंस्त्री [पक्ष १ पंख, पाँखि, पाँख, पक्ष पप्रोगकरणं तयं बहुहो' (विसे)। "किरिया पओस सक [प्र+द्विप ] द्वेष करना, स्त्री [क्रिया] मन प्रादि की चेष्टा (ठा ३, बैर करना । पोसइ (सुख १,१४)। (पि ७४ रायः पउम ११:११८श्रा १४)। ३)। फड्डय न ["स्पर्धक] मन आदि के पओस पु [दे. प्रदूप] प्रद्वेष, प्रकृष्ट द्वेष | २ पनरह दिन, पखवाड़ा (राज)। सिण न व्यापार-स्थान की वृद्धि-द्वारा कर्म-परमाणों (ठा १० अंतः रायः भाव ४सुर १५, [सन प्रासन-विशेष (राय)। में बढ़नेवाला रस (कम्मप २३)। "बंध ५८ पुप्फ ४६५, कम्म १; महानि ४, कूप | पंखि पुंस्त्री [पक्षिन] पंखी, चिड़िया, पक्षी ["बन्ध जीव-प्रयत्न द्वारा होनेवाला बन्धन १०; स ६६६)। (श्रा १४) । स्त्री. °णी (पि ७४) । (भग १८, ३)। मइ स्त्री [मति] वाद- | पओस पुंन [प्रदोष] १ सन्ध्याकाल, दिन पंखुडिआ। स्त्री [दे] पंख, पत्र (कुप्र २६ विषयक-परिज्ञान (दसा ४)। संपया स्त्री और रात्रि का सन्धि-काल (से १, ३४; पंखुडी दे ६, ८)। [संपत् ] प्राचार्य का वाद-विषक कुमा)।२ वि. प्रभूत दोषों से युक्त (से २, पंग सक [ग्रह ] ग्रहण करना। पंगइ (हे सामर्थ्य (ठा ८)। °सा प्र[प्रयोगेण जीव- ११)। ४, ४०६)। प्रयत्न से (पि ३६४)। पओहण (अप) देखो पवहण (भवि)। पंगण न [प्राङ्गण] आँगन (कुप्र २५०)। पओज देखो पउंज प्र+ युज । पत्रोजए पंगु वि [पङ्ग] पाद-विकल, खज, लंगड़ा, पओहर दु[पयोधर] १ स्तन, थन (पाम: (पव ६४)। लूला, खोड़ा (पाम पि ३८०; पिंग)। से १, २४, गउड; सुर २, ८५)। २ मेघ, पओजग वि [प्रयोजक] विनिश्चायक, पंगुर सक [प्रा + वृ] ढकना, पाच्छादन बादल (वजा १००)। ३ छन्द-विशेष (पिंग)। निर्णायक, गमक (धर्मसं १२२३)। - करना । पंगुरइ (भवि)। संकृ. पंगुरिवि पंक पुंन [पङ्क] १ कर्दम, कोचड़, कादा, कादो, (भवि)। पओ? देखो पउ? = प्रकोष्ठ (प्राप्र; औपः कीच; 'धम्ममितंपि नो लग्गं पंकंव गयरणंगणे पि ८४)। | पंगुरण न [प्रावरण] वस्त्र, कपड़ा (हे १, (श्रा २८ हे १,३०४, ३५७, प्रासू २५); १७५, कुमाः गा ७८२)। पओत्त न [प्रतोत्र] प्रतोद, प्राजन-यष्टि, पैना। 'सुसइ व पंक' (वजा १३४) । २ पाप (सूम पंगुल विपिङ्गल] देखो पंगु (विपा १, १७ "धर पुं[धर] बैलगाड़ी हाँकनेवाला, बहल २, २)। ३ असंयम, इन्द्रिय वगैरह का सं ७५, पा)। वान या गाड़ीवान (णाया १, १)। अनिग्रह (निचू १) । आवलिआ स्त्रीच त्रि. ब. पिञ्जना पाँच. पंच त्रि. ब. [पञ्चन्] पाँच, ५ (हे ३. पओद पु[प्रतोद] ऊपर देखो (प्रौप)। [वलिका] छन्द-विशेष (पिंग)। पभा १२३, कप्प; कुमा)। उल न [कुल] पओप्पय पु[प्रपौत्रक] १ प्रपौत्र, पौत्र का स्त्री [प्रभा चौथी नरक-भूमि (ठा ७; इक)। पंचायत (स २२२) । उलिय पुं[कुलिक पुत्र । २ प्रशिष्य का शिष्य; 'तेरण कालेणं 'बहुल वि [बहुल] १ कर्दम-प्रचुर (सम पंचायत में बैठ कर विचार करनेवाला (स तेरणं समएणं विमलस्स अरहरो पनोप्पए ६०) । २ पाप-प्रचुर (सूत्र २, २) । ३ पुंन. २२२)। कत्तिय पुं [कृत्तिक] भगवान् धम्मधासे नामं प्रणगारे (भग ११, ११- रत्नप्रभा नामक नरक-भूमि का प्रथम काण्ड कुन्धुनाथ, जिनके पाँचों कल्याणक कृत्तिका पत्र ५४८)। (जीव ३) । य न [ज] कमल, पद्म (हे नक्षत्र में हुए थे (ठा ५, १)। कप्प पुं पओप्पिय पुं[दे. प्रपौत्रिक] १ वंश- ३, २६; गउड; कुमा)। वई स्त्री [°वती] [कल्प] श्रीभद्रबाहुस्वामि-कृत प्राचीन ग्रन्थ परम्परा। २ शिष्य-संतति, शिष्य-संतान नदी-विशेष (ठा २, ३-पत्र ८०)। का नाम (पंचभा)। कल्लाणय न [कल्या(भग ११,११-पत्र ५४८ टी)। , | पंकज देखो पंक-य (सम्मत्त ११८)। णक] १ तोयंकर का च्यवन, जन्म, दीक्षा, For Personal & Private Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचअण्ण-पंचंगुलि पाइअसहमहण्णवो ४९९ केवलज्ञान और निर्वाण । २ काम्पिल्यपुर, प्राकाश ये पांच पदार्थ (सूम १, १, १)। से विभूषित एक छोटा द्वीप (महाः बृह ४)। जहाँ तेरहवें जिन-देव श्रीविमलनाथ के पाँचों भूयवाइ वि [भूतवादिन] मात्मा मादि 'सोगंधिअ वि [°सौगन्धिक] इलायची, कल्याणक हुए थे (ती २४) । ३ तप-विशेष पदार्थों को न मान कर केवल पांच भूतों को लवंग, कपूर, कंकोल और जातीफल-जायफल (जीत)। कोढग वि [ कोष्ठक] १ पाँच ही माननेवाला, नास्तिक (सूम १, १,१)। इन पाँच सुगन्धित वस्तुभों से संस्कृतः 'नन्नत्य कोष्ठों से युक्त । २ पुं. पुरुष (तंदु)। गव्व 'महव्वइय वि [महाव्रतिक] पाँच महा- पञ्चसोगंधिएणं तंबोलेणं, अवसेसमुह-वासविहि न [गव्य] गाय के ये पाच पदार्थ-दूध, दही, व्रतोंवाला (सूम २, ७) । महव्यय न पच्चक्खामि' (उवा)। 'हत्तर वि ["सप्तत] घृत, गोमय और मूत्र, पंचगव्य (कप्पू)। [महाव्रत] हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, पचहत्तरवा, ७५ वाँ (पउम ७५, ८६)। 'गाह न [गाथ] गाथाछन्द वाले पांच | और परिग्रह का सर्वथा परित्याग (पएह २, हत्तरि स्त्री [सप्तति] १ संख्या पद्य (कस)। गुण वि [गुण] पाँचगुना ५)। महाभूय न [महाभूत] पृथिवी, विशेष, ७५ । २ जिनकी संख्या पचहत्तर (ठा ५,३) । 'चित्त ' [चित्र] षष्ठ जिन- जल, अग्नि, वायु और प्राकाश ये पाँच | होवे (पि २६४७ कप्प) । हत्थुत्तर पुं देव श्रीपद्मप्रभः जिनके पाँचों कल्याणक चित्रा | पदार्थ ( विसे)। मुट्रिय वि[मुष्टिक] [हस्तोत्तर] भगवान महावीर, जिनके नक्षत्र में हुए थे (ठा ५, १: कप्प)। जाम पाँच मुष्यिों का. पांच मुष्टियों से पूर्ण पाँचों कल्याणक उत्तराफाल्गुनी-नक्षत्र में हुए न [याम] १ अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, किया जाता (लोच) (णाया १, १ थे (कप्प)। उह पुं[युध] कामदेव ब्रह्मचर्य और त्याग ये पाँच महाव्रत । २ वि. कप्प, महा)। "मुह पुं [मुख] सिंह, । (सण)।णउइ श्री [ नवति] १ संख्याजिसमें इन पांच महाव्रतों का निरूपण हो वह पंचानन (उप १०३१ टी)। 'यसी देखो , विशेष, पंचानबे, ६५। २ जिनकी संख्या (ठा)। णउइ स्त्री [ नवति] पंचानबे, दसी (पउम ६६, १४) । रत्त, राय पंचानबे हो वे (सम ९७ पउम २०, ६५ (काल)। णय वि ['नवत १५ पुं रात्र] पाँच रात (मा ४३, पएह २, १०३; पि ४४०)।णउय वि [नवत] वाँ (काल) । तालीस (अप) स्त्रीन ५-पत्र १४९)। रासिय न [ राशिक] पंचानवा, ९५ वाँ (पउम ९५, ६६)। [ चत्वारिंशत् ] पैतालीस, ४५ (पिंगः | गणित-विशेष (हा ४, ३) । रूविय वि 'णण पुं [नन] सिंह, गजेन्द्र (सुपा पि ४४५)। "तित्थी स्त्री [ तीर्थी] पाँच [रूपिक] पाँच प्रकार के वर्णवाला (ठा ४, १७६; भवि)। °णुव्वइय वि [णुव्रतिक तीर्थों का समुदाय (धर्म २)। तीसइम वि ४)। 'वत्थुग न ["वस्तुक] प्राचार्य हरि- हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह का [शित्तम] पैतीसवाँ, ३५. वाँ (परण भद्रसूरि-रचित ग्रन्थ-विशेष (पंचव १, १)। मांशिक त्यागवाला (उवाः प्रौप, णाया १; ३५) । दस त्रि. ब. [दशन पनरह, १५ | वरिस वि [°वर्ष] पाँच वर्ष की अवस्था १२)। याम देखो जाम (बृह ६)। (कप्पू)। दसम वि [दशम पनरहवाँ; | वाला (सुर २, ७३)। 'विह वि ["विध] 'सि स्त्रीन [शत्] १ संख्या-विशेष, १५ वाँ (णाया १, १) । दसी स्त्री पाँच प्रकार का (अणु) । वीसइम वि पचास, ५० । २ जिनकी संख्या पचीस हो [दशी] १ पनरहवीं, १५ वीं (विसे ["विंशतितम] पचीसवाँ (पउम २५, २६)। वे; 'पंचास प्रजियासाहस्सीमों' (सम ७०)। ५७६) । २ पूर्णिमा । ३ प्रमावास्या (सुज सग न [शक] भाचार्य श्रीहरिभद्रसूरि१०)। 'दसुत्तरसय वि [दशोत्तरशत- कृत एक जैन ग्रन्थ (पंच १)। संवच्छरिय कृत एक जैन ग्रन्थ (पंचा)। सीइ स्त्री तम] एक सौ पनरहवा, ११५ वाँ (पउम वि ['सांवत्सरिक] पाँच वर्ष परिमाण [शीति] १ संख्या-विशेष, भस्सी और ११५, २४)। 'नउइ देखो उइ (पि पाँच, ८५। २ जिनकी संख्या पचासी हो वे वाला, पाँच वर्ष की प्रायुवाला (सम ७५) । ४४७); नाणि वि [ज्ञानिन्] मति, (सम ६२; पि ४४६) । सीइम वि सट्र वि ['षष्ट] पैसठवाँ, ६५ वाँ (पउम श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल इन पाँचों ["शीतितम] पचासीवाँ, ८५ वा (पउम ६५, ५१) । सद्रि श्री [षष्टि] पैसठ, ज्ञानों से युक्त, सर्वज्ञ (सम्म ६९)। 'पव्वी ८५, ३१ कप्पः पि ४४६)। ६५ (कप्प) । समिय वि [ समित] पंचंअण्ण देखो पंचजण्ण (गउड)। स्त्री [ पर्वी] मास की दो अष्टमी, दो चदुर्दशी पांच समितियों का पालन करनेवाला (सं पंचंग न [पश्चाङ्ग] १ दो हाथ; दो जानु और और शुक्ल पंचमी ये पाँच तिथियाँ (रयण ८)। 'सर पुं [शर] कामदेव (पामः | मस्तक ये पाँच शरीरावयव । २ वि. पूर्वोक्त २६)। 'पुव्वासाढ [पूर्वाषाढ] दसवें सुर २, ६३, सुपा ६०, रंभा)। 'सीस पुं पाँच अंगवाला (प्रणाम प्रादि); 'पंचंग करिय जिनदेव श्रीशीतलनाथ, जिनके पाँचों कल्या- [शीर्ष] देव-विशेष (दीव)। 'सुण्ण न ताहे परिणवाय' (सुर ४, ६८)। एक पूर्वाषाढा नक्षत्र में हुए थे (ठा ५, १)। [शून्य पांच प्राणिवध-स्थान (सूम १, 'पूस पुं[पुष्य पनरहवें जिनदेव श्रीधर्म- १. ४)। सुत्तग न [ सूत्रक] भाचार्य पंचंगुलि ([दे] एरण्ड-वृक्ष, रेंडी का गाछ नाथ (ठा ५,१)। बाण पु [बाण]/ श्रीहरिभवसूरि-निर्मित एक जैन ग्रन्थ (पसू 9 (दे ६, १७)। कामदेव (सुर ४, २४६, कुमा)। भूय न १)। 'सेल, सेला, सेलय ([शैल, पंचंगुलि पु[पश्चागुलि] हस्त, हाथ (णाया न [ भूत] पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और क] लवणोदधि में स्थित और पौच पर्वतों । १,१ कप्प)। For Personal & Private Use Only wwwinelibrary.org Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० पाइअसहमहण्णवो पंचंगुलिआ-पंडरिय पंचंगुलिआ स्त्री [पञ्चाङ्गलिका] वल्ली- पास गोदावरी नदी के किनारे मानते हैं, जब पंछि पुं [पक्षिन् ] पंछी, पक्षी, पखेरू, विशेष (पएण १-पत्र ३३)। कि माधुनिक गवेषक लोग बस्तर रजवाड़े के चिड़िया (उप १०३१ टी)। पंचग वि [पञ्चक] पाँच (रुपया आदि) की दक्षिणी छोर पर, गोदावरी के किनारे, इसका पंजर पुन [पञ्जर] १ माचार्य, उपाध्याय, कीमत का (दसनि ३, १३)। होना सिद्ध करते है (उत्तर ८१)। प्रवत्तक प्रादि मुनि-गण । २ उन्मार्ग-गमनपंचग न [पञ्चक] पाँच का समूह (माचा)। पंचवयण [पञ्चवदन] सिंह, मृगराज निषेष, सन्मार्ग-प्रवर्तन । ३ स्वच्छन्दता-प्रति(सम्मत्त १३८)। षेष (वव) १)। पंचजण्ण पु[पाञ्चजन्य] श्रीकृष्ण का शंख पंचामय न [पञ्चामृत] ये पाँच वस्तु-दही; पंजर न [पञ्जर] पिंजरा, पिंजड़ा (गउड, (काप्र ८६२ गा ९७४)। दूध, घी, मधु तथा शक्कर (सिरि २१८)। कप्पू; मच्चु २)। पंचत्त न [पश्चत्व] १ पाँचपन, पञ्च-चालापालालकामशास-प्रोता एक पंजरिबादा जहाज का कर्मचारी-विशेष पंचत्तणरूपता (सुर १, ५)। २ मरण, मौत (सुर १, ५ सण, उप पृ १२४)। ऋषि (सम्मत्त १३७)। (सिरि ४२७)। पंचपुंड वि [ पञ्चपुण्ड ] पाँच स्थानों में पश्चाल पुं. ब. [पञ्चाल, पाञ्चाल १ देश- पंजरिय वि [पअरित] पिंजरे में बंद किया विशेष, पजाब देश (णाया १,८; महाः | हुमा (गउड)। पुण्ड्र-चिह्न (सफेदी) वाला (पिंड मा ४३)। पएण १)। २ पुं. पजाब देश का राजा पंजल वि [प्राअल] सरल, सीधा, ऋतु पंचपुल पुन [दे] मत्स्य-बन्धन विशेष, (भवि) । ३ छन्द-विशेष (पिंग)। (सुपा ३६४ वखा ३०)। मछली पकड़ने का जाल-विशेष (विपा १,! पंचालिआ नी [पश्चालिका] पूतली, काष्ठादि- पंञ्जलि पुत्री [प्रालि] प्रमाण करने के लिए ८-पत्र ८५ टी)। निर्मित छोटी प्रतिमा (कप्पू)। जोड़ा हुमा कर-संपुट, हस्त-न्यास-विशेष, पंचम वि [पक्रम १ पाँचवाँ (उवा)। २ पंचालिआ श्रीपाश्चालिका] १ दुपद-राज संयुक्त कर-द्वय (उवा)। 'उड ऍ[पुट] . स्वर-विशेष (ठा ७)। धारा स्त्री की कन्या, द्रौपदी (वेणी १५८)1 २ गान अञ्जलि-पुट, संयुक्त कर-द्वय (सम १५१, [धारा] अश्व की एक तरह की गति का एक भेद (कप्पू)। प्रौप)। "उड, कड वि [कृतप्राअलि] (महा)। पंचावण्ण । स्त्रीन दे.पश्चपञ्चाशता जिसने प्रणाम के लिए हाथ जोड़ा हो वह पंचमहन्भूइअ वि [पाश्चमहाभूतिक] पंचावन्न । संख्या-विशेष, पचपन, ५५ (भगः भोप)। पाँच महाभूतों को माननेवाला, सांख्यमत २ जिनकी संख्या पचपन हो वे (हे २, १७४ पंजिअ नादायथेच्छ दान, मुंह-मांगा दान: का अनुयायी (सूम २, १, २०)। दे २, २७ दे २, २७ टि)। 'रायकुलेषु भमंतो पंजिमदाणं पगिरहेर पंचमासिअ वि [पाश्चमासिक] १पाँच पंचावन्न वि [दे. पञ्चवश्वाश] पचपनवाँ । (सिरि ११८)। मास की उम्र का। २ पाँच मास में पूर्ण (पउम ५५, ६१)। पंड वि [पाण्ड्य देश-विशेष में उत्पन्न । पंचिंदिय । वि [पञ्चेन्द्रिय] १ वह जीव स्त्री. डी; 'पंडीणं गंडवालीपुलमणचवला' (सम २१)। पंचिद्रिय । जिसको त्वचा, जीभ, नाक, (कप्पू)। पंचमिय वि पिास्चमिका पाँचवा. पंचम | अखि और कान ये पाँचो इन्द्रिया हा (पएण पंड पण्डका१नसक क्लोव (मोघ ६१)। १ कप्पः जीव १, भवि) । २ न. त्वचा पंडग (मोष ४६७; सम १५ पास)।२ पंचमी स्त्री [पञ्चमी] १ पाँचवीं (प्रामा)। प्रादि पाँच इन्द्रियाँ (धर्म ३)। पंडय! न. मेरु पर्वत का एक बन ( २, २ तिथि-विशेष, पंचमी तिथि (सम २६ पंचिया स्त्री [पश्चिका] १ पांच की संख्याश्रा २८)। ३ व्याकरण-प्रसिद्ध अपादान पंडय देखो पंडव (हे १,७०)। | वाला । २ पाँच दिन का (वय १)। विभक्ति (अणु)। पंडर पु[पाण्डर] १ क्षीरवर मामक द्वीप का पंचुंबर बीन [पञ्चोदुम्बर] वट, पीपल, पंचयन्न देखो पश्चजण्ण (णाया १, १६ उदुम्बर, प्लक्ष और काकोदुम्बरी का फल मधिष्ठाता देव (राज)। २ श्वेत वर्ण, सफेद सुपा २६४)। रंग । ३ वि. श्वेतवर्णवाला, सफेद (कप्प)। (भवि) । श्री. री (श्रा २०)। "भिक्खु पुं[भिक्षु श्वेताम्बर जैन संप्रदाय पंचलोइया स्त्री [पञ्चलौकिका] भुजपरिसन- पंचत्तरसय वि [पश्चोत्तरशततम एक का मुनि (स ५५२)। विशेष, हाथ से चलनेवाले सर्प-जातीय प्राणी सौ पाँचवा, १०५ वाँ (पउम १०५, ११५)। पंडर देखो पंडर (स्वप्न ७१)। क जाति (जीव २)। पंचेडिय वि[३] विनाशित, 'जेण लोयस्स पंडरंग [द] ख, महादेव, शिव (३६, पिञ्चषटी] पाँच वट-वृक्षवाला | मोहत्तणं फेडिय दुटुकंदप्पद पंच पंचेडिय २१)। रामचन्द्रजी ने अपने | (मवि)। पंडरंगु [३] प्रामेश, गांव का मणिपति था, इस स्थान पंचेसु [पोष कामदेव, कंदर्प (कप्पू: (पर)। नगर के रमा)। | पंडरिय देखो पंडरिब (मवि)। For Personal & Private Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडव पंथ पंड [पाण्डव] राजा पार का पुत्र - १ युधिष्ठिर, २ भीम, ३ अर्जुन, ४ सहदेव मौर ५ नकुल (गाया १, १६६ उप ६४८ टी) । पंड [] श्व-रक्षक (?); 'सिट्ठि सुहडेह तासिय पंडववयेहि नरवरो रुट्ठो' (सम्मत २१६) । पंढवि , [२] जलाई पानी से भीजा हुआ (दे ६, २०) । पंडिअ वि [पण्डित] १ विद्वान् शास्त्रों के मर्म को जाननेवाला, बुद्धिमान्, तत्वज्ञः कामज्भया णामं गरिणया होत्या बावत्तरीकलापंडिया' ( विपा १, २ प्रासू ७४६ १२) । २ संयत, साधु ( सून १, ८, ९ ) । "मरण न ["मरण] साधु का मरणा, शुभ मरण- विशेष (भग पच ४६) *माण वि [म्मन्य ] विद्याभिमानी, निज को पण्डित माननेवाला, दुर्विदग्ध, अधपका, मूर्ख, अनाड़ी (घोष २७ मा "माणि वि [मानिन] देखो पूर्वोक्त प्रर्थं (पउम १०५, २१ उप १२४] टी)। वीरिअ न ["वीर्ये] संयत का आत्म- बल (भग) । डिमाणि वि[पाण्डित्यमानिन] पंडिताई का अभिमान रखनेवाला, विद्वत्ता का घमंड रखनेवाला (वय १९) । पंडिच न [ पाण्डित्य ] पंडित । विद्वत्ता, वैदुष्य (उवः ६८ सुपा २६; रंभा सं ५७ ) । पण्डिताई, सुर १२, पाइअसद्दमद्दष्णबो ● कंबला स्त्री ["कम्बला ] वही पूर्वोक्त मर्थं (ठा २, ३ ) । तणय पु ["तनय] पण्डुराज का पुत्र, पाण्डव (गउड ४८५) । भद्द [भद्र] एक जैन मुनि, जो श्रायं संभूतिविजय के शिष्य थे (कप्प) महिया, "मतिया श्री] [मृत्तिका] एक प्रकार की सफेद मिट्टी ( जीव १ पराग १ - पत्र २५) । महरा स्त्री [ मथुरा ] स्वनाम - ख्यात एक नगरी, पाण्डवों द्वारा बनाई हुई भारतवर्ष के दक्षिण तरफ की एक नगरी का नाम (गाया १, १६ – पत्र २२५ अंत ) । राय पुं [राज] राजा पाण्डु पाण्डवों का पिता ( खाया १, १६) सुब ["सुत] पुं पाण्डव (उप ६४८ टो) । सेण पुं [°सेन] पाण्डवों का द्रौपदी से उत्पन्न एक पुत्र (गाया १, १६; उप ६४८ टी) । पंडुइय बि [ पाण्डुकित] १ श्वेत रंग का किया हुआ या १, १ पत्र २० ) । की पूर्ति करनेवाला एक निधि (राज पुं [ पाण्डक] १ चक्रवर्ती का धान्यों ठा २, १ –पत्र ४४ उप ६८६ टी) । २ सर्प की एक जाति (भाचू १) । ३ न. मेरु पर्वत पर स्थित एक वन, पाएडक- वन ( सम ee) I पंहुँय पंडुग [दुर] [पाण्डुर] श्वेत व सफेद रंग २पीतमिति श्वेत व ३वि सफेद - वाला । ४ श्वेत- मिश्रित पीत वर्णवाला (कप्प; उब से ८, ४९) । 'ज्जा स्त्री [र्या] एक जैन सामी का नाम (सायम) थिय [स्थिक] एक गाँव का नाम (प्राचू १) । पंडुरंग पुं [पाण्डुराङ्ग] संन्यासी की एक जाति, भस्म लगानेवाला संन्यासी (अरण २४) । पंत वि [प्रान्त ] १ अन्तवर्ती, मन्तिम ( भग E; ३३) । २ प्रशोभन, मसुन्दर (घाचाः ५०१ 1 " प्रोघ १७ भा) । ३ इन्द्रियों के अननुकूल, इन्द्रिय-प्रतिकूल (पह २५) ४ असभ्य, अशिष्ट (घोष ३६ टी) । ५ प्रपसद, नीच, पुष्ट (छाया २८) दरिद्र निर्धन ( श्रोघ ९९ ) । ७ जीर्ण, फटा-टूटा, पंतवत्थ-' (बृह २ ) । व्यापन्न, विनष्टः विमा अंत हो बावन्न ( १ घाचा नीरस सूखा (उत्त) | १० भुक्तावशिष्ट, खा लेने पर बचा हुआ । ११ पर्युषित, बासी (गाया १, ५ - पत्र १११ ) । "कुल न [कुल ] नीच कुल, जघन्य जाति । (ठा ८ ) । चरवि [चर] नीरस श्राहार की खोज करनेवाला तपस्वी परह २ १) । "जीवि वि ["जीविन] नीरस बाहार से शरीर-निर्वाह करनेवाला (ठा २, १) हार वि["हार] रूखा-सूखा बाहार करनेवाला (ठा ४, १) । पंडी देखो पंड = पाण्ड्य । पंडी (प) देखो पंडिअ (पिंग ) । पंदु [पाण्ड] १ नृप-विशेष पाएड्वों का पिता (उप ६४८ टी; सुपा २७० ) । २ रोगविशेष पाड-रोग (१) विशेष शुक्ल मौर पीत वर्णं । ४ श्वेत वर्णं । ५ वि. रुक और पीडववाला (भद्रा गउड)। पंडरग} [ पाण्डुरक ] ? शिष-अत पंथ [ चान्य] पथिक, मुसाफिर (हे १, १०२ पंथ [ पन्थ, पधिन] मार्ग रास्ता 'पंच किर देसित्ता' (हे १,८८), पंथम्म पहपरि (सुपा ५५० का ५४ प्रा १७३) । पुं पुं १ संन्यासियों एक जाति ( छाया १.[१५] १२२२ देखो पंडुर 'कैसा पंडुरवा हति तें' (उस १) पंडुरिअ ) वि [ पाण्डुरित] पाण्डुर वर्णपहुइय वाला बना हुआ (गावा १, २–पत्र २७) । ६ सफेद, श्वेत; 'सेनं सिनं वलक्खं भवदाय पंडे घवलं च' (पाद्म गउड ) । ७ शिलाविशेष, पाएडुकम्बला नामक शिला (जं ४ इक [म्बलशिला] मेरु पर्वत के पाएडक वन के दक्षिण छोर पर स्थित एक शिला, जिस पर जिन देवों का जन्माभिषेक किया जाता है (जं ४) । 1 ७४) कुण न [कुट्टन] मार पीटकर मुसाफिरों को लूटना (गाया १, १८) को ["कुछ] वही अर्थ (विचा १, १-पत्र ११) कोट्टि भी [हि] वही धर्मं 'से चोरसेरगावई गामधार्यं वा जाव पंचकोट्टिया का बचत (खामा १, १०) । पंग [पान्धक] एक जैन मुनि (खाया १, ५ धम्म ६ टी) । 1 For Personal & Private Use Only पंताव सक [दे] ताड़न करना, मारना । पंतावे (पिंड ३२५) । पंति स्त्री [पङ्क्ति ] १ पंक्ति, श्रेणी, कतार (है १.२५ कुमाः कप्प २ सेना-विशेष जिसमें एक हाथी, एक रथ, तीन घोड़े और पाँच पदाती हाँ ऐसी सेना (पउम ४६४) पंत श्री [दे] वेणी -रचना (६२)। पंतियन [पक्ति] पंक्ति, शी: 'सराणि या सरपंतिवाणि वा सरसरपंतिवादि वां ( भाचा २, ३, ३, २ ) । स्त्री. 'पंतियाओ' (धरण) । Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ पाइअसहमहण्णवो पंथाण-पकाव पंथाण देखो पंथ = पन्थ, पथिन्; 'पंथकाणे | पंसुली स्त्री [पांसुली] कुलटा, व्यभिचारिणी कल्प (पंचभा)। ६ एक महाग्रह, ज्योतिष पंथाणंझाणे (प्राउ ११)। स्त्री (पामा सुर १५, २; हे २, १७६)। देव-विशेष (सुज २०)। गंथ पुं[प्रन्थ] पंथिअ पुं[पन्थिक, पथिक ] मुसाफिर, पकंथ देखो पगंथ (माचा १, ६, २)। एक प्राचीन जैन ग्रन्थ, 'निशीथ' सूत्र (जीव पान्थ; 'पंथिम णं एत्थ संथर' (काप्र १५८ | पकथग पुं[प्रकन्थक] प्रश्व-विशेष, एक प्रकार १)। जइ पुं[यति] "निशीथ' अध्ययन महा: कुमाः णाया १,८ वजा १०; १५८)। | का घोड़ा (ठा ४, ३--पत्र २४८)। का कानकार साधु; 'धम्मो जिणपन्नत्तो पंथुच्छुहणी स्त्री [दे] श्वशुर-गृह से पहली बार पकप्पजइणा कहेयव्वों (धर्म १)। धर वि पकंप पुं[प्रकम्प] कम्प, कॉपना (आव ४)। मानीत स्त्री (दे ६, ३५)। [धर] 'निशीथ' अध्ययन का जानकार पकंपण न [प्रकम्पन] ऊपर देखो (सुपा पंपुअ वि [दे दीर्घ, लम्बा (दे ६, १२)। (निचू २०)। देखो पगप्प = प्रकल्प । ६५१)। पकप्पणा स्त्री [प्रकल्पना] प्ररूपणा, व्याख्या पंफुल्ल वि [प्रफुल्ल] विकसित (पिंग)। पर्कपिअ वि [प्रकम्पित] प्रकम्प-युक्त, कॉपा 'परूवरण त्ति वा पकप्पण त्ति वा एगट्टा' पंफुल्लिअ वि[दे] गवेषित, जिसकी खोज की हुआ (आव २)। (निचू १)। गई हो वह (दे ६, १७)। पकंपिर वि [प्रकम्पित] काँपनेवाला (उप पू पकप्पणा स्त्री [प्रकल्पना] कल्पना (इय पंस सक [पांसय ] मलिन करना। पंसेई १३२) । स्त्री. री (रंभा)। १४१, अज्झ १४२)। (विसे ३०५२)। पकड वि [प्रकृत] १ प्रस्तुत, प्रक्रान्त, उप पकप्पधारि वि [प्रकल्पधारिन्] निशीथ स्थित, असली, सच्चा (भग ७, १०-पत्र पंसण वि [पांसन] कलंकित करनेवाला, ३२४, १८, ७–पत्र ३५०)। २ कृत, सूत्र का जानकार (क्व १)। दूषण लगानेवाला (हे १,७०, सुपा ३४२)। पकप्पि वि [प्रकल्पिन्] ऊपर देखो (वव निर्मित (भग १८, ७)। पंसु ' [पांसु, पांशु धूली, रज, रेणु (हें २६७ पाम आचा)। कीलिय, कीलिय पकड देखो पगड = प्रकट (भग ७, १०)। पकप्पिअ वि [प्रकल्पित काटा हुमा, ‘एसा वि [क्रीडित] जिसके साथ बचपन में पकड्ढ देखो पगडढ। कवकृ. पकड्ढिज्ज- परजुत्तिलया एएण पकंपि (? कप्पि)। पा पांशु-क्रीड़ा की गई हो वह, बचपन का दोस्त माण (औप)। प्रा' (प्रज्झ १०२)। (महा; सण)। "पिसाय पुंस्त्री ["पिशाच पकडढ वि [प्रकृष्ट] १ प्रकर्ष-युक्त । २ खींचा पति विपल्पिती, मंका पकप्पिअ वि [प्रकल्पित १ संकल्पित (द्र जो रेणु-लिप्त होने के कारण पिशाच के तुल्य हुआ (प्रौप)। २)। २ निर्मित (महा)। ३ न. पूर्वोपार्जित मालूम पड़ता हो वह (उत्त १२)। "मूलिय पकड्ढण न [प्रकर्षण आकर्षण, खींचाव द्रव्य 'ण णो अत्थि पकप्पियं' (सूत्र १, ३, पुं [मूलिक] विद्याधर, मनुष्य-विशेष (निचू २०)। ३, ४) । देखो पगप्पि । (राज)। पकत्थ सक[प्र+ कत्थ् ] श्वाषा करना, पकय वि[प्रकृत] प्रवृत्त, कार्य में लगा हुमा पंसु [पशु] कुठार, फरसा (हे १, २६) । प्रशंसा करना । पकत्थइ (सूम १, ४, १, (उप ६२०)। पंसु देखो पसु ( षड्)। १६, पि ५४३)। पकर सक [प्र + कृ] १ करने का प्रारम्भ पंसुखार ( [पांशुक्षार] एक तरह का नोन, पकप्प प्रक [प्र+क्लूप्] १ काम में करना । २ प्रकर्ष से करना। ३ करना । ऊपर लवण (दस ३, ८)। प्राना, उपयोग में पाना । २ काटना, छेदना। पकरेइ, पकरंति, पकरेंति (भग पि ५०६)। पंसुल ( [दे] १ कोकिल, कोयल। २ जार, कृ. पकप्प (ठा ५, १-पत्र ३००)। देखो वकृ. पकरेमाण (भग)। संकृ. पकरित्ता पगप्प =+ क्लूप । उपपति (द६,६६)। ३ वि. रुख, रोका (भग)। हुआ (षड्)। पकप्प सक [प्र+कल्पय ] १ करना, पकर देखो पयर = प्रकर (नाट–वेणी ७२)। बनाना । २ संकल्प करना: 'वास वयं वित्ति पंसुल पुं [पांसुल] १ पुंश्चल, परस्त्री-लम्पट पकप्पयामों' (सूम २, ६, ५२)। पकरणया स्त्री [प्रकरणता] करण, कृति (गा ५१०; ५९६)। २ वि. धूलि-युक्त (भग)। पकप्प पुं[प्रकल्प] १ उत्कृष्ट प्राचार, उत्तम (गउड)। माचरण (म ४, ३)। २ अपवाद, बाधक पकहिअ वि [प्रकथित] जिसने कहने का पंसुला स्त्री [पांसुला] कुलटा, व्यभिचारिणी नियम (उप ६७७ टी निघू१)। ३ अध्ययन प्रारम्भ किया हो वह (उप १०३१ टी वसु)। बी (कुमा)। विशेष: 'पाचारांग सूत्र का एक अध्ययन । पकाम न [प्रकाम] १ प्रत्यर्थ, अत्यन्त (णाया पंसुलिस वि [पांसलित] धूलि-युक्त किया ४ व्यवस्थापन: 'अट्ठावीसविहे मायारपकप्पे १, १, महा; नाट-शकु २७)। २ पुं. हुमाः 'पंसुलिप्रकरण (गउड)। (सम २८)। ५ कल्पना। ६ प्ररूपणा । ७ प्रकृष्ट प्रभिलाष (भग ७,७)। पंसुलिआ श्री [दे. पांशुलिका पात्र की विच्छेद, प्रकृष्ट छेदन (निचू १)। जैन पकाव (मप) सक [पच् ] पकाना । पकावउ हड्डी (पव २५३)। साधुषों का एक प्रकार का माचार स्थविर- (पिंग: पि ४५४)। For Personal & Private Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकास - पक्खंत पकास देखो पयास = प्रकाश (पिंग ) । पट्टि देखो पट्टि (राज) । प्रकिण वि[प्रीर्ण] १ उप्त, गोया हुआ २ बल दिया हुआ वह पकिखा (भा) विरुहंति पुराणा' (उत्त १२, १३) । देखो पइण्ण = प्रकीर्णं । पति (बु. १०८) । पकिदि देखी पगइ प्रकृति (१२)। पकिदि (सी) देखो पद्म प्रकृति (स्वप्न ६० श्रभि ६५) । पनि देखा पकिष्ण (उत्त १२, १३) । पकिरण [प्रकिरण] देने के लिए फेंकना (१) । [ प्रकीचित] पति कवित पकुविअ ऊपर देखो (महानि ४ ) । पकुव्त्र सक [ प्र + कृ, प्र + कुर्व ] १ करने का प्रारम्भ करना। २ प्रकर्ष से करना । ३ करना । पकुब्वइ (पि ५०८ ) । वकृ. पकुत्रमाण (सुर १६, २४: पि५०८ ) । पकुव्वि व [प्रकारिन् प्रकुर्विन् ] १ करनेवाला कर्ता । २ पुं. प्रायश्चित्त देकर शुद्धि कराने में समर्थ गुरु (द्र ४६ ठा पुप्फ (३५६) । पकूविअवि [ प्रकूजित ] ऊँचे स्वर से चिल्लाया हुआ (उप पृ ३३२) । पफोटु देखो पोट्टु (राज) | पक्ष पको [ प्रकोप ] गुस्सा, क्रोध (श्रा १४) । [पक] पका हुआ है १ ४७ २० ७६ पात्र ) । पकुण देखो पकर = प्र + कृ । पकुराइ (कम्म पक्कणिय पुंखी [दे] एक श्रनायें देश में १, ६०) । रहनेवाली मनुष्य जाति (११-पत्र १४; इक) । पकुप्प क [ प्र + कुप्] क्रोध करना, गुस्सा करना । पकुप्पंति ( महानि ४) । पकुपित (पै) वि [ प्रकुपित ] क्रुद्ध, कुपित, ४ १२६ । [] १२ समर्थ पका, पहुँचा हुआ (दे ६, ६४ पाच) । पक्कं वि [ प्रक्रान्त ] प्रस्तुत, प्रकृत ( कुमा २७) । पक्कग्गाह पुं [दे] १ मकर, मगरमच्छ ( दे ६, २३) । २ पानी में बसनेवाला सिंहाकार (५७)। पाइअसहमणो पग वि [दे] १ सहन, सहिष्णु २ समर्थ, शक्त (दे ६, ६९ ) । ३ पुं. चाण्डाल ( सं ६३ ) । ४ एक अनार्य देश। ५ पुंस्त्री. धनादेश विशेष में रहनेवाली एक मनुष्य जाति (धौप राज ) । स्त्री. णी (गाया १,१६ श्रप; इक) । ६ पुं. एक नीच जाति का घर, शबर-गृह (पंरा ५२) । °उल न [° कुल] १ चाण्डाल का घर (बृह ३ ) । २ एक गर्हित कुल; पक्करणउले वसंतो सउणी इयरोवि हो होई (भाग २) | ब [] १ तिशय शोभमान शोभता हुआ। २ भग्न, भांगा हुआ। ३ प्रिववद, प्रियभाषी (दे ६० ६५) । पचास न [का] केवल भी बनी हुई वस्तु, मिठाई आदि (सुपा ३८७) । पक्कम सक [ प्र + क्रम् ] प्रकर्ष से समर्थं होना । पक्कमइ ( भग १५ – पत्र ६७८ ) । पक्कम सक [ प्र + क्रम् ] १ प्रकर्ष से जाना, चला जाना, गमन करना। २ अक प्रयत्न होना । प्रवृत्ति होना पक्कमई (उत्त ३, १३) । पक्कमंति ( उत्त २७ १४; दस ३, १३ ); 'अगुसासरणमेव पत्रक (सूत्र १, २, १, ११) । पक्कम पुं [ प्रक्रम ] प्रस्ताव, प्रसंग (सुपा ३७४) | पक्कमणी स्त्री [ प्रक्रमणी] विद्या- विशेष (सूप्र २, २, २७) । पक्कल वि [दे] १ समर्थ, शक्त (हें २, १७४ पासुर ११, १०४; वज्जा ३४ ) । १ वर्ष गति (सुर ११ २०४ ११) ३ प्री बत्तारि पस्तबला' (गा ८१२; पि ४३९ ) । पक्कस देखो वक्कस (भाचा) । पक्कसावअ [दे] १ शरभ । २ व्याघ्र (दे ६, ७५) । पक्काइय वि [ पक्कीकृत ] पकाया हुआ, 'पक्काइपमा लिगसारिया (६२) । For Personal & Private Use Only ५०३ पकिर सक [+] फेंकना। वह 'छारं च धूलि च कयवरं च उवार पकिर - माण' (गाया १, २ ) । पर्कडियन [प्रक्रीडित]] जिसने कीड़ा का प्रारम्भ किया हो वह (गाया १, १ कप्प ) । पक्केलय वि [पक्क] पका हुम्रा (उवा) । पक्ख पुं [पक्ष] वेदिका का एक भाग (राय ८२) । पक्ख पुं [पक्ष ] १ पाख पखवारा श्राघा महीना, पन्द्रह दिन-रात (ठा २, ४ पत्र ८६ : कुमा) । २ शुक्ल और कृष्ण पक्ष, उजेला और अँधेरा पाख ( जीव २ हे २, १०६) । ३ पार्श्व, पॉजर, कन्धा के नीचे का भाग । ४ पक्षियों का अवयव - विशेष, पंख, पर, पतत्र (कुमा) । ५ तर्कशास्त्र - प्रसिद्ध श्रनुमान प्रमाण का एक श्रवयव, साध्यवाली वस्तु (विसे २८२४) । ६ तरफ, श्रोर । ७ जत्था, दल, टोली । मित्र, सखा । शरीर का आधा भाग । १० 1 तरफदार । ११ तीर का पंख (हे २, १४७) । १२ तरफदारी ( १ ) गवि [ग] पक्ष-गामी, पक्ष- पर्यन्त स्थायी ( कम्म १, १८ ) 1 "पिंड न ["पिण्ड] मासन- विशेष - १ जानु और जाँघ पर वस्त्र बांध कर बैठना । २ दोनों हाथों से शरीर का बन्धन कर बैठना (उत १, १२) [क] पत्रावाल वृन्त (कप्प ) वंत वि [ वन ] तरफ दावाला ( १ ) । वाइल वि [पातिन् ] पक्षपात करनेवाला, तरफदारी करनेवाला ( उप ७२८ टी धम्म १ टी) । वाद पुं [पात ] तरफदारी (उप ६७० स्वप्न ४५) वाद (शी) देखो बाइस (नाट विक्र २ मालती ६५ वादे बाद (सुपा २०६ २६३ ) । "वाय ' ["बार] पक्ष-सम्बन्धी विवाद (३१२)बाद g [व] बेदिका का एक देश-विशेष ( जं १) | विडिअ वि [पतित] पक्षपाती (हे ४, ४०१ [वापिका ] होम विशेष ( स ७५७) । पसंत न [पचान्त ] धन्यतर इन्द्रिय-जात 'अन्यपरं इंदियायं पसंत महल' (नि ६) । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पक्खिप्पमाण | देखो पक्खिव । 'e ५०४ पाइअसहमहण्णवो पक्खंतर-पक्खोड पक्खंतर न [पक्षान्तर] अन्य पक्ष, भिन्न पक्खाल सक [प्र+क्षालय ] पखारना, पक्खिप्प । पक्ष, दूसरा पक्ष (नार-महावी २५)। शुद्ध करना, धोना । कवकृ. पक्खालिजमाण | पक्खंद सक [+ स्कन्द्] १ माक्रमण (गाया १, ५) । संकृ पक्खालिअ, पक्खा- पक्खिव सक [प्र+क्षिप्] १ फेंकना, करना । २ दौड़कर गिरना। ३ अध्यवसाय लिऊण (नाट–चैत ४०; महा)। फेंक देना । २ छोड़ना, श्यागना । ३ डालना। करना: 'पक्वंदे जलिय जोइं घूमकेउं दुरासय पक्खालणन [प्रक्षालन] पखारना, घोना पक्खिवइ (महा कप्प)। पक्खिवइ (महा; (राज), 'मरिण व पक्खंद पयंगसेणा' (स ५२ औप)। कप्प)। पक्खिवह, पक्खिवेज्जा (प्राचा २, (उत्त १२, २७)। ३, २, ३)। कवकृ. पक्खिप्पमाण (णाया पक्खालिअ वि [प्रक्षालित] पखारा हुमा, पक्खंदण न [प्रस्कन्दन] १ माक्रमण । २ १, ८-पत्र १२६; १४७)। संव, अध्यवसाय । ३ दौड़कर गिरना (लिवू ११)। धोया हुआ (प्रौपः भवि)। पक्खिऊण, पक्खिप्प (महा; सूप १, ५, पक्खंदोलग पुं [पक्ष्यन्दोलक] पक्षी का पक्खासण न [पक्ष्यासन] प्रासन-विशेष, १. पि ३१९)। कृ. पक्खिवेयव्य (उप हिंडोला, झूला (राय ७५)। जिसके नीचे अनेक प्रकार के पक्षियों का ६४८ टी)। प्रयो. वकृ. पक्खिवावेमाण पक्खजमाण वि [प्रखाद्यमान] जो खाया | चित्र हो ऐसा प्रासन (जीव ३)। (गाया १, १२)। जाता हो वह (सूम १, ५, २)। पक्खि पुंस्त्री [पक्षिन] पाखी, पक्षी (ठा ४, पक्खीण वि प्रिक्षीण] प्रत्यन्त क्षीणः 'महं पक्खडिअ विदे] प्रस्फुरित, विजृम्मित, ४. प्राचा, सुपा ५९२)। स्त्री. णी (श्रा पक्खीणविभवो (महा)। समुत्पन्न; 'पक्खडिए सिहिपडित्विरे विरहे। १४)। "बिराल पुंखी 'बिराल] पक्षि- | पक्खुडिअ वि [प्रखण्डित] खण्डित, म(दे ६, २०)। विशेष (भग १३, ९)। स्त्री. "ली (जीव संपूर्ण (सुपा ११९)। पक्खर सक [सं+ नाहय ] संनद्ध करना, १)। राय ( [राज] गरुड़ (सुपा पक्खुम्भ मक [H+ क्षुभ् ] १ क्षोभ प्रश्व को कवच से सज्जित करना । पक्खरेह २१०)। नीचे देखो। पामा। २ वृद्ध होना, बढ़ना । बकृ.मक्खु(सुपा २८८) । संकृ पक्खरिअ (पिंग)। पखिअ पुत्री [पक्षिक] १ ऊपर देखो (श्रा ब्भंत (से २, २४)। पक्खर [प्रक्षर] क्षरण, टपकना (कर्पूर २८) । वि.पक्षपाती, तरफदारी करनेवालाः | पक्खुब्भंत देखो पक्खोभ। २६)। 'तप्पक्खिो पुणो अपणो' (श्रा १२)। पक्खुभिय वि Lप्रक्षुाभत ] क्षाभ प्राप्त, पक्खर [दे] जहाज की रक्षा कारक उप पक्खिअ वि [पाक्षिक स्वजन, जाति का . करण, सामग्री (सिरि ३८७)। प्रक्षुब्ध (औप)। (पव २६८)। पक्खेव पुं [प्रक्षेप] शास्त्र में पीछे से किसी पक्खर न [दे] पाखर, अश्व-संनाह, घोड़े का के द्वारा डाला या मिलाया हुमा वाक्य (धर्मस कवच (कुप्र ४४६; पिंग)। पक्खिअ वि [पाक्षिक] १ पास में होने १०११)। हार पुं[हार] कवलाहार वाला । २ पक्ष से सम्बन्ध रखनेवाला, अर्धपक्खरा श्री [दे] पाखर, प्रश्व-सनाह (दे ६, मास-सम्बन्धी (कप्पः धर्म २)। ३न. पर्व (सूमनि १७१)। १०); 'मोसारिभपक्वरे (विपा १, २)। विशेष, चतुर्दशी (लहुन १६ द्र ४५)। | पक्खेव । [प्रक्षेप, क] १ क्षेपण, पक्खरिअ वि [संनद्ध] कवचित, संनद्ध, पक्खि पुं [पक्षिक] नपुंसक-विशेष, पक्खेवग। फैकना; 'बहिया पी मलमक्खे। कवच से सज्जित (भश्व) (सुपा ५०२; जिसको एक पाख में तीव्र विषयाभिलाष (उवा)। २ पूर्ति करनेवाला द्रव्य, पूत्ति के पुष १२० भवि)। होता हो और एक पक्ष में अल्प, ऐसा नपुंसक लिए पीछे से डाली जाती वस्तुः 'अपक्खेवपक्खल पक [प्र + स्खल्] गिरना, पड़ना, गस्स पक्खेवं दलयह' (णाया १, १५-पत्र (पुप्फ १२७)। स्खलित होना। पक्खलइ (कस)। बक, १९३)। पक्खिकायण न [पाक्षिकायन] गोत्र-विशेष, | पक्खलंत, पक्खलमाण (दस ५, १; पि जो कौशिक गोत्र की एक शाखा है (ठा ७)। पक्खेवण न [प्रक्षेपण ] क्षेपण, प्रक्षेप ३०६ नाट–मुच्छ १७ बृह ६)। (प्रौप)। पक्खिण देखो पक्खिः पक्खाउन्जन [पक्षातोद्य] पखाउज, पखावज, 'जह पक्खिणाण पक्खेवय देखो पक्खेवग (बूह १)। गरुडो (पउम १४, १०४)। एक प्रकार का बाजा, मृदंग (कप्पू)। पक्खोड सक [वि+कोशय] १ खोलना। पक्खाय वि[प्रख्यात] प्रसिद्ध, विद्युत पक्खिणी देखो पक्खि। २ फैलाना । पक्खोडइ (हे ४, ४२)। संकृ. (प्राय)। | पक्खित्त वि [प्रक्षिप्त] फेंका हुमा (महा; पक्खोडिऊण (सुपा ३३८)। पक्खारिण पु [प्रक्षारिण] १ अनार्य-देश पि १८२). पक्खोड सक [श] १ कंपाना । २ झाड़ विशेष । २ पुंनी. उस देश का निवासी पक्खिनाह पुं [ पक्षिनाथ ] गरुड पक्षी कर गिराना । पक्खोड (हे ४, १३०)। मनुष्य । श्री. णी (राय)। । (धर्मवि ८४)। संकृ. पक्खोडिय (उप ५८४)। For Personal & Private Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्खोड-पगाम पाइअसद्दमहण्णवो ५०५ पक्खोड सक [प्र+ छादय् ] ढकना, पगड वि [प्रकृत] प्रविहित, विनिर्मित (उत्त पगम्भिअ वि [प्रगस्भिल] धृष्टता-युक्त (सूम पाच्छादन करना । संकृ. पक्खोडिय (उप १, १, १, १३, १, २, ३, ४)। ५८४)। पगड [प्रगत बड़ा गड्ढा या गड़हा (माचा पगभित्तु वि [प्रगल्भित्] काटनेवाला) पक्खोड सक [प्र + स्फोटय] १ खूब | २, १०, २)। 'हंता छेत्ता पगभित्ता' (सूम १, ८, ५)। झाड़ना । २ बारम्बार झाड़ना । पक्खोडिजाः पगडण न [प्रकटन] प्रकाश करना, खुला | पगय न [प्रकृत] १ प्रस्ताव, प्रसंग (सूमनि वक पक्खोडंत (दस ४,१)। प्रयो. पक्खोडा- करना (दि)। ४७)। २ पु. गाँव का अधिकारी (पथ विजा (दस ४,१)। पगडि स्त्री [प्रकृति] १ भेद; प्रकार (भग)। २६८)। पक्खोड [प्रस्फोट] प्रमार्जन, प्रतिलेखन २-देखो पगइ (सम ५६; सुर १४, | पगय वि [प्रगत] संगत (श्रावक १८६)। की क्रिया-विशेष (पव २)। पगय वि [प्रकृत] प्रस्तुत, अधिकृत (विसे पक्खोडण न [शदन] धूनन, पाना (कुमा)। पगडीकय वि[प्रकटीकृत] व्यक्त किया हमा, ८३३; उप ४७६)। पाखोडिअ वि [शदित निओटित. झाड़ | स्पष्ट किया हुमा (सुपा १८१)। कर गिराया हुमा (दे ६, २७पाप्र)। पगय वि [प्रगत] १ प्राप्त (राज) । २ जिसने पगडूढ सक [प्र + कृष] खींचना । कवकृ. गमन करने का प्रारम्भ किया हो वहा 'मुणिपक्खोडिय देखो पक्खोड = शद्, प्र+ छाय् । पढिजमापा (विपा १, १)। गोवि जहाभिमयं पगया पगएण कज्जेण पक्खोभ सक [प्र + क्षोभय ] क्षुब्ध करना, पगच्च देलो पप्प =+ कल्पय् । संकृ. (सुपा २३५) । ३ न. प्रस्ताव, अधिकार क्षोभ उत्पन्न कर हिला देना । कवकृ. पगप्पएत्ता (सूम २, ६, ३७)। (सूम १, ११, १५)। पक्खुन्भंत (से २, २४)। पगप्प देखो पकप्प = प्र + क्लृप् (सूम १, | पगय न [दे] पग, पाव, पैरः 'एत्थंतरम्मि पक्खोलण न [शदन] १ स्खलित होनेवाला। लग्गो चंडमारुनो। वेण भग्गो तुरयपगयमग्गों' २ वि. रुष्ट होनेवाला (राज)। पगप्प वि. [प्रकल्प] १ उत्पन्न होनेवाला, (महा)। पखम (पै) देखो - पक्ष्मन्, 'पखमलणपणे प्रादुर्भूत होनेवालाः 'बहुगुणप्पगप्पाई कुजा पगर पु[प्रकर] समूह, राशि (सुपा ६५५) । (प्राकृ. १२४)। प्रत्तसमाहिए' (सूम १,३,३, १९) । देखो पगरण नाप्रकरण]१ अधिकार, प्रस्ताव । पखोड वेझो पक्खोड = प्रस्फोट (पब २)। पकप्प = प्रकल्प (भाषा)। २ ग्रंथ-खएड-विशेष, ग्रंथांश-विशेष (विसे पखल वि [प्रखर] प्रचण्ड, तीव्र, तेज (प्राप्न)। पराप्पिअ वि [प्रकल्पित] प्ररूपित, कथित; १११५)। ३ किसी एक विषय को लेकर पगड स्त्री प्रकृति]१ प्रकृति, स्वभाव (भगा ण उ एयाहि दिट्टीहि पुब्वमासि पगप्पियं बनाया हा छोटा ग्रन्थ (उव)। कम्म १, २ सुर १४, ६६, सुपा ११०)। (सूम १, ३, ३, १९) । बेखो पकप्पि । पगरिअ वि [प्रगलित] गलित्कुष्ठ, कुष्ठ-विशेष २ प्रकृत पर्थ, प्रस्तुत अर्थ; “पडिसेहदुर्ग पगई पगप्पित्त वि [प्रकल्पयित, प्रकर्तयित]| की बीमारीवाला (पिंड ५७२)। गमेह' (विसे २५०२)। ३ प्राकृत लोक, साधा- काटनेवाला, कतरनेवालाः 'हंता छेत्ता पब्भि पगरिस [प्रकर्ष १ उत्कर्ष, श्रेष्ठता (सुपा रण जन-समूह; 'विनमुद्धारे बहुदव्वं पगईण ! (?प्पि)त्ता प्रायसायाणुगामिणो' (सूम १,८, ॥ आयसायायुगामा (सून १८, १०६)। २ आधिक्य, अतिशय (सुर ४, (सुपा ५६७)। ४ कुम्भकार आदि मठारह | १९९)। मनुष्य-जातियाँ: अट्ठारसपगइन्भतराण को सो पगटभ प्रक [प्र+गल्भ] १ घृष्ता पगरिसण न [प्रकर्षण] ऊपर देखो (यति न जो एइ'(प्राक १२)। ५ कर्मों का भेद (सम करना, धृष्ट होना । २ समर्थ होना। पगब्भइ, १९)। १)। ६ सत्व, रज और तम की साम्या- पगम्भई (प्राचाः सूत्र १, २, २, २१; १, पगल प्रक [प्र+गल्] झरना, टपकना । वस्था। ७ बलदेव के एक पुत्र का नाम (राज)। २, ३, १०; उत्त ५, ७)। धकृ. पगलंत (विपा १, ७) महा)। बंध ( [बन्ध] कम पुद्गलों में भिन्न- पगब्भ वि [प्रगल्भ] धृष्ट, ढीठ (पउम ३३, | | पगहिय वि प्रगृहीत ग्रहण किया हुआ, शक्तियों का पैदा होना (कम्म १, २)। देखो &E)।२ समर्थ (उप २६४ टी)। उपात्त (सुर ३, १६७)। पगडि। पगब्भ न [प्रागल्भ्य] धृष्टता, ढीठाई; पगाइय वि [प्रगीत] जिसने गाने का प्रारंभ पगंठ पु[प्रकण्ठ] १ पीठ-विशेष । २ अन्त ___ 'पगब्भि पाणे बहुणंतिवाती (सूम १, किया हो बहः 'पगाइयाई मंगलमंतेउराई' का अवनत प्रदेश (जीव ३)। पगंध सक [प्र+कथय ] निन्दा करना | पगब्भणा स्त्री [प्रगल्भना] प्रगल्भता, पगाढ वि [प्रगाढ] अत्यन्त गाढ़ (विपा १, 'अलियं पगं(क)थे अदुवा पगं(क)थे' (प्राचा)। धृष्टता (सूत्र १, १०, १७)। १. सुपा ५३०)। पगड वि [प्रकट] व्यक्त, खुला, स्पष्ट, प्रत्यक्ष, पगब्भा स्त्री [प्रगल्भा] भगवान् पाश्वनाथ पगाम देखो पकाम (प्राचा; श्रा १४. सुर ३, (पि २१९)। की एक शिष्या (प्रावम)। ८७ कुप्र ३१५)। For Personal & Private Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ पगामसो [ प्रकामम् ] [त्यन्त अतिशय 'पगामसो भुच्चा' (उत्त १७, ३) । पगार [प्रकार ] १ भेद (१) २ रोति 'एएण पगारेण सव्वं, दव्वं दवादियों' (महा) आदि वह प्रवृति १२) । 2 पगुण देखी पउण (सूम १, १, २) । पगास देखो पयास प्र+काशय् । वकृ. पगुणीकर सक [प्रगुणी + कृ] प्रगुरण करना, पगात (महा)। तय्यार करना, सज्ज करना। कवकृ. पगुणोकीत (१३१) । पगे [भ] सुबह प्रभात काल (सुर ७, ७१५५) । [ग्रह] ग्रहण करना । पग्गइ पगास पुं [प्रकाश] १ प्रभा, दीप्ति, चमक खाया ११) ययसिकुसुमप्परगा असि सुरधारं महाय ( उवा) । २ प्रसिद्धि, ख्याति (सूत्र १, ६) । ३ श्राविर्भाव, प्रादुर्भाव । ४ उद्योत, श्रातप (राज) । ५ क्रोध, गुस्सा 'छन्नं च पसंस गो करे न य उक्कोस पगास माहणे' ( सूत्र १,२, २१) । ६ वि प्र ( निबू व्यक्त १) । पगासग देखो पगासय (राज) । पगासण देखो पयासण ( श्रौप ) । पगासणया स्त्री [ प्रकाशनता ] प्रकाश, आलोक (ओघ ५५० ) 1 पगासणा श्री [प्रकाशना] प्रकटीकरण ( उत्त ३२,२) । ५६१) । पगिट्ठ वि [ प्रकृष्ट ] १ प्रधान, मुख्य (सुपा ७७)। २ उत्तम श्रेष्ठ ( कुप्र २०; सुपा २२६) । पगिन्छ सक [प्र + ग्रह ] १ ग्रहण करना । पाइअसद्दमहण्णवो पगीअर [प्रगीत] १ गाया हुआ (पउम ३७, ४८ ) । २ जिसकी गीत गाई गई हो वह (उप २११ टी) । पगीय वि [ प्रगीत ] जिसने गाने का प्रारम्भ किया हो यह (राय ४६) । पगासय वि [ प्रकाशक ] प्रकाश करनेवाला (विसे ११५५)। पगासिय वि[प्रकाशित ] उद्योतित, दीप्त से सूरियस अन्ग्यमे विमासाद पगासिसि ( सू २, १४, १२) । पगिड़ देलो पराइ (३०)। पगिझ अक [ प्र + गृध्] आसक्ति का सन्ति प्रारम्भ होना । पगिज्झिना (उत्त ८, १६; सुख ८, १९ ) । कुमा)। परिभाय देखो पगिन्छ (कम प्रोफ पि परगेज [दे] निकर समूह (दे ६, १५) । पग्गेज्ज पुं पस सक [ प्र + घृष् ] फिर-फिर घिसना । पघंसेज्ज (निचू १७) । प्रयो. व पवंसावंत ( नित्र १७ ) । पण [प्रचर्षण] पुनः पुनःपर्ष न 'एक्कं दिसणं दिखे दिखे पस ( निघू ३) । पपोल क प्र [ २ उठाना। ३ धारण करना । ४ करना । संकृ. पगिण्डित्ता, पगिण्डित्ताणं, पगिझिय (पि ५८२ ५८३३ श्रौपः प्राचा २, ३, ४, १, कस) । ( प ) । पग्गल वि [दे] पागल, उन्मत्त ( प्राकृ. १०३) । पुं परसह [ प्रग्रह] खाने के लिए उठाया हुमा भोजन-पान (सू २,२,७३) । पग्गह ! [प्रग्रह] १ उपधि, उपकरण (ओघ ६६६ ) | २ लगाम (से ६, २७ १२, ६) । ३ पशुओं को नाक में लगाई जाती डोरी, नाक की रस्सी, नाथ ४ पशुओंों को बाँधने की डोरी, रस्सी, पगहा (गाया १३; उवा) । ५ नायक, मुखिया (ठा १) । ६ ग्रहण, उपादान । ७ योजन, जोड़ना 'अंजलिपग्गहेणं' (भग) । परादिअ [ प्रगृहीत] १ धभ्युपगत, वि सम्पन् स्वीकृत (३) २ प्रगृहीत ( भगः श्रप ) । ३ उठाया हुम्रा (धर्मं ३ ठा ) ! परमहिय वि [ प्रग्रहिक ] ऊपर देखो (उवा) । पगम (अप) अ [ प्रायस् ] प्रायः परिगम्व 3 बहुधा (षड् हे ४, ४१४, होना व २२६) । + घूर्णय् ] मिलना पोरगा For Personal & Private Use Only संगत (पुत्र पगामसोपचइग पघोस पुं [प्रघोष ] उप शब्द-प्रकाश उद्घोषणा (भवि ) । पघोसिय वि [ प्रघोषित ] घोषित किया हुआ, उच्च स्वर से प्रकाशित किया हुआ (भवि ) । पच सक [ पच् ] पकाना । पचइ, पचए, पचति पचसि, पचसे, पचह, पचत्यः पचामि, पचामो, पचामु, पचाम, पचिमो, पचिमु ( संक्षि ३० पि ४३६, ४५५ ) । कवकृ. पञ्चमाण: 'नरए नेरइयाणं श्रहोनिसि पच्चमारणारां' (सुर १४, ४६; सुपा ३२८ ) । पच (प) देखी पंच आलीस, तालीस क्रीन [ चत्वारिंशत् ] १ संख्या-विशेष पैतालीस, ४५ । २ पैतालीस संख्या जिनकी हो वे (पि २७३ ४४५; पिंग) | पचमणगन [प्रचक्रमण क] पान से चलना ( प ) । पचंकमावण न [ प्रचङ्क्रमण ] पाँव से संचारण, पाँव से चलाना ( औप १०५ टि) । पचंड देखो पर्यड (वव ८ ) । पचलिय देलो पर्यालय प्रचलित (श्रीप पचार सक [ प्र + चारय् ] चलाना । पचारेइ (सिरि ४३५ ) । पचार [प्रचार] विस्तार फैलाव (मोह पुं २०) । देखो पयार = प्रचार । पचाल सक [ प्र + चालय् ] श्रतिशय चलना, खूब चलाना वह पचालेमाण (भग १७, १) । पचियवि [ प्रचित ] समृद्ध (स्वप्न ६९ ) । पीसी [विंशति] १ पचीस संख्या- विशेष, बीस और पाँच, २५ । २ जिनकी संख्या पचीस हो वे (पिंग पि २७३ ) | पचुनिय वि [ प्रचूर्णित] चूर-चूर किया हुमा (गुर २७)। पचेलिम वि [पचेलिम] एक पका हुआ. 'सहमहुरपचेलिमफलेहि' (सुपा ८३) । पचोइअ वि [ प्रचोदित] प्रेरित (१, २, ३) । पचइग देखो पचइय= प्रत्ययिक (मुख २, १७) । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चइय-पञ्चप्पिण पाइअसहमहण्णवो ५०७ पञ्चइय वि [प्रत्ययिक] १ विश्वासी, विश्वास- पञ्चरखाणि वि [प्रत्याख्यानिन् त्याग की पञ्चणीय वि [प्रत्यनीक] विरोधी, प्रतिपक्षी, वाला (गाया १, १२) । २ ज्ञानवाला, प्रतिज्ञा करनेवाला (भग ६, ४)। दुश्मन (उप १४६ टी; सुपा ३०७)। प्रत्ययवाला । ३ न. ध त-ज्ञान, प्रागम-ज्ञान पश्चक्खाणी स्त्री [प्रत्यख्यानी] भाषा-विशेष, पञ्चणुभव सक [प्रत्यनु + भू] अनुभव (विसे २१३६)। प्रतिषेधवचन (भग १०, ३)। करना । वकृ. पञ्चणुभवमाण (णाया १, पञ्चइय वि [प्रत्ययित विश्वासवाला, विश्व पञ्चक्खाय वि [प्रत्याख्यात] त्यक्त, छोड़ २)। स्त (महाः सुर १६, १६६)। दिया हया (णाया १,१: भगः कप्प)। पञ्चणहो देखो पञ्चणुभव । पच्चाहोइ (उत्त पञ्चक्खायय वि [प्रत्याख्यायक] त्याग पञ्चइय वि [प्रात्ययिक] प्रत्यय से उत्पन्न, १३, २३)। करनेवाला, 'भत्तपच्चक्खायए' (भग १४, ७)। पञ्चत्त वि[प्रत्यक्त] जिसका त्याग करने का प्रतीति से संजात (ठा ३, ३-पत्र १५१)। पञ्चक्खाव सक [प्रत्या + ख्यापय् ] पञ्चंग न [प्रत्यङ्ग] हर एक अवयव (गुण प्रारम्भ किया गया हो वह (उप ८२८) । त्याग कराना किसी विषय का त्याग करने १५; कप्पू)। पञ्चत्तर न दे] चाटु, खुशामद (दे ६, २१)। की प्रतिज्ञा कराना । वकृ. पञ्चक्खाविंत पञ्चंगिरा स्त्री [प्रत्यङ्गिरा] विद्यादेवी-विशेष, पञ्चत्थरण न [प्रत्यास्तरण] बिछौना (पि (प्राव ६)। 'ईसिवियसंतवयणा पभणइ पच्चंगिरा प्रह २८५)। देखो पल्हत्थरण। | पञ्चक्खि वि [प्रत्यक्षिन् प्रत्यक्ष ज्ञानवाला विजा' (सुपा ३०६)। (वव १)। पञ्चत्थि वि [प्रत्यर्थिन] प्रतिपक्षी, विरोधी, पञ्चंत पु [प्रत्यन्त] १ अनार्यदेश (प्रयो । पञ्चक्खिय देखो पञ्चक्खाय (सुपा ६२४)। दुश्मन (उप १०३१ टी पामः कुप्र १४१)। रमन १६) । २ वि. समीपस्थ देश, संनिकृष्ट प्रान्त पञ्चक्खीकर सक [प्रत्यक्षी+] प्रत्यक्ष | पञ्चस्थिम वि [पाश्चात्य, पश्चिम] १ पश्चिम भाग (सुर २, २००)। करना, साक्षात् करना। भवि. पञ्चक्खीक- दिशा तरफ का, पश्चिम का । २ न. पश्चिम पञ्चंतिग देखो पञ्चंतिय = प्रत्यन्तिक (प्राचा रिस्सं (अभि १८८)। दिशाः 'पुरथिमेणं लवरणसमुद्दे जोयणसाह२, ३, १, ५)। पञ्चक्खीकिद (शौ) वि[प्रत्यक्षीकृत] प्रत्यक्ष स्सियं खेत्तं जाणइ, पासइ एवं दक्खिणेणं, पञ्चंतिय वि [प्रत्यन्तिक] समीप-देश में किया हुमा, साक्षात् जाना हुमा (पि ४६)। | पच्चत्थिमेणं' (उवा भगः प्राचा, ठा २,३) । स्थित (उप २११ टी)। पञ्चक्खीभू अक [प्रत्यक्षी + भू] प्रत्यक्ष पञ्चत्थिमा स्त्री [पश्चिमा] पश्चिम दिशा पञ्चंतिय वि [प्रात्यन्तिक] प्रत्यन्त देश से | होना, साक्षात् होना । संकृ. पञ्चक्खीभूय (ठा १०-पत्र ४७८ प्राचा)। प्राया हुआ (धम्म ६ टी)। (भावम)। पञ्चस्थिमिल्ल वि [पाश्चात्य पश्चिम दिशा पञ्चक्ख न [प्रत्यक्ष १ इन्द्रिय प्रादि की पञ्चक्खेय देखो पञ्चक्खा। का (विपा १, ७: पि ५६५, ६०२)। सहायता के बिना ही उत्पन्न होनेवाला ज्ञान पञ्चग्ग वि [प्रत्यग्र] १ प्रधान, मुख्य (स पञ्चत्थिमुत्तरा स्त्री [पश्चिमोत्तरा] पश्चिमोत्तर (विसे ८९)। २ इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाला २४)। २ श्रेष्ठ, सुन्दर (उप ६८६ टी; सुर दिशा, वायव्य कोण (ठा १०-पत्र ४७८)। ज्ञान (ठा ४, ३)। ३ वि. प्रत्यक्ष ज्ञान का १०, १५२) । ३ नवीन, नया (पाम)। | पञ्चत्थुय वि [प्रत्यास्तृत] माच्छादित, ढका विषयः ‘पञ्चक्खायो अणंगो एगो तरुणो पञ्चच्छिम देखो पञ्चत्थिम (राजा ठा २, हुमा (पठम ६४; ६६; जीव ३) । २ महाभागों (सुर ३, १७१)। ३-पत्र ७६)। बिछाया हुआ (उप ६४८ टो)। मञ्चक्ख । सक [प्रत्या + ख्या] त्याग पञ्चच्छिमा देखो पञ्चत्थिमा (राज)। पञ्चद्ध न [पश्चाध] पिछला आघा, उत्तराधं पञ्चक्खा करना, त्याग करने का नियम पञ्चच्छिमिल्ल वि [पाश्चात्य] पश्चिम दिशा | (गउड)। करना । पचक्खाइ (भग)। बक. पञ्चक्ख- में उत्पन्न, पश्चिम दिशा-सम्बन्धी (सम ६६; पञ्चद्धचक्कवट्टि [प्रत्यर्धचक्रवर्तिन] वासुमाण, पञ्चक्खाएमाण (पि ५६१, उवा । पि ३६५)। देव का प्रतिपक्षी राजा, प्रतिवासुदेव (ती संकृ. पञ्चक्खाइत्ता (पि ५८२) । कृ. पञ्चच्छिमुत्तरा देखो पञ्चत्थिमुत्तरा (राज)। ३)। पञ्चक्खेय (प्राव ६)। पञ्चड अक [क्षर ] झरना, टपकना । पञ्चडइ पञ्चप्पण न [प्रत्यर्पण] वापस देना, लौटा पञ्चक्खाण न [प्रत्याख्यान] १ परियाग | (हे ४, १७३) । वकृ. पञ्चडमाण (कुमा)। देना (विसे ३०५७)। करने की प्रतिज्ञा (भगः उवा)। २ जैन पञ्चड्डु सक [गम् ] जाना, गमन करना। पच्चप्पिण सक [प्रति + अर्पय] . ग्रन्थांश-विशेष, नववाँ पूर्व-ग्रन्थ (सम २६)।३ । पच्चडुइ (हे ४, १६२)। वापस देना, लौटाना। २ सौंपे हुए कार्य को सर्व सावद्य-निद्य कर्मो से निवृत्ति (कम्म १, पञ्चड्डिअ वि [क्षरित] झरा हुमा, टपका | करके निवेदन करना । पच्चप्पिणइ (कप्प)। १७) । वरण पुं[वरण कषाय-विशेष, - हुमा (हे २, १७४)। कम. पच्चप्पिणिजइ (पि ५५७)। वकृ. सावद्य-विरति का प्रतिबन्धक क्रोध-प्रादि पञ्चड्डिया स्त्री [दे. प्रत्यड्डिका] मल्लों का एक पच्चप्पिणमाण (ठा ५, २-पत्र ३११)। (कम्म १, १७)। प्रकार का करण (विसे ३३५७) । संकृ. पच्चप्पिणित्ता (पि ५५७)। For Personal & Private Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ पाइअसहमहण्णवो पञ्चबलोक-पञ्चायाय पच्चबलोक वि [दे] प्रासक्त-चित्त, तल्लीन-पञ्चवत्थय वि [प्रत्यवस्तृत] १ बिछाया ३५; उवः कुप्र ५०); 'पचाएस दिटुंत' मनस्क (दे ६, ३४)। हुआ । २ माच्छादित (पावम)। (पाप)। देखो पच्चादेस । पञ्चवत्थाण न [प्रत्यवस्थान] १ शङ्कापच्चभास पु[प्रत्याभास] निगमन पञ्चागय वि [प्रत्यागत १ वापस पाया हमा (गा ६३३; दे १, ३१ महा)। २ न. प्रत्युच्चारण (विसे २६३२)। परिहार, समाधान (विसे १००७)। २ प्रतिवचन, खण्डन (बृह १)। प्रत्यागमन (ठा ६–पत्र ३६५) । पच्चभिआण देखो पच्चभिजाण । -- पञ्चवर न [दे] मुसल, एक प्रकार की मोटी | प्राणादि (शौ) (पि १७०, ५१०)। पञ्चाचक्ख सक [प्रत्या + चक्ष ] परित्याग लकड़ी जिससे चावल आदि अन्न कूटे जाते करना। हेकृ. पञ्चाचविखंदु (शौ) (पि पच्चभिआणिद (शौ) देखो पच्चभिजाणिअ ४६६ ५७४)। (पि ५६५)। पञ्चवाय पुं [प्रत्यवाय] १ बाधा, विघ्न, पञ्चाणयण न [प्रत्यानयन] वापस ले पाना पच्चभिजाण सक [प्रत्यभि + ज्ञा] पहि व्याघात (णाया १, ६; महा: स २०६)। (मुद्रा २७०)। चानना, पहिचान लेना । पच्चभिजाणइ २ दोष, दूषण (पउम ६५, १२ अच्चु ७०; पच्चाणि । सक [प्रत्या +णी] वापस ले (महा) । वकृ. पच्चभिजाणमाण (णाया ओघ २४)। ३ पाप; 'बहुपच्चवायभरिमो पञ्चाणी पाना। कवकृ. पञ्चाणिजंत (से १, १६) । संकृ. पच्चभिजाणिऊण गिहवासो' (सुपा १६२)। ४ दुःख, पीड़ा ११, १३५)। (महा)। (कुप्र ५५२)। पञ्चाणीद (शौ) वि [ प्रत्यानीत] वापस पच्चभिजाणिअ वि [प्रत्यभिज्ञात] पहि पञ्चवाय पु [प्रत्यवाय १ उपघात-हेतु, लाया हुआ (पि ८१; नाट-विक्र १०)। चाना हुआ (स ३९०)। नाश का कारण (उत्त १०, ३)। २ अनर्थ पञ्चाथरण न [प्रत्यास्तरण] सामने होकर पच्चभिणाण न [प्रत्यभिज्ञान] पहिचान (पंचा ७, ३६), लड़ना (राज)। (स २१२ नाट-शकु ८४)। पञ्चवेक्खिद (शौ) वि [प्रत्यवेक्षित] पञ्चादि वि [प्रत्यादिष्ट निरस्त, निराकृत पच्चभिन्नाय देखो पच्चभिजाणि (स | निरीक्षित्त (नाट-शकु १३०)। (पि १४५; मृच्छ है)। १०० सुर ६, ७६ महा)। पञ्चह न [प्रत्यह] हररोज, प्रतिदिन (अभि | पञ्चादेस पुं [प्रत्यादेश निराकरण (अभि पच्चमाण देखो पच = पच् । ७२, १७८ नाट-विक्र ३)। देखो पञ्चाएस। पच्चहिजाण) देखो पञ्चभिजाण । पच्चपच्चय पू[प्रत्यय] १ प्रताति, ज्ञान, बधि पञ्चहियाण हिजाणेदि (पि ५१०) । पच्च पञ्चापड प्रक प्रत्या + पत्] वापस (उवा ठा १; विसे २१४०) ।२ निर्णय, हियाणइ (स ४२) । संकृ. पञ्चहियाणिऊण प्राना, लौटकर मा पड़ना। वकृ. 'भग्गपडिनिश्चय (विसे २१३२) । ३ हेतु, कारण (ठा (स ४४०)। हयपुणरविपच्चापडतचंचलमिरिइकवयं (मौप)। २, ४)। ४ शपथ, विश्वास उत्पन्न करने के पच्चा स्त्री [दे] तृण-विशेष, बल्वज (ठा ५, ३)। पञ्चामित्त पुन [प्रत्यमित्र] अमित्र, दुश्मन लिए किया या कराया जाता तप्त-माष आदि पिचियय न दे] बल्वज तण की कूटी (णाया १, २-पत्र ८७ प्राप)। का चर्वण वगैरह (विसे २१३१)। ५ ज्ञान हुई छाल का बना हुमा रजोहरण-जैन | पञ्चाय सक [ति + आयय ] १ प्रतीति का कारण । ६ ज्ञान का विषय, ज्ञेय पदार्थ साधु का एक उपकरण (ठा ५, ३-पत्र कराना। २ विश्वास कराना । पञ्चामइ (गा (राज) । ७ प्रत्यय-जनक, प्रतीति का ३३८)। ७१२) । पच्चाएमो (स ३२४) । उत्पाक (विसे २१३१; प्रावम)। ८ विश्वास, पच्चा देखो पच्छा (प्रयौ ३६ नाट-रत्ना ७)। पञ्चाय देखो पञ्चाया। श्रद्धा । शब्द,मावाज । १०छिद्र, विवर। पञ्चाअच्छ सक [प्रत्या+गम] पीछे पञ्चायण न प्रत्यायन शान कराना, प्रतीति११ प्राधार, पाश्रय । १२ व्याकरण-प्रसिद्ध लौटना, वापस पाना । पञ्चामच्छइ ( षड्)। जनन (विसे २१३६)। प्रकृति में लगता शब्द-विशेष (हे २, १३)। पञ्चाअद (शी) देखो पञ्चागय (प्रयो २५)। पञ्चायय वि [प्रत्यायक] १ निर्णय-जनक । पच्चल वि [दे] १ पक्का, समर्थ, पहुँचा पच्चाइक्ख देखो पञ्चक्ख - प्रत्या + ख्या। २ विश्वास-जनक (विक्र ११३)। हुमा (दे ६, ६६ सुपा ३४७ सुर १, १४० पच्चाइक्खामि (माचा २, १५, ५, १)। पञ्चाया प्रक [प्रत्या + जन्] उत्पन्न होना, कुप्र ६६ पाय)। २ असहन, असहिष्णु | भवि. पच्चाइक्खिस्सामि (पि ५२६)। बकु. जन्म लेना। पच्चायंति (प्रौप)। भवि. (दे ६, ६६)। पञ्चाइक्खमाण (पि ४६२)। पञ्चायाहिइ (मौपः पि ५२७) । पच्चलिउ) (अप) प्र[प्रत्युत] वैपरीत्या पचाउट्टणया स्त्री [प्रत्यावर्त्तनता] प्रवाय- पञ्चाया अक [प्रत्या + या] ऊपर देखो। पच्चल्लिउ । वररुच, वरन् (हे ४, ४२०)। संशय रहित निश्चयात्मक ज्ञान-विशेष, निश्च- पञ्चायति (पि ५२७)। पञ्चवणद (शौ) वि [प्रत्यवनत] नमा हुआ, | यात्मक मति-ज्ञान (णंदि १७६)। पञ्चायाइ स्त्री [प्रत्याजाति, प्रत्यायाति] 'एस में कोवि पच्चवरणदसिरोहरं उच्छु विष पञ्चाएस पुंन [प्रत्यादेश] दृष्टान्त, निदर्शन, उत्पत्ति, जन्म-ग्रहण (ठा ३, ३–पत्र १४४)। तिएण (?) भंग करेदि (अभि २२४)। उदाहरण; 'पच्चाएसोव्व धम्मनिरयाणं' (स | पञ्चायाय वि [प्रत्यायात] उत्पन्न (भग)। For Personal & Private Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ पच्चार-पच्चोणामिणी पाइअसद्दमहण्णवो पञ्चार सक [ उपा+ लम्भ ] उपालम्भ पच्चुअआर देखो पच्चुवयार (चारु ३६; पच्चुरस न [प्रत्युरस] हृदय के सामने देना, उलाहना देना । पञ्चारइ, पच्चारंति (हे नाट-मृच्छ ५७)। (राज)। ४, १५६कुमा)। पच्चुग्गच्छणया स्त्री [प्रत्युद्गमनता] पच्चुलं प्र[दे. प्रत्युत] प्रत्युत; उलटा: 'न पञ्चारण न [उपालम्भन] प्रतिभेद (पाम)। अभिमुख गमन, (भग १४, ३) तुमं रुट्ठो, पच्चुल्लं ममं पूएसि' (वव १)। पञ्चारिअ वि [प्रचारित] चलाया हुआ (सिरि पच्चुच्चार पुं [प्रत्युच्चार] अनुवाद, अनुभाषण | पच्चुवकार देखो पच्चुवयार (नाट-अच्छ ४३६)। (स १०४)। पञ्चारिय वि [उपालब्ध] जिसको उलाहना पच्छुच्छहणी श्री दे] नूतन सुरा, ताजा पच्चुवगच्छ सक [प्रत्युप + गम् ] सामने दिया गया हो वह (भवि)। दारू (दे २, ३५)। जाना । पच्नुवगच्छइ (भग)। पञ्चालिय वि[दे. प्रत्यार्दित] पाद्र' किया पच्चुज्जीविअ वि [प्रत्युज्जीवित] पुनर्जीवित पच्धुवगार) [प्रत्युपकार] उपकार के हा, गीला किया हुआ: 'पचालिया. य से (गा ६३१; कुप्र ३१)। पच्चुषयार बदले उपकार (४, ४परम अहिययरं बाहसलिलेण दिट्ठी' (स ३०८)। चुदिअ वि [प्रत्युत्थित] जो सामने खड़ा ४६, ३६; स ४४०; प्रारू)। पच्चालीढ न [प्रत्याल.ढ] वाम पाद को हुआ हो वह (सुर १, १३४) । पच्चुषयारि विप्रत्युपकारिन्] प्रत्युपकार पीछे हटा कर और दक्षिण पाँव को प्रागे पच्चुण्णम अक [प्रत्युद् + नम्] थोड़ा | करनेवाला (सुपा ५६५) । रखकर खड़े रहनेवाले घानुष्क की स्थिति ऊँचा होना। पच्चरणमइ (कप्प)। संकृ. पच्चुवेक्ख सक[प्रत्युप+ ईक्ष ] निरीक्षण धनुषधारियों का पैतरा (वव १)। पच्चुराणमित्ता (कप्पा औप)। करना। पातुवेक्खेइ (प्रौप) । संकृ. पच्चु. पञ्चावड [प्रत्यावर्त] पावर्त के सामने का पच्चुत्त वि प्रिया फिर से बोया हुआ | पावर्त, पानी का भंवर (राय ३०)। वेक्खित्ता (मोप)। (७, ७७; गा ११८)। पच्चुवेक्खिय वि प्रत्युपेक्षित अवलोकित, पञ्चावरन [प्रत्यापराह्न] मध्याह्न के बाद पच्चुसर सक[ प्रत्यव + तृ] नीचे प्रामा। निरीक्षित (स ४४१)। समय, तीसरा पहर (विपा १, ३ टि; पि ३३०)। पच्चतरइ (पि ४४७) । संकृ. पच्चुत्तरित्ता पच्चुहिअ बि [दे] प्रस्तुत, प्रक्षरित, प्रच्छी तरह चूने या टपकनेवाला (द ६, २५) । पचासण्ण पि [प्रत्यासन्न समीप में स्थित, (राज)। सन्निकट, वहुत पास (विसे २६३१)। पच्चुत्सर न [प्रत्युत्तर] जवाब, उत्तर (श्रा पच्चूढ न [दे] थाल, थार, भोजन करने १२. सुपा २१, १०४)। का पात्र, बड़ी थाली (दे ६,१२)। पञ्चासत्ति स्त्रो [प्रत्यासत्ति] समीपता, पच्चुत्थ वि [दे] प्रत्युप्त, फिर से बोया हुआ पच्चूस दे देखो पच्चूह = (दे); "किडएहिं सामीप्य (मुद्रा १६१)। पञ्चासन्न देखो पश्चासण्णा "निवं पञ्चासन्नी पयत्तेणवि छाइज्जइ कह णु पच्चूसो ?' परिसक्कइ सव्वनो मच्चू' (उप ६ टी)। पच्चुत्थय । वि [प्रत्यवस्तृत माच्छादित (सुर ३, १३४)। पच्चुत्थुय । (णाया १,१-पत्र १३, २०% पञ्चासा स्त्री [प्रत्याशा] १ आकांक्षा, वाञ्छा, पच्चूस । प्रत्यूष प्रभात काल (हे २ कप्प)। पच्चूह १४; पाया १,१० गा ६०४)। अभिलाषा। २ निराशा के बाद की आशा | पच्चुद्धरिअ वि [दे] संमुखागत, सामने (स ३६८) । ३ लोभ, लालच (उप पु ७६)। पच्चूह पुन [प्रत्यूह] विघ्न, अन्तराय (पाम: प्राया हुमा (दे ६, २४)। कुप्र ५२)। पञ्चासि वि [प्रत्याशिन] वान्त या कय किया पच्चद्धार पुं[दे] संमुख प्रागमन (दे६, २४)। पच्चूह पुं [दे] सूर्य, रवि (दे ६, ५, गा हुआ वस्तु का भक्षण करनेवाला (माचा)। पचुप्पण्ण । वि[प्रत्युत्पन्न वर्तमान काल- ६०४ पाम)। पञ्चाह सक [प्रति + ] उत्तर देना। पच्चुप्पन्न ) संबन्धी (पि ५१६) भगः णाया पच्चेअन [प्रत्येक प्रत्येक, हर एक (षड्)। पच्चाह (पिंड ३७८)। १, सम्म १०३)। 'नय पुं [ नय] पञ्चाहर सक [प्रत्या+ह] उपदेश देना । पञ्चड न [दे] मुसल (दे ६, १५)। वर्तमान वस्तु को ही सत्य माननेवाला पक्ष, वकृ. पञ्चाहरओ वि एं हिययगमरणीमो पञ्चेल्लिउ (अप) देखो पञ्चल्लिउ (भवि)। निश्चय नय (विसे ३१६१)। जोयरणनीहारी सरो' (सम ६०)। पच्चुप्पन्न पुं [प्रत्युत्पन्न वर्तमान काल पचोगिल सक [प्रत्यव + गिल ] मास्वादन पञ्चाहुत्त क्रिवि [पश्चान्मुख पीछे, पीछे (सूम १, २, ३, १०)। करना, रस या स्वाद लेना । वकृ. पञ्चोगिलकी तरफा 'जाव न सत्तट्ठ पए पञ्चाहुत्तं नियत्तो पच्चुप्फलिअ वि [प्रत्युत्फलित] बापस माण (कस ५, १०)। सि (धर्मवि ५४)। प्राया हुआ (से १४, ८१)। पच्चोणामिणी स्त्री [प्रत्यवनामिनी] विद्यापश्चिम देखो पच्छिम (पिंगः पि ३०१)। पच्चुभड वि [प्रत्युद्भट] पतिशय प्रबल विशेष, जिसके प्रभाव से वृक्ष पादि फल देने पच्चुअ (द) देखो पच्चुहिअ (दे ६, २५)। (संबोध ५३)। के लिए स्वयं नीचे नमते हैं ( पृ १५५) । For Personal & Private Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० पाइअसहमहण्णवो पच्चोणियत्त-पच्छाअ (प्रौप)। पच्चोणियत्त वि प्रत्यवनिवृत्त] ऊँचा बाद की क्रिया । २ यतियों की भिक्षा का एक कडुअविवागा' (राज)। ३ पिछला भाग, उछल कर नीचे गिरा हुआ (पएह १, ३- दोष, दातृ-कर्तृक दान देने के बाद की पात्र पृष्ठ । ४ चरम, शेष (हे २,२१)। ५ पश्चिम पत्र ४५)। को साफ करने मादि क्रिया (प्रोघ ५१९)। दिशा (णाया १, ११)। उत्त वि पञ्चोणिवय प्रक[प्रत्यवनि + पत् ] उछल त्ता पुं[ताप] अनुताप (वजा १४२)। [°आयुक्त] जिसका प्रायोजन पीछे से किया कर नीचे गिरना। वकृ. पच्चोणिवयंत द्ध न [ अर्ध] पोछला प्राधा, उत्तरार्ध गया हो वह (कप्प)। कड पुं[कृत (गउड; महा)। वत्थुक्क न ["वास्तुक साधुपन को छोड़कर फिर गृहस्थ बना हुआ पच्चोणी [दे] देखो पच्चोवणी (स २३५; पिछला घर, घर का पिछला हिस्सा (पएह (द्र ५०; बृह १)। कम्म देखो पच्छ ३०२: सुपा ६१; २२४० २७६) । २, ४–पत्र १३१)। याव पुं[ताप] कम्म (पि ११२)। णिवाइ देखो 'निवाइ पच्चोयड न [दे] १ तट के समीप का ऊँचा | पश्चात्ताप, अनुताप (प्रावम)। देखो पच्छा = (राज)। णुताव पुं[अनुताप] पश्चात्ताप, प्रदेश (जीव ३)। २ वि. आच्छादित (राय)। पश्चात् । अनुताप; 'पच्छाणुतावेण सुभज्झवसारणेण' पच्छइ (अप) अ [पश्चात् ] ऊपर देखो (प्रावम)। °णुपुव्वी स्त्री [ आनुपूर्वी ] पच्चोयर सक [प्रत्यव+तु] नीचे उतरना। पच्छए (हे ४, ४२०; षड्; भवि) । ताव उलटा क्रम (अरण; कम्म ४, ४३)। ताव पच्चोयरइ (प्राचा २, १५, २८)। संकृ. पुं[ताप] अनुताप, अनुशय (कुमा)। पुं[ताप] अनुताप (भाव ४)। ताविय पच्चोयरित्ता (प्राचा २, १५, २८)। पच्छंद सक [गम् ] जाना, गमन करना । वि [तापिक] पश्चात्तापवाला (पराह २, पच्चोरुभ । सक [प्रत्यव + रुह ] नोचे पच्छंदइ (हे ४, १६२)। ३)। निवाइ वि ["निपातिन] १ पीछे पच्चोरुह उतरना । पचोरुभइ (णाया १, पच्छंदि वि [गन्तु गमन करनेवाला (कुमा)। से गिर जानेवाला। २ चारित्र ग्रहण कर १)। पच्चोरुहइ (कप्प)। संकृ. पच्चोरुहित्ता पच्छंभाग पुं [पश्चाद्भाग] १ दिवस का बाद में उससे च्युत होनेवाला (प्राचा)। (कप्प)। पिछला भाग (राज)। २ पुंन. नक्षत्र-विशेष, भाग पुं [ भाग] पिछला हिस्सा (णाया पच्चोवणिअ वि[दे] संमुख पाया हुआ (दे चन्द्र पृष्ठ देकर जिसका भोग करता है वह १,१)। मुह वि [मुख] परांमुख, जिसने ६, २४)। नक्षत्र (ठा )। मुँह पीछे की तरफ फेर लिया हो वह (श्रा पच्चोवणी स्त्री [दे] संमुख प्रागमन (दे ६, | पच्छण स्त्रीन [प्रतक्षण] त्वक् का बारीक १२)। यव, याव देखो ताव (पउम विदारण, चाकू मादि से पतली छाल ६५, ६६; सुर १५, १४५; सुपा १२१, पचोसक्क अक [प्रत्यव + ध्वष्क्] १ नीचे निकालनाः 'तच्छणेहि य पच्छणेहि य' (विपा महा)। यावि वि [तापिन् पश्चात्ताप उतरना । २ पीछे हटना । पच्चोसक्कइ, पच्चो- १, १); 'तच्छणाहि य पच्छणाहि य' (णाया करनेवाला (उप ७२८ टो)। वाय पुं सकंति (उवाः पि ३०२, भग)। संकृ. पच्चो [°वात] पश्चिम दिशा का पवन। २ पीछे का सक्कित्ता (उवा; भग)। पच्छण्ण वि [प्रच्छन्न] गुप्त, अप्रकट, (गा पवन (णाया १, ११)। संखडि स्त्री [दे. पच्छ सक [प्र + अर्थय] प्रार्थना करना ।। १८३)। पइ पुं[पति] जार, उपपति, संस्कृति १ पिछला संस्कार । २ मरण के कवकृ. पच्छिज्जमाण (कप्प, औप)। यार (सूअ १, ४, १)। उपलक्ष्य में ज्ञाति-कुटंबी वगैरह प्रभूत मनुष्यों के लिए पकायी जाती रसोई (प्राचा २, १, पच्छ वि [पथ्य] १ रोगी का हितकारी पच्छद देखो पच्छय (प्रौप)। ३, २)। संथव पुं[ संस्तव] १ पिछला आहार (हे २, २१; प्रातः कुमाः स ७२४; | पच्छदण न [प्रच्छदन] पास्तरण, चादर संबन्ध, स्त्री, पुत्री वगैरह का संबन्ध । २ जैन सुपा ५७६)। २ हितकारक, हितकारी; शय्या के ऊपर का पाच्छादन-वस्त्र; 'सुप्पच्छद मुनियों के लिए भिक्षा का एक दोष, श्वशुर 'पच्छा वाया (गाया १,११-पत्र १७१)। पाए सय्याए णि ण लभामि' (स्वप्न ६०)। पादि पक्ष में अच्छी भिक्षा मिलने की लालच पच्छ न [पश्चात् ] १ चरम, शेष (चंद पच्छन्न देखो पच्छण्ण (उवः सुर २,१८४)। से पहले भिक्षार्थ जाना (ठा ३, ४) । संथुय १)। २ पीछे, पृष्ठ भाग। ३ पश्चिम दिशा; पच्छय पुं [प्रच्छद] वन-विशेष, दुपट्टा, वि [ संस्तुत पिछले संबन्ध से परिचित 'पुन्वेण सणं पच्छेण वंजुला दाहिणेण पिछौरी (गाया १,१६)। (प्राचा २, १, ४, ५)। हुत्त वि ["दे] वडविडो' (वजा १६)। ओ प्र[तस् ] पच्छयण देखो पत्थयण (... पीछे की तरफ काः 'थलमत्ययम्मि पच्छापीछे, पीठ की पोरः 'हत्थी वेगेण पच्छनो पच्छयण देखो पत्थयण (मोह ८०)। हुत्ताई पयाई तीए दट् ठूण' (सुपा २८१)। लग्गो' (महा); 'वहइ व महीपलभरिमो पच्छलिउ (अप) देखो पच्चलिउ (षड्)। पच्छा स्त्री पथ्या] हरें, हरीतकी (हे २, णोल्लेइ व पच्छनो घरेइ व पुरओं से १०, पच्छा म [ पश्चात् ] १ अनन्तर, बाद, पीछे २१)। ३०); 'तो चेडयामो तक्षणमारणावेऊरण (सुर २, २४४; पापः प्रासू ५७); 'पच्छा | पच्छाअ सक [प्र+छदय् ] १ ढकना । पच्छमो बाहं बद्धं दसई' (सुपा २२१) । तस्स विवागे रुअंति कलुणं महादुक्खा' (प्रासू | २ छिपाना। वकृ. पच्छाअंत (से १, ४६; कम्म न [कर्मन] १ अनन्तर का कर्म, १२६)। २ परलोक, परजन्म; 'पच्छा । ११, ९)। कृ. पच्छाइज (वसु)। २४)। For Personal & Private Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छाअ-पज्जत पाइअसद्दमण्णवो ५११ पच्छाअ वि [प्रच्छाय] प्रचुर छायावाला उत्तरार्ध, उत्तरी प्राधा हिस्सा (महा; ठा २, पजाला स्त्री [प्रज्वाला] अग्नि-शिखा, पाग (अभि ३६)। ३--पत्र ८१)। सेल पुं[शैल] अस्ताचल की लो या लपट (कुप्र ११७)। पच्छाइअ वि [प्रच्छादित] १ ढका हुआ, | पर्वत (गउड)। पजीवग न [प्रजीवन] पाजीविका, जीवनोआच्छादित । २ छिपाया हुआ (पामा भवि)। पच्छिमा स्त्री [पश्चिमा] पश्चिम दिशा (कुमाः पाय, रोजी (पिंड ४७८)। पच्छाइज देखो पच्छाअ = प्र + छादय। महा)। पजुत्त देखो पउत्त-प्रयुक्त (चंड)। पच्छाग पुं [प्रच्छादक] पात्र बाँधने का पच्छिमिल्ल वि [पाश्चात्य पीछे से उत्पन्न, पजूहिअ वि [प्रयूथिक] यूय या समूह को कपड़ा (प्रोघ २६५ भा)। पीछे का (विसे १७६५)। दिया हुआ, याचक-गण को अर्पित (प्राचा २, पच्छाडिद (शौ) वि [प्रक्षालित] धोया हुआ पच्छियापिडय देखो पच्छि-पिडय (राय १, ४,२)। (नाट-मृच्छ २५५)। १४०)। पजेमण न [प्रजेमन] भोजन-ग्रहण, भोजन पच्छाणि [दे] देखो पच्चोवणि पच्छिल (अप) देखो पच्छिम (भवि)। लेना (राय १४६)। (षड्)। पच्छिल्ल । वि [पश्चिम, पाश्चात्य] १ पच्छाणुताविअ वि [पश्चादनुतापिक पश्चा पज सक [पायय] पिलाना, पान कराना। पच्छिल्लय। पश्चिम दिशा का। २ पिछला, पृथ्वी त्ताप-युक्तः पछतावा करनेवाला (राय १४१)। पज्जेइ (विरा १, ६)। कवकृ. 'तराहाइया (पि ५६५, ५६५ टि ४)। ते तउ तंब तत्तं पजिन्जमाणाट्टतरं रसति' पच्छादो (शौ) देखो पच्छा = पश्चात् (पि पच्छुत्ताव पु [पश्चादुत्ताप] पछतावा, पश्चात्ताप (सम्मत्त १६०; धर्मवि ३५, १२२ (सूम १, ५, १, २५)। कृ. पजेयव्व पच्छायण न [पथ्यदन] पाथेय, रास्ते में १३०)। (भत्त ४०)। पच्छुत्ताविअ (अप) वि [पश्चात्तापित] खाने का भोजन; 'वहणं करियं पच्छायणस्स पज न [पद्य छन्दो-बद्ध वाक्य (ठा ४, ४जिसको पश्चात्ताप हुआ हो वह (भवि)। भारिय' (महा)। पत्र २८७)। पन्ज न [पाद्य पाद-प्रक्षालन जल: 'अग्धं च पच्छेकम्म देखो पच्छ-कम्म (हे १,७६)। पच्छायण न [प्रच्छादन] १ आच्छादन, पज्ज च गहाय' (णाया १, १६-पत्र ढकना । २ वि. आच्छादन करनेवाला। या पच्छेणय न [दे] पाथेय, रास्ते में निर्वाह स्त्री [°ता] आच्छादन; 'परगुरणपच्छायणया' | करने को भोजन-सामग्री, कलेवा (दे ६,२४) । पज्ज देखो पजत्त (दं ३३; कम्म ३, ७)। (उव)। पच्छोववण्णग । वि [पश्चादुपपन्न] पीछे , पज्जत पुं [पर्यन्त] अन्त, सीमा, प्रान्त भाग पच्छाल देखो पक्खाल । पच्छलेइ (काल)। पच्छोववन्नक से उत्पन्न (भग)। (हे १, ५८ २, ६५, सुर ४, २१६) । पच्छि स्त्री [दे] पिटिका, पिटारी, वेत्रादि- पजप सक [प्र + जल्प] बोलना, कहना। पजण न [दे] पान, पीना (द६, ११)। रचित भाजन-विशेष (दे ६, १)। पिडय पजपह (पि २६६)। पज्जण न [पायन] पिलाना, पान कराना न [पिटक] 'पच्छी' रूप पिटारी (भग ७, पजंपावण न [प्रजल्पन] बोलाना, कथन | (भग १४, ७)। ८ टी-पत्र ३१३)। कराना (ौपः पि २९६) । पज्जण्ण देखो पजणण (सूनि ५७) । पच्छि (ग्राप) देखो पच्छइ (हे ४,३८८) । पजंपिअ वि [प्रजल्पित] कथित, उक्त, कहा | पज्जणुओग। पुं[पर्यनुयोग] प्रश्न (धर्मसं पच्छिज्जमाग देखो पच्छ - प्र + अर्थय। । हुमा (गा ६४६)। पज्जणुजोन १७६२९२)। पच्छित्त न [प्रायश्चित] १ पाप की शुद्धि पजणण वि [प्रजनन ] उत्पादक, उत्पन्न पज्जग्ण पुं [पर्जन्य] मेघ, बादल (भग १४, करनेवाला कर्म, पाप का क्षय करनेवाला कर्म करनेवाला ( राय ११४)। २; नाट. पृच्छ १७५) । देखो पजन्न। (उवः सुपा ३६६; द्र ५२) । २ मन को शुद्ध | पजगण न [प्रजनन] लिंग, पुरुष-चिह्न (विसे | पज्जतर वि [दे] दलित, विदारित (षड्)। करनेवाला कर्म (पंचा १६, ३) । २५७६ टीः मोघ ७२२)। पज्जत वि [पर्याप्त] १ 'पर्याप्ति' से युक्त, पच्छित्ति वि [प्रायश्चित्तिन] प्रायश्चित्त का पजल प्रक [प्र+ ज्वल ] १ विशेष जलना, | 'पर्याप्ति' वाला (ठा २, १; परह १, १, भागी, दोषी (उप ३७६)। अतिशय दग्ध होना। २ चमकना । वकृ. कम्म १, ४६) । २ समर्थ, शक्तिमान् । ३ पच्छिम न [पश्चिम १ पश्चिम दिशा (उपा लब्ध, प्राप्त । ४ काफी, यथेट, उतना जितने ७४ टि)। २ वि. पश्चिम दिशा का, पाश्चात्य | पजलिर वि [प्रज्वलित] अत्यन्त जलनेवाला, | से काम चल जाय । ५ न. तृप्ति । ६ सामर्थ्य । (महा. हे २, २१ प्राप्र)। ३ पिछला, बाद | 'सियज्झाणानलपजलिरकम्मकतार मलइउव्व' ७ निवारण। ८ योग्यता (हे २, २४, का; "दियसस्स पच्छिमे भाए' (कप्प)। ४ (सुपा १)। प्राप्र)।९ कर्म-विशेष, जिसके उदय से जीव अन्तिम, चरम; 'पुरिमपच्छिमगाणं तित्थ- पजह सक [प्र + हा त्याग करना । पजहामि | अपनी अपनी 'पर्याप्तियों से युक्त होता है गएणं' (सम ४४) । द्ध न [ ] | (पि ५००)। कृ. पजहियव्य (प्राचा)। । वह कर्म (कम्म १, २६)। णाम, नाम न २०६)। For Personal & Private Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ पाइअसहमहण्णवो पज्जत्त-पजिआ [नामन] मनन्तर उक्त कर्म-विशेष (राज; पज्जरय [प्रजरक] रत्नप्रभा-नामक नरक- (शौ), (मा ३९)। पज्जवत्यावेहि (पि पृथिवी का एक नरकावास (ठा ६-पत्र ५५१)। पजस ने पर्याप्त लगातार चौतीस दिन ३६५) । मज्झ पुं [ मध्य] एक नरकावास पज्जवसाण न [पर्यवसान] अन्त, अवसान का उपवास (संबोध ५८)। (ठा ६-पत्र ३६७ टो)। विट्ट [वर्त] (भग)। नरकावास-विशेष (ठा ६) । सिट्ठ पुं पज्जवसिअ न [पर्यवसित] अवसान, अन्तः पजत्तर [दे] देखो पज्जतर (षड्-पत्र [विशिष्ट ] एक नरकावास, नरक-स्थान- 'अपज्जवसिए लोए' (प्राचा)। २१०)। विशेष (ठा ६)। पज्जा देखो पण्णा (हे २,८३)। पजत्ति श्री [पर्याप्ति १ शक्ति, सामर्थ्य पज्जल देखो पजल । पज्जलेइ (महा)। वक. पज्जा स्त्री [पद्या मार्ग, रास्ताः 'भेनं च (सूत्र १, १, ४)। २ जीव की वह शक्ति, पज्जलंत (कप्प)। पडुच्च समा भावाणं पन्नवणपज्जा' (सम्म जिसके द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करने तथा १५७ दे ६, १; कुप्र १७६)। पज्जलण वि [प्रज्वलन] जलानेवाला (ठा उनको आहार, शरीर आदि के रूप में बदल पज्जा स्त्री [दे] निःश्रोणि, सीढ़ी (दे ६, १)। देने का काम होता है, जीव की पुद्गलों को पज्जलिअ [प्रज्वलित] तीसरी नरक-भूमि पज्जा स्त्री [पर्याय अधिकार, प्रबन्ध-भेद ग्रहण करने तथा परिणमाने या पचाने की शक्ति (भग; कम्म १, ४६; नव ४ दं ४)। ३ का एक नरक-स्थान (देवेन्द्र ८)। (दे ६, १६ पान)। पज्जा देखो पया; 'अगणिज्जति नासे विज्जा प्राप्ति, पूर्ण प्राप्ति (दे ५, ६२)। ४ तृप्तिः पज्जलिय वि[प्रज्वलित] १ जलाया हुआ, दंडिज्जती नासे पज्जा प्रासू ६६)। 'पियदसणधरणजीवियाण को लहइ पत्ति ? दग्ध (महा)। २ खूब चमकनेवाला, देदीप्य | पजाअर पुं [प्रजागर] जागरण, निद्रा का (उप ७६८ टी)। मान (गच्छ २)। अभाव (अभि६६)। पज्जत्ति स्त्री [पर्याप्ति] १ पूति, पूर्णता पज्जलिर वि [प्रज्वलित] १ जलनेवाला। पज्जाउल वि [पर्याकुल] विशेष प्राकुल, (धर्मवि ३८)। २ अन्त, अवसान (सुख २ खूब चमकनेवाला (सुपा ६३८ सण)। व्याकुल (स ७२, ६७३ हे ४, २६६)। पंजन [पर्जन्य मेघ-विशेष, जिसके एक पज्जाभाय सक [पर्या + भाजय ] भाग पज्जलीढ वि [प्रर्यवलीढ] भक्षित (विचार करना। संकृ. पज्जाभाइत्ता (राज)। बार बरसने से भूमि में एक हजार वर्ष तक ३२६)। पज्जाय पु[पर्याय १ समान अर्थ का वाचक चिकनाहट रहती है; 'पज्जु - (?ज) ने एक पज्जव पुं [पर्यव] १ परिच्छेद, निर्णय (विसे शब्द (विसे २५)। २ पूर्ण प्राप्ति (विसे महामेह एगे रणं वासेणं दस वाससयाई ८३; प्रावम)। २ देखो पज्जाय (आचा; ८३)। ३ पदार्थ-धर्म, वस्तु-गुण । ४ पदार्थ भावेति (ठा ४, ४–पत्र २७०)। भग; विसे २७५२, सम्म ३२)। कसिण न का सूक्ष्म या स्थूल रूपान्तर (विसे ३२१० [कृत्स्न] चतुर्दश पूर्व-ग्रंथ तक का ज्ञान, पजय पु [दे. प्रार्यक] प्रपितामह, पितामह ४७६% ४८०, ४८१, ४८२, ४८३ ठा १, श्रुतज्ञान-विशेष (पंचभा) । जाय वि | का पिता, परदादा (भग ६,३; दस ७ सुर १, | १०)। ५ क्रम, परिपाटी (णाया १, १)। [जात] १ भिन्न अवस्था को प्राप्त (परह ६ प्रकार, भेद (प्रावम)। ७ अवसर । ८ १७४० २२०)। २, ५)। २ ज्ञान आदि गुणोंवाला (ठा १)। निर्माण (हे २, २४)। देखो पन्जय तथा पज्जय पुपर्यय १ श्रुत-ज्ञान का एक भेद, | ३ न. विषयोपभोग का अनुष्ठान (प्राचा)। पज्जव। उत्पत्ति के प्रथम समय में सूक्ष्म-निगोद के लब्धि- | जाय वि [°यात] ज्ञान-प्राप्त (ठा १)। पज्जाय पुं[पर्याय तात्पर्य, भावार्थ, रहस्य अपर्याप्त जीव को जो कुश्रुत का अंश होता ट्ठिय पुं[स्थित, आर्थिक, स्तिक] नय (सूअनि १३६)। है उससे दूसरे समय में ज्ञान का जितना | विशेष, द्रव्य को छोड़कर केवल पर्यायों को | पज्जाल सक [प्र + ज्वालय् ] जलाना, अंश वढ़ता है वह श्रु तज्ञान (कम्म १, ७)। ही मुख्य माननेवाला पक्ष (सम्म ६)। णय, सुलगाना । पज्जालइ (भवि)। संकृ. पज्जा२-देखो पज्जाय (सम्म १०३, एंदिः | 'नय पुं[ नय] वही अनन्तर उक्त अर्थ लिअ, पज्जालिऊण (दस ५, १; महा)। विसे ४७८ ४८८ ४६०, ४६१)। समास (राज; विसे ७५); उप्पज्जति वयंतिम भावा पज्जालण न [प्रज्वालन] सुलगाना (उप पुं[समास] श्रु तज्ञान का एक भेद, अनन्तर नियमेण पज्जवनयस्स (सम्म ११)। ५६७ टी)। उक्त पर्यय-श्रुत का समुदाय (कम्म १, ७)। पज्जवण न [पर्यवन] परिच्छेद, निश्चय (विसे | पज्जालिअ वि [प्रज्वालित] जलाया हुआ, पज्ज यण न [पर्ययन] निश्चय, अवधारण ८३)। सुलगाया हुआ (सुपा १५१प्रासू १८)। (विसे ८३)। पजवत्थाव सक [पर्यव + स्थापय् ] १पजिआ स्त्री [दे. प्रार्यिका] १ माता की पज्जर सक [कथय् ] कहना, बोलना। पज- | अच्छी अवस्था में रखना । २ विरोध करना। मातामही, परनानी । २ पिता की मातामही, रइ, पजर (हे ४,२,३६,२६, कुमा)।। प्रतिपक्ष के साथ वाद करना । पजवत्थावेदु परदादी (दस ७; हे ३, ४१)। For Personal & Private Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण - पट्ट पज्जिजमाण देखो पज्ज = पायय् । पजुङ जि [ पर्युष्ट ] फड़फड़ाया हुआ (2) 'भिउडी ग कथा, कडुनं पालविनं प्रहरनं ग (२१)। पशुअवि पर्युत्सुक] श्रति उत्सुक (नाट) । पज्जुणसर न [दे] ऊख के तुल्य एक प्रकार का ग (दे ६, ३२) । पज्जुण्ण पुं [ प्रद्युम्न] १ श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम (अंत)। २ कामदेव (कुमा) । ३ वैष्णव शास्त्र में प्रतिपादित चतुव्र्व्यूह रूप विष्णु का एक अंश हे २,४२) ४ एक जैन मुनि (निचू १) । देखो पज्जुन्न । पन्त [प्रयुक्त ] जति खचित: 'माि वि पन्मुक्तकका'३१२). दिव् खग्गचामरपज्जृत्तकुडंतरालाई' ( स ५६; भवि ) । देखो प्रभुत्त । पज्जुदास पुं [पर्युदास] निषेध, प्रतिषेध (विसे १८३) । पज्जुन्न पजुन देखो तुष्ण (गाया है ५ अंत १४ कुप्र १८, सुपा ३२ ) । ५ वि. धनी, श्रीमन्त, प्रभूत धनवाला; 'पज्जुन्ननोवि पडिपुन्नसयलंगों (सुपा ३२ ) । पज्जुपट्टा तक [पर्युप + स्था] उपस्थित होता हे. पज्जुपट्टा (शी) (नाट२५) । पज्जुवट्ठिय वि [पर्युपस्थित ] उपस्थित, मौजूद, हाजिर, तत्पर (उत्त १८, ४५) । पज्जुवास सक [ पर्युप + आस् ] सेवा करना, भक्ति करना । पज्जुवासइ, पज्जुवासंति ( भाग) यह पम्पासमाण (१,१२) वह पज्जुवासिन माण (सुपा ३७८ ) । संकृ. पज्जुवासित्ता (भग) । कृ. पज्जुवासणिज्ज (गाया १, १३ सीप)। 3 पज्जुवा सण न [पर्युपासन ] सेवा, भक्ति, उपासना (भग; स ११६३ उप ३५७ टी; अभि ३८ ) । पज्जुवारुणपा श्री [पर्युपासना ] ऊपर पज्जुवासणा देखो (ठा ३, ३ भगः गाया १, १३० औप ) । ६५ पाइअसरमहणवो ५१३ पज्जुवास वि [पर्युपासक ] सेवा करने वाला पज्भंझ श्रक [ प्र + झन्भ् ] शब्द करना, (काल) । आवाज करना । वकृ. पज्झमाण (राज) । पट्टि श्री [पट्टिका ] छन्द-विशेष (पिंग)। पज्जुसण पज्जुसवण न. देखो पज्जुसणा ( धर्मंवि परजुसवण २१ विचार ५३१) । पज्जूसण पज्जुणा स्त्री [पर्युषणा ] देखो पज्जोसवणाः 'परिवसरा पज्जुसरणा पजोसवरणा य वासवासो' (निचू १० ) । पज्जुम्सुअ ) वि [पर्युत्सुक] अति उत्सुक पज्जअ विशेष उभि १०१ पि ३२७ए ) । पलोअ [प्रयो] १ प्रकाशोत २ उज्जयिनी नगरी का एक राजा ( उव) । गर वि [कर] प्रकाश - कर्ता (सम १ ; ( कप्प; श्रौप) । पज्जोइय वि [ प्रद्योतित ] प्रकाशित ( उप ७२८ टी) । पज्जोय सक [प्र + द्योतय् ] प्रकाशित करना व पोयंत ३२४) । पजोषण [प्रयोतन] एक जैन आचार्य (राज)। पज्जोसव प्रक [ परि + वस्] १ वास करना, रहना । २ जैनागम-प्रोक्त पर्यावरणापर्व मनाना । पज्जोसवेइ, पज्जोसविति, पज्जोसवेंति (कप्प ) । वकृ. पज्जोसवंत, पज्जोसवेमाण (नि १०३ कप्प ) । हेकृ. पज्जोसवित्त, पञ्चोसवेत्तए (प्प कस) । पण न देखो पञ्चोसपणा (पंचा १७, ६) । पज्जोसवणा स्त्री [ पर्युषणा ] १ एक ही स्थान में वर्षा काल व्यतीत करना (ठा १० कप्प । २ वर्षा काल (निच १० ) । ३ पर्वविशेष, भाद्रपद के आठ दिनों का एक प्रसिद्ध जैन पर्व 'काराविधो मारिस सिटी' ( १०९०० गुरु १५,१६१) । "कप्प [कल्प] में करने योग्य शास्त्र - विहित श्राचार, वर्षाकल्प (ठा ५, २) । पोसवणा श्री [पर्यो सवना, पर्युपशमना ] ऊपर देखो (ठा १० - पत्र ५०६ ) । जोसबियन [पर्युषित] स्थित रहा हुआ (कप्प) । For Personal & Private Use Only भरना, पर अक [ क्षर, प्र + क्षर ] टपकना । पञ्झरड़ (हे ४, १७३) । पञ्भर पु [ प्रक्षर ] प्रवाह विशेष ( २ ) । पकरण न [ प्रक्षरण ] टपकना ( बज्जा १०८) । पत्रकारिण वि [ग्रक्षरित ] टपका हुआ (पाश्र महा १२) । पज्भल देखो पज्झर = क्षर् । पज्झलइ (पिंग)। पल देखी पट्टि)। [प्रयात] मतिशय चिन्तन ( १३९) । पज्झाय वि [ प्रध्यात ] चिन्तित, सोचा हु (अणु) । पभुत्त वि [दे] खचित, जड़ित, जड़ा हुग्रा (पाप) देखो पहुच पशु देखो पत्र पशुमा ( राय ८२) । पडी श्री [पटकुटी] गृहप कोट (सुर १३, ९) । पटल देखो पडल = पटल (कुमा) । पटह देखो पडछ (प्रति १० ) । पटिमा (पै. चूपै) देखो पडिमा (षड् ; पि १११) । पटोला स्त्री [पटोला ] वल्ली - विशेष, कोशत की, क्षारवल्ली (सिरि ε६) । पट्ट सक [पा] पीना, पान करना। पट्टइ (हे ४.१०) का पट्टी (मा पट्ट [पट्ट] १ पहनने का कपड़ा, 'पट्टो वि होइ इको देहपमाणेण सो य भइयो' (बृह ३ शोध ३४) । २ रथ्या मुहल्लाः 'तेरणवि मालियपट्टे गंतूरण करे कया माला' (सुपा ३७३) । ३ पाषाण श्रादि का तख्ता, फलक 'मणि सिलापट्टप्रसरणाहो माहवीमंडवों' (श्रभि २०० ); 'पिसिलापट्टए उबविट्ठा' (स्वप्न ५२); 'पट्टसं ठियपसवत्थिरगपिहुल सोलोमो' ( जीव ३) । ४ ललाट पर से बँधी जातो एक प्रकार की पगड़ी; 'तप्पभिई पट्टबद्धा रायागो जाया पुर्व मउडबद्धा श्रासी' (महा) । ५ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ पाइअसद्दमहण्णवो पट्टइल-पड पट्टा, चकनामा, किसी प्रकार का अधिकार. पद्रिस दे. पट्रिश] प्रहरण-विशेष, एक पट्ठविअ वि [प्रस्थापित भेजा हुमा (पामा पत्र (कुप्र ११; जं३)। ६ रेशम । ७ पाट, प्रकार का हथियार (पराह १, १; पउम ८, कुमा)। २ प्रवत्तित (निचू २०)। ३ स्थिर सन (गा ५२०; कप्पू)। ८ रेशमी कपड़ा। ४५)। किया हुअा (भग १२, ४)। ४ प्रकर्ष से ६ सन का कपड़ा (कप्प, औप) । १० पट्टी स्त्री [पट्टी] १ धनुर्यष्टि । २ हस्तपट्टिका, स्थापित, व्यवस्थापित (पएण २१)। सिंहासन, गद्दी, पाट (कुप्र २८ सुपा २८५)। हाथ पर की पट्टी 'उप्पीडियस रासरणपट्टिए' पद्रविइया। स्त्री [प्रस्थापिता] प्रायश्चित१२ कलाबत्तू (राज) । १३ पट्टी, फोड़ा (विपा १, १-पत्र २४) । पट्टविया । विशेष, अनेक प्रायश्चित्तों में आदि पर बांधा जाता लम्बा वस्त्रांश, पट टअ पंन देखो पट ट्या: 'पटुएहि पट टयाः पटटा जिसका पहले प्रारम्भ जिसका पहले प्रारम्भ किया जाय वह (ठा पाटाः 'चउरंगुलपमारणपट्टबंवेण सिरिवच्छालं : ५, २; निचू २०)। कियं छाइयं वच्छत्थलं' (महा, विपा १, १)। । पट् टुया स्त्री [दे] पाद-प्रहार, लात; गुजराती पट्टाअ देखो पट्ठाव। वकृ. पट्टाएंत (गा १३ शाक-विशेष (सुज्ज २०) । इल्ल पुं २03 में 'पाटू: 'सिरिवच्छो गोरोणं तहाहनो ४४०)। [47] पटेल, गाँव का मुखिया (जं ३)। - पट्टयाए हिययम्मि' (सुपा २३७)। देखो पट्ठाण न [प्रस्थान] प्रयाण (सुपा १४२) । उडी स्त्री कुटी] तंबू, वस्त्र-गृह (सुर १३, । पड्डुआ। पट्ठाव देखो पटुव । पट्ठावइ (हे ४, ३७)। १५७) । करि पृ [ करिन] प्रधान हस्ती । , पट् टुहिअ न [दे] कलुषित जल, गंदा जल; पट्ठावेइ (पि ५५३) । (सुपा ३७३) । कार पुं[कार] तन्तुवाय, . . "प टुहियं जाण कलुसजतं' (पान)। पट्टाविअ देखो पटुविअ (हे ४, १६; कुमा; वस्त्र बुननेवाला, जुलाहा (पएरण १)। वासिआ स्त्री [वासिता] एक शिरो-भूषण (दे ४, पट्ट वि [प्रष्ट] १ अग्रगामी, अग्रसर, अगुवा पि ३०६)। ४३) । °साला स्त्री [शाला] उपाश्रय, जैन (णाया १, १ ----पत्र १६)। २ कृशल, निपुण। पट्टि स्त्री देखो पट्ट = पृष्ठ (गउड सण)। मंस मुनि के रहने का स्थान (सुपा २८५)। सुत्त ३ प्रधान, मुखिया (प्रौप; राज)। न [मांस] पीठ का मांस (पएह १, २)। न [ सूत्रा रेशमी सूता (पावम)। हस्थि पट्ट वि [स्पृष्ट] जिसका स्पर्श किया गया हो पट्रिअ वि [प्रस्थित] जिसने प्रस्थान किया पुं [हस्तिन्] प्रधान हाथी (सुपा ३७२)। वह (प्रौप)। । हो वह, प्रयात (दे ४, १६; मोघ ८१ भा; पट्टइल । सुपा ७८)। [दे] पटेल, गाँव का मुखिया पट्ट न [पृष्ट] १ पीठ, शरीर के पीछे का पट्टइल्ल (सुपा २७३, ३६१)। " भाग (णाया १, ६ कुमा)। २ तल, ऊपर पट्ठिअ वि [दे] अलंकृत, विभूषित (षड् )। पटुंसुअ न [पट्टांशुक] १ रेशमी वस्त्र । २ । : का भागः 'तलिमं पट्ठ' च तल' (पान)। पट्टिउकाम वि [प्रस्थातुकाम] प्रयाण का सन का वस्त्र (गा ५२०; कप्पू)। "चर वि [चर] अनुयायी, अनुगामी (कुमा)। इच्छुक (था १४)। पट्टग देखो पट्ट (कस)। पट्ट वि [पृष्ट] १ जिसको पूछा गया हो पट्ठिसंग न [दे] ककुद, बैल के कंधे पर पट्टण न [पत्तन नगर, शहर (भग; औप; वह । २ न. प्रश्न, सवाल, 'छबिहे पठे ___ का कूबड़, डिल्ला (दे ६, २३) । प्राप्रः कुमा)। पएणत्ते' (ठा ६-पत्र ३७५)। पट्ठी देखो पट्टि (महाः काल)। पट्टदेवी स्त्री [पट्टदेवी] पटरानी (सिरि पट्ठव सक [प्र+ स्थापय ] १ प्रस्थान पट्टीवंस पु[पृष्ठवंश घर के मूल दो खंभों । पर तिरछा रखा जाता बड़ा खम्भा (पव १२१२)। कराना, भेजना। २ प्रवृत्ति कराना। ३ पट्टय देखो पट्ट (उवाः पाया १, १६)। १३३)। प्रारम्भ करना। ४ प्रकर्ष से स्थापना करना।। पठ देखो पढ़। पठदि (शौ) (नाट-मृच्छ पट्टसुत्त न पिसूत्र] रेशमी वस्त्र (धर्मवि ५ प्रायश्चित्त देना । पटुवइ (हे ४, ३७)। १४०)। पठंति (पिंग)। कर्म, पठाविभइ ७२)। भूका. पट्टवइंसु (कप्प) । कृ. पट्टवियव्य पट्टाढा स्त्री दे] पट्टा, घोड़े की पेटी, कसनः (कसः सुपा ६२७) । पठग देखो पाढग (कप्प)। 'छोडिया पट्टाढा, ऊसारियं पल्लाणं' (महाः पट्ठवग देखो पट्टवय (कम्म ६, ६६ टी)। पड अक [पत् ] पड़ना, गिरना। पडइ सुख १८, ३७)। पट्ठवण न [प्रस्थापन] १ प्रकृष्ट स्थापन ।। (उवः पि २१८, २४४)। वकृ. पडत, पट्टिय विपट्टिक] पट्टे पर दिया जाता २ प्रारम्भः ‘इमं पुण पटुवणं पडुच्च' (अण) । पडमाण (गा २६४; महा भविः बृह ६)। गाँव वगैरह, 'पुव्विं पट्टियगामम्मि तुट्टदव्वत्थं पट्ठवणा स्त्री [प्रस्थापना] १ प्रकृष्ट स्थापना । संकृ. पडिअ ( नाट-शकु ६७)। कृ. पट्टइलो नरवालो पुव्विं जो आसि गुत्तीए २ प्रायश्चित्तप्रदानः 'दुविहा पट्ठवणा खलु' पडणीअ (काल)। खित्तो' (सुपा २७३)। (वव १)। पड [पट] वन, कपड़ा (औपः उव; स्वप्न पट्टिया स्त्री [पट्टिका] १ छोटा तख्ता, पाटी पट्ठवय वि [प्रस्थापक] १ प्रवर्तक, प्रवृत्ति ८५; स ३२६; गा १८) कार देखो गार 'चित्तपट्टिया' (सुर १, ८८)। २ देखो करानेवाला (णाया १, १-पत्र ६३)। २ (राज)। कुंडी स्त्री [°कुटी] तंबू, वस्त्र-गृह पट्टी; 'सरासरणपट्टिया' (राज-जं ३)। प्रारम्भ करनेवाला (विसे ६२७)। (दे ६, ६; ती ३)। 'गार पुं [कार] For Personal & Private Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहणवो 'पुप्फपडल गहत्या' (गाया १ ८ ) । स्त्री 'डिगा, डिया (२१३ मा ६)। पडवा स्त्री [दे] पट-कुटी, पट- मण्डप, वस्त्रगृह, ६, ६) । पड सक पडह सक [ प्र + दह ] जलाना, दग्ध करना । कवकृ. पडज्झमाण ( परह १, २ ) । पद [पटह] वाच-विशेष गाड़ा, ढोल पुं नगाड़ा, ( श्रपः संदि महा ) । पडहत्य वि [दे] पूर्ण भरा हुग्रा ( स १८० ) । पडहिय [पाहिक ] ढोल बजानेवाला, ढोली, ढोलकिया ( प ४५ ८१ । पहिया श्री [पदिका] खोटा (सुर ३, ११५) । पहुंचा - पडिअग्ग तन्तुवाय, कपड़ा बुननेवाला (परह १, २ - पत्र २८ ) । बुद्धिवि ['बुद्धि] प्रभूत सूत्रार्थों को ग्रहण करने में समर्थ बुद्धिवाला (प)। मंडवपु [मण्डप ] तंबू, वस्त्र(क)[व] पटवाला (च) बास [वास] वस्त्र में डाला जाता कुकुमपूर्ण यादि सुगन्धित पदार्थ (उड स७३) साय [शाटक] १ वस्त्र, कपड़ा । २ धोती, पहनने का लम्बा वस्त्र (भग ६, पोती धौर दुपट्टा (खाया १, १ पना ३३) । ३ ५३) । [.] वा धनुष का चिल्ला या डोरी (दे ६, १४: पात्र ) । पडंसुअ देखो पडिंसुद (पि ११५) । पडंसुआ स्त्री [ प्रतिश्रुत् ] १ प्रतिशब्द, प्रति, २ प्रतिज्ञा (मा)। पडंसुआ स्त्री [दे] ज्या धनुष का चिल्ला (दे ६, १४) । पढणीअ देखो पड = पत् । पडपुत्तिया श्री [पटपुत्रिका] छोटा पत्र रुमाल (संबोध ५) । पडम देखो पढम (पि १०४ नाट - शकु १८ ) । पडल न [पटल ] १ समूह, संघात, वृन्द (कुमा) । २ जैन साधुओं का एक उपकरण, भिक्षा के समय पात्र पर ढका जाता वनखण्ड (परह २, ५ – पत्र १४८ ) । पडल [] [नी मरिया, मिट्टी का बना हुआ एक प्रकार का खपड़ा जिससे मकान छाए जाते हैं (दे ६, ५; पात्र ) । पडलग स्त्रीन [दे. पटलक] गठरी, गाँठ पडलय ) गुजराती में 'पोटुलु'' 'पोटली' ; कृ. पडा देखो पलाय = परा + श्रय् । पडाइअव्व (से १४, १२ ) । पडाइअवि [ पलायित ] जिसने पलायन किया हो वह भागा हुआ (से १५, १५) । पडाइअव्व देखो पडाअ । 1 पसुत देखो पडिंसुद ( प्राकृ ३२ ) । पढथर [दे] साला जैसा विदूषक आदि पुं (दे ६, २५) । पडच्चर पुं [पटच्चर ] चोर, तस्कर (नाट— पडागा ? स्त्री [पताका ] ध्वजा, ध्वज (महा मृण्य १३८) । पात्र हे १, २०६३ प्राप्रः गउड ) । पडाया पडज्झमाण देखो पडह् = प्र + दह । पडण न [पवन] पात, गिरा (गाया १ ११०१) । पडणीअ [ प्रत्यनीक] विरोधी, प्रतिपक्षी, वैरी (स ४६९) । "इपद्वारा [तिपताक] १ मा की एक जाति (विपा १, ८ –पत्र ८३ ) २ पताका के ऊपर की पताका ( प ) । 'हरण न] [हरण] विजय प्राप्ति (संपा) । पडागार न [ ] नौका में लगनेबालापन (द० ० १ प्रारम्भ र ० १११) । | पडिअ व [दे] विघटित, वियुक्त (दे ६, १२) । पडिल [पवित] १ गिरा हुआ (गा ११ वि प्रासू ५; १०१ ) । २ जिसने चलने को प्रारम्भ किया हो वह 'श्रागयमग्गेण य ( पढाइया श्री [पताकिका] छोटी पताका, अन्तर-पताका (कु १४५ ) । पदाग पुं [पटाक, पताक] पताका व्या (कम्प्पः श्रीप) । पडायाण देखो पलाण (हे १, २५२ ) । पडायाणिय वि [पर्याणित ] जिस पर पर्याण बाँधा गया हो वह (कुमा २०६३ ) । पडाली स्त्री [दे] १ पंक्ति, श्रेणी (दे ६, ६) । २ घर के ऊपर की चटाई आदि की कच्ची छत (वव ७) । पडास देखो पलास (नाट - मृच्छ २४३) । डि वि [पटिन् ] वस्त्रवाला ( श्रणु १४४) । [प्रति] इन अर्थों का सूचक अव्यय - | (१) २ सम्पूर्णता (पेश्व पडि १ ७८२) । ५१५ पडि प्र [प्रति ] इन अर्थों का सूचक अव्यय - १ विरोध, पडिवस्त्र', 'पडिवासुदेव' (गड पउम २०, २०२ ) । २ विशेष, विशिष्टता; 'पडिमंजरिडिस' (और)। ३ वीप्सा, व्याप्तिः 'परिवार', 'पडिल' (पह १.३ से ६ ३२) । ४ वापस, पीछे 'पडिगय' (विपा १, १६ भग; सुर १, १४६) । ५ श्रभिमुख्य, संमुखता; 'पडिविरइ,' 'पडिबद्ध' (पग्रह २, २ गउड ) । ६ प्रतिदान, बदला 'पडिदेइ' ( विसे ३२४१ ) । ७ फिर से 'पडिपडिय', "; 'पडिवविय' (सार्धं ε४; दे ६, १३) । ८ प्रतिनिभिन्न परिच्छेद (उपटी) । εप्रतिषेध, निषेध; 'पडियाइक्खिय' (भग; सम ५६ ) । १० प्रतिकूलता, विपरीतता; 'पडिवंथ' (से २, ४६) ११ स्वभाव; 'पडिवाई' (ठा २, १ ) । १२ सामीप्य, निक टता 'पडिवेसिन' ( सुपा ५५२ ) । १३ श्राधिक्य, प्रतिशयः 'पडियारांद' (श्रीप ) । १४, सादृश्य, तुल्यताः 'पडिइंद' ( पउम १०५, १११ ) । १५ लघुता, छोटाई: 'पडिदुवार' ( कप्पः परण २ ) । १६ प्रशस्तता वाघा 'पडिरूव' ( जीव ३)। १७ सांप्रतिकता, वर्तमानता (ठा ३, ४ – पत्र १५८) १८ निरर्थक भी इसका प्रयोग होता है, 'पडिइंद' ( पउम १०५, ९); 'पडिउच्चारेयव्व' (भग) । पड देखो परि (से ४, ५०६ ५, १६; ६६; अंत ७) । t For Personal & Private Use Only पडिअ देखो पड = पत् पडिअंकिअ वि [ प्रत्यङ्कित ] १ विभूषित । २ उपतिताकि पडिकियों (भबि)। पडित पुं [ दे] कर्मकर, नौकर (दे ६, ३२) . पडिअग्ग सक [ अनु + व्रज् ] अनुसरण करना, पीछे जाना। पडिश्रग्गड ( हे ४, १०७; षड् ) । Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो पडिअग्ग-पडिएल्लिअ पडिअग्ग सक [प्रति + जाग्र] १ सम्हालना। पडिअरण न [प्रतिचरण] सेवा, शुश्रूषा १०५, १११)। ३ वानर-वंश के एक राजा २ सेवा करना, भक्ति करना। ३ शुश्रूषा (ोघ ३६ भाः श्रा १; सुपा २६)। का नाम (पउम ६, १५२) । करना; 'वच्छ ! पडियग्गेहि मरिणमोत्तियाइयं पडिअरणा स्त्री [प्रतिचरणा] १ बीमार की पडिइंधण न [प्रतीन्धन] अस्त्र-विशेष, इन्धसारदव्वं' (स २८८), पडियरगह (स ५४८)। सेवा-शश्र षा (ोध ८३)। २भक्ति प्रादर, नास्त्र का प्रतिपक्षी प्रत्र (पउम ७१, ६४) । पडिअग्गिअ पि[दे] १ परिभुक्त, जिसका सत्कार (उप १३६ टी)। ३ आलोचना, पडिइक्क देखो पडिक (प्राचा)। परिभोग किया गया हो वह । २ जिसको निरीक्षण (प्रोघ ८३)। ४ प्रतिक्रमण, पाप- पडिउंचण न [दे] अपकार का बदला (पउम बधाई दी गई हो वह । ३ पालित, रक्षित कर्म से निवृत्ति । ५ सत्-कार्य में प्रवृत्ति ११, ३८; ४४, १६)। (आव ४)। पडिउंबण न [परिचुम्बन] संगम, संयोग पडिअग्गिअ वि [अनुव्रजित ] अनुसृत पडिअलि वि [दे] त्वरित, वेग-युक्त (दे (से २, २७)। (द ६, ७४)। ६, २८)। | पडिउच्चार सक [प्रत्युत् + चारय् ] उच्चापडिअग्गिअ वि [प्रतिजागत] भक्ति से पडिआइय सक [प्रत्या + पा] फिर से पान रण करना, बोलना (भगः उवा)। आहत (स २१)। करना । पडिआइयइ (दस १०, १)। पडिउज्जम अक [प्रत्युद् + यम् ] सम्पूर्ण पडिग्गिर वि [अनुव्रजिन्] अनुसरण पडिआइय सक [प्रत्या + दा] फिर से ग्रहण प्रयत्न करना । पडिउज्जमंति (चेइय ७८२) । करने की आदत वाला (कुमा)। करना। पडिआइयइ (दस १०, १)। पडिउट्रिअ वि [प्रत्युत्थित] जो फिर से पडिअम पू [दे] उपाध्याय, विद्या-दाता पडिआगय पि प्रत्यागत] १ वापस पाया खड़ा हुआ हो वह (से १५, ८० पउम ६१, गुरु (दे ६, ३१)। हुआ, लौटा हुआ (पउम १६, २६) । २ न. ४०)। पडिअट्टलिअ बि [दे] घृट, घिसा हुआ प्रत्यागमन, वापस पाना (आचू १)। पडिउण्ण देखो परिपुण्ण (से ५, १९) । (से ६, ३१)। पडिआयण न [प्रत्यापन] फिर से पान, 'वंतस्स य पडिप्रायणं' (दसवू १,१)। पडिउत्तर न [प्रत्युत्तर] जवाब, उत्तर (सुर पडिअत्त देखो परि + वत्त = परि + वृत् । संकृ. पडिअत्तिअ (नाट)। पडिआयण न [प्रत्यादान] फिर से ग्रहण २,१५८ भवि) । पडिउत्तरण न [प्रत्युत्तरण] पार जाना, पार (दसचू १,१)। पांडअत्तण न [परिवर्तन परमार हेरफेर (से ५, ६६)। 'पडिआर पुं[प्रतिकार] १ चिकित्सा, उपाय, उतरना (निचू १)। पडिअमित्त प्रत्यमित्र मित्र-शत्रु, मित्र इलाज (प्राव ४, कुमा)। २ बदला. शोध पडिउत्ति स्त्री [दे] खबर, समाचार: 'अम्मा (प्राचा)। ३ पूर्वाचरित कर्म का अनुभव पियरस्स कुसलपडिउत्ती ससिणेहं परिपृठा' होकर पीछे से जो शत्रु हुआ हो वह (राज)। (सूत्र १, ३, १, ६)। (महा)। पडिअम्मिय वि [प्रतिकर्मित] मण्डित, "एता पडिआर पुं[प्रत्याकार] तलवार की म्यान पडि उत्थ वि [पर्युषित] संपूर्ण रूप से विभूषित (दे ६, ३५)। (दे २, ५ स २१५); 'न एकम्मि पडियारे। अवस्थित (से ४, ५०)। पडिभर सक [प्रति + चर ] १ बीमार दोन्नि करवालाई मायति' (महा)। पडिउद्ध वि [प्रतिबुद्ध] १ जागृत, जगा की सेवा करना । २ अादर करना । ३ पडिआर तिचार सेवा-सुथ षा (गाया हया (से १२, २२)। २ प्रकाश-युक्तः 'जलनिरीक्षण करना। ४ परिहार करना । संकृ. १.१३-पत्र १७६)। णिहिवहपडिउद्धं प्रापरणामड्ढिनं विनंभइ पडियरिऊण (निचू १)। पडिआरय वि [प्रतिचारक] सेवा-शुश्रूषा | व धणु" (से ५, २७)। पडिअर सक [प्रति + कृ] १ बदला चुकाना।। करनेवाला (णाया १, १३ टो-पत्र १८१)। | पडिउवयार [प्रत्युपकार] उपकार का २ इलाज करना। ३ स्वीकार करना । हेकृ. स्त्री. रिया (णाया १, १-पत्र २८)। पडिकाउं (गा ३२०)। संकृ. 'तहत्ति पडिआरि वि [प्रतिचारिन्] ऊपर देखो बदला, प्रतिफल (पउम ४८, ७२, सुपा पडिकाऊण ठाविमो एसो' (कुप्र ४०)। (वव १)। पडिउस्सस अक [प्रत्युत् + श्वस्] पुनर्जी पडिअर पु[दे] नुल्ली-मूल, चुल्हे का मूल पडिइ सक [प्रति + ३] पोछे लौटना, वापस वित होना, फिर से जीना । वकृ. पडि उस्सभाग (दे ६, १७)। आना । वकृ. पडिईत (उप ५६७ टी)। संत (से ६, १२)। पडिअर पु [परिकर] परिवार, 'पडियरि हेकृ. पडिएत्तए (कस)। पडिऊल देखो पडिकूल (अच्चु ८० से ३, ( ? र त्यो पुरिसो व्व नियत्तो तेहिं चेव पडिइ स्त्री [पतिति पतन, पात (वव ५)। ३५)। पएहि नलो' (कुप्र ५७)। पडिइंद पुं [प्रतीन्द्र] १ इन्द्र, देव-राज पडिएत्तए देखो पडिइ । पडिअरग वि [प्रतिचारक] सेवा-शुश्रूषा (पउम १०५, ६)। २ इन्द्र का सामानिक- पडिएल्लिअ वि [दे] कृतार्थ, कृत-कृत्य (दे ६, करनेवाला (निचू १, वव १)। देव, इन्द्र के तुल्य वैभववाला देव (पउम ३२)। For Personal & Private Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या पाडकूल वि [प्रतिक भिसारपुत्तस्स पडिओसह-पडिक्खलिअ पाइअसद्दमहण्णवो पडिओसह न [प्रत्यौषध] एक औषध का अमि च नवमि च' (वव १) । २ प्रतिकूल पडिक्कमण न [प्रतिक्रमण] १ निवृत्ति, प्रतिपक्षी औषध (सम्मत्त १४२)। (स २७०); 'अन्नोन्नं पडिकुट्ठा दोनिवि एए व्यावर्तन । २ प्रमाद-वश शुभ योग से गिर कर पडिंसुआ देखो पडंसुआ = प्रतिश्रुत (औप)। असव्याया' (सम्म १५३)। अशुभ योग को प्राप्त करने के बाद फिर से शुभ पडिंसुद वि [प्रतिश्रुत] अंगीकृत, स्वीकृत पडिकुटेल्लग देखो पडिकुटिल्लग (वव १)। योग को प्राप्त करना। ३ अशुभ व्यापार से (प्रात: पि ११५)। निवृत्त होकर उत्तरोत्तर शुद्ध योग में वर्तन पडिकूड देखो पडिकूल = प्रतिकूल (सुर ११, पडिकंटय वि [प्रतिकण्टक] प्रतिस्पर्धी । २०१)। (पएह २,१; औपः चउ ५; पडि)। ४ मिथ्या(राय)। पडिकूल सक [प्रतिकूलय ] प्रतिकूल पाच दुष्कृत-प्रदान, किए हुए पाप का पश्चात्ताप पडिकंत देखो पडिकंत (उप २२० टी)। रण करना । वकृ. 'पडिकूलतस्स मज्झ जिण (ठा१०)। ५ जैन साधु और गृहस्थों का पडिकत्तू वि [प्रतिकर्त] इलाज करनेवाला सुबह और शाम को करने का एक आवश्यक वयणं' (सुपा २०७; २०६)। कृ. पडिकूले(ठा ४, ४)। अनुष्ठान (श्रा ४८)। यव्य (कुप्र २४२)। पडिकप्प सक [प्रति + कृप] १ सजाना, सजावट करना "खिप्पामेव भो देवाशापिया पाडकूल वि [प्रतिकूल] १ विपरीत. उलटा पाडकमय वि [ प्रतिक्रामक 1 प्रतिक्रममा __ करनेवाला, 'जीवो उ पडिक्कमग्रो असुहाणं (उत्त १२)। २ अनिष्ट, अनभिमत (प्राचा)। कूणियस्स रएको भिभिसारपुत्तस्स प्राभिसेकं पावकम्मजोगाणं' (पानि ४)। हत्थिरयणं पडिकप्पेहि' (प्रौप), पडिकप्पेइ ३ विरोधी, विपक्ष (हे २, ६७) । पडिकूलणा स्त्री [प्रतिकूलना] १ प्रतिकूल पडिक्कमिउं देखो पडिक्कम । काम वि (प्रौप)। । प्राचरण । २ प्रतिकूलता, विरोध (धर्मवि | [काम] प्रतिक्रमण करने की इच्छावाला पडिकप्पिअ वि [प्रतिक्लप्त] सजाया हुआ (गाया १,५)। (विपा १, २-पत्र २३; महा: प्रौप)। ५८)। पडिकूलिय वि [प्रतिकूलित] प्रतिकूल किया पडिक्कय पुं[दे] प्रतिक्रिया, प्रतीकार (दै ६, पडिकम देखो पडिक्कम । कृ. 'पडिकमणं १६)। पडिकममो पडिकमिअव्वं च प्राणपुवीए' हुआ (सज)। पडिक्कामणा स्त्री [प्रतिक्रमणा] देखो पडि(पानि ४)। पडिकूवग प्रतिकूपक] कूप के समीप का क्मण (ोघ ३६ भा)। पडिकमय न देखो पडिक्कमय (पानि ४)। छोटा कूप (स १००)। पडिक्कूल देखो पडिकूल (हे २,६७, षड् )। पडिकम्म न [प्रतिकर्मन्, परिकर्मन] देखो पडिकेसव पुं [प्रतिकेशव] वासुदेव का प्रतिपक्षी राजा, प्रतिवासुदेव (पउम २०, परिकम्म (प्रौपः सण)। पडिक्ख सक [प्रति + ईक्ष] १ प्रतीक्षा करना, बाट देखना, बाट जोहना। २ अक. पडिकय वि [प्रतिकृत] १ जिसका बदला २०४)। स्थिति करना । पठिक्खइ (षड् ; महा)। वकृ. चुकाया गया हो वह । २ न. प्रतिकार, बदला पडिकोस सक [प्रति + अश] आक्रोश (ठा ४, ४) पडिक्खंत (पउम ५, ७२)। करना, कोसना, शाप या गाली देना। पडिकोसह (सूय २, ७, ९)। पडिक्खअ वि [प्रतीक्षक] प्रतीक्षा करनेपडिकाऊण खा पाडअर-प्रति + कृ। पडिकोह पुं [प्रतिक्रोध] गुस्सा ( दस ६, वाला, बाट जोहनेवाला (गा ५५७ प्र)। पडिकामणा देखो पडिक्कामणा (प्रोघभा | पडिक्खंभ [प्रतिस्तम्भ] अर्गला, अरगला, ३६ टी)। पडिक्क न [प्रत्येक प्रत्येक, हरएक (प्राचा)। पागल, अगरी, ब्योंड़ा (से ६, ३३)। पडिकाय पुं[प्रतिकाय] प्रतिबिम्ब, प्रतिमा पडिक्कत वि [प्रतिकान्त पीछे हटा हुआ, पडिक्खण न [प्रतीक्षण] प्रतीक्षा, बाट, राह (चेइय ७५)। निवृत्त (उवाः परह २, १; श्रा ४३, सं (दे १, ३४; कुमा)। पडिकिदि स्त्री [प्रतिकृति] १ प्रतिकार, १०६)। पडिक्खर वि [दे] १ क्रूर, निर्दय (दे ६, इलाज । २ बदला (दे ६, १६)। ३ प्रति- पडिक्कम अक [प्रति क्रम् ] निवृत्त होना, २५) । २ प्रतिकूल (षड़)। बिम्ब, मूर्ति (अभि १६६)। पीछे हटना। पडिक्कमइ (उवः महा)। पडिक्खल प्रक[प्रति + स्खल ] १ हटना। पडिकिय न [प्रतिकृत] ऊपर देखो (चेइय पडिक्कमे (था ३; ५; पच १२)। हेकृ. २ गिरना । ३ रुकना। ४ सक. रोकना । पडिक्कमिउं, पडिक्कमित्तए (धर्म २; वकृ. पडिक्खलंत (भवि)। पडिकिरिया स्त्री प्रतिक्रिया] प्रतीकार, कसा ठा २, १)। संकृ. पडिक्कमित्ता पडिक्खलग न [प्रतिस्खलन] १ पतन । २ वदला; 'कयपडिकिरिया' (प्रौप)। (प्राचा २, १५) । कृ. पडिक्कंतव्य, अवरोध (प्रावम)। पडिकुट्ठीवि [प्रतिक्रुष्ट] १ निषिद्ध, पाडकामयव्य (प्रावमा अघि ८००)। पडिक्खलिअ वि [प्रतिस्खलित] १ परावृत्त, पडिकुट्ठिल्लग) प्रतिषिद्ध ( मोघ ४०३; पच्च पडिक्कम [प्रतिक्रम] देखो पडिक्कमण, पीछे हटा हुआ (से १, ७)। २ रुका हुआ ८ सुपा २०७); 'पडिकुटिल्लगदिवसे वज्जेजा 'गिहिपडिक्कमाइयाराग' (पव-गाथा २)। (से १, ७, भवि)। देखो पडिखलिअ । For Personal & Private Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ पाइअसहमहण्णवो पडिक्खाविअ-पडिच्छंद पडिक्खाविअ वि [प्रतीक्षित] १ स्थापित। पडिग्गह पुं [पतग्रह, प्रतिग्रह] १ पात्र, पडिचरणा देखो पडिअरणा (राज)। २ कृतः 'विरमालिन संसारे जेण पडिक्खा- भाजन (पएह २, ५ प्रौपः प्रोध ३६; २५१ पडिचार पुं [प्रतिचार] कला-विशेष-१ वित्रा समयसत्था' (कुमा)। दे ५, ४८ कप्प) । २ कर्म प्रकृति-विशेष, वह ग्रह प्रादि की गति का परिज्ञान । २ रोगी पडिक्खिअ वि[प्रतीक्षित] जिसकी प्रतीक्षा प्रकृति जिसमें दूसरी प्रकृति का कर्म-दल को सेवा-शुश्रूषा का ज्ञान (जं २ प्रौप; स की गई हो वह (दे ८, १३)। परिणत होता है (कम्मप)। धारि वि [धारिन्] पात्र रखनेवाला (कप्प)। पडिक्खित्त वि [परिक्षिप्त] विस्तारित पडिचारय पुंस्त्री [प्रतिचारक] नौकर, (अंत ७)। पडिग्गहिअ वि [प्रतिग्रहिन, पतग्रहिन] कर्मकर । स्त्री. 'रिया (सुपा ३०४) । पडिखंध न [दे] १ जल-वहन, जल भरने पात्रवाला; 'समणे भगवं महावीरे संवच्छरं पडिचोइज्जमाण देखो परिचोय । का दृति आदि पात्र । २ जलवाह, मेघ, बादल साहियं मासं जाव चीवरधारी होत्था, पडिचोइय वि [प्रतिचोदित] १ प्रेरित (उप (दे, २८)। तेण परं अचेलए पाणिपडिग्गहिए' (कप्प)। पृ ३६४)। २ प्रतिभणित, जिसको उत्तर पडिखंधी स्त्री [दे] ऊपर देखो (दे ६,२८)। पडिग्गहिद (शौ) वि [प्रतिगृहित् , परि दिया गया हो वह (पउम ४४, ४६)। पडिखद्ध वि [A] हत, मारा हुमा (?); गृहीत] स्वीकृत (नाट-मृच्छ ११०) रत्ना पडिचोएत्तु वि [प्रतिचोदयित] प्रेरक (ठा १२)। 'किमेइणा सुणहपाएण पडिखद्धेण' (महा)। पडिगगाह देखो पडिगाह । पडिग्गाहेइ पडिखल देखो पडिक्खल (भवि)। कर्म, पडिचोय सक [प्रति + चोदय् ] प्रेरणा पडिखलियइ (कुप्र २०५)। (उवा) । संकृ. पडिग्गाहेत्ता (उवा)। हेकृ. | करना। पडिचोएंति (भग १५)। कवकृ. पडिग्गाहेत्तए (कसः औप)। पडिखलण देखो पडिक्खलण (धर्मवि ५६)। पडिचोइज्जमाण (भग १५–पत्र ६७६)। पडिखलिअ वि [प्रतिस्खलित] १ रुका पडिग्गाह सक [प्रति + ग्राह्य ] ग्रहण पडिचोयणा स्त्री [प्रतिचोदना] प्रेरणा हुमा (भवि)। २ रोका हुमा; 'सहसा तत्तो कराना । कृ. पडिग्गाहिदव्य (शौ) (नाट)। (ठा ३, ३, भग १५-पत्र ६७६)। पडिखलिनो अंगरक्खेण' (सुपा ५२७) । पडिग्गाहय वि [प्रतिग्राहक] प्रत्यादाता, पडिचोयणा स्त्री [प्रतिचोदना] निर्भत्सना, देखो पडिक्खलिअ। वापस लेनेवाला (दे ७, ५६)। निष्ठुरता से प्रेरणा (विचार २३८)। पडिखिज्ज अक [परि + खिद् ] खिन्न होना, पडिग्घाय पुं[प्रतिघात] १ निरोध, अटकाव पडिच्चारग देखो पडिचारय (उप ९८६ क्लान्त होना। पडिखिजदि (शौ) (नाट (दस ६, ५८) । २ विनाश (धर्मवि ५४)। । मालती ३१)। पडिघाय पुं [प्रतिघात] १ नाश, विनाश । पडिच्छ देखो पडिक्ख। वकृ. पडिच्छंतः पडिगमण न [प्रतिगमन] व्यावर्तन, पीछे । २ निराकरण, निरसनः 'दुक्खपडियायहे' 'अहिसेयदिणं पडिच्छमाणो चिट्टई' (उव: लौटना (वव १०)। (प्राचा; सुर ७, २३४)। स १२५; महा)। कृ. पडिच्छियव्व पडिगय Q[प्रतिगज] प्रतिपक्षी हाथी (गउड)। पडिघायग वि [प्रतिघातक प्रतिघात करने- (महा)। पडिगय पुं [प्रतिगत] पीछे लौटा हुआ, | वाला (उप २६४ टी)। पडिच्छ सक [प्रति + इष् ] ग्रहण करना। वापस गया हुआ (विपा १, १; भग पौफ पडिघोलिर वि[प्रतिपूर्णित] डोलनेवाला, ! पडिच्छइ, पडिच्छति (कप्प; सुपा ३६) । महा, सुर १, १४६)। हिलनेवाला (से ६, ५१)। वकृ. पडिच्छमाण, पडिच्छेमाण (औपः पडिगह देखो पडिग्गह (दे ४, ३१)। पडिचंत पुं[प्रतिचन्द] द्वितीय चन्द्र, जो कप्पा रणाया १, १)। संकृ. पडिच्छइत्ता, पडिगाह सक [प्रति + ग्रह. ] ग्रहण उत्पात आदि का सूचक है (अणु)। पडिच्छिअ, पडिच्छिउं, पडिच्छिऊण करना, स्वीकार करना। पडिगाहइ (भवि)। पडिचक्क न [प्रतिचक्र] अनुरूप चक्र—समु (कप्पा अभि १८५; सुपा ८७ निचू २०) । पडिगाह, पडिगाहेहि (कप्प) । संकृ. पडिगादाय (राज)। देखो पडियक = प्रतिचक्र । हेकृ. पडिच्छिउं (सुपा ७२)। कृ. पडिहिया, पडिगाहित्ता, पडिगाहेत्ता (कप्प; च्छियव्व (सुपा १२५; सुर ४, १८९)। प्राचा २, १, ३, ३)। हेकृ. पडिगाहित्तए पडिचर देखो पडिअर = प्रति = चर । संकृ. प्रयो, कर्म, पडिच्छावीअदि (शौ) (पि पडिचरिय (दस ६, ३)। कृ. 'संजमो ५५२, नाट)। वकृ. पडिच्छावेमाण पडिगाहग वि [प्रतिग्राहक] ग्रहण करने पडिचरियव्वो' (माव ४)। (कप्प)। वाला (गाया १, १-पत्र ५३; उप पू पाडचर सक [प्रति + चर Jपरिभ्रमण पडिच्छंद घुन [प्रतिच्छन्द] १ मूत्ति, प्रति२६३)। करना। पडिचरइ (सुज्ज १, ३)। बिम्ब (उप ७२८ टी. स १६१, ६०६)। पडिगाहिय वि [प्रतिगृहित] लिया हुआ, पडिचरग पुं [प्रतिचरक] जासूस, चर पुरुष २ तुल्य, समान (से ८, ४६)। कय वि उपात्त (सुपा १४३)। ! (बृह १)। [कृत समान किया हुआ (कुमा)। टी)। For Personal & Private Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिच्छंद-पडिणिविट्ठ पाइअसहमहण्णवो ५१६ पडिच्छंद पुं [दे] मुख, मुँह (दे ६, २४)। पडिच्छिर वि [दे] सदृश, समान (हे २, पडिट्ठावअ देखो पइट्ठावय (नाट-बेणी पडिच्छग वि [प्रत्येषक] ग्रहण करनेवाला १७४)। ११२)। (निचू ११)। पडिछंद देखो पडिच्छंदः ‘घडियं निपयडिछंद' पडिद्वाविद (शौ) देखो पइद्वाविय (प्रभि पडिच्छण न [प्रतीक्षण] प्रतीक्षा, बाट, राह (उप ७२८ टी) । १८७)। (उप ३७८)। पडिछा स्त्री [प्रतीक्षा] प्रतीक्षण, बाट (मोघ पडिदिअ देखो पइट्रिय (षड् ; पि २२०)। पडिच्छण न [प्रत्येषण] १ ग्रहण, पादान, १७५)। पडिठाण न [प्रतिस्थान] हर जगह (धर्मवि लेना । २ उत्सारण, विनिवारणः 'कुलिसपडि- पडिछाया देखो पडिच्छाया (चेइय ७५)। । च्छणजोग्गा पच्छा कडया महिहराण' (गउड)। पडिजंप सक [प्रति + जल्प् ] उत्तर देना। पडिण देखो पडीण (पि ८२ ६६)। पडिच्छणा [प्रत्येषणा] ग्रहण, पादान पडिजंपइ (भवि)। पडिणव वि [प्रतिनव] नया, नूतन; 'तुरप्र(निचू १६)। पडिजग्ग देखो पडिजागर = प्रति + जागृ।। पडिणवखुरघाद रिणरंतरखंडिदं' (विक्र २६) । पडिन्छण्ण। विप्रतिच्छन्न] आच्छादित, पडिजग्गइ (बृह ३)। पडिणिसण न [दे] रात में पहनने का पडिच्छन्न पदका हुमा (णाया १,१-पत्र पडिजग्गय वि [प्रतिजागरक सेवा-शुश्रूषा बस्न (दे ६, ३६)। १३; कप्प)। करनेवाला (उप ७६८ टो)। पडिगिअत्त प्रक [प्रतिनि+ वृत् ] पीछे पडिच्छय पुं[दे] समय, काल (दे ६, १६)। पडिजग्गिय वि[प्रतिजागृत] जिसकी सेवा- । लौटना, पोछे वापस जाना। पडिणियत्तई पडिच्छय देखो पडिच्छग (प्रौप)। शुश्रूषा की गई हो वह (सुर ११, २४)।। (प्रौप)। वकृ. पडिणिअत्तंत, पडिणिअत्तपडिच्छयण न [प्रतिच्छदन] देखो पडि- पडिजागर सक[प्रति + जागृ] १ सेवा- माण (से १३, ७५; नाट–मालती २६)। च्छायण (राज)। शुश्रूषा करना, निर्वाह करना, निभाना। २ संकृ. पडिणियत्तित्ता (प्रौप)। पडिच्छा स्त्री [प्रतीच्छा] ग्रहण, अंगीकार गवेषणा करना । पडिजागरंति (कप्प) । वकृ... क. पडिणिअत्त । वि [प्रतिनिवृत्त पोछे लौटा (द्र ३३, सण)। पडिजागरमाण (विपा १, १: उवा महा)। पडिणिउत्तहमा (गा९८ अ विपा १,५; पडिच्छायण न [प्रतिच्छादन] पाच्छादन- पडिजागर पुं [प्रतिजागर] १ सेवा-शुश्रूषा। उवा से १, २६ अभि १२४)। वस्त्र, प्रच्छादन-पट; 'हिरिपडिच्छायणं च नो २ चिकित्सा; 'भरिणो सिट्ठी प्रारणसु विजं पडिणिकास वि [प्रतिनिकाश] समान, संचाएमि अहियासित्तए (प्राचा: गाया १, । पडिजागरठाए' (सुपा ५७६)। तुल्य (राय ६७)। १-पत्र १५ टी)। पडिजागरण न [प्रतिजागरण] ऊपर देखो। 'पडिणिक्खम अक [प्रतिनिर + क्रम् ] पडिच्छायण न [प्रतिच्छादन] आच्छादन, (वव ६)। बाहर निकलना । पडिरिणक्खमइ (उवा)। आवरण (सुज २०)। पडिजागिरय देखो पडिजग्गिय (दे १, संकृ. पडिणिक्खमित्ता (उवा)। पडिच्छाया स्त्री [प्रतिच्छाया] प्रतिबिम्ब, ४१) । पडिणिग्गच्छ अक [प्रतिनिर + गम् ] परछाई (उप ५६३ टी)। पडिजायणा स्त्री [प्रतियातना] प्रतिबिम्ब, बाहर निकलना । पडिणिग्गच्छइ (उवा) । पडिच्छावेमाण देखो पडिच्छ - प्रति + इप्। प्रतिमा, परछाई (चेइय ७५) । संकृ. पडिणिग्गच्छित्ता (उवा)। पडिच्छिअ वि [प्रतीष्ट, प्रतीप्सित] १ पडिजुवइ स्त्री [प्रतियुवति] १ स्व-समान मान पडिणिजाय सक [प्रतिनिर् + यापय ] र गहीत, स्वीकृत (स ७,५४; उवा: पीप; सुपा अन्य युवति । २ सपत्नी (कुप्र ४)। अपंग करना। पडिणिज्जाएमि (गाया १, ५४)। २ विशेष रूप से वाञ्छित (भग)। पडिजोग प्रतियोग] कामण आदि योग ७–पत्र ११८)। पडिच्छिअ देखो पडिच्छ % प्रति + इष् । का प्रतिघातक योग, चर्ण-विशेष (सुर ८, पडिणिभ वि [प्रतिनिभ] १.सदृश, तुल्य, पडिच्छिआ स्त्री [दे] १ प्रतिहारी । २ चिर- २०४। बराबर । २ हेतु-विशेष, वादी की प्रतिज्ञा का काल से ब्यायी हुई भंस (दे ६,२१)। पडिट्र वि[ पटिष्ठ ] अत्यन्त निपुण, बहुत खंडन करने के लिए प्रतिवादी की तरफ से पडिच्छिउँ चतुर (सुर १, १३५; १३, ६६)। पडिच्छि ऊण देखो पडिच्छ प्रति + इ ।। प्रयुक्त समान हेतु-युक्ति (ठा ४, ३)। पडिच्छियव्य पडिट्टविअ वि [परिस्थापित संस्थापित (से पडिणिवत्त देखो पडिणिअत्त = प्रतिनि + पडिच्छिर वि [प्रतीक्षित प्रतीक्षा करने- ५, ५२)। वृत् । वकृ. पडिणिवत्तमाण (नाट. रत्ना वाला, बाट देखनेवाला (वज्जा ३६)। पडिविअ वि [प्रतिष्ठापित] जिसकी पडिचिळय विप्रातीच्छिका अपने दीक्षा- प्रतिष्ठा की गई हो वह (अच्चु ६४)। पडिणिवत्त देखो परिणित प्रतिनिवत गुरु की आज्ञा लेकर दूसरे गच्छ के भाचार्य पडिट्ठा देखो पइट्ठा (नाट–मालती ७०)। (काल)। के पास उनकी अनुमति से शास्त्र पढ़नेवाला पडिवाव सक [प्रति + स्थापय ] प्रतिष्ठित पडिणिविट्ठ वि [प्रतिनिविष्ट] द्विष्ट, द्वेषमुनि (णंदि ५४)। करना । पडिट्ठावेहि (पि २२०; ५५१)। युक्त (पएह १,१-पत्र ७)। ५४)। For Personal & Private Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (आप)। ५२० पाइअसहमहण्णवो पडिणिवुत्त-पडिपाय पडिणिवुत्त देखो पडिणिअत्त = प्रतिनि + पडित्थिर दि [दे] समान, सदृश (दे ६, पडिनियत्त देखो पडिणिअत्त = प्रतिनि+वृत्। वृत् । वकृ. पडिणिवुत्तमाण (वेणी २३)। २०)। पडिनियत्तइ (महा) । हेकृ. पडिनियत्तए पडिगियुत्त देखो पडिणिअत्त = प्रतिनिवृत्त पडित्थिर वि [परिस्थिर] स्थिर, 'गुप्पंत- (कप्प)। (अभि ११८)। पडित्थिरे' (से २, ४)। पडिनियत्त देखो पडिणिअत्त = प्रतिनिवृत्त पडिणिवेस देखो पडिनिवेस (राज)। पडिथद्ध वि [प्रतिस्तब्ध] गर्वित (उत्त १२, (णाया १, १४; महा)। पहिणियत्त देखो पडिणिअत्त = प्रतिनि + पडिनियत्ति स्त्री [प्रतिनिवृत्ति] वापस वृत् । वकृ. पडिणिवत्तंत (हेका ३३२)। पडिदंड [प्रतिदण्ड] मुख्य दण्ड के समान लौटना प्रत्यावर्त्तन (मोह ६३)। पडिणिसंत वि [प्रतिनिश्रान्त] १ विश्रान्त । दूसरा दण्ड, 'सपडिदंडेणं धरिज्जमाणेणं पडिनिवेस पुं [प्रतिनिवेश] १ प्राग्रह, २ निलोन (णाया १, ४--पत्र ६७) । प्रायवत्तेणं विरायंते (औप)। कदाग्रह, दुराग्रह, अनुचित हठ (पच्च ६)। पडिणाय न [प्रत्यनीक १ प्रतिसैन्य, प्रति- पडिदंस सक [प्रति + दर्शय ] दिखलाना। २ गाढ़ अनुशय, पश्चात्ताप (विसे २२६६)। पक्ष की सेना (भग ८, ८) । २ वि. प्रतिकूल, पडिदंसेइ (भग; उवा)। संकृ. पडिदंसेत्ता पडिनिसिद्ध वि [प्रतिनिषिद्ध] निवारित, विपक्षी, विपरीत पाचरण करनेवाला (भग । हटाया हुआ (उप पृ ३३३) । ८,८ रणाया १, २, सम्म १६३; प्रौपः पडिदा सक [प्रति + दा] पीछे देना, दान पडिन्नत्त देखो पडिण्णत्त (प्राचा १,८, ५, प्रोघ ६३; द्र ३३)। का बदला देना। पडिदेइ (विसे ३२४१)।। ४)। पडिण्णत्त वि [प्रतिज्ञप्त] उक्त, कथित; कृ. पडिदायव्व (कस)। पडिन्नव सक [प्रति + ज्ञपय] कहना । 'जस्स एवं भिक्खुम्स अयं पगप्पे; अहं च पडिदाण न [प्रतिदान] दान के बदले में संकृ. पडिन्नवित्ता (कप्प)। खलु पडिएण (न) तो अपडिण्ण (न्न) तेहिं' दान 'दाणपडिदारणउचियं' (उप ५६७ टी)। पडिन्नव सक [प्रति + ज्ञापय् ] १ प्रतिज्ञा (प्राचा १, ८,५, ४)। पडिदासिया स्त्री [प्रतिदासिका] दासी कराना । २ नियम दिलाना । पडिन्नविजा, पडिण्णा देखो पइण्णा (स्वप्न २०७; सूम पडिन्नवेज्जा (दसचू २, ८)। १, २, २, २०)। (दस ३, १ टी)। पडिदिसा। स्त्री [ प्रतिदिश ] विदिशा, पडिन्ना देखो पडिण्णा (प्राचा) । पडिण्णाद देखो पइण्णाद (पि २७६; ५६५, पडिदिसि । विदिक् (राजः पि ४१३)। पडिपंथ पुं [प्रतिपथ] १ उलटा मार्ग. विपरीत नाट-मालवि १२)। पडिदुगंछि वि [प्रतिजुगुप्सिन्] १ निन्दा मार्ग । २ प्रतिकूलता (सूम १, ३, १,६)। पडितंत वि [प्रतितन्त्र] स्व-शास्त्र ही में करनेवाला । २ परिहार करनेवाला; 'सीमो- पडिपंथि वि [प्रतिपन्थिन्] प्रतिकूल, प्रसिद्ध अर्थ, 'जो खलु सतंतसिद्धो न य पर दगपडिदुगंछिरणों' । (सूम १, २,२२०)। विरोधीः 'अप्पेगे पडिभासंति पडिपंथियमागता' तंतेसु सो उ पडितंतो' (बृह १)। पडिदुवार न [प्रतिद्वार] १ हर एक द्वार (सूप्र १, ३, १, ६)। पडितणु स्त्री [प्रतितनु] प्रतिमा, प्रतिबिम्ब (पएह १, ३) । २ छोटा द्वार (कप्पः पराण पडिपक्ख देखो पडिवक्ख (मोघ १३)। (चेइय ७५)। २)। पडिपडिय वि [प्रतिपतित] फिर से गिरा पडितप्प सक [प्रतितर्पय ] भोजनादि से विभिटेनो परिधि मरियपडिधीतो बद्वित्ता' हुआ, सत्थो सिवत्यिणो चालियावि पडिपडिया तृप्त करना । पडितप्पह (प्रोघ ५३५) । भवारगणे' (सार्ध ६४)। (सूज्ज ६)। पडितप्प अक [प्रति + तप्] १ चिन्ता । | पडिपत्ति । देखो पडिवत्ति (नाट-चैत पडिनमुक्कार पुं [प्रतिनमस्कार] नमस्कार पडिपदि । ३४; संक्षि )। करना। २ खबर रखना। पडितप्पई (उत्त के बदले में नमस्कार-प्रणाम (रंभा)। पडिपह पुं[प्रतिपथ] १ उन्मार्ग, विपरीत १७,५)। पडिनिक्खंत वि [प्रतिनिष्कान्त] बाहर रास्ता (स १४७; पि ३६६ ए)। २ न. पडितप्पिय वि [प्रतितपित] भोजन मादि । निकला हुआ (गाया १, १३)। अभिमुख, संमुख (सूत्र २, २, ३१ टी)। से तृप्त किया हुआ (वव १)। पडिनिक्खम देखो पडिणिक्खम । पडिनि- पडिपहिअ विप्रातिपथिक] संमुख आनेपडितुटू देखो परितुट्ठ (नाट-मृच्छ ८१)। क्खमइ (कप्प) । संकृ. पडिनिक्खमित्ता; वाला (सूत्र २, २, २८)। पडितुल्ल वि [प्रतितुल्य] समान, सदृश (कप्पा भग)। पडिपाअ सक [प्रति + पादय् ] प्रतिपादन (पउम ५, १४६) । पडिनिग्गच्छ देखो पडिणिग्गच्छ । पडिनि- करना, कथन करना । कृ. पडिपाअणीअ परित्त देखो पलित्त = प्रदीप्त (से १, ५; ग्गच्छद (उवा) । पडिनिग्गच्छंति (भग)। (नाट-शकु ६५) । संकृ. पडिनिग्गच्छत्ता (उवाः पि ५८२)। पडिपाय पुं [प्रतिपाद] मुख्य पाद को सहापडित्ताण देखो परित्ताण (नाट-शकु १४)। पडिनिभ देखो पडिाणभ (दसनि १)। यता पहुँचानेवाला पाद (राय)। For Personal & Private Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिपाहुड-पडिबोध पाइअसहमहण्णवो ५२१ पडिपाहुड न [प्रतिप्राभृत] बदले की भेंट (सुपा १४५)। पडिपिंडिअ वि [दे] प्रवृद्ध, बढ़ा हुआ (दे पडिपिल्ल सक [प्रति + क्षिप, प्रतिप्र + ईरय] प्रेरणा करना । पडिपिल्लइ (भवि)। पडिपिल्लण न [प्रतिप्रेरण] १ प्रेरणा (सुर १५, १४१) । २ ढक्कन, पिधान । ३ वि. प्रेरणा करनेवाला; 'दीवसिहापडिपिल्लणमल्ले मिल्लति नीसासे (कुप्र १३१) । पडिपिहा देखो पडिपेहा । संकृ. पडिपिहित्ता (पि ५८२)। पडिपीलण न [प्रतिपीडन] विशेष पीडन, अधिक दबाव (गउड)। पडिपुच्छ सक [प्रति + प्रच्छ ] १ पृच्छा करना, पूछना । २ फिर से पूछना। ३ प्रश्न का जवाब देना। पडिपुच्छइ (उव) । वकृ. पडिपुच्छमाण (कप्प) । कृ. पडिपुच्छणिज्ज, पडिपुच्छणीय (उवा; णाया १, १; राय)। पडिपुच्छण न [प्रतिप्रच्छन] नीचे देखो (भग; उवा)। पडिपुच्छणया। स्त्री [प्रतिप्रच्छना] १ पडिपुच्छणा पूछना, पृच्छा । २ फिर से पृच्छा (उत्त २६, २०; प्रौप)। ३ उत्तर, प्रश्न का जवाब (बृह ४ उप पृ ३६८)। पडिपुच्छणिज्जखोपडिपच्छ । पडिपुच्छणीय पडिपुच्छा स्त्री [प्रतिपृच्छा] देखो पडिपु च्छणा (पंचा २; वव २; बृह १)। पडिपुच्छिअ वि [प्रतिपृष्ट] जिससे प्रश्न किया गया हो वह (गा २८६) । पडिपुजिय वि [प्रतिपूजित] पूजित, अचित 'वंदणवरकणगकलससुविणिम्मियपडिपुंजि (? पुज्जि, पूइ) यसरसपउमसोहंतदारभाए' (णाया १, १-पत्र १२)। पडिपुण्ण देखो पडिपुन (उवाः पि २१८)। पडिपुत्त पुं.[प्रतिपुत्र] प्रपुत्र, पुत्र का पुत्र, पोता; 'अंकनिवेसियनियनियपुत्तयपडिपुत्तनत्तपुत्तीयं (सुपा ६)। देखो पडिपोत्तय। पडिपुन वि [प्रतिपूर्ण] परिपूर्ण, संपूर्ण (गाया १, १, सुर ३, १८, ११४)। पडिपूइय देखो पडिपुज्जिय (राज)। पडिबंधी वि [प्रतिबन्धक] प्रतिबन्ध पडिपूयग) वि[प्रतिपूजका पजा करने- पडिबंधग करनेवाला, रोकनेवाला (अभि पडिपूयय , वाला राजा सम ५१)। २५३; उप ६४५)। पडिपूयय वि [प्रतिपूजक] प्रत्युपकार-कर्ता पडिबंधण न [प्रतिबन्धन प्रतिबन्ध, रुकावट (उत्त १७, ५)। | (पि २१८)। पडिपूरिय वि [प्रतिपूरित] पूर्ण किया हुआ | पडिबंधेयव्य देखो पडिबंध = प्रति ! बन्ध् । (पउम १००, ५०; ११५, ७)। पडिबद्ध वि [प्रतिबद्ध] १ रोका हुआ, पडिपेल्लण देखो पडिपिल्लण (गउड; से ६, संरुद्ध; 'वायुरिव अप्पडिबद्धे (कप्प, परह ३२)। १, ३)। २ उपजनित, उत्पादित (गउड पडिपेल्लण न [परिप्रेरण] देखो पडिपिल्लण १८२)। ३ संसक्त, संबद्ध, संलग्न, 'सरियाण (से २, २४)। तरंगिय पंकवडलपडिबद्धवालुयामसिणा... ... प्रडिपेल्लिय वि [प्रतिमेरित] प्रेरित, जिसको, पुलिणवित्थारा' (गउडा कुप्र ११५; उवा)। प्रेरणा की गई हो वह (सुर १५, १८०; ४ सामने बँधा हुआ; पडिबद्धं नबर तुमे महा)। नरिंदचकं पयाववियडंपि' (गउड)। ५ व्यवपडिपेहा सक [प्रतिपि + धा] ढकना, स्थित (पंचा १३)। ६ वेष्टित (गउड)। ७ पाच्छादन करना । संकृ. पडिपेहित्ता (सूम समीप में स्थित; 'तं चेव य सागरियं जस्स २, २,५१)। अदूरे स पडिबद्धो' (बृह १)। पडिपोत्तय ' [प्रतिपुत्रक नप्ता, कन्या पडिबद्ध विप्रतिबद्ध] नियत, व्याप्त (पंचा का पुत्र, लड़की का लड़का, नाती (सुपा ७,२)। १९२)। देखो पडिपुत्तय। पडिबाह सक [प्रति + बाध् ] रोकना। पडिप्पह देखो पांडपह (उप ७२८ टा)' हेकृ. पडिबाहिद (शौ) (नाट---महावी पडिप्फद्धि वि [प्रतिस्पर्धिन] स्पर्धा करने वाला (हे १,४४, २, ५३; प्राप्रा संक्षि १६)। पडिवाहिर वि [प्रतिबाह्य अनधिकारी, पडिप्फलणा स्त्री [प्रतिफलना] १ खलना। अयोग्य (सम ५०)। २ संक्रमणः 'पडिसद्दपडिप्फलणावजिरनीसे- पडिबिंब न [प्रतिबिम्ब] १ परछाही, प्रतिससुरघंट' (सुपा ८७)। च्छाया (सुपा २६६)। २ प्रतिमा, प्रतिमूत्ति पडिप्फलिअ) वि [प्रतिफलित] १ प्रति (पात्र, प्रामा)। पडिफलिअ बिम्बित, संक्रान्त (से १५, पडिबिंबिअ वि [प्रतिबिम्बित] जिसका ३१ दे १, २७) । २ स्खलित (पाप)। प्रतिबिम्ब पड़ा हो वह (कुमा)। पडिबंध सक [प्रति + बन्ध] रोकना, अट- पडिडुज्झ अक [प्रति + बुध ] १ बोध काना। पडिबंधइ (पि ५१३)। कृ. पडि पाना । २ जागृत होना । पडिबुज्झइ (उवा) । बधेयव्व (वसु)। वकृ. पडिबुझंत, पडिबुज्झमाण (कप्प)। पडिबंध सक [प्रति + बन्ध ] १ वेटन पडिबुझणया। स्त्री [प्रतिबोधना] १ बोध, करना । २ सेकना। पडिबंधइ, पडिबंधंति पडिबुज्मणा । समझ । २ जागृति (स (सूत्र १, ३, २, १०)। १५६ औप)। पडिबंध पुं [प्रतिबन्ध] व्याप्ति, नियम पडिबुद्ध वि [प्रतिबुद्ध] १ बोध-प्राप्त (प्रासू (धर्मसं १११)। १३५; उव)! २ जागृत (गाया १,१)। पडिबंध ' [प्रतिबन्ध] १ रुकावट (उवाः ३ न. प्रतिबोध (प्राचा)। ४ पुं. एक राजा कप्प)। २ विघ्न, अन्तराय (उप ८८७)। का नाम (पाया १,८)। ३ अत्यादर, बहुमान (उप ७७६; उवर पडिबूहणया स्त्री [प्रतिबृहणा] उपचय, १४६)। ४ स्नेह, प्रीति, राग (ठा पंचा पुष्टि (सूत्र २, २, ८)। १७)। ५पासक्ति, अभिष्वंग (णाया १,५; पडिबोध देखो पडिबोह = प्रतिबोध (नाटकप्प)। ६ वेष्टन (सूम १, ३, २)। मालती ५६)। For Personal & Private Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ पाइअसद्दमण्णवो पडबोधिअ-पडिया पडबोधिअ देखो पडिबोहिय (अभि ५६)। पंति पडिभमिय सुहडसीसइँ दलंति (भवि)। सम १६ ठा २, ३, ५, १)। "गिह न पडिबोह सक [प्रति +बोधय् ] १ जगाना। पडिभमिय वि [प्रतिभ्रान्त, परिभ्रान्त] [गृह्] मन्दिर (निचू १२)। देखो पडिम। २ बोध देना, समझाना, ज्ञान प्राप्त कराना। घूमा हुआ (भवि)। पडिमाण न प्रतिमान] जिससे सुवर्ण आदि पडिभय न [प्रतिभय भय, डर (पउम ७३, का तौल किया जाता है वह रत्ती, मासा बोहिज्जंत (अभि ५६) । संकृ. पडिबोहिअ १२)। प्रादि परिमाण (अरण)। (नाट-मालती १३९)। हेकृ. पडिबोहिडं पडिभा अक [प्रतिभा] मालूम होना। पडि- पडिमाण न [प्रतिमान प्रतिमा, प्रतिबिम्ब (महा) । कृ. पडिबोहियव्य (स ७०७)। भादि (शौ) (नाट-रत्ना ३)। (चेइय ७५)। पडियोह पुं [प्रतिबोध] १ बोध, समझ। पडिभाग पुं [प्रतिभाग] १ अंश, भाग पडिमि । सक [प्रति + मा] १ तौल २ जागृति, जागरण (गउड पि १७१)। (भग २५,७)। २ प्रतिबिम्ब (राज)। पडिमिग करना, माप करना। २ गिनती पडियोग वि [प्रतिबोधक] १ बोध देने- पडिभास अक प्रति + भास1 मालूम करना । कर्म. पडिमिरिणजइ (प्रण)। कवकृ. बाला । २ जगानेवाला (विसे २४७ टी। | होना। पडिभासदि (शौ) (नाट-मृच्छ पडिमिज्जमाण (राज)। पडिबोहण न [प्रतिबोधन] देखो पडि- १४१) । पडिहुंच सक[प्रति + मुच] छोड़ना । बोह = प्रतिबोध (काला स ७०८)। पडिभास सक [प्रति + भाष् ] १ उत्तर हेकृ. पडिमुंचिउं (से १४, २)। पडिबोहि वि प्रितिबोधिनी प्रतिबोध प्राप्त देना। २ बोलना, कहना; 'अप्पगे पीडभा- पडिमंडणा स्त्री प्रतिमुण्डना] निषेध करनेवाला (पाचा २, ३, १, ८)। संति' (सूत्र १, ३, १, ६)। निवारण (बृह १)। पडियोहिय वि [प्रतियोधित] जिसको प्रति- पांडामण्ण वि [प्राताभन्न] संबद्ध, संलग्न पडिा पडिभिण्ण वि [प्रतिभिन्न] संबद्ध, संलग्न पडिमुक्त वि [प्रतिमुक्त] छोड़ा हुप्रा (से ३, बोध किया गया हो वह (णाया १, १; १२)। पडिभिन्न वि [प्रतिभिन्न] भेद-प्राप्त पडिमोअणा स्त्री [प्रतिमोचना] छटकारा काल)। पडिभंग पुं [प्रतिभंग] भंग, विनाश (से ५, (पव-गाथा १६; चेइय ६४२)। (से १, ४६)। पडिभुअंग पुं [प्रतिभुजङ्ग] प्रतिपक्षी पडिमोक्खण न [प्रतिमोचन] छुटकारा (स पडिभंज अक [प्रति + भञ्] भाँगना, भुजंग–वेश्या-लंपट (कपूर २७)। ४१)। टूटना । कृ. पडिभंजिउं (वय ४)। पडिभू पुं [प्रतिभू] जामिनदार, जमानत पडिमोयग वि [प्रतिमोचक] छुटकारा करनेपडिभंड न [प्रतिभाण्ड] एक वस्तु को करनेवाला, मनौतिया (नाट–चैत ७५)। वाला (राज)। बेचकर उसके बदले में खरीदी जाती चीज पडिभेअ पुंदे. प्रतिभेद उपालम्भ, निदाः पडिमोयण देखो पडिमोक्खण (ोप)। (स २०५; सुर ६, १५८)। । 'पडिभेनो पच्चारणं (पान)। पडियक्क देखो पडिक (प्राचा)। पडिभंस सक [प्रति + भ्रशय् ] भ्रष्ट करना, पडिभोइ वि [प्रतिभोगिन्] परिभोग करने पडियक्क न [प्रतिचक्र] युद्धकला-विशेष, च्युत करना; 'पंथामो य पडिभंसई' (स ३६३)। वाला, 'अकालपडिभोईरिण' (पाचा २, ३, तेण पुत्तो विव निप्फाइतो ईसत्थे पडियके पडिभग वि [प्रतिभग्न] भागा हुआ, १,८ पि ४०५)। जन्तुमुक्के य अन्नासुवि कलासु' (महा)। पलायित (ोघ ५३३)। पडिम वि [प्रतिम] समान, तुल्य (मोह पडियग्गण न [प्रतिजागरण] सम्हाल, पडिभड पुं प्रतिभट] प्रतिपक्षी योद्धा (से | खबर (धर्मसं १०१३)। १३, ७२; पारा ५६ भवि)। पडिम देखो पडिमा। ट्राइ वि[स्थायिन] पडिमण सक [प्रति + भण्] उत्तर देना, १ कायोत्सर्ग में रहनेवाला। २ नियम-विशेष पाडयञ्च देखो पत्तिअ = प्रति+इ। जवाब देना। पडिभणइ (महा; उवाः सुपा | में स्थित (पएह २, १-पत्र १००, ठा ५, पडियरण न [प्रतिकरण] प्रतोकार, इलाज २१५), पडिभरणामि (महानि ४)। १--पत्र २६६)। (पिंड ३६६)। पडिभणिय वि प्रितिभणिता प्रत्युत्तरित, पडिमंत सक [प्रति + मन्त्रय ] उत्तर पडियरिअ वि [प्रतिचरित] सेवित, सेवा जिसका उत्तर दिया गया हो वह (महा; सुपा देना । पडिमंतेइ (उत्त १८, ६)। किया हुआ (मोह १०५)। पडिमल्ल पुं [प्रतिमल्ल] प्रतिपक्षी मल्ल पडिया स्त्री [प्रतिज्ञा १ उद्देश्य, "पिंडवायपडिभणिय वि [प्रतिभणित] १ निराकृत (भवि)। पडियाए' (कस; प्राचा)।२ अभिप्राय (ठा ५, (धर्मस ६५०)। २ न. प्रत्युत्तर, निराकरण पडिमा स्त्री [प्रतिमा] १ मूत्ति, प्रतिबिम्ब: २-पत्र ३१४) । (धर्मसं ११)। 'जिणपडिमादसणेण पडिबुद्ध' (दसनि १; पडिया स्त्री [पटिका] वस्त्र-विशेष, पडिभम सक [प्रति, परि+भ्रम् ] घूमना, पामा गा १, ११४)। २ कायोत्सर्ग। ३ 'सुपमाणा य सुसुत्ता, पर्यटन करना । संकृ. 'कत्थइ कडुप्राविय गयह जैन-शास्त्रोक्त नियम-विशेष (पएण २,१ बहुरूवा तह य कोमला सिसिरे। For Personal & Private Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडियाइक्ख-पडिलेहि पाइअसद्दमहण्णवो कत्तो पुराणेहि विणा, रुंभइ (से ८, ३६)। वकु. पडिरुंधंत (से पडिलग्गल न [दे] वल्मीक, कीट-विशेष-कृत वेसा पडियव्व संपडइ, ११, ५)। मृत्तिका-स्तूप (दे ६, ३३)। (वजा ११६)। पडिरुद्ध वि [प्रतिरुद्ध] रोका हुमा, अटकाया पडिलभ सक [प्रति + लभा प्राप्त करना। पडियाइक्ख सक [प्रत्या + ख्या] त्याग हुआ (सुपा ८५ वजा ५०)। पडिलभेज (उत्त १, ७)। संकृ. पडिलब्भ करना । पडियाइक्खे (पि १६६) पडिरूअ विप्रतिरूप] १ रम्य, सुन्दर, (सूप १, १३, २)। पडियाइक्खिय वि [प्रत्याख्यात] त्यक्त, पडिरूव चारु, मनोहर (सम १३७ उवाः पडिलाभ) सकप्रति+लाभय् .लम्भय] परित्यक्त, छोड़ा हुमाः (ठा २, १; भगः उवा प्रौप)। २ रूपवान्, प्रशस्त रूपवाला, श्रष्ठ पडिलाह साधु प्रादि को दान देना । पडिकस विपा १, १ प्रौप)। प्राकृतिवाला (ोप)। ३ असाधारण रूपवाला। लाहेज्जह (काल)। वकृ. पडिलामेमाण पडियाणय न [दे. पर्याणक] पर्याण के ४ नूतन रूपवाला (जीव ३)। ५ योग्य, (णाया १, ५; भगः उवा) । संकृ. पडिलाउचित (स ८७; भग १५दस ६,१)। नीचे दिया जाता चमं प्रादि का एक उपकरण भित्ता (भग ८,५)। ६ सदृश, समान (णाया १,१-पत्र ६१)। पडिलाहाण न [प्रतिलाभन] दान देना (णाया १,१७-पत्र २३०) । ७ समान रूपवाला, सदृश आकारवाला (उत्त पडियाणंद [प्रत्यानन्द] विशेष आनन्द, । (रंभा)। २६, ४२)। ८ न. प्रतिबिम्ब, प्रतिमूत्ति; पडिलिहिअ विप्रतिलिखित] लिखा हुआ, प्रभूत पाहाद, बहुत आनंद (प्रौप)। 'कइयावि चित्तफलए कइया वि पडम्मि तस्स ‘सम्मं मंत दुवारि पडिलि हिनं' (ति १४)। पडियाणय न [दे. पटतानक, पर्याणक] पडिरूवं लिहिऊरण' (सुर ११, २३८ राय)। पर्याण के नीचे रखा जाता वस्त्र प्रादि का पडिलीण वि [प्रतिलीन] अत्यन्त लोन ६ समान रूप, समान प्राकृति; 'तुम्हपडिरूवएक घुड़सवारी का उपकरण (गाया १, (धर्मवि ५३)। धारि पासइ पिज्जाहरसुदाढ' (सुपा २६८)। १७-पत्र २३२ टी)। १० पुं. इन्द्र-विशेष, भूत-निकाय का उत्तर पडिलेह सक[प्रति + लेखय ] १ निरीक्षण पडियारणा स्त्री [प्रतिवारणा] निषेध (पंचा दिशा का इन्द्र (ठा २, ३–पत्र ८५)। ११ करना, देखना । २ विचार करना । पडिलेहेइ १७, ३४)। विनय का एक भेद (वव १)। उव; कस; भग); "एतेसु जाणे पडिलेह सायं, पडियासूर प्रक [दे] चिड़ना, गुस्सा होना। पडिरूवंसि वि [प्रतिरूपिन् ] रमणीय, एतेण कारण य प्रायदंडे (सूत्र १,७, २)। कृ. 'पडियासूरेयव्वं न कयाइवि पाण संकृ. भूएहिं जाणं पडिलेह सायं' (सूत्र १, सुन्दर (प्राचा २, ४, २, १)। चाएवि' (आक २५, १४)। ७, १६); पडिलेहित्ता (भग) । हेकृ. पडि| पडिरूवग पुन [प्रतिरूपक] प्रतिबिम्ब, पडिर वि [पतित] गिरनेवाला (कुमा)। लेहित्तए, पडिलेहेत्तए (कप्प) । कृ. पडिप्रतिमाः 'तिदिसि पडिरूवगा य देवकया' (प्राव; पडिरअ देखो पडिरव (गा ५५ प्रा से ७, लेहियव्व (ोघ ४ कप्प)। बृह)। पडिलेह पुं [प्रतिलेख] देखो पडिलेहा | पडिरूवणया स्त्री [प्रतिरूपणता] १ समापडिरंजिअ वि [दे] भग्न, टूटा हुआ (दे | (चेइय, २६६)। नता, सदृशता या सादृश्य । २ समान वेष पडिलेहग देखो पडिलेय (राज)। धारण (उत्त २६, १)। पडिरक्खिय वि [प्रतिरक्षित] जिसकी रक्षा पडिरूवा श्री [प्रतिरूपा] एक कुलकर पुरुष पडिलेहण न [प्रतिलेखन] निरीक्षण (प्रोष की गई हो वह (भवि)। की पत्नी का नाम (सम १५०) । ३ भाः अंत)। पडिरव [प्रतिरव] प्रतिध्वनि, प्रतिशब्द पडिरोव पुं [प्रतिरोप] पुनरारोपण (कुप्र | पडिलेहणया देखो पडिलेहणा (उत्त २६, (गउड गा ५५, सुर १, २४४) । पडिराय पुं[प्रतिराग] लाली, रक्तपन; पडिरोह पु [प्रतिरोध] रुकावट (गउड; पडिलेहणा स्त्री [प्रतिलेखना] निरीक्षण, 'उव्वहइ दइयगहियाहरो?झिज्जतरोसपडिरायं। गा ७२४) । निरूपण (भग)। पाणोसरंतमहर व फलिहचसयं इमा वयणं' पडिरोहि वि [प्रतिरोधिन् ] रोकनेवाला | पडिलेहणी स्त्री [प्रतिलेखनी] साधु का एक उपकरण, 'पुंजणी' (पव ६१)। (गउड)। (गउड)। पडिरिग्गअ [दे] देखो पडिरंजिअ (षड्)। पडिलंभ सक [प्रति + लभ् ] प्राप्त करना। पडिलंभ सक [प्रति + लभ ] प्राप्त करना। पडिलेहय वि [प्रतिलेखक ] निरीक्षक, देखनेवाला (ोघ ४)। पडिरु प्रक [प्रति+स] प्रतिध्वनि करना, संकृ. पडिलंभिय (सूम १, १३)। प्रतिशब्द करना । वकृ. पडिरुओं (से १२, पडिलंभ [प्रतिलम्भ] प्राप्ति, लाभ (सूप पडिलेहा स्त्री [प्रतिलेखा] निरीक्षण, अब लोकन (प्रोघ ३; ठा ५, ३ कप्प)। & पि ४७३)। पतिसंध) सक प्रति + मध 12 रोकना, पडिलग्ग वि [प्रतिलग्न] लगा हुमा, सम्बद्ध पडिलेहि वि [प्रतिलेखिन् ] निरीक्षक पडिरुंभ । अटकाना । २ व्याप्त करना । पडि- I (से ६, ८६)। (सूत्र १, ३, ३, ५)। For Personal & Private Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ पडिलेहिय वि [ प्रतिलेखित ] निरीक्षित, देखा हुआ (उवा) । पडिले हियव्व देखो पडिलेछ । पडिलोम वि [ प्रतिलोम ] प्रतिकूल (भग) । २ विपरीत, उलटा (श्रचा २,२, २) । ३ ग. पश्चादानुपूर्वी उलटा बानी दुहारगुलोमेरा तह य पडिलोमत्रो भवे वत्थं (सुर १६. ४० नि १) । ४ उदाहरण का एक दोष ( दसनि १) । ५ अपवाद (राज) । पडिलोमइत्ता प्र [ प्रतिलोमयित्वा ] वादविशेष वादसभा के सदस्य या प्रतिवादी को प्रतिकूल बनाकर किया जाता वाद शाखार्थ (ठा ६) । पति श्री [दे]] [[वृति बा२यन परदा (दे ६, ६५) । = पडिव देखो पलीव प्र + दीपय् । पडिवेइ ( से ५, ६७ ) । परि [प्रतिर] बेर का बदला (भवि पडिवई देखो पडिवया ( पव २७१) । पचिणन [प्रतिष] यदना वेर प्रतिवञ्चन] (पउम २६,७३) । पडियंस पडियंस देखो पडिपंथ (मे २,४६) । पडिय देखी पबिंध (भवि पडियंस पुं [प्रतिवंश ] छोटा बाँस (राय) । पडवकसक [ प्रति + वच् ] प्रत्युत्तर देना, जवाब देना । पडिवकर (भवि ) । पक्खि [ प्रतिपक्ष ] १ रिपु, दुश्मन; विरोधी (पान; गा १५२: सुर १, ५६२, से ३, । १२.१५२ छन्द-विशेष (रिंग) (सख) पवित्र [प्रतिपक्षिक ] विरुद्ध पक्षबाला. विरोधी (सण) । पडिवच तक [प्रति + व्रज् ] वापस जाना। पडिवच्चइ (पि ५६० ) । पडिवच्छ देखो पडिवक्ख; ग्रह एवरमस्स दोस्रो पिडिवो मा १७६) पढि सक [ प्रित+पद्] स्वीकार करना, अंगीकार करना । पडिवज्जइ, पडिचज्जए (उव महाः प्रासू १४१ ) । भवि. पडिवज्जिस्सामि, पडिवज्जिस्सामो (पि ५२७ औप ) । वकृ. पडिवज्जमाण (पि ५६२ ) । संकृ. पडिवज्जिऊण, पडिवजितानं 3 पाइअसद्दमहण्णवो पडिवज्जिय (पि ५८६६ ५८३३ महा रंभा ) । हेक. पडिवज्जिउं, पडिवज्जित्तए, पडिवत्तुं (पंचा १८ ठा २, १, कस रंभा ) । कृ. पडिवज्जि यव्व, पडिवज्जेयव्त्र ( उत्त ३२; उप ६८४ १००१) । परिवलन [प्रतिपादन] स्वोहार, अंगीकार (१४७)। पण [प्रतिवादन] अंगीकारण स्वीकार करवाना ( कु १४७६ ३८६ ) । पविणा श्री [प्रतिपदना] स्वीकार (दि २३२) । पडिवलगया श्री [प्रतिपादना] प्रतिपादन (दि १३२) । न पडिवजय [वि] [प्रतिपादक ] स्वीकार करने वाला 'एस ताव कसरणधवलपडिवज्जनो ति' ( स ५०५ ) 1 पावन [प्रतिपादन] स्वीकारण स्वीकार कराना ( कु ६६ ) । पटिपलावियदि प्रतिपादित ] स्वीकार कराया हुआ महा) । पडिवज्जियवि [ प्रतिपन्न ] स्वीकृत ( भवि ) । पडिवअ न [ प्रतिपट्टक] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा (क) पडिवड्ढावअ वि [प्रतिवर्धापक] १ बधाई देने पर उसे स्वीकार कर धन्यवाद देनेवाला । २ बधाई के बदले में बधाई देनेवाला । स्त्री. *आप्पू) पविण वि [प्रतिपन्न] १ प्राप्त (भग) | २ स्वीकृत, अंगीकृत ( षड् ) । ३ श्राश्रित ( प ठा ७) । ४ जिसने स्वीकार किया हो वह (ठा ४, १) । वित्त पुं [परिवर्त्त ] परिवर्तन (नाट. मृच्छ ३१८ ) । पडिवत्तण देखो पडिअत्तण (नाट) । परिवत्ति श्री [प्रतिपत्ति] १ परिसि २ प्रकृति, प्रकार (विसे ५७८ ) । ३ प्रवृत्ति, खबर ( पउम । ४७ ३० ३१) ४ ज्ञान (सुर १४, ७४) । ५ आदर, गौरव (महा) । ६ स्वीकार, अंगीकार (दि) ७ लाभ प्राप्ति 'धम्मरनितिउत्तर (महा)। ८ मतान्तर अभि-विशेष (सम १०६) । । For Personal & Private Use Only पडिले दिय-पडिया १० मक्ति सेवा (कुमा महा) ११ परिपाटी, क्रम (४) १२ श्रुत विशेष, गति, इन्द्रिय आदि द्वारों में से किसी एक द्वार के जरिये समस्त संसार के जीवों को जानना (कम्म २, ७) । समास पुं ['समास ] श्रुत ज्ञान विशेष -- गति आदि दो चार द्वारों के जरिये जीवों का ज्ञान ( कम्म १, ७) । पडिव देख पडिवज्ज । पडिवद्दि देखो पडिवत्ति ( प्राप्र ) । परिषद्धाय देखो पडिवाव श्री. 'विआ ( रंभा ) । । पनि देखो परिचय रिसानं होतं पडिवन्नपाल (सू ३ खाया १, ५ उवा सुर ४, ५७; स ६५६६ हे २, २०६; पात्र ) । पडिय) देखो पविण (वि)। पडिवय अक [ प्रति + पत्] ऊँचे जाकर गिरना । वकृ. पडिवयमाण (मात्रा) । पडिवय सक [प्रति + वच् ] उत्तर देना । भवि पडिवक्खामि (सूम १, ११, ६) । परिवयणन [प्रतिवचन] प्रयुत्तर जवाब (गा ४१६ सुर २, १२३ भवि ) । २ आदेश, भाता मे • ( आवम)। ३ पुं. हरिवंश के एक राजा का नाम ( प २२, १७) । पडिवया स्त्री [ प्रतिपत्] पडवा, पक्ष की पहली तिथि (हे १, ४४; २०६६ षड् ) । प[िप्रत्युप्त ] फिर से बया हुआ दि.६, १३) । पडिवस क [ प्रति + वस् ] निवास करना। वकृ. पडिवसंत ( पि ३१७; नाट - मृच्छ ३२१) । पडिवसभ [प्रतिपभ] मूल स्थान से दो कोन की दूरी पर स्थित (पत्र ७०)। पडिवह सक [ प्रति + वह् ] वहन करना, ढोना कह पडिवुममा (कप्प) । पडिवद देखी पडिप (से ३ २४०८, १३ ३३० पउम ७३, २४) । पडिवह [प्रतिबंध, परिवच] वध, हत्या पुं ( प ७३, २४)। पडिवा देखो पडिवया (मु १०, १४) । Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिवाइ-पडिसंधया पाइअसद्दमहण्णवो ५२५ पडिवाइ वि [प्रतिवादिन प्रतिवाद करने- पडिवायण न [प्रतिपादन] निरूपण (कप्र पडिविसज्जिय वि [प्रतिविसर्जित] बिदा वाला, वादी का विपक्षी (भवि ५१, ३)। ११६)। किया हुआ, विसर्जित (गाया १,१-पत्र पडिवाइ वि [प्रतिपादिन] प्रतिपादन करने- पडिवारय देखो परिवार; “पडिवारयपरि- ३.)। वाला (भवि ५१, ३)। यरियों (महा)। पडिविहाण न [प्रतिविधान] प्रतीकार (स पडियाइ वि [प्रतिपातिन] १ विनश्वर, नष्ट पडिवाल सक [प्रति + पालय ] १ प्रतीक्षा ५६७)। होने के स्वभाववाला (ठा २, १ ओघ करना, बाट जोहना। २ रक्षण करना। पडिवज्झमाण देखो पडिबह:प्रति + वह.। ५३२: अ पृ ३५८)। २ अवधिज्ञान का पडिवालेइ (हे ४, २५६)। पडिवालेदु (शौ), पडिवत्त वि [प्रत्युक्त] १ जिसका उत्तर एक भेद, फूंक से दीपक के प्रकाश के समान (स्वप्न १००)। पडिवालह (अभि १८५)। दिया गया हो वह (अन ३; उप ७२८ टी)। एकाएक नष्ट होनेवाला प्रवधिज्ञान (ठा ६ ठा ६ वकृ. पांडवालअंत, पडिवालेमाण (नाट- वकृ. पाडवालअत, पाडवालमाण (नाट- २ न. प्रत्युत्तर (उप ७२८ टी)। न कम्म १, ८)। रत्ना ४८ पाया १, ३)। पडिवुद (शौ) वि [परिवृत्त] परिकरित पडिवाइअ वि [प्रतिपातित] १ फिर से पडिवालण न [प्रतिपालन] १ रक्षण । २ (अभि ५७ नाट-मृच्छ २०५)। गिराया हुआ । २ नष्ट किया हुआ (भवि)। प्रतीक्षा, बाट (नाट–महा ११८; उप पडिवृह पुं [प्रतिव्यूह] व्यूह का प्रतिपक्षी पडिवाइअ वि [प्रतिपादित] जिमका प्रति- ६६६)। व्यूह, सैन्य-रचना-विशेष (प्रौप)। पादन किया हो वह, निरूपित (अच्चु ५; पडिवालिअ वि [प्रतिपालित] १ रक्षित । २ प्रतीक्षित, जिसकी बाट देखी गई हो वह स ४६, ५४३)। पडिबूण वि [प्रतिबृहण] १ बढ़नेवाला । (प्राचा १, २, ५, ५)। २ न. वृद्धि, पुष्टि पडिवाइअ वि [प्रतिवाचित ] १ लिखने के (महा)। (प्राचा १, २, ५, ४)। बाद पढ़ा हुमा । २ फिर से बाँचा हुआ पाडवास पुं[प्रतिवास] औषध बादि को (कुप्र १६७)। विशेष उत्कट बनानेवाला चूर्ण आदि (उर पडिवेस पुं[दे] विक्षेप, फेंकना (दे ६, २१)। पाडवाइऊण । देखो पडिवाय =प्रति + ८,५; सुपा ६७)। पडिवेसिअ वि [प्रातिवेश्मिक] पड़ोसी, पडिवाइयव्व वाचय । पडिवासर न [प्रतिवासर] प्रतिदिन, हर पड़ोस में रहनेवाला (दे ६, ३, सुपा ५५२) । पडिवाइय देखो पडिवाइ = प्रतिपातिन (णंदि रोज (गउड)। पडिवोह देखो पडिवोह (सरण)। ८१)। पडिवासुदेव [प्रतिवासुदेव] वासुदेव का पडिसंका स्त्री [प्रतिशङ्का ] भय, शंका पडिवाडि देखो परिवाडि (गा ५३०)। प्रतिपक्षी राजा (पउम २०, २०२)। (पउम ६७, १५)। पडियाद (शौ) सक [प्रति + पादय] पडिविक्किण सक [प्रतिवि + क्री] बेचना। पडिसंखा सक [प्रतिसं + ख्या] व्यवहार प्रतिपादन करना. निरूपण करना । पडिवादेदि पडिविक्किरणइ (पाक ३३; पि ५११) । करना, व्यपदेश करना । पडिसंखाए (प्राचा)। (नाट-रत्ना ५७)। कृ. पडिवादणिज पडिविज्जा स्त्री [प्रतिविद्या] प्रतिपक्षी विद्या, (अभि ११७)। पडिसंखिव सक [ प्रतिसं + क्षिप] संक्षेप विरोधी विद्या (पिंड ४६७) । पडिवादय वि [प्रतिपादक] प्रतिपादन करना । संकृ. पडिसंखिविय (भग १४,७)। पडिवित्थर प्रतिविस्तर] परिकर, विस्तार करनेवाला । स्त्री.दिआ (नाट-चैत ३४)। पडिसंखेव सक [प्रतिसं + क्षेपय] (सूत्र २, २, ६२ टी; राज)। पडिवाय सक[ प्रति + वाचय ] १ लिखने तिमि विनाश. सकेलना, समेटना। वकृ, पडिसंखेवेमाण के बाद उसे पढ़ लेना । २ फिर से पढ़ लेना। (राय ४२)। ध्वंस (राज)। संकृ. पडिवाइऊण (कुप्र १६७)। कृ. पडिविप्पियन [प्रतिविप्रिय अपकार का । | पडिसंचिक्ख सक [प्रतिसम् + ईक्ष ] पडिवाइयव्य (कुप्र १६७) । बदला, बदले के रूप में किया जाता अनिष्ट चिन्तन करना । पडिसंचिक्खे (उत्त २, ३१)। पडिवाय सक[प्रति + पादय] प्रतिपादन (महा)। पडिसंजल सक [प्रतिसं + ज्वालय ] करना, निरूपण करना। पडिवाययंति (सूम पडिविरइ स्त्री [प्रतिविरति] निवृत्ति (पएह उद्दीपित करना । पाडसजलज्जास (माचा)। १,१४,२६)। पडिसंत वि [परिशान्त] शान्त, उपशान्त पडिवाय पुं[प्रतिपात १ पुनः-पतन, फिर पडिविरय वि [प्रतिविरत] निवृत्त (सम (से ६, ६१)। से गिरना (नव ३६)। २ नाश, ध्वंस ५१ सन २.२.७५. प्रौपः उव)। पडिसंत वि[प्रतिश्रान्त विश्रान्त (बृह १)। (विसे ५७७)। पडिविसज्ज सक [प्रतिवि + सर्जय] पडिसंत वि [दे] १ प्रतिकूल । २ अस्तमित, पडिवाय पुं [प्रतिवाद] विरोध (भवि)। विसर्जन करना, बिदा करना । पडिविसज्जेइ अस्त-प्राप्त (दे ६, १६)। पडिवाय पुं [प्रतिवात] प्रतिकूल पवन ( कप्पः प्रौप) । भवि. पडिविसज्जेहिति पडिसंध सकप्रतिसं+धा] १ फिर (भावम)। (प्रौप)। पडिसंधया । से साधना। २ उत्तर देना। For Personal & Private Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ पाइअसद्दमहण्णवो पडिसंध-पडिसाहरण ३ अनुकूल करना। पडिसंधए (उत्त २७, पडिसद्दिय वि [प्रतिशब्दित] प्रतिध्वनि- पडिसाय ( [दे] घर्घर कएठ, बैठा हुआ १)। पडिसंधयाइ (सूत्र २, ६, ३)। संकृ. | युक्त (सम्मत्त २१८)। | गला (दे ६, १७)। पडिसंधाय (सूत्र २, २, २६)। पडिसम प्रक[प्रति+शम् ] विरत होना। पडिसार सक[प्रतिस्मारय् ] याद दिलाना। पडिसंध । सक [प्रतिसं +धा] १ आदर पडिसमइ (से ६, ४४)। पडिसारेउ (भग १५)। पडिसंधा करना । २ स्वीकार करना। पडि- पडिसमाहर सक [प्रतिसमा + ह] पीछे संघए (पच्च ७)। संकृ. पडिसंधाय (सूत्र पडिसार सक [प्रति + सारय् ] सजाना, खींच लेना: 'दिट्टि पडिसमाहरे (दस ८, २, २, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५)। सजावट करना। पडिसारेदि (शौ), कमं. पडिसारीअदि (शौ) (कप्पू)। पडिसंमुह न [प्रतिसंमुख संमुख, सामने; पडिसय ( [प्रतिश्रय उपाश्रय, साधु का | 'गो पडिसंमुहं पज्जोयस्स' (महा)। निवास-स्थान (दस २, १, टी)। पडिसार सक [प्रति+ सारय] खिसकाना, पडिसलाव पुं [प्रतिसंलाप] प्रत्युत्तर, जवाब पडिसर पुं [प्रतिसर] १ सैन्य का पश्चाद्भाग हटाना, अन्य स्थान में ले जाना। पडिसारेइ (से १, २६; ११, ३४)। (प्राप्र)। २ हस्त-सूत्र, वह धागा जो विवाह (से १०, ७०)। पडिसलीण वि [प्रतिसंलीन] १ सम्यक् | से पहले वर-वधु के हाथ में रक्षार्थ बाँधते हैं। पडिसार [दे] १ पटुता । २ वि. निपुण, लीन, अच्छी तरह लीन । २ निरोध करनेकंकण (धर्म २)। पटु, चतुर (दै ६, १६)। वाला (ठा ४, २; प्रौप)। पडिया स्त्री पडिप्सरण न [प्रतिसरण] कंकण (पंचा पडिसार पुं [प्रतिसार] १ सजावट । २ ८,१५)। [प्रतिमा] क्रोध आदि के निरोध करने की अपसरण । ३ विनाश । ४ पराङ मुखता (हे पडिसरीर न [प्रतिशरीर] प्रतिमूत्ति, 'पट्टप्रतिज्ञा (औप)। १, २०६; दे ६, ७६)। विनो पडिसरीरं व (धर्मवि ३)। पडिसंविक्ख सक [प्रतिसंवि + ईक्ष] | पडिसलागा स्त्री [प्रतिशलाका] पल्य-विशेष रडिसार पुं [प्रतिसार] अपसारण (हे १, विचार करना । पडिसंविक्खे (उत्त २, ३१)। (कम्म ४,७३)। २०६)। पडिसंवेद । सक [प्रतिसं + वेदय] पडिसव सक [प्रति + शप्] शाप के बदले | प्रडिसारण न [प्रतिस्मारण] याद दिलाना पडिसंवेय अनुभव करना। पडिसंवेदेइ, में शाप देना, 'प्रहमाहो त्ति न य पडि- | पडिसंवेययंति (भग; पि ४६०)। हति सत्ताविन य पडिसवंति' (उब)। पडिसारणा स्त्री [प्रतिस्मारणा] संस्मारण पडिसंसाहणया स्त्री [प्रतिसंसाधना] पडिसव सक [प्रति + Q] १ प्रतिज्ञा (भग १५)। अनुव्रजन, अनुगमन (प्रौप; भग १४, ३ करना। २ स्वीकार करना। ३ पादर करना। पडिसारिअ वि [दे] स्मृत, याद किया हुआ २५, ७)। कृ. पडिसवणीय (सण)। (दे ६, ३३)। पडिसंहर सक [प्रतिसं + ह] १ निवृत्त पडिसवत्त वि [प्रतिसपत्न] विरोधी शत्रु पडिसारिअ वि [प्रतिसारित] १ दूर किया करना। २ निरोध करना। पडिसंहरेज्जा (दसनि ६, १८)। हुआ, अपसारित (से ११, १) । २ विनाशित (सूम १, ७, २०)। | पडिसा अक [ शम् ] शान्त होना । पडिसाइ । (से १४, ५८)। ३ पराङ मुख (से १३, पडिसक्क देखो परिसक्क। पडिसक्का (हे ४,१६७)। ३२)। (भवि)। पडिसा अक [न] भागना, पलायन पडिसारी स्त्री [दे] जवनिका, परदा (दे ६, पडिसडण न [प्रतिशदन, परिशदन] १ होना। पडिसाइ, पडिसंति (हे ४, १७८ २२)। सड़ जाना। २ विनाशः 'निरन्तरपडिसडण- | कुमा)। पडिसाह सक [प्रति + कथय] उत्तर देना। सीलारिण पाउदलारिण' (काल)। | पडिसाइल वि [दे] जिसका गला बैठ गया पडिसाहिज्जा (सूत्र १, ११, ४)। हो, घर्घर कण्ठवाला (द ६, १७) । पडिसडिय वि [परिशटित] जो सड़ गया पडिसाहर सक [प्रतिसं + ह] निवृत्त करना। पडिसाड सक [प्रति + शादय , परिहो, जो विशेष जीर्ण हुआ हो वह (पिंड पडिसाहरेज्जा (सूम २, २, ८५)। शाटय ] १ सड़ाना । २ पलटाना । ३ नाश ५१७)। करना । पडिसाडेंति (प्राचा २, १५, १८)। पडिसाहर सक [प्रतिसं + ह] १ सकेलना, पडिसत्तु पुं [प्रतिशत्र] प्रतिपक्षी, दुश्मन, संकृ. पडिसाडित्ता (माचा २, १५, १८)। समेटना। २ वापस ले लेना। ३ ऊँचे ले वैरी (सम १५३; पउम ५, १५६)। पडिसाडणा स्त्री [परिशाटना] च्युत करना, जाना । पडिसाहरइ (प्रौपा णाया १, १पडिसत्थ पु [प्रतिसाथै प्रतिकूल यूथ (निचू भ्रष्ट करना (वव १)। पत्र ३३) । संकृ. पडिसाहरित्ता, पडिसा११)। पडिसाम अक [शम् ] शान्त होना । पडिसा- | हरिय (णाया १,१; भग १४, ७)। पडिसद्द प्रतिशब्द] १ प्रतिध्वनि (पउम | मइ (हे ४, १६७; षड् )। पडिसाहरण न [प्रतिसंहरण] १ समेट, १६, ५३; भवि) । २ उत्तर, प्रत्युत्तर, जवाब पडिसाय वि शिान्त] शान्त, शम-प्राप्त संकोच । २ विनाश; 'सीयतेयलेस्सापडिसाहर(पउम ६, ३५)। (कुमा)। गट्टयाए (भग १५-पत्र ६६६)। उत्तर, प्रत्युत्तर पम पडसाम प्रक For Personal & Private Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसिद्ध - पडिस्सुय डिसिद्ध व [दे] १भीत, डरा हुआ। २ भग्न, त्रुटित (दे ६, ७१ ) । पडिसिद्ध वि [प्रतिषिद्ध] निषिद्ध, निवारित ( पाय उक, श्रोध १ टी सण ) । डिसिद्धि स्त्री [] प्रतिस्पर्धा (षड् ) । पडिसिद्धि स्त्रो [प्रतिसिद्धि] १ अनुरूप सिद्धि । २ प्रतिकूल सिद्धि ( हे १, ४४; षड् ) । पडिसिद्धि देखो पडिएफद्धि ( संक्षि १६) । पडिसिलोग पुं [प्रतिश्लोक ] श्लोक के उत्तर में कहा गया श्लोक ( सम्मत्त १४६ ) । सिविण पुं [प्रतिस्वप्नक ] एक स्वप्न का विरोधी स्वप्न स्वप्न का प्रतिकूल स्वप्न (कप्प) । (पू) २ [प्रतिशीर्षक] १ शिरोसिर के प्रतिरूप सिर, पिसान (आटा) आदि का बनाया हुआ सिर ( परह १, २ -- पत्र ३० ) । ss [प्रतिश्रुति] १ ऐरवत वर्ष के एक भावी कुलकर (सम १५३) । २ भरतक्षेत्र में उत्पन्न एक कुलकर पुरुष का नाम (पउम ३, ५० ) । डीस} पडिसीसक 1 वकृ. पडिमुण सक [ प्रति + श्रु] १ प्रतिज्ञा करना । २ स्वीकार करना । पडिसुरगड, पsिes ( श्रप कपः उवा) पडिसुणमाग ( जव १ पि ५०३ ) । संकु. पडिणित्ता, पडिसुणेत्ता ( मात्र ४ कप ) । कृ. पडिसुणेत्तए (पि ५७८ ) । पडिसुणण न [ प्रतिश्रवण ] अंगीकार (उप ४९३) । पडिसुणण स्त्री न [प्रतिश्रवण ] १ सुनाना, सुनकर उसका जवाब देना, प्रत्युत्तर (पव २) । स्त्री. ॰णा (पत्र २) । २ श्रवरण (पंचा १२, १५) । पडिसुणणा स्त्री [प्रतिश्रवण] १ अंगीकार, स्वीकार । २ मुनि भिक्षा का एक दोष, श्राधाकर्म-दोषवाली भिक्षा लाने पर उसका स्वीकार और अनुमोदन ( धर्मं ३ ) । पडिसुण्ण वि [ प्रतिशून्य ] खाली, रिक्त, शून्यः 'नय निलया निश्चपडिपुराणा' (ठा १ टी-पत्र २९ ) । पडित्ति व [दे] प्रतिकूल (दे ६, १८ ) । पाइअसहमणवो पडिसुद्ध वि [परिशुद्ध ] अत्यन्त शुद्ध (चेश्य ८०७) । पडिसुय वि [प्रतिश्रुत] १ स्वीकृत, अंगीकृत (उप पृ १८४) । २ न. अंगीकार, स्वीकार ( उत्त २५ ) | देखो डिस्सुय । पडिसुया देखो पडंसुआ = प्रतिश्रुत् (पह १, १ -पत्र १८ ) । पडिया a [ प्रतिता] प्रवज्या - विशेष १० टी -पत्र ४७४) । पडसुहड पुं [ प्रतिसुभट ] प्रतिपक्षी योद्धा (काल) । पडिसूयग [प्रतिसूचक ] गुप्तचरों की एक श्रेणी, नगर-द्वार पर रहनेवाला जासूस ( वव १ ) । पडिसूर वि [ दे] प्रतिकूल (दे ६, १६, भवि । पडिसूर पुं [प्रतिसूर्य ] सूर्य के सामने देखा जाता उत्पातादि-सूचक द्वितीय सूर्य (अर १२०)। | पडिसूर पुं [ प्रतिसूर्य ] इन्द्र-धनुष (राज) । पडिसेज्जा स्त्री [प्रतिशय्या ] शय्या-विशेष, उत्तर- शय्या (भग १, ११ पि १०१ ) । पडिसेग पुं [प्रतिपेक] नख के नीचे का भाग ( राय ε४) । पडिसेवक [प्रति + से ] १ प्रतिकूल सेवा करना निषिद्ध वस्तु की सेवा करना । २ सहन करना । ३ सेवा करना । पडिसेवइ, परिसेवए, पडिलेवंति (कस, वव ३, उत्र ) । a. पडिसेवंत, पडिसेवमाण (पंचू ५ सम ३६; पि १७ ); 'पडिसेवमारणो फरसाईं अचले भगवं रीइत्या' (प्राचा) । कृ. पडिसेवियव्य ( वव १) । पडि सेवग देखो पडि सेवय (निचू १) । पडिसेवण न [प्रतिषेत्रण] निषिद्ध वस्तु का सेवन ( कस) । पडिसेवणा स्त्री [प्रतिपेवणा] ऊपर देखो (भग २५, ७; उव; प्रोघ २ ) । पडिसेवय वि [प्रतिपेवक] प्रतिकूल सेवा करनेवाला, निषिद्ध वस्तु का सेवन करनेवाला (भग २५, ७) । पडि सेवा स्त्री [प्रतिषेवा] १ निषिद्ध वस्तु का सेवन (उप ८०१ ) । २ सेवा ( कुप्र ५२) । For Personal & Private Use Only ५२७ पडिसेवि वि [ प्रतिषेविन् ] शास्त्र - प्रतिषिद्ध वस्तु का सेवन करनेवाला ( उवः पउम ५; २८) । पडिसेविअ वि [प्रतिषेवित] जिस निषिद्ध वस्तु का श्रासेवन किया गया हो वह (कप्प श्रौप ) । पडि सेवेतु वि [प्रतिषेवितृ] प्रतिषिद्ध वस्तु की सेवा करनेवाला (ठा ७) । पडिसेह सक [प्रति + सिध्] निषेध करना, निवारण करना । कृ. पडि सेहेअव्व (भग) | पडिसेह पुं [प्रतिषेध ] निषेध, निवारण, रोक (ओघ भा पंचा ६) । पडिसेहग वि [प्रतिषेधक ] निषेध-कर्ता ( धर्मंसं ४०; ९१२ ) । डिसेण न [प्रतिषेधन ] ऊपर देखो (वि २७५१; श्रा २७ ) 1 पडिसेहिय वि [ प्रतिषेधित ] जिसका प्रतिषेध किया गया हो वह, निवारित ( विपा १, ३) । पडसे हे अब देखो पडिसेह् = प्रति + सिध् । पडिसोअ ] पुं [प्रतिस्रोतस ] प्रतिकू पडिसोत्त प्रवाह उलटा प्रवाह (ठा ४, ४ हे, २, ६८ उप २५२ प ६१) । डिसोत्त [ ] प्रतिकूल (षड् ) । पडिरसंत देखो परिस्संत (नाट — मृच्छ १८८) । पडिस्संति स्त्री [परिश्रान्ति ] परिश्रम (नाट - मृच्छ ३२१) । पडिस्सय पुं [प्रतिश्रय ] जैन साधुयों को रहने का स्थान, उपाश्रय ( श्रोध ८७ भा; उप ५७१ स ६८७ ) 1 परिसर देखो पडिसर (पंचा ८, ४९ ) । डिस्साव सक [प्रति + श्रावय् ]१ प्रतिज्ञा कराना । २ स्वीकार कराना। वकृ. पडिरसाव अन्त (नाद - वेणी १८ ) | पडिस्सावि वि [ प्रतिस्राविन् ] भरनेवाला, टपकनेवाला (राज) । पडिस्गुण सक [प्रति + श्रु ] १ सुनना । २ अंगीकार करना । पडिस्सुरांति ( सू २, ६, ३०) । पडिस्सुणेज्जा (सूम १, १४, ९ ) । पडिस्सुणे (उत्त १, २१) । पडिस्सुय वि [ प्रतिश्रुत] १ प्रतिज्ञात । २ स्वीकृत (महा; ठा १० ) । देखो पडिसुय । Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ पाइअसहमहण्णवो पडिस्सुया-पडुप्पन्न पडिम्सुया देखो पडंसुआ (णाया १. ५)। पडिहाण देखो पणिहाणः 'मणदुपडिहाणे पडीणा स्त्री [प्रतीची] पश्चिम दिशा (ठा पडिस्सुया देखो पडिसुया = प्रतिश्रुता (ठा (उवा)। ६-पत्र ३५६७ सूत्र २, २, ५८)। १०-पत्र ४७३)। | पडिहाण न [प्रतिभान] प्रतिभा, बुद्धि- पडीर ([दे] चोर-समूह, चोरों का यूथ (दे पडिहच्छ वि [दे] पूर्ण (सण) । देखो विशेष । "व वि[वत्] प्रतिभावाला (सूमा पडिहत्थ। १, १३, १४)। पडीव वि [प्रतीप] प्रतिकूल, प्रतिपक्षी, पडिहटु भ[प्रतिहत्य अर्पण करके (कसः पडिहाय देखो पडिहा = प्रति + भा। पडिहा विरोधी (भवि)। बृह ३)। यइ (स ४६१; स ७५६)। पडु वि [पटु] निपुण, चतुर, कुशल (प्रौप; पडिहड पुं[प्रतिभट] प्रतिपक्षी योद्धा (से पडिहाय पुं [प्रतिघात] १ प्रतिहनन, घात । कुमाः सुर २, १४५)। का बदला। २ निरोध, अटकाव, रोक पडु (अप) देखो पडिअ = पतिन (पिंग)। पडिहण सक [प्रति + हन] प्रतिघात करना, (पउम ६, ५३)। प्रतिहिंसा करना । पडिहणति (उव)। पडिहार पुं[प्रतिहार] इन्द्र-नियुक्त देव (पव पड़आलिअ वि [दे] १ निपुण बनाया पडिहणण न [प्रतिहनन] १ प्रतिघात । २ ३६) । हुना। २ ताड़ित, पिटा हुआ। ३ धारित वि. प्रतिघातक (कुप्र ३७)। | पडिहार पुंस्त्री प्रतिहार] द्वारपाल, दरवान (दे ६, ७३)। पडिहणणा स्त्री [प्रतिहनन] पतिधात (ोघ | (हे १, २०६; गाया १,५; स्वप्न २२८ पडुक्खेव पुं[प्रत्युत्क्षेप १ वाद्य-ध्वनि । ११०)। अभि ७७) । स्त्री. 'री (बृह १)। २ उत्थापन, उठान (अणु १३१)। पडिहणिय देखो पडिहय (सुपा २३)। पडिहारिय देखो पाडिहारिय (कस; पाचा पडुक्खेव पुं[प्रत्युत्थेप, प्रतिक्षेप १ वाद्यपडिहणिय देखोपडिभणिय (धर्मसं ७०८)। २, २, ३, १७:१८)। ध्वनि । क्षेपण, फेंकना; 'समतालपडुक्खेवं' पडिहत्थ वि [दे] १ पूर्ण, भरा हुआ (दे ६, पडिहारिय वि [प्रतिहारित अवरुद्ध, रोका (ठा ७-पत्र ३६४)। २८; पापः कुप्र ३४ वजा १२६; उप पृ हुमा (स ५४६)। पडुच्च प्र[प्रतीत्य] १ प्राश्रय करके (प्राचा १८१, सुर ४, २३६ सुपा ४८८); 'पडिह- पडिहास अक [प्रति + भास् ] मालूम सून १,७ सम ३६; नव ३६)। २ अपेक्षा थबिबगहवइवप्रणेता वज्ज उजाणं (वान होना, लगना । पडिहासेदि (शौ) (नाट)। करके (भग) । ३ अधिकार करके; 'पडुच्च त्ति १५)। २ प्रतिक्रिया, प्रतिकार, बदला। ३ वचन,पहासनिभामा निशा पनिभान वा पप्प त्ति वा अहिकिञ्च त्ति वा एगट्ठा' वाणी (दे ६, १६)। ४ अतिप्रभूत (जीव । (हे १, २०६, षड्)। (प्राचू १; अणु)। करण न [करण] ३) । ५ अपूर्व, अद्वितीय (षड् )। पडिहासिय वि [प्रतिभासित] जिसका किसी की अपेक्षा से जो कुछ करना, प्रापेपडिहत्थ सक [दे] प्रत्युपकार करना, उपकार प्रतिभास हुआ हो वह (उप ६८६ टी)। क्षिक कृति (बृह १)। भाव पुं [ भाव का बदला चुकाना । पडिहत्थेइ (से १२, पडिहुअपुं[प्रतिभू] जामीन, जामीन सप्रतियोगिक पदार्थ, पापेक्षिक वस्तु (भास पडिहत्थ वि [प्रतिहस्त तिरस्कृत (चंड)। पडिहू २८)। वयण न [°वचन आपेक्षिक वचन दार, मनौतिया (पान दे ५, ३८)। पडिहू अक [ परि + भू] पराभव करना, पडिहत्या स्त्री [दे] वृद्धि (दे ६, १७)। (सम्म १००)। सच्चा स्त्री ["सत्या] सत्य पडिहम्म देखो पडिहण । पडिहम्मेज्जा (पि | हराना । कवकृ. पडिहूअमाण (अभि ३६)। भाषा का एक भेद, अपेक्षा-कृत सत्य वचन (पएण ११)। ५४०)। भवि. पडिहम्मिहिइ (पि ५४६)। पडी स्त्री [पटी] वस्त्र, कपड़ा (गउड सुर ३, पडुच्चा ऊपर देखोः 'जे हिंसंति प्रायसुहं डिहय वि [प्रतिहत] प्रतिघात-प्राप्त (प्रौपा कुमा; महा सण)। पडीआर [प्रतीकार] देखो पडिआर = | पडुच्चा' (सूम १, ५, १, ४)। प्रतिकार (वेणी १७७; कुप्र ६१)। पडिहर सक [प्रति + ह] फिर से पूर्ण करना। पडुजुवइ स्त्री [दे] युवति, तरुणी (दे ६, पडिहरइ (हे ४, २५६). पडीकर सक [प्रति + कृ] प्रतिकार करना । पडुत्तिया स्त्री [प्रत्युक्ति] प्रत्युत्तर, जवाब पडिहा अक [प्रति + भा] मालूम होना, पडीकरेमि (मै ६६) । (भवि)। लगना । पडिहाइ (वज्जा १६२; पि ४८७)। पडीकार देखो पडिआर (पएह १, १)। पडुप्पण्ण) पुं [प्रत्युत्पन्न] १ वर्तमान पडिहा स्त्री [प्रतिभा] बुद्धि-विशेष, नूतन- पडीछ देखो पडिच्छ - प्रति = इष् । पडी पडुप्पन्न । काल (ठा ३, ४)। २ वि. नूतन उल्लेख करने में समर्थ बुद्धि (कुमा)। छति (पि २७५)। वार्तमानिक, वर्तमान काल में विद्यमान (ठा पडिहा देखो पडिहाय % प्रतिघात; 'पंचविहा पड़ीण वि [प्रतीचीन] पश्चिम दिशा से संबन्ध १०; भग ८,५; सम १३२; उवा) । ३ पडिहा पन्नत्ता, तं जहा, गतिपडिहा' (ठा ५, रखनेवाला (प्राचाः औप, ठा ५, ३) । वाय प्राप्त, लब्ध (ठा ४,२), 'न पडुप्पन्नो य से १-पत्र ३०३)। । पुं[वात पश्चिम का वायु (ठा ७)। जहोचिनो माहारों (स २९१)। ४ उत्पन्न, ३१)। For Personal & Private Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२९ पडुल्ल-पढे पाइअसहमहण्णवो जात (ठा ४, २); 'होति य पडुप्पन्नविणास- पड्डय पुं[दे] भैंसा, पाड़ा, गुजराती में [समवसरण] वर्षा-काल; 'बिइयसमोसरणं रणम्मि गंधग्विया उदाहरणं (दसनि १)। 'पाडो'; 'सो चेव इमो वसभो पड्डयपरिहट्टणं | उदुबद्धं तं पडच वासावासोग्गहो पढमसमोपडल्ल न [दे] १ लघु पिठर, छोटी थाली। २ सहई' (महा)। सरणं भएणई (निचू १)। सरय पुं वि.चिरप्रसूत (दे ६, ६८)। | पड्डला स्त्री [दे] चरण-घात, पाद-प्रहार (दे [शरत् ] मार्गशीर्ष मास (भग १५) । पड़वइअ वि [दे] तीक्ष्ण, तेज (दे ६, १४)। 'सुरा स्त्री [सुरा] नया दारू, शराब (दे)। पडुवत्ती स्त्री [दे] जवनिका, परदा (दे ६, पड्डस वि[दे] सुसंयमित, अच्छी तरह से पदमा स्वीप्रमा २२)। संयमित (दे ६, ६)। (सम २६)। २ व्याकरण-प्रसिद्ध पहली पडह देखो पड्डुह। पडुइ (हे ४, १५४ पड्डाविअ वि [दे] समापित, समाप्त कराया विभक्तिः ‘णि हेसे पढमा होइ' (अणु)। टि)। हुआ ( षड्)। पढमालिआ स्त्री [दे. प्रथमालिका] प्रथम पडोअ वि [दे] बाल, लघु. छोटा (दे ६,६)। पड्डिया स्त्री [दे] १ छोटी भैंस, पाड़ी। २ भोजन (प्रोघ ४७ भा; धर्म ३)। पडोच्छन्न वि [प्रत्यवच्छन्न] आच्छादित, छोटी गौ, बछिया (विपा १,२-पत्र २६)। पढमिल्लवि [प्रथम] पहला, आद्य प्रावृत अट्टविहकम्मतमपडलपडोच्छन्ने'(उवा)। ३ प्रथमप्रसूता गौ। ४ नव-प्रसूता महिषी पढमिल्लुअ (भगः श्रा २८ सुपा ५७; पि पडोयार सक [प्रत्युप + चारय् ] प्रतिकूल (वव ३)। पड्डी स्त्री [दे] प्रथम-प्रसूता (दे पढमिल्लुग ४४६, ५६५: विसे १२२६ उपचार करना । पडोयारेति, पडोयारेह (भग पढमुल्लअ ! (णाया १, ६-पत्र १४४, पड्ड आ स्त्री [दे] चरण-घात, पाद-प्रहार १५–पत्र ६७९) । पडोयारेउ (भग १५--- पढमेल्लुय बृह १; पउम ६२, ११; धरण पत्र ६७१)। पडोयारे (पि १५५)। कवकृ. १६; सण)। पडोय (? या) रिजमाण, पडोयारेज्ज. पड डह अक [क्षुभ् ] क्षुब्ध होना। पड् डु. पढाइद [शौ] नीचे देखो (नाट-चैत ८६)। माण (पि १६३; भग १५-पत्र ६७६)। हइ (हे ५, १५४; कुमा)। पढाव सक [पाठय् ] पढ़ाना । पढावेद (प्राकृ पडोयार पुं[दे] उपकरण (पिंड २८)। पढ सक [पठ् ] १ पढ़ना, अभ्यास करना। ६०)। संकृ. पढाविऊण, पढावेऊण (प्राकृ २ बोलना, कहना। पढइ (हे १, १६६ पडोयार पुं [प्रत्युपचार] प्रतिकूल उपचार ६१)। हेकृ. पढाविउं, पढावेउं (प्राकृ (भग १५–पत्र ६७१, ६७६)। २३१)। कर्म, पढीअइ, पढिजइ (हे ३, ६१)। कृ. पढावणिज, पढाविअव्व पडोयार प्रत्यवतार] १ अवतरण । २ १६०)। वकृ. पढंत (सुर १०, १०३)। (प्राकृ ६१)। कवकृ. पढिजंत, पढिजमाण (सुपा २६७) प्राविर्भावः 'भरहस्स वासस्स केरिसए आगार पढावअ वि [पाठक अध्यापक (प्राकृ ६०)। उप ५३० टी)। संकृ. पढित्ता (हे ४, भावपडोयारे होत्था' (भग ६, ७–पत्र २७६; पढावण न [पाठन] पढ़ाना (कुप्र ६०) । २७१; षड् ), पढिअ, पढिऊण (शौ) (हे ७, ६--पत्र ३०५, प्रौप)। पढाविअ वि [पाठित] पढ़ाया हुआ (सुपा पडोयार पुं [पदावतार] किसी वस्तु का ४, २७१), पढि (अप) (पिंग)। हेकृ. ४५३; कुप्र ६१)। पढिडं (गा २; कुमा)। कृ. पढियव्व, पदों में विचार के लिए अवतरण (ठा ४, पढाविअवंत वि [पाठितवत् ] जिसने १-पत्र १८८)। पढेयव्व (पंसू १, वजा ६)। प्रयो. पढावइ पढ़ाया हो वह (प्राकृ ६१)। पडोयार पुं[प्रत्युपकार उपकार का उपकार (कुप्र १८२)। पढाविउवि [पाठयित अध्यापक (प्राकृ पढ [पढ] भारतीय देश-विशेष (इक)। पढाविर ६०)। पडोयार पुं[दे] १ सामग्री। २ परिकर, | पढग वि [पाठक] पड़नेवाला (कप्प)। पढण न [पठन] पाठ, अभ्यास (विसे । देखो पढ = पठ् । 'पायस्स पडोयार' (प्रोघ ३५२)। | पढिअसापळ १० । पडोल पुंस्त्री [पटोल] लता-विशेष, परवल १३८४ कप्पू)। पढिअ वि [पठित] पढ़ा हुआ (कुमाः प्रासू का गाछ (पएण १-पत्र ३२)। पढम वि [प्रथम] १ पहला, प्राद्य (हे १, पडोहर न [दे] घर का पीछला माँगन (दे ५५; कप्प; उवा; भगः कुमा; प्रासू ४८ पढिजत । . देखो पढ़ = पठ् । ६, ३२: गा ३१३; काप्र २२४)। ६८)। २ नूतन, नया (दे)। ३ प्रधान, मुख्य पड्ड वि [दे] धवल, सफेद (दे ६, १)। (कप्प)। करण न [°करण] प्रात्मा का पढिर वि [पठित] पढ़नेवाला (सण)। पडुस पु[दे] गिरि-गुहा, पहाड़ की गुफा (दे | परिणाम-विशेष (पंचा ३)। कसाय पुं पढुक्क वि [प्रढौकित] भेंट के लिए उपस्था६,२)। [कषाय] कषाय-विशेष, अनन्तानुबन्धी पित (भवि)। पड्डच्छी स्त्री [दे] भैस, 'पड्डुच्छिखीर' (प्रोष कषाय (कम्मप)। द्वाणि, ठाणि वि पदुम देखो पढम (हे १, ५५; नाट-विक्र ८७)। स्थानिन्] अव्युत्पन्न-बुद्धि, प्रनिष्णात २६)। पड्डुत्थी श्री [दे] १ बहुत दूधवाली। २ (पंचा १९)। पाउस पु[प्रावृष्] पढेयव्व देखो पढ = पठ् । दोहनेवाली (दे ६,७०)। भाषाढ़ मास (निचू १०)। 'समोसरण न पढे देखो पढाव । पढेइ (प्राकृ ६०)। For Personal & Private Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो पण-पणयालीस पण देखो पंच (सुपा१नव १० कम्म २,६२६) पणंगणा श्री [पणाङ्गना] वेश्या, वारांगना पणम सक [प्र+ नम्] प्रणाम करना, ३१)। उइ स्त्री ['नवति पंचानबे, नब्बे । (उप १०३१ टीः सुपा ४६० कुप्र५)। नमन करना। परणमइ, पणमए (स ३४४ और पाँच (पि ४४६ )। तीस स्त्रीन पणग न [पद्धक] पांच का समूह (सुर ६, | भग)। वकृ. पणमंत (सण)। कवकृ. शित पैतीस, तीस और पाँच (औपः ११२, सुपा ६३६ जी द ३१, कम्म पणमिजंत (सुपा ८८)। संक. पर्णामअ, कम्म ४, ५३; पि २७३, ४४५)। नुवइ २, ११)। पणमिऊण, पणमिऊणं, पणमित्ता, देखो इ (सुपा ६७)। रस त्रि. ब. पणग [दे. पनक] १ शैवाल, सेवार या पणमित्तु (अभि ११ प्रारू पि ५६०; [दशन् पनरह (सण)। वन्निय वि सिवार, तृण-विशेष जो जल में उत्पन्न होता है | भग; काल)। [वर्णिक] पाँच रंग का (सुपा ४०२) । (बृह ४ दस ८ परण १ एंदि)। २ काई,पणमण न [प्रणमन] प्रणाम, नमस्कार वीस स्त्रीन [विंशति पचीस, बीस और वर्षा-काल में भूमि, काष्ठ आदि में उत्पन्न होने भूमि, काष्ठ आदि म उत्पन्न होन- (उवः सुपा २७; ५६१)। पांच (सम ४४; नव १३; कम्म २)। वाला एक प्रकार का जल-मैल (प्राचा: पडि; पणमिअ देखो पणम । वीसइ स्त्री [विंशति] वही अर्थ (पि ठा ८-पत्र ४२६ कप्प)। ३ कर्दम-विशेष, पणमिअ वि [प्रगत] १ नमा हुपा (भगः ४४५) । °सट्ठि स्त्री [°षष्टि] पैंसठ, साठ सूक्ष्म पंक (बृह ६, भग ७, ६)। देखो प्रौप)। २ जिसने नमने का प्रारम्भ किया और पाच (सम ७८; पि २७३)। "सय पणय ( दे )। भट्टिया, मत्तिया स्त्री हो वह (णाया १,१-पत्र ५) । ३ जिसको न [शत पाँच सौ (दं ६)। सीइ स्त्री [मृत्तिका] नदी प्रादि के पूर के खतम होने पर रह जाती कोमल चिकनी मिट्टी (जीव [शीति] पचासी, अस्सी और पांच (कम्म नमन किया गया हो वहः 'परणमिमो भरणे राया' (स ७३०)। १; परण १-पत्र २५) । २)। सुन्न न [सून] पाँच हिंसा-स्थान (राज)। पणच अक [प्र+ नृत् ] नाचना, नृत्य पणमिअ वि [प्रगमित] नमाया हुमा (भवि)। पण '[पण] १ शतं, होड़; 'लक्खपणेण करना। वकु. पणचमाण (णाया १,८- पणमिर वि [प्रगम्र] प्रणाम करनेवाला, जुज्झार्वतस्स' (महा)। २ प्रतिज्ञा (माक)। पत्र १३३; सुपा ४७२)। स्त्री. `णी (सुपा नमनेवाला (कुमा कुप्र ३५०; सण) । ३ धन । ४ विक्रेय वस्तु, क्रयारणक; 'तत्थ २४२)। पणय सक [प्र+णी] १ स्नेह करना, प्रेम विढप्पिन पणगणं' (तो ३) पणचण न अनर्तन] नृत्य, नाच (सुपा१५४)। करना। २ प्रार्थना करना। वकृ. पणअंत पण पुं [प्रण] पन, प्रतिज्ञा (नाट-मालती (से २,६)। पणच्चिअ वि[प्रनृत्तित नाचा हुआ, जिसका १२४)। नाच हुआ हो वह (णाया १, १-पत्र २५)। पणय वि [प्रणत] १ जिसको प्रणाम किया गया हो वह, 'नरनाहपणयपयकमल' (सुपा पण | पणचिअ वि [प्रनृत्त] नाचा हुआ, 'अन्नया न [पञ्चक] १ पाँच का समूह (पंच पणग । ३,१६)। २ तप-विशेष, नीवी तप रायपुरमो पणच्चिया देवदत्ता' (महा; कुप्र २४०)। २ जिसने नमस्कार किया हो वह; (संबोध ५७)। १०)। 'पणयपडिवक्ख' (सुर १, ११२, सुपा ३६१)। ३ प्राप्त (सूप १, ४,१)। ४ पणच्चिअ वि[प्रनर्तित] नचाया हुआ (भवि)। पणअत्तिअ वि [दे] प्रकटित, व्यक्त किया हुमा (दे ६, ३०)। पण? वि [प्रनष्ट] प्रकर्ष से नाश को प्राप्त । निम्न, नीचा (जीव ३ राय)। पणअन्न देखो पणपन्न (हे २, १७४ टि; (सूम १, १, २, से ७, ८; सुर २, २४७ । पणय पुं[प्रणय] १ स्नेह, प्रेम (णाया १, &महा; गा २७)। २ प्रार्थना (गउड)। ३,६६, भवि; उव)। राज)। पणइ स्त्री [प्रणति प्रणाम, नमस्कार (पउम पणद्ध वि [प्रणद्ध] परिगत (औप)। वंत वि [वत् ] स्नेहवाला, प्रेमी (उप ६६, ६६: सुर १२, १३३; कुमा)। पणपण्ण देखो पणपन्न (कप्प १४७ टि)। १३१)। पणइ वि [प्रणयिन] १ प्रणयवाला, स्नेही, पणपण्णइम देखो पणपन्नइम (कप्प १७४ पणय पुंदे] पंक, कदम (दे ६,७)। प्रेमी। २ पुं. पति, स्वामी (पाप्रा गउड टि: पि २७३)। पणय [दे. पनक] १ शैवाल, सेवार, ८३७)। ३ याचक, अर्थी, प्रार्थी (गउड | पणपन्न श्रीन [ दे. पञ्चपश्चाशत् ] पचपन, तृण-विशेष। २ काई, जल-मैल (प्रोष २४६; २५१, सुर १, १०८)। ४ भृत्य, पचास और पाँच (हे २, १७४. कप्प; सम ३४६) । ३ सूक्ष्म कर्दम (पएह १, ४)। दास; 'बपइराप्रोत्ति परणइलवों' (गउड ७२ कम्म ४, ५४३ ५५ ति ५)। पणयाल वि[दे. पञ्चचत्वारिंश ] पैंता७६७)। पणपन्नइम पि [दे. पञ्चपञ्चाश] पचपना, लीसवाँ, ४५ वाँ (पउम ४५, ४६)। पणइणी स्त्री [प्रणयिनी] पत्नी, भार्या, प्रिया, ५५ वाँ (कप्प)। पणयाल रखीन [दे. पञ्चचत्वारिंशत्] ' जोरू (सुपा २१६)। पणपन्निय देखो पणवन्निय (इक)। पणयालीस पंतालीस, चालीस और पाँच, पणइय वि [प्रणयिक, प्रणयिन् ] देखो पणपन्निय पुं [पंचप्रज्ञप्तिक] व्यन्तर देवों । ४५ (सम ६६ कम्म २, २७: ति ३, भग; यणइ-प्रणयिन् (सरण)। | की एक जाति (पव १९४)। सम ६ मौपः पि ४४५) । For Personal & Private Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणव-पणिहाण पाइअसहमहण्णवो पणव देखो पणम । पगवइ (भवि) । पणवह पणायक। वि [प्रणायक ] ले जानेवाला. पणिअसाला स्त्री [पण्यशाला बखार, अन्न (हे २, १९५) । वकृ. पणवंत (भवि)। पणायग। 'निव्वाणगमणसग्गप्पणायकाई या माल रखने का घिरा हुमा स्थान, गोदाम पणव पु[प्रणव मोंकार, 'नों प्रक्षर (सिरि (पएह २, १; परह २, १ टी वव १)। (पाचा २, २, २, १०)। १६६)। पणाल पुं[प्रणाल] मोरी, पानी प्रादि जाने पणिआ स्त्री [दे] करोटिका, सिरकी हड्डी, पणव पुं [पणव] पटह, ढोल, वाद्य-विशेष का रास्ता (से १३, ५४ उर १, ५, ६)। खोपड़ी (द ६, ३)। (प्रौपः कप्प अंत)। पणालिआ स्त्री [प्रणालिका] १ परम्परा पणिंदि । वि [पञ्चेन्द्रिय] त्वक् , जीभः पणवणिय देखो पणवन्निय (प्रौप)। (सूप १, १३)। २ पानी जाने का रास्ता पणिदिय नाक, अाँख और कान इन पाँचों पणवण्ण। देखो पणपन्न (पि २६५; २७३; इन्द्रियोंवाला प्राणी (कम्म २४, १०, १८ पणवन्न ।भग हे २, १७४ टि)। पणाली स्त्री [प्रणाली] मोरी, पानी जाने का १९)। पणवन्निय पुं[पणपन्निक] व्यन्तर देवों की | रास्ता (गउड)। पणिद्ध वि [प्रस्निग्ध] विशेष स्निग्ध (अणु एक जाति (पएह १, ४)। पणाली स्त्री [प्रनाली] शरीर-प्रमाण लम्बी २१५)। लाठी (पएह १, ३–पत्र ५४) । पणिधाण देखो पडिहाण (अभि १८६; पणविय देखो पणमिय = प्रणत (भवि)। पणास सक[प्र+नाशय ] विनाश करना। नाट.-विक्र ७२)। पणवीसी श्री[पञ्चविंशतिका] पचीस का पणासेइ, पणासए (महा)। पणिधि पुंस्त्री [प्रणिधि माया, छल; 'पुणो समूह (संबोध २५)। पणास पुं [प्रणाश] विनाश, उच्छेदन | पुणो परिणधि(? धी)ए हरित्ता उवहसे जणं पणस पुं [पनस] वृक्ष-विशेष, कटहल या | (प्रावम)। (सम ५०)। देखो पणिहि। कटहर (पि २०८ नाट-मृच्छ २१८)। पणासण वि [प्रणाशन] विनाश करने-पणियत्थ वि [प्रणिवसित] पहना हुआ पणसुंदरी श्री [पणसुन्दरी] वेश्या (धर्मवि | वालाः 'सन्वपावप्पणासणों' (पडि; कप्प)। (प्रौप)। १२७)। स्त्री. 'णी (श्रा ४६)। पणिलिअ वि [दे] हत, मारा हुंमा (षड्)। पणाम सक [अर्पय ] अर्पण करना, देने पणासिय वि [प्रणाशित] जिसका विनाश पणिवइ वि [प्रणिपतित नत, नमा हुमाः के लिए उपस्थित करना। पणामइ (हे ४, किया गया हो वह (कप्प; भवि)। 'परिणवइयवच्छला णं देवाणुप्पिया ! उत्तम३६), 'वंदियो य पणयाण कल्लागाई पणिअ वि [दे] प्रकट, व्यक्त (दे ६, ७)। । पुरिसा' (णाया १,१६-पत्र २१६ स ११; पणामई (सुपा ३६३)। पणिअ वि [प्रणीत रचित (सूभनि ११२)। उप ७६८ टी)। पणाम सक[प्र+नमय ] नमाना । पणामेइ पणिअ न [पणित] १ बेचने योग्य वस्तु पणिवइअ वि[प्रणिपतित] जिसको नमस्कार (महा)। (दे १,७४, ६, ७; णाया १, १)। २ किया गया हो वहः 'नरपहूहि परिणवइग्रो." पणाम सक [उप + नी] उपस्थित करना । व्यवहार, लेन-देन, क्रय-विक्रय (भग १५, वीरो' (धर्मवि ३७)। पणामेइ (प्राकृ ७१)। णाया १, ३–पत्र ६५)। ३ शत, होड़, | पणिवय सक [प्रणि + पत् ] नमन करना, पणाम [प्रणाम] नमस्कार, नमन (दे ७, एक तरह का जुप्रा (भास ६२)। भूमि, वन्दन करना। पणिवयामि (कप्प; साध ६ भवि)। 'भूमी स्त्री [भूमि, भूमी] १ अनार्य पणामणिआ श्री [दे] स्त्रीविषयक प्रणय देश-विशेष, जहाँ भगवान् महावीर ने एक | पणिवाय पुं [प्रणिपात] वन्दन, ' चौमासा बिताया था (राज; कप्प)। २ विक्रेय (सुर ४, ६८; सुपा २८, २२२, महा)। पणामय वि [अर्पक] देनेवाला (सूत्र १, २, २)। वस्तु रखने का स्थान (भग १५)। साला स्त्री पणिहा सक [प्रणि + धा] १ एकाग्र चिन्तन पणामय वि [प्रणामक] १ नमानेवाला। [शाला] हाट, दूकान (बृह २, निचू १६)। करना, ध्यान करना। २ अपेक्षा करना । ३ २ शब्द आदि विषय (सूत्र १, २, २, २७)। पणिअन [पण्य] विक्रेय वस्तु (सुपा २७५; अभिलाषा करना। ४ चेष्टा करना, प्रयत्न पणामिअ वि [अर्पित] समर्पित, देने के पौप; भाचा)। °गिह, घर न [गृह] करना। संकृ. पणिहाय (णाया १, १०; लिए घरा हुआ (पाम कुमा); 'प्रपणामि दूकान, हाट (निचू १२ भाचा २, २, २)। भग १५)। यंपि गहिनं कुसुमसरेण महुमासलच्छीए मुहै "साला स्त्री [शाला] हाट, दूकान (प्राचा)। पणिहाण न [प्रणिधान] १ एकाग्र ध्यान, (हेका ५०)। "वण पु[पण दूकान, हाट (प्राचा)। मनो-नियोग, प्रवधान (उत्त १६,१४० स ८७ पणामिअ वि [प्रणामित] नमाया हुमा पणिअ वि [प्रणीत सुन्दर, मनोहर । भूमि प्रामा)। २ प्रयोग, व्यापार, चेष्टाः 'तिविहे (से ४, ३१; गा २२)। स्त्री [भूमि मनोज्ञ भूमि (भग १५)। परिणहाणे पएणते तं जहा-मणपणिहाणे, पणामिअ वि [प्रणमित नत, नमा हुआ; पणिअट्ट वि [पणितार्थ] चोर (दस ७, वयपणिहाणे, कायपणिहाणे (ठा ३, १, ४, 'पणामिया सायर' (स ३१६) । ___३७)। १, भग १८ उवा)। ३ प्रभिलाष, कामना For Personal & Private Use Only . Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ पाइअसद्दमद्दण्णवो पणिहाय-पण्णा एक भद 'संकाथाणाणि सव्वाणि वज्जेज्जा पणिहाणवं' पणोल्लि वि [प्रणोदिन] १ प्रेरणा करनेवाला। ३ विद्या-विशेष (प्राचू १)। ४ प्ररूपण, (उत्त १६, १५)। २ पृ. प्राजन दण्ड, बैल इत्यादि हाँकने की प्रतिपादन (उवाः वव ३)। खेवणी स्त्री पणिहाय देखो पणिहा। लड़की (पएह १, ३-पत्र ५४)। [°क्षेपणी] कथा का एक भेद (ठा ४, २)। पणिहि पुंस्त्री [प्रणिधि] १ एकाग्रता, प्रवधान | पणोल्लिअ वि [प्रणोदित] प्रेरित (ौपः पि पक्खेवणी स्त्री [प्रक्षेपणी] कथा का एक (पएह २, ५)। २ कामना, अभिलाष (स २४४)। भेद (राज)। ८७)। ३ पुं. चरपुरुष, दूत (पएह १,३; पण्ण वि [प्रज्ञ] जानकार, दक्ष, निपुण (उत्त | पण्णपणिय पुं [पण्णपणि] व्यन्तर देवों पान; सुर ३, ४, सुपा ४६२)। ४ चेष्टा, - १,८; सूत्र १, ६)। को एक जाति (इक)। व्यापार (दसनि १)। ५ माया, कपट (प्राव | पण्ण वि [प्राज्ञ] १ प्रज्ञावाला, बुद्धिमान्, दक्ष | पग्णय देखो पण्णग (से ४, ४)। ४) । ६ व्यवस्थापन (राज)। (हे १, ५६; उप ६२३)। २ वि. प्राज्ञ पण्णव सक [प्र+ ज्ञापय ] प्ररूपण करना, पणिहि पुंस्त्री प्रणिधिन बड़ा निधि (दस सम्बन्धी (सूअ २, १)। उपदेश करना, प्रतिपादन करना। पएणवेइ, ८,१)। पण्ण न [पर्ण] पत्र पत्ता, पत्तो (कुमा)। पएगवेति (उवा; भग)। वकृ. पण्णवयंत पणिहिय वि [प्रणिहित] १ प्रयुक्त, व्यापृत पण्ण देखो पणिअ = पण्य (नाट)। पगवेमाण (भग; पि ५५१) । कृ. पण्ण(दसनि ८)। २ व्यवस्थित (प्राव ४)। पण्ण स्त्रीन [दे] पचास, ५० । स्त्री. ण्णा वणिज (द्र ७)। पणीय वि [प्रण त] १ निर्मित, कृत, रचित पण्णवग वि प्रज्ञापक प्ररूपक, प्रतिपादक 'वइसेसियं पणीय' (विसे २५०७ सुर १२, | पण्ण देखो पंच, पण (पि २७३; ४४० (विसे ५४६)।। ६२: सुपा २८; १६७)। २ स्निग्ध, घृत ४४५)। रस त्रि. ब. [दशन्] पनरह, पण्णवण न [प्रज्ञापन] १ प्ररूपण, प्रति आदि स्नेह की प्रचुरतावाला; 'विभूसा इत्थी- १५ (सम २६ उवा)। रसम वि [ दश] पादन । २ शास्त्र, सिद्धान्त (विसे ८६४)। संसग्गी परणीयरसभोयणं' (दस ८, ५७ उत्त पनरहवा (उवा)। रसी स्त्री ['दशी] १ पण्णवण वि [प्रज्ञापन ज्ञापक, निरूपक १६, ७ अोघ १५० भा; प्रौपः बृह ५)। ३ पनरहवीं । २ तिथि-विशेष (पि २७३; कप्प)। (संबोध ५)। निरूपित, प्ररूपित, प्राख्यात (अणु; प्राव रह देखो रस (प्राप्र)। रह वि[दश] पण्णवणा स्त्री प्रज्ञापना] १ प्ररूपणा, प्रति३) ! ४ मनोज्ञ, सुन्दर (भग ५, ४)। ५ पनरहवाँ, १५ वाँ (प्राप्र)। देखो पन्न%D पादन (णाया १,६; उवा)! २ एक जैन सम्यग् प्राचरित (सूत्र १,११)। पंच। पागम ग्रंथ, 'प्रज्ञापना' सूत्र (भग)। पणीहाण देखो पणिहाण (प्रात्मक हित पण्ण वि [पार्ण] पर्ण सम्बन्धी, पत्ते का, पण्णवणिज देखो पण्णव । १५)। पत्ती से संबन्ध रखनेवाला (राज)। पण्णवणी स्त्री [प्रज्ञापनी] भाषा-विशेष, अर्थपणुल्ल देखो पणोल्ल। वकृ. पणुल्लेमाण (पि पण देखो पण्णा । व वि [व] प्रज्ञा- बोधक भाषा (भग १०, ३)। २२४)। वाला (उप ६१२ टी)। | पण्णवण्ण स्त्रीन [दे. पञ्चपञ्चाशत् ] पचपणुल्लिा देखो पगोल्लिअ (पामा सुपा २४; | पण्णई [पन्नगा] भगवान् धर्मनाथ की शासन- पन, पचास और पांच (दे ६, २७ षड्)। प्रासू १६६)। देवी (पव २७)। पण्णवय देखो पण्णवग (विसे ५४७)। पणुवीस लोन [पश्चविंशति] संख्या-विशेष, | पण्णग पुं [पन्नग] सर्प, साँप (उप ७२८ | | पण्णवयंत देखो पण्णव । पचीस, बीस और पाँच। २ जिनकी संख्या पचीस हों वे (स १०६; पि १०४, २७३)। देखो पन्नय । पित (प्रणः उत्त २६)। पणुवःसइम वि [पञ्चविंशतितम] पचीसवाँ, विंशतितमा पच्चीसवाँ, | पण्णग विदे. पन्नक दुगन्धी। तिल पुपण्णवेत्त विप्रज्ञापयिता प्रतिपादक, प्ररू. २५ वॉ (विसे ३१२०)। ["तिल] दुर्गन्धी तिल (राज)। परण करनेवाला (ठा ७)। पणोल्ल सक [प्र + णुद्] १ प्रेरणा करना। पण्णट्ठि स्त्री [पञ्चषष्टि] पैंसठ, साठ और | पण्णवेमाण देखो पण्णव । २ फेंकना। ३ नाश करना । परणोल्लइ | पाँच, ६५ (कप्प)। पण्णा सक [प्र+ ज्ञा] १ प्रकर्ष से जानना। (प्राप्र); 'पावाई कम्माई पणोल्लयामों (उत्त पण्णत्त वि [प्रज्ञप्त] निरूपित, उपदिष्ट, कथित २ अच्छी तरह जानना। कर्म, पराणायंति १२, ४०) । कवकृ. पणोलिजमाण (णाया (प्रौप; उवाः ठा ३, १४, १, २, विपा (भग)। १, १; पएह १, ३)। संकृ. पणोल्ल (सून | १,१, प्रासू १२१)। २ प्रणीत, रचित | पण्णा देखो पण्ण (दे) । १,८)। (मावमः चंद २०; भग ११, ११; प्रौप)। पण्णा स्त्री प्रज्ञा] मनुष्य की दस अवस्थाओं पणोल्लण न [प्रणोदन] प्रेरणा (ठा ८ उप पण्णत्ति स्त्री [प्रज्ञप्ति] १ विद्यादेवी-विशेष में पांचवीं अवस्था (तंदु १६)। पृ३४१)। (जं १)। २ जैन पागम ग्रंथ-विशेष, सूर्य-पण्णा स्त्री [प्रज्ञा] १ बुद्धि, मति (उप १५४; पणोल्लय वि [प्रणोदक] प्रेरक (प्राचा)। । प्रज्ञप्ति आदि उपांग-ग्रंथ (ठा ३, १, ४, १)। ७२८ टी; निचू १)। २ ज्ञान (सूत्र १, For Personal & Private Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णाग-पत्तट्ठ पाइअसद्दमण्णवो १२) । परिसह, परीसह पु[परिषद, पण्हविअ देखो पण्हुअ (दै ६, २५)। (स १२, सुर १, ७२, से २, १७३)। 'परीषह] १ बुद्धि का गवं न करना। २ | पहा देखो पण्ह । 'च्छेज न [च्छेद्य कला-विशेष (प्रौपः बुद्धि के अभाव में खेद न करना (भग ८, पण्डि पुत्री [पागि] फीली का प्रधोभाग, स ६५)। मंत वि [वत् ] पत्रवाला ८; पव ८६)। मय पु[मद] बुद्धि का | गुल्फ को नीचला हिस्सा, एड़ी (पएह १, ३, (णाया १, १)। रह पुं ["रथ] पक्षी अभिमान (सूप १, १३)। "वंत वि [°वत्] । दे७, ६२)। (पान)। लेहा स्त्री [ लेखा] चन्दनादि ज्ञानवान् (राज)। पण्हिया स्त्री [प्रश्निका] एड़ी, गुल्फ का से पत्र के प्राकृतिवाली रचना-विशेष, भूषा पण्णाग वि[प्रज्ञ] विद्वान् (पंचा १७, अधोभाग; 'मेलितु परिहयाो चरणे वित्था का एक प्रकार (अजि २८)। वल्ली बी २७)। रिऊण बाहिरो' (चेइय ४८६)। ["वल्ली] १ पत्रवाली लता। २ मुंह पर पण्णाड देखो पन्नाड परणाडइ (दे ६, चन्दन आदि से की जाती पत्र-श्रेणी-तुल्य पण्हुअ वि [प्रस्नुत] १ क्षरित, झरा हुआ। २६)। २ जिसने झरने का प्रारम्भ किया हो वह; रचना (कुप्र ३६५)। °विंट न [°वृन्त] पण्णाण न [प्रज्ञान] १ प्रकृष्ट ज्ञान । २ पत्र का बन्धन (पि ५३)। "विटिय वि 'पराहुयपयोहरामो' (पउम ७६, २०० हे सम्यग् ज्ञान (सम ५१)। ३ पागम, शास्त्र [वृन्तक, वृन्तीय त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष, २, ७५)। (प्राचा) । व वि [वत् ] १ ज्ञानवान् । पत्र वृन्त में उत्पन्न होता एक प्रकार का पण्हुइर वि [प्रस्नोत] झरनेवाला, २ शास्त्रज्ञ (प्राचा)। श्रीन्द्रिय जन्तु (पएण १--पत्र ४५) । 'हत्यप्फसेण जरग्गवीवि पराहमइ दोहप्रगुणेण। पण्णाराह (अप) त्रि.ब. [पञ्चदशन] पनरह "विच्छुय [वृश्चिक जीव-विशेष,एक तरह अवलोअरणपएहुइरि पुत्तम पुराणेहिं पाविहिसि (पिंग)। का वृश्चिक, चतुरिन्द्रिय जीवों की एक जाति (गा ४६२)। पण्णावीसा स्त्री [पञ्चविंशति] पचीस, बीस (जीव १)। वेंट देखो विंट (पि ५३) । पण्होत्तर न [प्रश्नोत्तर] सवाल-जवाब (सुर और पाँच, २५ (षड्)। °सगडिआ स्त्री [शकटिका] पतों से भरी १६, ४१; कप्पू)। पण्णास स्त्रीन [दे. पञ्चाशत् ] पचास, ५० हुई गाड़ी (भग)। समिद्ध वि [समृद्ध] पतणु देखो पयणु (राज)। (दे ६, २७; षड्: पि २७३, ४४५; कुमा)। प्रभूत पत्तेवाला (पान)। हार [हार] पतार सक [प्र+ तारय् ] ठगना। संकृ. देखो पन्नास। त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष (परण १-पत्र ४५; पतारिअ (अभि १७१)। पण्णासग वि [पश्चाशक] पचास वर्ष की उत्त ३६, १३८)। हार पुं हार] पत्ती पतारग वि [प्रतारक] वञ्चक, ठग (धर्मसं उम्र का (तंदु १७)। पर निर्वाह करनेवाला वानप्रस्थ (प्रौप)। १४७)। पण्णुवीस देखो पणुवीस (स १४६)। पतिण्ण वि[ प्रतीर्ण ] पार पहुंचा हुआ, पत्त न [पात्र] १ भाजन (कुमा; प्रासू ३६)। पण्ड पुंस्त्री [प्रश्न] प्रश्न, पृच्छा (हे १, ३५, पतिन्न निस्तीणं (राजा पएह २, १ २ प्राधार, प्राश्रय, स्थान (कुमा)। ३ दान कुमा)। स्त्री. हा (हे १, ३५) । (हे १ः पत्र ६६)। देने योग्य गुणी लोक (उप ६४८ टी महा)। ३५)। वाहण न ["वाहन] जैन मुनि-गण पतुण्ण | न [प्रतुन्न] वल्कल का बना हुआ ४ लगातार बत्तीस उपवास (संबोध ५८)। का एक कुल (ती ३८)। वागरण न | पतुन्न । वस्त्र (पाचा २, ५, १, ७)। बंध [बन्ध] पात्रों को बाँधने का [व्याकरण] ग्यारहवाँ जैन अंग-ग्रन्थ (पएह पतेरस , वि[प्रत्रयोदश प्रकृष्ट तेरहवाँ । कपड़ा (ओघ ६६८)। देखो पाय = पात्र । २, ५; ठा १०; विपा १, १; सम १)। पतेलसवास न [ वर्ष१ प्रकृष्ट तेरहवाँ पत्त वि [प्रात्त प्रसारित (कप्प)। देखो पसिण। वर्ष । २ प्रकृत तेरहवाँ वर्ष । ३ प्रस्थित पत्तइअ वि [प्रत्ययित] विश्वस्त (भग)। पण्हअ अक [प्र + स्नु] झरना, टपकना; तेरहवाँ वर्ष (प्राचा) । पत्तइअ वि [पत्रकित १ अल्प पत्रवाला। 'एक्को पहाइ थणों (गा ४०६ ४६२ अ)। पत्त वि [प्राप्त] मिला हुआ, पाया हुआ | २कुत्सित पत्रवाला (गाया १, ७-पत्र पण्ही पुं[दे. प्रस्नव] १ स्तन-धारा, (कप्प; सुर ४, ७०, सुपा ३५७; जी ४४० ११६)। पण्हव , स्तन से दूध का झरना (दे ६, ३, दं ४६; प्रासू ३१, १६२; १८२; गा पत्तउर पु[दे] वनस्पति-विशेष, एक प्रकार पि २३१, राज; अंत ७ षड् । २ झरन, २४१)। "काल, "याल न [ काल] १ | का गाछ (पएण १-पत्र ३१)। टपकना; 'दिट्ठिपराहव' (पिंड ४८७)। चैत्य-विशेष (राज)। २ वि. अवसरोचित | पत्तच्छेज्ज न [पत्रच्छेद्य] बाण से पत्ती पण्हव पुं[पह्नव १ अनार्य देश-विशेष । २ (स ४६०)। बेधने की कला (जं २ टी पत्र १३७)। २ वि. उस देश का निवासी (पएह १, १- | पत्त न [पत्र] १ पत्ती, पत्ता, दल, पर्ण (कप्प; नक्काशी का काम, खोदने का काम (पाचा पत्र १४)। सुर १,७२ जी १० प्रासू ६२)। २ पक्ष २, १२, १)। पण्हवण न [प्रस्नवन] क्षरण, झरना (विपा पंख, पाँख (णाया १, १--पत्र २४)। ३ पत्तट्ट वि [दे प्राप्तार्थ] १ बहु-शिक्षित, १, २)। जिसपर लिखा जाता है वह, कागज, पन्ना | विद्वान्, पति कुशल (दे ६, ६८ सुर १, For Personal & Private Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ पाइअसहमहण्णवो पत्तटू-पत्तेग ८१; सुपा १२६, भग १४, १; पाम)। २ | पत्ताण सक [दे] पताना, मिटाना; 'पुच्छउ पत्तिग देखो पत्तिअ = प्रीतिक (पंचा ७, समर्थ (जीवस २८५)। अन्नु कोवि जो जाएइ सो तुम्हह विवाउ पत्तट्ट वि [दे] सुन्दर, मनोहर (दे ६,६८)। पत्ताई' (भवि), पत्ताणहि (भवि)। पत्तिज देखो पत्तिअ = प्रति + इ । पत्तिज्जसि, पत्तण देखो पट्टण (राज)। पत्तामोड पुन [आमोटपत्र] तोड़ा हुआ पत्र, | पत्तिजामि (पि ४८७)। पत्तण न दे. पत्त्रण] १ इषु-फलक, बाण 'दब्भे य कुसे य पत्तामोडं च गेएहई' (अंत | पत्तिज्जाव देखो पत्तिआव। पत्तिजावइ का फलक । २ पुंख, बाण का मूल भाग (दे ११)। (सुपा ३०२) । पत्तिजावेमि (धर्मवि १३४)। ६, ६४ गा १०००)। पत्ति स्त्री [प्राप्ति] लाभ (दे १, ४२; उप | पत्तिसमिद्ध वि [दे] तीक्ष्ण (दे ६, १४) । पत्तणा स्त्री [दे. पत्त्रणा] १-२ ऊपर | २२६; चेइय ८६४)। पत्ती स्त्री [दे] पत्तों की बनी हुई एक तरह देखो (गउड से १५, ७३)। ३ पुंख में की पत्ति पुंपत्ति १ सेना-विशेष, जिसमें एक की पगड़ी जिसे भील लोग सिर पर पहनते जाती रचना-विशेष (से ७, ५२)। रथ, एक हाथी, तीन घोड़े और पाँच पैदल पत्तणा स्री [प्रापणा] प्राप्ति (पंचू ४)। हों। २ पैदल चलनेवाली सेना ( उप पत्ती स्त्री [पत्नी] स्त्री, भार्या (उप पृ १६३; पत्तपसाइआ श्री [दे] पत्तियों की एक ७२८ टी)। आप ६६ महा: पान)। को पगड़ी, जिसे भील लोग पहनते हैं (दे पत्ति । सक [प्रति + इ] १ जानना। २ | पत्ती स्त्री [पात्री] भाजन, पात्र (उप ९२२, पत्तिअविश्वास करना । ३ आश्रय करना । महा धर्मवि १२६)। पत्तिप्राइ, पत्तियंति, पत्तिप्रसि, पत्तिमामि पत्तपिसालस न [दे] ऊपर देखो (दे ६, २)। | पत्तुं देखो पाच = प्र + प्राप्। (से १३, ४४, पि ४८७ से ११, ६०; पत्तय न [पत्रक] एक प्रकार का गेय (ठा पत्तुवगद (शौ) वि [प्रत्युपगत] १ सामने भग)। पत्तिएजा, पत्तिम, पत्तिहि, पत्तिसु गया हुमा। २ वापस गया हुमा (नाट.-विक्र (राय; गा २१६; ६६E पि ४८७)। वकृ. २३)। पत्तय देखो पत्त (महा)। पत्तिअंत, पत्तियमाण (गा २१६, ६७८० पत्तेअन [प्रत्येक] १ हरएक, एक एक पत्तरक न [द. प्रतरक] प्राभूषण-विशेष आचा २, २, २, १०)। संकृ. पडियच्च, | पत्तेग (हे २,१०० कुमाः निचू १; पि (पएह २, ५-पत्र १४६)। पत्तियाइत्ता (सून १, ६, २७, उत्त ३४६) । २ एक की तरफ, एक के सामने पत्तल वि [दे] १ तीक्ष्ण, तेज (दे ६, १४), २६ १)। 'पत्तेयं पत्तेयं वरणसंडपरिक्खित्तानों (जीव ३)। 'नयणाई समारिणयपत्तलाई पत्तिअ वि [पत्रित] संजात-पत्र, जिसमें पत्र ३ न. कर्म-विशेष, जिसके उदय से एक जीव परपुरिसजीवहरणाई। उत्पन्न हुए हो वह (णाया १, ७, ११ का एक अलग शरीर होता है; 'पत्तेयतणू असियसियाई व मुद्धे खग्गा पत्र १७१)। 'पत्तेउदएणं (कम्म १,५०)। ४ पृथक् पृथक् , ____ इव के न मारंति ? पत्तिअ वि [प्रतीति, प्रत्ययित प्रतीति अलग अलग (कम्म १, ५०)। ५ पुं. वह (वज्जा ६०)। २ पतला, कृश (दे ६, १४, वाला, विश्वस्त (ठा ६-पत्र ३५५; कप्प; जीव जिसका शरीर अलग हो, एक स्वतन्त्र वज्जा ४६)। शरीरवाला जीव 'साहारणपत्तेंग्रा वरणस्सइकस)। पत्तल वि [पत्रल] १ पत्र-समृद्ध, बहुत पत्ती- पत्तिअ न [प्रीतिक] प्रीति, स्नेह (ग ४, जीवा दुहा सुए भरिणया' (जी ८)। णाम वाला (पान; से १, ६२ गा ५३२, ६३५ | न [ नामन्] देखो ऊपर का तीसरा अर्थ ३ ठा ६-पत्र ३५५)। दे ६, १४)। २ पक्ष्मवाला (प्रौपा जं २)। (राज)। 'निगोयय पुं["निगोदक] जीवपत्ति पुंन [प्रत्यय प्रत्यय, विश्वास (ठा विशेष (कम्म ४, ८२)। बुद्ध पुं[बुद्ध] पत्तल न [पत्र] पत्ती, पणं (हे २, १७३; | ४, ३-पत्र २३५; धर्म २)। अनित्यतादि भावना के कारणभूत किसी एक प्रामाः सण हे ४, ३०७)। पत्तिअ न [पत्रिक] मरकत-पत्र (कप्प)। वस्तु से परमार्थ का ज्ञान जिसको उत्पन्न पत्तलणन [पत्रलन] पत्र-समृद्ध होना, पत्र पत्तिआ स्त्री [पत्रिका] पत्र, पणं, पत्ती | हुआ हो ऐसा जैन मुनि (महा; नव ४३)। बहुल होनाः 'वाउलिभापरिसोसणकुडंगपत्त(कुमा)। बुद्धसिद्ध पुं [बुद्धसिद्ध] प्रत्येकबुद्ध लणसुलहसंकेन' (गा ६२६)। पत्तिआअ देखो पत्तिअ = प्रति+इ। होकर मुक्ति को प्राप्त जीव (धर्म २) । पत्तली स्त्री [दे] कर-विशेष, एक प्रकार का पत्तिमामइ (प्राकृ ७५ ), पतिप्राअंति (पि 'रस वि [ रस] विभिन्न रसवाला (ठग ४, राज-देया 'गिएहह तहसपत्तलि झत्ति' (सुपा ४८७)। ४)। सरीर वि [शरीर] १ विभिन्न पत्तिआव सक [प्रति + आयय ] विश्वास शरीरवालाः 'पत्तेयसरीराणं तह होंति सरीरपत्तहारय वि [पत्रहारक] पत्तों को बेचने | कराना, प्रतीति कराना। पत्तिावेइ (भास ! संघाया' (पंच ३)। २ न. कर्म-विशेष, जिसके का काम करनेवाला (अणु १४६) २३) । उदय से एक जीव का एक विभिन्न शरीर For Personal & Private Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तेय - पत्थेयव्व होता है (पएह १ १) सरीरनाम न [ "शरीरनामन] वही पूर्वोक्त प्रयं (सम ६७) । पत्तेय वि [ प्रत्येक] बाह्य कारण (दि १३०, १३१ टी ) । पत्थसक [ + अर्थय् ] १ प्रार्थना करना । २ अभिलाषा करना । ३ अटकाना, रोकना । पत्ये, पत्थति (उवः श्रप) । कर्म, पत्थिसि (महा) । वकृ. पत्थंत, पत्थित, पत्थेअमाण (नाट - मालवि २५; सुपा २१३; प्रासू १२० ); 'कामे पत्थैमाणा श्रकामा जंति दुग्गई' (उप ३५७ टी) । कवकृ. परिथज्जंत, परिमाण ( ४०० र १, २० से ३, ३३ कप्प ) । कृ. पत्थ, पत्थणिज, पत्येवच्च (सुपा १७० र १, ११९: गुदा १४८ पह२, ४) । पत्थ पुं [पार्थ] १ अर्जुन, मध्यम पाण्डव ( स ६१२; वेरणी १२६; कुमा) । २ पाञ्चाल देश के एक राजा का नाम (उम ३७, ८ ) । ३ भद्दिलपुर नगर का एक राजा (सुपा ६२१) । पत्थ[प्रार्थ] प्रार्थन प्रार्थना (राय)। २ दो दिनों का उपवास (संबोध ५८ ) । पत्थ देखो पच्छ = पथ्य (गा ८१४; पउम १७६४: राज पत्थ देखो पत्थ पत्थपुं [प्रस्थ] १ कुडव का एक परिमाण (गृह जीव २९) २ खेतिका ३: ८८ तंदु । एक कुडव का परिमाण ( उप पृ ६ ) ; 'पत्थगा उ जे पुरा आसी हीरामाणा उ तेधुणा' (१)। = प्र + प्रय् । पत्यंत देखो पत्थ = प्र + अर्थंय् । पत्त देखो पत्था | पत्थग देखो पत्थय (राज) । पत्थड [प्रस्तर] रचना-विशेषवाला समूह (ठा ३, ४ – पत्र १७६) । २ भवनों के बीच का अन्तराल भाग ( पराग २, सम २५) । पत्थड [व] [प्रस्तुत ] हुमा २ फैला हुआ (भाग ६८ ) | पत्थण न [प्रार्थन] प्रार्थना (महाः भवि ) । पाइअसद्दमहण्णवो पत्थणया स्त्री [प्रार्थना] १ श्रभिलाषा, पत्थणा वाञ्छा (श्राव ४) । २ याचना माँग । ३ विज्ञप्ति निवेदन (भग १२, ५३ } ५३५ पत्थारी स्त्री [दे] १ निकर समूह (दे ६, ६९ ) । २ शय्या, बिछौना, गुजराती में 'पथारी' (दे ६, ६९ पान सुपा ३२० ) । पत्थाव सक [ प्र + स्तावय् ] प्रारंभ करना । वकृ. पत्थावअं ( हास्य १२२ ) पत्थाव [ प्रस्ताव ] १ अवसर । २ प्रसंग, प्रकरण (हे १, ६८, कुमा) । १२ सुपा २६६ प्रा २१) | पत्थय देखो पत्थ = पथ्य ( गाया १, १ ) । पत्थय वि [ प्रार्थक ] अभिलाषा करनेवाला (१२२, १६२५३) । पत्थय देखो पत्थ = प्रस्थ (उप १७६ टी पत्थिअ वि [ प्रस्थित] १ जिसने प्रयाण चीप) । किया हो वह से २१६ र ४१६० ) । २ न. प्रस्थान, गति, चाल ( श्रजि ९ ) । [[]] जिसके पास प्रार्थना की गई हो वह । २ जिस चीज की प्रार्थना की गई हो वह (भगः सुर ६, १८, १६, ६; उव) । पत्थिन [वि] [दे] शोध, जल्दी करनेवाला (दे ६, १० ) । पण [पवदन] शम्बत, पाथेय मार्ग में खाने का सुलेखा, १५ स १३० उर ८, ७ सुपा ६२४ ) । पत्थर सक [ प्र + स्तृ] १ बिछाना । २ फैलाना। संकु, पटयारेसा (सा६) । पत्थर [ प्रस्तर] पत्थर, पाषाण (श्रीप उव पउम १७, ३६ सिरि ३३२ ) ; 'पत्यायो कीमो पत्थरं कुमिच्छ मिगारियो सरं पप्प सरुपति विमग्गई' (सुर ६, २०७) । पत्थर न [दे] पाद-ताडन, लात ( षड् ) । पत्थर देखो पत्थार ( प्राप्र संक्षि २ ) । पत्थरण न [प्रस्तरण] विना 'सट्टापत्थर बिछौना, यं वा एवं (धर्मवि १४७) । पत्थरभ[ि] कोलाहल करना (दे ६, ३६)। पत्थरात्री [दे] चरण- घात, लात (दे ६, ८ ) । पत्थरिअ पुं [दे] पल्लव, कोपल (दे ६, २- ) । पत्थरअ नि [प्रस्तुत ] विद्याया हुमा, 'पत्थरि अत्थु' (पान) । पत्थव देखो पत्थाव (हे १, ६८ कुमाः पउम ५, २१६) । पत्था क [ प्र + स्था ] प्रस्थान करना, प्रवास करना । वकृ. पत्थंत ( से ३, ५७ ) । पत्थान [प्रस्थान ] प्रदाख गमन (भि ८१ श्रजि ) । पत्वार [प्रस्तार] विस्तार (उपर १९) २ सुरवन । ३ पल्लवादि-निर्मित शय्या । ४ पिंगल प्रसिद्ध प्रक्रिया - विशेष ( प्राप्र ) । ५ प्रायश्चित्त की रचना-विशेष (ठा ६ – पत्र २७१ ६ विनाश (५०१ ५११) । For Personal & Private Use Only पत्थिवि [प्राथि] प्रार्थी, प्रार्थना करनेवाला ( उव) । } पत्थिवि [प्रास्थित ] विशेष श्रास्थावाला, प्रकृष्ट श्रद्धावाला (उद) । पत्थि स्त्री [हे] बाँस का बना हुआ पत्थिआ भाजन-विशेष घोष ४०६) । "पिडग, "पिडयन ["पिटक] यसका बना हुआ भाजन विशेष (विपा १, ३) । पश्चिद देखो पत्बिअ प्रस्थित प्रार्थित (२५) । पत्थिव पुं [पार्थिव ] १ राजा, नरेश (गाया १, १६३ पाच ) । २ वि पृथिवी का विकार (राजा) परवी श्री [दे. पात्री] पात्र, भाजनः च करबोरपत्थि व माउग्रा मह पई विलुंपति (गा २४० अ ) । पत्थो न [दे] १ स्थूल व मोटा कपड़ा । २. स्कूल मोटा (६, ११) । पत्य व [प्रस्तुत] प्रकरणात, प्राकरणिक (सुर ३, १९६६ महा) । २ प्राप्त, लब्ध ( सू २, ४, १,१७ ) । पत्थुर देखी पत्थर रेता (स) । स्तूप पत्थेअमाण पत्थेंत पत्येमाण पत्थेयव्व = = देखो पत्थ = प्र + प्रथंय् । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो पत्थोउ-पधोव पत्थोउ वि [प्रस्तोत्] १ प्रस्ताव करनेवाला। पदाहिण वि [प्रदक्षिण] प्रकृष्ट दक्षिण, ! पद्द न [पद्य] श्लोक, वृत्त, काव्य (प्राक २ प्रवर्तक । स्त्री. थोई (पएह १, ३- प्रकर्ष से दक्षिण दिशा में स्थित (जीव ३)। २१)। पत्र ४२)। देखो पदक्खिण। पहेस देखो पदेस = प्रद्वेष (सूत्र १, १६, ३)। पथम (पै) देखो पढम (पि १९०)। पदिकिदि (शौ) देखो पडिकिदि (मा १०; पद्धइ स्त्री [पद्धति १ मार्ग, रास्ता (सुपा नाट—विक २१)। पद देखो पय = पद (भग; स्वप्न १५; हे ४, | १८६) । २ पंक्ति, श्रेणी (ठा २, ४) । ३ पदित्त देखो पलित्त (राज)। २७०; परह २, १; नाट-शकु ८१)। परिपाटी, क्रम (प्रावम)। ४ प्रक्रिया, प्रकरण पदअ सक [गम् ] जाना, गमन करना । पदिस स्त्री [प्रदिश] विदिशा, ईशान आदि | (वजा २)। । कोण; 'तसंति पाणा पदिसो दिसासु य' पद्धंस पुं[प्रध्वंस] ध्वंस, नाश । भाव पुं पदाइ (हे ४, १६२) । पदअंति (कुमा)। (प्राचा)। [भाव] अभाव-विशेष, वस्तु के नाश होने पदंसिअ वि [प्रदर्शित] दिखलाया हुआ, पदिस्सा देखो पदेक्ख। पर उसका जो प्रभाव होता है वह (विसे बतलाया हुअा (श्रा ३०)। पदीव सक [प्र+दीपय] १ जलाना । २ १८३७)। पदक्खिण वि[प्रदक्षिण] १ जिसने दक्षिण प्रकाश करना । पदोवेसि (पि २४४) । वक पद्धर वि [दे] ऋजु, सरल, सीधा (दे ६, की तरफ से लेकर मण्डलाकार भ्रमण किया | पदीत (पउम १०२, १०)। १०)। २ शीघ्रः गुजराती में 'पाधलं'; 'पद्धरहो वह । २ न. दक्षिणावर्त भ्रमण; 'पदक्खि पदीव देखो पईव = प्रदीप (नाट-मृच्छ पएहि सुइडे पचारेइ' (सिरि ४३५) । णीकरअंतो भट्टार' (प्रयौ ३५)। देखो | ___३०)। पद्धल वि [दे] दोनों पावों में अप्रवृत्त पदाहिण । पदीविआ स्त्री [प्रदीपिका] छोटा दिया | (षड् )। पदक्खिण सक [प्रदक्षिणय ] प्रदक्षिणा (नाट–मृच्छ ५१)। पद्धार वि[दे] जिसका पूंछ कट गया हो वह, करना, दक्षिण से लेकर मण्डलाकार भ्रमण पदुग्ग पुन [प्रदुर्ग] कोट, किला (प्राचा, पूंछ-कटा (दे ६, १३)। करना । हेकृ. पदक्खिणेउं (पउम ४८, २, १०, २)। पधाइय देखो पधाविय (भवि)। पदक्खिणा स्त्री [प्रदक्षिणा] दक्षिण की | पदुढ वि [प्रद्विष्ट, प्रदुष्ट] विशेष द्वेष को पधाण देखो पहाण (नाट---मृच्छ २०५) । पोर से मण्डलाकार भ्रमण (नाट-चैत । प्राप्त (उत्त ३२ बृह ३)। पधार देखो पहार प्र+धारय । भूका. ३८)। पदुब्भेइय न [पदोद्भेदक] पद-विभाग और पधारेत्थ (प्रौपः रणाया १, २-पत्र ८८)। पदण न [पदन] प्रत्यायन. प्रतीति कराना | शब्दार्थ मात्र का पारायण (राज)। | पधाव सक [प्र+धा ] दौड़ना, अधिक (उप ८८३)। पदूमिय वि [प्रदावित, प्रदून] अत्यन्त वेग से जाना । संकृ. पधाविअ (नाट)। पदण (शौ) न [पतन] गिरना (नाट पीड़ित (बृह ३)। पधावण न [प्रधावन] १ दौड़, वेग से मालती ३७)। पदूस सक [प्र + द्विष] द्वेष करना। गमन । २ कार्य को शीघ्र सिद्धि (श्रा १)। पदम (शौ) देखो पउम (नाट-मृच्छ १३६)। पसंति (पंचा २, ३५)। ३ प्रक्षालन (धर्मसं १०७८) । पदय देखो पयय = पदग, पदक, पतग, पतंग . पदूसणया स्त्री [प्रद्वेपणा, प्रदूषणा] द्वेष, पधाविअ बि [प्रधावित] १ दौड़ा हुआ (इक)। मात्सर्य (उप ४८६)। (महा पगह १, ४) । २ गति-रहित (राज)। पदरिसिय देखो पदंसिअ (भवि)। पदेक्स सक [प्र+दृश] प्रकर्ष से देखना। पधाविर वि [प्रधावित] दौड़नेवाला (श्रा पदहण न [प्रदहन] संताप, गरमी (कुमा)। पदेक्खइ (वि) । संकृ. 'पदिस्सा य दिस्सा २८)। वयमाणा' (भग १८,८; पि ३३४)। पदाइ वि [प्रदायिन् देनेवाला (नाट- पधूवण न [प्रधूपन] १ धूप देना। २ एक पदेस देखो पएस-प्रदेश (भग)। विक्र८)। प्रकार का आलेपन द्रव्य (कस)। पदेस [प्रद्वेष द्वेष (धर्मसं ६७)। पदाण न [प्रदान] दान, वितरण (प्रौप; पधूविय वि [प्रधूपित] जिसको धूप दिया पदेसिअ वि [प्रदेशित] प्ररूपित, प्रतिपादित अभि ४५)। (आचा)। गया हो वह (राज)। पदादि (शौ) [पदाति] पैदल चलनेवाला पदोस देखो पओस = दे. प्रदेष (अंत १३; पधोअ सक [प्र+ धावू] धोना । संकृ. सैनिक (प्रयौ १७; नाट–वेणी ६६)। निचू १)। पधोइत्ता (माचा २, १, ६, ३)। पदायग वि [प्रदायक] देनेवाला (विसे पदोस देखो पओस प्रदोष (राज)। पधोअ वि [प्रधौत] धोया हुआ (प्रौप)। ३२००)। पद्द न [दे] १ ग्राम-स्थान (दे ६, १) । २ पधोव सक [प्र + धाव् ] धोना। पधोति पदाव देखो पयाव (गा ३२६)। । छोटा गाँव (पान)। (पि ४८२)। For Personal & Private Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पप्पोइ देखो पप्प । पन-पप्फुल्ल पाइअसद्दमहण्णवो पन देखो पंच । र, रस त्रि. ब. [°दशन्] | पन्नव देखो पण्णव । पन्नवेइ (उव)। कर्म. पप्पड । पुंस्त्री [पर्पट] १ पापड़, मूंग या पनरह, दस और पाँच, १५ (कम्म १, ४, पन्नविजइ (उव) । वकृ. पन्नवयंत (सम्म पप्पडग। उदं की बहुत पतली एक प्रकार ५२, ६८: जी २५)। १३४) । संकृ. पन्नवेऊणं (पि ५८५)। को रोटी (पव ३७; भवि)। २ पापड़ के पनय (पै. चूपै) देखो पण य = प्रणय (हे ४, पन्नवग वि[प्रज्ञापक] प्रतिपादक, प्ररूपक प्राकारवाला शुष्क मृत्खण्ड (निबू १)। ३२६)। (कम्म ५, ८५ टी)। पायय पुं[पाचक] नरकावास-विशेष पन्न देखो पण्ण = पर्ण (सुपा ३३६, कुप्र पन्नवण देखो पण्णवण (सुपा २६६)। (देवेन्द्र ३.)। मोदय पुं [मादक] एक ४०८)। पन्नवणा देखो पण्णवणा (भगः पराग १ प्रकार की मिट वस्तु (परण १७–पत्र पन्न देखो पण्ण = दे (भगः कम्म ४, ५४)। । ठा ३, ४)। ५३३): पन्न देखो पण्ण = प्रज्ञ (प्राचाः कुप्र ४०८)। पन्नवय देखो पण्णवग (सम्म १६)। पप्पडिया स्त्रीपर्पटिका] तिल आदि की पन्नाक्यंत देखो पन्नव । बनी हुई एक प्रकार की खाद्य वस्तु (परण पन्न वि[प्राज्ञ १ पंडित, जानकार, विद्वान् पन्ना देखो पण्णा % प्रज्ञा (प्राचा; ठा ४, १ १: पिड ५५.)। (ठा ७ उप १५१, धर्मसं ४५२)। २ वि. पप्पल देखो पप्पड (नाट-विक २१)। प्रज्ञ-संबन्धी (सूम २, १,५६)। पन्ना देखो पण्णा = दे (पब ५०)। पप्पी पुं [दे ] चातक पक्षी, पपीहा या पन्न देखो पंच। र, रस त्रि. ब. [°दशन] पन्नाड सक [मुद्] मर्दन करना। पन्नाडइ पपोहरा (दे ६, १२)। पनरह, १५ (दं २२: सम २६; भग; सण)। पप्पुअवि [प्रप्लुत] १ जलाद्र', पानी से 'रस, रसम वि [दश] पनरहवाँ, १५ पन्नाडिअ बि [मृदित] जिनका मर्दन किया भीजा हुआ (पएह १, १; गाया १, ८)। वाँ (सुर १५, २५०; पउम १५, १००)। गया हो वह (पानः कुमा)। २ च्याप्त; 'घयपप्पुयर्वजणाई च' (पव ४ 'रसी स्त्री [दशी] १ पनरहवीं । २ | पन्नाण देखो पण्णाण (प्राचाः पि ६०१)। टी)। ३ न. कूदना, लाँघना (गउड १२८)। पनरहवीं तिथि (कप्प)। पन्नारस (अप) त्रि.ब. [फचदशन्] पनरह, पन्न देखो पणिअ = पण्य (उप १०३१ टी)। १५ (भवि)। पप्पोति पन्नंगणा स्त्री [पण्याङ्गना] वेश्या, वाराङ्गना पन्नास देखो पण्णास (सम ७०; कुमा)। पप्फंदग न [प्रस्पन्दन] प्रचलन, फरकना (उप १०३१ टी)। स्त्री. °सा (कप्प) । इम वि [तम] (राज)। पप्पाड पुं [दे] अग्नि-विशेष (दे ६, ६)। पन्नग देखो पण्णग = पन्नग (विपा १, ७ पचासवाँ, ५० वाँ; (पउम ५०, २३)। सुर २, २३८)। पन्ह देखो पण्ह (कप्प)। पप्फिडिअ वि [दे] प्रतिफलित (दे ६, पन्नट्टि देखो पण्णहि (कप्प)। पन्हु (अप) देखो पण्हअ-दे.प्रस्नव (भवि)। २२)। पन्नत्त देखो पण्णत्त (गाया १,१७ भगः | पपंच देखो पदंच (सुपा २३५)। पप्फुअ वि [दे] १ दीर्घ, लम्बा। २ उड्डीयसम १)। पपलीण विप्रपलायित] भागा हुमा (पि मान, उड़ता (दे ६, ६४)। पन्नत्तरि स्त्री [पञ्चसप्तति] पचहत्तर, ७५ ३४६, ३६७; नाट–मृच्छ ५८)। पप्फुट्ट अक [प्र + स्फुट ] १ खिलना। (सम ८५; ति ३)। २ फूटना । पप्फुट्टइ (प्राकृ ७४) । पपिआमह पुं [प्रपितामह] १ ब्रह्मा, पप्फुडिअ पुं [प्रस्फुटित] नरकावास-विशेष पन्नत्ति देखो पण्णत्ति (सुपा १५३; संति ५ विधाता (राज) । २ पितामह का पिता, (देवेन्द्र २६)। महा)। ५ प्रकृष्ट ज्ञान । जिससे प्ररूपण किया परदादा (धर्मसं १४६)। पप्फुय देखो पप्पु 'बाहपप्फुयच्छो' (सुख जाय वह (तंदु ५४)। ७ पाँचवाँ अंग-ग्रन्थ, पपुत्त पुं[प्रपुत्र] पौत्र, पुत्र का पुत्र, पोता २, २६)। भगवतीसूत्र (श्रावक ३३३)। (सुपा ४०७)। पप्फुर अक [प्र+ स्फुर ] १ फरकना, पन्नत्तु वि [प्रज्ञापयितु] आख्याता, प्रतिपादक पपुत्त । [प्रपौत्र] पौत्र का पुत्र; पोते हिलना । २ काँपना। पप्फुरइ (से १५, ७७; (पि ३६०)। पपोत्त' का पुत्र, परपोता (विसे ८६२: राज)। गा ६४७)। पन्नपत्तिया स्त्री [प्रज्ञप्रत्यया] देखो पुन्नप- पप्प सक [प्र + आप्] प्राप्त करना । पप्पोइ, पप्फुरिअ वि [प्रस्फुरित] फरका हुआ (दे त्तिया (कप्प)। पप्पोति (पि ५०४ उत्त १४, १४)। ६,१६)। पन्नपन्नइम देखो पणपन्नइम (पि ४४६) । पप्पोदि (शौ) (पि ५०४)। संकृ. पप्प पप्फुल्ल प्रक[प्र+ फुल्लू ] विकसना। वकृ. पन्नय देखो पण्णग (पास) । रिउ पुं["रिपु] (पएण १७ अोष ५५, विसे ५५१)। कृ. पप्फुल्लंत (रंभा)। गरुड़ पक्षी (पान)। पप्प (विसे २६८७)। पप्फुल्ल वि [प्रफुल्ल] विकसित, खिला हुआ पन्नया स्त्री [पन्नगा] भगवान् धर्मनाथजी की | पप्पग न [दे. पर्पक] वनस्पति-विशेष (सूप (गाया १, १३, उप पू ११४, पउम ३, शासन-देवी (संति १०)। । २, २, ६)। ६६; सुर २,७६ षड् गा ६३६; ९७०); For Personal & Private Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमणो पबल वि [ प्रबल ] बलिष्ठ, प्रचण्ड, प्रखर (कुमा) । पप्फुलिपि [प्रहित] ऊपर देखो (सम्मत पवाहा श्री [प्रवाधा]] प्रकृट बाधा, विशेष १८६६ भवि ) । पीड़ा (खाया १, ४) । पफुल्लि स्त्री [ प्रफुल्लिका ] देखो उष्फु- पबुद्ध वि [ प्रबुद्ध ] १ प्रवीण, निपुण ( हिआ (मा १९६) | १२, ३४) । २ जागा हुआ (सुर ५,२२६) ३ जिसने अच्छी तरह जानकारी प्राप्त की हो वह (श्राचा) । ५३८ 'इन भरिएण श्रंगी पप्फुल्लविलोभणा जाना ( का १६१ ) । पप्फुसिय न [ प्रस्पृष्ट] उत्तम स्पर्शं (राय १८) । परफोड केली परकुट्ट पकोड फन्फोडए (१४३) । पप्फोड सक [ प्र + स्फोटय् ] १ झाड़ना, झाड़कर गिराना । २ श्रास्फालन करना। ३ प्रक्षेपण करना । पप्फोडइ (गा ४३३ ) । पप्फोडे (उत्त वकृ. (२६, २४) पकोर्ट, परकोटयंत, परको डेमाण (गा १४४, पि ४६१६ ठा ६) । संकृ. 'परफोडेऊण सेसयं कम् (६७)। परफोडण न [ प्रष्फोटन] १ हा प्रष्ट घूनन (ओघ भा १६३) । २ आस्फोटन, श्रास्फालन ( परह २, ५ पत्र १४८: पिंड २६३)) परफोडगा स्त्री [ प्रस्फोटना ] ऊपर देखो (प्रोघ २६६ उत्त २६, २६ ) । पकोड [दे. प्रस्फोटित] निकटत भाड़ कर गिराया हुआ (दे ६, २७, पात्र); 'पोडियमोहार' (पति) २ फोड़ा हुआ, तोड़ा हुआ; 'पप्फोडिग्रसउभिंडगं व सारा संबोध १७) । परफोडेमाण देखो परफोड = प्र + स्फोटय् । पफुल्ल देखो पप्फुल्ल (षड् ) । पहिअ देखो पर ४२२६ लिंग) | पबंध सक [ प्र + बन्धू ] प्रबन्धरूप से कहना, विस्तार से कहना। पबंधिजा ( दस ५, २, ८) । पबंध [ प्रबन्ध] १ सन्दर्भ, ग्रन्थ, परस्पर अन्वित वाक्य-समूह ( रंभा ८ ) । २ श्रविच्छेद, निरन्तरता ( उत्त ११, ७) । पबंधण न [ प्रबन्धन ] प्रबन्ध, सन्दर्भ, अन्वित वाक्य-समूह की रचना 'कहाए य पबंधणें' (सम २१ ) । पबोध सक [प्र+बोधव्] १ जागृत करना। २] कराना कर्म योचीग्राम (पि ज्ञान ५४३) । । । पबोधण न [प्रबोधन ] प्रकृष्ट बोधन (राज) । पोह देखी पबोध ह. पयोदणाय (परम पोह[प्रबोध] १ बागरख २ ज्ञान, ७०,२८) । समझ ( चारु ५४; पि १६० ) । पोहण देखो पबोधण (राज) । पबोहयवि [ प्रबोधक ] प्रबोध-कर्ता (विसे १७३) । पबोहिअ वि [ प्रबोधित] १ जगाया हुआ । २ जिसको ज्ञान न कराया गया हो वह (सुपा ३१३) । पब्बल देखो पबल (से ४, २५०६, ३३) । पब्बाल देखो पव्वाल = छादय् । पब्बालइ (हे ४, २१) । पब्बाल देखो पव्वाल = प्लावय् । पब्बालइ (हे ४, ४१) । बुद्धदेखी शुद्ध (१९६) । भवि [व] नम्र (प्रौपः प्राकृ २४ ) । पन्भट्ठ वि [प्रष्ट ] १ परिभ्रष्ट पन्भसिअ S प्रस्खलित चूका हुमा (पह १, ३; अभि ११६ गा ३१८ सुर ३, १२३; गा ३३; १५) । २ विस्मृत ( से १४, ४२) ३. नरकास विशेष (देवेन्द्र २८) । पकभार पुं [दे. प्राग्भार ] १ संघात, समूह जत्था (दे ६, ६६; से ४, २०; सुर १, २२३: कप्पू गउड कुलक २१) । पव्भारपुं [दे] गिरि-गुफा, पर्वत-कन्दरा (दे ६६ ६६ ); 'पब्भारकंदरगया साहंती अप्पणी अ (पञ्च ८१) । पब्भार पुं [ प्राग्भार ] १ प्रकृष्ट भार, 'कुमरे संकमियरज्जपब्भारो' (धम्म ८ टी) । २ ऊपर For Personal & Private Use Only पप्फुल्लिअ - पभंजण का भाग (से ४, २०)। ३ थोड़ा नमा हुआ पर्वत का भाग (गाया १, १ – पत्र ६३, भग ५,७) । ४ एक देश, एक भाग (से १, ५८ ) । ५ उरकर्म, परभाग (ग) पर्वत के ऊपर का भाग (दि) । ७ वि. थोड़ा नमा हुआ, ईषदवनत ( अंत ११ ठा १० ) । पब्भारा स्त्री [प्राग्भारा ] दशा - विशेष, पुरुष की सत्तर से अस्सी वर्ष तक की अवस्था (ठा १० - पत्र ५१९; तंदु १६ ) । भूअवि [प्रभूत] उत्पन्न 'मंडुक्कीए गये पब्भूश्रो ददुरत्ते' (धर्मंवि ३५) । परमोअ [दे. प्रभोग] भोग, विलास (दे ६, १०) । ] भ[भ] १ हरिकान्त नामक इन्द्र का एक लोकपाल (ठा ४, १ इक) । २ द्वीपविशेष और समुद्र विशेष का अधिपति देव ( राज ) । भवि [प्रभ] सदृश, तुल्य (कप्प उवा) । 'पभइ देखो 'पभिइ; 'चंडारणं चंडरुद्दपभई ' (१४१) । पभंकर [र] [१] विशेषत देव - विशेष (ठा २, ३ ) । २ पुंन. देव-विमान (सम १४० प २६७) । पभंकर वि [प्रभाकर] प्रकाशक, 'सव्वलोयभंकरों (उत २३ ७६) । - पभंकरा स्त्री [प्रभङ्करा ] १ विदेह वर्ष की एक नगरी का नाम (ठा २, ३ ) । २ चन्द्र की एक अग्रमहिषी का नाम (ठा ४, १) । ३ सूर्य की एक श्रग्रमहिषी का नाम ( भग १०, ५) । पभंकरावई स्त्री [प्रभङ्करावती ] विदेह वर्ष की एक नगरी (प्राचू १ ) । पभंगुर वि [ प्रभङ्गुर ] प्रति विनश्वर (धाचा)। पभंजण पु [प्रभञ्जन] १ वायुकुमार- निकाय के उत्तर दिशा का इन्द्र (ठा २, ३, ४, १; सम ६९ ) । २ लवण समुद्र के एक पातालकलश का श्रधिष्ठायक देव (ठा ४, २) । २ ते १४, १२) ४ मानुषोत्तर पर्वत के एक शिखरका देवराज ) | तणअ ' [ तनय ] हनूमान् ( से १४, ६९ ) । Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभसण-पमज्ज पाइअसहमहण्णवो ५३९ पभंसण न [प्रभ्रंशन] स्खलना (धर्मसं ११)। ३ उदायन राजर्षि की पटरानी और | पभासिय वि [प्रभाषित] उक्त, कथित १०७६)। चेड़ा नरेश की पुत्री का नाम (पडि)। ४ (सून १, १, १, १९)। पभकंत पु[अभकान्त] १-२ विद्युत्कुमार बलदेव के पुत्र निषध की भार्या (पाचू १)। पभासेमाण देखो पभास = प्र + भासय् । देवों के हरिकान्त और हरिस्सह नामक दोनों ५ राजा बल की पत्नी (भग ११, ११)। पभिड देखो पभिड (५५)। इन्द्रों के लोकपालों के नाम (ठा ४, १--पत्र पभावग वि [प्रभावक] प्रभाव बढ़ानेवाला, 'पभिइ वि.ब. [प्रभृति इत्यादि, वगैरह १६७ इक)। शोभा की वृद्धि करनेवाला (श्रा ६ द्र २३) । पभण सक [प्र+ भण् ] कहना, बोलना। २ उन्नति-कारक। ३ गौरव जनक (कुप्र पभिई प्रप्रभृति प्रारम्भ कर, (वहां पभणइ (महा सण)। १६८)। पभिई ! से) शुरू कर, लेकर: 'बालभावाप्रो पभणिय वि [प्रभणित ] उक्त, कथित पभावण न [प्रभावन नाचे दखा () पभीइपभिई' (सुर ४, १६७; कप्पा पभावणा स्त्री प्रभावना] १ महात्म्य, पभीई महा; स ७३९; २७५ टि)। पभम सक [प्र + भ्रम्] भ्रमण करना, गौरव । २ प्रसिद्धि, प्रख्याति (णाया १, पभीय वि [प्रभीत] प्रति भीत, अत्यन्त डरा भटकना । पभमेसि (श्रु १५३) । १६-पत्र १२२; श्रा ६; महा)। हुआ (उत ५, ११)। पभव अक [प्र+ भू] १ समर्थ होना, पहुँ पभावय वि [प्रभावक] गौरव बढ़ानेवाला |पभु पुं[प्रभु] १ इक्ष्वाकु वंश के एक राजा चना । २ होना, उत्पन्न होना। पभवइ (पि (संबोध ३१)। ४७५) । वकु. पभवंत (सुपा ८६; नाट का नाम (पउम ५, ७)। २ स्वामी, मालिक पभावाल पुं[प्रभावाल] वृक्ष-विशेष (राज)। (पउम ६३, २६; बृह २)। ३ राजा, नृपः विक्र ४५)। पभव पुं[प्रभव] १ उत्पत्ति, जन्म, प्रसूति, पभावित देखो पभाव = प्र + भावय । 'पभू राया अणुप्पभू जुवराया' (निचू २)। ४ वि. समर्थ, शक्तिमान् (श्रा २७, भग १५, प्रसव (ठा 8; वसु)। २ प्रथम उत्पत्ति का | पभास सक [प्र+भाष ] बोलना, भाषण उवा, ठा ४, ४)। ५ योग्य, लायक; 'पभुत्ति कारण (णंदि) । ३ एक जैनमुनि, जम्बु-स्वामी करना। पभासंति (विसे ४६६ टी)। वकृ. वा जोग्गोत्ति वा एगट्ठा' (निचू २०)। का शिष्य (कप्पा वसु; एंदि)। पभासंत, पभासयंत, पभासमाण (उप पभवा स्त्री [प्रभवा] तृतीय वासुदेव की | पृ २३; पउम ५५, १८८६, १०)। पभुंज सक [प्र + भुज् ] भोग करना। पटरानी (पउम २०, १८६)। पभुंजेदि (शौ) (द्रव्य ६)। पभास प्रक[प्र+भास् ] प्रकाशित होना। पभुति (वै) देखो पभिई (कुमा)। पभविय वि [प्रभूत] जो समर्थ हुपा हो, 'सा | पभासिति (सुन १९)। भूका-पभासिसु । पभुत्त वि [प्रभुक्त] १ जिसने खाने का विज्जा सिट्ठसुए उदग्गपुन्नम्मि पभविया नेव (भग; सुज्ज १६)। भवि. पभासिस्सति (सुज प्रारम्भ किया हो वह (सुर १०, ५८)। २ (धर्मत्रि १२३)। १६) । वकृ. पभासमाण (कप्प)। जिसने भोजन किया हो वह (स १०४)। पभा स्त्री [प्रभा] १ कान्ति, तेज (महाः धर्मसं पभास सक [प्र+भासय ] प्रकाशित पभूइ) देखो पभिई (पउम ६, ७६; स १३३३)। २ प्रभाव; 'निच्नुज्जोया रम्मा, करना । प्रभासेइ (भग)। पभासंति (सुज | पभूइं। २७५)। सयंपभा ते विरायति' (देवेन्द्र ३२०)। ३-पत्र ६४)। वकृ. पभासयंत, पभासे- पभूय वि[प्रभूत] प्रचुर, बहुत (भगः पउम पभाइअ) पुंन [प्रभात १ प्रातःकाल, सुबह माण (पउम १०८, ३३, रयण ७५; कप्प; | ५,५; णाया १, १; सुर ३, ८१, महा)। पभाय (पउम ७०, ५६, सुर ३, १६; उवा औपभग)। पभोय (अप) देखो उवभोगः 'भोय-पभोयमाणु महा स २४४) । २ वि. प्रकाशित; रयणीए पभास [प्रभास] १ भगवान् महावीर के जं किजह' (भवि)। पभायाए' (उप ६४८ टी)। तणय वि एक गणधर का नाम (सम १६ कप्प)। २ | पमइल विप्रमलिन] प्रति मलिन (णाया [संबन्धिन् ] प्राभातिक, प्रभात-सम्बन्धी, एक विकटापाती पर्वत का अधिष्ठाता देव १,१)। सुबह का (सुर ३, २४८)। (ठा २, ३-पत्र ६६)। ३ एक जैन मुनि पमक्खण न [प्रमक्षण] १ अभ्यञ्जन, विलेपभार [प्रभार] प्रकृष्ट भार (सम १५३)। का नाम (धर्म ३)। ४ एक चित्रकार का | पन। २ विवाह के समय किया जाता एक पभाव देखो पहाव = प्र + भावय । पभावेइ, नाम (धम्म ३१ टी)। ५ न. तीर्थ-विशेष तरह का उबटन (स ७४)। पभावंति (उच; पब १४८)। वकृ. पभावित (जं ३, महा)। ६ देव-विमान-विशेष (सम पमक्खिअ वि [प्रमक्षित] १ विलिप्त । २ (सुपा ३७६)। १३, ४१)। "तित्थ न [तीर्थ] तीर्थ विवाह के समय जिसको उबटन किया गया पभाव देखो पहाव-प्रभाव (स्वप्न १८)। विशेष, भारतवर्ष की पश्चिम दिशा में स्थित हो वह (वसुः सम ७५)। पभावई स्त्री [प्रभावती] १ उन्नीसवें जिन- एक तीर्थ (इक)। पमज सक [प्र + मृज् , मार्ज ] मार्जन देव की माता का नाम (सम १५१)। २ पभासा स्त्री [प्रभासा] अहिंसा, दया (पएह करना, साफ-सुथरा करना, झाडू मादि से रावण की एक पत्नी का नाम (पउम ७४, । २,१)। धूलि वगैरह को दूर करना। पमजइ (उव; For Personal & Private Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो पमज्जण-पमिलाय उवा)। पमजिया (आचा)। वकृ. पमज्जेमाण न [°वन] राजा का अन्तःपुर-स्थित वह वन (सम्मत्त ११७)। संवच्छर पुं[संवत्सर] (ठा ७)। संकृ. पमन्जित्ता (भग; उवा)। या बागीचा जहाँ राजा रानियों के साथ क्रीड़ा वर्ष-विशेष (सुज १०, २०)। हेकृ. पमजित्तू (पि ५७७)। करे (से ११, ३७ रणाया १,८१३)। | पमाण सक [प्रमाणय् ] प्रमाण रूप से पमजण न [प्रमार्जन] मार्जन, भूमि-शुद्धि पमया स्त्री [प्रमदा] उत्तम स्त्री, श्रेठ महिला स्वीकार करना। पमाण, पमाणह (पिंग)। (अंत)। (उवः बृह ४)। वकृ. पमाणंत (उवर १८६)। कृ. पमाणिपमजणिया) स्त्री [प्रमार्जनी] झाडू, भूमि | पमह ' [प्रमथ] शिव का अनुचर (पाप)। यव्व (सिरि ६१)। पमजणी साफ करने का उपकरण (णाया । णाह पुं[नाथ] महादेव (समु १५०)। पमाणि अवि [प्रमाणित] प्रमाण रूप से १, ७; धर्म ३)। हिब पुं [धिप] शिव, महादेव (गा पमजय वि [प्रमार्जक] प्रमार्जन करनेवाला स्वीकृत (सुपा ११० था १२)। ४४८)। पमाणिआ । स्त्री [प्रमाणिका, प्रमाणी] पमा सक [प्र+मा] सत्य-सत्य ज्ञान करना । पमजिवि [प्रमृष्ट, प्रमाणित] साफ किया पमाणी छन्द-विशेष (पिंग)। कर्म, पमीयए (विसे ६४६)। हुअा (उया महा)। पमा स्त्री [प्रमा] १ प्रमाण, परिमाणः 'पीप पमाणीकर अक [प्रमाणी+कृ] प्रमाण पमत्त विधिमत्त १ प्रमाद-युक्त, असावलधाउविरिणम्मियविहत्थियममालिगमाहरण" करना, सत्य रूप से स्वीकार करना। कर्म. धान, प्रमादी, बेदरकार (उवः अभि १८५; (कुमा)। २ प्रमाण, न्यायः 'अतिप्पसंगो पमाणीकरीअदि (शौ) (पि ३२४)। संक्र. प्रासू ६८)। २ न. छठवाँ गुरण-स्थानक पमासिद्धो' (धर्मसं ६८१)। पमाणोकिअ (नाट-मालवि ४०)। (कम्म ४, ४७:५६)। ३ प्रमाद (कम्म २)। पमा देखो पमाय प्रमाद (वव १)। पमाद देखो पमाय =प्र+मद् । कृ. पमादेजोग योग] प्रमाद-युक्त चेष्टा (भग)। पमाइ वि [प्रमादिन] प्रमादी, बेदरकार । यव्य (णाया १,१-पत्र ६०)। संजय पुं[संयत] प्रमादी साधु, प्रमाद| (सुपा ५४३; उच; प्राचा)। पमाद देखो पमाय = प्रमाद (भग; प्रीपः स्वप्न युक्त मुनि (भग ३, ३)। पमाइअव्य देखो पमाय% प्र+मद् । पमद देखो पमय (स्वप्न ५१; कप्पू)। पमाइल्ल देखो पमाइ; 'धम्मपमाइल्ले' (उप | पमाय अक [प्र + मद् ] प्रमाद करना, पमदा देखो पमया (नाट-शकु २)। ७२८ टी)। बेदरकारी करना । पमायइ, पमायए (उक: पमद्द सक [प्र+ मृदा १ मर्दन करना। पमाण सक [प्र+मानय ] विशेष रीति से पि ४६०)। वकृ. पमायंत (सुपा १०)। २ विनाश करना। ३ कम करना। ४ चूर्ण मानना, प्रादर करना। कृ. पमाणणिज कृ. पमाइअव्व (भग)। करना। ५ रई की पूणी-पूनी बनाना। (श्रा २७)। पमाय पुं[प्रमाद] १ कर्तव्य कार्य में पमाण न [प्रमाण] १ यथार्थ ज्ञान; सत्य | वकृ. पमहमाण (पिंड ५७४) । ज्ञान । २ जिससे वस्तु का सत्य-सत्य ज्ञान अप्रवृत्ति और अकर्तव्य कार्य में प्रवृत्ति रूप पमद [अमर्द] १ ज्योतिष शास्त्र में प्रसिद्ध हो वह, सत्य ज्ञान का साधन (अणु)। ३ असावधानता, बेदरकारी (प्राचा; उत ४, एक योग (सम १३; सुज १०, ११)। २ जिससे नाप किया जाय वह; 'अप्पमाणंपि' ३२, महा; प्रासू ३८ १३४)। २ दुःख, संघर्ष, संमद (राज)। ३ वि. मर्दन करने(श्रा २७ भगः अणु)। ४ नाप, माप, परि कष्टः 'समग्गलोयाण वि जा विमायासमा वाला। ४ विनाशका 'सारं मरणइ सन्वं मारण (विचार ५४४, ठा ५,३; जीवसहy: समुप्पाइयसुप्पमाया' (सत्त ३५)। पञ्चक्खाणं खु भवदुहपमई' (संबोध ३७)। भगः विपा १, २)। ५ संख्या (अणु; जी पमार पुं[प्रमार] १ मरण का प्रारम्भ (भग पमांग न [प्रमर्दन] १ चूरना, चूर्ण करना २६)। ६ प्रमाण-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, तर्क- १५)। २ बुरी तरह मारना (ठा ५, १)। (राय)। २ नाश करना। ३ कम करना शाना 'लक्सरगसाहित्तपमाणजोइसाईगि सा | पमारणा स्त्री [प्रमारणा] बुरी तरह मारना (सम १२२)। ४ रुई की पूणी करना (पिड पढइ' (सुपा १०३)। ७ पुन. सत्य रूप से (वव ३)। ६०३)। ५ वि. विनाश करनेवाला (पंचा जिसका स्वीकार किया जाय वह। ८ मान१४, ४२)। पमिय वि [प्रमित] परिमित, नापा हुअा नीय, प्रादरणीय । ६ सचा, सही, ठीक-ठीक, पमद्दय वि [प्रमर्दक] प्रमर्दन-कर्ता (दसनि 'अंगुलमूलासंखिप्रभागप्पमिया उ होंति सेढीरो' यथार्थ; 'कमागप्रो जो य जेसि किल धम्मो १०, ३०)। (पंच २, २०)। सो य पमाणो तेसि (सुपा ११० श्रा १४); | पमहि वि [प्रमर्दिन् प्रमर्दन करनेवाला पमिलाण वि [प्रम्लान अतिशय मुरझाया 'सुचिरंपि अच्छमाणो नलथंभो (औप, पि २६१)। पिच्छ इच्छुवाडम्मि । हुश्रा (ठा ३, १; धर्मवि ५५)। पमय पुं[प्रमद] १ आनन्द, हर्ष (कालः श्रा कीस न जायइ महुरो जइ पमिलाय अक [प्र+म्लै मुरझाना, 'पण२७)। २ न. धतूरे का फल । च्छी स्त्री . सेसग्गी पमाणं ते' (प्रासू ३३)। पन्नाय परेणं जोणी पमिलायए महिलियाणं' [क्षी] स्त्री, महिला (सुपा २३०)। 'वण | °वाय पुं [वाद] न्याय-शास्त्र, तर्क-शास्त्र ! (तंदु ४)। For Personal & Private Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमिल्ल-पम्हलिय पाइअसद्दमहण्णवो पमिल्ल अक [प्र+मील] विशेष संकोच | पमोक्ख देखो पमुंच। देव-विमान-विशेष (सम १५)। "प्पभ न करना, सकुचना। पमिल्लइ (हे ४, २३२ पमोक्ख पुंन [प्रमोक्ष] १ मुक्ति, निर्वाण [°प्रभ] ब्रह्मलोक का एक देवविमान प्राप्र)। (सून १, १०, १२)। २ प्रत्युत्तर, जवाबः | (सम १५)। लेस, लेस्स न [ लेश्य पमीय देखो पमा=प्र+मा। 'नो संचाए...."किचिवि पमोक्खमक्खाइउ' ब्रह्मलोक-स्थित एक देव-विमान (सम १५; पमील देखो पमिल्ल । पमीलइ (हे ४, २३२)।। (भग)। राज)। वण्ण न [वर्ण] वही पूर्वोक्त पमुइअ वि [प्रमुदित] हर्ष-प्राप्त, हर्षित पमोक्खण न [प्रमोचन परित्याग, 'कंठा- अर्थ (सम १५)। सिंग न [शृङ्ग] वही (प्रौप, जीव ३)। कंठियं अवयासिय बाहरमोक्खणं करेई अर्थ (सम १५)। सिटु न [[सृष्ट वही पमुंच सक [प्र+मुच् ] छोड़ना, परित्याग (गाया १,२-पत्र ८८)। पूर्वोक्त अर्थ (सम १५) । वित्त न [व] करना। पमुंति (उव)। कर्म, पमुच्चइ पमोयणा स्त्री [प्रमोदना] प्रमोदन, प्रमोद, वही अर्थ (सम १५)। (पि ५४२)। भवि. पमोक्खसि (प्राचा)। आह्वाद, प्रानंद (चेश्य ४११)। पम्ह देखो पउम (परह १, ४-पत्र ६७; वकृ. पमुंचमाण (राज)। पम्मलाअ अक [H+ म्लै] अधिक म्लान | ७८, जीव ३)। गंध वि [°गन्ध] १ पमुक्क वि [प्रमुक्त] परित्यक्त (हे २, ६७ होना । पम्मलापदि (शौ); (पि १३६; नाट- कमल की गन्ध । २ वि. कमल के समान षड्)। मालती ५३)। गन्धवाला (भग ६,७)। लेस वि [ लेश्य] पमुक्ख देखो पमुह (सुपा १० गु ११; पम्माविम्लान] १ विशेष म्लान, पद्मा नामक लेश्यावाला (भग)। लेसा स्त्री जी १०)। पम्माइजअत्यन्त मुरझाया हुमा; 'पम्मान- [ लेश्या] लेश्या-विशेष, पांचवीं लेश्या, पमुच्छिय पुं [प्रमूच्छित ] नरकावास सिरीसाई व । जह से जायाई अंगाई' (गा प्रात्मा का शुभतर परिणाम-विशेष (ठा ३, विशेष (देवेन्द्र २७)। ५६; गा ५६ टि)। २ शुष्क; 'वसहा य १; सम ११)। लेस्स देखो °लेस (परण पमुक्त देखो पगुक्क (पि ५६६)। जायथामा, गामा पम्मायचिक्खल्ला' (धर्मवि १७---पत्र ५११)। पमुदिय देखो पमुइअ (सुर ३, २०)। पम्हअ सक [+ स्मृ] भूल जाना. विस्मरण पमुद्ध वि[प्रमुग्ध] अत्यन्त मुग्ध (नाट- पम्माण वि [प्रग्लान] १ निस्तेज, मुरझाया | होना । पम्हअइ (प्राकृ ६१)। मालती ४४)। हुना। २ न. फीकापन, मुरझाना; 'पम्हा पम्हगावई स्त्री [पक्ष्मकावती] महाविदेह पमुह वि [प्रमुब] १ तल्लोन दृष्टिवाला, (? म्मा) गरुएणलिंगों' (अणु १३६)। वर्ष का एक विजय, प्रदेश-विशेष (ठा २, 'एगप्पमुहे' (आचा)। २ पुं. ग्रह-विशेष, पम्मि पुं [दे] पाणि, हाथ, कर ( षड्)। ३; इक)। ज्योतिष्क देव-विशेष (ठा २, ३)। ३ न. पम्मुक्क देखो पमुक्क (हे २, ६७ षड्ः पम्हटु वि [प्रस्मृत] १ विस्मृत (से ४, प्रकृष्ट प्रारम्भ, प्रादि, आपात; कंपागफल(कुमा)। ४२)। २ जिसको विस्मरण हुआ हो वह सरिच्छो भोगा पमुहे हवंति गुणमहुरा' | पम्मुह वि [प्रामुख] पूर्व की ओर जिसका 'किं पम्हट्ठ म्हि अहं तुइ चलणप्परगतिवह(पउम १०८, ३१, पाम)। __ मुंह हो वह (भषि; वज्जा १६४)।। प्रापडिउएणं (से ६, १२)। *पमुह वि. ब. [प्रमुख] १ वगैरह, प्रादि । पम्ह पुंन [पक्ष्मन्] १ अक्षि-लोम, बरवनी, पम्हट्ठ वि [दे] १ प्रभ्रट, विलुप्त (से ४, २ प्रधान, श्रेष्ठ, मुख्य (प्रौप; प्रासू १६६)। | अाँख के बाल (पान)। ३ पद्म प्रादि का ४२)। २ फेंका हमा, प्रक्षिप्त; 'पम्हटुवा पमुहर वि [प्रमुखर] वाचाल, बकवादी परिट्रविर, ति वा एगट्ठ' (वव १)। । केसर, किंजल्क (उवाः भगः विषा १,१)। (उत्त १७, ११)। ३ सूत्र आदि का अत्यल्प भाग। ४ पंख, पम्हय वि [पक्षन] १ पक्ष्म से उत्पन्न : पमेइल वि [प्रमेदस्विन] जिसके शरीर में पाँख (हे २, ७४ प्राप्र)। ५ केश का अग्र २ न. एक प्रकार का सूता (पंचभा)। चर्बी बहुत हो वह, थूले पमेइले वज्झे पाइमेत्ति | भाग (से ६, २०)। ६ अग्र-भाग; 'रणपणहु | पम्हर [दे] अामृत्यु, अकाल-मरण (दे य नो वए' (दस ७, २२)। आसणपइत्तपत्तएपम्हं' (से १५, ७३) । पमेय वि [प्रमेय] प्रमाण-विषय, सत्य- ७ महाविदेह वर्ष का एक विजय-प्रदेश पम्हल वि [पक्ष्मल] पक्ष्म-युक्त, सुंदर पदार्थ (धर्मसं ११९०)। (ठा २, ३, इक)। ८ न. एक देव-विमान अक्षि-लोमवाला (हे २, ७४० कुमाः षड्, पमेह [प्रमेह] रोग-विशेष, मेह रोग, (सम १५)। कंत न [कान्त] एक देव प्रोप; गउड; सुर ३, १३६ पास)। मूत्र-दोष, बहुमूत्रता (निचू १)। विमान का नाम (सम १५)। कूड पुं पम्हल पुं[दे] किंजल्क, पद्म आदि का केसर पमोअ पुं [प्रमोद] १ आनन्द, खुशी, हर्ष [कूट] १ पर्वत-विशेष (राज)। २ न. | (दे ६, १३; षड् )। (सुर १, ७८ महा; एंदि)। २ राक्षस-वंश ब्रह्मलोक नामक देवलोक का एक देव-विमान | पम्हलिय वि [दे. पक्ष्मलित] धवलित, के एक राजा का नाम, एक लंका-पति (सम १५)। ३ पर्वत-विशेष का एक शिखर सफेद किया हुआ; 'लायएणजोन्हापवाहपम्ह(पउम ५, २६३)। (ठा २, ३, ६)। भय न [ध्वज] | लियचउद्दिसाभोमो' (स ३६) । For Personal & Private Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ पाइअसहमहण्णवो पम्हस-पयंप पम्हस सक [वि + स्मृ] विस्मरण करना, | पय पुंन [पयस्] १ क्षोर, दूधः 'पो' पय (अप) देखो पत्त = प्राप्त (पिंग)। भूल जाना । पम्हसइ (षड्); पम्हसिज्जासु (हे १, ३२, प्रोघ १२, पान)। २ पानी, | पय देखो पया = प्रजा। पाल वि [°पाल (गा ३४८)। जल (सुपा १३६, पान)। हर देखो | १ प्रजा का पालक । २ पुं. नृप-विशेष पम्हसाविय वि [विस्मारित] भूलाया हुआ, | पओहर (पिंग)। (सिरि ४५)। विस्मृत कराया हुआ (सुख २, ५)। पय पुं[प्रज] प्राणी, जन्तु (माचा)। पय वि [प्रद] देनेवाला, 'पीइप्पयं' (रंभा)। पम्हा स्त्री [पद्मा] १ लेश्या-विशेष, पद्म- पय पुंन [पद] १ विभक्ति के साथ का शब्द, पयइ स्त्री [प्रकृति संधि का प्रभाव (अणु लेश्याः प्रात्मा का शुभतर परिणाम-विशेष __ 'पयमत्थवायगं जोयगं च तं नामियाई ११२)। (कम्म ३, २२; था २६)। २ विजय-क्षेत्र पंचविहं (विसे १००३; प्रासू १३८, श्रा विशेष (राज)। २३)। २ शब्द-समूह, वाक्य, 'उवएसपया पयइ देखो पगइ (गा ३१७; गउड; महाः पम्हार पु [दे] अपमृत्यु, बेमौत मरण इह समक्खाया' (उप १०३८ श्रा २३)। | नव ३१, भत्त ११४ कप्पू; कुप्र ३४६) । ३ पैर, पाँव, चरण; 'जाणं च तजणातजणीइ | पयइंद पुं[पतगेन्द्र, पदकेन्द्र] वानव्यन्तर लग्गो ठवेमि मंदपए, कव्वपहे बालो इव', जातीय देवों का इन्द्र (ठा २, ३)। पम्हावई स्त्री [पक्ष्मावती] १ विजय-विशेष 'जाव न सत्तट्ठ पए पच्चाहुत्तं नियत्तो सि' की एक नगरी (ठा २, ३, इक)। २ पवंत | पयई देखो पयवी (गउड)। (सुपा १, धर्मवि ५४; सुर ३, १०७ श्रा विशेष (ठा २, ३–पत्र ८०)। पयंग पुं [पतङ्ग] १ सूर्य, रवि (पाप); 'तो २३) । ४ पाद-चिन्ह पदाङ्क (सुर २, २३२, पम्हु वि [दे] १ नष्ट, नाश-प्राप्त (हे ४; हरिसपुलइयंगो चक्को इव दिटुउग्गयपयंगो सुपा ३५४ श्रा २३; प्रासू ५०)। ५ पद्य २५८)। २ विस्मृत; 'पम्हुट्ठ विम्हरिनं' (उच ७२८ टी) । २ रंग-विशेष, रज्जनका चौथा हिस्सा (अरण) । ६ निमित्त, (पान), 'किं थ तयं पम्हुठ्ठ" (गाया १, द्रव्य-विशेष (उर ६, ४, सिरि १०५७) । कारण (प्राचा)। ७ स्थानः 'अवमारणपयं ८-पत्र १४८; विचार २३८)। ३ शलभ, फतिंगा, उड़नेवाला छोटा कीट हि सेव त्ति' (सुर २, १९७; श्रा २३) । ८ पम्हुत्तरवळिसग न [पक्ष्मोत्तरावतंसक] (णाया १, १७; पान) । ४-५ देखो पदवी, अधिकारः 'जुवरायपए कि नवि पयय = पतग, पदक, पदग (पएह १, ४ब्रह्मलोक में स्थित एक देव-विमान (सम अहिसिचाइ देव मे पुत्तो?' (सुर २, १७५; पत्र ६८ राज)। वीहिया स्त्री [वीथिका] महा) । ६ त्राण, शरण । १० प्रदेश । ११ पम्हुस सक [वि + स्मृ] भूलना, विस्मरण १ शलभ का उड़ना। २ भिक्षा के लिए व्यवसाय (धा २३)। १२ कूट, जाल-विशेष पतंग की तरह चलना, बीच में दो चार घरों करना। पम्हुसइ (हे ४, ७५) । (सूत्र १, १, २, ८)। खेम न [क्षेम] को छोड़ते हुए भिक्षा लेना (उत्त ३०, १९)। शिव, कल्याण; 'कुव्वइ अ सो पयखेममप्पणो' पम्हुस सक [प्र+ मृश ] स्पर्श करना । वीही स्त्री [°वीथी] वही पूर्वोक्त अर्थ (उत्त पम्हुसइ, पम्हुस (हे ४, १८४; कुमा ७, २६)। | (दस ६, ४, ६)।पुं[स्थ] पदाति, ३०, १६)। पम्हुस सक [प्र+मुष ] चोराना, चोरी पैदल, प्यादा; 'तुरएण सह तुरंगो पाइको सह पयत्थेरण' (पउम ६, १८२) । पास पुं करना। पम्हुसइ; पम्हुसेइ; पम्हुसंति (हे | पयंचुल पुन [प्रपञ्चुल] मत्स्यबन्धन-विशेष, मछली पकड़ने का एक प्रकार का जाल ४, १८४; सुपा १३७; कुमा ७, २६)। [पाश] वागुरा, जाल आदि बन्धन (सूम १, १, २, ८, ९) । रक्ख पुं[रक्ष] (विपा १,८-पत्र ८५)। पम्हुसण न [विस्मरण] विस्मृति (पंचा पदाति, प्यादा (भविः हे ४, ४१८)। पयड वि[प्रचण्ड] १ अत्युग्न, तीव्र प्रखर १५, ११)। २ भयानक, भयंकर (पएह १, १, ३, ४, विग्गह पुं [विग्रह] पदविच्छेद (विसे पम्हुसिअ वि [विस्मृत] जिसका विस्मरण हुमा हो वह (कुमाः उप ७६८ टी)। १००६) । विभाग पुं [विभाग] उत्सर्ग | उव) । और अपवाद का यथा-स्थान निवेश, सामा- पर्यड वि[प्रकाण्ड] अत्युग्र, उत्कट (पराह पम्हुह सक [स्मृ] स्मरण करना, याद चारी-विशेष (माव १)। वीढ देखो पाय- | १, ४)। करना । पम्हुहइ (हे ४, ७४) । वीढ (पव ४०; सुपा ६५६) । समास | पयंत देखो पय = पच् । पम्हण वि [स्मर्त ] स्मरण करनेवाला पुं[°समास] पदों का समुदाय (कम्म १, पयंप अक [प्र + कम्प्] अतिशय काँपना। (कुमा)। ७)। णुसारि वि [°ानुसारिन्] एक पद ___वकृ. पयंपमाण (स ५६६)। पय सक [पच् ] पकाना, पाक करना। से अनेक अनुक्त पदों का भी अनुसंधान करने पयंप सक [प्र + जल्प] १ कहना, पयइ (हे ४, ६०)। वकृ. पयंत (कप्प)। की शक्तिवाला (प्रौप, बृह १)। णुसा- बोलना । २ बकवाद करना । पयंपए (महा)। संकृ. पइउं (कुप्र २६६)। रिणी स्त्री [/नुसारिणी] बुद्धि-विशेष, एक संकृ. पयंपिऊण, पयंपिऊणं (महाः पि पय सक [पद् ] १ जाना । २ जानना । ३ पद के श्रवण से दूसरे अश्रु त पदों का स्वयं ५८५)। कृ. पयंपिअव्व (गा ४५०; सुपा विचारना । पयइ (विसे ४०८)। | पता लगानेवाली बुद्धि (परण २१)। ५५२)। For Personal & Private Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयंपण-पयय पाइअसद्दमहण्णवो पयंपण न [प्रजल्पन] कथन, उक्ति (उप पयट्टावअ वि [प्रवर्तक] प्रवृत्ति करानेवाला पयण । न [पचन, क] १ पाक, पकाना पृ २१७)। (कप्पू)। पयणग) (ोप; कुमा) । २ पात्र-विशेष, पयंपिय वि [प्रकम्पित] अति कॉपा हुमा | पयट्टाविअ वि [प्रवर्तित प्रवृत्त किया हुआ, पकाने का पात्र (सूअनि ८०; जीव ३) । (स ३७७)। किसी कार्य में लगाया हुआ (महा)। साला स्त्री [शाला] एक-स्थान (बृह २)। पयंपिय वि[प्रजल्पित] १ कथित, उक्त । पयट्टिअ वि [दे. प्रवर्तित] ऊपर देखो (दे | पयणु । वि [प्रतनु] १ कृश, पतला । २ पयणु सूक्ष्म, बारीक । प्रल्प, थोड़ा (स २ न. कथन, उक्ति । ३ बकवाद, व्यर्थ | ६, २६)। २४६; सुर८, १६५; भग ३, ४, २; जल्पन (विपा १, ७)। पयट्रिवि [प्रवृत्त] प्रवृत्ति-युक्त (उत्त ४, पउम ३०, ६६ से ११, ५६ गा ६८२ पयंपिर वि [प्रजल्पित] १ बोलनेवाला। २; सुख ४, २) । गउड)। २ वाचाट, बकवादी (सुर १६, ५८; सुपा पयट्ठाण देखो पइट्ठाण (काल; पि २२०)। पयण्णय देखो पइण्णग (तंदु १)। ४१५; श्रा २७)। पयड सक [प्र + कटय] प्रकट करना, पयत्त अक [प्र+ यत् ] प्रयत्न करना । पयंस सक [प्र + दर्शय] दिखलाना। व्यक्त करना । पयडइ, पयडेइ (सण, महा)। पअत्तध (शौ) (पि ४७१)। पर्यसेंति (विसे ६३२)। वकृ. पयडंत (सुपा १; गा ४०६; भवि)। हेकृ. पयडित्तु (पि ५७७)। प्रयो. पयडापयंसण न [प्रदर्शन] दिखलाना (स ६१३) । पयत्त देखो पयट्ट - प्र + वृत (काल)। पयंसिअ वि [प्रदर्शित] दिखलाया हुआ पयत्त पुं [प्रयत्न चेष्टा, उद्यम, उद्योग (सुपाः वइ (भवि)। पयड वि [प्रकट] १ व्यक्त, खुला (कुमा; उवः सुर १, ६, २, १८२, ४, ८१)। (सुर १, १०१, १२, ३२)। महा) । २ विख्यात, विश्रुत, प्रसिद्ध; पयत्त वि [प्रदत्त, प्रत्त] १ दिया हुआ पयक्क देखो पाइक (........... )। 'विश्खामो विस्सुमो पयडो' (पान)। पयक्ख सक [प्रत्या + ख्या] प्रत्याख्यान (भग)। २ अनुज्ञात, संमत (अनु ३) । पयडण न [प्रकटन] १ व्यक्त करना, खुला करना, प्रतिज्ञा करना। पयक्खेइ (विचार | पयत्त देखो पयट्ट = प्रवृत्त (सुर २, १५६) करना (सण) । २ वि. प्रकट करनेवालाः 'जे ७५५)। | ३, २४८ से ३, २४०८, ३, गा ४३६)। पयक्खिण देखो पदक्खिण प्रदक्षिण (णाया तुझ गुणा बहुनेहपयडणा' (धर्मवि ६६)। पयत्ताविअ वि [प्रवर्तित] प्रवृत्त किया हुआ १,१६)। पयडावण न [प्रकटन] प्रकट कराना (भवि)। (काल)।। पयक्खिण देखो पदक्खिण% प्रदक्षिणम् । पयडाविय वि [प्रकटित प्रकट कराया हुआ पयत्थ पुं [पदाथ१५ पयत्थ पुं [पदार्थ] १ शब्द का प्रतिपाद्य, संकृ. पयक्खिणिऊण (सुर ८, १०५)। । (काल भवि)। पद का अर्थ (विसे १००३, चेइन २७१) । पयडि देखो पगइ (पएण २३; पि २१६)। २ तत्व (सम १०६; सुपा २०५) । ३ वस्तु, पयचिखणा देखो पदक्खिणा (उप १४२ टी पयडि स्त्री [दे] मार्ग, रास्ताः सुर १४. ३०)। चीज (पान)। 'जे पुण सम्मट्ठिी तेसि मणो चडणपयडीए' (सट्ठि | पयन्न देखो पइण्ण = प्रकीर्ण (भवि)। पयग देखो पयय = पतग, पदक, पदग (राजः । १४२)। पयन्ना देखो पइण्णा (उस १४२ टी)। पव १६४)। पयच्छ सक [प्र+ यम् ] देना, अर्पण पयडिय वि [प्रकटित] प्रकट किया हुआ पयप्पण न [प्रकल्पन] कल्पना, विचार (धर्मसं ३०७)। करना । पयच्छइ (महा) । संकृ. पयच्छिऊण (सुर ३, ४८; श्रा २)। पयय देखो पायय = प्राकृत (हे १,६७ पयडिय वि[प्रपतित] गिरा हुअा (णाया (राज)। गउड)। पयच्छण न [प्रदान] १ दान, अर्पण (सुर १,८-पत्र १३३)। २, १५१) । २ वि. देनेवाला (सरण)। पयडीकय वि [प्रकटीकृत] प्रकट किया पयय वि [प्रयत] प्रयत्न-शील, सतत प्रयत्न करनेवाला (प्रौपः पउम ३, ६५; सुर १, ४, हुपा (महा)। पयट्ट अक [प्र+ वृत् ] प्रवृत्ति करना। । पयडीकर सक [प्रकटी + कृ] प्रकट करना । उव); 'इच्छिज न इच्छिज्ज व तहवि पयरो पयट्टइ (हे २, ३०, ४, ३४७; महा)। कृ. प्रयो. पयडीकरावेमि (महा)। निमंतए साहू' (पुप्फ ४२६; पडि)। पयट्टिअव्व (सुपा १२६) । प्रयो. पयट्टावेह पयडीभूअ) वि प्रिकटीभता जो प्रकट पयय पु [पतग, पदक, पदग] १ वान(स २२) संकृ. पयट्टाविउं (स ७१५)। पयडीहूअ । हुआ हो (सुर ६, १८४; श्रा व्यन्तर देवों की एक जाति (ठा २, ३; परण पयट्ट वि [प्रवृत्त] १ जिसने प्रवृत्ति की हो १६; महा सण)। १ इक)। २ पतग देवों का दक्षिण दिशा का वह (हे २, २६; महा)। २ चलितः ‘पयट्टयं पयड्ढणी स्त्री [दे] १ प्रतिहारी। २ प्राकृष्टि, इन्द्र (ठा २,३)। वह पु[पति पतग देवों चलियं' (पास)। प्राकर्षण । ३ महिषी (दे ६, ७२)। का उत्तर दिशा का इन्द्र (ठा २, ३--पत्र पयट्टय वि [प्रवर्तक] प्रवृत्ति करनेवाला पयण देखो पवण (गा ७७७)। (पण्ह १, १)। पयण देखो पडण (विसे १८५६)। |पयय न [दे] अनिश, निरन्तर (दे ६, ६)। For Personal & Private Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ पाइअसहमहण्णवो पयर-पया पयर सक [स्मृ] स्मरण करना । पयरेइ (हे ३, ३)। वकृ. पयलेमाण (प्राचा २, २, पयल्ल प्रक [प्र+ सु] पसरना, फैलना । ४, ७४) । वकृ. पयरंत (कुमा) । ३, ३)। पयल्लइ (हे ४, ७७ प्राकृ ७६)। पयर अक[प्र + चर् ] प्रचार होना, 'रना पयल देखो पयड%=प्र + कटय् । पप्रल पयल्ल पक [क] १ शिथिलता करना, ढोला सूयारा भरिणया जं लोए पयरइ तं सव्वं सब्वे (पिंग) । संकृ. पअलि (अप) (पिंग)। होना । २ लटकना । पयल्लइ (हे ४, ७०)। रंधह (श्रावक ७३ टी)। पयल देखो पयड = प्रकट (पिंग)। पयल्ल वि [प्रसृत] फैला हुआ (पाप)। पयर अक [प्र+चर 1 १ फैलना । २ पयल (अप) सक [प्र+ चालय ] १ पयल्ल पुं [प्रकल्य] महाग्रह-विशेष (सुज्ज व्यापृत होना, काम में लगना। पयरह (यदि चलाना । २ गिराना। पप्रल (पिंग)। २०)। पयल वि [प्रचल] चलायमान, चलनेवाला पयल्लिर वि [प्रसृमर] फैलनेवाला (कुमा)। पयर पु[प्रकर] समूह, सार्थ, जत्थाः 'पयरो (पउम १००, ६) । पयल्लिर वि [शैथिल्यकृत् ] शिथिल होनेपिबीलियाणं भीमपि भुवंगमं डसई' (स ४२१; पयल पुं[दे] नीड़, पक्षि-गृह (दे ६, ७)। वाला, ढोला होनेवाला (कुमा ६, ४३) । पान कप्प)। पयल। श्री [दे. प्रचला] १ निद्रा, नोंद पयल्लिर वि [लम्बनकृत् लटकनेवाला (कुमा पयर [प्रदर] १ योनि का रोग-विशेष । २ पयला (दे ६, ६)। २ निद्रा-विशेष, बैठे- ६ ४३)। बैठे और खड़े खड़े जो नोंद पाती है वह । पयव सक [प्र+ तप, तापय ] तपाना, विदारण, भंग। ३ शर, वारण (दे ६, १४) । ३ जिसके उदय से बैठे-बैठे और खड़े-खड़े | गरम करना । पनदेज्ज (से ४, २८) । वकृ. पयर देखो पइर = वप्; कोडुबिनो य खित्ते नींद आती है वह कर्म (सम १५; कम्म १, पअविजंत (से २, २४)। धन्नं पयरेई' (सुपा ३६०)। ११)। पयला स्त्री [दे. प्रचला] १ कर्मः पयव सक [पा] पीना, पान करना। कवकृ. पयर = देखो पयार = प्रकार (हे १, ६८ विशेष, जिसके उदय से चलते-चलते निद्रा 'धीरनं समुहल घणपअविज्जतअं' (से २, पाती है वह कर्म। २ चलते-चलते पाने- २४)। पयर देखो पयार = प्रचार (हे १, ६८)। वाली नोंद (कम्म १, १ ठा; निचू ११)। पयवई स्त्री [दे] सेना, लश्कर (दे ६, १६)। पयर न [प्रतर] १ पत्रक, पत्रा, पतराः पयला अक[प्रचलाय् । निद्रा लेना, नींद पयवि स्त्री [पदवि] देखो पयवी (चेइय 'करणगपयरलंबमारणमुत्तासमुज्जलं ........... करना । पयलाइ (पान) । हेकृ. पवलाइत्तए ८७२)। वरविमारणपुंडरीयं' (कप्प; जीव ३; पाचू (कस)। पयविअ वि [प्रतप्त, प्रतापित गरम किया १)। २ वृत्त पत्रकार प्राभूषण-विशेष, एक पयलाइअन [प्रचलयित १नींद, निद्रा। हमा, तपाया हया (गा १८५ से २,२५) । प्रकार का गहना (प्रौपः णाया १, १)। २ पूर्णन, नींद के कारण बैठे-बैठे सिर का पयवी स्त्री [पदवी] १ मार्ग, रास्ता (पाय; ३ गणित-विशेष, सूची से गुणो हुई सूची डोलना (से १२, ४२)। गा १०७सुपा ३७८)। २ बिरुद, पदवी (कम्म ५, १७; जीवस ६२; १०२)। ४ पयलाइया स्त्री [दे] हाथ से चलनेवाले जन्तु भेद-विशेष, बाँस आदि की तरह पदार्थ का की एक जाति (सून २, ३, २५) । पयह सक [प्र + हा त्याग करना, छोड़ना। पृथग्भाव (भास ७) । तप पुन [तपस ] पयलाय देखो पयला=प्रचलाय। पयलायइ पयहे, पयहिज, पयहेज्ज (सूम १, १०, १५; तप-विशेषः वट्ट न [वृत्त] संस्थान-विशेष (जीव ३) । वकृ. पयलायंत (राज)। १, २, २, ११, १, २, ३, ६; उत्त ४, १२; पयलाय पुं [दे] १ हर, महादेव (दे ६, स १३६)। संकृ. पयहिय (पउम ६३, पयर न [प्रतर] गणित-विशेष, श्रेणी से गुनी ७२)। २ सर्प, साप (दे ६, ७२, षड्)। १९ गच्छ १, २४)। कृ. पयहियव्य (स हुई श्रेणी (अणु १७३) । पयलायण न [प्रचलायन] देखो पयलाइ ७१४)। पयरण न [प्रकरण] १ प्रस्ताव, प्रसंग । २ (बृह ३)। पहिण देखो पदक्षिण = प्रदक्षिण (भवि)। एकार्थ-प्रतिपादक ग्रंथ । ३ एकार्थ-प्रतिपादक पयलायभत्त पुं[दे] मयूर, मोर (दे ६, पया सक [प्र + जनय ] प्रसव करना, जन्म ग्रंथांशः 'जुम्हदम्हपयरणं' (हे १, २४६) । देना । पयामि (विपा १, ७)। पयाएज्जासि पयलिअ देखो पयडिअ (पिंगः पि २३८)। पयरण न [प्रतरण ] प्रथम दातव्य भिक्षा (विपा १,७)। भवि. पयाहिति, पयाहिति, पयलिय वि [प्रचलित] १ स्खलित, गिरा (राज)। पयाहिसि (कप्पः पि ७६; कप्प)। हुआ (रायः आउ) । २ हिला हुआ (पउम पयरिस देखो पयंस । वकृ. पयरिसंत (पउम पया सक [प्र + या] प्रयाण करना, प्रस्थान ६८, ७३ णाया १, ८ कप्पः प्रौप)। पयलिय वि [प्रदलित] भांगा हुआ, तोड़ा । करना। पयाइ (उत्त १३, २४)। पयरिस देखो पगरिस (महा)। हुआ (कप्प)। पया स्त्री [दे] चुल्ली, चुल्हा (राज)। पयल अक [प्र+चल्] १ चलना। २ पयले सक [प्र= चालय] चलायमान करना, पया स्त्री. ब. [प्रजा] १ वशवी मनुष्य, स्खलित होना। पयलेज्ज (पाचा २, २, | अस्थिर करना । पयलेंति (दसचू १, १७)। रैयतः 'जह य पयाण नरिंदो' (उवः विपा For Personal & Private Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयाइ-पर पाइअसद्दमहण्णवो १,१)। २ लोक, जन-समूह (सिरि ४२ । १, २, कप्प; रणाया १, १-पत्र ३३); ८३३ टी; पि ३६७)। कृ. पयासणिज्ज, पंचा ७, ३७)। ३ जंतु-समूह; "निविएण- ‘पयाया पुत्तं (वसु)। पयासियव्य (उप ५६७ टी; उप पृ ५५) । चारी अरए पयासु' (प्राचा; सून १, ५, २, पयाय देखो पयाव = प्रताप (गा ३२६ से पयास देखो पगास = प्रकाश (पान; कुमा)। ६)। ४ संतान वाली स्त्री निविद नंदि अरए | पयास पुं[प्रयास] प्रयत्न, उद्यम (चेइय पयासु अमोहदंसी' (प्राचाः सून १, १०, पयार सक [प्र+चारय् ] प्रचार करना । २६०)। १५)। ५ संतान, संतति (सिरि ४२)। पयारइ (सण) । संकृ. पयारिवि (अप) पयास (अप) नीचे देखो (भवि)। 'णंद पुं [ नन्द] एक कुलकर पुरुष का (सण)। पयासग वि [प्रकाशक] प्रकाश करनेवाला नाम (पउम ३, ५३)। 'नाह पुं ['नाथ] पयार सक[प्र + तारय् ] प्रतारण करना, (सं ७८)। राजा, नरेश (सुपा ५७५)। पाल पुं [पाल] ठगना । पयारइ, पयारसि (सण)। पयासण न [प्रकाशन] १ प्रकाश-करण एक जैन मुनि जो पाँचवें बलदेव के पूर्वजन्म | पयार पुं [प्रकार] १ भेद, किस्म । २ ढंग, (प्राचा: सुपा ४१६)। २ वि. प्रकाशक, में गुरू थे (पउम २०, १९२)। वइ पुं रीति, तरह (हे १, ६८; कुमा)। प्रकाश करनेवाला; 'परमत्थपयासणं वीर' [पति] १ ब्रह्मा, विधाता (पाम; सुपा पयार पुं[प्राकार] किला, दुर्ग (पउम ३०, (पुप्फ १)। ३०५) । २ प्रथम वासुदेव के पिता का नाम । ४६.)। पयासय देखो पयासग (विसे ११३०; सं (पउम २०,१८२; सम १५२)। ३ नक्षत्र- पयार पुं [प्रचार] १ संचार, संचरण (सुपा १; पव ८६)। देव विशेष, रोहिणी-नक्षत्र का अधिष्ठायक २४)। २ प्रसार, फैलाव (हे १,६८)। पयासि वि [प्रकाशिन] प्रकाश करनेवाला देव (ठा २, ३-पत्र ७७; सुज्ज १०, १२)। पयार पुं[प्रचार] १ प्रकर्ष-प्राप्ति (दसनि १, (सण हम्मीर १४) । ४ दक्ष, कश्यप आदि ऋषि । ५ राजा, नरेश । ४१)। २ आचरण, प्राचार (दसनि १, पयासिय देखो पगासिय (भवि)। ६ सूर्य, रवि । ७ वह्नि, अग्नि । ८ त्वष्टा । १३५)। पयासिर वि [प्रकाशित] प्रकाश करनेवाला ६ पिता, जनक । १० कोट-विशेष । ११ पयारण न [प्रतारण वञ्चना, ठगाई (सुर (भवि)। जामाता (हे १, १७७ १८०)। १२ अहो१२,६१)। पगार देखो पयास प्र+ काशय् । रात्र का उन्नीसवाँ मुहूर्त (सुज १०, १३)। पयारिअ वि [प्रतारित ठगा हुग्रा. वञ्चित पयाहिण देखो पदक्खिण - प्रदक्षिण (उवा, पयाइ पुं [पदाति प्यादा, पाँव से (पैदल) (पाप; सुर ४, १५५)। ग्रोपः भवि पि ६५)। चलनेवाला सैनिक (हे २, १३८ षड् ; कुमाः पयाल पुं[पाताल] भगवान् अनन्तनाथजी का पयाहिण देखो पदक्खिण = प्रदक्षिणय । महा)। शासन-यक्षः 'छम्मुह पयाल किन्नर' (संति ८)। पयाहिणइ (भवि)। पयाहिणंति (कुप्र २६३)। पयाग पुंन [प्रयाग तीर्थ-विशेष, जहाँ गंगा और यमुना का संगम है (पउम ८२, ८१; पयाव सक [प्र+तापय ] तपाना, गरम पयाहिणा देखो पदक्षिणा (सुपा ४७)। पय्यवत्थाण ( करना। वकृ. पयावेमाण (पि ५५२)। हे १.१७७)। न[पर्यवस्थान] प्रकृति हेकृ. पयावित्तए (कप्प)। में अवस्थान ( पयाण न [प्रदान] दान, वितरण (उवा; उप ४८)। ५६७ टी; सुर ४, २१०; सुपा ४६२)। पर सक [ भ्रम् । भ्रमण करना, घूमना । पयाव पुं[प्रताप] १ तेज, प्रखरता (कुमाः परइ (हे ४, १६१; कुमा)। पयाण न [प्रतान] विस्तार (भग १६, ६)। सण)। २ प्रकृष्ट ताप, प्रखर ऊष्मा (पव ४)। पर देखो प= प्र (तंदु ४ । पयाण न [प्रयाण] प्रस्थान, गमन (णाया | पयावण न [पाचन] पकवाना, पाक कराना पर वि [पर] १ अ-प, भिन्न, इतर (गा १,३; पण्ह २, १७ पउम ५४, २८ महा)। (पएह १, १ श्रा८)। ३८४; महा; प्रामु १५)। २ तत्पर, पयाम देखो पकाम (स ६५६)। पयावण न [प्रतापन] १ गरम करना, तपाना तल्लीनः ‘कोहलपरा' (महा: कुमा)। ३ पयाम न [दे] अनुपूर्व, क्रमानुसार (दै ६, (ोघ १८० भाः पिंड ३४ प्राचा)। २ अग्नि श्रेष्ठ, उत्तम, प्रधान (पाचा: रयण १५)। पाय)। (कुप्र ३८६)। ४ प्रकर्ष प्राप्त, प्रकृ (पाचाः श्रा २३)। पयाय देखो पयाग (कुमा)। पयावि वि [प्रतापिन्] १ प्रताप-शाली। २ ५ उत्तरवर्ती, बाद का परलोग-(महा)। पयाय वि [प्रयात] जिसने प्रयाण किया। पुं. इक्ष्वाकु वंश के एक राजा का नाम (पउम ६ दूरवर्ती (सूम १, ८; निचू १)। ७ हो वह (उप २११ टी महा, प्रौप)। अनात्मीय, अस्वीय (उत्त १; निचू २)। पयाय वि [प्रजात] उत्पन्न, संजात; 'पयाय- पयास सक [प्र + काशय् ] १ व्यक्त पुं. शत्रु, दुश्मन, रिपु (सुर १२, ६२, कुमाः साला विडिमा' (दस ७, ३१)। करना। २ चमकाना। ३ प्रसिद्ध करना। प्रासू ६) । न. केवल, फक्त (कुमाः भवि)। पयाय वि [प्रजात, प्रजनित प्रसूत, जिसने पयासेइ (हे ४, ४५)। वकृ. पयासंत, उट्ट वि [पुष्ट] अन्य से पालित। २ पुं. जन्म दिया हो वह 'दारगं पयाया' (विपा १, पयासेंत, पयासअंत (सण गा ४०३, उप कोकिल पक्षी (हे १, १७६)। उत्थिय वि For Personal & Private Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ एस ["तीर्थिक] भिन्न दर्शनवाला (भर) 9 [देश ] विदेश, भिन्न, अन्य देश (भवि ) । "ओ [तस् ] १ बाद में, परली - दूसरी तरफ 'अडवीए परों" (महा) २ भित्र में, इतर में (कुमा) । ३ इतर से, अन्य से ( सूत्र १, १२) गणि[गणीय] भिन्न गरण से संबन्ध रखनेवाला । स्त्री. 'च्चिया (निप्र) गरिन [गर्दा ध्यान ] इतर की निन्दा का विचार ( श्राउ)। घाय [] दूसरे को प्राघात पहुँचाना । २ पुंन. कर्म-विशेष, जिसके उदय से जीव अन्य बलवानों की भी दृष्टि में श्रजेय समझा जाता है वह कर्म 'परघा उदया पाणी परोसि बती हो बुद्धरियों' (कम्म १.४४) । 'चित्तष्णु व [चित्तज्ञ ] अन्य के मन के भाव को जाननेवाला ( उप १७६ टी) । "च्छंद, छंद पुं ["च्छन्द] १ पर का अभिप्राय अन्य का आशय (ठा ४, ४ भग २५, ७) । २ पराधीन, परतन्त्र ( राज पात्र) । 'जाणुअवि [ज्ञ] १ पर को जाननेवाला । २ प्रकृट जानकार ( प्राकृ १८ ) | '[2] परोपकार (राज)। 'ट्ठा श्री [[]] दूसरे के लिए ' पराए' (भाषा)। "विभाण ["निन्दाध्यान] की निन्दाका चिन (भाउ णुअ देखो "जाणु (प्राकृ १८) तं वि ["तन्त्र ] पराधीन, परायत्त (सुपा २३३ ) । तित्थिअ देखो "स्थिय (५) तीर न ["तीर] सामनेवाला किनारा (पास)। त [[]]]२ वैशेषिक 1 दर्शन में प्रसिद्ध गुण विशेष ( विसे २४६१) । "त न [] १ जन्मान्तर में, परलोक में ( सुपा ५०८ ) । २ न. जन्मान्तर 'ते इपि परते मराई वंति नियमेल' (सुपा ३२१), 'इह लोए चिय दीसइ सग्गो नरम्रो य कि परत्तेण (वजा १३८) । त्थ अ [] जन्मान्तर में, 'इहं परत्थावि य जं विरुद्धं न किजए तंपि सया निसिद्ध' (सत्त ३७ सुर १४. ३३ । देखो 'टू (मुर ४, ७३) । 'त्थी स्त्री ['स्त्री] परकीय स्त्री (प्रासू १५५) दार न ["दार] परकीय श्री (पडि); 'जो वजइ परदारं सो सेवइ नो कयाइ पाइअसहमष्णवो । भव पुं [भव ] परवार' (सुपा ३६९) द गहिया बेसाव हो परदार' (गुपा १८० ) । दारि वि ["दारिन ] परस्त्री- लम्पट 'ता एस वसुमईए करण परदारियाए श्रायाश्रो' (सुर ६० १०२ ) । पक्ख नि ["पक्ष] वैधर्मिक, भिन्न धर्म का अनुयायी (द्र १७) । परिवाइय वि [ परिवादिक] इतर के दोषों को बोलनेवाला, पर- निन्दक (श्रौप ) । परिवाय["परिवाद] १ पर के पुछदोषों का त्रिक वचन (श्रीप कप २ पर-निन्दा, इतर के दीपों का परिवर्तन (ठा १, ४, ४) । ३ अन्य के सद्गुणों का अपना (पं)। परिवाय["परिपात]] [["व्यार] [१] सान्द्रादक २५. । पुं. अन्य का पातन, दोषोंद्घाटन द्वारा दूसरे को वस्त्र, कपड़ा (श्रा २३) । 'वाय वि [वा ] गिराना ( भग १२, ५) । पुटु देखो उट्ठ १ प्रकृष्ट वहन करनेवाला । २ पुं. श्रेष्ठ तन्तु( पण १७ स ४१९ ) वाय, उत्तम जुलाहा । ३ महान् पवन (श्रा आगामी जन्म (श्रीप प १ १ ) भवि २३) [उपागस् ] पति बि] [भविक] धागामी जन्म से संबन्ध बड़ा अपराधी, गुरुतर अपराधी (श्रा २३) । रखनेवाला (६) भाग वाय वि [ व्याप] प्रकृष्ट विस्तारवाला [भाग] १ श्रेष्ठ अंश । २ अन्य का हिस्सा (श्री २३) । वाय वि [बाक] १ जहाँ पर ३ अत्यन्त उत्कर्ष (उप ६७ ) । महेला प्रकृष्ट बक-समूह हो वह स्थान । २ न. मत्स्य[महेला ] १ उत्तम स्त्री । २ परकीय परिपूर्ण सरोवर (वा २३) वाय वि स्त्री ( सुपा ४७० ) । 'यत्त देखो (यत्त [ व्याय] १ श्रेष्ठ वायुवाला । २ जहाँ पर पक्षियों का विशेष श्रागमन होता हो वह । परत्तो पर (पास) डोअ, "लोग ["लोक] १ इतर जन स्वजन से भिन्न (उप ३ पुं. अनुकूल पवन से चलता जहाज । ४ ६८६ टी) । २ जन्मान्तर ( परह १ २; सुन्दर घर ५ वनोद्देश, मन-प्रदेश (भा विसे १९५१ महाः प्रासू ७५; सरण) । वस २३) बाव["बा] जहाँ पानी वि [" वश ] पराधीन, परतन्त्र (कुमाः सुपा का प्रकृष्ट आगमन हो वह । २ न. जलधि२३७) । चाइ [वादिन] इतर दा मुख, समुद्र का मुँह निक (बीप) बाय [बाद] १ इतर दर्शन, भित्र मत (और) २ वादी (आ २०)। [व] । । . सुजन । २ वि श्रेष्ठ वाणीवाला (श्रा २३) । "वाय वि ["वाज ] १ श्रेष्ठ गतिवाला । २ पुं. श्रेष्ठ अश्व ( श्रा २३) । वाय वि [शवाय ] जानकार, ज्ञानी (श्रा २३) । 'वाय वि [पाक] १ सुन्दर रसोई बनानेवाला । २ पुं. रसोइया ( श्रा २३) । वाय ३ पुं. महासमुद्र, महासागर (या १५) बाय नि ["व्याज] अन्य के पास विशेष गमन करनेवाला । २ प्रार्थनारायण ( वा २१) । "बाब वि [पय] १ सय हीन-भाग्य २ नित्यदरिख (२३) वा वि ["बाप] १ प्रकृष्ट वपनवाला । २ पुं. कृषक (श्री २३) । "वाय ["पाप] १ मा २ करनेवाला (श्रा २३) । 'वाय पुं [पाक ] १ कुम्भकार, कुम्हार । २ मुक्त जीव। ३ पहली तीन नरक-भूमि (२३) वाय वि [पग] वृक्ष-रहित वृति (भा २१) बा [ बाजू] शत्रु नाशक (भा २३) बाय [पाद] महान 3 [पात] १ जुग्राड़ी, जुए का खेलाड़ी । २ अशुभ समय ( वा २३ ) । वाय [व्याद] ब्राह्मण, विप्र ( श्र २३) । वाय [वाच] धनी जुलाहा पाउनु For Personal & Private Use Only पर ( २३ ) । वायवि ["व्रात] १ प्रकृष्ट समूहवाला । २ न सुभिक्ष समय का धान्य ( श्रा २३) । वाय पुं ["वात] ग्रीष्म समय का जनचिट (वा २३) वाय [व्याच] पूतं, उग (था २३) वायर [पाय ] धनीतिवाला (वा २१) बाब वि [ "बाक ] वेदन, वेद (२३) । 'वाय वि ["पांतृ] १ दयालु, कारुणिक । २ खूब पान करनेवाला । ३ खूब सूखनेवाला । ४ पुं. पावृट् काल का यवास वृक्ष । ५ मद्य व्यसनी ( श्रा २३) । वाय वि [बाद] सुस्थिर (श्रI २३ ) । वायव Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर-परक्कम्मि पाइअसहमहण्णवो बड़ा पेड़ (श्रा २३)। वाय वि[पात् ] ३४ उप पू १८२, महा)। हीण वि 'प्रणंतरोववरणगा चेव परंपरोववरणगा प्रकृष्ट पैरवाला (श्रा २३)। वाय वि [ वाच] [धीन] परतन्त्र, परायत्त (नाट-मालवि चेव' (ठा २, २; भग १३, १)। फलित शालि (श्रा २३)। वाय वि[वाप] २०)। परंभार वि [परम्भरि दूसरे का पेट भरने१ विशेष भाव से शत्रु की चिन्ता करनेवाला। पर देखो परामप्र (श्रा २३; पउम ६१,८)। वाला (ठा ४, ३-पत्र २४७) । २ पुं. मन्त्री, अमात्य । ३ सुभट, योद्धा (श्रा परंप [परम्] १ परन्तु, किन्तु; 'जं तुम परंमुह वि [पराङ्मुख मुंह-फिरा, विमुख २३)। "वाय वि [पात] आपात-सुन्दर, पाणवेसित्ति, परं तुह दूरे नयरं' (महा)। (पि २६७)। जो प्रारम्भ में ही सुन्दर हो वह (श्रा २३)। २ उपरान्त; 'नो से कप्पइ एत्तो बाहि; तेण परकीअ) वि [परकीय अन्य-सम्बन्धी, इतर 'वाय वि [व्राय] श्रेष्ठ विवाहवाला | पर, जत्थ नाणदसणचरित्ताई उस्सप्पति ति परकेर से सम्बन्ध रखनेवाला (विसे ४१: (श्रा २३)। वाय वि [पाय] श्रेष्ठ बेमि' (कस १,५१,२,४-७४,१२-२६)। परक्क । सुपा ३४६; अभि १५१, षड्; रक्षावाला, जिसकी रक्षा का उत्तम प्रबन्ध ३ केवल, फक्तः 'एस मह संतावो, परं स्वप्न ४०; स २०७: षड् ), 'न सेवियव्वा हो वह । २ अत्यन्त प्यासा । ३ पुं. राजा, माणससरमज्जणेण जइ अवगच्छइत्ति' (महा)। पमया परक्का' (गोय १३)। नरेश (श्रा २३)। "वाय वि [°व्यात] | परंप [परुन् । आगामी वर्ष, प्रज्जं कल्लं । परक न [दे] छोटा प्रवाह (दे ६, ८)। १ इतर के पास विशेष वमन करनेवाल।। परं परारि' (वै २), 'प्रज्जं परं परारि | परकंत वि [पराक्रान्त] १ जिसने पराक्रम २ पुं. भिक्षुक, याचक (श्रा २३)। वाय पुरिसा चितंति अत्थसंपत्ति' (प्रासू ११०)। किया हो वह । २ अन्य से आक्रान्त; 'गामावि [ पायस् ] १ दूसरे की रक्षा के लिए हथियार रखनेवाला। २ पुं. सुभट, योद्धा णुगामं दूइज्जमाणस्स दुज्जायं दुप्परक्तं | परंग सक [परि + अङ्ग] चलना, गति भवई' (प्राचा)। ३ न. पराक्रम, बल। ४ | करना । कवकृ. परंगिजमाण (औप)। (श्रा २३)। वाया स्त्री [°व्याजा] वेश्या, वारांगना (श्रा २३)। वाया स्त्री ["व्यागस्] | परंगमण न [पर्यङ्गन] पाँव से चलना, उद्यम, प्रयत्न । ५ अनुठानः 'जे प्रबुद्धा चंक्रमण (औप)। महाभागा वीरा असम्मतदंसिणो, असुद्धं असती, कुलटा (श्रा २३)। वाया स्त्री | परंगामण न [पर्यङ्गन चलाना, चंक्रमण तेसि परक्कतं' (सूम १, ८, २२)। [ व्यापा] अन्तिम समृद्र की स्थिति (श्रा कराना (भग ११, ११–पत्र ५४४)। परक्कम अक [परा + क्रम् ] पराक्रम २३)। वाया स्त्री [पाता] धूर्त-मैत्री करना । परक्कमे, परकमेज्जा, परकमेज्जासि (श्रा २३)। वाया स्त्री ["वाया] नृपपरंतम वि [परतम] अन्य को हैरान करने (प्राचा)। वकृ. परक्कमंत, परकममाण कन्या (श्रा २३)। वाया स्त्री ["पागा] वाला (ठा ४, २–पत्र २१६) । (प्राचा)। कृ. परक्कमियव्व, परक्कम्म मरु-भूमि (श्रा २३) । "वाया स्त्री परंतम वि [परतमस्] १ अन्य पर क्रोध (णाया १, १, सूप १, १, १)। [वाच् ] कश्मीर-भूमि (श्रा २३)। करनेवाला । २ अन्य-विषयक अज्ञान रखने परक्कम सक [परा + क्रम् ] १ जाना। 'वाया स्त्री [°वाज ] नृप-स्थिति (श्रा वाला (ठा ४, २-पत्र २१६) । २ प्रासेवन करना। ३ प्रक. प्रवृत्ति करना। २३)। बाया स्त्री [पात् ] शतपदी, | परंतु अ [परन्तु] किन्तु (सुपा ४६६)। परक्कमे (दस ५, १, ६)। परक्कमिज्जा जन्तु-विशेष (श्रा २३)। वाया स्त्री | परंदम वि [परन्दम] १ अन्य को पीड़ा | (दस ८, ४१)। संकृ. परकम्म (दस [°व्यावा] भेरी, वाद्य-विशेष (श्रा २३)। पहुँचाने वाला (उत्त ७,६)। २ अन्य को | ८, ३२)। विएस पुं [विदेश] परदेश, विदेश शान्त करनेवाला। ३ अश्व आदि को | परकम पूं [पराक्रम] गतं आदि से भिन्न (पउम ३२, ३६)। "व्वस देखो वस सिखानेवाला (ठा ४.२--पत्र २१३)। माग (दस ५, १, ४)। (षड्। गा २६५, भवि)। 'संतिग वि परंपर 1 वि [परम्पर] १ भिन्न-भिन्न परक्कम पूंन [पराक्रम] १ वीर्य, बल, शक्ति, [सत्क] पर-संबन्धी, परकीय (पण्ह १ | परंपरग (णंदि)। २ व्यवहितः 'परंपर- सामर्थ्य (विसे १०४६; ठा ३, १; कुमा), ३)। समय पुं [°समय इतर दर्शन | परंपरय | सिद्ध-(परण १ ठा २,१; 'तस्स परक्कम गीयमाणं न तए सुर्य' का सिद्धान्तः 'जावडया नयवाया तावइया । १०)। ३ पुन, परम्परा, अविच्छिन्न धारा (सम्मत्त १७६)। २ उत्साह। ३ चेगा. चेव परसमया' (सम्म १४४)। हुअ वि (उप ७३३), 'पुरिसपरंपरएण तेहिं इट्ठगा। प्रयत्न (प्राचू १, प्रासू ६३; प्राचा)। ४ [भृत ] १ दूसरे से पुष्ट, अन्य से पालित प्राणिया', 'एस दव्वपरंपरगो' (प्राव १), शत्रु का नाश करने की शक्ति (जं ३)। ५ (प्राप्र)। २ पुंस्त्री. कोयल, पिक पक्षी 'परंपरेणं' (कप्प; धर्मसं ५३१, १३०६) । पर-आक्रमण, पर-पराजय (ठा ४, १७ (कप्प)। स्त्री. °आ (सुर ३, ५४, पान)। परंपरा स्त्री [परम्परा] १ अनुक्रम, परिपाटी श्रावम)। ६ गमन, गति (सूम २, १, ६)। घाय देखो घाय (प्रासू १०४ सम ६७)। (भग; औप, पाम)। २ अविच्छिन्न धारा, ७ मार्ग (दश० अ० चू० सू० ८६)। "धीण देखो हीण (धर्मवि १३६)। यत्त प्रवाह (णाया १,१)। ३ निरन्तरता, म- परक्कमि वि [पराक्रमिन] पराक्रम-संपन्न वि [यत्त पराधीन, परतन्त्र (पउम ६४, व्यवधान (भग ६, १)। ४ व्यवधान, अन्तरः । (धर्मवि १६; १२०)। For Personal & Private Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो परग-परसु परग न [दे. परक] १ तृण-विशेष, जिससे फूल गूथे जाते हैं (प्राचा २, २, ३, २०; सूत्र २, २, ७)। २ धान्य-विशेष (सूप २, २,११)। परग वि [पारग] परग तृण का बना हुआ (प्राचा २, १, ११, ३, २, २, ३, १४)। परगासय वि [प्रकाशक] प्रकाश करनेवाला (तंदु ४६)। परग्घ वि [पराघ] महर्ष, महँगा, बहुमूल्य (दस ७, ४३)। परज (अप) सक [परा + जि] पराजय करना, हराना । परज्जइ (भवि) । परजिय (अप) वि [पराजित पराजय प्राप्त, हराया हुआ (भवि)। परज्म वि [दे] १ पर-वश, पराधीन, परतन्त्रः 'जेसंखयाः तुच्छपरप्पवाई ते पेज्जदोसारणगया परज्झा' (उत्त ४, १३ बृह ४)। २ पुंन. परतन्त्रता, पराधीनता (ठा १०पत्र ५०५, भग ७, ८-पत्र ३१४)। परट्ट देखो परिअट्ट = परिवर्त (जीवस २५२; पव १६२; कम्म ५, ५६)। परडा स्त्री [दे] सर्प-विशेष (दे ६, ५), 'उच्चारं कुणमाणो अपाणदेसम्मि गरुयपरडाए, दट्ठो पीडाए मो' (सुपा ६२०)। परदारिअ [पारदारिक] परस्त्री-लम्पट (पउम १०५, १०७)। परद्ध वि [दे] १ पीड़ित, दुःखित (दे ६, | ७०; पानसुर ७, ४, १६, १४४, उप पृ २२०; महा)। २ पतित। ३ भीरु, डरपोक (दे ६, ७०)। ४ व्याप्तः 'जोइ परद्धा जीवा न दोसगुणदसिणो होंति' (धम्मो १४)। परप्पर देखो परोप्पर (पि ३११; नाटमालती १६८)। परब्भवमाण देखो पराभव = परा + भू। परभत्त वि [दे] भीरु, डरपोक (षड् )। परभाअ पुं[दे] सुरत, मैथुन (दे ६, २७)। परम वि [परम] १ उत्कृष्ट, सर्वाधिक (सूत्र १, ६; जी ३७)। २ उत्तम, सर्वोत्तम, श्रेष्ठ (पंचव ४ धर्म ३; कुमा)। ३ प्रत्यर्थ, अत्यन्त (पएह १, ३, भगः प्रौप)। ४ प्रधान मुख्य (प्राचा; दस ६, ३)। ५ पुं. मोक्ष, मुक्ति। ६ संयम, चारित्र (आचा: परमाहम्मिय वि [परमधार्मिक] सुख का सूत्र १, ६)। ७ न. सुख (दस ४)। ८ | अभिलाषी (दस ४, १)। लगातार पांच दिनों का उपवास (संबोध | परमिट्टि [परमेष्ठिन] १ ब्रह्मा, चतुरानन ५८) । "ह पुं[१] १ सत्य पदार्थ, (पामा सम्मत्त ७८) । २ अहंन्, सिद्ध, वास्तविक चीज: 'अयं परमट्टे सेसे अण?' प्राचार्य, उपाध्याय और मुनि (सुपा ६५; (भगः धर्म १)। २ मोक्ष, मुक्ति (उत्त १८ प्राप६८; गण ६ निसा २०)। पएह १, ३)। ३ संयम, चारित्र (सूत्र १, परमुक्त वि [परामुक्त] परित्यक्त (पउम ७१, ६)। ४ पुंन. देखो नीचे त्थ = थि; 'पर- २६)। मट्ठनिटिअट्ठा' (पडि, धर्म २)। °ण देखो। परमुवगारि । वि [परमोपकारिन्] बड़ा 'न्न (सम १५१)। त्थ पुन [र्थ] १ परमुवयारि । उपकार करनेवाला (सुर २, तत्त्व, सत्य, 'तत्तं परमत्थं (पाय), 'परम- ४२, २, ३७)। स्थदो' (अभि६१)। २-४ देखो °ट परमुह देखो परम्मुह (से २,१६)। (सुपा २४. ११०; सण प्रासू १६४; महा)। परमेट्टि देखो परमिट्ठि (कुमाः भविः चेइय स्थ न [स्त्र] सर्वोत्तम हथियार, अमोघ अस्त्र (से १. १)। दंसि कि [दशिन्] परमेसर पुं [ परमेश्वर ] सर्वेश्वयं-संपन्न, १ मोक्ष देखनेवाला। २ मोक्ष-मार्ग का परमात्मा (सम्मत्त १४४; भवि)। जानकार (प्राचा)। न न [न] १ खीर, 7 खीर परम्मुह वि [पराङ्मुख विमुख, मुँह-फिरा, दुग्ध-प्रधान मिष्ट भोजन (सुपा ३६०)। २ उदासीन (णाया १, २, काप्र ७२३; गा एक दिन का उपवास (संबोध ५.)। पय ६८८)। न [पद] मोक्ष, निर्वाण, मुक्ति (पानः परय न [परक] प्राधिक्य, अतिशय (उत्त भवि, प्रजि ४०; पंचा १४)। 'प्प j ३४, १४)। [त्मन् ] सर्वोत्तम प्रात्मा, परमेश्वर परलोइअ वि [पारलौकिक] जन्मान्तर(कुमा; सुपा ८३, रयण ४३)। "प्पय संबन्धी (प्राचाः सम ११६; परह १, ५)। देखो पय (सुपा १२७)। °प्पय देखो परवाय वि [प्ररवाज] १ प्रकृष्ट शब्द से प्प (भवि) । पया स्त्री [त्मता] मुक्तिः | प्रेरणा करनेवाला । २ पुं. सारथि, रथ मोक्ष: 'सेलेसिं पारुहिउं अरिकेसरिसूरी होकनेवाला (श्रा २३)। परमप्पयं पत्तो' (सुपा १२७)। बोधिसत्त परवाय वि [प्रारवाय] १ श्रेष्ठ गाना गानेपुं[बोधिसत्त्व] परमाहत, अहंन देव का वाला । २ पृ. उत्तम गवैया (श्रा २३) । परम भक्त ( मोह ३)। संखिज्ज न परवाय पुं [प्ररपाज नाज (अन्न) भरने का [संख्येय संख्या-विशेष (कम्म ४, ७१)। सोमणस्सिय वि [सौमनस्यित] कोठा, वह घर जहाँ नाज संगृहीत किया सर्वोत्तम मनवाला, संतुष्ट मनवाला (प्रौप; जाता है, कोठार, बखार (था २३)। कप्प) । सोमणस्सिय वि ['सौमनस्यिक] परवाया स्त्री [प्ररवाप्] गिरि-नदी, पहाड़ी वही अर्थ (प्रौप कप्प)। हेला स्त्री [हेला] नदी (श्रा २३)। उत्कृष्ट तिरस्कार (सुपा ४७०)। उ न परस (अप) देखो फास = स्पर्श (पिंगः भवि)। [युस्] १ लम्बा आयुष्य, बड़ी उमर 'मणि पुं [मणि] रत्न-विशेष, जिसके (पउम १०, ७)। २ जीवित काल, उमर स्पर्श से लोहा सुवर्ण होता है (पिंग)। ( विपा १,१)। णु [णु] सर्व-सूक्ष्म परसण्ण (अप) देखो पसण्ण (पिंग)। वस्तु (भगः गउड)। हम्मिय [°धार्मिक] | परसु पुं [परशु] अस्त्र-विशेष, परश्वध, कुठार, असुर-विशेष, नारक जीवों को दुःख देनेवाले कुल्हाड़ी (भग ६, ३३, प्रासू ६६२ देवों की एक जाति (सम २८)। होहिअ काल)। राम पुं[राम] जमदग्नि ऋषि वि [धिोवधिक अवधिज्ञान-विशेषवाला, का पुत्र, जिसने इक्कीस बार निःक्षत्रिय पृथिवी ज्ञानि-विशेष (भग)। की थी (कुमा; पि २०८)। For Personal & Private Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ परसुहत्त-पराहुत्त पाइअसहमहण्णवो परसुहत्त पुं[दे] वृक्ष, पेड़, दरख्त (दे ६, पराणग वि [परकीय] अन्य का, दूसरे का पराय प्रक[प्र+राज् ] विशेष शोभना । २६)। 'जत्थ हिरएणसुवरणं हत्थेण पराणगंपि नो वकृ. परायंत (कप्प)। परस्सर पुंस्त्री [दे.पराशर] गेंडा, पशु-विशेष छिप्पे (गच्छ २, ५०)। पराय [पराग] १ धूली, रज; 'रेणू पंसू (पएण १ राज) । स्त्री. 'री (पएण ११)। पराणिय वि [पराणीत] पहुँचा हुप्रा (भवि)। रमो परामो य' (पास) । २ पुष्प-रज (कुमा; परहुत्त वि [पराभूत] पराजित, हराया गया पराणी सक [परा + णी] पहुँचाना । पराणए गउड)। (पउम ६१, ८)। (भवि)। पराणेमि (स २३४); 'जइ भणसि | पराय । वि पिरकीय] पर-संबन्धी, इतर परा अ [परा] इन अर्थों का सूचक अव्यय ता निमेसमित्तण तुमं तायमंदिरं पराणेमि' परायग) से संबन्ध रखनेवाला; 'नो अप्पणा १ आभिमुख्य, संमुखता । २ त्याग । ३ पराया गुरुणो कयावि हंति सुद्धाणं' (कुप्र ६०)। धर्षण । ४ प्राधान्य, मुख्यता। ५ विक्रम । परानयण न [पराणयन] पहुँचानाः नियम- | (सट्ठि १०५ हे ४, ३७६; भग ८; ५)। ६ गति, गमन । ७ भङ्ग । ८ अनादर । ६ गिणीपरानयणे का लजा, अवि य ऊसवो परायण वि [परायण] तत्पर (कम्म १, तिरस्कार । १० प्रत्यावर्तन (हे २, २१७)। एस' (अ ७२८ टी)। ११ भृश, अत्यन्त (ठा ३, २,श्रा २३)। पराभव सक [परा + भू] हराना । कवकृ. परा स्त्री [दे. परा] तृण-विशेष (पएह २, परारि अपरारि] आगामी तीसरा वर्ष ३-पत्र १२३)। (प्रासू ११०; वै २)। पराभविजंत, परब्भवमाण (उप ३२० टी; णाया १, २, १८)। पराल देखो पलाल (प्रासू १३८) । पराइ सक [परा + जि] हराना, पराजय करना । संकृ. पराइइत्ता (सूअनि १६६)। पराभव पुं [पराभव] पराजय, हार (विपा पराव (अप) सक [प्र + आप्] प्राप्त करना । परावहिं (हे ४, ४४२) । १,१)। पराइअ वि [पराजित] पराभव-प्राप्त (पउम २, ८६ औपः स ६३४ सुर ६, २५, १३, पराभविअ वि [पराभूत] अभिभूत, हराया। परावत्त प्रक [परा + वृत् ] १ बदलना; १७१; उत्त ३२, १२)। हुप्रा (धर्मवि ६८)। पलटना । २ पीछे लौटना । परावत्तइ (उवर पराइअ (अप) वि [परागत] गया हुआ पराम? देखो परामुट्ठ (पउम ६८, ७३)। ८८) । वकृ. परावत्तमाण (राज)। (भवि)। परामरिस सक [परा+ मृश १ विचार परावत्त सक[परा + वतेय ] १ फिराना । पराइण देखो पराजिण । पराइणइ (पि करना, विवेचन करना। २ स्पर्श करना। २ प्रावृत्ति करना । परावत्तंति (पव ७१), ४७३; भग)। परामरिसइ (भवि) । वकृ. परामरिसंत परावत्तेसि (मोह ४७)। संकृ. 'तो सागरेण पराई स्त्रो [परकीया] इतर से संबन्ध रखने(भवि) । संकृ. परामरिसिअ (नाट-मृच्छ । भरिणयं अरे परावत्तिऊण निययरह (कुप्र वाली, वह नायिका जो परपुरुष से प्रेम करे ८७)। ३७८)। (हे ४, ३५०; ३६७ ) । देखो पराय = परामरिस पुं [परामर्श] १ विवेचन, विचार परावत्त पुं [परावर्त] परिवर्तन, हेरफेर, परकीय। (प्रामा) । २ युक्ति, उपत्ति । ३ स्पर्श । ४ हेराफेरी (स ६२, उप पृ. २७; महा)। पराकम देखो परक्कम (सूत्र २, १, ६)। न्याय- शास्त्रोक्त व्याप्ति-विशिष्ट रूप से पक्ष का परावात्त वि[परावतिन् । परिवर्तन करनेपराकय वि [पराकृत] निराकृत, निरस्त ज्ञान (हे २, १०५)। वाला; 'वेसपरावत्तिणी गुलिया' (महा) । (अज्झ ३०)। परामिट्ट। वि [परामृष्ट] १ विचारित, परावत्ति स्त्री [परावृत्ति परिवर्तन, हेराफेरी पराकर सक [परा + कृ] निराकरण करना। परामुट्ठ विवेचित। २ स्पृष्ट, छया हुआ (उप १०३१ टो)। पराकरोदि (शौ) (नाट-चैत ३५) । (नाट-मृच्छ ३३; हे १ १३१; स १००; परावत्तिय वि [परावर्तित] परिवर्तित, पराजय पुं [पराजय] परिभव, अभिभव, कुप्र ५१)। बदला हुआ (महा)। हार (राज)। परामुस सक [परा + मृश] १ स्पर्श परासर पुं[पराशर] १ पशु-विशेष (राज) । पराजय । सक [परा + जि] पराजय करना, छूना । २ विचार करना, विवेचन २ ऋषि-विशेष (प्रौपः गा ८६२)। पराजिण करना, हराना । भूका. पराज करना । ३ पाच्छादित करना। ४ पोंछना। परासु वि [परासु] प्राण-रहित, मृत (श्रा यित्था (पि ५१७) । भवि. पराजिणिस्सइ ५ लोप करना। परामुसइ (कस)। कर्म. १४ धर्मसं ६७)। (पि ५२१) । संकृ. पराजिणित्ता (ठा ४, २)। हेकृ. पराजिणित्तए (भग ७, ६)। 'सूरो परामुसिजइ णाभिमुहुक्खित्तधूलिहि' पराव देखो पराभव = पराभव (गुण ६)। पराजिणिअ) देखो पराइअ पराजित (उवर १२३)। वकृ. 'निय उत्तरिज्जेण पराहुत्त वि [दे. पराङ्मुख विमुख, मुंहपराजिय (उप पृ ५२ महा)। नयरलाई परामुसंतेण भणियं' (कुप्र ६६)। फिरा (ग २४५; से १०, ६४, उप पृ३८८ पराण देखो पाण = प्राण (नाट-चैत ५४; कवकृ. परामुसिज्जमाण (स ३४६)। अोष ५१४, वज्जा २६), 'महविणयपराहुत्तो' पि १३२)। परामुसिय देखो परामुद्र (महा; पाम)। (पउम ३३, ७४, सुख २,१७)। For Personal & Private Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० पाइअसहमहण्णवो पराहुत्त-परिअत्तमाणी पराहुत्त वि[पराभूत] अभिभूत, हराया याद करना । ३ फिराना, घुमाना। परियट्टइ, परिअड्डिअ वि [दे] प्रकटित, व्यक्त किया पराहू" हुआ (उप ६४८ टी पान)। परियट्टेइ (भविः उव)। हेकृ. 'परियट्टिउ- हपा (षड्)। परि अ [परि] इन अर्थो का सूचक अव्यय- माढत्तो नलिणीगुम्मं ति अज्झयणं' (कुप्र परिअड्ढ अक [परि + वृध् ] बढ़ना, १ सर्वतोभाव, समंतात्, चारों ओर (गा २२; १७३)। 'परिप्रदुइ लायएणं' (हे ८, २२०)। सूत्र १,६)। २ परिपाटी, क्रम (पिंग)। परिअट्ट सक [परि + अट् ] परिभ्रमण परिअड्ढ सक [परि + वर्धय ] बढ़ाना ३ पुनः पुनः; फिर फिर (पराह १,१; करना, घूमना । परिमट्टर (हे ४, २३०)। (हे ४; २२०)। श्रावक २८४) । ४ सामीप्य, समीपता: संकृ. परियट्टिवि (अप) (भवि)। परिअड्ढि स्त्री [परिवृद्धि] विशेष वृद्धि (गउड ७७६)। ५ विनिमय, बदला; 'परि परिअट्ट पुंदे] रजक, धोबी (दे६.१५)। (प्राकृ २१)। यारण' = परिदान ( भवि)। ६ प्रतिशय, परिअट्ट पुं[परिवर्त] १ पलटाव, बदला। पारआड्ढअ वि [परिवधिन्, का बढ़ानेविशेष (स ७३४) । ७ संपूर्णताः परिट्टिन' वाला, 'समणगणवंदपरियड्डिए (औप)। (पव ६६)। ८ बाहरपन (श्रावक २८४)। २ समय का परिणाम-विशेष, अनन्त उत्सर्पिणी परिअडिढअ वि [पर्याध्यक] परिपूर्ण और अवसर्पिणी काल (विपा १,१; सुर १६, ६ ऊपर (हे २, २११; सुपा २६६)।१० (प्रौप)। शेष, बाकी । ११ पूजा। १२ व्यापकता । १४५, पव १६२)। परिअडिढअ वि [परिकर्षिन्, क खींचने१३ उपरम, निवृत्ति । १४ शोक । १५ परिअट्टग वि [परिवर्तक] परिवर्तन करने वाला, आकर्षक (प्रौप)। किसी प्रकार की प्राप्ति । १६ पाख्यान । १७ वाला (निचू १०)। परिअड्ढि वि [परिकृष्ट] खोंचा हुअा, संतोष-भाषण । १८ भूषण, अलंकरण । परिअट्टण न [परिवर्तन] १ पलटाव, बदला प्राकृट; 'जस्स समरेसु रेहइ हयगयमयमिलिय१६ आलिंगन । २० नियम । २१ वर्जन, करना (पिंड ३२४ वै ६७)। २ द्विगुण, परिमलुग्गारा । दढपरियड्डियजयसिरिकेसप्रतिषेध (हे २, २१७, भवि; गउड)। २२ त्रिगुण आदि उपकरण (प्राचा १, २, १, कलावो व्य खग्गलया' (सुपा ३१)। निरर्थक भी इसका प्रयोग होता है (गउड परिअण पुं[परिजन] १ परिवार, कुटुम्ब, १०; सण)। परिअट्टणा श्री [परिवर्तना] १ फिर फिर | पुत्र-कलत्र आदि पालनीय वर्ग। २ अनुचर, परि देखो पडि%= प्रति (ठा ५, १-पत्र होना (पएह १,१) । २ आवृत्ति, पठित अनुगामी (गा २८३; गउड पि ३५०)। ३०२; पएण १६-पत्र ७७४, ७८१)। पाठ का प्रवर्तन (ग्राचा २,१, ४, २, उत्त | परिअन्त देखो परिअंत - श्लिष् । परिप्रत्तइ परि स्त्री [दे] गीति, गीत (कुमा)। २६, १, ३०, ३४, प्रौप; ठा ५, ३)। ३ | (हे ४, १६० टो)। द्विगुण आदि उपकरण (पि २८६) । ४ बदला परिअत्त देखो परिअट = परि + वृत् । परिपरि सक [क्षिप् ] फेंकना । परिद (षड् )। करना (पिंड ३२५)। यत्तइ (भवि); 'नडुब्व परिअत्तए जीवो परिज सक [परि + भञ्ज ] भाँगना, परिअट्टय वि [पर्यटक] परिभ्रमण करने- (वै ६०), परियत्तए ( उवा) । वकृ. परियतोड़ना। परिजइ (धात्वा १४३)। वालाः 'मेरुगिरिसययपरियट्टय' (कप्प ३६)।। त्तमाण (महा)। परिअंत सक [श्लिप्] १ प्रालिंगन करना। परिअट्टलिअ वि[दे] परिच्छिन्न (दे ६, परिअत्त देखो परिअट्ट = परि + वर्तम् । संकृ. २ संसर्ग करना । परिअंतइ (हे ४, १९०)। परियत्तेउ (तंदु ३८)। परिअंत देखो पज्जत (पराह १, ३; पउम ६५, परिअत्त देखो परिअट्ट = परिवर्त (प्रौप)। परिअट्टविअ वि [दे] परिच्छिन्न (षड् )। १६ सूत्र २, १, १५)। परिअंतणा स्त्री [परियन्त्रगा] अतिशय परिअट्टिय वि [परिवर्तित] बदलाया हुआ | परिअक्त-वि [दे] प्रसृत, फैला हुआ; 'सव्वायन्त्रणा (नाट-मालती २८)। (ठा ३, ४; पिंड ३२३, पंचा १३, १२)। सणरिउसंभवहो करपरिपत्ता ता' (हे ४, देखो परिअत्ति। ३९५)। परिअंतिअ वि [श्लिष्ट प्रालिंगित (कुमा)। परिअंभिअ वि [परिजांम्भत विकसित (से | परिअड सक [ परि + अट् ] परिभ्रमण परिअत्त वि [परिवृत्त] पलटा हुआ (भवि) । करना। परिअडंति (श्रावक १३३)। वकृ. परिअत्तण देखो परिअट्टण (गउड), २, २०)। परियडंत (सुर २, २)। 'चाइयणकरपरंपरपरियत्तरणखेयवसपरिस्संता। परिअटक [परि + वृत] पलटना, बद-परिक्षण न पर्यटन 1 परिभ्रमण (स | अत्था किविणघरत्था सुत्थावत्था सुयंति व्व' लना । वकृ. दिट्ठो अपरिअटुंतीए सहया११४)। (सुपा ६३३)। रच्छायाए एसो' (कुप्र ४५; महा), परियट्ट परिअडि स्त्री [दे] १ वृति, बाड़। २ वि. परिअत्तणा देखो परिअट्टणा (राज)। माण (महा)। मूर्ख, बेवकूफ (दे ६, ७३)। परिअत्तमाण देखो परिअत्त । परिअट्ट सक[परि + वर्तय] १ पलटाना, परिअडिअ वि [पर्यटित] परिभ्रान्त, भटका | परिअत्तमाणी स्त्री [परिवर्तमाना] कमबदलाना । २ प्रावृत्ति करना, पठित पाठ को हुमा (सिक्खा १७)। प्रकृति-विशेष, वह कम-प्रकृति जो अन्य प्रकृति For Personal & Private Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिअत्ता - परिकम्मण के बन्ध या उदय को रोक कर स्वयं बन्ध या उदय को प्राप्त होती है (पंच ३, १४; ३, ४३ कम्म ५, १ टी) । परित्ता स्त्री [परिवर्ता] ऊपर देखो (कम्म ५, १) । परिअत्तिअ वि [परिवर्तित ] १ मोड़ा हु 'वालिप्रयं परियत्ति (पान)। २ देखो परिट्ट (भवि ) । परिअर सक [ परि + चर ] सेवा करना । वकृ. परिअरंत (नाट - - शकु १५८ ) । परिअर वि [] लीन, निमग्न (दे ६, २४) । परिअर [परिकर ] १ कटि-कन्धनः 'सन्नद्धबद्धपरियर भडेहि' (भवि ) । २ परिवार; 'किरणकिलामियपरियरभुयं गविसजल रणधूमतिमिरेहिं ' ( गउड चेइय ९४ ) । परिअरपुं [परिचर] सेवक, भृत्यः अणु जिंतं रक्खापरिरधुप्रधवल चामरणि हे ' ( गउड) । परिअरण न परिचरण ] सेवा (संबोध ३६) । परिअरणा स्त्री [परिचरणा ] सेवा ( सम्मत २१५)। परिअर वि [परिकरित, परिवृत] १ परिवार-युक्त; ' हयगयर ह जोहसुहडपरियरिमो' ( महा भवि सरण) । २ परिवेष्टित; 'तम्रो तं समायरिणऊरण सुइसुहं तारण गेयं समंतत्रो परियरिया सव्वलोगेणं' (महा; सिरि १२८२ ) । परिअल सक [ गम् ] जाना, गमन करना । परिअल (हे ४, १६२ ) । परिअल पुंस्त्री [दे ] थाल, थलिया, भोजनपरिअलि ) पात्र (भवि दे ६, १२) । परिअलिअवि [गत ] गया हुआ (कुमा) । परिअल देखो परिअल । परिमल्लइ (हे ४, १६२) । संकृ. परिअल्लिऊण (कुमा) । परिआरअ वि [ परिचारक ] सेवक, भृत्य (चारु ५३) । स्त्री. 'रिआ ( श्रभि १६९ ) । परिल सक [ वेष्टय् ] वेष्टन करना, लपेटना । परिश्रालेइ (हे ४, ५१) । परिआल वि [] परिवृत, परिवेष्टितः 'सो जयइ जामइल्लायमाण मुलालिवलयपरिश्रालं । पाइअसहम लच्छिनिवेसंतेउरवई व जो वह वरणमा' (गउड) । परिआल देखो परिवार (गाया १, ५ ठा ४, २० औप ) । [ष्ट ] लपेटा हुआ, बेढ़ा परिओस पुं [परितोष ] श्रानन्द, संतोष, खुशी ( से ११, ३; गा ६८ २०६६ स ६ सुपा ३७० ) । परिओस पुं [दे. परिद्वेष ] विशेष द्वेष (भवि) । परिओसिय वि [परितोषित ] संतुष्ट किया हुआ (से १३, २५ भवि ) । परित देखो परी = परि + इ । परिकंख सक [ परि + काङ्क्ष ] १ विशेष अभिलाषा करना । २ प्रतीक्षा करना । परिकखए ( उत्त ७, २) । परिकंद पुं [परिकन्द ] श्राक्रन्द, चिल्लाहट ( हम्मीर ३० ) । परिकंपि वि [परिकम्पिन् ] श्रतिशय कँपानेवाला (गउड) | हुमा (कुमा पा) । परिआव देखो परिताव ( दस १, २, १४) । परिविअ सक [ पर्या + पा ] पीना । परिप्राविएजा ( सू २, १, ४९ ) । परिआसमंत (अप) अ [ पर्यासमन्तात् ] चारों ओर से (भवि ) । परिइसक [परि + इ] पर्यटन करना । परि ति (उत्त२७, १३) । परिण[ि परिकीर्ण ] व्याप्त (सम्मत १५६) । परिइद (शौ) वि [परिचित ] परिचय-विशिष्ट, ज्ञात, पहचाना हुआ (अभि २४५) । परिडंब सक [परि + चुम्ब] चुम्बन करना । परिरंबई (भवि ) । परिडंबण न [परिचुम्बन ] सर्वतः ब (गा २२ हास्य १३४ ) । परिबणा श्री [ परिचुम्बना ] ऊपर देखो; ‘गंडपरिउंबणावुलइचंग ण पुणो चिराइस्स' (गा २० ) । परिवि [पर्युज्झित ] सर्वथा व्यक्त (सण) । परिउट्ठ वि [परितुष्ट] विशेष तुष्ट (स ७३४)। परित्थवि [दे] प्रोषित, प्रवास में गया हुम्रा (दे ६, १३) । परिसिवि [पर्युषित] बासी, ठण्ढा, भाफ निकला हुआ (भोजन) (दे १, ३७) । परिऊढ वि [दे. परिगूढ ] क्षाम, कृश, पतला; 'उप्फुल्लिमा खेल्लउ मा णं वारेहि होउ परिऊढा । मा जहणभार गरुई पुरिसाती लिम्मिहि' (गा १९६) । परिकरण न [ परिपूरण] परिपूर्ति (नाटशकु८) । परिएस देखो परिवेस = परि + विष् । कवकृ. परिएसिज्जमाण (प्राचा २, १, २, १) । ५५१ |परिएस देखो परिवेस = परिवेश ( स ३१२ ) । परिओस सक [ परि + तोषय् ] संतुष्ट करना, खुशी करना । परिश्रोसर ( भवि (सण) । For Personal & Private Use Only परिकपिर वि [परिकम्पिट] विशेष काँपनेवाला (सण) । परिच्छिवि [ परिकक्षित ] परिगृहीत (राय) । परिकलिअ वि [ दे ] एकत्र पिण्डीकृत (पिंड २३९) । परिकढ सक [ परि + कृष् ] १ पार्श्व भाग में खींचना। २ प्रारम्भ करना । वक्र. परि कडूढे माण (राज)। संकृ. परिकड्ढिऊण ( पंचव २ ) । परिकणि वि [ परिकठिन ] श्रत्यन्त कठिन (गउड) । परिकप्प सक [ परि + कल्पयू ] १ निष्पादन करना । २ कल्पना करना । परिकप्पयंति (सूत्र १, ७, १३) । संकृ परिकल्पिऊण (चेइय १४ ) । परिकप्पिय वि [परिकल्पित ] छिन्न, काटा हुमा ( परह १, ३ ) । देखो परिगप्पिय । परिकब्बुर वि [ परिकर्बुर] विशेष कबरा - चितकबरा (गउड ) | परिक्रम्म } न [परिकर्मन्] १ गुण-विशेष परिक्रमण का प्रधान, संस्कार करण 'परिक्रम्मं किरियाए वत्थूणं गुणविसेस Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ परिणामों' (विसे ε२३; सुर १३, १२४), | वि पट्टा कार्य सरीरपरिकम्मरी एवं (कुप्र २७१ कप्प उव) । २ संस्कार का कारण-भूत शास्त्र (दि) । ३ गणितविशेष । ४ संख्यान-विशेष एक तरह की गणना (ठा १०-पत्र ४९१) ( पत्र १२२) । निष्पादन 'खेत्तमरूवं परिकम्मणा स्त्री. ऊपर देखो निच्चं न तस्स परिकम्मणा नय विरणासो' (विसे ६२४ सम्म ५४० संबोध ५३: उपपं ३४) । परिकमिव 1 [परिमित ] परिकर्मविशिष्ट संस्कारित (प)। परिकर देखो परिअर परिकर (पिन) परिकलन [परिकलन] उपभोगः 'अमरपरिकलम कमल भूमि यसरों' (सुपा ३ ) | परिकलिन [परिकलित] १ युक्त, सहित ( सिरि ३८१ ) । २ व्याप्त ( सम्मत्त २१५) । ३ प्राप्त; 'अंजलिपरिक लियजलं व गलइ इह जो (धर्मनि २५) । परिचवला श्री [परिकलना ] भत 'हरियपरितापूगी (पा३ । = परिकविल वि [परिकपिल ] सर्वतोभाव से कपिलवल(गड) | परिकविस वि [परिकपिश] अतिशय रंगवाला (गउड) | पाइस मण्णवो परिकित्तिअ वि [ परिकीर्त्तित] व्यावणित, श्लाघित ( ११०) | परिकिन्न [परिकीर्ण] १ परिवृत, वेष्टित, 'नियपरियर परिकिन्नो' (धर्मवि ५४ ) । २ व्याप्त (सुर १, ५६ ) । परिचित वि [परिक्लान्त]] विशेष खिन्न (उप १६४ टी) । परिकिलेस सक [ परि + क्लेशय् ] दुःखी करना, हैरान करना परिभग) । परिकिलेसंति । संकृ. परिकिलेसित्ता (भ)। परिसि[परिश] दुःख बा हैरानी ( सू २ २ ५५; श्रप स ६७५; धर्मसं १००४) । | परिकीतिर वि[परिकीडिन] अतिशय मोड़ा करनेवाला (स परिकुंठिया वि (रिले १०३) । परिकुलि वि [परिकुटिल] विशेष (सुर १, १ [ परिकुण्ठित ] जड़ीभूत परिकुद्ध वि [ परिक्रुद्ध ] अत्यन्त कुपित (धर्मवि १२४) । परिकुवियनि [परिकुपित] प्रति कुछ क्रुद्ध ( रणाया १, ८ उक सरण) । परिकोमल वि [ परिकोमल ] सर्वथा कोमल ( गउड ) । विपरित [पराकारत] पराक्रम-युक्त (सूम वि १, ३, ४, १५) । परिक्कम सक [ परि + क्रम् ] १ पाँव से चलना । २ समीप में जाना । ३ पराभव करना । ४ श्रक. पराक्रम करना । परिक्कमदि ५५ ) रुक्मि परिक्रमंत (४६) परिसि] ( परिक्रमेश) (४१) (नाट) कृ. परिकमिय (गाया है, ५ - पत्र १०३ ) । संकृ. परिक्कम्म (सूम १, ४, १, २ ) । परिक्कम देखो परिक्कम पराक्रम (गाया १, १; सरः उत्त १८, २४) । परिकरण न [परिक' ] खींचाव ( गउड ) । परिकह सक [ परि + कथय् ] प्ररूपण करना, कहना। परिवइ (उत्रा), परिकहंतु ( कम्म ६, ७५ )। कर्म. परिकहिज्जइ (पि ५४३) । हे. परिकहेउं ( प ) । परिक्षण [परिकधन] प्राध्यान, प्रणपण (सुपा २) | परिणा स्त्री [ परिकथना ] ऊपर देखो ( श्रावम) 1 परिका स्त्री [परिकथा] १ बातचीत । २ (१२६)। परिक्कहिअ देखो परिकहिय ( सुपा २०८ ) । परिकदिय[परिकथित ] प्ररूपित, परिकाम देखो परिक्रमपरि कम् + । आख्यात (महा) । परिकिण देखो परिकिन्नः 'चेडियाचक्कवालपरिका (उमा)। परिक्कामदि (पि ४८१ त्रि ८७) । परिक्ख सफ [ परि + ईक्ष ] = परखना, 1 परीक्षा करना । परिक्खइ, परिक्खए, परिक्खेति, For Personal & Private Use Only परिकम्मणा - परिक्लेव परिक्खउ (भवि महाः वज्जा १५८ स ४५७) । वकृ. परिक्खतः परिक्खमाण ( श्रोघ ८० भा; श्रा १४) । संक. परिक्खिय (ब) परिवियन्त्र (काल) । परिक्ख वि [परीक्षक] परीक्षा करनेवाला (सुपा ४२७; श्रा १४) । परिक्ख वि [परिक्षत] पातजसको घाव हुआ हो वह (से ८ ७३)। परिक्स [परिक्षय] १ क्रमशः हानि पुं 'बहुलपक्खचंदस्स जोरहापरिक्खओ विन' ( चारु ८) । २ क्षय, नाश (गउड ) । परिक्खण न [ परीक्षण ] परीक्षा ( स ४६६६ कप्पू, सुपा ४४६ गाया १, ७ भवि ) । परिक्खणा श्री [परीक्षण ] परीक्षा (पउम ६१, ३३) । परिक्खमाण देखो परिक्ख । परिक्खल प्रक [ परि + स्खल ] स्खलित होना । वकृ. परिक्खलंत ( से ४, १७) । परिक्यवि [परिस्थति] स्थलना (३०६) । परिक्खा स्त्री [परीक्षा ] परख, जाँच (नाटपरिक्लाइअअवि [६] परिनी (प) मालवि २२) । [दे] परिक्षीण षड् । परिक्खाम वि [ परिक्षाम ] श्रतिशयश (उत्तर ७२३ नाट - रत्ना ३ ) । परिक्सि वि [परिक्षिन ] परखनेवाला, परीक्षक (श्रा १४) । परिक्सि वि [परिक्षिप्त ] १ पेटित पेरा हुआ (मौप पात्र से १,५२६ वसु ) । २ सर्वथा क्षिप्त (श्रम) । ३ चारों ओर से व्याप्त (राय) । परिविवि [परीक्षित] जिसकी परीक्षा की गई हो वह (प्रासू १५ ) परिविस्य [परि + क्षिप्] न करना । २ तिरस्कार करना । ३ व्याप्त करना । ४ फेंकना 'एयं खु जरामरणं परिक्खिव वागुराव मयजूह' (तंदु ३३; जीवस १८६ ) । कम. परिक्खिवीग्रामो (पि ३१६) । परिक्खिविय वि [ परिक्षित ] फेंका हुआ (हम्मीर ३२) । परिक्खेव वि [परिक्षेप] घेरा, परिधि (भग सम ५६ : कस औप ) | Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिक्खेवि-परिघग्घर पाइअसहमहण्णवो परिक्खेवि वि [परिक्षेपिन] तिरस्कार गमन करना। २ चारों ओर से वेष्टन करना। परिगुण सक [परि + गुणय् ] परिगणन करनेवाला (उत्त ११, ८)। ३ व्याप्त करना । संकृ. परिगंतु (सण)। करना, गिनती करना। परिगुणहु (अप) परिखंध दे] काहार, कहार, जलादि-शिप नसिमना गया. पर्याय (पिग)। वाहक, नोकर (दे २, २७)। 'परिगमणं पज्जारो अणेगकरणंगुणोत्ति परिगुणण न [परिगुणन] स्वाध्याय (प्रोघ परिखज्ज सक [परि + खर्ज. ] खुजाना, एगत्था' (सम्म १०६)। २ समन्ताद् गमन ६२)। खुजलाना। कवक 'परिखज्जमाणमत्थयदेसो' (निचू ३)। परिगुव अक[ परि + गुप्] १ व्याकुल (उप ६८६ टि)। परिगमिर वि [परिगन्] जानेवाला (सरण)। होना। २ सक. सतत भ्रमण करना। वकृ. परिखण न [परीक्षण परीक्षा-करण, परीक्षा लेने, परखने या जाँच करने का काम (पव परिगय वि [परिगत] १ परिवेष्टितः 'मण परिगुवंत (राज)। स्सवग्गुरापरिगए' (उवा गा ६६), 'बहुपरि परिगुव सक परि + गु] शब्द करना । परिखविय वि [परिक्षपित ] परिक्षीणः | यणपरिगया' (सम्मत्त २१७)। २ व्याप्त वकृ. परिगुवंत (राज)। 'गुरुप्रट्टज्माणपरिखवियसरीरो' (महा)। __ 'विसपरिगयाहि दाढाहि' (उवा)। परिगुव्व अक [ परि + गुप ] १ व्याकुल परिखाम बि [परिक्षाम] अति दुर्बल, विशेष परिगर पुं [परिकर] परिवार; 'सेसाण तु होना। २ सक. सतत भ्रमण करना। वकृ. कृश (गा १९६)। हरियव्वं परिंगरविहवकालमादीणि णाउं' परिगुव्वंत (ठा १०-पत्र ५००)। परिखित्त देखो परिक्खित्त (सग)। (धर्मसं ६२६)। परिगू सक [परि+गू] शब्द करना । परिखिव देखो परिक्खिव। परिखिवइ परिगरिय वि [परिकरित देखो परिअरिय | कवकृ. परिगुव्वंत (ठा १०-पत्र ५००)। (भवि); 'राया तं परिखिवई दोहग्गवईण (सुपा १२७)। परिगेण्ह) सक [परि + ग्रह] ग्रहण मज्झम्मि' (सम्मत्त २१७ चेइय ६५५)। परिगल अक [ परि + गल] १ गल जाना, परिग्गह । करना, स्वीकार करना (प्रामा)। परिखिविय देखो परिखित्त (सण)। क्षीण होना। २ झरना, टपकना। परिगलइ वक. पारग्गहमाण (प्राचा १, ८, ३, १)। परिखुहिय वि [परिक्षुब्ध] अतिशय क्षोभ | (काल)। वकृ. पारगलन (पउम ११२, संकृ. परिगिज्झिय, परिघेत्तूण (राजा पि को प्राप्त (भवि)। १५; तंदु ४४)। ५८६)। हेकृ. परिघेत्तुं (पि ५७६)। कृ. परिखेइय वि [परिखेदित] विशेष खिन्न परिगलिय वि [परिगलित] गला हुआ, परिगिज्झ, परिघेतव्व, परिघेत्तव्य (उत्त किया हुआ (सण)। परिक्षीण (कुप्र ७; महा; सुपा ८७; ३६२) । १, ४३; सुपा ३३; सूत्र २, १, ४८, पि परिखेद (शौ) पुं [परिखेद] विशेष खेद परिगलिर वि [परिगलित] गल जानेवाला, ५७०)। (स्वप्न १०, ८०)। क्षीण होनेवाला (सण)। परिग्गय देखो परिगय (दस ६, २, ८)। परिखेय सक [ परि + खेदय् ] अतिशय परिगह देखो परिगेण्ड । संकृ. परिगहिअ परिग्गह पुं [परिग्रह] १ ग्रहण, स्वीकार । खिन्न करना। परिखेवइ (सण)। संकृ. (मा ४८)। २ धन आदि का संग्रह (पएह १, ५; प्रौप)। परिखेइवि (अप) (सण)। परिगह देखो परिग्गह (कुमा)। ३ ममत्व, मूर्छा (ठा १)। ४ ममत्व-पूर्वक परिखेविय (अप) देखो परिखिविय (सण)। जिसका संग्रह किया जाय वह (प्राचा, ठा परिगहिय देखो परिग्गहिय (बृह १)। परिगंतु देखो परिगम। ३, १; धर्म २)। "वेरमण न [विरमण] परिगा सक [परि + ग] गान करना। परिगण सक [परि + गणय ] १ गणना परिग्रह से निवृत्ति (ठा १, परह २, ५) । करना। २ चिन्तन करना, विचार करना। कवकृ. परिगिजमाण (णाया १, १)। "वित वि [°वत् ] परिग्रह-युक्त (प्राचा वकृ-'एस थक्का मम गमणस्स त्ति परि HAIRA नि परित परिगालण न [परिगालन] गालन, छानन पि ३९६) । गणंतेण विएणविनो राया' (महा)। (पएह १, १)। परिग्गद्दि वि [परिग्रहिन] परिग्रह-युक्त परिगप्पण न [परिकल्पन] कल्पना (धर्मसं परिगिजमाण देखो परिगा। (सून १, ६)। ६८१)। परिगिझ सोपा परिग्गहिय वि [परिगृहीत] स्वीकृत (उवाः परिगप्पणा स्त्री [परिकल्पना] ऊपर देखो परिगिझिय । औप)। (धर्मसं ३०५)। परिगिण्ह देखो परिगेण्ड । परिगिरहइ (पाचू परिग्ग या स्त्री [पारिग्रहिकी] परिग्रहपरिगप्पिय वि[परिकल्पित] जिसकी कल्पना । १)। वकृ. परिगिण्हंत, परिगिण्हमाण सम्बन्धी क्रिया (ठा २, १; नव १७)। की गई हो वह (स ११३; धर्मसं ६६६)। (सूम २, १, ४४. ठा ७–पत्र ३८३)। परिघग्घर वि [परिघधर] बैठी हुई देखो परिकप्पिय । परिगिला प्रक [परि + ग्लै] ग्लान होना। (आवाज); 'हरिणो जयइ चिरं विहयसहपरिपरिगम सक [परि + गम् ] १ जाना, वकृ. परिगिलायमाण (आचा)। घग्घरा वारणी' (गउड)। For Personal & Private Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ पाइअसहमहण्णवो परिघट्ट-परिच्छेअ परिघट्ट सक [परि + घट्ट] आघात करना। | परिचल सक [परि+चल] विशेष चलना। परिच्चाग, पुं [परित्याग] त्याग, मोचन कवकृ. परिघट्टिज्जत (महा)। परिचलइ (पिग)। परिचाय (पंचा ११, १४, उप ७६२; परिघट्टण न [परिघट्टन] प्राघात (वजा परिचलिअ वि [परिचलित] विशेष चला| प्रौप, भग)। ३८)। हुअा (दे ५, ६)। परिच्चाय वि [परित्याज्य] त्याग करने लायक, परिघट्टण न [परिघटन] निर्माण, रचना परिचारअ वि [परिचारक सेवा करनेवाला, 'अरणेवि असुहजोगा सोहिपयाणे परिचाया' (निचू १)। सेवक (नाट-मालवि ६)। स्त्री. रिआ | | (संबोध ५४)। परिघट्टिय वि [परिघट्टित] पाहत, ताडित (नाट) । परिच्चिअ वि[दे] उत्क्षिप्त, ऊपर फेंका हुमा (जीव ३)। | परिचारणा स्त्री [परिचारणा] मैथुन-प्रवृत्ति परिघट्ट वि [परिघृष्ट] १ जिसका घर्षण (ठा ५, १)। परिच्चिअ देखो परिचिय (उप १४२ टी)। किया गया हो वह, घिसा हुआ; 'मंदरयडपरि | पाराचत सक पार + चिन्तय चिन्तन परिच्छ देखो परिक्ख, 'मणवयणकायगुत्तो घटुं' (हे २, १७४)। करना, विचार करना । परिचितइ, परिचिते। सज्जो मरणं परिच्छिज्जा' (पञ्च ६८ पिंड परिघाय देखो परीघाय (राज)। (सण; उव)। कम. परिचितियइ (अप) (सण)। ३०), परिच्छंति (पिंड ३१)। परिघास सक [परि + घासय् ] जिमाना, | | परिच्छग वि [परीक्षक परीक्षाकर्ता (धर्मसं भोजन कराना । हेकृ. परिघासेउं (प्राचा)। परिचिंतिय वि [परिचिन्तित] जिसका परिघासिय वि [परिघर्षित] परिघर्ष-युक्त, परिच्छण्ण! वि[परिच्छन्न] १ आच्छादित, चिन्तन किया गया हो वह (सण)। 'रयसा वा परिघासियपुव्वे भवति' (प्राचा २, परिच्छन्न ढका हुआ (महा)। २ परिच्छद१, ३, ५)। परिचितिर वि परिचिन्तयित] चिन्तन | युक्त, परिवार सहित (वव ४)। परिघुम्मिर वि [परिपूर्णित] शनैः शनैः करनेवाला (सण)। परिच्छय वि [परीक्षक] परीक्षा करनेवाला काँपता हिलता, डोलता (पउम ८, २८३; गा परिचिट्ठ अक [परि + स्था] रहना, स्थिति | (सम्म १५९)। १४८)। करना । परिचिट्ठइ (सण)। परिच्छा स्त्री [परीक्षा] परख, जाँच,आजमाइश परिघेतव्व परिचिय वि [परिचित] ज्ञात, जाना हुआ, (प्रोध ३१ भा; विसे ८४८ उप पृ १०८) । परिघेत्तव्य चिह्ना हुअा, पहिचाना हुआ (औप)। परिच्छिअ देखो परिक्खिय (श्रा १६)। परिचुंब देखो परिउंब । परिचुंबिजमाण परिच्छिद सक [परि + छिद्] निश्चय परिघेत्ता (प्रौप)। संकृ. परिचुंबिअ (अभि १५०)। करना, निर्णय करना। २ काटना, काट परिघोल सक [परि + चूर्ण 1१ डोलना। परिचुंबण देखो परिउंबण (पउम १६, ७६)। डालना। परिच्छिदइ (धर्मसं ३७१)। संकृ. २ परिभ्रमण करना । वकृ. परिघोलंत, परिचुंबिय वि [परिचुम्बित] जिसका चुम्बन 'परिच्छिदिय बाहिरगं च सायं निकम्मदंसी परिघोलेमाण (से १, ३३; औप, णाया १, किया गया हो वह, 'परिचुंबियनहरगं" (उप इह मच्चिएहि' (प्राचा-टि: पि ५०६: ४–पत्र ६७)। ५६७ टी)। ५६१)। परिघोलण न [दे. परिघोलन] विचार (ठा परिच्चअ सक [परि + त्यज ] परित्याग परिच्छिष्ण वि [परिच्छिन्न] १ काटा हुआ, ४, ४–पत्र २८३)। करना, छोड़ देना। परिचयइ, परिचग्रह 'नय सुहतएहा परिच्छिण्णा ' (पच्च ६५)। २ (महा; अभि १७७)। वक. परिच्चअंत (अभि । परिघोलिर वि [परिपूर्णित] डोलनेवाला पारचअत (आभ निर्णीत; निश्चित (प्राव ४)। १३७)। संकृ. परिचइअ, परिच्चज्ज, परिच्छित्ति स्त्री[परिच्छित्ति] १ परिच्छद, (गउड)। परिचअ देखो परियय = परिचय (नाट परिचइऊण (पि ५६०; उत्त ३५, २ | निर्णय । २ परीक्षा, जाँच (उप ८६५) । राज)। हेकृ. परिच्चइत्तए, परिच्चत्तु (उवा; परिच्छिन्न देखो परिच्छिण्ण (स ५६६; शकु ७७)। नाट)। परिचअ देखो परिश्चअ। संकृ. परिचइऊण, सम्मत्त १४२)। परिच्चत्त वि [परित्यक्त] जिसका परित्याग परिच्छढ वि [दे. परिक्षिप्त १ उत्क्षिप्त परिचइय (महा)। किया गया हो वह (से ८, २०; सुर २; । फेंका हुआ (दे ६, २५, नमि ६)।२ परिपरिचंचल वि [परिचश्चल] अतिशय चपल १२०; सुपा ४१८ नाट-शकु १३२)। त्यक्त (से १३, १७)। (वै १४)। परिचयण न [परित्यजन] परित्याग (स परिच्छेअ पु [परिच्छेद] निणंय, निश्चय परिचत्त देखो परिश्चत्त (महा प्रौप)। ३३)। (विसे २२४४, स ६६७)। परिचरणा स्त्री [परिचरणा] सेवा, भक्ति परिचाइ वि [परित्यागिन् परित्याग करने- परिच्छेअ वि [दे. परिच्छेक] लघु, छोटा (सुपा १५६)। वाला (प्रौपः अभि १४०)। (प्रौप)। परिघेतं देखो परिगेण्ह । For Personal & Private Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेअग-परिणम पाइअसद्दमहण्णवो परिच्छेअग वि [परिच्छेदक] निश्चय करने- परिजुण्ण वि [परिजीर्ण] १ फटा-टूटा, परिट्रवणा स्त्री [प्रतिष्ठापना] प्रतिष्ठा कराना, वाला (उप ८५३ टो)। अत्यन्त जीणं (प्राचा)। २ दुर्बल (उत्त २, वेयावच्चं जिणगिहरक्खणपरिटुवणाइजिणपरिच्छेज्ज वि[परिच्छेद्य] वह वस्तु जिसका १२)। ३ दरिद्र, निधन: 'परिजुएणो उ किच्चं' (चेइय ७७६)। क्रय-विक्रय परिच्छेद पर निमर रहता है- दरिदो (वव ४)। परिट्रविय स्त्री [प्रतिष्टापित] संस्थापित रत्न, वस्त्र आदि द्रव्य (श्रा १८)। परिजुण्णा देखो परिजुन्ना (ठा १०-पत्र (भवि)।। परिच्छेद देखो परिच्छेअ = परिच्छेद (धर्मसं ४७४ टी)। परिट्ठा देखो पइट्ठा (हे १, ३८)। १२३१) । परिजुत्त वि [परियुक्त] सहित (संबोध १)। परिट्राइ वि[परिष्ठापिन] परित्यागी (नाटपरिच्छेदग देखो परिच्छे अग (धर्मसं ५०)। परिजुन्न देखो पारजुण्ण (उप २६४ टी)। साहि१६२)। परिच्छोय वि [परिस्तोक] थोड़ा, अल्प । परिजुन्ना स्त्री [परिजीर्णा, परिघुना] प्रव्रज्या, परिहाण न [परिस्थान] परित्याग (नाट)। (प्रौप)। विशेष, दरिद्रता के कारण ली हुई दीक्षा परिट्राय देखो परिव हेकृ. परिहावित्तए परिछेज देखो परिच्छेज्ज (था १८)। (ठा १०-पत्र ४७३) । (कप्प; पि ५७८)। परिजुसिय देखो परिझुसिय (ठा ४, १परिजंपिय वि [परिजल्पित परिट्रावअ वि [परिस्थापक] परित्याग उक्त, कथित पत्र १८७ औप)। (सुपा ३६४)। करनेवाला (नाट) परिजुसिय न [पर्युषित] रात्रि-परिवसन, परिजजर वि [परिजर्जर] प्रतिजीर्ण (उप परिद्विअ वि [परिस्थित] संपूर्ण रूप से । रात का बासी रहना, बासी (ठा ४, २-पत्र स्थित (पब ६६)। २६४ टी;६८६ टी)। २१६) । देखो परिउसि। परिट्रिअ देखो पइट्ठिय (हे १, ३८ २, पपिजडिल वि [परिजटिल] अतिशय जटिल । परिजूर अक परि + जू] सर्वथा जीर्ण होनाः २११ षड्। महाः सुर ३, १३)। (गउड)। 'परिजूरइ ते सरीरयं (उत्त १०, २६)। परिठव देखो परिव । परिठबहु (अप) परिजण देखो परिअण (उवा)। परिजूरिय वि [परिजीण अतिजीर्ण (अणु)। (पिग)। परिजव सक [ परि + विच ] पृथक् करना, परिजय पुं[दे] कृष्ण पुद्गल-विशेष (सुज्ज परिठवण देखो परिट्रवण = परिष्ठापन (पवअलग करना । संकृ. परिजविय (सूम २, २०)। गाथा २४)। २, ४०)। । परिज्जुन्न देखो परिजूरिय (दस ६, २, ८)। परिण देखो परिणी, 'परिणइ बहुयाउ खयरपरिजव सक [परि + जप्] १ जाप करना। । परिज्झामिय वि [परिध्यामित] श्याम कन्नानो' (धर्मवि ८२) । वकृ. परिणत २ बहुत बोलना, बकवाद करना । संकृ. 'स । (काला) किया हुआ (निचू १)। (भवि) । संकृ. परिणिऊण (महा: कुप्र ७६; भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामारणगामं दृइज- परिज्मुसिय । वि [परिजुष्ट] १ सेवित । १२७)। परिझुसिय २ प्रीत; परिझुसियकामभोमाणे णो पोहि सद्धि परिजविया २ गामापरिभूसिय ) गसंपयोगसंपउत्ते' (भग २५, परिणइ स्त्री [परिणति परिणाम; (गा ५६८ गुगामं दूइज्जेजा' (प्राचा २, ३, २, ८)। । ७–पत्र ६२३, ६२५ टी। ३ परीक्षण, धर्मसं ६२३)। परिजवण न [परिजपन] जाप, जपन, मन्त्र ठा ४, १-पत्र १८८ टी; पि २०६)। परिणत देखो परिण। पादिका पुनः पुनः उच्चारण (विसे ११४०; परिट्ठव सक [परि + स्थापय् ] १ परि- परिणतु वि [परिणत] परिणाम को प्राप्त सुर १२, २०१)। त्याग करना । २ संस्थापन करना । परिवेइ; होनेवाला. परिणत होनेवाला (विसे ३५३४)। परिजाइय वि [परियाचित] माँगा हुआ । परिवेज्जा (प्राचा २, १, ६, ५, उवा)। परिणंद सक [परि + नन्दु] वर्णन करना, (धर्मसं १०४५)। संकृ. परिवेऊण, परिटुवेत्ता (बृह ४ | श्लाघा करनाः 'तारणं परिणंदंता (? ति) परिजाण सक [परि + ज्ञा] अच्छी तरह कस) । हेकृ. परिवेत्तए (कस) । वकृ. (तंदु ४०)। जानना । परिजाइ (उवा)। वकृ. परिजा- परिहवंत (निचू २) । कृ. परिदृप्प, परिणद्ध वि परिणद्ध] १ परिगत, वेष्टिता णमाण (कुमा)। कवक, परिजाणिज्जमाण परिटवेयव्व (उत्त १४, ६, कस)। "उंदुरमालापरिणद्धसुकर्याचधे' (उवा, पाया (णाया १, १, कुमा)। संकृ. परिजाणिया परिठ्ठवण न [प्रतिष्ठापन प्रतिष्ठा कराना १,८-पत्र १३३)। २ न. वेष्टन (णाया (सूअ १, १, १, १, १, ६, ६; १, ६, (चेइय ७७६) । १०) । कृ. परिजाणियव्य (प्राचाः पि परिवण न [परिष्ठापन] परित्याग (उवः । परिणम सक [परि + णम्] १ प्राप्त करना । पव १५२)। २ अक. रूपान्तर को प्राप्त होना। ३ पूर्ण परिजिअ विपरिजित] सर्वथा जीत, जिस- परिट्रवणा स्त्री [परिष्टापना] ऊपर देखो, होना, पूरा होना; 'किराहलेसं तु परिणमे' पर पूरा काबू किया गया हो वह (विसे 'अविहिपरिटुवणाए काउस्सग्गो य गुरुसमी- (उत ३४, २२), 'परिणमइ अप्पमानो' ८५१)। घम्मि' (बृह ४)। (स ६८४ भग १२, ५)। वकृ. परिणमंत, संक परिवेऊण, कस) । वकृ. । (तदु प रिणद्ध] १ परिणत For Personal & Private Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ पाइअसहमहण्णवो परिणमण-परिणा परिणममाण (ठा ७; णाया १,१-पत्र 'सव्वदन्बपरिणइरूवो परिणामियो सम्वों परिणिय वि [परिणीत] जिसका विवाह ३१)। (विसे २१७६, ३४६५)। हुआ हो वह (सरण; भवि)। परिणमण न [परिणमन] परिणाम (धर्मसं परिणामिअ वि [परिणमित] परिणत किया परिणिव्वव सक [परिनिर + वापय ] ४७२; उप ८९८)। हमा (पिड ६१२; भग)। सर्व प्रकार से अतिशय परिणत करना । परिणमिअ) वि [परिणत] १ परिपक्व परिणामिआ स्त्री [पारिणामिको] बुद्धि- संकृ. परिणिव्वविय (कस)। परिणय (पाम)। २ वृद्धि-प्राप्त; 'तह विशेष, दीर्घ काल के अनुभव से उत्पन्न होने- परिणिव्वा अक परिनिर + वा] १ शान्त परिणमिमो धम्मो जह तं खोभंति न सुरावि' वाली बुद्धि (ठा ४,४)। होना। २ मुक्ति पाना, मोक्ष को प्राप्त (धर्मवि ८) । ३ अवस्थान्तर को प्राप्त (ठा परिणाय वि [परिज्ञात] जाना हुआ, परिचित करना। परिणिव्वायंति (भग )। भूका. २, १-पत्र ५३; पिंड २६५)। वय वि (पउम ११, २७)। परिरिणब्वाईसु (पि २१६)। भाव. परि[वयस्] १ वृद्धः बूढ़ा (णाया १,१ परिणाव सक [परि + णायय् ] विवाह णिवाहिति (भग)। पत्र ४८)। कराना । परिणावसु (कुप्र ११६) । कृ. परिणिव्वाण न [परिनिर्वाण मुक्ति, मोक्ष परिणयण न [परिण बन] विवाह (उप परिणावियव्य, परिणावयब (कुप्र ३३०; (पाचा कप्प)। १०१४: सुपा २७१)। १५४)। परिणिन्वुइ स्त्री [परिनिर्वत] ऊपर देखो परिणयणा स्त्री. ऊपर देखो (धर्मवि १२६)। परिणावण न [परिणायन] विवाह कराना (राज)। परिणव देखो परिणम । परिणवइ (पारा (सुपा ३६८)। परिणिव्वुय देखो परिनिव्वुअ (ोप)। ३१ महा)। परिणाविअ वि [परिणावित] जिसका विवाह परिणी सक [परि + णी] १ विवाह करना। परिणाइ परिज्ञाति] परिचय, 'कह तुज्झ कराया गया हो वह (सुपा १६५; धर्मवि तेण समयं परिणाई तक्खणेण उप्पनो २ ले जाना। कवकृ. परिणिज्जंत, परिणीय१३६; कुप्र १४)। (पउम ५३, २५)। माण (कुप्र १२७, प्राचा)। परिणाहपरिणाह] १ लम्बाई, विस्तार परिणी का परि + गम 1 बाहर निकलना। परिणाम सक [परि + णमय ] परिणत (पान से ११, १२)। २ परिधि (स ३१२ करना । परिणामेइ (ठा २, २) । कवकृ. वकृ. परिणित (स ६६१)। ठा २, २)। परिणामिज्जमाण, परिणामेजमाण (भगः परिणीअ वि [परिणीत] जिसका विवाह परिणिऊण देखो परिण। ठा १०) । हेकृ. परिणामित्तए (भग ३, परिणित देखो परिणी परि + गम् । किया गया हो वह (महा प्रासू ६३, सण)। परिणिज्जत देखो परिणी = परि + णी। परिणील वि [परिनील] सर्वथा हरा रंग परिणाम [परिणाम] १ अवस्थान्तर-प्राप्ति, परिणिज्जरा स्त्री [परिनिर्जरा विनाश, क्षय का (गउड)। रूपान्तरलाभ (धर्मसं ४७२) । २ दीर्घ काल (पउम ३१, ६)। परिणे देखो परिणी। परिणेइ (महा; पि के अनुभव से उत्पन्न होनेवाला आत्म-धर्म परिणिजिय वि [परिनिर्जित] पराभूत, ४७४)। हेकृ. परिणेउं (कुप्र ५०)। कृ. विशेष (ठा ४,४-पत्र २८३) । ३ स्वभाव, पराजय-प्राप्त (पउम ५२, २१)। परिणेयव्व (सुपा ४५५; कुप्र १३८)। धर्म (ठा ६) । ४ अध्यवसाय, मनो-भाव परिणिट्ठा स्त्री [परिनिष्ठा संपूर्णता, समाप्ति | परिणेविय (अप) वि[परिणायित] जिसका (निचू २०)। ५ वि. परिणत करनेवाला: विवाह कराया गया हो वह (सरण)। 'दिटुंता परिणाम' (वव १० बृह १)। (उवर १२५)। परिणामणया। स्त्री [परिणामना] परिण परिणिट्ठाण न [परिनिष्ठान अवसान, अन्त परिणेव्वुय देखो परिनिव्वुअ (उत्त १८, परिणामणा माना, रूपान्तरकरण (पराण (विसे ६२६)। ३५)। ३४-पत्र ७७४; दिसे २२७८)। | परिणिहिअ वि [परिनिष्ठित] १ पूर्ण किया परिण वि [परिज्ञ ज्ञाता, जानकार (प्राचा परिणामय वि [परिणामक] परिणत करने- हुआ, समाप्त किया हुआ (रयण २५)। १,५, ६, ४)। वाला (बृह १)। २ पार-प्राप्त (णाया १, ८ भास ९८; परिण देखो परिणा' (प्राचा १, २, परिणामि वि [परिणामिन] परिणत होमे- पंचा १२, १४)। ३ परिज्ञात (वव १०)। ६, ५)। वाला (दे १, १; श्रावक १८३)। कारण परिगिट्रिया स्त्री [परिनिष्ठिता] १ कृषि- परिण्णा सक [परि + ज्ञा] जानना । संकृ. न [ कारण] कार्य-रूप में परिणत होनेवाला | विशेष, जिसमें दो या तीन बार तृण-शोधन परिण्णाय (आचाः भग)। हेकृ. परिण्णाहूँ कारण, उपादान कारण (उबर २७)। किया गया हो वह कृषि; अर्थात् दो या तीव | (शौ) (अभि १८६)। परिणामिअ वि [पारिणामिक] १ परिणाम- बार की सोहनी (निराई ) की हुई खेत। २ परिण्णा स्त्री [परिज्ञा] १ ज्ञान, जानकारी जन्य, परिणाम से उत्पन्न । २ परिणाम- दीक्षा-विशेष, जिसमें बारंबार अतिचारों की (प्राचाः वसुः पंचा ६, २५)। २ विवेक संबन्धी। ३ पृ. परिणाम । ४ भाव-विशेषः । आलोचना की जाती हो वह दीक्षा (राज)। (प्राचा)। ३ पर्यालोचन, विचार (सूत्र १, For Personal & Private Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिण्णाण-परिदेवण पाइअसद्दमहण्णवो समरंगणम्मि त्योम न [परिस्ताद (प्रोप) किया १, १)। ४ ज्ञान-पूर्वक प्रत्याखान (ठा परिताव पुं[परिताप १ संताप, दाह । २ परित्तज देखो परिचय । संकृ. परित्तजिअ पश्चात्ताप । ३ दुःख, पीड़ा (महा, प्रौप)। (स्वप्न ५१), परितेजि (अप)। (पिंग)। परिणगाण वि [परिज्ञान] ज्ञान, जानकारी | यर वि [कर] दुःखोत्पादक (पउम परित्ता । सक [परि+त्र] रक्षण करना। (धर्मसं १२५३, उप पृ २७४) । ११०, ६)। परित्ता परित्ताइ, परिताप्रसु, परित्ताहि, परिण्णाय देखो परिण्णा = परि + ज्ञा। परितावण देखो परितप्पण - परितापन परित्तायह (प्राकृ ७०; पि ४७६; हे ४, परिणाय वि [परिज्ञात] विदित, जाना २६८)। (मौप)। हुआ (सम १६; प्राचा)। परिताविअ विपरितापित] १ संतापित परित्ताइ वि [परित्रायिन् ] रक्षण-कर्ता (प्रौप)। २ तला हुआ (मोघ १४७)। (सुपा ४०५)। परिणि वि [परिज्ञिन्] परिज्ञा-युक्त, 'गीयजुओ उ परिगणो तह जिणइ परीसहाणीय' परितास परित्रास अकस्मात् होनेवाला परित्ताण न [परित्राण] रक्षण (से १४. भय (णाया १,१-पत्र ३३)। ३५; सुपा ७१; प्रात्मानु ८ सण)। (वव १)। परित्ताणतय पुंन [परीतानन्तक] संख्यापरितंत वि [परितान्त ] सर्वथा खिन्न, परितुट्टिर वि[परित्रुटित] टूटनेवाला (सण)। विशेष (अणु २३४)। निविएण (णाया १, ४-पत्र ६७; विपा | परितुट्ठ वि परितुष्ट] तोष-प्राप्त, संतुष्ट परित्तास देखो परितास (कम्प)। १,१, उव)। (उवः चेइय ७०१)। परित्तासंखेजय पुंन [परीतासंख्येयक] परितंबिर वि [परिताम्र विशेष ताम्रपरितुलिय वि [परितुलित] तौला हुआ संख्या-विशेष (अणु २३४)। अरुण वर्णवाला (गउड)। (सण)। परित्तीकय वि [परीत कृत] संक्षिप्त किया परितज सक [ परि + तर्जय ] तिरस्कार परितेजि देखो परित्तज। हुप्रा, लघूकृत (गाया १, १-पत्र ६६)। करना । वकृ. परितज्जयंत (पउम ४८, १०)। | परितोल सफ [ परि + तोलय 1 उठाना। परित्तीकर सक [परीती + कृ] लघु करना, परितोल सक [ परि + तोलय] उठाना। पारर परितड्डविय वि [परितत खूब फैलाया | वकृ. 'जुगवं परितोलंता खग्गं समरंगरण म्मि छोटा करना । परित्तीकरेंति (भग) । हुआ (सण)। तो दोवि' (सुपा ५७२)। परित्थोम न [परिस्तोम] १ मस्तक । २ वि. परितणु वि [परितनु अत्यन्त पतला (सुपा परितोस सक [परि + तोपय ] संतुष्ट वक्र 'चितपरित्थोमपच्छद' (ोप)। करना । भवि, परितोसइस्सं (कपूर ३२)। परिथभिअ वि [परिस्तम्भित] स्तब्ध किया परितप्प अक [परि + तप्] १ संतप्त होना, परितोस पुं[परितोष] आनन्द, खुशी । त होना, परितोस पुं[परितोष] आनन्द, खुशी हुमा (सुपा ४७५)। गरम होना। २ पश्चात्ताप करना । ३ दुःखी । (नाट--मालवि २३)। परिथु सक [परि + स्तु] स्तुति करना । होना । परितप्पइ (महा; उव); परितपति परितोसिय वि [परितोषित] संतुट किया कवकृ. परिथुव्वंत (सुपा ६०७) । (सूत्र २, २, ५५), 'ता लोहभारवाहगनरुब्ब परिथूर । वि [परिस्थूर] विशेष स्थूल, हुआ (सण)। परितप्पसे पच्छा' (धर्मवि ६)। संकृ. परित परिथूल खूब मोटा (धर्मसं ८३८ चेइय प्पिऊण (महा)। परित्त वि [परीत] १ व्याप्त (सिरि १८३)। ८५४ श्रा ११)। परितप्प सक [परि + तापय ] परिताप २ प्रभ्रट (सूअ २, ६, १८)। ३ संख्येय, परिदा सक [परि + दा] देना। कर्म. परि जिस की गिनती हो सके ऐसा (सम १०६)। दिज्जसु (अप), (पिंग)। उपजाना । परितप्पंति (सूप २, २, ५५)। ४ परिमित, नियत परिमाणवाला (उप परिदाह परिदाह] सैताप (उत्त २, परितप्पण न [परितपन] परितप्त होना ४१७)। ५ लघु, छोटा । ६ तुच्छ, हलका भग)। (सूत्र २, २, ५५)। (अ २७०, ६६४)। ७ एक से लेकर परिदिण्ण वि [परित्त] दिया हुमा (अभि परितप्पण,न [परितापन] परिताप उपजाना असंख्येय जीवों का प्राश्रय, एक से लेकर १२५) । (सूम २, २, ५५)। असंख्येय जीववाला (मोघ ४१)। ८ एक परिदिद्ध वि [परिदिग्ध] उपलिप्त (सुख परितलिअ वि [परितलित] तला हुआ जीववाला (पएण १)। करण न करण] २, ३७)। (प्रोघ ८८)। लघुकरण (उप २७०)। जीव ' [जीव] परिदिन्न देखी परिदिण्ण (सुपा २२)। परितविय वि [परितप्त ] परिताप युक्त एक शरीर में एकाकी रहनेवाला जीव (पएण परिदेव प्रक [परि + देव] विलाप करना । (सण)। १)। गंत न [नन्त] संख्या-विशेष परिदेवर (उत्त २, १३)। वकृ. परिदेवंत परिताण न [परित्राण] १ रक्षण। २ (कम्म ४, ७१; ८३)। संसारिअ वि (पउम २६, ६२, ४५, ३६)। वागुरादि बन्धन (सूत्र १, १, २, ६) । [ संसारिक] परिमित संसारवाला (उप परिदेवण न [परिदेवन] विलाप, 'तस्स परिताव देखो परितप्प = परि + तापम् ।। ४१७)। सिंख न [संख्यात] संख्या- कंदणसोयणपरिदेवणताडणाई लिंगाई (संबोध कृ. परितावेयव्य (पि ५७०)। - विशेष (कम्म ४,७१, ७८)। ४६ संवे)। । एक २, ३७) या परिदि Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ पाइअसहमहण्णवो परिदेवणया-परिपूर्णग परिदेवणया स्त्री [परिदेवना] ऊपर देखो । (सूम १, ३, ३, २१)। ३ स्वस्थ (सुपा परिपिडिय वि [परिपिण्डित] १ एकत्र (ठा ४, १-पत्र १८८)। १८३)। समुदित, इकट्ठा किया हुआ (पिंड ४६७) । परिदेवि वि [परिदेविन् विलाप करनेवाला बाला करनेवाला परिन्न देखो परिण (आचा)। २ न. गुरु-वन्दन का एक दोष (धर्म २)। (नाट-शकु १०१)। परिन्न देखो परिण (आचा)। परिपिक्क देखो परिपक्क (पि १०१)। परिदेविअ न [परिदेवित] विलाप (पाय: परिन्ना देखो परिण्णा (उप ५२५) । परिपिज्जंत देखो परिपिअ । से ११, ६६; सुर २, २४१) । परिन्नाण देखो परिण्णाण (प्राता)। परिपिट्टण न [परिपिट्टन] पोटना, ताड़न परिन्नाय देखो परिण्णाय = परिज्ञात (सुपा | (वव १)। परिदो अ [परितस् ] चारों ओर से (गा २६२)। परिपिरिया स्त्री [दे] वाद्य-विशेष (भग ५, ४५४ अ)। परिन्नाय वि [प्रतिज्ञात] जिसकी प्रतिज्ञा की ४-पत्र २१६)। परिधम्म पुं[परिधर्म] छन्द-विशेष (पिंग)। गई हो वह) (पिड २८१)। परिपिल्ल सक [परिप्र + ईरय ] प्रेरणा। परिधवलिय वि[परिधलित] खूब सफेद परिपंडुर । वि [ परिपाण्डुर] विशेष परिपिल्लइ (सुपा ६४)। किया हुअा (सरण)। परिपंडुल) पाण्डुर-धूसर वर्ण वाला (सुपा परिपिहा सक [परिपि+ धा] ढकना, परिधाम पुन [परिधामन] स्थान (सुपा २५६; कप्पू गउड; से १०, ३३)। आच्छादन करना। संकृ. परिपिहित्ता, ४६३)। परिपंथग वि [प्रतिपथक] दुश्मन, विरोधी, परिपिहेत्ता (कप्पा पि ५८२)। परिधाविअ वि [परिधावित] दौडा हुआ | प्रतिकूल (स १०५)। परिपीडिय वि [परिपीडित] जिसको पीड़ा (हम्मीर ३२)। परिपंथिअ । वि [परिपन्थिक] ऊपर देखो पहुंचाई गई हो वह (भवि)। परिधाविर वि [ परिधावित ] दौड़नेवाला परिपंथिग , (स ७४६ उप ६३६)। परिपील सक [ परि + पीडय] १ पीड़ना। (सण)। परिपक वि [परिपक्व पका हुमा (पव | २ पीलना, दबाना । परिपीलेज्जा (पि परिधूणिय वि [परिधूनित] अत्यन्त कँपाया २४०)। संकृ. परिपीलइत्ता, परिपीलिय, । ४ भवि)। हुप्रा (सम्मत्त १३६)। परिपीलियाण (भग; राज; प्राचा २, १, परिपलिअ (अप) वि [परिपतित] गिरा परिधूसर वि [परिधूसर] धूसर वर्णवाला ८.१)। हुआ (पिंग)। (बज्जा १२८; गउड)। परिपाग पुं[परिपाक विपाक, फल'पुञ्च परिपीलिअ देखो परिपीडिअ (राज)। परिनट्ठ वि [परिनष्ट] विनष्ट (महा)। भवविहिनसुचरिअपरिपागो एस उदयसंपत्तो' परिपुंगल वि [दे] श्रेष्ठ, उत्तम (?); 'जंपइ परिनिक्खम देखो पडिनिक्खम । परिनिक्ख. (रयण ५२, प्राचा)। भविसयतु परिपुंगलु होसइ रिद्धिविद्धि सुहमेइ (कप्प)। परिपाडल वि[परिपाटल] सामान्य लाल मंगलु' (भवि)। परिनिट्टिय देखो परिणिट्रिअ (कप्पः रंभा परिपुच्छ सक [परि + प्रच्छ ] प्रश्न रंगवाला, गुलाबी रंग का (गउड)। ३०)। करना । परिपुच्छइ (भवि)। परिपाडिअ वि [परिपाटित] फाड़ा हुआ, परिनिय सक [ परि + दृश ] देखना, अव परिपुच्छण न [परिप्रच्छन] प्रश्न, पृच्छा विदारित (दे ७,६१)। लोकन करना । वकृ. परिनियंत (सुपा (वि)। परिपाल सक [परि + पालय् ] रक्षण ५२२)। परिपुच्छिवि [परिपृष्ट] पूछा हुआ, करना। परिपालइ (भवि)। कृ. परिपरिनिवि वि [परिनिविष्ट ] ऊपर बैठा परिपुट्ठ जिज्ञासित (गा ६२३; भवि; पालणीअ (स्वप्न २६) । संकृ. परिपालिउं सुपा ३८७)। हुमा (सुपा २६६)। (सुपा ३४२)। परिपुण्ण। वि [परिपूर्ण] संपूर्ण ( भगः परिनिविड वि [परिनिविड] विशेष निबिड परिपालण न [परिपालन] रक्षण (कुप्र परिपुन्न । भवि)। या घना (महा)। २२६; सुपा ३०८)। परिपुस सक [परि + स्पृश् ] संस्पर्श परिनिव्या देखो परिणिव्वा । परिनिब्वाइ परिपालिय वि [परिपालित] रक्षित (भवि)। करना । परिपुसइ (से ४, ५)। (भग), परिनिव्वाईति (कप्प)। भवि. परि- परिपासय [दे] देखो परिवास (दे) परिपूज सक [परि + पूजय] पूजता । निव्वाइस्संति (भग)। . (पाप)। परिपूजउ (अप) (पिंग)। परिनिव्वाण देखो परिणिव्याण (णाया १, परिपिअ सक [परि + पा] पीना, पान परिपूणग पुं [दे. परिपूर्णक] पक्षि-विशेष ८ ठा १, १; भग; कप्प; पव १३८ टी)। करना। कवकृ. परिपिज्जत (नाट- का नीड, सुधरी नामक पक्षी का घोंसला परिनिव्वुअ । वि [परिनिवृत] १ मुक्त, चैत ४०)। (विसे १४५४० १४६५)। परिनिव्वुड । मोक्ष को प्राप्त (ठा १,१; परिपिंजर वि [परिपिञ्जर] विशेष पीत- परिपूणग पुं[दे. परिपूर्णक] घी-दूध गालने पउम २०, ८४, कप्प)। २ शान्त, ठंढा रक्त वर्णवाला (गउड)। । का कपड़ा, छानना (एंदि ५४)। For Personal & Private Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिपूय-परिभाष पाइअसहमहण्णवो ५५६ परिपूय वि [परिपूत] छाना हुआ (कप्प; परिप्फुड पुं[परिस्फोट] १ प्रस्फोटन, भेदन। परिभम सक [परि + भ्रम् ] पर्यटन तंदु ३२)। २ वि. फोड़नेवाला, विभेदक; 'तमपडल- करना, भटकना। परिब्भमइ (प्राकृ ७६; भवि परिपूर सक [परि + पूरय ] पूर्ण करना, परिप्फुडं चेव तेअसा पज्जलतरूवं' (कप्प)। उव)। वकृ. परिब्भमंत (सुर २, ८७; ३, भरपूर करना । वकृ. परिपूरंत (पि ५३७)। परिप्फुर अक [ परि + स्फुर ] चलना। ४. ४, ७१; भवि)। संकृ. परिपूरिअ (नाट-मालवि १५)। परिप्फुरदि (शौ) (नाट-उत्तर २८)। परिब्भमण न [परिभ्रमण] पर्यटन (महा)। परिपूरिय वि [परिपूरित] भरपूर, व्याप्त | परिप्फुरण न [परिस्फुरण] हिलन, चलन | सिमित विपरिभात भटका (सुर २, ११)। (सरण)। (वै ६३, सण, भवि)। परिपेच्छ सक [परिप्र + ईक्ष ] देखना । | परिप्फुरिअ वि [परिस्फुरित] स्फूर्ति-युक्त, परिब्भीअ वि [परिभीत] भय-प्राप्त (पउम वकृ. परिपेच्छंत (अच्चु ६३)। 'वयणु परिप्फुरिउ' (भवि)। ५३, ३६)। परिपेरंत परिपर्यन्त प्रान्त भाग (गाया परिफंस j [परिस्पश] स्पर्श, छूना (पि | परिभूअ वि [परिभूत] पराभव प्राप्त (सुपा १, ४, १३; सुर १५, २०२) । ७४; ३११)। २५८)। परिपेरिय वि परिप्रेरित] जिसको प्रेरणा परिफंसण न [परिस्पर्शन ऊपर देखो (उप परिभग्ग वि [परिभग्न] भांगा हुआ की गई हो वह (सुपा १८६)। ६८६ टी)। (प्रात्मानु १४)। परिपेलव वि [परिपेलव] १ सुकर, सहज, परिफग्गु वि [परिफल्गु] निस्सार, प्रसार | परिभट्ट देखो परिब्भट्ठ (महा; पि ८५) । सहल, पासान (से ३, १३)। २ अढ़ । ३ (धर्मसं ६५३)। परिभणिर वि [परि + भणित] कहनेवाला निःसार । ४ वराक, दीन (राज)। परिफासिय वि [परिस्पृष्ट] व्याप्त (दस ५, (सण)। परिपेल्लिअ देखो परिपेरिय (गा ५७७)। १,७२)। परिभम देखो परिभम । परिभमइ (महा)। परिफुड देखो परिप्फुड = परिस्फुट (पउम ३, परिपेस सक [ परिप्र + इष ] भेजना। वकृ. परिभमंत, परिभममाण (महा सण; प्रासू ११९)। परिपेसइ (भवि)। भवि; संवेग १४)। संकृ. परिभमिऊणं परिफुडिय वि [परिस्फुटित] फूटा हुआ, | परिपेसण न [परिप्रेषण] भेजना (भवि)। (पि ५८५) । हेकृ. परिभमिउं (महा)। भान (पउम ६८,१०)। परिपेसल वि [परिपेशल] सुन्दर, मनोहर परिफुर देखो परिप्फुर। परिप्फुरइ (सण)। परिभमिअ देखो परिभमिअ (भवि)। (सुपा १०६)। वकृ. परिफुरंत (सरण)। परिभमिर वि [परिभ्रमित] पर्यटन करनेपरिपेसिय वि [परिप्रेषित] भेजा हुआ परिफुरिअ देखो परिप्फुरिय (सण)। वाला (सुपा २६६)। (भवि)। परिभव सक [परि + भू] पराजय करना, परिपोस सक [परि + पोषय ] पुष्ट करना। परिफुल्लिअ बि [परिफुल्लित] फूला हुआ, तिरस्कारना। परिभवइ (उव)। कर्म. परिकवकृ. परिपोसिज्जत (राज)। कुसुमित (पिंग)। भविजामि (मोह १०८)। कृ. परिभवणिज परिप्पमाण न [परिप्रमाण] परिमाण (भति)। परिफुस सक [परि + स्पृश ] स्पर्श करना, (णाया १. ३)। परिप्पव सक [परि + प्लु] तैरना, गोता छूना। वकृ. परिफुसंत (धर्मवि १२६; परिभव पुं[परिभव] पराभव, तिरस्कार लगाना। वकृ. परिप्पवंत (से २, २८ परिफुसिय वि [परिप्रोञ्छित] पोंछा हुआ (औपः स्वप्न १० प्रासू १७३) । १०, १३; पान)। (उप पृ ६४)। परिभवंत पुं[परिभवत् ] पार्श्वस्थ साधु, परिप्पुय वि [परिप्लुत] प्राप्लुत, व्याप्त परिफोसिय वि [परिस्पृष्ट] छूना हुआ, | शिथिलाचारी मुनि (वव १)। (राज)। 'उदगपरिफोसियाए दब्भोवरिपच्चत्थुयाए परिभवण न [परिभवन] ऊपर देखो (राज)। परिप्पुया स्त्री [परिप्लुता] दीक्षा-विशेष भिसियाए णिसीयति' (णाया १, १६, उप परिभवणा स्त्री [परिभवन] ऊपर देखो (राज)। परिप्फंद पुं[परिस्पन्द] १ रचना-विशेष, ६४८ टी)। (प्रौप)। 'जयइ वायापरिप्फंदो' (गउड)। २ समन्तात् परिबृहण न [परिबृहण] वृद्धि, उपचय परिभविअ वि [परिभूत] अभिभूत (धर्मवि चलन (चारु ४५)। ३ चेष्टा, प्रयत्नः 'थोया ३६)। परिभंत वि [दे] १ निषिद्ध, निवारित । २ परिभाअनद [परि + भाजय ] बॉटना, रंभेवि विहिम्मि प्रायसग्गे व खंडणमुवैति। भीरु, डरपोक (दे ६, ७२)। स-परिप्फंदेणं चिय णीमा भमिदारुसयलं व विभाग करना। परिभाएइ (कप्प)। वकु. परिभंसिद (शौ) नीचे देखो (मा ५०)। परिभाइंत, परिभायंत, परिभाएमाण परिप्फुड वि [परिस्फुट अत्यन्त स्पष्ट (से परिभट्ट वि [परिभ्रष्ट] पतित, स्खलित (प्राचा २, ११, १८ पाया १,७-पत्र ११, ६०; सुर ४, २१४; भवि)। । (णाया १,१३ सुपा ५०६, अभि १४४)।। ११७ १,१; कप्प)। कवकृ. परिभाइज्ज रचना-विशेष, परिवहण २,६)। For Personal & Private Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० पाइअसहमहण्णवो परिभाइय-परिमहिय माण (राज)। संकृ. परिभाइत्ता, परि- परिभुंजण न [परिभोजन] परिभोग (उप परिमंथिअ विपरिमथित] अत्यन्त आलोभायइत्ता (कप्प; प्रौप)। हेकृ. परिभाएउं १३४ टी। डित (सम्मत्त २२६)। (पि ५७३)। परिभंजणया स्त्री [परिभोजना] ऊपर देखो परिमंद वि [परिमन्द मन्द, अशक्त (सुर परिभाइय वि [परिभाजित] विभक्त किया । (सम ४४)। ४, २४०)। हुप्रा (प्राचा २, २, ३, २)। परिभुत्त वि [परिभुक्त] जिसका परिभोग परिमग्ग सक [परि + मार्गय ] १ अन्वेपरिभायंत देखो परिभाअ। किया गया हो वह (सुपा ३००)। षण करना, खोजना। २ मांगना, प्रार्थना परिभायण न [परिभाजन] बँटवा देना | परिभुत्त । वि [परिवृत] वेष्टित, परिकरित, | करना। वकृ. परिमग्गमाण (नाट-विक्र (पिंड १६३)। परिभुय लपेटा हुआ, घेरा हुआ (पाचा २, ३०)। संकृ. परिमग्गेउं (महा)। परिभाव राक परि + भावय ] १ पर्या- ११, ३, २, ११, १६)। परिमग्गि वि [परिमार्गिन् खोज करनेवाला लोचन करना । २ उन्नत करना । परिभावइ परिभूअ वि [परिभूत] अभिभूत, तिरस्कृत (सूम २, ७, २, सुर १६, १२६; चेइय (गा २६१)। (महा)। संकृ. परिभाविऊण (महा)। परिमज्जिर वि [परिमज्जित] डूबनेवाला कृ. परिभावणीय (राज)। ७१४महा)। (सुपा है)। परिभावइत्त वि [परिभावयित] प्रभावक, | परिभोअ देखो परिभोग (अभि १११)। परिमट्ट वि[परिमृष्ट] १ घिसा हुआ (से उन्नति-कर्ता (ठा ४,४-पत्र २६५)। परिभोइ वि [परिभोगिन] परिभोग करने. ६, २, ८, ४३)। २ प्रास्फालितः 'परिमट्ठपरिभावि वि [परिभाविन] परिवभ करने- बाला (पि ४०५; नाट-शकु ३५)। मेरुसिहरो' (से ४, ३७) । ३ माजित, शोधित वाला (अभि ७१)। परिभोग पुं [परिभोग] १ बारबार भोग । (कप्प)। परिभास सक [परि + भाष्] १ प्रति(ठा ५, ३ टी; आव ६)। २ जिसका बारः | परिमद सक [परि + मर्दय 1 मर्दन करना । पादन करना, कहना। २ निन्दा करना। परिबार भोग किया जाय वह वस्त्र आदि (ौप)। वकृ. परिमदयंत (सुर १२, १७२)। भासइ, परिभासंति, परिभासेइ, परिभासए ३ जिसका एक ही बार भोग किया जाय(उत्त १८, २०; सूत्र १, ३, ३, ८, २, परिमद्दण न [परिमर्दन] मर्दन, मालिश जो एक ही बार काम में लाया जाया वह७, ३६, विसे १४४३)। वकृ. परिभास (कप्प; प्रौप)। आहार, पान आदि (उवा)। ४ बाह्य वस्तु | माग (पउम ५३, ६७)। परिमहा स्त्री [परिमर्दा] संबाधन, दबाना, का भोग (प्राव ६)। ५ प्रासेवन (पएह १, परिभासा स्त्री [परिभाषा] १ संकेत (संबोध | पैचप्पी-पैर दबाना आदि (निचू ३)। ५८ भास १६)। २ तिरस्कार । ३ चूणि, | परिभोग परिमन्न सक [परि + मन्] आदर करना। टीका-विशेष (राज)। परिभोत्तव्य देखो परिभुज। परिमन्नइ (भवि)। परिभासि वि [परिभापिन् परिभव-कर्ता, परिभोत्तु परिमल सक [परि + मल् , मृद्] १ घिसना। २ मदन करना; 'जो मरणयालि परिमइल सक [परि + मृज ] मार्जन करना 'राइणियपरिभासो' (सम ३७)। (संक्षि ३५)। परिभासिय वि [परिभाषित प्रतिपादित परिमलइ हत्थु (कुप्र ४५२), 'रणलिणीसु भमसि परिमल सि (सूअनि ८८ भास २१)। परिमउअ वि [परिमृदुक १ विशेष कोमल। २ अत्यन्त सुकर, सरल (धर्मसं ७६१; सत्तलं मालईपि यो मुअसि । परिमिंद सक [परि + भिद्] भेदन करना। ७६२) । स्त्री. उई (विसे ११६६)। तरलत्तणं तुह अहो महुअर कवकृ. परिभिजमाण (उप पृ ६७)। परिमउलिअ वि [परिमुकुलित] चारों ओर जइ पाडला हरइ ।' परिभीय वि [परिभीत] डरा हुआ (उव)। से संकुचित (सण)। (गा ६१६)। परिभुंज सक [परि + भुञ्] १ खाना, परिमंडण न [परिमण्डन] अलंकरण, विभूषा | परिमल पुं[परिमल] १ कुंकुम-चन्दनादि का भोजन करना । सेवन करना, सेवना। ३ मर्दन (से १,६४)। २ सुगन्ध (कुमाः पात्र)। बारबार उपभोग में लेना । कर्म. परि जिज्जइ परिमंडल वि [परिमण्डल] वृत्त, गोलाकार | परिमलण न [परिमलन] १ परिमर्दन । २ परिभुज्जइ (पि ५४६; गच्छ २, ५१)। (सूत्र २, १, १५; उत्त ३६, २२; स ३१२; विचार (गा ४२८; गउड)। वकृ. परिभुजंत, परि जमाण (निचू १; | पान औपपरण १; ठा १, १)। परिमलिअ वि [परिमलित, परिमृदित] णाया १, १; कप्प)। कवकृ. परिभुज्जमाण परिमंडिय वि [परिमण्डित] विभूषित, जिसका मदन किया गया हो वह (गा ६३७, (प्रौपः उप पृ ६७ रणाया १,१-पत्र ३७)। सुशोभित (कप्पः प्रौपः सुर ३, १२)। से ७, ६२, महा; वज्जा ११८)। हेकृ. परिभोत्तु (दस ५, १) । कृ. परिभोग, परिमंथर वि [परिमन्थर] मन्द, धीमा परिमहिय वि [परिमहित] पूजित (पउम परिभोत्तव्व (पिंड ३४; कस)। । (गउड; स ७१६)। परिमण्डन (जत ज्जा For Personal & Private Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमा - परियाणिअ परिमा (प) देखो पडिमा (भवि) 1 परिमाइ स्त्री [परिमाति ] परिमाण, 'जिरणसासरिण छज्जीवदयाइ व पंडियमरणि सुगइपरमाइव' (भवि) । परिमाण न [ परिमाण ] मान, माप, नाप ( औप, स्वप्न ४२३ प्रासू ८७ ) । परिमास पुं [परिमर्श ] स्पर्श (खाया १, ६ गउड से ६, ४८, ७६) । परिमास पुं [दे] नौका का काष्ठ-विशेष ( रणाया १, ६--पत्र १५७ ) । परिमासि वि [परिमर्शिन् ] स्पर्श करनेवाला (पि ६२) । परिमिज्ज नीचे देखो । रमिक [परि + मा] नापना, तौलना । वकृ. परिमित (सुपा ७७) । कृ. परिमिज्ज, परिमेय ( पच ५६ पउम ४६, २२ ) । परिमिअ वि [ परिमित ] परिमाण-युक्त (कप्प; ठा ५, १; औप परह २, १ ) । परिमिअ वि [परिवृत] परिकरित, वेष्टित ( पउम १०१, भवि ) | परिमिला अक [परि + म्लै] म्लान होना । परिमिलादि (शौ ) (पि १३६ ४७९ ) । परिमिलाण वि[परिम्लान] म्लान, विच्छाय, निस्तेज (महा) । परिमिल्लिर वि [परिमोक्तृ] परित्याग करने वाला (सण) । परिमुअ सक [ परि + मुच्] परित्याग करना । परिमुइ ( स ) । परिमुक्त वि [ परिमुक्त ] परित्यक्त (सुपा २५२; महा; सण) । परिमुट्ठ वि [ परिमृष्ट] स्पृष्ट (मा ४४) । परिमुण सक [ परि + ज्ञा] जानना । परिमुरसि ( वजा १०४ ) । परिमुणिअ वि [परिज्ञात] जाना हुआ ( पउम १६, ६१; सरण) । परिमुस सक [परि + मुष् ] चोरी करना । वकृ. परिमुसंत (श्रा २७) । संकृ. परिमुसिऊण (कर्पूर २९) । परिमुस सक [परि + मृश् ] स्पर्श करना, छूना। परिमुसइ (भवि ) । परिमुसण न [ परिमोषण] १ चोरी । २ वञ्चना, ठगाई (गा २६) । ७१ पाइअसहमण्णवो ५६१ परिमुसिअ वि [परिमृष्ट] स्पृष्ट (महानि ४; परियप्पण न [परिकल्पन] कल्पना (धर्म भवि ) । १२०८ ) । पारयय पुं [परिचय ] जान-पहचान, विशेष रूप से ज्ञान (गउड से १५, ६६; अभि १३१) । परियय वि [ परिगत ] धन्वित युक्त (स २२) । परियाइ सक [पर्या + दा] १ समन्ताद् ग्रहण करना । २ विभाग से ग्रहण करना । परियाइयह (सूत्र २. १,३७) । संकृ. परियाइत्ता (ठा ७ ) 1 परिमूसण देखो परिमुसण ( गा २६) । परिमेय देखो परिमिण । परिमोक्कल वि [ दे. परिमुक्त ] स्वैर, स्वच्छन्दी (भवि ) । परिमोक्ख [परिमोक्ष ] १ मोक्ष, मुक्ति ( श्राचा) । २ परित्याग (सूत्र १, १२, १० ) । परिमोय सक [परि + मोचयू ] छोड़ाना, छुटकारा कराना । परिमोह ( सू २, १, 32) 1 परिमोयण न [परिमोचन] मोक्ष, छुटकारा परियाइअ वि [पर्यात्त] संपूर्ण रूप से गृहीत (सुर ४, २५० श्रौप) । (ठा २, ३ - पत्र ६३) । परियाइअ देखो परियाईय (ठा २, ३ - पत्र ६३) । परियाइया स्त्री [पर्यादान ] समन्ताद् ग्रहण (परण ३४ – पत्र ७७४) । परियंच सक [परि + अच्] पूजना । संकृ. परियाइत वि [पर्याप्त ] काफी (राज) । परिचिवि ( प ) ( भवि ) । परियाई वि[पर्यायातीत ] पर्याय को अतिक्रान्त (राज) । परियाग देखो पज्जाय ( श्रपः उवा महा कप ) । परियागय वि [ पर्यागत ] १ पर्याय से श्रागत (उत्त ५, २१, सुख ५, २१ गाया १, ३) । २ सर्वथा निष्पन्न (गाया १७पत्र ११६) । परियाग सक [ परि + ज्ञा ] जानना । परियार, परियारगाइ (पि १७०३ उवा) । परियाणन [परित्राण ] रक्षरण (सूत्र १, १, २, ६, ७) । परियाण न [परिदान ] १ विनिमय बदला, लेनदेन । २ समन्ताद् दान (भवि ) । परियाण न [परियान] १ गमन (ठा १०) | २ वाहन, यान (ठा ८) ३ श्रवतरण ( ठा ३, ३) । परिमोस पुं [परिमाप चोरी (महा) । परियंच सक [ परि + अञ्च ] १ पास में जाना । २ स्पर्श करना। ३ विभूषित करना । संकृ. परिचिवि (अप) (भवि ) । परियंचण न [पर्यञ्चन] स्पर्श करना (सुख ३१) । देखो पलियंचण । परियंचिअ वि [पर्यञ्चित ] विभूषित, 'पवरामगाम परियंचिउ' (भवि) । परियंचिअ वि [पर्यचित ] पूजित (भवि) । परियंद सक [ परि + वन्द्] वन्दन करना, स्तुति करना । कवकृ. परियंदिज्जमाण (119) 1 परियंदण न [ परिचन्दन] वन्दन, स्तुति (आचा) । परियच्छ सक [ दृश् ] १ देखना । २ जानना । परियच्छइ (भवि उव), परियच्छंति ( उव) । परियच्छिय देखो परिवच्छिय (राज) । परियच्छी स्त्री [परिकक्षी ] परदा (धर्मरत्न वृ० गा० ३१ पत्र २५, २) । परियत्थि स्त्री [पर्यस्ति ] देखो पल्हत्थिया, 'जत्तो वायइ पवणो परियत्थी दिज्जए तत्तो' ( चेद्दय १३० ) । परियप्प सक [ परि + कल्पय् ] कल्पना करना, चिन्तन करना । वक परियप्पमाण ( आचा १, २, १, २) । For Personal & Private Use Only परियाणण न [परिज्ञान] जानकारी (स १३) । परियाणि वि [ परित्राणित] परित्राणयुक्त (सूत्र १, १, २, ७) । परियाणिअ वि [परिज्ञात] जाना हुआ, विदित (पउम ८८, ३३ रत्न १८ भवि ) । Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ पाइअसहमहण्णवो परियाणिअ परिलोयण परियाणिअ पुन [परिगानिक] १ यान, सक. सेवना। परियावज्जइ, परियावज्जति परिछ वि [परिरब्ध] प्रालिङ्गित (गा वाहन । २ विमान-विशेष (ठा ८)। (कप्प; आचा)। ___३६८)। परियादि देखो परियाइ । परियादियति परियावजण न [पर्यापादन] रूपान्तर- | परिरय [परिरय] १ परिधि, परिक्षेप (उत्त (कप्प) । संकृ. परियादित्ता (कप्प)। प्राप्ति (पिंड २८०)। ३६,५६ पउम८६, ६१; पब १५८ औष)। परियाय देखो पन्जाय (ठा ४, ४, सुपा १६ परियावजणा स्त्री [पर्यापादन] प्रासेवन २ पर्याय, समानार्थक शब्दः 'एगपरिरय विसे २७९१; प्रौप; आचा; उवा) । (ठा ३, ४–पत्र १७४) । त्ति वा एगपज्जाय त्ति वा एगणामभेद त्ति अभिप्राय, मत; 'सएहि परियाएहि लोयं बूया परियावण देखो परितावण (सूत्र २, २, वा एगट्ठा' (प्राचू १) । ३ परिभ्रमण, फिर कडेति य (सूत्र १, १, ३, ६)। १० ६२)। कर जाना, 'अहवा थेरो, तस्स य अंतरा प्रव्रज्या, दीक्षा (ठा ३, २-पत्र १२६)। परियावणा स्त्री [परितापना] परिताप, ड्डा डोंगरा वा, जे समत्था ते उज्जुएण ११ ब्रह्मचर्य (प्राव ४)। १२ जिन-देव के संताप (औप)। वचंति, जो असमत्यो सो परिरएणं-भमाकेवल ज्ञान की उत्पत्ति का समय (रणाया १, परियावणिया स्त्री [परियापनिका] कालान्तर डेण बच्चई (प्रोघभा २० टी)। ८)। शेर स्थावर] दीक्षा की अपेक्षा तक अवस्थान, स्थिति (गाया १,१४---पत्र परिराग अक [ परि + राज] विराजना, से वृद्ध (ठा ३, २)। १८६)। शोभना । वकृ. परिरायमाण (कप्प) । परियायतकरभूमि स्त्री [पर्यायान्तकृद्- परियावण्ण। वि [पर्यापन] स्थित, प्रव. परिरिख सक [परि + रिङ्ख] चलना, भूमि] जिन-देव के केवल ज्ञान की उत्पत्ति | परियावन्न । स्थित (पाचा २,१,११,७ । फरकना, हिलना। वकृ. परिरिखमाण (उप के समय से लेकर तदनन्तर सर्व प्रथम मुक्ति ८. भग ३४, २; कस)। ५३० टो)। पानेवाले के बीच के समय का प्रान्तर (गाया परियावन्न वि[पर्यापन्न] लब्ध, प्राप्त (आचा परिरंभ सक [परि + रुध] रोकना, १,८-पत्र १५४)। २, १, ६, ६)। अटकाना। कर्म. परिरुज्झइ (गउड ४३४)। परियार सक [परि + चारय ] १ सेवा | परियावस सक [पर्या + वासय् ] आवास | संकृ. परिरंभिऊण (उवकु १)। शुश्रूषा करना । २ संभोग करना, विषय कराना। परियावसे (उत्त १८, ५४, सुख परिलंधि वि [परिलड्डिन] लंघन करनेवाला सेवन करना । परियारेइ (ठा ३, १; भग)। १८, ५४)। (पउड)। वकृ. परियारेमाण (राज)। कवकृ. परि परियावसह पुं[पर्यावसथ] मठ, संन्यासी परिलंवि वि [परिलम्बिन्] लटकनेवाला यारिजमाण (ठा १०)। का स्थान (प्राचा २, १, ८, २)। । (गउड)। परियार पुं [परिचार] मैथुन, विषय-सेवन | परियाविय वि[परितापित] पीड़ित (पडि)। परिलभिअ वि [परिलम्भित] प्राप्त कराया (परण ३४-पत्र ७८० ठा ३, १)। परियासिय वि [परिवासित] बासी रखा हुमा, 'सो गयवरो मुणीणं (मुणीहिं) वयारिण परियारग वि [परिचारक] १ विषय-सेवन हुप्रा (कस)। परिलंभिप्रो पसन्नप्पा' (पउम ८४, १)। करनेवाला (पएण २; ठा २, ४)। २ सेवा- परिरंज सक [भ ] भाँगना, तोड़ना। परिलग्ग वि [परिलम] लगा हुआ, व्यापृत शुश्रूषा करनेवाला (विपा १,१)। परिरंजइ (प्राकृ ७४)। (उप ३५६ टी)। परियारण न [परिचारण] १ सेवा-शुश्रूषा परिरंभ सक[परि + रभ ] आलिंगन करना। परिलिअ वि [दे] लीन, तन्मय (दे ६, २४)। (सुज १८–पत्र २६५) । २ काम-भोग परिरंभस्सु (शौ) (पि ४६७) । संकृ. परिली अक [परि + ली] लीन होना। वकृ. (परण ३४)। परिरंभिउं (कुप्र २४२)। परिलिंत, परिलेंत, परिलीयमाण (णाया परियारणया । स्त्री [परिचारणा] ऊपर परिरंभण न [परिरम्भन] आलिङ्गन (पामः | १, १-पत्र ५; औपः से ६, ४८; पएह १, परियारणा देखो (पएण ३४ ठा ५, १)। सद्द धू [शब्द] विषय-सेवन के गा ८३५; सुपा २, ३६६) । ३; राय)। परिरक्ख सक [परि +रक्ष ] परिपालन परिली स्त्री [दे] तोद्य-विशेष, एक तरह का समय का स्त्री का शब्द (निचू १)। करना । परिरक्खइ (भवि) । कृ. परिक्ख- बाजा (राज)। परियाल देखो परिवार (राय ५४)। णीअ (सिक्खा ३१)। परिलीण वि [परिलीन निलीन (पान)। परियालोयण न [पर्यालोचन] विचार, परिक्खण न [परिरक्षण] परिपालन (गा परिनुप सक [परि + लुप्] लुप्त करना, चिन्तन (सुपा ५००)। ६०१; भवि)। अदृष्ट करना । कवकृ. परिलुप्पमाण (महा)। परियाव देखो परिताव = परिताप (प्राचा: परिरक्खा स्त्री/परिरक्षा] ऊपर देखो (पउम परिलेंत देखो परिली = परि + ली। प्रोघ १५४)। ५६, ५३, धर्मवि ५३; गउड) । परिलोयण न [परिलोचन, परिलोकन] परियावज्ज अक [पर्या+ पद्] १ पीडित परिरक्खिय वि [परिरक्षित] परिपालित अवलोकन, निरीक्षण। २ वि. देखनेवाला; होना। २ रूपान्तर में परिणत होना। ३ । (भवि)। 'जुगंतरपरिलोयणाए दिट्ठीए' (उवा)। For Personal & Private Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिल्ल-परिवाइ पाइअसहमहण्णवो परिल्ल देखो पर = पर (से ६, १७)। परिवट्ट देखो परिवत्त =परि + वर्तय । परि- परिवत्त देखो परिअत्त = परिवृत्त (काल)। परिल्लवास वि [दे] अज्ञात-गति (दे६, ३३)। बट्टइ (भवि)। संकृ. परिवट्टिवि (अप) | परिवत्तण देखो पडिअत्तण (पि २८९; परिल्ली देखो परिली = दे (राय ४६)। (भवि)। नाट-विक्र ८३)। परिल्ली देखो परिली। वकृ. परिल्लिंत, परिवण न [परिवर्तन] आवर्तन, प्रावृत्तिः परिवत्तर (अप) वि [परिपक्त्रिम] पकाया परिल्लंत (मौप)। 'आगमपरिवट्टणं (संबोध ३६)। गया, गरम किया गयाः अंगु मलेवि सुअंधापरिल्हस अक [ परि + संस् ] गिर पड़ना, परिवट्टि देखो परिवत्ति (मा ५२)। मोएं निमज्जिउ परिवत्तरतोएं' (भवि)। सरक जाना । परिल्हसइ (हे ४, १९७)। परिवट्टिय देखो परिवत्तिय (भवि)। परिवत्ति वि [परिवर्तिन] बदलानेवाला, परिवइत्तु वि [परिवजित गमन करने में परिव टुल वि [परिवर्तुल] गोलाकार (स 'स्वपरिवत्तिणी विज्जा' (कुप्र १२६; महा)। समर्थ (ठा ४, ४-पत्र २७१)। परिवत्तिय देखो परिअट्टिय (सुपा २६२)। परिवंकड (अप) वि [परिवक] सर्वथा टेढ़ा विधाता परिवड प्रक [ परि + पत् ] पड़ना। वकृ. पारवड अक[ पार + पत् । प परिवत्थ न [परिवस्त्र] वन, कपड़ा (भवि)। (भवि)। परिवडंत, परिवडमाण (पंच ५, ६२, ६७; परिवत्थिय वि [परिवनित] आच्छादित, परिवंच सक [परिवञ्चय ] ठगना। संकृ. उप पू ३)। 'उजलनेवच्छहत्य (?व्व) परिवत्थिय' (प्रौप)। परिवंचिऊण (सम्मत्त ११८)। परिवडिअ वि [परिपतित] गिरा हुआ (सुपा देखो परिवच्छिय। परिवंचिअ वि [परिवञ्चित] जो ठगा गया ३६०, वसु; यति २३, हम्मीर ३०; पंचा ३, २४)। परिवद्ध देखो परिवड्ढ। वकृ. परिवद्धमाण हो (दे ४, १८)। परिवडढ अक [परि + वृध् ] बढ़ना। (राज)। परिवंथि वि [परिपन्थिन् विरोधी, दुश्मन परिवड्डइ (महाः भवि)। भवि. परिवड्डिस्सइ परिवन्न देखो पडिवन्न (उप १३६ टो)। (पि ४०५, नाट-विक्र ७)। (औप)। कृ. परिवडढंत, परिवडढमाण, परिवय अक [ परि+वत् ] तिर्यक् गिरना। परिवंदण न [परिवन्दन] स्तुति, प्रशंसा परिवड्ढेमाण (गा ३४६; णाया १, १३; परिवयंति (राय १०१)। (प्राचा)। महाः णाया १, १०)। परिवय सक [परि + वद्] निन्दा करना। परिवंदिय वि [परिवन्दित] स्तुत, पूजित परिवडढण न [परिवर्धन] परिवृद्धि, बढ़ाव परिवएज्जा, परिवयंति (प्राचा)। वकृ. (पउम १, ६)। (गउड धर्मसं ८७५)। परिवयंत (पएह १, ३)। परिवक्खिय देखो परिवच्छिय (प्रौप)। परिवढि स्त्री [परिवृद्धि] ऊपर देखो (से | परिवरिअ वि [परिवृत] परिकरित, वेष्टित परिवग्ग पुं [परिवर्ग] परिजन-वर्ग (पउम। ५.२) । (सुपा १२५)। २३, २४)। परिवढि देखो परिअढिअ = परिवधिन परिवलइअ वि [परिवलयित] वेष्टित (सुख परिवच्छ न [दे] अवधारण, निश्चयः 'साम- (प्रौप १६ टि)। १०,१)। पत्थ परिवच्छे' (कल्पगा० २१४२)। परिवढिअ वि [परिवर्धित] बढाया हुआ परिवस अक [ परि + वस् ] बसना, रहना। परिवच्छिय देखो परिकच्छिया 'उजलनेवत्य- (गा १४२, ४२१) । परिवसइ, परिवसंति (भगः महाः पि ४१७) । हव्वपरिवच्छियं' (णाया १, १६ टी-पत्र पारवड्ढमाण देखा परिवड्ढेमाण देखो परिवड्ढ। परिवसण न [परिवसन] आवास (राज)। २२१; प्रौप)। देखो परिवत्थिय । परिवण्ण सक [परि+वर्णय ] वर्णन परिवसणा स्त्री [परिवसना] पयुषणा-पर्व परिवज सक [प्रति + पद्] स्वीकार करना। करना । कृ. परिवण्णेअव्य (भग)। (निचू १०)। परिवज्जइ (वि)। परिवण्णिअ वि [परिवर्णित] जिसका वर्णन परिवसिअ वि [पर्युपित] रहा हुआ, वास परिवज सक [ परि + वर्जय] परिहार किया गया हो वह (प्रात्म ७)। किया हुभा (सण)। करना, परित्याग करना। परिवज्जइ (भवि)। परिवत्त देखो परिअट्ट = परि + वृत् । परि- परिवह सक [ परि + वह ] वहन करना, संकृ. परिवज्जिय, परिवजियाण (प्राचा त्तई (उत्त ३३, १)। परिवत्तसु (गा ८०७)। ढोना। २ अक चालू रहना। परिवहइ पि ५९२)। वकृ. परिवत्तंत (गा २८३)। (कप्प) । परिवहति (गउड)। वकृ. परिवहंत परिवज्जण न [परिवर्जन] परित्याग (धर्मसं परिवत्त देखो परिअट्ट परि + वर्तय। वकृ. (पिंड ३५६) । परिवत्तेत, परिवत्तयंत (स, सूप १, ५, परिवहण न [परिवहन] ढोना (राज)। परिवजणा स्त्री [परिवर्जना] ऊपर देखो १, १५)। संकृ. परिवत्तिऊण (काल)। परिवा अक [परि+वा] सूखना। परिवाया (उव)। परिवत्त देखो परिअट्ट= परिवर्तः 'विहियख्व- (गउड)। परिवन्जिय वि [परिवर्जित परित्यक्त (उवा; परिवत्तो (कुप्र १३४)। २ संचरण, भ्रमण | परिवाइ वि [परिवादिन] निन्दा करनेवाला भगः भवि)। For Personal & Private Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ पाइअसद्दमहण्णवो परिवाइय-परिवीइअ परिवाइस वि परिवाचित] पढ़ा हुअा (पउम परिवारिअ वि [परिवारित] १ परितार- परि विचिट्ठ अक [परिवि + स्था] १ ३७, १५)। संपन्न । २ वेथितः 'जहा से उडुवई चंदे उत्पन्न होना। २ रहना। परिविचिट्ठइ परिवाई स्त्री [परिवाद] कलंक-वार्ता, 'दइ- नक्खत्तपरिवारिए' (उत्त ११, २५ काल)। (प्राचा १, ४, २, २; पि ४८३)। यस ताव बता जणपरिवाई लई पत्ता' परिवाल देखो परिआल। परिबालइ (दे ६, | परिविच्छय वि[परिविक्षत सर्वथा छिन्न(पउम ६५, ४१)। ३५ टी)। हत (सूम १. ३, १. २)। परिवाड सक चिटया १ घटाना, संगत परिवाल सक [परि + पालय् ] पालन परिविट्ठ वि [परिविष्ट] परोसा हुआ (स करना । २ रचना, निमोण करना । परिवाडेइ करना । परिवालइ, परिकालेइ (भविः महा)। १८६, सुपा ६२३)। (हे ४, ५०)। वकृ. परिवालयंत (सुर १, १७१)। संकृ. परिवित्तस प्रक [परिवि + त्रस 1 डरना। परिवालिय (राज)। परिविनसंतिः परिवित्तसेजा (पाचा १, ६, परिबाडल देखो पारपाडल (गउड)। परिवाड स्त्री [परिपाटि] १ पद्धति, रीति परिवाल देखो परिवार परिवार (गाया १, ८-११३१)। परिवित्ति स्त्री परिवृत्ति] परिवर्तन (सुपा (विसे १०८५)। २ पंक्ति, श्रेरिण (उत्त १. ५८७)। ३२) । ३ क्रम, परंपरा (संवेह)। ४ सूत्रार्थपरिवाविय वि [परिवापित] उखाड़ कर परिविद्ध वि [परिविद्ध] जो बिंधा गया हो वाचना, अध्यापन: थिरपरिवाडी पहियवको' फिर से बोया हुआ (ठा ४, ४)। वह (सुपा २७०)। (धर्मवि ३६); 'एगत्थोहि वत्ति न करे परि- पारवाविया स्त्री परिवापिता] दीक्षा-विशेष परिविद्धंस सक [परिवि + ध्वंसय] १ वाडिदाणमबि तासि' (कुलक ११)। फिर से महाव्रतों का प्रारोपण (ठा ४, ४)। विनाश करना। २ परिताप उपजाना। परिवारिध विघटिता रचित (कमा)। परिवास पुं[दे] खेत में सोनेवाला पुरुष संक परिविटमिना )। परिवाडी देखो परिवाडि; 'परिवाडीयागयं व (दे ६, २६)। परिविद्धत्थ पि [परिविध्वस्त] १ विनष्ट । हवइ रज्ज' (पउम ३१, १०६ पात्र)। परिवास न [परिवासस् ] वस्त्र, कपड़ा : २ परितापित (सूम २, ३, १)।। 'जंधोख्यगुज्झंतरपासइँ सुनियत्थई मि झीण- परिविएफुरिय विपरिविस्फुरित] स्फूत्तिपरिवाद पुं परिवाद] निन्दा, दोष-कीर्तन परिवासइँ (भवि)। (धर्मसं ६५४)। युक्त (सण)। परिवादिणी स्त्री परिवादिनी] वीणा विशेष परिवासि वि [परिवासिन् ] बसनेवाला । परिवियलिय वि [परिविगलित] चुना (राज)। (सुपा ४२)। । हुआ, टपका हुआ (सण)। परिवासिय वि [परिवासित] सुवासित, परिवियलिर वि [परिविगलित] झरनेवाला, परिवाय देखो परिवाद (कप्प; औप; पउम सुगन्धयुक्त 'मयपरिमलपरिवासियदूर (भवि)। ६५, ६०; रणाया १, १, स ३२; आत्महि चूनेवाला (सण)। १५)। परिवाह सक [परि + वाय्] १ वन परिविरल वि [परिविरल] विशेष विरल परिवायग पुं[परिव्राजक] संन्यासो, कराना। २ अश्वादि खेलाना, प्रवादि-क्रीड़ा परिवायय बावा, (सरण सुर १५, ५) । करनाः 'विवरीयसिक्खतुरयं परिवाहइ परिविलसिर वि [परिविलसित] विलासी वाहियालीए' (महा)। परिवायणी स्त्री [परिवादनी] सात तांतवाली (सरण)। वीणा (राय ४६)। परिवाह पूं [परिवाहन जल का उछाल, परिविस सक [परि + विश. 7वेष्ठन करना। परिविसइ (प्राकृ ७५)। बहाव परिवार सक [परि + वारय] १ वेन । 'भरिउच्चरंतपसरिअपिअसंभरणपिसुणो वराईए। पारावस सक पार + विष्] पसिना, करना । २ कुटुम्ब करना। वकृ. परिवारयंत परिवादोविन खस्म वाटिनोबादो खिलाना । संकृ. परिविस्स (उत्त १४, ६)। (उत्त १३, १४)। संकृ. परिवारिया (सूम १, ३, २, २)। (गा ३७७)। परिवियास पुं[परिविषाद] समन्तात् खेद परिवाह पुंदे] दुविनय, अविनय (दे ६, (धर्मवि १२६)। परिवार [परिवार] गृह-लोक, घर के मनुष्य २३)। - परिविहुरिय वि [परिविधुरित अति पीड़ित, (प्रौपः महा: कुमा)। २ न. म्यान (पास)। परिवाहण न [परिवाहन] प्रश्वादि-खेलन; मणिसंजुयदेविकरपरिविहुरिपो गयं मोत्त" परिवारण न [परिवारण] १ निराकरण 'प्रासपरिवाहणनिमित्तं गएण' (स ८१; (सुर (पराह १, १--पत्र १६)। २ पाच्छादन, __महा)। । परिवीअ सक [परि + वीजय] पँखा ढकना (दे १,८६)। परिविआल सक [परि + विश1 वेटन करना, हवा करना । परिवीएमि (स ६७)। परिवारिअ वि [दे] घटित, रचित (दे६, करना। परिविनालइ (प्राक ७५; धात्वा परिवाइज वि [परिवीजित] जिसको हवा ३०)। की गई हो वह (उप २११ टी)। For Personal & Private Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवीढ–परिसजिअ पाइअसद्दमहण्णवो ५६५ परिवीढ न [परिपीठ] मासन-विशेष (भवि)। परिवेस सक [परि + विष ] परोसना। परिसंक अक [परि + शङला भय करना, परिवील सक [परि-पीडय] दबाना । परिवेसइ (सुपा ३८६)। कर्म. परिवेसिज्जइ डरना। वक्र. परिसंकमाण (सूत्र १, १०, संकृ. परिवीलियाण (पाचा २, १, ८, १)। (गाया १, ८)। वकृ. परिवेसंत, परि २०)। परिवुड वि [परिवृत] परिकरित, वेष्टित वेसयंत (पिंड १२०; सुपा ११; णाया परिसंकिय वि [परिशङ्कित भीत (पराह (गाया १, १४ धर्मवि २४ औपः महा)। परिवुत्थ वि [पर्युषित] १ रहा हुआ। २ परिवेस [परिवेश, प] १ वेष्टन, (गउड)। परिसंखा सक [परिसं + ख्या] १ अच्छी न. वास, निवास (गउड ५४०)। देखो २ मंडल, मेघादि से सूर्य-चन्द्र का वेष्टनाकार तरह जानना। २ गिनती करना। संकृ. परिवुसिअ। मंडल; 'परिवेसो अंबरे फरुसवएगो' (पउम परिसंखाय (दस ७, १)।। परिवुद देखो परिवुड (प्राकृ १२)। ६६, ४७; स ३१२ टीः गउड)। परिसंवा स्त्री [परिसंख्या] संख्या, गिनती परिवुदि स्त्री [परिवृति] वेष्टन (प्राकृ १२)। परिवेसण न [परिवेषण] परोसना (स (पउम २, ४६, जीवस ४०; पव-गाथा परिवुमअ वि [पर्युषित] स्थित, रहा हुआः | १८७: पिंड ११६) । १३: तंद् ४ सण)। 'जे भिक्खू अचेले परिवुसिए' (पाचा १, ८, परिवेसणा स्त्री [परिवेषणा] ऊपर देखो परिसंग पुं[परिषङ्ग] संग, सोहबत (हम्मोर ७, १, १, ६, २, २)। देखो परिवुत्थ। (पिंड ४४५) । परिवसिअ वि [पर्युषित] गत, गुजरा हमा परिवेसि [परिवेशिन 1 समीप में रहने- परिसंग पुं [परिप्यङ्ग] प्रालिङ्गन (पउम (प्राचा २, ३, १, ३)। वाला (गउड)। २१,५२)। परिवूढ वि [परिवृढ] समर्थ (उत्त ७, २)। परिव्वअ सक [ परि + व्रज.] १ समंताद् परिसंगय वि [परिसंगत] युक्त, सहित परिवूढ वि [परिवृद्ध] स्थूल (भास ८६ | गमन करना। २ दीक्षा लेना। परिव्वए; (धर्मवि १३)। उत्त ७, ६)। परिवएज्जासि (सूस १, १, ४, ३; पि परिसंटव सक [परिर+स्थापया परिवूढ वि [परिवृद्ध] १ बलवान्, बलिष्ठ __४६०)। संस्थापन करना । परिसंठवहु (ग्रा) (पिंग)। (दस ७, २३)। २ मांसल, पुष्ट (प्राचा २, परिव्वअ वि [परिवृत] परिवेष्टित, 'तारा- वकृ. परिसंठवित (उपपं ४३)। ४, २, ३)। परिव्वनो विव सरयपुरिणमाचंदो' (वसु)। परिसंठविय वि परिसंस्थापित संस्थापित परिवूढ वि [परिव्यूढ] वहन किया हुआ, परिव्वअ वि [परिव्यय] विशेष व्यय (तंदु ३८)। ढोया हुआ; 'न चइस्सामि अहं पुण चिरपरि- (नाट-मृच्छ ७)। परिसंठिय वि [परिसंस्थित] स्थित, रहा बूढं इमं लोह (धर्मवि ७)। परिव्वय पुं [परिव्यय] खर्चा, खर्च करने हुा (महा) । परिवूहण देखो परिबूहण (राज)। का धन (दस ३, १ टी)। परिसंत वि [परिश्रान्त थका हुआ (महा)। परिवेढ सक [परि + वेष्ट] बेढ़ना, परिवह सक [ परि + वह ] वहन करना, परिसंथविय वि [परिसंस्थापित] पाश्वासित लपेटना । परिवेढइ (भवि) । संकृ परिवेढिय धारण करना । परिवहइ (संबोध २२)। (स ५६६)। (निचू १)। परिव्वाइया स्त्री [परिव्राजिका] संन्यासिनी परिसक सक [परि + ध्वक 1 चलना, परिवेढ पुं[परिवेष्ट] वेष्टन, घेरा जा जग्गइ (णाया १८ महा)। गमन करना, इधर-उधर घूमना । परिसक्कइ तो पिच्छइ सेवापरसुहडपरिवेढं' ( सिरि परिव्वाज (शौ)[ परि + व्राज ] संन्यासी (उप ६ टी; कुप्र १७५)। वकृ. परिसकंत, ६३८)। (चारु ४६)। परिसकमाण (काप्र ६१७ स ४१, १३६)। परिवेढाविय वि [परिवेष्टित] वेष्टित कराया परिवाजअ (शौ) पुं[परिव्राजक] संन्यासी संकृ. परिसक्किऊण (सुपा ३१३)। कृ. हुआ (पि ३०४)। (पि २८७; नाट----मृच्छ ८५)। परिसक्कियव्य (स १६२) । मारवाष्ट बढ़ा हुमा, घरा परिव्वाजिआ (शौ) देखो परिव्वाइया परिसक्कण न [परिष्वष्कण] परिभ्रमण (से हमा, लपेटा हुआ (उप ७६८टी धरण २० मा २०)। ५, ५५; १३, ५६, सुपा २०१)। पि ३०४)। परिव्वाय देखो परिव्वाज (सूअनि ११२ परिसक्किअ वि [परिष्वष्कित] १ गत परिवेय अक [परि + वेप्] कांपना, । औप)। (भवि)। २ न. परिक्रमरण, परिभ्रमण (गा 'कायरघरिणि परिवेयई' (भवि)। परिव्वायग। [पारिव्राजक ] संन्यासी, परिवेल्लिर वि[परिवेल्लित] कम्पन-शील परिव्वायय । साधु (भग)। परिस कर वि [परिष्वष्किन] गमन करने(गउड)। परिव्वायय वि [परिव्राजक परिव्राजक- वाला (णाया १, १; पि ५६६) । परिवेव प्रक [परि + वेप] काँपना। वकृ. सम्बन्धी (कप्प)। परिजिअ (प्रप) वि[परिष्वक्त] प्रालिंगित परिवेवमाण (आचा)। परिस देखो फरिस - स्पर्श (गउड चारु ४२)।। (सण)। For Personal & Private Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो परिसड-परिसेह डिज्ज भोला । ३ रखना परिसरसल्ल वि [ पर्षदती परिसड अक[ परि + शट् ] उपयुक्त होना। परिसाड सक [ परि + शाटय] १ इधर• परिसिल्ल वि [पर्षद्वत् ] परिषद् वाला परिसडइ (प्राचा २, १, ६, ६) । उधर फेंकना । २ भरना। ३ रखनाः 'परिसा- (बह ३)। परिसडिय वि [परिशटित] सड़ा हुआ, डिज्ज भोगणं' (दस ५, १, २८)। परिसा- परिसील सक [परि + शीलय ] अभ्यास विनष्ट (गाया १, २; औप)। डितिः भूका. परिसाडिसुः भवि. परिसाडिस्संति करना, आदत डालना। संकृ. परिसीलिवि परिसण्ह वि [परिश्वक्ष्ण सूक्ष्म, छोटा (से (प्राचा २,१०, २)। (अप) (सण)। परिसाडणा स्त्री [परिशाटना] वपन, बोना परिमीलनपरिशीलना प्रयास परिसन्न वि [परिषण्ण] जो हैरान हुआ हो, (वव १)। (रंभा; सण)। पीडित (पउम १७, ३०)। परिसाडणा स्त्री [परिशाटना] पृथक्करण परिसीलिय वि [परिशीलित] अभ्यस्त परिसप्प सक [परि + सृप] चलना । | (सूअनि ७ २०)। (सण)। परिसप्पेइ (नाट-विक्र ६१)। '' परिसाडि वि [परिशाटिन] परिशाटन-युक्त परिसीसग देखो पडिसीसअ (राज)। (प्रोघ ३१)। परिसप्पि वि [परिसर्पिन] १ चलनेवाला परिसाडि वि [परिशाटि] परिशाटन, पृथ परिसुक्क वि [परिशुष्क] खूब सूखा हुआ (कप्पू) । २ पुंस्त्री. हाथ और पैर से चलनेकरण (पिड ५५२)। (विपा १, २, गउड)। वाला जन्तु-नकुल, सर्प आदि प्राणि | परिसाडिय स्त्री [परिशातित] गिराया हुआ | परिसुण्ण वि [परिशून्य] खाली, रिक्त, सुन्न गण । स्त्री. णी (जीव २)। (दस ५, १,६६)। (से ११, ८७)। परिसम देखो परिस्सम (महा)। परिसाम अफ [शम् ] शान्त होना । परि- परिसुत्त वि [परिसुप्त सर्वथा सोया हा परिसमत्त वि [परिसमाप्त सम्पूर्ण, जो पूरा सामइ (हे ४, १६७) । .(नाट-उत्तर २३)। हुआ हो वह (से १५, ६५; सुर १५, परिसाम वि [परिश्याम] नीचे देखो | परिसुद्ध वि [परिशुद्ध] निर्मल, निर्दोष (उव; २५०)। (गउड)। | गउड)। परिसमत्ति स्त्री [परिसमाप्ति ] समाप्ति' परिसामल वि [परिश्यामल] कृष्ण, काला परिसुद्धि स्त्री [परिशुद्धि] विशुद्धि, निर्मलता पूर्णता (उप ३५७; स ५२)। (गउड)। (गउड द्र ६५)। मिशिग वि पिरिममापिता जो समाप्त परिसामिअ वि [शान्त शान्त, शम-युक्त परिसन्न देखो परिसण (विसे २०५० किया गया हो, पूरा किया हुआ (विसे । (कुमा)। सण)। ३६०२)। परिसामिअ वि [परिश्यामित] कृष्ण किया . परिसुस (अप) सक [परि + शोषय ] परिसमाव सक [परिसम् + आप्] पूर्ण हुआ (गाया १, १)। सुखाना । संकृ. परिसुसिवि (अप) (सण)। करना । संकृ. परिसमाविअ (अभि ११६)। परिसाव सक [ परि + स्रावय ] १ निचो परिसूअणा स्त्री [परिसूचना] सूचना (सुपा परिसर [परिसर] नगर आदि के समीप ड़ना। २ गालना। संकृ. परिसाबियाण ३०)। का स्थान (प्रौप; सुपा १३० मोह ७६)। (प्राचा २,१,८,१)। परिसेय ' [परिषेक] सेचन (प्रोघ ३४७)। परिसावि देखो परिस्सावि (बृह १)। परिसल्लिय वि [परिशल्यित] शल्य-युक्त (सण)। परिसाहिय वि [परिकथित] प्रतिपादित, परिसेस पुं[परिशेष] १ बाकी बचा हुआ, परिसव सक [परि + स्त्र] झरना, टपकना । उक्त (सण)। अवशिष्ट (से १०, २३; पउम ३५, ४०; गा ८८ कम्म ६, ६०)।२ अनुमान-प्रमाण का वकृ. परिसवंत (तंदु ३६ ४१)। परिसिंच सक [ परि + सिच् ] सींचना। परिसिंचिजा (उत्त २, ६)। वकृ. परिसिंच- एक भेद, पारिशेषानुमान (धर्मसं १८६६) परिसह [परिषह] देखो परीसह (भग)। माण (गाया १,१)। कवकृ. परिसिञ्चमाण परिसेसिअ वि [परिशेषित] १ बाकी बचा परिसा स्त्री [परिषद्] १ सभा, पर्षद् (पाम: (कप्प; पि ५४२)। हुआ (भग)। २ परिच्छिन्न, निर्णीतः प्रौप; उवा विपा १, १) । २ परिवार (ठा परिसि? वि [परिशिष्ट] अवशिष्ट, बाकी 'डज्झसि डज्मसु कडसि ३, २-पत्र १२७)। बचा हुआ (प्राचा १, २, ३, ५)। कडसु ग्रह फुडसि हिग्रन ता फुडसु । परिसाइ देखो परिस्साइ (राज)। परिसिढिल वि [परिशिथिल] विशेष शिथिल, तहवि परिसेसिमो च्चिन परिसाइयाण देखो परिसाव । ढीला (गउड)। सो हु मए गलिअसम्भावो' (गा ४०१)। परिसाड सक [परि + शाटय् ] १ त्याग | परिसित्त वि [परिषिक्त] १ सींचा हुआ परिसेह पुं [परिषेध] प्रतिषेध, निवारण करना । २ अलग करना । परिसाडेइ (कप्पा (गा १८५, सण)। २ न. परिषेक, सेचन 'पावट्ठाणाण जो उ परिसेहो, झारणज्झयणाभग) । संकृ. परिसाडइत्ता (भग)। (पएह १, १)। ईणं जो य विही, एस धम्मकों (काल)। For Personal & Private Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसोण-परिहा पाइअसहमहण्णवो परिसोण वि [परिशोण] लाल रंग का परिह पुं[दे] रोष, गुस्सा (दे ६. ७)। हेकृ. परिहरित्तए, परिहरिउं (ठा ५, ३; (गउड)। परिह पुं[परिघ अर्गला, पागल (अणु)। काप्र ४०८)। कृ. परिहरणीअ, परिहरि-: परिसोसण न [परिशोषण] सुखाना (गा परिहच्छ वि [दे] १ पटु, दक्ष, निपुण (दे अव्व (पि ५७१; गा २२७; मोघ ५६ सुर ६, ७६; भवि) । २ . मन्यु, रोष, गुस्सा १४, ८३; सुपा ३६६:५८८ पएह २, ५)। परिसोसिअ वि [परिशोषित] सुखाया हुमा (दे ६, ७१)। देखो परिहत्थ ।। परिहरण न [परिधरण] धारण करना (सण)। परिहच्छ देखो पडिहच्छ (प्रौप)। (वव १)। परिसोह सक [परि + शोधय] शुद्ध करना। परिहट्ट सक [मृद्, परि + घट्टय ] मर्दन परिहरण न [परिहरण] १ परित्याग, वर्जन कवकृ. परिसोहिजंत (सण)। करना, चूर करना, कचरना, कुचलना। परि- (महा) । २ प्रासेवन, परिभोग (ठा १०)। परिस्सअ सक [परि + स्वञ्ज ] आलिंगन | हट्टइ (हे ४, १२६; नाट-साहित्य ११६)। परिहरणा स्त्री [परिहरणा] कार देखो (पिंड करना। परिस्सपदि (शौ) (पि ३१५) । परिहट्ट सक [वि+ लुल्] १ मारना, मार १९७); 'परिहरणा होइ परिभोगो' (ठा ५, संकृ. परिस्मा (पि ३१५; नाट-शकु ३ टी-पत्र ३३८)। कर गिरा देना । २ सामना करना। ३ लूट ७२)। लेना । ४ अक. जमीन पर लोटना । परिहट्टइ परिहरिअ वि [परिहृत] परित्यक्त, वजित परिस्संत देखो परिसंत (णाया १, १ःस्वप्न (प्राकृ ७३)। (महा; सण; भवि)। ४० अभि २१०)। परिहट्टण न [परिघट्टन १ अभिघात, आघात परिहरिअ देखो परिहर =परि + धू, हु । परिस्सज (शौ) देखो परिस्सअ। परिस्सजह (से १०, ४१) । २ घर्षण, घिसना (से ८, परिहरिअ वि [परिधृत] धारण किया हुआ, (उत्तर १७६)। वकृ. परिस्सजंत (अभि ४३)। 'परिहरिप्रकरणप्रकुंडलगंडस्थलमणहरेसु सव१३३) । संकृ. परिस्सजिअ (अभि १२५) । परिहट्टि ली [दे] प्राकृष्टि, भाकर्षण, खींचाव णेसु । अएणुन ! समअवसेणं परिहिज्जा परिस्सम पुं[परिश्रम मेहनत (धर्मसं ७८८, (दे ६, २१)। तालवेंट जुनं ।।' (गा ३६८ अ)। स्वप्न १० अभि ३९)। | परिहट्रिअ वि [मृदित जिसका मर्दन किया परिहलाविअ पुं[दे] जल-निर्गम, मोरी, परिस्सम्म अक [ परि + श्रम् ] १ मेहनत | गया हो वह, 'परिहट्टियो मारणों' (कुमा; पनाला (दे ६, २६)। करना । २ विश्राम लेना। परिस्सम्मइ (विसे पाम)। परिहव सक[परि + भू] पराभव करना । ११६७ धर्मसं ७८६)। परिहण न [दे. परिधान] वन, कपड़ा (दे वकृ. परिहवंत (वव १) । कृ. परिहवियव्य परिस्सव सक [परि + स ] चूना, झरना, ६, २१; पान हे ४, ३४१, सुर १, २५ (उप १०३६)। टपकना। वकृ. परिस्सवमाण (विपा १, भवि)। परिहव ( [परिभव] पराभव, तिरस्कार (से १)। परिहत्थ [दे] १ जलजन्तु-विशेष; 'परि- १३, ४६ गा ३६६ हे ३, १८०)। परिस्सव पुं[परिस्रव प्रास्रव, कर्म-बन्ध का हत्यमच्छपुंछच्छडप्रच्छोडणपोच्छलंतसलिलोह परिहवण न [परिभवन] ऊपर देखो (स कारण (आचा)। (सुर १३, ४१) 'पोखरिणी.... परिपरिस्सह देखो परीसह (प्राचा)। हत्थभमंतमच्छछप्पयप्रणेगसउणगणमिहुणवि- परिहविय वि [परिभूत पराजित, तिरस्कृत यरियसदुन्नइयमहुरसरनाइया पासाईया' परिस्साइ देखो परिस्सावि परिस्राविन् (ठा (उप पृ१८०)। (णाया १,१३-पत्र १७६) । २ वि. दक्ष, परिहस सक [परि + हस ] उपहास करना, ४, ४-पत्र २७६)। निपुण, 'अन्ने रणपरिहत्था सूरा' (पउम ६१, हँसी करना । परिहसइ (नाट) । कर्म. परिहपरिस्साव देखो परिसाव । संकृ. परिस्सावि १. पएह १, ३-पत्र ५५, पाय, प्राव ४)। सोपदि (शौ) (नाट-शकु २)। याण (पि ५६२)। ३ परिपूर्ण (प्रौपः कप्प)। देखो परिहच्छ, परिहस्स वि [परिहस्व अत्यन्त लघु (स परिस्सावि वि [ परिस्राविन् ] १ कर्म-बन्ध | पडिहत्थ। करनेवाला (भग २५, ६) ।२ चूनेवाला, परिहर सक [परि +धृ] धारण करना। परिहा प्रक [परि + हा] हीन होना, कम टपकनेवाला। ३ गुह्य बात को प्रकट कर देने- संकृ. परिहरिअ (उत्त १२, ६)। होना । परिहाइ, परिहायइ (उवः सुख २, वाला (गच्छ १, २२, पंचा १५, १४)। परिहर सक [परि + ह] १ त्याग करना, ३०) । भवि.परिहाइस्सदि (शौ) (अभि६)। परिस्सावि वि [ परिश्राविन् ] सुनानेवाला छोड़ना। २ करना । ३ परिभोग करना, कवकृ. परिहायंत; परिहायमाण (सुर १०, (द्रव्य ४६)। मासेवन करना । परिहरइ (हे ४, २५६ १२, १४; रणाया १, १३, औपः ठा, परिह सक [पार + धा] पहिरना, पहनना। उव; महा) । परिहरंति (भग १५-पत्र ३), परिहीअमाण (पि ५४५)। परिहइ (धर्मवि १५०; भवि); 'सव्वंगीणेवि ६६७) । वकृ. परिहरंत, परिहरमाण (गा परिहा सक [परि +धा] पहिरना । भवि, परिहए जंबू रयणमयालंकारे' (धर्मवि १४६)।। १६६ राज)। संकृ. परिहरिअ (पिंग)। परिहिस्सामि (पाचा १, ६, ३, १) । संकृ. For Personal & Private Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमणव परिहाव सक [परि + हापय् ] ह्रास करना, कम करना, होन करना । वकृ. परिहावेमाण ( खाया १, १ - पत्र २८ ) । परिहाविअ वि [ परिहापित ] होन किया हुश्रा (वव ४) । परिहाविवि [परिधापित] पहिराया हुप्रा (महा; सुर १०, १७ स ५२६; कुत्र ) । परिहास पुं [परिहास] उपहास, हंसी (गा ७७१ पात्र) । परिहासणा स्त्री [ परिभाषणा ] उपालम्भ (श्राव १) । परिहि पुंस्त्री [परिधि] १ परिवेष, 'ससिबिंबं व परिहिएगा रुद्धं सिन्नेण तस्स रायगि ( पव २५५) । २ परिणाह, विस्तार (राज) । परिहिअ वि [परिहित] पहिरा हुना (उवा, भग, कप्पः औपः पात्र सुर २, ८० ) । परिहिऊण देखो परिहा = परि + घा । परिहिंड तक [ परि + हिण्ड् ] परिभ्रमण करना । परिहिडए (ठा ४, १ टी –पत्र १२) । वकृ. परिहिंडंत, परिहिडमाण ( पउम ८, १६८ ६०, ५: १५५; औप ) । परिहिंडिय वि [ परिहिण्डित ] परिभ्रान्त भटका हुआ (पउम ६, १३१) । । परिहित्ता है देखो परिहा = + धा । परिहियव्त्र । परिहीअमाण देखो परिहा= परि + हा । परिहीण वि [परिहीन] १ कम, न्युन (प) २ क्षीण, विनष्ट (सुज्ज १) ३ रहित, वर्जित (उ) । ४ न. ह्रास, श्रपचय (राय) । परिहुत्त वि[परिभुक्त] जिसका भोग किया गया हो वह (से १, ६४; दे ४, ३९ ) । परिहूअ वि [परिभूत] पराजित, श्रभिभूत (गा १३४; पउम ३, ६, से २८) । परिहारिअ वि [पारिहारिक ] श्राचारवान् मुनि, उद्युक्त बिहारी जैन साधु (आचा २, १, १, ४) । परिहारिणी स्त्री [दे] देर से व्याई हुई भैंस परिरंग न [ दे.परिहार्यक] ग्राभूषण-विशेष (श्रप) । (दे ६, ३१) । ५६८ परिहिऊण, परिहित्ता (कुत्र ७२० सूत्र १, ४, १, २५) । कृ. परिहियव्व ( स ३१५) । परिहा स्त्री [परिखा] खाई ( उर ४, २० पान ) । परिहाइअ वि [दे] परिक्षीण (षड् ) । परिहाइवि देखो परिहाब = परि + धापय् । परिहाण न [ परिधान] १ वस्त्र, कपड़ा, ( कुप्र ५६: सुपा ५५ ) । २ वि. पहिरनेवाला, पहननेवाला; 'महिविलया सलिलवत्थपरिहाणी' (पउम ११, ११६) । परिहाणि स्त्री [परिहाणि] ह्रास, नुकसान, क्षति (सम ६७ उप ३२९ जी ३३; प्रासू ३६) । परिहाय वि [दे] क्षीण, दुर्बल (दे ६, २५० पान ) । । परिहायताण } देखो परिहा = परि + हा परिहार [ परिहार ] करण, कृति (वव १) । परिहार [ परिहार ] १ परित्याग, वर्जन ( गउड)। २ परिभोग, आसेवन एवं खलु गोसाला ! वरणस्सइकाइयाश्र पउट्टपरिहारं परिहरति ( भग १५ ) ३ परिहार - विशुद्धि नामक संयम-विशेष (कम्म ४, १२, २१) । ४ विषय (वव १) । ५ तप- विशेष (ठा ५, २० व १) । विशुद्धि, विसुद्धीअ न [विशुद्धिक] चारित्र-विशेष, संयम- विशेष (ठा ५, २० नव २६) । परिहारि वि [ परिहारिन् ] परिहार करनेवाला (बृह ४) । परिहारिय वि [पारिहारिक] १ परित्याग के योग्य (बृह २ ) । २ परिहार नामक तप का पालक (पव ६९ ) । परिहाल पुं [दे] जल-निर्गम, मोरी (दे ६, २९) । परिहाव सक [परि + धापय् ] पहिराना । सं. परिहाइवि (मप) (भवि ) । परिहो सक [ परि + भू] पराभव करना । परिहोइ (भवि ) । परी तक [परि + इ] जाना गमन करना । परिति ( पि ४९३) । वकृ. परिंत (पि ४९३) । परिहा - परूढ परी सक [ क्षिप ] फेंकना । परीइ (हे ४, १४३) । परीसि (कुमा) । परी सक [ भूम् ] भ्रमण करना, घूमना । परीइ (हे ४, १६१) । पति (पराह १, ३ - पत्र ४६ ) । परीघाय पुं [ परिघात ] निर्घात, विनाश ( पव ६४ ) । परीणम देखो परिणम = परि + रामः 'संसगो परागवणागुणाम्रो लोगुत्तरतेंण परीमंति' (उप ३५) । परीभोग देखो परिभोग (सुपा ४६७ श्रावक २८४ पंचा ८ः ) 1 परीमाण देखो परिमाण (जीवस १२३; १३२, पत्र १५६ ) । परीय देखो परिन्त (राज) ! परीयल्ल पुं [ दे. परिवर्त] वेष्टन, 'तिपरी - यल्लमणिस्स रयहरणं धारए एगं (प्रोघ ७०९) । For Personal & Private Use Only परीरंभ पुं [परीरम्भ ] प्रालिंगन (कुमा) । परीवज्ज वि [ परिवर्ज्य ] वर्जनीय (कम्म ६, & at) 1 परीवाय देखो परिवाय= परिवाद ( पउम १०१, ३ प २३७) । परीवार देखो परिवार = परिवार (कुमा; चेइय ४८ ) । परीक्षण न [परिवेषण] परोसना (दे २, १४) । परीसम देखो परिस्सम (भवि ) । परीसह पुं [ परीवह ] भूत आदि से होनेवाली पीड़ा (प्राचा औप: उव) । स २०४) । परिहोअ देखो परिभोग (गउड) । परूप्पर देखो परोप्पर ( कुप्र ५ ) । परिहलस (अप) क [ परि + हस् ] कम परुन्भासिद (शौ) वि [प्रोद्भासित] होना । परिहसइ (पिंग ) । प्रकाशित ( प्रयौ २० ) । परुइय वि [ प्ररुदित] जो रोने लगा हो वह ( स ७५५) । परुक्ख देखो परोक्ख (बिसे १४०३ टी; सुपा १३३; श्रा १: कुप्र २५ ) । परुण्ण | देखो परुइय ( से १, ३५; १०, परुन्न । ६४६ गा ३५४, ८३८ } महाः परुस वि [परुष] कठोर (गा ३४४) । परूढ वि [प्ररूढ] १ उत्पन्न (धर्मवि १२१ ) । २ बढ़ा हुआ (श्रौप; पि ४०२ ) । Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परूव-पलवण पाइअसहमहण्णवो ५६६ परूव सक [प्र + रूपय] प्रतिपादन करना । 'पुनलयाण परोहे रेहइ प्रावालपंतिव्व' (धर्मवि पलंबिअ वि [प्रलम्बित] लटका हुआ (कप्पा पत्वेइ, परूवति (मौप; कप्पा भग)। संकृ. भविः स्वप्न १०)। परूवइत्ता (ठा ३, १)। परोहड न [दे] घर का पिछला आँगन, घर पलंबिर विप्रलम्बित] लटकनेवाला, लटपरूवग वि [प्ररूपक] प्रतिपादक (उवः कुप्र के पीछे का भाग (मोघ ४१७, पाम; गा कता (सुपा ११, सुर १, २४८)। १८१)। ६८५ अ वज्जा १०६; १०८)। पलक्क विदे] लम्पट, 'इय विसयपलाको' परूवण न [प्ररूपण] प्रतिपादन (अण)। पल अक [ पल ] १ जीना । २ खाना । पलइ (कुप्र ४२७ नाट)। परूवणा स्त्री [प्ररूपणा] ऊपर देखो (प्राचू (षड्) । देखो बल = बल । पल (अप) अक [पत् ] पड़ना, गिरना । पलक्ख पुं[प्लक्ष] बड़ का पेड़ (कुमाः पि १३२)। परूविअ वि [प्ररूपित] १ प्रतिपादित, पलइ (पिंग) । वकृ. पलंत (पिंग)। पलग न [पलक] फल-विशेष (प्राचा २, १, निरूपित (पएह २, १) । २ प्रकाशित; पल (अप) सक [प्र+कटय ] प्रकट करना। 'उत्तमकंचरणरयरणपरूविप्रभासुरभूसणभासुरि - पल (पिंग)। पल अक [परा + अय् ] भागना; अंगा' (प्रजि २३)। पलजण वि [प्ररञ्जन] रागी, अनुराग वाला: परेअ पुं[दे] पिशाच (दै ६, १२ पापः 'चोराण कामुयारण य 'अधम्मपलजण -' (णाया १, १८, प्रोप)। षड्)। पामरपहियारण कुक्कुडो रडइ।। पलट अक [परि + अस्] १ पलटना, परेण प्र[परेण] बाद, अनन्तर (महा)। रे पलह रमह वायह, बदलना। २ सक. पलटाना, बदलाना। पलठुइ परेयम्मण देखो परिकम्मण (कप्प)। वहह तणुइज्जए रयणी' (वज्जा (पिंग); 'कोहाइकारणेवि हु नो वयणसिरि परेवय न [दे] पाद-पतन (दे ६, १६)। १३४)। पलट्टति' (संबोध १८)। संकृ. पलट्टि (अप) परेव्व वि [परेयुस्तन] परसों का, परसों | पल न [दे] स्वेद, पसीना (दे ६, १)। (पिंग) । देखो पल्लट्ट। होनेवाला (पिंड २४१)। पल न [पल] १ एक बहुत छोटी तोल, चार पलत्त वि [प्रलपित] १ कथित, उक्त, प्रलापपरो' प्र[पर] उत्कृट, 'परोसंतेहिं तचेहि' तोला (ठा ३, १, सुपा ४३७, वज्जा ६८ युक्त (सुपा ११४० से ११, ७६) । २ न. (उवा)। कुप्र ४१६) । २ मांस (कुप्र १८६)। प्रलाप, कथन (प्रौप)। परोइय देखो परुइय (उप ७६८ टी)। पलंघ सक [प्र + लङ्घ ] अतिक्रमण पलय पुं [प्रलय] १ युगान्त, कल्पान्त-काल । परोक्ख न [परोक्ष] १ प्रत्यक्ष-भिन्न प्रमाण, । करना । पलंधेज्जा (प्रौप)। २ जगत् का अपने कारण में लय (से २, 'पञ्चक्खपरोक्खाई दुन्नेव जो पमाणाई' (सुर पलंघण न [प्रलङ्घन] उल्लंघन (प्रौप)। २. पउम ७२,३१)। ३ विनाश; 'जायवजाइ१२, ६० एंदि) । २ वि. परोक्ष-प्रमाण का पलंड j [पलगण्ड] राज, चूना पोतने का पलए' (ती ३)। ४ चेष्टा-क्षय । ५ छिपना विषय, अप्रत्यक्ष (सुपा ६४७; हे ४,४१८)। काम करनेवाला कारीगर; 'पलगंडे पलंडो' (हे १, १८७)। क [क प्रलय-काल ३ न. पीछे, आँखों की प्रोट में मम परोक्खे (प्राकृ ३०)। का सूर्य (पउम ७२,३१) । 'घण पुं[°धन] कि तए अणुभूयं ?' (महा)। पलंडु पुंपलाण्डु] प्याज ( उत्त ३६, प्रलय का मेघ (सरण)। लण पुं [निल] परोट्ट देखो पलोट्ट= पर्यस्त (षड् )। प्रलय काल की आग (सण)। परोप्पर । वि [परस्पर आपस में (हे १, पलंब अक [प्र+लम्ब ] लटकना । पलंबए पलल न [पलल] १ तिल-चूर्ण, तिल-झोद परोप्फर ६२ कुमाः कप्पू, षड्)। (पि ४५७) । वकृ. पलंबमाण (प्रौप; महा)। (पएह २, ५; पिंड १६५) । २ मांस (कुप्र परोवआर पुं [परोपकार] दूसरे की भलाई । पलंब वि [प्रलम्ब] १ लटकनेवाला, लटकता १८७)। (नाट-मृच्छ १९८)। परोवयारि वि [ परोपकारिन् ] दूसरे की (पएह १, ४; राय)। २ लम्बा, दीर्घ (से पललिअ न [प्रललित] १ प्रक्रीडित (गाया भलाई करनेवाला (पउम ५०, १)। १२, ५६; कुमा)। ३ पुं. ग्रह-विशेष, एक १,१-पत्र ६२)। २ अंग-विन्यास (परह महाग्रह (ठा २, ३)। ४ मुहूर्त-विशेष, अहो- २, ४)। परोवर देखो परोप्पर (प्राकृ २६; ३०)। रात्र का पाठवाँ मुहत्तं (सम ५१)। ५ न. पलव तक [प्र+ लप्] प्रलाप करना, बकपरोविय देखो परुइय (उप ७२८ टीः स माभरण-विशेष (प्रौप)। ६ एक तरह का वाद करना। पलवदि (शौ) (नाट–वेणी ४८०)। धान का कोठा (बृह २) । ७ मूल (कस; १७)। वकृ. पलवंत, पलवमाण (काल; परोह अक [प्र + रुह ] १ उत्पन्न होना।। बृह)। ८ रुचक पर्वत का एक शिखर । सुर २, १२५; सुपा २५०; ६४१)। २ बढ़ना । परोहदि (शौ) (नाट)। (ठा -पत्र ४३६)। ६ पुंन. फल (बृह पलवण न [प्लवन] उछलना, उच्छलन; परोह पुं [प्ररोह] १ उत्पत्ति (कुमा)।२ १.ठा ४,१-पत्र १०५) १० देव-विमान- 'संपाइमवाउवहो पलवरण आऊवघामो य' वृद्धि । ३ अंकुर, बीजोभेद (हे १, ४४); विशेष (सम ३८)। (ोघ ३४८)। For Personal & Private Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो पलविअ-पलिउंचणा पलविअ । विप्रलपित] १ अनर्थक कहा पलाय पुं[दे] चोर, तस्कर (दे, ८)। पलासि स्त्री [दे] भल्ली, छोटा भाला, शस्त्रपलवित हुआ । २ न. अनर्थक भाषण (चंड; पलाय देखो पलाइअ = पलायित (णाया १, विशेष (दे ६, १४)। पएह १, २)। ३; स १३१; उप पृ २५७: धण ४८)। पलासिया स्त्री [दे. पलाशिका] त्वक्काष्ठिका, पलविर वि [प्रलपित] बकवादी (दे ७, छाल की बनी हुई लकड़ी (सूत्र १, ४, पलायण न [पलायन] भागना (ोघ २६, पलस न [दे] १ कासि-फल । २ स्वेद, सुर २, १४)। | पलाह देखो पलास (संक्षि १६; पि २६२)। पसीना (दे ६, ७०)। पलायणया स्त्री. ऊपर देखो (चेक्ष्य ४४६) । पलि देखो परि (सूत्र १, ६, ११, २, ७. पलस (अप) न [पलाश पत्र, पत्ती (भवि) । पलायमाण देखो पलाय = परा + अय् । ३६. उत्त २६, ३४. पि २५७)। पलस स्त्री है। मेवा, पूजा, भक्ति (दे | पलाल वि[प्रलाल प्रकृत लालावाला (अणुपतिनापतिबा पवस्था के कारण १४१)। बालों का पकना, केशों की श्वेतता। २ बदन पलहि पुती [२] कपास (दे ६, ४: पानः पलाल न [पलाल तृण-विशेष, पुपाल (पराह की झुरियाँ (हे १, २१२)। ३ कर्म, कमवज्जा १८६ हे २, १७४)। २, ३ पान प्राचा)। पीढय न [पीठक] पुद्गल, 'जे केइ सत्ता पलियं चयंति' (प्राचा पलहिअ वि [दे] १ विषम, असम । २ न. पलाल का प्रासन (निचू १२) । १, ४, ३, १)। ४ घृणित अनुष्ठान; से आवृत जमीन का वास्तु (दे ६, १५)। पलालग वि [पलालक] पलाल-पुपाल का आकुटे वा हए वा लुचिए वा पलियं पकथे' पलहिअअ वि [दे. उपलहृदय] मूर्ख, बना हुआ (पाचा २, २, ३, १४)। (ग्राचा १, ६, २, २)। ५ कर्म, काम पाषाण-हृदय (षड्)। पलाव सक [नाशय ] भगाना, नष्ट करना। (प्राचा १,६,२,२)। ६ ताप । ७ पंक, पलहुअ वि [प्रलघुक] १ स्वल्प, थोड़ा । २ पलावइ (हे ४, ३१)। कादा। ८ वि. शिथिल । वृद्ध, बूढ़ा (हे छोटा (से : १, ३३; गउड)। पलाव पुं[प्लाव] पानी की बाढ़ (तंदु ५० | १,२१२)। १० पका हुअा, पक्व (धर्म २ पला देखो पलाय = परा + अय; जं जं टी)। निचू १५)। ११ जरा-ग्रस्तः 'न हि दिज्जइ भणामि अयं सयलंपि बहि पलाइ तं तुज्झ' पलाव पुं [प्रलाप] अनर्थक भाषण, बकवाद आहरणं पलियत्तयकरणहत्थस्स' (राज)। (प्रात्मानु २३), पलासि, पलामि (पि (महा)। 'ट्ठाण, ठाण न [ स्थान] कम-स्थान, ५६७)। पलावण न [नाशन] नष्ट करना, भगाना कारखाना (प्राचा १, ६, २, २)। पलाअतानो पाय-परा+प्रय। (कुमा)। पलिअ न [पल] चार कर्ष या तीन सौ बीस पलाइ पलावि वि [प्रलापिन् ] बकवादी, 'असंबद्ध- - गुजा की नाप (तंदु २६)। पलाइअ) वि [पलायित १ भागा हुग्रा, पलाण पलिअ देखो पल्ल = पल्य (पद १५८; भगः नट; 'पलाइए हलिए' (गा ३६०); पलाविरणी एसा' (कुप्र २२२; संबोध ४७; 'रिउरणो सिन्नं जह पलाणं' (धर्मवि ५६; अभि ४६)। जी २६, नव ६ २७)। ५१; पउम ५३, ८४: प्रोघ ४६७, उप १३६ | पलावि वि [प्लावित] डुबाया हुआ, पलिअ (अप) देखो पडिअ (पिंग)। टी; सुपा २२; ५०३; ती १५; सरा; महा)। भिगाया हुआ (सुर १३, २०४७ कुप्र ६० पलिअंक ' [पर्यङ्क] पलंग, खाट (हे २, २ न. पलायन (दस ४, ३)। ६७, सण)। ६८; सम ३५; औप) । आसण न पलाण न [पलायन] भागना (सुपा ४६४)। पलाविअ वि [प्रलापित] अनर्थक घोषित [ आसन] प्रासन-विशेष (सुपा ६५५) । पलाणिअ वि [पलायनित] जिसने पलायन करवाया हुअाः ‘मंछुडु कि दुच्चरिउ पलाविउ पलिका स्त्री पिर्या] पद्मासन, आसनकिया हो वह भागा हुआ, 'तेरावि आगच्छंतो सज्जण्जणहो नाउं लज्जाविउ (भवि)। विशेष (ठा ५, १-पत्र ३००)। विन्नामो तो पलाणिो दूर' (सुपा ४६४)। पलावर विप्रलाप बकवाद करनवाला पलिउंच सक [परि + कुञ्च ]१ अपलाप पलात वि [प्रलात] गृहीत (चंड)। 'अहह असंबद्धपलाविरस्स बडुयस्स पेच्छ मह करना। २ ठगना। ३ छिपाना, गोपन पलाय अक [परा + अय ] भाग जाना, पुरो' (सुपा २०१), "दिव्धनाणीव जंपेइ, करना । पलिउंचंति, पलिउंचयंति (उत्त २७, नासना। पलायइ, पलामसि (महा; पि एसो एवं पलाविरों (सुपा २७७)। १३; सून १, १३, ४)। संकृ. पलिउंचिय ५६७) । भवि. पलाइस्सं (पि ५६७)। वकृ. पलास पुं[पलाश] १ वृक्ष-विशेष, किंशुक (प्राचा २, १, ११, १)। वकृ. पलिउंचमाण पलाअंत, पलायमाण (गा २६१; रणाया का वृक्ष, ढाक (वज्जा १५२, गा ३११)। २. (माचा १, ७, ४, १, २, ५, २, १)। १८ पाक १८; उप पु २६)। संकृ. पलाइअ राक्षस (वज्जा १३०; गा ३११)। ३ पुंन. | पलिउंचण न [परिकुश्चन] माया, कपट (नाट; पि ५६७)। हेकृ. पलाइउं (प्राक पत्र, पत्ता (पात्र वज्जा १५२) । ४ भद्रशाल | (सून १, ६, ११)। १६; सुपा ४६४)। कृ. पलाइअव्य (पि वन का एक दिग्हस्ती कूट (ठा -पत्र ४३६ पलिउंचणा स्त्री [परिकुश्चना] १ सच्ची ५६७)। इक)। बात को छिपाना । २ माया (ठा ४, १ For Personal & Private Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलिऊल देखो पाडापालितावच्छन्न] कमां पर बोलना । ३ भेद पलिउचि-पलीव पाइअसहमहण्णवो ५७१ टी-पत्र २००)। ३ प्रायश्चित्त-विशेष (ठा पलिच्छिन्न वि [परिच्छिन्न] विच्छिन्न, वालाः 'पलियतं मणुयाण जीवियं' (सूम १, ४, १)। काटा हुआ (सून १, १६, ५, उप ५८५; २,१,१०)। पलिउंचि वि [परिकुश्चिन्] मायावी, कपटी । सुर ६, २०६)। पलियंत न [पल्यान्तर ] पल्योपम के (वव १)। | पलित्त वि [प्रदीप्त] ज्वलित (कुप्र ११६; भीतर (सूत्र १, २, १. १०)। पलिउंचिय वि [परिकुञ्चित] १ वञ्चित । | सं ७७; भग)। पलियस्स न [परिपार्श्व] समीप, पास, २ न. माया, कुटिलता (वव १)। ३ गुरु- पलिपाग देखो परिपाग (सूम २, ३, २१, | निकट (भग ६, ५-पत्र २६८) । वन्दन का एक दोष, पूरा बन्दन न करके ही प्राचा)। पलिल देखो पलिअ = पलित (हे १, २१२)। गुरु के साथ बातें करने लग जाना (पव २)। पलिप्प अक[प्र+दीप्] जलना । पलिप्पइ | पलिव देखो पलीव । पलिवेइ (पि २४४)। पलिउंजिय देखो परिउज्जिय (भग)। (षड् ; प्राकृ १२)। वकृ. पलिप्पमाण पलिवग देखो पलीवग (राज)। पलिउच्छन्न देखो पलिओच्छन्न (पाचा १, (पि २४४)। पलिविअ वि [प्रदीपित] जलाया हुआ (षड् ; पलिबाहर । वि [परिबाह्य हमेशा बाहर हे १, १०१) । पलिउच्छूढ देखो पलिओछूट (ोप-पृ पलिबाहिर होनेवाला (प्राचा)। पलिविद्धंस अक [परिवि + ध्वंस् ] नष्ट ३० टि)। पलिभाग पुं [परिभाग, प्रतिभाग] १ होना । पलिविद्धंसिज्जा (अणु १८०)। पलिउजिय वि पिरियोगिक] परिज्ञानो, निविभागी अंश (कम्म ४, ८२)। २ प्रति- पलिसय । सक[परि + स्वा] आलिंगन जानकार (भग २, ५)। नियत अंश (जीवस १५४)। ३ सादृश्य, पलिस्सय करना, स्पर्श करना, छूना । पलिऊल देखो पडिऊल (नाट-विक्र १८) । समानता (राज)। पलिस्सएज्जा (बृह ४)। वकृ. पलिसयमाणे पलिभिंद सक [परि + भि १ जानना । गुरुगा दो लहुगा पारणमाईणि' (बृह ४)। हेकृ. पलिस्सइउं (बृह ४)। वष्टब्ध, कुकर्मी (प्राचाः १, ५, १, ३)। २ बोलना। ३ भेदन करना, तोड़ना। संकृ. पलिइ देखो परिह = परिष (राज)। पलिओच्छिन्न वि [पर्यवच्छिन्न] ऊपर पलिभिंदियाणं (सून १, ४, २, २)। पलिहअ वि [दे] मूर्ख, बेवकूफ (दे ६,२०)। देखो (आचा; पि २५७)। पलिभेय पुं[परिभेद] चूरना (निचू ५)। पलिहइ स्त्री [दे] क्षेत्र, खेत; 'नियपलिहईई पलिओछूढ वि [पर्यवक्षिप्त ] प्रसारित पलिमंथ सक [परि + मन्थ ] बाँधना। ___ दोहिवि किसिकम्म काउमाढत्तं' (सुर १५, (प्रौप)। पलिमंथए (उत्त ६, २२)। २०१)। पलिओवम पुन [पल्योपम] समय-मानपलिमंथ पुंपिरिमन्थ] १ विनाश (सूम २, पलिहस्स न [दे] ऊध्वं दारु, काष्ठ-विशेष विशेष, काल का एक दीर्घ परिमाण (ठा २, ७, २६; विसे १४५७)। २ स्वाध्याय-व्याघात ४. भगः महा)। (दे ६, १६)। पलिंचा (शौ) देखो पडिण्णा (पि २७६) । पलिहाय पुं[दे] ऊपर देखो (दे ६, १६)। (उत्त २६, ३४; धर्मसं १०१७) । ३ विघ्न, पलिकुंचणया देखो पलिउंचणा (सम ७१) । पली सक [परि + इ] पर्यटन करना, भ्रमण बाधा (सूत्र १, २, २, ११ टी)। ४ मुधा पलिक्खीण वि [परिक्षीण ] क्षय-प्राप्त करना। पलेइ (सूत्र १, १३, ६), पलिति व्यापार, व्यर्थ क्रिया (श्रावक १०६; ११२) । (सूत्र १, १, ४, ६)। (सून २, ७, ११; प्रौप)। पलिमंथग [परिमन्थक] १ धान्य-विशेष, पली प्रक [प्र+लो] लोन होना, पासक्ति पलिगोव पुं [परिगोप] १ पङ्क, कादा, काला चना (सूत्र २, २, ६३)। २ गोल करना। पलिति (सूत्र १, २, २, २२)। काँदो। २ आसक्ति (सूप १, २,२, ११)। चना । ३ विलंब (राज)। वकृ. पलेमाण (प्राचा १, ४, १, ३)। पलिच्छण्ण । वि [परिच्छन्न] १ समन्ताद् पलिमंथु वि [परिमन्थु] सर्वथा घातक (ठा पलीण वि [प्रलीन] १ प्रति लीन (भग २५, पलिच्छन्न व्याप्त (गाया १, २-पत्र ६–पत्र ३७१; कस)। ७)। २ संबद्ध (सूम १, १, ४, २)। ३ ७८; १, ४)। २ निरुद्ध, रोका हुआ; पलिमद्द देखो परिमद्द। परिमद्देज्जा (पि प्रलय-प्राप्त, नष्ट (सुर ४, १५४)। ४ छिपा 'णेत्तेहिं पलिच्छन्नेहिं (प्राचा १, ४, ४,२)। २५७)। हुआ, निलीन (सुर ६, २८)। पलिच्छाअ सक [ परि + छादय् ] ढकना, पलिमद वि [परिमर्द] मालिश करनेवाला पलीमंथ देखो पलिमंथ (सूम १, ६. १२)। आच्छादन करना। पलिच्छाएइ (आचा २, | (निचू ६)। पलीव अक [प्र+दी ] जलना । पलीवइ पलिमोक्ख देखो परिमोक्ख (प्राचा)। (हे ४, १५२ षड्)। पलिच्छिद सक [परि + छिद् ] छेदन | पलियंचण न [पर्यश्चन] परिभ्रमण (सुर | पलीव सक [प्र+दोपय ] जलाना, करना, काटना । संकृ. पलिच्छिदिय, पलि- ७, २४३) । देखो परियंचण । सुलगाना। पलीवइ, पलीवेइ (महा; हे १, च्छिदियार्ण (माचा १, ४, ४, ३, १, ३, पलियंत पुं[पयन्त] १ अन्त भाग (सूमर, २२१) । संकृ. पलीविऊण, पलीविअ २,१)। । ३, १, १५)। २ वि. अवसानवाला, अन्त- (कुप्र १६० गा ३३)। For Personal & Private Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ पाइअसहमहण्णवो पलीव-पल्लि षड्)। पलीव पुं[प्रदीप दीपक, दीया (प्राकृ १२ पलोट्ट सक [प्रत्या + गम् ] लौटना, वापस पल्लंघण न [प्रलङ्घन] १ अतिक्रमण (ठा ७)। पाना । पलोट्टइ (हे ४, १६६)। २ गमन, गति (उत्त २४, ४) । पलीवग वि [प्रदीपक] प्राग लगानेवाला पलोट्ट सक [ परि + अस 1१ फेंकना।२ पल्लग देखो पल्ल - पल्ल (विसे ७०६)। (पएह १,१)। मार गिराना। ३ अक. पलटना, विपरीत | पल्लट्ट देखो पलट्ट = परि + अस् । पल्लट्टइ (हे पलीवण न [प्रदीपन] आग लगाना (श्रा होना। ४ प्रवृत्ति करना । ५ गिरना। पलोदृइ, । ४, २००; भवि)। संकृ. पल्लटिङ (पंचा २८: कुप्र २६)। पलोट्टइ (हे ४, २००; भगः कुमा)। वकृ. १३, १२)। पलीवणया स्त्री. ऊपर देखो (निचू १६)। पलोटुंत (वजा ६६; गा २२२)। पट्ट पुं[दे] पर्वत-विशेष (पण्ह १, ४)। पलीविअ देखो पलीव = प्र+ दीपय । पलोट्ट पक [प्र + लुट् ] जमीन पर लोटना। पल्लट्ट [दे. परिवर्त] काल-विशेष, अनन्त पलीजि वि प्रदीत प्रज्वलित (पान)। वकृ. पलोट्टत (से ५, ५८)। पलीविअ वि [प्रदीपित ] जलाया हुआ | काल चक्रों का समय (घण ४७)। (उव)। पलोट विपर्यस्ता १क्षिप्त, फेंका हृया। पल्लट्ट । देखो पलोट्ट =पर्यस्त (हे २, ४७ २ हत । ३ विक्षिप्त (ह ४, २५८)। ४ | पल्लत्थ पलुंपण न [पलोपन प्रलोप (प्रौप)। ६८)। पतित, गिरा हुमा (गा १७०)। ५ प्रवृत्त पल्लात्थ स्त्री [पास्तासन-विशेष, पलथी। पलुट्ट वि [प्रलुठित] लेटा हुआ (दे १, 'रेल्लंता वरणभागा तमो पलोट्टा जवा जला- 'पायपसारणं पल्लत्थिबंधणं बिंबपट्ठिदाणं च । ११६)। गोघा' (कुमा)। उच्चासणसेवणया जिणपुरमो भन्नइ प्रवन्ना ॥' पलुट्ट देखो पलोट्ट = पर्यस्त (हे ४, ४२२)। पलोट्टजीह वि [दे] रहस्य-भेदी, बात को (चेइय ६०) । देखो पल्हत्थिया। पलुट्टिअ देखो पलोहिअ = पर्यस्त (कुमा ४, प्रकट करनेवाला (दे ५, ३५) । पल्लल न [पल्वल] छोटा तलाव (प्राकृ १७, ७५)। पलोट्टण न [प्रलोठन] ठुलकाना, लुढ़काना, पलुट्ठ वि [प्लुष्ट] दग्ध, जला हुआ (सुर ६, णाया १, १; सुपा ६४६; स ४२०)। गिराना (उप पृ ११०)। २०६; सुपा ४)। पल्लव ' [पल्लव] १ किसलय, अंकुर (पाम, पलोट्टिअ देखो पलोट्ट = पर्यस्त (कुमा)। पलेमाण देखो पली-प्र + ली। प्रौप)। २ पत्र, पत्ता (से २६)। ३ देशपलोभ सक [प्रलोभय् ] लुभाना, लालच विशेष (भवि) । ४ विस्तार (कप्पू)। पलेव पुं[प्रलेप] एक जाति का पत्थर, देना । पलोभेदि (शौ) (नाट–मृच्छ ३१३)। पल्लव देखो पज्जव (सम ११३)। पाषाण-विशेष (जी ३)। पलोभविअ वि [प्रलोभित] लुभाया हुआ पल्लवाय न [दे] क्षेत्र, खेत (दे ६, २६) । पलोअ सक [प्र+ लोक, लोकय ] (धर्मवि ११२)। देखना, निरीक्षण करना । पलोयइ, पलोभए, पलोभि वि [प्रलोभिन् विशेष लोभी पल्लविअ वि [दे] लाक्षा-रक्त (दे ६, १६ पलोएइ (सण; महा)। कर्म, पलोइज्जइ पान)। (धर्मवि ७)। (कप्प) । वकृ. पलोअंत, पलोअअंत, पलो पल्लविअ वि [पल्लवित] १ पल्लवाकार (दे पलोभिअ देखो पलोभविअ (सुपा ३४३)। । एंत, पलोएमाण, पलोयमाण (रयण १४; ६, १६)। २ अंकुरित, प्रादुर्भूत, उत्पन्न पलोव (अप) देखो पलोअ। पलोवइ (भवि)। नाट-मारती ३२, महा. पि २६३, सुपा (दे १,१)। ३ पल्लव-युक्त (रंभा)। | पलोहर [दे] देखो परोहड (गा ६८५ अ)। ४४, ३५१)। पल्लविल्ल वि [ पल्लववत् ] पल्लव-युक्त (सुपा पलोहिद (शौ) देखो पलोभिअ (नाट)। पलोअण न [प्रलोकन] अवलोकन (से १४, ५; घण २४)। पल्ल पुंन [पल्य] १ गोल आकार का एक ३५; गा ३२२)। | पल्लविल्ल देखो पल्लव (हे २, १६४)। घान्य रखने का पात्र (पव १५८3; ठा ३, १)। पलोअणा स्त्री [प्रलोकना] निरीक्षण (प्रोप २ काल-परिमारग विशेष, पल्योपम (पउम पल्लस्स देखो पलोट्ट = परि + अस्। पल्लस्सइ २०, ६७; दं २७)। ३ संस्थान-विशेष, (प्राकृ ७२)। पलोइ वि [प्रलोकिन्] प्रेक्षक (प्रौप)। पल्यंक संस्थान; 'पल्लासंठाणसंठिया' (सम पल्लाण न [पर्याण] प्रश्व आदि का साज, "कि पलोइअ वि [प्रलोकित] देखा हुआ (गा करिणो पल्लाणं उव्वोढु रासभो तरइ' (प्रवि ७७)। १७ प्राप्र)। ११८ महा)। पल्ल पुंपल्ल] धान्य भरने का बड़ा कोठा, पल्लाण सक [पर्याणय] प्रश्व प्रादि को पलोइर वि [प्रलोकित] प्रेक्षक (गा १८०, 'बहवे पल्ला सालीणं पडिपुराणा चिट्ठति सजाना । पल्लारणेह (स २२)। भवि)। (णाया १, ७-पत्र ११५)। पल्लाणिअ वि [पर्याणित] पर्याण-युक्त पलोपंत पल्लंक देखो पलिअंक (हे २, ६८ षड्)। (कुमा)। पलोएमाण देखो पलो। का पल्लंक पुं[पल्यङ्क] शाक-विशेष, कन्द विशेष पल्लि स्त्री [पल्लि] १ छोटा गाँव । २ चोरों के पलोघर [दे] देखो परोहड (गा ३१३ अ)। (श्रा २०; जी पव ४: संबोध ४४)। निवास का गहन स्थान (उप ७२८ टी)। For Personal & Private Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलिअ पट्ट " [नाथ ] पल्ली का स्वामी (सुपा ३५१० र २, १३) ["पति] नही १११३५१) । । पल्लिअवि [दे] १ आक्रान्त ( निचू २ ) ग्रस्त ( निचू १) । ३ प्रेरित; 'पल्लट्टा पल्लिमार (पण ४७) । २ पल्लित वि [दे] पर्यंत ( षड् ) । देखो पट्टि (गडा १० २६० सुर २, २०४) । पण वि [प्रलीन] विशेष सौन सुतिदिए पली चिट्ठ (भग २५, ७ पल्लोट्टजीह [दे] देखो पल्लोट्टजीह (षड् ) पदस्थ देखो पलोट्टे + परि + मस् । पल्हत्यइ (हे ४, २००) । वकृ. पल्हत्थंत ( से १०, १०; २, ५) । कवकृ. पल्हत्थंत (से८, =8; Pt, es) 1 = [+] बाहर निका लना । पल्हत्थइ (हे ४, २६ ) । पल्हत्थ देखो पलोट्ट पर्यस्तः करतलपल्हत्थमुहे' (सू । २.२ १६ हे ४ २४०) पणन [पर्यसन] फेंक देना, प्र 'अन्नदा भुवरणपल्हत्थरगपवणो समुट्टिदो दुटुमोह ६२)। पत्थरण देश पचत्वरण से ११,१००) | पल्या [विरेचित] बाहर निकल वाया हुआ (कुमा) । पहत्थि देखो पलोट्ट पर्वस्व (से, २० गाया १, ४६ पत्र २१६; सुपा ७) । = पल्या श्री] [पर्यस्ता] घास-विशेष १ दोनों जानु खड़ा कर पीठ के साथ चादर लपेटकर बैठना (पव ३८ ) । २ जंघा पर वस्त्र लपेटकर बैठना । ३ जंघा पर पाँव रखकर बैठना (उत्त १, १९) । °पट्ट [पट्ट् ] योग-पट्ट (राज)। पल्हय पुं [पहलव] १ अनायें देशपरच विशेष (ना. ६७२ बी. पल्हव पह्नव देश का निवासी (भग ३, २ – पत्र १७० संत श्री. बी, 'विया (पि १३० मप गाया १, १ – पत्र ३७; इक ) । पाइअसमद्दण्णवो पल्हवि पुंस्त्री [दे. पह लवि ] हाथी की पीठ पर बिछाया जाता एक तरह का कपड़ा, 'पवित्र' (पद ८४) । पदविया) पल्हवी } देखो पल्हव । पल्हाय [ [ = हलाइ ] श्रानन्दित करना, खुशी करना । पल्हायइ (संबोध १२ ) । वकृ. पल्हायंत ( उव; सुर ३, १२१) । कृ. देखो पल्हाणिज । पहा ] [ प्रलाद] १ मानन्द शी (कुमा)। २ हिरण्यकशिपु नामक दैत्य का पुत्र (२,७६३ मा प्रतिवादेव राजा (पउम ५, १५६ ) । ४ एक विद्याधर नरेश (पउम १५, ५) । पल्हायण न [प्रहलादन] १ चित्त प्रसन्नता खुशी ( उत्त २६, १७) । २ वि श्रानन्ददायक (सुपा ५०७) ३. रावण का एक ५६१९ ) । पल्हाणिज्ज वि [ प्रहलादनीय] श्रानन्दजनक ( छाया १, १ – पत्र १३ ) । पुं. पल्लीय . ब. [ यह लीक] देश-विशेष ( पउम ६८, ६६ ) । यसक [पा ] पीना। कृ. 'अरसमेहा ''अपवणिजो दावा नातिदिति (भग ७, ६ - पत्र ३०५ ) । पव क [प्लु] १ फरकना । २ सक. उछल कर जाना। ३ तैरना । पवेज (सूत्र १, १, २, ८) । वकृ. पवंत, पवमाण (से ५, ३७ नाचा २, ३, २, ४ ) । हेकृ. पविडं (सूच १, १, ४, २ ) । [व] १पूर (कुमा) २ कूदना । ३ तरण, तैरना । ४ भेक, मेढ़क । ५ वानर, बन्दर । ६ चाण्डाल, डोम । ७ जल-काक ८ पाकुड़ का पेड़ । कारण्डव पक्षी । १० शब्द, श्रावाज । ११ रिपु, दुश्मन । १२ मेष, मेंढा । १३ जल कुक्कुट । १४ जल, पानी । १५ जलचर पक्षी । १६ नौका, नाव ( हे २, १०६) । , पवन [प्रपा ] पानीयशाला प्याऊ 'सहाणि वा पवारण वा' ( श्राचा २, २, २, १० ) । पदंग [] १ वानर (से २,४६०४ पुं ४७)। २ बानर-वशीय मनुष्य । नाह पुं For Personal & Private Use Only ५७३ ["नाथ] वानर-वंशीय राजा जालो (पउम ६, २६) । वपुं [पति] बानरराज (पि ३७१)। पगम [ग] १ मानर ( पास से ६, १९) २ छन्द - विशेष (पिंग ) । पवंच पुं [प्रपच ] १ विस्तार (उप ५३० टी; प) । २ संसार (सूत्र १, ७; उव) । ३ प्रतारण, ठगाई ( उब ) । पर्वचण न [प्रपचन] विप्रतारण वचना ठगाई ( परह १, १ - पत्र १४ ) । पचा श्री [प्रपक्षा] मनुष्य को दश दशाषों में सातवीं दशा - ६० से ७० वर्ष की अवस्था ( १० १६) । पचिअ वि [ प्रपचित] विस्तारित (श्रा १४ कुप्र ११८ ) । पर्वछ सक [ प्र + वाञ्छ ] वाञ्छना, अभिलाषा करना। वह पमाण (उप पृ १८० ) । पर्वत देखो पव = प्लु । पपुल पुंन [दे] मच्छी पकड़ने का जालविशेष (विपा १, ८-पत्र ८५) । पत्रक वि [प्लवक] १ उछल-कूद करनेवाला । २ तैरनेवाला ( परह १, १ टी -पत्र २) । ३. पक्षी ४ देवजाति विशेष सुपकुमार नामक देव-जाति (पराह २, ४ - पत्र १३० ) । पवक्खमाण देखो पवय प्र + वच् । पवग देखो पवक (परह २, ४ कप्पः श्रौष) । पवज्ज सक [ प्र + पद्] स्वीकार करना । पवार, परा (भविहित २० ) । भवि पनिहिसि ( वा १६१) यकृ पवज्जंत (श्रा २७) । संकृ. पवज्जिय (मोह १० ) । कृ. पवज्जियन्त्र (पंचा १९) । पण न [प्रपदन] स्वीकार, अंगीकार ( स २७१ पंचा १४, ८ श्रावक १११ ) । पवज्जा देखो पव्वज्जा ( महानि ४ ) । पवज्जिय वि [ प्रपत्र ] स्वीकृत, मंगीकृत (धर्मनित्र २५ गुणा ४०७ ) । पवज्जिय वि [ प्रवादित ] जो बजने लगा हो ( स ७५९) । पवज्जिय देखो पवज्ज । प प [प्रवृत्] प्रवृत्ति करना । महा Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो पवट्ट-पवर पवट्ट वि [प्रवृत्त जिसने प्रवृत्ति की हो वह ४८)। गइ पुं[गति] हनूमान का पिता पवत्तिया स्त्री [दे] संन्यासी का एक उपकरण (षड् ; हे २, २६ टि)। (पउम १५, ३७), वानरद्वीप के राजा मन्दर (कुप्र ३७२)। पवट्टय वि [प्रवर्तक] प्रवृत्ति करानेवाला का पुत्र (पउम ६, ६८) । 'चंड पुं[°चण्ड] पवद देखो पवय = प्र+वद् । वकृ. पवदमाण (राज)। व्यक्ति-वाचक नाम (महा)। "तणअ पुं| (प्राचा)। पट्टि स्त्री [प्रवृत्ति प्रवर्तन (हम्मीर १५)। [तनय] हनूमान् (से १, ४८)। 'नंदण पवदि स्त्री [प्रवृति ] ढकना, आच्छादन पवट्टिअ वि [प्रवर्तित] प्रवृत्त किया हुआ पुं[नन्दन] हनूमान (पउम १६, २७; (संक्षि)। (भविः दे)। सम्मत्त १२३)। पुत्त पुं[पुत्र हनूमान् पवद्ध देखो पवड्ढ = प्र + वृध् । वकृ. पव? देखो पट्ट = प्रकोष्ठ (हे १, १५६)। (पउम ५२, २८)। "वेग पुं [वेग] १ पवद्धमाण (चेइय ६१६) । पवड अक [प्र + पत् ] पड़ना, गिरना । हनुमान का पिता (पउम १५, ६५)। २ पवद्ध पुं[दे] घन, हथौड़ा (दे ६, ११)। पवडइ, पवडिज्ज, पवडेज्ज (भगः कप्प; एक जैन मुनि (पउम २०, १६०)। सुअ पवद्धिय देखो पवड्ढिय (महा)। प्राचा २, २, ३, ३)। वकृ. पवडंत, पुं[सुत] हनूमान् (पउम ४६, १३; से पवन्न वि [प्रपन्न] १ स्वीकृत, अंगीकृत पवडेमाण (णाया १, १; सिरि ६८९; ४, १३, ७, ४६)। गणंद पुं [ नन्द] ( चेइय ११२, प्रासू २१)। २ प्राप्त; प्राचा २, २, ३, ३)। हनूमान् (पउम ५२, १)। _ 'गुरुयणगुरुविण्यपवन्नमारणसो' (महा)। पवडग न [प्रपतन] अधःपात (बृह ६)। पवणंजअ पुं [पवनञ्जय] १ हनूमान् का । पवमाण देखो पव = प्लु । पवडणया। स्त्री [प्रपतना] ऊपर देखो (ठा! पिता (पउम १५, ६)। २ एक धेष्ठि-पुत्र पवमाण पुं [पवमान] पवन, वायु (कुप्र पवडणा J४, ४-पत्र २८० राज)। (कुप्र ३७७)। ४४४ सुपा ८६)। पवडेमाण देखो पवड । पवणिय वि [प्रवणित] सुस्थ किया हुआ, तंदुरस्त किया हुआ (उप ७६८ टी)। पवड्ढ प्रक [दे] पोढ़ना, सोना; 'जाव पवय सक [प्र + वद् ] १ बकवाद करना। २ वाद-विवाद करना। वकृ. पवयमाण राया पवड्डद ताव कहेहि किचि अक्खाय' पवण्ण देखो पवन्न (सण)। (प्राचा १, ५, १, ३)। (सुख ६, १)। पवत्त देखो पवट्ट = प्र+ वृत् । पवत्तइ, पवय सक [प्र + वच.] बोलना, कहना । पवड्ढ अक [प्र+ वृध ] बढ़ना । पवड्डइ पवत्तए (पव २४७; उव)। भवि. कवकृ. पवक्खमाण (धर्मसं ६१)। (उव)। वकृ. पवड्ढमाण (कप्पा सुर १, पवत्त सक [प्र+ वर्त्तय ] प्रवृत्त करना । कर्म. पवुच्चइ, पवुच्चई, पवुञ्चति (कप्पा पिं १८१ श्रु १२४)। पवत्तेइ, पवत्तेहि (वव १; कप्प) । ५४४: भग)। पवड्ढ वि [प्रवृद्ध] बढ़ा हुआ (अज्झ ७०)। प्रवत्त देखो पवट्ट - प्रवृत्त (पउम ३२, ७०% पवय देखो पवक = प्लवक (उप पू २१०)। पवड्ढण न [प्रवर्धन] १ बढ़ाव, प्रवृद्धि स ३७६; रंभा)। पवय पुं [प्लवग] वानर, कपि (पउम ६५, (संबोध ११)। २ वि. बढ़ानेवाला; 'संसारस्स पवत्तग वि [प्रवर्तक] प्रवृत्ति करानेवाला ५०; हे ४; २२०; पार; से २, ३७, १५, पवड्वणं' (सूत्र १, १, २, २४) । (उप ३३६ टी; धर्मवि १३२)। १७)। वह पुं [पति वानरों का राजा पवढिय वि[प्रवर्धित] बढ़ाया हुआ (भवि)। पवत्तण न [प्रवर्त्तन] १ प्रवृत्ति (हे २, ३०; सुग्रीव (से २, ३६)। हिव पुं[धिप) पवण वि [प्रवण १ तत्पर (कुप्र १३४)। २ | उत्त ३१, २)। २ वि. प्रवृत्ति करानेवाला | वही पूर्वोक्त अर्थ (से २, ४०; १२, ७०)। तंदुरुस्त, स्वस्थ, सुस्था 'पडियरिमो तह, पवणो | (उत्त ३१, ३; परह १,५)। पवयण पुं[प्राजन] कोड़ा, चाबुक (दे २, पुव्वं व जहा स संजाओ' (उप ५६७ टी; पवत्तय वि [प्रवर्तक] १ प्रवृत्ति करनेवाला ६७)। कुप्र ४१८)। | (हे २, ३०)। वि. प्रवृत्त करानेवालाः पवयण न [प्रवचन] १ जिनदेव-प्रणीत पवण न [प्लवन] १ उछल कर गमन (जीव | 'तित्थवरप्पवत्तयं' (प्रजि १८ गच्छ १,१०)। सिद्धान्त, जैन शास्त्र (भग २०, ८, प्रासू ३)। २ तरण; 'तरिउकामस्स पवहणं (? पवत्ति स्त्री [प्रवृत्ति प्रवर्तन । वाउय वि | १८१)। २ जैन संघ; 'गुणसमुदायो संघो वण) किच्च' (णाया १, १४–पत्र १६१)। [°व्यापृत] प्रवृत्ति में लगा हुआ (औप)। पवयण तित्थं ति होइ एगट्ठा' (पंचा८, 'किच पुं[कृत्य] नौका, नाव, डोगी पवत्ति वि [ प्रवत्तिन् ] प्रवृत्ति करानेवाला | ३६ विसे १११२; उप ४२३ टी; औप)। (णाया १, १४)। (ठा ३, ३; कसा कप्प)। ३ पागम-ज्ञान (विसे १११२) । माया स्त्री पवण g[पवन] १ पवन, वायु (पामा प्रासू पवत्तिणी स्त्री प्रिवत्तिनी] साध्वियों की [माता] पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप १०२) । २ देव-जाति विशेष, भवनपति देवों। अध्यक्षा, मुख्य जैन साध्वी (सुर १, ४१; धर्म (सम १३)। की एक अवान्तर जाति, पवनकुमार (प्रौप; महा)। पवर वि [प्रवर] श्रेष्ठ, उत्तम (उवा; सुपा पएह १, ४)। ३ हनूमान् का पिता (से १, । पत्तिय देखो पट्टिअ (काल)। ३१६, ३४१, प्रासू १२६; १५४)। For Personal & Private Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवरंग-पविचरिय पाइअसहमहण्णवो पवरंग न [दे. प्रवराङ्ग] सिर, मस्तक (दे पवाइअ वि [प्रवात] बहा हुमा (वायु); पवालिअ वि [प्रपालित] जो पालने लगा हो ६, २८)। 'पवाइया कलंबवाया' (स ६८९; पउम ५७, वह (उप ७२८ टी)। पवरपुंडरीय पुंन [प्रवरपुण्डरीक] एक २७. रणाया १, ८ स ३६)। पवास पुं [प्रवास] विदेश-गमन, परदेशदेव-विमान (प्राचा २, १५, २)। पवाइअ वि [प्रवादित] बजाया हुमा (कप्प; यात्रा (सुपा ६५७ हेका ३७ सिरि ३५६) । पवरा स्त्री [प्रवरा] भगवान् वासुपूज्य की औप)। पवासि । वि [प्रवासिन्] मुसाफिर (गा शासनदेवी (पव २७)। पवाण (अप) देखो पमाण = प्रमाण (कुमा; पवासु ९८ षड्; पि ११८ हे ४ पवरिस सक [प्र+वृष ] बरसना, वृष्टि पि २५१, भवि)। ३६५)। करना । परिसइ (भवि)। पवाड सक [प्र + पातय् ] गिराना । वकृ. पवाह सक [प्र+वाहय् ] बहाना, चलाना । पवल देखो पबल (कप्पू: कुप्र २४७)। पवाडेमाण (भग १७, १-पत्र ७२०)। पवाहइ (भवि) । भवि. पवाहहिति (विसे पवस अक [प्र+वस ] प्रयाण करना, २४६ टी)। पवादि देखो पवाइ (धर्मसं १३३)। विदेश जाना। वकृ. पवसंत (से १, २४, पवाह देखो पवह प्रवाह (हे १.६८ ८२. पवाय अक [प्र + वा] १ सुख पाना । २ गा ६४)। कुमाः णाया १, १४)। पवसण न [प्रवसन] प्रवास, विदेश यात्रा, बहना (हवा का)। ३ सक. गमन करना । पवाह पुं [प्रबाध] प्रकृष्ट पीड़ा (विपा १, ४ हिंसा करना। पवाअइ (प्राकृ ७६)। वकृ. मुसाफिरी (स १६६; उप १०३१ टो)। ६-पत्र ६०)। पवायंत (आचा)। पवसिअ वि [प्रोषित] प्रवास में गया हुआ पवाहण न [प्रवाहन ] १ जल, पानी पवाय पु[प्रवाद] १ किंवदन्ती, जनश्रुति (गा ४५, ८४०; सुर ५,२११, सुपा ४७३)। (प्रावम) । २ बहाना, बहन कराना (चेइय (सुपा ३००; उप पृ २६)। २ परंपरापवह अक [प्र + वह.] १ बहना । २ ५२३)। प्राप्त उपदेश । २ मत, दर्शन; 'पवाएण पवार्य सक. टपकना, झरना। पवहइ (भविः पवि पुं [पवि] वज्र, इन्द्र का अस्त्र-विशेष जाणेजा' (प्राचा)। पिंग)। वकृ. पवहंत (सुर २, ७५)। संकृ. (उप २११ टीः सुपा ४६७; कुमाः धर्मवि पवाय पुं[प्रपात] १ गतं, गड्ढा (गाया १, | पवहित्ता (सम ८४)। ८०)। पवह सक [प्र+ हन् ] मार डालना । १४–पत्र १६१; दे १, २२)। २ ऊंचे पविअंभिअ वि [प्रविज़म्भित] प्रोल्लसित, स्थान से गिरता जल-समूह (सम ८४)। ३ वकृ. 'पिच्छउ पवहंतं मझ करयलं कलिय समुत्पन्न (गा ५३६ अ)। तट-रहित निराधार पर्वत-स्थान । ४ रात में करवालं' (सुपा ५७२)। पविआ स्त्री [दे] पक्षी का पान-पात्र (दे ६, पवह वि प्रवह] १ बहनेवाला । २ टपकनेपड़नेवाली धाड़, धारा (राज)। ५ पतन (ठा ४, ८, ३२, पान। वाला, चूनेवाला; 'अट्ठ णालीमो अभंतरप्प २, ३)। दह पुं[द्रह] वह कुण्ड, जहाँ | पविइण्ण वि [प्रवितीर्ण] दिया हुआ (प्रौप)। वहानो' (विपा १, १-पत्र १६)। पर्वत पर से नदो गिरती हो (ठा २, ३-- पविइण्ण। वि [प्रविकीर्ण] १ व्याप्त पवह पुं[प्रवाह] १ स्रोत, बहाव, जल-धारा पत्र ७३)। पविइन्न । (औप; णाया १, १ टी-पत्र | पवाय पुं [प्रवात १ प्रकृट पवन (पएह २, (गा ३६६, ५४१; कुमा)। २ प्रवृत्ति । ३ ३) । २ विक्षिप्त, निरस्त (णाया १, १)। व्यवहार । ४ उत्तम अश्व (हे १, ६८)।५ ३)। २ वि. बहा हुमा (पवन) (संक्षि ७)। पविकत्थ सक [प्रवि + कत्थ् ] प्रात्म-श्लाघा प्रभाव (राज)। ३ पवन-रहित (बृह १)। करना । पविकत्थई (सम ५१)। पवहण पुन [प्रवहण] १ नौका, जहाज पवायग वि [प्रवाचक] पाठक, अध्यापक पविकसिय वि [प्रविकसित] प्रकर्ष से विक(णाया १, ३; पि ३५७) । २ गाड़ी आदि | (विसे १०६२)। सित (राज)। वाहन; 'जुग्गगया गिल्लिगया थिल्लिगया | पवायण न [प्रवाचन ] प्रपठन, अध्ययन पविकिर सक[ प्रवि+क] फेंकना । वकृ. पवहणगया' (प्रौप; वसुः चारु ७०)। (सम्मत्त ११७)। । पविकिरमाण (ठा ८)। पवहाइअ वि [दे] प्रवृत्त (दे ६, ३४)। पवायणा स्त्री [प्रवाचना] ऊपर देखो (विसे पविक्खिअ वि [प्रवीक्षित] निरीक्षित, पवहाविय वि [प्रवाहित] बहाया हुआ २८३५)। अवलोकित (स ७४६)। (भवि)। पवायय देखो पवायग (विसे १०६२)। पविक्खिर देखो पविकिर; 'नाविप्रजणे य पवा स्त्री [प्रपा] जलदान-स्थान, पानी-शाला, भंडं पविक्खिरते समुद्दम्मि' (सुर १३, पवाल पुन [प्रवाल] १ नवांकुर, किसलय | प्याऊ (ौफ, पएह १, ३, महा)। २०६)। (पान ३४१ःणाया १,१; सुपा १२१)। पवाइ वि [प्रवादिन] १ बाद करनेवाला, २ मूंगा, विद्रुम (पान; कप्प)। मंत, °वंत पविग्ध वि [दे] विस्मृत (षड् )। वादी। २ दार्शनिक (सूत्र १, १, १ चउ वि [वत् ] प्रवालवाला (णाया १,१, पविचरिय वि[प्रविचरित] गमन-द्वारा सर्वत्र ४७)। प्रौप)। व्याप्त (राय)। For Personal & Private Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो पविज्जल-पवु? पविजल वि [प्रविज्वल] १ प्रज्वलित (सूप पविमुक्त वि [प्रविमुक्त परित्यक्त (सुर ३, पविरिक वि [प्रविरिक्त] एकदम शून्य, १, ५, २, ५) । २ रुधिरादि से पिच्छिल- १३६) । बिलकुल खाली (गउड ६८५) । व्याप्त (सून १, ५, २,१६, २१)। पविमोयण न [प्रविमोचन ] परित्याग पविरेल्लिय [दे] देखो पविरल्लिय (पएह १, पविट्ठ वि [प्रविष्ट] घुसा हुप्रा (उवाः सुर ३, (प्रौप) । ५ टी-पत्र ६२)। १३६)। पविय वि [प्राप्त प्राप्त, 'भुवि उवहासं पविलुप सक [प्रवि + लुप] बिलकुल नष्ट पविणी सक [प्रवि+णी] दूर करना।। पविया दुक्खाणं हृति ते गिलया' (मारा ४४)। करना । कवक पविलापमाण (महा)। पविणेति (भग)। पवियंभिर वि [प्रविजम्भित १ उल्लसित पविलुत्त वि [प्रविलुप्त] बिलकुल नष्ट (उप पवित्त [पवित्र] १ दर्भ, कुशा, तृण-विशेष होनेवाला । २ उत्पन्न होनेवाला (सण)। । ५६७ टी)। (दै ६,१४)। २ वि.निदोष, निष्कलङ्क, शुद्ध, पवियक्कियन प्रवितर्किता विकल्प, वितर्क पविलुप्पमाण देखो पविलुप । स्वच्छ (कुमाः भगः उत्तर ४५) । (उत्त २३, १४)। पविस सक [प्र + विश] प्रवेश करना, पवित्त देखो पवट्ट = प्रवृत (से ६, ५७)। | पवियक्खण वि [प्रविचक्षण] विशेष प्रवीण घुसना । पविसइ (उवः महा)। भवि. पवित्त सक [पवित्रय] पवित्र करना । वकृ. (उत्त ६, ६३)। पविसिस्सामि, पविसिहिइ (पि ५२६) । पविनयंत (सुपा ८५) । कृ. पवित्तियव्य । पवियार पुं [प्रवीचार] १ काया और वचन | वकृ. पविसंत, पविसमाग (पउम ७६, (सुपा ५८४)। की चेया-विशेष (उप ६०२)। २ काम-क्रीडा, १६; सुपा ४४८; विपा १, ५ कप्प) । संकृ. पवित्तय न [पवित्रक] अंगूठी, अंगुलीयक मैथुन (देवेन्द्र ३४७; पव २६६)। पविसित्ता, पविसित्त, पविसिअ, (णाया १,५; औप)। पवियारण न [प्रविचारण] संचार, 'वाउप- पविसिऊण (कप्पा महा: अभि ११६; पवित्ताविय वि[प्रवत्तित] प्रवृत्त किया हुआ वियारणट्ठा छन्भायं ऊपयं कुजा' (पिंड काल)। हेकृ. पविसित्तए, पवेटठं (कसः (भवि)। पवित्ति देखो पत्ति = प्रवृत्ति (सुपा २; ओघ ६५०)। कप्पः पि ३०३) । कृ. पविसिअव्व ६३; औप)। पवियारणा स्त्री [प्रविचारणा] काम-क्रीडा, (ोघ ६१; सुपा ३८१)। मैथुन (देवेन्द्र ३४७)। पविसण न [प्रवेशन] प्रवेश, पैठ (पिंड पवित्तिणी देखो पवत्तिणी (कस)। 'पवियास सक [प्रवि + काशय ] फाड़ना, ३१७)। पवित्थर प्रक [प्रवि + स्तु] फैलाना । वकृ.. ' खोलना; 'पवियासइ नियवयणं' (धर्मवि पविमू सक [प्रवि+सू] उत्पन्न करना । पवित्थरमाण (पव २५५)। १२४)। संकृ. पविसुइत्ता (सूत्र २, २, ६५) । पवित्थर पुं[प्रविस्तर विस्तार (उवाः सूम पवियासिय वि [प्रविकासित] विकसित पविस्स देखो पविस। पविस्सइ (महा) । वकृ. २, २,६२)। किया हुआ, 'पवियासियकमलवणं खणं । पविस्ममाण (भवि) । पवित्थरिअ वि [प्रविस्तृत] विस्तीर्ण (स निहाले इ दिणुनाह' (सुपा ३४) । पविहर सक [प्रवि+] विहार करना, ७५२)। पविरइअ विदे] त्वरित, शीघ्रता-युक्त (दे विचरना । पविहरति (उव)। पवित्थरिल्ल विप्रविस्तरिन् ] विस्तारवाला ६, २८)। पविहस अक [प्रवि+ हस् ] हसना, हास्य (राज-पराह १, ५) । देखो पविरल्लिय।। पविरंज सक [भञ्ज 7 भाँगना, तोड़ना। करना । वकृ. पविहसंत (पउम ५६, १७)। पवित्थारि वि [प्रविस्तारिन्] फैलनेवाला पविरंजइ (हे ४, १०६)। पवीइय वि [प्रवीजित हवा के लिए चलाया (गउड)। पविरंजब वि [दे] स्निग्ध, स्नेह-युक्त (षड्)। हुआ (आप) । पविद्ध देखो पब्बिद्ध (पव २)। पवीण वि [प्रवीण] निपुण, दक्ष (उप ९८६ 'पविरंजिअ वि [भग्न] भांगा हुआ (कुमा टी)। पविद्धंस अक [प्रवि + ध्वंस ] १ विनाशाभि- दे ६, ७४) । पवीणी देखो पविणी । पवीणेइ (प्रौप)। मुख होना । २ विनष्ट होनाः 'तेण पर जोणी पविरंजिअ वि [दे] १ स्निग्ध, स्नेह-युक्त। पवील सक [प्र+पीडय् ] पोड़ना, दमन पविद्धंसइ, तेण पर जोणी विद्धसई' (ठा ३, २ कृत-निषेध, निवारित (दे ६, ७४)। करना । पवीलए (प्राचा १, ४, ४, १)। १-पत्र १२३)। पविरल वि [प्रविरल] १ अनिबिड । २ पवच्च देखो पवय = प्र+वच् । पविद्धत्थ वि [प्रविध्वस्त] विनष्ट (जीव ३)। विच्छिन्न (गउड)। ३ अत्यन्त थोड़ा, बहुत । पवुड वि [प्रवृष्ट] १ खूब बरसा हुआ, पविभत्ति स्त्री [प्रविभक्ति ] पृथक्-पृथक् हा कमः 'परकजकरणरासया दासात महोए जिसने प्रभूत वृष्टि को हो वह (प्राचा २, ४, विभाग (उत्त २,१)। पविरल नरिंदा' (सुपा २४०)। १, १३) । २ न. प्रभूत वृष्टि, वर्षण; 'काले पविभाग पुं [प्रविभाग] ऊपर देखो (विसे पविरल्लिय वि [दे] विस्तारवाला (पएह १, पवुद्ध' विन अहिणंदिदं देवस्स सासणं' (अभि १९४२)। ५-पत्र ११)। देखो पवित्थरिल्ल । २२०)। For Personal & Private Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवुद्धपव्वद्द पवुड्ढ वि [प्रवृद्ध] बढ़ा हुना, विशेष वृद्ध पवेसण (दि. १९) । पवेसणग पवेसणय जन्मान्तर में पवुद्धि श्री [प्रवृद्धि] बढ़ाव (पंच ५ २३) । पवुत्त वि [प्रोक्त] १ जो कहने लगा हो, जिसने बोलना प्रारम्भ किया हो वह (पउम २७, १६; ६४, २१) । २ उक्त कथित (if <2) 1 पत्थ [दे] देखो पउत्थ; 'खुड्डुयं पुत्तं घेत्तुं गावे त्याचा २३२५) पवुद वि [ प्रवृत] प्रकर्ष से श्राच्छादित ( प्राकृ १२ ) । पवूढ वि [प्रव्यूढ] १ धारण किया हुप्रा ( स ५१२) २ निर्गत (राज)। पवेश्य व [प्रवेदित] निवेदित प्रतिपादित समेव सर्व मीरांक जिरोहि पत्रेइयं (उप ३७४ टी; भग) । २ विज्ञात, विदित (राज)। ३ भेंट किया हुआ (उत्त १३, १३: सुख १३, १३) । पवेश्य वि [प्रवेपित ] कम्पित ( पउम ५, ७८) । पवेज्ज सक [ प्र + वेदय् ] १ विदित करना । २ भेंट करना । ३ अनुभव करना । पवेजए (सूत्र १८, २४) । पवेडिय व [प्रवेष्टित] घिरा हुआ, बेड़ा हुआ (सुर १२, १०४) । पवेय देखो पवेज पवेति (धाचा २, १२) क. पवेइए ( स ) । पवेयण न [प्रवेदन] १ प्ररूपण, प्रतिपादन | २ ज्ञान, निर्णय । ३ अनुभावन (राज) । पवेवि वि [ प्रवेपित] प्रकम्पित ( खाया १ १ – पत्र ४७ उत्त २२, ३६) । पवेवर वि[प्रवेपत्] कांपनेवाला (पउम ८०, ६४) । पवेशेद पयेस [ + वेशय् ] घुसाना (महा) पवेसमानि (पि ४९० ) । पवेस पुं [प्रवेश] भीत की स्थूलता (ठा ४, २-पत्र २२५) । पवेस पुं [प्रवेश] १ पैठ, घुसना (कुमाः गउड प्रासू २२ ) । २ नाटक का एक हिस्सा (पू)। K पवेस [प्रद्वेष] अधिक द्वेष (भवि) । ७३ पाइअसद्दमहणव } [प्रवेशन, '] प्रवेश पैठ (पह १ १ प्रासू ३८ द्रव्य ३२) । २ विजातीय उत्पत्ति, विजातीय योनि में प्रवेश (भाग १२) । पवेसि वि [ प्रवेशिन् ] प्रवेश करनेवाला ( घोष) । | पवेसिय वि [ प्रवेशित ] घुसाया हुआ ( स ) । पवोत्त [प्रपौत्र ] पौत्र का पुत्र ( धाक ८) । [पय] म [पर्वन] १ ग्रन्थि, गाँड (घोष ४८६; जी १२; सुपा ५०७ ) । २ उत्सव, त्यौहार (सुपा ५०७ श्रा २८ ) । ३ पूर्णिमा और श्रमावास्या तिथि । ४ पूर्णिमा और अमावास्यावाला पक्ष (ठा ६–पत्र ३७०; १०) ५ चतुर्दशी, पूणिमा और अमावास्या का दिन 'मटुमी उसी पुरिखमा य तमावसा हवइ पव्वं । मासम्मि पव्वछकं तिन्नि य बाई नसम्मि' (धर्म २ ) । ६ मेखला, गिरिमेखला । ७ दंष्ट्रान्यत (सू २६.१२) संख्या-विशेष (इक) "बीय ["बीज] आदि जिसका पन्धी उत्पत्ति का कारण होता है (राज) राहु ["राहु] राहु-विशेष जो पूर्णिमा और अमावास्या में क्रमशः चन्द्र धीर सूर्य का ग्रहण करता है (सुज्ज १२) । पवन [पर्वतम] गो-विशेष काश्यर गोत्र की एक शाखा । २ पुंस्त्री. उस गोत्र में (राज) देखो व्यपेच्छइ । पव्वई देखो पव्वई (गा ४५५) । पव्यइअ वि [प्रब्रजित] १ दीक्षित, संन्यस्त (औप दसनि २ – गाथा १६४ ) । २ गत प्राप्तः 'भगाराम्रो भणमारिये पम्यश्या' (श्रीप समः कप्पन. दीक्षा, संन्यास (वय १)। पव्वइंद पुं [पर्वतेन्द्र ] मेरु पर्वत ( सुज्ज ५ टी) । पव्वइग देखो पव्वइअ (उप पृ ३३५ ) । स्त्री. 'गा ( उप पृ ५४ ) । पव्वइसे न [दे] मास-मय मंड-तावीज (दे ६, ११) । ----- For Personal & Private Use Only ५७७ पवई श्री [ पार्वती ] गौरी, शिवानी (पान) । पव्वक पव्वग पव्वंग पुंन [पर्वाङ्ग ] संख्या-विशेष (इक) 1 [पर्वक] १ वाद्य-विशेष पह } 3,8-79 182) 1 3 18 जैसी ग्रन्थिवाली वनस्पति ( पण १ ) । ३ तूर - विशेष ( निचू १) । पग [पायेक] पचगांठ का बना हुआ (आाचा २, २, ३, २० ) । [दे] १२ बाल-मृग (दे ६, ६९ ) । ब पव्व पव्वज्जा स्त्री [प्रव्रज्या] १ गमन, गति । २ दीक्षा, संन्यास (ठा ३ २ ४ ४ प्रासू १६७) । पव्वणी श्री [पर्वणी] कातिको आदि पर्वतिथि ( खाया १, १ - पत्र ५३ ) । व्यपेन [पर्वप्रेमि] देखो पञ्च (ठा ७-पत्र ३६० ) । पव्वय सक [ प्र + व्रज् ] १ जाना, गति करना । २ दीक्षा लेना, संन्यास लेना । पव्त्रयइ (महा) । भवि पव्त्रइस्सामो, पञ्चइहिति ( प ) । वकृ. पव्वयंत, पव्वयमाण (सुर १, १२३३ ठा ३, १ ) । हे. पञ्ञइत्तए, पव्वइडं (श्रपः भग; सुपा २०६ ) । पव्वय देखो पव्वग ( पण १ - पत्र ३३) । पव्यय देखो पव्वइअ 'अगारमा वसंतावि धरणा वाविया' ( सू १, १, १, १९) । 7 न [पर्यंत, क] १ गिरि, पाह १४ उवा), 'व्याकरणादि ७२६.३० ) । २. द्वितीय वासुदेव का पूर्व-भय नाम (सम १५३; पउम २०, १७१) । ३ एक ब्राह्मण पुत्र का नाम ( पउम ११, ६) । ४ एक राजा (भवि ) । ५ एक राज कुमार (उप ε३७) । राय पुं ['राज] मेरु पर्वत ( सुज्ज [बिदुर्ग] पर्वतीय देश पव्वय ४) पहाड़वाला प्रदेश (भग) । पव्वयमिह न [पर्वतगृह ] पर्वत की गुफा ( प्राचा २, ३, ३, १ ) । पव्वाह एक [प्र + रुपय् ] पोड़ना, दुःख देना । पञ्या (सूत्र १, १, ४, ९) । Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो पव्वहणा-पसण्ण कवकृ. पव्याहि जमाण (गाया १,१६- वेऊण (पंचव २)। हेक. पञ्चावित्तए, पसंत वि [प्रशान्त] १ प्रकृष्ट शान्त, शमपत्र १६६)। पव्वावेत्तए, पव्वावेउं (ठा २, १ कस; । प्राप्त (कप्पः स ४०३; कुप्र)। २ साहित्यपबहणा स्त्री [प्रव्यथना] व्यथा, पीड़ा पंचभा)। शास्त्र प्रसिद्ध रस-विशेष, शान्त रस (अणु)। (औप)। पवावण न [प्रव्राजन] दीक्षा देना (उवः । पसंति स्त्री [प्रशान्ति] नाश, विनाश; 'सव्वपहिय वि [प्रव्यथित] अति दुःखित प्रोघ ४४२ टी)। दुक्खप्पसंतीणं' (अजि ३)। (पाचा १, २, ६, १)। पव्यावण न [दे] प्रयोजन (पिंड ५१)। पसंधण न [प्रसन्धान] सतत प्रवर्तन (पिंड पव्वा स्त्री [पर्वा] लोकपालों की एक बार पव्वावणा स्त्री प्रव्राजना] दीक्षा देना (प्रोध ४६०)। परिषद् (ठा ३, २-पत्र १२७)। ४४३; पव २५; सूअनि १२७) । पसंस सक [प्रशंस ] श्लाघा करना । पसंपव्याअं देखो व्याव = म्लै । वाविय वि [प्रव्राजित] दीक्षित, साधु सइ (महा. भवि) । वकृ. पसंत, पसंसपव्वाइअ वि [प्रवाजित] १ जिसको दीक्षा बनाया हुआ (णाया १,१-पत्र ६०)। माण (पउम २८, १५, २२, ६८)। कवकृ. दी गई हो यह (सुपा ५६६)। २ न. दोक्षा व्वाद सक +का बहाना, प्रवाह पसंसिजमाण (वसु) । संकृ. पसंसिऊण देना (राज)। में डालना । वकृ. पव्वाहमाण (भग ५,४)। (महा) । कृ. पसंसणिज्ज, पसस्स, पसंपञ्चाइ विमजान] विनछाय, शुष्क (कुमा पव्विद्ध वि [दे] प्रेरित (दे ६, ११)। सियव्व (सुपा ४७; ६४५सुर १, २१६ ६, १२)। पब्बिद्ध वि [प्रवृद्ध] महान्, बड़ा (से १४, पउम ७५, ८), देखो पसंस । पत्र्याइआ स्त्री [प्रब्राजिका] परिवाजिका, पसंस वि [प्रशस्य] १ प्रशंसा-योग्य । २ संन्यासिनी (महा)। 'पविद्ध न [प्रविद्ध गुरु-वन्दन का एक दोष, पुं. लोभ (सूप १, २, २, २६) । पवाडि देखो पव्यालिअ = प्लावित (से वन्दन को समाप्त किये बिना ही भागना । पसंसण न [प्रशंमन] प्रशंसा, श्लाघा (उप (पब २)। १४२ टी; सुपा २०६, उप पं१७)। पव्याण वि [म्लान] शुष्क, सूखा (प्रोष पव्वीसग न [दे. पब्बीसग] वाद्य-विशेष सोना पसंसय वि [प्रशंसक] प्रशंसा करनेवाला ४८८)। (पएह १, ४–पत्र ६८) । (श्रा ६, भवि)। पव्याय देखो पवाय प्र+वा। पब्वाइ पसइस्त्री [प्रसूति]१ नाप-विशेष, दो प्रकृति पदवीप्रमतिनावित होत पसंसा स्त्री [प्रशंसा] श्लाघा, स्तुति, वर्णन (प्राकृ ७६)। पसर का एक परिमाण (तंदु २६)। २ पूर्ण । (प्रासू १६७; कुमा)। पवाय सक [प्र + ब्राजय ] दीक्षित करना मजलि, दो हस्त-तल-पँजुरो मिला कर पसंसिअ वि [प्रशंसित] श्लाषित (उत्त १४, (सुपा ५६६)। ! ३८)। भरी हुई चीज ( कुप्र ३७४) । पव्याय अकम्लेि सूखना । पब्वायड (हे ४, पसंग पूंन [प्रसङ्गा १ परिचय, उपलक्ष (स। पसज्ज देखो पसंज। १८) । व. पव्वाअंत (से ७, ६७)। ३०५) । २ संगति, संबन्धः 'लोए पलीवणं पसज्म । अ[प्रसह्य १ खुले तौर से, प्रकट पसझ रीति से (सूत्र १, २, २, १६)। पवाय वि [म्लान, प्रवाण] शुष्क, सूखा पिव पलालपूलप्पसंगण' (ठा ४, ४, कुप्र २ हठात्, बलात्कार से (स ३१)। हुआ (पानः ओघ ३६३; स २०३; से ४८ ६. ६३: पिंड ४४)। 'वरं दिट्टिविसो सप्पो बरं हालाहल विसं। पसज्झचयन प्रसह्यचतस्] धम-निरपेक्ष हीणायारागीयत्यवयण संग खु णो भई' पव्याय पू[वात] प्रकृष्ट पवन (गा ६२३) । चित्त, कदाग्रही मन (दसचू १, १४)। पत्र्याल सक [छादय ] ढकना, पाच्छादन (संबोध ३६)। ३ प्रापत्ति, अनिष्ट-प्राप्ति पसढ वि [प्रसह्य] अनेक दिन रखकर खुला (स १७४)। ४ मैथुन, काम-क्रीडा (पएह १, किया हुअा (दस ५, १, ७२)। करना । पव्वालइ (हे ४, २१)। ४)। ५ पासक्ति। ६ प्रस्ताव, अधिकार पसढ वि [प्रशठ] अत्यन्त शठ (सूम २, पव्वाल सक [प्लावय ] खूब भिजाना, (गउड; भविः पंचा ६, २६)। तराबोर करना। पव्वालइ (हे ४, ४१)। पसंगि वि [प्रसङ्गिन प्रसंग करनेवाला, पसढं देखो पसज्झ (दस ५, १, ७२)। पव्यालण न [प्लावन] तराबोर करना (से आसक्तः 'जूयप्पसंगी' (महा: णाया १, २)। पसढिल वि [प्रशिथिल] विशेष ढीला (हे पसंज अक [प्र+सञ्ज.१ प्रासक्ति करना। १,८६)। पव्वालिअ वि [प्लावित] जल-व्याप्त, सरा २ आपत्ति होना, अनिट-प्राप्ति होना । पसजइ पसण्ण वि [प्रसन्न] १ खुश, स्वस्थ (से ५, बोर किया हुमा (पाप: कुमा) से ६, १०)। (उव); 'प्रणिच्चे जीवलोगम्मि कि हिसाए ४१, गा ४६५)। २ स्वच्छ, निर्मल (प्रौपः पव्वालिअ वि [छादित ढका हुमा (कुमा)। पसजसि (उत्त १८, ११, १२)। पसजेजा। मोघ ३४५) । °चंद पुं ['चन्द्र] भगवान् पवाव सक [प्र+वाजय ] दीक्षित करना, (विसे २६६)। महावीर के समय का एक राजर्षि (उवा संन्यास देना । पध्वावेइ (भग) । संक. पवा- पसंडि न [दे] कनक, सुवर्ण (दे ६, १०)। पडि)। For Personal & Private Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसण्णा-पसास पाइअसद्दमहण्णवो पसण्णा स्त्री प्रसन्ना] मदिरा, दारू (णाया पसमिण वि [प्रशमिन्] प्रशान्त करनेवाला, हं महाकिलेसेण नरनाह (सुर १०, २३०; १, १६; विपा १, २)। नाश करनेवाला; 'पावंति, पावपसमिण पास- सुपा ३६)। देखो पसूअ = प्रसूत । पसत्त वि [प्रसक्त] १ चिपका हुआ (गउड जिण तुह प्पभावण' (मि १७)। पसविर वि [प्रसवित] जन्म देनेवाला ५१)। २ आसक्त (गउड ५३१; उव) । ३ पसम्म देखो पसम%+ शम् । पसम्मइ (नाट)। आपत्ति-ग्रस्त, अनिष्ट-प्राप्ति के दोष से युक्त (गउड)। वकृ. पसम्मत (से १०, २२ पसस्स देखो पसंस। (विसे १८५६)। गउड)। पसस्स वि [प्रशस्य] प्रभूत शस्यवाला (सुपा पसय पु[दे] १ मृग-विशेष (दे ६, ४; परह ६४५)। पसत्ति स्त्री [प्रसक्ति] १ आसक्ति, अभिष्वङ्ग १, १, भविः सणः महा)। २ मृग-शिशु पसाइअ वि [प्रसादित] १ प्रसन्न किया (उप १३१)। २ प्रापत्ति-दोष (प्रज्झ (विपा १, ४)। हुअा (स ३८६,५७६)। २ प्रसन्न होने के कारण दिया हुआ, 'अंगविलग्गमसे सं पसाइयं पसत्थ वि[प्रशस्त] १ प्रशंसनीय, श्लाघनीय। पसय वि [प्रस्तृत फैला हुआ, 'पसयच्छि।' (वजा ११२; १४४)। देखो पसिअ = कडयवस्थाई' (सुर १, १६३) । २ श्रेष्ठ, अच्छा (हे २, ४५, कुमा)। प्रसूत । पसत्थि स्त्री [प्रशस्ति] वंशोत्कीर्तन, वंश पसाइआ स्त्री [दे] भिल्ल के सिर पर का पसर अक [प्र + स] फैलना। पसरइ (पि पर्ण-पुट, भिल्लों की पगड़ी (दे ६, २)। वर्णन (गउड; सम्मत्त ८३)। ४७७; भवि)। वकृ. पसरंत (सुर १, ८६ पसाइयव्य देखो पसाय प्र+ सादय् । पसत्थु प्रशास्तु] १ लेखाचार्य, गणित भवि)। का प्रध्यापक (ठा ३, १)। २ धर्म-शास्त्र पसर [प्रसर] विस्तार, फैलाव (हे ४, पसाम वि [प्रशाम्] शान्त होनेवाला (षड् )। का पाठक (ठा ३,१, औष)। ३ मन्त्री, १५७; कुमा)। पसाय सक [प्र + सादय.] प्रसन्न करना, अमात्य (सूत्र २, १, १३)। पसरण न [प्रसरण] ऊपर देखो (कप्पू)। खुश करना । पसाअंति, पसाएसि (गा ६१ पसन्न देखो पसण्ण ( महा: भविः सुपा | पसरिअ वि [प्रसृत] फैला हुमा, विस्तृत सिक्खा ६१ )। वकृ. पसाअमाण (गा (प्रौपः गा ४ भविः णाया १,१)। ७४५) । हेकृ. पसाइउं, पसाए (महा; गा ५२४) । कृ. पसाइयव्य (सुपा ३६५) । पसन्ना देखो पसण्णा (पाय; पउम १०२, पसरेह [दे] किंजल्क (दे ६, १३)। १२२० सुख २, २९)। पसल्लिअ वि [दे] प्रेरित (षड्) । पसाय पुं [प्रसाद] १ प्रत्ति, प्रसन्नता, पसप्प पुं[प्रसर्प] विस्तार, फैलाव (द्रव्य खुशी; 'जणमणपसायजरगणो' (वसु) । २ पसव सक [प्र+सू] जन्म देना, उत्पन्न कृपा, मेहरबानी (कुमा)। ३ प्रणय (गा करना। पसवइ (हे ४, २३३)। पसवंति ७१)। पसप्पग वि [प्रसर्पक] १ प्रकर्ष से जाने- | (उव) । वकृ. पसवमाण (सुपा ४३४) । पसायण न [प्रसादन] प्रसन्न करना, 'देववाला, मुसाफिरी करनेवाला। २ विस्तार को पसव (अप) सक [प्र + विश] प्रवेश करना। प्राप्त करनेवाला.(ठा ४, ४–पत्र २६४)। पसायणपहाणमणो' (कुप्र ५: सुपा ७, महा)। पसवइ (प्राकृ ११६)। पसार सक[प्रसारय् ] पसारना, फैलाना।। पसम अक [प्र+शम् ] अच्छी तरह शान्त पसव पुं[प्रसव] १ जन्म, उत्पत्ति (कुमा)। पसारेइ (महा)। वकृ. पमारेमाण (गाया २ न. पुष्प, फूल: 'कुसुमं पसवं पसूर्य च' होना । पसमंति (प्राक १६)। १,१: प्राचा) । संकृ. पसारिअ (नाटपसम पुं[प्रशम] १ प्रशान्ति, शान्ति (कुमा)। (पान), 'पुप्फाणि अ कुसुमाणि अ फुल्लारिण। २ लगातार दो उपवास (संबोध ५८)। तहेव होंति पसवाणि' (दसनि १, ३६)। मृच्छ २५५)। पसव [दे] देखो पसय । 'पसवा हवंति एए' पसार पुं[प्रसार] विस्तार, फैलाव (कप्पू)। पसम पुं[प्रश्रम] विशेष मेहनत-खेद (प्राव (पउम ११, ७७) । 'नाह पुं [°नाथ] मृग- पसारण न [प्रसारण] ऊपर देखो (मुपा राज, सिंह (स ६५७)। राय पुं [राज] ५८३)। पसमण न [प्रशमन] १ प्रकृष्ट शमन (पिंड सिंह (स ६५७)। पसारिअ वि [प्रसारित] १ फैलाया हुआ ६६३; सुर १, २४६) ।२ वि. प्रशान्त करने पसवडक न [दे] विलोकन (दे ६, ३०)। (सरण; नाट–वेणी २३)। २ न. प्रसारण वाला (स ६६५) । स्त्री. णी (कुमा)। पसवण न [प्रसवन] प्रसूति, जन्म-दान । (सम्मत्त १३३; दस ४, ३)। पसमाविअ वि [प्रशमित] प्रशान्त किया (भगः उप ७४४; सुर ६, २४८)। पसास सक [प्र+ शासय ] १ शासन हुप्रा (स ६२)। पसवि वि [प्रसविन्] जन्म देनेवाला (नाट- करना, हुकूमत करना । २ शिक्षा देना। ३ पसमिक्ख सक [प्रसम् + ईक्ष ] प्रकर्ष शकु ७४)। पालन करना। वकृ. 'रज्जं पसासेमाणे से देखना। संकू. पसमिक्ख (उत्त १४, पसविय वि [प्रसूत जो जन्म देने लगा हो, विहरई' (गाया १, १ टी-पत्र ६; १ ११)। जिसने जन्म दिया हो वहा 'सयमेव पसविया १४-पत्र १८६ प्रौप; महा)। For Personal & Private Use Only Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो पसाह-पसेविआ पसाह सक [प्र+ साधय ] १ बस में पसिज्जण न [प्रसदन प्रसन्न होना, 'अत्य- | पसू सक [प्र + सू] जन्म देना, प्रसव करना । २ सिद्ध करना। पसाहेइ (नाट करूसणं खणपसिजरणं अलिअवमणरिणब्बंधो करना। वकृ. पसूअमाण (गा १२३) । भवि) । व. पसाहेमाण (प्रौप)। (गा ६७५) । संकृ. पसूइत्ता (राज)। पसाहग वि | प्रसाधक | साधक, सिद्ध पसिदिल देखो पसदिल १. ८६ गा पसू वि [प्रसू] प्रसव-कता, जन्मदाता करनेवाला (धर्मसं २६) । तम वि [तम] १३३: गउड)। (मोह २६)। १ उत्कृष्ट साधक । २ न. व्याकरण-प्रसिद्ध | पसिण पुंन [प्रश्न १ पृच्छा, प्रश्न (सुपा पसूअ न [दे] पुष्प, फूल (दे ६, पामा कारक-विशेष; करण-कारक (विसे २११२)। ११, ४५३)। २ दर्पण आदि में देवता का भवि)। देखो पसाहय। आह्वान, मन्त्रविद्या-विशेष (सम १२३ पसूवि [प्रसूत] १ उत्पन्न, जो पैदा हुआ पसाण न [प्रमाधन] १ सिद्ध करना, हो (रणाया १,७, उवः प्रासू १५९)। २ बृह १)। विजानी [विद्या मन्त्रविद्यासाधना विज्जापसाहरणज्जयविज्जाहर देखो पसविय (महा)। विशेष (ठा १०)। पिसिण न [प्रश्न] संनिरुद्धएगतो' (सुर ३, १२)। २ उत्कृष्ट मन्त्रविद्या के बल से स्वप्न आदि में देवता पसूअण न [प्रसवन ] जन्म-दान (सुपा साधना 'सव्वुत्तम मारणसत्तं दुल्लहं भवसमुद्दे ४०३)। के प्राह्वान द्वारा जाना हुआ शुभाशुभ फल पसाहणं मेवाणस्स न निउजेंति धम्मे' (स का कथन (पव २: बृह १)। पसूइ स्त्री [प्रसूति] १ प्रसव, जन्म, उत्पत्ति ७४४)। ३ अलंकार, भूषण (णाया १, ३, (पउम २१, ३४ प्रासू १२८)। २ एक से ३, ४४)। ४ भूषण आदि की सजावट पसिणिय वि [प्रश्नित पूछा हुआ (सुपा पार प्रकार का कुष्ठ रोग, नखादि से विदारण करने भूसरगपसाहरगाउंबरेहि (वज्जा ११४. सपा १६, ६२५)। पर भी दुःख का असंवेदन, चमड़ी का मर पसिद्ध वि [प्रसिद्ध] १ विख्यात, विश्रुत जाना (पिड ६००)। 'रोग' [रोग] पसाहय क्षेखो पसाङ्ग (काल)। २ सजाने- (महा)। २ प्रकर्ष से मुक्ति को प्राप्त, मुक्त रोग-विशेष (सम्मत्त ५८)। वाला (भग ११, ११)। (सिरि ५६५)। पसूइय पुं[प्रसूतिक] वातरोग-विशेष (सिरि पसाहा श्री [प्रशाखा] शाखा की शाखा, पसिद्धिली प्रसिद्धि] १ ख्याति (हे १, ११७)। छोटी शाखा (गाया १,१० प्रौप महा)। ४४)। २ शंका का समाधान, आक्षेप का पसण न [प्रसना फल, पष्प (कमा: सण)। पसाहाबिर दिसाधित] विभूषित कराया परिहार (प्रण; चेइय ४६)। पसेअ पुं[प्रस्वेद] पसीना (दे ६, १)। गया, गाजवाया हुआ (भवि)। पसिस्स देखो पसीस (विसे १४)। पसेढि स्त्री प्रश्रेणि] श्रवान्तर श्रेणि-पंक्ति पसाहि वि [प्रसाधिन] सिद्ध करनेवाला, पसीअ देखो पसिअ = प्र + सद् । पसीयइ, (पि ६६, राय)। 'प्रभुदयपसाहिणी' (संबोध ८; ५४)। पसीयउ (कुप्र१)। संकृ. पसाऊण (सण)। पसेण प्रिसेन] भगवान् पार्श्वनाथ के पसाहिल दि प्रसाधित] अलंकृत किया पसीस पुं[प्रशिष्य] शिष्य का शिष्य (पउम प्रथम श्रावक का नाम (विचार ३७८)। हुमा, सजाया हुअा (से ४, ६१; पाम)। ४.८६)। पसेणइ पुं[प्रसेनजित् ] १ कुलकर-पुरुषपसाहिल वि [प्रशाखिन् ] प्रशाखा-युत पसु [पशु] १ जन्तु-विशेष, सोंग पूँछवाला विशेष (पउम ३, ५५; सम १५०) । २ (सुर ८, १०८)। प्राणी, चतुष्पाद प्राणि-मात्र (कुमाः प्रौप)। यदुवंश के राजा अन्धकवृष्णि का एक पुत्र पसिअ अक [प्र + सद्] प्रसन्न होना । २ प्रज, बकरा (अणु) । भूय वि [भूत] (अंत ३)। पसिन (गा ३८४; ४६६; हे १,१०१)। पशु-तुल्य (सूप १, ४, २)। "मेह पुं पसेणि स्त्री [प्रश्रेणि] भवान्तर जाति, पसियद (साग)। संकृ. पसिऊण, पसिऊणं मेध] जिसमें पशु का भोग दिया जाता। 'भद्रारससेरिणप्पसेणीमो सद्दावेई (गाया १, (सणः सुपा ७)। हो वह यज्ञ (पउम ११, १२)। वइ पुं १-पत्र ३७)। पसिअवि प्रसृत] फैला हुआ, विस्तीर्ण; [पति] महादेव, शिव (गा १, सुपा ३१)। पसेयग देखो पसेवय (राज)। पसिअच्छि !' (गा १२०% ६२३)। पसुत्त वि [प्रसुप्त] सोया हुआ (हे १, ४४ पसेव सक[+ सेव् ] विशेष सेवा करना। पसिअ न [दे] पूग-फल, सुपारी (दे ६, ६)।। प्राप्र; णाया १, १६)। वकृ. पसेवमाण (श्रु ५५)। पसिंच सक[प्र+ सिच्] सेचन करना । पसत्ति स्त्री [प्रसुप्ति ] कुष्ठ रोग विशेष, पसेवय प्रसेवका कोथला, थैलाः 'एहाविवकृ. पसिंचमाण (सुर १२, १७२)। नखादि-विदारण होने पर भी अचेतनता । यपसेवयोव्व उरंसि लंबंति दोवि तस्स थणया' पसिंडि (दे) देखो पसंडि (पान)। (राज) । देखो पसूइ। (उवा)। पसिक्खअ वि [प्रशिक्षक] सीखनेवाला (गा पसुव (अप) देखो पसु (भवि)। 'पसेविआ स्त्री [प्रसेविका] थैली, कोथली ६२६ प्र)। पसुहत्त [दे] वृक्ष, पेड़ (दे ६, २९)। (दे ५, २५) । For Personal & Private Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पस्स-पहा पाइअसहमहण्णवो पस्स सक [दृश् ] देखना । पस्सइ (षड् पहणि स्त्री [दे] संमुखागत का निरोध, सामने पहल अक [घूर्ण घूमना, कांपना, डोलना. प्राकृ ७१)। वकृ. पस्समाण (पाचा प्रौप; पाए हुए का अटकाव (दे ६, ५)। हिलना । पहलइ (हे ४, ११७; षड्)। वसु; विपा १, १)। कृ. पस्स (ठा ४, ३)। पहणिय देखो पहय = प्रहत (सुपा ४)। वकृ. पहल्लंत (सुर १, ६६)। पस्स (शौ) देखो पास = पावं (अभि १८६ पहत्थ पुं [प्रहस्त रावण का मामा (से पहल्लिर वि [प्रघूर्णित] घूमनेवाला, डोलता अवि २६; स्वप्न ३६)। १२, ५५)। (कुमाः सुपा २०४)। पस्स देखो पस्स = दृश् । पहद वि [दे] सदा दृष्ट (दे ६, १०)। पहव अक [प्र+भू] १ उत्पन्न होना । २ पस्सओहर वि [पश्यतोहर ] देखते हुए समर्थ होना । पहवइ (पंचा १०,१० स ७०; पहम्म सक [प्र + हम्म् ] प्रकर्ष से गति चोरी करनेवाला, सुनार, उचकाः 'नणु एसो संक्षि ३६)। भवि. पहविस्स (पि ५२१) । करना । पहम्मइ (हे ४, १६२) । पस्सोहरो तेणों' (उप ७२८ टी)। वकृ. पहवंत (नाट-नाली । पहम्म न [दे] १ सुर-खात, देव-कुण्ड (दे पस्सि वि [दर्शिन] देखनेवाला (पएण ३०)। ६, ११)। २ खात-जल, कुण्ड । ३ विवर, पहव पुं [प्रभव] उत्पत्ति-स्थान (अभि ४१) । पस्सेय देखो पसेअ (सुख २, ८)। छिद्र (से ६, ४३)। पहव देखो पहाव - प्रभाव (स ६३७)। पह वि [प्रह] १ नम्र। २ विनीत। ३ पहम्मंत सोपा पहव देखो पह = प्रह्व (विसे ३००८) । पहम्ममाण | देखो पहण-प्र+ हन् । पासक्त (प्राकृ २४)। पहब पुं [प्रभव] एक जैन महर्षि (कुमा)। पह पुं[पथिन्] मार्ग, रास्ता (हे १, ८८ पहय वि [प्रहत] १ घृट, घिसा हुआ (से पहविय वि [प्रभूत] जो समर्थ हुआ हो, पान; कुमा; श्रा २८ विसे १०५२; कप्प; १, ५८, बृह १)। २ मार डाला गया, निहत (महा)। । 'मणिकुंडलाणुभावा सत्थं नो पहवियं नरिंदस्स औप)। "देसय वि ["देशक मार्ग-दर्शक पहय वि [प्रहृत जिस पर प्रहार किया गया (सुपा ६१५)। (पउम ६८, १७)। हो वह, 'पहया अहिमंतियजलेण' (महा)। पहस अक [प्र + हस् ] १ हसना। २ पहएल्ल पुं [दे] अपूप, पूषा, खाद्य-विशेष (दे पहयर पुं[दे] निकर, समूह, यूथ (दे ६, उपहास करना । पहसइ (भवि; सग)। वकृ. १५: जय १३ पात्र)। पहसंत (सण)। पहंकर देखो पभंकर (उत्त २३; ७६; सुख पहर सक [प्र + ह] प्रहार करना। पहरइ पहसण न [प्रहसन] १ उपहास, परिहास । २३, ७, इक)। (उव)। वकृ. पहरंत (महा)। संकृ. पहरिऊण २ नाटक का एक भेद, हास्य-रस प्रधान पहंकरा देखो पभंकरा (इक)। (महा)। हेकृ. पहरिउ (महा)। नाटक, रूपक-विशेष; 'पहसणप्पायं कामसत्थपहंजण प्रभअन] १ वायु, पवन (पान)। पहर पुं[प्रहार] १ मार, प्रहार (हे. १,६८% वयणं' (स ७१३; १७७, हास्य ११६)। २ देव-जाति-विशेष, भवनपति देवों की एक षड्, प्राप्र संक्षि २)। २ जहाँ पर प्रहार पहसिय वि [प्रहसित] १ जो हसने लगा अवान्तर जाति (सुपा ४०)। ३ एक राजा किया हो वह स्थान (से २, ४)। हो (भग) । २ जिसका उपहास किया हो वह (भवि)। | पहर पुं[प्रहर तीन घंटे का समय (गा २८; (भवि) । ३ न. हास्य (बृह १)। ४ पुं. पहकर दे] देखो पयर (णाया १,१: ३१, पाम)। पवनब्जय का एक विद्याधर-मित्र (पउम कप्पः प्रौपः उप पृ ४७; विपा १, १; रायः | पहरण न [प्रहरण] १ अख, प्रायुध (माचा; १५, ५६)। भग ६, ३३)। पीप; विपा १, १ गउड)। २ प्रहार-क्रिया पहा सक [प्र+हा] १त्याग करना। २ अक. पहद वि [दे] १ दृप्त, उद्धत (दे ६, ६ (से ३, ३८)। कम होना, क्षीण होनाः 'पहेज लोह (उत्त षड्) । २ अचिरतर दृष्ट, थोड़े ही समय के पहराइया देखो पहाराइया (पएण -पत्र ४, १२, पि ५६६) । वकृ. पहिज्जमाण, पूर्व देखा हुमा ( षड्)। पहेजमाण (भगः राज)। संवृ. पहाय, पह? वि [प्रहृष्ट ] आनन्दित, हर्ष-प्राप्त पहराय पुं[प्रभराज] भरतक्षेत्र का छठवाँ पहिऊण (माचा १, ६, १, १ वद ३)। (प्रौप; भग)। प्रतिवासुदेव (सम १५४)। | पहा स्त्री [प्रथा] १ रीति, व्यवहार । २ पहण सक [प्र + हन] मार डालना। पहरिअ वि [प्रहृत] १ प्रहार करने के लिए ख्याति, प्रसिद्धि (षड्)। पहणइ, पहणे (महा: उत्त १८, ४६)। उद्यत (सुर ६, १२९)। २ जिस पर प्रहार पहा स्त्री [प्रभा] कान्ति, तेज, पालोक, दीप्ति कर्म, पहणिजइ (महा)। वकृ. पहणत किया गया हो वह (भवि)। (प्रौप पानः सुर २, २३५; कुमा; चेइय (पउम १०५, ६५) । कवकृ. पहम्मत, पहरिस पुं[प्रहर्ष मानन्द, खुशीः 'प्रामोप्रो ५१४)। मंडल देखो भामंडल (पउम ३०, पहम्ममाण (पि ५४०सुर २, १४)। पहरिसो तोसो' (पानः सुर ३, ४०)। ३२) । यर पुं [कर] १ सूर्य, रवि । २ हेकृ. पहणिउं, पहणेउं (कुप्र २५; महा)। पहलादिद (यौ) वि[प्रह्लादित] मानन्दित रामचन्द्र के भाई भरत से साथ दीक्षा लेनेवाला पण न [दे] कुल, वंश (दे ६,५)। (स्वप्न १०६)। । एक राजर्षि (पउम ८५, ५)। वई श्री For Personal & Private Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ पाइअसहमहण्णवो पहाड-पहुण ["वती] आठवें वासुदेव की पटरानी (पउम पहारेत्त वि[प्रधारयितु] चिन्तन करनेवाला, पहि? देखो पहह % प्रहृष्ट (प्रौप; सुर ३, २०, १८७)। 'अहाकम्मे प्रणवजेत्ति मणं पहारेत्ता भवति' __२४८ सुपा ६३, ४३७)। पहाड सक [प्र + ध्राटय ] इधर उधर (भग ५, ६)। पहिर सक [परि + धा] पहिरना, पहनना । भमाना, घुमाना । पहाडति (सूअनि ७० टी)। पहाव सक [प्र+ भावय ] प्रभाव-युक्त पहिरइ, पहिरंति (भवि; धर्मवि ७)। कम, पहाण वि [प्रधान] १ नायक, मुखिया, करना, गौरवित करना। पहावइ (सण)। पहिरिजइ (संबोध १४)। वकृ. पहिरंत मुख्य; "अवगन्नड सम्बेवि हु पुरप्पहाणेवि' संकृ. पहाविऊण (सरण)। (सिरि ६८)। संकृ.पहिरिउ (धर्मवि १५)। (सुपा ३०८), 'तत्यत्थि वरिणप्पहाणो सेट्ठी पहाव (अप) अक[प्र + भू] समर्थ होना। प्रयो.. संकृ. पहिरावेऊण, पहिराविऊण वेसमणनामओ' (सुपा ६१७) । २ उत्तम, (सिरि ४५६ ७७०)। पहावइ (भवि)। पहिरावण न [परिधापन] १ पहिराना । २ प्रशस्त, श्रेष्ठ, शोभन (सुर १, ४८ महा: पहाव पु[प्रभाव] १ शाक्त, सामथ्या तु पहिरावन, भेंट में-- इनाम में दिया जाता कुमाः पंचा ६, १२) । ३ स्त्रीन. प्रकृति- च तेतलिपुत्तस्स पहावेण (णाया १,१४, वस्त्रादि: गुजराती में-'पहिरामणी'(श्रा २८)। सत्त्व, रज और तमोगुण की साम्यावस्था अभि ३८) । २ कोष और दण्ड का तेज । 'ईसरेण कडे लोए पहारणाइ तहावरे' (सूत्र पहिराविय वि [परिधापित] पहिराया हुआ ३ माहात्म्य; 'तायपहावो चेव में प्रविग्धं (महा: भवि)। १, १, ३, ६) । ४ पुं. सचिव, मन्त्री (भवि)। भविस्सइ ति' (स २६, गउड)। पहिरिय वि [परिहित] पहिरा हुआ, पहना पहाण [पापाग] पत्थर (चउप्पन्न०)। पहावणा देखो पभावण (कुप्र २८४)। हुआ (सम्मत्त २१८)। पहाण न [प्रहाण] अपगम, विनाश (धर्मसं पहाविअ वि [प्रधावित] दौड़ा हुआ (स पहिल वि[दे] पहला, प्रथम (संक्षि ४७; ८७५)। ५८४; गा ५३५; गउड)। भवि पि ४४६) । स्त्री. °ली (पि ४४६) । पहाणि स्त्री प्रहाणि] ऊपर देखो (उत्त ३, पहाविर वि [प्रधावित] दौड़नेवाला (वजा पहिल्ल अक दि] पहल करना, प्रागे करना । ७. उप ६८६ टी)। ६२; गा २०२)। । पहिल्लइ (पिंग) । संकृ. पहिल्लिअ (पिंग)। पहाम सक [प्र+भ्रमय ] फिराना, घुमाना। पहास सक [प्र+भाषा बोलना । पहासई पहिल्लिर वि [प्रचूर्णित] खूब हिलनेवाला, कवकृ. पहामिजंत (से ७, ६६)। (सुख ४; ६); 'नाऊरण चुन्नियं तं पहिहियया अत्यन्त हिलता (सम्मत्त १८७)। पहाय देखो पहा=प्र + हा। पहासई पावा' (महा)। पहिवी देखो पुहवी = पृथिवी (नाट)। पहाय न [प्रभात] १ प्रातःकाल, सबेरा पहास अक [प्र+ भास् ] चमकना, पहीण वि [प्रहीण] १ परिक्षीण (पिंड ६३१; (गउड सुपा ३६, ६०२)। २ वि. प्रभा- प्रकाशना । कृ. पहासंत (साधं ५६)। भग)। २ भ्रष्ट, स्खलित (सूप २,१, ६)। युक्त (से ६, ४४)। पहास पुं [प्रहास] अट्टहास प्रादि विशेष पहु [प्रभु] १ परमेश्वर, परमात्मा (कुमा)। पहाय देखो पहाव-प्रभाव (हे ४, ३४१; हास्य (दस १०, ११)। २ एक राज-पुत्र, जयपुर के विन्ध्यराज का हास्य १३२७ भवि)। पहासा स्त्री [प्रहासा] देवी-विशेष (महा)। एक पुत्र (वसु)। ३ स्वामी, मालिक (सुर पहाया देखो वाहाया (अनु)। पहिअ वि [पान्थ, पथिक] मुसाफिर (हे २, ४, १५६) । ४ वि. समर्थ, शक्तिमानः 'दाणं पहार सक [प्र+ धारय ] १चिन्तन करना, दरिहस्स पहुस्स खंती' (प्रासू ४८) । ५ अधिविचार करना। २ निश्चय करना । भूका. १५२; कुमाः षड् ; उब; गउड)। साला _ स्त्री [शाला] मुसाफिरखाना, धर्मशाला पति, मुखिया, नायक (हे ३, ३८)। पहारेत्थ, पहारेत्था, पहारिस (सूम २,७, (धर्मवि ७०; महा)। पहुइ देखो पभिइ (कप्पू)। ३६; औप; पि ५१७; सूत्र २, १, २०)। वकृ. पहारेमाण (सूत्र २, ४, ४)। पहुई देखो पुहुवी (षड्)। पहिअ वि [प्रथित] १ विस्तृत । २ प्रसिद्ध, विख्यात (ोप) । ३ राक्षस-वंश का एक प पहुंक पुं [पृथुक] खाद्य पदार्थ विशेष, चिउड़ा पहार देखो पहर = प्रहार (पायः हे १, ६८)। राजा एक लंका-पति (पउम ५; २६२)। (६५०४४) । पहाराइया स्त्री [प्रहारातिगा] लिपि-विशेष पहुच्च अक [प्र + भू] पहुँचना । पहुचइ (सम ३५)। पहिअ वि [प्रहित] भेजा हुआ, प्रेषित (उप (हे ४, ३६०) । वकृ. पहुश्चमाण (प्रोष पृ४५, ७६८ टी; धम्मटी )। पहारि वि [प्रहारिन] प्रहार करनेवाला (सुपा २१५ प्रासू ६८)। पहिअ वि [दे] मथित, विलोडित (दे ६, ६)। पहुह देखो पप्फुट्ट । पहुट्टइ (कप्पू)। पहारिय वि [प्रहारित] जिस पर प्रहार किया पहिऊण देखो पहा = प्र + हा। पहुडि देखो पभिइ (हे १, १३१; ती १०; गया हो वह (स ५६८)। पहिसय वि [प्रहिंसक हिंसा करनेवाला षड्)। पहारिय वि[प्रधारित] विकल्पित, चिन्तित (मोघ ७५३) । पहुण पुं[प्राघुण] अतिथि: मेहमान (उप (राज)। पहिजमाण देखो पहा = प्र + हा। ६०२)। For Personal & Private Use Only Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुणाइय- पाउं पहुणा इयन [ प्राघुण्य ] आतिथ्य, प्रतिथिसरकार न्हाणभोवणवत्वाखदासाइड गाडि (? इ) यं संपाडे' ( रंभा ) । पहुच र [प्रभूत] १ पर्याप्त काफी ल 'च पहुत्त' (पान; गउड गा २७७ ) । २ समर्थ ( २. ९) पहुंचा हुआ (ती १५) । पहुदि देवोपभि (४१२) । पहुप्प च [ अ+भू] १ समर्थ होना, पहुच सकना । २पहुँचना | पहुप्पइ (हे ४,६३; प्राकृ ६२); 'एयाओ बालियान निय नियगेहेसु जह पहुष्पंति तह कुह (सुपा २५०)माल), पहरे (हे में, १४२) । वकृ. 'कि सहइ कोवि कस्सवि पानपहारं पहुष्यंती' पहुष्पमाण (गा ७ घोष ५०५; किरात १६) । कवकृ. पहुव्वंत ( से १४.२५ १०) हे (महा)। पहुची श्री [पृथिवी] भूमि परती (गाटमालती ७२) ["प्रभु] राजा ( हम्मीर १७) । वइ पुं [पति] वही अर्थ ( हम्मीर १६ ) । पहुव्वंत देखो पहुच । J पहूअ वि [ प्रभूत] १ बहुत प्रचुर (स ४५९) । २ उद्गत । ३ भूत । ४ उन्नत (प्राकृ ६२) । पहेज्जमाण देखो पहा = प्र + हा पण न [दे] वधू को ले जाने पर पिता के घर दी जाती जमीन (प्राचा २, १, ४, १) । पहेण । न [ दे] १ भोजनोपायन, खाद्य 1 वस्तु की भेंट ( श्राचा; सूत्र २, १, पणय ५६; गा ३२८६०३; पिंड ३३५; पान दे ६, ७३) । २ उत्सव (दे ६, ७३) । पहेरक न [प्रहेक] श्राभरण - विशेष ( परह २, ५ - पत्र १४६ ) 1 पण पहेलिया श्री [प्रहेलिका] दायवाली कविता] ( १५५ श्रीप पहोअ सक [ प्र + धावू ] प्रक्षालन करना, घोना पहोएन (घाचा २२, १. ११)। पहोइ वि [ प्रधाविन्] धोनेवाला (दस ४, २६) । पाइसद्दमणवो पहोइअ वि [दे] १ प्रवर्तित। २ प्रभुत्व (दे ६,२६) । पहोड सक [ वि + लुल् ] हिलोरना, अन्दोलना । पहोडइ ( धात्वा १४४ ) । पहोयण स्त्रीन [ प्रधावन ] प्रक्षालन, 'दंत हो' (दस ३, ३) । पहोरि [प्र]ि हिलनेवाला वि डोलता (गा ७८ ६६६ से ३, ४६; पान ) । पहोय देणो पथोब पहोवाहि (भाषा २.१ ६, ३) । 1 पा सक [पा] पीना, पान करना । भवि पाहिसि पाहामि पाहामो (कप्पः पि ३१५३ कस ) | कर्म. पिज्जइ (उच), पीति (पि ५३) पि१२० । पीयमाण (३८२), पेंत (अप) (सण) । संकृ. पाऊण, पाऊणं (नाट - मुद्रा ३६६ गउड; कुप्र ६२) । हेकृ. पाउं, पायए (प्राचा) । कृ. पायव्त्र, पिज्ज (सुपा ४३८ परह १, २ कुमा २, ६ ), पेअ, पेयव्व (कुमाः र ६०) पेज (गाया १ १ १७० उवा) । पासक [पा] रक्षण करना। पाइ, पाइ (विसे ३०२५ हे ४, २४०), पाउ (पिंग ) । पासक [प्रा] पना, गन्ध सेना पाइ पाइ ( प्राप्र ८, २० ) । पाइ वि [पातिम] गिरनेवाला (पंचा ५ २० ) । पाइ वि [पायिम् ] पोनेवाला (गा ४६७ हि ५)। पाइअ [दे] वदन-विस्तार, मुँह का फैलाव (दे ६, ३९) । पाइअ देखो पागय = प्रकृत (दे १ ४ प्राकृ. ८ प्रासू १० वजा ८ पात्र पि ५३); 'ग्रह पायायो भासा (कुमा ११)। पाइअ वि [पायित] पिलाया हुना, पान कराया हुआ (कुप्र ७६; सुपा १३० स ४५४) । पाइंत देखो पाय पायय् । पाइक पुं [पदाति] प्यादा, पैर से चलनेवाला सैनिक (हे २, १३८, कुमा) । पाइडि स्त्री [प्रावृति] प्रावरण, वस्त्र (गा २३८ ) । For Personal & Private Use Only ५८३ पाइण देखो पाईण (पि २१५ टि) । पाइत्ता (प्रप) स्त्री [पवित्रा ] छन्द - विशेष (Fr) 1 पाइद [शौ] वि [पाचित ] पकवाया हुआ (नाट १२६) । पाइन देखो पाई (दि ४९) । पद्मन [प्रातिभ] प्रतिभा बुद्धि-विशेष ( कुप्र १५५) । पाइम वि [पाक्य ] १ पकाने योग्य । २ काल प्राप्त मृत ( दस ७, २२) । पाइम वि [पात्य] गिराने योग्य (भाचा २, ४, २, ७) । पाई स्त्री [पात्री ] १ भाजन- विशेष (खाया १, १ टी) । २ छोटा पात्र ( सूत्र २, २०७० ) । पाईण वि [प्राचीन] १ पूर्वदिशा-संबन्धी, 'वहार-वाइखाई ? कप्पः सम १०४ ) । २ न. गोत्र - विशेष । ३ पुंस्त्री. उस गोत्र में उत्पन्न; 'धेरे श्रज्जभद्दबाहू पाईासगोते (कप्प ) । पाईणा स्त्री [प्राचीना] पूर्व दिशा (सूत्र २, २, ५८ ठा ६- पत्र ३५६ ) । पाउ देखो पाउँ= प्रादुस् (सू २, ६, १११ उवा) । पाउ पुं [पायु] गुदा, गाँड़ (ठा – पत्र ४५०; सरण) । पाउ स्त्री [दे] १ भक्त, भात, भोजन । २ इक्षु, ऊख (दे ६, ७५) । पाउअन [दे] १ हि श्रवश्याय (दे ६, ३८) । २ भक्त । ३ इक्षु (दे ६, ७५) । पाउअ देखो पाउड = प्रावृत (गा ५२० स ३५० श्रपः सुर ६, ८ पात्र हे १ १३१) । पाउस देखो पागय (गा २ ६६८ प्रातः कप्पू पिंग) । पाउआ स्त्री [पादुका] १ खड़ाऊँ, काठ का जूता (भग; सुख २ २ पिंड ५७२ ) । २ जूता, पगरखी (सुपा २५४ श्रीप) । पाउँ देखो पा = पा पाउं श्र [ प्रादुस् ] प्रकट व्यक्तः 'संति असंति करिस्सामि पाउं (सूत्र १, १, ३, १। Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ पाइअसहमहण्णवो पाउंछण-पाओयर पाउंछण । न [प्रादप्रोग्छन, 'क] जैन ११, २१)। पाउणेजा (पाचा २,३,१,११) (दे)। गम पुं [गम] वर्षा-प्रारम्भ पाउंडणग मुनि का एक उपकरण, रजोहरण भवि. पाउरिणस्सामि, पाउणिहिइ (पि ५३१ (पान)। (पब ११२ टी; मोघ ६३०; पंचा १७ उवा)। संकृ. पाउणित्ता (प्रौपः णाया १, पाउसिअ वि [प्रावृषिक] वर्षा-सम्बन्धी १२) । १; विपा २,१; कप्पः उवा)। हेकृ. पाउणि- (राज)। पाउकर सक[ प्रादुस् + कृ] प्रकट करना । | त्तए (माचा २, ३, २, ११)। पाउसिअ वि [प्रोपित, प्रवासिन्] प्रवास भवि. पाउकरिस्सामि (उत्त ११, १)। पाउण (अप) देखो पावण = पावन (पिंग)। में गया हुआ, पाउकर वि [प्रादुष्कर] प्रादुर्भावक (सूत्र १, पाउत्त देखो पउत्त= प्रयुक्त (प्रौप)। 'तह मेहागमसंसियभागमणाणं पईण मुद्धाम्रो। १५, २५)। मग्गमवलोयमारणीउ नियइ पाउसियदइयानो।' पाउकरण न [प्रादुष्कर ग] १ प्रादुर्भाव । २ पाउप्पभाय वि [प्रादुष्प्रभात] प्रभा-युक्त, (सुपा ७०)। वि. जो प्रकाशित किया जाय वह । ३ जैन प्रकाश-युक्त: 'कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए पारसिआ स्त्री प्रादेषिकी 1द्वेष-मत्सर मुनि के लिए एक भिक्षा-दोष, प्रकाश कर दी (णाया १,१; भग)। से होनेवाला कर्म-बन्ध (सम १० ठा २, १; हुई भिक्षाः 'पकिरणपाउकरणपामिच्च' (पराह पाउसव अक [प्राडुस् + भू] प्रकट भग; नव १७)। २,५-पत्र १४८)। होना । पाउन्भवद ( पब ४०)। भूका. पाउहारी स्त्री [दे. पाकहारी] भक्त को पारका निपालाम] पीने की इच्छा पाउन्भविस्था (उवा)। वकृ. पाउब्भवंत, लानेवाली, भात-पानी ले मानेवाली (गा वाला; 'तं जो रणं एवियाए माउयाए दुई पाउब्भवमाण (मुपा ६ कुप्र २६ णाया पाउकामे से रणं निग्गच्छउ' (रणाया १,१८)। १, ५)। संकृ. पाउभवित्ताणं (उवाः पाए प्र[दे] प्रभृति, (वहां से) शुरू करके पाउक वि [दे] मार्गीकृत, मागित (दे ६. प्रौप) । हेकृ पाउभवित्तए (पि ५७८)। (ोघ १६६; बृह १)। पाउन्भव वि [पापोद्भव] पाप से उत्पन्न | पाए सक [पायय] पिलाना। पाएइ (हे पाउकरण देखो पाउकरण (राज)। (उप ७६८ टी)। ३, १४६) । पाएमाह (महा)। वकृ. पाइंत, पाक्खालय न [दे पायुक्षालक] १ पाउन्भवणा सा प्रादुभवन] प्रादुभाव (भग पाययंत (सुर १३, १३४, १२, १७१)। पाखाना, टट्टी. मलोत्सर्ग-स्थान; 'ठाइ चेव ३,१)। संकृ. पारत्ता (पाक ३०)। एसो पाउवालयम्मि रयणार' (स २०५; पाउभुय (अप) नीचे देखो (सण)। | पाए सक [पादय् ] गति कराना। पाएइ भत्त ११२)। २ मलोत्सर्ग-क्रिया; 'रयणीए पाउन्भूय वि [प्रादुर्भत] १ उत्पन्न, संजात। (हे ३, १४६)। पाउक्खालयनिमित्तमुट्ठिो ' (स २०५) । २ प्रकटित (प्रौपः भग; उवाः विपा १, १)। पाए सक [पाचय् ] पकवाना। पाएइ पाउन्ग वि [द] सभ्य. सभासद (दे ६, ४१; पाउरण न [शावरण] वन, कपड़ा (सूअनि (हे ३, १४६)। कर्म. पाइजइ (श्रावक सरण)। | ८६ हे १, १७५; पंचा ५, १०, पव ४, २००)। पाउम्ग वि [प्रायोग्य] उचित, लायक (सुर पड्)। पाएण) अप्रायेण] बहुत करके, प्रायः पाएगं (विसे ११६६७ काल; कप्पः प्रासू पाउरण न [दे] कवच, वर्म (षड्)। १५, २३३)। पाउगह पुं [पतग्रह] पात्र ( प्राचानि पाचरणी स्त्री [2] कवच, वमं (दे ६, ४३) । ४३)। पाओ अ[प्रायस् ] ऊपर देखो (श्रा २७)। २८८)। पारिअ देखो पाउड प्रावृत (कुप्र ४५२)। पाउगवि दि] १ जुना खेलानेवाला। पाओ अ [प्रातस] प्रातःकाल, प्रभात पाउल वि [पापकुल हलके कुल का, जघन्य २ सोड, सहन किया हुआ (दे ६, ४१; (सुज्ज १, ६; कप्प)। कुल में उत्पन्नः ‘दवावियं पाउलाण दविणपान। जायं' (स ६२९), 'कलसद्दपउरपाउलमंगल पाओकरण देखो पाउकरण (पिंड २६८)। पाउड देखो पागय (प्राकृ १२; मुद्रा १२०)। संगीयपवरपेक्ख गये' (सुर १०, ५)। पाओग देखो पाउम्ग (सूअनि ६५) । पाउड वि [प्रावृत] १ आच्छादित, ढका हुआ पाउल्ल न. देखो पाउआ, 'पाउल्लाई संकमाएं पाओगिय वि [प्रायोगिका प्रयत्न-जनित. (सून १, २, २, २२)। २ वस्त्र, कपड़ा (सूत्र १, ४, २, १५)। अस्वाभाविक (चेइय ३५३)। (ठा ५,१)। पाउव न [पादोद] पाद-प्रक्षालन-जल, पाओग्ग देखो पाउग्ग (भास १०; धर्मस पाउण सक [प्रा + वृ] आच्छादित करना, पाउवदाई च रहाणुवदाई च (णाया १, ११८०)। पहिरना । पाउणइ (पिंड ३१) । संकृ. 'पडं ७--पत्र ११७)। पाओपगम न [पादपोपगम देखो पाओपाउणिऊण रति णिग्गो' (महा)। पाउस पुं [प्रावृष्] वर्षा ऋतु (हे १, | वगमण (वव १०)। पाउन सक [प्र + आप ] प्राप्त करना ।। १६; प्राप्र; महा)। कीड पुं [°कीट] पाओयर पुं [प्रादुष्कार] देखो पाउकरण पाउण (भग)। पाउणंति (प्रौपः सून १, वर्षा ऋतु में उत्पन्न होनेवाला कीट-विशेष । (ठा ३, ४ पंचा १३, ५) । For Personal & Private Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाओवगमण-पाडवण पाइअसहमहण्णवो ५८५ भग)। पाअ वगमण न [पादपोपगमन] अनशन- पागड्ढि । वि [प्राकर्षिन्, क] १ अग्र- | पाडण न [पातन] १ गिराना, पाड़ना विशेष, मरण विशेष (सम ३३; प्रौप; कप्प; पागड्ढिक गामी; 'पागट्ठी (? ड्डी) पट्ठवए (सूअनि ७२)। २ परिभ्रमण, इधर-उधर जूहवई (णाया १,१)। २ प्रवत्तंक, प्रवृत्ति घुमना; 'लहुजढरपिढरपडियारपाडणत्तारण पाओवगग वि [पादपोपगत] अनशन-विशेष करानेवाला (पराह १, ३-पत्र ४५) । कयकीलो (कुमा २, ३७)। से मृत (प्रौप; कप्प; अंत)। पागम्भ न [प्रागल्भ्य] धृष्ठता, ढिठाई (सूप पाडणा स्त्री [पातना] ऊपर देखो (विपा १, पाओस पुं[दे. प्रद्वेष] मत्सर, द्वेष (ठा ४, . १, ५, १, ५)। १-पत्र १६)। ४–पत्र २८०)। पागभि । वि [प्रागल्भिन्, क] धृष्टता-पाडय पुं[पाटक] मुहल्ला, रथ्याः 'चंडालपाओसिय देखो पादोसिय (प्रोध ६६२)। पागन्भिय । वाला, घृष्ट, ढीठ (सूप १,५,१, | पाडए गंतु' (धर्मवि १३८ विपा १,८ पाओसिया देखो पाउसिआ (धर्म ३)। ५, २, १, १८)। महा)। पांडविअ विदे] जला', पानी से गीला | पागय वि [प्राकृत] १ स्वाभाविक, स्वभाव- पाडय वि[पातक] गिरानेवाला । स्त्री. डिआ (दे ६, २०)। सिद्ध। २ प्रावित्तं की प्राचीन लोक-भाषाः (मृच्छ २४५)। पांडु देखो पंड (पव २४७)। "सुअ पुं 'सक्कया पागया चेव' (ठा ७-पत्र ३६३; पाडल पुं[पाटल] १ वर्ण-विशेष. श्वेत और [सुत] अभिनय का एक भेद (ठा ४, विसे १४६६ टी; रयण ६४; सुपा १) । रक्त वर्ण, गुलाबी रंग। २ वि. श्वेत-रक्त ४-पत्र २८५)। ३ पुं. साधारण बुद्धिवाला मनुष्य, सामान्य वर्णवाला (पास)। ३ न. पाटलिका-पुष्प, लोगः 'जेसिणामागोत्तं न पागता पएणवेहिति पाक देखो पाग (कप्प)। गुलाब का फूल (गा ४६६; सुर ३, ५२ (सुज्ज १९), "किंतु महामइगम्मो दुरवगम्मो कुमा)। ४ पाटला वृक्ष का पुष्प, पाढल का पाकम्म न [प्राकाम्य] योग की पाठ सिद्धियों पागयजणस्स' (चेइय २५६, सुर २, १३०)। फूल (गा ३०)। में एक सिद्धि, 'पाकम्मगुणेण मुणी भुवि व्व 'भासा स्त्री [भाषा] प्राकृत भाषा (श्रा पाडल पु[दे] १ हंस, पक्षि-विशेष । २ वृषभ नीरे जलि व्व भुवि चरई' (कुप्र २७७)। २३) । वागरण न [व्याकरण] प्राकृत बैल । कमल (दे ६, ७६)। पाकार [प्राकार] किला, दुर्ग (उप पृ८४)।। भाषा का व्याकरण (विसे ३४५५)। पाडलसउण पुं[दे] हंस, पक्षि-विशेष (दे पाकिद (शौ) देखो पागय (प्रयौ २४ नाट- पागार [प्राकार] किला, दुर्ग (उवः सुर | ६, ४६)। वेणी ३८ पि ५३; ८२)। ३, ११४)। पाडला स्त्री [पाटला] वृक्ष-विशेष, पाढल का पाखंड देखो पासंड (पि २६५)। पाजावञ्च पुं [प्राजापत्य] १ वनस्पति का पेड़, पाडरि (गा ४५६ सुर ३, ५२; सम पाग [पाक] १ पचन-क्रिया (ौपः उवा अधिष्ठाता देव । २ वनस्पति (ठा ५, १- | १५२), 'चंपा य पाडलरक्खो जया य वसु १५२), 'चपा य पाडला सुपा ३७४)। २ दैत्य-विशेष (गउड)। ३ पत्र २६२)। पुज्जपत्थिवो होई' (पउम २०, ३८)। विपाक, परिणाम (धर्मसं ६६५)। ४ | पाटप (चूपै) देखो वाडव (षड्)। पाडलि स्त्री [पाटलि] ऊपर देखो (गा बलवान् दुश्मन (प्रावम)। सासण पुं पाठीण देखो पाढीण (पएह १, १ ४६८)। उत्त, पुत्त न [पुत्र] नगर[शासन] इन्द्र, देव-पति (हे ४, २६५; पत्र ७)। विशेष, पटना, जो आजकल बिहार प्रदेश गउड; पि २०२)। सासणी स्त्री [शासनी] का प्रधान नगर है (हे २, १५०; महा: |पाड देखो फाड = पाट्यः ‘असिपत्तधगृहि इन्द्रजाल-विद्या (सून २, २, २७)। पि २६२; चारु ३६)। पुत्त वि [पुत्र] | पाडंति' (सूअनि ७६)। पागइअ वि [प्राकृतिक] १ स्वाभाविक । पाटलिपुत्र-संबन्धी, पटना का (पब १११)। पाड सक [पातय् ] गिराना । पाडेइ (उव)। संड न [पण्ड] नगर-विशेष (विपा १, २ पृ. साधारण मनुष्यः प्राकृत लोक (पव ६१)। संक. पाडिअ, पाडिऊण (काप्र १९६; ७; सुपा ८३)। देखो पाडली । पागड सक [प्र+ कटय् ] प्रकट करना, । कवकृ. पाडिज्जत ( उप पाडलिय वि [पाटलित] श्वेत-रक्त वर्णवाला खुला करना, व्यक्त करना । वकृ. पागडेमाण ३२० टी)। किया हुअा (गउड)। (ठा ३, ४-पत्र १७१)। पाड देखो पाडय = पाटका 'तो सो दिदृट्ठाणे पाडली देशो पाडल ( पृ ३६०)। "पुर पागड वि [प्रकट] व्यक्त, खुला (उत्त ३६, सय गो वेसपाडम्मि' (सुपा ५३०)। न [°पुर] पटना नगर (धमांव ८.) । वुत्त ४२, प्रौप; उव)। पाडच्चर वि [दे] पासक्त चित्तवाला (द ६, न [पुत्र] पटना नगर ( षड्)। पागडण न [प्रकटन] १ प्रकट करना। २ ३४)। पाडव न [पाटव] पटुता, निपुणता (धम्म वि. प्रकट करनेवाला (धर्मसं ८२६)। पाडच्चर पुं [पाटञ्चर] चोर, तस्कर (पामः १० टी)। पागडिअ वि [प्रकटित] व्यक्त किया हुआ पाडवण न [दे] पाद-पतन, पैर पर गिरना, (उच; औष)। पाडण न [पाटन] विदारण (माव ६)। प्रणाम-विशेष (दे ६, १८)। ७४ For Personal & Private Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ पाsहिंग ) वि [पाद्दिक] ढोल बजानेवाला, पाडहिय ! ढोलिया, ढोलकिया ( स २१६) । पाडहुकवि [दे ] प्रतिभू, मनौतिया, जामिनदार (ब)। पाडि पि [पाटित] फाड़ा हुआ, विदारित ( स ६९९) । पाडि वि [पातित]] गिराया हुषा (पाय: प्रासू २: भवि ) । पाडिअ [दे] विश्राम (दे ६, ४४) । पामि [ते] पिता के घर से वधू को पति के घर ले जानेवाला (दे ६, ४३) । पाडिओ देखो पाडय = पातक पाडिएक) न [प्रत्येक] हर एक (हे २, पाडिज्जंत देखो पाड = पातय् । पाडिपह न [ प्रतिपथ ] श्रभिमुख, सामने ( सू २, २, ३१) । पाडिपहिअ देखो पडिपहिअ ( सू २, २, ३१) । पाडिपिद्धि स्त्री [दे] प्रतिस्पर्धा (षड् ) । पाडिप्पा पुं [पारिप्लवक] पक्षि- विशेष (पउम १४, १८) । पाटिद्धि] [प्रतिस्पर्धिन् ] स्पर्धा करने वाला (हे १, ४४ २०६ ) । पाडियंतियन [प्रात्यन्तिक ] श्रभिनय - विशेष (राज)। पाडिक्क २१०६ कपः पानः गाया १, पाउिस्थित पुष्पमाला (दे ६, ४२३ 2 स्त्री [दे ] शिरो माल्य, मस्तक(६४२३ १६३२, १० सूपनि १२१ टी कुमा), 'एवे जीवे पाडिकएणं सरीरए (ठा १ - पत्र १९) । पाडितिय न [ प्रात्यन्तिक ] अभिनय - विशेष ( राय ५४ ) । पाडिञ्चरणन [ प्रतिचरण] सेवा, उपासना (३४६) । पाच्छिय व [ प्रतीक ] ग्रहण करनेवाला (२, १३) । पाहियक देखो पाहिनक (और)। पाडवय वि [ प्रातिपद] १ प्रतिपत्-संबन्धी, पडवा तिथि का; 'जह चंदो पाडिवो पडिपुन्नो सुक्कपक्खम्मि' ( उवर ६० ) । २ पुं. एक भावी जैन श्राचार्य (विचार ५०६ ) । पाडिया श्री [प्रतिपत्] तिथि-विशेष पक्ष की पहली तिथिः पडवा (सम २६ णाया १, १० हे १, १५४४) । पाडहिंग— पाढावण = अध्ययन । पाडोस [दे] पड़ोस प्रातिवेश्मता था २७) । पाडोसिअ वि [दे] पड़ोसी, पड़ोसिया (सिरि ३१२; श्रा २७ सुपा ५५२) । पाढ सक [पाठय् ] पाना करावा पाढइ, पाढे (प्राकृ ६०; प्राप्र ) | कर्म. पाढिजइ (प्रा) सकृ. पाहिऊण, पाडेऊण (प्राइ ६१) हे पाढि पाडे (प्राकृ६१) कृ. पाढणिज्ज, पाढिअव्व, पाढेअन्व ( प्राकृ ६१) । पाढ पुं [पाठ ] १ श्रध्ययन, पठन (श्रोघभा ७१३ विसे १३८४ सम्मत्त १४० ) । २ शास्त्र, श्रागम । ३ शास्त्र का उल्लेख 'पाढो त्ति वा सत्यंति वा एगट्ठा' (प्राचू १ ) । ४ प्रध्यापन, शिक्षा (उप १०० ११०४) । पाढ देखो पाडय = पाटक (श्रा ९३ टी) । पाटंतर न [पाठान्तर] भित्र पाठ (भावक ३११) । पाढग वि [पाठक] १ उच्चारण करनेवाला, 'पडियं मंगलपाठ (३२) २ अभ्यासी, अध्ययन करनेवाला । ३ अध्यापन करनेवाला, अध्यापकः ''म पाडगा', 'समुपागा' (मंदि ३३ गाया १, १३ कप्प ) । पाइअसहमणव पाडिवेसिय वि [प्रातिवेश्मिक] पड़ोसी स्त्री. या (सुपा ३६४ ) । पाडिसार पुं [दे] १ पटुता, निपुणता । २ वि. पटु, निपुण (दै ६, १६) । पाडिसिद्धि देखो परिसिद्धि प्रतिसिद्धि (हे १, ४४ प्राप्र ) । पाडिसिद्धि] [] १ स्पर्धा (६.७७ कप्पू कुप्र ४९ ) । २ समुदाचार । ३ वि. सदृश, तुल्य (दे ६, ७७)। पाडसिरा स्त्री [दे] खलीन-युक्ता (दे ६, ४२) । पाडिस्य न [प्रातिभुतिक] अभिनय का एक भेद (राज)। पाहिस्थी राज) । पाsिहारिय वि [प्रातिहारिक ] वापस देने योग्य वस्तु (विसे ३०५७६ श्रौपः उवा) । पान [प्रातिहार्य ] १ देवता - कृत प्रतीहार-कर्म देवकृत पूजा-विशेष (औप पव ३६), 'इय सामइए भावा इहईपि नागदत्त - नरनाहो । जाम्रो सपाडिहेरो' (सुपा ५४४ ) । २ देव- सान्निध्य (भत्त ९६ ); 'बहूणं सुरेहि कथं पाडिहेर' (श्रु ६४ महा) । पाडी स्त्री [दे] भैंस की बछिया पाड़ी या पड़िया गुजराती में 'पाडी' (गा ६५) । पाडुकी स्त्री [ दे ] व्रणी - जखमवाले की पालकी (दे ६, ३९) । पाहुंगोरिव [] १ वि एण-रहित २ मद्य में प्रासक्त । ३ स्त्री. मजबूत वेटनवाली बाड़ 'पाडु गोरी च वृतिर्दीर्घं यस्या त्रिवेष्टनं परितः' (दे ६, ७८ ) । पाडुक्क पुं [दे] समालम्भन, चन्दन आदि का शरीर में उपलेप । २ वि. पटु, निपुण (दे ६, ७६) । पाडुश्चिय वि [प्रातीतिक ] किसी के प्राश्रय से होनेवाला, प्रापेक्षिक। स्त्री. या (ठा २, १० नव १८ ) । पाडुची स्त्री [दे] तुरंग-मण्डन, घोड़े का सिंगार (दे ६, ३६ पान ) । पाहुहुअवि [दे] प्रतिभू मनोठिया, जामिनदार (दे ६, ४२) । पाडेक्क देखो पाडिक ( सम्म ५५ ) । For Personal & Private Use Only पाढण न [पाठन] प्रध्यापन ( उप पृ १२८ प्राकृ ६१६ सम्मत्त १४२) । पाढणया श्री [पाठना] अपर देखो (पंचभा ४) । पाढय देखो पाढग (कप्प; स ७ णाया १, १ - पत्र २०६ महा) | पाढव वि [पार्थिव] पृथिवी का विकार पृथिवी का 'पाढवं सरीरं हिचा ' (उत्त ३, (१३) । पाढा स्त्री [पाठा ] वनस्पति- विशेष, पाढ, पाठ का गाछ ( पण १७ ) । पाढाव सक [ पाठ्यू ] पढ़ाना, अध्यापन करना । पाढावे (प्रा)। संकृ. पाढाविऊण, पाडावेऊण (प्राह ६१ पाढावे (६१). पादावणिज, पादाविन्य प्राकृ६१) । पाढावअ वि [पाठक ] श्रध्यापक (प्राकृ ६० ) । पाढावण न [पाठन] प्रध्यापन ( प्राकृ ६१) । Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाढाविअ-पाणु पाइअसद्दमण्णवो ५८७ पाढाविअ वि [पाठित] अध्यापित (प्राकृ "पाणाणि चेवं विरिणहंति मंदा' (सूम १,७, स्वर्ग का इन्द्र (ठा ४, ४)। ४ प्राणत देव६१)। १६, ठा ; प्राचा; कप्प) । ४ जीवित | लोक में रहनेवाला देव (अणु) । पाढाविअवंत वि [पाठितवत् ] जिसने जीवन (सुपा २६३, ५:३; कप्पू)। इत्त पाणहा स्त्री [उपानह ] जूता, 'पाणहारो पढ़ाया हो वह (प्राकृ ६१)। वि [वत् ] प्राणवाला, प्राणी (पि ६००)। य छत्तं च णालीयं बालवीयए' (सूम १, ६, पाढाविउ । वि [पाठयितु] पढ़ानेवाला चय पुं [त्यय] प्राण-नाश (सुपा २९८ १८)। पाढाविर (प्राकृ ६१, ६०)। ६१६) चाय पुं["त्याग] मरण, मौत पाणाअअ दे] श्वपच, चाण्डाल (दे ६, पाढिअ वि[पाठित] पढ़ाया हुमा, अध्यापित (सुर ४, १७०)। जाइय वि [जातिक] (प्राप्र)। प्राणी, जीव, जन्तु (प्राचा १, ६, १, १)। पाणाम पुं [प्राण] निःश्वास (भग)। पाढिअवंत देखो पाढाविअवंत (प्राकृ ६१)। नाह पुं [°नाथ] प्राणनाथ, पति, स्वामी | पाणामा स्त्री [प्राणामी] दीक्षा-विशेष (भग पाढिआस्त्री [पाठिका] पड़नेवाली स्त्री (कप्पू)। (रंभा)। प्पिया स्त्री [प्रिया] स्त्री, पत्नी पाढिउ । वि[पाठयित] प्रध्यापक, पढ़ाने(सुर १, १०८)। वह पु [वध] हिसा पाणाली स्त्री [दे] दो हाथों का प्रहार (दे ६, पाढिर । वाला (प्राकृ ६१)। (पएह १, १) । 'वित्ति स्त्री [वृत्ति] पाढीण पुं [पाठीन] मत्स्य-विशेष, 'पोठिया' जीवन-निर्वाह (महा)। सम पुं[सम पाणि पुं [प्राणिन] जीव, प्रात्मा, चेतन मछली, मत्स्य की एक जाति (गा ४१४. विक्र पति, स्वामी (पान)। सुहुम न [सूक्ष्म] (आचाः प्रासू १३६; १४४)। ३२)। सूक्ष्म जन्तु (कप्प) । हिय वि [ हृत् ] पाढोआमास पुं[पृथगामर्श] बारहवें अंग- प्राण-नाशक (रंभा)। इंत वि [°वत् ] पाणि पुं[पाणि] हस्त, हाथ (कुमाः स्वप्न ग्रंथ का एक भाग (गादि २३५) । प्राणवाला प्राणी (प्राप्र)। इवाइया स्त्री ५३; ६०)। गहण देखो 'ग्गहण (भवि) । [तिपातिकी] क्रिया-विशेष, हिंसा से होनेपाण सक [प्र + आनय ] जिलाना। वकृ. । 'गह पुं [ग्रह] विवाह (सुपा ३७३; धर्मवि वाला कर्म-बन्ध (नव १७) । पाणअंत (नाट-मालती ५)। १२३)। ग्गहण न [प्रण] विवाह, इवाय पुं [तिपात ] हिंसा (उवा)। उ पुन शादी (विपा १, स्वप्न ६३; भवि)। पाण पुंस्त्री [दे] श्वपच, चण्डाल (दे ६, ३८ [आयुस् ] ग्रन्यांश-विशेष, बारहवाँ पूर्व (सम पाणिअ न [पानीय] पानी, जल (हे १, उप पृ १५४० महा: पान ठा ४,४; वव २५, २६) । पाण, पाणु पुन [पान] १)। श्री. णी (सुख ६, १; महा)। उडी १०१ प्राप्र पण्ह १, ३; कुमा)। धारिया उच्छ्वास और निःश्वास (धर्मसं १०८ स्त्री [धरिका] पनिहारीः 'जियसत्तुस्स रएणो स्त्री [°कुटी] चाण्डाल की झोंपड़ी (गा ६८) । याम पुं [ीयाम] योगाङ्ग२२७) । 'विलया स्त्री [वनिता] चाण्डाली पारिणयघ(? ध)रिय सद्दावेई (णाया १, (उप ७६८ टी)। डिंबर पुं[डम्बर] विशेष-रेचक, कुम्भक १२–पत्र १७५)। हारी स्त्री [हारी] और पूरक नामक प्राणों को दमने का उपाय (गउड)। यक्ष-विशेष (वव ७)। हिवइ पुं [धि पनिहारी (दे ६, ५६; भवि)। देखो पाणी। पति चाण्डाल-नायक (महा)। पाणंतकर वि [प्राणान्तकर] प्राण-नाशक पाणिणि पुं[पाणिनि] एक प्रसिद्ध व्याकरण(सुपा ६१४)। कार ऋषि (हे २, १४७)। पाण न [पान] १ पीना, पीने की क्रिया (सुर पाणंतिय वि [प्राणान्तिक] प्राण-नाशवाला, पाणिणीअ वि [पाणिनीय] पाणिनि-संबन्धी, ३, १०)। २ पीने की चीज, पानी मादि 'पाणंतियावई पहु!' (सुपा ४५२)। पाणिनि का (हे २, १४७)। (सुज २० टी; पडि; महा; प्राचा)। ३ पुं. पाणग पुन [पानक] १ पेय-द्रव्य-विशेष गुच्छ-विशेष, ‘सणपाणकासमद्दगप्रग्घाडगसा पाणी देखो पाण = (द)। (पंचभा १; सुज २० टी; कप्प)। २ मसिंदुवारे य (पएण १)। पत्त न [ पात्र] पाणी स्त्री [पानी] वल्लो-विशेष, 'पाणी सामावि. पान करनेवाला (?); 'ण पारणगो जं । पीने का भोजन, प्याला (द) गार न वल्ली गुंजावल्ली य वत्थाणी' (पएण १-पत्र ततो प्रगणो' (धर्मसं ८२७८)। [गार] मद्य-गृह (णाया १, २, महा)। हार पुं[हार] एकाशन तप (संबोध पाणद्धि स्त्री [दे] रथ्या, मुहल्ला (दे ६, ३९)।पणीअ देखो पाणिअ (हे १, १०१, प्रासू पाणम अक [प्र+ अण] निःश्वास लेनाः १०५)। धरी स्त्री [धरी] पनिहारी (णाया पाण पुन [प्राण] १ जीवन के प्राधार-भूत ये नीचे सांसना । पारणमंति (सम २: भग)। १, १ टी-पत्र ४३)। दश पदार्थ-पांच इन्द्रियाँ, मन, वचन और पाणय न [पानक] देखो पाण = पान (विसे पाणु पुन [प्राण] १ प्राण वायु । २ श्वासोशरीर का बल, उच्छ्वास तथा निःश्वास (जी २५७८) । च्छ्वास (कम्म ५, ४०; प्रौप, कप्प)। ३ २६, परण १; महा ठा १६)।२ समय- पाणय पुं[प्राणत] स्वर्ग-विशेष, दसवाँ देव- समय-परिमाण-विशेष, 'एगे ऊसासनीसासे एस परिमारण विशेष, उच्छवास-नि श्वास-परिमित लोक (सम ३७; भगः कप्प)। २ विमानेन्द्रक, पारगत्ति वुच्चइ। सत्त पागूरिण से थोवें काल (इक मण)। ३ जन्तु, प्राणी, जीक देवविमान-विशेष (देवेन्द्र १३५)। ३ प्राणत (तंदु ३२)। For Personal & Private Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ पाइअसहमहण्णवो पात-पाय पात ! देखो पाय = पात्र (सून १, ४, २; पामा स्त्री [पामा] रोग-विशेष, खुजली, खाज | कंबल पुन [°कम्बल] पैर पोंछने का वस्त्रपाद पिएह २, ५-पत्र १४८) । बंधण न (सुपा २२७)। खण्ड (उत्त १७, ७)। कुक्कुड पुं [बन्धन] पात्र बाँधने का वस्त्र-खण्ड, जैन- पामाड पु [पद्माट] पमाड़, पमार, पवाड, [कुक्कुट कुक्कुट-विशेष (गाया १,१७ मुनि का एक उपकरण (परह २, ५)। चकवड़, वृक्ष-विशेष (पास)। टी-पत्र २३०)। घाय पुं[घात चरणपाद देखो पाय = पाद (विपा १, ३)। °सम पामिश्च सक [दे] उधार लेना। पामिच्चेज प्रहार (पिंग)। चार [चार] पैर से वि ["सम गेय-विशेष (ठा ७-पत्र | (प्राचा २, २, २, ३)। गमन (णाया १,१) । चारिवि ['चारिन्] ३६४)। ढपय न [ौष्ठपद दृष्टिवाद पामिश्च न [दे. अपमित्य] १ घार लेना, पैर से यातायात करनेवाला, पाद-विहारी नामक बारहवें जैन आगम-ग्रन्थ का एक वापस देने का वादा कर ग्रहण करना । २ (पउम ६१, १६)। जाल, जालग न प्रतिपाद्य विषय (सम १२८)। वि. जो उधार लिया जाय वह (पिंड १२; [जाल, क] पैर का प्राभूषण-विशेष (प्रौप; पादु देखो पाउ =प्रादुस् । पादुरेसए (पि ३१६; पाचा ठा ३, ४, ६; प्रौपः परह २, अजि ३१; पएह २,५)। त्ताण न [त्राण] ३४१) । पादुरकासि (सूम १, २, २, ७)। । ५; पव १२५; पंचा १३, ५, सुपा ६४३)। जूता, पगरखी (दे १, ३३)। पलंब पुं पादो देखो पाओ = प्रातस् (सुज १, ६)। पामिञ्चिय वि [दे] उधार लिया हुआ (पाचा | [प्रलम्ब] पैर तक लटकनेवाला एक प्राभूपादोसिय वि [प्रादोषिक] प्रदोष-काल का, १, १०, १)। षण पाया १,१-पत्र ५३)। पीढ देखो पामुक्त वि [प्रमुक्त] परित्यक्त (पान, स वीढ (णाया १, १; महा)। पुंछण न प्रदोष-संबन्धी (ोध ६५८)। ६५७)। [प्रोञ्छन] रजोहरण, जैन साधु का एक पादव देखो पायव (गा ५३७ अ)। पामूल न [पादमूल] पैर का मूल भाग, पाँव उपकरण (प्राचा; अोघ ५११, ७०६; भग, पाधन्न देखो पाहन्न (धर्मसं ७८६)। का अग्न भाग (पउम ३, ६, सुर ८, १६६ उवा)। पडण न [°पतन पैर पर गिरना, पाधार सक [स्वा+ गम् , पाद + धारय ] पिंड ३२८) । देखो पायमूल = पादमूल।। प्रणाम-विशेष (पउम ६३, १८)। मूल न पधारना, 'पाधारह निमगेहे' (श्रा १६)। पामोक्ख देखो पमुह = प्रमुख (पाया १,५; पाबद्ध वि [प्राबद्ध] विशेष बँधा हुआ, [मूल] १ देखो पामूल (कस) । २ मनुष्यों ८ महा)। की एक साधारण जाति, नतंकों की एक पाशित (निचू १६)। पातिः 'समागयाइं पायमूलाई', 'पुलइजमाणो पाभाइय वि प्राभातिक] प्रभात- पामोक्ख पुं [प्रमोक्ष मुक्ति, छुटकारा (उप पाभातिय पायमूलेहि पत्तो रहसमोवे', 'पणच्चियाई ६४८ टी)। संबन्धी (ोघभा ३११; अनु पायमूलाई', 'सद्दावियाई पायमूलाई', 'पणपाय पुं[दे] १ रथ-चक्र, रथ का पहिया (दे। ६) धर्मवि ५८)। ६, ३७) । २ फणी, साँप (षड्)। चंतेहि पायमलेहि' (स ७२१:७२२,७३४)। पाम सक [प्र+ आप] प्राप्त करना, 'लेहणिआ स्त्री [ लेखनिका] पैर पोंछने गुजराती में 'पामवु"। पाय पुंपाक] १ पाचन-क्रिया। २ रसोई । (प्राकृ १६७ उप ७२८ टी)। 'कारावेइ पडिमं जिणाण जिअरोगदोसमोहाणं। का जैन साधु का एक काष्ठमय उपकरण सो अनभवे पामइ भवमलणं धम्मवररयणं ।' पाय वि [पाक्य पाक-पोग्य (दस ७, २२)। (ोघ ३६)। वंदय वि [°वन्दक] पैर पर (रयण १२)। कर्म. पामिजइ (सम्मत्त पाय देखो पाव (चंड)। गिरकर प्रणाम करनेवाला (णाया १, १३) । वडण न [पतन] पैर पर गिरना, प्रणामपाय [पात] १ पतन (पंचा २, २५, से पामण्ण न [प्रामाण्य] प्रमाणता, प्रमाणपन विशेष (हे १, २७०० कुमाः सुर २, १०६) । १, १६) । २ संबन्धः 'पुणो पुणो तरलदिट्ठि 'वडिया स्त्री [वृत्ति पाद-पतन, पैर छूना, (धर्मसं ७५)। पाएहि' (सुर ३, १३८)। पामदा स्त्री [दे] दोनों पैर से धान्य-मर्दन (दे पाय पू[पाय] पान, पीने की क्रिया (श्रा प्रणाम-विशेष; 'पायवडियाए खेमकुसलं पुच्छंति' (गाया १, २, सुपा २५) । "विहार २३)। पामन्न देखो पामण्ण (विसे १४६६; चेइय पाय पुं[पाद] १ गमन, गति (श्रा २३)। [विहार] पैर से गति (भग)। वीढ १२४)। २ पैर, चरण, पाव; 'चलणा कमा य पाया' न [पाठ] पैर रखने का प्रासन (हे १, पामर पुं[पामर] कृषोबल, कर्षक, खेती का (पात्रः णाया १,१)। ३ पद्य का चौथा २७०; कुमा; सुपा ६८)। सीसग न काम करनेवाला गृहस्थ, 'पामरगहवइसेप्राण- हिस्सा (हे ३, १३४; पिंग)। ४ किरण; [शीर्षक ] पैर के ऊपर का भाग (राय) । कासया दोण्या हलिया' (पामः वजा १३४ 'अंसू रस्सी पाया' (पान, अजि २८)। ५ उलअ न [कुलक] छन्द-विशेष (पिंग)। गउड; दे ६,४१, सुर १६, ५३)। २ हलकी सानु, पर्वत का कटक (पास)। ६ एकाशन पाय देखो पत्त = पात्र (प्राचा; औप; प्रोधमा जाति का मनुष्य (कप्पू: गा २३८)। ३ मूर्ख तप (संबोध ५८)। ७ छः अंगुलों का एक ३६; १७४)। केसरिआ स्त्री [ केसरिका] बेवकूफ, अज्ञानी (गा १६४); 'को नाम नाप (इक)। कंचणिया स्त्री [ काचनिका] जैन साधुमों का एक उपकरण, पात्र-प्रमार्जन पामर मुत्तं वच्चा दुद्दमकद्दमे (श्रा १२)। । पैर प्रक्षालन का एक सुवर्ण पात्र (राज)। का कपड़ा (मोघ ६६८ विसे २५५२ टी)। For Personal & Private Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाय-पार पाइअसद्दमण्णवो ५८९ 'ट्रवण, "ठवण न [ स्थापन] जैन मुनियों पायड न [दे] अंगण, माँगन (द६, ४०)। समुद्र के मध्य में स्थित कलशाकार वस्तु का एक उपकरण, पात्र रखने का वन-खण्ड पायड देखो पागड =प्रकट (हे १, ४४, (अणु)। "पुर न [पुर नगर-विशेष (पउम (विसे २५५२ टी; मोघ ६६८)। "णिजोग, प्रातः प्रोघ ७३; जी २२, प्रासू ६४)। ४५, ३६)। मंदिर न [ मन्दिर] पाताल'निज्जोग पु[निर्योग जैन साधु का यह पायड देखो पागड = प्राकृतः 'अहंपि दाव | स्थित गृह (महा)। हर न [गृह] वही उपकरण-समूह-पात्र, पात्रबन्ध, पात्रस्थापन, दिप्रसे परं परिभमिन प्रलद्धभोमा पान अर्थ (महा)। पात्रकेशरिका, पटल, रजबाण और गुच्छक डगणिया विन रत्ति पस्सदो सइदुं प्रापच्छामि' पायाल न [पाददल] पादात्य सैन्य, पैदल (पिंड २६; बृह ३; विसे २५५२ टी)। (अवि २६)। सैनिक (चउप्पन्न पत्र. १८५)। 'पडिमा स्त्री [प्रतिमा] पात्र-संबन्धी पायड वि [प्रावृत पाच्छादित (विसे २५७६ पायालकारपुर म [पाताललकापुर] पातालअभिग्रह-प्रतिज्ञा-विशेष (ठा ४, ३)। देखो | टी)। लंका, रावण की राजधानी; 'पायालंकारपुर पाद = पात्र । पायडिअ वि[प्रकटित] व्यक्त किया हुमा | सिग्धं पत्ता भउन्विग्गा' (पउस ६, २०१)। पाय (अप) देखो पत्त = प्राप्त (पिंग)। (कुप्र ४; से १, ५३; गा १९६; २६०; | पायावञ्च न [प्राजापत्य] अहोरात्र का चौदपाय अ [प्रायस् ] प्रायः, बहुत करके गउड; स ४६८)। हवा मुहूर्त (सम ५१)। 'पायप्पारणं वणेइ त्ति' (पिंड ४४३)। पायडिल्ल वि [प्रकट] खुला (वज्जा १०८)। पायाविय वि [पायित] पिलाया हुमा (पउम "पाय पुं. ब. [पाद] पूज्य, 'सथुना प्राजन पायण न [पायन] पिलाना, पान कराना ११, ४१) । संतिपायया' (प्रजि ३४)। (णाया १, ७)। . पायाहिण न [प्रादक्षिण्य १ वैटन (पव पायए देखो पा = पा। पायत्त न [पादात] पदाति-समूह, प्यादों का ६१)। २ दक्षिण की मोर; 'पायाहिणेण पापं देखो पाय (स ७६१; सुपा २८, ५६६; लश्कर (उत्त १८, २; प्रौपः कप्प)। "णिय तिहि पंतिप्राहि झाएह लद्धिपए' (सिरि श्रावक ७३)। न [नीक] पदाति सैन्य (पि ८०)। १९६)। पायं प्र[प्रातस् ] प्रभात (सूम १, ७, पायपुंछण न [पादपुञ्छन] पात्र-विशेष, पायाहिणा देखो पयाहिणाः 'पायाहिणं शराव, सकोरा। ___ करितो' (उत्त ६, ५६, सुख ६,५९)। पायंगुट्ठ पुं [पादाङ्गुष्ठ] पैर का अंगूठा पायप्पहण पुं [दे] कुक्कुट, मुर्गा (दे ६, पार प्रक[शक ] सकना, करने में समर्थ (णाया १, ८)। ४५)। पायंजलि [पातञ्जल] पतञ्जलिकृत शास्त्र, होना । पारइ, पारेइ (हे ४, ८६; पान)। पातल योग-सूत्र (गदि १९४)। पायय न [पातक] पाप (अच्चु ४३)। वकृ. पारंत (कुमा)। पायय देखो पाव = पाप (पान)। पायंत न [पादान्त गीत का एक भेद, पाद पार सक [पारय् ] पार पहुँचना, पूर्ण पायय देखो पागय (हे १, ६७)। वृद्धगीत (राय ५४)। करना। पारेइ (हे ४, ८६; पात्र) हेकृ. पायय देखो पायव (से ६, ७)। पारित्तए (भग १२, १)। पायंदुय पुं [पादान्दुक] पैर बाँधने का पायय देखो पावय = पावक (अभि १२५)। काष्ठमय उपकरण (विपा १, ६-पत्र ६६)। पावय देखो पाय = पाद (कप्प)। पार पुंन [पार] १ तट, किनारा (भाचा)। २ पर्ला, किनाराः 'परतीरं पारं' (पाप), पायक देखो पायय = पातक (वव १)। पायरास [प्रातराश] प्रातःकाल का भोजन, 'किह म्ह होही भवजलहिपारं' (निसा ५)। पायक्क देखो पाइक्क (सम्मत्त १७६) । जलपान, जलखवा (प्राचा; गाया १.८)। पायल न [दे] चक्षु, पाँख (दे ६, ३८)। ३ परलोक, मागामी जन्म । ४ मनुष्य-लोकपायक्खिण्ण न [प्रादक्षिण्य] प्रदक्षिणा भिन्न नरक आदि (सूत्र १, ६, २८)। ५ (पउम ३२, ६२)। पायव [पादप] वृक्ष, पेड़ (पान)। मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण; 'पारं पुणगुत्तरं बुहा पायव्व देखो पा = पा। पायग न [पातक] पाप (श्रावक २४८)। बिति' (बृह ४) । ग वि [ग] पार जानेपायस पुंन [पायस दूध का मिष्टान्न, खीर पायच्छित्त पुंन [प्रायश्चित्त] पाप-नाशन पायसो खीरी' (पान सुपा ४३८)। वाला (प्रौपा सुपा २५४)। गय वि [गत] कर्म, पाप-क्षय करनेवाला कर्म; 'पारंचियो १ पार-प्राप्त (भगः मौप)। २ पुं. जिन-देव, पायसो प्र [प्रायशस] प्रायः, बहुत कर नाम पायच्छित्तो संवुत्तो' (सम्मत्त १४४, भगवान् महन (उप १३२ टी)। 'गामि वि (उप ४४६; पंचा ३, २७)। उवा औप; नव २६)। [गामिन् ] पर पहुँचनेवाला (प्राचा कप्प; पायड देखो पागड =प्र+ कटय । पायडइ __पायार पुं [प्राकार] किला, कोट, दुर्ग (पामः प्रौप) । पाणग न ["पानक] पेय द्रव्य(भवि)। वकृ. पायर्डत (सुपा २५६)। हे १, २६८ कुमा)। विशेष (णाया १, १७) "विउ वि ["विद्] कवकृ. पायडिजंत (गा ६८५)। हेकृ. पायाल न [पाताल] रसा-तल, अधो भुवन पार को जाननेवाला (सूम २,१, ६०)। पायडिउं (कुप्र १)। . (हे १,१८० पाम)। कलश पुं[कलश] भोय वि [भोग] पार-प्रापक (कप्प)। For Personal & Private Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० पाइअसहमहण्णवो पार-पारावय पार देखो पायार (हे १, २६८ कुमा)। पारतंत न [पारतन्त्र्य परतन्त्रता, पराधीनता पारय न [दे] सुरा-भाण्ड, दारू रखने का पारंक न [दे] मदिरा नापने का पात्र (दे (उप २५२, पंचा ६, ४१; ११, ७)। पात्र (दे ६,३८)। पारत्त अ [परत्र] परलोक में, आगामी जन्म | पारय देखो पार-ग (कप्प; भग; अंत)। पारंगम वि [पारगम] १ पार जानेवाला । में 'पारत्त बिइज्जमो धम्मो' (पउम ५, पारय पुं [प्रावारक]१ पट, वस्त्र । २ वि. २ पार-गमन (आचा)। प्राच्छादक (हे १, २७१; कुमा)। पारंगय वि [पारंगत] पार-प्राप्त (कुप्र २१)। पारत्त वि [पारत्र, पारत्रिक] पारलौकिक, पारंचि वि [ पाराश्चि ] सर्वोत्कृष्ट-दशम पारलोइअ वि[पारलौकिक] परलोक-संबन्धी, आगामी जन्म से संबन्ध रखनेवाला: 'इत्तो प्रायश्चित्त करनेवाला, 'पारंचीणं दोरहवि' पागामो जन्म से संबन्ध रखनेवाला (पएह १, पारत्तहियं ता कीरउ देव ! वंकचूलिस्स' (बृह ४)। ३, ४) सूप २, ७, २३; कुप्र ३८१, सुपा (धर्मवि ६०; ओघ ६२; स २४६)। ४६१)। पारंचिय न [पाराश्चिक] १ सर्वोत्कृष्ट प्राय पारत्ति स्त्री [दे] कुसुम-विशेष (गउड; श्चित्त, तप-विशेष से अतिचारों की पार पारवस्स न पारवश्य] परवशता, पराधीनता कुमा)। प्राप्ति (ठा ३, ४–पत्र १६२औप)। २ (रयण ८१)। पारत्तिय वि [पारत्रिक] देखो पारत्त = वि. सर्वोत्कृष्ट प्रायश्चित्त करनेवाला (ठा पारस पुं [पारस] १ अनायं देश-विशेष, पारत्र (स ७०७)। फारस देश, ईरान (इक)। २ मरिण-विशेष, पारदारिय वि [पारदारिक] परस्त्री-लम्पट पारंचिय [पाराश्चित ] ऊपर देखो (कसः जिसके स्पर्श से लोहा सुवर्ण हो जाता है (णाया १, १८-पत्र २३६)। बृह ४)। (संबोध ५३)। ३ पारस देश में रहनेवाली पारंपज्ज न [पारम्पर्य परम्परा (रंभा १५)। पारद्ध वि [प्रारब्ध] १ जिसका प्रारम्भ किया मनुष्य-जाति (पएह १,१) । उल न [°कुल पारंपर ( [दे] राक्षस (दे ६, ४४)। गया हो वह पारद्धा य विवाहनिमित्तं सयला १ ईरान देश भरिऊण भंडस्स वहणाई पत्तो पारंपर न [पारम्पर्य परम्परा (पउम सामग्गो' (महा)। २ जो प्रारम्भ करने लगा पारसउलं', 'इनो य सो अयलो पारसउले पारंपरिय। २१, ८०, पारा १६; धर्मसं | हो वहः 'तप्रो अवरएहसमए पारद्धो नच्चि' विढविय बहुयं दब्ब' (महा)। २ वि. पारस १११८; १३१७); 'पायरियपारंपये (? रिए) (महा)। देश का, ईरान का निवासी; 'मागह्यपारसउला ण भागय (सूअनि १२७–पृष्ठ ४८७)। पारद्ध न [दे] पूर्व-कृत कर्म का परिणाम, कालिंगा सीहला य तहा' (पउम ६६, ५५)। पारंपरिय वि [पारम्परिक] परंपरा से चला प्रारब्ध । २ वि. आखेटक, शिकारी। ३ कूल न [कूल] ईरान का किनारा, ईरान प्राता (उप ७२८ टी)। पीड़ित (दे ६,७७)। देश की सीमा (प्रावम)। पारंभ सक [प्रा + रभ ] १ प्रारम्भ करना, पारद्धि स्त्री [पापद्धि] शिकार, मृगया (हे १, पारसिय वि [पारसिक] फारस देश का, शुरू करना। २ हिंसा करना, मारना। ३ २३५, कुमाः उप पृ २५७, सुपा २१६)। 'सहसा पारसियसुग्रो समागमो रायपयमूले', पीड़ा करना । पारंभेमि (कुप्र ७०)। कवकृ. पारद्धि वि [पापर्द्धिक शिकारी, शिकार 'पारसियकीरमिहुणं' (सुपा २६७; ३६०)। 'तराहाए पारज्झमाणा' (मौप)। पारसी स्त्री [पारसी] १ पारस देश को स्त्री करनेवाला, गुजराती में 'पारधी 'मयणमहा- (प्रौप णाया १,१-पत्र ३७, इक)। २ पारंभ पुं[प्रारम्भ] शुरू, उपक्रम (विसे । पारद्धियनिसायबाणावलीविद्धा' (सुपा ७१; लिपि-विशेष, फारसी लिपि (विसे ४६४ टी)। १०२०० पव १९६)। मोह ७६)। पारंभिय वि [प्रारब्ध] प्रारब्ध, उपक्रान्त पारमिया स्त्री [पारमिता] बौद्ध-शास्त्र-परि पारसीअ वि [पारसीक] फारस देश का निवासी (गउड)। (धर्मवि १४४; सुर २, ७७, १२, १५६; भाषित प्राणातिपात-विरमणादि शिक्षा-व्रत, पाराई श्रीदे] लोह-कुशी-विशेष, लोहे की सुपा ५५)। अहिसा आदि व्रत (धर्मसं ९८८)। दंडाकार छोटी वस्तु; 'चडवेलावज्झपट्टपाराई पारकेर वि पिरकीय पर का, अन्यदीय पारम्म न [पारम्य] परमता, उत्कृष्टता (प्रज्झ (? ६)छिवकसलयवरत्तनेत्तप्पहारसयतालियंपारक (हे १, ४४२१४८ कुमा)। ११४)। गमंगा' (पएह २, ३)। पारक्किम देखो पारक्क (माल १६२)। पारय वि [पारग] समर्थ (पाचा २, ३, पाराय देखो पारावय (प्राप्र)। पारज्झमाण देखो पारंभ =प्रा + रभ् । २, ३)। पारायण न [पारायण] १ पार-प्राप्ति (विसे पारण न [पारण, क] व्रत के दूसरे दिन | पारय पुं[पारद] धातु-विशेष, पारा, रस ५६५) । २ पुराण-पाठ-विशेष; 'प्रधी पारणग का भोजन, तप की समाप्ति के अनन्तर | धातु । 'मद्दण न [ मर्दन] आयुर्वेद-विहित (? य )समत्तपरायणो साखापारमो जामो' पारणय का भोजन (सणः उवाः महा)। रीति से पारा का मारण, रसायन-विशेष (सुख २, १३)। पारणा स्त्री [पारणा] ऊपर देखो। 'इत्त वि | 'अंग-कढिरणयाहेउं च सेवंति पारयमद्दणं' (स पारावय देखो पारेवय (पाम; प्रातः गा [वत् ] पारणवाला (पंचा १२, ३५), । २८९) । २ वि. पार-प्रापक (श्रु १०६)। । ६४ कप्प ५६ टि)। For Personal & Private Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारावर - पाल पारावर पुं [दे] गवाक्ष, वातायन (दे ६, ४३) । पारावार [पारावार] समुद्र सागर ( पान कु ३७० ) । पाराविवि [पारित] जिसको पार कराया गया हो वह (कुप्र २१२ ) । पारासर [पाराशर ] १ ऋषि - विशेष (सूच १, ३, ४, ३) । २ न. गोत्र विशेष, जो वशिष्ठ गोत्र की एक शाखा है । ३ वि. उस गोत्र में उत्पन्न (ठा ७–पत्र ३६० ) । ४ पुं. भिक्षुक । ५ कर्म-ध्यागी संन्यासी; 'अंतेवि पारासरा श्रत्थि ' ( सुख २, ३१) । पारिओसिय वि [ पारितोषिक ] तुष्टि-जनक दान, प्रसन्नता सूचक दान, पुरस्कार ( सम्मत्त १२२; स १९३; सुर १६, १८२० विचार १७१) । पारिच्छा देखो परिच्छा; 'वयपरिणामे चिंता गिहं समप्पेमि तासि पारिच्छा' (उप १७३ उप २७५)। पारिच्छेज देखो परिच्छेज (गाया १, ८-पत्र १३२) । पारिजाय देखो पारिय= पारिजात (कुमा) । परिद्वावणिया स्त्री [पारिष्टापनि की] समिति - विशेष, मल आदि के उत्सर्गं में सम्यक प्रवृत्ति (सम १०; श्रौपः कप्प ) । पारिडि स्त्री [प्रावृति] प्रावरण, वस्त्र, कपड़ा ‘विक्किणइ माहमासम्मि पामरो पार्सिड बइलेण' (गा २३८ ) । पारिणामिअ देखो परिणामिअ पारिणामिक (अ) कम्म ४, ६९ ) । पारिणामिआ ? देखो परिणामिआ ( भाव पारिणामिगी । १ गाया १, १ - पत्र ११ ) 1 पारितावणिया स्त्री [पारितापनिकी] दूसरे को परिताप - दुःख उपजाने से होनेवाला -बन्ध (सम १० ) । पारिप्प १, १ – पत्र ८ ) । पाइअसद्दमहणव पारिभद्द पुं [पारिभद्र ] वृक्ष- विशेष, फरहद का पेड़ (कप्पू) । पारियवि [पारित ] पूर्ण किया हुआ ( रयण (१६) । पारिय पुं [ पारिजात] १ देव-वृक्ष - विशेष, कल्प- तरु- विशेष । २ फरहद का पेड़ 'कप्पूरपारियाग य श्रहिमयरो मालईगंधो' (कुमा ५, १३) । ३ न. पुष्प विशेष फरहद का फूल जो रक्त वर्णं का और प्रत्यत्त शोभायमान होता है; 'सुहिए ण विढप्प पारिच्छि सुंडीरहं खंडइ वसइ लच्छि' (भवि ) । पारियत्त पुं [पारियात्र ] देश-दिशेष, 'परभतो पत्तो पारियत्तविसयं' ( कुप्र ३६६ ) । पारिव्वज न [ पारिव्राज्य ] संन्यासिन, संन्यास (पउम ८२ २४) । पारिव्वाई स्त्री [पारिव्राजी, परिव्राजिका ] संन्यासिनी (उप २७९ ) । पारिव्वाय वि [पारिव्राज] संन्यासि-संबन्धी (राज) । पारिसज्ज वि [पारिषद्य ] सभ्य, सभासद ( धर्मवि ९ ) । पारिसाडणिया स्त्री [पारिशाटनिकी ] परि शाटन - परित्याग से होनेवाला कर्म-बन्ध ( भाव ४) । पारितावणी स्त्री [पारितापनी ] ऊपर देखो पारिहच्छी स्त्री [दे] माला (दे ६, ४२ ) । ( नव १७ ) । परिहट्टी स्त्री [दे] १ प्रतिहारी । २ श्राकृष्टि, पारितोसिअ देखो पारिओसिय (नाटः सुपा करण । ३ चिर-प्रसूता महिषी, बहुत देर २७ प्रामा) । से ब्यायी हुई भैंस (दे ६, ७२) । पारित देखो पारत्त = परत्रः 'पारित बिइजो पारिहत्थिय वि [ पारिहस्तिक ] स्वभाव से पाल पुंन [पाल] प्राभूषण-विशेष, 'मुवि वा धम्मो ' ( तंदु ५६) । निपुण (ठा - पत्र ४५१) । [पारिप्लव ] पक्षि- विशेष (पराह पारिहारिय वि [पारिहारिक ] तपस्वी - विशेष, परिहार नामक व्रत करनेवाला ( कस) । पालं वा तिसरयं वा कडिसुत्तगं वा' (श्रौष) । २ वि. पालक, पालन- कर्ता; 'जो सयलसिंधुसारो पालु' (भवि)। स्त्री. ला (वय ४) । ५९१ पारिहासय न [पारिहासक ] कुल-विशेष, जैन मुनियों के एक कुल का नाम (कप्प ) । पारी स्त्री [दे] दोहन भाण्ड, जिसमें दोहन किया जाता है वह पात्र विशेष (दै ६, ३७; गड ५७७)। पारीण वि [पारीण] पार प्राप्त, 'धीवरसत्याण पाणो' (वि १३ सिरि ४८९ सम्मत्त ७५ ) । पारुअग्ग पुं [दे] विश्राम (दे ६, ४४) । पारुअल पुं [दे] पृथुक, चिउड़ा (दे ६, ४४) । पारुसिय देखो फारुसिय ( आचा १, ६, ४, १ टि) । पारुल वि [दे] मालीकृत, श्रेणी रूप से स्थापितः 'पालीबंधं च पारुहल्लोम्मिं' (दे ६, ४५)। पारेवई स्त्री [पारापती] कबूतरी, कबूतर की मादा ( विपा १, ३) । पारियल न [दे. परिवर्त] पहिए के पृष्ठ भाग की बाह्य परिधि (दि ४३) । पारियाय देखो पारिय = पारिजात (सुपा ७६ से ६, ५८; महाः स ७५६ ) । पारियावणिया देखो पारितावणिया (ठा २, पारेवय पुं [पारापत] १ पक्षि-विशेष, कबूतर १ - पत्र ३९ ) । (हे १८० कुमा; सुपा ३२८ ) । २ वृक्षविशेष । ३ न. फल- विशेष ( परण १७ ) । पारोक्ख वि [ पारोक्ष ] परोक्ष-विषयक, परोक्ष-संबन्धी (धर्मंसं ५०२ ) । पारोह देखो परोह (हे १, ४४; गा ५७५३ गउड) । पारियावणिया देखो पारियावणिया (स _५५१) । पारियासिय वि [पारिवासित] बासी रखा (स) । पारोहि वि [ प्ररोहिन् ] प्ररोहवाला, अंकुरवाला (गड) | पाल सक [ पालय् ] पालन करना, रक्षण करना । पालेइ (भग; महा) । वकृ. पालयंत, पालंत, पालिंत, पालेमाण (सुर २, ७१; ४१; महाः श्रपः कप्प ) । संकृ. पालइत्ता, पालित्ता, पालेऊण (कप्पः मही); पालेवि (अप) (हे ४, ४४१) । कृ. पालियव्व, पालेयव्व (सुपा ४३५; ३७६; महा) । पाल देखो पार = पारय् । संकृ. पालइत्ता (कप्प) । पाल पुं [दे] १ कलवार, शराब बेचनेवाला । २ वि. जीएं, फटा-टूटा (दे ६, ७५) । For Personal & Private Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ पाइअसद्दमहण्णवो पालंक-पावरअ पालंक न [पालक्य ] तरकारी-विशेष, पालित्त पुं [पादलित] एक प्रसिद्ध जैनाचार्य दुष्ट स्वप्न (कप्प)। सुय न ["श्रुत] दुष्ट पालक का शाक (बृह १)। (पिंड ४६८; कुप्र १७८)। शास्त्र (ठा ६)। पालंगा श्री [पालक्या ] ऊपर देखो (उवा)। | पालित्ताण न [पादलिप्तीय सौराष्ट्र देश का | पाव दे] सर्प, साँप (दे६, ३८) । पालत देखो पाल = पालय । एक प्राचीन नगर, जो आजकल भी पाव (अप) देखो पत्त - प्राप्त (पिंग)। पालंब पुं [प्रालम्ब] १ अवलम्बन, सहाराः 'पालिताणा' नाम से प्रसिद्ध है (कुप्र १७६)। 'पावइ तडविडविपालब' (सुपा ६३५)। २ पालित्तिआ स्त्री [दे] १ राजधानी । २ मूल पावंस वि [पापीयस् ] पापी, कुकर्मी (ठा गले का प्राभूषण-विशेष (प्रौपः कप्प)। ३ | नीवी । ३ भण्डार, निधि । ४ भंगौ, प्रकार ४, ४-पत्र २६५)। दीर्घ, लम्बा (प्रौपः राय)। ४ पुंन. ध्वजा । (कप्पू)। पावक्खालय न [दे. पापक्षालक] देखो के नीचे लटकता वस्त्राञ्चल, 'पोऊलं पालंब' | पालिय वि [पालित] रक्षित (ठा १०; महा)। पाउक्खालय (स ७४१)। (पा)। पालियाय देखो पारिय = पारिजात (राय पावग वि [पावक] १ पवित्र करनेवाला पालका स्त्री [पालक्या देखो पालंगाः ३०)। (राज)। पुं. अग्नि, वह्नि (सुपा १४२)। 'वत्थुलपोरगमज्जारपोइवल्ली य पालक्का' पाली स्त्री [पाली] पंक्ति, श्रेणि (गउड)। पावग वि [प्रापक पहुँचानेवाला (सुपा (पएण १-पत्र ३४)। देखो पालि। पालग देखो पालय (कप्पः प्रौप; विसे पाली स्त्री [दे] दिशा (दे ६, ३७)। पावग देखो पाव = पाप (प्राचा; धर्मसं ५४३)। २८५६ संति १; सुर ११, १०८)। पालण न [पालन] १ रक्षण (महा: प्रासू पालीबंध पुं[दे] तालाव, सरोवर (दे ६, | पावजा (अप) देखो पवजा (भवि) । पावडण देखो पाय-वडण= पाद-पतन (प्रायः ३)। २ वि. रक्षण-कर्ता; धम्मस्स पालणी पालीहम्म न [दे] वृति, बाड़ (दे ६, ४५) । चेव' (संबोध १६ सं ६७)। कुमा)। पालेव पुंपादलेप] पैर में किया हुआ लेप पालदुइ पु [दे] वृक्ष-विशेष ( उप | पावढि देखो पारद्धि (सिरि ११०८६ (पिंड ५०३)। १११०)। १०३१ टी)। पावण वि [पावन] पवित्र करनेवाला (मच्च पालप्प पुं[दे] १ प्रतिसार । २ वि. विप्लुत पाव सक [प्र + आप ] प्राप्त करना। पावइ (हे ४, २३६)। भवि. पाविहिसि ४७समु १५०)। पालय वि [पालक] रक्षक, रक्षण-कर्ता (सुपा (पि ५३१)। कर्म, पाविजइ (उव) । वकृ. पावण न [प्जावन] १ पानी का प्रवाह । पावंत, पावेंत (पिंग; पउम १४, ३७)। २७६; सार्ध १०)। २ पृ. सौधर्मेन्द्र का २ सराबोर करना (पिंड २४)। एक आभियौगिक देव (ठा ८)। ३ श्रीकृष्ण कवकृ. पावियंत, पावेजमाण (पएह १. पावण न [प्रापण] १ प्राप्ति, लाभ (सुर ४, का एक पुत्र (पव २)। ४ भगवान् महावीर १; अंत २०)। संकृ. पाविऊण (पि ५८६)। १११, उपपं ७)।२ योग की एक सिद्धिः के निर्वाण के दिन अभिषिक्त अवंती (उजैन) हेकृ. पत्तं, पावेउं (हास्य ११६; महा)। 'पावणसत्तीए छिवइ मेरुसिरमंगुलीए मुणी' का एक राजा (विचार ४६२)। ५ देव कृ.पावणिज्ज, पाविअव्व (सुर ६,१४२ (कुप्र २७७)। विमान-विशेष (सम २)। स ६८६)। पावद्धि देखो पारद्धि (धर्मवि १४८)। पाव देखो पव्वालप्लावय । पावेइ (हे ४, पावय देखो पाव = पाप (प्रासू ७५)। पालास [पालाश] पलाश-सम्बन्धी। २ ४१)। पावय वि [प्रावृत] माच्छादित, ढका हुआ न. पलाश वृक्ष का फल, किंशुक-फल (गउड)। पाव पुंन [पाप १ अशुभ कर्म-पुद्गल, कुकर्म | (सूम २, ७, ३)। पालि स्त्री [पालि] १ तालाव आदि का बन्ध (प्राचा, कुमाः ठा प्रासू २५); 'जम्मंतरकए पावय पुंन [दे] वाद्य-विशेष, गुजराती में (सुर १३, ३२, अंत १२ महा)। २ प्रान्त पावे पाणी मुहुत्तेण निदहे(गच्छ १,६)।२ | पावो (पउम ५७, २३)। भाग (गा ६४६)। देखो पाली = पाली। पापी, अधर्मी, कुकर्मी (पएह १, १, कुमा पावय देखो पावग = पावक (उप ७२८ टी; पालि स्त्री [दे] १ धान्य मापने को नाप । ७, ६)। कम्म न [कर्मन् अशुभ कर्म | कुप्र २८३, सुपा ४ पा) । २ पल्योपम, समय का सुदीर्घ परिमारण-विशेष (प्राचा)। कम्मि वि [कर्मिन् कुकर्म पावयण देखो पवयण (हे १, ४४; उवा (उत्त १८, २८ सुख १८, २८)। करनेवाला (ठा ७) । "दंड पु[ दण्ड] पाया १, १३)। पालिआ श्री [दे] खड्ग-मुष्टि, तलवार की नरकावास-विशेष (देवेन्द्र २९) । 'पगइ स्त्री पावयणि वि [प्रवचनिन्] सिद्धान्त का मूठ (पाम)। [प्रकृति अशुभ कर्म-प्रकृति (राज)। 'यारि | जानकार, सैद्धान्तिक (चेश्य १२८)। पालिआ देखो पाली =पाली: उजाणपालि- | वि [कारिन्] दुराचारी (पउम ६३, ४३; पावयणिय वि [प्रावचनिक] ऊपर देखो याहि कविउत्तीहि व बहुरसड्ढाहिं (धर्मवि महा)। समण ( [ श्रमण] दुष्ट साधु (सम ६०)। १३)। (उत्त १७, ३, ४)। सुमिण पुंन ["स्वप्न] पावरअ देखो पावारय (स्वप्न १०४)। For Personal & Private Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावरण-पासाकुसुम पाइअसहमहण्णवो पावरण पुं [प्रावरण] एक म्लेच्छ जाति | पावेस वि [प्रावेश्य] प्रवेशोचित, प्रवेश के पासंदण न [प्रस्यन्दन] झरन, टपकना (बह (मृच्छ १५२)। | लायक (प्रौप)। पावरण न [प्रावरण] वस्त्र, कपड़ा (हे १, पावेस [प्रावेश] वन के दोनों तरफ पासग वि [दर्शक] देखनेवाला (पाचा)। १७५)। लटकता रुंछा (गाया १,१)। पासग पूं [पाशक] १ फाँसा, बन्धन-रज्जु पावरिय वि [प्रावृत पाच्छादित (कुप्र ३८)। पास सक [दृश] १ देखना। २ जानना। (उप पू १३; सुर ४, २५०) । २ पासा, पावस देखो पाउस (कुप्र ११७)। पासइ, पासेइ (कप्प) । पासिम = "पश्य जुआ खेलने का उपकरण-विशेष (जं ३)। पावा स्त्री [पापा] नगरो-निशेष, जो अाजकल (पाचा १, ३, ३, ५)। कर्म. पासिजइ (पि पासग न [प्राशक] कला-विशेष (प्रौप)। भी बिहार के पास पावापुरी के नाम से ७०) । वकृ. पासंत, पासमाण (स ७५ पासण न [दर्शन] अवलोकन, निरीक्षण प्रसिद्ध है (कप्पा ती ३, पंचा १६, १७ कप्प)। संकृ. पासिउं, पासित्ता, पासित्ताणं, (पिंड ४७५; उप ६७७, प्रोष ५४ सुपा पव ३४; विचार ४६)। पासिया (पि ४६५, कप्पः पि ५८३; महा)। ३७)। पावाइ वि [प्रवादिन] वाचाट, दार्शनिक | हेकृ. पासित्तए, पासिउं (पि ५७८; ५७७)। | पासणया स्त्री. ऊपर देखो (मोध ६३, उप (सूत्र २, ६, ११)। कृ. पासियव्व (कप्प)। १४८ रणाया १,१)। पावाइअ वि [प्रावाजिक] संन्यासी (रयण | पास पुं[पार्श्व] १ वर्तमान अवसर्पिणी-काल पासणिअ वि [दे] साक्षी (दे ६, ४१)। २२)। के तेईसवें जिन-देव (सम १३, ४३)। २ पासणिअ वि [प्राश्निक] प्रश्न-कर्ता (सूम पावाइअ दि [प्रावादिक] देखो पावाइ | भगवान् पाश्र्वनाथ का अधिष्ठायक यक्ष (संति १, २, २, २८ भाचा)। (प्राचा)। ८)। ३ न. कन्धा के नीचे का भाग, पाँजर पासत्थ वि [पार्श्वस्थ] १ पाव में स्थित, पावाइअ वि[प्रावादुक] वाचाट, दार्श- (णाया १, १६)। ४ समीप, निकट (सुर निकट-स्थित (पउम ६८, १८ स २६७; पावादुयनिक (सूत्र १,१, ३, १३, २, ४, १७९)। वञ्चिज वि [पत्यीय] सूअ १, १, २, ५) । २ शिथिलाचारी साधु २, ८० पि २६५)। भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा में संजात (उप ८३३ टीः णाहा १, ५, ६,-पत्र पावार पुं[प्रावार] १ रुंछावाला कपड़ा । २ (भग)। २०६; साधं ८८)। मोटा कम्बल (पव ८४)। पास.' [पाश] फाँसा, बन्धन-रज्जू (सुर ४, पासत्थ वि [पाशस्थ पाश में फंसा हुमा, पावारय देखो पारय = प्रावारक (हे १ २७१; | ३३७; प्रौप; कुमा)। पाशित (सूम १, १, २, ५)। कुमा)। पास न [दे] १ आँख । २ दाँत । ३ कुन्त, | पासल्ल न [दे] १ द्वार (दे ६, ७६) । २ वि. पावालिआ स्त्री [प्रपापालिका] प्रपा या प्रास । ४ वि. विशोभ, कुडौल, शोभा-हीन | तिर्यक् , वक्र (दे ६, ७६; से ६; ६२: गउड)। प्याऊ पर नियुक्त स्त्री (गा १६१)।। (द ६, ७५)।५ पुंन. अन्य वस्तु का अल्प-पासल्ल देखो पास = पार्श्व (से ६, ३८ पावासु वि [प्रवासिन्, क] प्रवास मिश्रण; 'निच्चुन्नो तंबोलो पासेण विणा न गउड)। पावासुअ करनेवाला (पि १०५ हे १, होइ जह रंगों (भाव २)। पासल्ल अक [तिर्यश्च , पार्थाय ] १ वक्र ९५ कुमा)। होना। २ पाच घुमानाः 'पासलंति महिहरा' पास वि [°पाश] अपसद, निकृष्ट, जघन्य, पाविअ वि [प्राप्त लब्ध, मिला हुआ (सुर ३, (से ६, ४५)। वकृ. पासलंत (से ६, ४१)। कुत्सित; 'एस पासंडियपासो किं करिस्सई' १६ स ६८६)। पाविअ वि [प्रापित] प्राप्त करवाया हुआ (सम्मत्त १०२)। पासल्लइअ देखो पासल्लिअ (से ६, ७७)। (सरणः नाट-मृच्छ २७)। पासंगिअ वि [प्रासङ्गिक] प्रसंग-संबन्धी, पासल्लि वि [पाश्चिन्] पार्व-शयित, 'उत्ताणपाविअ वि [प्लावित] सराबोर किया हुआ) भानुषंगिक (कुम्मा २७)। गपासल्ली नेसजी वावि ठाण ठाइत्ता (पव खूब भिजाया हुआ (कुमा)। पासंड न [पासण्ड] १ पाखण्ड, मसत्य धर्म, । ६७ पंचा १८, १५)।। पाविट्ठ वि [पापिष्ठ] अत्यन्त पापी (उव | धर्म का ढोंग (ठा १० णाया १, ८ उवा; पासल्लिअ वि [पाश्वित, तिर्यक्त] १ पाव ७२८ टी; सुर १, २१३, २, २०५; सुपा प्राव ६) । २ व्रत (अणु)। में किया हुआ। २ टेढ़ा किया हुआ (गउड; १६६; था १४)। पासंडि । वि [पासण्डिन्, क] १ पि ५६५)। पावीढ देखो पाय-वीढ (पउम ३,१ हे १, | पासंडिय। पाखंडी, लोक में पूजा पाने के पासवण न [प्रस्रवण] मूत्र, पेशाब (सम १०%; २७०; कुमा)। लिए धर्म का ढोंग रचनेवाला (महानि ४; कस; कप्प; उवा; सुपा ६२०)। कुप्र २७६; सुपा ६९ १०६ १९२)।२ पासाईय देखो पासादोय (सम १३७ उवा)। पावीयंस देखो पावंस (पि ४०६; ४१४)। पुं. व्रती, साधु, मुनिः 'पब्वइए अणगारे पासाकुसुम न [पाशाकुसुम] पुष्प-विशेष, पावुअवि [प्रावृत पाच्छादित (संक्षि ४)। पासंडे (? डी) चरग तावसे भिक्खू । परिवाइए 'छप्पन गम्मसु सिसिर पासाकुसुमेहि ताव, पावेजमाण देखो पाव =प्र+भाप। य समणे (दसनि २-गाथा १६४)। मा मरसु' (गा ८१९)। For Personal & Private Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ पाइअसद्दमहण्णवो पासाण-पिअ पासाण [पाषाण] पत्थर (हे १, २६२, पासोअल्ल देखो पासल्ल- तियं। वकृ. पाहुडिआ स्त्री [प्राभृतिका] १ भेंट, उपहार पासोअल्लंत (से ६, ४७)। (पव ६७)। २ जैन मुनि की भिक्षा का एक पासाणअ वि [दे] साक्षी (दे६,४१)। पाह (अप) सक [प्र + अर्थय] प्रार्थना दोष, विवक्षित समय से पहले-मन में पासाद देखो पासाय (मौप; स्वप्न ५६)। करना । पाहसि (पि ३५६)। संकल्पित भिक्षा, उपहार रूप से दी जाती पासादिय वि [प्रसादित] १ प्रसन्न किया | पाहंड देखो पासंड (पि २६५)। भिक्षा (पंचा १३, ५, पव ६७ ठा ३, ४ला। २ न. प्रसन्न करना (गाया १,६- पाहण देखो पाहाणः 'महंतं पाहणं तयं (श्रा पत्र १५६) पत्र १६५)। १२); 'चउकोणा समतीरा पाहणबद्धा य पाहुण वि [दे] विक्रेय, बेचने की वस्तु (दे पासादीय वि[प्रासादीय प्रसन्नता-जनक | निम्मविया (धर्मवि ३३; महा भवि)। ६, ४०)। (उवाः मौप)। पाहणा देखो पाणहा, 'तेगिच्छं पाहणा पाए पाहुण [प्राघुग, क] अतिथि, पाहुना, पासादीय वि [प्रासादित] महलवाला, (दस ३, ४)। पाहुणग मेहमान (प्रोभा ५३; सुर ३,८५, प्रासाद-मुक्त (सूम २, ७, १ टो)। पाहण्णन [प्राधान्य] प्रधानता, प्रधानपन पाहुणय महा; सुपा १३; कुप्र ४२; प्रौप; पासाय न [प्रासाद] महल. हम्यं (पाम; पाहन्न ।(प्रासू ३२ ओघ ७७२)। काल)। पउम ८०, ४)। वडिंसय पु[वतंसक] पाहर सक [प्रा + ह] प्रकर्ष से लाना, ले पाहुणिअ पुं [प्राघुणिक] प्रतिथि, पहुना, मेह महन (भग; प्रौप)। माना । पाहराहि (सूत्र, ४, २, ६)। मेहमान (काप्र २२४)। पासायवडेंसग [प्रासादावतंसक] श्रेष्ठतम पाहरिय वि [प्रारिक] पहरेदार (स ५२५; पाहुणि पुं [प्राधुनिक] ग्रह-विशेष, ग्रहामहल, प्रासाद-विशेष (राय ६६)। सुपा ३१२, ४५५)। धिष्ठायक देव-विशेष (ठा २, ३)। पासासा स्त्री [दे] भल्ली, छोटा भाला (दे ६, पाहाउय देखो पाभाइय (सुपा ३५:५५६)। पाहाण पुं [पाषाण] पत्थर (हे १, २६२, पाहुणिज वि [प्राहवनीय प्रकृष्ट संप्रदान, जिसको दान दिया जाय वह (गाया १,१ पासाव पुं[दे] गवाक्ष, वातायन, झरोखा महा)। पाहिज देखो पाहेज (पान)। पासावय (षड् दे ६,४३)। टी-पत्र ४)। पाहुण्ण पाहुड न [प्राभृत] १ उपहार, पाहुर, भेंट न [प्राघुण्य, क] प्रातिथ्य, पासि वि [पाश्चिन्] पार्श्वस्थ, शिथिलाचारी | पाहुण्णग (हे १,१३१, २०६; विपा १, ३; कर्पूर २७, अतिथि का सत्कार, पहुनाई; साधु; 'पासिसारिच्छो (संबोध ३५) । पासिद्धि देखो पसिद्धि (हे १, ४४)। पाहुण्णय J‘कयं मंजरीए पाहुण(? एण)ग' कप्पू: महा; कुमा)। २ जैन ग्रन्थांश-विशेष, परिच्छेद, अध्ययन (सुज १, २, ३)। ३ पासिम वि [दृश्य दर्शनीय, ज्ञेय (माचा)। (कुप्र ४२; उप १०३१ टो)। पासिम देखो पास = दृश् । प्राभृत का ज्ञान (कम्म १, ७)। पाहुड पाहेअ न [पाथेय रास्ते में व्यय करने की सामग्री, मुसाफिरी में खाने का भोजन (उत्त न [प्राभृत] १ ग्रन्थांश-विशेष, प्राभृत का पासिय वि [पाशिक] फांसे में फंसानेवाला १६, १८ महा: अभि ७६; स ९८; सुपा भी एक अंश (सुज १, १, २)। २ प्राभृत(पराह १, २)। पासिय वि [स्पृष्ट] छुपा हुआ (प्राचा प्राभूत का ज्ञान (कम्म १,७)। पाहुडस- ४२४)। मास पुन [प्राभृतसमास] अनेक प्राभृत- पाहेज न [दे. पाथेय] ऊपर देखो (दे ६, पासिम)। प्राभूतों का ज्ञान (कम्म १, ७)। समास २४)। पासिय वि [पाशित] पाश-युक्त (राज)। पुन [°समास] अनेक प्राभृतों का ज्ञान पाहेणग (दे) देखो पहेणग (पिंड २८८)। पासिया स्त्री [पाशिका] छोटा पाश (महा)। (कम्म १,७)। पि देखो अवि (हे २, २१८ स्वप्न ३७, पासिया देखो पास = दृश् । पाहुड न [प्राभृत] १ क्लेश, कलह (कस; बृह कुमाः भवि)। पासिल्ल वि [पाश्चिक १ पास में रहनेवाला। १)। २ दृष्टिवाद के पूर्वो का अध्याय-विशेष पिअ सक [पा] पीना। पिनइ (हे ४, १०; २ पार्श्वशायी (पव ५४ तंदु १३; भग)। (अणु २३४)। ३ सावध कर्म, पाप-क्रिया ४१६ गा १६१)। भूका, अपिइत्थ पासी स्त्री [दे] चूड़ा, चोटी (दे ६, ३७)। (प्राचा २, २, ३, १; वव १)। "छेय पुं (माचा)। वकृ. पिअंत, पियमाण (गा १३ पासु देखो पंसु (हे १, २६७०)। [च्छेद] बारहवें अंग-प्रन्थ के पूर्वो का प्र; २४६; से २, ५; विपा १, १)। संकृ. पासुत्त देखो पसुत्त (गा ३२४; सुर २, ८२ प्रकरण-विशेष (वव १)। पाहुडिआ स्त्री पिञ्चा, पेञ्चा, पिएऊण (कप्प; उत्त १७, ९, १६८ हे १, ४४ कुप्र २५०)। .. [प्राभृतिका] दृष्टिवाद का प्रकरण-विशेष | ३, धर्मवि २५), पिएविणु (अप) (सण)। पासेइय वि [प्रस्वेदित] प्रस्वेद-युक्त, पसीना- (अणु २३४)। प्रयो. पियावए (दस १०, २)। वाला (भवि)। पाहुडिआ स्त्री [प्राभृतिका] १ दृष्टिवाद का पिअ पुप्रिय] १ पति, कान्त, स्वामी पासेल्लिय वि [ पार्श्ववत् ] पार्श्व-शायी, बगल छोटा मन्याय (भएणु २३४) । २ अचंनिका, (कुमा)। २ वि. इष्ट, प्रीति-जनक (कुमा)। में सोनेवाला (राज)। विलेपन मादि (नव ४)। 'अम [तम] पति, कान्त (गा १६; For Personal & Private Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिअ-पिउ पाइअसहमहण्णवो ५६५ कुमा)। अमा स्त्री [तमा] पत्नी, भार्या पिअंगु पु [प्रियङ्ग] १ वृक्ष-विशेष, प्रियंगु, पिआरी (अप) लौ [प्रियतरा] प्यारी, प्रिया, (कुमा)। 'अर वि [कर] प्रीति-जनक ककूदनी का पेड़ (पाम प्रौप; सम १५२)। पत्नी (पिंग)। lam_fun)| कागिणी सीकारिणी]। २ कंगु, मालकाँगनी का पेड़, 'पियंगुणो पिआल |प्रियाला वक्ष-विशेष, पियाल. भगवान् महावीर की माता का नाम, त्रिशला कंग' (पाप)। ३ नी. एक स्त्री का नाम चिरौंजी का पेड़ (कुमा, पाम, दे ३, २१, देवी (कप्प)। गंथ [ग्रन्थ] एक प्राचीन (विवा १, १०)। लइया स्त्री [°लतिका] | पएण १)। जैन मुनि, प्राचार्य सुस्थित और सुप्रतिबद्ध का एक स्त्री का नाम (महा)। पिआलु पुं [प्रियालु] वृक्ष-विशेष, खिन्नो, एक शिष्य (कप्प)। "जाअ वि [जाय] पिअवय वि [प्रियंवद] मधुर-भाषी (सुर १, खिरनी का गाछ (उर २, १३)। जिसको पत्नी प्रिय हो वह (गा ५१८)। पियासा देलो पिवासा (गा ८१४)। जाआ स्त्री [जाया] प्रेम-पात्र पत्नी पिअंवाइ वि [प्रियवादिन] ऊपर देखो (उत्त पिइ देखो पीइ; 'तेणं पिइए सिटुं' (पउम ११, (गा १६६)। "दसण वि [दर्शन] १ ११, १४, सुख ११, १४)। जिसका दर्शन प्रिय-प्रीतिकर हो वह पिअण न [दे] दुग्ध, दूध (दे ६,४८)। | पिइ पुं [पित १ पिता, बाप (उप ७२८ (णाया १,१-पत्र १६ औप)। २ पुं. पिअण न [पान] पीना, 'तुहथन्नपियणनिरय' टी)। २ मघा-नक्षत्र का अधिष्ठायक देव (सुन देव-विशेष (ठा २, ३-पत्र ७९)। (धर्मवि १२५; सुख ३, १, उप १३६ टी; १०, १२; पि ३६१)। "मेह पुं[ मेध] 'दसणा स्त्री [°दर्शना] भगवान महावीर । स २६३, सुपा २४५; चेइय ५७०)। यश-विशेष, जिसमें बाप का होम किया जाय की पुत्री का नाम (आवम)। धम्म विपिअणा स्त्री [पृतना] सेना-विशेष, जिसमें क यज्ञ (पउम ११, ४२)।वण न [°वन] [धर्मन] १ धर्म की श्रद्धावाला (णाया २४३ हाथी, २४३ रथ, ७२६ घोड़े और श्मशान (सुपा ३५६)। हर न [गृह] १,८)। २ पुं. श्री रामचन्द्र के साथ जैन १२१५ प्यादें हो वह लश्कर (पउम ५६, ६)। पिता का घर, पीहर (पउम १८, ७ सुर ६, दीक्षा लेनेवाला एक राजा (पउम ८५, ५)। पिअमा स्त्री [दे] प्रियंगु वृक्ष (दे ६, ४६; -२३६)। देखो पिंड। 'भाउग पुं [भ्रात] पति का भाई (उप पाम)। ६४८ टी)। भासि वि [ भाषिन् प्रिय- पिइज पुं[पितृव्य] चाचा, बाप का भाई भारतीय 21 कोकिला. पिकी | 'सुपासो वीरजिपिइन्जो (? ज्ज) (विचार वक्ता (महा ५८)। "मित्त पुं["मित्र] १ पास एक जैन मुनि, जो अपने पीछले भव में पाँचवाँ पिअय ' [प्रियक] वृक्ष-विशेष, विजयसार पिइय वि[ पैतृक] पिता का, पितृ-संबन्धी ४७८)। वासुदेव हुआ था (पउम २०, १७१)।। (भग)। 'मेलय वि [ मेलका १ प्रिय का मेल-पिअर पन [पित], माता-पिता. मां-बाप पिंउ [पितृ] १ बाप, पिता (सुर १, संयोग करानेवाला। २ न. एक तीर्थ (स | 'सवंत निएणयमिमं पियरा', 'पियराई स्य- पिउअ१७६; औपः उव; हे १, १३१) । ५५१)। उय वि [युष्क] जीवित-प्रिय ताई' (धर्मवि १२२) । २ पुं. पिता, बाप २ पुन. माँ बाप, माता-पिताः 'अन्नया मह (माचा)। यग वि [यत, त्मिक] (प्राप्र)। पिऊणि गाम पत्ताई' (धर्मवि १४७ सुपा प्रात्म-प्रिय (प्राचा)। पिअरंज सक [भञ्ज] भाँगना, तोड़ना। ३२६)। कम्म पुं [क्रम] पितृ-वंश, पिअ देखो पीअ; 'पीपापीअं पिप्रापिन' (प्रातः पिअरंजइ (प्राकृ. ७४)। पितृ-कुल (कुमा)। कुल न [°कुल] पिता सण भवि)। पिअल (अप) देखो पिअ = प्रिय (पिंग)। का वंश (षड्)। घर न [गृह] पिता का पि देखो पिउ (प्रासू ७६; १०८)। हर पिआ स्त्री [प्रिया] पत्नी, कान्ता, भार्या घर, पीहर (सुपा ६०१)। च्छा, च्छी न [गृह] पिता का घर, पीहर, नैहर, मैका (कुमाः हेका ६६)। को [ध्वस्] पिता की बहिन, फूमा, बूमा, (पउम १७, ७)। पिआमह पुं [पितामह] १ ब्रह्मा, चतुरानन फुफू (गा ११०० हे २, १४२, पामः (से १,१७ पापा उप ५६७ टी; स २३१)। पिअआ देखो पिआ (श्रा १६)। पाया १, १६ ), 'कोंति पिउत्थि (? छि) २ पिता का पिता, दादा (उव)। तणभ पुं सक्कारेइ' (णाया १, १६-पत्र २१६) । पिअइउ (अप) वि [प्रीणयितु] प्रीति उप [तनय] जाम्बवान्, वानर-विशेष (से ४, पिड 'पिण्ड] मृतक-भोजन, श्राद्ध में जानेवाला, खुश करनेवाला (भवि)। ३७)। थ न [न] अस्त्र-विशेष, ब्रह्मास्त्र दिया जाता भोजन (पाचा २, १, २)। पिअउल्लिय (अप) देखो पिआ (भवि)। (से १५, ३७)। भगिणी स्त्री [भगिनी] फूफी, पिता की पिअंकर वि [प्रियंकर] १ अभीष्ट-कर्ता, इष्ट- पिआमही स्त्री [पितामही] पिता की माता, बहिन (सुर ३, ८२) । 'वह पुं[पति यम, जनक (उत्त ११, १४) । २ पृ. एक चक्रवर्ती | दादी (सुपा ४७२)। यमराज (हे १, १३४) । वण न ["वन] राजा (उप ६७२)। ३ रामचन्द्र के पुत्र लव पिआर (अप)। वि [प्रियतर] प्यारा (कुप्र श्मशान (पउम १०५, ५१, पानः हे १, का पूर्व जन्म का नाम (पउम १०४, २९)।। ३२; भवि)। १३४) । 'सिआ स्त्रो [ध्वस्] फूफी (हे For Personal & Private Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ २, १४२ कुमा) सेणकन्दा श्री [सेन कृष्णा ] राजा श्रेणिक की एक पत्नी (अंत २५) । सा देखो 'सिआ (विपा १, ३ – पत्र ४१) । 'हर देखो घर (सुर १०, १९ भनि । पिड देखो पिय (राज) | पिडा [दे-पितृष्वस्] पूरे पिता की बहन (ड्) । पिउच्छा }नी [हे] सखी, वयस्या(षड् १७५; पिली श्री [दे] १ का लतिका, रूई की पूनी (दे ६,७८ ) । २ ( २, १६४) । पिंकार ] [ अधिकार ] १ 'अपि' शब्द । २ अपि शब्द की व्याख्या ( ठा १०४५) । - पत्र पंखा [प्रेङ्खा ] हिंडोला, डोला ( पात्र ) । पिंखोल सक [ प्रेङ्खोलयू ] भूलना। वक्कू, पिपलमाण (राज) | पिंग देखो पंग = ग्रह (कुमा ७, ४९ ) । पिंग g [पिङ्ग] १ कपिश वर्णं, पीत वर्णं । २ वि. पीला, पीत रँगका (पाघ्रः कुमाः रामि १४) । ३ पुंखी. कपिंजल पक्षी । स्त्री. गा (सू १, २, ४, १२) । पिंग [] मर्कट बन्दर (६, ४८ ) । पिंगल पुं [पिङ्गल] १ नील-पीत वर्णं । २ वि. नीस-मिथत पीता कुमाः ठा ४, २ श्रप) । ३ . ग्रह-विशेष (ठा २, ३) । ४ एक यक्ष (सिरि ६६६) । ५ चक्रवर्त्ती का एक निधि श्राभूषणों की पूर्ति करने वाला एक निधान (ठा है; उप ६८६ टी) । ६ कृष्ण पुद्गल -विशेष (सुज्ज २० ) । ७ प्राकृत- पिगल का कर्ता एक कवि (पिंग ) ८ एक जैन उपासक (भग) ६ न. प्राकृत का एक छन्द-ग्रंथ (पिंग ) । कुमार पुं [कुमार ] एक राजकुमार, जिसने भगवान् सुपार्श्वनाथ के समीप दीक्षा ली थी (सुपा १६) । क्ख [] १ मीली-पीली धांवाला (ठा ४, २--पत्र २०८ ) । २ पुं. पक्षि-विशेष ( एह १, १ जीप) । पाइअसहमहण्णवो पिंगलायण न [पिङ्गलायन] १ गोत्र-विशेष जो कौत्स गोत्र की एक शाखा है । २ पुंस्त्री. उस गोत्र में उत्पन्न (ठा ७) । पिंगलिअ वि [पिङ्गलित] नीला-पीला किया हुआ (से ४, १८ गउड सुपा ८० ) । पिगलिअ वि [ पैङ्गलिक ] पिंगल-संबन्धी (पिंग) । पिंगा देखो पिंग । पिंगायण न [पिङ्गयन ] मघा नक्षत्र का गोत्र (इ) | [गृहीत] किया हुआ पिंगिन (कुमा) । गम [न] पिता पीलापन (गउड)। पिंगीकय वि [पिङ्गीकृत ] पीला किया हुआ, 'घरथरण सिरि+कुपंपिगीकय व्व' ( लहुन ७) । पिंगुल १ – पत्र ८ ) । पिंचु पुंस्त्री [दे] पक्व करीर, पक्का करी (दे ६.४६) । पिंड देखो पिच्छ ( भाषा गउड सुपा पिछड ६४१) । पिंछी स्त्री [पिच्छी] साधु का एक उपकरण, नवि से जिला पियों (चि) (विचार १२८) । [पिछ] पक्षि-विशेष (वराह है, पिछली श्री [३] मुँह के पवन से बजाया जाता तृरण मय वाद्य विशेष (दे ६, ४७ ) । पिंज सक [ प ] पीजना कई का चुनना। वकृ. पिंजंत (पिंड ५७४६ श्रोघ ४६८) । पिंजण न [पिअन ] पीजना ( पिंड ६०३ दे ७, ६३) । पिंजर पुं [पिअर ] १ पीत रक्त वर्णं, रक्तपीत मिश्रित रँग । २ वि. रक्त-पीत वर्णवाला (गउड; कुप्र ३०७ ) । पिंजर सक [ पिअरय् ] रक्त-मिश्रित पीतवयुक्त करना । वकृ. पिंजरयंत (पउम २, ९ ) 1 पिंजरण न [पिअरण] रक्तमिश्रित पीठवर्णवाला करना (सरण) । पिंजरि वि [पिअरित] पितरवाला किया हुमा (हम्मीर १२ ५२४) । गउड सुपा For Personal & Private Use Only पिउअ - पिंड पिंजरुड [दे] पक्षि-विशेष भी जिसके दो मुँह होते हैं (दे ६, ४०) । पिंजिअ वि [पिञ्जित ] पीजा हुआा (दे ७, ६४) । पिंजिअ वि [दे] विधुत (दे ६, ४९ ) । पिंड सक [ पिण्डय् ] १ एकत्रित करना, संश्लिष्ट करना । २ प्रक. एकत्रित होना, मिलना पिटे, पिंट कृ. पिण्डिऊण (कुमा) । [[पिण्ड] १ कठिन द्रव्यों का संश्लेष (पिण्डभा २ ) । २ समूह, संघात ( श्रोध ४०७: विसे ६०० ) । ३ गुड़ वगैरह की बनी हुई गोल वस्तु, वर्तुलाकार पदार्थ (परह २, ५) । ४ भिक्षा में मिलता श्राहार, भिक्षा ( उवः ठा ७) । ५ देह का एक देश । ६ देह, शरीर । ७ घर का एक देश ८ प्रश्न का गोला जो पितरों के उद्देश से दिया जाता है । ६ गन्ध-द्रव्य विशेष सिह्नक १० जपापुष्प । ११ कवल, ग्रास । १२ गज- कुम्भ । १३ मदनक वृक्ष, दमनक का पेड़ । १४ न. श्राजीविका । १५ लोहा । १६ श्राद्ध, पितरों को दिया जाता दान । १७ वि. संहत। १८ घन, निबिड़ (हे १, ८५ ) । कप्पि वि ["कल्पिक] सर्वथा निर्दोष भिक्षा तेनेवाला (वव ३)। गुला स्त्री ['गुला] गुड़-विशेष, इक्षुरस का विकार - विशेष, शक्कर बनने के पहले की अवस्था विशेष (पिंड २८३) । घर न [गृह] कदम से बना हुआ घर (वव ४) । त्थ[स्थ] जिन भगवान् की अवस्थाविशेष: 'न पिडत्यपयत्थावत्थंतरभावरणा सम्म' (संबोध २) श्व [] समुदायार्थं । स्थपुं (राज) । दाण न [दान ] पिण्ड देने की क्रिया, श्राद्ध (धर्मवि २६ ) । पर्याड स्त्री ["प्रकृति ] अवान्तर भेदवाली प्रकृति (कम्म १२५) वणन [वर्धन] माहार-बुद्धि, काल-वृद्धि, अन्नप्राशन (अंत) वद्धायणन [वर्धन ] बाहार बढ़ाना ( प ) "या [पात] भिज्ञा नाम, चाहार-प्राप्ति (ठा ५, १. कस) बास [वास ] सुत (भविधिसुद्धि, विसोहि श्री [विशुद्धि ] भिक्षा की निर्दोषता (अंतः प्रोघभा ३ ) । पिंट Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडग - पिट्ट पिंडग पुं [पिण्डक] ऊपर देखो ( कस) । पिंडण न [पिण्डन] १ द्रव्यों का एकत्र संश्लेष (पिडभा २ ) । २ ज्ञानावरणीयादि कर्म ( पिंड ६६) । पिंडणा स्त्री [ पिण्डना ] १ समूह ( प्रोघ ४०७) । २ द्रव्यों का परस्पर संयोजन (पिंड २) । पिंडय देखो पिंड (श्रोघभा ३३) । पिंडरय न [दे] दाडिम, श्रनार (दे ६, ४८ ) । पिंडलइय वि [दे] पिण्डीकृत, पिण्डाकार किया हुआ (दे ६, ५४; पात्र ) । पिंडलग न [दे] पटलक, पुष्प का भाजन (ठा ७) । पिंडवा अवि [पिण्डपातिक, पैण्डपातिक ] भक्त-लाभवाला, जिसको भिक्षा में आहार की प्राप्ति हो वह (ठा ५, १ कसः श्रपः प्राकृ ६ ) । पिंडार पु' [पिण्डार ] गोप, ग्वाला (गा ७३१)। पिंडालु पुं [पिण्डालु ] कन्द- विशेष (श्रा २० ) । पिंडि° देखो पिंडी (भग; गाया १, १ टी— पत्र ५) । पिंडिम वि [पिण्डिम ] १ पिण्ड से बना हुआ, बहल ( परह २, ५ – पत्र १५० ) । २ पूल समूहरूप, संघाताकार (गाया १, १ टी - पत्र ५; श्रप ) । पिंडिय वि [पिण्डित] १ एकत्रित, इकट्ठा किया हुआ (सूअनि १४०३ पंचा १४, ७ महा) । २ गुणित ( औप ) । पिंडिया स्त्री [पिण्डिका] १ पिण्डी, पिडली, जानू के नीचे का मांसल श्रवयव (महा) । २ वर्तुलाकार वस्तु (श्रौप) । देखो पिंडी । पिंडी स्त्री [पिण्डी] १ लुम्बी, गुच्छा (श्रौपः भगः गाया १, १, उपपू ३९ ) । २ घर का प्राधार भूत काष्ठ-विशेष, पीढ़ा; 'विघडि र्यापडीबंधसंघिपरिलं बिवालणिम्मोप्रा' (गउड)। ३ वर्तुलाकार वस्तु, गोला 'पिन्नागपिडी' ( सू २, ६, २६ ) । ४ खर्जूर- विशेष (नाटशकु ३५) । देखो पिंडिया । पिंडी स्त्री [] मञ्जरी (दे ६, ४७) । पिंडीर न [दे. पिण्डीर ] दाड़िम, अनार (दे ६; ४८ ) । पाइअसहमणव ५६७ श्रवयव, पंख पिंडेसणा स्त्री [पिण्डैषणा ] भिक्षा ग्रहण पिच्छ न [पिच्छ] १ पक्ष का करने की रीति (ठा ७) । का हिस्सा (उवा पात्र ) । २ मयूर - पिच्छ, शिखण्ड (खाया १, ३) । ३ पक्ष, पाँख ( उप ७६८ टी; गउड)। ४ पूँछ, लांगूल ( गउड ) । पिच्छण न [प्रेक्षण] १ दर्शन, अवलोकन ( १४; सुपा ५५) । पिच्छण न [प्रेक्षण, क] तमाशा, खेल, पिच्छणय ) नाटक, पारद्धं पिच्छ तहि ताव' (सुपा ४८५), ' तो जवरिणयछिड्डेहि पिच्छर अंते उरपि पिच्छायं (सुपा २०० ) । पिच्छल वि [ पिच्छल ] १ स्निग्ध, स्नेहयुक्त । २ मरण (सण) । पिच्छा स्त्री [प्रेक्षा] निरीक्षण। भूमि स्त्री ["भूमि] रंग-मण्डप, रंगमंच (पा) । पिच्छिवि [पिच्छिन् ] पिच्छवाला (मप) । पिच्छिर वि [प्रेक्षितृ] प्रेक्षक, द्रटा, देखनेवाला (सुपा ७८ कुमा) । पिच्छिल वि [पिच्छिल ] १ स्नेह-युक्त, स्निग्ध । २ मटण, चिकना (गउड हास्य १४०; दे ६, ४९ ) । पिच्छिली स्त्री [दे] लज्जा, शरम (दे ६४७) । पिच्छी स्त्री [] चूड़ा, चोटी (दे ६, ३७) । पिच्छी स्त्री [पिच्छिका ] पीछी (गा ५७२) । पिच्छी स्त्री [पृथ्वी ] १ पृथ्वी धरित्री, धरती (कुमा) । २ बड़ी इलायची । ३ पुनर्नवा । ४ कृष्ण जीरक। ५ हिगुपत्री (हे १, १२८ ) । पिच्छोला स्त्री [दे] बीन बजाने की कंबिका (सूत्र कृ० चू० पत्र १४६) । पिज्ज सक [पा] पीना । पिज्जइ (हे ४, १०) । कृ. पिज्जणिज्ज (कुमा) । पिज्ज पुंन [प्रेमन् ] प्रेम, अनुराग (सूत्र १, १६, २ः कप्प) । पिंडेसिय वि [पिण्डैषिक ] भिक्षा की खोज करनेवाला (भग ६, ३३) । पिंडोलग ) वि [पिण्डावलगक] भिक्षा से पिंडोलगय निर्वाह करनेवाला, भिक्षा का पिंडोलय प्रार्थी, भिक्षु (प्राचा उत्त ५, २२ सुख ५, २२० सूत्र १, ३,१, १०) । पिंध (ग्रुप) सक [पि + धा] ढकना । विघउ (पिंग ) । संकृ. पिंध (पिंग ) । पिंण (अप) न [पिधान ] ढकना (पिंग ) । पिंसुली स्त्री [दे] मुँह से पवन भरकर बजाया जाता एक प्रकार का तृण वाद्य (दे ६, ४७ ) । पिक पुंस्त्री [पिक] कोकिल पक्षी (पिंग)। स्त्री. की (दे ६, ५१) । पिक्क देखो पक्क= पक्त्र ( हे १, ४७ पात्र गा ५६५) । पिक्ख सक प्र + ईक्ष ] देखना | पिक्खइ ( भवि ) । वकृ. पिक्खंत ( भवि ) । कृ. पिक्खेव्व (सुर ११, १३३) । पिक्खग वि [प्रेक्षक] निरीक्षक, द्रष्टा (ती १०; धर्मवि १५ ) । पिक्खण न [प्रेक्षण] निरीक्षण (राज) । पक्खिय वि [प्रेक्षित] दृष्ट (पि ३१० ) । पिग देखो पिक (कुमा) । पिचु [पिचु] कार्पास, रुई ( दे ६,७८) । "लया स्त्री [लता] पूनी, रूई की पूनी (दे ६, ५६ ) । पिचुमंद पुं [पिचुमन्द] निम्ब वृक्ष, नोम का पेड़ (मोह १०३) । पिञ्च श्र [प्रेत्य ] पर-लोक, ग्रागामी जन्म पिञ्चा ) ( श्रा १४ सुपा ५०६ सूत्र १, १, १, ११) । देखो पेच्च । पिच्चा देखो पिअ = पा । । पिश्ञ्चिय वि [दे. पिचित] कूटी हुई छाल (ठा ५, ३ --पत्र ३३८ ) । पिच्छ तक [ दृश्, प्र + ईक्षू ] देखना पिच्छद्द, पिच्छति, पिच्छ (कम्पः प्रासू १६० ३३) । च पिच्छंत, पिच्छमाण (सुपा ३४१; भवि) । कवकृ. पिच्छिममाण (सुपा २) । संकृ. पिच्छिउं, पिच्छिऊ (प्रासू १; भवि ) । कृ. पिच्छणिज (कप्पः सुर १३, २२३ रमण ११ ) । For Personal & Private Use Only पिज्ज पिज्जंत} देखो पा = पा । पिज्जा स्त्री [पेया ] यवासू (पिंड ६ २४) पिज्जाविअ वि [पायित ] जिसको पान कराया गया हो वह (सुख २, १७ ) । पिट्ट सक [ पीडयू ] पीड़ा करना । पिट्टति ( सू २, २, ५५ ) । पिट्ट अक [ भ्रंशू ] ( षड् ) । नीचे गिरना । पिट्टइ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ पाइअसहमहण्णवो पिट्ट-पिनाय पिट्ट सक [पिट्टय् ] पीटना, ताड़न करना। कुमाः षड्)। ग वि [ग] पीछे चलनेवाला | बाँधना। पिण्डइ, पिण्डेड (पि ५५६)। हेकृ. पिट्टइ, पिट्टेइ (माचाः पिंगः गा १७१; सिरि (श्रा १२)। "चम्पा स्त्री [°चम्पा] चम्पा पिणदुर्छ, पिणद्धित्तए (अभि १८५; राज)। ६५५) । वा. पिईत (पिंग)। नगरी के पास की एक नगरी (कप्प)। मंस पिणद्ध वि [पिनद्ध] १ पहना हुआ (पान पिट्ट न [दे] पेट, उदर (पंचा ३, १६; धर्मवि न [मांस] परोक्ष में अन्य के दोष का प्रौपः गा ३२८)। २ बद्ध, यन्त्रित (राय)। ६६ इय २३८, करु २६; सुपा ५६३; कीर्तन; 'पिट्ठिमंसं न खाइजा' (दस ८, ३ पहनाया हुप्राः 'निगमउडोवि पिणदो तस्स सं २१)। ४७)। मंसिय वि [ मांसिक] परोक्ष में सिरे रयणचिंचइओ' (सुपा १२५) । पिट्टण न [पिट्टन] ताड़न, प्राघात (सूत्र २, दोष बोलनेवाला, पीछे निन्दा करनेवाला पिणद्धाविद (शौ) वि [पिनिधापित] पह२, ६२; पिंड ३४; पण्ह १, १ प्रोष (सम ३७)। माइया स्त्री [°मातृका] एक | नाया हुआ (नाट-शकु ६८)। ५९६ उप ५०६)। अनुत्तर-गामिनी स्त्रीः 'चंदिमा पिट्टिमाइया' पिणाइ पुं[पिनाकिन् महादेव, शिव (पामः पिट्टण न [पीडन] पीड़ा, क्लेश (सूम २, (अनु २) । देखो पिट्ठ = पृष्ठ । गउड)। २, ५५)। पिट्ठी स्त्री [पैष्टी] पाटा की बनी हुई मदिरा पिणाई स्त्री [दे] माज्ञा, प्रादेश (दै ६, ४८) । पिट्टणा नी [पिट्टना] ताड़न (मोघ ३५७) । (बृह २)। पिणाग पुन [पिनाक] १ शिव-धनुष । २ पिट्टावणया स्त्री [पिट्टना] ताड़न कराना | पिड पुं[पिट] १ वंश-पत्र प्रादि का बना महादेव का शूलास्त्र (धर्मवि ३१)। (भग ३, ३-पत्र १८२)। हुआ पात्र-विशेष । २ कब्जा, अधीनताः 'जा पिणागि देखो पिणाइ (धर्मवि ३१)। पिट्टिय वि [पिट्टित] पीटा हुआ, ताडित ताव तेणं भणियं रे रे रे बाल मह पिडे पिणाय देखो पिणाग (गउड)। (सुख २, १५)। . पडिओ' (सुपा १७६)। पिणाय पुं[दे] बलात्कार (दे ६, ४६)। पिट्र न [पिष्ट] तण्डुल आदि का आटा, पिडग देखो पिडय = पिटक (प्रौप; उवा; | पिणिद्ध वि [पिनद्ध, पिनिहित] देखो चूर्ण (णाया १, १, ३, दे १, ७८; गा| सुज्ज १६)। पिणद्ध = पिनद्धः (पएह २, ४-पत्र १३०; ३८८)। पिडच्छा स्त्री [दे] सखी (दे ६, ४६)। कप्प; प्रौप)। पिट्ट न [पृष्ठ] पीठ, शरीर के पीछे का हिस्सा पिडय न [पिटक १ वंशमय पात्र-विशेष, पिणिधासक [पिनि + धा] देखो पिणद्ध(मोपः उव)। 'भोयणंपि (? पि) डयं करेति' (पाया १, पि+ नह. । हेकृ. पिणिधत्तए (ौपः पि 'ओम [तस् ] पीछे से, पृष्ठ भाग से ५७)। १-पत्र ६)। २ दो चन्द्र और दो सूर्यों Ameोपिया (ज। (उवाः विपा १, १; औप)। करंडग न का समूह (सुज्ज १९)। [करण्डक] पूछ-वंश, पीठ की बड़ी हड्डी | पिणिया स्त्री [दे. पिण्यिका] गन्ध-द्रव्य(तंदु ३५)। 'चर वि ['चर पृष्ठ-गामी, पिडय वि [दे] माविन्न ( षड् )। विशेष, ध्यामक, गन्ध-तृण (उत्तनि ३)। अनुयायी (कुमा)। देखो पिट्टि। पिडव सक [ अर्ज 7 पैदा करना, उपार्जन | पिण्ही स्त्री [दे] क्षामा, कृश स्त्री (दे६, ४६)। पिट्ट वि [स्पृष्ट] १ छुपा हुआ। २ न. स्पर्श करना । पिडवइ ( षड्)। पित्त पुन [पित्त शरीर-स्थित धातु-विशेष, (पव १५७)। पिडिआ स्त्री [पिटिका] १ वंश-मय भाजन- तिक्त धातु (भगः उव)। जर पुं[ज्वर] पिट्ठ वि [पृष्ट] १ पूछा हुआ। २ न. प्रश्न, विशेष (दे ४, ७; ६,१)। २ छोटी मंजूषा पित्त से होता बुखार (णाया १, १)। पृच्छा; 'जंपसि विणण जंपसे पिट्ठ' (गा । पेटी, पिटारी (उप ५८७, ५६७ टी)। "मुच्छा स्त्री [मू.] पित्त की प्रबलता ९४३)। पिड्ड सक [ पीडय ] पोड़ना । पिड्डुइ (प्राचाः | से होनेवाली बेहोशी (पडि)। पिटूंत न [दे. पृष्ठान्त] गुदा, गाँड (दे (पि २७६) । पित्तल न [पित्तल] धातु-विशेष, पीतल ६,४९)। पिड्ड अक [भ्रंश ] नीचे गिरना। पिडुइ (कुप्र १४४)। पिट्ठखउरा स्त्री [दे] पङ्क-सुरा, कलुष मदिरा पित्तिज्जपुं[पितृव्य चाचा, पिता का पिडइअ वि [दे] प्रशान्त (षड् )। पित्तिय भाई (कप्पः सम्मत्त १७२; सिरि २६३, धर्मवि १२७ स ४६५, सुपा ३३४)। पिटुखउरिआ स्त्री [दे] मदिरा, दारू (पास)। पिढं प्र[पृथक् ] अलग, जुदा (षड्)। पित्तिय वि [पैत्तिक] पित्त का, पित्तपिट्रव्व वि [प्रष्टव्य पूछने योग्य, 'नियक- पिढर पुन [पिठर] १ भाजन-विशेप, स्थाली संबन्धी (तंदु १६; णाया १, १, प्रौप)। रकीदीवि किंकरी कि पिट्ठि (?) व्वा' (रंभा)। (पात्र; आचा; कुमा)। २ गृह-विशेष । ३ पिधं म [पृथक् ] अलग, जुदा (हे १, पिटायय पुंन [पिष्टातक] केसर मादि गन्धमुस्ता, मोथा । ४ मन्थान-दण्ड, मथनिया (हे १८८ कुमा)। द्रव्य (गउड स ७३४)। १,२०१; षड्)। पिधाण देखो पिहाण (नाट-विक्र १०३)। पिट्टिी [पृष्ठ] पीठ, शरीर के पीछे का | पिणद्ध सक [पि + नह ,पिनि + धा] पिन्नाग। [पिण्याक] खली, तिल आदि भाग (हे १, १२६ णाया १, रंभा; १ढकना । २ पहिनना। ३ पहिराना । ४ । पिन्नाय का तेल निकाल लेने पर जो उसका Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिपीलिअ - पिसुण भाग बचता है वह (सू २, ६, २६, २, १, १६२, ६, २८) । पिपीलिअ पुं [पिपीलक ] कीट-विशेष, चीऊँटा (कप्प) । पिपीलिआ ? स्त्री [ पिपीलिका ] चींटी, पिपीलिका) चीऊँटी (परह १, ६; जी १६६ णाया १,१६) । पिप्पड सक [दे] बड़बड़ाना, जो मन में आवे सो बकना । पिप्पss (दे ६, ५० टी) । पिप्पडा स्त्री [] ऊर्णा-पिपीलिका (दे ६, ४८) । पिप्पडिअ वि [दे] १ जो बड़बड़ाया हो । २ न. बड़बड़ाना, निरर्थक उल्लाप, बकवाद (दे ६, ५०) । पिप्पय पुं [दे] १ मशक (दे ६, ७८ ) । २ पिशाच, भूत (पान)। ३ वि. उन्मत्त (दे ६, ७८) । पिप्पर पुं [दे] १ हंस । २ वृषभ (दे ६, ७६) । गाछ पिप्परी स्त्री [पिप्पली] पीपर का ( पण १) । पिप्पल पुंन [ पिप्पल ] १ पीपल वृक्ष, अश्वत्थ (उप १०३१ टी पाप हि १० ) । २ छुरा, क्षुरक (विपा १, ६–पत्र ६६३ श्रोष ३५९ ) । पिप्पलग वि [ पैष्पलक] पीपल के पान का बना हुआ (घाचा २,२, ३, १४) । पिप्पलि 7 स्त्री [पिप्पलि, 'ली] श्रोषधिपिप्पली) विशेष, पीपर; 'महुपिप्पलिसुंठाई अगहा साइमं होई' (पंचा ५, ३०; पण १७) । पिप्पिडिअ देखो पिप्पडिअ ( षड् ) । पिप्पिया स्त्री [दे] दाँत का मैल (दि) । पिब देखो पिअ = पा । पिबामो ( पि ४८३ ) । संकृ. पिबित्ता ( श्राचा) । पिब्ब न [दे] जल, पानी (दे ६, ४६) । पिम्म [प्रेमन्] प्रेम, प्रीति, अनुराग (पा सुर २, १७२; रंभा ) । पियाल पुं [प्रियाल ] १ वृक्ष - विशेष, खिरनी का पेड़ । २ न. फल- विशेष, खिरनी, खिन्नी ( दस ५, २,२४) । पाइअसहमणव पियास ( प ) स्त्री [ पिपासा ] | प्यास (भवि ) । परी [] शकुनिका, चिड़िया (दे ६, ४७) । परिपिरिया देखो परिपिरिया (राज) । पिरिली स्त्री [पिरिली ] १ गुच्छ-विशेष, वनस्पति- विशेष (परण १) । २ वाद्य - विशेष (राज) । पिल देखो पील। कर्म. पिलिजइ (नाट) । पिलंखु [प्लक्ष] १ वृक्ष-विशेष, पिलक्खु । पिलखन, पाकड़ का पेड़ (सम १५२; श्रोष २६ प ७४) । २ एक तरह का पीपल वृक्ष 'पिक्खू पिप्पलभेदों (निचू ३) । पण न [दे] पिच्छिल देश, चिकनी जगह पिवासिय वि [पिपासित ] तृषित (उवा (दे ६, ४९) । वै....) । पिला देखो पीला (पि २२६) । पिवीलिआ देखो पिपीलिआ ( उवः स ४२०, भा ४६) । fror देखो पिoत्र (ड्) । पिलाग न [पिटक ] फोड़ा, फुनसी (सूत्र १, ३, ४, १०) । पिलिखु देखो पिलंखु (विचार १४८) । पिलिहा स्त्री [प्लीहा ] अंग-विशेष, पिलही, तिल्ली ( तंदु ३९ ) । पिलुअ न [दे] क्षुत, छींक (षड् ) । पिलुंक ? देखो पिलंखु (पि ७४: पण्ण पिलुक्ख ! १-पत्र ३१) । पिलुंखु देखो पिलंखु ( श्राचा २, १८, ३) । पिलुट्ठ वि [प्लुष्ट] दग्ध (हे २, १०६) । पिलोस पुं [प्लोष ] दाह, दहन ( हे २,१०६) | पिल्ल देखो पेल्ल = क्षिप् । पिल्लइ (भवि ) । पिल्ल सक [प्र + ईश्यू ] १ प्रेरणा करना । २ प्रवृत्त करना । पिल्लेइ (वव १) । पिल्लग न [दे] पक्षीका बच्चा । पिल्लण न [प्रेरण] प्रेरणा (जं ३ ) । पिल्ली [प्रेरणा] प्रेरणा (कप्प ) । पिल्लिअ वि [क्षिप्त ] फेंका हुआा (पान) भवि पिल्लि स्त्री [दे] यान- विशेष (दसा ६) । कुमा) । पिलिवि [प्रेरित ] जिसको प्रेरणा की गई हो वह (सुपा ३६१) । पिल्लिरी श्री [दे] १ तृण- विशेष, गराडुत् तृण । २ चीरी, कोट-विशेष । ३ धर्म, पसीना (दे ६, ७९) । पिल्लुंग (दे) देखो पिलुअ (वव २ ) । For Personal & Private Use Only ५६६ पिल्ह न [ दे ] छोटे पक्षी के तुल्य ( ६, ४६) । va देखो इव (हे २, १८२० कुमाः महा) । पिव सक [पा] पीना | पिक्इ (पिंग) । भूका. अपवित्था (प्राचा)। कर्म. पिवीअंति (पि ५३६ ) । संकृ. पिविअ, पिविइत्ता, पिवत्ता (नाटः ठा ३, २; महा) । हे. पिविड, पिवित्तर (भाक ४२; औप ) । पिवण देखो पिअण = (दे) (भगि) । पिवासय वि [पिपासक ] पीने की इच्छावाला (भग-प्रत्थ) । पिवासा स्त्री [पिपासा ] प्यास, पीने की इच्छा (भगः पात्र ) । पिसंग पुं [पिशङ्ग] १ पिंगल वहाँ, मठियारा पिस क [ पिष्] पीसना । पिसइ (षड् ) । रँग । २ वि. पिंगल वर्णवाला (पामः कुप्र १०५; ३०६) । पिडि [दे] देखो पसंडि ( सुपा ६०७; कुप्र २; १४५) । पिसल्ल पुं [पिशाच ] पिशाच, व्यन्तर-योनिक देवों की एक जाति (हे १, १९३३ कुमा पान; उप २६४ टी; ७६८ टी) । पिसाजिवि [पिशाचिन् ] भूवाविष्ट (हे १, १७७: कुमा; षड् ; चंड) | पिसाय देखो पिसल्ल (हे १, १९३, परह १, ४ महा इक) । पिसिअ न [पिशित] मांस (पान महा) । पिसुअ पुंस्त्री [पिशुक] क्षुद्र कीट - विशेष । स्त्री. या (राज)। पण सक [ कथय ] कहना । पिसुइ, पिसुइ, पिसुरांति, पिसुर्णेति, पिसुरासु (हे ४, २० गा ६६५: सुर ६, १९३० मा ५५६; कुमा) । पिसुण पुं [पिशुन ] सम, दुर्जन, पर-निक, चुगलखोर (सुर ३, १६, प्रासू १८ गा ३७७ पाम) । Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० पिणिअवि [कथित ] १ कहा हुआ । २ सूचित (सुपा २३ पात्र; कुप्र २७८ ) । पिमय (वै) पुं [ विस्मय ] श्राश्वर्यं (प्राकृ १२४) । पिह सक [स्पृह ] इच्छा करना, चाहना । पिहाइ (भग ३, २ –पत्र १७३ ) । संकृ. पिहाइता (भग ३, २) । futa [पृथकू ] भिन्न, जुदा; 'पिप्पिहार' (faat 585) 1 [पृथक् ] अलग (हे १, १३७; षड् ) । पिहंड पुं [दे] १ वाद्य-विशेष । २ वि. विवरण (दे ६, ७६) । पिहड देखो पिढर (हे १, २०१३ कुमा, उवा)। पिहण न [ पिधान] १ ढक्कन, पिछान (सुर १६, १ε५) । २ ढकना, श्राच्छादन (पंचा १, ३२; संबोध ४६; सुपा १२१ ) । पिहणया स्त्री [पिधान] प्राच्छादन, ढकना ( स ५१) । पिय देखो पिह = पृथक् (कुमा) । पिहा सक [ पि + धा ] १ ढकना । २ बँद करना । पिहाइ (भग ३, २ ) । संकृ. पिछाइन्ता, पिहिऊण (भग ३, २ महा) । पिहाण देखो पिहण (ठा ४, ४ रत्न २५; कप्प ) । पाणि स्त्री [पिधानिका ] ढकनी ( पाच ) । पिहाणी स्त्री [[पधानी] ऊपर देखो (दे) । पिहअ व [पिहित] १ ढका हुआ । २ बँद किया हुआ ( पान कस; ठा २, ४ – पत्र ६६; सुपा ६३०)। " (सब वि [[स्रव] १ जिसने श्राव को रोका हो ( दस ४) । २ पुं. एक जैन मुनि का नाम ( पउम २०, १८ ) । पिहिण देखो पिण, 'श्ररणवणे पेसवणे पिहिणे ववएस मच्छरे चेव' (श्रा ३०; पडि ) । पिहिम (अप) स्त्री [पृथिवी ] भूमि, धरती । पाल [पाल] राजा (भवि ) । पिह्रीकय वि [पृथक्कृत ] अलग किया हुआ (पिड ३९१ ) । पिहु वि [पृथु ] १ विस्तीर्णं ( कुमा) । २ पुं. एक राजा का नाम ( पउम ६८, ३४) । "रोम पुं [रोम] मीन, मत्स्य (दे ६, ५० टी) । पाइअसद्दमहण्णवो पिहु देखो पिह = पृथक् (सुर १३, ३६६ सा) । पिहु' देखो पिहुय; 'पिहुखज्ज ति नो वए' ( दस ७, ३४) । पिहुंड न [पिहुण्ड ] नगर- विशेष (उत्त ३१, २) । पिहुण [दे] देखो पेहुण ( श्राचा २, १, ७, ६) । हत्थ पुं [हस्त ] मयूरपिच्छ का किया हुआ पंखा ( आचा २, १, ७, ६) । पित्त देखो पुहुत्त ( तंदु ४) । पिहूय पुंन [पृथुक ] खाद्य-विशेष, चिउड़ा ( श्राचा २, १, १, ३, ४ ) । पिहुल वि [पृथुल ] विस्तीर्ण (परह १, ४; औप दे ६, १४३ कुमा) । पिहुल न [दे] मुँह के वायु से बजाया जाता - वाद्य (दे ६, ४७) । पिछे देखो पिहा । पिइ, पिहें (उत्त २६, ११, सूअ १, २, २, १३) । संकृ. पिछेऊण (पि ५८६ ) । पिहो अ [ पृथक् ] अलग, भिन्न (विसे १० ) । पिहोअर वि [दे] तनु, कृश, दुर्बल (दे ६, ५० ) । पी सक [ पी] पान करना । वकृ. 'तम्मुहससंकर्कतिपीऊसपूरं पीयमाणी ' ( रयण ५१ ) । पीअ पुं [पीत ] १ पीत वर्णं, पीला रंग । २ वि, पीत वर्णवाला, पीला (हे २, १७३ कुमाः प्राप्र ) । ३ जिसका पान किया गया हो वह ( से १, ४०; दे ६, १४४) । ४ जिसने पान किया हो वह ( प्राप्र ) । पीअ वि [प्रीत] प्रोति-युक्त, संतुष्ट ( प ) । पीअर (अप) नीचे देखो (पिंग) । पीअल देखो पीअ = पीत (हे २, १७३३ प्रा । पीसी श्री [प्रेयसी] प्रेम-पात्र स्त्री (कुमा) 1 पीपुं [दे] अश्व, घोड़ा (दे ६, ५१) । पी) स्त्री [प्रीति] १ प्रेम, अनुराग (कप्प पीई ( महा) । २ रावण की एक पत्नी का नाम (७४, ११) । कर पुन [° कर ] एक विमानावास, आठवाँ ग्रैवेयक- विमान (देवेन्द्र १३७ पत्र १९४) । गम न [गम ] महाशुक्र देवेन्द्र का एक यान- विमान (इक प) दाण न [दान ] हर्ष होने के । For Personal & Private Use Only पिसुणिअ - पीढ कारण दिया जाता दान, पारितोषिक (प्रौप; सुर ४,६१) । धम्मिय न [धार्मिक ] जैन मुनियों का एक कुल (कप्प ) । मण वि [ "मनस्] १ प्रीतियुक्त चित्तवाला (भग) । २ पुं. महाशुक्र देवलोक का एक यान- विमान (ठा ८-पत्र ४३७) । वद्धण पुं [वर्धन ] कार्तिक मास का लोकोत्तर नाम (सुज्ञ्ज १०, १ कप । पीईय पुं [दे] वृक्ष विशेष, गुल्म का एक भेदः 'पीईयपालक इरकुज्जय तह सिन्दुवारे य' ( पण १ ) । पीऊस न [ पीयूष ] प्रमृत, सुधा ( पाच ) । पीड सक [ पीडय् ] १ हैरान करना । २ दबाना । पीडइ, पीडंतु (पिंग हे ४, ३८५) । कर्म पीडिज्जइ (पिंग)। कवकृ. पीडिज्जंत, पीडिजमाण ( से ११, १०२; गा ५४१६ सरण) । पीड° देखो पीडा । 'यर वि ["कर ] पीड़ाकारक (पउम १०३, १४३) । पीडरइ स्त्री [दे] चोर की स्त्री (दे ६, ५१) । पीडा त्री [पीडा] पोड़न, हैरानी, वेदना ( प ) । कर वि [" कर ] पीड़ा-कारक; 'अलि म भासि यव्वं श्रत्थि हु सबंपि जं न वक्तव्वं । सचंपि तं न सच्चं जं परपीडाकरं वयणं' (श्रा ११: प्रासू १५० ) 1 पीडिअ वि [पीडित] १ पोड़ा से जो दुःखी हो वह अभिभूत, पराजित, व्याकुल, दुःखित । २ दबाया गया (हे १, २०३, महा पाच ) 1 पीढ पुंन [पीठ] १ श्रासन, पीड़ा; 'पीढं विट्ठरं असणं ( पात्र रयण १३ ) । २ प्रासन- विशेष, व्रती का प्रासन ( चंड; हे १, १०६ उवा; श्रप) ३ तल 'चत्तूण डपी' (कुमा) । ४ पुं. एक जैन महर्षि (सट्टि ८१ टी ) । बंध [बन्ध] ग्रंथ की अवतरणिका, भूमिका 'नय पीढबन्धरहियं कहिज्जमापि देइ भावत्थं (पउम ३; १६) । मंद, मद्दअ पुंखी ['मर्दक ] काम - पुरुषार्थं में सहायक नायक का समीपवर्ती पुरुष, राजा श्रादि का वयस्य- विशेष (गाया १, १ – पत्र १६, कप्प ) । स्त्री. 'महिआ ( मा १६ ) 1] सप्पि वि [सर्पिन्] पशुविशेष (प्राचा) । Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीढ- पुंछ पढन [दे] १ ईख पेरने का यन्त्र (दे ६, ५१) । २ समूह, यूथ; 'उट्ठियं वरणगइंदपीठं, पट्टा दिसो दिसो (? सि) कम्पडिया' (स २३३)। ३ पीठ, शरीर के पीछे का भागः 'हरिथपीढसमारूढो' (त्रि εE) 1पीढग न [ पीठक ] देखो पीढ = पीठ पीढय ) (कसः गच्छ १, १०; दस ७, २८) । पीढरखंड न [ पीठरखण्ड ] नर्मदा तीर पर स्थित एक प्राचीन जैन तीर्थं (पउम ७७, ६४) । पीढाणिय न [पीठानीक ] श्रश्व-सेना ( ठा ५, १ --पत्र ३०२) । पीढिआ [पीठिका ] श्रासन-विशेष, मञ्च 'आसंदी पीढिया ' ( पात्र) । देखो पेढिया । पीढी स्त्री [दे. पीठिका ] काष्ठ-विशेष, घर का एक आधार काष्ठ; गुजराती में 'पीढिउँ'; 'तत्तो नियत्तिऊणं सत्तट्ट पयाई जाव पहरेइ । ता उवरिपीढिखलणे खग्गेण खडक्कियं तत्थ (धर्मवि ५६) । पीति कृ. देखो पीण सक [ पीनयू ] पुष्ट करना। ( राय १०१ ) 1 [ पीणणिज्ज | ] खुश करना। पीण वि[दे] चतुरस्र, चतुष्कोण (दे ६, ५१) । पीण वि[पीन] पुष्ट, मांसल, उपचित (हे २, १५४, पान कुमा) 1 पीणण न [ प्रीणन] खुश करना (धर्मवि १४८) - पीणणिज्ज वि [ प्रीणनीय ] प्रीति-जनक ( औप: कप्पः परण १७ ) । पीणाइय वि [दे. पैनायिक] गर्व से निवृत्त गर्व से किया हुआ; ‘पीणाइयविरसर डियस द्दणं फोडयंते व अंबरतलं' (गाया १, १ – पत्र ६३) । पीणाया स्त्री [दे. पीनाया] गवं अहंकार ( पाया १, १ ) 1 पीणिअ वि [ प्रीणित] १ तोषित (सण) । २ उपचित, परिवृद्ध (दस ७, २३) । ३ पुं. ज्योतिष प्रसिद्ध योग-विशेष, जो पहले सूर्य या चन्द्र का किसी ग्रह या नक्षत्र के साथ होकर बाद में दूसरे सूर्य आदि के साथ उपचय को प्राप्त हुआ हो वह योग (सुज्ज १२ ) M ७६ पाइस मण्णवो पीणिम पुंखी [पीनता] पुष्टता, मांसलता (हे २, १५४) । पोयमाण देखो पा = पा । पीयमाण देखो पी = पी। पीरिपीरिया स्त्री [दे] वाद्य विशेष (राय ४५) पीक [पीडय् ] १ पीलना, पेरना, दबाना । २ पीड़ा करना, हैरान करना । पीलइ, पीलेइ (धात्वा १४५; पि २४० ) । कवक. पीलिज्जत (श्रा ६) । पीलण न [ पीलन ] दबाव, पीलन, पेरना 'मासिणी माणो पीलणभीघ्र ध्व हिमाहि' ( का १६६), 'जंतपीलर कम्मे' (उबा) । [ पुर] शरीर (विसे २०१५ ) 1 पुअ न [प्लुत] १ तियँग् गति । २ झाँपना कम्प-गतिः 'जुज्झामो पू (? पु) यथाएहि (विसे १४३९ टी) 1 जुद्ध न [युद्ध] अम युद्ध का एक प्रकार (विसे १४७७) । पुअंड पुं [दे] तरुण, युवा (दे ६, ५३; पान) I पुआइ वि. [दे ]१ तरुण, युवा (दे ६, ८०) । २ उन्मत्त (दे ६, ८० षड् ) । ३ पुं. पिशाच (दे ६, ८०, पान षड् ) 1 पीला देखो पीडा (उप ४३६६ सुपा ३५८) । पीलावय वि [ पीडक] १ पेरनेवाला । २ पु. तेलो, यंत्र से तेल निकालनेवाला ( वज्जा ११० ) 1 पीलिअ वि [ पीडित ] पीला या पेरा हुमा पुआइणी स्त्री [दे] १ पिशाच गृहीत स्त्री, (श्रौपः ठा ५, ३; उव) 1 भूताविष्ट महिला । २ उन्मत्त स्त्री । ३ कुलटा, व्यभिचारिणो (दे ६, ५४) । पुआव सक [ प्लावयू ] ले जाना। संकृ. पुयावइत्ता (ठा ३, २) पीलिम वि [ पीडावत् ] दाबवाला, दाबने से बना हुधा ( वस्त्र आदि की भ्राकृति) (दसनि २, १७) । ~ पीलु Î [पीलु] १ वृक्ष-विशेष, पीलु का पेड़ ( पण १: वज्जा ४६ ) । २ हाथी ( पाश्र स ७३५) । ३ न दूध 'एग बहुनामं दुद्ध पनो पीलु खीरं च' (पिंड १३१) पीलुअ पुं [दे. पीलुक ] शावक, बचा 'तडसंठिभरणीडेक्कं तपीलुमा रक्ख रोक्कदिएगम(गा १०२) । पीलुट्ठ वि [ दे. प्लुष्ट ] देखो पिलुट्ठ (दे ६, ५१) । पीवर वि [पीवर ] उपचित, पुष्ट (गाया १, १ पान सुपा २६१ ) + गन्भा स्त्री ['गर्भा] जो निकष्ट भविष्य में ही प्रसव करनेवाली हो वह स्त्री (प्रोघभा ८३) । पीवल देखो पीअ = पीत (हे १, २१३; २, १७३; कुमा) । - पीस सक [ पिष्] ७६) । व पीसंत पीसना । पीसइ (पि (पिंड ५७४; गाया १, ७) । संकृ. पीसिऊण (कुप्र ४५ ) 1 ६०१ पीसण न [पेषण] १ पीसना, दलना (पह १, १ उप पृ १४०; रयण १८ ) । २ वि. पीसनेवाला (सूम १, २, १, १२) - पीसय वि [पेषक] पीसनेवाला (सुपा ε३) । पीह सक [ स्पृह, प्र + ईह ] श्रभिलाषा करना, चाहना । पीहंति, पीहेज्जा (श्रौप ठा ३, ३-पत्र १४४) । For Personal & Private Use Only पीहग पुं [पीठक] नवजात शिशु को पीलाइ जाती एक वस्तु (उप ३११) पुं° पुं [पुंस्] पुरुष, मदं (पि ४१२; धम्म १२ टी)। देखो पुंगव, पुंनाग, पुंवड आदि । [पुङ्ख] १ बाण का भाग यसरस्स पुंखं विद्धइ भन्ने तिक्खवाण' (धर्मवि ९७; उप पृ ३६५) । २ न. देवविमान - विशेष (सम २२) । पुंखणग न [दे. प्रोङ्खणक ] चुमाना, विवाह की एक रीति, गुजराती में 'पोखरा' (सुपा ६५) पुंखिअ वि [पुङ्खित] पुंख-युक्त किया हुआ, 'धरगुहे तिक्खी सरो पुंखियों (कप्पू) 1 पुंगल' [दे] श्रेष्ट, उत्तम (भवि ) । पुंगव वि [पुङ्गव ] श्रेष्ठ, उत्तम (सुपा ५८०; श्रु ४१; गड) M पुंछ सक [प्र + उच्छू ] पोंछना, सफा करना । पुंछइ ( प्राकृ ६७ हे ४, १०५) । कृ. पुंछणीअ (पि १८२) । Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ पुंछ पुंन [ पुच्छ] पूँछ, लांगूल ( प्राकृ १२ हे १,२६) पुंछण न [प्रोन्न] १ मार्जन (कप्प उवा सुपा २६० ) । २ रजोहरण, जैन मुनि का एक उपकरण (बुह १) - पुंछणी स्त्री [प्रोन्नी ] पोंछने का एक छोटा तुमय उपकरण (राय) । पुंछ ( पाय; कुमाः भवि ) । [प्रछित] पोंछा हुंग्रा, मृष्ट पुंज सक [पु, पुअय् ] १ इकट्ठा करना । २ फैलाना, विस्तार करना । पुंजइ (हे ४, १०२ भवि)। कर्म. पुंजिज्जइ (कप्पू ) । कवकृ. पुंजइजमाण (से १२, ८) पुंज पुंन [ पुअ ] ढेर, राशि (कप्प कस कुमा); 'खारिक्कपु 'जयाई ठावई (सिरि ११६) । पुंजइअ वि [ पुञ्जित ] १ एकत्रित ( से हैं, ६३; पउम ८, २६१ ) । २ व्याप्त, भरपूर ( पउम ८,२६१) । पुंजइज्जमाण देखो पुंज = पुज्ज् पुंजक वि [ पुअक] १ राशि रूप से } पुंजय स्थित, 'न उ पुंजकपुंजका' (पिंड ८२) । २ देखोपुंज = पुब्ज 1 पुंजय पुन [दे] कतवार, गुजराती में 'पूंजी'; 'कावि तह पुँजयपुछर - छउमेण निययपावरय । पुंजिअ वि [पुञ्जित ] एकत्रित (से ५, ७२ कुमाः कप्पू ) । पुंड ' [ पुण्ड्र ] १ देश-विशेष, विन्ध्याचल के समीप का भू-भाग (स २२५: भग १५ ) । २ इक्षु- विशेष (पउम ४२, ११; गा ७४० ) । ३ वि. पुरा ड्र-देशीय ( पउम ६६, ५५ ) । ४ धवल, श्वेत, सफेद (खाया १, १७ टी - पत्र पाइअसद्दमहण्णवो २३१) । ५ पुंन. तिलक ( स १; पिडभा ४३३ कुप्र २९४ ) । ६ देव-विमान- विशेष (सम २२) वद्धण न [वर्धन ] नगर- विशेष ( स २२५) । देखो पोंड । पुंड [] पिडीकृत, पिण्डाकार किया हुधा (दे ६, ५४) । पुंडरिक देखो पुंडरीअ ( सू २, ११) । पुंडरिक वि [ पुण्डरीकिन् ] पुण्डरीकवाला ( सू २, १, १ ) 1 पुंडरिगिणी स्त्री [पुण्डरीकिणी] पुष्कलावती विजय की एक नगरी (गाया १, १६; इकः कुत्र २६५) । पुंडरिय देखो पुंडरीअ = पुण्डरीक, पौण्डरीक ( उवः काल; पि ३५४) । पुंडरीअ पुं [पुण्डरीक] १ ग्यारह रुद्र पुरुषों में सातवाँ रुद्र ( विचार ४७३ ) । २ एक राजा, महापद्म राजा का एक पुत्र ( कुप्र २६५ गाया १, १९ ) । ३ व्याघ्र, शार्दूल ( पाच ) । ४ पुंन. तप-विशेष ( पत्र २७१)। ५ श्वेतपद्म, सफेद कमल ( सूनि १४५ ) । ६ कमल, पद्मः 'अंबुरुहं सयवत्तं सरोरुहं पुंडरीअमरविंद' (पाद्य; सम १३ कप्प ) । ६ देव - विमान विशेष (सम ३५) । ७ वि. श्वेत, सफेद (संग १३२) गुम्मन [गुल्म] देव - विमान - विशेष (सम ३५) दह, दह पुंडे अ [दे] जाओ (३६, ५२) | पुंढ देखो पुंड (उप ७६५) । पुंढ पुं [दे] गतं गड़हा, गढा (दे ६, ५२ ) 1 पुंनाग पुं [पुन्नाग] १ वृक्ष- विशेष, पुष्पप्रधान एक वृक्ष- जाति, पुन्नाग, पुलाक, सुलतान चम्पक, पाटल का गाछ (उप १८ ७६८ टी सम्मत्त १७५) । २ श्रेष्ठ पुरुष, पुंछ- पुक्खर उत्तम मर्द (धम्म १२ टी सम्मत्त १७५) । देखो पुन्नाम पुंपुअ ' [दे] संगम (दे ६, ५२) । पुंभ पुंन [दे] नीरस, दाड़िम का छिलका ( ? ); 'मग्गइ अलत्तयं जा निपीलियं पुंभमप्पए ताव' (धर्मवि ६७ ); [ 'प्रलत्तए मग्गिए नीरस परणामेई' (महा ५६ ) ] I पुंबड पुंन [ पुंवचस् ] व्याकरणोक्त संस्कारयुक्त शब्द - विशेष, पुंलिंग शब्द ( पण ११पत्र ३६३) । पुंवेय ' [ पुंवेद] १ पुरुष को स्त्री-स्पर्श का अभिलाष । २ उसका कारण-भूत कर्म (पि ४१२) प्रवरती इव सारविति जिरणमंदिरं गणयं (सुपा २६०) । पुंजाय वि [दे] पिडाकार किया हुआ, 'पुंजायं पिंडलइयं ' ( पात्र ) । [द्रह] शिखरी पर्वत पर का एक महाहृद (ठा २, ३ सम १०४ ) । पुंडरीअ वि [पौण्डरीक] १ श्वेतपद्म का श्वेत-पद्म-संबन्धी (सूत्रनि १४५) । २ प्रधान, मुख्य । ३ कान्त, श्रेष्ठ, उत्तम (सूनि १४७ १४८) । ४ न सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का पहला अव्ययन ( सूनि १५७) | देखो पोंडरींग | पुंजवि वि [पुति ] एकत्रित कराया हुआ पुंडरीया स्त्री [ पुण्डरीका ] देखो पोंडरी पुक्का स्त्री. देखो पुकार = पूत्कार ( पान (काल) 1 (राज) 1 पुक्कल देखो पुक्खल ( परह २, ५ – पत्र १५१) । सुपा ५१७) । पुक्कार देखो पुक्कर । पुक्कारैति (राय) । वकृ. पुकारंत, पुक्कारित, पुकारेमाण (सुपा ४१५; ३८१ २४८ गाया १,१८ ) । पुकार पुं [पृत्कार ] पुकार, डॉक, ग्राह्वान (सुपा ५१७; महा सण ) - पुक्खर देखो पोक्खर = पुष्कर (कप्पः महा; पि १२५ ) कण्णिया स्त्री [कर्णिका] For Personal & Private Use Only पुंस सक [ पुंस् मृज् ] मार्जन करना, पोंछना । पुंसइ (हे ४, १०५) । पुंस देखो पुं । कोइल, कोइलग पु [कोकिल ] मरदाना कोयल, पिक (ठा १० - पत्र ५६६; पि ४१२) । पुंसण न [ पुंसन] मार्जन (कुमा) । पुंसह पुं [ पुंशब्द ] 'पुरुष' ऐसा नाम (कुमा) । पुंसली स्त्री [पुंश्चली ] कुलटा, व्यभिचारिणी स्त्री ( वज्जा ६८: धर्मवि १३७) । पुंसिअ वि [पुंसित ] पोंछा हुआ (दे १, εε) I पुक्क ) सक [ पूत् + कृ] पुकारना, डाँकना, पुक्कर आह्वान करना । पुक्करेइ (धम्म ११ टी) । वकृ. पुक्त, पुक्करंत (परह १, ३पत्र ४५ श्रा १२ ) | देखो पोक्क ।पुक्करियवि [ पूत्कृत ] पुकारा हुना (सुपा ३८१) Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुक्खरिणी-पुट्ठ पाइअसहमहण्णवो पथ का बीज-कोश, कमल का मध्य भाग पुक्खलावट्टय [पुष्करावर्तक, पुष्कला- पुच्छा स्त्री [पृच्छा] प्रश्न (उवाः सुर ३, (पौप)क्ख पुं[A] १ विष्ण, श्रीकृष्ण। वर्तक] मेघ-विशेषः 'पुक्खल (?ला) वट्ठए ३५)।२ कश्मीर के एक राजा का नाम (मुद्रा णं महामेहे एगेणं वासेणं दस वाससहस्साई पुच्छिअ वि [पृष्ट] पूछा हुमा (प्रौप; कुमा; २४२), "गय न [गत] वाद्य-विशेष का भावेति' (ठा ४, ४) भग; कप्पः सुर २, १६८)। ज्ञान, कला-विशेष (प्रौप)। द्ध न [1] पुक्खलावत्त [पुष्करावर्त, पुष्कलावत] पुच्छिर वि [प्रष्ट्र] प्रश्न-कर्ता (गा ५६८) पुष्करवर नामक द्वीप का प्राधा हिस्सा (सुज महाविदेह वर्ष का एक विजय-प्रान्त (जं पुछल देखो पुच्छल (पिंग)। १९) वर [°वर] द्वीप-विशेष (ठा २, ४) कूड पुं [कूट] एकशैल पर्वत का | पुज्ज सक [पूजय ] पूजना, प्रादर करना। ३; पडि) संवग देखो पुक्खल-संवट्टय एक शिखर (इक) पुज्जइ (कुप्र ४२३ भवि)। कर्म. पुज्जिज्जा ( राज)। वित्त देखो पुक्खलावट्टय (भवि) । वकृ. पुजंत (कुप्र १२१) । कवकृ. पुगारिया स्त्री [दे] वस्त्रादि खादक जंतु-विशेष (राज)। पुजिजंत (भवि) । संकृ. पुजिउं, पुजि(सूत्र० चू० गा० २८२) पुक्खरिणी देखो पोक्खरिणी (सूत्र २,१,२, ऊण (कुप्र १०२, भवि) । कृ. पुजिअव्व पुग्ग पुन[दे] वाद्य-विशेष, 'सो पुरम्मि पुग्गाई ३; प्रौफ पाम)। (ती ७)। प्रयो. पुज्जावइ (भवि) । वाएई' (कुप्र ४०३)। पुक्खरोअपं [पुष्करोद] समुद्र-विशेष पुज देखो पूज= पूजय । पुक्खरोद (इका ठा ३,१७; सुज १९)। पुग्गल पुं[पुद्गल] १ वृक्ष-विशेष । २ न.. पुजंत देखो पुज-पूजय । फल-विशेष । ३ माँस (दस ५, १, ७३) । पुजंत देखो पूर= पूरय । पुक्खल पं [पुष्कर] एक विजय, प्रान्तविशेष, जिसकी मुख्य नगरी का नाम प्रोषधि पुग्गल देखो पोग्गल (सिक्खा १५, नव ४२ पुज्जण न पूजना पूजा, अर्चा (कूप्र १२१)।. है (इक)। २ पद्म, कमला भिसभिसमुणाल पि १२५) परट्ट, परावत्त [ परावर्त] पुज्जमाण देखो पूर= पूरय ।। पुक्खलत्ताए' (सूम २, ३, १८)। ३ पद्म देखो पोग्गल-परिअट्ट (कम्म ५, ८६; वै. | पुजा स्त्री [पूजा] पूजा, अर्चा (उप पृ २४२)। केसर (प्राचा २, १, ८-सूत्र ४७)। ५० सिक्खा ८) पुजिय वि [पूजित] सेवित, प्रचित (भवि)। 'विभंग न ["विभङ्ग] पद्म-कन्द (माचा पुच्चड देखो पोश्चड: 'सेयमलपुथ्व (? च) | पुट्ट सक [प्र+उन्छ] पोंछना । पृट्टा २, १,८-सूत्र ४७)। संवट्ट, संवट्टय डम्मी' (तंदु ४०) (प्राकृ ६७)। पुं[संवर्त, 'क] मेघ-विशेष, जिसके बर पुच्छ सक [प्रच्छ ] पूछना, प्रश्न करना। पुट्ट न [दे] पेट, उदर (श्रा २८ मोह ४१% सने से दस हजार वर्ष तक पृथिवी वासित पुच्छइ (हे ४, ६७) । भूका, पुच्छिंस, पव १३५, सम्मत्त २२६; सिरि २४२% सरण) रहती है (उर २, ६ पुच्छीम, पुच्छे (पि ५१६; कुमा; भग)। ठा ४, ४-पत्र कम. पुच्छिज्जइ (भवि)। वकृ. पुच्छंत पुट्टल न [दे] गट्ठर, गाँठ; गुजराती २७०)। देखो पुक्खर । (गा ४७; ३५७कुमा)। कवकृ. पुच्छि - | पुट्टलय में 'पोटलु"; 'संबलपुट्टलयं च पुक्खल ( [पुष्कल] १ एक विजय, प्रदेश जंत (गा ३४७; सुर ३,१५१) । संक्र. गहिय (सम्मत्त ६१)।विशेष (ठा २, ३-पत्र ८०)। २ अनार्य पुच्छित्ता (भग) । हेकृ. पुच्छिउं, पुच्छि पुट्टलिया स्त्री [दे] छोटी गठरी, पोटली, मोटरी देश-विशेष । ३ पुंस्त्री. उस देश में उत्पन्न, त्तए (पि ५७३, भग)। कृ. पुच्छणिज, (सुपा ४३; ३४४)। उसमें रहनेवालाः सिंघलोहिं पुलिदिहिं पुच्छणीअ, पुच्छियव्व, पुच्छेयव्व (श्रा पुट्टिल पुं[पोट्टिल] १ भगवान् महावीर का पुक्खलीहि (?) (भग ६, ३३-पत्र ४५७), १४, पि ५७१, उप ८६४; कप्प) एक शिष्य, जो भविष्य में तीर्थंकर होनेवाला [सिंहलीहिं पुलिंदीहि पक्कणीहिं (?) (भग पुच्छ देखो पुंछ प्र + उच्छ् । पुच्छइ (षड्)M है (विचार ४७८) । २ एक अनुत्तर-देवलोक६, ३३ टी-पत्र ४६०) ]। ४ वि. अत्यन्त, पुच्छ देखो पुंछ = पुच्छ (कप्प)। गामी जैन महर्षि (अनु २) । प्रभूत (कुप्र ४१०)। ५ संपूर्ण, परिपूर्ण पुच्छ वि [प्रच्छका पूछनेवाला. पुट्ठ वि[स्पृष्ट १ छुपा हुआ (भगः पोप: (सूम २,१,१) पुच्छग, प्रश्न-कर्ता (ोषभा २८ सुर हे १,१३१) । २ न. स्पर्श (ठा २,१, नव पुक्खलच्छिभग । पुंन [दे] जलमह-विशेष, १०, ६५) । स्त्री-च्छिआ (अभि १२५)। १५) पुच्छलच्छिभय ) जल में होनेवाली वनस्पति पुच्छण न [प्रच्छन, प्रश्न] पृच्छा (सूपनि | पुट्ठ वि [पृष्ट] १ पूछा हुमा (पौपः सण हे विशेष (सूत्र २, ३, १८; १९)। देखो १९३ धर्मविश्रावक ६३ टी) २, ३४) । २ न. प्रश्न (ठा २, १)। पोक्खलच्छिलय।। पुच्छणया। स्त्री [प्रच्छना] ऊपर देखो लाभिय वि [लाभिक] अभिग्रह-विशेषपुक्खलालाई स्त्री[पुष्करावती, पुष्कलावती] पुच्छणा (उप ४६६, मौप) वाला (मुनि) (प्रौप; पण्ह २, १)। महाविदह वर्ष का विजय-प्रान्त-विशेष (ठा पुच्छणी स्त्री [प्रच्छनी] प्रश्न की भाषा (ग 'सेणियापरिकम्म पुन [श्रेणिकापरिक२, ३, इक महा)। कूड पुंन [कूट] एक- ४.१-पत्र १८२)। मन्] दृष्टिवाद का एक प्रतिपाद्य विषय शैल पर्वत का एक शिखर (इक) । पुच्छल (अप) देखो पुट्ट = पृष्ट (पिंग)। (सम १२८)। For Personal & Private Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ पाइअसहमहण्णयो पुट्ठ-पुणे पुट्ठ वि [पुष्ट] उपचित (णाया १, ३, स | न [भेदन] नगर, शहर (कस)। वाय राजा (ठा ७) 'सत्थ न [ शस्त्र] १ ४१६)। [पाक] १ पुट-पात्रों से प्रोषधि का पाक- पृथिवी रूप शस्त्र । २ पृथिवी का शस्त्र, हल, पुट देखो पिट्ठ = पृष्ठ (प्रातः संक्षि १९)। | विशेष । २ पाक-निष्पन्न औषध-विशेष: 'पुढ | कुटाल प्रादि (प्राचा) । देखो पुहई, पुहवी।। पुट्ठव वि [स्पृष्टवत् ] जिसने स्पर्श किया | (? ड) वाएहि' (णाया. १, १३-पत्र पुढीभूय वि[पृथगभूत जो अलग हुआ हो हो वह (माचा १, ७, ८,८)। १८१) (सुपा २३६)। पुटुबई देखो पोवई (सुज्ज १०, ६) पुड (शौ) देखो पुत्त- पुत्र (पि २६२ प्राप्र)-पुदुम वि [प्रथम पहला, प्राद्य (हे १, ५५; पुटुवया बो [प्रोष्ठपदा] नक्षत्र-विशेष (सुज्ज | पुडइअ वि [दे] पिण्डीकृत, एकत्रित (दे ६, । कुमा)। १०,५) पुढो प्र[पृथग्] अलग, भिन्न (सुपा ३६२; पुट्टि स्त्री पुष्ट] पोषण, उपचय (विसे २२१; पुडइणी स्त्री [दे. पुटफिनी] नलिनी, कम- रयण ३० श्रावक ४०; प्राचा) छंद वि चेय ८)। २ अहिंसा, दया (पएह २, १लिनी (दे ६, ५५, विक्र २३)। [छन्द] विभिन्न अभिप्रायवाला (माचाः पि पत्र RS) म वि [°मत् ] १ पुष्टिवाला। पुडग पुन [पुटक] देखो पुट = पुट (उवा) ७८) जण पुं [जन] प्राकृत मनुष्य, २ पुं. भगवान महावीर का एक शिष्य (अनुपडपटी सीमा से मोती साधारण लोक (सूत्र १, ३, १, ६) "जिय पुद्रि देखो पिद्रि पृष्ठ; 'पाप्रपडिग्रस्स पइणो | प्रकार की अव्यक्त पावाज (पव ३८) पुंजीव] विभिन्न प्राणी (सूम १: १, २, पुट्टि पुत्ते समारुहंतम्मि' (गा ११, ३३, ८७; पुडम देखो पुढम (प्रति ७१; पि १०४)। ३)। "विमाय, "वेमाय वि ["विमात्र] प्रातः संक्षि १६)। अनेक प्रकार का, बहुविध (राज ठा ४, ४पुडय देखो पुडग (या सुपा ६५६) । पुट्ठि स्त्री [पृष्टि] पृच्छा, प्रश्न 1 य वि पत्र २८०) पुडिंग न दे मुंह, वदन। २ बिन्दु (दे ६, | पुढोजग विदे. पृथग्जक] पृथग्भूत, भिन्न [ज] प्रश्न-जनित (ठा २, १-पत्र ४०)। ८०) पुद्धि स्त्री [स्पृष्टि] स्पर्श य वि [ज] व्यस्थित; 'जमिणं जगतो पुढोजगा' (सूम १, पुडिया स्त्री [पुटिका] पुड़ी, पुड़िया (दे ५, २, १, ४)। स्पर्श-जनित (ठा २, १) । १२) पुढोवम वि [पृथिव्युपम] पृथिवी की तरह पुट्टिया स्त्री [पृष्टिका] प्रश्न से होनेवाली पुड्डु (शौ) देखो पुत्त = पुत्र (प्राप्र)। क्रिया-कर्मबन्ध (ठा २,१)। सब सहन करनेवाला (सूम १, ६, २६)। पुट्टिया स्त्री [स्पृष्टिका] स्पर्श से होनेवाली पुढं देखो पिहं (षड्)। पुढोसिय वि[पृथिवीश्रित पृथिवी के प्राश्रय क्रिया-कर्मबन्ध (ठा २, १)। पुढम वि [प्रथम पहला (हे १, ५५; कुमा; में रहा हुमा (सूग्र १, १२,१३, प्राचा)। पुट्ठिल देखो पोटिल (अनु २)। स्वप्न २३१) । पुण सक [पू] १ पवित्र करना। २ धान्य पुट्ठीया स्त्री [स्पृष्टीया] देखो पुट्रिया = पुढवि देखो पुढवी (आचानि १, १, २, भग मादि को तुषरहित करना, साफ करना । स्पृष्टिका (नव १८)। १६, ३, पि ६७)५ काइय, काइय वि पुणइ (हे ४, २४१)। पुणंति (णाया १, [कायिक] पृथिवी शरीरवाला (जीव), पुट्ठीया स्त्री [पृष्टीया] पृच्छा से होनेवाली ७)। कर्म, पुणिजइ, पुब्वइ (हे ४, २४२)। (पएण १; भग १६,३.ठा पाचानि १, किया-कर्मबन्ध (नव १८) ।। पुण अ [पुनर] इन अर्थों का सूचक १, २) काय देखो पुढवी-काय (आचानि अव्यय-१ भेद. विशेष (विसे ८११)। पुड पुं[पुट] १ परिमाण-विशेष । २ पुट २ अवधारण, निश्चय । ३ अधिकार, परिमित वस्तु (राय ३४)। पुढवी स्त्री [पृथिवी] १ पृथिवी, धरती, भूमि प्रस्ताव । ४ द्वितीय बार, बारान्तर । पुड पुंन [पुट] १ मिथः संबन्ध, परस्पर (हे १, ८८; १३१; ठा ३, ४)। २ काठि- ५ पक्षान्तर । ६ समुच्चय (पएह २, ३, जोड़ान, मिलाव, मिलान; 'अंजलिपुड-', न्यादि गुरणवाला पदार्थ, द्रव्य-विशेष- गउड; कुमाः प्रौपा जी ३७, प्रासू , ५२; 'ताहे करयलपुडेण नीग्रो सो' (प्रौप; महा)। मृत्तिका पाषाण, धातु प्रादि (पएण १)। १६८; स्वप्न ७२; पिंग)। ७ पादपूत्ति में भी २ खाल, ढोल मादि का चमड़ा; 'हुरब्भपुड. __३ पृथिवीकाय का जीव (जी २)। ४ ईशा- इसका प्रयोग होता है (निचू १)। करण न संठाणसंठिया' (उवा ६४ टी गउड ११६७) नेन्द्र के एक लोकपाल की अग्र-महिषी (ठा [करण] फिर से बनाना। २ वि. जिसकी कुमा) । ३ संबद्ध दलद्वय, मिला हुआ दो ४,१-पत्र २०४)। ५ एक दिक्कुमारी फिर से बनावट की जाय वहा 'भिन्नं संखं दलः 'सिप्पपुडसंठिया' (उवाः गउड ५७६) । देवी (ठा ८-पत्र ४३६) । ६ भगवान न होइ पुणकरणं' (उव)। गणव वि [ नव] ४ पोषधि पकाने का पात्र-विशेष (रणाया १, सुपार्श्वनाथ की माता का नाम (राज)। फिर से नया बना हुमा, ताजा (उप ७६८ १३)। ५ पत्रादि-रचित पात्र, दोना (रंभा)। काइय देखो पुढवि-काइय (राज) काय टी; कप्पू)। "पुण म [ पुनर् ] फिर६ माच्छादन, ढक्कन (उवाः गउड)। ७ वि [काय] पृथिवी शरीरवाला (जीव), | फिर, बारंबार। 'पुणकरण न [पुनःकरण] कमल, पद्म; 'पुडइणी' (विक्र २३), भेयण । (माचानि १, १, २)। बइ पुं[पति] | फिर फिर बनाना, बारंबार निर्माण (दे १, L ८ मा १. १. २) । For Personal & Private Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण-पुत्ती पाइअसहमहण्णवो ६०५ ३२) ब्भव [भव] फिर से उत्पत्ति, छट्ठभत्तस्स एगट्ठा' (संबोध ५८)। ३ वि. तारगा, एवं मारिणभद्दस्सवि' (ठा ४, १फिर से जन्म-ग्रहण (चेइय ३५७; प्रौप)। पवित्र, 'थाणुपियाजलपुरण' (कुमा)। पत्र २०४) । 'ब्भू स्त्री [भू] फिर से विवाहित स्त्री, कलसा स्त्री [कलशा] लाट देश के एक पुण्णाग। देखो पुन्नाग (पउम ४३, ३६ से जिसका पुनलंग्न हुआ हो वह महिलाः 'पत्थि गाँव का नाम (राज) घण ( [ घन] पुण्णाम, ६, ५६; हे १, १९०%पि २३१)। पुणब्भूकप्पो त्ति विवाहिया पच्छन्न' (कुप्र विद्याधरों का एक स्वनाम-ख्यात राजा (पउम पुण्णाली स्त्री [दे] असती, कुलटा, चली २०८ २०६) । रवि, 'रावि प [ अपि] | ५, ६५) मंत, मंत्त वि [वत् ] ( दे ६, ५३: षड् ) । फिर भी (उवाः उत्त १०, १६, १९) पुण्यवाला, भाग्यवान् (हे २, १५६, चंड)। पुण्णाह पुन [पुण्याह] १ पुण्य दिन, शुभ 'रावित्ति नी [ आवृत्ति] पुनः प्रावर्तन । देखो पुन्न = पुण्य । दिवस (गा १६५; गउड)। २ वाद्य-विशेष (पडि)- रुत्त वि [°उक्त] फिर से कहा | पुण्ण वि [पूर्ण] १ संपूर्ण, भरपूर, पूरा 'पुण्णाहतूरेण' (स ४०१, ७३४) ।। हुआ। २ न. पुनरुक्ति (चेइय ५३८), 'वि प्र[अपि] फिर भी (संक्षि १९ प्राकृ (मौपः भग; उवा)। २j. द्वीपकुमार देवों पुण्णमसा बापूणमासा] पूाणमा (सबाष ८७) व्वसु पुं [वसु] १ नक्षत्र-विशेष का दाक्षिणात्य इन्द्र (इक)। ३ इक्षुवर समुद्र | का अधिष्ठायक देव (राज)। ४ तिथि-विशेष, पुण्णमा पुण्णिमा स्त्री [पूर्णिमा] तिथि-विशेष, पूर्ण(सम १०; ६६)। २ पाठवें वासुदेव के पक्ष की पांचवीं, दसवीं और पनरहवीं तिथि | मासी (काप्र १९४)। यंद पुं[चन्द्र] पूर्व जन्म का नाम (सम १५३; पउम २०, १७२) (सुन १०, १५)। ५ पूंन. शिखर-विशेष पूणिमा का चन्द्र (महा; हेका ४८) (इक)। कलस [कलश संपूर्ण घट पुष्णिमासिणी देखो पुण्णमासिणी (सम पुण (अप) देखो पुण्ण = पुण्य । °मंत वि (जं १) 'घोस [घोष ऐरवत वर्ष ६६; श्रा २६ सुज्ज १०, ६)। [°मत् ] पुण्यशाली (पिंग)। का एक भावी जिन-देव (सम १५४) चंद पुत्त पुं [पुत्र] लड़का (ठा १०; कुमा, सुपा पुणअ सक [दृश् ] देखना। पुणअइ (धात्वा पुं[चन्द्र] १ संपूर्ण चन्द्रमा। २ विद्याधर | ६६ ३३४. प्रासू २७; ७७ पाया १, २)। १४५)। वंश के एक राजा का नाम (पउम ५, ४४)। बई स्त्री [वती] लड़कावाली स्त्री (सुपा पुणइ पुं[दे] श्वपच, चाण्डाल (दे ६, ३८)। प्पभ [प्रभ] इक्षुवर द्वीप का अधिपति । २८१)। पुणण वि [पवन] पवित्र करनेवाला। स्त्री. देव (राज)। भद्द पुं[भद्र] १ स्वनाम- पुत्तंजीवय ( [पुत्रंजीवक] वृक्ष-विशेष, णी (कुमा)। ख्यात एक गृह-पति, जिसने भगवान महावीर पूतजीया, जियापोता का पेड़; 'पुत्तंजीवपरिट्टे' के पास दीक्षा लेकर मुक्ति पाई थी (अंत)। २ पुणरुत्तम. कृत-करण, बारंबार, फिर-फिर; (परागण १-पत्र ३१)। २ न. जियापोता पुणरुत्तं । 'अइ सुप्पइ पंसुलि णीसहेहिं अंगेहि यक्ष-निकाय का एक इन्द्र (४, १) । ३ पुंन. का बोजा 'पुत्तंजीवयमालालंकिएणं' (स पुणरुत्त' (हे १, १७६; कुमा), 'ण वि तह अनेक कूट-शिखरों का नाम (इक)। ४ यक्ष का | ३३७)। छेअरपाइँवि हरंति पुणरुतरापरसिपाई' चैत्य-विशेष (प्रौप; विपा १, १, उवा)। पुत्तय [पुत्रक] देखो पुत्त (महा)। (गा २७४) । 'मासी स्त्री ['मासी] पूणिमा तिथि (दे) पत्तरे पंखी [दे] योनि, उत्पत्ति-स्थान; 'पृत्तरे °सेण सेन राजा श्रेणिक का पुत्र, पुणा . अ. देखो पुण= पुनर् (पि ३४३; योनौ' (संक्षि ४७)। जिसने भगवान् महावीर के पास दीक्षा ली थी | पुणाइ हे १, ६५ कुमाः पउम ६, १७ थी पुत्तलय पुं [पुत्रक] पूतला (सिरि ८६१; पुणाई । उवा)। (अनु) । देखो पुन्न = पूर्ण। ६२, ६४)। पुणु (अप) देखो पुण = पुनर्, (कुमाः पि | पुण्णमासिणी स्त्री [पौर्णमासी] तिथि-विशेष, पुत्तलिया। स्त्री [पुत्रिका] शालभजिका, पूतली पूर्णिमा (औपः भग) - पुत्तली ३४२)। (पान; कुम्मा ६; प्रवि १३; सुपा २६९; सिरि ८१५)। पुणो देखो पुण = पुनर् (ौपः कुमाः प्राकृ पुण्णवत्त न [दे] प्रानन्द से हृत वस्त्र (दे ६, पुत्तह देखो पुत्त (प्राकृ ३५) । ५३; पान) पुत्ताणुपुत्तिय वि [पौत्रानुपुत्रिक] पुत्रपुणोत्त देखो पुण-रुत्त, पुणरुत्त (प्राकृ ३०)। पुण्णा स्त्री [पूर्णा] १ तिथि-विशेष, पक्ष की पौत्रादि के योग्य, 'पुत्ताणपुत्तियं वित्ति पुणोल्ल सक [प्र+नोदय ] १ प्रेरणा ५, १० और १५ वीं तिथि (संबोध ५४ | कप्पेति' (पाया १, १-पत्र ३७)।करना । २ अत्यन्त दूर करना । पुषोल्लयामो सुज १०, १५)। २ पूर्णभद्र और मणिभद्र पुत्तिआ स्त्री [पुत्रिका] १ पुत्री, लड़की (उत्त १२, ४०)। इन्द्र की एक महादेवी–अग्र-महिषी (इका (मभि १७८)। २ पूतली (द ६, ६२, पुण्ण पुंन [पुण्य] १ शुभ कर्म, सुकृत (प्रौपः णाया २); 'पुरणभद्दस्स एणं जक्खिदस्स कुमा)महा; प्रासू ७५ पाय)। २ दो उपवास, जक्सरनो चत्तारि भग्गमहिसीनो पएणत्तामो पुत्तिल्ल देखो पुत्त (प्राक ३५)। बेलाः 'भई पुर्ण (? एणं) सुही (? हि)यं । तं जहा-पुत्ता(? एणा) बहुपुत्तिमा उत्तपा पुत्ती स्त्री [पुत्री] लड़की (कप्पू)। For Personal & Private Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो पुत्ती-पुप्फा पुत्ती स्त्री [पोती] १ वस्न-खण्ड, मुख-वत्रिका मार्य श्री संभूतविजय का एक शिष्य (कप्प)-ठा २, ४)। २ ईशानेन्द्र के हस्ति-सैन्य का (पव ६०; संबोघ ५४)। २ साड़ी, कटी-वन | पुन्नयण [पुण्यजन] यक्ष, एक देव-जाति अधिपति देव (ठा ५, १; इक)। ३ देव. (धर्मवि १७) । देखो पोत्ती। (पान) विशेष (सिरि ६६७)'दंती स्त्री [दन्ती] पुत्तुल्ल पुं[पुत्र] पुत्र, लड़का (प्राकृ ३५)। | पुन्नाग देखो पुनाग (कप्पा कुमाः पउम दमयन्ती की माता का नाम, एक रानी पुनाम:२१, ४६ पान)। ३ न. पुन्नाग का पुत्थ वि [दे] मृदु, कोमल (दे ६,५२)। (कुप्र ४८) नालिया स्त्री ['नालिका] पुन्नाय) फूल (कुमाः हे १, १६०) पुष्प का बेट-डंठल (तंदु ४)। निज्जास' पुत्य पुंन [पुस्त, क] १ लेप्यादि कर्म पुन्नालिया।दे] देखो पुण्णाली (सुपा | पुत्थय (श्रा १)। २ पुस्तक, पोथी, [निर्यास] पुष्प-रस (जीव ३) ५ °पुर न पुन्नाली ५६ ५६७)। [पुर] पाटलिपुत्र, पटना शहर (राज)। किताब: 'पुत्थए लिहावेई' (कुप्र ३४८), | पुन्निमा देखो पुण्णिमा (रंभा)। 'अवहरिओ पुत्थरो सहसा' (सम्मत्त ११८)। 'पूरय पुं[पुरक] पुष्प की रचना-विशेष पुप्पुअ वि[दे] पीन, पुष्ट, उपचित (दे ६, (णाया १, १६)°पभ न [प्रभ] एक देखो पोत्था ५२)। देव-विमान (सम ३८)। बलि पु['बलि] पुथवी देखो पुढवी (चंड)। पुप्फ न [पुष्प] १ फूल, कुसुम (णाया १,१७ उपचार, पुष्प-पूजा (पाप)। बाण पुं पुथुणी) (पै) देखो पुढवी (प्राकृ १२४४ कप्पः सुर ३,६५; कुमा)। एक विमानावास, [°बाण] कामदेव (रंभा)+ भद्द स्त्रीन पुथुवी पि १९०)। नाथ (4) पुं["नाथ] देवविमान-विशेष (देवेन्द्र १३५; सम ३८)। [भद्र] नगर-विशेष, पटना शहर (राज) राजा (प्राकृ १२४)। ३ स्त्री का रज। ४ विकास । ५ याँख का मंत वि[वत्] पुष्पवाला (णाया १,१)। पुध देखो पिह = पृथक् (ठा १०)। एक रोग। ६ कुबेर का विमान (हे १, 'माल न [ माल] वैताब्य की उत्तर श्रेणि पुधं देखो पिधं (हे १, १८८)। २३६; २, ५३, ६०, १५४) इरि पुं का एक नगर (इक) °माला स्त्री [ माल] [गिरि] एक पर्वत का नाम (पउम ७६, १०) पुधम (पै) देखो पुढम, पुदुम (पि ऊर्व लोक में रहनेवाली एक दिक्कुमारी पुधुम १०४ हे ४, ३१६) कंत न [कान्त] एक देव-विमान; 'पुफ्फ- | देवी (ठा ८-पत्र ४३७)। य ( [क] कंत' (सम ३८)। करंडय पुं[करण्डक] | १ फेन, डिण्डीर (पान)। २ न. ईशानेन्द्र पुन्न देखो पुण्ण = पुन्या 'कह मह इत्तियापुत्रा हस्तिशीर्ष नगर का एक उद्यान, 'पुप्फकरंडए | का एक पारियानिक विमान, देव-विमानजं सो दीसिज पञ्चक्खं' (सुर १२, ११८; उप ७६८ टी; कुमा)५ कखिअ वि [ काङ्क्षित, उज्जाणे' (विपा २, १) । केउ पुं[ केतु] विशेष (ठा ८; इक; पउम ७६, २८ प्रौप)। १ ऐरवत क्षेत्र का सातवाँ भावी तीर्थकर- ३ पुष्प, फूल (कप्प)। ४ ललाट का एक काङ्क्षिन] पुण्य की चाहवाला (भग)। जिनदेव (सम १५४)। २ ग्रह-विशेष, ग्रहा- पुष्पाकार आभूषण (जं २)। देखो ऊपर - कलस पुं [कलश] एक राजा का नाम धिष्ठायक देव-विशेष (ठा २, ३), ग न ग। लाई, 'लावी स्त्री [लावी] फूल (उव ७६८ टी) 1 °जसा स्त्री ['यशस्] [क] १ मूल भागः 'भारणस्स पुफ्फगंतो इमेहि बिननेवाली स्त्री (पाम दे १, ६)। लेस एक स्त्री का नाम (उप ७२८ टी) पत्तिया कज्जेहि पडिलेहे' (ोघ २८६)। २ पुष्प, न [°लेश्य एक देव-विमान (सम ३८) स्त्री [प्रत्यया] एक जैन मुनि-शाखा (कप्प)। "पिवासय वि ["पिपासक] पुण्य का फूल (कप्प)। ३ देखो नीचे °य (प्रौप)। वई स्त्री [°वती] १ ऋतुमती स्त्री (दे ६, 'चूला स्त्री [चूला] १ भगवान् पार्श्वनाथ १४; गा ४८०)। २ सत्पुरुष नामक किंपुरुप्यासा, पुण्य की चाहवाला (भग)। भागि की मुख्य शिष्या का नाम (सम १५२; षेन्द्र की एक अग्र-महिषी (ठा ४, १; णाया वि[ भागिन्पुण्य का भागी, पुण्य-शाली कप्प)। २ एक महासती, अन्निकाचार्य की २)। ३ बीसवें जिनदेव की प्रवत्तिनी(सुपा ६४१)। "सम्म पुं["शर्मन्] एक सुयोग्य शिष्या (पडि)। ३ सुबाहुकुमार की प्रमुख साध्वी का नाम (सम १५२, पव ब्राह्मण का नाम (उप ७२८ टी) °सार । मुख्य पत्नी का नाम (विपा २, १) चूलिया है)। ४ चैत्य-विशेष (भग)। वण्ण न [सार] एक स्वनाम-ख्यात श्रेष्ठी (उप स्त्री [चूलिका] एक जैन ग्रन्थ (निर १, [°वर्ण] एक देव-विमान (सम ३८) सिंग ७२८ टी) ४) चणिया स्त्री [.निका] पुष्पों से न [ शृङ्ग] एक देव-विमान (सम ३८)। पुन्न देखो पुण्ण = पूर्ण (सुर २, ६७; उप पूजा (णाया १, २)। "चिणिया स्त्री सिद्ध न [सिद्ध] देव-विमान-विशेष ७६८ टी ठा २, ३, अनु २) तल्ल पुं [°चायिनी] फूल बिननेवाली स्त्री (पान) (सम ३८) सुय पुं [शुक] व्यक्ति[तल] एक जैन मुनि-गच्छ (कुप्र ६)।- छज्जिया स्त्री [छादिका] पुष्प-पात्र-विशेष वाचक नाम (उव)। वित्त न [वर्त] 'पाय वि [प्राय करीब-करीब संपूर्ण, (राज)। भय न [ध्वज] एक देव- एक देव-विमान (सम ३८)। कुछ कम पूर्ण (उप ७२८ टी) 'भद्द पुं| विमान (सम ३८) + णंदि [ नन्दिन] पुप्फस न [दे] फेफसा, शरीर का एक [भद्र] १ यक्ष-विशेष (सिरि ६६६) । २ एक राजा का नाम (ठा १०) °णालिया भीतरी अंग (पउम १०५, ५५) यक्ष-निकाय एक इन्द्र (ठा २, ३) । ३ एक | देखो नालिया (तंदु)। "दंत पुं[दन्त] | पुप्फा स्त्री [दे] फूफी, पिता की बहिन अन्तकृद् मुनि (अंत १८)। ४ एक जैन मुनि, । १ नववा जिनदेव, श्री सुविषिनाथ (सम ६२ (दे ६, ५२)। For Personal & Private Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुप्फिअ-पुरा पाइअसहमहण्णवो ६०७ पुप्फिअ वि [पुष्पित] कुसुमित, संजात- पुर न [पुर] १ नगर, शहर (कुमा; कुप्र पुरस्कार पु[पुरस्कार] १ मागे करना, अग्रतः पुष्प (धर्मवि १४८; कुमा; णाया १, ११, ४३८) । २ शरीर, देह (कुप्र ४३८) चंद स्थापन (प्राचा)। २ सम्मान, पादर सुपा ५८)। पुं[चन्द्र] विद्याधर वंश का एक राजा (सम ४०)।। पुप्फिआ स्त्री [दे] देखो पुप्फा (पाम)।- (पउम ५, ४४) 'भेयण वि [भेदन] पुरक्खड वि [पुरस्कृत] १ मागे किया हुना पुष्फिआस्त्री [पुष्पिता] एक जैन प्रागम- नगर का भेदन करनेवाला। स्त्री-णी (श्रा ६)। २ पुरोवर्ती, अागामी; 'गहणग्रंथ (निर १, ३)। (उत्त २०, १८) व पुं[ पति नगर समयपुरक्खडे पोग्गले उदीरेंति' (भग १, १) पुप्फिम पुंस्त्री [पुष्पत्व] पुष्पपन (हे २, का अधिपति (भवि)। वर न [°वर] पुरच्छा देखो पुरत्था (राज)। श्रेष्ठ नगर, (उवा; पण्ह १, ४) वरी स्त्री पुरच्छिम देखो पुरस्थिम (ठा २, ३-पत्र पुप्फी [दे] देखो पुप्फा (षड् ) ६७ सुज्ज २०-पत्र २८७; पि ५६५) पुप्फुआ स्त्री [दे] करीष (गोयठा) का अग्नि, सुर २, १५२)। वाल पुं [पाल] नगर. दाहिणा स्त्री [दक्षिणा] पूर्व-दक्षिण 'सूइज्जइ हेमंतम्मि दुग्गमो पुफ्फुमासुभंघेण' रक्षक, राजा (भवि) दिशा, अग्निकोण (ठा १०-पत्र ४७८) । (गा ३२६)। पुर देखो पुरंः 'पुरकम्मम्मि यपुच्छा' (बृह १) पुरच्छिमा देखो पुरथिमा (ठा १०-पत्र पुप्फुत्तर न [पुष्पोत्तर] एक विमान (कप्प) ४७८)। 'वडिसग न [वतंसक] एक देव-विमान पुरएअ ? देखो पुरदेव (भवि)। पुरएव पुरच्छिमिल्ल देखो पुरथिमिल्ल (सम ६६) ।। (सम ३८)।। पुरओभ[पुरतस] १ अग्रतः, मागे (सम पुरस्थ वि [पुरःस्थ] प्रागे रहा हुआ, अग्रपुप्फुत्तरा । स्त्री [पुष्पोत्तरा] शक्कर की वर्ती, पुरस्सर, 'पुरत्थं होइ सहायं रणे समं १५१, ठा ४, २: गा ३५०; कुमा; औप)। पुप्फोत्तरा एक जाति (णाया १, १७| २ पहले, पूर्व में; 'पुरो कयं जं तु तं तेण' (उप १०३१ टी), 'जेण गहिएणणत्था पत्र २२६; पएण १७-पत्र ५३३)। इत्थ परत्यावि हु पुरत्या' (श्रा १४)।पुरेकम्म' (प्रोघ ४८६)। पुप्फोदय न [पुष्पोदक] पुष्प-रस से मिश्रित पुरत्थ प्र[पुरस्तात् ] १ पहले, काल पुरं प्र[पुरस्] १ पहले, पूर्व में। २ जल (णाया १,१-पत्र १९)। पुरत्थओ या देश की अपेक्षा से प्रागे, 'तपुरसमक्षा 'तए णं से दरिदे समुकि? समाणे पुप्फोवय) वि [पुप्पोपग] पुष्प प्राप्त पुरत्था 'पुरत्थभाए' (सुपा ३९०), 'मोसस्स पच्छा पुरं च णं विउलभोगसमितिसमन्नागते पुप्फोवा करनेवाला, फूलनेवाला (वृक्ष) पच्छा य पुरत्यमो ये (उत्त ३२, ३१), यावि विहरिज्जा' (ठा २, १-पत्र ११७)। 'प्रादीणियं दुकडियं पुरत्या' (सूम १, ५, (ठा ३, १-पत्र ११३)। ३ अग्रे, मागे गम वि [गम] अग्र- १, २)। २ पूर्वदिशा; 'पुरत्याभिमुहे' (कप्प; पुम पुं[पुंस्] १ पुरुष, नरः 'थीमपुमाणं गामी, पुरोवर्ती (सूत्र १, ३, ३, ६)। देखो औप; भग; णाया १,१–पत्र १९) विसूझता' (पंच ५, ७२), 'पुमत्तमागम्म परे. परो। कुमार दोवि' (उत्त १४, ३ ठा प्रौप)। पुरस्थिम वि [पौरस्त्य, पूर्व] १ पूर्व की पुरंजय पुं[पुरञ्जय] एक विद्याधर राजा। तरफ का: 'उत्तर-पुरथिमे दिसीभाए (कप्पा २ पुरुष-वेद (कम्म ५, ६०), आणमणी पुरन [पुर] एक विद्याधर-नगर (इक) औप)। २ न. पूर्व दिशाः 'पुरतो पुरस्थिमेणं स्त्री [ आज्ञापनी] पुरुष को प्राज्ञा देनेवाली पुरंदर पुं [पुरन्दर] १ इन्द्र, देवराज । २ (णाया १; {--पत्र ५४, उवा)। भाषा, भाषा-विशेष (पएण ११) पन्नावणी गन्ध-द्रव्य-विशेष (हे १, १७७)। ३ वृक्ष-पुरस्थिमा स्त्री [पूर्वा] पूर्व दिशा; 'पुरत्थिमाओ स्त्री [प्रज्ञापनी] भाषा-विशेषः पुरुष के विशेष, चव्य जा पेड़; 'पुरंदरकुसुमदामलक्षणों का प्रतिपादन करनेवाली भाषा वा दिसाम्रो पागो' (प्राचा: मृच्छ १५८टि)। सुविणेण सूइया जाया (उप ६८६ टी)। (पएण ११-पत्र ३६४) वयण न पुरथिमिल्ल वि [पौरस्त्य] पूर्व दिशा का, ४ एक राजर्षि (पउम २१,८०)। ५ मन्दर[वचन] पुलिंग शब्द का उच्चारण (परण पूर्व दिशा में स्थित (विपा १, ७, पि ५६५)। कुब्ज नगर का एक विद्याधर राजा (पउम ११-पत्र ३७०) पुरदेव पुं [पुरादेव] भगवान् प्रादिनाथ, ६, १७०)4 जसा स्त्री [यशस्] एक पुम्म (अप) सक [दृश ] देखना। पुम्मइ 'पुरदेवजिएस्स निवारणं' (पउम ४, ८७)।' राज-कन्या का नाम (उप ९७३)। "दिसि पुरव देखो पुत्व (गउड हे ४, २७०, ३२३)। (प्राकृ ११९)। स्त्री [दिश्] पूर्व दिशा (उप १४२ टी) पुरस्सर वि[पुरस्सर] अग्रगामी (कप्पू)। पुयली स्त्री [दे] पुत-प्रदेश, कमर के नीचे पुरंधि) स्त्री [पुरन्ध्री] १ बहु कुटुम्बवाली पुरा स्त्री [पुर ] नगरी, शहर (हे १, १६) का भागः 'पुयलि पप्फोडेमाणे' (भग १५ पुरंधी स्त्री। २ पति और पुत्रवाली स्त्री | पुरा देखो पुरिल्ला = पुरा (सूम १, १, २, पत्र ६७६) (कुमाः कुप्र १०७; सुपा २६, पाम)। ३ २४ विपा १,१) इय, कय वि [कृत] पुयावइत्ता देखो पुआव। अनेक काल पहले व्याही हुई स्त्री (कप्पू)। पूर्व काल में किया हुमा (भविः कुप्र ३१९)। पुर (अप) देखो पूर - पूरय । पुरह (पिंग)। पुरकड देखो पुरक्खड (सूत्र २, २, १८) 'भव [भव] पूर्व जन्म (कुप्र ४०६)। ७९ प्रौप)। पुरंजय पुर] एक विद्या For Personal & Private Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ पाइअसहमहण्णवो पुराअण-पुरिसोत्तम पुराअण वि [पुरातन] पुराना, प्राचीन । पुरिल्ल देखो पुरिल्ला = पुरा, पुरस् : 'पुरिल्लो' एक सामुद्रिक कला (जं २) । °लिंग, न श्री. 'णी (नाट–चैत १३१)। (हे २, १६४ टिः षड् )। [लिङ्ग] पुरुष-चिह्न १ लिंगसिद्ध पुं पुराकर सक [पुरा + कृ] मागे करना। पुरिल्लदेव पुं [दे] असुर, दानव (दे ६,५५) [लिङ्गसिद्ध] पुरुष-शरीर से जो मुक्त हुआ पुराकरंति (सूत्र १, ५, २, ५)। हो वह (णंदि) वयण न [वचन] पुरिल्लपहाणा स्त्री [दे] साँप की दाढ (दे ६, पुराण वि [पुराण] १ पुराना, पुरातन पुलिंग शब्द (माच। २, ४, १, ३) वर पुं ५६)। (गउड; उत्त ८, १२)। २ न. व्यासादि [°वर] श्रेष्ठ पुरुष (प्रौप)५°वरगंधहत्थि पुं पुरिल्ला अ[पुरा] १ निरन्तर क्रिया-करण, मुनि-प्रणीत ग्रन्थ-विशेष, पुरातन इतिहास के [वरगन्धहस्तिन्] १ पुरुषों में श्रेष्ठ विच्छेद-रहित क्रिया करना । २ प्राचीन, द्वारा जिसमें धर्म-तत्त्व निरूपित किया जाता गन्धहस्ती के तुल्य । २ जिन-देव (भग; पडि)। पुराना । ३ पुराने समय में। ४ भावी । ५ हो वह शास्त्र (धर्मवि ३८, भवि) पुरिस वरपुंडरीय पुं[वरपुण्डरीक] १ पुरुषों निकट, सन्निहित। ६ इतिहास, पुरावृत्त (हे [पुरुष] श्रीकृष्ण (वजा १२२)। में श्रेष्ठ पद्म के समान । २ जिन-देव, अहंन् २, १६४)। (भग; पडि)-1 "विजय ' [विचय, पुरिकोबेर पुं. ब. [पुरीकौबेर] देश-विशेष | पुरिल्ला अ [पुरस ] आगे, अग्रतः (हे २, "विजय ज्ञान-विशेष (सूत्र २, २, २७)।' (पउम १८, ६७)। १६४)। पुरिस्थिमा देखो पुरस्थिमा (सूम २, १, ६)। 'वेय पुं ["वेद] १ कर्म-विशेष, जिसके पुरिस पुंन [पुरुष १ पुमान्, नर, मर्द (हे उदय से पुरुष को स्त्री-संभोग की इच्छा होती पुरिम देखो पुव्व = पूर्व (हे २, १३५, प्राकृ १, १२४. भगः कुमाः प्रासू १२६); 'इत्याणि है वह कर्म । २ पुरुष को स्त्री-भोग की अभि२८ भगः कुमा); 'पंचवनो खलु धम्मो वा पुरिसारिण वा (पाचा २, ११, १८)। लाषा (पएण २३, सम १५०)। सिंह, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिरणस्स' (पव २ जीव, जीवात्मा (विसे २०१०; सूम २, सीह पुं [सिंह] १ पुरुषों में सिंह के ७४ पंचा १७, १) । ड्ढे पुन [ ] १, २६)। ३ ईश्वर (सूम २, १, २६)। समान, श्रेष्ठ पुरुष । २ पुं. जिनदेव, जिन १ पूर्वाध। २ प्रत्याख्यान-विशेष (पंचा ५ ४ शङ कु, छाया नापने का काष्ठादि-निर्मित भगवान (भगः पडि)। ३ भगवान् धर्मनाथ पडि) । ३ तप-विशेष, निविकृतिक तप कीलक । ५ पुरुष-शरीर (णं दि)-1 कार, के प्रथम श्रावक का नाम (विचार ३७८)। (संबोध ५७) ड्ढिय वि [धिक कार, गारपुं [ कार] १ पौरुष, पुरुषपन, ४ इस अवसर्पिणी काल में उत्पन्न पाँचवाँ 'पुरिमड्ढ' प्रत्याख्यान करनेवाला (पएह २, पुरुष-चेष्टा, पुरुष-प्रयत्न (प्रासू ४३; उवा; सुर वासुदेव (सम १०५; पउम ५, १५५, पव १.ठा ५,१)। २, ३५; उवर ४७) । २ पुरुषत्व का २१०) । °सेण पुं [सेन] १ भगवान् पुरिम वि [पौरस्त्य] अन-भव, अग्रेतन, प्रागे अभिमान (प्रौप)। जाय पुं [जात] १ नेमिनाय के पास दीक्षा लेकर मोक्ष जानेवाला का; 'इय पुव्वुत्तचउक्के झारणेसु पढमदुगि खु पुरुष । २ पुरुष-जातीय (सूत्र २, १, ६७ एक अन्तकृद् महर्षि, जो वासुदेव के अन्यतम मिच्छत्तं । पुरिमदुगे सम्मत्तं' (संबोध ५२)। ठा ३, १, २, ४, १) । जुग न [युग] पुत्र थे (अंत १४) । २ भगवान महावीर के पुरिम [दे] प्रस्फोटन, प्रतिलेखन की क्रिया- क्रम-स्थित पुरुष (सम ६८)। जेट्ट पुं पास दीक्षा लेकर अनुत्तर विमान में उत्पन्न विशेष, 'छ प्पुरिमा नव खोडा' (ोघ २६५)।- [ज्येष्ठ] प्रशस्त पुरुष (पंचा १७, १०)। होनेवाले एक मुनि, जो राजा श्रेणिक के पुरिमताल न [पुरिमताल] नगर-विशेष °त्त, 'त्तण न [व] पौरुष, पुरुषपन; 'नहि पुत्र थे (प्रनु १) पदाणिअ, दाणीय j (विपा १, ३; प्रौप)। नियजुवइसलहिया पुरिसा पुरिसत्तणमुविति' । दानीय उपादेय पुरुष, प्राप्त पुरुष (सम पुरिमिल्ल वि [पूर्वीय] पहले का, पुरातन, (सुर २, २४, महा: सुपा ८४)1'त्थ पुं प्राचीन; 'प्रासि नरा पुरिमिल्ला, ता कि [Tथै धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुष पुरिसकारिआ स्त्री [पुरुषकारिका, ता] अम्हेवि तह होमो' (इय ११५)। प्रयोजना 'सयलपुरिसत्थकारणमइदुलहो पुरुषार्थ, प्रयत्न (दस, ५, २, ६)। माणुसो भवो एसो' (धर्मवि ८२, कुमाः पुरिल पुं[दे] दैत्य, दानव (षड् )। सुपा १२६), 'पुंडरीअ पुं [पुण्डरीक] पुरिसाअ अक [ पुरुषाय ] विपरीत मैथुन पुरिल्ल वि [पुरातन] पुरा-भव, पहले का, इस अवसर्पिणी काल में उत्पन्न षष्ठ वासुदेव करना । वकृ.पुरिसाअंत (गा १६६:३६१)। पूर्ववर्ती (विसे १३२६ हे २, १६३)। (पव २१०)प्पणीय वि [प्रणीत] १ पुरिसाइअ न [पुरुषायित] विपरीत मैथुन पुरिल्ल वि [पौरस्त्य] पुरो-भव, पुरो-वर्ती, ईश्वर-निर्मित । २ जीव-रचित (सूम २, १, (दे १, ४२) अग्र-गामी (से १३, २, हे २, १६३; प्रामा २६)4'मेह मेध यज्ञ-विशेष, जिसमें पुरिसाइर वि [पुरुषायित] विपरीत रत पुरुष का होम किया जाय वह यज्ञ (राज) करनेवाला, 'दरपुरिसाइरि विसमिरि सुजाण पुरिल्ल वि [पौर] पुर-भव, नागरिक (प्राकृ 'यार देखो कार (गउड सुर २, १६, सुपा पुरिसाण जं दुक्खं (गा ५२; ४४६)। ३५ हे २, १६३) २७१)। लक्खण न [ लक्षण] कला- पुरिसुत्तम । पुं [पुरुषोत्तम] १ उत्तम पुरिल्ल वि [दे] प्रवर, श्रेष्ठ (दे ६, ५३)। विशेष, पुरुष के शुभाशुभ चिह पहचानने की पुरिसोत्तम पुरुष, श्रेष्ठ पुमान् । २ जिन For Personal & Private Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरी-पुलाय पाइअसहमहण्णवो देव, अहंन (सम १, भग; पडि)। ३ चौथा संस्कृति पहले ही किया जाता जिमनवार १६०, सुर ११, १२०, १२, २०४७, त्रिखण्डाधिपति, चतुर्थ वासुदेव (सम ७० -भोजनोत्सवः (प्राचा २, १, २, ७२, १ २१२) । संकृ. पुलइअ (स ६८६) पउम ५, १५५) । ४ भगवान् अनन्तनाथ का ४, १) संथुय वि [संस्तुत] १ पूर्व- पुलअ पुं[पुलक] १ रोमाञ्च (कुमा)। २ प्रथम श्रावक (विचार ३७८)। ५ श्रीकृष्ण परिचित । २ स्व-पक्ष का सगा (माचा २, रत्न-विशेष, मरिण की एक जाति (पएण १ (सम्मत्त २२६) १, ४, ५) उत्त ३६, ७७ कप्प)। ३ जलचर जन्तुपरी स्त्रीपरी नगरी, शहर कमा) नाह पुरेस पुं| पुरेश नगर-स्वामी (भाव) विशेष. ग्राहका एक भेद, 'सीमागारपल(ल)पुं["नाथ] नगरी का अधिपति, राजा (उप पुरो देखो पुरं (मोह ४६, कुमा)। अ, 'ग यसुंसुमार- (पएह १, १---पत्र ७) ७२८ टी) वि [ग] अग्रगामी, अग्रेसर (प्रति ४० विसे कंड पुंन [°काण्ड] रत्नप्रभा नरक-पृथिवी पुरीस पुंन [पुरीष] विष्ठा (गाया १,८; २५४८) गम वि [गम] वही अर्थ का एक काण्ड (ठा १०)। उप १३६ टी; ३२० टी; पान); 'मुत्तपुरीसे (उप पृ ३५१)। भाइ वि [भागिन्] दोष को छोड़ कर गुण-मात्र को ग्रहण करने | पुलअण वि [दर्शन] देखनेवाला, प्रेक्षक य पिक्खंति' (धर्मवि १६)। (कुमा)। वाला (नाट-विक्र ६७)। पुरु पुं[पुरु] १ स्व-नाम-ख्यात एक राजा पुलअणन [पुलकन पुलकित होना (कप्पू)।। पुरोकर सक [पुरस् + कृ] १ प्रागे करना । (मभि १७६) । २ वि. प्रचुर, प्रभूत । स्त्री. पुलआअ अक [उत् + लस्] उल्लसित "ई (प्राकृ २८)। पोका मा १६; सन १. होना, उल्लास पाना। पुलपाइ (हे ४, पुरुपुरिआ नी [दे] उत्कण्ठा, उत्सुकता २०२) । वकृ. पुलआअमाण (कुमा)। पुरोत्तमपुर न [पुरोत्तमपुर] एक विद्याधर- पुलइअ वि [दृष्ट] देखा हुआ (गा ११८ सुर पुरुमिल्ल देखो पुरिमिल्ल (गउड)। नगर का नाम (इक)। १४, ११ पाप्र)। पुरुव । देखो पुव्व = पूर्व; 'ण ईरिसो| पुलइअ वि [पुलकित] रोमाञ्चित (पामा पुरुव्व । दिट्ठपुरुषो' (स्वप्न ५५), 'अमंदपुरोवग पुं[पुरोपक] वृक्ष-विशेष (प्रौप) कुमा ४, १६; कप्प; महा: गा २०) पाणंदगुदलपुरुब्वं' (सुपा २२, नाट-मृच्छ पुरोह [पुरोधस् ] पुरोहित (अ ७२८ पुलइन्ज प्रक [पुलकाय ] रोमाश्चित होना। १२१; पि १२५)। टी; धर्मवि १४६)। वकृ. पुलइज्जत (सण)। पुरोहड वि [दे] १ विषम, असम । २ पुरुस (शौ) देखो पुरिस (प्राकृ ८३; स्वप्न पुलइल्ल वि [पुलकिन रोमाञ्च-युक्त, रोमापच्छोकड (?) (दे ६, १५) । ३ पुन. २६; अवि ८५; प्रयौ ९६) ञ्चित (वजा १६४)। प्रावृत भूमि का वास्तु (दे ६, १५) । ४ पुलएंत देखो पुलअ = दृश् । पुरुसोत्तम (शौ) देखो पुरिसोत्तम (पि अग्रद्वार, दरवाजा का अग्रभाग (मोघ ६२२)। पुलंधअ [दे] भ्रमर, भौंरा (षड्)। १२४)। ५ बाडा, वाटक; संझासमए पत्ते मज्झ बलद्दा पुरुहूअ पुं[दे] घूक, उल्लू (दे ६, ५५)। | पुलंपुल न [दे] अनवरत, निरन्तर (पएह १, पुरोहडस्संतो। मह दिट्ठीए दंसिवि ठाएयव्वा' ३–पत्र ४५; औप)।पुरुहूअ पुं[पुरुहूत] इन्द्र, देव-राज (गउड)। (सुपा ५४५ बृह २)। पुलको देखो पुलअ = पुलक (पि २०३ टि: पुरूरव पुं [पुरूरवस ] एक चंद्र-वंशीय पुरोहिअ [पुरोहित पुरोधा, याजक, होम | पुलगवाया १, १ सम १०४ कप्प)। राजा (पि ४०८ ४०६)। आदि से शान्ति-कर्म करनेवाला ब्राह्मण पुलय पुन [पुलक] कोट-विशेष (पाचा २, पुरे देखो पुरंः 'जस्स नत्थि पुरे पच्छा मज्झे (कुमाः काल)। तस्स कुओ सिया' (माचा)। कड वि [कृत] पुल पुंदे. पुल] छोटा फोड़ा, फुनसीः 'ते पुलाग पूंन [पुलाका १ प्रसार अन्न, 'धन्न आगे किया हुआ, पूर्व में किया हुआ (प्रौपः पुला भिज्जति' (ठा १०-पत्र ५२१)। पुलायमसारं भन्नइ पुलायसद्देण' (संबोध सून १, ५, २, १; उत्त १०, ३) कम्म पुल वि[पुल समुच्छ्रित, उन्नतः 'पुलनिप्पुलाए' २८ पव ६३); 'निस्तारए होइ जहा पुलाए न [कर्मन्] पहले करने का काम पूर्व में (दस १०, १६)। (सूत्र १, ७, २६)। २ चना आदि शुष्क की जाती क्रिया: 'पुरमो कयं जं तु तं पुरेकम्म' पुल प्रक[पुल ] उन्नत होना (दस १०, अन्न (उत्त ८, १२, सुख ८, १२)। ३ लह(मोघ ४८६; हे १, ५७)। कार पुं[कार] १६)। सुन आदि दुर्गन्ध द्रव्य । ४ दुष्ट रसवाला सम्मान, प्रादर (उत्त २६, ७; सुख २६, ७) पुल । सक [दृश.] देखना। पुलइ, पुलाइ द्रव्यः 'तिविहं होइ पुलागं धरणे गंधे यरस क्खड देखो कड (पएण ३६-पत्र ७६६; पुलअ (प्राकृ ७१; हे ४, १८१; प्राप्र ८, पुलाए य' (बृह ५)। ५ पुं. अपने संयम को पएह १, १) वाय पुं[°वात] १ सस्नेह ६६)। पुलएइ (गउड १०६३), पुलएमि निस्सार बनानेवाला मुनि, शिथिलाचारी वायु । २ पूर्व दिशा का पवन (णाया १, (गा ५३१) । वकृ. पुलंत, पुलअंत, पुलएंत साधुओं का एक भेद (ठा ३, २, ५, ३; ११-पत्र १७१) । संखडि स्त्री [दे. (कप्पू: नाट-मालवि ६ पउम ३, ७७८, संबोध २८ पव ६३)। For Personal & Private Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० पाइअसद्दमहण्णवो पुलासिअ-पुस पुलासिअ [दे] अग्नि-करण (दे ६, ५५.) । लाख से गुणने पर जो संख्या लब्ध हो उतने १२१) गणुपुब्बी स्त्री [नुपूर्वी ] क्रम, पुलिंद पुं [पुलिन्द] १ अनायं देश-विशेष वर्ष (ठा २, ४ सम ७४; जी ३७; इक)। । परिपाटी (भग; विपा १, १; प्रौपः महा)। (इक)। २ पुंस्त्री. उस देश मे रहनेवाला मनुष्य ५ जैन ग्रन्थांश-विशेष, बारहवें अंग-ग्रन्थ का °णह देखो ह (हे १, ६७ षड्)।(पण्ह १, १ अ . व उव)। स्त्री. दी एक विशाल विभाग, अध्ययन, परिच्छेदः फिग्गुणी देखो फग्गुणी (सम ७ इक)।(गाया १, १; नौ. 'चोद्दसपुवी' (विपा १, १)। ६ द्वन्द्व, भिवया देखो भदवया (सम ७)।पुलिग न [पुलिन] तट, किनाराः 'पोइरागो वधू-वर आदि युग्मः 'पुवट्ठाणाणि' (प्राचा साढा स्त्री [षाढा] नक्षत्र-विशेष (सम नइपुलिणायो' (पउम १०,५४)। २ लगातार २, ११, १३)। ७ पूर्व-ग्रन्थ का ज्ञान (कम्म बाईस दिनों का उपवास संबोध ५८) । १, ७) । ८ कारण, हेतु (रणं दि)। कालिय पुव्वंग पुन [पूर्वाङ्ग] १ समय-परिमाणपुलिय न [पुलिस] गति-विशेष (प्रोप)। वि [कालिक] पूर्व काल का, पूर्व काल से विशेष, चौरासी लाख वर्ष (ठा २, ४, इक)। पुलुट्ठ वि [प्तुष्ट] दग्ध (पास)। संबन्ध रखनेवाला (पएह १, २-पत्र २ ।। । २ पक्ष के पहले दिन का नाम, प्रतिपत् (सुज पुलोअ सक [दृश , प्र+ लोक् ] देखना । गय न [गत] जैन शास्त्रांश-विशेष, बारहवें १०, १४)। अंग का विभाग-विशेष (ठा १०-पत्र ४६१)। पुवंग वि[] मुण्डित (षड् )। पुलोए:, (हे ४, १८१; सुर १, ८६)। वकृ. ह पुं[हण] २ दिन का पूर्व भाग, पुव्वा स्त्री [र्वा] पूर्व दिशा (कुमा)। पुलअंत, पुलोएंत (पि १०४: सुर ३, सुबह से दो पहर तक का समय (हे १, पुव्वाड वि [दे] पीन, मांसल, पुट (दे ६, कुलोअण न [दर्शन, प्रलोकन] विलोकन (दे। ६७)। २ तप-विशेष, 'पुरिमढ' तप (संबोध ५२) । ५८) । तव पुंन [तपस्] वीतराग ६, ३०. गा ३२२)। पुवामेव अ [पूर्वमेव पहले ही (कस) । अवस्था के पहले का-सराग अवस्था का पुलोइअ वि [दृष्ट, प्रलोकित] १ देखा हुआ तप (भग)। दारिअ वि [द्वारिक] पूर्व पुवावईणय न [पूर्वावकीर्णक] नगर-विशेष (सुर ३, १६४)। २ न. अवलोकन (से ७, दिशा में गमन करने में कल्याण-कारी (नक्षत्र) ५६) (सम १२) । द्ध पुन [] पहला प्राधा पुब्धि वि [पूर्विन] पूर्व-शास्त्र का जानकार पुलोएंत देखो पुलोअ। (नाट)। धर वि [धर] पूर्व-ग्रन्थ का ज्ञान (विपा १, १; राज)। पुलोम [पुलोमन् दैत्य-विशेष तणया वाला (पएह २,१)। पय न पद पुधि क्रिवि [ पूर्वम् ] पहिले, पूर्व में बी [तनया] शची, इन्द्राणी (पास)। अस र पद पुवि (सण, उवाः सुर १, १६४, ४, पुलोमी स्त्री [पौलोमी] इन्द्राणी (प्राकृ १०; [प्रोष्टपदा] नक्षत्र-विशेष (सुज १०,५)। १११ प्रौप) संथव पुं [संस्तव पूर्व 'पुरिस पुं[पुरुष] पूर्वज, पुरखा (सुर २, में की जाती श्लाघा, जैन मुनि को भिक्षा का पुलोव देखो पुलोअ। पुलोवेदि (शौ) (पि १६४) पओग प्रयोग पहले की एक दोष, भिक्षा-प्राप्ति के पहले दायक की १०४)। क्रिया, पूर्व काल का प्रयत्न (भग ८, ) - स्तुति करना (ठा ३, ४)। पुलोस पुं [प्लोष दाह, दहन (गउड)। 'फग्गुणी स्त्री [फाल्गुनी नक्षत्र-विशेष पुठियम पुंस्त्री [पूर्वत्व] पहिलापन, प्रथमता पुल्ल [दे] देखो पोल्ल (सुख ६, १) (राज)। भद्दवया स्त्री [भाद्रपदा नक्षत्र- (षड् )।पुल्लि पुंस्त्री | दे] १ व्याव्र, शेर (दे ६, ७६; विशेष (राज)। भव पुं [भव] गत जन्म, पुब्बिल्ल वि [पूर्व, पूर्वीय] पहले का, पूर्व पात्र)। २ सिंह, पञ्चानन, मृगेन्द्र (दे ६, अतीत जन्म (गाया १, १)+ भविय वि का; 'पुब्बिल्लसमं करणं' (चेइय ८८९); ७६)। स्रो. 'को पियइ पयं च पुल्लीए' (सुपा भविका पूर्वजन्म संबंधी (भवि) । य 'पुव्विल्लए किचिवि दुटुकम्मे' (निसा ४ सुपा ३१२) [ज] पूर्व पुरुष, पुरखा (पुपा २३२)। ३४६; सण)। पुव । सक [प्लु] गति करना, चलना । रत्त पुं[ रात्र] रात्रि का पूर्व भाग (भग; पुवुत्त वि [पूर्वोक्त] पहले कहा हुआ, पूर्व पुव्व पुवंति (पि ४७३), पुवंति (भग महा) व न [वत् ] अनुमान प्रमाण में उक्त (सुर २, २४८)। १५-पत्र ६७०; टी-पत्र ६७३)। का एक भेद (अण)। "विदेह [विदेह] पुव्वुत्तरा स्त्री [पूर्वोत्तरा] ईशान कोण पुव्व देखो पुण =पू। महाविदेह वर्ष का पूर्वीय हिस्सा (ठा २, ३; (राज)। पव्व विपर्वा१दिशा, देश और काल की इक) समास पुन समास एक से पस सक [प्र+उछ, मृज1 साफ अपेक्षा से पहले का, पाद्य, प्रथम (ठा ४, ४; ज्यादा पूर्व-शास्त्रों का ज्ञान (कम्म १, ७)। करना, शुद्ध करना, पोंछना। पुसइ (प्राकृ जी १; प्रासू १२२)। २ समस्त, सकल। सुय न [ श्रुत] पूर्व का ज्ञान (राज)। ६६ हे ४, १०५, गा ४३३)। कवकृ. ३ ज्येष्ठ भ्राता (हे २,१३५, षड्)। ४ पुंन. सूरि पुं[सूरि] पूर्वाचार्य, प्राचीन प्राचार्य पुसिज्जंत (गा २०६)। काल-मान-विशेष, चौरासी लाख को चौरासी (जीव १)। हर देखो धर (पउम ११८, पुस देखो पुस्स (प्राकृ २६ प्राप्र)। For Personal & Private Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस - पूइ पुस [प] मास-विशेष पौष मास 'सी' ( प्राकृ १० ) 1 पुसिल वि [मोडित सृष्ट] पोंछा हुधा पुहत्तिय देखी पोहत्तिय (भाग) (गउड से १०, ४२: गा ५४ ) । पुसिअ [प्रपत] मृग-विशेष (गा ६२९)। पुरस[पुण्य] १ नक्षत्र विशेष कृतिका आठवाँ नक्षत्र ( प्राकृ २६ प्राप्रः सम १७ ठा २.३) । २ रेवती नक्षत्र का श्रधिपति देव (सुज १०, १२ ) ३ ऋषि - विशेष (राज) माणअ, "माणय ["मानव] माग पाठक आदि खाया १, ८-पत्र १३३ टी -पत्र १३६) । देखो पूस = पुष्य । की दीक्षा शिविका (विचार १२१) १० एक का नाम (पिंग) चंद[च] एक रामा (यति ५०) पाल [पाछ] १ एक राजकुमार (उप ६८६ टी) । २ देखो ई-पाल (सिर ४५) पुरन ["पुर] एक नगर का नाम (उप ८४४) । - पुरसदेवय न [ पुष्यदैवत ] जैनेतर शास्त्र- पुहवीस पुं [पृथिवीश ] राजा (हे १, ६) 1४ विशेष (दि १५४ ) 1 श्री ई पुहुवि [पृथ्] विशाल, विस्ती (SITER) I हुत्त न [पृथक्त्व] १ दो से नत्र तक की संख्या (सम ४४; जी ३०; भग) । २ -- देखो पुहत्त (ठा १०- -पत्र ४७१ ४६५) । - पुहुवी देखी हुई (२, ११३) । पू° देखो । 'सुअ [क] तोता, मदं पिक-पक्षि (गा ५६३ ) | पूअ सक [पूजयू ] पूजा करता पूएड (महा) | कर्म. पूजसि ( गउड) | व. पर्यंत (सुपा २२४) । कवकृ. पूइज्जत (पउम ३२, ६) । कृ. पूअणीअ, पूएअन्त्र, पूअणिज (नाट - मृच्छ १६५; उवर १९६३ श्रपः गाया १, १ टी पंचा २, ८६ उप ३२० टी) । संकृ. पूइऊण (महा) । पूअ न [दे] दधि, दही (दे ६, ५६) । [ग] त-विशेष सुपारी का गाड (२ न. फल-विशेष सुपारी (स ३४५) देखो पूगफली फली श्री [फली] गुपारी का पेड़ (५३७९० पराग १ ) । अन] [] तालाब, कुया आदि खुदवाना अन्न-दान करना, देव मन्दिर बनाना मादि जन-समूह के हित का कार्य गरहियाणि इट्टा (स०१३) । पुस्सायण न [ पुष्यायण] गोत्र - विशेष (सुख १०, १६) । - पु पुह ) देखो पिह पृथक् (हे १, १८८ ) । 'भूय वि ["भूत] अलग, जो जूदा हुम्रा हो ( अज्झ ६० ) 1. = इ) स्त्री [पृथिवी ] १ तृतीय वासुदेव की पुहई ) माता का नाम (पउम २०, १८४) । २ एक नगरी का नाम (२०१८) २ भगवान् सुपार्श्वनाथ की माता का नाम ( सुपा ३९ ) । ४ - देखो पुढवी, पुहवी (कुमा) हे १,८८ १३१ )। घर पुं [र] राजा (५४) नाद [नाथ ] राजा (सुपा १२२) पहु["प्रभु] राजा (उप ७२८ टी) ५ पाल पु [*पाल] राजा (सुर १, २४३)। °राय पु' [°राज ] विक्रम की बारहवीं शताब्दी का शाकम्भरी देश का एक राजा हराए सर्वभरीनरिदेश (मुि १०१०१ ) [पति] राजा (सुपा २०१३ २४८५१६) । बाल देखो पाल (उप ६४८ टी) 1 पुहईसर [पृथिवीश्वर ] राजा (सुपा १०७ २४१)। हसन [थक्त्व] १ मेपा २ विस्तार (राज)। ३ बहुत्व (भग १, २ १०) ४ विभिन्न नग 'त्यत्त' (विसे १०६९) विवक [वितर्क] पाइअसद्दमण शुक्ल ध्यान का एक भेद (संबोध ५१) देखो पुहुत, पोहत पुहय देखो पिह = पृथक् 'पुहय देवी' पूअ न [ पूय ] पीन, दुर्गन्ध रक, व्रण से (कुमा) । निकला हुआ गन्दा सफेद बिगड़ा हुआ खून ( परह १ १; गाया ३, ८) । पुहवि देखो पुढवी, पुहई (पि३८६३ श्रा ? पुष १४ शात्र प्रासू ५ ११२३ सम १५११५२) । भगवान् धेयांसनाथ पूजवि [पूत] १ पवित्र, शुद्ध (लामा १, ५ श्रप) । २न लगातार छः दिनों का ६११ उपवास (संबोध ५८ ) ३ वि. सूप प्रादि से साफ-तुष-रहित किया हुआ (गाया १, ७ - पत्र ११६) । For Personal & Private Use Only पूअण न [पूजन] पूजा, सेवा (दुमा श्रीप सुपा ५८४; महा) 1 पूणा की [पूजना] १ ऊपर देखो (पराह २, १ से ७६३; संबोध 8 ) । २ कामविभूषा ( सू १, ३, ४, १७) पूजणा} ( १३४१ श्री ) डाकिनी पिडभा ४१; सुपा २६, परह १, ४) । २ गाडर, भेड़ी, मेषी (सूध १, ३, ४, १३ ) - पूजयवि [पूजक] पूजा करनेवाला (गुर १३, १४३) । पूअर देखो पोर = पूतर (श्रा १४; जी १५) १२ पूअल पुं [पूप] अपूप, पूना, खाद्य- विशेष (दे ६, १८) २ पूअलिया स्त्री [ पूपिका ] ऊपर देखो ( पव x) 1. पूआ श्री [दे] पिशाब गृहीता, भूताविष्ट श्री (दे ६, ५४) । डाइन, पूआ स्त्री [पूजा ] पूजन, अर्चा, सेवा (कुमा "भन्त ["भक्त] पुण्य के लिए निष्यादित भोजन (बृह २ ) । मह पुं ["मह] पूजोत्सव ( कुप्र८५) रह पुं [रथ] राक्षस-वंश में उत्पन्न एक राजा का नाम, एक लंका- पति (उम५, २५) रिह, रुह वि [६] पूजा योग्य (सुपा ४६१; अभि ११८ ) । पूआहिज [पूजाहार्थ] पूतिक हा ५, ३ टी - पत्र ३४२ ) । पूइ वि [पूति] १ दुर्गंधी, दुर्गन्धवाला (पउम ४४, ५५ उप ७२८ टी; तंदु ४१) २ । अपवित्र (प'चा १३, ५) । ३ स्त्री. दुर्गन्ध । ४ अपवित्रता ( तंदु ३८ ) । ५ भिक्षा का एक दोष पूर्ति-कर्म (पिंड २६०) ६ रोग विशेष एक नासिका रोग, नासा - कोथ (विसे २०८ ) । ७ पूथ पीनः गलत इनिवह (महा), पूछ (गुर १४, ४६), जहा सुशी Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ पाइअसहमहण्णवो पूइ-पूस पूइकरणी' (उत्त १, ४)। ८ वृक्ष-विशेष, पूजा देखो पूआ पूजा (उप १०१६) पूरय देखो पूरगः 'बत्तीसं किर कवला आहारो एकास्थिक वृक्ष की एक जाति: 'पूई य निब- पूजिय देखो पूइय = पूजित (मौप)। कुच्छिपूरमो भरिणमो' (पिंड ६४२) करए' (पएण १-पत्र ३१)। कम्म पुन पूर्ण पुं[] हस्ती, हाथी (दे ६,५६) । पूरयंत सोपा [कर्मन् मुनि-भिक्षा का एक दोष, पवित्र पूणिआ। स्त्री [दे] पूणी, पूनी, रुई की देख वस्तु में अपवित्र वस्तु को मिलाकर दी जाती पूी पहल (दे ६, ७८, ६,५६)। पूरिगा स्त्री [पूरिका] मोटा कपड़ा (राज)। मिक्षा का ग्रहण (ठा ३, ४ टी; औप: पंचा पूप देखो पूअल (पिंड ५५७)। १३, ५), म वि [मत 12 दुर्गन्धी। पूयइ पुं[पूपकिन् हलवाई (णंदि १९४) पूरिम वि [ परिम ] पूरने से-भरने से होनेवाला (गाया १, १३, परह २,५; २ अपवित्र (तंदु ३८)। पूयंत देखो पूअ = पजय ।। प्रौप)। पइ वि [पूति कुथित, सड़ा हुआ (प्राचा पयली स्त्री [दे] रोटी (प्राचा २, १, ८, ६) २, १, ८, ४) । पिन्नाग पुन [पिण्याक] पयावणा स्त्री [जना] पूजा कराना (संबोध । पूरिमा स्त्री [पुरिमा गान्धार ग्राम को एक सर्षप-खल, सरसों की खली (दस ५, २, मूर्च्छना (ठा ७----पत्र ३६३) १५) २२)। पूरिय वि [पूरित] भरा हुआ (गउडा सण पूर सक [ पूरय ] पूर्ति करना, भरना । पूरइ, पूइअ वि [यित] ऊपर देखो (राय १८) | भवि)। पूरए (हे ४, १६६, प्रौपः भग; महा पि पृइआलुग न [दे. पत्यालुक] जल में होने पूरी स्त्री [पूरी] तन्तुवाय का एक उपकरण ४६२) । वकृ. पूरंत, परयंत (कुमा, कप्प; वाली वनस्पति-विशेष (पाचा २, १,८ (दे ६ ५६)। औप) । कवकृ. पुजंत, पुज्जमाण, पूरिजंत, सूत्र ४७) । पूरंत, पूरमाण (उप पृ १५४: सुपा ६८; पूरेत देखो पूर = पूरय ।। पूइज्जत देखो पूअ = पूजय ।। उप १३६ टीः भवि; गा ११६; से ११, पूरोट्टी स्त्री [दे] प्रवकर, कतवार, कूड़ा पूइम वि [पूज्य] पूजा योग्य, सम्माननीयः ६३, ६, ६७) । संकृ पूरित्ता (भग), पूरि 'जया य पूइमो होइ पच्छा होइ अपूइमो' (अप), (पिंग)। हेकृ. पूरिइत्तए (पि ५७८)। पल पुन [पूल] पूला, घास की अँटिया (उप (दसचू १, ४) कृ. पूरिअव्य (से ११, ४४)। ३२० टी कुप्र २१५) पइय वि [पृजित] अचित, सेवित (ौपः पूर पुं[पूर] १ जल-समूह, जल-प्रवाह, जल- पूर्व । देखो पूअल (कसः दे ६, ११७) उव) धारा (कुमा)। २ खाद्य-विशेषः कप्पूरपुरसहिए पूवल निचू १)। पूइय वि [पूतिक] १ अपवित्र, अशुद्ध, दूषित तंबोले' (सुर २, ६०)। ३ वि. पूरा, पूर्ण (पएह २, ५, उप पृ २१०) । २ दुर्गन्धी, 'पूराणि य से समं पणइमरणोरहेहिं अज्जेव पूवलिआ ? देखो पूअलिया (बृह १; निचू दुष्ट गन्धवाला (णाया १, ८ तंदु ४१)। सत्त राईदियाई, भविस्सइ य सुए सामिणी पूविगा । १६) ३ पूति नामक भिक्षा-दोष से युक्त (पिंड विजासिद्धी' (स ३६३) पूस अक [ पुष् ] पुष्ट होना । पूसइ (हे ४, २६८)। पूइय देखो पोइय = (दे); 'बलो गनो पूइयापूरइत्तअ (शौ) वि [पूरयित पूर्ण करनेवाला २३६ प्राकृ६८) (मा ४३)। पूस देखो पुस्स = पूष्य (णाया १, हे १, वणं (सुख २, २६; उप) पूएअव्व देखो पूअ = पूजय ।। ४३) 'गिरि पु[गिरि] एक जैन मुनि पूरतिया स्त्री [पूरयन्तिका] राजा को एक (कप्प) फली स्त्री [°फली] वल्ली-विशेष पूंडरिअ न दे कार्य काम, काज, प्रयोजन परिषत् -परिवार (राज) (पएण १) + °माण, माणग पुं [°माण, पूरग वि [पूरक] पूत्ति करनेवाला (कप्प; 'मानव मागध, मङ्गल-पाठक; -वद्धमाणपूग पु[पूग] १ समूह, संघात (मोह २८)। प्रौपः रयण ७७)। पूसमाणघंटियगणेहि' (कप्प; प्रौप), माणग २ देखो पूअपूग (स ७०० ७१)। पूरण न [पूरण] शूर्प, सूप, सिरकी का बना पुं[मानक] ज्योतिर्देवता-विशेष, ग्रहाधिपगी स्त्री पिगी] सुपारी का पेड़ । “फल न एक पात्र जिससे अन्न पछोरा जाता है (दे ६, gायक देव-विशेष (ठा २, ३) माणय [फल] सुपारी, कसैली (रयरण ५५) ५६) देखो 'माण (ौप) • °मित्त ' [मित्र पूज देखो पूअ = पूजय । कर्म. पूज्जए (उब)। पूरण न [पूरण] १ पूर्ति, 'समरसापूरणं' १ स्वनाम-प्रसिद्ध जैन मुनि-त्रय-१ धृतवकृ. जयंत (विसे २८८८) । कृ. पूज्ज, (सिरि ८६८)। २ पालन (प्राचू ५) । ३३ पुष्यमित्र, २ वस्त्रपुष्यमित्र, ३ दुर्बलिकापूज (पउम ११, ६५; सुपा १८०; सुर १, पुं. यदुवंश के राजा अन्धकवृष्णि का एक पुष्यमित्र, जो आयं रक्षितसूरि के शिष्य थे १७ उवर १९६; उव; उप ५६८) पत्र (अंत ३)। ४ एक गृह-पति का नाम (विसे २५१०; २२८६)। २ एक राजा पूजग देखो पृअय (पंचा ४, ४४) (उवा) । ५ वि. पूर्ति करनेवाला (राज) (विचार ४६३) मित्तिय न ["मित्रीय] पूजण देखो पूअण (पंचा ६, ३८) पूरमाण देखो पूर=पूरय । . एक जैन मुनि-कुल (कप्प)। For Personal & Private Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूस-पेच्छय पाइअसहमहण्णवो पूस पुं[दे] १ राजा सातवाहन (दे ६, पेआलणा बी [दे] प्रमाण-करण, ‘पन्जव- पेक्ख सक [प्र + ईक्ष ] देखना, अवलोकन ८०)। २ शुक, तोता (दे ६, ८० गा पेयालणा पिंडो' (पिंड ६५) । करना । पेक्खइ, पेखिए (सण; पिंग)। वक. २६३, वज्जा १३४; पान)। पेआलुय वि [दे] विचारित (विस १४८२) पेक्खंत (पि ३६७) । कवकृ. पेक्खिजंत पूस पुं[प्पन १ सूर्य, रवि (हे ३, ५६) पेइअ वि [पैतृक] १ पिता से प्राया हुआ, (से १५, ६३)। संकृ. पेक्खिअ,पेक्खिऊण २ मणि-विशेष (पउम ६, ३६)। पितृ-क्रम-प्राप्त; पेइनो धम्मो' (पउम ८२, (अभि ४२, काप्र १५८)। कृ. पेक्खणिज्ज ३३ सिरि ३४८: स ५६६)। २ न. स्त्री (नाट-वेणी ७३) पूसा स्त्री [पुष्या] व्यक्ति-वाचक नाम, कुण्ड के पिता का घर, पीहर, नैहर, मैकाः 'ता पेक्खअ । विप्रेक्षक देखनेवाला, निरीक्षक, कोलिक श्रावक की पत्नी (उवा) । जा कुले कलंक नो पयडइ ताव पेइए एयं पेक्खग द्रा (सुर ७, ८०; स ३७६; पूसाण देखो पूस = पूषन् (हे ३, ५६)। पेसेमि', 'विमलेण तनो भरिणयं गच्छ पिए महा) - 'पूह पुं[अपोह] विचार, मीमांसाः 'ईहापूर- पेइयमियारिंग' (सुपा ६००) पेक्ख ग न [प्रेक्षण] निरीक्षण, अवलोकन गवसण करमाणस्त (आपाप १४ पेईहर न [पितृगृह, पैतृकगृह ] पीहर, (सुपा १६६ अभि ५३) । २८६) । देखो अपोह = अपोह । स्त्री के पिता का घर; "इय चितिकरण सिग्घं पेक्खणग) न [प्रेक्षणक] खेल, तमाशा, प्रथम (१) देखो पढमः 'पृथुमसिनेहो' (प्राकृ धणसिरिपेईहरम्मि संचलियो' (सूपा ६०३) पक्खणय ) नाटक (सुर ७, १८२, कुष ) १२४) । पेऊस न [पीयूष अमृत, सुधा (हे १, पेक्खणा स्त्री [प्रेक्षगा] निरीक्षण, अवकोकन पेअ [प्रेत] १ व्यन्तर-भेद, एक देव-जाति १०५; गा ६५; कप्प) सण पुं[शन] (ोघ ३)। (सुपा ४६१; ४६२, जय २६)। २ मृतक देव, सुर (कुमा)। पेक्खा स्त्री [प्रेक्षा] ऊपर देखो (पउम ७२; (पउम ५, ६०) कम्म न [कम्मेन्] पेंखिअ वि [प्रेखित कम्पित (कप्प )।- २६) । देखो पेच्छा । अन्त्येष्टि क्रिया, मृत का दाहादि कार्य (पउम खोल प्रक[प्रेडोलय ] भूलना, हिलना। पक्खिय देखो पेच्छिअ (राज) । २३, २४) करणिज्ज न [करणीय]| वकृ. खोलमाण (णाया १,१-पत्र ३१) पाखल (अप) वि [प्रक्षित] दृष्ट (रंभा)। अन्त्येष्टि क्रिया (पउम ७५, १) काइय पेंड देखो पिंड = पिण्ड (हे १, ८५, प्राक पेच अप्रेत्य] परलोक, आगामी जन्म वि | कायिक] प्रेत-योनि में उत्पन्न, पेचा (भग; औप); 'संबोही खलु पेच्च ५; प्राप्र कुमा) 10. दुल्लहा' (बै ७३ ) भव [ व्यन्तर-विशेष (भग ३, ७). "देवयकाइय व] पेंड न दे] १ खण्ड, टुकड़ा। २ बलय (दे • वि ["देवताकायिक प्रेत-देवता का, प्रेत- आगामी जन्म, परलोक (प्रौप) भाविक्ष ६, ८ ) सम्बन्धी (भग ३, ७)। 'नाह पु[नाथ] पेंडधव [दे] खड्ग, तलवार (दे ६,५६)। वि [ भाविक ] जन्मांतर-संबन्धी (परह यमराज, जम (स ३१९)। भूमि, भूमी | पेंडबाल वि [दे] देखो पंडलिअ (दे पेचा देखो पिअ = पा । स्त्री [भूमि, मी] श्मशान (सुपा २६५) पेच्छ सक [दृश , प्र+ ईक्ष ] देखना । 'लोय युं [लोक] श्मशान (पउम ८६, पेंडय पुं[दे] १ तरुण, युवा । २ षण्ढ, । पेच्छइ, पेच्छए (हे ४, १८१, उव; महा; ४३)। वह [पति] यम (उप ७२८ नपुंसक (दे ६, ५३)। टी) ५ वण न [वन] श्मशान (पामा सुर पेंडल पुंदे] रस (दे ६, ५८) । पि ४५७)। भवि. पेच्छिहिसि (पि ५२५) । वकृ. पेच्छंत (गा ३७३, महा)। संकृ. १६, २०४७ वज्जा २; सुपा ५१२) हिवन । पेंडलिअ वि [दे] पिण्डीकृत, पिण्डाकार पेच्छिऊण (पि ५८५)। हेकृ पेच्छिउं, पुं[धिप] यम, जमराज (पास) किया हुआ (दे ६, ५४)। पेच्छित्तए (उप ७२८ टीः प्रौप)। कृ. पेअ वि [प्रेयस] अतिशय प्रिय । स्त्री. सी पेंडव सक [प्र+ स्थापय ] १ रखता, पेच्छणिज, पेच्छिअव्य (गा ९८; औप; (सम्मत्त १७५) । स्थापन करना। २ प्रस्थान कराना। पेंडवइ परह १,४; से ३, ३३) (हे ४, ३७) पेच्छ वि [प्रक्ष] द्रष्टा, दर्शक; 'अपरमत्थपेच्छो' पेंडविर वि [प्रस्थापयित] प्रस्थापन करने- (स ७१५) - पेआ स्त्री [पेया] यवागू, पीने को वस्तु- वाला (कुमा)। पेच्छग देखो पेक्खग (भास ४७; धर्मसं विशेष (हे १, २४८) । पेंडार पुंदे] १ गोप, गो-पाल, ग्वाला । २ ७४३)। पेआल न दे] १ प्रमाण (दे ६, ५७: विसे महिषी-पाल (दे ६,५८)। पेच्छण देखो पेक्खग (सुपा ३७) । १६९टी गदि उव)। २ विचार (विसे | पेंडोली स्त्री [८] क्रीड़ा (दे ६,५६) पेच्छणग) देखो पेक्षगग (प'चा ६, ११३ १३६१) । ३ सार, रहस्य (ठा ४, ४ टी- पेंढा स्त्री [दे] कलुष सुरा, पंकवाली मदिरा पेच्छणय ) महा)। पत्र २८३ उप पू२०७। ४ प्रधान, मुख्य पेच्छय वि [प्रेक्षक दृष्टा, निरीक्षक (पउम (उवा) पंत देखो पा=पा । ८६, ७१, स ३६१; गा ४६८). पेअनोपा-पा। पेअब्ध देखो पापा। For Personal & Private Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ पाइअसहमहण्णवो पेच्छय-पेलु पेच्छय वि [दे] जो देखे उसी को चाहनेवाला, पेडाल पुं[दे. पेटाल] बड़ी मजूषा, बड़ी पेमालुअ वि [प्रेमिन] प्रेमी, अनुरागी (उप समाजाभिलाषी (दे६.५८) पेटी (मुद्रा ११.)। ९८६ टी) पेच्छा स्त्री [प्रेक्षा] प्रेक्षणक, तमाशा, खेल, पेडावइ पेटकपति यूथ का नायक (सुपा | पेम्म देखो पेम (हे २,६८३, २५, कुमा; गा नाटक; पेच्छाछरणो सिएगविलोप्रशारण जहा १२६; प्रासू ११६)। सुचोक्सोवि न किंचिदेव' (उपपं ३७, सुर| पेडिआ स्त्री [पेटिका मजूषा (मुद्रा २४०) पेम्मा श्री प्रेमा] छन्द-विशेष (पिंग) १२, २७) आप)। दखा पक्खा घर न | पेड स्त्री पुं[दे] महिष, भैसा (द६,८०)। | पेया नी[पेया वाद्य-विशेष, बड़ी काहला [गृह] देखो हर (ठा ४, २)। मंडव | पेड्डा स्त्री [दे] १ भित्ति, भीत। २ द्वार, (राय ४५) ।। पुं[मण्डप] नाट्य-गृह, खेल प्रादि में दरवाजा । ३ महिषी, भैस (दे ६, ८०)। पेर सक[प्र + ईरय] १ पठाना, भेजना, प्रेक्षकों के बैठने का स्थान (पव २६६) लपेट देखो पीट-पीठ (हे १,१०६; कुमा); प्रेषण करना। २ धक्का लगाना, आघात हर न [गृह] नाटक-गृह, खेल-तमाशा का करना । ३ पादेश करना। ४ किसी कार्य में | काऊण पेढं टविया तत्थ एसा पडिमा' (कुप्र स्थान (पउम ८०, ५) जोड़ना-लगाना। ५ पूर्वपक्ष करना, प्रश्न ११७)। पेच्छि वि [प्रेक्षिन] प्रेक्षक, द्रष्टा (इय करना, सिद्धान्त का विरोध करना। ६ पेढाल वि [दे] १ विपुल (दे ६, ७ गउड)। १०६ गा २१४) गिराना। पेरइ (धर्मसं ५६०; भवि)। वकृ. २ वर्तुल, गोलाकार (द ६, ७ गउड; पान) पेच्छिअ वि [प्रेक्षित] १ निरीक्षित, अव पेरंत (कुप्र ७०; पिंग)। कवकृ. पेरिजंत पेढाल वि [पीठवत् ] पीठ-युक्त (गउड) लोकित (कुमा)। २ न. निरीक्षण, अवलोकन (सुपा २५१; महा)। कृ. पेज (राज)। पेढाल पुं[पेढाल] १ भारत वर्ष का पाठवाँ (सुर १२, १८३, गा २२५) । | पेरंत देखो पर्जत (हे १, ५८; ६३; प्राप्र; भावी जिनदेव, 'पेढालं अठ्ठमयं पाणंदजियं पेच्छिर वि [प्रेक्षित] निरीक्षक, द्रष्टा (गा | प्रौप; गउड) चक्कवाल न [चक्रवाल] नमसामि' (पव ४६)। २ ग्यारह रुद पुरुषों बाह्य परिधि, बाहर का घेराव (परह १, ३)।१७४ ३७१) में दसवाँ (विचार ४७३)। ३ एक ग्राम, पेज देखो पा = पा वञ्च न [वर्चस्] मण्डप, तृणादिजहाँ भगवान महावीर का विचरण हुआ था। पेज पुंन [प्रेमन] प्रेम अनुराग (सूत्र २, निमित गृह (राज) 'पेढालग्गाममागमो भयवं' (प्रावम)। ४ न. ५, २२, प्राचा; भगः ठा १, चेइय ६३४) । पेरग वि [प्रेरक प्रेरणा करनेवाला, पूर्वपक्षी एक उद्यान, 'तो सामी दढभूमि गो, तीसे 'दंसि वि [दर्शिन] अनुरागी (प्राचा)। (धर्मसं ५८७)। बाहि पेढालं नाम उजाणं' (माव १) पुत्त पेज वि [प्रेयस् ] अत्यन्त प्रिय (प्रौप) पेरण न [दे] १ ऊध्वं स्थान (दे ६, ५६)। पुं[पुत्र] १ भारतवर्ष का आठवाँ भावी पेज वि [प्रेज्य पूज्य, पूजनीय (राज)। २ खेल, तमाशा (स ७२३, ७२५) । जिन-देवः 'उदए पेढालपुत्ते य' (सम १५३)। पेज देखो पर प्र + ईरय ।। पेरण न [प्रेरण] प्रेरणा (कुप्र ७०) २ भगवान् पार्श्वनाथ के संतान में उत्पन्न एक पेजल न [दे] प्रमाण (दे ६, ५७)। | पेरणा स्त्री [प्रेरणा] ऊपर देखो (सम्मत्त जैन मुनि; 'अहे णं उदए पेढालपुत्ते भगवं पेजलिअ वि [दे] संघटित ( षड् )। पासावचिजे नियंठे मेयज्जे गोत्तेणं' (सूत्र २, पेज्जा देखो पेआ (ोघ १४६: हे १, २४८)। पेरिअ वि [प्रेरित] जिसको प्रेरणा की गई ७, ५, ८, ९)। ३ भगवान महावीर के पास पेजाल वि [दे] विपुल, विशाल (दे ६,७)। __ हो वह (दे ८, १२; भवि) दीक्षा लेकर अनुत्तर विमान में उत्पन्न एक पेट न [दे] पेट, उदर (पिंग पव १)। पेरिज न [दे] साहाय्य, सहायता, मदद (दे जैन मुनि (अनु २)। पेट्ट पेट्र देखो पिटु = पिष्ट (संक्षि ३; प्राकृ ५; पेढिया देखो पीढि आः 'चत्तारि मणिपीढि पेरिजंत देखो पेर%D+ ईरय ।। यानो' (ठा ४, २–पत्र २३०)। २ ग्रन्थ प्राप्र) पेरुल्लि वि [दे] पिण्डीकृत, पिण्डाकार किया पेड देखो पेडयः 'नडपेडनिहा' (संबोध १८) की भूमिका, प्रस्तावना (वसु)। पेडइअ पुं [दे] धान्य प्रादि बेचनेवाला पेढी देखो पीढी (जीव ३)। पेलब वि [पेलव] १ कोमल, सुकुमार, मृदु वणिक् (दे ६, ५६)। पेणी स्त्री [प्रेणी] हरिणी का एक भेद (परह (पान से २, २७, अभि २६; प्रौप)। २ पेडक) न [पेटक] समूह, यूथः 'नडपेडक- | १,४-पत्र ६८) पतला, कृश। ३ सूक्ष्म, लघु (गाया १,१पेडय संनिहा जाण' (संबोध १५; सुपा पेदंड वि [दे] लुप्त-दएडक, जुए में जो हार पत्र २५; हे १, २३८) । ५४६, सिरि १६३; महा) | गया हो वह, जिसका दाव चला गया हो वह | पेलु श्री [पेलु] पूणी, रुई को पहला 'कंतामि पेडा स्त्री [पेटा] १ मञ्जूषा, पेटी (दे ५, (मृच्छ ४६) ताव पेलु' (पिंडभा ३५) + करण न ३८; महा) । २ पेटाकार चतुष्कोण गृह-पंक्ति पेम पुन [प्रेमन्] प्रेम, अनुराग, प्रीति, स्नेह [करण] पूणी-पूनी बनाने का उपकरण, में भिक्षार्थ-भ्रमण (उत्त ३०, १६) । । (उवा प्रौपः सं ५; सुपा २०४ रयण ४२)। शलाका आदि (विसे ३३०५) For Personal & Private Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेल्ल-पोअ पाइअसद्दमण्णवो ६१५ पेल्ल सक [क्षिप] फेंकना। पेल्लइ (हे ४, पेस वि [दे. पैश] पेश नामक जानवर के । पेसी स्त्री [पेशी] मांस-खण्ड, मांस-पिण्ड १४३) । कर्म. पेल्लिजइ (उव)। वकृ. पेल्लंत | चमड़े का बना हुआ (वस्त्र) (प्राचा २, ५, (तंदु ७) । देखो पेसिआ। (कुमा)। संकृ. पेल्लिऊण (महा)। पेसुण्ण न [पैशुन्य ] परोक्ष में दोषपेल्ल देखो पेर = प्र + ईरय् । पेल्लेइ (प्राकृ६०)। पेसण न [दे] कार्य, काज, प्रयोजन (दे ६, पेसुन्न । कीर्तन, चुगली (औप; सून १, कवक पेरिजंत (से. २५)। संक ५७; भवि; पाया १, ७-पत्र ११७; पउम। १३, २; णाया १, १; भगः सुपा ४२१)। पेल्लि (अप), पेल्लिअ (पिंग)। कृ. पेल्लेयव्व १०३, २६) पेसेयव्य देखो पेस = + एषय ।। (प्रोघभा १८ टी)। पेसग न [प्रेषण] १ पठाना, भेजना। २. पेस्सिदवंत देखो पेसिवंत (पि ५६६)।" पेल्ल सक [पीडय ] पीलना, दबाना, पीड़ना। नियोजन, व्यापारण (कुमाः गउड)। ३ प्राज्ञा, पेह सफ [प्र+ ईक्ष ] १ देखना, निरीक्षण पेल्लेसि, पेल्लिसि (स ५७४ टि)। आदेश (से ३, ५४)। करना, ध्यान-पूर्वक देखना । २ चिन्तन करना। पेल्ल सक [ पूरय ] पूरना, भरना। कवकृ. पेसण आरी । स्त्री [दे] दूती, दूत-कर्म करने- पेहद, पेहए (पि ८७; उव), पेहंति (कुप्र पेल्लिजंत (से ६, २५) । पेसणआली वाली स्त्री (दे ६,५६ षड्) १६२)। भवि. पहिस्सामि (पि ५३०)। वकृ. पेल्ल । पुन [दे] बच्चा, शिशु, बालक (उप पेसणा स्त्री [पेषण] पीसना, पेषण; 'सिलाए पहंत, हिमाण (उपपृ १५४; चेय २५०; पि ३२३)। संकृ. पहाए, पहिया (कसः पेल्लग। २१६); 'बीयम्मि पेल्लगाई' (उप | जवगोहूमपेसणाए हेऊए' (उप ५१७ टी) । पि ३२३)। २२० टी) पेसल वि [पेशल] १ सुन्दर, मनोज्ञ (प्राचा पेह सक [प्र+ईह.] १ इच्छा करना, पेल्लग देखो पेरग (निचू १६) गउड)। २ मधुर, मञ्जु (पाय)। ३ कोमल चाहना । २ प्रार्थना करना। पेहेइ (दस ६, पेल्लण देखो पेरण (पएह १, ३; गउड)। (गउड) ४, २) । पेल्लण न [क्षेपण] फेंकना (धर्म २) पेसल न[दे] सिन्ध देश के पेश नामकर पेहण न [प्रेक्षण] निरीक्षण (पंचा ४, ११)।। पेल्लय पुं[दे] देखो पेल्ल = (दे) (विपा १,२- पेसलेस पशु के चर्म के सूक्ष्म पक्ष्म से पत्र ३६) सपेल्लियं सियालि' (सख २.३३)M निष्पन्न बन. 'पेसारिण वा पेसलागि वा' पहा स्त्री प्रक्षण] १ निरीक्षण (उव: सम पेल्लय देखो पेरग (बृह १)। (२ पाचा २, ५, १-सूत्र १४५), 'पेसारिण ३२)। २ कायोत्सर्ग का एक दोष, कायोत्सर्ग पेल्लय पुं [पेल्लक] भगवान् महावीर के पास वा पेसलेसाणि वा' (३ प्राचा २, ५, १, ८ में बन्दर की तरह प्रोष्ठ-पुट को हिलाते रहना दीक्षा लेकर अनुत्तर विमान में उत्पन्न एक (राज) (पब ५)। ३ पर्यालोचन, चिन्तन (भाव ४)। जैन मुनि (अनु २) । पेसब सक [प्र+ एपया भेजवाना। कृ. ४ बुद्धि, मति (उत्त १, २७)। पल्लव । देखो पर। पेल्लवइ, पेल्लावइ (प्राकृ पेसवेयव्य (उप १३६ टी)। पेहाविय वि [प्रेक्षिा] दशित, दिखलाया पेल्लाव) ६०)। | पेसवण न [प्रेषण भेजवाना, दूसरे के द्वारा हुमा (उप पृ ३८८)। पेल्लिअ वि [दे. पीडित पीड़ित (दे ६, प्रेषण (उवाः पडि) पेहि वि [प्रेक्षिन निरीक्षक (प्राचाः उव)। ५७); 'बलियदाइयपेल्लियो' (महा)। ___ स्त्री. °णी (पि ३२३)। पेसविअ वि[प्रेषित भेजवाया हुमा, प्रस्था- पेल्लिअ देखो पेरिअ (गा २२१; विपा १,१)। जानिरीक्षित (मटा पित (पान; उप पृ ५८)। पेल्लेयव्व देखो पेल्ल =प्र + ईरय ।। पेसाय वि [पैशाच] पिशाच-संबन्धी (बृह पेहुण न [दे] १ पिच्छ, पख (दे ६, ५८; पव्वे अ. अामन्त्रण-सूचक अव्यय ( षड्) । पाना गा १७३: ७६५, वजा ४४% भत्त पेस सक [प्र+ एपय्] भेजना, पठाना । १४१; गउड)। २ मयूर पिच्छ, एयूरपेसि स्त्री पेशि] देखो पेसी (सुपा ४८७) । पेसइ, पेसेइ (भविः महा)। वकृ. पेसअंत (पि पंख, शिखएड (पएह १, १२, ५;जं १; ४६०; रंभा)। संकृ. पेसिअ, पेसिउँ (मा पेसिअ वि [प्रेपित] १ भेजा हुमा, प्रहित णाया १, ३) देखो पिण। ४०; महा)। कृ. पेसइयन, पेसिअव्व; (गा ११२, भविः काल)। २ प्रेषण (पउम पोअ सक प्रि+] पिरोना, Jथना । पेसेयव्व (सुपा ३००; २७८, ६३०, उप पोप्रति (गच्छ ३, १८; सूअनि ७४)। वकृ. १३६ टी) पेसिआ स्त्री [पेशिका] खण्ड, टुकड़ा; 'अंब- पोयमाण (स ५१२) । संकृ. पोइऊण समोस सयंत राज पेसिया ति वा अंबाडगपेसिया ति वा' (अनु (धर्मवि ६७) पेस पुंस्त्री [प्रेष्य] १ कर्मकर, नौकर, दास, पोअ वि [प्रोत] पिराया हुआ (दे १, ७६)। चाकर (सम १६ सूत्र १, २, २, ३; उवा)। पेसिआर पुं [प्रेषितकार] नौकर, भृत्य, पोअ पोत] १ जहाज, प्रवहण, नौका २ वि. भेजने योग्य (हे २, ६२) । । कर्मकर (पउम ६, ३५)। (पाय; सुपा ८८ ३६६) । २ बालक, शिशु, पेस पुं[दे. पेश] १ सिन्ध देश में होनेवाली पेसिदवंत (शौ) वि [प्रेपितवत् ] जिसने बच्चा (दे ६, ८१; पान, सुपा ३६६) ३ एक पशु-जाति (पाचा २, ५, १, ८)। भेजा हो वह (पि ५६६)। न, वन्न, कपड़ा (ठा ३, १-पत्र ११४) Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो पोअ-पोग्गल पोअ [दे] १ धव वृक्ष, वाय, धौं का पेड़। पोउआ स्त्री [दे] करीष-सूखा गोबर (गोइँठा) पोक्कण न [व्याहरण, पूत्करण] १ पुकार, २ छोटा साँप (दे ६, ८१)। का अग्नि (द ६, ६१) आह्वान । २ वि. पुकारनेवाला (कुमा)। पोअइआबी [दे] निद्राकारी लता, लता- पोंग पु[दे] पाक, पकना (स १८०)। पोकर देखो पुक्कर । पोक्करति (महा)। वकृ. विशेष (द ६, ६३, पात्र) पोंगिल्ल विदे] पका हुआ, परिपक्व, परि- पोकरंत (सुपा ३८०)। पोअंड वि [दे] १ भय-रहित, निडर । २ पाक-युक्तः कच्छी भाषा में 'पोंगेल'; पोकरिय वि [पूत्कृत] १ पुकारा हुआ (सुर षएड, नाम (२६, ६१)। 'भन्नेवि सईमहियलनिसीय ६, १६४) । २ न. पुकार (दंस ३) । पोअंत ' [वे] शपथ, सौगन (दे ६, ६२)। गप्पन्नकिरिणयपोंगिल्ला। पोक्कार देखो पुक्कार = पूरकार (उप पृ१८५) पोअण न [प्रवयन, प्रोतन] पिरोना, गुम्फन, मलिगजरकप्पडोच्छइय विगहा कहवि हिंडंति ॥' पोक्किअ देखो पोक्करिय (उप १०३१ टी)। गूंथना (भावम)। पोअणपुर न [पोतनपुर] नगर-विशेष (सुपा (स १८०)। पोक्खर न [पुष्कर] १ जल, पानी । २ पोंड न [दे] फूल, पुष्प; 'एग सालियपोंडं ५०६; भवि)। पद्म, कमल । ३ पद्म-कोष। ४ एक तीर्थ, बद्धो आमेलगो होई' (उत्तनि ३) पोअणा स्रो प्रवयना, प्रोतना] पिरोना अजमेर-नगर के पास का एक जलाशयपोंड देखो पुंड । वद्धण न [°वर्धन] नगर(उप ३५६) तीर्थ । ५ हाथी की ढूँढ़ का अग्र भाग। ६ पोअय वि [पोतज पोत से उत्पन्न होनेवाला विशेष (महा) वद्धणिया स्त्री [°वर्धनिका] वाद्य-भाएड । ७ प्रापण, दूकान । ८ असिजैन मुनि-गण की एक शाखा (कप्प)। प्राणी-हस्ती आदि (ठा ३, १)। कोष, तलवार की म्यान । ६ मुख, मुँह । पोंड । पुं[दे] यूथ का अधिपति (दे ६, पोअय पु[पोतक] देंखो पोअ = पोत (उवाः १० कुष्ठ रोग की ओषधि । ११ द्वीप-विशेष । पोंडय ६०)। २ फल (पएह १,४-पत्र औप) १२ युद्ध, लड़ाई। १३ शर, बाण । १४ ७८) । ३ अविकसित अवस्थावाला कमल पोअलय पुदे] १ आश्विन मास का एक आकाश; 'पोक्खरं' (हे १, ११६; २, ४ (विसे १४२५)। ४ कपास का सूताः 'दव्वं उत्सवः जिसमें पत्नी के हाथ से लेकर पति संक्षि ४)। १५ पं. नाग-विशेष। १६ रोगतु पोंडयादी भावे सुत्तमिह सूयगं नाणं' अपूप को खाता है। २ एक प्रकार का विशेष । १७ सारस पक्षी। १८ एक राजा (सूअनि ३) का नाम । १६ पर्वत विशेष । २० वरुणअपूप-खाद्य-विशेष, पूमा। ३ बाल वसन्त पोंडरिगिणी देखो पुंडरिगिणी (ठा २, ३) पुत्र पोक्खरों (प्राप्र)। देखो पुक्खर ।। (द ६, ८१)। पोंडरिय देखो पुंडरीअ = पुण्डरीक (स पोआई स्त्री [पोताकी] १ शकुनि को उत्पन्न पोक्खर वि [पौष्कर] १ पुष्कर-सम्बन्धी। करनेवाली विद्या-विशेष २ शकुनिका, पक्षि- | पोंडरी स्त्री [पौण्ड्री, पुण्डरीका] जम्बूद्वीप के ३ पद्माकार रचनावाला; 'पोक्खरं पवहरणं' विशेष (विसे २४५३) मेरु के उत्तर रुचक पर रहनेवाली एक (चारु ७०) पोआउय वि [पोतायुज, पोतज] देखो | दिक्कुमारी देवी (ठा )। | पोक्खरिणी स्त्री [पुष्करिणी] १ जलाशयपोअय (पउम १०२, ६७)। पोंडरीअ देखो पुंडरीअ= पुण्डरीक (प्रोप, विशेष, वर्तुल वापी (गाया १, १-पत्र पोआय पुं[दे] ग्राम-प्रधान, गाँव का मुखिया | पाया १, ५; १६; सम ३३; देवेन्द्र ३१८; ६३)। २ पद्मिनी, कमलिनी, पद्म-लता; सूअनि १४६)। 'जलेण वा पोक्खरिणीपलास' (उत्त ३२, पोआल दे] वृषभ, बलीवदं (दे ६, ६२) पोंडरीअ) नपौण्डरीका १ गणित ६०)। ३ वापी (कुमा)। ४ पद्म-समूह । ५ पोआल [दे. पोतक] बच्चा; शिशु, बालक पोंडरीग , विशेष, रज्जु-गणित (सूअनि | पुष्कर-मूल (हे २, ४)। ६ चौकोना जला(प्रोघ ४४७)। १५४)। २ देखो पुंडरीअ पौण्डरीक (सूत्र शय, पोखरी, वापी (पएह १, १, हे २,४) पोइय पुं[दे] १ हलवाई, मिठाई बेचनेवाला। २, १, १, सूअनि १४६; १५१)। पोक्खल देखो पुक्खल (परण १-पत्र ३५; २ खद्योत (दे ६, ६३)। ३ निमग्न, डूबा पोक सक [व्या + हृ, पत् + कृ] पुका- प्राचा २, १, ८, ११)।हुमा (प्रोघ १३६) । ४ स्पन्दित (बृह १)। | रना, आह्वान करना । पोक्कइ (हे ४, पोक्खलच्छिलय , देखो पुक्खलच्छिपोइअ वि [प्रोत] पिरोया हुआ (दे ७, ४४ ७६) । पोक्खलच्छिल्लय , भय (पएण १-पत्र उप पृ १०६ पान) | पोक वि[दे] पागे स्थूल और उन्नत तथा ३५; राज) । पोइअल्लय देखो पोइअ =प्रोत (मोघ ५३६ बीच में निम्न (नासिका); 'पोक्कनासे' (उत्त पोक्खलि पुन [पुष्कलिन्] एक जैन उपाटी) सक, जिसका दूसरा नाम शतक था (राज)। पोडआ) स्त्रीपदी निद्राकारी लता, वल्ली- | पोकण ([पोक्कण १ अनार्य देश-विशेष। | पोग्गर न पिगल] १ रूपादि-विशिष्ट पोई विशेष (दे ६, ६३पण्ण १- २ उस देश में बसनेवाली म्लेच्छ जाति (पएह पोग्गल ) द्रव्य, मूतं द्रव्य, रूपवाला पदार्थ पत्र ३४) ___ 'पोग्गला' (भग ८, १, ठा २, ४४,४ For Personal & Private Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलि-पोत्थार पाइअसहमहण्णवो ५, ३, ८), 'पोग्गलाई' (सुज्ज 5 पंच ३, पोट्टलिय वि [दे] पोटली उठानेवाला, | पोत देखो पोअ = पोत (प्रौपः बृह १; णाया ४६) । २ न. मांस (पव २६८, हे १, गठरी-वाहक (निचू १६) ११६)। स्थिआय पं [स्तिकाय] पोट्रलिया [दे देखो पोलिगा (उप पू | पोतणया देखो पोअणा (उप पू ४१२) । पुद्गल-स्कन्ध, पुद्गल-राशि (गग; ठा ५, । ३८७ सुर १२, ११; सुख २, १७) पोत पौन] पुत्र का पुन, पोटा (दे २, ३) 4 °परट्ट, परियट्ट पं [परिवर्त] १ पोट्टि स्त्री [दे] उदर-पेशी (मृच्छ २००) ७२; श्रा १४) समस्त पुद्गल-द्रव्यों के साथ एक-एक परमाणु पोट्टिल पुपोट्टिल] १ भारतवर्ष का भावी | पोत्त न [पोत्र] प्रवहण, नौका: वेलाउलम्मि का संयोग-वियोग । २ समय का उत्कृष्टतम नववाँ तीर्थंकर--जिन-देव (सम १५३)। प्रोयारियाणि सव्वाणि तेण पोत्ताणि' (उप परिमारण-विशेष, अनन्त कालचक्र-परिमित २ भारतवर्ष के चौथे भावी जिन-देव का | ५६७ टी) समय (कम्म ५, ८६, भग १२, ४, ठा ३, पवंभवीय नाम (सम १५४) । ३ भगवान | पोत्त न पोत१ वस्त्र, कपड़ा (श्रा महावीर का व्युरफम से छठवें भव का नाम पोना १२, मोष १६८ कापूस ३३२)। पोग्गलि वि [पुद्गलिन] पुद्गलवाला, पुद्गल- (सम १०५)। ४ एक जैन मुनि, जिसने २ धोती, कटी-वस्त्र (गच्छ ३, १८ कसा युक्त (भग ८, १०-पत्र ४२३)। भगवान महावीर के समय में तीर्थकर-नाम- वव ८४ श्रावक ६३ टी; महा)। ३ वनपोग्गलिय वि [पौद्गलिक]पुद्गल-मय, पुटूल- कर्म बंधा था (ठा)। ५ एक जैन मुनि खएड (पिंड ३०८) संबन्धी, पुद्गल का (पिंडभा ३२४)। (पउम २०, २१)। ६ देव-विशेष (णाया १, पोत्तय पुं [दे] फोता, वृषण, अण्डकोश पोच्च वि[दे] सुकुमार, कोमल: गुजराती में १४)। ७ देखो पोट्ठिल (राज)। (दे ६, ६२)। पोट्टिला स्त्री [पोट्टिला] व्यक्ति-वाचक नाम, पोत्तिअ न [पौतिक वस्त्र, सूती कपड़ा (ठा 'पोचु (दे ६,६०) पोच्चड वि [दे] १ असार, निस्सार (णाया १, एक स्त्री का नाम (णाया १, १४)। ५, ३-पत्र ३३८; कस २, २६ टि)। ३-पत्र १४)। २ प्रतिनिबिड (पएह १, पोट्टिस [पोट्टिस एक कवि का नाम | पोत्तिअ वि [पोतिक] १ वस्न-धारी। २ १-पत्र १४) । ३ मलिन (निच ११) (कप्प) पुं. वानप्रस्थों का एक भेद (प्रौप) ।। पोच्छल प्रक [प्रोत् + शल्] उछलना, पोट्रवई स्त्री [प्रौष्टपदी] १ भाद्रपद मास की पोत्तिआ स्त्री पौत्रिका पुत्र की लड़की ऊँचा जाना । वकृ. पोच्छलंत (सुर १३, । पूणिमा। २ भादों की अमावस्या (सुज्ज (रंभा)। पोत्तिआ स्त्री [दे] चतुरिन्द्रिय जन्तु की पोटिल पु [पुष्टिल] भगवान महावीर के पोच्छाहण न [प्रोत्साहन] उत्तेजन (वेणी एक जाति (उत्त ३६, १४७)। पास दीक्षा लेकर अनुत्तर-विमान में उत्पन्न पोत्तिआत्री [पोतिका, पोती] १ धोती, पोच्छाहिअ वि [प्रोत्साहित] विशेष उत्सा- . एक जैन मुनि (अनु) । पोती पहनने का वस्त्र, साड़ी (विसे पोडइल न [दे] तृण-विशेष (पएण १हित किया हुआ, उत्तेजित (सुर १३, २६) २६०१)। २ छोटा वस्त्र, वन-खण्ड; 'चउपत्र ३३)। पोट्ट [पुत्र लड़का, 'एक्केण चारभड- | फालयाए पोत्तीए मुहं बंधेत्ता (णाया १, पोढ वि प्रौढ] १ समर्थ (पान) । २ निपुण, पोट्टेण' (वव १, टी) १-पत्र ५३, पिंडभा ६), 'मुहपोत्तियाए' चतुर । २ प्रगल्भ । ४ प्रवृद्ध, यौवन के बाद (विपा १,१) पोट्ट न [दे] पेट, उदर, मराठी में 'पोट' (दे की अवस्थावाला (उप पृ८६; सुपा २२४ ६,६०; रणाया १,१-पत्र ६१ मोघभा रंभा; नाट-मालती १३६)। "वाय पु पोत्ती स्त्री [दे] काच, शीशा (दे ६,६०) ७६; गा ८३, १७१, २८५; स ११६॥ । [वाद] प्रतिज्ञा-पूर्वक प्रत्याख्यान (गा पोत्तल्लया देखो पोत्तिआ (गाया १, १८७३८ उवा: सुख २, १५; सुपा ५४३; । ५२२) पत्र २३५) । प्राकृ ३७; पव १३५, जं २) साल पुं | पोढा स्त्री प्रौढा] १ तीस से पचपन वर्ष तक | पोत्थ पुन [पुस्त, क] १ वस्त्र, कपड़ा [शाल] एक परिव्राजक का नाम (विसे | की स्त्री (कुप्र १८५)। २ नायिका का एक पोत्थग (णाया १, १३-पत्र १७९)। २२४५२, ५५), सारणी स्त्री [°सारणी] | भेद, शृङ्गार रस में काम-कला आदि अच्छी | पोत्थय)३ देखो पुत्थ; 'पोत्थकम्मजक्खा विव प्रतीसार रोग (प्राव ४)। तरह जाननेवाली (प्राकृ १०) निचिट्ठा' (वसुः श्रा १२; सुपा २८६; विसे पोट्रन[दे] पोटला, गट्ठर, गठरी - पोढिम पुंस्त्री [प्रौढमन्] प्रौढता, प्रौढपन १४२५, बृह ३; प्रापः प्रौप)। पोटलकामिणिनियंबबिंब कंदप्पविलासराय- (मोह २) | पोत्था स्त्री [प्रोत्था] प्रोत्यान, मूलोत्पत्ति हाणित्ति। न मुणइ अमेझपोट्ट' (सुपा पोदीनी प्रौढी] ऊपर देखो (कुप्र ४०७)M (उत्त २०, १६) ३५५; दे २, २४ स १००)। पोणिअ वि [दे] पूर्ण (दे ६, २८)- पोत्थार पुं [पुस्तककार] पोथी लिखनेवाला, पोट्टलिगा स्त्री [दें] पोटली, गठरी (सुख पोणिआ स्त्री [दे] सूते से भरा हुआ तकुवा | पोथी बनाने का काम करनेवाला शिल्पी, २, १७)। दफ्तरी, जिल्दसाज (जीव ३)।७८ For Personal & Private Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ पाइअसहमहण्णवो पोत्थिया-पोसग पोत्थिया स्त्री [पुस्तिका] पोथी, पुस्तक; पोरव पुं[पौरव राजा पुरु की संतान (अभि पोलास न [पोलास] १ नगर विशेष, 'सरस्सइ व्व पोत्थियावलग्गहत्या' (काल) पोलासपुर (उवा)। २ उद्यान-विशेष (राज) पोप्पय पुन [दे] हस्त-परिमर्षण, हाथ फिराना पोरवाड पुं [पौरवाट] एक जैन श्रावक- पुर न [पुर] नगर-विशेष (उवाः अंत)। (उप पृ ३५३) कुल (ती २) पोलासाढ न [पोलाषाढ] श्वेतविका नगरी पोप्फल न [पूगफल] सुपारी (हे १, १७०० | पोराण देखो पुराण (पएण २८; प्रौपः भग; का एक चैत्य (विसे २३५७)। कुमा)। हे ४, २८७ उव; गा ३४.)। पोलिअ पुं[दे] सौनिक, कसाई (३६, ६२)। पोप्फली स्त्री [पूगफली] सुपारी का पेड़ पोराण वि [पौराण] १ पुराण-सम्बन्धी पोलिआ स्त्री दे. पौलिका) खाद्य-विशेष, (हे १, १७०; कुमा) (राय)। २ पुराण शास्त्र का ज्ञाता (राज) पूरी (?); 'सुणमो इव पोलियासत्तो (उप पोम देखो पउमः 'जहा पोर्म जले जाय' पोराणियवि पौराणिक पराण-शास्त्र- ७२८ टी राज) (उत्त २५, २७, सुख २५, २७ पउम संबन्धी (स ३४४)। | पोली देखो पओली; 'बद्धेसु पोलिदारेसु, ५३,७६) पोरिस न [पौरुष] १ पुरुषत्व, पुरुषार्थ गवेसंतो म धुत्तयं' (श्रा १२; उप पृ८४; पोमर न [दे] कुसुम्भ-रक्त वस्त्र (द ६, ६३) (प्रास १७) (प्रासू १७) । २ पराक्रम (कुमा)। धर्मवि ७७)। पोमाड पुं [दे. पद्माट ] पमाड, पमार, पोरिस वि [पौरुषेय पुरुष-जन्य, पुरुष पोल्ल विदे] पोला, शुषिर, खाली, रिक्त चकवड़ का पेड़ (स १४४) । देखो पउमाड प्रणीत (धर्मसं ८६२ टी)। 'पोल्लो व्व मुट्ठी जह से असारें (उत्त २०, पोमावई स्त्री [पद्मावती] छन्द-विशेष पोरिसिमंडल न [पौरुषीमण्डल] एक जैन | ४२ रणाया १,१-पत्र ६३ पव ८१), (पिंग)। 'वंका कोडक्खइया चित्तलया पोल्लया य शास्त्र (गदि २०२)। पोमिणी देखो पउमिणी (सुपा ६४६; सम्मत्त दड्डा य' (महा)। पोरिसिय देखो पोरिसीय; 'प्रत्थाहमतारम१७१) पोरिसियंसि उदगंसि अप्पाणं मुयति' (णाया पोल्लड वि [दे] ऊपर देखो, 'वंका कोडक्वइया पोम्म देखो पउम (हे १, ६१,१, २, ११२; १, १४–पत्र १९०) चित्तलया पोझडा य दड्ढा य' (मोष ७३५, गा ७५, कुमा; प्राकृ २८; कप्पू ; पि १६६)। विचार ३३६)। पोम्मा देखो पउमा (प्राकृ २८, गा ४७१, पोरिसी स्त्री [पौरुषी] १ पुरुष-शरीर-प्रमाण पोल्लर न दे] तप-विशेष, निर्विकृतिक तप पि १६६) 10 छाया । २ जो समय में पुरुष-परिमाण छाया पोम्ह देखो पम्ह % पक्ष्मन्, “जह उकिर हो वह काल, प्रहर (उवाः विपा २, १; (संबोध ५८)। णालिगाए परिणय मिदुरूयपोम्हभरियाए' पाचा कप्प, पव ४)। ३ प्रथम प्रहर तक पोस अक [पुष् ] पुष्ट होना । पोसइ (धात्वा भोजन मादि का त्याग, प्रत्याख्यान-विशेष, १४५; भवि) (धर्मसं ९८०) पोर पू[पूतर] जल में होनेवाला क्षुद्र जन्तु तप-विशेष (पव ४ संबोध ५७)। पोस सक [पोषय ] १ पुष्ट करना । २ पालन (हे १, १७०; कुमा) पोरिसीय वि [पौरुषिक] पुरुष-प्रमाण, करना। पोसेइ (पंचा १०, १४); ‘मायरं पुरुष-परिमित; 'कुंभी महंताहियपोरिसीया पोर वि [पौर] पुर में नगर में उत्पन्न, पियरं पोस' (सूत्र १, ३, २, ४), पोसाहि (सूम १, २, १, १९)। कवकृ. पोसिज्जत नागरिक (प्राकृ ३५) (सूम १, ५, १, २४) । पोरुस ([पुरुष ] अत्यन्त वृद्ध पुरुष (सूत्र पोर देखो पुर - पुरस्। कव्व न ["काव्य] (गा १३५) ।। १,७,१०)। पोस वि [पोष] १ पोषक, पुष्टि-कारक; शीघ्रकवित्व (राज)। पोरुस देखो पोरिस (स २०४, उप ७२८ 'मभिक्वणं पोसवत्थं परिहिति' (सूम १, ४, पोर पुन [दे. पर्वन् ] ग्रंथि, गाँठ (ठा ४, टी महा)। १, ३) । २ पुं. पोषण, पुष्टि (संबोध ३६)। १ अनु) । °बीय वि [बीज] पर्व-बीज से पोरेकच्चन [पौरस्कृत्य] पुरस्कार, कला-पोस पोस] १ अपान-देश, गुदा (पएह उगनेवाली वनस्पति, इक्षु आदि (ठा ४, १)ोग Mपोरेगच्च विशेष (प्रौपा राया प्रौप १०७ टि) और १.४–पत्र ७८ प्रोध ५५६; प्रौप) । २ पोरग 'न [पर्वका वनस्पति का एक भेद,गोत वयारोतित्व प्रसरता योनि (निचू६)। ३ लिग, उपस्था 'रणवसापर्ववाली वनस्पति (पएण १-पत्र ३३)। (प्रौपः सम ८६ विपा १, १; कप्प)। तपरिस्सवा बोंदी पएणत्ता, तं जहा; दो पोरच्छ पुं [दे] दुर्जन, खल (दे ६, ६२ पोलंड सक [प्रोत + लङ्घ ] विशेष सोत्ता, दो णेत्ता, दो घाणा, मुह, पोसे, पान) । उल्लंघन करना। पोलंडेइ (गाया १.१. पाऊ' (ठा -पत्र ४५०)। पोरच्छिम देखो पुरच्छिम (सुपा ४१)। पत्र ६१)। पोस पुं. [पौष] पौष मास (सम ३५) ।। पोरत्थ विदे] मत्सरी, ईर्ष्यालु, द्वेषी (षड्) पोलच्या स्त्री [] खेटित भूमि, कृष्ट जमीन पोसग वि [पोषक] १ पुष्टि-कारक । २ पोरय न [दे] क्षेत्र (दे ६, २६)।- (दे ६, ६३)। पालन-कर्ता (पएह १,२)। For Personal & Private Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसण-फाल पाइअसहमहण्णवो ६१९ पोसण न [पोषण] १ पुष्टि (पएह १, २)। पोह पुं[दे] बैल आदि की विष्ठा का ढेर, | °Cपयास देखो पयास-प्रकाश (सुपा ६५७)। २ पालन । ३ वि. पोषण-कर्ता, 'लोग परं कच्छी भाषा में 'पोह (पिंड २४५)। आपलावि देखो पलावि (अभि ४६)। पि जहासिपोसणों (सूम १, २, १, १९) पोह [प्रोथ] प्रश्व के मुख का प्रान्त भाग | °प्पवत्तण देखो पवत्तण; 'अजिभजिण सुहपोसण न [पोसन] अपान, गुदा (जं ३)। (गउड) प्पवत्तणं' (अजि ४)। पोसणया स्त्री [पोषणा] १ पोषण, पुष्टि । पोहण [दे] छोटी मछली (दे ६, ६२)। पवह देखो पवह (कुमा)। २ भरण, पालन (उवा)। पोहत्त न [पुथुत्व] चौड़ाई (भग)। प्पवेस देखो पवेस (रंभा)। पोसय देखो पोस = पोस; 'पोसए ति' (ठा पोहत्त देखो पुहत्त (पि ७८) - टी-पत्र ४५०; बृह ४)। प्पवेसि देखो पवेसि (मभि १७५) । पोसय देखी पोसग (राज)। | पोहनिय वि [पार्थक्त्विक] पृथक्त्व-संबन्धी प्पसर देखो पसर = प्र+स। वकृ. पसरत (पएण २२-पत्र ६३६, ६४०; २३-पत्र (रंभा)। पोसह पोषध, पौषध] १ अष्टमी, ६६४)। चतुर्दशी आदि पर्वतिथि में करने योग्य जैन पसर देखो पसर = प्रसर । पोहल देखो पोप्फल (षड् ) । श्रावक का व्रत-विशेष, प्राहार प्रादि के त्याग प्पसब देखो पसव = (नाट-मालवि ३७) पूर्वक किया जाता अनुष्ठान-विशेष (सम १६ | प्प देखो प= प्र; "विप्पोसहिपत्ताणं (संति प्पसाय देखो पसाय - प्रसाद (रंभा) । उवा प्रौपः महा, सुपा ६१६, ६२०)। २ २; गउड)। |°प्पसुत्त देखो पसुत्त (रंभा)। पर्व-दिवस-प्रथमी, चतुर्दशी आदि पर्व- प्पआस देखो पयास = प्रयास (अभि ११७)ल. | °प्पसूद (शौ) देखो पसूअ = प्रसूत (अभि तिथि; 'पोसहसदो रूढीए एत्थ पव्वाणुवायनो प्पउत्त देखो पउत्त = प्रवृत्त (मा ३)। १४०)।भरिणो' (सुपा ६१६) पडिमा स्त्री प्पञ्चअ देखो पञ्चय (अभि १७६) rwealमा ताप्पहर देखो पहर-प्रहार (से २, ४ पि [प्रतिमा] जैन श्रावक को करने योग्य प्पडवदि (पि २१६)। अनुष्ठान-विशेष, व्रत-विशेष (पंचा १०, ३) २६७ ए)। 'वय न [व्रत] वही पूर्वोक्त पर्थ (पडि)।-प्पडिआर देखो पडिआर = प्रतिकार (मा | पहा देखो पहा (कुमा)। साला स्त्री [शाला] पौषध-व्रत करने का | प्पहाण देखो पहाण (रंभा)। स्थान (णाया १,१–पत्र ३१; अंत: महा)।- पडिहा देखो पडिहा = प्रतिभा (कुमा) | प्पहाय देखो पहाय = प्रभाव; 'प्पहाउ विवास पुगेपवास] पर्वदिन में उप- प्पणइ देखो पणइप्रणयिन् (कुमा)। (रंभा)। वास-पूर्वक किया जाता जैन श्रावक का अनु- प्पणाम देखो पणाम प्रणाम (हे ३) °प्पहार देखो पहार (रंभा)। ष्ठान-विशेष, जैन श्रावक का ग्यारहवाँ व्रत १०५)।। प्पहाव देखो पहाव (अभि ११६)। (ौप; सुपा ६१६) प्पणास देखो पणास = प्रणाश (सुपा | °Cपहु देखो पहु (रंभा)। पोसहिय वि [पौषधिक] जिसने पोषध ६५७)।। व्रत किया हो वह, पौषध करनेवाला (णाया 'प्पण्णा देखो पण्णा-प्रज्ञा (कुमा)। पारंभ देखो पारंभ (रंभा)।१, १-पत्र ३०; सुपा ६१६; धर्मवि २७)। प्पत्थाण देखो पत्थाण (अभि८१)। प्पिअदेखो पिअ%3D प्रिय (मभि ११८ मा 'पदेस देखो पदेस (नाट-विक्र ४)। १८) । पोसिअवि [दे] दुःस्थ, दरिद्र, दुःखी (दे °प्पफुरिद (शौ) देखो पप्फुरिअ (नाट- | "प्पिआ देखो पिआ (कुमा)। मालती ५४)। "प्पिव देखो इव (प्राकृ २६)।पोसिअ वि [पुष्ट] पोषण-युक्त (भवि)। प्पबंध देखो पबंध (रंभा)। | °प्पेम देखो पेम (पि ४०४)। पोसिअ वि [पोषित] १ पुष्ट किया हुआ। पभिदि देखो पभिइ (रंभा)। प्पेम्म देखो पेम्म (कुमा)। २ पालित (उत्त २७, १४)। प्पभूद (शौ) देखो पभूय (नाट–वेणी | 'प्पोढ देखो पोढ (रंभा)। पोसिद (शौ) वि [प्रोषित] प्रवास-विदेश में "फंस देखो फंस = स्पर्श (काप्र ७४३; गा गया हुआ। भत्तुआ श्री [भर्तृका] जिसका | 'प्पमत्त देखो पमत्त (अभि १८५)। ४६२, ५५६)। पति प्रवास-परदेश में गया हो वह स्त्री | प्पमाण देखो पमाण (पि ३६६ ए) | प्फणा रेखो फणा (सुपा ५३५)।(स्वप्न १३४)। प्पमुक्क देखो पमुक (नाट–उत्तर ५६)। फद्धा देखो फद्धा (कुमा)। पोसी स्त्री [पौषी] १ पौष मास की पूर्णिमा। °प्पमुह देखो पमुह (गउड)। "प्फल देखो फल (पि२००)। २ पौष मास की अमावस (सुज १०, ६; प्पयर देखो पयर (कुमा)। °फाल सक[स्फालय् ] १ आघात करना। इक) प्पयाव देखो पयाव (कुमा)। २ पछाड़ना । फालउ (पिंग)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० पाइअसहमहण्णवो °फालण-फडा फालण न [स्फालन] आघात (गउड; गा प्रस्स (अप) देखो पस्स = दृश् । प्रसाद (हे प्रिय (अप) देखो पिअ = प्रिय (हे ४, ३६८) ५४६)। ४. ३९३) कुमा)। प्रेकिअन [दे वृष रटित, बैल की चिल्लाहट प्फुड देखो फुड (कुमाः रंभा)। प्राइम्वा (अप) देखो पाय= प्रायस् (हे ४, प्राइव (षड्) "फोडण देखो फोडण (गा ३८१)। | प्रेयंड वि [दे] धूर्त, ठग (द १, ४) प्राउ ४१४ कुमा) ।। इअ सिरिपाइअसहमहण्णवम्मि पाराइसहसंकलणो सत्तावीसइमो तरंगो परिसमत्तो।। फ पुं [फ] प्रोष्ठ-स्थानीय व्यञ्जन वर्ण-विशेष फंस सक [स्पृश् ] छूना । फैसइ, फंसेइ (हे । फग्गु पुं. [ दे. फल्गु] वसन्त का उत्सव, (प्राप्र) ४, १८२, प्राकृ २७)। कर्म, फंसिजइ फगुना (दे ६, ८२)। फंद प्रक[स्पन्दु ] थोड़ा हिलना, फरकना। (कुमा)। फग्गुण पुं [फाल्गुन] १ मास-विशेष, फंदइ, फंदति (हे ४, १२७; उत्त १४, ४५)। फंस ' [स्पर्श] स्पर्श, छूना (पान प्राप्र; | फागुन का महिना (पान; कप्प)। २. अर्जुन, वकृ. फंदंत, फंदमाण (सूम १,४,१,६ प्राकृ २७; गा २६६) मध्यम पण्डुपुत्र (वजा १३०) ठग ७–पत्र ३८३, कप्प)। फंसण न [स्पर्शन] छूना, स्पर्श करना (उप फागुणी स्त्री [फाल्गुनी] १ फागुन मास की फंद पुं [स्पन्द] किञ्चित् चलन (षड् ; सण) ३३० टी धर्मवि ४३, मोह २९)। पूर्णिमा (इक; सुज १०, ६) । २ फागुन मास फंदण न [स्पन्दन] ऊपर देखो (विसे १८४७; | फंसा वि [पांसन] अपसद, अधम, 'कुल- | की अमावस्या (सुज १०, ६)। ३ एक गृहहे २, ५३; प्राप्र) फंसपों' (सुख २, ६ स १९८; भवि) पति की स्त्रो (उवा)। फंदणा स्त्री [स्पन्दना] ऊपर देखो (सूअनि | फंसण वि [दे] १ युक्त, संयत । २ मलिन, फग्गुणी स्त्री [फल्गुनी] नक्षत्र-विशेष (ठा ८ टी) मैला (दे ६, ८७)। फैदिअ वि [स्पन्दित] १ कुछ हिला हुमा, फंसुल वि [दे] मुक्त, त्यक्त (द ६, ८२) | फट्ट अक [ स्फट ] फटना, टूटना। फट्टइ फंसुली स्त्री [दे] नवमालिका, पुष्प-प्रधान फरका हुआ (पास)। २ हिलाया हुआ, ईषत् (भवि):चालित (जीव ३)। वृक्ष-विशेष (दे ६, ८२)। फड सक[स्फट ] १ खोदना । २ शोधना। फंफ (अप) अक [ उद् + गम् ] उछलना। फकिया स्त्री [फक्किका] ग्रन्थ का विषम | वकृ. 'गतं फडमाणीसो (सुपा ६१३)। फंफाइ (पिंग १८४, ५) स्थान, कठिन स्थान (सुर १६, २४७)। हेकृ. फडिउं (सुपा ६१३)। फग्गु वि [फल्गु] १ असार, निरर्थक, तुच्छ फड न [दे] साँप का सर्व शरीर (दे ६, फंफसय पुं [दे] लता-भेद, वल्ली-विशेष (दे (सुर ८, ३, संबोध १६; गा ३६६ अ)। २ स्त्री. भगवान् अजितनाथ की प्रथम शिष्या फड पुन [दे. फट] साँप की फणा (दे ६, फंफाइ (अप) वि [कम्पायित, कम्पित] (सम १५२), "मित्त पृ["मित्र स्वनाम- ८६ कुप्र ४७२)। कपाया हुमा, कम्प-प्राप्त (पिंग)। ख्यात एक जैन मुनि (कप्प)। रक्खिय पुं फडही [दे] देखो फलही (गा ५५० प्र) फंस प्रक [विसम् + व प्रसत्य प्रमाणित [रक्षित] एक जैन मुनि (प्राव १) "सिरी फडा स्त्री [फटा] साँप की फन, सप-फणा होना, प्रमाण-विरुद्ध होना, अप्रमाण साबित स्त्री ["श्री] इस अवसर्पिणी काल के पंचम (गाया १,६ पउम ५२, ५, पाम प्रौप)। होना। फंसइ (हे ४, १२६)। प्रयो., भूका. मारे में होनेवाली अन्तिम जैन साध्वी (विचार __°ल बि [वत् ] फनवाला (हे २, १५६; फंसाविही (कुमा) ५३४) चंड)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only . Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फडिअ - फल फडिअ वि[स्फटित ] खोदा हुम्रा, 'तो थीवेसरेहि नहि फडिया झडत्ति सा गत्ता' (सुपा ६१३) । फडिअ ) देखो फलिए स्फटिक (नाट फडिंग ला ६१), 'टिपानिमा ( निघू ७) । फडिल देखो फडा-ल (पेट)। फडिह पुं [परिघ] १ अगला, श्रागल (से १३, ३८ ) । २ कुठार (से ५, ५४ ) 1 फडिहा देखो फलिहा = परिखा (से १२, ७५)1 = फड फग पुंन [दे. स्पर्ध, क] १ श्रंश, भाग निस्सा, गुजराती में 'फाडि' फडू 'कम्मियकद्दमिस्सा चुल्ली उक्खा य फड्डुग फडगजुया उ' (पिंड २५३) । २ केहिता के वशवर्ती का एक लघुतर हिस्सा, समुदाय का एक प्रति छोटा विभाग जो संपूर्ण समुदाय के अध्यक्ष के अधीन हो; 'गच्छागच्छं गुम्मागुम्मि फड्डाफ' (चीफ यह १२ द्वार धादिका रोटा छिद्र, विवर । ४ अवधिज्ञान का निर्गम स्थानः ‘फड्डा य असंखेजा', ‘फड्डा य श्राणुगामी' ( विसे ७३८ ७३९ ) । ५ समुदाय; 'तत्थ पव्वइयगा फडुगेहि एंति' (श्रावमः श्राचू १) । ६ समुदाय विशेष वर्ग समुदाय नेहम्यचदमेगं विभागवता' (कम्मप २८ ४४ पंच ३, २८५, १८३ १५४ जीवस ७६) गिफ' 'ताहि पंच ५१७६ १०१ । [पति ] गण के अवान्तर विभाग का नायक ( बृह १) । ~ गाई फण [] फल, सांप की फासे ६, ५५ पान गा २४०; सुपा १३ प्रासू ५१ ) । फाग [दे. फ] कंपा देश सवारने का उपकरण (२२३० ) - पाइअसमद्दण्णवो फणि पुं [फणिन्] १ साँप, सर्प, नाग ( उप ३५७ टी पान; सुपा ५५६; महाः कुमा) । २ दोला या एक अक्षर की संज्ञा (पिंग)। ३ प्राकृत- पिंगल का कर्ता, पिंगलापायें (प) चिंच [हि] भगव पार्श्वनाथ (कुमा) पडु ["प्रभु] नागकुमार देवों का एक स्वामी, धरणेन्द्र (सी) २ (२७) राय शेष नाग 1 [राज] १ शेष नाग ( कुप्र २७२ ) । पिंगलकर्ता (पिंग) लभ श्री ["स्ता] नागलता, वल्ली-विशेष, (कप्पू) वइ पुं [पति ] १ इन्द्र-विशेष, धरणेन्द्र (सुपा ३१)। २ नाग राज ( मोह २६ ) । ३ पिंगलकार (पिंग)। सेहर पुं [शेखर ] प्राकृत- पिगल का कर्ता (पिंग) | २ फणिंद पुं [ फणीन्द्र ] १ नाग-राज, शेष नाग ( प्रासू ११३) । २ पिंगलकार (पिंग) 1 फणित सक [ चोरव्] चोरी करना। फल्लिइ ( धात्वा १४६) । पनि [दे. फणि] स का उपकरण (सूझ १, ४, २, ११) फणीसर पुं [फणीश्वर ] देखो फणि-वइ (पिंग) 1 फणुज्जय देखो फणज्जुय (राज) 1 फद्ध [स्पर्धे] स्पर्धा, हिसं (कुमा)। फडा श्री [स्पर्धा] ऊपर देखो दे, १३ कुमा ३, १८) फद्धि वि[स्पर्धिन] स्पर्धा करनेवाला ( शशक २५) । | फर ) [दे. फल, क] १ का श्रादि फरअ ) का तख्ता । २ ढाल । (दे १,७६६६, ८२ कप्पू सुर २ ३१ ) । देखो फल, फल धक [ फल्] फला फलान्वित होना। फल (गा १० २९४) संत (सिरि १२८२) । वकृ. फलंत ( से ७, ५६) फल पुंन [फल ] १ वृक्षादि का शस्य (आचा कप्प; कुमाः ठा जी १० ) । २ लाभः 'पुच्छर से मिलाएं एएस किमिह मह फलो होई ( उप १८६ टी) । ३ कार्य: 'हे उफलभावो होंति' (पंचव १ धर्मं १ ) । ४ इष्टानिष्टकृत कर्म का शुभ या अशुभ फल - परिणाम (सम ७२ है ४ १३५) ५ उद्देश्य ६ प्रयोजन । ७ त्रिफला । ८ जायफल । ६ बारण का अग्र भाग । १० फाल । ११ दान । १२ मुष्क, भण्डकोष । १३ ढाल । १४ कक्कोल, गन्ध-द्रव्य- विशेष ( हे १, २३) । १५ अग्र भाग; 'प्रदु वा मुट्ठिा दु फलग । फरअन [दे. स्फरक] विशेष रह छाइऊणं तेवि हू गिरहंति जीवंतं' (धर्मवि 50) Iv करदिवि [३] फरका हुमा, हिला हुआ, कम्पित (पप्पू) 1 फणय [दे] वनस्पति- विशेष 'तुलसी होराले फलम्बु भए म भूषण ( पण १ - पत्र ३४ ) IV फरस देखो फरिस = स्पर्श ( रंभा नाट) - फणस पुं [पनस] कटहर का पेड़ (पराग फरसु ु [परशु] कुठार, कुल्हाड़ा, फरसा १; हे १, २३२; प्राप्र ) । - फणा स्त्री [फणा ] फन (सुर २,२३६) । (भवि पि २०४) राम [राम ] ब्राह्मणविशेष जमदग्नि ऋषि का पुत्र (भत १५३) ६२१ = फरहर क [ फरफराय् ] फरफर श्रावाज करना । वकृ. फरहत (भवि) 1 फरित देशी फसिह स्फटिक (इक) 1 फरिसइ फरिस सक [ स्पृश् ] छूना । (यह ) परिसद (प्राकृ २७)। कर्म. फरि सिज (कुमा) । कवकृ. फरिसिज्जंत (धर्मवि १३६) For Personal & Private Use Only फरसन [स्पर्श, 'क] स्पर्श, छूता फरिसग ) ( श्राचा; परह १, १; गा १३२३ प्राः पाद्मः कप ); 'नय कीरइ तगुफरिस' ( गच्छ २,४४ ) 1 फरिसण न [स्पर्शन] इन्द्रिय-विशेष, स्वगि(२२४) । फरिसिय वि [स्पष्ट ] छुआ हुआ ( कुप्र १९ ४२) । फरिहा देखो फलिहा = परिखा (गाया १, १२) । फरस व [परुष] १ कर्कश, कठिन उपा पात्र हे १, २३२; प्राप्र ) । २ न. कुवचन, निष्ठुर वाक्य 'ण यावि किची फरुसं वदेवा' (सूम १, १४, ७ २१) । - फरुस ) [ दे. परुष, क] कुम्भकार, कुम्हार, कोहार, कुंभार; 'पोग्गलमोयगफरुसगदंतें' (बृह ४) 'साला स्त्री [शाला ] गृह (२) । फरुसग फरुसिया स्त्री [परुषता, पारुष्य ] कर्कशता, निष्ठुरता ( श्राचा) । Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ पाइअसहमहण्णवो फलअ-फार कुंताइफलेणं' (प्राचा १, ६, ३, १०) फलासव [फलासव मद्य-विशेष (पएण फलिहि देखो परिहि (प्राकृ १५) । मंत, व वि [वत् ] फलवाला (णाया १७)। फलिही देखो फलही-दे (प्रणु ३५ टी)। १, ४, पंचा ४), वढिय, वद्धिय न | फलि पुं[दे] १ लिंग, चिह्न। २ वृषभ, फली स्त्री [फली] काठ आदि की छोटी [वर्द्धिक] १ नगर-विशेष, फलोधि-नामक | वैल (दे ६, ८६)। तस्ती; 'तत्तो चंदणफलीउ बणियहट्टम्मि मरुदेशीय नगर । २ वहाँ का एक जैन मन्दिर | फलिअ वि [फलित] १ विकसित, 'फुडिनं | विक्किउं कहवि (सुपा ३८५)। (ती ५२)। फलिनं च दलिअमुद्दरिनं (पाप)। २ फल फलोवय वि [फलोपग फल-प्राप्त, फलफलअपुंन [फलक] १ काष्ठ आदि का युक्त, जिसको फल हुआ हो वह (णाया फलोवा सहित (ठा ३,१ पत्र-११३)। फल्ग तख्ता (प्राचा; गा ६५६; तंदु २६ सुर १०, १६१; प्रौप)। २ जुए का फलिअ न [दे] वायन, बायन, भोजन आदि का | फल्ल वि [फल्य सूते का वस्त्र, सूती कपड़ा एक उपकरण (प्रौप; धण ३२)। ३ ढाल; (बृह १)। बाँटा जाता उपहार (ठा ३,३-पत्र १४७)। 'भरिएहि फलएहि (विपा १, ३, कुमा; फलिआरी स्त्री [दे1 दूर्वा, कुश तृण (दे | फव्वीह सक [लभ ] यथेष्ट लाभ प्राप्त साधं १०१)। ४ देखो फल (प्राचा)। करना, गुजराती में ‘फावत्"। फव्वीहामो ६, ८३)। सज्जा स्त्री [शय्या] काष्ठ का तख्ता | फलिणी श्री [फलिनी] प्रियंगु-वृक्ष (दे १, | (बृह १)। फव्व (दश० अगस्त्य० सू० जिसपर सोया जाय (भग)। ३२, ६, ४६; पान, कुमाः गा ६६३)। फसल वि [दे] १ सार, चितकबराः 'फसलं फलण न [फलन] फलना (सुपा ६)। फलिह पुं[परिघ १ अर्गला, पागल सबलं सारं किम्मोरं चित्तलं च बोगिल्लं' फलह । पुन [फलह, क] फलक, काठ 'अग्गला फलिहों (पात्र औप), 'ऊसिय (पाम दे ६,८७ । २ स्थासक (दे ६,८७)।। फलहग आदि का तख्ता: 'अस्संजए भिक्खु- फलिहा' (भग २, ५--पत्र १३४)। २ पडियाए पीढं वा फलहगं वा णिस्सेरिंग का फसलाणिअ) वि [दे] कृत-विभूष, जिसने अस्त्र-विशेष, लोहे का मुद्गर आदि अन । ३ फसलिअविभूषा की हो वह, शृङ्गारित उदूहलं वा प्राह टु उस्सविय दुरुहेज्जा' गृह, घर । ४ काच-घट । ५ ज्योतिष शास्त्र (दे ६, ८३); 'फसलियारिण कुंकुमराए' (प्राचा २, १, ६, १), 'भूमिसेज्जा फलह- प्रसिद्ध एक योग (हे १, २३२, प्राप्र)। (स ३६०)। सेज्जा' (प्रौप), 'घरफलहे' (दे १, ८; पि फलिह पुं[स्फटिक १ मरिण-विशेष, स्फटिक मणि (जी ३, हे १, १९७; कप्पू)। २ एक फसुल वि [दे] मुक्त (दे ६, ८२) । २०६), 'पेक्खइ मन्दिराई फलहद्धग्धाडियजालगवक्खाई', 'ग्रह फलहंतरेण दरिसिय विमानावास, देव-विमान-विशेष (देवेन्द्र १३२, फाइ स्त्री [स्फाति] वृद्धि (प्रोघ ४७) । गुज्झंतरदेसई (भवि); इक)। ३ रत्नप्रभा पृथिवी का एक स्फटिक-फाईकय विस्फीतीकृत] १ फैलाया हुआ। 'पिहुपत्तासयमयलं गुणनियरनिबद्धफलहसंघायं । मय काण्ड (ठा १०)। ४ गन्धमादन पर्वत २ प्रसिद्ध किया हुआ; 'वइसेसियं पणीयं संजमियसयलजोगं बोहित्थं मुरिणवरसरिच्छे का एक कूट (इक)। ५ कुण्डल पर्वत का | फाईकयमरणमरणेहि' (विसे २५०७)। (सुर १३, ३६) । एक कूट । ६ रुचक पर्वत का एक शिखर फागुण देखो फग्गुण (पि ६२) । (राज) - गिरि [गिरि] कैलास पर्वत फलहिआ) स्त्री [फलहिका, फलही] काठ फाड सक [पाटय , स्फाटय फाड़ना । फलही आदि का तख्ता; 'सूरिए अत्यमिए (पास)। फाडेइ (हे १, १६८ २३२)। वकृ. फाडंत फल हिनं घडेउमाढवई', 'इत्थ पहाणफलहो ! फलिह पु[फलिह] फलक, काठ प्रादि का (कुमा)। चिटुइ' (ती ११), 'कलावईए रूवं सिग्धं तख्ता; 'अवेसिणो फलिहा' (पान), 'नाणो- | फाडिय वि [फाटित, स्फाटित] विदारित प्रालिहसु चित्तफलहोए' (सुर १, १५१)। वगरणभूयाणं कवलियाफलिहपुत्थियाईणं' (भवि)। (आप ८)। फलही स्त्री [दे] १ कपास, कपास (दे ६, फाणिअ 'न [फाणित] १ गुड़, फाणिमो फलिह पुन [स्फटिक] प्राकाश (भग २०, गुडो भएपति' (निचू ४)। २ गुड़ का ८२: गा १६५, ३५६)। २ कपास की विकार-विशेष, पाद्र गुड़, पानी से द्रावित लताः 'दरफुडिप्रवेटभारोणपाइ हसिनं व फलिह न [दे] कपास का टेंटा, टेंट या गुड़ (प्रौप; कस; पिंड २३६; ६२५, पव फलहीए' (गा ३६०)। ढेढ़ी (अणु ३५ टी)। ४) । ३ क्वाथ (पएण १७-पत्र ५३०) । फलाव सक [फलाय] फलवान् बनाना, फलिहंस पू' फिलिहंसक] वृक्ष-विशेष (दे | फाय वि स्फिीत] १ वृद्ध । २ विस्तीर्ण । ३ सफल करना: 'तत्तोवि अ घएणतमा निमय- ४,१२) ख्यात (विसे २५०७)। फलेणं फलावंति' (रत्न २९) । फलिहा स्त्री [परिखा] खाई, किले या नगर फार वि [स्फार] १ प्रचुर, बहुत; 'फारफल. फलावह वि [फलावह] फलप्रद, फल को के चारों ओर की नहर (प्रौपः हे १, २३२; भारभज्जिरसाहासयसंकुलो महासाही' (धर्मवि धारण करनेवाला (पउम १४, ४४)। कुमा)।' ५५)। २ विशाल, विपुल । ३ विस्तृत, २)। For Personal & Private Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फारक - फिर पाइअसहमणव फारक वि [दे. स्फारक ] स्फरकान को धारण करनेवाला, 'तं नासंतं दठु' फारक्का नमुtवरण ढुक्का' (धर्मवि ८० ) 1 फासिय न [ पारुष्य ] परुषता, कठोरता, शताः पारसि समाइति (धाचा फैला हुग्रा (सुर २, २३६३ का १७०३ फालिहद्द पुं [पारिभद्र ] १ फरहद का पेड़ । २ देवदारु का पेड़ । ३ निम्ब का पेड़ (१; २३२) । सुपा १६४३ कु ५२ ) सक १ फास] [स्पृश, स्पर्शय् ] स्पर्श करना, छूना। २ पालन करना। फासइ, फासेइ ( ४, १०२ भग) कर्म फासिह (मा)। वक्र. फासंत, फासयंत (पंचा १०, ३५ ३ - पत्र १२३ ) । कवकु. फासाइज्जमान (भग) शंकू. फाससा, फासित्ता (उत्त २१ १ ख २६, १० कप्पः भग) । परह २, फाल देखो 'प्फाल । फाल देखो फाड | फालेइ (हे १, १६८ २३२) फाति, फालिजमाण १५३ सम्म १७४ फालेऊण (गा ४८१) Iv फाल पुंन [ फाल] प्रकार की लोहे की फाल से की जाती एक परीक्षा, शपथ- विशेष (सुपा फलांग, सॉफ 'दीवि ( १२ ) 1 १ लोहमय कुश, एक लम्बी कील ( उवा) । २ प्रकार की दिव्य१८९ ) । ३ विलासी' फालन [पाटन, स्फाटन] विदारण, "खोणी किन सहेदि सीरमुहस्रो तं तारिसं " रंभा सम १२५ ) - ( फाल देखो 'प्फालण फाला श्री [फाला] फलाङ्ग, सॉफ (पुत्र २७८; कुलक ३२ ) । फालि स्त्री [दे. फालि] १ फली, छीमी, फलियाँ २ शाखा “सिबलिफालिन श्रग्गिरणा दड्ढो" (संथा ८५) । ३ फाँक, टुकडा नागवल्लीदलपूगीफलफालिमुह - " ( रयण ५५) । फालिज वि[पाटित, स्फाटित] विदारित (कुमा; पराह १, १ – पत्रः पउम ८२, ३१ औप फालिअ ) फालिग फालिह फालिअ न [दे. फालिक] देश-विशेष में होता यन्न- विशेष अभिलाख वा मला वा फालिपाणि या कापहावा २५ १, ७) 1 6 [स्फाटिक] १ -विशेष (कप्प) । २ वि. स्फटिक रत्न का २२६ उप १०६ सुपा ब) फास पुन [स्पर्श] १ स्पर्श छूना (भाग प्रासू १०४) २ ग्रह-विशेष ज्योतिष्क देव-विशेष (ठा २, ३ – पत्र ७०)। ३ दुःख-विशेष, " एयाई फासाई फुर्सति बाल" (सूत्र १, ५, २, २२) । ४ शब्द श्रादिविषय (उत्त ४, ११) । ५ स्पर्श इन्द्रिय, त्वचा (भग)। ६ रोग। ७ ग्रहण ८ युद्ध, लड़ाई। ६ गुप्त चर जासूस । १० वायु, पवन ११ दान । १२ 'क' से लेकर 'म' तक के अक्षर । १३ वि. स्पर्श करनेवाला ( हे २, १२) । कीव पुं [ क्लब ] क्लीब का एक भेद (निचू ४) ७ णाम, नाम न [नामन्] कर्म - विशेष, कर्कश आदि स्पर्श का कारणभूत कर्म (राजः सम ६७) मंत वि [ मत्] स्पर्शवाला (ठा ५, ३; भग) मयवि [मय ] स्पर्श-मय, स्पर्श से निवृत्त; 'फासामयामो सोक्खाओ' (ठा १०) फासग वि [ स्पर्शक ] स्पर्श करनेवाला (सम्म १०४) । फासन न [स्पर्शन] १ स्पर्श किया था १६) २ स्पर्शेन्द्रिय स्वचा ( प ६७ । फासणाया श्री [स्पर्शना] १ स्पर्श-क्रिया फासणा (ठा ६ स १५; जीवस १८१२ (राज) 1फासिअ [पृष्ट] १ (नव ४१ पिछे २७०३२ प्राप्त 'चिएकाले बिहिया पतंजं फासि तवं भणिय ( ४) । ६२३ फासिअ वि [स्पर्शित] १ स्पर्श-युक्त, स्पष्ट । २ प्राप्त (पव ४ - गाथा २१२ ) । फासिंदिन] [स्पर्शेन्द्रिय] व्यििन्द्रय (भगः गाया १, १७) । For Personal & Private Use Only फासु वि[शाम क] अचेतन, जीवफामुअ रहित, निर्जीर, पक्ति भस्तु (भग फाग पंचा १०, ६; औफ उवा गाया १, ५० पउम ८२, ५) | फिकर धक [फिल्+] प्रेत-पिशाच का चिल्लाना; 'तह फिक्करंति पेया' (सुपा ४१२) । फिकिओ [३] हर्ष, खुशी (दे ६, १३ फिज न [दे. स्फिय् ] नितम्ब, वर चा का उपरिभाग (मुख, १३) फिट्ट ग्रक [ भ्रंश् ] १ नीचे गिरना । २ टूटना, भाँगना ३ ध्वस्त होना । ४ पलायन करना, भागना । फिट्टइ (हे ४, १७७; प्राकृ ७६ मा १३५८७), फिट्टई (उत Ro, Ro), finger (fafe tea) uf. फिट्टिहि पिट्टिस (कुप्र १६५३ गा ७६८) IV फिट्ट वि [ भ्रष्ट] विनष्टः 'पाणिए व्विस न फिट्टा' (गा ε३; भवि ) । फिट्टा स्त्री [दे] १ मार्ग, रास्ता; 'ता फिट्टाए मिलियं कुट्ठियनरपेडियं एवं (सिरि २९९ ) । २ प्ररणाम- विशेष, मार्ग में किया जाता प्रणाम (भा १) "मित्त पुंन ["मित्र] मार्ग में मिलने पर प्रणाम करने तक की प्रवधिवाली मित्रतावाला (सुपा १८९ ) 1 फिड देखो फिट्ट फिड (हे ४, १०७) फिडिज वि[भ्रष्ट, स्फिटि] १ नष्ट, च्युत (घोष ७, १११ ११२ से ४, ५४ ६४ ) । २ प्रतिक्रान्त, उल्लंघित (प्रोघभा १७४ प फिड्ड वि [दे ] वामन ( ६, ८४) । फिल्प वि [हे] कृत्रिम, बनावटी दे ६, ८३) । फिल्फिसन [दे] प्रति स्थित मांसविशेष फेफड़ा (सू७ि२ प १, १ फासिअ वि [स्पर्शिक] स्पर्श करनेवाला फिर सक [गम् ] फिरना, चलना । वकृ. (विसे १००१) ।फिरंत (धर्मवि ८१) Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ पाइअसहमहण्णवो फिरक-फुरण फिरक्क न [दे] खाली गाड़ी, भार ढोने- फुक्का स्त्री [दे] १ मिथ्या (दे ६, ८३)।२ फुडण न [स्फुटन] टूटना, खण्डित होना वाली खाली गाड़ी; 'समचित्ता दुवि वसहा फूक (कुप्र १५०)। (परह १, १-पत्र २३)। सगडं कड़हति उवलभरियपि । अदवि विभि-फकार पं [फकार फफकार. फ फैकी फुडा स्त्री [स्फुटा] अतिकाय-नामक महोरगेन्द्र नचित्ता फिरक्कजुत्तावि तम्मति' (सुपा | आवाज (कुप्र ५८ सण) की एक पटरानी, इन्द्राणी-विशेष (ठा ४, ४२४)। फुक्किय वि [फूत्कृत] फुफकारा हुआ (माव. फिरिय वि [गत] गया हुअा, फुडा स्त्री [फटा] सांप को फन, 'उक्कडफु'गोधणवालणहेउं पुरिसा इह फुक्की स्त्री [दे] रजकी, धोबिन (दे६, ) डकुडिलजडिलककस वियडफुडाडोवकरणदच्छ' केवि अग्गो फिरिया। फुग्ग स्त्रीन [दे. स्फिच ] शरीर का अवयव- | (उवा) जं सुम्मइ प्रासन्नो विशेष, कटि-प्रोथ (सूअनि ७६)। फुडिअ वि [स्फुटित] १ विकसित, खिला सुन्नेचि हु एस संखरयों हुआ (पाल, गा ३६०) । २ फूटा हुआ, (धर्मवि १३६)। फुग्गफुग्ग वि [दे] विकीर्ण रोमवाला, विदीर्ण (स ३८१)। ३ विकृत (पएह १, फिलिअ देखो फिडिअ (से ८,६८)। परस्पर असंबद्ध-बिखरे हुए केशवाला: तस्स २-पत्र ४०)।। फिल्लुस प्रक [दे] फिसलना, खिसकना, भुमगारो फुग्गफुग्गाओ' (उवा)। फुडिअ (अप) देखो फुरिअ (भवि)। गिरना । वकृ. 'सेवालियभूमितले फिल्लुस फुट । अक [स्फुट , भ्रंश] १ विकसना, फुट्ट खोलना । २ प्रकट होना । ३ फूटना, फुडिआ स्त्री [स्फोटिका] छोटा फोड़ा, माणा य थामथामम्मि' (सुर २, १०५) । फटना, टूटना । ४ नष्ट होना। फुटइ, फुट्टई, फुनसी (सुपा १३८)। देखो फेल्लुस । फुट्ट इ, फुटउ (संक्षि ३६, प्राकृ ६६; हे ४, | फुड्ड देखो फुट्ट । फुड्डइ (षड् ) 3 फीअ देखो फाय (सूत्र २, ७, १)। १७७; २३१; उवः भविः पिंगा गा २२८)। | फुन्न वि [दे. स्पृष्ट] छूमा हुआ (पव १५८ 3 फीणिया स्त्री [दे] एक जात की मीठाई, भवि. 'फुट्टिस्सइ बोहित्थं महिलाजणकहियमंतं | टी; कम्म ५, ८५ टी)। गुजराती में 'फेणी' (सम्मत्त ५७) । वा (धर्मवि १३), फुट्टिहिइ (पि ५२६)। वकृ. फुप्फुस न [दे] उदरवर्ती अन्त्र-विशेष, फुका स्त्री [दे फूक, मुह से हवा निकालना फटत. फटमाण (पण्ड १.३ गा २०४ फेफड़ा (सूअनि ७३; पउम २६, ५४) ।। (मोह ६७) फुम सक [भ्रम् ] भ्रमण करना । फुमह फुकार पुं सुर ४, १५१, णाया १,१-पत्र ३६) फुङ्कार] फुफकार, कुपित सर्प फुट्ट वि [स्फुटित, भ्रष्ट] १ फूटा हुआ, टूटा (हे ४, १६१) । प्रयो. फुमावइ (कुमा)। आदि की आवाज (सुर २, २३७) फुटा स्त्री [दे] केश-बन्ध (दे ६, ८४)। हुआ, विदीर्ण (उप ७२८ टी; सम्मत्त १४५, फुम सक [दे. फूत् + कृ] फूंक मारना, सुर २, ६०; ३, २४३, १३, २१०)।२ मुँह से हवा करना । फुमेजा (दस ४, १०)। कुंद देखो फंद = स्पन्द। फुदइ (से १५, ७७)। भ्रष्ट, पतित (कुमा)। ३ विनष्टः 'फुट्टहडा- वकृ. फुमंत (दस ४, १०)। प्रयो. फुमावेजा फंफमा । स्त्री [दे] करीषाग्नि, वनकरडे हडसीस' (णाया १.१६ विपा १,१)। (दस ४, १०) कुआ की प्राग (पान दे ६, ८४ तंदु । फुफुगा । ४५; जीव २; बृह १; कम्म १, फुट्टण न [स्फुटन १ फूटना, टूटना (कुप्र फुर अक [स्फुर ] १ फरकना, हिलना । २२) 10 ४१७)। २ वि. फूटनेवाला, विदीर्ण होनेवाला २ तड़फड़ना । ३ विकसना, खीलना। ४ पुंफुमा स्त्री [दे] १ करीषाग्नि, 'अहवा डज्झउ (हे ४, ४२२)। प्रकाशित होना, प्रकट होनाः ‘फुरइ अ सीताइ तक्खणं वामच्छे' (से १५, ७६; निहुयं निमं फुफुम व्व चिरमेसो' (उप फुट्टिअ वि [स्फुटित] विदारित, 'फुट्टिअमोहो' ७२८ टी)। २ कचवर-वह्नि, कूड़ा-करकट | (कुमा ७, ६४)। पिंग)। वकृ. फुरंत, फुरमाण- (गा १९२; की आग (सुख १, ८) फुट्टिर वि [स्फुटित] फूटनेवाला (सण)। सुर २, २२१महा पिंग से ६, २५, १२, फुफुल ) सक [दे] १ उत्पाटन करना। २६) । संकृ. फुरित्ता (ठा ७)। फुट्ठ देखो पुट्ठ = स्पृष्ट (पि ३११)। फुफुल्ल , २ कहना । फुफुल्लइ (हे२,१७४)। फुर सक [अप + हृ] अपहरण करना, फुड देखो फुट्ट = स्फुट , भ्रश् । फुडइ (हे ४, | फुस सक [मृज , प्र+उछु ] पोंछनाः छीनना । प्रयो. फुराविति (वव ३)।१७७ २३१, प्राकृ ६६); 'फुडंति सव्वंगसाफ करना । फुसदि (प्राकृ९३)। फुर पुं[स्फुर] शस्त्र-विशेष; फुरफलगावरण संधीओ' (उप ७२८ टी)। वकृ. फुडमाण फुसण देखो फासण (उप पृ ३४)। गहिय- (पएह १, ३–पत्र ४६)।(सुर ३, २४३)। फुक्क अक [फूत् + कृ] १ फुफकारना, फँ फुर (अप) देखो फुड - स्फुट (पिंग)।फू आवाज करना। २ सक, मुह से हवा फुड देखो पुट्ठ = स्पृष्ट (पएण ३६, ठा ७- फुरण न [स्फुरण] १ फरकना, कुछ हिलना, निकालना, फूकना । फुक्का (पिंग) । वकृ. पत्र ३८३ जीवस २००० भग) ईषत् कम्पनः 'जं पुण अच्छिप्फुरणं मह होही फुकंत (गा १७६), फुक्किजंत (म) (हे फुड वि [स्फुट] स्पष्ट, व्यक्त, साफ, विशद | भारिया तेण' (सुर १३, १२७)। २ स्फूर्ति ४, ४२२)। (पाम हे ४, २५८; उवा)। (सुपा ६ वजा ३४ सम्मत्त १६१). For Personal & Private Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुरफुर-फेणाय पाइअसद्दमहण्णवो ६२५ फुरफुर प्रक [पोस्फुराय ] खूब काँपना, कोगलिमा (? मो)गली य तह अकबोंदीया' फुसिअ वि [भ्रमित] घुमाया हुआ (कुमा थरथराना, तड़फड़ाना। फुरफुरेजा (महानि (पएह १-पत्र ३३)। ७, ४)। १)। वकृ. फुरफुरंत, फुरफुरत (सुर १४, फुल्लवड न [दे] पुष्प-विशेष, मदिरा-वामक फुसिआ स्त्री [दे] वल्ली विशेष, सेसविदुगो२३३; स ६६६; २५९) फूल (कुप्र ४५३) तफुसिया' (पएण १-पत्र ३३) । फुरिअ वि [स्फुरित १ कम्पित, हिला हुआ, फुल्लविय । वि [फुल्लित] फुलाया हुआ फुस्स देखो फुस = स्पृश् । फरका हुआ, चलित (दे ६, ८४; सुर ५, फुल्लाविय (सम्मत्त १४० विक्र २३)। फअ दे1 लोहकार, लोहार (दे ६,८५) २२६; गा १३७)। २ दीप्त (दे ६, ८४)। फुल्लिअ वि [फुल्लित पुष्पित, विकसित (अंत फूम देखो फुम । वकृ. फूमंत (राज)। फुरिअ वि [दे] निन्दित (दे ६. ८४)। १२ स ३०३ सम्मत्त १४०; २२७)। फूमिय वि [फूत्कृत] फूका हुआ (उप पू फुरफुर देखो फुरफुर। वकृ. फुरफुरंत, फुरु- फुल्लिम पुंस्त्री [फुल्लता] विकास, फूलना १४१) फुरत (परह १, ३, पिंड ५६०; सुर ७, 'प्रच्छ उ ता फलकाले फुल्लिमसमए फूल देखो फुल्ल = फुल्लः ‘फलफूलछल्लिकट्ठा २३१ रणाया १,८-पत्र १३३)। वि कालिमा वयणे। । मूलगपत्तारिण बीयारिण' (जी १३) फुल देशो फुड = स्फुट । फुलइ (नाट)। फुले इय कलिउं व पलासो चत्तो फेकार पुंफित्कार] १ शृगाल की आवाज (अप) (पिंग)। पत्तेहि किविगो व्व' (सुर ९, २०४)। २ मावाज, चिल्लाहट फुल (अप) देखो फुर = स्फुर् । फुला (पिंग) (सुर ३, ४४) (कप्पू) । फुल (अप) देखो फुड = स्फुट (पिंग)। फुल्लिर वि [फुल्लित] फूलनेवाला, प्रफुल्लः फेकारिय न [फेत्कारित ऊपर देखो (स फुल (अप) देखो फुल्ल = फुल्ल (पिंग)। "हिययणं दणचंदणफुल्लिरफुल्लेहि' (सम्मत्त । ३७०)। फुलिअ देखो फुडिअ = स्फुटित (से ५, ३०)। २१४)।। फेड सक [स्फेटय ] १ विनाश करना । फुलिअ (अप) देखो फुल्लिअ (पिंग)। फुस सक [भ्रम् ] भ्रमण करना । फुसइ | २ दूर हटाना। ३ परित्याग करना। ४ फलिंग पुं[स्फुलिङ्ग] अग्नि-कण (गाया १, (हे ४, १६१)। उद्घाटन करना। फेडइ, फेडेइ; फेडंति (उव: १ दे ६, १३५, महा)। फुस सक [ मृज] मार्जन करना, पोंछना, | हे ४, ३५८ संबोध ५४; स ४१४) । कर्म. फुल्ल अक [फुल्ल ] फूलना, पुष्प-युक्त होना, | साफ करना । फसइ (हे ४,१०५, भवि)। फेडिजइ (भवि) विकसना। फुल्लइ, फुल्लए, फुल्लेइ (रंभा; कर्म. फुसिजइ, फुसिजउ (कुमाः सुपा १२४)। फेडण न [स्फेटन] १ विनाश । २ अपनयन सम्मत्त १४०), फुल्लंति (हे २, २६) । भवि. वकृ. फुसंत, फुसमाण (भविः कुप्र २८५)। | (पव १३५)। फुल्लिहिसि (गा ८०२) संकृ. फुसिऊण (महा)। फेडणया स्त्री [स्फेटना] ऊपर देखो (पिंड फुल्ल देखो कम = क्रम् । फुल्लइ (धात्वा १४६) फुस सक [स्पृश ] स्पर्श करना, छूना। ३८७)। फुल्ल न [फुल्ल] १ फूल, पुष्प (कुमाः धर्मवि - फुसइ (भगः प्रौपः उत्त २, ६), फुसंति (विसे फेडावणिय न [दे] विवाह-समय की एक २० सम्मत्त १४३; दसनि १)। २ फूला २०२३), फुसंतु (भग) । वकृ. फुसंत, रीति, वधू को प्रथम बार लजा-परिहार के हुआ, पुष्पित (भगः णाया १, १-पत्र १८; फुसमाण (ोध ३८६, भग) । संकृ. | वक्त दिया जाता उपहार (स ७८)। कुमा)+ 'मालिया स्त्री [ मालिका] फूल फुसिअ, फुसित्ता, फुसित्ताणं (पंच २, फेडिअ वि [स्फेटित] १ नष्ट किया हमा, बेचनेवाली, मालाकार की स्त्री, मालिन (सुर ३८ भगः प्रौपः पि ५८३) । कृ. फुस्स विनाशित (पउम ३६, २२)। २ त्याजित ३, ७४) + वल्लि स्त्री [वल्लि] पुष्प-प्रधान (ठा ३, २) (सिरि ६५५) । ३ अपनीत (प्रोघभा ४२)। लता (णाया १,१)। फुसण न [स्पर्शन] स्पर्श-क्रिया (भगः सूपा ४ उद्घाटित (स ७८) । फुलंधय पुं[फुल्लन्धय, पुष्पन्धय] भ्रमर, फेण पु [फेण, फेन] फेण, झाग, जल-मल, भँवरा (उप ६८६ टी) फसणा श्री स्पिर्शना] ऊपर देखो (विसे पानी आदि के ऊपर का बुादाकार पदार्थ फुल्लंधुअ [दे] भ्रमर, भौंरा (दे, ६, ८५; ४३२; नव ३२) (पानः गाया १,१-पत्र ६२, कप्प) पामः कुमा) फुसिअ देखो फुस = स्पृश् । मालिणी स्त्री [ मालिन] नदी-विशेष फुसिअ वि [स्पृष्ट] छुपा हुआ (जीवस (ठा २, ३, इक)। फुल्लग न [फुल्लक] पुष्प की प्राकृतिवाला ललाट का प्राभूषण (औप)। है पुं[दे] वरुण (दे ६, ८५)। फुसिअ वि [मृष्ट] पोंछा हुआ (उप पृ ३४५. फेगवड फुल्लण न [फुल्लन] विकास (वज्जा १५२) | सुपा २११, कुप्र २३१) फेणाय प्रक [ फेणाय, फेनाय ] फेणफुल्या स्त्री [फुल्ला, पुष्पा] वल्ली-विशेष, फुसि पुंन [पृषत] १ बिन्दु, बुन्द, बूंद | फेन का वमन करना, झाग निकालना । पुष्पाह्वा, शतपुष्पा, सोया का गाछ; 'दहफुल्लय- | (पाचा; कप्प) । २ बिन्दु-पात (सम ६०)। वकृ. फेणायमाण (प्रयौ ७४)। की प्राकृतिवाला १९६) मिष्ट] पोंछा हुआ ( For Personal & Private Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ पाइअसद्दमहण्णवो फेफस-फोसणा फेप्फस न [दे] देखा फिप्फिस, फोफा स्त्री दे] डराने की आवाज भयोत्पादक फोडिअ वि [स्फोटित] १ फोड़ा हुआ, फेफस । फुप्फुस (राजः तंदु ३६) शब्द (दै ६, ८६) विदारित (णाया १, ७ स ४७२)। २ फेरण न [दे] फेरना, घुमानाः 'गुफणफेरण- फोड सक [ स्फोटय्] १ फोड़ना, विदारण राई प्रादि से बघारा हुमा (वव १)। सुंकारएहि' (सुर २,८) करना। २ राई आदि से शाक आदि को फोडिअय वि [दे. स्फोटित, क] राई से फेल सक [क्षिप] १ फेंकना । २ दूर बघारना । फोडेज (कुप्र ६७) । वकृ. फोडंत, | बघारा हुआ शाकादि (दे ६,८८)। करना । लदि (शौ) (नाट) । संकृ. फोडेमाण (सुपा २०१; ५६३: प्रौप) फोडियन दि] रात के समय जंगल में फेलिअ (नाट) फोड पुं[स्फोट १ फोड़ा, द्रण -विशेष (ठा सिंहादि से रक्षा का एक प्रकार (दे ६,८८)।फेला स्त्री [] झूठन-झठन, जूठन, भोजन १०-पत्र ५२०)। २ वरणं-विशेष, शब्द फोडिया स्त्री [स्फोटिका] छोटा फोड़ा (उप से बचा-खुचा, उच्छिष्ट भेद (राज)। ३ वि. भक्षक; 'बहुफोडो' ७६८ टी)। 'तस्स य अणुकंपाए देवी (ोघभा १६१)। फोडी स्त्री [स्फोटी, स्फौटी] देखो फोडि . दासी य तम्मि कूवम्मि । फोडअ (शौ) पुं[स्फोटक] ऊपर देखो (प्राकु (उवा: पब ६; पडि)। निचं खिवंति फेलं तीए सो जियइ सुणउव्व। फोडग न [स्फोटन] १ विदारण (पव ६ फोफस न [दे] शरीर का अवयव-विशेष, 'दुग्गंधकूववासो गन्भो, टी; गउड)। २ राई आदि से शाक आदि को 'कालिज्जयअंतपित्तजरहिययफोप्फसफेफसपिजगणोइ चावियरसेहिं । बघारना (पिंड २५०)। ३ राई आदि लिहोदर-'(तंदु ३६)। जै गम्भपोसणं पुण तं फेलाहारसंकासं । । संस्कारक पदार्थ (पिंड २५५)। ४ वि. फोफल न [दे] गन्ध-द्रव्य विशेष, एक प्रकार (धर्मवि १४६)। फोड़नेवाला, विदारण करनेवाला; 'कायर- की औषधि, 'महुरविरेयणमेसो कायवो फेलाया स्त्री [दे] मातुलानी, मामी (दे ६, जगहिययफोडणं (गाया १, ८); 'अम्ह फोफलाइदव्वेहि' (भत्त ४२)। ८५) मरणसराहअहिअमवरणफाडणं गीअं' (गा फोफस देखो फोप्फस (पएह १,१फेल्ल पुंदे] दरिद्र, निर्धन (दे ६,८५)। ३८१) पत्र८) फेल्लुस सक [दे] फिसलना, खिसकना, फोडर देखो फोडअ (पउम ६३, २६)। फोरण न [ स्फोरण ] निरन्तर प्रवर्तन, खिसककर गिरना। फेल्लुसइ (दे ६, ८६)। फोडाव सक [स्फोटय ] १ फोड़वाना। 'विसयम्मि अपत्तेवि हु रिणयसत्तिप्फोरणेण संकृ. फेल्लुसिऊण (दे ६, ८६ स ३५५) । तोड़वाना। २ खुलवाना । संकृ. फोडाविऊण | फलसिद्धी' (उवर ७४) । फेल्लुसण न [६] १ फिसलन, पतन । २ (स ४६०)। फोरविअ वि [स्फोरित] निरन्तर प्रवृत्त पिच्छिल जमीन, वह जगह जहाँ पाँव फिसल फोडाविय वि [स्फोटित] १ तोड़वाया | किया हुअा, 'तेहिपि नियनियसत्ती फोरवीया' हुप्रा । २ खुलवाया हुमा 'फोडाविया संपुडा' | (सम्मत्त २२७ हम्मीर १४)। पड़े (दे ६, ८६) (ल ४६०) फेल्हसण देखो फेल्लुसण (वव ४ टी)। फोस देखो फुस = स्पृश् ; 'सव्वं फोसंति फोडि श्री [स्फोटि] विदारण, भेदनः 'भाडो- जग (जीवस १९६)।फेस पुंदे] १ त्रास, डर । २ सद्भाव (दे। फोडीसु वजए कम्म' (पडि)। कम्म न फोस पुगद] उद्गम (दे ६, ८६) कर्मन] १ जमीन आदि का विदारण करने फोस पुं [दे. पोस] अपान-देश, गुदा फो [दे] उद्गम (दे ६, ८६) का काम, हल आदि से भूमि-दारण, कूप, (तंदु २०)। फोइअय वि [दे] १ मुक्त । २ विस्तारित तडाग प्रादि खोदने का काम । २ उक्त काम फोसणा स्त्री [स्पर्शना] स्पर्श-क्रिया (जीवस कर आजीविका चलाना (पडि)। १६६) ॥ इन सिरिपाइअसद्दमण्णवे फाराइसहसंकलणो अट्ठावीसइमो तरंगो समत्तो।। For Personal & Private Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब-बंधण पाइअसहमहण्णवो ६२७ ब [ब] ओष्ठ-स्थानीय व्यन्जन वर्ण-विशेष बउहारी स्त्री [दे] बुहारी, संमार्जनी, झाड़ | बंध सक [बन्ध ] १ बाँधना, नियन्त्रण (प्राप)। करना। २ कर्मों का जीव-प्रदेशों के साथ बअर (शौ) न [बदर] १ फल-विशेष, बेर । बंग पं[बङ्गा १ भगवान आदिनाथ के एक संयोग करना । बंधइ (भग; महा: उवः हे २ कपास का बीज (प्राकृ ८३) । पुत्र का नाम (ती १४)। २ देश-विशेष, १, १८७)। भूका. बंधिसु (पि ५१६)। बइट्ट (अप) वि [उपविष्ट] बैठा हुआ (हे ४, . बंगाल देश (उप ७६५; ती १४)। ३ बंग कर्म, बंधिज्झइ, बज्झइ (हे ४, २४७), ४४४भवि)। देश का राजा (पिंग) भवि. बंधिहिइ, बज्झिाहइ (ह ४, २४७)। बइल पु ल , बरष, वृषभ (६ ६, ६० बंगल (अप) पुं[बङ्ग] बंग देश का राजा वकृ. बंधंत बंधमाण (कम्म २,८; परण गा २३८, प्राकृ ३८ हे २, १७४ धर्मविर । (पिंग)। २२) । संकृ. बंधइत्ता, बांधउं, बांधऊण, ३ श्रावक २५८ टी; श्र १५३, प्रासू ५५; बंगाल बिनाला बंग ल देश. 'बंगालदेस बंधिऊणं, बंधित्ता. बंधित्तु (भगः पि कुप्र २७६; ती १५; वै ६; कप्पू)। वइणो तेणं तुह ससुरयस्स दिन्ना है' (सुपा ५१३, ५८५; ५८२)। हकृ. बंधेउ (ह १, बइस (अप) अक [उप + विश ] बैठनाः । ३७७)। १८१)। कृ. बंधियव्व (पंच १, ३)। गुजराती में 'बेसवु' । बइसइ (भवि) कवकृ. बज्भंत, बज्झमाण (सुपा १९८ | बंझ देखो चंझ (पि २६६)।बइसणय (अप) न [उपवेशनक] प्रासन | कम्म १, ३५; औप) बंडि पुं[दे] देखो बंदि = बन्दिन (षड्) (ती ७) बंध पुं[दे] भृत्य, नौकर (दै ६, ८८)। बइसार (अप) सक [उप + वेशय ] बंद न [दे ] कैदी, कारा-बद्ध मनुष्य, 'बंदंपि बंध पुं [बन्ध] १ कर्म-पुद्गलों का जीवबैठाना । बइसारइ (भवि)। किपि' (स ४२१), 'बंदाई गिन्हइ कयावि', प्रदेशों के साथ दूध-पानी की तरह मिलना, बइस्स देखो वइस्स (पि ३००)। छलेण गिन्हति बंदाई', 'बंदाणं मोयावणकए' जीव-कर्म-संयोग (माचा; कम्म १, १५, बईस (अप) देखो बइस । बईसइ (भवि)। (धर्मवि ३२); “एगत्थबंदपग्गहियपहियकीरंत- ३२) । २ बन्धन, नियन्त्रण, संयमन (श्रा बईस (अप) न [उपवेश] बैठ, बैठन, बैठनाः करुणरुन्नसरा' (धर्मवि ५२)। ग्गह पुं १० प्रासू १५३) । ३ छन्द-विशेष (पिंग)। 'तोवि गोट्टडा कराविमा मुद्धए उट्ठ-बईस' [ग्रह] कैदी रूप से पकड़नाः 'परदोहघट्ट- सामि वि ["स्वामिन् ] कर्म-बन्ध करने(हे ४, ४२३)। वाडणबंदग्गहखत्तखणणपमुहाई' (कुप्र११३)। वाला (कम्म ३, १, २४)। बउणी स्त्री [दे] कासी, कर्पास-वल्ली | बंदण न [दे] कैदी (नंदीटिप्प० वैनयि की बंधई स्त्री [बन्धकी] पुंश्चली, प्रसती स्त्री (दे ३, ५७) बुद्धि में १३ वाँ कथानक) (नाट-मालती १०६) । बउल पुं[बकुल] १ वृक्ष-विशेष, मौलसरी | बंदि नो [बन्दि] देखो बंदी (हे १, १४२ बंधग वि [बन्धक] १ बाँधनेवाला। २ का पेड़ (सम १५२, पान वाया १, ६)। | २,१७६)। कर्म-बन्ध करनेवाला, प्रात्म-प्रदेश के साथ २ बकुल का पुष्प (से १,५६). "सिरी | बंदि [बन्दिन् ] स्तुति-पाठक, मंगल- कर्म-पुद्गलों का संयोग करनेवाला (पंच ५, स्त्री ["श्री] १ बकुल का पेड़ । २ बकुल का | बंदिण पाठक, मागधः ‘मंगलपाढयमागह- | ८४ श्रावक ३०६; ३०७, पंचा १६, ४०, पुष्प (श्रा १२)। चारणवालिया बंदी (पान उप ७२८ टी; कम्म ६, ६) बउस ' [बकुश] १ अनार्य देश-विशेष । धर्मवि ३०), 'उद्दामसद्दबंदिणवंद्रसमुग्घुट बंधण न [बन्धन] १ बाँधने का-संश्लेष , २ पुंस्त्री. उस देश का निवासी (पएह १, नामाई' (स ५७६)। का साधन, जिससे बाँधा जाय वह स्निग्ध१-पत्र १४) । स्त्री. सी (गाया १,१बंदिर न [दे] समुद्र-वाणिज्य प्रधान नगर, तादि गुण (भग ८, ६-पत्र ३६४)। २ पत्र ३७)। ३ वि. शबल, चितकबरा। ४ बंदर (सिरि ४३३)। जो बाँधा जाय वह । ३ कर्म, कर्म-पुद्गल । मलिन चरित्रवाला, शरीर के उपकरण और | बदा नाबन्दा १ हन्त बा. बादा (द ४ कर्म-बन्ध का कारण (सून १,१, १, विभूषा आदि से संयम को मलिन करनेवाला २,८४ गउड १०५; ८४३)। २ कैद १)। ५ संयमन, नियन्त्रण (प्रासू ३)। ६ (ठा ३, २, ५, ३, सुख ६, १), स्त्री. 'तए किया हुमा मनुष्य (गउड ४२६; गा ११०)M नियन्त्रण का साधन, रज्जु आदि (उब)। णं सा सूमालिया अज्जा सरीरबउसा जाया बंदीकय वि [बन्दीकृत] कैद किया हुआ, ७ कर्म-विशेष, जिस कर्म के उदय से पूर्वयावि होत्या' (णाया १, १६)। ४ पॅन. बाँध कर आनीत (गउड)। गृहीत कर्म-पुद्गलों के साथ गृह्यमारण कममलिन संयम, शिथिल चारित्र-विशेष (सुख बंदुरा स्त्री [बन्दुरा] प्रश्व-शाला, 'गच्छ । पुदलों का आपस में सम्बन्ध हो वह कर्म निस्वेहि बंदुरामो, भूसेहि तुरए' (स ७२५) M (कम्म १, २४ ३१, ३५, ३६, ३७) । ... For Personal & Private Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ बंधना [बन्धन ] बन्धन (भग) | बंध, at [बन्धनी] विद्या- विशेष (पउम ७. १४१) २ बंधय देखो बंधन (एदि ४२ ) - [व] १ भाई, आता मित्र वयस्य दोस्त । ३ नातेदार, संबंधी, नतैत। ४ माता । ५ पिता । ६ माता-पिता का सम्बन्धी मामा, चाचा श्रादि (हे १, ३०; प्रासू ७६; उस १८, १४) बंधा ( [] बँधवाना । बंधापयति (पि ७) 1 बंधावि वि [बन्धित ] बँधाया हुआ (सुवा ३२५) । बंधि देखो न ( सू २, ६, १० धर्मवि २३) । बंधु [बन्धु ] १ भाई, भ्राता । २ माता । ३ पिता । ४ मित्र, दोस्त । ५ स्वजन, नातेदार, नत (कुमा महाप्रा १०० सुपा १६० २४१) छन्द-विशेष (पिंग) "जीव [जी] -विशेष, दुपहरिया का पेड़ (स्वप्न ६९ कुमा) 'जीवन [जीवक] वही श्रर्थं (गाया १, १ कप्प भग) दत्त पुं ['दत्त ] १ एक श्रेष्ठी का नाम (महा) । २ एक जैन मुनि का नाम (राज) + मई, वई स्त्री [मती] १ भगवान् मल्लिनाथ की मुख्य साध्वी का नाम ( छाया १, ८ पव ६ सम १५२ ) । २ स्वनाम - ख्यात स्त्री-विशेष "सि श्री [श्री] श्रीदाम राजा की (१६) ( महा; राज ) 1 पत्नी बंधुर [र] सुन्दर रम्य (पा २ नम्र, अवनत (गउड २०५) । धुरिव [न्धुरित] १ पिडीत (उड २०३२ भूत, नमा हुआ (गडव ५५६) । ३ मुकुटित, मुकुटयुक्त । ४ विभूषित ( गउड ५३३) । धुल [न्धुल] वेश्या-पुत्र, सती-पुत्र (मृच्छ २०० ) 1 बंधू [] वृक्ष-विशेष, दुपहरिया का पेड़ ( स ३१२) बंध पाइअसहमणो [ दे] मेलक, मेल, संगति (दे ६, ८६; षड् ) । बंभ [ ब्रह्मन् ] १ ब्रह्मा विधाता (उप १०३१ टी दे ६, २२; कुत्र २०३ ) । २ भगवान् शान्तिनाथ का शासनाधिष्ठायक यक्ष (संति ७) । ३ प्रकाय का अधिष्ठायक देव (ठा ५. १ - पत्र २९२ ) । ४ पाँचवें देवलोक का इन्द्र (ठा २, ३ - पत्र ८५) । ५ बारहवें त्रक्रवर्ती श्रोषभा । पिता (सम १५२ ) । ६ द्वितीय बलदेव और वासुदेव का पिता (सम १५२ ठा ६पत्र ४४७ ) । ७ ज्योतिष शास्त्र प्रसिद्ध एक योग ( पउम १७, १०) ८ ब्राह्मण, विप्र ( कुलक ३१) । ६ चक्रवर्ती राजा का एक देव-कृत प्रासाद (उत्त १३, १३) । १० दिन का नववा मुहूर्त (सम ५१ ) । ११ छन्दविशेष (पिंग ) । १२ ईषत्प्राग्भारा पृथिवी ( सम २२ ) । १३ एक जैन मुनि का नाम (कम्प) १४ न. एक मासदेव विमान विशेष ( देवेन्द्र १३१ १३४ सम १९ ) । १५ मोक्ष, श्रपवर्गं ( सू २, ६, २० ) । १६ ब्रह्मचर्यं (सम १८ २) । १७ सत्य अनुष्ठान ( सू २, ५, १) । १८ निर्विकल्प सुख ( आचा १, ३, १, २) १९ योगशास्त्र - प्रसिद्ध दशम द्वार (कुमा) "कंतन ["कान्त] एक देवान (सम १९) कूड पुं [कूट ] १ महाविदेह वर्ष का एक वक्षस्कार पर्वत (जं ४) । २ न. एक देव- विमान (सम १९ ) । चरण न [' चरण] १६१) चार [चारिन्] १ ब्रह्मचर्यं पालन करनेवाला ( णाया १, १३ उवा २ पुं. भगवान् पाश्र्व नाथ का एक गरणधर प्रमुख मुनि (ठा -- ४२) रन [च] १ मेथुन-विरति भाषापह २, ४ हे २, ७४; कुमा; भग; सं ११; उप पृ ३४३) । २ जिनेन्द्र शासन, जिन प्रवचन ( सू २, ५, १) । उभय न [ध्वज ] एक देव-विमान (सम १९) दत्त ["दत्त ] भारतवर्ष में उत्पन्न बारहवाँ चक्रवर्ती राजा (ठा २, ४ सम १५२ उव) । दीव पुं ["द्वोप] द्वीपविशेष (राज) दीविया स्त्री [द्वापिका ] जैन मुनि गए की एक शाखा (कप्प ) । पभ For Personal & Private Use Only बंधणया - बंभण्णय [प्रभ] एक देव- विमान (सम १९ ) 'भूइ ["भूति] एक राजा, द्वितीय वासुदेव का पिता ( पउम २०, १८२) यारि देखो चारि (खाया १. १ सम १३ कप्प सुपा २०१ महाराज) ब्रीणी (गाया १. १४) [रुचि] स्वनाम-प्रसिद्ध एक ब्राह्मण, नारद का पिता ( पउम ११, ५२) लेखन ["लेश्य] एक देव-विमान (सम १९ ) । लोअ, लोग पुं [लोक] एक स्वर्ग, पाँचवाँ देवलोक (भगः धनुः सम १३) लोगदसियन ["लोकावतंसक ] एक देव-विमान (सम १७) वि [[व] (प्राचा) डिस [वितंसक ] सिद्ध-शिला, ईषत्प्राग्भारा पृथिवी (सम २२ ) वण्ण न [वर्ण] एक देव विमान (सम १९ ) वय न [] (लाका १, १) बि वि [ "वित् ] ब्रह्म का जानकार (प्राचा) । व्वय देखो वय ( सं ५६३ प्रासू १५६ ) v संति [शान्ति ] भगवान् महावीर का शासन-यक्ष ( गण ११; ती १५) ५ सिंग न [शृङ्ग] एक देव -विमान (सम १६ ) 1 "सिटु न [सृष्ट ] एक देव - विमान (सम १९ ) सुत न [[ सूत्र ] उपवीत, यज्ञोपवीत (मोह ३०; सुख २, १३) ५ हिअ [हित] एक विमानावास, देव-विमानविशेष (देवेन्द्र १३४) वित्तन [व] एक देव-विमान (सम ११) देखो वंभाण, बम्ह । दिन] [अण्ड] जग संसार ( कुत्र ४; सुपा ३६८ ५९३ ) 1 भण [ब्राह्मण] ब्राह्मण, विप्र ( स २६० ; सुर २, १३०, सुपा १६८ हे ४ २८ महा) 1 बंभणिआ स्त्री [ब्राह्मणिका ] पञ्चेन्द्रिय जन्तु-विशेष (पुण्फ २६७) - बंभणिआ । स्त्री [दे. ब्राह्मणिका ] कीटबंभणी ) विशेष (दे ६, ६० पान; दे 5, ६३ ७५) । बंभण्ण ( स्त्री [ब्रह्मण्य, ब्राह्मण्य, 'क] बंभण्णय ब्राह्मण का हित । २ ब्राह्मणसंबन्धी । ३ न ब्राह्मण समूह । ४ ब्राह्मण w Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ बज्भंत देखो बन्ध बन्ध् । बंभद्दीविग-बब्भागम पाइअसहमहण्णवो धर्म; 'बंभएणकज्जेसु सज्जो' (सम्मत्त १४० बज्झ वि [बद्ध] १ बन्धनाकार व्यवस्थित, फल-युक्त, फल-संपन्न (णाया १, ७-पत्र कप्प; औप; पि २५०) 'मह तं पवेज्ज बज्झ' (सूम १, १, २, ८)। ११६)। बंभद्दीविग वि [ब्रह्मदीपिक] ब्रह्मदीपिका- २ बँधा हुआ (प्रति १५) ।। बद्धग पुं[बद्धक] तूण-वाद्य विशेष (राय शाखा में उत्पन्न (णंदि ५१). बंभद्दीविगा स्त्री [ब्रह्मदीपिका] एक जैनबज्भमाण बद्धय बठर पु [बठर] मूर्ख छात्र (कुप्र १९) [दे] कान का एक आभूषण मुनि-शाखा (णंदि ५१)। बंभलिज न [ब्रह्मलीय] एक जैन मुनि-कुल बड (अप) वि [दे] बड़ा, महान् (पिंग)। देखो वड्ड ।। बरेल्लग देखो बद्ध (अणु; महा) । बद्धेलय बंभहर न [दे] कमल, पम (दे ६, ६१)। बडबड अक [वि+ लप्] विलाप करना, बंभाण देखो बंभ (पउम ५, १२२)। "गच्छ । बड़बड़ाना । बडबडइ (षड् ) बप्प [दे] १ सुभट, योद्धा (दे ६,८८)। । २ बाप, पिता (दे ६, ८८ दस ७, १८७ पुं[गच्छ] एक जैन-मुनि गच्छ (ती २८)। बडहिला स्त्री [द] धुरा के मूल में दी जाती स ५८१, उप ३२० टी; सुर १, २२१, कुप्र बंभित्रो ___ कील, कीलक-विशेष (सट्ठि ११६) । [ब्राह्मी] १ भगवान् ऋषभदेव बंभी की एक पुत्री (कप्पा पउम ५, १२० बडिस देखो बलिस (हे १, २०२)। ४३; जया भवि; पिंग) । ठा ५, २; सम ६०) । २ लिपि-विशेष (सम बड़ । पुं[बटु, क] लड़का, छोकड़ा (उप | बप्पहट्टि पुं[बप्पभट्टि] एक सुविख्यात जैन ३५; भग)। ३ कल्प-विशेष (सुपा ३२४) । बडुअ) ७१३; सुपा २००)। प्राचार्य (विचार ५३३; ती ७) ४ सरस्वती देवी (सिरि ७६४)। बंभुत्तर पुं [ब्रह्मोत्तर] एक विमानावास, बड्डवास [दे] देखो वड्डवास (दे ७, ४७)बप्पीह पुं[दे] पपीहा, चातक पक्षी (दे ६, ६० स ६८६ पाय; हे ४, ३८३)। देव-विमान-विशेष (देवेन्द्र १३४) । वडिंसक बतीस ? (अप) देखो बत्तीस (पिंग)। बत्तिस ( बप्पड विदे] बेचारा, दीन, अनुकम्पनीय न[वतंसक] एक देव-विमान (सम १९) बत्तीस स्त्रीन [द्वात्रिंशत् ] १ संख्या-विशेष, गुजराती में 'बापट्ट" (हे ४, ३८७ पिंग)। बंहि पुं [बहिन] मयूर, मोर (उत्तर २६) बत्तीस, ३२। २ जिनकी संख्या बत्तीस हों के बक पुंन [बाष्प] १ भाफ, अष्माः 'बष्फो' बहिण (अप) ऊपर देखो (पि ४०६)।। 'बत्तीस जोगसंगहा पन्नत्ता' (सम ५७ औप; (हे २, ७० षड् ), 'ब' (प्राकृ २३; विसे बक देखो बय (पराह १,१-पत्र ८)। उवः पिंग) । स्त्री: °सा (सम ५७) । १५३५)। २ नेत्र-जल, अश्रुः ‘बर्फ बाहो बकर न [दे. बकर] परिहास (दे ६, ८६ बत्तीसई स्त्री. ऊपर देखो (सम ५७)। बद्धय य नयराजलं' (पाप), 'बष्फपज्जाउललोप्रणाहि कुप्र १६७ कप्पू)। न [बद्धक] १ बत्तीस प्रकार रचनात्रों से (स ५६१ स्वप्न ८५) । बक्कस न [दे] अन्न-विशेष, 'बक्कसं' मुद्गमाषा- युक्त । २ बत्तीस पात्रों से निबद्ध (नाटक); बाप्फाउल वि [द. बाष्पाकुल अतिशय दिनषिकानिष्पन्नमन्न' (सुख ८, १२, उत्त ८, 'बत्तीसइबद्धएहि नाडएहि' (णाया १,१- उष्ण (दे६, ६२) १२)। पत्र ३६; विपा २, १ टी-पत्र १०४)। बब्बर पुं[बर्बर १ अनार्य देश-विशेष (पउम बग देखो बय (दे २, ६ कुप्र ६६) 'विह वि ["विध] बत्तीस प्रकार का (सम |९८,६५)। २ वि. बर्बर देश का निवासी (पएह १, १; पउमः ६६, ५५)+ कूल न बगदादि पुं[बगदादि] देश-विशेष, बगदाद > देशः 'बगदादिविसयवसुहाहिवस्स खलीपना बत्तीसइम वि [द्वात्रिंशत्तम] १ बत्तीसवाँ, [कूल] बर्बर देश का किनारा (सिरि मधेयस्स' (हम्मीर ३४)। ३२ वाँ (पउम ३२, ६७; पएण ३२)।२ ४३०) न. पनरह दिनों का लगातार उपवास (णाया बब्बरी स्त्री [दे] केश-रचना (दे ६, ६०)। बगी स्त्री [बकी] बगुली, बगुले की मादा (विपा १, ३, मोह ३७)। बब्बरी स्त्री [बबैरी] बर्बर देश की स्त्री (णाया बत्तीसा देखो बत्तीस ।। बग्गड पुं[दे] देश-विशेष (ती १५)। १, १० औफ इक) बत्तीसिया स्त्री [द्वात्रिंशिका] १ बत्तीस बब्बूल [बबूल] वृक्ष-विशेष, बबूल का बज्झ वि [बाह्य] बाहर का, बहिरङ्ग (परह | पद्यों का निबन्ध-ग्रन्थ (सम्मत्त १४४)। पेड़ (उप ८३३ टी; महा) - १, ३, प्रासू १७२) ओ अ ["तस्] २ एक प्रकार का नाप (अणु) । बाह्य से बहिरंग से; किं ते जुज्झेण बज्झयो | बद्ध वि [बद्ध] १ बँधा हुआ, नियन्त्रित; बब्भ पुं[दे] वज्र', चर्म, चमड़े की रज्जु; (प्राचा) 'बद्धं संदारिणनं निअलिग्रं च (पात्र)। २ 'बब्भो बढे (दे ६, ८८); 'वजो बद्धो= बज्झ न [बन्ध] बन्धन, बाँधने का वागुरा संश्लिष्ट, संयुक्त (भग; पान)। ३ निबद्ध, (? बब्भो वद्धो)' (पान) - प्रादि साधन, 'अह तं पवेज बज्झं, अहे रचित (प्रावम)। °Cफल, °फल पुं [°फल] बब्भागम वि [बह्वागम] बहु-श्रुत, शास्त्रों बज्भस्स वा वए' (सूम १, १, २,८) १ करज का पेड़ (हे २, ६७)। २ वि. का अच्छा जानकार (कस) For Personal & Private Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० भासा श्री [दे] नव-भेद, वह नदी जिसके से भावित पानी में धान्य श्रादि बोया जाता हो (राज) पूर भिआयण न [वाभ्रव्यायन] गोष-विशेष (एक) 1माल [दे] 20) 10 " कोलाहल (६, बम् पुं [ ब्रह्मन् ] १ ज्योतिष्क देव-विशेष (डा २.२ प ७०)। २ देखो बंभ (हे २, ७४; कुमाः गा ८१६: प्रच्चु १३; वजा २६ सम्मत्त ७७; हे १, ५६, २, ६३३३, ५६) चरि देखो भ-पेर (२, ६३ १०७) तरु ["तरु] का पेड़ (कुमा) धमणी स्त्री ["धमनी] ब्रह्मनाड़ी (धन्तु ८४) । चम् (शी) देखो भण्ण (प्राह ७ ) 1बम्हण देखो बंभण (प्रच्चु १७: प्रयौ ३७ ) 1 बम्हण्णय देखो बंभण्णय (भग) बन्दर [दे] देखी भर प हाल [दे] परमार, रोग-विशेष मृगी रोग ( बय पुं [क] १ पक्षि-विशेष, बगुला । २ कुबेर । ३ महादेव । ४ पुष्प वृक्ष विशेष, मल्लिका का गाछ (श्री २३) । ५ राक्षसविशेष (२३) मुर-विशेष वकासुर ( वेणी १७७) । ~ बयाला देखो बा-याला ( पव १६) | बरपुं [दे] धान्य-विशेष ( पव १५४ टी) । घर न [य] १ मर-पि (४००)। २ पत्र ३ परिवार ( प्राकृ २८ ) | देखो बरि बरह बरक्षण [बहिन] मयूर, मोर (पाथ } प्राकृ २८ पउम २८, १२०० गाया १, १ परह १, १ श्रप) । परिह देश रह है २ १०४) हर [र] मयूर (पड् प्राकृ २८) ।-परिणि } देखो बरहि अन [] विशेष (दे ५, १६; ६, ९१; पाथ) मरु [] शिल्पी विशेष पटाई बनाने वाला शिल्पी ( १४९ ) । पाइअसहमष्णयो बम्भासा बलामोडिअ बल प] [ज्वल ] जलना, गुजराती में यलकार [बलात्कार ] जबरदस्ती (पम 7 "बळ" । बलंति (हे ४, ४१६) बलकार ४६, २६ दे ६, ४६; अभि २१७; स्वप्न ७ ) 1 बलकारिद (शौ) वि [ बलात्कारित ] जिस पर बलात्कार किया गया हो वह (नाटमाती १२३) [ब] १ जना । २ सक. खाना । बलइ (हे ४, २५६ ) 1 बल , 1 [ब] १ बलदेव हलधर यामुदेव का बड़ा भाई (पउम २०. ८४; पान ) । २ छन्दविशेष (पिंग ) । ३ एक क्षत्रिय परिव्राजक ( प ) । ४ न. सामर्थ्य, पराक्रम (जी ४२ स्वप्न ४२: प्रासू ६३ ) । ५ शारीरिक पराक्रम; 'बलवरिया जो भेश्रो' (श्रज्भ १५) । ६ सैन्य, सेना (उत्त६, ४; कुमा) । ७ खाद्यविशेषः 'प्रासादाहि बलेहि भोजा कज' साधेंति' (सुज १०, १७) ८ अष्टम तप, लगातार तीन दिनों का उपवास (संबोध ५८ ) । पर्वत-विशेष का एक कूट—शिखर (ठा ) । च्छ [च्छित् ] १ बल का नाशक । २ न. जहर, विष (से २, ११) 'ण्णु देखो 'न्न (राज) देव पुं [देव] हली, वासुदेव का बड़ा भाई, राम (सम ७१; औप ) । न वि ["ज्ञ] बल को जाननेवाला ( श्राचा) । "भद्द पुं [भद्र ] १ भरतक्षेत्र का भावी सातवाँ वासुदेव ( सम १५४) । २ राजा भरत का एक प्रपौत्र (पउम ५, ३) । ३ एक विमानावास, देवविमान- विशेष (देवेन्द्र १३३) । देखो ६६ । 'भाणु पुं ['भानु ] राजा वलमित्र का भागिनेय (काल) महणा श्री ["मथनी] विद्या-विशेष (पउम ७ १४२)मित्त [मित्र ] इस नाम का एक राजा (विचार ४६४; काल ) + व वि [वत् ] १ बलवान्, बलिष्ठ (विसे ७६८ ) । २ प्रभूत सैन्यवाला ( औप ) । ३ पुं. अहोरात्र का श्राठवा मुहूर्त ( सुज्ज १०, १३) । वइ [पति] सेनापति, सेनाध्यक्ष (महा) । -- (: है ४, ४२२) । 'वंत, बग देखो व लाया १, १, सीप मलामोडि [दे. मोट] (कप्पू या १, ५) वत्तन [वत्त्व] बलिष्ठता (श्रोधभा ६) । 'वाउय वि [ व्यापृत] सैन्य में लगाया हुआ (प) हद्द पुं [भद्र ] १ बलदेव । २ छन्द - विशेष (पिंग)। देखो भद्द महरा बल सक [ग्रह ] ग्रहण करना । बलइ ( षड् ) । देखो वल = ग्रह 1 बलद पुं [दे] बलध, बैल (सुपा ५४५, नाट - मृच्छ १० ) 12 बलमड्डा श्री [दे] बलात्कार जबरदस्ती दे €, εR) IV बलमोड देखो बलामोडि; 'मग्गिप्रलद्धे बलमोडिबिए मप्पणेण उवणी' (गा ८२७) । बलमोड देखो बलामोडिअम 'केसेसु वलमोडि तेण समरम्मि जस्सिरी गहिया' (गा ७७)। For Personal & Private Use Only [दे] बल, बैल (पउम ८०, १३) । बलया देखो बलाया (हें १, ६७) । बलवट्टि स्त्री [दे] १ सखी । २ व्यायाम को सहन करनेवाली स्त्री (दे ६, ११) 1 वलहट्ट्या स्त्री [दे] चने की रोटी ( वज्जा ११४) । बला प्र. स्त्री [ बलात् ] जबरदस्ती बलात्कार से १०७८ घोषभा २०) 'बताए' (उप १०३१टी) 1 ला स्त्री [बला ] १ मनुष्य की दश दशाओं में चौथी अवस्था, तीस से चालीस वर्षं तक की अवस्था ( तंदु १६) । २ दृष्टि-विशेष, योग की एक दृष्टि ३ भगवान् कुन्थुनाथ की शासन- देवी अच्युता (राज) 1 - बलाका देखो बलाया ( परह १, १ -पत्र ८ ) 1 बलाय न [दे] १ उद्यान श्रादि में मनुष्य को बैठने के लिए बनाया जाता स्थान- बेंच आदि धर्म १३ सरि ५०९) २ द्वार दरवाजा 'पवितो चेव बलायम्मि कुज्जा निसीया तिथि' (इव १०० ) । स्त्री बलात्कार (दे ६, १२) 1 बलामोडिअ श्र [दे. बलादामोट्य] बलाकार से, जबरदस्ती से 'केसेसु बलालोडिन तेण न समरम्मि जयसिरी गहिप्रा' (काप्र १६७६ उत्तर १०३३ पि २३८ ) । Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लामोलिवहस्स लामो देखो बामोडि ( १०.४४) । अलावा श्री [डास] मक-विशेष विद्य कठिका, बघुले की एक जाति हे १, ६७२ उप १०३१ टी ) । पाइअसहमणव किवि, गार बाद अतिशय घायचेः 'गार्ड बाढं बलिनं धरिण दढमसएण श्रचत्थं ( पाच खाया १, १ - पत्र ६४; भग ६, ३३) । जल बलागपंडुरं' (वसु) । बलाहग पुं [बलाहक] मेघ, जीमूतः 'गलिय- बलिअ वि [बलिन्, बलिक ] १ बलवान, सबल, पराक्रमी 'कत्या जीवो वलिम्रो कनिकम्माई हुति बलियाई (प्रासू १२३). 'एस "ए म्ह तम्रो बलिदानियों में विसमं पल्लिं समस्सिओ' (महा, पउम ४८० ११७; सुपा २७५; श्रप) २ प्राणवाला (ठा ४, ३ – पत्र २४६ ) । बलिअ वि [बलित] जिसको बल उत्पन्न हुआ हो, सबल ( कुप्र २७७ ) । २ पुं. छन्दविशेष (ग) बलाहगा देखो बलाया (ठा ८ ) । बलाहय देखो वलाहग ( णाया १, ५३ कप्प; पाच ) 1 विशेष बलाहचा श्री [लाहका] १ बलाका (उप २६४)। २ देवी- विशेष, अनेक कुमारी देवियों का नाम ( इक - पत्र २३१ २३४) । | बलि [बलि] १ सुरकुमारों का उत्तर दिशा का इन्द्र (ठा २, ३ १०६ इक) । २ स्वनाम - प्रसिद्ध एक राजा (गा ४०६ ) ३ सातवाँ प्रतिवासुदेव ( प ५.१५६४ एक दानव, दैत्य-विशेष (कुमा) । ५ पुंस्त्री. उपहार भेंट (पिंड १६५ दे १, ६६) । ६ जोहार देवता को भरा जाता नैवेयः 'सुरहिनिलेवर कुसुमदायबलदीप च (पव १ टी), 'बंदरायणबलिढोणेसु' (चेइय ५२; पव १३३; सुर ३, ७८, कुम १७४ ) । ७ भूत आदि को दिया जाता भोग, बलिदान; भूपवलिव' (४६) पूजा अर्चा सपर्या । ९ राज-ग्राह्य भाग । १० चामर का दण्ड । हे ११ क्लव (३१, १५) १२ छन्द-विशेष (पिन) उट्ठ ["पुष्ट] काक [कथा] ( पाच ) वम्म] [["कर्मन] पूजन, पूजा की क्रिया । २ देवता को उपहार— नैवेद्य धरने की क्रिया ( भगः सूअ २, २, ५५: णाया १, १३ ८ कप्पः भौप ) 1 ~ "चंचा स्त्री ['चवा] बलीन्द्र की राजधानी (छाया २; इक) । मुह ["मुख] बन्दर, (पा) । यम्म देखो कम्म प ३७, ४९)। [न] १लवान, बलिष्ठ (सुपा ४५१; कुप्र २७७ ) । २ पुं. रामचन्द्र का एक सुभट (पउम ५६, ३८) बलिअ वि [दे] १ पीन, मांसल, स्थूल, मोटा (दे ६८८ उप १४२ टी बृह ३) । २ बलिअंक पुं [बलिताङ्क ] छन्द - विशेष (पिंग ) । बलि श्री [लिका] सूर्य, सूप, अन को तुषादि-रहित करने का एक उपकरण (धान) बलिङ वि [बलिष्ट ] बलवान् सबल ( प्रासू १५४) भदो पलिद [दे. बलीवर्द] सावलान' (सुपा २३८ ) । बटिमड्डा श्री [दे] बलात्कार; 'अन्नह बलिमहाए हिमणो सोम एकलिये (उप ७२८ टी) 1 बलुल्लड (अप) देखो बल= बल (हे ४, ४३० ) । वले म इन धथों का सूचक सम्यय--१ निश्चय, निर्णय । २ निर्धारण (हे २, १८५: कुमा) 1 बल्ल न [बाल्य] बालत्व, बालकपन, शिशुता (कुमा ३, ३५) । देखो बाल - बाल्य । - ६३१ For Personal & Private Use Only सक [ब्रू ] बोलना, कहना । बवइ, बवए (षड् ) । देखो बुब, बू पै वन [व] ज्योतिष-शास्त्र- प्रसिद्ध एक करण (विसे २२४० सुमनि ११ १०८) - वाड पुं [दे] दक्षिण हस्त (दे ६, ८९ ) । बढ्ड वि [ वृहत् ] बड़ा, महान् । इश्व न [दित्य] नगर विशेष (ती २५) बहत्तरी देखी बाहर ( २० ) । बहप्पइ बहुप्फइ १३७ ) 1 बहरिय देखो बाहिरिय, 'तालरव बहरिय दियंतर' (महा) 1 देखो बहस्सइ (हे १, १३८ २, ६६, १३७, षड्, कुमाः सम्मत्त बहल न [दे] पंक, कर्दम, कादा (दे ६, ८) सुख श्री ["सुरा] 1 कवाली मदिरा - बलिवद्द देखो बलीवद्द (पउम ३३, ११९) । पडिसन [डिश] मछली पकड़ने का कोटा (हे १,२०२) । बस्सिद्द [बलिस्सह]] स्वनाम-रूपात एक जैन मुनि धायें महागिरि का एक शिष्य (कप्प) IV बलीअ वि [ बलीयस् ] अधिक बलवाला, बलिष्ठ (अभि १०१) । ( पउम ४१, ३६), 'सोहग्गकप्प तरुवरपमुहतवे साकुरा बहवे (सम्मत २१०), 'जाति बहववेरग्गपल्लवुल्लासिणो झत्ति' (हि ५) । - बलीवद्द पुं [बलीवर्द] बैल, वृषभ ( विपा बहस्सइ पुं [बृहस्पति ] १ ज्योतिष्क देव१,२) विशेष, एक महाग्रह (ठा २, ३ पत्र ७७; सुज २० – पत्र २६४) । २ सुराचार्य, देवगुरु (कुमा) । ३ पुष्य नक्षत्र का प्रधिष्ठाता देव (सुन १०, १२) । ४ राजनीति - प्रणेता एक ऋषि । ५ नास्तिक मत का प्रवर्तक एक विद्वान् (हे २, १३७) । ६ एक ब्राह्मण, पुरोहित-पुत्र ७ विचाकसू का एक अध्ययन (दे ५, २) 1 १ निबिड, निविड सान्य हे २, १७७) । २ बद्दल वि [ बद्दल ] निरंतर, गाढ ( गउड स्थूल, मोटा (ठा ४, २: गउड) । ३ पुष्कल, अत्यन्त (कप्पू ) बलिमी [बहलता ] १ स्थूलता, मोटाई । २ सातत्य, निरंतरता (वजा ५२; गा ७५५) । बहली स्त्री [बहली ] १ देश- विशेष, भारतवर्षं का एक उत्तरीय देश 'तक्खसिलाइ पुरीए वहनीयंभूवाएं (२१२) । २ बहली देश की स्त्री ( खाया १, १ - पत्र ३७, श्रप, इक) 1 बहलीय वि[यलीक] देश-विशेष में बहली देश में रहनेवाला (पराह १, १-पत्र १४) । महव देतो धकाते सम Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ पाइअसहमहण्णवो बहि-बहुल (विपा १, १)दत्त पुं[दत्त देखो अंत वि ["देश्य कुछ ज्यादा, थोड़ा बहुत "विधिक विविध, अनेक तरह का (सूअनि के दो अर्थ (विपा १, ५)। (प्राचा २, ५, १, २२) 'नड पुं["नट] ६४) संपत्त वि [संप्राप्त] कुछ कम बहिम [बहिस्] बाहरः 'अबहिलेसे परिव्वए' नट की तरह अनेक भेष को धारण करने- संप्राप्त (भग) सञ्च पुं[सत्य अहोरात्र (माचा), 'गामहिम्मि यतं ठाविऊण गामंतरे वाला (प्राचा). पडिपुण्ण, पडिपुन्न वि का दशवाँ मुहूर्त (सुज १०, १३) सो अ पविट्ठो सो' (उप ६ टी)। हुत्त वि [°दे] [परिपूर्ण] पूरा पूरा (ठा ६; भग) [शस् ] अनेक बार (उवः श्रा २७ प्रासू बहिमुख (गउड) 'पढिय वि [पठित] अति शिक्षित, ४२; १५९; स्वप्न ५६) स्सुय वि बहिअ वि [दे] मथित, विलोडित (षड् )। अतिशय शिक्षित (णाया १, १४) [*त] शास्त्रज्ञ, शास्त्रों का अच्छा जानकार, 'पलावि वि [ प्रलापिन] बकवादी (उप पण्डित (भगः सम ५१, ठा ६-पत्र ३५२; बहिं देखो बहि (प्राचा; उव)। पृ ३३६)-1 पुत्ति न [पुत्रिक] बहु- सुपा ५६४) , हा अ [धा] अनेकधा बहिणिआ। स्त्री [भगिनी] बहिन (अभि पुत्रिका देवी का सिंहासन (निर १, ३)M (उव; भवि)। बहिणी । १३७; कप्पू: पामः पउम ६, पुत्तिआ श्री ['पुत्रिका] १ पूर्णभद्र नामक बहुअ ] वि [बहु, क] ऊपर देखो (हे ६ हे २, १२६; कुमा)। २ सखी, वयस्या यक्षेन्द्र की एक अग्र-महिषी (ठा ४.१: बहुअय) २,१६४० कुमाः श्रा २७) (संक्षि ४७), 'तणअ पुं["तनय] भगिनी णाया २) । २ सौधर्म देवलोक की एक देवी बहुआरिआ । सो [द] बुहारो, झाड़ (दे पुत्र (दे) । वइ पुं[पति] बहनोई (दे)। (निर १, ३) 'प्पएस वि [प्रदेश] बहुआरी ८,१७ टी)। देखो भइणी। प्रचुर प्रदेश-कर्म-दल वाला (भग) । बहुई देखो बहु = ई बहित्ता अ[बहिस्तात् ] बाहर (सुज्ज ६) °फोड वि [फोट] बहु-भक्षक (प्रोभा बहुखज्ज वि [बहुखाद्य] १ बहु-भक्ष्य, खूब बहिद्धा अ[दे] १ बाहर । २ मैथुन, स्त्री १६१)। भंगिय न [भङ्गिक दृष्टिवाद खाने योग्य । २ पृथुक-चिउड़ा बनाने योग्य संभोग (हे २, १७४० ठा ४, १-पत्र का सूत्र-विशेष (सम १२८) । मय वि (माचा २, ४, २, ३) । २०१) [मत् ] १ अत्यन्त प्रभीष्ट (जीव १)।२ बहुग देखो बहुअ (पाचा ७)। बहिद्धा म [बहिर्धा] बाहर की तरफ (दस अनुमोदित, संमत, अनुमत (काप्र १७६; सुर बहुजाण पुं [दे] १ चोर, तस्कर । २ धूर्त, ४, १८८) माइ वि ["मायिन् प्रति ठग । ३ जार, उपपति (षड् )। बहिया प्र[बहिस , बहिस्तात् ] बाहर कपटी (प्राचा)माण पुं['मान] अति(विपा १, १ प्राचाः उवा; प्रौप)। शय पादर (भावम; पि ६०० नाट-विक्र | बहुण पुं[दे] १ चोर, तस्कर । २ धूतं (दे ६,९७) बहिर वि [बाह्य बहिभूत, बाहर का (प्राक ५) माय वि [ माय] अति कपटी (आचा). "मुल्ल, मोल्ल वि [मूल्य बहुणाय वि [बाहुनाद] बहुनाद-नगर का बहिर वि [बधिर] बहरा, जो सुन न सकता मूल्यवान्, कीमती (राजः षड्) । रय वि (पउम ५५, ५३) हो वह (विपा १, १; हे १, १८७ प्रासू | [रत] १ अत्यन्त आसक्त (आचा)। २ बहुत्त वि [प्रभूत] बहुत, प्रचुर (हे १, १४३) जमालि का अनुयायो । ३ न. जमालि का २३३) बहिरिय वि [बधिरित] बधिर किया हुआ चलाया हुआ एक मत-क्रिया की निष्पत्ति बहुमुह पुं [दे. बहुमुख] दुर्जन, खल दि ६, (सुर २, ७५) अनेक समयों में ही माननेवाला मत (ठा १०% १२) बहुराणा स्त्री [दे] खड्ग-धारा, तलवार की बहु वि [बहु] १ प्रचुर, प्रभूत, अनेक, अनल्प औप)।रय न [रजस् ] खाद्य-विशेष, धार (दे ६, ६१) (ठा ३, १; भगः प्रासू ४१, कुमा; श्रा २७)। चिउड़ा की तरह का एक प्रकार का खाद्य स्त्री.. हुई (षड् , प्राकृ २८)। २ क्रिवि. (आचा २, १, १, ३) व वि [व] बहुरावा स्त्री [दे] शिवा, शृगाली (दे ६, अत्यन्त, अतिशय (कुमा ५, ६६, काल)M १ प्रभूत यशवाला, यशस्वी (सम ५१)। २ ९१) °उदग पुं[उदक] वानप्रस्थ का एक भेद न. एक विद्याधर-नगर (इक) का रूवा श्री बहुरियार बहुरिया स्त्री [दे] बुहारी, झाडू (बृह १). (प्रौप)। चूड पुं['चूड] विद्याधर वंश [रूपा] सुरूप नामक भूतेन्द्र की एक अग्र- बहुल वि बहुल] १ प्रचुर, प्रभूत, अनेक का एक राजा (पउम ५, ४६) जपिर वि महिषी (ठा ४, १, रणाया २) लेव । (कुमा बा २८) । र बहुावध, अनक प्रकार [जल्पित] वाचाट, बकवादी (पास) [लेप] चावल प्रादि के चिकने माँड़ का का (भावम) । ३ व्याप्त (सुपा ६३०)। ४ जण पुं [जन] अनेक लोग (भग) । २ न. लेप (पडि), वयण न [ वचन] बहुत्व पुं. कृष्ण पक्ष (पान) । ५ स्वनाम-ख्यात आलोचना का एक प्रकार (ठा १०) णड | बोधक प्रत्यय (प्राचा २, ४, १, ३)। 'विह एक ब्राह्मण (भग १५)। देखो नड (राज) णाय न [ नाद] वि ["विध] अनेक प्रकार का, नानाविध बहुल ([बहुल प्राचार्य महागिरि के शिष्य नगर-विशेष (पउम ५५, ५३)। "देसिअ (कुमाः उव)। "वियि वि [विध, I एक प्राचीन जैन मुनि (णंदि ४६)। For Personal & Private Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुला-बारबई पाइअसहमहण्णवो बहुला स्त्री [बहुला] १ गौ, गैया (पाप)। १५)। रसवरिसिय वि [दशवार्षिक] बाइया स्त्री [दे] माँ, माता; गुजराती में 'बाई २ इस नाम की एक स्त्री (उवा) वण न बारह बर्ष का (मोह १०२; कुप्र ६०)। (कुप्र ८७) [वन मथुरा नगरी का एक प्राचीन वन रसविह विदिशविध बारह प्रकार का बाउल्लया। स्त्री [दे] पञ्चालिका, पुतली%3B (तो ७) (नव ३०) ५ बाउल्लिआ 'आलियिभित्तिबाउल्लयं व न हु रसाह न [दशाह, बाउल्ली ) मुजिउं तरइ' (वज्जा ११८ बहुलि पुं [बहुलिन्] स्वनाम-ख्यात एक दशाख्य] १ बारहवाँ दिन । २ जन्म के बार कप्पू: दे ६, ६२) राज-पुत्र (उप ६३७)।। हवें दिन किया जाता उत्सव, बरही (गाया बाउस देखो बउस (पिंड २४; ओघ ३४८) १, १; कप्प; प्रौपः सुर ३,२५) ५ रसी स्त्री बहुली स्त्री [दे] माया, कपट, दम्भ (सुपा बाउसिय वि [बाकुशिक] 'बकुश' चारित्र६३०)। [दशी] बारहवीं तिथि, द्वादशी (सम २६; पउम ११७, ३२; ती ७) रसुत्तरसय वि वाला (सुख ६, १) । बहुलिआ स्त्री [दे] बड़े भाई की स्त्री (षड् ) बाउसिया स्त्री [बकुशिका] 'बश' पारित्र[दशोत्तरशत] एक सौ बारहवाँ (पउम बहुल्ली स्त्री दे] कीड़ोचित शालभजिका, खेलने वाली (गाया १, १६-पत्र २.६)। ११२, २३) ५ °रह देखो रस = दशन् (हे की पुतलो (षड्)। बाढ क्रिवि बाढ] १ अतिशय, नापन्त, धना १, २१९) । वट्ठि स्त्री [पष्टि] बासठ, (उप ३२०; पानः महा) । बहुवी देखो बहुई (हे २, ११३)। कार पुं ६२ (सम ७५; पंच ५, १८, सुर १३, [कार स्वीकार-सूचक उक्ति (तिसे ५६५)। बहुवाहि पुं [बहुव्रीहि] व्याकरण-प्रसिद्ध २३८, देवेन्द्र १३७)+वण (अप)। देखो | | बाण पुं [दे] १ पनस वृक्ष, कटहर का पेड़। एक समास (अणु १४७) । वन्न (पिंग)५वण्ण देखो वन्न (कुमा) २ वि. सुभग (दे ६, ६७)। बहूअ वि [प्रभूत] बहुत, प्रचुर (गउड)। "वत्तर वि [°सप्तत] बहत्तरवा, ७२ वाँ बाण पुंस्त्री बाण] १ वुश-विशेष, कटसरैया बहेडय ' [बिभीतक] १ बहेड़ा का पेड़ (पउम ७२, ३८) * °वत्तरि स्त्री [सप्तति] का गाछ (पराण १७-पत्र ५२६; कुमा)। (हे १, ८८ १०५; २०६)।, २ न. बहेड़ा बहत्तर, ७२ (सम ८३; भगः प्रौप, प्रासू २ पुं. शर, बाण (कुमा; गउड)। ३ पाच की का फल (कुमा)। १२६) वन्न स्त्रीन [पञ्चाशत् बावन, संख्या (सुर १६, २४६) । वत्त न [पात्र] बा' वि. ब. [द्वा, द्वि] दो, दो की संख्या- पचास और दो, ५२ (सम ७१; महा); तूणीर, शरधि (से १, १८)। वाला। इस (अप) देखो वीस (पिंग) 'बावन्न होंति जिणभवरणा' (सुख ६, १) बाध देखो बाह = बाध् । कवकृ. बाधीअमाण "ईस देखो वीस (पिंग)। णउइ श्री | धन्न वि [पञ्चाश बावनवाँ (पउम ५२, (पि ५६३)। ["नवति बानबे, १२ (सम ६६; कम्म ३०) वीस स्त्रीन [°विशति] बाईस, ६, २६)। °णज्य वि ['नवत] १२ वाँ २२ (भगः जी ३४), स्त्री. °सा (पि ४४७)। | बाधा स्त्री [बाधा] विरोध (धर्मसं ११७)। (पउभ ६२, २६) गुवइ देखो णउइ वीस वि [°विश] बाईसवाँ, २२ वाँ (पउम बाधिय वि [बाधित] विरोधवाला, प्रमाण(रयण ६२)। याल, यालोस स्त्रीन २०, ८२ पत्र ४६) वीसइ देखो वीस विरुद्ध (धर्मसं २५६) । [°चत्वारिंशत् ] वयालीस, चालीस और विंशति (भगः पव १८६) वीसइम वि | बाह्मण देखो बम्हण (हे १, ६७ षड्)। दो, ४२ (उवः नव २, भग; सम ६६ [विंशतितम] १ बाईसवाँ, २२ वाँ (पउम बाय न बाक] बक-समूह (श्रा २३)। कप्प; प्रौप), स्त्री. याला, 'यालीसा (कम्म २२, ११०; अंत २६)। २ लगातार दस | बायर वि [बादर] १ स्थूल, मोटा, असूक्ष्म ६, ६; कप्प) । °यालीसम वि [चत्वा- दिन का उपवास (णाया १, १-पत्र ७२) on पिण्डर (पएह १,१, पव १६२, दे ४४) । २ नववाँ रिशत्तम] बयालीसवाँ, ४२ वाँ (पउम ४२, चीसविह वि [विंशतिविध] बाईस प्रकार गुण-स्थानक (कम्म २, ३: ५; ७)। नाम ३७) । र, रस त्रि. ब. [दशन] बारह का (सम ४०) सट्ठ वि [°षष्ट] बासठवाँ, न[ नागन्] कर्म-विशेष, स्थूलता-हेतु कर्म १२; 'बारभिक्खुपडिमधरों' (संबोध २२; ६२ वा (पउम ६२, ३७) "सट्ठि स्त्री (सम ६७) । कम्म ४, ५, १५; नब २०० दं ७; कप्पा पष्टि] बासठ, ६२ (सम ७५, पिग) बार न द्विार] दरवाजा (हे १,७६) जी २८ उवा) । रस वि [°दश] बारहवाँ, 'सी, सीइ स्त्री [अशीति] बयासी, ८२. १२ वाँ (सुख २, १७) । 'रसंग श्रीन बारगा स्त्री [द्वारका] स्वनाम-प्रसिद्ध नगरी, (नव २; सम ८६; कप्प; कम्म ५, १७) दिशाका बारह जैन अंग-ग्रंथ (पि ४११), | सीरम वि जो आजकल भी काठियावाड़ में 'द्वारका' के अशीतितम बयासीवाँ, ८२ स्त्री. गी (राज)। "रसम वि [°दश] ही नाम से प्रसिद्ध है (उत्त २२, २२, २७)।। वाँ (पउम ८२, १२२) हत्तर (अप) देखो बारहवाँ (सूत्र २, २, २१: पब ४६; महा)। बारवई स्त्री द्वारवती] १ ऊपर देखो (सम हत्तरि (सण)। हत्तरि स्त्री [°सप्तति] 'रसमासिय वि[दशमासिक] बारह १५१ णाया १, ५, उप ६४८ टी)। २ बहत्तर, ७२ (कप्पा कुमाः सुपा ३१६) भास का, बारह-मास-संबन्धी (कुप्र १४१) भगवान् नेमिनाथ की दीक्षा शिविका (विचार "रसय न [ दशक] बारह का समूह (अोधमा बाअ पु[दे] बाल, शिशु (षड् ) । १२६) ८० For Personal & Private Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ पाइअसद्दमहण्णवो बाल-बाहुलेय बाल [बाल] १ बाल, केश (उप ८३४)। बालाटुंबी स्त्री [दे] तिरस्कार, अवहेलना बाहा स्त्री [ दे. बाहा] नरकावास-श्रेणो २ बालक, शिशु (कुमाः प्रासू ११६)। ३ । (सुपा १४)। (देवेन्द्र ७७)। वि. मूर्ख, प्रज्ञानी (पान)। ४ नया, नूनन बालि वि [बालिन् बाल-प्रधान, सुन्दर केश- बाहि । [बहिस् ] बाहर (सुज्ज १९(कप्पू) । ५. स्वनाम-ख्यात एक विद्याधर वाला (अणु बृह १)। बाहिं पत्र २७१; महा: प्राचाः कुमा; हे २, राजा (पउम १०, २१)। ६ वि. असंयत, बालिआ स्त्री [बालिका ] बाला, कुमारी, १४० पि ४८१)। संयम-रहित (ठा ४, ३) कइ j[कवि]। लड़को (प्रासू ५१; महा) । बाहिज न [बाधिर्य बधिरता, बहरापन तरुण कवि, नया कवि (कप्पू) क पुं बालिआ स्त्री [बालता] १ बालकपन, शिशुता (विसे २०८)। [क] उदित होता सूर्य (कुमा)। "ग्गाह | (भग) । २ मूर्खता, बेवकूफी, 'बिइया मंदस्सा देवकी जिदयामा बाहिर प्र[बहिस] बाहर (हे २, १४०%; पुं[ग्राह] बालक की सार-सम्हाल करने- बालिया' (याचा) पान प्राचा; उव)। ओ [तस् ] वाला नौकर (सुर १, १६२)"ग्गाहि पुं बालिस वि [बालिश] मूर्ख, बेवकूफ (पामः बाहर से (कप्प)। [ग्राहिन्] वही पूर्वोक्त अर्थ (णाया १, (घण २३) । बाहिर वि [बाह्य] बाहर का (प्राचा; ठा २–पत्र ८४) घाय वि [°घात] बाल- बाह सक [बाध्] १ विरोध करना। २ २,१-पत्र ५५, भग २, ८ टी)। उद्धि हत्या करनेवाला (णाया १, २,१८) व रोकना । ३ पीड़ा करना । ४ विनाश करना। पुं[ ऊर्विन् ] कायोत्सर्ग का एक दोष, पुंन [ तपस] १ अज्ञानी की तपश्चर्या बाहइ, बाहए (पंचा ५, १५; हे १, १८७) दोनों पाष्णि मिलाकर और पैर को फैलाकर (भग औप) । २ वि. अज्ञान पूर्वक तप करने- उव), बाहंति (कुप्र६८) । कवकृ.बाहिज्जत, किया जाता कायोत्सर्ग (चेइय ४८६) । वाला (कम्म १, ५६) तवस्सि वि बाहीअमाण (पउम १८, १६; सुपा ६४५; बाहिरंग वि [बहिरङ्ग] बाहर का, बाह्य ['तपस्विन् ] अज्ञान-पूर्वक तप करनेवाला, | अभि २४४) कृ. बाणिज (कप्पू)।- (सूम २, १, ४२) मुर्ख तपस्वी (पि ४०५)। पंडिअ वि बाह पुं[बाष्प] प्रश्रु, माँसू (हे २, ७० बाहिरिय वि [बाहिरिक, बाह्य] बाहर का, [पण्डित] आंशिक त्याग करनेवाला, कुछ पाना कुमा) बाहर से संबन्ध रखनेवाला (सम ८३ पाया अंशों में त्यागी और कुछ में प्रत्यागी (भग)Mबाह पुं[बाध] विरोध (भास ३४)। १, १; पिंड ६३६; प्रौपः कप्प)! 'बद्धि वि 'बद्धि] अनभिज्ञ (धरण ५०)Mबाह देखो बाढ (प्रयौ ३७)। | बाहिरिया स्त्री [बाहिरिका] किले के बाहर "मरण न [ मरण] अविरत दशा का मरण, बाह पुं[बाहु] हाथ, भुजा (संक्षि २) की गृह-पंक्ति, नगर के बाहर का मुहल्ला असंयमी की मौत (भगः सुपा ३५७)*"वियण, °वीयण पुंस्त्री [व्यजन] चामर, चंवर | बाहग वि [बाधक १ रोकनेवाला (पंचा १, (सूम २, ७, १; स ६६)। (णाया १, ३), स्त्री. “उवणहामो बालवी ४६) । २ विरोधीः 'अब्भुवगयबाहगा नियमा' | बाहिरिल्ल वि [बाह्य] बाहर का (भगः पि प्रणी (ठा ५,१-पत्र ३०३) हार पुं (श्रावक १६२)। [ धार] बालक का सार-सम्हाल करनेवाला बाहडपसबाहड, वाग्भट राजा कमारपाल बाहु पुंस्त्री [बाहु] १ हाथ, भुजा (हे १, नौकर (सुपा ४५८) का स्वनाम-प्रसिद्ध मन्त्री (कुप्र ६)। ३६, प्राचा: कुमा)। २ पुं. भगवान् ऋषभदेव बाल देखो बल । ण्ण, न वि [s] बल बलि बाहण न [बाधन] १ बाधा, विरोध (धर्मसं का पुत्र, बाहुबलि (कुप्र ३१०) पुं[बलि] १ भगवान् प्रादिनाथ का एक को जाननेवाला (प्राचा १, २, ५, ५ १२७६)। २ विराधन (पंचा १६, ५)। पुत्र, तक्षशिला का एक राजा (सम ६०; बाहणा स्त्री [बाधना] ऊपर देखो (धर्मसं पउम ४, ५२, उव)। २ बाहुबलि के प्रपौत्र आलमबाल्य] बालत्व, बचपन, लड़कपन, १११) लपन, मूर्खता (उत्त ७, ३०) । देखो बल्ल । बाहर देखो बाहिर (प्राचा) । का पुत्र (पउम ५, ११)। मूल न [ मूल] कक्षा, बगल (कप्पू)। बालअ देखो बाल = बाल (गा १२६) बाहल बाहल] देश-विशेष (प्रावम)। | बाहुअ 'बाहुक] स्वनाम-ख्यात एक ऋषि बालअ [दे] वणिक-पुत्र (दे ६, १२)। बाहल्लन [बाहल्य] स्थूलता, मोटाई (सम बालग्गपोइआ श्री [दे] १ जल-मन्दिर, ३५; 87 ८-पत्र ४४०; प्रौप) बाहुाडअ वि [दे] लज्जित, शरमिंदा (सुपा तलाव आदि में बनवाया जाता छोटा प्रासाद। बाहा स्त्री [बाधा] १ हरकत, हरज। २ २ वलभी, अट्टालिका (उत्त ६, २४)। विरोध (सुपा १२६)। ३ पीड़ा, परस्पर बाहुया स्त्री [बाहुका] श्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष बाला श्री [बाला] १ कुमारी, लड़की । संश्लेष से होनेवाली पीड़ा (जं १, भग (राज)(कुमा)। २ मनुष्य की दस अवस्थामों में बाहुलग देखो बाहु (तंदु ३९)। पहली दशा, दस वर्ष तक की अवस्था (तंदु बाहा स्त्री [बाहु] हाथ, भुजा (हे १, ३६, बाहुलेय पुं[बाहुलेय] गो-वत्स, बैल, वृषभ १६) । ३ छन्द विशेष (पिंग)। कुमाः महाः उवा प्रौप) (माधम) - For Personal & Private Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहुलेर-बिब्बोयण पाइअसहमहण्णवो बाहुलेर पुं [बाहुलेय] काली गाय का बछड़ा | विउण सक [द्विगुणय् ] दुगुना करना। बिंह सक [बृंह ] पोषण करना। कृ. देखो (अणु २१७) बिउणेइ (पि ५५६) बिहणिज्ज। बाहुल्ल न [बाहुल्य] बहुलता, प्रचुरता बिंट न [वृन्त] फलादि का बन्धन; 'बघणं बिहणिज्ज वि बृहणीय] पुष्टि-जनक (ठा मराबीसरा मदिरा बिट' (पाम)। 'सुरा स्त्री [सुरा] मदिरा, | (पिंड ५६, भगः सुपा २७ उप ६०७)। ६-पत्र ३७५ णाया १,१-पत्र १९) बाहुल्ल वि [बाष्पवत् ] अश्रुवाला (कुमाः | दारू; "बिटसुरा पिट्ठखउरिया मइरा' (पास)। बिहिअ वि [बृहित] पृष्ट, उपचित (हे १, १२८)सुपा ४६०) बिंत देखो बू = ब्र। बिग्गाइआ। स्त्री [दे] कीट-विशेष, संलग्न बि वि. ब. [द्वि] दो, २; 'बिलि' (हे ४, बिंदिय वि [द्वीन्द्रिय जिसको त्वचा और बिग्गाई , रहता कोट-युग्म, गुजराती में ४१८ नव ४; टा २, २; कम्म ४,२; १० जीभ ये दो ही इन्द्रियाँ हो वह (प्रौप) । 'बगाई' (दे ६,६३) सुख १, १४) जडि पुं[जटिन एक | बिंदुः पुंन [बिन्दु] १ अल्प अंश । २ बिन्दी, | बिज देखो बीज; 'बिज्ज पिव वड्डिया बहवें महाग्रह, ज्योतिष्क देव-विशेष (सुज्ज २०)M शून्य, अनुस्वार। ३ दोनों 5 का मध्य (पउम ११, १६)।'दल न [दल] चना आदि वह घान्य भाग। ४ रेखागणित का एक चिन्ह; 'बिंदुणो, बिजउरन बीजपर फल-विशेष, एक तरह जिसके दो टुकड़े बराबर के होते हैं, 'जह बिंदूई (हे १. ३४ कप्प, उप १०२२; स्वप्न का नीबू, 'बिज्जउरचिन्भिडेहिं कुणइ पिहाविदल सूलीणं' (वि ३) याल देखो ३९; कसः कुमा)। कला स्त्री ["कला] णाई सम्वत्थ' (सपा ६३०) बा-याल (कम्म ६, २८) यालसय पुन अनुस्वार, बिन्दी (सिरि १९६), सार न | बिजय (अप) देखो बिइज्ज (भवि) । ['चत्वारिंशच्छत] एक सौ बेपालीस, [सार] १ चौदहवाँ पूर्व, जैन ग्रन्थांश बिट्ट ' [दे] बेटा, लड़का, पुत्र (चंड) १४२ (कम्म २,२६), "विह वि [विध] विशेष (सम २६; विसे ११२६)। २ पुं. बिटी स्त्रीदे] बेटो, पूत्री, लड़की (चंड हे दो प्रकार का (पिंग) । लट्ठि स्त्री [ षष्टि] मौर्य वंश का एक राजा, राजा चन्द्रगुप्त का ४,३३०)। बासठ, ६२ (सुज्ज १०, ६ टो)। सत्तरि, पुत्र (विसे ८६२)।। बिटु वि [दे. विष्ट] बैठा हुआ, उपविष्ट 'सयरि स्त्री [सप्तति] बहत्तर, ७२ (पव बिंदुइ वि [बिन्दुकित बिन्दु-युक्त, बिन्दु- (मोघ ४७१) १६ जीवस २०६; कम्म ३, ५) विलिप्त (पान; गउड)। बिडाल ([बिडाल] मार्जार, बिलाव, बिलार, बि । वि [द्वितीय] दूसरा (कम्म ३, १६; | बिंदुइज्जंत वि [बिन्दूयमान] बिन्दुओं से बिल्ला (पि २४१) बिअपिंग)। कसाय [कषाय ] व्याप्त होता (से ११, १२५) बिडालिआ। स्त्री [ बिडालिका, ली] मप्रत्याख्यानावरण नामक कषाय (कम्म बिंद्रावण न [वृन्दावन] मथुरा के पास बिडाली बिल्ली, मार्जारी, बिलारी, | का एक वैष्णव-तीर्थ (प्राकृ १७)।। बिलैया (सम्मत्त १२२; पि २४१)। देखो बिअन [द्विक] दो का समुदाय, युग्म, युगल बिंब सक[बिम्ब.] प्रतिबिम्बित करना। कर्म. | बिरालिआ। (भगः कम्म १, ३३, प्रासू १९) बिबिज्जइ (सूक्त ४६)। बिडिस देखो बडिस (उप १४२ टी)। बिआया स्त्री [दे] कीट-विशेष, संलग्न रहने- बिंबन [बिम्ब] १ प्रतिमा, मूत्ति (कुमा)। बिदिय देखो बिइअ (उप २७६) । वाला कीट-द्वय (दे ६, ६३)। २ छन्द-विशेष (पिंग)। ३ न. बिम्बीफल, बिन्ना स्त्री [बेन्ना] भारत की एक नदी बिइअ देखो बिइज्ज (हे १, ५पव १६४) कुन्दरुन का फल (णाया १, ८–पत्र १२६ (पिंड ५०३)। बिइआ देखो बीआ (राज) पामा कुमाः दे २, ३९)। ४ प्रतिबिम्ब, बिब्बोअ पुं[विव्वोक] १ स्त्री की शृगारबिइज्ज वि [द्वितीय] १ दूसरा (हे १, प्रतिच्छाया। ५ अर्थ-शून्य आकार, 'पएणं चेष्टा-विशेष, इष्ट अर्थ की प्राप्ति होने पर २४८; प्रासू ५६)। २ सहाय, मदद करने जणं पस्सति बिंबभूयं' (सूत्र १, १३, ८)। गर्व से उत्पन्न अनादर-क्रिया (पएह २, ४वाला (पाम सुर ३, १४); ६ सूर्य तथा चन्द्र का मण्डल (गउडः कप्पू) पत्र १३१; णाया १, ८-पत्र १४२; भत्त 'जे दुहियम्मि न दुहिया, बिंबवय न [दे] फल-विशेष, भिलावाँ: १०१)। २ न. उपधान, तकिया, प्रोसीसा) आवइपत्ते बिइज्जया नेव। "बिंबवयं भल्लाय' (पान) _ 'सयरणोअं तूलिभं सबिब्बो' (गच्छ ३, ८)।पहुणो न ते उ भिच्चा, बिंबिसार देखो भिभिसार (अंत)।- बिब्बोअ [विवोक] काम-विकार (अणु धुत्ता परमत्थरो ऐया' बिंबी स्त्री [बिम्बी] लता-विशेष, कुन्दरुन का १३६) (सुर ७, १४५) गाछ (कुमा)°फल न [फल] कुन्दरुन का | बिब्बोइअ न [विव्वोकित] स्त्री की शृंगारबिउण वि [द्विगुण] दुगुना (हे १, ६४ फल (सुपा २६३)। चेष्टा का एक भेद (पएह २, ४–पत्र १३१) २, ७६; गा २८६) रय वि [कारक] बिंबोवणय न [दे] १ क्षोभ । २ विकार। बिब्बोयण न [दे] उपधान, तकिया, प्रोसीसा दुगुना करनेवाला (भवि)। ३ प्रोसीसा, उच्छीर्षक (दे ६,६८)। (णाया १,१-पत्र १३) For Personal & Private Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ विलय देखो बडव ( १३१) बिराड [] १ गित-प्रसिद्ध मध्य लघुक पांच मात्रावाला अक्षर-समूह । २ छंदविशेष (पिंग ) । देवासुर १.१८)1 बिल देखी डालि सम्मत्त | ( बिराली पात्र । भुजपरिसर्प· १२३ पाच) २ भुपरि विशेष हाथ से चलनेवाला एक प्रकार का प्राणी (२३, २५) - बिरालिया स्त्री [ बिरालिका ] स्थल-कन्दविशेष (प्राचा २१, ८, ३) बिरुद न [विरुद] इल्काब, पदवी ( सम्मत्त १४१) । बिन [बिल] १ रन्ध्र, विवर, साँप आदि जन्तुनों के रहने का स्थान (विपा १, ७, २ कूप कुछ (राम) कोलीकारक वि [दे. कोलीकारक ] दूसरे को व्यामुग्ध करने के लिए विस्वर वचन बोलनेवाला ( परह १ ३ – पत्र ४४ ) ५ पंतिया स्त्री [° पङ्क्तिका] खान की पद्धति ( परह २, ५-पत्र १५० ) 1 बिलाल } देखो बिडाल (भग; पि २४१) । बिरालो बिरालिआ (पि २४१) बिल [वि] १ वृक्ष-विशेष, बेल का पेड़ ( पण १ उप १०३१ टी ) । २ न. बेल का फल (पान) 1 विल [बिल्वल] १ मनायें देश-विशेष २ उस देश में रहनेवाली मनुष्य जाति (पह १, १ ---पत्र १४) । देखो चिल्लल = चिल्वल । दिस [ग] [[स] [] आदि के का तन्तु, मृणाल (गाया १, १३० कुमाः पात्र) । "ठी श्री ["कण्ठी] बलाका, बक पक्षी की एक जाति दे६ १३) देखी भिस बिस 1 बिसि देखो बिसी (दे १,८३) बिसिणी स्त्री [बिसिनी ] कमलिनी, कमल का गाछ (पि २०९ ) 1 बिसी स्त्री [बृषी ] ऋषि का प्रासन (दे १ प वि[] डरना । बिहेइ (प्राकृ ६४ ०१) M पाइअसद्दमद्दण्णवो बिभेलय - बंदिणी वि वि [[बृहन] बड़ा महान् र श्रीगन [पीटक] वीड़ा पान का बीड़ा, [नल] धन्य-विशेष (वि) 1सजित ताम्बूल (सुपा ३३६) । बिहप देखो बहस्सइ (हे २, १३७, १, १३८२, ६६ षड् ; कुमा) । IM बिहफइ - बिहस्सइ J विहिन लोहि (प्राह । ८ ) बिहे देखो विभेल (२२४) 1 बीअ देखो बिइअ (हे १, ५२, ७६ सुर १, ३८ सुपा ४८५) । अन [बीज] १ बोज; बीयाः 'लाउनबीनं इक नासह भारं गुडस्स जह सहसा (प्रासू १५१; श्राचा जी १३: श्रप ) । २ मूल कारण 'सारीरमाण सारणेय दुक्खबीयभूयकम्म(महावीर्यं शरीरान्तर्गत सप्त धातुद्मों में से मुख्य धातु, शुक्र (सुपा ३१०; वव ε) । ४ ‘ह्रीँ' अक्षर (सिरि १६) बुद्धि वि ["बुद्धि] मूल अर्थ को जानने से शेष प्रर्थों का निज बुद्धि से स्वयं जाननेवाला (श्रौप)। °मंत वि [वत्] बीजाला (गाया १, १ रुइ श्री [°रुचि] एक ही पद से अनेक पद और अथों का अनुसंधान द्वारा फैलनेवाली रुचि । २ वि. उक्त रुचिवाला (परण १) । रुह वि [" रुह ] बीज से उत्पन्न होनेवाली वनस्पति (पण १) वाय [बाप] क्षुद्र जन्तुविशेष (राज) + 'सुडुम न [सूक्ष्म] छिलके का अग्र भाग (कप्प ) 1 बरन [बीजपूरक] फल- विशेष, एक तरह का नीबू ( मा ३६) बीअजमण न [दे] बीज मलने का खललहान ६ बीअण पुं [दे] नीचे देखो (दे ६, १३ टी) । बीअय [देव] विशेष सन वृक्ष-विशेष, वृक्ष, विजयसार का गाछ (दे ६, ९३; पान ) । श्रीअवावर [वीजवापक] निकलेन्द्रिय पुं जन्तु की एक जाति (प्रणु १४१ ) । बीआ श्री [द्वितीया] १ तिथि-विशेष पूज (सम २६ श्रा २६, रया २० गाया १, १०६ सुपा १७१ ) २ द्वितीय विभक्ति (इम १०१ ) 1बीज देखो बीअ = बीज (कुमाः परह २, १ --पत्र EC ) 1 V For Personal & Private Use Only बीड श्री [बीटि [टी] ऊपर देख बीडी । 'बिल्लदल बीडीओ कीसेवि मुहम्म पक्खिव' (धर्मवि १४० ) 1 बीभच्छ पुं [ बीभत्स ] साहित्य प्रसिद्ध एक ←--- रस (१३५) । बीभच्छ ) वि [ बीभत्स] १ घृणोत्पादक, बीभत्थ घृणा - जनक। २ भयंकर भय जनक (उवा तंदु ३८६ गाया १, २० संबोध ४४) । ३ पुं. रावण का एक सुभट (पउम ५६, २) Tv बीयत्तिय वि [ दे. बीजयितृ] बीज बोनेवाला, वपन करनेवाला । २ पुं. पिता 'बीयं बीयत्तियसेव' (सुपा ३६०; ३६१) बोलय पुं [दे] ताडंक, कर्णभूषण- विशेषः कान का एक गहना (दे ६, १३) । बीह अक [भी] डरना। बीहइ, बीहेइ (हे ४, ५३३ महा; पि २१३) । वकु. बीत (प्रोघभा १६ उप ७६८ टी कुमा) । कृ. बीहियव्य (६८२) | बीहच्छ देखो बीभच्छ ( पि ३२७) । बोहण ) वि [ भीषण, क] भय-जनक, बीहणग - भयंकर (पि २१३ परह १, १६ बीहणय पउम ३५,५४) विवि [भीषित ] डराया हुआ (सम्मत ११८) 1 बीहिअ वि [भीत ] १ डरा हुआ (हे ४, ५३) । २ न. भय, डर 'न य बीहिश्रं ममावि हु' (श्रा १४) । बीहिर वि [भेट] डरनेवाला (कुमा ६, ३५) । बुआ स [ वाचय्] बाबा सं बुआ २ पत्र १२० ) । बुइअवि [४] कथित (१,२, २, २४१, १४, २५ परह २, २) बुंदि पुंस्त्री [दे] १ चुम्बन । २ सूकर, सूर (दे ६, १८) 1 बुंदि स्त्री [द] शरीर, देह; 'इह बुदि चइत्ताण तत्थ गंतरा सिज्झइ' (ठा १ टी - पत्र २४ सुज २०; तंदु १३; सुपा ६५६, धम्म ६ टी पान)। देखो बोंदि । - बुंदिणी स्त्री [दे] कुमारी- समूह (दे ६, १४) । Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुंदीर-बुयाण पाइअसहमहण्णवो ६३७ बुंदीर पुंदे] १ महिष, भैसा । २ वि. महान्, जगाया गया (कुप्र ६४, सुपा ४२५, प्राकृ बुद्धत पुन [बुध्नान्त] अधो-भाग, नीचे का बड़ा (दे ६,६८)। ६८) हिस्सा: 'ता राहू णं देवे चंदं वा सूरं वा बुध न [बुध्न] १ वृक्ष का मूल । २ कोई भी बुज्झिअ वि [बुद्ध] ज्ञात, विदित (पान) Mगेरहमाणे बुद्धतेणं गिएिहत्ता बुद्धतेयं मयई मूल, मूलमात्र (हे १,२६; षड् ) बुज्झिर वि [बोद्धृ] १ जाननेवाला । २ (सुज २०)।बुबा स्त्री [दे] चिल्लाहट, पुकार (सुपा ५९५) जागनेवाला (प्राकृ ६८) बुद्धि स्त्री [बुद्धि] १ मति, मेधा, मनीषा, बुबु पुं[दे] ऊपर देखो (करु ३१)।। बुडबुड अक [ बुडबुडय.] बुडबुड अावाज प्रज्ञा (ठा ४,४. जी ६ कुमा; कप्प; प्रासू बुबुअ न [दे] वृन्द, यूथ, समूह (दे ६, ६४) करना; 'सुरा जहा बुडबुडेइ अव्वतं' (इय ४७)। २ देव-प्रतिमा-विशेष (णाया १,१ बुक्क वि [दे] विस्मृत (वव १)। ४६२) टी-पत्र ४३) । ३ महापुण्डरीक ह्रद की बुक्क अक [गर्ज, बुक्क ] गर्जन करना, बुड्ड अक [ब्रुड , मस्ज ] डूबना । बुड्डुइ अधिष्ठात्री देवी (ठा २, ३-पत्र ७२, गरजना । बुक्कइ (हे ४, ६८) । (हे ४,१०१; उवः कुमाः भवि)। भवि. इक)। ४ छन्द-विशेष (पिंग)। ५ तीर्थकरी। बुक्क प्रक [भष् , बुक्क ] श्वान-कुत्ता का बुड्डीसु (अप) (हे ४, ४२३)। वकृ. बुड्डत, ६ साध्वी (राज)। ७ अहिंसा, दया (पएह बुडमाण (कुमाः उप १०३१ टी)। प्रयो, भूकना । बुक्कइ (षड्)। २,१)। पूं. इस नाम का एक मन्त्री (उप बुक्क पुंन [दे] १ तुष, छिलका (सुख १८, वकृ. बुड्डावंत (संबोध १५) । ८४४) 4 कूड न [कूट] पर्वत-विशेष ३७) । २ वाद्य-विशेष; 'बुक्कतंबुक्कसबुक्कसंदु बुड्ड वि [बुडित, मन] डूबा हुआ, निमग्न का शिखर (राज) बोहिय वि [°बोधित] कडं' (सुपा ५०) ।। (धम्म १२ टी; गा ३७ रंभा २३, सुर १०, १ तीर्थकरी-स्त्री-तीर्थकर से प्रतिबोधित । १८६ भवि); 'घयबुडमंडगाई (पव ४ टी)। बुक्कण पुं [दे] काक, कौमा (दे ६, ६४; २ सामान्य साध्वी से बोषित (राज)। मंत बुड्डण न [ब्रुडन] डूबना (संवे २; कप्पू)। वि [ मत्] बुद्धिवाला (उप ३३९; सुपा पान) बुड्डिर पुं[दे] महिष, भैंसा (षड् )बुक्कस देखो बोक्कस (राज) ३७२; महा)ल [ल] १एक स्वनामबुड्ढ वि [वृद्ध बूढ़ा (पिंग)। स्त्री. ड्ढा, प्रसिद्ध श्रेष्ठी (महा) । २ देखो ल्ल (राज) बुक्का स्त्री [दे] १ मुष्टि (दे ६, ९४ पान)। ड्ढी (काप्र १९७; सिरि १७३) °ल्ल वि [ल] बुद्ध , मूर्ख, दूसरे की बुद्धि २ व्रीहिमुष्टि (दें ६, ६४)। ३ वाद्य-विशेष: बुण्ण वि [दे] १ भीत, डरा हुआ। २ पर जीनेवाला: 'तस्स पंडियमाण(? णि)स्स 'ढकाउकहुड्डुकाबुकासबुककरडिपभिईणं पाउउद्विग्न (दे ७,६४ टी) - बुद्धिल्लस्स दुरप्पणों (प्रोधभा २६ टी; २७)। जाणं' (सुपा १६५) वंत देखो मंत (भवि)4 °सागर, सायर बुक्का स्त्री [गर्जना] गर्जन, गरिव (पउम ६, | पुप बुत्ती स्त्री [दे] ऋतुमती स्त्री (दे ६, ६४)। पुं[सागर] विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी १०८; गउड) बुद्ध वि [बुद्ध] १ विद्वान्, पण्डित, ज्ञात का एक सुप्रसिद्ध जैनाचार्य और ग्रन्थकार 2 बळामगर्जन गर्जना पिलम तत्व (सम १, उप ६१२ टी, श्रा १२ कुप्र (सुर १६, २४५; साध ६६ सम्मत्त ७६)।। ७, १०५; गउड) ४० श्रु१)। २ जागा हुआ, जागृत (सुर 'सिद्ध पुं [सिद्ध] बुद्धि में सिद्धहस्त, बुक्कास पुं[दे] तन्तुवाय, जुलाहा (प्राचा २, ६, २४३)। ३ भूत, भविप्य और वर्तमान संपूर्ण बुद्धिवाला (प्रावम) सुंदरी श्री का जानकार (चेइय ७१३)। ४ विज्ञात, १, २,२) [सुन्दरी] एक मन्त्री-कन्या (उप ७२८ टी)। विदित (ठा ३, ४) । ५ पुं. जिन-देव, महंन्, बुक्कासार वि [द] भीरु, डरपोक (दे ६, तीर्थकर (सम ६०)। ६ बुद्धदेव, भगवान बुध देखो बुह (पएह १, ५; सुज २०) ६५) बुद्ध (पायः दे ७, ५१; उर ३,७ कुप्रबुब्बुअ अक [बुबूय ] 'बु' 'बु'मावाज करना, बकि वि [गर्जित जिसने गर्जना की हो ४४०, धर्मसं ६७२) । ७ आचार्य, सूरि छाग-बकरा का बोलना। बुब्बयइ (कुप्र वह; 'ग्रह बुकिआ तुह भडा' (कुमा)। (उत्त १, १७) पुत्त पुं.[ पुत्र प्राचार्य | २४) । वकृ. बुब्बुयंत (कुप्र २४)। बुज्म सक [बुध् ] १ जानना, ज्ञान करना, शिष्य (उत्त १,७)। बोहिय वि[बोधित बुब्बुअ पुं[बुबुद] बुलबुला, पानी का समझना। २ जागना । बुज्झइ (उव)। प्राचार्य-बोधित (नव ४३) माणि वि बुलका (दे, ६५; प्रौपः पिंड १६ णाया भूका. बुझिसु (भग) । भवि. बुज्झिहिइ [ मानिन] निज को पण्डित माननेवाला १,१ वै ४५ प्रामू ६६; ₹ १३)। (प्रौप) । वक़. बुज्झत, बुज्झमाण (पिंगः (सूम १, ११, २५). "लय पुन [लिय] आचा)। संकृ. बुज्झा (हे २, १५) । कृ. बुद्ध-मन्दिर (कुप्र ४४२)। बुभुक्खा स्त्री [बुभुक्षा] भूख, खाने की इच्छा बुद्ध, बोद्धव्व, बोधव्व (पिंगः कुमाः नव बुद्ध वि [बौद्ध] १ बुद्ध-भक्त। २ बुद्ध-संबन्धी, (अभि २०७) २३ भगः जी २१)।। | बुद्ध का (ती ७ सम्मत्त ११६)। बुय वि [ब्रुव] बोलनेवाला (सूत्र १ ५. बज्झविय । वि[बोधित] १ जिसको ज्ञान बुद्ध देखो बुज्झ । बज्भावि कराया गया हो वह । २ बुद्ध देखो बुंध (सुज २०)। बुयाण देखो बुव। For Personal & Private Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ पाइअसहमहण्णवो बुल-बोड बुल वि [दे] बोड, भदन्त, धर्मिष्ठ (पिंग णालिया, नालिआ नी [नालिका] बूर बेसक्खिज्ज न [दे] द्वेष्यत्व, रिपुता, दुश्मनाई १९८) से भरी हुई नली (राज; भग)। (दे ७, ७६ टी)। बुलंबुला स्त्री [दे] बुलबुला, बुख़ुद (दे ६, बूल वि [दे] मूक, वाचा-शक्ति से रहित बेसण न [दे] वचनीय, लोकापवाद, लोक(पिंग १९८ टी) निन्दा (दे ७, ७५ टी)बुलबुल पुं[दे] ऊपर देखो ( षड् )।- बूह सक [ बृह.] पुष्ट करना । बूहए (सूध बेहिम वि [दे. द्वैधिक] दो टुकड़े करने बुल्ल देखो बोल्ल । बुल्लइ (कुप्र २६, श्रा योग्य, खण्डनीय (दस ७, ३२) १४); बुलंति (प्रासू ४)। प्रयो. बुल्लावेइ, बे देखो बि (वजा १०; हे ३, ११६; १२० बोंगिल्ल पि दे] १ भूषित, अलंकृत। २ बुलावेमि, बुल्लावए (कुप्र १२७; सिरि पिंग), 'आसी (अप) स्त्री [अशीति]| पुं. पाटोप, आडम्बर (दे ६, ६६) ४४०) बयासी, ८२ (पिंग), इंदिय वि [इन्द्रिय] बोटण न [दे] चूचुक, स्तन का अग्र भाग बुव सक [5] बोलना। बुवइ (षड् ; त्वचा और जीभ ये दो ही इन्द्रियवाला प्राणी (दे ६, ९६)। कुमा)। वकृ. बुवंत, बुयाण, बुवाण (उत्त | (ठा १; भगः स ८३; जी १५)। हिय | बोंड न [६] १ चूचुक, स्तन-वृन्त (दे ६, २३, २१ सूम १,७,१०० उत्त २३, ३१)। [द्वयाहिक] दो दिन का (जीवस ११६) 1- द्वयाहिक दो दिन का (जीवस ११६) ९६)। २ फल-विशेष, कपास का फल (प्रौपः देखो बू । बेंट देखो बिंट (महा) तंदु २०)। य न [ज] सूती वस्त्र, सूती बुस न [बुस] १ भूसा, यव प्रादि का कडंगर, | बेंत देखो बू।। कपड़ा (सूत्र २, २, ७३; भोप)नाज का छिलका (ठा ८-पत्र ४१७)। २ बोंद न [दे] मुख, मुंह (दे ६,६६) दि देखो बे-इंदिय (पंच ५, ५६)। तुच्छ धान्य, फल-रहित धान्य (गउड)। बोंदि स्त्री [दे] १ रूप । २ मुख, मुंह (दे ६, बेटू देखो बिट्ठ (मोघभा १७४) । बुसि स्त्री [वृषि, सि] मुनि का प्रासन । ९६)। ३ शरीर, देह (दे ६, १६ पएह १, 'म, मंत वि [°मत् ] संयमी, व्रती, मुनि बेड [दे] नौका, जहाज (दे ६, ६५, १ कप्पः प्रौप; उत्त ३५, २०, स ७१२, बेडय (सूम २, ६, १४ प्राचा) - विसे ३१६१, पव ५५ पंचा १०, ४) सुर १३, ५०) बुसिआ स्त्री [बुसिका यव आदि का कडंगर, बेडा । स्त्री [दे] नौका, जहाज (उप बोंदिया स्त्री [दे] शाखा (सूत्र २, २, ४६)। भूसा (दे २, १०३)। बेडिया ७२८ टी; सिरि ३८२, ४०७, बोकड) पुं [दे] छाग, बकराः गुजराती में बुह पुं[बुध] १ ग्रह-विशेष, एक ज्योतिष्क बेडी Jश्रा १२; धम्म १२ टी); 'पाणीहि | बोक्कड ) 'बोकडो (ती २; दै ६, ६६)। देव (सुर ३, ५३, धर्मवि २४)। २ वि. | स्त्री. °डी (दे ६, ६६ टी)। जलं दारइ परित्तदंडेहि बेडिव्व' (धर्मवि पण्डित, विद्वान् (ठा ४, ४; सुर ३, ५३; १३२) ।। बोक्कस पुं[बोक्कस] १ अनार्य देश-विशेष धर्मवि २४; कुमा; पाप्र)। बेड्डा स्त्री [दे] श्मश्रु, दाढ़ी-मूंछ के बाल (दे (पव २७४) । २ वर्णसंकर जाति-विशेष, ६,६५) निषाद से अंबष्ठी की कुक्षि में उत्पन्न (सुख बुहप्प देखो बहस्सइ (हे २,५३, १३७ बुहप्फइ | बेदोणिय वि [वैद्रोणिक] दो द्रोण का, द्रोण-द्वय-परिमित; 'कप्पइ मे बेदोरिणयाए बोकसालिय पुं[दे] तन्तुवाय, 'कोट्टागकुलाणि बुहुक्ख सक [बुभुक्ष ] खाने की इच्छा कंसपाईए हिरएणभरियाए संबवहरित्तए', वा गामरक्खकुलाणि वा बोकसालियकुलारिण करना । बुहुक्खइ (हे ४, ५ षड्)। (उवा) वा' (प्राचा २, १, २, ३) बुहुक्खा देखो बुभुक्खा (राज)। बेभेल [बेभेल] विन्ध्याचल के नीचे का बोक्कार देखो बुक्कार (सुर १०, २२१) बुहुक्खिअ वि [बुभुक्षित] भूखा (कुमा)। एक संनिवेश (भाग ३, २-पत्र १७१) बोक्किय न [बूत्कृत] गर्जन, गर्जना (पउम बू सक [ ] बोलना, कहना। बूम, बूया, बेमासिय वि [द्वैमासिक दो मास का, दो ५६, ५४) । बूहि (उत्त २५, २६; सूत्र १, १, ३, ६ महीने का संबन्ध रखनेवाला (पउम २२, बोगिल्ल वि[दे चितकबरा, 'फसलं सबल १,१,१,२) । बिति, बेंति, बेमि, बुआ (कम्म २८) सारं किम्मीरं चित्तलं च बोगिल्लं' (पान)। बेलि स्त्री दे] स्थूणा, खूटा (दे ६, ६५ | बोट सक[] उच्छिष्ट करना, जूठा करना। ३, १२: महाः कप्प)। भूका. अब्बवी (उत्त २३, २१, २२, २५, ३१; ठा ३, २)। । पात्र) गुजराती में 'बोटबुं; 'रयणीए रयरिणचरा वकृ. बिंत, बेंत (उप ७२८ टी; सुपा ३६०; बेल्ल देखो बिल्ल (प्राकृ ५)। चरंति बोट्टति अन्नमाईयं' (सुपा ४६१)।विसे ११६) । संकृ. बूइत्ता (ठा ३, २) देखो बेल्लग ([दे] बैल, बलीवदं (भावम)। बोड वि[]१ धार्मिक, धर्मिष्ठ । २ तरुण, बव, बुव ।। बेस प्रक [विश, स्था] बैठना, 'अंततं युवा (दे ६, ६६)। ३ मुण्डित-मस्तका बूर [बूर] वनस्पति-विशेष (णाया १, भोक्खामि त्ति बेसए भुंजए य तह चेव' (प्रोध | 'एमेव अडइ बोडो', गुजराती में 'बोडो' (पिंड १-पत्र ६; उत्त ३४, १६ कप्पा पोप) ५७१) २१७) बुहस्सइप कुमा) For Personal & Private Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोडघेर-बो बोडर न [दे] गुल्म-विशेष (पात्र) । बोडिय पुं [बोटि ] १ दिगम्बर जैन संप्रदाय । २ वि. दिगम्बर जैन संप्रदाय का अनुयायी वीडियो मोडिय होइ उपत्ती' (विसे १०४१ २५५२) - बोडि वि [] मस्तक (?) "डमर मर" (घोषमा ३ टी)योग [] (१५) बोडिआ श्री [दे] उपदिका, कौड़ी केसरि विगतति' (दे 1 ६० भगः भविः कप्पू उप उप ५०६ ), 'हाबोल' (२ समूहमा सुरेण रइयम्मि भोसणे पलयतुल्लंजलबोले' ( भाव १; कुलक ३४ ) 1 ४, ३३५) बोदि देखो बोंदि (प) 1 बोदर वि [दे] पृथु, विशाल (दे ६, १६) । बोलग पुंन [दे. ब्रोड] १ मज्जन, डूबना । २ कर्षण, खींचाव; 'उच्चूलं बोलगं पज्जेति (विपा १, ६--पत्र ६८) । पाइअसद्दमहण्णवो बोल क [ व्यति + क्रम् ] १ पसार होना, गुजरना । २ सक. उल्लंघन करना; 'दुई एड, चंदोवि उग्गप्रो, जामिखीवि बोलेई (गा ८५४), 'पुणो तं बंधेण न बोलइ क्याई' (भावक ३२) बोलए भंड) देखो वोल = गम् । - बोल [दे] कलकल, कोलाहल (३६, वोह [वे ] जो बोद्रह (पा) । बोद्ध वि [बौद्ध] बुद्ध-भक्त (संबोध ३४) । बोलिअ वि [ब्रीडित] डुबाया हुआ ( वज्जा ६८) IV बोद्धव्त्र देखो बुज्झ 12 बोलिंदी स्त्री [] लिपि विशेष, ब्राह्मी लिपि का एक भेद 'माहेसरीलियीदामोलि दिल्लीनो' (सम १५) बोद्रह वि [दे] तरुण, जवान (दे ७, ८० ) । - बोधण न [बोधन] बोध शिक्षा, उपदेश (सम ११६) । - बोध देखो - बोध देखो बोहि (ठा २, १ – पत्र ४६ ) । "सत ["सच्य] सम्यग् दर्शन को प्राप्त प्रारणी, अन देव का भक्त जीव (मोह ३) । बोधि [बोधित] ज्ञापित, श्रवगमित (५०) 1 बोबड व [दे] मूक (दश० अगस्त्य चू० पत्र० २४३) । बोर [बदर] फल-विशेष वेर (गा २०० हे १७०; षड् कुमा) 1 योरी श्री [द] बेर का गाछ (प्रात ४ हे १, १७०० कुमाः हेका २५६ ) । बोल सक [ बोडयू ] डुबाना, 'तंबोलो तं बोलइ जिरणवसहिट्ठिएण जेण खद्धी' (सार्धं ११४) बोलए धन् (सूक ६६ ). बोले बोलाए संबोध १३), सि गले सिला उदरांसि बोलंति महालयं सि' (१५. १०) बोले (तिरि १२० ) । एमने उपर १५२) बोल । V [क] बोलना, कहना। बल्ल ( हे ४, २ प्राकृ ११६; सुर ८, १९७३ अति)। कर्म, मोलियर (अ) (कुमा) . बोहेब (अप) (कुमा) प्रयो गोलापद (कुमा)। बोल्लअ पुं [कथन] बोल, वचन (गा ६०३) । बोलणवि [ कथयितृ] बोलने का स्वभावबाला ( ४, ४४३) - बोल्ला स्त्री [कथा] वार्त्ता, बातः 'नीयबोल्लाए' ( १०१५) - त बोलाविय] [वि] [कविता] बुलवाया हुआ (स vet; see) मोहिअ वि [कविता] १२ न (भकि] हे ४, १०३ ) 1बोव्व न [दे] क्षेत्र, खेत (दे ε६) । बोह सक [ बोधय ] १ समझाना, ज्ञान कराना । २ जगाना । बोहेर ( उव)। कर्म. वो हिज्जइ ( उव) । वकृ. बोहिंत, बोहेंत (सुर १५, २४६ महा) । कम बोदित (सुर २, १४५ ८, १६५ ) । हेक. बोहेडं (सन् १७१) 1 ६३९ बोह पुं [बोध] १ ज्ञान, समझ (जी १) । २ जागरण (कुमा) 1 v बोहग देखो बोहय (दं १) । बोहण देखो बोधण ( उप २०६; सुर १, ३७; उवर १) । For Personal & Private Use Only बोहरा वि [बोधक] दाता (सम १ गाया १, १ भगः कप्प) देवाला ज्ञान मोहहर ु [दे] मागय, स्तुतिपाठक (दे ६७) 1 बोहारी स्त्री [दे] बुहारी, संमार्जनी, झाडू. (दे ६,१७) 1 बोहि स्त्री [बोधि ] १ शुद्ध धर्मं का लाभ, सद्ध को प्राप्ति 'दुलहा मोह उस २६ २५०) बोभिया भवंतरे सुख११२० संबी १४ सम ११९ उप ४५१ टी) २ हिंसा, अनुकम्पा, दया ( परह २ १) । देखो बोधि 1 बोहिवि [बोधित] १ ज्ञापित, समझाया हुआ (भग) । २ विकासित, विबोधितः 'रविकिरण तरुण बोहियस हस्तपत' (कप्प) । बोहिअ [बोधिक] मनुष्य रानेवाला पुं चोर (१४४६) । बोहिंत देखो बोह = बोधय् । बोहिग देखो बोहिअ = बोधिक (राज) । योनि [] स जहान यानपाव नौका (दे ६ ९६ स २०६६ चेइय २६४ कुप्र २२२० सिरि ३८३३ सम्मत्त १५७६ सुपा ९४; मवि) । बोहित्थिय वि [दे] प्रवरा स्थित मा १५८ ) 1 || इन सिरिपाइअसद्द मण्णवम्मि बधाराइसद्द संकलरणो एग्नतीसइमो तरंगो समत्तो ॥ 'भंस देखो भंस (सुपा ५०१ ) । "भमर देखो भमर (नाट - मुद्रा ३९) । -भास देखो अवभासः 'किंतु श्रहवा सा विद्वान कोई (सुपा १९७) ब्भि वि [ भित्] भेदन करनेवाला, नारा'ग' (माचा १, २, ४, १ ब्रोहि मा १२१) । जो देख Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० पाइअसहमहण्णवो भ-भंजणा भइअ । देखो भय - भज् । भ [भ] १ प्रोष्ठ-स्थानीय व्यजन वर्ण-1 भएयव्व देखो भय = भज । भंगी स्त्री [भङ्गी] देखो भंगि (हे ४, ३३६ विशेष (प्रापः प्रामा)। २ पिंगल-प्रसिद्ध | भंकार पुं[भङ्कार] भनकार, अव्यक्त प्रावाज गा ६१३; विचार ४६) आदि-गुरु और दो ह्रस्व अक्षरों की संज्ञा, विशेष (उप पृ८६)। भंगी स्त्री [भृङ्गी] वनस्पति-विशेष;-१ भगण (पिंग)। ३ न. नक्षत्र (सुर १६, भंकारि वि [भङ्गारिन्] भनकार करनेवाला भाग, विजया । २ अतिविषा, अतिस का ४३) • °आर पुं[कार] १ 'म अक्षर। (सण)। गाछ (पएण १-पत्र ३६; परण १७२ भगण (पिंग), गण पुं[गण] भगण भंग पुं[भङ्ग] १ भांगना, खण्ड, खण्डन | पत्र ५३१) (पिंग)। (ोघ ७८८ प्रासू १७०% जी १२; कुमा)। भंगुर वि [भङ्गर] १ स्वयं भागनेवाला, भइ देखो भव = भू २ प्रकार, भेद, विकल्प (भगः कम्म ३, ५)। विनश्वर, विनाश-शील: 'तडिदंडाईबरभंगुराई भइ स्त्री [भृति] वेतन, तनखाह (गाया १, ३ विनाश (कुमाः प्रासू २१)। ४ रचना- हो विसयसोक्खाई' (उप ६ टी; पण्ह १, ८-पत्र १५० विपा १, ४, उवा)। देखो विशेष; तरंगरंगंतभंग-' (कप्प)। ५ परा ४ सुर १०,१८ स ११४, धर्मसं ११७१ जय । ६ पलायन (पिंग)। "रय न [रत] विवे ११४) । २ कुटिल, वक्र, 'कुडिलं वंक भइअ वि [भक्त] १ विभक्त (श्रावक १८५; मैथुन-विशेष (बज्जा १०८)। भंगुरं' (पाप)। सम ७६)।२ खरिडतः 'अंगुलसखासंखप्प- भंग पुं [भृङ्ग] आर्य देश-विशेष, जिसकी भंछा देखो भत्था (राज)। एसभइयं पुढो पयर' (पंच २, १२, औप)। राजधारी प्राचीन काल में पावापुरी थी ३ विकल्पित (वव ६) (इक) भंज सक [भ] १ भाँगना, तोड़ना। २ भंग (अप) देखो भग्ग = भग्न (पिंग)। पलायन कराना, भगाना । ३ पराजय करना । भइअ न [भक्त] भागाकार (वव १) ।। भंगरय पुंभृङ्गरज, भृङ्गारक] १ पौधा ४ विनाश करना। भंजइ, भंजए (हे ४, भइअव्व। क्षा मय: भज् । १०६ षड् ; पि ५०६)। भवि, भंजिस्सइ विशेष, भृङ्गराज, भँगरा, भंगरैया। २ न. भइअ) वि [भृतिक] कर्मकर, नौकर, | भंगरा का फूल (वज्जा १०८ सुपा ३२४) (पि ५३२)। कर्म. भज्जइ (भगः महा)। भइग, चाकर (राय २१) भंगा स्त्री [भङ्गा] १ वनस्पति-विशेष, पाट, वकृ. मंजंत (गा १६७; सुपा ५६०)। भइगि , स्त्री [भगिनी] बहिन, स्वसा कुष्टाः 'कप्पइ रिणग्गंधारण वा रिणग्गंधीण वा कवकृ. भजंत, भज्जमाण (से ६, ४४० भइणिआ(सुपा १५, स्वप्न १५, १७, पंच वत्थाई धारित्तए वा परिहरेत्तए वा, तं सुर १०, २१७; स ६३)। संकृ. भंजिअ, भइणी । विपा १, ४, प्रासू ७८ कुल जहा-जंगिए भंगिए सारणए पोत्तिए तिरोड भंजिउ, भंजिऊण, भंजिऊणं, भंजेऊण २३५; कुमा) व [पति] बहनोई पट्टए णामं पंचमए' (ठा ५, ३-पत्र (नाट; पि ५७६; महा; पि ५८५; महा), (सुपा १५, ५३२), सुअ पुं[सुत] ३३८) । २ वाद्य-विशेषः '-पडहहुडकुडंडु. भजिउ (अप) (हे ४,३६५)। हेकू. भागिनेय, भानजा (मुपा १७)। देखो क्काभेरीभंगापहुदिभूरिवज्जभंडतुमुल-(विक्र भंजित्तए (णाया १,८), भंजणहं (अप) बहिणी। (हे ४, ४४१ टि) भइरव वि [भैरव १ भयंकर, भीषण, भय- | भंगि स्त्री [भनि] १ प्रकार, भेद (हे ४, | भंजवि [भक] भाँगनेवाला, भंग जनक (पान; सुपा १८२)। २ पृ. नास्यादि ३३६ ४११)। २ व्याज, छल, बहानाः भंजग करनेवाला (गा ५५२, परह १, प्रसिद्ध एक रस, भयानक रस । ३ महादेव, सहि गिभगिसब्भाविनावराहाएं (गा। ४)। २. वृक्ष, पड़; भजगा इच सोनवस शिव । ४ महादेव का एक अवतार । ५ राग- ६१३)। ३ विच्छित्ति, विच्छेद (राज)। नो चयंति' (प्राचा)। विशेष, भैरव राग । ६ नद-विशेष (हे १, ४ स्त्री. देश विशेष; 'पावा भंगी य (पद | भंजण न [भञ्जन] १ भंग, खण्डन (पव १५१ प्राप्र)। देखो भेरव ।। २७५; विचार ४६) ३८; सुर १०, ६१)। २ विनाश (सुपा भइरवी स्त्री [भैरवी] शिव-पत्नी, पार्वती | भंगिअ न [भङ्गिक, भाङ्गिक] १ भंगा-मय, ३७६; पण्ह १,१)। ३ वि. भंजन करने(गउड)। एक तरह का वस्त्र, पाट का बना हुआ कपड़ा वाला, तोड़नेवाला, विनाशक; 'भवभंजण' भइरहि पुं [भगीरथि] सगर चक्रवर्ती का (ठा ३, ३, ५, ३-पत्र १३८, कस)। २ (सिरि ५४६), 'रिउसंगभंजणेण (कुमा)। एक पुत्र, भगीरथ (पउम ५, १७५) 10 शान-विशेषः 'जोगतिगस्सवि भंगियसुत्ते | स्त्री. °णी (गा ७४५)।भइल वि [दे] भया, जात (रंभा ११) किरिया जो भरिणया' (चेइय २४५)। भंजणा स्त्री [भञ्जना] ऊपर देखो, 'विणयोभउम्हा (शौ) देखो भमुहा (पि २५१)। भंगिल्ल वि [भङ्गवत् ] प्रकारवाला, भेद- वयारम-(?र मा-) णस्स भंजणा पूयणा भउहा (अप) देखो भमुहा (पिंग)। पतित; 'पढमभंगिल्ला' (संबोध ३२) गुरुजणस्स' (विसे ३४६६ निचू १). For Personal & Private Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगः प्रौप) , भाषण, भंडागली [दे] १ मंत्री, भंजाविअ-भक्ख पाइअसहमहण्णवो ६४१ भंजावि विभिञ्जित] १ भंगाया हुमा, | भंडाआर [भाण्डागार] भंडार, कोठा | भंत वि [भात् , भ्राजत् ] चमकता, भंजिअ तुड़वाया हुमाः (स ५४०)। २ | भंडागार या कोठार, बखार (मुद्रा १४१: स प्रकाशता (विसे ३४ भगाया हुमा (पिंग)। ३ प्राकान्त (तंदु ३८) १७२ सुपा २२१, २६)। भंत वि [भवान्त] भव का-संसार का भंजिअ देखो भग्ग= भग्न (कुमा ६, ७० भंडागारि पुंस्त्री [भाण्डागारिन्, क] अन्त करनेवाला, मुक्ति का कारण (बिसे पिंगः भवि) भंडागारिअ भंडारी, भंडार का अध्यक्ष ३४४६) भंड सक [भाण्डय ] भंडारा करना, संग्रह (णाया १,८; कुप्र १०८)। स्त्री. "रिणी भंत वि[भयान्त भय-नाशक (विसे ३४४६)। करना, इकट्ठा करना । भंडे (सुख २, ४५)M (णाया १,८)। भंड सक [भण्ड] भाँड़ना, भत्सना भंडार देखो भंडागार (महा)। भंति स्त्री [भ्रान्ति भ्रम, मिथ्या ज्ञान (धर्मस करना, गाली देना। भंडइ (सण)। वकृ. भंडार [भाण्डकार] बर्तन बनानेवाला ७२०७२३, सुपा ३१२ भाव) । भंडंत (गा ३७६)। संकृ. भंडिउं (वव १) शिल्पी (राज) भंति (अप) स्त्री [भक्ति] भक्ति, प्रकार भंड ([भण्ड] १ विट, भड़ आ (पव ३८)। भंडारि देखो भंडागारि (स २०७; सुर (पिंग) । २ भाँड़, बहुरूपिया, मुख आदि के विकार से भंडारिअ ४, ६०)। भंभल वि[दे] १ अप्रिय, अनिष्ट (दे ६, करनेवाला निर्लज्ज भंडिअ [भाण्डिक] भंडारी, भंडार का । ११०)। २ मूर्ख, प्रज्ञान, पागल, बेवकूफ (आव ६) अध्यक्ष (सुख २, ४५) (दे ६, ११०; सुर ८, १९६) भंड न [दे] १ वृन्ताक, बैंगन, भंटा (दे ६, भंडिआ स्त्री [भाण्डिका] स्थाली, थलिया भंभसार पुंभम्भसार] भगवान महावीर १००)। २ पुं. मागध, स्तुति-पाठक । ३ | (ठा ८-पत्र ४१७)। के समकालीन और उनके परम भक्त एक सखा, मित्र। ४ दौहित्र, पुत्री का पुत्र (द भंडिआ। स्त्री [दे] १ गंत्री, गाड़ी (बृह ३ | मगधाधिपति, ये श्रेणिक और बिम्बसार के ६, १०९)। ५ पुंन. मण्डन, आभूषण, | भंडी दे ६, १०६; आवम; निचू ३; नाम से भी प्रसिद्ध थे (णाया १, १३, गहना (दे ६, १०६; भगः प्रौप)। ६ वि. वव ६) । २ शिरीष वृक्ष । ३ अटवी, जंगल । प्रौप) । देखो भिभसार, भिंभिसार ।। छिन्न, मूर्धा, सिर-कटा (दे ६, १०६)। ७ ४ असती, कुलटा (दे ६, १०६) | भंभा स्त्री [दे. भम्भा] १ वाद्य-विशेष, भेरी न. क्षुर, छुरा । ८ छुरे से मुण्डन (राज)। भंडीर भण्डीर] वृक्ष-विशेष, शिरीष वृक्ष (दे ६ १००; णाया १,१७, विसे ७८ टी; भंड पुन [भाण्ड] १ बरतन, बासन, पात्र (कुमा)। वडिंसय, वडेंसय न [वतंसक] भंडग'दुग्गइदुहभंडे घडइ अक्खंडे' (संवेग सुर ३, ६६ सम्मत्त १०६ राय; भग ७, मथुरा नगरी का एक उद्यान; 'महुराए १४.दे ३,२१, था २७सुपा १९९)। ६)।२'माँ' 'भा' की मावाज (भग ७,६ यरीए भंडि (? डीर)वडेंसए उज्जाणे २ क्रयाणक, पण्य, बेचने की वस्तु (णाया पत्र ३०५)।। (राज; णाया २-पत्र २५३), वण न १,१–पत्र ६० प्रौप; पएह १, १, उवा: भंभी स्त्री [दे] १ असती, कुलटा (दे ६, विन]१ मथुरा का एक वन (ती ७)। )। २ नीति-विशेष (राज) कुमा)। ३ गृह स्थान (जीव ३)। ४ वस्त्र २ मथुरा का एक चैत्य (प्रावम)। पात्र आदि घर का उपकरण (ठा ३, १९ भंस प्रक[भ्रंश ] १ नीचे गिरना। २ नष्ट भंडु न [दे] मुण्डन (दे ६, १००)। कप्पः ओष ६६६ गाया १,५)। होना। ३ स्खलित होना। भंसद (हे ४, भंडण न [दे. भण्डन] १ कलह, वाक्| भंडुल्ल देखो भंड = भाण्ड (भवि)। १७७) कलह, गाली-प्रदान (दे ६, १०१, उक भंत वि [भ्रान्त] १ घुमा हुमाः 'भंतो जसो | भंस पु [भ्रंश] १ स्खलना। २ विनाश महा; रणाया १,१६-पत्र २१३, प्रोष मेईणी (ए)' (पउम ३०,६८)। २ भ्रान्ति- (सुपा ११३; सुर ४, २३०), 'संपाडह २१४० गा ६९६ उप ३३६%, तंदु ५०)। युक्त, भ्रमवाला, भूला हुमा (दै १, २१)। | संपयाभंस' (कुप्र ४१)। .. २ क्रोध, गुस्सा (सम ७१)। ३ अपेत, अनवस्थित (विसे ३४४८)। भंसग वि [भ्रशक] विनाशक (वव १). भंडणा स्त्री [भण्डना] भौड़ना, गाली- ४ पुं. प्रथम नरक का तीसरा नरकेन्द्रक भंसण न [भ्रशन] ऊपर देखोः 'को ए प्रदान (उप ३३६)।नरकावास-विशेष (देवेन्द्र ३)। उवामो जिणधम्म-भंसणे होज्ज एईए' (सुपा भंडय देखो भंड = भएड (हे ४, ४२२)। भंत वि [ भगवत् ] भगवान्, ऐश्वर्य-शाली | ११३, सुर ४, १५)। भंडय देखो भंडग; 'पायसघयदहियाणं भरि | (ठा ३, १७ भग, विसे ३४४८-३४५६) भंसणा स्त्री [भ्रशना] ऊपर देखो (पण्ह ऊणं भंडए गरुए (महा ८०, २४. उत्त भंत वि [भदन्त] १ कल्याण-कारक । २ २, ४ श्रावक ६५) । २६,८) सुख-कारक । ३ पूज्य (विसे ३४३६ कप्पा भंडवेआलिअ वि [भाण्डवैचारिक] करि भक्ख सक [ भक्षय्] भक्षण करना, खाना। विपा १, १; कसः विसे ३४७४)। याना बेचनेवाला (मणु १४६)। भक्खेइ (महा)। कर्म. भक्खिज्जइ (कुमा)। वकृ. भक्खंत (सं १०२)। हेकृ. भक्खिउं भंडा स्त्री [दे] सम्बोधन-सूचक शब्द (संक्षि | भंत वि [भजत् ] सेवा करता (विसे | | ३४४६) (महा)। कृ. भक्ख, भक्खेय, भक्खणिज । For Personal & Private Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ पाइअसहमहण्णवो भक्ख-भट्टिणी (पउम ८४,४; सुपा ३७०; णाया १, १०, भगवती-सूत्र, पाँचवाँ जैन अंग-ग्रन्थ (पंच भज देखो भंज (आचा २, १, १, २) सुर १४, ३४ श्रा २७) ।। ५, १२५), वंत वि[वत् ] ऐश्वर्यादि- भज देखो भय = भज् । भक्ख पु[भक्ष] भक्षण, भोजन; 'भो कीर गुण-सम्पन्न । २ पृ. परमेश्वर, परमात्मा | भजंत देखो मंज। खीरसकरदक्खाभक्खं करहि ताव' (सुपा (कप्पः विसे १०४८ प्रामा) भजण 1 [भ्रजन १ भुनन, भुनना भगंदर पुं[भगन्दर] रोग-विशेष-गुदा के भजणय २६७) (पण्ह १, १ अनु ५)। २ भुनने का पात्र (सूअनि ८१; विपा १, ३) भीतरी भाग में होनेवाला एक प्रकार का भक्ख देखो भक्ष = भक्षय । फोड़ा (णाया १, १३; विपा १, १) भन्जमाण देखो भंज । भक्ख पुंन [भक्ष्य खण्ड-खाद्य, चीनी का बना हुआ लाच द्रव्य, मिठाई (सुज्ज २० टी) भगंदरि वि [भगन्दरिन्] भगन्दर रोगवाला भजा नी [भार्या] पत्नी, स्त्री (कुमा; प्रासू ११६) (श्रा १६ संबोध ४३)। भक्खग वि [भक्षक] भक्षण करनेवाला | भगंदरिअ वि [भगन्दरिक] ऊपर देखो | भजि स्त्री [भर्जिका] देखो भजिआ। (कुप्र २६)। भजिअ देखो भग्ग = भग्नः 'तरुरिणयं वा भक्खण न [भक्षण] १ भोजन (पएण २८)। (विपा १, ७) छिवाडि अभिक्कंतभज्जियं पेहाए' (पाचा २, २ वि. लानेवाला, 'सव्वभक्खरणो' (श्रा २८) भगंदल देखो भगंदर (राज)।भक्खणया स्त्री [भक्षणा] भक्षण, भोजन | भगिणी देखो बहिणी (णाया १,८; कप्पः भजिअ वि [भृष्ट, भर्जित] भुना हुआ, (उवा) कुप्र २३६; महा)। पकाया हुमा (गा ५५७) प्राचा २, १, १, भक्खर पुं [भास्कर] १ सूर्य, रवि (उत्त भगिरहि । [भगीरथि सगर चक्रवर्ती ३ विपा १, २, उवा)। भगीरहि का एक पुत्र, भगीरथ (पउम ५, २३, ७८ लहुन १०)। २ अग्नि, वह्नि । जिआ स्त्री [भर्जिका] १ भाजी, शाक-भेद, १७६; २१५।३ अर्क वृक्ष (चंड) पत्राकार तरकारी (पव २५६)। २ पथ्यदन, भग्ग वि [भन] १ खण्डित, भाँगा हुमा (सुर भक्खराभ न [भास्कराभ] १ गोत्र-विशेष, मार्ग-भोजन (कल्पभाष्य गा० ३६१८). २, १०२; दं ४६; उवा)। २ पराजित । ३ जो गौतम गोत्र की शाखा है। २ पुंस्त्री. उस भजिम वि [भ्रजिम भुनने योग्य (प्राचा पलायित, भागा हुआ; 'जइ भग्गा पारकडा' गोत्र में उत्पन्न (ठा ७-पत्र ३६०)। २, ४, २, १५) (हे ४, ३७६; ३५४; महा, वव २)। इ भक्खावण न [भक्षण] खिलाना (उप पुं[जित् ] क्षत्रिय परिव्राजक-विशेष भन्जिर वि [भक्त] भाँगनेवाला, 'फारफल१५० टी)। भारभजिरसाहासयसंकुलो महासाही' (धर्मवि (मोप)। भक्खि वि [भक्षिन] खानेवाला (प्रौप) ५५, सण) भग्ग वि [दे] लिप्त, पोता हुआ (दे ६,६६) भजेत देखो भज = भ्रस्न । भक्खिय वि [भक्षित] खाया हुआ (भवि)।. भग्ग न [भाग्य] नसीब, दैव (सुर १३, भट्ट [भट्ट] १ मनुष्य-जाति-विशेष, स्तुतिभक्खेय देखो भक्ख = भक्षय । १०५) पाठक की एक जाति, भाट; 'जयजयसद्दकभग पुंन [भग] १ ऐश्वयं। २ रूप। ३ भग्गव [भार्गव] १ ग्रह-विशेष, शुक्र ग्रह रंतसुभट्ट' (सिरि १५५, सुपा २७१; उप श्री। ४ यश, कीति । ५ धर्म। ६ प्रयत्न (पउम १७, १०८)। २ ऋषि-विशेष (समु पू१२०)। २ वेदाभिज्ञ पण्डित, ब्राह्मण, 'इस्सरियरूवसिरिजसधम्मपयत्ता मया भगा- १८१)। वित्र (उप १०३१ टी)। ३ स्वामित्व, भिक्वा' (विसे १०४८ चेइय २८८)। ७ भग्गवेस न [भार्गवेश] गोत्र-विशेष (सुज मालिकपन, मालकियत (प्रति ७)।सूर्य, रवि । ८ माहात्म्य। १ वैराग्य । १० १०, १६ टी; इक) भट्टारग। पुं[नट्टारक] १ पूज्य, पूजनीय मुक्ति, मोक्ष। ११ वीर्य । १२ इच्छा (कप्प भग्गिअ (अप) । देखो भग्ग = भग्न (पिंग भट्टारय) (प्राव ३; महा)। २ नाटक की टी)। १३ ज्ञान (प्रामा)। १४ पूर्वाफाल्गुनी | भाषा में राजा (प्राकृ ६५)।। नक्षत्र (अणु)। १५ स्त्री. योनि, उत्पत्ति-स्थान भट्टि देखो भत्तु = भतु (ठा ३, १; सम ८६; (पराह १, ४-पत्र ६८; सुज्ज १०, ८)। भच्छिअ वि [भत्सित] तिरस्कृत (दे १, कप्प; स १४४ प्रति ३; स्वप्न १५)। १६ देव-विशेष, पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का ८०; कुमा ३, ८६)। भट्टि पुं [दे] विष्णु, श्रीकृष्ण (हे २, अधिष्ठाता देव, ज्योतिष्क देव-विशेष (ठा २, भज देखो भय = भज् । वकृ. भजंत, भजेंत, १७४दे६.१००) ३; सुज्ज १०, १२)। १७ गुदा और अण्ड भजमाण, भजेमाण ( षड्)।- भट्टिणी स्त्री [भ]] स्वामिनी, मालिकिन कोश के बीच का स्थान (बृह ३) दत्त पुं भन्ज सक [भ्रस् ] पकाना, भुनना। (स १३४)।[दत्त नृप-विशेष (हे ४, २६६) व भज्जति, भज्जेंति (सूअनि ८१; विपा १, भट्टिणी स्त्री [भट्टिनी] नाटक की भाषा में देखो 'वंत (भग, महा)। 'वई स्त्री [°वती] | ३)। वकृ. भज्जत, भज्जेत (पिंड ५७४ वह रानी जिसका अभिषेक न किया गया हो १ ऐश्वर्यादि-सम्पन्ना, पूज्या (पडि)। २ विपा १, ३)। (प्रति ७)। For Personal & Private Use Only Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टु -भद्द पाइअसहमहण्णवो ६४३ भट्ट (शौ) देखो भट्टारय (प्राकृ ६५)। भणग वि [भण, क] प्रतिपादन करनेवाला सुपा ५२)। ३ एकाग्र-वृत्ति-विशेष (प्राव भट्ट वि [भ्रष्ट] १ नीचे गिरा हुआ । २ च्युत, (णंदि)। २)। ४ कल्पना, उपचार (धर्मसं ७४२)। स्खलित (महा: द्र ४३) । ३ नष्ट (सुर ४, भणण न [भणन] कथन, उक्ति (उप ५५३; ५प्रकार, भेद (ठा ६)। ६ विच्छित्ति-विशेष २१५; णाया १, ६) सुपा २८३ संबोध ३) (प्रौप)। ७ अनुराग (धर्म ३)। ८ विभाग। भट्ठ पुंन [भ्राष्ट] भर्जन-पात्र, भुनने का बर्तन भणाविअ वि [भाणित] कहलाया हुमा ६ अवयव । १० श्रद्धा (हे २,१५६) मंत, (द ५, २०); 'भट्ठियचरणगो विव सयपीए (सुपा ३५८) । "वंत वि [ मत् ] भक्तिवाला, भक्त (पउम कीस तडफडसि' (सुर ३, १४८)। भणि वि [मणित] कथित (भग)। ६२, २८ उव; सुपा १६०, हे २, १५६ भट्ठि। स्त्री [दे] धूलि-रहित मार्ग (प्रोष भणिइ स्त्री [भणिति] उक्ति, वचन (सुर ६, भवि)। भट्टी २३ २४ टी; भग ७, ६ टी-पत्र १४५; सुपा २१४: धर्मवि ५८) । भत्तिज पुं[भ्रातृव्य] भतीजा, भाई का ३०७)। भणिर वि [भणित] कहनेवाला, वक्ता (गा | पुत्र (सिरि ७१६; धर्मवि १२७) ।। भड पुं[भट] १ योद्धा, लड़ाका (कुमा)। | २६७ कुमाः सुर ११, २४४ श्रा १६)। भत्ती नीचे देखो। र (से ३, णाया १, १)। ३ | स्त्री.री (कुमा) IV भत्तु [भर्त] १ स्वामी, पति, भतार म्लेच्छों की एक जाति । ४ वर्ण-संकर जाति- | भणेमाण देखो भण। (णाया १, १६-पत्र २०७); 'एवबहू उवविशेष, एक नीच मनुष्य-जाति । ५ राक्षस (हे भण्ण सक [भण् ] कहना, बोलना। भएणइ | रतभत्तुया' (णाया १,६; पामः स्वप्न १, १६५ ), खइआ स्त्री [°खादिता] | (धात्वा १४७)। ५६)। २ अधिपति, अध्यक्ष। ३ राजा, दीक्षा-विशेष (ठा ४, ४)। भण्णमाण देखो भण = भए । नरेश। ४ वि. पोषक, पोषण करनेवाला । भडक पुत्री [दे] आडम्बर, तड़क-भड़क, टीम- | भत्त पुंन [भक्त] १ आहार, भोजन । २. ५ धारण करनेवाला (हे ३, ४४० ४५)। टाम, ठाठमाठ (सट्ठि ४४ टी)। स्त्री. का अन्न, नाज (विपा १, १; ठा २, ४, महा)। | स्त्री-भत्ती (पिंग)। (उव) ३ मोदन, भात (प्रामा)। ४ लगातार सात भत्तोस न [भक्तोष] १ भुना हुआ अन्न भडग पुं [भटक] १ अनार्य देश-विशेष । २ | दिनों का उपवास (संबोध ५८)। ५ वि. (पंचा ५, २६, प्रभा १५)। २ सुखादिका, उस देश में रहनेवाली एक म्लेच्छ-जाति (पएह । भक्ति-युक्त, भक्तिमान; 'सा सुलसा बालप्पभिति खाद्य-विशेष (पव ३८) १,१-पत्र १४; इक) । देखो भड ।। चेव हरिणेगमेसीभत्तया यावि होत्था' (अंत | भत्थ पुंस्त्री [दे] भाथा, तूणीर, तरकस; 'मह भडारय (अप) देखो भट्टारय (भवि). ७; उप पृ ६६, महाः पिंग) कहा स्त्री आरोवियचावो पिढे दढबन्धभत्थमो प्रभनो भडित्त न [भटित्र] शूल-पक्व मांसादि, | [कथा] माहार-कथा, भोजन-संबन्धी वार्ता | (धर्मवि १४६) कबाब (स २६२, कुप्र ४३२)।। (ठा ४, ४) च्छंद, छंद पु [च्छन्द] भत्था श्री [भना] चमड़े की धौंकनी, भाथी भडिल वि [दे] संबोधन-सूचक शब्द (संक्षि | रोग-विशेष, भोजन की अरुचि; 'कच्छू जरो (उप ३२० टी धर्मवि १३०)। ४७)। खासो सासो भत्तच्छंदो मक्खिदुक्खं (महा;अशिमिता निक भण सक [भण] कहना, बोलना, प्रतिपादन महा-टि पञ्चक्खाण न [प्रत्याख्यान] १८९) करना । भणइ, भणेइ (हे ४, २३६ कुमा)। आहार-त्याग-रूप अनशन, अनशन का एक | मत्थी स्त्री [भस्त्री] भाथी, चमड़े की धौंकनी; कर्म, भएणइ, भएणए, भणिज्जई (पि ५४८, भेद, मरण का एक प्रकार (ठा २, ४-पत्र ‘भत्थि ब्व अनिलपुन्ना वियसियमुदर' (कुप्र षड् : पिंग) । भूका, भरणीम (कुमा)। भवि, ९४ औप ३०, २) । परिणा; 'परिन्ना || २९६) ।। भणिहि, भरिणसं (कुमा)। वकृ. भणत, स्त्री [परिज्ञा] १ वही पूर्वोक्त प्रर्थ (भत्त भद सक [भद्] १ सुख करना । २ कल्याण भणमाण, भणेमाण (कुमा; महा; सुर १०, १६६, १०; पव १५७)। २ ग्रंथ-विशेष करना (विसे ३४३६)। वकृ. भदंतः नीचे ११४)। कवकृ. भण्णंत, भणिजंत, (भत्त १) पाणय न [पानक] पाहार- देखो। भाणज्जमाण. भणोअंत. भण्णमाण (कुमाः । पानी, खान-पान (विपा १,१) वला नाभदंत विता , पि ५४८. गा १४५) । संकृ. भणिअ, ['वेला] भोजन-समय (विपा १, १)। सुख-कारक। ३ पूज्य, पूजनीय (विसे ३४३६% भणिउं, भणिऊण (कुमा; पि ३४६)। भत्त वि [भूत] उत्पन्न, संजात (हे ४, ३४७४।। हेकृ. भणि', भणिउं (पउम ९४, १३, भद्द न [दे] मामलक, पाँवला-फल-विशेष पि ५७६)। कृ. भणिअव्य, भणेयव्व भत्ति देखो भत्तु (पिग) IV (द ६, १००) (अजि ३८ सुपा ६०८)। कवकृ. भन्नंत, भत्ति स्त्री [भक्ति] १ सेवा, विनय, प्रादर भद्दन [भद्र] १ मंगल, कल्याण; 'भई भन्त्रमाण (सुर २, १९१, उप पू २३, उप (णाया १, ८-पत्र १२२: उव; प्रौप: भद्दअ मिच्छादसणसमूहमइप्रस्स भमय१०३१ टी) प्रासू २९) । २ रचना (विसे १६३१, प्रौप; सारस्स जिणवयणस्स भगवनो' (सम्मत्त For Personal & Private Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ पाइअसद्दमहण्णवो भद्ददारु-भमस १६७ प्रासू १६)। २ सुवर्ण, सोना। ३ भद्दव पुं[भाद्रपद मास-विशेष, भादों भप्प देखो भस्स = भस्मन् (हे २,५१: कुमा) मुस्तक, मोथा, नागरमोथा (हे २, ८०)। भहवय ) का महीना (वजा ८२; सुर ३, | भम सक [भ्रम] भ्रमण करना, घूमना । ४ दो उपवास (संबोध ५८)। ५ देव-विमान । १३८)। भमइ (हे ४, १६१, प्राकृ ६९)। वकृ. विशेष (सम ३२)। ६ शरासन, मूठ (णाया| भद्दसिरी स्त्री [दे] श्रीखण्ड, चन्दन (दे ६, भमंत, भममाण (गा २०२, ३८७ कप्पा १,१ टी-पत्र ४३)। ७ भद्रासन, प्रासन प्रौप)। संकृ, भमिआ, भमिऊण (षड्, विशेष (चावम)। ८ वि. साधु, सरल, भला, भदा स्त्री [भद्रा] १ रावण की एक पत्नी गा ७४६) । कृ. भमिअव्व (सुपा ४३८)।। सजन । १ उत्तम, श्रेष्ठ (भगः प्रासू १६; | (पउम ७४, १)।२ प्रथम बलदेव की माता | भम पुं [भ्रम] १ भ्रमण (कुप्र ४)। २ सुर ३, ४)। १० सुख-जनक, कल्याण-कारक (सम १५२)। ३ तीसरे चक्रवर्ती की जननी भ्रान्ति, मोह, मिथ्या-ज्ञान (से ३, ४ (णाया १. १)। ११ पुं. हाथी की एक (सम १५२)। ४ द्वितीय चक्रवर्ती को स्त्री कुमा)। उत्तम जाति (ठा ४, २–पत्र २०८; महा)। (सम १५२)। ५ मेरु के पूर्व रुचक पर्वत पर | भमग न [भ्रमक लगातार एकतीस दिनों १२ भारतवर्ष का तीसरा भावी बलदेव रहनेवाली एक दिक्कुमारी देवी (ठा ८)। ६ का उपवास (संबोध ५८)।" (सभ १२४)। १३ अंगविद्या का जानकार एक प्रतिमा, व्रत-विशेष (ठा २, ३-पत्र भमड देखो भम = भ्रम; 'भवाम्म भमडइ द्वितीय रुद्र पुरुष (विचार ४७३)। १४ ६४)। ७ राजा श्रेणिक की एक पत्नी (अंत | एगुचिय' (विवे १०८ हे ४, १६१)। तिथि-विशेष-द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी २५)। ८ तिथि-विशेष-द्वितीया, सप्तमी भमडिअ वि [भ्रान्त] १ घूमा हुअा, फिरा तिथि (सुज १०, १५)। १५ छन्द-विशेष और द्वादशी तिथि (संबोध ५४)। ६ छन्द- हुआ (स ४७३)। २ भ्रान्ति-युक्त (कुमा)। (पिंग)। १६ स्वनाम-ख्यात एक जैन आचार्य विशेष (पिंग)। १० कामदेव श्रावक की देखो भमि । (महानि ६; कप्प)। १७ व्यक्ति-वाचक भार्या का नाम । ११ चुलनीपिता नामक भमण न [भ्रमण] घूमना, चकराना। (दे नामक (निर १, ३ पाव १: धम्म)। १८ उपासक की माता का नाम (उवा)। १२ ४६; कप्प) भारतवर्ष का चौबीसवाँ भावी जिनदेव (पव एक सार्थवाहक स्त्री का नाम (विपा १, ४)। भममुह पुं[दे] पावत्तं (दे, १०१)। ७)4 गुत्त [गुप्त स्वनाम-प्रसिद्ध एक १३ गोशालक की माता का नाम (भग १५)। भमया स्त्री [भ्र] भौंह, नेत्र के ऊपर की जैनाचार्य (दिः साधं २३)। गत्तिय न १४ अहिसा, दया (पराह २,१)। १५ एक केश-पंक्तिले २.१४.सा . [गुप्तिक] एक जैन मुनि-कुल (कप्र)। वापी (दीव)। १६ एक नगरी (प्राचू १)। भमर पुं [भ्रमर] १ मधुकर, भौंरा (हे १, 'जस [ यशस्] १ भगवान् पार्श्वनाथ | १७ अनेक स्त्रियों का नाम (णाया १,८ २४४; कुमा; जी १८ प्रासू ११३)। २ पुं. का एक गणधर (ठा ८-पत्र ४२६)। २ १६, आवम)। छन्द-विशेप (पिंग)। ३ विट, रंडीबाज एक जैन मुनि (कप्प), जसिय न भद्दाकरि वि [दे] प्रलम्ब, प्रति लम्बा (दे (कप्पू), रुअ [रुच अनार्य देश-विशेष [यशस्क] एक जैन मुनि-कुल (कप्प) ६, १०२)। (पव २७४), वलि श्री [विलि] १ नंदि [नन्दिन] स्वनाम-ख्यात एक भहिआ श्री [भद्रिका, भद्रा] १ शोभना, छन्द-विशेष (पिंग)। २ भ्रमर-पंक्ति (राय) ।। राज-कुमार (विपा २, २) बाहु पुं सुन्दर (स्त्री) (प्रोघभा १७)। २ नगरी-विशेष भमरटेंटा स्त्री [दे] १ भ्रमर की तरह अक्षि["बाहु] स्वनाम-प्रसिद्ध प्राचीन जैनाचार्य | (कप्प)।और ग्रन्थकार (कप्प, एंदि)। "मुत्था स्त्री गोलकवाली। २ भ्रमर की तरह अस्थिर भद्दिजिया स्त्री [भद्रीया, भद्रीयिका] एक [मुस्ता] वनस्पति-विशेष, भद्रमोथा (परण पाचरणवाली। ३ शुष्क व्रण के दागवाली जैन मुनि-शाखा (कप्प) १) 'वया स्त्री [पदा नक्षत्र-विशेष (सुर भद्दिलपुर न [भदिलपुर] भारतवर्ष का एक भमरिया स्त्री [भ्रमरिका] जन्तु-विशेष, बरें १०, २२४)"साल न [शाल] मेरु प्राचीन नगर (अंत ४; कुप्र ८४; इक)। पर्वत का एक वन (ठा २, ३, इक)। सेण (जी १८) । देखो भमलिया। पुं[°सेन] १ धरणेन्द्र के पदाति-सैन्य का भद्द्त्त रवडिंसग न [भद्रोत्तरावतंसक] | भमरी स्त्री [भ्रमरी] स्त्री-भ्रमर, भौंरी (दे)। अधिपति देव (ठा ५, १० इक)। २ एक एक देव-विमान (सम ३२) । नीचे देखो। श्रेष्ठी का नाम (आव ४) स न [ व] भद्दुत्तर स्त्री [भद्रोत्तरा] प्रतिमा- भमलिया , स्त्री [भ्रमरीका, री] १ पित्त नगर-विशेष (इक) सण न [सन] भद्दोत्तर विशेष, प्रतिज्ञा का एक भेद, भमली के प्रकोप से होनेवाला रोग-विशेष, पासन-विशेष, सिंहासन (णाया १, १; पण्ह भद्दोत्तरा ) एक तरह का व्रत (औपः अंत चक्करः ‘भमली पित्तुदयालो भर्मतमहिदसणं' १, ४ पाना प्रौप) ३०; पव २७१) (चेइय ४३५, पडि)। २ वाद्य-विशेष भद्र देखो भह (हे २,८०, प्राकृ १७)। (राय)। भददार न [भद्रदारु] देवदारु, देवदार की भन्नंत भमस पुं [दे] तृण-विशेष, ईख की तरह का । लकड़ो (उत्तनि ३) .? देखो भण= भण् । भन्नमाण एक प्रकार का घास (दे ६,१०१)। For Personal & Private Use Only Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भमाइअ - भर भाइ वि [भ्रमित ] घुमाया हुआ, फिराया हुआ (से ३, ६१) । भमाड सक [ भ्रमय् ] घुमाना, फिराना । भमाडेइ (हैं ४, ३०), भमाडेसु (सुपा ११४) । व. भमाडेंत (पउम १०६, ११) भमाड देखो भ्रम = भ्रम् । भमाडइ (हे ४, १६१६ भवि) 1 भमाड पुं [ भ्रम ] भ्रमण, घूमना, चकर (प्रोघभा २६ टी० ८३ टी) | भमादण न [भ्रमण] घुमाना (उप २७८ ) IV भमा अ देखो भमडिअ (कुमा) 1 भाडि वि [ भ्रमित ] घुमाया हुआ, फिराया हुआ ( पउम १९, २५) भमाव देखो भमाड = भ्रमय् । भमावइ, भावे (पि५५३; हे ४, ३० ) । - भमास [दे] देखो भमत (दे ६, १०१ पान ) । भमि श्री [भ्रमि] १ पानीका कार भ्रमण (अच्तु ९३ ) । २ चित्त-भ्रम करने की शक्ति (विसे १६५३ ) । ३ रोगविशेष र अमिपरिमियस (हम्मीर Ra) Iv भमिअ देखो भमडिअ ( जी ४८ भवि ) । ३ न भ्रमण 'भमिश्रमणिकंत देहली देस' (गा ५२५) । भमिअ देखो भमाइअ ( पाच ) 1 भमिव्व । देखो भ्रम = भ्रम् । भमिआ मुहानी [] भौं, भाँख के ऊपर की रोम-राजी (पउम ३७, ५०; श्रीपः श्राचाः पान ) । भमिर वि [ भ्रमितृ] भ्रमण करनेवाला (हे भयंत देखो भय = = भज् २१४५ र १, ५५.१, १०) । मु[] नीचे देखो 'दीहाईहाई' (माचा २, १३, १०) भम्म | देखो भ्रम = भ्रम । भम्मइ ( प्राकृ भम्मड ( ६९), भम्मसु (गा ४१५; ४४७) । भम्मडइ (हे ४, १६१) । भम्मडेइ (कुमा) 1 भम्मर (अप) देखो भमर (पिंग ) 1 भय देखो भद वह देखो भयंत भदंत पाइअसद्दमद्दण्णवो भय क [ भज् ] १ सेवा करना । २ विकल्प से करना । ३ विभाग करना । ४ ग्रहण करना । भयइ, भद ( सम्म १२४; कुमा), भए भएजा (बृह १), भयंति ( विसे १६९०); 'तम्हा भय जीव वेरगं' (श्रु ६१ ) । वकृ. भयंत, भयमाण (विसे ३४४६ सूत्र १, २, २, १७) । कवकृ. 'सव्वत्तु भदमाणसुहेहिं ( कप ) । संकृ. भइत्ता (ठा ६) । कृ. भइअ, भइअव्व, भएयव्य, भज, भवणिज (विले ६१० २०४६ उत्त ३६, २३, २४, २५; कम्म ५, ११; विसे ६१५ उप ६०४ विसे ३२०२; ७४८ १८१३ जीवम १४५; पंच ५, ८० विसे ६१६; जीवस १४७ ) । - भय न [भय ] डर, त्रास, भीति (प्राचाः गाया १, १, गा १०२ कुमाः प्रासू १६; १७३ ) । "अर व ["कर] भव-जनक से ५४४० ११, ७५) जणणी श्री ["जननी] १ त्रास उत्पन्न करनेवाली (बृह १ ) । २ विद्याविशेष (पउम ७, १४१) । वाह पुं [वाह ] राक्षस वंश का एक राजा, एक लंका पति (पउम ५, २६३) भयंत देखो भंत = भगवत् (सूत्र १,१६, ६) । भयंत देशी भदंत (घोष ४८ २०, ११ औप ) 1 भयंत देखो भंत = भयान्त ( विसे ३४४९ ३४५३; ३३५४) । भयंत देखो भंत = भवान्त (विसे ३४५४; श्रौप ) 1 सरणः भय देवो भव (उचः कुमाः सह गुफा ४२०० भयालु वि [भीरु] मीर, डरपोक (३६, (दे गड) | १०७; नाट) । भय देखो भग (श्रपःपिंग) भयंकर वि [भयंकर ] १-जनकप (हे ४, ३३१, सरण; भवि ) । २ प्रारिण- वध, हिंसा (११) - भयंत वि [भयत्र ] भय से रक्षा करनेवाला ( औप: सूत्र १,१६, ६) भयंतु वि [भयत्रात्] भय से रक्षा करनेवाला ६४५ 'पम्ममादस्यले भयंतारों (सूम १, ४, १० २५) । भयं वि [भक्तृ] सेवक, सेवा करनेवाला (प्रोप) 1 भयक } पुं [भृतक ] १ नौकर, कर्मकर भयग १ (ठा ४, १३२) । २ वि. पोषित ( १, २ खाया १, २) भयण न [भजन] १ सेवा (राज) २ विभाग (सम्म ११३) १. लोभ (१, e, tr) भयण देखो भवण (नाट - चैत ४० ) । भणा स्त्री [भजना] १ सेवा (निचू १ ) । २ विकल्प (भगः सम्म १२४ दं ३१; उव) 1भयप्पइ ? देखो बहस्सइ (हे २, १३७; भयफइ षड् ) । For Personal & Private Use Only भयवग्गाम पुं [दे] मोढेरक, गुजरात का एक गांव (दे ६, १०२) । भयाणयवि [ भयानक ] भयंकर, भय-जनक (१२१) भयालि पुं [भयालि ] भारतवर्ष के भावी अठारहवें जिनदेव का पूर्व-भवीय नाम (सम १५४) । देखो सयालि । भयावण (अप) देखो भयाणय (भवि ) । भयावह व [भयावह ] भय-जनक, भय-कारक (सूत्र १,१३, २१) । भरसक [] १ भरना । २ धारण करना । ३ पोषण करना । भरइ (भवि पिंग), भरसु ( कम्म ४, ७६ ) । वकृ. भरंत ( भवि ) । कवक भरत, भरेंत, भरिज्जत ( से १, ५८४, ८ १ ३७) । संकु. भरेऊणं ( धाक ९) भरणिज, भरणीज, भाग्य, मरेजन्य (प्रात्र नाट राज से ६, ३) भरसक [स्मृ] स्मरण करना, याद करना । भरइ (हे ४, ७४ प्राप्र ) । वकृ. भरंत (२८१ भवि सं. भरिज, भरिऊर्ण (कुमा) । प्रयो, वकृ. भरावंत (कुमा) । भर न [भ] १ समूह, प्रकर, निकर जमव्यं वह एागिरखाव भीमारिद्भर Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ (प्रवि १२; सुपा ७; पाअ ) । २ भार बोझ ( से ३, ५ प्रासू २६; सा ९) । ३ गुरुतर कार्य 'भरणित्वरणसमस्या' (विये १६९ टी ठा ४, ४ टी –पत्र २८३ । ४ प्रचुरता, अतिशय । ५ कर राजदेय भाग की प्रचुरता, कर की गुरुताः ‘करेहि य भरेहि य (दिपा १, १६ पूर्णता, सम्पूर्णता 'इ चिताए नि निसिभरम्मि नरगाहों ( कुप्र ६) । ७ मध्य भाग ८ जमावट; 'भरमुवगए कोलापमोए; (स ५३० ) । भरअ देखो भरह (षड् ) भरड पुं [भारत] व्रती विशेष, एक प्रकार का भरिलट्ट वि [दे. भृतोल्लुठित ] भर कर भरडए बाबा 'सिवभवणाहिगारिया (सम्म १४५) खाली किया हुआ (दे ७, ८१; पाच) 1भरिमवि [भरिम] भर कर बनाया हुआ (अणु) । । । भरण न [स्मरण] स्मृति (गा २२२३७७) । भरण] [भरण] १ भरना, पूरना (गउड) २ पोषण (गा ५२७) । ३ शिल्प-विशेष, वस्त्र में बेल-बूटा यादि आकार की रचना; 'सीवर तुन्नणं भरणं' (गच्छ ३, ७ ) 1 भरणी श्री [भरणी] नक्षत्र विशेष (सम इक) 1 भरिया (घ) देखो भारिया (मा) - भरिली स्त्री [भरिली] चतुरिन्द्रियजन्तु - विशेष (राज) 1 भरध (शी) देखो भरह (प्राह ५ ) 1भरद्द पुं [भरत] १ भगवान् आदिनाथ का ज्येष्ठ पुत्र और प्रथभ चक्रवर्ती राजा (सम ६० कुमाः सुर २, १३३) । २ राजा रामचन्द्र का छोटा भाई ( पउम २५१४) । ३ नाट्य शास्त्र का कर्त्ता एक मुनि (सिरि ५६) । ४ वर्ष विशेष, भारत वर्ष 'इहेव जंबुद्दीवे दीवे सत्त वासा पन्नत्ता, तं जहा - भरहे हेमवए हरिवासे महाविदेहे रम्मए एरएनए एमए (सम १२ मे १६ पदि ५ भारतयर्थं का प्रथम भावी चक्रवर्ती (सम १५४) । ६ शबर । ७ तन्तुवाय नृपविशेष, राजा दुष्यन्त का पुत्र । εभरत के वंशज राजा । १० नट ( हे १, ११४; षड् ) । ११ देव - विशेष (जं ३ ) । १२ कूट - विशेष, पर्वत-विशेष का शिखर (जं ४; ठा २, ३; १) खित्तन [क्षेत्र] भारतवर्ष (सस) । 'वास न [ वर्ष ] भारतवर्षं, श्रावर्त्त (पह १, ४) सत्थन [ "शास्त्र] भरतमुनिप्रणीत नाट्यशास्त्र (सिरि ५६ ) त्रिपुं [धिप] १ संपूर्ण भारतवर्ष का राजा पाइअसद्दमहणव भल्लय चक्रवर्त्ती । २ भरत चक्रवर्ती (सण) हिवह भल्ल [धिति] वही अर्थं (सण) । भरहेसर [भरतेश्वर ] १ संपूर्ण भारत का राजा, चक्रवर्त्ती । २ चक्रवर्ती भरत (कुमा २, १७ डि भरिअ वि [मृत, भरित] भरा हुआा, पूर्णं, व्याप्त ( विपा १, ३ श्रपः धर्मवि १४४; का १७४ हेका २७२३ प्रासू १० ) । भरिअवि [स्मृत] याद किया हुआ, 'भरि लुढिनं सुमरिअं (पान कुमाः भवि ) । - भरु पुं [भरु] १ एक अनार्यं देश । २ एक अनायं मनुष्य जाति (इक) 1 भरुअच्छ पुं [भृगुकच्छ ] गुजरात का एक प्रसिद्ध शहर जो आजकल 'भड़ौच' के नाम से प्रसिद्ध है (काल मुनि १०८६६; पडि ) । भरोच्छय न [दे] ताल का फल (दे ६, १०२) भल देखो भर = स्मृ । भलइ (हे ४, ७४) । प्रयो., वकृ. भलावंत (कुमा) । भल सक [भ] सम्हालना भतिजा (सुपा ५४६ ) । भवि. भलिस्सामि (काल) । क. भलेयव्य (मोष १०६) प्रयो संभलाविण (सिरि ११२ ११९) । - भसंत [ि] स्खलित होता, गिरता (६, (दे १०१ ) 1 भलाविअ वि [भालित ] सौंपा हुमा, सम्हालने के लिये दिया हुआ (श्रा १६) । - भलि पुंस्त्री [दे] कदा ग्रह हठ; 'असुलहमेच्छण जामति तेन र ४१५३ चंड) भल्ल पुं [भल्ल] १ भालू, रीछ ( परह १, १ ) । २ पुंन. प्रत्र विशेष, भाला, बरछी (गा ५०४ ५८५: ५६४) । For Personal & Private Use Only भरअ - भव [भद्र] मा उत्तम श्रेष्ठ, अच्छा (कुमा; हे ४, ३५१; भवन [व] भलमनसी, भलाई (कुमा)। भलय [भ] देखो भएन उप भल्ल = भल्ल ( पृ ३०; सण श्रावम) | भल्लाअय पुं [भल्लात, क] १ वृक्षभल्लातक - विशेष, भिलावा का पेड़ (परण भल्लाय J १० दे १,२३) । २ न. भिलावा का फल (दे १, २३५, २६; पात्र ) । भल्लि स्त्री [भल्लि] देखो भल्ली (कुमा) । भल्लिम पुंत्री [भद्रत्व] भलाई, भद्रता (सुपा १२३३ कु १०८ ) 1 भही श्री [भी] माला, बरखी (सुर २, २८ कुप्र २७४; सुपा ५३० ) । [भी] [] भारी (२६,११) भल्लुंकी स्त्री [दे] शिवा, शृगाली (दे ६, १०१ सण); भल्लुंकी रुट्टिया विकट्ट ती ( संचा ६६ ) । लोड न [दे] बाण का पुंख, शर का अ भाग, गुजराती में 'भालोडु'; 'कन्नायड्डियहपदी संभलोडा' (सुर २, ७) । भव अक [ भू] १ होना। २ सक. प्राप्त करना । भवइ भवए (कप्पः महा), भए ( भगः ठा ३, १ ) । भूका. भविसु (भग) । भवि भविस्सा, भविस्सं (कप्प भग; पि ५२१) । वकृ. भवंत (गउड ५८८), 'भूयभाविभा (भ) वमाण भाविही ( कुप्र ४३७ ) । संभविअ, भविता भवित्ताणं (भि ५७ कप्पः भगः पि ५८३), भइ (अप), (पिंग). भवियज्य (खाया १, १ सुर ४, २०७: उवः भग, सुपा १६४) । देखो भव्व । भव पुं [भव ] १ संसार (ठा ३, १० उवा भगः विपा २, १ कुमाः जी ४१ ) । २ संसार का कारण ( सम्म १ ) । ३ जन्म, उत्पत्ति (ठा ४, ३) । ४ नरकादि योनि, जन्मस्थान (प्राचा; ठा २, ३, ४, ३) । ५ महादेव, शिव (पा) वि.नेवाला, भावो ( अ १) । ७ उत्पन्न 'करणयपुरं नामे तत्थ भवो है महाभाग !' (सुपा ५८४) । ८ न. देव-विमान- विशेष (सम २) ५ जण Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव-भा पाइअसहमहण्णवो ६४७ वि ["जिन] रागादि को जीतनेवाला; सासणं भवाणी स्त्री [भवानी] शिव-पत्नी, पार्वतो 'पज्जत्तापज्जत्ता सुहमा किचहिया भव्यजिणाणं भवजिणाणं (सम्म १). "ट्ठिइ | (पाभ; समु १५७)। कंत पुं[कान्त] सिद्धीया' (पंच २, ७८)। स्त्री [स्थिति] १ देव भादि योनि में उत्पत्ति महादेव (पिंग)। भव्व पु [दे] भागिनेय, भानजा (दे ६, की काल-मर्यादा (ठा २, ३)। २ संसार में भवारिस वि [भवादृश] तुम्हारे जैसा, | १००)। अवस्थान (पंचा १)। थ वि [स्थ | मापके तुल्य (हे १, १४२; चंड; सुपा | भस सक [भष् ] भूकना, श्वान का बोलना । संसार में स्थित (ठा २, १)। थकेवलि | २७३) भसइ (हे ४, १८६; षड्-पत्र २२२), वि [स्थकेवलिन जीवन्मुक्त (सम्म ८९)- भवि [भविन] भव्य जीव, मुक्ति-गामी | भसंति (सिरि ६२२)। धारणिज्ज न [धारणीय] जीवन-पर्यन्त | प्राणी (भवि) । भसग पुं[भसक] एक राज-कुमार, श्रीकृष्ण संसार में धारण करने योग्य शरीर (भगः भविअ देखो भव = भू । के बड़े भाई जरत्कुमार का एक पौत्र (उव) । इक) पञ्चइय वि [ प्रत्ययिक] १ | भविअ वि [भव्य] १ सुन्दर (कुमा)। २ भसण देखो भिसण । भसणेमि (पि ५५६) नरकादि-योनि-हेतुक । २ न. अवधिज्ञान का श्रेष्ठ, उत्तम (संबोध १)। ३ मुक्ति-योग्य, | भसण न [भषण] १ कुत्ते का शब्द (श्रा एक भेद (ठा २, १; सम १४५), 'भूइ मुक्ति-गामी (पएण १; उव)। ४ भावी, | २७)। २ पुं. श्वान, कुत्ता (पाय; सिरि पुं[भूति] संस्कृत का एक प्रसिद्ध कवि होनेवाला (हे २, १०७, षड्)। देखो ६२२)। ( गउड)। सिद्धिय, 'सिद्धीय वि भव्य = भव्य । भसणअ (अप) वि [भषित] भूकनेवाला, [सिद्धिक] उसी जन्म में या बाद के किसी भविअ वि [भविक] १ मुक्ति-योग्य, मुक्ति- 'सुणउ भसराउ' (हे ४, ४४३)। जन्म में मुक्त होनेवाला, मुक्ति-गामी (सम २; गामो । २ संसारी, संसार में रहनेवाला (सुर भसम [भस्मन्] १ ग्रह-विशेष, 'भसपएण १८ भग; विसे १२३०; जीवस ७५ | ४,८०) । मग्गहपीडियं इमं तित्य (सट्ठि ४२ टी)। श्रावक ७३, ठा , विसे १२२६)। °भविअ वि [भविक] भव-संबन्धी (सण)। २ राख, भभूत; 'भसमुधुलियगत्तो (महाः भिणंदि, भिनंदि, हिनंदि वि भवित्ती स्त्री [भवित्री] होनेवाली (पिंग)। सम्मत ७६)। देखो भास-भस्मन् । [भिनन्दिन] संसार को पसंद करनेवाला, भवियव्व देखो भव = भू। भसल देखो भमर (हे, १, २४४, २५४; संसार को अच्छा माननेवाला (राज; संबोध ८५३) क्ग्गाहि न [ोपमाहिन] भवियव्वया स्त्री [भवितव्यता] नियति, | कुमाः सुपा ४, (पिंग)। अवश्यंभावी, होनी (महा)। कर्म-विशेष (धर्मसं १२६१)। | भसुआ स्त्री [दे] शिवा, शृगाली, सियारिन (द ६, १०१ पास)। भव देखो भव्य (कम्म ४, ६)।भविल वि [भविल] निष्ठुर (दश० अगस्त्य भसुम देखो भसम (प्राकृ ३७)। भव पुं[भवत् ] तुम, आप (कुमा; चू० पत्र० १६८, सूत्र३२६) । भवंत हे २, १७४) - भसेल्ल पुन [दे] धान्य आदि का तीक्ष्ण अग्र भविस (अप) देखो भवीस । त्त, यत्त पुं भवंत देखो भव = भू । भाग, ‘सालिभसेल्लसरिसा से केसा' (उवा)।| [ दत्त] एक कथा-नायक (भवि)।भव (अप) भम = भ्रम् । भवंइ (सण)। भविस्स पु [भविष्य] १ भविष्य काल, भसोल न [दे. भसोल] एक नास्य-विधि वकृ. भक्त (भवि) । संकृ. भवित्तु (सण) (राज)। मागामी समय (पउम ३५, ५६; पि ५६०)। भस्थ (मा) देखो भट्ट ( षड् )।भवण (अप) देखो भमण (भवि)। २ वि. भविष्य काल में होनेवाला, भावी भस्थालय (मा) देखो भट्टारय (षड्)। भमण न [भवन] १ उत्पत्ति, जन्म (धर्मस (णाया १,१६-पत्र २१४, पउम ३५, भस्स देखो भंस = भ्रश् । भस्सइ (प्राकृ १७२)। २ गृह, मकान, वसति (पात्र; ५६; सुर १, १३५, कप्पू)। ७६)। वकृ. भस्संत (काल)। कुमा)। ३ असुरकुमार आदि देवों का भवीस (अप) ऊपर देखो (भवि) | भस्स पुं[भस्मन्] १ ग्रह-विशेष । २ राख विमान (परण २)। ४ सत्ता (विसे ६६) भव्व वि [भव्य] १ सुन्दर, 'सव्वं भव्वं (हे २,५१) वइ पुं [पति] एक देव-जाति (भग)। करिस्सामि' (सुपा ३३६)। २ उचित, योग्य भस्सिअ वि [भस्मित] जलाकर राख किया वासि पुं [वासिन्] वही पूर्वोक्त प्रर्थ (विसे २८; ४४)। ३ श्रेष्ठ, उत्तम (वज्जा हुआ, भस्म किया हुपा (कुमा)। (ठा १०, औप) वासिणी स्त्री [°वासिनी] १८)। ४ होता, वर्तमानः ‘एवं भूयं वा भा अक [भा] चमकना, दीपना, प्रकाशनाः देवी विशेष (पएण १७; महा ६८, १२) भगवं वा भविस्सं वा' (णाया १, १६-पत्र | 'भा भाजो वा दित्तीए' (विसे ३४४७)। हिव पुं[धिप] एक देव-जाति (सुपा २१४, कप्पा विसे १३४२)। ५ भावी, | भाइ (कप्पू), भासि (गउड)। वकृ. देखो ६२०) होनेवाला (विसे ५८ पंच २, ८)। ६ भंत = भात् । भवमाण देखो भव = भू मुक्ति-योग्य, मुक्ति-गामी (विसे १८२२ ३ | भा श्री [भा] दीप्ति, प्रभा, कान्ति, तेज भवर देखो भमर (चंड) ४५.दं १)। सिद्धीय देखो भव-सिद्धीय; (कुमा)। मंडल पू[मण्डल] राजा जनक For Personal & Private Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ पाइअसहमहण्णवो भा-भाणि का पुत्र (पउम २६, ८७)4 वलय न भाइअ वि [भीत] १ डरा हुमा। २ न. (राज)। ६ अवकाश (सुज्ज १०, ३-पत्र [वलय जिन-देव का एक महाप्रातिहार्य, ___ डर, भय (हे ४, ५३) १०४) धेअ, 'धेज हेअ देखो भाअपीठ के पीछे रखा जाता दीप्ति-मंडल (संबोध भाइणिज्ज) पुंस्त्री [भागिनेय] भगिनी-पुत्र, हेअ (पउम ६, ५७, २८, ८६ स १२, २. सिरि १७७)।। भाइणेअ बहिन का लड़का, भानजा (धम्म सुर १४, ६ पात्र)। देखो भाअ = भाग ।। भाइणेज्ज। १२ टी; नाट-रत्ना ८५स भामक [भी] डरना, भय करना। भाइ, भागवय वि [भागवत] १ भगवान से संबन्ध भाअभाइ, भामामि (हे ४, ५३; षड्: २७०, णाया १, ५-पत्र १३२, पउम रखनेवाला। २ भगवान् का भक्त (धर्मसं महा; स्वप्न ८०), भादि (शौ) (प्राकु ६३), ६६, ३६ कुप्र ४४०; महा)। स्त्री. जी ३१२) । ३ न. ग्रंथ-विशेष (णंदि)। भायइ (सण)। भवि. भाइस्सदि, भाइस्सं (पउम १७, ११२)। भाइयव्व देखो भा = भी। (शौ) (पि ५३०) । वकृ. भायंत (कुमा)। भागि वि [भागिन्] १ भजनेवाला, सेवन कृ. भाइयव्व (पण्ह २, २, स ५६२, भाइर वि [भीरु] डरपोक (दे ६, १०४) करनेवाला; 'भारस्स भागी' (उव), 'कि पुण माइर वि[भारु] डरपाक (द६, १०४) मरणंपि न मे संजायं मंदभग्गभागिस्स' (सुपा भाइल्ल पुंदे हालिक, कर्षक, कृषीबल, (सुपा ४१) भाअ देखो भा= भा। भाअदि (शौ) किसान (दे ६, १०४) ५४७) । २ भागीदार, साझीदार, अंश-ग्राही (प्राकृ ६३) भाइल्ल वि [भागिन्, क] भागीदार, (प्रामा)। भाअ सक [भायय] डराना। भाइ, साझीदार, अंश-ग्राही (सूत्र २, २, ६३; भागिणेज। देखो भाइणेज (महाः कुप्र भाएइ (प्राकृ ६४), भाएसि (कपूर २४)। भागिणेय । ३७१)। पएह १,२,ठा ३, १-पत्र ११३ णाया वकृ. भायमाग (सुपा २४८)। १, १४)। देखो भागि। भागीरही देखो भाईरही (पास)। भाअ देखो भाव =भावय । कृ. भाएअव्व भाइहंड न [दे. भ्रातृभाण्ड] भाई, बहिन भाज प्रक [भ्राज] चमकना। वकृ. (नव २५)। आदि स्वजन: गुजराती में 'भांवड' (कुप्र भाजंत, भंत (विसे ३४४७)। भाअ [भाग १ योग्य स्थान। २ एक १५६)। भाड पुन [दे] भाड़, वह बड़ा चूल्हा जहाँ देश (से १३, ६)। ३ अंश, विभाग, हिस्सा भाईरही स्त्री [भागीरथी] गंगा नदी (गउड; अन्न भुना जाता है, भट्ठी: 'जाया भाडसमाणा (पामा सुपा ४०७, पव-गाथा ३०; उवा)। हे ४, ३४७ नाट-विक्र २८) ४ भाग्य, नसीब (साधं ८०) मग्गा उत्तत्तवालुया अहिय' (धर्मवि १०४; भाउ घेअ, पुं [भ्रात] भाई, बन्धु (महा; भाउअसुर ३, ८८ पि ५५, हे १,१३१ सण)। हेअ पुन [धेय] १ भाग्य, नसीब (से उव) / जाया, जाइया स्त्री [जाया] | भाडय न [भाटक] भाड़ा, किराया (सुर , ११, ८५; स्वप्न ५१; हम्मीर १४७ अभि भौजाई, भाई की स्त्री (दे ६, १०३; सुपा | १५७)। १९७)। २ कर, राज-देय । ३ दायाद, २६४)। भाडिय वि [भाटकित] भाड़े पर लिया भागीदार; 'भाअहेप्रो, भामहेनं (प्राकृ ८८ भाउअ देखो भाअ%=(दे) (दे ६,१०२ टी)। नाट-चैत ६०)। देखो भाग। हुआ, 'बोहित्थं भाडियं वियर्ड' (सुर १३, भाउअन [दे] आषाढ़ मास में मनाया । ३५)। भाअ [दे] ज्येष्ठ भगिनी का पति (दे ६, जाता गौरी-पार्वती का एक उत्सव (दे | १०२)। भाडिया। स्त्री [भाटिका, 'टी] भाड़ा, भाअ देखो भाव (भवि) भाडी शुल्क, किराया; 'एक्काण देइ भाआव देखो भाअ = भायय । भानावेइ भाउग देखो भाउ (उप १४६ टी; महा)। भाडि अन्नाहिं समं रमेइ रयणीए', 'विला भाउज्जा स्त्री [दे] भौजाई, भाई की पत्नी सिणीए दाऊण इच्छियं भाडि' (सुपा ३८२; (प्राकृ ६४) भाइ देखो भागि; 'सारिव्व बंधवहमरणभाइयो ३८३; उवा) । कम्म न [कर्मन्] बैल, जिण ण हुति तइ दि?' (धरण ३२, उप भाउराअण पुं [भागुरायण] व्यक्ति-वाचक गाड़ी मादि भाड़े पर देने का काम-धन्धा: ६८६ टी)। नाम (मुद्रा २२३) 'भाडियकम्म' (स ५० था २२: पडि)। भाइ । [भ्रातृ भाई, बन्धु (उप ५१६) भाएअव्व देखो भाअ = भावय। भाण देखो भण= भण्। संकृ. भाणिऊण, भाइअ महा प्रावम)। "बीया स्त्री [द्वि- भाग [भाग १ अंश, हिस्सा (कुमाः जी | भाणिऊणं (पिंड ६१५, उव)। कृ. तीया] पर्व-विशेष, भैयादूज, कार्तिक शुक्ल २७ दे १, १६७)। २ अचिन्त्य शक्ति, भाणियब्व (ठा ४, २, सम ८४ भगः द्वितीया तिथि (ती १९) सुअ पु[सुत] प्रभाव, माहात्म्यः 'भागोचिंता सत्ती स महा- उवा: कप्पा औप) . भतीजा (सुपा ४७०)। देखो भाउ । भागो महप्पभावो ति (विसे १०५८)। ३ | भाण देखो भायण (मोघ ६६५, हे १, भाइअ वि [भाजित] १ विभक्त किया हुआ) पूजा, भजन (सूत्र १, ८, २२)। ४ भाग्य, | २६७. कुमा)। बाँटा हुआ (पिड २०८)। ३ खण्डित नसीबः 'धन्ना कयपुन्ना हं महंतभागोदमोवि भाणिअ वि [भाणित] १ पढ़ाया हुमा, (पंच २, १०) | मह प्रत्थि (सिरि ८२३)। ५प्रकार, भंगी। पाठितः 'नाणासत्थाई भारिणमा' (रयण For Personal & Private Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाणु-भाव पाइअसहमहण्णवो ६४६ ६८)। २ कहलाया हुआ: 'मयणसिरिनामाए भायण न [भाजन] आकाश, गगन (भग मुनि-प्रणीत नाट्य-शास्त्र (अणु)। ५ वि. रनो भज्जाए भारिणो मंती' (सुपा ५८७) २०, २---पत्र ७७६)। भारतवर्ष-सम्बन्धी, भारतवर्ष का (ठा २, भाणु पुं[भानु] १ सूर्य, रवि (पउम ४६, भायणंग पुं[भाजनाङ्ग] कल्पवृक्ष की एक ३-पत्र ६९), 'तत्थ खलु इमे दुवे सूरिया ३६, पुप्फ १६४, सिरि ३२)। २ किरण जाति, पात्र देनेवाला कल्पवृक्ष (पउम १०२, . पन्नत्ता, तं जहा-भारहे चेव सूरिए, एरवए (प्रामा) । ३ भगवान धर्मनाथ का पिता, एक १२०) । चेव सूरिए' (सुज्ज १, ३)। खेत्त न राजा (सम १५१) । ४ स्त्री. एक इन्द्राणी, भायणिज देखो भाइणिज (धर्मवि १२ | [क्षेत्र] भारतवर्ष (ठा २, ३ टी-पत्र शक्र की एक अग्र-महिषी (पउम १०२, काल) १५६)। कण्ण पुं [कर्ण] रावण का भारहिय वि [भारतीय] भारत-संबन्धी. भायमाण देखो भा एक अनुज (पउम ७, ९७)। मई स्त्री = भायय । 'जा भारहियकहा इव भीमज्जुणनउलसउणि[मती] रावण की एक पत्नी (पउम ७४, भायर देखो भाउ (कुमा)। सोहिल्ला' (सुपा २६०)। १०)। मालिणी [ मालिनी] विद्या-विशेष भायल पुं[दे] जात्य अश्व, उत्तम जाति का | | भारही स्त्री [भारती] १ सरस्वती देवी (पि (पउम ७, १३६)। "मित्त न ["मित्र] घोड़ा (दे ६, १०४ पाप्र)। २०७)। २ देखो भारई (स ३१६) । उज्जयिनी के राजा बलमित्र का छोटा भाई भार पुं[भार] १ बोझा, गुरुत्व (कुमा)। भारिअ वि[भारिक भारी, भारवाला, गुरु (कालः विचार ४६४), 'वेग पुं ["वेग] २ भारवाली वस्तु, बोझवाली चीज (श्रा । (दे ४, २: गाया १, ६ पत्र-११४)। एक विद्याधर का नाम (महा सण)+ सिरी ४०)। ३ काम संपादन करने का अधिकार | भारिअ विभारित] १ भारवाला, भारी स्त्री ["श्री] राजा बलमित्र की बहिन (काल)। 'भारक्खमेवि पुत्ते जो नियभारं ठवित्तु नियपुत्ते, (उप पृ १३४)। २ जिस पर भार लादा भाम देखो भमाड = भ्रमय । भामेइ (हे ४, न य साहेइ सकज्ज़' (प्रासू २७)। ४ परिमाण-विशेष; 'लाउनबी इक्कं नासइ भार गया हो वह, भार-युक्त किया गया (सुख ३०) । कवकृ. भामिजंत (गा ४५७) । कृ. २,२५) भामेयव्व (ती ७)। गुडस्स जह सहसा' (प्रासू १५१)। ५ परिग्रह, . - भारिआ देखो भन्जा (हे २, १०७ उवा भामण न भ्रामण] घुमाना, फिराना (सम्मत्त धन-धान्य आदि का संग्रह (पएह १, ५) | णाया २)। १७४) । 'ग्गसो अ[प्रशस् ] भार भार के परिमाण भारिल्ल वि [भारवत् ] भारी, बोझवाला भामर न [भ्रामर] १ मधु-विशेष, भ्रमरी का सेः 'दसद्धवन्नमल्लं कुम्भग्गसो य भारग्गसो (धर्मवि १३७) । बनाया हुमा मधु (पव ४)। २ पुं. दोधक य' (णाया १, ८-पत्र १२५) वह वि छन्द का एक भेद (पिंग)। [वह] बोझा ढोनेवाला (था ४०) वह भारुड [भारुण्ड] दो मुंह और एक शरीर भामरी स्त्री [भ्रामरी] १ वीणा-विशेष वि [वह] वही अर्थ (पउम ६७, २६)। वाला पक्षी, पक्षि-विशेष (कप्पा औप; महा: (णाया १, १७-पत्र २२६)। २ प्रदक्षिणा भारई स्त्री [भारती] भाषा, वाणी, वाक्य, भाल न [भाल] ललाट (पापः कुमा)। (कप्पू: भवि)। वचन (पान)। देखो भारही।। भारदाय । न [भारद्वाज १ गोत्र-विशेष, भलुंकी [दे] देखो भल्लुकी (भत्त १६०)। भामिअ वि[भ्रमित] १ घुमाया हुमा (से २, ३२)। २ भ्रान्त किया हुआ, भ्रान्त-चित्त भारदाय । जो गोतम गोत्र की एक शाखा | भाल्ल पुंन [दे] मदन-वेदना, काम-पीड़ा किया हुआ; 'धत्तूरभामिनो इव' (मन २७) है (कप्प; सुज्ज १०, १६) । २ पुं. भारद्वाज (संक्षि ४७)। धर्मवि २३)। गोत्र में उत्पन्न: 'जे गोयमा ते गग्गा ते भारद्दा भाव सक [भावया१वासित करना, गुणाभामिणी स्त्री [भागिनी] भाग्यवाली (हे (? दाया); ते अंगिरसा' (ठा ७-पत्र | धान करना। २ चिन्तन करना। भावेइ १, १६०; कुमा) ३६०)। पक्षि-विशेष (प्रोधमा ८४) । ४ (विवे ९८), भाविति (पिंड १२६), 'भावेज्ज भामिणी स्त्री [भामिनी] १ कोप-शीला स्त्री। मुनि-विशेष (पि २३६; २६८ ३६३) भावणं' (हि १९), भावेसु (महा)। कर्म. २ स्त्री, महिला (श्रा १२; सुर १, ७६; सुपा भारय देखो भार (सुपा १४, ३८५)। भाविज्जइ (प्रासू ३७)। वकृ. भावेत, ४७५, सम्मत्त १९३)। भारह न [भारत] १ भारतवर्ष, भरत-क्षेत्र भावमाण, भावेमाण (सुर ८, १८५; सुपा भाय देखो भाउ (कुमा)। (उवा); 'जहा निसते तवणचिमाली पभासई २६५, उवा)। संकृ. भावेत्ता, भाविऊण भायंत देखो भा - भी। केवलभारहं तु (दस ६, १, १४)। २ (उवाः महा)। कृ. भावणिज, भावियव्व, भायण पुन [भाजन] १ पात्र । २ प्राधार । पाण्डव कौरवों का युद्ध, महाभारत (पउम भारत भावेयव्य (कप्पू काल: सुर १४, ८४) ३ योग्य; 'भायणा, भायणाई' (हे १, ३३; १०५, १६) । ३ ग्रंथ-विशेष, जिसमें पाण्डव- भाव प्रक [भास्] १ दिखाना, लगना, २६७), "ति चिय धन्ना ते पुनभायणा, ताण कौरव युद्ध का वर्णन है, व्यास-मुनि-प्रणीत | मालूम होना । २ पसन्द होना, उचित मालूम जीवियं सहलं' (सुपा ५६७; कुमा) महाभारत (कुमाः उर ३, ८)। ४ भरत । होना; For Personal & Private Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० पाइअसहमहण्णवो भाव-भास 'सो चेव देवलोगो देवसहस्सोवसोहियो रम्मो। [संयत] सञ्चा, साधु (उप ७३२) साहु पवासदुहिया मिलाएई' (सुपा ९), 'एत्यंततुह विरहियाइ इरिह भावइ नरपोवमो मझ। पुं[साधु] वही अर्थ (भग)। सव पुं रम्मि भाविरनियपिउगुरुविरहग्गिदूमियमणेण (सुर ७, १६)। [स्रव] वह प्रात्म-परिणाम, जिससे कर्म । (सुपा ७५)।। 'तं चिय इमं विमारणं रम्म का प्रागमन हो; 'पासवदि जेण कम्मं परि- भाविल्ल वि [भाववत् ] भाव-युक्त, पण___मणिकरणगरयणविच्छुरियं । | पामेणप्पणो स विएणेमो भावासवो' (द्रव्य वीसं भावणा भाविल्लो पंचमरम्बयाई' तुमए मुक्कं भाव २६) (संबोध २४)। घडियालयसच्छई नाह।' भाव भाव] महान् वादी, समर्थ विद्वान | भाविस्म देखो भविस्स; 'भाविस्सभूयपभवंत(सुर ७, १७)। (दस १,१टी)। भावपालोयलोयणं विमल' (सुपा ८६)।। भावअ विभावक होनेवाला (प्राकृ ७०)। 'एम्वहिं राहपोहरहं जं भावइ तं होउ भावुक वि [दे] वयस्य, मित्र (संक्षि ४७)। देखो भावग। (हे ४, ४२०)। भावुगा वि [भावुक] अन्य के संसर्ग की भावइआ स्त्री [दे] धार्मिक-गृहिणी (दे ६, भाव पुं[भाव १ पदार्थ, वस्तु: 'भावो वत्यु भावुय जिस पर असर हो सकती हो वह पयत्थो (पाप विसे ७०; १६६२)। २ वस्तु (मोघ ७७३, संबोध ५४)।" भावग वि [भावक वासक पदार्थ, गुणाधायक अभिप्राय, प्राशय (प्राचाः पंचा १, १; प्रासू भास सक [भाष ] कहना, बोलना। भासइ, वस्तु (प्राचू ३)। देखो भाव।। ४२)। ३ चित्त-विकार, मानस विकृतिः | भासंति (भगः उव)। भवि. मासिस्सामि भावड पुं[भावक स्वनाम-ख्यात एक जैन 'हावभावपललियविक्खेवविलाससालिणीहि (भग)। वकृ. भासंत, भासमाण (मौपा गृहस्थ (ती २) (पएह २, ४-पत्र १३२) । ४ जन्म, भगः विपा १, १)। कवकृ. भासिज्जमाण उत्पत्ति; पिंडो कज्जं पइसमयभावाउ' (विसे भावण पुं [भावन] १ स्वनाम-सयात एक (भगः सम ६०)। संकृ. भासित्ता (भग)। ७१)M५ पर्याय, धर्म, वस्तु का परिणाम, वणिक् (पउम ५, ८२)। २ नीचे देखो कृ. भासिअव्व (भगः महा)। द्रव्य को पूर्वापर अवस्था (पण्ह १, ३, (संबोध २४: वि ६)। भास मक [भास्] १ शोभना । २ लगना, उत्त ३०, २३; विसे ६६; कम्म ४, १; भावणा स्त्री [भावना] १ वासना, गुणाधान, | मालूम होना । ३ प्रकाशना, चमकना । भासइ ७०)। ६ धात्वर्थ-युक्त पदार्थ विवक्षित किया संस्कार-करण (प्रौप)। २ अनुप्रेक्षा, चिन्तन । (हे ४, २०३), भासए, भासंति, भाससि का अनुभव करनेवाली वस्तु, पारमार्थिक ३ पर्यालोचन (प्रोघभा ३; उवः प्रासू ३७)। (मोह २६; भत्त ११०; सुर ७, १६२)। पदार्थ (विसे ४६)।७ परमार्थ, वास्तविक सत्य भावि वि [भाविन्] भविष्य में होनेवाला वकृ. भासंत (अच्नु ५४)।। (विसे ४६)। ८ स्वभाव, स्वरूप (अणुः णंदि)। (कुमा; सण)। . भास सक [ भीषय] डराना। भासइ (धात्वा ६ भवन, सत्ता (विसे ६०गउड ९७८)। भाविअ वि [दे] गृहीत, उपात्त (दे ६, १४७)।१० ज्ञान, उपयोग (प्राचू १; विसे ५०)। १०३)। ११ चेष्टा (णाया १, ८)। १२ क्रिया, भाविअ न [भाविक भास पुं[भास] १ पक्षि-विशेष (पएह १, एक देव-विमान (सम धात्वर्थ (अणु)। १३ विधि, कर्तव्योपदेशः १; दे २,६२)। २ दीप्ति, प्रकाश; 'नाव'भावाभावमणंता' (भग ४१-पत्र ९७६)। रिजइ कयावि। उकोसावरणम्मिवि जलभाविअ वि [भावित] १ वासित (पएह २, १४ मन का परिणाम (पंचा २, ३३; उवः यच्छन्नकभासो ब्व' (विसे ४६८ भवि)। ५; उत्त १४, ५२: भग; प्रासू ३७)। २ कुमा ७, ५५)। १५ अन्तरंग बहुमान, प्रेम, भाव-युक्त; 'जिणपवयणतिव्वभावियमइस्स' भास पुं [भस्मन्] १ ग्रह-विशेष, ज्योतिष्क राग (उव; कुमा ७,८३८५)। १६ भावना, (उव)। ३ शुद्ध, निर्दोष (बृह १) प देव-विशेष (ठा २, ३; विचार ५०७)। २ चिन्तन (गउड १२०४० संबोध २४)। १७ वि [मन्] १ वासित अन्तःकरणवाला भस्म, राख (णाया १, १; पण्ह २, ५)। नाटक की भाषा में विविध पदार्थों का चिन्तक (प्रौप; णाया १,१)। २ . मुहूर्त-विशेष, 'रासि पुं [ राशि ग्रह-विशेष (ठा २, ३; पण्डित (अभि १८२)। १८ प्रात्मा (भग १७, अहोरात्र का तेरहवाँ या अठारहवाँ मुहूर्त ३) । १६ अवस्था, दशा (कप्पू) केउ पुं (सुज १०, १३, सम ५१) पा स्त्री भासन [भाष्य] व्याख्या-विशेष, पद्य-बद्ध [ केतु] ज्योतिष्क देव-विशेष, महाग्रह-विशेष | [rमा] भगवान् धर्मनाथ की मुख्य शिष्या टीका (चैत्य १; उप ३५७ टी; विचार ३५२; (ठा २, ३) त्थ पुं [र्थ] तात्पर्य, (सम १५२) सम्यक्त्वो ११) रहस्य (स ६) न °न्नुय वि [s] भाविंदिअ न [भावेन्द्रिय] उपयोग, ज्ञान भास देखो भासा (कुमा) + अणु वि [] अभिप्राय को जाननेवाला (माचाः महा)M (भग)। भाषा के गुण-दोष का जानकार (धर्मसं 'पाण पुं [ प्राण ] ज्ञान प्रादि प्रात्मा भाविर वि [भाविन, भवित] भविष्य में ६२५) व वि[वत् ] वही अर्थ (सूम का अन्तरंग गुण (पएण १), संजय | होनेवाला, अवश्यंभावी; 'मम्हं भाविरदीहर- १, १३, १३)।। For Personal & Private Use Only Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ, भासुरभटमासुरित] देवी भासग-भिंद पाइअसहमहण्णवो भासग वि [भाषक] बोलनेवाला, वक्ता, भासिर वि [भास्वर] दीप्त, देदीप्यमान | भिउव्व पु [भार्गव] भृगु मुनि का वंशज, प्रतिपादक (विसे ४१०; पंचा १८, ६ ठा (कुमा)। परिव्राजक-विशेष (प्रौप)। २, २-पत्र ५९) भासिल्ल वि [भाषावत् ] भाषा-युक्त, भिंग विदे] कृष्ण, काला (दे ६, १०४)। भासण न [भासन] चमक, दीप्ति, प्रकाश; वाणी-युक्त (उत्त २७, ११)। २ नील, हरा । ३ स्वीकृत ( षड् )।'वरमल्लिभासणाण' (प्रौप) । भासीकय वि [भस्मीकृत] जलाकर राख भिंग भृिङ्ग] १ भ्रमर. मधुकर (पउम भासण न [भाषण] कथन, प्रतिपादन किया हुया (उप ९८६ टी)। ३३, १४८; पाप्र)। २ पक्षि-विशेष (पएण (महा)। भासंड प्रक[दे] बाहर निकलना। भासुंडइ १७-पत्र ५२६)। ३ कोट-विशेष । ४ भासणया) श्री [भाषणा] ऊपर देखो (उप (दे ६, १०३ टी)। विदलित अंगार, कोयला (पाया १,१भासणा ५१६; विसे १४७; उव) भासुंडि स्त्री [दे] निःसरण, निर्गमन (दे ६, पत्र २५; प्रौप)। कल्पवृक्ष की एक जाति भासय देखो भासग (विसे ३७४; परण (सम १६)। ६ छन्द-विशेष (पिंग)। ७ जार, भासुर वि [भासुर] १ भास्वर, दीप्तिमान्, उपपति । ८ भांगरा का पेड़ । ६ पात्र-विशेष, भासय वि [भासक] प्रकाशक (विसे चमकता (सुर ६,१८४; सुपा ३३; २७२; झारी (हे १, १२८) "णिभा स्त्री [निभा] भासल वि [दे] दीप्त, प्रज्वलित (दे ६, कुप्र६०; धर्मसं १३२६ टी)। २ घोर एक पुष्करिणी (इक)पमा स्त्री/प्रभा] भीषण, भयंकर; 'घोरा दारुणभासुरभइरव पुष्करिणी-विशेष (जं ४)। भासा स्त्री [भाषा] १ बोली, 'अट्ठारसदेसी लल्लकभीमभीसरगया' (पान)। ३ एक देव- भिंगा स्त्री [भृङ्गा] एक पुष्करिणी, वापीभासाविसारए' (प्रौप १०६; कुमा)। २ विमान (सम १२)। ४ छन्द-विशेष (प्रजि विशेष (इक)। ३०)। भिंगार वाक्य, वाणी, गिरा, वचन (पान)। जड्ड | पुं [भृङ्गार, क] १ भाजनवि [ जड] बोलने की शक्ति से रहित, भासुरिअ वि [भासुरित देदीप्यमान किया | भिंगारक विशेष, झारी (पएह १,४। मूक (प्राव ४)। जत्ति स्त्री [पर्याप्ति] हुआ, 'भासुरभूसणभासुरिभंगा' (अजि २३) भिंगारग- औप) । २ पक्षि-विशेष: 'भिंगापुद्गलों को भाषा के रूप में परिणत करने की भि देखो भि (प्राचा)। ररवंतभेरवरखें (णाया १, १-पत्र ६५); 'भिंगारकदीपकंदियरवेसु' (वाया १,१शक्ति (भग ६, ४) । "विजय ["विचय] भिअप्पइ, १ भाषा का निर्णय । २ दृष्टिवाद, बारहवाँ भिअप्फई १ देखो बहस्सइ (पि २१२; षड्) पत्र ६३; पण्ह ११; औप)। ३ स्वर्ण-मय भिअस्सइ जैन मंग-ग्रन्थ (ठा १०-पत्र ४६१) जल-पात्र (हें १, १२८ जं२)। भिड देखो भइ = भृति (राज)। विजय पुं[विजय दृष्टिवाद (ठा १०)। भिंगारी स्त्री [दे. भृङ्गारी] १ कीट-विशेष, 'समिअ वि [°समित] वाणी का संयमभिउ पुं [भृगु] १ स्वनाम-ख्यात ऋषि चिरी, झिल्लो (दे ६, १०५, पामा उत्त ३६, विशेष । २ पर्वत-सानु । ३ शुक्र ग्रह । ४ वाला (भग)। समिइ स्त्री [ समिति] १४८) । २ मशक, डाँस (दे ६; १०५) ।। महादेव, शिव । ५ जमदग्नि । ६ ऊँचा वाणी का संयम (सम १०)। देखो भास। भिजा स्त्री [दे] अभ्यंग, मालिश (सूअ १, ४, प्रदेश । ७ भृगु का वंशज । ८ रेखा, राजि भासा श्री [भास] प्रकाश, आलोक, दीप्ति २,८) (हे १, १२८ षड्)। कच्छ न [ कच्छ] (पान)। | भिटिया स्त्री [दे. वृन्ताकी] भंटा का गाछ नगर-विशेष, भड़ौच (राज)। भासि वि [भाषिन्] भाषक, वक्ता (धर्मवि (उप १०३१ टी)। ५२; भवि) भिउड न [दे] अंग-विशेष, शरीर का अवयवविशेष (?); 'मुत्तूण तुरगभिउडे खग्गं भिडिमाल भासिअ वि [भाषित] १ उक्त, कथित, भिन्दिपाल] शस्त्र-विशेष भिडिवाल (पएह १, १; औपः पउम ८, प्रतिपादित (भग; आचा; सण; भवि)। २ पिटुम्मि उत्तरीयं च'; 'तो तस्सेव य खग्गं १२० स ३८४ कुमा; हे २, ३८ प्राप्र)। न. भाषण, उक्ति (प्रावम)। भिउडायो गिन्हिऊण चाणको' (धर्मवि ४१) भिंद सक [भिद्] १ भेदना, तोड़ना । २ भासिअ वि [भाषिन्, क] वक्ता, बोलनेभिउडि स्त्री [भृकुटि] १ भौं-भंग, भौं का विभाग करना । भिदइ भिदए (महा षड् )। वाला (भवि)। विकार (विपा १, ३, ४) । २ पुं. भगवान् भवि. भेच्छ, भिदिस्संति (हे ३, १७१; कुमाः भासिअ वि [दे] दत्त, अपित (दे६, १०४) नमिनाथ का शासन-देव (संति ८)। पि ५३२) । कम. भिज्जइ (प्राचाः पि भासिअ वि [भासित] प्रकाशवाला, प्रकाश- भिउडिय वि [भृकुटित] जिसने भौं चढ़ाई / ५४६) । वकृ. भिंदंत,भिंदमाण (ग १३६, युक्त (निचू १३)11 हो वह (गाया १, ८)। पि ५०६)। कवकृ. भिजंत, भिजमाण भासिर वि [भाषित] वक्ता (सुपा ५३८; | भिउडी देखो भिउडि (कुमा)। (से ५, ६५; ठा २, ३, था ६ भगः उवा: सण) भिउर वि [भिदुर] विनश्वर (प्राचा)। णाया १, विसे ३११)। संक. भित्तूण, रगत करने का lain Education International For Personal & Private Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ पाइअसहमहण्णवो भदण-भिद भित्तूणं, भिंदिअ भिंदिऊण, भेत्तआण, ७४ उवा) 4 लाभिय पुं [लाभिक भिजिय देखो भिझिय (भग)। भेत्तण (रंभा; उत्त ६, २२; नाट--विक्र भिक्षुक-विशेष (प्रौप)। भिज्झा स्त्री [अभिध्या] गृद्धि, लोभ (कस)।१७. पि ५८६; हे २, १४६, महा)। हेकृ. भिक्खाग 1 वि [भिक्षाक] भिक्षा माँगने | भिझिय वि [अभिध्यित] लोभ का विषय, भिंदित्तए, भित्तुं, भेत्तुं (पि ५७८ कप्पा भिक्खाय वाला, भिक्षा से शरीर-निर्वाह सुन्दर (भग ६, ३–पत्र २५३)। पि ५७४) । कृ. भिदियव्व (एएह २, १), करनेवाला (ठा ४, १-पत्र १:५; आचा २, १, ११, १, उत्त ५, २८ कप्प) भिट्ट सक [दे] भेंटना। कर्म. 'बहुविहभिट्टभेअव्व (से १०, २६) णएहि भिट्टिजइ लद्धमाणेहि' (सिरि ६०१)। भिंदण न भेदन खण्डन, विच्छेद (सुर १६, | भिक्खु पुंस्त्री [भिक्षु] १ भोख से निर्वाह | भिट्टण न [दे] भेंट, उपहार: गुजराती में ५६)। करनेवाला, साधु, मुनि, संन्यासी, ऋषि (पाचाः सम २१; कुमा; सुपा ३४६; प्रासू | 'भेटणु (सिरि ७५६६०१)। भिंदणया स्त्री [भेदना] ऊपर देखो (सुर १, १६६), 'भिक्खणसीलो य तमो भिक्खु त्ति भिट्ठा स्त्री [दे] ऊपर देखो (सिरि ३९२)। निदरिसिप्रो समए' (धर्मसं १०००)। २ | भिड सक[दे] भिड़ना-१ मिलना, सटना, भिदिवाल (शौ) देखो भिडिवाल (प्राकृ बौद्ध संन्यासीः 'कम्मं चयं न गच्छद चउबिह सट जाना । २ लड़ना, मुठभेड़ करना । भिडइ ८७) : भिक्खुसमयम्मि' (सूअनि ३१) । स्त्री. °णी (भवि), भिडंति (सिरि ४५०) । वकृ. भिडंत भिंभल देखो भिब्भल (सुपा ८३, ३६५, (प्राचा २, ५, १, १; गच्छ ३, ३१; कुप्र (उस ३२० टीः भवि) पि २०६) १८८)। पडिमा स्त्री [ प्रतिमा] साधु का भिडण न [दे] लड़ाई, मुठभेड़; 'सोंडीरसुहडभिंभलिय वि [विह वलित] विह्वल किया अभिग्रह-विशेष, मुनि का व्रत-विशेष (भग; भिडणिक्कलंपडं' (सुपा ५६६) हुआ, 'ता गजइ मायंगो विझवणे य (? म) प्रौप) । पडिआ श्री [प्रतिज्ञा] साधु का | भिडिय वि [दे] जिसने मुठभेड़ की हो वह, यपवाहभिभलिओ' (धर्मवि ८०)। उद्देश, साधु के निमित्त, से भिक्खू वा भिक्खुणी लड़ा हुआ (महाः भवि)। भिभसार पुं[भिम्भसार] देखो भंभसार वा से जं पुरण वत्थं जाणेजा असंजए भिक्खु भिणासि पुं [दे] पक्षि-विशेष (पएह १, (प्रौप) पडियाए कीयं वा धोयं वा रत्तं वा' (प्राचा १ पत्र ८)। भिभा स्त्री [भिम्भा] देखो भंभा (राज)। २, ५, १, ४)। भिण्ण देखो भिन्न (गउड; नाट-चैत ३४)। भिंभिसार ' [भिम्भिसार] देखो भंभसार भिक्खुड देखो भिच्छुड (राज)। मरद (अप) पुं[महाराष्ट्र] छन्द का एक भिक्खोंड देखो भिच्छुड (अणु २४)। (ठा ६-पत्र ४५८; पि २०६) भेद (पिंग)। भिभी स्त्री [भिम्भी] वाद्य-विशेष, ढक्का (ठा भिखारि (अप) वि [भिक्षाकारिन् भिखारी, | भित्त देखो भिश्च (संक्षि ५)। भीख माँगनेवाला (पिंग)। ६ टी—पत्र ४६१)। भित्तग । न [दे. भित्तक] १ खण्ड, भिगु देखो भिउ (पउम ४, ८६मोघ ३७४)भित्तय । टुकड़ा। २ आधा हिस्सा (प्राचा भिक्ख सक [भिक्ष ] भीख मांगना, याचना भिगुडि देखो भिउडि (पि १२४)। २, ७, २, ८६७)। करना । भिक्खइ (संबोध ३१) । वकृ. | भिच्च पुंभृत्य] १ दास, सेवक, नौकर (पानः | भिक्खमाण (उत्त १४, २६)। भित्तर न [दे] १ द्वार, दरवाजा (दे ६, सुर २, ६२, सुपा ३०७)। २ वि. अच्छी १०५) । २ भीतर, अंदर (पिंग)। भिक्ख न [भैक्ष] १ भिक्षा, भीख । २ भिक्षा तरह पोषण करनेवाला (विप। १, ७-पत्र | समूह (मोघमा २१६; २१७); 'न कज्ज भित्ति स्त्री [भित्ति भीत (गउड; कुमा)। | ७५)। ३ वि. भरणीय, पोषणीय (पएह १, मम भिक्खेण (उत्त २५, ४०), जीविअ संध न[सन्ध] भीत-दीवार का संधान, २-पत्र ४०) भाव पुं[भाव नौकरी वि [जीविक] भीख से निर्वाह करनेवाला, 'जाएवि भित्तिसंधे खणियं खत्तं सुत्तिक्ख| (सुर ४, १५६) भिखमंगा (प्राकृ8; पि ८४)। सत्येणं' (महा)। भिच्छ देखो भिक्ख (पि ६७)। भिक्ख देखो भिक्खा (पि ९७, कुप्र १८३; भिच्छा देखो भिक्खा (गा १६२)। भित्तिरूव वि [दे] टंक से छिन्न (दे ६, धर्मवि ३८)। भिच्छंड वि [दे. भिक्षोण्ड] १ भिखारी, | भित्तिल न [भित्तिल] एक देव-विमान (सम भिक्खण न [भिक्षण] भीख मांगना, याचना | भिक्षा से निर्वाह करनेवाला । २ पुं. बौद्ध ३८)। (धर्मसं १०००)। साधु (णाया १, १५-पत्र १९३)। भित्तु वि [भेत्तु] भेदन करनेवाला (पव २)। भिक्खा स्त्री [भिक्षा] भीख, याचना (उव; भिजन [भेद्य] कर-विशेष, दण्ड-विशेष | भित्तुं । देखो जिंदा सुपा २७७: पिंग)। यर वि [चर] (विपा १, १-पत्र ११)। भित्तण । देखो भिद। भिक्षुक (कण्य) यरिया स्त्री [चर्या] भिज्जा देखो भिज्झा (ठा २, ३-पत्र ७१; भिद देखो भिद । भिदंति (पाचा २, १, ६, भिक्षा के लिये पर्यटन (प्राचा प्रौप; भोघभा सम ७१)। ९)। भवि. भिदिस्सति (माचा २,१,६, For Personal & Private Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिन्न-भीम पाइअसहमहण्णवो ६५३ ६)। भवि. भिदिस्संति (पाचा २, १, ६६ भिलिज [दे] अभ्यंग, पापाद-मस्तक-तैल- भिसमाण देखो भिस=भास् । पि ५३२) । | मईन (सून १, ४, २, ८ टी)। | भिसरा स्त्री [दे] मत्स्य पकड़ने का जालभिन्न वि [भिन्न] १ विदारित, खण्डित | भिलुंग पुं[दे. भिलुङ्क] हिंसक पक्षी (राय | विशेष (विपा १, ८-पत्र ८५)।" (णाया १, ८; उव, भग, पामा महा)। २ भिसाव सक[भायय ] डराना । भिसावेइ प्रस्फटित. स्फोटित (ठा. ४. पण्ड २.१)। भिलुगा स्त्री [दे] फटी हुई जमीन, भूमि की (प्राकृ ६४)। ३ अन्य विसदृश, विलक्षण (ठा १०)। ४ | रेखा-फाट (प्राचा २, १, ५, ५)। भिसिआ। स्त्री [दे.बृषिका] पासन-विशेष, परित्यक्त उज्झित; 'जीवजढं भावो भिन्न' | भिल्ल ' [भिल्ल] १ अनार्य देश-विशेष (पव भिसिगा ऋषि का पासन (६६, १०५ (बृह १; भाव ४)। ५ ऊन, कम, न्यून | २७४) । २ एक अनार्य जाति (सुर २, ४, भग; कुप्र ३७२, रणाया १, ८; उप ६४८ (भग)। कहा स्त्री [कथा] मैथुन-संबद्ध | ६, ३४महा)। टी प्रौपः सूम २, २, ४८)बात, रहस्यालाप (मोघ ६६). पडवाइय | भिल्लमाल ( [भिल्लमाल] स्वनाम ख्यात भिसिण देखो भिसण भिसिणेमि ( गा वि [पिण्डपातिक] स्फोटित अन्न आदि | एक प्रसिद्ध क्षत्रिय-वंश (विवे ११४)। ३१२ अ) । लेने की प्रतिज्ञावाला (पएह २, १-पत्र भिल्लायई स्त्री [भल्लातकी] भिलावा का पेड़ भिसिणी स्त्री [बिसिनी] कमलिनी, पद्मिनी १००), मास पुं [°मास] पचीस दिन (उप १०३१ टी)। (हे १, २३८ कुमाः गा ३०८; कार ३१; का महीना (जीत)। मुहुत्त न [मुहूर्त] भिल्लिअ वि [भिलित खण्डित, तोड़ा हुमा; महाः पाम)। अन्तर्मुहूर्त, न्यून मुहूर्त (भग)। 'पंचमहब्बयतुंगो पायारो भिल्लियो जेणं' भिसी स्त्री [बृषी] देखो भिसिआ (पास) - भिष्फ पुं [भीष्म] १ स्वनाम-ख्यात एक (उव)। भिसोल न [दे] नृत्य-विशेष (ठा ४, ४कुरुवंशीय क्षत्रिय, गांगेय, भीष्म पितामह । भिस देखो भास= भास् । भिसइ (हे ४, पत्र २८५)। २ साहित्य-प्रसिद्ध रस-विशेष, भयानक रस । २०३ षड्)। वकृ. भिसंत, भिसमाण, भिह । प्रक [भी] डरना। मिहइ ( षड्) । ३ वि. भय-जनक, भयंकर (हे २, ५४ | भिसमीण (पउम ३, १२७; ७५, ३७ | भी कु. भेअव्व (सुपा ५८४)। प्राकृ९५ कुमा)। णाया १, १ौपः कुमा; गाया १,१; भी स्त्री [भी] १ भय, 'नो दंडभी डंड समार ..पि ५६२). भिब्भल वि [विह वल] व्याकुल (हे २, भेज्जासि' (प्राचा)। २ वि. डरनेवाला, भिस सक [प्लुष ] जलाना (प्राकृ ६५; ५८६० प्राकृ २४ कुमाः वज्जा १५६)। भीरु (माचा) धात्वा १४७)। भिन्भलग न [विह वलन] व्याकुल बनाना भिस सक [भायय् ] डराना । भिसइ, भिसेइ | भीअ वि [भीत] डरा हुमा (हे २, १९३; (कुमा) ४, ५३, पान; कुमा, उवा)। भीय वि (प्राकृ ६४)। भिब्भिस अक [भास् + यङ् = बाभास्य [ भीत] अत्यन्त डरा हुआ (सुर ३, १६५)। भिस न [भृश] १ अत्यन्त, अतिशय, अतिअत्यन्त दीपना । वकृ. भिन्भसमाण, भीइ स्त्री [भीति] डर, भय (सुर २, २३७; शयितः 'गलतभिसभिन्नदेहे य' (पिंड ५८३, भिभिसमीण (णाया १, १-पत्र ३८ सिरि ८३६, प्रासू २४)। उप ३२० टीः सत्त ६१, भवि) रायः पि ५५६)। भीइअ वि [भीत] डरा हुआ (उप ६४०)। भिस देखो बिस (प्राक १५; पएण १; सूत्र भीइर वि [भेतृ डरनेवाला, 'ता मरणभीइरं भिमोर [दे. हिमोर] हिम का मध्य भाग २, ३, १८)। कंदय पुं [ कन्दक] एक विसज्जेह म, पव्वईस' (वसु)।(?) (हे २, १७४) प्रकार की खाने की मिष्ट वस्तु (पएण १७- भीड [दे] देखो भिड। संकृ. भीडिवि भियग देवो भयग (सण)। पत्र ५३३). "मुणाली स्त्री [मृणाली] (अप) (भवि)। भिलंग पुंदे म्रक्षण । देखो भिलिंज (सूत्र कमलिनी (पएण १)। | भीडिअ [दे] देखो भिडिय (सुपा २६२) । कृतांग सूत्र २८५ चूर्णी)। भिसअ ' [भिषज्] १ वैद्य, चिकित्सक भीतर [दे] देखो भित्तर (कुमा)। भिलगा देखो भिलुगा (दस ६, ६२)। (हे १, १८; कुमा)। २ भगवान् मल्लिनाथ भीम वि [भीम] १ भयंकर, भीषण (पाम; भिलिंग सक [दे] अभ्यंग करना, मालिश का प्रथम गणधर (पब ८) उवः परह १, १; जी ४४, प्रासू १४४) । करना । भिलिंगेज (माचा २,१३.२७४ | भिसंत देखो भिस = भास् । २ पुं. एक पाण्डव, भीमसेन (गा ४४३)। ५; निचू १७)। वकृ. भिलिंगांत (निचू भिसंत न [दे] अनर्थ (दे ६, १०५)। ३ राक्षस-निकाय का दक्षिण दिशा का इन्द्र १७) । प्रयो. भिलिंगावेज्ज (निचू १७) | भिसग देखो भिसअ (णाया १, १-पत्र (ठा २, ३-पत्र ८५)। ४ भारतवर्ष का वकृ. भिलिंगावंत (निचू १७)। भावी साँतवाँ प्रतिवासुदेवः 'अपराइए य भिलिंग । पु[दे] धान्य-विशेष, मसूर | भिसण सक [दे] फेंकना, डालना । भिसणेमि भीमे महाभीमे य सुग्गीवे' (सम १५४)। भिलिंगु (कप्पः पंचा १०, ७३)। (गा ३१२)। ५ राक्षस-वंश का एक राजा, एक लंकापति For Personal & Private Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो पीमासुरक-झुंज (पउम ५, २६३)। ६ सगर चक्रवर्ती का ३)। परिसप्प पुंखो [परिसप] हाथ से २३६; महा जी ३१)। २ एक देव-जाति, एक पुत्र (परम ५, १७५) । ७ दमयंती का चलनेवाला प्राणी, हाथ से चलनेवाली सर्प- नाग-कुमार देव (पएह १, ४)। ३ वानव्यंतर पिता (कुप्र ४८)। ८ एक कुल-पुत्र (कुप्र जाति (जी २१; परण १; जीव २)। स्त्री. देवों की एक जाति, महोरग (इक)। ४ १२२)। 8 गुजरात का चालुक्य-वंशीय "प्पिणी (जीव २)। मूल न [ मूल रंडीबाणः 'मं कुट्ठरिणव्व भुयगं तुम पयारेसि एक राजा-भीमदेव (कुप्र ४)। १० कक्षा, काँख (पाप्र)। मोयग पुं[ मोचक अलियवयणेहिं (कुप्र ३०९)। ५ वि. हस्तिनापुर नगर का एक कूटग्राह-राज- रत्न की एक जाति (भगः प्रौप; उत्त ३६, भोगी, विलासी (णाया १, १ टी-पत्र ४; पुरुष (विपा १, २) एव पुं["देव] ७६; तंटु २०).. सप्प पुं[स] देखो औप)परिरिंगिअन [परिरिङ्गत छन्दगुजरात का एक चालुक्य राजा (कुप्र ५) परिसप्प (पव १५०), ल वि [वत् ] विशेष (पजि १६) °वई श्री [°वती] एक कुमार पुं[कुमार] एक राज-पुत्र (धम्म) बलवान् हाथवाला (सिरि ७६६)। इन्द्राणी, अतिकाय नामक महोरगेन्द्र की एक प्पभ प्रभ] राक्षस-वश का एक भुअअ देखो भुअग (गउड; पिंग; से ७, अग्र-महिषी (इका ठा ४, १; पाया २)। राजा, एक लंका-पति (पउम ५, २५९)M 38 पाम)। वर [वर] द्वीप-विशेष (राज)। रह [ रथ] एक राजा, दमयंती का भुअइंद भुजगेन्द्र] १ श्रेष्ठ सर्प (गउड)। भुअग वि [भोजक] पूजक, सेवा-कारक पिता (कुप्र ४८), सेण पुं[सेन] १ २ शेषनाग, वासुकि (अच्चु २७), वुरेस | (णाया १, १ टी-पत्र ४ औपः अंत)। एक पाण्डव, भीम (णाया १, १६)। २ पु[पुरेश] श्रीकृष्ण (अच्चु २७)। भुअगा श्री [भुजगा] एक इन्द्राणी, एक कुलकर पुरुष (सम १५०)। वलि भुअईसरपु [भुजगेश्वर] ऊपर देखो अतिकाय नामक इन्द्र की एक अग्न-महिषी पुं[विलि] अंग-विद्या का जानकार पहला भुअएसर (पएह १, ४-पत्र ७८ अन्तु (ठा ४, १, णाया २; इक)। रुद्र पुरुष ( विचार ४७३ )। सुर न | ३६)। °णअरणाह ' [नगरनाथ] श्री[सुर] शास्त्र-विशेष (अणु)। भुअगीसर देखो भुअईसर (संदु २०)। कृष्ण (अच्चु ३६)। भुअण देखो भुवण (चंड हास्यः १२२; भीमासुरक न [भीमासुरोक्त. रीय] एक भुअंग [भुजंग] १ सर्प, साँप (से ५, पिंग गउड)। जैनेतर प्राचीन शास्त्र (अणु ३६)। ६० गा ६४०; गउड; सुर २, २४५ उव; भुअप्पइ भीरु । वि[भीरु, क] डरपोक (चेइय महा पात्र) । २ विट, रंडीबाज, वेश्या-गामी भुअप्फई देखो बहस्सइ (पि २१२ षड् )।भीरुअ गउड; उत्त २७, १० अभि (कुमाः वज्जा ११६)। ३ जार, उपपति ८२)। (कप्पू)। ४ द्यूतकार, जुपाड़ी (उप पू भुआ देखो भुअ = भुज। भीस सक [भीषय ] डराना। भीसइ २५२)। ५ चोर, तस्करः 'देव सलोत्तमो भुइ स्त्री [भृति] १ भरण। २ पोषण । ३ (धात्वा १४७), भीसेइ (प्राकृ ६४)। चेव मायापोयकुसलो वारिणययवेसधारी वेतन । ४ मूल्य ( हे १, १३१ षड् )। भीसण वि [भीषण] भयंकर, भय-जनक गहिरो महाभुअंगो' (स ४३०)। ६ बदमाश, भुउडि देखो भिउडि (पि १२४) ।। (जी ४६ सणः पात्र) ठगः 'ताबसवेसधारिणो गहियनलियापनोग- भुगल न [दे] वाद्य-विशेष (सिरि ४१२) । भीसय देखो भेसग (राज)।. खग्गा विसेणकुमारसंतिया चत्तारि महाभूयंग भुज सक [भुज् ] १ भोजन करना। २ भीसाव देखा भीस। भोसावेइ (धात्वा त्ति' (स ५२४)। "कित्ति स्त्री [कृत्ति] | पालन करना । ३ भोग करना। ४ अनुभव १४७)। कंचुक (गा ६४०)। पआत (अप) देखो | करना।भु जइ (हे ४,११०; कसः उवा)। भुंजेजा भीसिद (शौ) वि [भीषित] भय-भीत किया प्पजाय (पिंग)। पजाय न [प्रयात] (कप्प); 'निप्रभु भुंजसु सुहेणं (सिरि १०४४)। हुआ, डराया हुआ (नाट-माल ५६)। | १ सर्प-गति । २ छन्द-विशेष (भवि)। राअ भूका. भुजित्था (पि ५१७)। भवि. भुंजिही, भीह अक [भी] डरना । भीहइ (प्राकृ ६४)। [राज शेषनाग (त्रि ८२)* वइ पुं भोक्खसि, भोक्खामि, भोक्खसे, भोच्छ (पि भुअ देखो भुंज । भुइ, भुअए (षड्)। [पति शेषनाग (गउड) । पआअ (अप) ५३२, कप्पः हे ३, १७१)। कर्म. भुज्जइ, भुअ न [दे] भूर्ज-पत्र, वृक्ष-विशेष की छाल देखो पजाय (पिंग) भुजिज्जइ (हे ४, २४६)। वकृ. भुंजंत, (दे ६, १०६) । रुक्ख पुं [वृक्ष] वृक्ष भुअंगम पु [भुजंगम] १ सर्प, साँप (गउड | मुंजमाण, भुंजेमाण, भुजाण (प्राचा; विशेष; भूर्जपत्र का पेड़ (परण १-पत्र | १७८० पिंग)। २ स्वनाम-ख्यात एक चोर कुमाः विपा १, २, सम ३६, कप्पः पि ३४) । वत्त न [पत्र] भोजपत्र (गउड (महा) ५०७, धर्मवि १२७)। कवकृ. भुज्जत भुअंगिणी। स्त्री भुजङ्गी] १ विद्या-विशेष (सुपा ३७५) । संकृ. भुजिअ, भुजिआ, भुअ पुंस्त्री [भुज] १ हाथ, कर (कुमा)। भुअंगी (पउम ७, १४०)। २ नागिन भुजिऊण, भुजिऊणं, भुजित्ता, २ गणित-प्रसिद्ध रेखा-विशेष (हे १, ४)। (सुपा १८१; भत्त ११७)। भुजित्तु, भोच्चा, भोत्तु, भोत्तूग (पि स्त्री. आ (हे १, ४, पिंग; गउड; से १, भुअग पुं [भुजग] १ सर्प, साँप (सुर २, ५६१ सूत्र १, ३, ४, २ सण; पि ५८५; भुअस्सइ धारिणो गाहमा महाभयंग For Personal & Private Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुंजग-भुल उत्त १, ३ पि ५०७; हे २, १५; कुमा; प्राकृ ३४) । हेक. भुंजित्तए, भोत्तु, भोत्तर ( प ५७८ हे ४, २१२ प्राचा), भुंजण (प) (कुमा) रु. भुज, भुजि यच्च भुजेल, भोत्तम्ब, भुप्तम्ब, भोज, भोग्ग ( तंदु ३३ घर्मंवि ४१, उप १३९ टी; श्रा १६; सुपा ४६५; पिंडमा ४५; सम्मत २१२६ खाया १. १. परम १४, १४० हे ४, २१२ सुपा ४६५ पउम ६८, २२० दे ७, २१; प्रोघ २१४ उपपू ७५ सुपा १६३; भवि) । जग [भोज] भोजन करनेवाला (पिंड भुगुभुग धक [ भुगभुगाय् ] 'युग' 'युग' वि आवाज करना यह भुगुभुर्गेव (पउम १२३) । १०५, ५) । भुंजण देखो भुंज भुन्। भुंजण न [भोजन ] भोजन (पिंड ५२१) । भुंजणा स्त्री. ऊपर देखो (पत्र १०१) । भुंजय देखो भुजग (सरण) 1 भुंजाव तक [ भोजय् ] १ भोजन कराना । २ पालन कराना। ३ भोग कराना । भुंजावेइ (महा). भुजा (२ ५) । संकृ. भुजाबिऊण, भुजावित्ता (पि ५८२ ) । हेक. भुजावेडं (पंचा १०, ४८ टी) । भुजापय वि [भोजक] भोजन करानेवाला (२५१) = | जावि [भोजित ] जिसको भोजन कराया गया हो वह ( धर्मंवि ३८ कुप्र १६८) भुजिअ देखो भुज = भुज् । भुंजिल देखो भुत (वि) 1 भुजिर वि [भोक्त्] भोजन (सुपा ११ وا करनेवाला भुंड पुंत्री [दे] सूकर, वराह गुजराती में 'ड' (६, १०६) श्री. "डी, "डिणी (दे ६. १०६ टी भवि) । भुडीर [दे] ऊपर देखो (३६, १०६) भल [](म्म १, ५२०० भुंडि (अप) देखी भूमि (हे ४० २१५ ) - भुक मक [बुक्.] कना खान का बोलना । भुकइ (गा ६६४ ) । भुषण पुं [दे] १ श्वान, कुत्ता । २ मद्य आदि का मान (दे ६, ११० ) । पाइअसहमणो भुक्तिअ न [बुक्ति ] श्वान का शब्द (पाम पि २०९ ) 1 भुक्तिर वि [बुक्किट] भूँकनेवाला (कुमा) । मुक्खा श्री [दे. बुभुक्षा] सूख घुषा (दे ६, १०६; गाया १, १ –पत्र २८ महा उप ३७९; धारा १६ सम्मत्त १५७ ) । लुवि [ बन्] भूखा (धर्मव ६९ ) । मुक्सि वि [दे. वुभुक्षित] [मूला, क्षुधातुर ( पाघ्र कुप्र १२६; सुपा ५०१ उप ७२८ टीस ५८३३ वै २६ ) 1 1 भुग्गवि [न] १ मोड़ा हुआ, वक्र, कुटिल ( रणाया १, ८- पत्र १३३३ उवा) । वि. भग्न, टूटा हुआ (गाया १, ८) । ३ दग्ध, जला हुआ; 'कि मज्झ जीविएणं एवंविहपराभगाएं (उप ७६८ टी) ४ मूना हुआ; 'चगउव्व भुग्गु' (कुप्र ४३२ ) । भुज (अप) देखो भुज । भुजइ (सण) । भुजंग देखो भुअंग (भवि ) । भुअग = भुजग देखो अग भुजग (धर्मवि १२४) मुख देखो भुज भुग्गड (प) - भुज्ज' [भूर्ज] १ वृक्ष - विशेष । २ न. वृक्षविशेष की छाल (कप्पू, उप पृ १२७; सुपा २७०) । 'पत्त, 'वत्त न [पत्र] वही श्रयं ( भावम; नाट, विक्र ३३) । भुज देखो भुज । । भुज्ज वि [ भूयस् ] प्रभूत, धनल्प ( श्रौप पि ४१४) । भुज [] श्री का गर्म २ खिति १७) । भुत वि [मुक्त] भक्षित (खाया १, १ भुत वि [भुक्त] १ भक्षित (गाया १, १ उवाः प्रासू ३८ ) । २ जिसने भोजन किया हो वह 'ते भायरो न भुत्ता' (सुख १, १५३ कुप्र १२) । ३ सेवित । ४ अनुभूत 'अम्म ६५५ ताय मए भोगा भुता विसफलोषमा' (उत्त १६, ११ गाया ११) । ५ म. भक्षण, भोजन 'हासभूतासिया (१९ १२)विष-विशेष (ठा भोगि वि ["भोगिन ] जिसने भोगों का सेवन किया हो यह (खाया ११) । For Personal & Private Use Only भुतवंत वि [ भुक्तवत् ] जिसने भोजन किया हो वह (पि ३१७) - भुत्तव्व देखो भुज । भुक्ति स्त्री [भुक्ति] १ भोजन ( १७; ग्रज्भ ८२ ) । २ भोग (सुपा १०८ ) । ३ आजीविका के लिए दिया जाता गाँव, क्षेत्र यादि गिरास 'उज्जेणी नाम पुरी दिन्ना तस्स य कुमारभुत्तीए (उप २११ टी, कुप्र १६९ ) + 'वाल' [पाल] गिरासदार (धर्मवि १५४) । भुत्तु वि [भोक्तृ] भोगनेवाला (श्रा ६, संबोध ३५) । [दे. भुम] १ सूना हुआ धान्य २ . धाना, भूना हुधा यव (परह २५पत्र १४८ ) 1 भुरुंडिय वि [दे] उद्धलित, धूलि लिप्तः भुज्जोक [ भूयस् ] फिर, पुनः (उवा भुरुकुंडिअ - 'धूलिभुरुंडियपुत्तेहिं परिगया चिसुपा २७२) । - भुरुहुंडिअ तर तत्तो' (सुपा २२ε; दे ६, J १०६), 'भूइभुर ( ? रु) कुंडियंगों (कुप्र २६३० सूत्र कृ० चूर्णी गा० २८२ ) । -- भुल्ल प्रक [ भ्रंशू ] १ च्युत होना । २ गिरना । ३ भूलना 'भुल्लंति ते मरणा मग्गा हा पण दुरंतों (धात्म ११० हे ४, १७७) भुत्तूण पुं [दे] भृत्य, नौकर (दे ६, १०६) । [दे] बिल्ली को फेंका जाता भोजन (कप्पू ) । = । ' भुम देखी भ्रमम् मद दे ४. १६१३ संग)। संकृ. भुमिव (अप) (सण) । - भुम [] आँख के ऊपर भमगा ! की रोम राजि (भगः उवा हे २, भुमया १६७ श्रौपः कुमाः पान; पव ७३) । भुमा भुमिअ देखो भनिन भ्रान् (कुमा) 1 = भुम्मि (प) देखो भूमि (पिंग ) । झुरुंडि श्री [हे] शिवा गाली दिया रिन (दे ६, १०१) । Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो ११ पृथिवी, १०४ तदर्थ भुल्ल वि [भ्रष्ट] भूला हुआ, 'कामंधमो कि भू स्त्री [भू] १ पृथिवी, धरती (कुमाः जह स इत्यो संतो भूमो तदन्नहाभूमों' (विसे पभमेसि भुल्लों (श्रु १५३, सुपा १२४ कुप्र ११६; जीवस २७६, सिसि १०४४)। २२५१)। ७ उपमा, प्रौपम्य । ८ तादर्थ्य, ५१६; कप्पू) । २ पृथ्वीकाय, पार्थिव शरीरवाला जीव (कम्म तदर्थ-भाव; 'प्रोवम्मे तादत्थे व हुज एसित्थ भुल्लविअ वि [भ्र शित] भ्र किया हुआ ४, १०; १६ ३६), 'आर पुं[दार] भूयसद्दो त्ति' (श्रावक १२४)। ६ न. (कुमा)। शूकर, सूपर (किरात ९) कंत पु प्रकृत्यर्थः 'उम्मत्तगभूए' (ठा ५, १)। १० भल्लिर वि [भ्र शिन] भूलनेवाला, 'मयरण [कान्त] राजा, नर-पति (था २८)Mपुं. एक देव-जाति (पण्ह १, ४, इक; णाया प्रभुल्लिरदुल्ललियभल्लिसुमहल्लतिक्खभल्लीहि 'गोल पु [गोल] गोलाकार भूमण्डल १,१-पत्र ३६)। ११ पिशाच (पान दे (सुपा १२३) (कप्पू)। चंद पुं [चन्द्र] पृथिवी का ४, २५)। १२ समुद-विशेष (देवेन्द्र २५५)। चन्द्र, भूमि-चन्द्र (कप्पू)। °चर वि [चर] १३ द्वीप-विशेष (सुज १६) । १४ पुंन. जन्तु, भुल्लुंकी [दे] देखो भल्लुंकी (पान)। भूमि पर चलने फिरनेवाला मनुष्य आदि प्राणी; 'पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई', भुव देखो हुव = भू । भुवइ (पि ४७५)। (उप ६८६ टी)। °च्छत्त पुन [च्छत्र] 'भूयाणि वा जीवाणि वा' (प्राचा १, ६, ५, भुवदि (शौ) (धात्वा १४७)। भूका. भुवि वनस्पति-विशेष (दे १, ६४)तणग देखो | ४१, ७, २, १, २, १,१,११; पि ३६७); (भग)। यणय (राज)। धण पू[धन] राजा 'हरियाणि भूपाणि विलंबगारिण' (सूत्र १, ७, भुव देखो भुअ = भुज (भवि) । (श्रा २८)। धर पु [धर] १ राजा, ८. उवर १५६)। १५ पृथिवी आदि पाँच भुवइंद देखो भुअइंद (से ५, ७१) । नरपति (धर्मवि ३)। २ पर्वत, पहाड़ (धर्मवि द्रव्य, महाभूत (स १६५), कि मन्ने पंच भुवण न [भुवन] १ जगत्, लोक (जी १ ३ कुप्र २६४) 'नाह पु[नाथ] राजा | भूया' (विसे १६८६)। १६ वृक्ष, पेड़, सुपा २१ कुमा २, १५)। २ जीव, प्राणी; (उप ६८६ टी; धर्मवि १०७)। 'मह पु वनस्पति (प्राचा १, १, ६, २) इंद पुं 'भुवणाभयदाणललिअस्स' (कुमा) । ३ | [मह] अहोरात्र का सत्ताईसवाँ मुहुर्त (सम ["इन्द्र] भूत-देवों का इन्द्र (पि १६०)। प्राकाश (प्रासू १००)। क्खोहणी स्त्री ५१) 'यणय पुन [तृणक] वनस्पति 'ग्गह पुं ["ग्रह] भूत का आवेश (जीव [°क्षोभनी] विद्या-विशेष (सुपा १७४)। विशेष (पएण १ -- पत्र ३४)। रुह पुं ३) ग्गाम पुं[ग्राम] जीव-समूह (सम गुरु पुं["गुरु] जगत् का गुरु (सुपा ७५) [रुह] वृक्ष, पेड़ (गउड; पुप्फ ३६२ २६)। "त्थ वि [°ार्थ] यथार्थ, वास्तविक 'नाह पु[नाथ] जगत् का त्राता (उप पू धर्मवि १३८) व पु [प] राजा (गउड; पउन २८, १४) । "दिण्णा देखो ३५७)। पाल पुं [पाल] विक्रम की ( उप ७२८ टी ती. ३७ ६६, काल)। दिन्ना (पडि) "दिन्न पुं["दिन] १ एक बारहवीं शताब्दी का गोपगिरि का एक वइ j[पति राजा (सुपा ३६; पिंग)- जैन प्राचार्य (पंदि)। २ एक चाण्डाल-नायक राजा (मुणि १०८६६)- बंधु पु[°बन्धु]. वाल पुं[पाल] १ राजा (गउड; सुपा | (महा)। दिन्ना नो ["दिन्ना] १ एक अन्त१ जगत् का बन्धु। २ जिनदेव (उप २११ ५६०)। २ व्यक्ति-वाचक नाम (भवि) कृत स्त्री (अंत)। २ एक जैन साध्वी, महर्षि टी)1 "सोह पु[ शोभ] सातवें बलदेव वित्त पुं[वित्त] राजा (श्रा २८), 'बीढ स्थूलभद्र की भगिनी (कप्प) + मंडलपविके दीक्षक एक जैन मुनि (पउम २०,२०५)। न ["पीठ] भूतल, भूमि-तल (सुपा ५६३) भत्ति न [ मण्डलप्रविभक्ति] नाट्य-विधि लंकार पु[लंकार] रावण का एक हर देखो धर (सण)। का एक भेद (राज) लिविनी [लिपि] पट्ट-हस्ती (पउम ८२, १११)। भू [भूयस् ] कर्म-बन्ध का एक लिपि-विशेष (सम ३५) 4 वडिंसा स्त्री भुवणा स्त्री [भुवना] विद्या-विशेष (पउम ७, भूअ प्रकार (कम्म ५, २२, २३), 'गार [वितंसा] १ एक इन्द्राणी (जीव ३)। १४०)। पुं [ कार] वही अर्थ (कम्म ५, २२)। देखो | २ एक राजधानी (दीव) वाइ, वाइय, भुश्का (मा) देखो भुक्खा मुक्खा (प्राकृ १०१)। (प्राक १०१)। भूओगार ।। वादिय पुं [°वादिन, वादिक] १ एक भुस देखो बुसः 'तुसरासी इवा भुसरासी इवा' भूअ [दे] यन्त्रवाह, यन्त्र-वाहक पुरुष (दे देव-जाति (इक; पण्ह १, ४; औप)। २ (भग १५)। वि. भूत-ग्रह का उपचार करनेवाला, मन्त्रभसंढि स्त्री [दे. भुशुण्डि ] शस्त्र-विशेष भूअ वि [भूत] १ वृत्त, संजात, बना हुआ । तन्त्रादि का जानकार (सुख १, १४) वाय (सरण) २ प्रतीत, गुजरा हुआ (षड् : पिंग)। ३ पुं [वाद] १ यथार्थवाद । २ दृष्टिवाद, भू देखो भुव = भू। भोमि (पि ४७६)। प्राप्त, लब्ध (णाया १,१-पत्र ७४) । ४ | बारहवाँ जैन अंग-ग्रन्थ (ठा १०-पत्र संकृ भोत्ता, भोदूण (शौ) (हे ४, २७१)। समान, सदृश, तुल्यः 'तसभूएहि' (सूम २, ४६१) । विज्जा, वेजा स्त्री ["विद्या] भू स्त्री [5] भौं, अाँख के ऊपर की रोम- ७, ७, ८ टो)। ५ वास्तविक, यथार्थ, सत्य __ आयुर्वेद का एक भेद, भूत-निग्रह-विद्या (विपा राजि; 'रना भूसन्नाए' (सुपा ५७६; श्रा १४; 'भूप्रत्थेहि चित्र गुणेहि' (गउड), 'भूयत्थसत्य- १, ७-पत्र ७५ टी)। गणंद पुं [°ानन्द] सुपा २२६; कुमा)। गंथी' (सम्मत्त १३६)। ६ विद्यमानः ‘एवं । १ नागकुमार देवों का दक्षिण दिशा का इन्द्र. For Personal & Private Use Only Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूअण्ण-भेअ पाइअसद्दमहण्णवो (इका ठा २, ३-पत्र ८४)। २ राजा भूण देखो भुण्ण (संक्षि १७; सम्मत्त ८६) भूमीस पु[भूमीश] राजा (श्रा १२) । कूणिक का पट्ठ-हस्ती (भग १७, १) भूज देखो भुज = भूर्ज (प्राकृ २६)। भूमीसर पुं[भूमीश्वर] राजा (सुपा ५०७)। "जिंदप्पह ([निन्दप्रभ] भूतानन्द इन्द्र भूप देखो भू-व (वव १)। भूयिट्ठ देखो भूइट्ठ (हास्य १२३)। का एक उत्पात-पर्वत (राज), वाय देखो 'वाय (विसे ५५१; पव ६२ टी)। भूमआ देखो भुमया (प्राप्र)। भूरि वि [भूरि] १ प्रचुर, अत्यन्त, प्रभूत भूमणया स्त्री [दे] स्थगन, आच्छादन (वव (गउड; कुमाः सुर १, २४८, २, ११४)। भूअण्ण पुं[दे] जोती हुई खल-भूमि में किया २ न. स्वर्ण, सोना। ३ धन, दौलत (साध जाता यज्ञ (दे ६, १०७)। ८४), "स्सव पुं[श्रवस् ] एक चन्द्रभूआ स्त्री [भूता] १ एक जैन साध्वी, भूमि स्त्री [भूमि] १ पृथिवी, धरती (पउम महर्षि स्थूलभद्र की एक भगिनी (कप्प; पडि)। ६६, ४८; गउड)। २ क्षेत्र (कुमा)। ३ वंशीय राजा, भूरिश्रवा (नाट–वेणी ३७)। २ इन्द्राणी की एक राजधानी (जीव ३) । स्थल, जमीन, जगह, स्थान (पामः उवाः भूस सक [भूषय ] १ सजावट करना। कुमा)। ४ काल, समय (कप्प)। ५ माल, २ शोभाना, अलंकृत करना । भूसेमि (कुमा)। भूइ स्त्री [भूति] १ संपत्ति, धन, दौलतः 'ता परदेसं गंतुं विढवित्ता भूरिभूइपब्भारं' मंजिला, तलाः 'सत्तभूमियं पासायभवणं' वकृ. भूसयंत (रंभा)। कृ. भूस (रंभा)। (सुर १, २२३; सुपा १४८)। २ भस्म, (महा)। कंप पुं [कम्प] भू-कम्प (पउम भूसण न [भूषण] १ अलंकार, गहना (पात्र; राखः 'जारमसाणसमुन्भवभूइसुहप्फंससिजि ६६, ४८) । °गिह, घर न [गृह] नोचे | कुमा)। २ सजावट । ३ शोभा-करण (पएह रंगीए' (गा ४०८; स ६ गउड)। ३ महा का घर, भुंइघरा, तहखाना (श्रा १६, महा)। २, ४ सण)।" देव के अंग की भस्म; 'भूइभूसियं हरसरीरं गोयरिय वि [गोचरिक] स्थलचर, मनुष्य भूसा स्त्री [भूषा] ऊपर देखो (दे ३, ८; व' (सुपा १४८, ३६३)। ४ वृद्धि (सूप आदि (पउम ५६, ५२)। स्त्री. रो (पउम कुमा)। १, ६, ६)। ५ जीव-रक्षा (उत्त १२, ३३)। ७०, १२) । "च्छत्त न [च्छत्र] वनस्पति-भूसिअ विभूषित] मण्डित, अलंकृत (गा 'कम्म पुंन ["कर्मन्] शरीर आदि की रक्षा विशेष (दे) । तल न [तल] धरा-पृष्ठ, ५२०कुमाः काल)।के लिए किया जाता भस्मलेपन-सूत्रबंधनादि भूतल (सुर २, १०५)। देव पुं [देव भूहरी स्त्री [दे] तिलक-विशेष (सिरि (पव ७३ टी; बृह १)। पण्ण, पन्न वि ब्राह्मण (मोह १०७) 4 °फोड पुं[°स्फोट] १०२२)। [प्रज्ञ] १ जीव-रक्षा की बुद्धिवाला (उत्त वनस्पति-विशेष (जी ६) । फोडी स्त्री [°स्फोटी] एक प्रकार का जहरीला जन्तु भे अ [ भोस् ] आमन्त्रण-सूचक अव्यय १२, ३३)। २ ज्ञान की वृद्धिवाला, अनन्त । 'पासवणं कुणमाणो दट्ठो गुज्झम्मि भूमि (औप)। ज्ञानी (सूत्र १, ६, ६)। देखो भूई। फोडीए' (सुपा ६२०)। भाग पुं[भाग] भेअ पुन [भेद] १ प्रकार, 'पुढविभेप्राइ भूइंद पुं [भूतेन्द्र] भूतों का इन्द्र (पि भूमि-प्रदेश (महा)। रुह पुन [रुह] इचाई' (जी ४, ५)। २ विशेष, पार्थक्य भूमिस्फोट, वनस्पति-विशेष (श्रा २०; पव (ठा २, १, गउड; कप्पू)। ३ एक राजभूइट वि [भूयिष्ठ] अति प्रभूत, अत्यन्त ४)। वइ पुं [पति] राजा (उप पृ नीति, फूट; 'दारणमारोवयारेहि सामभेमाइएहि (विसे २०३६; विक्र १४१)। १८८), वाल पुं[पाल] राजा (गउड)। य' (प्रासू ६७), 'सामदंडभेयवप्पयाणणीइभूइदा स्त्री [भूतेष्टा] चतुर्दशी तिथि (प्रारू) सुअ ' [सुत] मंगल-ग्रह (मृच्छ १४६)। सुप्पउत्तणयविहिन्नू' (णाया १, १-पत्र भई देखो भूइ (पव २-११२)। कम्मिय हर देखो °घर (महा) । देखो भूमी। ११)। ४ घाव, प्राघात; 'वड्डति वम्महवि [कर्मिक भूति-कर्म करनेवाला (औप)। भूमिआ स्त्री [भूमिका] १ तला, मंजिल, विइएणसरप्पसारा ताणं पासइ ललु चिन | माल (महा)। २ नाटक में पात्र का वेशान्तरभूओ प्र[भूयस् ] १ फिर से, पुनः (पउम चित्तभेो' (कप्पू)। ५ मण्डल का अवान्त राल, बीच का भागः ६८, २८; पंच २, १८)। २ बारंबार, फिर ग्रहण (कप्पू)। 'पडिवत्तीपो उदए तह प्रत्थमरणेसु य। फिर; 'भूम्रो य अहिलसंत' (उप ६५१) भमिंद पं भिमीन्दा राजा. नरपति (सम्मत्त भेयवा(? घा)प्रो कएणकला 'गार पुं[ कार] कम-बन्ध का एक प्रकार, । २१७)। मुहुत्ताण गतीति य॥ थोड़ी कर्म-प्रकृति के बन्ध के बाद होनेवाला भूमिपिसाय पुं [दे. भूमिपिशाच] ताल अधिक-प्रकृति-बन्ध (पंच ५, १२)। (सुज १, १)। वृक्ष, ताड़ का पेड़ (दे ६, १०७)। ६ विच्छेद, पृथक्करण, विदारण (प्रौप; भूओद ' [भूतोद] समुद्र-विशेष (सुज १६) * भूमी देखो भूमि (से १२, ८८; कप्पू; पिंड अणु)। कर वि [°कर] विच्छेद-कर्ता भूओबघाइय वि [भूतोपघातिन् क] जीवों ४४८, पउम ६४, १०)। तुडयकूड न (प्रौप)। घाय पुं[घात] मंडल के बीच की हिंसा करनेवाला (सम ३७; औप)। [तुडगकूट] एक विद्याधर-नगर (इक) में गमन (सुज्ज १,१)) समावन्न वि मुँहडी (अप) देखो भूमि (हे ४, ३६५ टि)। भुयंग पु[भुजङ्ग] राजा (मोह ८८) ["समापन्न] भेद-प्राप्त (भग)। ८३ For Personal & Private Use Only Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ भेअग वि [भेदक] भेद-कारक (औफ मग ) भेण न [भेदन] १ विदारण, विच्छेदन 'कु' तस्स सत्तपायाल भेयणे नूरण सामत्थं (चेइय ७४६ प्रासू १४० ) । २ भेद, फूट करना ( पव १०६ ) । ३ विनाशः 'कुलसयणमित्तकारिका' (४६) भेअय देखो भेअग (भग) । भेअव्व देखो भिंदभेअन्त्र देखो भी = भी। भेल वि[ भेदयत् ] भेद वाला 'सम्मतनाचणा पत्तेयं श्रट्टट्टभेइल्ला' (संबोध २२; पंच ४, १) । भेउर देखो भिर (प्राचाः ठा २, ३ ) 1 भेंडी [भिण्डा, डी] गुल्म- विशेष, एक जाति की वनस्पति (परह १ - पत्र ३२ ) । - भेंभल देखो भिंभल (से ६, ३७ ) । भलिद (शौ) देखो भिभलिअ (पि २०९ ) । भेल सक [भेलय् ] मिश्रण करना, मिलाना । भेक देखो भेग (दे १, १४७ ) । - गुजराती में 'भेळत" । संकृ. भेलइत्ता (पि भेक्स पुं [दे] राक्षस-रिपु, राक्षस का २०६) प्रतिपक्षी ( कुप्र ११२ ) भेग [क] मेंढक (दे ४, ६, धर्मंसं ५५७ ) । भेच्छ देखो दि भेज्ज देखो भिज्ज (विपा १, १ टी - पत्र १२) । भेज भेजलय भेजल | वि [दे] भीरु, डरपोक (दे ६, | १०७; षड् ) । भेड वि [दे. भेर] भीरु, कातर ( हे १, २५१; दे ६, १०७ कुमा २,६२ ) । भेड देखो भेलय (मृच्छ १८० ) 1[[[[[[[]] दर्ता (चाचा) आण भेद देखो भेअय (वेणी ११२ ) । - ३२१) - पाइअसदमद्दण्णवो भैरव न [भैरव] १ भय, डर (कण) २ पुं. राक्षस आदि भयंकर प्राणी ( सू १, २, २.१४० १६) देखो भइरव (पउम ६, १८३; चेइय १००; श्रप; महा; पि ६१ ) । "द [निन्द] एक योगी का नाम भेदण्या देवी भेग (उप भेदिअ देखो भेद = भिद - भेदिअ वि [भेदित] भिन्न किया हुआ (भग) 1 भेरंड [भैरण्ड] देश-विशेष (राम) - भेरि श्री [भेरि 'री] बाच-विशेषटका भेरी ) ( कप पिंग; श्रपः सण ) । } भेड [भेरुण्ड] भाड पक्षी, दो मुँह और एक शरीरवाला पति विशेष (दे ६ ५०) 1 भेरुंड पुं [दे] १ चित्रक, चीता, श्वापद पशु-विशेष (दे ६, १०८)। २ निर्विष सर्प 'सविसो हम्म सप्पो भेरुंडो तत्थ मुचई' (प्रासू १६) । ~ भेरुवाल [भेरुवाल] वृक्ष-विशेष (राज) 1 भेलय पुं [दे. भेलक] बेड़ा, उडुप, नौका (६६.११०) 1 भत्तु देखो भिंद । भत्तूग भेद देखो भिंद । संकृ. भेदिअ (मृच्छ १४३) । भेसज न [भैषज ] श्रौषध ( पउम १४, ५४ भेद देखो भेअ (भग) 1 ', भेवियव [भेलित] मिश्रित एक 'सो भयमेतवियदिट्ठी जति प्रमाणो (बसु) । भेली स्त्री [दे] १ आज्ञा, हुकुम । २ बेड़ा, नौका । ३ चेटी, दासी (दे ६, ११०) । भेस सक [भेषय ] डराना । भेसइ, भेइ (घात्वा १४८; प्राकृ ६४) । कर्म. भेसिज्जए (धर्मंवि ३) । वकृ. भेसंत, भेसयंत (पउन ५३, ८६; श्रा १२) । कवकु. भेसिज्जत ( पउम ४६, ५४) । संकृ. भेसेऊण (काल पि ५८६) हे भेसे (१११) - भेग पुं [ भीष्मक ] रुक्मिणी का पिता, कौडिन्यनगर का एक राजा (खाया १, १६ ( उप ६४८ टी) । - भेअग-भोजल भेसणा श्री [भीषणा] ऊपर देखी (पह २, १ - पत्र १०० ) । भेसवंत देखो भेस For Personal & Private Use Only भेसाव देखो भेस । भेसावइ ( धात्वा १४८ ) । - भेसावियनि [भीषित] हराया हुआ भेसिअ ) ( पउम ४६, ५३; से ७, ४५; सुर २, ११०; श्रावक ९३ टी) । - भो देखो भुज । संकृ. भोऊण, भोत्तूण ( घात्वा १४८ संक्षि ३७) । हेकृ. भोउ १४ २७) भोतव्य ( संक्षि ३७), भोअन्य ( घात्वा १४८ ) । भो अ [भोस् ] श्रामन्त्रण द्योतक श्रव्यय ( प्राकृ ७९ उवाः श्रौप; जी ५० ) । भोस [भवत् ] तुम प्राप । स्त्री. भोई (उत्त १४, ३३; स ११६ ) 1 भोअ सक [भोजय् ] खिलाना, भोजन कराना । भोयइ, भोयए ( सम्मत्त १२५: सूत्र २, ६, २९ ) । संकु. भोइत्ता ( उत्त १, ३८ ) । भोअ पुं [दे. भोग] भाड़ा, किराया (६, १०८) । भोज देखो भोग ( स ६५८ पास सुपा ४०४; रंभा ३२) । भोअ पुं [भोज] उज्जयिनी नगरी का एक सुप्रसिद्ध राजा ( रंभा ) रा [राज] वही ( सम्मत ७५) । भोअ वि [ भौत ] भस्म से उपलिप्त (धर्मंसं ४१) । भोअग वि [भोजक] १ खानेवाला (पिंड ११७) । २ पालन कर्ता (बृह १) । भोडा श्री [दे] कण्छ, लंगोट 'रोवर भोवडादी' (निचू १) 1 भोअणन [भोजन] १ भवरा, खाना २ भात आदि खाद्य वस्तु (श्राचाः ठा ६६ उवा प्रासू १८०३ स्वप्न ६२: सण) । ३ लगातार सतरह दिनों का उपवास (संबोध ५८ ) । ४ उपभोग; 'विरूवरूवाई कामभोगाई समारंभंति भोपा (सू २१, १०) [वृक्ष ] भोजन देनेवाली एक कल्पवृक्ष -जाति (पउन १०२, ११९) । [दे. भोल] छन्द-विशेष ५६) । भेसन [भैवाप] घोषय, दवाई (उबा औौपः रंभा ) । भेसण देखो भीसण (भग ७, ६ प ३०७) । भेसन [भीषण] डराना, विभासन (घोष भोअल (प) २०१) । (ग) Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोइ-भोलिअ भोइ वि [भोजिन] भोजन करनेवाला (माचा पिंड १२० उब ) । भोइ देखो भोगि (सुपा ४०४ संबोध ५०; पिंग रंभा ) । - भोइ भोइअ } [दे. भोगिन, क] १ ग्रामाध्यक्ष, ग्राम का मुखिया, गाँव का नायक (वव ७; दे ६, १०८ उत्त १५, ६, बृह १; श्रोघभा ४३ पिह्न ४३६; सुख १, ३, पत्र २६८ भविः सुपा १९५६ गा ५५६) । २ महेश (षड् ) । भोजन [भोगिक ] भोग-युक्त, भोगासक्त, विवासी (१५९ मा ५५६) २ भोग- वंश में उत्पन्न (उत्त १५, ६) । भवि [भोजित ] जिसको भोजन कराया गया हो वह (सुर १, २१४) । भी [दे. भोगिनी ] ग्रामाध्यक्ष की पत्नी (पिड ४३६) गा ६०३; ७३७३ ७७६६ १०) । भोइया) श्री [भोग्या ] भोई ) स्त्री (बृह १; पिंड वेश्या (वव ७) । भार्या पत्नी ३६८ ) । २ = भोई देखो भो" भवत् । भोंड देखो भुंड (गा ४०२ ) । भोक्ख देखो भु'ज भोग न [भोग] १ स्पर्श, रस यादि विषय, उपभोग्य पदार्थ; 'रूवी भंते भोगा प्ररूवी' (भग ७, ७ - पत्र ३१०), 'भोगभोगाई भुजमाणे विहरह' (विपा १, २ ) । २ विषयसेवा (भग ६, ३३; औप), 'भुंजंता बहुविहाई भोगाई' (संथा २७) । ३ मदन- व्यापार, कामचेष्टाः 'कामभोगे यं खलु मए प्रप्पाह टु' (सून २, १, १२) । ४ विषयेच्छा, विषयाभिलाष ( आचा) । ५ विषय - सुख 'चइत्तु भोगाई सात १२, २०) तुच्या कामभोगा ( १२ ) हो भने विमलव कमपि मता' (वा मन्नंता' (सुपा ८३) । ६ भोजन, आहार (पंचा ५, ४ २०७) ७ दुरुस्थानीय जाति-विशेष एक क्षत्रियकुल (कप्प; सम १५१ १ --पत्र ११३ ११४) । ८ श्रमात्य श्रादि स्थानीय लोक वंश में उत्पन (घोष) २ पाइअसहमहणवो J शरीर, देह (लंबु २०) १० खर्च की फरणा (सुपा) । ११ सर्प का शरीर (दे ६, ८६) । करा देखो भोगंकरा (इक) । कुल [कुछ] पूग्यनयानीय कुलविशेष (पि (३६) पुरन ["पुर] नगर-विशेष (ग्राम) 'पुरिस [पुरुष] भोग-तत्पर पुरुष (हा १-पत्र ११२३ ११४) "भागि [भागिन] भोग-शाली वि ( पउम ५६,८८) भूमवि [भूम] भोग-भूमि में उत्पन्न (पम १०२, १६१) 'भूमि स्त्री [भूमि] देवकुरु प्रादि कर्मभूमि (इक) भाग पुंन ["भोग] भोगा शब्दादि विषय, मनोज शब्दादि ७७ १६) मा श्री ["नाहिनी] अपोलो में रहनेवाली एक दिलकुमारी प्रधोलोक देवी (डाइक) राय ["राज] भोव-कुल का राजा ( दस २८) वइया स्त्री ["यतिका ] लिपि विशेष (१-पत्र ६२) भोगवा (सम ३५) "बई श्री [ती] लोक में रहनेवाली एक दिक्कुमारी देवी (ठा ८; इक) । २ पक्ष की दूसरी सातवीं और बारहवीं रात्रि तिथि (१०, १५) पिस [विष] सर्प की एक जाति ( पण १ - पत्र ५० ) । भोगं श्री] [भोगं] धोलोक में रहने वाली एक दिक्कुमारी देवी (ठा ८ ) । भोगा श्री [भोगा] वी-विशेष (एक)। भोगि पुं [ भोगिन् ] १ सर्प, साँप (सुपा ३६६; कुप्र २६८ ) । २ पुंन. शरीर, देह (भग २, ५, ७, ७) । ३ वि. भोग-युक्त, भोगावत, विलासी (गुरा १११ कुप्र २६८ ) । भोग भोच्चा भोच्छ देखो भुज । भोज भोत्त देखो भुत्त (षड् सुख २, ९; सुपा YEK) ४ε५) । भोचए भोक्तव्त्र } देखो भुज । For Personal & Private Use Only ६५६ भोत्ता देखो भू = भुव = भू भोपि [भोक्] भोगनेवाला (जिसे १५६६ दे २, ४८ ) ? देखो भुज । भो भोलूण भोतृण देखो भुतृण (दे ६, १०६) । भोदूण देखो भू = भुव = भू । भोम व [भोम] भूमिसम्बन्धी (१, ६, १२) । २ भूमि में उत्पन्न (प्रोघ २८ जी ५) । ३ भूमि का विकार (ठा ८) । ४ पुं. मंगल ग्रह (पान)। ५ पुं. नगराकार विशिष्ट स्थान । ६ नगर ( सम्म १५,७८ ) 1 ७ निमित्त-शास्त्र-विशेष भूमि-कम्पादि से शुभाशुभ फल बतलानेवाला शास्त्र (सम ४९) अहोरात्र का सत्ताईस्यां 'अ च भीग (?) रिस है' (मुज्ज १० १३) ४ लिय न [लीक] भूमि सम्बन्धी मृषावाद ( परह १ २ ) ।भोमिज्ज देखो भोमेज्ज (सम २; उत्त २३६; २०३) । । भोभिर देलो भमिर 'लम्मद साह संसारे सुभोमिरो जीवों (संबोध ३२ ) । भोमेज वि] [भीमेव] १ भूमि का विकार, 7 भोमेयग) पार्थिव (सम १०० सुपा ४८ ) । २ पुं. एक देव-जाति, भवनपति नामक देवजाति (सम २ ) । भोरुड पु' [दे] भारुंड पक्षी (दे ६, १०८) भोल सक [दे] ठगना (सुपा ५२२) । भोल वि [दे] भर सरल चित्तवाला गुजराती मेंगोळी. "किया (महानि १४९) । भोहंत [भोटान्स] १ देश-विशेष, नेपाल भोव तक [दे] उगना, गुजराती में पुं के समीप का एक भारतीय देश, भोटान । २ भोटान का रहनेवाला (ग)। भोण देखो भोजन (प ) सुपा ५१४) । भोलग पुं [भोलक] यक्ष- विशेष, 'भोलगनामा जक्खो श्रभिवछियसिद्धिदा अस्थि' (धर्मसं 'भ' भोपा २९४) । भोलवण न [दे] वचन, प्रतापण (सम्मत RRE) I भोलविय वि [दे] वञ्चित, ठगा हुआ 7 भोलि ) (४१२ सुपा ५२२) । Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० पाइअसहमहण्णवो भोल्लय-मइहर भोल्लय न [दे] पाथेय-विशेष, प्रबन्ध-प्रवृत्त | भोवाल (अप) देखो भू-वाल (भवि)। पाथेय (दे ६, १०८)। भोहा (अप) देखो भूभ्र (पिंग)। भ्रत्रि (अप) देखो भंति =भ्रान्ति (हे ४, ३६०)। ॥ इअ सिरिपाइअसद्दमहण्णवम्मि भनाराइसहसंकलणो तीसइमो तरंगो समत्तो। म पुं[म प्रोष्ठ-स्थानीय व्यजन-वर्ण विशेष मइअ वि [दे. मतिक] १ भत्सित, तिरस्कृत मइल वि [दे. मलिन] गत-तेजस्क, तेज(प्राप) (दे ६, ११४)। २ न. बोये हुए बीजों के रहित, फोका (दे ६, १४२; से ३, ४७) । म अ [मा] मत, नहीं (हे ४, ४६८ कुमाः पाच्छादन के काम में लगती एक काष्ठ-मय मइल सक [ मलिनय् ] मैला करना, मलिन पि ६४; ११४ भवि)। वस्तु, खेती का एक औजार; 'नंगले मइयं | बनाना । मइलइ, मइलेइ, मइलिति, मइलैंति सिया' (दस ७, २८ परह १,१.-पत्र) (भवि, उव; पि ५५६)। कर्म. मइलिज्जइ मअआ स्त्री [मृगया] शिकार (अभि ५५) मइअ वि ["मय] व्याकरण-प्रसिद्ध एक (भवि पि ५५६) । बकृ. मइलंत (पउम २, मइस्त्री [मृति मौत, मरण (सुर २,१४३)19 तद्धित-प्रत्यय, निवृत्त, बना हुप्राः 'धम्ममइएहि १००)। कृ. मइलियव्य (स ३६६) । मइ स्त्री [मति] १ बुद्धि, मेधा, मनीषा अइसुंदरेहि' (उव), "जिएपडिम गोसीसचंद. | मइल अक [दे. मलिनाय ] तेज-रहित 'मेहा मई मणीसा' (पाना सुर २, ६५ णमइय' (महा)। होना, फीका लगना। वकृ. मइलंत (से ३, कुमाः प्रासू ७१)। २ ज्ञान-विशेष, इन्द्रिय मइआ स्त्री [मृगया] शिकार (सिरि १११५)। ४७; १०, २७)। और मन से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान (ठा ४, मइंद [मैन्द] राम का एक सैनिक, वानर मइलणन [मलिनना] मलिन करना (गउड)। ४. एंदि; कम्म ३, १८, ४, ११, १४; विशेष (से ४, ७; १३, ८३)। मइलणा स्त्री [मलिनना] १ ऊपर देखो विसे ६७) । अन्नाण न [ अज्ञान] विपरीत (प्रोघ ७८८)। २ मालिन्य, मलिनता। ३ मति-ज्ञान, मिथ्यादर्शन-युक्त मति-ज्ञान (भग मईद पुं[मृगेन्द्र] १ सिंह, पंचानन (प्राक कलंक; 'लहइ कुलं मइलणं जेण' (सुर ६, विसे ११४; कम्म ४, ४१) + °णाण, ३०; सुर १६, २४२, गउड)। २ छन्द का १२०), 'इमाए मइलगाए प्रमुगम्मि नयरुजाग्णाण, नाण न [ज्ञान] ज्ञान-विशेष एक भेद (पिंग)। णासन्ने नग्गोहपायवे उब्बंधणेण अत्तारणयं (विसे १०७ ११४, ११७; कम्म १, ४)। मइज्ज देखो मईअ = मदीय (षड् )। परिच्चइउं ववसिमो चक्कदेवो' (स ६४)। 'नाणावरण न [ज्ञानावरण] मति-ज्ञान मइत्तो अ[मत् ] मुझसे (प्राप्र)। का पावरक कर्म (विसे १०४)। 'नाणि मइलपुत्ती स्त्री [दे] पुष्पवती, रजस्वला स्त्री मइमोहणी स्त्री [दे. मतिमोहनी] सुरा, वि [ज्ञानिन] मति-ज्ञानवाला (भग) । (पड्)। मदिरा, दारू (दे ६, ११३; षड् )। 'पत्तिया स्त्री ["पात्रिका] एक जैन मुनि मइलिअ वि [मलिनित] मलिन किया हुआ शाखा (कप्प) भंस [भ्रश] बुद्धि- मइरा स्त्री [मदिरा] ऊपर देखो (पान; से (श्रावक ६५; पि ५५६; भवि)। विनाश (भग; सुपा १३४) + म, मंत, २, ११, गा २७० दे ६, ११३) । मइल्ल वि [मृत] मरा हुया । स्त्री. 'ल्लिया, 'वंत वि [°मत् ] बुद्धिमान् (ओघ ६३०; मइरेय न मैरेय] ऊपर देखो (पान)। 'एवं खलु सामी ! पउमावती देवी मइल्लियं याचा भवि) । दारियं पयाया। तए णं करणगरहे राया तीसे मइल वि मिलिन मैला, मल-युक्त, अस्वच्छ मई देखो मई = मृगी (कुप्र ४४)। मइल्लियाए दारियाए नीहरणं करेति, बहूणि (हे २, ३८, पानः गा ३४; प्रासू २५ लोइयाई मयकिच्चाई' (णाया १,१४-पत्र मइअ वि [मत्त] मद-युक्त, उन्मत्त (से ७, भवि) १८६)। ६६; गा ४६८, ७०६, ७६१)। मइल पुं[दे] कलकल, कोलाहल (दे ६, मइहर पुं[दे] ग्राम-प्रधान, गाँव का मुखिया मईअ देखो मा=मा ।। । (दे६, १२१)। देखो मयहर । For Personal & Private Use Only Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई-मखण पाइअसहमहण्णवो ६६१ मई स्त्री [दे] मदिरा, दारू (दे ६, ११३)। मउल प्रक [मुकुलय् ] सकुचना, संकुचित मऊह पुं[मयूख] १ किरण, रश्मि (पान)। मई स्त्री [मृगी] हरिणी, हरिण की मादा, होना; 'मउलेंति णप्रणाई' (गा ५) । वकृ. २ कान्ति, तेज । ३ शिखा। ४ शोभा (हे हिरनी (गा २८७ से ६, ८० दे ३,४६, मउलंत,मउलित (से ११, ६२: पि ४६१) १,१७१; प्राप्र)। ५ राक्षस वंश के एक कुप्र १०)। मउलण न [मुकुलन] संकोच; 'जं चेन राजा का नाम, एक लंका-पति (पउम ५, मई देखो मइ = मति । °म, व वि [°मत् ] मउलणं लोप्रणाणं' (हे २, १८४विसे | २६५)। बुद्धिवाला (पि ७३, ३६६, उप १४२ टी) . ११०६; गउड)। मए सक [ मदय् ] मद-युक्त करना, उन्मत्त मईअ वि मदीय] मेरा, अपना (षड्; मउलाअ अक [ मुकुलय्] १ सकुचना । २ बनाना । वकृ. मएंत (से २, १७)। | सक. संकुचित करना । वकृ. मउलाअंत कुमाः स ४७७; महा)। मएजारिस वि [माइश] मेरे जैसा, मेरे मउ [दे] पर्वत, पहाड़ (दे ६, ११३)। (नाट-मालती ५४; पि १२३)। तुल्य; 'मएजारिसाणं पुरिसाहमारणं इम मउ वि [मृदु. क] कोमल, सुकुमार मउलाइय वि [मुकुलित] सकुचाया हुआ, | चेवोचियं' (स ३३)। मउअ (हे १, १२७ षड्; सम ४१, सुर संकोचित (वजा १२६) । मउलाब देखो मउला । कर्म, मउलाविजंति मं (अप) देखो म% मा (षड्; हे ४, ४१८ ३, ३७ कुमा)। स्त्री. °उई (प्राकृ८; (पि १२३) । वकृ. मउलावेत (पउम १५, गउड)। कुमा)। कार पुं[कार] 'मा' अव्यय (ठा १०-पत्र ४६५)। मउअ वि [दे] दीन, गरीब (दे ६, ११४) ८३)। मउलावअ वि [मुकुलायक संकुचित करने मंकड देखो मक्कड (प्राचा)। मउइअ वि [मृदुकित] जो कोमल बना वालाः 'हरिसविसेसो वियसावो य मउलावरो मंकण पुं[मत्कुण] खटमल, क्षुद्र कीट-विशेष हो (गउड)। य अच्छोरण' (गउड)। गुजराती में 'मांकरण' (जी १६)। मउई देखो मउ - मृदु । मउलाविय देखो मउलाइय (उप पृ ३२१ मंकग पुंस्त्री [दे. मर्कट] बन्दर, बानर । स्त्री. मउंद पुं [मुकुन्द] १ विष्णु, श्रीकृष्ण सुपा २००; भवि) । णी; 'सयमेव मंकणीए धोए तं कंकणी (राय)। २ वाद्य-विशेष; 'दुंदुहिमउंदमद्दलमउलि पुंस्त्री [दे] हृदय-रस का उच्छलन | बद्धा' (कुप्र १८५)।तिलिमापमुहेण तूरसद्देण' (सुर ३, ६८), (दे ६, ११५)। मंकाइ पुं [मङ्काति] एक अन्तकृद् महर्षि 'महामदसंठाणसंठिए' (भग)। | मउलि मुकुलिन्] सर्प-विशेष (पएह १, (अंत १८)मउक्क देखो माउक = मृदुत्व (षड् )। ।१-पत्रः १-पत्र ८, पराग १-पत्र ५०)। पराण -पत्र ५०) मंकार पुं[मकार] 'म' अक्षर (ठा १०मउड पुंन [मुकुट] शिरो-भूषण, किरीट, मउलि पुंस्त्री [मौलि] १ किरीट, मुकुट, शिरो पत्र ४६५)। सिरपंच (पव ३८; हे १, १०७; प्राप्र; | भूषण (पास)। २ मस्तक, सिर (कुप्र ३८६; मंकिअ न [मङ्कित] कूद कर जाना (दे ८, कुमाः पाप्रा औप)। कुमा; अजि २२, अच्चु ३४)। ३ शिरो १५)। मउड पुंदे] धम्मिल्ल, कबरी, जूट, वेष्टन विशेष, एक तरह की पगड़ी (पव ३८)। मंकुण देखो मंकण = मत्कुण (दे; भवि) । मउडि जूड़ा (पामा दे ६, ११७)। ४ चूड़ा, चोटी । ५ संयत केश। ६ पुं. हत्थि पुं[हस्तिन] गएडीपद प्राणि-विशेष मउण देखो मोण (हे १, १६२; चंड)। अशोक वृक्ष । ७ स्त्रो. भूमि, पृथिवी (हे १, | (परण १-पत्र ४६)। (पएण १-4 मउर पुन [मुकुर] १ बाल-पुष्प, फूल की १६२, प्राकृ१०)। मंकुस [दे] देखो मंगुस (गा ७८१) । कली. बौर (कमा)। २ दर्पण प्राईना. मउलिअ बि [मुकुलित] १ संकुचित (सुर मंख देखो मक्ख %D बृक्ष । वक़. मंखंत शीशा । ३ कुलाल-दण्ड । ४ बकुल का पेड़। ३, ४५; गा ३२३ से १, ६५) । २ मुकुला- | (राज)। ५ मल्लिका-वृक्ष : ६ कोली-वृक्ष । ७ ग्रंथि कार किया हुआ (प्रौप)। ३ एकत्र स्थित मंख [दे] अण्ड, वृषण (दे ६, ११२)। पर्ण-वृक्ष, चोरक (हे १, १०७ प्राकृ) (कुमा) । ४ मुकुल-युक्त; कलिका सहित मंख पुं[मङ्क] एक भिक्षुक जाति जो चित्रमउर । [दे] वृक्ष-विशेष, अपामार्ग, पट दिखाकर जीवन-निर्वाह करता है (णाया मउरंद ओंगा, लटजीरा, चिरचिरा (दे ६, राचिरा मउवी देखो मउई (हे २, ११३; कुमा)। १, १ टी प्रौप; पण्ह २, ४ पिड ३०६; ११८)। मऊर पुंस्त्री [मयूर] पक्षि-विशेष, मोर (प्रातः कप्प)। फलय न [फलक] १ मंख का मउल देखो मउड = मुकुट (से ४, ५१)। हे १, १७१; गाया १, ३)। स्त्री.री तख्ता । २ निर्वाह-हेतुक चैत्य (पंचा ६, मउल पुन [मुकुल] थोड़ी विकसित कली, (विपा १, ३) । माल न [ माल] एक | ४५ टी) कलिका, बौर (रंभा २६)। २ देह, शरीर । | नगर (पउम २७, ६)। मंखण न [म्रक्षण] १ मक्खन; 'मखणं व ३ प्रात्मा: 'मउलं, मउलो' (हे १,१०७; मऊरा स्त्री [मयूरा] एक रानी, महापद्म | सुकुमालकरचरणा' (उप ६४८ टी)। २ प्राप्र) | चक्रवर्ती की माता (पउम २०, १४३)। अभ्यंग, मालिश (सुर १२, ८) For Personal & Private Use Only Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ पाइअसद्दमहण्णवो मंखलि-मंजूसा मंखलि पु[मङ्खलि] एक मंख-भिक्षु, गोशा- मंगला स्त्री [मङ्गला] भगवान् श्रीसुमतिनाथ रहते हैं (सुज १२-पत्र २३३)। इमंच लक का पिता पुत्त पुं[पुत्र] गोशालक, | की माता का नाम (सम १५१)। पुं[तिमञ्च] १ मचान के ऊपर का मञ्च, प्राजीवक मत का प्रवर्तक एक भिक्षु जो पहले मंगलालया स्त्री [मङ्गलालया] एक नगरी ऊपर ऊपर रखा हुआ मंच (प्रौप)। २ भगवान महावीर का शिष्य था (ठा १० का नाम (पाचू १)। गणित-प्रसिद्ध एक योग जिसमें चन्द्र, सूर्य उवा) । मंगलावइ ई [मङ्गलापातिन] सौमनस-पर्वत आदि नक्षत्र एक दूसरे के ऊपर रखे हुए मंग सक [ मग १ जाना। २ साधना। का एक कूट (इक ज ४)। मंचों के माकार से अपस्थित होते हैं (सुज ३ जानना । कर्म. मंगिजए (विसे २२)। मंगलावई स्त्री [मङ्गलावती] महाविदेह वर्ष | १२)। का एक विजय, प्रान्त-विशेष (ठा २, ३; | मंची स्त्री [मश्चा] खटिया, खाटः 'ता पारुह मंग पुं [मङ्ग] १ धर्म (विसे २२)। २ रंजन इक) मंचीए' (सुर १०,१६८१६९)। द्रव्य-विशेष, रंग के काम में प्राता एक द्रव्य | मंगलावत्त पुं [मङ्गलावर्त] १ महाविदेह मंछुडु (अप) प्र [मङक्षु] शीघ्र, जल्दी (सिरि १०५७)। वर्ष का एक विजय, प्रान्त-विशेष (ठा २,३; (भवि)। मंगइय देखो मगइय (निर १, १)। इन)। २ देव-विशेष (जं ४)। ३ न. एक मंजर पुं[माजोर] मंजार, बिल्ला, बिलाव मंगरिया स्त्री [दे] वाद्य-विशेष (राय)। देव-विमान (सम १७)। ४ पर्वत-विशेष का (हे २,१३२ कुमा) । देखो मज्जर, मज्जार। मंगल पूं [मङ्गल] १ ग्रह-विशेष, अंगारक | एक शिखर (इक)।" मंजरि स्त्री [मञ्जरि] देखो मंजरी (ौप)। ग्रह (इक) । २ न. कल्याण, शुभ, क्षेम, श्रेय | मंगलिअ) वि [माङ्गलिका १ मंगल- मंजरिअ वि[मञ्जरित मञ्जरी-युक्त 'मंजरियो (कुमा)। ३ विवाह सूत्र-बन्धन (स्वप्न ४६)। मंगलीअ ) जनक 'समलजीवलोअमंगलिन- चूयनिकरो' (स ७१६)। ४ विघ्न-क्षय (ठा ३, १)। ५ विघ्न-क्षय के जम्मलाहस्स' (उत्तर ९० अच्चु ३६; सुपा मंजरिआ। स्त्री [मञ्जरिका, री] नवोत्पन्न लिए किया जाता इष्टदेव-नमस्कार प्रादि शुभ ७८) । २ प्रशंसा-वाक्य बोलनेवाला; 'सुहम- मंजरी । सुकुमार पल्लवाकार लता, बौर कार्य । ६ विघ्न-क्षय का कारण, दुरित- गलीए (सूम १, ७, २५)। (कुमा, गउड़)। गुंडी स्त्री [गुण्डी] वल्लीनाश का निमित्त (विसे १२, १३, २२, २३ मंगल्ल वि [मङ्गल्य, माङ्गल्य मंगल-कारी, विशेष: 'तोमरिगुंडी य मंजरीगुंडी' (पाप) । २४; प्रौपः कुमा)। ७ प्रशंसावाक्य, खुशामद मंगल-जनक, मांगलिक; 'पढमाणो जिणगुण मंजार देखो मंजर (हे १, २६)।(सूम १,७, २५)। ८ इष्टार्थ-सिद्धि, वाञ्छित- गरणनिबद्धमंगल्लवित्ताई' (चेइय १६०; णाया मंजिआ स्त्री [दे] तुलसी (दे ६, ११६) । प्राप्ति (कप्प) । ६ तप-विशेष, आयंबिल १,१; सम १२२, कप्पा औपः सुर १, २३८; मंजिट वि [माअिष्ट] मजीठ रंगवाला, (संबोध ५८)। १० लगातार आठ दिनों का | १५, १७३; सुपा ५५)। लाल । स्त्री. 'ट्ठी (कप्पू)।उपवास (संबोध ५५)। ११ वि. इशार्थ- मंगी स्त्री मिङ्गी] षड्ज ग्राम की एक मूच्र्छना | माजहा स्त्री [मञ्जिष्टा] मजीठ, रंग-विशेष साधक, मंगल-कारक (आव ४) उभय पु (ठा ७- पत्र ३६३)। (कप्पू, हे ४, ४३८)। [ध्वज मांगलिक ध्वज (भग)। तूर न मंगु पु[मङ्ग] एक सुप्रसिद्ध जैन प्राचार्य, मंजीर न [मञ्जीर] १ नूपुरः 'हंसय नेउरं [तूर्य] मंगल-वाद्य (महा) + दीव पुं प्रार्थमंगु (गदिः ती ७; आत्म २३)। च मंजीर' (पाय, स ७०४; सुपा ६६) । २ [दीप मांगलिक दीप, देव-मन्दिर में आरती छन्द-विशेष (पिंग)। मंगुल न [दे] १ अनिष्ट (दे ६, १४५; सुपा के बाद किया जाता दीपक (धर्मवि १२३ मंजीर न [दे] शृङ्खलक, साँकल, जंजीर, ३३८ सूक्त ८०) । २ पाप (दे ६, १४५, पंचा ८, २३) । पाढय पुं [पाठक] सिकड़ (दे ६, ११६)। वजा गउडा सूक्त ८०) । ३ पुं. चार, मंज विमा1१ सुन्दर, मनोहर (पान)। मागध, चारण (पाप) । पाढिया स्त्री तस्कर (दे ६, १४५) । ४ वि. असुन्दर, [पाठिका] वीणा-विशेष, देवता के आगे २ कोमल, सुकुमार (प्रौपः कप्प)। ३ प्रिय, खराब (पात्र, ठा ४, ४-पत्र २७१, स सुबह और सन्ध्या में बजाई जाती वीणा इष्ट (राया जं १)। ७१३; दस ३)। स्त्री. ली; 'मंगुली णं (राज)। मंजुआ स्त्री [दे] तुलसी (दै ६, ११६; समणस्स भगवनो महावीरस्स धम्मपएणत्ती' पान)। मंगल वि [दे] १ सदृश, समान (दे ६, (उवा)। ११८)। २ न. अग्नि, प्राग। ३ डोरा बूनने मंगुस पुं[दे] नकुल, न्यौला, भुजपरिसपं मंजुल वि [मञ्जल] १ सुन्दर, रमणीय, मधुर का एक साधन । ४ बन्दनमाला (विसे २७)। (सम १५२, कप्पः विपा १,७; पायः पिंग)। विशेष (दे ६, ११८ सूत्र २, ३, २५)। २ कोमल (णाया १; १)। मंगलग पुन [मङ्गलक] स्वस्तिक आदि पाठ मंच [दे] बन्ध (दे ६, १११)। मंजुसा । स्त्री [मञ्जूषा] १ विदेह वर्ष की मांगलिक पदार्थ (सुपा ७७)। मंच पुं [मश्च] १ मचान, उच्चासन (कप्प; मंजूसा । एक नगरी (ठा २, ३–पत्र ८० मंगलसज्झ न [दे] वह खेत जिसमें बीज | गउड) । २ गणितशास्त्र प्रसिद्ध दश योगों में इक)। २ पिटारी, छोटी संदूक (सुपा ३२१; बोना बाकी हो (दे ६, १२६)। तीसरा योग, जिसमें चन्द्रादि मंचाकार से | कप्पू)। For Personal & Private Use Only Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६३ धीश (भवि) समय का मंठ-मंडुक्की पाइअसहमहण्णवो मंठ वि[दे] १ शठ, लुच्चा, बदमाश । २ पुं. (सुज्ज १, ७) हिव पुं [धिप] | मंडव न [माण्डव्य] १ गोत्र-विशेष। २ पुंस्त्री. बन्ध (दे ६, १११) मण्डलाधीश (भवि)। हिवइ पुं| उस गोत्र में उत्पन्न (ठा ७–पत्र ३६०)। मंड सक [ मण्ड् ] भूषित करना, सजाना। [धिपति] वही अर्थ (भवि)। मंडविआ स्त्री [मण्डपिका] छोटा मण्डप मंडइ ( षड ), मंडंति (पि ५५७)। मंडल पुन [मण्डल ] योद्धा का युद्ध समय का मंड सक[दे] १ आगे धरना। २ प्रारम्भ | प्रासन (वव १) पवेस पुं [प्रवेश] मंडव्यायण न [माण्डव्यायन] गोत्र-विशेष करना, गुजराती में 'मांडवु"; 'जो मंडइ रण- एक प्राचीन जैन शास्त्र (णाद २०२) । (सुज १०, १६, इक)। भरधुरहो खंधु' (भवि) । मंडलग्ग पुंन [मण्डलाय] तलवार, खड्ग मंडावण न [मण्डन] सजाना, विभूषित मंड पुंन [मण्ड] रसः 'तयाणंतरं च णं (हे ३, ३४. भवि)।. कराना । धाई स्त्री [धात्री] सजानेवालो घयविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ सारइएणं | मंडलय पुं [मण्डलक] एक माप, बारह दासी (प्राचा २, १५, ११)।गोघयमंडेणं (उवा)। कर्म-माषकों का एक बॉट (अणु १५५)। मंडावय वि [मण्डक] सजानेवाला (निचूह)मंडअ देखो मंडव = मण्डप (नाट-शकु मंडलि पुं[मण्डलिन्] १ मण्डलाकार चलता ६८)। मंडि वि [मण्डित] १ भूषित (कप्प; वायु, चक्र-वात, बवंडर (जो ७)। २ माण्डमंडअ, पुं [मण्डक] खाद्य-विशेष, मांडा, लिक राजा; तेवीसं तित्थंकरा पुत्वभवे मंडिअ कुमा)।२ पुं. भगवान् महावीर के मडग एक प्रकार की रोटी (उप पृ ११५, मंडलिरायाणो हात्था' (सम ४२)। ३ सर्प षष्ठ गणधर का नाम (सम १६, विसे पव ४ टी कुप्र ४३, धर्मवि ११६)। की एक जाति (पण्ह १-पत्र ५१)। ४ १८०२)। ३ एक चोर का नाम (धर्मवि न. गोत्र-विशेष, जो कौत्स गोत्र की एक ७२, ७३) । कुच्छि पुन [कुक्षि मंडग वि [मण्ड क] विभूषक, शोभा बढ़ाने ] चैत्य विशेष (उत २०, २)। पुत्त पुं[पुत्र] वालाः 'ससि च..........'जोइसमुहमंडगं । शाखा है। ५ पुंस्त्री. उस गोत्र में उत्पन्न (ठा भगवान महावीर का छठवाँ गणधर (कप्प)। (कप्प) ७-पत्र ३६०), "पुरी स्त्री ['पुरी] नगरमंडग न [मण्डन] १ भूषण, भूषा (गउड विशेष, गुजरात का एक नगर, जो आजकल मंडिअ वि [दे] रचित बनाया हुआ। २ प्रासू १३२) । २ वि. विभूषक, शोभा बढ़ाने- भी मांडल' नाम से प्रसिद्ध है (सुपा ६५९)ल बिछाया हुआ । वाला (गउडः कुमा)। स्त्री.णी (प्रासू १४) मंडलिअ वि [मण्डलित] मण्डलाकार बना 'संसारे हयविहिणा महिलारूवेण मंडिए पासे । धाई स्त्री [ धात्री] आभूषण पहनानेवाली हुमाः मंडलियचंडकोदंडमुक्कंडोलिखंडिय- बझंति जाणमाणा अयाणमारणावि बज्झति ॥' दासी (गाया १,१-पत्र ३७)।- सिरेहि (सुपा ४; वज्जा ६२; गउड)। (रयण ८)। लिथ वि मिण्डलिक. माण्डलिका मंडल पुं [दे. मण्डल] श्वान, कुत्ता (दे ६, मंडलिअ वि [मण्डलिक, माण्डलिक] १ ३ पागे धरा हुआ: 'मह मंडिउ रणभरधुरहो ११४; पाना स ३६८; कुप्र २८० सम्मत्त मण्डलाकारवाला । २ पुं. मंडल रूप से स्थित खंधु' (भवि)। ४ प्रारब्धः 'रणु मंडिउ १६०)। पर्वत-विशेष (ठा ३, ४-पत्र १६६; परह कच्छाहिवेण ताम' (भवि, सण)। मंडल न [मण्डल] १ समूह, यूथ (कुमा २, ४)। ३ मण्डलाधीश, सामान्य राजा मंडिल्ल पुंदे] अपूप, पूषा, पक्वान्न-विशेष गउड; सम्मत्त १६०)। २ देश (उप १४२ (णाया १, १: परह १, ४ कुमाः कुप्र (दे६, ११७)। टी कुप्र ४६; २८०)। ३ गोल, वृत्ताकार १२०; महा)। मंडी स्त्री [दे] १ पिधानिका, ढकनी (दे ६, पदार्थ (कुमाः गउड)। ४ गोल आकार से मंडली स्त्री [मण्डली] १ पंक्ति, श्रेणी, समूह १११ पास)। २ अन्न का अग्र रस, माड़। वेष्टन (ठा ३, ४–पत्र १६६; गउड)। ५ (से ५, ७६; गच्छ २, ५६)। २ अश्व की ३ माँड़ी, कलप, लेई (भाव ४), 'पाहुडिया चन्द्र-सूर्य आदि का चार-क्षेत्र (सम ६६ एक प्रकार की गति (से १३, ६६ महा)। स्त्री [प्राभृतिका] एक भिक्षा-दोष, अन्न के गउड)। ६ संसार, जगत् (उत्त ३१, ३; ३ वृत्ताकार मंडल–समूह (संबोध १७ माँड़ अथवा माँड़ी को दूसरे पात्र में रखकर ४०५,६)। ७एक प्रकार का कुष्ठ रोग । उव)। दी जाती भिक्षा का ग्रहण (प्राव ४)। ८ एक प्रकार की वृत्ताकार दाद-ददु (पिंड मंडलीअ देखो मंडलिअ = मण्डलिक; 'तह ६००)। ६ विम्ब; 'उज्झइ ससिमंडलकलस- तलवरसेरणाहिवकोसाहिवमंडलीयसामंते (सुपा मंडक) देखो मंडूअ (श्रा २८ पएह १,१७ दिएणकंठग्गहं मयणो' (गउड)। १० सुभटों ___७३; ठा ३, १-पत्र १२६) । मंडुक्क । हे २, ६८ षड् ; पाम)। का स्थान-विशेष (राज)। ११ मण्डलाकार मंडव पुं [मण्डप] १ विश्राम स्थान । २ मंडुक्कलिया, स्त्री [मण्डूकिका, की] १ स्त्री परिभ्रमण (सुज्ज १, ७; स ३४६)। १२ वल्ली आदि से वेष्टित स्थान (जीव ३; स्वप्न मंडुकिया , मेंढक, भेकी, दादुरी (उप १४७ इंगित क्षेत्र (ठा ७-पत्र ३६८)। १३ पुं. | ३६; महा कुमा)। ३ स्नान आदि करने का मंडुक्की । टी; १३७ टी)। २ शाकनरकावास-विशेष (देवेन्द्र २६)। व वि| गृह; 'न्हाणमंडवंसि', 'भोयणमंडवंसि' (कप्पा विशेष, वनस्पति-विशेष (उवा; परण १[वत् ] मण्डल में परिभ्रमण करनेवाला। प्रौप)। पत्र ३४) Jain Education Infemational For Personal & Private Use Only Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज सिमामालाजणकाप मंतिण ६६४ पाइअसहमहण्णवो मंडुग-मंथु मंडुग पुं [मण्डूक] १ मेंढक, दादुरः मंतण न [मन्त्रण] १ गुप्त पालोचना, गुप्त मंथ पुं [मन्थ] १ दही विलोने-महने का मंडूअ 'मंडुगगइसरिसो खलु अहिगारो होइ मसलहत (पउम ५, ६६, ८२, ४६)। २ दण्ड, मथनी (पिसे ३८४)। २ केवलि-समुद्धात मंडूक | सुत्तस्स' (वव ७ कुमा)। २ वृक्ष- मसलहत, परामर्श, सलाह: 'मंतरणत्थं हक्का- के समय मन्थाकार किया जाता जीव-प्रदेशमंडूर / विशेष, श्योनाक, सोनापाठा । ३ रिप्रो प्रणेण जिणदत्तसेट्टो (कुप्र ११६)। समूह (ठा ६; प्रौप)। बन्ध विशेष (संक्षि १७); 'मंडूरो' (प्राप्र)। ३ जाप; 'पुणो पुणो मंतमंतणं सुयं (चेइय मंथ (अप) देखो मत्थ = मस्त (पिंग)। ४ छन्द-विशेष (पिंग)। प्पुअ न [प्लुत] ७६३)। मंथण न [मन्थन] १ विलोडन, विलोने की भेक की चाल । २ पुं. ज्योषि-प्रसिद्ध योगमंतर देखो वंतर (कप्प)। क्रिया; 'खीरोअमंथणुच्छलिअदुद्धसित्तो व्व विशेष, भेक की गति की तरह होनेवाला मंता अ [मत्वा] जानकार (सूम १, १०, ६; महुमहणो' (गा ११७)। २ घर्षण; 'मंथरणयोग (सुज्ज १२-पत्र २३३)। प्राचा १, १, ५, १, १, ३, १, ३, पि जोए अग्गो' (संबोध १)। ३ पुंन. मथनी, ५८२) दही प्रादि मथने की लकड़ी (प्राकृ १४)। मंडोवर न [मण्डोवर] नगर विशेष (ती | मंति पुं[मन्त्रिन्] १ मन्त्री, अमात्य, दीवान मंथणिआ स्त्री [मन्थनिका] १ मंथनी, १५)। (कप्प; औप; पाप)। २ वि मन्त्रों का जान- महानी, दही मथने की छोटी लकड़ी (राज)। मंत सक [मत्रन्य] १ गुप्त परामर्श करना, कार (गु १२) । २ मथानी, दधि-कलशी, दही महने की हँडिया मसलहत करना। २ आमंत्रण करना । मंतइ मंति [दे] विवाह-गणक, जोशी, ज्योतिवित् (दे २, ६५)। (महाः भवि)। भवि. मंतही (अप) (पिंग)। (दे ६, १११)। मंथणी स्त्री [मन्थनी] ऊपर देखो (दे २, वकृ. मंतंत, मंतयंत (सुपा ५३५, ३०७) मंतिअ वि [मन्त्रित गुप्त रीति से पालोअभि १२०)। सकृ. मंतिअ, मंतिऊण, चित (महा)। मंथर वि [मन्थर] १ मन्द, धीमा (से १, मंतेऊण (अभि १२४महा)। मंतिअ देखो मंत = मन्त्रय ।। ३८; गउड, पान; सुपा १)। २ विलम्ब से मंत पुन [मन्त्र] १ गुप्त बात, गुप्त आलो होनेवाला (पंचा ६, २२)। ३ पुं. मन्थनमंतिअ वि [मान्त्रिक ] मन्त्र का ज्ञाता; चना: 'न कहिज्जइ एसिमेरिसं मंत' (सिरि दण्ड; 'वीसाममंथरायमाणसेलवोच्छिएणदूर__ मंतेण मंतियस्स व वाणीए ताडिमो तुझ ६२५); 'फुट्टिस्सइ बोहित्यं महिलाजणकहिय वडणाओ' (गउड)।(धर्मवि ६ मन ११)। मंतं व' (धर्मवि १३; कुमा)। २ जप्य, जाप मंतिण देखो मंति = मन्त्रिन्; निगहिरो मंति मंथर वि [दे. मन्थर] १ कुटिल, वक्र, टेढ़ा करने योग्य प्रणवादिक अक्षर-पद्धति (रणाया णेहि कुसलेहि' (पउम २१,६०, ६५, ८ (दै ६, १४५; भवि) । २ स्त्रीन. कुसुम्भ, १, १४; ठा ३, ४ टी-पत्र १५६ कुमाः भवि)। वृक्ष-विशेष, कुसूम का पेड़ (दे ६, १४५) । प्रासू १४), जंभग पु["जृम्भक] एक मंतु वि [मन्त] १ ज्ञाता, जानकार । २ पुं. स्त्री. रा; 'मंथरा कुसुंभों (पाप) देव-जाति (भग १४, ८ टी--पत्र ६५४) जीव, प्राणी (विसे ३५२५) मंथर वि [दे] बहु, प्रचुर, प्रभूत (दे ६, दवया नावता मन्त्राधिष्ठायक देव | मंतु देखो मण्णु (हे २, ४४; षड् ; निचू २) १४५; भवि)।(श्रा १)4°न्नु वि [ज्ञ] मन्त्र का जानकार | (सुपा ६०३)। वाइ वि [वादिन् स्त्री. मई (कुमा)। (गउड) मान्त्रिक, मन्त्र को ही श्रेष्ठ माननेवाला (सुपा ५६७) + 'सिद्ध वि [सिद्ध] १ सब मन्त्र विप्पियं' (पान)। 'तत्तो विसुद्धपरिणाममेरुमंथाणमहियभवजजिसके स्वाधीन हों वह । २ बहु-मन्त्र । ३ मतुआ श्री [दे] लजा, शरम (दे६, ११६; लही' (धर्मवि १०७ दे ६, १४१, वज्जा प्रधान मन्त्रवाला; 'साहोणसव्वमंतो बहुमंतो भवि)। ४. पाना समु १५०) । २ छन्द-विशेष वा पहाणमंतो वा, नेनो स मंतसिद्धो | मंतेल्लि स्त्री [दे] सारिका, मैना (दे ६, (पिग) (प्रावम) ११६)। मंथिअ वि [मथित] विलोडित (दे २,५८० मंत वि [मान्त्र] मन्त्र-सम्बन्धी, मान्त्रिक । मंथ सक [ मन्थ् ] १ विलोडन करना । २ पान) स्त्री 'मंती ठकारपंतिव्व' (धर्मवि २०)। मारना, हिंसा करना । ३ अक. क्केश पाना। मंथु पुन [दे] १ बदरादि-चूर्ण (पण्ह २, ५; मंथइ (हे ४, १२१, प्राकृ. ३३; षड् )। उत्त ८, १२; सुख ८, १२; दस ५, १,६८ मंत देखो मा = मा। कवकृ. मंथिजत, मंथिजमाण, मच्छंत । ५, २, २४, प्राचा) । २ चूर्ण, चूर, बुकनी मंतक्ख न [दे] १ लज्जा, शरम । २ दुःख (पउम ११३, ३३; सुपा २५१, १६५; परह (प्राचा २, १,८०८)। ३ दूध का विकार(दे ६, १४१)। ३ अपराधः 'न लेइ गरुयंपि १, ३-पत्र ५३)। संकृ. मंथित्तु (सम्मत्त । विशेष, मट्ठा और माखन के बीच की अवस्था णाम मंतक्वं' (गउड) २२६)। वाला पदार्थ (पिंड २८२)। । मंतु पुंन । १ सब म For Personal & Private Use Only Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंद-मकोड पाइअसहमहण्णवो ६६५ मंद पु [मन्द] १ ग्रह-विशेष, शनिश्चर (सुर मंदाय न [मन्दाय] गेय-विशेष (जं १)। मंसचक्षुणा' (सम ६०४ सण वि[शन] १०, २२४)। २ हाथी की एक जाति (ठा मंदार पु[मन्दार] १ कल्पवृक्ष-विशेष (सुपा मांस-भक्षक (कुमा) "सि, सिण वि ४, २–पत्र २०८)। ३ वि. अलस, धीमा, १)। २ पारिभद्र वृक्ष । ३ न. मन्दार वृक्ष [शिन] वही अर्थ (पउम १०५, ४४ मृदु (पात्र; प्रासू १३२)। ४ अल्प, थोड़ा | का फूल; 'मंदारदामरमणिजभूय' (कप्पा महा), 'मंसासिरणरस (पउम २६, ३७)। (प्रासू ७१)। ५ मूर्ख, जड़, अज्ञानी (सूम गउड) । ४ परिभद्र वृक्ष का फूल (वजा मंस न मांस फल का गर्भ, फल का गुद्दा १, ४, १, ३१ पाप)। ६ नोच, खल, (प्राचा २, १, १०, ५, ६)। 'मुहमेव अहीणं तह य मंदस्स' (प्रासू १९)। मंदिअ वि [मान्दिक] मन्दता वाला, मन्द मंसल वि [मांसल ] पीन, पुष्ट, उपचित ७ रोग ग्रस्त, रोगी (उत्त८,७)। उणिया | 'बाले य मंदिए मूढे' (उत्त ८, ५)! (पान हे १, २६७ पण्ह १, ४)। स्त्री [पुण्यका] देवी-विशेष (पंचा १६, | मंदिर न [मन्दिर] १ गृह, घर (गउडा भवि)। मंसी स्त्री [मांसी गन्ध-द्रव्य-विशेष जटामांसी २४)। भग्ग वि [भाग्य] कमनसीब | २ नगर-विशेष (इक प्राचू १)।. (पएह २, ५-पत्र १५०)।(सपा ३७६; महा)। भाअ वि [भाग, | मंदिर वि [मान्दिर] मन्दिर-नगर का: 'सीह- मंस पंन [उम1 टाटी-मॅट-पट के भाग्य वही अर्थ (स्वप्न २२, कुमा)। पुरा सोहा वि य गीयपुरा मंदिरा य बहुरणाया पर का बाल (सम ६० प्रौपः दुमा), 'मंसू 'भाइ वि [ भागिन्] वही अर्थ (स ७५६; (पउम ५५, ५३) (हे १, २६, प्राप्र), मंसूई' (उवा)। सुपा २२९)। भाग देखो भाअ (सुर मंदीर न [दे] १ शृंखल, साँकल ।२ मन्थान- मंसु देखो मंस मंसूणि क्षिन्नपुत्वाई' (प्राचा)। १०, ३८)। दण्ड (दे ६, १४१)। मंसुडग न [दे, मांसोन्दुक] मांस-खण्ड मंद न [मान्द्य] १ बीमारी, रोग; 'नय मंदुय पु[दे.मन्दुक] जलजन्तु-विशेष (पराह | (पिंड ५८६)। मंदेणं मरई कोइ तिरिमो अहव मणप्रो वा'. मंसुल्ल वि [मांसवत् ] मांसवाला (हे २, (सुपा २२६) । २ मूर्खता, बेवकूफी; 'बालस्स मंदुरा स्त्री [ मन्दुरा] प्रश्व-शाला (मुपा १५६) मंदयं बीय' (सूम १, ४, १, २६)। मकंडेअ ' [मार्कण्डेय ऋषि-विशेष (अभि मंदक्ख न [मन्दाक्ष] लज्जा, शरम (राज)। मंदोदरी। स्त्री [मन्दोदरी] १ रावण-पत्नी २४३)। | मंदोयरी (से १३, ६७)। २ एक वणिक्मंदग) न [मन्दक] गेय-विशेष; एक प्रकार मक्कड पुंमिर्कट] १ वानर, बनरा, बन्दर (गा पत्नी (उप ५९७ टी)। मंदय का गान (राज; ठा ४, ४-पत्र १७१, उप पृ१८८० सुपा ६०६: दै २, २८५)IV मंदोशण (मा)। वि मन्दोष्ण अल्प गरम ७२, कुप्र ६०; कुमा)। २ मकड़ा, जाल मंदर [मन्दर] १ पर्वत-विशेष, मेरु पर्वत (प्राक १०२)। बनानेवाला क्रीड़ा (प्राचा; कसा गा ६३; दे (सुज्ज ५, सम १२, हे २, १७४, कप्प; मंधाउ पुं [मान्धात] हरिवंश का एक राजा ६, ११६) । ३ छन्द का एक भेद (पिंग)। सुपा ४७)। २ भगवान् विमलनाथ का प्रथम (पउम २२, ६७)। बंध पुं[°बन्ध] बन्ध-विशेष, नाराच-बन्ध गणधर (सम १५२)। ३ वानरद्वीप का मंधादण पुं[मन्धादन] मेष, गाडर 'जहा (कम्म १, ३६). "संताण पुं[संतान एक राजा, मरुयकुमार का पुत्र (पउम ६, मंधादए (?णे) नाम थिमिमं भुंजती दर्ग' मकड़ा का जाल (पडि)। ६७)। ४ छन्द का एक भेद (पिंग)। ५ (सूत्र १, ३, ४, ११)। मक्कडबंध न [दे] शृंखलाकार ग्रीवा-भूषण मन्दर-पर्वत का अधिष्ठायक देव (जं ४)।- मधाय पुं[दे]मान्य, श्रीमंत (दे ६, ११६) (दे ६, १२७) 'पुर न [पुर] नगर-विशेष, (इक)। मंभीस (अप)। सक [मा+भी डरने का मकडी स्त्री [मकेटी] वानरी बनरी (कप्र मंदा स्त्री [मन्दा] १ मन्द-स्त्री (वज्जा १०६)। निषेध करना, अभय देना । संकृ. मभीसिवि | ३०३)। २ मनुष्य की दश अवस्थानों में तीसरी मकल (अप) देखो मक्कड (पिग)। (भवि) अवस्था २१ से ३० वर्ष तक की दशा मंभीसिय देखो माभीसिअ (भवि): मक्कार पुं [माकार १ 'मा' वर्ण। २ 'मा' के प्रयोगवाली दण्डनीति, निषेध-सूचक एक (तंदु १६) मंस पुंन [मांस] मांस, गोश्त, पिशितः | 'प्रयमाउसो मंसे अयं अट्ठी' (सूम २, १, १६ प्राचीन दण्ड-नीति (ठा ७-पत्र ३६८) ।। मंदाइणी स्त्री [मन्दाकिनी] १ गंगा नदी, भागीरथी (पउम १०, ५०; पात्र)। २ प्राचा; ओघभा २४६; कुमा; हे १, २६) मकुण देखो मंकुण (पव २६२; दे १,६६) "इत्त वि [वत् ] मांस-सोलुप (सुख १, मक्कोड पुं[दे] १ यन्त्र-गुम्फनार्थ राशि, जन्तर रामचन्द्र के पुत्र लव की स्त्री का नाम (पउम १५)। °खल न [खल] मांस सुखाने का गठने के लिए बनाई जाती राशि (दे ६, १०६, १२) स्थान (पाचा २,१,४,१)। चक्खु पुन १४२)। २ पुत्री. कीट-विशेषः चींटा, गुजमंदाय क्रिवि [मन्द] शनैः, धीमे से; 'मंदार्य | [चक्षुस् ] १ मांस-मय चक्षु । २ वि. | राती में 'मकोडो', 'मंकोडों (निचू १, मैदायं पव्वइयाए' (जीव ३)। मांस-मय चक्षुवाला, ज्ञान-चक्षु-रहित; 'महिस्से । प्रावमः जी १६) । श्री. "डा (द ६,१४२) ८४ For Personal & Private Use Only . Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ पाइअसद्दमहण्णवो मक्ख-मच्चिअ मक्ख सक [म्रक्ष ] १ चुपड़ना, स्नेहान्वित । (प्रौष पृ ४८ टि) [पुर न [पुर] नगर- मग्गगया स्त्री [मार्गगा] ईहा-ज्ञान, ऊहापोह करना । २ घी, तेल आदि स्निग्ध द्रव्य से विशेष (महा)। देखो मगह । (एंदि १७५) मालिश करना। मक्खइ (षड्), मक्खंति मगा अद] पश्चात्, पीछे, मराठी में 'मग' मग्गणिर वि [दे] अतुममन करने की ( उप १४७ टी), मक्खिज्ज, मक्खेज्जा दि १, ४, टी) आदतवाला (दे ६, १२४)। (पाचा २, १३, २, ३)। हेकृ. मक्खेत्तए मगुंद देखो मउंद = मुकुन्द (उत्तनि ३) मग्गसिर पु [मार्गशिर] मास-विशेष, (कस) । कृ. मक्खिथव्व (प्रोध ३८५ टी)। मग सक [ मार्गय ] १ मागना। २ मगसिर मास, अगहन (कप्पः हे ४, ३५७) । मक्खण न [म्रक्षण] १ मक्खन, नवनीत खोजना । मग्गइ, मग्गति (उवः षड्, हे १, मग्गसिरी स्त्री [मार्गशिरी] १ मगसिर मास (स २५८ पभा २२)। २ मालिश, अभ्यंग ३४) । वकृ. मगंत, मग्गमाण (गा २०२, की पूर्णिमा । २ मगसिर की अमावस (सुज्ज (निचू ३) । उप ६४८ टी. महासुपा ३०८)। संकृ. १०,६)मक्खर महार] १ गति । २ ज्ञान । ३ मग्गेविणु (अप) (भवि)। हेकृ. मग्गिउं मग्गिअ वि [मार्गित] १ अन्वेषित, गवेषित वंश बांस। ४ छिद्रवाला बाँस (संक्षि १५; (महा)। कृ. मग्गिअञ्च मग्गेयव्व (से (से ६, ३६)। २ मांगा हुआ, याचित १४, २७सुपा ५१८)। (महा)। मक्खिअ वि [म्रक्षित] 'चुपड़ा हुआ (पान मग्ग सक [ मग्] गमन करना, चलना। मग्गिर त्रि [मार्गयित] खोज करनेवाला दे ८, ६२, प्रोघ ३८५ टी)। मग्गइ (हे ४, २३०)। (सुपा ५८)। मक्खिअ न [माक्षिक] मक्षिका-संचित मधु मग्ग पुं[मार्ग] १ रास्ता, पथ (प्रोघ ३४; मग्गिल्ल वि [दे] पाश्चात्य, पाछे का (विसे कुमाः प्रासू ५०, ११७; भग) । २ अन्वेषण, १३२६) । मक्खिआ स्त्री [मक्षिका] मक्खी (दे ६, खोज (विसे १३८१) । "ओ तस] मग्गु पु [मद्गु] पक्षि-विशेष, जल-काक १२३)। रास्ते से (हे १, ३७)। ण्णु वि [] (सून १,७, १५; हे २,७७) . मगइअ वि [दे] हस्त-पाशित, हाथ में बाँधा | मार्ग का जानकार (उप ६४४) । 'त्य वि मघ पु[मघ] मेष (भग ३, २; परण २) हुमा (विपा १,३-पत्र ४८ ४६)। [स्थ] १ मार्ग में स्थित । २ सोलह से | मघमघ अक [प्र+सृ] फैलना, गन्ध का मगण मगग] छन्दःशास्त्र-प्रसिद्ध तीन ज्यादा वर्ष की उम्रवाला (सूप २, १, ६)। पसरना गुजराती में 'मघमघवु", मराठी में गुरु अक्षरों को संज्ञा (पिंग)। दय वि [°दय] मार्ग-दर्शक (भगः पडि)। 'मघमणे' । वकृ. मघमपंत, मघमति , विउ वि [वित ] मार्ग का जानकार मगदंतिआ स्त्री [दे] १ मालती का फूल । मघमघेत (सम १३७; कप्प; प्रौप) । (अोघ ८०२) । "ह वि [व] मार्ग-नाशक २ मोगरा का फूल; 'कुमुनं वा मगदंतिभं' मघव पु[मघवन्] १ इन्द्र, देव-राज (कप्पा (श्रु ७४)। णुसारि वि [नुसारिन्] (दस ५, २, १४, १६)। कुमा ७,६४)। २ तृतीय चक्रवर्ती राजा मार्ग का अनुयायी (धर्म २)। मगदंतिआ स्त्री [दे. मगदन्तिका] १ मेंदी (सम १५२: पउम २०, १११)। मग्ग मार्ग] १ आकाश (भग २०, २या मेहँदी का गाछ । २ मेंदी की पत्ती (दस मघवा स्त्री [ मघवा ] छठवीं नरक-भूमि, पत्र ७७५) । २ आवश्यक-कर्म, सामयिक ५, २, १४, १६)। ___ 'मघव त्ति माधवत्ति य पुढवीणं नामधेयाई' आदि षट्-कर्म (अणु ३१)। मगर ' [मकर] १ मगर-मच्छ, जलजन्तु (जीवस १२)। मग [दे] पश्चात, पीछे (दे ६, विशेष (पराह १,२; प्रौपः उवः सुर १३, मग्गअ१११ से १,५१, सुर २,५६ ! मघा स्त्री [मघा] १ ऊपर देखो (ठा ७४२; रणाया १, ४) । २ राहु (सुज्ज २०)। पत्र ३८८ इक)। २ देखो महा = मघा । पान; भग)। देखो मगर । | मग्गअ वि [मार्गक] मांगनेवाला (पउम (राज)। मगरिया स्त्री [मकरिका] वाद्य-विशेष (राय मघोण पु[दे. मघवन् देखो मघव (षड्ः ४६)। पि ४०३)।मग्गण पुं [मार्गण] १ याचक (सुपा २४)। मगातर स्त्रीन [ मृगशिरस् नक्षत्र विशेष मञ्च अक [मद्] गवं करना। मच्चइ (षडा २ बाण, शर (पान)। ३ न. अन्वेषण, 'कत्तिय रोहिणी मगसिर प्रद्दा य' (ठा २, हे ४, २२५)। खोज (विसे १३८१)। ४ मार्गणा, विचारणा, ३-पत्र ७७)। स्त्री. राः 'दो मगसिरानो' मञ्च (अप) देखो मंच: 'मंकुमश्चइ सुत्त पर्यालोचन (प्रौप विसे १८०)। (ठा २, ३-पत्र ७७)। मग्गण बराई (भवि) ।। स्त्री [मार्गणा] १ अन्वेषण, मगह देखो मागह । 'तित्थ न [°तीर्थ] मग्गणया खोज (उप पृ २७६; उप ६६२ | मञ्च न [दे] मल, मैल (दे ६, १११)। तीर्थ-विशेष (इक)। मग्गणा ! प्रोघ ३)। २ अन्वय-धर्म के मञ्च पु' मिय] मनुष्य, मानुष (स मगह पू.ब.मिगधादेश-विशेष (कुमा)। पोलोचन द्वारा अन्वेषण, विचारणा, पर्या- | मश्चिअ २०८ रंभा: पामः सूत्र १, ८, मगग वरच्छ[°वराक्ष आभरण-विशेष । लोचना (कम्म ४, १, २३; जीवस २)।। २ प्राचा)। लोअ पु[लोक] मनुष्य For Personal & Private Use Only Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६७ मञ्चिअ-मझ पाइअसहमहण्णवो लोक (कुप्र ४११)। लोईय वि [ लोकीय] मच्छिअ वि [मात्स्यिक] मच्छीमार (श्रा मज्जा स्त्री [दे. मर्या ] मर्यादा (दे ६, ११३; मनुष्य-लोक से सम्बन्ध रखनेवाला (सुपा । १२; अभि १८७; विपा १, ६; पिंड ६३१)।- (भवि) ।। | मच्छिका (मा) देखो माउ मातृ (प्राकृ मज्जा स्त्री [मज्जा] धातु-विशेष, चर्बो, हड्डी मच्चिअ वि [दे] मल-युक्त (दे ६, १११ टो) १०२) । के भीतर का गूदा (सण)। मच्चिर वि [मदित गवं करनेवाला (कुमा)। मच्छिगा देखो मन्छिया (पि ३२०)। मज्जाइल्ल वि [मर्यादिन] मर्यादावाला (निचू मच्छिया। स्त्री [मक्षिका] मक्खी (णाया मच्चु पु [मृत्यु] १ मौत, मरण (प्राचा मच्छी १,१६, जो १८ उत्त ३६, सुर २, १३८ प्रासू १०६; महा)। २ यम, मज्जाया स्त्री [मर्यादा] १ न्याय्य-पथ-स्थिति, ६० प्रातः सुपा २८१)।यमराज (षड्)। ३ रावण का एक सैनिक व्यवस्था 'रयणायरस्स मजाया' (प्रासू ६८ मज सक [मद् अभिमान करना । मज्जइ, (पउम ५६, ३१)। आवम)।२ सीमा, हद, अवधि । ३ कूल, मज्जई, मज्जेज्ज (उव; सूत्र १, २, २,१, किनारा (हे २, २४)। मच्छ पु[मत्स्य] १ मछली (णाया १, धर्मसं ७८)। १; पाना जी २०; प्रासू ५०)। २ राहु मजार पुंस्त्री [मार्जार] १ बिल्ला, बिलाव मज्ज अक [ मस्ज ] १ स्नान करना । २ (सुजन २०)। ३ देश-विशेष (इक, गति)। (कुमाः भवि) । २ वनम्पति-विशेष; 'वत्थुलडूबना । मज्जइ (ह४, १०१), मज्जामा ४ छन्द का एक भेद (पिंग) । खल न पोरगमजारपोइवल्ली य पालका' (पएण १(महा ५७, ७, धर्मसं ८६४)। वकृ. [खल] मत्स्यों को सुखाने का स्थान (प्राचा पत्र ३४) । स्त्री. रिआ,°री (कप्पू, पान)। मज्जमाण (गा २४६; णाया १, १)। २, १, ४, १)। बंध पु [बन्ध] संकृ. मजिऊण (महा)। प्रयो., संकृ. मज्जार पुंमार्जार] वायु-विशेष (भग १५मच्छीमार, धीवर (पएह १, १; महा)। मज्जावित्ता (ठा ३, १-पत्र ११७)। पत्र ६८६) मच्छ पुन [मत्स्य] मत्स्य के आकार की | मज सक [मृज् ] साफ करना, मार्जन | मज्जाविअ वि [मज्जित स्नपित (महा)। एक वनस्पति (प्राचा २, १, १०, ५, ६) करना। मज्जा (षड् प्राकृ ६६; हे ४, मजिअ वि [दे] १ अवलोकित, निरीक्षित । मच्छंडिआ स्त्री [मत्स्यण्डिका] खण्डशर्करा, २ पीत (दे ६, १४४)। एक प्रकार की शक्कर (पएह २, ४, पाया मज्ज न [मद्य] दारू, मदिरा (ौपः उवाः मजिअ वि [मज्जित] स्नातः (पिंड ४२३; १, १७ परण १७, पिंड २८३ मा ४३)।" हे २, २४; भवि)। 'इत्त वि [वत्] मदिरा-लोलुप (सुख १, १५)। व वि मच्छंडी श्री [मत्स्यण्डी] शक्कर (अणु मजिअ वि [माजित] साफ किया हुआ [प] मद्य-पान करनेवाला (पान) वीअ वि [°पीत जिसने मद्य-पान किया हो वह मच्छंत देखो मंथमन्थ् । . मजिआ स्त्री [ मार्जिता] रसाला, भक्ष्यमच्छंध देखो मच्छ-बंध (विपा १, ८-पत्र विशेष--दही, शकर आदि का बना हुआ मजग विमाद्यक] मद्य-सम्बन्धीः 'अन्न वा ८२)। और सुगन्ध से वासित एक प्रकार का खाद्य, मज्जग रसं' (दस ५, २, ३६)। मच्छर मत्सर] १ ईर्ष्या, द्वेष, डाह, मज्जण न [मज्जन] १ स्नान । २ डूबना श्रीखएड (पान, दे ७, २; पब २५६)1. पर-संपत्ति की असहिष्णुता (उव)। २ (सुर ३, ७६; कप्पू, गउड; कुमा)। °घर न मजिर वि [मज्जित] मजन करने की प्रादतकोप, क्रोध। ३ वि. ईर्ष्यालु, द्वेषी। ४ [गृह] स्नान-गृह (णाया १, १-पत्र वाला (गा ४७३; सण) 10 क्रोधी । कुपण (हे २, २१)। १६)। °धाई स्त्री [ धात्री] स्नान कराने- | मज्जोक वि [दे] अभिनव, नूतन (दे ६, मच्छर न [मात्सर्य] ईवा, द्वेष (से ३, वाली दासी (णाया १, १--पत्र ३७)।। ११८)। १६) 'पाली स्त्री [पाली] वही अर्थ (कप्प)। मज्म न [मध्य] १ अन्तराल, मझार, बीच मच्छर वि [मत्सरिन्] मत्सरवाला (पराह मज्जण न [मार्जन] १ साफ करना, शुद्धि - (पान कुमादं ३६; प्रातू ५७; १६७) । २, ३; उवा; पात्र)। स्त्री. °णी (गा ८४, (कप्प) । २ वि. मार्जन करनेवाला (कुमा)। २शरीर का अवयव-विशेष (कप्पू) | ३ महा)। °घर न [गृह] शुद्धि-गृह (कप्पा प्रौप)। संख्या-विशेष, अन्त्य और पराध्य के बीच की मच्छरिअ वि [मत्सरित, मत्सरिक] ऊपर | मज्जर देखो मंजर (प्राकृ ५)। स्त्री. रो; 'को संख्या (हे २, ६०; प्राप्र)। ४ वि. मध्यवर्ती, देखो (पउम ८, ४६ पंचा १, ३२; भवि)। जुन्नमज्जरि कंजिएण पवियारिउ तरई' बीच का (प्रासू १२५) एस पुं[दश] मच्छल देखो मच्छर=मत्सर ( हे २, २१; (सुर ३,१३३)। देश-विशेष, गंगा और यमुना के बीच का षड्)। मजविअ वि [मजित] १ स्नपित। २ प्रदेश, मध्य प्रान्त (गउड)।गय वि [गत] मच्छिा देखो मक्खिअ माक्षिक (पव। स्नात; 'एत्थ सरे रे पंथिन गयवइवहुयाउ १ बीच का, मध्य में स्थित (माचाः कप्प)। ४-गाथा २२०)। मज्जविया' (वज्जा ६०)। २ पुं. अवधिज्ञान का एक भेद (णंदि)। (पउम २०, १२७; कप्पः। (विपा १, ह वान किया हो वह छ-बंध (विपा १, ५ -पत्र (विपा पात] जिसने माला (पान) विवि मामहाः पान), For Personal & Private Use Only Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "बेजयन [मैवेयक] देव-वशेष (एक) डिअ वि ["स्थित] तटस्थ, मध्यस्थ ( रयण ४८ ) ण्ण, ह पुं [ह] दिन का भाग दोपहर (मात्र १६. कुमा अभि ५५ २८४ महा २ न तप-विशेष, पूर्वार्ध रूप (संबोध ५८) हरु [ह्नितरु] वृक्ष-विशेष, सम में सफूलनेवाले साल रंग [ध्यम ] मध्यवर्ती बीच केलवाला वृक्ष (कुमा) स्थ[स्] तटस्थ (उव उप ६४८ टी सुर १६, १५) । २ बीच में रहा था (गुपा २५०) देस देखीएस (सुर ३, १६) न देखो २४) म वि [म] मध्य कामकला, बीच का (भग) नोट - विक्र ५) पुं [रात्र ] निशीथ (उप १३९; ७२८ टी) श्यणि स्त्री [°रजनि ] मध्य रात्रि (६३९) योग ["लोक] मेपर्यंत (राज) तिवि [वर्तिन् ] अन्तर्गत (मोह ६४) अवि [[लित ] १ बीच में मुड़ा हुआ । २ चित्त में कुटिल ( वा १२) । अ पुं [दे] नापित, नाई, हजाम (दे ६, ११५) । मआर न [दे] (दे ६, १२१३ विक्र महार, मध्य, अन्तराल २८ उवः गा ३३ विसे २६६१६ सुर १ ४५ सुपा ४६ १०३ खा १ ); 'असोगवfरणमाइ मज्झयारम्मि' ( भाव ७) । हि वि[माध्याह्निक] मध्याह-संबन्धी ( घर्मवि १०५) । पाइअसद्दमद्दण्णवो मत्थ न [ माध्यस्थ्य ] तटस्थता, मध्यस्थता (उप ११५: संधीच ४५) । ममवि [मध्यम] १ मध्यवर्ती बीच का ( हे १, ४८ सम ४३; उवा; कप्पः औपः स्वर - विशेष (ठा ७--पत्र [रात्र ] निशीष, मध्य कुमा) । २ पुं. ३१३) रेस रात्रि (उप ७२८ टी) मलगंड न [दे] उदर पेट (३६ १२५ ) । - ममिमा श्री [मध्यमा] १ बीच की उंगली ( घोघ ३६० ) । २ एक जैन मुनि - शाखा (कप्प ) 1 तिन [] मध्यन्दिन, मध्याह्न (दे ६, १२४) मज्मंदिणन [मध्यन्दिन] मध्याह (दे ६, १२४) । - [दे] कंठ (६, १४१) । मानंमय्भ ग [मध्यमध्य] ठीक बीच | मन [दे. महम्ब] ग्राम-विशेष, जिसके (भग; विपा १, १, सुर १, २४४) । मज्गार देखो मज्झआर (राज) । चारों ओर एक योजन तक कोई गाँव न हो ऐसा गाँव (खाया १, १, भगः कप्प; श्रौप पह १, ३ भवि ) । 4T (W) मज्झिमा देखो मज्झिमा (कप्प ) 1 [us, मध्यम] ममता, बीच का ( पव ३६ देवेन्द्र २३८ ) । मह वि [दे] श्वङ्ग-रहित (वे ६ ११२ ) । मट्टि स्त्री [ मृत्तिका ] मट्टी मिट्टी, माटी ( रणाया १, १३ औप कुमाः महा) । मट्टी श्री [मृत्, मृत्तिका ] ऊपर देखो (जी ४ पडि, दे) । मट्टुहिअ न [दे] १ परिणीत स्त्री का कोप । २ वि कलुष । ३ प्रशुचि, मैला (दे ६, १४६) । मट्ठ वि [दे] अलस, आलसी, मन्द, जड़ (दे ६, ११२ पाच) | [मृष्ट]: मार्जित, शुद्ध (सूत्र १, ६, १२ श्रौष) । २ मसृण, चिकना (सम १३७० दे ८ । ३ २, ७) साहु ( औप हे १ १७४) । ४ न. मिरच, मरिच (हे १, १२८)| [दे. मृत] १ मरा हुआ, निर्जीव (दे ६१४१) माएं (बजा १४८), 'मरे' (मा) (प्राकृ १०३ ) इवि [दिन] निर्जीव वस्तु को खानेवाला (भग) । सय[°श्रय] श्मशान (निवू ३) । - ० मडक पुं [दे] १ गर्व, अभिमानः 'न किउ वयगु 'संचलिय मडकई' (भवि ) । २ मटका, कलश, घड़ा मराठी में 'मडकॅ' (भवि ) । मडकिया श्री [हे] छोटा मटका कल (कुम ११२) For Personal & Private Use Only मज्झअमड [] ग अभिमान, महंकार 'प्रज्जवि कंदप्पमडप्पखंडणे वहइ पंडिवं' (सुपा २६ कुप्र २२१३ २८४ षड् ; दे ६, १२० पान सुपा ६ प्रासू ८५ कुप्र २५५३ सम्मत्त १८६३ धम्म ८ टी; भवि सरण) । मडप्प मडप्पर मढप्फर भवि [मडभ] कु वामन (राज)। मडमड २ अक [ मडमडाय 1 9 मड मडमडमड ] मड आवाज करना । २ सफ. मड मड प्रावाज हो उस तरह मारना । मडमडमति ( पउम २६, ५३ ) । भवि. इश्शं, मडमाइश्शं (मा); (पि ५२८ चारु ३५) । महमदाइ वि[मडमडायिन] 'मह' '' भावाज हो उस तरह मारा हुप्रा (उत्तर १०३) । मडय न [मृतक ] मुद्दा, मुर्दा, शव (पान हे १ २०६२१९) सिंह न [गृह] क (निचू ३) चेइअ न [चैत्य] मृतक के दाह होने पर या गाड़ने पर बनाया गया वैत्य - स्मारक मन्दिर (प्राचा २, १०, १९ ) 1. "डाह पुं [दाह ] चिता, जहाँ पर शव फूंके जामाचा २, १०, १९) धूभिया श्री ["स्तूपिका] मृतक के स्थान पर बनाया गया छोटा स्तूप (घाचा २, १०, १६) । मडय [दे] धाराम बगीचा (६, ११२ ) 1पुं (दे । - मडवोझा स्त्री [दे] शिबिका, पालकी (दे ६, १२२) । मदद वि [दे] लघु, छोटा (दे ६ ११०० पान सरण) । २ स्वल्प, थोड़ा (गा १०५; स८; गउडः वज्जा ४२) । मडहर पुं [दे] गर्व, अभिमान (दे ६, १२० ) । मयि वि[] पीकृत न्यून किया हुआ (गउड) 1 मदु वि [दे] लघु, छोटा 'लियाएं 'मडहुल्लियाए किं तुह इमीए किंवा दलेहि तलिरोहि' ( वज्जा ४८ ) 1डिआ (दे ६, ११४) । मडुवइअ वि [दे] १ हत, विघ्वस्त । २ ahay (s, t) 1 [] समाहत स्त्री, ग्राहत महिला म क [मृद्] मर्दन करना म४, १२६; प्राकृ ६८) । Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होनेवाला एक विद्यावान का मस्सि देखो मड्डय-मणि पाइअसहमहण्णवो ६६९ मड्डय पुं[दे. मड्डक] वाद्य-विशेष (राय पर्यव ज्ञान (कम्म ३, १४, ११, १७; मणण न [मनन] १ ज्ञान, जानना। २ २१)। नाणि वि [ज्ञानिन् मनः-पर्यव समझना (विसे ३५२५) । ३ चिन्तन (श्रावक मड्डा स्त्री [दे] १ बलात्कार, हठ, जबरदस्ती नामक ज्ञानवाला (कम्म ४,४०)। पज्जत्ति ___३३७)। (दे ६, १४०, पायः सुर ३, १३६; सुख २, बी [पर्याप्ति पुदलों को मन के रूप में मणय पुं [मनक] द्वितीय नरक-भूमि का १५)। २ आज्ञा, हुकुम (दे ६, १४०, सुपा परिणत करने की शक्ति (भग ६, ४) तीसरा नरकेन्द्रक--नरकावास-विशेष (देवेन्द्र २७६) पज्जव पु[पर्यव] ज्ञान-विशेष, दूसरे के ६)। देखो मणग। मड्डिअ वि [मर्दित] जिसका मदन किया मन की अवस्था को जाननेवाला ज्ञान (भगः मणयं अ [मनाग] अल्प, थोड़ा (हे २, गया ो वह (हे २, ३६ षड्पि २६१)। औपः विसे ८३) । पज्जवि वि [पर्यविन] १६६, पामः षड्) मड्डुअ देखो मद्दुअ (राज)। मनःपर्यव ज्ञानवाला (पव २१)। पसिण मणस देखो मण - मनस् ; 'पसन्नमणसो मढ देखो मड्ड । मढइ (हे ४, १२६)।विज्जा स्त्री [प्रश्नविद्या] मन के प्रश्नों का करिस्सामि' (पउम ६, ५६), 'लाभो चेव मढ न [मठ] संन्यासियों का आश्रय, वतियों उत्तर देनेवाली विद्या (सम १२३)। बलिअ तवस्सिस्स होइ अद्दीणमणसस्स' (प्रोघ का निवासस्थान; 'मढी (हे १, १९६; सुपा वि [°बलिन्, 'क] मनो-बलवाला. दृढ़ ५३७)। २३४ वज्जा ३४; भवि); 'मढं' (प्राप्र)। मनवाला (पएह २, १; औप)। मोहण मणसिल। देखो मणंसिला (कुमा; हे १, वि [ मोहन] मन को मुग्ध करनेवाला, मढिअ देखो मड्डिअ (कुमा)। मणसिला २६ जी ३; स्वप्न ६४)। चित्ताकर्षक (गा १२८)। योगि वि मढिअवि दे] १ खचितः गुजराती में 'मढेलु", मणसीकय वि [मनसिकृत चिन्तित (पएण [ योगिन् मन की चेष्टावाला (भग)। 'एयाउ प्रोसहीरो तिघाउमढियाउ धारिज्जा' ३४-पत्र ७८२: सुपा २४७)।वग्गणा स्त्री [वर्गणा] मन के रूप में (सिरि ३७०) । २ परिवेष्टित (दे २, ७५; मणसीकर सक [मनसि + कृ] चिन्तन परिणत होनेवाला पुद्गल-समूह (राज)। पात्र)। करना, मन में रखना। मणसीकरे (उत्त वजन [वज्र] एक विद्याधर नगर मढी स्त्री [मठिका] छोटा मठ (सुपा ११३) । २, २५) । (इक)+ समिइ श्री ["समिति मन का मण सक [मन्] १ मानना । २ जानना । ३ | संयम (ठा ८–पत्र ४२२)। समिय वि मणस्सि देखो मणसि (धर्मवि १४६)। चिन्तन करना । मणइ, मणसि (षड् ; कुमा)। [°समित] मन को संयम में रखनेवाला मणा- देखो मणयं (हे २, १६६; कुमा)। कवकृ. मणिज्जमाण (भग १३, ७; विसे (भग) हंस पुं [हंस] छन्द-विशेष | मणाउ) (अप) ऊपर देखो (कुमाः भविः पि (पिंग)। हर वि [हर] मनोहर, सुन्दर, मणारं ११४; हे ४,४१८, ४२६) । मण पुन [ मनस् ] मन, अन्तःकरण, चित्त चित्ताकर्षक (हे १, १५६; औपः कुमा)। मणागं ऊपर देखो (उप १३२; महा) । (भग १३, ७ विसे ३५२५; स्वप्न ४५; हरण पुन [हरण] पिंगल-प्रसिद्ध एक दं २२; कुमा, प्रासू ४४, ४८; १२१) । मणाल देखो मुणाल (राज)। मात्रा-पद्धति (पिंग) + भिराम, भिराअगुत्ति स्त्री [°अगुप्ति] मन का असंयम मणालिया श्री [मृणालिका] पद्म-कन्द का मेल्ल वि [ अभिराम ] मनोहर (सम (पि १५६)। करण न [करण] चिन्तन, १४६ मूल (तंदु २०) । देखो मुणालिआ । औप, उप पृ ३२२; उप २२० टी)। पर्यालोचन (श्रावक ३३७)। गुत्त वि मणासिला देखो मणंसिला (हे १, २६ म वि [ आप] सुन्दर, मनोहर (सम [°गुप्त] मन को संयम में रखनेवाला (भग) १४६; विपा १, १; औप; कप्प)। देखो गुत्ति स्त्री [गुप्ति मन का संयम (उत्त मणों मणि पुंस्त्री [मणि] पत्थर-विशेष, मुक्ता २४, २), जाणुअ वि [३] १ मन को मणं देखो मणयं (प्राकृ ३८)। आदि रत्न (कप्पः प्रोपः कुमाः जी ३; प्रासू जाननेवाला, मन का जानकार । २ सुन्दर, ४)। अंग पुं[अङ्ग] कल्प-वृक्ष की एक मनोहर (प्राकृ १८)। जीविअ वि मणास वि [मनास्वन्। प्रशस्त मनवाला जाति जो आभूषण देती है (सम १७)। [ जीविक] मन को आत्मा माननेवाला (हे १, २६) । स्त्री. णी (हे १, २६)। °आर पुं[कार] जौहरी, रत्नों के गहनों (पएह १, २-पत्र २८)। जोअ पुं मणसिल । स्त्री [ मनःशिला ] लाल वर्ण का व्यापारी (दे ७, ७७, मुद्रा ७६ रणाया योग मन की चेष्टा, मनो-व्यापार (भग)। मणसिला की एक उपधातु, मनशिल, १, १३, धर्मवि ३६) । कंचण न ज, णु, णुअ देखो जाणुअ (प्राक मैनशिल (कुमा; हे १, २६)। [काञ्चन] रुक्मि-पर्वत का एक शिखर १८ षड्)। थंभणी स्त्री [स्तम्भनी] मणग ([मनक] एक जैन बाल-मुनि, महर्षि (ठा २, ३-पत्र ७०)। कूड न [कूट] विद्या-विशेष, मन को स्तब्ध करनेवाली दिव्य शय्यंभवसूरि का पुत्र और शिष्य (कप्पा | रुचक पर्वत का एक शिखर ( दीव )। शक्ति (पउम ७, १३७)। नाण न [ज्ञान] धर्मवि ३८) । देखो मणय ।। क्खइअ वि [°खचित] रत्न-जटित (पि मन का साक्षात्कार करनेवाला ज्ञान, मनः- मणगुलिया स्त्री [दे] पीठिका (राय)। १६६)। 'चइया श्री [चयिता] नगरी For Personal & Private Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० पाइअसहमहण्णवो मणिअ-मण्ण विशेष (विपा २, ६) चूड पुं[चूड] विशेष; 'चोहहमणचोग्गुणो' (कुमाः राज)। पु. गुल्म-विशेष; 'सरियए णोमालियकोरिटयएक विद्या-धर नृप (महा)। जाल न ३ मनुज, मनुष्यः 'देवत्ताप्रो मणुत्तं (पउम | वत्थुजीवगमणोज्ज' (पएण १-पत्र ३२)। [°जाल] भूषण-विशेष, मणि-माला (प्रौप)। २१, ६३; कम्म १, १६; २ १)। ४ पण, 'न्न वि [ज्ञ] सुन्दर, मनोहर (हे २, 'तोरण न ["तोरण] नगर-विशेष (महा)। न. एक देव-विमान (सम २)। ८३; पि २७६) । भव पुं[भव कामदेव, ° देखो व (से ६, ४३) पेढिया स्त्री मणुअ पु[मनुज] १ मनुष्य, मानव (उवा; कन्दर्प (सुपा ६८; पिग)। "भिरमणिज वि [पीठिका] मणि-मय पीठिका (महा)। भगः हे १८; पाम कुमाः स ८२ प्रासू ४५)। [भिरमणीय सुन्दर, चित्ताकर्षक (पउम 'प्पभ [प्रभ] एक विद्याधर (महा) २ भगवान् श्रेयांसनाथ का शासन-यक्ष (संति ८, १४३)। भू पुं [भू] कामदेव, भद्द पुं [भद्र] एक जैन मुनि (कप्प)। ७)। ३ वि. मनुष्य-सम्बन्धी; तिरिया कन्दर्प (कप्पू)। "मय वि ["मय मानसिक; भूमि स्त्री [भूमि] मणि खचित जमीन मणुया य दिव्यगा उत्सग्गा तिविहाहिया- 'सारीरमणोमयारिण दुक्खारिण' (पएह १, ३(स्वप्न ५४)। मइय, मय वि ["मय] सिया' (सूस १, २, २, १५)। पत्र ५५), 'माणसिय वि [ मानसिक मन मरिण-मय, रत्न निवृत्त (सुपा ६२; महा)। मणुइंद पुं[मनुजेन्द्र] राजा, नरपति (पउम में ही रहनेवाला-वचन से अप्रकटित-मानसिक रह पुं[रथ] एक राजा का नाम (महा) ८५, २२; सुर १, ३२)। दुःख आदि (गाया १, १,-पत्र २६)। व [प] १ यक्ष । २ सर्प, नाग (से २, २३)। ३ समुद्र (से ६, ५०). "वई स्त्री 'रम वि [रम १ सुन्दर, रमणीय (पान)। मणुई स्त्री [मनुजी] मनुष्य-श्री, नारी, महिला (पंदि १२६ टी)। २. एक विमानेन्द्रक, देवविमान-विशेष [मती] नगरी-विशेष (विपा २, ६-पत्र ११४ टि)। वंध पु[बन्ध] हाथ और मणुएसर पुं[मनुजेश्वर] ऊपर देखो (सुपा (देवेन्द्र १३६)। ३ मेरु पर्वत (सुज्ज ५)। ४ राक्षस-वंश का एक राजा, एक लंका-पति प्रकोष्ठ के बीच का अवयव (सण)। 'वालय २०४)। मणुज । वि [मनोज्ञ ] सुन्दर, मनोहर (पउम ५, २६५)। ५ किन्नर-देवों को एक पुं[पालक, वालक समुद्र (से २, २३)। मगुण्ण (पान: उप १४२ टी; सम १४६; जाति । रुचक द्वीप का अधिष्ठायक देव सलागा स्त्री [शलाका ] मद्य-विशेष (राज)। "हियय पु[ हृदय] देव-विशेष (राज) । ७ तृतीय ग्रैवेयक-विमान (पव भग)। मणुस । पुत्री [मनुष्य] १ मानव, मर्त्य १६४)। ८ पाठवें देवलोक के इन्द्र का (दीव)। मणुस्स (आचाः पि ३००; आचाः ठा ४, पारियानिक विमान (इक)। एक देवमणिअ न [मणित] संभोग-समय का स्त्री २० भगः श्रा २८ सुपा २०३; जी १६ विमान (सम १५)। १० मिथिला का एक चैत्य का अव्यक्त शब्द (गा ३६२, रंभा) प्रासू २८)। स्त्री. स्सी (भगः पराण १८ (उत्त ६, ८६)। ११ उपवन-विशेष (उप मणिों देखो मणयं (षड्; हे २, १६६ पत्र २४१) । खेत्त न [क्षेत्र] मनुष्य- १८६ टी)। रमा श्री [रमा] चतुर्थ वासुकुमा)। लोक (जीव ३) । °सेणियापरिकम्म पुं देव की पटरानी का नाम (पउम २०,१८६)। मणिअड (अप) पु[मणि माला का सुमेर [णिकापरिकर्मन् ] दृष्टिवाद का एक २ भगवान् सुपार्श्वनाथ की दीक्षा-शिविका (हे ४, ४१४)। सूत्र (सम १२८)। (सुपा ७५, विचार १२६)। ३ शक्र की मणिच्छिअ वि [मनईप्सित] मनोऽभीष्ट मणुस्स वि [मानुष्य] मनुष्य-सम्बन्धी, 'दिग्ध अन्जुका नामक इन्द्राणी की एक राजधानी (सुपा ३८४)। व मणुस्सं वा तेरिच्छ वा सरागहियएणं' (इक) रह [रथ] १ मन का अभिलाष मणिजमाण देखो मण = मन् । (आप २१)। (प्रौप; कुमाः हे ४, ४१४)। २ पक्ष का मणि वि [मनइष्ट] मन को प्रिय (भवि)। मणुस्सिद पुं [मनुष्येन्द्र] राजा, नर-पति तृतीय दिवस (सुज्ज १०, १४-पत्र १४७)। मणिणायहर न [दे. मणिनागगृह] समुद्र, (उत्त १८, ३७, उप पृ १४२)। हंस पु [हंस] छन्द-विशेष (पिंग)। सागर (दे ६, १२८)। मणूस देखो मणुस्स (हे १, ४३; औपः उवर हर पुं [°हर] १ पक्ष का तृतीय दिवस मणिरइआ स्त्री [दे] कटीसूत्र (दे ६,१२६)। १२२; पि ६३) । (सुज्ज १०, १४) । २ छन्द-दिशेष (पिंग)। मणीसा स्त्री [मनीषा] बुद्धि, मेधा, प्रज्ञा मणे अ [मन्ये विमर्श-सूचक अव्यय (हे २, ३ वि. रमणीय, सुन्दर (हे १, १५६; षड्; (पान) २०७; षड्, प्राकृ २६ गा १११, कुमा)। स्वप्न ५२, कुमा)। हरा स्त्री [हरा] मणीसि वि [मनीषिन्] बुद्धिमान्, पण्डित मणों देखो मग = मनस् । गम न [गम] | भगवान पद्मप्रभ की दीक्षा-शिविका (विचार देवविमान-विशेष, 'पालगपुप्फगसोमणससिरि १२६)। हव देखो भव (स ८१; कप्पू)।। मणीसिद वि [मनीषित] वान्छित (नाट- वच्छनंदियावत्तकामगमपीतिगममणोगमविमल "हिराम वि [भिराम सुन्दर (भवि)। मृच्छ ५७)। सध्वोभद्दसरिसनामधेजेहिं विमाणेहि प्रो मणोसिला देखो मणसिला (हे १, २६; मणु पुं [मनु] १ स्मृति-कर्ता मुनि-विशेष इण्णा ' (अप)। ज वि [ज्ञ] १ सुन्दर, (विसे १५०८उप १५० टी) । २ प्रजापति- मनोहर (हे २, ८३; उप २६४ टी)।२ मण देखो मण = मन् । मरगइ (पि ४८८)। For Personal & Private Use Only Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्णण - मन्न पाइअसश्मद्दण्णवो कर्म. मरिगज्जइ ( कुप्र १०९ ) । वकृ. मन्तिया स्त्री [ मृत्तिका ] मिट्टी (पण १मण्णमाण (नाट चैत १३३) । पत्र २५) । वई स्त्री [वती ] नारी-विशेष, दशादेश की राजधानी ( पव २७५) । !} पुंन [ मस्त, क] माथा सिर (से १. १ स ३८५ प ) + 'त्थ वि [स्] सिर में स्थित (उड) मणि [णि ] शिरोमणि, प्रधान, मुख्य ( उप ६४८ टी) 1 । मत्थय पुंन [ मस्तक ] गर्भ, फल आदि का मध्यभाग — अन्तःसार (प्राचा २, १, ८, मण्णणन [मानन] मानना, आदर (उप १५४) 1 मण्णा देखो मन्ना (राज) । मण्णिय देखो मन्निय (राज) । मण्णु देखो मन्नु (गा ११३५०८ दे ६, ७१६ वेणी १७) । मण्णे देखोमणे (रूप ) 1 मत्व [मन्त] १ मद-युक्त, मतवाला (उवा प्रासू ६४६ ९८६ भवि ) । २ न. मद्य, दारू 4) (हा ७) । ३ मद, नहा (पत्र १०१) जामत्थयधोयपि [दे. धौतमस्तक ] दाराम श्री [जा] नदी-विशेष (ठा २, ३ से मुक्त, गुलामी से मुक्त किया हुआ (गाया १, १ --पत्र ३७ ) । मत्त देखो मेत्त = मात्र, 'वयरणमत्तमिद्वारा ' ( रंभा ) । मत्त न [अमत्र, सात्र] पात्र, भाजन (प्राचा २, १, ६, ३ श्रोष २५१) । देखो मत्तय । मत्त (अप) देखो मच्च = मत्यं (भवि) 1 मत्तं थुलुंग [मस्तुल] १ मस्तक-स्नेह मत्थुलुय ) सिर में से निकलता एक प्रकार का चिकना पदार्थ (परह १, १३ तंदु १० ) । २ मेद का फिल्फिस श्रादि (ठा ३, ४ - पत्र [१०] [भग १०)। मथिय देखो महिअ = मथित (परह २, ४पत्र १३० ) । मद म देखो ममद (कुमाः प्रयी १६. पि २०२) । - मद (मा) देखो मय = मृत ( प्राकृ १०३) । मदण देखो भयण (स्वप्न ९३; नाट मृच्छ २३१) । मसला (गा) देखो भयणसागा (पण १ - - पत्र ५४ ) | मदणा देखो मयणा = मदना (खाया २ - पत्र २५१) । पुं [मत्ताङ्गक, 'द] कल्पवृक्ष की एक जाति, मद्य देनेवाला कल्पतरु (सम १७; पत्र १७१) । मत्तंड [मार्तण्ड ] सूर्य, रवि ( सम्मत्त १४५, सिरि १००६) मत्तग न [द] पेशाब, मूत्र ( कुलक ९ ) । मत्तग । पुंन [अमत्र, मात्रक ] १ पात्र, मत्तय । भाजन । २ छोटा पात्र बिइज्जनो मत्तग्रो होई' (बृह ३ कप्प ) । मत्तय देखो मत्तग = दे ( कुलक १३) । - मत्ती स्त्री [दे] बलात्कार (दे ६, ११३) । मतदारण न [मत्तवारण] वरंडा, बरामदा, दालान (दे ६, १२३ र २, १०० मत्तवाल पुं [दे] मतवाला, मदोन्मत्त (दे ६, १२२, षड् ; सुख २, १७; सुखा ४८६ ) । मा श्री [मात्रा ] १ परिमाण (६२१) २ अंश, भाग, हिस्सा (स ४८३) । ३ समय का सूक्ष्म नाप । ४ सूक्ष्म उच्चारण- कालवाला (ग) व (पास) मत्ता [ मत्वा ] जानकर (सूत्र १, २,२, ३२) । मत्ता लंब [ दे. मत्तालम्ब] बरंडा, बरामदा (दे ६, १२३; सुर १, ५७ ) । 2 मत्थ मत्थग मत्थय ני मणि वि[मदनीय] कामोद्दीपक, मदन वर्धक (खाया १, १ - पत्र १९३ मदि देखो मइ = मति ( मा ३२ १२) । मी देशो मई (स २३२) । मदुबी देखो मउई (चंड ) 1मदोली स्त्री [दे] श्री (प) - मद सक [भ] पूर्ण करना मालिश करना, मसलना, मलना। मद्दाहि (कप्प ) । कर्म महीदिन १३५) देश. महि (पि २०५) । - प ) । कुमाः पि ६७१ मरण न [मर्दन] १ वणी, मालिश ( सुपा २४) । २ हिंसा करना 'तसथावरभूयविवि' (उबरने वाला (ती ३) । म मद्दल पुं [मर्दल] वाद्य-विशेष, मुरज, मृदंग (३६ ११४ र १६८ र १५७) । (दे सुर - w [मालिक] मृदंग बजानेवाला मधुर देखो महुर (निचू १, प्राकृ ८५ ) । मधु सित्थ देखो महुसित्थ (ठा ४, ४ पत्र २७१) । मधूला स्त्री [दे. मधूला ] पाद-गण्ड (राज) 1 मन [दे] निषेधार्थं श्रव्यय, मत, नहीं (कुमा) । दूती, दूत कर्म करनेवाली मनुस्स देखो भणुस्स (चंड भग) । मन्न देखो मण्ण मन्नइ, मन्नसि (प्राचा महा), मग मन्मेसि (भा) कर्म, मन्त्रिन्जठ (महा) । वकृ. मन्नंत, मन्नमाण (सुर १४, १७१; प्राचा महाः सुपा ३०७ सुर ३, १७४) । For Personal & Private Use Only मलिन (सुपा २१४० ५५३)। मदन [माय] मृदुता, नम्रता, विनय, हंकार निग्रह (चौफ कण) । महवि वि [मार्टविन] म वियं मद्दवियं लाघवियं' ( सू २, १, ५७ श्राचा) 1 मवि वि [मादेविक, '४] ऊपर देखी (बृह ४ व १) | मदिअ देखो मड्डिअ ( पात्र) । मद्दी स्त्री [माद्री ] १ राजा शिशुपाल की मा का नाम (सूत्र १, ३, १, १ टी) । २ राजा पाण्डु की एक स्त्री का नाम (वेणी १७१) । मद्दु [मद्दु] [भगवान महावीर का राजगृह-निवासी एक उपासक (भग १८, ७ – पत्र ७५० ) । - मदुरा [म] पचिविशेष, जनवायस (भग ७, ६- पत्र ३०८ ) | देखो मग्गु । मदुग देखी मुदुग (राज)। मधु देखो मधुपाद (मुख १५२) । - महु (षड् रंभा पिंग) 1 [मधुघात] एक लेख-जाति Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ पाइअसहमहण्णवो मन्न-मय मन्न देखो माण-मानय् । कृ. मन्न, मन्नाय ममाइय वि [ममायित] जिसपर ममता की (पउम ६,५९)। ३ एक विद्याधर-नरेश मन्नणिज्ज, मन्नियव्व, मनिय (उप गई हो वह (पाचा) (पउम ८, १)। हर पुं[धर] ऊँटवाला १०३६; धर्मवि ७६; भविः सुर १०, २८ ममाय वि [दे] ग्रहण करना। ममायंति (सुख ६, १) सुपा ३६ ठा १ टी-पत्र २१; सं ३५)M (दस ६, ४६) मय वि [मृत] मरा हुमा, जीव-रहित (णाया मन्ना श्री [मनन] १ मति, बुद्धि (ठा १- ममाय वि [ममाय ममत्व करनेवाला (निचू १, १, उवः सुर २, १८ प्रासू १७; प्राप्र)। पत्र १९)। २ मालोचन, चिन्तन (सूम २ १३) । 'किच्च न [कृत्य] मरण के उपलक्ष में १, ४१ ठा१)।ममि वि [मामक] मेरा, मदीय; 'ममं वा किया जाता श्राद्ध आदि कर्म (विपा १, २)। मन्ना स्त्री [मान्या] प्रभ्युपगम, स्वीकार (ठा ममि वा' (सूप २, २, ६)। मय पुंन [मद] १ गर्व, अभिमानः 'एयाई १-पत्र १६) ममूर सक [चूर्णय ] चूरना। ममूरइ (धात्वा मयाई विगिच धीरा' (सूत्र १, १३, १६; मन्नाय देखो मन्न = मानय : १४८) मम्म पुंन [मर्मन] १ जीवन-स्थान । २ मन्नाविय वि [मानित] मनाया हुआ (सुपा | सम १३, उप ७२८ टीः कुमाः कम्म २, २६)। २ हाथी के गण्ड-स्थल से झरता १५६) सन्धि-स्थान (गा ४४६; उप ६६१, हे १, प्रवाही पदार्थ (णाया १, १-पत्र ६५, मन्निय वि [मत] माना हुआ (सुपा ६०५ | ३२)। ३ मरण का कारण-भूत वचन आदि कुमा)। ३ प्रामोद, हर्ष । ४ कस्तूरी। ५ कुमा). (णाया १,८)। ४ गुप्त बात (प्रासू ११ मत्तता, नशा। ६ नद, बड़ी नदी। ७ वीर्य, मन्नु पुं [मन्यु] १ क्रोध, गुस्सा (सुपा सुपा ३०७)। ५ रहस्य, तात्पर्य (श्रु २८)। शुक्र (प्राप्र)। करि पुं[करिन्] मदवाला ६०४)। २ दैन्य, दीनताः 'सोयसमुन्भूयगरुय“य वि [ग] मर्म-वाचक (शब्द) (उत्त १, हाथी (महा)। गल वि [कल] १ मद से मन्नुवसा' (सुर ११, १४४)। ३ अहंकार। २५; सुख १, २५) । उत्कट, नशे में चूरः ‘मप्रगलकुंजरगमणी' ४ शोक, अफसोस । ५ ऋतु, यज्ञ (हे २, मम्मक्क पुं[दे] गवं, अहंकार ( षड् )। (पिंग)। २ पुं. हाथी (सुपा ६% हे १, २५, ४४) मम्मका स्त्री [दे] १ उत्कएठा। २ गवं (दे १८२ पान दे ६, १२५)। ३ छन्द-विशेष मन्नुइय वि [मन्यवित] मन्यु-युक्त, कुपित (पिंग)। णासणी स्त्री [ नाशनी] विद्या(सुख ४, १) मम्मण न [मन्मन] १ अव्यक्त वचन (हे २, विशेष (पउम ७, १४०)। धम्म पुं[धर्म] मन्नुसिय वि [दे] उद्विग्न (स ५६६)। ६१ दे ६, १४१; विपा १, ७; वा २६)। विद्याधर-वंश के एक राजा का नाम (पउम २ वि. अव्यक्त वचन बोलनेवाला (था १२) मन्ने देखो मण्णे (हे १, १७१, रंभा) ५, ४३), मंजरी स्त्री [मञ्जरी] एक स्त्री मम्मण पुं[दे] १ मदन, कन्दर्प। २ रोष, का नाम (महा)। वारण पुं [वारण] मप्प न [दे] माप, बाँटः 'तेण य सह वरु| गुस्सा (दे ६, १४१) मदवाला हाथी; 'भयवारणो उ मत्तो निवागणं आणेवि य तस्स हट्टमप्पाणि' (सुपा मम्मणिआ स्त्री [दे] नील मक्षिका (दे ६, डियालागवरखंभो' (महा)। ३६२)। १२३) मम्भीसडी। (अप) स्त्री [मा भैषी:] अभय मय पुं [मृग] १ हरिण (कुमाः उप ७२८ ममीसा । वचन (हे ४, ४२२) । | मम्मर पू[मर्मर] शुष्क पत्तों की आवाज टी)। २ पशु, जानवर। ३ हाथी की एक (गा ३६५)। ममकार (ममकार] ममत्व, मोह, प्रेम, जाति । ४ नक्षत्र-विशेष । ५ कस्तूरी। ६ मम्मह पुं [मन्मथ] कामदेव, कन्दर्प (गा मकर राशि। ७ अन्वेषण। ८ याचन, स्नेह (गच्छ २, ४२)। ४३०; अभि ६५) माँग। ६ यज्ञ-विशेष (हे १, १२६)। च्छी ममञ्चय वि [मदीय] मेरा (सुख २, १५)। मम्मी स्त्री [दे] मामी, मातुल-पत्नी (दे ६, स्त्री [°ाक्षी] हरिण के नेत्रों के समान नेत्रममत्त न [ममत्व ममता, मोह, स्नेह (सुपा वाली (सुर ४, १६; सुपा ३५५, कुमा)। २६)। मय न [मत] मनन, ज्ञान (सूत्र २, १, °णाह [नाथ सिंह (स १११)। णाहि ममया स्त्री [ममता] ऊपर देखो (पंचा १५, ५०)। २ अभिप्राय, प्राशय (प्रोपनि १६० | पुंस्त्री [ नाभि] कस्तूरी (पात्र; सुपा २००० ३२)। सूअनि १२०)। ३ समय, दर्शन, धर्मः । गउड)। 'तण्हा स्त्री [तृष्णा] धूप में जलममा सक [ ममाय ] ममता करना । ममाइ, 'समभो मयं' (पामा सम्मत्त २२८)। ४ वि. भ्रान्ति (दे से ६, ३५) तण्हिआ स्त्री ममायए (सून २, १, ४२, उव)। वकृ. माना हुआ (कम्म ४, ४६)। ५ इष्ट, अभीष्ट [तृष्णिका] वही अर्थ (पि ३७५), तिण्हा ममायमाण, ममायमीण (प्राचा; सूप २, (सुपा ३७१)+ न्नु वि [ज्ञ] दार्शनिक देखो तण्हा (पि ५४)। "तिण्हिआ देखो ६, २१) (सुपा ५८२)। तहिआ (पि ५४)। धुत्त पुं [धूर्त] ममाइ वि [ममत्विन ममतावाला (सूम १, मय पुं[मय] १ उष्ट्र, ऊँट (सुख ६, १)।। शृगाल, सियार (दे ६, १२५)। 'नाभि १, १, ४)। । २ अश्वतर, खच्चर; 'मयमहिससरहकेसरि- देखो णाहि (कुमा)। राय पुं [ राज] For Personal & Private Use Only Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयंक-मर पाइअसहमहण्णवो ६७३ सिंह, केसरी (पउम २, १७, उप पू ३०)। [तालङ्क] छन्द-विशेष (पिंग) । "तेरसी ५४)। हर पुन [गृह] वही (पाम; से 'लंछण पुं [ लाञ्छन] चन्द्रमा (पामः | स्त्री [त्रयोदशी] चैत्र मास की शुक्ल | १, १०४, ४८; वजा १५४; भवि)। कुमा; सुर १३, ५३)। लोअणा स्त्री त्रयोदशी तिथि (कुप्र ३७८)। "दुम पुं | भयरंद पुं [दे. मकरन्द] पुष्प-रज, पुष्प[ रोचना] गोरोचन, गोरोचना, पीत-वर्ण ["द्र म] वृक्ष-विशेष (से ७, ६६) । "फल न पराग (दे ६, १२३; पाप कुमा ३, ५४) । द्रव्य-विशेष (अभि १२७) । रि पुं[रि] [फल] फल-विशेष, मैंनफल; 'तो तेणुप्पलं मयरंद पुं [मकरन्द] पुष्प-रस, पुष्प-मधु (दे सिंह (पान)। रिदमण पुं[रिदमन] मयणफलेरण भावियं मणुस्सहत्थे दिन्नं, एवं ६, १२३, सुर ३, १०० प्रासू ११३: कुमा)। राक्षस-वंश का एक राजा, एक लंका-पति वररुइस्स देजाहि' (सुख २, १७)। मजरी (पउम ५, २६२)। हिव पुं[धिप] मयल देखो मइल = मलिन (सुपा २६२) । स्त्री [मअरी] १ राजा चण्डप्रद्योत की एक सिंह, केसरी (पामा स ६)। देखो मिअ, स्त्री का नाम । २ एक श्रेष्ठि-कन्या (महा)। मयलणा देखो मइलणा (सुपा १२४, २०६)। मिग% मृग। "रेहा स्त्री [खा] एक युवराज की पत्नी मालवुत्ती [दे] देखो मइलपुत्ती (दे ६, मयंक ) देखो मिअंक (हे १,१७७; १८०० (महा)। वेय ( [वेग] पुरुष-विशेष का १२५) ।। मयंग कुमाः षड्; गा ३६६ रंभा)। नाम (भवि) । सुंदरी स्त्री [सुन्दरी] राजा मयलिअ देखो मलिणि (उप ७२८ टी)। मयंग देखो मायंग=मातंग; 'कूबर वरुणो | श्रीराल की एक पत्नी (सिरि ५३)। 'हरा मयल्लिगा स्त्री [मतल्लिका] प्रधान, श्रेष्ठ, , भिउडी गोमेहो वामण मयंगों' (पव २६) स्त्री [गृह] छन्द विशेष (पिंग) हल देखो 'कूडक्खरविप्रो(?उ)मयल्लिगाणं' (रंभा १७)। फल; 'भयरणहलगंधरो ता उव्वमिया चंदमयंग ' [मृदङ्ग] वाद्य-विशेष (प्राकृ ८)। हाससुरा' (धर्मवि ६४)। मयह देखो मगह। सामिय पुं[स्वामिन] मयंगय पुं [मतङ्गज] हाथी, हस्ती (पउम मयणंकुस पुं[मदनाङ्कश] श्रीरामचन्द्र का मगध देश का राजा (पउम ६१, ११)। ८०, ६६ उप पृ २६०)। एक पुत्र, कुश (पउम ६७, ६)। "पुर न [पुर] राज-गृह नगर (वसु)।। मयंगा स्त्री [मृतगङ्गा] जहाँ पर गंगा का मयणसलागा स्त्री [दे. मदनशलाका] हिवइ पुं[धिपति] मगध देश का राजा प्रवाह रुक गया हो वह स्थान (णाया १, मयणसलाया । मैना, सारिका (जीव १ (पउम २०, ४७)। ४-पत्र ६६)। टी-पत्र ४१, दे ६, ११६)। मयहर ' [दे] १ ग्राम-प्रधान, ग्राम-प्रवर, मयंतर न [मतान्तर] भिन्न मत, अन्य मत मयणसाला स्त्री [दे. मदनशाला] सारिका गाँव का मुखिया (पव २६८, महा; पउम ६३, १६) । २ वि. वडील, मुखिया, नायक विशेष (पएह १,१-पत्र ) (भग) मयंद देखो मइंद = मृगेन्द्र (सुपा १२) 'सयलहत्यारोहपहाणमयहरेण' (स २८०%; मयणा स्त्री [दे. मदना] मैना, सारिका (उप १२६ टी, पाव १)। महानि ४ पउम ६३, १७)। स्त्री. रेिगा, मयंध वि [मदान्ध] मद के कारण अन्धा बना "रिया, री (उप १०३१ टी; सुर १, ४१; हुआ, मदोन्मत्त (सुर २, ६६)। मयणा स्त्री [मदना] १ वैरोचन बलीन्द्र की महा सुपा ७६ १२६)। मयग वि [मृतक] १ मरा हुआ। २ न. | एक पटरानी (ठा ५, १-पत्र ३०२)। २ मयाई स्त्री [दे] शिरो-माला (दे ६, ११५)।। मुर्दा (णाया १, ११० कुप्र २६ औप)। शक्र के लोकपाल की एक स्त्री (ठा ४, १ मयार ([मकार] १ म' अक्षर । २ मका"किञ्च न [कृत्य] श्राद्ध प्रादि कर्म (णाया पत्र २०४)। रादि अश्लील-प्रवाच्य शब्द: 'जत्थ जयारमयणाय पु[मैनाक १ द्वीप-विशेष । २ मयार समणी जंपइ गिहत्थपच्चक्वं' (गच्छ मयड पुंदे] पाराम, बगीचा (दे ६, पर्वत-विशेष (भवि)। ११५)। मयणिज देखो मदणिज (कप्पः पराण १७)। मयाल (अप) देखो मराल (पिंग)। मयण पुं[मदन] १ कन्दपं, कामदेव (पामा मयणिवास पुं[दे] कन्दर्प, कामदेव (दे ६, मयालि पुं [मयालि] जैन महषि-विशेषधरण २५, कुमा; रंभा)। २ लक्ष्मण का १२६) ।। १ एक अन्तकृद् मुनि (अंत १४)। २ एक एक पुत्र (पउम ६१, २०)। ३ एक वणिक्- मयर ' [मकर] १ जलजन्तु-विशेष, मगर- अनुत्तर-गामी मुनि (अनु १)। पुत्र (सूपा ६१७)। ४ छन्द का एक भेद | मच्छ (मौपः सुर १३, ४६)। २ राशि- मयाली स्त्री [दे] लता-विशेष, निद्राकरी लता (पिंग)। ५ वि. मद-कारक, मादक; 'मयणा विशेष, मकर राशि (सुर १३, ४६; विचार (दे ६, ११६ पान)। दरनिव्वलिया निव्वलिया जह कोदवा तिविहा' १०६) । ३ रावण का एक सुभट (पउम ५६; मर अक [मृ] मरना । मरइ, मरए (हे ४, (विसे १२२०)। ६ न. मीम, मोमः ‘मयणो २६)। ४ छन्द-विशेष (पिंग)। केउ j - २३४ भगः उवः महाः षड्), मर (हे ३, मयणं विम विलीणों (पण २५; पाप सुर [केतु] कामदेव, कन्दर्प (कप्पू) द्धय | १४१) । मरिजइ, मरिजउ (भवि; पि ४७७)। २, २४६)। घरिणी स्त्री [गृहिणी] [ध्वज] वही (पाप, कुमाः रंभा) भूका. मरही, मरीम (आचाः पि ४६६) । काम-प्रिया, रति (कुप्र १०१)। तालंक पुं| लंछण p [लाञ्छन] वही (कप्पू; पि । भवि. मरिस्ससि (पि ५२२) । वक. मरत, For Personal & Private Use Only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ पाइअसद्दमहण्णवो मर-मरुद्देवा मरमाण (गा ३७५ प्रासू ६४; सुपा ४०५; निवासी, मराठा (पएह १, १-पत्र १४ । पर्वत, ऊँचा पहाड़ (निचू ११)। ४ वृक्षभगः सुपा ६५१ प्रासू ८३) । संकृ.मरिऊण | पिंग) । ५ छन्द-विशेष (पिंग) विशेष, मरुया, मरुवा (पण्ह २, ५-पत्र (पि ५८६)। हेकृ. मरिउं, मरे (संक्षि मरहट्ठी स्त्री [महाराष्ट्री] १ महाराष्ट्र की | १५०)। ५ ब्राह्मण, विप्र (सुख २, २७)। ३४) । कृ.मरियव्व (अंत २४, सुपा २१५, | रहनेवाली स्त्री। २ प्राकृत भाषा का एक भेद ६ एक नृप वंश । ७ मरु-वंशीय राजाः 'तस्स ५०१, प्रासू १०६), मरिएब्बउं (अप) | (पि ३५४)। य पुढोए नंदो परणपन्नसयं च होइ वासाणं । (हे ४, ४३८) मराल वि [दे] अलस, मन्द, पालसी (दे ६, मरुयारणं अट्ठसयं' (विचार ४६३)। ८ मरु मर पुं[दे] १ मशक । २ उल्लू, घूक (दे ६, ११२ पाप) । देश का निवासी (पण्ह १. १) । कतार न १४०)। मराल 'मराल] १ हंस पक्षी (पाप)।२ ["कान्तार] निर्जल जंगल (अच्चु ८५) । मरअद। पुंन [मरकत] नील वर्णवाला छन्द-विशेष (पिंग)। स्थली श्री [स्थली] मरु-भूमि (महा)। मरगय । रत्न-विशेष, पन्ना (संक्षि हे मराली स्त्री [दे] १ सारसी, सारस पक्षी की। "भू स्त्री [भू] वही (श्रा २३)। य वि १, १८२; प्रौप; षड् गा ७५, काप्र ३१); | मादा । २ दूती। ३ सखी (दे ६, १४२)। [ज] मरु देश में उत्पन्न (पराह १,४'परिकम्मिनोवि बहुसो कारो कि मरगयो मरिअ वि [मृत] मरा हुआ (सम्मत्त १३६)M पत्र ६८) होई' (कुप्र ४०३)। मरिअ वि [दे] १ त्रुटित, टूटा हुआ। २ | मरुअ देखो मरु = मरुत् (पराह १, ४-पत्र मरजीवय पुं [दे. मरजीवक समुद्र के भीतर विस्तोणं (षड्) । ६८)। २ एक देव-जाति (ठा २, २)उतर कर जो वस्तु निकालने का काम करता | मरिअ देखो मिरिअ (प्रयौ १०५; भास कुमार पुं [कुमार] वानरद्वीप के एक है वह (सिरि ३८५) । ८ टी)। राजा का नाम (पउम ६, ६७) वसभ मरिइ देखो मरीइ; 'अह उप्पन्ने नाणे जिरणस्स, | पुं[वृषभ] इन्द्र (पएह १, ४-पत्र ६८)। मरट्ट [दे] गवं, अहंकार (दे ६, १२०; | मरिई तो य निक्खंतो' (पउम ८२, २४)। मरुअअ ) [मरुबक] वृक्ष-विशेष, मरुमा, सुर ४, १५४ प्रासू ८५, ती ३; भविः सण मरिस सक [मृष्] सहन करना, क्षमा मरुअग) मरुवा (गउड; परण १-पत्र हे ४, ४२२, सिरि ९६२); 'अखिलमइ करना । मरिसइ, मरिसेइ, मरिसेउ (हे ४, ३४)। (?र)ट्टकंदप्पमहरणे लद्धजयपडायस्स' (धर्मवि २३५; महाः स ६७०) । कृ. मरिसियव्य मरुआ स्त्री [मरुता] राजा श्रेणिक की एक ६७)। (स ६७०)। पत्नी (अंत)। मरट्टा स्त्री [दे] उत्कर्ष, मरिसावणा स्त्री [मर्षगा] क्षमा (स ६७१)। मरुइणी स्त्री [मरुकिणी] ब्राह्मण-स्त्री, ब्राह्मणी 'एईइ प्रहरहरिपारुणिममरट्टाई मरीइ पुं[मरीचि ( भगवान् ऋषभदेव का (विसे ६२८)।। (?) लजमाणाइ। एक पौत्र और भरत चक्रवर्ती का पुत्र, जो | मरुंड देखो मुरुड (अंतः प्रौप; गाया १, बिबफलाई उबंधणं व भगवान् महावीर का जीव था (पउम ११, १-पत्र ३७) । ___ वल्ल्लीसु विरयंति॥ ६४) । २ पुंस्त्री. किरण (पएह १, ४-पत्र मरुकुंद पुं [दे. मस्कुन्द] मरुया, मरुवे का (कुप्र २६६) ७२ धर्मसं ७२३) । गाछ (भवि) मर? (अप) देखो मरहट्ट (पिंग)। मरीया स्त्री [मरीचिका] १ किरण-समूह । मरुग देखो मरुअमरुक (पएह १,१मरढ देखो मरहट्ट । स्त्री. 'ढी (कप्पू)। २ मृग-तृष्णा, किरण में जल भ्रान्ति (राज) पत्र १४; इक)। मरण न मा मौत. मत्य (प्राचाः भगः मरीचि देखो मरीइ (प्रौपः सुज १,६)।- मरुदेव पुं [मरुदेव] १ ऐवत क्षेत्र में पान; जी ४३; प्रासू १०७; ११६); 'सेसा मरीचिया देखो मरीइया (प्रौप)। उत्पन्न एक जिनदेव (सम १५३)। ३ एक मरणा सव्वे तब्भवमरण पायवा' (पव मरु [ मरुत्] १ पवन, वायु । २ देव, कुलकर पुरुष का नाम (सम १५०; पउम देवता । : सुगन्धी वृक्ष-विशेष, मरुया, मरुवा मरल गक मराल- मराल, हंस (प्राकृ५) पिड)। ४ हनुमान का पिता (पउम ५३.! मरुदवा खामरुदया, वा] १ भगवान मरह सक[ मृप] क्षमा करनाः ‘खमंतु ७६) । णदग पुं ['नन्दन] हनूमान् मरुदेवी ऋषभदेव की माता का नाम (उवः मरहंतु रणं देवाणुप्पिया' (णाया १, ८- (पउम ५३, ७६) । स्सुय पुं [°सुत] वही सम १५०, १५१)। २ राजा श्रीरिणक की पत्र १३५)।(पउम १०१, १) । देखो मरुअ = मरुत् ।। एक पत्नी, जिसने भगवान् महावीर के पास मरहट्ठ पुन [महाराष्ष्ट] १ बड़ा देश । २ मरु पुं[मरु, क] १ निर्जल देश दीक्षा लेकर मुक्ति पाई थी (अंत)। देश-विशेष, महाराष्ट्र, मराठाः 'मरहट्ठो मरहट्ठ मरुअ (णाया १, १६-–पत्र २०२, मरुद्देवा स्त्री [मरुद्देवा] भगवान् महावीर के (हे १, ६६७ प्राकृ ६ कुमा)। ३ सुराष्ट्र प्रौप)। २ देश-विशेष, मारवाड़ (ती ५ पास दीक्षा लेकर मुक्ति पानेवाली राजा (कुमा ३, ६०)। ४ पुं. महाराष्ट्र देश का महा; इक; पएह १, ४–पत्र ६८) । ३ । धेरिणक को एक पत्नी (अंत २५)। For Personal & Private Use Only Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरुल-मल्ली पाइअसहमहण्णवो मरुल पुंदे] भूत-पिशाच (द ६, ११४)। [मती] राजा मलयकेतु की स्त्री (सुपा ' कुमार (णाया १,८)। वाइ[वादिन] मरुवय देखो मरुअअ (गा ६७७; कुमा; विक्र ६०७)। 'य [ज] देखो भव (राज)।- एक सुविख्यात प्राचीन जैन आचार्य और २६) रुह ' [रुह] चन्दन का पेड़ (सुर १, ग्रंथकार (सम्मत्त १२०)। २८) । २ न. चन्दन-काष्ठ (पास)। मरुस देखो मरिस । मरुसिज (भवि) । मल्ल नमिाल्य]१ पुष्प, फूल (ठा ४, ४)। "चल पुं[चल] मलय पर्वत (सुपा मल सक [मल्] धारण करना (भग ६, | २ फूल की गुंथी हुई माला (पाम औप)। ४५६)। °ाणिल पुनिल] मलयाचल ३३ टी-पत्र ४८०) ३ मस्तक-स्थित पुष्पमाला (हे २, ७६) । से बहता शीतल पवन (कुमा)। "यल ४ एक देव-विमान (सम ३६)। ५ बलि मल देखो मद्द । मलइ, मलेइ (हे ४, १२६ | देखो चिल (रंभा) - 'मल्ल ति बलीए णाम' (आव० चूणि भा० प्राकृ ६८ भवि), मलेमि (से ३,६३), मलेंति मलय वि [मालय १ मलय देश में उत्पन्न १ पत्र ३३२)। (सुर १,९५)। कर्म. मलिजइ (पंचा १६, (मरण)। २ न. चन्दन (भवि) । १०)। वकृ. मलेंत (से ४, ४२)। कवकृ. मल्लइ [मल्लकि, "किन नृप-विशेष (भगः | मलबट्टी स्त्री [दे] तरुणी, युवति (दे ६, मलिज्जत (से ३, १३)। संकृ. मलिऊण, प्रौप पि ८९)। १२४) मणिऊणं (कुमा; पि ५८५)। कृ. मलेव्व मल्ग। न [दे. मल्लक] १ पात्र-विशेष, मलहर ([दे] तुमुल-ध्वनि (दे ६, १२०)। मल्लय। शराव (विसे २४७ टी; पिंड २१०; (वै ६६; निसा ३) 1 मलि वि [मलिन् मलवाला, मल-युक्त तंदु ४४ महाः कुलक १४; पाया १, ६; मल पुं[दे] स्वेद, पसीना (दे ६, १११)। (भवि)। | दे ६, १४५, प्रयौ ६७) । २ चषक, पानपात्र मल पुन [मल] १ मैल (कुमा; प्रासू २५)। मलिअ वि मुदित] जिसका मदन किया। (दे ६, १४५)। २ पाप (कुमा)। ३ बंधा हुआ कर्म (चेइय __ गया हो वह (गा ११०० कुमाः हे ३, १३५ मल्लय न [दे] अपूप-भेद, एक तरह का पूमा । ६२२)। प्रौप; रणाया १, १)। २ वि. कुसुम्भ से रक्त (दे ६, १४५)। मलपिअ वि [दे] गर्वी, महंकारी (दे ६, मलिअ न [दे] १ लघु क्षेत्र । २ कुएड (द मल्लाणी स्त्री [दे] मातुलानी, मामी (दे ६, १२१)। ६, १४४)। ११२ पापः प्राकृ ३८)। मलण न [मर्दन, मलन] मदन, मलना मलिअ वि [मलित] मल-युक्त, मलिन (सम १२५; गउड; दे ३, ३४; सुपा ४४०० | मल्लि वि [मल्लिन्] धारण-कर्ता (भग ६, 'मलमलियदेहवत्था' (सुपा १६६; गउड)। पंचा १६, १०)। ३३ टी)। मलिज्जत देखो मल = मृद् । मल्लि वि [माल्यिन् माल्य-युक्त, मालावाला मलय पुं [दे. मलक] प्रास्तरण-विशेष (णाया मलिण वि [मलिन मैला, मल-युक्त (कुमाः (प्रौप)। १,१-पत्र १३, १,१७-पत्र २२९) सुपा ६०१)। मल्लि स्त्री [मल्लि] १ उन्नीसवें जिन-देव का मलय पुं[दे. मलय १ पहाड़ का एक भाग मलिणिय वि [मलिनित] मलिन किया नाम (सम ४३; णाया १, ८; मंगल १२; (दे ६, १४४)। २ उद्यान, बगीचा (दे ६, पडि)। २ वृक्ष-विशेष, मोतिया का गाछ १४४, पान) मलीमस वि [मलीमस] मलिन, मैला (दे २, १८)। णाह, 'नाह पुं [नाथ] मलय [मलय १ दक्षिण देश में स्थित (पास)। उन्नीसवें जिन-देव (महा: कुप्र ६३)। एक पर्वत (सुपा ४५६ कुमा; षड्) ।२ मलेव्य देखो मल = मृदु । मल्लि स्त्री मल्लि] पुष्प-विशेष (भग ६, मलय-पर्वत के निकट-वर्ती देश-विशेष (पव मलेच्छ देखो मिलिच्छ पि ८४ नाट-चेत । ३३ टी) । २७५; पिंग)। ३ छन्द-विशेष (पिग)। ४ १८)। देवविमान-विशेष (देवेन्द्र १४३) । ५ न. मल्ल सक [मल्लू ] देखो मल = मल् (भग ६, | मल्लिअज्जुग पुं मल्लिकार्जुन] एक राजा श्रीखण्ड, चन्दन (जीव ३) । ६ पुंस्त्री. मलय का नाम (कुमा)। ३३ टी)। देश का निवासी (पएह १,१) केउ मल मिल्ला१पहलवान. कश्ती लडने- माल्लआ नी [मल्लिका] १ पुष्प-वृक्ष-विशेष [कतु] एक राजा का नाम (सुपा ६०७)M वाला. बाह-योदा (प्रौपः कप्पः पण्ड २. (णाया १,६) कुप्र ४६)। २ पुष्प-विशेष "गिरि [ गिरि] एक सुप्रसिद्ध जैन प्राचार्य कमा)। २पात्र 'दीवसिहापडिपिल्लण- (कुमा)। ३ छन्द-विशेष (पिंग)। और ग्रन्थकार (इक; राज) । चंद पुं मल्ले मिल्लति वीसासे' (कुप्र १३१)। मल्लिहाण न [माल्याधान] १ पुष्प-बन्धन['चन्द्र] एक जैन उपासक का नाम (सुपा ३ भीत का अवष्टम्भन-स्तम्भ । ४ छप्पर का | स्थान। २ केश-कलाप (भग ६, ३३ टी६४५), 'दि पुं[द्रि] पर्वत-विशेष (सुपा प्राधार-भूत काष्ठ (भग ८, ६-पत्र ३७६)। पत्र ४८०)। ४७७)। भव वि [भव] १ मलय देश में जुद्ध न ["युद्ध] कुश्ती (कप्यू; हे ४, मल्ली देखो मल्लि (गाया १,८ पउम २० उत्पन्न । २ न. चन्दन (गउड)। मई स्त्री ३८२)। दिन्न पुन [ दत्त] एक राज-। ३५; विचार १४८ कुमा)। For Personal & Private Use Only Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ पाइअसहमहण्णवो मल्ह-मह मल्ह प्रक [दे] मौज मानना, लीला करना। | (पास)। २ स्निग्ध किया हुआ (से ६, | महँगा (भवि) । चंद पु ["चन्द्र] १ वकृ. मल्हंत (दे ६, ११६ टी; भवि)। ६)। ३ विलुलित, विदित (से १, ५५) राजकुमार-विशेष (विपा २, ५, ६)। २ मल्न दि] लीला, मौज (दे ६, ११९) मसी देखो मसि (उवा)। एक राजा (विपा १, ४) च वि [अर्च मव सक मापय् ] मापना, माप करना, मसूर । पुन [मपर, क] १ धान्य-विशेष, १ बड़ा ऐश्वर्यवाला । २ बड़ी पूजा-सत्कारनापना। मवंति (सिरि ४२५)। कर्म, मसूरग मसूरि (ठा ४, ३; सम १४६; पिड वाला (ठा ३, १-पत्र ११७; भग)। 'पाउयाई मविज्जंति' (कम्म ५, ८५ टी)। मसूरय ६२३)। २ उच्छीर्षक, प्रोसीसा च वि [ अW] अति पूज्य (ठा ३, १, (सुर २, ८३, कप)। ३ पत्र या चर्म का भग) रिय न [°आश्चय | बड़ा कवकृ. मविजमाण (विसे १४००)। वृत्ताकार प्रासन (पव ८४) पाश्चयं (सुर १०, ११८)। जक्ख पुं मविय वि [मापित] मापा हुआ (तेंदु ३१) मस्सु देखो मंसु (संक्षि १२; पि ३१२)। 'यक्ष] भगवान् अजितनाथ का शासनामश्चला (मा) स्ना मस्त्य मछला ( मस्सूरग देखो मसूरगः 'मस्सूरए य थिबुर्गे धिष्ठायक देव (पव २६; संति ७)। जाला २३३)। (जीवस ५२)। श्री [ज्वाला] विद्यादेवी-विशेष (संति ६)। मस पु[मश, क १ शरीर पर का मह सक [काङ्क्ष ] चाहना, वाञ्छना । ज्जुइय वि [ द्युतिक] महान तेजवाला मसअ तिलाकार काला दाग, तिल (पव महइ (हे ४, १९२; कुमा, सण)। (भग; औप), 'ढि स्त्री [ ऋद्धि] महान् २५७)। २ मच्छड़, क्षुद्र जन्तु-विशेष (गा मह सक [ मथ् ] १ मथना, विलोड़न वैभव (राय)। 'ड्ढिय, ड्ढोअ वि ५६०; चारु १०, वज्जा ४६)। करना। २ मारना । महेज्जा (उवा)। ["ऋद्धिक] विपुल वैभववाला (भगः प्रोधमा मसक्कसार न [मसक्कसार इन्द्रों का एक मह सक[ मह 1 पूजना। महइ (कुमा), १०), गणव पुं [अर्णव] महा-सागर स्वयं प्राभाव्य विमान (देवेन्द्र २६३)। महेइ (सिरि ५६६) । संकृ. महिअ (कुमा)। (सुपा ४१७, हे १, २६६) गणवा स्नी मसग देखो मसअ (भग; औपः पउम ३३, कृ. मणिज (उप पृ १२६)। [अर्णवा] १ बड़ी नदी। २ समुद्र-गामिनी १०८; जी १८)। मह पुन [मह] उत्सव (विपा १, १-पत्र (कस ४, २७ टि: बृह ४)। तुडियंग न मसण वि [मसूण १ स्निग्ध, चिकना। ५; रंभाः पापः सण)। ["त्रुटिताङ्ग] ८४ लाख त्रुटित को संख्या २ सुकुमाल, कोमल, अकर्कश। ३ मन्द, मह पुं [मख] यज्ञ (चंड गउड)। (जो २)। त्तण न [व] बड़ाई, महत्ता धीमा (हे १, १३०; कुमा)। (श्रा २७).1 °त्तर वि [तर] १ बहुत बड़ा मह वि [ महत् ] १ बड़ा, वृद्ध । २ विपुल, मसरक सक [दे] सकुचना, समेटना। संकृ. (स्वप्न २८)। २ मुखिया, नायक, प्रधान 'दसवि करंगुलीउ मसरक्किवि (अप) विस्तीर्ण । ३ उत्तम, श्रेष्ठ; 'एगं महं सत्तुस्सेहं' (कप्पः प्रौपः विपा १,८)। ३ अन्तःपुर (णाया १, १-पत्र १३, काल, जी ७; (भदि)। हे १, ५) । स्त्री. ई (उव; महा)। "एवी का रक्षक (प्रौप)। स्त्री. °रिया, "री (ठा मसाण न [श्मशान] मसान, मरघट (गा स्त्री [°देवी] पटरानी (भवि)। कंतजस ४, १-पत्र १९८; इक)। त्थ वि [ अर्थ] ४०८ प्राप्रः कुमा)। महान् अर्थवाला (णाया १, पुं[कान्तयशस्] राक्षस वंश का एक मसार पुंदे. मसार] महणता-संपादक श्रा २७)।पापाण-विशेष, कसौटी का पत्थर (गाया १, त्थ न [अन] अस्त्र-विशेष, बड़ा हथियार राजा, एक लंका-पति (पउम ५, २६५)। कमलंग न [कमलाङ्ग] संख्या-विशेष, (पउम ७१, ६७)। "स्थिम पुंस्त्री [र्थत्व १-पत्र ६; औप)। ८४ लाख कमल की सख्या (जो २)। महार्थता (भवि)। दलिल्ल वि [°दलिल] मसारगल्ल पु [मसारग] एक रत्न-जाति कव्व न [ काव्य] सर्ग-बद्ध उत्तम काव्य- बड़ा दलवाला (प्रासू १२३)। दह पुं (गाया १,१-पत्र ३१ कप्पः उत्त ३६, ग्रंथ ( भवि), काल देखो महा-काल ["द्रह] बड़ा ह्रद (णाया १, १-पत्र ६४; (देवेन्द्र २४)। गइ पुंगात] राक्षस वंश गा १८६ अ), 'दि स्त्री [अद्रि] १ बड़ी मसि स्त्री [मसि] १ काजल, कज्जल (कप्पू)। का एक राजा, एक लंकेश (उम ५, २६५)। याचना। २ परिग्रह (परह १, ५-पत्र २ स्याही, सियाही (सुर २, ५)। 'ग्गह देखो महा-गह (सम ६३), ग्घ ६२)। दुम पु ["द्रम] १ महान् वृक्ष मसिंहार पु [मसिंहार] क्षत्रिय-परिव्राजक वि [अर्घ] महा-मूल्य, कीमती (सुर ३, (हे ४, ४४५)। २ वैरोचन इन्द्र के एक विशेष (प्रौप)। १०३, सुपा ३७), ग्धविअ वि[अघित] पदाति-सैन्य का अधिपति (ठा ५, १-पत्र मसिण देखो मसण (हे १, १३०; कुमाः १ महँगा, दुर्लभ (से १४, ३७)। २ | ३०२)1 °द्धि वि [ ऋद्धि] बड़ी ऋद्धिवाला प्रौपः से १, ४५, ५, ६४)। विभूषित; 'विमलंगोवंगगुणमहग्धविया' (सुपा (कुमा)। 'धूम पु[°धूम] बड़ा धुमाँ मसिज वि [दे] रम्य, सुन्दर (दे ६, ११८)। (महा)। नव देखो ण्णव (श्रा २८)। मसिणिअ वि [मसृणित] १ मृष्ट, शुद्ध सक्कारियपणमिनो महग्घविनो' (उव) पाणन [प्राण ध्यान-विशेष(सिरि १३३०)।किया हुआ, मार्जितः 'रोसिरिण ममिरिण' 'ग्घिम (अप) वि [ अधित बहूमूल्य, 'पुंडरीअ'[पुण्डरीक] ग्रह-विशेष १, १९८।- १,६०) । ३ सम्मानित 'आ (उव)। पाणन [प्राणपण्डरीक ] ग्रह-विशेष For Personal & Private Use Only Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महअर-महा पाइअसहमहण्णवो (हे २, १२०) । 'प्प ' [ आत्मन् महान् महअर पुं[दे] गह्वर-पति, निकुञ्ज का मालिक महम्मह देखो महमह; 'जिप्रलोअसिरी महम्ममात्मा, महा-पुरुष (पउम ११८, १२१) (द ६, १२३)। हई' (गा ६०४) °Cफल वि [फल] महान् फलवाला (सुपा महई [महाति १ अति बड़ा । २ अत्यन्त | महया देखो महा'; 'महयाहिमवंतमहंतमलय६२१)। 'बाहु पुं[°बाहु] राक्षस वंश का विपुल । जड वि [जट] प्रति बड़ी जटा- मंदरहिंदसारे' (णाया १, १ टी-पत्र ६, एक राजा, एक लंका-पति (पउम ५, २६५)। वाला (पउम ५८, १२)। महाइंदइ पुं| औपः विपा १, १, भग) ।। 'बोह पुं[अबोध] महा-सागर, [महेन्द्रजित् ] इक्ष्वाकु-वंश के एक राजा महर वि [दे] असमर्थ, प्रशक्त (दै ६, 'इय वुत्तंतं सोउं रगणा का नाम (पउम ५, ६)। महापुरिस ' ११३)। निव्वासिया तहा सुगया । [ महापुरुष १ सर्वोत्तम पुरुष, सर्व-श्रेष्ठ महलयपक्ख देखो महालवक्ख (षड्-पृष्ठ महबोहे जंतूणं जह पुरुष । २ जिनदेव, जिन भगवान् (पउम १, १७६)। १८) महालय वि [महत् ] अत्यन्त महल्ल वि [दे. महत्] १ वृद्ध, बड़ा (दे पुणरवि नागया तत्व बड़ा: 'महइमहालयंसि संसारंसि' (उवा: सम (सम्मत्त १२०)। ६, १४३, उवा; गउड; सुर १, ५४; पंचा ७२) । स्त्री. 'लिया (भग; उवा)। ५, १६; संबोध ४७ प्रोघ १३६, प्रासू 'ब्बल पं [बल] १ एक राज-कुमार महई देखो मह = महत्।। १४६) जय १२; सुपा ११७) । २ पृथुल, (विपा २, ७ भग ११, ११, अंत)। २ वि. महंग [दे] उष्ट्र, ऊँट (दे ६, ११७)। । विशाल, विस्तीर्ण (द ६, १४३; प्रवि १०; विपुल बलवाला (भग; प्रौप)। देखो महा महंत देखो मह = महत् (आचा; औप, कुमा) स ६६२, भवि) स्त्री. 'ल्लिया (प्रौपः सुपा बल। भय वि [भय] महाभय-जनक महच्च न [माहत्य] १ महत्त्व ! २ महत्त्ववाला ११३५८७)। (पएह १, १) भूय न [भूत] पृथिवी (ठा ३, १-पत्र ११७)। महल्ल वि[दे] १ मुखर, वाचाट, बकवादी आदि पांच द्रव्य (सूअ २, १, २२), 'मरुय महण न [दे] पिता का घर (दे ६, ११४)। (दे ६, १४३; षड्)। २ पुं. जलधि, पुं["मरुत] एक महर्षि, अन्तकृद् मुनि-विशेष महण न [मथन] १ विलोडन (से १, ४६; समुद्र (दे ६, १४३)। ३ समूह, निवह (दे (अंत २५), 'मास पुं[अश्व] महान् वजा ८)। २ घर्षण (कुप्र १४८)। ३ वि. ६, १४३, सुर १, ५४) अश्व (ोप)। "यर देखो 'त्तर (णाया १, | १-पत्र ३७), 'रव पुं [व] राक्षस मारनेवालाः 'दरितनागदप्पमहणा' (पराह १, महल्लिर देखो महल्ल; 'हरिनहकढिणमहल्लिर | पयनहरपरंपराए विकरालो' (सुपा ११)। ४)। ४ विनाश करनेवाला; 'नाणं च वंश का एक राजा, एक लंका-पति (पउम ५, २६६), "रिसि पुं [ ऋषि महर्षि, महा चरणं च भवमहणं' (संबोध ३५; सुर ७, महव देखो मघव (कुमाः भवि)। मुनि (उव; रयण ३७) 1 "रिह वि [ अह] २२५) । स्त्री. 'णी (श्रा ४६) महा स्त्री [मघा] नक्षत्र-विशेष (सम १२; बड़े के योग्य, बहु-मूल्य, कीमती (विपा १, महण पुं[महन] राक्षस वंश का एक राजा, सुज्ज १०, ५; इक)। ३; प्रौपः पि १४०)। वाय [वात महा देखो मह = महत् (उवा) + अडड न महान् पवन (मोघ ३८७)। "व्वइय वि| महणिज देखो मह = मह ।। [अटट] संख्या-विशेष, ८४ लाख महापट[व्रतिक महाव्रतवाला (सुपा ४७४)। महति देखो महई (ठा ३, ४; णाया १, टांग की संख्या (जो २)। अडडंग न व्वय पुंन [व्रत] महान् व्रतः 'महन्वया १औप)। . [°अटटाङ्ग] संख्या-विशेष, ८४ लाख अट पंच हुँति इमे' (पउम ११, २३), 'सेसा महती स्त्री [महती] वीणा-विशेष, सौ ताँत- (जो २)। आल देखो काल (नाट-चैत महव्वया ते उत्तरगुणसंजुयावि न हु सम्म' वाली वीणा (राय ४६) । ५२) ऊह न [°ऊह] संख्या-विशेष, (सिक्खा ४८; भगः उव)। व्वय पुं महत्थार न [दे] १ भाण्ड, भाजन । २ ८४ लाख महाऊहांग की संख्या (जो २)। ["व्यय] विपुल खर्च (उप पृ १०८)। भोजन (दे ६, १२५) ।। कइ पुं[कवि श्रेष्ठ कवि, समर्थ कवि 'सलाग स्त्री [शलाका] पल्य-विशेष, एक महप्पुर पुं [दे] माहात्म्य, प्रभाव; 'तुह (गउड; चेइय ८४३, रंभा) कंदिय पुं प्रकार की नाप (जीवस १३६)। "सिव पुं मुहचंदपहाए फरिसाण महणुरो एसो' (रंभा | [कन्दित] व्यन्तर देवों की एक जाति ["शिव] एक राजा, षष्ठ बलदेव और वासुदेव ४३) । (पएह १, ४; प्रौप; इक) कच्छ ' का पिता (सम १५२)। "सुक्क देखो महा- महमह देखो मघमघ । महमहइ (हे ४, ७८ [कच्छ] १ महाविदेह वर्ष का एक विजयसुक्क (देवेन्द्र १३५)। सेण पु[सेन] षड् ; गा ४६७), महमहेइ (उव)। वक क्षेत्र-प्रान्त (ठा २, ३, इक)। २ देव१ पाठवें जिनदेव का पिता (सम १५०)। महमहंत (काप्र ६१७)। संकृ. महमहिअ विशेष (जं ४)। कच्छा श्री [कच्छा] २ एक राजा (महा)। ३ एक यादव (उप (कुमा)। प्रतिकाय नामक इन्द्र की एक अग्र-महिषी ६४८ टी)। ४ न. वन-विशेष (विसे | महमहिअ वि [प्रसृत] १ फैला हुआ (हे १, (ठा ४,१-पत्र २०४, रणाया २: इक)। १४८४) । देखो महा-सेण । देखो महा। । १४६; वज्जा १५०) । २ सुरभित (रंभा)। कण्ह पुं.[कृष्ण] राजा श्रेणिक का एक Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ पाइअसहमहण्णवो महापुत्र (निर १, १), कण्हा स्त्री ["कृष्णा] कुल न [कुल] १ श्रेष्ठ कुल (निचू ८)। नीला (राज) । णुभाअ, णुभाग वि राजा श्रेणिक की एक पत्नी (अंत २५)। २ वि. प्रशस्त कुल में उत्पन्न निक्खंता जे [अनुभाग] महानुभाव, महाशय (नाट'कप्प ' [कल्प] १ जैन ग्रन्थ विशेष महाकुला' (सून १, ८, २४)। गंगा स्त्री मालती ३६ गच्छ १, ४ भग; सिरि १६)(णंदि)। २ काल का एक परिमाण (भग [गङ्गा] परिमाण-विशेष (भग १५) । गह णुभाव वि [°अनुभाव] वही अर्थ (सुर १५), कमल न ['कमल] संख्या-विशेष, पुं[ग्रह] १ सूर्य प्रादि ज्योतिष्क (साधं २, ३५ द्र ६६) । तमपहा स्त्री [तमःचौरासी लाख महाकमलांग की संख्या (जो ८७) । गह वि [ आग्रह] आग्रही, हठी प्रभा] सप्तम नरक-पृथिवी (पव १७२) । २)। कव्य देखो मह-कव्व (सम्मत्त (साध ८७). "गिरि पु [गिरि] १ एक 'तमा स्त्री [तमा] वही (चेइय ७५६) । १४६)। काय पूं [काय] १ महोरग जैन महाष (उव; कप्प)। २ बड़ा पवत जैन महर्षि (उव; कप्प)। २ बड़ा पर्वत तीरा स्त्री [तीरा] नदी-विशेष (ठा ५, देवों का उत्तर दिशा का इन्द्र (ठा २, ३, (गउड), गोव पुं[गोप] १ महान् रक्षक। ३–पत्र ३५१) तुडिय न [°त्रुटित] इक)। २ वि. महान् शरीरवाला (उवा)। २ जिन भगवान (उवा विसे २६५६) महात्रुटितांग को चौरासी लाख से गुणने पर काल पुं [ काल] १ महाग्रह-विशेष, एक 'घोस पुं[घोष] १ऐरवत क्षेत्र के एक जो संख्या लब्ध हो वह, संख्या-विशेष (जो ग्रह-देवता (सुज्ज २० ठा २, ३)। २ भावी जिनदेव (सम १५४)। २ एक इन्द्र, २) दामद्वि. [दामास्थि] ईशानेन्द्र दक्षिण लवण-समुद्र के पाताल-कलश का स्तनित कुमार देवों का उत्तर दिशा का इन्द्र के वृषभ-सैन्य का अधिपति (इक) । दामढि अधिष्ठायक देव (ठा ४,२-पत्र २२६)। (ठा २, ३-पत्र ८५)। ३ एक कुलकर पुं [दामद्धि] वही अर्थ (ठा ५, १-पत्र ३ एक इन्द्र, पिशाच-निकाय का उत्तर दिशा पुरुष (सम १५०)। ४ परमाधार्मिक देवों ३०३)। दुम देखो मह-दुदुम (इक)। का इन्द्र (ठा २,३-पत्र ८५)। ४ परमा- की एक जाति (सम २६)। ५ न. देवविमान- २ न. एक देव-विमान (सम ३५) । दुमसेण धार्मिक देवों की एक जाति (सम २८)। ५ विशेष (सम १२; १७)। चद पं [°चन्द्र]-पु[द्र मसेन] राजा श्रेणिक का एक वायु-कुमार देवों का एक लोकपाल (ठा ४, ऐरवत वर्ष के एक भावी तीर्थकर (सम पुत्र जिसने भगवान महावीर के पास दीक्षा १-पत्र १९८)। ६ वेलम्ब इन्द्र का एक १५४)। जणि पं [जनिक श्रेष्ठी, ली थी (अनु २) देव पुं [देव] १ श्रेष्ठ लोकपाल (ठा ४,१-पत्र १९८)। ७ नव सार्थवाह आदि नगर के गएय-मान्य लोग देव, जिन-देव (पउम १०६, १२) । २ शिव, निधियों में एक निधि, जो धातुओं की पूर्ति (कुमा)। जलहि पुं, [जलधि महा-सागर गौरी-पति (पउम १०६, १२ सम्मत्त ७६)।' करता है (उप ९८६ टी; ठा ६-पत्र (सुपा ४७४) । जस [ यशस् ] १ भरत देवी स्त्री [°देवी] पटरानी (कप्पू), धण ४४६)। ८ सातवीं नरक-भूमि का एक चक्रवर्ती का एक पौत्र (ठा ८-पत्र ४२६)। पु[धन] एक वणिक (पउम ५५, ३८) नरकावास (ठा ५, ३-पत्र ३४१, सम २ ऐरवत क्षेत्र के चतुर्थ भावी तीर्थंकर-देव 'धणु पु[ धनुष्] बलदेव का एक पुत्र ५८)। ६ पिशाच देवों की एक जाति (सम १५४) । ३ वि. महान् यशस्वी (उत्त (निर १, ५)4°नई स्त्री [ नदी] बड़ी नदी (राज)। १० उज्जयिनी नगरी का एक १२, २३) । जाइ स्त्री [जाति गुल्म (सम २७, कस) - नंदिआवत्त देखो प्राचीन जैन मन्दिर (कुप्र १७४)। ११ शिव, विशेष (पएण १)। जाण न [यान] १ 'गंदियावत्त (इक) । नगर न [ नगर] महादेव (प्राव ६)। १२ उज्जयिनी का एक बड़ा यान-वाहन । २ चारित्र, संयम बड़ा शहर (पएह २, ४)। 'नय पु [ नद] श्मशान (अंत)। १३ राजा श्रेणिक का (प्राचा)। ३ एक विद्याधर-नगर का नाम ब्रह्मपुत्रा आदि बड़ी नदी (प्रावम)। नलिण एक पुत्र (निर १, १)। १४ न. एक देव- (इक) । ४ . मोक्ष, मुक्ति (प्राचा)। जुद्ध न [ नलिन] १ संख्या-विशेष, महानलिनांग विमान (सम ३५) । काली स्त्री [ काली] | न [युद्ध] बड़ी लड़ाई (जीव ३)। जुम्म को चौरासी लाख से गुणने पर जो संख्या १ एक विद्या-देवी (संति ५)। २ भगवान् । पुन['यग्म] महान राशि (भग ३५) लब्ध हो वह (जो २)। २ एक देव-विमान सुमतिनाथ की शासन-देवी (संति ९)। ३ ण देखो यण; 'गामदुप्रारब्भासे अगडसमीवे | (सम ३३)। नलिणंग न [नलिनाङ्ग] राजा श्रेणिक की एक पत्नी (अंत २५) महारणमझे वा' (प्रोध ६६), णई स्त्री संख्या-वशष, नालन का चारासा लाख स "किण्हा स्त्री [कृष्णा] एक महा-नदी (ठा [ नदी] बड़ी नदी (गउडा पउम ४०, १३) गुणने पर जो संख्या लब्ध हो वह ५; ३–पत्र ३५१) । कुमुद, कुमुय न | दियावत्त पु. [नन्द्यावर्त] १ घोष (जो २) 4 निजामय पुं [निर्यामक] [कुमुद] १ एक देव-विमान (सम ३३)। नामक इन्द्र का एक लोकपाल (ठा ४,१- श्रेष्ठ कर्णधार (उवा)। निद्दा स्त्री [निद्रा] २ संख्या-विशेष, चौरासी लाख महाकुमुदांग पत्र १९८)। २ न. एक देवविमान (सम मृत्यु, मरण (पउम ६, १९८), निनाद, की संख्या (जो २)। कुमुयअंग न [°कुमु- ३२) । °णगर देखो नगर (राज)। निनाय वि [निनाद] प्रख्यात, प्रसिद्ध दाङ्ग] संख्या, कुमुद को चौरासी लाख से लिण देखो नलिण (राज) । °णील न (प्रोघ ८६ ८६ टी) । निसीह न गुणने पर जो संख्या लब्ध हो वह (जो २)। ['नील] १ रल-विशेष । २ वि. अति नील [निशीथ एक जैन आगम-ग्रन्थ (गच्छ ३, कुम्म पुं [कूमे] कूर्मावतार (गउड)। वर्णवाला (जीव ३; प्रौप)। °णीला देखो । २६)। 'नीला स्त्री [ नीला] एक महानदी For Personal & Private Use Only Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापाइअसद्दमहण्णवो ६७६ (ठा ५, ३-पत्र ३५१). पउम [ पद्म] "पिउ पुं[पित] पिता का बड़ा भाई (सम १५४) । ३ वि. बड़ा भयानक (दंस ४)। १ भरतक्षेत्र का भावी प्रथम तीर्थंकर (सम (विपा १, ३-पत्र ४०) पीढ [पीठ] भीमसेण पु[भीमसेन] एक कुलकर १५३) । २ पुंडरीकिणी नगरी का एक राजा एक जैन महर्षि (सट्ठि ८१ टी), पुंख पुरुष का नाम (सम १५०) । भुअ पु और पीछे से राजर्षि (णाया १, १६-पत्र न [पुङ्ख] एक देव-विमान (सम २२) [भुज] देव-विशेष (दोव)। भुअंग पु २४३) । ३ भारतवर्ष में उत्पन्न नववाँ पुंड न [पुण्ड] एक देव-विमान (सम [भुजङ्ग] शेष नाग (से ७, ५६) भोया चकवर्ती राजा (सम १५२; पउम २०, २२) पुंडरीय न[ पुण्डरीक] १ विशाल स्त्री [ भोगा] एक महा-नदी (ठा ५, ३१४३) । ४ भरतक्षेत्र का भावी नववाँ श्वेत कमल (राय) । २ . ग्रह-विशेष (सम पत्र ३५१)। मउंद पूंन [ मुकुन्द] वाद्यचक्रवर्ती राजा (सम १५४)। ५ एक राजा १०४)। ३ देव-विशेष । ४ देखो पुंडरी विशेष (भग) । मंति पु. [ मन्त्रि ] (ठा ६)। ६ एक निधि (ठा -पत्र (राज), "पुर न [पुर] १ एक विद्याधर-नगर १ सर्वोच्च अमात्य, प्रधान मन्त्री (प्रौपः सुपा ४४६)। ७ एक द्रह (सम १०४ ठा २, (इक) । २ नगर-विशेष (विपा २,७)। पुरा २२३, रणाया १, १)।२ हस्ति-सैन्य का ३–पत्र ७२)। ८ राजा श्रीणिक का एक स्त्री [पुरी] महापक्ष्म-विजय की राजधानी अध्यक्ष (णाया १,१-पत्र १९)मंस न पौत्र (निर १. १)। ६ देव-विशेष (दीव) । (ठा २,३-पत्र८०)। पुरिस पुं["पुरुप] [मांस] मनुष्य का मांस (कप्पू)। मञ्च १० वृक्ष-विशेष (ठा २, ३)। ११ न. संख्या- १ श्रेष्ठ पुरुष (पएह २, ४)। २ किंपुरुष- | पुं["अमात्य प्रधान मन्त्री (कुमा), 'मत्त विशेषः महापद्मांग को चौरासी लाख से निकाय का उत्तर दिशा का इन्द्र (ठा २, पुं[°मात्र] हस्तिपक, हाथी का महावतः गुणने पर जो संख्या लब्ध हो वह (जो २)। ३-पत्र ८५)। पुरी देखो पुरा (इक)। 'तत्तो नरसिंहनिवस्स कुंजरा १२ एक देव-विमान (सम ३३)। पउमअंग पोंडरीअ न [पुण्डरीक] एक देव-विमान सिहभयविहुरहियया । न [पद्माङ्ग] संख्या-विशेष, पद्म को चौरासी (स ३३) । देखो पुंडरीय (ठा २, ३-पत्र अवगरिणयमहामत्ता मत्तावि लाख से गुणने पर जो संख्या लब्ध हो वह | ७२)। फल देखो मह-प्फल (उवा)। पलाइया झत्ति (जो २) पउमा स्त्री पद्मा] राजा फलिह न [स्फटिक] शिखरी पर्वत का (कुप्र ३६४)।श्रेणिक की पक पुत्र-वधू (निर १,१)। एक उत्तर-दिशा-स्थित कूट (राज)। बल 'मरुया श्री [ मरुता] राजा श्रेणिक की पंडिय वि[ पण्डित श्रेष्ठ विद्वान (रंभा)। वि[बल] १ महान बलवाला (भग)। एक पत्नी (अंत)। मह पू[मह] महोपट्टण न [पत्तन] बड़ा शहर (उवा)। २ . ऐरवत क्षेत्र का एक भावी तीर्थकर त्सव (प्राव ४)। महंत वि [महत्] 'पण्ण,पन्न वि [प्रज्ञ] श्रेष्ठ बुद्धिवाला | (सम १५४)। ३ चक्रवर्ती भरत के वंश में अति बड़ा (सुपा ५६४ स ६६३) । माई (उप ७७३; पि २७६)। पभ न [प्रभ] उत्पन्न एक राजा (पउम ५, ४ ठा -पत्र (अप) स्त्री [माया] छन्द-विशेष (पिंग)।एक देव-विमान (सम १३) । पभा स्त्री ४२६)। ४ सोमवंशीय एक नर-पति (पउम "माउया स्त्री ["मातृका] माता की बड़ी [प्रभा] एक राज्ञी (उप १०३१ टो)। ५, १०) । ५ पाँचवें बलदेव का पूर्वजन्मीय बहन (विपा १ ३–पत्र ४०)। माढर पम्ह [पक्ष्म] महाविदेह वर्ष का एक नाम (पउम २०, १६०)। ६ भारतवर्ष का पुं[माठर] ईशानेन्द्र के रथ-सैन्य का विजय-प्रान्त (ठा २, ३)। परिणा, भावी छठवाँ वासुदेव (सम १५४)। बाहु अधिपति (ठा ५, १-पत्र ३०३; इक)। परिन्ना स्त्रो [परिज्ञा] आचारांग सूत्र के पु[बाहु] १ भारत-वर्ष का भावी चतुर्थ माणसिआ स्त्री [ मानसिका एक विद्याप्रथम श्रुतस्कन्ध का सातवाँ अध्ययन (राज; वासुदेव (सम १५४)। २ रावण का एक देवी (संति ६) माहण [ब्राह्मण] आक) पसु पुं [पशु] मनुष्य (गउड) । सुभट (पउम ५६, ३०)। अपर विदेह-वर्ष श्रेष्ठ ब्राह्मण (उवा) । मुणि पुं[मुनि] पह पुं [पथ] बड़ा रास्ता, राज-मार्ग में उत्पन्न एक वासुदैव (प्राव ४)। भद्द न | श्रेष्ठ साधु (कुमा)। मेह पुं [ मेघ बड़ा (भगः परह १, ३; प्रौप) । पाण न ["प्राण] [भद्र] तप-विशेष (पव २७१)। भदप- मेघ (गाया १, १-पत्र ४ठा ४, ४)। ब्रह्मलोक-स्थित एक देव-विमान (उत्त १८, डिमा स्त्री [भद्रप्रतिमा] नीचे देखो (प्रौप)। "मेह वि ['मेध] बुद्धिमान (उप १४२ टी)। २८), पायाल पुं [पाताल] बड़ा भद्दा स्त्री [भद्रा] व्रत-विशेष, कायोत्सर्ग- मोक्ख वि [मृर्ख] बड़ा बेवकूफ (उप पाताल-कलश (ठा ४, २-पत्र २२६: सम | ध्यान का एक व्रत (ठा २, ३-पत्र ६४) १०३१ टी) यण पुं [जन] श्रेष्ठ लोग ७१) । पालि स्त्री [पालि] १ बड़ा पल्य । भय देखो मह-भय (प्राचा) । भाअ, (सुपा २६१)। यस देखो जस (प्रौपः २ सागरोपम-परिमित भव-स्थिति-आयु, 'भाग वि [ भाग] महानुभाव, महाशय कप्प) । रक्खस पु [ राक्षस] लंका 'प्रहमासि महापाणे (अभि १७४; महा सुपा १९८; उप पृ ३)। नगरी का एक राजा जो धनवाहन का पुत्र जुइम बरिससमोवमे। जा सा पालिमहापाली दिव्या भीम पु[ भीम] १ राक्षसों का उत्तर था (पउम ५, १३६) रह पुं [रथ] ___ वरिससमोवमा' दिशा का इन्द्र (ठा २, ३–पत्र ८५)। २ १ बड़ा रथ (परह २, ४-पत्र १३०)।२ (उत्त १८, २८)। भारतवर्ष का भावी पाठवा प्रतिवासुदेव । वि. बड़ा रथवाला । ३ बड़ा योद्धा, दस For Personal & Private Use Only Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० पाइअसहमणवो हजार योद्धाओं के साथ अकेला जूझनेवाला (१, २, १, १ र ये [ रथिन ] देखो पूर्व का रस और (उप ७२६ राय ["राज] १ बड़ा राजा, राजाधिराज ( उप ७६८ टी; रंभा महा) । २ सामानिक देव, इन्द्रसमान ऋद्धिवाला देव (सुर १५, ६) । ३ लोकपाल देव (सम ८६)) रिट्ठपुं [रिष्ठ ] बलि नामक इन्द्र का एक सेनापति (इक) । "रिसि[ऋषि] वा मुनि, चेष्ठ साधु ( उव) रिह, रुह देखो मह - रिह (पि १४०; अभि १८७) रोरु पुं [रोरु ] प्रतिष्ठान नरकेन्द्रक की उत्तर दिशा में स्थित एक नरकावास (देवेन्द्र २४ ) । रोरुअ पुं [शेरुक, 'रीरख] सातवी मरक-भूमि का एक नरकवास नरक स्थान (सम ५८, ठा ५, ३ – पत्र ३४१; इक ) + रोहिणी स्त्री [रोहिणी] एक महा-विद्या (राज) । लंजर पुं [अलञ्जर] बड़ा जल-कुम्भ (ठा ४, २- पत्र २२६) । लच्छी स्त्री ['लक्ष्मी ] १ एक श्रेष्ठि-भार्या (उप ७२८ टी) । २ छन्दविशेष (पिंग)। ३ श्रेष्ठ लक्ष्मी । ४ लक्ष्मीविशेष (नाट) । लयंग न [ 'लताङ्ग ] संख्या- विशेष, लता नामक संख्या को चौरासी लाख से गुरणने पर जो संख्या लब्ध हो वह ( इक जो २) लया स्त्री [लता] संख्याविशेष, महालतांग को चौरासी लाख से गुरगने पर जो संख्या लब्ध हो वह ( जो २ ) । - 'लोहिअक्ख' ["लोहिताक्ष] क्लीन्द्र के महिनका अभिपति (५, १ ३०२; इक) । 'वक्कन [ वाक्य ] परस्परसंबद्ध श्रर्थं वाले वाक्यों का समुदाय (उप ८५९)[स] विजय-विशेष विदेह वर्षं का एक प्रान्त (ठा २, ३ इक) 'बच्छा स्त्री ['वत्सा] वही ( इक ) x वण न [वन] मथुरा के निकट का एक वन (ती ७) वण पुंन [आपण ] बड़ी दुकान (भय) प [व] विजयशेष- विशेष (ठा २, ३ - पत्र ८०; इक) वय देखो मह-व्यय ( सुपा ६५० ) । वराह पुं [ह] १ विष्णु का एक धरतार (गड)। २ बड़ा सूअर (सूत्र १,७, २५) । वह देखो 'पह (से १, ५८) वाउ पुं [वायु ] ईशानेन्द्र के बल-सैन्य का अधिपति (ठा ५, १- पत्र ३०३; इक) । 'वाड पुं [वाट ] बड़ा बाड़ा, महान गोष्ठ; 'निव्वाणमहावाडं' ( उवा) विगइ स्त्री [विकृति] अति विकारजनक वस्तु मधु, मांस, मच धीर माखन (ठा ४, १ – पत्र २०४; अंत ) । "विजय वि [विजय ] बड़ा विजयवाला 'महाविजयसरपरवाच महात्रिमा शामी' (क) 'विदेह ["विदेश] वर्ष विशेष क्षेत्र-विशेष (सम १२ वा श्रीम अंत) विमाण न ["विमान] श्रेष्ठ देवगृह (उवा) । विल न [बिल] कन्दरा श्रादि बड़ा विवर (कुमा) । वीर पुं [वोर] १ वर्तमान समय के अन्तिम तीर्थंकर (सम १३ उवा विपा १, १ ) । २ वि. महान् पराक्रमी (किरात १६ ) + वीरिअ पुं [वीर्य ] इक्ष्वाकु वंश के एक राजा का नाम (पउम ५, ५) वीहि 'वीही स्त्री [वोथि, 'थी] बड़ा बाजार ( पउम ६६, ३४) । २ श्रेष्ठ मार्ग (श्रांचा) । 'वेग [ वेग ] एक देव-जाति, भूतों की एक प्रकार की जाति (राजः इक) वैजयंती स्त्री [° वैजयन्ती ] बड़ी पताका विजय पताका, (कप्पू ) । सई [ती] उत्तम पतिव्रता स्त्री (उप ७२८ टी. पडि) । सउणि स्त्री [शकुनि ] एक विद्याधर- स्त्री ( परह १, ४ – पत्र ७२) । सड्ढि वि [श्रद्धिन् ] बड़ी श्रद्धावाला (प्राचापि ३३३) । सत्त वि [ "सत्त्व ] पराक्रमी ( ११ महा "समुह ' ["समुद्र ] महासागर (बा) सवग "समय ["शवक] भगवान् महावीर का एक उपासक ( उवा) । 'सामाण न 4 विदेह का एक प्रान्तका २, ३ एक)[सामान] एक देव- विमान (सम ३२ ) । साल [शाल ] एक युवराज ( पडि) 1 "सिलाटव["शिलाण्टक ] राजा कि मोर टकराव की लड़ाई (भाग ७ पत्र ११५) सीद ["सिंह] एक राजा, षष्ठ बलदेव और वासुदेव का पिता (डा पत्र ४४७) 'सीहणिकीलिय, सहनिकीलियन [सिंहनिक्रीडित] उप-विशेष (राज पव २७१ - गाथा १५२२) सीहसेण पुं [ 'सिंहसेन ] و For Personal & Private Use Only महाअत- महाणस भगवान् महावीर के पास दीक्षा लेकर अनुत्तर देवलोक में उत्पन्न राजा श्रेणिक का एक पुत्र ( अनु २ ) सुक्क [शुक्र ] १ एक देवलोक देवलोक ( १३ विपा २, १) । २ सातवें देवलोक का इन्द्र (ठा २, ३--पत्र ८५) । ३ न. एक देव - विमान (सम ३३) सुमिण पुं ["स्वप्न ] उत्तम फल का एक सूचक स्वप्न (गाया १, १ – पत्र १३ पि ४४७) सुर [असुर ] १ बड़ा दानव । २ दानवों का राजा हिरण्यकशिपु ( से १, २ गउड) । सुव्वय, सुव्वया श्री [वता] भगवान नेमिनाथ की दु श्राविका (कप्प श्रावम ) ) 'सूला स्त्री [शूला ] फाँसी (श्रा २७ ) से पुं [ श्वेत] एक इन्द्र, कूष्माण्ड नामक वानव्यन्तर देवों का उत्तर दिशा का इन्द्र (इक; ठा २, ३ – पत्र ८५ ) से [सेन] १ ऐरवत क्षेत्र के एक भावी जिन देव (सम १५४) । २ राजा श्रेणिक का एक पुत्र जिसने भगवान् महावीर के पास दीक्षा ली थी ( अनु २ ) । ३ एक राजा (विपा १, ६पत्र ८८ ) । ४ एक यादव ( गाया १, ५) । ५ न. एक वन (विसे २०८९ ) । देखो मह-सेण सेणकण्डू [सेनकृष्ण] राजा श्रेणिक का एक पुत्र ( प ५२) । "सेकण्डा श्री [ सेनकृष्णा ] राजा रिंक की एक पाली (२५) 'सेल [शेल] [१] बड़ा पर्यंत (गाया ११) २ न. नगर- विशेष ( पउम ५५, ५३) । 'सोआम, सोदाम ["सौदाम] वैरोचन बली के अका अधिपति (ठा ५. १ इक) हरिपुं [हरि] एक नर-पति दसवें चक्रवर्ती का पिता (सम १५२ ) । "हिमय, "हिमवंत [हिमवत् ] पर्वत- विशेष (पउम १०२, १०५ ठा २, २० मा २ देव-वशेष ( ४ ) 1महाअत्तवि [दे] श्रव्य, श्रीमन्त (दे ६, ११९) । महाइय पुं [दे] महात्मा (भवि ) । महागड [दे. महानट] ख महादेव (दे ६, ४, १२१) IV. महासन [महानस ] रसोई पर पाक थान ( रणाया १८ गा १३३ उप २५६ टी) । Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाणसि-महिसी पाइअसहमहण्णवो ६८१ बल्लह पुंवला , नरपति हि महिंद वि मा २९५)। महाणसि वि [महानसिन] रसोई बनाने- [पति राजा (णाया १, १ टीः प्रौप) वंश का एक राजा (पउम ५, ६) सीह वाला, रसोइया । स्त्री. णी (णाया १,७- वट्ठ देखो पट्र (हे १, १२६ कुमा) पुं [सिंह] १ कुरु देश का एक राजा पत्र ११७)। वल्लह पुं.["वल्लभ] राजा (गु १०)। वाल (उप ७२८ टी)। २ सनत्कुमार चक्रवर्ती का महाणसिय वि [महानसिक] ऊपर देखो पु [पाल] १ राजा, नरपति (हे १, एक मित्र (महा)। (विपा १,८) २२६) । २ व्यक्ति वाचक नाम (भवि)। महिंद वि [माहेन्द्र] १ महेन्द्र-सम्बन्धी । महाबिल न [दे. महाबिल] व्योम, प्रकाश "वेढ [वेष्ट, पीठ] मही-तल, भू-तल | २ उत्पात-विशेष (अरण २१५)। (दे ६, १२१) (से १, ४ ४६) सामि पुं[स्वामिन्] महिंदुत्तरवडिंसय न[महेन्द्रोत्तरावतंसक] महामंति पुं [महामन्त्रिन्] महावत, हस्ति- राजा (कुमा) हर पुं[धर] १ पर्वत | एक देव-विमान (सम २७)।। पक (राय १२१ टी)। (पापा से ३, ३८ ४, १७ कुप्र ११७)। महिगा देखो नाहिजा (जीवस ३१) ।। महारिय (अप) वि [मदीय] मेरा (जय २ राजा (कुप्र ११७) ।। महिच्छ वि [महेच्छ] महत्वाकांक्षी (सूत्र ३०) महिअ वि मथित विलोडित (से २, १८ २,२,६१) महाल पुं [दे] जार, उपपति (दे ६, पान)। | महिच्छा स्त्री [ महेच्छा] महत्वाकांक्षा, ११६) महिअ वि [महित] १ पूजित, सत्कृत (से अपरिमित वाञ्छा (पएह १, ५)महालक्ख वि [दे] तरुण, जवान (दे ६, | १२, ४७; उवा प्रौप)। २ न. एक देव- महिट्ठ विदे] मट्ठा से संसृष्ट, तक्र-संस्कारित १२१) विमान (सम ४१) । ३ पूजा, सत्कार (णाया (विपा १,६-पत्र ८३) महालय देखो मह = महत् (गाया १,८; उवा १, १) महिड्ढि , वि [महर्द्धि, क] बड़ी ऋद्धिपोप), 'मा कासि कम्माई महालयाई' (उत्त | महिअ वि [ महीयस] बड़ा, गुरु; 'राम महिड्ढिय वाला, महान वैभववाला (श्रा १३, २६) । स्त्री. °लिया (औप)। निमोमो महिमो को रणाम गमागप्रमिह करेइ' महिड्ढीय । २७; भगः पोषभा ६; औपः महालय पुंन [महालय १ उत्सवों का स्थान (मुद्रा १८७) पि ७३)। (सम ७२) । २ बड़ा प्रालय । ३ वि. महिअदुअ न [दे] घी का किट्ट, घृत-मल | महिअदुअ न [दे] घी का किट्ट, घृत-मल महिम पुत्री [महिमन] १ महत्त्व, माहात्म्य, बृहत्काय, बड़ा शरीरवाला (सूम २, ५, ६)। (राज) गौरव (हे १,३५, कुमाः गउड; भवि)। २ महालवक्ख पुं [दे. महालयपक्ष श्राद्ध-पक्ष | महिआ स्त्री [महिका] १ सूक्ष्म वर्षा, सूक्ष्म , योगी का एक प्रकार का ऐश्वर्य (हे १, ३५)।आश्विन (गुजराती भाद्रपद) मास का कृष्ण जल-तुषार (पएण १; जो ५)। २ घूमिका, | महिला देखो मिहिला (महा राज)। पक्ष (दे ६, १२७) । धुंध, कुहरा (ओष ३० पात्र)! ३ मेघ- महिला स्त्री [महिला] स्त्री, नारी (कुमाः महावल्ली स्त्री [दे] नलिनी, कमलिनी (दे ६, हे ३, ४१; पाप्र)। थूभ पुं[स्तूप] कूप १२२)। देखो मिहिआ। प्रादि का किनारा (विसे २०६४)।. महाविजय पुं [महाविजय] एक देवविमान महिंद पुं [महेन्द्र] १ बड़ा इन्द्र, देवाधीश महिलिया श्री [महिलिका, महिला] ऊपर (प्राचा २, १५, २)। (प्रौपः कप्पा गाया १, १ टी-पत्र ६)। देखो (णाया १, २, पउम १४, १४५) महासउण पुं [दे] उल्लू, घूक-पक्षी (दे ६, | २ पवंत-विशेष (से ६, ५६) । ३ प्रति महान्, प्रासू २४) । १२७)। खूब बड़ा (ठा ४, २-पत्र २३०)। ४ एक महिलिया स्त्री [मिथिलिका, मिथिला] महासद्दा स्त्री [दे] शिवा, शृगाली (दे ६, राजा (पउम ५०, २३) । ५ ऐरवत वर्ष का देखो मिहिला (कप्प)।१२०० पान) भावी १५ वाँ तीर्थकर (पव ७)। ६ पुन. महिस पु [माहष] भैंसा (गउड; औप महासेल दि [माहाशैल] महाशैल नगर से एक देव-विमान (सम २२, देवेन्द्र १४१) गा ५४८)। सुर पु [सुर] एक संबन्ध रखनेवाला, महाशैल का (पउम ५५, कत न [कान्त] एक देव-विमान (सम दानव (स ४३७)। ५३)। २७)। केउ [केतु] हनुमान के मातामह महिसंद [दे] वृक्ष-विशेष, शिशु का पेड़ महि देखो मही (कुमा)। अल न [तल] | का नाम (पउम ५०, १६) ज्झय पुं । (दे ६, १२०)। भू-पीठ, भूमि-पृष्ठ (कुमाः गउडा प्रासू ४५) [ध्वज १ बड़ा ध्वज । २ इन्द्र के ध्वज महिसिअ वि [महिषिक] भैसवाला, भैंस गोयर [गोचर] मनुष्य (भविः सण)। के समान ध्वज, बड़ा इन्द-ध्वज (ठा ४, चरानेवाला (मरण १४४)।पट्ट न [पृष्ट] भूमि-तल (षड् )। पाल j ४-पत्र २३०)। ३ न. एक देव-विभान महिसिक्कन [दे महिषी-समूह (दे ६, [पाल] राजा (उव)। मंडल न [मण्डल] (सम २२) । दुहिया स्त्री [ दुहिता] । १२४) भू-मण्डल (भविः हे ४, ३७२)। रमण पं अजनासुन्दरी, हनूमान की माता (पउम ५०, महिसी स्त्री [महिपी] १ राज-पत्नी (ठा ४, [रमण] राजा (श्रा २७)। वइ पुं. २३). "विक्कम पुं ["विक्रम] इक्ष्वाकु, १)। २ भैस (पापः पउम; २६, ४१)। For Personal & Private Use Only Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ पाइअसहमहण्णवो महिस्सर-महेसर महिस्सर पु[महेश्वर] एक इन्द्र, भूतवादि- पुं[ भार] छन्द-विशेष (पिन) मक्खिया, महुर पुं महुर] १ मनायं देश-विशेष । २ देवों का उत्तर दिशा का इन्द्र (ठा २, ३- 'मच्छिा स्त्री [ मक्षिका] शहद की। उस देश में रहनेवाली अनार्य मनुष्य-जाति पत्र ८५)। देखो महेसर। मक्खी; 'अह उड्डियाउ तोमरमुहाउ महुक्खि (पएह १, १-पत्र १४)।मही स्त्री [महा] १ पृथिवा, भूमि, धरती (?मक्खि)याउ सव्वत्तो' (धर्मवि १२४ महुर वि [मधुर] १ मीठा, मिष्ट (कुमाः (कुमा, पान)। २ एक नदो (ठा ५, २ गा ६३४)। "मय वि ["मय] मधु से प्रासू ३३; गउडा गा ४०१)। २ कोमल पत्र ३०८) । ३ छन्द-विशेष (पिंग)। 'नाह भरा हुआ (से १, ३०)। मह पुं[मथ] | (भग ६, ३१; प्रौप)। भासि वि पुं[नाथ राजा (उप पृ.६१) । पहु विष्णु, बासुदेव, उपेन्द्र (पान से १,१७)। [भाषिन् ] प्रिय-भाषी (पउम ६, १३३) । [ प्रभु] राजा (उप ७२८ टी) । पाल २ भ्रमर (से १, १७)। मह पु [मह] महुरा स्त्री [मथुरा] भारत की एक प्रसिद्ध पुं[पाल] वही अर्थ ( १५. टी, उव)। वसन्त का उत्सव (से १, १७) महण नगरी, मथुरा (ठा १०० सम १५३; परह रुह पु रुह] वृक्ष. पेड़ (पास, सुर ३, पु[ मथन] १ विष्णु (से १,१: वज्जा २४ । १, ३, हे २, १५०; कुमाः वज्जा १२२) । ११०; १६, २४८), वइ पु. [पति] गा ११७; हे ४,३८४ पि १४३; पिंग) । २ | मंगु ' [मङ्ग ] एक प्रसिद्ध जैनाचार्य राजा (श्रा २८ उप १४६ टीः सुपा ३८)। समुद्र, सागर। ३ सेतु, पुल (से १, १) (सिक्खा ६२)। हिव ' [धिप] मथुरा 'वीढ न [पीठ] भूमि-तल (सुर २, ७४) । मास पु[ मास] चैत मास (भवि)। का राजा (कुमा)।स पू[श राजा (श्रा १४)। सक्क पु. 'मित्त पुन [मित्र] कामदेव (सुपा महरालिअ वि [दे] परिचित (दे ६, १२५)। [शक वही अर्थ (श्रा १४)। देखो ५२६)1 'मेहण न [ मेहन] रोग-विशेष, महरिम पंत्री [मधुरिमन्] मधुरता, माधुर्य महि। मधु-प्रमेह (पाचा १, ६, १, २)। 'मेहणि (सुपा २६४: कुप्र ५०)। वि [ मेहनिन् ] मधु-प्रमेह रोगवाला महु पु[मधु] १ एक दैत्य (से १, १; (प्राचा) । मेहि पु[ मेहिन] वही अर्थ महुरेस पुं [मथुरेश] मथुरा का राजा अच्च ४०)। २ वसन्त ऋतु; 'सुरही महू (प्राचा)। राय पु[राज] एक राजा । (कुमा)। वसंतो' (पान; कुमा)। ३ चैत्र मास (सुर (रयण ७४) लट्रि स्त्री [यष्टि] १ महुला स्त्री [दे] रोग-विशेष, पाद-गण्ड ३, ४०; १६, १०७: पिंग)। ४ पाँचवाँ पोषधि-विशेष, यष्टिमधु, मुलेठी, जेठी मधु । (निचू २)। प्रति-वासुदेव राजा (पउम ५, १५६)। ५ महुसित्थ न [मधुसिक्थ] १ मदन, मोम २ इक्षु, ईख (हे १,२४७)। वक्त पुं[°पर्क] १ | एक राजा (श्रु ६१)। ६ मथुरा का एक (उप पृ २०६)। २ पंक-विशेष, स्त्री के पैर दधियुक्त मधु, दही और शहद । २ षोडशोपराज-कुमार (पउम १२, २)। ७ चकवर्ती | में लगा हुआ अलता तक लगनेवाला कादा चार पूजा का छठवां उपचार (उत्तर १०३)। | का एक देव-कृत महल (उत्त १३, १३) । (मोघभा ३३) । ३ कला-विशेष (स ६.२)।'वार पु [वार] मद्य, दारू (पान) ८ मधूक का पेड़, महुआ का गाछ (कुमा)। महुस्सव देखो महूसव (राज)।"सिंगी स्त्री ["शृङ्गी] वनस्पति-विशेष ९ अशोक-वृक्ष (चंड)। १० न. मद्य, दारू ( परण १-पत्र ३५)। सूयण पु महूअ देखो महुअ मधूक (कुमाः हे १, (से २, २७)। ११ क्षौद्र, शहद (कुमा, पव १२२) । [सूदन] विष्णु (गउडसुपा ७) । ४. ठा ४,१)। १२ पुष्प-रस । १३ मधुर महूसव पुं [महोत्सव] बड़ा उत्सव (सुर ३, महुअ पु[मधूक] १ वृक्ष-विशेष, महुआ रस । १४ जल, पानी (प्राप्र हे ३, २५) । । १०८ नाट-मृच्छ ५४) । का गाछ (गा १०३)। २ न. महुमा का १५ छन्द-विशेष (पिग)। १६ मधुर, मिष्ट महेंद देखो महिंद (से ६, २२)।वस्तु (पराह २, १)। अर पुंस्त्री [कर] फल (प्राप्रा हे १, २२२)। महेड्ड पुं [दे] पंक, कादा (दे ६, ११६)। भ्रमर, भौंरा (पानः स्वप्न ७३, औपः महुअ पु[दे] १ पक्षि-विशेष, श्रीवद पक्षी। महेब्भ [महेभ्य] बड़ा शेठ (श्रा १६) । कप्प; पिंग)। स्त्री. रिआ. री (अभि २ मागध, स्तुति-पाठक (दे ६, १४४) । महेभ [महेभ] बड़ा हाथी (कुमा)। १६०; नाट--मृच्छ ५७) । अरवित्ति स्त्री महुण सक [मथ् ] १ विलोडन करना । महेला स्त्री [महेला] स्त्री, नारी (हे १, [करवृत्ति] माधुकरी, भिक्षा वृत्ति (सुपा २ विनाश करना । वकृ. 'विमुक्कट्टहासा | १४६, कुमा)। ८३)। अरीगीय न [ करोगात] नाट्यजलियजलणपिंगलकेसा महुणित-जालाकराल महेस ' [महेश नीचे देखो (त्रि ६४ भवि)।.. विधि-विशेष (महा)। आसव वि[°आश्रव] पिसाया मुका' (महा)। महेसर पुं [महेश्वर] १ महादेव, शिव (पउम लब्धि-विशेषवाला, जिसके प्रभाव से बचन महुत्त (अप) देखो मुहुत्त (भवि)। ३५, ६४ धर्मवि १२८)। २ जिनदेव, मधुर लगे ऐसी लब्धिवाला (पएह २, १-- महुप्पल न[महोत्पल] कमल, पद्म; 'महुप्पलं अहंन् (पउम १०६, १२)। ३ श्रीमन्त, पत्र १००)। गुलिया स्त्री [गुटिका] | पंकयं नलिणं' (पान) पाब्य (सिरि ४२)। ४ भूतवादि देवों के शहद की गोली (ठा ४, २) पडल न महुमुह पुं[दे. मधुमुख] पिशुन, दुर्जन, उत्तर दिशा का इन्द्र (इक) दत्त पुं [पटल मधुपुडा (दे ३, १२)। भार | खल (दे ६, १२२)। [दत्त] एक पुरोहित (विपा १, ५)। For Personal & Private Use Only Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महेसि-माउआ पाइअसहमहण्णवो ६८३ महेसि देखो मह-रिसि (सम १२३; पएह माआरा । स्त्री [मात] १ माँ, जननी (षड् माइण्हिआ स्त्री [मृगतृष्णका] धूप में जल १, १; उप ३५७ ७२८ टी; अभि ११८) माइ ठा ४, ३; कुमाः सुपा ३७७)। की भ्रान्ति (उप २२० टी; मोह २३)। महोअर पुं [महोदर] १ रावण का एक २ देवता, देवी (हे १, १३५; ३, ४६; सुख माइलि वि[दे] मृदु, कोमल (दै ६, १२९)। भाई (से १२, ५४)। २ वि. बहु-भक्षी ३, ६)। ३ स्त्री, नारी। ४ माया (पंचा १७, माइल्ल देखो माइ = मायिन् (सूत्र १, ४, १, (निचू १) ४८)। ५ भूमि। ६ विभूति । ७ लक्ष्मी । १८, माचा; भग, ओघ ४१३; पउम ३१, महोअहि पुं[महोदधि] महासागर (से ५, ८ रेवती। ६ पाखुकर्णी। १० जटामांसो। ५१, प्रोप; ठा ४, ४)। २, महा)। रव पुं[व] वानर-वंश का ११ इन्द्र-वारुणी, इन्द्रायण (षड्; हे १, माइवाह , पुंस्त्री [दे. मातृवाह] द्वीन्द्रिय एक राजा (पउम ६, ६३)। १३५, ३, ४६)। घर न [गृह] देवी माईवाह । जन्तु-विशेष, क्षुद्र कीट-विशेष (उत्त महोच्छव देखो महूसव (सुर ६, ११०)। मन्दिर (सुख ३, ६), "ट्ठाण, ठाण न ३६, १२६, जी १५: पुष्फ २६५)। स्त्रो. हा [स्थान] १ माया-स्थान (पंचा १७, ४८; महोदहि देखो महोअहि (पएह २, ४ उप सम ३६)। २ माया, कपट-दोष (पंचा १७, (सुख १८, ३५; जी १५)। ७२८ टी)। ४८; उवर ८४), 'मेह कुं[ मेध यज्ञ माउ देखो माइ = मातु (भगः सुर १, १७६, महोरग पुं [महोरग] १ व्यन्तर देवों की विशेष, जिसमें माता का वध किया जाय वह औपा प्रामा कुमा; षड्; हे १, १३४; एक जाति (पराह १, ४–पत्र ६८ इक)। यज्ञ (पउम ११, ४२)। हर देखो 'घर (हे १३५)। गाम पु[ग्राम स्त्री-वर्ग (बृह २ बड़ा साप । ३ महाकाय सर्प की एक १, १३५)। देखो माउ, माया = मातु । १) °च्छा देखो "सिआ (हे २; १४२; जाति (पएह १, १-पत्र ८) त्थ न गा ६४८)। "पिउ पुं[पित] मां-बाप [स्त्र] प्रस्त्र-विशेष (महा)। माइ वि [मायिन् माया-युक्त, मायावी (सुर १, १७६)। "म्मही स्त्री [मही] माँ महोरगकंठ पुं [महोरगकण्ठ] रत्न-विशेष (भगः कम्म ४, ४०) । की माँ, नानी (रंभा २०) । °सिआ, 'सी, (राय ६७)। माइम [मा] मत, नहीं (प्राकृ ७८)। 'स्सिआ स्त्री [ध्वस] माँ की बहन, मौसी महोसव देखो महूसव (नाट-रत्ना २४)। माइ वि [दे] १ रोमश, रोमवाला, प्रभूत (हे २, १४२, कुमाः विपा १, ३, सुर ११, महोसहि स्त्री [महौषधि] श्रेष्ठ औषधि | माइअ बालों से युक्त (दे ६, १२८; णाया । २१६ पि १४८ विपा १,३-पत्र ४१)।(गउड)। १,१८-पत्र २३७)। २ मयूरित, पुष्प माउ वि [मात, क] १ प्रमाता, मा अ [मा] मत, नहीं (चेइय ६८४; प्रासू विशेषवाला (औपः भगः गाया १, १ टी माउअ प्रमाण-कर्ता, सत्य ज्ञानवाला । २१)। पत्र ५, अंत)। २ परिमाण-कर्ता, नापनेवाला। ३ पुं. जीव । मा स्त्री [मा] १ लक्ष्मी, दौलत (से ३, १५ माइअ वि [मात] समाया हुमा, अटा हुमा ४ आकाश: 'माऊ', 'माउरो (षड् हे १, सुर १६, ५२)। २ शोभा (से ३, १५)। (सुख ६, १)। १३१; प्राप्रा प्राकृ८; हे १, १३४)। मा प्रक [मा] १ समाना, घटना। २ | माइअ वि [मायिक मायावी (दे६, १४७; माउअ वि [मातृक] माता-संबन्धी (हे १, माअसक. माप करना। ३ निश्चय करना, णाया १, १४)। १३१ प्राप्रा प्राकृ८; राज)1. जानना । माइ, मामइ, माइजा, माएजा (पव माइअ वि [मात्रिक] मात्रा-युक्त, परिमित माउअ पुंन [मातृक, का] १ प्रकार प्रादि ४० कमाप्राकृ६६, संवेग १८ औप)। (तंदु २०; पन्ह १, ४ पत्र ६८)। वकृ. मंत, माअंत (कुमाः ४, ३० से २, छयालीस अक्षर: 'बंभीए णं लिवीए छायालीसं माउयक्खरा' (सम ६६ प्राव ५)। २ स्वर । ६; गा २७८)। कवकृ. मिजंत, मिज्जमाण माइअ देखो मा% मा।. (से ७, ६६; सम ७६; जीवस १४४)। कृ. माई देखो माइ = मा (हे २, १९१; कमा)। ३ करण (हे १, १३१ प्राप्रा प्राकृ८)। नीचे देखो। माअव्व; 'वाया सहस्स-मइया', माइअ माइंगण न [दे] वृन्ताक, भंटा (उप ५९३) (से ६, ३, महा; कप्प)। देखो मेअ = मेय । माइंद [दे देखो मायंद (प्राप्र, स ४१६) माउआ स्त्री [मातृका] १ माता, मां (णाया माअडि पुं [मातलि] इन्द्र का सारथि (से | माइंद पुं [मृगेन्द्र सिंह, केसरी; 'एकसर- १,६-पत्र १५८)। २ ऊपर देखो (सम पहरदारियमाइंदगइंदजुज्झमाभिडिए' (वजा | ६९)। पय पुन [पद] शास्त्रों के सार-भूत १५, ५१)। माअरा देखो माइ = मातृ (कुमा; हे ३, ४६) ४२) शब्द-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य (सम ६९) माअलि देखो माअडि (से १५, ४६) माइंदजालन [मायेन्द्रजाल] माया-कर्म, | माउआ स्त्री [दे. मातृका] दुर्गा, पार्वती, माअलिआ स्त्री [दे] मातृष्वसा, माता की माइंदयाल बनावटी प्रपंच (सुर २, २२९ उमा (दे ६, १४७)। बहन (दे ६, १३१) । स ६६०)। माउआ स्त्री [दे] १ सखी, सहेली (दे ६, माअही स्त्री [मागधी] काव्य की एक रीति माइंदा स्त्री [दे] पामलकी, मामला का गाछ १४७; पात्र; णाया १, ६-पत्र १५८) । (कप्पू)। देखो मागहिआ। । (दे ६, १२९) २ ऊपर के होठ पर के बाल, मूंछ; रत्तगंड For Personal & Private Use Only Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ पाइअसहमहण्णवो माउआपय-माणस मंसुपाहि माउयाहिं उवसोहियाई (णाया १, माघवई नी [माघवती] सातवी नरक-भूमि कप्प; जी ३०; श्रा १४)। ४ प्रमाण, सबूत ६-पत्र १५८) (पव १४३; इक; ठा ७–पत्र ३८८)। (विसे १४६,धर्मसं ५२५)। ५मादर, सत्कार माउआपय न [मातृकाण्द्] मूलाक्षर, 'म' माघवामाघवा, वी] ऊपर देखो, 'मघव (णाया १,१० कप्प)। ६ पु.एक ठि-पुत्र (सुपा से 'ह तक के अक्षर (दसनि १, ८) माघवी ।त्ति माघव त्ति य पुढवीणं नामधेयाई' ५४५)। इंत, इत्त, इल्ल वि [°वत् ] मानमाउक्क वि [मृदु,°क] कोमल, कुमार (हे (जीवस १२, इक)। वाला (षड् : हे २,१५६; हेका ७३; पि ५६५) १, १२७, २, ६६ कुमा) माज्जार देखो मजार (संक्षि २)। स्त्री. त्ता, 'त्ती (कुमाः गउड)। तुंग पुं माउक्क न [मृदुत्व कोमलता (हे १, १२७ [तुङ्ग] एक प्राचीन जैन कवि (नमि २१)। माडंबिअ [माडम्बिक १ 'मडंब' का | 'वई बी [वती] १ मानवाली स्त्री (से १०, २, २. कुमा)। अधिपति (गाया १, १; प्रौपः कप्प)। २ | माउचा स्त्री [दे. मातृप्यत] देखो माउ-च्छा ६६) । २ रावण की एक पत्नी (पउम ७४, प्रत्यन्त-सीमा-प्रान्त का राजा (पएह १, (षड्) ११)। संघ न [संघ] एक विद्याधर-नगर ५-पत्र ६४)माउच्चा स्त्री [दे] सखी, सहेली (षड्)। माडंबिय वि [माडम्बिक] चित्र-मंडप का (इक) । वाइ वि [वादिन] अहंकारी (प्राचा) माउच्छ वि [दे] मृदु, कोमल (दे ६, अध्यक्ष (राय १४१)। माण वि [मान] मान-संबन्धी, मान का १२६)। माडिअ न [दे] गृह, घर (दें ६, १२८) । 'कोहाए माणाए मायाए' (पडि)। माउत्त । देखो माउक्क = मृदुत्व (कुमाः हे माढर माठर] १ सौधर्मेन्द्र के रथ-सैन्य माउत्तण २२ षड् ) - माण न [दे] परिमारण-विशेष, दस शेर को का अधिपति (ठा ५,१-पत्र ३०३, इक)। नाप गुजराती में 'माणु" (उप १५४)।. माउल पुं [मातुल] माँ का भाई, मामा २ न. गोत्र-विशेष (कप्प)। ३ शास्त्र-विशेष (णंदि)। माणंसि वि [दे] १ मायावी, कपटी (दे ६, (सुर ३, ८१; रंभा; महा) माढर पुंस्त्री [माठर माठर-गोत्र में उत्पन्न माउलिअ देखो मउलिअ (से ११, ६१)।.. १४७ षड्)। २ स्त्री. चन्द्र-वधू (दे ६, १४७)। (णेदि ४६) माउलिंग देखो माहुलिंग (राज)। माढरी स्त्री [माठरी वनस्पति-विशेष (पएण माणंसि देखो मणंसि (काप्र १६६; संक्षि माउलिंगा स्त्री [मातुलिङ्गा, गी] बोजौरे १-पत्र ३६) । १७; षड्)। माउलिंगी का गाछ (पएण १-पत्र माढिअ वि [माठित] सन्नाह-युक्त, वर्मित माणण न [मानन] १ प्रादर, सत्कार ३२ पउम ४२, ६)। (कुमा)। (प्राचा) । २ मानना (रयण ८४)। ३ माउलुंग देखो माहुलिंग (हे १, २१४ माढी स्त्री [माठी] कवच, वर्म, बख्तर (दें ६, | अनुभव । ४ सुख का अनुभवः 'सुइसमागणे १२८ टी; पण्ह १, ३–पत्र ४४ पान; से (पजि ३१)। मागंदिअ [माकन्दिक] माकन्दिकपुत्र माणणा स्त्री [मानना] ऊपर देखो (पएह २, नामक एक जैन मुनि (भग १५-१टी) माण सकमानय1१ सम्मान करना, आदर १. रयण ८४)। पुत्त पुं[पुत्र] वही अर्थ (भग १८, ३) करना । २ अनुभव करना । माणइ, माणेइ, माणय देखो माण % (दे) (सुपा ३५८)। मागसीसी स्त्री [मार्गशीर्षी] १ अगहन मास मारणंति, मारणेमि (हे १,२२८ महा; कुमाः माणव पुं [मानव] १ मनुष्य, मत्यं (पानः को पूर्णिमा। २ अगहन की अमावास्या सिरि ६६) । वकृ. मात, माणेमाण सुपा २४३) । २ भगवान् महावीर का एक (सुर २, १८२० रणाया १,१-पत्र ३३)। गण (ठाह-पत्र ४५१ कप्प)।मागह । वि [मागध क] १ मगध- कवकृ. माणिज्जंत (गा ३२०) । हेक. | माणवग। [मानवक] १ एक निधि, मागय । देशीय, मगध देश में उत्पन्न, मगध । माणिउं, माणेउं (महाः कुमा) । कृ. माणवय अस्त्र-शस्त्रों की पूत्ति करनेवाला देश का, मगध-संबन्धी (प्रोघ ७१३; विसे माणणिज, माणणीअ माणेयव्य (उव: निधि (उप ६८६ टी; ठा -पत्र ४४६; १४६६ पव ६१; णाया १, ८ पउम ६६, सुर १२, १६५ अभि १०७ उप १०३१ | इक)। २ ज्योतिष्क ग्रह-विशेष, एक महाग्रह ५५) । २ पुं. स्तुति-पाठक, बन्दी, चारण टी); 'जया य माणिमो होइ पच्छा होइ - (ठा २, ३, सुज २०)। ३ सौधर्म देवलोक (पाम; औप)। भासा स्त्री [भाषा] देखो माणिमो' (दसचू १, ५)। का एक चैत्य-स्तम्भ (सम ६३)। मागहिआ का पहला अर्थ (राज)- माण पुन [मान] १ गवं, अहंकार, अभिमानः माणवी स्त्री [मानवी] एक विद्या-देवी (संति मागहिआ स्त्री [मागधिका] १ मगध देश 'भड्ढद्धीकयमाणिणिमाणों (कुमा), 'पुवं की भाषा, प्राकृत भाषा का एक भेद । २ विबुहसमक्खं • गुरुणो एयस्स खंडियं माणं' माणस न [मानस] १ सरोवर-विशेष (पएह कला-विशेष (प्रौप)। ३ छन्द-विशेष (सुख (सम्मत्त ११९) । २ माप, परिमाण । ३ १, ४ मोपः महा, कुमा)। २ मन, अन्त:२, ४५ प्रजि ४) नापने का साधन, बाट-बटखरामादि (मराः। करण (पाम; कुमा) । ३ कि. मन-संबन्धी, For Personal & Private Use Only Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणसिअ-मायण्डिया पाइअसहमहण्णवो ६८५ मन का (सुर ४, ७५)। ४ पुं. भूतानन्द के माणुस्स देखो माणुस (आचाः औप; धर्मवि मामि अ. सखी के आमन्त्रण में प्रयुक्त किया गन्धर्व-सैन्य का नायक (इक)। १३; उपपं २, विसे ३००७); 'माणुस्सं जाता अव्यय (हे २, १९५; कुमा)। माणसिअ वि मानसिक] मन-संबन्धी, मन लोग' (ठा ३, ३–पत्र १४२), 'माणुस्सगाई मामिया। स्त्री [दे] मामा की बहू (विपा का (श्रा २४ औप)। भोगभोगाई' (कप्प) मामी १,३-पत्र ४१, ३६, ११२, माणसिआ स्त्री [मानसिका] एक विद्या-देवी | माणुस्स । न [मानुष्य, क] मनुष्यत्व, गा २०४७ प्राकृ ३८)। (संति ६)। माणुस्सयमानुसपन, मनुष्यता (सुपा १६६ माय वि [मात] समाया हुमा (कम्म ५, माणि वि [मानिन्] १ मान-युक्त, मानवाला स १३१ प्रासू ४७ पउम ३१, ८१)। ८५ टी; पुप्फ १७२; महा)।(उव, कुप्र २७६; कम्म ४, ४०) स्त्री. माणुस्सी देखो माणुसी (पव २४०)। माय वि [मायावत् ] कपटवाला, 'कोहाए "णिणी (कुमा)। २ पुं. रावण का एक माणूस देखो माणुस (सुर २, १७२; ठा ३, २, माणाए मायाए लोभाए' (पडि)। सुमट (पउम ५६ २) । ३ पर्वत-विशेष । ४ । ३–पत्र १४२)। माय देखो मे त = मात्र; 'लोमुक्खण्णमायमवि' कूट-विशेष (राजः इक) 10 | माणेसर पुं[माणेश्वर] माणिभद्र यक्ष (भवि)। (सूप २, १, ४८) माणिअ वि [दे. मानित] अनुभूत (दे ६, माणोरामा (अप) स्त्री [मनोरमा] छन्द-विशेष माय देखो माया = माया (प्राचा)। १३०; पान) (पिंग)। माणिअ वि [मानित] सत्कृत (गउड)। मातंग देखो मायंग (प्रौप)। माय देखो मत्ता = मात्रा। न वि [s] माणिक न [माणिक्य रत्न-विशेष, माणिक मातंजण देखो मायंजण (ठा २, ३ ---पत्र परिमाण का जानकार (सूम २, १, ५७)। (सुपा २१७; वजा २०; कप्पू)। ८०)। मायइ स्त्री [दे] वृक्ष-विशेष (पउम ५३, माणिग देखो माणि (पउम ७३, २७)। मातुलिंग देखो माहुलिंग (पाचा २, १, ८, ७६) मायंग पु[मातङ्ग] १ भगवान सुपार्श्वनाथ माणिभद पुं[माणिभद्र] १ यक्ष-निकाय के उत्तर दिशा का इन्द्र (ठा २, ३–पत्र ८५ का शासनयक्ष । २ भगवान महावीर का मादलिआ स्त्री [दे] माता, जननी (दे ६, इक)। २ यक्षदेवों की एक जाति (सिरि शासन-यक्ष (संति ७,८)। ३ हस्ती, हाथी १३१)। (पान; सुर १, ११)। ४ चाण्डाल, डोम ६६६; इक)। ३ देव-विशेष । ४ शिखर- मादु देखो माउ % स्त्री (प्राकृ८) (पास)। विशेष (राज; इक)। ५ एक देव-विमान माधवी देखो माहवी = माधवी (हास्य १३३) मायंगी स्त्री [मातङ्गी] १ चाण्डालिन (निचू (राज) माभाइ पुत्री [दे] अभय-प्रदान, अभय-दान, | १) । २ विद्या-विशेष (प्राचू १)। माणिम देखो माण = मानम् । अभय (दे ६, १२६; षड्) । | मायंजण पुं [मातञ्जन] पर्वत-विशेष (इक)। माणी स्त्री [मानिका] २५६ पलों का एक माभीसिअ न [दे] ऊपर देखो (द ६, मायंड पु[मार्तण्ड] सूर्य, रवि (सुपा २४२० माप (मणु १५२)। १२६) कुप्र ८७)। माणुस पुन [मानुष] १ मनुष्य, मानव, माम अ. कोमल आमन्त्रण का सूचक अव्यय मायंद पु [दे. माकन्द] आम्र, आम का मत्यं (सून १, ११, ३; पण्ह १, १; उव; (पउम ३८, ३६)। पेड़ (हे २, १७४; प्रातः दे ६, १२८; कुप्र सुर ३, ५६ प्रातः कुमा); 'जं पुण हिययावंदं माम । [दे] मामा, माँ का भाई (सुपा जणेइ तं माणुसं विरल' (कुप्र ६), 'मयाणि ७१, १०६) । मामग, १६:१६५)। माइपिइपमुहमाणुसारिण सव्वाणि (कप्र २६)। मामग) वि [मामका १ मदीय, मेरा मायदिअ देखो मार्गदिअ (भग १८,१) २ वि. मनुष्य-संबन्धीः 'तिविहं कहावत्थु ति मामय) (प्राचा; अच्चु ७३) । २ ममतावाला मायंदी स्त्री [माकन्दी] नगरी-विशेष (स ६; पुवायरियपवानो, तं जहा, दिव्वं दिव्वमाणसं (सूत्र १, २, २, २८)। कुप्र १०६) माणुसं च' (स २) मामय देखो मामग = (दे) (पउम ९८, ५५; मायंदी स्त्री [दे] श्वेताम्बर साध्वी (६, माणुसी स्त्री [मानुषी] १ स्त्री-मनुष्य, मानवी १२६)। (पव २४१, कुप्र १६०) । २ मनुष्य से मामा स्त्री [दे] मामी, मामा की बहू ( दे ६, मायण्हिया स्त्री [मृगतृष्णि का] किरण में संबन्ध रखनेवालीः 'माणूसी भासा' (कप्र ११२)। जल की भ्रान्ति , मरु-मरीचिका; ६७)।। मामाय वि [मामाक] 'मा' 'मा' बोलनेवाला, ___ 'जह मुद्धमो मायरिहयाए माणुसुत्तर । पु[मानुषोत्तर] १ पर्वत- निवारक (मोघ ४३५) । तिसिमो करेइ जल-बुद्धि । >माणुसोत्तर विशेष, मनुष्यलोक का सीमा- मामास पुं [मामाष] १ अनार्य देश-विशेष । तह निविवेयपुरिसो कारक पर्वत (राज ठा ३, ४, पीव ३) । २ २ अनायं देश में रहनेवाली मनुष्य-जाति कुण्इ अधम्मेवि धम्ममई' न. एक देव-विमान (सम २)। (इक)। (सुपा ५००) For Personal & Private Use Only Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ माहियु (अप) देखो मागहिया (भवि ) । माया में देखो माइ = मातृ 'मायाइ अहं भरिणओ (धर्मवि ५; पान; विपा १,६; षड् ) । "पिइ, 'पिति न [प] मा ( प ३६११८४) मह ["मह] माँ का बाप (सुर ११, ४६: सुपा ३८४ ) । "चित्त देखी "पि 'टिया हो सर मायावित्तं महिलिया (पउम १७, २१); 'य देवेण सहि मायाविताई रोमाणा (सुर ६, २३५; १, २३६: धर्मवि २१, महा ) 1 माया देखो मत्ता = मात्रा 'नो श्रइमायाए पारणभोयां श्राहारेता (उत्त १६, 5; श्रौप; उवः कस) 1 माया स्त्री [माया ] १ कपट, छल, शास्व धोखा (भग; कुमाः ठा ३, ४ पाधः प्रासू १७५) । २ इन्द्रजाल (दे ३, ५३३ उप ८२३) । ३ मन्त्राक्षर-विशेषः 'हो" प्रक्षर ( सिरि १६७ ) । ४ छन्द - विशेष (पिंग ) । [] पुरुष वेश धारी स्त्री- श्रादि (घमंसं १२७८) । 'बीयन [बीज] 'ही' अक्षर (सिरि ४०१ ) + 'मोस पुंन ["मृषा] कपट पूर्वक असत्य वचन ( णाया १, १ पह १, २) बत्ति, "वत्तीय वि [प्रत्ययिक] कपट से होनेवाला, छलमूलक (भगः डा १, १ नब १७) विमारि ["विन] मायायुक्त (पउम ८८, ११) । स्त्री. ● विणी (सुपा ६२७ ) 1 माथि [माथिन] मायायुक्त, मायावी (उवा पि ४०५) । मार सक [ मार] ताड़न करना । २ दिसा करना मारद मारेद (याचा कुमाः भग) भनि मारेहिसि (२) कर्म मारिज (उ) वह मारत मारत (मत्त २ उम १०५, ७६ ) । कवकृ. मारिजंत (सुपा १५७ ) । संकृ. मारेत्ता (महा), मारि (अप) (हे ४, ४३९) । हेकु. मारेउं (महा) . मारियज्य मारेयव्य (पक्षम ११, ४२), मारण (उप १५७ टी) । [A] १ (पा २२६ ) । २ (२, २, १७) उप पृ३०८) । ३ यम, जम (सूत्र १, १, ३, पाइअसहमणवो ७) । ४ कामदेव, कंदर्प ( उप ७६८ टी ) । ५ चौथा नरक का एक नरकावास (ठा ४, ४ - पत्र २६५ देवेन्द्र १० ) । ६ वि. मारनेवाला (गाया १, १६ – पत्र २०२ ) । वहू श्री [ वधू ] रति (सुपा २०४) । मार पुं [ मार] मरिण का एक लक्षण (राय (२०) । मारग वि [मारक ] मारनेवाला । स्त्री. 'रिगा (कुल २३५) । मरण न [मरण] १ ताड़न । २ हिंसा (भगः स १२१) । मारण (अप) वि [ भारयितु] मारनेवाला (हे ४, ४४३) । मारणंतिअ वि [ मारणान्तिक ] मरण के अन्त समय का ( सम ११३ ११६ श्रपः उवाः कप्प) मारण्या ? स्त्री [ मारणा ] मारना ( भगः मारणा परह १, १ विपा १, १ ) 1 मारय देखो मारग (उवः संबोध ४३) । मारा स्त्री [ मारा ] प्राणि-वध का स्थान, सूना ( गाया १, १६ - पत्र २०२ ) 1मारि स्त्री [मारि ] १ रोग विशेष, मृत्यु-दायक रोग (२४२) २ मारण (भावम) ३ मीत मृदु (उप ३२८ ) । मारि हेखो मार = मारय् । [मारिन] मालामा मारिज्ज पुं [माच ] रावण का एक सुभट ( पउम ५९, ७) । देखो मारीअ । मारिज्जि देखो मरेइ (पउम ८२, २६) । मारिय[मारित] मारा हुआ (महा) - मारिलग्गा श्री [हे] कुत्सित श्री (१६० १३१) । मारिय न [दे] गौरव 'दीखे मारिने' (eifer xv) 1 मारिस वि [मादृश ] मेरे जैसा (कुमा) 1 मारी स्त्री [मारी] देखो मारि ( स २४२) । मारिअ [मारीच] [ऋषि-विशेष (अभि २४९) । देखो मारिज । मारीइ । पुं [मारीचि ] एक विद्याधर मारीज } सामान राजा (पउम क २ रावण का एक सुभट ( पउम ५६, २७) । For Personal & Private Use Only मायदिय - मालव माअ [ मारुत] १ पवन, वायु (पाच सुपा २०४ सुर ३, ४० १३, १६४ श्राप १४; महा) । २ हनुमान का पिता ( से २, ४४) । 'तणय [' तनय] हनुमान (से ४४; हे ३, ८७ ) + त्थ न [स्त्र] अनविशेष, वातास्त्र (पउम ५६, ६१) मारुपि [ मारुक ] मरु देश का, महसंबन्धी; 'रणो श्रमयवल्लरी मारुयम्मि कत्थइ थले होइ' (उप ६८६ टी) | मारुइ पुं [ मारुति ] हनुमान ( से १, ३७ ) । माल क [ माल ] १ शोभना । २ वेष्टित होना 'असिस्माळगीय' (खाया १, १- - पत्र ३८ ) । - माल पुं [दे] १ श्राराम, बगीचा (दे ६, १४६ ) । २ मञ्च श्रासन विशेष (दे ६, १४६६ णाया १, १ – पत्र ६३३ पंचा १३, १४) ३ वि. मनु (६१४६ माल पुं [दे. माल] १ देश-विशेष (पउम १८६५ ) । २ घर का उपरि-भाग, तला, मंजिल गुजराती में 'माळो' (गाया १, ६पत्र ५७; चेइय ४८१ पंचा १३, १४ ठा ३, ४--पत्र १५९ ) । ३ वनस्पति- विशेष (of 2) 1~ माल देखो माला । 'गार वि["कार ] माली ( उप पृ १६६ ) । } [मालती ] १ लता- विशेष मालह मालाई २ पुष्प - विशेष (पउम ५३, ७९६ पात्रः कुमा) । ३ छन्द - विशेष (पिंग ) । मालंकार [मालङ्कार] वैरोचन बलीन्द्र के हस्ति सैन्य का अधिपति (ठा ५, १ - - पत्र ३०२; इक) । मालणीय देखो माल = मालू | - मालय देखो माल = दे. माल (ठा ३, १पत्र १२३ ) 1 मालव] [मालव] १ भारतीय देश-विशेष ( इकः उप १४२ टी)। २ मालव देश का निवासी मनुष्य ( परह १, १ -पत्र १४) । मालव पुं [ मालव] म्लेच्छ-विशेष, श्रादमी को उठा ले जानेवाली एक चोर जाति (वव ४) । Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालवंत - माझ्य मालवंत [ माल्यवत् ] ↓ १ पर्यंत विशेष (ठा २, ३ --पत्र ६६; ८० सम १०२ ) । २ एक रामकुमार (पउम ६ २२०) परियाग, परियाय [पर्याय ] पर्यंत- विशेष (ठा २, ३ - पत्र ८० ६९ ) 1 मालवणी श्री [माविनी] लिपि-विशेष (विसे ४६४ टी ) । माला स्त्री [माला ] १ फूल आदि का हार, 'मल्लं माला दाम' (पात्र स्वप्न ७२; सुपा ३१६ मा १०० कुमा) २ प्रासू । पंक्ति, श्रेणी (पास) जनमासमा (सूि १६१४ विशेष (ग) [[["वन्] माला बाला (शाम) कारिवि [" कारिम] माली पुरुष व्यवसायी स्रोणी (गुण ५१०)। 'गार हि [कार] वहीं अर्थं (उप १४२ टी; अंत १८, सुपा ५६२३ उप १५९) । धर[°धर] प्रतिमा के ऊपर के भाग की रचना-विशेष ( चेइय ९३) । यार, र देखो कार ( अंत १८ उप पृ १५०२१६)श्री.री (कुमाः या ५१७) इरा ["घरा] छन्द-विशेष (पिंग) माय श्री [दे]] [योमा चन्द्रिका (दे ६, १२) मालाकुंकुम न [दे] प्रधान कुंकुम (दे ६, १३२) । मालि वृत्र [ मालि ] गुल-विशेष (सम १५२) । मालि पुं [मालिन् ] १ पाताल लंका का एक राजा (पउन ६, २२० ) । २ देश-विशेष ( इक ) । ३ वि. माली, पुष्प व्यवसायी (कुमा) । ४ शोभनेवाला (कुमा) 1 मालिन [मालिक] ऊपर देखो (दे २ 'पराह १, २; सुपा २७३ उप पृ १५७ ) । मालिश वि [माहित] शोभित विभूषिता परसोए पूरा कलामालिश्रामालया मेव (सा २३ पान उप २६४ टी ) । मालिआ श्री [मालिका, माला ] देखो माला = माला ( सा २३ स्वप्न ५३; श्रौप; उवा) । माटिजन [भाजीय] एक जैन मुनि-कुल (कप्प ) 1 पाइअसद्दमहणव मालिगी श्री [मालिनी ] १ माली की श्री (कुमा) । २ शोभनेवाली ( श्रप) । ३ छन्दविशेष (पिंग ) । ४ मालावाली (गउड) V मालिण्ण न [मालिन्य] मलिना (उप } मालिन पृ २२ सुपा ३५२; ५८६ ) । ) पुं श्रीन्द्रिय जन्तुमालुग [मालुक] १ मालुय ) विशेष (सुख ३६, २३८ ) । २ वृक्ष - विशेष ( पराण १-पत्र ३१ गाया १, २--पत्र ७८ ) । मालुया स्त्री [ मालुका ] १ वल्ली, लता (सूत्र मालुवा श्री [मालुका] १ वली, लता (सू १, ३, २, १० ) । २ वल्ली-विशेष (पराण १-पत्र ३३) । ~ मातुहानी श्री [मालुवानी] [वता-विशेष ( गउड) 1 [दे. मार] पिया मालूर गाछ (दे ६, १३० ) 1 मालूर पु [मालूर ] १ बिल्व वृक्ष, बेल का गाछ (दे ३, १९ मा ५७६; गउड, कुमा) । २ न. बेल का फल ( पात्र गउड ) ।. [मातुल] मामा (पुणमाला पु माम्बद ३२ ०८ भवभावना) माह मावि वि [मापित ] मापा हुआ (से ६, ६० दे, ४) । मास देखो मंस = मांस (हे १, २९ ७०; कुमा उप ७२८ टी)। ० मास' [मास] १ महिना तीस दिन का समय (ठा २, ४ उप ७६८ टी जी ३५) । २ समय, कालः 'कालमासे कालं किञ्चा ( विपा कुप्र १ १ २ १४), 'पसपमाते' (४०४) ३ परं वनस्पति- विशेष । बोरा (१ खी) तहमा ' ( पण १-पत्र ३३ ) ५ ° उस देखो तुस (राज) [कल्प] एक स्थान में महिना तक रहने का प्राचार ( बृह ६ ) । 'खमण न [क्षपण] लगातार एक मास का उपवास (गाया १, १ विपा २, १३ भग) गुरु न [गुरु] तप-विशेष, एका शन तप (संबोध ५७) तुम ["तुष] एक जैन मुनि (वि ४१) पुरी जी [पुरी ] १ नगरी - विशेष, भृंगी देश की राजधानी (इक) । २ 'वर्त' देश की राजधानी; 'पावा भंगी मासपुरो बट्टा (व २०५) । For Personal & Private Use Only ६८७ "पूरिया श्री ["पूरिका] एक जैन मुनि शाखा कम्प["लघु] उप-विशेष, 'पुरिमड्ढ' तप (संबोध ५७ ) । मास पुं [भाष] १ नायं देश- विशेष । २ देश-विशेष में रहनेवाली मनुष्य-नाति (पएह १, १ - पत्र १४) । ३ धान्य- विशेष, उड़द (दे १, ६८ ) । ४ परिमाण विशेष, मासा ( वा १०) पण्यो श्री [पर्णी] वनस्पति विशेष (पराग १ - पत्र ३६ ) | मासल देखो मंसल (हे १, २ कुमा) मासलिय वि [ मोसलित ] पुष्ट किया हुआ (उड सुपा ४७४) । मासाहस ' [ मासाहस ] पक्षि-विशेष, 'मासाह किया वामपं ( संवे ६० उब उर ३, ३) | मासिअ [] पिशुन, खल, दुर्जन (दे ६, १२२) । मासि वि [मासिक ] मास-सम्बन्धी (उवा श्रीप मासिजा श्री [मातृष्वस] बहिन माँ की (२२) । मासु देखो मंसु = श्मश्रु (हे २,८६) । मासुरी स्त्री [दे] श्मश्रु, दाढ़ी-मूँछ (दे ६, १३०; पाद्म) । | माद [ माच] १ मास-विशेष माप का महिना (पाय हे ४, ३५७)। २ संस्कृत का एक प्रसिद्ध कवि ३ एक संस्कृत काव्यग्रंथ, शिशुपाल वध काव्य ( हे १, १८७) माह न [दे] कुन्द का फूल (दे ६, १२८) माहण पुत्री [माहन आह्मण] हिंसा से निवृत्तमुनि ऋषि २ श्रावक, जैन उपासक ३ ब्राह्मण (प्राचा सूत्र २२, ४८ ५४ भग १, ७ २, ५; प्रासू ८०) स्त्री. (प) कुंड 13 न [ कुण्ड ] मगध देश का एक ग्राम (प्राचू १ ) 1 v माहप्प पुंन [ माहात्म्य ] १ महत्त्व, गौरव । २ महिमा, प्रभाव (हे १, ३३; गउड कुमा सुर ३, ५३ प्रासू १७) । ४ माहप्पया स्त्री. ऊपर देखो (उप ७६८ टी) माझ्य पुं [दे] चतुरिन्द्रिय कीट - विशेष (उत्त ३६, १४६ ) Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ पाइअसहमहण्णवो माहव-मिंढय माहव ( [माधव १ श्रीकृष्ण, नारायण मि (अप) देखो अवि-अपि (भवि)। मिअंग देखो मयंग = मृदंग (कप्यू)। (गा ४४३; वज्जा १३०)। २ वसन्त ऋतु। मिस्त्री [ मृत् ] मिट्टी, मट्टी; 'जह मिल्ले- | मिअसिर देखो मगसिर (पि ५४)। ३ वैशाख मास (गा ७७७, रुक्मि ५३) वावगमादलाबुणोवस्समेव गइभावो' (विसे | मिआ स्त्री [मृगा] १ राजा विजय की पत्नी पणइणी स्त्री [प्रणयिनी ] लक्ष्मी (स | ३१४२)। प्पिड ["पिण्ड] मिट्टी का | (विपा १, १)। २ राजा बलभद्र की पत्नी ५२३) पिंडा (अभि २००)। म्मय वि [मय] (उत्त १६, १) उत्त, पुत्त पुं[पुत्र] माहविआ स्त्री [माधविका] नीचे देखो मिट्टी का बना हुआ (उप २४२: पिंड ३३४; १ राजा विजय का एक पुत्र (विपा १, १; (पान)। सुपा २७०) कर्म १५)। २ राजा बलभद्र का एक पुत्र, माहवी स्त्री [माधवी] १ लता-विशेष (गा मिअ देखो मय = मृग; 'सवरिणदियदोसेणं जिसका दूसरा नाम बलश्री था (उत्त १६, ३२२; अभि १६६; स्वप्न ३६)। २ एक | मिनो मनो वाहबारणे' (सुर ८, १४२; २) वई स्त्री [वती] १ प्रथम वासुदेव राजपला (पउन १, १२६ २०, १८४) उत्त १,५; परह १,१, सम ६०; रंभा, की माता का नाम (सम १५२)। २ राजा माहारयण न [दे] १ वस्त्र, कपड़ा। २ ठा ४, २; पि ५४), चक्क न [चक्र] शतानीक की पटरानी का नाम (विपा वस्त्र-विशेष (दें ६, १३२) । विद्या-विशेष, ग्राम-प्रवेश आदि में मृगों के माहिंद [माहेन्द्र] एक देव-लोक (सम दर्शन आदि से शुभाशुभ फल जानने की मिस्त्री [मिति] १ मान, परिमाण । २ ८)। २ एक इन्द्र, माहेन्द्र देवलोक का विद्या (सूत्र २, २, २७) णअणी, हद, अवधिः 'कि दुक्करमुवायाणं न मिई स्वामी (ठा २, ३-पत्र ८५)। ३ ज्वर- 'नयणा स्त्री [ नयना] देखो मय-च्छी जमुवायसत्तीए' (धर्मवि १४३) । विशेष: 'माहिंदजरो जायो' (सुपा ६०६)। (नाट; सुर ६; १५३)। मय पुं [मद] मिइ देखो मिउ = मृत् (धर्मसं ५५८) । ४ दिन का एक मुहूर्त (सम ५१)। ५ वि. कस्तूरी (रंभा ३५)। रिउ पुं["रिपु] महेन्द्र-सम्बन्धी (पउम ५५, १६) । सिंह (सुपा ५७१)। वाण पुं [वाहन] मिइंग देखो मयंग = मृदंग (हे १, १३७; माहिंदफल न [माहेन्द्रफल] इन्द्रयव, भरतक्षेत्र के एक भावी तीर्थंकर (सम १५३) कुमा) मिइंद देखो मइंद = मृगेन्द्र (अभि २४२)।कौरेया का बीज (उत्तनि ३) मिअ [मृग] हरिण के आकार का पशु मिउ स्त्री [मृद्] मिट्टी, मट्टी; 'मिउदंडचक्कमाहिल [दे] महिषी-पाल, भैंस चरानेवाला । विशेष, जो हरिण से छोटा और जिसका चीवरसामग्गीवसा कुलालुव्व' (सम्मत्त २२४), (दे ६, १३०)। पुच्छ लम्बा होता है। लोमिअ वि 'मिउपिंडो दवघडो सुसावगो तह य दवसाहु माहिवाय पुं[दे] १ शिशिर पवन (दे ६, [°लोमिक] उसके बालों से बना हुआ त्ति' (उप २५५ टी)। १३१)।२ माघ का पवन ( षड् )। (अणु ३५) मिउ वि [मृदु] कोमल, सुकुमार (प्रौप; माहिसी देखो महिसी (कप्प)।- मिअ देखो मित्त =मित्र (प्राप्र)। कुमा; सण)। माही स्त्री [माघी] १ माघ मास की पूर्णिमा। मिअ वि [दे] अलंकृत, विभूषित (षड् ) मिउ वि [मृद मनोज्ञ, सुन्दरः 'मिउमद्दव २ माघ की अमावस्या (सुज्ज १०, ६)। मिअ वि[मित] मानोपेत, परिमित (उत्त संपन्ने (दि ५२)। माहूर वि माथुर मथुरा का (भत्त १४५)।। १६, ८, सम १५२, कप्प)। २ थोड़ा, मिंचण न [दे] मीचना, निमीलन (दे माहुर न [दे] शाक, तरकारी (दे ६, १३०)। | अल्प; 'मिनं तुच्छं' (पाप)। वाइ वि । ३, ३०)।माहुर । वि [माधुर, क] १ मधुर रस [वादिन] आत्मा आदि पदार्थों को परिमित मिंज , स्त्री [मज्जा] १ शरीर-स्थित धातुमाहुरय) वाला। २ आम्ल रस से भिन्न ___ माननेवाला (ठा ८-पत्र ४२७)। मिंजा विशेष, हाड़ के बीच का अवयवरसवाला (उवा)। मिअ देखो मित्र = इव (गा २०६ : नाट) मिंजिय विशेष (पएह १,१-पत्र महा: माहुरिअ न [माधुर्य] मधुरता (प्राकृ १६) मि देखो मिआ। ग्गाम पुं [ग्राम] उवाः प्रौप)। २ मध्यवर्ती अवयव; 'पहरणमाहुलिंग पुं[मातुलिङ्ग] १ बीजपूर वृक्षा | ग्राम-विशेष (विपा १,१)। मिजिया इवा' (पएण १७-पत्र ५२६)।बीजौरानीबू का पेड़ (हे १, २४४; चंड)। | | मिअआ स्त्री [मृगया] शिकार (नाट- मिठ पुं[दे] हस्तिपक, हाथी का महावत २ न. बोजौरे का फल (षड् ; कुमा)। शकु २७)। मिठिल , (उप १२८ टी; कुप्र ३६८; महा माहेसर वि [माहेश्वर] १ महेश्वर-भक्त | मिअंक पुंमृगाङ्क] १ चन्द्र, चाँद (हे १, भत्त ७६; धर्मवि ८१, १३५; मन १०% (सिरि ४८)। २ न. नगर-विशेष (पउम | १३०; प्राप्रः कुमाः काप्र १६४)। २ चन्द्र उप १३०)। देखो मेंठ 1 १०, ३४)। का विमान (सुज्ज २०)। ३ इक्ष्वाकु वंश | मिंढ पुंस्त्री [मेढ] १ मेंढा, भेड़, मेष, गाडर माहेसरी स्त्री [माहेश्वरी] १ लिपि-विशेष का एक राजा (पउम ५, ४)। 'मणि पुंमिंढय (विसे ३०४ टी; उप पृ २०५; कप्र (सम ३५)। २ नगरी-विशेष (राज) ।। [ मणि] चन्द्रकान्त मणि (कप्पू)।. ११६२), 'ते य दरा मिढया ते य' (धर्मवि . For Personal & Private Use Only Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ मिढिय-मित्तिय पाइअसहमण्णवो १४०)। स्त्री. "ढिया (पान)। २ न. पुरुष- हियाहियविभागनाणसण्णासमन्निो कोई मिणाय न [दे] बलात्कार, जबरदस्ती (दे ६, लिंग, पुरुष-चिह्न (राज)। मुह पुं[मुख] (विसे ५१९)। ११३) १ अनार्य देश-विशेष (पव २७४)। २ न. | मिच्छ देखो मिच्छा (कम्म ३, २, ४)। मिणाल देखो मुणाल (प्राकृ का रंभा)। नगर-विशेष (राज) । देखो मेंढ। कार पु[ कार] मिथ्या-करण (प्रावम)। मित्त पु[मित्र] १ सूर्य, रवि (सुपा ६४५; मिंढिय पुं [मेण्ढिक ग्राम-विशेष (कम १)। °त्त न [व] सत्य तत्त्व पर अश्रद्धा, सुख ४, ६ पान; वजा १४४)। २ नक्षत्रदेवमिग देखो मय =मृग (विपा १, ७ सुर २, सत्य धर्म का अविश्वास (ठा ३, ३; विशेष, अनुराधा नक्षत्र का अधिष्ठायक देव २२७; सुपा १६८ उव), 'सोहो मिगाणं पाचू ६, भगः प्रौपः उप ५३१; कुमा)। (ठा २, ३—पत्र ७७सुज १०, १२)। ३ सलिलाण गंगा' (सूत्र १, ६, २१), गंध 'त्ति वि ["त्विन् सत्य धर्म पर विश्वास महोरात्र का तीसरा मुहूर्त (सम ५१, सुज्ज पं गधा यर्गालक मनष्य की एक जाति | नहीं करनेवाला, परमार्थ का अश्रद्धालु (दं। १०, १३)। ४ एक राजा का नाम (विपा (इक)। 'नाह पुं [नाथ] सिंह (सुपा १८)। दिट्ठि, दिट्ठीय, दिद्रि, दिट्ठिय १, २)। ५ पुंन. दोस्त, वयस्य सखा; 'मित्तो ६३२) ५ वइ पुं[पति] सिंह (पएह १, वि [दृष्टि, क] सत्य धर्म पर श्रद्धा नहीं सही वयंसों (पाप), 'पहाणमित्ता' (स १; सुपा ६३६).। वालुंकी स्त्री [ वालुङ्की] रखनेवाला, जिन-धर्म से भिन्न धर्म को मानने- ७०७), 'तिविहो मित्तो हवई' (स ७१५; वनस्पति-विशेष (पएण १७-पत्र ५३०)।- वाला (सम २६ कुमा; ठा २, २; औप; सुपा ६४५; प्रासू ७६)। केसी स्त्री [°केशी] गरि पुं[रि] सिंह (उवः सुर ६,२७०) ठा १)। रुचक पर्वत पर रहनेवाली एक दिक्कुमारी हिव पु [धिप] सिंह (पण्ह २, ५)।-मिच्छा प्र [मिथ्या] १ असत्य, झूठा देवी अलबुसा मित (?त्त) केसी' (ठा ८मिगया स्त्री [मृगया] शिकार (सुपा २१४ (पास)। २ कर्म-विशेष, मिथ्यात्व-मोहनीय पत्र ४३७७ इक), गा स्त्री [गा] वैरोचन बलीन्द्र की एक अन-महिषी, एक इन्द्राणी कर्म (कम्म २, ४; १४)। ३ गुण-स्थानक कुप्र २३; मोह ६२) विशेष, प्रथम गुरण-स्थानक (कम्म २, २, ३; मिगव्व न [मृगव्य ऊपर देखो (उत्त (ठा ४, १-पत्र २०४) । णंदि पुं १३), "दंसण न [दर्शन] १ सत्य तत्त्व [नन्दिन] एक राजा का नाम (विपा २, १८, १) १०)। दाम पुं [दाम] एक कुलकर पर अश्रद्धा (सन का भगः औप)। २ असत्य मिगसिर देखो मगसिर (सम ८ इक पि | पुरुष का नाम (सम १५०)। "देवा स्त्री धर्म (कुमा)। नाण न [ज्ञान] असत्य ४३६) । मिगावई देखो मिआ-बई (पउम २०, १८४ ज्ञान, विपरीत ज्ञान, प्रज्ञान (भग) । सुअ स्त्री [ देवा] अनुराधा नक्षत्र (राज)। 'व २२, ५५; उव; अंत कुप्र १८३; पडि)। वि [वत् ] मित्रवाला (उत्त ३, १८) न [श्रत प्रसत्य शास्त्र, मिथ्यादृष्टि-प्रणीत शास्त्र (णंदि)। सेण [सेन] एक पुरोहित-पुत्र (सुपा मिगी स्त्री [मृगी] १ हरिणी (महा)। २ ५०७) विद्या-विशेष (राज)। पद न [पद स्त्री मिज अक [मृ] मरना । मिजंति (सूत्र १, मित्त देखो मेत्त = मात्र (कप्पा जी ३१; का गुह्य स्थान, योनि (राज)। ७, ६) । वकृ. मिजमाण (भग)। प्रासू १४५)। मिच्चु देखो मच्चु (षड् , कुमा)। मिजंत 1 . मित्तल पुं[दे] कन्दर्प, काम (दे ६, १२६; मिच्छ (अप) देखो इच्छ = इष् ; 'न उ देइ सुर १३, ११८)। कप्पु मिच्छइ न न दंडु' (भवि)। मिज्म वि [मेध्य] शुचि, पवित्र (उप ७२८ मित्ति स्त्री मति] १ मान, परिमाण । २ टी) मिच्छ पुं [म्लेच्छ] यवन, अनार्य मनुष्य सापेक्षता (पउम २७, १८, ३४, ४१; ती १५; संबोध मिट सक [दे] मिटाना, लोप करना। मिटि- 'उस्सग्गववायाणं मितीए ग्रहण भोयणं दुटुं। १६). "पहु पुं[प्रभु] म्लेच्छों का राजा __ जसु (पिंग)। प्रयो. मिटावह (पिंग) उस्सग्गववायाणं मित्तीइ तहेव उवगरणं' (रंभा) पिय न [प्रय] पलाण्डु, प्याज, | मिट्ठ वि [मिष्ट, मृष्ट] मीठा, मधुर 'मुहमिट्ठा (अज्भ. ३७) । लशुन; 'मिच्छप्पियं तु भुतं जा गंधो ता न | मणदुट्ठा वेसा सिट्ठाण कहमिट्ठा' (धर्मवि मित्तिआ स्त्री [मृत्तिका] मिट्टी, मट्टी (अभि हिउंति' (बृह ५) हिव पुं[धिप] ६५ कप्पू: सुर १२, १७, हे १, १२८, २४३) "वई नो [वता] दशाएं देश की यवनों का राजा (पउम १२, १४) रंभा)। प्राचीन राजधानी (विचार ४८)। मिच्छ न [मिथ्य] १ असत्य वचन, भूठ। मिण सक [मा, मी] १ परिमाण करना, | मित्तिज अक [मित्रीय ] मित्र को चाहना। २ पि. असत्य, झूठा: 'मिच्छ ते एवमाहंसु' | नापना, तोलना । २ जानना, निश्चय करना। वकृ. मित्तिज्जमाण (उत्त ११, ७) । उम २३, | मिणइ (विसे २१८६), मिणसु (पव २५४)। मित्तिय न [मैत्रेय १ गोत्र-विशेष, जो वत्स २६) । ३ मिथ्यादृष्टि, सत्य पर विश्वास नहीं मिणण न [मान] मान, माप, परिमाण (उप गोत्र की एक शाखा है। २ पुंस्त्री. उस गोत्र में रखनेवाला, तत्त्व का अश्रद्धालु 'मिच्छो | १६७)।। उत्पन्न (ठा ७-पत्र ३६०)। मिजमाण | देखो मा = मा।-- For Personal & Private Use Only Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० पाइअसद्दमण्णवो मित्तिवय-मीण मित्तिवय पुं[दे] ज्येष्ठ, पति का बड़ा भाई मिलिअ वि [मिलित] मिला हुआ (गा मिसिमिसिय वि [दे] उद्दीप्त, उत्तेजित (दे६, १३२) ४४३; कुमा)। (सुर ३, ५०)। मित्ती स्त्री [मैत्री] मित्रता, दोस्ती (सूम २, मिलिअ वि [मेलित] मिलाया हुआ (कुमा) मिस्स सक [ मिश्रय ] मिश्रण करना, ७, ३६,श्रा १४ प्रासू ८) मिलिच्छ देखो मिच्छ = म्लेच्छ (हे १, मिलाना । मिस्सइ (हे ४,२८)। मिथुण देखो मिहुण (पउम ६६, ३१) ८४; हम्मीर ३४) । मिस्स देखो मीस = मिश्र (भग)। मिदु देखो मिउ (अभि १८३; नाट-रत्ना मिलिट्र वि [म्लिष्ट] १ अस्पष्ट वाक्यवाला । | "मिस्स पुं [मिश्र] पूज्य, पूजनीया 'वसिठ्ठ८०) २ म्लान । ३ न. अस्पष्ट वाक्य (प्राकृ २७) | मिस्सेसु' (उत्तर १.३)। मिरिअ पुंन [मिरिच १ मरिच का गाछ । मिलिमिलिमिल अक [दे] चमकना । वकृ. | मिस्साकूर पुन [मिश्राकूर] खाद्य-विशेष, २ मिरच, मिर्चा (पएण १७--पत्र ५३१ मिलिमिलिमिलंत (पएह १, ३-पत्र ।' हे १, ४६ ठा ३, १ टी; पव २५६) | 'भणुराहाहि मिस्साकूरं भोच्चा कजं साधेति मिरिआ स्त्री [दे] कृटी. झोंपड़ी (दे ६, गिलोण देखो मिलिअ (ोषभा २२ टी)। (सुज्ज १०, १७)। मिह प्रक [मिध् ] स्नेह करना। मिहसि १३२)। मिल्ल सक [ मुच् ] छोड़ना, त्यागना । मिल्लइ | मिरिइ । पुंस्त्री [मरीचि] किरण, प्रभा, (सुर ४, २१)। (भवि) । वकृ. मिल्लंत (सुपा ३१७)। कृ. मिरी । तेजः चंचलमिरिइकवयं' (प्रौप), मिह देखो मिस = मिष; 'निग्गयो अलियगामिल्लेव (अप) (कुमा)। प्रयो., कवकृ. मंतरगमणमिहेण' (महा)।मिरीइ 'सप्पहा समिरि (?री) या' (प्रौप), मिल्लाविजत (कुप्र १९२) मिह देखो मिहो (आचा)। मिरीय । 'निक्कंकडच्छाया समिरीया' (प्रौपः मिल्लाविअ वि [मोचित छड़ाया हुअा (सुपा ठा ४, १-पत्र २२६), 'विज्जुघणमिरीइसूर- मिहिआ स्त्री [दे] मेघ-समूह (दे ६, १३२)। ३८८; हम्मीर १८ कुप्र ४०१) ।। देखो महिआ। दिप्पंततेय-- (औप), 'सूरमिरीयकवयं मिल्लिअ (अप) देखो मिलिअ (पिंग)। मिहिआ स्त्री [मेधिका] अल्प मेघ (से ४, विणिम्मुयंतेहिं (पण्ह १, ४-पत्र ७२)। मिल्लिर वि [मोक्त] छोड़नेवाला (कुमा)। १७)। देखो महिआ। मिल अक [मिल ] मिलना । मिलइ (हे ४, मिल्ह देखो मिल्ल । मिल्हइ (प्रात्मानु २२), मिहिर पुं[मिहिर] सूर्य, रवि (उप पू ३५०%; ३३२, रंभा महा) । कर्म. मिलिज्जइ (हे ४, मिल्हंति (कुप्र १७)। भवि. मिल्हिस्सं (कुप्र | सुपा ४१६; धर्मा ५), ४३४) । वकृ. मिलंत (से १०, १६) । १०)। कृ. मिल्हियव्व (सिरि ३५७) । 'सायरनिसायराणं मेहसिंहडीण मिलक्खु पुन. देखो मिच्छ - म्लेच्छ (ोघ मिल्हिय वि [मुक्त] छोड़ा हुआ (श्रा २७)। मिहिरनलिणीणं । ४४०; धर्मसं ५०८; तो १५; उत्त १०, दूरेवि वसंताणं पडिवन्नं १६), 'मिलक्खूरिण' (पि ३८१)। 'मिव देखो इव (हे २, २८२ प्राप्र कुमा) मिलण न [मिलन] मेल, मिलना, एकत्रित मिस सक [मिस् ] शब्द करना। वकृ.-- नन्नहा होई (उप ७२८ टी)। होना; 'लोगमिलणम्मि' (उप ५७८; सुपा मिसंत (तंदु ४४)। मिहिला स्त्री [मिथिला] नगरी-विशेष (ठा २५०)। मिस न [भिष] बहाना, छल, व्याज (चेइय १०; पउम २०, ४५; णाया १, ८-पत्र मिलणा स्त्री. ऊपर देखो (उप १२८ टी; उप ८३१; सिक्खा २६ रंभाः कुमा)। १२४ इक)। ७०६) मिसमिस अक [दे] १ अत्यन्त चमकना । २ मिला । अक [म्ल म्लान होना, निस्तेज __ खूब जलना । वकृ. मिसमिसंत (णाया १, । देखो मिहो (उप ९४७ आचा)। मिला होना । मिलाइ, मिलाइ (दे २, । १-पत्र १६ तंदु २६ उप ६४८ टो)। मिहुण न [मिथुन] १ स्त्री-पुरुष का युग्म, १०६; ४, १८; २४० षड्)। वकृ. मिला मिसल (अप) सक [मिश्रय ] मिश्रण करना, | दंपती (हे १, १८७; पानः कुमा)। २ अंत, मिलाअमाण (पि १३६, ठा ३, ३; मिलाना । भराठी में "मिसलणें'। मिसलइ __ ज्योतिष-प्रसिद्ध एक राशि (विचार १०६) । णाया १, ११)। (भवि)। मिहोप [मिथस ] परस्पर, मापस में (उप मिला विम्लान] निस्तेज, विच्छाय मिसल (प) देखो मीस. मीसालिअ ९७६; स ५३६ पि ३४७) । मिलाण (गाया १, १-पत्र ३७; स (भवि)। - मीअ न [दे] समकाल, उसी समय (दे ६, ४२५) हे २. १०६, कुमा; महा)। मिसिमिस देखो मिसमिस वकृ. मित- १३३) । मिलाण न [दे] पर्याण (?)'--थासगमिला मिसंत, मिसिमिसिंत. मिसिमिसिमाण, मीण पुं[मीन] १ मत्स्य, मछली (पामा णचमरोगंडपरिमंडियकडीणं' (औप)। मिसिमिसीयमाण, मिसिमिसेंत मिसि- गउड प्रोघ ११६ सुर ३, ५३, १३, ४६)। मिलाणि स्त्री [ म्लानि] विच्छायता (उप । मिसेमाण (प्रौप, कप्पः पि ५५८; उवाः । २ ज्योतिष-प्रसिद्ध राशि-विशेष (सुर ३, ५३; १४२ टी) पि ५५८ गाया १,१-पत्र ६४)। विचार १६ संबोध ५४) - मिहं) For Personal & Private Use Only Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६१ मीत-मुंड पाइअसहमहण्णवो मीत देखो मित्त = मित्र (संक्षि १७)। मुअ वि [स्मृत] याद किया हुआ (सूत्र २, मुउउंद पुं [मुचुकुन्द] १ नृप-विशेष (मच्च मीमंस सक [ मीमांस्] विचार करना । ७, ३८ प्राचा)। ६६) । २ पुष्पवृक्ष-विशेष (कप्पू)।। कृ. 'अ-मीमंसा गुरू' (स ७३०)। मुअंक देखो मिअंक (प्राकृ८) मुउंद पुं[मुकुन्द विष्णु, नारायण (नाटमीमंसा स्त्री [मीमांसा] जैमिनीय दर्शन, मुअंग देखो मिअंग (षड्, सम्मत्त २१८)। चैत १२६)। पूर्वमीमांसा (सुख ३,१: धर्मवि ३८)। मुअंगी स्त्री [दे] कोटिका, चींटी (दे ६, मुउर देखो मउर = मुकुर (षड्) मीमंसिय वि [मीमांसित] विचारित (उप १३४) मुउल देखो मउल = मुकुल (षड् : मुद्रा ८४)। ९८६ टी) मुअग्ग पुं [दे] 'प्रात्मा बाह्य और अभ्यन्तर मीरा स्त्री [३] दीर्घ चुल्ली, बड़ा चुल्हा | पुद्गलों से बना हुआ है ऐसा मिथ्या ज्ञान मुंगायण न [मृङ्गायण गोत्र-विशेष, विशाखा (सूअनि ७६)।(ठा ७ टी-पत्र ३८३)। नक्षत्र का गोत्र (इक)। मील अक [ मील ] मीचाना, बन्द होना, | मुअण न [मोचन] छुटकारा, छोड़ना (सम्मत्त मुंच देखो मुअमुच् । मुंचइ, मुंचए ( षड्; सकुचाना। मीलइ (हे ४, २३२; षड् )। ७८ विसे ३३१६; उप ५२०)। कुमा)। भूका. मुंची (भत्त ७६)। भवि. मील देखो मिल (वि ११) मुअल (अप) देखो मुअ = मृत (पिंग)। मोच्छं, मोच्छिहि, मुचिहिइ (हे ३, १७१, मीलच्छीकार पुं [मीलच्छीकार] १ यवन मुआ स्त्री [मृत् ] मिट्टी (संक्षि ४) पि ५२६)। कर्म. मुच्चइ मुचए, मुच्चति देश-विशेष, 'मोलच्छीकारदेसोवरि चलिदो मुआ स्त्री [मुद्] हर्ष, खुशी, प्रानन्द (प्राचाः हे ४, २०६, महाः भग)। भवि. खप्परखाणराया' (हम्मोर ३५)। २ एक मुचिहिति (भग) । वकृ. मुंचंत (कुमा)। 'सुरयरसामोवि मुयं अहियं उवजणइ तस्स यवन राजा (हम्मीर ३५)। कवकृ. मुच्चंत (पि ५४२) । संकृ. मोत्तं, सा एसा' (रंभा) मोलण न [मीलन] संकोच (कुमा)। मुआइणी स्त्री [दे] डुम्बी, डोमिन, चाण्डालिन मोत्तुआण, मोत्तूण (कुमाः षड् ; प्राकृ ३४)। मीलण देखो मिलणः 'खणजणमणमीलणोबमा हेकृ. मोत्तं (कुमा), मुंचणहि (अप) (कुमा)। | (द ६, १३५). विसया' (वि ११ राज) कृ. मोत्तव्य, मुत्तव्य (हे ४, २१२; गा मुआविअ वि [मोचित] छुड़वाया हुआ (स ६७२; सुपा ५८६) मीलिअ देखो मिलिअ = मिलित (पिंग)। | ४४६) मुंज पुन [मुञ्ज] मुंज, तृण-विशेष, जिसकी मीस सक [मिश्रय ] मिलाना, मिश्रण | मुइ वि [मोचिन्] छोड़नेवाला (विसे ३४०२) रस्सी बनाई जाती है (सूम २, १, १६; करना । कर्म. मीसिजइ (पि ६४)। | मुइअ वि [मुदित] १ हर्षित, मोद-प्राप्त (सुर गच्छ २, ३६; उप ६४८ टी)। "मेहला मीस वि [मिश्र] १ संयुक्त, मिला हुआ, ७, २२३; प्रासू १०५, उवः प्रौप)। २ पुं. स्त्री [ मेखला] पूँज का कटिसूत्र (गाया १; मिश्रित (हे १,४३, २, १७०; कुमाः कम्म रावण का एक सुभट; (पउम ५६, ३२)। १६-पत्र २१३)।२, १३, १५, ४, १३, १७, २४ भगा | मुइअविदेयोनि-शुद्ध, निर्दोष मातावाला; मुंजइ न [मौञ्जकिन] १ गोत्र-विशेष । २ औपः दं २२)। २ न. लगातार तीन दिनों 'मुइनो जो होई जोणिसुद्धो' (औप-टी)। पुंस्त्री, गोत्र में उत्पन्न (ठा ७–पत्र ३६०)। का उपवास (संबोध ५८)। मुइअंगा देखो मुअंगी; 'उवलिप्पंते काया मुंजकार पुं [मुञ्जकार] मूंज की रस्सी मीसालिअ वि [मिश्र] संयुक्त, मिला हुआ मुइभंगाई नवरि छ?' (पिंड ३५१)। बनानेवाला शिल्पी (अणु १४६) । (हे २, १७०; कुमा) मुइग देखा मिअग (ह १,४६ १३७, प्राप्र; मुंजायण पुं [मौजायन] ऋषि-विशेष (हे मीसिय वि [मिश्रित] ऊपर देखो (कुमा उवा; कप्प; सुपा ३६२ पास)। "पुक्खर । १, १६०प्राप्र)। कप्पा भवि) पुंन [पुष्कर] मृदंग का ऊपरवाला भाग मुंजि पुं[मौअिन्] ऊपर देखो (प्राकृ १०) (भग)। मुअ सक [ मोदय् ] खुश करना । कवकृ. | मुइंगलिया) स्त्री [दे] कीटिका, चींटी (उप | मुंट वि [दे] हीन शरीरवाला, मुइज्जत (से ७, ३७)। मुइंगा १३४ टी; संथा ८६; विसे | जे बंभचेरभट्ठा पाए पाडंति बंभयारीणं । मुअ सक [मुच्] छोड़ना । मुअइ (हे ४, १२०८; पिंड ३५१ टी) ते हंति टुटमुटा बोहीवि सुदुल्लहा तेसि ६१), मुअंति (गा ३१९) । वकृ. मुअंत, मुइंगि वि [मृदङ्गिन] मृदंग बजानेवाला (संबोध १४)। मुयमाण (गा ६४१ से ३, ३६; पि ४८५)। (कुमा)। मुंड सक [मुण्डय] १ मुंडना, बाल संकृ. मुइत्ता (भग)। मुइंद देखो मइंद = मृगेन्द्र (प्राक ८)। उखाड़ना । २ दीक्षा देना, संन्यास देना। मुअ वि [मृत मरा हुआ (से ३, १२; गा | मुडइ (भवि), मुंडेह (सूत्र २, २, ६३) । मुइजंत देखो मुअ = मोदय । १४२, वजा १५८; प्रासू ५७; पउम १८ प्रयो., वकृ. मुंडावेत (पंचा १०, ४८ टी)। १६ उप ६४८ टी) । वहण न [वहन] | मुइर वि [मोक्त] छोड़नेवाला (सण) हेव. मुंडावेउ, मुंडावित्तए, मुंडावेत्तए शव-यान, ठठरी, प्ररथी (दे २, २०)। मुउ देखो मिउ (काल)। (पंचा १०, ४८ ठा २, १; कस)। For Personal & Private Use Only Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकुल, न्यौला ही ७ ६५धर्मवि मुग्गा ६१२ पाइअसद्दमण्णवो मुंड-मुज्झ मुंड पूंन [मुण्ड] १ मस्तक, सिर (हे ४, मुक्कुंडी स्त्री [दे] जूट (दे ६, ११७)। मुग्गरय न [दे. मुग्धारत] मुग्धा के साथ ४४६; पिंग) । २ वि. मुण्डित, दीक्षित, मुक्कुरुड पुं[दे] राशि, ढेर (दे ६, १३६)। रमण (वज्जा १०६) । प्रवृजित (फा; SIT डि ६१४) । परसु | सुलेमा देखो मुक - मुक्त (मा १९८) नुग्गल देखो मुग्गड (ती १५)। पुं [परशु] नंगा कुल्हाड़ा, तीक्ष्ण कुठार | मुक्ख पुं [मोक्ष] १ मुक्ति, निर्वाण (सुर मुग्गस [दे] नकुल, न्यौला (दे ६, ११८)। (पएह १, ३-पत्र ५४) । १४, ६५; हे २, ८६; साधं ८६)। २ मुग्गाह अक [प्र + स] फैलना। मुग्गाहइ मुंडण न [मुण्डन) केशों का अपनयन (पंचा छुटकाराः 'रिणमुक्खं' (रयण ६५, धर्मवि (?) (धात्वा १४८)। २, २; स २७१; सुर १२, ४५) । मुक्ख वि [मूर्ख अज्ञानी, बेवकूफ (हे २, मुग्गिल मुंडा स्त्री [दे] मृगी, हरिगी (दे ६, १३३)। [दे] पर्वत-विशेष (ती ७; भत्त मुग्गिल्ल १६१)। ११२; कुमाः गा ८२ सुपा २३१) । मुंडाविअ ति [मुण्डित] मुंडाया हुआ (भग, मुग्गुसु देखो मुग्गस (दे ६, ११८)। मुक्ख वि [मुख्य] प्रधान, नायक (हास्य महा गाया १.) १२५)। मुग्धड देखो मुग्गड (हे ४, ४०६)। मुंडि वि [मुण्डिन] मुण्डन करनेवाला (उव, मुक्ख पुन [मुष्क] १ अण्डकोष । २ वृक्ष- मुग्घुरुड देखो मुकुरुड (दे ६, १३६) । प्रौपः भत्त १००)। विशेष। ३ चोर, तस्कर । ४ वि. मांसल | मुचकुंद) देखो मउउंद (सूर २. ७६: मुंडिअ वि [मुण्डित] मुण्डन-युक्त (भगः | पुष्ट (प्राप्र)। मुचुकुंद कुमा)।उप ६३४ महा)। मुक्खण देखो मोक्खग (सिखा ४५)। मुच्छ प्रक [मूर्च्छ ] १ मूछित होना । मुंडी स्त्री [दे] नोरङ्गी, शिरो-वस्त्र, घूघट मुक्खणी स्त्री [मोक्षणा] स्तम्भन से छुटकारा | २ आसक्त होना। ३ बढ़ना। मुच्छइ, मुंढ पुं[मूर्धन] मूर्धा, मस्तक, सिर __ करनेवाली विद्या-विशेष (धर्मवि १२४)। मुच्छए (कसः सूप १, १, ४, २)। वकृ. मुंढाण (हे १, २६, २, ४१, षड्)। मुख देखो मुह = मुख (प्रासू ६; राज)। मुच्छंत, मुच्छमाण (गा ५४६, प्राचा) । देखो मुद्ध - मूर्धन् । मुख पुं [मुख] १ एक म्लेच्छ-जाति (मृच्छ मुच्छणा स्त्री [मूर्च्छना] गान का एक अंग मुकलाव सक [दे] भेजवाना, गुजराती में १५२)। २ गाड़ी के ऊपर का ढक्कन (ठा ७-पत्र ३६५)। 'मोकलावतुं' । संकृ. मुकलाविऊण (सिरि | मुच्छा स्त्री [भू.] १ मोह (ठा २, ४; ४७४)। मुग देखो मुग्गः ‘एगमुगभरुव्वहणे असमत्थो प्रासू १७६)। २ अचेतनावस्था, बेहोशी मुकुर पुं[मुकुर दर्पण, आईना (दे १, १४)। कि गिरि वहइ' (सुपा ४६१)। (उवः पडि) । ३ गृद्धि, आसक्ति (सम ७१)। मुक (अप) सक [मुच ] छोड़ना; गुजराती मुगुंद देखो मउंद = मुकुन्द (पाचा २, १, ४ मूर्च्छना, गीत का एक अंग (ठा ७में 'मूकवु' । मुकइ (प्राकृ ११६) । संकृ. पत्र ३६३) २, ४: विसे ७८ टी)। मुक्किअ (नाट-चैत ७६)। मुच्छाविअ वि [मूर्छित] मूर्छा-युक्त किया। मुगुस पुंस्त्री [दे] हाथ से चलनेवाले जन्तु की मुक्क वि [मूम] वाक्-शक्ति से रहित, गूगा. हुमा (से १२, ३८)। एक जाति, भुजपरिसर्प-जातीय एक प्राणी मुच्छिम वि [मूर्छित] १ मूर्छा-युक्त (हे २, ६६; सुपा ५५२ षड्)। (परह १,१-पत्र ८)। स्त्री. "स। (उवा)। '' (प्रासू ५७उवा)। २ पुं. नरकावास-विशेष मुक्क देखो मुक्कल (विसे ५५०)। देखो मंगुस, मुग्गस । (देवेन्द्र २७)। मुक्त वि [मुक्त] १ छोड़ा हुआ, त्यक्त (उवाः मुग्ग पुं [मुद्ग] १ धान्य-विशेष, मूग मुच्छिजंत वि [मूर्छायमान] मूर्छा को सुपा ४७५; महा पाप)।२ मुक्ति प्राप्त, मोक्ष- (उवा)। २ रोग-विशेष (ति १२)। ३ । प्राप्त होता (से १३, ४३)। प्राप्त (हे २,२)। ३ लगतार पाँच दिन का पक्षि-विशेष, जल-काक (प्राप्र)। पण्णी स्त्री मुच्छिम ' [मूर्छिम] मत्स्य-विशेष, उपवास (संबोध ५८)। देखो मुत्त = मुक्त । [पर्णी] वनस्पति विशेष (पराग १-पत्र 'वायाए काएणं मणरहिपाणं न दारुणं कम्मं । मुक्कय न [दे] दुलहिन के अतिरिक्त अन्य ३६) सेल पुं [शैल] पवंत-विशेष, जोपणसहस्समाणो मुच्छिममच्छो उपाहरणं' निमन्त्रित कन्यानों का विवाह (दे १,१३५) कभी नहीं भीगनेवाला एक पर्वत (उप (मन ३) मुक्कल वि [] १ उचित, योग्य (दे ६, होने ७२८ टी)V मुच्छिर वि [मृर्छित १ बढ़नेवाला। २ १४७)। २ स्वैर, स्वतन्त्र, बन्धन-मुक्त (दे मुग्गड पुं[दे] मोगल, म्लेच्छ-जाति विशेष बेहोशीवाला (कुमा)। ६, १४७; सुर १, २३३; विवे १८ गउड; (हे ४, ४०६)। देखो मोग्गड । मुज्झ अक [मुह ] १ मोह करना। २ सिरि ३५३ पान सुपा १९८)। मुग्गर न [मुद्गर] १ पुष्प-विशेष (वज्जा घबड़ाना। मुज्झइ (प्राचा; उव; महा)। मुकलिअ वि [दे] बन्धन-मुक्त किया हुआ, १०६)। २ देखो मोग्गर (आप आप ३६; भवि. मुज्झिहिति (प्रौप)। कृ. मुज्झियव्य अनियन्त्रित (दे १, १५६ टी)। (पएह २,५–पत्र १४६) उव)। For Personal & Private Use Only Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुट्टिम-मुत्ति पाइअसद्दमण्णवो ६६३ मुट्टिम पुंस्त्री [दे] गर्व, अहंकार, गुजराती में मुणाल पुंन [मृणाल] १ पद्मकन्द के ऊपर मुणिंद पुं [मुनीन्द्र श्रेष्ठ मुनि (हे १, ८४ 'मोटाई'; 'कयमुट्टिमंगीकारो' (हम्मीर ३५)। की बेल–लता (प्राचा २, १, ८, ११)। भग)। देखो मोट्रिम २ बिस, पद्मनाल । ३ पन आदि के नाल मुणिर वि [ज्ञात, गुणित] जाननेवाला मुटु वि [मुष्ट, मुषित] जिसकी चोरी हुई का तन्तु--सूत्र (पान; रणाया १, १३ (सरण) । हो वह (पिंड ४६६; सुर २, ११२: सुपा प्रौप)। ४ वीरण का मूल । ५ पय, कमलमणीश पंमिनीशा मनि-नायक (उप १४१ ३६१, महा)। 'मरणालो', 'मुणालं' (प्राप्र हैं १, १३१)। टी; भवि) मुट्ठि पुंस्त्री [मुष्टि] मुट्ठी, मूठी, चूंसा, मुक्का; मणालि पुं[मृणालिन्] १ पद्म-समूह । २ मुणीसर मुनीश्वर] ऊपर देखो (सुपा 'मुट्ठिणा', 'मुट्ठी' (पि३७६; ३८५ पार: पद्म-युक्त प्रदेश, कमलवाला स्थान; 'मुणाली रंभाः भवि)। जुज्झ न [युद्ध] मुष्टि से बाणाली' (सुपा ४१३)। की जाती लड़ाई, मूकामूकी (प्राचा)। मुणीसिम (अप) पुन [मनुष्यत्व] १ मुणालिआ। स्त्री [मृणालिका, ली] १ | पुत्थय न [पुस्तक] १ चार अंगुल लम्बा मनुष्यपन । २ पुरुषार्थ (हे ४, ३३०)।मणाली ) बिस-तन्तु, कमल-नाल का सूता वृत्ताकार पुस्तक । २ चार अंगुल लम्बा (नाट-रत्ना २६)। २ बिस का अंकूर मुत्त सक[ मूत्रय ] मूतना, पेशाब करना। चतुष्कोण पुस्तक (पव ८०)। (गउड)। ३ कमलिनी ( राज)। देखो मुत्तंति (कुप्र ६२)।मुट्टि [मौष्टिक] १ अनार्य देश-विशेष । मणालिया। मुत्त न [मूत्र] प्रस्रवण, पेशाब (सुपा ६१६)। २ एक अनार्य मनुष्य-जाति (पएह १, १- मणि पुं [मुनि] १ राग द्वेष-रहित मनुष्य, मुत्त देखो मुक्त = मुक्त (सम १; से २, ३०; पत्र १४)। ३ मुट्ठी से लड़नेवाला मल्ल संत, साधु, ऋषि, यति (प्राचाः पामः कुमाः जो २)। लय पुंस्त्री [ालय] मुक्त जोवों (पराह २, ५-पत्र १४६)। ४ वि. मुष्टि- गउड)। २ अगत्स्य ऋषि; 'जलहिजलं व | का स्थान, ईषत्प्रारभारा नामक पृथिवी (इक)। सम्बन्धी (कप्प)। मुरिणणा' (सुपा ४८६)। ३ सात को स्त्री. या (ठा ८,-पत्र ४४० सम २२)। मुट्ठिअ [मुष्टिक] १ मल्ल-विशेष, जिसको संख्या। ४ छन्द-विशेष (पिंग)। चंद पु. मुत्त वि मित] १ मूर्तिवाला, रूपवाला, बलदेव ने मारा था (पराह १, ४-पत्र [चन्द्र] १ एक प्रसिद्ध जैन प्राचार्य और आकारवाला (चैत्य ६१)। २ कठिन। ३ ७२; पिंग) । २ अनार्य देश-विशेष । ३ एक ग्रंथकार, जो वादी देवसूरि के गुरु थे (धम्मो मूढ़ । ४ मूर्छा-युक्त (हे २, ३०)। ५ पुं. अनार्य मनुष्य जाति (इक)।. २५)। २ एक राज-पुत्र (महा)। "नाह पुं| उपवास, एक दिन का उपवास (संबोध मुदिक्का स्त्री [दे] हिक्का, हिचकी (दे ६, [नाथ] साधुनों का नायक (सुपा १६०; ५८) । ६ एक प्राण का नाम (कप्प) २५०)। 'पुंगव ' [पुङ्गव] श्रेष्ठ मुनि मुत्त देखो मुत्ता (ौपः पि ६७, चैत्य १४)। मुड्ढ देखो मुंढ (कुमा)। (सुपा ६७ श्रु ४१)। राय पुं [राज] मुत्तव्य देखो मुच । मुनि-नायक (सुपा १६०)। वइ पुं[पति] मुडूढ वि [ मुग्ध, मूढ ] मूर्ख, बेवकूफ | (हम्मीर ५१)। वही अर्थ (सुपा १८१, २०६) वर पुं मुत्ता स्त्री मुक्ता] मोती, मौक्तिक (कुमा)मुण सक [ज्ञा, मुण ] जानना। मुणइ, [वर] श्रेष्ठ मुनि (सुर ४, ५६, सुपा जाल न [जाल] मुक्ता-समूह, मोतियों मुणंति, मुरिणमो (हे ४, ७ कुमा)। कर्म. २४४)। वेजयंत पु["वैजयन्त] मुनि- की माला (औप; पि ६७) । दाम न मुणिज्जइ (हे ४, २५२), मुरिणज्जामि प्रधान, श्रेष्ठ मुनि (सूअ १, ६, २०)। सीह [दामन् ] मोतियों की माला (ठा ४, (हास्य १३८) । वकृ. मुणंत, मुणित (महा: पुं [°सिंह ] श्रेष्ठ मुनि (पि ४३६) । २) । वलि, वली स्त्री [वलि, ली] १ पउम ४८, ६)। कवकृ. मुणिज्जमाण (से सुव्वय पुं[सुव्रत १ वर्तमान काल में मोती की माला, मोती का हार (सम ४४० २, ३६)। संकृ. मुणिय, मुणिउं, मुणि उत्पन्न भारतवर्ष के बीसवें तीर्थंकर (सम पात्र)। २ तप-विशेष (अंत ३१) । ३ द्वीपऊण, मुणेऊणं (औपमहा)। कृ. ४३)। २ भारतवर्ष के एक भावी तीर्थकर विशेष । ४ समुद्र-विशेष (राज) सुत्ति स्त्री मुणिअव्व. मुणेअव्व (कुमाः से ४, २४ | (सम १५३)। [°शुक्ति] १ मोती की शीप । २ मुद्रा-विशेष नव ४२, कप्पः उव; जी ३२) मुणि पुं[दे. मुनि] वृक्ष-विशेष, अगस्ति- (चेइय २४०; पंचा ३, २१)। हल न[फल] मुणण न [ज्ञान मुणन] ज्ञान, जानकारी दुम (दे ६, १३३; कुमा)। मोती (हे १, २३६; कुमाः प्रासू २)। (कुप्र १८४ संबोध २५, धर्मवि १२५; मुणिअ वि [ज्ञात, मुणित] जाना हुआ | हलिल्ल वि [ फलवत् ] मोतीवाला सरण)।। (हे २, १६६ पान; कुमाः अवि १६; परह (कप्पू)। मुणमुण सक [मुणमुणाय ] अव्यक्त शब्द | १, २; उप १४३ टी)। मुत्ति स्त्री [मूत्ति ] १ रूप, आकार: 'मुत्तिकरना, बड़बड़ाना । वकृ. मुणमुणंत, मुणिअ वि [दे. मुणक] ग्रह-गृहीत, भूता- | गंत, मुणिअ वि [दे. मुणिक] ग्रह-गृहीत, भूता- विमुत्तेसु' (पिंड ५६; विसे ३१८२)। २ मुणमुर्णित (महा)। । विष्ट, पागल (भग १५-पत्र ६६५). प्रतिबिम्ब, प्रतिमूत्ति, प्रतिमा: 'चउमुहमुत्ति For Personal & Private Use Only Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहष्णवो मुत्ति-मुरुमुंड चउक' (संबोध २)। ३ शरीर, देह (सुर १, मुद्दिा स्त्री [मुद्रिका] अँगूठो (पएह १, | तक को अवस्था (ठा १०-पत्र ५१९; तंदु ३, पात्र)। ४ काठिन्य, कठिनत्व (हे २, | मुद्दिआ । ४; कप्पः प्रौपः तंदु २६)। बंध १६)।३० प्राप्र)। मंत वि [मत् ] मूर्तिवाला, पुं[बन्ध] ग्रन्थि-बन्ध, बन्ध-विशेष (ोघ मुर अक [लड् ] १ विलास करना। २ सक. मूर्त, रूपी (धर्मवि ६; सुपा ३८६; श्रु ६७)। उत्पीड़न करना । ३ जीभ चलाना। ४ उपक्षेप मुत्ति स्त्री [मुक्ति] १ मोक्ष, निर्वाण (प्राचा; मुद्दिआ स्त्री [मृद्वीका] १ द्राक्षा को लता करना। ५ व्याप्त करना । ६ बोलना। ७ पान; प्रासू १५५)। २ निर्लोभता, संतोष (परण १-पत्र ३३) । २ द्राक्षा, दाख (ठा फेंकना । मुरइ (प्राकृ ७३)। (श्रा ३१)। ३ मुक्त जीवों का स्थान, ४, ३-पत्र २३६; उत्त ३४, १५, पव मुर अक [स्फुट ] खोलना। मुरइ (हे ४, ईषत्प्राग्भारा पृथिवी (ठा ८-पत्र ४४०)। ११४; षड् ) ४ निस्संगता (प्राचा)। मुद्दी स्त्री [दे] चुम्बन (दे ६, १३३)। मुर पु[मुर] दैत्य-विशेष । 'रिउ पुरिपु] मुत्ति वि [मूत्रिन] बहु-मूत्र रोगवाला: 'उरि मुदुय देखो मुद्ग (पएण १ -पत्र ४८)। श्रीकृष्ण (ती ३) + वेरिय पुं [वैरिन्] च पास मुत्ति च सूरिणयं च गिलासिणं' (प्राचा) मुद्ध देखो मुढ (प्रौपः कप्प; अोघभा १६ वही अर्थ (कुमा), रि पुं[रि] वही मुत्ति वि मौतिन्, मौक्तिक] मोतो पिरोने कुमा) न वि [ न्य] १ मस्तक में उत्पन्न। अर्थ (वजा १५४)। या गूथने वाला (उप पृ २१०)। २ मस्तक-स्थ, अग्रेसर । ३ मूर्धस्थानीय रकार मुरई स्त्री [दे] असती, कुलटा (दे ६, १३५)।v आदि वर्ण (कुमा) य पुं [ज] केश, मुरज पुं[मुरज] मृदंग, वाद्य-विशेष (कप्प; मुत्तिअ न मौक्तिक मुक्ता, मोती (से ५, बाल (पएह १, ३–पत्र ५४), "सूल न ४६ कुप्र ३; कुमा, सुपा २४; २४६; प्रासू मुरय । पान; गा २५३, सुपा ३६३; अंत; [शूल] मस्तक-पीड़ा, रोग-विशेष (णाया ३६ १७१)। देखो मोत्तिअ । धर्मवि ११२, कुप्र २८८ औपः उप पू २३६) । देखो मुख। मुत्तोली स्त्री [दे] १ मूत्राशय (तंदु ४१)। मुद्ध वि [मुग्ध] १ मूढ, मोह-युक्त । २ ___ सुन्दर, मनोहर, मोह-जनक (हे २, ७७: प्रातः मुरल पुं.ब. [मुरल] एक भारतीय दक्षिण २ वह छोटा कोठा जो ऊपर नीचे संकीर्ण और मध्य में विशाल हो (राज)।कुमाः विपा १, ७–पत्र ७७)। देश, केरल देश; दियर ण दिट्ठा नुए मुरला' मुत्थ त्रि [मुस्त] मोथा, नागरमोथा (गउड)। मुद्धा स्त्री [मुग्धा] मुग्धा स्त्री, नायिका का (गा ८७६) एक भेद, काम-चेष्टा-रहित अंकुरित यौवना मुरव देखो मुरय (प्रौप, उप पृ २३६)। २ स्त्री.त्था (संबोध ४४ कुमा) (कुमा)। अंग-विशेष, गल-घण्टिका (प्रौप)।. मुदग्ग देखो मुअग्ग (ठा ७–पत्र ३८२) मुद्धा (अप) देखो मुहा (कुमा)। मुरवि स्त्री [दे. मुरजिन्] आभरण-विशेष मुदा नी [मुद्] हर्ष, खुशी। गर वि मुद्धाण देखो मुढ (उवाः कप्पः पि ४०२)। (औप)। [कर] हर्षजनक (सूत्र १, ६, ६)। मुब्भ पुं[दे] घर के ऊपर का तिर्यक् काष्ठ, | मुरिअ वि [स्फुटित] खीला हुआ (कुमा) । मुदुग पुं[दे] ग्राह-विशेष, जल-जन्तु की गुजराती में 'मोम' (दे ६, १३३)। देखो मुरिअ विदे] १ त्रुटित, टूटा हुमा (दे ६, एक जाति (जीव १ टी--पत्र ३६) मोभ । १३५)। २ मुड़ा हुप्रा, वक्र बना हुआ (सुपा मुद्द सक [मुद्र] १ मोहर लगाना। २ मुमुक्खु वि [मुमुक्षु] मुक्त होने की चाहबन्द करना। ३ अंकन करना । मुद्देह (धम्म वाला (सम्मत्त १४०) | मुरिअ ' [मौर्य] १ प्रसिद्ध क्षत्रिय-वंश (उप ११ टी)। मुम्मुइ । वि [मूकमूक] १ अत्यन्त मूक। २११ टी)। २ मौर्य वंश में उत्पन्न; 'रायगिहे मुइंग [दे] १ उत्सव । २ सम्मान (?) मुम्मुय । २ अव्यक्तभाषी (सूम १, १२, | मू(? मु)रियबलभद्दे' (विसे २३५७) । (स ४६३, ४६४)। ५; राज)। मुरंड पुं[मुरुण्ड] १ अनार्य देश-विशेष मुद्दग) [मुद्रिका] अँगूठी (उवा); 'लद्धो मुम्मुर सक [चूर्णय ] चूरना, घूर्ण करना । (इक; पव २७४) । २ पादलिप्तसूरि के समय मुद्दय । भद्द ! तुमे कि अह अंगुलिमुद्दो मुम्मुरइ (प्राकृ ७५)। का एक राजा (पिंड ४६४ ४६८)। ३ एसो' (पउम ५३, २४)। मुम्मुर पुं[दे] करीष, गोइंठा (दे ६, १४७)। पुंस्त्री. मुरुएड देश का निवासी मनुष्य (पएह मुद्दा स्त्री [मुद्रा] १ मोहर, छाप (सुपा ३२१; मुम्मुर पुं[दे. मुमुर] १ करीषाग्नि, गोइंठा १,१-पत्र १४) । स्त्री. °डी (इक)। वजा १५६)। १ अँगूठी (उवा)। ३ अंग- की आग (दे ६, १४७जी ६) । २ तुषाग्नि विन्यास-विशेष (चैत्य १४)। मुरुक्कि स्त्री [दे] पक्वान-विशेष (सण) । (सुर ३, १८७)। ३ भस्म-च्छन्न अग्नि, मुद्दिअ वि [मुद्रित] १ जिस पर मोहर भस्म-मिश्रित अग्नि-करण (उप ६४८ टी मुरुक्ख देखो मुक्ख = मूर्ख (हे २, ११२ लगाई गई हो वह । २ बंद किया हुआ जी ६; जीव १)। कुमा, सुपा ६११, प्राकृ ९७) (णाया १,२-पत्र ८६; ठा ३, १-पत्र | मुम्मुही स्त्री [मुन्मुखी] मनुष्य की दश मुरुमुंड [दे] जूट, केशों की लट (दे ६, १२३, कप्पू, सुपा १४४; कुप्र ३१)। दशाओं में नववीं दशा-८० से ६० वर्ष ११७)। For Personal & Private Use Only Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुरमुरिज - मुद्दिजा मुरमुरि [दे] अनुता दे ६, १३६ पान ) । मुरुक्ख (षड् ) । मुरुह देवो मुलासिअ [] - दे ६, १३५) । मुक्त (प) देखो 'चद (प्राह ११३) । मुल्ल न] [मूल्य ] कीमत ' को मुल्लो' } मुल्लिअ ) ( वजा १५२ औप पानः कुमा प्रयौ ७७ ) 1 मुत्र (ग्रप) देखो मुअ = मुच् । मुवइ (भवि ) । मुबह देखो उव्वह = उद् + वह । मुम्बइ (हे २, १४७ ) 1 मुस सक [ मुप ] चोरी करना। मुसइ (हे ४, २३६; सार्धं १२ ) । भवि. मुसिएसइ ( घर्मंवि ४)। कर्म. मुसिजामो ( पि ४५५) । वकू. मुसंत (महा) । कवकृ. मुसिर्ज्जत, मुसिजमाण (मुपा ४५० २४० ) । संकृ. मुसिऊण ( स ६९३) । मुद्धि देखो मुद्धि (राम १२७ पराह १, १- पत्र उत्त ३६, १००; पण १पत्र ३५ ) | मुसण [मोपण] पोरी (साधे १० धर्मदि न ५६) । मुसल पुंन [ मुसल] १ मूसल या मूसर, एक प्रकार की मोटी लकड़ी जिससे चावल आदि अन्न कूटे जाते हैं (प; उवा षड् ; हे १, ११३) । २ मानविशेष (सम १८) घर ["घर] बलदेव (कुमा) उह पुं [युध] बलदेव (पास) 1 ० मुसल व [] मांसल, पुष्ट ( षड् ) । मुसल [ मुसलन] बलदेव (१,११०० सरण) 1 मुसली देखो मोसली (घोषणा १६१) । मुसहन [4] मन को धाकुलता (दे ६, १३४) । मुसुमूरिअवि [भग्न] भाँगा हुग्रा (पात्र) कुमा; सण) । मुह देखो मुज्झः 'इय मा मुहसु मरणेणं' ( जीवा १० ) । संकृ. मुहिअ (पिंग ) । कवकृ मुहांत से ११ १००) 1. मुदन [मुख] १ मुँह, मदन (पाम हे २, १३४ कुमाः प्रासू १९ ) । २ अग्र भाग (सुख ४३ उपाय (उत्त २५ १६ सुख २५, १६) । ४ द्वार, दरवाजा । ५ प्रारम्भ । ६ नाटकादिका सन्धि-विशेष ७ नाक । श्रादि का शब्द - विशेष । ६ प्रधान, मुख्य १० शब्द, श्रावाज । ११ नाटक १२ वेद-शास्त्र (प्रा हे १, १८७) आद्य, प्रथम । । १२ प्रवेश (निष्ठ ११)१४. मुसा प. श्री [सुषा] मिच्या मनूत फूड, असत्य भाषण ( उत्रा; षड् ; हे १, १३६; कस) 'प्रयाता (११, ३, ८ उव) बाद देखो चाय (सूत्र १, ३, ४, ८) वादिवि [वादिन] झूठ बोलनेवाला ( परह १, २ आचा २, ४, १, पाइअसहमणको ८)वाय [बाद] झूठ बोलना सत्य भाषण (सम १० भगः कस) 1 मुसावि वि [मोषित ] चुरवाया हुम्रा, चोरी कराया हुआ (प्रो २६० टी) । मुसिय वि [ मुषित] चुराया हुआ (सुपा २२० ) । - मुसुंढि पुंस्त्री [दे] १ प्रहरण-विशेष, शस्त्रविशेष ( श्रौप ) । २ वनस्पति- विशेष (उत्त ३६, १००, सुख ३६, १००) मुसुमूर तक [ भञ्ज] भांगना, तोड़ना । मुसुमुरइ (हे ४, १०६ ) । हेकृ. 'तेसि च केसमवि मुसुमु ? सुम् ] रिउमसमत्यो' ( सम्मत्त १२३ ) | मुसुसूरण [अन] सोड़ना, खएडन न ( सम्मत १५७ ) 1 मुसुमूराविअ वि [भञ्जित ] मँगाया हुआ ( सम्मत्त ३० ) । ЄEX ८) १२७) कुल [फुल] १ बल का फूल । २ चित्रा नक्षत्र का संस्थान ( सुज १०, डन ["भाण्ड] मुखाभरण (प) मंगलिय, मंगलीअ वि [माङ्गलिक ] मुँह से पर-प्रशंसा करनेवाला, खुशा मदी (कप्प श्रपः सून १,७, २५ ) | कडा, कडिया [मर्कटा, टिका] गला पकड़ कर मुँह को मोड़ना, मुखवक्रीकरण (सुर १२, ६७ गाया १, ८पत्र १४४)[व] हाला (शनि) वह ["पट] मुँह के आगे रखने का वस्त्र (से २, २२, १३, ५) । - "वडन ["पवन] दे १३६) वरण [ वर्ण] प्रशंसा, खुशामद (निच ११) वास [वास] भोजन के श्रनन्तर खाया जाता पान, चूर्णं श्रादि मुँह को सुगन्धी बनानेवाला पदार्थ (उवा ४२१ उर ८० ५)श्री [वीणि] For Personal & Private Use Only मुँह से विकत शब्द करना, मुँह से वाद्य का शब्द करना ( निचू ५) । मुहड देखो मुहल सय न [य] एक नगर ( ती १५ ) । मुहत्यडी श्री [दे] मुँह से गिरना (३६, १३६) । मुहर देखो मुहर (सुपा २२८) । मुहरिय वि[मुखरित] वाचाल बना हुआ श्रावाज करता (सुर ३, ५४) मुहरोमराइ ओ [] अ. भी (२६१३६ (दे षड् ; १७३) । मुलन [हे] हे २६,१३४) मुद्दल वि] [मुखर ] १ वाचाट, बकवादी (गा ५७८ सुर ३, १८६ सुपा ४ ) । २ पुं. काक, कौमा । ३ शंख ( हैं १, २५४ प्रात्र) । "रव[र] मुलामुद्दा प. श्री [सुधा] व्यर्थ, निरर्थक (पाम; सुर ३ १ धर्मसं ११३२ श्रा २८ प्रासू (E); मुहाइ हारिति अप्पा' (संबोध ४६) । 'जीवि वि ["जीविन] भिक्षा पर निर्वाह करनेवाला (उत्त २५, २८) बड़हल का गाछ (सुज १०, ८) तंग, तय न [नन्तक] मुख-त्रिका (भा १२२) तूरयन ["सूर्य] मुह से बजाया जाता वाद्य (भग) धोवणिया स्त्री [धावनिका] मुँह धोने की सामग्री, दतवन मादिषी सिन्ह (उप ६४टी) पती श्री [पत्री] मुख-का (उवा घोष ६६९) पुलिया मुद्दिजन [दे] मुक्त, बिना मूल्य मुफ्त द्र में पोसिया, पोती ["पोलिका] - करना (दे ६, १३४) । त्रिका, बोलते समय मुंह के धागे रखने का मुद्दआ श्री [दे. मुल्यका]] ऊपर देखो (दे ६, वस्त्र-खण्ड (संबोध ५३ विपा १, १ पव १३४; कुमा; पान ); 'ते सम्देवि हु कुमरस्स Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो मुहु-मे तस्स मुहिवाइ सेवगा जाया' (सिरि ४५७); मूण न [मौन] चुप्पी (स ४७७; पएह २, मूलग । न [मूलक] १ कन्द-विशेष, मूली, 'जिणसासणंपि कहमवि लद्ध हारेसि मुहियाए' । ४-पत्र १३१) मलय मरई (परण १जी १३)। २ (सुपा १२४); 'मुह (? हि) याइ गिरह लक्खं | म्यग पुंदे. मयक] मेवाड़ देश में प्रसिद्ध शाक-विशेष (पव १५४: कुमा) (कुप्र २३७) एक प्रकार का तृण (पराह २, ३-पत्र मुलगत्तिआ स्त्री [मूलगतिका] मूले-मूली मुहु । [मुहुस् ] बार बार (प्रासू २६; १२३)। की पतली फाँक (दस ५, २, २३)। मुहूं । हे ४, ४४४; पि १८१) मूलवेलि स्त्री [दे. मूलवेलि] घर के छप्पर मूर सक [ भञ् ] भाँगना, तोड़ना। मूरइ मुहुत्त । न [मुहूर्त दो घड़ी का काल, का आधार-भूत-स्तम्भ-विशेष (पाचा २, २, (हे ४, १०६) । भूका. मूरीम (कुमा) - मुहुत्ताग अड़तालीस मिनिट का समय (ठा ३, १ टी पव १३३)।२. ४; हे २, ३०; प्रौप; भग; कप्प; प्रासू मूरग वि [भञ्जक] भाँगनेवाला, चूरनेवाला मूलिगा स्त्री [मलिका] प्रोषधि विशेष (उप १०५ इक; स्वप्न ६५ प्राचा; मोघ ५२१)। (पएह १, ४–पत्र ७२) । मुहुमुह देखो महुमुह (पात्र) मूल न [मूल] १ जड़ (ठा ; गउड; कुमा; मूलिय न [मौलिक] मूलधन, पुंजी (उत्त ७, मुहुल देखो मुहल = मुखर (पास)।" गा २३२)। २ निबन्धन, कारण (पएह १, | १९, २१)। मुहुल्ल देखो मुह = मुख (हे २, १६४; षड् ; 3-पत्र ४२) । ३ आदि, प्रारम्भ (पएह मूलिल्ल वि [मूल, मौलिक] प्रधान, मुख्यः भवि) २, ४) । ४ प्राद्य कारण (प्राचानि १, २, 'मलिल्लवाहणे (सिरि ४२३)। मूअ देखो मुक्क = मूक (हे २, ६६; पाचा; १--गाथा १७३; १७४)। ५ समीप, पास, | मूलिल्ल वि [ मूलवत् ] मूलधनवाला, पुंजीगउड; विपा १,१)। निकट (ोघ ३८४; सुर १०, ६)।६ नक्षत्र- वाला; 'अत्थि य देवदत्ताए गाढाणुरत्तो मूअ देखो मुअ = मृत; 'लजाइ कह ण मूत्रो विशेष (सुर १०, २२३)। ७ व्रतों का पुनः मूलिल्लो मित्तसेणो अयलनामा सत्यवाहपुत्तो' सेवंतो गामवाहलिय' (वजा ५४)। स्थापन (औप; पंचा १६, २१)। ८ पिप्पली- (महा) । मअल / वि [दे. मक] मूक, वाक्-शक्ति मूल (प्राचानि १, २, १)। ६ वशीकरण | मूली स्त्री [मूली] ओषधि-विशेष, वशीकरण मूअल्ल से हीन (दे ६; १३७ सुर ११, मादि के लिए किया जाता प्रोषधि-प्रयोग, आदि के कार्य में लगती अोषधि (महा) १५४)। 'अमंतमूलं वसीकरण' (प्रासू १४)। १० मूस देखो मुस= मुष । मूसइ (संक्षि ३६)। मूअल्लइअ) वि [दे. मूकायित] मूक बना प्राद्य, प्रथम, पहला । ११ मुख्य (संबोध ३; मूसग । पुं[मूषक, मूषिक] मूसा, चूहा मअल्लिअ । हुमा (से ५, ४१, गउड; प्रावमः सुपा ३६४)। १२ मूलधन, पुंजी | मूसय ) (उवा सुर १,१८ हे १,८८ पि ५६५)। (उत्त ७, १४, १५)। १३ चरण, पैर । १४ । षड्; कुमा)। मइंगलिया। देखो मुइंगलिया (उप १३४ सूरण, कन्द-विशेष, ओल । १५ टीका प्रादि मूसरि वि [दे] भग्न, भांगा हुआ (दें ६, मूइंगा टी प्रोघ ५५८)। से व्याख्येय ग्रन्थ (संक्षि २१) । १६ प्रायश्चित- १३७)। मूइल्लअवि मृत] मरा हुआ विशेष (विसे १२४६) । १७ ऍन. कन्द- मूसल वि [दे] उपचित (दे ६, १३७)। विशेष, मूली (अनु ६; श्रा २०)। छेज | मूसल देखो मुसल = मुसल (हे १, ११३; ‘एरिह वारेइ जणो तइया वि ["छेद्य मूल नामक प्रायश्चित्त से नाश- कुमा)। मूडल्लो , कहिं व गरो। योग्य (विसे १२४६). दत्ता स्त्री [°दत्ता] | मूसा देखो मुसा (हे १, १३६) ।। जाहे विसं व जामं कृष्ण-पुत्र शाम्ब की एक पत्नी (अंत १५)। मूसा स्त्री [मूषा] मूस, धातु गालने—गलाने का सवंगपहोलिरं पेम्म' °देव पुं[देव] व्यक्ति-वाचक नाम; (महा; - पात्र (कप्प; आरा १००; सुर १३, १८०) । (गा ६६६ अ) सुपा ५२६) । "देवी स्त्री [°देवी] लिपि- मूसा स्त्री [दे] लघु द्वार, छोटा दरवाजा (दे मूड [दे] अन्न का एक दीर्घ परिमारण; विशेष (विसे ४६४ टी) । नायग j | ६, १३७)।मढ, 'इगमूडलक्खसमहियमवि धनं अत्थि [नायक मन्दिर की अनेक प्रतिमाओं में मूलाअ न [दे] ऊपर देखो (दे ६, १३७)। तायगिहे' (सुपा ४२७); 'तो तेहि ताडिनो मुख्य प्रतिमा (संबोध ३) । पाडि वि मूसिय देखो मूसय (प्राचा) । रि पु सो गाढं करणमूढउन्ध लउडेहि' (धर्मवि [°उत्पादिन] मूल को उखाड़नेवाला (संक्षि | [रि] मार्जार, बिल्ला (प्राचा)। १४०)। २१) । °बिंब न [बिन्ब] मुख्य प्रतिमा | मे म [मे] १ मेरा । २ मुझसे (स्वप्न १५; मूढ वि [मूढ] मूर्ख, मुग्ध (प्राप्र; कसः पउम (संबोध ३) राय [राज] गुजरात | ठा १) १, २८ महा; प्रासू २६) नइय न का चौलुक्य-वंशीय एक प्रसिद्ध राजा (कुप्र | मेअ पु [मेद] १ अनायं देश-विशेष (इक)। [नयिक] श्रुत-विशेष, शास्त्र-विशेष ४)। बंत वि [वत् ] मूलवाला (पीप; २ एक अनार्य मनुष्य-जाति (पण्ह १, १(प्रावम) वसूइया स्त्री ["विसूचिका णाया १, १)। सिरि स्त्री [°श्री] शाम्ब- पत्र १४)। ३ पुस्त्री. चाण्डाल (सम्मत्त रोग-विशेष (सुपा १३)कुमार की एक पत्नी (अंत १५)। १७२) । स्त्री. मेई (सम्मत्त १७२)। मूयल्लिअ" For Personal & Private Use Only Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेअ-मेलाइयव्य पाइअसहमहण्णवो ६६७ मेअ वि [मय १ जानने योग्य, प्रमेय, पदार्थ, | ['विषाणा] वनस्पति-विशेष, मेढाशिगी मेणआ। स्त्री [मेनका] १ हिमालय की पत्नी वस्तु (उत्त १८; २३)। २ नापने योग्य | (ठा ४, १-पत्र १८५) । देखो मिंद ।। मेणका २ स्वर्ग की एक वेश्या (अभि ४२% (षड् ) न्न वि ["ज्ञ] पदार्थ-ज्ञाता (उत्त | मेखला देखो मेहला (राज)। नाट-विक्र ४७; पिंग) १८, २३, सुख १८, २३)। मेज न [मेय] मान, तौल, बाट, बटखरा, | मेत्त न [मात्र] १ साकल्यः संपुर्णता। २ मेअ पुन [मेदस ] शरीर-स्थित धातु-विशेष, अवधारण, 'भोप्रणमत्त' (हे १, ८१)। जिससे मापा जाय वह (अणु १५४)। चर्बी (तंदु ३८ णाया १, १२-पत्र १७३; मेत्तल [दे] देखो मित्तल (सुर १२, १५२) मेघ देखो मेह (कुमा; सुपा २०१) गउड)1'मालिणी स्त्री [°मालिनी] नन्दन वन के मेत्ती स्त्री [मैत्री] मित्रता, दोस्ती (से १, मेअज न [दे] धान्य, अन्न (दे ६,.१३८) शिखर पर रहनेवाली एक दिक्कुमारी देवी गा २७२, स ७१६; उव)मेअज पुं[मेदार्य] मेदार्य गोत्र में उत्पन्न (ठा ८-पत्र ४३७), 'बई स्त्री [वती] | मेधुणिया देखो मेहुणिआ (निचू १)। (सूत्र २, ७, ५)। एक दिक्कुमारी देवी (ठा ८-पत्र ४३७)। मेर (अप) वि [मदीय मेरा (प्राकृ १२०० मेअज्ज पुं [मेतार्य] १ भगवान् महावीर का | वाहण पुं [वाहन] एक विद्याधर राज- | भवि)। दसवाँ गणधर (सम १९)। २ एक जैन कुमार (पउम ५, ६५)। मेरग पुं [मेरक, मैरेयक १ तृतीय प्रतिमहर्षि (उवः सुपा ४०६; विवे ४३) मेघंकरा स्त्री [मेघङ्करा] एक दिक्कुमारी देवी वासुदेव राजा (पउम ५, १५६) । २ पुंन. मेअय वि मेचक काला, कृष्ण-वर्ण (गउड (ठा८-पत्र ४३७)। मद्य-विशेष (उवा; विपा १, २-पत्र २७) । मेच्छ देखो मिच्छ = म्लेच्छ (मोघ २४; | ३ वनस्पति का त्वचा-रहित टुकड़ा; 'उच्छुमेअर वि [दे] असहन, असहिष्णु (दे ६, प्रौप; उप ७२८ टीः मुद्रा २६७)। मेरंग' (प्राचा २, १, ८, १०) iv १३८) । मेज देखो मेअ = मेय (षड् णाय १,८- | मेरा स्त्री [दे. मिरा] मर्यादा (दे६, ११३; मेअल पुं[मेकल] पर्वत-विशेष । कन्ना स्त्री पत्र १३२; श्रा १८) पामा कुप्र ३३५, अज्झ ६७ सण; हे १, [ कन्या] नर्मदा नदी (पान)। मेझ देखो मिज्म (महा ४, ११, ४०, ८७ कुमाः प्रौप)। २४) मेरा स्त्री [मेरा] १ तृण-विशेष, मुज की मेअवाडय पुन [मेदपाटक] एक भारतीय मेट देखो मिट । प्रयो. मेटाव (पिंग)। सलाई (पएह २, ३--पत्र १२३) । २ दशवें देश, मेवाड़ा ‘णाव दाहविनं सप्रलंपि मेन चक्रवर्ती की माता (सम १५२)। मेडंभ पुं[दे] मृग-तन्तु (दे ६, १३६)। वाड्यं हम्मीरवीरेहि (हम्मीर २७)। मेइणि स्त्री [मेदिनी] १ पृथिवी, धरती मेडय पुं [दे] मजला, तला, गुजराती में मेरु पु[मेरु] १ पर्वत-विशेष (उबः प्रासू मेइणी (सुपा ३२, कुमा प्रासू ५२)। २ 'मेडो'; 'तस्स य सयणठाणं संचारिमकट्टमेड १५४)। २ छन्द-विशेष (पिंग)। चाण्डालिन (सुपा १६ सम्मत्त १७२) नाह यस्सुवरि' (सुपा ३५१) । मेरु पुमेरु पर्वत, कोई भी पहाड़ (पाचा पुं [ नाथ] राजा (उप पृ १८६; सुपा मेड्ढ देखो मेंढ (उप पृ २२४) । । २,१०, २) १०८) । पइ पु [ पति] १ राजा । २ | मेल सक [ मेलय् ] १ मिलाना। २ इकट्ठा मेढ पुं[दे] वणिक्-सहाय, वणिक् को मदद | चाण्डाल; 'जो विबुहपणयचरणोवि गोत्तभेई | करना । मेलइ, मेलंति (भवि पि ४८६)। करनेवाला (दे ६, १३८) न, मेइणिपईविन हु मायंगो' (सुपा ३२)Mमेढक संकृ. मेलित्ता, मेलिय (पि ४८६; महा) ।। दे] काष्ठ-विशेष, काष्ठ का छोटा "सामि पु [स्वामिन् ] राजा (उप -पत्र मेल पु[मेल] मेल मिलाप, संगम, संयोग, ७२८ टी) मेढि पु[मेथि] पशुबन्धन-काष्ठ; खले के बीच मिलन (सूअनि १५; दे ६, ५२, सार्ध १०६), मेइणीसर पु [ मेदनीश्वर ] राजा (उप का काष्ठ, जहाँ पशु को बाँध कर धान्य-मर्दन 'दिट्ठो पियमेलगो मए सुविणो' (कुप्र २१०)।७२८ टी) किया जाता है (हे १, २१५; गच्छ १,८० मेलण न [मेलन] ऊपर देखो (प्रासू ३५) । मेंठ पुं [दे] हस्तिपक, महावत (दे ६, णाया १, १-पत्र ११)। २ प्राधार, | मेलय पु[मेलक] १ संबन्ध, संयोग (कुमा)। १३८) । देखो मिठ। स्तम्भः ‘सयस्स वि य णं कुडुबस्स मेढी | २ मेला, जन-समूह का एकत्रित होना (दे ७, मेंठी स्त्री [दे] मेंढी, मेषी गड़रिया (दे६,१३८) पमाणं आहारे पालंबणं चक्खू मेढीभूए' | त्रि८६) . मेंढ पुंस्त्री [मेढ़] मेंढा, मेष, भेड़, गाड़र (ठा (उवा), 'सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो गच्छस्स मेलव सक [ मेलय् , मिश्रय ] मिलाना, ४२) स्त्री.'ढी (दे ६, १३८)। "मुह पुं मेढिभूप्रो में (था १; कुप्र २६६; संबोध मिश्रण करना। मेलवइ (हे ४, २८)। भवि. [मुख १ एक अन्तर्वीप। २ अन्तर्वीप- २४), भूअ वि [भूत] १ प्राधार-सदृश, | मेलवेहिसि (पि ५२२) । संकृ. मेलवि (अप) विशेष में रहनेवाली मनुष्य-जाति (ठा ४, प्राधार-भूत (भग)। २ नाभि-भूत, मध्म में | (हे ४, ४२६) २-पत्र २२६; इक)। विसाणा स्त्री । स्थित (कुमा) मेलाइयव्य नीचे देखो। For Personal & Private Use Only Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ मेला एक [मिळू ] एकत्रित होना 'पटि एगो मेला (भग) क मेोभा २२ टी) मेला देखो मे मेला पुन [मेल ] १ मिलाप, संगम, मिलन ( सुपा ४६९ ); निच्चं चिय मेलावं सुमग्गनिरयारण प्रइदुलह (सट्टि १४३) । मेला देखो मेल (आत्महि १६) M मेलावड (प) देखो मेलय; 'मणवल्लहमेला वडउ पुनिहि लब्भइ एहु' (सिरि ७३) । मेला देखो मेलाग (सुपा ३६१ भवि मेला [मंखित] मिलाया हुआ एकट्ठा किया हुआ ( से १० २८) मेलिअ [ मिलित] मिला हुआ था १ टी -पत्र ११६; महा; उव); ' एवं सुलीलवंतो असीलवंतेहि मेलिश्री संतो । पावेइ गुणपरिहारणी मेलरणदोसाणु संगे ( प्रासू ३५ ) 1मेली स्त्री [दे] संहति, जन-समूह का एकत्रित होना, मेला (दे ६, १३८ ) मेलीण देखो मिलीण (पउम २, ६) 'श्रएणोएकतरनियमेतदिरा गा ६६६; ७०२) । 1 मे देखो मि मेल्ल (४१) मेल्लेमि (११) | मेहंत (महा) संह. dru, fag () (v, K पि १०६). मेडियम् (५५)मेल्लन [मोचन ] छोड़ना, परित्याग (प्रासू १०२) । मेहंकरा देखो मेघंकरा (इक) । मेहरवीर न [हे] जल, पानी दे ६, १३१) मेहाय [मोचित] छुड़वाया छुपा (सुर मेहण न [मेहन] १ भरन, टपकना २ ८६८ महा) मेदेखीए (३६) मेवाड ) देखो मेअवाडय ( ती १५; मोह मेवाढ ८) । मेस [ मेष ] १ मेंडा, भेड़, गाड़र (सुर, ५३) २ राशि- विशेष (विचार १०६ सुर ३, ५३) । प्रस, पूष, महुमेह (धाचा १.६. १, २ ) । ३ पुरुष लिंग (राज) 1 मेहणि वि [मेहनिन् ] झरनेवाला ( श्राचा) 1मेहर पुं [हे] ग्राम-प्रवर गाँव का मुखिया ६, १२ र १५, ११० ) । मेहरि पुंस्त्री [दे] काष्ठ-कीट, घुन (जी १५) । मेहरिया श्री [दे] गानेवाली श्री (सुषा मेहरी मेहरी १३९४) । मेहलय . [मेखलक] देश-विशेष (पम पुंब. १८६६) पुं । मे [मे] १. अपर (धीर) २ कालागुरु, सुगंधी द्रव्य-विशेष (से, ४९) ३ भगवान् सुमतिनाथ का पिता (सम १५०) ४ एक जैन महर्षि अंत १०) । पाइअसद्दमणयो जाणिक का एक पुत्र (खाया १, १ - पत्र ३७ ) । ६ एक देव-विमान ( देवेन्द्र १३२) छन्द-विशेष (पिन) एक (सुपा ६१७) १ एक जैनमुनि (कप्प) । १० देव-विशेष (राज) । ११ मुस्तक, श्रोषधि-विशेष, मोथा । १२ एक राक्षस । १३ राग-विशेष (प्रात्र; हे १, १८७ ) । १४ एक विद्याधर नगर ( क ) कुमार पु [" कुमार ] राजा श्रेणिक का एक पुत्र ( गाया १, १, उव)। उभाण' [ ध्यान ] राक्षसवंश का एक राजा, एक लंकापति (पउम ५, २६६) । णाअ पुं ["नाद] रावण का एक पुत्र ( से १३, ६) । पुर न [र] तापर्यंत के दक्षिण श्रेणी का एक नगर (उम ६, २) मुह पुं [मुख] १ देवविशेष (राज) २ एक अन्त द्वीप-विशेष का निवासी मनुष्य (ठा ४, २पत्र २२६ इक ) + रव न [व] विन्ध्यस्थली का एक जैन तीर्थं (पउम ७७, ६१) । वाण [ वाहन] १ राक्षस वंश का यादि पुरुष, जो लंकाका राजा था (पउम ५, २५१ ) । २ रावण का एक पुत्र (पउम ८,६४) । सीह [सिंह] विद्याधर वंश का एक राजा (उम २४३)। देखो मेघ मेद [ मेह] १ सेचन (सूध १, ४,२, १२)। २ रोग-विशेष, प्रमेह (श्रा २० सुख १. १५) । For Personal & Private Use Only मेलाय - मो मेहला श्री [मेखला ] काम्बी, करनी ( पात्र परह १, ४ श्रौपः गा ४६३) । मेहलिजिया श्री [मेखलिया] एक जैन मुनि शाखा (प) | मेहा स्त्री [मेवा] एक इंद्राणी, चमरेन्द्र की एक अग्र महिषी (ठा ५, १ -पत्र ३०२ इक) मेहा स्त्री [मेधा ] बुद्धि, मनीषा, प्रज्ञा ( सम १२५ से १, १६ हास्य १२५ ) अरवि [क] १ बुद्धि-वर्धक । २ पुं. छन्द-विशेष (fre) मेहा स्त्री [मेधा] श्रवग्रह- ज्ञान (दि १७४) मेहावई देखो मेघ-वई (इक) । मेहाव न [मेघावर्ण] एक विद्यार नगर ( इक ) । - महावि वि [मेधाविन]] युद्धिमान् प्रात (ठा ५, ३ गाया १, १; श्राचा कप्प श्रौपः उप १४२ टी; कुप्र १४०; धर्मवि ६८) । स्त्री. णी (नाट - शकु ११६) मेहि देखो मेढि (से ६, ४२) । मेहिवि [मेहिन] प्रणवण करनेवाला, 'महुमेहिणं' (प्राचा) 1 मेहिय न [मेधिक ] एक जैन मुनि कुल (कम) 1 मेहिल पुं [मेधिल ] भगवान् पार्श्वनाथ के वंश का एक जैन मुनि (भग) मेहुण न [मैथुन] रति-क्रिया, संभोग } मेहणय (सम १० रा १ ४ उवा श्रौप प्रासू १७६; महा) । मेहूणय 1 [दे] फूफा का लड़का दे १४८) - मेहुणिअ [दे] मामा का लड़का (४)मेहुनि श्री [दे] १ बाली, भाव की बहिन (६, १४०)। २ मामा की लड़की (दे ६, १४८; बृह ४) मेहुन्न देशो मेहुण "हिसालियोरिल्के मे परियनिसिभ' (घोष ७८७) - मैरेअ न [मैरेय ] मद्य-विशेष (माल १७७) । मोघ. इन भ्रम का सूचक ग्रव्यय--१ अवधारण, निश्चय ( सूनि ८६ श्रावक १२५) २ पाद-ति (पउम १०२, ०१ घर्मंसं ६४५; श्रावक ९०) 1 Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोअ-मोण पाइअसद्दमहण्णवो se मोअ सक [मुच् ] छोड़ना, त्यागना। मोइल पुं [दे] मत्स्य-विशेष (नाट)। मोघ देखो मोह = मोघ; 'मोधमणोरहा मोमइ (प्राकृ ७०, ११९)। वक. मोअंत मोंड देखो मुड = मुण्ड (हे १, ११६ (पएह १, ३–पत्र ५५)। (से ८, ६१)। २०२) मोच देखो मोअ = मोचय । संकृ. मोचिअ मोअ सक [ मोचय् ] छुड़वाना, त्याग मोक ' [मोक] सर्प-कंचुक, साँप का केंचुल (अभि ४७)। कराना । मोअनदि (शौ) (नाट-मालवि मोकल्ल सक [दे] भेजना; गुजराती में | मोच न [दे] अर्घजंधी, एक प्रकार का जूता ४१) । कवकृ. मोइज्जत (गा ६७२)। _ 'मोकलवु", मराठी में 'मोकलणें । मोकल्लइ (दै ६, १३६) मोअ पुं [मोद] हर्ष, खुशी (रयण १५ | (भवि) । मोच देखो मोअ = (दे) (सूम १, ४, २, महाः भवि)। मोक्क देखो मुक्क - मुक्त (षड् )। १२) । मोअ वि [दे] १ अधिगत । २ पुं. चिभंट मोकणिआ। स्त्री [दे] कृष्ण कणिका, कमल मोचग देखो मोअग = मोचक (वसु)। प्रादि का बीजकोश (दे ६, १४८) । ३ मूत्र, मोकणी का काला मध्य भाग (दे ६, | मोट्राय प्रक [ रम्] क्रीड़ा करना । मोट्टायद पेशाब (सूत्र १, ४, २, १२; पिड ४६८ १४०)। | (हे ४, १६८) कसः पभा १५), पडिमा स्त्री [ प्रतिमा] | पयर मासु मोट्टाइअ न [रत] रति-क्रीड़ा, रत, मैथुन प्रस्रवण-विषयक नियम-विशेष (ठा ४, २- तुम मोक्कलइ जेण सिग्घंपि' (सुपा ६१२) (कुमा)। पत्र ६४ प्रौप; वव ) | मोक्कल देखो मुक्कल (सुपा ५८०; हे ४ | मोट्टाइअ न [मोट्टायित] चेष्टा-विशेष, प्रियमोअइ पुं मोचकि] वृक्ष-विशेष; 'सल्लइ कथा आदि में भावना से उत्पन्न चेष्टा (कुमा)।। मोयइमालुयबउलपलासे करंजे य' (पएण मोक्कलिय वि [दे] १ प्रेषित, भेजा हुआ १-पत्र ३१) मोट्टिम न [दे] बलात्कार (पि २३७)। (सुपा ५२१) । २ विसृष्ट (सुपा १४०)। मोअग वि [मोचक] मुक्त करनेवाला (सम | देखो मुट्टिम। मोक्ख देखो मुक्ख = मोक्ष (प्रौप; कुमा; मोड सक [मोटय] १ मोड़ना, टेढ़ा १. पडिः सुपा २३४)मोअग पुं [मोदक] लड्डु, मिटान्न-विशेष हे २, १७६, उप २६४ टी; भग; वसु)- करना । २ भाँगना। मोडसि (सुर ७, ६)। (अंत ६; सुपा ४०६) । देखो मोदअ । मोक्ख देखो मुक्ख = मूर्ख (उप ५५५) ।। वकृ. मोडत, मोडित, मोडयंत (भवि; मोअण न [मोचन] नीचे देखो (स ५७५; | मोक्ख न [दे] वनस्पति-विशेष (सूम २, महाः स २५७)। कवकृ. मोडिजमाण गउड)। २,७)। (उप पृ ३४) । संकृ. मोडेउं (सुपा १३८) मोअणा स्त्री [मोचना] १ परित्याग (श्रावक | मोक्खण न [ मोक्षण ] मुक्ति, छुटकारा मोड ' [दे] जूट, लट (दे ६, ११७)। ११५)। २ मुक्ति, छुटकारा (सूत्र १, १४, (स ४१८, सुर २, १७)। मोडग वि [मोटक] मोड़नेवाला (पएह १, १८)। ३ छुड़वाना, मुक्त कराना (उप मोग्गड पुं[दे] व्यन्तर-विशेष (सुपा ४०८)। ४-पत्र ७२)। ५१०)। देखो मुग्गड ।। मोडण न [मोटन] मोड़न, मोड़ना (वज्जा मोअय देखो मोअग (भग; पउम ११५, ६ | मोग्गर पुं[दे] मुकुल, कलिका, बौर (दे ६, ३८) सुपा ४०६; नाट-विक २१)। १३६) मोडणा स्त्री मोटना] ऊपर देखो (परह १, मोआ स्त्री [मोचा] कदली वृक्ष, केला का मोग्गर पुं [मुद्गर] मृगरा, मोगरी। २ ३-पत्र ५३)। गाछ (राज)। कमरख का पेड़ (हे १, ११६, २, ७७)। मोडिअ वि [मोटित] १ भग्न, भाँगा हुमा मोआव सक [ मोचर ] छुड़वाना। मोप्रा- ३ पुष्पवृक्ष-विशेष, मोगरा का गाछ (पएण (गा ५४६; णाया १, ६-पत्र १५७) वेमि, मोमावेहि (नाट-शकु २५; मृच्छ | १-पत्र ३२) । ४ देखो मुग्गर । पाणि पएह १, ३-पत्र ५३)। २ आनंडित, ३१९)। भवि. मोप्रावइस्ससि (पि ५२८)। पुं["पाणि] एक जैन महर्षि (अंत १८)। मोड़ा हुआ (विपा १, ६-पत्र ६८स कर्म. मोयाविज्जइ (कुप्र २६१)। वकृ. मोग्गरिअ वि [दे] संकुचित, मुकुलित (दे ३३५) मोयावंत (सुपा १८६)। ६, १३६ टी)। मोढ पुं [मोढ] एक वणिक-कुल (कुप्र २०)। मोआवण न [मोचन] छुटकारा कराना मोग्गलायण ) न [मौद्गलायन, ल्या] मोढेरय न [मोढेरक] नगर-विशेष (दे ६, (सिरि ६१८ स ४७)। मोग्गल्लायण १ गोत्र-विशेष (इक ठा ७ १०२ ती ७)। मोआवि। वि [मोचित] छुड़वाया हुमा सुज्ज १०, १६)। २ पुंस्त्री. उस गोत्र में मोण न [मौन मुनिपन, वाणो का संयम, मोइअ (पि ५५२; नाट-मृच्छ ८६ उत्पन्न (ठा ७-पत्र ३९०)।' चुप्पी (ोप; सुपा २३७ महा)। 'चर वि सुर १०, ६; सुपा ४७७, महा: सुर २, मोग्गाह देखो मुग्गाह । मोग्गाहइ (?) [चर] मौन व्रतवाला, वाणी का संयम३६, ६,७८ सुपा २३२० भवि) (धात्वा १४६)। वाला, वाचंयम ( ५, १-पत्र २९६ For Personal & Private Use Only Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो मोणावणा-मौलि पएह २, १-पत्र १००) पय न [पद] मोरिय [मीय] १ एक क्षत्रिय-वंश। २ | मोह पुं[मोह) १ मूढता, प्रज्ञता, प्रज्ञान संयम, चारित्र (सूम १, १३, ६)। मौर्य वंश में उत्पन्न (पि १३४)। "पुत्त पुं| (माचाः कुमाः पराण १,१)। २ विपरीत मोणावणा स्त्री | दे] प्रथम प्रसूति के समय [पुत्र भगवान् महावीर का एक गणधर- ज्ञान (कुमा २, ५३)। ३ चित्त की व्याकुलता पिता की ओर से किया जाता उत्सव-पूर्वक प्रधान शिष्य (सम १६) (कुमा ५, ५)। ४ राग, प्रेम। ५ कामनिमन्त्रण (उप ७६८ टी) मोरी स्त्री [मोरी] १ मयूर पक्षी की मादा, क्रीड़ा; 'मोहाउरा मणुस्सा तह कामदुई सुहं मोणि वि[मौनिन् मौनवाला (उवः सुपा मोरनी (पि १६६; नाट-मृच्छ १८)। २ बिति' (प्रासू २८; पएह १, ४)। ६ मूर्खा, १४. संबोध २१)। विद्या-विशेष (सुपा ४०१)। बेहोशी (स्वप्न ३१, स ६६६)। ७ कर्म. मोला पुं[दे. भौलन] बाँधने के लिए गाड़ा विशेष, मोहनीय कर्म (कम्म ४, ६०६९)। मोत्त देखो मुत्त = मुक्त (धर्मसं ७५) । हुप्रा खूटा (उव) मोत्तव्य देखो मुच ।। ८ छन्द-विशेष (पिंग) मोलि देखो मउलि (कालः सम १९) मोहण न [मोहन] १ मुग्ध करना। २ मन्त्र मोत्ता देखो मुत्ता (से ७, २५; संक्षि ४; आदि से वश करना (सुपा ५६६)। ३ मूछा, मोल्ल देखो मुल्ल (हे १, १२४उव; उप पु प्राकृ ६ षड् ८०) १०४, रणाया १,१-पत्र ६० भग)। बेहोशी (निसा ९)। ४ वशीकरण, मुग्ध मोत्ति देखो मुत्ति = मुक्ति (परह १, ५-- करनेवाला मन्त्रादि-कर्म (सुपा ५६९)। ५ पत्र६४) मोस पुं [मोष] १ चोरी। २ चोरी का माल; काम का एक बारण । ६ प्रेम, अनुराग (कप्पू)। मोत्तिअ देखो मुत्तिअ (गा ३१०; स्वप्न ६३; 'राया जंपइ मोसं एसि अप्पसु' (सुप्प २२१; ७ मैथुन, रति-क्रिया (स ७६० पाया १,८ औपः सुपा २३१; महा, गउड) दाम न महा) जीव ३)। ८ वि. व्याकुल बनानेवाला [दाम छन्द-विशेष (पिंग)। मोस पुंन [मृपा] झूठ, असत्य भाषण; (स ५५७, ७४४)। मोहक, मुग्ध करनेमोत्तुआण, 'चउविहे मोसे पण्णत्ते', 'दसवि मोसे वालाः ‘मोहणं पसूर्णपि' (धर्मवि ६५; सुर मोत्तं पएणत्ते' (ठा ४, १: १०; औप, कप्प)। देखो मुच = मुच् । ३, २६; कपूर २५)। मोत्तूण मोसण वि [मोपण] चोरी करनेवाला (कुप्र मोहणिज वि [मोहनीय] १ मोह-जनक । ४७)। २ न. कर्म-विशेष, मोह का कारण-भूत कर्म मोत्थ देखो मुत्य (जी ६; संक्षि ४; पि १२५; | मोसलि ) स्त्री [दे. मुशली, मौशली] (सम ६६, भगः अंत; औप) । प्रामा) मोसली । वस्त्रादि निरीक्षण का एक दोष, मोहणी स्त्री [मोहनी] एक महौषधि (ती ५)। मोदअ देखो मोअग = मोदक (स्वप्न ६०)। वस्त्र प्रादि की प्रतिलेखना करते समय मुसल २ न. छन्द-विशेष (पिंग)। मोहर न [मौखर्य] वाचाटता, बकवाद (पराह की तरह ऊँचे या नीचे भीत आदि का स्पर्श २, ५–पत्र १४८; पुप्फ १८०)। मोब्भ [दे] देखो मुब्भ (दे ८, ४) । करना, प्रतिलेखना का एक दोष; 'बजेयव्वा मोहर वि [मौखर] वाचाट, बकवादी (ठा मोर [द] श्वपच, चाण्डाल (दे ६, १४०)। य मोसली तइया' (उत्त २६,२६, २५, प्रोष १०-पत्र ५१६)। मोर पुं [मोर] १ पक्षि विशेष, मयूर (हे १, २६५, २६६) । मोहरिअ वि [मौखरिक] ऊपर देखो (ठा १७१; कुमा)। २ छन्द-विशेष (पिंग)। मोसा देखो मुसा (उवा, हे १, १३६) । °बंध पुं[बन्ध] एक प्रकार का बन्धन मोह सक[ मोहय ६-पत्र ३७१; प्रौपः सुपा ५२०)। १ भ्रम में डालना । (सुपा ३४५) सिहा स्त्री [शिखा] एक मोहरिअन [मौखर्य] वाचालता, बकवाद २ मुग्ध करना। मोहइ (भवि)। वकृ. महौषधि (ती ५) मोहंत, मोहेंत (पउम ४, ८६, ११, ६६)। (उवाः सुपा ५१४)। मोरउल्ला) प्र. मुधा, व्यर्थ (हे २, २१४० कृ. देखो मोहणिज्ज । मोहि वि [मोहिन] मुग्ध करनेवाला (भवि)। मोरकुल्ला कुमा; चउप्पन्न पत्र-७७, मोह देखो मऊह (हे १, १७१; कुमाः कुप्र मोहणी बी [मोहिनी] छन्द-विशेष (पिंग)। सुमतिजिन-चरित्र) मोहिय वि [मोहित] १ मुग्ध किया हुआ मोरंड पुं[दे] तिल आदि का मोदक, खाद्यमोह वि [मोघ १ निष्फल, निरर्थक (से १०, (पएह १, ४, द्र १४)। २ न. निधुवन, विशेष (राज)। ७०; गा ४८२), 'मोहाइ पत्थरणाए सो पुण मैथुन, रति-क्रीड़ा (णाया १६-पत्र मोरग वि [मायूरक] मयूर के पिच्छों से सोएइ अप्पाणं' (अज्झ १७५, प्रात्म १)। १६५)। निष्पन्न (पाचा २, २, ३, १८)। क्रिवि. 'मोहं को पयासो' (चइय ७५०)। मोहुत्तिय वि [मौहूर्तिक] ज्योतिष-शास्त्र का मोरत्तय [दे] श्वपच, चाण्डाल (दे ६, २ असत्य, मिथ्याः 'मिच्छा मोहं विहलं जानकार (कुप्र ५)। .१४०)। अलिभं असचं असब्भूमं (पाप) मौलिअ देखो मोरियः 'णिवेदेह दाव एंदकुल For Personal & Private Use Only Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्मि-य्येव्य पाइअसहमहण्णवो गगलिसस्त मौलिपकुलपडिट्ठावकस्स अज-म्मि अ. पाद-पूत्ति में प्रयुक्त किया जाता मिव देखो इव (प्राकृ २६) । चाणकस्स' (मुद्रा ३०६)। अव्यय (पिंग)। | म्हस देखो भंस = भ्रश् । म्हसइ (पाकु ७६) ।। इस सिरिपाइअसहमहण्णवम्मि मयाराइसहसंकलणो एगतीसइमो तरंगो समत्तो ।। य य तालु-स्थानीय व्यञ्जन वर्ण-विशेष, यण देखो जण = जन (सुर १, १२१)।- याण सक [ज्ञा] जानना। याइ, याणाइ, अन्तस्थ यकार (प्राप्र; प्रामा)।. यणद्दण (अप) देखो जणद्दणः 'तो वि ण याणेइ, याति, याणामो, यारिणमो (पि य प्र[च] १ हेतु-सूचक अव्यय (धर्मस देउ यणदणउ गोमरीहोइ मणस्सु' (पि १४ ५१०; उवः भग; धर्मवि १७ वै ६३ प्रासू ३८५)। २ देखो च = अ (ठा ३,१८ १०२) पउम ६, ८४, १५, २; 'श्रा १२, प्राचा; यण्ण देखो कण्ण- कणं (पउम ६६, २८) याण देखो जाण = यान (सम २)।. रंभा; कम्म २, ३३, ४, ६, १०, देवेन्द्र 'यत्तिअ वि [यात्रिक यात्रा करनेवाला, | "याल देखो काल (पउम ६, २४३)। ११, प्रासू २७)। भ्रमण करनेवाला; 'सगडसएहिं दिसायत्तिपहिं' याव (अप) देखो जाव = यावत् (कुमा)। य देखो ज (माचा)। (उवाः बृह १) याव? वि [यावदर्थ] यथेष्ट, जितने को 'य वि [°द] देनेवाला (प्रौपः राय; जीव ३)। यदावि प्र[यद्यपि अभ्युपगम-सूचक अव्यय, स्वीकार-द्योतक निपात (पंचा १४, ३६) अाबश्यकता हो उतना (दस ५, २, २)। यउणा देखो अँउणा (संक्षि ७)। यन्नोवइय देखो जण्याचईय (उप ६४८ "युत्त देखो जुत्त = युक्तः 'एयम् अयुत्तं जम्हा यंच सक [अञ्च ] १ गमन करना। २ टी)। (अज्झ १६७, रंभा)। पूजा करना। संकृ. यचिय (ठा ५, १ यम देखो जम = यमः 'दो अस्सा दो यमा' येव । (पै. मा) देखो एव (पि ६०; पत्र ३००)। (ठा २, ३-पत्र ७७)।. | येव्व । १५)। यंत वि [यत प्रयत्नशील, उद्योगीः 'म-यते' यर देखो कर = कर (गउड)। चिश (मा) , देखो चिट्ठ - स्था। चि(सूम २, २, ६३)। 'यल देखो तल = तल (उवा)। यचिश्त (पै) शदि (शाकारी भाषा) (प्राकृ यंद देखो चंद (सुपा २२६) । - या देखो जा = या; 'सुरनारगा य सम्मद्दिट्ठी । १०५)। चिश्तदि (पै) (प्राकृ १२६) 1यक्क देखो चक्क; 'दिसा-यई' (पउम ६,७१) जं यति सुरमणुएसु' (विसे ४३१, कुमा य्येव (शौ) देखो एव (हे ४, २८०)। यड देखो तड = तट (गउड) य्येव्ध देखो येव (पि ६५)। ॥ इन सिरिपाइअसहमहण्णवम्मि यबाराइसहसंक लणो बत्तीसइमो तरंगो समत्तो।। For Personal & Private Use Only Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ [२] मूर्त-स्थानीय व्यव-विशेष ( सिरि १६६; पिंग) 1 गण ['गण] छन्दः शास्त्र - प्रसिद्ध मध्य- लघु प्रक्षरवाले तीन स्वरों का समुदाय (पिंग) । र अ. पाद- पूरक अव्यय ( हे २, २१७; कुमा) । [दे] निश्रय-सूचक अव्यय ( दसनि १, १५२) । पाइअसमण्णवो [सुभग] कामदेव (कुमा)। सेणा स्त्री [°सेना ] किन्नरेन्द्र की एक श्रग्र-महिषी | ( इकठा ४, १ – पत्र २०४ ) | हर न [गृह] शयनगृह, सुरतमन्दिर (उप ६४८ टी, महा) । - रह [च] सूर्य, सूरज (गा २४ से १, १४] [३२] कप्यू इस्त्री [रति] १ काम-क्रीड़ा, सुरत, मैथुन ( से १, ३२: कुमा) । २ कामदेव की स्त्री (कुमा) । ३ प्रीति, प्रेम, अनुराग (कुमा सुपा ५११) । ४ कर्म विशेष (कम्म २, १० ) । ५ भगवान् पद्मप्रभ की मुख्य शिष्या (पव ८) । ६ पुं. भूतानन्द नामक इन्द्र का एक सेनापति (क)अर कर[र] | रहत देखो श्रम् - रगेड व [] भिलषित (३७, ३) - - ( ३२६) २. परगेडी श्री [दे] रति-तुम्हा (२०१३) । विशेष (पराह १ ५ ठा १०६ महा) । कीला श्री [कीडा]] काम-कोटा (महा) केलि [केलि] वही अर्थं ( काम २०१) । घर न [गृह] सुरत- मन्दिर, विलास - गृह ( प ३६६ ) | नाह, नाह ' [नाथ] कामदेव कुमार ६११) पहु [प्रभु ] वही अर्थं (कुमा) 'प्पभा स्त्री [प्रभा] किन्नर नामक इन्द्र की एक अग्र महिषी (इकठा ४, १-पत्र २०४ ) रइलक्ख न [दे] जघन, नितम्ब (दे ७, १३ षड् ) 1 रइलक्ख न [दे. रतिलक्ष ] रति-संयोग, मैथुन (दे ७, १३) 1 रइअ वि [रचित ] बनाया हुआ, निर्मित ( सुर ४, २४४ कुमाः श्रपः कप्प ) 1 खोलिय वि [दोलित ] कम्पित (गउड)। खोसिर व [दोलि] भूलनेवाला (गढड कुमाः पान ) । रंग [ रङ्ग् ] इधर-उधर चलना । वकृ. रंगंत (कम्पः पउम १०, ३१, परह १, ३ - पत्र ५५ ) । रइअ वि [ रचित ] महल आदि की पीठ रंग सक [ रङ्गय् ] रँगना । कर्म रंगिज्जइ भित्ति (१५४ ) - (संबोध १७) वह राम बरनपरं वरनय-रंगत-मंदिरं प्रतिय' (कुम्मा १८ ) । रंग वि [राङ्ग] रंगा हुआ, रंग कर बनाया हुआ ( दसनि २, १७) । रंग न [दे] रांग, राँगा, धातु- विशेष, सीसा (दे ७, १ से २, २९ ) । रइआव सक [रचय ] बनवाना । संकृ. रवि (ती ३)। र इल्लिय वि [ रजस्वल] रज से युक्त, रजवाला (पि ५६५ ) 1 रपाडिया देवो राय-वादिआ 'सामिय वाडियासमओ' (सिरि १०९ ) । रईसर [रतीधर] कामदेव, कन्द (बुवा) रक्ताणिया श्री [दे] रोग-विशेष, पामा खोल ग्रक [ दोलय् ] हिलना, चलना, कोयना ४८ वजा ६४ ) । - खुजली (सिरि ३०६ ) । रउद्द देखो रोद्द = रौद्र; 'रउद्दखुद्देहिं प्रखोहणिजो' (यति ४२; भवि) 1 रउरव वि [रौरव] भयंकर, घोर काल पु ['काल] माता के उदर में पसार किया जाता समय-विशेष मानिस परिय उकालोनीरियड (वि) - उस्सल वि [ रजस्वल] रजो युक्त, धूलि-युक्त (भग ७, ७ – पत्र ३०५) । र-रंजगा १ भूलना। २ खोल ( ४, For Personal & Private Use Only । पुं । रंग न । マ 'पिय ' [ "प्रिय ] १ कामदेव (सुपा ७५) । २ एक इन्द्र ३ विवरदेवों की एक जाति (राज) 'पिया श्री ["प्रिया] वानप्यन्तरों के इन्द्र विशेष की एक अग्र-महिषी (सामा २– पत्र २५२) । भवण न [भवन] कामक्रीडागृह (महामंत वि [म] १ राग-जनक । २ पु. कागदेव, कन्दर्प ( तंदु ४६) मंदिर न [" मन्दिर ] शयनगृह (पान) रमण पु [रमण] कामदेव (सुपा ४ २०९ : कप्पू ) । लंभ ' [ "लम्भ ] [१] सुरत की प्राप्ति २ कामदेव से ११८) "वह [पति ] कामदेव (कुमा; सुपा २२) श्री [वृद्धि] विद्या-विशेष (पउम ७, १४४) । सुंदरी स्त्री ["सुन्दरी] एक राज कन्या ( उप ७२८ टी) सुहव रंग पुं [रङ्ग] १ राग, प्रेम ( सिरि ५१५ ) । २ नाट्यशाला, प्रेक्षा भूमि (पान सुपा १, कुमार मण्डप, जय-भूमि (भ ७८३) । ४ संग्राम, लड़ाई (पिंग)। ५ रक्त साली से २२९६ (भवि ) । ७ रँगना, रंजन, रंग चढाना (गउड) अवि [द] कुतूहल- जनक (से ६, ४२ ) वलि स्त्री ["आवलि ] रंगोली ( चउप्पन्न० पत्र ३२६ मा ७१४) । - [न] १ राग, रंगना २५. जीव, प्रात्मा (भग २०, २-पत्र ७७६) । रंगिर वि [रङ्गितृ] चलनेवाला (सुपा ३) । रंगिल्ल वि [ रङ्गवत् ] रंगवाला (उर ६, २) । रंज सक [ रञ्जय् ] १ रँग लगाना । २ खुशी करना। रंजए, रंजेइ ( वज्जा १३६३ हे ४, ४९) कर्म. रजिस्जद (महा) वह रंजस ( संवे ३) । संकृ. रंजिऊण (पि ५८६ ) । कृ. रंजियव्य भाव्य) जगदि [अ] करनेवाला (मा)। रओ देखो रय= रजस् (पिड ६ टी सण) । रंजण न [रञ्जन] १ रँगना ( विसे २६६१ ) । रंक वि [रङ्क] गरीब, दीन (पिंग) । २ खुशी करना; 'परचित्तरंजणे (उप ६८६ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रंजण-रच्छा पाइअसहमहण्णवो ७०३ टी संवे ५) । ३ पुं. छन्द-विशेष (पिंग)। रयण ५)। ३ वैरोचन नामक बलीन्द्र की द्वीप (पउम ५, १२६), 'नाह देखो गाह ४ वि. खुशी करनेवाला, रागजनक (कुमा) । एक अग्र-महिषी (ठा ५, १-पत्र ३०२, (पउम ६, ३६) वइ पुं[पति] राक्षसों रंजण पुं [दे] १ घड़ा, कुम्भ (दे ७, ३)। णाया २-पत्र २५१)। ४ रावण को एक | का मुखिया (पउम ५, १२३ मे १?, १)।। २ कुण्डा, पात्र-विशेष (दे ७, ३, पाम)। पत्नी (पउम ७४, ८) हिव [धिप वही अर्थ (से १५, ८७; रंजविय। वि [रञ्जित] राग-युक्त किया रक्ख सक [रक्ष ] रक्षण करना, पालन रजिअ , हुमा (सण से ६ ४८; गउडा करना । रक्खइ (उव; महा)। भूका. रक्खोन | रक्खसिंद राक्षसेन्द्र] राक्षसों का राजा महाः हेका २७२) । (कुमा)। वकृ. रक्खंत (गा ३८ औप मा (पउम १२, ४)। रंडा नो [रण्डा राँड, विधवा (उपपृ ३१३, ३७) । कवकृ. रक्खीअमाण (नाट-मालती रक्खसी स्त्री [राक्षसी] १ राक्षस की स्रो वज्जा ४४, कप्पू. पिंग)। २८) । कृ. रक्ख, रक्खणिज,रक्खियब्ध, (नाट-मृच्छ २३८)। २ लिपि-विशेष (विसे रक्खेयव्य (से ३, ५, साधं १०० गउड; रंदुअन [] रज, रस्सी; गुजराती में ४६४ टी)। 'राढवु" (दे ७, ३) सुपा २४०)। रक्खसेंद देखो रक्खसिंद (से १२, ७७) । रंध सक [र५ , राधय ] धना, पकाना । रक्ख पुंन [रक्षस ] राक्षस (पान; कुप्र रक्खा स्त्री [रक्षा] १ रक्षण, पालन (श्रा १०; 'रंधो राधयतेः स्मृतः' रंधइ (प्राकृ ७०), ११३; सुपा १३०, सट्ठि टी संबोध ४४) सूपा १०३, ११३)। २ राख, भस्मः 'सो रंधेहि (स २४६) । वकृ. रंधंत (णाया १, रक्ख वि [रक्ष] १ रक्षक, रक्षा करनेवाला चंदणं रक्खकए दहिजा' (सत्त २८ सुपा ७–पत्र ११७) । संकृ. रंधिऊण (कुत्र (उप पृ ३६८; कप्प) । २ पुं. एक जैन मुनि ६५७) २०५)। (कप्प) रक्खिअ वि [रक्षित] १ पालित (गउड गा रंध न [रन्ध्र] छिद्र, विवर (गा ६५२; रंभाः | रक्ख देखो रक्ख = रक्ष । - ३३३)। २ पृ. एक प्रसिद्ध जैन महर्षि (कप्प; भवि)। रक्खअ) विरक्षक] रक्षण-कर्ता (नाट- विसे २२८८) रक्खग मालवि ५३, रंभा; कुप्र २३३ रंधण न [रन्धन, राधन] रांधना; पचन, रक्खिआ देखो रक्खसी (रंभा १७) ।। साधं ६६) पाक (गा १४, पब ३८ सूअनि १२१ टी, रक्खी स्त्री [रक्षी] भगवान् अरनाथ की मुख्य सुपा १२, ४०१) घर न [गृह] पाकरक्खण न [रक्षण] रक्षा, पालन (सुर १३, साध्वी (सम १५२, पव ८)। १६७ गउड; प्रासू २३)। गृह (रयण ३१)। रक्खोवग वि [रक्षोपग] रक्षण में तत्पर रंधण न [रन्धन] पाक-गृह, रसोईघर (प्राचा रक्खणा स्त्री [रक्षणा] ऊपर देखो (उप ८५०) (राय ११३)। २, १०, १४)। स६९) रक्खणिया स्त्री [दे रखी हुई स्त्री, रखेलिन, | रगिल्ल [दे] देखो रइगेल्ल (षड् )। रंप सक [तस् ] छिलना, पतला करना। रखनी, रखात (सुपा ३८३)। रग्ग देखो रत्त = रक्त (हे २, १०; ८६ रंपइ (हे ४, १६४ प्राकृ ६५; षड्)। रक्खवाल वि [दे] रखवाला, रक्षा करनेवाला षड्) रंपण न [तक्षण] तनू-करण, पतला करना (महा) । रग्गय न [दे] कुसुम्भ-वन (दे ७, ३, पाम; (कुमा)। गउड)। रंफ देखो रंप । रफइ, रंफए (हे ४, १९४; रक्खस ' [राक्षस] १ देवों की एक जाति (पएह १,४-पत्र ६८)। २ विद्याधर-मनुष्यों | रघुस पु [रघुष] हरिवंश का एक राजा षड्) का एक वंश (पउम ५, २५२)। ३ वंश (पउम २२, ६६)। रंफण देखो रंपण (कुमा) विशेष में उत्पन्न मनुष्य, एक विद्याधरजातिः रञ्च प्रक [दे. रञ्] राचना, मासक्त होना, रंभ सक [गम् ] जाना, गति करना । रंभइ तेणं चिय खयराणं रक्खसनामं कयं लोए' । अनुराग करना । रचइ, रच्चंति, रच्चेह (कुमा; (हे ४, १६२), रंभंति (कुमा)। (पउम ५, २५७)। ४ निशाचर, क्रव्याद से वजा ११२) । कर्म, 'रत्ते रच्चिजए जम्हा रंभ देखो रंफ । रंभइ (धात्वा १४६)। १५. १७ नाट-मच्छ १३२) । ५ अहोरात्र (कुप्र १३२) । वकृ. रश्चंत (भवि)। प्रयो. रंभ सक [आ + र] प्रारम्भ करना। की तीसवाँ महूर्त (सम ५१, सुज १०,१३)।- रचावंति (वजा ११२) रंभइ (षड्) °उरी स्त्री [पुरी लंका नगरी (से १२, रश्चण न [दे. रञ्जन] २ अनुराग। २ वि. रंभ पुं [दे] अन्दोलन-फलक, हिंडोले का ८४) । "अरी स्त्री [नगरी] वही अनुराग करनेवाला, राचनेवाला (कुमा)तख्ता (दे ७, १)। अर्थ (से १२, ७८) गाह पुं ['नाथ] रश्चिर वि [दे. रञ्जित] राचनेवाला (कुमा)। रंभा स्त्री [रम्भा] १ कदली, केला का गाछ राक्षसों का राजा (से ८, १०४) । रच्छा देखो रक्खा (रंभा १६) । (सुपा २५४, ६०५; कुप्र ११७ पात्र) । २ त्थ न [स्त्र] अन्न-विशेष (पउम रच्छा स्त्री [रथ्यामुहल्ला (गा ११९ औप; देवांगना-विशेष, एक अप्सरा (सुपा २५४ १ ७१, ६३) । दीव पु [द्वीप] सिंहल कस)। For Personal & Private Use Only Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ पाइअसमष्णवी रच्छामय पु [दे. रध्यामृग ] गवान, कुत्ता रट्ठिअ पुं [राष्ट्रिक ] देश की चिन्ता के लिए नियुक्त राज-प्रतिनिधि सूबेदार पह ५ - पत्र ९४ ) । (दे ७, ४) । रज देखो रय= रजस् (कुमा) 1 श्री [रजक] धोबी, कपड़ा मोने का धन्धा करनेवाला (श्रा १२ दे ५, ३२) । स्त्री. की (दे १, ११४) । ~ } रजक रजग रजय देखो श्यय = रजत (इक) । - रज्ज अक [ अ ] १ अनुराग करना, श्रासक्त होना। २ रँगाना, रंग-युक्त होना । रज्जइ ( आचा उव), रज्जह (गाया १, ८- पत्र १४८) भनि विहिति (श्रीप) वकृ. रज्जंत, रज्जमाण (से १०, २०; गाया १, १७: उत्त २६, ३) । कृ. रज्जियन्त्र ( पह २, ५ - - पत्र १४६ ) 1 । रज्जन [राज्य] १ राज, राजा का अधिकृत देश । २ शासन, हुकूमत (गाया १, ८ कुमाः दं ४७; भग, प्रारू) + 'पालिया स्त्री [पालिका] एक जैन मुनि शाखा (क) “इ [पति] राजा (कप्प) ° सिरी [श्री] राज्य लक्ष्मी (महा) । हिसेय [भिषेक ] राजगद्दी पर बैठाने का उत्सव (परम ७७, १६) । रज्जव पुंन. नीचे देखो; 'खररज्जवेसु बद्धा' (२२, ११५)। रज्जु स्त्री [रज्जु] १ रस्सी ( पात्रः उवा) । २ एक प्रकार की नाप; 'चउदसरज्जू लोगो' ( प १४३) । रज्जु वि [दे] लेखक, लिखने का काम करनेवाला (कप्प ) + सभा श्री [सभा] १ लेखक-गृह । २ शुल्क-गृह, चूँगी - घर 'हस्थिपालस्स रनो रज्जुसभाए' (कप्प) १~ रज्भिय देखो रहिअ = रहित; 'अरज्भियाभितावा तहवी तविति' (सू २, ५,१,१७) रहन [राष्ट्र] देश, जनपद (गुफा २०७: महा) - कूड [कूट] राज-नियुक्त प्रतिनिधि, सूबेदार (विपा १, १ टी -पत्र ११ विपा १, १ पत्र ११) 1 रट्ठअ वि [राष्ट्रिय] देश-सम्बन्धी २ पुं. नाटक की भाषा में राजा का साला (अभि १९४) 1 । अ [रट् ] १ रोना । २ चिल्लाना । रडइ (भवि ) । वकृ. रडंत (हे ४, ४४५ भवि) 1 रडण न [रटन ] चिल्लाहट, चीख (fis २२५) रडिय न [रटित] १ रुदन, रोना (परह २, ५) । २ आवाज करना, शब्द करणः 'परहुयबहूपर ( रंभा ३ चिल्लाना, चीख (गाया १.१ - पत्र ६३ ) । ४ वि. कलहायित, झगड़ालू, झगड़ाखोर 'कलहाइश्रं रडि' (पान) । रडरडियन [ रटरटत ] शब्द-विशेष, वाद्यविशेष की आवाज (सुपा ५०) 1 रड्ड वि [दे ] खिसक कर गिरा हुप्रा, गुजराती में 'रडेलु' (कुप्र ४५६ ) - ) IV रड्डा श्री [रडा] बन्द- विशेष (पिंग रण पुंन [रण] १ संग्राम, लड़ाई (कुमा; पात्र) । २ पुं. शब्द, श्रावाज ( पान ) ~ खंभर न [" स्तम्भपुर ] अजमेर के समीप का एक प्राचीन नगर भवरहिरे चडाविया कण्यमयकलसा' (मुणि १०१०१ ) । रणकार [रस्कार] शब्द- विशेष (गड)रणझण अक [ रणझणाय् ] 'रन् झन् ' आवाज करना । रगभाइ ( वज्जा १२८ ) । वकृ. रणझणंत (भवि ) | रणझणिर वि [रणझणायितृ] 'रन भन्' आवाज करनेवाला (सुपा ६४१ धर्मवि 55) 1~ रणरण [ रणरणाय् ] 'रन् रन्' श्रावाज करना । वकृ. रणरणंत (पिंग) | रणरण [दे. रणरणक] १ निःश्वास, रणरणय नीसासः 'अइउण्हा रणरणया दुष्पेच्छा दूहा दुरालोया' (बम्बा ७८ ) । २ उद्वेग, पीड़ा, अधृति; 'गरुयपियसंगमासाससमुण्डलियर राइम्म र ४, २३० पान) । ३ उत्कण्ठा, श्रौत्सुक्य (दे १, १३६ उ; रुक्मि ४८ संवे २) रच्छामय-रत्तंदण रणिअ न [रणित ] शब्द, श्रावाज (सुर १, २४८) For Personal & Private Use Only रणिर वि [रणि] धावा करनेवाला (सुपा ३२७; गउड)। रणन [अरण्य] जंगल, घटवी (हे १, ६६; प्राप्र; प्रौप रक्त पुं [रक्त ] १ लाल वर्ण, लाल रंग । २ कुसुंभ। ३ वृक्ष विशेष हिज्जल का पेड़ (हे २, १० ) । ४ न. कुंकुम ५ ताम्र, ताँबा । ६ सिंदूर ७ हिगुल ८ खून, रुधिर । ६ राग (प्रा) १० वि. रँगा हुआ (हेका २७२ ) । ११ लाल रंगवाला ( पाच ) । १२ अनुराग-युक्त ( श्रोष ७५७ प्रासू १५५; १६०) कंवला श्री ["कम्वला] मेरु पर्वत के पण्डक वन में स्थित एक शिला, जिसपर जिनदेवों का अभिषेक किया जाता है (ठा २, ३ – पत्र ८० ) + कूड न ['कूट ] शिखर-विशेष (राज) 'कोरिंटय [क] विशेष (१०९) । 'क्ख, च्छवि [क्ष] १ लाल श्रखवाला (राजः सुर २६) श्री. घोषभा २२ टी) । २ पुं. महिष, भैंसा (दे ७, १३) । ट्ठ [ार्थ] विद्याधर वंश का एक राजा (पउम X ४४) भाउ [] कुण्डलपत का एक शिखर (दोन) पड g [पट ] परिव्राजक संन्यासी (गाया १, १५] १२) पाय ' ["प्रपात] विशेष (२३ ७३ व [भ] कुण्डल - पर्वत का एक शिखर (दीव) रयणन [ रत्न] रत्न की एक जातिः पद्म- राग मणि ( श्रप) वई स्त्री [ती] एक नदी (सम २७ ४३ इक) "वड देखो 'पड ( सुख ८ (१३) । सुभद्दा at ["सुभद्रा ] श्रीकृष्ण की एक भगिनी ( परह १, ४ - पत्र ८५ ) । सोग, सोय [[शोक ] लाल अशोक का पेड़ (गाया १, १० महा) । रत्त पुं [रात्र] रात, निशा (जी ३४) । रत्तग देखो रक्त = रक्त (महा) । रणरणाय देखो रणरण = रणरणाय् । वकृ. रत्तंदण न [ रक्तचन्दन] लाल चन्दन (सुपा रणरणात (पउन १४, ३९) १०१) । Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्तक्खर - रयण रत्तक्खर न [दे] सीधु, मद्य-विशेष (दे ७, ४) 1 M रत्तच्छ [दे] १ हंस । २ व्याघ्र (७, १३) । रत्तडि (अप) देखो रत्ति = रात्रि (पि ५६६ ) | रक्तयन [दे. रक्तक] बन्धूक वृक्ष का फूल (दे ७, ३) 1 रत्ता स्त्री [ रक्ता ] एक नदी (सम २७४३, इक) वइप्पवाय पुं [वतीप्रपात ] ग्रहविशेष (ठा २, ३ – पत्र ७३) रति स्त्री [दे] प्राज्ञा. हुकुम (दे ७, १1 रति स्त्री [रात्रि ] रात, निशा (हे २, ७६; मा १०) अंध ["अन्धक] रात को नहीं देख सकनेवाला (गा ६६७ ; हेका २६) अरव ['चर] १ रात में विहरनेवाला । २ पु. राक्षस ( षड् ) 1. "दिवदन] ["दिवस ] रात-दिन, धनश (पि ८८ ) | देखो राइ = रात्रि | V रचिचर देखो रक्ति आर (वि ७२ ) ॥ रत्तिदिअह न [ रात्रिदिवस ] रात-दिन, अहर्निश, निरन्तर (अच्चु ७८ ) IV रतिदिन [ रात्रिन्दिव ] ऊपर देखो रतिदिव (प. १६४७३ रवि [राज्यन्ध ] जो रात में न देख सकता हो वह (प्रासू १७५ ) 1 } रती [] नापित, हजाम (दे ७, २: पान ) । - रतुप्पल न [ रक्तोत्पाल ] लाल कमल ( पह १, ४) 1 रतो त्री [रक्तोदा] एक नदी (इक) । - रत्तोप्पल देखो रत्तुप्पल (नाट - - मुच्छ १४५ ) । रत्था देखो रच्छा (गा ४०; अंत १२; सुर १, ६६) । रवि [रख, राज] रांधा हुआ, पक्व (गिट १६५: सुपा ६३६) । द्धिवि [] प्रधान, श्रेष्ठ (दे ७, २) । रन्न विरण (सुपा ४०१ कुमा) । प्प सक [ आ + क्रम् ] श्राक्रमण करना । (७३) 1 रफ पुं [दे] वल्मीक, गुजराती में 'राफडों' (दे ७, १ पाम ) । २ रोग-विशेषः 'करि कंपू पायमूलिसु रप्फय' (सरण ) 1 पाइअसहमष्णवो रप्फडिआ स्त्री [दे] गोधा, गोह (दे ७, ४) । रब्बा वि [दे] राब, यवागू (श्रा १४ उर २, १२ धर्मवि ४२ ) । रभस देखो रहस= रभस (गा ८७२; ८१४; २४) । रमक [रम् ] १ क्रीड़ा करना । २ संभोग करना । रमइ, रमए, रमंते, रमिज्ज, रमेज्जा (कुमा) भवि. रमिसवि रमिहिरू (कुमा) | कर्म रमिज्जा (कुमा) व रमंत, रममाण (गा ४४: कुमारमिरमि रमिऊण, रंतूण (हे २, १४६०२, १३२६ महा पि ३१२), रमेप्पि, रम्मेष्पिणु, रमेवि (अप) (पि ५८८ ) । हेकु. रमिडं (उप १८. रमिअव्व (गा ४६१), देखो रमणिय रमणीअ, एम्म प्रयो राति (५२) । रमण न [रमण] १ क्रीडा, क्रीडन । २ सुरत, संभोग, रति-क्रीड़ा ( पव ३८ कुमा; उप पु १०७) स्मर-कृषिका योग (कुमा) ४ पुं. जघन, नितम्ब (पान) । ५ पति, वर, स्वामी (पउम ५१ १६; पिंग) । ६ छन्दविशेष (पिंग)। रमणिज्ज वि [ रमणीय] १ सुन्दर मनोहर, रम्य (प्राः पाच श्रभि २०० ) । २ न. एक देव-विमान (सम १७) ११. नदीवर द्वीप के मध्य में उत्तर दिशा की भोर स्थित एक अज्जन- गिरि ( पव २६९ टी ) । ४ एक विजय, प्रान्त विशेष (डा २, ३ पत्र०) रमणी श्री [रमजी] [१ नारी श्री (पाच उप पृ १८७ प्रासू १५५; १८० ) । २ एक पुष्करिणी (एक) । रमणीअ वि [ रमणीय] रम्य, मनोरम (प्रात्रः स्वप्न ४०; गउड सुपा २५५; भवि ) । रमा स्त्री [रमा] लक्ष्मी श्री ( कुम्मा ३) । - रमिज देखो रम । रमिज वि [र] [१] जिसने क्रीडा की हो वह (कुमा ४, ५० ) । २ न. रमण, क्रीड़ा (गाया १, ६--पत्र १६५ कुमा सुपा ३७६६ प्रासू ६५) । रमिअ वि [रमित ] रमाया हुआ (कुमा ३, ८९ ) 1 For Personal & Private Use Only ७३५ रमिर वि [रन्तृ] रमण करनेवाला (कुमा) । रम्म वि [रम्य ] १ मनोरम, रमणीय, सुन्दर ( पान; से ६, ४७ सुर १, ६९ प्रासू ७१ ) । २ पुं. विजय विशेष, एक प्रान्त (ठा २, ३ - पत्र ८० ) । ३ चम्पक का गाछ ( से 8, ४७) । ४ न. एक देव -विमान (सम १७ ) । रम्मग ) [ रम्यक] १ एक विजय, प्रान्तरम्मय विशेष (ठा २. ३ – पत्र ८० ) 1 २ एक युगलिक क्षेत्र, जंबू द्वीप का वर्ष विशेष (सम १२ ठा २, ३ – पत्र ६७; इक) । ३ न. एक देव - विमान (सम ( ७ ) । ४ पर्वत - विशेष का एक कूट (जं ४ ) 1रम्ह देखो रंफ रम्हइ ( प्राकृ ६५ ) श्य सक [ रज्]] रंगना मी बोजा नो रएज्जा, नो धोयरत्ताई वत्थाई घारेज्जा' (घाचा)। रय सक [रचय् ] बनाना, निर्माण करना । र, रएइ (हे ४,६४; षड् ; महा) । कवकृ. रइज्जेत (से . 01. पुंन [ रजस्] १ रेणु, धूल (श्रौपः पा कुप्र २१ ) । २ पराग, पुष्प-रज ( से ३, ४८) । ३ सांख्य दर्शन में उक्त प्रकृति का एक गुण (कुप्र २१ ) । ४ बव्यमान कर्म (कुमा ७, ५८; चेइय ६२२; उब ) । ताण न [" त्राण ] जैन मुनि का एक उपकरण (प्रोध ६६८ परह २, ५ १४८) रसला [*स्वा] ऋतुमती स्त्री (दे १, १२५) । - दूर न ["हर] जैन मुनि का एक उपकरण संबोध १५) रण न [हरण] वही | या ११ कम रवि [रत] १ अनुरक्त, प्रासक्त (प्रौपः उवः सुर १, १२ सुपा ३०६ प्रासू १६६ ) । २ स्थित ( से ६, ४२ ) । ३ न रति-कर्म, मैथुन (सम १५; उव; गा १५५६ स १५० वज्जा १०० सुपा ४०३). 1 [य] वेग (कुमा; से २, ७; सण) । र देखो रख (पउम ११४. १७) । रयग देखो रयय = रजक (श्रा १२; सुपा XS) I रयण न [रजन] रँगना रँग-युक्त करना (शुभ १, २, १२) । Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ पाइअसहमहण्णवो रयण-रयय रयण वि [रचन] करनेवाला, निर्माता ( इकः सुर ३, २०)। संचया श्री 'अर, कर पुं [कर] चन्द्रमा (हे १,८ 'चेडीसचितारयणु' (सण)। [संचया] १ मंगलावती नामक विजय की टि: कप्प) णाह, 'नाह [नाथ] रयण पु[रदन] दाँत, दशन (उप ६८६ टीः | राजधानी (ठा २, ३–पत्र ८०) । २ ईशा- चन्द्रमा ( पात्रः सुपा ३३) भत्त न नेन्द्र की वसुन्धरा-नामा इन्द्राणी की एक भक्त] रात्रि में खाना (सुपा ४६५)। पाप कार १५२ ना. रातु १३)। राजधानी (इक)। सनया स्त्री [समया] रमण पुं [रमण ] चन्द्रमा (सण)। रयण ऍनरल मायिदि बहुमूल्य मंगलावती नामक विजय को एक राजधानी वल्लह पुं [वल्लभ] चन्द्रमा (कप्पू)। पत्थर, मरिण; 'दुवे रयणा समुप्पन्ना' (निर (इक)। "सार पुं [सार] १ एक राजा "विराम ' [विराम] प्रातःकाल, सुबह १, १, उप ५६३; गाया १,१: सुपा (राज) । २ एक शेठ का नाम (उप ७२८ १४७; जी ३; कुमा; है २, १०१)। २ टी) । °सिंह पुं[सिंह] एक जैन आचार्य, रयणिंद पुं[रजनीन्द्र] चन्द्रमा (सण)। श्रेष्ठ, साजाति में उत्तम (राग २६; कुमा ३, संवेगचूलिकाकुलक कर्त्ता (संवे १२)। सिंह रयणिद्धय न [दे] कुमुद, कमल (दे ७, ४; ४७); 'तहवि हु चेद-सरिच्छा विरला रय [शिब एक राजा ( १०३१ टी) । णायरे रयणा' (वज्जा १५६)। ३ छन्द सेहर पुं [शेखर] १ एक राजा (रयण विशेष (पिंग)। ४ द्वीप-विशेष (णाया १, रयणी स्त्री [रत्नी] देखो रयणि = रत्नि (ठा ३)।२ विक्रम की पनरहवीं शताब्दी में सम १२: जीवस १७७; जी ३३; औप)। ६; पउम ५५, १७)। ५ पर्वत-विशेष का विद्यमान एक जैन प्राचार्य और ग्रंथकार एक कूट (ठा ४, २; ८)। ६ पुं. ब. रत्न रयणी स्त्री [रजन] १ रात्रि, रात (पान (सिरि १३४०)। अर, गर पुं[कर] द्वीप का निवासी (पउम ५५, १७)। उर प्रासू १३६: कुमा)। २ ईशानेन्द्र के लोकपाल १ रत्न की खान (षड् )। २ समुद्र (पाम: न [पुर] नगर-विशेष (सरण) चित्त पुं की एक पटरानी (ठा ४, १-पत्र २०४) । सुपा ३७, प्रासू ६७; रणाया १, १७–पत्र ["चित्र] विद्याधर वंश का एक राजा ३ चमरेन्द्र की एक अन-महिषी (ठा ५.१२२८)। भा स्त्री [भा] देखो पभा | (पउम ५, १५)। दीव [दी] द्वीप पत्र ३०२)। ४ मध्यम ग्राम की एक मूच्र्छना (उत्त ३६, १५७ ) मय देखो मय विशेष (णाया १, ६-पत्र १६५)। निहि (ठा ७–पत्र ३६३)। ५ षड्ज ग्राम की (महा: प्रोप)जयरसुअ पुं [करसुत] १ [निधि) समुद्र, सागर (सुपा ७, एक मूच्र्छना; 'मंगो कोरव्वीया हरी य रयचन्द्रमा । २ एक वणिक-पुत्र (श्रा १६) १२६) पुढवी स्त्री [पृथिवी] पहली तणी(? यणी) सारकंता य' (ठा ७-पत्र विलि, वली स्त्री [वलि, वली] १ नरक-भूमि, रत्नप्रभा नामक नरक-पृथिवी (स ३६३) 'भोअण न [ भोजन] रात में रत्नों का हार (सम्म २२)। २ तप-विशेष १३२)। 'पुर देखो °उर (कुप्र ६ महा; सण)। खाना (श्रा २०), "सार न [सार] सुरत, (अंत २५) । ३ ग्रन्थ-विशेष (दे ८, ७७)। पभा, पहा स्त्री ["प्रभा] १ पहली | मैथुन (से ३, ४८)। देखो रयणि = रजनि ४ एक विद्याधर-राजकन्या (पउम ६, ५२)। नरक-भूमि (ठा ७-पत्र ३८८; औप: भग)। वह न विह] नगर-विशेष (महा)। यी ती जिनी1 प्रौषधि-विशेष२ भीम नामक राक्षसेन्द्र को एक पटरानी सिव पुं[स्रव रावण का पिता (पउम (ठा ४, १--पत्र २०४) । ३ रत्न का तेज पिंडदारु । २ हरिद्रा, हलदी (उत्तनि ३)। ७, ५६; ७१) सवसुअ ' [स्रवसुत] (स १३३)। "मय बि ["मय] रत्नों का रयणुच्यय । [रत्नोच्चय] १ मेरु-पर्वत रावण (पउम ८, २२१)। हिय वि बना हुआ (महा) । माला स्त्री [°माला] [धिक] ज्येष्ठ, अवस्था में बड़ा (राज)। रयणोञ्चय (सुज ५ टी-पत्र ७७ इक)। छन्द-विशेष (अजि २४)। मालि पुं २ कूट-विशेष (इक) । ["मालिन] विद्याधर-वंश में उत्पन्न नमिरयणप्पभिय वि [ रात्नप्रभिक ] रत्नप्रभा रयणोच्चया स्त्री [रत्नोच्चया] वसुगुप्ता नामक राज का एक पुत्र (पउम ५, १४)। मुस संबन्धी (पंच २, ६६)। इन्द्राणी की एक राजधानी (इक)। वि [मुप्] रत्नों को चुरानेवाला (षड्). रयणा स्त्री [रचना] निर्माण, कृति (उत्त | रयत न [रजत] १ रूप्य, चाँदी (णाया 'रह [रथ] विद्याधर वंश का एक राजा १५, १८; चेइय ८६६; सुपा ३०४, रंभा)। रयद १, १-पत्र ६६; प्राकृ १२ प्राप्र; (पउन ५, १४) + रासि पुं[ राशि] समुद्र रयणा स्त्री [रत्ना] रत्नप्रभा नामक नरक- रयय पामः उवाः प्रौप)। २ एक देव(प्रारू)। वइ पुं[पति] रत्नों का मालिक, भूमि (पव १७५) । विमान (देवेन्द्र १३१)। ३ हाथी का दाँत । धनी, श्रीमंत (सुपा २६६) वई स्त्री रयणि पुंस्त्री [रनि] एक हाथ को नाप, बद्ध- ४ हार, माल।। ५ सुवर्ण, सोना । ६ रुधिर, [वती] एक रानी (रयण ३) । वज्ज पुं मुष्टि हाथ का परिमाण (कसः पव ५८ खून । ७ शैल, पर्वत । ८ धवल वर्ण। । [व] विद्याधर-वंशीय एक राजा (पउम १७६)। शिखर-विशेष । १० वि. सफेद, वर्णवाला, ५, १४)। वह वि [वह] रत्न-धारक | रयणि स्त्री [रजनि] देखो रयणी = रजनी श्वेत (प्राकृ १२, प्रातः हे १, १७७; १८०; (गउड १०७१)। संचय न [संचय १ (णाया १, २–पत्र ७६; कप्प) । अर पु! २०६) "गिरि पुं [गिरि] पर्वत-विशेष रुचक पर्वत का कूट (इक) । २ एक नगर ' [चर] १ राक्षस (से १०, ६६, पान) । (णाया १,१ औप)। "वत्त न [ पात्र] For Personal & Private Use Only Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयय-रसि पाइअसहमण्णवो ७०७ चाँदी का बरतन (गउड) "मय वि ['मय] रवि न [रवि] १ सूर्य, सूरज (से २, २६; विशेष (पिंग)। १३ माधुयं प्रादि रसवाला चाँदी का बना हुआ (गाया १, १-पत्र गउडः सण)। २ राक्षस-वंश का एक राजा पदार्थ (सम ११; नव २८)। नाम न ५४. पि ७०)। (पउम ५, २६२)। ३ अर्क वृक्ष, पाक का [नामन् कर्म-विशेष (सम ६७)4 न रयय पूरजक] धोबी (स २८६ पाप)। पेड़ (हे १, १७२)। "तेअ [तेजस्] वि [ज्ञ] रस का जानकार (सुपा २६१)।. रयवली स्त्री [दे] शिशत्व, बाल्य (दे ७, ३)। १ इक्ष्वाकु वंश का एक राजा (पउम ५, भेइ वि [भेदिन] रसवाली चीजों का ४)। २ राक्षस वंश का एक राजा, एक भेल-सेल करनेवाला (पउम ७५, ५२) ।। रयवाडी देखो राय-वाडिआ (सिरि ७५८)। लंकेश (पउम ५, २६५)। "तेया स्त्री | मंत वि [वत् ] रस-युक्त (भग, ठा ५, रयाव सक [रचय ] बनवाना, निर्माण | [तेजा] एक विद्या (पउम ७, १४१)। ३-पत्र ३३३) + वई स्त्री [°वती] रसोई कराना । रयावेइ, रयाविति, रयावेह (कप्प)। 'नंदण पु[ नन्दन] शनि-ग्रह (श्रा १२)। (सुपा ११)। लि, लु वि [वत् ] संकृ. रयावेत्ता (कप्प)। प्पभ पु[प्रभ] वानरद्वीप का एक राजा रसवाला (हे २, १५६; सुख ३, १) रयाविय वि [रचित] बनवाया हुमा (स (पउम ६, ६८)। भत्ता स्त्री [भक्ता] एक "विण पुं [पण] मद्य की दूकान (पव ४३५) महौषधि (ती ५)। भास पुं [भास] रल्ला स्त्री [दे] प्रियंगु, मालकांगनी (दे ७, खड्ग-विशेष, सूर्यहास खड्ग (पउम ५५, रस पुन [रस] निष्यन्द, निचोड़, सार (दसनि २६) J वार [वार दिन-विशेष, रविवार ३, १६)।रल्लि पुंस्त्री [दे] लम्बा मधुर शब्द (माल (कुप्र ४११)। 'सुअ [सुत] १ शनिश्चर रसण न [रसन] जिह्वा, जीभ (पएह १, ग्रह (से ८, २८; सुपा ३६)। २ रामचन्द्र | १-पत्र २३, आचा)। रव सक [२] १ कहना, बोलना। २ वध का एक सेनापति, सुग्रीव (से १५, ५६)। रसणा स्त्री [रसना] १ मेखला, कांची (पानः करना। ३ गति करना। ४ प्रक. रोना। हास पुं[हास] सूर्यहास खड्ग (पउम गउड से १, १८)। २ जिह्वा, जीभ (पान)। ५ शब्द करना; 'सुद्धं रवति परिसाए' (सूम ५३, २७)। "ल वि['वत् ] रसनावाला (सुपा ५५६)। १, ४, १, १८), रवइ (हे ४, २३३; संक्षि रविगय न [रविगत] जिसपर सूर्य हो वह रसद्द न [दे] चुल्ली-मूल, चूल्हे का मूल भाग ३३)। वकृ. रवंत, रवंत (णाया १,१नक्षत्र (वव १)। (द ७, २)।पत्र ६५; पिंग; औप)। रविय विदे] आद्र' किया हुआ, भिजाया रसा स्त्री [रसा] पृथिवी, धरती (हे १, १७७; रव सक [रावय् ] बुलवाना, आह्वान करना। वकृ. रवंत (प्रौप)। हुआ (विसे १४५६) । १८०; कुमा)।रव्वारिअ पुंदे] दूत, संदेश-हारक, 'जेरण रख सक [दे] भाद्र करना। भवि-रवेहिइ रसाउ पु[दे. रसायुष्] भ्रमर, भौंरा (दे प्रवज्झो रव्वारिनो त्ति' (सुपा ४२८)। ७, २; पाम)। (मंदि)। रसाय पुं[दे] ऊपर देखो (द ७, २)। रख पुरव] १ शब्द, आवाज (कप्प; महा: रस सक [रस् ] चिल्लाना, पावाज करना। रसइ (गा ४३६)। वकृ. रसंत (सुर २, सण; भवि)। २ वि. मधुर शब्दवाला; 'रवं रसायण न [रसायन] वैद्यक-प्रसिद्ध प्रौषध विशेष (विपा १, ७ प्रातू १६२, भवि)। ७४, सुपा २७३)। अलसं कलमंजुलं' (पान)। रव (अप) देखो रय = रजस् (भवि)। रस पुन [रस] १ जिह्वा का विषय-मधुर, रसाल पुं[रसाल] पाम्र-वृक्ष, आम का गाछ तिक्त प्रादिः 'एगे रसे', 'एवं गंधाई रसाई (सम्मत्त १७३)।। खण (अप) देखो रमण (भवि)। फासाई (ठा १०-पत्र ४७१; प्रासू १७४)। रसाला स्त्री [दे. रसाला] मार्जिता, पेयरवण न [रवण] आवाज करना, 'पच्चासन्ने य २ स्वभाव, प्रकृति (से ४,३२)। ३ साहित्य- विशेष (दे ७,२ पाप्र)। करेण्या सया रवणसीला पासी' (महा)। शास्त्र-प्रसिद्ध श्रृंगार मादि नव रस (उत्त रसालु पुंदे. रसालु] मजिका, राजरवण्ण(अप) देखो रम्म = रम्य (हे ४, १४, ३२, धर्मवि १३; सिरि ३६)। ४ योग्य पाक-विशेष--दो पल घी, एक पल रवन्न ४२२, भवि)। जल, पानी (से २, २७ धर्मवि १३) मधु, प्राधा पाढक दही, बीस मिरचा तथा रवय ([दे] मन्थान-दण्ड, विलोने की लकड़ी. ५ सुख (उत्त १४, ३१)। ६ पासक्ति, दस पल चीनी या गुड़ से बनता पाक (ठा गुजराती में 'रवैयो (दे ७, ३)। दिलचस्पी (सत्त ५३; गउड)। ७ अनुराग, ३, १-पत्र ११८, सुज २० टीः पव रवरव अक [रोरूय.] १ खूब आवाज प्रेम (पान)। ८ मद्य आदि द्रव पदार्थ (पण्ह २५६)। करना। २ बारंबार आवाज करना। वकृ. १,१कुमा)। ६ पारद, पारा (निचू १३)। रसि देखो रस्सि (प्राफ २६) । रवरवंत (प्रौप) १० भुक्त अन्न का प्रथम परिणाम, शरीरस्थ | रसिअ वि [रसिक] १ रसज्ञ, रसिया, रवि वि रविनआवाज करनेवाला (से २, धातु-विशेष (गउड)। ११ कर्म-विशेष (कम्म शौकीन (से १, ६)। २ रस-युक्त, रसवाला २६)। २, ३१)। १२ छन्दःशास्त्र-प्रसिद्ध प्रस्तार- (सुपा २६, २१७ पउम ३१, ४६)10 For Personal & Private Use Only Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ पाइअसहमहण्णवो रसिअ-राअला रसिअ वि [रसित] १ रस-युक्त, रसवाला [ नेमि भगवान् नेमिनाथ का भाई (उत्त रहाविअ वि [दे] स्थापित, रखवाया हुआ (पव २)। २ न. शब्द, आवाज (गउडा २२, ३६) । नेमिज न [ नेमीय] उत्तरा- (हम्मीर १३) । पएह १, १)। ध्ययन सूत्र का बाइसवाँ अध्ययन (उत्त २२)। रहि वि [रथिन] १ रथ से लड़नेवाला योद्धा रसिआ स्त्री [दे. रसि १ पूय, पीव, व्रण "मुसल [मुसल] भारतवर्ष की एक (उप ७२८ टो)। २ रथ को हाँकनेवाला से निकलता गंदा सफेद खून, गुजराती में प्राचीन लड़ाई, राजा कोरिएक और राजा । (कुप्र २८७ ४६०, धर्मवि १११)। 'रसी' (था १२; विपा १, ७ परह १,१)। चेटक का संग्राम (भग ७, ६) यार देखो रहिअ वि [रथिक] उपर देखो, 'रहिएहिं २ छन्द-विशेष (पिंग)। 'कार (पान)। रेणु पु [ रेणु] एक नाप, महारहिणों (उप ७२८ टी; परह २, ४रसिंद पुं [रसेन्द्र] पारद, पारा (जी ३ श्रु पाठ त्रसरेणु का एक परिमाण (इक)। पत्र १३० धर्मवि २०)। १५८)'वीरउर, वीरपुर न [वीरपुर] एक नगर रहिअ वि [रहित] परित्यक्त, वजित, शून्य रसिंग देखो रसिअ = रसिक (पंचा २,३४० (राजा विसे २५५०) (उवा, दं ३२)। रसिर वि [रसित] मावाज करनेवाला रहई भरभसा वेग से (स ७६२) रहिअ वि [रहित] एकाकी, अकेला (वव १)।. (सरण)। रहंग पुंस्त्री [रथाङ्ग] १ चक्रवाक पक्षी, चकवा रहिअ वि [दे रहा हुआ, स्थित (धर्मवि रसोइ (अप) देखो रस-बई (भवि)। (पामः सुर ३,२४७, कुमा)। स्त्री. गी (सुपा २२)। ४६८० सुर १०, १८५, कुमा)। २ न. रस्सि पुंस्त्री [रश्मि १ किरण, ‘भरहं समा रहु पु [रघु] १ सूर्य वंश का एक स्वनाम चक्र, पहिया (पान)। सियानो पाइचं चेव रस्सीओ' (पउम ८०, ख्यात राजा (उत्तर ५०)। २ पु. ब. रघु६४; पार; प्राप्र)। २ रस्सी, रज्जु (प्रासू रहट्ट देखो अरहट्ट (गा ४६०; पि १४२)। वंश में उत्पन्न क्षत्रिय (से ४, १६)। ३ पु. ११७) रहण न [दे] रहना, स्थिति, निवास (धर्मवि श्रीरामचन्द्र; 'ताहे कयंतसरिसी देइ रहु रह अक [दे] रहना। रहइ, रहए, रहेइ २१ रयण ६)। रिवुबले दिठ्ठी' (पउम ११२, २१)। ४ (पिंग; महा; सिरि ८६३), रहसु, रहह रहण न [रहन] १ त्याग । २ विरति, विराम: कालिदास-प्रणीत एक संस्कृत काव्य-ग्रन्थ (सिरि ३५५; ३५३)। 'रसरहणं' (पिंग)। (गउड)। 'आर [ कार] रघुवंश नामक रह सक [रह ] त्यागना, छोड़ना (कप्पू: रहमाण पु [दे] १ यवन मत का एक | संस्कृत काव्य-ग्रन्थ का कर्ता, कवि कालिदास पिंग)। तत्त्व-वेत्ता (मोह १००)। २ खुदा, अल्ला, (गउड)। णाह [नाथ] १ श्रीरामचन्द्र रह ' [रभस] उत्साह, 'पुणो पुणो ते स-रहै परमेश्वर (ती १५)। (से १४, १६, पउम ११३, ५५)। २ दुहेंति' (सूत्र १, ५, १, १८)। देखो रहस पु [रभस १ औत्सुक्य, उत्कण्ठा लक्ष्मण (से १४,६२) तणय पुं[तनय रहस = रभस । (कुमा)। २ वेग। ३ हर्ष। ४ पूर्वापर का वही अर्थ (से २, १; १४, २६)। तिलय रह पुन [रहस्] १ एकान्त, निर्जन; 'तत्य अविचार (संक्षि ७; गउड)। पुं ["तिलक] श्रीरामचन्द्र (सुपा २०४)। रहो त्ति आगच्छ' (कुप्र ८२), 'लहु मे रह रहस देखो रहस्स = रहस्यः 'रहसाभक्खाणे' त्तम पुं[ उत्तम वही अर्थ (पउम १०२, देसु (सुपा १७४ वजा १५२)। २ प्रच्छन्न, (उवा, संबोध ४२ सुपा ४५४)। १७६), 'पुंगव पुं[पुङ्गव वही (स ३, गोप्य (ठा ३, ४)। रहसा म [रभसा] वेग से (गउड)। ५ हे २, १८८ ३, ७०)। 'सुअ पुं रह पुन [रथ] १ यान-विशेष, स्यन्दनः 'धम्मस्स रहस्स वि [रहस्य] १ गुह्य, गोपनीय (पामः [सुत] वही (से ५, १६)। निवारणपहे रहाणि' (सत्त १८, पापा कुमा)। सुपा ३१८)। २ एकान्त में उत्पन्न, एकान्त रहों देखो रह = रहस् (कप्पः औप) कम्म २ पुं.एक जैन महर्षि (कप्प) कार पुं[कार] का (हे २, २०४)। ३ न. तत्व, तात्पर्य, न [कर्मन] एकान्त-व्यापार (ठा - रथ-निर्माता, वर्धकि, बढ़ई (सुपा ४४४; भावार्थ (प्रोष ७६०, रंभा १९)। ४ अपवाद पत्र ४६०)। कुप्र १०४ उव), चरिया स्त्री [चर्या] स्थान (बृह ६)। रा सक [रा देना, दान करना। राइ (धात्वा रथ को हाँकना; 'ईसत्थसत्थरहचरियाकुसलो रहस्स वि [ह्रस्व] १ लघु, छोटा (विपा १, (१४६) । (महा)। जत्ता स्त्री [ यात्रा] उत्सव-विशेष | -पत्र ८३)। २ एक मात्रावाला स्वर रामक [1] शब्द करना, आवाज करना । (सुपा ५४१, सुर १६, १६, सिरि ११७५)। (उत्त २६, ७२)। राइ (प्राकृ ६६)। 'णेउर न [ नूपुर नगर-विशेष (परम २८, रहस्स न [हास्व] १ लाघव, छोटाई । मंत राप्रकाली] श्लेष करना. चिपकना ७. इक)। णेउरचक्कवाल न ['नूपुर वि [वत् ] लघु, छोटा (सूम २,१,१३) (षड्)। चक्रवाल] वैताच्य पर्वत पर स्थित एक रहस्सिय वि [राहसिक] प्रच्छन्न, गुप्त राअला स्त्री [दे] प्रियंगु, मालकाँगनी (दे नगर (पउम ५, ६४, इक), 'नेमि पु (विपा १, १-पत्र ५)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राइ-राम पाइअसहमहण्णवो ७०६ राइ देखो रत्ति (हे २, ८८, काप्र १८६ राइल वि [रागिन् ] राग-युक्त ( देवेन्द्र राज देखो राय% राजन् (हे ४, २६७; पि महा; षड् )। २ चमरेन्द्र की एक अन- २७८)। १६८)। महिषी (ठा ५, १--पत्र ३०२)। ३ राई स्त्री [राजी] देखो राइम्राजि (गउड; राजस वि [राजस] रजो-गुण-प्रधान, 'राजईशानेन्द्र के सोम लोकपाल की एक पटरानी सुपा ३४ भासू ६२; पव २५६)। सचित्तस्स पुरस्स' (कुप्र ४२८) । (ठा ४, १--पत्र २०१), "भत्त न राई स्त्री रात्रि देखो राइस रात्रि (पामा राडि स्त्री [राटि] बम, चिल्लाहट (मुख [भक्ता रात्रि-भोजन, रात में खाना (सुपा गाया २-पत्र १५०प्रोप: सुपा ४६१९२१५ ४८५), भोअण न [भोजन] वही कस)। "दिवस न ["दिवस] रात्रिदिवस, राशि ' राडि स्नो [दे. राटि] संग्राम, लड़ाई (दे में अर्थ (सम ३६; कस)। देखो राई = रात्रि ।। अहर्निश (सुपा १२७)। राइ स्त्री [राजि] पंक्ति, श्रेणी (पाम प्रौप)। राईमई स्त्री [राजीमतो] राजा उग्रसेन की | | राढा स्त्री [राढा] १ विभूषा (धर्मसं १०१८; २ रेखा, लकीर (कम्म १, १६, सुपा पुषी और भगवान् नेमिनाथ को पत्नी (पडि) कप्पू)। २ भव्यता (वज्जा १८)। ३ बंगाल १९७)। ३ राई, राज-संर्षप, एक प्रकार का राईव न [राजीव कमल, पद्म (पाम; हे का एक प्रान्त । ४ बगाल देश का एक मसाला (दे ६, ८८) १, १८०)। नगरी (कप्पू)। इत्त वि [वत् ] भव्य राइ वि [रागिन् राग-युक्त, रागवाला (दसा राईसर पुंराजेश्वर] १ राजाओं के मालिक, प्रात्माः ‘गंजरणरहियो धम्मो राडाइताण ६) । श्री. णी (महा)। महाराज । २ युवराज (प्रौपः उवा; कप्प) संपडई' (वज्जा १८), मणि [मणि] राइ वि [राजिन शोभनेवाला (निचू १६) राउत्त धू [राजपुत्र] राजपूत, क्षत्रिय काच-मणि (उत्त २०, ४२) । राई देखो राय = राजन् (हे २, १४८; ३, ( (प्राकृ ३०)। २०) राग सक [वि+नम् ] विशेष नमना । ५२, ५३; कुमा)। राउल पुं [राजकुल] १ राजानों का यूथ, राणइ (?) (धात्वा १४६)। राइअ वि [राजित] शोभित (से १, ५६; राज-समूह (कुमाः हे १, २६७ प्राप्र)। २ कुमा, ६, ६३)। राजा का वंश (षड्)। ३राज-ह. दरबार राणपुराजन् राणा, राजा (चंड सिरि 'णं दिसस्स राउलस्स दूरेण पणामो कीरदि, राइअ वि [रात्रिक] रात्रि-सम्बन्धी (उत्त जत्थ बंभणावि एवं विडंबिज्जंति' (मोह राणय पुं [राजक] १ राणा, राजा (ती २६, ४६; प्रौपः पडि)। ११)। देखो राओल। १५: सिरि १२३, १२५)। २ छोटा राजा राइआ स्त्री [राजिका] राई का गाछ, (सिरि ६८६; १०४०)। राउलिय वि [राजकुलिक राजकुल-सम्बन्धो राणिआ। स्त्री राज्ञिका, 'ज्ञी] रानी, राज'गोलाणई कच्छे चक्खतो राइपाइ पत्ताई' (गा १७१ अ)। देखो राइगा। (सुख २,..) राणी पत्नी (कुमा ३ श्रावक ६३ टी; राइंद पुं[राजेन्द्र] बड़ा राजा (कुमा)। सिरि १२५, २६७)।राउल्ल देखो राइक्क (प्राकृ ३५)। राएसि पु [राजर्षि] १ श्रेष्ठ राजा। २ श्री राजा राइंदिअ ' [रात्रिन्दिव] रात-दिन, अहोरात्र राम सक [रमय ] रमण कराना । कृ. (भगः प्राचा; कप्पः पव ७८ सम २१)। ऋषि-तुल्य राजा, संयतात्मा भूपति (अभि रामेयव्य (भत्त ८५) । ___३६; विक्र ६८ मोह ३)। राम पु[राम १ श्री रामचन्द्र, राजा दशरथ राइक वि [राजकीय] राज-सम्बन्धी (हे २, राओम [रात्रौ] रात में (णाया १,१- का बड़ा पुत्र (गा ३५, उप पृ ३७५; कुमा)। १४८; कुमा) पत्र ६१; सुपा ४६७ कप्प)। २ परशुराम (कुमा १, ३१)। ३ क्षत्रिय राइगा स्त्री [राजिका ] राई, राज-सरसों राओल देखो राउला (कुप्र ४५)। परिव्राजक-विशेष (प्रौप)। ४ बलदेव, बलभद्र, 'तो किषि घणं सयहिं राइणिअ वि [रानिक] १ चारित्रवाला, वासुदेव का बड़ा भाई (पास) । ५ वि. रमनेसंयमी (पंचा १२, ६)। २ पर्याय से ज्येष्ठ, वाला (उप पू ३७५) कण्ह पु[कृष्ण] विलसियं किपि वाणिपुत्तेहि । किपि गयं राम्रोले एस राजा श्रेणिक का एक पुत्र (राज), कण्हा साधुत्व-प्राप्ति की अवस्था से बड़ा (सम अपृत्तत्ति भणिऊण ॥ स्त्री [कृष्णा] राजा श्रेणिक की एक पत्नी ३७ ५८ कप्प) (धर्मवि १४०) (मंत २५)। 'गिरि पु ["गिरि] पर्वतराइणिअपि [राजकल्प] राजा के समान राग देखो राय = राग (कप्पा सुपा २४१) विशेष (पउम ४०, १६) । गुत्त पु वैभववाला, श्रीमन्त (सूम १, २, ३, ३)। रागि देखो राइ=रागिन् (पउम ११७,४१)। [गुप्त] एक राजर्षि (सूम १, ३, ४, २)। राइण्ण राजन्य राजवंशीय, क्षत्रिय राघव देखो राहव । घरिणी स्त्री गहिणी देव पुं[देव श्रीरामचन्द्र (पउम ४५, राइन्न ।(सम १५१, कप्पः प्रौप; भग)। | सीता, जानकी (पउम ४६, ५७) २६) + पुत्त पुं [पुत्र] एक जैन मुनि राइलेऊण संकृ. चीरकर (नंदीटिप्पनक राच पै. पै] देखो राय =राजन् (हे (अनु २) - 'पुरी स्त्रो [पुरा] अयोध्या प्रथिम पादलिप्तकथा वैनयिकी बुद्धि विषयक) राचि४, ३२५, ३०४ प्राप्र) नमरी (तो ११)। रक्खिालो [रक्षिता] क का एक प्र श्री Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० ईशानेन्द्र की एक पटरानी (ठा ८-पत्र ४२६; इक) रामणिज्जअ न [रामणीयक] रमणीयता, सौन्दर्य (विक्र २८)। रामा स्त्री [रामा] १ स्त्री, महिला, नारी (तंदु ५०. कुमा; पामः वजा १०६; उप ३५७ टो)। २ नववें जिनदेव की माता (सम १५१)। ३ ईशानेन्द्र की एक पटरानी (ठा ८-पत्र ४२६, इक) । ४ छन्द-विशेष (पिंग)। रामायण न [रामायण] १ वाल्मीकि-कृत एक संस्कृत काव्यग्रन्थ (पउम २,११६; महा) । २ रामचन्द्र तथा रावण की लड़ाई (पउम १०५, १६)। रामिअ वि [रमित] रमण कराया हुआ (गा ५६, पउम ८०, १६)। रामेसर रामेश्वर दक्षिण भारत का एक हिन्दू-तीर्थ (सम्मत्त ८४)। राय प्रक [राज ] चमकना, शोभना । रायइ (हे ४,१००) । वकृ. राय, रायमाण (कप्प) । राय देखो रा = । राप्रइ (प्राकृ ६६)। राय पु [राग] १ प्रेम, प्रीति (प्रासू १८०)। २ मत्सर, द्वष; 'न पेमराइल्ला' (देवेन्द्र २७८) । ३ रँगना, रंजन । ४ वर्णन । ५ अनुराग । ६ राजा, नरपति । ७ चन्द्र, चाँद । ८ लाल वर्ण । ६ लाल रंगवालो वस्तु। १० वसन्त प्रादि स्वर (हे १,६८)। राय पुं [राजन्] १ राजा, नर-पति, नरेश | (प्राचाः उवाः श्रा २७; सुपा १०३) । २ चन्द्र, चन्द्रमा (श्रा २७, हम्मीर ३; धर्मवि ३) । ३ एक महाग्रह (सुज २०)। ४ इन्द्र । ५ क्षत्रिय । ६ यक्ष । ७ शुचि, पवित्र । ८ श्रेष्ठ, उत्तम (हे ३, ४६; ५०)। ६ इच्छा , अभिलाषा (से १,६)।१० छन्द-विशेष (पिंग) । इअ वि [कीय] राज-संबन्धी (प्राकृ ३५)। उत्त '[पुत्र] राज-पूत, राज कुमार (सुर ३, १६५)। उल देखो राउल (हे १, २६७; कुमाः षड् प्राप्रा अभि १८४)। कीअ देखो ईअ (नाट- शकु १०४) । कुल देखो उल (महा) पाइअसहमहण्णवो रामणिज्जअ-रायस केर, कवि [कीय, राज-संबन्धी (हे टी)। सुअ [सूय यज्ञ-विशेष: 'पिइमे२, १४८; कुमा; षड्), गिह न [गृह] हमाइमेहे रायसुए प्रासमेहपसुमेहे (पउम ११, मगध देश की प्राचीन राजधानी, जो आजकल ४२), सेण पु[°सेन] छन्द-विशेष 'राजगीर' नाम से प्रसिद्ध है (ठा १०-पत्र (पिंग)। सेहर [शेखर] १ महादेव, ४७७; उवाः अंत), "गिहि स्त्री [गृही] शिव । २ एक राजा (सुपा ५२६)। ३ एक वही अर्थ (ती ३) । 'चंपय पु[ चम्पक कवि, कर्पूरमंजरी का कर्ता (कप्पू) हंस वृक्ष-विशेष, उत्तम चम्पक-वृक्ष (था १२) पुंस्त्री [ हंस] १ उत्तम हंस पक्षो। २ श्रेष्ठ धम्म पुं[°धर्म] राजा का कर्तव्य (नाट राजा (सुर १२, ३४; गा ६२४; गउड सुपा उत्तर ४१) धाणी स्त्री [°धानी] राज- १३६, रंभा भवि) स्त्री.सी (सुपा ३३४, नगर, राजा का मुख्य नगर, जहां राजा नाट-रत्ना २३)। हर न [गृह] राजा रहता हो (नाट-चैत १३२) पत्ती स्त्री का महल (पउम ८२, ८६; हे २, १४४)। [°पत्नी] रानी (सुर १३, ५; सुपा ३७५)। 'हाणी देखो धाणीः (सम ८०, पउम २०, "पसेणीय वि [प्रश्नीय] एक जैन आगम- ८)। हिराय, हिराय पुं[अधिराज] ग्रन्थ (राय)। पह [पथ] राज-मार्ग राजाओं का राजा, चक्रवर्ती राजा (काल; (महा; नाट-चैत १३०) । "पिंड पु सुपा १०५)। हिव पुं [धिप] वही अर्थ ["पिण्ड] राजा के घर की भिक्षा-आहार | (सुपा १०५) (सम ३६)। पुत्त देखो उत्त (गउड) राय देखो राव = राव (से ६, ७२) । 'पुर न [°पुर नगर-विशेष (पउम १,८)।-राय पु[दे] चटक, गौरैया पक्षी (दे ७, ४)। पुरिस पुं [पुरुष] राजा का आदमी, राय पुरात्र रात्रि, रात (प्राचा)। राज-कर्मचारी (पउम २८, ४)। मग्ग पुं राय देखो राय = राज् । [ मार्ग] राजपथ, सड़क (औपः महा) 'मास पुं[°माष] धान्य-विशेष, बरबटी रायछुअन [दे] १ वेतस या बेंत का (श्रा १८, संबोध ४३)। राय पुं[ राज] रायंबु ) पेड़ (पान दे ७, १४)। २ पु. राजानों का राजा, राजेश्वर (सुपा १०७)। शरभ (द ७, १४)। सिसि देखो गामि IITY_ रायंस पुं[राजांस ] राज-यक्ष्मा, क्षय का १११, उप ७२८ टी; कुमाः सण) । रुक्ख व्याधि (प्राचा)। पुं [वृक्ष] वृक्ष-विशेष (प्रौप)। लच्छी स्त्री रायंसि वि [राजांसिन् ] राजयक्ष्मावाला, 'लक्ष्मीा राज-वैभव (अभि १३१: महा क्षय कारागा (भाषा) 'ललिय पुं[ललित] पाठवें बलदेव के पूर्व रायगइ स्त्री [दे] जलौका, जोंक (दे ७, ५)। जन्म का नाम (सम १५३) । वट्टय न रायग्गल पुं [राजार्गल] ज्योतिष्क ग्रह[वार्तक] राज-संबंधी वार्ता-समूह (हे २, विशेष (ठा २, ३-पत्र ७८)। ३०)। वल्ली स्त्री [°वल्ली ] लता-विशेष | रायणिअ देखो राइणि रात्निक (उव, (पएण १-पत्र ३६)+ वाडिआ, वाडी पोषभा २२३)। स्त्री [पाटिका, पाटी] चतुरंग सैन्य-श्रम-रायणी स्त्री [राजादनी] खिन्नी, खिरनी का करण, राजा की चतुर्विध सेना के साथ पेड़ (पउम ५३, ७६)।. सवारी (कुमाः कुप्र ११६; १२०; सुपा रायण्ण देखो राइण्ण (ठा ३,१-पत्र ११४ २२२)। सद्ल पुं[शार्दूल] चक्रवर्ती उप ३५६ टी)। राजा, श्रेष्ठ राजा (सम १५२), सिट्टि पुरायनीइ स्त्री [राजनीति राजा की शासन [श्रेष्ठिन् ] नगर-सेठ (भवि)। 'सिरी स्त्री करने की रोति (राय ११७)। [श्री] राज-लक्ष्मी (से १, १३)। सुअरायमइया स्त्री [राजीमतिका] देखो राई [सुत] राजकुमार (कप्पू, उप ७२८ टी)- मई (कुप्र १) सुअ पु[°शुक] उत्तम तोता (उप ७२८ | रायस देखो राजस (स ३; से ३, १५)। For Personal & Private Use Only Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायाण-रिक्ख पाइअसहमहण्णवो ७११ रायाण देखो राय = राजन्; (हे ३, ५६ राह ' [राध] १ वैशाख मास । २ वसन्त रिउ देखो उउ (हे १, १४१, कुमाः पव ऋतु (से १,१३)। ३ एक जैन प्राचार्य | १४१)। राल । पुन [राल, क] धान्य-विशेष, (उप २८५; सुख २, १५)। रिउ वि [ऋजु] १ सरल, सीधा (सुपा रालग एक प्रकार की कंगु (सूम २,२, राह पं दे] १ दयित. प्रिय। २ व ३४६)।२२. विशेष पदार्थ. मान्य-भिन्न रालय । १: ठा -पत्र ४०५, पिंड निरन्तर । ३ शोभित । ४ सनाथ । ५ पलित, वस्तु (पब २७०), सुत्त [मत्र] नय१६२, वजा ३४)। सफेद केशवाला (दे ७,१३)। ६ रुचिर, विशेष (विसे २२३१,२६०८)। देखो उज्जु । राला स्त्री दे] प्रियंगु, मालकांगनी (दे ७, सुन्दर (पास)। | रिउ पुं[रिपु शत्रु, वैरी, दुश्मन (सुर २, राहअ । पुं[राघर] १ रघुवंश में उत्पन्न । ६६ कुमा) महण पुं[मधन राक्षसराव सक [दे] पार्द्र करना। भवि. रावेहिति | राहव । (उत्तर २०)। २ श्रीरामचन्द्र (से वंश का एक राजा (पउम ५, २६३)।(विसे २४६ टी) १२, २२, १, १३, ४७)। रिउ स्त्री [ऋच् ] वेद का नियत अक्षरराव देखोरंज= रजय । रावेइ (हे ४, ४६)। राहा स्त्री [राधा र वृन्दावन की एक प्रधान पादवाला अंश । [1] एक वेदहेक्व. राविउं (कुमा)। गोपी, श्रीकृष्ण की पत्नी (वज्जा १२२ ग्रंथ (गाया १, ५, कप्प)। राव सक [रायय ] पुकारना, अाह्वान करना। पिंग)। २ राधावेध में रखी जाती पुतली रिंखण न [रिक्षण] सर्पण, गति, चाल (पउम वकृ. रावेत (औप)। (उप पृ १३०)। ३ शक्ति-विशेष । ४ कर्ण २५, १२)।राव पुं [राव] १ रोला, कलकल (पान)। का पालन करनेवाली माता (प्राकृ ४२)। रिखि वि [रिडिन] चलनेवाला, 'गिद्धाव२ पुकार, आवाज (सुपा ३४८; कुमा)। मंडव पुं [मण्डप जहाँ पर राधावेध रखि हद्दन्नए (?गिद्ध व रिखी हदन्नए)' किया जाय वह स्थान (सुपा २६६) वेह (पिंड ४७१)। रावण पुं [रावण] १ एक स्वनाम प्रसिद्ध पुं["वेध] एक तरह की वेध-क्रिया, जिसमें रिंग देखो रिंग । रिंगइ, रिंगए (हे ४, २५६ लंका-पति (पि ३६०)। २ गुल्म-विशेष चक्राकार घूमती पुतली की वाम चक्षु बींधी टिः षड् ; पिंग)। वकृ. रिंगत ( हास्य (पएण १-पत्र १२)। जाती है (उप ६३५, सुपा २५५)। राविअ वि [रञ्जित] रंगा हुआ (दे ७, ५)। राहिआ। स्त्री [राधिका] ऊपर देखो (गा रिंगण न [रिङ्गण] चलना, सपण (पद २)।राविअ वि [दे] प्रास्वादित (दे ७, ५)। राही ८६; हे ४, ४४२ प्राकृ ४२)। रिंगणी स्त्री [दे] वल्लो-विशेष, कण्टकारिका, रास [रास, क] एक प्रकार का नृत्य, राह पुं [राह] १ ग्रह-विशेष (ठा २, ३-पत्र गुजराती में "रिंगणी' (दे २, ४, उर २, ८) रासग। जिसमें एक दूसरे का हाथ पकड़कर । ७८; पान)। २ कृष्ण पुद्गल-विशेष (सुज्ज रिंगिअ न [दे] भ्रमण (दे ७, ६)।। नाचते-नाचते और गान करते-करते मंडलाकार २०)। ३ विक्रम की पहली शताब्दी के एक रिंगिअ न [रिङ्गित] १ रेंगना, कच्छप की फिरना होता है (दे २, ३८, पापा बजा | जैन प्राचार्य (पउम ११८, ११७)। तरह हाथ के बल चलना। २ गुरु-वन्दन का १२२ सम्मत्त १४१, धर्मवि ८१) एक दोष (गुभा २४)।राहुहय न [राहुहत] जिसमें सूर्य और चन्द्र रासभ देखो रासह (सुर २, १०२)। रिंगिसिया स्त्री [दे] वाद्य-विशेष (राज)। का ग्रहण हो वह नक्षत्र (वव १) रासय देखो रासग (सुर १, ४६; सुपा ५०० रिंछ (अप) देखो रिच्छ = ऋक्ष (भवि) राहेअराधेय] राधा-पुत्र, कर्ण (गउड) रिछोली स्त्री [दे] पंक्ति, श्रेणी (द ७, ७ ४३३)।रासह पुंस्त्री [रासभ] गर्दभ, गदहा (पाम: रिम [रे] संभाषण-सूचक अव्यय (तंदु ५०; सुर ३, ३१; विसे १४३६ टीः पान; चेइय ५२ टी) प्रातः रंभा)। स्त्री. 'ही (काल)। ४४ सम्मत्त १८८ धर्मवि ३७ भवि)। रासाणंदिअयन [रासानन्दितक] छन्द . रि सक ऋ] गमन करना। कम. प्रज्जए रिंडी स्त्री [दे] कन्थाप्राया, कन्था की तरह का विशेष (अजि १२)। (बिसे १३६६)। फटा-टूटा आच्छादन-वन (द ७, ५)। रासालुद्धय पं रासालुब्धक] छन्द-विशेष रिअ सक [री गमन करना । रियइ, रियंति, रिक्क वि [दे] स्तोक, थोड़ा (दे ७, ६)।(अजि १०)। रिए (सूम २, २, २०, सुपा ४४५; उत्त २४, ४)। वकृ. रियंत (पउम २८, ४)। रिक्क देखो रित्त = रिक्त (माचा; पाना पउम रासि देखो रस्सि (संक्षि १७)। ८, ११८ सुपा ४२२, चउ ३९) रासि पुंस्त्री [राशि] १ समूह, ढग, ढेर (मोघ | रिअ सक[प्र+विश] प्रवेश करना, पैठना। रिक्किा वि [दे] शटित, सड़ा हुआ (दे ७, ४०७; प्रौपा सुर २, ५, कुमा)। २ रिपइ (हे ४, १८३; कुमा)। ज्योतिष्क-प्रसिद्ध मेष प्रादि बारह राशि | रिअन[ऋतर गमन, पुरमा रिय साह- रिक्ख | रिअन [ऋत] १ गमन, 'पुरमो रियं सोह- रिक्ख प्रक [रिख] चलना। वकृ. (विचार १०६)। ३ गणित-विशेष (ठा ४, माणे (भग) । २ सत्य (भग ८, ७) 'गिरिव मच्छिन्मपक्खो अंतरिक्खे रिक्खंतो | रिअ वि [दे] लून, काटा हुमा (षड्) । लक्खिज्जई' (कुप्र ६७)।" For Personal & Private Use Only Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसर महणयो श्रीकृष्ण ने मारा था ( परह १, ४ - पत्र ७२) । ४ पक्षि- विशेष ( पउम ७, १७ ) । ५ न रत्न-विशेष ( चेइय ६१५; भौप; गाया १, १ टी) । ६ एक देव- विमान (सम ३५) ७ पुंग - विशेष रीठा (उत्त १४, ३४, ४) पुरी श्री ["पुरी ] छाती विजय की राजधानी (२, ३पत्र ८० इक) | मणि पुं ['मणि] श्याम -विशेष (सिरि ११६० ) । ४ रिट्ठा स्त्री [रिष्टा ] १ महाकच्छ विजय की राजधानी (ठा २, ३ - पत्र ८०; इक ) । २ पाँचवीं नरक-भूमि (ठा ७-पत्र ३८८ ) । ३ मंदिरा, दारू (राज) ।रिट्ठाभ न [रिष्टाभ] १ एक देव-विमान ( सम १४ ) । २ लोकान्तिक देवों का एक विमान (पव २६७) । रिट्ठि श्री [रिष्टि] १, सलवार (दे७ ६) । २ २ प्रशुभ । ३ पुं. रन्ध्र, विवर (३) [] (७, ६) । रिड स[ मण्डयू ] विभूषित करना ( षड् ) 1 रिन्छ देखो रिक्खा (दे १. १४० २ १९ पार्थ) वि[प] जाम्यवान राम का एक सेनापति से ४, १८४५) । भित[], [ध (दे ७, ७) - रिजु देखो रिउ = ऋच् (भग) । -- रिजु देखो रिउ = ऋजु (विसे ७८४) । रिज देखो रिअ = री। रिज्जइ ( आचा) । रिण [आ] १ करा या उधार लिया हुआ धन (गा ११३; कुमा; प्रासू ७७ ) । २ जल, पानी । ३ दुर्ग, किला । ४ दुर्गं भूमि । ५ आवश्यक कार्यं, फरज । ६ कर्म (हे १, १४१; प्राप्र ) । देखो अण = ऋण । रिजिअ वि [ऋणित ] करमदार ( कुप्र ४३६) । - रिज्जु देखो रहे १४१रिते [ते] सिवाय, बिना (पिंड ३७०) । १७० कुमा) 1 रिक्त वि [रिक्त ] १ खाली, शून्य ( से ७, ११ मा ४६० ६ घोषभा १६६ ) २ न. विरेक, अभाव (उत्त २८, ३३) रिडिअ वि [दे] शातित झड़वाया हुआ (t, x) v म ૨૨ वयः [दे] १२ परिणाम, वृद्धता (दे ७, ६) रिपुं [ऋक्ष] १ भालू, श्वापद प्राणिविशेष (हे २, १९) । २ न. नक्षत्र (पा २६/११ प ป [प] काश (सुर ११ १०१) राय [["राज] वानरवंश का एक राजा (उम ८, २३४) । रिक्खण न [दे] १ उपलम्भ, अधिगम । २ कथन (दे ७, १४) रिक्खा देखो रेहा = रेखा (प्रोघ १७९ ) । रिंग एक [रिक] रंगना, धीरे-धीरे रिग्ग और जमीन से रगड़ खाते हुए चलना । २ प्रवेश करना। रिगइ, रिग्गइ (हे ४, २५६; टि) रिग्ग [दे] प्रवेश (७५) रिच श्रीन, देखो रिड (पि ५६० २१०) श्री. चा (नाट - रत्ना ३६ ) 1 = [] बढ़ना २ मा खुशी होगा। रिम्भद (भ) 1 रिट्ठ [दे. अरिष्ट] १ अरिष्ट, दुरित (षड् पि १४२ ) । २ दैत्य- विशेष (षड् ; से १, ३) । ३ काक, कौना (दे ७, ६ णाया १, १-पत्र ६३० षडू पान ) नेमि पुं ["नेमि] बाईसवें जिनदेव (पि १४२) । रिट्ठ [रिष्ट] १ देव- विशेष, रिष्ट नामक विमान का निवासी देव ( गाया १, ८-पत्र १५१ । २ वेलम्ब और प्रभवन नामक इन्द्रों के लोकपाल (डा ४, १- पत्र १९८ ) । ३ एक दृप्त साँढ, जिसको रित्थ न [ रिक्थ ] धन, द्रव्य (उप ५२० पात्रः स ६० सुख ४, ६ महा) - रिद्ध वि [ऋद्ध] ऋद्धि-संपन्न (गाया १, १३ उवाः श्रप) } रिल्ल अक [दे] शोभना । वकृ. रिलंत (भवि)। सिंह रिवु देखो रिट रिपु म १२ ४१० । = ४४, ५० स १३८ उप ३२१) । रिसभ [ऋषभ] १ स्वर-विशेष ( रिसह । ७- - पत्र ३६३) । २ अहोरात्र का मठास मुह (सम५११०, १३ ) । ३ संहत अस्थि-द्वय के ऊपर का वलयाकार वेष्टन पट्ट 'रिसहो य होइ पट्टों (जीवस ४९) देखो उसम (श्रीफ हे १ १४१ सम १४९३ कम्म २, १९ सुपा (२६०)। रिद्ध वि [दे] पक्क, पक्का (द ७, ६) । रिद्धि स्त्री [दे] समूह, राशि (दे ७, ६) । रिद्धि श्री [] १ संति, समृद्धि, नेमल (पाच विपा २, १ कुमा; सुर २, ११८; रिक्ख-रीड -- For Personal & Private Use Only प्रासू १२; ६२ ) । २ वृद्धि । ३ देव विशेष । ४ घोषधि-विशेष (हे १, १२८ २,४१ पंचा ८ ) । ५ छन्द- विशेष (पिंग) म, ल वि [ मत्] समृद्ध, ऋद्धि-सम्पन्न ( श्रोष ६८४६ पउम ५, ५६ सुर २, ६८ सुपा २२३) सुंदरी स्त्री [सुन्दरी] एक वणिक् कन्या (उप ७२८ टी) ।रिपु देखो रिवु (कप्प ) 1 रिप्प न [दे] पृष्ठ, पीठ (दे ७, ५) 1 रिभिय न [रिभित] १ एक प्रकार का नाव (ठा ४, ४ – पत्र २८५ ) । २ स्वर का घोलन । ३ वि. स्वर-घोलना से युक्त (राज; छाया १, १ - पत्र १३) । रिमिण वि [दे] रोने की प्रादतवाला (दे ७, ७; षड् ) 1 रिरंसा स्त्री [रिरंसा] रमण की चाह मैथुनेच्छा ( श्रज्भ ७९ ) रिरिअ वि [दे] लीन (दे ७, ७) । 'रिसह [ऋषभ ] श्रेष्ठ, उत्तम (कुमा) 1 रिसि ] [ऋषि] गुनि, संत साधु (श्रीफ कुमा सुपा ३१ श्रवि १०१ उप ७६८ टी) चाय [पात] मुनि-हत्या (उप ४६६) रिह सक [प्र + विश् ] प्रवेश करना, पैठना। रिहइ (षड् ) 1 रीअर्ड रीयए, रीयंते, रीइजा (भाचा सूत्र १, री ) प्रक [री] जाना, चलना। रीयइ, २, २, ५ उत्त २४, ७) । भूका. रीइत्या (भाषा)। वह रीयंत, रीयमाणाचा रीइ स्त्री [रीति ] प्रकार, ढंग, पद्धतिः 'तं ज निति नि नवनवरीईद्र' (धर्मनि ३२० कप्पू) । • Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीड-रंजग पाइअसहमहण्णवो ७१३ रीड सक [मण्डय ] अलंकुत करना । रीडइ (ठा २, ३)+ °वर पुं. [°वर] १ द्वीप- रुइअ वि [रुचित] १ अभीष्ठ, पसंद (सुर ७, (हे ४, ११५)। विशेष (सुज १९)। २ पर्वत-विशेष (पएह २४३; महा)। २ ऍन. विमानावास-विशेष, रीडण न [मण्डन] अलंकरण (कुमा) । २, ४-पत्र १३०)। ३ समुद्र-विशेष । ४ एक देव-विमान (देवेन्द्र १३२)। रीढ स्त्रीन [दे] अवगणन, अनादर (दे ७, रुचकवर समुद्र का एक अधिष्ठाता देव (जीव रुइअ देखो रुण्ण = रुदित (स १२०)। ८)। स्त्री. °ढा (पात्र; धम्म ११ टी; पंचा ३-पत्र ३६७) । वरभद्द पुं[वरभद्र] रुइर वि [रुचिर] १ सुन्दर, मनोरम (पान)। २,८; बृह १) उचकवर द्वीप का अधिष्ठायक एक देव (जीव २ दीप्र, कान्ति-युक्त (तंदु २०)। ३ पुंन. रीण वि [रीण] १ क्षरित, स्नुत । २ पीडित ३–पत्र ३६६), 'वरमहाभद्द पुंगवर एक विमानेन्द्रक, देवविमान-विशेष (देवेन्द्र (भत्त २)। महाभद्र] वही अर्थ (जीव ३) वरमहावर १३१)। रीर अक [ राज ] शोभना, चमकना, दीपना। [वरमहावर] रुचकवर समुद्र का एक रुइर वि [रोदित रानेवाला। स्त्री. री (पि रीरइ (हे ४,१००) अधिष्ठाता देव (जीव ३) वरावभास पुं ५६६, गा २१६ अ)। रीरिअ दि [राजित] शोभित (कुमा)। [°वरावभास] १ द्वीप-विशेष । २ समुद्र विशेष (जीव ३)। वरावभासभ६ पुं रीरी स्त्री [रीरी] धातु-विशेष, पीतल (कुप्र रुइल वि [°रुचिर, ल] १ शोभन, सुन्दर (ोप; रणाया १, १ टी तंदु २०)। २ दीप्त, ११, सुपा १४२) । [°वरावभासभद्र] रुचकवरावभास द्वीप का एक अधिष्ठाता देव (जीव ३) । वरावभास चमकता हुआ (पएह १, ४–पत्र ७८० सूम रु स्त्री [रुज् ] रोग, बीमारी; 'अरु (? रू) २, १, ३)। ३ पुंन. एक देव-विमान (सम उवसरगो' (तंदु ४६)। महाभद्द पुं [वरारभासमहाभद्र] वही रुअ अक [रुद्] रोना। रुपइ (षड् ; संक्षि अर्थ (जीव ३) + वरावभासमहावर पुं रुइल्ल न [रुचिर, रुचिमत् ] एक देव[वरावभासमहावर] रुचकवरावभास ३६; प्राकृ ६८; महा)। भवि. रोच्छ (हे ३, विमान (सम १५)। कंत न [कान्त] नामक समुद्र का एक अधिष्ठाता देव (जीव १७१)। वकृ. रुआं, रुअंत, रुयमाण (गा एक देव-विमान (सम १५), कूड न [कूट] ३), वरावभासवर पुं[वरावभासवर] २१६, ३७६; ४००; सुर २, ६६; ११२; एक देव-विमान (सम १५) उभय न वही अर्थ (जीव ३–पत्र ३६७) । वरोद ४, १२६)। संकृ. रोत्तूण (कुमाः प्राकृ [ध्वज देवविमान-विशेष (सम १५)। पुं [वरोद] समुद्र-विशेष (सुज १६) ३४)। हेकृ. रोत्तुं (प्राकृ ३४)। कृ. रोत्तव्य प्पभ न [प्रभ] एक देवविमान (सम 'वरोभास देखो वरावभास (सुज १९)। (हे ४, २१२ से ११, १२)। प्रयो. रुयावेइ १५)। लेस न [लेश्य एक देवविमान विई स्त्री [विती] एक इन्द्राणी (णाया (महा), रुझावंति (पुष्फ ४४७) । (सम १५) वण्ण न [वणे] देवविमान२–पत्र २५२) । द पु[ोद] समुद्ररुअन [रुत] शब्द, पावाज (से १, २८ विशेष (सम १५), सिंग न [शृङ्ग] विशेष (जीव ३–पत्र ३६६)।णाया १, १३; पव ७३ टो)। एक देवविमान (सम १५) सिट न रुअगिंद पु[रुचकेन्द्र] पर्वत-विशेष (सम रुअ देखो रूअ = रूप (इक) । [सृष्ट] एक देवविमान (सम १५) वित्त ३३)। न [वत्त] एक देवविमान (सम १५):रुअ देखो रूअ% (दे) (प्रौप)। रुअगुत्तम न [रुचकोत्तम] कूट-विशेष रुइल्लुत्तस्वडिसग न [रुचिरोत्तरावतंक) रुअंती स्त्री [रुदती] वल्ली-विशेष (संबोध एक देव विमान (सम १५)। ४७)। रुअण न [रोदन] रुदन, रोना (संबोध ४)। संच सक रुञ्च 1 रुई से उसके बीज को रुअंस देखो रूअंस (इक)। रुअय देखो रुअग (सम ६२)। अलग करने की क्रिया करना। वकृ. रुंचत रुअग पुं [रुचक] १ कान्ति, प्रभा (पएह | रुअरुइआ स्त्री [दे] उत्कण्ठा (दे ७, ८) (पिंड ५७४)। . १, ४-पत्र ७८ प्रौप)। २ पर्वत-विशेष 'नगुत्तमो होइ पव्वरो रुयगो' (दीव)। ३ रुआ स्त्री [रुज् ] रोग, बीमारी (उव, धर्मसं रुचण न [रुश्चन] रुई से कपास को अलग द्वीप-विशेष (दीव)। ४ एक समुद्र (सुज ५६८)। करने की क्रिया (पिंड ५८८) । १९)। ५ एक विमानावास-देव-विमान रुआविअ वि [रोदित] रुलाया हुआ (गा रंचणी स्त्री [दे] घरट्टी, दलने का पत्थर-यन्त्र (देवेन्द्र १३२)। ६ न. इन्द्रों का एक । ३८६)। (दे ७,८)।आभाव्य विमान (देवेन्द्र २६३)। ७ रत्न- । रुइ स्त्री रुचि]१ कान्ति, प्रभा, तेज (सुर रंज प्रक [रु] आवाज करना। रंजइ (हे ४, विशेष (उत्त ३६, ७६, सुख ३६, ७६)।। ७,४; कुमा)।२ अनुराग, प्रेम (जो ५१)। ५७ षड्) ८ रुचक पर्वत का पाँचवाँ कूट (दीव)। ६ ३ आसक्ति (प्रासू १६६)। ४ स्पृहा, अभि- रंजग ' [दे. रुञ्चक] वृक्ष, पेड़, गाछः 'कुहा निषध पर्वत का पाठवाँ कूट (इक), 'प्पभ लाष । ५ शोभा। ६ बुभुक्षा, खाने की महीरुहा वच्छा रोवगा रुंजगाई प्र' (दसनि न [प्रभ] महाहिमवंत पर्वत का एक कूट। इच्छा । ७ गोरोचना (षड्)। For Personal & Private Use Only Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ रंजिव न ( स ४२० ) | रुंट देखो रंज । रुंइ ( हे ४, ५७; षड् ) । यह ट स ६२ प १०५ ५५ टंत ( गउड) 1 रुंटणया स्त्री [दे] अवज्ञा, अनादर ( पिंड २१० ) 1 रुंटणिया बी [ वणिका ] रोदन-क्रिया ( गाया १, १६ - पत्र २०२ ) रुटि न [] गुण श्रावाज 'टिनं विपा कुमा) 1 रुंड पुंन [रुण्ड] बिना सिर का घड़, कबन्धः 'पडिया य मुंडरूंडा' (कुप्र १३५; गउड भविः सरण) । पाइअसद्दमहणव [रवण] शब्द, धावाज, पर्जना भय वि[रोधक] रोकनेवाला (१०१) स । भावि वि [रोधित] रुकवाया हुआा, बंद किया हुआ (श्रा २७) । - रुंभिज वि [रुद्ध] रोका हुआ (हेना १९; सुपा १२७ ) । - रुक्क न [दे] बैल आदि की तरह शब्द करना ( धरण २६ ) 1 रुक्किणी देखो रुप्पिणी (पि २७७)। रुक्ख पुंन [वृक्ष ] पेड़, गाछ, पादप ( गाया १, १ हे २, १२७ प्राप्र; उब कुमाः जी २७३ प्रति ६ प्रासू १६८ ); 'रुक्खाई, रुक्खाणि' (पि ३५८ ) । २ संयम, विरति ( सूझ १, ४, १, २५) । मूल न ["मूल ] पेड़ की जड़ ( स ) मूलिय["मूलिक] कुल के मूल में रहनेवाला वानप्रस्थ (धोपस्ते "सत्थन [शास्त्र ] वनस्पति-शास्त्र ( स १११)विवेद ["युर्वेद] वही (विसे १७७५) । रुक्खल्ल ऊपर देखो ( षड् ) । रुक्खिम पुंस्त्री [वृक्षत्व ] वृक्षपन ( षड् ) ।रुभ्ग वि [रुग्ण] भग्न, भाँगा हुमा (पान; गउड; ५६१) । वृक्ष श्रर्थं सक [दे] पीसना सति सम्मति भूका, रुचिसु, रुच्चिसुः भवि. रुचिस्सति, रुचिस्संति (भाचा २, १, ६, ५) । रुचिर देखो रुइर (दे १, १४६) । रुच्च क [रुच्] रुचना, पसन्द पड़ना । रुचइ, रुचए ( वजा १०६ महा; सिरि १०६६ भवि । वकृ. रुच्चंत, रुच्चमाण (भवि उप १४३ टी) ढपुं [दे] श्राक्षिक, कितव, जूग्राड़ी (दे ७, ८) [] ७८ रुंद व [दे] विपुल प्रदे७, १४ गा ४०२; सुपा २१३; वजा १२८ १६२ ) । २ विशाल, विस्तीर्णं (विसे ७१०: स ७०२ पत्र ६१० श्रौष) । ३ स्थूल, मोटा, पीन (पान) । ४ मुखर, वाचाल (दे ७, १४) । रुंदी श्री [दे] पिस्तोता, लम्बाई (बजा १६४) । धसक [ रुध् ] रोकना, अटकाना । रुंधइ (हे ४, १३३; २१८) | कर्म, संधिजइ, रुभइ, रुभए ( हे ४, २४५३ कुमा) । वकृ. 1 (मारुत रुम्भमाण, रुज्यंत ( पउम ७३, २६, से ४, १७; विधि (अभि ५०) 1 रंधिअवि [रुद्ध] रोका हुआ (कुमा) । रुप पुंन [दे] १ त्वचा, सूक्ष्म छाल (गा ११६; १२० वजा ४२ ) । २ उल्लिखन (४२) । पण न [रोपण] रोपाना वापन ( पिंड १६२ ) । रुफ देखी रंभ देतो यकृत (पि ५३५) (से, ३) 1रंमण न [रोधन] रोक, ( परह १, १ कुप्र ३७७ २०० ) 1 न कराना वपन हे ४,२१८ प्रा रभिव्य घटकाव, भवरोध गा ६६० ) । रुप रुञ्च रुंजिय- रुप्प 1 रुवि [रुद्ध] रोका हुधा (कुमा रुज्झिअ 1 रुट्टिया श्री [दे] रोटी (सट्ठि ३१) | रुद्ध [वि] [रुष्ट] रोग-युक्त (सुर २ १२१ ) २. नरकवास-विशेष देवेन्द्र २८ ) । रुरुण न [दे] करुण क्रन्दन (भवि ) । रुरुण क [दे] करुण वन्दन करना । erous ( वज्जा ५० भवि ) । वकृ. रुणरुणंत (मवि)। रुच्च सक [दे] व्रीहि आदि को यन्त्र में निस्तुष करना । वकृ. रुच्चंत (गाया १, ७--पत्र ११७) । = | रुचि देखो रुचि (कप्पू) रुच्छ देखो रूख (१५) - रुच्मि देखो रूपि (हे २, ५२: कुमा) । रुज्जन [रोदन] नरोनाहा णीसासा, रणरणयो, रुज्जगग्गिरं गे (गा ८४३) । - रुझ देखो रुध । रुज्झइ (हे ४, २१८ ) । रुा देख वह रुज्यंत देखो रुध । = For Personal & Private Use Only रुगुरुण देखो रुणरुण ( पउम १०५, ५८ ) । रुणुरुणि वि [] करुण क्रन्दनवाला (उम १०५, ५८ ) । रुण्ण न [रुदित] रोदन, रोना (हे १, २०१; प्राप्रः गा १८ ) 1 रुद देखो रिते (४) । रुस्थिणी देलो रुपिणी (प) - देखी रुण्य (नाट मालती १०६) - रुदिअ - [रुद्र ] १ महादेव शिव ( सम्मत्त १४५५६) २ शिवमूर्ति विशेष (गाया १, १ - पत्र ३९ ) । ३ जिन देव, जिन भगवान् ( पउम १०६, १२) । ४ परमाधामिक देवों की एक जाति (सम २८ ) । ५ नृप - विशेष, एक वासुदेव का पिता (पउम २०, १८२ सम १५२ ) । ६ ज्योतिष्क देव-विशेष (ठा २, ३ - पत्र ७७६ सुज्ज १०, १२) । ७ श्रंग-विद्या का जानकार पुरुष (विवार ४८४) वि. कर भजन (सम्मत्त १४५ ) । देखो रोद्द = रुद्र । - रुद्द देखो रोद्द = रौद्र (सम 8 ) । रुद्दक्ख पुं [रुद्राक्ष ] वृक्ष-विशेष (पउम ५३, ७६ ) 1 रुद्दाणी स्त्री [ रुद्राणी] शिव-पत्नी, दुर्गा ( समु १५४) । रुद्ध [रुद्ध] रोका हुआ (कुमा) । रुद्र देखो रुद्द (हे २,८० ) 1 रुन्न देखो रुण्ण (सुर २, १२६) । रूप्प सक [ रोपय् ] रोपना, बोना 'सहयारमरियदेरुपसि सूरतु (धर्मवि ६७) रूप्प न [ रुक्म] १ काञ्चन, सोना । २ लोहा । ३ धतूरा ४ नागकेसर ( प्राप्र ) । ५ चांदी, रजत (जं ४) । Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१५ कुमारी-म विशिपम रुप्प-रूढ पाइअसहमहण्णवो रुप्प न [रूप्य] चाँदी, रजत (प्रौपः सुर ३, | (पएण १-पत्र ३५)। ३ एक अनार्य कंत पुं[कान्त] १-२ पूर्णभद्र और ६; कप्पू)। कूड पुं [कूट] रुक्मि पर्वत | देश । ४ एक अनायं मनुष्य-जाति (पएह १, विशिष्ट नामक इन्द्र का एक लोकपाल (ठा का एक कूट (राज)। कूलप्पवाय पुं १-पत्र १४)। ४, १)। कंता स्त्री [कान्ता] १ भूतानन्द [ कूलप्रपात] द्रह-विशेष (ठा २, ३- | रुरुव प्रक[रोरूय ] १ खूब आवाज करना। नामक इन्द्र को एक अग्र-महिषी (णाया २पत्र ७३) कला स्त्री कला] १ एक । २ बारंबार चिल्लाना। वकृ. रुरुवेत (स पत्र २५२)। २ एक दिक्कुमारी-महत्तरिका महानदी (ठा २, ३–पत्र ७२; ८० सम | २१३) । (राज) पभ पु[प्रभा पूर्णभद्र और २७; इक)। २ एक देवी। ३ रुक्मि पर्वत रुल अक [लुठ] लेटना। वकृ. स्लंत, विशिष्ट नामक एक लोकपाल (ठा ४,१.-..-पत्र का एक कूट (जं ४)। "मय वि [मय] रुलिंत (पण्ह १, ३–पत्र ४५, 'पडियगय- १९७ १९८), पमा स्त्री [ प्रभा] १ चाँदी का बना हुआ (णाया १, १-पत्र घडतुरयं रुलंतवरसुहडधडसयाइन्नं' (धर्मवि भूतानन्द इन्द्र की एक अग्र-महिषी [णाया ५२; कुमा)। भास [भास एक | ८०)। २–पत्र २५२)। २ एक दिक्कुमारी देवी ज्योतिष्क महा-ग्रह (ठा २, ३-पत्र ७८)- रुलुघुल प्रक[६] नीचे साँस लेना, निःश्वास (ठा ६-पत्र ३६१)। देखो रूव = रूप रुप्प वि [शैप्य] रूपा का, चाँदी का (णाया डालना । वक. रुलुघुलंत (भवि) (गउड)।१,१-पत्र २४ उर ८, ४)। रुव देखो रुअ% रुद् । रुवइ (हे ४, २२६; रूअंस पु [रूपांश] १-२ पूर्णभद्र और रुप्पय देखो रुप्प = रूप्य; 'रुप्पयं रययं' प्राकृ६८ संक्षि ३६; भवि; महा), रुवामि विशिष्ट इन्द्र का एक लोकपाल (ठा ४,१(पाम महा)। (कुप्र ६९)। कर्म. रुव्वइ, रुविज्जइ (हे ४, पत्र १६७; १९८)। २४६)। रूअंसा स्त्री [रूपांशा] १ भूतानन्द्र इन्द्र की सप्पि पुं[रुक्मिन] १ कौण्डिन्य नगर का स्वण न [रोदन] रोना (उप ३३५)। एक राजा, रुक्मिणी का भाई (णाया १, एक अग्र-महिषी (पाया २-पत्र २५२) । रुवणा स्त्री, ऊपर देखो (मोघमा ३०)। १६-पत्र २०६; कुमा; रुक्मि ४२)। २ २ एक दिक्कुमारी देवी (ठा६-पत्र ३६१)। रूअग) पून [रूपक] १ रुपया (हे ४, कणाल देश का एक राजा (णाया १,८-- | रुवणा स्त्री [रोवणा प्रारोपणा, प्रायश्चित्त | रूअय४२२१। २. एक गहस्थ (गाया पत्र १४०)। ३ एक वर्षधर-पवंत (ठा २, का एक भेद (वव १)। २-पत्र २५२) । ३ रूपा देवी का सिंहासन ३–पत्र ६६; सम १२; ७२)। ४ एक रुविल देखो रुइल (प्रौप)। (णाया २--पत्र २५२)। वडिसय न ज्योतिष्क महा-ग्रह (ठा २, ३–पत्र ७८)। रुव्व देखो मअ = रुद् । रुव्वइ (संक्षि ३६ । [वतंसक] रूपा देवी का भवन (णाय। ५ देव-विशेष (जं ४)। ६ रुक्मि पर्वत का २) । "सिरी स्त्री [ श्री] एक गृहस्थ स्त्री एक कूट (जं ४)। ७ वि. सुवर्णवाला। ८ रुसा स्त्री [रोष रोष, गुस्सा (कुमा)। (गाया २)। गवई स्त्री [पती] भूतानन्द चाँदी वाला (हे २, ५२ ८६)। कूड पुन रुसिय देखो रूसिअ (पउम ५५, १५)। नामक इन्द्र को एक अग्र-महिषी (णाया २)। [कूट] रुक्मि पर्वत का एक कूट (ठा २, रुह मक [रुह ] १ उत्पन्न होना । २ सक. . देखो रूवय = रूपक । सम६३) घाव को सुखाना। रुहइ (नाट)। कर्म. रूअरूइआ [दे] देखो रुअरुइआ (षड् )।रुप्पिणी स्त्री [रुक्मिणी] १ द्वितीय वासुदेव 'जेरण विदारियट्ठीवि खग्गाइपहारो इमीए रूआ स्त्री [रूपा] १ भूतानन्द इन्द्र की एक को एक पटरानी (पउम २०, ,१८६१। २ पक्खालणोयएणंपि पणट्टवेयणं तक्खणा चेव मन-महिषी (गाया २–पत्र २५२)। २ श्रीकृष्ण वासुदेव की एक अग्र-महिषी (पउम रुज्झइ त्ति' (स ४१३)। एक दिक्कुमारी देवी (ठा ४, १-पत्र २०, १७ पडि)। ३ एक श्रेष्ठि-पत्नी रुह वि [रुह] उत्पन्न होनेवाला (माचा)। (सुपा ३३४)। रहण न [रोधन] निवारण (वव १) । रूआमाला स्त्री [रूपमाला] छन्द-विशेष रुप्पोभास पू[रूप्यावभास] १ एक रुहरुह मक [दे] मन्द मन्द बहना, 'वामगि । (पिंग)। महाग्रह (सुज्ज २०)। २ वि. रजत की सुत्ति रुहरुहइ वाउँ (भवि)। रूआर वि रूपकार] मूत्ति बनानेवाला, तरह चमकता (जं ४)। रुहुरुह्य पुंदे] उत्कण्ठा (भवि)। मोत्तमजोरगं जोग्गे दलिए रूवं करेइ रूमारो' रूअ न [दे.रूत रुई, तूल (दे ७, ९, (विसे १११०). रुब्भमाण कप्पः पब ८४: देवेन्द्र ३३२, धर्मसं ९८०रूआवई स्त्रीरूपवती] एक दिक्कुमारी देवी रुम्मिणी देखो रुप्पिणी ( षड्)। भगः संबोध ३१)। (ठा ४, १-पत्र १९८)। रुम्ह सक [म्लापय् ] म्लान करना, मलिन रूअ पुं[रूप] १-२ पूर्णभद्र और विशिष्ट रूढ वि [रूढ] १ परंपरागत, रूढि-सिद्ध । २ करना । प-रुम्हाइ जस' (से ३, ४)। नामक इन्द्र का एक लोकपाल (ठा ४, १- प्रसिद्ध; 'रूढक्कमेण समे नराहिवा तत्थ रुरु पुं[रुरु] १ मृग-विशेष (पउम ६, ५६; पत्र १९७)। ३ प्राकृति, माकार (गा उवविट्ठा' (उप ६४८ टी)। ३ प्रगुण, पएह १,१-पत्र ७)। २ वनस्पति-विशेष । १३२)। ४ वि. सदृश, तुल्य (दे ६ ४६) तंदुरुस्त (पान) रुभंत देखो रुंध । For Personal & Private Use Only Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो रूढ-रेवा रूढ वि [रूढ] उगा हुआ, उत्पन्न (दस ७, रूवसिणी देखो रूवमिणी (षड् )। रेणु पुंस्त्री [रेणु] १ रज, धूलो (कुमा)।२ ३५) । रूवा देखो रूआ (इक)। पराग (स्वप्न ७६) रूढि स्त्री [रूढि] परम्परा से चली आती रूवि वि [रूपिन् रूपवाला (प्राचाः भगः रेणुया स्त्री [रेणुका] प्रोषधि-विशेष (पएण प्रसिद्धि, 'पोसहसद्दोरूढीए एत्थ पध्वाणुवायनो | स८३)। १-पत्र ३६) भणियो' (सुपा ६१५; कप्पू)। रेभ पुं [रेफ] १ 'र' अक्षर, रकार (कुमा)। रूवि पुंस्त्री [दे] गुच्छ-विशेष, अर्क-वृक्ष, प्राक रूप पुंरूप] पशु, जानवर (मृच्छ २००)। २ वि. दुष्ट । ३ अघम, नीच ! ४ क्रूर, निर्दय । का पेड़ (पएण १-पत्र ३२; दे ७,६) रूअ = रूप (ठा ६–पत्र ३६१)। ५ कृपण, गरीब (हे १, २३६; षड्) । रूस अक [रुष] गुस्सा करना। रूसइ, रेरिज्ज प्रक [राराज्य ] अतिशय शोभना। रूपि पुं [रूपिन् ] सौनिक, कसाई (मृच्छ । एसए (उव; कुमाः हे ४, २३६; प्राकृ६८; वकृ. रेरिज्जमाण (गाया १,२--पत्र ७८ २००)। षड) । कर्म. रूसिज्जइ (हे ४, ४१८)। १, ११--पत्र १७१)। रूरुइयन [३] उत्सुकता, रणरणक (पाप) हेकृ. रूसिउं, रूसेड (हे ३, १४१: पि रेल्ल सक [प्लावय] सराबोर करना । वकृ. रूव पुंन [रूप] १ आति, आकार (णाया ५७३) । कृ. रूसिअव्व, रूसेयव्व (गा रेल्लंत (कुमा) १, १; पात्र) । २ सौन्दर्य, सुन्दरता (कुमाः ४६६; परह २, ५-पत्र १५०; सुर १६, रेल्लि स्त्री [दे] रेल, स्रोत, प्रवाह (राज)। ठा ४, २, प्रासू ४७, ७१)। ३ वर्ण, शुक्ल ६४)। प्रयो., संकृ. रूसविअ (कुमा)। रेवइनक्खत्त [रेवतीनक्षत्र प्रार्य नागआदि रंग (औपः ठा १, २, ३)। ४ मूत्ति रूसण न [रोषण] १ रोष, गुस्सा (गा ६७५; हस्ती के शिष्य एक जैन मुनि (णंदि ५१)।. (विसे १११०)। ५ स्वभाव (ठा ६)। ६ हे ४, ४१८) । २ वि. गुस्साखोर, रोष करने रेवइय ' [रैवतिक] स्वर-विशेष, रैवत स्वर शब्द, नाम । ७ श्लोक। ८ नाटक आदि वाला (सुख १, १४; संबोध ४८)। (अणु १२८)।दृश्य काव्य (हे १, १४२)। ६ एक की रूसिअ वि [रुष्ट] रोष-युक्त (सुख १, १३; रेवइय न [रेवतिक] एक उद्यान का नाम संख्या, एक (कम्म ४, ७७ ७८; ७६ ८०; रे प्र[रे] इन अर्थों का सूचक ८१)। १०-११ रूपयाला, वर्णवाला (हे अव्यय-१ रेवइआ स्त्री [रेवतिका] भूत-ग्रह विशेष १, १४२) । १२-देखो रूअ, रूप = रूप । परिहास । २ अधिक्षेप (संक्षि ४७)। ३ (सुख २, १६) संभाषण (हे २, २०१; कुमा)। ४ आक्षेप 'कता देखो रूअ-कंता (ठा ६-पत्र ३६१; रेवई स्त्री [रेवती] १ बलदेव की स्त्री (कुमा)। इक)। जक्ख पुं[यक्ष ] धर्मपाठक __ (संक्षि ३८)। ५ तिरस्कार (पब ३८)। । २ एक श्राविका का नाम (ठा ६-पत्र (व्यव. भा० गा० ६१४)। धार वि रेअ [रेतस् ] वीर्य, शुक्र (राज)। ४५५; सम १५४)। ३ एक नक्षत्र (सम [धार रूप-धारी; 'जलयरमज्झगएणं अणे- | रेअव सक [मुच्] छोड़ना, त्यागना । रेप- ५७)। .. गमच्छाइवधारेणं' (खा)। पभा देखो वह (हे ४, ६१) । रेवई स्त्री [दे. रेवती] मातृका, देवी (दे ७, रूअ-प्पभा (इक). मंत देखो वंत (पउम रेअविअ वि [मुक्त] छोड़ा हुआ, त्यक्त १२, ५७; ६१, २६)। वई स्त्री [°वती] | (कुमाः दे ७, ११)। रेवंत पुं [रेवन्त] सूर्य का एक पुत्र, देव१ भूतानन्द नामक इन्द्र की एक अग्र-महिषी रेअविअ वि दे. रेचित] क्षणीकृत, शून्य विशेषः 'रेवंततणभवा इव अस्सकिसोरा (ठा ६–पत्र ३६१) । २ सुरूप नामक किया हुआ, खाली किया हुआ (दे ७, ११, सुलक्खणिणो' (धर्मवि १४२, सुपा ५६)। भूतेन्द्र की एक अग्र-महिषी (ठा ४, १-पत्र पाम से ११, २)। रेवजिअ वि [दे] उपालब्ध (दे ७, १०)। २०४) । ३ एक दिक्कुमारी महत्तरिका (ठा रेआ स्त्री [8] १ धन। २ सुवर्ण, सोना ६)वंत, स्सि वि ["वत् ] रूपवाला, (षड् )। रेवण पुं [रेवण] व्यक्ति-वाचक नाम, एक रेइअ वि [रेचित] रिक्त किया हुआ (से साधारण काव्य-ग्रंथ का कर्ता (धर्मवि सुरूप (श्रा १०, उवा, उप पृ३३२, सुपा १४२) । ७, ३१)। ४७४: उव)। रेकिअ वि [दे] १ आक्षिप्त । २ लोन । ३ । रेवय न [दे] प्रणाम, नमस्कार (दे ७, ६). रूवग पुंन [रूपक] १ रुपया (उप पृ २८०; वीडित, लजित (दे ७, १४) रेवय पु[रैवत ] गिरनार पर्वत (णाया धम्म ८ टी; कुप्र ४१४) २ साहित्य-प्रसिद्ध एक अलंकार (सुर १, २९; विसे REE टी)। रेकार पु [रेकार] 'रे' शब्द, 'रे' की आवाज | १,५-पत्र ६६ अंत: कुप्र १८) (पव ३८)। रेवय पु[रैवत] स्वर-विशेष (अणु १२७)।देखो रूअग = रूपक । रेटि देखो रिट्ठि (संक्षि ३)। रेवलिआ स्त्री [दे] वालुकावत, धूल का रूवमिणी स्त्री [दे] रूावती स्त्री (दे ७, ९)। | रेणा स्त्री [रेणा] महर्षि स्थूलभद्र की एक प्रावतं (दे ७, १०)। रूवय देखो रूवग (कुप्र १२३, ४१३; भास भगिनी, एक जैन साध्वी (कप्प; पडि)। रेवा स्त्री [रेवा] नदी-विशेष, नर्मदा (गा ३४)। | रेणि पुंस्त्री [दे] पङ्क, कदम (दे ७, ६) ५७८; पाम कुमाः प्रासू ६७) । For Personal & Private Use Only Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेसणिआ-रोमंचिअ पाइअसद्दमहण्णवो रेसणिआ। स्त्री [दे] १ करोटिका, एक रोअ सक [ रोचय] निर्णय करना। रोपए रोगिणिआ स्त्री [रोगिणिका] रोग के कारण रेसणी प्रकार का कांस्य-भाजन (पान (दस ५,१,७७)। ली जाती दीक्षा (ठा १०-पत्र ४७३) । दे७,१५) । २ अक्षि-निकोच (दे ७, १५) रोअरोच रुचि, रोगिल्ल देखो रोगि (प्रामा) रेसम्मि देखो रेसम्मि, जो उण सद्धा-रहियो 'दुक्कररोया विउसा बाला रोघस वि [द] रंक, गरीब (दे ७, ११) दणिं देइ जसकितिरेसम्मि' (स १५७) भणियेपि नेव बुझंति।। रोच्च देखो रोंच । रोच्चइ (षड् ) रेसि (अप) देखो रेसिं (हे ४, ४२५ सण)- तो मज्झिमबुद्धीरणं हियत्यमेसो | रोज्झ पुं [दे] ऋश्य, पशु-विशेषः गुजराती में रेसिअ वि दे] छिन्न, काटा हुमा (दे ७, पयासो में' (चइय २६०)। 'रोझ' (दे ७, १२, विपा १, ४ पान) रोअ [रोग] प्रामय, बीमारी (पास)। रोट्र पूंन [दे] १ तंदुल-पिष्ट, चावल प्रादि का रेसिं (अप) नोचे देखो (हे ४, ४२५) । रोअग वि रोिचक] १ रुचि-जनक । २ न. पाटा, पिसान, गुजरातो में 'लोट' (दे ७, रेसिम्मि अ. निमित्त, लिए, वास्तेः 'दसण- सम्यक्त्व का एक भेद (संबोध ३५; सुपा ११योघ ३६३३७४ पिंड ४४ बृह १). नाणचरित्ताण एस रेसिम्मि सुपसत्थों (पंचा ५५१) । | रोट्टग पू[दे] रोटी, रोट (महा)। १६, ४०) रोअण न [रोदन] रोना, रुदन (दे ५, १०, रोड सक [दे] १ रोकना, अटकाना। २ रेह अक [राज ] दीपना, शोभना, चमकना । कुप्र २३५, २८६)। अनादर करना। ३ हैरान करना । रोडिसि (स रेहइ, रेहए (हे ४, १००; धात्वा १५०; रोअण ' [रोचन] १ एक दिग्रहस्ति-कूट | ५७५)। कवकृ.रोडिजंत (उप पू १३३) । महा)। वकृ. रेहंत (कप्प)। (इक) । २ न. गोरोचन (गउड)। रोड न [दे] घर का मान, गृह-प्रमाण (दे रेहा स्त्री रेखा] १ चिह-विशेष, लकीर रोअणा स्त्री [रोचना] गोरोचन (से ११, ७, ११)। (मोघ ४८६; गउड; सुपा ४१ वजा ६४)। ४५; गउड)। रोडी स्त्री [दे] १ इच्छा, अभिलाषा । २ वणी २ पंक्ति, श्रेणि (कप्पू)। ३ छन्द-विशेष रोअणिआ स्त्री दि] डाकिनी, डाइन (दे ७, की शिबिका (दे ७,१५)।(पिंग) . १२; पान)। रोत्तव्य देखो रुअ = रुद । रेहा स्त्री [राजना] शोभा, दीप्ति (कप्पू)। रोअत्तअ देखो रोअ = रुद । रोद्द पु[रौद्र] १ अहोरात्र का पहला मुहूर्त १२ पण रोआविअ वि रोदित] रुलाया हया (गा (सम ५१)। २ एक नृपतिः , तृतीय बलदेव ३५७, सुपा ३१७)। और वासुदेव का पिता (ठा 8-पत्र ४४७)। रेहिअ वि [राजितशोभित (सुर १०, | रोइ वि रोगिन् रोगवाला, बीमार (गउड)। ३ अलंकार-शास्त्र-प्रसिद्ध नव रसों में एक रस (अणु) । ४ वि. दारुण, भयंकर, भीषण रेहिर वि [ रेखावत् ] रेखावाला (हे २, रोइ देखो रुइ = रुचिः 'अवि सुंदरेवि दिएरणे (ठा ४,४महा) । ५ न. ध्यान-विशेष, दुक्कररोई कलहमाई' (पिंड ३२१) १५६) । हिंसा प्रादि कर कर्म का चिन्तन (औप) रोइअ वि [रोचित १ पसंद आया हुआ रोह रेहिर । वि [राजित] शोभनेवाला (सुर रुद्र] अहोरात्र का पहला मुहूर्त रेहिल्ल १,५०सुपा ५९), 'नयरे नयरे । (सुज्ज १०, १३) । देखो रुद्द = रुद्र ।हिल्ले' (उप ७२८ टी) रोइर वि [रोदित] रोनेवाला (गा ३८६ रोद्ध वि [दे] १ कूणिताक्ष। २ न. मल (दे रेहिल देखो रेहिर = रेखावत् (उप ७२८ षड्)। ७. १५)।टी) रोंकण वि [दे] रंक, गरीब (दे ७, ११)। रोम पुन रोमन् लोम, बाल, रोंपा (प्रौप; रोअ देखो रुअ = रुद् । रोपइ (संक्षि ३६ प्राकृ रोंच सक [पिष्] पीसना। रोंचइ, (हे ४, | पाम गउड) । कूव पु [कूप] लोम का ३८) । वकृ. रोअंत, रोयमाण (गा ५४६; | १८५)। छिद्र (गाया १, १-पत्र १३, सुर २, उप पृ १२८ सुर २, २२६)। हेकृ. रोउं रोका विदेप्रोक्षित. प्रति सिक्त (षड)- १०१)। (संक्षि ३७)। कृ रोअत्तअ, रोइअव्व (से रोक्कणि ) विदे१ श्रृंगी, अंगवाला। रोमन रोम खान में होता लवण (दस ३, ४८; गा ३४८ हेका ३३) । रोकणि २ नृशंस, निर्दय (दे ७, १६) ३, ८) । रोअ देखो रुञ्च = रुच् । रोयइ, रोयए (भग; रोग पुं [रोग] १ बीमारी, व्याधि (उवाः र रोमंच ( [रोमाञ्च] रोंगों का खड़ा होना, उव), 'रोएइ जं पहूणं तं चेव कुणंति सेवगा भय या हर्ष से रोंगों का उठ जाना, पुलक निच्चं' (रंभा)। वकृ. रोयंत (श्रा ६)। पएह १, ४) । २ एक ब्राह्मण-जातीय श्रावक रोअ सक [रोचय ] १ रुचि करना। २ । (कुमाः काल, भविः सण)। (उप ५३६)। रोमंचइअ) वि [रोमाश्चित] पुलकित, पसन्द करना, चाहना । रोयइ, रोएमि, रोएहि रोगि वि [रोगिन् बीमार (सुपा ५७६) रोमंचिअ जिसके रोम खड़े हुए हों वह (उत्त १८, ३३, भग)। संकृ. रोयइत्ता रोगिअ वि [रोगिक, त] ऊपर देखो (सुख (पउम ३, १०४; १०२, २०३; पामः (उत्त २६, १)। १, १४) भवि)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ रोमंथ [रोमन्ध] पराना चवाई हुई वस्तु का पुन: चबाना, पागुर (से ६, ८७ पान; सरण) । रोमंथ ) क [ रोमन्थय् ] चबाई हुई रोमंथाअ ) चीज का फिर से चबाना, पगुराना, जुगाली करना। रोमंचर (हे ४,४३) वकृ. रोमंथाअमाण (चारु ७) । रोमग पुं [रोमक] १ श्रनायें देश-विशेष, } रोमय रोम देश (पत्र २७४ २ रोम देश में रहनेवाली मनुष्य जाति ( परह १, १--पत्र १४) । रोमय [रोमज ] पक्षि-विशेष, रोम की पखाला पक्षी (जी २२ ) - रोमराइ श्री [हे] जपन, नितम्ब (०, १२) । रोमास [] पेट, उदर (दे ७, १२) ।रोमस [वि] [रोमश] रोम-युक्त, रोमवाला (दे ३, ११, पाथ) । ७, २; कुप्र५८) रोटा की [रोखा ] छन्-विदेष (पिंग) - रोव देखो रुअ =रुद् । रोवइ (हे ४, २२६; संक्षि ३६; प्राकृ ६८ षड् महाः सुर १०, १७१ भवि ) । वकृ. रोवंत, रोवमाण ( पठम १७, ३७; सुर २, १२४:६, २३५ पउम रोमंथ - रोहिणिअ रोवण (पि १०६) रोड [रोह] १ एक जैन मुनि (धन) २ पाइअसद्दमद्दण्णवो ११०३५) वि स १०० ) IV रोव पुं [दे. रोप ] पौधा, गुजराती में 'रोपों' ( सम्मत्त १४४) । - रोवण न [रोदन] रोग (सुर रोवण न [रोपण] वपन, बीज १) । रोवाविज देखो आविअ (ना २ ) । रोविअ वि [रोपित ] १ बोया हुआ । २ स्थापित ( से १३, ३० ) 1 ७६) । बोना (वय रोमूसल न [ दे] जघन, नितम्ब (दे७, १२) । [] चौथी -भूमि का एक ११ नरकावास (ठा ४, ४ - पत्र २६५ ) । रवि [दे] रंक, गरीब, निर्धन (दे ७, पानः सुर २, १०५ सुपा २६६ ) । रोरु पुं [रोरु] सातवीं नरक-पृथिवी का एक नरकावास (देवेन्द्र २४; इक) । रोरुअ [रोरफ, रीरख] १ रनमा नरक पृथिवी का दूसरा नरकेन्द्रक - नरकावासविशेष (देवेन्द्र ३) । २ रत्नप्रभा का तेरहवाँ नरकेन्द्रक (देवेन्द्र ५ ) । ३ सातवीं नरक पृथिवी का एक नरकावास नरक स्थान (ठा ५, ३-२४२५० की नरक भूमि का एक नरकावास (ठा ४, ४पत्र २६५) । - रोल [दे] १७.१५)। २ र फोलाइलाज दि७, १५० पा कुमाः सुपा ५७६; चेइय १८४० मोह ५) । रोलंब पुं [दे. रोलम्ब] भ्रमर; मधुकर (दे रोह देखो रुध । संकृ. रोहिऊण, रोहे (काल; बृह ३) । रोविंदय न [ दे] गेय-विशेष, एक प्रकार का गान (ठा ४, ४ – पत्र २८५ ) । रोविर देवो रोइर (७, ७० कुमाः हे २, १४५) - रोविर व [शेपयित्] बोने १४५) २ रोस देखो रूस । रोसइ (?) ( धावा १५०)। रोस पुं [रोष ] गुस्सा, क्रोध (हे २, ११०; ११) इस वि[]] रोष ( संक्षि २० प्राप्त) - रोसण वि [ रोषण] रोष करनेवाला, गुस्साखोर उप १४७ मुख १, १३) । रोसवि वि [रोषित] कोपित कुपित किया ११० १३ ) 1 रोसाण सक [ मृज् ] मार्जन करना, शुद्ध करता। ऐसा हे १, १९६६ षड् ) । - रोसाणि नि [ए] शुद्ध किया हुआ, मार्जित (पान कुमा: पिंग) रोसिअ देखो रोविअ (उम ९९ ११ भवि ) । रोह धक [ह] उत्पन्न होना। रोहति (गवड ) 1 [रो' [रोध] १ रा. नगर यादि का सैन्य से वेष्टन (गाया १, ८-पत्र १४६ उप पु १५८२ रोक, अटकाव १ य ४६३ (पुण्फ १०६) रोह पुं [ रोधस् ] तट, किनारा ( पाच ) 1 ( For Personal & Private Use Only प्ररोह, वरण आदि का सूख जाना (दे ६, ६५) । ३ वि. रोहक, रोहण कर्त्ता (भवि) 1 रोह पुं [दे] १ प्रमाण । २ नमन । ३ मा गँग (दे ७, १६) । रोग वि[रोधक] घेरा डालनेवाला, घटकाव करनेवाला; 'रोहगसंजुत्तीए रोहिप्रो कुमारेण ' ( स ६३५ ); 'रोहगसंजुत्ती उरा कीरउ (सुर १२, १०१) रोग देखो रोहरो ६२५ र रोहग पुं [रोहक] एक नट-कुमार (उप १२, १०१) । २१५) । रोहगुत्त [रोहगुप्त ] १ एक जैन मुनि (कप्प ) । २ त्रैराशिक मत का प्रवर्तक एक भाचार्य (विसे २४५२) । रोहण न [रोधन] १ अटकाव ( श्रारा ७२ ) । २ वि. रोकनेवाला ( द्रव्य ३४) । रोहण व [रोहण] १ चढ़ना, श्रारोहण (सुपा ४२६ ३९९ २ अपत्ति (विसे १७५३) । ३ पुं. पर्वत- विशेष (सुपा ३२ कुप्र, ६) । ४ एक दिग्हस्ति - कूट : ( इक) । रोहिअ [दे] देखो रोज्झ (दे ७, १२ पान परह १, १ - पत्र ७ ) । रोहिअ वि [रोधित] घेरा हुआ, 'रोहियं पाडलिपुरं ते ' ( धर्मंवि ४२: कुप्र ३६९; स ६३५) । - रोहिल [वि] [रोहित] १ सुनाया हुआ (भाव) ( उप पृ ७६) । २ पं. द्वीप - विशेष (जं ४) । ३ पुं. मत्स्य- विशेष (स २५७ ) । ४ न. तृणविशेष ( पराग १ - पत्र ३३) । ५ कूटविशेष (ठा २, ३ ८ ) 1 रोहिअंस [हितोरा ] एक द्वीप (जं ४) रोहिंअंस श्री [रोहितांशा ] एक नदी रोहिअंसा ) (सम २७; इक) पवाय पुं [प्रपात ] द्रह-विशेष (ठा २, ३ जं ४ ) | रोहिअप्पवाय [रोहिताप्रपात ] द्रह - विशेष (ठा २, ३ – पत्र ७२) । रोहिआ की [रोहित, रोहिता] एक नवी (सम २७ इकठा २, ३ - पत्र ७२८० ) । रोहिंसा श्री [रोहिदेशा] एक नदी (एक) IV रोहिणिअ [रौहिणेय ] एक प्रसिद्ध चोर का नाम (श्रा २७) । Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणी-लंछ पाइअसहमहण्णवो ७१६ रोहिणी स्त्री [रोहिणी] १ नक्षत्र-विशेष (सम नववें बलदेव का माता का नाम ( सम शक्रेन्द्र के एक लोकपाल की पटरानी (ठा १०)। २ चन्द्र की पत्नी (था १६) । ३ १५२)। ६ एक विद्या देवी (संति ५) । ४,१-पत्र २०४)। १० तप-विशेष (पव मोषधि-विशेष (उरा ३४, १०० सुर १०, २७१, पंचा १६ २३)। ११ गो, गैया ७ शफ्रेन्द्र की एक पटरानी (ठा ८-पत्र (पान), रमण पूं [रमण] चन्द्रमा २२३)। ४ भविष्य में भारतवर्ष में तीर्थंकर ४२६)। ८ सत्पुरुष नामक किंपुरुषेन्द्र की (पास)। रोहीडगन [रोहोतक नगरहोनेवाली एक श्राविका (सम १५४)। ५ । एक अग्र-महिषी (ठा ४, १-पत्र २०४)।। विशेष (संथा ६८)। ॥ इन सिरिपाइअसहमहण्णवम्मि रपाराइसहसंकलणो तेतीसइमो तरंगो समत्तो॥ ल ल] मूर्ध-स्थानीय अन्तस्थ व्यजन [शोक] राक्षस वंश का एक राजा | लंध सक [लघु , लङ्घय ] १ लाँधना, वर्ण-विशेष (प्राप्र)। (पउम ५, २६५)+ हिव पुं [°धिप] अतिक्रमण करना। २ भोजन नहीं करना । लइ प्र. ले, अच्छा , ठीक (भवि) । लंका का राजा (उप पृ ३७५) । हिवइ | लंघइ, लंघेइ (महाभवि)। कर्म. लंधिज्जइ लइ देखो लय = ला। पु[धिपति] वही अर्थ (पउम ४६, १७)। (कुमा) । वकृ. लंघत, लंघयंत (सुपा २७१; लइअ वि [दे. लगित] १ परिहित, पहना लंका स्त्री [दे] शाखा (वज्जा १३०)। पउम ६७, २१)। संकृ. लंपित्ता, लंघिऊण हुना। २ अंग में पिनद्ध (दे ७, १८ पिंड (महा)। हेकृ. लंघेउं (पि ५७३)। कृ. लंख । पुंस्त्री [लङ्क बड़े बाँस के ऊपर खेल | ५६१: भवि)।| लंखगकरनेवाली एक नट-जाति (गाया १, | लंघणिज (से २, ४४), लंघ (कुमा १, लइअल्ल पु[दे] वृषभ, बैल (दे ७, १९)। । १-पत्र २, पण्ह २, ५-पत्र १३२, प्रौपः १७)। लइआ स्त्री [लतिका, लता] देखो लया कप्प) । स्त्री. खिगा (उप १०१४) । लंघण न [लङ्घन] १ अतिक्रमण (सुर ५, (नाट-रला ७; गउड; उप ७६८ टी)। लंगल न [लाङ्गल] हल, 'खित्तेसु वहति | १९२)। २ अ-भोजन (उप १३५ टी) । लइणा स्त्री दि] लता, वल्ली (षड् ; दे लंगलाण सया' (धर्मवि २४, हे १, २५६, लंघि वि [लडिन लंघन करनेवाला (कप्पू)।। लइणी ७, १८)। षड्८०)। लंघिअ वि [लचित] जिसका लंघन किया लउअ ' [लकुच] वृक्ष-विशेष, बड़हल का लंगलि पू[लाङ्गलिन्] बलभद्र, बलदेव गया हो वह (गउड) । गाछ (ोप; पि ३६८)। (कुमा)। लंच पुं[दे] कुक्कुट, मुर्गा (दे ७, १७) । लउडलकट] लकड़ी,लाठी, डंडा, ल उर, लंगलि। स्त्री [लागली ] वल्ली-विशेष, लंचा स्त्री लिञ्चा] घुस, रिश्वत, उत्कोच(पात्र लउल । यष्टि (दे ७, १६; सुर २, ८, औप)। लंगली ) शारदी लता (कुमा)। पएह १, ३-पत्र ५३; दे १,६२, ७, १७; लउस । पुलकुश] १ अनार्य देश-विशेष लंगिम पुंस्त्री दे] १ जवानी, यौवन । २ सुपा ३०८)। लउसय ) (पव २७४; इक) । २ पुंस्त्री.लकुश ताजापन, नवीनताः पिसुणइ तणुलट्ठी लंगिमं लंचिल्ल वि [लाश्चिक ] घूसखोर, रिश्वत देश का निवासी मनुष्य । स्त्री. सिया (णाया चंगिमं च (कप्पू)। १,१-पत्र ३७; औपः इक) ले कर काम करनेवाला (वव १)। लंका स्त्री [लङ्का] नगरी-विशेष, सिंहलद्वीप की | लंगूल न [लागूल] पुच्छ, पूंछ (हे १, लंछ सक [लञ्छ] १ भाँगना, तोड़ना। राजधानी (से ३, ६२; पउम ४६, १६ । २५६; पापः कप्पः कुमा) २ कलंकित करना। कर्म. लंछिज्जइ (दसनि कप्प)। 'लय विलय लंका-निवासी (वजा लंगूलि वि [लालिन्] पुच्छवाला, पशु ८, १४) । १३०)। सुंदरी श्री [सुन्दरी हनूमान की । (कुमा)। | लंछ पुं [लञ्छ] चोरों को एक जाति (विपा एक पत्नी (पउम ५२, २१), 'सोग लंगोल देखो लंगूल (सुज्ज १०, ८) १,१-पत्र ११)। For Personal & Private Use Only Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० पाइअसद्दमहण्णवो लंछण-लक्खणा लंछण न [लाञ्छन] १ चिह्न, निशानी लंबिअ । वि [लम्बित] १ लटकता हुधा लक्ख सक [लक्षय ] १ जानना। २ (पाम)। २ नाम । ३ अंकन, चिह्न करना लंबिअय) (गा ५३२: सुर ३, ७०)। २ पुं पहचानना। ३ देखना । लक्खइ (महा)। (हे १, २५, ३०)। वानप्रस्थ का एक भेद (प्रौप) । कर्म. लक्खिजए, लक्खीयसि (विसे २१४६ लंछणा स्त्री [लान्छना] चिह्न करना (उप लंबिर वि [लम्बित] लटकनेवाला (कुमाः | महाः काल) । कवकृ. लक्खिजंत (से ११, ५२२)। गउड)। ४५)। कृ. लक्खणीअ (नाट--शकु २४), लंछिअ वि [लाञ्छित] चिह्नित, कृत-चिक लंबअ विलम्बकी लम्बी लकडी के अन्त । लंबुअ वि लिम्बुका १ लम्बी लकड़ी के अन्त देखो लक्ख = लक्ष्य । (पव १५४ णाया १, २-पत्र ८६, ठा भाग में बैंधा हमा मिट्टी का ढेला। २ भीत | लक्ख पुन [द] काय, शरार, यह (५७, ३, १; कसः कप्पू)। में लगा हुमा ईंटों का समूह (मृच्छ ६) १७) । लंडुअ वि [दे. लण्डित] उत्क्षिप्त, चंडप्प- लंबत्तर पंन लिम्वोत्तर कायोत्सर्ग का एक लक्ख पुन [लक्ष] संख्या-विशेष, लाख, सौ हजार वादलंडुओ विन वरंडो पव्वदादो दूरं आरो दोष, चोलपट्ट को नाभि-मंडल से ऊपर रख- (जी ४५; सुपा १०३, २४८; कुमाः प्रासू विन पाडिदो म्हि' (चारु ३) कर और जानु को चोलपट्ट से नीचे रख कर | ६६) पाग पु[पाक] लाख रुपयों के लतक। पु [लान्तक १ एक देवलोक, कायोत्सर्ग करना (चेइय ४८४)। व्यय से बनता एक तरह का पाक (ठा )। लंतग छठवाँ देवलोक (भगः प्रौप; अंत; लंबुस पुंन [दे.लम्बूष कन्दुक के प्राकार | लक्ख वि [लक्ष्य] १ पहचानने योग्य चिरलंतय । इक)। २ एक देवविमान (सम का एक प्राभरण, 'छत्तं चमर-पडाया दप्पण- लक्खगो' (पउम ८२, ८४)। २ जिससे २७, देवेन्द्र १३४)। ३ षष्ठ देवलोक के लंबूसया वियाणं च' (पउम ३२, ७६% जाना जाय वह, लक्षण, प्रकाशक; 'भुप्रदप्पबीनिवासी देव । ४ षष्ठ देवलोक का इन्द्र (राजः ६६, १२)। अलक्खं चाव' (से ५, १७)। ३ वेध्य, ठा २, ३-पत्र ८५)। लंबोदर । वि [लम्बोदर] १ बड़ा पेटवाला निशानाः 'लक्खविंधण-(धर्मवि ५२; दे लंद पुंन [लन्द] काल, समय (कप्पः पव) लंबोयर (सुख १, १४उवा)। २ पृ. २, २६; कुमा)। ७०)। गणपति, गणेश (श्रा १२; कुप्र ६७)। लक्ख देखो लक्खा (पडि)। लंदय पुंन [दे] कलिन्दक, गो आदि का लंभ सक [ लभ ] प्राप्त करना, 'अजेंवाहं लक्खग वि [लक्षक] पहचाननेवाला (पउम खादन-पात्र (पव २)। न लंभामि अवि लाभो सुए सिया' (उत्त २, ८२, ८४; कुप्र ३००)। लंपड वि [लम्पट] लोलुप, लालची, लुब्ध ३१)। भवि. लंभिस्सं (पि ५२५) । कम. लक्ख ण पुंन [लक्षण] १ इतर से भेद का (पामा सुपा १०७; ५६६; सुर ३, १०)। लंभीअदि, लंभीआमो (शौ) (पि ५४१)। बोधक चिह्न। २ वस्तु-स्वरूप (ठा ३, ३; लंपाग [लम्पाक] देश विशेष (पउम १८, संकृ. लंभिअ, लंभित्ता (मा १६; नाट ४, १; जी ११, विसे २१४६; २१४७; ५६)चैत ६१; ठा ३, २)। २१४८) । ३ चिह्नः लक्खरणपुरणं' (कुमा)। लंपिक्ख [६] चोर, तस्कर (दे ७, १९) लंभ सक [लम्भय ] प्राप्त करना। संकृ. ४ व्याकरण-शास्त्र; 'लक्खणसाहित्तपमाणलंब सक [लम्ब] १ सहारा लेना, पालम्बन लंभिअ (नाट-चैत ४४) । कृ लंभइदव्य । जोइसाईणि सा पढई' (सुपा १४१, ६५७)। करना। २ अक. लटकना । लंबेइ (महा)। (शौ), लंणिज्ज, लंभणीअ (मा ५१; ५ व्याकरण आदि का सूत्र । ६ प्रतिपाद्य, वकृ. लंबंत, लंबमाण (प्रौप; सुर ३,७१,४, नाट-मालती ३६, चैत १२५)। विषय (हे २, ३) । ७ पु. लक्ष्मण । ८ २४२, कप्पः वसु)। संक. लंबिऊण (महा) लंभ पालामा प्राप्ति (पउम १००, ४३ सारस पक्षीः 'लक्खणों' (प्राकृ २२)। लंब वि [लम्ब] लम्बा, दीर्घ; 'उट्ठा उट्टस्स से ११, ३१, गउड; सिरि ८२२, सुपा संवच्छर पु[संवत्सर] वर्ष-विशेष (सुज चेव लंबा' (उवा; गाया १, ८-पत्र ३६४) । देखो लाह = लाभ । १०, २०)। लंभण पुलम्भन] मत्स्य की एक जाति लक्खण पुं लक्ष्मण] श्रीराम का छोटा लंब [दे] गोवाट, गो-बाड़ा (दे ७, २६)। (विपा १, ८ टी-पत्र ८४)। भाई (से १, ४८) । देखो लखमण ।। लंबअ न [लम्बक] ललन्तिका, नाभि-पर्यन्त लंभिअ देखो लंभ = लम् , लम्भय । लक्खण न [लक्षण] कारण, हेतु (दसनि लटकती माला प्रादि (स्वप्न ६३)। | लंभिअ वि [लब्ध] प्राप्त (नाट-चैत | १, १४)। लंबणा स्त्री [लम्बना] रज्जु, रस्सी (स | १२५) । लक्खणा स्त्री [लक्षणा] १ शब्द-वृत्ति विशेष, लंभिअ वि [लम्भित] प्राप्त कराया हुआ, शब्द की एक शक्ति, जिससे मुख्य अर्थ के लंबा स्त्री [दे] १ वल्लरी, लता ( षड्)। २ प्रापित (सूम २, ७, ३७ स ३१०; मच्नु बाध होने पर भिन्न अर्थ की प्रतीति होती है केश, बाल (षड् ; दे ७, २६) । ७१) (द १, ३) । २ एक महौषधि (ती ५)।। लंबार्ली स्त्री [दे] पुष्प-विशेष (दे ७, १६)। लक्कुड न [दे. लकुट लकड़ी, यष्टि, छड़ी, लक्खणा स्त्री [लक्ष्मणा] १ पाठवें जिनदेव की लंबि बि [लाम्बन्लटकता (गउड)। लाठी (दे ७, १६, पान)।। । माता (सम १५१) । २ उसी जन्म में मुक्ति For Personal & Private Use Only Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्खणिय - लज्जु पानेवाली श्रीकृष्ण की एक पत्नी ( अंत १५) । ३ एक श्रमात्य की स्त्री (उप ७२८ टी) लक्खणिय वि [लाक्षणिक, लाक्षण्य] १ लक्षणों का जानकार । २ लक्षण युक्त (सुपा १३६) । [लक्ष्मण] विक्रम को बारलखमण हवीं शताब्दी का एक जैन मुनि और बाकार (सुवा ६१८) - लक्खा स्त्री [लाक्षा ] लाख, लाह, जतु, चपड़ा ( गाया १, १ – पत्र २४; परह २, ५) । रुणिय वि [रुणित] लाख से रंगा हुआ ( पाच ) 1 लक्खवि [लक्षित ] १ जाना हुआ । २ पहचाना हुआ। ३ देखा हुश्रा (गउड; नाटरत्ना १४) । लगन [दे] निकट, पास (पिंग ) 1लगंड न [लगण्ड ] वक्र काष्ठ (पंचा १८, १६ स ५६६) साइ वि [ "शायिन् ] वक्र काष्ठ की तरह सोनेवाला (परह २, १ - पत्र १००; श्रौप; कस; पंचा १८, १६० ठा ५, १ - पत्र २६६ ) - 1 (सन [[सन ] श्रासन - विशेष (सुपा ८५) । लगुड देखील ( २८२) । संबंध लग्ग [ लग्] लगना, संग करना, करना । लग्गइ (हे ४, २३० ४२०, ४२२; प्राकृ ६८; प्राप्रः उत्र ) । भवि लग्गिस्सं, · लग्न ( प ५२७)। लमांत , लग्गमाण (चेइय ११२ उप ६६६; गा १०५ ) । सं. गूण (कुम ६६ ). गवि (र) (हे ४, ११९). लग्ग (सुर १०, ११२) । लग्गन [दे] १ चिह्न | २ वि. अघटमान, असम्बद्ध (दे ७, १७) । लग्गन] [लग्न] १ मेष प्रादि राशि का उदय (सुर २, १००० मोह १०१ ) २ वि. संत संबद्ध (पाम कुमार २५६) । ३. स्तुतिपाठक (२६८) लग्गणन [ लगन] संग, संबन्ध; 'वडपायबालगणे (सुर १५४१३४ ४३०) 1 ६१ पाइअसहमहावी लग्गणय पुं [ लग्नक ] प्रतिभू, जमानत करनेवाला, जामीन (पाच) 1 लग्गूण देखो लग्ग = लग् । लघिम पुंस्त्री [लघिमन्] १ लघुता, लाघव । २ योग की एक सिद्धि, जिसके प्रभाव से मनुष्य छोटा बनता है। 'चिज समि अनिल सवि लाघवं साहू ( कुप्र २७७ ) | ३ विद्या-विशेष (पउम ७, १३६) । लच्छ देखो लक्ख = लक्ष्य (नाट) 1 लच्छ देखो लभ । लच्छण देखो लक्खण लक्षण (सुपा Ex; प्राकृ २२; नाटचैत ५५ ) । लच्छ ) बी [लक्ष्मी ] १ संपत्ति, वैभव । २ लच्छी । धन, द्रव्य । ३ कान्ति । ४ श्रौषधविशेष । ५ फलिनी वृक्ष । ६ स्थल पद्मिनी । ७ हरिद्रा । ८ मुक्ता, मोती । ६ शटी नामक श्रोषधि (कुमा; प्राकृ ३० हे २, १७) । १०] [भ] २, ११११ (पाय से २ ११ १२ रावण की एक पत्नी ( पउम ७४, १० ) । १३ षष्ठ वासुदेव की माता (पउम २० १०४ १४ द्रह की अधिष्ठात्री देवी (ठा २, ३ - पत्र ७२) । १५ देव-प्रतिमा विशेष (गाया १, १ टी - - पत्र ४३ ) । १६ छन्द - विशेष (पिंग) १७ एक वणिक्-पत्नी (७२८ टी) । १८ शिखरी पर्वत का एक कूट (इक) । निलय पुं ['निलय] वासुदेव (२०१७) मई श्री [मती] देवी माता (सम १५२ ) २ ग्यारहवें चक्रवर्ती का श्री (सम १५२ ) । 'मंदिर न [° मन्दिर ] नगर- विशेष (सुपा ६३२) । बइ पुं [पति ] लक्ष्मी का स्वामी, श्रीकृष्ण (प्राकृ ३० ) । वई स्त्री ['वती ] दक्षिण रुचक पर रहनेवाली एक दिक्कुमारी देवी (ठा ४६) हर [धर ] १ वासुदेव ( पउम ३८,३४) । २ छन्दविशेष (पिंग ) । ३ न. नगर - विशेष (इक) । खजुक (भो) देखो रज्जु (३) (कम्प रज्जु) 1 = २१५: भवि) । लचय न [दे] तृण-विशेष, गण्डुत् तृरण (दे लज्ञा श्री [लज्जा ] १ लाज शरम ( श्रौप ७, १७ ) 1 कुमा; प्रासू ६६: गा ६१० ) । २ छन्द - विशेष (पिंग ) । ३ संयम ( भग २, ५३ श्रप लज्ज क [स्] शरमाना । लज्जइ ( उव महा)। कर्म. लज्जिज्जइ (हे ४, ४१९ ) । ७२१ वकृ. लज्जंत, लज्जमाण ( उप पृ ५५; महा; चाचा) क ला१ि१.२६. छाया १८ पत्र १४३) For Personal & Private Use Only लज्जग न [लज्जन] १ शरम, लाज लज्जणय (साप राज ) । २ वि. लज्जाकारक; 'किं एत्तो लज्जरणयं जं पहजिददो पलायमा पते या मु अशी) वि[वि] जाने याला साप मा ४२ ) । लज्जालु वि [लज्जालु ] लज्जावान् शरमिंदा ( उप १७६ ठी) । लज्जालु at [ लज्जालु ] १ लता - विशेष, लज्जालु लावंती सजवनी ई लज्जालुइगी (षड् हे २, १५६ १७४) । २ लज्जावाली स्त्री (षड् ; हे २, १५६, १७४ सुर २, १५६ गा १२७ प्राकृ ३५) । जाणी श्री [दे] कलहकारिणी श्री (प) 1 वि [ लज्जालु ] लज्जाशील, शरमिंदा । स्त्री. री ( गा लज्जालुहर लज्जार ४८२ ६१२ ) । लज्जाव सक [ लज्जय् ] शरमिंदा बनाना, जवाना | लज्जावेदि ( शौ) नाट— मृच्छ ११०) कृ. लज्जावणिज ( स ३६८ भवि ) । लज्जावण वि [लज्जन ] शरमिन्दा करनेवाला ( परह १, ३ - पत्र ५४ ) । लज्जाबियर [] १०३ - पत्र ५४ ) । लजिअ वि [लज्जित] १ लज्जा-युक्त (पाच)। २ न लज्जा, शरमः न लज्जिश्रं प्रप्परगोवि पलिश्राणं' (श्रा १४) । जिरवि [[]] (२ १४५० गा १५० कुमाः वज्जा भवि ) । bit." (xx) N १ छाजु श्री [राजु] रस्सी लजुरी, सेजुरी या लेज़र । २ वि. रस्सी की तरह सरल, सोषाः 'चाई सम् पन्ने [तस्सी' (परह २ ५ - पत्र १४६; भग) | Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्द महणवी सामु छपणी लड् डुयार वि [लड् डूककार ] लड्डू बनाने- लप्पसिया स्त्री [दे] लपसी, एक प्रकार का वाला, हलवाई (कुम २०६ ) पक्वान्न (पव ४) । लब्भ नीचे देखो । लढ सक [स्मृ] स्मरण करना, याद करना । लढइ ( हैं ४, ७४) । वकु. लढत (कुमा) । लडिअ वि[स्मृत] याद किया हुधा (पास) - लट्टन [ दें] १ खसखस श्रादि का तेल लव्ह वि [श्लक्ष्ण] १ चिकना, मसृण (सम (भा ११२ कुसुम्भ १३७ ठा ४, २ श्रौपः थोड़ा मसीहा कप्पू ) । २ अल्प, विशेष हे २ ७२२ लज्जु वि [लज्जावत् ] लज्जावाला 'एसग्गासमिश्री लज्जू गामे श्रनियत्र चरे (उत्त ६, १७) 1 लज्जु देखो रिज्जु = ऋजु (भग) । लज्म देखो लभ । सणा' (दे ७, १७) । लट्टा स्त्री [दे. लट्टा ] धान्य- विशेष, कुसुम्भ धान्य ( पव १५४ ) 12 खट्टा श्री [ख] [वृत-विशेष (कुमा) । २ कुम्भ (१) या पक्ष विशेष । ४ भ्रमर, भौंरा । ५ वाद्य-विशेष (दे २, ५५ ) 1 [] १ प्रन्यासक्त (दे ७, २६) । २ मनोहर, सुन्दर, रम्य (दे ७, २६ पान रणाया १, १, परह १, ४ सुर १, २६६ कुप्र ११, श्रु ६; पुप्फ ३४ सार्धं २१३ धरण ५. सुपा १५६ ) । ३ प्रियंवद प्रिय भाषी ( दे ७, २६ ) । ४ प्रधान, मुख्य; 'खमियन्वो राममा पास ( ७२० [द] [१] जैन मुनि (धनु १) । २ द्वीप - विशेष, एक अन्तद्वीप । ३ द्वीप-विशेष में रहनेवाला मनुष्य ( ४, २-पत्र २२६ इक) | लट्ठी [दे] सुन्दर, रमणीय ( कुप्र २१० ) । of [ष्टि ] लाठी, छड़ी ( श्रपः कुमा) । लट्ठ न [] खाद्य-विशेष; 'जेट्टाहि लट्ठिए भोच्चा कज्जं साहिति' (सुज्ज १०, १७) । os वि [] १ रम्य, सुन्दर (७, १७ सुपा ६ सिरि ४७ ८७५: गउड; श्रौप; कप्प कुमा हेका २६५० सः भवि ) । २ सुकुमार, कोमल (काप्र ७६५ भवि ) । विदय चतुर (दे ७,१७) । ४ प्रधान, मुख्य (कुमा)। लक्खमि वि [दे] विघटित, वियुक्त (दे ७, २०) । 2 डहा स्त्री [दे] विलासवती स्त्री ( षड् ) लडाल देखो णडाल (प्राकृ ३७पि २६० ) । यि [] प्यार (नि) - लड्डुअ ) पुं [लड्डुक] लड्ड ू, मोदक } (गा ६४१० प्रयो ८३ कुप्र २०१; लड्डुग भवि पउम ८४, ४ पिंड ३७७) । ७७ प्राकृ१८) [लप्त, लपित] उक्त, कथित (सुपा २३४) । लत्ता 7 श्री [] सात पाणि-प्रहार १ लत्तिआ ) (सुपा २३८ ठा २, ३ – पत्र ६३) । २ प्रतोद्य विशेष (ठा २, ३ आचा २, ११, ३) । -- लक्ष्ण) (मा) देखो रयण रत्न (अभि १८४० प्राकृ १०२ ) । लदन लद्द सक [दे] भार भरना, बोझ डालना, लादना, गुजराती में 'लादवु" । हेक. लद्देउ (सुपा २७५) । लक्ष्ण न [दे] भारतेप लावना (स ११७ ) 1लदी श्री [हे] हाथी याद कीजि मेली (१५०)। उद्धवि [लब्ध] प्राप्त भगवा हे ३, २३) । लद्धि स्त्री [लब्धि] १ क्षयोपशम, ज्ञान आदि के आवारक कर्मों का विनाश और उपशान्ति (जिसे २९९७) २ सामर्थ्य-विशेष योग आदि से प्राप्त होती विशिष्ठ शक्ति (पव २७० संबोध २८३ अहिसा (राह १. १ - पत्र ६९ ) । ४ प्राप्ति, लाभ (भग ८, २) । ५ इन्द्रिय और मन से होनेवाला विज्ञान, श्रुत ज्ञान का उपयोग (थि ४९६६ (विसे ) योग्यता (पुलाअ . ["पुखक] लब्धि विशेष संपन्न मुनि 'संघाइयारण कज्जे पुजा पट्टि जीएसीएल चक्कवट्टिमवि जुम्रो पुसा (संबोध २८ ) | लद्धिअ वि [लब्ध ] प्राप्त (वे ६९) [[ब्धिमत्] [] सन्धि-युक्त (पंच 8,0) 1~ } लढण देखो लभ । For Personal & Private Use Only - लभ स [लभ्] प्राप्त करना । लभइ नभए (माचा कह विधे १२११) । भवि. भिसं मिस्सा (उप महा " " पि ५२५)। कर्म. लज्झइ, लब्भइ ( महा ६०, १६; हे १, १८७४, २४६६ कुमा) । संलभिय, उदूधुं ढण (पंच प्र १६४; श्राचाः काल) । हेकृ. लधुं (काल) । कृ. लब्भ ( १ह २ १ विसे २८३७६ सुपा ११२३३१७४ स यक [ला ] ग्रहण करना । लएइ, लयंति (उप) कर्म-सम्बद लिम्मद (भवि सिरि ९६३) । वकृ. लयंत ( वज्जा २८ महाः सिरि ३७५ ) . . खरि देखो लएविणु (अप) (पिंगः भवि ) । ले = ला | V लयन [दे] नव-दम्पति का श्रापस में नाम लेने का उत्सव (दे ७, १६) लय देखो लव = लव (गउड से ५, १४) 1 लय पुं [य] १ श्लेष । २ मन की साम्यावस्था (कुमा) । ३ लीनता तल्लीनता । ४ तिरोभाव ( विसे २६६६ ) । ५ संगीत का एक अंग, स्वर-विशेष ( स ७०४) हास्य १२३) देसी वाहय न [गृह] लतागृह (सुपा ३८१) | [य] तन्त्र का स्वन -- ध्वनि विशेष "सम न [सम] गेय काव्य का एक भेद ( दसनि २, २३) । यंगन [उता] संख्याविशेष चौरासी लाख पूर्व युवा समसपुलसी गहि होई (जो २) - पण वि [दे] त कुरा शाम (दे७, १ तनु, २७ पात्र) । २ मृदु, कोमल । ३ न वल्ली, लता (दे ७, २७) 1 २ अवस्थान पण न [न] १ तिरोशन छिपना दे (जिसे २०१७ ३७, २४) (सुर ३, २०६३ देश लेण (राज) 1 यणी श्री [] लता पक्षी (पापड) Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लया-लह पाइअसहमहण्णवो ७२३ लया स्त्री [लता] १ वल्ली, वल्लरी (पएण १; ललिआ स्त्री [ललिता] एक पुरोहित-स्त्री (उप विशेष का फूल, लौंग (णाया १, १-पत्र गा २८, काप्र ७२३; कुमाः कप्प)। २ ७२८ टी) १२; पण्ह २, ५) प्रकार, भेद; 'संघाडो ति वा लय त्ति वा लल्ल वि [दे] १ सस्पृह, स्पृहावाला। २ लवण न [लबन] छेदन, काटना (विसे पगारो ति वा एगट्ठा (बृह १)। ३ तप- न्यून, अधूरा (दे ७, २६) ३२०९) विशेष (पव २७१)। ४ संख्या-विशेष, लल्ल वि [लल्ल] अव्यक्त प्रावाजवाला (पएह लवण न [लवण] १ लोन, नून, नोन, नमक चौरासी लाख लतांग-परिमित संख्या (जो १, २) (कुमा) । २ पुं. रस-विशेष, क्षार रस (अणु)। २)। ५ कम्बा, छड़ी, यष्टिः 'कसप्पहारे य लल्लक्क [ललक] छठवीं नरक-पृथिवी का | ३ समुद्र-विशेष (सम ६७ पाया १,६ पउम लयप्पहारे य छिवापहारे य' (णाया १,२- एक नरक-स्थान (देवेन्द्र १२) १६, १८)। ४ सीता का एक पुत्र, लव पत्र ८६; विपा १, ६–पत्र ६६), "जुद्ध लल्लक्क वि [दे] १ भीम, भयंकर (दे ७, १८ (पउम १७, १९)। ५ मधुराज का एक पुत्र न["युद्ध लड़ने को एक कला, एक तरह पाय; सुर १६,१४८); 'लल्लकनरयविप्रणामों (पउम ८६,४७) जल पुं["जल लवण का युद्ध (प्रौप)। (भत्त ११०)। २ पु. ललकार, लड़ाई आदि समुद्र (पउम ५७, २७) य पु[ोद] लयापुरिस पुं[दे] वह स्थान, जहाँ पद्म-हस्त के लिए आह्वान (उप ७६८ टी) लवण समुद्र (पउम ६४,१३) । देखो लोग। स्त्री का चित्रण किया जायः 'पउमकरा जत्थ लल्लि स्त्री [दे] खुशामद (धर्मवि ३८; जय लवणिम पुंस्त्री [लवणिमन् लावण्य (कुमा)। वहू लिहिजए सो लयापुरिसो' (दे ७, २०) १९)। लवल न [लवल] पुष्प-विशेष (कुमा)लल प्रक [ल्ल, लड्] १ विलास करना, लल्लिरी स्त्री [दे] मछली पकड़ने का जाल लवली स्त्री [लबली] लता-विशेष (सुपा मौज करना। २ भूलना। ललइ, ललेइ विशेष (विपा १, ५-पत्र ८५)। ३८% कुप्र २४६) लवव वि [दे] सुप्त, सोया हुआ ( षड् ) (प्राकृ ७३, सण; महाः सुपा ४०३)। वकृ. लव सक [लू ] काटना । संकृ. लविऊण। हेकृ. लविरं । कृ. लविअब्ब (प्राकृ ६६) Mi ललंत, ललमाग (गा ४४६; सुर २, २३७; लविअ वि [लपित] उक्त, कथित (सूत्र १, १५९) , ३५, कुमाः सुपा २६७)। भवि; औपः सुपा १८११८७)। लव सक [लप्] बोलना, कहना। लवइ लवित्त न [लवित्र]दात्र,दाँती,हँसुप्रा या हँसिया, ललणा स्त्री [ललना] स्त्री, महिला, नारी (तंदु (कुमाः संबोध १८ सण), लवे (भास ६६)। घास काटने का एक औजार (दे १,८२) ५०; सुपा ४६७). वकृ. लवंत, लवमाण (सुपा २६७ सुर ३, लविर वि [लपिन] बोलनेवाला (सण)। ललाड देखो णडाल (ौपः पि २६०)। स्त्री. रा (कुमा)। ललाम न ललामन्] प्रधान, नायक (अभि लव सक [प्र+वतेय] प्रवृत्ति करानाः लस प्रक [लसा१ श्लेष करना । २ _ 'यो विज्जू लवंति' (सुज्ज २०)। चमकना। ३ क्रीडा करना । लसइ (प्राकृ ललिअ न [ललित] १ विलास, मौज, लीला लव वि [लप] वाचाट, बकवादी (सून २, ७२) । यकृ. लसंत (सण)(पानः पव १६६; प्रौप)। २ अंग-विन्यास | लसइ [दे] काम, कन्दर्प (दे ७, १८)विशेष (पएह १, ४)। ३ प्रसन्नता, प्रसाद लव पुं[लव] १ समय का एक सूक्ष्म परि. लसक न [दे] तरु-क्षीर, पेड़ का दूध (दे ७, (विपा १, २ टी-पत्र २२)। ४ वि. क्रीडा- माण, सात स्तोक, मुहूर्त का सतरहवाँ अंश प्रधान, मौजी (णाया १,१६-पत्र २०५)। (ठा २, ४–पत्र ८६; सम ८५)। २ लेश, लसण देखो लसुण (सूत्र १, ७, १३)।५ शोभा-युक्त, सुन्दर, मनोहर (णाया १, अल्ल, थोड़ा (पामा प्रासू ६६ ११८; सण)। लसिर वि [लसित] १ श्लिष्ट होनेवाला । २ १; प्रौप; राय)। ६ मंजु, मधुर (पान)। ३ न. कर्म (सूप १,२, २, २०, २, ६, चमकनेवाला, दीप्र (से ८,४४) ७ ईप्सित, अभिलषित (णाया १, ६) ६) सत्तम पुं[सप्तम] अनुत्तरविमान लसुअ न [दे] तैल, तेल (दे ७, १८)। 'मित्त "मित्रा सातवें वासदेव का निवासी देव, सर्वोत्तम देव-जाति (पएह २. लसुण न [लशुन] लहसुन, कन्द-विशेष (श्रा पूर्वजन्मीय नाम (सम १५३; पउम २०, ४; उब; सूत्र १, ६, २४)। २०)। १७१) - वित्थरा स्त्री ["विस्तरा] प्राचार्य लवअ [दे. लवक] गोंद, लासा, चेप, लह देखो लभ । लहइ, लहेइ, लहए (महाः श्रीहरिभद्रसूरि का बनाया हुआ एक जैन निर्यास; 'लवो गुंदो' (पान) पि ४५७) । भवि. लहिस्सामो (महा)। ग्रन्थ (चेइय २५६) लवइअ वि [दे. लवकित] नूतन दल से युक, कर्म. लहिज्जइ (हे ४, २४६)। वकृ लहंत ललिअंग पुं [ललिताङ्ग] एक राज-कुमार अंकुरित, पल्लवित (ौपः भग; णाया १, १ (प्रारू)। संकृ लहिलं, लहिऊण (कुप्र १; (उप ६८६ टी)। टी-पत्र ५)। महा) लहेप्पि, लहेप्पिणु, लहेवि (अपः ललिअय न [ललितक] छन्द-विशेष (पजि लवंग पुंन [लवङ्ग] १ वृक्ष-विशेष, लौंग का पेड़ | पि ५८८) । कृ. लहणिज्ज, लहिअव्व १८) (पएण १-पत्र ३४; कुप्र २४९) । २ वृक्ष- (श्रा १४; सुर ६, ५३; सुपा ४२७)। For Personal & Private Use Only Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ पाइअसद्दमहण्णवो लग-लाल लहग [दे] बासी अन्न में पैदा होनेवाला लहुई देखो लहु । लाढ पुं [लाढ] देश-विशेष, एक प्राय देश द्वीन्द्रिय कोट-विशेष (जी १५)। लहुग देखो लहु (कप्प; द्र ५८)। (प्राचाः पव २७५; विचार ४६)। लहण न [लभन] १ लाभ, प्राप्ति । २ ग्रहण, लहुवी देखो लहु । लाढ वि[दे] १ निर्दोष पाहार से प्रात्मा स्वीकार (श्रा १४) - लाइअ वि [लागित] लगाया हुमा (से २, का निर्वाह करनेवाला, संयमी, मात्म-निग्रही लहर पुं [लहर] एक वणिक पुत्र (सुपा २६; वजा ५०)। (सूत्र १, १०, ३, सुख २, १८) । २ प्रधान, ६१७)। लाइअ वि [दे] १ गृहीत, स्वीकृत (दे ७, मुख्य (उत्त १५, २) । ३ पुं. एक जैन लहरि । स्त्री [लहरि, री] तरंग, कल्लोल २७) । २ घृष्ट (से २, २६)। ३ न. भूषा, आचार्य (राज)। लहरी (सरण; प्रासू ६६७ कुमा) । मण्डन (दे ७, २७)। ४ भूमि को गोबर लाढ वि [दे] श्रेष्ठ, उत्तम (प्राचा २, ३, १, लहाविअ वि [लम्भित] प्रापित, प्राप्त कराया अादि से लीपना (सम १३७; कप्प, औप; हुआ (कुप्र २३२) णाया १, १ टी--पत्र ३)। ५ चौधं, लाण न [लान] ग्रहण, मादान (से ७, ६०)। लहिअ देखो लद्ध (कप्प; पिंग)। आधा चमड़ा (दे ७, २७) ।' लावू देखो लाऊ (षड्)। | लाइअव्व देखो लाय=लावय । र लहिम देखो लघिम (षड् ) । लाभ पुं [लाभ] १ नफा, फायदा (उवः सुख लाइज्जत देखो लाय = लागय ।। ८, १३)। २ प्राप्ति (ठा ३, ४)। ३ सूद, लह ) विलिघु] १ छोटा, जघन्य (कुमा; लाइम विलिय] काटने योग्य (दस ७, ब्याज (उप ९५७)। लहुअ सुपा ३६०; कम्म', ७२, महा) । लाभंतराइय न [लाभान्तरायिक लाभ का २ हलका (से ७, ४४; पाय)। तुच्छ, लाइम वि [दे] १ लाजा के योग्य, खोई के प्रतिबन्धक कर्म (धर्मसं ६४८)। निःसार (पएह १, २-पत्र २८, परह २, योग्य । २ रोपण के योग्य, बोने लायक लाभिय। वि [लाभिक लाभ-युक्त, लाभ२–पत्र ११६)। ४ श्लाघनीय, प्रशंसनीय (प्राचा २, ४, २, १५) लाभिल्ल वाला (प्रौप; कर्म १७) - (से १२, ५३) । ५ थोड़ा, अल्प (सुपा लाइल्ल ' [दे] वृषभ, बैल (दे ७, १६) ।। लाम वि [दे] रम्य, सुन्दर (प्रौप)।। ३५४)। ६ मनोहर सुन्दर (हे २, १२२) । लाउ देखो अलाउ (हे १, ६६, भग; कसा लामंजय न [द] तुण-विशेष, उशीर तृण, स्त्री. ई,°वी (षड् ; प्राक २८; गउड हे औप)। खस-गाँडर घास की जड़ (पाप) - २, ११३) । ७ न. कृष्णागुरु, सुगन्धि धूप लाउल्लोइय न [दे] गोमय आदि से भूमि का लामा स्त्री [दे] डाकिनो, डाइन (दे ७, २१)। द्रव्य विशेष । ८ वीरण-मूल (हे २, १२२) । लेपन और खड़ी आदि से भीत आदि का लाय सक [लागय् ] लगाना, जोड़ना । ६ शीघ्र, जल्दी (द्र ४६; परह २, २--पत्र पोतना (राय ३५)। लाएसि (विसे ४२३) । वकृ. लायंत (भवि)। ११६) । १० स्पर्श-विशेष (अणु)। ११ कवकृ. लाइज्जत (से १३, १३)। संकृ. लघुस्पर्श नामक एक कर्मभेद (कम्म १, ४१)। लाऊ देखो अलाऊ (हे १, ६६; कुमा)। लाइवि (अप) (हे ४, ३३१, ३७८)। १२ पुं. एक मात्रावाला अक्षर (हे ३, १३४) लाख (अप) देखो लक्ख - लक्ष (पिंग)। लाय सक [लावय ] १ कटवाना । २ काटना, कम्म वि [°कर्मन्] जिसके अल्प ही कर्म लाग पुं[दे] चुंगी, एक प्रकार का सरकारी छेदना । कृ. लाइअव्य (से १५, ७५) अवशिष्ट रहे हों, शीघ्र मुक्ति-गामी (सुपा कर; लगान, गुजराती में 'लागो (सिरि ४३३,लाय देखो लाइअ = (३); 'लाउल्लोइय' ३५४) । करण न [करण] दक्षता, ४३४) । (प्रौप) । चातुरी (णाया १, ३--पत्र ६२ उवा)। लाघव न [लाघव] लघुता, छोटाई, लघुपन लाय वि [लात १ प्रात्त, स्वीकृत, गृहीत । परक्कम पुं [पराक्रम] ईशानेन्द्र का एक (भगः कप्प; सुपा १०३; कुप्र २७७; किरात २ न्यस्त, स्थापित (प्रौप)। ३ न. लग्न का पदाति-सेनापति (ठा ५, १--पत्र ३०३; १६) एक दोष, 'लायाइदोसमुक्कं नरवर अइसोहणं इक) । संखिज्ज न ["संख्येय संख्या- लाधवि वि [लाघविन] लघता-यक्त. लग्गं' (सुपा १०८)। विशेष, जघन्य संख्यात (कम्म ४, ७२) । वाला (उत्त २६, ४२, आचा)। लाय पुंस्त्री [लाज] १ भाद्र तण्डुल । २ ब. लहुअ सक [लघय , लघु + कृ] लघु करना, लाघविअ न [लाघविक] लघुता, छोटापन, । भ्रष्ट धान्य, भुजा हुआ नाज, खोई (कप्पू) । छोटा करना । लहुअंति, लहुएसि (श्रा २० लाघव (ठा ५, ३--पत्र ३४२, विसे ७ टी; | लायण न [लागन] लगवाना (गा ४५८)। गा ३४५) । वकृ. लहुअंत (से १५, २७) सूम २, १, ५७; भग)। लायण्ण न [लावण्य] १ शरीर-सौन्दर्य-विशेष, लहुअवड पुं[दे] न्यग्रोध वृक्ष, बरगद का पेड़ | लाज देखो लाय = लाज (दे ५, १०) शरीरकान्ति (पाप्र; कुमा; सण, पि १८६)। (दे ७, २०) लाड पुलाट] देश-विशेष (सुपा ६५८%; कुत्र २ लवणत्व, क्षारत्व (हे १, १७७; १८०)। लहुआइअ । वि [लघूकृत] लघु किया २५४ सत्त ६७ टी; भविः सरण; इक)- लाल सक [लालय् ] स्नेह-पूर्वक पालन लहुइअ । हुआ (से ६,४; १२, ५४, स लाडी स्त्री [लाटी] लिपि-विशेष (विसे ४६४ करना । लालति (तंदु ५०) । कवकृ. २०७; गठड)। टी)। लालिज्जत (सुर २, ७३; सुपा २४) ।। For Personal & Private Use Only Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लालंप-लिंपिय पाइअसहमहण्णवो ७२५ लालंप अक [वि + लप्] विलाप करना, लावण्ण। देखो लायण्ण (प्रौपा रंभाः काल: लिंग सक [लिङग] १ जानना । २ गति विकल होकर रोना । लालंपइ (प्राकृ ७३) । लावन्न अभि६२, भवि)। करना । ३ प्रालिंगन करना । कर्म, लिगिनाइ लालंपिअ न [दे] १ प्रवाल । २ खलोन । लावय देखो लावग (उवा)।. (संबोध ५१)। ३ आक्रन्दित (दे ७, २७) । लाविय (अप) वि [लात लाया हुअा (भवि)लिंग न [लिङ्ग] १ चिह्न, निशानी (प्रासू लाविया स्त्री [दे] उपलोभन (सूत्र १, २, लालंभ देखो लालंप । लालंभइ (प्राकृ ७३)। २४ गउड)। २ दार्शनिकों का वेष-धारण, १, १८)। लालण न [लालन] स्नेह-पूर्वक पालन (पउम साधु का अपने धर्म के अनुसार वेष (कुमाः लाविर वि [लवित] काटनेवाला (गा ३५५) विसे १५८५ टिठा ५, १-पत्र ३०३)। २६, ८८)। लास सक [लासय ] नाचना। लासंति ___३ अनुमान प्रमाण का साधक हेतु (विसे लालप्प देखो लालंप ।लालप्पइ (प्राकृ ७३)। १५५०)। ४ पृश्चिह्न, पुरुष का असाधारण (राय १०१) लालप्प सक [लालप्य् ] १ खूब बकना । लास न [लास्य १ भरतशास्त्र-प्रसिद्ध गेयपद चिह्न (गउड)। ५ शब्द का धर्म-विशेष, २ बारबार बोलना । ३ गहित बोलना । लालप्पइ (सूत्र १, १०, १६) । वक. आदि (कुमा)। २ नृत्य, नाच (पान)। ३ पुंलिंग प्रादि (कुमा, राज)। द्धय पुं स्त्री का नाच । ४ वाद्य, नृत्य और गीत का । [ध्वज] वेषधारी साधु (उप ४८६) लालप्पमाण (उत्त १४, १०, प्राचा) समुदाय (हे २, ६२) "जीव पुं[जीव वही अर्थ (ठा ५, १)। लालप्पण न [लालपन] गहित जल्पन (परह लासकलासक] १ रास गानेवाला। लिंगि वि [लिङ्गिन] १ साध्य, हेतु से १, ३-पत्र ४३)। लासग २ जय शब्द बोलनेवाला, भाण्ड जानी जाती वस्तु (विसे १५५०)। २ किसी लालब्भ। देखो लालंपालालम्भइ, लालम्हइ (गाया १, १ टी-पत्र २; औप; परह २, लालम्ह) (प्राकृ ७३ धात्वा १५०)। धर्म के वेष को धारण करनेवाला, साधु, ४.-पत्र १३२: कप्प) लालय न [लालक] लाला, लार (दे ५, संन्यासी (पउम २२,३; सुर २,१३०)। श्री. लासय पुं [लासक, हलासक] १ अनार्य णी (पुप्फ ४५४) देश-विशेष । २ पुत्री. अनार्य देश-विशेष का लालस वि [दे] १ मृदु, कोमल । २ स्त्रीन. लिंगिय वि [लैङ्गिक] १ अनुमान प्रमाण रहनेवाला । स्त्री. सिया (प्रौपः णाया १, इच्छा (दे ७, २१)। (विसे ६५)। २ किसी धर्म के वेष को धारण १--पत्र ३७ इक; अंत)। देखो ल्हासिय। लालस वि [लालस] लम्पट, लोलुप (पाम: करनेवाला साधु, संन्यासी (मोह १०१) लासर्यावहय [दे. लासविहग मयूर, मोर (दे ७, २१)। लिंछ न [दे] १ चुल्ली-स्थान, चुल्हा का लाला स्त्री [लाला] लार, मुंह से गिरता जललाह सक [ श्लाघ् ] प्रशंसा करना। लाहइ प्राश्रय । २ अग्नि-विशेष (ठा ८ टी--पत्र लव (प्रौपा गा ५५१, कुमाः सुपा २२६)। ११ ४१६) । देखो लिच्छ । लालिअ देखो ललिअ 'कुसुमिग्रहरिअंदण- | लाह देखो लाभ (उव; हे ४, ३६०; श्रा १२ । लिंड न [दे] १ हाथी आदि की विष्ठा; कणयदंडपरिरंभलालिअंगीओ' (गउड)। णाया १, ६) । गुजराती में लीद (गाया १,१-पत्र ६३; लालिअ वि [लालित] स्नेह-पूर्वक पालित लाहण न [दे] भोज्य भेद, खाद्य वस्तु की उप २६४ टी; ती २)। २ शैवल-रहित (भवि)। भेंट (दे ७, २१, ६, ७३, सट्ठि ७८ टी; पुराना पानी (पराह २, ५--पन १५१)10 लालिच (अप) पु [नालिच] वृक्ष-विशेष रंभा १३)।। लिंडिया स्त्री [दे] अज-बकरा प्रादि की (पिंग) लाहल देखो णाहल (से १. २५६; कुमा)। विष्ठा, लेंडी, गुजराती में 'लिडी' (उप पृ २३७)। " लालिल्ल वि [लालावत् ] लारवाला (सुपा | लाहब देखो लाघव (किरात १७) । लिंग देखो ले = ला। ५३१) । लाहवि देखो लाघवि (भवि) लिंप सक [लिप्] लीपना, लेप करना । लाव सक [ लापय ] बुलवाना, कहलाना। लाहविय देखो लापविअ (राज)। लिपइ (हे ४,१४६, प्राकृ ७१)। कर्म. लावएज्जा (सूत्र १, ७, २४)। लिअ सक [लिप्] लेपन करना, लीपना। लिप्पइ (प्राचा)। वकृ. लिंपेमाण (रणाया लाव देखो लावग (उप ५०७)। लिमइ (प्राकृ ७१) १, ६)। कवकृ. लिप्पंत, लिप्पमाण लावंज न [दे] सुगन्धी तृण-विशेष, उशीर, लिअ वि [लिप्त] १ लीपा हुमा (गा ५२८)। (ोघभा १९५; रयण २६) खस (दे ७, २१)। २ न. लेप (प्राकृ ७७)। लिंपण न [लेपन] लेप, लीपना (पिंड २४६; लावक पुं [लावक] १ पक्षि-विशेष (विपा लिआर पुं[लूकार] 'लु' वर्ण (प्राक)। लावग १, ७-पत्र ७५; परह १,१- लिंक [दे] बाल, लड़का (दे ७, २२)। सुपा ६१६)। पत्र ८)। २ वि. काटनेवाला (विसे ३२०६) लिंकिअ विदे] १ आक्षिप्त । २ लीन (दे लिंपाविय वि [लेपित] लेप कराया हुआ लावणिअ वि [लावणिक] लवण से संस्कृत । ७,२८)। (कुप्र १४०)। (विपा १, २-पत्र २७)। | लिंखय देखो लंख (सुपा ३५६)। लिंपिय वि [लिप्त] लीपा हुआ (कुमा)। For Personal & Private Use Only Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ लिंब [निम्ब] -विशेष, नीम का पेड़, मराठी में 'शिव' हे १, २३० मा ३५) । लिंय वि [हे] ? कोमल । २ नम्र (१५) लिंब [दे. लिम्ब] मास्तरण-विशेष (खाया १, १ - पत्र १३) । = लिंड (अप) देखो लिंब निम्ब; गुजराती में 'लिबडो' (हे ४, ३८७पि २४७) लिंबोली श्री [दे] निम्बल (क ) - लिकार देखो लिआर (पि ५६ ) 1 लिक्क अक [नि + ली] छिपना । लिक्कइ (हे ४, ५५; षड् ) । वकृ. लिक्कंत (कुमा) लिक्खन [ लेख्य] लेखा, हिसाब; 'लिक्खं गणिऊण चितए सिट्ठी (सिरि ४१८; सुपा ४२५) । देखो लेक्ख । लिक्खीन [दे] छोटा स्रोत (दे ७, २१) । स्त्री. क्खा (दे ७२१) - लिक्खा at [ लक्षा] १ लघु यूका, छोटा हूँ, लोखसर के बालों में होता कीड़ा (दे ८, ६६ सं ६७ ) । २ परिमारण- विशेष (इक) 1 । लिखाप (शो) सक [ लेखय् ] लिखवाना भवि. लिखापयिस्सं (पि ७ ) 1लियापित (शो) वि [लेखित] लिखवाया हुआ (पि ७) 1 लिच्छ सक [ लिप्स् ] प्राप्त करने को चाहना (२, २१) लिच्छ देखो लिंछ (ठा ८-पत्र ४३७) ।लिच्छवि देखो लेच्छइ = लेच्छकि (अंत) | लिच्छा स्त्री [लिप्सा ] लाभ की इच्छा (उप ३०; प्राकृ २३) । लिच्छवि [ लिप्सु ] लाभ की चाहवाला ( सुख ६, १ कुमा) लिज्जिअ (अप) वि [लात ] गृहीत (पिंग ) 1लिट्टिअ न [दे] १ चाटु, खुशामद (दे ७, २२) । २ वि. लम्पट, लोलुप (सुपा ५६३) लिट्टु देखो लेट् ठु (वसु । लित [[लिप्स] [प, लिपा हुआ (हे १, ६; कुमा; भवि ) । २ संवेष्टित (सूत्र १, ३, ३, १३) । लिति पुंस्त्री [दे] खड्ग प्रादि का दोष (दे ७, २२) । - पाइअसहयो लिप्प देखो लिख (गा ५१९ लिप्प देखो लेप्य (३८४) । लिप्यंत लिल्पमाण } देखो पि लिप्पासण न [डिप्यासन] मसी-भाजन दोत, दोघात दावात (राय १६) | लिटभंत देखो लिह = लिह लिल्लिर वि [दे] १ हरा, भाद्र २ हरा रंगवाला 'इलिल्लिरपट्टधरण मिसेण चोरसु पट्टबंध व जो फुडं तत्थ उन्हई' (धर्मवि ७३) लिवि ) स्त्री [लिपि, 'पी] प्रक्षर लेखन प्रक्रिया लिवी (सम ३५३ भग) | लिस अक [ स्वप ] सोना, सूतना, शयन करना। लिसइ (हे ४, १४६ ) लिस सक [ लिप् ] आलिंगन करना । भवि. लिसिस्सामो (सू २, ७, १०) 1 लिसय वि [दे] तनूकृत, क्षीण (दे ७, २२) | M लिस्स देखो लिस = श्विष् । लिस्संति (सूत्र १, ४, १,२ ) लिह सक [ लिख ] १ लिखना । करना। लिहइ (हे १, १८७ प्राकृ ७० ) । कर्म लिख ( उयप्रयो ि लिहावंति ( कुप्र ३४८ सिरि १२७८) । लहि सक [ लिह ] चाटना । लिहइ (कुमा प्राकृ७०) कर्म लिहे ४, २४५) । वकृ. लिहंत ( भत्त १४२ ) । ४१) ले ( खाया १, १७ - पत्र २३२) । लिहण न [लेहन] चाटन (उर १, ८ षड् रंभा १६) लिहण न [लेखन] १ लिखना, लेख (कुत्र ३६८ ) । २ रेखा-करण ( हंदु ५० ) । ३ लिखवाना लिहणं सहस्ते लक् कार (संबोध २६) । लिहा स्त्री [लेखा] देखो रेहा - रेखा: 'इक्क लिहा श्री [ख] देखो रेारेखा चिय मह भइणी मयरणा धन्नाण धू (? धु) रि सह लिह (सिरि ९७७) 1 = . लिहावण न [ लेखन ] लिखवाना (उप ७२४) । लिहाबिय वि [लेखित ] लिखवाया हुआ ( स (०) । लिंब- - लुंखाय लिवि[लिखित] १ लिखा हुआ (पासू १) २ उल्लिखित (उषा) रेखा किया हुआ विक्ति (कुमा) 1 लिहणअ (अप) वि [लात ] लिया हुमा, गृहीत (पिंग) २ रेखा लीलाय सक [ लीलाय ] लीला करना । वकु. ल. लायंत (गाया १, १ - पत्र १३ कल्प. लाइयज्य (गड) - लीव पुं [दे] बाल, बालक (दे ७, २२, सुर १५, २१८) । For Personal & Private Use Only लढ वि [लीढ] १ चाटा हुआ (सुपा ६५१ २ गरिसरि (सिर) कुमुमलीपाकीट (५) । ३ युक्त ( पव १२५ ) 1 ली वि [लीन ] लय-युक्त (कुमा) 1 लील पुं [दे] यज्ञ (दे ७, २३) । लीला स्त्री [लोला] १ विलास, मौज । २ क्रीड़ा (कुमा पाघ्रः प्रासू ६१ ) । ६ छन्दविशेष (पिंग) + 'वई स्त्री [ती] २ विलासवती स्त्री (प्रासू ε१) २ छन्द - विशेष (पिंग) । वह वि["वह ] लीला वाहक (गउड) 1 लीलाइन [लीलावित] कालि २ प्रभावः 'धम्मस्स लोलाइयं' (उप १०३१ टी लीहा देखी लिहा (या ११४५० कुमाः भवि सुपा १०६६ १२४) । अ तक [] घेतना. काटना एण्ना (पि ४७३) । लुअ देखो लुंप । लुमइ (प्राकृ ७१) 1 [[वि] [न] का हुआ दिल (दे ४ २५८८; गा८ से ३, ४२: दे ७, २३ सुर १२, १७५ सुपा ५२४ ) - अवि [लुप्त ] १ जिसका लोप किया गया हो वह । २ न, लोप ( प्राकृ ७७) । लुअंत वि [ लूनवत् ] जिसने छेदन किया होम (१५१) - कवि [] सुप्त, सोया हुआ (दे ७, २३) । की [](७२४)लुंख पुं [दे] नियम (दे ७, २३) । [खाय ] [] निर्णय (३७, २३) Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लुप्पमाण) देखो लुप। लुखिअ-लूड पाइअसहमहण्णवो ७२७ लुखिअ वि [दे] कलुष, मलिन (से १५, लुक्क प्रक [तुड] टूटना । लुक्कइ (हे ४, लत्त न [लोप्त्र] चोरी का माल (श्रावक ६३ टी)। लुंच सक [लञ्च] १ बाल उखाड़ना। २ लुक्क वि [दे] सुप्त, सोया हुआ (षड् )- लुद्ध पुं [लुब्ध] १ व्याध (पएह १, २, अपनयन करना, दूर करना । लुचइ (भवि)। लक्क वि[निलं.न] लुका हुमा, छिपा हुआ निचू ४) । २ वि. लालुप, लम्पट (पाम: भूका. लुचिसु (प्राचा)। (गा ४६ ५५८ पिंग)। । विपा १,७–पत्र ७७; प्रासू ७६)। ३ लुचिअ वि [लुञ्चित] केश-रहित किया हुआ, | लुक्क वि [रुग्ण] १ भग्न (कुमा)। २ न. लोभ (बृह ३) मण्डित ( २६२ सपा का बीमार, रोगी (हे २,२)1 लद्व न [लोध्र] गन्ध-द्रव्य-विशेष; सिरणारणं लुंछ सक [ मृज् , प्र + उञ्छ ] मार्जन . लुक्क वि लञ्चित] मुण्डित, केश-रहित अदुवा कक्क लुद्धं पउमगाणि प्र' (दस ६, करना, पोंछना । लुछइ (हे ४, १०५; प्राक (कप्पः पिड २१७) ६४)। देखो लोद्ध = लोध्र ।। ६७; धात्वा १५१)। वकृ. लंछत (कुमा) लक्कमाण देखो लोअ = लोक् । लुद्ध पुन [लोध्र] क्षार-विशेष (प्राचा २, | लुक्किअ वि [तुडित] टूटा हुआ, खण्डित लुट सक [लुण्ट ] लूटना । लुटंति (सुपा | १३, १) ।। लुप्पंत ३५२) । वकृ. लँटंत (धर्मवि ११३)। लक्किअ वि [निल.न] लुका हुआ, छिपा | कवकृ. लुटिजंत (सुर २, १४)। हुया (पिंग)। | लुब्भ ) अक [लुम ] १ लोभ करना । लुंटण न [ लुटन ] लूट (सुर २, ४६; | लक्ख पु [रुक्ष] १ स्पर्श विशेष, लूखा स्पर्श लुभ । २ प्रासक्ति करना । लुब्भइ, लुम्भसि कुमा)। (ठा १, सम ४१) २ वि. रुक्षा स्पर्शवाला, | (हे ४, १५३; कुमा), लुभइ (षड् )। कृ. लुटाक वि [लण्टाक ] लूटनेवाला, लुटेरा स्नेह रहित, लूखा, रूखा (णाया १, १-पत्र | लुभियव्य (पराह २, ५---पत्र १४६)। (धर्मवि १२३)। ७३; कप्प प्रौप)। देखो लूह = रूक्ष । लुभ देखो लुह = मृज् । लुभइ (संक्षि ३५) । लंठग वि [लुण्ठक] खल, दुर्जनः 'चडवंद- लग्ग वि[दे. रुग्ण] १ भग्न, भाँगा हुमा लरणी स्त्री [दे] वाद्य-विशेष ( दे ७, २४)।वेढिया उवहसिज्जमाणा लुठगलोएण, अणु (दे ७, २३; हे २, २, ४, २५८) । २ रोगी, कंपिज्जंती धम्मिग्रजणेण' (सुख २, ६) लुल देखो लुढ । लुलइ (पिंग) । वकृ. लुलंत, बीमार (हे २, २, ४, २५८ षड्) । लुंठिअ वि [लुण्ठित] बलाद् गृहीत, जबर | लुलमाण (सुपा ११५; सुर १०, २३१) । लुच्छ देखो लंछ - मृज् । लुच्छइ (षड् ) दस्ती से लिया हुआ (पिंग)। लुलिअ वि लठित] लेटा हुआ (सुर ४, लुट सक [लुण्ट ] लूटना । लुट्टइ ( षड्) लंप सक [लप्] १ लोप करना, विनाश ६८)। लुट्ट देखो लोट्ट = स्वप् । लुट्टइ (कुमा ६, ललिअ वि [ललित] धूणित, चलित (उवा करना । २ उत्पीड़न करना । लुपइ, लुपहा कुमाः काप्र ८६३) (प्राकृ ७१: सूम १, ३, ४, ७)। कर्म. लट्ट वि [लुण्टित] लूटा गया (धर्मवि ७)। | लय देखो लुअ = लू । लुवइ (धात्वा १५१) ।। लुप्पइ (प्रचा), लुप्पए (सूत्र १, २, १, १३)। कवकृ. लपंत, लप्पमाण (पि लुट्ठ पु[लोष्ट] रोड़ा, ढेला, ईंट आदि का लुव्य देखो लुग। (पि ५४२, उवा)। संकृ. लुंपित्ता (पि टुकड़ा (दे ७, २६) लुह सक [ मृज ] मार्जन करना, पोंछना । ५८२) लुड्ढ देखो लुद्ध (प्राकृ २१)।। लुहइ (हे ४, १०५; षड्। प्राकृ ६६; भवि) । लंपडत्त विलोपयितु] लोप करनेवाला लुढ प्रक [ लुठ ] लुढ़कना, लेटना। वकृ. लुहण न [मार्जन] शुद्धि (कुमा)।" (प्राचा; सूत्र २, २, ६) लुढमाण (स २५४) लूअ देखो लुअलून (षड्) । लंपणा स्त्री [लोपना] विनाश (पएह १, लुढिअ वि [लुठित] लेटा हुआ (मुपा ५०३; लुआ स्त्री [दे] मृग-तृष्णा, सूर्य-किरण में स ३६६)। जल को भ्रान्ति (दे ७, २४) लूपित्त वि [लोप्त] लोप करनेवाला लण देखो लुअ = लू । लुणइ (हे ४, २४१) । लूआ स्त्री [लूना] १ वातिक रोग-विशेष (माचा)। कर्म. लुणिज्जइ, लुब्वइ (प्राप्र, हे ४, २४२)। । (पंचा १८, २७ सुपा १४७ लहुन १५)। लंबी स्त्री [दे. लुम्बी] १ स्तबक, फलों का संकृ. लुणिऊण, लुणेऊण (प्राकृ ६६ २ जाल बनानेवाला कृमि, मकड़ी (ोघ गुच्छा (दे ७, २८; कुमाः गा ३२२; कुप्र षड् ), लुणेप्पि (अप) (पि ५८८)। ३२३, दे) ४६०) । २ लता, वल्ली (दे ७, २८)। लुणिअ वि [लून काटा हुआ (धर्मवि १२६ लूड [लण्ट ] लूटना, चोरी करना। लूडइ, लुक्क प्रक [नि + ली] लुकना, छिपना । सिरि ४०४) | लूडेइ, लूडेह (धर्मवि ८०; संवेग २६, कुन लुक्कइ (हे ४, ५५ षड्)। वकृ. लक्कत लुत्त वि [लप्त] लोप-प्राप्त: 'करेइ लुत्तो इकारो ५६)। हेकृ. लूडेउ (सुपा ३०७ धर्मवि (कुमा; वज्जा ५६) त्थ' (चेइय ६७७)। १२४) । प्रयो., वकृ. टुडावंत (सुपा ३५२) For Personal & Private Use Only Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ पाइअसहमहण्णवो लूड-लेसा लूड वि [लण्ट] लूटनेवाला। स्त्री. °डी; लूसिअ वि [लषित] १ लुण्टित, लुटा गया लेदुक्क पु[दे] रोड़ा, लोट (दें ७, २४; 'सो नस्थि एत्थ गामे जो (श्रा १२)। २ उपद्रुत, पीड़ित (सम्मत्त पा)। एयं महमहंतलायएणं । १७५)। ३ विनाशित (संबोध १०)। ४ । लेण न [लयन] १ गिरि-वर्ती पाषाण-गृह तरुणाण हिययलूडि हिसित (प्राचा)। (णाया १, २--पत्र ७६) । २ बिल, जन्तुपरिसक्कति निवारेइ ॥' लह सक [ मृज , रूक्षय ] पोंछना। लूहेइ, गृह (कप्प) विहि पुंस्त्री ["विधि] कला (हेका २६० काप्र ६१७) लूहेंति (राय; णाया १, १-पत्र ५३)। विशेष (प्रौप) । देखो लयण %D लयन ।। लूण न [लुण्टन] लूट, चोरी (स ४४१), संकृ. लहित्ता (पि २५७)। लेप्प न [लेप्य] भित्ति, भीत (धर्मसं २६; लूडिअ वि [लुण्टित] लूटा हुआ (स ५३६: लूह पुं[रूक्ष] मुनि, साधु, श्रमण (दसनि कुप्र ३००)। पउम ३०, ६२, सुपा ३०७)- २, ६) लेप्पकार पु. [लप्यकार] शिल्पी-विशेष, | लह वि रुक्ष १ लूखा, रूखा, स्नेह-रहित राज, राजगीर (अरण १४६) । लूण देखो लूअ = लून (दे ७, २३; सुपा | आचाः पिड : २६, उब)। २ पृ. संयम, विरति, ५२२; कुमा)। लेप्पा स्त्री [लेप्या] लेपन-क्रिया (उत्त १६, चारित्र (सुअ, १, ३, १, ३)। ३ न. तपलूण न [लवण] १ लून, नून, नोन, नमक विशेष: निर्विकृतिक तप (संबोध ५८)। देखो लेल देखो लेड (प्राचा; सूप २, २, १८ (जो ४)। २ पुं. वनस्पति-विशेष (श्रा २० पिंड ३४६) धर्म २)। देखो लवण । लूहिय वि [रूक्षित] पोंछा हुआ (णाया १, ले लेप १ लेपन (सम 38 परम २. लूण न [लवण] लावण्य, सुन्दरता, शरीर- १--पत्र १६; कप्प; प्रौप)। २८) । २ नाभि-प्रमाण जल (प्रोधभा ३४)। कान्ति (सुपा २६३)। ले सक [ला] लेना, ग्रहण करना । लेइ (हे ३ पुं. भगवान् महावीर के समय का नालंदालूर सक [छिद्] काटना। लूरइ (हे ४, ४. २३८ कुमा) । वकृ. लिंत (सुपा २५२; निवासी एक गृहस्थ (सूत्र २, ७, २)1°कड, १२४)। पिंग)। संकृ. लेवि (अप) (हे ४. ४४०)। विकता लेप-मिश्रित (प्रोध ५६५; लूरिअ वि [छिन्न] फाटा हुपा (कुमा ६, हेकृ. लेविणु (अप) (हे ४,४४१) पत्र ४ टी--पत्र ४६ पडि) लेक्ख न लेख्य] १ व्यवहार, व्यापार (सुपा लेवण न लेपन लेप-करण (पव १३३)। लस सक [लुपय] १ वध करना, मार ४२४) । २ लेखा, हिसाब (कुप्र २३८)। लेवाड विलेपकताले कारक (बव १)। डालना। २ पोड़ना, कदर्थन करना, हैरान लेक्खा देखो लिहा (गउड)। लेस पुं [लेश] १ अल्प, स्तोक, लव, थोड़ा करना । ३ दूषित करना। ४ चोरी करना । लेख देखो लेह = लेख (सम ३५)। (पान दे ७, २८) । २ संक्षेप (दं १) ५ विनाश करना। ६ अनादर करना । ७ लेखापित देखो लिखापित (पि ७)। लेस वि दे] १ लिखित । २ आश्वस्त । ३ तोड़ना। ८ छोटे को बड़ा और बड़े को लेच्छइ पुलेन्छकि] १ क्षत्रिय-विशेष । निःशब्द, शब्द-रहित । ४ पुं. निद्रा (दे ७, छोटा करना। लूसंति, लूसयति, लूसएज्जा २ एक प्रसिद्ध राज-दंश (सूत्र १, १३, १० २८)। (सूत्र १, ३, १, १४, १,७, २१; १, १४, भग; कप्प; प्रौपा अंत) 'लेस पुंश्लेष] संश्लेष, संबन्ध, मिलान १६ १.१४, २५)। भुका. लूपिस (पाचा)। लच्छह पुलिप्सुक, लन्छकि १ परिणक, संकृ. लुसिउं (श्रा १२) । वैश्य । २ एक वरिणग-जाति (सूम २, १, लेसण नश्लेिषण] ऊपर देखो (विसे लूसअ। वि [लूषक] १ हिसक, हिसा करने ३.०७)। लूसग ।वाला। २ विनाशक (सूम २, १, लेच्छारिय वि [दे] खरण्टित, लिप्त (पिंड लेसणया। स्त्री [श्लेषणा] ऊपर देखो (औपः ५० १, २, ३ ६) । ३ प्रकृति-क्रूर, निर्दय। २१०) ।' लेसणाठा ४, ४-पत्र २८०; राज)। ४ भक्षक (सूअ १, ३, १, ८)। ५ दूषित लेज्म देखो लिह = लिह ।। लेसणी स्त्री [श्लेषणी] विद्या-विशेष (सूप करनेवाला (सून १,१४, २६)। ६ विरा- लेटठनालेण्ट रोडा. ईट पत्थर ग्रादि २, २, २७ रणाया १,१६-पत्र २१३)। धक, प्राज्ञा नहीं माननेवाला (सूत्र १, २, २, का टुकड़ा (विसे २४६६; प्रोपः उब, कप्प; लेसा स्त्री [लेश्या] १ तेज, दीप्ति । २ मंडल, ६, प्राचा)। ७ हेतु-विशेष (ठा ४, ३–पत्र महा) बिम्ब; 'चंदस्स लेसं पावरेत्ताणं चिट्ठई' (सम २५४)। लेडु । पुन [दे. लेष्टु] ऊपर देखो (पान २६)। ३ किरण (सुज १६)। ४ देहलूसण वि [लूषण] ऊपर देखो (भाचा; लेडुअ । ७, २४)। सौन्दर्य (राज)। ५ आत्मा का परिणामप्रौप) । लेडक्क पु[दे] १ रोड़ा, लोष्ट । २ वि. विशेष, कृष्णादि द्रव्यों के सानिध्य से उत्पन्न लूसय वि [लषक] १ परिताप-कर्ता (प्राचा लम्पट (दे ७, २६)।" होनेवाला आत्मा का शुभ या अशुभ परिणाम । २, १, ६, ४) । २ चोर, तस्कर (वव ४)। लेढिअ न [दे] स्मरण, स्मृति (दै ७, २५) ।। ६ प्रात्मा के शुभ या अशुभ परिणाम की उत्पत्ति For Personal & Private Use Only Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेसा - लोग में निमित्त भूत कृष्णादि द्रव्य (भगः उवा श्रौपः पव १५२; जीवस ७४; संबोध ४८; पण १७६ कम्म ४, १३१ ) 1लेसा स्त्री [लेश्या ] ज्वाला (राय ५६ : ५७ ) । लेसिय वि [ श्लेपित] श्लेष - युक्त (स ७६२ ) । लेसुरुडयतरु [दे] लसोड़ा गु० गूदा ( चउपन्न० पत्र २४३) । लेस्सा देखो लेसा (भग) पाइसम लोअ [लोक] १ धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का प्राधारभूत प्रकाश क्षेत्र, जगत्, संसार, भुवन। २ जीव, अजीव प्रादि द्रव्य । ३ समय, प्रावलिका श्रादि काल । ४ गुण, पर्याय, धर्मं । ५ जन, मनुष्य श्रादि प्राणिवर्गं (ठा १ -पत्र १३; टी -पत्र १४; भग हे १, १८० कुमाः जी १४: प्रासू ५२; ७१; उत्र सुर १, ६६ ) । ६ प्रालोक, प्रकाश ( वजा १०६ ) + गं न [] १ ईषत्प्राग्भारा नामक पृथिवी, मुक्त-स्थान ( गाया १, ५ - पत्र १०५३ इक ) । २ मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण (पा) । गधूभिआ स्त्री [प्रस्तूपिका ] मुक्त स्थान, ईषत्भारभारा पृथिवी ( इक) + 'ग्गपडिबुज्झणा स्त्री [प्रतिबोधना ] वही अर्थ (इक) गाभि [नाभि] मेरु पर्वत (सुज ५) टपवाय [प्रवाद] जनश्रुति कहावत (सुर २, ४७) मज्झ पुं [ मध्य] मेरु पर्यंत (सुख जनश्रुति, वाय [वाद ] लोकोक्ति (स २६० मा ४८ ) गास पुं [का] लोक क्षेत्र, आलोक-भिन्न श्राकाश (भग) ) हायन [ भाग क] कहावत लोकोक्ति (भवि ) । देखो लोग । लोअ पुं [लोच] लुञ्चन, नोंचना केशों का उत्पाटन, उखाड़ना (सुपा ६४१: कुप्र १७३; गाया १, १ - पत्र ६०; खोप, उब ) । लोअ पुं [लोप ] प्रदर्शन, विध्वंस ( चेइय ६६१) । ५) लेण न [न] चाटन, ग्रास्वादन ( पउम ३, १०७ ) 1 लोअंतिय पुं [ लोकान्तिक ] एक देज-जाति लेणी स्त्री [लेखनी ] कलम, लेखनी २६, ५० गा २४४) । (पउम (कप्प) 1 लोअग न [दे. लोचक] गुण-रहित अन खराब नाज ( कस ) 1 ४, ४२३) । - लेह लेहल देखो लहड (गा ४६१) । लेहा देखो लिहा (प) कप्पः कप्पू कुत्र | लोअडी (अप) स्त्री [लोमपटी ] कम्बल (हे ३६६: स्वप्न ५२ ) । [लेखित ] लिखवाया हुआ ( ती ७) । हुड [ ] लोष्ठ, रोड़ा, ढेला (दे ७, २४) । लोअ देखो रोअ = रोचय् । संकृ. लोएया ( कस) । लोअण पुंन [लोचन ] श्राँख, चक्षु, नेत्र (हे १, ३३०२, १८४० कुमाः पान सुर २, २२२) वत्तन [पत्र] श्रक्षि लोम, बरवनी, पक्ष्म ( से ६, ६८) लोअल्लि वि [ लोचनवत् ] श्रखवाला (सुपा २०० ) । लोअ सक [लोकू, लोकय्_ ] देखना । व. लोअअंत (नाट)। कवकृ. लुक्कमान (उप १४२ टी) । संकृ. लोइडं ( कुप्र ३) । लोआणी स्त्री [दे] वनस्पति-विशेष ( पण १ - पत्र ३६) । २ लेह देखो लिह = लिख । लेहइ ( प्राकृ ७० ) 1 लेह देखो लिड् = लिह । लेहइ ( प्राकृ ७० ) 1 लेह (अप) देखो लड् = लभ् । लेहइ (पिंग ) । लेह पुं [ह] अवलेह, चाटन ( पउम २, २८) | लेह पुं [लेख] १ लिखना, लेखन, अक्षरविन्यास (गा २४४ उवा)। २ पत्र, चिट्ठी (कप्पू)। ३ देव, देवता। ४ लिपि । ५ वि. लेख्य, जो लिखा जाय ( हे २, १८९) । ६ लेखक, लिखनेवाला; 'प्रजवि लेहत्तणे तरहा' ( वजा १०० ) । वाह वि [वाह ] चिट्ठी ले जाने वाला, पत्र- वाहक ( पउम ३१, १० सुपा ५१९ ) + 'वाहग, वाहय वि [वाहक ] वही अर्थ (सुपा ३३१ ३३२) । 'साला स्त्री [शाला ] पाठशाला (उप ७२८ टी) पंरिय पुं [°ाचार्य] उपाध्याय, शिक्षक (महा) 1 लेड वि [दे] लम्पट, लुब्ध (दे ७, २५; उव) For Personal & Private Use Only ७२६ लोइअ वि [लोकित ] निरीक्षित, दृष्ट (गा २७१ स७१३) । लोइअ वि [लोकिक ] लोक-संबन्धी, सांसारिक ( श्राचा; विपा १ २ - पत्र ३० गाया १, - पत्र १६६) । लोउत्तर व [लोकोत्तर ] लोक-प्रधान, लोकश्रेष्ठ प्रसाधारणः 'लोउत्तरं चरिनं' (श्रा १६३ विसे ८७०) । देखो लोगुत्तर । - लोउत्तरियवि [लोकोत्तरिक] ऊपर देखो (श्रा १) 1 लोक वि [दे] सुप्त, सोया हुप्रा (दे ७, २३) । - लोग [लोक] मान- विशेष श्रेणी से गुणित प्रतर (श्रण १७३ ) यत देखो य (धरण ३६) । लोग देखो लोअ = लोक (ठा ३, २, ३, ३ – पत्र १४२३ कप कुमा; सुर १, ७६६ हे १, १७७; प्रासू २५ ४७ ) । ७ न. एक देव - विमान (सम २५ ) + कंत न [कान्त ] एक देव विमान (सम २५ ) कूड न [कूट ] एक देव- विमान (सन २५ ) 1चूलिआ स्त्री [चूलिका ] मुक्त स्थान, सिद्धि - शिला (सम २२ ) जत्ता स्त्री [यात्रा] लोक व्यवहार, रोजी (गाया १, २ - पत्र ८८) । ट्ठइ स्त्री [स्थिति] लोकव्यवस्था (ठा ३, ३) ५ दव्य न [" द्रव्य ] जीव, प्रजीव श्रादि पदार्थ समूह (भग) 1नाभि पुं ['नाभि ] मेरु पर्वत ( सुज्ज ५ टी-पत्र ७७) । नाह पुं [नाथ] जगत् का स्वामी, परमेश्वर (सम १ भग ) । - परिपूरणा स्त्री [परिपूरणा] ईषत्प्राग्भारा पृथिवी, मुक्त स्थान (सम २२ ) । पाल पुं [पाल] इन्द्रों के दिक्पाल, देव- विशेष (ठा ३, १; औप |पभ पुं [प्रभ] एक देवविमान (सम २५ ) बिंदुसार पुन [बिन्दुसार] चौदहवाँ पूर्व-ग्रन्थ (सम ४४) भावसिअ पुंन ["मध्यावसित ] अभिनय - विशेष (ठा ४, ४ --पत्र २८५) वाणि न [मध्यावसानिक ] वही (राय) । रूत्र न [रूप] एक देव-विमान (सम २५) 'लेस न [लेश्य ] एक देव विमान (सम २५ ) + वण्ण न [वर्ण] एक देव विमान (सम २५ ) । 10 Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो लोगिग-लोलुअ 'वाल देखो पाल (कुप्र १३५), वीर । २०; संबोध ४४) । ३ वि. स्मृत । ४ शयित [हार] रूंगटों से लिया जाता पाहार, पुं[वीर] भगवान महावीर (उव), सिंग (दे ७,७२६)। त्वचा से ली जाती खुराक (भगः सूअनि न [शृङ्ग] एक देव-विमान (सम २५) लोढय पुं [दे. लोठक कपास के बीज १७१)। "सिटू न [सृष्ट] एक देव-विमान (सम निकालने का यन्त्र (गउड)। लोमंथि पुं. [दे] नट (नंदि टिप्पण वैनयिक २५) ५ हिअ न [हित] एक देव-विमान लोढिअ वि [लोठित] लेटवाया हुआ, | बुद्धिगत १३ वा कथानक)। (सम २५) यय न [यत] नास्तिक- | सुलाया हुआ (पउम ६१, ६७)।" लोमसी स्त्री [दे] १ ककड़ी, खीरा (उप पृ प्रणीत शास्त्र, चार्वाक-दर्शन (णंदि) लोण नालवण] १लून, नमक । २ लावण्य, २५२)। २ वल्ली-विशेष, ककड़ी का गाछ लोग पुन [लोक परिपूर्ण आकाश-क्षेत्र, शरीर-कान्ति (गा ३१६; कुमा)। ३ पुं. (वव १)संपूर्ण जगत् (उवः पि २०२) वित्त न वृक्ष-विशेष (पउम ४२,७ श्रा २०० पव | लोय न [दे] सुन्दर भोजन, मिष्टान्न (आचा [वित एक देव-विमान (सम २५) हाण ४)। ४-देखो लवण (हे १, १७१ प्राप २, १, ४, ३) न [ख्यान] लोकोक्ति, जन-श्रुति (उप गउड औप)। लोर पुन [दे] १ नेत्र, अाँख । २ अश्रु, आँसू ५३० टो) लोगंतिय देखो लोअंतिय (पि लोणिय वि [लावणिक] लवण-युक्त, लवण- (पिंग)। सम्बन्धी (प्रोघ ७७६) लोल प्रकलठ्ठ] १ लेटना । २ सक. लोगिग देखो लो इअ = लौकिक (धर्मसं | लोण्ण न [लावण्य] शरीर-कान्ति (प्राकृ ५) विलोडन करना । लोलइ (पिड ४२२, १२४८)। लोत्त न [लोत्र] चोरी का माल (स १७३) पिंग), 'लोलेइ रक्खसबल' (पउम ७१, ४०)। लोगुत्तर देखो लोउत्तर। 'वडिंसय न लोद्ध लोध्र] वृक्ष-विशेष (णाया , वकृ. लोलंत; लोलमाण (कप्प; पिंगः पउम [वतंसक] एक देव-विमान (सम २५)। १-पत्र ६५, पएण १; सूप १, ४, २, ५३, ७९)। लोगुत्तर पु [लोकोत्तर] मुनि, साधु । २ ७ प्रौप कुमा)। देखो लद्ध = लोध्र । लोल सक [लोठय् ] लेटाना। लोलेइ, जिन-शासन, जैन सिद्धान्त (अणु २६)। लोद्ध देखो लुद्ध = लुब्ध (पामः सुर ३. ४७, | लोलेमि (उवा)। लोगुत्तरिअ वि [लोकोत्तरिक १ साधु १०, २२३; प्राप्र)। लोल वि [लोल] १ लम्पट, लुब्ध, आसक्त का। २ जिन शासन का (अरण २६) लोप्प देखो लेप: 'जो एगं वायं लोप्पइ सो (णाया १, १ टी-पत्र ५; औप; पाम: लोगुत्तरिय देखो लोउत्तरिय (मोघ ७६५) तिन्निवि लोप्पयंतो कि केरणावि धरिलं कप्प; सुपा ३६५)। २ पृ. रत्न-प्रभा नरक पारीयइ' (स ४६२) । का एक नरकावास (ठा ६-पत्र ३६५, देवेन्द्र लोट्ट अक [स्वप्] लोटना, सोना। लोट्टई | ३०)। ३ शकंराप्रभा नामक द्वितीय नरक(हे ४, १४६)। वकृ. लोय (पान)। देना। कवकृ. लोभिज्जत (सुपा ६१)। पृथिवी का नववाँ नरकेन्द्रक-नरक-स्थान लोट्ट अक [लुठ १ लेटना। २ प्रवृत्त लोभ पुं [लोभ] लालच, तृष्णा (माचा; (देवेन्द्र ७) • °मज्झ पुं [ मध्य] नरकावासहोना। लोट्टइ, लोट्टती (प्राकृ ७२, सून १, __ कप्प; औपः उवा ठा ३, ४)। २ वि. लोभ विशेष (ठा ६ टो-पत्र ३६७) । सिट्ट १५, १४) । वकृ. लोटुंत (सुपा ४६६) युक्त (पडि)। पुं[शिष्ट] नरकावास-विशेष (ठा ६ टो)। लोट्ट । पुं[दे] १ कच्चा चावल (निचू लोभणय वि [लोभनक लोभी, लालची वित्त पुं [व] नरकावास-विशेष (ठा लोट्टय) ४) । २ पुंस्त्री. हाथी का छोटा बच्चा (आच। २, १५, ५) ६ टीः देवेन्द्र ७)। (णाया १, १-पत्र ६३), स्त्री. 'ट्रिया लोभि । व [लोभिन लोभवाला (कम्म लोलंठिअन [दे] चाटु, खुशामद (दे ७, (णाया १, १)। लोभिल्ल ४, ४०; पउम ४, ४६) 10 २२)। लोट्टिअ वि [दे] उपविष्ट (दे ७, २५)। लोलण न [लोठन] १ लेटना, घोलन (सूत्र लोम पुन [लोम] रोम, रोंगा, रूंगटा (उवा)। लोट्ठ वि [दे] स्मृत (षड् )। 7 १, ५, १, १७)। २ लेटवाना (उप ५१०)। पक्खि पुं [ पक्षिन] रोम के पंखवाला | लोट [लोष्ट] रोड़ा, ढेला (दे ७, २४)। पक्षी (ठा ४, ४-पत्र २७१) + °स वि | लोलपच्छ [लोलपाक्ष] नरक-स्थान-विशेष लोडाविअ वि [लोटित घुमाया हुआ (गा [श] लोम-युक्त (गउड)। हत्थ पुं["हस्त] | (देवेन्द्र ३०)।७६६) पींछी, रोमों का बना हुमा झाडू (विपा १, लोलिक्क न [लौल्य] लम्पटता, लोलुपता लोढ सक[दे] कपास निकालना, लोढ़नाः ७-पत्र ७८ प्रौपा गाया १, २). हरिस (पएह १, ३–पत्र ४३)।गुजराती में 'लोढवू' । वकृ. लोढयंत (राज) पुं["हर्ष] १ नरकावास-विशेष (देवेन्द्र २७)। लोलिम पुंस्त्री [लोलत्व] ऊपर देखो (कुमा)। लोढ [दे] १ लोढ़ा, शिलापुत्रक, पीसने | २ रोमाञ्च, रोमों का खड़ा होना (उत्त ५, लोलअ वि [लोलुप] १ लम्पट, लुब्ध (पउम का पत्थर (दस ५, १, ४५; उवा)। २. ३१) + हार पु[हार] मार कर धन १, ३०; २६, ४७; पामः सुर १४, ३३)। मोषधि-विशेष, पधिनीकन्द (पव ४; था | लूटनेवाला चोर (उत्त ६,२८) हार पुं २ पुं. रत्नप्रभा नरक का एक नरकावास पारीक [ लोभय] For Personal & Private Use Only Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोलंचाविअ-ल्हिक्क पाइअसहमहण्णवो (ठा ६-पत्र ३६५)। च्चुअ पुं[च्युत] लोहि । देखो लोही; 'कुंभोसु य पयणेसु लोहिल्ल वि [दे. लोभिन्] लम्पट, लुब्ध (दे रत्नप्रभा-नरक का एक नरक-स्थान (उवा) लोहिय लोहियसु य कंदुलोहिकुंभोसु ७, २५; पउम ८, १०७ गा ४४४) ।। लोलुंचाविअ वि [दे] रचित-तृष्ण, जिसने (सूअनि ८० ७६)। लोही स्त्री [लोही] लोहे का बना हुआ तृष्णा की हो वह (दे ७, २५) । लोहिअ पुलोहित] १ लाल रंग, रक्त भाजन-विशेष, कराह (उप ८३३; चारु १)।' वर्ण। २ वि. रक्त वर्णवाला, लाल (से २, लोलुव देखो लोलअ (सूत्र २, ६, ४४) ।।। ल्हस देखो लस = लस् । ल्हसइ (प्राकृ ७२) । ४. उवा)। ३ न. रुधिर, खून (पउम ५, लोव सक [लोपय् ] लोप करना, विध्वंस ७६)। ४ गोत्र-विशेष, जो कौशिक गोत्र की ल्हस प्रक [स्रेस् ] खिसकना, सरकना, करना । लोबेइ (महा)। एक शाखा है (ठा ७-पत्र ३६०) गिर पड़ना । ल्हसइ (हे ४, १९७; षड्)। लोव पुन लोप] विध्वंस, विनाश, प्रदर्शन लोहिअंक पुं [लोहित्यक, लोहिताङ्क] वकृ. ल्हसंत (वज्जा ६०)।'कम-लोवकारया' (कुप्र ४), 'या दुढे जासु अठासी महाग्रहों में तीसरा महाग्रह (सुज्ज लहसण न [स्रसनखिसकना, पतन (सुपा बहिं लोवं व तुमं अदंसरणा होसु' (धर्मवि लोहिअक्ख पुं[लोहिताक्ष] १ एक महाग्रह ल्हसाव सक [ संसय ] खिसकाना । संकृ. लोह देखो लोभ = लोभ (कुमा प्रासू १७६) (ठा २, ३–पत्र ७७)। २ चमरेन्द्र के ल्हसाविअ (सुपा ३०८)। लोह पुन [लोह] १ धातु-विशेष, लोहा महिष-सैन्य का अधिपति (ठा ५, १-पत्र ल्हसाविअ वि [संसित] खिसकाया हुआ (विपा १,६-पत्र ६६, पानः कुमा)। २ ३०२० इक)। ३ रत्न की एक जाति (णाया (कुमा)। धातु, कोई भी धातु; 'जह लोहाण सुवन्न १,१-पत्र ३१, कप्पः उत्त ३६, ७६)। ४ एक देव-विमान (देवेन्द्र १३२ १४४)। ल्हसिअ वि [स्रस्त खिसक कर गिरा हुमा तणाण धन्न घणाण रयणाई' (सुपा | ५ रत्नप्रभा पृथिवी का एक काण्ड (सम (कुप्र १८७; वज्जा ८४) ६३६) कार पुं [कार] लोहार (कुप्र १०४)। ६ एक पर्वत-कूट (इक)। ल्हसि वि [दे] हर्षित (चंड)। १८८) जंघ पुं [जङ्घ] १ भारत में लोहिआ अक [लोहिताय ] लाल ल्हसुण देखो लसुण (पएण १-पत्र ४०; उत्पन्न द्वितीय प्रतिवासुदेव राजा (सम लोहिआअ होना। लोहिमाइ, प्रोहियाइ १५४) । २ राजा चण्डप्रद्योत का एक दूत | पि २१०)। (महा) जंघवण न [जवन] मथुरा (हे ३, १३८; कुमा)। ल्हादि स्त्री [ह लादि] पाहाद, प्रमोद, खुशी लोहिआमुह पुं [लोहितामुख रत्नप्रभा का के समीप का एक वन (ती ७)। (राज)। एक नरकावास (स ८८)।लोह वि [लौह] लोहे का, लोह-निर्मित ( से ने ल्हाय पुं [ह लाद ] ऊपर देखो (धर्मसं लोहिञ्च पुं[लोहित्य] प्राचार्य भूतदिन्न के १४, २०) २१६)। शिष्य एक जैन मुनि (णंदि ५३) । लोहंगिणी स्त्री [लोहाङ्गिनी] छन्द-विशेष लोहिश्च ।न[लौहित्यायन] गोत्र-विशेष ल्हासिय पुं [ल्हासिक] एक अनायं मनुष्य(पिंग)। लोहिचायण (सुज्ज १०, १६ टी; इक; जाति (परह १, १-पत्र १४)।लोहल लोहल] शब्द-विशेष, अव्यक्त सुज्ज १०, १६)। ल्हिक्क अक [नि + ली] छिपना। ल्हिक्का शब्द (षड्)लोहिणी । स्त्री [दे] वनस्पति-विशेष, कन्द (हे ४, ५५; षड् २०६)। वकृ. लिहक्कंत लोहार पुं [लोहकार] लोहार, लोहे का काम लोहिणीहू विशेष (पएण १-पत्र ३५), (कुमा) करनेवाला शिल्पी (दे८, ७१ ठा -पत्र _ 'लोहिणीहू य थीहु ये' (उत्त ३६, ६६; सुख लिहक्क वि [दे] १ नष्ट (हे ४, २५८)। २ ४१७) ३६,६६) गत ( षड्) ॥ इन सिरिपाइअसहमण्णवम्मि लपाराइसहसंकलणो चउत्तीस इमो तरंगो समत्तो॥ For Personal & Private Use Only Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ पाइअसद्दमहण्णवो ब-बइदेह व पुं [व] १ अन्तस्थ व्यञ्जन वर्ण-विशेष, वइ स्त्री [वृति] बाड़, काँटे प्रादि से बनाई | वइकच्छ ( [वैकक्ष] उत्तरासंग (ग्रौप) ।। जिसका उच्चारणस्थान दन्त और प्रोष्ठ हैं जाती स्थानपरिधि, घेराः 'धन्नाणं रक्खट्ठा वइकलिअ न [[वैकल्य] विकलता (पान)। (प्राप; प्रामा) । २ पुंन. वरुण (से १, १; कोरंति वईयो' (श्रा १०० गउडा गा ६६ वइकुंठ पुं[चैकुण्ठ] १ उपेन्द्र, विष्णु (पान)। २, ११) उप ६४८ पउम १०३, १११, वजा ८६), २ लोक-विशेष, विष्णु का धाम (उप १०३१ वम [व] देखो इव (से २, ११, गा १८० 'उच्छू वोलंति वई' (धर्मवि ५३; संबोध टी)६३; ६४७६; कुमाः हे २, १८२; प्रासू वइकत वि [व्यतिक्रान्त] व्यतीत, गुजरा वइ देखो पइ = पति (गा ६६; से ४, ३४; हुप्रा (पउम २, ७४उवा; पडि) व देखो वा = ग्र (हे १, ६७, गा ४२; १६४, कप्पः कुमा)। वइक्कम पु [व्यतिक्रम] विशेष उल्लंघन, कुमाः प्राकृ २६, भवि)।वई देखो वय = वद् । व्रत-दोष-विशेष (ठा ३, ४-पत्र १५६ पव व देखो वाया = वाच् । 'क्खेवअ वि वई देखो वय = व्रज् । ६, टीः पउम ३१, ११)। [क्षेपक वचन का निरसन-खण्डन (गा वइ वि[दे] १ पीत, जिसका पान किया वइगरणिय पुं [वैकरणिक] राज-कर्मचारि१४२ अ), पइराय पुं [पतिराज] एक | गया हो वह (दे ७, ३४) । २ आच्छादित, विशेष (सुपा ५४८)। प्राचीन कवि, 'गउडवहाँ काव्य का कर्ता ___ ढका हुआः पच्छाइअनूमिपाइं वाई' वइगा देखो वइआ (सुख २, ५; बृह ३) (गउड)। (पाय) वइगुण्ण न [वैगुण्य १ वैकल्य, अपरिवअणीआ स्त्री दे] १ उन्मत्त स्त्री। २ दुःशील वइअ वि [व्ययित] जिसका व्यय किया पूर्णता, प्रसंपन्नता (धर्मसं ८८४) । २ विपस्त्री (षड् ) गया हो वह, 'किमिह दब्वेण वइएणं बहुएणं | रीतपन, विपर्यय (राज)। वअल प्रक [प्र + सू] पसरना, फैलना। (सुपा ५७८ ७३, ४१०)। वचित्त न [वैचित्र्य] विचित्रता (विसे वनलइ (षड् ) | वइअब्भ पुं[वैदर्भ] १ विदर्भ देश का राजा। ३११, धर्मसं ६५) . वआड देखो वायाड = वाचाट (संक्षि २)। २ वि. विदर्भ देश में उत्पन्न (षड् )।वइम [वै] इन प्रथों का सूचक अव्यय- वइअर [व्यतिकर] प्रसङ्ग, प्रस्ताव (सर वइजवण वि [वैजवन] गोत्र- 'शेष में उत्पन्न (हे १, १५१) । १ अवधारण, निश्चय (विसे १८००)।२ ४, १३६; महा)। वइणो देखो वइ = वतिन् । अनुनय । ३ संबोधन । ४ पादपूति (चंड)।- वइअव्य देखो वय = व्रज् । वइतुलिय वि [वैतुलिक] तुल्यता-रहित वह प [दे] बदि, कृष्ण पक्ष; 'फग्गुणवइ- वइआ स्त्री [ब्रजिका] छोटा गोकुल (पिंड (निचू ११) छट्ठीए' (सुपा ८६)। ३०६; सुख २, ५: मोघ ८४)। वइ वि वितिन् व्रतवाला, संयमी (उवः | वइआलिअ वि [वैतालिक] मंगल-स्तुति बत्तादेखो वय = वद् ।" सुपा ४३६)बी.णी (उप ५७१)। प्रादि से राजा को जगानेवाला मागध प्रादि | वइत्ता देखो वय = बच । - वइ श्री [वाच ] वाणी, वचन (सम २५; (हे १, १५२)। वइत्तु वि [वदित] बोलनेवाला, 'मुसं वइत्ता कप्पः उप ६०४ श्रा ३१; सुपा १८४; कम्म वइआलीअ पुंन [वैतालीय] छन्द-विशेष (हे भवति' (ठा ७–पत्र ३८६)। ४, २४, २७, २८), 'गुत्त वि [गुप्त] (हे १, १५१) । वइदम्भ देखो वइअब्भ (हे १, १५१)।वाणी का संयमवाला (आचाः उप ६०४), वइएस वि [वैदेश] विदेश-संबन्धी, परदेशी वइदिस पुं वैदिश] १ अवन्ती देश, मालव गुत्ति ली [गुप्ति] वाणी का संयम (पउम ३३, २४ हे १, १५१, प्राकृह)। देश; 'वइदिस उजेणीए जियपडिमा एलगच्छं (प्राचा) - जोअ, जोग पु [योग] वइएह पुं [वैदेह] १ वणिक् , वैश्य । २ च' (उप २०२)। २ वि. विदिशा-संबन्धी वचन-व्यापार (भगः परह १२)। जोगि शूद्र पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न जाति- (बृह ६) । वि [ योगिन्] वचन-व्यापारवाला (भग)। विशेष । ३ राजा जनक । ४ वि. देह-रहित | वइदेस देखो वइएस (प्राप्र)। मंत वि [°मत् ] वचनवाला (माचा २, से संबन्ध रखनेवाला। ५ मिथिला देश का वइदेसिअ वि [वैदेशिक] विदेशीय, परदेशी १, ९, १), मेत्त न [°मात्र] निरर्थक (हे १,१५१, प्राकृ९)। (संक्षि ५; कुप्र ३८० सिरि ३६३; पि वचन (धर्मसं २८४, २८५, ८४४)। देखो वइंगण न [दे] बैगन, बुन्ताक, भंटा (दे ६, वई। | वइदेह देखो वइएह (प्राप्र)। For Personal & Private Use Only Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदेही - इस्स देह त्री [वैदेही ] १ राजा जनक की स्त्री, सीता की माता ( पउम २६, ७५) । २ जनकात्मजा, सीता । ३ हरिद्रा, हल्दी । ४ पिप्पली, पीपल । वरिगक स्त्री (संक्षि ५ ) 1इम्म [वैधर्म्य] धर्मता विपरीतपन (विसे ३२२८) | इमिस्स वि [ व्यतिमिश्र ] संमिलित ( श्राचा २, १, ३, २) । - २ चर देखो र वइ पुन [व] १ रत्न- विशेष, हीरक, हीरा (सम ६३ औप कप्पः भगः कुमा) । इन्द्र का अन (षड् ) । ३ एक देव विमान ( देवेन्द्र १३३ सम २५) । ४ विद्यतु, बिजली (कुमा) ५. पुं. एक सुप्रसिद्ध जैन महर्षि ( कप्पा हे १, ६० कुमा) । ६ कोकिलाक्ष वृक्ष । ७ श्वेत कुशा ८ श्रीकृष्ण का एक प्रपौत्र । ९ न. बालक, शिशु । १० धात्री । ११ काँजी १२ वज्रपुष्प का लोहा । १४ प्रभ्र-विशेष प्रसिद्ध एक योग (हे २, कीलिका, छोटी कील (सम 1 १०५) । १६ १४९ ) + कंड [काण्ड ] प्रभा पृथियों का एक वज्ररत्न-मय काण्ड (राज) -1 "कंत न [°कान्त] एक देव-विमान (सम २५ ) । "कूड न [° कूट ] १ एक देव - विमान (सम २५) । २ देवी विशेष का श्रावासभूत एक शिखर (राज)[क] १ भरत क्षेत्र में तीय प्रतिवासुदेव (सम १५४) २ विजय के लोहार्गल । पुष्कलावती नगर का एक राजा (आव) । पभन देश (हे १. १५२) । । १३ एक प्रकार १५ ज्योतिष । [प्रथ] एक देव-विमान (सम २५ ) मम्मा श्री [*मध्या] प्रतिमा विशेष एक प्रकार का व्रत (ठा ४, १ – पत्र १९५ ) 1. "रूप न [रूप] एक देव-विमान (सम २५) लेखन [[लेश्य] एक देव-विमान (सम २५ ) + वण्णन [वर्ण] देवविमानविशेष (सम २५) सिंग [] एक देव- विमान का नाम (सम २५) । सिंह [*सिंह] एक राजा (काल पि ४०० ) - "सिटुन [" सुष्ट] एक देव-विमान (सम २५) सीह देखो सिंह (काल) सेण ["सेन] एक प्राचीन जैन मो पाइअसद्द मण्णवो M वज्रस्वामी के शिष्य थे (कप्प) सेणा स्त्री [सेना] १ एक इन्द्राणी, दाक्षिणात्य मानव्यन्तरेन्द्र की एक महिषी खाया २ – पत्र २५२ ) । २ एक दिक्कुमारी देवी (इक) हरपुं [धर ] इन्द्र (षड् ) "मय वि [य] वज्र रत्नों का बना हुआ (सम ६३: ग्रीफ पि७० १३५), श्री. मई, मती ( जीव ३ पि २०३ टि ४) । वतन [व] एक देव विमान (सम २५) सभनारायन [ ऋषभनाराच ] संहनन- निशेष (सम १४६ भग) देखो वज्ज = वज्र 1 वइरा स्त्री [वज्रा ] एक जैन मुनि शाखा (काव्य) 10 पराग [ वैराग्य ] ( पउम २६, २०) विरक्ति, उदासोगता इड [वैराट] १ एक प्रायं देश । २ न. प्राचीन भारतीय नगर विशेष श्री मय देश की राजधानी थी; 'वइराड मच्छ वरुणा 'अच्छा' (पव २७५) । वइराय देखो वइराग (भवि) 1 बहुरि [ वैरिम् ] दुश्मन रिपु (मुर वइरिअ ) १, ७; कालः प्रासू १७४) वइरिक्क न [दे] विजन, एकान्त स्थान; देखो पइरिक्क 'ग्र हिनं सुरागाइ निरंजगाइ मरिका (या ८७० ) 1बस्ति र [व्यतिरिक्त] मित्र मल १२, ४४ इय ५४ ) 1बरी श्री र 3 [ख] एक जैन मुनि शाखा वरुट्टा श्री [बैरोट्या] १ एक विद्यादेवी (संति ६२ भवान् महिनावजी को शासन देवी (संति १० ) 1वहरुतरडिंग न [पशोत्तरावतंसक ] एक देव - विमान (सम २५) । वइरेअ ) ु [ व्यतिरेक] १ अभाव (धर्मसं बरेअ इरेग ११२)। २ के प्रभाव में हेतु का नितान्त प्रभाव ( धर्मंसं ३६२ उप ४१३३ विसे २६०; २२०४) । वइरोअण[वैरोचन] १ ( अग्नि, वह्नि १, ६, ६) । २ बलि नामक इन्द्र (देवेन्द्र ३०७ ) । ३ उत्तर दिशा में रहनेवाले श्रसुर For Personal & Private Use Only निकाय के देव (भग ३, १० सम ७४ ) | ४ पुंन. एक लोकान्तिक देव- विमान (पव २६७, सम १४ ) | वइरोअण पुं [दे] बुद्ध देव (दे ७, ५१) । बइरोड [] जर उपपति (दे०, ४२) - यश्चलय [दे] साँप की एक जाति भ सर्प (दे ७,५१) 3 वइवाय पुं [व्यतीपात ] ज्योतिष प्रसिद्ध एक योग (राज) | वेला श्री [हे] सीमा (दे ७, ३१) - वइस देखो वइस्स = वैश्य; 'बारलाइनोरा बसइअ उता ते होंति वइसनामा वावारपरायणा धीरा' (पउम २, ११६) [वैषयिक] विषय से उत्पन्न (५) । संपादण[वैशम्पायन] एक ऋषि जो व्यास का शिष्य था ( हे १, १५१६ प्रात्र) । इसम्म पुंग [वैपम्य] वियमता, 'सम्म' ( संक्षि ५० प ६१ ) । वइसवण पुं [वैश्रवण] कुवेर हे १, १५२ भवि) 1 चइसस न [ वैशस ] रोमाञ्चकारी पाप-कृत्य (उप ५७५)। प वइसानर देखो वइस्सागर (धम्म १२ टी) । ~ बाल देखो [वैशाल] विशाला में (हे १, १५१ ) । - वइसाद [वैशाख] १ मास-विशेष (सुर पुं ४, १०१ भवि ) । २ मन्थन - दण्ड । ३ पुंन. योद्धा का स्थान विशेष ( हे १, १५१ प्राप्र ) । बसाही देखो बेसाही (राज) m सिवि [वैशिक] वेष से जीविका उपार्जन करनेवाला (हे १, १५२: प्रा ) । वइसिटु न [ वैशिष्ट्य ] विशिष्टता, भेद ( धर्मसं ६९ ) । इसेसिअन [वैशेषिक] दर्शन-विशेष करणाद-दर्शन ( विसे २५०७ )। २ विशेष; 'जोएज्ज भावप्रो वा वइसेसियलक्खणं चउहा (विसे २१७८) । वइस्स पुंस्त्री [वैश्य ] वर्णं विशेष, वणिक्, महाजन ( विपा १, ५)। Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ aste fo [द्वेष्य ] प्रीतिकर (उत्त ३२, १०३) । [वैश्वदेव] वैश्वानर प्रति इस्सदेव (निर, १) - इस्सार पुं [वैश्वानर ] १ वह्नि नि । ३ चित्रक वृक्ष । ३ सामवेद का श्रवयवविशेष ( हे १, १५१ ) । - वई देखो वइ = वाच् (प्राचा) । मय वि [य] वचनात्मक (दस १, ३, ६) अवि [ व्यतीत ] श्रतीत, गुजरा हुआ । *सोग ! ["शोक] एक जैन मुनि (उम २०, २०) - यसक [ व्यति + ब्रज्] जाना, गमन करना। वह 'कोल्लापत्स संनिवेस सामंत वईवयमाणे बहुलास निसामेद (उवा) । ईवाय देशो वश्वाय (राज) 1 [] शरीर-कान्ति श्रदूर - १० ) । बड न [ पुष्] शरीर देह (राज) 1 अवि [] ल-प्रोत (दे ७, ४४) वएमाण देखो वय = वद् 1 वओ देखो वय = वचस् ( श्राचा) । मय न [य] वाङमय, शास्त्र (विसे ५५१) । वो देवी वयव (पउम ४८, ११५) । ओफ [दे ] व समान ओवत्थ रात और दिनवाला काल (दे ७, ५० ) 1 = - वं° देखो वाया = वाच् । नियम पुं [नियम ] वाणी की मर्यादा (उप ७२८ टी) । [[[[[[य] १ बाट (कुमा सुपा १७२० पि ७४) । २ नदी का बॉक (हे १, २६; प्रात्र) 1 चंपुं [दे] कलंक, दाग (दे ७, ३०) 'वक देखो पंक (से ६, २६ गउड) 1 चूल [प] एक प्रसिद्ध राजकुमार (धर्मवि ५२ ; पडि ) । क ि []ि ऊपर देखो, तम्रो गया कलि ५२५६ (0) 1~ पाइअसद्दमहणव किअ वि [वक्रित] बांका किया हुआ (से ६, ५६ ) किवि [पति] -युक्त ( ४.२६) किम श्री [ वक्रिमन् ] वक्ता कुटिलता (पि ७४; हे ४, ३४४ ४०१ ) । बंकुड ) देखो वंक = बँक 'विविहविसविड} कुण विनियकुडा रिसम्म य वर्णे' ( स २५६६ हे ४, ४१८६ भकिपि४) बंग दंग कुम (शी) ऊपर देखो (प्राकृ १७) [दे] वृन्ताक, भंटा (दे ७, २६) [ व्यङ्ग] विकृत भंग ग वि लीपतियन्नवाचिकाओ ( प राह १, ४ – पत्र ७ ) । बंग वंगेवडु थुं [दे] सूकर, सूअर (दे ७, ४२ ) । बंच एक [] उगना पंच (हे ४, [१२] प महा) कर्मभिवि संकृ. चिऊण (महा). पंचणीअ (प्राथ) प्रयो, वह तो सो पंचावितो कुमरपहारं मए पुरवाहि (सुपा ५७२) वएइ । पंच (अ) देखो थाम्बइ (प्राह ११९) । संकृ. बंचिवि ( भवि ) । = बंच सक [उद् + नमय्] ऊँचा उठाना चइ (?) (घावा १५१) । - च वि [प] उगनेवाला, पूर्व कुटिल च वकत्तणं च वंचज्ञणं श्रसच्चं च' ( वज्जा ११६ ४ ४१२) - [पंचअ वंचग [क]] ऊपर देखो (नाट मालविः श्रा २८ ) । बंचण न [वचन] १ प्रतारण, उई (सम्मत २१७।२वि उगनेवाला, ठग (संबोध ४१) चणवि [चण] हाने में चतुर (सम्मत २१७ ) । चणा [चना] प्रतारणा (व कप्पू ) । यंत्रण न [वकून, वण] मलीकरण, कुटिल बंचिअ वि [श्चित] प्रचारित (पास)। बनाना (ठा २, १ - पत्र ४० ) । २ रहित बजित (गड) | [] प्रमय शिव का धनुवर विशेष (दे ७, ३९) । वंगण न [ व्यङ्गन] क्षत (राज) 1बगियन [व्यङ्गित ] वित शरीराला (राज) 7 For Personal & Private Use Only -- वइस्स - वंजुल वंछा स्त्री [वाञ्छा] इच्छा, चाह (सुपा ४०४) ज सक [वि + अअ ] व्यक्त करना, प्रकट करना । कर्म, वंजिजइ (विसे १९४ ४६३ धर्मसं ५३) । वंज देखो बंच = उद् + नमय् । वंजइ ( ? ) (१५१) । वंज देखो बंद = वन्द् । वंजग देखो वंजय (राज) 1 पंजण [अन] १ होज्ज वंजणक्खरथ्रो' होय जलसरों (विसे १७०), 'ती नत्थि अत्यभेो वंजणरयणा परं भिन्ना' (चेइय ८६६ ) । २ स्वर-भिन्न अक्षर के से ह तक वर्ण (विसे ४६१ ४६२ ) । ३ शब्द, पदः 'सो पुरा समासओ चित्र वंजणनिप्रभो प्रत्यनिनो अ' (सम्म ३० सूत्रनि ९; पडि विसे १७० ) । ४ तरकारी, कढ़ी आदि रसव्यञ्जक वस्तु (सुपा ६२३; प्रोघ ३५९ ) । ५ शुक्र, वीर्यं (विसे २२८ ) । ६ शरीर का मसा प्रादि चिह्न (पव २५७; औप) ७ मसा आदि शरीर चिह्नों के फल का उपदेशक शास्त्र (सम ४९ ) । ८ कक्षा आदि के बाल (राज) । ६ प्रकाशन, व्यक्तीकरण ( विसे ४६१ ) । १० श्रोत्रादि इन्द्रिय ११ शब्द आदि द्रव्य । १२ द्रव्य और इंद्रिय का संबन्ध (दि, विसे २०) बगाह ! [ह] ज्ञान- विशेष, चक्षु और मन को छोड़ कर अन्य इन्द्रियों से होनेवाला ज्ञान विशेष (कम्म १, ४, २१) वंजय व [क] व्य करनेवाला (भा २९) वंजर पुं [ मार्जार] बिल्ला, बिलार (हे २, १३२ कुमा) 1 वंजर न [दे] नीवी, कटी-वस्त्र (दे ७, ४१) । बंजिअ [वि] [व्यञ्जित] व्यक्त किया मा प्रकटित (कुमा ११० २६ बंजुल [बजुल] १ अशोक ४२२; १११ ) २ वेतस वृक्ष (पान); 'वंजुलसंगेण विसं व पन्नगो मुयइ सो पावं' (घम्म ११ टी वज्जा ९६६ उप ७२८ टी) । (मा ३ पक्षि - विशेष (पराह १, १ – पत्र ८) Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंजुलि-वंसय पाइअसहमहण्णवो ७३५ वंजुलि वि[कजुलिन् ] वैतस वृक्षवाला। वकृ. वन्दमाण (ओघ १८; सं १०, अभि वंदिअ देखो वंद = वन्दु । स्त्री. °णी (गउड)। १७२) । कवकृ. वन्दिज्जमाण (उप ६८६ | वंदिअ वि [वन्दित] जिसको वन्दन किया वंझ वि [वन्ध्य] शून्य, वजित (कुमा)।- टी; प्रासू १६५) । संकृ. वन्दिअ, वन्दिओ, गया हो वह (कप्पः उव)। वंझा स्त्री [वन्ध्या] बाँझ स्त्री, अपुत्रवती स्त्री वन्दिऊण, वन्दित्ता, वन्दित्तु, वंदेवि वदिम देखो वंद - वन्द ।(पउम २६, ८३, सुपा ३२४)। (कम्म १, १; चंड; कप्पा षड्; हे ३, १४६; वंदुरा स्त्री [मन्दुरा] वाजिशाला, घुड़साल, चंड) । हेकृ. वंदित्तए (उवा)। कृ. वंज, वंटन [वृन्त फल या पत्तों का बन्धन (पिंड अस्तबल । वंद, वंदणिज, वंदणीअ, वंदिम (राजा वंद्र न [वन्द्र] समूह, यूथ (हे १, ५३; २, अजि १४द्रव्य १ रणाया १, १; प्रासू १६२ | वंटग [वण्टक] बाँट, विभाग (निचू १९)। | ७६; पउम ११, १२० स ६६६)। नाट-मृच्छ १३०; दसचू१)। वंध पुं [वन्ध्य एक महाग्रह, ज्योतिष्क देववंठ [दे] १ प्रकृत-विवाह, अविवाहित वंद न [वृन्द] समूह, यूथ (पउम १, १, विशेष (सुज्ज २०)। गुजराती में वांढो (दे ७, ८३; ओघ २१८)। प्रौपः प्राप्र)। वंफ सक [काङ्क्ष ] चाहना, अभिलाष २ खण्ड, टुकड़ा। ३ गण्ड (दे ७, ८३)। बंद। वि [वन्दक] वन्दन करनेवाला | करना । बंफइ, वंफए, बर्फति (हे ४, १९२; ४ भृत्य, दास (दे ७, ८३, सुर २, १९८ वंदग। (पउम ६,५८, १०१, ७३; महाः । कुमा) रयण ८३, सिरि १११५)। ५ वि. निःस्नेह, औपः सुख १, ३). वंफ अक [वल्] लौटना। वंफइ (हे ४, स्नेह-रहित (दे ७, ८३)। ६ धूर्त, ठग वंदण न [वन्दन] १ प्रणमन, प्रणाम । २ । १७६; षड् ) ।। (श्रा १२) स्तवन, स्तुति (कप्प; सुर ४, ६२: उव) वंफि वि विलिन] १ लौटनेवाला । २ नीचे वंठ वि [वण्ठ] खर्व, वामन, नाटा, बौना | कलस कलश] मांगलिक घट (प्रौप) गिरनेवाला (कुमा)।(हे ४, ४४७)। घड पुं[°घट] वही अर्थ (प्रौप), माला, वंफिअ वि [काक्षित] अभिलषित (कुमा)। वंठण (अप) न [वण्टन] बाँटना, विभाजन मालिआ स्त्री [ माला] घर के द्वार पर | वंफिअ वि [दे] भुक्त, खाया हुआ (दे ७, (पिंग)। मंगल के लिए बँधी जाती पत्र-माला (सुपा ५४; सुर १०, ४; गा २६२) वंडइअ वि [दे] पीडित (षड् )। ३५; पाप्र)। वडिआ, वंस पुं[दे] कलंक, दाग (दे ७, ३०) । वत्तिआ स्त्री [प्रत्यय] वन्दन-हेतु (सुपा 'वंडु देखो पंडु (गा २६५) ४३२, पडि) वंस [वंश] १ बाँस, वेणु (पएह २,५वंडुअन [दे] राज्य (दे ७, ३६)।वंदणा स्त्री [वन्दना] १ प्रणाम । २ स्तवन पत्र १४६; पात्र) । २ वाद्य-विशेषः 'वाइयो "वंडुर देखो पंडुर (गा ३७४) । वंसो' (कुमा २, ७०, राय) । ३ कुल (पंचा ३, २; पण्ह २, १-पत्र १००% 'चुलुगवंसदीवप्रो' (कुमा २,६१)। ४ सन्तान, वंढ पुं[दे] बन्ध (दे ७, २६)। अंत)। संतति । ५ पृष्ठावयव, पीठ का भाग। ६ वंत वि [वान्त पतित, गिरा हुआ (दस ३, वंदणिया स्त्री [दे] मोरी, नाला, पनाला: वर्ग। ७ इक्षु, ऊख । ८ वृक्ष-विशेष, सालवृक्ष १ टी)। 'अस्थि कंबलो, गरिणयाए नेमि । मुक्को । तो (हे १, २६०), इरि पु ["गिरि] पर्वतवंत [वान्त] १ जिसका वमन किया गया तोसे दिनो। तीए चं (? बं) दणियाए छूढो' विशेष (पउम ३६, ४) । करिल्ल, गरिल्ल हो वह (उव)। २ पुंन. वमनः 'वंते इ वा (सुख २, १७)। पुंन [°करील] वंशांकुर, बाँस का कोमल पित्ते इ वा' (भग)। वंदर देखो बंद - वृन्द (प्राप्र)। नवावयव (श्रा २०; पब ४) . जाली, वंतर पुं[व्यन्तर] एक देव-जाति (दं २७ वंदाप (अशो) देखो वंदाव । वंदापयति (पि याली स्त्री [जाली] बाँसों का गहन घटा __ महा). (सुर १२, २००; उप पू ३६) + रोअणा वतरिअ पुं[व्यन्तरिक ऊपर देखो (भग)। वंदारय पुं [वृन्दारक] १ देव, देवता स्त्री [रोचना] वंशलोचन (कप्पू)। वंतरिणी स्त्री [व्यन्तरी] व्यन्तर-जातीय देवी। (पाम कुमा)। २ वि. मनोहर (कुमा)। वंसकवेल्लुय पुन [दे. वंशकवेल्लुक छत (सुपा ६१३)। ३ मुख्य, प्रधान (हे १, १३२)। के नीचे दोनों तरफ तिरछा रखा जाता बाँस वंता देखो वम । चंदारु वि [वन्दारू] वन्दन करनेवाला (चेश्य (जीव ३; राय) IN 'ति देखो पन्ति (गा २७८, ४६३) ।। ६२१, लहुप्र) वंसग देखो वंसय (राज)। °वंथ देखो पन्थ (से १, १६, ३, ४२, १३, वंदाव सक [वन्दय् ] वन्दन करवाना। वंसप्फाल वि [दे] १प्रकट, व्यक्त । २ ऋजु, २०; पि ४०३)। वंदावइ (ब)।.. सरल (दे७, ४८)वंद सक [वन्द्] १ प्रणाम करना । २ वंदावणग न [वन्दन] वन्दन, प्रणाम (श्रावक वंसय वि [व्यंसक] १ धूर्त, ठग । २ पुं. . स्तवन करना। वंदइ (उव; महा: कप्प)। ३७४) । दुष्ट हेतु-विशेष (ठा ४, ३–पत्र २५४) ।। For Personal & Private Use Only Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो वंसा-वग्ग वंसा स्त्री [वंशा] द्वितीय नरक-पृथिवी (ठा वक्कडबंध न [दे] कर्णाभरण, कान का वक्खाणि वि [व्याख्यानिन व्याख्यान-कर्ता ७--पत्र ३८८ इक)प्राभूषण (दे ७, ५१)। (धर्मसं १२६१) पंसि देखो वंसी = वंश (कम्म १, २०) वक्कम अक [अव + क्रम् ] उत्पन्न होना। वक्खाणिय वि [व्याख्यानित] व्याख्यात वंसिअ वि [वांशिक] वंश-वाद्य बजानेवाला वकमइ (भगः कप्प) । भूका. वमिसु (कप्प)। (विसे १०८७)। (हे १,७०; कुमा) भवि. वक्कमिस्संति (कप्प) वकृ. वक्कममाण | वक्खाणीअ (अप) ऊपर देखो (पिंग ५०६) वंसिअ वि [व्यंसित] छलित, प्रतारित (भगः पाया १,१-पत्र २०)। वक्खाय वि [व्याख्यात] १ विवृत, वर्णित (राज)। वकर (अप) देखो वक्क = वंक (भवि) (स १३२, चेइय ७७१)। २ पुं. मोक्ष, बंसी स्त्री [वांशी] १ सुरा-विशेष (बृह २)। वकल न [बलकल] वृक्ष की छाल (प्रापः सुपा मुक्ति (पाचा १, ५, ६, ८)। २ बाँस की जाली (ठा ३, १-- पत्र १२१) २५२ हे ४, ३४१, ४११: प्रति ५) कलंका स्त्री [कलङ्का बाँस की जाली की चीरि पुं [ चीरिन] एक महर्षि, जो राजा वक्खार पुं [दे] बखार, अन्न आदि रखने का बनी हुई बाड़ (विपा १, ३-पत्र ३८) प्रसन्नचन्द्र के छोटे भाई थे (कुप्र २८६)। मकान, गोदाम (उप १०३१ टी)। पत्तिया स्त्री [पत्रिका] योनि-विशेष, वलि । वि [वल्कलिन] वृक्ष की छाल वक्खार [वक्षार, वक्षस्कार] १ पर्वतवंशजाली के पत्र के आकार की योनि (ठा वक्कलिग पहननेवाला (तापस), (कुमाः विशेष, गज-दन्त के प्राकार का पर्वत (सम भत्त १०० संबोध २१; पउम ३६, ८४)। १०१ इक)। २ भू-भाग, भू-प्रदेश (पउम वंसी स्त्री [वंशी] वाद्य-विशेष, मुरली (बृह वक्कल्लय वि [दे] पुरस्कृत, प्रागे किया हुआ २, ५४५५, ५६, ५८)२) । णहिया स्त्री ['नखिका] वनस्पति वक्खारय न [दे] १ रति-गृह । २ अन्तःपुर विशेष (परण १--पत्र ३८), 'मुह पुं वक्कस न [दे] १ पुराना धान का चावल । [°मुख] द्वीन्द्रिय जीव-विशेष (जीव १ टी वक्खाव सक [व्या +ख्यापय् ] व्याख्यान २ पुरातन सक्तु-पिण्ड । ३ बहुत दिनों का कराना । वक्खावइ (प्राकृ ६१) पत्र ३१)। बासी गोरस । ४ गेहूँ का माँड (प्राचा १, वंसी स्त्री [वंश] बाँस । 'मूल न [ मूल] ६, ४, १३)~ वक्खित्त वि [व्याक्षिप्त] १ व्यग्र, व्याकुल बाँस की जड़ (कस)। वक्किद (शौ) देखो पंकिअ (पि ७४) । (मोघ १३, कुन २७)। २ किसी कार्य में बंसी स्त्री [दे] मस्तक पर स्थित माला (दे ७, वक्ख देखो वच्छ = वृक्ष (चंड उप ८८५) व्यापृत (पद २) वक्ख देखो वच्छ = वक्षस् (संक्षि १५, प्राकृ वक्खेय देखो वक्खा = व्या + ख्या ।। वक्क न [वाक्य] पद-समुदाय, शब्द-समूह २२. नाट--मृच्छ १३३)। वक्खेव पुं[व्याक्षेप १ व्यग्रता, व्याकुलता (उव; उप ८३३; ८५६)। वक्ख देखो पक्ख (गा ४४२ से ३, ४२; (उवाः उप १३६ टी: १४०)। २ कार्यवक्क न [वल्क] त्वचा, छाल (उप ८३६; ४, २३; स ६५१) । बाहुल्य (सुख ३, १)।औप) बंध पुं[वन्ध वल्क-बन्धन (विपा वक्खेव पुं[अवक्षेप] प्रतिषेध, खण्डन वक्खमाण देखो वय = व् । १,८)वक्खल वि [द] आच्छादित, ढका हुआ | (गा २४२ अ) वक्क देखो वंक = वंक (णाया १, ८-पत्र (षड्)। | वक्खो देखो वच्छ = वक्षस् । रुह पुं १३३ स ६११: धर्मसं ३४८, ३४६) वक्खा सका व्याख्या विवरमा करना।[रुद्द स्तन, थन (सुपा ३८९) 1 वक्त न [वक्त्र] मुख, मुंह (पउम १११, २ कहना । कृ. वक्खेय (विसे १३७०)। वक्नु (शौ) देखो वंक = वङ्क (प्राकृ ६७). वखाग (अप) देखो वक्खाण = व्याख्यानम् । १७ गा १६४)। वक्खा स्त्री व्याख्या] विवरण, विशद रूप बखाण (पिंग)। वक न [दे] पिष्ट, पिसान, पाटा (षड् )। से अर्थ प्ररूपण (विसे ६६४)। वखाणिअ (अप) देखो वक्खाणिय (पिंग)। वत पुन [वक्रान्त प्रथम नरक-भूमि का an.sमि का वक्खाण न व्याख्यान १ ऊपर देखो (चेइय वगडा स्त्री दे] बाड, परिक्षेप (कस: ववहार दसवाँ नरकेन्द्रक-नरकावास-विशेष (देवेन्द्र | २७१; विसे ६६५) ।२ कथन (हे २,६०) वग्ग सक [वला] १ जाना, गति करना। वक्खाण सक[व्याख्यानय] १ विवरण २ कूदना। ३ बहु-भाषण करना। ४ वकंत वि [अवक्रान्त] उत्पन्न (कप्पा पि करना। २ कहना । वक्खाइ (भवि)। अभिमान-सूचक शब्द करना, खूखारना । १४२)। भवि. वक्खाणइस्सं ( शौ) (पि २७६)। वग्गइ (भविः सण पि २६६), वग्गंति वक्कंति स्त्री [अवक्रान्ति] उत्पत्ति (कप्प; सम | कम. वक्खाणिजइ (विसे ६८४ )। वकृ. (सुपा २८८)। कर्म, वग्गीप्रदि (शौ) २. भग) वक्खाणयंत ( उवर ६८, रयण २१)। (किरात १७)। वकृ. वग्गंत (स ३८३; वक्कड न [दे] १ दुर्दिन । २ निरन्तर वृष्टि (दे संकृ. वक्खाणेउं (विसे ११)। कृ. वक्खाणे- सुपा ४६३; भवि)। संकृ. वग्गित्ता (पि अव्व (राज) । २६६)। For Personal & Private Use Only Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वग्ग-वञ्च पाइअसहमहण्णवो वग्ग [वर्ग] १ सजातीय समूह (एंदिः सुर वग्गिर वि [वल्गित] १ खूखार आवाज जाती एक प्रकार की नावाजा 'अप्पेगइया ३, ४; कुमा)। २ गणित-विशेष, दो समान करनेवाला। २ गति-विशेषवाला (सुर ११, वग्घाडीअो करेंति' (गाया १, ८-पत्र संख्या का परस्पर गुणन (ठा १०–पत्र १७१)। ४६६)। ३ ग्रन्थ-परिच्छेद, अध्ययन, सगं वग्गु देखो वाया = वाच् ; 'वरमूहि' (प्रौपः वग्धारिअ वि [व्याघारित] १ बधारा हुआ, (हे १, १७७, २, ७९) मूल न [ मूल] कप्प; सम ५०; कुम्मा १६) छौंका हुआ (नाट–मुन्छ २२१) । २ व्याप्त; गणित-विशेष, वह अंक जिसका वर्ग किया वग्गु देखो वग्ग - वर्गः 'वग्गूहि' (प्रौप) 'सीतोदयवियडबग्घारियपाणिणा' (सम ३६)। गया हो, जैसे ४ का वर्ग करने से १६ होता है, १६ का वर्गमूल ४ होता है (जीवस | वग्गु वि [वल्गु] १ सुन्दर, शोभन (सूप ३ पिघला हुमा (दश० वै० वृ० चू० प्र० ३ नि० गा० १६७) १५७) वग्ग [वर्ग] गणित-विशेष, । १, ४, २, ४)। २ कल, मधुर (पाप)। ३ पुं. विजय-क्षेत्र-विशेष, प्रान्त-विशेष (ठा २, वग्धारिअ वि [दे] प्रलम्बित 'पडिबद्धसरीरवर्ग से वर्ग का गुणन, जैसे २ का वर्ग ४, ३–पत्र ८०)। ४ पुंन. एक देव-विमान, वग्धारियसोरिणसुत्तगमल्लदामकलावे' (सूप २, ४का वर्ग १६, यह २ का वर्गवर्ग कहलाता वैश्रमण लोकपाल का विमान (देवेन्द्र १३१, २, ५५); 'वग्धारियपाणी' (णाया १,८है (ठा १०)। २७०)। पत्र १५४, कप्पा औप: महा) वग्ग सक [ वर्गय ] वर्ग करना, किसी अंक वग्गुरा न [वागुरा] १ मृग-बन्धन, पशु वग्घावञ्च न [व्याघ्रापत्य एक गोत्र, जो को समान अंक से गुणना। वग्गसु (कम्म फंसाने का जाल, फन्दा (पण्ह १, १, विपा वाशिष्ठ गोत्र की एक शाखा है (ठा ७-पत्र ४, ८४) १, २--पत्र ३५)। २ समूह, समुदाय | ३६०; सुज १०, १६, कप्पा इक)। वग्ग वि [व्यग्र] व्याकुल (उत्त १५, ४, 'मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते (उवा, प्राप)। वग्धी स्त्री [व्याघ्री] १ बाघ की मादा रयण ८०) वग्गुरिय वि [वागुरिक] १ मृग-जाल से | (कुमा)। २ एक विद्या (विसे २४५४) ।। वग्ग देखो यक्क = वल्क (विसे १५४) । वग्ग देखो वक्त = वाक्य, 'मुद्धा भणंति अहलं जीविका निर्वाह करनेवाला, व्याध, पारधि | वघाय देखो वाघायः 'माउस्स कालाइचरं (प्रोघ ७६६) । २ पुं. नर्तक-विशेष (राज)। बहु वग्गजाल' (रंभा) । वघाए, लद्धाणुमाणे य परस्स अट्ठ' (सूत्र १, १३, २०)। वग्ग वि वाल्क] वृक्ष त्वचा-छाल का बना वग्गुंलि पुत्री [बल्गुलि] १ पक्षि-विशेष हमा (णाया १. टी-पत्र ४३) (पएह १, १-पत्र ८)। २ रोग-विशेष | वचा स्त्री[वचा] १पृथिवी, धरती (से २. वग्गंसिअ न दे युद्ध, लड़ाई (दे७, ४६) (ोघभा २७७, श्रावक ६१ टी) ११)। २ पोषधि-विशेष, बच (मृच्छ वग्गचूलिआ स्त्री [वर्गचूलिका] एक प्राचीन | | वग्गेज्ज वि [दे] प्रचुर, प्रभूत (दे ७, ३८) | १७०) । देखो वया = वचा ।। जैन ग्रन्थ (दि २०२) । वग्गो [दे] नकुल. न्यौला (दे ७, ४०) वञ्च सक [व्र ] जाना, गमन करना । वग्गण न [वल्गन] कूदना (प्रौपः कुप्र १०७ वग्गोरमय वि [दे] रूक्ष, लूखा (दे ७,५२) वच्चइ (हे ४, २२५; महा)। भवि. वच्चिकप्पा गाया १, १-पत्र १९ प्राप)। वग्गोल सक [ रोमन्थय] पगुराना, चबी हिसि (महा)। दकृ. वच्चंत, वञ्चमाण (सुर वग्गण न वल्गन] बकवाद (रंभा) - हुई वस्तु का पुनः चबानाः गुजराती में | २, ७२, महा: या १६)। वग्गणा स्त्री [वर्गणा] सजातीय समूह (ठा | 'वागोळवु' । वग्गोलइ (हे ४, ४३)। | वञ्च सक [ काङ्क्ष ] चाहना, अभिलाष १-पत्र २७)। वग्गोलिर वि [रोमन्थयित] पगुरानेवाला करना । वच्चइ, वच्चउ (हे ४, १६२; कुमा)। वग्गय न [दे] वार्ता, बात (दे ७, ३८)। (कुमा) । | वञ्च देखो वय = वच् । वग्ध वि [वैयाघ्र] व्याव-चर्म का बना हुमा वग्गा स्त्री [वल्गा] लगाम (उप ७६८ टो)। वच पुन [ वर्चस् ]१ पुरीष, विष्ठा (पाय (प्राचा २, ५, १, ५) । मोघ १६७; सुपा १७६; तंदु १४)। २ वग्गावग्गि प्र. वर्ग रूप से (प्रौप) । वग्ध पुं[व्याघ्र १ बाघ, शेर (पाम स्वप्न | कूड़ा-करकट; 'भोगो तंबोलाइ कुर्णतो जिणवग्गि वि [वाग्मिन्] १ प्रशस्त वाक्य | ७०; सुपा ४६३)। २ रक्त एरण्ड का पेड़ । गिहे कुणइ वच्च' (संबोध ४)। ३ चौथा बोलनेवाला। २ पुं. बृहस्पति (प्राप्रा पि ३ करज वृक्ष (हे २, १०) "मुह पुं नरक का चौथा नरकेन्द्रक-नरकस्थान२७७) [मुख] १ एक अन्तर्वीप । २ उसमें रहने- विशेष (देवेन्द्र १०)। ४ तेज, प्रभाव (णाया वग्गिअ वि [वर्गित] वर्ग किया हुआ (कम्म वाली मनुष्य-जाति (ठा ४, २–पत्र २२६; १,१-पत्र ६)५ °घर, हर न [गृह] इक) पाखाना, टट्टी (सूत्र १, ४, २, १३, स वग्गिअन [वल्गित १ बहु भाषण, बकवाद वग्घा पुंदे] १ साहाय्य, मदद । २ वि. ७४१) 1. (सम्मत्त २२७)। २ बड़ाई की भावाज | विकसित, खिला हुमा (दे ७, ८६) वञ्च देखो वय = वचस् (णाया १,१-पत्र (मोह ८७) । ३ गति, चाल (सण) | वग्घाडी स्त्री [दे] उपहास के लिये की। ६)। ६३ For Personal & Private Use Only Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ पाइअसद्दमहण्णवो वञ्चंसि-वज वञ्चसि वि [वचस्विन्] प्रशस्त वचनवाला वच्छ वि [वात्स्य वात्स्य गोत्र का (दि ३३४)। वकृ. वज्जत, वज्जमाण (सुर ३, (णाया १, १-पत्र ६)। ११५, सुपा ६५६) वञ्चसि वि वर्चस्विन् ] तेजस्वी (णाया वच्छगावई नी [वत्सकावती] एक विजय- वजन [वाद्य बाजा, वादित्र (दे ३, ५८ १, १; सम १५२; औपः पि ७४) । क्षेत्र (ठा २, ३-पत्र ८०; इक)। गा ४२०)।वञ्चय पु[व्यत्यय विपयास, उलट-पुलट कच्चर नवित्सर साल, वर्ष (प्राप्रा सिरि बज विविधष्ठ, उत्तम (सुर १०, (उपपृ २६६, पव १०४)। देखो क्त्ता ६३५) २)। २ प्रधान, मुख्य (हे २, २४)। वच्छल वि [वत्सल] स्नेही, स्नेह-युक्त (गा वश्वरा (अप) देखो वचा (भवि) । वज वि [वर्ज १ रहित, वजित; 'जिरणवजवञ्च । देखो वय = वच् । ३; कुमाः सुर ६, १३७)। देवयाणं न नमइ जो तस्स तणूसुद्धी' (श्रा वञ्चामेलिय देखो विचामेलिय (विसे वच्छल न [वात्सल्य] स्नेह, मनुराग, प्रेम ६), 'सहजनिरोगजवजा पायं न घडंति १४८१)। (कुमा; पडि)। प्रागारी' (चेइय ४७१), 'लोयववहारवज्जा वञ्चास पुं व्यत्यास] विपर्यास, विपर्यय वच्छा स्त्री [वत्सा] १ विजय-क्षेत्र विशेष । तुब्भे परमत्थमूढा य (धर्मवि ८४५; विसे (ोघ २७१; कम्म ५, ८६)।२ एक नगरी (इक)। ३ लड़की (कप्पू)। २८४०; श्रावक ३०७, सुर १४, ७८)। वञ्चासिय वि [व्यत्यासित] उलटा किया वच्छाण Kउझन् बैल, बलीवदः 'उक्खा २ न. छोड़कर, बिना, सिवाय (श्रा ६ दं हुप्रा (विसे ८५३) वसहा य वच्छाणा' (पा)। १७ कम्म ४, ३४; ५३)। ३ पुं. हिंसा, बच्चीसग पुं[बच्चीसक] वाद्य-विशेष (मनु)। वच्छावई स्त्री [वत्सावती] विजय-क्षेत्र विशेष प्राणि-वध (पराह १,१-पत्र ६)। वच्चों देखो वञ्च = वर्चस् (सुर ६, २८) वज देखो अवज्ज (सूत्र १, ४, २, १६; वच्छ न [दे] पार्श्व, समीप (दे ७, ३०)। वच्छि देखो वय = वच् । बृह १)। वच्छ पुन [ वक्षस् ] छाती, सीना (हे २ वच्छिउड पुंदे] गर्भाश्रय (दे ७,४४ टी) वज्ज दखा वइर: बज्र (कुमाः सूर ४.१५२: वाच्छम पुंस्त्री [वृक्षत्व वृक्षपन ( षड) १७ संक्षि १५ प्रापः गा १५१: कमा गु ५ हे १,१७७, २,१०५ षड्; कम्म स्थल न [ स्थल] उर:-स्थल, छाती (कुमा, वच्छिमय पुं [दे] गर्भ शय्या (दे ७, ४४) १,३६; जीवस: ४६; सम २५)। १७ पुं. महा), सुत्त न [सूत्र] प्राभूषण-विशेष, वच्छीउत्त [दे] नापित, हजाम (दे ७, विद्याधर-वंश का एक राजा (पउम ५, १६ वक्षःस्थल में पहनने की सँकली-सिकड़ी या । ४७; पापः स ७५)। १७, ८, १३३)। १८ हिंसा, प्राणि-वध सिकरी (भग ६, ३३ टी-पत्र ४७७)। वच्छीव पुं[दे] गोप, ग्वाला (दे ७, ४१; (पएह १, १-पत्र ६)। १६ कन्द-विशेष पात्र)। वच्छ पुं[वृक्ष] पेड़, शाखी, द्रुम (प्राप्र; कुमाः (पएण १-पत्र ३६; उत्त, ३६, ६६)। वच्छुद्धलिअ वि [दे] प्रत्युद्धत (षड्)। हे २, १७ पात्र) २० न. कर्म-विशेष, बँधाता हुन्ना कर्म (सूत्र वच्छोम न [वक्षोम] नगर-विशेष, कुन्तल वच्छ [वत्स] १ बछड़ा (सुर २, ६५; २,२, ६५, ठा ४, १-पत्र १९७)। २१ देश की प्राचीन राजधानी (कप्पू) - पान)। २ शिशु, बच्चा। ३ वत्सर, पाप (सूअ १, ४, २, १६) कंठ पुं वर्ष। ४ वक्षःस्थल, छाती (प्राप्र)। ५ वच्छोमी स्त्री [दे] काव्य की एक रीति [कण्ठ वानर-द्वीप का एक राजा (पउम ज्योतिषशास्त्र प्रसिद्ध एक चक्र (गण १९)। ६, ६०) कंत न ["कान्त] एक देव६ देश-विशेष (तो १०)। ७ विजय-क्षेत्रवज अक [त्रस्] डरना। वज्जइ, वज्जए विमान (सम २५) ५ कंद पुं [ कन्द] एक विशेष (ठा २, ३---पत्र ८०)। ८ न. गोत्र(हे ४, १६८ प्राकृ ७५; धात्वा १५१)। प्रकार का कन्द, वनस्पति-विशेष (श्रा २०)। विशेष । वि. उस गोत्र में उत्पन्न (ठा वज्ज देखो वच्च = वज् । बज्जइ (नाट--मृच्छ कूड न [°कूट] एक दैव-विमान(सम २५) । ७–पत्र ३६०; कप्प) दर पुंस्त्री ['तर १९३), वजास (पि.४८८) । क्ख पुं [क्ष] एक विद्याधर वंशीय राजा क्षुद्र वत्स। २ दमनीय बछड़ा आदि। स्त्रो.री वज्ज सक[वजेय् ] त्याग करना। कवकृ. (उम ८, १३२)। चूड पुं [चूड] (प्राकृ २३) 'मित्ता स्त्री ["मित्रा] १ | वजिजंत (पंचा १०, २७) । संकृ. वज्जिय, विद्याधर-वंश का एक राजा (पउम ५,४६)। गोलोक में रहने वाली मार देवी वजेवि, वजिऊण, वजत्ता (महा; काल; जंघ j ["जङ्घ] विद्याधर-वंशीय एक (ठा ८-पत्र ४३७: इक)। २ ऊवलोक पंचा १२, ६)। कृ. वज, वजणिज, नरेश (पउम ५, १५) । णाभ [ नाम] में रहनेवाली एक दिक्कुमारी देवी (इक; वजेयव्व (पिंड ५६२, भगः परह २, ४ भगवान अभिनन्दन-स्वामी के प्रथम गणधर राज) यर देखो दर (दे २, ६७, सुपा ४८५; महा; परह १, ४, सुपा ११०; (सम १५२)। देखो नाभ.) "दत्त पुं ३७) + राय पुं [राज] एक राजा (ती उप १०३७)। ["दत्त १ विद्याधर-वंश का एक राजा १०) ५ °वाल पुंस्त्री [पाल] गोप, ग्वाला वज्ज अक [व] बजना, वाद्य प्रादि की | (पान)1 स्री ली (प्रातम)। मावाज होना । वज्जइ (हे ४, ४०६; सुपा २०,१८) द्धय ' [ध्वज] एक विद्याधर For Personal & Private Use Only Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वजंक-वट्ट पाइअसद्दमहण्णवो ७३६ वंशीय राजा (पउम ५, १५)। धर विद्याधर-वंश का एक राजा (पउम ५, वज्जाविय वि [वादित] बजाया हुआ (भवि)।' देखो हर (पउम १०२, १५६; विचार १६) भ पुं [भ] एक विद्याधर- वजि [वनिन् इन्द्र (संबोध ८) १००)। नागरी श्री ['नागरी] एक जैन वंशीय राजा (पउम ५, १६) वित्त न वजिअ वि [दे] अवलोकित, दृष्ट (दे ७, मुनि-शाखा (कप्प) नाभ j[ नाभ] [वर्त] एक देव-विमान (सम २५), स ३६; महा)। एक जैन मुनि (पउम २०, १९)। देखो । पृ[श] एक विद्याधर-राजा (पउम ५, वजिअ वि [वादित] बजाया हुआ (सिरि णाभ । पाणि g["पाणि] १ इन्द्र (उत्त । १७) । । ५२५)। ११.२३: देवेन्द्र २८३, उप २११ टी)। वजंक [वज्राङ्क] विद्याधर-वंश का एक | वजिअ वि विजित] रहित (उवा औप: २ एक विद्याधर-नरपति (पउम ५, १७) राजा (पउम ५, १६) । महा: प्रासू ७६) 'पभ न [प्रभ] एक देव-विमान (सम वजंकुसी स्त्री [वाङ्कशी] एक विद्या-देवी वजियाव [दे] शेलडी (व्यव० भाष्य.)। २५)। बाहु पुं ["बाहु] एक विद्याधर- (संति ५) वंशीय राजा (पउम ५, १६)। भूमि स्त्री वजंत देखो वज्ज = वद् ।। वज्जियावग ' [दे] इक्षु, ऊख (वव १)। [भूमि] लाट देश का एक प्रदेश (प्राचा | वज्जंधर पुं [वज्रन्धर] विद्याधर-वंश का वज्जिर वि [वदित] बजनेवाला (सुर ११, १७२, सुपा ४५,८७सिरि १५५; सरण),१, ६, ३, २) म (अप) देखो मय (हे | एक राजा (पउभ ५, १६)। 'गहिख(?रव)जिराउज्जगजिजजरियभंडभंडो४, ३६५), मज्झ पुं["मध्य १ राक्षस- वजघट्टिता स्त्री [दे] मन्द-भाग्य स्त्री (संक्षि यरों (कुप्र २२४) वंश का एक राजा, एक लंकेश (पउम ५, ४७) । २६३)। २ रावणाधीन एक सामन्त राजा | वजण न [वर्जन] परित्याग, परिहार (सुर | वज्जुत्तरवडिंसग न [वनोत्तरावतंसक] एक (पउम ८, १३२) मज्भा स्त्री [°मध्या] ४, ८२; स २७१; सुपा २४५, ७ ६)। देव-विमान (सम २५)। एक प्रतिमा, व्रत-विशेष (प्रौप २४) 4 °मय वजणअ (अप) वि विदित] बजनेवाला, वज्जोयरी श्री [वनोदरी] विद्या-विशेष वि [मय वज्र का बना हुआ (पउम ६२, | ‘पडहु वज्जएउ' (हे ४, ४४३) । (पउम ७, १३८)। १०)। स्त्री. मई (नाट-उत्तर ४५) वज्जणया। स्त्री [वजेना] परित्याग (सम वझ वि विध्य] वध के योग्य (सुपा २४८% 'रिसहनाराय न [°ऋषभनाराच संहनन- वज्जणा ४४. उत्त १६, ३०; उव)। गा २६; ४६६; दे ८, ४६) । "नेवस्थिय विशेष, शरीर का एक तरह का सर्वोत्तम वजमाण देखो वज्ज = वद् । वि [नेपथ्यिक] मृत्यु-दंड-प्राप्त को पहनाया बन्ध (कम्म १, ३८) रूव न [रूप]. वजय वि [वर्जक] त्यागनेवाला (उवा) - जाता वेष वाला (पएह १, ३–पत्र ५४) ।। एक देव-विमान (सम २५) + °लेस न वज्जर सक [कथयू ] कहना, बोलना। 'माला स्त्री [माला] वध्य को पहनाई [°लेश्य एक देव-विमान (सम २५) । वजरइ, वज्जरेइ (हे ४, २; षड् , महा)। जाती माला, कनेर के फूलों की माला (भत्त (अप) देखो म (हे ४, ३६५), वण्ण न वकृ. वजरंत (हे ४, २, चेय १४६)। १२०)। [वर्ण] एक देव-विमान (सम २५) वेग संकृ. वज्जरिऊण (हे ४,२)। कृ. वज्जरि अव्व (हे ४, २) । ["वेग] एक विद्याधर का नाम (महा) वज्झ वि [वाह्य] १ वहन करने योग्य (प्रातः °सिंखला स्त्री [शृङ्खला] एक विद्या-देवी वज्जर देखो वंजर = मार्जार (चंड)। उप १५० टी)। २ न. अश्व प्रादि यान (स ६०३) वज्जर पुंवर्जर] १ देश-विशेष । २ वि. (संति ५), "सिंग न [शृङ्ग] एक देव खेड्ड न [खेल] कला-विशेष, विमान (सम २५) ५ सिट्टन [सृष्ट] एक यान की सवारी का इल्म (स ६०३) देश-विशेष में उत्पन्न; 'परिवाहिया य तेणं वज्झा स्त्री [हत्या] वध, घात (सुख ४, ६; देव-विमान (सम २५)सुंदर [सुन्दर] बहवे वल्हीयतुरुक्कवज्जराइया आसा' (स | १३) विद्याधर-वंश में उत्पन्न एक राजा (पउम महा)। ५, १७)। सुजणहु पुं [सुजह नु] बजरण न [कथन] उक्ति, वचन (हे ४, २) वझियायण न [वध्यायन] गोत्र-विशेष विद्याधर-वंश का एक राजा (पउम ५, वज्जरा स्त्री [दे] तरंगिणी, नदी (दे ७, ३७) (सुज १०, १६)।। जैन मनि वज्जरिअ वि [कथित] कहा हुआ, उक्त (हे वत्र (अप) देखो वञ्च = व्रज् । वनइ, वादि जो भगवान ऋषभदेव के पूर्व जन्म में गुरु थे ४, २; सुर १, ३२, भवि)। (षड्) (पउम २०, १७)। २ विक्रम की चौदहवीं | वजा स्त्री [दे] अधिकार, प्रस्ताव (दे ७, वट्ट सक [वृत् ] १ वर्तना, होना । २ प्राचशताब्दी के एक जैन आचार्य (सिरि १३४६) ३२; बज्जा २)। रण करना । वट्टइ, वट्टए, वट्टति (सुर ३, हर पुं[धर] १ इन्द्र, देवराज (से १५, वज्जाव (अप) सक [वाचय् ] बचवाना, ३६ उवः कप्प)। वकृ. बटुंत, वट्टमाण (गा ४८; उव)। २ वि. वज्र को धारण करने- पढ़ाना । वज्जावइ (प्राकृ १२०)। ४१०; कम्म ३, २०; चेय ७१३; भवि; वाला (सुपा ३३४), उह पुं[युध] वज्जाव सक [वाय् ] बजाना। वजावइ उवा, पडि; कप्प पि ३५०)। हेकृ. वट्टेड १ इन्द्र (पउम ३, १३७, ११, १८)। २ (भवि)। (चेइय ३६८)। कु. वट्टियव्व (उव)। For Personal & Private Use Only Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० पाइअसहमहण्णवो वट्ट-वडभ. वटु सक [वर्त्तय ] १ बरतना । २ पिंड | वट्टमाण देखो वट्ट = वृत् ।। वट्टु न [दे] पात्र-विशेष (वृह १)4 कर रूप से बाँधना। ३ परोसना । ४ ढकना, वट्टमाण न [दे] १ अंग, शरीर । २ गन्ध- [कर यक्ष-विशेष (राज) करी त्रो पाच्छादन करना । बदति (पिंड २३६)। द्रव्य का एक तरह का अधिवास (दे ७, | [करी] विद्या-विशेष (राज) ।। कवकृ. वट्रिजमाण (ोप)। वट् टुल वि [वतुल] १ गोल, वृत्ताकार वट्ट वि [वृत्त १ वर्तुल, गोलाकार (सम वट्टय देखो वट्ट = दे (पउम १०२, १२०)। (पान)। २ पुंन. पलाण्डु-प्याज के समान ६३ प्रौप; उवा) । २ अतीत, गुजरा हुआ। वट्टय विर्तक] १ पक्षि-विशेष, बटेर (सूम एक तरह का कन्द-मूल (हे २, ३०% प्रारू)।। ३ मृत । ४ संजात, उत्पन्न । ५ अधीत । १, २, १. २; उवा) । २ बालकों को खेलने | वट्ट देखो पटू-पृष्ठ (गउड; गा १५०; हे ६ दृढ़ । ७ पृ. कूर्म, कछुपा (हे २, २९)। का एक तरह का चपड़े का बना हुप्रा गोल १,८४; १२६) ८ न. वर्तन, वृत्ति, प्रवृत्ति (सूत्र १, ४, "वट्रि देखो सहि, 'बा-वट्ठी' (सम ७५, पंच २, ३) खुर. खुर पुं [खुर] श्रेष्ठ २३५) ५, १८: पि २६५; ४४६) ।। अश्व (प्रोघ ४३८ राज) खेड, खेड्डु बीन 'वट्टय देखो पट्ट (गउड)। वड पुं[दे] १ द्वार का एक देश, दरवाजे का [खेल] कला-विशेष (णाया १, १-पत्र वट्टा स्त्री [दे. वमन्] देखो वट्ट = वत्मन एक भाग । २ क्षेत्र (दे ७, ८२)। ३ मत्स्य ३८; स ६०३; अंत ३१ टि), देखो वत्थ- (दे ७, ३१)। की एक जाति (पएण १-पत्र ४७)। ४ खेड्ड । देखो वत्त, वित्त = वृत्त । वेयड्ढ वट्टा स्त्री [वार्ता] बात, कथा (कुमा)। विभाग (निचू २)। देखो वड्डः 'वडसफरपुं[वैताढ्य पर्वत-विशेष (ठा १०)। वट्टाव सक [वर्तय] बरताना, काम में पवहणाणं (सिरि ३८२) वट्ट पुन [वमन] बाट, मार्ग, रास्ताः 'पडि- __ लगाना । वट्टावेइ (उव) । वड [वट] १ वृक्ष-विशेष, बरगद, बड़ का सोएण पवट्टा चत्ता अणुसोप्रगामिणो वट्टा वट्टावण न [वर्तन] बरताना, कार्य लगाना पेड़ (पएण १-पत्र ३१; गा ६४ कप्पू)। २ (साधं ११८ सुर १०,४; सुपा ३३०), 'वट्ट' (उव)। न. वस्त्र-विशेष; 'वडजुगपट्टजुगाई' (पाया १, (प्राकृ २:)। वाडण न [पातन मुसा- वट्टावय वि [वर्तक] बरतानेवाला, प्रवर्तक १ टी-पत्र ४३), 'नयर न [नगर] फिरों को रास्ते में लुटना; 'परदोहवट्टवाडण- (उवः पाया १, १४–पत्र १८६) नगर-विशेष (पउम १०५, ८८) बंदग्गहखत्तखणणपमुहाई' (कुप्र ११३), सो वट्टावय वि [वतंक] प्रतिजागरक, शुश्रूषाकर्ता वह न ["पद्र] १ गुजरात का एक नगर, जो आज वट्टपाडणेहि बंदग्गहणेहि खत्तखणणेदि' | (वव १) कल 'बडौदा' नाम से प्रसिद्ध है (उप ५१६)। (धर्मवि १२३)। पट्टि ली पति] १ बत्ती, दीपक में जलनेवाली २ एक गोकुल (उप ५६७ टी) सावित्ती वट्ट पुन [३] १ प्याला, गुजराती में 'वाटको'; बाती। २ सलाई, आँख में सुरमा लगाने की स्त्री [°सावित्री]एक देवी (कप्पू)। 'पढमधुटम्मि खलिया जीहा, हत्थाउ निवडियं सली या सलाई। ३ शरीर पर किया जाता एक वट्ट' (सुपा ४६६) । २ पृ. हानि, नुकसान, तरह का लेप। ४ लेख, लिखना । ५ कलम, वड देखो पड - पत्। वकृ. 'उपहिम्मि उण गुजराती में 'वट्टो', 'अन्नह उवक्खएगवि पोछी (हे २, ३०) । देखो वत्ति, वित्ति। वडंता' (से ७, ७) मूला वट्टो इह होहिं (सुपा ४४५)। ३ लोहक, वट्रिअ वि विर्तित] १ परिवत्तित (दे ५, वड देखो पड = पट; 'पवरणाहयवडचंचलामो शिला-पुत्रक, लोढ़ा; 'वट्टावरएणं' (भग १६, २७) । २ बलित (पर २१६ टी) । ३ वर्तुल, लच्छीरो तह य मणुयाणं' (सुर ४, ७६; से ३-पत्र ७६६)। ४ खाद्य-विशेष, गाढ़ी गोल (पएह १, ४-पत्र ७८; तंदु २०)। १०, १६; सुर १, ६१, ३, ६७, गा कढ़ी (पएह २, ५-पत्र १४८) ४ प्रवर्तित (भवि) ३२६) वटपं विते] देश-विशेष (सत्त ६७ टी) वाट्टआ स्त्री [वतिका] देखो पट्टि (अभि वडग न [वटका खाद्य-विशेष, बड़ा (पिंड चट्ट [प] प्रवाह (कुमा) । देखो पट (से। २१७ नाट-रत्ना २१ स २३६) ६३७)। ५, १४; भवि; गउड). वट्टिम वि [२] अतिरिक्त (दे ७, ३४) वडग देखो वड = वट (अंत)। वटुंत देखो वट्ट = वृत। वट्टिय वि [दे] चूर्ण किया हुआ, पिसा हुमाः 'वडण देखो पडग (गा ५६७, गउड; महा)।। वट्टक । देखो वट्टय = वर्तक (पएह १, गुजराती में 'वाटेलु', 'पक्खित्तं साहिणवट्टियं वडप्प न [दे] १ लता-गहन । २ निरन्तर वट्टग । १-पत्र ; विपा १, ७-पत्र, लोणं' (स २६४) ।। वृष्टि (दे ७, ८४) ।। ७५; सूम २, २, १०२६४३)। वट्टिव न दे] पर-कार्य (दे ७, ४०)। वडम वि [वडभ] १ वामन, ह्रस्व (ोधमा वट्टण देखो वत्तण (रंभा)। वट्टी स्त्री [व] देखो वट्टि (हे २, ३०) ८२)। २ जिसका पृष्ठ-भाग बाहर निकल वट्टणा देखो वत्तणा (राज)। वट्टी स्त्री [पट्टी] पट्टाः 'ताव य कडिवट्टीमो माया हो वह (आचा)। ३ नाभि के ऊपर कट्टमग न [वर्त्मक] मार्ग, रास्ता (माचाः | पडिया रयणावली झत्ति' (सुपा ३४४० का भाग जिसका टेढ़ा हो वह (पएह १, मोप) १५४)। १-पत्र २३)। ४ पीछे का या मागे का For Personal & Private Use Only Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वडय-वड्ढवण पाइअसद्दमण्णवो ७४१ अंग जिसका बाहर निकल माया हो वह (पव | "वडिया देखो पडिया -प्रतिज्ञा (माचा २, | वड्ढ प्रक[वृध् ] बढ़ना । वड्ढइ (हे ४, ११०)। ५ जिसका पेट बड़ा होकर आगे ७,१)। २२०; महा: काल) । भूका. वड्डित्था निकल आया हो वह । स्त्री. भी (णाया १, वडिसर न [दे] चूल्ली-मूल, चूल्हे का मूल (कप्प)। वकृ. वडढंत, वड्ढमाण (सुर १, १-पत्र ३७ प्रौपः पि ३८७) (दे ७, ४८) ११६; महा: गा ११३)। हकृ. वाडेढउं वडय देखो वडग = वटक (सुपा ४८५) | वडिवस्सअ वि [वरिवस्यक पूजक, पूजा (महा)'वडल देखो पडल (गउड)। करनेवाला (चारु १) वडढ सक [वर्धय] १ बढ़ाना. विस्तारना । वडवग्गि पुं[वडवाग्नि] वडवानल, समुद्र के वडिसाअवि [दे] जुत, टपका हुआ (षड् ) २ बधाई देना । वड्ढंति (उव)। वकृ. भीतर की प्राग (गा ४०३)। वडी स्त्री दे] बड़ी, एक प्रकार का खाद्य (पव वड्ढअंत (नाट-मृच्छ १८) । कर्म. वडवड अक [वि + लप्] विलाप करना। ३८) वढिज्जंति (सिरि ४२४) । देखो वद्ध = वर्धय ।। बडबडइ (हे ४, १४८), वडवडंति (कुमा) देखो वट्टमग (प्रौपः प्राचा)। वड्ढइ पुं[वर्धकि] बढ़ई, सुतार (सम २७) वडवा स्त्री [वडवा] घोड़ी (पामा धर्मवि वडेंस पुं [वतंस] शेखर, मुकुट (भगः णाया | उप पृ १५३; पानः धर्मसं ४८६; दे ७, १४५), जल, नल [नल] समुद्र के १, १ टी-पत्र ५)। देखो वडिंस ।। भीतर की प्राग, वडवाग्नि (पि २४०, श्रावमापी विमा किनर नामक किन्नरेन्द्र १६) मुह न [मुख १ वही अर्थ (से वड्ढइअ [दे] चर्मकार, मोची (दे ७, __ की एक अग्रमहिषी (ठा ४, १-पत्र २०४, | ४४) १,८)। २ एक महा-पाताल (इक)। णाया २-पत्र २५२)। हुआस [हुताश] वडवानल (समु वड्ढण न [वर्धन] १ वृद्धि, बढ़ाव (कप्पू)। वडेंसिया स्त्री [वतंसिका] अवतंस की तरह ! २ वि. वृद्धि-जनक (महाः सुर १३, १३६) करना, मुकुटस्थानापन्न करना; 'अट्ठारसवं- वड्ढणमिर वि [दे] पोन, पुष्ट (दे ७, ५१)। वडह देखो वडभ (पाचा १, २, ३, २) जणाउल भोयणं भोयावेत्ता जावजीवं पिट्ठिव- वड्ढणसाल वि [दे] जिसकी पूँछ कट गई वडह पुंदे] पक्षि-विशेष (दे ७, ३३) । डेंसियाए परिवहेजा' (ठा ३, १--पत्र हो वह (दे ७, ४६) 'वडह देखो पडह (से १२, ४७)। | वड्ढमाण देखो वड्ढ - वृध् । वडही देखो वलही (गउड) वड्ड वि [दे] बड़ा, महान् (दे ७, २६ तंदु वड्ढमाण न [वर्धमान, क] १ 'वडाआ देखो पडाया (गा १२०) ५५; सुपा १२४; णाया २-पत्र २४८ वढमाणय ) गुजरात का एक नगर, जो 'वडालि स्त्री [दे] पंक्ति, श्रेणि (दे ७, ३६)। सम्मत्त १७३; भवि; हे ४, ३६६; ३६७; आजकल 'वढवाण' के नाम से प्रसिद्ध है। ३७१) वडाहा देखो पडायाः धवलधयवडाहों 'सिरिवड्ढमारणनयरं अत्थरग पुं [ आसरक] ऊँट पत्ता गुजरघरावलयं की पीठ पर रखा जाता आसन (पव ८४ (सम्मत्त ७५)। २ अवधिज्ञान का एक (महा) टी)त्तण न [व] बड़प्पन, महत्ता (हे भेद, उत्तरोत्तर बढ़ता जाता एक प्रकार वडिअ देखो पडिअ (से ५, १०; कुप्र १८१% ४, ३८४ कप्पू) पण (अप) न [व] | का परोक्ष रूपी द्रव्यों का ज्ञान (ठा ६-पत्र उवा)। वही (हे ४, ३६६; ४३७; पि ३००) ३७०; कम्म १, ८) । ३ पुं. भगवान् महावीर वडिअ वि [गृहीत] ग्रहण किया हुआ (सुर | यर वि [तर] विशेष बड़ा (हे २,१७४)M (भवि) । देखो बद्धमाण । १, १६६) बडवास [दे] मेघ,मभ्र (दे ७,४७, कुमा) वड्ढय देखो वट्ट-दे: 'पारणभरियं वड्ढयं वडिस (वितंस] १ मेरु पर्वत (सुज ५ वडहल्लि पुंदे] मालाकार, माली (दे७, पियावयणसमप्पियं पीयमाणं .पि तीए टी-पत्र ७८) । २ भूषण, 'रायकुलवडिसगा ४२)। सुट ठुयरं भरियमंसुएहि (स ३८२)। वि मुरिणवसभा' (उव, कप्प)। ३ एक | वड्डार (अप) देखो वड्डु-यर (भवि)। बड्ढव सक [ वर्धय, वर्धापय् ] १ बढ़ाना, दिग्हस्ति-कूट (इक)। ४ प्रधान, मुख्य । वड्डिम वि [दे] नु त टपका हुआ (षड् ) वृद्धि करना । २ बधाई देना, अभ्युदय का ५ श्रेष्ठ, उत्तम (कप्पा महा)। ६ कर्णपूर, वडिलादे] देखो वड्ड; निवेदन करना । वड्ढवइ (प्राकृ६०)।।. कान का आभूषण (णाया १,१-पत्र 'नयरणाण पडउ वज्जं अहवा वड्ढवअ वि [वर्धक] १ बढ़ानेवाला २ ३१)। देखो वडेंस, अवयंस वज्जस्स वडिलं किंपि। बधाई देनेवाला (प्राकृ ६१)। वडिणाय पुं[दे] घर्घर कण्ठ, बैठा हुआ प्रमुरिणयजणेवि दिठे अणुबंध वड्ढवण न [दे] वन का माहरण (दे ७, गला (षड्) जाणि कुवंति' वडिया स्त्री [वृत्तिता] वर्तन, 'भयवंतदसण (सुर ४, २०; वजा ६२) वढवण न [दे. वर्धापन] बबाई, अभ्युदयकडियाए' (स ६०३; मापा २,७,१) बदबअर देखो बडयर (षा)। निवेदन (दे ७, ८७) For Personal & Private Use Only Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ पाइअसद्दमण्णवो वड्ढविअ-वणि वड्ढविअ वि [वर्धित, वर्धापित] जिसको मालय (हे ३, ८८; प्राप्र)। ५ वनस्पति (सूत्र २, २, ८ भग) विरोहि पूं बधाई दी गई हो वह (दे ६, ७४)। (कम्म ४, १०; १६, ३६, दं १३)। ६ [विरोहिन्] आषाढ मास (सुज्ज १०, वड्ढार (अप) सक [वर्धय ] बढ़ाना, उद्यान, बगीचा (उप ६८६ टो)। ७ पु. १६) संड पुंन [°षण्ड] अनेकविध वृक्षों गुजराती में वधारवु" । वड्ढारइ (भवि) । देवों की एक जाति, वानव्यंतर देव (भग; की घटा-समूह (ठा २, ४, भगः णाया १, वड्ढाव देखो वड्ढव । वड्ढावेमि (प्राक कम्म ३, १०)। ८ वृक्ष-विशेष (राय)। २; प्रौप) हत्थि पुं[हस्तिन्] जंगल ६१; पि ५५२) कम्म पुन [कर्मन्] जंगल को काटने या | का हाथी (से ८, ३६) + लि, लि स्त्री वड्ढावअ देखो वड्ढवअ (प्राकृ ६१; कप्पूः | बेचने का काम (भग ८, ५-पत्र ३७० [लि] वन-पंक्ति (गा ५७६; हे २, १७७) ।। उवा) पडि)। कम्मंत न [°कर्मान्त] वनस्पति वणइ स्त्री [दे] वन-राजि, वृक्ष-पंक्ति (दे ७, बड्ढाविअ वि [दे] समापित, समाप्त किया | का कारखाना (प्राचा २, २, २, १०)- ३८ षड्) हुआ (दे ७, ४५) गय पुं[गज जंगली हाथी (से ३, ६३) वणण न [वनन] बछड़े को उसकी माता से वड्ढि वि वर्धिन बढ़नेवाला (से १, १) "गि [ग्नि] दावानल (पास)। 'चर भिन्न दूसरी गाय से लगाना (पराह १, २वढि स्त्री [वद्धि बढ़ती, बढ़ाव (उवा; देवेन्द्र वि [चर] वन में रहनेवाला, जंगली पत्र २६)। ३६७ जीवस २७४) ।। (पएह १, १-पत्र १३ स्त्रो. री वणण न [दे. व्यान] बुनना । साला स्त्री (रवण ६०); देखो यर + °छिंद वि वढिअ वि [वृद्ध] बढा हुआ (कुमा ७, | [शाला] बुनने का कारखाना (दस १, [च्छिद्] जंगल काटनेवाला (कुप्र १०४) १ टी)। ५८ गा ४१०; महा) वढिअ वि [वधित] १ बढ़ाया हुआ 'त्थली स्त्री [स्थली] अरण्य-भूमि (से ३, | वणद्धि स्त्री [दे] गो-वृन्द, गो-समूह (दे ७, 'महिवीढे नइवढियनीरो उयहिव्व वित्थरई' ६३) 'दव पुं[दव] दवानल (णाया १, ३८) । १-पत्र ६५) (सिरि ६२७) । २ खण्डित किया हुआ, पव्वय पुन [पर्वत] वणनत्तडिअ वि [दे] पुरस्कृत, आगे किया वनस्पति से व्याप्त पर्वतः 'वरणाणि वा काटा हुआ (से १, १)। हुआ (षड्) । वणपव्वयाणि वा' (पाचा २, ३, ३, २) वणपक्कसाव देशरभ, श्वापद-विशेष वड्ढिआ स्त्री [दे] कूपतुला, ढेकुवा (दे ७, "बिराल ' [बिडाल] जंगली बिल्ला (दे ७,५२) ३६) (सण) माल न ["माल] एक देव-वणप्फ बिनस्पति] १ वृक्ष-विशेष, फूल वढिम पुंस्त्री [वृद्धिमन्] वृद्धि, बढ़ाव; विमान (सम ४१), माला स्त्री [°माला] के बिना ही जिसमें फल लगता हो वह वृक्ष 'पत्ता दिणं वढिमा' (प्राकृ ३३; कप्पू)। १ पैर तक लटकनेवाली माला (प्रौपः अच्च (हे २, ६६, कुमा)। २ लता, गुल्म, वृक्ष वढ देखो वड = वट (हे २, १७४; पि २०७) ३६) । २ एक राज-पत्नी (पउम ११, १४)। पादि कोई भी गाछ, पेड़ मात्र (भग)। ३ न. वढ वि [दे] मूक, वाक्-शक्ति से रहित ३ रावण की एक पत्नी (पउम ३६, ३२)। फल (कुमा ३,२६) काइअवि [कायिक] (संक्षि ३९) 'य वि [ज वन में उत्पन्न, जंगली (वजा | वनस्पति का जीव (भग)। १२८) यर वि ['चर] १ वन में वढर 1 [बठर] १ मूर्ख छात्र । २ रहनेवाला, बनैला (णाया १, १-पत्र ६२, वणय पु [वनक] दूसरी नरक-पृथिवी का एक वढल , ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से नरक-स्थान (देवेन्द्र ६) उत्पन्न संतान, अम्बष्ठ । ३ वि. शठ, घूत्तं । गउड) । २ पुंस्त्री. व्यन्तर देव (विसे ७०७; ४ मन्द, अलस (हे १, २५४; षड्) पव १६०)। स्त्री. री (उप पृ ३३०) 1 राइ . वणरसि (अप) देखो वाणारसी (पिंग; पि स्त्री [राजि] तरु-पंक्ति, वृक्ष-समुह (चंड; ___३५४)। वण सक [वन] मांगना, याचना करना। सुर ३, ४२, अभि ५५), 'राज, राय पुं वणव पु[दे] दावानल (द ७, ३७)।। वणेइ (पिंड ४४३) ["राज] १ विक्रम की पाठवीं शताब्दी का वणसवाई स्त्री [दे] कोकिला, कोयल (दे वण [दे] १ अधिकार । २ श्वपच, चाँडाल गुजरात का एक प्रसिद्ध राजा (मोह १०८)। ७, ५२, पात्र) (दे ७, ८२) २ सिंह, केसरी (चंड) लइया, "लया स्त्री वणस्सइ देखो वणप्फइ (हे २, ६६ जी २; वण पुंन [व्रण] घाव, प्रहार, क्षतः 'जस्सेना [°लता] १ एक स्त्री का नाम (महा) । २ उवः पराण १) वणो तस्सेम वेपणा (काप्र ८७१ गा ३८१ वह वृक्ष जिसको एक ही शाखा हो (कप्पः वणाय वि [दे] व्याध से व्याप्त (दे ७, ३५)।। ४२७; पान) ५ वट्ट [°पट्ट] घाव पर राय) वाल वि [पाल] उद्यान-पालक, वणार '[दे] दमनीय बछड़ा (दे ७, ३७) ।। बाँधी जाती पट्टी (गा ४५८) माली (उप ६८६ टी) वास पुं[वास] वणि वि [व्रणिन्] घाववाला, जिसको घाव वण न [वन] १ अरण्य, जंगल (भगः पाम अरण्य में रहना (पि ३५१). वासी स्त्री हुआ हो वह (दे ६, ३६ पंचा १६, ११) उवाः कुमाः प्रासू ६२; १४५) । २ पानी, [वासी] नगरी-विशेष (राज)। 'विदुग्ग वणि [वणिज ] बनिया, व्यापारी, जल (पामा वजा ८८)। ३ निवास । ४ ! न ["विदुर्ग] नानाविध वृक्षों का समूह वणिअ वैश्य (प्रौपः उप ७२८ टी; सुर For Personal & Private Use Only Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वणिअ-वत्तण पाइअसद्दमद्दण्णवो १४, ६६; सुपा २७६; सुर १, ११३; प्रासू वण्ण पुं [वर्ण] १ प्रशंसा, श्लाघा ( उप ८० कुमा; महा) | । ६०७) । २ यश, कीर्ति ( श्रोध ६० ) । २ शुक्ल आदि रँग (भगः ठा ४, ४ उवा) । ४ अकार प्रादि अक्षर । ५ ब्राह्मण, वैश्य श्रादि जाति । ६ गुण । ७ अंगराग । सुवर्ण, सोना & विलेपन की वस्तु । १० व्रतविशेष । ११ वर्णन ११ विलेपन क्रिया । १३ गीत का क्रम । १४ चित्र (हे १, १७७ प्राप्त) १५ कर्म-विशेष शुक्ल आदिम का कारण भूतकर्म (कम्म १, २४) । १६ संयम । १७ मोक्ष, मुक्ति ( श्राचा) । १८ न. कुंकुम (१,१४२) 'णाम, नाम पुंग ["नामन् ] कर्म-विशेष (राज, सम ६७ ) । "मंत वि [ "वत् ] प्रशस्त वर्णवाला (भग) बाइ[िादन] पाकर्ता (१) वाय[बाद] प्रशंसा खापा (पंचा, २३) बास [वास] वर्णन प्रकरण, वन-पद्धति ( जीव उवा वास ["व्यास] वनविस्वार (भगवा)। पणिअवि [णित] (गा ४५८ ६४६; पउम ७५, १३) । वणि [ative] भिक्षुक, भिखार; 'व जायरिणत्ति वणिश्रो पायप्पाणं वणेइत्ति' (पिंड ४४३ ) IV वणिअ न [ वणिज ] ज्योतिष-प्रसिद्ध एक करण (विसे ३३४८; सूनानि ११ ) वणिआ स्त्री [ वनिका] वाटिका, बगीचा; 'असोयवरिण श्राइ मज्झयारम्मि' (भाव ७; उवा) 1 वणि स्त्री [ वनिता ] स्त्री, महिला, नारी (गा १७, कुमाः तंदु ५०० सम्मत्त १७५ ) | वणिज देखो वणिखिन् (चार २४) । वणिज [वाणिज्य] व्यापार, पार वणिन एहिजा चिद्वेसि } वणिजकई (सुपा २१० २५२), 'उजेलीश्रागश्रो वणिज्जेणं ( पउम ३३, ६६३ स ४४३; सुर १, ६० कुप्र ३६५, सुपा ३८४; प्रासू ८० भविः श्रा १२ ) रवि [कारक] व्यापारी (सुपा ३४३ उप १०४) IV वर्णिम | देखो वणीमय ( दस ५, १, ५१ ) । वणीमग २ दरिद्र, निर्धन (दस ५, २, १०) । वणी स्त्री [वनी ] १ भीख से प्राप्त धन (ठा ५, ३ - पत्र ३४१ ) । २ फली विशेष, जिससे कपास निकलता है (राज) 1वणीमग) पुं [वनीपक] याचक, भिक्षुक, 7 वणीमय ) भिखारी (ठा ५, ३ सुपा १६८० सगः श्रोध ४३६) । वणे . इन अर्थों का सूचक अव्यय - १ निश्चय ( हे २, २०६३ कुमा) । २ विकल्प । ३ अनुकम्पनीय ४ संभा २ २०६ बणेचर देखो बगवर (५१) । [वर्ण] १ वन करना । २ प्रशंसा करताना ग्रामो (पि ४६० ) । कर्म. वरिगज्जइ (सिरि १२८८ ), afras (अप) (हे ४, ३४५) । वकृ. वणंत (गा ३५० ) । हेकृ. वण्णिउं (पि ५०३). वणणिल वण्णेभब्य हे ३, १७६६ भग) " वण्ण पुं [वर्ण] पंचम श्रादि स्वर सन न [" सम] गेय काव्य का एक भेद ( दसनि २, २३) । वण्ण वि [दे] (दे ७, ८३) बण्ग देखो पण्ण (गा ६०१ गउड) बग देशो वण्णय ( उवा; श्रौप ) 1 वण्णण न [वर्णन] १ लापा, प्रशंसा (कप्पू) २ रिवेचन विवरण, निरूपण ( रयण ४) । - १ श्रच्छ, स्वच्छ । २ रक्त । 2 बण्णा श्री [वर्णना] ऊपर देखो दि १, २१ सार्धं ४५) । ७४३ वृष्णि नाम से प्रसिद्ध था; 'बरिह पिया धारिणी माया' (अंत ३) । २ एक अन्तद् महर्षिः 'अक्खोभ पसेराई वरही' (अंत) | ३ अन्य वंश में उत्पन्न यादव (दि) । 'दसा श्री. ब. [ 'दशा] एक जैन आगमग्रन्थ (निर५) पुंगव ["पुंगव] यादवश्रेष्ठ (उत्त २२, १३३ गाया १, १६ - पत्र २११) हि [हि]ग्नि घाग (पाम महा ) । २ लोकान्तिक देवों की एक जाति ( गाया १, ८ पत्र १५१९) । ३ चित्रक वृक्ष । ४ भिलावां का पेड़ । ५ नीबू का गाव (हे २, ७५) वत देखो वय = व्रत (खंड) । पति देखो व १०१ वति देखो यह वृति (ड)। बतु] [२] निवह समूह ( ७, १२) वत्त देखो वट्ट = वृत् । वत्तइ (भवि ), वत्तदि (शौ) (स्वप्न ६० ) 1 = वत्त देखो वट्ट = वर्तय् । वत्तइ (भवि ) । वत्तेज (चाचा २१, ४२) । वखासि परोहानि (उवा पि ५२८ ) । वत्तन [वार्त्त ] प्रारोग्य (उत्त १८, ३८) वत्त वि[ व्याप्त ] फैला हुआ, भरपूर (कप्प; दिये २०३६) For Personal & Private Use Only - वत्त देखो बट्ट = वृत (स ३०८ महा सुर १, १७८; ३, ७६, श्रपः हे १, १४५) वत्त वि[यक्त] प्रकट, बुना (धर्मसं ५५५) वन्त [वक्त्र] मुख हे ११०० भवि) 1 'वत्त देखो पत्त = पत्र (गा ६०४; हेका ५०; गउड) 1 'वत्त देखो पत्त = पात्र (गउड गा ३०० ) 1 वत्त' देखो बत्ता (भवि) + 'यार वि [कार ] वार्ता कहनेवाला (वि) 1 वण्य पुंन [दे. वर्णक] १ चन्दन, श्रीखण्ड (दे७, २७ पंचा ८ २३)२ चूर्ण, अंगराग (दे ७, ३७; स्वप्न ६१ ) । यण्णव [वर्णक] वन-ग्रन्थ वन-प्रकरण (किपा १, १, ना प ) - वत्तअ पुं [ व्यत्यय ] १ विपर्यय, विपर्यास । २ व्यतिक्रम, उल्लंघन (प्राकृ २१) | वत्तए देखो वय = वच् । २ 1 [वर्णित ] जिसका वर्णन किया वत्तडिआ ) (प) देखो वत्ता (कुमा; हे ४, गया हो वह (महा) वण्णिआ देखो बनिआ (गा ६२० ) । afe पुं [वृष्णि] १ एक राजा, जो अन्धक वत्तडी वतन [वर्त्तन] १ जीविका निर्वाह कि न तुमच्यहि कुटुंबवत्तएं करेशि' (कुत्र Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ २८) । २ प्रावृत्ति ४३) । ३ स्थिति । परावर्तन (पंचा १२, ४ स्थापन । ५ वर्तन, होना । ६ वि. वृत्तिवाला । ७ रहनेवाला (effer to) वत्तणा स्त्री [वर्त्तना]] ऊपर देखो; 'वत्तरणालक्खणो कालो (उत्त २६, १० भावम) । वत्तणी स्त्री [वर्त्तनी] मार्गं, रास्ता (पराह १, ३ – पत्र ५४० विसे १२०७; सूनि ६१ टी सुपा ५१८) । वत्तद्ध वि [दे] १ सुन्दर । २ बहु-शिक्षित (दे ७, ८५) 1 यत्समाण [ वर्त्तमान] १ काल-विशेष, चलता काल ( प्रातः संक्षि १० ) । २ वि. वर्तमान-कालीन विद्यमान विद्य , वत्तव्व देखो वय = वच् ॥ बता श्री [दे] - सूत्रवेष्टनयन्त्र ( परह १, ४ – पत्र ७८; तंदु २० ) । देखो चत्ता = (दे) । - वता श्री [वार्ता] १ बालकथा ६३ सुपा ३८७ प्रासू १ कुमा) । २ वृत्तान्त, हकीकत (पावृति ४ दुर्गा । ५ कृषि कर्म, खेती । ६ जनश्रुति, किंवदन्ती । ७ गन्ध का अनुभव । ८ काल-कटंक भूतनाश (हे २. ३०) ४ ला [लाप] बातचीत (सिरि २८२ ) । वत्तार वि [दे] गर्वित, गवँ-युक्त (दे ७, ४१) । यति श्री [दे] सीमा (दे ७, ३१) - यति देव (११२६५० विले १३१८) मानता ( धर्मसं ५७३) । "वतार देखो सन्तरि (सम ८३ प्रा १२६ | वसुल देखी दल (राज पि ४४६) । बत्ति [वर्णिम ] वर्तवला (महा वृत्ति त्री [वृत्ति ] प्रवृत्ति (सू २, ४,२) । देोविन्ति । वत्ति स्त्री [व्यक्ति ] अमुक एक वस्तु, एकाकी वस्तु पट्टा श्री [["प्रतिक्ष] प्रतिष्ठा विशेष दिन समय में जो तीर्थंकर विद्यमान हो उसके बिम्ब की विधि पूर्वक स्थापना (३५) । वत्तिअवि [वान्तिक] कथाकार, 'वत्ति' (हे २, ३०)। २ पुंन, टीका की टीका (सम पाइअसमय ४६ विसे १४२२ ) । ३ ग्रंथ की टीकाव्याख्या (विसे १३८५) वन्तिअवि [वर्त्तित] १ वृत --गोल किया हुमा (खावा १, ७) २ माच्छादित (डि) 1 'वत्तिअ देखो पञ्चय = प्रत्यय ( प ) 1 वत्तिआ देखो वट्टिआ (प्रा) 1 वत्तिणी स्त्री [वर्त्तिनी] मार्ग, रास्ता (पा स ४ सुर १२, १३६) वत्ती देखो पत्ती = पत्नी (गा ७९; १०६; १०३) 1 वत्तुं देखो वय = वच् IV वन्तुकाम वि [ वक्तुकाम] बोलने की चाह - वाला ( स ३१८० श्रभि ४४; स्वप्त १०; नाट - विक्र ४० ) IV IV १४, वत्थ पुंन [ वस्त्र] कपड़ा ( आचा २, २२ उवाः परह १, १ उप पृ ३३३ सुपा ७२; ४६१; कुमाः सुर ३, ७०) खेड्ड न ["खेल] कला विशेष ( २ टी-पत्र १३७) धोव वि [ धाव] वस्त्र धोनेवाला (सूत्र १, ४, २, १७) पूस ['पुष्य] एक जैन मुनि (कुलक २२ ) + पूसमित्त पुं [ पुष्यमित्र ] एक जैन मुनि ( ती ७) । "बिना श्री [विद्या ] विद्या-विशेष, जिसके प्रभाव से वस्त्र स्पर्श कराने से ही बीमार अच्छा हो जाय (४) सोहग वि ['शोधक ] वस्त्र धोनेवाला ( स ४१ ) 1वत्थवि [ व्यस्त ] पृथग्, भिन्न, जुदा (सुर १६,५५) [[देवपुर] तंत्र, कपड़-कोट, (दे ७, ४५) वत्थए देखो वस = वस् IV वत्थंग [ वस्त्राङ्ग] कल्पवृक्ष की एक जाति, जो वस्त्र देने का काम करता है (पउम १०२, १२१) वावर देखो पत्थर प्रस्तर (गा ५५१) वत्थनि [बलिय] दो जैन मुनि कुल - 1 नाम (कप्प) 1 वत्थव्व वि [ वास्तव्य ] रहनेवाला, निवासी (पिड ४२७ सुर ३, ६१: सुपा ३६५ महा) 1 For Personal & Private Use Only वत्तणा -वत्थूल बथाणी श्री [हे] वल्लो-विशेषपत्र ३३) । वत्थाणीअ पुंन [दे] खाद्य-विशेष, 'हत्थेण वत्यागीएण भोच्चा कज्जं सार्धेति' (सुज १०, १७) । स्थि [ वस्ति ] २ दृति, मसक (भग १, ६; १५, १०६ गाया १, १८), 'वत्थिन्त्र वापुरी अतुक्करिण जहा वहा सवई (संबोध १८ ) । २ प्रपान, गुदा 'वत्थी श्रवाणं' (पाथ परह १, ३ – पत्र ५३ ) । १३ छाते में शलाका—सली—सलाई बैठने का स्थान, छत्र का एक अवयव (प्रप) कम्म न [कर्मन] १ सिर यादि में चर्मद्वारा किया जाता तैल श्रादि का पूरण। २ मल साफ करने के लिए गुदा में बत्ती आदि का किया जाता प्रक्षेप (विपा १, १ -पत्र १४ या १,१३) का भीतरी प्रदेश (निर १, १ ) 1 डग पुंन [ पुटक] पेट स्थिय पुं [वाखिक] वन बनानेवाला शिल्पी (अणु) । वत्थी स्त्री [दे] उटज, तापसों को पर्णं-कुटी (दे ७, ३१) 1 वत्थु न [वस्तु] १ पदार्थ, चीज (पात्र उवा सम्म ८; सुपा ४०१६ प्रासू ३०; १६१६ ठा ४, १ टी - पत्र १८८ ) । २ पुंन. पूर्व-ग्रन्थों का अध्ययन - प्रकरण परिच्छेद (सम २५; दि ; कम्म १, ७) + पाल, वाल [*पाल] राजा बीरबल का एक सुप्रसिद्ध जैन मंत्री ( ती २ हम्मीर १२ ) । वरन [वास्तु] १ गृह, पर 'वायुविहि परिमाणं करेइ' (उवा) । २ गृहादि-निर्माणशास्त्र (गाया १. १३) । ३ शाक- विशेष (बा) पाटन [पाठक] वास्तुशास्त्र का अभ्यासी (गाया १, १३ घर्मंवि (३३) वज्जा स्त्री ["विद्या] गृह-निर्माणकला (प्रौफ जं २ ) । वत्थुल [ वस्तुल] युच्छ और हरित पुं वनस्पति-विशेष शाक-विशेष (पएसा १पत्र ३२ ३४, पव २५९) । वत्थूल पुं [वस्तूल ] ऊपर देखो; 'वत्थु (?त्यू) ला येगपल्लंका' (जी ९) । Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वद-वप्पा पाइअसद्दमहण्णवो ५४५ वद देखो वय = वद् । वदसि, वदह (उवाः शराव (णाया १, १-पत्र ५४, पउम | वन्न देखो वण्ण = वर्णय । वन्नेहि (कुमाः भगः कप्प)। भूका. वदासी (भग)। हेकृ. १०२, १२०)। ४ पुं. पुरुष पर आरूढ़ पुरुष, | उव) । हेकु. वनिउं (कुमा)। कृ. वन्नणिज वदित्तए (कप्प)। पुरुष के कन्धे पर चढ़ा हुमा पुरुष । ५ (सुर २, ६७ रयण ५४) वद देखो वय = व्रत (प्राकृ १२; नाट—विक्र स्वस्तिक-पञ्चक । ६ प्रासाद-विशेष, एक वन्न देखो वण्ण = वर्ण (भगः उवः सुपा १०३ ५६) तरह का महल (गाया १, १-पत्र ५४० सत्त ५६ कम्म ४,४०: ठा ५, ३)।वदिसा देखो वडेंसा (इक)। टा-पत्र ५७)। ७न. एक गाँव का नाम, वन्नग देखो वण्णय (कप्प; श्रा २३) - वदिकलिअ वि [दे] वलित, लौटा हुआ | अस्थिक ग्रामः अट्टियगामस्स पढमं बद्धमारण्य वन्नण देखो वण्णण (उप ७६८ टी; सिरि (दे ७,५०)।ति नाम होत्था' (आवम)। ८ वि. कृता ७२७)। वदूमग देखो वडुमग (प्राचा)। भिमान, अभिमानी, गर्वित (प्रौप)। वन्नणा देखो वगणा (रंभा)। बद्दल न [दे. वादल] १ बद्दल, बादल, मेघ- वद्धय वि [द] प्रधान, मुख्य (दे ७, ३६)। वनय देखो वण्णय (पिंड ३०८ कप्प)।घटा, दुर्दिन (दे ७, ३५; हे ४, ४०१, सुपा वद्धार सक [ वर्धय ] बढ़ाना, गुजराती में वन्निअ देखो वण्णिअ (भग)। ६५५; रायः आवमा ठा ३, ३--पत्र १४१)। 'वधार"। वकृ. वद्धारत ( सट्ठि १२ । वनिआ स्त्री [वर्णिका] १ वानगी, नमूना: २ पुं. छठवीं नरक का दूसरा नरकेन्द्रक- संबोध ४द्र ८) 'सग्गस्स वनिया मिव नयर इह अत्थि पाडलीनरक-स्थान (देवेन्द्र (१२)। वद्धारिय वि [वर्धित] बढ़ाया हुमा (भवि) पुत्तं' (धर्मवि ६४)। २ लाल रंग की मिट्ठी वदलिया स्त्री [दे. वालिका] बदली, छोटा वद्धाव सक [वर्धय , वर्धापय 1 बधाई (जी ३). बद्दल, दुर्दिन (भग ६, ३३-पत्र ४६७, ___ देना। वदावेइ, बद्धाति (कप्प)। कर्म. | वन्हि देखो वण्हि = वृष्णि (उत्त २२, १३) औप) वद्धावीअसि (रंभा)। वकृ. बद्धाविंत (सुपा वन्हि देखो वण्हि = वह्नि (चंड) वद्ध देखो वडढ = वर्धय । कर्म. वद्धसि (सुपा २२०)। संकृ. वद्धावित्ता (कप्प)।। वपु देखो वउ =वपुस् (वव १) ९०) वद्धावण न [वर्धन, वर्धापन ] बधाई, वप्प सक [त्वच ?] ढकना, आच्छादम वद्ध पुन [वर्ध] चर्म रज्जु; 'वज्जो बद्धो अभ्युदय-निवेदन (भविः सुर ३, २४, महा; करना । वप्पइ (धात्वा १५१)।(? बब्भो बद्धो)' (पापा दे ६, ८८; पव सुपा १२२; १३४)। वप्प पुं[व] १ विजयक्षेत्र-विशेष, जंबूद्वीप ८३ सम्मत्त १७४)। वद्धावणिया स्त्री [वर्धनिका, वर्धापनिका] का एक प्रान्त, जिसकी राजधानी विजया है वद्ध देखो विद्ध = वृद्ध (प्राप्र; प्राकृ ७)। ऊपर देखो (सिरि १३ १९)। (ठा २, २-पत्र ८०; जं ४)। २ पुंन. वद्धण न [वर्धन] १ वृद्धि, बढ़ती (णाया वद्धावय वि [वर्धक, वर्धापक बधाई देने किला, दुर्ग, कोट (ती ८)। ३ केदार, खेतः १, १; कप्प)। २ वि. बढ़ानेवाला (उप केपारो वप्पिणं वप्पो' (पामः प्राचा २, __ वाला (सुर १५, ७६; स ५७०; सुपा ६७३ महा)। १, ५, २, दे ७, ८३ टी) । ४ तट, किनारा ३६१) । वद्धणिआ। स्त्री वर्धनिका, 'नी] संमार्जनी, 'रोहो वप्पो य तडौं (पान)। ५ उन्नत भूवद्धाविअ वि [वर्धित, वर्धापित जिसको वद्धणी झाड़, (दे८, १७७, ४१ टी) भाग, ऊँची-जमीन; 'वप्पाणि वा फलिहारिण | बधाई दी गई हो वह (सुपा १२२; १६५)। वद्धमाण पुंवर्धमान] १ भगवान महावीर वा पागाराणि वा' (प्राचा २, १; ५, २) । (प्राचा २, १५, १०, सम ४३; अंत; कप्प; वद्धिअ [दे] १ षण्ढ, नपुंसक (दे ७, वप्प वि [दे] १ तनु, कृश । २ बलवान्, पडि)। २ एक प्रसिद्ध जैनाचार्य (साधं ६३; ३७)। २ नपुंसक-विशेष, छोटी उम्र में ही बलिष्ठ । ३ भूत-गृहोत, भूताविष्ट (दे ७, विचार ७६: ती १५: गु८)। ३ स्कन्धा छेद दे कर जिसका अण्डकोष गलाया गया रोपित पुरुष, कन्धे पर चढ़ाया हुआ पुरुष हो वह, बधिया (पव १०६ टी)। वप्पइराय देखो व-प्पइराय । (अंतः औप)। ४ एक शाश्वत जिन-देव । वद्धिअ देखो वढिअ = वृद्ध (भवि)। वप्पगा देखो वप्पा (राज) । ५ एक शाश्वती जिन-प्रतिमा (पव ५६)। वद्धी स्त्री [दे] अवश्य-कृत्य, मावश्यक वप्पगावई स्त्री [वप्रकावती] जंबूद्वीप का ६ न. गृह-विशेष (उत्त ६, २४)। ७ राजा कर्तव्य (दे ७, ३०)। एक विजय-क्षेत्र, जिसकी राजधानी का नाम रामचन्द्र का एक प्रेक्षा-गृह-नास्थ-शाला | वद्धीसका पुन [दे. वद्धीसक] वाद्य-विशेष, अपराजिता है (ठा २, ३--पत्र ८०; इक)। (पउम ८०, ५) । देखो वड्ढमाण । वद्धीसग । एक प्रकार का बाजा (पएह २, । वद्धमाणग) पुं[ वर्धमानक] १ अठासी वप्पा स्त्री [व] उन्नत भू-भाग, टेकड़ा, ५–पत्र १४६; अनु ६) । बद्धमाणय महाग्रहों में एक महाग्रह, ज्योतिष्क वध देखो वह - वध (कुमा) ऊँची जमीन (भग १५-पत्र ६६६)। देव-विशेष (ठा २, ३-७८)। २ एक देव- वधय देखो वह्य (भग)। वप्पा स्त्री [वप्रा] १ भगवान् नमिनाथजी की विमान (देवेन्द्र १४०)। ३ न. पात्र-विशेष, । वधू देखो वहू (प्रौप)। माता का नाम (सम १५१)। २ दशवें ह४ For Personal & Private Use Only Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो वप्पिअ-वय चक्रवर्ती राजा हरिषेण की माता का नाम वमग वि [वामक] उलटी करनेवाला (चेइय (कुमा)। कर्म. भवि, वकृ. वक्खमाण (पउम ८, १४४ सम १५२) १०३) (विसे १०५३)। संकृ. वइत्ता, वच्चा, वप्पिअ [दे] १ केदार, खेत (षड्)। वमण न [वमन उलटी, वान्ति, के (आचाः। वोत्तूण (ठा ३, १-पत्र १०८सूप २, २ नपुंसक-विशेष (पुप्फ १२६)। ३ वि. पाया १, १३) १, ६, हे ४, २११; कुमा)। हेकृ. वत्तए, रक्त, राग-युक (षड़)। वमाल सक [पुञ्जय ] १ इकट्टा करना। वत्तं, वोत्तुं (आचा; अभि १७२; हे ४, वप्पिण पुंन [दे] १ केदार, खेत (दे ७, ८५ । २ विस्तारना । वमालइ (हे ४, १०२; २११; कुमा)। कृ. वच्च, वत्तव्य, वोत्तव्य औप; णाया १, १ टी-पत्र २, पान पउम (विसे २; उप १३६ टी; ६४८ टी; ७६८ २, १२; परह १, १, २, ५)। २ वि. वमाल पुं[दे] कलकल, कोलाहल (दे ६, टी पिंड ८७; धर्मसं ६२२ सुर ४, ६७; उषित, जिसने वास किया हो वह (दे ७, ६० पानः स ४३५; ५२०; भवि)। सुपा १५०; औपः उवा; हे ४,२११) । देखो वमाल पुं[पुञ्ज] राशि, ढग (सण)। वयणिज ।। वरिपण न 1ि2 केदारवाला देश। २ वमालण नपुञ्जन १ इकट्ठा करना। २ वय सक विदा बोलना, कहना। वह तटवाला देश (भग ५, ७-पत्र २३८) विस्तार । ३ वि. इकट्ठा करनेवाला। ४ वयसि (कसः कप्प), वइजा, वएजा (कप्प)। विस्तारनेवाला (कुमा)। वप्पी देखो वप्पा = वप्र (भग १५-पत्र भूका. वयासि, वयासी (प्रौपः कप्पा भगः वम्म पुंन [वर्मन] कवच, संनाह, बस्तर महा)। वकृ. वयंत, वयमाण, वएमाण वप्पीअ ([दे] चातक पक्षी (दे ७, ३३) । (प्रातः कुमा) (कप्पः काल ठा ४,४-पत्र २७४० सम्म वप्पीडिअन [दे] क्षेत्र, खेत (दे ७, ४८) ।। वम्म देखो वम । ६६ ठा ७)। संकृ. वइत्ता (आचा)। वम्मथ । [मन्मथ] कामदेव, कंद वप्पीह पुं [दे] स्तूप, मिट्टी आदि का कूट हेकृ. वइत्तए (कप्प) - वम्मह (चंड प्राप्रः हे १, २४२, २, (दे ७, ४०) वय सक [व] जाना, गमन करना। ६१ पास) वप्पु देखो बउ = वपुस् (भग १५–पत्र | वयइ (सुर १, २४८)। वयउ (महा), वइज वम्मा देखो वामा (कप्प; पउम २०, ४६; ६६६) (गच्छ २, ६१)। कृ. वयंत (सुर ३, ३७) वप्पे प्र[दे] इन अर्थो का सूचक अव्यय-१ सुख २३, १; पत्र ११)। सुपा ४३२) । कृ. वइयव्व (राजा)। वम्मिअ वि [वर्मित] कवचित, संनाह-युक्त उपहास-युक्त उल्लापन । २ विस्मय, आश्चर्य (विपा १, २–पत्र २३)। वय पुं[वृक] पशु-विशेष, भेड़िया (पउम (संक्षि ४७) ।। वम्मिअ , पुं [वल्मीक] कीट-विशेष-कृत ११८, ७)। वफाउल देखो बफाउल (दे ६,६२ टी) वम्मीअ मिट्टी का स्तूप, ढूह या भीटा, | वय पुं [दे] गृध्र पक्षी (दे ७, २६; पात्र) । वफर न [दे] शस्त्र-विशेष (सुर १३, १५६) । दीमकों के रहने की बाँबी (सन २.१.२६ वय पु[वज १ संस्कार-करण । २ गमन वन्म देखो वह = वह IN हे १, १०१ षड् ; पात्र; स १२३, सुपा (श्रा २३)। कन्भ पुं[वभ्र] पशु-विशेष (स ४३७)- ३१७) ।। वय पुं[ब्रज] १ देश-विशेष (गा ११२) । वन्भय न [दे] कमलोदर, कमल का मध्य वम्मीइ पुं [वाल्मीकि] एक प्रसिद्ध ऋषि, २ गोकुल, दस हजार गौत्रों का समूह (णाया १,१ टी-पत्र ४३; श्रा २३)। ३ मार्ग, रामायण-कर्ता मुनि (उत्तर १०३) भाग (दे ७, ३८) ।। वम्मीसर पु[दे] काम, कन्दर्प (दे ७, ४२) । रास्ता। ४ संस्कार-करण । ५ गमन, गति यभिचरिअ वि [व्यभिचरित] व्यभिचार दोष से दूषित (श्रा १४) । (श्रा २३)। ६ समूह, यूथ (श्रा २३ स वह न [६] वल्मीक (दे ७, ३१) । वम्ह पुं [ब्रह्मन्] १ वृक्ष-विशेष, पलाश का वभिचार देखो वहिचार (स ७११) २६७ सुपा २८८ ती ३) वभिचारि वि [व्यभिचारिन्] १ न्यायपेड़; 'नग्गोहवम्हा तरू' (पउम ५३, ७६) । वय पुं [व्यय] १ खर्च (स ५०३) । २ हानि, नुकसान (उव; प्रासू १८१)। देखो शास्त्रोक्त दोष-विशेष से दूषित, ऐकान्तिक २ देखो बंभ (प्राप्र)। वम्हल न [दे] केसर, किंजल्क (दे ७, ३३; विअ = व्यय । (धर्मसं १२२७ पंचा २, ३७)। २ परस्त्रीहे २, १७४) वय न [ वचस ] वचन, उक्ति (सूत्र १, लम्पट (वव ६७) वम्हाण देखो बंभण (कुमा)। १, २, २३; १, २, २, १३; सुपा १९४; वभियार देखो पहिचार (उवर ७६)। वय सक [वच् ] बोलना, कहना । वाइ, भास ६१; दं २२) समिअवि [ समित] बम सक [वम् ] उलटी करना, कै करना । वमए (षड्)। भवि. वच्छिहिइ, वच्छिइ, वचन का सयमी (भग)। वकृ. वमंत, वममाण (गउड; विपा १,७)। वच्छिहिति, वच्छिति, वोच्छिइ, वोच्छिहिइ, वय पुं [वद] कथन, उक्ति (श्रा २३)। संकृ. बंता (प्राचा: सूप १, ६, २६)। कृ. वोच्छिति, वोच्छिहिति, वोच्छ (संक्षि ३२ वय पुंन [व्रत नियम, धार्मिक प्रतिज्ञा (भग; वम्म (उर १, ७)। षड़ा हे ३, १७१, कुमा)। कर्म. वुचइ पंचा १०,८ कुमा; उप २११ टी; भोघभा For Personal & Private Use Only Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वय - वरक्खा मंत वि [ वत् ] व्रती १ उम्र, प्रायु (ठा ३, २ प्रासू १५४) ( आचा २,१, ६, १ ) 1 वय पुंन [ वयस् ] ३, ४, ४; गा २३२; उप पृ १८ कुमा; प्रासू ४८; श्रा १४ ) । २ पक्षी (गउड उप १८) त्थवि [स्थ] तरुण, युवा (सुख १. १६) परिणाम [परिणाम] पुं वृद्धता, बुढ़ापा (से ४, २३ पाय) । • [पच ] पचन, पाक (श्रा २३) । "वय देखो पय = पद ( स ३४५ श्री २३; गउड कप्पू से १, २४) । "वय देखो पय = पयस् (कुमा) । - वयंगन [दे] फल-विशेष (सिरि १११०) । पतरि व [त्यन्तरित] बाड़ से तिरोहित (दे २, १३) । वयं पुं [वयस्य ] समान उमरवाला मित्र (ठा ३, १ –पत्र ११४ हे १, २६० महा) । - वयंसि देखो वयंसि वचस्थित् (राम) - ajita [वयस्या ] सखी, सहेली (कप्पू ) 1वड पुं [दे] वाटिका, बगीचा (दे ७, ३५) । - वयण न [दे] १ मन्दिर, गृह । २ शय्या, बिछौना (दे ७, ८५) । - वयण पुंग [ वदन] १ पुल, घो व' (प्राकृ ३३ प ३५८ सुर२, २४३; ३, ४४; प्रासू ε२ ) । २ न कथन, उक्ति (विसे २७९४) । ८४; पात्र) । aro [दे] लता-विशेष, निद्राकरी लता (दे ७, ३४ पा "वयस देखो वय वयस् 'सवय' (घाचा १, ८, २, २) । = वयस्स देखो दयंस ( स ३१४ मोह ४७; अभि ५५: स्वप्न ७६ ) IV वया स्त्री [वपा ] १ विवर छिद्र । २ मेद, चरबी (श्रा२३) । । यया श्री [यथा] १ ओषधि-विशेष २ मैना सारिका (श्रा २३) । देखो वचा | वया स्त्री [ व्यजा] १ मार्ग- विशेष, ऊष को खींचने के लिए रज्जुबद्ध घट श्रादि डालने का मार्गं । २ प्रेरण-दण्ड (श्रा२३) । [] १ सगाई करना, संबन्ध करना । २ आच्छादन करना, ढकना । ३ याचना करना । ४ सेवा करना । वरइ (हे ४, २३४; सुज (कुप्र ११. प्रात्रः प), 'वरं वरोह' ( ८०), 'वरं वरसु इच्छित्रं (श्रा १२ ) । भवि. वरिस्सइ (सिरि ८१९ ) । कृ. वरणीअ ( पउम २८, १०४ ) V [पचनीय] १ वाच्य कथनीय अभिधेय; 'वत्थु दष्वद्विश्रस्स वयरिगजं' (सम्म २१,६०) २ निन्दनीय (सुपा ३०० ) । ३ उपालम्भनीय, उलहना देने योग्य ( कुप्र ३ ) । ४ न, वचन, शब्द ( से ४, १३० सम्म ५३६ का ८९६) । ५ लोकापवाद, निन्दा (स ५३२) । रवि [] ययन [ वचन] १ किचन 'वया, वयणाई' (हे १, ३३ प २ सुर ३, ६४ प्रासू १४ १३४ १५०; कुमा) । २ एकत्व श्रादि बोधक आदि संख्या का atre] व्याकरणावर प्रत्यय ( पराह २ २ टी -पत्र ११८ ) | ७.२४) वयर देखो वइर = वज्र (कप्प उवः श्रोघभा सार्धं ३५ भगः श्रप) 1 - पाइअसहमहावो वयराड देखो वइराड (सत्त ६७ टी) । - वयल वि [दे] १ विकसता, खिलता (दे ७, ८४) २. कोलाहल दे ७० ८; "वयर देखो पयर = प्रकर (से १,२२) । [ वर ] १ प्राप्त करने की इच्छा करना। २ संसृष्ट करना । वर, वरयति (मवि तुज ७ ) के सूरियं वरयते' (सुन t, t). after (gva v) 1~ [पर] १ पति, स्वामी, दुलहा (स७८ स्वप्न ४१; गा ४०४; ४७९ भवि ) । २ वरदान, देव श्रादि का प्रसाद (कुमाः श्रा १२; २७; कुप्र ८०; भवि ) । ३ वि श्रेष्ठ, उत्तम रूप महाकुमा प्रा ५२ १७२ ) । ४ अभीष्ट (श्रा १२३ कुप्र ८० ) । ५ न. कुछ अभीष्ट अच्छा; 'बरं मे धप्पा देतो (उत्त १ १६ प्रा २२० ३०० १०६) देश [["दत्त]] [१] भगवान नेमिनाथजी का प्रथम शिष्य (सम १५२ कप्प ) । २ एक राजकुमार (विपा २, ११०) दाम न [दामन] एक सी (डा ३११२२. कसरण) धणु पुं [ "धनुष्] एक मन्त्रिकुमार, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का बाल For Personal & Private Use Only ७४७ मित्र (महा + पुरिस ( पण १७ – पत्र ५२६; जीव ३) माल [पुरुष] वासुदेव राय; श्रवम, ["माल] एक देवविमान (देवेन्द्र १३३) माला श्री ["माला] वर को पहनायी जाती माला वरत्व सूचक माता ( कुत्र ४०७) । रुइ ["रुचि] राजा नन्द के समय का एक विद्वान् ब्राह्मण ( कु ४४७) रिया श्री ["रिका ] अभीष्ट वस्तु मांगने के लिए की जाती घोषणा ईप्सित वस्तु के दान देने की घोषणा (गाया १, ८- - पत्र १५१ श्रवमः स ४०१ सुर १६, १८७२) सरफ न ["सरक] खाद्य विशेष ( राह २, ५ – पत्र १४८ ) | ● सिद्ध न [शिष्ट ] यम लोकपाल का एक विमान (भग ३, ७- पत्र १९७; देवेन्द्र २७०) 1 वर देखो वार । 'विलया स्त्री ['वनिता ] वेश्या (कुमा) पर देखो पर 'जीवाराम भदावरी नरो नि (कुप्र १८२) । वरइअ वि [दे] धान्य-विशेष (७०४१) - वरइत्त पुं [दे. वरथितृ] अभिनव वर, दुलहा (दे ७, ४४; षड् ; भवि) 1 वरई देखो वरय = वराक वरउफ वि [दे] मृत (दे ७, ४७) वरं देखो परं = परम्ः 'प्रदो वरं विरुद्धमम्हाण इत्थ अवस्था' (मोह ६२ स्वप्न २०६ ) 1 वरं पुं [वरण्ड ] १ दीर्घं काष्ठ; लम्बी लकड़ी । २ भित्ति, भीत (मृच्छ ६) । वरं पुं [दे] १ तृण-पुज, तृण-संचय ( चारु ३) । २ प्राकार, किला (दे ७, ८६ षड् ) । ३ कपोतपाली, गाल पर लगाई जाती कस्तूरी आदि को ७६ ४ समूह (गा ६३० ) 1. बरंडिया श्री [दे] घोडा बरंडा, बरामदा, दालान (सुपा २०३) वरक्ख न [राज्य] मन्द्रस्य विशेष सिन्हक (से २, ४४) बरक्ख पुं [वराक्ष ] १ योगी । २ यक्ष । ३ वि. श्रेष्ठ इन्द्रियवाला ( से ६, ४४ ) 1 परक्खा श्री [ल्या] त्रिफला (से, ४४) Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरुण। पाइअसहमहण्णवो वरग-वरुण बरग न [वरक] महामूल्य पात्र, कीमती | बड़ी कौड़ी (उत्त ३६, १३०; अोघ ३३४ | में उत्पन्न (ठा ७-पत्र ३६०) धर धू भाजन (आचा २, १, ११, ३)। श्रा १)। ३ न. कौड़ियों का जूना जिसे [धर] अन्तःपुर-रक्षक षण्ड-विशेष (णाया वरट्ट [दे] धान्य-विशेष (पव १५४)। बालक खेलते हैं (मोह ८६)। १,१-पत्र ३७; कप्पू; औप ५५ टि)। वरडा । स्त्री [दे. वरटा] १ तैलाटी, कीट- वराडिया स्त्री [वराटिका] कपदिका, कौड़ी 'वर पुं [°वर] वही अनन्तरोक्त अर्थ वरडी । विशेष, गंधोली । २ दंश भ्रमर, (सुपा २०३)। (औप)। देखो वास = वर्ष । जन्तु-विशेष (मृच्छ १२ दे ७, ८४) वराय देखो वरय = वराक (गा ६१६६; वरिसविअ वि [चर्षित] बरसाया हुआ वरण पू [वरण] १ सगाई, विवाह-संबन्ध | १४१; महा) । स्त्री. 'राइआ, राई (गा (सुपा २२३)। (सुपा ३५४ सुर १,१२६, ४,१०)। २ तट, | ४६२; पि ३५०) वरिसा स्त्री [वर्षा] १ वृष्टि, पानी का बरसना किनारा (गउड)। ३ पूल, सेतु (ोध ३०)। ४ वरावड पुं. ब. [वरावट] देश-विशेष (पउम | (हे २, १०५)। २ वर्षा-काल, श्रावण और प्राकार, किला (गा २४५)। ५ स्वीकार, ६८, ६४)। भादो का महीना (प्रयौ ७४) - काल पुं ग्रहरण (राज)। देखो वीर-वरण। ६ पुं. | वराह पुं [वराह] १ शूकर, सूअर (पान)। [काल] वर्षा ऋतु, प्राबृट् (कुप्र ७५) ।। देश-विशेष, एक पाय देशः 'वइराड वच्छ २ भगवान् सुविधिनाथ का प्रथम शिष्य रत्त पुं [रात्र] वही अर्थ (ठा ६; णाया वरणा अच्छा' (सूअनि ६६ टीः इक), देखो (सम १५२) १,१-पत्र ६३) ल देखो काल (पव | वराही स्त्री [वराही] विद्या-विशेष (विसे | वरणय न [वरणक] तृण-विशेष (गउड)। २४५३) वरिसि वि [वर्षिन् बरसनेवाला (वेणी वरणसि (अप) देखो वाराणसी (पि ३५४) वरिअ [वरम् ] अच्छा, ठीक; १११) वरणा स्त्री विरणा] १ काशी की एक नदी, _ 'वरि मरणं मा विरहो, वरिसिणी स्त्री [वर्षिणी] विद्या-विशेष (पउम वरुणा (राज)। २ अच्छ देश की प्राचीन विरहो अइसहो म्ह पडिहाइ। राजधानी (सूअनि ६६ टी)। देखो वरुणा - वरि एक्कं चिय मरणं, वरिसोलक पुं[दे. वर्षोलक] पक्वान्न-विशेष, वरणीअ देखो वर = वृ।। जेण समप्पंति दुक्खाई॥ एक प्रकार का खाद्य (पव ४ टी)। वरत्त वि [३] १ पीत । २ पतित ! ३ पेटित, (सुर ४, १८२; भवि) वरिहरिअ देखो परिहरिअ (से ७, ३८)। संहत (षड्) 10 वरिअ देखो वज= वयं (हे २, १०७ षड्) वरत्ता स्त्री [वरत्रा] रज्जु, रस्सी (पामा विपा वरु । पुन [दे] देखो बरु 'चंपयतरुणो १, ६; सुपा ५६२) । वरिअ वि [वृत] १ स्वीकृत (से १२, ८८)। वरुअवरुणो फुल्लति सुरहिजलसिच्चा (? वरय पुं [वरक] सगाई करनेवाला, विवाह का २ सेवित (भवि) । ३ जिसकी सगाई की गई | ता) (संबोध ४७)। प्रार्थक पुरुष (सुर ६, ११५) ।। हो वह (वसु; महा) । ४ न. सगाई करना; वरुट पुं [वरुण्ट] एक शिल्पि-जाति (राज) वरय पुं[दे] शालि-विशेष, एक तरह का 'सुवरियं ति (उप ६४८ टी)। वरुड पुं [वरुड] एक अन्त्यज-जाति (दे २, धान्य (दे ७, ३६)। वरिट्ठ पुं [वरिष्ठ] १ भरत-क्षेत्र का भावी | ८४)। वरय वि [वराक] दीन, गरीब, बेचारा, रंक बारहवाँ चक्रवर्ती राजा (सम १५४) । २ वरुण पुंवरुण] १ चमर आदि इन्द्रों का (पानः सुर २, १३, ६, १९५; सुपा ६३, अति-श्रेष्ठ (प्रौप, कप्प; उप पृ ३८४० सुपा पश्चिम दिशा का लोकपाल (ठा ४, १-पत्र गा ५३३) । स्त्री. रई (संक्षि २; पि ८०)। ४०३; भवि) १६७; १६८ इक)।२ बलि-आदि इन्द्रों का वरला स्त्री [वरला] हंसी, हंसपक्षी की मादा वरिल्ल न दे] वस्त्र-विशेष (कप्पू)। उत्तर दिशा का लोकपाल (ठा ४, १)। (पान)। वरिस सक [वृष्] बरसना, वृष्टि करना । ३ लोकान्तिक देवों की एक जाति (णाया वरसि देखो वरिसि (मोह ३०)। वरिसइ (हे ४, २३५; प्राप्र ) । वकृ. १८-पत्र १५१)। ४ भगवान् मुनिसुव्रत वरिसंत, वरिसमाण (सुपा ६२४; ६२३)। का शासनाधिष्ठायक यक्ष (संति ८)। ५ वरहाड अक [निर + स] बाहर निकलना। हेकृ. वरिसिउं (पि १३५) । शतभिषा नक्षत्र का अधिष्ठाता देव (सुज १०, वरहाडइ (हे ४, ७६) वरहाडिअ वि [नि सृत] बाहर निकला वरिस पुन [वर्ष] १ वृष्टि, वर्षा (कुमाः १२) । ६ एक देव-विमान (देवेन्द्र १३१)। हुआ, निगंत (कुमा) कप्पू ; भवि)। २ संवत्सर, साल (कुमाः ७ वृक्ष की एक जाति (पव ४)। ८ अहोरात्र वराग देखो वराय (रंभा)। सुपा ४५२; नव ; दं २७; कप्पू ; कम्म का पनरहवाँ मुहूर्त (सुज १०,१३ सम वराड पुंगवराट, क] १ दक्षिण का १, १८) । ३ जंबूद्वीप का अंश-विशेष, भारत ५१) । ६ एक विद्याधरनरपति (पउम ६, वराडग एक देश, जो आजकल भी बरार' आदि क्षेत्र । ५ मेघ (हे २, १०५), "अ ४४, १६, १२)। १० एक श्रेष्ठि-पुत्र (सुपा वराडय नाम से प्रसिद्ध है (कुप्र २५५, वि [°ज वर्षा में उत्पन्न (षड् ) कण्ह ५५६)। ११ छन्द-विशेष (पिंग)। १२ सुख १८, ३५; राज)। २ कपर्दक, कौड़ा- न [कृष्ण] १ एक गोत्र । २ पुंस्त्री. उस गोत्र । वरुणवर द्वीप का एक अधिष्ठाता देव (जीव For Personal & Private Use Only Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्मा-बलवा पाइअसहमहण्णवो ७४६ ३-पत्र ३४८) । १३ पृ. ब. एक पाय- वल सक [ग्रह ] ग्रहण करना । वलइ के बाँक से वेष्टित भू-भाग (सूत्र २, २, ८ देश (पव २७५)4 °काइय पुं[कायिक] (हे ४, २०६; दे ७, ८६)। वलणिज भग)। ६ माया, प्रपंच (सूत्र १, १२, २२, वरुण लोकपाल के भूत्य-स्थानीय देवों की एक (कुमा)। सम ७१) ७ असत्य वचन, मृषा मूठ (पएह जाति (भग ३, ७-पत्र १९६). देवकाइय वल पुं [वल] रस्सी आदि को मजबूत करने १, २--पत्र २६)। ८ बलयकार वृक्ष, नारि [ देवकायिक] वही अर्थ (भग ३, ७) के लिए दिया जाता बल (उत्त २६, २५) केल, नारियल आदि (परण १; उत्त ३६,६६, प्पभ ' [प्रभ] १ वरुणवर द्वीप का | वलअंगी स्त्री दि] वृतिवाली, बाड़वाली (दे सुख ३६.६६) आर, रिअ पुकार, एक अधिष्ठायक देव (जीव ३-पत्र ७,४३) कारक कंकण बनानेवाला शिल्पी(दे ७,५४)३४८)। २ वरुण लोकपाल का उत्पात वलइय वि [वलयित] १ वलय-कंगन की वलय वि [वलक] मोड़नेवाला 'छगलग-गलपर्वत (ठा १०--पत्र ४८२) + पभा स्त्री तरह गोलाकार किया हुआ, वलय की तरह वलया' (पिंड ३१४) [प्रभा] वरुणप्रभ पर्वत की दक्षिण दिशा मुड़ा हुमा (पउम २८,१२४; कप्पू)। २ वेष्ठित | वलय न १ क्षेत्र, खेत । २ गृह, घर में स्थित बरुण लोकपाल की एक राजधानी (कप्पू) (दे ७, ८४) । (दीव) ५ °वर पुं[वर] एक द्वीप का नाम वलंगणिआ स्त्री दे] बाड़वाली (दे ७, वलय दख वलय देखो वल = वल् + मयग वि [मृतक] (जीव २-पत्र ३४८ सुज्ज १९) १ संयम से भ्रट होकर जिसका मरण हुआ वरुणा स्त्री [वरुण] १ अच्छ देश की प्राचीन | वलक्किअ वि [दे] उत्संगित, उत्संग-स्थित हो वह । २ भूख प्रादि से तड़फता हुआ जो राजधानी (पव २७५)। २ वरुणप्रभ पर्वत (षड् १८३)। मरा हो वह (प्रौप) मरण न [ मरण] की पूर्व दिशा में स्थित बरुण नामक लोकवलक्ख वि [वलक्ष] श्वेत, सफेद (पास)। संयम से च्युत होनेवाले का मरण (भग पाल की एक राजधानी (दीव)। ३ एक राज वलक्ख न [वलाक्ष] प्राभूषण-विशेष, एक पत्नी (पउम ७, ४४)। वलयणी स्त्री [दे] वृति, बाड़ (दे ७, ४३) । तरह का गले में पहनने का गहना (प्रौप)।। वरुणी स्त्री [वरुणी] विद्या-विशेष (पउम ७, वलयबाहा ! स्त्री [दे] १ दीर्घ काष्ठ, जिसपर वलग्ग सक [आ + रुह ] प्रारोहण करना, १४०) वलयबाहु ध्वजा प्रादि बांधा जाता है चढ़ना। गुजराती में 'वळगवु'। वलग्गइ वह लम्बा काष्ठ; 'संसारियासु बलयबाहासु वरुणोअ) पुं[वरुणोद] एक समुद्र (ठा (हे ४, २०६; षड्; भवि)। वरुणोद पत्र ४०५ इक सुज्ज १९) ऊसिएसु सिएसु भयग्गेसु' (णाया १८-पत्र वलग्ग वि [आरूढ] जिसने प्रारोहण किया १३३) । २ हाथ का एक प्राभूषण, चूड़ा, वरुल पुं. ब. [वरुल] देश-निशेष (पउम ९८, हो वह, चढ़ा हुआ (पास)। कड़ा (दे ७, ५२ पान) वलग्गंगणी स्त्री [दे] वृति, बाड (दे ७, वलया देखो वडवाणल पुं[नल] वडवरूहिणी स्त्री [ वरूथिनी ] सेना, सैन्य ४३) । वाग्नि (हे १, १७७, षड्) "मुह न (पान)। वलग्गिअ देखो वलग्ग = प्रारूढ़ (कुमा) [मुख] १ बडवानल (हे १, २०२; प्रारू, वलण न [वलन] १ मोड़ना, वक्र करना वरेइत्थ न [दे] फल (दे ७, ४७)। पि २४०)। २ पुं. एक बड़ा पाताल-कलश (दे १, ४२)। २ प्रत्यावर्तन, पीछे लौटना (ठा ४, २--पत्र २२६; टी-पत्र २२८% वल अक [वल] १ लौटना, वापस पाना। (से ८, 5 गउड)। ३ बाँक, वक्ता (हे २ मुड़ना, टेढ़ा होनाः गुजराती में 'वळवु" । सम ७१) ।। ४, ४२२) ३ उत्पन्न होना। ४ सक, ढकना। ५ जाना, वलया स्त्री [दे] वेला, समुद-कूल+ मुह न वलण (शौ. मा) देखो वरण (प्राकृ ८५ हे [मुख वेला का अग्र भागः । गमन करना। ६ साधना। वलइ (हे ४, २६३). 'ति बलागमुहम्मुक्को, तिक्खुत्तो वलयामहे । १७६ षड् गा ४४६; धात्वा १५२) । वलणा स्त्री [वलना] देखो वलण = वलन भवि, वलिस्सं (गहा) । वकृ. वलंत, वलय, ति सत्तक्खुत्तो जालेणं, सइ छिन्नोदए दहे ।। (गउड)। वलाय, वलमाण (हे ४, ४२२, गा २५; एयारिसं ममं सत्तं, सढं घट्ठियघट्टणं । वलस्थ वि [दे] पर्यस्त (भवि)। से ५, ४७: ५, ४२; औपः ठा २, ४, पव इच्छसि गलेण तुं, अहो ते अहिरीयया ।। वलमय न [दे] शीघ्र, जल्दी; 'वच्च वलमयं १५७) । कवकृ. वलिजंत (से ४, २६)। (पिंड ६३२, ६३३)। तत्थ' (दे ७, ४८) संकृ. वलिऊण (काल)। हेकृ. वलिउं (गा वलयाइअ वि [वलयायित] जो वलय की वलय पुन [वलय] १ कंकण, कड़ा (औपः ४८४; पि ५७६)। कृ. वलियम्व (महा: तरह गोल हुआ हो वह (कुमा) गा १३३; कप्पू; हे ४, ३५२)। २ पृथिवीसुपा ६०१)। वेष्टन, धनवात आदि (ठा २, ४-पत्र| वलवाट्ट [दे] देखो बलवट्रि (दे६,६१) वल सक [आ + रोपय् ] ऊपर चढ़ाना । ८६) । ३ वेष्टन, बेठन । ४ वतुल, गोलाकार वलवा देखो वडवा; गोमहिसिवलवपुराणो' वलइ (दे ४, ४७; दे ७, ८६) (गउडा कप्पू; ठा ५, १)। ५ नदी आदि के (पउम २, २; दे ७, ४१; इक; पि २४०) ।। For Personal & Private Use Only Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो वलवाडी-ववट्टि वलवाडी स्त्री [दे] वृति, बाड़ (दे ७, ४३)। वल्ल अक [वल्ल ] चलना, हिलना (कुप्र वल्लादय न [दे] आच्छादन, ढकने का वस्त्र वलविअ न [दे| शीघ्र, जल्दी (दे ७, ४८) ८४) वलहि स्त्री [द] कसि, कपास (दे ७, ३२) वल्ल दे] शिशु, बालक (दै ७, ३१)। वल्लाय पुं[दे] १ श्येन पक्षी। २ नकुल, वलहि) स्त्री [वलभि, भी १ गृह-चूडा, वल्ल पुंदे. वल्ल] अन्न-विशेष, निष्पाव, गुज- न्यौला (दे ७,८४)। वलही। छज्जा, बरामदा । २ महल का | राती में 'वाल' (सुपा १३; ६३१; सम्मत्त वल्लि स्त्री [वल्लि] लता, बेल (कुमा) अग्रस्थ भाग (प्राप्र)। ३ काठियावाड़ का ११८ सण)। वल्लिर वि [वल्लित] हिलनेवाला; 'न विरायइ एक प्राचीन नगर, जिसको आजकल 'वळा' कहते हैं (ती १५; सम्मत्त ११६) | वल्लई खी [वल्लवी] गोपी (दे ७, ३६ टी) वल्लिरपल्लवा वि वल्लिव्य फलहीणा' (कप्र ८४) वलाअ देखो पलाय = परा + अय् । वकृ. । वल्लई स्त्री [दे] गो, गैया (दे ७, ३६) वल्ली स्त्री [वल्ली] लता, बेल (कुमा; पि 'दीसइ वि वलाअंतो' (से ६ ८६) वल्लई । स्त्री [ वल्लकी ] वोणा (पामा दे ३८७)। वलाअ देखो पलाव = प्रलाप (सेह व ल्लकी) ७,३६ टीः पाया १,१७-पत्र 'वलाअ देखो वल = बल । मरण देखो २२६) वल्ली स्त्री [दे] केश, बाल (दे ७, ३२) ।। वलय-मरणः 'संजमजोग-विसन्ना मरंति जे | वल्लट्ट वि [दे] पुनरुक्त, फिर से कहा हुआ वल्हीअ ' [वाह लीक] १ देश-विशेष (स तं वलायमरणं तु' (पव १५७: ठा २, ४(पड्) १३; नाट)। २ वि. वाहीक देश में उत्पन्न, वाहीक देश का (स १३)। वल्लभ देखो वल्लह (गा ९०४) पत्र ६३) वलि स्त्री [वलि] १ पेट का अवयव-विशेष; वल्लर न [दे. वल्लर] १ वन, गहन (दे ७, वव सक [वप ] बोना; 'जे सत्तखित्तेसु 'उयरवलिमंसेहि' (निर १, १)। २ त्रिवलि, ८६; पान उत्त १६, ८१)। २ क्षेत्र, खेत ववंति वित्त' (सत्त ७२) । वकृ. ववंत नाभि के ऊपर पेट की तीन रेखाएँ (गा ४२५; (द ७, ८६; पएह १, १-पत्र १४) । ३ (आत्महि ७)। कवकृ. बविजंत (गा भवि) । ३ जरा प्रादि से होती शिथिल अरण्य-क्षेत्र (पान)। ४ वालुका-युक्त क्षेत्र ३५८)। चमड़ी (णाया १,१-पत्र ६६) | वव सक [वप ] देना। ववइ (वव १)। (गा ८१२) ।। वल्लर न [दे] १ अरण्य अटवी। २ निर्जल | कर्म. उप्पइ (कुप्र ४१)। वलिअ वि [दे] भुक्त, भक्षित (दे ७, ३५) देश। ३ पुं. महिष, भैंसा; ४ समीर, पवन। | ववइस सक [व्यप + दिश् ] १ कहना, वलिअ वि [वलित] १ मुड़ा हुआ (गा ६; ५ वि. युवा, तरुण (दे ७, ८६)। ६ वेष्टन- | प्रतिपादन करना। २ व्यवहार करना । २७० प्रौप) । २ जिसको बल चढ़ाया गया शील । ७ वेष्टित नामक प्रालिंगन-विशेष ववइसंति (धर्मसं ४५२, सूअनि १४१)। हो बह (रस्सि आदि) (उत्त २६, २५) । करने की आदत वाला। स्त्री. री (गा ५३४) अन्ने अकालमरणस्सभावग्रो वलिअ देखो विलिअ = व्यलोक (प्राप्र)। वल्लरी स्त्री [वल्लरी] वल्ली, लता (पामः । वहनिवित्तिमो मोहा। वलिआ स्त्री [दे] ज्या, धनुष की डोरी (दै गउड सुपा ५२६) वंझासुअपिसियासणवल्लरी स्त्री [दे] केश, बाल (दे ७, ३२) ।। निवित्तितुल्लं ववइसंति ॥ वलिच्छत्त देखो परिच्छन्न (प्रौप) । (श्रावक १६२)। वल्लव पुंस्त्री [वल्लव] गोप, अहीर, ग्वाला वलित देखो वल = वल् । ववएस पुं[व्यपदेश १ कथन, प्रतिपादन । (पास) । स्त्री. वी (गा ८६) २ व्यवहार (से ३, २६) । ३ कपट, बहाना. 'वलित देखो पलित्त (उप ७२८ टी)। वल्लवाय न[दे] क्षेत्र, खेत (दे ६, २६)- छल (महा)। वलिमोडय पुं [लिमोटक] वनस्पति में वल्लविअ वि [३] लाक्षा से रँगा हुआ (षड्) वगम [व्यपगम] नाश (प्रावम)। ग्रन्थि का चक्राकार वेष्टन (पराग १-पत्र वल्लह पुं [वल्लभ] १ दयित, पति, भर्ता, बालम | ववगय वि [व्यपगत] १ दूर किया हुआ वलिर वि [वलित] लौटनेवाला (सुपा (गउड; कप्पू: गा १२३, हे ४, ३८३)। (सुपा ४१)। २ मृत (पएह २, ५–पत्र २ वि. प्रिय, स्नेह-पात्र; अहं जाया वल्लहा १४८)। ३ नाश-प्राप्त, नष्टः 'ववगविग्धा ५६) अईव पिउगों' (महा; गा ४२, ६७ कुमा सिग्धं पत्ता हिलइच्छिनं ठाणं' (णमि ११, वली स्त्री [वली] देखो वलि (निर १, १)। पउम १५, ७३; रयण ७६) राय पुं प्रौपः कप्प)। वलुण देखो वरुण (हे १, २५४)। [राज] १ गुजरात का एक चौलुक्य-वंशीय ववटुंभ ' [व्यवष्टम्भ] अवलम्बन, सहारा वले प्र. संबोधन-सूचक अव्यय (प्राकृ ५०)। राजा (कुप्र ४)। २ दक्षिण के कुन्तल देश (से ४, ४६) २-३ देखो बले (षड् ) । का एक राजा (कप्पू)। ववठ्ठावण देखो ववत्थावण (राज) वल्ल देखो वल = वल । वल्लइ (धात्वा वल्लहा स्त्री [वल्लभा] दयिता, पत्नी (गा ववटिअ वि [व्यवस्थित] व्यवस्था प्राप्त १५२) (से १२, ५२)। For Personal & Private Use Only Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ववण- बव्वाड ववण [प] बोगा (१) aaण स्त्रीन [ दे ] कार्पास, तुला, रूई; 'पलही ववरणं तूलो रूवों' (पान)। स्त्री. 'णी (दे ६, ८२७, ३२ ) 1 [ [ [] पराक्रम (दे ७, Yε) 1~ ववत्था श्री [व्यवस्था]] १ मर्यादा स्थिति ( स १३; कुप्र ११४) । २ प्रक्रिया, रीति । ३ इंतजाम, प्रबन्ध (सुपा ४१) । ४ निर्णय (१३) पन्तयन [पत्रक ] दातावेज ( स ४१० ) 1 ववत्थावण न [ व्यवस्थापन ] व्यवस्था करना जीवववत्थावरणादिरणा' ( धर्मसं ५२०) 1 ववत्थावान [ व्यवस्थापना ] ऊपर देखो (२०) V ववत्थिवि [ व्यवस्थित ] व्यवस्था-युक्त ( स ४६ ७२७: सुर ७, २०५३ सरग ) 1[व्यवस्थित ] जिसने व्यवस्था को हो वह (सनि ४, ३५) ववदेस देखो ववएस ( उवा; स्वप्न १३२ ) । ययदेखि [व्यपदेशिन] व्यपदेश करने वाला (नाट - शकु ६) ववधाण न [ व्यवधान ] अन्तर, दो पदार्थों के बीच का अन्तर (प्रभि २२२) ववरोव सक [ व्यप + रोपय् ] विनाश करना, मार डालना । ववशेवेसि, ववशेवेजसि, वबरोवेज्जा (उवा)। कर्म. ववरोविज्जसि (उमा) सं. पयरोवित्ता (उमा) 1 यपरोपण न [व्यपरोपण] विनाश, दिया (सण) । बचरोषि [यपरोपित ] विनाशित मार डाला गया 'जीविभाओ ववरोविप्रा' (पडि) | ववस सक [ व्यव + सो] १ करना । २ करने की इच्छा करना । ववसs ( राय १०८) । वस सक [ व्यय + सो] १ प्रयत्न करना, चेष्टा करना । २ निर्णय करना । ववसइ ( स २०२ ) । वकृ. ववसंत, ववसमाण (सुपा २१८५६२) संकृऊिण पाइअसद्दमणवो (सुपा ११८) मा म ५७, ३६) । हे. ववसिदुं (शौ ) ( नाट शकु ७१) 1 ववसाय [व्यवसाय ] १ निर्णय, निश्चय । २ धनुष्ठान (ठा ३, ३ - पत्र १५१६ मंदि) । ३ उद्यम, प्रयत्न ( से ३, १४; सुपा ३५२; स६८३; हे ४, ३८५३ ४२२; कुप्र २९ ) । ४ व्यापार, कार्य, काम ( श्रौप राय ) । ववसायसभा स्त्री [ व्यवसायसभा ] कार्यं करने का स्थान, कार्यालय (राय १०४ ) 1 ववसिअ न [ दे ] बलात्कार (दे ७, ४२) । ववसिअ वि [ व्यवसित ] १ उद्यत, ववरिस उद्यम-युक्तः सेणिश्रो नाम राया पाहे सुहं वसियों (उत २२ ३०; उब)। २ व्यक्तः 'अवि जीवियं ववसियं न चैव परिभवो सही (उप) ३ निश्चयवाला । ४ पराक्रमी (ठा ४, १ - - पत्र } ( स १७६) । ५ न. व्यवसाय, कर्म (गाया १, १ - पत्र ५० ) । ६ चेष्टित (स ७५६) । ७ उद्यम, प्रयत्न ( से ३,२२) ववहर सक [ व्यव + हृ] १ व्यापार करना । २ प्रक. वर्तना, आचरण करना । ववहरई, बहए उस १० १० १०० पिते २२१२ ) । वकृ. वत्रहत, ववहरमाण (उत्त २१, २३ भग ८८ सुपा १५० ४४६). हरि (१०२) क्र. ववहरणिज्ज, रणिज हरियण्य (उप २११ टी वव १ सुपा ५८५ ) 1 ववहरग वि [ व्यवहारक ] व्यापार करनेवाला, व्यापारी (कुप्र २२४ ) I बवहरण न [ व्यवहरण ] व्यवहार (गाया १, ८- १३५; स५८५ उप ५३० टी; सुपा ४६७ विसे २२१२) ववहरय देखो ववहग (सुपा ५७८) । ववयिव्व देखो ववहर बबहार [व्यवहार] वर्तन धारण भग ८ ८; विसे २२१२ ठा ५, २ प १२६ ) । २ व्यापार, धन्धा, रोजगार (सुपा ३३४) ३ नव-विशेष वस्तु-परीक्षा का एक दृष्टिकोण (विसे २२१२; ठा ७पत्र ३६० ) । ४ मुमुक्षु की प्रवृत्ति निवृत्ति का कारण-भूत ज्ञान विशेष (भग ८ ८ - पत्र ( वय १३ For Personal & Private Use Only ७५१ ८ ३८३३ व १३ पव १२६६ द्र ४९ ) । ५ जैन श्रागम-ग्रंथ विशेष (वव १) । ६ दोष के नाशार्थं किया जाता प्रायश्चित्तः 'आयारे ववहारे पन्नत्ती चैव दिट्ठिवाए य' (दसनि ३) । ७ विवाद, मामला, मुकद्दमा 'ववहारवियारणं कुणई' (पउम १०५, १००, स ४६०; चेइय ५६० उप ५६७ टो) । विवादनिय फैसला चुकादा (उप २८३) । ६ व्यवस्था ( सू २, ५, ३) । १० काम काज (विसे २२१२ २२१४) । ११ जीवराशि-विशेष (सखा वि [व] व्यवहार (४९) राखिय ["राशिक] जीवराश-विशेष में स्थित ( सिक्खा 8 ) 1 ववहार पुं [ व्यवहार ] १ पूर्व-ग्रंथ । २ जीतकल्प सूत्र । ३ कल्पसूत्र ४ मार्ग, रास्ता । ५ आचरण । ६ ईप्सितव्य ( वव १) | ववहारि पुं [ व्यवहारिन् ] १ ऐरवत क्षेत्र में उत्पन्न एक जिन-देव (सम १५३) । २ वि. व्यापारी, वणिक् (मोह ६४० या १४० सुपा ३३४) । ३ व्यवहार किया प्रवर्तक (वय १) बवहारिअ नि [व्यावहारिक] व्यवहारसम्बन्धी घोष २०१ ववहिअ वि [व्यवहित] व्यवधान-युक्त (गु श्रवम) । V बहिन वि [दे] मत मत्त (७, ४१) IV देशमा (ख) विवि [A] बोया हुआ (उप ७२८ टी प्रासू ६) । वविज्जत देखो वव । ववेअ वि [ व्यपेत] व्यपगत ( सू २, १, ४७) 1 बक्सा श्री [व्यपेक्षा] विशेष पेक्षा परवाह (धर्मसं १९६७) वय [वल्वज ] तृण-विशेष : मूययवक्क (?) (पह २, ३ पत्र १२३; कस २, ३०) 1 वर [पर] १ पामर चव्वा देखो वव्वय (कस २, ३० ) । वाड पुं [दे] अर्थ धन (दे ७, ३६) (B Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ पाइअसहमहण्णवो वव्वीस-वसिम वव्वीस देखो वच्चीसग, बद्धीसक (पउम ३४, ६२) । २ चैत्र मास (सुज १०, १६) वसभुद्ध [दे] काक, कौआ (दे ७, ४६) ११३, ११)। उर न ["पुर] नगर-विशेष (महा) वसम देखो वसिम (महा) ।। वशधि (मा) देखो वसहि = वसति (प्राकृ "तिलअ ' [तिलक] १ हरिवंश में उत्पन्न वसमाण देखो वस = वस् । १०१)। एक राजा (पउम २२,६८)। २ न. एक वसल वि [दे] दीर्घ, लम्बा (दे ७, ३३) वश्च (म) देखो वच्छ = वृक्ष (प्राकृ १०१)। उद्यान, जहाँ भगवान् ऋषभदेव ने दीक्षा ली वसह पुं[वृषभ] वैयावृत्त्य करनेवाला मुनि थी (पउम ३, १३४) + तिलआ स्त्री (प्रोघ १४०)। २ लक्ष्मण का एक पुत्र वस प्रक [ बस ] १ वास करना, रहना । ["तिलका] छन्द-विशेष (पिंग)। (पउम ६,२०)। ३ बैल, साँढ़, साँड़ (पान)। २ सक. बाँधना। वसइ (कप्प; महा)। वसंवय वि [वशंवद] निज को अधीन ४ कान का छिद्र । ५ औषध-विशेष भूका. वसीय (उत्त १३, १८) । वकृ. वसंत, (प्राप्र)। इंध पु[चिहन शंकर, महादेव वसमाण (सुर २, २१६, ६, १२०; कुप्र कहनेवाला (धर्मवि ६) वसण न [वसन] १ वस्त्र, कपड़ा (पानः (गउड) १४कप्प)। संकृ. वसित्ता, वसित्ताणं केउ पुं[केतु] इक्ष्वाकु-वंश का एक राजा (पउम ५, ७) । वाहण पुं सुपा २४४; चेझ्य ४८२, धर्मवि)। २ (प्राचा; कप्प; पि ५८३)। हेकृ. वत्थए [°वाहन] १ ईशान देवलोक का इन्द्र (जं वसिउं ( कप्प; पि ५७८; राज)। कृ. निवास, रहना (कुप्र ४८) २-पत्र १५७)। २ महादेव, शंकर (वजा वसियव्य (ठा ३, ३, सुर १४,८७, सुपा वसण पुं [वृषण] अण्ड-कोष, पोता (सम ६०)। वीही स्त्री [वीथी] शुक्र ग्रह का ४३८) १२५; भगः परह १,३; विपा १, २; एक क्षेत्रभाग (ठा ६-पत्र ४६८) ।। वस वि [वश] १ प्रायत्त, अधीन (प्राचा: प्रौपः कुप ३६५) वसहि देखो वसइ (हे १, २१४; कुमा; गा वसण न [व्यसन] १ कट, विपत्ति, दुःख से २, ११)। २ पुंन. अधीनता, परतन्त्रता ५८२; पि ३८७) (पाप सुर ३, १६२, महा: प्रासू २३)। (कुमाः कम्म १, ४४) । ३ प्रभुत्व, स्वामित्व। वसा स्त्री [वसा] १ शरीरस्थ धातु-विशेष: २ राजादि-कृत उपद्रव (पाया १.२)। ३ ४ प्राज्ञा (कुमा)। ५ बल, सामर्थ्य (गाया 'मेयवसामंस- (पराह १, १-पत्र १४; खराब प्रादत-द्यूत, मद्य-पान प्रादि खोटी १, १७; औप)। अ, ग वि [ग] वशी गाया १, १२)। २ मेद, चरबी (माचा)। आदत (बृह १) भूत, पराधीन (पउम ३०, २०; अच्चु ६१; वसारअ वि [प्रसारक] फैलानेवाला (से सुर २, २३१; कुमाः सुपा २५७) वसणि वि [व्यसनिन् खोटी आदतवाला दृ वि | ६, ४०) [त] पराधीनता से पीड़ित, इन्द्रिय आदि (सुपा ४८८) । वसारअ देखो पसाह्य (से ६, ४०) की परवशता के कारण दःखित (पाचाः | बसा वृषा] १ ज्योतिष-प्रसिद्ध राशि- | वसाहा स्त्री प्रसाधाा अलंकार, ग्राभषण विपा १,१-पत्र ८ औप)। "ट्टमरण न विशेष, वृष राशि (पउम १७, १०८)। २ (से १,१६) ["तिमरण] इन्द्रियादि-परवश की मोत (ठा भगवान् ऋषभदेव (चेइय ५४१)। ३ एक वसि देखो वसइ; 'जत्थ न नजइ पहि पहि २, ४-पत्र ६३; भग)+ वत्ति वि जैन मुनि, जो चतुर्थ बलदेव के पूर्व जन्म में प्रडविवसिठाणयविसेसो' (सुर १, ५२) [वर्तिन् ] वशीभूत, अधीन (उप १३६ गुरु थे (पउम २०, १६२)। ४ गीतार्थ वसिअ वि [उपित] १ रहा हुआ, जिसने टी; सुपा २३८) इत्त वि [यत्त] मुनि, ज्ञानी साधु (बृह १, ३)। ५ बैल, वास किया हो वह (पात्र; स २६५; सुपा अधीन, परतंत्र (धर्मवि ३१)+ णुग वि बलीवदं (उव) । ६ उत्तम, श्रेष्ठ; 'मुरिणवसभा' ४२१; भत्त ११२; वै ७)। २ बासी, [°ानुग] वही अर्थ (पउम १४, ११)। (उव), करण न [करण] वह स्थान पयुषित; 'प्रवणेइ रयरिणवसियं निम्मल्लं वस पुं [वृप] १ धर्म (चेइय ५४१) । २ जहाँ बैल बांधे जाते हों (आचा २, १०, लोमहत्थेरण' (संबोध ६) १४)। क्खेत्त न [क्षेत्र] स्थान-विशेष, बैल, वृषभ (स ६५४; कम्म १, ४३)। वसिट्ठ [वशिष्ट] ? भगवान् पाश्वनाथ का देखो विस = वृष । जहाँ पर वर्षा-काल में प्राचार्य आदि रहते हों एक गणधर (ठ. ८-पत्र ४२६; सम १३)। वह स्थान (वव १०; निचू १७), गाम वसइ स्त्री [वसति १ स्थान, पाश्रय (कुमा)। २ एक ऋषि (नाट-उत्तर ८२) । पुं[ग्राम] ग्राम-विशेष, कुत्सित देश में | २ रात्रि, रात (दे ७, ४१)। ३ गृह, घर नगर-तुल्य गाँव; 'अस्थि हु वसभग्गामा वसि? [वशिष्ट] द्वीपकुमार देवों का उत्तर (गा १६६)। ४ वास, निवास (हे १, कुदेसनगरोवमा सुहविहारा' (वव १०)M दिशा का इन्द्र (इक) २१४)। णुजाय पुं[नुजात ज्योतिशास्त्र-प्रसिद्ध वसित्त न [वशित्व योग की एक सिद्धि, वसंत देखो वस = वस् । दश योगों में प्रथम योग, जिसमें चन्द्र, सूर्य योग-जन्य एक ऐश्वर्य; 'साहुवसित्तगुणेणं पसमं वसंत पुंबरन्त] १ ऋतु-विशेष, चैत्र और और नक्षत्र बैल के आकार से स्थित होते हैं। कूरावि जंतुणो जंति' (कुप्र २७७)वैशाख मास का समय (गाया १,१-पत्र (सुज १२-पत्र २३३)। देखो उसभ, | वसिम न [दे. वसिम] वसतिवाला स्थान ६४पाम सुर ३, ३६ कुमाः कप्पू: प्रासू रिसभ, वसह ।। | (सुर १,५२; सुपा १६४; कुप्र २२४७ महा)। For Personal & Private Use Only Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसियव्व-वह पाइअसहमहण्णवो वसियव्व देखो वस = वस् । द्रव्यवान्, धनी, श्रीमंत (सूम १,१३,८ अग्र-महिषी, एक इन्द्राणी (ठा ४, १-पत्र वसिर वि [वसित] वास करनेवाला, रहने- १, १५, ११, प्राचा)। २ संयमी, साधु २०४ पाया २-पत्र २५२, इक)°णाह, वाला (सुपा ६४७; सम्मत्त २१७) । (सूम १, १३, ८ प्राचा)। "मित्ता स्त्री नाह पुं[नाथ राजा (उप ७६८ टी; वसीकय वि [वशीकृत] वश में किया हुआ, [मित्रा] १ ईशानेन्द्र की एक अग्र-महिषी पउम ७४, २६) 'भवण न [ भवन] अधीन किया हुआ (सुपा ५६०; महा) (ठा ८-पत्र ४२६; णाया २; इक) सद्द भूमि-गृह, भोंघरा (सुख ४, ६) वइ j पुं [शब्द] छन्द-विशेष (पिंग)- हारा [पति] राजा (पउम ६६, २)वसीकरण न [वशीकरण] वश में करने के स्त्री [धाग] १ आकाश से देव-कृत सुवर्ण- वसुल पुंस्त्री [दे. वृषल] १ निष्ठुरता-बोधक लिए किया जाता मन्त्र आदि का प्रयोग वृष्ठि (भग १५, कप्प ६८; उत्त १२, ३६; आमन्त्रण-शब्दा 'होलि त्ति वा गोलि ति वा (णाया १, १४; प्रासू १४ महा)। विपा १,१०)। २ एक श्रेष्ठिनी (उप ७२८ वसुलि त्ति वा' (प्राचा २, ४, २, ३), 'तहेव वसीयरणी स्त्री [वशीकरणी] वशीकरण- | टी) होले गोलि ति साणे वा वसुलि त्ति य' विद्या (सुर १३, ८१) वसुआ । अक [उद् + वा] शुष्क होना, (दस ७, १४)। २ गौरव और कुत्सा-बोधक वसीहूअ वि [वशीभूत जो अधीन हुआ हो वसुआअ सूखना । वसुमाइ, वसुमाइ आमन्त्रण-शब्द, 'होल वसुल गोल णाह दइय (हे ४, ११, ३, १४५, प्राकृ ७४)। वकृ. वह (उप ६८६ टी)। पिय रमण' (णाया १, ६-पत्र १६५)। वसुअंत (कुमा)। प्रयो., कवकृ. वसुआइज्ज- | वसु न [वसु] १ धन, द्रव्य (प्राचा; सूत्र १, | स्त्री. ली (दस ७, १६, प्राचा २, ४, माण (गउड) १३, १८ कुमा)। २ संयम, चारित्र (प्राचा; २, ३)IV वसुआअ वि [उद्वात] शुष्क (पाम से १, सूत्र १, १३, १८)। ३ पुं. जिनदेव । ४ | वसुहा स्त्री [वसुधा] पृथिवी, धरती (पामा २०० गउड प्राकृ ७७)। वीतराग, राग-रहित। ५ संयत, संयमी, कुमा) हिव पुं[धिप] राजा (सुपा | वसुआइअ वि [उदापित] शुष्क किया गया, साधु (प्राचा १,६,२,१)। ६ पाठ की ८७)।संख्या (विवे १४४, पिंग)। ७धनिष्ठा नक्षत्र सुखाया गया (से &; २५) | वसू स्त्री [वसू] ईशानेन्द्र की एक पटरानी का अधिपति देव (ठा २, ३, सुज १०, वसुआइज्जमाण देखो वसुआ। (ठा ८--पत्र ४२६ इक; णाया २-पत्र १२)। ८ एक राजा का नाम (पउम ११, वसुंधर पुं [वसुन्धर] एक जैन मुनि (पउम २५३) २१, भत्त १०१)। ६ एक चतुर्दश-पूर्वी जैन २०, १६१) वसेरी स्त्री [दे] गवेषणा, खोज (सुपा महर्षि (विसे २३३४)। १० एक छन्द का वसुंधरा स्त्री [वसुन्धरा] १ पृथिवी, धरती । ४७३) नाम (पिंग)। ११ स्त्री. ईशानेन्द्र की एक (पास; धर्मवि ४१, प्रासू १४२) । २ ईशा-वस्स (शौ) देखो बरिस। वस्सदि (नाटपटरानी (इक)। १२ न. लोकान्तिक देवों नेन्द्र की एक अन-महिषी (ठा ८-पत्र | मुच्छ १५५) का एक विमान (इक)। १३ सुवर्ण, सोना । ४२६; णाया २; इक)। ३ चमरेन्द्र के सोम वस्स वि [वश्य] अधीन, प्रायत्त (विसे (कप्प ६८; भग १५, उत्त १२, ३६)M प्रादि चारों लोकपालों की एक पटरानी का | ८७५)IV 'गुन्ता स्त्री [गुमा] ईशानेन्द्र की एक नाम (ठा ४, १-पत्र २०४; इक)। ४ | वस्सोक न [दे] एक प्रकार की क्रीडा, पटरानी (ठा ८-पत्र ४२६, इक, रणाया एक दिक्कुमारी देवी (ठा -पत्र ४३६; अन्न या य वस्सोकेरण रमंति राय (?या) रणं २–पत्र २५३), "दव पुं["देव नववें इक) । ५ नववें चक्रवर्ती राजा की पटरानी | राणियाउ पोत्तेण वाहिति' (थावक ६३ टी)। वासुदेव श्रीकृष्ण और बलदेव का पिता (ठा (सम १५२)। ६ रावण की एक पत्नी वह सक [ वह ] १ पहुँचाना । २ धारण ६; सम १५२; अंत; उव) नंदय पुं (पउम ७४, १०)। ७ एक वेष्ठि-पत्नी (उप करना। ३ ले जाना, ढोना। ४ अक. [ नन्दक] एक तरह पी उत्तम तलवार (सुर ७२८ टी) व पुं[पति] राजा, भूपति चलना; 'परिमलबहलो वहद पवणों' (कुमा; २, २२; भवि) पुज्ज पुं[पूज्य] एक (सुपा २८८)। उवः महा), 'गंगा वहइ पाडलं' (सुख २, राजा, भगवान् वासुपूज्य का पिता (सम वसुधा (शौ) देखो वसुहा (स्वप्न ६८)। ४५), वहसि (हे २, १६४) । कर्म. वहिजइ, १५१) बल पुं[बल] इक्ष्वाकु-वंश में वसुपुज देखो वासुपुजः 'वसुपुजमल्ली नेमी वभइ, वुब्भइ (कुमा; धात्वा १५:; पि ५४१; उत्पन्न एक राजा (पउम ५, ४) भाग पुं | पासो वीरो कुमारपब्वइया' (विचार ११५ हे ४, २४५) वकृ. वहंत, वदमाग (महा. [ भाग] एक व्यक्ति-वाचक नाम (महा) पंचा १६, १३, १७), 'वसुपुज जिणो जगु- सुर ३,११; प्रौप)। कवकृ. बुज्नमाण (उत्त भागा स्त्री [ भागा] ईशानेन्द्र की एक | तमो जाओ' (पच ३५)। २३, ६५, ६८)। हेकृ. वा, वहित्तए, पटरानी (इक) V इ [भूति] एक | वसुमई , स्त्री [वसुमती] १ पृथिवी, धरती वोढुं (धात्वा १५२, कसा सा १५)। कृ. जैन मुनि का नाम (पउम २०, १७६; | वसुमई (उप ७६८ टी; पाना सुपा २६० | वहिअव्व, वोढव्व (धात्वा १५२; प्रवि प्रावम) °म, मंत वि [मत् ] १ | ४७१)। २ भीम नामक राक्षसेन्द्र की एक | ३)।। For Personal & Private Use Only Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ पाइअसद्दमण्णवी वह-वा वह सकविध , हन] मार डालना। वहेइ, । २७, २, सुपा १८२)। ४ वि. वहन करने- वहियाली देखो वाहियालीः गुरुउज्जाणवहति (उत्त १८, ३, ५ स ७२८ संबोध वाला (से ३, ६; ती ३)। ___ तडिट्ठियवहियालि नेइ तं निवई' (धर्मवि ४१) । कर्म. वहिज्जति (कुप्र २५)। वकृ.. वहण (शौ) देखो पगय = प्रकृत (प्राकृ ६७) ४)। वहन, वहमाण (पउम २६, ७७, सुपा वहण (अप) देखो वसण = वसन (भवि)।- वहिलग [दे. वहिलक] ऊँट, बैल आदि ६५१: श्रावक १३९)। कवकृ. वहिजत, | वहणया श्री [वहना] निर्वाह (गाया १, पशु (राज) वज्झमाण (पउम ४६, २०० प्राचा)। २-पत्र ६०)। वहिल्ल वि [दे] शीघ्र, शीघ्रता-युक्तः गुजराती संकृ. पहिऊण (महा)। वहणा स्त्रो विधना] वध, धान, हिंसा (पएह में 'वहेलो' (हे ४, ४२२; कुमा; वज्जा वह सक [व्यथ ] १ पीड़ा करना। २ १.१-पत्र ५) ।। १२८) प्रहार करना । कृ. वयव्य (पएह २,१ | वण्णु पुं[व्यधन एक नरक-स्थान, 'उज्वे- बहु पुंस्त्री [दे] चिविडा, गन्ध-द्रव्य-विशेष पत्र १००)। यणए विज्जलविमुहे तह विच्छवी वि (?व) (दे ७, ३१) । वह (अप) देखो वरिस - वृष् । वहदि (प्राकृ हएणू ये' (देवेन्द्र २८)। वहु देखो वहू (हे १, ४: षड् ; प्राप्र)। १२१) वहय देखो वहग = वधक (सूम २, ४, ४. बहुधारिणी स्त्री [दे] नवोढा, दुलहिन (दे वह पुंस्त्री [वध घात, हत्या (उवाः कुमा; पउम २६. ४७; श्रावक २०८ सण)। ७,५०)। हे ३ १३३ प्रासू १३६ १५३) स्त्री. हा वहलीअ देखो बहलीय (इक) वहुण्णी स्त्री [दे] ज्येष्ठ-भार्या, पति के बड़े (सुख १, ३; स २७)/कारी स्त्री [°करी] भाई की बहू (दे ७, ४१)वहा देखो वह = वध । विद्या-विशेष (पउम ७, १३७) वहुमास पुं [दे] रमण-विशेष, क्रीड़ा-विशेष, वहाव सक [वाय् ] वहन कराना। कर्म. वह पुं[दे] १ कन्धे पर का व्रण । २ व्रण, जिसमें खेलता हुआ पति नवोढा के घर से वहाविज्जइ (श्रावक २५८ टी)। बाहर नहीं निकलता है (दे ७, ४६) ।। घाव (दे ७, ३१) वहाविअ वि [वधित] मरवाया हुआ (खा वहुरा स्त्री [दे] शिवा, सियारिन (दे ७,४०)।वह वह] १ वृष-स्कन्ध, बैल का कन्धा २४)। वहुलिआ (अप) स्त्री [वधूटिका] अल्प वय (विपा १, २-पत्र २७)। २ परीवाह, पानी बहाविअ देखो पहाविअ (से ६, १) वाली स्त्री, बहुरिया (पिंग) का प्रवाह (दे १, ५५) । वहिअ वि [व्यथित] पीड़ित (पंचा ५, बहुव्वा स्त्री [दे] छोटी सास (दे ७, ४०)। वह पुं[व्यथ] लकुट प्रादि का प्रहार (सूप ४४) बहुहाडिणी स्त्री [दे] एक स्त्री के रहते हुए १, ५, २, १४ उत्त १, १६)। वहिअ वि [ऊढ] वहन किया हुआ (धात्वा यादी जाती । व्याही जाती दूसरी स्त्री (दे ७, ५० षड्) 'वह देखो पह = पथिन् (से १, ६१,३, १४; १५२)। वहू स्त्री [वधू] बहू. भार्या, नारी (स्वप्न कुमा) वहिअ वि [वधित जिसका वध किया गया ४२; पान हे १, ४)। वहइअ वि [दे] पर्याप्त (षड् १७७)। हो वह (श्रावक १७०; पउम ५, १९५; वहोल पू[दे] छोटा जल-प्रवाह, गुजराती में वहग वि विधका घातक, हिसक, मार विपा १, ५, उब; खा २३; २४) 'वहेलो' (दे ७, ३६)।डालनेवाला (उवः स २१३; सुपा ५६४; वाह वहिअ वि [दे] अवलोकित, निरीक्षित, वहोलिया स्त्री [द] देखो वहोल (चउम्पन्न. उप पृ ७०; श्रावक २१२ श्रा २३)। 'तेलोक्कवयिमहियपूइए' (उवा) पत्र २१४) । वहग वि [व्यथक] ताड़ना करनेवाला (जं वहिइअ देखो वहइअ (षड् )। | वा सक [वा] गति करना, चलना। वइ (से वहिचर अक [व्यभि + चर ] १ पर- ६, ५२ गा ५४३ कुमा) । बडादे] दमनोय बछडा (दे ७.३७) पुरुष या पर-स्त्री से संभोग करना। २ सक. वा प्रक [.म्ला सखना। वाह (से. नियम-भंग करना । वकृ. बहिचरंत (स वहढोल पुं[दे] वात्या, वात-समूह (दे ७, ५२ हे ४,१८)४२) ७११)। वा सक [व्ये बुनना । कृ. वाइम; गंथिमवहण न [वधन वध, घात, हत्याः प्रजो वहिचार पुं [व्यभिचार] १ पर-स्त्री या पूरिमवेढिमवाइमसंघाइमं छेज्ज (दसनि २)। छज्जीवकायवहरणम्मि' (सुपा ५२२, धर्मवि। पर-पुरुष से संभोग (स ७११) । २ न्यायशास्त्र वा अ[वा] इन अर्थों का सूचक अव्यय१७; मोह १०१ महाश्रावक १४४, २३७ प्रसिद्ध एक हेतु-दोष (धर्मसं ६३)। १ विकल्प, अथवा, या (प्राचाः कुमा)। २ उप पृ ३५७; सुपा १८४ पउम ४३, ४६) वहिजंत देखो वह =वध् । समुच्चय, पौर, तथा (उत्त ८, १२; सुख ८, वहण न [वहन] १ ढोना (धर्मवि ७२)। वहिया स्त्री [दे] बही, हिसाब लिखने की १२)। ३ अपि भी (कुमाः कप्प; सुख ५, २ पोत, जहाज, यानपात्र (पाग्रः उप ५६६; किताव (सम्मत्त १४२, सुपा ३८५; ३८६ २२)। ४ अवधारण, निश्चय (ठा ८)। कुम्मा १५) । ३ शकट आदि वाहन (उत्त ३८७३६१) ५ सादृश्य, समानता (विसे १८९४)। ६ For Personal & Private Use Only Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाअड-बाउल्ल पाइअसहमहण्णवो उपमाः 'कप्पदुम तणेणेव कारणकबड्डण | वाइंगण न [दे] बैंगन, वृन्ताक, भंटा (उप वाउ पुं[दे] इक्षु, ऊख (दे ७, ५३)। कामधेणु' वा' (हि १७ सूम १, ४, २, ५६७ टी दे ७ २६) वाउड वि [प्रावृत] १ प्राच्छादित, ढका १५; सुख २, ६; वव १)। ७ पाद-पूत्ति वाइंगणो । स्त्री [द] बैंगन का गाछ, हुमा (भग २, १, पव ६१)। न. कपड़ा, (उत्त २८:२८) : वाईगिणी, वृन्ताकी (रालः पागा १७- वन (ठा ५,१--पन्न २९६)V वाअड पुं[दे] शुक, तोता (षड् ) पत्र ५२७) वाउत्त [दे] विट। २ जार, उपपति वाअड देखो वावड = व्यापृत, 'रइवामडा | वाइगा द] देखो बाइया (उप १०३१ टी)M (दे ७, ८) रुग्रंतं पिबंपि पुत्तं सवइ माया' (गा ४००) वाइज्जत देखो वाए = वाचम् ।। वाउप्पइया स्त्री [दे. वातोत्पतिका] भुजवाइ वि [वादिन] १ बोलनेवाला, वक्ता वाइज्जत देखो वाए वादय ।। परिसपं की एक जाति, हाथ से चलनेवाले (आचा; भग; उवः ठा ४, ४)। २ वाद- वाइत्त न [वादित्र] वाद्य, बाजा (कुप्र ११०; जन्तु की एक जातिः 'उलसरडजाहगमुगुसकर्ता, शास्त्रार्थ में पूर्वपक्ष का प्रतिपादन भवि). खाडहिलवाउप्पि (?प्पइ) यधीरोलियसिरीसिकरनेवाला (सम १०२, विसे १७२१; कुप्र वाइद्ध वि [व्याविद्ध] विपर्यय से उपन्यस्त, वगणे य' (पएह १, --पत्र ८) ४४०; चेइय १२८, सम्मत्त १४१ श्रा ६)। उलट-पुलट रखा हुआ (विसे ८५३) वाउभाम पुं [वाजोद्माम] पनवस्थित ३ दार्शनिक, तीथिक, इतर धर्म का अनुयायी वाइद्ध वि [व्यादिग्ध] १ उपदिग्ध, उपलिप्त। पवन, 'वाउज्झा (?भा) मे बाउकलिया' (ठा ४, ४)। २ वक्र, टेढा (भग १६, ४-पत्र ७०४)। (परण १-पत्र २६) वाइ वि[वाचिन] वाचक, अभिधायक, कहने-वाइम देखो वा = व्ये । वाउय वि [व्यापृत] किसी कार्य में लगा वाला (विसे ८७४) वाइयव्व देखो वाय = वादय ।। हुआ (णाया १, ८-पत्र १४६; औप)। वाइ देखो वाजि (राज) वाईकरण देखो वाजीकरण (राज) वाउरा स्त्री [वागुरा] मृग-बन्धन, पशु फँसाने वाइअ वि [वाचिक] वचन-संबन्धी (प्रौप; वाउ पुं[वायु] १ पवन, वात (कुमा)। २ का जाल, फन्दा (पउम ३३, ६७ हेका ३१; था २४ पडि)।" वायु-शरीरवाला जीव (अणु जी २; दं १३)। गा ६५७) । देखो बग्गुरा।। वाइअ वि [वाचित] १ पाठित, पढ़ाया ३ महत्त-विशेष (सम ५१)। ४ सौधर्मेन्द्र के बाउरिय वि[वागरिका जाल में फंसाने का हुआ (उत्त २७, १४. विसे २३५८)। २ अश्व-सैन्य का अधिपति देव (ठा ५,१पढ़ा हुना; 'नामम्मि वाइए तत्थ (सुपा काम करनेवाला, व्याध (पएह १, १ पत्र ३०२)। ५ नक्षत्र-देव-विशेष, स्वाति२७०), 'अलाहि किं वाइएण लेहेण' (ह विपा १,५–पत्र ६४) नक्षत्र का अधिपति देवता (ठा २, ३-पव २, १८६) बाउल विव्याकुल] १घबड़ाया हुप्रा (उवः ७७; सुज १०, १२ टी) । आय पुं वाइअ वि [वतिक] १ वात से उत्पन्न, उप पृ २२०; करु ३४; हे २, ६६)। २ [ काय] १ प्रचण्ड पवन (ठा ३, ३-पत्र वायु-जन्य (रोग आदि) (भगः पाया १,१ पुं. क्षोभ (पएह १, ३-पत्र ४४) हूअ १४१) । २ वायु शरीरवाला जीव (भग)M विभूत] व्याकुल बना हुप्रा (उप २२० पत्र ५०; तंदु १६)। २ वायु से फूला 'काइय पुं[कायिक वायु शरीरवाला | हुआ, वात-रोगवाला (विसे २५७६ टीः पव टी) ६१)। ३ उत्कर्षवाला; 'सपरक्कमराउलवा -पत्र १२३ प ३५५) वाउल वि [वातूल] १ वात-रोगी• उन्मत्त । 'काय देखो आय (जी ७ पि ३५५) इएण सीसे पलीविए नियए' (उव), चितइ २ पृ. वातसमूह (हे १, १२१, प्राकृ ३०) । कुमार पुं[कुमार] १ एक देव-जाति, सूरो एसो निवमन्नो वाइउव्व दुटुमणो' (धर्मवि भवनपति देवों की एक अवान्तर जाति (भग)। वाउलग्ग न [दे] सेवा, भक्तिः 'निच्चं चिय ७६)। ४ पु. नपुंसक का एक भेद (पुप्फ २ हनूमान का पिता (पउम १६, २) वाउलग्गं कुणंति' (राज) १२७ धर्म)। कलिया स्त्री [°उत्कलिका] वायु-विशेष, वा वाउलण न [व्यापर व्यावृत-क्रिया, व्यापार वाइअ वि [वादित] १ बजाया हुआ (गा नीचे बहनेवाला वायु (पएण १--पत्र २९) (वव १)। ५५७७ कुमा २, ८ ६६७७०)। २ वन्दित, काइय देखो काइय (भग) काय देखो वाउलणा श्री [व्याकुलना] व्याकुल करना अभिवादित; चलणेसु निवडिऊणं वाइया | आय (राज)त्तरवडिसग पुन [ उत्त- (वव बंभणा' (स २६०) रावतंसक] एक देव-विमान (सम १०) वाउलिअ वि [व्याकुलित] १ व्याकुल बना वाइअ न वाध] १ बाजा, वादित्र (कप्प)। "पवेस [ प्रवेश गवाक्ष- झरोखा, वातायन, हुमा (सण) । २ विलोलित, क्षोभ-प्राप्त २ बाजा बजाने की कला (सम ८३; प्रौप) (मोघमा ५८)प्पइट्राण विप्रतिष्टाना (पएह १,३-पत्र ४५) वाइअ वि [वात] बहा हुअा, चला हुआ | वायु के आधार से रहनेवाला (भग) भूइ वाउलिआ स्त्री [दे] छोटी खाई (गा ६२६) 'मुचकुंदकुडयसदियरयगम्भिरणवाइयसमीरो'(सुर पु [भूति] भगवान महावीर का एक वाउल्ल देखो वाउल = व्याकुल (हे २, ६६; २.७६) गणधर--मुख्य शिष्य (कप्प) षड्) टा) IN .. या (भग) ५ कायदा (वव ४) याकलित] १ व्याकुल For Personal & Private Use Only Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ पाइअसहमहण्णवो वाउल्ल-वाडिआ वाउल्ला वि [दे. वातूल] वाचाट, प्रलाप-शील, ७२)। हेकृ. वागरिउं, वागरित्तए (कुप्र वाघुणिय वि [व्याधुणित] दोलायमान, बकवादी (दे ७,५६, पान षड्)२३८ उवा) डोलता (णाया १,१-पत्र ३१)।वाउल्लअ पुन [दे] पूतला, गुजराती में वागरण न [व्याकरण] १ कथन, प्रतिपादन, वाघेल पुं[दे] एक क्षत्रिय-वंश (ती २६)। 'बावलु"; 'मालिहिअभित्तिवाउल्लनो ब्व ण उपदेश (विसे ५५०; कुप्र २; पण्ह १, १ | वाच देखो वाय = वाचय। कवकृ. वाचीअमाण परम्मुहं ठाई' (गा २१७), 'प्रालिहियभित्ति- | टी)। २ निर्वचन, उत्तर (प्रौपः उवाः कप्प)। (नाट-मालवि ६१) । संकृ. वाचिऊण वाउल्लयं द न परम्मृहं ठाई' (वजा १४) ३ शब्दशास्त्र (धर्मवि ३८ मोह २) (हम्मीर १७) वाउला। स्त्री [ देखो बाउल्या, वागरण वि व्याकराणन प्रातपादन वाचय देखो वायग% वाचक (द्रव्य ४९) वाउल्ली बाउल्ली: प्रालिहिअभित्तिवाउ करनेवाला (सम्म २) वाचिय देखो वाइअ = वाचित (स ६२१) लल्लन व्व ण संमहं ठाई' (गा २१७ प्र; दे ६, | वागरणीत्री [व्याकरणी] भाषा का एक सरणीपी व्यासी भाषा का वाज देखो वाय = व्याज (कुप्र २०१) १२) भेद, प्रश्न के उत्तर की भाषा, उतर रूप | वाजि पुं वाजिन] अश्व, घोड़ा (विपा १, वाऊल देखो वाउल = वातूल; 'अभिवायण वचन (ठा ४, १-पत्र १८३)। वाऊलो हसिजए नयरलोएण' (धर्मवि १११; वागरिय वि [व्याकृत] उन, कथित (उवा | वाजीकरण न [वाजीकरण] १ वीर्य-वर्धक प्राकृ ३०) अंत ६ उप १४२ टीः पब ७३ टो) । देखो। औषध-विशेष । २ उसका प्रतिपादक शास्त्र वाऊल देखो वाउल = व्याकुल (प्राकृ ३०) वायड = व्याकृत । प्रायुर्वेद का एक अंग (विपा १, ७--पत्र वाऊलिअ वि [वातूलित] १ वातूल बना वागल न विल्कल] वृक्ष की छाल (णाया ७५)10 हुआ। २ नास्तिक (टसनि १, ६६) 10 १, १६-पत्र २१३)। वाड पुं [वाट] १ बाड, कंटक प्रादि से की वाए सक [वादय] बजाना । वाएइ (महा)। | वागल वि [वाल्कल] वृक्ष की त्वचा-छाल जाती गृहादि की परिधि (उत्त २२, १४, माल वकृ. वाएंत (महा) । कवकृ. वाइज्जत (कुप्र से बना हमा; 'वागलवत्थनियत्थे (भग ११, १९५)। २ बाड़ा, बाडवाली जगह वृतिवाला १६) । हेकृ. वाइउं (महा)। ६-पत्र ५१६) स्थानः निवारणमहावार्ड साहत्थिं संपावेई वाए सक [वाचय ] १ पढ़ाना । २ पढ़ना। वागली स्त्री [दे] वल्ली-विशेष (पएण १- (उवा: गा २२७; दे ७, ५३ टि; गउड); वाएइ, वाएंति (भग; कप्प)। कवकृ. वाइ- | पत्र ३३) । 'अंते सो साहरणं गोवाइनिरोहणं करेऊरणं' जंत (सुपा ३३८ कुप्र १९)। वागिल्ल वि [वाग्मिन्] बहु-भाषी, वाचाल (विचार ५०६) । ३ वृति प्रादि से परिवेष्टित वाएरिअ वि [वातेरित] पवन-प्रेरित, हवा से | (वव .) गृह-समूह, रथ्या, मुहल्ला (उत्त ३०, १८); हिलाया या कंपाया हुआ (गा १७६) वागुर पुं [वागुरा] मृग-बन्धन, जाल, फन्दा 'अहो गरिणावाडस्स सस्सिरीप्रया' (चारु वाएसरी स्त्री [वागीश्वरी सरस्वती देवीः 'रे रे रएह वागुरें' (मोह ७६)। ७६) 'वाएसरी पुत्थयवग्गहत्या' (पडि; सम्मत्त वागुरि । वि [वागुरिन्, 'रिक ] देखो वाडतरा स्त्री [दे] कुटीर, झोपड़ा या झोपड़ी २१५) । वागुरिय वाउरिय; गुजराती में 'वाघरी'; (दे ७,५८) वाओलि । स्त्री [वातालि, ली] पवन 'सफयपलयरोहिए य साहिति वावरा (?री) वाडग देखो वाड (पिंड ३३४ विपा १. वाओली । समूह 'कि प्रयलो चालिजइ णं' (पएह १,२-पत्र २६ सूप २, २, ४-पत्र ५५; उप पू २८६) पयंडवाउ (? पो) लिसएहिवि' (धर्मवि २७; ३६; विपा १,८--पत्र ८३)। "वाडण देखो पाडण; 'परदोहवट्टवाडणबंदग्गगउडा गाया १,१--पत्र ६३) वाघाइय वि [व्याघातिक] व्याघात से उत्पन्न हखत्तखरगणपमुहाई' (कुप्र ११३)। वाक । देखो बक्क = वल्क (ग्रौप; विसे ९७ . (जं ७-पत्र ५३१) । वाडव पुं [वाडव] वड़वानल, समुद्र-स्थित काग । विपा १, ६-पत्र ६६) । वाघाइम वि [व्याघातिम] व्याघात से होने- अग्नि (सण) - वागड वागड] गुजरात का एक प्रान्त, वाला (सुज १८--पत्र २६५) । २ न. | बाडहाणग घुन बाटधानक] १ एक छोटा जो साधकल भी 'वागड' नाम से ही प्रसिद्ध मरण-विशेष--सिंह, दावानल प्रादि से होने | गांव। २ वि. उस गाँव का निवासी; 'ताहे वाली मौत (प्रौप)। तेण वाडहाणगा हरिएसा धिज्जाझ्या कया' वागडिअ वि [व्याकृत] प्रकट किया हुआ | वाघाय पुं [व्याघात] १ स्खलना (सुज्ज (सुख ६, १; महा) (वव १) १८)। २ विनाश (उब ६७६) । ३ प्रतिबन्ध, वाडि देखो वार्ड 3 वाटी (गा ८ गाया १, वागर सक [व्या + कृ] प्रतिपादन करना, - रुकावट (भग; प्रोघभा १८) । ४ सिंह, | ७-पत्र ११६) कहना । वागरेइ, वागरेजा (कप्पा पि ५०६)। दावानल प्रादि से अभिभव (प्रौप) | वाडिआ स्त्री [वाटिका] बगीचा, उद्यान, वकृ. चामरमाण, वागरेमाण (सुर ७, ४१; वाघारिय वि [व्याघारित] प्रलम्ब, लम्बा 'सणवाडिया' (गा ; चारु ५६; दे ७, ३५ सुपा ५११; औप) । संकृ. वागरित्ता (सम । (पंचा १८, १८ पव ६७)। रंभा) For Personal & Private Use Only Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाडिम-वामण पाइअसद्दमण्णवो वाडिम पुं[दे] पशु-विशेष, गण्डक, गेंडा वाणहा देखो पाणहा, वाहणा = आनह, वाणुजुअ पु[दे] वणिक् , वैश्यः ‘एसो (दे ७, ५७) । (पि १४१) हला नवल्लो दीसइ वाणु जुमो कोवि' (उप वाडिल्ल पुं[दे] कृमि, कोट (दे ७, ५६) वाणा देखो वायणा = वाचना यरिअ पुं| | ७२८ टी) वाडी स्त्री [दे] वृति, बाड़; 'घरवारे कारिया [°चार्य] अध्यापन करनेवाला साधु, शिक्षक, वात देखो बाय = वात (ठा २, ४-पत्र कंटएहि वाडो' (कुप्र २६, दे ७, ४३; ५८० "एसो च्चिय ता कीरउ वाणायरिओ, तो कतिक ) देखो वाइअ = वातिक (पएह १, गुरू भणइ' (उप र ४२ टी) षड् ) जातिय ३.---२४: मोघ ७२२) वाडी स्त्री वाटी] बगीचा, उद्यान (धर्मसं वाणारसी स्त्री [वाराणसी] भारतवर्ष की वाद देखो वाय = वाद (राज)। ४१) एक प्राचीन नगरी, जो आज कल 'बनारस' | वादि देखो वाइ = वादिन (उवा)। वाढि । [दे] वणिक सहाय, वैश्य-मित्र | नाम से प्रसिद्ध है (हे २. ११६; गाया १, वाढि (द ७,५३) वानर देखो बागर (विपा १, २-पत्र ३६; ४i उवाः इक; उव: धर्मवि ५: पि ३८५) वाण सक [वि+ नम्] विशेष नमना- वाणि देखो वणि = वणिज् (भवि) v उत्त, विसे ८६३, सुपा ६१८), 'पुत्रभववानराणि नत होना ! वारणइ (?) (धात्वा १५२) । व ताई विलसंति सिच्छाए' (धर्मवि १३१) पुत्त पुं [°पुत्र] वैश्य-कुमार, बनिया का वाण वि [वान] वन में उत्पन्न, वन-संबन्धी लड़का (कुप्र ३६; ८८ २२१, ४०४, सिरि वापर वापंफ देखो वाफ । वापंफइ ( षड् )। (प्रौपः सम १०३), पत्थ, पत्थ पुं ३८४; धर्मवि १०४) वापिद (शौ) देखो वावड = व्यापृत (नाट - [प्रस्थ] वन में रहनेवाला तापस, तृतीय वाणि स्त्री [वाणि] देखो वाणी (संति ) वेणी ६७) आश्रम में स्थित पुरुष (प्रौप; उप ३७७) / वाणिअj [वाणिज] १ बनिया, व्यापारी, वाबाहा स्त्री [व्याबाधा] विशेष पीड़ा मंत, मंतर. यंतर पुंस्त्री ["व्यन्तर] देवों वैश्य (श्रा १२, सुर १, २४८ १३, २६; (णाया १, ४, चेइय ३५५) । की एक जाति (भन; ठा २, २, सुर १, नाट-मच्छ ५५, वस: सिरि । वाम सक[वमय वमन कराना, कै कराना। १३७; प्रौप; जी २४ महा; पि २५१)। एक गाँव का नाम (उवा अंत; विपा १,२) वामेइ, वामेज्ज (भग; पिंड ६४६) । संकृ. स्त्री. री (पएण १७ –पत्र ४६६; जीव वाणिअ (अप) देखो वाणिज (सण)। वामेत्ता (भग; उवा)। २) वासिआ स्त्री [°वासिका] छन्दवाणिअ देखो पाणिअ = पानीय (गा ६८२ वाम वि [दे] १ मृत (दे ७, ४७)। २ विशेष (अजि ३३)। आक्रान्त (षड् )। सिरि ४०सुपा २२६) । 'वाण देखो पाण = पान १ वत्त न [पात्र वाम वि [वाम] १ सव्य, बाँया (ठा ४, २वाणिअय पुं [वाणिजक] बनिया, वैश्य, पीने का प्याला (से १. १३)। पत्र २१६; कुमा; सुर ४, ५, गउड)। २ व्यापारी (पाम काप्र ८६३; गा ६५१: उवः वाणय [दे] वलयकार, कंकण बनानेवाला | प्रतिकूल, अननुकूल (पामा परह १, २सुपा २२६; २७५: प्रासू १८१) पत्र २८, गउड ८८% ६६४ कुमा)। ३ शिल्पी (दे ७,५४) वाणिज्ज न [वाणिज्य] १ व्यापार, बैपार सुन्दर, मनोहर; 'वामलोप्रणा' (पाप)। ४ याणर न [वानर] १ बन्दर, कपि, मर्कट (सुपा ३४३ पडि)। २ एक जैन मुनि कुल न. सव्य पक्ष; 'वामत्थो' (पउम ५५, ३१)। (पएह १, १; पात्र)। २ विद्याधर मनुष्यों का नाम (कप्प) ५ बाँया शरीर (गा ३०३) लोअणा स्त्री का एक वंश । ३ वानर-वंश में उत्पन्न वाणिज्जा स्त्री [वणिज्या] व्यापारः 'पहिच्छत्तं | मनुष्य (पउम ६, १)। उरी स्त्री [पुरी] | [°लोचना] सुंदर नेत्रवाली स्त्री, रमणी नगरं वाणिज्जाए गमित्तए' (णाया १, १५) (पाप) लोकवादि, लोगवादि पु. किष्किन्धा नामक एक भारतीय प्राचीन नगरी | (से १४, ५०) ५ केउ पुं [केतु] वानरवाणिज्जिय वि [वाणिजिक] वाणिज्य-कर्ता, [लोकवादिन] दार्शनिक-विशेष, जगत् को वंश का कोई भी राजा (पउम ८, २३५) । व्यापारी (भवि) असद् माननेवाले मत का प्रतिपादक दार्शनिक 'दीव बीप] एक द्वीप (पउम ६, वाणी स्त्री [वाणी] १ वचन, वाक्य (पान)। (परह १, २–पत्र २८) वट्ट वि [वर्त प्रतिकूल माचरण करनेवाला (बृह १)। ३४) । द्धय पुं[ध्वज हनूमान (पउम | २ वाग्देवता, सरस्वती देवी (कुमाः संति ५३, ४३)। "वइ पुं [पति] सुग्रीव, ४) । ३ छन्द-विशेष (पिंग) । वित्त वि [वर्त] वही अर्थ (ठा ४, २-पत्र २१६) रामचन्द्र का एक सेनापति (से २, ४१, ३, | "वाणीअ देखो पाणीअ (काप्र ६२५) ।। वाणाअ देखो पाणाभ (काप्र ६२५) । वाम पु[व्याम] परिमाण-विशेष, नीचे ५२) । देखो वानर ।। वाणीर पुं[दे] जम्बू वृक्ष, जामुन का पेड़ (दे | फैलाए हुए दोनों हाथों के बीच का अन्तराल वाणरिद [वानरेन्द्र] वानर-वंशीय पुरुषों | ७, ५६) (पव २१२ औप) का राजा, वाली (पउम ६, ४०) वाणीर पु[वानीर] वेतस-वृक्ष, बेंत का पेड़ | वामण पुन [वामन] १ संस्थान-विशेष, वाणवाल पुं[दे] इन्द्र, पुरन्दर (दे ७,६०) (पाय: गा ५६६) शरीर का एक तरह का प्राकार, जिसमें For Personal & Private Use Only Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ पाइअसद्दमण्णवो वामणिअ-वाय हाथ, पैर प्रादि अवयव छोटे हों और छाती, वाय सक [वाचय ]१पढ़ना । २ पढ़ाना। वाय [व्याज] १ कपट, माया । २ पेट आदि पूर्ण या उन्नत हों वह शरीर (ठा वाएइ, वाएसि (कुप्र १६९); 'सावक्का बहाना, छल । ३ विशिष्ट गति (था २३) । ६-पत्र ३५७; सम १४६; कम्म १,४०)। सुयजणणी पासत्था गहिय वायए लेह वाय देखो वाग = बल्क (विपा १, ६-पत्र २ वि. उक्त माकार के शरीरवाला, ह्रस्व, (धर्मवि ४७), 'सुत्तं वाए उवज्झायो (संबोध खवं (पव ११० से २, पाप्र)। स्त्री. °णी २५) । वक वायंत (सुपा २२३)। संकृ. वाय पुं[ब्राय विवाह, शादी (श्रा २३) (मोप; णाया १, १-पत्र ३७)। ३ पु. वाइऊण (कुप्र १६६)। कृ. वायणिज्ज (ठा वाय पुं [व्यात विशिष्ट गमन (श्रा २३)। श्रीकृष्ण का एक अवतार (से २, ६)। ४ वाय ' [वाप] १ वपन, बोना। २ क्षेत्र, देष-विशेष, एक यक्ष-देवता (सिरि ६६७)। वाय सक [वा] बहना, गति करना, चलना।। खेत (श्रा २३)। ५ न. कम-विशेष, जिसके उदय से वामन वायंति (भग ५, २)। वकृ. वायंत (पिंड शरीर की प्राप्ति हो वह कर्म (कम्म १, ८२, सुर ३, ४०; सुपा ४५०; दस ५, | वाय पुं [वाय] १ गमन, गति । २ सूंघना । ३ जानना, ज्ञान । ४ इच्छा। ५ खाना, ४०) चली स्त्री [स्थली] देश-विशेष १,८)। (ती १५)। वाय अक [ बै, म्लै ] सूखना । वानइ (संक्षि भक्षण। ६ परिणयन विवाह (श्रा २३)। वामणिअ वि [दे] नष्ट वस्तु-पलायित को । ३६ प्राप्र)। वकृ. वायंत (गउड ११६५) वाय वि [व्याद] विशष ग्रहण करनेवाला फिर से ग्रहण करनेवाला (दे ७, ५६) वाय सक [वादय] बजाना। वकृ. वायंत, (श्रा २३)। वायमाण (सुपा २६३, ४३२)। कु. | वामणिआ स्त्री [६] दीर्घ काष्ठ की बाड (दे | वाय वि [ वाच ] वक्ता, बोलनेवाला (श्रा २३)। वाइयव्य (स ३१४) । वाय पुं [वात] १ पवन, वायु (भगः णाया वामद्दण न [व्यामर्दन] एक तरह का वाय वि [वान] शुष्क, सूखा, म्लान (गउड १, ११, जी ७; कुमा)। २ उत्कर्ष (उव व्यायाम, हाथ आदि अंगों का एक दूसरे से । से ५, ५७; पार; प्राप्र कुमा)। ५५ टि)। ३ पुंन. एक देव-विमान (सम मोड़ना (गाया १,१-पत्र १९, कप्पः । वाय पुंदे] १ वनस्पति-विशेष (सूम २, १०) कंत पुन [कान्त] एक देव-विमान औप) ३, १६)। २ न. गन्ध (दे ७, ५३)। (सम १०) कम्म न [कर्मन] अपान वायु वामरि दे] सिंह, मृगेन्द्र (दे ७, ५४) वाय [व्रात समूह, संघ (श्रा २३ भवि) का सरना, पादना, पाद, पर्दन (मोघ ६२२ वामलूर पु [बामलर] वल्मीक, दीमक वाय वि [व्यात] संवरण करनेवाला (श्रा | टी) कूड पुंन [कूट] एक देव-विमान (पान, गउड)17 २३)। (सम १०) खंध ( [ स्कन्ध] घनवात वामा स्त्री [वामा] भगवान् पाश्वनाथजी की मकर वाय वि [व्यागस् ] प्रकृष्ट अपराधी (श्रा आदि वायु (ठा २, ४-पत्र ८६) उभय पुन २३)। [ध्वज] एक देव-विमान (सम १०)। माता का नाम (सम १५१) वाय पुं [वात] १ पवन, वायु। २ कपड़ा "णिसग्ग पुं [निसर्ग] अपान वायु का वामिस्स देखो वामीरा (पउम ६३, ३६) । बुननेवाला, जुलाहा (श्रा २३)। सरना, पर्दन (पडि), पलिक्खोभ पुं वामी स्त्री [दे] स्त्री, महिला (दे ७,५३) iVवाय वि [व्याप] प्रकृष्ट विस्तारवाला (श्रा [परिक्षोभ] कृष्णराजि, काले पुद्गलों की वामीस वि[व्यामिश्र] मिश्रित, युक्त, सहित २३) रेखा (भग ६, ५–पत्र २७१), "प्पभ (परम ७२, ४, तंदु ४४)। वाय पुं [वाक] ऋग्वेद आदि वाक्य (श्रा पुंन [प्रभ] देव-विमान विशेष (सम १०)। वामीसिय वि [व्यामिश्रित] ऊपर देखो २३)। फलिह पुं[परिघ कृष्णराजि (भग ६, (भवि)। वाय पुं[व्याय १ गति, चाल। २ पवन, ५) रुह पुं[रुह] वनस्पति-विशेष वामुत्तय वि [कामुकक] १ परिहित, वायु । ३ पक्षी का आगमन। ४ विशिष्ट लाभ (पएण १-पत्र ३६) "लेस्स मॅन पहना हुआ। २ प्रलम्बित, लटका हुमा (था २३)। [ लेश्य] एक देव-विमान (सम १०)। (प्रौप) बाय पुं [व्याच] वंचन, ठगाई (श्रा २३)। वण्ण पूंन [°वर्ण] एक देव-विमान (सम वामूढ वि [व्यामूढ] विमूढ़, भ्रान्त (सुर वाय पुं[वाज] १ पक्ष, पंख। २ मुनि, १०)°सिंग पुंन [ शृङ्ग] एक देव-विमान ऋषि । ३ शब्द, आवाज । ४ वेग। ५ न.. (सम १०) सिट्ठ पुंन ["सृष्ट] एक देव६, १२६; १२, १४३; सुपा ७०) घृत, घी। ६ पानी, जल । ७ या का धान्य विमान (सम १०) वित्त पुंन [वर्त] वामोह पु[व्यामोह] मूढ़ता, भ्रान्ति (उप (श्रा २३)। एक देव-विमान (सम १०) पृ ३२६; सुपा ६५; भवि) । वाय न [वाच शुक-समूह (श्रा २३)। वाय पुं [वाद] १ तत्त्व-विचार, शास्त्रार्थ वामोहण वि [व्यामोहन] भ्रान्ति-जनक वाय वि [वाज् ] १ फेंकनेवाला। २ नाशक (मोघभा १७ धर्मवि ८० प्रासू ६३)। २ (भवि) (श्रा २३) उक्ति, वचन (प्रौप)। ३ नाम, पाख्याः For Personal & Private Use Only Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाय-वार 'वल्लवाए अलं मम' (गा १२३ ) । ४ बजानाः मदनवाल (सिरि १५७५ स्वयं स्थिरता ( २३ ) [[]] तस्य वर्षा तेहि समं कुख बापउम ४१५ [र्थिन् ] शास्त्रार्थं की चाहवाला ( पउम १०५, २६ ) । V वाय [पाक ] १ रसोई । २ बालक । ३ दैत्य, दानव ( श्र २३) । देखो पाग । "बाय ["पास] १ पतन (स ६२७ कुमा २ गमन । ३ उत्पतन, कूदन ( से १, ५५ ) । ४ पक्षी । ५ न. पक्षि-समूह (श्रा २३ ) 1/ वाय वि [पातृ] १ रक्षा करनेवाला । २ पीनेवाला । ३ सूखनेवाला (वा २३) । वाय देखो बाय ( २३ ) । वाय [पाद] १ पर्यंन्त । २ पर्वत । ३ पूजा । ४ मूल ५ किरण । ६ पैर । चौथा भाग (श्रा २३) । देखो पाय = पाद । 'वाय देखो पाव = पाप (श्रा २३) । "वाय [पाय] रक्षा, रक्षण। २ वि. २३) 1'वाय देखो अवाय = अपायः 'बहुवायम्मि वि देवावर उ वायत्त [] १ विट, भँडुना । २जार, उपपति (दे ७, ८८) ७ वायंगणन [] बैंगन, वृन्ताक, भंटा (श्रा २० संबोध ४४ व ४ ) | वायंतिय वि [वागन्तिक ] वचन-मात्र में नियमित (राज) | वायग [ वाचक] १ अभिधायक, श्रभिधावृत्ति से अर्थ का प्रकाशक शब्द ( सम्मत्त १४३) । २ उपाध्याय, सूत्र-पाठक मुनि (गण ५; संबोध २५० सार्धं १४७) । ३ पूर्व-ग्रन्थों का जानकार मुनि ( पण १ – पत्र ४ सम्मत्त १४१ पंचा ६, ४५) । ४ एक प्राचीन जैन महर्षि और ग्रन्थकार, तत्त्वार्थं सूत्र का कर्ता श्री उमास्वातिजी (पंचा ६, ४५) । ५ वि. कथक, कहनेवाला । ६ पढ़ानेवाला (गण ५) । वाय वि [वादक] बजानेवाला (कुमा महा) । पाइअसद्द मण्णवो वायग [ वायक] तन्तुवाय, जुलाहा (दे ६, ५६) । पायगवंस [वाचकवंश ] एक जैन मुनि वंश (यदि ५०) । वायड पुं [दे] एक श्रेष्ठि-वंश ( कुप्र १४३) । वाड व [ व्याकृत] स्पष्ट, प्रकट अर्थवाला ( दसनि ७) । देखो वागरिय वाघ पुं [दे] वाद्य विशेष, दर्दुर नामक बाजा (दे ७, ६१) । र वाडाग पुं [दे] सर्प की एक जाति (परण १ - पत्र ५१) । वायण न [ वाचन ] देखो वायणा (नाटरत्ना १० ) । वायण न [ वादन] १ बजाना (सुपा १६; २९३; कुप्र ४१: महाः कप्पू ) २ वि. बजानेवाला (दे ७, ६१ टी) 1 वायण न [दे] भोज्योपायन, खाद्य पदार्थ का बाँटा जाता उपहार, बायन (दे ७, ५७; पाच ) 1 वाणा) स्त्री [ वाचना] १ पठन, गुरुवायणा समीपे अध्ययन ( उप २६, १) २ अध्यापन, पढ़ाना (सम १०६ उब ) । ३ व्याख्यान ( पव ६४ ) । ४ सूत्र- पाठ (कप्प ) । वायणिअ[िवाचनिक] वचन-संबन्धी (नाटविक २५ ) 1 वायय देखो वायग= वायक (दे ५, २८) वायरण देखो वागरण (हे १, २६८ कुमा भवि पद ) 1 Saraf [a] वायु रोगवाला, वातरोगी ११५) । वायव देखो पायव (से ७, ६७ ) । वायव्व वि [ वायव्य ] वायव्व कोण का (२१५) 1 वायव्व [ वायव्य ] १ वायुदेवता-संबन्धीः 'पबियाई कमेख सत्वाई' (सुर, ४ महा)२ नमी के सुर से उड़ी हुई धूलि - रज; 'वायव्वरहाराराहाया' (कुमा वायव्वा स्त्री [वायच्या ] पश्चिम और उत्तर के बीच की दिशा, वायव्य कोण (ठा १०. पत्र ४७८ सुपा ६८ २६७ ) 1 For Personal & Private Use Only ७ वायस पुं [वायस] १ काक, कौमा (उवा प्रासू १६९; हे ४, ३५२ ) । २ कायोत्सर्ग्र का एक दोष, कायोत्सर्ग में कौए की तरह दृष्टि को इधर-उधर घुमाना ( पव ५) । परिमंडल न ['परिमण्डल ] विद्या-विशेष, कौए के स्वर और स्थान आदि से शुभाशुभ फल बतलानेवाली विद्या ( सू २ २ २७ ) ~ वाया स्त्री [ वाच] १ वाचन, वाणी (पान) प्रासू ; पडि; स ४६२ से १, ३७; गा ३२; ४० : ) । २ वाणी की अधिष्ठायिका देवी सरस्वती ( श्रा २३) । ३ व्याकरणशान (गउड ८०२ ) । देखो वइ = वाच् । [देवाचाट] शुक, तोता ( ७, 26) वागाड वि [याचार] वाचाल वादी पा ३६० चेइय ११७; संक्षि २ ) 1 आयाम [ व्यायाम ] कसरत, शारीरिक श्रम (ठा १-पत्र १९ गाया १, १. - पत्र १६ कप्प; श्रौपः स्वप्न ३६) । वाम [ व्यायाम ] कसरत करना, शारीरिक श्रम करना । वकृ. सुट्ठु वि यायामेतो कार्य न करे कथि (उप) वायायण पुंन [ वातायन] १ गवाक्ष, झरोखा ( पउम ३६, ६१; स २४१३ पात्रः महा) । २ पुं. राम का एक सैनिक ( पउम ६७, १०) 1 v वायार पुं [दे] शिशिर वात, गुजराती में 'वायरी (दे ७, ५६) V बाबा [बाचाल] मुखर बनवादी (था १२; पान सुपा ११३) । 'वायाल देखो पायाल ( से ५,३७) वायाविनि [वादित] बनवाया हुआ ( स ५२७; कुप्र १३६) । वायु देखो वाउ = वायु (सुज १०, १२, कुमा सम १९) । बार सक [ वारय् ] रोकना, निषेध करना । वारे (महा) व भारंत (मुषा १०३) यह पारित १९१ महा) हे वारे (तुम १.२.२,७) । कृ. वारियव्व, वारेयन्त्र (सुपा ५५२; २७२) वार [दे. वार] चत्रक, पात्र ( ७, ५४)10 Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० पाइअसहमहण्णवो वार-वाम वार पुं [वार] १ समूह, यूथ (सुपा २१४: वारणा स्त्री [वारणा] निवारण, अटकाव और जिन्होंने भगवान् अरिष्ठनेमि के पास सुर १४, २४, सार्ध ४६ कुमा; सम्मत्त | (बृह १) दीक्षा ली थी (अन्त १४)। २ एक अनुत्तर१७५) । २ अवसर, वेला, दफा (उप ६२% वारत्त पुं [वारत्त] १ एक अन्तकृद् मुनि गामी मुनि, जो राजा श्रेणिक के पुत्र थे (मनु सुपा ३६०: भवि)। ३ सूर्य प्रादि ग्रह से (अंत १८)। २ एक ऋषि (उव)। ३ एक १)। ३ ऐरवत वर्ष में उत्पन्न चौबीसवें अधिकृत दिन, जैसे रविवार, सोमवार प्रादि अमात्य । ४ न. एक नगर (धम्म ६ टी)।। जिनदेव (सम १५३)। ४ एक शाश्वती जिन(गा २६१)। ४ चौथा नरक का एक नरक- वारबाण पु [वारबाण] कञ्चुक, चोली प्रतिमा (पव ५६; महा)। "सेणा श्री स्थान (ठा ६-पत्र ३६५) । ५ बारी, (पास) । [षेणा] १ एक शाश्वती जिन-प्रतिमा (ठा परिपाटी (उप ६४८ टी)। ६ कुम्भ, घड़ा वारय देखो वारग (रंभा, णाया १, १६ ४, २–पत्र २३०)। २ अघोलोक में रहने(दस ५, १, ४५)। ७ वृक्ष-विशेष। ८ न. पत्र १६६ उप पृ ३४२, उवाअंत) वाली एक दिक्कुमारी देवी (ठा-पत्र फल-विशेष (पएण १७-पत्र ५३१) वारसिआ स्त्री [दे] मल्लिका, पुष्प-विशेष ४३७, इक २३१ टि)। एक महानदी जुवइ स्त्री युवति] वारांगना, वेश्या देहा (ठा ५, ३-पत्र ३५१, इक)। ४ ऊध्वंलोक (कुमा), जोव्वणी स्त्री ["यौवना] वारसिय देखो बारिसियः 'वारसियमहादाणं' में रहनेवाली एक दिक्कुमारी देवी (इक वही अर्थ (प्राकृ १४). तरुणी स्त्री (सुपा ७१) २३२) हर [घर] मेघ (गउड)। ['तरुणी] वही (सण) बहू स्त्री वारा स्त्री [वारा] १ देरी, विलम्ब; 'अम्मो वारिअ पुं[दे] हजाम, नापित (दे ७,४७) । [वधू] वही प्रथं (कुप्र ४४३) । विलया किमज कज्जं जं लग्गा एत्तिया वारा' (सुपा वारिअ वि [वारित] १ निवारित, प्रतिषिद्ध स्त्री [°वनिता] वही पूर्वोक्त अर्थ (कुमाः सुपा ४५६)। २ वेला, दफा: तो पुणरवि (पाम से २, २३)। २ वेष्ठित (से २, २३) ७८, २००)। "विलासिणी स्त्री ["विला निज्झायइ वारापो दुन्नि तिन्नि वा जाव' वारिआ स्त्री [द्वारिका] छोटा दरवाजा, बारी सिनी] वही (कुमाः सुपा २००) सुंदरी (सट्ठि ६ टो), 'कहं महई वाराणिग्गयस्स' (ती २), स्त्री [सुन्दरी] वही अर्थ (सुपा ७६)।(विवुधानन्द) । 'वप्पस्स चा(?वा)रियाए परिखित्तो वार न [ द्वार] दरवाजा (प्राकृ २६; कुमा वाराणसी देखो वाणारसी (अन्त; पि ३५४)। खाइयामज्झे। गा ८८०) । वई स्त्री ["वती] द्वारका वाराविय वि [चारित] जिसका निवारण 'जो जलपूरियविट्ठाकूवानो नगरी (कुप्र ६३), वाल पुं [पाल] कराया गया हो वह (कुप्र १४०)। चा(? वा)रियाइ निकासो। दरवान, प्रतीहार (कुमा) सो उवचियगन्भारो जोणोए निग्गमो इत्थ।' वाराह पुं [वाराह] १ पाँचवें बलदेव का वारंत देखो वार - वारय ।। पूर्वभवीय नाम (सम १५३)। २ वि. शूकर (धर्मवि १४६) वारंवार न [वारंवार] फिर फिर (से ६, | के सदृश (उवा) वारिज पुन [दे] विवाह, शादी (दे ७, ५५; ३२; गा २६४)। वाराही स्त्री [वाराही] १ विद्या-विशेष (पउम पाम; उप पृ८०) वारग पुं [वारक] १ बारी, क्रम (उप ६४८ ७, १४१)। २ वराहमिहिर का बनाया हुआ | वारिसा देखो वरिसा (विक्र १०१)। टी) । २ छोटा घड़ा, लघु कलश (पिंड एक ज्योतिष-ग्रन्थ, वराह-संहिता (सम्मत्त वारिसिय वि [वापिक] १ वर्ष-संबन्धी २७८) । ३ वि. निवारक, निषेधक (कुप्र १२१)। (राज)। २ वर्षा-संबन्धीः 'चिट्ठइ चउरो मासा २६; धर्मवि १३२) । वारि न [वारि] १ पानी, जल (पाम; कुमा; वारिसिया विबुहपरिमहिनी' (पउम ८२, वारडिय न [दे] रक्त वस्त्र, लाल कपड़ा सण)। २ स्त्री. हाथी को फंसाने का स्थान (गच्छ २, ४६) 'वारी करिधरणट्ठाणं' (पान; स १७७; वारी स्त्री [द्वारिका] बारी, छोटा दरवाजा वारड्ड वि [६] अभिपीडित (षड् ) ६७८)। महंग पुं[भद्रक भिक्षुक की (ती २) वारण न [वारण] १ निषेध, रोक, अटकाव, एक जाति, शैवलाशी भिक्षुक (सूअनि १०) निवारण (कुमाः ओघ ४४८)। २ छत्र, "मय वि [°मय] पानी का बना हुआ । वारी स्त्री [वारी] देखो 'वारि' का दूसरा अर्थ छाता; 'वारणयचामेरेहिं नज्जति फुडं महा- स्त्री.ई (हे १, ४: पि ७०) भुअj 'बद्धो वारी बंधे फासेण गमो निहणं' (सुर ८, सुहडा (सिरि १०२३) । ३ वि. रोकनेवाला, [मुच ] मेघ, जलधर (षड् ) यj १३६ मोघ ४४६ टी) निवारक (कुप्र ३१२)। ४ पृ. हाथी (पा. [६] पानी देनेवाला भृत्य (स ७४१)।- वारी न [वारि] जल, पानी (हे १,४, पि कुमाः कुप्र ३१२)। ५ छन्द का एक भेद 'रासि धू[ राशि] समुद्र, सागर (सम्मत्त ७०) (पिंग)| १६ ) । वाह [°वाह] मेघ, अभ्र (उप वारुअ न [दे] १ शीघ्र, जल्दी। २ वि. वारण देखो वागरण (हे १, २६८, कुमाः २६४ टो)५ °सेण पुं [°षेण] १ एक शीघ्रता-युक्त; ‘ण वारुपा अम्हे' (दे ७, अन्तकृद् महर्षि, जो राजा वसुदेव के पुत्र थे ४८) For Personal & Private Use Only Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारुण-वावज पाइअसहमहण्णवो ७६१ वारुण न [वारुण] १ जल, पानी; 'निम्मल- पत्र ३२ सूत्र १, ६, १८) हि पुं[धि] वालिखिल्ल पु[वालिखिल्य] एक राजर्षि वारुणमंडलमंडिअससिचारपाणसुपवेसे' (सिरि वही अर्थ (पामा सुपा २८१) (पउम ३४, १८)। देखो वालिहिल्ल। ३६१) । २ वि. वरुण-संबन्धी (पउम १२, | वाल देखो पाल =पाल (काल; भविः कुमा | वालिहाण न वालधान] पुच्छ, पूंछ (णाया १२७) सुर ८, ४५; महा) त्थ न [स] | १, ३; उवा)। वरुणाधिष्ठित प्रन (महा), 'पुर न [पुर] वालंफोस न [दे] कनक, सोना (दे ७, वालिहिल्ल देखो वालहिल्ल (गउड ३२०) नगर-विशेष (इक)। वाली स्त्री [दे] वाद्य-विशेष, मुंह के पवन से वारुणी स्त्री [वारुणी] १ मदिरा, सुरा, दारू वालग न [वालक] पात्र-विशेष, गौ आदि के बजाया जाता तृण वाद्य (दे ७, ५३) (पाप; से २, १७; सुर ३, ५५; पएह २, बालों का बना हुआ पात्र (प्राचा २, १, वाली स्त्री [पाली] रचना-विशेष, गाल प्रादि ५-पत्र १५०)। २ लता-विशेष, इन्द्र ८,१) वारुणी, इन्द्रायन (कुमा)। ३ पश्चिम दिशा पर की जाती कस्तूरी प्रादि की छटा (कप्पू)। वालगपोतिया) स्त्री [दे] देखो बालग्ग- देखो पाली।। (ठा १०-पत्र ४७८ सुपा २५५)। ४ वालग्गपोइया । पोइआ (सुज्ज ४-पत्र वालअ [वालुक] १ परमाधार्मिक देवों भगवान् सुविधिनाथ की प्रथम शिष्या का ७० उत्त ६, २४: सुख ६, २४)। की एक जाति, जो नरक-जीवों को तप्त नाम (सम १५२; पव ६)। ५ एक दिक्कु वालण न[वालन लौटाना (सुर १,२४६)। वालुका-बालू में चने की तरह भनते हैं (सम मारी देवी (इक)। ६ कायोत्सर्ग का एक दोष-१ निष्पन्न होती मदिरा की तरह वालप्प न [दे] पुच्छ, दुम, पूंछ (दे ७, २६)। २ धूली-सम्बन्धी (उप पू २०५) 10 कायोत्सर्ग में 'बुडबुड' आवाज करना। २ वालु स्त्री [वालुका] धूलि, बालू, रेत, रज कायोत्सर्ग में मतवाला की तरह डोलते रहना | वालय पुं [वालक] गन्ध-द्रव्य-विशेष (पाप)- वालुआ (गउड)। "पुढवी स्त्री [पृथिवी] (पव ५) वालवास पुंदे] मस्तक का प्राभूषण (दे। तीसरी नरक-पृथिवी (पउम ११८, २) पभा, पहा स्त्री [[प्रभा] तीसरी नरकवारुया। स्त्री [दे हस्तिनी, हथिनी (स ७३५; वालवि पुं[व्यालपिन् मदारी, साँपों को | वारूया।६४) भूमि (ठा ७-पत्र ३८८ इक; अंत १५) ।। पकड़ने प्रादि का व्यवसाय करनेवाला, सपेरा 'भा बी [भा] वही अर्थ (उत्त ३६, वारेज देखो वारिज (स ७३४) । (पराह १,२-पत्र २६) १५७)। वारेयव्व देखो वार = वारय ।। वालहिल्ल [वालखिल्या ऋतु से उत्पन्न वालुकम[द] पक्वान्न-विशेष, एक तरह का बाल सक [वालय] १ मोड़ना । २ वापस पुलस्त्य कन्या के साठ हजार पुत्र, जो अंगुष्ठ- खाद्या 'खीरदहिसूवकट्टरलंभे गुडसप्पिवडगलौटाना। वालइ, वाले (हे ४, ३३० पर्व के देह-मानवाले थे ( गउड ) । देखो | वालुके' (पिड ६३७) । भविः सिरि ४४२)। कवकृ. वालिज्जत | वालिखिल्ल । वालुंक न [वालुक] ककड़ी, खीरा (अनु ६; (सुर ३, १३६)। संकृ. वालेऊण (महा)। वाला पुंस्त्री [वाला] कंगू, अन्न-विशेष; कुप्र ५८) वाल पु[पाल] १ सर्प, साँप (गउड; 'संपरणं वालावल्लरनं (गा ८:२)। वालुंकी स्त्री [वालुङ्की] ककड़ी का गाछ णाया १, १ टी-पत्र ६ औप)। २ दुष्ट वालि वालि] एक विद्याधर-राजा, वालक्की (गा १०; गा १० प्र)। हाथी (सुर १०, २१६ चेइय ५८)। ३ | कपिराज (पउमहसे १.१३)तणअवालग देखो बालअ (स १०२) । हिंसक, पशु, श्वापद (णाया १, १ टी पुं[तनय राजा वालि का पुत्र, अंगद वाव सक [वि + आप्] व्याप्त करना । पत्र ६; प्रौप)। देखो विआल = व्याल - (से १३, ८३)। "सुअ [सुत] वही वावेइ (हे ४, १४१)।- . वाल न [बाल] १ एक गोत्र, जो कश्यप-गोत्र अर्थ (से ४, १२, १३, ६२)। वाव अ[वाव] अथवा. या (बिसे २०२०)। की एक शाखा है। २ पुंखी. उस गोत्र में | वालि वि[वालिन् वक्र, टेढा (से १,१३) वाव [वाप] वपन, बोना (दे ६, १२६)। उत्पन्न (ठा ७--पत्र ३६०) वालि वि [वालिन्] १ केशवाला। २ . वावइज देखो वावज । वावइज्जामि (स वाल देलो बाल-बाल (पोपः पाप्र)यकपिराज (मणु १४२)।। ७४१) वि [ज] केशों से बना हुआ (पउम १०२, वालिअ वि [वालित] मोड़ा हुआ (पात्रः वावंफ प्रक [] श्रम करना। वावंफइ १२१) वायणी स्त्री [°वीजनी] १ स ३३७)।। चामर 'पंच रायक उहाई; तं जहा-खरगं वालिआफोस न [दे कनक, सुवर्ण (दे वावंफिर वि [ष्णुि] श्रम करनेवाला छत्तं उप्फेसं वाहणाप्रो वालवीयरिण' (प्रौप) ७,६०)। (कुमा)। २ छोटा व्यजन-पंखा; 'सेयत्रामरवाल- वालिंद वालीन्द्र विद्याधर वंश का एक | वावज अक [ +पद्] मर जाना। वीयणीहि वीइज्जमाणी' (णाया १,१- राजा (पउम ५, ४५)। वावज्जति (भग)। For Personal & Private Use Only Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ पाइअसहमहण्णवो वावड-वास वावड पुं [दे] कुटुम्बी, किसान (दे ७, ५४) वावाअ सक [व्या + पादय ] मार डालना, वावित्ति स्त्री [व्यावृत्ति] व्यावर्तन, निवृत्ति वावड वि [व्यापृत] १ व्याकुल (दे ७, विनाश करना। वावाएइ (स ३१, महा)। (धर्मसं १०५)। ५४ टी)। २ किसी कार्य में लगा हुआ कर्म. वावाइजइ, वावाईयइ (स ६७३), वाविद्ध देखो वाइद्ध = व्यादिग्ध, व्याविद्ध (हे १, २०६ प्राप्र; कस; सुर १, २६) भवि. वावाइज्जिस्सइ (पि ५४६)। संकृ. (ठा ५, २-पत्र ३१३) । वावड वि [व्यावृत्त] लौटाया हुआ, वापस बावाइऊण (स ७५५)। कृ. बावाइयञ्च वाविर देखो वावर । वाविरह (षड्) किया हुआ (उप ५३४) । वावी स्त्री वापी] चतुष्कोरण जलाशय-विशेष वावडय स्त्रीन [दे] विपरीत मैथुन (दे ७, वावाइजवि [व्यापादित] मार डाला गया, | (प्रौप; गउड; प्रामा) ५८)। स्त्री. या (पास)। विनाशित (सुपा २४१), 'प्रवावावि(?इ)ो वावूड) (शौ) देखो वावड-व्यापूत (नाटवावण न [व्यापन] व्याप्त करना (विसे चेव विउत्तो खु एसो' (स ४११)। वावुद मृच्छ २०१, पि २१८; दारु ६) ८९) । वावायग वि व्यापादक] हिंसक, विनाश- वावोणय न [दे] विकीणं, विखरा हुमा वावणग वि वामनक] ठिंगणो, ठिंगना, कर्ता (स २६७) (दे ७, ५६) बौना, छोटे कद का (चउप्पन पत्र १६१)Mवावायण न [व्यापादन] हिसा, मार डालना, वाश (मा) स्त्री [वासा नाटक की भाषा वावणी स्त्री [दा छिद्र, विवर (दे ७,५५) विनाश (स ३३, १०२१०३, ६७५; सुर में बाला (मच्छ २७ वावण्ण देखो वावन्न (णाया १, १२) १२, २१६) | वास देखो वरिस = वृष् । वासंति (भग)। वावत्ति स्त्री [व्यापत्ति] विनाश, मरण वावायय देखो वाचायग (स ७५०)। भूका, वासिंसु (कप्प)। कृ. वासिड (ठा ३, (णाया १, ६-पत्र १६६; उप ५०६ स वावार सक [व्या + पारय ] काम में ३-पत्र १४१; पि ६२, ५७७) ।। ३६५ ४३२, धर्मस ६३४ ९७६) लगाना। वकृ. वावारेंत (गउड २४४)। वास अक [वा ]१ तियंचों का--पशु वावत्ति स्त्री [व्यापृति] व्यापार (उप ५०६) कृ. वावारियव्व (सुपा १९२) पक्षियों का बोलना। २ अाह्वान करना; वावत्ति स्त्री [व्यावृत्ति] निवृत्ति (ठा ३, वावार पुं व्यापार व्यवसाय (ठा ३, १ 'खीरदुमम्मि वासइ वामत्थो वायसो चलिय४-पत्र १७४) टी-पत्र ११४, प्रासू ६१, १२१; नाट- पक्खों (पउम ५५, ३१), वासइ, वासए वावन्न वि [व्यापन] विनाश-प्राप्त (ठा ५, विक्र १७)। (भवि; कुप्र २२३)। वकृ. वासंत (कुप्र २-पत्र ३१३, स २४१; सम्मत्त २८ वावारण न [व्यापारण] कार्य में लगाना २२३, ३८७)। सं ६०)। (विसे ३०७१, उप पृ ७१). | वास सक [वासय् ] १ संस्कार डालना। वावय पुं [दे] आयुक्त, गाँव का मुखिया (दे | वावार वि व्यापारिन् । व्यापारवाला (से २ सुगन्धित करना। ३ वास करवाना। १४, ६६; हम्मीर १३) वासइ (भवि)। वकृ. वासंत, वासयंत वावर अक [व्या +] १ काम में लगना। वावारिद (शौ) वि [व्यापारित] कार्य में (औप; कप्प )। कृ. वासणिज्ज ( विसे २ सक. काम में लगाना। वावरेइ (हे ४, | लगाया हुआ (नाट-शकु १२०)। १६७७ धर्मसं ३२६) ८१), वावरइ (भवि); 'सयं गिह परिच्चज वावि अ [वापि] १ अथवा, या (पव ६७)। वास देखो वरिस = वर्ष (सम २, कप्प, जी परिगिहम्मि वावरे' (उत्त १७, १८, सुख । २स्त्री. देखो वावी (पराह १.१-पत्रM ३४; गउड, कुमाः भग ३, ६सम १२, १७, १८) । वकृ. वावरंत (कुमा ६,५१)। वावि वि व्यापिन्] व्यापक (विसे २१५, हे १, ४३, २,१०५ षड् ४६; सुपा ६७) प्रयो., हेकृ. वावराव (स ७६२) श्रा २८४; धर्मस ५२५)। त्ताण न [त्राण] छत्र, छाता (धर्म ३; वावरण न [व्यापरण] कार्य में लगाना योघ ३०)J धर, हर पुं[धर] पर्वतवाविअ वि [दे] विस्तारित (दे ७, ५७) ।। विशेष (उवा ७४, २५३; ठा २, ३, सम (भवि)। वाविअ वि [वापित] १ प्रापित, प्राप्त वावल्ल देखो वावड = व्यापृत (उप पृ८७) १२, इक) करवाया हुआ (से ६, ६२)। २ बोया हुप्राः वास पुं [वास] १ निवास, रहना (माचार वावल्ल पुंन [दे. वावल्ल] शस्त्र-विशेष (सण) गुजराती में 'वावेलु"; 'जं मासी पुवभवे । उप ४८६, कुमा; प्रासू ३८)। २ सुगन्ध वावहारिअ वि [व्यावहारिक व्यवहार से धम्मबीयं वावियं तए जीव' (आत्महि ८ दे ( कुमाः भवि )। ३ सुगन्धी द्रव्य-विशेष सम्बन्ध रखनेवाला (इका विसे ६५६; जीवस ७, ८६) (गउड)। ४ सुगन्धी चूर्ण-विशेषः 'पणवन्नवाविअ वि [व्याप्त] भरा हुआ (कुमा ६, वासवासं विहियं तोसाउ तियसेहि' (सुपा वावाअ (?) अक [अव + काश ] अवकाश १७; दंस २)। ५ द्वीन्द्रिय जन्तु की एक पाना, जगह प्राप्त करना। वावाअइ (धात्वा वावित्त वि [व्यावृत्त] व्यावृत्तिवाला, निवृत्त जाति (पएण १-पत्र ४४) घर न १५२) ! (धर्मसं ३२१) [गृह] शयन-गृह (णाया १, १६-पत्र For Personal & Private Use Only Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास - वाह २०१) (महा) (प) भवन ['भवन] वही अर्थं रेणु पुं [ रेणु] सुगन्धी रज रन [गृह] शयनगृह (सुर ६, २७: सपा ३१२: भवि) 1 वास पुं [व्यास] १ ऋषि - विशेष, पुराणकर्ता एक मुनि (हे ५६ कप्पू) । २ विस्तार (भग २, ८ टी) IV वासन [ वासस् ] वस्त्र, कपड़ा (पा वज्जा १६२० भवि ) | ● वास देखो पास = पाश (गउड) 1 "वास देखो पास = पार्श्व (प्राकृ ३० गउड) । वासंग [ व्यासङ्ग ] प्रासक्ति, तत्परता; 'ताईसा पाप मोरा निराय ११८० उप पृ वासंगं' (उप १३१ टी १२७) 1 वासंठ) (ब) [वसन्त] छन्दका एक वासंत ) भेद (पिंग १६३; १६३ टि) । - वासंत [वर्षात] वर्षाकालान्त भाग (उप ४८८ ) 1 यातिज वि [वासन्धिक] (३) 1 सम्बन्धी वासन्ति श्री] [वासन्तिका, "न्ती] लतावासंतिआ (विशेष (श्रीप, कप्पा कुमाः परण वासंती ) १-पत्र ३२: रणाया १६पत्र १६०; परह १, ४ - - पत्र ७९ ) वादी श्री []]] कायदे ७२५) वासग वि [वासक ] १ रहनेवाला (उप ७६८ टी) । २ वासना-कर्ता, संस्काराधायक ३२) शब्द करनेवाला ४. इन्द्रियादि जन्तु (चाचा) 1 वासण न [हे] पात्र, बरतन, गुजराती में 'वासरण' : '; 'दि च पयत्तट्टावियं चंदनामंकिये हिरणवास (१२) वासन [वासन] वासित करना (दनि ३, 2) 1~ वाणी [वासना ] संस्कार ( धर्मसं ३२९ ) । 'वासना [दर्शन ] श्रवलोकन, निरीक्षण (विसे १६७७ उप ४९७) | देखो पासणया । वासय देखो वासग । सज्जा श्री ['सज्जा ] नायिका का एक भेद, वह नायिका जो नायक की प्रतीक्षा में सज-धज कर बैठी हो (कुमा) । पाइअसद्दमण वासर पुंन [वासर] दिवस, दिन (पान) गड महा) | वासव पुं [वासव] १ इन्द्र देव पति (पाच) सुवा ३० नेद ५८०)। २ एक राजकुमार (विपा १,१——पत्र १०३))°के [केतु] हरिवश का एक राजा, राजा जनक का पिता (पउम २१, ३२) दत्त पुं ['दत्त ] विजयपुर नगर का एक राजा (विपा २, ४ ) M 'दत्तात्री ['दत्ता ] एक प्राख्यायिका (राज) । धन [धनुष् ] इन्द्र-धनुष ( कुप्र ४५६) नयर न ['नगर] अमरावती, इन्द्र नगरी (सुपा ६०६ ) + *पुरी बी ["पुरी ] यही अर्थ (उप१७) सुत्र [सुत] इन्द्र का पुत्र जयन्त (पान) । वासवदत्ता स्त्री [arसवदत्ता ] राजा नंद प्रद्योत की पुत्री और उदयन -- वीरणावत्सराज की पत्नी (उत्तनि ३) । वासवार [दे] १ तुरग, घोड़ा (दे ७, ५६) । २ श्वान, कुत्ता; 'विट्टालिज्जइ गंगा कया कि वासवारेहि' (चेइय १३४) । वासवाल पुं [दे] श्वान, कुत्ता (दे ७, ६०) वासस न [वासस् ] वस्त्र, कपड़ा; 'कुभोयरणा कुवामा १२ पत्र ४० ) । वाला देखो वरिसा (कुमा; पानः सुर २, ७८ गा २३१) रत्ति स्त्री. देखो वरिसा-रत्त (हे ४, ३६५ ) + वास पुं [वास ] चतुर्मास में एक स्थान में किया जाता निवास (श्री काल कप्पवासिय वि["वार्षिक ] वर्षाकाल संबन्धी (श्राचा २, २, २, ८) । 'हू [ भू ] भेक, मेढक (दे ७, ५७) वासाणिया स्त्री [दे. वासनिका] वनस्पतिविशेष (सू२३१६) वासाणी श्री [दे] रथ्या, मुहल्ला (दे ७, ५५ ) वासि वि [ वासिन् ] १ निवास करनेवाला, रहनेवाला (१, सुपा ६१० ६ उवा कुप्र ४६; श्रौष) । २ वासना - कारक, संस्कारस्थापक (विसे १६७७ ) 1 वासि स्त्री [वासि] बसूला, बढई का एक अन - श्रौजार; न हि वासिवड्ढई इहं प्रभेदो (घ४८१) देखो वासी ॥ वि [वार्षिक ] वर्षाकाल- भावी ( सुज १२ - पत्र २१६) IV वासिक वासिक For Personal & Private Use Only ७६३ वासिन [ वाशिष्ट ] १ गोत्र - विशेष (ठा ७--पत्र ३६०; कप्पः सुज्ज १०, १६) । २ पुंस्त्री. वाशिष्ठ गोत्र में उत्पन्न (ठा ७) । श्री. डा, डी(१४२) वासिट्टिया स्त्री [वाशिष्ठ ] एक जैन मुनिशाखा (कप्प ) 1 वासितु वि [वर्षिनृ] बरसनेवाला (ठा ४, ४--पत्र २६६) । वासिद वि [ वासित] १ बसाया हुआ, वासिय । निर्वासित ( मोह २१) । २ बा रखा हुआ (यादि) (सुपा १२५३२) । ३ सुगन्धित किया हुप्रा (कप्प पत्र १३३ महा) । ४ भावित संस्कारित (आव) वासी श्री [वासी] बला, बढ़ई का एक अन (पह पउम २४, ७८ कप्प सुर १, २८) मुह ["मुख ] बसूले के तुल्य मुँहवाला एक तरह का कीट, द्वीन्द्रिय जन्तु की एक जाति (उत्त ३६, १३९) वासु पुं [वासुकि ] एक महा-नाग, वासुगि) सर्पराज (से २, १३० मा ६६ उडती ७; कुमाः सम्मत ७६ ) । वासुदेव पुं [वासुदेव ] १ श्रीकृष्ण, नारायण ( प राह १, ४ - पत्र ७२) । २ अर्ध चक्रवर्ती राजा त्रिखड भूमि का भी (सम १७ १५२ १२१ वासुपूज्न [34] भारतवर्ष में उत्प बारहवें जिन भगवान् (सम ४३३ कप्प पडि) Iv वासुली स्त्री [दे] कुन्द का फूल (दे ७.५५) I वाह सक [वाय ] वहन कराना, चलाना । यादवाड (भवि महा) । कवकृ. वादिमाण (महा) (महां। कृ. वाह, वाहिस (२,७८ श्राचा २, ४, २,६ ) 1 वाद पुंखी [ज्या] बलिया (१, लुब्धक, १०० पास)। श्री ही १२१ प १८५)। [ह] १ अव घोड़ा (पाय, सू, २, ३, ५ उप ७२८ टी; कुप्र १४७ हम्मीर १८) २ जहाज, मौका 'बाइ तर' (विये १०२०) भान होता (सू २४५) ४ परिमाणविशेष, Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ पाइअसहमहण्णवो वाहगण-वि पाठ सौ पाढ़क का एक मान (तंदु २९)। | बाहरण न [व्याहरण] १ उक्ति, कथन | वाहित्त वि [व्याहृत] १ उक्त, कथित (हे ५ शाकटिक, गाड़ी होकनेवाल। (सूम १, २, (कुमा)। २ आह्वान (स २५२, ५०६) १, १२८, २, ६६ प्राप्र)। २ माहूत, शब्दित ३, ५)। वाहिया स्त्री [°वाहिका] घुड़- वाहाविय वि [व्याहारि] बुलवाया हुआ | (पामा उत्त १, २०)। सवारी (धर्मवि ४) (कुप्र १५; महा) वाहित्ति स्त्री [व्याहृति १ उक्ति, वचन । वाहगण [दे] मन्त्री, अमात्य, प्रधान | वाहरिअ देखो वाहित्त = व्याहृत (सुर १, २ माह्वान (अच्चु २) । वागणय, (दे ७, ६१) - १५० ४, ६, सुपा १३२, महा) वाहिप्प देखो वाहर।। वाहड विदे] भृत, भरा हुआः 'बहुवाहडा वाहलार वि [दे. वात्सल्यकार] १ स्नेही, | वाहिम देखो वाह वाहय ।अगाहा (दस ७, ३६) अनुरागी । २ सगाः गुजराती में 'वाहलेसरी'; वाहियाली श्री [वाह्यालो] प्रश्व खेलने की वाहडिया श्री [दे] काँवर, बहँगी (उप पू 'मह सत्थाहो तमन्नजायंपि । नियतराज | जगह (स १३; सुपा ३२७ महा)।। ३३७) मन्नतो लालेइ वाहलारुष्व (धर्मवि १२८) वाहिल्ल वि [ व्याधिमत् ] रोगो (धम्म ८ वाहण पुंन [वाहन] १ रथ प्रादि यान; 'जह वाहलिया। स्त्री [दे] क्षुद्र नदी, छोटा जल- टी)। भिच्चवाहणा लोए' (गच्छ १, ३८; उवा, वाहली प्रवाह (वज्जा २२० ५४० दे७, वाही देखो वाह = व्याघ । प्रौप; कप्प)। २ जहाज, नौका, यानपात्र; ३६) वाहुडिअ वि [दे] गत, चलितः 'तो वाहुडिउ गुजराती में 'वहाण (उवा, सिरि ४२३ वाहा स्त्री [दे] वालुका, रेत (द ७, ५४) । जवेण' (कुप्र ४५८) । देखो बाहुडिअ।कुम्मा १६) । ३ न. चलाना; 'वाहवाहणवाहाया श्री [दे] वृक्ष-विशेष; 'समिसंगलिया वाहुय देखो वाहित = व्याहृत (प्रौप)। परिस्संतो' (कुप्र १४७)। ४ शकट, बोझ ति वा वाहायासंगलिया ति वा प्रगत्थिसंगलिया | वि देखो अवि = अपि (हे २,२१८ कुमा, गा मादि ढोग्राना, भार लाद.कर चलाना (पराह ति वा' (अनु ५)। १, २-पत्र २६; द्र २६)। "साला स्त्री ११; १७; २३; कम्म ४, १६, ६०; ६६ वाहाविय वि [वाहित] चलाया हुपा (महा) रंभा)। [°शाला] यान रखने का घर (प्रौप) । वाह देखो वाहर । संकृ. वाहिता (प्राक, | वि अ [वि] इन अर्थों का सूचक अव्यय ३८. पि ५८२) वाहणा स्त्री [वाहना] वहन कराना, बोझ, | वाहि पुंस्त्री [व्याधि] रोग, बीमारी; 'चउविहे | १ विरोध, प्रतिपक्षता; 'विगहा', आदि ढोग्राना (थावक २५८ टी) वाही पन्नत्ते' (ठा ४, ४–पत्र २६५, पाम; 'विप्रोग' (ठा ४, २, गच्छ १, ११, सुर वाहणा स्त्री [दे] ग्रोवा, डोक, गला (दे ७ २, २१५)। २ विशेष: 'विउस्सिय सुर ४, ७५; उवाः प्रासू १३३; महा); 'एयानो सत्त वाहीनो दारुणानो (महा)। (सूत्र १, १, २, २३, भग १, १ टी)। ३ बाहणा स्त्री [ उपानह ] जूता (औप; वाहि विवाहिन] वहन करनेवाला ढोनेवाला विविधताः 'वियक्खमाण', 'विउस्सग्ग' उवा; पि१४१) 'जहा खरो चंदणभारवाही' (उव) - (मोघभा १९८ भग १, टीः भावम)। ४ वाणिव वि [वानिक वाहन संबन्धी (उप वाहिअ वि [वाहित] चलाया हुआ. 'वाहियं कुत्सा, खराबोः 'विरूव' ( उप ७२८ टी)। ७२८ टी) तम्मि वंसकुडंगे तं खरगं' (महा); 'तो तेण ५ प्रभाव; 'विइण्ह' (से २,१०)। ६ महत्त्व वाहणिया स्त्री [वाहनिका] वहन कराना, तेण खग्गेण कोसखित्तेण वाहिनो घामो 'विएम' (गउड)। ७ भिन्नताः 'विएस' (महा)। चलानाः आसवाहणियाए' (स ३००)। (सुपा ५२७) । ८ ऊँचाई, ऊर्ध्वताः "विक्खेव' (प्रोधमा वाहत्तुं देखो बाहर ।। वाहिअ देखो वाहित्त = व्याहृत (हे २, ६६ १६३) । ६ पादपूर्ति (पउम १७,६७) । १० वाह्य वि वाहक] चलानेवाला, हाँकनेवाला | षड्, महा; णाया १, १-पत्र ६३)। पुं. पक्षी (से १,१, सुर १६,४३)। ११ वि. (उत्त १, ३७) उद्दीपक, उत्तेजक । १२ अवबोधक, ज्ञापका वाहिअ वि [व्याधित रोगी, बीमार (सिरि वाय वि [व्याहत] व्याघात-प्राप्त (मोह 'सम्म सम्मतवियासडं वरं दिसउ भवियाणं' १०७८ णाया १,१३-पत्र १७६; विपा १०७; उव)। १,७-पत्र ७५, पएह १, ३-पत्र ५४; (विवे १४३)। वाहर सक [व्या + हृ] १ बोलना, कहना। कस)। वि देखो वि= द्विः 'ते पुण होज्ज विहत्या २ आह्वान करना। वाहरइ (हे ४, २५६; वाहिणी स्त्री वाहिनी] १ नदी (धर्मवि ३)॥२ | कुम्मापुत्तादो जहन्नणं' (विसे ३१६६) सुपा ३२२; महा) । कर्म वाहिप्पइ, वाहरिजइ सेना, लश्कर, 'सेरणा वरूहिणी वारिणी प्रणीमं विवि [विद् ] जानकार, विज्ञ (माचा; (हे ४, २५३); 'वाहिप्पंति पहाणा गारुडिया' चमू सिन्न' (पाप) । ३ सेना-विशेष, जिसमें | विसे ५००)। उच्छा स्त्री [जुगुप्सा] (सुर १६, ६१) । कवकृ. वाहिप्पंत (कुमा)। ८१ हाथी, ८१ रथ, २४३ घोड़े और ४०५ | विद्वान् की निन्दा, साधु की निन्दा (श्रा ६ वकृ. वाहरंत (गा ५०३; सुर ६, १६६)। प्यादें हों वह सैन्य (पउम ५६, ६)। णाह | टी-पत्र ३०)। संकृ. बाहरिउं (वव ४)। हेकृ. वाहत्तुं पुं["नाथ] सेनापति (किरात १३) • °स | वि॰ स्त्री [ विष ] पुरीष, विष्ठा (पएह, २, (से ११, ११६) पुं[श] वही (किरात ११)। १-६६ संति २, मौप विसे ७८१)। For Personal & Private Use Only Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विअ-विअड पाइअसहमहण्णवो विअ सक [विद्] जानना। वियसि (विसे विअंगिअ विदे] निन्दित (दे ७, ६६) विअक्खण वि [विचक्षण] विद्वान्, पण्डित, १६००)। भवि. विच्छं, वेच्छं (पि ५२३; विअंगिअ वि [व्यङ्गित] खण्डित, छिन्न दक्ष (महा प्रासू ४१; भविः नाट–वेणी ५२६; प्राप्र; हे ३, १७१)। वकु. विअंत (पएह १, ३–पत्र ४५; टी-पत्र ४६) २४)। (रंभा)। संकृ. विइत्ता, विइत्ताणं, विइत्त | विअंजण देखो वंजण = व्यञ्जन (प्राकृ ३१ | विअग्ग वि[व्यग्र] व्याकुल (प्राकृ ३१)(पाचा दा १०, १४)। | सम्म ७२) । विअग्घ देखो वग्घ = व्याघ्रः -महिसवि विअ न [वियत् ] आकाश, गगन (से ६, विजिअ बि [व्यञ्जित] व्यक्त किया हुमा, (?वियोग्घछगलदीविया-' (पएह १,१४८) चर वि | चर] पाकाश-विहारी। प्रकट किया हुमा (सूप २,१, २७, ठा ५, पत्र ७ पि १३४)।। "घरपुर न [चरपुर] एक विद्याधर-नगर २-पत्र ३०८) विअग्ध पुं [वैयाघ्र व्याघ्र-शिशु (पएह १, विअंटूत वि [दे] १ अवरोपित । २ मुक्त (इक) १-पत्र १८)। विअ वि [विद्] १ जानकार, विद्वान्। 'तं | (षड् १७७ )। विअज्जास देखो विवज्जास (नाट-मृच्छ च भिक्खू परिनाय वियं तेसु न मुच्छए' विअंति स्त्री [व्यन्ति] अन्त क्रिया। कारय ३२६) (सूम १, १, ४, २) । २ विज्ञान, जानकारी वि [कारक अन्त-क्रिया करनेवाला, कर्मों विअट्ट सक [विसं + वद् अप्रमाणित का अन्त करनेवाला, मुक्ति-साधक (प्राचा करना, असत्य साबित करना। विभट्टइ (हे विअ देखो इव (हे २, १८२, प्राप्रः स्वप्न | १, ८, ४, ३) ४, १२६) २७) कुपाः पउम ११, ८१, महा) - विअंभ प्रक [वि + जृम्भ ] १ उत्पन्न | होना। २ विकसना। ३ जंभाई खाना । विअ [वृक] श्वापद जन्तु-विशेष, भेड़िया विअट्ट अक [वि + वृत्] विचरना, विश्रंभइ (हे ४, १५७ षड् (नाट--उत्तर ७१)। विहरना । वक, 'गिम्हसमयंति पत्ते वियट्टभवि)। वकृ. माणे (सु?) वणेसु वणकरेणुविविदिएणविअ विअंभंत, विभमाण (धात्वा १५२, से व्यय विगम, विनाश; 'पंचविहे छेयणे पन्नत्ते, तं जहा–उप्पाछेयणे वियच्छे१, ४३; गा ४२५; महा)। कयपंसुघामो तुम' (गाया १, १-पत्र दणे (ठा ५, ३–पत्र ३४६)। विअंभ वि [विदम्भ निष्कपट, सत्यः 'प्रयाविअ वि [विगत] विनष्ट, मृत । चाली | विअट्ट वि [विवृत्त निवृत्त, व्यावृत्तः 'विप्रणयं वियंभसुहस्स' (स ६६०)। दृछउमेणं जिणेणं' (सम १; भगः कष्पा [र्चा] मृत प्रात्मा का शरीर (ठा १- विअंभण न [विज़म्भण] १ जंभाई, जम्हाई प्रौपः पडि) भोइ वि [ भोजिन् ] पत्र १६) (स ३३६; सुपा १४६) । २ विकाश । ३ | प्रतिदिन भोजन करनेवाला (भग)विअ देखो अविअ - अपिच (जीव १)। उत्पत्ति (भवि; माल ८४) । विअट्ट ' [विवर्त] प्रपञ्च (स १७८) । विअइ वि [विजयिन् ] जिसकी जीत हुई। विभिअ वि [विजृम्भित] १ प्रकाशित विअट्ट । वि[विसंवदित संवाद-रहित, हो वह (मा २२)(गा ५६४) । २ उत्पन्न (माल ८६)। ३ न. विअट्टि मप्रमारिणतः 'विभट्ट विसंवमं विअइ स्त्री [विगति] विगम, विनाश (ठा जंभाई (गा ३५२)। (पाम कुमा ६,५८)। १-पत्र १६) विसण वि [विवसन] वन-रहित, नग्न | विअट वि [विकृष्ट] १ दूर-स्थित । २ क्रिवि. विअइ देखो विगइ= विकृति (ठा १-पत्र विसय (प्राकृ ३२) दूर (णाया १, १ टी-पत्र १) दे] व्याध, बहेलिया (द ७, १६ राज) मकवि +कटय 1१प्रकट करना। ७२)। विअइत्ता देखो विअत्त = वि + वर्तम् ।। २ मालोचना करना। वियडेइ (ठा १० विअक्क सक [वि + तर्कय ] विचारना, विअइल्ल ([विचकिल] १ पुष्प-वृक्ष विशेष। टी-पत्र ४८५)। कवकृ. वियडिज्जत विमर्श करना, मीमांसा करना । वकृ. विय२ न. पुष्प-विशेष (हे १; १६६; कप्पू: वा (राज)। कंत, वियत्रमाण (सुपा २६४; उप २२० २३; कुमा)। ३ वि. विकच, विकसित | टो) विअड वि [व्यद] लज्जित, लज्जा-युक्त (सरण) विअक्क पुंस्त्री [वितर्क] विमर्श, मीमांसा णाया १, ८---पत्र १४३)। विअओलिअ वि [दे] मलिन (द ७,७२) (प्रौपा सम्मत्त १४१)श्री.का (सूत्र १, विअड वि [विवृत] खुला हुमा, अनावृत विअंग सक [ व्यङ्गय ] अंग से हीन । १२, २१ पउम ९३, ६) (ठा ३, १-पत्र १२१, ५, २-पत्र करना-हाथ, कान प्रादि को काटना। विअकिय विििवर्किन] विमर्शित, विचा- ३१२) । "गिह न [गृह] चारो तरफ वियंगेइ (णाया १, १४.-पत्र १८५)। रित (सण)। खुला घर, स्थान-मएडपिका (कप्पः कस) विअंग वि [व्यङ्ग] अंग-होन; वियंगमंगा' | विअक्ख सक [वि + ईक्ष ] देखना । वकृ. 'जाण न [यान] खुला वाहन, ऊपर से (पएह १, १-पत्र १८)| वियक्खमाण (प्रोषमा १८८). खुला यान (णाया १, १ टी-पत्र ४३) For Personal & Private Use Only Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ पाइअसहमहण्णवो विअड-विअरण विअड न [दे] १ प्रासुक जल, जीव-रहित वियढिम पृस्त्री [विदग्धता] १ निपुणता। (भवि, गा ४७६) । वकृ. वियप्पंत (महा)। पानी (सूत्र १, ७, २१; ठा ३, ३-पत्र २ पाण्डित्य (कुप्र ४०५, वज्जा १३४)। कृ. वियप (उप ७२८ टी)१३८५,२--पत्र ३१३ सम ३७, उत्त विअण पंन व्यजन] बेना, पंखा (प्रात: विअप्प ' [विकल्प] १ विविध तरह की २, ४ कप्प)। २ मद्य, दारू (पिंड २३६) । हे १, ४६; पण्ह १, १-पत्र ८) कल्पना; 'तं जयइ विरुद्ध पिव वियप्पजालं ३ प्रासुक आहार, निर्दोष आहार; 'जं किचि विअण वि [विजन] निर्जन, जन-रहित; क इंदाण' (गउड )। २ वितर्क, विचार पावगं भगवं तं प्रकुव्वं वियर्ड भुंजित्था' 'लंघंति वियणकाणणं' (भवि) । (महा)। ३ भेद, प्रकार ‘दव्वट्ठिो अपज(प्राचा १, ६, १, १८), 'वियडगं भोच्चा' वनमो अ, सेसा विप्रप्पा सि' (सम्म ३)। विअणा स्त्री [वेदना] १ ज्ञान । २ सुखकप्प) देखो विगप्प = विकल्प । दुःख मादि का अनुभव । ३ विवाह । (प्राप्र; विअड वि [विकृत] विकार प्राप्त (प्राचाः विअप्पण न [विकल्पन] ऊपर देखो हे १, १४६)। ४ पीड़ा, दुःख, संताप उत्त २, ४; कस; पि २१६)। ‘एगंतुच्छेप्रम्मि वि सुहदुक्खविअप्पणमजुत्तं (पान, गउडः कुमा)। विअड वि [विक्ट] १ प्रकट, खुला (सूम विअणिय वि [वितनित, वितत] विस्तीर्ण (सम्म १८ स ६८४) विअप्पणा स्त्री [विकल्पना] ऊपर देखो १, २,२, २२, पंचा १०, १८; पव १५३)। (भवि) २ विशाल, विस्तीर्ण; '-प्रकोसायंतपउम (धर्मसं २१०). विअणिय वि [विगणित] अनाहत, तिरस्कृत | विअब्भ देखो विदब्भ (प्राकृ ३८ पउम गंभीरवियडना' (उवाः प्रौप; गा १०३ (भवि)। २६, ८) गउड)। २ सुन्दर, मनोहर (गउड)। ४ विअण्ण वि [विपन्न मृत (गा ५४६)। विअम्ह देखो विअंभ = वि + जृम्भ । विनप्रभूत, प्रचुर (सूम २, २, १८)। ५ पुं. एक | विअण्ह वि [वितृष्ण ] तृष्णा-रहित म्हइ (प्राकृ ६४) ज्योतिष्क महाग्रह (ठा २, ३–पत्र ७८; (गा ६३)। सुज २०)। ६ एक विद्याधर-राजा (पउम विअय देखो विजय = विजय (प्रौप; गउड) १०, २०) भोइ वि [ भोजिन् प्रकाश विअत्त सक [वि + वर्त्तय ] घूम कर जाना। विअय वि[वितत] १ विस्तीर्ण, विशाल में भोजन करनेवाला, दिन में ही भोजन संकृ. वियत्तूग, वियइत्ता, विउत्ता (प्राचा (महा)। २ प्रसारित, फैलाया हुआ (विसे करनेवाला (सम १६) वइ, वाइ पुं १.८, १, २)। २०६१; श्रावक २०३) पक्खि पुं [पातिन् पर्वत-विशेष (ठा ४, २-पत्र विअत्त वि [व्यक्त] १ परिस्फुट (सूत्र १, [पक्षिन] मनुष्य-लोक से बाहर रहनेवाले २२३, इकः ठा २, ३–पत्र ६६८०)। १, २, २५) । २ अमुग्ध, विवेकी (सून १, पक्षी की एक जातिः 'नरलोगामो बाहि १, २, ११)। ३ वृद्ध, परिणत-वयस्क, विअड अक विकटय 1 विस्तीर्ण होना। समुग्गपक्खी विप्रयाक्खी' (जी २२)। देखो _ 'रिणरगंथाणं सखुड्डयविअत्ताणं' (सम ३५)। वियडेइ (गउड ११६८) ४ पुं. भगवान् महावीर का चतुथं गणधरविअडण स्त्रीन [विकटन] १ अतिचारों की विअर सक [वि + चर] विहरना, घूमना प्रमुख शिष्य (सम १९)। ५ गीतार्थ मुनि मालोचना । २ स्वाभिप्राय-निवेदन (पंचा फिरना। विपरइ (गउड ३८८) (ठा ४, १ टी-पत्र २००)+ °किञ्चन २, २७) । स्त्री.णा (ोघ ६१३; ७६१; विअर सक [वि+त] देना, प्रण [कृत्य] गीतार्थ का कर्तव्य-अनुष्ठान पिडभा ४१, श्रावक ३७६; पंचा १६, १६) करना। वियरइ (कसः भवि), वियरेज्जा 17 (ठा ४, १ टी)। विहीनी वितटी] १ खराब किनारा। वित्त विविटना विशेष रूप में दिया (कण) । कम. वियरिज्जइ (उत्त १२,१०)। २ अटवी, जंगल (णाया, ११-पत्र ६३) हा ( ठाती -पत्र २० वकृ. वियरंत (काल)IV विअड्डि स्त्री [विदि ] वेदिका, हवन-स्थान, विअत्त पुं [विवर्त] एक ज्योतिष्क महाग्रह विअर [दे] १ नदी आदि जलाशय सूख वेदी, चौतरा (हे २, ३६, कुमाः प्राप्र)। जाने पर पानी निकालने के लिए उसमें किया (ठा २, ३ टी-पत्र ७६; सुज्ज १६ टी जाता गतं, गुजराती में 'वियडो' (ठा ४, विअढ वि [विदग्ध] १ निपूण, कुशल । पत्र २९६)। ४-पत्र २८१; गाया १, १-पत्र ६३ २ पण्डित, विद्वान् (हे २, ४०, गउड; | विअद वि [वितर्द] हिंसक (माचा १, ६, १, ५--पत्र ६६)। २ गतं, खड्डाः 'तत्य महा)। गुलस्स जाव अन्नेसि च बहूर्ण जिभिदियविअढक वि [विकर्षक ] खींचनेवाला: विअद्ध देखो विअड्ढ = विदग्ध (पच्च ६०; पाउरगाणं दव्वाणं पुंजे य निकरे य करेंति, 'महाधणुवियट्ट (ढ)का' (पएह १, ४- | नाट-मालती ५४) करेत्ता वियरए खणंति"वियरे भरंति पत्र ७२) विअन्नु देखो विन्नु (सट्ठि ८)। (णाया १,१७--पत्र २२६)विअढाली [विदग्धा] नायिका का एक विअप्प सक [वि+ कल्पय् ] १ विचार | विअरण न [विचरण] विहार, चलनाभेद (कुमा) | करना । २ संशय करना । वियप्पइ, विप्रप्पेइ | फिरना (अजि १६) For Personal & Private Use Only Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विअरण-विआरणा पाइअसद्दमहण्णवो ७६७ विअरण न [वितरण] प्रदान, अर्पण, (पंचा | विआउआ स्त्री [विपादिका] रोग-विशेष, विआर सक [वि + कारय् ] विकृत करना। ७, ६; उप ५६७ टीः सण)बिवाई, या बेवाई (दे ८, ७१)। विपारेदि (शौ) (मा ५१) विअरिय वि [विचरित] जिसने विचरण विआउरी श्री [विजनयित्री] व्यानेवाली, | विआर सक [वि चरण विपरीती विजनयिकी व्यानेवाली विआर सक [वि+चारय] विचारना, किया हो वह विहृत (महा); 'विमलोकयम्ह । प्रसव करनेवाली (णाया १,२-पत्र ७६) विमर्श करना। विद्यारेइ (प्राकृ ७१% भग), चक्खू जहत्थया वियरिया गुणा तुज्झ' विआगर देखो वागर । वियागरेइ, वियागरंति वियारिज (सत्त ३६)। वकृ. विधारयंत (पिंड ४६३) (श्रा १६)। कवकृ. वियारिजंत (सुपा (प्राचा २, २, ३, १; सूत्र १, १४, १८), विअल अक [ भुज् मोड़ना, वक्र करना । वियागरे, वियागरेज्जा (सूम १, ६, २५, | १४८)। संकृ. विआरिअ (अभि ४४) । विअलइ (धात्वा १५२) विसे ३३६; सूत्र १, १४, १९)। वकृ. कृ. विआरणिज (श्रा १४)। विअल प्रक [वि+ ग १ गल जाना, वियागरेमाण (प्राचा २, २, ३, १) विआर सक [वि + दारय ] फाड़ना, क्षीण होना। २ टपकना, झरना। वकृ. विआघाय देखो वाघाय (प्राचा) याय देखो वाघाय (ग्राचा) चीरना । विनारे (अप) (पिंग)। संकृ. विअलंत (गा ३६८ सुर ५, १२७)। वियारिऊण (श २६०) विअल अक [ओजय ] मजबूत होना (संक्षि विआण सक [वि + ज्ञा] जानना, मालूम | | विआर पुं[विकार] विकृति; प्रकृति का ३५)। करना। वियारण्इ, विमाणंति (भगः गा भिन्न रूपवाला परिणाम (हे ३, २३ गउड; विअल वि [विकल] १ हीन, असंपूर्ण (पएह ४८), वियाणासि (पि ५१०), वियाणाहि, वियाणेहि (परण १-पत्र ३९; महा)। १, ३-पत्र ४०)। २ रहित, वजित, वन्ध्य सुर ३, २६ प्रासू ४६) कम. वियाणिजइ ( सट्ठि १६)। वकृ. (सा २)। ३ विह्वल, व्याकुल; 'विप्रलुद्ध | विआर पुं[विचार १ तत्त्व-निर्णय (गउड; वियाणंत, वियागमाण (औप; उव)। रणसहावा हुवंति जइ केवि सप्पुरिसा' (गा विचार १; दं१)। २ तत्त्व-निर्णय के २८५) । देखो विगल = विकल । संकृ. वियाणिआ, वियाणिऊण, विया अनुकूल शब्द-रचना (जी ५१)। ३ ख्याल, सोच; 'अराणो बक्करकालो अपणो कजविविअल सक [विकलय] विकल बनाना । णित्ता (दसचू १, १८; महा; प्रौप; कप्प)। वियलई (सण) प्रारकालो' (कप्पू)। ४ दिशा-फरागत के कृ. वियाणियव्य (उप पृ ६०)। लिए बाहर जाना (पव २; १०१)। ५ विअल देखो विअड = विकट (से ८, २१)। आिण न [विज्ञान] जानकारी, ज्ञान; गमन की अनुकूलता (पव १०४)। ६ विचरण । विअल देखो विदल = द्विदल (संबोध ४४) एक्कपि भाय ! दुलहं जिणमयविहिरियण ७ अवकाश; 'अंतेउरे य दिएणवियारे जाते विअलंबल वि दे] दीर्घ, लम्बा (दे७. सुवियाणं' (सट्ठि १६)। देखो विनाण । यावि होत्था' (विपा १, ५-पत्र ६३)। विआण न [वितान] १ विस्तार, फैलाव विमश, मीमांसा । ६ मत, अभिप्राय (भवि) विअलिअ वि [विगलित] १ नाश-प्राप्त, (गउड १७६, ३८६, ५६२)। २ वृत्ति धवल [धवल] एक राजा का नाम नष्ट (से २, ४५; सण)। २ पतित, टपक विशेष । ३ अवसर । ४ यज्ञ (हे १, १७७; (उप ७२८ टी महा)। भूमि स्त्री [भूमि] कर गिरा हुआ; 'विप्रलिनं उच्चतं' (पान) प्राप्र)। ५ पुन. चन्द्रातप, चंदवा, पाच्छादन दिशा-फरागत जाने का स्थान (कप्प; उप विअल्ल अक [वि + चल.] १ क्षुब्ध होना। विशेष (गउड २००० ११८०; हे १, १७७; १४२ टी). २ अव्यवस्थित होना; 'खलइ जोहा, मुहप्राप्र)। विआरण न [विचारण] १ विचार करना वयणु वियल्लई' (भवि)। | विआणग वि [विज्ञायक] जानकार, विज्ञ (सुपा ४६४, साधं ६०)।२वि. विचार (उप पृ ११६). विअस अक [वि+ कस् ] खिलना। करनेवालाः 'जय जिणनाह समत्थवत्थुपरमत्थविप्रसइ (प्राकृ ७६; हे ४, १९५)। वकृ. विआणण न [विज्ञान] जानना, मालूम वियारण' (सुपा ५२) । ३ वि. विचरण विअसंत, विअसमाण (प्रौप; सुपा २०)। करना (स २६७; सुर ३, ७)। करनेवाला; 'अंबरंतरविवारणिमाहि' (अजि विअसावय वि [विकासक] विकसित | वियाणय देखो विआणग (सम्म १६०; भगः २६)।करनेवाला (गउड)। औप; सुर ६, २१; सण)। विआरण न [विदारग] चीरना, फाड़ना विअसाविअ वि [ विकासित विकसित विआणिअपि [विज्ञात] जाना हमा, विदित (साध ४६; स २४१)।किया हुआ (सुपा २२५) (स २६७; सुपा ३६१ महाः सुर ४, २१४, विआरण देखो वागरण (कुप्र २४५)। विअसिअ वि [विकसित] विकास-प्राप्त १२, ७१, पिंग)। विआरण वि [वैदारण] विदारण-संबन्धी, (गा १३; पान; सुर २, २२२; ४, ५८; विआय सक [वि+ जनय ] जन्म देना, विदारण से उत्पन्न होनेवाला। स्त्री. "णिआ औप) प्रसव करनाः 'गुजराती में 'वियावु"; (नव १६)विअह देखो विजह = वि + हा । संकृ.. 'वियायइ पढम जं पिउगिहे नारी' (उप | विआरणा स्त्री [विचारणा] विचार, विमर्श वियहित्तु (प्राचा १, १, ३, २)। ९६८ टी)। संकृ. विआय (राज)। (उप ७२८ टी स २४७ पंचा ११, ३४)। For Personal & Private Use Only Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ पाइअसहमणवो . विआरणा-विइण्ण विआरणा स्त्री [वितारणा] विप्रतारणा, विआलय वि [विदारक] विदारण-कर्ता | 'पण्णत्ति स्त्री [प्रज्ञप्ति] पाँचवाँ जैन अंगठगाई (उप ६१६) (सूअनि ३६) ग्रन्थ (भग १, १ टी)। विआरय वि [विचारक] विचार करनेवाला | विआलय पुं[विकालक] एक महा ग्रह, | विआह वि [वित्राध] बाध-रहित (भग १, (पउम ८, ५) ज्योतिष्क देव-विशेष (सुज २०). १ टी) पण्णत्ति स्त्री [प्रनप्ति पाँचवाँ विआरि वि [विचारिन] ऊपर देखो (प्रौप)। विआलिउ न [दे] व्यालू, सायंकाल का | जैन अंग-ग्रन्थ (भग १, १ टी)। विआरिअ वि [विचारित] जिसका विचार | भोजन; 'जा महु पुत्तह करयलि लग्गइ सा | विआह स्त्री व्याख्या] १ विशद रूप से किया गया हो वह (दे १, १६८)। अमिएण वियालिउ मग्गई' (भवि)। अर्थ का प्रतिपादन । २ वृत्ति, विवरण ।। विआरिअ वि [विदारित] १ खोला हुआ. | विआलुअ वि [दे] असहन, असहिष्णु (दे पण्णत्ति स्त्री [प्रज्ञप्ति] पाचवाँ जैन अंग ग्रन्थ (भग १, १ टी)। फाड़ा हुमाः 'दूरविनारिअमुहं महाकायं विआव सक [वि + आप्] व्याप्त करना सीह' (णमि १२) । २ विदीर्ण किया हुआ, विआहिअ वि [व्याख्यात १ जिसकी व्याख्या की गई हो वह, वरिणत (श्रा २२)। (प्रामा)iv चीरा हुआ (भवि) २ उक्त, कथित; 'स एव भव्वसत्ताएं चक्खुभूए विआरिअ वि [वितारित] १ अपित, दिया विआवड देखो वावड=ध्यापृत (ोधभा विप्राहिए' (गच्छ १,२६, भग)।गया; 'वालि या सिरोहरा वियारिया दिट्ठी | (स ३३७) । २ ठगा हुमा, विप्रतारित; 'जइ विआवत्त पु[व्यावर्त्त] १ घोष और महाघोष | विइ स्त्री [वृति] रज्जु-बन्धन (प्रौप)। देखो पुण धुत्तेण अहं वियारिओ' (सुपा ३२४)। इन्द्रों के दक्षिण दिशा के लोकपाल (ठा ४, | वइ=वृति । विअइ वि [विदित] ज्ञात, जाना हुआ (पात्र; विआरिआ स्त्री [दे] पूर्वाह्न का भोजन (दे १-पत्र १९८; इक)। २ ऋजुवालिका नदी के तोर पर स्थित एक प्राचीन चैत्य (कप्प)। पिंड ८२; संबोध ४६ स १६२; महा)। | विइइन्न देखो विइकिण्ण (भग १, १ टीविआरिल्ल1 वि [विकारवत् ] विकारवाला, ३ पुंन. एक देव-विमान (सम ३२) पत्र ३७) विआरल्ल विकारयुक्त (प्राप्र; हे २, विआवाय पुं व्यापात भ्रश, नाश (प्राचा विइंचिअ वि [विविक्त] विनाशित (स १५६) । श्री.ल्ला (सुपा १६४) । १, ६, ५, ६ टि) १३५) । विआल देखो विआल = वि + चारय । वकृ. | विआविअ देखो वावढ = व्यापृत (धर्मसं विइंत सक [वि + कृत् ] काटना, छेदना। वियालंत (उबर ८२)। ६७६)। विईतेइ (णाया १, १४ टी-पत्र १८७)।विआल देखो विआर = वि + दारय । कृ. | विआस पुं[विकाश १ मुँह प्रादि की फाड़ विईत देखो विचिंत । वकृ. विइंतंत (गउड वियाणिय (सूअनि ३६; ३७)। खुलापन, 'थूलं वियासं मुहे' (सूत्र १, ५, २, ६७८) ३)। २ अवकाश (गउड २०१)। विआल पुं[विकाल] सन्ध्या, साँझ, सायंकाल | विइकिण्ण वि [व्यतिकीर्ण] व्याप्त, फैला विआस पुं [विकास] प्रफुल्लता (पि १०२; (दे ७,६१ कप्पू: विपा १, ५-पत्र ६३; हुमा (भग १, १-पत्र ३६)भवि)। हे ४, ३७७, ४२४, कस, भवि चारि वि विश्कत वि [व्यतिक्रान्त] व्यतीत, गुजरा विआस देखो वास = व्यास (राज) [चारिन्] विकाल में घूमनेवाला (णाया हुमा (ठा 8--पत्र ४४५; उवा; कप्प) १, १-पत्र ३८; १, ४; प्रौप)। विआसइत्तअ (शौ) वि [विकासयितृक] विइगिंछा । देखो वितिनिछा (प्राचा; विकसित करनेवाला (पि ६००) विआल [दे] चोर, तस्कर (दे ७,६०) विआसग वि[विकासक] ऊपर देखो (सुपा विआल वि [व्याल] दुष्ट; 'मोणं वियालं विइगिट्ठ वि [व्यतिकृष्ट] दूर-स्थित, विप्रकृट ६५८) पडिपहे पेहाए, महिस वियाल पडिपहे पेहाए, | विआसर वि विकस्वर] विकसनेवाला, (बृह १) विइगिण्ण देखो विइकिण्ण (कस) IN चिताचेल्लर वियाल पडिपहे पेहाए' (प्राचा । प्रफुल्ल (षड्)। २, १, ५, ४)। देखो वाल = व्याल ।। विआसि विविकासिन्] ऊपर देखो विइजत देखो वीअ = वीजय ।। विआल देखो विचाल (राज)। विआसिल्लS (पि ४०५, सुपा ४०२, ६) विइजत देखो विकिर ।। विआलग देखो विआलय = विकालक (ठा विआह सक [व्या + ख्या] व्याख्या करना । | विइण्ण वि [विकीर्ण] १ बिखरा हमाः २,३-पत्र ७७) कर्म, विमाहिति (गदि २२६)। 'विइएणकेसी' (उवा) । २ विक्षिप्त, फेंका विआलए देखो विआरण% विचारण (ोष | विआह पुं[विधाह] १ व्याह, परिणयन, | हुआ (से १०,३) । देखो चिकिण्ण, विकिन्न। ६६; विरो १७६; पिंड ५६७)। शादी (गा ४७६; नार-मालती ६)। २ | विइण्ण वि [वितीण] दिया हुआ, अर्पित विआला देखोविआरणा= विचारणा (विसे | विविध प्रवाह । ३ विशिष्ट प्रवाह । ४ वि. (गा ३४६, ६१७ से ८, ६५, १०, ३, हे ५४७ टी पिड ५६७). विशिष्ट संतानवाला (भग १, १ टी) ४, ४४४ महा)। विकासयितक] विइगिंठा । देखो वता) For Personal & Private Use Only Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विइण्ह-विउवसिय पाइअसहमण्णवो ७६६ विइण्ह वि [वितृष्ण] तृष्णा-रहित, निःस्पृह विउक्कस सक [व्युत् + कर्षय ] गवं विउडण न [विनाशन] १ विनाश (स २७ - (से २, १० प्रापः गा६३ १७६)। - करना, बड़ाई करना । विउकसेजा, (सूत्र १, ६६१)। २ वि. विनाश-कर्ता (स ३७ विइत्त देखो विचित्त(गउडः स २३६, ७४०) १३, ६), विउकसे (पाचा १, ६, ४, २) २८२) । विइत्त देखो विवित्त (स ७४०)।- विउक्कस्स [व्युत्कर्ष गर्व, अभिमान (सूत्र विउडिअ वि [विनाशित] नष्ट किया गया १, १, २, १२) (पाअः कुमा; उप ७२८ टी)। विडत्ता । देखो विअ =विद् । -जिट। विइत्ताणं दस विउच्छा देखो वि-उच्छा = विद्-जुगुप्सा ।। विउण वि [विगुण] गुण-रहित, गुण-हीन वित्तिद (शौ) देखो विचित्तिय (स्वप्न विउच्छेअ पुं[व्यवच्छेद] विनाश (पंचा (दे ६, ७८) विउत्त वि[वियुक्त] विरहित, वियोग-प्राप्त १७, १८)। (सुर ३, १२३, १०, १४५, सुपा ११०० विइत्तु देखो विअ = विद्। विउज्जम अक [व्युद् + यम् ] विशेष उद्यम काल; सण) विइन्न देखो विइण्ण - वितीणं (सुर ४, ११) करना। वकृ. 'परिणयपि विउज्जमंताणं' विउत्ता देखो विअत्त = वि + वर्तय ।। विइमिस्स वि [व्यतिमिश्र] मिश्रित, मिला (पउम १०२, १३७) विउत्थिअ देखो विउदिअ (कुप्र २२४॥ हुग्रा (प्राचा) विउझ अक [वि + बुध् ] जागना । ३६६) विउ वि [विद्, विद्वस ] विद्वान्, पण्डित, विउज्झइ (भविः सण)। विउद देखो विउअ%3Dविवृत (प्राप्र)। जानकार (णाया १, १६ उप ७६८ टी सुर | विउट्ट सक [वि + कुट्टय् ] विच्छेद करना, विउद्ध वि [विबुद्ध १ जागृत (सुपा १४०)। १, १३५; सूत्र २, १, ६०, रंभा) विनाश करना। हेकृ. विउट्टित्तए (ठा २, २ विकसित (स ७६८)। पकड स्त्री [प्रकृत] १ विद्वान् द्वारा १-पत्र ५६, कस) विउप्पकड वि [व्युत्प्रकट] अतिशय प्रकान्त । २ विद्वान् द्वारा किया हुआ (भग ७, विउट्ट सक [वि+त्रोटय ] तोड़ डालना।। प्रकट-व्यक्त (भग ७, १० टी-पत्र १० टी-पत्र ३२५; १८,७--पत्र ७५०)। विउट्टइ (सूत्र २, २, २०)। हेकृ. विउट्टित्तए ३२५)। विउअ वि [वियुत] वियुक्त, रहित; 'दव्वं (ठा २, १-पत्र ५६) विउब्भाअ अक [व्युद् + भ्राज ] शोभना, पज्जवविउभं दव्व-विउत्ता य पजवा नत्यि' विउट्ट प्रक [वि + वृत् ] १ उत्पन्न होना। दीपना, चमकना। वकृ. विउम्भाएमाण (सम्म १२) २ निवृत्त होना। विउदृति (सूत्र २, ३, (भग ३, २-पत्र १७३) । विउअ वि [विवृत] १ विस्तृत । २ व्या . १), विउट्ट जा (ठा ८ टी-पत्र ४१८) विउब्भाअसक [व्युद् + भ्राजय ] शोभित ख्यात (हे १, १३१)। विउट्ट सक [वि + वर्तय] १ विच्छेद | करना । वकृ. विउभाएमाण (भग ३, २) विउअ (अप) देखो विओअ = वियोग (हे ४, करना। २ धूमकर जाना । विउट्टति (स विउम वि[ विद्रस 1 विद्वान, विज्ञ; विउम ४१६). १७८)। संकृ. विउट्टाणं (प्राचा १, ८, १, ता पयहिज संथर्व' (सूम १, २, २, ११).. विउंचिआ स्त्री [दे. विचर्चिका] रोग-विशेष, २)। हेकृ. विउट्टित्तए (ठा २,१-पत्र | विउर देखो विदुर (वेणी १३४) । पामा रोग का एक भेद; 'केवि विउचिअपामामनिया सेवा सिरि ११७ विउट्ट देखो विअट्ट = विवृत्त (कप्प)। विउल वि [विपुल] १ प्रभूत, प्रचुर। २ विस्तीणं, विशाल (उवा: औप)। ३ उत्तम, विउंज सक [वि + युज] विशेष रूप से | विउट्टण न [विवर्तन] निवृत्ति (मोघ ७६१) श्रेष्ठ (भग ६, ३३)। ४ अगाध, गम्भीर जोड़ना । विउंजंति (सूत्र २, २, २१)। विउट्टण न [विकुट्टन] १ विच्छेद । २ पालो (प्राप्र)। ५ पृ. राजगिर के समीप का एक विउक्कंति स्त्री [व्युत्क्रान्ति] उत्पत्ति प्रहोनाति - चना, अतिचार-विच्छेद (मोघ ७६१)। ३ | पर्वत (पउम २,३७)°जस [यशस्] विउक्कंतियं चयमाणे' (भग १, ७)। वि. विच्छेद-कर्ता (धर्मसं ६६९) एक जिनदेव का नाम (उप ६८६ टी) मइ विउकंति स्त्री [व्युत्क्रान्ति, व्यवक्रान्ति] विउट्टणा स्त्री [विकुट्टना] १ विविध कुट्टन ।। स्त्री [°मति मनःपर्यव नामक ज्ञान का एक मरण, मौत (भग १, ७) २ पीड़ा, संताप (सूत्र १, १२, २१)। भेद (कम्म १,८ प्रावम)। २ वि, उक्त विउक्कम सक [व्युत् + क्रम् ] १ परित्याग विउष्ट्रिअ वि [व्युत्थित] जो विरोध में ज्ञानवाला (कप्प; औप) अरी स्त्री करना। २ उल्लंघन करना । ३ अक. च्युत [करी] विद्या-विशेष (पउम ७, १३८)। होना, नष्ट होना, मरना। ४ उत्पन्न होना। देखो विपुल विउकमंति (भगः ठा ३,३-पत्र १४१)। विउड सक [वि + नाशय] विनाश विउव देखो विउव्य = वैक्रिय (कम्म ३, २) संकृ. विउकम्म (सूत्र १, १, १, ६; उत्त , - करना। विउडइ (हे ४, ३१)। कम. विउवसिय देखो विओसिय = व्यवशमित १५, प्राचा १, ८, १, २)। विउडिजंति (स ६७६) ६७ For Personal & Private Use Only Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमह विवा [] हिंसा, प्राणिवध ( सू २, ४, ३) विवाय - विओयण विउस वि [ विद्वस् ] विज्ञ, पण्डित (पान विउस्सिय [व्युच्छ्रित] विविध तरह से उप १०६ सुपा १०७; प्रासू ६३: भवि; महा ७७४), 'बा' विउव्व सक[ वि + कृ, वि + कुर्व ] १ 'संसार ते १ १,२, २३) । सम्म २१६) बनाना - दिव्य सामथ्यं से उत्पन्न करना । २ कुत करना मत करना विउम्बद विसर देखो विओसग्ग २ १७४ विउव्वए (भगः कप्पः महा; पि ५०८ ) । यह ) 1 भूकाभिन विस्त(भगविडसन [व्युपशमन व्य विह एक [ यू.] प्रेरणा करता संकृ. विहिता (इस २१, २२) विउ वि [विबुध] १ पण्डित, विद्वान् । २ 9. देव, सुर (ह १, १७७) | देखो विबुह | विऊरिअ वि [दे] नष्ट नाश प्राप्त (दे ७, ७२) । ३. १-पत्र १५९), बिउबिरामि (पि ५३३) । वकृ. विउमाण ( सुज २० ) । विश्वजना (डा १०-पत्र ४०२ ) । संविण वि विव्वित्ता, विउठिबउं (महा) पि ५८५ भग कसः सुपा ४७ ) । हेकृ. विव्वित्तए (पि ५७८) विऊसिर तक [उत् + सृजू] परित्याग करना; 'विऊसिरे विन्तु पवारबंध' (प्राचा २, १६, १) 1 उपशम, उपक्षय । २ सुरत का प्रवसान; 'ता से गं पुरिसे विउसमणकालममसि फेरिए सायासोक्खं पश्चरमाणे विहरति ( सुज्ज २० भग १२, ६ – पत्र ५७८ ) । ३ वि. विनाशकः 'सव्वदुक्खपावारण विउसमरणं' (पराह २ १ – पत्र १०० ) 1 विसमणया स्त्री [ व्यवशमना] उपशम, क्रोध- परित्याग (भग १७, ३ – पत्र ७२६) । विसमय देखो विओसमय (राज) विसरण [म्युत्सर्जन] परित्याग (दस १) 1 विऊह पुं [व्यूह ] रचना - विशेष (पंचा ८, ३०) बिउसरणया की [ब्युस्सर्जना] ऊपर देखो स्त्री (भग; गाया १ १ –पत्र ४६) । विउसब देखो बिओसव ( कस १, ३५ टि ) | बिउसवण देखो विउसमण ( परह २, ४ ७७० विउ न [वैकिय] १ शरीर-विशेष, अनेक स्पष्यों और क्रियायों को करने में समर्थ शरीर ( १०२, १० प १६२ कम्म १, ३७) । २ कर्म- विशेषः वैक्रिय शरीर को प्राप्ति का कारण-भूत कर्म (कम्म १. १३) । ३ वि. वैक्रिय शरोर से संबन्ध रखनेवाला ( कम्म ४, २६) विव्वणया) श्री [चिक्रिया, विकुर्वना ] 7 विव्वणा । १ बनावट, शक्ति विशेष से किया जाता वस्तु निर्माण ( सूनि १६३; औप पउम ११७ ३१ पत्र २३० ) । २ शक्ति-विशेष, वैक्रिय-करण शक्ति (देवेन्द्र २३०) | [दे] विस्ती दुःख-रहित ( १, ६२९) १ fasto a [ वैकियिन् विकुर्विन् ] विकुर्वेणा करनेवाला (उप ३५७ टी) । २ वैक्य-शरीराला (१२३२ ख १६ ३२) । , डियर [चिकृत विकुषित] १ निर्मित बनाया हुआ (भगः महा श्रीपः सुपा ८८) । २ अलंकृत, विभूषित (बृह १) aroora [वैकि] वैक्रिय शरीर से संबन्ध रखनेवाला (कम्म ४, २४) । देखो वेव्वि । विउस सक [ व्युत् + सृज् ] उसाचा २२ २४) ( श्राचा २, १६, १) । फेंकना । सिरे विएअ वि [ वितेजस् ] महान् प्रकाश, 'प्रचतविएएणवि गरुयाण ए व्विति संकप्पा | विदुषी बहुल मोदे अण्डी' बिएड [६] चुगकर, सुवागरा लिए ऊ अ मेरा सुवरवणमुरामं दिए (पराण १ – पत्र ४) । विएस [विदेश] १ देशान्तर परदेश ( सिरि ४६७ ; महा ) । २ कुत्सित ग्राम, खराब पत्र १३१) | गाँव । ३ बन्धन स्थान (गा ७६) । बिसय देखी विओसबिय (६ पिओअ [वियोग] जुदाई, विछोह विरह पुं ३७०) ( स्वप्न ९३ श्रभि ४६; हे १, १७७; सुर ४, १५२६ महा) विउसिज्जा देखो विओसिज्जा (भाचा १, ६, २, २) विउसिरणया देखो विउसरणया (राय १२८) | विउस सक [ वि + उश् ] विशेष बोलना । [वि] विशेष बोलना (१, २, २३ विओइल [वियोजित ] जुदा किया हु ( से ६, ७१; गा १३२ स ६८ सुर १५, २१७)1 संह. विसवेत्ता - पत्र farea or ae ao [वि] विद्वान की तरह श्राचरण करना । विउस्संति (सूम १, १, २, २३) । विसर देखी बिओसग्ग (भग १, २ उत्त ३०, ३०) | विउस्सित्त वि [ व्युत्सित, व्युत्सिक्त ] अभिनिविष्टका चुना (शुभ १, ११, ६) । चिस्सिय वि[व्युषित] विशेष रूप से रहा हुआ (सूत्र १, १, २, २३) For Personal & Private Use Only विजोग देखो विभो (पुर २ २१५४ १५१; महा) । - विओगिय [वियोगित] वियोग-प्राप्त वि (धर्मवि १३१) | विओज सह [ वि + योजय् ] लव करना । विभोजयंति (सूत्र १, ५, १, १६) विओजय वि [वियोजक ] वियोग-कारक ( स ७५० ) 1 विओदर [वृकोदर] भीमसेन, एक पाएडव पुं (नाट - वेणी ३६) । र विओषण न [वियोजन] वियोग, बिछोड़ (सुर १२, ३२) । Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोरमण' (प्रोभा १९० i (रंभा २०)।।.. मंजुल घोषवाला, विओरमण-विकंप पाइअसहमण्णवो ७७१ विओरमण न [व्युपरमण विराधना. विजण देखो वंजण तेत्तीसविजणाई' (चंड)Mविंदावण पुंन [वृन्दावन] मथुरा का एक विनाशः 'छक्कायविप्रोरमणं' (प्रोघभा १९०% विजण देखो विअण = व्यजन; गुजराती में | वन (ती ७)। प्रोध ३२६) विंदुरिल्ल वि [दे] १ उज्ज्वल, देदीप्यमान । विओल विदे] प्राविग्न, उद्वेग युक्त (दे ७, विभ. पुरविन्ध्य पर्वत विशेष, विन्ध्याचल | २ मंजुल घोषवाला, कल-कंठ ! ३ विद्राण, (गा ११५ णाया १, १-पत्र ६४)। २ म्लान । ४ विस्तृत; 'घंटाहि बिंदुरिल्लासुरविओवाय पुं[व्यवपात] भ्रंश, नाश व्याध, बहेलिया (हे १, २५; २, २६; प्राप्र)। | तरुणीविमाणाणुसारं लहंती (कप्पू)।। (पाचाः सूत्र १, ३, ३, ४)। ३ एक जैन मुनि (विसे २५१२) । ४ एक विंद्र देखो वंद्र (प्राकृ ३६)। विओसग्ग पुं[व्युत्सर्ग] १ परित्याग । २ श्रेष्ठि-पुत्र (सुपा ५७८) विद्रावण देखो विंदावण (प्राकृ ३६) ।। तप-विशेष, निरीहपन से शरीर प्रादि का | विंट सक [ वेष्टय ] वेष्टन करना, लपेटना, विध सक [व्यध ] बींधना, छेदना, बेघना। त्याग (प्रौप)। गुजराती में विटवु"; "विटइ तं उज्जाणं विधइ, विधेजा (पि ४८६; भग)। वकृ. विओसमण देखो विउसमण (पराह २, २हयगयरहसुहडकोडीहिं' (सुपा ५७३) । प्रयो, विधंत (सुर २, ६३)। संकृ. विधिअ पत्र ११८, २, ५-पत्र १४६) संकृ. विटाविउं (सुपा १८६) (नाट-मृच्छ २१३) । हेकृ. विधि (स विओसमिय वि [व्यवशमित] उपशान्त | विंट न [वृन्त] फल-पत्र आदि का बन्धन ६२) । कृ. विधेयव्व (सुपा २६६) किया हुमा (कस ६, १ टि)। (हे १, १३६ प्राकृ ४ रंभा; प्रासू १०२) विंधण न [व्यधन] छेदन, बेधनाः 'लक्खविओसरणया देखो विउसरणया (प्रौप)। विंटल न दे] १ वशीकरण विद्या, विओसव सक[व्यव + शमय ] उपशान्त विचरण'-(धर्मवि ५२)। विंटलिअ) 'अन्नाईपि कुंडलवि(?टलवि)करना, ठएडा करना, दबा देना। संकृ. टलाई करलाघवाई कम्माई' (सिरि ५७)। विधिअ वि [विद्ध] जो बेधा गया हो वह, 'तं पहिगरणं प्र-विओसवेत्ता' (कस) २ निमित्त प्रादि का प्रयोग (बृह १); विटलि- | छिन्न (सम्मत्त १५८)। विओसविय । देखो विओसमिय; 'अवि प्राणि पति' (गच्छ ३, १३)। विभय देखो विम्य = विस्मय (भवि) । विओसियोसवियपाहुडे' (कस १, विंटलिआ स्त्री [दे] गठरी, पोटली; गुजराती विंभर देखो विम्हर । विभरइ (पि ३१३)। ३५, ४, ५); 'विप्रोसवियं वा पुणो उदी रि- में "विटलु'; 'ताव कुमरेण खिता तप्पुरमा विभल वि [विह वल] व्याकुल, घबड़ाया त्तए' (कस ६, १, ४, ५ टि)। वथविटलिया', 'तीए विटलियाए' (सुपा हुमाः 'विसविभल' (उप ५६५ टी, कुप्र ६०; विओसिजा भव्युत्सृज्य] परित्याग कर २६१) ५९% भविः मोघ ७३)। (प्राचा १, ६, २, १) विटिया स्त्री [दे] १ गठरी, पोटली (सुख २, विभिअ वि [विस्मित] पाश्चर्य-चकित विओसिय वि [व्यवसित] पर्यवसित, समाप्त ५; उप १४२ टी)। २ मुद्रिका, अंगुलीयक, | 'मोधुणइ दीवो विभ (?भि)प्रो व्व पवणाकिया हुआ (सूभ १, १, ३, ५) । गुजराती में 'वीटी'; 'उच्चारोवरि मुक्का हमो सीसं' (वज्जा ६६, भवि) विओसिय वि [विकोशित] कोश-रहित, करणयमयविटिया नियया' (सुपा ६११), विभिअ देखो विअभि 'सोहग्गविभियासाए' निरावरण, नंगा: "विउ(?प्रो)सियवरासि-' 'पडिवन्नानो मणिविढि(?टि)याहि तह अंगु (वज्जा ८६)। (पएह १, ३–पत्र ४५)। लीपो त्ति' (स ७६) विंसदि (शौ) स्त्री [विंशति] बीस, २० विओसिर देखो विऊसिर (पि २३५)। तिर पुं [व्यन्तर] १ बिच्छू प्रादि दुष्ट जन्तु (प्रयौ २०)। (उप ५६४); 'दुटुारण को न बीहइ वितर-विकंथ सकवि विओह ' [विबोध] जागरण, जागृति +कत्था प्रशंसा करना। सप्पारण व खलाणं' (वजा १२) । २ एक (भवि) विकंथइजा (सूम १, १४, २१)। देव-जाति; "निस्सूगाणं नराणं हि वितरा अवि विख न [दे] वाद्य-विशेष (राज)। विकंप अक [वि + कम्प] हिल जाना, किकरा' (श्रा १२, दं २) विचिणि वि[दे] १ पाटित, विदारित। चलित होना । वकृ. विकंपमाणो (सूत्र १, विंतागी स्त्री [वृन्ताकी] बैंगन का गाछ - २ धारा (दे ७, ६३) १४, १४) विंद सक [विद्] १ जानना । २ प्राप्त करना। विंचुअ पुं[वृश्चिक] जन्तु-विशेष, बिच्छू (हे विकंप सक [वि + कम्पय् ] १ हिलाना, 'धम्मं च जे विदति तत्थ तत्थ (सूत्र १,१४, चलाना । २ त्याग करना, छोड़ना । ३ अपने १, १२८, २, १६; ८६) २७) । वकृ. विंदमाण (णाया १, १-पत्र मंडल से बाहर निकलना । ४ भीतर प्रवेश विछ प्रक [वि+ घट् ] अलग होना । विछ। २६%3 विपा १,२-पत्र ३४) करना । विकंपइ (सुज्ज १, १)। संकृ. (प्राकृ ७१) विंद देखो बंद - वृन्द (भवि; पि ३६८)। विकंपइत्ता (सुज्ज १, ६) विछिअ) देखो विंचअ (हे १, २६,२, विंदारग) देखो वंदारय (सुपा ५०३; नाटबिछुअ, १६ सुख ३६, १४८, पउम विंदारय शकु८८)4°वर पुं[वर] इन्द्र विकंप वि [विकम्प] कम्प, हिलन (पंचा ३६, १७ प्रापः प्राकृ २३ गा २३७ प्र) (सम्मत्त ७५)। १८, १५) For Personal & Private Use Only Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व देखो विअ (राजन खींचना । विकटेखो विगिचण ७७२ पाइअसहमहण्णवो विकच-विक्कइ विकच वि [विकच] विकसित, प्रफुल्ल (दे ७, विकस देखो विअस । विकसइ (षड् ) विकुप्प अक [वि + कुप्] कोप करना। विकसिय देखो विअसिअ (कप्प). विकुप्पए (गा ६६७)। विकट सक [वि+ कृत् ] काटना। वकृ. विकहा देखो विगहा (सम ४६)। विकुव्व देखो विउव्व = वि + कृ, कुर्व । विकटुंत (संथा ६:) विकारिण वि [विकारिन्] विकार-युक्तः विकुवति (पि ५०८) । भूका. विकुध्विंसु विकट्टिय वि [विकृत्त] काटा हुआ (तंदु बालो अविकारिणो अबुद्धीमो' (पउम २६, (पि ५१६)। भवि. विकुव्विसंति (पि ५३३) । वकृ. विकुवमाण; (ठा ३, १-- विकासर देखो विआसर (हे १, ४३)। पत्र १२०)। विकड्ढ सक [वि + कृप] खींचना। विकिइ देखो विगइ = विकृति (विसे २६६८) विकुस पु [विकुश] बल्वज प्रादि तृण विकिंचण देखो विगिचण (मोघमा २०६ (प्रौपा गाया १,१ टी-पत्र ६)। विकड्ढमाण (उवा) टी) विकूड सक [वि + कूटय] प्रतिघात करना। विकत्त देखो विकट । विकतंति (सूत्र १,५, विगिचणया देखो विगिचणया (प्रोषभा । विकडे (बिसे १३३) २,२), विकत्ताहि (पराह १,१-पत्र १८) २०६ टी. ठा ८ टी--पत्र ४४१) 10 विकूण सक [वि+कूणय] घृणा से मुंह विकत्तु वि [विकरित] विक्षेपक, विनाशकः | विकिट वि [विकृष्ट] १ उत्कृष्टः विकिट्ठत- मोड़ना । विकूणेइ (विवे १०६) 'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुक्खाण य सुहाण वसोसियंगों' (महा)। २ न. लगातार चार | विकोअ पुं[विकोच] विस्तार, फैलाव य' (उत्त २०, ३७) दिनों का उपवास (संबोध ५८) । देखो (धर्मसं ३६५, भग ५, ७ टी-पत्र २३६) विकत्थ देखो विकंथ। विकत्थइ, विकत्थसि विगिट्र ।। विकोव देखो विगोव; 'जो पवयणं विकोवइ (उवः कुप्र १२५) । वकृ. विकस्थत (सुपा विकिण सक [वि+ क्री] बेचना । विकिरणइ सो नेप्रो दीहसंसारी' (चेइय ८३०) (हे ४, ५२) विकत्थण न [विकत्थन] १ प्रशंसा, श्वाघा । | विकिणण न [विक्रयण] विक्रय, बेचना विकोवण न [विकोपन] विकास, प्रसार, २ वि. प्रशंसा-कर्ता (पुष्फ ३३०, धर्मवि । (कुमा)। फैलाव: 'सीसमइविकोवणट्ठाए' (पिंड ६७)। ३६)। विकिण्ण वि [विकीर्ण] १ व्याप्त, भरा हुआ विकोवणया स्त्री [विकोपना ] विपाक; विकत्थणा स्त्री [विकत्थना] प्रशंसा, श्वापा (भग) । २-देखो विइण्ण, विकिन्न = _ 'इदिप्रत्थविकोवरणयाए' (ठा ६-पत्र (पिंड १२८)। विकीर्ण (दे)। विकप्प देखो विअप्प (कसः पंचभा)। विकिदि देखो विगइ = विकृति (प्राकृ १२) विकोविय वि [विकोविद] कुशल, निपुण विकप्पण न [विकल्पन] छेदन, काटनाः विकिन्न वि [विकोण] १ प्राकृष्ट (पएह १, (पिंड ४३१) । 'पनोउ(?पउ)लण-विकप्पणाणि ये (पराह १-पत्र १८)। २ देखो विइण्ण =विकीणं विकोस वि [विकोश] कोश-रहित (तंदु १,१-पत्र १८)। (पएह १, ३--पत्र ४५)। २०) विकप्पणा. देखो विअप्पणा (णाया १, विकिय देखो विगिय (मोघमा २८६ टी)।-विकोस अक [विकोशय] १ कोश१६-पत्र २१८)। विकिर प्रक [वि+कृ] १ बिखरना । २ सक. विकोसाय रहित होना, विकसना। २ विकप्पिय देखो विगप्पिअ (राज) फेंकना । ३ हिलाना । कवकृ. विइज्जत, फैलना । विकोसइ (हे ४, ४२)। वकु. विकय देखो विगय = विकृत (पएह १,१– विकिरिजमाण (गउड ३३४ राज)। विकोसायंत (पएह १, ४-पत्र ७८) - पत्र २३, १, ३-पत्र ४५) - विकिरण देखो विकरण (तंदु ४१) । विकोसिअ वि [विकोशित] १ विकसित विकय देखो विकच (पिंग)। विकिरिया स्त्री विक्रिया] १ विविध क्रिया। (कुमा) । २ कोश-रहित, नंगा (णाया १, विकर सक [वि + कृ] विकार पाना । कवकृ. २ विशिष्ट क्रिया (राजा)। देखो विक्किरिया -पत्र १३३)। विकीरंत (अच्नु ४७)। विकीण देखो विकिण । विकीणइ, विकीणए विक्क सक [वि+की] बेचना । वकृ. विकत विकरण न [विकरण] विक्षेपण, विनाश (पउम २६,६)। कवकृ. विक्कायमाण (दस (षड्) 'कम्मरयविकरणकर' (णाया १,८-पत्र विकीरंत देखो विकर। ५, १,७२)। १५२)। विकुच्छिअ वि [विकुत्सित] खराब, दुष्ट विक्क पुं[विक्रय] बेचना (प्रभि १८४ विकराल देखो विगराल (के राज)। (भवि) गठडा सं ४६) विकल देखो विअल = विकल; 'कला विकला विकुज सक [विकुब्जय] कुब्ज करना, विक्कअ देखो विक्कव (षड्) तुझ (कुप्र ८ सिरि २२३; पंचा , ३६)। दबाना। संक्र. विकुन्जिय (प्राचा २, ३, विक्कइ वि [विक्रयिन्] बेचनेवाला (दे २, देखो विगल = विकल । For Personal & Private Use Only Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकंत-विक्खेवणी पाइअसहमहण्णवो ७७३ विकंत देखो विक्क । वकृ. विकिणंत, विकिणित (पि ३६७; विक्खय वि [विक्षत] व्रण-युक्त, कृत-व्रण विकंत वि [विक्रान्त] १ पराक्रमी, शूर सुपा २७६) । संकृ. विकिणिअ (नाट- (भग ७, ६-पत्र ३०७)। (णाया १, १-पत्र २१; विसे १०५६) मृच्छ ६५) विक्खर सक [वि + कृ] १ छितरना, प्रासू १०७ कप्प)। २ पं. पहली नरक विक्किणि वि [विक्रीत] बेचा हुआ (सुपा तितर-बितर करना। २ फैलाना। ३ इधर भूमि का बारहवां नरकेन्द्रक-नरक-स्थान विक्किय ६४२; भवि)। उधर फेंकना । विक्खर इ (कप्पू), विक्खरेज्जा विशेष देवेन्द्र ५) विक्किय देखो विउव्य = वैक्रियः कयवि- (उवा २०० टि)। कवकृ. विक्खरिजमाण विकंति स्त्री [विक्रान्ति] विक्रम, पराक्रम कियरूवो सुरो ब्व लक्खियसि' (सुपा १८७), (राज)। (णाया १, १६-पत्र २११)। 'कत्रिकिय-काओ देवुध' (सम्मत १०४) विक्खवण न [विक्षपण] १ विनाश। २ विकभ देखो विवखंभ = विष्कम्भ (देवेन्द्र | विक्किर सक [वि+का बिखेरना- छितराना, वि.विनाश बज्ज असंखपडिवक्वविक्खवणं फैलाना। कवकृ. विकिरिजमाण (राय (सुपा ४७) । विक्कणण न [विक्रयण] विक्रय, बेचना | विक्खाइ स्त्री [विख्याति] प्रसिद्धि (भवि)। (सुपा ६०६, सट्टि ६ टो)। विक्किरिया स्त्री [विक्रिया] विकृति, विकारः विक्खाय वि [विख्यात] प्रसिद्ध, विश्रुत (पाय सुर १, ४६; रंभाः महा) ।। 'तीए नयणाइएहि विकिरियं कुणइ' (सुपा विक्कम अक [वि + क्रम् ] पराक्रम करना, | ५१४)। देखो विकिरिया। शूरता दिखलाना। भवि. विक्कमिस्सदि विश्वास वि [दे] विरूप, खराब, कुत्सित (शौ) (पार्थ६) | विक्कीय देखो विक्किय = विक्रीत (सर ह..(दे ७,६३) विक्खिण्ण वि [दे] १ आयत, लम्बा। २ १९५; सुपा ३८५)। विक्कम पुं[विक्रम १ शौर्य, पराक्रम (कुमा)। विक्के सकावि+की बेचना । विक्केड. अवतीर्ण। ३ न, जघन (दे ७, ८८)।२ सामथ्यं (गउड)। ३ एक राजा का नाम (सुपा ५६६)। ४ राजा विक्रमादित्य (रंभा विक्केअाइ (हे ४, ५२ प्राप्र धात्वा १५२)। विक्खिण्ण देखो विकिण्ण (कस) । ७) जस पुं[यशस.] एक राजा कृ. विकेज (दे ६, ४० ७, ६६) विक्खित्त वि [विक्षिप्त] १ फेंका हुआ (महा) "पुर न [पुर] एक नगर का विक्केणुअ वि [दे] विक्रेय, बेचने योग्य (दे (पाय; कसः गउड)। २ भ्रान्त, पागल; नाम (ती २१) राय पुं [ राज] एक ___७, ६६) 'पसुत्तविक्खित्तजणे परियणे (उप ७२८ टी; राजा (महा) सेण पू [°सेन] एक ( विक्कोण पुं [विकोण] विकूणन, घृणा से दे १, १३३; महा)। राज-कुमार (सुपा ५६२) इच्च, इत्त मुंह सिकुड़ना (दे ३, २८)। विक्खिर देखो विक्खर । विक्विरेज्जा (उबा)[दित्य] एक सुप्रसिद्ध राजा (गा ४६४ विक्कोस सक [वि + ऋश ] चिल्लाना । विक्विरिअ वि [विकीर्ण] बिखरा हुआ, प्र सम्मत्त १४६; सुपा ५६२; गा ४६४) विक्कोश (मा) (मृच्छ २७) । छितरा हुमा, फैला हुआ (सुर ५, २०६३ विक्कमण पुं [दे] चतुर चालवाला घोड़ा विक्खंभ पुं [दे] १ स्थान, जगह (दे ७, सुपा २४६; गउड)। ८८)। २ अंतराल, बीच का भाग (दे ७, विक्खिा सक [वि + क्षिप्] १ दूर विकमि वि [विक्रमिन् ] पराक्रमी, शूर ८ से १, ५७)। ३ विवर, छिद्र (से __ करना।२ प्रेरना। ३ फेंकना। विक्खिवइ (कुमा) 10 ३, १४)। (महा) । विक्कव वि [विक्लव] व्याकुल, बेचैन (पव विक्खंभ पुं [विष्कम्भ] १ विस्तार (पएण | विक्खिवण न [विक्षेपण] १ दूरीकरण । १६९; प्रातः संबोध २१)। १-पत्र ५२, ठा ४, २-पत्र २२६; दे | २ प्रेरणा (पव ६४) । विक्कायमाण देखो विक्क । ७, ८८; पान)। २ चौड़ाई; 'जंबुद्दीवे दीवे विक्खेव पुं[विक्षेप] १ क्षोभः 'छोहो विक्कि देखो विक्कर; 'ते नाणविक्कियो पुरण । एग जोयणसहस्सं पायामविक्खंभेण परागते' विक्लेवो' (पान)। २ उचाट, ग्लानि, खेद मिच्छत्तपरा, न ते मुरिणणों (संबोध १६) (सम २)। ३ बाहुल्य, स्थूलता, मोटाई (से ५, ३)। ३ ऊँचा फेंकना, ऊध्र्व-क्षेपण विक्किअ वि [दे] संस्कृत, सुधारा हुआ (दस (सुज्ज १, १-पत्र ७)। ४ प्रतिबन्ध, (प्रोषभा १६३)। ४ फेंकना, क्षेपण (गा निरोध (सम्यकत्त्वो ८)। ५ नाटक का एक ५८२)। ५ श्रृगार-विशेष, अवज्ञा से किया अंग (कप्पू)। ६ द्वार के दोनों तरफ के बीच हुआ मण्डन (पएह २, ४-पत्र १३२)। विकिंत वि [विकृत्त छिन्न, काटा हुआ का मन्तर (ठा ४, २-पत्र २२५) - ६ चित्त-भ्रम (स २८२)। ७विलंब, देरी (पएह १, ३-पत्र ५४) । विक्खंभिअ वि [विष्कम्भित निरुद्ध, रोका | (स ७३५)। ८ सैन्य, लश्कर (स २४, विकिंठ देखो विकिट्ट (संबोध ५८) हुआ (सम्यकत्त्वो ८) विकिण सक [वि+की बेचना । विक्किरणइ विक्खण न [दे] कार्य, काम, काज (दे | विक्खेवणी स्त्री [विक्षपणी] कथा का (प्राप्र)। कम. विक्किणीमति (पि ५४८)। ७,६४)। एक भेद ( ४,२-पत्र २१०)। For Personal & Private Use Only Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो विक्खेविया-विगिंच विक्खेविया स्त्री [विक्षेपिका ] व्याक्षेप, विगप्प देखो विअप्प = वि + कल्पय्। वकृ. विगलिंदिय पुं[विकलेन्द्रिय दो, तीन या विक्षेप (वव ६)। विगप्पयंत, विगप्पमाण (सुर ६, २२४० चार इन्द्रियवाला जन्तु (ठा २, २, ३, १विक्खोड सक [दे] निन्दा करना; गुजराती ३, १२४)। पत्र १२१)। में 'वखोडवु" । विक्खोडेइ (सिरि ८२५)। विगप्प पुं[विकल्प] १ एक पक्ष में प्राप्तिः विगम प्रक[वि + कम ] खिलना, फूलना। विखंडिय वि [विखण्डित] खण्डित किया 'चसद्दो विगप्पेण' (पंच ३, ४४)। २ विगसति (तंदु ५३) । वकृ. विगसंत (गाया हुमा (पउम २२, ६२) १,१-पत्र १६) देखो विअप्प = विकल्प (णाया १,१६विग देखो विअ% वृक (पएह १, १-पत्र विगह सक [वि + ग्रह ] १ लड़ाई करना। पत्र २१८; सुर ३, १०२, ४, २२२; सुपा ७; सण; णाया १,१-पत्र ६५)। २ वर्ग-मूल निकालना । ३ समास आदि का १२६ जी २५) । विगइ स्त्री [विकृति] १ विकार-जनक घृत समानार्थक वाक्य बनाना । संकृ. "भूमो भूत्रो विगप्पण देखो विअप्पण (उत्तर २३, ३२ । आदि वस्तु (णाया १, ८-पत्र १२२ विगज्म मूलतिगं' (पंचा २, १८)। महा) उवः सं ७२, श्रा २०)। २ विकार (उत्त विगह देखो विग्गह; 'हालदवविवजिए विगह३२,१०१) विगाप्पअ वि [विकाल्पत १ उत्प्रक्षित, मुके' (गच्छ २, ३३)। विगइ स्त्री [विगति] विनाश (विसे २१४६) कल्पित (पव २; उव) । २ चिन्तित, विधारित विगहा बी विथा1 शास्त्र-विरुद्ध वार्ता. विगइंगाल वि [विगताङ्गार] राग-रहित । (पव १४५) । ३ काटा हुमा, छिन्न; 'हत्थपा । स्त्री आदि की अनुपयोगी बात (भग; उवः सुर (ओघ ५७६) यपाडाच्छन्न कन्ननासावगाप्पम वस ८,२६/ १४, ८८; सुपा २५२; गच्छ १,११)IV विगइच्छ वि [विगतेच्छ] इच्छा-रहित, विगम ' [विगम] विनाश (सुर ७, २२६ विगाढ वि [विगाढ] १ विशेष गाढ, अतिशय निःस्पृह (उप १३० टी ६१३)। १२, १६) निबिड (उत्त १०, ४ टी)। २ चारों ओर से विगंच देखो विगिंच। संकृ. विगंचिउं, विगय वि [विकृत] विकार-प्राप्त (णाया १, | व्याप्त (राज) विगंचिऊण (वव २; संबोध ५७)। २-पत्र ७६; १, ८-पत्र १३३)। विगाण न [विगान] १ वचनीय, लोकापवाद विर्गचण देखो विगिंचणः 'काए कंडूयणे वजे विगय वि |विगत १ नाश-प्राप्त, विनष्ट (दे ३, ३)। २ विप्रतिपत्ति, विरोध (धर्मसं तहा खेलविगंचणं' (संबोध ३)। २६६ चेइय ७५६) (सम्म १३४. विसे ३३७७; पिंड ६१०)। विगार पु[विकार] विकृति, प्रकृति का अन्यथा विगंचिअ देखो विज्ञचिअ (स १३५ टि)। २ पुं. एक नरक-स्थान (देवेन्द्र २६) धूम । परिणाम (उप ९८६ टी; विसे १९८८) 10 विगच्छ प्रक [वि + गम् ] नष्ट होना। वि [ धूम] द्वेष-रहित (ोघ ५७६) वकृ. विगच्छंत (सम्म १३४)। विगारि विविकारिन] विकृत होनेवाला 'सोग [शोक] एक महा-ग्रह, ज्योतिष्क देव-विशेष (ठा २,३-पत्र ७८), देखो विगझ देखो विगह = वि + ग्रह । (पिंड २८०; पउम १०१. ४८) ।। वीअ-सोग सोगा स्त्रो [शोका] विजय- विगाल देखो विआल = विकाल (सुर १, विगड देखो विअग = विकट (पएह १, ४ विशेष की एक नगरी (ठा २, ३–पत्र ८०) पत्र ७८ औप) विगड देखो विअड = विवृत (ठा ३,१टीविगरण न [विकरण] परिष्ठापन, परित्याग विगालिय वि [विगालित] विलम्बित, प्रती क्षित; 'एत्तियमेत्तं कालं विमा (?गा)लियं पत्र १२२)। (कस)। जेण आसाए' (सुर ६. २३)। विगण सक [वि+ गणय ] १ निन्दा विगरह सक [वि + गर्ह ] निन्दा करना। करना। २ घृणा करना। कवक विगणित वक, विगरहमाण (सन २.६.१२) विगाह सक।वि+ गाह । १ अवगाहन करना । २ प्रवेश करना । संकृ. विगाहिआ (तंदु १४)। विगराल वि [विकराल] भीषण, भयंकर | (सम ५०) विगत्त सक [वि + कृत् ] काटना, छेदना।। (सुपा १८२:५०५; सण) - विगिंच सक [वि+विच्] १ पृथक् संकृ. विगत्तिऊणं (सूम १, ५, २, ८) विगल सक[ वि+ गल] टपकना, चूना । करन, अलग करना । २ परित्याग करना । विगत्त वि [विकृत] काटा हुमा, छिन्न विगलइ (षड् )। ३ विनाश करना। विगिचइ, बिगिचए, (पएह १, १-पत्र १८)। विगल [विकल] १ विकलेन्द्रिय-दो, विगिचंति (आचा; कसः श्रावक २६२ टी; विगत्तग वि [विकर्तक] काटनेवाला (सूत्र तीन या चार ज्ञानेन्द्रियवाला जन्तु (कम्म ३, सून १, १, ४, १२; पिड ३६६), विगिंच २, २, ६२) १३, ४, ३, १५, १६ जी ४१)। २ देखो (सूम १, १३, २१: उत्त ३, १३; पिड विगत्तणा स्त्री [विकर्तना] छेदन (उव)। विअल = विकल (उवः उप पृ १८१; पंचा ३६५)। वकृ. विगिचंत, विगिचमाण विगत्थय वि [विकत्थक] प्रशंसा करनेवाला, १४, ४७) देस पुं[देश] नय-वाक्य (श्रावक २६२ टी; पाचा)। संकृ. विगिंचिप्रात्मश्लाघा करनेवाला (भवि)। (अज्झ ६२) ऊणं, विगिचित्ता (पिंड ३०५; आचा)। For Personal & Private Use Only Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचिण-विचित क. विचि (पिड ३९८ ) । कृ. विचिप (प ५७० ) 1 विचिण न [विवेचन ] परिष्ठापन, परित्याग (पिंड ४८३; कस) । विचिणा [निवेचना ] १ निर्जरा, (ठा ८ - पत्र विमिचाण ४४९) २ परित्याग (घोषभा २०१; स ५१ ओघ ६०६०८७) । विगच्छा श्री [विचिकित्सा ] संदेह, संशय, बहम (श्री ३ पडि) Iv 2 बिग देखो विका ० थोवावसेससंसारा' (पउम २, ८३, ४, २७ गच्छ २, २५; उत्त३६, २५३) खमग 9 [अपक] तपस्वी साधु (राज) मतिय [["भक्तिक] लगातार चार या उससे अधिक दिनों का उपवास करनेवाला (कप्प ) । विगिय देखो विग - विकृत ( श्रोषभा २८६ ) । विगिला } एक [वि + ग्लै] विशेष ग्लान गिला होना, विन्न होना। विगिलाइ विगिलाएजा (पि १३६६ श्रचा २, २, ३, २८) त्रिगुण वि [विगुण] १ गुण-रहित (सिरि १२३३: प्रासू ७१) । २ अननुगुरण, प्रतिकूल (पंचा ६३२) वित्त वि[[गुप्त ] १ तिरस्कृत, अवधीरित ( श्रा १२) । २ जो खुला पड़ गया हो वह, जिसकी पोल खुल गई हो वह, जिसकी फजीहत हुई हो वह 'सदुक्कयवित्तो' (श्रा १४ धर्मवि ७७)। पाइअसद्दमहणवो विष्णुप्यहि (अप) (भवि)। संकृ. विगोविता, विगोवइन्ता (कप्प खाया ११६ पत्र २४४) विगोत्रण न [विक्रोपन ] विकास; 'तहवि य दंसिज्जतो सीसमइविगोवरणमदुट्टा' (श्रावक २२८) | च विगाह [विग्रह] १ वक्रता, बांक (डा २, ४- पत्र ८६ ) । २ शरीर, देह (पात्रः स ७२६१२३ बुद्ध लड़ाई (स ६३४) । ४ समास आदि के समान अर्थवाला वाक्य ( विसे १००२ ) । ५ विभाग ( ठा १०) ६ इति बाकार 'वरदर' (२) ["गवि] व गति गति (डा २१ पत्र ५५ भग 1 विमाहिय [ वैग्रहिफ] शरीर के अनुष्क 'विग्गहिय उन्नयकुच्छी' (परह १, ४ पत्र ७८)1 बिग्गहीअ वि [विग्रहिक ] युद्ध-प्रिय 'जे विग्गहीए बनायभाती (१, १२, ६) विग्गाहा (अप) स्त्री [विगाथा ] छन्द-विशेष (पिंग) 1 विग्गुत्त वि [दे] व्याकुल किया हुआ (भवि) 1 विग्गुत्त देखो विगुत्त (धर्मवि ५८ ६८ ) । विग्गेव देखो विगोव । संकृ. विग्गोवित्ता (कप्प; श्रौप) ~ विग्गोत्र पुं [दे] श्राकुलता, व्याकुलता (दे ७, ६४; भवि; वजा २३) । विग्गोचणया स्त्री [विगोपना] १ तिरस्कार | २ फजीहत (उप) 1 विप्प देखो विगोव विगुव्वणा देखो पिपणा (डा १-पत्र विग्ध न [विन] १ अन्तराय, व्यापात १६) 1/ प्रतिबन्ध (सुपा ३६५; कुमाः प्रासू ५४ विगुब्बिय तेलो बिउ V (१९ ३२) । गो[] जिसका दोष प्रकट किया गया हो वह (सरग) विगोव सक [ वि + गोपय ] १ प्रकाशित करना। २ तिरस्कार करना । ३ फजीहत करना भवन वे भोदुं सुद्दिक्खं पवजिय अप्पारां विगोविस्सं' (मोह १०) कर्म व धर्म १२४), १३५; कप्प; कम्म १, ६१; षड् ) । २ कर्मविशेष, आत्मा के वीर्य, दान प्रादि शक्तियों का घातक कर्म (कम्म १, ५२, ५३ ) कर वि [°कर] प्रतिबन्ध-कर्त्ता (कम्म १, ६१) । ६ वि [घ] विघ्न नाशक (श्रु ७५) । वि[व] वाला (सुर १, ४३) विग्धर वि [विग्रह] गृह-रहित; तर विग्धरनिरंगणोवि न य इच्छियं लहई' ( गाया १, १० टी-पत्र १७१) । W For Personal & Private Use Only ७७५ विधिवनि [विभिन] विघ्नयुक्त (हम्मीर १४) विपुटुव [वि] चिल्लाया हुआ (दिपा १, २ -- पत्र २९ ) । देखो विघुटु विघट्ट सक [ वि + घट्टय् ] १ वियुक्त करना । २ विनाश करना। विघट्टेइ ( जव) | विपणन [विघट्टन] विनाश (नाट विघङग देखो विहडण (राज) 1 विधत्य [विधस्त विद्यस्त] १ विशेष रूप से भक्षित। २ व्याप्तः वाहिविघत्यस्स मत्तस्स' (महा; प्राप्र ) 1 पिपर देखो विचर (उप) विधाय पुं [विघात] विनाश (कुमा) | विधाय [विघातक ] नाकर्ता (४२) । विघुट्ठ न [विघुष्ट] विरूप आवाज करना ( प ह १, ३ - पव ४५) । देखो विग्घुटु । विधुम्म अक [ वि + चूर्णय् ] डोलना । a. विघुम्ममाण (सुर ३, १०६) विचक्खु वि [ विचक्षुष्क ] चक्षु-रहित, अन्धा (उप ७२८ टी) 1 विचश्चिया स्त्री [ विचर्चिका ] रोग-विशेष, पापा (राज) - चि[िविचलित] चलायमान होते. वाला (सण) - विचल्लिय वि [ विचलित ] चंचल बना हुआ (भवि) 1 विचार देखो विआर = वि + चारम्। विचा(मृद्ध १०४ ) 1 विचार वि[विचारक ] विचार-कर्ता (रंभा)। विचारण देखो विआरण = विचारण (कुप्र ३६७) 1 विचारणा देखो विआरणा = विचारणा ( धर्मसं ३०६ ) | विवाल न [विचाल ] अन्तराल (दे ७, 55) ~ विचिअ वि [विचित] चुना हुआ (दे ७, ९१ ) 1 विति सक [वि+वितय् ] विचार करना । विचिते (महा) । वकृ. विचिंतेंत ( सुर १२, १६६ ) । कृ. विचितियव्व, विचिति (पंचा ४६.५० ॥ Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो विचिंतण-विच्छिण्ण विचितण न [विचिन्तन] विचार, विमर्श | विचेयण वि विचेतन] चैतन्य-रहित, २ ठाटबाट, सजधज, धूमधाम; 'महया निर्जीव (उप पृ ४६) विच्छड्डेणं सोहणलग्गम्मि गुरुपमोएणं । विचितिअ वि [वि चन्तित] विचारित | विचेल वि [विचेल] वस्त्र-वजित, नंगा (पिंड | कमलावई उ रत्ना परिणीया (सुर १, १६६% (सुर ८, ३)। कुप्र ४१, सम्मत्त १६३ धर्मवि ८२)विचिंतिर वि [विचिन्तयितु] विचार-कर्ता विच सक [वि + अय् ] व्यय करना। विच्छड्डि स्त्री [विच्छर्दि] १ विशेष वमन । (श्रा १२, सण)। विच्चेइ (ती ८)। देखो विव्व । २ परित्याग (प्राप्र)। ३ विस्तार: 'निम्मलो विचिक्की स्त्री [दे] वाद्य-विशेष (राय ४६) विश्च पुन [दे] व्यूत, बुनने की क्रिया (राय केवलालोअलच्छिविच्छि-( ?च्छ )ड्डिकारों विचिगिच्छा स्त्री [विचिकित्सा] संशय, ६२) । (सिरि १०६१)। धर्म-कार्य के फल की तरफ संदेह (सम्मत्त विच्चन [दे. वमन् 1१बीच, मध्यः | विच्छड्डिअ वि [विच्छदित १ परित्यक्तः ६५) "विच्चम्मि य सज्झाओ कायव्वो परमपयहेऊ 'पामुक्कं विच्छडिअं अवहत्थिनं उज्झिनं चत्त विचिट्टि वि [ विचेष्टित] १ जिसकी (पुप्फ ४२७), "ठिो अहं कूडकवाडविच्चे (पानः णाया १, १; ठा ८ प्रौप)। २ कोशिश की गई हो वह (सुपा ४७०)। २ (निसा १६)। २ मार्ग, रास्ता (हे ४, विक्षिप्त, फेंका हुमा (से १०, ४६)। ४ न. चेष्टा, प्रयत्न (उप ३२० टी)। ४२१; कुमाः भवि) विच्छादित, पाच्छादित (हम्मीर १७)। विचिण । सक [वि + चि] १ खोज | विञ्च सक [दे] समीप में आना। विच्चइ विच्छड्डमाण देखो विच्छड्डु = वि + छर्दय ।। विचिण्ण) करना। २ फूल आदि चुनना। (भवि) विच्छद्दिअ देखो विच्छड्डिअ (नाट–मालती विचिणंति (पि ५०२)। वकृ. विचिण्णंत विच्चवण न [विच्यवन] भ्रंश, विनाश १२६) IV (मा ४६)(विसे २६१)। विच्छय वि [विक्षत] विविध तरह से विचित्त वि [विचित्र] १ विविध, अनेक | विचामेलिय वि [व्यत्याम्रडित] १ भिन्न पीड़ित (सूम १, २, ३, ५)। देखो विक्खय।। तरह का; 'विचित्ततवो कम्मेहि' (महाः भिन्न अंशों से मिश्रित । २ प्रस्थान में ही विच्छल देखो विब्भल (षड् ४०) राया प्रासू ४२) । २ अद्भुत, माश्चर्यकारक छिन्न हो कर फिर ग्रथित, तोड़ कर साधा विच्छवि वि [विच्छवि] १ विरूप प्राकृति'विहिणो विचित्तयं जाणिऊणं' (सुर १३, हुमा (विसे ८५५) । वाला, कुडौल (पएह १, ३–पत्र ५४) । ४)। ३ अनेक रंगवाला, शबल (णाया १, विचाय पुं [वित्याग] परित्याग; 'पूयम्मि र २ . एक नरक-स्थान (देवेन्द्र २८) ६; कप्प)। ४ अनेक चित्रों से युक्त (कप्प; वीयरायं भावो विप्फुरइ विसयविच्चाया' विच्छाइय वि [विच्छायित] निस्तेज किया सुज्ज २०)। ५ पृ. पर्वत-विशेष (पएह १, (संबोध ८) हुआ (सुपा १६६) ५-पत्र ६४)। ६ वेणुदेव और वेणुदारि विच्चि स्त्री [वीचि] तरंग, कल्लोल (पउम विच्छाय वि [विच्छाय] निस्तेज, कान्तिनामक इन्द्रों का एक लोकपाल (ठा ४,१- १०६, ४१)। रहित, फीका (सुर ४, १०६; कप्पू, प्रासू १३७; महा; गउड) पत्र १९७)। कूड पुं[कूट] शीतोदा नदी विच्चु । देखो विंचुअ (उप ५६३, पि के किनारे पर स्थित पर्वत-विशेष (इक) विच्छाय सक [विच्छायय ] निस्तेज विच्चुअ) ५०; परण १-पत्र ४६)। करना'विच्छाएइ मियंक तुसारवरिसो पक्ख पुं[पक्ष] १ वेणुदेव और वेणुदारि | विच्चुइ श्री [विच्युति] भ्रश, विनाश अणुगुरगोवि' (गउड) । वकृ. विच्छाअंत नामक इन्द्रों का एक लोकपाल (ठा ४,१- (विसे १८०)। पत्र १९७; इक)। २ चतुरिन्द्रिय जंतु की (कप्पू)।विच्चोअय न [दे] उपधान, प्रोसीसा (दे ७, विच्छिअ वि [दे] १ पाटित, विदारित । एक जाति (पएण १---पत्र ४६)। २ विचित, चुना हुपा। ३ विरल (दे ७, विचित्ता श्री [विचित्रा] ऊर्ध्व लोक में | विच्छ देखो विअ = विद् । ६१)। रहनेवाली एक दिक्कुमारी देवी (ठा ७- विच्छड्ड सक [वि + छर्दय ] परित्याग विच्छिअ देखो विछिअ (उत्त ३६, १४८; पत्र ४३७) । २ अधोलोक में रहनेवाली एक करना। वकृ. विच्छड्डेमाण (गाया १, पि ५०; ११८३०१) दिक्कुमारी देवी (राज) १८-पत्र २३६ )। संकृ. विच्छड्डइत्ता विच्छिद सक [वि + छिद् ] तोड़ना, विचित्तिय वि [विचित्रित] विचित्रता से (कप्प) अलग करना । विच्छिंदइ (पि ५०६) । भवि. युक्त (सरण) विच्छड्ड पुं[विच्छद] १ ऋद्धि, वैभव, विच्छिंदिहिति (पि ५३२) । वकृ.विच्छिदविचुणिद (शौ) देखो विचिअ (नाट- संपत्ति (पामा दे ७, ३२ टी; हे २, ३६ माण (भग ८,३--पत्र ३६५)। मालती १४१) षड्) । २ विस्तार (कुमाः सुपा १९२) विच्छिण्ण वि [विच्छिन्न] अलग किया विचुन्नण न [विचूणेन] चूर-चूर करना, विच्छड [दे]१ निवह, समूह (दे७, हुमा (विपा १, २ टि-पत्र २८ नाटटुकड़ा-टुकड़ा करना (द्र ३०) | ३२ गउड से २,२,६,७२: गा ३८७)।। मुच्छ ८६) For Personal & Private Use Only Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विच्छित्ति-विजय पाइअसहमहण्णवो ७७७ ८०) IN विच्छित्ति स्त्री [विच्छित्ति] १ विन्यास, | विच्छेअय वि [विच्छेदक] विच्छेद-कर्ता विजंभ देखो विअभ = वि + जृम्भ । व. रचना (पाना स ६१५; सुपा ५४ ८३; (भवि) विजंभंत (काप्र १८६) २६०; गउड)। २ प्रान्त भाग (सुर ३, विच्छेइ वि[विच्छेदिन] ऊपर देखो (कुप्र विजढ विवित्यक्त] परित्यक्त (उत्त ३६, ७०)। ३ अंगराग (गा ७८०)। २२) । ८३ सुख ३६, ५३; मोघ २४६) विच्छिन्न देखो विच्छिण्ण (विपा १, २ टो- विच्छेइअ वि विच्छेदित विच्छिन्न किया विजण देखो विअण = विजन । 'लक्खरण ! पत्र २८) v हुआ (नाट-विक्र ८२) देसो इमो विजणो' (पउम ३३, १३; हे १, विच्छिव सक [वि + स्पृश 1 विशेष रूप विछोइय वि [दे] विरहित (भवि)। १७७ कुमा)से स्पर्श करना । कवकृ. विच्छिप्पमाण विच्छोड देवो विच्छोल। संकृ.विच्छोडिवि विजय सक [वि + जि] १ जीतना, फतह (कप्पा प्रौप)। (अप) (हे ४, ४३६) करना। २ प्रक. उत्कर्ष से वर्तना, उत्कर्षविच्छिव सक [वि + क्षिप ] फेंकना । विच्छोम पुंदे. विदर्भ] नगर-विशेषः | युक्त होना। विजयइ (पव २७६-गाथा संकृ. विच्छिविन (नाट–चैत ३८) 'विदर्भ विच्छोमो' (प्राकृ ३८)। १५६६); "विजयतु ते पएसा विहरेइ जत्थ विच्छ । देखो विंचुअ (गा २३७: जी विच्छुअ वीरजिनाहो (धर्मवि २२)। कृ.विजेतव्य विच्छोय पुं [दे] विरह, वियोग (भवि) । १८ उत्त ३६, १४८, प्रासू १६ पाया १,८-पत्र १३३) (पै) (कुमा)। देखो विच्छोह । विच्छुडिअ वि [विच्छुटित] १ बिछुड़ा विच्छोल सक [कम्पय ] कॅपाना । विच्छो- विजय ' [विजय १ निर्णय, शास्त्र के अर्थ हुआ, जो अलग हुआ हो, विरहित; 'जहवि | लइ (हे ४, ४६)। वकृ. विच्छोलंत, का ज्ञान-पूर्वक निश्चय (ठा ४,१-- १८८ हु कालवसेणं ससी समुद्दाप्रो कहवि विछु विच्छोलित (कप्पू: सुर १०, १०७१५, सुज १०, २२)। २ अनुचिन्तन, विमर्श (?च्छ)डिप्रो' (वज्जा १५६) । २ मुक्त (औप) (राज)। | विच्छोलिअ वि [कम्पित] कॅपाया हुआ विजय पुं[विजय] प्राश्रय, स्थान (दस ६, विच्छुरिम वि [दे] अपूर्व, अद्भुत (षड्) (कुमाः गउड)। ५६)। विच्छरिअ वि [विच्छुरित] १ खचित, | विच्छोलिअ वि [विच्छोलित] धौत, धोया | | विजय ' [विजय] १ जय, जीत, फतह जड़ा हुआ; 'खचिग्नं विच्छुरिअयं जडिप्रं' | हुमा; 'धोनं विच्छोलिय' (पान)। (कुमा; कम्म १, ५५, अभि८१)। २ एक (पान)। २ संबद्ध, जोड़ा हुमा (से १४, | विच्छोव सक[दे] वियुक्त करना, विरहित | देव-विमान (अनुः सम ५७, ५८)। ३ ७६) । ३ व्याप्त (पउम २, १०१, सुपा ६; विजय-विमान-निवासी देवता (सम ५६)। करनाः २१२, सुर २, २२१) ४ एक मुहूर्त, आहोरात्र का बारहवाँ या ___ 'कालेण रूढपेम्मे परोप्पर विच्छह सक [वि + क्षिप ] फेंकना, दूर सतरहवाँ मुहूर्त (सम ५१, सुज्ज १०, १३ हिययनिव्वडियभावे। करना । विच्छुहइ (से १०, ७३ गा ४२४ कप्पा गाया १,८-पत्र १३३)। ५ भग अकलुणहियो एसो प्र)। कृ. विच्छूढव्य (से १०, ५३) वान् नमिनाथजी का पिता (सम १५१) । विच्छोवइ सत्तसंघाए विच्छह प्रक [वि + क्षुभ् ] विक्षोभ करना, ६ भारतवर्ष के बीसवें भावी जिनदेव (सम (स १८६)। चंचल हो उठना । विच्छुहिरे (हे ३, १४२) विच्छोह पुंदे विरह, वियोग (दे ७, ६२, १५४० पद ४६)। ७ तृतीय चक्रवर्ती के पिता का नाम (सम १५२) । ८ आश्विन मास विच्छूढ वि [विक्षिप्त] १ फेंका हुआ, दूर हे ४, २६६) । (सुज्ज १०, १६)। भारतवर्ष में उत्पन्न किया हुआ (से ६, १६) । २ प्रेरित (पास) विच्छोह [विक्षोभ] १ विक्षेपः 'जे संमु द्वितीय बलदेव (सम ८४; १५८ टीः अनु; विच्छूट वि[दे] वियुक्त, विरहित, विघटितः | हागप्रबोलतवलिअपिअपेसिप्रच्छिविच्छोहा (गा पव २०६) । १० भारतवर्ष का भावी दूसरा 'विच्छूढा जूहायो' (स ६७८) २१०), 'पुलइयकवोलमूला विमुक्कडक्ख बलदेव (सम १५४)। ११ ग्यारहवें चक्रवर्ती विच्छूढव्व देखो विच्छह = वि + क्षिप् । विच्छोहा (सम्मत्त १६१)। २ चंचलता राजा का पिता (सम १५२)। १२ एक राजा विच्छेअ ' [दे] १ विलास । २ जघन (दे (उप पृ १५८) (उप ७६८ टी)। १३ एक क्षत्रिय का नाम विछल सक [वि+ छलय ] छलित करना, (विपा १,१-पत्र ४)। १४ भगवान् चन्द्रविच्छेअ [विच्छेद] १ विभाग, पृथकरण | ठगना । कर्म. विछलिजइ (महा)। प्रभ का शासन-देव (संति ७)। १५ जंबू(विसे १००६)। २ वियोग (गा ६१३)। विछोय देखो विच्छोव। विछोयइ (स १८६ द्वीप का पूर्व द्वार। १६ उस द्वार का ३ अनुबन्ध-विनाश, प्रवाह-निरोध (कप्पू) टि)। अधिष्ठाता देव (ठा ४, २-पत्र २२५)। विच्छेअण न [विच्छेदन] ऊपर देखो विजइ वि [विजयिन्] विजेता, जीतनेवाला १७ लवण समुद्र का पूर्व द्वार। १८ उस (राज) (कप्पू: नाट-विक्र ५) द्वार का अधिपति देव (ठा ४, २--पत्र. ६८ For Personal & Private Use Only Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो विजयंता-विजय २२६; इक)। १६ क्षेत्र विशेष, महाविदेह विजया स्त्री [विजया] भगवान् शान्तिनाथ विजुत्त वि [वियुक्त] विरहित (धर्मसं वर्ष का प्रान्त-तुल्य प्रदेश (ठा ८-पत्र ४३५ को दीक्षा-शिविका (विचार १२६)। १७४)। इक जं)। २० उत्कर्षः 'जएणं विजएर्ण विजया स्त्री [विजया] १ भगवान अजित विजयभगवान अजित- विजुरि (अप) स्त्री [विद्युत् ] बिजली वद्धावेइ (गाया १,१-पत्र ३०; प्रौप; आप नाथजी की माता का नाम (सम १५१)। (पिग) राय)। २१ पराभव करके ग्रहण करना २ पाँचवें बलदेव की माता (सम १५२)। विजहविविज्यष्ठ मध्यम; 'जट्ठ विजट्ठा (कुमा)। २२ विक्रम की प्रथम शताब्दी के ३ अंगारक मादि ग्रहों की एक पटरानी (ठा की एक पटरानी करिगट्ठा य' (चेइय १५३)। एक जैन आचार्य (पउम ११८, ११७)। ४,१-पत्र २०४) । ४ विद्या-विदेश (पउम विजेतव्य देखो विजय = वि + जि । २३ अभ्युदय (राय)। २४ समृद्धि (राज)। ७, १४१) । ५ पूर्व-रुचक पर रहनेवाली एक विजोज सक [वि + योजय 1 वियोग २५ धात की खण्ड का पूर्व द्वार (इक)।। दिक्कुमारी देवी (ठा ८-पत्र ४३६)। ६ करना, अलग करना। संकृ. विजोजिय २६ कालोद समुद्र, पुष्कर-वरद्वीप तथा पांचवें चक्रवर्ती राजा की पटरानी-श्री-रत्न (पंच ५.१२६)पुष्करोद समुद्र का पूर्व द्वार ( राज)। (सम १५२)। ७ विजय नामक देव को विजोजण न वियोजना वियोग, विरह २७ रुचक पर्वत का एक कूट (ठा ८-पत्र राजधानी (सम २१)। ८ वप्रा नामक विजय (मोह १८)४३६; इक)। २८ एक राजकुमार (धम्म की राजधानी (ठा २, ३-पत्र ८०; इक)। विजोजिअ वि [वियोजित] जुदा किया ११)। २६ छन्द-विशेष (पिंग)। ३० वि. ६ पक्ष की सातवीं रात (सुज्ज १०, १४)। हुमा (कुप्र २८०) जीतनेवाला; 'वरतुरए विहगाहिवविजयवेगधरे' १० एक थेष्ठिनी (सुपा ६२६)। ११ भगवान् विजोयावइत्त वि [वियोजयितु] वियोजक, (सम्मत्त २१६) + 'चरपुर न [°चरपुर] विमलनाथजो की शासन-देवी (पद २७ संति अलग करनेवाला (ठा ४, ३-पत्र २३८% एक विद्याधर-नगर (इक). "जत्ता स्त्री १०)। १२ भगवान् सुमतिनाथजी को दीक्षा २३६) [ यात्रा] विजय के लिए किया जाता प्रयाण शिबिका (सम १५१)। १३ एक पुष्करिणी (धर्मवि ५६) °ढक्का स्त्री [ ढक्का] विजय विजोहा स्त्री [विजोहा] छन्द-विशेष (पिंग)। (इक)। सूचक भेरी (सुपा २६८)। देव पुं["देव] विजल वि [विजल] १ जल-रहित (गउड)। विज्ज अक [विद्] होना । विज्जइ विज्जए अठारहवीं शताब्दी का एक जैन आचार्य २ न. जल-रहित पंक (दस ५, १, ४)। (षड्; कसा भग; महा), विज्जई (सूम १, (प्रज्झ १), 'पुर न [पुर] नगर-विशेष देखो विज्जल। ११, ६) । वकृ. विजंत; विज्जमाण (सुर (इक २२३, २२४० ३२६) V"पुरा, पुरी २, १७६; पंचा ६, ४७) । स्त्री [पुरी] पक्ष्मकावती नामक विजय विजह सक [वि+हा परित्याग करना। विजहइ (पि ५७७) । संकृ. विजहित्तु (उत्त विज सक [वीजय ] पंखा चलाना, हवा क्षेत्र की राजधानी (ठा २, ३-पत्र ८०; करना। कर्म. विज्जिज्जइ (भवि)। कवकृ. इक) माण पुं[ मान] एक जैन प्राचार्य ८,२) (द्र ७०) । °वंत वि [वत् ] विजयी, विजहणा स्त्री [विहान] परित्याग (ठा ३, विजिज्जत (पउम ६१, ३७; वज्जा ३६) ।। विज पुं [वैद्य] चिकित्सक, हकीम (सुर विजेता (ति १४)+ वित्त न [वर्त] चैत्य १२, २४ नाट - विक्र ६५)। विशेष (कल्पटिप्पनक) वद्धमाण पॅन विजाइय वि [विजातीय] भिन्न जाति का, विज पुं. ब. [दे] देश-विशेष (पउम ६८, [वर्धमान] ग्राम-विशेष (विपा १,१) दूसरी तरह का (उप १२८ टी)। वेजयंती स्त्री [वैजगन्दी] विजय-सूचक विजाण देखो विआण = वि + ज्ञा। संकृ. | विज्ज पुं[विदूस् , विज्ञ] पण्डित, जानकार पताका (प्रौप)v°सायर पुं[सागर] एक विजाणित्ता, विजाणिय (कप्प)। (हे २,१५ कुमाः प्राकृ १८ सूत्र १,६, सूर्यवंशी राजा (पउम ५, ६२) "सिंह, विजाणग) वि [विज्ञायक] जाननेवाला, सीह पुं [सिंह] १ सुप्रसिद्ध प्राचीन जैना- विजाणय विज्ञ (प्राचा; सूप्रनि १४५) । विज देखो वीरिअ (पउम ३७, ७०)। चार्य (सुपा ६५८)। २ एक विद्याधर राज- विजाणुअ वि[विज्ञ, विज्ञायक] ऊपर देखो कुमार (पउम ६, १५७)+ "सूरि पुं[सूरि] विज' देखो विजा । उझर (अप) देखो (प्राकृ१८) चन्द्रगुप्त के समय का एक जैन आचार्य (धर्मवि | विज्जा-हर (पि २१६) स्थि वि [थिन] विजादीअ (शौ) देखो विजाइय (नाट-चैत ४४) सेण पुं[सेन] एक प्रसिद्ध जैन । छात्र, अभ्यासी (सम्मत्त १४३)। ८८) । प्राचार्य जो पाम्रदेव सूरि के शिष्य थे (पव विज देखो विज्जु (कुप्र ३६६)। २७६-गाथा १५६६)।विजाय न दे] लक्ष्य, निशानाः 'लखं | "विजंतअ देखो पिजंत (से २, २४ पि विजयंता । स्त्री [वैजयन्ती] १ पक्ष की विजायं' (पास) विजयंत पाठवों रात (गुजज १०, १४)। विजिअ वि [विजित] पराभूत, हारा हुआ | विजय न [बंद्यक दिगिएसा (उर ८, १०, २ एक रानी का नाम (उस ७२८ टी)। भवि)। For Personal & Private Use Only Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजल-विज्जोविय पाइअसद्दमण्णवो ७७६ विज्जल ( [विजल] १ नरकावास-विशेष, विजाडय देखो विज्झिडिय (राज) ३२६) । ७ न. एक विद्याधर-नगर (इक एक नरक-स्थान (देवेन्द्र २८)। २ वि. जल-विज्जु [विद्यत्] १ विद्याधर-वंश का ___३२९) मई स्त्री [मती] एक स्त्री का रहित (निचू १) एक राजा (पउम ५, १८) । २ देवों की एक नाम (पएह १, ४-पत्र ८५) + मालि पुं विजल) नदे. विजल] कर्दम, पंक, जाति, भवनपति देवों का एक भेद (पएह [°मालिन् १ पंचशैल द्वीप का अधिपति विज्जुल कांदो, कादा (प्राचा २, १, ५, १, ४.-पत्र ६८)। ३ प्राभलकप्पा नगरी एक यक्ष (महा) । २ रावण का एक सुभट ३; २, १०, २) का निवासी एक गृहस्थ (णाया २-पत्र (से १३, ८४)। ३ ब्रह्मदेवलोक का इंद्र विजलिया स्त्री [विद्युत् ] बिजली (कुप्र २५१)। ४ एक नरक-स्थान (देवेन्द्र २६)। (राज) "मुह पुं [°मुख] १ विद्याधर-वंश ५ स्त्री. ईशानेन्द्र के सोम आदि लोकपालों की का एक राजा (पउम ५, १८)। ३ एक विजा श्री [विद्या] १ शास्त्र ज्ञान, यथार्थ एक-एक अग्रमहिषी-पटरानी (ठा ४,१ अन्तर्वीप । ४ उसका निवासी मनुष्य (ठा ४, २–पत्र २२६; इक) मेह [ मेघ ज्ञान, सम्यग् ज्ञान (उत्त २३, २० एंदिः पत्र २०४)। ६ चमर नामक इन्द्र की एक १ विद्युत्प्रधान मेघ, जल-रहित मेघ । २ धर्मवि ३६ कुमाः प्रासू ४३) । २ मन्त्र, पटरानी (ठा ५, १-पत्र ३०२, रणाया बिजली गिरानेवाला मेघ (भग ७, ६--पत्र देवी-अधिष्ठित अक्षर-पद्धति । ३ साधनावाला २-पत्र २५१)। ७ पुंस्त्री. बिजली; विज्जुणा, मन्त्र (पिंड ४६४, प्रौपः ठा ३, ४ टी ३०५)यार पुं [कार] बिजली करना, विज्जूए' (हे १, ३३, कुमा; गा १३५)। पत्र १५६) अणुप्पवाय न [ अनुप्रवाद] विद्युद-रचना (भग २, ६) °लआ, ल्लया ८ सन्ध्या , शाम (हे १,३३) । वि. विशेष जैन भंग ग्रन्थांश विशेष, दसवाँ पूर्व (सम रूप से चमकनेवाला; 'विज्जुसोयामणिप्पभा' स्त्री [लता] विद्युत्, बिजली (नाट-वेणी २६), 'चारण ' ["चारण] शक्ति-विशेष- (उत्त २२, ७) कार देखो प्यार (जीव ६६, काल) हहाइदन [°लखायित] संपन्न मुनि (भग २०, ६-पत्र ७६३) बिजली की तरह आचरण (कप्पू), बिल३-पत्र ३४२) °कुमार पुं [कुमार] 'चारणलद्धि स्त्री [चारणलब्धि] शक्ति सिअ न ["विलसित] १ छन्द-विशेष (अजि एक देव-जाति (भगः इक), कुमारी स्त्री विशेष (भग २०, ६) गुप्पवाय देखो २१)। २ विजली का विलास (से ४, ४०)। ['कुमारी] विदिग्रुचक पर रहनेवाली "सिहा स्त्री ["शिखा] एक रानो का नाम अणुप्पवाय (राज) गुवाय न [°नुवाद] दिक्कुमारी देवी; 'चत्तारि विज्जुकुमारिमहत्तदसवाँ पूर्व (सिरि २०७) पिंड पुं (महा)। रियामो पराणत्तानो' (ठा ४, १-पत्र विजआ स्त्री विद्यत 1१ बिजली (नाट-- [पिण्ड] विद्या के बल से अजित भिक्षा १९८) जिज्झ (?), जिब्भ पुं (निचू १३)मंत वि [व] विद्या | वेणी ६६)। २ बलि नामक इन्द्र के सोम [जिहब ] अनुवेलंघर नागराज का एक संपन्न (उप ४२५) लय पुंन [°लय] आदि चारों लोकपालों की एक-एक पटरानी आवास-पर्वत ( इक; राज )। तेअ पुं पाठशाला (प्रामा) - सिद्ध वि [सिद्ध] 'मित्तगा सुभद्दा विज्जुत्ता (? या) प्रसरणी' [तेजस् ] विद्याधरवंश का एक राजा(पउम १ सर्व विद्याओं का अधिपति, सभी विद्याओं (ठा ४, १-पत्र २०४ इक)। ३ धरणेन्द्र ५, १८) दंत पुं [ दन्त] १ एक अन्तसे संपन्न । २ जिसको कम से कम एक । की एक अग्न-महिषी (णाया २--पत्र २५१ द्वीप । २ उसमें रहनेवाली मनुष्य-जाति (ठा इक)। महाविद्या सिद्ध हो चुकी हो वह; 'विज्जाण ४, २-पत्र २२६) दत्त पुं [ दत्त] विजआइत्त वि [विद्युत्कर्तृ] बिजली करनेचकवट्टी विज्जासिद्धो स, जस्स वेगावि विद्याधरवंश का एक राजा (पउम ५, १८) वाला (ठा ४, ४--पत्र २६६)। सिज्झज्ज महाविज्जा' (प्रावम) हर पुं दाढ [ दंष्ट] विद्याधर-वंश में उत्पन्न एक विज्जला । देखो विज्जु = विद्युत् (हे २ [धर] १ क्षत्रियों का एक वंश (पउम ५, राजा का नाम (पउम ५, १८) पह, विजुलिआ १७३; षड् १६१, कुमाः प्राकृ २)। २ पुंस्त्री. उस वंश में उत्पन्न (महा)। प्पभ, पह [प्रभ] १ एक वक्षस्कार विजली । ३६ प्रातः पि २४४)। स्त्री.री (महा: उब)। ३ वि. विद्या-धारी, पर्वत का नाग (सम १०२ टी ठा २, ३- | विजू देखो विज । माला स्त्री [°माला] शक्ति विशेष-सम्पन्न (ौपः रायः ज ४) पत्र ६६ ५, २-पत्र ३२६, जं ४ सम । छन्द-विशेष (पिंग हरगोवाल पुं[धरगोपाल] एक प्राचीन १०२; इक)। २ कूट-विशेष, विद्युत्प्रभ विजे प्र[दे] १ मार्ग से, रास्ता से। २ जैन मुनि, जो सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध प्राचार्य वक्षस्कार का एक शिखर (जं ४ इक) । ३ लिए (भवि)। के शिष्य थे (कप्प)। हरी स्त्री ['धरी] देव-विशेष, विद्यत्प्रभ नामक वक्षस्कार पर्वत विज्जोअ पूं [विद्योत ] उद्योत, प्रकाशा एक जैन मुनि-शाखा (कप्प) + हार (अप) का अधिष्ठाता देव (जं ४)। ४ अनुबेलधर 'जोव्वणं जीविग्नं रूवं विजुविज्जोप्रचंचलं' न [°धर] छन्द-विशेष (पिंग) । नागराज का एक प्रावास-पवंत (ठा ४, २- (हित )iv विजावञ्च (अप) देखो वेयावञ्च (भवि) ।। पत्र २२६, इक)। ५ उस पर्वत का निवासी विजोडय । वि [विद्योतित] प्रकाशितः विजाहर वि [वैद्याधर] विद्याधर-संबन्धी; देव (ठा ४, २-पत्र २२६)। ६ देवकुरु विज्जोविय चमका हुआ (उप पू ३३; स स्त्री. 'एसा विज्जाहरी माया' (महा)। वर्ष में स्थित एक महाद्रह (ठा ५, २-पत्र । ५७६) For Personal & Private Use Only Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८० पाइअसद्दमहण्णवो विज्झ-विडंब विज्म सक [व्यध ] बीधना, वेध करना, गउड सुपा ४४८; प्रासू १३७; पउम ५, विटुंभणया स्त्री [विष्टम्भना] स्थापना भेदना। विज्झति (सूम १, ५, १, ६), १८२)। २ संक्रम-विशेषः 'विज्झायनाम- (प्रौप)। विज्झसे (गा ४४१) संकृ. विधूण (सूम गेणं संकममेत्तेण सुझंति' (सम्यक्त्वो २१) विट्ठर पुन [विष्टर] पासना 'विट्ठरो' (प्राप्र; १, ५, १, ६) । कृ. विज्झ (षड् ) विज्झाव देखो विज्मव । विज्झावेइ (गा पउम ८०,७: पाम; सुपा ६०)। विज्म अक [वि + घट ] अलग होना। ८३६)। विद्या स्त्री [विष्टा] बीट, पुरीष, मल (पान) विज्झर (धावा १५२) विज्झावग देखो विझवण (उप २६४ टी)ोधमा २६६. प्रासू १५८) हर न विमान दे] बीझ, धक्का, ठेला; तो विभाविक देखो विविध मा [गृह] मलोत्सर्ग-स्थान, टट्टी (पउम ७४, हत्थी तम्मि पडे विज्झं दाऊरण कुमरमण विज्झिडिय [दे] मत्स्य को एक जाति मग्गे (धर्मवि ८१), विद्रि स्त्री [विष्टि] १ कर्म, काज, काम (दे (पएण १-पत्र ४७) 'ताव वणवारणेण य विज्झाइ २, ४३)। २ ज्योतिष-प्रसिद्ध एक करण, (?ई) नरं प्रपावमाणेण विटंक देखो विडंक (माल २३४; राज) प्रधं तिथि (विसे ३३४८; स २६५, गण कुविएण विइएणाई धरिणयं विट्टाल सक [दे] अस्पृश्य करना, उच्छिष्ट १९) । ३ भद्रा नक्षत्र (सुर १६,९०)। ४ नग्गोहरुक्खम्मि' (स ११३)। करना, बिगाड़ना, दूषित करना, अपवित्र बेगार, मजूरी दिए बिना ही जबरदस्ती या विज्झ वि [विद्ध] बिधा हुमाः 'जइ तंपि करना। विट्टालिति (सुख १, १५)। कर्म. बेमन का कराया जाता काम (उर ६,११)। तेण बाणेण बिज्झसे जेरण है विज्झा' (गा 'विट्टालिज्जइ गंगा कयाइ कि वासवारेहि विट्टित्री वृिष्टि] वर्षा, बारिश (हे १, (चेइय १३४)। वकृ. विद्यालयंत (सिरि १३७, प्राकृदा संक्षि ५; पउम २०, ८७; विज्झ देखो विज्झ= व्यध् ।। ११३२) । कुमाः रंभा) । देखो वुट्टि विज्झडिय वि [दे] १ मिश्रित, व्याप्तः । विट्टाल पुं [दे] अस्पृश्य-संसर्ग, उच्छिता, विहित वि [दे] अजित (षड् ) 'सीउएहखरपरुसवायविज्झडिया' (भग ७, अपवित्रताः 'तुह घरम्मि चंडाली, विट्टालं विट्रिय न [विस्थित] विशिष्ट स्थिति (भग कुणइ', 'सा घरबाहि चिट्ठइ भुजइ य, न | ६--पत्र ३०७; उव)। ९, ३२ टी-पत्र ४६६) तेण देव विट्टालो (कुप्र २४३, हे ४, विज्झल देखो बिब्भल = विह्वल (भग ७, विड पु[विट] १ अँड प्रा (कुमा; सुर, ३, ६ टी-पत्र ३०८) ४२२) ११६, रंभा)IV विझव सक [वि+ध्यापय् ] बुझाना, विट्टालण न [दे] ऊपर देखो (स ७०१)। विड न [विड] लवण-विशेष, एक तरह का दीपक प्रादि को गुल करना, ठंढा करना। विट्टालि वि [दे] बिगाड़नेवाला, अपवित्र नमक (दस ६, १८)IV विज्झवइ (गउड; कुत्र ३६७)। कम. करनेवाला। स्त्री. °णी (कप्पू)। विडंक पुंन [विटङ्क] कपोतपाली, प्रासाद विज्झविजइ (गा ४०७; स ४८६)। संकृ. विट्टालिअ वि [दे] उच्छिष्ट किया हुआ, मादि के आगे की ओर काठ का बना हुआ विझवेऊणं, विज्झविय (धर्मसं १५८ अपवित्र किया हुआ, बिगाड़ा हुआ (धर्मवि पक्षियों के रहने का स्थान, छतरी (णाया १, स ४६६)। कृ. विज्झवियव्व (पउम ७८, ४५; सिरि ७१६; सुपा ११५, ३६०; महा)। १-पत्र १२ दे ७, ८६; गउड)। विट्टी स्त्री [दे] गठरी, पोटली (प्रोघ ३२४)। विझवण स्त्रीन [विध्यापन] बुझाना, उप- देखो विंटिया।। विडंकिआ स्त्री [दे] वेदिका, वेदो, चौतरा शान्ति (स ४८६; सम्मत्त १९२; कुप्र २७०), विट्ठ वि [वृष्ट] बरसा हुआ (हे १, १३७ (दे ७, ६७) स्त्री.°णा (संथा १०६) षड्) विडंग देखो विडंक (पएह १, १-पत्र ८)।' विज्झवि वि [विध्यापित] बुझाया हुआ, विट्ठ वि [विष्ट] १ प्रविष्ट, पैठा हमा (सूम विडंग पुंन [विडङ्ग] १ औषध-विशेष । गुल किया हुआ, ठंढा किया हुआ (से ८,१६; १, ३, १, १३)। २ उपविष्ट, बैठा हुआ। २ वि. अभिज्ञ, विदग्ध; १२, ७७ गा ३३३; पउम २०, ६२)। (पिंड ६००)। 'विज्ज न एसो जरो न विज्झा । अक [वि + ध्यै बुझना, ठंढा विट्ठ वि [दे] सुप्तोत्थित, सो कर उठा हुआ यवाही एस कोवि संभूयो । विज्झा होना, गुल होना । विज्झाइ (गा उवसमइ सलोणेणं विडंगजोया४३०; हे २, २८) । वकृ. विज्झाअंत (गा विदुअ न [विष्टप] भुवन, जगत् (मृच्छ __ मयरसेणं' (वज्जा १०४)। १०६)। विडंब सक [वि + डम्बय्] १ तिरस्कार विभाअ) वि [विध्यात] १ बुझा हुमा, विटभ सक विष्टम्म | विटुंभ सक [वि+ष्टम्भय ] १ रोकना। करना, अपमान करना। २ दुःख देना। ३ विज्माण, उपशान्त (से १, ३१ गाया २ स्थापित करना, रखना । विट्ठभंति (पीप)। नकल करना। विडंबइ, विडंबंति, विडंबेमि १, १-पत्र ६६, १, १४-पत्र १६०; संकृ. विटुंभित्ता (प्रौप)। (भविः कुप्र १९४७ स ६६३)। वकृ. ht + ध्यै] बुझना, या (षडाविष्टप] भुवन, For Personal & Private Use Only Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विडंबंत-विणमि पाइअसहमहण्णवो ७८१ विडंबंत (पउम ८, ३२) । कवकृ.विडंविजंत विडिमा स्त्री [दे] शाखा (पण्ह २, ४; तंदु विढत्ति स्त्री [अर्जिति ] अर्जन, उपार्जन (सुपा ७०) २१ राज) (श्रा १२) विडंब सक [वि + डम्बय ] विवृत करना, | बिडुच्छअ वि [दे] निषिद्ध प्रतिषिद्ध विढप्प अक [व्युत् + पद् व्युत्पन्न होना। फैलाना । विडंबेइ (भग ३,२-पत्र १७३) (षड्) विढप्पंति (प्राकृ ६४) । विडंब पुन [विडम्ब] १ तिरस्कार, अपमान विडविल्ल वि [दे] भीषण, भयंकर (नाट- विढप्प नीचे देखो। (भवि)। २ माया जाल, प्रपंच; 'परिणच्वं मालती १३७) । विढव सक[अर्ज.1 उपार्जन करना, पैदा च कामाण सेवाविडंब' (श्रु 85 कप्पू) विडूर पु[विदूर] १ पर्वत-विशेष। २ देश- करना । बिढवइ (हे ४, १०८ महाः भवि)। विडंबग वि [विडम्बक विडंबना-जनक; विशेष, जहाँ वैदूर्य रत्न पैदा होता है (कप्पू)। कम. विढविज्जइ, विढप्पइ (हे ४, २५१) ‘जइवेसविडंबगा नवर' (संबोध १४; उव) | विडोमिअ ' [दे] गण्डक मृग, गेंडा (दे, कुमाः भवि) ।। विढवण न [अर्जन उपार्जन (सुर १, विड बण न [विडम्बन नीचे देखो (भवि) विड्ड वि [दे] १ दीर्घ, लम्बा (दे ७, ३३)। २२१)। विडंबणा स्त्री [विडम्बना] १ तिरस्कार, २ प्रपंच, विस्तार (दे १, ४) विढविध वि [अर्जित] पैदा किया हुआ अपमान (दे)। २ दुःख, कष्ट (धरण ४२)। विड्ड वि [ब्रीड, वीडित] लजित, शरमिन्दा; (कुमाः सुपा २८० महा)। ३ मनुकरण, नकल । ४ उपहास । ५ कपट'लजिया विलिया विड्डा' (निर १, १; पि विढिअ वि [वेष्टित] लपेटा हुआ (सुपा वेष (कप्पू) २४०) ३८८) विडंबिय वि [विडम्बित विडम्बना-प्राप्त विड्डर देखो विड्डिरः 'अकंडविड्डरमेयं कि देव विणइ वि [विनयिन् ] दूर करनेवाला; (कप्पा गउड, ३०२) पारद्धं' उप ७६८ टी) 'मारंभविणईणं' (प्राचा)। विडज्झमाण वि [विदह्यमान] जो जलाया विड्डा स्त्री [ब्रीडा] लज्जा, शरम (दे ७, विणइत्त वि [विनयवत् ] विनयवाला, जाता हो वह, जलता हुआ (पाचा १, ६, ६१; पि २४०) । विनय को ही सर्व प्रधान माननेवाला (सूपनि विड्डार न [विद्वार] देखो विड्डर (राज) विडड्ढ देखो विदड्ढ (गा ६७१) । विणइत्तु वि [विनेत] विनीत बनानेवाला, विड्डिर न [दे] १ प्राभोग (दे ७. १०)। विनय की शिक्षा देनेवाला (उत्त २६, ४)। विडप्प पुं[दे] राहु (दे ७, ६५; पापा | २ पाटोप, आडम्बर (पाप)। ३ वि. रौद्र विडय ) गउड वज्जा ६८ दे ७, ६५), विणइत्तु देखो विणी = वि + नी। भयंकर (दे ७,६०) विडव ' [विटप] १ पल्लव (सुर ३, ४५)। विड्डिरिल्ला स्त्री [दे] रात्रि, निशा (दे ७, विणइय वि [विनयित] शिक्षित किया हुमा, २ शाखा (भवि ११०)। ३ पल्लव-विस्तार । ६७) सिखाया हुमा (राज) । देखो विण्गय । ४ स्तम्ब गुच्छा (प्राप्र)। विडडुम देखो विद्दुम (पाप)। विणइल्ल देखो विणइत्त (कुमा) विडवि पुं [विटपिन्] वृक्ष, पेड़, दरख्त विड्डरी स्त्री [दे] पाटोप, आडम्बर; कि विणएत्तु देखो विणी = वि + नी ।। (पामा सुपा ८८; गउड सण) लिंगविड्डुरोधारणेणं' (उव)। विट्ठ वि [विनष्ट] विनाश-प्राप्त (उवा विडविड ? सक [रचय ] बनाना, निर्माण | विड्डुरिल्ल वि[ वैडूर्यवत् ] वैदूर्य रत्नवाला प्रासू ३१नाट-मृच्छ १५२) विडविड्ड करना । विडविडइ, विडविडुइ (सुपा ५९)। विणड सक [वि + नटय , वि +गुप्] १ (हे ४, ६४ षड्)। भूका. विडविड्डीप विड्डेर न [दे. विड्डर] नक्षत्र-विशेष, पूर्व व्याकुल करना। २ विडम्बना करना । (कुमा)। द्वारवाले नक्षत्रों में पूर्व दिशा से जाने के विण्डेइ (गउड ६८), विण्डति (उव), विडिअ वि [वीडित लज्जित (से ११, बदले पश्चिम दिशा से जाने पर पड़ता नक्षत्र विण्डउ (हे ४, ३८५; पि १००) ५०; पि ८१) (विसे ३४०६)। देखो विड्डार । विडिअ देखो विनडिअ (गा ६३० टी) । विडिंचिअवि [दे] विकराल, भीषण, विढज (शौ) सक [वि + दह ] जलाना। विणण न [वान] बुनना (बृह १) विडिच्चिर ) भयंकर (दे ७, ६९) संकृ. विढजिअ (पि २१२) । विणभ सक [खेदय् ] खिन्न करना । विडिम पु[दे] १ बाल-मृग (दे ७, ८९)। विढणा स्त्री [दे] पाष्णि, फीली का नीचला | विणभइ (धात्वा १५३) २ गएडक, गेंडा (दे ७, ८६; गउड)। ३ भाग (द ७, ६२)। विणम सक [विनम् ] विशेष रूप से वृक्ष, पेड़ा 'दुमा य पायवा रुक्खा भागमा विढत्त वि [आजत] उपार्जित, पैदा किया | नमना । वकृ. विणमंत (नाट-मालवि विडिमा तरू' (दसनि १, ३५) । ४ शाखा हुआ (हे ४, २५८ गउड था १० प्रासू ३४)। (पएह २, ४-पत्र १३० औषः तंदु २१) ७४, भवि)। | विणमि देखो विनमि (राज) For Personal & Private Use Only Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ पाइअसद्दमहण्णवो विणमिअ-विणिच्छि विणमिअ वि [विनत] विशेष रूप से नत | विणा प्र[विना] सिवाय, बिना (गउड; प्रासू विणिकुट्टिय वि [विनिकुट्टित] कूट कर (भग; औप; रणाया १, १ टी-पत्र ५)। १०१५६; दं १७)। बैठाया हुआ; 'थंभविणिकुट्टियाहिं पवराहिं विणमिअ वि [विनमित] नमाया हुआ | विणामिद (शौ) देखो विणमिअ = विनमित सालहंजीहि (सुपा १८८) (गउड)| (नाट - मृच्छ २१८) विणिकम देखो विणिक्खम । विणिक्कमइ विणय पुं [विनय] १ अभ्युत्थान, प्रणाम | विणायग पुं[विनायक] यक्ष, एक देव-जातिः । (गउड २७५; पि ४८१)। प्रादि भक्ति, शुश्रूषा, शिष्टता, नम्रता (प्राचा; | 'तत्थेव प्रागमो सो विणायगो पूयणो नाम' विणिक्कस सक [विनि + कृष] खींच कर ठा ४, ४ टी--पत्र २८३, कुमाः उवा; (पउम ३५, २२)। २ गणपति, गणेश निकालना । संकृ. विणिक्कस्स (सूत्र १, ५, प्रौपः गउड; महा; प्रासू ८)। २ संयम, (सट्ठि ७८ टी)। ३ गरुड (पउम ७१, ६७) १, २२) चारित्र (सम ५१)। ३ नरकावास-विशेष, त्थ न [ ख] अस्त्र-विशेष, गरुडास्त्र (पउम | विणिक्खंत वि [विनिष्क्रान्त १ बाहर एक नरक-स्थान (देवेन्द्र २६)। ४ अपनयन, । ७१, ६७) ।। निकला हुप्रा । २ जिसने गृह-त्याग किया हो दूरीकरण । ५ शिक्षा, सीख । ६ अनुनय । विणास देखो विगस्त । विणासइ (भवि) । वह, संन्यस्त (उप १४७ टी; कुप्र३६; महा)। ७ वि. विनय-युक्त, विनीत । ८ निभृत, विणास सक [वि + नाशय ] ध्वंस करना, विणिक्खम अक [विनिस् + क्रम] १ शान्त । ६ क्षिप्त, फेंका हुआ । १० जितेन्द्रिय, नष्ट करना । विरणासेइ (उवः महा)। भवि. बाहर निकलना । २ सन्यास लेना। विणिसंयमी (हे १, २४५)। ११ पुं. शास्त्रानुसार विणासिही, विणासेहामि (पि ५२७:५२८)। क्खमइ (गउड ८५१, ११८१) । संकृ. प्रजा का पालन (गउड ६७) मंत वि कर्म. विणासिज्जइ (महा) । कवकृ. विणा विणिक्खिमित्ता (भग) [वन् ] विनय-युक्त (उप पृ १६६) । सिज्जत (महा)। कृ. विणासियव्व (सुपा विणिक्खमण न [विनिष्क्रमण] १ बाहर विणय वि [विनत] १ विशेष रूप से नमा निकलना । २ संन्यास लेना (पंचा १८, २१)। हुआ (प्रॉप) । २ पुन. एक देव-विमान (सम विणास पुं[विनाश] विध्वंस (उव; हे ४, ३७)। ४२४) विणय देखो विगया तणय पुं[तनय] (नाट-मृच्छ ११६) विणासग वि [विनाशक] विनाश-कर्ता (द्र विणिगिण्ह सक [ विनि+ ग्रह 1 निग्रह गरुड पक्षी (वजा १२२) °सुअ पुं[सुत] वही अर्थ (पान) करना, दंड देना । वकृ. विणिगिव्हत (उप विणासण न [विनाशन] १ विनाश, विध्वंस पृ २३)। विणयइत्त देखो विणइत्तु (सुख २६, ४) ।। (भवि) । २ वि.विनाश,कर्ता (पण्ह २, १-- विणिगृह सक [विनि + गृहय् ] गुप्त रखना, विणयंधर [विनन्धर] एक शेठ का नाम पत्र ६९; दस ८, ३८) । ढकना । विरिणगृहिज्जा (प्राचा २, १, १०, (उप ७२८ टी)। विणासिअ वि [विनाशित] विनाश-प्राप्त । २) विणयण न [विनयन] विनय-शिक्षा, शिक्षण; (पान; महा; भवि)। विणिग्गम [विनिर्गम] निःसरण, बाहर 'पायारदेसणानो पायरिया, विणयणादुव- विणि देखी विणी। निकलना (गउड) ज्झाया' (विसे ३२००) विणिअंसण न [विनिदर्शन] खास उदाहरण, विणिग्गय वि [विनिर्गत] बाहर निकला विणया स्त्री [विनता] गरुड की माता का विशेष दृष्टान्त (से १२, ६६)। हुआ, बाहर गया हुआ (से २, ५; महा: नाम (गउड) तणय पुं [तनय गरुड भवि)। पक्षी (से १४, ६१; सुपा ३५४)। विणिसण वि [विनिवसन] वस्त्र-रहित, नंगा (गा १२५) । विणिघाय पुं[विनिघात] १ मरण, मौत । विणस देखो विणरस । विरणसइ (उर ७, ३; २ संसार, भव-भ्रमण (ठा ५, १-पत्र विणिइत्तु देखो विणइत्तु (उत्त २६, ४) कुमा ८, २१) २६१) विणिउत्त वि [विनियुक्त कार्य में प्रवर्तित विणिच्छ सक विनिस + चि] निश्चय विणसिर वि [विनश्वर विनाश-शील; नश्वर (दे १, १०) (उप पृ ७५)। करना । विणिच्छइ (सण)। संकृ. विणिविणस्स अक [वि+ नश] नष्ट होना, विणिओग पुं[विनियोग १ उपयोग, ज्ञान च्छिऊण (सण) । विध्वस्त होना । विणस्सइ, विणस्सए, (विसे २४३७) । २ कार्य में लगाना (पंचा विणिच्छय पुं[विनिश्चय] निश्चय, निर्णय, विणस्से (उव; महाः धर्मस ४०१)। भवि. | ७, ६) । ३ विनिमय, लेनदेन (कुप्र २०६)M - परिज्ञान (पएह १,१-पत्र १,ठा ३, ३; विणस्सिहिसि (महा)। वकृ. विणस्समाण | विणिओय सक [विनि + योजय ] जोड़ना, उव) (उवा)। कृ. विणस्स (धर्मसं ४०२, ४०३) लगाना । विणिनोयइ (भवि) विणिच्छिअ वि विनिश्चित] निश्चित, विणस्सर देखो विणसिर (पि ३१५)। विणित देखो विणी = विनिर् + इ । निर्णीत (भग; उवाः कप्पः सुर २, २०२)। For Personal & Private Use Only Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणिजुंज - विणिव्वर विणिजुंज सक [ विनि + युज् ] जोड़ना, कार्य में लगाना, प्रवृत्त करना । विणिजुंजइ ( कुप्र ३९१ ) 1 विणिज्जंतण वि [विनियन्त्रण] १ नियन्त्रणरहित । २ प्रकटित, खुला । ३ निर्व्याज, कपट रहित ( से १९, २१) विणिज्जमाण देखो विणी = वि + नी । विणिज्जरण न [विनिर्जरण] निर्जरा, विनाश (विसे ३७७९ संबोध ५१ ) । विणिज्जरा स्त्री [विनिर्जरा ] ऊपर देखो (संबोध ४९ ) । विणिज्जिअ वि [विनिर्जित ] पराभूत, जिसका पराभव किया गया हो वह (महा रंभा नाट - विक्र ९० ) । afra [विनिद्र ] खिला हुआ, विकसित (919) ~ विणिद्दलिय वि [विनिर्दलित ] विदारित, तोड़ा हुआ (सण) | विधुक [विनर + धू] कंपाना । a. विणणमाण (पि ५०३) । विणिष्फन्न वि [विनिष्पन्न] संसिद्ध, संपन्न ( उप ३६६) । विणिफिडिअ वि[विनिस्फिटित ] विनिर्गत, बाहर निकला हुआ; 'सालिग्गामाउ तो वंद हे विििफडियो ( पउम १०५, २३) 1 afras देखो विणिवुड (वि ५६६ ) 1 विणिब्भिन्न वि [विनिर्भिन्न ] विदारितः 'कुंविरिभिन्नकरिकल हमुकसिकार उर म्मि' ( रामि १६ ) । विनिमीलि वि[विनिमीलित ] मीचा हुआ, मँदा हुआ; 'श्रलिप्रपसुत्तप्रविणिमीलि - प्रच्छदे सुह मज्भ प्रोग्रास' (गा २० ) । विणिमुक्क देखो विणिमुक (वि ५६६) विणिय देखो विणिम्य । वकृ. विणिमुयंत (औप पि ५६०) विणिम्मविवि [विनिर्मित ] विरचित, बनाया हुआ, कृत ( उ ७२८ टी) 1 विभिन्न [विनिर्माण ] रचना, कृति ( विसे ३३१२ ) । पाइअसहमहण्णवो विणिम्मिअ देखो विणिम्मविअ (गा १५६ २३५ पान; महा) । for a [ विनिर्मुक्त ] परित्यक्तः सव्वकम्मविरिणम्मुकं तं वयं बूम माहणं (उत्त २५, ३४) । विणिम्य वि [ विनिर् + मुच् ] छोड़ना, परित्याग करना । कृ. विणिम्मुयमाण ( खाया १, १ - पत्र ५३३ पि ४८५) । वियि देखो विणीअ (भवि) 1 विणियट्ट देखो विविट्ट । विरिणयट्टिज्ञ्ज (दस ८, ३४) । वकृ. विणियट्टमाण ( आचा १, ५, ४, ३) विणियट्ट वि [विनिवृत्त] १ पीछे हटा हुआ । २ प्रणष्टः 'राट्ठ" (चेइय ३४६)। त्रिणियदृणया स्त्री [विनिवर्तना ] निवृत्ति (उत्त २६, १) । ( घर्मंसं १२५: १२६ स २६५; ७ : २ ) । २ मरण मौत (से १३, १६ गउड; गा १०२) । ३ संसार (राज) IV वणवण न [विनिपातन] मार गिराना (पउम ४, ४८ ) 1 विणिवार सक [ विन + वारय.] रोकना, निवारण करना, निषेध करना । विरिणवारइ (भवि ) । कवकू. विणिवारीअंत (नाटमृच्छ १५४) । विणिचारण न [विनिवारण] १ निवारण, प्रतिषेध । २ वि. निवारण करनेवाला (पंचा ७, ३२) विणियत्ति स्त्री [विनिवृत्ति ] निवृत्ति, उपरम विणिवारि वि [ विनिवारिन् ] निवावरण( कु १८२० गउड) | कर्ता (पंचा ७, ३२) विणिरोह पुं [विनिरोध ] प्रतिबन्ध, घटकाव विणिवारिय वि[विनिवारित ] प्रतिषिद्ध, (भवि) 1 निवारित (महा) | विणिविट्ट वि [विनिविष्ट] १ उपविष्ट, स्थित ( कु १५२ ); 'कम्मविरिण विट्ठसरिसकयचेट्टो ( उव वै ६० ) । २ आसक्त, तल्लीन (श्राचा) | विणिवित्त देखो विणिट्ट (उप ७८९) IV विशिवित्ति देखो विणियत्ति (विसे २६३९; उबर १२७; श्रावक २५१ २५२; पंचा १, १७) IV विणिवुड्ड वि [विनिमग्न] निमग्न, बुड़ा हुआा, तरावोर, सराबोर 'तइया ठिम्रो सि जं किर पलोट्टसंरंभसेयविरिणबुड्डों' (गउड ४१०) IV विणिवेइअ वि [विनिवेदित] जनाया हुआ, ज्ञापित ( से १४, ४०) विणिवेस [विनिवेश] १ स्थिति, उपवेशन । २ विन्यास, रचना (गउड) 1 - विणिवेसि वि[विनिवेशित ] स्थापित, रखा हुआ (गा ६७४; सुर ३, ६५ ) 1 [] पश्चात्ताप, अनुशय (दे ७, ६८) वियत्त देखो विट्टि (सुपा ३३५; भवि; गा ७१; कु १८२ ) विणिवट्ट क [ विनि + वृत् ] निवृत्त होना, पीछे हटना । वकृ. विविट्टमाण ( प्राचा १, ५, ४, ३) वणवण देखो विनियट्टण (राज) 1 विणिवट्टणया स्त्री [विनिवर्तना ] निवर्तन, विराम (भग १७, ३-पत्र ७२७) । विविडिव [निपतित] नीचे गिरा हुधा (दे १,१५७) । विणिवत्ति देखो विणियत्ति (उप ७२८ टी) । विणिवाइ वि [विनिपातिन् ] मार गिराने वाला (गा ६३० ) । विणिवाइज्जत देखो विणिवाए विणिवाइयन [विनिपातिक ] एक तरह का नाटक ( राज) 1 विणिवाइय वि [विनिपातित] मार गिराया हुमा, व्यापादित ( अ ६४८ टी महा स ५६; सिक्खा ८२ ) | ७८३ विणिवाए सक [विनि + पातय् ] मार गिराना । कवकृ. विणिवाइज्जत (पउम ४५, ८) For Personal & Private Use Only विणिवाडिअ देखो विणिवाइय (दे १, १३८) [विनिपात] १ निपात, विणिवाद विणिवाय अन्तिम पतन, विनाशः 'परखग्गेण विदिट्ठो विणिवादो कि न लोगम्मि Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ पाइअसहमहण्णवो विणिव्यवण-विण्हावणक विणिव्ववण न [विनिर्वपन] शान्ति, दाहो- २ विनय-युक्त, नम्र, शिष्ट (ठा ४ ४-पत्र | विण्णय देखो विणइय (ठा १०-पत्र पशम (गउड)। २८५, सुपा ११६; उव)। ३ शिक्षित; भद्दो ५१६) विणिस्सरिय वि [विनिःसृत] बाहर निकला | विणीप्रविणमो' (उव ६)। विण्णय देखो विण्ण (विपा १, २–पत्र हुमा (सण) |विणीआ स्त्री [विनीता] अयोध्या नगरी (सम ३६; १, ८-पत्र ८४) विणिस्सह वि [विनिस्सह] श्रान्त, थका । १५१ कप्प; पउम ३२, ५० ती १) विण्णव सक [वि+ज्ञपय ] १ बिनती हुमा 'कइयावि धणुपरिस्समविणस्सहो दीही विणील वि[विनील] विशेष हरा रंग का करना, प्रार्थना करना। २ मालूम करना, (गउड) यासु मज्जेई' (सुपा ५६) विदित करना। ३ कहना । विएणवइ, |विणु (अप) देखो विणा (हे ४, ४२६ षड् ; विएणवेमि, विएणवेमो (पि ५५३; ५५१)। विणिह देखो विणिहण । हम्मीर २८; कुलक १२; भविः कम्म २,६ भवि. विएणविसं (रुक्मि ४१)। वकृ. विणिहट्टु देखो विणिहा। २६, २७, ३, ५; कुमा। विण्णवंत (काल)। संकृ. विण्णविअ विणिहण सक [विनि+हन मार डालना। विणेअ वि [विनेय शिक्षणीय, शिष्य, (नाट–मृच्छ २६४)। हेकृ. विण्णविदूं विणिहणेजा, विणि हंति (सूम १, ११, ३७ अन्तेवासी, चेला (साधं ७०; उप १०३१ (शौ) (अभि ५३)। कृ. विण्णइदव्व (शौ) १, ७, १६)। कम. विणिहम्मति (उत्तटी ) (पि ५५१) विणेमाण देखो विणी= वि + नी। विण्णवणा स्त्री [पिज्ञापना] विज्ञापन, निवेविणिहय वि [विनिहत] जो मार डाला गया | विणोअ सक[ वि + नोदय.1 १ खरिडत | दन (उवा)। देखो विन्नवणा । हो, व्यापादित (महा) TV करना। २ दूर करना, हटाना। ३ खेल विण्णा सक [वि + ज्ञा] जानना। संकृ. विणिहा सक [विनि + धा] १ व्यवस्था करना। ४ कुतूहल करना । विणोएइ, | विण्णाय (दस ८, ५६)। कृ. विण्णेय करना। २ स्थापन करना। संकृ. विणिहट्ठ, विणोयंति (गउड), विणोदेमि (शौ) (स्वप्न | (काल)। विणिहाय, विणिहित्तु (चेइय २६८ सूम | ५१)। भवि. विणोदइस्सामो (शौ) (पि विण्णाउ देखो विन्नाउ (राज)। १, ७, २१, कप्प) ५२८)। वकृ. विणोदअंत (शौ) (नाट-विण्णाण देखो विनाण ( उवा महा षड् ) विणिहाय देखो विणिघाय (णाया १,१४।। उत्तर ६५)। कवकृ. विणोदीअमाण (शौ) विण्णाण न [विज्ञान] प्रवाय-ज्ञान, निश्चपत्र १८६) (नाट--मालवि ४५) यात्मक ज्ञान (णंदि १७६)।विणिहिअवि [विनिहित स्थापित (गा | विणोअ [विनोद] १ खेल, क्रीड़ा। २ विण्णाणि वि [विज्ञानिन् निपुण, विचक्षण विणिहित्त । ३६१, सुपा ६२)। कौतुक, कुतूहल (गउडा सिरि ५६ सुर ४, (कुमा) विणिहित्तु देखो विणिहा । २१६७ हे १, १४६) विण्णाय वि [विज्ञात] १ जाना हुआ) विणी अक [विनिर + इ] बाहर निकलना। विणोइअ वि [विनोदित] विनोद-युक्त किया विदित (पान, गउड १२०)। २ न. विज्ञान विरिणति, विणेति (गा ९५४: पि ४६३) । | हुआ (सुर ११, २३८ सण)। वकृ. विणित (गउड १३८)। विणोदअंत देखो विणोअ = वि + नोदय । विण्णाव देखो विण्णव । विएणावेमि, विएणाविणी सक [वि+नी] १ दूर करना, हटाना। विणोयक, वि [विनोदक] कुतूहल-जनक वेहि (मा ३८, ३६) २ विनय-ग्रहण कराना। विणिति (णाया विणोयग (रंभा)। विण्णास वि [वि+ न्यासय ] स्थापना १, १-पत्र २६; ३०), विरिणजामि, करना, रखना। वकृ. विण्णासंत (पठम विणोयण न [विनोदन] १ अपनयद, दूर विरणइज, विणएज, विणेउ (णाया १,१ ४३, २६) करता; 'परिस्समविणोयणत्यं' (उप १०३१ पत्र २६; सूत्र १, १३, २१; वि ४६०; टी; कुप्र १४७) । २ कुतूहल, कौतुक (गा विण्णास देखो विन्नास (मा ५१) णाया १, १-पत्र ३२) । भूका. विणइंसु ४८७) (सूम १, १२, ३)। भवि. विणेहिइ (पि विण्णासणा स्त्री [विन्यासना] स्थापना (उप ५२१)। वकृ. विणेमाण (गाया १,१ ३५४) V विण्ण देखो विष्णु (संक्षि १६)।। विण्णइदव्य देखो विण्णव ।। विण्णु पत्र ३३)। कवकृ. विणिजमाण (णाया १, वि [विज्ञ] पण्डित, जानकार, १-पत्र २६)। हेकृ. विणएत्तु (माचा १, विण्णत्त वि [विज्ञप्त] निवेदित (सुपा २२)। विण्णुअ विद्वान् (भगः प्राकृ १८) ५, ६, ४; पि ५७७)। विण्णत्ति स्त्री [विज्ञप्ति] १ निवेदन, प्रार्थना | विण्णेय देखो विण्णा। विणीअ वि [विनीत] १ अपनीत, दूर किया (कुमा)। २ ज्ञान (सूत्र १, १२, १७)। |विण्हावणक न [विस्नापनक] मन्त्र प्रादि हुमा, हटाया हुमा (गाया १,१-पत्र ३३); विण्णत्ति श्री [विज्ञप्ति] विज्ञान, विनिर्णय द्वारा संस्कृत जल से कराया जाता स्नान 'सव्वदन्वेसु विरणीयतरहे' (उत्त २६, १३)। (णंदि १३४)। (पएह १, २-पत्र ३०) For Personal & Private Use Only Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्टि-किचन विष्टि देखो विन्दु [1] [विष्णु (राज)। भगवान् यनाथ के पिता का नाम (सम १५१ ) । २ श्रवण नक्षत्र का अदा २.३ - पत्र ७७) । ३ यदुवंश के अन्धकवृष्णि दु राजा वृष्णि का नयां पुत्र (३) एक जैन मुनि विष्णुकुमार अंत । ४ नामक मुनि ( कुलक ३३) । ५ एक श्रेष्ठी (उप १०१४ ) । ६ वासुदेव, नारायण, श्रीकृष्ण । ७ व्यापक ८ वह्नि, श्रग्नि । ६ शुद्ध । १० एक स्मृति कर्ता मुनि ( हे २,७५) । ११ श्रयं जेहिन के शिव एक जैन (राज) १२ शिष्य मुनि । स्त्री. ग्यारहवें जन की माता का नाम (सम १५१) कुमार [कुमार ] एक विख्यात जैन मुनि (ड)) सरी स्त्री [श्री] एक. सार्थवाह-पत्नी (महा) | देखो विन्हु | = वितं देो वितर (थापा) 1 वित[वितृष्ण] तृष्णारहित ( उप २६४ टी) 1 (पि७४ २१५) । स्त्री ३ वितिगिच्छ देखो वितिगिछ । वितिगिच्छामि (पि २१५; ३२७) । बितिमिच्छा [विचिकित्सा] १ संशय, शंका, बहम (सूत्र १, ३, ३.५, पि ७४) । २ पित्त-विप्लव, चित्त-भ्रम । निन्दा (सूप १, १०, ३ प ७४) IV वितिगिच्छि देखो वितिकिच्छि (भग) । वितिगिट्ट देखो विsगिट्ठ (राज) 1~ वितिमिर वि [वितिमिर ] १ अन्धकाररहित विशुद्ध, निर्मल (सम १२७ पण १७- पत्र ५१६; ३६ – पत्र ८४७ कप्प ) । २] ज्ञान-रहित (प) ३. ब्रह्मदेवलोक का एक विमान प्रस्तट (ठा ६-पत्र ३६७) । वितिरिच्छवि [वितिदेश] वह टेड़ा वक्र, ( स ३३५ पि १५१ भग ३, २ -- पत्र १७३) तथा [] एक महा-नदी (डा | । वित्त वि] [] दीर्घ सम्या (दे० ३३) वित्त न [वित्त ] १ द्रव्य, धन (पान सूत्र १, २, १, २२ प ) । २ वि प्रसिद्ध, विख्यात (सू २, ७, २; उत्त १, ४४ ) । [व] मी (५) । 1 निःस्पृह वितत [वितत] १ वाद्य का एक प्रकार का शब्द (ठा २, ३ – पत्र ६३ ) । २ एक महाग्रह ( सुज्ज २ – पत्र २६५ ) । देखो विअत्त । ३ देखो विअय = वितत (ठा ४, ४- पत्र २७१) 1 वितत न [] कार्य, काम काज (दे ७, ६४) । वित्त व [a] विशेष तृप्त ( परह १, ३-पत्र ६० ) । चितरथ [] एक महामह पुं १ ज्योतिष्क विशेष (ठा २,३ – पत्र ७८ ) । २ वि. भयभीत, डरा हुआ (महा) 1 ५, ३--१९१) v विदद्द व [ तदे ] १ हिसक । २ प्रतिकूल (भाषा) वितर देखो विअरवि+वितराम, विरामो (पि १० ४५५) वितर (अप) अक [विस्तारय ] विस्तार करना । वितर (पिंग) । वितरण देखो पिअरण वितरण (राज) 1 तिल [दिल ] शबल, चितकबरा (राज) 1 हह इस मही वितद व [वितथ] मिय्या असत्या ( श्राचाः कप्प; सरण) 1 विर्तिकिच्छिवि [विचिकित्सित] फल की तरह संदेह वाला (भग) । बितिकिष्ण देखो निकिण (१६) विइकिण्ण चितित देखो कित (भग वितिगिंछ सक [वि + चिकित्स] १ विचार करना, विमर्श करना। २ संशय करना । ३ निन्दा करना । वितिगिछइ (सूम २, २, ४६ ५० पि ७४३२१५) २ वितिगिछा देतो वितिगिदा (याचा १, ३, ३, १: १, ५, ५, २०७४) विविगियि देशो विविक = वित्तन [वृत्त] १ छन्द, पद्य, कविता (सूनि ३८ सम्मत्त ८३ ) । २ चरित्र, श्राचरण ( सिरि १०९३ ) । ३ वृत्ति, वत्र्तन ( हे १, १२८) । ४ वि. उत्पन्नः संजात (स ७२७ महा) । ५ प्रतीत, गुजरा हुआ (महा) । ६ दृढ़, मजबूत । ७ वतुं ल, गोल । ८ श्रधीत, For Personal & Private Use Only ७८५ पठित। ९ मृत (हे १, १२८) । १० संसिद्ध, पूर्ण (मुर ४ २२ महावि [प्राय ] पूर्ण प्राय (सुर ७, ८४) । देखो वट्ट = वृत्त । वित्त देखो वेत्त = वेत्र (सूअनि १०८ ) 'वित्त देखो पित्त (उप ५२२) । वित्त वि[] १ गर्वित श्रभिमानी । २ पुंसित विलासकार (दे 1,28) 10 वित] [वृत्तान्त]] समाचार, सबर (पउम २३, १८; सुपा २०४; भवि ) । वित्तत्थ देखो वितत्थ ( सुख ६, १० नाटवेणी २६ ) । = वित्तविय देखो बत्तिपति (भवि) 1 वित्तास सक [ वि + त्रासय ] भयभीत करना, डराना । वित्तासए (उत्त २, २० ) । वित्तात (उम २८०२६) वित्तास [वि] भास, रा ४४१) 10 वित्तासण न [वित्रासन ] भय-प्रदर्शन (आव) । विशासि वि[विसित] डरा कर भगाया (६५२) । वित्ति[] दरवान, प्रतीहार ( कम्म १, ९) वित्ति श्री [पूति] १ जीविका निर्वाह , साधन (गाया १, १ -पत्र ३० स६७६६ सुर २, ४९ ) । २ टीका, विवरण (सम ४६; विसे १४२२ सार्धं ७३) । ३ वर्त्तन, श्राचरण । ४ स्थिति । ५ कौशिकी आदि रचनाविशेष | ६ अन्तःकरण आदि का एक तरह का परिणाम (१२) [६] वृत्ति देनेवाला (श्रौफ अंत खाया १, १ टी–३) ["कार] टीकाकार विवरण (बै [च्छेद] जीविका-विगाश (मानसू ११, २० ) । देखो वित्ती = वृत्ति । वित्तिअ वि [वित्तिक] वि से युक्त, धनवित्त वाला, वैभवशाली (श्रौपः अन्तः णाया १, १ टी -पत्र ३) | Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८६ पाइअसद्दमण्णवो वित्ती-विदुग्ग वित्ती देखो वित्त = वृत्त । कप्प वि वित्थारइत्तअ (शौ) वि [विस्तारयितु] विदरिसण त्रि विदर्शन] जिसके देखने से [कल्प सिद्धप्राय, पूर्ण-प्राय (तंदु ७)। फैलानेवाला (अभि २८ पि ६००)। भय उत्पन्न हो वह वस्तु, विरूप प्राकारवाली वित्ती° देखो वित्ति =वृत्ति संखेव पुं वित्थारग वि [विस्तारक ] फैलानेवाला विभीषिका आदि; 'एस रणं तए विदरिसणे [संक्षेप] बाह्य तप का एक भेद-खाने, (रंभा)। दिठे' (उवा) । देखो विदं सण ।। पीने और भोगने की चोजों को कम करना वित्धारण न [विस्तारण] फैलाव; 'सीसमइ- विदल न [विदल] वंश, बाँस (सुख १०, (सम ११) संखेवण न [संक्षेपण] वित्थारणमित्तत्थोयं को समुल्लावो' (सम्म १;ठा ४, ४-पत्र २७१) वही अर्थ वित्तीसंखेवणं रसच्चायो' (नव १२२, सिरि १२०७)। विदल न [द्विदलj १ चना भादि वह शुष्क २८; पडि) विस्थारिय वि [विस्तारित] फैलाया हुआ | धान्य जिसके दो टुकड़े समान होते हैं, वित्तेस वि [वित्तेश] धनी, श्रीमंत (उव (सणः दे) 'जम्मि हु पोलिज्जते नेहो न ७२८ टी) वित्थिष्ण। वि [विस्तीर्ण] विस्तार-युक्त, हु होइ बिति तं विदलं । वित्थ पुनचितसुवर्ण, सोना (से १.१) वित्थिन विशाल (नाट-मृच्छ ६४ विदलेवि हु उप्पन्न नेहजुयं वित्थक्क अक [वि + स्था] १ स्थिर होना। पाया भवि) होइ नो विदलं' (संबोध ४४) । २ विलम्ब करना। ३ विरोध करना । वकृ. वित्थिय देखो वित्थड (स ६९७; गा ४०७ २ वि. जिसके दो टुकड़े किए गए हों वह वित्थकत (से ३, ४, १३,७०, ७४)। (सूअनि ७१) वित्थिर न [दे] विस्तार, फैलाव (षड् ) वित्थक्क देखो विथक (स ६३४ टि)। विदलिद (शौ) वि [विदलित खण्डित, वित्थुय देखो वित्थड (स ६१०) चूर्णित (नाट-वेणी २६)। वित्थड। वि [विस्तृत] १ विस्तार-युक्त, वित्थय विशाल (भगः प्रीपः पामः वसुः विथक वि [विष्ठित] जो विरोध में खड़ा विदाअ देखो विदाय=विदुत (से १३, २५) भविः गा ४०७) ।२ संबद्ध, घटित से हुया हो, विरोधी बना हुमा (स ४६७ विदारग) विविारा विदारण-कर्ताः विदारय कम्मरयविदारगाई' (पएह २, वित्थर अक [वि + स्तु] १ फैलना। २ विद देखो विअ = विद् । वकृ. विदंत (उप १-पत्र ६६; राज)। बढ़ना। वित्थरइ (प्राकृ ७६; स २०१७ | २८० टी)। संकृ. विदित्ता, विदित्ताणं विदालण न [विदारण] विविध प्रकार से ६८४; सिरि ६२७, मन २५) । वकृ. (सून १, ६, २८ पि ५८३)। चीरना, फाड़ना (पएह १, १-पत्र १४) । वित्थरंत (से ३, ३१; स ६८६) । हेकृ. विदंड विदण्ड] कक्षा तक लम्बी लट्ठी विदिअ देखो विइअ (मभि १२३; पउम वित्थरिउ (पि ५०५)। (पव ८१) ___३६, ६८) वित्थर पुंन [विस्तर] १ विस्तार, प्रपंच | विदंसग देखो विदंसय (पएह १, १ टी- विदिण्ण देखो विइण्ण = वितीर्ण (विपा १. (गउड) । २ शब्द-समूह (गउड ८६) पत्र १५)। २-पत्र २२)।विदंसण न [विदर्शन] अन्धकार-स्थित वस्तु विदिण्ण वि [विदीर्ण] फाड़ा हुआ, चीरा वित्थर देखो वित्थड; 'तत्थ वित्थरा कज्ज का प्रकाशन (पएह १, १-पत्र ८) । देखो हुआ (नाट-मृच्छ २५५) । धुरा (से ४, ४६), वित्थरं च तलवट्ट” विदरिसण विदित्ता (वज्जा १०४) गोविट-विद ।विदंसय वि [विदंशक] श्येन प्रादि हिक विदित्ताणं । वित्थरण वि [विस्तरण] १ फैलानेवाला। २ पक्षी (उत्त १६, ६५, सुख १६, ६५)। विदिन्न देखो विदिण = वितीणं (निपा १, वृद्धिजरेक (कुमा)। विदड्ढ़। वि [विदग्ध] १ पण्डित, विच | २ टी--पत्र २२, सुर ५, १८७)। वित्थरिअ देखो वित्थड (सुर ३, ५४, सुपा विदद्ध । क्षण (संक्षि ८) । २ विशेष दग्ध विदिस (अप) स्त्री [विदिशा] एक नगरी का ३६८ पि ५०५; भविः सण)। (पव १२५)। ३ अजीणं का एक भेद | नाम (भवि) वित्थार सक [वि+स्तारय ] फैलाना। (राज)। देखो विद्दड्ढ । विदिसा । स्त्री । विदिश] १ विदिशा, वित्थारइ (भवि), वित्थारेदि (शौ) (नाट- विदव्म पुंस्त्री [विदर्भ] १ देश-विशेष, 'इनो विदिसी) उपदिशा, कोण (प्राचाः पि शकु १०) य विदब्भदेसमंडणं कुंडिणं नयर' (कुप्र ४८; गा ४१३; पण्ण १-२६) । २ विपरीत दिशा, वित्थार पुं[विस्तार] फैलाव, प्रपञ्च (गउड ८९) । २ भगवान् सुपार्श्वनाथ के गणधर असंयम (प्राचा) हे ४, ३६५; नाट-शकु ६) रुइ वि मुख्य शिष्य का नाम (सम १५२)। ३ पुंनो. विदु देखो विउ (पंचा १६, ७) । [रुचि सम्यक्त्व-विशेष वाला, सब पदार्थों विदर्भ देश की प्राचीन राजधानी, कुण्डिनपुर, को विस्तार से जानने की चाहवाला सम्य- जो आजकल 'नागपुर' के नाम से प्रसिद्ध है। विदुगुंछा देखो विउच्छा (राज)। क्वी (पद १४६)। 'दूरे विदन्भा' (कुप्र ७०)। विदुग्ग न [विदुर्ग] समुदाय (भग १, ८)। For Personal & Private Use Only Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदुम-विस पाइअसरमहणपो विदुमवि [ विद्वस् ] विद्वान्, जानकार विदेहदिन्न पुं [वैदेहदत्त ] भगवान् महावीर विहार देखो विड्डार (वय १ ) (सूध १, २, ३, २७) S (कप्प २१० टी) 1 विदुर वि[दुर] विचक्षण, विज्ञ (कुमा) । २,१७७)। ४ पुं. कौरवों के एक प्रख्यात मन्त्री (गाया १, १६ – पत्र २०८ ) 1 विदुलतंग न [विद्युलताङ्ग ] संख्या-विशेष, हाहाहूहू को नौरासी लाख से सुनने पर जो संख्या लब्ध हो वह (इक) 1 विदुलता स्त्री [ विद्युल्लता ] संख्या- विशेष, विद्युल्लतांग को चौरासी लाख से गुनने पर जो संख्या लब्ध हो वह (इक) । विदेहा स्त्री [विदेहा ] १ भगवान् महावीर की माता, निराला देवी (कप्प ११० टो)। २ जानकी, सीता (पउम ४६१०) विदेहि [ वैदेदिन ] विदेह देश का अधिपति, तिरहुत का राजा (सूत्र १, ३, ४, २) विदेशी श्री [विदेशी] राजा जनककी पानी विदुय सीता की माता ( पउम २६, २) । विडिअ वि [दे] नाशित, नष्ट किया हुआ (दे ७, ७० ) 1 विड[वि] 'म पत्र ६५) । विदूणा स्त्री [दे] लज्जा, शरम (दे ७, ६५) । एक नरक-मान ( देवेन्द्र २७) । विदेस पुं [विद्वेष ] द्वेष, मत्सर ( परह १, २पत्र २६ ) | साहब (साधे विश्व सक [वि + द्रावय] १ विनाश बिदेस वि करना । २ हैरान करना उपद्रव करना । विदुम देखो विदुः पमावि (धर्म cco) Iv विदूसरा [विदूषक ] मसखरा, राजा के बिसय साथ रहनेवाला } = ६५ सम्मत्त ३० ) | विदेस देशी विश्व विदेश (गाया २ - पत्र ७६; श्रपः पउम १, ६६ विसे १६७१: कुमाः प्रासू ४४) । विदेसि कि [विदेशिन ] परदेशी (सुपा ७२) । विदेसि वि [वैदेशिक] ऊपर देखो (सिरि २९४) 1 ४ 7 । 1 विदेह [विदेह ] १ राजा जनक ( ती ३) । २ पुं. ब. देश-विशेषः बिहार का उत्तरीय प्रदेश जो श्राजकल 'तिरहुत' के नाम से प्रसिद्ध है; 'इव भारहे वासे पुब्वदेसे विदेहा णामं जरणवया' (ती १७; अंत) । ३ पुंन. वर्षविशेष महाविदेह-क्षेत्र (१६) । ४ वि. विशिष्ट शरीरवाला । ५ निर्लेप, लेपरहित। ६ . अनंग, कामदेव ७ गृह-यास ( कष्प ११० ) ८ निषेध पर्वत का एक कूट । ६ नीलवंत पर्वत का एक कूट ( ठा १- पत्र ४५४) जंबू श्री [ "जम्बू ] जम्बूदा विशेष, जिसके नाम से यह जम्बूद्वीप कहलाता है (एक) ज [जार्च, यात्य] भगवान् महावीर (कप्प ११०) ४ दिना श्री [["दत्ता] भगवान् महावीर की माता, रानी त्रिशला (कप्प ) 1 दुहि [दुहि ] राजा जनक की पुत्री, सीता ( ती ३) पुन्त पुं [पुत्र ] राजा कुलिक (भग ७, ८) ३ दूर करना, हटाना। ४ भरना, टपकना । विवई ( प्र २८०) कृति ( रयण ७२) । कवकृ. 'रज्जं रक्खइ न परेहि विद्दविजंतं' (कुप्र २७; सुर १३, १७०) । विदय [विद्रव] १ उपद्रव उपसर्ग 'परचक्कच रडचोराइविद्दवा दूरमुवगया सब्वे' (२०) २ विनाश (सावा १, ९-पत्र १५७; धर्मंदि २३) । विद्दविअ वि [विद्रवित ] १ विप्लावित ( ४, ६०)। २ दूर किया हुआ, हटाया हुआ (गा ८८) । ३ विनाशित (भवि सण) । विद्दा श्रक [वि + द्रा] खराब होना । विद्दाइ ( से ४,२६ ) 1 1 विदाण वि [विद्राण] १ म्लान, निस्तेज फीका 'विद्दारणमुहा ससोगिल्ला' (सुर ६, १२४) कमलो' (यति ४३) दारिमा नजमापारमितम्रो तुझ' ( कुप्र १६५ ) । २ शोकातुर, दिलगीर 'विद्दाणो परियणों' (स ४७३ उप ६०४; उप ३२० टी)। विद्दाय वि [विस] १ दिन (कुमा)। २ पलायित ३-युक्त प्राप्त हे १०७ षड् ) । । १, विद्दाय श्रक [ विद्वस्य ] खुद को विद्वान मानना । वकृ. विद्दायमाण ( श्राचा) | ७८७ For Personal & Private Use Only , विदारण (प) वि [विदारण] चीरनेवाला, फाड़नेवाला श्री. भावि) 1 नापि देोनिवि ( भवि विदुम [विक्रम] (से २९ गउड जी ३)। २ उत्तम वृक्ष (ते २, २१) [] नलदेव का पूर्वजन्मका रुपम २०, ११३) १२ [वित] अभिनृत, पीड़ित (१२) (शाम १, १ [वि] प-योग्य अभिय ( परह १, २ - पत्र २६ ) - विदेसण न [विद्वेषण ] एक प्रकार का अभिचार-कर्म जिससे परस्पर में शत्रुता होती है ( स ६७८ ) । विदेसि वि [ विद्वेषिन् ] द्वेष कर्ता ( कुप्र ३६७) 1 विदेसिअ देखो विदेसिअ (श्रा १२) । विदेसिअ [] द्वेषयुक्त ( विद्धक [व्य ] वींधना, छेद करना । विas (धावा १५३३ नाट - रत्ना ७ ) । कवकृ. विद्धिजंत (८८) । संकृ. विद्धूण (सूम १.४.१.) विद्धवि [वि] हुआ, देव किया हुआ (से १, १३३ भवि षिद्ध देखो बुद्ध वृद्ध (उत्त५२, १० हे १, = १२८; भवि पिस क विद्धंस अक [ वि + ध्वंस् ] विनष्ट होना । विद्धसइ (ठा ३, १-पत्र १२३ ) । वकृ. विद्वंसमाण ( सू २, १५, १८) विद्धंस सक [ वि + ध्वंसय् ] विन्ट करना । भवि. विद्धसेहिति (भग ७, ६पत्र ३०५) विद्धंस [विष्यंस] १ विनाश (गुर १, पुं १२) । २ वि. विनाशकर्ता 'जहा तिमिरविसे उत्ति दिवा उ ११ २४) Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८८ पाइअसहमहण्णवो विद्धसण-विन्दु विद्धंसण न [विध्वंसन] विनाश (णाया १, विधूय वि [विधूत] क्षुण्ण, सम्यक् स्पृष्ट ४६, ४६; मोह ८२, सुपा १९२, २१६) १-पत्र ४८ पएह १, ३--पत्र ५५; सूप 'विधूयकप्पे (पाचा १,३, ३, ३, १, ६, ३२१) ।। १, २, २, १० चेय ६६४; उप पृ १८७) ३, १) । देखो विहूअ। विनवण न [विज्ञपन] निवेदन, विज्ञापन विद्धंसणया स्त्री [विध्वंसना विनाश (भग) विनट देखो विणड । विनडई (भवि), 'पद (सुपा २६७) विद्धंसित वि [विध्वंसित] विनाशित (चंड हिसन पसिन विरमसु दुल्लहपेम्मेण किं नु विनवणा स्त्री [विज्ञापना] १ प्रार्थना, विनती विनडेसि (रुक्मि५८)। कवकृ. विनडिजत, (सूप १, ३, ४,१०)। २ महिला, नारी विद्धंसिय । वि [विध्वस्त] विनष्ट (पउम | विनडिजमाग (मुपा ६५५: १३४) सून १, २, ३, २)। देखो विग्णवणा। विद्धत्थ ८, २३७, १९, ३० पव विनडण न [विनटन] १ व्याकुल करना। विनविय वि [विज्ञापित निवेदित (महा)। १५५)। २ विडम्बना (सुपा २०८) विना देखो विण्णा = वि + ज्ञा। कृ. विन्नेय विद्धि स्त्री [वृद्धि] १ बढ़ाव, बढ़ती (प विनडि वि [विनटित] १ व्याकुल बना (भगः उप ३३६ टी) ७२८ टी; 'सुर ४, ११५)। २ समृद्धि हुमा। २ विडम्बित: 'तराहाछहाविनडियो विना देखो बिन्ना । यड न [तट] एक (ठा १०-पत्र ५२५, विसे ३४०८)। ३ फलजलरहियम्मि सेलम्मि' (सम्मत्त १५६ नगर का नाम (उप पू ११२) । अभ्युदय । ४ संपत्ति । ५ अहिंसा (पएह २, सुपा २६०) विनमि पुं [विनमि] भगवान् ऋषभदेव का १-पत्र ६६)। ६ कलान्तर, सूद (विपा विन्नाउ वि [विज्ञान] जाननेवाला (प्राचा)। १,१-पत्र ११) । ७ व्याकरण-प्रसिद्ध स्वर एक पौत्र (धरण १४) - विन्नाण न [विज्ञान] १ सद्बोध, ज्ञान (भगः का विकार (विसे ३४८२)। ८ पोषधि-विनास देखो विणास = वि + नाशय । विना आचा)। २ कला, शिल्प; 'तं नत्थि किंपि विशेष (राज) सए (महा) - विन्नाणं जेण धरिजइ काया' (वै७), 'कुसुम विनाएं (कुमा; प्रासू ४३, ११२)। ३ विनिज्मा सक [विनि + ध्य] देखना । विधूण देखो विद्ध = व्यध् । विनिज्झाए (दस ५, १, १५)। मेधा, मति, बुद्धि; 'मेहा मई मणीसा विन्नाणं विधम्म देखो विहम्म (राज) विनिबद्ध वि [विनिबद्ध] संबद्ध, बँधा हुमा धी चिई बुद्धी (पान) विधम्मिय वि [विधर्मित] तिरस्कृत (विसे (महा)। विनाणिय , देखो विण्णाय (उप १५० टी; २३४६) विनिमय [विनिमय व्यत्यय, 'इन सव्व- विनाय सुर २, १३१, पि १०६ विधवा देखो विहवा (निचू ८) भासविनिमयपरिहिं' (कुमा) । पात्र) विधा प्रवृथा मुधा, निरर्थक, व्यर्थ (धर्मसं | विनियट्ट देखो विणिवट्ट। वकृ. विनियट- विनाविय देखो विनविय (सुपा १४) ४११)। माण (प्राचा १, ५, ४, ३)। विन्नास पुं [विन्यास] १ रचना, विच्छित्तिः विधाण देखो विहाण = विधान (बृह १) | विनियट्टण न [विनिवर्तन] निवृत्ति, विराम | "विनासो विच्छित्ती' (पान), 'वयणविनासो' विधाय देखो विहाय = विधातु (राज)। (प्राचा). (स ३०१, सुपा १७, २६६; महा)। २ विधार सक [वि+ धारय ] निवारणा विनिरय वि [विनिरत लीन, मासक्त (कुप्र करना । संकृ. विधारेउं (पिंड १०२) विन्नासण न [विन्यासन] संस्थापन (स विनिहन्न सक [विनि+ हन] मार डालना, | विधि (शौ) देखो विहि (हे ४, २८२; विनाश करना। विनिहन्निजा (उत्त २, १७) विनासिअ वि[विन्यासित] संस्थापित (स ३०२)। विनिहाय देखो विणिघाय (विपा १, २विधुर वि [विधुर] १ व्याकुल, विह्वल; ५६०)। पत्र ३१)। 'नहि विधुरसहावा हुंति दुत्येवि धीरा' (कुप्र विन्नासिअ (अप) देखो विणासिअ (हे ४, विनीय देखो विणीअ (कस)। ५४)। २ विषम, असमान (धर्मसं १२२३; ४१८)। विन्नत्त देखो विण्णत्त (काल)। १२२४)। देखो विहुर। विन्नत्ति देखो विण्णत्ति (दं ४७; कुमा) | विन्नु देखो विष्णु (माचा); 'एगा विन्नू' विधुव (शौ) देखो विहुण = वि +धू। विधुवेदि विन्नप्प देखो विन्नव । (ठा १-पत्र १६)। (पि ५०३) विन्नव देखो विण्णव । विनवइ, विनवेइ विनय देखो विन्ना = वि + ज्ञा। विनेय देखो विन्ना = वि + ज्ञा। विधूण देखो विहुण = वि +धू। संकृ. विधू-| (पउम ३६, ११४; महा), विनवेजा (कप्प)। विन्ह [विष्णु] एक जैन मुनि, जो पार्यणित्ता (सूत्र २, ४, १०) वकृ. विनवेमाण (कप्प)। संकृ. विन्नविडं, | जेहिल के शिष्य थे (कप्प)। देखो विण्हु ।। विधूम पुं[विधूम] अग्नि, वहि (सूम १, | विन्नवित्ता (सुपा ३२३; पि ५८२)। कृ. पअ न [पद] आकाश (समु १५०)। ५, २, ८ वसु) विन्नप्प, विनवणीय, विनवियव्व (पउम | "पदी स्त्री ["पदी] गंगा नदी (समु १५०)। मागापमपानरतमानातक (ध स्थापना भविv For Personal & Private Use Only Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपंची-विप्पगम्भिय पाइअसहमहण्णवो ७८६ विपंची स्त्री [विपश्ची] वाद्य-विशेष, वीणा विपराहुत्त वि [विपराङमुक्ष] विशेष विपरिस वि [विदर्शिन्] देखनेवाला (पएह १, ४---पत्र ६८ २, ५–पत्र पराङ मुख, अतिशय उदासीन (पउम ११५, (प्राचा)। १४६)। २२)। विपाग देखो विवाग (राज)। . विपक्क वि [विपक्व] पका हुआ (उप पृ विपरिकम्म न [विपरिकर्मन्] शरीर को विपिक्ख देखो विपेक्ख । वकृ. विपिक्खंत २११)। देखो विवक्की पाकुञ्चन-प्रसारण प्रादि क्रिया (प्राचा २, (राज)। विपक्ख देखो विवक्खः निजियविपक्ख विपिण देखो विविण (कुमा) - लक्खो' (सुपा १०३, २४०) । विपरिकुंचि वि [विपरिकुश्चिन्] विपरि कंचित नामक वन्दन-दोषवाला देसकहा- विपित्त वि [दे] विकसित, खिला हुआ (दे विपक्खिय वि [विपक्षिक विरोधी, दुश्मन वित्तंते कहेइ दरवंदिए विपरिकूची' (बृह ३) ७,६१) । (संबोध ५६) । विपरिकुंचिय देखो विप्पलिउंचिय (राज)। विपुल देखो विउल (गाया १, १-पत्र ७५; विपञ्च इय न [विप्रत्ययिक] बारहवें जैन विपरिखल प्रक [विपरि + स्खल्] १ कप्प; परह २, १-पत्र ६६)+ वाहण पुं अंग ग्रन्थ का सूत्र-विशेष (सम १२८)। स्खलित होना, गिरना। २ भूल करना । वकृ. [वाहन] भारतवर्ष में होनेवाला बारहवाँ विपञ्चमाण वि [विपच्यमान] १ जो पकाया विपरिखलंत (अच्चु २२)। चक्रवर्ती राजा (सम १५४)।जाता हो वह (श्रा २०; सं ८६), 'मामासु विप्प न दे] पुच्छ, दुम, पूंछ (दे ७, ५७) । विपरिणम अक [विपरि + णम् ] १ बद. अप्पक्कासु विपञ्चमाणासु मंसपेसीसु' (संबोध विप्प [विप्र ब्राह्मण, द्विज (हे १, १७७) ४४)। २ दग्ध होता, जलताः 'तविरहान लना, रूपान्तर को प्राप्त होना। २ विपरीत होना, उलटा होना। विपरिणमे (पिंड लजालाविपञ्चमारणस्स मह निचं' (रयण महा) । ३२७)। वकृ. विपरिणममाण (भग ७, | विप्प पुं[विप्रष , विप्र] १ मूत्र और विष्ठा १०-पत्र ३२५) के बिन्दु । २ विष्ठा और मूत्रः 'मुत्तपुरीसाण विपन्जय देखो विवजय (राज) । विपरिणय वि [विपरिणत] रूपान्तर को | विप्पुसो विप्पा अन्ने विडित्ति विष्ठा भासंति विपज्जास देखो विवज्जास (नाट–मृच्छ प्राप्त (पिंड २६५)। य पत्ति पासवरणं' (विसे ७८१ औप; महा)। २२६) विपरिणाम सक [विपरि + णमय ] १ | विप्पइट्ठ देखो विप्पगिट्ट (राज) विपडिवत्ति देखो विप्पडिवत्ति (विसे विपरीत करना, उलटा करना। २ बदलवाना, विप्पइण्ण वि [विप्रकीर्ण] बिखरा हुमा, २६१४ सम्मत्त २२८) रूपान्तर को प्राप्त करना। विपरिणामेइ इधर उधर पटका हुआ (से २, ५, कस)। विपडिसेह सक [ विप्रति + सिधु ] निषेध (स ५१३) । हेकृ. विपरिणामित्तए (उवाविप्पइर सक[विप्र + कृ] इधर उधर पटकना, करना। कृ.विपडिसेहेयव्य (भग ५, ७-विपरिणाम पं [विपरिणाम] १ रूपान्तर- | बिखेरना । विप्पइरामि (उवा)। वकृ. विप्पपत्र २३४) प्राप्ति (प्राचाः प्रौप)। २ उलटा परिणाम, इरमाण (णाया १, ६-पत्र १५७)। विपणोल्ल सक [विप्र + नोदय ] प्रेरणा विपरीत अध्यवसाय (धर्मसं ५११) विप्पउंज सक [विप्र + युज्] १ विरुद्ध | विपरिणामिय वि [विपरिणमित] रूपान्तर प्रयोग करना। २ विशेष रूप से जोड़ना पि २४४)। | को प्राप्त (भग ६, १ टी-पत्र २५१) 'अदुवा वायानो विप्पउंति' (माचा १, ८, विपण्ण देखो विवण्ण = विपन्न (चारु ८) विपरिधाव सक [ विपरि + धाव ] इधर विपत्ति देखो विवत्ति % विपत्ति (गा २८२ | उधर दौड़ना। विपरिधावई (उत्त २३, ७०) विप्पओअपु[विप्रयोग] अलहदा, प्रलग, प्र राज)। विपरियास देखो विपरियास (राज) | विप्पओगजुदा, विरह, वियोग (उत्तर विपत्थाविद (शौ) वि [विप्रस्तावित] विपरिवसाव सक [विपरि + वासय ] । १५ स २८१, चंडा पउम ४५, ४६; जी प्रारब्ध, जिसका प्रारंभ किया गया हो वहा ४३; उत्त १३, ८; महा)। रखना। विपरिवसावेइ (णाया १, १२'एदाए चोरिमाए एसम्ह घरे कलहो विपत्था विप्पकड वि [विप्रकट] विशेष रूप से प्रकट पत्र १७५)। वकृ. विपरिवसावेमाण विदो' (हास्य १२१)। (भग ७, १०--पत्र ३२४) । (णाया १, १२) विपरामुस सक [विपरा + मृश ] १ समा- विपरीअ देखो विवरीअ (सूम १, १, ४, ५, विप्पकिर देखो विप्पइर। वकृ.विप्पकिरेमाण रम्भ करना, हिंसा करना। २ पीड़ा उपजाना, | गा ५४ प्र)। | (णाया १, १-पत्र ३६) । हैरान करना। ३ प्रक. उत्पन्न होना, उप-विपलाअ अक [विपरा + अय ] दूर विप्पक्ख देखो विपक्ख (पि १९६)जना । विपरामुसइ, विपरामुसंति, विपरामुसह भागना । वकृ. विपलाअंत (गा २६१)। विप्पगम्भिय वि [विप्रगल्भित] अत्यन्त (प्राचा; पि ४७१) । देखो विप्परामुस। । विपल्हत्थ देखो विवल्हत्थ (पि २५५)। । धृष्ट (सूप १, १, २, ५) For Personal & Private Use Only Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० पाइअसद्दमहण्णवो विप्पगरिस-विपरियास विप्पगरिस पृ [विप्रकप] दूरी, आसन्नता विप्पडिधाय पुं[विप्रतिघात] प्रतिबन्ध, विप्पमुंच सक [विप्र + मुच् ] छोड़ना, का अभाव; 'देसाइविप्पगरिसा' (धर्मसं - अटकाव (णाया १, १६–पत्र २४५)। मुक्त करना । कर्म. विप्पमुच्चइ (उत्त २५, १२१७)। | विप्पडिपह पुं [विप्रतिपथ] विपरीत मार्ग ४१)। विपासक मागण, नि + पालय् ] (उप १०३१ टी)। विप्पमुक्त वि [विप्रमुक्त विमुक्त (प्रौपः सुर नाश करना । विप्पगालइ (हे ४, ३१; पि विप्पडिवण्ण देखो विप्पडिवन्न (पव ७३ | २, २३७ सुपा ४४५) । ५५३)। टी) विप्पय न [दे] १ खल-भिक्षा । २ दान । ३ विप्पगालिअ वि [नाशित, विप्रगालित] विपडिवत्ति स्त्री[विप्रतिपत्ति] १ विरोध वि. वापित । ४ पुं. वैद्य (दे ७, ८६) । नाशित (कुमा) । (पिसे २४८०) । २ प्रतिज्ञा-भंग (उप ५१९) विप्पयार सक [विप्र + तारय ] ठगना । विप्पगिट्ट वि [विप्रकृष्ट] १ दूरवर्ती, दूरी पर विपडिवन्न वि [विप्रतिपन्न] १ जिसने विप्पयारंति, विप्पयारेमि (कुप्र ६:त्रि ८८)। स्थित (स २२६)। २ दीर्घ, लम्बा: 'णाइ- विशेष रूप से स्वीकार किया हो वह; "मिच्छ- कर्म. विप्पयारीग्रइ (कुप्र ४४) । संकृ. विप्पगिठेहि श्रद्धाणेहि (गाया १, १५) । २.पजवेहिं परिवड्ढमाणेहिं २ मिच्छत्तं विप्प- विप्पआरिअ (त्रि ८८)। विप्पचय सक [विप्र + त्य] छोड़ना, डिवन्ने जाए जाए यावि होत्था' (णाया १, विप्पयारणा स्त्री [विप्रतारणा] वंचना, त्याग करना । कृ. विप्पचइयव्व (तंदु १३–पत्र १७८) । २ विरोध-प्राप्त, विरोधी ठगाई (कुप्र ४४; मोह ६४) ३५) बना हुआ (पाचा १, ८, १, ३, सूअ १, ३, विप्पयारिअ वि [विप्रतारित] वञ्चित, ठगा विप्पञ्चय पुं[विप्रत्यय] १ संदेह, संशय हुआ (मोह १०१)। (उत्त २३, २४) । २ वि. प्रत्यय-रहित, विप्पडिवेअ) सक [विप्रति + वेदय ] विप्पडिवेद । १ जानना। २ विचारना। विप्परद्ध वि [दे] विशेष पीड़ित; 'करचरणअविश्वसनीय (उव)। विप्पडिवेएइ (प्राचा १, ५, ४, ४), विप्पडि दंतमुसलप्पहारेहिं विप्परखें समाणे तं चेव विप्पजढ वि [विप्रहीण] परित्यक्त (गाया वेदेति (सूत्र २, १, १५)। महद्दहं पाणीयं पादेउं (?पाउं) समोयरेति' १, २--पत्र ८४: पंचा १४, ६; पव विप्पडिसिद्ध वि [विप्रतिषिद्ध] आपस में (णाया १,१-पत्र ६४) । देखो परद्ध ।। १२३)। विप्पजह सक विप्र + हा] परित्याग करना, असंमत (उवर ३) । विप्परामुस देखो विपरामुम; 'प्रावंती केयावती लोगंसि विप्परामुसंति प्रढाए अट्ठाए वा. छोड़ देना । विप्पजहइ, विप्पजहंति, विप्पजहे विष्णडीव वि [विप्रतीप] प्रतिकूल (माल एएसु चेव विप्परामुसंति' (आचा)। (कसः उवाः सूत्र २,१,३८, उत्त ८:४)। १७७)।भवि विप्पहिस्सामो (पि ५३०)। वकृ. विप्परिणम देखो विपरिणम । भवि. विप्परिविप्पण? वि [विप्रनष्ट] पलायित, नाश णमिस्सति (भग)। विप्पजहमाण (ठा २, २–पत्र ५६ पि प्राप्त (स ३५३; उवा)। विप्परिणय देखो विपरिणय (भग ५,७ विप्पणम | सका विष+ णम्] १ नमना। ५००) । संकृ विप्पजहित्ता, विप्पजहाय विप्पणव २ अक. तत्पर होना । विप्पणवंति (उत्त २६, ७३; भग)। कृ. विप्पजणिज्ज, टी--पत्र २३६; काल)। विप्पजहियव्व (गाया १,१-पत्र ४८ (सून १, १२, १७)। वकृ. विप्पणमंत विप्परिणाम देखो विपरिणाम = विपरि + पि ५७१गाया १,१८-पत्र २४१)। (राज)। णमय । विप्परिणामंति, विप्परिणामेति विप्पजह न [विप्रहाण] परित्यागों सेणिया विप्पणस्स अक विप्र + नश ] नष्ट होना, (प्राचा) । संकृ. विपरिणामइत्ता (भग)। विनाश-प्राप्त होना । विप्पणस्सइ (कस) विप्परिणाम देखो विपरिणाम = विपरिणाम स्त्री [श्रोणका] बारहवें जैन अंग-ग्रन्थ का भवि. विप्पणस्सिहिइ (महानि ४)एक परिकम--अंश-विशेष (सम १२६) (प्राचाः भग ५, ७ टी-पत्र २३६) विप्पजणा । स्त्री [विप्रहाणि] प्रकृष्ट विप्पणास ' [विप्रणाश] विनाश (धर्मवि विष्परिणामिय देखो विपरिणामिय (भग ६, विप्पजहन्ना त्याग, परित्याग (उत्त २६, ५७) १--पत्र २५०)। ७३, औपः विसे ३०८६; परण ३६-पत्र विप्पतार सक [विप्र+तारय ] ठगना। विप्परियास सक [विपरि + आसय ] ८४७) विप्पतारसि (धर्मवि १४७)। कम. विप्पता- व्यत्यय करना, उलटा करना । विप्परियासेइ विप्पजहिय वि [विप्रहीण] परित्यक्त (पि रीअदि (शौ) (नाट--शकु ७५)। (निघू ११)। वकृ. विपरियासंत (निचू ५६५) विप्पदीअ) (शौ) देखो विप्पडीव (नाट- ११)। विप्पजोग देखो विप्पओअ (चंड) विप्पदीव । मालती १०६; ११६ मृच्छ विप्परियास पुं [विपर्यास] १ व्यत्ययः ४८)। विपरीतता (प्राचाः सूप्र १, ७, ११)। २ विप्पाड अक विपरि +इ] विपरीत होना, विप्पमाय पुं [विप्रमाद] विविध प्रमाद परिभ्रमण (सूत्र १, १२, १३, १, १३: उलटा होना । विप्पडिएइ (सूत्र १,१२,१०) (सूअ १, १४, १)। १२) For Personal & Private Use Only Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विप्परियासणा-विप्फुर पाइअसद्दमण्णवो विपरियाणा स्त्री [विपर्यासना] व्यत्यय विष्पवर न [दे] भल्लातक, भिलाँवा (द ७, विप्पुस पुन. देखो विप्पुः 'असुइस्स विप्पुकरना (निचू ११)। सेणवि' (पिंड १६५)। विप्परुद्ध वि[विप्ररुद्ध] तिरस्कृतः 'हयनिह विप्पवस अक [विप्र + वस् ] प्रवास में | विप्पेक्ख सक [विप्र + ईक्ष ] निरीक्षण यविप्परुद्धो दूओ' (पउम ८, ८५) जाना, देशान्तर जाना। संकृ. विप्पवसिय करना, देखना । वकृ. विपेक्खंत (पएह १, विप्पल देखो विप्प = विप्र (प्राकृ ३७)। (पाचा २, ५, २, ३) १-पत्र १८) विप्पलंभ सक विप्र + लभ ] ठगना । विप्पवसिय वि [विप्रोषित देशान्तर में विप्पेक्खिअ वि [विप्रेक्षित ] निरीक्षित विप्पलंभेमि (स ५०६)। गया हुमा, प्रवास में गया हया (णाया (पएह २, ४--43 १६१, भग ६, ३३-- विप्पलंभ [विप्रलम्भ] १ वञ्चना, ठगाई २-पत्र ७६, १,७–पत्र ११५) पत्र ४६६)। (उप २४)। २ शृङ्गार की एक अवस्था-- विष्पवास [विप्रवास] प्रवास, देशान्तर- विष्पोसहि स्त्री [विप्रौपधि आध्यात्मिकजिसमें उत्कृष्ट अनुराग होने पर भी प्रिय गमन (प्रति १००) शक्ति-विशेष, जिसके प्रभाव से योगी के समागम नहीं होता (सुपा १६४)। ३ विप विप्पसन्न वि [विप्रसन्न] १ विशेष प्रसन्न, विष्ठा और मूत्र का बिन्दु पोषधि का काम र्यास, व्यत्यय, वैपरीत्य (धर्मसं ३०४)। विरह, खुश। २ प्रसन्न-चित्त का मरण (उत्त ५, करता है (पराह २, १--पत्र ६६; प्रौपः वियोग (कप्पू) । १८) विसे ७७६; संति २) विप्पलंभ वि [वित्रलम्भक प्रतारक, विपमा प्रकाविप्रसाफैलना। भका. विष्फंद प्रक [वि + स्पन्दू इधर-उधर ठगनेवाला (मृच्छ ४७) - 'बहवे हत्थी..."दिसो दिसं विप्पसरित्था' चलना, तड़फना । विप्पलं भअ वि [विप्रलम्भित] १ प्रतारित। वकृ. विष्फंदमाण २ विरहित (सुपा २१६) (पि ५१७) । (प्राचा)। विप्पल वि [विप्रलब्ध] वञ्चित, प्रतारित | विप्पसाय सक [विप्र + सादय ] प्रसन्न विष्फंदिअ वि [विस्पन्दित ] इधर-उधर (चारु ४५: सं ४१८, ६८०)। करना । विप्पसायए (पाचा १, ३, ३, १) भटका हुआ, परिभ्रान्तः 'खज्जंतेरण जलथले सकम्मविप्पलय पुंन [दे] विविधता, विचित्रताः । विप्पसीअ अक [विप्र+स] प्रसन्न होना। 'तंद सो सर्व जाणइ संबंधविप्पलय' विप्पसीएज (उत्त ५, ३०, सुख ५, ३०)। विप्फंडि(?दि एण जीवेणं । तिरियभवे दुक्खाई छुहतराहा(धर्मबि १२७)। विप्पय वि [विप्रहत] आहत, जखमी (सुर विप्पलविद (शौ) न [विप्रलपित] निरर्थक ईणि भुत्ताई। (पउम ६५, ५२)। ६, २२१)। वचन, बकवाद (स्वप्न ८१) dिered विप्रभाजिता विभक्त विष्फरिस पृ [विस्पर्श] विरुद्ध स्पर्श (प्राप्र)। विप्पलाअ देखो विपलाअ । भूका, विप्पला- हमा (पीप)। विप्फाडग वि [विपाटक] चीरनेवाला, इत्था (विपा १, २-पत्र २६)। वकृ. विष्पहीण वि[विहीण] रहित, वजित विदारक (पएह १, ४-पत्र ७२) । विप्पलादमाण (णाया १,१-पत्र ६५) Mविप्पहण (सं ७७; स १६१ पि १२० विप्फाडिअ वि [दे. विपाटित] नाशित विप्पलाअविप्रलाप] १ परिवेदन, ५०३) विष्पलावरोना, कन्दनः 'अविनोगो विप्प-विप्पावग वि [दे] हास्य-कर्ता, उपहास विष्फारिय वि[विर फारित] १ विस्तारित लानो (तंदु ८७ रयण ६४)। २ निरर्थक करनेवाला (सुख १, १३)। | (उप पृ १५२) । २ विकासित (सुपा ८३)। वचन, बकवाद (उत्त १३, ३३)। ३ विरहाविप्पिअ पुंन [विनिय] १ अप्रिय, अनिष्ट विप्फाल सक [दे] पूछना, पृच्छा करना। लाप (पउम ४४, ६८) (णाया १,१८-पत्र २१३; गा २५०; से २०१७ विष्फालेइ (वव १) विप्पलिचिअ न विपरिकुश्चित] गुरु- ४, ३६ हे ४, ४२३) । २ अपराध, गुनाह विष्फाल देखो विकाल । संकृ. विष्फालिय वन्दन का एक दोष, संपूर्ण वन्दन न करके (पान) । °आरय वि [ कारक] १ अप्रियबीच में बातचीत करने लग जाना (पव २ (राज)। कर्ता । २ अपराध-बाला (हे ४,३४३) । गाथा १५२) विप्फाल पुंदे पृच्छा, प्रश्न (वव १ टी) विपिडिअ वि [दे] नाशित (दे ७, ७०)। विष्फालणास्त्री दे] ऊपर देखो (वव १ टी)। विप्पलंपग वि [विप्रलोपक] लूटनेवाला, लुटेरा (पग्रह १, ३-पत्र ४४)। विप्पीइ स्त्री [विप्रीति] अप्रीति (पएह १, विष्फालिय देखो विष्फारिय (राज)। विप्पलोहण वि [विप्रलोभन] लुभानेवाला ___३-पत्र ४२) विप्फुड वि [विस्फुट] स्पष्ट, व्यक्त (रंभा)।(स ७६३)। विप्पु स्त्री [विप्रष] बिन्दु, अवयव, अंशः विप्फुर प्रक [वि + स्फुर ] १ होना। २ विप्पव [विप्लव १ देश का उपद्रव, | 'मुत्तपुरीसारण विप्पुसा विप्पा' (औपः विसे विकसना। ३ तड़फड़ना। ४ फरकना, क्रान्ति । २ दूसरे राजा के राज्य आदि से ७८१)। हिलना । विष्फुरइ (संबोध ३४. काल; भवि)। भय (हे २,१०६)। ३ शरीर की विसंस्थु- | विप्पुअ वि [विप्लत] उपद्रुत, उपद्रव-युक्त वकृ. विष्फुरंत (उत्त १६, ५४३ पउम लता, अस्वस्थता (कुमा) ६३, ३)। For Personal & Private Use Only Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ पाइअसहमहण्णवो विप्फुरण-विभमण विप्फुरण न [विस्फुरण] १ विजृम्भरण, विब्बोअ ' [विव्योक] विलास, लोलाः (पव २२६ टी)। २ ज्ञान-विशेष (सूत्र २, विकास (श्रावक २४५; सुर २, २३७) । २ 'हेला ललिअं लीला विब्बोनो विन्भमो २, २५)। ३ विराधना, खण्डन । ४ मैथुन, स्पन्दन, हिलन (गउड) । विलासो य' (पान)। देखो बिब्बोअ।। अब्रह्म (पएह १. ४-पत्र ६६)। देखो विप्फुरिय वि [विस्फुरित विजृम्भित (सुपा | विभंग देखो विभंग (भगः पव २२६, कम्म विहंग = विभंग :२०४: सरण) ४,१४, ४०) विभंगु पुंस्त्री [दे] तृण-विशेषः 'एरंडे कुरुविंदे विभंगि वि [विभङ्गिन] विभंग-ज्ञानवाला करकरसुंठे तहा विभंगू य' (पएण १-पत्र विप्फुल्ल वि [विफुल्ल] विकसित, प्रफुल्ल; (भग) । ३३) 'तह तह सुबहा विप्फुल्लगंडविवरंमुही हसई' विभंत वि [विभ्रान्त] १ विशेष भ्रान्त, विभंगुर वि [विभङ्गर] विनश्वर (सुपा (वज्जा ४४) विष्फोड [विस्फोटक] फोड़ा (नाट चक्कर में पड़ा हुआ (पाचा १, ६, ४, ३)। ६०५, प्रासू ६६; पुप्फ २२०) २ पुं. प्रथम नरक-भूमि का सातवा नर- विभंज सक [वि + भन] भांग डालना, शकू २७; पि ३११; प्राप्र) केन्द्रक-स्थान-विशेष (देवेन्द्र ४) । तोड़ना । संकृ. विभंजिऊण (काल) ।। विफद देखो विप्फंद। वकृ. विफंदमाण विभंस[विभ्रंश अतिपात, हिंसा, प्राण-| विभंतडी (अप) स्त्री [विभ्रान्ति] विशिष्ट (प्राचा १, ४, ३, ३)। वियोजन (राज)। भ्रम (हे ४, ४१४) विफाल सक [वि + पाटय ] १ विदारण विभट्ठ वि [विभ्रष्ट] विशेष भ्रष्ट (प्रति विभग्ग वि [विभन्न भाँगा हुआ, खण्डित करना। २ उखाड़ना। संकृ. विफालिय (पउम ११३, २६) (प्राचा २, ३, २, ६) विब्भम पुं [विभ्रम] १ विलास (पानः | विभज सक [वि+ भज] १ बाटना, विफुट्ट अक [वि + स्फुट ] फटना। वकृ. गउड ५५१९७कुमा)। २ स्त्री की शृंगार विभाग करना। २ विकला से प्राप्त करना, चितंति किं विफुटुंत चंडबंभंडयस्स रखो' | के अंग-भूत चेष्टा-विशेष (गउड; गा ५)। ३ पक्षतः प्राप्ति करना- विधान और निषेध (सुपा ४५)। चित्त-भ्रम, पागलपन (राय)। ४ शृगार करना । कर्म. विभज्जति (तंदु २)। कवकृ. विफुरण देखो विप्फुरण (सुपा २५) संबन्धी मानसिक अशान्ति (कप्पू)। ५ विशेष विभज्जमाण (णाया १, १-पत्र ६०; विबंधक वि[विबन्धक] विशेष रूप से भ्रान्ति (सुपा ३२७ गउड)। ६ संदेह । ७ उप २६४ टी) । संकृ. विभजिऊण (धर्मवि बांधनेवाला (पंच २, १) आश्चर्य । ८ शोभा (गउड)। ६ भूषणों का १०५)। देखो विभज्ज । विबद्ध वि [विबद्ध] १ विशेष बद्ध । २ | स्थान-विपर्यय (कुमा)। १० रावण का एक विभजण न [विभजन] विभाग, भाग-बँटाई माहित (सूत्र १, ३, २, ६) सुभट (पउम ५६, २६)। ११ मैथुन, (पव ३८)।विबाहग वि [विबाधक] विरोधी, बाधक अब्रह्म । १२ काम-विकार (पएह १,४-पत्र विभज्ज देखो विभज। विभज्ज (कम्म ६, ६६) (धर्मसं ४६६) विबुद्ध वि [विबुद्ध जागृत (सिरि ६१५)। विब्भल वि [विह वल] १ व्याकुल, व्यग्र विभजवाद । पुं[विभज्यवाद] स्याद्वाद, विबुध (शौ) नीचे देखो (पि ३६१)। (सुर ८, ५७; १२, १६८)। २ व्यासक्त, विभजवाय अनेकान्तवाद, जैन दर्शन विबुह पुं[विवुध] १ देव, त्रिदश (पान, तल्लीन । ३ पृ. विष्णु, नारायण (षड् ४०; (धर्मसं १२१, सून, १४, २२; उबर हे २, ५८) 10 सुर १, ४५)। २ पण्डित, विद्वान् (सुर १, ४५)। चंद पुं ['चन्द्र] एक प्रसिद्ध | विब्भलिअ वि [विह वलित] व्याकुल किया विभत्त वि [विभक्त] १ विभाग-युक्त, बॉटा जैनाचार्य (सुपा ६५८) पहुj [प्रभु] हुआ (कुमा)। हुपा (नाट--शकु ४६; कप्प)। २ भिन्न इन्द्र (सुर १, १७२)। "पुर न [पुर] स्वर्ग लिम्भवण न [दे] उपधान, ओसीसा (दे ७, अलग, जुदाः 'विभत्तं धम्मं झोसेमाणे (प्राचा: (सम्मत्त १७५)। कप्पः महा)। ३ न. विभाग (राज)। विबुहेसर पु[विबुधेश्वर इन्द्र (श्रावक ५:) विब्भाडिय वि [दे] नाशित (भवि)। विभत्ति स्त्री [विभक्ति] १ विभाग, भेद विबोच पु[विबोध] जागरण (पंचा १, ४२) विब्भार देखो वेभार (पि २६६)। (भग १२, ५.-पत्र ५७४, सूअनि ६६ विबोहग देखो विबोहय (कप्प) विभिडि पुंदे] मत्स्य की एक जाति उत्तनि ३६); 'लोगस्स पएसेसु प्ररणंतरपरंपराविबोहण न [विबोधन] ज्ञान कराना; | (विपा १, ८ टी-पत्र ८३)। विभत्तीहि (पंच २, ३६, ४०, ४१)। २ 'प्रबुहजणविबोहणकरस्स': (सम १२३) विभेइअ वि [दे] सूई से विद्ध (दे ७, व्याकरण-प्रसिद्ध प्रत्यय-विशेष (ोघभा ४ विबोहय वि [विबोधक] १ विकासक; ६७)। चेइय २६८ सूअनि ६६)। 'कुमुयवरणविबोहयं' (कप्प ३८ टि)। २ विभंग ' [विभङ्ग] १ विपरीत अवधिज्ञान, विभमण न [दे] उपधान, प्रोसीसा (दे ७. ज्ञान-जनक (विसे १७४) । | वितथ अवधिज्ञान, मिथ्यात्व-युक्त अवधिज्ञान । ६८ टी)। For Personal & Private Use Only Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभय-विमण पाइअसद्दमण्णवो विभय देखो विभज । विभए, विभयंति (कम्म | पिंड १२४)। हेकृ. विभासिङ (विसे २ शरीर-शोभा, 'मेहुणाम्रो उवसंतस्स कि ६, ३१: प्राचा; उत्त १३, २३)। १०८५) । विभूसाइ कारिनं' (दस ६, २, ६५; ६६; विभयणा स्त्री [विभजना] विभाग (सम्म | विभासण न [विभाषण] व्याख्या, व्याख्यान ६७; उत्त १६, ६)। १०१) ।। (विस १४२८)। विभूसिय वि [विभूषित] विभूषा-युक्त, विभर सक [वि + स्मृ] विस्मरण करना, | विभासय वि [विभाषक ] व्याख्याता, अलंकृत, शोभित (भगः उत्त १६, महाः भूल जाना। विभरइ (पि ३१३) । व्याख्या-कर्ता (विसे १४२५)।। विपा १,१-पत्र ७) विभव देखो विह्व (उवः महा)। विभासा स्त्री [विभाषा] १ विकल्प-विधि, विभेद । [विभेद] १ भेदन, विदारण पाक्षिक प्राप्ति, भजना, विधि और निषेध का विभवण न [विभवन] चिरूप-करण, खराब विभेय ) (धर्मसं ८२६); 'जयवारणकुंभ का विधान (पिंड १४३, १४४ १४५; विभेयक्खमे' (गउड; अ ७२८ टी) । २ भेद, करना (राज) २३५; ३०२; उप ४१५ टीः द्र १६)। २ प्रकार; 'उड्डाहोतिरियविभेय तिवणंपि' विभाइम वि [विभाज्य] विभाग-योग्य (ठा व्याख्या, विवरण, स्पष्टीकरण (विसे १३८५ । (चेइय ६६४)। ३, २-पत्र १३४)। १४२१; पिंड ६३७) । ३ विज्ञापन, निवेदन विभेयग वि[विभेदक भेदनकर्ताः 'परमम्मविभाइम वि [विभागिम] विभाग से बना (उप ९८०)। ४ विविध भाषण (पिंड विभेयगो' (धर्मवि ७६) हुआ (ठा ३, २–पत्र १३४) । ४३८) । ५ विशेषोक्ति (देवेन्द्र ३६७)। ६ विमइ स्त्री [विमति छन्द-विशेष (पिंग)। विभाग पुं [विभाग) अंश, बाँट (काल; परिभाषा, संकेत (कम्म १, २८ २६)। ७ विमइअ वि [दे] भत्सित, तिरस्कृत (दे सरण) एक महानदी (ठा ५, ३–पत्र ३५१)विभागिम देखो विभाइम = विभागिम (उप विभासिय वि [ विभासित] प्रकाशितः ७,७१) पृ १४१) विमउल वि [विमुकुल विकसित, खिला उयोतित (सम्मत्त ६२)। विभाय देखो विभाग (रंभा)। हुआ (णाया १, १ टी-पत्र ३; प्रौप)। विभिण्ण) देखो विहिण्ण = विभिन्न (गउड विभाय न [विभात] प्रकाश, कान्ति, तेज | विभिन्न ५७०, ११८० उत्त १६,५५)विमातय विविमान्त्रत] जिसक बार म मस(सण)।विभीसण पृ [विभीषण] १ रावण का एक लहत-गुप्त युक्ति की गई हो वह (सुर ११, विभाय पूं [विभाव] परिचयः 'कस्स विस | ९७) छोटा भाई (पउम ८, ६२)। २ विदेह वर्ष का एक वासुदेव (राज)। मदसाविभागो न होई' (स १६८) विमंसिअ वि [विमृष्ट, विमर्शित] विचारित, पर्यालोचित (सिरि १०४५) विभाव सक [वि + भावय ] १ विचार विभीसावण वि [विभीषण] भय-जनक, करना, ख्याल करना। २ विवेक से ग्रहण | भयंकर (भवि) विमग देखो विमय (राज)। करना। ३ समझना । वकृ. विभावंत, विभा- विभीसिया स्त्री [विभिषिका] भय-प्रदर्शन विमग्ग सक [वि + मार्गय ] १ विचार वेंत, विभावेमाण (सुपा ३७७; उप ५६७ | करना। २ अन्वेषण करना, खोजना । ३ टी; कप्प)। कवकृ. विभाविजंत, विभा- विभु पुं[विभु] १ प्रभु, परमेश्वर (पउम ५, प्रार्थना करना, मांगना। ४ इच्छा करना, विजमाग (से ८, ३२ स ७५०)। हेकृ.. ११२)। २ नाथ, स्वामी, मालिक (पउम चाहना। विमग्गइ, विमग्गहा (उव; उत्त विभावेत्तए (कस)। कृ. विभावणीय (पुप्फ ७०, १२)। ३ इक्ष्वाकु वंश के एक राजा १२, ३८) । वकृ. विमग्गंत, विमग्गमाण २५४)। का नाम (पउम ५, ७)। ४ वि. व्यापक (गा ३५१, सुर २, १७; से ४, ३६ विभाव देखो विभवः 'तप्रो महाविभावेणं (विसे १९८५) । महा)। पूइऊण पेसिया गया य' (महा)। विभूइ स्त्री [विभूति] १ ऐश्वर्य, वैभव (उवः विमग्गिअ वि [विमागित] १ याचित, विभावसु पु[विभावसु१ सूर्य, रवि । २ औप)। २ ठाटबाट, धूमधाम; 'महाविभूईए | मांगा हुमा (सिरि १२७, सुर ४, १०७)। रविवार (पउम १७, १७७ )। देखो चलिग्रो जिरणजत्ताए' (सुर ३, ६२, महा)। २ अन्वेषित, गवेषित (पास) विहावसु । ३ अहिंसा (पण्ह २, १-पत्र ६६) विमझ न [विमध्य] अन्तराल (राज)। विभाविय वि [विभावित ] विचारित विभूसण न [विभूषण] १ अलंकार, गहना। विमण वि [विमनस ] १ विषएण, खिन्न, (सण)। २ शोभाः 'दिव्वालंकारविभूसणाई' (उवः शोक-सन्तप्त (कप्पा सुर ३, १६८, महा)। विभास सक [वि + भाष्] १ विशेष रूप सौप)। २ शून्य-चित्त, सुन्न चित्तवाला (विपा १, से कहना, स्पष्ट कहना । २ व्याख्या करना । विभूसा स्त्री [विभूषा] १ सिंगार की सजा- २–पत्र २७)। ३ निराश, हताश (गा ३ विकल्प से विधान करना। विभासइ (पव | वट, शरीर पर अलंकार-वन आदि की सजा- ७६)। ४ जिसका मन अन्यत्र गया हो वह ७३ टी) । कृ. विभासियव्य (उत्तनि ३६; वट (माचा १, २, १, ३, प्रौपा जीव ३)। (से ४, ३१, गउड)। १०० For Personal & Private Use Only Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९४ विमद सक [ वि + मर्दय..] १ संघर्ष करना । २ मर्दन करना । कवकृ. विमद्दिजमाण (सिरि १०३८) । चिमद [[म] विनाश 'भारतपुरिय संतदानिविमना' (ग) २ संघर्ष (७२२ कुत्र ४६ ) विमण [विमर्दन] ऊपर देखो (भवि) 1 विमन [ + मन्] मानना, गिनना । विमिन्त' (मुर ४,२४ विमय पुं [हे] पर्व-वनस्पति- विशेष (परण १--पत्र ३३) । विमर (प) नीचे देखो विरह (ग) 1 विमरिस सक [ वि + मृश् ] विचारना । क्र. मरिसिव्य (शी) (अभि १८४) विमरिस पुं [विमर्श ] विकल्प, विचार (राज) 1 पामण्णवो [] मन-प्राण देवलोक के इन्द्र का एक पारियानिक विमान (ठा १० - पत्र ५१८) वा [वादन] १ भारत विमला बी [विमला ] १ ऊर्ध्व दिशा (ठा १० - पत्र ४७८ ) । २ धरणेन्द्र के लोकपालों की प्रग्र-महिषियों के नाम (ठा ४, १ -पत्र २०४) । ३ गीतरति और गीतयश नाम के गन्धवेन्द्रों की अग्र महिषियों के नाम (ठा ४, १-पत्र २०४ । ४ पनकी दीक्षा शिविका (सम १५१) विमल वि [[म] १ मल-रहित, विशुद्ध निर्मल (कप्पः श्रप से ८ ४९ पउम ५१, २७ कुमाः प्रासू २; १५७; १६१) । २ पुं. इस अवसर्पिणी-काल में उत्पन्न तेरहवें जिनदेव (सम ४३; पडि ) । ३ भारतवर्ष में होनेवाले बाई निवास १५४) ४ एक प्राचीन जैन आचार्य और कवि जिन्होंने विक्रम की प्रथम शताब्दी में 'पउमचरिश्र ' नामक जैन रामायण बनाई है (उम ११५ ११८) २५ एक महाग्रह, ज्योतिष्क देव - विशेष (ठा २, ३ – पत्र ७८) । ६ भगवान् श्रजितनाथ का पूर्वजन्मी नाम (सम १५१) । ७ पुंन. सहस्रार देवलोक के इन्द्र का एक पारियानिक विमान (ठा - पत्र ४३७) ८ ब्रह्म देवलोक में स्थित एक देव - विमान (सम १३ देवेन्द्र १४०)। एक वेव देववमान (सम ४१ देवेन्द्र १४१ ) । १० लगातार छः दिनों का उपवास । ११ लगातार सात दिनों का उपवास (संबोध १० १२. दया (ए २, १ -पत्र E ) घोस पुं [दोष] एक कुलकर पुरुष (सम १५०) 'चंद पुं ['चन्द्र ] एक जैन श्राचार्यं (महा) ।विमाण सक [ वि + मानय ] श्रपमान करना, तिरस्कार करना । विमाज्जह (महा ५६) विमलिअ वि [विमर्दित ] जिसका मदन किया गया हो वह, घृ ( से 8, ७) 1 विमलिअ वि [दे] १ मत्सर से उक्त । २ शब्द सहित, शब्दवाला (दे ७, ७२) बिमलेसर पुं [विमलेश्वर ] सिद्धचक्रजी का श्रधिष्ठायक देव (सिरि ७७३) 1 निमलोत्तर [बिमलोत्सर] ऐरयल एक भावी जिनदेव (सम १५४) । विमहिद (शौ) वि [विमथित] जिसका मथन किया गया हो वह (नाट मानवि ४० ) 1 विमाउ श्री [विमातृ] सौतेली माँ (सत्त ३५ १७१) 1 का 'पहा श्री [भ] भगत की दीक्षा शिविका ( विचार १२९ ) वर वर्ष के भावी प्रथम जिनदेव, जिनके दूसरे नाम देवसेन तथा महापद्म होंगे (ठा ६-पत्र ४५६) । २ कुलकर पुरुष - विशेष (सम १०४ : १५०; १५३; पउमः ३, ५५)। ३ भारतवर्षं का एक भावी चक्रवर्ती राजा (सम १५४) । ४ एक जैन, जो भगवान् अभिनन्दन के पूर्व जन्म में गुरु थे ( पउम २०, १२ : १७) । ५ भगवान् संभवनाथ का पूर्व जन्मीय नाम (सम १५१ ) सामि ['स्वामिन] सिद्धचक्रजी का श्रधिष्ठायक देव (सिरि २०४ ) 1 "सुंदरी श्री ["सुन्दरी] वह वासुदेव की पटरानी (पउम २० १८६ ) 1 मिलन [विमर्दन] मरिण श्रादि को शाण विमाणि वि [विमानित ] अपमानित (पिंड पर चिराना घर्षण (१, १४०) ४१३ कप्प; महा ) 1 बिमलहर [] कलकल, कोलाहल (दे ७, विमिस्स श्र [विमृश्य ] विचार करके 1 ७२) । "गारि व [वारिन] विचारपूर्वक करने वाला ( स १८४ : ३२४) विमद्द- विमुक्क विमाण पुंन [विमान] १ देव का निवासभवन (सम २; ८ ६; १०; १२ ठा ८ १०; उवा कप्पा देवेन्द्र २५१:२५३३ परह १,४पत्र ६८ ति १२ ) । २ देव यान, आकाश यान, आकाश में गति करने में समर्थ रथ ( से 8, ७२ कप ) । ३ अपमान, तिरस्कार । ४ वि. मान-रहित, प्रमाण शून्य ( से 8; ७२ ) 1विभक्ति स्त्री ["प्रविभक्ति ] जैन ग्रन्थविशेष (सम ६६ ) + भवण न [भवन ] विमानाकार गृह (कप्पवासि [वासिन्] देवों की एक उत्तम जाति, वैमानिक देव ( परह १, ४--पत्र ६८ ति १२) । विमाणणा श्री [विमानना] तिरस्कार (११२) । वगना For Personal & Private Use Only विभिस्स वि [विमिश्र ] मिश्रित, मिला हुआ, युक्त (पंच २, ७ महा) 1 विमिस्सण न [विमिश्रण ] मिश्रण, मिलावट ( सम्मत्त १७१) 1 मिसिय वि[विमिश्रित] विविध मिश्रित (भवि) 1 विमुउल देखो विमउल (राज) विमुंच सक[+] छोड़ना, बन्धन- मुक्त करना । २ परित्याग करना । विमुंबई (पण कर्माचा २. १६. चिंत (महा), विमु [? मुंच] माण (गाया १, ३ - पत्र ६५) । विमो (१४टी) विमो (ठा २, १ - पत्र ४७ ) IV विमुकुल देखो बिमउल (परह १, ४ - पत्र 08) 1~ विभुक्क वि [विमुक्त] १ छुटा हुमा, छुट्टा, बन्धनरहित 'जय महा (४६; पाम: श्रचानि ३४३) । २ परित्यक्तः 'विमुक्कजीयारण' (महा ७७ ) । ३ निःसंग, संग रहित ( श्राचा २, १६,८) Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिविमुत्तेमुवि' ( की १ मोक्ष, मुक्ति ६,३) विमोचन र वि. छुड़ानेवाला सयविमोयणका विमुक्ख-विर पाइअसहमहण्णवो ७६५ विमुक्ख पुं[विमोक्ष छुटकारा, मुक्ति (से विमोडण न [विमोटन] मोड़ना (दे)। विम्हरण न [विस्मरण] विस्मृति (पव ६; ११, ५६, प्राचानि २५८, २५६ अजि ५) विमोत्तव्य देखो विमुंच। संबोध ४३; सूक्त ८०) विमुक्खण देखो विमोक्खण (उत्त १४, ४; विमोय सक [वि + मोचय ] छुड़ाना, विम्हराइअ वि [दे] १ मूछित, मूर्धा-प्राप्त । कूप्र ३६६) मुक्त करना । संक्र. विमोइऊण (सण)। २ विस्मापित (से. ४१)। विमुच्छि अ वि [विमूच्छित] मूर्छा-प्राप्त (से विमोय देखो विमुच ।। विम्हरावण वि [स्मरण] स्मरण करानेवाला, ११, ५६) विमोयग वि [विमोचक छोड़नेवाला, दूर। याद दिलानेवाला; 'बावरणपीरकविम्हरा. विमुत्त देखो विमुक्त 'मुत्तिविमुत्तेसुवि' (पिंड । करनेवाला: 'न ते दुक्खविमोयगा' (सूत्र १, वरणा' (कुमा)। विम्हरिअ वि [विस्मृत भुना टुमा, याद विमुत्ति स्त्री विमुक्ति] १ मोक्ष, मुक्ति विमोयण न विमोचन] १ छुटकारा, मुक्ति । । न किया हुआ (कुमा; पा) । (प्राचानि ३४३, कुप्र १६)। २ आचारांग २ वि. छुड़ानेवाला: 'दुहसयविमोयणकाई' विम्हल देखो विम्भल (उप ५३० टो) । सूत्र का अन्तिम अध्ययन (पाचा २,१६, (पराह २, १-पत्र ६६) १२) । ३ अहिंसा (पराह २, १-पत्र ६६) विमोयणा स्त्री [विमोचना] छुटकारा (सूप विम्हलिअ देखो विभलिअ (अन्तु २२)। विमुचण न [विमोचन] परित्याग (संबोध १,१३, २१)। विम्हारिअ वि[विस्मारित मुलाया हुआ विमोह सक [वि + मोहय ] मुग्ध करना, (कुमा; श्रा २८)। विमुह वि [विमुख] १ पराङ मुख, उदासीन मोह उपजाना । विमोहेइ (महा)। संक्र. | बिम्हारिअ (मप) देवो विम्हलिय (मरण) ।। (गउड सुपा २८; भवि) । २ पुं. एक नरक- विमोहित्ता, विमोहेत्ता (भग १०, ३-- विम्हाव सक [वि + स्मापय ] आश्चर्यस्थान (देवेन्द्र २८) । ३ पुंन. आकाश, गगन | पत्र ४६८) | चकित करना। विम्हावेइ (महा; निचू ११)। (भग २०, २-पत्र ७७६) । विमोह देखो विमोक्ख (प्राचा) वकृ. विम्हावंत (उत्त ३६, २६२) ।। विमुह अक [वि + मुद्द.] घबराना, व्याकुल विमोह वि [विमोह] १ मोह-रहित (उत्त विटाविमापनाच उपजाना. होना. बेचैन होना। वकृ. विमुहिज्जत (से ५, २६) । २ पुं. विशेष मोह, घबराहट । विसय करा (प्रौप) २, ४६, ११, ४६) (सम्मत्त २२६) । ३ प्राचारांग सूत्र का एक विम्हावणा स्त्री [विस्मापना] ऊपर देखो विमुहिअ वि [विमुग्ध] घबराया हुआ (से। अध्ययन (सम १५:ठा ६ टो-पत्र ४४५)। (निच ११) ४, ४४, गा ७६२) । विमोहण न [विमोहन] १ मोह उपजाना। विम्हावय वि [विस्मापक] विस्मय-जनक विमुहिअ वि [विमुखित] पराङ मुख किया । (सुर ६, ३८) । २ वि. मोह उपजानेवाला | (सम्भत्त १७४)। हुआ (पण्ह १, ३–पत्र ५३) । (उप ७२८ टी)। विग्हाविअ वि [विस्मापिन] प्राश्चर्यान्वित विमुढ वि[विमूढ] १ घबराया हुआ। २ विमोहिनवि विमोहित] मोद-प्राप्त (महा विमोहिअ वि [विमोहित] मोह-प्राप्त (महा किया हुअा (धर्मवि १४७)।प्रस्फुट, अस्पष्ट (गउड)। २३; ५२) विम्हिअ वि [विस्मित] विस्मय-प्राप्त, विमूरण वि [विभञ्जक] तोड़नेवाला, खण्डन विम्ह न [वेश्मन गृह, घर (राज)। चमत्कृत (श्रा २८-पत्र १६० उव) कर्ता; 'जं मंगलं बाहुनलिस्स प्रासि तेअस्सियो मारणविमूरणस्स' (मंगल १०)। 'विम्हइअ वि [विस्मित] आश्चर्यचकित, विम्हि य (अप) देखो विम्हय । विम्हियइ चमत्कृत (सुर १, १६०)। (सरण) विमोइय वि [विमोचित] छुड़ाया हुआ विम्हिर वि [विस्मेर] विस्मय पानेवाला, विम्य अक वि + स्मि] चमत्कृत होना, (णाया १,२-पत्र ८८० सण)। चमत्कृत होनेवाला (श्रा १२, २७) । विस्मित होना, माश्चर्यान्वित होना । कृ. विमोक्ख देखो विमुक्ख (से ३, ८) विम्वणिज विम्हयणीअ (हे १, २४८%; वियच्चा देखो विअ-च्चा।। विमोक्खण न [विमाक्षण] १ छुटकारा, विथट्ट अक [वि + वृत्] वरतना, होना । । हेकृ. त्रियट्टित्तए (पाचा २, २, २, ३)। छड़ाना, बन्धन-मोचन (प्राचाः सून २, ७, विम्य [विस्मय प्राश्चर्य, चमत्कार (है। वियद्द पुं [व्यर्द, व्य] आकाश, गगन १०; पउम १०२, १८८० स ६८ ७४२)। २.७४ षड़ प्राग्र उवः गउड अवि १) २ वि. छुड़ानेवाला, विमुक्त करनेवाला (भग २०, २-पत्र ७७६) । विम्हर सक [स्मृ] याद करना। विम्हरइ 'सव्वदुक्खविमोक्खणं' (सूत्र १, ११, २, २, विर सक [भञ्] भाँगना, तोड़ना। विरइ (हे ४, ७४) ७, १०) । स्त्री. °णी (उत्त २६, १)। (हे ४, १०६) विम्हर सक [वि + स्मृ] विस्मरण करना, विमोक्खय वि [विमोक्षक] छुटकारा पाने- याद न पाना भूल जाना। विम्हरइ (हे ४, विर प्रक [गुप] व्याकुल होना । विरइ वाला; 'ते दुक्ख-विमोक्खया' (सूत्र १, १, क पड)। वक्र विन्हरंत (हे ४, १५०), विरंति (कुमा) । (श्रा १६) | विर (अप) देखो वीर (सरण)। For Personal & Private Use Only Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो विरइ-विरह विरइ स्त्री [विरति] १ विराम, निवृत्ति । २ कप्यू; पि ५६०; सण)। वकृ. विरयमाण विरल्लिअ वि [तत विस्तारवाला, विस्तारित सावद्य--पाप कर्म से निवृत्ति, संयम, त्याग (सुर १६, १५)। संकृ. विरइअ (नाट)। (दे ७, ७१; पाप कुमाः णाया १,१७(उवः प्राचा)। ३ छन्दःशास्त्र-प्रसिद्ध विश्राम- हेकृ. विरइउ (सुपा २)। कृ. विरइयव्व पत्र २३२, ठा ४, ४--पत्र २७६); जह स्थान, यति (चेइय ५०७) (पउम ६६, १६)। उल्ला साडीया पासु सुक्का विरल्लिया संतो' विरइअ वि [विरचित] १ कृत, निर्मित, विरय वि [विरत] १ निवृत्त, रुका हमा, (विसे ३०३२) बनाया हुअा। २ सजाया हुमा (पान; औप; विराम-प्राप्त (उवाः गा ५४१; दं ४६) । २ विरल्लिअ देखो विरलिअ (राजः भवि) । कप्पः पउम ११८, १२१, कूमा; महा रंभाः पात-पार्यो निवृत्तः संयमी, त्यागी मात्रा विरल्लिअविदिजलाद्र', भोंजा हुआ (दे कप्पू) उव)। ३ न. विरति, विराम । ४ संयम, विरइअ देखो विराइअ (कप्प)। त्याग (दं ४६; कम्म २, २) विग्य वि विरइयव्व देखो विरय = वि + रचय ।। विरस अक [वि + रस ] चिल्लाना, क्रन्दन [विरत प्रांशिक संयम रखनेवाला, जैन करना । वकृ. विरसंत (सण)। विरंचि [विरश्चि] ब्रह्मा, विधाता (कुप्र उपासकः श्रावक (सम २६)। ४०३; त्रि ८७ सम्मत १६२)।विरय पुं[दे] छोटा जल-प्रवाह, छोटी नदी विरस वि [विरस] रस-रहित, शुष्क (णाया विरच ! प्रक [वि+रञ्ज ] १ रिक्त होना, (दे ७, ३६); 'विरया तणुसरित्रानो' १,५-पत्र १११, गउड; हे १,७; सण)। २ विरुद्ध रसवाला (भग विरज | उदासीन होना । २ रँग-रहित होना। | (पान) ७, ६-पत्र विरजइ (उवः उत्त २६, २; महा)। वकृ. विरय पुं[विरजस्] १ महाग्रह, ज्योतिष्क ३०५) । ३ पुं. रामभ्राता भरत के साथ जैन विरज्जत, विरञ्चमाण, विरजमाण (से ४, देव-विशेष (सुज्ज २०)। २ एक देव-विभान दीक्षा लेनेवाला एक राजा (पउम ८५, ३) ४ न. तप-विशेष, निर्विकृतिक तप (सबोध १४. भविः उत्त २६, २; गा १४६; (देवेन्द्र १४१) । २६६) 10 विरगण स्त्रीन [विरचन] १ कृति, निर्माण । विरत्त वि [विरक्त १ उदासीन, विराग-प्राप्त २ सजावट (नाट--मालती २८; कप्पू)। स्त्री.] | विरस न [दे] वर्ष, साल, बारह मास (दे (सम ५७; प्रासू १५५, १६६: महा)। २ णा (सुपा ६५, से १५, ७१); 'पडिट्टए ७, ६२)। विविध रंगवाला (याचा १, २, ३, ५)। विध तसर-विरप्रणा' (कप्पू) । विरसमुह पुं [दे] काक, कौमा (दे ७, विरत्ति स्त्री [विरक्ति] वैराग्य, उदासीनता | विरया स्त्री [विरजा] १ गोलोक में स्थित (उप पृ ३२) राधा की एक सखो। २ उसके शाप से बनी विरसिय वि [विरसित] रस-हीन, रसविरम अक [वि + रन] निवृत्त होना, अट- | हुई एक नदी; 'लंघिअविरमासरियं' (अच्तु ..भिरियारिन (प्रत विरहित (हम्मीर ५१)। कना। विरमइ (गा ७०८), विरमेजा विरह सक [वि + रह. ] १ परित्याग (प्राचा), विरम, विरमसु (गा ३४५; १४६)। विरल वि [विरल] १ अल्प, थोड़ा; 'परदुक्खे करना। २ अलग करना। कवकृ. विरहिज्जत प्रयो., हेकृ. विरमावे (गा ३४६) दुक्खिमा विरला' (हे २, ७२, ४, ४१२ (नाट-शकू ८२)। कृ. विरहियव्य (शी) विरम ' [विरम] विराम, निवृत्ति (गउड; उसः प्रागू १८०; गउड)। २ अनिषिद्ध । (नाट-शकु ११७)। गा ४५६; ६.६; मुर ७, १६३) । ३ विच्छिन्न (गउडः उव) विरह पुं[विरह] १ वियोग, विछोह, जुदाई विरमग देखो वेरमग (राजः प्रामा)। विरलि स्त्री [दे वस्त्र-विशेष, डोरिया, डोरो (गउड हे १, ८४; ११५; प्रासू १५६; कुमा; विरमाण सक [प्रति + पालय् ] पालन वाला कपड़ाः 'विरलिपाई भूरिभेना' (गत | महा)। २ प्रान्तर, व्यवधान (भग)। पुं. करना, रक्षण करना। विरमारण्इ (धात्वा ८४टी)। वृक्ष-विशेष: 'फुल्लंति विरहरुक्खा सोझरण १५३)। विरलिअ वि [विरलित] विरल बना हुआ, पंचमुग्गारं' (संबोध ४७; था ३५), 'धराविरमाल सक [प्रति + ईक्ष ] राह देखना, विरल किया हुअा (गउड)। विप्रो पचासन्ने विराहो नाम तरू, वाइज्य बाट जोहना, प्रतीक्षा करना। विरमालइ (हे | विरली देखो विराली (राज) । वीणं फुल्लावियो सो' (कुप्र १३६), 'फुल्लंति ४, १६३) । संकृ. विरमालिअ (कुमा)। विरल्ल सक [तन्] विस्तारना, फैलाना । विरहिणो विरहयव्व लहिऊरण पंचमं केवि' विरमालिअ वि [प्रतीक्षित] जिसकी प्रतीक्षा | विरल्लइ विरल्लेइ, विरल्लंति (हे ४, १३७ (कूप्र २४८) । ४ अभाव । ५ विनाश की गई हो वह (पाप) । षड् ; गउड) (राज)। ६ हरिवंश में उत्पन्न एक राजा विरय सक [वि+रचय ] १ करना, विरल्ल पुं [तान विस्तार, फैलाव, (वव ४) (पउम २२, ६८) बनाना। २ सजाना, सजावट करना । विरएइ, विरल्लण न [तनन] विस्तार, फैलाव; 'अट्ठ- विरह वि [विरथ] रथ-रहित (पउम १०, विरग्रंति, विरप्रमामि; विरयइ (प्राकृ ७४ । मयविरल्लणे सया रमई' (उव)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरहविरुद्रु विरह न [] एकान्त, विजन (७, १. या १, २ -पत्र ७९; पुप्फ ३४४ ); 'सामा देवी अंतराणि यदिहाणि य विरहारिण य पडिजागर मारणीम्रो २ विहरति (दिपा १ - ०१) २ कुसुंभ से रंगा हुम्रा कपड़ा (दे ७, ६१) । विरहाल न [ते] कुसुम्भ से रंगा हुआ (दे ७, ६८) विरहि वि [विरहिन] वियोगी, बिछुड़ा हुआ (कुमा) । विरहि वि [[वरहित] विरह-युक्त (भगः उव; हे ४, ३७७) । विरा श्रक [वि + ली ] १ नष्ट होना । २ द्रवित होना, पिघलना । ३ श्रटकना, निवृत्त होना । विराइ (हे ४, ५६ ) 1 विराइवि [विरागिन] विरागवाला, विरक्त, उदासीन । स्त्री. णी (नाट) । शिराइव [विराजिन] शोमनेवाला, चमकता (२, २१) चिराइ[न] शम्य-युक्त भावाजवाला (से २, २६ ) 1विराम देखी बिराय विसीन से २,२१) = विराइअ वि [बिराजित] गुशोभित (उबा; । श्रीपः महा) । [] 9 विराग पुं [विराग] १ राग का प्रभाव, वैराग्य, उदासीनता ( सुज १३ उप ७२८ टी) । २ वि. राग-रहित, वीतराग ( पच्च १०४ औप विराड 1 [विराट ] देश-विशेष (उप ६४८ टी) 1°नयर न ['नगर] नगर- विशेष (गाया १, १६ - पत्र २०६ ) । विराध ( प ) नाम (पिंग ) । [ विरोध ] एक राक्षस का उपम, निवृत्ति, अवसान ( गउड ) । - विरामण न [ विरमण ] विरत करना, निवर्तन, विरमाना 'वेरविरामण पज्जव सारणं' ( परह २, ४ पत्र १३१) । विराय श्रक [ वि + राज्] शोभना, चमकना । त्रिरायए (पान) । वकृ. विरायंत, विरायमाण (कप्पः श्रौपः गाया १, १ टी -- पत्र २, सुर २, ७६) । पाइअसद्दमयो विशीं विगलित ३८ ) । २ ५ - पत्र ६ कु विराय वि [विलीन] नष्ट (से ७, ६४; गउड, कुमा ६, पिघला हुआ ( पाच ) । विराय देखो विराग ( परह २, १४१ कुमा; सुपा २०५ व १११) - विराल देखो बिराल ( छाया १, १ – पत्र विरिंचिरा स्त्री [दे] धारा प्रवाह (दे ७, ६५ पि २४१) । ३) 1 विरालिआ स्त्री [विरालिका ] १ पलाशकन्द । २ पर्व॑वाला कन्द ( दस ५, २,१८ ) | देखो बिरालिआ चिरिक [] पारित ७ ६४) विरिक्क वि [विरिक्त ] जो खाली हुआ हो वह (पउम ४५, ३२: सुपा ४२२ ) । विरिक्क वि [विभक्त] १ बाँटा हुआ 'जेणं चित्तराभासमानेहि तरिका (पहा । २ जिसने भाग बाँट लिया हो वह अपना हिस्सा ले कर जो अलग हुआ हो वह 'एगम्मि सरिएणवेसे दो भाउया वणिया ते य परोप्परं विरिक्का' (ओघ ४६४ टी) विरिका की [दे] बिन्दु त लेश (मुल २, २७) विराली श्री [विराली] विशेष ४, श्रा २०; संबोध ४४) । २ चतुरिन्द्रिय जंतु की एक जाति (उत्त ३६, १४८ सुख ३६, १४८ ) | देखो विराली विराव [विराव ] शब्द, आवाज ( गउड) । विरावि वि [विराविन्] आवाज करनेवाला (गड)। उन विराद सक [वि + राज] करना भांगना तोड़ना राहत (उ) वकृ. (सुपा विरात, विरात (वा ३२० उय) - विराहअ } वि [विराधक ] खण्डन करनेवाला, बिराहगतीनेवाला अंतक (भग छाया १, ११ - पत्र १७१) । - विराणा स्त्री [विराधना ] खण्डन, भंग (समगाया ९, ११ टी -पत्र १७३ परह १, १ -पत्र ६ प्रोघ ७८८) । विराहिअ वि [विराधित] १ खण्डित, भग्न (भग) २ अपराद्ध, जिसका अपराध किया गया हो वह 'प्रविराहियवेरिएहि ' ( परह १, ३ –पत्र ५३) । ३ पुं. एक विद्याधर- नरेश ( पउम ७६, ७) । विरिअ वि [भग्न] भांगा हुआ, तोड़ा हुआ (कुमा) 1 विरिअ देखो वीरिअ ( सूप्रनि ९१ ९४; श्रप) 1 विरिंच सक [वि + भज् ] विभाग- ग्रहण करना, भाग लेना, बांट लेना 'सयरणो वि य से रोगं न विरिचइ, नेय नासेई' ( स १.७) 1 विरंच विरिंचि १२,७८ ) 1 For Personal & Private Use Only ७६७ [विरिधि] ऊपर देखो (सुर विरंचि [] विरत उदासीन (दे ७, १३. विमल, निर्मल २ पिरिंचिर] [] मश्च घोड़ा २ वि. विरल (दे ७, ६३) । [विरि] ब्रह्मा, विधाता (पान) । २८ ) 1 विरिचिरवि [दे] धारा वाला (षड् ) 1 से विजियम [दे] [अनुचर अनुगत (दे ७, ६६) । पैलाना I विरेचन करने विरिल्ल सक [वि + स्] विस्तारना, विरिल्लइ (प्राकृ ५६ ) | विअ ( प ) देखो त्रिवरीअ (पिंग) | विरीह सक [ प्रति + पालय ] पालन करना, रक्षण करना। विरीहइ (प्राकृ ७५ धावा १५३) । बिरु । अक [त्रि + रु] रोना, चिल्लाना । विरुअ वकृ. विरुयमाण ( उप ३३६ टी) | J विरुअ न [विरुत] ध्वनि, पक्षी की आवाज, शब्द (गा ६४ से १ २३; नाट मृच्छ १३६) विरुअवि [दे. विरूप] १ खराब, कुडौल, दुष्ट रूपवाला, कुत्सित (दे ७, ६३; भवि ) । २ विरुद्ध प्रतिकूल (प) देखो विरु विरुट्ठ [विरुष्ट ] नरक-स्थान विशेष (देवेन्द्र Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो विरुद्ध-विलद्ध विरुद्ध वि[विरुद्ध] विरोधवाला, विपरीत, विरोह [विरोध विरुद्धता, प्रतोपता, वैर, ५८)। ३ न. नक्षत्र-विशेष, सूर्य के द्वारा परिप्रतिकूल, उलटा (प्रौप; गउड) यारि वि दुश्मनाई (गउड; नाट–मालती १३८ । भोग कर छोड़ा हुआ नछत्र (विसे ३४०६)। [चारिन्] विपरीत पाचरण करनेवाला भवि) । विलंबग वि [विलम्बक] धारण करनेवाला (उप ७२८ टो)। विरोहय वि[विरोधक] विरोध-कर्ता (भवि) (सूत्र १, ७, ८) विरुव देखो विरूव (दे ६, ७५)। विरोहि वि [विरोधिन्] दुश्मन, प्रतिपन्थी विलंबणा देखो विडंबणा (प्रासू १०३) । पि ४०५, नाट-शकु १६)। विरुह अक [वि+ रुह ] विशेष रूप से विरोहिय वि [विरोधित ] विरोध-प्राप्त विलंबणा स्त्री [विडम्बना] निर्वतना, बनावट, उगना, अंकुरित होना । विरुहंति (उत्त १२, (वज्जा ७०) कृति (अणु १३६)। १३)। विल अक [ब्रीड् ] लज्जा करना, शरमिन्दा विलंबि न [विलम्बिन्] १ सूर्य के द्वारा विरुह देखो विरूह (पएण १-पत्र ३६; होना । संकृ. विलिऊण (स ३७५) । भोकर छोड़ा हुआ नक्षत्र । २ सूर्य जिसपर श्रा २०)। दिल न [विल] नमक-विशेष, एक तरह का हो उसके पीछे का तीसरा नक्षत्र (वव १) विरूअ । वि [विरूप] १ कुरूप, भौंडा, नोन (प्राचा २, १, ६, ६)। विलंबिअ वि [विलम्बित] १ विलम्ब-युक्त विरुव कुडौल, खराब, कुत्सित (गा २६३; विलइअ वि [दे] १ अधिज्य, धनुष की (कप्प) । २ न, नक्षत्र-विशेष (वव १)। ३ भविः स्वप्न ४४ सुर १, २६, उप ७२८ टी)। २ विरुद्ध, प्रतिकूल, उलटा (सुर ११, डोरी पर चढ़ाया हुआ। २ दोन, गरीब (दे नाश्व-विशेष (राय) विलक्ख वि [विलक्ष १ लजित, शरमिन्दा ८०)। ३ बहुविध, अनक तरह का, नानाविध ०,६२)। ३ ऊपर चढ़ाया हुमा, आरोपित विलक्ख विविलक्ष लाजत, 'पारणा जस्स विलइया सीसे सेसव्व हरिहरे- । (से १०, ७०; सुर १२, ६६; सुपा १६८ (प्राचा)। हिंपि' (धरण २५), 'पढ़मं चित्र रहवइणा ३२८ महा; भवि)। २ प्रतिभा शून्य, मूढ विरूह पुन [विरूढ] अंकुरित द्विदल धान्य उरि हिपए तुलियो भरोध विलइयों (से १०,७०) (पव ४) विलक्ख न [वलक्ष्य विलक्षता, लजा, विरेअ सक [वि+ रेचय ] १ मल को विलओलग [दे] लुटाक, लुटेरा (राज)। शरम (सुर ३, १७६)। नीचे से निकालना। २ बाहर निकालना । विरेअइ (हे ४, २६ )। वकृ. विरेअंत विलओली स्त्री [दे] १ विस्वर वचन । २ विलक्खिम पुंस्त्री. ऊपर देखो ‘उवसमियविल(कुमा ६, १७) विलोकना, तलाशी (पएह १, ३-पत्र क्खिम--(भवि) । ५३) । देखो बिलकोली। विरेअण न [विरेचन] १ मल-निस्सारण, विलग्ग सक [वि + लग्] १ अवलम्बन जुलाब (उवक २५; रणाया १, १३–पत्र विलंघ सक [वि + लङ्घ ] उल्लंघन करना, सहारा लेना। २ चढ़ना, प्रारोहण १५१)। २ वि. भेदक, विनाशक; 'सयल करना। विलंघेति (धर्मसं ८४२)। वकृ. करना । ३ पकड़ना । ४ चिपटना। गुजराती दुक्खविरेयरणं समणत्तणंति' (स २७८० विलंघंत (काल) में 'वळगवु" । विलग्गसि, विलग्गेजासि (महा)। क्लिंघण न [विलङ्घन] उल्लंघन, अतिक्रमणः वकृ. विलग्गंत (पि ४८८) । विरेल्लिअ देखो विरिल्लिअ = तत (णाया १, 'ही ही सोलविलंघरणं' (उप ५६७ टी)। विलग्ग वि [विलग्न] १ लगा हुआ, चिपटा १७ टी-पत्र २३४: गउड ४३५) विलंघल (अप) देखो विहलंबल (सण) हुमा, संलग्न; 'जह लोहसिला अप्पंपि बोलए विलंघलिअ (अस) वि [विह वलाङ्गित] तह विलग्गपुरिसंपि' (संबोध १३ से ४, २; विरोयण पुं[विरोचन] अग्नि, वह्नि (भत्त ___ व्याकुल शरीरवालाः 'मुच्छविलंघलिउ' (सण) ३, १४२, गा १८८:५६; महा)। २ १२३)। बिलंब देखो विडंब = वि + डम्बय् । वकृ. अवलम्बित (सुर १०; ११४)। ३ आरूढ विरोल सक[ मन्थ् ] विलोडना, विलोड़न विलंबमाण (धर्मसं १००५) । 'अन्नया पायरिया सिद्धसेलं तेण समं वंदगा करना । विरोलइ (हे ४, १२१ षड़)। विलग्गा' (सुख १, ३)। विलंब अक [वि + लम्ब् ] १ देरी करना । विरोल सक [वि + लग्] १ अवलम्बन विलज्ज अक [वि + लम्ज् ] शरमाना । २ सक. लटकाना, धारण करना । कर्म. करना । २ आरोहण करना, चढ़ना । विरोलइ विलजामि (कुप्र ५७)।विलंबीअदि (शौ) (नाट-विक्र ३१) । वकृ. (धात्वा १५३) विलंबंत (से ३, २६)। संकृ विलंबिअ विट्टि पुंस्त्री [वियष्टि साढ़े तीन हाथ में विरोलिअ वि [मथित] विलोडित (पान (नाट-वेणी ७:)। कृ. विलंवणिज (श्रा चार अंगुल कम लट्ठी, जैन साधुओं का उपकुमा; भवि)। करण-दंड (पव ८१) विरोह सः [वि+रोधय ] विरोध करना। विलब [विलम्ब] १ देरी, अशीघ्रता (गा विलद्ध वि [विलब्ध] अच्छी तरह प्राप्त, विरोहंति (संबोध १५) ५८८) । २ तप-विशेष, पूर्वार्ध तप (संबोध। सुलब्धः (पिंग)। For Personal & Private Use Only Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलप्प-विलीण पाइअसद्दमहण्णवो နိုင် विलप्प पु [विलाल्मन्] एक नरक-स्थान विलाल देखो बिराल (पि २४१) ।। विलिंप सक [वि + लिप्] लेप करना, (देवेन्द्र २६)। विलाव [विलाप क्रन्दन, बिलख-बिलख या | लेपना, पोतना । विलिपइ (सरण) । संकृ. विलभ सक [खेदय 1 खिन्न करना, खेद विकल होकर रोना परिदेवन (उव)। विलिंपिऊण (सरण) । हेकृ. मिलिंपित्तए उपजाना । विलभेइ (प्राकृ ६७)। विलाविअ वि [विलापित] विलाप-युक्त | (कस) । प्रयो., वकृ. विलिंपावंत (निचू विलमा स्त्री [दे] ज्या, धनुष की डोरी (दे (वै ८६; भवि)। विलास ' [विलास] १ स्त्री का नेत्र-विकार । विलिज प्रक [वि+ली] १ नष्ट होना । २ २ स्त्री की शृगार-चेष्टा विशेष, अंग और पिघलना । विलिजइ; विलिज्जंति, विलिज (हे विलय [दे] सूर्य का अस्त होना (दे ७, क्रिया-संबन्धी स्त्री की चेष्टा-विशेष (पएह २, ४, ५६, ४१८ भवि: अज्झ ५५, संबोध ५२; ६३, पान) ४-पत्र १३२; औप; गउड) । २ दीप्ति, . गच्छ २, २६)। वकृ. विलिज्जंत, बिलिज्जविलय पुं[विलय] १ विनाश (कुप्र ५१ चमक (कुमा; गउड)। ३ चेष्टा-विशेष, मौज माण (पउम ६, २०, ३; २१, २२)। मुपा १६७; ती ३) । २ तल्लीनता (ती ३)। (गउड) + "पुर न [°पुर] नगर-विशेष विलित देखो विलिअ = वीडित (उप २६६)। ३ पुं. एक नरक-स्थान (देवेन्द्र २६)। (सुपा ६२२) + वई श्री [वती] स्त्री, विलित्त वि [विलिम लिपा हुमा, जिसको विलया स्त्री विनिता] श्री, महिला, नारी नारी. महिला (से १०,७१, गउड) विलेपन किया गया हो वह (सुर ३, ६२; (पामा हे २५ १२८ षड् कुमा; रंभा; | विलासि वि विलासिना१ मौजी, शौकीन १०, १७ भवि)।भवि)। (हास्य १३८ गउड) । २ चमकनेवाला। स्त्री. बाला। स्ना. विलिब्बिली स्त्री [दे] कोमल और निबल विलव अक [वि + लप] रोना, काँदना, __णीः 'चंदविलासिणीमो चंदद्धसमललाडामो' शरीरवाली स्त्री, नाजुक बदनवालो नारी (दे निलावावल चिल्लाना । विलवइ (षड्; महा)। वकृ. . महाक (औप)विलवंत, विलवमाण (महा: पाया १, | विलासिअ वि [विलासिक, सित] विलास विलिह सक [वि + लिख] १ रेखा करना। युक्त (गा ४०५) १-पत्र ४७)। विलासिणी स्त्री [विसिनी] १ नारी, स्त्री। २ चित्र बनना । ३ खोदना । विलिहइ विलवण वि [विलपन] रोनेवाला, चिल्लाने२ वेश्या (गा २९३, ८०३ प्र; गउड, (भवि)। व. विलिहमाण (पउम ७, वाला । या स्त्री [ता] विलाप, क्रन्दन नाट-रत्ना ६; पि ३४६; ३८७)। देखो | १२०)। कवकृ. विलिहिज्जमाण (कप्प)। (प्रौप)! . विलासि ।। हेकृ. विलिहिउँ (कप्पू) विलविअ न [विलपित] विलाप, क्रन्दन विलिअन व्यलीका १ कंदर्प-संबन्धी अपराध, विलिह सक [वि + लिह.] १ चाटना। २ (पान औप) । वह अपराध जो काम के प्रावेग के कारण चुम्बन करना । विलिहंतु (कप्पू)। वकृ. विलबिर चि [विलपित] विलाप करनेवाला | किया जाय, गुनाह (कुमाः गा ५३)। २ अकार्य विलिहंत (गच्छ १, १७; भत्त १४२)। (कुमाः सण) । (गा ५३)। ३ अप्रिय, विप्रिय (गा ५३; विलिहण न [विलेखन] रेखा-करण (तंदु विलस तक [वि + लस ]१ मौज करना। पाप्र)। ४ अनृत, अरात्य । ५ प्रतारणा, ५०) २ चमकना । विलसइ, विलसेसु (महा)। ठगाई । ६ गति-विपर्यय । ७ वि. अपराधी। विलिहिअ घि विलिखित] चित्रित (सुर वकृ. विलसंत (कप्प; सुर १, २२८)। ८ अकार्य-कर्ता । ६ विप्रिय-कर्ता। १० झूठ १२, २०) बिलसण न [विलसन] १ विलास, मौज बोलनेवाला (हे १,४६; १०१)। विलीअ देखो विलिअ = वीडितः 'सोगवि(उप पृ १८१): २ वि. मौज करनेवाला विलिअ वि [वीडित] लजित, शरमिन्दा | वसो विलीओ' (कुप्र १३५) । (सुर १, २२१ टि)। (पामः पड्)। विलीअ देखो विलिअ = व्यलीक; 'मझ विलसिय न [विलसित] १ चेष्टा-विशेष । विलिअ न [दे. ब्रीडित] लजा, शरम (दे विलीयं नरवइस्स परिवसइ किपि चित्त' (सुपा २ दीप्ति, चमक (महा) ७, ६५, सण) ३००) विलिइअ वि [व्यलीकित] व्यलीक-युक्ता विलसिर वि [विलसित] विलासी, विलास 'विलि (?लिइ)ए विडे' (भग १५-पत्र |विली इर वि [विलेतृ] द्रवण-शील, पिघलनेकरनेवाला (सुपा २०४; २५४ धर्मवि १६; वाला (कुमा) ६८१: राज) सरण) विलिंग सक [वि + लिङग ] आलिङ्गन विलीण वि [विल.न] १ पिघला हुआ, द्रवीविला देखो विराः 'मयणं व मणो मुणिणोवि __ करना, स्पर्श करना । विलिंगेज (प्राचा २, भूत । २ विनष्ट; 'सोवि तुह झारगजलणे हंत सिग्धं चिय विलाई (भत्त १२७), 'तावरण मयणो मयणं विप्र विलीणो' (धरण २५; व नवरणीयं विलाइ सो उद्धरिजंतो' (कुप्र विलिंजरा स्त्री [दे] धाना, भुने हुए जौ (दे पानः महाः भवि)। ३ जुगुप्सित (पएह १, १०५) ७, ६६) १-पत्र १४)। For Personal & Private Use Only Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो विलंगयाम-विवइ विलंगयाम वि [दे] निर्ग्रन्थ, अकिंचन, साधुः विलेवण न [विलंपन] १ शरीर पर लगाने विलोल देखो विलोड । वकृ. विलोलंत (उप 'एस विलुगयामो सिजाए' (प्राचा २,१, का चन्दन, कुंकुम आदि पिट द्रव्य (कुमाः । पृ८७) २, ४) 10 उवाः पात्र) । २ लेपन-क्रिया (प्रौप) विलोल अक [वि + लठ् ] लेटनाः 'विलो. विलुंचण न [विलश्चन] उन्मूलन, जड़ से क्लेिविअ वि [विलेपित ] विलेपन-युक्त - लंति महीतले विसूरिणयंगमंगा' (पएह १, उखाड़ना (पएह १, १-पत्र २३)। (सण)। १-पत्र १८) विलुप सक [वि + लुप ] १ लूटना। २ विलेविआ स्त्री [विलेपिका ] पान-विशेष विलोल वि [विलोल] चंचल, अस्थिर (से काटना। ३ विनाश करना। विलुपति, (राज) । २, १६; गउड; कप्पू) । विलुपह (आचा; सूत्र २, १, १६; पि विलेहिअ वि [विलेखित] चित्रित किया विलोव पु [विलोप] लूट, डकैती; 'सत्थ४७१); 'प्रथं चोरा विलुपंति' (महा)। | विलोवे जाए' (सुर १५, १८)। वकृ. विलुपमाण (सुपा ५७४)। कवकृ. विलोअ सक [वि + लोक ] देखना। कर्म. | विलोवण न [विलोपन] ऊपर देखोः 'परधविलप्पंत, विलुप्पमाण (पउम १६, ३१; विलोइज्जति, विलोईअंति (पि ११)। पविलोवरणाईणं' (उव)। सुपा ८०; सुर २, २१; उवा) कवकृ. विलोइज्जमाग (उप पृ ६७)। संकृ. विलोक्य वि [विलोपक लूटनेवाला, लुटेरा; विलंप सक [काङ्क्ष ] अभिलाष करना, 'प्रद्धाणम्मि विलोवए' (उत्त ७, ५) चाहना । विलुपइ (हे ४, १६२)। विलोअ पुं [विलोक आलोक, प्रकाश (उप विलोह देखो विलोभ । हेकृ. विलोहइदु विलंपइत्तु वि [विलोप्त ] विलोप-कर्ता, (शौ) (मा ४२) काटनेवाला (सूम २, २, ६)। विलोअ देखो विलोव (सुपा ४४०)। विलोहण वि [विलोभन] १ आश्चर्य-कारक । विलंपय [दे] कोट, कीड़ा (दे ७, ६७)। विलोअण पुन [विलोचन] अाँख, नेत्र (कार २ लुभानेवाला; 'मुद्ध मइविलोहणं नेयं' (श्रावक विलुपिअ वि [काङ्क्षित] अभिलषित १६१: गा ६७०; सुपा ५२६)। १३२) । (कुमा ७, ३८ दे. ७, ६६) विलोअण न [विलोकन] १ देखना, निरी विल्ल प्रक [ वेल्लू ] चलना, हिलनाः 'विल्लंति विलाप दे. विलुप्तप्राशित, कवलित, क्षण । २ वि. देखनेवाला; 'लोयालोयविलो दुमपल्लवा' (रंभा) खाया हमाः 'घत्थं कवलिनं असिनं विलु- यणकेवलनाणेण नायभावस्स' (सुर ४, विल्ल देखो बिल्ल (हे १, ८५; राज)।। पिनं बंफि खइग्रं' (पान)। देखो विलुत्त । बलुत्त । ८६) विल्ल वि [दे] १ अच्छ, स्वच्छ । २ विलसित, विलुपित्तु देखो विलुंपइत्तु (प्राचा)। विलोट्ट अक [विसं + वद्] १ अप्रमाणित विलास-युक्त (दे ७, ८८)। ३ पुंन. सुगंधी होना, भूठा साबित होना। २ उलटा होना, द्रव्य-विशेष, जो धूप के काम में विलुक्क [दे] छिपा हुआ (भवि)। आता है; विपरीत होना। बिलोट्टइ, विलोट्टए (हे ४, विलक्क वि [विलुश्चित] विमुण्डित, सर्वथा 'डज्झंतविल्लगुग्गुलुपवियंभियघूमसंघाय' (स १२६; भविः स ७१६) ४३६) केश-रहित किया हुप्रा (पिंड २१७) । विलुत्त वि [विलुप्त] १ काटा हुआ, छिन्न विलोट्ट । वि [विसंवदित] १ जो झूठा जो मा विल्लय देखो चिल्लअ (प्रौप). विलोहिअ साबित हुआ हो (कुमा ६, विल्लय देखो वेल्लग (सुपा २७६) ।। 'विलुतकेसि' (पउम १०२, ५३; पण्ह १, ८८)। २ जो कहकर फिर गया हो, प्रतिज्ञा३-पत्र ५४)। २ लुएिटत, लुटा हुआ विल्लरी स्त्री [दे] केश, बाल (दे ७, ३२)।' च्युतः 'कन्नाए सयणमहिलाईलोयवरुयो 'इमाइ अडवीइ वारिणयगसत्थो। मह पुरि विल्लल देखो बिल्ल (इक)। विल्लिट्टो सो' (उप ५६७ टी) । ३ विरुद्ध सेहि विलुत्तो, पत्तं वित्तं तहिं पउरं' (सुर | बना हुआ; 'चउरो महनरवइणो विलोठ्ठि विल्लहल देखो वेल्लहल (प्रवि २३) ।। ११, ४८) । ३ विनष्टः 'तुम उण जलविलु (? ट्टि) या चउदिसि पि अइबलियो' (सुपा विल्ली स्त्री [विल्वी] गुच्छ-वनस्पति-विशेष तप्पसाहणं जेव सुमरसि' (कप्पू)। ४५२) (पएण १-पत्र ३२)विलत्तहिअअ वि [दे| जो समय पर काम | विलोम विलोय मंथन करना। विल्ह वि[दे धवल, सफेद (३७, ६१)। करने को न जानता हो वह (दे ७, ७३) ।। विलोडेइ (कुप्र ३४७) । विव देखो इव (हे २, १८२; गा २६०; विलप्पंत । देखो विलंप । विलोडिय वि [विलोडित] मथित (कुप्र ६०६ कुमा)। विवइ स्त्री [विपद् ] विपत्ति, कष्ट, दुःख विलुलिअ वि [विलुलित] उपमदित (से ६, विलोभ सक [वि + लोभय ] १ लुब्ध । (उप ७७१; हे ४, ४००) गर वि १२) करना, लुभाना, आसक्त करना । २ लालच । [°कर] दुःख-जनक (कुमा)। विलूण वि [विलून काटा हुआ, छिन्न (सुपा देना। ३ विस्मय उपजाना । कृ. विलोभ- विवइ स्त्री [विवृति] व्याख्या, विवरण, णिज्ज (कुंप्र १३८) टीका (कुप्र १६) । देखो विवदि ।। विलप्पमाण देखो विलुप। For Personal & Private Use Only Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवइण्ण-विवर पाइअसहमहण्णवो ८०१ विवइण्ण वि [विप्रकीर्ण] बिखरा हुआ (पउम विवज्जग वि [विवर्जक वर्जन करनेवाला विवण्ण वि [विवर्ण] १ कुरूप, कुडौल (से ७८, २६ से ५, ५२, १३, ८६)।- (सूम २, ६, ५) ५, ४७; दे ६७९)। २ फीका, निस्तेज, विवंक वि [ विवक ] विशेष बाँका, टेढा (स | विवजण न [विवर्जन] परित्याग (रत्न | म्लान (गाया १, १-पत्र २८; से ८,८७)। २५१)।२२)। विवण विद्विपर्ण १ दो पत्रवाला। २ विवंचिआ स्त्री [विपश्चिका] वाद्य-विशेष, विवज्जया) स्त्री विवर्जना] परित्याग, पुं. वृक्ष, पेड़ (राज)। वीणा (पान)। विवजणा । परिहार, वर्जन (सम ४४ विवत्त पुं[विवर्त] एक महाग्रह, ज्योतिष्क विवक्क वि [विपक्व १ अच्छी तरह पूर्ण | उत्त ३२, २; दसचू २, ५) । देव-विशेष (सुज २०)।किया हुआ। २ प्रकर्ष को प्राप्त, अत्यन्त | विवजत्थ वि [विपर्यस्त] विपरीत, उलटा | विवत्ति स्त्री विपत्ति]१ विनाश (णाया पका हुआ । ३ उदय में प्रागत, पलाभिमुख, । (पंचा ११, ३७ कम्म १, ५१)।। १,६-पत्र १५७; विपा १,२-पत्र ३२ 'विवक्कतवबंभचेराणं देवारणं प्रवन्नं बदमाणे विवजय ' [विपर्यय] विपर्यास, व्यत्यास, सुपा २३५, उव)। २ मरण, मौत (सुर (ठा ५, २-पत्र ३२१)। | वैपरीत्य (पापा उप १४२ टीः पव १३३; २, ५१, स ११६)। ३ कार्य की प्रसिद्धि विवक्ख पुं[विपक्ष] १ दुश्मन, रिपु, विरोधी - पंचा६, ३०; कम्म १, ५५)। (सुपा २३५; उवः बृह १)। ४ आपदा, "विवक्खदेवीहि (गउडा स ५६४ अच्चु विवज्जास[विपर्यास] १ विपर्यय, व्यत्यय का (सुपा २३५)। ३१)। २ न्याय-शास्त्र प्रसिद्ध विरुद्ध पक्ष, (पान पंचा ८, ११)। २ भ्रम, मिथ्याज्ञान विवत्तिअ वि [विवर्तित] फिराया हुआ, वह वस्तु जहाँ साध्य आदि का प्रभाव हो (सुर ६, १५४)। घुमाया हुमा (से ६, ८०)। (दसनि १---गाथा १४२)। ३ विपरीत धर्म विवजिअ वि [विजित] रहित, वजित, | विवत्थ पुं[विवस्त्र] एक महाग्रह (सुज्ज (अण)। ४ वैधम्यं, विसदृशता (ठा १ परित्यक्त (उव; द ३६; सुर ३, १५५; २०)। टी-पत्र १३)। रंभा भवि)। | विवदि स्त्री [विवृति] १ विवरण, टीका । विवक्खा स्त्री [विवक्षा] कहने की इच्छा | विवट्ट प्रक [वि + वृत् ] बरतना, रहना । । २ विस्तार (संक्षि) (पंच १, १० भास ३१; दसनि १, ७१)। | विवट्टइ (हे ४, ११८)। वकृ. विवट्टमाण विवद्धण न [विवर्धन] वृद्धि, बढ़ाव (कप्प)। विवग्घ वि [विव्याघ्र] व्याघ्र के चमड़े से (कुमा ६, ८० रंभा) देखो विवड्ढण। मढ़ा हुआ, व्याघ्र-चर्म-युक्त (आचा २, ५, विवडिय वि विपतित] गिरा हा (पउम | विवद्धणा स्त्री [विवर्धना] वृद्धि, बढ़ाव । १६, २२; भग ७, ६ टी-पत्र ३१८) ।। | (उप ६७५)। विवच्चास पु [विपर्यास] विपर्यय, विपविवडढ अक [वि + वृध् ] बढ़ना। वकृ. विवद्धि पुं [विवर्धि] देव-विशेष (अ) रीतता, व्यत्यास, उलटा (उत्त ३०, ४; सुख विवड़ढमाण (गाया १, १० टी-पत्र | १४५)। ३०, ४, मोघ २६८) १७१)। विवन्न देखो विवण्ण = विवणं (सुपा ३१६)। विवच्छा स्त्री [विवत्सा] १ एक महानदी विवड्ढण वि [विवर्धन] बढ़ानेवाला; विवन्न वि [विपन्न] १ नाश-प्राप्त, विनष्ट (ठा १०-पत्र ४७७)। २ वत्स-रहित | (णाया १, -पत्र १५७: स ३४५, 'मयविवड्डणे' (उत्त १६, ७) + श्री. °णी | स्त्री (राज)। सुपा ५०६)। २ मृत, मरा हुआ (पउम (उत्त १६, २) । देखो विवद्धण । विवज्ज अक [वि + पद्] मरना, नष्ट होना। ४४, १०० उत्त १०, ४४ स ७५६; सूअनि विवज्जइ, विवज्जामि (स ११६; पच्च १४; विवढि स्त्री [विवृद्धि] बढ़ाव, वृद्धि (पंचा १६२; धर्मवि १४४) सुख २, ४५)। भवि. विवज्जिही (कुप्र विवय प्रक [वि + वद्] झगड़ा करना, वक विवत नाट- नाविवडिढअ वि [विवृद्ध] बढ़ा हुमा (नाट- विवाद करना। वकृ. विवयंत (सुपा ५४६; विवज सक [वि + वर्जय 1 परित्याग पिंग)। सम्मत्त २१५)। करना। विवज्जेड (उव)। वक्र विवजयंत. विवणि पुंस्त्री [विपणि १ बाजार (सुपा विवय विदे1 विस्तीर्ण (षड़)विवज्जमाण (उवः धर्मसं १०३२)। कु. ५३०)। २ हाट, दूकान'विवणी तह विवया स्त्री [विपद] कष्ट, दुःख (उप विवजणिज्ज, विवजणीअ (उप ५६७ प्रावणो हट्टो (पान)। ७२८ टी)। टी: अभि १८३)। विवणीय वि [व्यपनीत] दूर किया हुआ, | विवर सक [वि + वृ] १ बाल संवारना । विवज वि [विवर्ज] १ रहित, वजितः हटाया हुआ (कप्प)। २ विस्तारना। ३ व्याख्या करना। विवरइ 'मउडविवज्जाहरणं सव्वं से देइ भट्टस्स' (सुपा विवण्ण देखो विवन्न विपन्न (उत्त २०, (भवि), विवरेहि (स ७१७)। वकृ. 'केसे २७१) । २ परित्याग, परिहार (पिंड १२६) ४४; गा ५५० प्र)। ! निवस्स विवरन्ती' (कुप्र २८५)।" १०१ For Personal & Private Use Only Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०२ पाइअसद्दमहण्णवो विवर-विवित्त विवर न [विवर] १ छिद्र (पाश्र; गउड विवलाअमाण (से ३, ६०; गा २६१ विवाय स + पादय ] मार डालना। प्रासू ७३) । २ कन्दरा, गुहा (से ६, ४६)। गउड १६६ से १५, १४; गउड ४७२)।- विवाएमि (विसे २३८५)। वकृ. विवाएंत, ३ एकान्त, विजन: 'कामज्झयाए गरिणयाए विवलाअ वि [विपलायित] भागा हुआ विवायंत (पउम ५७, ३१, २७, ३७)। बहरिण अंतराणि य छिद्दारिण य विवराणि य (से १, २; १४, ३०)। विवाय देखो विवाग (सुर १२, १३६; स पडिजागरमाले विहरति' (विपा १२ विवलिअ वि [विवलित ] मोड़ा हुआ, २७५; ३२१; सं ११८ सण)। पत्र ३४) । ४ पुंन. प्राकाश (भग २०, २) परावर्तित (गा ६८०; गउड ४२४, काप्र 'सव्वं चिय सूहदुक्खं विवरंमुह वि [विपराङ्मुख] विमुख, १६५)। पुबज्जियसुकयदुक्कयविवाया। पराङ्मुख (पउम ७३, ३०; से ६,४२)। विवलीअ देखो विवरीअः 'विवलीअभासए' जायइ जियाण जंता विवरण न [विवरण १ व्याख्यान, 'सोऊण (अणु)। को खेसो सकयउवभोगे' सुमिणविवरण' (सुपा ३८)। २ व्याख्याविवल्हत्थ वि [विपर्यस्त] विपरीत, उलटा (उप ७२८ टी)। कारक ग्रंथ, टीका (विसे ३४२२, पव विवायण वि [विवादन] विवाद-कर्ताः 'ते गाथा ३६; सम्मत्त ११६)। ३ बाल सँवारना दोवि विवायणु व रायकुले' (धर्मवि २०) ।' विवस वि [विवश] १ अधीन, परायत्त, (दे १,१५० पय ३.)।' विवाविड न [दे] अतिशय गौरव (संक्षि परतन्त्र (प्रासू १०७ कुमाः कम्म १, ५७)। विवरामुह । देखो विवरंमुह (भवि; से ११, ४७). २ बाध्य, लाचार (कुप्र १३५) । विवराहुत्त ८५)। विवाह सक [वि + वाह्य ] लग्न करना, विवह सक [वि + वह.] विवाह करना, विवरिअ वि | विवृत ] व्याख्यात (विसे शादी करना । विवाहेमो (कुप्र १३१)। शादी करना (प्रामा)। १३६६; स ७१७)। देखो विवुअ। विवाह देखो विआह = विवाह (उवाः स्वप्न विवहण न [विव्यधन] विनाश (णाया विवरिअ (अप) नीचे देखो (सण)। ५१, सम १८८) गणय पुं[गणक] १, १-पत्र ६५)। ज्योतिषी, जोशी (दे ६, १११).। जन्न विवरीअ वि [विपरीत] उलटा, प्रतिकूल विवाइअ व [विपादित] व्यापादित, जो पु[यज्ञ] विवाह-उत्सव (मोह ४४) ।। (भग १, १ टोः गउड; कप्पू; जी १२, सुपा जान से मार डाला गया हो वह छिद्देण । विवाह देखो विआह = विवाध (सम १ ६१०) । णु वि [ज्ञ] उलटा, जाननेवाला विवाइप्रो वाली' (पउम ३,१०; उत्त १६, ८८)(धर्मसं १२७४) ५६; ६३)। विवाह देखो विआह = व्याख्या (सम १; विवरीर । (अप) ऊपर देखोः 'घई विवरीरी | विवाउग वि [विवादक] विवाद-कर्ता (स ८८)।विवरेर बुद्धडी होइ विरणासहो कालि' ४५६)। विवाहाविय वि [विवाहित] जिसकी शादी (हे ४, ४२४), 'माइ कज्जु विवरेरमो दीसई' विवाग पु[विपाक] १ कर्म-परिणाम, सुख कराई गई हो वह (महा)। (वि) विवाहिय वि [विवाहित] जिसकी शादी विवरुक्ख । वि [विपरोक्ष ] परोक्ष, अ दुःखादि भोग रूप कर्म-फल (ठा ४, १ पत्र १८८ विपा १,१; उवः सुपा ११०: हुई हो वह (महा सण)।विवरोक्ख' प्रत्यक्ष; 'जावच्चिय दहवयणो सणः प्रासू १२२)। २ प्रकर्ष; 'वविवागविवरोक्खो प्रावलीए धूयाए (पउम ६, विविइसा स्त्री [विविदिषा] जानने की इच्छा, ११)। २ न. अभाव; 'पासम्मि अहंकारो परिणामा' (ठा ४, ४ टी-पत्र २८३) । जिज्ञासा (अज्झ ६६)। ३ पाककालः 'जं से पुणो होइ दुहं विवागे' विविक्क देखो विवित्त (सून १, १, २, १७)। होहिइ कह वा गुरणारण विवरुक्खें' (गउड ७६)। ३ परोक्षता, अप्रत्यक्षपन (उत्त ३२, ३३)। विजय पुंन ["विचय] विविच सक [वि + विच्] पृथक् करना, धर्मध्यान का एक भेद, कर्म-फल का अनु'इय ताहे भावागयपच्चक्खायंतणरवइगुणाण । अलग करना। संकृ. विविचित्ता (सूअ २, विवरोक्खम्मि वि जाया कईण संबोहणालावा' चिन्तन (ठा ४, ४-पत्र १८८)। "सुय ४, १०)। विविण न [विपिन] जंगल, वन (गउड; . न ["श्रुत] ग्यारहवाँ जैन अङ्ग-ग्रंथ (सम (गउड १२०४) । नाट-चैत ७२)।विवल अक [वि + वल] मुड़ना, टेढ़ा १; विपा १, १; प्रौप)। विवित्त वि [विविक्त] १ रहित, वजित । होना (गउड ४२४)। विवागि वि [विपाकिन् विपाकवाला (प्रज्झ गावविपाकिन् विपाकवाला (अज्झ२ पृथग्भूत (दस ८, ५३; भग६, ३३; विवला अक [विपरा + अय ] पलायन उत्त २६, ३१; उव) । ३ विविध, अनेकविध विवलाअ करना, भाग जाना। विवलाइ, विवाद। [विवाद] झगड़ा, तकरार, वाक्- | 'पासवेहि विवित्तेहिं तिप्पमाणो हियासए । विवलायइ, विवलानंति (गउड ६३४; विवाय ) कलह, जबानी लड़ाई (उवा; उवः । गंथेहि विवित्तेहिं आउकालस्स पारए' ११७६; पि ५६७)। वकृ. विवलाअंत, स ३८५; सुपा २८२, ३६१)। (पाचा १,८,८,६१०)। For Personal & Private Use Only Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवित्त-विसंथुलिय पाइअसहमहण्णवो ८०३ ४ न. एकान्त, विजन; "किंतु विवित्तमाइसउ विवोलिअ वि [दे] व्यतिक्रान्त, गुजरा हुआ; ८ काम, कन्दपं । ६ शुक्र-युक्त, वीर्य-युक्त । ताओं (स ७४३)। _ 'कहकहवि विवोलिया मे रयणी' (स ५०६) १० शृङ्गवाला कोई भी जानवर (सुपा विवित्त वि [विविक्त] १ विवेक-युक्त । २ विवोह देखो विबोह (भवि)। ५६७) संदिग्न, शत्र पीर (जन विमान निनिगि निशानाटा, टिषणविव्व सक [व + अय_j व्यय करना, विविदिअ वि [विविदित] विशेष रूप से खर्च करना चिंतामणिप्पभावा संपजइ युक्त (विसे २७६०)। ज्ञात (पराह २, १-पत्र ६६) तस्स दविणमइपउरं । तं विम्बइ जिरणभवणे' विसंक वि [विशङ्क] शंका-रहित, निःशंक विविदिसा देखो विविइसा (पंचा ३, २७)। (सुपा ३८२)। कृ. 'विवेयव्वो' (सुपा (उप १३६ टी)। विविद्धि पुं[विवृद्धि] उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र । ४२४, ५८६)। देखो विच्च - वि = अय् । विसंखल वि [विशृङ्खल] स्वच्छन्द, स्वैरो, का अधिष्ठाता देव (ठा २, ३-पत्र ७७)। विव्याय विदे१अवलोकित। २ विधान्त निरंकुश, उद्धत (पान; स १८० से ५, विविह वि [विविध] अनेक प्रकार का, (दे ७, ८६)। बहुविध, भाँति भाँति का (प्राचाः राय, उव; विसंखल सक [विशृङ्खलय ] निरंकुश | विव्वोअ देखो बिब्बोअ (कुमा)। महा)। करना, अव्यवस्थित कर डालना। संकृ. विवुअवि [विवृत] १ विस्तृत । २ व्याख्यात विव्वोयण [दे] देखो बिब्बोयण (कप्प)। विसंखलेऊण (सुख २, १५)। (संक्षि ४) । विस सक [विश] प्रवेश करना। विसइ, विसंघट्रिय वि [विसंघट्टितवियुक्त, विघविवुज्झ अक [वि + बुध ] जागना।। विसति (वजा २६, सण; गउड)। वकृ. टित (कुप्र)। विवुज्झदि (शौ) (प्राप्र)। विसंत (गउड) । संकृ. विसिऊण (गउड)। विसंघड प्रक [विसं + घट् ] अलग होना, |विस सक [वि + श.] १ हिंसा करना । २ जुदा होना। वकृ. विसंघडंत (गा ११५) ।' स १३५)। नष्ट करना। कवकृ. विसिज्जमाण, विसीरंत | विसंघडिय वि विसंघटित] वियुक्त, जो विवुद देखो विवुअ (प्राकृ ८ १२)। (विसे ३४३७, प्रच्च ७४)। जुदा हुआ हो वह (गाया १, ८-१४१ विवुदि देखो विवदि (प्राकृ १२)। विस पुंन [विष] १ जहर, गरल, हलाहला | महा)। 'झत्ति नट्ठो दुहावि विमोहविसो' (सम्मत्त | विसंघाइय वि [विसंघातित] संहत किया विवुह देखो विबुह (सण)। २२६; उवा; गउड प्रासू १२०; कुमा)। हुआ (अणु १७६)। विवेअ देखो विवेग (कुमाः महा ५२ ७७)। २ पानी, जल (से ८, ६३) नंदि पुं विसंघाय सक [विसं + घातय ] संहत 'न्नु वि [ज्ञ] विवेक-ज्ञाता (पउम ५३, [ नन्दिन] प्रथम बलदेव का पूर्वभवीय नाम करना । कर्म, विसंघाइज्जइ (अणु १७६)। ३८)। (सम १५३) न [न] विष-मिश्रित विवेअ [विवेप विशेष कप (सुपा १४)। विसंजुत्त वि [विसंयुक्त वियुक्त, जो अलग अन्न (उप ६४८ टी)। मइअ, "मय वि हुमा हो (सम्म २२; सूपनि १२१ टी)।विवेइ वि [विवेकिन] विवेकवाला (सुपा ["मय] विष का बना हुआ (हे १,५० विसंजोअ पुं [विसं + योजय ] वियुक्त षड्) । व वि [वत् ] १ विषवाला, १४८ कुमा; सण)। करना, अलग करना । विसंजोएइ (भग)। विवेग [विवेक] १ परित्याग (सूत्र १, विष-युक्त। २ पृ. सर्प, साँप (से ७, ६७)। विसंजोअ) पुं [विसंयोग] वियोग, विघटन, हर पुं[धर] साँप, सर्प (से २, २५; सुर | २,१, ८; ठा २, ३; प्रौपः आचानि ३०३)। २ ठीक-ठीक वस्तु-स्वरूप का निर्णय, विनिश्चय १,२४६ महा)- हरवइधरपति विसंजोग, पृथगभाव, जुदाई (कम्म ५, ८२, (प्रौप कुमा)। ३ प्रायश्चित्त (आचा १, ५, शेष नाग (से ६, ७)। 'हरिंद [ धरेन्द्र पंच ३, ५४)।। ४, ४)। ४ पृथक्करण (औप)। शेष नाग (गउड)। हारिणी स्त्री ["हारिणी] विसंठुल वि [विसंस्थुल] १ विह्वल, व्याकुल विवेगि देखो विवेइ (सुपा ५४३; कुप्र ४७)। पनीहारी, पानी भरनेवाली स्त्री (हे ४, (पाप; से १४, ४१ हे २, ३२, ४, ४३६; विवेच सक [वि + वेचय ] विवेचन मोह २२, धम्मो ५)। २ अव्यवस्थित (गा करना, ठीक-ठीक निर्णय करना, विवेक | विस देखो बिस (गा ६५२ गउड)। १४६; कुप्र ४१७ दे १, ३४)।करना। कम. विवेचिजइ (धर्मसं १३१०)। विस [वृष १ बैल, साँड़, वृषभ (सुर १, विसंतव पुं[द्विषन्तप] शत्रु को तपानेवाला, हेकृ. विवेचितुं (धर्मसं १३११)। २४८; सुपा ३६३, ५९५; सुख ८, १३) । दुश्मन को हैरान करनेवाला (हे १, १७७)। विवेयण न [विवेचन] विवेक, निर्णय (विसे २ ज्योतिष-प्रसिद्ध एक राशि (सुपा १०८; विसंथुल देखो विसंतुल (पउम ८, २००; १९४२) । विचार १०७)। ३ मूषक, चूहा (दे ७, ६१ स ५२१)। विवोल [दे] विशेष कोलाहल, कलकल षड्)। ४ धर्म । ५ बल-युक्त। ६ ऋषभ विसंथुलिय वि [विसंस्थुलित व्याकुल बना मावाज: 'विवोलेण सवरणसुहा' (स ५७१)। नामक औषध । ७ पुरुष-विशेष (सुपा ३६३)।। हुप्रा (सण)। For Personal & Private Use Only Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०४ पाइअसहमहण्णवो विसंधि-विसण विसंधि पु [विसन्धि] १ एक महाग्रह. विसंवादण देखो विसंवायण (उत्त २६, | महा: सुपा १५८, ०५७)। २त्यक्तः 'जीवेण ज्योतिष्क देव-विशेष (ठा २, ३-पत्र ७८)। जारिण उ विसज्जियाणि जाईसएसु देहाणि २ वि. बन्धन-रहित (राज)। "कप्प, विसंवादणा देखो विसंवायणा (ठा ४, १ (उव)। कप्पेल्लय पुं[कल्प] एक महाग्रह (सुज पत्र १६६)। विसट्ट प्रक [दल] फटना, टूटना, टुकड़े२०)। विसंवाय वि [दे] मलिन, मैला (दे ७, टुकड़े होना । विसट्टइ (हे ४, १७६; षड् ) विसंनिविट न [विसंनिविष्ट] विविध रथ्या, विसर्दृति (गउड); 'तस्स विसट्टउ हिप्रयं' ७२)।'अनेक महल्ला (प्रौप)। विसंवाय पुं [विसंवाद] १ सबूत का प्रभाव, (कुमा)। वकृ. विसर्दृत (स ५७६) । विसंभ देखो वीसंभ (महा)। विरुद्ध सबूत, विपरीत प्रमाण; 'पएणोएण विसट्ट प्रक [वि + कस ] विकसना, विसंभणया देखो विस्संभणया (प्राचा १, विसंवानो' (संबोध १७ सुपा ६०८)। २ खिलना, फूलना । विसट्टइ (प्राकृ ७६), ८, ६, ४)। व्याघात (गा ६१६)। ३ विचलता (से ३, विसट्टति (वजा १३८)। वकृ. विसटुंत, ३०)। विसट्टमाण (वजा ६० ठा ४, ४-पत्र विसंभोइय वि [विसंभोगिक] जिसके साथ विसंवायग वि [विसंवादक] १ सबूत रहित, २६४)। भोजन आदि का व्यवहार न किया जाय वह, प्रमाण-रहित । २ ठगनेवाला, वंचक (सुपा | | विसट्ट सक [वि + कासय ] विकसित मंडली-बाह्य, समाज-बाह्य (ठा ५, १-पत्र ६०८)। करना, फुलाना, प्रफुल्ल करना । विसट्टइ विसंवायण न [विसंवादन] नीचे देखो (उत्त (धात्वा १५३)। विसंभोग पुं[विसंभोग] साथ बैठकर भोजन प्रादि का अव्यवहार (ठा ३, ३)। २६, ४८; सुख २६, ४८)। विसट्ट अक [ पत् ] गिरना, स्खलित होना। विसंभोगिय देखो विसंभोइय (ठा ३, ३विसंवायणा स्त्री [विसंवादना] १ असत्य विसति (सुख २, २६)। पत्र १३६)। कथन । २ वंचना, ठगाई (ठा ४,१-पत्र विसट्ट वि [दे] १ विघटित, विश्लिष्ट (पान; गउड १००६)। २ विकसित, प्रफुल्ल, खिला विसंवइय वि [विसंवदित] १ सबूत रहित, २६६)। विसंसरिय वि [विसंसृत] उठ गया हुआ। हुप्रा (प्राकृ ७७; गउड ६६७; ८०५; कुमाः अप्रमाणित (पाना स ५७६)। २ विघटित, सुर ३, ४२; भत्त ३०) । ३ दलित, विशीर्ण, 'पहायसमए य विसंसरिएK थाणएसुं' (स वियुक्त (से ११, ३६)1 ५३७)। खण्डित, जिराका टुकड़ा-टुकड़ा हुआ हो वह विसंवय प्रक [विसं + बद्] १ मप्रमाणित (से ६, ३०; गउड ५५६; भवि) । ४ उत्थित होना, असत्य ठहरना, सबूत से सिद्ध न होना। विसंहणा देखो विस्संभणया (प्राचा)। (गउड ७)। २ विघटित होना, अलग होना। ३ विपरीत विसकल वि [विशकल] नीचे देखो (राज)।होना, अन्यथा होना। विसंवयइ, विसंवयंति विसकलिय वि [विशकलित] टुकड़ा-टुकड़ा विसट्टण न [विकसन] विकास, प्रफुल्लता; 'देव ! पणयजरणकल्लारणकंदुट्टविसट्टणुग्गंतमि(हे ४, १२६; उव); 'सो तारिसो धम्मो किया हुआ, खण्डित (भावम)। हराणुगारिणो' (धर्मा ५)। नियमेण फले विसंवयई' (स ६४८ ७१६), विसग्ग विसग १निसर्ग, त्याग; 'सिमि'चरिएण कहं विसंवयसि' (मन २६), विसड ) देखो विसम (षड्: है १, २४१; णेवि सुरयसंगकिरियासंजणियवंजणविसग्गो' विसंवएजा (महानि ४)। वकृ. विसंवयंत विसढ । कुमाः दे ७, ६२); 'ढंढेरण तहा (विसे २२८)। २ विसर्जन, छुटकारा, छोड़ | विसढा, विसढा जह सफलिया जाया' (उव)।. (उवः उप ७६८ टी, धर्मसं ८८३)। देना (पि २१५)। ३ अक्षर-विशेष, विसर्ज विसढ वि [दे] १ नीराग, राग-रहित । २ विसंवयण न [विसंवदन] विसंवाद, सबूत नीय वणं (पिंग)। नीरोग, रोग-रहित (दे ७, ६२)। ३ विषोढ, का प्रभाव (उप पृ २६८)। विसज्ज सक [वि + सृज , सर्जय ] १ सहन किया हुआ (उव)। ४ विशीर्ण, टुकड़ेविसकाइ विविवादिन् विघटित होन- बिदा करना, भेजना । २ त्यागना । विसज्जेह टुकड़े किया हुआ (से ६, ६६)। ५ प्राकुल, बाला, विच्छिन्न होनेवाला (कुमा ६, ८६)। (महा)। संकृ. विसज्जिऊण, विसजिअ २ अप्रमाणित होनेवाला, सबूत से सिद्ध नहीं | व्याकुल (से ११, ८६)। (महा; अभि ४६)। हेकृ. विसज्जिदूं (शौ) विसढ वि [विशठ] १ अत्यंत दंभी, अतिशय होनेवाला, असत्य ठहरनेवाला (कुप्र २६४ (अभि ६०)। कृ. विसज्जिदव्य (शौ) मायावी; 'देवेहि पाडिहेरं किं व कयं एत्थ सम्मत्त १२३)। (मभि ५०)। विसढेहि (पउम १०२, ५२)। २ पुं. एक विसंवाइअ वि [विसंवादित विसंवाद-युक्त विसजणा स्त्री [विसर्जना ] बिदाई (क्व | श्रेष्ठि-पुत्र (सुपा ५५०)। (दे १, ११४० से ३, ३०)। विसंवाद देखो विसंवाय = विसंवाद (धमंसं विसजिअ वि [विसृष्ट, विसजित] १ बिदा विसण देखो वसण = वृषण (दे ६, ६२)। | किया हमा, भेजा हमा (मौपः अभि ११६; विसण न [वेशन] प्रवेश (राज)। For Personal & Private Use Only Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसण्ण-विसाअ पाइअसद्दमहण्णवो ८०५ विसण्ण वि [विसंज्ञ] संज्ञा-रहित, चैतन्य- विसमय न [दे] भल्लातक, भिलावाँ (दे ७, विसर ' [विसर] समूह, यूथ, संघात (सुपा वजित (से ६, ६८)। ३; सुर १, १८५, १०, १४)। विसण्ण देखो विसन्न = विषण्ण (महा: वसुः विसमय देखो विस-मय । विसरण न [विशरण] विनाश (राज)।राज) । विसमिअ वि [विषमित] १ बीच-बीच में विसरय पुन [दे वाद्य-विशेष (महा)। विसत्त निदिसत्य सत्त्व-रहित (वव ६)। विच्छेदित (से ६, ८७)। २ विषम बना हुआ विसरा स्त्री [विसरा] मच्छी पकड़ने का विसत्थ देखो वीसत्थ (णाया १, १-पत्र (गउड)। जाल-विशेष (विपा १,८–पत्र ८५) । - १३; स्वप्न १६, उप ७२८ टी) | विसमिअ वि [विस्मृत भुला हुमा, प्रस्मृत विसरिअ वि [विस्मृत याद नहीं आया हुपा विसद देखो विसय = विशद (पएह १, ४- (से ६, ८७)। (पि ३१३)। पत्र ७२: कप्पः त्रि९७)। | विसमिअ [विश्रमित] विश्रान्त किया हुमा, विसरिया श्री [दे] सरट, कृकलास, गिरगिट विसद्द [विशब्द] १ विशिष्ट शब्द । २ विश्राम-प्रापित (से ६, ८७)। (राज) । वि. विशिष्ट शब्दवाला (गउड)। | बिसमिअ वि [दे] १ विमल, निर्मल । २ विसरिस वि [विसदृश असमान, विजाविसन्न वि [विषण्ण १ खिन्न, शोक-ग्रस्त, उत्थित (दे ७, ६२)। तीय (सण)।विषादयुक्त (पएह १, ३-पत्र ५५; सुर ६, विसमिर वि [विअमित विश्राम करनेवाला। विसलेस पुं[विश्लेष] जुदाई, वियोग, १५०० १२)। २ पासक्त, तल्लीन (सूम स्त्री. री (गा ५२, प्राकृ ३०)। पृथग्भाव (चंड)।१, १२, १४) । ३ निमग्नः 'अंतरा चेव विसम्म अक [वि + श्रम् ] विश्राम करना, विसल्ल वि [विशल्य] शल्य-रहित (पउम सेयंसि विसन्ने' (णाया १, १-पत्र ६३)। पाराम करना । भवि. विसम्मिहिइ (गा ६३ ११, चेइय ३८७)। करणी श्री ४ पुं. असंयम (सूम १, ४, १, २६). ५७५) । कृ. विसम्मिअव्य (से ६, २)। [करगी] विद्या-विशेष (सूत्र २, २, २७) । विसन्न देखो विस-न्न । विसय वि [विशद] १ निर्मल, स्वच्छ (कुप्र विसल्ला स्त्री [विशल्या] १ एक महौषधि ४१५, सठि ७८ टी)। २ व्यक्त, स्पष्ट विसन्ना स्त्री [विसंज्ञा] विद्या-विशेष (पउम | (ती ५)। २ लक्ष्मण की एक स्त्री (पउम (पान)। ३ धवल, सफेद (प्रौप)। ७, १३६) ६३, २६)। विसप्प अक [वि + सूप ] फैलना, विस्तरना, विसय पुंन [विशय] १ गृह, घर (उत्त ७, विसस सक [वि + शस् ] वध करना, मार व्याप्त होना । वकृ. विसप्पंत, विसप्पमाण १)। २ संभव, संभावना (पाचू १)। डालनाः 'विससेह महिसे (मोह ७६)। कवकृ. (कप्पा भगः औप, तंदु ५३)। | विसय पुं[विषय १ गोचर, इन्द्रिय प्रादि । विससिज्जत (गउड ३१६) । विसप्प ' [विसर्प] एक नरक-स्थान (देवेन्द्र से जाना जाता पदार्थ-शब्द, रूप, रस आदि | विसस देखो विस्सस-वि + श्वस । कृ२७) वस्तु (पापा कुमा; महा)। २ जनपद, देश | विससिअव्व (सं १०८) । विसप्पि वि [विसर्पिन] फैलनेवाला (सुपा (ोघभा ८ कुमाः पउम २७, ११, सुपा | विससिय वि [विशसित] वध किया हुमा, ३१, महा)। ३ काम-भोग, विलासः ‘भोग जो मार डाला गया हो वह (गउड; ४७५; विसप्पिर वि[विसर्पित] ऊपर देखो (सण)। पुरिसो समजियविसयसुहो (ठा ३, १ टी.- ससम्मत्त १४०)। विसम देखो वीसम= वि + श्रम् । विसमदु पत्र ११४ कम्म १, ५७; सुपा ३१; महा) । विसह सक [वि+पह ] सहन करना। (रंभा ३१)। ४ बाबत, प्रकरण, प्रस्ताव; 'जोइसविसए' । विसहति (उव) । वकृ. विसहंत (से १२, विसम वि [विषम] १ ऊँचा-नीचा, उन्नता- | (उप ६८६ टीः मोषभा ६) । विहइ पुं २३, सुपा २३३)। हेकृ. विसहिउं (स वनत (कुमा; गउड)। २ असम, असमान, | [धिपति] देश का मालिक, राजा (सुपा अतुल्य (भग, गउड)। ३ अयुग्म, एकी । ४६४)। विसह वि [विषह] सहन करनेवाला, सहिष्णु; संख्या, जैसे-एक, तीन, पाँच, सात प्रादि । विसर सक [वि + सृज१ त्याग करना.. ___ 'वसुंधरा इव सव्वफासविसहे' (कप्पः प्रौप)। ४ दारुण, कठिन, कठोर । ५ संकट, संकरा, २ बिदा करना, भेजना । विसरइ (षड् )।-विसह देखो वसभ (गउड)।कम चौड़ा, संकीर्ण (हे १,२४१७ षड)।६ विसर अक [वि+सू] सरकना, घसना, विसण न विष पुंन. आकाश (भग २०, २) 'क्खर वि | नीचे गिरना, खिसकना । वकृ. विसरंत । (धर्मसं ८६७)। २ वि. सहिष्णु (पव ७३ [क्षिर] अपसिद्धान्तवाला, असत्य निर्णय- (णाया १,६-पत्र १५७; से १४, ५४) टी) वाला (से ४, २४), लोअण पु[°लोचन] विसर सक वि+ स्मृ] भूल जाना, याद न विसहिअ वि [विषोढ] सहन किया हुमा महादेव, शिव (वेणी ११७)+ वाण पुं माना । विसरइ (प्राकृ ६३)। (से ६, ३३)।[°बाण] कामदेव (सण)। "सर पु[शर] विसर पू[दे] सैन्य, सेना, लश्कर (दे ७, विसाअ (अप) स्त्री [विश्वा] छन्द-विशेष वही (स १सुपा १६३; सण)। (पिंग)। For Personal & Private Use Only Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०६ पाइअसहमणयो वि विसाइ [विपादन] विषाद-युक्त, शोक विसारि [विसारिन्] फैलनेवाला, व्यापक विसारिवि [विसारिन्] फैलनेवाला, व्यापक ग्रस्त (संबोध ३६) । - (3), *ft (g) 1 विसाण न [विषाण] १ हाथी का दांत १२१२) २ श्रृंग (सुल पाम श्रीप) ३ सींग ६, १; । सूअर का दाँत (उवा) । ४ पुं. ब. देश-विशेष ( पउम १८, ६५ ) 1 विसाण सक [विशाणय् ] घिसना, शाण पर चढ़ाना। कर्म. विसाणीश्रदि (शौ) (नाट मुल्य १३१) । विसाणि वि [विषाणिन् ] १ सींगवाला । २ पुं. हाथी, हस्ती । ३ शृंगाटक, सिंघाड़ा | ४ ऋषभ नामक औषध ( प्र १४२ ) ।विसाय एक [वि + स्वादय् ] विशेष चलना खाना । वकृ. विसाएमाण (गाया १, १पत्र ३७: कप्प ) । - विसाय पुं [विषाद] खेद, शोक, दिलगीरी, अफसोस ( उव गउड सुपा १०४; हे १, ] लिन्न, शोक [ १५ ) ग्रस्त (श्रा १४) । विसाय वि [विसात ] १ सुख-रहित (विवे १३६) । २ पुंन. एक देव - विमान (सम ३८ ) । - विसाय [विस्वार] स्वाद रहित 'ग्रामयकारि विसायं मिच्छतं कसाव कयसरणं जं भुक्तं ( विवे १३६ ) । विसार सक [ वि + सारय ] फैलाना । a. विसारंत (उत्त २२, ३४) । विसार [दे] सैन्य सेना (ब)विसार व [बिसार] सार-रहित, निःस्सार ( गउड ) । विसारण न [विशारण ] लएन (पिंड खण्डन ५६० ) । विसारणिय वि [ विस्मारणिक] स्मारा रहित, जिसको याद न दिलाया गया हो वह (काल) । विसारयवि [दे] घृष्ट, ढीठ, साहसी (दे ७, ६६) । विसारयवि [विशारद ] विद्वान् परित दक्ष (परह, १, ३ - पत्र ५३; भगः श्रौपः सुर १, १३; प्रात्म १९ ) । विसारि [दे] कमलासन, ब्रह्मा (दे ७, ६२) । विसाल वि [विशाल ] विस्तुत बड़ा १ विस्ती, चौड़ा (पाच गुर २ ११६ प्रति १०)। २. एक ब्रह-देवता, पठासो महा ग्रहों में एक महाग्रह ( Bा २, ३ – पत्र ७८) । ३ एक इन्द्र, क्रन्दित निकाय का उत्तर दिशा का इन्द्र (ठा २, ३ – पत्र ८५) ४ न. देव-विमान विशेष (सम ३५ देवेन्द्र १३६ प ११४) । ५ न. एक विद्याधर-नगर (इक) । विसालय पुं [ दे ] जलधि ७१) । - समुद्र (दे ७, । विसाला स्त्री [विशाला ] १ एक नगरी का नाम, उज्जयिनी, उज्जैन (सुपा १०३ उप १८८२ भगवान् पार्श्वनाथ की दीक्षा शिविका ( विचार १२९ ) । ३ जंबूवृक्ष विशेष, जिससे यह जंबूद्वीप कहलाता है। ४ राजधानी- विशेष ( इक ) । ५ भगवान् महावीर की माता का नाम (सूम १, २, ३, २२) । ६ एक पुष्करिणी (राज) ।बिसालिस देखो विसरिस (उत्त २, १४) - विसासण [विशासन] विचालक, विना शकः 'शुभयविसास (सम्म १)। विसासि वि[विशासित] १ मारित, हिंसित, जिसका वध किया हो वह । २ विशेष रूप से घर्षित । ३ विश्लेषित, वियुक्त किया हुआ। ४ मार भगाया हुआ (से ८, ६३) । विसाह [विशाख ] स्वन्द, कार्तिनेय पुं (पान)। विसाहा की [विशाखा ] -विशेष (सम १०)। २ व्यक्ति वाचक नाम एक स्त्री का नाम ( वज्जा १२२) । ३ एक विद्याधरकन्या (महा) । | विसाहिवि [विसाधित] गया २ न संसिद्धि लहहुं पिय तहि देहि जाहूं' ४११) । - सिद्ध किया बिसाउ जहि (हे ४, ३८६; For Personal & Private Use Only विसाइ विसीरंत विसाही स्त्रो [वैशाखीं] १ वैशाख मास की पूर्णिमा । २ वैशाख मास की अमावस ( सुज्ज १०, ६) । निश्री [हे]यारी प ७, ६१) । - -- । प्रधान, मुख्य ( सूत्र विसि देखो बिसि (हे १, १२० प्राप्त ) - विसिनमाण देखो बिस= विश् विसिट्ठ वि [विशिष्ट ] १, ६, ७, परह २, १ – पत्र ६६ ) । २ विशेष-युक्त (महा) ३ विशेष शिष्ट, सुसभ्य ( या १६०) ४ सहित प वजा २३ – पत्र ६७१) । ५ व्यतिरिक्त, भिन्न, विलक्षण (विसे)। ६ पुं. एक इन्द्र, द्वीपकुमारदेवों का उत्तर दिशा का इन्द्र (ठा २, ३-पत्र ८४ ) । ७ न. लगातार छः दिनों का उपवास (संबोध ५८ ) । 'दिट्ठि स्त्री ['दृष्टि ] श्रहिंसा ( परह २ १) । विखिट्टि श्री [विसृष्टि] विपरीत क्रम (सिरि ८७८)। विसिण वि [दे] रोमश, प्रचुर रोमवाला (दे ७, ६४) । विसिस एक [विशिष्] विशेषख-पुक्त करना । कर्म. किरिया विस ( ? सि ) स्सए पुरण नागाउ, सुए जनो भरिण (प्रज्भ ५८ ५६) । विसिह [विशिख] १ पउम ८, १०० सुपा २२ किरात १३ ) । २ वि. शिखा रहित (गउड ५३६ ) । बिसी देखो बिसी (हे १, १२८ प्रात्र) । - बिसी स्त्री [विंशति] बोल, बीस का समूह; 'केसी (?) पाथीभारावी (हास्य १३९) । ~ विसीअ क [वि + सद्] १ खेद करना २ नमन होना नवसीय विसीति विशीष, विसीय (१२४, ११, ३,४,५ ठा ४, ४ – पत्र २७८; उव) । वकृ. विसीयंत ( पि ३९७ ) 1 विसीइय वि [विशीर्ण] १ जी, पुटित २ न टूटना, जर्जरित होना; 'संधीहि विडियं पिव विसीइयं सन्त्रगेहि' (सुर १२, १६९) । विसीरंत देखो विसरि = Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसील-विसोहिय पाइअसद्दमण्णवो विसील वि [विशील] १ ब्रह्मचर्य-रहित, विसूरमाण (उव; गा ४१४; सुपा ३०२ | विसेसय पुंन [विशेषक] तिलक, चन्दन व्यभिचारी (वसुः उप ५६७ टी)। २ खराब | गउड)। कृ. विसूरियव्य (गउड) आदि जा मस्तक-स्थित चिह्न (पानः से १०, स्वभाववाला, विरूप आचरणवाला (उत्त विसूरण न [खेदन] १ खेद । २ पीड़ा (पएह ७४) वेणी ४६ गा ६३८ कुप्र २५५)।-- १, ५--पत्र ९४)। | विसेसिअ वि [विशेषित] १ विशेषण-युक्त विसुज्झ अक [वि + शुध् ] शुद्धि करना। विसूरणा स्त्री [खेदना] खेद, अफसोसः दुःख किया हुअा, भेदित (सम्म ३७, विसे २६८७)। विसुज्झइ (उव)। वकृ. विसुभंत, विसु(से ५, ३) । २ अतिशयित (पास)। ज्झमाण (उप ३२० टी; णाया १,१-पत्र विसूरिअ वि [खिन्न] खेद-युक्त, दिलगीर | विसेस्स देखो विसेस = वि + शेषय । - ६४. उवाः प्रौप; सुर १६, १६१)। विसोग वि [विशोक] शोक-रहित (आचा)।विसुणिय वि [विधुत] विज्ञात (पएह १, (से १०,७६)।४-पत्र ८५)। विसूहिय पुन [विष्वम्हित] एक देव-विमान विसोत्तिया स्त्री [विस्रोतसिका] १ विमार्ग गमन, प्रतिकूल गति । २ मन का विमार्ग (सम ४१)।विसुत्त वि[विसोतस ] १ प्रतिकूल । २ में गमन, अपध्यान, दुष्ट चिन्तन (आचाः खराब, दुष्ट (भवि)। विसेढि स्त्री विश्रेणि] १ विदिशा-सम्बन्धी श्रेरिण, वक्र रेखा । २वि, विश्रेरिण में स्थित विसुत्तिया देखो विसोत्तिया (श्रावक ५६ विसे ३०१२; उवः धर्मसं ८१२)। ३ शंका दस ५, १, ६) (णंदिः पि ६६; ३०४)। (आचा)। विसोपगापुंन [दे. विंशोपक] कौड़ी का विसुद्ध वि [विशुद्ध १ निर्मल, निर्दोष (सम विसेस सक [वि+शेषय ] विशेष-युक्त विसोवग) बीसवाँ हिस्सा (धर्मवि ५७; पंचा ११६ ठा ४, ४ टी-पत्र २५३; प्रासू २२, करना, गुण आदि द्वारा दूसरे से भिन्न करना, ११, २२)। उव; हे ३, ३८)। २ विशद, उज्ज्व ल विशेषण से अन्वित करना, व्यवच्छेद करना। विसोह सक [वि + शोधय 1 १ शुद्ध (परण १५-पत्र ४८६)। ३ पुं. ब्रह्मदेव- विसेसइ, विसेसेइ (भविः सणः सूअनि ६१ करना, मल-रहित करना, निर्दोष बनाना । लोक का एक प्रतर (ठा ६-पत्र ३६७)।टी: भग; विसे ७६; महा) । कम विसेसिज्जइ २ त्याग करना। विसोहइ, विसोहेइ (उव; विसुद्धि स्त्री [विशुद्धि] निर्दोषता, निर्मलता (विसे ३१११)। संकृ. विसेसिङ (विसे सणः कस)। विसोहिज्ज (आचा २, ३, २, ३११४)। कृ. विसेसणिज, विसेस्स (प्रौप; गा ७३७)। ३)। हेकृ. विसोहित्तए (ठा २, १विसुमर सक [वि + स्मृ] भूल जाना, याद | (विसे २१५६; १०३५)। पत्र ५६)। न पाना । विसुभरइ, विसुमरामि (महा पि विसेस पुन [विशेष] १ प्रभेद, पार्थक्य, विसोह वि [विशोभ] शोभा-रहित (दे १, ३१३), विसुमरेहि (स २०४)। भिन्नता; ‘ण संपरायसि विसेसमत्यि' (सूत्र ११०)। विसुमरिअ वि [विस्मृत] जिसका विस्मरण २, ६, ४६; भगः विसे १०५, उव)। २ भेद, विसोहण न [विशोधन शुद्धिकरण (कस)।हुआ हो वह (स २६५; सुख २, २६ सुर प्रकार: 'दसविहे विसेसे पन्नत्ते (ठा , विसोहणया स्त्री [विशोधना] ऊपर देखो १४, १७) । महा; उव)। ३ असाधारण, अमुक, व्यक्ति, (ठा ८-पत्र ४४१)।विसुराविय वि [खेदित] खिन्न किया हुआ; खास (उव; जी ३६; महा अभि २१०)। विसोहय वि [विशोधक] शुद्धि-कर्ता (सूम 'अरईविलासविसुरावियाण निव्वडइ सोहग्गं' ४ पर्याय, धर्म, गुण (विसे २६७)। ५ (गउड १११)। अधिक, अतिशय, ज्यादा; 'तप्रो विसेसेण तं विसुवन विपत् ] रात और दिन की पुजं' (भगः प्रासू १७६; महा; जी ३६)। विसोहि स्त्री [विशोधि] १ विशद्धि. समानतावाला काल, वह समय जब दिन और । ६ तिलक । ७ साहित्यशास्त्र प्रसिद्ध अलंकार निर्मलता, विशुद्धता (पउम १०२, १९६; रात दोनों बराबर होते हैं (दे ७, ५०) । विशेष । ८ वैशेषिक-प्रसिद्ध अन्त्य पदार्थ उवः पिंड ६७१, सुपा १९२)। २ अपराध विसूइया स्त्री [निसूचिका] रोग-विशेषः हैजा (हे १, २६०)। न्नु [ज्ञ विशेष जानने के योग्य प्रायश्चित्त (प्रोध २)। ३ आवश्यक, (उवः सुर १६, ७२: प्राचा २, २, १, ४)।वाला (सं ३२; महा)। ओ अ[तस ] सामयिक आदि षट-कर्म (मण ३१)। ४ भिक्षा का एक दोष, जिस दोषवाले पाहार खास करके (महा)।विसूणिय वि [विशूनित] १ फुला हुआ, का त्याग करने पर शेष भिक्षा या भिक्षा-पात्र सुजा हुमा (पएह १, १-पत्र १८)। २ विसेस [विश्लेष] पृथक्करण (वव १)। विशुद्ध हो वह दोष (पिंड ३६५) कोडि काटा हुमा, उत्कृत्त (सूम १, ५, २, ६)। विसेसण न [विशेषण] दूसरे से भिन्नता स्त्री [कोटि] पूर्वोक्त विशोधि-दोष का विसूर देखो विसुमर । विसूरइ (प्राकृ ६३)। बतानेवाला गुण प्रादि (उप ४४४; भास प्रकार (पिंड ३६५) । विसूर अक [खिद्] खेद करना। विसुरइ ८६ पंच १, २२, विसे ११५)। विसोहिय वि [विशोधित] १ शुद्ध किया (हे ४, १३२ प्राप्र; उव)। वकृ. विसुरंत, विसेसणिज्ज देखो विसेस = वि + शेषम् ।- हुमा । २ पुं. मोक्ष-मार्ग (सूम १, १३, ३)। For Personal & Private Use Only Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०८ विस्स देखो विस = विश्; 'देवीए जेण समयं प्रपि श्रग्गीए विस्सामि' (सुर २, १२७) । विre न [वि] १ कच्ची गन्ध अपक्व मांस श्रादि की बू । २ वि. कच्ची गन्धवाला ( प्राप्र अभि १८४) गंधि वि [गन्धिन् ] ग्रामगन्धि, अपक्व मांस के समान गंधवाला ( अभि १०४) । विस्स [विश्व] १ एक-देवत पुं उत्तराषाढ़ा नक्षत्र का अधिष्ठाता देव (ठा २, ३ - पत्र ७७६ अणु १४५३ सुज्ज १०, १२) २. सकल सब (विसे १६०३: सुर १२, ५६ ) । ३ पुंन. जगत्, दुनियाँ (सुपा १३६; सम्मत्त १६०३ रंभा ) । "इ पुं प्राकृ 1" [ "जिल्] वशेष ( ९४ ) "कम्म [ कर्मन ] शिल्पी विशेष देववर्धक ( स : ००; कुप्र 8 ) पुर न [["पुर] नगर- विशेष (गुदा ६१५) भूइ [["भूति] प्रथम वासुदेव का पूर्व-भवीय नाम (सम १५३ पउम २०, १७१ मत १२७ तो ७) यम्म देखो कम्म (स ६१०) वाइ[वादिक] भगवान् महावीर का एक ग ( पण ४५१) "सेण ["सेन] भगवान् शान्तिनाथजी का पिता, एक राजा ( १५१; १५२ ) । २ महोरात्र का एक मुहूर्त (सम ५१ ) । देखो वीस = विश्व - मिस्सा (मा) देखो विम्य विस्मय (षद्) । बिस्त देखो वीसंत (सुपा ५३) - विरसंतिअ न [विश्रान्तिक ] मथुरा का एक तीर्थ (ती ७)। विस्सद तक [चिस्यन्द्र] टपकना, भरना, चूना । विस्संदति (ठा ४, ४ - पत्र २७९) । = - विरसंभ तक [वि + सम्भ] विश्वास करना । कृ. विस्संभणिज्ज ( श्रा १४३ उपपं १६ ) 1विस्तंभ [विषम्भ] विश्वास, श्रद्धा प्रयो EE; महा) घाइ वि [ घातिन् ] विश्वास घातक (गाया १, २ - पत्र ७९ ) । विस्संभण न [विश्रम्भन] विश्वास ( माल १६६) । पाइअसद्दमणव विस्संभणया स्त्री [विश्रम्भणा ] विश्वास (घाचा)।" विस्संभर [विश्वम्भर ] जन्तु-विशेष भुजपरिसं की एक जाति (सूत्र २, ३, २५ श्रोध ३२३) । २ मूषक, चूहा (प्रोघ ३२३) । ३ इन्द्र । ४ विष्णु, नारायण (नाटचैत ३८) | विरसंभरा श्री [विश्वम्भरा ] पृथिवी, धरती ( कुप्र २१३) । - विस्संभिय वि[विश्रब्ध ] विश्वास प्राप्त, विश्वासी ( सुख १, १४) ।विश्सभियर [विश्ववत् ] जगत्-रक (उत्त३, २) - विस्सत्थ देखो वीसत्थ (नाट - शत्रु ५३ ) । विस्सद्ध देखो बीसद्ध (अभि १६३० मुद्रा २२३) । थाक लेना । . वित्समिज 1 विस्सम अक [ वि + श्रम् ] विस्सम (प्राफ २६ ) (नाट - मालती ११) 1विश्सम (स्वप्न १०६) । विस्समिज देखो विस्संत (मुपा ३७२) । विस्सर एक [वि + स्मृ] भूलना। विसर ( धावा १५३) । [विश्रम ] विभाग, विभान्ति विस्सर वि [ विस्वर ] खराब श्रावाजवाला (सम ५०; पह १, १ - पत्र १८ ) । - विस्सरण न [दिस्मरण] विस्मृति याद न प्राना ( पभा २४ कुल १४ ) । - विस्सरिय [विस्तृत ] भुला हुआ (उप ११३) । - विस्सस सक [ वि + श्वस] विश्वास करना, भरोसा करना विस्ससइ ( प्राकृ २६) । वकृ. विस्ससंत ( श्रा १४) । कृ. विरससणिज (श्रा १४; भत्त १६ ) । - विस्ससिअ वि [ विश्वस्त ] विश्वास-युक्त भरोसा-पात्र (श्रा १४; सुपा १८३ ) - विरसायिवि [विश्राणित ] दिया हुआ, अर्पित (उप १३८ टी) । विस्साम देखो वीसाम ( प्राकृ २६; नाट-शकु २७) । विस्सामण न [विश्रामण ] चप्पी, अंग-गर्दन आदि भक्ति, वैयावृत्य (ती) - For Personal & Private Use Only विरस - विह विस्सामणा स्त्री [विश्रामणा ] ऊपर देखो ( पव ३८ हित २० ) । विरसाव देखो विसायविस्वादय्. विस्सायणिज्ज ( णाया ९, १७४) । . विस्सार सक [वि + स्मृ] भूल जाना। संह, 'कोपरा विसारिक रायसास गरिऊण नियभूमि पविट्ठा नयार (महा) । विस्सार तक [षि+ स्मारय ] विस्मरण करवाना (नाट - मालती ११७ ) । - विस्सारण न [विसारण] विस्तारख फैलाना ( पव ३८) । विस्तावसु पुं [ विश्वावसु ] एक गन्धर्व, देव - विशेष (पउम ७२, २) १२ - पत्र विस्सास पुं [विश्वास ] भरोसा, प्रतीति, श्रद्धा (सुख १, १० सुपा ३५२: प्राप्र ) ।विस्सासिय वि[विश्वासित ] जिसको विश्वास कराया गया हो वह (सुपा १७७) । विरसादल [विवाहल] अंग-विद्या का जानकार चतुर्थ रुद्र- पुरुष ( विचार ४७३ ) । - विस्सुअवि [वि] प्रसिद्ध विख्यात (पाय: श्रीप प्रासू १०७) । विस्सुमरिय देखो विसुमरिअ (उप १२७) । ~ धिरणि श्री [वित्रेणि, "णी] निःश्रेणि } विरसेणी सीढ़ी (बाचा) - विस्सेसर , [विश्वेश्वर] काशी काशी में स्थित महादेव की एक मूर्ति (सम्मत ७५) विस्सोअसिआ दखो विसोत्तिआ (हे २, £5) IV = विह सक [ व्यधू ] ताड़न करना । वकृ. विमान (उत्त २७ ३. २०, ३) - विद्द देखो बिस विष (याचा पि२६३) - विह पुंग [दे] १ मार्ग, रास्ता (घोष ६०६) । २ अनेक दिनों में उल्लंघनीय मार्ग (प्राचा २, ३, १, ११, २, ३, ३, १४) । ३ श्रटवीप्राय मार्ग (प्राचा २, ५, २, ७) विपुंन [विहायस] श्राकाश, गगन (भग २०, २-पत्र ७७५; दसनि १ २३ ) : देखी बिग विहायस् - । = Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद-विहर विह पुंखी [विध] १ भेद, प्रकार ( उवा कप्प ) । २ पुंन. आकाश, गगन (भग २०, २- पत्र ७७५ श्राचा १, ८, ४, ५ दसनि १, २३) । - बिही [दे] (दे ७, ६३ ) 1 विहंग पुं [विहङ्ग] पक्षी, चिड़िया, पखेरू (पान) गउड कप सुर ३, २४५: प्रासू १७२ ) + णाह पुं [नाथ ] गरुड़ पक्षी (गउड ८२३ ८२४ १०२२) । - विहंग [विभङ्ग] विभाग, टुकड़ा ( परह १, ३ - पत्र ५४; गउड ४०४ ) । देखो विभंग (गउड भवि ) - विहंगम [ग]पक्षी चिड़िया (उड श मोह ३२: श्रु ७७; सरण) । - हिंज तक [वि] भांगना, तोड़ना, विनाश करना सं. हिजिवि (ब) (भ) 1 की बैंगन का गा [विभक्त] वटामा 'आगम वृत्तिपमाणविधि (भवि) 1विट क [वि + खण्डय ] विच्छेद विहंड सक करना, विनाश करना | विडइ (भवि) 1 विहंडण न [विखण्डन] १ विच्छेद, विनाश (सम्मत्त ३०)। २ वि. विच्छेद - कर्ता, विनाशक (सण) 1 विडव [विभण्डन ] भाँड़नेवाला, गालिसूचकः 'भएसि जव (गा ε१२) । - विडिअ वि [विखण्डित ] विनाशित (पिंग) सरण) । विहग पुं [ विहग ] पक्षी, चिड़िया (पउम १४, ८०; स ६६७; उत्त २०, ६० ) । हिवपुं [[धिप] गरुड़ पक्षी ( सम्मत २१६) । विहग पुंन [विहायस ] आकाश, गगन । 'गइ स्त्री [गति ] १ आकाश में गमन (पंचा ३, ६) । २ कर्म- विशेष, श्राकाश में गति कर सकने में कारण-भूत कर्म ( सम ६७ कम्म १, २४३ ४३) । विहट्ट देखो विघट्ट । विहट्टइ (भवि ) 1विहट्ट [विपति] बलि द्विषाभूत ( से २, ३२) । १०२ , पाइअसद्दमण | विहड अक [ वि + घट] नियुक्त होना, अलग होना, टूट जाना । विहडद, विहडे (महाः प्राह ७१) वह वित से १४) । ~ विहड तक [विघटय ] तोड़ना खडित - करना । संकृ. विहडिऊण (सण) । विहड देखो विहल = विह्वल ( से ४,५४) । - विहडण न [विघटन] १ अलग होना, वियोग (११६२४३) २ करना । ३ खोलना 'तह भोरगा जह मउलियलो उडविणे वि श्रसमत्था' ( वजा ८८) । विहडण पुं [] श्रनथं ( षड् ) । - विणा श्री [विपटना ] वियोजन, अलग करना संघवावावडे विहिणा जो डिप्रो' (धर्मवि ४२) । डिफड वि [दे] १ व्याकुल व्यय है २, १७४) । २ स्वरित, शीघ्र (भवि ) । पिडा भी [विघटा] विमेव अक्ट फुट; 'जह मह कुडु बविहडा न घडइ कइयावि (४२१) । विद्यायक [विघटय ] वियुक्त करना, अलग करना । विहडावइ (महा) । विहडावण न [विघटन] वियोजन (भवि ) । - विडाविय वि[विघटित ] वियोजित ( सार्धं 08) 1~ विडिय [विपटित] वियुक्त, विभिन्न (महा ३६, ५) २ (महा ३० ३०) । चिणदेखी निति ( प ४१०) विहन्तु (१५ १,२१) - विहणु वि [दे] संपूर्ण, सकल (सण) ।विहण न [दे] पिंजन, पींजना, धुनना (दे ७, ६१) । - वित्त देखो विभत्त ( से ७, १५; चेइय २७४ सुर १, ४७; सुपा ३६९ ) । - वित्ति देखो विभत्ति ( पउम २४, ५, उप १४७) - विहन्तु देखोवण | विहत्य वि[विहस्त] १ व्याकुल, व्यग्र (से १२, ४९ कुप्र ४०६; सिरि ३८६६ ८३६६ सम्मत्त १६१) । २ कुशल, दक्षः 'पहरणवि For Personal & Private Use Only ာင် हत्थहत्था ( कुप्र १०३ २०६ ) । ३पुं. विशिष्ट हाथ, किसी वस्तु से युक्त हाथ 'पढमं उत्तरिऊणं धवलो जा जाइ पाहुडविहत्थो' (सिरि ६६१ ); ' सद्दवभारण विहत्थो' ( उव ) । ४ फ्लोब ( सम्मत्त १६१) । - विहत्थि पुंत्री [वितस्ति ] परिमाण-विशेष, बारह अंगुल का परिमाण (हे १, २१४; कुमाः ए १५७)। विहदि श्री [विधृति] विशेष २ निहित] ( संक्षि 8 ) 1 विदन्न सक [वि + हन्] १ मारना, विहम्म } ३ अतिक्रमण करना। विनई (उत्त २, २२) कर्मवित्रि (उत २ १) वह विम्ममाण, विमाण (२६२ उत २७, ३) । कवक विहम्ममाण (सूत्र १, ७, ३०) विम्म वि [विधर्मन ] धर्माला विभिन्न विण मोरासा वत्थु विम्मम्म' (विसे २२४१) । - विहम एक [विधर्मय ] धर्मरहित करना। बिम्मेमा (दिपा १, १ - ११) - [वैधर्म्य ] चिताविरुद्ध २ तर्कशास्त्र प्रसिद्ध उदाहरण-भेद, दृष्टान्तसम्म १४१) - विहम धर्मता विमाणा श्री [विधर्मणा विनन] क थंना, पीड़ा ( परह १, ३ – पत्र ५३३ विसे २३५०) - विद्दय वि [दे] पंडित घुगा हुआ (३७, ६४) । विवि [विहत] १ मारा हुआ, श्राहत विहय देखो विहग = विहग (गउड सण) 1( पउम २७, २८) २ विनाशित (महा) । - विहय देखो विव= विभव (दे ३ २९; नाट - मालवि ३३) ।बिहर एक [वि.] कड़ा करना खेलना । २ रहना, स्थिति करना। ३ सक गमन करना, जाना । विहरइ (हे ४, २५६; उप उप विहरति (भग), विहरे ( प १०४) भूका विहारिणु विहरिभा ( उत्त २३, ९पि ३५० ५१७ ) । भवि. (२२) वह बिहत و Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो विहर-विहाण | विहल पुं[विहल्ल] राजा श्रेणिक का एक विहा सक [वि + हा] परित्याग करना। मोघ १२४; महा भग)। संकृ. विहरित्ता, पुत्र (पडि) ।' संकृ. विहाय (सूत्र १, १४, १) ।। विहरिअ (भग, नाट-वक्र १०२)। | विहव पुं[विभव] समृद्धि, संपत्ति, ऐश्वर्य विद्या प्रवासी विहरित्तए, विहरिउ (भगः ठा २, १- (पाम गउड, कुमाः हे ४, ६०० प्रासू ७२ १२,५)।. पत्र ५६; उव) । कृ. विहरियव्व (उप ७६)। विहा स्त्री [विधा] प्रकार, भेद (कप्पा महा। १३१ टी)। विवण न [विधवन] विनाश (राज)। अण)। विहर सक [ प्रति + ईक्ष ] प्रतीक्षा करना, विहवा स्त्री [विधवा] जिसका पति मर गया विहा' देखो विहग = विहायस् (धर्मस बाट जोहना । विहरइ (षड्):हो वह स्त्री, राँड़ (प्रौप; उव; गा ५३६ ६१६)। विहर देखो विहार (उप ८३३ टी)। स्वप्न ५६; सुर १, ४३) । - विहाइ वि [विधायिन् ] कर्ता, करनेवाला विहरण ने [विहरण] विहार (कुप्र २२)। विहवि चि [विभविन] संपत्ति-शाली, धनाढ्य (चेइय ४०३; उप ७६८ टी; धर्मवि १३६)। विहरिअ न [दे] सुरत, संभोग (दे ७, ७०)। (कुमा; सुपा ४२२; गउड)। विहाउ वि [विधात] १ कर्ता, निर्माता विहव्व देखो विहब % विभव (नाट-मृच्छ (विसे १५६७, पंचा ६, ३६)। २ पं. विहरिअ वि [विहत] जिसने विहार किया पणपन्नि-देवों के उत्तर दिशा का इन्द्र (ठा हो वह (ोघ २१०; उवः कुप्र १६६)। विहस अक [वि + हस्] १ विकसना, २, ३-पत्र ८५)। विहल प्रक [वि+ह बल ] व्याकुल होना । खिलना, प्रफुल्ल होना । २ हास्य करना, मध्यम | विहाउ सक [वि+ घटय ] १ वियुक्त वकृ. विहलंन (स ४१५)। प्रकार का हास्य करना। विहसइ, विहसए, करना, अलग करना। २ विनाश करना। विहल देखो विहड = वि + घट् । वकृ. विहसेइ, विहसंति (प्राकृ २६; सण कुमाः ३ खोलना, उघाड़ना। विहाडेइ, विहाडेंति विहलंत (से १४, २६) । हे ४, ३६५)। विहसेज, विहसेजा (कुमा (राय १०४ महा; भग); 'कम्मसमुग्गं बिहाविहल वि [विह वल] व्याकुल, व्यग्र (हे २, ५, ८५) । भवि. विहसिहिइ, विहसेहिइ डेंति' (प्रौप; राय)। संकृ. 'समुग्गयं तं ५८ प्राकृ २४; पउम ८, २००० से ५, (कुमा ५, ८३) । वकृ. विसंत, विहसेंत विहाडे (धर्मवि १५)। कृ. विहाडेयव्व ५८ गा २८५; प्रासू ५; हास्य १४०, वज्जा (से २, ३६; कुमा ३, ८५, ५, ८४) । संकृ (महा)। २४० षड्ग उड) विहसिऊण, विहसिअ, विहसेऊण (गउड विहाड वि [विघाट] विकट (राज)। विहल देखो विअल = विकल (संक्षि ८)। ८४५; ६१५; नाट-शकु ६८; कुमा ५, विहाड वि [विहाट] प्रकाश-कर्ता (सम्म २)। ८२)। हेकृ. विह सिउं, विहसेउं (कुमा विहान ना विहल वि [विफल] १ निष्फल, निरर्थक . ५, ८२) (गउड; सुपा ३६६)। २ असत्य, भूठा मिच्छा विहाडिअ वि [विघटित] १ वियोजित, विहसाव सक [वि + हासय ] १ हँसाना। मोहं विहलं अलिअं असचं प्रसन्भूग्रं' (पान)। अलग किया हुआ (धर्मसं ७४२)। २ विना२ विकसित करना। संकृ. विहसाविऊण, विहल सक [विफलय ] निष्फल बनाना, शित (उप ५६७ टी)। विहसावेऊण (प्राकृ ६१)। निरर्थक करना । विहलंति (उव)। विहाडि वि [विघटित] उद्घाति, खोला विहसाविअ वि [विहासित] १ हँसाया विहलंखल । वि [विह वलाङ्ग] व्याकुल हुमा (उप पृ ५४; वसु)। विहलंघल शरीरवाला (काप्र १९६; स हुआ । २ विकसित किया हुआ (प्राकृ ६१)। विहाडिर वि [विघटयित] अलग करनेवाला २५५; सुख १८, ३५; सुर ६, १७३; सुपा विहसिअ वि [विहसित] १ विकसित, घियोजक (सण)। ४४७); "वियणाविहलंधला पडिया' (सुर खिला हुआ; प्रफुल्ल; विहसियदिट्ठीए विह१५, २०४)। सियमुहीए' (महा; सम्मत्त ७६)। २ न. विहाण पुं [दे] १ विधि, विधाता, दैव, भाग्य विहलिअ वि [विह वलित] व्याकुल किया मध्यम प्रकार का हास्य (गउड ६६६, ७५१)। (दे ७,६०); 'माणुसमयजूवहं विहाणवाहो विहसिर वि [विहसित] खिलनेवाला, करेमाणों' (स १३०; भवि)। २ बिहान, हुआ (कुमा ३, ४३; प्राप; महा)।विहलिअ देखो विडिय (से ७, ४६)। प्रभात, सुबह (दे ७, ६० से ३, ३१; भवि; विकसित होनेवाला । हे ४, ३३०, ३६२: सिरि ५२५)। ३ पूजन विहलिअ वि [विफलित] विफल किया हुआ विहसिव्विअ वि [दे] विकसित, खिला अर्चन; 'प्रमो चेव कूरदेवयाविहारानिमित्तं (सरण)।हुमा (दे ७, ६१)। पयारिऊण परियणं एयाए वावाइयो हविस्सई विहल्ल मक [वि + रु, वि + स्तु] १ विहस्सइ देखो बिहस्सइ (पामा प्रौप)। (स २९६)। आवाज करना । २ सक. विस्तार करना। विहा अक [वि + भा] शोभना, चमकना। विहाण न [विधान] १ शास्त्रोक्त रीति (उप विहल्लइ (धात्वा १४३)।| विहादि (शौ) (पि ४८७) । ७६८० पव ३५)। २ निर्माण, रचना (पंचा For Personal & Private Use Only Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहाण विद्र ७, ५; रंभा महा) । ३ प्रकार, भेद (से ३, ३१; परह १ १ भग) । ४ व्याकरणोक्त विधि-विशेष ( परह २, २ – पत्र ११४) । ५ अवस्था विशेष ( सू २, १,३२) । ६ विशेष 'विहारणमग्गरणं पडुन्छ' (भग १, १ टी) । ७ रीति (महा) । ८क्रम परिपाटी (बृह १) । २ विहाण न [विज्ञान] परित्याग (राज) विहाणिय (अप) व [विधान] क करनेवाला (सण) । विहाय एक [वि + भा] १ शोमना प्रकाशना, चमकना, दीपना । विहायंति ( स १२) व विद्वायत (विरि २१८ ) । विहाय [विघात] १ अवसान, अंत से १, १६) । २ विरोधी, दुश्मन, परिपन्थी ( से ८, ५४ स४१२ ) । - विहाय देखो विभाग (गउड से ६, ३२) । - विहाय [विभात] प्रकाशित 'निया विहाय त्ति उम्र हो (कुम २६८) २ न. प्रभात, प्रातःकाल ( से १२, १९) । - विहाय देखो विगविहायस् (श्रा २२) । = विहाय देखो विहा = वि + हा । 1 विहास [बिहास] हँसी, उपहास (भाव) विहास देखो विसायसंह विदा बिहासाय सिऊण, विहासेऊण, विहासाविऊण, बिहासा (६१) - विहासाविr) देखो विद्यासावि (शक ? विहासिअ (६१) । - | विहाय (प) देखो विहिअ (भवि ) । बिहार तक [वि]+ धारय] अपेक्षा विहि [विधि] ब्रह्मा चतुरानन, विधाता । करना । २ विशेष रूप से धारण करना । a. विहारंत ( पउम ८, १५६ ) 1. बिहार [बिहार] विचरण, गमनः गति ( पव १०४ उवा) । २ क्रीड़ा स्थान ( सम १०० ) । ३ देव-गृह, देव मन्दिर (उत्त ३०, ७ कुमा) । ४ श्रवस्थान, प्रवस्थिति; 'प्रसासयं दठु इमं विहार" (उत्त १४, ७) । ५ क्रीड़ा (ठा कप्प६ मुनि-वर्तन सुनि चर्या, साध्वाचार (aa १ दिः उव ) । 'भूमि स्त्री [भूमि ] १ स्वाध्याय-स्थान ( माचा २१, १, ८ कस कप्प ) । २ विचरण - भूमि (वव ४ ) । ३ क्रीड़ा स्थान । ४ चैत्य की जगह (कप्पः राज) । - विहारि वि [ बिहारिन ] विहार करनेवाला (प्राचा उवः श्रा १४ ) (पान) अच्चु ३७ धर्मसं ९२६६ कुमा) । २ दुखी. प्रकार, भेद (या) सम्बाद नववि होहिं ( प १४९) शात्रोक्त विधान अनुष्ठान, व्यवस्था (पंचा ६, ४८ श्रप) । ४क्रम, सिलसिला, परिपाटी (बृह १) । ५ रीति । ६ नियोग, प्रादेश, प्राज्ञा । ७ भाज्ञासूचक वाक्य । ८ व्याकरण का सूत्र - विशेष | ६ कर्मं । १० हाथी को खाने का प्रश्न ( हे १, (३५) । ११ दैव, व भाग्य; 'श्रणुकूलो अहव विही किंवा तं जं न करेइ' (सुर ६, ८१ पाथ कुमाः प्रासू ५० ) । १२ नीति, न्याय १३ स्थिति, मर्यादा (बृह १) । १४ कृति, करण (पंचा ११) । 'न्नु वि ['ज्ञ] विधि । का जानकार (गाया १, १ –पत्र ११३ सुर 5, ११) वणन [वचन] विथि वाक्य विधि-वाद, विप्युपदेश ( बेइव ७४४) । वपुं [वाद] वही पूर्वोक्त प्रर्थं (भास ७५; चेइय ७४४) । N विद्दालय देखो विहाडिक 'दुवार विहालियं पासइ' (उप ६४८ टी) । पाइअसहमणव विहाव देखो विभाव = वि + भावय् । विहा विहामि (भवि५७)। कप. विद्याविजमाण (४१) । . विहावियव्य (उप ३४२) । विहावण न [विधापन ] निर्माण करवाना (चेइय ६९ ) । - विहावण न [विभावन ] श्रालोचना, ' एवं विनितिय दोनदा परम' (चा श्रन्नि, श्राग ६, ४६) । बावरी श्री [विभावरी] रात्रि निशा (पान; उप ७६८ टी; सुपा ३६३) । विहावसु पुं [विभावसु ] (पान) । देखो विभावसु ।विहाविजवि [विभावित] दृट निरीक्षण 'दि बिहावि (पाम गा २०७ ) । विहाविवि [विधावित] उल्लसित, प्रस्फुरित ( स ε७) 1~ For Personal & Private Use Only ८११ विहिअ वि [विहित] १ कृत, अनुष्ठित, निर्मित (पाच महा) २ (श्रीप ३ शास्त्र में जिसका विधान हो वह, शास्त्रोक्त (पंचा १४.२७) 1 विहिंस सक [वि + हिंस ] विविध उपायों से मारना, वध करना विहिंसइ ( श्राचा १, १.१.४) सिह १२ पत्र ४०) 1 विहिंस वि [विहिंस ] हिंसा करनेवाला, 'ए' (१६४२) बिग [बिसिक ] व ( प्राचा; गच्छ १, १० ) 1विहिंसण न [विहिंसन] विविध प्रकार से मारना ( परह १, १ पत्र १८ ) । - दिहिंसा स्त्री [विहिंसा ] ( परह १, १ - पत्र ५) ( सू १, २, १, १४) । विद्दिष्ण) वि [विभिन्न] १ जुदा लग विन्नि (०१३ ११०६६ भनि। '} (से ७, ५३ १३, ८६, भवि) । २ खण्डित, भांग कर टुकड़ा टुकड़ा बना हुआ ( से ३, ६० ) 1 १ विशेष हिंसा २ विविध हिसा विहिम न [दे] जंगल पर (०४२ प्रमुख टी) । विमिडियन [दे] ( षड् ) 1 = विहियस्य देशो विहे वि + था विहिविल तक [विश्व] बनाना, निर्माण करना । विहिविल्लइ (प्राकृ ७४) | विशेण वि [[विहीन] १ वर्जित रहत (मासू १७२ ) । २ व्यक्त (कुमा) । - विहीर सक [ प्रति + ईक्षू ] प्रतीक्षा करना, बाट जोहता विहीर (४ १९३), विहीर ( ४१ ) - विहीर वि [प्रतीक्ष] प्रतीक्षा करनेवाला (कुमा ७, १८) । विहरिअ वि [प्रतीक्षित ] जिसकी प्रतीक्षा की गई हो वह ( पाच ) । विहीण देवी (४५५) - विद्दीसिया देखो विभीसिया (१४१) - विहु पुं [विधु] १ चन्द्र, चाँद (पान) । २ विष्णु श्रीकृष्ण । ३ ब्रह्मा । ४ शंकर Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१२ पाइअसहमहण्णवो विहुअ-वीअण महादेव । ५ वायु, पवन । ६ कपूर (हे ३, विहुल्ल वि [विफुल्ल] १ खिला हुआ। २ विहेढणा स्त्री [विहेठना] कदर्थना, पीड़ा १६) । उत्साही; 'नियकज्जविहुल्ली' (भवि)। (उव)।। विहुअ वि [विधुत] कम्पित (गा ६६०; विहुव्वंत देखो विहुण। विहोड सक [ताडय ] ताड़न करना। गउड)। २ उन्मूलित, उखाड़ा हुआ (से १, विहूअ वि [विधूत] १ कम्पित, (माल विहोडइ (हे ४, २७)। ५५) । ३ त्यक्त (गउड)। १७८)। २ वजित, रहितः 'नयविहिवि- विहोडिअ वि [ताडित] जिसका ताड़न चिहुंडुअा राहु, ग्रह-विरोष (२७, द्यबुद्धी' (पउम ५५, ४)। देखो विधूय, किया गया हो वह (कुमा)।विहुअ । विहोय (अप) देखो विहव (भवि)।विहूइ देखो विभूइ (अच्चु १४; भवि)। वी देखो वि = अपि. वि; 'एक्कं चिय जाव न विहुण सक [वि + धू ] १ कॅपाना, विहूण देखो विहुण । संकृ. विहूणिया वी, दुक्खं बोलेइ जणियपियविरह (पउम हिलाना। २ दूर करना, हटाना। ३ त्याग (प्राचा १, ७, ८, २४; सून १, १, २, १७, १२) । करना। ४ पृथग करना, अलग करना। विहुएइ, १२; पि ५०३). वीअ सक [वीजय ] हवा डालना, पंखा विहणंति (भविः पि ५०३), क्हुिणाहि (उत्त करना । वीप्रति अभि ८६), वीयंति (सुर १०, ३)। कर्म. विहुव्वइ (पि ५३६) । विहूण देखो विहीण (कुमाः उव)। वकु. विहुणंत, विहुणमाण (सुपा २७२ विहूणय न [विधूनक] व्यजन, पंखा (सूम १, ६६)। वकृ. वीअंत (गा ८६, सुर ७,८८)। कवकृ. विइज्जत, वीइज्जमाण पउम ९४, ३५)। कवकृ. विहुव्वंत (से ६, १, ४, २, १०) (से ६, ३७; गाया १, १-पत्र ३३)। ३५, ७, २१)। संकृ. विहुणिय (सूम १, विहूसण देखो विभूसण (दे ६, १२७ सुपा | २, १, १५; यति २१; स ३०८)। वीअ वि [दे] १ विधुर, व्याकुल । २ १९१; कुप्र २६)। तत्काल, तात्कालिक, उसी समय का (दे ६, विहुणण न [विधूनन] १ दूरीकरण (पउम विहूसा स्त्री [विभूषा] १ शोभा (सुपा ६२१; | १०१, १९)। २ व्यजन, पंखा (राज)। दे६, ८३) । २ अलंकार प्रादि से शरीर की वीअ देखो बीअ%= द्वितीय (कुमाः गा ८६; विहुणिय वि [विधूत] देखो विहअ (सुपा सजावट (पंचा १०, २१)। २०६; ४०६ गउड) २५३; यति २१)। विहूसिअ वि [विभूषित] विभूषा-युक्त, वीअ वि [वीत] विगत, नष्ट (भगः अझ विहुर वि [विधुर] १ विकल, व्याकुल, विह्वल अलंकृत (भवि)। ६६) कम्ह न [कदम ?] १ गोत्र(स्वप्न ६३; महा; कुमाः दे १, १५; सुपा विहे सक [वि+धा] करना, बनाना। विशेष । २ नी. उस गोत्र में उत्पन्न (ठा ६२; गउड, सरण)। २ क्षीण (गउड १०३६)। | विहेइ, विहेंति, विहेसि, विहेमि (धर्मसं ७-पत्र ३६०) धूम वि [ धूम द्वेष३ विसदृश, विलक्षण, विषमः 'अवि- १०११; स ६३४; ७१२; गउडा ३३२; रहित (भग ७, १-पत्र २६१)। ब्भय, सिट्ठम्मिवि जोगम्मि बाहिरे होइ विहुरया' कुमा ७, ६७)। संकृ. विहेऊण (पि ५८५)। भय न [ भय] १ नगर-विशेष, सिन्धुसौवीर (ोध ५१)। ४ विश्लिष्ट, वियुक्त (गउड हेकृ. विहेउं (हित १)। कृ. विहियव्य, | देश की प्राचीन राजधानी (धर्मवि १६; २१; ८३६)। ३ न. व्याकुल-भाव, विह्वलताः विहेअ, विहेअव्व (सुपा १५८ हि २२, इक विचार ४८ महा)। २ वि. भय-रहित 'विलोट्टए विहुरम्मि' (स ७१६; वज्जा ३२ धम्मो ४; महा: सुपा १६३ श्रा १२, हि (धर्मवि २१) मोह वि [मोह] मोह६४ प्रासू ५८; भविः सण)।२ पउम ६६, १८ सुपा १५६) रहित (अझ ६६)। राग, राय वि विहुराइअ वि [विधुरायित] व्याकुल बना विहेड सक [वि + हेटय ] १ मारना, [राग] राग-रहित, क्षीण-राग (भग; सं हुआ (गउड १११ टो)। हिंसा करना। २ पीड़ा करना। वकृ. ४१) सोग पुं [शोक] एक महाग्रह बिहेडयंत ( उत्त १२, ३६ )। कवकृ. (सुज्ज २०; ठा २, ३–पत्र ७६) । सोगा विहुरिजमाण वि [विधुरायमाण] व्याकुल विहम्मणाहिं विहेड (??)यंता' (पएण १, स्त्री [शोका] सलिलावती नामक विजयबनता (सुपा ४१६)। ३-पत्र ५३)। प्रान्त की राजधानी, नगरी-विशेष (णाया १, विहुरिय वि [विधुरित] १ व्याकुल बना विहेडय वि [विहेठका अनादर-कर्ता (दस ८-पत्र १२१; इक पउम २०, १४२)। हुमा (सुर २, २१६; ६ ११५; महा)। २ १०,१०)। वीअजमण देखो बीअजमण (दे ६, ६३ टी)। वियुक्त बना हमा, बिछुड़ा हुआ, विरहित विहेडि वि [विहेटिन्] १ हिसा करनेवाला। वीअणन [वीजन]१ हवा करना, पंखा से (गउड)। २ पीड़ा करनेवाला: 'अंगे मंते अहिज्जति | हवा करना (कप्पू)। २ स्त्रीन, पंखा, व्यजन विहुरीकय वि [विधुरीकृत व्याकुल किया पाणभूयविहेडिणो' (सूग्र १, ८, ४)। (सुर १, ६६; कुप्र ३३३; महा)। श्री. णी हुआ (कुमा)। विहेडिय वि [विहेटित] पीड़ित (भत्त। (प्रौपः सून १, ६, ८ पाया १, १बिहुल देखो विहुर (पास)।१३३) पत्र ३२)। For Personal & Private Use Only Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१३ वीआविय-वीर पाइअसहमहण्णवो वीआविय वि [वीजित] जिसको पंखा से वीईवय देखो वीइवय । वोईवयइ (भगः सुज वीमंस सक [वि + मृश , मीमांस ] हवा कराई गई हो वह (स ५४६)।- २० टी; भग ७, १०-पत्र ३२४)। वकृ. विचार करना, पर्यालोचन करना। संकृ. वीइ पुंस्त्री [वीचि १ तरंग, कल्लोल (पान वीईवयमाण (राय १६ पि ७०; १५१) वीमंसिय (सम्मत्त ५६)। प्रौप)। २ प्राकाश, गगन (भग २०, २ वीचि देखो वीइ = वीचि (कप्पा भग १४, वीमंसय वि[विमर्शक, मीमांसक] विचार७७५)। ३ संप्रयोग, संबन्ध (भग १०, । ६-पत्र ६४४)। कर्ता (उब)। २-पत्र ): ४ पृथग भान, जुदाई वीचि स्त्री [दे] लघु रथ्या. छोटा मुहल्ला वीमंसा स्त्री विमर्श, मीमांसा] विचार, (भग १४, ६ टी-पत्र ६४४) दव्व न (दे ७, ७३) । पर्यालोचन, निर्णाय की चाह (सूत्र १, १, [°द्रव्य प्रदेश से न्यून द्रव्य, अवयव-हीन वीज देखो वीअ = बीजम् । वीजइ, बीजेमि २, १७ विसे २८६, ३९६, ५६५; उप वस्तु (भग १४, ६ टी-पत्र ६४४)। (हे ४,५ षड् मै ६६) ५२०)। वीजण देखो वीअण (कुमा)। वीइ स्त्री [विकृति] १ विरूप कृति, दुष्ट । वीमंसिय वि [विमर्शित, मीमांसित ] क्रिया। २ वि. दुष्ट क्रियावाला (भग १०, वीजिय देखो वं.इय (स ३०८) । विचारित, पर्यालोचित (सम्मत्त ५४)। २–पत्र ४६५)। ३ देखो विगइ (कम वीडय । देखो बीडग (स ६७)। वीर पुं[वीर] १ भगवान् महावीर (पएह १, ४, ५ टी)।वीडय पुं [ब्रीडक] लजा, शरम (गउड १-पत्र २३; १, २, सुज्ज २० जी १)। वीइंगाल वि [वीताङ्गार] राग-रहित (भग । ७३१)। २ छन्द-विशेष (पिग)। ३ साहित्य-प्रसिद्ध ७, १-पत्र २६२, पि १०२)। | वीडिअ वि [वीडित] लजित, शरमिन्दा | एक रस (अणु १३६)। ४ वि. पराक्रमी, शूर (प्राचाः सूत्र १, ८, २३, कुमा)। ५ वीइकंत वि [व्यतिक्रान्त] १ व्यतीत, (णाया १, ५-पत्र १४३)। पुंन. एक देव-विमान (सम १२, इक)। ६ गुजरा हुआ 'बासीए राईदिएहि वीइक्कतेहि वीडिआ स्त्री [वीटिका] सजाया हुआ पान, न. वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणी में स्थित (सम ८६)। २ जिसने उल्लंघन किया हो | बीड़ा (गउड)। देखो बीडी। एक विद्याधर-नगर (इक)। कंत पुन वह (भग १०, ३ टी-पत्र ४६६) वीढ देखो पीढ (गउड़ उप पृ २२६; भवि)। [कान्त] एक देव-विमान (सम १२) कण्ह वोइक्कम सक [व्यति + क्रम् ] उल्लंघन वीण सक[ वि + चारय ] विचार करना। पुं [कृष्ण] राजा श्रेणिक का एक पुत्र करना । वकृ. वीइक्कममाण (कस)। वीणइ, वीणेश (धात्वा १५३; प्राकृ ७१) । (निर १, १, पि ५२) । कण्हा स्त्री वीइज्जमाण देखो वीअ = वीजय । वीण देखो पीण (सुर १३, १८१)। किष्णा] राजा श्रेणिक की एक पत्ती वीइमिस्स वि [व्यतिमिश्र मिश्रित, मिला | वीणण न [दे] १ प्रकट करना (उप पू। (अंत २५) । कूड पुंन [°कूट] एक देवहुमा (प्राचा)। ११८)। २ विदित करना, ज्ञापन (उप विमान (सम १२) । गत पुंन [गत] एक वीइय वि [वीजित] जिसको हवा की गई | ७६५)। देव-विमान (सम १२ ) जस पुं हो वह (औपः महा)। वीणा स्त्री [वीणा] वाद्य-विशेष (औपः कुमा [यशस ] भगवान महावीर के पास वीइवय सक [व्यति + व्रज ] १ परि गा ५६१; स्वप्न ६७) यरिणी स्त्री दीक्षा लेनेवाला एक राजा (ठा ५-पत्र [करी] वीणा-नियुक्त दासी; 'ता लहु ४३०)। °उभय पुन ["ध्वज] एक देवभ्रमण करना। २ गमन करना, जाना। ३ उल्लंघन करना। वीइवयइ वीइवइजा, वीणायरिणि सद्देहि, सद्दिया वीणायरिणी' विमान (सम १२)। धवल पुं [ धवल] गुजरात का एक पसिद्ध राजा (ती २; वीश्वएजा (सुज २० टीः भग १०, ३ (स ३०९)। 'वायग वि [ वादक वीणा पत्र ४६८)। वकृ. वीइवयमाण (णाया बजानेवाला (महा)। हम्मीर १३)। 'निहाण न [निधान] १, १-पत्र ३१)। संकृ. वीइवइत्ता, वीत देखो वीअ%वीत (ठा २, १-पत्र स्थान-विशेष (महा) °प्पभ न [प्रभ] वीइवएत्ता (भग २, ८, १०, ३-पत्र ५२, पराण १७-पत्र ४६४; सुज २०- एक देव-विमान ( सम १२)। भद पुं ४६६) पत्र २९५)। [भद्र] भगवान पार्श्वनाथ का एक गणवीतिकंत । देखो वीइकंत (भग १०, ३-- धर (सम १३, कप्प)। मई स्त्री [मती] वीई स्त्री. देखो वीइ = वीचि (पात्र; भग १०, वीतिकंत पत्र ४६८ णाया; १,१-पत्र एक चोर-भगिनी (महा)। लेस पुन 'लेश्य] २०२०.२)। २४, २६) एक देव-विमान (सम १२) 4 वण्ण पुन वीई प्र[विविच्य] पृथग होकर, जुदा होकर वीतिवय । देखो वीइवय । वीतिवयंति (भग)।। ["वर्ण] एक देव-विमान (सम १२). वरण (भग १०, २-पत्र ४६५)। बीतीचय वीतीवयइ (णाया १, १२--पत्र न [°वरण] प्रतिसुभट से युद्ध का स्वीकार, वीई प [विचिन्त्य] चिन्तन करके (भग १७४)। कृ. वीतिवयमाण (कप्प )। 'इस योद्धा से मैं लड़गा' ऐसी युद्ध की मांग १०,२–पत्र ४६५)। । संकृ. वीतिवइत्ता (प्रौप)। (कुमा ६, ४६ ५२)। वरणी स्त्री For Personal & Private Use Only Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१४ पाइअसद्दमहण्णवो वीरंगय-वीसाण 'वरणी] प्रतिसुभट से प्रथम शस्त्र-प्रहार वीरुहा स्त्री [वीरुधा] विस्तृत लता (कुप्र | वीसंभ देखो विस्संभ = वि + श्रम्भू । वीसंभह की याचना (सिरि १०२४)। वलय न ६५; १३६)। (सूपनि २१ टी) ["वलय सुभट का एक प्राभूषण, वीरत्व- | वीलण वि [दे] पिच्छिल, स्निग्ध, मसूण, वीसंभ देखो विस्संभ = विश्रम्भ (उव; प्राप्र; सूचक कड़ा (कप्पः तंदु २९)। "विराली चिकना (दे ७, ७३)। गा ४३७) स्त्री [°बिराली] वल्ली-विशेष (पएण १- वालय देखो बीलय (दे ६, ६३)। बीसजिअ देखो विसजिअ (से ६, ७७; पत्र ३३). "सिंग पुंन [ शृङ्ग] एक देव- वीली स्त्री [दे] १ तरंग, कल्लोल (दे ७, १५, ६३; पउम १०, ५२, धर्मवि ४६) । विमान (सम १२) सिद्ध पुंन [°सृष्ट] ७३)। २ वीथी, पंक्ति, श्रेणी (षड्) 10 वीसत्थ वि [विश्वस्त विश्वास-यक्त (प्रातः एक देव-विमान (सम १२) 4 °सेण पुं वीवाह देखो विवाह = विवाह; “एसा एक्का गा ६०८)। ["सेन] एक प्रसिद्ध वीर यादव का नाम धूया वल्लहिया ता इमीए वीवाह' (सुर ७, वीसद्ध वि [विश्रब्ध] विश्वास-यक्त (गा . (णाया १, ५-पत्र १००; अंत; उप ६४८ १२१; महा)। ३७६; अभि ११६; भवि; नाट-मृच्छ टी), सेणिः पुंन [सैनिक, श्रेणिक] | वीवाहण न [विवाहन ] विवाह करण, १६१)। ऐक देव-विमान (सम १२) वित्त पुन विवाह क्रिया (उव ६८६ टीः सिरि १५१) वीसम देखो विस्सम = वि + श्रम् । वीसमइ, वित] देवविमान-विशेष (सम १२)। वीवाहिग वि [वैवाहिक] विवाह-सम्बन्धी वीसमामो (षड् ; महा: पि ४८६)। वकृ. सण न [सन] आसन-विशेष, नीचे (धर्मवि १४७)। वीसममाण (पउम ३२, ४२; पि ४८६) पैर रखकर सिंहासन पर बैठने के जैसा वीवाहिय वि [विवाहित] जिसकी शादी वीसम देखो विस्सम = विश्रम (षड् )। प्रवस्थान (णाया १, १--पत्र ७२, भग) की गई हो वह (महा)। वीसम देखो वीस-म। सिणिय वि [सनिक] वीरासन से वीवी स्त्री वोसमिर वि [विश्रमित] विश्राम करनेवाला वीवी स्त्री [दे] वीचि; तरंग (षड् )। बैठनेवाला (ठा ५, १-पत्र २६६; कस; (सण)। वीस देखो विस्स = विस्र (सूम २, २, ६६; वीसर देखो विस्सर- वि + स्मृ । वीसरइ औप)। संक्षि २०)। (हे ४, ७५, ४२६, प्राकृ. ६३, षड्; वीरंगय पुं [वीराङ्गद] १ भगवान् महावीर वीस देखो विस्त = विश्व (सूप १,६, २२) भवि), वीसरेसि (रंभा)।के पास दीक्षा लेनेवाला एक राजा (ठा ८- 'उरी स्त्री [°पुरी नगरी-विशेष (उप ५६२)। वीसर देखो वीरसर = विस्वरः 'वीसरसरं पत्र ४३०) । २ एक राजकुमार (उप १०३१ "सअ वि [ सृज] जगत्कर्ता (षड्)।रसतो जो सो जोणीमुहामो निप्फिडई' (तंदु टी)। 'सेण [सेन] १ चक्रवर्ती राजा: जोहेसु १४)।वीरण स्त्रीन [वीरण] तृण-विशेष, उशीर, णाए जह वीससेणे' (सूत्र १, ६, २२)। वीसरणालु वि [विस्मर्तृ ] भूल जानेवाला माणात विवि खस (अणु २१२; पाप्र)। २ पुं. अहोरात्र का १८ वा मुहूर्त (सुज्ज (ओघ ४२५)। वीरल्ल पुं[वीरल्ल] श्येन पक्षी (परह १, १- १०, १३)। वीसरिअ देखो विस्सरिय (गा ३६१)। पत्र ८१३)। वीस । स्त्री [विंशति] १ संख्या-विशेष, वीसइबीस, २० ।२ जिनसरी संख्या वीसव (अप) सक [वि + श्रमय ] विश्राम वीरिअ वीर्य] १ भगवान् पार्श्वनाथ का बीस हों वे (कप्पा कुमाः प्राकृ ३१; संक्षि करवाना । वीसवइ (भवि)। एक मुनि-संघ । २ भगवान पार्श्वनाथ का २१)। म वि [°म] १ बीसवाँ; २० वाँ वीसस देखो विस्सस । वीससइ (पि ६४; एक गणधर (ठा ८-पत्र ४२६)। ३ पुंन. (सुपा ४५२, ४५७; पउम २०, २८ __४६६)। वकृ. वीससंत (पउम ११३, शक्ति, सामर्थ्य (उवा: ठा ३, १ टी-पत्र पव ४६) । २ न. लगातार नव दिनों का | ५) । कृ. वीससणिज्ज, वीससणीअ (उत्त १०६)। ४ अन्तरंग शक्ति, आत्म-बल (प्रासू उपवास (णाया १,१-पत्र ७२)। 'हा प २६, ४२ नाट-मालवि ५३)। ४६; अझ ६५)। ५ पराक्रम (कम्म १, [धा] बीस प्रकार से (कम्म १, ५)।- वीससा प्र[विस्रसा] स्वभाव, प्रकृति (ठा ५२)। ६ एक देव-विमान (देवेन्द्र १३१)। वीसंत वि [विश्रान्त] १ विश्राम-प्राप्त, ३, ३-पत्र १५२; भगः पाया १, १२)। ७ शरीर-स्थित एक धातु, शुक्र । ८ तेज, दीप्ति (हे २, १०७ प्राप्र)। जिसने विधान्ति ली हो वहा 'परिस्संता वीससिय वि [ वैससिक ] स्वाभाविक वीसंता नग्गोहतरुतले (कुप्र ६२, पउम (प्रावम)। वीरुणी स्त्री [वीरुणी] पर्व-वनस्पति विशेष, ३३, १३; दे ७, ८६ पाना सणउप वीसा देखो वीसइ (हे १, २८ ६२ ठा ३, 'वीरुणा (?णी) तह इक्कडे य मासे ये ६४८ टी)। |१-पत्र ११६७ षड्)। (पएण १-पत्र ३३)। वीसंदण न [विस्यन्दन] दही को तर और | वीसा स्त्री [विश्वा] पृथिवी, धरती (नाट)। वीरुत्तरवडिसग पुंन [वीरोत्तरावतंसक] आटे से बनता एक प्रकार का खाद्य (पव वीसाण पु[विष्वाण] आहार, भोजन (हे एक देव-विमान (सम १२)। ४. पभा ३३)। For Personal & Private Use Only Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१५ वीसाम-बुजण पाइअसहमहण्णवो वीसाम ' [विश्राम] १ विराम, उपरम । २ वीहि । स्त्री [वीथि, का, थी] १ मार्ग, | वुग्गह पुं [व्यु ग्रह] १ कलह, झगड़ा, प्रवृत्त व्यापार का अवसान, चालू क्रिया का वीहिया रास्ता (प्राचा सूत्र १, २, १, विग्रह, लड़ाई (ठा ५, १-पत्र ३००० वव वीही २१ प्रयौ १०० गउड ११८८)। अंत (हे १, ४३ से २, ३१, महा)। ८) १; पव २६८)। २ धाड़, डाका (उप पृ २ श्रेणी, पंक्ति (स १४) । ३ क्षेत्र-भाग वीसामण देखो विस्सामण (कुप्र ३१०)। २४५) । ३ बहकाव (संबोध ५२)। ४ (ठा -पत्र ४६८) । ४ बाजार (उप २८ मिथ्याभिनिवेश, कदाग्रह (राज)। वीसामणा देखो विस्सामणा (कुप्र ३१०)। महा)। बुग्गा ति युगादा] कलह-कारक, वीसाय देखो बिसाय = वि + स्वादय । कृ. वुअ वि [दे] १ बुना हुआ। २ बुनवाया । _ 'नय वुग्गहिरं कहं कहिजा' (दस १०, १०)।विसायणिज्ज (पण्ण १७-पत्र ५३२)। हुमा; 'जन्न तयट्ठा कीय नेव वुयं जं न वीसार देखो विस्सार = वि + स्मृ । वीसारेइ | गहियमन्नेसि' (पव १२५) । देखो वूय।। बुग्गहिअ वि [व्युग्रहिक] कलह-संबन्धी (धर्मवि ५३१) वुअवि [वृत] १ प्रार्थित। २ प्रार्थना (दस १०, १०)।-- दुइय । प्रादि से नियुक्त; 'युनो' (संक्षि ४)। वुग्गाह सक [व्युद् + ग्राहय ] बहकाना, विसारिअ वि [विस्मारित भुलवाया हुमा ३ वेष्टितः 'कूकम्मवुइया' (सुपा ६३)। भ्रान्त-चित्त करना । वुग्गाहेमो (महा)। (कुमा) वुइय वि [उक्त] कथित (उत्त १८, २६) । वकृ. वुग्गाहेमाण (णाया १, १२-पत्र वीसाल सक [मिश्रय ] मिलाना, मिला- बुंज (?) सक [उद् + नमय ] ऊँचा करना। १७४० प्रौप)। वट करना । वीसालइ (हे ४, २८)।" वुजइ (धात्वा १५४)। वुग्गाहणा स्त्री [व्युग्राहणा] बहकाव वीसालिअ वि [मिश्रित] मिलाया हुआ बुंताकी स्त्री [वृन्ताकी] बैंगन का गाछ (दे (प्रोघभा २५)।(कुमा)। वुग्गाहिअ वि [व्युग्राहित] बहकाया वीसा (अप) देखो वीसाम (कुमा)। बुंद देखो वंद = वृन्द (गा ५५६ हे १,१३१)। वृंदारय देखो बंदारय (दे १, १३२कुमाः | हुआ, भ्रान्तचित्त किया हुआ (कसः चेइय वीसास देखो विस्सास (प्रातः कुमा)। ११७; सिरि १०८१)। षड् )।चीसिया स्त्री [विंशिका] बीस संख्यावाला बुंदावण देखो विंदावण (हे १,१३१, प्रातः वुश्च देखो वय = वच् । (वव १)।संक्षि ४, कुमा)। वुच्चमाण वि [उच्यमान] जो कहा जाता हो बुंद्र देखो चंद्र (हे १, ५३; कुमा १, ३८)। वह (सूत्र १, ६, ३१, भग; उप ५३० टी)1. ७३) । वुक्क देखो बुक्क = दे (सण) । वुच्चा प्र [उक्त्वा ] कह कर (सूत्र २, २, वीसुंअ[ विष्वक ] १ समन्तात्, सब ओर वुकंत वि [व्युत्क्रान्त] १ प्रतिक्रान्त, व्यतीत, | ८१, पि ५८७)। से । २ समस्तपन, सामस्त्य (हे १, २४, ४३; गुजरा हुमा; 'वोलीणं वृक्कतं अइच्छिनं वुच्छ देखो वच्छ % वृक्ष (नाट-मृच्छ १५४)। ५२; षड् ; कुमाः दे ७, ७३ टी) । वोलिभं अइकंत' (पान), 'वुकतो बहुकालो वुच्छ देखो वोच्छ (कम्म १, १)। वीसुंभ देखो वीसंभ = वि + श्रम्भ । वीसुं तुह पयसेवं कुणंतस्स' (सुपा ५६१)। २ बुच्छ देखो वोच्छिंद । भेज्जा (ठा ५, २--पत्र ३०८ कस)। विध्वस्त, विनष्ट (राज)। ३ निष्क्रान्त, बाहर वुच्छिण्ण देखो वुच्छिन्न (राज)। वीसुंभ प्रक [दे] पृथग होना, जुदा होना। निकला हुमा (निचू १६) । देखो वोकंत । वुच्छित्ति देखो वोच्छित्ति (विसे २४०५)। वीसुंभेज्जा (ठा ५, २-पत्र ३०८, कस) तिमीाव्यकान्तिा उत्पत्ति (राज)। वुच्छिन्न वि [व्युच्छिन्न, व्यवच्छिन्न] १ वीसुंभण न [दे] पृथग्भाव, अलग होना (ठा वुक्कम पुं [व्युत्क्रम] १ वृद्धि, बढ़ाव (सूत्र | अपगत, हटा हुआ । २ विनष्ट (उव) । ३ न. ५, २ टी—पत्र ३१०)। २, ३, १)। २ उत्पत्ति (सूम २, ३, १; | लगातार चौदह दिनों का उपवास (संबोध वीहुंभण न [विश्रम्भण] विश्वास (ठा ५,२ २, ३, १७)। टी—पत्र ३१०) वुक्कस सक [व्युत् + कृष्] पीछे खींचना, वच्छेअ देखो वोच्छेअ (पव २७३; कम्म वीसुय देखो विस्सुअ (पएह १, ४–पत्र वापस लोटाना। बृक्कसाहि (पाचा २, ३, २, २२; सुपा २५४)। ६८)। १६)। वुच्छेयण देखो वोच्छेयण (ठा ६-पत्र वीसेढि । देखो विसेढि (भास १०: दि । वुक्कार देखो बुक्कार (सण)। ३५८) । वीसेणि । १८४)। वुक्कार सक [ दे. बूङ्कारय ] गर्जन करना । वुज प्रक [त्रस ] डरना। वुजइ (प्राप्र)। वीहि पुंन [व्रीहि]धान धान्य-विशेषः 'सालीणि वुक्कारेंति (राय १०१)। देखो वोज । वा वीहीणि वा कोद्दवाणि वा कंगणि वा' वुक्कारिय न [दे. बूतारित] गर्जना (स वुजण न [दे] स्थगन, पाच्छादन, ढकना (सूम २, २, ११, कस)। ५४८). । (धर्मसं १०२१ टीः ११०२)। For Personal & Private Use Only Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ पाइअसहमहण्णवो वुमंत-बूढ वुमंत वि [उह्यमान] पानी के वेग से खींचा वुड्ढ वि [दे] विनष्ट (राज)। वुप्पंत वि [उप्यमान बोया जाता, 'पेच्छा जाता, बह जाता (पउम १०२, २४); 'गिरिबुढि स्त्री [वृद्धि] १ बढ़ाव, बढ़ना (प्राचा य मंगलसएहि वप्पिणं करिसगेहि वुप्पतं' निज्झरणोदगेहि बुझंतो' (बै ८२) । देखो भग, उवा कुमाः सण) । २ अभ्युदय, उन्नति । (माक २५; पि ३३७) । वह = वह । ३ समृद्धि, संपनि । ४ व्याकरण-प्रसिद्ध वुप्पाय वि [व्युत + पादय.] व्युत्पन्न वुज्मण देखो वुजण (धर्मसं १०२१)। ऐकार आदि वर्गों की एक संज्ञा (सुपा करना, होशियार करना । वकृ. वुप्पाएमाण वुज्झमाण देखो वुमंत (पउम ८३, ४)। १०३, हे १, १३१) । ५ समूह। ६ (णाया १, १२--पत्र १७४; प्रौप)। वुन (अप) देखो वच्च = व्रज् । वुबइ (हे ४, कलान्तर, सूद । ७ प्रोषधि-विशेष । ८ पुं. वुप्फ न [दे] शेखर, शिरः-स्थित (दे ७, २६२: कुमा)। संव. वुप्पि , वुप्पिणु गन्धद्रव्य-विशेष (हे १, १३१)। कर वि (हे ४, ३६२) [कर] वृद्धि-कर्ता (सुर १. १२६; द्र २४) वुम देखो वह = वह । वुट्ठ प्रक [व्युत् + स्था] उठना, खड़ा 'धम्मय वि [धर्मक] बढ़नेवाला, वर्धनहोना । बुट्ठए (पि ३३७) ।। वुब्भमाण देखो वुज्झमाण (कुप्र २२३)। शील (प्राचा) । म वि [ मत् ] वृद्धिवाला 'वुर देखो पुर (अच्चु १६)।वुट्ट वि [वृष्ट] १ बरसा हुमा (हे १,१३७ (विचार ४६७)। विपा २, १-पत्र १०८ कुमा १, ८५) । 'वुरिस देखो पुरिस = पुरुष (अउम ६५, २ न. वृष्टि (दस ८, ६)। वुणण न [दे] बुनना (सम्मत्त १७३) । वुट्टि देखो विट्टि = वृष्टि (हे १,१३७ कुमा) वुणय विद] बुना हुआ, 'अबुणिया वुणिय वि [दे] बुना हुआ, 'अ-बुणिया वुल्लाह पुं[दे] अश्व की एक उत्तम जाति 'काय पुं[काय] बरसता जल-समूह (भग खट्टा' (कुप्र २२:)। (सम्मत्त २१६) । १४, २-पत्र ६३४; कप्प)। वुण्ण वि [दे] १ भीत, त्रस्त (दे ७, ६४, वुसह देखो वसभ (चारु ७ गा ४६०, ८२० वुट्टिय वि [व्युत्थित] जो उठ कर खड़ा विपा १,२--पत्र २४)। २ उद्विग्न (दे ७, नाट--मृच्छ १०)। हुमा हो वह (भवि)। ६४)। बुसि स्त्री [वृषि मुनि का आसन । राइ, वुड देखो पुड = पुट; 'जंपइ कयंजलिवुडो' वुत्त वि [उक्त] कथित (उवा: अनु ३; महा)। राइअ वि [राजिन] संयमी, जितेन्द्रिय, (पउम ६३, २२) वुत्त वि [उप्त] बोया हुआ (उव)। त्यागी, साधु (निचू १६)। देखो वुसि, वुड्ढ अक [वृध् ] बढ़ना (संक्षि ३४) । वुत्त न [वृत्त छन्द, कविता, पद्य (पिंग)। बुसी। वुड्ढंति (भग ५, ८) वुड्ढ सक [वर्धय ] बढ़ाना। वकृ. वुड्ढेत बुसि वि [वृषिन्] संविग्न, साधु, संयमी, देखो वट्ट = वृत्त । वुत्त देखो पुत्त (प्रयौ २२)। मुनिः 'वुसि संविग्गो भणिो ' (निचू १६) । वुड्ढ वि [वृद्ध १ जरा अवस्थावाला, | वुत्तंत पुं[वृत्तान्त] खबर, समाचार, हकीकत, वुसिम वि [वश्य] वश में आनेवाला, अधीन बूढ़ा (प्रौप; सुर ३, १०४; सुपा २२७; बात (स्वप्न १५३; प्राप्र हे १, १३१ स होनेवाला; 'निस्सारियं बुसिमं मन्नमाणा' (निचू १६)। सम्मत्त १५८ प्रासू ११६; सरण)। २ बड़ा, महान् (कुमा) । ३ वृद्धि प्राप्त । ४ अनुभवी, वुत्ति देखो वत्ति % वृत्ति; 'जायामायावृत्तिएण' बुसी स्त्री [वृषी] मुनि का प्रासन। म वि कुशल, निपुण । ५ पंडित, जानकार (सूत्र २, १, ५०; प्राकृ ८)। [मत् ] संयमी, साधु, मुनिः 'एस धम्मे (हे १, १३१, २, ४०० ६०)। ६ निभृत, वुत्थ वि [उषित] बसा हुआ, रहा हुआ वुसीमो ' (सूम १, ८, १६, १, ११, १५, शान्त, निविकार (ठा ८)। ७ पुं. तापस, | (पाया रणाया १,८--पत्र १४८; उव, धरण १, १५, ४; उत्त ५, १८; सुख ५, १८)। संन्यासी (णाया १, १५–पत्र १९३; अणु | ४३, उप पृ १२७, सुख २, १७, से ११, देखो बुसि । २४)। ८ एक जैन मुनि का नाम (कप्प) ८०; कुप्र १८७)। वुस्सग्ग देखो विओसग्ग; 'सच्चित्ताणं 'त्त, 'त्तण न [त्व] बुढ़ापा, जरावस्था वुद देखो वुअ = वृत (प्राकृ८)। पुप्फाइयाण दव्वाण कुण्इ वुस्सग्ग' (उप (सुपा ३६०; २४२) 4 वाइ पुं[वादिन] १४२; संबोध ५१, ५२) वुदास ( [व्युदास] निरास (विसे ३४७५)।एक समर्थ जैनाचार्य जो सुप्रसिद्ध कवि | बूढ देखो वुड्ढ - वृद्ध (सुपा ५१० ५२०)। सिद्धसेन दिवाकर के गुरु थे (सम्मत्त १४०)। वुदि देखो वइ = वृति (प्राकृ ८)। बूढ वि [व्यूढ] १ धारण किया हुआ, 'वाय पुं [वाद] किंवदन्ती, कहावत, वुद्ध देखो वुड्ढ = वृद्ध (षड् ) 'सीमापरिमटेण व बूढो तेणवि णिरंतरं जनश्रुति (स २०७), सावग पुं[श्रावक] वुद्धि देखो वुड्ढि (ठा १०-पत्र ५२५, सम रोमंचों (से १,४२; धरण २० विचार २२६ ब्राह्मण (णाया १,१५-पत्र १९३; औप) १७ सैक्षि ४)। एंदि ५२)। २ ढोया हुआः मुरिणबूढो सीलगि वि निगा वृद्ध का अनुयायी (सं वुन्न देखो वुण्ण (सुर ६, १२४; सुपा २५० भरो विसयपसत्ता तरंति नो वोढ (प्रवि | मि १० भवि; कुमाः हे ४, ४२१)। १७ स १६२) । ३ बहा हुआ, वेग में खिंचा For Personal & Private Use Only Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूणक देशरभय - गया (भत्त १२२ ) ४ उपचित, पुष्ट (से ६, ५०) । ५ निःसृत, निकला हुप्राः 'जम्मा दुवा हर बने मंदाणि भावेश (चेइय ४) | वूणकवून [दे] बालक बच्चा (घ) 1 यू [] नागवेन [वेद्य] कर्म-विशेष सुख तथा दुःख का कारण-भूत कर्म (कम्म १.३) । नय करियं नेय गहियमन्नेहि' (सुपा ६४३ ) । देखो 'वुअ = (दे) । वूह पुंन [व्यूह ] १ युद्ध के लिए की जाती सैन्य की रचना-विशेष ( परह १, ३ - पत्र ४४ औप स ६०३ कुमा) । २ समूह (सम १०१ कुप्र ५६ ) । वे देखो वइ = वै ( प्राकृ ८०; राज ) 1 [वि] नष्ट होना वे (से • पाइअसद्दमणवा [ब] वेदों का जानकार (याचा है, १२) [वि] यहो श्रर्थं (पि ४१३; श्री २३) ५ वत्तन ["व्य] वैश्य-विशेष (घा २ १५ ३५) वतन [व] देखो वत्त ( श्राचा २, १५, ५) । बेअ [वेद]] १ शास्त्र-विशेष सग्वेदादि ग्रंथ (विपा १, ५ टी -पत्र ६०० पान उव) अब २ कर्म- विशेष मोहनीय कर्म का एक भेद, जिसके उदय से मैथुन की इच्छा होती है ( कम्म १, २२० उप पृ ३५३) । ३ श्राचारांग आदि जैन ग्रन्थ (माचा १, १, १, २) । ४ विज्ञ, जानकार (भग) व वि. १०३ पुं [ग] शीघ्र गति, दौड़, तेजी (पाश्र; से ५, ४३; कुमाः महा; पउम ६३, ३६) । २ प्रवाह । ३ रेतस् । ४ मूत्र आदि निःसारण यन्त्र । ५ संस्कार - विशेष ( प्राकृ ४१) । देखो वेग । बेअंत Î [वेदान्त] दर्शन-विशेष, उपनिषद का विचार करनेवाला दर्शन (अच्चु १) Iv अग वि [वेदक ] १ भोगने वाला, अनुभव (सम्यक् १२० संबोध २२ श्रावक ३०९ ) । २ न. सम्यक्त्व का एक भेद (१९) । विसम्या-विशेष जीव कम्म ४ १२ २२) ५ दहिय वि [न्निवेदक ] जिसका पुरुष चिह्न आदि काटा गया हो वह (सूप्र २२, ६३) । उत्तरासँग ती तरह पहना जाता वस्त्र, बन्ध-विशेष, मर्कट-बन्ध । लटकना (गाया १, ८- १७६४) । वे १ अनुभव करना, वेग्रइ, वेएइ, वेति वेअंत, वेएमाण, सक [व्ये] संवरण करना । वेइ, बेअवे, वेभए (षड् ) 1 बेअ सक] [ वेदय ] भोगना । २ जानना । (सम्यो भग व वेयमाण ( सम्यक्त्वो ५; पउम ७५, ४५३ सुपा २४३१, १-६६ पंच ५ १३२; सुपा ३६६ ) । कवकृ. astमाण (भगः परह १, ३ – पत्र ५५ ) । (१.६, २७). य बेअन्य वेव (२, १-पत्र ४०० रयण २४; सुख ६, १; सुपा ६१४; महा) । देखो वेअ = (वेद्य), वेअणिज्ज, वेअणिय बेअ क । [ वि + एज्] विशेष काँपना वेयइ (गंदि ४२ टी) । वकृ. वेयंत (ठा ७पत्र १०३) । बेक [ष] वेअडि वि देत फिर से बागरण करण अ [ वे ] काँपना । वकृ. अमाण (गा ३१२ अ ) । (दे ७, ७७)1 वेड पुं [दे. वैकटिक] मोती वेघनेवाला शिल्पी जोहरी (कप्पू) - वेअड्ड देखो विड्डि (प) 1 वेअड्ढ न [दे] भल्लातक, भिलावाँ (दे ६६) । ७, ८१७ वेअद्द न [ वैदग्ध्य ] विदग्यता, विवक्षरणता (सुपा ६२६ ) 1 बेअहट [येताक्य] पर्यंत- विशेष (सुर ६, १७; सुपा ६२६; महा; भवि) 1 वेअण न [ वेतन ] मजूरी का मूल्यः तनखाह ( पाय त्रिया १ ३ - पत्र ४२ उप पू ३६८) | अण न [पेपन] १ कम्प, कोपना (इय ४३५: नाट उत्तर ६१) । २ वि. काँपनेवाला (चेइय ४३५) । For Personal & Private Use Only - वेअग्ग न [वेदन] अनुभव, भोग (प्राचा कम्म २, १३) । - वेअणा देखो विअणा (उवा हे १३ १४६६ प्रासू १०४ १३३; १७४) न. सुख-दुःख वेअणिज}त्रि [वेदनीय] १ भोगने योग्य । आदि का कारण-भूत कर्म (२, ४ कप्प कम्म १, १२ ) 1 अय देवो वेग (बिगे २२८) वेअरणी स्त्री [ वैतरणी ] १ नरक- नदी ( कुप्र ४३२ उव) । २ परमाधार्मिक देवों की एक जाति, जो वैतरणी की विणकरके उसमें नरक-जीवों को डालता है (सम २९ ) । ३ विद्या - विशेष (श्रावम) । [] [] ७ में यज्ञोपवीत की माला आदि । २ ३ कन्धे के नीचे पत्र १३३) । वेअड सक [ खच् ] जड़ना । वेडइ (हे ४, ८६ षड् ) । ७५) । २ न. सामर्थ्यं (दे ७, ७५; पात्र ) । वेअल न [वैकल्य ] विकलता, व्याकुलता (गड) वेअव्व देखो वेअ = वेदय् ॥ हुआ, अडि वि [खचित] बड़ा जाऊ देस [वेतस]] विशेष का पुं वृक्ष बेंत पेड़ (हे १, २०७; षड् गा ६४५ ) :हुआ वि व्याकरण-संबंधी, (कुमाः पाद्मः भवि ) । संदेह - निराकरण से सम्बन्ध रखनेवाला (पंचभा) । आर सक [दे] ठगना, प्रतारणा करना । वेयार (भवि ) | कर्म. वेप्रारिजसि (गा ६०६ ) । हे. वेरिडं (गा २८६ वज्जा ११४ ) । आरणिय वि [ वैदारणिक ] विदारणसम्बन्धी, विदारण से उत्पन्न (ठा २, १पत्र ४० ) 1 वेदेो वेल नियरले २०) । = विचकिलः 'वेयल्लफुल्लहसन (पर्य Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१८ पाइअसद्दमण्णवो वेआरणिय-वेकिल्लिअ वेआरणिय वि [दे] प्रतारण-सम्बन्धी, ठगने वेइअ देखो वेविअ = वेपित (गा ३६२ भ) वेइअ देखो वेविअ = वेपित (गा ३६२ अ)। को को करने में समर्थ शरीर (सम १४१, भग, से उत्पन्न (ठा २, १-पत्र ४०)। वेइअ वि [वैदिक] १ वेदाश्रित, वेद-संबन्धी दं८)। २ वैक्रिय शरीर बनाने की शक्तिवाला वेआरणिय वि [वैचारणिक] विचार-संबंधी | (ठा ३, ३–पत्र १५१)। २ वेदों का (सम १०३, पव-गाथा ६)। ३ विकुर्वणा (ठा २,१-पत्र ४०)। जानकार (दसनि ४, ३५) । से बनाया हुमाः 'विझगिरिसमीवगयं एवं वेआरिअ वि [दे] १ प्रतारित, ठगा हुआ वेइअ वि [वेगित] वेलावाला, वेग-युक्त वेउब्वियं च मह भवणं' (सुपा १७८)। ४ (दे ७, ६५; पउम १४, ४६; सुपा १५२)। (गाया १, १-पत्र २६)। वैक्रिय शरीरवाला (विसे ३७५)। ५ वैक्रिय २ पृ. केश, बाल (दे ७, ६५)। वेइअ वि [व्येजित] १ कम्पित, काँपा हुआ शरीर से संबन्ध रखनेवाला (भग)। ६ विभूवेआल पुं [वेताल १ भूत-विशेष, विकृत (भग १, १ टी-पत्र १८)। २ कैंपाया षित (भग १८, ५-पत्र ७४६) लद्धिअ पिशाच, प्रेत (पएह १,३-पत्र ४६; गउड; हुश्रा (राय ७४)। वि [°लब्धिक] वैक्रिय शरीर उत्पन्न करने महा: पिग)। २ छन्द-विशेष (पिंग)। वेइआ स्त्री [दे] पनीहारी, पानी ढोनेवाली की शक्तिवाला (भग)। 'समुग्घाय पूं वेआल वि [दे] १ अन्धा । २ पृ. अंधकार स्त्री (दे ७, ७६)। [समुद्भात] वैश्यि शरीर बनाने के लिए (दे ७, ६५) वेइआ स्त्री [वेदिका] १ परिष्कृत भूमि- प्रात्म-प्रदेशों को बाहर निकालना (अंत)। वेआलग वि [विदारक ] विदारण-कर्ता विशेष, चौतरा (भगः कुमा, महा)। २ वेउव्विया स्त्री [दे] पुनः-पुन:, फिर-फिर अंगुलि-मुद्रा, अंगूठी (दे ७, ७६ टी)। ३ (कप्प)। (सूअनि ३६)। वेआलण न [विदारण] फाड़ना, चीरना वर्जनीय प्रतिलेखन का एक भेद, प्रत्युपेक्षणा वेंकड पुं [वेङ्कट] दक्षिण देश में स्थित एक (सूअनि ३६)। का एक दोष (उत्त २६, २६; सुख २६, पर्वत (अच्चु १)। °णाह पृ ["नाथ] विष्ण वेआलि पुं[वैतालिन् ] बन्दी, स्तुति-पाठक २६, प्रोघभा १६३)। की वेंकटाद्रि पर स्थित मूर्ति (अच्चु १) । वेइज प्रक [वि + एज् ] काँपना। वकृ. वेंगी स्त्री [दे] वृतिवाली, बाड़वाली (दे ७, (उप ७२८ टी)। वेआलिअ देखो वइआलिअ (पामः हे १, वेइज्जमाण (भग १, १ टी-पत्र १८)। ४३) । वेइज्जमाण देखो वेअ = वेदय । १५२ चेइय ७४६) वेंजण देखो वंजण (प्राकृ ३१) । वेआलिय वि [वैक्रिय] विक्रिया से उत्पन्न वेइद्ध वि [दे] १ ऊंचा किया हुआ। २ वेंट देखो विंट = वृन्त (गा ३५६; हे १, विसंस्थुल । ३ प्राविद्ध । ४ शिथिल (दे ७, (सूम १, ५, २, १७)। । १३६; २, ३१ कुमा; प्राकृ ४) ६५)। वेआलिय वि [वैकालिक] विकाल-सम्बन्धी, वेंटल देखो विंटल (मोघ ४२४) I, वेइल्ल देखो विअइल्ल (हे १, १६६; २, ९८; वेंटली देखो विंटलिआः 'तो तेण तस्स अपराह्न में बना हुआ (दसनि १,६; १५) । । कुमा)। (करिणो) पुरो वेंटलीकाऊण पक्खित्तवेआलियन [विदारक] विदारण-क्रिया वेडंठ देखो वेकुंठ (गउड)। मुत्तरीयं' (महा)। (सूअनि ३६)। वेउट्टिया स्त्री [दे] पुनः पुनः, फिर-फिर | वेटिआ देखो विंटिया (प्रोध २०३; प्रोधमा वेआलिय देखो वइआलीअ (सूअनि ३८) । (कप्प) । ७६ उप १४२ टी; वव १)। वेआलिया स्त्री चितालिकी] बीणा-विशेष । वेउव्य देखो विउव्य = वि + कृ, कुर्व । संकृ. वेंड वितण्डा हाथी, हस्ती (प्राकृ ३०)। (जीव ३)। वेउव्विऊण (सुपा ४२) । । देखो वेयंड वेआली स्त्री बिताली] १ विद्या-विशेष, वेउव्य वि वैक्रिया१विकृत, विकार-प्राप्त बढसुराखी [दे] कलुष मदिरा (द ७,७८)। जिसके प्रभाव से अचेतन काष्ठ भी उठ खड़ा । (विसे २५७६ टो)। २ देखो विउव्व % वेंढि [दे] पशु (दै ७, ७४)। होता है—चेतन की तरह क्रिया करता है वैक्रिय (कम्म ३, १६) लद्धि स्त्री (सूम २, २, २७)। २ नगरी-विशेष (गाया वेंढिअ वि [दे] वेष्ति, लपेटा हुआ (दे ७, र [°लब्धि] शक्ति-विशेष, वैक्रिय शरीर उत्पन्न १,१६-पत्र २१७)। । ७६; महा)। करने का सामर्थ्य (पउम ७०, २६)। वेइ स्त्री [वेदि] परिष्कृत भूमि-विशेष, चौतरा वेंभल देखो विभल (पएह १,३–पत्र ४५, वेउब्धि देखो विउव्यि (पएह २,१-पत्र (कुमाः महा)। पउम ५, १९२)। __EE; कप्प; प्रौपः प्रोघभा ५७)। वेइ वि [वोदन] १ जाननेवाला (चेइय ११६ वेकक्ख देखो वेअच्छ; 'वेकक्खउत्तरीमा' गउड)। २ अनुभव करनेवाला (पंच ५, वेउव्विअ देखो विउव्विअ = विकृत, विकु- (कुमा)। ११६) वितः वेउग्वियं असुइजंबालं अइचिक्कणं वेकच्छिया । देखो वेगच्छिया (मोघमा वेइअ वि [वेदित] १ अनुभूत (भग)। २ फासेण' (स ७६२, सुपा ४७)। वेकच्छी ३१८ प्रोघ ६७७)।ज्ञात, जाना हुमा (दस ४, १; पउम ६६, वेउव्विअवि [वैक्रिय, वैक्रियक, वैकुर्विका वेकिल्लिअ न [दे] रोमन्थ, चबी हुई चीज ३)। १ शरीर-विशेष, अनेक स्वरूपों और क्रियानों को फिर से चबाना (दे ७, ८२) For Personal & Private Use Only Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेकुंठ-वेढ पाइअसद्दमहण्णवो ८१६ वेकुंठ पुं[वैकुण्ठ] १ विष्णु, नारायण । २ ४, २-पत्र २२५; जीव ३, २-पत्र २६० वेठ्ठया देखो विट्ठा (सुर १६, १७५)। इन्द्र, देवाधीश। ३ गरुड पक्षी। ४ अर्जक ठा ४,२-पत्र २२६; जीव ३, २-पत्र वेदि देखो विद्रि; 'रायवेदि व मनता' (उत्त वृक्ष, सफेद बबरी का गाछ । ५ लोक-विशेष, ३२७ ३२६%; ३३१, ३४७)। १४ एक २७, १३, प्राकृ ५)। विष्णु का धाम (हे १, १६६)। ६ पुंन. अनुत्तर देवविमान का निवासी देव (सम वेट्ठिद (शौ) देखो वेढिअ (नाट-मृच्छ मथुरा का एक वैष्णव तीर्थ (ती ७)। ५६)। १५ जंबू-मन्दर के उत्तर रुचक पर्वत २) । वेग देखो वेअ = वेग (उवा; कप्पः कुमा) का एक शिखर: 'विजए य वि(? वे) जयंते वेड [दे देखो बेड (दे ६, ६५; कुमा)। वई स्त्री [वती] एक नदी का नाम (ती | (ठा ८-पत्र ४३६)। १६ वि. प्रधान, १५) वंत वि [वत् ] वेगवाला (सुर वेडइअ पुं[दे] वाणिजक, व्यापारी (दे ७, श्रेष्ठ (सूप १, ६, २०)। २, १६७)। वेजयंती स्त्री [वैजयन्ती] १ ध्वजा, पताका वेगच्छ देखो वेअच्छ (उवा)। वेडंबग देखो विडंबगः 'जह वेडंबगलिंगे' वेगच्छिया । स्त्री वैकक्षिका, क्षा] कक्षा (सम १३७ः सून १, ६, १०, सुर १, ७० (संबोध १२) । कुमा)। २ षष्ठ बलदेव की माता का नाम वेडसावेतसा वृक्ष-विशेष, बेंत का गाछ वेगच्छी के पास पहना जाता वन्न, (सम १५२)। ३ अंगारक प्रादि महाग्रहो उत्तरासंग (पव ६२); 'कयतिलो वेच्छि (पामा सम १५२, कप्प) की एक-एक अग्रमहिषी का नाम (ठा ४,१- प्राणाववहारपणरूवं' (संबोध ६) राव | मरिणकार. जौहरी (दे ७. पत्र २०४) । ४ पूर्व रुचक पर रहनेवाली एक वेगड स्त्रीन [दे] पोत-विशेष, एक तरह का दिक्कुमारी देवी (ठा ८-पत्र ४३६)। ५ जहाज; 'चरसट्ठी वेगडाणं' (सिरि ३८२)। वेडिकिल्ल वि [दे] संकट, सकरा, कमचौड़ा विजय-विशेष की राजधानी (ठा २, ३-पत्र (दे ७, ७८)। वेगर पुं [दे] द्राक्षा, लोंग प्रादि से मिश्रित ५०)। ६ एक विद्याधर-नगरी (सुर ५, वेडिस देखो वेडस (प्राप्र हे १,४६, २०७० चीनी आदि (उर ५, ६) २०४)। ७ रामचन्द्रजी की एक सभा (पउम | कुमाः गा ७६०)। वेगुन्न देखो वइगुण्ण (धर्मसं ८८४; सुपा ८०, ३)। ८ भगवान् पद्मप्रभ की दीक्षा वेडुबक । वि [दे] नृपादि कुल में उत्पन्न २६०) शिबिका (सम १५१)। ६ उत्तर अंजनगिरि वेडवग ) (प्राव० परि नि० गा० ७६ वेग्ग देखो विअग्ग (प्राक ३०)। की दक्षिण दिशा में स्थित एक पुष्करिणी आव० दीपिका भा० २ पत्र, ७०, २) वेग्ग देखो वेग (भवि)। (ठा ४, २-पत्र २३०)। १० पक्ष की वेडुज । देखो वेरुलिअ (ह २, १३३; पाठवीं रात्रि का नाम: विजया य विजयंता वेग्गल वि [दे] दूर-वर्ती; गुजराती में 'वेग' वेडरिअ पाम नाट-मृच्छ १३६) - (? वेजयंती' (सुज १०, १४)।११ भगवान् (हे ४, ३७०)। कुन्थुनाथ की दीक्षा-शिविका (विचार १२६)M वेडल्ल वि [दे] गवित, अभिमानी (दे ७, वेचित्त देखो वइचित्त (भास ३०; अज्झ वेज वि [वेद्य भोगने योग्य, अनुभव करने ४६) वेड्ढ देखो वेढ = वेष्ट् । वेड्ढइ (प्राप्र)। वेच्च देखो विच्च = वि + अय् । वेच्चइ (हे ४, | योग्य (संबोध ३३)। वेड्ढय पुं [वेष्टक] छन्द-विशेष (अजि ६) ४१६) वेज पुं [वैद्य] १ चिकित्सक, हकीम (गा वेच्छ देखो विअ =विद् । २३७) उव)। २ वृक्ष-विशेष। ३ वि. पण्डित, वेढ सक [वेष्ट ] लपेटना । वेढइ, बेढेइ विद्वान् (हे १, १४८, २, २४)। सत्थ न (हे ४, २२१, उवा)। कर्म. वेढिज्जइ (हे वेच्छा देखो वगच्छिया। सुत्त न [सूत्र] [शास्त्र] चिकित्सा-शास्त्र (स १७)। ४, २२१) । वकृ. वेढंत, वेढेमाण (पउम उपवीत की तरह पहनी जाती साँकली (भग ४९, २१; णाया १, ६)। कवकृ. वेढिजा६, १३ टी-४७७; राय)। वेजग) न [वैद्यक] १ चिकित्सा-शास्त्र (प्रोष वेजय । ६२२ टी; स ७११) । २ वैद्य माण (सुपा ६४) । संकृ. वढित्ता, वढेत्ता, वेजयंत पुंन [वैजयन्त] १ एक अनुत्तर देवसंबन्धी क्रिया, वैद्य-कर्म (अणु २३४; कुप्र वेढिउं, वेढेउं (पि ३०४; महा)। प्रयो. विमान (सम ५६; प्रौपः अनु)। २-७ जंबू१८१)। वेढावेइ (पि ३०४) । द्वीप, लवण समुद्र, धातकी खण्ड, कालोद | वेढ पुं[बेष्ट] १ छन्द-विशेष (सम १०६; समुद्र, पुष्करवर द्वीप तथा पुष्करोद समुद्र का वेझ वि [वेध्य बोधने योग्य (नाट--साहित्य अणु २३३ दि २०६) । २ वेष्टन, लपेटन दक्षिण द्वार (ठा ४, २-पत्र २२५; जीव १५८)। (गा ६६; २२१; से ६; १३), ३ एक ३,२-पत्र २६०; ठा ४: २-पत्र २२६; वेटण देखो वेढग (नाट--मालती ११९)। वस्तु-विषयक वाक्य-समह. वर्णन-ग्रन्थ (णाया जीव ३, २-पत्र ३२७ ३२६ ३३१ वेटणग विष्टनका १ सिर पर बाँधी जाती १,१६-पत्र २१८, १, १७-पत्र १२८ ३४७)। ८-१३ पुं. जंबू द्वीप, लवण समुद्र एक तरह की पगड़ी। २ कान का एक अनु)। मादि के दक्षिण द्वारों के अधिष्ठाता देव (ठा प्राभूषण (राज) । वेढ देखो पीढ (गउड)। For Personal & Private Use Only Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२० वेढण न [ वेष्टन ] लपेटना (से १, ६०, ६, ४३; १२, १५; गा ५६३: धर्मसं ४६७ ) 1मेडिअ वि[]] पेटा हुया ( सुर २,२३८ ) । पाच वेटिम वि [वेष्टिम] ? वेष्टन से बना हुप्रा ( पह५११५०६२णाया १, १२पत्र १७ घो) २ श्री. विशेष ( परह २, ५ - पत्र १४८ राज ) । वेण पुं [दे] नदी का विषम घाट (दे ७, ७४) 1 वेण (ग्रप) देखो वयण = वचन ( हे ४, ३२९) । - वेणइअ न [चैनयिक] १ विनय, नम्रता (ठा ५. २- पत्र ३३१; दस ६, १२, १२० सहि १०६ टी २ मिध्याय विशेष सभी देवों और धर्मों को सत्य मानना (संबोध ५२) । ३ वि. विनय-संबन्धी (सम १०६ भग) । ४ दिन को ही प्रधान माननेवाला, विनयवादी (१६, २७)। बाद [वाद] विनय को हो मुख्य माननेवाला दर्शन (धर्म ९९४) । स्त्री [वैनयिकी] विनय से प्राप्त होनेवाली बुद्धि (उप पृ ३४०; छाया १, १ - पत्र ११ ) । } बेणगी वेणइया वेणइया स्त्री [वैrकिया ] लिपि-विशेष (सम ३५; पण १ - पत्र ६२ ) - येणा श्री] [देणा] मह] स्थूलद्र को एक भगिनी (कप्प पडि) 1 [[]] १ वंश, बॉस (पाम कुमाः षड् ) । २ एक राजा (कुमा) । ३ वाद्य विशेष सी (हे १, २०३) दालि [दाख] एक इन्द्र सुपकुमार देशों का उत्तरदिशा का इन्द्र (ठा २, ३ पत्र ८४ पाइअसद्दमणची एक) । "देव [देव] १ सुपकुमार | नामक देव-जाति का दक्षिण दिशा का इन्द्र (ठा २, ३ – पत्र ८४) । २ देव - विशेष (ठा २, ३ – पत्र ६७६ ७६ ) । ३ गरुड पक्षी (सूत्र १, ६, २१) । याणुजाय पुं ["काजात ] गणितशास्त्र-सितम योगों में द्वितीय योग, जिसमें चन्द्र, सूर्य और नक्षत्र वंशाकारसे अवस्थान करते हैं (सुज १२पत्र २३३ ) । - ७८ षड् ) 1 वेणुणास पुं [दे] भ्रमर, भौंरा (दे ७, } वेणुसाअ वेण्ण वि [दे] श्राक्रान्त (षड् ) । वेण्णा स्त्री [वेन्ना ] नदी - विशेष -1 °यड न [तर] नगर विशेष (उम ४८६३ महा वेण्डु देखो विण्डु (संक्षि ३: प्राकृ ५)।वेताली स्त्री [दे] १ तट, किनारा 'जन्नं नावा पुव्चवेतालीउ दाहिणवेतालि जलप हेणं गच्छति' ( १६ – पत्र ४८० ) २ गली (प्रा० वृ० पत्र ३५५ ) । - वेतन [दे] स्वच्छ वस्त्र (दे ७, ७५) । वेत्त पुं [वेत्र] वृक्ष-विशेष, बेंत का गाछ (पण १ – पत्र ३३, विपा १, ६–पत्र ६६) सन [सन] बैत का बना हुआ आसन (पउम ६६, १४) । व्यव[य] जानने योग्य (प्रा) 1 [त्रिक] द्वारपाल अपराधी (सुपा ७३) । देखो वे = वेदम्ववेद, वेद॑ति वेदेति [णि श्री] [[]] [१] एक प्रकार की श-रचना बालों की भी हुई चोटी (२ विशेष ( स ) | ३ गंगा और यमुना का संगमस्थान (राज) । वच्छराय पुं [वत्सराज ] एक राजा ( कुल ४४० ) । । (भग; सूत्र १, ७, ४ ठा २, ४ पत्र १००), वेदेश (पर्मेस १९६) भूसा वेसु (ठा २, ४, भग) । भवि वेदिस्संति (ठा २, ४, भग) । कत्रकृ. वेदेज्जमाण (ठा १०- पत्र ४७२) । वैणिअन [हे] वचनीय, लोकापवाद (दे ७, ७५ प‍ ) वेणी स्त्री [श्रेणी] देखो वेणि ( से १, ३६ | वेद देखो वेअ = वेद (पराह १, २ -- पत्र ४०; धर्मसं ८६२) गा २७३३ कप्पू) 1 बेति वेदंत देखो वेअंत (धर्म १३ ) । वेदक वेदग } देखो वेअग ( परह १, २ --पत्र २८१२०। वेदणा देतो विणा (भगः स्वप्न ८० नाट मालवि १४) । For Personal & Private Use Only वेढण-वेमणस्स बेदम्भी श्री [वैदर्भी] प्रयुक्त कुमार की एक स्त्री का नाम ( अंत १४) । वेदस (शौ) देखो वेडिस (प्राकृ ८३; नाट शकु ६८ ) 1 वेदि देखो वेइ = वेदि (पउम ११, ७३) । चांदग [ वादक एक इभ्य मनुष्य जाति, पुं क्य करूंदाव वेदेहा वेदिगातिता (? इया ) हरिता चुंचुरणा चैव छप्पेता इब्भजाइश्रो ।' (ठा ६ - पत्र ३५८ ) 1 वेदिस न [ वैदिश ] विदिशा की तरफ का वेदिय देखो वेइअ = वेदित (भग) | नगर (१४९) । वेदुलिय देखो वेरुलिअ (चंड ) । वेदूणा स्त्री [दे] लजा, शरम (दे ७, ६५) । वेदेसिय देखो वइदेसिअ (राज) । बेदेद [वैदेह] एक इम्य मनुष्य जाति (ठा ६- ३५० देखी बदेह वेदे हि [विदेहिन] विदेह देश का राजा (उत्त १,१२) । वेधम्म देखो वइधम्म (घर्मंसं १८५) ।৺ वैधव्व देखो बेहत्र्व (मोह १९) । देखो (उप ११२) । बेप्प वि[दे] भूत बादि से गृहीत पागल (द ७, ७४) 1बेन [] प २ ि भूत-गृहीत, भूताविष्ट (दे ७, ७६) । बेफान [स्] निष्फलता (विये ४१६ धर्मसं २२; अज्झ १३३) । बेभल वि[पिहू बल] ब्याकुल (प्रा) । वेन्मार) [वैभार] पर्वत- विशेष, राजगृही वेभार के समीप का एक पहाड़ (गाया १, १-पत्र ३३३ सिरि ४) । - बेम देखो वेमय । वेम ( प्राकृ ७४) । म [मन] तन्तुवाय का एक उपकरण (विये २१००) मइ वि [भग्न] भाँगा हुआ (कुमा ६, ६८) । प्रेमणस्स न [वैमनस्य] द्वेष (उ) २ दैन्य १- पत्र ५) । मना भीतरी तापह १, Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेमय-वेलय पाइअसहमहण्णवो ८२१ वेमय सक [भञ्ज ] भाँगना, तोड़ना। वेरि देखो वहरि (गउडः कुमाः पि वेलव सक [ उपा+ लभ्] १ उपालम्भ वेमयइ (हे ४, १०६, षड् )। वेरिअ६१)। देना, उलाहना देना। २ कॅपाना। ३ व्याकुल वेमाउअ । वि [वैमातृक] विमाता की वेरिज विदे] १ असहाय, एकाकी। २ करना । ४ ध्यावृत्त करना, हटाना। वेलवइ वेमाउग। संतान (सम्मत्त १७१; मोह न. सहायता, मदद (दे ७, ७६) ।। (हे ४, १५६ षड् )। वकृ. वेलवंत (से २, ८८)। वेरुलिअ पुन [बेडूर्य] १ रत्न की एक जाति, । ८)। कवकृ. वेलविजंत (से १०, ६८)। वेमाणि पंस्त्री [विमानिन] विमान-वासी 'सुचिरं पि अच्छमाणो लियो कावासीम कृ. वेलवणित (कमा)। देवता. एक उत्तम देव-जाति (दं २)। स्त्री. उम्मीसो' (प्रासू ३२; पात्र), 'वेरुलिनं' (हे वेलव सक [वश्च ] १ ठगना २ पीड़ा "णिणी (पएण १७–पत्र ५००, पंचा २, २, १३३, कुमा)। २ विमानावास-विशेष करना । वेलवइ (हे ४, ६३)। कर्म. वेल (देवेन्द्र १३२) । ३ शक्र आदि इन्द्रों का एक विज्जति (सुपा ४८२; गउड)। वेमाणिअ [वैमानिक] एक उत्तम देव आभाव्य विमान (देवेन्द्र २६३)। ४ महा- वेलविअ वि [वञ्चित] १ प्रतारित, ठगा जाति, विनानवासी देवता (भग; औपः परह हिमवंत पवंत का एक शिखर (ठा २,३- हुआ (पास; बज्जा १५२; विवे ७७ वै १, ५–पत्र १३; जी २४); - पत्र ७० ठा ८-पत्र ४३६)। ५ रुचक २६)। २ पीड़ित, हैरान किया हुमा (खा माया स्त्री [विमात्रा] अनियत परिमारण पर्वत का एक शिखर (ठा ८-पत्र ४३६)। ११)। (भग १, १० टी)। ६ वि. वैडूर्य रत्नवाला (जीव ३, ४ राय) वेला स्त्री [दे] दन्त-मांस, दाँत के मूल का वेम्मि क्रि [वच्मि] मैं कहता हूँ (चंड)। मय वि [°मय वैडूर्य रत्नों का बना हुमा | मांस (दे ७, ७४)। वेयंड पुं [वेतण्ड] हस्ती, हाथी (स ६३०; | (पि ७०) वेला स्त्री [बेला] १ समय, अवसर, काल ७३५) । देखो वेंड । वेरोयण देखो वइरोअण= वैरोचन (णाया (पान कप्पू)। २ ज्वार, समुद्र के पानी की वेयावच्च । न [वैयावृत्त्य, वैयापृत्य । २, १-पत्र २४७)। वृद्धि (पएह १, ३ ---पत्र ५५)। ३ समुद्र वेयावडिय सेवा, शुश्रूषा (उवा कस रणाया | वेल न [दे] दन्त-मांस, दाँत के मूल का मांस का किनारा (से १, ६२; प्रौपः गउड)। ४ १, ५ औपः प्रोघभा ३२१; पाचा पाया मर्यादा (सून १,६,२६)। ५ वार, दफा (दे ७, ७४)। १, १-पत्र ७५: धर्मसं ६६५, श्रु ५३)। (पंचा १२, २६) उल न [°कुल] बन्दर, वेलंधर पुं[वेलन्धर] एक देव-जाति, नागबेर न [वैर] दुश्मनाई, शत्रुता (दे १, १५२; जहाजों के ठहरने का स्थान (सुर १३, ३०; राज-सिशेष (सम ३३)। २ पर्वत-विशेष । अंत १२; प्रासू १२३)। उप ५६७ टी)। वासि पुं [वासिन्] ३ न. नगर-विशेष (पउम ५४, ३९)। समुद्र-तट के समीप रहनेवाला वानप्रस्थ वेर न [द्वार] दरवाजा (षड् )। वेलंधर पुं [वैलन्धर] वेलन्धर-संबन्धी (पउम (प्रौप)। बेरग्ग न [वैराग्य] विरागता, उदासीनता ५५, १७)। वेलाइअ वि [दे] मृदु, कोमल । २ दीन, (उवः रयण ३०; सुपा १७३, प्रासू ११६)। लंब [वेलम्ब] १ वायुकुमार नामक देवों गरीब (दे ७,६६)। वेरग्गिअ वि [राग्यिक] वैराग्य-युक्त, | के दक्षिण दिशा का इन्द्र (ठा २, ३–पत्र - वेलाव (अप) सक [वि + लम्बय ] देरी विरागी (उवः स १३५) । ८५; इक)। २ पाताल-कलश का अधिष्ठाता करना, विलम्ब करना । वेलावसि (पिंग)। बेरज न [वैराज्य] १ वैरि-राज्य, विरुद्ध देव-विशेष (ठा ४,१-पत्र १९८४,२- | वेलिल्ल वि [ वेलावत् ] वेला-युक्त (कुमा)।" राज्य (सुख २, ३५; कस)। २ जहाँ पर पत्र २२६)। बेली स्त्री [दे[१ लता-विशेष, निद्राकरी लता राजा विद्यमान न हो वह राज्य । ३ जहाँ वेलंब पुं [दे. विडम्ब] १ विडम्बना (दे (दै ७, ३४)। २ घर के चार कोणों में पर प्रधान आदि राजा से विरक्त रहते हों । ७,७५, गउड)। २ वि. पिडम्बना-कारक रखा जाता छोटा स्तम्भ (पव १३३)। वह राज्य (कसः बृह १)। (पएह २, २-पत्र ११४) । वेल देखो वेणु (हे १, ४, २०३)। वेरत्तिय वि [वैरात्रिक रात्रि के तृतीय पहर वेलंवग पुं[विडम्बक] १ विदूषक, मसखरा वेल [दे] १ चोर, तस्कर । २ मुसल (दे का समय (उत्त २६, २०; प्रोघ ६६२)। (प्रौपः णाया १, १ टी-पत्र २, कप्प)। ७,६४)। वेरमण न [विरमण] विराम, निवृत्ति (सम २ वि. विडम्बना करनेवाला (पुप्फ २२६) वेलंक वि [दे] विरूप, खराब, कुत्सित (दे १० भगः उवा)। | वेलक्ख न [बेलक्ष्य] लज्जा, शरम (गउड)। ॐ६३) वेराड पुं[बैराट] भारतीय देश-विशेष, प्रल- वेलणय न [दे. वीडनक] १ लज्जा, शरम वेलुग। पुन [बेणुक] १ बेल का गाछ । २ वर तथा उसके चारों ओर का प्रदेश (भवि) (दे ७, ६५ टी)२ पुं. साहित्य-प्रसिद्ध रस- वेलय) बेल का फल (प्राचा २, १, ८, वेराय (अप) पु[विराग] वैराग्य, उदासीनता विशेष, लज्जा-जनक वस्तु के दर्शन आदि से १४)। ३ वंश, बास; 'वेलुयाणि तणारिण (भवि)। उत्पन्न होनेवाला एक रस (अणु १३५)। य (पएण १-पत्र ४३; पि २४३)। ४ For Personal & Private Use Only Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१)। ८२२ पाइअसद्दमण्णवो वेलुरिअ-वेसर बांसकरिला, वनस्पति-विशेष (दस ५, २, वेल्लिर वि [वेल्लित] काँपनेवाला (गउड)। संपायण देखो वइसंपायण (हे १, १५२; वेल्ली देखो वेल्लि (गा ८०२; गउड) षड् ). वेलरिअ) देखो वेरुलिअ (प्रातः पि २४१, व अक[ प्कापना। वेवइ (हे ४, वेसंभ [विश्रम्भ] विश्वास (पउम २८, ललिअ दे ७, ७७)। १४७; कुमा; षड ) । वकृ. वेवंत, देवमाण वेलणा स्त्री [दे] लज्जा, लाज (दे ७, ६५)। रंभा; कप्पा कुमा)। वेसंभरा स्त्री [दे] गृहगोधा, छिपकली (दे वेल्ल अक [ वेल्ल] १ क.पना । २ लेटना। वेवज्झ न [वैवाह्य विपाह, शादी (राज)। । ७,७७)। ३ सक. कंपाना। ४ प्रेरना। वेल्लइ (पि. वेवण्ण न ववर्य] फोकापन (कुमा)। वेसक्खिज्ज न [दे] द्वेष्यत्व: विरोध, १०७)। वेल्लंति (गउड)। वकृ. वेहंत, दुश्मनाई (दे ७, ७६) वेवय पुन [ वेपक ] रोग-विशेष, कम्प वेल्लमाण (गउडः हे १, ६६: पि १०७) । - (प्राचा)। वेसण न [दे] पचनीय, लोकापवाद (दे वेल्ल पक [रम्] क्रीड़ा करना । वेल्लइ (हे वेवाइअ वि [दे] उल्लसित, उल्लास-प्राप्त ७, ७५)।४.१६८)। क. वेल्टणिज्ज (कुमा ७, १४) (दे७, ७४)। वेसण न [ वेषण ] जीरा आदि मसाला वेल्ल पुं [दे] १ केश, बाल । २ पल्लव । ३ वेवाहिअ वि [वैवाहिक संबन्धी, विवाह (पिंड ५४) विलास (दे ७, ६४)। ४ मदन-देदना, काम संबन्धवाला (सुपा ४६६; कुप्र १७७)। सोमण न वेिसन चना आदि द्विदल-दाल पीड़ा। ५ वि. अविदग्ध, मूर्ख (संक्षि ४७)। विविपिन का प्राटा, बेसन (पिंड २५६)। ६ न. देखो वेल्लग (सुपा २७६)। पाय)। २ पृ. एक नरक-स्थान (देवेन्द्र २७)।- वेसमग पुं [वैश्रमण] ? यक्षराज, कुबेर वेल्लइअ देखो वेल्लाइअ (षड्)। वेविर वि विपितृ कापनेवाला (कमा हे २. (पान; णाया १, १-पत्र -३६%; सुपा वेल्लग न [दे. १ एक तरह की गाड़ी, जो १४५; ३, १३५)। १२८)।२ इन्द्र का उत्तर दिशा का लोकपाल ऊपर से ढकी हुई होती है, गुजराती में (सम ८६; भग ३, ७-पत्र १६६)। ३ वेव्व अ [दे] आमन्त्रण-सूचक अव्यय (हे 'वेल'। २ गाड़ी के ऊपर का तला (था। एक विद्याधर-नरेश (पउम ७, ६६)। ४ २, १६४ कुमा)। एक राजकुमार (विपा २, )। ५ एक वेव्व प्र[दे] इन अर्थों का सूचक अव्ययवेल्लण न [वेल्लन] प्रेरणा (गउड)। शेठ का नाम (सुपा १२८, ६२७)। ६ १ भय, डर । २ वारण, रुकावट । ३ विषाद, वेल्लय देखो बेल्लग (सुपा २८१; २८२)। अहोरात्र का चौदहवाँ मुहूतं (सुज १०, १३; खेद । ४ प्रामन्त्रण (हे २, १६३, १९४; वेल्लरिअ [दे] केश. बाल (षड् )। सम ५१)। ७ एक देव-विमान (देवेन्द्र कुमा)। १४४)। ८ क्षुद्र हिमवान् प्रादि पर्वतों के वेल्लरिआ स्त्री दे] वल्ली, लता (षड्)। वेस पुं [वेष] शरीर पर वन्न प्रादि की सजा शिखरों का नाम (ठा २, ३–पत्र ७०० वेल्लरी स्त्री [दे] वेश्या, वारांगना (दे ७ वट (कप्पः स्वप्न ५२, सुपा ३८६, ३८७; ८०८-पत्र ४३६, ६-पत्र ४५४)। ७६ षड्)।गउड; कुमा)। काइय पुं [कायिक] वैश्रमण की प्राज्ञा वेल्लविअ देखो वेल्लिअ (से १, २६)। वेस वि [व्येष्य विशेष रूप से वांछनीय में रहनेवाली एक देव-जाति (भग ३,७वेल्लविअ वि [दे] विलिप्त, पोता हुआ (से (वव ३)। पत्र १६६)। दत्त पुं [दत्त] एक राजा वेस पुं [प] १ विरोध, वैर। २ घृणा, का नाम (विपा १, ६-पत्र ८८)। वेल्लहल वि [दे] १ कोमल, मृदु (दे ७, अप्रीति (गउड; भवि)। 'देवकाइय पुं [देवकायिक वैश्रमण के वेल्ल हल्ल ६६ षड्; गउड; सुपा ५६२, वेस वि विष्य] वेषोचित, वेष के योग्य अधीनस्थ एक देव-जाति (भग ३, ७–पत्र स ७०४) । २ विलासी (दे ७.६६, षड़ (भग २, ५-पत्र १३७ सुज्ज २०- १६६) पभ पुं [प्रभ] वैश्रमण के सुपा ५२)। ३ सुन्दर (गा ५६८) पत्र २६१) उत्पात-पर्वत का नाम (ठा १०-पत्र ४८२) वेल्ला स्त्रो [दे. वल्ली] लता, वल्ली (दे ७, वेस वि [द्वेष्य] १ द्वेष करने योग्य, अप्री- भद्द ' [भद्र] एक जैन मुनि (विपा ६४)। तिकर (पउम ८८, १६ गा १२६; सुर २, वेल्लालअ वि [दे] संकुचित, सकुचा हुआ (दे | २०८ दे १, ४१) । २ विरोधी, शत्रु, दुश्मन वेसम्म न [वैषम्य] विषमता, असमानता ७, ७६)। (सुपा १५२; उप ७६८ टी)। (अज्झ ५: पव २१६ टी)। वेल्लि देखो वल्लि (उवः कुमा)। बस देखो वइस्स= वैश्य (भवि)। वेसर पुंस्त्री [वेसर] १ पक्षि-विशेष (पएह वेल्लिअ वि [बोल्लत] १ कैंपाया हुआ (से ७, वेसइअ वि [वैषयिक ] विषय से संबन्ध १, १-पत्र ८)। २ अश्वतर, खच्चर। ५१) । २ प्रेरित (से ६, ६५)। । रखनेवाला (पि ६१) - स्त्री री (सुर ८, १९) For Personal & Private Use Only Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घेसलग-वोक पाइअसद्दमहण्णवो ८२३ वेसलग [वृषल] शूद्र, अधम-जातीय वेसिअ वि [व्येषित १ विशेष रूप से वेहव सक [कच् ] ठगना। वेहवइ (हे मनुष्य (सूम २, २, ५४)। अभिलषित । २ विविध प्रकार से अभिलषित | ४, ६३; षड्)। वेसवण पुं[वैश्रवण] देखो वेसमण (हे १, (भग ७, १--पत्र २९३) वेव न [वैभव] विभूति, ऐश्वयं (भवि) । १५२: चंड; देवेन्द्र २७०)। वेसिट्र देखो वइसिटू (धर्मसं २७१) हविअ [दे] १ अनादर, तिरस्कार । वेसवाडिय [वेशवाटिक] एक जैन मुनिगण (कप्प)। ४७४) । | वेहविअ वि [वचत] प्रतारित (दे ७, वेसवार [देसवार] धनिया प्रादि मसाला वेसिया देखो वेस्सा; 'कामासत्तो न मुणइ ६६ टी)। (कुप्र६८) वेसा देखो वेस्सा (कुमाः सुर ३, ११६, | गम्मागम्मपि वेसियाणव्व' (भत्त ११३; ठा वेहव्य न [वैधप] १ विधवापन, रँडापा, ४, ४-पत्र २७१)। राड़पन (गा ६३०; हे १, १४८; गउड; सुपा २३५)। वेसाणिय पुंवैषाणिक] १ एक अन्तर्वीप । वैसियायण पुं वैश्यायन] एक बाल तापस सुपा १३६) । २ अन्तीप विशेष में रहनेवाली मनुष्य-जाति (भग १५–पत्र ६६५, ६६६) । वेहाणस देखो देहायस (पाचा २, १०, २; ठा २, ४-पत्र ६३, सम ३३, रणाया १, (ठा ४, २-पत्र २२५)।वेसी स्त्री [वैश्या] वैश्य जाति की स्त्री (सुख १६-पत्र २०२; भग)। वेसानर देखो वइसानर (सट्ठि ६ टो)। ___३, ४)। | वेहाणसिय वि [वैहायसिक] फाँसी आदि वेसायण देखो वेसियायण (राज)। वेसुम [वेश्मन् गृह, घर (प्राकृ २८)। से लटक कर मरनेवाला (प्रौप)। वेसालिअ वि [वैशालिक] १ समुद्र में वेस्स देखो वइस्स% वैश्य (सूम १, ६,२)। वेहायस वि [वैहायस] १ आकाश-सम्बन्धो, उत्पन्न । २ विशालाख्य जाति में उत्पन्न । वेस्स देखो बेस = द्वष्य (उत्त १३, १८)। आकाश में होनेवाला। २ न. मरण-विशेष, ३ विशाल, बड़ा, विस्तीर्णः 'मच्छा वेसालिया वेस्स देखो वेस = वेष्य (राज)। फाँसी लगा कर मरना (१व १५७)। ३ पुं. चेव' (सूत्र १, १, ३, २)। ४. भगवान् वेस्सा श्री [वेश्या] १ पण्यांगना, गणिका राजा श्रेणिक का एक पुत्र (अनु)। ऋषभदेव (सूम १, २, ३, २२)। ५ (विसे १०३०; गा १५६, ८६०)। २ वेहारिय वि [वैहारिक] विहार-सम्बन्धी, भगवान् महावीर (सूत्र १, २, ३, २२; प्रोषधि-विशेषः पाढ़ का गाछ (प्राकृ २६) विहार-प्रवण (सुख २, ४५)। भग)। वेसाली स्त्री [वैशाली] एक नगरी का नाम यस्ता वेस्सासिअ देखो वेसासिअ (भग)। वेहास न [विहायस.] १ माकाश, गगन । (णाया १, ८-पत्र १३४)। अन्तराल, वेह सक [प्र+ ईक्ष ] देखना, अवलोकन (कप्पः ३३०)।वेसास देखो वीसासः 'को किर वेसासु करनाः 'जहा संगामकालंसि पिट्ठतो भीरु | बीच भाग (सूत्र १, २, १, ८) वेसासो' (धर्मवि ६५)। वेहई' (सूत्र १, ३, ३, १) । वेहास देखो वेहायस (पव १५७धनु १)।वेसासिअ वि [वैश्वासिक, विश्वास्य ] | बह सक [व्यधु ] बींधना, छेदना। वेहइ वेहिम वि [वैधिक, वेध्य तोड़ने योग्य, दो विश्वास-योग्य, विश्वसनीय, विश्वास-पात्र | (पि ४८६)। टुकड़े करने योग्य (दस ७, ३२) । (ठा ५, ३--पत्र ३४२; विपा १, १--पत्र भोट सम १२५; वैउंठ देखो वेकुंठ (समु १५०)। १५ कप्प; औप; तंदु ३५)। वज्जा १४२) । २ अनुबोध, अनुगम, मिश्रण। वैभव देखो बेहव (त्रि १०३) वेसाह देखो वइसाह (पान; वव १)। ३ द्यत-विशेष, एक तरह का जुआ (सूम १, वोअस देखो वोकस । कवकृ.वोयसिजमाण वेसाही श्री[वैशाखी] १ वैशाख मास की ६, १७)। ४ अनुशय, अत्यन्त द्वेष (परह पूर्णिमा । २ वैशाख मास की अमावस (इक)- १, ३-पत्र ४२) 10 वोइय वि [व्यपेत] वर्जित, रहित (भवि) । बेसि वि [पिन] द्वेष करनेवाला (पउम | वेह पुं [वेधस्] विधि, विधाता (सुर बोंट देखो विंट = वृन्त (हे १, १३६)। ८, १८७ सुर ६, ११५) । वोकिल्ल वि [दे] गृह-शूर, घर में वीर बननेबेसिअ देखो वइसिअ (दे १, १५२)। बेहण न [वेधन वेधन, छेद करना (राय । वाला, झूठा शूर (दे ७,८०)। बेसिअ पुंस्त्री [वैशिक] १ वैश्य, वणिक १४६) धर्मवि ७१)। वोकिल्लिअ न [दे] रोमन्थ, चबी हुई चीज (सूम १, ६, २)। २ न. जैनेतर शास्त्र वेहम्म देखो वइधम्म (उप १०३१ टी को पुनः चबाना (दे ७, ८२). विशेष, काम-शास्त्र (अणु ३६, राज) धर्मसं १८५ टी)। वोक सक [वि+ज्ञपय ] विज्ञप्ति करना । वेसिअ वि [वैषिक] वेष-प्राप्त, वेष-संबन्धी चेहल्ल पुं [विहल्ल] राजा श्रेणिक का एक | | वोक्कइ (हे ४, ३८)। वकृ. वोकंत (सूम २,१, ५६, प्राचा २, १, ४, ३)। पुत्र (अनु १, २, निर १, १)। (कुमा) 1 For Personal & Private Use Only Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२४ पाइअसहमहण्णवो वोक-वोमिला वोक सक [व्या + हृ, उद् + नद्] पुका- वोच्छिद सक [व्युत् , व्यव + छिद्] १ | वोट्रि वि [दे] सक्त, लीन (षड् )।रना, आह्वान करना । वोक्क इ (षड् ; प्राकृ भांगना, तोड़ना, खण्डित करना । २ विनाश वोड विदे] १ दुए । छिन्न-कर्ण, जिसका ७४) 17 करना । ३ परित्याग करना । वोच्छिदइ | कान कट गया हो वह (गा ५४६) । देखो वोक सक [ उद् + नट ] अभिनय करना । (उत्त २६, २)। भवि वोच्छिदिहिति (पि बोड । वोक्काइ (प्रा. ७४) । ५३२) । कर्म. वुच्छिजं, वोच्छिजइ, वोच्छि- | वोडही स्त्री [दे] १ तरुणी, युवति। २ वोक्त वि[व्युत्क्रान्त १ विपरीत क्रम से जए (कम्म २, ७: पि ५४६; काल)। भवि. कुमारी; 'सिक्खंतु वोडीयो' (गा ३९२)। स्थित (हे १,११६)। २ अतिक्रान्त; 'पज्जवोच्छिजिहिति (पि ५४६)। वकृ. वोच्छंदंत, देखो वोद्रह । वनयवोक्कंतं तं वत्थु दबढिअस्स वयणिज्ज' वोच्छिंदमाण (से १५, ६२ ठा ६-पत्र वोड्ड वि [दे] मूर्ख; वेवकूफ (उव)। (सम्म ८) । देखो वुक्कत । ३५६)। कवकृ.वोच्छिज्जत, वोच्छिज्जमाण वोढ वि [ऊढ] वहन किया हुआ (धात्वा वोकस सक [ व्यप + कृष् ] ह्रास प्राप्त (से ८, ५, ठा ३, १-पत्र ११६)।करना, कमी करना । कवकृ. वोक्कसिज्जमाण कोच्छिण देखो वोच्छिन्न (विपा १, २ वोढ वि [दे] देखो वोड (गा ५५० प्र)। (भग ५, ६-पत्र २२८)। पत्र २८) । वोढव्व देखो वह = वह । वोकस देखो वोकस (सूत्र १, ६, २)। वोच्छित्ति स्त्री [व्यवच्छित्ति] विनाश वोदु वि [चोढ़ ] वहन-कर्ता (महा)।' वोक्स देखो वुक्कस = व्युत् + कृष् । वोक्क __ 'संसारवोच्छित्ती' (विसे १६३३)। °णय पुं नया पर्याय-नय (दि)। वोढुं देखो वह = वह । साहि (मापा २, ३,१, १०)। वोच्छिन्न देखो वुच्छिन्न (भगः कप्पा सुर वोढूण अ [उडढ्वा] वहन कर (पि ५८६) । वोक्का स्त्री [दे] वाद्य-विशेष; ‘डक्कावोक्कारण ___४, ६६) । वोत्तव्य देखो वय = वच् ।' रखो वियंभिभो रायपंगणए' (सुपा २४२)। देखो बुक्का । वोच्छेअ । व्युच्छेद, व्यवच्छेद] वोत्तुआण अ[उक्त्वा ] कह कर (षड्-पू वोच्छेद १ उच्छेद, विनाश; 'संसारवो । १५३)। वोक्का स्त्री [व्याहृति] पुकार (उप ७६८ च्छेयकरे' (णाया १, १-पत्र ६०० धर्मसं वोत्तं । टी) २२८) । २ अभाव, व्यावृत्ति (कम्म ६, वोत्तण ६ देखो वय = वच् । वोक्कार देखो बोकार (सुर १, २४६) । २३) । ३ प्रतिबन्ध, रुकावट, निरोध (उवा; वोदाण न [व्यवदान १ कर्म-निर्जरा, कर्मों वोक्ख देखो वोक्क = उद् + नद् । वोक्खइ | पंचा १, १०)। ४ विभाग (गउड ७४०) का विनाश (ठा ३, ३-पत्र १५६; उत्त (धात्वा १५४)। वोच्छेयण न [व्युच्छेदन] १ विनाश २६, १) । २ शुद्धि, विशेष रूप से कर्मवोक्खंदग [अवस्कन्द] आक्रमण (महा) (चेइय ५२४; पिंड ६६६) । २ परित्याग विशोधन (पंचा १५, ४: उत्त २६, १; भग)। वोक्खारिय बि [दे] विभूषितः 'पवरदेवंग- (ठा ६ टी-पत्र ३६०)। ३ तप, तपश्चर्या (सूत्र १, १४, १७)। ४ वत्थवोक्खारियकरण्यखंभ (स २३६)।- वनस्पति-विशेष (पएण १--पत्र ३४) ।। वोज देखो वज्ज । वोजइ (हे ४, १९८ टी) वोगड वि [व्याकृत] १ कहा हुअा, प्रति- वोज सक [ वीजय ] हवा करना । वोजइ | वोद्रह वि [दे] तरुण. युवा (दे ७, ८०); पादित (सूम २, ७, ३८, भगः कस)।२ (हे ४, ५; षड् )। वकृ वोज्जत (कुमा)। । 'वोद्रबहम्मि पडिया' (हे २,८०)। स्त्री. परिस्फुट (आचानि २६२)। ही; "सिक्कखंतुवोद्रहीयो' (हे २, ८०)। वोज्जिर वि [सित] डरनेवाला (कुमा)। वोगडा स्त्री [व्याकृता] प्रकट अर्थ वाली वोभीसण वि [दे] वराक, दीन, गरीब (दे वोझ देखो वह = वह । भवि. 'तेणं कालेणं भाषा (पएण ११-पत्र ३७४)। ७, ८२) । | तेणं समएणं गंगासिंधूप्रो महानदीमो रहपह वोम न [व्योमन] आकाश, गगन (पापा वोसिअ वि [व्युत्कापत] निष्कासित, | वित्थराम्रो अक्खसोयप्पमाणमेत्तं जणं वोज्झि विसे ६५६) बिन्दु पुं ["बिन्दु] एक बाहर निकाला हुआ (तंदु २) । हिति' (भग ७, ६--पत्र ३०७) । कृ. राजा का नाम (पउम ७, ५३)। वोच । सक विद्] बोलना, कहना । वोचइ, 'नासानीसासवायवोज्झं...अंसुयं' (णाया वोमझ [दे] अनुचित वेष (दे ७, ८०) वोच्च । वोच्चइ (धात्वा १५४) । १, १, १-पत्र २५; राय १०२ प्राप)। वोच्चत्थ वि [व्यत्यस्त] विपरीत, उल्टा बोझ वोमज्झिअ न [दे] अनुचित वेष का ग्रहण पुं[दे] बोझ, भारः 'असि'हियनिस्सेस (?यस)बुद्धिवोच्चत्थे ( उत्त ८, बोज्झमल्लवोझ फलयवोज्झमल्लं च' (दे ७, ८० टी)। ५. सुख ८, ५; विसे ८५३)। (दे ७, ८०)। वोमिल पुं[व्योमिल] एक जैन मुनि (कप्प)। वोत्थ न [दे] विपरीत रत (दे ७,५८)। बोझर वि [दे] १ प्रतीत । २ भीत, त्रस्त वोमिला स्त्री [व्योमिला] एक जैन मुनिवोच्छ देखो वय = वच् । शाखा (कप्प)। For Personal & Private Use Only Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोय-व्वे पाइअसहमहण्णवो -२५ वोय पुंवोक] एक देश का नाम (पउम उल्लंधित (पान; सुर २, १; कुप्र ४५; से औप), वोसिरेजा, वोसिरे (पि २३५) । ९८, ६४)। | १,३, ४, ४८ गा ५७, २५२, ३४०; हे वकृ. वोसिरंत (कुप्र ८१)। संकृ. वोसिज्ज, वोरच्छ वि [दे] तरुण, युवा (दे ७,८०). ४, २५८ कुमाः महा)। वोसिरित्ता (सूत्र १, ३, ३, ७ पि २३५)। वोरमण न [व्युपरमण] हिंसा, प्राणि-वध वोल्ल सक [आ + क्रम् ] आक्रमण करना। कृ. वोसिरियव्य (पत्र ४६)। वल्लइ (धात्वा १५४)। वोसिर वि [व्युत्सर्जन] छोड़नेवाला (उप (पएह १, १-पत्र ५)। पृ २६८) । वोरल्ली स्त्री [दे] १ श्रावण मास की शक्ल वोल्लाह पुं [वोल्लाह] देश-विशेष (स ८१)। वोसिरण न [व्युत्सर्जन] परित्याग (हे २, चतुर्दशी तिथि में होनेवाला एक उत्सव । वोल्लाह वि [वौल्लाह] देश-विशेष में उत्पन्न १७४ श्रा १२ श्रावक ३७६; अोघ ८५) ।। २ श्रावण मास की शुक्ल चतुर्दशी (दे ७, (स ८१)।। वोसिरिअ देखो वोस? (पउम ४, ५२; ८१) । वोवाल पुं[दे] वृषभ, बैल (दे ७,७६)। धर्मसं १०५१; महा)।वोरविअ वि [व्यपरोपित] जो मार डाला वोसग्ग पुं [व्युत्सर्ग] परित्याग (विसे | वोसेअ वि [दे] उन्मुख-गत (दे ७, ८१)17 गया हो वह; 'सकारित्ता जुयलं दिन्नं बिइएण २६०५) । वोरविनो' (वव १)। वोसग्ग। अक[वि+ कस ]१ विकसना, वोहित्त न [वहित्र] प्रवहण, जहाज, नौका वोरुट्ठी श्री [दे] रुई से भरा हुमा बस्न (पदवोसट्ट । खिलना । २ बढ़ना। वोसग्गइ, (गा ७४६) । देखो बोहित्थ ।। वोसट्टइ (षड् ; हे ४, १६५, प्राकृ ७६)। वोहार न [दे] जल-वहन (दे ७,५१) . वोल सक [गम् ] १ गति करना, चलना। व्युड पुं [दे] विट, भडमा (षड् ) ।। २ गुजारना, पसार करना। ३ अतिक्रमण वोसट्र सक [वि + कासय 1१ विकास | बंद देखो बंद = वन्द प्राप्र) करना, उल्लंघन करना। ४ अक. गुजरना, करना । २ बढ़ाना । वोसट्टइ (धात्वा १५४)। व्रत्त (अप) देखो वय = व्रत (हे ४, ३६४) । पसार होना । वोलइ (प्राकृ ७३; हे ४, वोसट्ट वि [विकसित] विकास-प्राप्त (हे ४, वाक्रोस (अप) पुं [व्याक्रोश १ शाप । १६२, महा: धर्मसं ७५४); 'कालं वोलेइ' २५८ प्राकृ ७७)। २ निन्दा । ३ विरुद्ध चिन्तन (प्राक ११२)।(कुप्र २२४), वोलंति (वजा १४८धर्मवि वोसट्ट वि[दे] भर कर खाली किया हुआ जागरण (अप) देखो वागरण (प्राकृ ११२) । ५३) । वकृ. वोलंत, वोलेंत (कुमा गा (दे ७, ८१)। ब्राडि (अप) [व्याडि] संस्कृत व्याकरण २१०, २२०; पउम ६, ५४; से १४, ७५ वोसट्टिअ वि [विकसित] विकास-प्राप्त और कोष का कर्ता एक मुनि (प्राकृ ११२)।सुपा २२४ से ६,६६) । संकृ. वोलिऊण, (कुमा)। व्रास देखो वास = व्यास (हे ४, ३६६ प्राक वोलेत्ता (महाः माव) । कृ. वोलेअव्व वोसटू वि [व्युत्सृष्ट] १ परित्यक्त, छोड़ा ११२ षड्; कुमा)। (से २,१; स ३६३) । प्रयो., संकृ.वोलाविउं, हमा (कप्पा कस; मोघ ६०५, उत्त ३५, व्व देखो इव (हे २,१८२, कप्प; रंभा) वोलावेउं (सुपा १४०; गा ३४६ प्र?)। १६, प्राचा २, ८, १; पंचा १८, ६)। व्व देखो वाम (प्राकृ २६)। देखो बोल = व्यति + क्रम् ।। २ परिष्कार-रहित, साफसूफ-वजित (सूम । व्वअ देखो वय-व्रत (कुमा)। वोल देखो बोल = दे (दे ६,६०)। १,१६,१)। ३ कायोत्सर्ग में स्थित (दस | व्यवसिअ देखो ववसिय = व्यवसित (प्रभि वोलट्ट प्रक [व्युप + लूट ] छलकना। | ५, १,६१) १२४) वकृ. वोलट्टमाण (भग)। वोसमिय वि [व्यवशमित] उपशमित, व्याज देखो वाय- व्याज (मा २०)। वोलावि वि [गमित] अतिक्रामित (वजा शान्त किया हुआ; 'खामिय वोसमियाई | "व्वावार देखो वावार = व्यापार (मा ३६) १४, सुपा ३३४; गा २१)। अहिगरणाइंतु जे उदीरेंति । ते पावा नायव्वा' व्वावुड देखो वावुड (अभि २४६)। वोलिअ वि [गत] १ गया हुआ (प्राकृ (ठा ६ टी-पत्र ३७१)। व्वाहि देखो वाहि (मा ४४)। वोलीण । ७७)। २ गुजरा हुआ, जो पसार वोसर ) सक [व्युत् + सृज] परित्याग | व्विव देखो इव (प्राकृ २६)। हुमा हो वह, व्यतीत (सुर ६, १६; महा: वोसिर ) करना, छोड़ना । वोसरिमो, व्वे प्र[दे] संबोधन-सूचक अव्यय (प्राकृ पव ३५, सुर ३, २५) । ३ प्रतिक्रान्त, । वोसिरइ, वोसिरामि (पव २३७, महा: भगः । ८०) ॥ इन सिरिपाइअसद्दमहण्णवम्मि वाराइसहसंकलणो पंचतीसइमो तरंगो समत्तो॥v १०४ For Personal & Private Use Only Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२६ पाइअसहमहण्णवो शिआल-स श शिआल (मा) पुं[श्याल] बहू का भाई, श्चिंट (मा) देखो चिट्ठ - स्था। चिटदि साला (प्राकृ १०२, मृच्छ २०४) । (धात्वा १५४ प्राकृ १०३)। ॥ इम सिरिपाइअसहमहण्णवम्मि शमाराइसहसंकलणो छत्तीस इमो तरंगो समत्तो॥ स पु [स] व्यञ्जन वर्ण-विशेष, इसका २ मुक्ति, मोक्ष (भविः राज)जण पुं [भूत] १ सत्य, वास्तविक, सच्चा; 'सब्भूउच्चारण-स्थान दाँत होने से यह दन्त्य कहा [जन] भला प्रादमी, सत्पुरुष (उव; हे । एहिं भावेहि (उवा)। २ विद्यमान (पंचा जाता है (प्राप्र), अण, गण पुं[गण १, ११, प्रासू ७)। त्तम वि [त्तम] ४, २४) याचार ( [ आचार] प्रशस्त पिंगल-प्रसिद्ध एक गण, जिसमें प्रथम के दो अतिशय साधु, सज्जनों में अतिश्रेष्ठ (सुपा प्राचरण (रयण १५)"रूव वि [ रूप ह्रस्व और तीसरा गुरु अक्षर होता है (पिंग) ६५५; श्रा १४; साधं ३)। थाम न प्रशस्त रूपवाला (पउम ८, ६), "ल्लग गार [कार] 'स अक्षर (दनि [स्थामन् प्रशस्त बल (गउड)। धम्मि [ लग] प्रशस्त संवरण, इन्द्रिय-संयम (सूम १०, २) वि [ धार्मिक] श्रेष्ठ धार्मिक (श्रा १२)। २, २, ५७), वाय पुं [वाद] प्रशस्त स देखो सं = सम् (षड् ; पिंग)। नाण न [ज्ज्ञान] उत्तम ज्ञान (था २७)। वाद (सूप २, ७, ५) 'वाया स्त्री स पुं [श्वन्] श्वान, कुत्ता (हे १, ५२, ३, पभ वि [प्रभ] सुन्दर प्रभा वाला [वाच् ] प्रशस्त वाणी (सूत्र २, ७, ५)। ५६ षड् ) । 'पाग पुं [पाक] चण्डाल | (राय)।प्पुरिस पुं[पुरुष] १ सज्जन, स पु [स्व] १ प्रात्मा, खुद (उवा; कुमाः सुर (उव), 'मुहि पुत्री [मुखि] कुत्ते की तरह भला प्रादमी (अभि २०१; प्रासू १२) । २ २, २०६) । २ ज्ञाति, नात (हे २, ११४, आचरण, कुत्ते की तरह भषण-भूकना(णाया किंपुरुष-निकाय के दक्षिण दिशा का इन्द्र षड्) । ३ वि.प्रात्मीय, स्वीय, निजी (उवाः १, ६-पत्र १६०)। वच पुं [पच (ठा २, ३–पत्र ८५)। ३ श्रीकृष्ण (कुप्र प्रोधभा ६; कुमा; सुर ४, ६०)४ न. धन, चाण्डाल (दे १, ६४)। वाग, वाय देखो ४८) । °Cफल वि [फल श्रेष्ठ फलवाला द्रव्य (पंचा ८, प्राचा २, १, १, ११)। "पाग (वै ५६ पान)। (अच्चु ३१) । ब्भाव पुं [ भाव १ ५ कर्म (माचा २, १६, ६) कडभि , स प्र [स्वर ] सुरालय, स्वर्ग (विसे सम्भव, उत्पत्ति (उप ७२६)। २ सत्त्व, गडभि वि [कृतभिद्] निज के किए १८८३)। अस्तित्व (सम्म ३७७ ३८; ३६)। ३ सुन्दर हुए कर्मों का विनाशक (पि १९६ पाचा १, स वि [सत् ] १ श्रेष्ठ, उत्तम (उवाः कुमाः भाव, चित्त का अच्छा अभिप्रायः “सम्भावो ३, ४, १, ४) जण पुं[जन] १ ज्ञाति, कुप्र १४१)। २ विद्यमान; 'नो य उप्पजए पुण उज्जुजरणस्स कोडि विसेसेई' (प्रासू सगा। २. प्रात्मीय लोग (स्वप्न ६७ षड् )।अ-स' (सूम १, १, १, १६)। उरिस पुं १७२; उव; हे २, १९७)। ४ भावार्थ, तंत वि [तन्त्र] १ स्वाधीन, स्व-वश [पुरुष] श्रेष्ठ पुरुष, सजन (गउड)। तात्पर्य (सुर ३, १०१)। ५ विद्यमान पदार्थ (विसे २११२; दे ३, ४३; अच्चु १)।२ कय वि [कृत] संमानित (पएह १, ४- (अरण)। भावदायणा स्त्री [भावदर्शन] न. स्वकीय सिद्धान्त (निचू ११), 'त्थ वि पत्र ६८); देखो किअ) कह वि [कथ] मालोचना, प्रायश्चित्त के लिए निज दोष [स्थ १ तंदुरुस्त, स्वभाव-स्थित । २ सुख सत्य-वक्ता (सं ३२)। "किअ न [कृत] का गुर्वादि के समक्ष प्रकटीकरण (प्रोष | से अवस्थित (पामः पउम २६, ३१; स्वप्न सत्कार, संमान (उत्त १५, ५); देखो कय ७६१) भाविअ वि [भावित सद्- १०६; सुर १०, १०४ सुपा २७६ महाः 'ग्गइ स्त्री [गति] उत्तम गति-१ स्वर्ग।। भाव-युक्त (स २०१, ६६८)। भूअ वि सण)। पक्ख पुं [पक्ष] १ सार्मिक, For Personal & Private Use Only . Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो ८२७ समान धर्मवाला (द्र १७) । २ तरफदार (कुप्र इच्छावाला (राज) । कामणिज्जरा स्त्री | उत्सुक (से १, ४६)। त्तर वि [त्वर] ११६) । ३ अपना पक्ष (सम्म २१) । पाय | [कामनिर्जरा] कर्म-निर्जरा का एक भेद | १ त्वरा-युक्त, वेगवाला । २ न. शीघ्र, न [पात्र] निज का नाम, खुद की संज्ञा (राज) काममरण न [काममरण] | जल्दी (सुपा १५६)। द्ध वि [ ] (राज)। पभ वि [प्रभ] निज से ही मरण-विशेष, पण्डित-मरण (उत्त ५, २) अर्ध-सहित, डेढ़ (पउम १८, ५४) । धवा शोभनेवाला (सम १३७)। ब्भाव, भाव केय वि [केत] १ गृहस्थ । २ प्रत्याख्यान- स्त्री [ववा] सौभाग्यवती स्त्री, जिसका पुं[ भाव] प्रकृति, निसर्ग; 'कणियारतरू विशेष (पव ४)। क्खर वि [क्षर] | पति जीवित हो वह स्त्री (सुपा ३६५) ।। नवकरणपारसुंदेरदरिप्रसन्भायो' (कुमा ३, विद्वान्, जानकार (वज्जा १५८ सम्मत्त 'नय वि [नय] न्याय-युक्त, व्याजबी (सुपा ४४ सम्म २१, सुर १, २७, ४, १२५); १४३)। गार वि [गार] गृहस्थ (ोघभा ५०४) । पक्ख वि [पक्ष १ पाखवाला, 'कुवियस्स पाउरस्स य २०)। 'गार वि [पर प्राकार-युक्त | पाँखों से युक्त (से २, १४)। २ सहायता वसरणासत्तस्स पायरत्तस्स । (धर्मवि ७२) । गुण वि [गुण] गुणवान्, करनेवाला, सहायक, मित्र (पव २३६; स मत्तस्स मरंतस्स य गुणी (उव; सुपा ३४५; सुर ४, १६६)। ३६७)। ३ समान पाववाला, दक्षिण आदि सब्भावा पायडा हुति" 'ग्ग वि [ ] श्रेष्ठ, उत्तम (से ६, ४७)। तरफ से जो समान हो वह (निर १, १) (प्रासू ६४)। गह वि [ग्रह ] अरक्त, ग्रहण-युक्त, । 'पुन्न वि [पुण्य] पुण्यशाली, पुण्यवान 'भावन्नु वि [ भावज्ञ] स्वभाव का जान- दुष्ट ग्रह से आक्रान्त (पान बव १) । घिण (सुपा ३८४), पभ वि [प्रभ] प्रभाकार (पउम ८६, ४१), "यण देखो जण वि [घृण] दयालु (अच्चु ५०) । चक्खु, युक्त (सम १३७, भग)। परिआव, (उवा; हे २, ११४; सुर ४, ७६; प्रासू चक्खुअवि [चक्षुष , चक्षुष्क नेत्र- परिताव वि ["परिताप] परिताप७६, ६५), रूय, रूव न [ रूप] स्व वाला, देखता (पउम ६७, २३, वसुः सं संताप से युक्त (श्रा ३७ षड्)। "प्पिसभाव (गउड धपंसं ६१३; कुमाः भविः सुर ७८ विपा १, १-पत्र ५) चित्त वि ल्लग वि [°पिशाचक] पिशाच-गृहीत, पागल २, १४२)। संवेयण न [संवेदन] स्व [चित्त चेतनावाला, सजीव (उवाः पडि)।- (पएह २, ५-~-पत्र १५०)। प्पिवास वि प्रत्यक्षज्ञान (धर्मसं ४४)+ हाअ, हाव 'चेयण वि [चेतन] वही अर्थ (विसे [पिपास] तृषातुर, सतृष्ण (हे २, ६७) देखो भाव (से ३, १५, ७, १७; गउड; १७५३) चित्त देखो चित्त (प्रोघ २२; | "प्पिह वि [स्पृह] स्पृहावाला (दे ७, सुर ३, २२; प्रासू २; १०३), हाववाद सुपा ६२५, ६२६; पि १६६; ३५०)। २६) फंद वि [स्पन्द] चलायमान [ भाववाद] स्वभाव से ही सब कुछ "जिय देखो जोअ (सुर १२, २१०)। (दे८,८)। °फल, फल वि [फल] होता है ऐसा माननेवाला मत (उप १००३)। जोइ विज्यातिष् ] प्रकाश-युक्त (पि सार्थक (से १५, १४ हे २, २०४ प्राप; हअन [हित] १ निज का भला, स्वीय ४११; सूत्र १, ५, १, ७)। जोणिय वि उप ७२८ टी)। "ब्बल वि [बल] बल. अपनी भलाई। २ वि. निज का भला करने वान्, बलिष्ठ (पिंग)+ भल देखो फल [ योनिक] उत्पत्ति-स्थानवाला, संसारी (ठा वाला, स्वहितकर (सुपा ४१०)। २, १--पत्र ३८), 'जीअ, जीव वि (हे १, २३६ कुमा), मण वि [मनस ] स वि [स] १ सहित, युक्त (सम १३७; [जीव] १ ज्या-युक्त, धनुष की डोरी- १ मनवाला, विवेक-बुद्धिवाला (धरण २२) । भगः उवाः सुपा १६२, सण)।२ समान, वाला । २ सचेतन, जीववाला (पि १९६; से २ समान मनवाला, राग-द्वेष आदि से रहित, तुल्या 'सगुत्ते', 'सपक्खे' (कप्प, निर १, १)। । १, ४५) । ३ न. कला-विशेष, मृत धातु मुनि, साधु (अणु)। मणक्ख वि [ मनस्क] अण्ह वि [तृष्ण] उत्कण्ठित, उत्सुक वगैरह को सजीवन करने का ज्ञान (प्रौप; पूर्वोक्त अर्थ (सूत्र २, ४, २) मय वि (से १२, ५८ गा ३४८; गउड सुपा ३८४)। रायः जं २ टी-पत्र १३७), 'ड्ढ वि [मद] मद-युक्त (से १, १६; सुपा९८८)। अर वि [कर] कर-सहित (से २, २६)। [I] डेढ़ । 'ड्ढकाल [र्धिकाल] महिड्ढि अ वि [ महद्धिक] महान् वैभवअर वि [ गर] विष-युक्त, जहरीला (से तप-विशेष, पुरिमड्ड तप (संबोध ५८)। वाला (प्रासू १०७) । मिरिईअ, "मिरीय २, २६) इण्ड देखो अग्ह (सुपा °णप्पय, णप्फद, गप्फय वि [ नखपद] वि [मरीचिक] किरण-युक्त (भगः प्रौप; ४१२)4 °उण वि [गुण] गुण-युक्त (सुपा नख-युक्त पैरवाला, सिंह आदि श्वापद जंतु ठा ४, १-पत्र ३२६)। 'मेर वि १८५), उग्ण, उन्न वि [ पुण्य] पुण्य- (सूत्र २, ३, २३, ठा ४, ४-पत्र २७१ [मर्याद] मर्यादा-युक (ठा ३, २-पत्र युक्त, पुण्य-शाली (महा; सुर २,६८; सुपा सूत्र १, ५, २, ७; परण १-पत्र ४६ १२६)। यह वि [तृष्ण तृष्णा-युक्त ६३५) । ओस वि [तोष] सन्तुष्ट (उप पि १४८)। णाह वि [नाथ] स्वामी- (गउड, सुपा ३८४M याण वि [ज्ञान] ७२८ टी) ओस वि ['दोष दोष-युक्त वाला, जिसका कोई मालिक हो वह (विपा सयाना, जानकार (सुपा ३८५), योगि (उप ६२८ टो), काम वि [ काम] १ समृद्ध १, २-पत्र २७, रंभाः कुमा)। त्तण्ड वि [योगिन्] १ व्यापार-युक्त, योगवाला। मनोरथवाला (स्वप्न ३०)। २ मनोरथ-युक्त. वि [तृष्ण] तृष्णा-युक्त, उत्कण्ठित, २ न. तेरहाँ गुण स्थानक (कम्म २, ३१)। For Personal & Private Use Only Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२८ पाइअसहमहण्णवो सअ-सइलभ 'रय वि [रत] कामो (से १, २७) सिरिय (पि ९८; अभि १५६; भगः सम सई देखो सई = सती (सुपा ३०१)। रहस वि [रभस] वेग-युक्त, उतावला १३७ णाया १,६-पत्र १५७) सइअ वि [शतिक] सौ का परिमाणवाला (गा ३५४; सुपा ६३२, कप्पू) राग वि सअ सक [स्वद्] १ प्रीति करना। २ चखना, (गाया १,१-पत्र ३७)। देखो सग ।। [ राग राग-सहित (ठा २, १-पत्र ५८)M स्वाद लेना। सइ (प्राकृ ७५, धात्वा | सइअ वि [शयित] सुप्त, सोया हुआ (दे 'रागसंजत, रागसंजय वि [ रागसंयत] १५४) ७, २८; गा २५४७ पउम १०१, ६०) वह साधु जिसका राग क्षीण न हुआ हो | सअ न [ सदस ] सभा (षड् )।- सइएल्लय देखो स= स्व'ताव य भागमो (पएण १७-पत्र ४६४ उवा)। "रूव | सअअ न [दे] १ शिला, पत्थर का तख्ता। परिव्वायत्रो जक्खदेउलामो सइएल्लए दालिद्दवि [रूप] समान रूपवाला (पउम ८, २ वि. घृणित (दे ८, ४६)। पुरिसे घेतूण' (महा)। ६)। लूण वि [°लवण] लावण्य-युक्त | सअक्खगत्त पुं[दे] कितव, जुपारी (दे८, सई देखो सइ = सकृत् (माचा)। (सुपा २६३), लोग वि ['लोक] समान, २१)। सई देखो सयं = स्वयम् (ठा २, ३-पत्र सदृश (सट्ठि २१ टो) लोण देखो 'लग सअजिअ पुंस्त्री [दे] प्रातिवेश्मिक, । ६३ हे ४, ३३६; ४०२; भवि)। (गा ३१६; हे ४, ४४४; कुमा) श्री. सअज्झि पड़ोसी (गा ३३५)। स्त्री. आ| सइग वि [शतिक] सौ (रुपया प्रादि) की 'लोणी (हे ४, ४२०)। वक्ख देखो पक्ख (गा ३६, ३६ अ); 'समज्झिनं संठवंतीए कीमत का (दसनि ३, १३)। (गउड; भवि)। वण वि [ व्रण] घाववाला, (गा ३६; पिंड ३४२)। देखो सइज्झिअ। सइज्म पूंनी [दे] प्रातिवेश्मिक, पड़ोसी वरण-युक्त (सुपा २८१)। वय वि सअडिआ देखो सगडिआ (पि २०७)।- सइज्झि (दे ८, १०)। श्री. आ (सुपा [वयस ] समान उम्रवाला (दे८,२२) सअढ पुं[दे] लम्बा केश (दे ८, ११) २७८ पिंड ३४२ टी; वजा १४). 'वय वि [ व्रत] व्रती (सुपा ४५१), 'वाय सअढ पुं [शकट] १ दैत्य-विशेष (प्राप्र; सइज्झिअ न [दे] प्रातिवेश्य, पड़ोसिपन वि [ पाद ] सवा (स ४४१)। वाय संक्षि ७ हे १, १९६)। २ पुंन. यान-विशेष, । (दे ८, १० टी)। वि [वाद] वाद-सहित (सूम २, ७, ५) गाड़ी (हे १, १७७; १८०) रि j सइण्ण न [सैन्य सेना, लश्कर ( षड्)।'वास वि ["वास] समान वासवाला, एक [रि] नरसिंह, श्रीकृष्ण (कुमा)। देखो सइत्तए देखो सय = शी। देश का रहनेवाला (प्रासू ७६) विज वि सगड । सइदंसण वि [दे. स्मृतिदर्शन] मनो-दृष्ट, [विद्य] विद्यावान्, विद्वान (उप २१५) सअर देखो स-अर=स-कर, स-गर । 'व्वण देखो 'वण (गउडः श्रा १२) सअर देखो सगर (से २, २९)। चित्त में प्रवलोकित, विचार में प्रतिभासित 'व्बवेक्ख वि [ व्यपेक्ष] दूसरे की परवाह सआ म [सदा] १ हमेशा, निरन्तर (प्रातः (दे८, १९, पाम)। रखनेवाला, सापेक्ष (धर्मसं ११९७), ब्वाव हे १, ७२; कुमाः प्रासू ४६) सइदिव वि [वे. स्मृतिदृष्ट] ऊपर देखो (दे चार पुं वि [व्याप] व्याप्ति-युक्त, व्यापक (भग [चार] निरन्तर गति (रयण १५) । ८, १९) | सइन्न देखो सइण्ण (हे १. १५१; कुमा)। १, ६-पत्र ७७) व्विवर वि ["विवर] सआ स्त्री [स्रज् ] माला ( षड् ) सइम वि [शततम] सौवा, १००वा (णाया विवरण-युक्त, सविस्तर (सुपा ३६४) सइ देखो सआ = सदा (पान; हे १, ७२, संक वि [शङ्क] शंका-युक्त (दे २, १०६ | कुमा) १,१६-पत्र २१४)। सइर न [स्वैर] १ स्वेच्छा, स्वच्छन्दता (हे सुर १६, ५५; कुप्र ४४५; गउड) संकि | सइम [ सकृत् ] एक बार, एक दफा (हे। वि ['शङ्कित] वही (सुर ८, ४०)। सत्ता १, १५१ प्राप्रा पाया १, १५-पत्र १, १२८; सम ३५; सुर ८, २४४)। २३६)। २ वि. मन्द, प्रलस (पाप)। ३ स्त्री ["सत्त्वा] सगर्भा, गर्भिणी स्त्री (उत्त सइ स्त्री [स्मृति] स्मरण, चिन्तन, याद (श्रा | स्वैरी, स्वच्छन्दी (पान; प्राप्र)। २१, ३)। सिरिय, सिरीय वि [ श्रीक] १६) काल पुं [काल] भिक्षा मिलने का सइरवसह पुं [दे. स्वैरवृषभ] स्वच्छन्दी श्री-युक्त, शोभा-युक्त (पि ६८; णाया १, १, समय (दस ५, २, ६) साँढ़, धर्म के लिए छोड़ा जाता बैल (दे २, राय)। "सिह वि [स्पृह] स्पृहावाला सइ देखो स= स्व; 'सइकारियजिणपडिमाए' | २५ ८, २१)। (कुमा)। "सिह वि ["शिख] शिखा-युक्त (सुपा ५१०; भवि)। सइरि वि [स्वैरिन्] स्वच्छन्दी, स्वेच्छाचारी (राज)। सूग वि [शूक] दयालु (उव) सइ देखो सय = शत; 'प्रस्सोयव्वं सोचावि | (गच्छ १, ३८)। 'सेस वि [ शेष] १ सावशेष, बाकी रहा | फुट्टए जं न सइखंड' (सुर १४, २)। कोडि | सइरिणी श्री [स्वैरिणी] व्यभिचारिणी श्री, हुमा (दे ८,५६ गउड)। २ शेषनाग-सहित स्त्री [कोटि] एक सौ करोड़, एक मज--| कुलटा (पउम ५, १०५) (गउड १५) 'सोग, सोगिल्ल वि [शोक] | अरब ( षड्) सइल देखो सेल (हे ४, ३२६)। दिलगीर, शोक-युक्त (पउम ६३, ४ सुर ६, सइ देखो सई = स्वयम् (काला हे ४, ३६५ सइलंभ वि [दे. स्मृतिलम्भ] देखो सइ१२४), 'स्सिरिअ, 'स्सिरीअ देखो। ४३०)। । दसण (दे ८, १६; पाम)। Fathod For Personal & Private Use Only Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सइलासअ-संकड पाइअसद्दमण्णवो ८२६ सइलासपुं [दे] मयुर, मोर (दे८, सउण देखो स-उण = स-गुण । विशेष । ४ वि. सुधा-संबन्धी, अमृत का सइलासिअ २० षड्)। सउणि पुं [शकुनि] १ पक्षी, पखेरू, पाँखी (चंड हे १, १६२) । सइव [सचिव] १ प्रधान, मन्त्री, अमात्य (ौप; हेका १०५; संबोध १७)। २ पक्षि-सएजिअ देखो सइजिअ (कुप्र १९३) । (पाम)। २ सहाय, मदद-कर्ता । ३ काला विशेष, चील पक्षी (पान)। ३ ज्योतिष सओस देखो स-ओस = स-तोष- स-दोष । धतूरा (प्राकृ ११) प्रसिद्ध एक स्थिर करण जो कृष्ण चतुर्दशी संप्र[शम् ] सुख, शर्म (स ६११; सुर सइसिलिंब [दे] स्कन्द, कार्तिकेय (द ८, की रात में सदा अवस्थित रहता है (विसे -१६, ४२: सुपा ४१६)।२०)। ३३५०)। ४ नपुंसक-विशेष, चटक की तरह सइसुह वि [दे.स्मृतिसुख, देखो सइदसण बारबार मैथुन-प्रसक्त क्लीब (पव १०६; पुप्फ | संप्र[सम् ] इन प्रथों का सूचक मव्यय(दे ८, १६ पास)। १२७) । ५ दुर्योधन का मामा (णाया १, १ प्रकर्ष । अतिशय (धर्मसं ८६७) । २ सई स्त्री [शची] इन्द्राणी, शक्रेन्द्र की एक १६-पत्र २:८; सुपा २६०)। संगति । ३ सुन्दरता, शोभनता । ४ समुच्चय । सउणिअ देखो साउणिअ (राज) ५ योग्यता, व्याजबीपन (षड् )। पटरानी (ठा ८-पत्र ४२६; गाया २-- पत्र २५३; पामः सुपा ६८ ६२२, कुप्र सउणिआ। स्त्री शकुनिका, नी] १ संक सक [शक] १ संशय करना, संदेह सउणिगा पक्षिरणी, पक्षी की मादा (गा २३)। स पुं [श] इन्द्र (कुमा)। देखो करना । २ अक. भय करना, डरना । संकइ, सउणी ) १०;ाव १)। २ पक्षि-विशेष सची। संकए, संकंतिः संकसि, संकसे, संकह, संकत्य; को मादाः ‘सउणी जाया तुम (ती ८) सई स्त्री [सती] पतिव्रता स्त्री (कुप्रा २३; संकामि, संकामो, संकामु, संकाम (संक्षि ३०);. सउण्ण देखो स-उण्ण = सपुण्य । सिरि १४३) 'असंकिमाई संकंति' (सूम १, १, २, १०; सउत्ती स्त्री [सपत्नी] एक पति की दूसरी ११), "जं सम्ममुजमंतारण पाणि (?णी) एवं सई श्री [शती] सौ, १००; 'पंचराई स्त्री, समान पतिवाली स्त्री, सौत, सौतिन संकए हु विही" (सिरि ६६६) । कर्म. (धर्मवि १४)। (सुपा ६८)। संकिज्जइ (मा ५०६)। वकृ. संकंत, संकसईणा स्त्री [दे] अन्न-विशेष, तुवरी, रहर सउन्न देखो स-उन्न । माण (पवः रंभा ३३)। कृ. संकणिज्ज (ठा ५,३-पत्र ३४३)। सउम पुं[समन्] १ गृह, घर । २ जल, | (उप ७२८ टी) स पानी (प्राकृ २८)। सउँ (अप ) देखो सहु (सरणः भवि) । संकंत वि [संक्रान्त] १ प्रतिबिम्बित (गा सउमार वि [सुकुमार] कोमल (से १०, सउत पुं [शकुन्त १ पक्षी, पाखी (पाप्र)। १; से १, ५७)। २ प्रविष्ट, घुसा हुमा (ठा ३४, षड् )। ३, ३ कप्पा महा)। ३ प्राप्त । ४ संक्रमण२ पक्षि-विशेष, भास-पक्षी (स ४३६)। सउर पुं [सौर] १ ग्रह-विशेष, शनैश्चर । २ कर्ता । ५ संक्रांति-युक्त। ६ पिता प्रादि से सउंतला स्त्री [शकुन्तला] विश्वामित्र ऋषि यम, जमराज । ३ वृक्ष-विशेष, उदुम्बर का दाय रूप से प्राप्त स्त्री का धन (प्राप्र) की पुत्री और राजा दुष्यंत की गन्धर्व-विवा- पेड़ । ४ वि. सूर्य का उपासक । ५ सूर्यहिता पत्नी (हे ४, २६०)। संबन्धी (चंड हे १, १६२) । संकति स्त्री [संक्रान्ति] १ संक्रमण, प्रवेश (पव १५५; अज्झ १५३)। २ सूर्य मादि सउंदला (शौ) ऊपर देखो (अभि २६; ३०; | सउरि ( [शौरि विष्णु, श्रीकृष्ण (पान) का एक राशि से दूसरी राशि में जाना; पि २७५)। सउरिस देखो स-उरिस = सत्पुरुष । 'प्रारभ ककसंकतिदिवसभो दिवसनाहुब' सउण वि [दे] रुढ, प्रसिद्ध (दे ८, ३)।- सउल शकुल] मत्स्य, मछली; 'सउला (धर्मवि ६६) सउण पुंन [शकुन] १ शुभाशुभ-सूचक बाहु- सहरा मीणा तिमी झसा परिणमिसा मच्छा' संकंदण पुं [संक्रन्दन] इन्द्र, देवाधीश स्पन्दन, काक-दर्शन आदि निमित्त, सगुन (पाम) (उप ५३० टी. उपपं १) 'सुहजोगाई सउणो कंदिप्रसदाई इप्ररो उ' सउलिअ वि [दे] प्रेरित (दे ८, १२)। संकट्टिअ वि [संकर्तित] काटा हुमाः 'धन्न(धर्म २; सुपा १८५; महा) ।२ पुं. पक्षी, सउलिआ । स्त्री [दे. शकुनिका, 'नी] संकट्टितमाणा' (ठा ४, ४–पत्र २७६) ।। पाँखी (पात्र; गा २२०; २८५ करु ३४; सउली १ पक्षि-विशेष की मादा, चील सट्ठि ६ टो)। ३ पक्षि-विशेष (पएह १, पक्षी की मादा (ती ८, अणु १४१; दे ८, संकट्ठ वि [संकष्ट] व्याप्त (राज)। १-पत्र ८)। "विउ वि [विद्] सगुन ८)।२ एक महौषधि (ती ५) विहार संकट्ठ देखो संकिट (राज)। का जानकार (सुपा २९७)/रुअन [रुत] पु[विहार] गुजरात के भरौच शहर का संकड वि [संकट] १ संकीर्ण, कम चौड़ा, १ पक्षी की मावाज । २ कला-विशेष, सगुन एक प्राचीन जैन मन्दिर (तो ८)। अल्प अवकाशवाला (स ३६२: सुपा ४१६; का परिज्ञान (णाया १,१-पत्र ३८ जं सउह पुं[सौध] १ राज-महल, राज-प्रासाद उप ८३३ टी)। २ विषम, गहन (पिंड २ टी-पत्र १३७) (कुमा)। २ न. रूपा, चाँदी । ३ पुं. पाषाण- ६३४) । ३ न. दुःख For Personal & Private Use Only Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३० 'धन्नावि ते धन्ना पुरिया वृत्ता । जे विसमसंकडेसुवि पडियावि चयंति णो धम्मं ॥' ( रयण ७३) । संकडि वि [संकट ] संकीणं किया हुआ ( कुप्र ३६० ) 1 [] निदे ८.१५; सुर ४, १४३) I संकाय [कपित] कति (राज) संक न [शन] शंका संदेह (दस ६, ५६) 1 २ संकष्प [संकल्प ] १ श्रध्यवसाय, मनःपरिणाम, विचार (उदा कप्पा १०३५) । सदाचार (१०१५) संगत प्राचार, उप । अभिलाषा (जोणि [ योनि) कामदेव, कंदर्प ( पाच ) 1 संकम सक [ सं + क्रम ] १ प्रवेश करना । २ गति करना, जाना । संकमइ, संकमंति ( पिंड १०८ सून २, ४, १० ) । वकृ. संकममाण (सम ३९; सुज्ज २, १ रंभा ) । हे संकमित (स) 1 कम [संक्रम] १ सेतू, पूल, जल पर से उतरने के लिए कामदा हुआ मार्ग (से ६, ६५० दस ५, १, ४, परह १, १ ) । २ संचारः गमन, गतिः 'पारलाई संमट्टाए' (१४२, १५० श्रावक २२३) । ३ जीव जिस कर्म- प्रकृति को बांधता हो उसी रूप से अन्य प्रकृति के दल को प्रयत्न द्वारा परिरणमानाः बँधी जाती कर्म प्रकृति में अन्य कर्म- प्रकृति के दल को डाल कर उसे बँधी जाती कर्म प्रकृति के रूप से परिणत करना (ठा ४, २ --पत्र २२० ) संकमग वि [ संक्रामक ] संक्रमण - कर्ता ( धर्मं सं १३३०) । - संक्रमण न [ संक्रमण ] १ प्रवेश 'नवरं मुत्तूण घरं घरसंकमणं कथं तेहि' (संबोध १४) । २ संचार गमन ( प्रासू १०५ ) । ३ चारित्र, संयम (५) । ४ देखो संकम का तीसरा अर्थ (पंच ३,४८ ) । ५ प्रतिबिम्बन (गउड)। पाइअसहजयो करपुं [दे] रथ्या, मुहल्ला (दे ८, ६) संकर पुं [शङ्कर ] १ शिव, महादेव (पउम ५, १२२: कुमा; सम्मत्त ७६ ) । २ वि. सुख करनेवाला ( पउम ५, १२२ दे १, १७७) । M संकर [संकर ] १ मिलावट, मिश्रण ( पराह १, ५ - पत्र ६२ ) । २ न्यायशास्त्रप्रसिद्ध एक दोष (उत्तर १०) ३ शुभाशुभरूप मिश्र भाव (सिरि ५०६ ) । ४ अशुचि पुंज, कचरे का ढेर (उत्त १२, ६) । संकरण न [संकरण] घच्छी कृति (संबो €) 1~ संकाम देखो संकम सं+ क्रम्। संकामइ (सुज्ज २, १ पंच ५, १४७) संकाम सक [ सं + क्रमय ] संक्रम करना, बंधी जाती कर्म-प्रकृति में अन्य प्रकृति के कर्म दलों को प्रक्षिप्त कर उस रूप से परिणत करना । संकामेति (भग) । भूका संकामिसु (भग) । भवि. संकामे संति (भग) । कवकृ. संमिमाण (ठा ३१ - १२० संक्रामण न [ संक्रमण ] १ संक्रम-करण ( भग ) । २ प्रवेश कराना ( कुप्र १४० ) । ३ एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाना ( पंचा ७, २०) | जोड़ना । संकलेइ ( उव) । संकलन [] १ सांकल निगह २ लोहे का बना हुआ पाद-बन्धन, बेड़ी ( विपा १, ६ – पत्र ६६, धर्मवि १३६० सम्मत्त १६०; हे १, १८६ ) । ३ सिकड़ी, मानुष-विशेष (तिरि ११) संकलण न [ संकलन ] मिश्रता, मिलावट ( माल ८७) । संकल सक [ सं + कलय ] संकलन करना, संक्रामणा स्त्री [संक्रमणा] संक्रमण, पैठ (पिंड २८) | संक्रामणी श्री [ संक्रमण ]शेष जिससे एक से दूसरे में प्रवेश किया जा सके वह विद्या (गाया १, १६ - पत्र २१३) । संकामिय वि [ संक्रमित ] एक स्थान से दूसरे स्थान में नीत (राज) । संकार देखो सक्कार = संस्कार ( धर्मंसं ३५४) । संकास वि[संकाश] १ समान, तुल्य, सरीखा ( पात्र खाया १, ५; उत ३४, ४ ५ ६ कप्पः पंच ३, ४०; धर्मवि १४९ ) । २ पुं. एक श्रावक का नाम (उप ४०३ ) । संकासिया स्त्री [संकाशिका ] एक जैन मुनि शाखा (कप्प ) 1 संकरिण [संकर्षण] भारतका भाव नववा बलदेव (राम १५४) । संकरी श्री [शङ्करी]] १ विद्या-विशेष (पम ७, १४२; महा) । २ देवी विशेष । ३ सुख करनेवाली संकला स्त्री [शृङ्खल] देखो संकल = शृङ्खल ( स १७१३ सुना २६१; प्राप) संकलिअ वि [संकलित ] १ एकत्र किया (३४१२ २ युक्त: 'त्य अभियो पुरा कार्यकाल कल (१०) ३ योजित, जोड़ा (सिर १३४०) ४ संगृहीत (उप) ५ न संकलन कुल जोड़ (वय १) - संकलिआ स्त्री [ संकलिका ] १ परंपरा (पिंड । ( २३६) २ संकलन २ संकलन । ३ सूत्रकृतांग सूत्र का पनरहवाँ अध्ययन (राज) । संकलिआ । स्त्री [शृङ्खलिका, 'ली] सांकल, संकली · सिकड़ी, जंजीर, निगड़ (सून १, ५, २, २०; प्रामा) । ~ संकडिय - संकि संा श्री [कथा] संभाषण, वार्तालाप (पउन ७, १५८ १०६, ६ सुर ३, १२६; उप पृ ३७८ पिंड १६४) । संका स्त्री [शङ्का] १ संशय, संदेह (पडि ) । २ भय, डर (कुमा) [व] शंकावाला, शंकयुक्त (गड) I For Personal & Private Use Only = संकि वि[शङ्किन] शंका करनेवाला (म १, १, २, ६ गा ८७३; संबोध ३४; उड संकिअ [व] [शङ्कित] १ शंकावालायुक्त (भगः उवा) २ न. संशय, संदेह (पिंड ४९३: महा ६८ ) । ३ भय डर (गा ३३३ ) - 'संकिश्रमवि नेव दविश्रस्स (श्रा १४ ) । संकिट्ठ वि [संकृष्ट ] विलिखित, जोता हुआ, खेती किया हुआ (औपः गाया १, १ टीपत्र १) । Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकिट-संख पाइअसहमहण्णवो ८३१ संकि? देखो संकिलिट्र (राज)। संकुचिय देखो संकुइय (दस ४.१) संकोड पुं[संकोट] सकोड़ना, संकोच (पएह संकिण्ण वि [संकीर्ण] १ सँकरा, तंग, अल्पा- | संकुड वि [संकुट] सँकरा, संकीणं, संकुचित;| १, ३-पत्र ५३) । वकाशवाला (पाना महा)।२ व्याप्त (राज)। 'अंतो य संकुडा बाहिं वित्थडा चंदसुराणं संकोडणा स्त्री [संकोटना ] ऊपर देखो ३ मिश्रित, मिला हुआ (ठा ४, २, भग २५, (सुज्ज १६)। (राज)।७ टी-पत्र ६१९)। ४ पुं. हाथी की एक संकुडिअ वि [संकुटित] सकुचा हुमा, संकु- संकोडिय वि [संकोटित] सकोड़ा हुमा, जाति (ठा ४,२-पत्र २०८) चित (भग ७,६-पत्र ३०७ धमस ३८७ संकोचित (पराह १.३-पत्र ५३; विपा संकित देखो संकिअ (णाया १, ३-पत्र स ३५८ सिरि ७८६) १, ६–पत्र ६८ स ७४१)।संकुद्ध वि [संक्रुद्ध] क्रोध-युक्त (वज्जा १०)M संकित्तण न [संकीर्तन] उच्चारण (स्वप्न संख पुंन [शङ्ख] १ वाद्य-विशेष, शंख (मंदि; संकुय देखो संकुच । संकुयइ (वज्जा ३०)। रायः जी १५, कुमाः दे १, ३०)। २ पुं. वकृ. संकुयंत (वज्जा ३०) संकिन्न देखो संकिण्ण (ठा ४, २, भग ज्योतिष्क ग्रह-विशेष (ठा २,३-पत्र ७८)। २५, ७)।. संकुल वि [संकुल] व्याप्त, पूर्ण भरा हुआ ३ महाविदेह वर्ष का प्रान्त-विशेष, विजयसंकिर वि [शङ्कित] शङ्का करने की प्रादत (से १, ५७; उवः महा; स्वप्न ५१, धर्मवि क्षेत्र विशेष (ठा २, ३-पत्र ८०)। ४ नव ५५; प्रासू १०) वाला, शंकाशील (गा २०६, ३३३, ५८२; निधि में एक निधि, जिसमें विविध तरह के संकुलि। देखो सक्कुलि (पि ७४ ठा ४, बाजों की उत्पत्ति होती है (ठा -पत्र सुर १२, १२५; सुपा ४६८)। संकुली, ४-पत्र २२६ पव २६२ प्राचा ४४६, उप ६८६ टी)। ५ लवण समुद्र में संकिलिट्ठ वि [संक्लिष्ट ] संक्लेश युक्त, २, १, ४, ५)। स्थित वेलन्धर-नागराज का एक प्रावास-पर्वत संक्लेशवाला (उब प्रौपः पि १३६) । संकुसुमिअ वि [संकुसुमित] अच्छी तरह (ठा ४, २--पत्र २२६; सम ६८)।६ उक्त संकिलिस्स अक[सं+ क्लिश] १ क्लेश- | पुष्पित (राय ३८) पावास-पर्वत का अधिष्ठाता एक देव (ठा ४, पाना, दुःखी होना । २ मलिन होना । संकि- संकेअ सक [सं+ केतय.] १ इशारा २--पत्र २२६) । ७ भगवान् मल्लिनाथ के लिस्सइ, संकिलिस्संति (उत्त २६, ३४ भगः करना । २ मसलहत करना । संकृ. संकेइय समय का काशी का एक राजा (णाया १, औप)। वकृ. संकिलिस्समाण (भग १३, जोगिरिसमेग' (सम्मत्त २१८)। ८-पत्र १४१)। ८ भगवान महावीर के १-पत्र ५६९) संकेअ [संकेत १ इशारा, इंगित (सुपा पास दीक्षा लेनेवाला एक काशी-नरेश (ठा संकिलेस पुं[संहश] १ असमाधि, दुःख, ४१५; महा)। २ प्रिय-समागम का ८--पत्र ४३०)। तीर्थंकर-नामकर्म उपाकष्ट, हैरानी (ठा १०-पत्र ४८९; उव)। गुप्त स्थान (गा ६२६; गउड )। ३ वि. जित करनेवाला भगवान् महावीर का एक २ मलिनता, अविशुद्धि (ठा ३, ४-पत्र चिह्न-युक्त । ४ न. प्रत्याख्यान-विशेष (प्राव) श्रावक (ठा ६-पत्र ४५५, सम १५४ पव १५६ पंचा १५, ४)। संकेअवि [साङ्केत] १ संकेत-संबन्धी । २ ४६ विचार ४७७) । १० नववें बलदेव का संकीलिअ वि [संक्रीलित] कील लगाकर न. प्रत्याख्यान-विशेष (पव ४) पूर्वजन्मीय नाम (पउम २०, १९१)। ११ संकेइअ वि [संकेतित] संकेत-युक्त (था | जोड़ा हुअा (से १४, २८)। एक राजा (उप ७३६)। १२ एक राज-पुत्र १४ धर्मवि १३४; सम्मत्त २१८)। (सुपा ५६६)। १३ रावण का एक सुभट संकु [शङ्क] १ शल्य अस्त्र । २ कोलक, संकेल्लिअ वि [दे] सकेला हुआ, संकुचित (पउम ५६,३४)। १४ छन्द-विशेष (पिंग)। खूटा, कील; 'अंतोनिविट्ठसंकुव्व' (कुप्र ४०२; किया हुआ (गा ६६४) राय ३०; प्रावम) । कण्ण न [कर्ण एक १५ एक द्वीप । १६ एक समुद्र । १७ शंखवर संकेस देखो संकिलेस (उप ३१२; कम्म द्वीप का एक अधिष्ठायक देव (दीव)। १८ विद्याधर-नगर (इक) ५, ६३)। पुंन. ललाट की हड्डी (धर्मवि १७ हे १, संकुइय वि [संकुचित] १ सकुचा हुआ, संकोअ सक [सं+ कोचय ] संकुचित १०)। १६ नखी नामका एक गन्ध-द्रव्य । संकोच-प्राप्त (औप; रंभा)। २ न. संकोच | करना । वकृ. संकोअंत (सम्मत्त २१७) । २० कान के समीप की एक हड्डी। २१ एक (राज)। संकोअ [संकोच संकोच, सिमट (राय नाग-जाति । २२ हाथी के दाँत का मध्य संकुक पुं[शङ्कक] वैताब्य पर्वत की उत्तर १४० टीः धर्मसं ३६५; संबोध ४७)। भाग । २३ संख्या-विशेष, दस निखर्व की श्रेणी का एक विद्याधर-निकाय (राज)। संकोअण न [संकोचन] संकोच, सकुचाना संख्यावाला (हे १, ३०)। २५ अाँख के संकुका स्त्री [शङ्कका] विद्या-विशेष (राज) (दे ५, ३१; भग; सुर १, ७६; धर्मवि समीप का अवयव (णाया १, ८-पत्र संकुच अक [ सं + कुच् ] सकुचना, संकोच १३३) उर देखो 'पुर (ती ३; महा) । करना । संकुचए (प्राचाः संबोध ४७) वकृ. संकोइय वि [सकोचित] संकुचित किया णाभ पुं [ नाभ] ज्योतिष्क महाग्रह-विशेष संकुचमाण, संकुचेमाण (प्राचा)। हुमा, सकेला हुआ (उप ७२८ टी)। (सुज्ज २०) 'णारी स्त्री ["नारी छन्द For Personal & Private Use Only Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३२ ↓ विशेष (ग) चमग ["मायक] वानप्रस्थ की एक जाति (राज) + धर पुं ["घर] श्रीकृष्ण विष्णु (कुमा) पाल देखो ॰वाल (ठा ४, १—–पत्र १९७ ) + पर न] [पुर ] १ एक विद्याधर नगर (इक) । २ नगर - विशेष जो श्राजकल गुजरात में संखेघर के नाम से प्रसिद्ध है (राज) पुरी श्री [["पुरी] कुलंगल देश की प्राचीन राजधानी जो पीछे से अहिच्छत्रा के नाम से प्रसिद्ध हुई थी (सिरि ७८) माल पुं [माल] वृक्ष की एक जाति (जीन ३] १४२) व [न] एक उद्यान का नाम ( उवा) । 'वण्णा ['वर्णाभ] ज्योतिष्क महाग्रहविशेष ( २० ) बन ["वर्ण] जोतिष्क महाग्रह - विशेष (ठा २, ३ - पत्र ७८) वन्नाभ देखो वण्णा (ठा २, ३-पत्र ७८ ) वर पुं [वर ] १ एक द्वीप २] एक समुद्र (दीव; एक) बरोभास [वरावभास] १ एक द्वीप । २एक समुद्र (दोन) बाल [पाळ] नाग- कुमार देवों के धरण और भूतानन्द नामक इन्द्रों के एक एक लोकपाल का नाम (इक) वालय पुं [* पालक] १ जैनेतर दर्शन का अनुयायी एक व्यक्ति (भग ७, १० - पत्र ३२३) । एक आजीविक मत का एक उपासक (भग ८, ५ - पत्र ३७०) लगवि [ वत् ] शंखवाला ( छाया १, ८ पत्र १३३) । "बई श्री [ती] नगरी विशेष (ती) - संख वि[संख्य ] संख्यात, गिना हुप्रा, गिनतीवाला (कम्म ४, ३६ ४१) । [सांख्य] १ दर्शन-विशेष, कपिलमुनिप्रणीत दर्शन (गाया १, ५-पत्र १०५ सुपा ५६९) । २ वि. सांख्य मत का अनुयायी ( श्रौप; कुप्र २३) । संख पुं [दे] मागध, स्तुति पाठक (देप, २) । संखम [संख्येय] जिसकी संख्या ही सके वह (विसे ६७०; अणु ६१ टी ) । संखड न [दे] कलह, झगड़ा (पिड ३२४) शोध १५७) । - [ [] विवाह आदि के उपलक्ष्य में नात-नातेदार आदि को दिया जाता भोज, पाइअसहमणवो जेवनार ( आचा २, १,२,४; २,१, ३, १ २; ३ पिंड २२८ ओघ १२; ८८ भास २ ) संधि श्री [संस्कृति] घोदन-पाक (क) - संखणग पुं [ शङ्खनक] छोटा शंख (उत्त ३६, १२६; पराग १ – पत्र ४४० जीव १ टी-पत्र ३१) | [दे] गोदावरी हर संग्रह १४) 1 संखबइल पुं [दे] कृषक की इच्छानुसार उठ कर खड़ा होनेवाला बैल (दे ८, १९ ) 1संखम वि [संक्षम ] समर्थ (उप ६८६ टी) । संखय पुं [संक्षय ] क्षय, विनाश ( से, ४२) । संख्य वि [ संस्कृत ] संस्कारयुक्तः 'य संखयमाहु जीवियं' (सू १, २,२, २११, २, ३, १०; पि ४६), 'असंखयं जीविय मा पमायए' (उत्त ४, १) संखलय पुं [दे] शम्बूक, शुक्ति के श्राकारवाला जल-जन्तु विशेष (दे ८, १८) 1 संखला देखो संकला (गउड; प्रामा) संखलि पुंस्त्री [दे] कर्ण- भूषरण विशेष, शंखपत्र का बना हुआ ताडंक (दे ८, ७) संखव सक [ सं + क्षपय ] विनाश करना। संकृ. संखवियाण (उत्त २०, ५२ ) । संखविअ वि [संक्षपित ] विनाशित (प्रच्चु 5) 1~ संखा सक [ सं + ख्या] १ गिनती करना। २ जानना । संकृ. संखाय (सूत्र १,२, २, २१) । कृ. संखिज्ज, संखेज्ज (उवा जी ४१; उवः कप्प) | संखा प्रक [ सं + स्त्यै] १ श्रावाज करना । २ संहत होना, सान्द्र होना, निबिड़ बनना । संखाइ, संखाश्रइ (हे ४, १५; षड् ) संखा की [संख्या] १ प्रता, बुद्धि (धाचा १, ६, ४, १) । २ ज्ञान (सूत्र १,१३, ८ ) । ३नि ( ४ गिनती, गहना (भगः अणु; कप्प; कुमा) । ५ व्यवस्था ( सू २, ७, १०) अवि [तीत ] असंख्य (भग १, १ टी; जीव १ टी -पत्र १३३ श्रा ४१) । 'दत्तिय वि [दत्तिक ] उतनी ही भिक्षा For Personal & Private Use Only संख–संखुड्ड लेने का व्रतवाला संयमी, जितनी कि प्रमुक गिने हुए प्रक्षेपों में प्राप्त हो जाय (ठा २, ४ – पत्र १००, ५, १-- पत्र २६६ श्रौष) 1 संखाण न [ संख्यान] १ गिनती, गणना, संख्या । २ गणित शास्त्र (ठा ४, ४ - पत्र २६३३ भगः कप्प; श्रपः पउम ८५, ६; जीवस १३५) संखाय [संस्थान] सान्द्र ननिविद (कुमा ६, ११) । २ आवाज करनेवाला । ३ संहत करनेवाला । ४ न. स्नेह । ५ निबिड़पन । ६ संहति, संघात । ७ श्रालस्य । 5 प्रतिशब्द, प्रतिध्वनि ( हैं १, ७४, ४, १५) । संखाय देखो संखा = सं + ख्या । - संखाय वि[संखाय ] संख्या-युक्त (सूम १, १३, ८) संखायण न [शाङ्खायन] गोत्र - विशेष (सुख १०, १६ इक) संथाल [हे] हरिया की एक जाति, सांबर मृग (दे ८, ६) - संखालग देखो संखालग= शङ्ख-वत् । संखावई देखो संखावई = शङ्खावती । - संखाविय वि[संख्यापित] जिसकी गिनती कराई गई हो वह (२६२ ४१६) लिंग देखी संखिय शाङ्खिक (१०३० कु १४६ ) | = = संखिज्ज देखो संखा सं + ख्या । संखिज्जइ वि [संख्येग्रतम ] संख्यातवाँ (श्रण 1 (29 संखित्त वि [संक्षिप्त ] संक्षेप-युक्त, छोटा. किया हुआ (उवा; दं ३ जी ५१) । संखिय [शाङ्गिक] १ मंगल के लिए चन्दन - गर्भित शंख को हाथ में धारण करनेवाला । शंख बजानेवाला (कप्प; श्रौष) 1 संखिय देशो संख (४४१ पंच २. ११ जीवस १४६) । संखिया श्री [शङ्खिका ] छोटा व (जीव ३-पत्र १४६ नं २ टी -पत्र १०१; राय ४५) । संखुड्ड भक [रम् ] क्रीड़ा करना, संभोग करना । संखुहुइ (हे ४, १६८) Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखुड्डण - संगणि पाइअसद्दमद्दण्णवो संखुण न [रमण] क्रीड़ा, सुरत- फोड़ा संग न [शा] शृङ्ग-संबन्धी (जिसे २८६ ) IM संग न [शार्ङ्ग] शृङ्ग-संबन्धी (बिसे २८९ ) । (कुमा) । संग पुंन [सङ्ग ] १ संपर्क, संबन्ध ( श्राचा महागुमा २ सोहबत 'राह होणायारण इजरासंग सहारा परिसंवी ३६ १०) ३ा विषयादि-राग ( गउड प्राचा उव) । ४ कर्म, कर्म-बन्ध ( आचा) । ५ बन्धनः 'भोगा इमे सगकरा हवंति' ( उत्त १३, २७) । , संग श्री [संगति] १ श्रीयि पतिता (सुवा ११०)। २ मे (भवि) निर्यात (सूत्र १, १, २, ३) । । ३ देखो संखिज्जइ ( प्र ६१ संगइअ वि [साङ्गतिक ] १ नियति-कृत, नियति-संबन्धी (सूत्र १, १, २, ३) । २ परिचित 'सुही ति वा सहाए ति वा संग ( ? गइ ) ए ति वा' (ठा ४, ३-पत्र २४३३ राज ) 1 संखुत (अप) नीचे देखो ( संबुद्ध वि[संक्षुब्ध ] क्षोभ प्राप्त (स ५६८; ६७४ सम्मत १५६ सुपा ५१७; कुप्र १७४ ) 1 वि [संक्षुब्ध, संक्षुभित ] ऊपर देखो (सम १२५. पत्र २७२: पउम ३३, १०६ पि ३१९ ) । - संखेज्ज देखो संखा = सं + ख्या । संबुभि संयुहि संसेज संखेजइम } विसे ३०)। संखेत्त देखो संखित्त (ठा ४ २ - पत्र २२१ व १२४) । संखेव [संक्षेप] १ अल्प, कम, थोड़ा (जी 1 २५; ५१) । २ पिंड, संघात, संहति (श्रोधभा १) । ३ स्थान 'तेरससु जीवसंखेबएसु' (कम्म ६, ३५ ) । ४ सामायिक, सम-भाव से अवस्थान (विसे २७९६ ) । 18 संखेवण न [संक्षेपण] अल्प करना, न्यून करना (नव २८ ) । संविवि [संक्षेपिक] संक्षेप-युक्त। 'दसा स्त्री.ब. [°दशा] जैन ग्रन्थ-विशेष (ठा १० - पत्र ५= ५) । संखोभ सक [ सं + क्षोभय ] क्षुब्ध } करना। संखोहइ (भवि)। कवकृ. खोह संखोभिज्जमाण (गाया १, ६-पत्र १५६) । खोह [संक्षोभ ] १ भय आदि से उत्पन्न चित्त की व्यग्रता, क्षोभ ( उव; सुर २, २२ उप १३० गु ३; त्रि ९४; गउड ) । २ ग संखोहिअ वि [संक्षोभित ] क्षुब्ध किया हुआ, क्षोभ-युक्त किया हुआ (से १, ४६३ अभि ६० ) IV संग न [शृङ्ग] १ सींग, निवारण (धर्म ६३० ६४।२२ पर्यंत के ऊपर का भाग, शिखर ४ प्रधानता, मुख्यता । ५ वाद्य विशेष ६ काम का उद्र ेक (हे १, १३० ) । देखो सिंग = शृङ्ग । १०५ सगंथ पुं [संग्रन्थ] १ स्वजन का स्वजन, सगे का सगा (चाचा) । २ संबन्धी, श्वशुरकुल से जिसका संबन्ध हो वह (परह २, ४ --पत्र १३२ ) । - | संगच्छ सक [ सं + गम् ] १ स्त्रीकार करना। २ प्रक, संगत होना, मेल रखना । संगच्छइ (चेइय ७७९; षड् ), संगच्छह (स १६) । कृ. संगमणीअ (नाट - - विक्र १०० ) । ~ संगच्छ्रण न [ संगमन] स्वीकार, अंगीकार ( उप ६३० ) 1 संगम पुं [संगम ] १ मेल, मिलाप ( पाश्च महा ) । २ प्राप्तिः सग्गापवग्गसंगमहेऊ जिग धम्म (महा) । ३ नदी -मीलक, नदियों का आपस में मिलान ( खाया १, १ --पत्र ३३) । ४ एक देव का नाम (महा) | ५ स्त्री-पुरुष का संभोग (हे १, १७०)। ६ एक जैन मुनि का नाम ( उव) । संगमय पुं [संगमक] भगवान् महावीर को उप करनेवाला एक देव (२) । संगमी स्त्री [संगमी ] एक दूती का नाम (महा) 1 संगय वि [दे] चिकना (८७) । मरण, संग न [संगत] मिश्रा, मैत्री (सुर, १ २०१) । २ संग, सोहबत ( उवः कुप्र १३४ ) । ३. एक जैन मुनि का नाम ( १२ ) । ४ त्रि. युक्त, उचित ( विपा १, २ -पत्र For Personal & Private Use Only ८३३ २२ ) । ५ मिलित, मिला हुआ (प्रामु ३१३ पंचा १, १३ महा) | V संगययन [ संगतक] छन्द-विशेष (जि ७) । - = संगर देखो शंकर शंकर (२८८४) संगर [संगर ] लड़ाई राम्र का १६३; कुप ७३ धर्मवि ६३ हे ४, ३४२) - 2 संगरिंगा श्री [हे] फली विशेष सिक तरकारी होती है, सांगरी (पव ४- गाथा २२) संगल सक [ सं + घटय] मिलना, संघटित करना। संगलइ (हे ४, ११३) | संकु. संगलिश (कुमा) - संगल क [ सं + गल ] गल जाना, होन होना । वकृ. संगलंत (से १०, ३४ ) 1 संगलिया स्त्री [दे] फली, फलिया, छीमी (भग १५ - पत्र ६८०; अनु ४) । संग्रह क [ सं + ग्रह ] १ संचय करना । २ स्वीकार करना । ३ श्राश्रय देना । सगहर (भवि ) । भवि, संगहिस्सं (मोह ε३) । संगह पुं [दे] घर के ऊपर का तिरखा काठ (दे ८, ४) । संगह पुं [संग्रह] १ संचय, इकट्ठा करना, बटोरना (ठा ७–पत्र ३८५३ व ३ ) । २ संक्षेप, समास ( पान ठा ३, १ टी -पत्र ११४) । ३ उपधि, वस्त्र आदि का परिग्रह घोष ६६६) । ४ नय- विशेष वस्तुन्दरीक्षा का एक दृष्टिकोण, सामान्य रूप से वस्तु को देखना (ठा ७-पत्र ३६०; विसे २२०३ ) । ५ स्वीकार, ग्रहण (ठा - पत्र ४२२ ) । ६ कष्ट आदि में सहायता करना (ठा १०पत्र ४९६) । ७ वि. संग्रह करनेवाला (वव ३) । ८ न. नक्षत्र विशेष, दुष्ट ग्रह से आक्रान्त नक्षत्र ( वव १ ) 1 01 संग्रहण [संग्रहण] संग्रह (लिये २२०३३ संबोध १७; महा) गादा को ["गाधा] संग्रह -गाथा (कप्प ११८ ) | देखो संगिण्ण । संगहणि स्त्री [संग्रहणि] संग्रह - ग्रन्थ, संक्षिप्त रूप से पदार्थप्रतिपादक ग्रंथ सार-संग्राहक ग्रन्थ ( संग १: धर्मसं ३) Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३४ पाइअसद्दमहण्णवो संगहिअ-संघट्टा संगहिअ वि [संग्रहिक] संग्रहवाला, संग्रह- संगिल्ल वि [सङ्गवत् ] बद्ध, संग-युक्त संगोविअ वि [संगोपित] १ छिपाया हुआ नय को माननेवाला (विसे २८५२) । (पान)। (स ८६)। २ संरक्षित (महा)। संगहिअ वि [संग्रहीत]१ जिसका संचय ! संगिल्ल देखो संगेल्ल (राज)। संगोवित्तु । वि [संगोपयितु] संरक्षण-कर्ता किया गया हो वह (हे २, १९८)। २ संगिल्ली देखो संगेल्ली (राज)। संगोवेत्तु (ठा ७-पत्र ३८५) ।। स्वीकृत, स्वीकार किया हुआ (सरण)। ३ संगिहीय वि संग्रहीत]१ आश्रित (ठा संघ सक [कथ ] कहना। संघइ (हे ४, पकड़ा हुआ; 'संगहिरो हत्थी' (कुप्र८१)। ८-पत्र ४४१)। २ देखो संगहिअ = २), संघसु (कुमा) । देखो संगिही। संगृहीत । संघ पुं[संघ] १ साधु, साध्वी, श्रावक और संगा सक [सं+गै] गान करना। कवकृ. संगीअन [संगोत] १ गाना, गान-तान श्राविकाओं का समुदाय (ठा ४, ४–पत्र संगिज्जमाण (उप ५९७ टी)। । (कुमा)। २ वि. जिसका गान किया गया २८१; दिः महानि ४; सिग्घ १, ३, ५) । संगा स्त्री [दे] वल्गा, घोड़े की लगाम (दे हो वह तेण संगोप्रो तुह चेव गुणग्गामो' २ समान धर्मवालों का समूह (धर्मसं (सुपा २०) १८८)। ३ समूह, समुदाय (सुपा १८०)। संगाम सक [ सडग्रामय 7 लड़ाई करना। संगुण सक [सं+गुगय ] गुणकार ४ प्राणि-समूह (हे १, १८७)। दास पुं [दास] एक जैन मुनि और ग्रंथ-कतो (ती संगामेइ (भगः तंदु ११)। वकृ. सगामेमाण करना। संगुगए (सुज्ज १०, ६ टी)। ३, राज)। पालिय, वालिय [पालित (णाया १, १६-पत्र २२३, निर १, १)। संगुण वि [संगुण] गुणित, जिसका गुणकार | संगाम पुं[सनाम] लड़ाई, युद्ध (प्राचा; . एक प्राचीन जैन मुनि, जो आर्यवृद्ध मुनि के किया गया हो वह (सुज्ज १०, ६ टी)। शिष्य थे (कप्प; राज)। पात्र महा) । सूर पुं [शूर] एक राजा संगुणिअ वि [संगुणित] ऊपर देखो (प्रोध , संघअ वि [संहत] निबिड़, सान्द्र (से १०, का नाम (श्रु २८)। २१, देवेन्द्र ११६; कम्म ५, ३७)। २६)। संगामिय वि [सामामिक] संग्राम-संबंधी, संगुत्त वि [ संगुप्त ] १ छिपाया हुआ, संघस संघर्ष१ घिसाव. रगड । २ लड़ाई से संबन्ध रखनेवाला (ठा ५, १-पत्र प्रच्छन्न रखा हुआ (उप ३३६ टी)। २ प्राघात, धक्का (णाया १, १-पत्र ६५ ३०२, प्रौप)। गुप्ति-युक्त, अकुशल प्रवृत्ति से रहित (पव श्रा २८)। संगामिया श्री [साङग्रामिकी] श्रीकृष्ण १२३)।। संघट्ट सक [सं+ घट्ट] १ स्पर्श करना, वासुदेव की एक भेरी, जो लड़ाई की खबर संगेल्ल ' [दे] समूह, समुदाय (दे ८, ४; छूना । २ अक. प्राघात लगाना। संघट्टइ देने के लिए बजाई जाती थी (विसे १४७६)। वब १)। (भवि), संघट्ट इ (णाया १, ५-पत्र ११२; संगामुडामरी स्त्री सङग्रामोडामरी विद्या- संगेही स्त्री [दे] १ परस्पर अवलम्बन; भग ५, ६-पत्र २२६), संघट्टए (दस ८, विशेष, जिसके प्रभाव से लड़ाई में आसानी हत्थसंगेल्लीए' (गाया १, ३-पत्र १३)। ७)। वकृ. संघटुंत (पिंड ५७५)। संकृ. से विजय मिलती है (सुपा १४४) २ समूह, समुदाय (भग ६, ३३-पत्र संघट्टिऊण (पव २)। संगार ([दे] संकेत (ठा ४, ३-पत्र ४७४ आप) . संघट्ट पुं[संघट्ट] १ आघात, धक्का, संघर्ष २४३, णाया १, ३, प्रोघभा २२, सुख २, सर सख २. संगोढण वि [दे] व्रणित, व्रण-युक्त (दे (उवः कुप्र १६; धर्मवि ५७सुपा १४)। १७; सूअनि २६ धर्मसं १३८८ उप ३०६)। ८, १७) । २ अर्ध जंघा तक का पानी (ोघभा ३४)। संगाहि वि [संग्राहिन्] संग्रह-कर्ता (विसे संगोप्फ [संगोफ] बन्ध-विशेष, मर्कटसंगोफ बन्ध रूप गुम्फन (उत्त २२, ३५) ३ दूसरा नरक का छठवाँ नरकेन्द्रक--स्थान १५३०)। संगोल्ल न [दे] संघात, समूह ( षड् )। विशेष (देवेन्द्र ६)। ४ भीड़; जमावड़ा संगि वि [सङ्गिन संग-युक्त (भगः संबोध सगाल्लो स्त्री [दे] समूह, संघात (दे ८, ४) (भाव) । ५ स्पर्श (राय)। ७; कप्पू) संगोव सक [सं+ गोपय 1१ छिपाना, संघट्ट वि [संघट्टित] संलग्न (भवि)। संगजमाण देखो संगा = सं + गै। गुप्त रखना। २ रक्षण करना। संगोवइ संघट्टण न [संघटन] १ संमर्दन, संघर्ष संगिण्ह देखो संगह =सं + ग्रह । संगिएहइ (प्राकृ६६)। वकृ. संगोवमाण,संगोवेमाण (णाया १,१--पत्र ७१; पिंड ५८६)। २ (विसे २२०३)। कर्म. संगिज्जते (विसे (णाया १, ३-पत्र ६१; विपा १, २- स्पर्श करना (राज)। २२०३)। वकृ. संगिण्हमाण ( भग ५, पत्र ३१)। संघट्टणा स्त्री [संघट्टना] संचलन, संचार ६-पत्र २३१) । संकृ. संगिण्हित्ताणं (पि संगोवग वि [संगोपक] रक्षण-कर्ता (गाया 'गब्भे संघट्टणा उ उठेंतुवेसमाणीए' (पिंड १,१८-पत्र २४०)। संगिण्हण न [संग्रहण] आश्रय-दान (ठा संगोवाव देखो संगोव। संगोवावसु (स संघट्टा स्त्रो [संघट्टा] वल्ली-विशेष (पएण ८-पत्र ४४१) । देखो सगहण । ।१-पत्र ३३)। For Personal & Private Use Only Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघट्टिय-संचर पाइअसहमहण्णवो संघष्ट्रिय वि [संघट्टित] १ स्ट, छुपा संघाड । [दे. संघाट ] १ युग्म, न [करण] प्रदेशों को परस्पर संहत रूप हुप्रा (गाया १, ५-पत्र ११२, पडि)। संघाडग) युगल (राय ६६; धर्मसं १०६५ से रखना (विसे ३३०८)। २ संघषित, संमदित (भग १६, ३--पत्र उप पृ ३६७; सुपा ६०२, ६२३; मोघ संघार पुं[संहार] १ बहु-जंतु-क्षय, प्रलय ७६६, ७६७)। ४११; उप २७५) । २ प्रकार, भेदः 'संघाडो (तंदु ४५)। २ नाश (पउम ११८,८० संघड अक [सं + घट ] १ प्रयत्न करना । त्ति वा लय ति वा पगारो त्ति वा एगट्ठा' उप १३६ टी)। ३ संक्षेप । ४ विसर्जन । २ संबद्ध होना, युक्त होना । कृ. संघ डयव्य (निचू) । ३ ज्ञाताधर्म-कथा नामक जैन अंग ५ नरक-विशेष । ६ भैरव-विशेष (हे १, (ठा --पत्र ४४१) । प्रयो. संघडावेइ ग्रन्थ का दूसरा अध्ययन (सम ३६)। २६४; षड्)। (महा)। संघाडग देखो सिंघाडग (कप्प) संघार (अप) देखो संहर = सं+ हु । संकृ. संघड वि [संघट] निरन्तर; 'संघडदंसियो' संघाडगा स्त्री संघटना] १ संबन्ध । २ संघारि (पिंग)। (प्राचा १, ४, ४, ४)। रचनाः 'अक्खरगुरणमतिसंघाय (? ड)गाए' संघारिय वि सिंहारित मारित, व्यापादित संघडण देखो संघयण (चंड--पृ ४८; भवि)। (सूअनि २०)। (भवि)। संघडणा स्त्री [संघटना] रचना, निर्माण संघाडी स्त्री [दे. संघाटा] १ युग्म, युगल संघासय पुंदे] स्पर्धा, बराबरी (दे, (समु १५८)। (दे८, ७, प्राकृ ३८ गा ४१६)। २ १३)। संघडिअ वि सिंघटित १ संबद्ध, युक्त उत्तरीय वस्त्र-विशेष (टा ४,१-पत्र १८६ संघिअ देखो संधि-संहित (प्राप) (से ४, २४) । २ गठित, जटित (प्रासू २)। पाया १, १६-पत्र २०४; प्रोध ६७७; | संघिल्ल वि[संघवत् ] संघ-युक्त, समुदित संघदि (शौ) स्त्री [संहति] समूह (पि विसे २३२६ पत्र ६२, कस)। (राज)। २६७)। संघाणय [शिङ्कानक] श्लेष्मा, नाक में संघोडी स्त्री [दे] व्यतिकर, संबन्ध (दे ८, संघयण न [दे. संहनन] १ शरीर, काय से बहता द्रव पदार्थ (तंदु १३)। ८)। (दे ८, १४. पाप्र)। २ अस्थि-रचना, शरीर, संघातिम देखो संघाइम (गाया १, ३-पत्र संच (अप) देखो संचिग । संचइ (भवि)। के हाड़ों की रचना, शरीर का बांध (भगः | १७६; पएह २, ५-पत्र १५०)। संच (अप) पू[संचय] परिचय (भवि)। सम १४६; १५५; उवः पीप; उवा कम्म संघाय सक[सं+घातय ] १ संहत करना, संचइ । वि [संचयिन्] संचयवाला, १, ३८ षड्)। ३ कर्म-विशेष, अस्थि- | इकट्ठा करना, मिलाना। २ हिंसा करना, संचइग) संग्रही, संग्रह करनेवाला, (दसनि रचना का कारण-भूत कर्म (सम ६७ कम्म मारना । संघायइ, संघाएइ (कम्म १, ३६, १०, १० पव ७३ टी)। १, २४)। भग ५, ६-पत्र २२६) । कृ. संघायणिज संचइय वि [संचयित संचय-युक्त (राज) संघयणि वि [ दे. संहननिन् ] संहनन- । (उत्त २६, ५६) संचकार पुं[दे] अवकाश, जगह वाला (सम १५५; प्रग ८ टी)। संघाय पुं[संघात] १ संहति, संहत रूप से प्रविगरिणय कुलकलंक इय संघरिस देखो संघंस (उप २६४ टी)। अवस्थान, निबिड़ता (भगः दस ४, १)। २ कुहियकरंककारणे कोस। संघरिसिद (शौ) वि[संघषित] संघर्ष-युक्त; समूह, जत्था (पाय: गउड; औप; महा) । वियरसि संचकारं तं घिसा हुआ (मा ३७)। ३ संहनन-विशेष, वज्रऋषभ-नाराच नामक नारयतिरियदुक्वाण ॥" संघस सक [सं+घृष्] संघर्ष करना। शरीर-बन्धः 'संघाएणं संठाणेणं' (प्रोप)। (उप ७२८ टो)। संघसिज (प्राचा २, १, ७, १)। ४ श्रुतज्ञान का एक भेद (कम्म १,७)। संचत्त वि [संत्यक्त] परित्यक्त (अज्झ संघस्सिद देखो संघरिसिद (नाट-मालवि ५ संकोच, सकुचाना (आचा) । ६ न. १७८)। २६)। नामकर्म-विशेष, जिस कर्म के उदय से शरीर. संचय पुं[संचय १ संग्रह (पएह १, ५संघाइअ वि [संघातित] १ संघात रूप से योग्य पुद्गल पूर्व-गृहीत पुद्गलों पर व्यवस्थित - पत्र ६२, गउड, महा)। २ समूह (कप्प; निष्पन्न (से १३, ६१)। २ जोड़ा हुमा रूप से स्थापित होते हैं (कम्म १, ३१ गउड) । ३ संकलन, जोड़ (वय १)।(प्राव) । ३ इकट्ठा किया हुआ (पडि)। ३६)4 °समास पुं[समास] श्रुतज्ञान "मास पुं [ भास] प्रायश्चित्त-संबन्धो माससंघाइम वि [संघातम] ऊपर देखो (प्रौप; का एक भेद (कम्म १,७)। विशेष (राज)। प्राचा २, १२; १पि ६०२ मा १२ संघायण न [संघातन] १ विनाश, हिंसा संचर सक [ सं + चर1 १ चलना, गति दसनि २, १७) (स १७०)। २ देखो 'संघाय' का छठवाँ करना । २ सम्यग् गति करना, अच्छी तरह संघाड देखो संघाय = संघात (मोघभा १०२ अर्थ (कम्म १, २४)। चलना। ३ धीरे धीरे चलना । संवरइ राज) | संघायणा स्त्री [संघातना] संहति । करण | (गउड ४२६ भवि) । वकृ. संचरंत (से २, For Personal & Private Use Only Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो संचरण-संजम २४, सुर ३,७६; नाट-चैत १३०)। कृ. संचालिअ वि [संचालित] चलाया हुमा छोड़ना, इकट्ठा करना; 'संछहई एगगेहम्मि' (पिंड ३११)। संचरणिज्ज, संचरिअव्व (नाट-वेणी (से ४, २७) संचिक्ष वि[संचित] संगृहीत (प्रोध ३२६ संछोभ [संक्षेप] अच्छी तरह फेंकना, १४. से १४, २८)। भवि; नाट.-धेरणी ३७, सुपा ३५२)। क्षेपण (पंच ५, १५६; १८.)। संचरण न [संचरण] १ चलना, गति । २ संछोभग बि [संक्षेपक] प्रक्षेपक (राज)। सम्यग् गति (गउड पि १०२, कप्पू)।- संचितण न [संचिन्तन] चिन्तन, विचार | (हि २२) संछोभण न [संक्षेपण] परावर्तन (राज) ।। संचरिअ वि [संचरित] चला हुआ, जिसने संचितणया स्त्री [संचिन्तना] कार देखो संजइ पुंस्त्री [संयति] उत्तम साधु, मुनि संचरण किया हो वह (उप पृ ३५८ रुक्मि ! (उत्त ३२, ३) 'संजईण दलिगोगमंतरं मेरुसरिसवसरिच्छं ५६, भवि)। संचिक्ख अक[सं + स्था] रहना, ठहरना, संचलण न संचलन] संचार, गति (गउड)। (संबोध ३६)। अच्छी तरह रहना, समाधि से रहना। संजई स्त्री संपती] साध्वी (पोघ १६, संचलिअ वि [संचालत] चला हुआ (सुर ३, १४० महा). संचिक्खइ (प्राचा १,६,२,२)। संचिक्खे . महा; द्र २७)। संजणग वि [संजना] उत्पन्न करनेवाला संचल्ल सक[सं+ चल] चलना, गति (उत्त २, ३३; अोध ६६)। संचिजमाग देखो संचिग । (सुर ११, १६६)। करना । संचल्लइ (भवि)। संजणण न [संजनन] १ उत्पत्ति । २ वि. संघल्ल (अप) देखा संचलिय (भवि)। संचिट्ठ देखो संचिक्ख । संचिट्ठइ (भगः उवाः । उत्पन्न करनेवाला (सुर ६. १४२; सुपा महा)। संचल्लिा देखो संचलिअ (महा)। ३८२) । स्त्री. णी (रत्न २८)। संचिट्ठण न [संस्थान अवस्थान (पि ४८३)। संचाइय वि संशकित] जो समर्थ हुआ संजणय देखो संजणा (चेइय ६१५, सुपा संचिण सक [सं+चि] १ संग्रह करना, ' हो वह (भग ३, २ टी-पत्र १७८) ३८ सिक्खा २६)। इकट्ठा करना । २ उपचय करना । संचिणेइ, संचाय प्रक[सं + शक] समर्थ होना। । संजणिय वि [संजनित] उत्पादित (प्रासू संचिणइ, संचिणंति (श्रु १०७ पि ५०२)। संचाएइ (भग, उवा, कस), संचाएमो (सून १४६; सण)। संकृ. संचिणित्ता (सूम २, २, ६५, भग)। २, ७, १०, णाया १,१८-पत्र २४०)। संजत्त सक [दे] तैयार करना। संजत्तेह कवकृ. संचिजमाण (प्राचा २,१, ३, २) (स २२) । संचाय[संत्याग] परित्याग (पंचा १३, संचिणिय वि [संचित] संगृहीत (स ४४३)। संजत्ता स्त्री [संयात्रा] जहाज की मुसाफिरी संचिन्न वि[संचीण भाचरित (सण)। (णाया १, ५-पत्र १३२) । संचार सक[सं + चारय ] संचार कराना। संचारइ (भवि) । संकृ. संचारि (अप) | संचुण्ण सक [ सं +- चूर्णय ] चूर-चूर संजत्ति स्त्री [दे] तैयारी; 'प्राणत्ता निय करना, खंड-खंड करना, टुकड़ा-टुकड़ा करना। पुरिसा संजत्ति कुणह गमगत्थं' (सुर ७, (पिंग)। कवकृ. संचुगिजंत (पउम ५६, ४४)।। १३०; स ६३५, ७३५; महा)। देखो संचार संचार संचरण, गति (गउड; महाः भवि)। संचुण्णि) वि [संचूर्णित] चूर-चूर संजुत्ति । संचुन्नि किया हुपा (महा; भविः संजत्तिअ वि [दे] तैयार किया हुमा (स संचारि वि संचारिन्] गति करनेवाला _णाया १, १-पत्र ४७; सुर १२, २४१)।- ४४३)। (कप्पू)। संचेयणा स्त्री [संचेतना] अच्छी तरह सूध, संजत्ति, वि [सांयात्रिक] जहाज से संचारअवि [संचारित] जिसका संचार चार भान; 'लद्धसचेयपाउ' (सिरि ६५७)। संजत्तिग । यात्रा करनेवाला, समुद्र-मार्ग का कराया गया हो वह (भवि)। संचोइय वि संचादित] प्रेरित (ठा ४, ३ | मुसाफिर (सुपा ६५५; ती ; सिरि ४३१; वि[संचारिम संचार-योग्य, जाटी -पत्र २३८) । पब २७६; हे १,७०, महा; गाया १, एक स्थान से उठा कर दूसरे स्थान में रखा संछइय । वि[संछन्न ढका हुआ (उप ८--पत्र १३५) जा सके वह (पिंड ३००; सुपा ३५१)। संकण्ण पृ १२३; सुर २, २४७; सुपा संजत्थ वि [दे] १ कुपित, कुद्ध। २ पुं. संचारी स्त्री दे] दूत-कर्म करनेवाली स्त्री संछन्न ५६२; महा सण) क्रोध दे८,१०)। (पाय: षड़)। संछाइय वि [संछादित] ढका हुआ (सुपा संजद देखो संजय = संयत (प्राप्र; प्राकृ १२; संचाल सक [सं + चालय ] चलाना। । ५६२)। संक्षि) संचालइ (भवि) । कवकृ. संचालिज्जत, संछाय सक [ सं + छादय ] ढकना । वकृ. संजम अक [सं + यम्] १ निवृत्त होना । संचालिजमाण (से ६, ३६; णाया १, संछायंत (पउम ५६, ४७)। २ प्रयत्न करना। ३ व्रत-नियम करना। ४ -पत्र १५६)। संछुह सक [सं + क्षिप्] एकत्रित कर सक. बाँधना। ५ काबू में करना। कर्म. For Personal & Private Use Only Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजम-संजोइय पाइअसद्दमहण्णवो ८३७ संजमिजति (गउड २८६)। वकृ. संजमेंत, संजर पुंसिंज्वर ज्वर, बुखार (अच्चु ६७) जहा वत्थं (धर्मसं १८०)। कवकृ. संजुज्जंत संजमयंत. संजममाण (गउड ८४० दसनि संजल अकासं+ज्वल1१ जलना। २ (सम्म ५३) ।' १,१६८उत्त १८,२६)। कवकृ. संज प्राक्रोश करना । ३ ऋद्ध होना। संजले (सन संजुान[संयुत] छन्द-विशेष (पिंग) । देखो मीअमाण (नाट-विक्र ११२)। संकृ. १, ६, ३१, उत्त २, २४)। संजुअसंयुत । संजमित्ता (सूत्र १, १०, २)। हेकृ. संजलग वि [संज्वलन] १ प्रतिक्षण क्रोध संजुना स्त्री [संयुता] छन्द-विशेष (पिंग)। संज मउं (गउड ४८७)। कृ. संजमिअव्व, करनेवाला (सम ३७)। २ पूं. कषाय-विशेष संजुन वि संयुक्त] संयोगवाला, जुड़ा हुमा संजमितव्व (भगः रणाया १, १-पत्र (कम्म १. १७)। (महा सण पि ४.४ पिंग)। संजम सक [दे छिपाना । संजमेसि (दे ८, संजलिअ [संचलित] तीसरी नरक भूमि संजुत्ति स्त्री [दे] तैयारी (सुर ४, १०२; का एक नरक-स्थान (देवेन्द्र)। १२, १०१ स १०३, कुप्र २००)। देखो १५ टी)। संजल्लिअ (अप) वि [संचलित] प्राक्रोश संजत्ति। संजम संयम, १ चारित्र, व्रत, विरति, युक्त (भवि)। संजुद्ध वि [दे] स्पन्द-युक. थोड़ा हिलनेहिंसादि पाप-कर्मों से निवृत्ति (भगः ठा ७; प्रौप कुमाः महा)। २ शुभ अनुष्ठान (कुमा संजय देखो संजम = सं + यम् । संजबहु चलनेवाला, फरकनेवाला (दे ८. ६)। ७, २२)। ३ रक्षा. अहिंसा (णाया १, संजूह पुंन [संयूथ] १ उचित समूह (ठा (अप) (भवि)। १०-पत्र ४६५)। २ सामान्य, साधारणता। १-पत्र.)। ४ इन्द्रिय-निग्रह। ५ बन्धन। संजय देखो संजम % (दे)। संजबइ (प्राकृ ३ संक्षेप, समास (सूम २, २, १)। ४ ग्रन्थ६ नियन्त्रण. काबू (हे १, २४५)। संजम संजविअ देखो संजमिअ = (द) (पान पुं[संथम] श्रावक-व्रत (प्रौप)। रचना, पुस्तक निर्माण (अणु १४६)। ५ भवि)। दृष्टिवाद के अठासी सूत्रों में एक सूत्र का संजमण न संयमन] ऊपर देखो (धर्मवि नाम (सम १२८) १७: गा २६१: सुपा ५५३)। संजविअ देखो संजामअ = सयामत (भाव) - संजोअ सक[ सं + योजय ] संयुक्त करना, संजमिअ वि [दे] संगोपित, छिपाया हुआ संजा देखो संणा (हे २,८३)। संबद्ध करना, मिश्रण करना । संजोएइ, (दे८, १५)। संजागय वि [संज्ञायक] विज्ञ, विद्वान्, संजोयइ (पिंड ६३८; भगः उव; भवि)। संजमिअ वि [संयमित] बाँधा हुआ, बद्ध जानकार (राज) वकृ. संजोयंत (पिंड ६३६)। संकृ. संजो(गा ६४६: सुर ७, ५; कुम १८७)। संजात , देखो संजाय =संजात (सुर २, एऊण (पिंड ६३६)। कृ. संजोएअब्ध संजय अक[सं + यत् ] १ सम्यक् प्रयत्न संजाद ११४, ४, १६०; प्राप्रा पि (भग)। करना। २ सक. अच्छी तरह प्रवृत्त करना । २०४) । संजोअ सक[सं+दृश] निरीक्षण करना, संजयए, संजए (पव ७२; उत्त २, ४)। संजाय अक [सं + जन्] उत्पन्नन होना। देखना । संकृ. संजोइऊण (श्रु ३२)।संजय वि[संयत] साधु. मुनि, व्रती (भग संजायड (सरण)। संजोअ पुंसिंयोग] संबन्ध, मेल-मिलाप, प्रोघभा १७ काल); 'ममावि मायावित्ताणि संजाय वि [संजात] उत्पन्न (भग; उवाः मिश्रण ( षड् ; महा)। संजयारिण' (महा)। पंता स्त्री [प्रान्ता] महा सणः पि ३३३) । संजोग न संयोजन] १ जोड़ना, मिलाना साधु को उपद्रव करनेवाली देवी आदि | संजीवणी स्त्री [संजीवनी] १ मरते हुए को (ठा २, १-पत्र २६) । २ वि. जोड़नेवाला। (ोघभा ३७ टी) भद्दिगा स्त्री . जीवित करनेवाली औषधि (प्रासू ८३)। २ ३ कषाय-विशेष, अनन्तानुबन्धि · नामक [भद्रिका] साधु को अनुकूल रहनेवाली जीवित-दात्री नरक-भमि (सन १.५.२.६) क्रोधादि-चतुष्क (बिसे १२२६; कम्म ५. देवी यादि (ोघमा १७ टी) संजय वि नीवि वि संनिविना जिलानेवाला । ११ टो)। धिकरणिया स्त्री/धिकरणिकी] rrzता किसी अंश में व्रती और किसी जीवित करनेवाला (कप्पू)। खङ्ग आदि को उसको मूठ आदि से जोड़ने अंश में अवती, श्रावक (भग)संजुअ वि [संयुत] सहित, संयुक्त (द्र २२ । की क्रिया (ठा २, १-पत्र ३६) । संजय सिंजय भगवान् महावीर के पास | सिक्खा ४८; सुर ३, ११७; महा)। देखो संबोअगा स्त्री [संयोजना] १ मिलान, दीक्षा लेनेवाला एक राजा (ठा ८-पत्र संजत। मिश्रण (पिंड ६३६)। २ भिक्षा का एक संजुअन [संयुग] १ लड़ाई, युद्ध, संग्राम दोषः स्वाद के लिए भिक्षा-प्राप्त चीजों को संजयंत पुं[संजयन्त] एक जैन मुनि (पउम (पान)। २ नगर-विशेष (राज)। प्रापस में मिलाना (पिंड १) ५, २१)। "उर न [पुर] नगर-विशेष संजुज सक[सं+ युज् ] जोड़ना। कर्म. संजोइय वि [संयोजित] मिलाया हा, __'अविसिटे सब्भावे जलेण संजुम(? ज)ती जोड़ा हुआ (भगः महा) । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३८ पाइअसहमहण्णवो संजोइय-संणज्म संजोइय वि [संदृष्ट] दृए, निरीक्षित (भवि)। संठ वि [शठ] धूर्त, मायावी (कुमा; दे ६, १--वत्र १६ भगः कप्प; प्रौप; गा८; सुर संजोग देखो संजोअ = संयोग (हे १, १११)। ३, ३०; महा: प्रासू १४५); "तियसतरुसंडों २४५) । संठ (चूपै) देखो संढ (हे ४, ३२५) । (गउड)। ३ . नपुंसक (हे १. २६०)। संजोगि वि [संयोगिन संयोग-युक्त, संबन्धी संठप्प देखो संठव ।। संडास पुंन [संदंश] १ यन्त्र-विशेष, सँड़सी, चिमटा (सूत्र १, ४, २, ११; विपा १, (संबोध ४६)। संठव सक [सं + स्थापय ] १ रखना, स्थापना करना। २ आश्वासन देना, उद्वेग- ६-पत्र ६८; स ६६९)। २ ऊरु-संधि, संजीगेत्तु वि [संयोजयितु] जोड़नेवाला रहित करना, सान्त्वना करना। संठवइ, जाँघ और ऊरु के बीच का भाग (प्रोष (ठा ८-पत्र ४२६)। संठवेइ (भविः महा)। वकृ. संठवंत (गा २:६; प्रोघभा १५५)4 तोंड पुं [तुण्ड] संजोत्त (अप) देखो संजोअ = स + योजय । ३६) । कवकृ. संटविज्जत (सुर १२, ४१)। पक्षि-विशेष, सड़सी की तरह मुखवाला पाँखी संकृ. संजोत्तिवि (भवि) । संकृ. संठवेऊण (महा), संठप्प (उव), | (पएह १, १-पत्र १४) । संझ नीचे देखो (णाया १, १-पत्र ४८) । संठविअ (पिंग)। संडिज्झ । न [दे] बालकों का क्रीड़ा-स्थान च्छेयावरण वि [च्छेदावरण] १ सन्ध्या- संठवण देखो संठावण (मृच्छ १५४) । संडिब्भ (राजः दस ५, १, १२)। विभाग का प्रावारक। २. चन्द्र, चाँद संठविअ वि [संस्थापित १ रखा हुआ संडिल्ल [शाण्डिल्य १ देश-विशेष (उप (अणु १२० टी)। पभ पुंन [प्रभ] । (हे १, ६७, प्राप्र; कुमा)। २ पाश्वामित । १८३१ टी; सत्त ६७ टी)। २ एक जैन शक्र के सोम-लोकपाल का विमान (भग ३, ३ उद्वेग-रहित किया हुआ (महा) । मुनि का नाम (कप्प; एंदि ४६)। ३ एक ७-पत्र १७५) । संठा अक [सं+ स्था] रहना, अवस्थान ब्राह्मण का नाम (महा)। देखो संडेल्ल । संझास्त्री [सन्ध्या] १ सांझ, साम, सायंकाल करना, स्थिति करना। संठाइ (पि ३०६ संडी स्त्री [दे] वल्गा, लगाम (दे ८, २)। (कुमाः गउड; महा)। २ दिन और रात्रि ४८३) संढेय पुं [षाण्डेय] षंढ-पुत्र, षंढ, नपुंसक का संधि-काल । ३ युगों का संधि-काल । संठाण न [संस्थान ] १ प्राकृति, पाकार 'कुक्कुडसंडेयगामपउरा' (प्रौपा णायाः १, ४ नदी-विशेष । ५ ब्रह्मा की एक पत्नी (हे (भग औप; पत्र २७६; गउड महाः दं ३)। १ टी-पत्र १) १,३०)। ६ मध्याह्न काल; 'तिसंझ' (महा)। २ कर्म-विशेष, जिसके उदय से शरीर के शुभ संडेल न [शाण्डिल्य १ गोत्र विशेष । २ गय न [गत] १ जिस नक्षत्र में सूर्य! या अशुभ प्राकार होता है वह कर्म (सम पुंस्त्री. उस गोत्र में उत्पन्न (ठा ७-पत्र अनन्तर काल में रहनेवाला हो वह नक्षत्र । - ६७; कम्म १, २४ ४०)। ३ संनिवेश, ३६०) । देखो संडिल्ल ।। २ सूर्य जिसमें हो उससे चौदहवाँ या पनरहवाँ रचना (प्रासू ८७)। सडक पु.] पानी में पैर रखने के लिए नक्षत्र । ३ जिसके उदय होने पर सूर्य उदित / संठाव देखो संठव। संकृ.संठाविअ (नाट- रखा जाता पाषाण प्रादि (मोघ ३१) । हो वह नक्षत्र । ४ सूर्य के पीछे के या प्रागे चैत ७५) । संडेवय (अप) देखो संडे य; ‘गामई कुक्कुडके नक्षत्र के बाद का नक्षत्र (वय १) संठावण न संस्थापन] रखनाः 'तेरिन्छ - संडेययाई' (भवि)। 'छेयावरण देखो संझ-च्छेयावरण (पव | संठावणं' (पव ३८)। देखो संथावण। |संडोलिअ वि [दे] अनुगत, अनुयात (दे २६८), गुराग व् [°नुराग] साँझ के संठावणा स्त्री [संस्थापना ] आश्वासन, ८, १७)। बादल का रंग (पएण २-पत्र १०६) सान्त्वना (से ११, १२१)। देखो संथावणा संढ पिण्ड नपुंसक (प्राप्र हे १, ३०० 'वली स्त्री ["वली] एक विद्याधर-कन्या का संठाविअ देखो संठविअ (हे १, ६७; कुमाः संबोध १९)। नाम (महा)। "विगम पुं[विगम] रात्रि प्राप्र) संढो स्त्री [दे] साँढ़नी, ऊँटनी (सुपा ५८०)। रात (निचू १६)। "विराग पुं[विराग] संठिअ वि [संस्थित] १ रहा हुमा, सम्यक संढोइय वि [संढौकित] उपस्थापित (सुपा साँझ का समय (जीव ३, ४)। स्थित (भगः उवा: महा; भवि)। २ न. संझाअ सक [सं +ध्यै] ख्याल करना, आकार (राय)। संण वि [संज्ञ] जानकार, ज्ञाता (प्राचा चिन्तन करना. ध्यान करना। संझादि संठिइ स्त्री [संस्थिति] १ व्यवस्था (सुज्ज १, ५, ६, १०)। (शौ) (पि ४७६; ५५८)। वकृ. संझायंत । १,१)। २ अवस्था, दशा, स्थिति (उप संणक्खर देखो संनक्खर (राज)। (सुपा ३:९) १३६ टी) संणज्ज न [सांनाय्य मन्त्र प्रादि से संस्कारा संझाअ अक [संध्याय] संध्या की तरह संड ( [शण्ड, षण्ड] १ वृष, बैल, साँढ; जाता धी वगैरह (प्राकृ १९) आचरण करना । संझायइ (गउड ६३२) । । 'मत्तसंडुव्व भमेइ विलसेइ प्र (श्रा १२, संणज्झ अक [सं+ नह.] १ कवच धारण संटंक पुं[सटङ्क] अन्वय, संबन्ध (चेइइ सुर १५, १४०)। २ पुंन. पप आदि का करना, बखतर पहनना । २ तैयार होना । ३६६) समूह, वृक्ष आदि की निबिड़ता (णाया १, संगज्झइ (पि ३३१)। For Personal & Private Use Only Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संणडिअ-संतप्प पाइअसहमहण्णवो ८३९ संणडिअ वि [संनटित] व्याकुल किया | ४ सम्यग् दर्शनवाला, सम्यक्त्वी, जैन (भग)। | संणिहाइ वि [संनिधायिन्] समीप-स्थायो हुआ, विडम्बित (वज्जा ७०)। ५ न. गोत्र-विशेष, जो वासिष्ठ गोत्र की (माल ५२) संणद्ध वि [संनद्ध] संनाह-युक्त, कवचित शाखा है। ६ पुंस्त्री. उस गोत्र में उत्पन्न संणिहाण देखो संनिहाण (राज)। (विपा १,२-पत्र २३; गउड) (ठा ७-पत्र ३९०) संणिहि देखो संनिहि (प्राचा २, १, संणय देखो संनय (राज) । संणिक्खित्त देखो संनिक्खित्त (राज)। २, ४) IV संणवणा स्त्री [संज्ञापना] संज्ञप्ति, विज्ञापन | संणिहिअ वि [संनिहित] सहायता के लिए (उवा)। पत्र ३२) समीप-स्थित, निकट-वर्ती (महा)। देखो संणा स्त्री [संज्ञा] १ आहार आदि का संणिगास देखो संनिगास = संनिकर्ष (राज)M संनिहि। अभिलाष (सम & भग; परण १, ३- संणि वय देखो संनिचय (राज)। संणेझ देखो संनेझ (गउड)। पत्र ५५; प्रासू १७६)। २ मति, बुद्धि | संत देखो स = सत् (उवाः कप्पः महा)। संणिचिय देखो संनिचिय (प्राचा २, १, (भग)। ३ संकेत, इशारा (से ११, १३४ संत वि शान्त] १ शम-युक्त, क्रोध-रहित २, ४)। टी)। ४ आख्या, नाम । ५ सूर्य की पत्नी। ६ (कप्पः प्राचा १, ८, ५, ४)। २ पुं. रससंणिज्म देखो संनिज्म (गउड)। गायत्री (हे २, ४२)। ७ विष्ठा, पुरीष (उप संणिणाय देखो संनिनाय (राज)। विशेष; "विणयंता चेव गुरणा संतंतरसा किया १४२ टी)। ८ सम्यग् दर्शन (भग)। ६ उ भावंता' (सिरि ८८२) संणिधाइ देखो संणिहाइ (नाट-मालतो सम्यग् ज्ञान । (राय १३३)इअ वि संत वि [श्रान्त] थका हुआ (णाया १, ४ २६) IN [कृत] टट्टी फिरा हुआ, फरागत गया हुमा उवा १०१ ११२; विपा १,१; कप्प; (दस १. १ टी) । भूमि स्त्री [भूमि संणिधाण देखो संनिहाण (नाट-उत्तर पुरीषोत्सर्जन की जगह (उप १४२ टी; दस संणिपडिअ वि [संनिपतित गिरा हुआ संतइ स्त्रो [संतति] १ संतान, अपत्य, १, १ टी)। लड़कावाला; 'दुटुसीला खु इत्थिया विणासेइ संणामिय वि [संनामित] अवनत किया (विपा १, ६-पत्र ६८)। संतई' ( स ५०५; सुपा १०४)। २ हुप्रा (पंचा १६, ३६)। संणिभ देखो संनिभ (राज)। अविच्छिन्न धारा, प्रवाह (उत्त ३६, ६ उप संणाय वि [संज्ञात] १ ज्ञात, नात का संणिय वि [संज्ञित] जिसको इशारा किया पृ१८१) गया हो वह (सुपा ८८) प्रादमी (पंच १०, ३६)। २ स्वजन, सगा संतच्छण न [संतक्षण] छिलना (सूम १, संणियास पुं [संनिकाश] समान, सदृश | (उप ६५३) । देखो संनाय । ५, १,१४) (पउम २०, १८८)। देखो संनियास । संणास पु [संन्यास] संसार-त्याग, चतुर्थ | संतच्छिअ वि [संतक्षित] छिला हुआ संणिरुद्ध वि [संनिरुद्ध ] रुका हुआ, प्राश्रम (नाट-चैत १०) (पराह १, १-पत्र १८)। नियन्त्रित (आचा २, १, ४, ४)। संणासि वि [संन्यासिन्] संसार-त्यागी, संणिरोह संत? वि [संत्रस्त] डरा हुमा, भय-भीत संनिरोध] अटकाव, रुकावट चतुर्थ-पाश्रमी, यति, व्रतो (नाट--चैत ८८)M (से ५, ६४) (सुर ६, २०५) संणाह सक [सं+ नाहय ] लड़ाई के संणिवय अक [संनि + पत्] पड़ना, संतति देखो संतइ (स ६८४) ।। लिए तैयार करना, युद्ध-सज्ज करना । संतत्त वि[संतत] १ निरन्तर, अविच्छिन्न । गिरना। वकृ. संणिवयमाण (पाचा २, संणाहेहि (प्रौप ४०)। २ विस्तीर्ण १, ३, १०)। 'अच्छिनिमीलियमित्तं नत्थि सुहं संणाह [संनाह] १ युद्ध की तैयारी (से | संणिवाय पुं[संनिपात ] सम्बन्ध (पंचा ११, १३४): २ कवच, बखतर (नाट-- दुक्खमेव संतत्तं । वेणी ६२) पट्ट [पट्ट] शरीर पर संणिविटु देखो संनिविट्ठ (णाया १, १ नरए नेरइयारणं महोनिसि बांधने का वस्त्र-विशेष (बृह ३)। पच्चमारणाणं।' टी-पत्र २)। (सुर १४, ४६) संणाहिय वि [सांनाहिका युद्ध की तैयारी संणिवेस देखो संनिवेस (प्राचा १, ८, ६, | ५. संतत्त वि [संतप्त] संताप-युक्त (सुर १४, से सम्बन्ध रखनेवालाः 'संणाहियाए भेरीए ___३; भग; गउड नाट–मालती ५६) ५६ गा १३६, सुपा १६; महा)। सई सोचा' (णाया १, १६-पत्र २१७) संणिसिज्जा । देखो संनिसिज्जा (राज)। संतत्थ देखो संत? (उवः श्रा १८)। संणि वि [संज्ञिन] १ संज्ञावाला, संज्ञा- संणिसेन्जा) | संतप्प अक[सं+ तप्] १ तपना, गरम युक्त। २ मनवाला प्राणो (सम २, भगः संणिह देखो संनिह (गा २५८ नाट-मृच्छ | होना। २ पीड़ित होना। संतप्पइ (हे ४, प्रौप)। ३ श्रावक, जैन गृहस्थ (मोघ ८)।। ६१) ।। १४०; स २०)। भवि. संतप्पिस्सइ (स For Personal & Private Use Only Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४० ६८१ ) । कृ. संतप्पियव्य ( स ६८१) । वकृ. संतप्पमाण (सुज्ज ६) । संतपक्ष वि[संतप्त ] संताप-युक्त (कुमा. ६, १४) । २ न. संताप ( स २० ) । संतमसन [संवनस] १ अन्धकार अँधेरा (पान सुपा २०५ ) । २ अन्ध-कूप, अँधेरा ( १०. १५०) संतय देखो संतन्त्त = संतत (पाश्रः भग) 1 संतर सक[सं+ तृ] तैरना, तैर कर पार करना। हेकृ. संतारत्तए ( कस) M संतरण न [ संतरण] तैरना, तैर कर पार करना (१८७४३ २२०) संतस अक [ सं + ] १ भय-भीत होना। २ उद्विग्न होना। संतसे ( उत्त २० ११) 1 संताण [संतान] १ (क) २ श्रविच्छिन्न धारा प्रवाह (विसे २३१७; २३६८; गउडः सुपा १६८ ) । ३ तंतु-जाल, मकड़ी आदि का जाल 'मक्खडासंताण ए (भाषा पडि कस) 1 संताण न [ संत्राण ] परित्राण, संरक्षण (१) । संता श्री [शान्ता] सातवें दिन भगवान की संतास [संत्रास ] भय, डर (स २४४) शासन-देवता (संति संतास वि [संत्रासिन् ] त्रास जनक ( उप ७६८ टी) | संताणि वि[संतानिन] विचारा में उत्पन्न, प्रवाह-वर्ती; 'संतारिणो न भिरणो जइ संतारणी न नाम संतागो' (विसे २३६८ धर्मं सं २३५ ) । २ वंश में उत्पन्न, परंपरा में उत्पन्न; 'देव इह श्रत्थि पत्तो उज्जाणे पासनाहतः केसी नाम वराहरों (धर्मवि ३) 1 । संतार वि [ संतार ] १ तारनेवाला, पार उतारनेवाला (पउम २, ४४ ) । २ पुं. संतरण, तैरना (पिंग) संतारिअ वि[संधारित] पार उतारा हुआ (पिंग) 1संतारिम वि[संतारिम] तैरने योग्य (भाषा २, ३, १, १३) । - संताय सक [ सं + तापय_ ] १ गरम करना, तपाना । २ हैरान करना । संतावेति पाइअसहमहावी कवकृ. - ( सुज्ज ९ ) । वकृ. संतावित (सुपा २४८ ) । क. संताविजमाण (नाट–मुद्र १२७) । संताय [संताप] १ मन का छेद ह १, ३ – पत्र ५५३ कुमाः महा) । २ ताप, गरमी ( परह १. ३ – पत्र ५५; महा) | संतावण न [ संतापन ] संताप, संतप्त करना (सुपा २३२) । - संतावणी स्त्री [संतापनी ] नरक- कुम्भी (सूत्र १, ५, २, ६ ) 1 संता वि[संतापक] संतापजनक (भवि) 1 संताविव [संतापिन्] संतत होनेराला, जलनेवाला (कप्पू)। संताविय वि[संतापित] संत किया (कास) 10 संतास तक [ सं प्रासय] भी करना, डराना। संतासइ (पिंग ) । - संति स्त्री [शान्ति ] १ क्रोध श्रादि का जय, उपशम, प्रशम ( श्राचा ११, ७ १, चेइय ५४) २ मुक्ति मोघ (घाचा १, २, ४, ४; सूत्र १, १, १ ठा - पत्र ४२५ ) । अहिंसा (याचा १, ६,५, ३) ४ उपद्रव - निवारण ( विपा १, ६–पत्र ६१० सुपा ३६४ ) । ५ विषयों से मन को रोकना । ६ चैन, आराम । ७ स्थिरता (अ ७२८ टी संवि] १)। ८ (सूत्र दाहोपशम ठंडाई (सूच] १. ३, ४, २०) । देवी-विशेष (पंचा ११. २४) १०. सोलह जिनदेव का नाम (सम ४३ कप्प; पडि) ° उदअ [उदक] शान्ति के लिए मस्तक में दिया जाता मन्त्रित पानी (पि १६२) कम्म ["कर्मन् ] उपद्रव निवारण के लिए किया जाता होम आदि कर्म (परह १, २ – पत्र ३०, सुपा २६२ ) । कम्मंत न [कर्मान्त ] जहाँ शान्ति-कर्म किया जाता हो वह स्थान ( श्राचा २, २, २, ε)। गिह न [गृह] शान्ति-कर्म करने का स्थान (कम्प) जल न [जल] देखो 'उदअ ( धर्मं २) जिण पुं [°जिन] सोलहवें जिन- देव (संति १ ) * मई स्त्री [ती] एक श्राविका का नाम For Personal & Private Use Only संतपि-संतोसि (सुपा६२२) [६] शान्ति प्रदाता (उप ७२८) सूरि [रिं] एक टी) जैनाचार्य धीर प्रकार (जी ५०) सेणिय [श्रेणि] एक प्राचीन जैन मुनि (कल्प ) 1 " [गृह] भगवान् शान्तिनाथजी का मन्दिर ( प ६७, ५) होम ["होम ] शान्ति के लिए किया जाता हवन (विपा १, ५-पत्र ६१ ) । संति संतिग } रखनेवाला श्रम्मा पिउसंतिए [स] वद्धमाणे' (कप्प ); 'नो कप्पइ निन्गंथारण वा निग्गंधीरण वा सागारियसंतियं सेज्जासंथारयं आयाए अहिक संपदा (कस उव महाः सं २०६ सुपा २७८ ३२२० परह १, ३ – पत्र ४२ ) । संविजाधर देखो संति-गिद्द (महा ६० संतिण वि[संतीर्ण ] पार-प्राप्त, पार उतरा हुआ 'संतिएरणं सव्वभया' (श्रजि १२) । संतुट्ठ वि [संतुष्ट ] संतोष प्राप्त (स्वप्न २०; महा) 1 संतुयट्ट वि [संत्वगत्त] जिसने पार्श्व घुमाया हो वह, जिसने करवट बदली हो वह, लेटा हुआ ( खाया १, १३ - पत्र १७९ ) 1 संतुलगा श्री [संतुलन ] तुलना, तुल्यता, साई (सार्थ २०) संतुरस [ सं+तु ] १ प्रसन्न होना । २ तृप्त होना । संतुस्सइ (सिरि ४०२ ) । V संतेजावर देणो संविापर हा ६८ 28) 10 संतोष [ अन्तर ] मध्य बीच 'तो संतो संत[सं+ तोषय ] मध्यायें (७९)) I प्रसन्न करना, खुशी करना । २ तृप्त करना । कर्म. संतोसीश्रदि (शौ) (नाट - रत्ना ४० ) IV संतोस पुं [संतोष ] तृप्ति, लोभ का प्रभाव; 'हरइ अरवि परगुणो गरुयम्मिवि रियगुणे न संतोसो' (गउड कुमाः परह १, ५पत्र ६३३ प्रासू १७७; सुपा ४३६) संतोसि श्री [संतोष]] सन्तोष, तुष्टि, भूमि (उवा) । संतोसि वि [ संतोषिन् ] १ सन्तोष-युक्त, लोभ-रहित, निर्लोभी, तृप्त (सूत्र १,१२, Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतोसिअ - संदिट्ठ पाइअसद्दमहण्णवो ४१ । १५. सुपा ४३१) २ घनन्दित खुशी संथवण न [ संस्तवन ] ऊपर देखो (संबोध संदेस [संदेश] दक्षिणहस्त 'दिदात्रियो (कप्पू) 1 ५६६ उप ७६८ टी) IV संतोस ][संतोष] संतोष ति ( १६) । निवेणं कोववसा तहवि तस्स संदसो' (२१२) - संसण न [ संदर्शन ] दर्शन, देखना, साक्षात्कार ( उप ३५७ टी) 1 संतोसिअ वि[संतोषित] संतुष्ट किया हुधा (महा सा - संचयय वि[संस्तावक] [स्तुतिकर्ता (खाया १, १६ – पत्र २१३) । संपवि देखो संविअ (पउम ८१, १०) संथार [4] [संस्तार ] १ दर्भ कुरा प्रादि संथारग की शय्या, बिछौना (गाया १, १ संथारय पत्र ३०, उवा उवः भग) । २ अपवरक, कमरा (नाचा २, २, ३, १) । ३ उपाश्रय, साधु का वास-स्थान ( वव ४) । ४ संस्तार कर्ता (पव ७१) । संदट्ट वि [संदष्ट] जो काटा गया हो वह जिसको देश लगा हो वह (हे २, ३४ कुमा ३, ८ प ) 1 संदट्ट संदट्टय २ न. संघट्ट, संघर्ष (दे ८, १८) 1 संचाव देखो संठाय व संचायत (उम संदस्ड वि [संदग्ध] यति जला हुआ (गुर १०३, २४) ६, २०५ ; सुपा ५६ 8 ) 1 संदण संथापण न [ संस्थापन ] सान्त्वना [स्यन्दन] १ र ( पाच महा २ भारत में प्रतीत उत्सर्पिणी-काल में उत्पन्न तेइसवाँ जिनदेव ( पव ७) । ३ न. क्षरण, प्रस्रव । ४ वहन, बहना । ५ जल, पानी; 'जत्य गं नई निच्चोयगा निच्चसंदरणा' (कप्प ) 1 संथणक [ सं + स्तन ] श्राक्रन्द करना । (सूप १, २, ३,७ ) - संबर तक [सं + स्तृ] बिछोना करना बिछाना । २ निस्तार पाना, पार जाना । ३ निर्वाह करना । ४ प्रक. समर्थ होना । ५ तृप्त होना । ६ होना, विद्यमान होना । संघरइ (भग २, १ पत्र १२७ उवा कस); 'ण समुच्छे णो संघरे तणं' (सूत्र १, २, २, १३ श्राचा), संथरिज, संघरे, संथरेजा ( कप्प दस ५, २, २० श्राचा) । वकृ. संदभ पुं [ संदर्भ ] रचना, ग्रंथन ( उवर २०३; सण) | संमाजिया श्री [स्वम्दमानिका, '] } दमाणी एक प्रकार का वाहन, एक तरह की पालकी (प्रौपः गाया १५पत्र १०१ १, १ टी -पत्र ४३३ भौप ) 1 संथ संथरंत, संथरमाण ( वर १४२; संथुइ बी [ संस्तुति ] स्तुति, श्लाघा, संदाण सक [कृ] प्रवलम्बन करना, सहारा " ८) । शोध १८२० १८१; आचा २, ३, १, संकृ. संथरित्ता (भग; भाचा ) । संथर पुं [ संस्तर] निर्वाह (पिंड ३७५ ४०० ) 1 लेना । संदाइ (हे ४, ६७ ) । वकृ. संदार्णत (कुमा) कप संदाणिजंत (नाट मानती ११२) प्रशंसा (चेइय ४६६; सुपा ६५० ) I संसक [ सं + स्तु] स्तुति करना, वाघा वकृ. करना । संथुर ( उवः यति ९ ) संयुणमाण (१०) क. संधुणित, संख्यंत (मुरा ११० माक ७) संधुणित्ता ( पि ४२४) I संल वि[संस्थुल ] रमणीय, रम्य, सुन्दर (बाय १६) । संधुव्वंत देखो सं संदाणि वि [संदानित ] बढ, निर्यात (पाय से १, ६०, १३, ७१; सुपा ३ कुत्र ६६ - मालती १६६) संदामिय वि [संदामित ] ऊपर देखो (स ३१६ सम्मत्त १६० ) 1 संद धक [स्यन्द्र ] १ भरना, टपकना । संति (सू २ १२७ ) IV संद पुं [स्यन्द] १ भरन, प्रसव ( से ७, ५९ ) । २ रथ; 'रवि-संडु (? दुव्व भमंतों (धर्मवि १४४) । संद वि [सान्द्र] पन, निविद ( १७ विक्र २३) । संथ व [संस्थ] संस्थित (विसे ११०१) । संवह वि [ संस्तृत ] १ प्राच्छादित, संथडिय) परस्पर के संश्लेष से श्राच्छादित (भक डा ४, ४) २ म निविड़ (चाचा २. १, ३, १० ) । ३ व्याप्त (उत्त २१, २२; भोष ७४७) । ४ समर्थ छ, जिसने पर्याप्त भोजन किया हो वह (कस, श्राचा २,४२,७१३) ६ एकत्रित ( श्राचा २, १,६, १) संधर देव संचार (सुर २,२४७ ) 1संथरण न [ संस्तरण] १ निर्वाह (बृह १) । २ बिछोना करना (राज) 1 संथव सक [ सं + स्तु] १ स्तुति करना, श्लाघा करना । २ परिचय करना। संथवेजा (सूध १, १०, ११) संयवियय (बुपा २)। संथ [संस्तव] १ स्तुति, श्लाघा, 'संथवो थुई (निचू २ व ३ पिंड ४५४) । २ परिचय, संसर्ग (उवा पिंड ३१०६ ४५४३ ४८. आवक ८) वि. स्तुति-कर्ता (छाया ११६ टी-पत्र २२० राज) 1 १०६ समाश्वासन (पउम ११, २०४९,६५, ४७)। देखो संठावण संभावणा' [ संस्थापना ] संस्थापन, रखना (सा २४) देखो संठावणा । संथिद (शौ) देखो संठिअ (नाट - मुच्छ ३०१) संवि[संस्तुत] संबद्ध संगत (सू १, १२, २ ) । २ परिचित (प्राचा १, २, ११) जिसकी स्तुति की गई हो वह १४६ । " For Personal & Private Use Only वि [] १ संलग्न, संयुक्त, संबद्ध (३८, १८; गउडः २३६) । संदाव देखो संताव = संताप (गा ८१७ ६६४ प २७५ स्वप्न २७ अभि ६१; माल १७६ ) 1 संदाव [संद्राय ] समूह, समुदाय (विसे २८) | संदि [संदिष्ट] १ जिसका धया जिसको संदेशा दिया गया हो वह उपदिष्ट, कथित (पाच उप ७२८ टी प्रोषभा ३१३ " Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४२ भ)। २ जिसको आज्ञा दी गई हो वह 'हरिगमे सिरगा सक्कवयरणसंदिट्ठेण' (कप्प ) । ईटा छिलका निकाला हुआ चावल यादि) (शय ६७)1 संदिद्धवि [संदग्ध] संशय-युक्त, संदेहवाला ( पाच ) । संदिन [ संदरा ] उनतीस दिनों का लगातार उपवास (संबोध ५८ ) 1 1 संदिय वि [स्यन्दित ] क्षरित टपका हुआ (सुर २०६ मंदिर [[]] 1 संदिस सक [ सं+दिश् ] १ संदेशा देना, समाचार पहुँचाना। २ श्राज्ञा देना । ३ अनुज्ञा देना, सम्मति देना । ४ दान के लिए संकल्प करना संसद (पहू महा), संदिसह (डि ) । कवकृ. संदिस्संत (पिंड २३६) । प्रयो, संकृ. संदिसाविऊण (पंचा ५, ३८) संदिसण न [संदेसन] उपदेश, कथन 'कुलनीइनिंगप्मुहागण्यओससदिस' संबोध संदीपण न [संदीपन] १ उत्तेजना उद्दीपन (सबोध ४८ नाट—— उत्तर ५६ ) । २ वि. उत्तेजन का कारण, उद्दीपन करनेवाला ( उत्तम ८८ ) 1 [संदीपित] उत्तेजित उद्दीपित पाइअसहमहणको २ नदी संदेव पुं [दे] १ सीमा, मर्यादा मेलक, नदी संगम (देब, ७) 1 [संदेश] संदेशा, समाचार (गा संदेस ३४२३८३३ हे ४, ४३४० सुपा ३०१३ ५१९) । संदिद्ध - संधिविग्गहिअ संधान एक [ सं + धाबू] दोन संघा (उत्त २०, ४६) संधि दुखी [संधि] १ र २ संधान, उत्तरोत्तर पदार्थ- परिज्ञान (सूत्र १, १, १, २० २१ २२ २३ २४ ) । ३ व्याकरण - प्रसिद्ध दो प्रक्षरों के संयोग से होने वाला वर्ण-विकार (पराह २ २ -- वत्र ११४) । ४ सेंध, चोरी के लिए भीत में किया जाता छेद (चार ६० महान हास्य ११० ) दो हाड़ों का संयोग-स्थानः 'थक्कानो सव्वसंधी' (सुर ४, १६५; १२, १६६: जी १२) । ६ मत, अभिप्रायः 'अहवा विचित्तसंविण हि पुरिसा इति' (२१) ७ कर्म, कर्म- संतति ( आचा सूप्र १, १, १, (२०) । ८ सम्यग् ज्ञान की प्राप्ति । ६ चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम १० अवसर, समय, प्रसंग ११ मीलन, संयोग (प्राचा) । १२ दो पदार्थों का संयोग-स्थान ( विपा १, ३- पत्र ३६६ महा) । १३ मेल के लिए कतिपय नियमों पर मित्रता-स्थापन, सुलह (कप्पू कुमा ६, ४०) । १४ ग्रंथ का प्रकरण, अध्याय परिच्छेद (भषि) "गिन [गृह] दो भीतों के बीच का प्रच्छन्न स्थान (कप्प ) । "च्छेय, गवि [क] संघ लगा कर चोरी करनेवाला ( गाया १, १८- पत्र २३६ विपा १, ३ - पत्र ३९ ) । "पाल, वाल["पाठ] दो राज्यों की सुलह का रक्षक (कप्पः श्रौप; खाया १,१पत्र १९) । संघा श्री [संचा] प्रतिज्ञा, नियम ( १२ संधि वि[दे] दुर्गन्ध दुधादे उप ३३३; सम्मत्त १७१) । संघाण न [संधान] १ दो हाड़ों का संयोग5,5) 1स्थान ( सुर १२, ६) । २ संधि, सुलह ( हम्मीर १५) मद, सुरा, दाह (पर्स । ३ मद्य, ५६)। ४ जोड़, संयोग, मिलान (श्राचा कुमा; भवि ) । ५ अचार, नोबू आदि का मसाला दिया खाद्य विशेष (पव ४) । संधारण न [संधारण ] सान्त्वना, आश्वासन (स ४१६) । (सू २, ६, २) । १५) 1 संदीण [संदीन] १ द्वोप-विशेष पक्ष या मास आदि में पानी से सराबोर होता द्वीप । २ अल्पकाल तक रहनेवाला दीपक । ३ श्रुतज्ञान । ४ क्षोभ्य, क्षोभरगोय ( श्राचा १, ६, ३, ३) संदीप व [संदीपक] उत्तेजक उद्दीपक संयया देखो संघ+या 'कामग्गिसंदीवगं' ( रंभा जलना, संदेह [संदेह ] संशय, शंका ( स्वप्न ६६६ गड, महा) । - संदोह [संदोह]] समूह जत्था (पार २, १४६ : सिरि ५६४) करना संघ क [सं+ धा] १ साँधना, जोड़ना । -२ अनुसंधान करना, खोज करना । ३ वाँछना, चाहना । ४ वृद्धि करना, बढ़ाना । ५ 'भग्गं व संघइ रहं सो' ( कुप्र १०२), संघ, संघए (द्याचा सूत्र १, १४, २११,११, ३४ ३५) । भवि. संधिस्सामि, संधिहिसि ( प ५३० ) । वकृ. संत ( से ५.२४)निमाण (भग)। कृ. संधि ( कु ३८१) संघ देवो देवेद्र २७० ) । संघण स्त्रीन [संधान] १ साधा, संधि, जोड़ (धर्मसं २०१७) २ संधान पंच १२ ४३) श्री. णा ( माचानि १०५ सूपनि १६७; ओघ ७२७) । संघणया स्त्री [संधना ] साँघना, जोड़ना (बब १) । संचय वि[संघक] संधानकर्ता स ४, ५) । । संधयाती संधि (भवि ) 1संदुक्ख श्रक [ प्र + दीपू ] सुलगता दुखद ( प ) 1 संदु वि[संदुष्ट] अतिशय दुष्ट (संबोध ११) । संदुम [ प्र + दीप्] जलना, सुगना। संदुमइ (हे ४, १५२ कुमा) 1 संधारि वि [दे] योग्य, लायक (दे ८, १) । संदुमिअवि [ प्रदीप्त ] जला हुधा सुलगा संधारिअ वि[संधारित] रखा मा स्थापित हुआ (पास) - ( गाया १, १ - पत्र ६६ ) । For Personal & Private Use Only संधिअ वि [संहित] साँधा हुआ, जोड़ा हु ( से १, ५४; गा ५३ स २६७; तंदु ३६६ वजा ७० ) । - संधिअवि [संधित] प्रसारित (गउड) | संधिआ देखो संहिया (प्रोघ ६२ ) । संधिउं देखो संघ सं+धा संधित देखो संधिअ = संहित (भग) 1 V संधिविग्गहिअ पुं [ सान्धिविग्रहिक ] राजा की संधि और लड़ाई के कार्य में नियुक्त मन्त्री (कुमा) 1 = Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधीर - संनिविट्ठ संधीर तक [ सं+ धीर ] बाधासन देना, धीरज देना व संधीत (सुवा ४०६) संघीय वि[संधीरित] जिसको आवासन दिया गया हो वह श्राश्वासित (सुर ४, १११) । - संधुक प्रक [ प्र+दीप सं + घुक्षू ] १ जलना, सुलगना । २ सक. जलाना । ३ उत्तेजित करना । संधुक ( हे ४, १५२३ g), dylan (220) - संधुक्कण न [संधुक्षण] १ सुलगना, जलना । २ प्रज्वालन, सुलगाना (भवि ) । ३ वि. सुलगानेवाला (२४१) संधुक्किअ वि[संधुक्षित] १ जलाया हुश्रा, लगाया षा (२०१२ जला हुआ, हुआ प्रदीप्त, सुलगा हुआ ( पान; महा स २७ ) । ३ उत्तेजितः ‘प्रविवेयपवणसंधुकियो पजतिम्रो मेरा कोवास २४१) संधुच्छिद (शौ) ऊपर देखो (नाट - मृच्छ २३३ । संधुम देखो संदुम । संधुमइ (षड् ) संचे देखो संघ सं+पा। संधे, संत = संजा ( श्राचा १, १, १, ५पि ५०० १, ४, १, ५). संत, संचेमाग ( पउम ६८, ३१ पंचा १४, २७३ आचा; पि ५०० ) 1 संन देखो संग (प्राचा १, ५, ६,४) संनक्खर न] [संज्ञाक्षर] प्रकार आदि धारों की प्राकृति (दि १८७ ) 1 संन देखी संण संम्भाद (भवि ) । संकृ. संनभिऊण (महा) । हेकृ. संनज्झिउं ( स ३७६) संगणन [संज्ञान] इशारा करना, संज्ञा करना ( उप २६० ) । संनत देखो संभय (पएह १, ४ पत्र ७८ ) । संनद्ध देखो संणद्ध (भौपः विपा १, २ टीपत्र २३ ) । संनिचय पुं [संनिचय] १ निचय, समूह (बाचा) २ संग्रह (धाचा १, २, ५, १) संनिचिय वि [संनिचित] निबिड़ किया हुआ ( पव १५८; जीवस ११६ ) 1 संनिजुंज सक [ संनि + युज् ] अच्छी तरह जोड़ना वह संति (पिड ४५५) । संनय वि[संगत ] नमा हुना, अवनत (श्रीप वजा १५० ) । संनव सक [ सं + ज्ञापय ] संभाषण से संनिभ न [सांनिध्य ] सहायता करने के संतुष्ट करना । संनवेइ ( राय १४० ) । लिए समीप में श्रागमन, निकटता ( स ३८२) संह देवीसंग (भवि) संनहह संनिनाय [संनिनाद] प्रतिध्वनि, प्रतिशब्द (धर्मवि २० ) -- (कप्प ) 1 पाइअसरमणयो संग्रहण न [ संनहन] संग्राह (पउन १०, ४) संनद्दिय देखो संणद्ध (नुषा २२) । संना देखो संणा (ठा १ - पत्र १९; परह १ ३ - पत्र ५५ पान सुर ३, ६७; पिंड २४५; उप ७५१३ द ३) | संनायवि [संज्ञात ] पिछाना हुआ, पहिचाना हुआ; 'संनाया परिया' ( महा ) । देखो संणाय ( पव १५३) । संनाह देखो संगाह = सं + नाहय । संनाहेइ ( प तंदु ११)संह संहिता (संयु ११) संनाह देखो संगाह = संनाह (महा) । संनाहिय वि[संनाहित] उप्यार किया हुआ, सजाया हुआ ( प ) 1 संनाहिय देखो संणाहिय ( णाया १, १६— पत्र २१७ ) । संनि देखो संणि (सम २ ठा२, २ - पत्र ५६; जी ४३३ कम्म १, ६) । संनिकास देखो संनिगास (ठा --पत्र ४५६, कप्प) । संनिकिट्टु [वि] [संनिकृष्ट] चासन्न, समीप में स्थित (मुख ४ ८)1 संनिवित्त वि[संनिक्षिप्त ] डाला हुआ, रखा हुआ (कप्प ) । संनिगास वि[स] १समान तुल्या (भग २, १; खाया १, १ - पत्र २५३ औप स ३८१ ) । २ पुं. अपवाद (पंचू ) । ३ पुंन. समीप, पास ( पउम ३६, २८) । - संनिगास [संनिक] संयोग 'संजोग संनिगासो पडुच्च संबंध एगट्ठा' (दि १२८ टी) 1 For Personal & Private Use Only ८४३ संनिभ देव संनिह (गाया १, १ - पत्र ४१) संनिम [संनिमहित] १ व्या पूर्ण भरा हुआ । २ पूजित; 'चंपा नाम नयरी पंश्वरभवनिमय' (श्रीप या १, १ टी -- पत्र ३), 'अस्थि मगहा जरणवश्नो गामवनिमय' (ब) 1 संनिय देखो सांणय (सिरि ८६०६ भवि) संनिय वि [ संनिवृत्त] रुका हुआ, विरत । चारिवि [चारिन्] प्रतिषिद्ध का वर्जन करनेवाला (कप्प) | र संनियास देखो संनिगास (पउम ३३, ११) संविण [सनिलयन] प्राप साधार न श्राश्रय 'समाचार प्रतिवति लय' (पराह १, ५ - पत्र ६४ ) IV संनिवय देखी संणिपडिअ (खाया है, नि १-पत्र ६५) । - संनियाइ वि[संनिपातिन] संयोग, सम्बन्धी 'सव्वक्खर संनिवाइरगो' (कप्पः श्रीप सम्मत्त १४४) । संनिवाइ वि[संनियादिन] संगत बोलनेवाला, व्याजबी कहनेवाला (भाग १, १ – पत्र ११) । संनिवाइ वि[सांनिपातिक ] संनिपात रोग से सम्बन्ध रखनेवाला (गाया १, १ – पत्र ५०; तंदु १६; औप ८७) २ भाव-विशेष, श्रनेक भावों के संयोग से बना हुआ भाव (अणु ११३ कम्म ४, ६४ ६८ ) । ३ पुं. संनिपात, मेल, संयोग (अणु ११३) । - संनिवाइय वि [संनिपातिक] देखो संनिवाइ; 'सव्वक्खर संनिवाइयाए (श्रौष ५६) । संनिपाडियदि [संनिपातित] विश्वस्त किया हुआ (गाया १, १६ – पत्र २२३) । संनिवाय पुं [संनिपात] संयोग, सम्बन्ध (कम्पः श्रीप) - संनिविट्ठ न [ संनिविष्ट] १ मोहल्ला, रच्या ( श्रौप ) । २ वि. जिसने पड़ाव डाला हो वह, नगर के बाहर पड़ाव डालकर पड़ा हुआ ( कस ) । ३ संहत और स्थिर श्रासन से व्यवस्थित - बैठा हुआ (गाया १, ३ - पत्र ६१; राय २७) | Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो संनिवेस-संपणिवाय संनिवेस पुं[संनिवेश] १ नगर के बाहर संपइ प्र[संप्रति १ इस समय, अधुना, अब संपज्जलिअ पुं [संप्रज्वलित] तीसरा नरक का प्रदेश, जहाँ प्राभीर वगैरह लोग रहते (पाय; महा: जी ५०; दं ४६; कुमा)। २ का नववाँ नरकेन्द्रक, नरकावास-विशेष हों। २ गाँव, नगर आदि स्थान (भग १, पुं. एक प्रसिद्ध जैन राजा, सम्राट अशोक | (देवेन्द्र १) १-पत्र ३६)। ३ यात्री प्रादि का डेरा, का पोत्र (कुप्र २; धर्मवि ३७; पुप्फ २६०) संपट्ठिअ देखो संपत्थिअ = संप्रस्थित (उप मार्ग का वास-स्थान, पड़ाव (उत्त ३०, १७)। काल पुं [ काल] वर्तमान काल (सुपा । १४२ टी; औप; संबोध ५५; सुपा ७७; ४ ग्राम, ग.व (सिरि ३८)। ५ रचना (उप। ४४६) कालीण वि[कालीन] वर्तमान- उपपु १५८)।। पृ१४२) काल-सम्बन्धी (विसे २२२६) संपड अक [सं + पद्] १ प्राप्त होना, संनिवेसणया श्री सिंनिवेशमा] संस्थापन | संपइण्ण वि [संप्रकीर्ण] व्याप्त (राज)।। मिलनाः गुजराती में 'सांपडवु" । २ सिद्ध (उत्त २६, १) होना, निष्पन्न होना । संपडइ, संपति संपउत्त वि [संप्रयुक्त] संयुक्त, संबद्ध, जोड़ा संनिसिल्ल वि [संनिवेशिन] रचनावाला, हा (ठा ४, १--पत्र १८७; सूत्र २, ७, (वजा ११६, समु १५८: वज्जा ५.)। (उप पृ १४२)1 वकृ. संपडंत (से १४, १: सुर १०.६७)। २, उवा; औप; धर्मसं ६६५: राय १४६)। संनिसन्न वि [संनिपण्ण बैठा हुआ, सम्यक् संपअंग पुं[संप्रयोग] संयोग, संबन्ध (ठा संपडिअ वि [दे संपन्न लब्ध मिला हुआ, प्राप्त (दे८.१४: स २५... स्थित (णाया १.१-पत्र १६: कुप्र १६६, ४,१-पत्र १८७; स ६१४; अ ७२८ श्रु १२; सण) . संपडिबूह सक [संप्रांत + बृह] प्रशंसा टी कुप्र ३७३: प्रौप) संनिसिजा श्री सिंनिपद्या] प्रासन- संपकर देखो संघगर। संपकरेइ (उत्त २१, करना, तारीफ करना । सपाडव्हति सूत्र २, २, ५५) । संनिसेजा विशेष, पीठ यादि प्रासन (सम १६) संपडिलेह सक [संप्रति + लेखय् ] प्रति२१, उत्त १६, ३; उव)। | संपक्क पुं[संपर्क] सम्बन्ध (सुपा ५८; जागरण करना, प्रत्युपेक्षण करना, अच्छी संनिह वि [संनिभ] समान, सदृश (प्रासू ___ सम्मत्त १४१)। तरह निरीक्षण करना। संपडिलेहए (उत्त ६६. सण) संपक्कि वि संपर्किन् ] संकवाला, संबन्धी २६, ४३)। कृ. संपडिलेहिअव्व (दसचू संनिहाण न [संनिधान] १ ज्ञानावरणीय (कप्पू काप्र १७) । आदि कर्म (प्राचा) । २ कारक-विशेष, अधि संपक्खाल पुं[संप्रक्षाल] तापस का एक संपडिवज सक [संप्रति + पद्] स्वीकार करण कारक, प्राधार (बिसे २०६६ ठा भेद जो मिट्टी वगैरह घिस कर शरीर का करना । संपडिवज्जइ (भग) ८-पत्र ४२७)। ३ सान्निध्य, निकटता प्रक्षालन करते हैं (प्रौप)। संपडिवत्ति स्त्री [संप्रतिपत्ति] स्वीकार, (स ७१८, ७६१) सत्थ न [शस्त्र] संपक्खालिय वि संप्रक्षालित] धोया हुआ | अंगीकार (विसे २६१४)। संयम, त्याग (प्राचा)। सत्थ न [शास्त्र] (धर्म ३) संपडिवाइअ वि [संप्रतिपादित] स्थित कर्म का स्वरूप बतानेवाला शास्त्र (प्राचा)।- संपक्खित्त वि[संप्रक्षिप्त प्रक्षिप्त, फेंका (उत २२, ४६; सुख २२, ४६)। २ संनिहि पुंस्त्री [संनिधि] १ उपभोग के लिए हुआ, डाला हुमा (पंच ५, १५७) । स्थापित (दस २, १०) स्थापित वस्तु (माचा १, २, १, ४)। २ संपगर सक [संप्र+कृ] करना । संपगरेइ संपडिवाय सक [संप्रति + पादय] संपादन संस्थापन। ३ मुन्दर निधि (प्राचा १, २, (उत्त २१, १६) करना, प्राप्त करना। संपडिवायए (दस ६, ५, १)। ४ समीपता, निकटता (उप पू संपगाढ वि सिंप्रगाढ १ अत्यन्त प्राक्त २,२०)। १८६ स ६८: कुप्र १३०)। ५ संचय, (उत्त २०, ४५; सूत्र २, ६, २२)। २ संपणदिय । देखो संपणाइय (राजा संग्रह (उत्त ६, १५; दस ३, ३;८, २४)। व्याप्त (सूत्र १, ५, १, १७)। ३ स्थित, संपणद्दिय । कप्प)। संपणा देखो संपण्णा (दे ८,८)।। संनिहिश पुं[संनिहित] अणपनि देवों के व्यवस्थित (सूत्र १, १२, १२) संपणाइय । वि संप्रमादित] समोदक्षिण दिशा का इन्द्र (ठा २, ३-पत्र संपगिद्ध वि [संप्रगृद्ध] अति प्रासक्त संपणादिय । चीन शब्दवाला; 'तुडियसद्दसं८५)। देखो संणिहिअ (गाया १, १ टी-- (पण्ह १, ४-पत्र ८५) परणाइया' (जीव ३, ४-पत्र २२४; पत्र पत्र ४)। संपग्गहिअ वि [संप्रगृहीत] खूब प्रकर्ष । २२७ टी)। संनेझ देखो संनिभः 'उवगारि त्ति करेइ से गृहीत, विशेष अभिमान-युक्त (दस ६, ४, संपणाम सक [संप्र+नामय ] अर्पण कुमरस्स सन्नेज्ज(? ज्झ)' (कुप्र २५, चेइय २)। करना । संपणामए (उत्त २३, १७) । संपज अक सिं+पद्] १ संपन्न होना, संपणिपाअj [सप्रणिपात] प्रणाम, संपअ(अप) देखो संपया (पिंग पि ४१३; सिद्ध होना। २ मिलना । संपजइ (षड्; संपणिवाय । समीचीन नमस्कार (पंचा ३, संपइ हे ४, ३३५कुमा) । महा)। भवि. संपबिस्सइ (महा)। १८ चेइय २३७) Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपणुण्ण-संपलग्ग पाइअसद्दमहण्णवो संपणुण्ण वि [संप्रनुन्न प्रेरित, उत्तेजितः संपदाय पुं[संप्रदाय गुरु-परंरागत उपदेश, स्थान (पव १)। ३ प्राप्ति; 'बोहीलाभो 'अक्खंडचंडानिलसंपणुएणविलोलजालासयसं- आम्नाय (संबोध ५३, धर्मसं १२३७)। जिरणधम्मसंपया' (चेइय ६३१, पव ६२)। कुलम्मि' (उपपं ४५) संपदावण न [संप्रदापन, संप्रदान कारक- ६२)। ४ एक वरिणक-स्त्री का नाम (उप संपणुल्ल । सक [संघ + नुद्] प्रेरणा विशेष, 'ततिया करणम्मि कता चउत्थी ५६७ टी)। संपणोल्ल, करना। संकृ. संपणुल्लिया, संपदावणे' (ठा ८-पत्र ४२७) संपयाण न [संप्रदान] १ सम्यक् प्रदान, संपणोल्लिया (दस ५, १, ३०)। संपदि देखो संपइ% संप्रति (प्राकृ१२)। अच्छी तरह देना, समर्पण (पाचा २,१५, संपण्ण देखो संपन्न (णाया १,१-पत्र ६ संपदि देखो संपत्ति = संपत्ति (संक्षिपि ५ गा ६८ सुपा २६८) । २ कारक-विशेष, चतुर्थी-कारक, जिसको दान दिया जाय वह हेका ३३१; नाट-मृच्छ ६)। २०४)। संपधार देखो संपहार = संप्र + धारय् । (दिसे २०६९) संपण्णा स्त्री [दे] घेबर या घीवर (मिष्टान्नसंपधारेदि (शौ) (नाट-मृच्छ २१६)। संपयावण देखो संपदावणः चउत्यो संपयावणे' विशेष) बनाने का आटा, गेहूँ का वह आटा कर्म. संपधारीअदु (शौ) (पि ५४३) (अणु १३३) जिसका घृतपूर बनता है (दे ८, ८) संपधारणा स्त्री सिंप्रधारणा व्यवहार-विशेष, संपराइगर वि [सापरायिक संपरायसंपत्त वि[संप्राप्त] १ सम्यक् प्राप्त (गाया | धारणा व्यवहार (वय १०)। संपराइव।संबन्धी, संपराय में उत्पन्न (ठा १, १; उवा; विपा १, १; महा; जी ५०)। संपधारिय वि संप्रधारित निश्रित, निर्णीत २, १-पत्र ३६ सूप १,८,८ भगः २ समागत, प्राया हुआ (सुपा ४१६) श्रावक २२६)। संपत्त पुंन [संपात्र] सुन्दर पात्र, सुपात्र संपधूमिय वि [संप्रधूमित] धूप-वासित, . संपराय पुं[संपराय] १ संसार, जगत् (सूम १,५, २, २३, दस २, ५)। २ क्रोध आदि (सुपा ४१६) धूप दिया हुआ (कस: कप्पा आचा २, २, कषाय (ठा २, १-पत्र ३६)। ३ बादर संपत्ति स्त्री [संपत्ति] १ समृद्धि, वैभव, | संपन्न वि[संपन्न] १ संपत्ति-युक्त (भग; कषाय, स्थूल कषाय (सूम १, ८, ८)। ४ संपदा (पान; प्रासू ६६, १२८)। २ संसिद्धि । महा; कप्प)। २ संसिद्ध (विपा १,२-पत्र कषाय का उदय (प्रौप)। ५ युद्ध, संग्राम, ३ पूति; 'तव दोहलस्स संपत्ती भविस्सई' २६) लड़ाई (गाया १, ६-पत्र १५७; कुप्र (विपा १, २-पत्र २७)। संपप्प देखो संपाव । ४०१ विक्र ८८; दस २, ५)। संपत्ति स्त्री संप्राप्ति] लाभ, प्राप्ति (चेश्य संपबुज्झ अक [संघ + बुध् ] सत्य ज्ञान | संपरिकित्ति पुं[संपरिकीति] राक्षस वंश ८६४; सुपा २१०)। को प्राप्त करना । संपबुज्झंति (पंचा ७, २३) का एक राजा, एक लंका-पति (पउम ५, संपत्तिआ स्त्री [दे] १ बाला, कुमारी लड़की २६०)। संपमज सक [संप्र + मृज् ] मार्जन करना, (दे८, १८ वज्जा ११६)। पिप्पली-पत्र, संपरिक्ख सक [संपरि + ईक्ष] सम्यक् झाड़ना, साफ-सूफ करना । संपमज्जेइ (प्रौप पीपल की पत्ती (दे ८, १८) परीक्षा करना । संकृ. संपरिक्खाए (संबोध ४४) । संकृ. संपमजेत्ता, संपमज्जिय संपत्थिअ न दे] शीघ्र, जलदी (दे ८, ११)। २१)। (ौप; प्राचा २, १, ४, ५) । संपरिक्खित्त । वि [संपरिक्षिप्त] वेष्टित संपत्थिय वि [संप्रस्थित] १ जिसने संपमार सक [संप्र + मारय ] मूच्छित संपरिखित्त । (भगः पउम, ३, २२ णाया संपत्थित प्रयाण किया हो वह, प्रयात, करना । संपमारए (पाचा १, १, २, ३) १, १ टी-पत्र ४)। प्रस्थित (अंत २१, उप ६६६; सुपा १०७; संपय वि [सांप्रत] विद्यमान, वर्तमानः संपरिफुड वि [संपरिस्फुट] सुस्पष्ट, अति ६५१; णाया १, २-पत्र ३२) । उपस्थितः 'पाएण संपए चिय कालम्मि न याइदीहका- | व्यक्त (पउम ७८, १६)। 'गहियाउहेहि जइवि हु रक्खिजइ पंजरोवरच्छो लण्णा ' (विसे ५१६)। संपरिवुड वि [संपरिवृत] १ सम्यक् परि(? रुद्धो)वि। तहवि हु मरइ निरुत्तं पुरिसो संपयं देखो संपदं (पाना महा; सुपा ५६८)।- वृत, परिवार-युक्त (विपा १, १-पत्र १; संपत्थिए काले ॥" संपयट्ट अक [संप्र + वृत् ] सम्यक् प्रवृत्ति उवाः प्रौप) । २ वेटित (सूत्र २, २, ५५) । (पउम ११, ६१) करना । संपयट्टेज्जा (धर्मसं ९३१) । वकृ. संपरी सक [संपरी + इ] पर्यटन करना, संपदं प [सांप्रतम् ] १ युक्त, उचित (प्राकृ संपयझंत (पंचा ८, १४)। भ्रमण करना । संपरोइ (विसे १२७७)। १२) । २ अधुना, अब (अभि ५६) 10 संपयट्ट वि [संप्रवृत्त] सम्यक् प्रवृत्त (सुर संपल (अप) अक[सं + पत् ]पा गिरना। संपदत्त वि [संप्रदत्त] दिया हुआ, अर्पित ४,७६) । संपलइ (पिंग)। (महा; प्राप)। संपया स्त्री [संपद] १ समृद्धि, संपत्ति, संपलग्ग वि [संप्रलग्न] १ संयुक्त, मिला संपदाण देखो संपयाण (णाया १,८-पत्र लक्ष्मी, विभव (उवाः कुमा; सुर ३, ६८ हुमा । २ जो लड़ाई के लिए भिड़ गया हो १५०; प्राचा २, १५, ५). महा प्रासू ९६)। २ वाक्यों का विश्राम- वह (णाया १,१८-पत्र २३९)। For Personal & Private Use Only Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४६ चित संपत्त[संप्रति] उक्त प्रतिपादित (गाया १२ - पत्र ८६) । संपल लिय[संप्रति] जिसका धी तरह लालन हुआ हो यह 'मुपलनिया' (श्रीप) 1 संपलि[संपति] एक जैन महर्षि (कप्प ) 1 संपलिक[संपर्वङ्क] पद्यासन (भग औनः कप्पः राय १४५) । संपत्ति वि[संप्रदीप्त ] प्रज्वलित, सुलगा हुआ खाया १, १ पत्र ६३ पउम २२ १६; घर्मसं ६७० सुपा २६८ महा) | संपलिम स [ संपरि + सृज् ] प्रमाजंन करना वफ पलिममाण (माचा । संपलिमज्जमाण १, ५, ४, ३ ) । संपली सक [ संपरि + इ] जाना, गति करना । संपलिति (सूत्र १, १, २, ७) संपवेय ( क [ संप्र + वेप् ] काँपना संपवेव संपवेयए, संपवेवए ( आचा २, १६, ३) । संपवेस [प्रवेश] प्रवेश, पैठ (गउड) । संपव्यय सक [ संप्र + व्रज् ] गमन करना, जाना । वकृ. संपव्वयमाण ( आचा १, ५, ५, ३; ठा ६–पत्र ३५२ ) । हेकु. संपव्वइत्तए ( कस) 1 संपसार पुं[संप्रसार] एकत्रित होना, सम वाय (राज) संपसारग वि[संप्रसारक ] १ विस्ता संपसारय । रक, फैलानेवाला (सूत्र १, २, २, २८ ) । २ पर्यालोचनकर्ता (प्राचा १, ५, ४, ५) 1 संपसारि वि[संप्रसारिन्] ऊपर देखो (सूच १,९,१६). संपसिद्ध वि[संप्रसिद्ध ] भव्यन्त प्रसिद्ध (पस ८३७) संपस सक[स+ दृश् ] १ अच्छी तरह देखना विचार करता सह संपतिय (१८) संपहार सक [ संप्र + धारय] १ चितन करना । २ निर्णय करना, निश्चय करना । संपात (सुख १, १५) भूका. संपहारिनु पाइअसहमष्णवो ( सू २, १, १४, २६) । संकृ. संपहारिकण (१०६) संपहार [ संप्रचार] निश्चय, निर्णय ( पउम १६, २६६ उप १०३१ टी. भवि) । संपहार पुं [संप्रहार] युद्ध, लड़ाई (से ८, ४६)। संपहारण ४८, ६८ ) 1. संपा[+ धाव ] दौड़ना संप हावे ( आचा २, १, ३, ३) संपहिरि [संग्रहष्ट] हर्षित प्रमुदित (उ (१५, ३). [ संप्रधारण] निश्चय (पउन संपा श्री [दे] काषी, मेखला, करमनी दे 5, 3) I संपाइअव वि[संपादितवत् ] जिसने सम्पा दन किया हो वह (हे ४, २६५३ विसे ६३४) । संपाइम वि [ संपातिम] १ भ्रमर, कीट, पतंग यादि उड़नेवाला जंतु घाना चि २४ सुपा ४९१६ श्रोध ३४८ ) । २ जानेवाला, गति-कर्ता; 'तिरिच्छसंपाइमा वा तसा पाणा' (प्राचा २, १, ३, ६, २, ३, १, 88)1~ संपाइय वि [ संपातित] १ प्रागत, श्राया हुआ । २ मिलित, मिला हुआ (भवि ) 1संपाइय वि [संपादित ] साधित, सिद्ध किया हुआ; 'संपाइयइफलि' (सण) । संपाऊण सक [ संप्र + आप ] अच्छी तरह प्राप्त करना संपाउइ, संपाउांति (उत्त २६, ५६ पि५०४) । भवि संपाउरिणस्सामो ( गाया १, १८ - पत्र २४९ ) । प्रयो. 'जेप्पारणं परं चैव सिद्धि संपाउणेज्जासि' (उत्त ११,३२) । संपाओ घ[संप्रातर]१ जयप्रभात होय तब प्रातः काल । २ अति प्रभात, बड़ी सुबह । ३ हर प्रभात (ठा ३, १ टी -पत्र ११८ ) 1 संपागड[संप्रकट] प्रकट, खुला संदा १ - पत्र २०३; गडपडिसेवी' (ठा ४, उब)। संपाड सक [ सं + पादय ] १ सिद्ध करना, निष्पन्न करना । २ प्रार्थित वस्तु देना, For Personal & Private Use Only संपलत्त - संपायण दान करना । ४ प्राप्त करना, 'देइ सो जम्मा त्वामराइ (महा), 'संपाडेमि भयवओ मारणं ति' (स ६८४), (६) संपाडेवस्य (स संपाडग वि [ संपादक ] कर्ता, निर्माता; 'ता २१४) । को अन्नो तस्सुन्नईए संपाडगो होज्जा' (उप १४२ टी) । संपादण न [संपादन] १ निष्पादन (स ७४८) २करण निर्माण (३०) 'परत्थ संपारिक सिप्रत्तं ' ( सा ११) । संपाअि वि[संपादन] १ सिद्ध किया हुधा निष्यादित (२४ र २ १७० ) । २ प्राप्त किया हुआ (उप पृ १२४) ३ दत्त, श्रर्पित ( स २३५) संपात देव संपाओ (ठा १-पत्र ११७) । संपाद (शौ) देखो संपाड = सं + पादय् । [संपादि] (नाट६५) संपाद पोअ (गाट-विक्र ६० ) 1संपादइत्तअ ( शो) वि [ संपपादवितृ] संपादन कर्ता, संपादक (पि ६००) 1 संपादिअवद (शौ) देखो संपाइअव ( पि ५८६ ) 1 संपाय पुं [ संपात ] सम्यकपतन; 'सलिलसंपादकीय (सुर १ ११६) २ संवन्ध संयोग सारीरमाणा यकलियति' (सुर ४, ७५३ प का झूठ, निरर्थक असत्य भाषण ( परह १, ५ -- पत्र २ ) । संग, संगति (श्रा ६ पंचा १, ४१ ) । ५ आगमन (पंचा ७, ७२ ) । ६ चलन, हिलन ( उत्त १५, २३ सुख १८, २३) - संपाय देखो संपाओ (राज) संपायग वि[संपादक] संपादन कर्ता (उप पृ २६; महा चेइय ९०५) संपाय[संप्रापक]] प्राप्त गाला 'रिसिगुणसंपायगो होइ' (चेइय ९०५ ) । २ प्राप्त करानेवाला (२९)संपायण देखो संपाडण (सुर ४, ७३ सुपा २८ ३४३ चेइय ७६७) Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपायणा-संबर पाइअसहमहण्णवो ८४७ संपायणा स्त्री [संपादना] ऊपर देखो (पंचा संपुच्छ सक [सं+प्रच्छ ] पूछना, प्रश्न संपेह सक [संप्र+ ईक्ष ] देखना, निरीक्षण करना । संपुच्छदि (शौ) (नाट-विक्र २१)। करना । संपेहरा, संपेहेइ (दसचू २, १२; पि संपाल सक [सं + पालय ] पालन संपळण म्वीन संप्रन्टन संप्रश्ना ३२३, भगः उवा; कप्प) । सं.संपेहाए, करना । संपालइ (भवि)। प्रश्न, पृच्छा (सूम १,६, २१, सूपा २१) संपेहित्ता (पाचा १,२, ४,४१,५,३, संपाव सक[ सं+ आप्] प्राप्त करना। स्त्री. °णी (दस ३, ३) २. सून २, २,१, भग)। संपावेइ (भवि) । संकृ. संपप्प (संवेग १२)। ।' संपुच्छणी स्त्री सिंधुच्छन] झाडू, संमार्जनी संपेहा स्त्री [संप्रेक्षा] पर्यालोचन (पाचा १, हेकृ. संपाविउ (सम १; भगः सौप) (राय २१)। २, २, ६)। संपाव सक [संप्र + आपय ] प्राप्त संपुज्ज वि [संपूज्य संमाननीय, प्रादरणीय संफ न [दे] कुमुद, चन्द्र-कमल (दै ८,१)।' करवाना । संपावेइ (उवा)। (पउम ३३, ४७) । संफाल सक [सं + पादय ] फाड़ना, संपावण न [संप्रापण] प्राप्ति, लाभ (गाया संपुड पु[संपुट] १ जुड़े हुए दो समान अंश | चीरना । संफाल (भवि)। १, १८--पत्र २४१; सुर : ४, ५७)। वाली वस्तु, दो समान अंशो का एक दूसरे संसाली स्त्री दे] पंक्ति. श्रेरिण (दे ८, ५)।संपाविअ वि संप्राप्त] प्राप्त, लब्ध (सुर से जुड़ना; 'कवाडसंपुडघणम्मि' (धरण ३), संफास सक[सं+ स्पृश् ] स्पर्श करना, २, २२६; सुपा १९५; सण)। 'दलसंपुडे' (कप्पू: महाः भविः से ७, ५६)। छूना; 'माइट्ठाणं संफासे' (प्राचा २, १, ३, संपाविअ वि[संप्रापित नीत, जो ले जाया २ संचय, समूह (सून १, ५, १, २३)। ३, २, १, ५, ५, २, १, ६, २, ४, ५)। फलग [फलक] दोनों तरफ जिल्द बँधी गया हो वह (राज)। पुस्तक, हिसाब की बही के समान किताब संफास पुं[संस्पशे] स्पर्श (पाचा; उप संपासंग वि [दे] दीर्घ, लम्बा (दे८, ११)। (पव ८०) | ६४८ टी; पव २ टी हे १, ४३, पडि) । संपिंडग न सिंपिण्डन] १ द्रव्यों का परस्पर संपुड सक [ संपुटय जोड़ना, दोनों हिस्सों संफासण न [संस्पर्शन] ऊपर देखो संयोजन (पिंड २) । २ समूह (अोघ ४०७)। को मिलाना । संपुडइ (भवि) । 'आणावीरियसंफासणभावतो' (पंचा १०, संपिंडिअ वि [संपिण्डित] पिण्डाकार किया संपुडिअ वि [संपुटित्त] जुड़ा हुआ (णाया । २८)। हुआ, एकत्र किया हुआ (ौष जी.-४७; १, १-पत्र ६३)। संफिट्ट पुं[दे] संयोग, मेलन (श्रा १६) । सण) संपुण्ण वि [संपूर्ण] १ पूर्ण, पूरा (उवाः | संफुल्ल घि[संफुल्ल] विकसित (प्राकृ १४) ।। संपिक्ख देखो संपेह = संप्र + ईक्ष् । संपि- | महा) । २ न. दश दिनों का लगातार उपवास संफुसिय वि [संमृष्ट] प्रमाजितः 'दसणकरक्खई (दसचू २, १२)। (संबोध ५८)। नियरसंफुसियदिसिमुहमला' (सुपा २६३) । संपिट्ठ वि[संपिष्ट] पिसा हुआ (सून १, संपूअ सक[सं+ पूजय_] सम्मान करना, संब शाम्ब]१ श्रीकृष्ण वासुदेव का एक अभ्यर्चना करना। संकृ. संपूइऊण (पंचा। पत्र (णाया १,५-पत्र १० अंत १४)। संपिणद्ध वि [संपिनद्ध] नियन्त्रित; 'रज्जु २ राजा कुमारपाल के समय का एक सेठ पिरिणद्धो व इंदकेतू विसुद्धणेगगुणसंपिणद्धं' संपूजिय वि[संपूजित अभ्यचित (महा) (कूप्र १४३) । (पएह २. ४--पत्र १३०)। संपूयण न [संपूजन] पूजन, अभ्यर्चन (सूम संब पुन [शम्ब] वज्र, इन्द्र का प्रायुध (सुर संपिहा सक [समपि + धा] पाच्छादन १, १०, ७, धर्मसं ६३४) करना, ढकना। संकृ. संपिहित्ताणं (पि ५८३)। संपूरिय वि [संपूरित] पूर्ण किया हुप्रा. संबंध सक [सं + बन्ध् ] १ जोड़ना। २ 'संपूरियदोहला' (महाः सण)। नाता करना । कर्म. संबज्झइ (चेइय ७२७)।संपीड पुं[संपीड] संपीडन, दबाना (गउड)। देखो संपील । संपेल्ल [संपीड] दबाव (पउम ८, २७२)। संबंध पुं[संबन्ध] १ संसर्ग, संग (भवि)। संवीडिअ वि [संपीडित] दबाया हुआ लाख २ संयोग (कम्म १, ३५) । ३ नाता, सगाई, रिश्तेदारी (स्वप्न ४३)। ४ योजना, मेल (महाः भवि)।। (गउड १४४)।संपीणि वि[संप्रीणित] खुश किया हुमा संपेस पुं[संप्रेष] प्रेषण, भेजना (णाया १, (वव ५) (सण) ८-पत्र १४७) । संबंधि वि [संबन्धिन सम्बन्ध रखनेवाला संपील पुं [संपीड] संघात, समूह (उत्त ३२, संपेसण न [संप्रेषण] ऊपर देखो (णाया १, पर देखो माया १, (उवा; सम्म ११७ स ५३६)। (उवा सम्म र २६)। ८-पत्र १४६; स ३७६; गउड; भवि) संबर पुं शम्बर] मृग-विशेष, हरिण की संपीला स्त्री [संपीडा] पीड़ा, दुःखानुभव संपेसिय वि [संप्रेषित] भेजा हुआ (सुर एक जाति (पएह १,१–पत्र ७ दे ८,६; (उत्त ३२, ३६ ५२; ६५ ७८)। १६, ११५)। कुप्र ४२६) For Personal & Private Use Only Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४८ पाइअसद्दमहण्णको संबल-संभव संबल पुन [शम्बल] १ पाथेय, रास्ते में स ४८६; सूत्र १, २, १, १; वै ७३)। संभणिअ वि [संभणित] कथित, उक्त खाने का भोजन; 'धन्नाणं चिय परलोयसंबलो | वकृ. संबुज्झमाण (प्राचा १, १, २, ५) (पिंग)। मिलइ नन्नाणं' (सम्मत्त १५७; पान; सुर संबुद्ध वि [संबुद्ध] ज्ञान-प्राप्त (उवाः महा) संभम सक [सं + भ्रम्] १ अतिशय १६, ५०; दे ६, १०८ महा; भवि; सुपा संबुद्धि स्त्री [संबुद्धि ज्ञान, बोध (अज्झ भ्रमण करना। २ अक. भय-भीत होना, १४)। २ एक नागकुमार देव (भावम)। घबड़ाना । वकृ. संभमंत (पि २७५) संबलि देखो सिंबलि = शिम्बलि (आचा २, संभम [संभ्रम] १ प्रादरः 'संभमो मायरो १, १०, ४)। संबूअ [शम्बूक] जल-शुक्ति, शुक्ति के पयत्तो य' (पान) । २ भय, घबराहट, क्षोभः आकार का जल-जंतु-विशेष (दे ८, १६; संबलि पुंस्त्री [शाल्मलि] वृक्ष-विशेष, सेमल 'संखोहो संभमो तासो' (पान; प्रासू १०५ गउड) का पेड़ (सुर २, २३४ ८, ५७)। देखो महा)। ३ उत्सुकता (प्रौप)।सिंबलि। संबोधि स्त्री [संबोधि] सत्य धर्म की प्राप्तिान संभर सक [सं+ भृ] १ धारण करना। संवाधा देखो संबाहा (पउम २, ८६)। (धर्मसं १३६६) २ पोषण करना । ३ संक्षेप करना, संकोच संबाह सक [सं+ बाध्] १ पौड़ा करना। संबोह सक[सं+बोधय ] १ समझाना, करना। वकृ. संभरमाण (से ७, ४१)। २ दबाना, चप्पी करना। संबाहज्जा बुझाना। २ आमन्त्रण करना। ३ विज्ञप्ति | संकृ. संभार (अप) (पिंग)। (निचू ३)। करना । संबोहइ, संबोहेइ ( भविः महा)। संभर सक [सं + स्मृ] स्मरण करना, याद संबाह पुं[संबाध] १ नगर-विशेष, जहाँ कवकृ. संबोहिन्जमाण (णाया १, १४)। करना । संभरेइ, संभरिमो (महा पि ४५५) । ब्राह्मण आदि चारों वर्षों की प्रभूत वस्ती कृ. संबोहेअव्व (ठा ४, ३–पत्र २४३)। वकृ. संभरंत, संभरमाण (गा २६; सुपा हो वह शहर (उत्त ३०, १६)। २ पीड़ा | संबोह पुं[संबोध] ज्ञान, बोध, समझ ३१७; से ७, ४१) । कृ. संभरणिज्ज, 'संबाहा बहवे भुज्जो दुरइक्कमा अजाणो (मात्म २०)। संभरणीय (धम्मो १८; उप ५३८ टो)। अपासो' (प्राचा)। ३ वि. संकीर्ण, सकरा संबोहण न [संबोधन] १ ऊपर देखो (विसे | संभरण न [संस्मरण] स्मरण, याद (गा 'संबाहं संकिरणं' (पान)। २३३२, सुख १०, १; चेइय ७७५)। २ २२२ रणाया १, १-पत्र ७१, दे ७, २५; संबाहण न [संबाधन] देखो संवाहण आमन्त्रण (गउड)। ३ विज्ञप्ति (णाया १, उवकु १४) । (पाचा १, ६, ४, २)। ८-पत्र १५१)। संभरणा स्त्री [संस्मरणा] ऊपर देखो (उप संबाहणा स्त्री [संबाधना] देखो संवाहणा संबोहि देखो संबोधि (उप पृ १७६, वै ७३)। ५३०टी) (प्रौप)। संभराविअ वि [संस्मारित] याद कराया संबोहिअ वि[संबोधित] १ समझाया हुमा संबाहणी स्त्री [संबाधनी] विद्या-विशेष | । हुआ (दे ८, २५; कुप्र ४२१)। (यति ४८) । २ विज्ञापित (णाया १,८(पउम ७, १३७)। संभरिअ वि [संस्मृत] याद किया हुआ पत्र १५१)। (गउड; काप्र ८६२) संबाहा स्त्री [संबाधा] १ पीड़ा (प्राचा १, संभंत वि [संभ्रान्त] १ भीत, घबड़ाया संभल सक [सं+ स्मृ] याद करना। ५, ४, २) । २ अंग-मदन, चप्पी (निचू ३)। हमा, त्रस्त (उत्त १८, ७, महा; गउड)। संभलइ (उप पृ ११३)। कर्म, संभलिज्जइ संबाहिय वि [संबाधित] १ पीड़ित (सूम २ पुंन. प्रथम नरक का पांचवाँ नरकेन्द्रक- (वज्जा ८०)। वकृ. संभलि (अप) (पिंग १, ५, २, १८)। २ देखो संवाहिय नरकस्थान-विशेष (देवेन्द्र ४) । ३ न. भय, २६७) (ौप)। घबराहट (महा)। संभल सक [सं+भल ] १ सुनना संबुक्क शम्बूक] १ शंख (ठा ४, २संभंति स्त्री [संभ्रान्ति] संभ्रम, उत्सुकता गुजराती में 'सांभळवु" । २ प्रक. सम्भलना, पत्र २१६; सुपा ५० १६५)। २ रावण (भग १६, ५-पत्र ७०६)। सावधान होना। संभलइ (भवि); 'संभलसु का एक भागिनेय-खरदूषण का पुत्र (पउम मह पइन्न' (सम्मत्त २१७) । संकृ. संभलि ४३, १८)। ३ एक गाँव का नाम (राज)। संभंतिय वि [सांभ्रान्तिक] संभ्रम से बना (अप) (पिंग २८६) विट्टा स्त्री [विर्ता] शंख के प्रावतं के हुआ (भग १६, ५-पत्र ७०६)। संभली स्त्री [दे. संभली] १ दूती (दे ८,६ समान भिक्षा-चर्या (उत्त ३०, १९)। देखो संभग्ग वि [संभग्न] चूणित (उत्त १६, वव ५) : २ कुट्टनी, पर-पुरुष के साथ अन्य संबूअ।। स्त्री का योग करानेवाली स्त्री (कुमा)। संबुज्झ सक [सं + बुध् ] समझना, ज्ञान संभण सक [सं + भण् ] कहना। संकृ. संभव अक [सं + भू] १ उत्पन्न होना। पाना । संबुज्झइ, संबुज्झति, संबुज्झह (महाः संभणिअ (पिंग)। | संभावना होना, उत्कट संशय होना। संभवइ For Personal & Private Use Only Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभव - संभोग (पि ४७५; काल; भवि ) । वकु. संभवंत (सुपा ५६ ) । कृ. संभव्व (श्रा १२ सूत्रनि ex) संभव [संभव] १ उत्पत्ति (महा; प है ४, ३१५) । २ संभावना (भवि ) । ३ वर्तमान सर्पिणी काल में उत्पन्न तीसरे जिनदेव का नाम (सम ४३; पडि ) । ३ एक जैन मुनि जो दूसरे वासुदेव के पूर्व जन्म के गुरु थे (पउम २३, १७६) । ५ कला-विशेष ( औौप ) 1संभव [दे] प्रसव जरा, प्रसूति से होनेवाला बुढ़ापा (दे ८, ४) । संभव (अप) देखो संभम = संभ्रम (भवि) 1 संभवि वि [ संभविन् ] जिसका सम्भव हो वह (पंच ५, २५; भास ३५) । संभविय रेल संभू (इव १५६) । संभव्व देखो संभव = सं + भू संभाणव[संभाणs] गुजरात का एक प्राचीन नगर (राज)। संभाल पुं [संभाल] खोज, प्रन्वेषण; 'उदिए सूरम्मि जान जरगरगोए पायपणामनिमित्तं समागमो ताव संभालो जामो तस्स, न कत्यवि जाव पत्ती कहूंचि ज्वलद्धा' (उप २२० टी) १०७ पाइअसद्द महणवो संभालिय वि [संभालित ] संभाला हुआ (सरण) । संभाव सक[सं+ भावर ] १ संभावना करना। २ प्रसन्न नजर से देखना 'न संभावसि अवरोह (मोह ६) संभावेि ( संवेग ४ ), सम्भावेहि मोह २६ ) | कर्म. संभावीदि (शौ) (नाट मुख २.० ) । वकृ. संभावअंत (नाट - शकु १३४) । संकृ. संभाविअ ( नाट— शत्रु ६७ ) । कृ. संभावणिज्ज, संभावणीय (उप ७६८ टी स. ६१; श्रा२३) । संभार सक [ सं + भारय ] मसाला से संस्कृत करना. बासित करना । संधारे, संभा रॅति, संभारेह ( खाया १, १२ -- पत्र १७५; १०६) संभारिय (पिंड १२३) । कृ. संभारणिज्ज (गाया १, १२) । संभार [संभार] समूह 'ग थंभसंभारभासमाणं करावए राया' (उप ६४८ टी; श्रावक १३० ) । २ मसाला, शाक श्रादि में ऊपर डाला जाता मसाला (गाया १, १६ - पत्र १९६ ) । ३ परिग्रह, द्रव्य-संचय ( परह १, ५ - पत्र २ ) । ४ अवश्यतया कर्म का वेदन (सू २, ७, ११) । - संभारि वि[संस्मृत] याद किया हुआ (से संभासिय वि[संभाषित ] जिसके साथ १४, ६५) । संभाषणातला किया गया हो वह (महा) 1 संभारिअ वि[संस्मारित] याद कराया हुआ (छाया १, १ – पत्र ७१ सुर १४, २३५) । संभाल सक [ सं + भालय् ] संभालना । संभाल (भवि ) । 2 ४ बिल संभिडण न [संभेदन] प्राघात ( गउड) संभिष्ण वि[संभिन्न] १ परिपूर्ण पक्ष } संभिन्न १०) २ चि कम ( देवेन्द्र ३४२ ) । ३ व्याप्त । कुल भिन्न -- भेदवाला ( परह २, १ - पत्र १९) । ५ खंडित (दरा १, १३) सोअ [["ओस ] धि विशेषवाला, शरीर के कोई भी अंग से शब्द को स्पष्ट रूप संभाव अक [ लुभ् ] लोभ करना, श्रासक्ति करना । संभावइ ( हे ४, १५३३ बड् ) । संभावणा ी [संभावना ] संभव (से ८, १६; गउड) V संभावि वि [संभाविन् ] जिसका संभव हो वह (श्रा १४) । - संभावि वि [संभावित ] जिसकी संभावना की गई हो वह (नाटविक ३४ ) - बातचीत संभास सक[सं+भाष] बीत करता श्रालाप करना। कृ. संभागीय (सुवा ११५) । संभास [संभाष] संभाषण, वार्तालाप ( उप पृ ११२० संबोध २१३ सरण; काल बुपा ११५ २४२) संभाषण न [ संभाषण ] ऊपर देखो (भवि ) | M संभासा स्त्री [संभाषा ] संभाषण, बातचीत (औप ) 1 संमासि वि [संभाष] संभाषण, 'संभासिसारिहों (काल) 1 For Personal & Private Use Only ८४९ से सुनने की शक्तिवाला ( परह २ १ - - पत्र EE; प संभिन्न न [[ ] श्राघात (गउड ६३४ टी ) । संभिय वि [संभृत] १ पुट, 'आरंभसंभिय (सूत्र १, ६, ३) । २ संस्कार-युक्त, संस्कृत; 'बहुसंभारसं भिए' (गाया १, १६ – पत्र १९६६ स ६८: विसे २९३ ) 1 संभु पुं [ शम्भु ] शिव, शंकर (सुपा २४०; साधं १३५; समु १५ ) । २ रावण का एक सुभट ( पउम ५६, २) । ३ छन्द - विशेष (पिंग) श्री [गृदिणः] गौरी, (४४२)। संभुंज सक [ सं + भुज् ] साथ भोजन करना, एक मण्डली में बैठकर भोजन करना । संभुंजइ ( कस) । हेकु. संगुंजित्तए (सूत्र २, ७, १६; ठा २, १ --पत्र ५६) । संभुंजणा स्त्री [संभोजना ] एकत्र भोजनव्यवहार (पं)। दुर्जन, खल संभुवि [] (७)। संभूअ वि [संभूत] १ उत्पन्न, संजात (सुपा ४० ५०७ महा) । २. एक जैन मुनि जो प्रथम वासुदेव के पूर्वजन्म में गुरु थे (सम १५३, पउम २०, १७६ ) । ३ एक प्रसिद्ध जैन महर्षि जो स्थूलभद्र मुनि के गुरु थे (धर्मवि ३८६ सार्धं १३ ) । ४ व्यक्ति वाचक नाम (महा) विजय ["विजय ] एक जैन महर्षि (कुप्र ४५३ विपा २, ५ ) 1 संभू श्री [संभूति] उत्पति (पउम १७ ६८ मा ६५४ सुर ११, १३५ प २४४) । २ श्रेष्ठ विभूति (साथै १३ ) - संभूस सक [ सं + भूप् ] अलंकृत करना । संभूसइ (सरण) । संभोज [संभोग] सुन्दर भोग (सुपा ४९८ कप्पू) | देखो संभोग संभोइस वि[सांभोगि] समान सामाचारीक्रियानुष्ठान होने के कारण जिसके साथ खानपान आदि का व्यवहार हो सके ऐसा साधु ( घोघभा २०३ पंचा ५, ४१; ५०) संभोग [संभोग ] समान सामाचारीवाले साधुत्रों का एकत्र भोजनादि व्यवहार ( सम २१ प स Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४०)। पाइअसहमहण्णवो संभोगि-संरंभ संभोगि वि [संभोगिन् ] देखो संभोइअ समाणेमो (भविः उवा, महा: कप्पा पि समुच्छिम वि [संमूच्छिम] स्त्री-पुरुष के (कुप्र १७२) ४७०)। भवि. संमाणेहिति (पि ५२८)। समागम के बिना उत्पन्न होनेवाला प्राणी संभोगिय देखो संभोइत्र (ठा ३, ३--पत्र वकृ. संमाणंत, संमाणेत (सुपा २२४; (प्राचा ठा ५, ३–पत्र ३३४ सम १४६ १३६)। पउम १०५, ७६)। संकृ. संमाणिऊण, जो २३) संमइ स्त्री [संमति] १ अनुमति (सूग्र १, ८) संमाणेऊण, संमाणित्ता (महा: कप्प)। संमुच्छिअ वि[संमूच्छित उत्पन्न (सुज १४. विसे २२०९)।२ पुं. वायुकाय, पवन । कवकृ. संमाणिजमाण (काल)। कृ. संमा- ९)३ वायुकाय का अधिष्ठाता देव (ठा ५, १-- णणिज (णाया १, १ टी-पत्र ४ उवा) संमुज्म अक [सं+ मुह.] मोह करना, पत्र २६२) संमाण पुं[संमान] प्रादर, गौरव (उब हे मुग्ध होना संमुज्झइ (संबोध ५२) संमन्ज पं[संमाज] संमार्जन, साफ करना ४, ३१६; नाट-मालवि ६३)। संमुत्त देखो संमुत्त (राज)। (विसे ६२५)। संमाणण न [संमानन] ऊपर देखो (सुपा संमुस सक [ सं + मृश ] पूर्ण रूप से स्पर्श संमज्जग पुं[संमजक] वानप्रस्थ तापसों । २०८) करना । वकृ. संमुसमाण (भग ८, ३की एक जाति (प्रौप) पत्र ३६५) संमाणिय वि [संमानित] जिसका आदर संमजण न [संमार्जन] साफ करना, प्रमार्जन संमुह वि [संमुख सामने आया हुआ (हे १, किया गया हो वह (कप्प; महा)। (अभि १५६)। २६ ४, ३६५, ४१४; महा)। स्त्री. ही संमिद (शौ) वि[संमित] १ तुल्य, समान । संमजणी स्त्री [संमार्जनी] झाडू (दे ६, (काप्र ७२३) । २ समान परिमाणवाला (अभि १८६)। संमूढ वि [संमूढ] जड़, विमूढ (पात्र; सुपा समाजय वि [संमार्जित] साफ किया हुआ संमिल प्रक[सं+ मिल] मिलना । संमि लइ (भवि) (सुपा ५४ औप; भवि)। संमेअ ' [संमेत] १ पर्वत-विशेष जो संमिलिअ वि [संमिलित] मिला हुआ अाजकल 'पारसनाथ पहाड़' के नाम से प्रसिद्ध संमट्ठ वि [संमृष्ट] १ प्रमाजित, सफा किया (भवि) है (णाया १,८-पत्र १५४ कप्प; महा। हुप्रा (राय १००; प्रौप, पव १३३) । २ पूर्ण सुपा २११, ५८४ विवे १८)। २ राम का संमिल्ल अक [सं+ मील] सकुचाना, भरा हुअा (जीवस ११६ पव १५८)। संकोच करना । संमिल्लइ (हे ४,२३२ षड़, एक सुभट (पउम ५६, ३७) संमड्ड पुं[संमद] १ युद्ध, लड़ाई (हे २, धात्वा १५५)। संमेल पुं [संमेल] परिजन अथवा मित्रों का ३६)। २ परस्पर संघर्ष (हे २, ३६; संमिस्स वि [संमिश्र] १ मिला हुआ, युक्त जिमनवार, प्रीति-भोजन (पाचा २, १, कुमा)।(महा)। २ उखड़ी हुई छालवाला- (प्राचा ४, १)। संमड्डिअ वि [संमर्दित] संघट (हे २, ३६)। २, १, ८, ६) संमोह पुं [संमोह] १ मूढता, प्रज्ञान (अणुः संमद्द सक [सं + मृद्] मदना करना। स ३५८) । २ मूर्छा (सिक्खा ४२)। ३ संकृ. संमद्दआ (दस ५, २,१६) संमील देखो संमिल्ल । संमीलइ (हे ४, २३२; दुःख, कष्ट (से ३, १३)। ४ संनिपात रोग संमद देखो संमड्ड (उप १३६ टी; पान; दे षड् ) (उप १९०)। १, ६३; सुपा २२२ प्राकृ ८६)। संमीलिअ वि[संमीलित] संकुचित (से १२, ममोह मिथ्यात्व का एक संमदा स्त्री [संमर्दा] प्रत्युपेक्षणा-विशेष, वस्त्र भेद-रागी को देव, संगी--परिग्रही को के कोनों को मध्य भाग में रखकर अथवा संमीस देखो संमिस्स (सुर २, १११; सण) गुरु और हिंसा को धर्म मानना (संबोध ५२)। उपधि पर बैठकर जो प्रत्युपेक्षणा--निरी- संमुइ समुचि] भारतवर्ष में भविष्य में! २ वि. संमोह-संबन्धी (ठा ४, ४--पत्र क्षण को जाय वह (ोघ २६६: ओघभा होनेवाला एक कुलकर पुरुष (ठा १०-पत्र २७४)। स्री.हा, 'ही (ठा ४, ४ टी-पत्र १६२) । २७४; बृह ?). संमय वि [संमत] १ अनुमत । २ अभीष्ट संमुच्छ अक [सं+भूई 1 उत्पन्न संमोहण न [संमोहन] १ मोहित करना । (उव) । होना, 'एतासि ण लेसाणं अंतरेसु भएणत- २ मूच्छित करना (कुप्र २५०)। संमविय वि [संमापित नापा हुआ (भवि) रीमो छिएणलेसानो संमुच्छंति' (सुज ६) संमोहा स्त्री [संमोहा] छन्द-विशेष (पिंग) । संमा अक [सं + मा] समाना, अटना । संमुच्छण स्त्रीन [संमच्छन] स्त्री-पुरुष के संरंभ पुं[संरम्भ] १ हिंसा करने का संकल्प, समाइ (कुप्र २७७)। संयोग के बिना ही युकादि की तरह होती संकप्पो सरंभो' (संबोध ४१, श्रा ७)।२ संमाग सक [ सं + मानय ] आदर करना, जीवों की उत्पत्ति (धर्मसं १०१७)। स्त्री. °णा आटोप (कुमा १.२१, ६, ६२)। ३ उद्यम गौरव करना। संमारणइ, संमाणेइ, संमारिणति, (धर्मसं १०३१)। (कुमा ५, ७०)। ४ क्रोध, गुस्सा (पान) For Personal & Private Use Only Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संरक्खग-संबसण संरक्खग वि[संरक्षक] अच्छी तरह रक्षा करनेवाला ( छाया १, १८ --पत्र २४० ) । संरक्खण न [ संरक्षण] समीचीन धारा ( गाया १, १४ पि ३६१) संरक्यदेषो संरक्ग (उत्त २६ ३१) M संरद्ध तक [ सं रा ] पकाना संरद्धिय (कु २०) 1संघ सक[सं+रुध ] रोकना, अटकाना । कर्म, संरुधिज्जइ, संरुज्झर (हे ४, २४८ ) । सिंहसंह (हे ४२४८) संरोह [संरोध] पटकाव (५१ प २३८ ) | . । संरोहणी स्त्री [संरोहणी] घाव को रुझानेवाली औषधि विशेष (सुपा २१७ ) । संलख सक[सं+क्षय ] पहिचानना कर्म, संलक्खीश्रदि (शौ); (नाट - वेणी ७८ ) ! संलग्ग वि [संलग्न ] लगा हुआ, संयुक्त (सुपा २२ ) । संलग्गिर वि[संलगितृ] संयुक्त होनेवाला, जुड़नेवाला ( श्रोध ८) संत वि[संपित] संभावित उक्त कथित (सुर ३, ६१; सुपा ३२६ ३८५६ महा) । संलप्प नीचे देखो । लव क [सं + लप] संभाषण करना । संलबइ, संलवेमि (महा; पत्र १९४८ ) । वकृ. संयमाण (खापा १, १ पत्र १३० कप्प) । कृ. संलप्प (राज) 1 संलव पुं [संलाप] संभाषण, ( सूनि ५८ ) । संलाव सक [ सं + लापय] करना । संलाविति (कप्प ) 1 सैलाब देणे संय= संताप (श्री से २, ३९; गउड श्री ६ ) 1. वार्तालाप बातचीत =3 विवि [लापित] १ उक्त कथित । २ कहलवाया हुआ (गा १११ ) 1 संलिद्ध वि[संश्लिष्ट ] संयुक्त (संबोध १६) संलिह सक [ सं + लिख] १ निलॅप करना। २ शरीर आदि का शोषण करना, कुरा करना । ३ घिसना । ४ रेखा करना संलिहिज्जा ( श्राचा २, ३, २, ३) । संलि ( उत्त ३६, २४९ दस ८, ४७ ) । संकृ. संलिहिय (कप्प) । पाइअसमयको संलिहिय वि [संलिखित ] जिसने तपश्चर्या से शरीर आदि का शोषण किया हो वह ( १३०) 1 संवि[संढीढ] संतान ( संदि २०६) 1 संखीण जि [संखीन] जिसने इन्द्रिय तथा कषाय आदि को काबू में किया हो वह, संवृत ( प ६) । -- संलीणया स्त्री [संलीनता ] तप-विशेष, शरीर आदि का संगोपन (सम ११ व २० प ६) नव पव संलुंच सक [सं + लुच् ] काटना । कवकृ. संलुंचमाणा सुराएहि (प्राचा १, १, ३, ६) सं चित्र (२१४) संलेहणा श्री [संलेखना]] शरीर पाप आदिका शोषण अनशन से शरोरयाग का अनुष्ठान (सह ११६ सुपा ६४८ ) । "अग [] न्य-विशेष (दि २०२ ) । संलेहा स्त्री [संलेखा ] ऊपर देखो (उत्त ३६, २५०६४) | संलोअ] [[संखो] १ दर्शन, अवलोकन (प्राचा २, १, ६, २० उत्त २४, १६६ पव २१) २ष्टाचारजगत् संपूर्ण लोक ४ प्रकाश (राज) । ५. वि. दृष्टि-प्रचाराला जिस पर दृष्टि पड़ सकती हो वह ( उत्त २४, १६) । संलोक तक [ सं + लोक् ] देखना। कृ. संलोकणिज्ज (सूत्र १,४१,३०) संवइवर [संव्यतिकर] व्यतिसंयन्य विपरीत प्रसंग ( उब ) 1 संवग्ग पुं [ संवर्ग ] १ गुणन, गुणाकार ( वय १ जीवस १५४) २ का जिसका गुणाकार किया गया हो वह (राज) । - संवच्छर पुं [संवत्सर] वर्ष, साल (उवः हे २, २१) पडिले न [प्रतिलेखनक ] -गाँठ वर्ष की पूर्णता के दिन किया जाता उत्सव (गाया १, ८ पत्र १२१; भगः अंत) | , संवच्छवि [सांवत्सरिक] १ ज्योतिषी पुं ज्योतिषशास्त्रका विद्वान (१४२२) । २ वि संवत्सर संबंधी, वार्षिक (धर्मवि १२९ पडि) 1 . For Personal & Private Use Only ८५१ संवच्छल देखो संवच्छर ( हे २, २१) संवट्ट सक [ सं + वर्तय् ] १ एक स्थान में रखना २ संकुचित करना । संबद्द (श्रीप) । संजा (घाचा १, ६, १ संता (ठा २,४८१), संवट्टित्ता ( श्राचा १, ८, ६, ३) संपुं [संवर्त ] १ पीड़ा (उप २६) । २ भय-भीत लोगों का समवाय-समूह (उत्त ३०, १७) । ३ वायु- विशेष - तृण को उड़ानेवाला वायु (पराग १ – पत्र २६ ) । ४ अपवर्तन (ठा २, ३ --पत्र ६७ ) । ५ घेरा । ६ जहाँ पर बहुत गाँवों के लोग एकत्रित हो कर रहें वह स्थान, दुर्गं प्रादि (राज) । देखो संवत्त संघट्टइज वि[संवर्तति] तुफान में फँसा हुआ ( उप पृ १४३) । संवग [संवर्तक] वायु-विशेष (सुवा ४१) । देखो संघट्टय 1 संवण न [ संवर्तन] १ जहाँ पर अनेक मार्ग मिलते हों वह स्थान (गाया १, २ -- पत्र ७६ ) । २ अपवर्तन (विसे २०४५) । संव[संवर्तक] पत्र ६७) | देखो संघट्टग संब[िदे. संवर्तित] संकोचित (दे ८, १२) । संवट्टिअ वि [संवर्तित ] १ पिंडीभूत, एकत्रित (वव १ ) । २ संवर्त-युक्त (हे २,३०) । संबद्ध क[सं+ पृथ् ] बढ़ना सं (महा) 1 ( २, ३ संवडूढग देखो संबद्धण (प्रभि ४१) । संवि[संद्ध] बदा हा महा संवड्ढि वि [ संवर्धित ] बढ़ाया हुआ (नाट - रत्ना २२ ) । संपत्त[संप] १ प्रलय काल वे ७१ १०, २२) २ विशेष सरिसं संवार्य विठ (१६) ३ मेघ । ४ मेघ का अधिपति विशेष । ५ वृक्ष - विशेष, बहेड़ा का पेड़ । ६ एक स्मृतिकार मुनि ( संक्षि १० ) । देखो संवट्ट = संवर्त 1 संवत देखो संघट्टण (हे २, ३०) | Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५२ पाइअसद्दमहण्णवो संवत्तय-संवाहि संवत्तय वि संवर्तक] १ अपवर्तन-कर्ता । | (पएह २, १--पत्र १०१)। २ संकोचित | | "इय नामो संवायो तेसि पुत्तस्स कारणे गरुयो। २ पुं. बलदेव । ३ वडवानल (हे २, ३० (दे८, १२) । ३ आच्छादित (बृह ३)। त कीरेणं भणियं रायसमीवे समागच्छ ।' प्राप्र) | संवलण न [संवलन] मिलन (गउडः नाट (सुपा ३६०)।संवत्तवत्त पुं[संवतॊद्वत] उलट-पुलट (स मालती ५७) संवाय सक [सं+ वादय ] खबर देना, १७४; २५८)। संवलिअ वि [संवलित १ व्याप्त (गा ७५; समाचार कहना । संवाएमि, संवाएहि (स २६१, २६६)IV संबद्धण न [संवर्धन] १ वृद्धि, बढ़ाव । २ सुर ६, ७६; ८, ४३; रुक्मि ६०)। २ वि. वृद्धि करनेवाला (भवि; स ७२७) । युक्त, मिलित, मिश्रित (सुर ३, ७८; धर्मवि संवायय पुं[दे] १ नकुल, न्यौला । २ श्येन पक्षी (दे ८, ४८) संवय सक [सं+ वद्] १ बोलना, १३६); 'सरसा वि दुमा दावारणलेण डझंति संवास सक [सं + वासय ] साथ में रहने कहना। २ प्रमाणित करना, सत्य साबित सुक्खसंवलिया' (वजा १४) ।। देना । हेकृ. संवासेउं (पंचा १०, ४८ टी)। करना। संवयइ, संवएज्जा (कुप्र १८७७ संववहार युं [संव्यवहार]. व्यवहार (विसे संवास पुं[संवास] १ सहवास. साथ में सूत्र १, १४, २०)। वकृ. संवयंत (धर्मसं । १८५३)। निवास (उव २२३; ठा ४,२-पत्र १९७; ८८३) संवस प्रक[सं+ वस 1१ साथ में मोघ ६७ हित १७ पंच: ६, १३)। २ संवय वि [संवृत] प्रावृत्त, प्राच्छादित रहना । २ रहना, वास करना। ३ सभोग मैथुन के लिए स्त्री के साथ निवास (ठा ४, (कुप्र ३६)। करता। संवसइ (कस)। वकृ. संवसमाण १-पत्र १९३) संवर सक [सं +] १ निरोध करना, (ठा ५, २-३१२ ३१४; गच्छ १, ३)। संवासिय (अप) वि साश्वासित] जिसको रोकना।२ कर्म को रोकना । ३ बँध करना संकृ. संवसित्ता (गच्छ १, २)। हेक. आश्वासन दिया गया हो वहः ति वयरिंग ४ ढकना। ५ गोपन करना। संवरइ, संवसित्तर (ठा २, १-पत्र ५६)। कृ. धरणवइ संवासिउ' (भवि)। संवरसि, संवरेमि (भगः भकि सण हास्य संवसेयव्व (उप पृ १६) संवाह सक [सं+ याहय ] १ वहन १३०, पव २३६ टी) संबरेहि (कुप्र ३११)। संवह सक [सं + वह ] १ वहन करना । करना। २ तय्यारी करना। अंग-मदनवकृ. संवरेमाण (भग)। संकृ. संवरेवि २ अक. सज्ज होना, तय्यार होना। वकृ. चप्पी करना । संवाहइ (भवि)। कवकु. (महा)। संवहमाण (सुपा ४६४; पाया १; १३ संवाहिज्जत (सुपा २००; ३४६) संवर पुं[संवर] १ कर्म-निरोध, नूतन कर्म- पत्र १८०)। संकृ. संवहिऊण (सण)। संवाह पुं[संवाह] १ दुर्ग-विशेष, जहाँ बन्ध का अटकाव (भगः परह १, १; नव संवहण न [संवहन] १, ढोना, वहन करना। कृषक-लोग धान्य प्रादि को रक्षा के लिए १)। २. भारतवर्ष में होनेवाले अठारहवें (राज)। २ वि. वहन करनेवाला (पाचा ले जाकर रखते हैं (ठा २, ४-पत्र ८६; जिनदेव (पव ४६ सम १५४) । ३ चाथ २, ४, २, ३, दस ७, २५) IV पएह १, ४-पत्र ६८: औपः कस)। २ जिनदेव के पिता का नाम (सम १५०)। संवहणिय वि[सांवनिक देखो संवाहणिय लग्न, विवाह (सुपा २५५)। ३ गिरिशिखरस्थ ४ एक जैन मुनि (पउम २७, २०)। ५ ग्राम। पशु-विशेष (कुप्र १०४)। ६ दैत्य-विशेष। (उवा)। ७ मत्स्य की एक जाति (हे १, १७७)। संवहिअ वि [संमृढ] जो सज्ज हुमा हो | संवाहण न [संवाहन] १ अंग-मदन, चप्पी (पएह २,४-पत्र १३१ सुर ४, २४% संकरण न [संवरण] १ निरोध, अटकाव वह, तय्यार बना हुमा 'सामिम पूरिअपोमा गा ४६४)। २ संबाधन, विनाश (गा (पंचा १, ४४), पासवदाराण संवरणं' अम्हे सब्वेवि संबहिमा' (सिरि ५६६; ४६४)। ३ पुं. एक राजा का नाम (उव)। (श्रु ७) । २ गोपन (गा १६६ सुपा ३०१)। सम्मत्त १५७) ४ वि. वहन करनेवाला (माचा २, ४, ३ संकोचन समेटन (गा २७०)। ४ । संवाइ वि [संवादिन] प्रमाणित करनेवाला, प्रत्याख्यान, परित्याग (मोघ ३७ विसे २६१२; सबूत देनेवाला (सुर १२, १७६)। संवाहणा स्त्री [संवाहना] ऊपर देखो (कप्पा श्रावक ३३३)। ५ श्रावक के बारह व्रतों संवाइय वि [संशदित] १ खबर दिया औप)।' का अंगीकार (सम्मत्त १५२)। ६ अनशन, हुमा, जनाया हुमा (स २९६)।२ प्रमाणित संबाहणिय वि [सांवाहनिक भार-वहन आहार परित्याग (उप पृ १७६)। ७ (स ३१५) ___ करने के काम में आता वाहन (उवा) विवाह; लग्नः शादी (पउम ४६, २३)। संवाद । [संवाद] १ पूर्वज्ञान को सत्य संवाह्य वि [संवाह.. चप्पी करनेवाला ८ वि. रोकनेवाला (पव १२३) संवाय ) साबित करनेवाला ज्ञान, सबूत, (चारु ३६) संवरिअ विसं १ प्रासेवित, पाराधिता - प्रमाण (धर्मसं १४८ स ३२६; अ ७२८ संवाहिअ वि [संवादित] जिसका अंग प्रमाण (धर्मसं १४८ स ३२६; अ ७२८ संचा 'एबामणं संवरा दार सम संवरियं होइ' टी)। २ विवाद, वाक्-कलह मदन-चप्पी किया गया हो वह (कप्पा For Personal & Private Use Only Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संविकिण्ण-संवेल्लिअ पाइअसहमहण्णवो ८५३ सुर ४, २४३)। २ वहन किया हुमा संविभा [संविभाग] १ विभाग | कुप्र ४३५; किरात १७; स्वप्न १७; अभि (भवि) संविभाग करना, बाँट (गाया १,२- ८२: उत्तर १४१; महा सण) . संविकिा वि [संबिकीर्ण] अच्छी तरह पत्र ८६; उवा प्रौप)। २ आदर, सत्कार संवुद देखो संवुड (प्राकृ८; १२ प्राप्र)। ध्याप्त (पएण २-पत्र १००) (स ३३४)। संवुदि स्त्री [संमृति] संवरण (प्राकृ ८; संविक्स सक [संवि + ईक्ष ] सम भाव | संविभागि वि [संविभागिन् दूसरे को दे १२) से देखना, रागादि-रहित हो कर देखना । कर भोजन करनेवाला (उत्त ११, ६; दस संवूढ वि [संव्यूढ] १ तय्यार बना हुआ, वकृ. संचिक्खमाण (उत्त १४, ३३)। ६, २, २३) सजित; 'जह इह नगरनरिंदो सवबलेणंपि संविग्ग वि संविग्न संवेग-युक्त, भव-भीरु. संविभाव सक [ संवि + भावय ] पर्या एइ सबूढो' (सुरा ५८५; सुर ६, १५२)। मुक्ति का अभिलाषी, उत्तम साधु (उवः पंचा लोचन करना, चिन्तन करना। संकृ. संवि २ बह कर किनारे लगा हुग्रा, बह कर स्थित; ५, ४१; सुर ८, १६६; ओघभा ४६) भाविऊण (राज)। 'तए णं ते मार्गादयदारगा तेणं फलयखंडेणं संविक्षिण्ण वि [संविचार्ण] संविचरित, संचिराय प्रक [संवि + राज्] शोभना । उवु- (?)ज्झमाणा २ रयणदीवंतेण सवुसंविचिन्न प्रासेवित (णाया १, ५ टीवकृ. संविरावंत (पउम ७, १४६) (?)ढा यावि होत्या' (गाया १, ६-पत्र पत्र १०० णाया १, ५--पEEN संविल्ल देखो संवेल्ल। वकृ. संविल्लंत (वै १५७) संविज अक [सं+ विद् ] विद्यमान | ४२)। संकृ. संविल्लिऊग (कुप्र ३१५)। विसंवेद्या अनुभव-योग्य (विसे होना । संविज्जइ (सूम १, ३, २, १८)। संविल्लिअ वि[संवेल्लित] चालित (उवा)। ३००७)। संविट्ठ सक [सं+ वेष्टय ] १ वेटन करना, संविल्लिअ देखो संवेल्लिअ = संवेष्टित (कुमा) संवे [संवेग १ भय आदि के कारण लपेटना। २ पोषण करना । संकृ. संविट्ठमाग संविल्लिअ देखो संवेल्लिअ = (दे) (उवा संवेग से होती त्वरा-शीघ्रता (गउड)। (णाया , ३-पत्र ६१) जं१) २ भव-वैराग्य, संसार से उदासीनता। ३ मुक्ति संविढत्त वि[समर्जित] पैदा किया हुआ, संविह पुं[संविध] गोशाले का एक उपासक का अभिलाष, मुमुक्षा (द्र ६३; सम १२६; उपाजित (स ५) (भग ८, ६-पत्र ३६६) भगः उवः सुर ८, १६५, सम्मत्त १६६ संविणीय वि[संविनीत ] विनय-युक्त १६५, सुपा ५४१) (प्रोघभा १३४) संविहाण न [संविधान] १ रचना, बनावट संवेयण न [संवेदन] १ ज्ञान (धर्मसं ४४: (सुपा ५८६; धर्मवि १२७; माल १५१; संवित्त देखो संबीअ (सूअ १, ३, १, १७) कुप्र १४६) । २ वि. बोध-जनक । स्त्री. °णी १६३) । २ भेद, प्रकार (वै १०) संवित्त वि [संवृत्त १ संजात, बना हुआ (ठा ४, २-पत्र २१०)। संवीअ वि[संवीत] १ व्याप्त (सूभ १, ३, (सुर ६, ८९)। २ वि. अच्छा प्राचरण संवेयण वि [संवेजन] संवेग-जनक । स्त्री. वाला। ३ बिलकुल गोल (सिरि १०६३) १,१६)।२ परिहित, पहना हुआ: 'संवी णी (ठा ४, २-पत्र २१०)। संवित्ति स्त्रो सित्तिा संवेदन, ज्ञान (विसे यदिव्यवसणो (धर्मवि ६)IV संवेषण वि संवेगन] ऊपर देखो (ठा ४, १६२६, धर्मसं २६६)। संवुअ देखो संवुड (हे १, १३१; संक्षि ४ २-पत्र २१०)। संविद सक [सं+ विद्] जानना, प्रौप) संवेल्ल सक [सं+ वेल्ल ] चालित करना, 'जिच्चमाणो न संविदे (उत्त ७, २२)। संवुट्ट देखो संवुत्त (रंभा ४४)। कंपाना (से ७, २६)। संविद्ध वि [संविद्ध] १ संयुक्त (उबर संबुड वि [संवृत] १ संकट, सकड़ा, अवि संवेल्ल सक[सं+ वेष्ट ] लपेटना । संवेल्लइ १३३)। २ अभ्यस्त । ३ दृष्ट; 'संविद्धपहे' वृत (ठा ३, १-पत्र १२१)। २ संवर-युक्त, (हे ४, २२२; संक्षि ३६)। (पाचा १, ५, ३, ६) सावद्य प्रवृत्ति से रहित (सूत्र १, १, २, संवेल्ल सक [दे सकेलना, समेटना, संकुचित संविधा स्त्री [संविधा] संविधान, रचना, २६ पंचा १४, ६, भग)। ३ निरुद्ध, निरोध करना । संवेल्लेइ (भग १६, ६-पत्र बनावट (चारु १)। प्राप्त (सूत्र १, २, ३, १)। ४ प्रावृत । ५ संविधुण सक ७१२) । वकृ. सवेल्लंत; संवेल्लेमाण (उव संवि + धू] १ दूर करना। संगोपित (हे १, १७७)। ६ न. कषाय और भग १६, ६)। संकृ.क्वेलऊण (महा) । २ परित्याग करना । ३ अवगणना, तिरस्कार इन्द्रियों का नियन्त्रण (पएह २, ३–पत्र करना । संकृ. संविधुणिय, संविधुणित्ताणं १२३)। संवेल्लिअ वि [दे] संवृत, संकुचित; 'संवे(प्राचा १, ८, ६, ५; सूप १, १६. ४६ संवुड्ढ वि [संवृद्ध] बढ़ा हुआ (सूम २, ल्लिनं मउलिमं' (पान; दे ८, १२; भग १६, औप) १, २६; प्रौप) ६-पत्र ७१२, रायं ४५) संविभत्त वि [संविभक्त] बाँटा हुआ, संवुत्त वि [संवृत्त] संजात, बना हुमा संवेल्लिअ वि [संवेल्लित] चलित (से ७, 'देवगुरुसविभत्त भत्तं' (कुप्र १५३) ! 'पवइया ते संसारतकरा संवुत्ता' (वसुः । २६) For Personal & Private Use Only Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५४ संवेहि ६४६) । [संवेष्टित] लपेटा हुआ (मा संवेद [संबंध] संयोगः 'मन्नन्नवरणसंये हरमरि (महा), 'अनन्नवन्नतये हमणहरं मोहणं पसूपि तग्गीयं सोऊणं (धर्मवि ६५) । संसक [स] खिसकना, गिरना । संसद (हे ४, ११७ प ) संस सक [शंस ] १ कहना । २ प्रशंसा करना । संसइ (चेइय ७३७; भवि), संसंति (सिर १०७) कु. संसणिज्य (पम ११८, ११४) । । साहवो सज्जहि संसरिंग । जम्हा विद्योगविर हिययस्स, न श्रोसवं प्रन्नं' (सुर २,२१६ ) 1 संसज्ज क [ सं + स ] संबन्ध करना, संसगं करना । संसज्जंति (सम्मत २२० ) । संसज्जिम वि [ संसक्तिमत् ] बीच में गिरे हुए जीवों से युक्त (पिड ५३८ ) 1संसद्ध [संसृष्ट] १ बरतविलिप्त २ न खररिटत हाथ से दी जाती भिक्षा मादि (प्री) देखो संसि संसण न [शंसन] १ कथन । २ प्रशंसा । ३ श्रास्वादन सुत्तविहीणं पुरण सुयमपक्क संवेहिअ - संसीव टी ( प ६४० उ संसार वि [संसारिन] नरक धादि संसारिण} योनि से परिभ्रमण करने वाला पाइअसणवी संस वि[सांश ] -युक्त, सावयव (धर्मसं ७०६) 1 संसद् वि [संशयिन] संशय-कर्ता शंकाशील (मिते १२५७ र १३, ७० युवा १४७) । ---- संसइअ [संशति] संशयाला संदिग्ध ( पात्र विसे १५५७; सम १०६; सुर १२, १०८ ) । संसय पुं [संशय ] संदेह, शंका (हे १, ३०६ भगः कुमाः श्रभि ११०६ महा; भवि ) । १, ४७) । संसइअ न [सांसविक] मिम्याहल-विशेष संसया श्री [ संवत् ] परिषत् सभा (उत्त (पंच ४, २३ श्रा ६ संबोध ५२ कम्म ४, ५१) संसग [संसर्ग] संबन्ध संग, सोहयत (पा २५ प्रासू १) श्री. ग्गी ( खाया १, १ टी - पत्र १७१: प्रासू ३३; सुपा १७१ ), एनिय फल संसणसर १६) 1 संसणिज देखी संस शंस् संसत्त वि[संसक] १ संयुक्त संवद्ध (खाया १५-पत्र १११० मोफ से उत्त २, १९ ) । २] श्वापद-जन्तुविशेष (कप्प) । संसन्ति त्री [संसक्ति ] संसर्ग ( सम्मत्त १५६) संसद्द [ संशब्द ] शब्द, श्रावाज (सुर २, ?10) Iv संसप्पग वि [संसर्पक] १ चलने-फिरनेवाला । २ पुं. चींटी आदि प्राणी ( श्राचा 2, 5, 5, 8) 1~ संसपिअन [ दे. संसर्पित ] कूद कर चलना (दे ८, १५) । ~ संसमण न [संशमन] उपशम शान्ति (पिड ४५६) 3 संसर तक [ सं + सृ] परिभ्रमण करना । संसरंग, संसरमाण (अनि १ संबोध ११ च ६७) Iv संसरण न [संस्मरण] स्मृति, याद (श्रु ७) । संसवण[सं] धरा. सुमना (सुर १२४२ रंभा ) 1 संसद् सक [ सं+सह ] सहन करना । etage (wild (43) संसा श्री [[शंसा] प्रशंसा, लापा ( प टी भग) । संसा व [] १ श्ररूढ । २ चूति । ३ पीत । ४ उद्विग्न (षड् ) 1संसार पुं [संसार ] १ नरक श्रादि गति में परिभ्रमण, एक जन्म से जन्मान्तर में गमन (प्राचाः ठा ४, १ - पत्र १६८ ४,२पत्र २१६ दसनि ४, ४६ उत्त २६, १; उनी ४४२ जगत् विश्व (उक कुमा गडप १०२ १४१) बंद वि [ यत् ] संसारवाला संसारस्थित जीव प्राणी (पउम २,६२ ) । W For Personal & Private Use Only ७३ जीव (जी २), 'संसारिणस्स जं पूरा जीवस्व सुहं तु करिसमादी (पाम १०२, १०४) संसारिय वि [संसारिक]] ऊपर देखो ( ४०२; उव) संसारिय वि[संसारिक ] संसार से संवन्ध रखनेवाला (पउम १०६. ४३ उप १४२ टी; स १७६६ सिक्खा ७१; सरण; काल) 1 संसारिय वि [संसारित] एक स्थान से दूसरे स्थान में स्थापित संचारिया बलयवाहामु (गाया १, ८ - पत्र १३३) । संसाण स्त्रीन [दे] अनुगमन (दे ८, १६; दसनि १० श्री. "णा (वय १) | संसाण न [ संकथन ] कथन (सुपा ४१५) । - संसार[संसाधित] सिद्ध किया हुआ (सुपा ३९७) । संसिअ वि [संखित्र] संसि वि [शंसिन] कहनेवाला (गड) संसिअ वि [शंसित] १ श्लाघित (सुर १३, ६८) । २ कथित ( उप पृ १६१) प्रात (वा १, श्राश्रित (विपा ३ – पत्र ३८ परह १, ४ – पत्र ७२ भौप ४८१५१) । संसिंच] [ [ [ सिच्] पूरा भरना । २ बढ़ाना। ३ सिंचन करना । कवकृ. संसिश्चमाण (धाचा पि ५४२ ) । संकृ. संसिंचियाणं (घाचा १, २, ३, ४ संसि क [ सं + सिध् ] अच्छी तरह सिद्ध होना संक्षित(७६७) । संसि देखो संसड (भाग) कप्पिस वि ["कल्पिक] खरष्टित हाथ अथवा भाजन से दी जाती भिक्षा को ही ग्रहण करने के नियमवाला मुनि ( परह २, १ - - पत्र १०० ) । संसित [संसित] सींचा हुधा (सुर ४, १४; महा; हे ४, ३६५) । संसिद्धिअवि [सांसिद्धिक] स्वभाव - सिद्ध (हे १,७० ) 1 संसिस देखो संसेस (राज) संसिलेसिया देखो संसीव तक [ सं करना । संसी विज्जा संसेसिय (राज) 1 सिव् ] सोना, खिलाई (घाचा २, ५, १, १ ) । Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं सुद्ध-सकंदण पाइअसहमहण्णवो ८५५ संसुद्ध वि [संशुद्ध] १ विशुद्ध, निर्मल (सुपा | संहर सक[सं + ह] १ अपहरण करना । सकहा स्त्री [सक्थिन] अस्थि, हाड़ (सम ५७३) । २ न. लगातार उन्नीस दिन का २ विनाश करना। ३ संवरण करना, संके- ६३; सुगरा ६५७ राय ८६) उपवास (संबोध ५८)। लना, समेटना। ४ ले जाना। संहरइ (पव सकाम देखो स-काम = सकाम । संसूयग वि [संसूचक] सूचना-कर्ता (रंभा) - २६१; हे १, ३०, ४, २५६)। कवकृ. सकुंत पुंशकुन्त] पक्षी (कुप्र ६८; अणु संसेइम वि [संसेकिम] संसेक से बना हुआ | संहरिजमाण (णाया १, १-पत्र ३७) ।। १४१) (निचु १५)। २ उबाली हुई भाजी जिस संहर पू[संभार समुदाय, संघात; 'संघामो सकुण देखो सक% शक् । सकुणेमो (स ठंढे जल से सिची जाय वह पानी (ठा ३, संहरो निअरो' (पाप्र)।३-पत्र १४७; कप्प)। ३ तिल की धोवन संहरण न [संहरण] संहार (श्रु ८७)। (प्राचा २,१,७,८ । ४ पिष्टोदक, प्राटा की सकेय देखो स-केय = सकेत । संहार देखो संभार = सं + भारय। कृ. धोवन (दस ५, १.७५)। सक्क प्रकाशक ] सकना, समर्थ होना । संहारणिज (णाया १, १२-पत्र १७६) संसेइम वि [संस्वेदिम] १ पसीने से उत्पन्न सक्कइ. सक्कए (हे ४, २३०; प्राप्र; महा)। होनेवाला (पएह १, ४–पत्र ८५)। संहार देखो संघार ( हे १, २६४; षड् )। भवि. सक्खं, सक्खामो, सकिस्सामो (पाचा संसेय प्रक[सं+ स्विद् ] बरसना; जावं संहारण न [संधारण] धारण, बनाये रखना, हि ५३१) । कृ. सक्क, सक्कणिज, सकिअ च णं बहवे उराला बलाहया संसेयंति (भग)M टिकानाः 'कायसंहारणट्ठाए' (याचा)। (सक्षि ६; सुर १, १३०; ४, २२७; स संसेय पुं[संस्वेद] पसीना । य वि [ज] संहाव देखो संभाव = सं+भावय । वकृ. ११४. संबोध ४०सुर १०, ८१)। पसीने से उत्पन्न (सूत्र १, ७, १; प्राचा) संडावअंत (शौ) (पि २७५) । सक्क सक [सृप ] जाना, गति करना । संसेय पुं[संसेक] सिंचन (ठा ३, ३)। संहिदि देखो संहदि (प्राकृ १२) सकइ (प्राकृ ६५; धात्वा १५५) । संसेविय वि [संसेवित] प्रासेवित (सुपा संहिच्च प्रसिंहत्य साथ में मिलकर, एकत्रित सक्क सक [वष्क] गति करना, जाना । २२७) होकर (णाया १, ३ टी--पत्र ६३)। सकइ (पि ३०२) संसेस पुं [संश्लेष] सम्बन्ध, संयोग (प्राचा संहिय देखो संधिअ = संहित (कप्पः नाट- सक्क न [शक्क] छाल (दे ३, ३४)। २, १३, १)। महावी २६) संसेसिय वि [संश्लेषिक] संश्लेषवाला सक्क वि [शक्त] समर्थ, शक्ति-युक्त; 'को सको संहिया स्त्री [संहिता] १ चिकित्सा आदि वेयणाविगमे (विवे १०२ हे २, २)। (प्राचा २, १३, १)। शास्त्र; 'चिगिच्छासंहियाओं' (स १७)। २ संसोधण न [संशोधन] शुद्धि-करण (पिंड सक्क देखो सक्क = शक् ।। अस्खलित रूप से सूत्र का उच्चारण; ४५६) । देखो संसोहण । 'अक्खलियसुत्तच्चारणरूवा इह संहिया सक्क [शक] १ सौधर्म नामक प्रथम संसोधित वि [संशोधित अच्छी तरह शुद्ध देवलोक का इन्द्र (ठा २, ३-पत्र ८५; मुणेयव्वा' (चेइय २७२) किया हुआ (सूत्र १, १४, १८) उवाः सुपा २६९)। २ कोई भी इन्द्र, देवसंहुदि स्त्री [संभृति] अच्छी तरह पोषण पति (कुमा)। ३ एक विद्याधरराजा (पउम संसोय सक[सं+ शोचय ] शोक करना। (संक्षि ४)। १२, ८२)। ४ छन्द-विशेष (पिंग)। गुरु कृ. संसोयणिज (सुर १४, १८१) । सक देखो सग = शक (पएह १, १-पत्र पुं[गुरु] बृहस्पति (सिरि ४४), "प्पभ संसोहण न [संशोधन] विरेचन, जुलाब पुं[प्रभ] शक्र का एक उत्पात-पर्वत (ठा (प्राचा १, ६, ४, २)। देखो संसोधण सकण्ण देखो सकन्न (राज) । १०-पत्र ४८२)°सार न [सार] एक संसोहा स्त्री [संशोभा] शोभा, श्री (सुपा सकथ न [सकथ] तापसों का एक उपकरण विद्याधर-नगर (इक) -1 वदार (शौ) न (निर ३, १) [वतार] तीर्थ-विशेष (अभि १८३)। संसोहि वि [संशोभिन्] शोभनेवाला (सुपा | सकधा देखो सकहा: 'चेइयखंभेसु जिसकधा वयार न [वतार] चैत्य-विशेष (स संणिक्खित्ता चिट्ठति' (सुज्ज १८) ४७७ द्र ६१)। संसोहिय देखो संसोधित (राज)। सकयं प्र[सकृत् ] एक बारः “किं सक सक्क [शाक्य] १ बुद्ध देव (पान) । २ संह देखो संघ (नाट-विक्र २५)।- (? क)यं वोलोणं (सुर १६, ४५) । वि. बौद्ध, बुद्ध का भक्त (विसे २४१६ संहडण देखो संघयण (चंड)। सकन्न वि [सकर्ण] विद्वान्, जानकार (सुर श्रावक ८८ पव ६४पिंड ४४५)।संहदि स्त्री [संहति संहार (संक्षि )।- ८, १४६, १२, ५४)। सक्क (अप) देखो सग =स्वक (भवि) संहय वि [संहत] मिला हुमा (पएह १, सकल देखो सयल = सकल (पएह १, ४- सकंदण पु[संक्रन्दन] इन्द्र (सुर १, ६ ४-पत्र ७८)। पत्र ७८) टि, ४,१६०)। For Personal & Private Use Only Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५६ सक्कणो (शौ) देखो सकुण । सकणोमि ( अभि ९२: पि १४ = ), सक्करणोदि (नाट - रत्ना १०२ ) । सकय देखो सक्कय = सत्कृत 14 सारिय [रित ] सम्मानित (मुख २, १३० महा ) [वि][संस्कृत] संस्कारयुक्त (सारि [संस्थारित] संस्कारयुक्त किया हुधा (धर्म) - सक्काल देखो सक्कार = संस्कार ( हे १, २५४) । सधिअ देखो मक्क = शाक्य 'अहं खु कलव्यकरत्यीकिदसंकेदो विश्र सक्किग्रसमराम्रो निमावि (बास ५६) - सक्किअ देखो सक्क = शक् । सचिन [] जो समर्थ हुआ हो वह (श्रा २८ कुप्र ३ ) 1 सक्किवि [स्वकीय] निज का, आत्मीय; 'सि (? स ) कियमुवहि च तहा पडिलेहंतो न बेमि सया' (कुलक ७; 2 ) 1 सक्किअ देखो सक्किअ = सत्कृत सक्किरिआ श्री [संस्क्रिया ] संस्कार, संस्कृति (प्राह ३३) । १९१२ भाषा म १, २००२, ४) परमेमोर (?) भासा समए ( ४ ) स्त्री. 'या; 'सक्कया पायया चैव भरिगईश्रो होति दा (धरण १३१) सकर न [शर्कर] खराब, टुकड़ा (उद) 1 सर देखोसकरा पुढची श्री ["पृथिवी] दूसरी नरक भूमि (पउम ११२) प्पभा श्री [प्रभा] नही थी (ठा पत्र ३८८ इक) सकरात्री [शर्करा] १ नोनी पीड (छाया १, १७ – पत्र २२६; सुपा ८४: सुर १, १४) । २ उपलखण्ड, पत्थर का टुकड़ा, कंकड़ ( सू २, ३, ३६: प्रर) । ३ बालु, रेती (महा) ज भ न [भ] १ गोत्रविशेष, जो गोतम गोत्र की एक शाखा है । २ पुंखी, उस गोत्र में उत्पन्न (ठा ७–पत्र ३०)/ भात्री [झा] दूसरी नरक- पृथिवी (उत्त १६, १५७) - सक्कार [सत्कार ] संमान, आदर पूजा (भगः स्वप्न ८ः भवि हे ४,२६० ) । सक्कार पुं [ संस्कार ] १ गुणान्तर का प्रधान । २ स्मृति का कारण भूत एक गुण । ३ वेग । ४ शास्त्राभ्यास से उत्पन्न होती व्युत्पत्ति । ५ गुरण-विशेष. स्थिति स्थापन ६ व्याकरण के अनुसार शब्द- सिद्धि का प्रकार ७ गर्भाधान आदि समय की जाती धार्मिक क्रिया । ८ पाक, पकाना (हे १, २८ २, ४ प्राकृ २१) सक्कार सक [ सत्कार ] सत्कार करना, सम्मान करना । सकारेइ, सकारिति, सकारेमो ( उवा कप्प भग ) । संक्र, सक्कारिता (भगः कप ) । कृ. सक्काराणज्ज (खाया १, १ टी पत्र ४ उवा) IV सकारण न सत्कारण ] सत्कार सम्मान ( दस १०, १७) । - पाइअसहमणवो सक्कारि वि [ सत्कारिन् ] सत्कार करनेवाला, सम्मानकर्ता (गड) | सक्कुण देखो सकुण । सक्कुादि (शौ ) ( प्राकृ ६४ ), सक्कुरणोमि ( स २४; मोह ७ ) 1सक्कुलि स्त्री [शष्कुलि] १ क- विवर कान का छिद्र (गाया १, ८ – पत्र १३३) । २ तिलपापड़ी, एक तरह का खाद्य पदार्थ ( परह २, ५ - पत्र १४८; दस ५, १, ७१; सः विसे २६१) कण्ण Î [कर्ण] एक अन्तद्वीप । १ उसमें रहनेवाली मनुष्यजाति (इक) Iv सक्ख देखो सक्क = शक् सक्ख न [सरुव] मैत्री, दोस्ती (उत १४, २७) 1 सक्ख न [साक्ष्य ] साक्षिपन, गवाही (सुपा २७६; संबोध १७) सक्खं [ साक्षात् ] प्रत्यक्ष, आँखों के सामने, प्रकट (हे १, २४;पि ११४) । सक्खय देखो सक्कय = संस्कृत (जं २ टीपत्र १०४) । सक्खर देखो स-क्खर साक्षर सक्खा देखो सक्खं (पंचा ६, ४०; सुर ५, २२११२, ३ प ११४) । For Personal & Private Use Only सकणो---सगड | सक्खि वि [ साक्षिन् ] माक्षी साखो, गवाह ( परह १, २ - पत्र २६ धर्मसं १२००; कपूः श्रा १४; स्वप्न १३१) IV सक्खि देखो सक्ख सख्य, 'कादंबरीसक्खियं भ्रम्हाणं पढमसोहिदं इच्छी प्रदि (प्रभि १८८ ) 1 सक्खिज्ज न [ साक्षित्व ] गवाही, साख ( श्रावक २६० ) । सक्खिण देखो सक्खि (हे २, १७४ः षड् ; सुर ६४४) सग [ स्वक] देखो स= स्व (भगः परण २१- पत्र ६२८ पउम ८२ ११७ उत्त २०, २६ २७ संबोध ५०; चेइय ५६१) 1सग देखो सन्त = सप्तन् ( रयण ७२; उर ५, ३३ २, २३) । वण्ण, वन्न स्त्रीन [ पञ्चाशत् ] सत्तावन, पचास और सात (कम्म ६, ६० १११म्म २, २०) वीस बीन [विंशति ] सताईस (श्रा २८ रयरण ७२; संबोध २६) सयरि स्त्री ['सप्तति] सतहत्तर (कम्म २, ६ ) सीइ स्त्री [शीति ] सतासी (कम्म २, १६) । सग देखो सत्तम (कम्म ४, ७९ ) 1 देश, सग पुं [ शक ] १ एक श्रनायें अफगानिस्तान के उत्तर का एक म्लेच्छ देश ( सूनि ६६ पउम ६८, ६४ इक) । २ उस देश का निवासी (काल) । ३ एक सुप्रसिद्ध राजा जिसका शक संवत् चलता है ( विचार ४६५ ५१३ ) ५ कूल न ["फूल] एक देश का किनारा (काल) 1 सग श्री [ख] ] माला 'सगर्भदाविख सत्थाइजोगमो तस्स ग्रह य दीसंति' (श्रावक १८१ ) 1 सगड न [शकट] १ गाड़ी (ठवा आचा २, ३, १६) । २ पुं. एक सार्थवाह पुत्र ( विपा १, १ –पत्र ४ १, पत्र ५५ ) । *महिआ श्री ["भद्रिका] नंतर विशेष (दि १६४० ध मुद्दन ["मुख ] पुरिमताल नगर का एक प्राचीन उद्यान (कल्प) "वूह ["ब्युर] कलाविशेष, गाड़ी के प्रकार से सैन्य की रचना ( श्रप) । देखो सअढ ३ Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगडब्भि-सच्चा पाइअसहमहण्णवो सगडब्भि देखो स-गडब्भि = स्वकृतभिद्M सग्ग देखो सग= स्वक (उत्त २०, २६ २६) "भामा स्त्री [भामा] श्रीकृष्ण की सगडाल पु[शकटाल] राजा नन्द का राज) । एक पत्नी (अंत १५) वाइ वि [[वादिन] सुप्रसिद्ध मंत्री और महर्षि स्थूलभद्र का पिता | सग्गइ देखो स-ग्गर = सद्गति ।। सत्य-वक्ता (पउम १, ३१) संध वि (कुप्र ४४३) सग्गह वि [दे] मुक्त, पुक्ति प्राप्त (दे. [सन्ध] सत्य प्रतिज्ञावाला, प्रतिज्ञा-निर्वाहक सगडिया स्त्री [शकटिका ] छोटी गाड़ी ४ टी)। (उप पू ३३३; सुपा २८३) 'सिरी स्त्री (भग; विपा १, १--पत्र ८ गाया १, सग्गह देखो स-गह = स-ग्रह ।। [ श्री] पाँचवें पारे की अन्तिम श्राविका १-पत्र ७४) । सग्गीय वि [स्वर्गीय] स्वर्ग-सम्बन्धी (विसे | (विचार ५३४) सेण पुं सेन] ऐरवत सगडी स्त्री [शकटी] गाड़ी (णाया १,७- १८००)। वर्ष में होनेवाला एक जिनदेव (सम १५४)। पत्र ११८) सग्गु देखो सिग्गु (उप १०३१ टी)। 'हामा देखो "भामा (पि १४) वाइ सगण देखो स-गण = स-गरण । सग्गोकस पुस्विौकस.] देव, देवता देखो वा. (माचा १, ८, ६, ५; १, सगन्न देखो सकन्न (कुप्र ४०३) (धर्मा ६)। सगय न [दे] श्रद्धा, विश्वास (दे ८, ३)। सग्ध सक [क्थ ] कहना । सग्घइ (षड् )।- सच्चइ सित्यकि] १ भागामी काल में सगर पुं[सगर] एक चक्रवर्ती राजा (सम सग्घ वि [श्लाघ्य] प्रशंसनीय (सूम १, ३, बारहवां तीर्थकर होनेवाला एक साध्वी-पुत्र ८२ उत्त १७, ३५)।.. २, १६, विसे ३५७८) 10 (ठा -पत्र ४५७ सम १५४; पव ४६)। सगल्ल देखो सयल = सकल (णाया १, सघिण देखो स-घिण = स-घृण ।। २ विषय-लम्पट एक विद्याधर (उव; उर १६-पत्र २१३; भग; पंच १, १३, सुर सचक्खु देखो स-चक्खु % स-चक्षुष् । ७, १ टी)। ३ श्रीकृष्ण का संबन्धी एक १, ११६; पव २१६; सिक्खा ३७)। सचक्खु व्यक्ति (रुक्मि ४६), सुय पुं [तुत] सगसग अक [ सगसगाय ] 'सग-सग' सचित्त देखो स-चित्त = स-चित्त । ग्यारह रुद्रों में अन्तिम रुद्र पुरुष (विचार मावाज करना। वकृ. सगसगेत (पउम | सचिव देखो सइव (सरण) । ४७३) ४२, ३१) सची देखो सई = शची (धर्मवि ६६; नाट- सञ्चंकार वि [सत्यकार] सत्य साबित करनेसगार देखो स-गार = सागार, साकार । शकु ६७), वर पुं [°वर] इन्द्र (सिरि वाला, लेन-देन की सच्चाई के लिए दिया सगार देखो स-गार = स-कार । ४२)। जाता बहाना: 'गहिरो संजमभारो सच्चंकारु सगास न [सकाश] पास, निकट, समीप सचेयण देखो स-चेयण = स-चेतन । व्व सिद्धीए' (धर्मवि १४, आप ६६; (भोप; सुपा ४५२, ४८८ महा)। सञ्च न [सत्य] १ यथार्थ भाषण, अमृषा रयण ३४) सगुण देखो स-गुण = स-गुण । कथन (ठा १०-पत्र ४८६; कुमाः परह सञ्चव सक [दृश.] देखना । सच्चवड (हे ४, सगुणि देखो सउणि (पएह १, ४-पत्र २, ५-पत्र १४८ स्वप्न २२.प्रासू १५०% १८१; षड्, सण)। कर्म. सच्चविज्जइ १७७)। २ शपथ, सोगन । ३ सत्य युग। | (कुप्र ६८)। सगुत्त वि [सगोत्र] समान गोत्रवाला, ४ सिद्धान्त (हे २, १३)। ५ वि. यथार्थ, सञ्चव सक [सत्यापय 1 सत्य साबित एकगोत्रीय (कप्प) सच्चा, वास्तविक; 'सच्चपरक्कमें' (उत्त | करना। सच्चवइ (सुपा २६२)। कर्म, सगेद्द न [दे] निकट, समीप (दे८, ६). १८, ४६ श्रा १२, ठा ४, १-पत्र १९६; 'अलिग्रंपि सचविजइ पहुत्तरणं तेरण रमरिज' कुमा)। ६ पुं. संयम, चारित्र (प्राचा; उत्त सगोत्त देखो सगुत्त (कुप्र २१७)। (सूक्त ८५)। ६, २) । ७ जिनागम, जैन सिद्धान्त (प्राचा)। सग्ग पुंन [स्वर्ग] देवों का प्रावास-स्थान सञ्चवण न [दर्शन] अवलोकन, निरीक्षण ८ अहोरात्र का दसवाँ मुहूर्त (सम ५१) । (णाया १, ५-पत्र १०५, भग; सुपा (कुमा; सुपा २२६) ६ एक वणिक् - पुत्र (उप ५१६)। 'उर २९३); 'वेरग्गं चेवमिह सग्ग' (श्रु५८)। न [पुर] भारत का एक प्राचीन नगर, सञ्चवय वि [दर्शक] द्रष्टा (संबोध २४) । 'तरु [तरु] कल्पवृक्ष (से ११, ११)। जो आजकल साचोर' नाम से मारवाड़ में सच्चविध वि [दृष्ट] देखा हुआ, विलोकित 'सामि पुं[स्वामिन्] इन्द्र (उप २६४ प्रसिद्ध है (ती ७ सिग्ध ७)- उरी स्त्री (गा ५३६, ८०६; सुर ४, २२५ पान; टी)। वह स्त्री [वधू ] देवांगना, देवी [पुरी] वही अर्थ (पडि) °णेमि, नेमि महा)। (उप ७२८ टी)। j [नेमि भगवान् अरिष्टनेमि के पास सच्चविअ वि [दे] अभिप्रेत, इष्ट (दे ८, सग्ग पुं[सगें] १ मुक्ति, मोक्ष, ब्रह्म (प्रौप)। दीक्षा ले मुक्ति पानेवाला एक मुनि जो राजा १७ भवि)।२ सृष्टि, रचना (रंभा)। समुद्रविजय का पुत्र था (अंत; अंत १४)। सच्चा स्त्री [सत्या] १ सत्य वचन (पएण सग्ग देखो स-ग्ग = सान । - प्पवाय न [प्रवाद] छठवा पूर्व-ग्रंथ (सम । ११-पत्र ३७६)। २ श्रीकृष्ण की एक १०८ For Personal & Private Use Only wwwinelibrary.org Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५८ पाइअसहनहण्णवो सञ्चित्त सझिल्लग पत्नी, सत्यभामा (कुप्र २५८) । ३ इन्द्राणी सजोणिय देखो स-जोणिय = स-योनिक । सज्जीव अक [सज्जो + भू] सज्ज होना, (चउप्पन्न० ऋषभ-चरित) 'मोस विसन प्रकसज १ ग्रासक्ति करना।। तय्यार होना । सज्जाहवाइ (श्रा १४) । मृषा मिश्र-भाषा, सत्य से मिला हुआ २ सक. आलिंगन करना । सजइ (उत्त २५, सज्जो देखो सज्ज = सद्यस (सुपा ३६७)। झूठ वचनः सच्चामोसारिण भासइ(सम ५०) २०), सजह (गाया १,८-पत्र १४८)। सज्जोक वि [] प्रत्यग्र, नूतन, ताजा (दे सचिव देवो ल-ञ्चित्त = स-चित्त। वकृ. सज्जमाण (सूम १, ७, २७; दसचू ८, ३). सचिल्लय विदे. सत्य सच्चा, यथार्थ २, १०, उत्त १४, ६, उवर १२)। कृ. सझ वि [साध्व] १ साधनीय, सिद्ध करने (दे ८, १४) सन्जियव्य (पराह २, ५–पत्र १४६) । योग्य । २ वश में करने योग्य; 'बलियो हु सीसय पुंदे सच्चीसक] वाद्य-विशेष सज्ज अक [ सस् ] १ तय्यार होना। २ इमो सत्तू ताव य सज्झो न पुरिसगारस्स' (पउम १०२, १२३)। देखो बद्धीसका । सक. तय्यार करना, सजाना । सजेइ, सज्जेति (सुर ८, २६ सा २४)। ३ तर्कशास्त्र प्रसिद्ध सच्चे विअ वि [] रचित, निर्मित (दे ८, | अनुमेय पदार्थ, जैसे धूम से ज्ञातव्य वह्नि (कुमाः णाया १,८--पत्र १३२)। कर्म. सजीअंति ( कप्पू)। कवकृ. सजिजंत (पंचा १४, ३५)। ४ . साध्यवाला, पक्ष सच्छ वि स्वच्छ] प्रति निर्मल (सुपा ३०)। (विसे १०७७)। ५ देवगण-विशेष । ६ (कप्पू)। संकृ. सजिऊण, सज्जे (स ६४; सच्छंद वि स्वच्छन्द] १ स्वाधीन, स्व-वश महा)। कृ. सजियव्य, सज्जेयव्य (सत्त योग-विशेष । ७ मन्त्र-विशेष (हे २, २६)। (अ ३३६ टोः सुर १४, ८५)। २ न. ४०; स ७०)। प्रयो., संकृ. सज्जादेऊण सज्म [ला १ पर्वत-विशेष (स ६७६) । स्वेच्छानुसार (णाया : ८-पत्र १५२; (महा) २ वि. सहन-योग्य (हे २, २६; १२४) । प्रौप अभि ४६; प्रासू १७)। गामि वि सज सिर्ज] वृक्ष-विशेष (णाया १,१- सभांतिय पुं[.] ब्रह्मचारी (राज)। [गा मन] इच्छानुसार गमन करनेवाला, | पत्र २५, विसे २६८२ स १११; कुमा)। सम्झांतिया स्त्री दे] भगिनो, बहिन (राज)।स्वैरी। स्त्री.°णी (सुपा २३५) चारि, सज पुं[षडज] स्वर-विशेष (कुमा)। 'यारि वि [चारिन्] स्वच्छन्दी, इच्छानु समतेबासि पुं स्वाध्यायान्तेवासिन्] सज्ज वि [सज्ज तय्यार, प्रगुण (गाया १, सार विहरण करनेवाला, स्वैरी। स्त्री.°णी विद्या-शिष्य (सुख २, १५)। (सं ३६; श्रा १६; गच्छ १, १०) ८-पत्र १४६; सुपा १२२, १६७; हेका सज्ममाण विसाध्यमान] जिसकी साधना ४६; पिंग)। की जाती हो वह (रयण ४०)। सच्छर सक दृश् ] देखना (संक्षि ३६) । सजलास तुरन्त, जल्दी, शोघ्र; सज्झन सक [दे] ठीक करना, तन्दुरुस्त सच्छह विहे. सच्छाय] सदृश, समान, सज्ज । 'सजघायणं से कम्मरणजोगं पउंजामि' करना । सज्झवेहि, सज्झवेमि (सुख २, तुल्य (दे ८, ६; गा ५; ४५; ३०८; ५३३ (स १०८ सुख ८, १३; गा ५६७ प्रः १५)। ५८०० ६८१: ७२१ सुर ३, २४६, धर्मवि कास) सज्झस न [साध्वस] भय, डर (हे २, २६; सज्जंभव [शय्यम्भव] एक प्रसिद्ध जैन कुमा)। सच्छा विछाय] १ समान छाया महर्षि (साधं १२) समाइय वि स्वाध्यापिक] १ जिसमें पठन बाला. तुल्य (गउड; कुप्र २३)। २ अच्छी सजण देखो स-जम = सज्जन । - आदि स्वाध्याय हो सके ऐसा शास्त्रोक्त देश, कान्तिवाला (कुमा)। ३ सुन्दर छायावाला। काल प्रादि (ठा १०--पत्र ४७५) । २ न. ४ कान्ति-युक्त । ५. छाया-युक्त (हे १, २४६) सज्जा देखो सेजा (राज)।सजा देखो सजा । सजिअ बि [सजित] सजाया हुआ, तय्यार स्वाध्याय, शास्त्र-पठन सच्छाह विलाय जिसकी छाही सुन्दर आदि (पब २६८% किया हुप्रा (औप; कुमाः महा)। हो वह । २ छांही वाला। ३ समान छाया णंदि २०७ टी) सज्झाय पुंस्वाध्याय] शोभन अध्ययन, वाला, तुल्य, सदृश (हे १, २४६) | सजिअ विसजित] बनाया हुआ (दे १, शास्त्र का पठन, प्रावर्तन आदि (प्रौप; हे २, सत्ता स्त्री लच्छना] वनस्पति-विशेष । १३८)। २६; कुमा; नव २६) (सूम २, ३, १६) सजिअ [दे] : नापित, नाई। २ रजक, सज्झाराय वि[लाशाज] सह्याचल के राजा सजण देखो स-जण स्व-जन । धोबो। ३ वि. पुरस्कृत, आगे किया हुभा । से सम्बन्ध रखनवाला, सादिक राजा का सजिप देखो सजीव (सुर १२, २१०) ४ दीर्घ, लम्बा (दे ८, ४७)। (पउम ५५, १७)। सजुन देखो संजुत्त (पिंग)। सज्जिआ स्त्री [सजि] क्षार-विशेष, साजी सझिलग [६] भ्राता, भाई (उप २७५; संजोइ देखो स-जोइ = स-ज्योतिष् । खारः 'वत्थं सज्जियाखारेण अणुलिपति' । ३७७; पिंड ३२४)।सजग विसोगिन] १ मन आदि का (णाया १,५-पत्र १०६)। सज्झिलगा स्त्री [३] भगिनी, बहिन (पिंड व्यापारवाला। २ पुंन. तेरहवाँ गुरण-स्थानक ३१६, उप २०७) देखो स- ज स -जीव ।। (पि ४११सम २६; कम्म २, २, २०) सज्जीव । सझिल्लग देखो सज्झिलग (राज)। For Personal & Private Use Only Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सट्ट-सणिच्छर सट्टी [दे] १ सट्टा, विनिमय, बदला (सुपा २३३) श्री. 'ट्टी (सुपा २७१ बजा १४२)मा पोख्य सट्टई बलव' (भषि) - सट्ट न [सट्टक] १ एक तरह का नाटक सट्टय ) (कप्पू रंभा १०), 'रंभं तं परिणेदि अट्टमतियं एयम्मि सट्टे वरे ( रंभा १० ) । २-विशेषमा १२) ४ सट्ट न [ शाठ्य] शठता. पूर्तता (उप ७२० टी: गुभा २४) । सट्ट (शौ) देखो छट्ट (चारु ७; प्रबो ७३ पि rre)iv सट्ठि स्त्री [पष्टि] १ संख्या - विशेष, साठ, ६० । २ साठ संख्यावाला (सम ७४ कप्प बाहर, पि ४४८) "न, : [] शास्त्र - विशेष, सांख्य- शास्त्र (भग; गाया १, ५. - पत्र (०५; श्रौफ अरण ३६ ) । म वि [म] साठवाँ (पउम ६०, १० ) । सहिया वि[पष्टिक] १ साठ वर्ष की सद्विय वयवाला ( तंदु १७; राज ) । २ पुंन. एक प्रकार का चावल (राज; BIT (5) IV सट्ठीअ सडक [सद्] १ सड़ना । २ विषाद करना, खिन्न होना । ३ सक. गति करना, जाना । सडइ (हे ४, २१६; प्राप्र; षड् धात्वा १५५) । [ शट् ] १ सड़ना । २ खेद करना । ३ रोगी होना । ४ सक. जाना। सडइ (विपा १, १ - पत्र १६ ) 1 सडंग न [ षडङ्ग ] शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द धौर ज्योतिष विवि [वि] छः अंगों का जानकार ( भग श्रपः पि ३४१ ) । V सडन [न] विशरण, सड़ना ( परह १, १ – पत्र २३३ णाया १, १ - पत्र ४८ ) । सडा देखो सढा (से १, ५० प २=७ ) 1सडिअ वि [सन्न, शटित ] सड़ा हुमा, विशीर्णं (विपा १, ७ पत्र ७३; श्रा १४; कुमा) 1 सदिवि [दे] १ वर्षित, बढ़ाया हुमा २ प्रेरित ( षड् ) । पाइअसहमण्णवो सड्ढ सक [शद्] १ विनाश करना। २ कृश करना | सङ्घइ ( घाटवा १५५ ) । ... सद्ध श्री [श्राद्ध] १ धावक जैन गृहस्थ ( ओघ ६२: महा)। स्त्री. डूढी (सुपा ६५४ ) । २ वि श्रद्धेय वचनवाला, जिसका वचन श्रद्धेय हो वह (ठा ३, ३ - पत्र १३९ ) । देखो सह = श्राद्ध । . सड्ढ देखो सड्ढ = सार्धं । सदर [ श्राद्धकिन ] वानप्रस्थ तापस की एक जाति (श्रौप) । - सड्ढा स्त्री [श्रद्धा ] १ स्पृहा, अभिलाष, वांछा (विपा १, १ पत्र २ ) । २ धर्म आदि में विश्वास, प्रतीति । ३ श्रादर, सम्मान । ४ शुद्धि । ५ चित्त की प्रन्नता (हे १, ४१; षड् ) । देखो सद्धा । बढावा [] १ मा सडि वि श्रद्धालु श्रद्धावान् (ठा ६--पत्र ३५२ उत्त ५, ३१; पिंडभा २३) २. जैन गृहस्थ (कप्प ) 1सड्डन वि [आद्धि]] (पि ३३३ राज ) | सड्ढी देखो सड्ढ = श्राद्ध देखो बाढ सदवि [राठ] मायानी कपटी (कुमा १ तं उप २६४ दीः श्रोषभा ५८ भगः कम्म १, ५०) २ कुटिल (६०)। ३. धत्तूरा । ४ मध्यस्थ पुरुष ( हे १, १९६; संक्षि ८ ) । सढ पुं [दे] १ पाल, जहाज का बादवान, गुजराती में 'सढ' (सिरि ३८७) । २ केश, बाल (दे ८, ४६) । ३ स्तम्ब, गुच्छा (दे ४६ पात्र) । ४ वि. विषम (दे ८, ४६) । सदय न [दे] कुसुम, फूल (दे८, ३) । सढा स्त्री [सटा ] १ सिंह आदि की केसरा । २काश-समूह ४ शिक्षा (t. Fes)~ सढाल [सटाल] सटावाला, सिंह (कुमा) । ढि पुं [दे. सटिन ] सिंह (दे ८, १) | सढिल वि [शिथिल] ढीला (हे १, ८६ कुमा) । - सण न [राण] १ पाम्य-विशेष (या १८ (श्रा पत्र १५४; पण्ह २, ५ - पत्र १४८ ) । २ -विशेष, पाट, जिसके संतु रस्सी प्रादि For Personal & Private Use Only ८५६ बनाने के काम में लाए जाते हैं (खाया १, १- पत्र २४; पण १ –पत्र ६२ कप्पू) 1 "बंधन [' बन्धन] सन का पुष्प दृन्त ( श्रपः गाया १, १ टी --पत्र ६ ) । वीडिआ स्त्री [वाटिका ] सन का बगीचा (गा ) 1 सण [स्वन] शब्द, आवाज ( स ३७२ ) । वर्णकुमार [सनत्कुमार] १ एक चक्रवर्ती राजा (सम १५२ ) । २ तीसरा देवलोक ( अनु औप ) । ३ तीसरे देवलोक का इन्द्र (ठा २, ३ - पत्र ८५ ) बोडस पुंन [क] एक देव-विमान (सम १३) देखो स-गप्पय =स नखपद सगप्पय सणप्फद सगप्कय सा [सना ] सदा, हमेशा त यण वि [न] सदा रहनेवाला, नित्य, शाश्वत ( सू २, ६, ४७ ); 'सिद्धाण सलायणश्रो परिणामिश्र दव्वप्रोवि गुणों' (संबोध २) | साण न [स्नान] नहानां, नहान अवगाहन (उबा ) 1 = सणाद देखी साहस-नाचसणाहि पुं [सनाभि] १ स्त्रजन, ज्ञातिः 'बंधू समरगो सरगाही य' (पान)। २ समान, सदृश ( रंभा ) । सणि] [शनि] १ -विशेष राजेवर ( पउम १७८१ ) । २ शनिवार (सुपा ५३२) । सणिअ धुं [दे] १ साक्षी, गवाह । २ ग्राम्य, ग्रामीण (८, ४७)1 सणिअं [ शनैस ] धीरे, हौले (खाया १. १६ - पत्र २२६३ गा १०३; हे २, १६८ गउडः कुमा) । सणिचर [शनैश्वर] ग्रह-विशेष शनि(४) वर ["संपत्सर] विशेष (१३-पत्र २४४) सणिचरिपुं [ शनैश्चारिन ] युगलिक सणिचारि ) मनुष्यों को एक जाति (इक भग ६, ७ – पत्र २७६ ) Iv णिगर देखो सणिचर (२, ३समिच्छर ) पत्र ७७; हे १, १४६ श्रपः कुमा १०, २००२० ) 1 Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसदमणव ८६० सद्धि देवसिद्धि ( २, १०१ कुमा) सवा [ शनैः प्रपात ] जीवों से भरी हुई पोलिक वस्तु-विशेष (ठा २, ४ ८६) । सणेह [स्नेह] प्रेम प्रीति (पभि २७० कुमा) । २ घृत, तैल आदि स्निग्ध रस । ३ चिकनाई, चिकनाहट (प्रात्र; हे २, १०२ ) 1 सण देखो सन्न (से १२, ७२) । सण्णज्जन [सान्न्याय्य ] मन्त्र श्रादि से संस्कारा जाता धृत आदि (प्राकृ १६ ) 1सत्तिवि [] परितापित (दे ८ २८ ) 1. सणव[] १चिन्तित २ म. सांनिध्य, मदद के लिए समीपगमन (दे ८, ५०) 1 अवि [] चा पीला (दे ८ ५) सतर न [सतर] दधि, दही (घोष ४८ ) 1सण्णिर देखो समिर (राम) 1 सति देखो सइ = स्मृति (ठा ४, १-पत्र १८७ श्रौष) । - समिवि [] संनिहित २ माति नापा हुआ । ३ अनुनीत, अनुनय-युक्त (दे ४८) सत देखो सत्त= सप्तन् (पिंग ) र त्रि ["दशन] सतरह, १७ जं चारणंतगुणंपि हु वरान् सतरमेघदवमेध' (सिरि वरिगज्जइ १२८८; कम्म २, ११६) ५ र सय न [" दशशत] एक सौ सतरह (कम्म २, १३) । सतंत देखो सतं = स्वतन्त्र ॥ सतत देखो सय = सतत (राज) 1 सतय देखो सयय = शतक (सम १५४) । समज देखो सम्नुमिअ (दे, ८, ४० टी) सणे [दे] यक्ष-देवता (दे ८, ६) । सहवि [क्ष्ण] १ मटण, चिकना (कप्प औप ) । २ छोटा, बारीक (विपा १, ८-पत्र ८३ ) । ३न, लोहा ( है २, ७५: षड् ) । ४. वृक्ष-विशेष (एग ११५ ११) । की बी [करणी] पोसने की शिला (भग १६, ३ - पत्र ७६६) मच्छ पुं [ मत्स्य ] मछली की एक जाति (विपा १, ८--पत्र ८३; पण १ - पत्र ४७ ) 1 "साआ["] १ लक्ष्णश्लक्ष्णका का एक नाप (इक) 1 सव[सूक्ष्म] छोटा बारीक (कुमा २ न. कैतव, कपट ३ अध्यात्म । ४ अलंकार- विशेष (हे २, ७५) । देखो सुहम, सुहुम सहाई स्त्री [दे] दूती (दे ८, ६) । सत देखो सय = शत (गा ३ ) + क्कतु पुं [ ऋतु] इन्द्र (कप्प ) + ग्घी स्त्री [नी] अस्त्र - विशेष ( परह १ १ - पत्र ८ वसु) 1 "दु श्री ["द्र ] एक महानदी (ठा ५, ३-पत्र ३५१ ) | 'भिसया स्त्री ["भिषज् ] रिसभ गृह (सम [ वत्स ] पक्षि-विशेष ( पण १ - पत्र ५२ ) । 'वाइया स्त्री [["पादिका ] श्रीन्द्रियजन्तु को एक जाति नक्षत्र-विशेष (सम २९) [ऋषभ ] महोरात्र का २१)वच्छ ( पण १ - पत्र ४५) । = सती देवी सई पती (६०) सतीणा देखो सणा (५ पत्र २४१) - तेरा श्री [शतेश] निदिग्रुप पर रहने पाली एक कुमारी देवी (डा ४, १पत्र १६८, इक ) 1 सत्त वि [शक्त ] समर्थ (हे २, २ षड् ) । सन्त वि[शप्त ] शापन्यस्त्र विसारधारा किया गया हो वह (पउम ३५ ६०७ पत्र १०६ टी० प्रति ८६ ) 1 सन्त देखो सच = सत्य (प्रभि १८६ पिंग ) । सत्त वि[सक्त] प्रासक्त, गृद्ध, लोलुप (सूत्र १, १, १, ६; सुर ८, १३६० महा) । सत्तन [स] सदाव्रत, जहाँ हमेशा अन्न आदि का दान दिया जाता हो वह स्थान ( कुप्र १७२ ) । २ यज्ञ (अजि ८) साल श्री [शाला] सदावत स्थान दान-क्षेत्र (ख) गार न [गार] नही ( धर्मेंवि २६) । सन्त वि [दे] गत, गया हुआ (पड् ) ।चेतन सत्त पुंन [सत्त्व] १ प्राणी, जीव, ( श्राचाः सुर २,३६० सुपा १०३३ धर्मसं ११८६) । २ श्रह. रात्र का दूसरा मुहूर्त (सम ५१) । ३ न बल पराक्रम । ३ मानसिक 5 For Personal & Private Use Only सणित -सत्त उत्साह (पिंड ६३३, श्रगु प्रासू ७१ ) । ५ विद्यमानता ( घर्मंसं १०५ ) । ६ लगातार सात दिनों का उपवास (संबोध ५८ ) 1 सत्त वि[सप्तन्] सात संख्यावाला, सात (विपा १, १ - पत्र २ कप्पा कुमाः जी ३३ ४१) । खित्ती, खेत्ती स्त्री ['क्षेत्री ] नि-चैत्य, विन-विन्य, जैन धागम, साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका ये सात धनव्यय-स्थान ( ती ८ श्रु १२१ राज ) । गन [क] सात का समुदाय (दं ३५३ कम्म २, २६ २७ ६, १३) । चत्ताल वि [' चत्वारिंग] सैंतालीसवाँ, ४७ वाँ (पउम ४७२८) शासन [चत्वारिं शत् ] सैंतालीस, ४७ सम ६७ ) च्छ [] विशेष सरावन का पेड़, सतौना (पान से १, २३३ णाया १, १६– पत्र २११६) श्री [] संख्या - विशेष, सड़सठ ६७ । २ सड़सठ संख्या वाला (सम १०६३ कम्म १, २३३ ३२० २, " ६) द्विधा [पहिया] सह प्रभार का (१२-पत्र २२०) देखो ss (राज) तीसइम वि [निशन्तम ] सइतीसवाँ ३७ वां (पउम ३७, ७१) तंतु [ तन्तु ] यज्ञ (पा) । दस ि ["दशन] सतरह, १७ (पउम ११७, ४७) । - "पण देखो बण्ण (राज) भूम वि ["भूम] सात तलावाला प्रासाद (श्रा १२ ) I "भूमिय वि [ भूमिक] वही पूर्वोक्त अर्थ (महा) मवि [म] सातवाँ, ७ वाँ (कप्प)। स्त्री. भा (जी २९ ) । मासिअ वि [मासिक] सात मास का (भग) 1 "मासिआ श्री ["मासिकी ] सात मास में पूर्ण होनेवाली एक साधु-प्रतिज्ञा व्रत विशेष (सम २१) मिया, श्री ["मित्र, १७ वीं (महासन २१ चिर ३०० कम्म ३ ६ प्रासू १२१ ) २ समय ६८२ राजव देखो 'ग (कम्म ६, ६६ टी) रवि [त ] सतवाँ ७० (पउन ७०७२) [दशन] सतरह १० (२३) र [[["रात्र] सात रातदिन का समय (महा)।"रस त्रि ["दशन] सतरह १७ (ग) "रस, रेसम वि["दश] सतरहवा Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तंग-सत्थ पाइअसहमहण्णवो (कम्म, १६: पउम १७. १२३; पब ४६)। सताईसवाँ, २७ वाँ (पउम २७, ४२) सामर्थ्य (ठा ३, १-पत्र १०६; कुमाः प्रासू 'रह देखो रस = "दशन् (षड) रे स्त्री वीसविह विविंशतिविधा सताईस २६)। ४ विद्या विशेष (पउम ७, १४२)। [ति] सत्तर, ७० (सम ८१, कप्प पड़) प्रकार का (पराण १७-पत्र ५३४), वीसा म, मंत वि [मत् ] शक्तिवाला (ठा रिसि [ ऋषि] सात नक्षत्रों का मंडल- स्त्री. देखो वीस (हे १, ४; षड्)। सीइ ६-पत्र ३५२; संबोध ८ उप १३६ टो)विशेष (सुपा ३५४) । °वण्ण, वन्न पुं स्त्री [शीति सतासी, ८७ (सम १३) सत्ति पुंसप्ति अश्व, घोड़ा (पा)[पणे] १ वृक्ष-विशेष, सतौना (प्रौपः विशीतितम सतासोबॉ. सत्तिअ वि [सात्त्विक] सत्त्व-युक्त, सत्त्वभाग)। २ देव-विशेष (राय ८०)। वन्नव- ८७ वाँ (पउम ८७, २१)। प्रधान (सूअनि ६२: हम्मीर :६; स ४)। डिसय [पर्णावतंसक] सौधर्म देवलोक सत्तिअणा स्त्री [दे] आभिजात्य, कुलीनता सत्तंग वि [सप्ताङ्ग] , राजा, मन्त्री, मित्र, का एक विमान (राय ५६) + "विह वि कोश-भंडार, देश, किला तथा सैन्य ये सात सात्तवण्ण) देखो सत्त-वण्ण (सम १५२; [विध सात प्रकार का (जी १६; प्रासू राज्याङ्गवाला (कुमा)। २ न. हस्ति-शरीर सत्तिवन्न । पि १०३; विचार १४८)१०४: पि ४५१) वसइ, वीसा स्त्री के ये सात अवयव-चार पैर, ढूँढ, पुच्छ [मिति सताईस, २७ (पि ४४५: भग)। और लिंगः ‘सतंगपइट्टिय' (उवा १०१)। सत्तु पुं [शत्रु] रिपु, दुश्मन, वैरी (णाया सझ्य वि [ शतिक] सात सौ की संख्या १,-पत्र, कप्पू; सुपा ७)+ इ वि सत्तण्ह देखो स-त्तण्ड - स-तृष्ण । वाला (गाया १, १-पत्र ६४)4 °सट्र [जित् ] १ शत्रु को जीतनेवाला। २ पुं. सत्तत्थ वि [दे] अभिजात, कुलोन (दे ८; | वि [पष्ट] सड़सठवाँ, ६७वा (पउम ६७, एक राजा का नाम (प्राकू ६५) 'ग्य वि ५१), सढि देखो 'ट्रि (सम ७६), सत्त [न] १ रिपु को मारनेवाला (प्राकृ ६५) । सत्तम देखो सत्तम = सत्-तम । २. रामचन्द्र का एक छोटा भाई (पउम मिया श्री [सप्तमिका] प्रतिज्ञा-विशेष, २५, १४))°निहण [निन] वही पूर्वोक्त नियम-विशेष (अंत)। सिक्खावय वि सत्तर देखो स-त्तर % स-त्वर ।। अर्थ (पउम १०,६६) मद्दण वि [ मर्दन] [शिक्षावतिक] सात शिक्षाव्रतवाला (णाया सत्तर देखो सत्त-र = सप्त-दशन्, दश । शत्रु का मर्दन करनेवाला (सम १५२), सेण १, १२, औप)। हत्तर वि [सप्तत] सत्तल न [सप्तल] पुष्प-विशेष (गउड)। पुं[ सेन] एक अन्तकृद् मुनि (अंत ३)। सतहतरवा, ७७ वाँ (पउम ७७, ११८)। सत्तला स्त्री [सप्तला] लता-विशेष; नव हण देखो ग्घ (पउम ८०, ३८)। हत्तार स्त्री [सप्तति] १ संख्या-विशेष, सत्तली , मालिका का गाछ (पान; गा सतहतर की संख्या, ७७ । २ सतहतर संख्या- ६१६%; पउम ५३,७९) सत्तु ।'[सक्तु] सत्तू , सतुपा, भुजे वाला (सम ८५; भग; श्रा २८) हा अ सत्तल्ली स्त्री [ने. सप्तला] लता-विशेष, सत्तअ ) हुए यव आदि का चूर्ण (पि [धा] सात प्रकार का, सप्तविध (पि शेफालिका का गाछ (दे ८, ४)। ३६७ निचू १; स २५३; सुर ५, २०६; ४५) हुत्तर देखो हत्तरि (नव ८) सत्तवीसंजोयण देखो सत्तावीसंजोअग सुपा ४०६; महा)। ईस (अप) देखो वीसा (पि ४४५) (चंड) सत्तुंज न [शत्रुञ्ज] १ एक विद्याधर-नगर गण उइ स्त्री [°नवति सतानबे, ६७ (सम सत्ता स्त्री सत्ता] १ सद्भाव, अस्तित्व (मंदि । (इक) । २ पुं. रामचन्द्रजी का एक छोटा १८) गणव्य वि [ नवत] १ सतानवेवा, १३६ टी)। २ प्रात्मा के साथ लगे हुए कर्मों । भाई, शत्रुध्न (पउम ३२, ४७) ६७ वा (पउम ६७, ३०) । २ जिसमें सता- का अस्तित्व, कर्मों का स्वरूप से अप्रच्यव-- सत्तुंजय पुं [शत्रुञ्जय] १ काठियावाड़ में नबे अधिक हो वह, 'सत्ताणउयजोयणसए' अवस्थान (कम्म २,१,२५) । पालीताना के पास का एक सुप्रसिद्ध पर्वत (भग) रह (अप) देखो रह (पिंग)- सत्तावरी स्त्री [शतावरी] कन्द-विशेष, 'सत्ता- जो जैनों का सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है (सुर ५, "विण्ण वन्न स्त्रीन [पञ्चाशत् ] १ बरी विराली कुमारि तह थोहरो गलोई य' २०३) । २ एक राजा का नाम (राज) । संख्या-विशेष, सतावन, ५७ । २ सतावन (पव ४; संबोध ४४; श्रा २०)। सत्तुंदम पुं [शत्रुन्दम] एक राजा का नाम संख्याबाला (पडि: पिंगः सम ७३ नव२) सत्तावीसंजोअण पुंद चन्द्र, चन्द्रमा (दे। (पउम ३८.४५) स्त्री. यात्रा (पिंग पि२६५, ४४७) ८, २२); 'सत्तावीसंजोपणकरपसरी जाव । सन्तन देखो सज(कुप्र १२) विन्न वि [पञ्चा] सतावनवाँ, ५७वाँ अज्जवि न होई' (वान १५) । | सत्तत्तरि स्त्री सप्तसपति] सतहत्तर, ७७ (पउम ५७, ३७) । वीस न [विंशति] सत्ति स्त्री [दे] १ तिपाई, तीन पाया वाला १ संख्या-विशेष, सताईस । २ सताईस की गोल काष्ठ-विशेष । २ घड़ा रखने का पलंग सत्य विशस्त] प्रशस्त, श्लाघनीय (चेइय संख्यावाला; 'एवं मत्तात्रीसं भंगा रोयब्या' की तरह ऊँचा काष्ठ-विशेष (दे ८,१) ५७२) (भग) वीसइ नो [°विंशति । वही पूर्वोक्त सत्ति स्त्री [काति] अन्न-विशेष (कुमा)। सत्य न [शन] हथियार, प्रायुध प्रहरण अर्थ (कुमा)) 1.सम वि ["विशतितम] २ त्रिशूल (पएह १, १--पत्र १८)। ३ । (प्राचा उप; भग; प्रासू १०५)। कास पुं For Personal & Private Use Only Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६२ पाइअसहमहण्णवो सत्थ-सद्दाव [कोश] शत्र--औजार रखने का थैला सत्थि प.स्त्री स्वस्ति] १ आशीर्वाद; 'सत्थि (ठा ७–पत्र ३६०; विसे २१८१)। ३ (णाया १,१:-पत्र १८१), वज्भ वि करेइ कविलो' (पउम ३५, ६२)। २ क्षेम, छन्द-विशेष (पिंग)। ४ नाम, पाख्या ["वध्य हथियार से मारने योग्य (णाया कल्याण, मंगल । ३ पुण्य प्रादि का स्वीकार (महा)। ५ प्रसिद्धि (प्रौप; रणाया १, १, १६-पत्र १६६)ोवाडण न [वपा- (हे २, ४५; संक्षि २१)1 मई स्त्री [मती] १ टी-पत्र ३)- वेहि विवेधिन्] टन] शस्त्र से चीरना (णाया १, १६-पत्र १ एक विप्र-स्त्री, क्षीरकदम्बक उपाध्याय की शब्द के अनुसार निशाना मारनेवाला (णाया २०२; भग)। स्त्री (पउम: १,)। २ एक नगरी (उप १, १८--पत्र २३६; गउड) वाइ पुं सत्थ वि [दे] गत, गया हुआ (दे ८, १)। निवेश-विशेष (स १०३)। [पातिन्] एक वृत्त वैताब्य पर्वत (ठा २, सत्थ देखो स-स्थ = स्व-स्थ । देखो सोस्थि । ३-पत्र ६६ ८०४,२–पत्र २२३; इक)। सत्थ न स्वास्थ्य स्वस्थता (णाया १, सस्थिअस्तिस्तिक] १ माङ्गलिक विन्यास- सद्दल न [शाद्वल] हरित हरा घास (पाम: विशेष, मंगल के लिए की जाती एक प्रकार पाया १, १-पत्र २४; गउड)।सत्थ पुं[सार्थ] १ व्यापारी मुसाफिरों का की चावल प्रादि की रचना-विशेष (श्रा २७ सद्दलिय वि [शादलिल] हरा घासवाला समूह (गाया १, १५-पत्र १६३; उत्त सुपा ५२)। २ स्वस्तिक के आकार का प्रदेश (गउड)। ३०, १७; बृह १; अणु; सुर १. २१४)। पासन-बन्ध (बृह ३)। ३ एक देव-विमान सद्दह सक [श्रद् + धा] श्रद्धा करना, विश्वास २ प्रारिण-समूह (कुमाः हे १,६७)। ३ वि. (देवेन्द्र १४०) पुर न [पुर] एक नगर करना, प्रतीति करना। सद्दहइ. सद्दहामि अन्वर्थः यथार्थनामा (चेइय ५७२) ३ वह, का नाम (श्रा २७) । देखो साथि (हे ४, ६, भगः उवा)। भवि. सद्दहिस्सइ वाह पंस्त्री [वाह] सार्थ का मुखिया. संघ- सथिवि सार्थिक] १ सार्थ-सम्बन्धी, (1ि ५३०)। वकृ. लद्दहत, सद्दनाण नायक (श्रु ५५उवाः विपा १. २-पत्र सार्थ का मनुष्य प्रादि (कुप्र ६२; स १२६ सदहाण (नव ३६; हे ४, ६ श्रु २३) । ३१) । स्त्री. ही (उवा; विपा १, २-पत्र सुर ६, १९६; सुपा ६५१; धर्मवि १२४) । संकृ. सद्दहित्ता (उत २६, १)। कृ. ३१), वाहिक [वाहिन्] वही पूर्वोक्त २ . साथं का मुखिया (बृह १) सहहियव्व (उवः सं ८६: कुप्र १४६)। अर्थ (भवि)। ह देखो वाह धर्मवि ४१ः | सस्थिअन[सक्थिक] ऊरु, जाँघ (स २६२) सदहग देखो सद्दहाण (हे ४, २३८; कुमा)। सण) हिव पुंधिप] सार्थ-नायक (सुर २, ३२; सुपा ५६४)। हिवइ पुं सत्थिआ स्त्री [शस्त्रिका] छुरी (प्राप्र)। सद्दहणया। स्त्री [श्रतान] श्रद्धा, विश्वास, [धिपति वही अर्थ (सुपा ५९४) सत्थिग देखो सस्थिअ = स्वस्तिक (पंचा सद्दहणा प्रतीति (ठा ६-पत्र ३५५, सत्थ पुंन [शास्त्र] हितोपदेशक ग्रन्थ, हित ८, २३)। पंचभा)। शिक्षक पुस्तक, तत्त्व-ग्रंथ (विसे १३८४० सथिल्ल देखो सथिअ = साथिक (सुर १०, | सद्दहा देखो सड्ढा = श्रद्धा (सट्ठि १२७)। कुमा), 'नाणासत्थे सुएंतोवि' (श्रा ४)। सदहाण न [श्रद्धान] श्रद्धा. विश्वास (श्रावक °ण विज्ञाशास्त्र का जानकारः 'समि- सात्थल्लय देखो सत्य = सार्थ (महा: भवि) - ६२ पव ११६: हे४.२३) सत्थराणू (उप ६८६ टी उप पृ ३२७) सत्थु वि [शास्तु] शास्ति-कर्ता, सीख देने- सद्दहाण देखो सह ।'गार वि कार] शान-प्रणेता (धर्मसं वाला (प्राचाः सूत्र २,५,४१, १३,२) सहहिअ वि श्रिद्धित] जिस पर श्रद्धा की १००३; सिक्खा ३१)। त्थ पुं थ ]| सत्थुअ देखो संथुअ (प्राकृ ३३; पि ७६) गई हो वह, विश्वस्त (ठा ६--पत्र ३५५; शास्त्र-रहस्य (कुप्र ६, २०६; भवि) यार सदा देखो सआ = सदा (राज)। पि ३३३)। देखो गार (स ४, धर्मसं १८२), "वि वि सदावरी देखो सयावरी- सदावरी (उत्त सदाइद (शौ) वि [शब्दायित पाहूत, [विद्] शास्त्र ज्ञाता (स ३१२) ३६, १३६) बुलाया हुआ (नाट-मृच्छ २८६)। सत्थइअ वि [द] उत्तेजित (दे ८, १३)। सदिस (शौ) देखो सरिस = सदृश (नाट- सदाण देखो संदाण । सद्दाणइ (षड् )।सत्थर पुं[दे] निकर, समूह (दे ८, ४)। | मृच्छ ११३) सहाल बि [शब्दवत् ] शब्दवाला (हे २, सत्थर । पुन त्रिस्तर] शय्या, बिछौना सद्द अक [शब्दय ] १ आवाज करना। १५६ पउम २०, १०० प्राप्र; सुर ३, ६६ सत्थरय) (दे८.४ टी सुपा ५८३, पाम: २ सक. आह्वान करना, बुलाना। सद्दइ पान; मौप)।षड् ; हास्य १३६ सुर ४, २४४) । (पिंग)। सद्दाल न [दे] नूपुर (दे ८, १०; षड्)। सत्थव देखो संथव = संस्तव (प्राकृ ३३; | सद्द पुंन [शब्द] १ ध्वनि, आवाज (हे १, पुत्त पुं[पुत्र] एक जैन उपासक (उवा)। पि ७६)। २६०; २, ७६; कुमा; सम १५); 'सद्दाणि सहाव सक [शब्दय , शब्दायय ] सत्थाम देखो म-स्थाम= स-स्थामन् । विरूवरूवाणि' (सूत्र १, ४, १, ६), 'सद्दाई' आह्वान करना, बुलाना । सद्दावेइ, सद्दाविति, सत्थाव देखो संभव = संस्तव (प्राकृ ३३)। (भाचा २, ४, २, ४)। २ पृ. नय-विशेष । सद्दावेंति (प्रौपा कप्प; भग)। सद्दावेहि Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दाविय-सप्फंद पाइअसहमहण्णवो (स्वप्न ६२)। कर्म. सद्दावीअंति (अभि | सद्धेय वि [श्रद्धेय श्रद्धास्पद (विसे ४८२) सप्प सक [सृप्] १ जाना, गमन करना। १२८)। संकृ.सहावित्ता, सदावेत्ता (पि | सधम्म वि [सधर्मन] समान धर्मवाला २ आक्रमण करना। सप्पइ (धात्वा १५५); ५८२: महा). (स ७१२)। 'घोरविसा वि हु सप्पा सप्पंति न बद्धवयणव्व' सदाविय विशब्दित, सब्दायित] पाहूत, सम्मिअ देखो स-धम्मिअ = सद्-धार्मिक ल (सुर २, २४३) । वकृ. सप्पंत, सप्पमाण बुलाया हुआ (कप्पः महा; सुर ८, १३३) । सधम्मिणी स्त्री [सर्धामणी] पत्नी (दे २, (गउड, कप्प)। कु. सप्पणीअ (नाटसद्दिअ बि शिब्दित] १ प्रसिद्ध (प्रौपा १०६: सरण) । शकु १४७) । णाया १, १ टी--पत्र ३)। २ अाहत सधवा देखो स-धवा = स-धवा । सप्प पुंस्त्री [स] १ साँप, भुजंगम (उवा (सुपा ४१३; महा)। ३ वार्तित, जिसको सनय देखो स-नयम स-नय ।। सुर २,१४३, जी २१, प्रासू १६, ३८% बात कही गई हो वह (कुमा ३, ३४)। सन्न वि [सन्न] १ क्लान्त (पान)। २ ११२) । श्री. प्पः (राज)। २ पुं. प्रश्लेषा सदिअ विशिाब्दिका शब्द-शास्त्र का ज्ञाता। प्रवसन्न, मग्न (सूम १, २,१,१०)। ३ नक्षत्र का अधिष्ठाता देव (सुज्ज १०, १२, (अणु २३४) । खिन्न (परह १, ३.-पत्र ५५) ठा २, ३---पत्र ७.)। ३ एक नरकस्थान सदूल शिार्दूल] १ श्वापद पशु की सन्नाम देखो स-नाण = सज्ज्ञान । - (देवन्द्र २७) । ४ छन्द-विशेष (पिंग) एक जाति, बाथ (पानः परह १, १-पत्र सन्नाम सक [आ + ६] आदर करना, समान सिर पुं [ शिरस.] हस्त-विशेष, वह ७; दे १, २४, अभि ५५)। २ छन्द विशेष करना। सन्नामइ, सन्नामेइ (षड् ; हे ४, हाथ जिसकी उंगलिया और अंगूठा मिला (पिग)- विकोडिअ न [विक्रीडित] हुमा हो और तला नीचा हो (दे८, ७२) । उन्नीस अक्षरों के पादवाला एक छन्द (पिग) सन्नाभित्र वि [आहत] संमानित (कुमा)। सुगधा स्त्री [सुगन्धा] वनस्पति-विशेष स? पुन साटक] छन्द-विशेष (पिंग)। सन्निउत्थ बि [द] परिहित, पहना हुआ (परण १-पत्र ३६)। सद्ध देखो स-द्ध = साध । (सुपा ३६) सप्पम देवो स-पभ-स्व-प्रभ, सत्-प्रभ, सद्ध ना ] १ पितरों की तृप्ति के लिए सन्निउ (अप) देखो सणिों (भत्रि) स-प्रभ । तर्पण, पिण्ड-दानादि (अच्चु १७ पुप्फ सन्निर न [दे] पत्र-शाक; भाजी (दस ५, | सप्पमाग देखो सप्प = सृप्रू व शप् । १६७)। २ वि. श्रद्धावाला, श्रद्धालु (उप ७०) सप्पारआव देखो स-परिआव-स८९८) ! देखो सड्ढ = श्राद्ध (उप १९६)। सन्नुस सक [छादय ] पाच्छादन करनाः सप्परिनावपरिताप । पक्ख [प] आश्विन मास का कृष्ण ढांकना । सन्नुमइ (हे ४, २१)। सप्पि न [ सर्पिस ] घृत, धो (पानः पव पक्ष (दे ६, १२७) । मन्ममिअ विछादित ढका हरा (कमा)।-४; सुपा १३; सिरि ११८४; सण) ।। सद्ध देखो सजक = साध्य (नाट-चैत ३५)। सन्ह देखो सह = लक्षण (कप्प)। आसव. यासव वि [°आस्रव] लब्धिसद्धड भा] व्यक्ति-वाचक नाम (महा)। विशेषधाला, जिसका वचन घी को तरह मधुर सप देखो सव= शप् । सपइ (विसे २२२७) सद्धरा स्त्री बिग्धरा] एक्कीस अक्षरों के होता है (पएह २, १-पत्र १०:)। सपाख देखो स-पक्ख = स-पक्ष । चरणवाला एक छन्द (पिंग)। सपक्ख देखो स-पक्ख = स्व-पक्ष । साप्प विसपिन] १ जानेवाला, गति करनेसद्धल सिद्धल] एक प्रकार का हथियार, | १ सपरिवं अ [सपक्षम् ] अभिमुख, सामने वाला (कप्प)। २ रोगि-विशेष, हाथ में कुन्त, बछा (पराह १,१.-पत्र १८)। देखो लकड़ी के सहारे से चल सकनेवाला रोगि(अंत १४)। सव्वल सपक्व स्त्री [सपक्षी] एक महौषधि (ती विशेष (पएह २, ५-पत्र १००)।सद्धस देशो सज्मस (प्राकृ २१ प्राप्र)। सप्पिसल्लग देखो स-प्पिसल्लग/स-पिशासद्धा देखो साढा (हे २, ४१, णाया १, सपज्जा स्त्री [सपर्या] पूजा (अच्चु ७०) ।। चक:१-पत्र ७४; प्रासू ४६; पात्र) "ल वि सप डदिसिं अ [सप्रतिदिक् ] अत्यन्त सप्पा देखो सप्प = सर्प ।F ] श्रद्धावाला (चंड; श्रावक १७५) M संमुख, ठीक सामने (अंत १४) °ल विल वही अर्थ (संबोध ८) सप्पुरिस देखो स-प्पु रस = सत्-पुरुष ।। | सपत्ति विसपत्रित] बाण से प्रतिव्यथित सप्फ न शिष्प बाल तृण, नया घास (हे स्त्री.लगः (गा ४.५) . (द १, १३५)। सद्धिअ वि आन] श्रद्धावाला (पएह १, | २, ५३; प्राप्र)। ३-पत्र ४४ वसुः प्रोघभा १६ टी)। सपह देखो सवह (धर्मवि १२६)। सप्फ न [दे] कुमुद, कैरवः 'चंदुजयं तु सद्धिं असाम्] सहित, साथ (प्राचाः सपाग देखो स-पाग = श्व-पाक ।। कुमुग्रं गद्दहयं केरवं सप्फ (पास) उवाः उत्त १६३)। सपिस ल्लग देखो सप्पिसल्लग (पि २३२)। सप्फंद देखो स-प्फंद = स-स्पन्द । For Personal & Private Use Only Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६४ पाइअसहमहण्णवो सप्फल-समईअ सप्फल देखो स-प्फल = सफल । सम्भाविय वि [साभाविक] पारमार्थिक, प्राकृति-विशेष (ठा ६--पत्र ३५७ सम १४६; भग; कम्म १, ४०)। वास्तविक (दसनि १, १३५)। सप्फल देखो स-प्फल = सत्-फल 10 चक्कवाल न सभ न. देखो सभा; 'सभारिण' (पाचा २, सफर देखो सभर = शफर (वै २०)। [चक्रवाल] वृत्त, गोलाकार (सुज ४) ।। १०; २)। 'ताल न ["ताल] १ कला-विशेष (प्रौप)। सफर पुन [दे] मुसाफिरीः 'वडसफरपवहणाणं' (सिरि ३८२) सभर पुंस्त्री [शफर मत्स्य, मछली (कुमा)। २ वि. समान तालवाला (ठा ७)। धम्मिअ स्त्री. °री (हे १, २३६; प्राकृ १४) । वि [धर्मिक] समान धर्माला (उप ५३० सफल देखो स-फल = स-फल । टी) पादपुत पुंन [पादपुत] आसनसभर पुं[दे] गृध्र पक्षी (दे ८, ३)। सफल सक [सफलय ] सार्थक करना। विशेष, जिसमें दोनों पैर मिलाकर जमीन में सभराइअ न शिफरायित जिसने मत्स्य की वकृ. सफलंत (सुपा ३७४)। लगाए जाते हैं वह प्रासन-बन्ध (ठा ५, १तरह प्राचरण किया हो वह (कुमा)।सफलिअ वि [सफलित] सफल किया हुआ पत्र ३००) पास वि [दर्शिन् तुल्य सभल देखो स-भल =स-फल। (सुपा ३५६: उव)। दृष्टिवाला, समदर्शी (गच्छ १, २२) 4 °पभ सभा स्त्री [सभा] १ परिषद् (उवाः रयण सब (अप) देखो सव्व = सर्व (पिंग)। पुंन [प्रभ] एक देव-विमान (सम १३) ।। ८३: धर्मवि ६)। २ गाड़ी के ऊपर की भाव पुं[ भाव] समता (सुपा ३२०) सबर पुं[शबर] १ एक अनार्य देश । २ उस छत-ढक्कन (श्रा १२)। 'या स्त्री [ता] राग-द्वेष का प्रभाव, देश में रहनेवाली एक अनायं मनुष्य-जाति, सभाज सक [सभाजय ] पूजन करना। मध्यस्थता (उत्त ४, १० पठम १४, ४०) किरात, भील (पएह १, १-पत्र १४; पामः हेकृ. सभाजइहूँ (शौ) (अभि १६०)। श्रा २७)। वत्ति पुं [वर्तिन्] यमराज, गउड)। "णिवसण न [निवसन] तमाल- सभाव देखो स-भाव = स्व-भाव । जम (सुपा ४३३)। सरिस वि [°सदृश] पत्र (उत्तानि ३)। देखो सवर। सम अक [शम्] १ शान्त होना, उपशान्त अत्यन्त तुल्य, सदृश, (पउम ४६, ५७)। सबरो स्त्री [शबरी] १ भिल्ल जाति की स्त्री होना। २ नष्ट होना। ३ प्रासक्त होना । सहिय वि [ सहित] युक्त, सहित (णाया १,१-पत्र ३७; अंतः गउड; चेइय समइ, समंति (हे ४, १६७; कुमा), 'जइ (पउम १७, १०५)। सुद्ध पुं[शुद्ध] ४८२)। २ कायोत्सर्ग का एक दोष, हाथ से समइ सकराए पित्तं ता कि पटोलाए' (सिरि एक राजा जो छठवें केशव का पिता था गुह्य-प्रदेश को ढककर कायोत्सर्ग करना (चेश्य ६६६)। बकृ. समेमाण (आचा १, ४, (पउम २०, १८२)। ४८२) समइअ वि [सामयिक] समय-संबन्धी, सबल (शबल] १ परमाधार्मिक देवों की सम सक [शमय ] १ उपशान्त करना, समय का (भग) एक जाति (सम २८)। २ वि. कर्बुर, दबाना । २ नाश करना। वकृ. 'दु(दुरिए समइअ वि [समयित] संकेतित (धर्मसं चितकबरा (प्राचा; उप २८२ गउड)। ३ समंतो' (धर्मा ३)। ५०५)। न. दूषित चारित्र । ४ वि. दूषित चरित्रवाला मुनि (सम ३६)। सम [श्रम] १ परिश्रम, प्रायास । २ खेद, समइअ न [समयिक] सामायिक नामक थकावट (काप्र ८४; सम्मत्त ७७; दे १, संयम-विशेष (कम्म, १८४,२१, २८)सबलिय वि [शबलित] कर्बुरित (गउड)। १३१; उप पृ ३५, सुपा ५२५; गउडा सण, समइंछिअदेखो समइच्छिअ (से १२, ७२). सबलीकरण न [शबलीकरण] सदोष करना, कुमा)। जल न [°जल] पसीना (पान)। समइकंत वि [समतिक्रान्त व्यतीत, गुजरा चारित्र को दूषित बनाना (मोघ ७७८)। सम पुं [शम शान्ति, प्रशम, क्रोध मादि का हुआ (सुपा २३) । सब्ब (अप) देखो सव्व = सर्व (पिंग)। निग्रह (कुमा)। समइच्छ सक [समति + क्रम् ] १ उल्लंघन सब्बल पुंन [दे] शस्त्र-विशेषः 'सरझसरसत्ति- सम वि [सम] १ समान, तुल्य, सरिखा | करना । २ प्रक. गुजरना, पसार होना । वकृ. सब्बलकरालकोंतेसु' (पउम ८, ९५ धर्मवि (सम ७५; उव कुमा; जी १२; कम्म ४, समइच्छमाण (प्रौपः कप्प)५६)IV ४०; ६२)। २ तटस्थ, मध्यस्थ, उदासीन, समइच्छिअ वि [समतिक्रान्व] १ गुजरा सब्बल देखो स-ब्बल-स-बल । राग-द्वेष से रहित (सूम १, १३, ६ ठा| हुमा । २ उल्लंधित (उप ७२८ टोः दे ८, सब्भ वि [सभ्य] १ सभासद, सदस्य (पाम: ८)। ३ स. सर्व, सब (श्र १२४)। ४ न. २०; स ४५) सम्मत्त ११६) । २ सभोचित, शिष्ट; 'मसब्भ- एक देव-विमान (सम १३, देवेन्द्र १४०)। समईअ वि [समतीत] १ गुजरा हुमा भासी (दस ६,२,८ सुर ६, २१५; स ५ सामायिक (संबोध ४५; विसे १४२१)। (पउम ५, १५२) । २ पुं. भूत काल (जीवस ६५०)। ६ प्राकाश, गगन (भग २०, २-पत्र १८१)। सब्भाव देखो स-भाव = सद-भाव ।। ७७५), 'चउरंस न [°चतुरस्र संस्थान- समईअ देखो समइअ = समयिक (कम्म ४, सब्भाव देखो स-भाव =स्व-भाव । विशेष, चारों कोणों के समान शरीर की । ४२)।। For Personal & Private Use Only Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समउ-समणुभूअ पाइअसहमहण्णको समउ (अप) नीचे देखो (भवि)। समच्छाग्रग वि [समाच्छादक] ढकनेवाला समणकख देखो स-मणक्ख = स-मनस्क - समं म[समम् ] साथ, सह (गा १०२ (स ६६) समणुगच्छ। सक [समनु + गम] १ १६४ २६५, उत्त १६, ३; महा; कुमा)। समज । सक सम् + अर्ज 1 पैदा समणुगम अनुसरण करना। २ अच्छी समंजस वि [समञ्जस] उचित, योग्य समज्जिण करना, उपार्जन करना । समज्जइ, तरह व्याख्या करना । ३ अक. संबद्ध होना, (माचा; गउड; भवि) समज्जिणइ (सणः पव १०; महा) । वकृ. जुड़ जाना । वकृ. समणुगरछमाण (णाया समंत देखो समंता: 'वसियो अंगेसु समंत- सज्जिणमाण (विपा १,१-पत्र १२)। १, १--पत्र २५) । कवकृ. समणुग मंत, पीणकरणकब्बुरो सेमो' (गउड) संकृ. समजिवि (अप) (सण)। समणुगरमसाण (प्रौपः सूअ २, २, ७६; समंत देखो सामन्त (उप पृ ३२७) समजिणिय) वि [समाजत] उपार्जित रणाया१. -पत्र ३२ कप्प) - समंत (अप) देखो समत्थ = समस्त (पिंग)। समज्जिय (सण; ठा ३, १-पत्र समणुगः वि [समनुगत] १ अनसत (स समंतओम[समन्ततस ] सर्वतः, चारों ११४; सुपा २०५; सण)। ७२०) : २ अनुविद्ध, जुड़ा हुआ (पंचा, तरफ (गा ६७३; सुर २, २३८)। समझासिय वि [समध्यासित] अधिष्ठित समंता । [समन्तात् ] ऊपर देखो (सुज्ज १०, १)। समणुचिया वि [समनुचीर्ण] प्राचरित, समंतेण (पामः भगः विपा १, २–पत्र सम? वि [समर्थ] संगत अर्थ, व्याजबी, विहितः 'तवो समणुचिएणो' (पउम ६, २६ से ६, ५१, सुर २, २८; १३, १९५) न्याय-युक्त (गाया १,१-पत्र ६२; उवा)। समकंत वि [समाक्रान्त] १ जिसपर देखो समत्थ = समर्थ ।। समणुजाण सक [समनु + ज्ञा] १ अनुमोदन आक्रमण किया गया हो वह (से ५, ५७)। समण न [शमन] १ उपशमन, दबाना, शान्त करना, अनुमति देना । २ अधिकार प्रदान २ अवरुद्ध, रोका हुमा (से ८, ३३)। करना (सुपा ३६६)। २ पथ्यानुष्ठान (उवर करना । समणुजाणइ, समणुजाणाइ. समणुसमक्ख न [समक्ष] नजर के सामने, प्रत्यक्ष १४०)। ३ एक दिन का उपवास (संबोध जाणेजा (प्राचा) । वकृ. समणुजाणमाण (गा ३७०; सुपा १५०; महा)। देखो ५८) । ४ वि. उपशमन करनेवाला, दबाने (आचा)। समच्छ । वाला (उप ७८२, पंचा ४, २६; सुर ४, समणुजाय वि [समनुजात] उत्पन्न, संजात समक्खाय । वि [समाख्यात ] उक्त, २३१) (पउम १००, २४; सुपा ५७८)। समक्खिअ कथित (उप २११ टी ६६४, समण देखो स-मण =स-मनस् । समणुनाय वि [समनुज्ञात] अनुमत, जी २५ श्रु १३३)। समण देखो सवण = श्रवण (पउम १७, अनुमोदित (पउम ८० ७)। समगं देखो समयं = समकम् (पव २३२; १०७ राज)। ससणुन्न वि [समनुज्ञ] अनुमोदन-कर्ता सुपा, ८७; सण) समण पुं[समण सर्वत्र समान प्रवृत्तिवाला, (प्राचा १, १, १, ५)। समग्ग वि[समग्र] १ सकल, समस्त (सुपा मुनि, साधु (अणु)। समणुन्न वि [समनोज्ञ] १ सुन्दर, मनोहर । ६६)। २ युक्त, सहित (पएह १, ३-पत्र २ सुन्दर वेष आदिवाला (प्राचा १, ८, १, समण पुं[श्रमण] १ भगवान महावीर ४४. कुप्र ७) १)। ३ संविग्न, संवेग-युक्त मुनि (पाचा १, (प्राचा २, १५, ३)। २ पुंस्त्री, निर्ग्रन्थ मुनि समग्गल वि [समर्गल] अत्यधिक (सिरि ८, २, ६)। ४ समान समाचारीवालासाधु, यति, भिक्षु, संन्यासी, तापस; 'निग्गंथ८६७; सुपा ३६७, ४२०)। सांभोगिक मुनि (ठा ३, ३-पत्र १३६% सक्कतावसगेरुयप्राजीवं पंचहा समणा' (पव समग्गल (अप) देखो समग्ग (पिंग)। स्व १) ६४ अणुः प्राचा) उवाः कप्पः विपा १, १, समग्ध पि [समर्घ] सस्ता, अल्प मूल्यवाला धण २१; सुर १०, २२४)1 स्त्री. णी (भगः समणुन्ना स्त्री [समनुज्ञा] १ अनुमति, संमति (सुपा ४४५, ४४७ सम्मत्त १४१) गच्छ १, १५)। सीह पुं[सिंह] १ एक २ अधिकार-प्रदान (ठा ३,३-पत्र १३९)। समञ्चण न [समर्चन] पूजन, पूजा (सुपा६) जैन मुनि जो दूसरे बलदेव के पूर्वभवीय गुरू समणुन्नाय देखो समणुनाय (आचा २,१, समच्चिअ वि [समर्चित] पूजित (पउम थे (पउम २०, १६२)। २ श्रेष्ठ मुनि (पएह १०, ४)। २,५-पत्र १४८) वासग, वासय समणुपत्त वि [समनुप्राप्त संप्राप्त (सुर १, . समच्छ प्रक[सम् + आस ] १ बैठना। पुत्री [ोपासक] श्रावक, जैन गृहस्थ । १८३, १०, १२० सिरि ४३०, महा)। २ सक. अवलम्बन करना । ३ अधीन रखना। (उवा)। स्त्री. सिया (उवाः रणाया १, समणुबद्ध वि[समनुबद्ध] निरन्तर रूप से वकृ. समच्छेत (उप ६६८ टी) १४-पत्र १८७)। व्याप्त (गाया १, ३--पत्र ६१; प्रौप; उव)। समच्छ वि [समक्ष] प्रत्यक्ष का विषय | समणतरु (अप) न [समनन्तरम्] अनन्तर, समणुभूअ वि [समनुभूत] अच्छी तरह (संक्षि १५)। देखो समक्ख ।। बाद में, पीछे (सरण) । जिसका अनुभव किया गया हो वह (वै ६२) १०६ For Personal & Private Use Only Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६६ समणुवत्त वि[समनुवृत्त] संवृत्त, संजात ( पउम १०, १) 1 3 समणुवास सक [ समजु + वासय ] १ वासना युक करना । २ सिद्ध करना। ३ परिपालन करना प्रामवा जासि' (प्राचा १, २, १, ५, १, ४, ४; १, ५, ४, ५ १, ६, १, ६) समणुमट्ठ वि[समनुशिष्ट ] श्रनुज्ञात, अनुमत ( प्राचा २, ९, १०, ४ ) 1समणुसास सक [ समनु + शासय ] सम्यग् सीख देना अच्छी तरह सिखाना । समाति ( १, १४, १०) समणुसिद्धवि [समनुशिष्ट ] अच्छी तरह शिक्षित (ब) देखो समझाया २ १, १०, ४) । - समणुडो एक [ समनु+भू] अनुभव करना | समगुहो (वव १) 1 समण्णाय वि[समन्यागत ] १ समन्वित, सहित, छत्तीसगुणसमरालागएण' (गच्छ १, १२) । २ संप्राप्त (राय) समण्णाहार [समम्बादार] समागमन (राज) । समणिय देखो समन्निय (काल) 1 समति देसम खाया ११-पत्र ६३ ) । समतुरंग सक [ समतुरंगाय ] समान श्रश्व की तरह आपस में प्रारोहण करना, आश्लेष करना । चकृ. समतुरंगमाण (गाया १, ८-पत्र १३४ व १७४ टी) । समतपि [ समस्त ] संपूर्ण (१ ४ - पत्र ६८ ) २ सकल, सत्र ( बिसे ४७२) । ३ समासयुक्त ४ मिलित, मिला हुआ (हे २, ४५; षड् ) । समय [वि] [समाप्त] पूर्ण पूरा हो चुका हो वह (उवा श्रौष) समांत [समाप्त] पूर्णता (उप १४२; ७२८ टी; विसे ४१५ पव- गाथा ६५० स ५३; सुपा २५३ ४३५) । समत्थ सक [ सम् + अर्थ ] १ साबित करना, सिद्ध करना । २ पुष्ट करना । ३ पूर्ण करना । कर्म. समत्थीइ ( स १६५ ); ~ पाइअसहमण्णवो 'उहो त्ति समत्थिजइ दाहेण सरोरुहाण हेमंतो । चरिएहि राज जो संगोवंतोवि प्रवारणं' (गा ७३० ) । समत्थ देखो समत्त समस्त ( से ४, २८ सुर १, १८१३१६, ५५) समत्य वि[समर्थ शक्त, शक्तिमान् (पात्र: ठा ४, ४ - पत्र २८३ प्रासू २३३ १८२; औप ) । समस्थिवि [समर्थिन् ] प्रार्थक, चाहनेवाला (१५१) समस्थिवि [ समर्थित ] १ पूर्ण पूरा दिया हुआ (कु ११४ गुप २६६) पुष्ट किया हुआ (सुर १६, १५) । ३ प्रमाणित साबित किया हुआ (बग्न १२१) समद्धासिय वि[समाध्यासित] प्रविष्ठित ( स ३५ ६७६ ) । | समद्धि देखो समिद्धि (गा ४२६) । समन्नागय देखो समण्णागय (प्रोघ ७९४ खाया १, १ -पत्र ६४० श्रपः महाः ठा ३, १--पत्र ११७) । | समन्नि सक [समनु + इ] १ अनुसरण करना । २ श्रक. एकत्रित होना, मिलना । रामन्ने, समन्निति (विसे २५१७० प समन्निअ वि [समन्वित] युक्त, सहित (हे ३, ४६; सुर ३, ३० ४, २२० गउड) 1 समन्ने देखो समन्नि समप्प सक [ सम् + अर्पय] अर्पण करना, दान करना, देना। समप्पेइ (महा) । चकृ. समप्पंत, समप्यअंत, समप्र्पत (नाट— मृच्छ १०५: रत्ना ५५; पउम ७३, १४ ) । संकृ. समपि, समपिऊण (नाट - मृच्छ ३१५; महा) । हेकृ. समप्पि (महा) । कृ. समप्पियव्व (सुपा २५६) । समय देखो समाव सम् + आप् I समपणन [समर्पण] अपंण प्रदान (सुर ७, २२: कुप्र १३ वज्जा ६६ ) । - समप्पणया स्त्री [समर्पणा ] ऊपर देखो (उप १७१) 1 = For Personal & Private Use Only समणुवत्त-समय समय[समर्पित] दिया हुआ (महा काल) । समब्भस सक [समभि + अस ] श्रभ्यास करना । समन्भसह (द्रव्य ४७ ) 1समब्भहिअ दि [ समभ्यधिक ] मत्यन्त अधिक (से १५, ८५) । समभास पुं [ समभ्यास ] निकट, पास ( प ३३, १७) । समभिडिय वि [] भिड़ा हुम्रा, लड़ा हुआ ( पउम ८६,४८ ) 1समभिआपण वि [ समभ्यापन्न ] संस आया हुआ (सूत्र १, ४,२,१४ ) समभिजान सक [समभि + ज्ञा] १ निर्णय करना । २ प्रतिज्ञा - निर्वाह करना । समभिजाशिया समभिवाणाहि (धाचा). समभिजानमाण (चाचा) - सममिव एक [ समभिद्र ] राम करना । समभिवंति (उत्त ३२, १०) | समभिधंस सक [समभि + ध्वंसय ] नष्ट करना । समभिधंसेज, समभिधंसेति (भग) । समभिपड सक [समभि + पत् ] आक्रमण करना। हेकृ. समभिपडित्तए (अंत २१ ) 1 ससभिभूअपि [समभिभूत] परा भूत (उया धर्मव ३४)। समभिरूढ [[समभिरूढ ] नय- विशेष (ठा समभिलोअ सक [समभि + लोक् ] देखना, ७--पत्र ३६० ) । निरीक्षण करना । समभिलोएड (भग १५पत्र ६७० ) । वकृ. समभिलोएमाण ( पण १७- पत्र ५१८ ) । समभिलोइअ वि [समभिलोकित ] विलो - कित, दृष्ट (भग १५-पत्र ६७० ) ।. समय श्रक [ सम् +अय ] समुदित होना, एकत्रित होना 'सम्व साओ नया विरुद्धावि' ( विसे २२६७) । समय पुं [समय ] १ काल, वक्त, अवसर (माचा सूपनि २६ कुमा) २ काल-विशेष सर्व-सूक्ष्म काल, जिसका दूसरा हिस्सा न हो सके ऐसा सूक्ष्म काल (अणु इक कम्म २, २३; २४; ३० ) । ३ मत दर्शन ( प्राप) । ४ सिद्धान्त, शास्त्र भागम (प्राचा पिंड ६; Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय - समस्सिअ सूमनि २६; कुमाः दं २२) । ५ पदार्थ, चीज, बस्तु सम्म १११४) ६, इशारा (सूनि २६ पिंड ६; प्रापः से १, १६) । ७ समीचीन परिणति, सुन्दर परि णाम ८ श्राचार, रिवाज एकवाक्यता (सुमनि २६) १० सामायिक, संयम- विशेष । (बिसे १४२१), "खेत न ["क्षेत्र] कालोपलक्षित भूमि, मनुष्य-लोक, मनुष्य-क्षेत्र (भगः सम ६८ ) । ज्ज, ण, न वि ['ज्ञ] समय का जानकार (घण ३६; गा ४०५३ पि २७६) । समय देखो समय = स-मद । समय [समकम् ] १ युगपत्, एक समयं साथ ( २१६ से १९६६ B १९६७: सुर १, ५: महा; गउड ११०६ ) । २ सह, साथ (गा ६१) । समया देखो सम-या । समयाध [समया] पास, नजदीक (गुपा १८८ ) 1. समर तक [स्मृ] याद करना. समरणीय ( चठ २७; नाट, शकु ६ ), समरियव्व (रमण २८ ) 1 पाइअसद्दमत्रो समलंकर सक [समलम् + कृ] विभूषित करना । समलंकरे ( श्राचा २, १५, ५) । संकृ. समलंकरेत्ता (प्राचा २, १५, ५) । समलंकार सक [समलम् + कारय ] विभूषित करना, विभूषा युक्त करना । समकारे (श्री) समलंकारेशा । संकृ. ( श्रौष) 1 समलद्ध ( श्रप) वि [ समालब्ध] विलिप्त (भवि)। समल्लिअ श्रक [ समा + ली ] १ संबद्ध होना। २ लीन होना। ३ सक. प्रश्रय करना । समल्लियइ ( श्राक ४७) । वकृ. समल्लिअंत (से १२, १०) 1 समझीण वि[समालीन] अच्छी तरह जीन (औप ) 1 सकवण वि[समवतीर्ण] भवती (मुपा २२) । समवद्वाण न [समयस्थान ] सम्यग् मनस्थिति ( अझ १४७) । ~ समवह्नि श्री [समवस्थिति] ऊपर देख 'कोई बिति मुखीणं सहावसमवट्टिई हवे चरणं' (अज्भ १४६) । समर देखो सबर (हे १, २५८ षड् ) । स्त्री. समवत्ति देखो समवन्ति = सम-वर्तिन् । 'री (कुमा) 1 समय देखो समवे । समवसर देखो (प्रामा) । ~ समवसरण देखो समोसरण ( सूनि ११६ ) । समवसरिअ देखो समोसरिअ = समवसृत (धर्मनि ३० ) । समवसेअ वि [समवसेय ] जानने योग्य, ज्ञातव्य (सा ४) । समर पुंन [समर] युद्ध लड़ाई १२ ४७; उप ७२८ टी; कुमा) । २ छन्द - विशेष (पिंग) लोहकारशाला (उत्त० अध्य १ गा० २६) । [दित्य ] श्रवन्तीदेश का एक राजा ( स ५) । समर वि[स्मार] कामदेव संबन्धी, कामदेव का ( मन्दिर प्रादि ) ( उप ४५४) । समरवि[स्मर्तृ] स्मरण कर्ता (सम समवाइ वि [ समवायिन् ] समवाय संबन्ध का समवाय संबन्धी (विसे १९२६; धर्मसं ४८७) । समवाय [समवाय ] १ संबन्ध-विशेष, गुण-गुणी आदि का संबन्ध (विसे २१०८ ) । २ संबन्ध (पउम ३६, २५ घर्मंसं ४८१ विवे ११६) । ३ समूह, समुदाय ( सू २, १२२४०० २७० हि २० चारा २ विसे ३५९३ टी) । ४ एकत्र १५) 1 समरण न [स्मरण] स्मृति, याद (धर्मवि २०, श्राप ६८ ) । समरसद्दय पुं [दे] समान उम्रवाला (दे २२) समराइअवि [] पिष्ट, पिसा हुआ (षड् ) । समरी देखो समर = शबर। समरे देखो समर (ठा १-पत्र ४४४ ) - करना 'कार्ड तो dena (विसे ८६७ २५४६) । ५ जैन अंग-ग्रंथ विशेष, चौथा अंग-ग्रंथ (सम १) । समवे श्रक [समय + इ] १ शामिल होना । २ संद्ध होगा। समवेद (शी) (मोह १३), समयति (विसे २१०६) - समवेद (शौ) वि [समवेत ] समुदित एकत्रित (मोह ७८ ) | दे ८, १३ सुर १, ८ वज्जा ३२ १५४; विवे ४५; सम्मत्त १४५ कुप्र ३३४ ) । समस्सअ सक [समा + श्रि] श्राश्रय करना । समस्सइ ( पि ४७३) । संकृ. समस्सइअ (पि ४७३) - समरसस क [समा + श्वस् ] श्राश्वासन प्राप्त करना, सान्त्वना मिलना। समस्सराम (शी) (पि ४७१) देऊ. समस्तसि (शी) (नाट, शत्रु १११ ) 1 समोसर = समव + सृ | समस्ससिद (शौ ) देखो समासत्थ (नाटमृच्छ २५८)। समस्सा श्री [समस्या ] बाकी का भाग जोड़ने के लिए दिया जाता श्लोक चरण या पद आदि (सिरि ६६८ कुप्र २७ सुपा १५५) समस्सास सक [समा + श्वासय] सान्त्वना करना, दिलासा देना। समस्सासदि (शी) (नाट) कु. समस्साअंत (अभि २२२) । हे. समस्सासिदं (शी) (नाट मृच्छ८१) । समस्सास पुं [समाश्वास] प्राश्वासन (विक्र ३५) । For Personal & Private Use Only समसम क [ समसमाय ] 'सम' 'सम' आवाज करना । वकृ. समसमंत (भवि ) समसरिस देखो सम-सरिस 1 समसाण देखो मसाण; 'समसाणे सुन्नघरे देवले धावितं वस' (सुपा ४०) 1 | समसीस वि [दे] १ सदृश, तुल्य । २ निर्भर (दे ८, ५० ) । ३ न स्पर्धा (से ३, ८) । समसीसि स्त्री [दे] स्पर्धा, बराबरी समसीसी (सुपा ७; वज्जा २४; कप्पू समस्सासण न [समाश्वासन] ऊपर देखो (मे ७५) । समस्सि वि [समाश्रित] माध्य में स्थित, श्राश्रित (स ६३५ उप पृ ४७ सुर १३, २०४; महा) - Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६८ पाइअसहमहण्णवो समहिअ-समाणिआ समहिअ वि [समधिक] विशेष ज्यादा (प्रासू समाउट्ट वि[समान ] विनम्र (वव १) समागूढ विमागूढ] समाश्लिष्ट प्रालिंगित १७८ महा. कुमा; सुर ४,१६६, सण) समाउत्त विसमायक्ता यक्त. सहित (प्रौपः । (पउम ३१, १२२) । सम गय वि[समधिगत १ प्राप्त, मिला सुपा ३०१)। समाज पु[समाज] समूह, संघात (धर्मवि हुपा । र ज्ञात (सण) समाउल वि सभाकुल] १ समिश्र, मिश्रित १२३) । देखो समाय = समाज । समाहटु सक [ समधि + स्था] काबू में (राय) । २ व्याप्त (सुपा ३०५)। ३ प्राकुल, समाजुत्त न समायुक्त] संयोजन, जोड़ना रखना, अधीन रखना। कवकृ. समहिट्टिव्याकुल (हे ४, ४४४, सुर ६, १७४) । (राय ४०)। जमाण (राय १३२) समाढत्त वि समारब्ध] १ प्रारब्ध, जिसका समाउलिअ वि [समाकुलित] व्याकुल बना समहिद्वाउ वि[समधिष्टा] अध्यक्ष, मुखी, प्रारम्भ किया गया हो वह (काल; पि २२३; हुमा (स ६६) २८६)। २ जिसने प्रारम्भ किया हो वहा अधिपति (प्राचा २, २, ३, ३, २, ७, १, समाएस पुसमादेश १ प्राज्ञा, हुकुम २) ‘एवं भरिणउं समाढत्तो (सुर १, ६६) (उप १०२१ टो)। २ विवाह आदि के समहि दुअ वि[समधिष्ठित] आश्रित (उप | | समाण सक [भुज् ] भोजन करना, उपलक्ष में किए हुए जोमन में बचा हुआ ७२८ टीः सुपा २०६) वह खाद्य जिसको निर्ग्रन्थों में बाँटने का खाना । समाणइ (हे ४, ११०; कुमा) समाहाडि ढय देखो स-महिड्ढेिय = स. संकल्प किया गया हो (पिंड २२६; २३०) समाण सक [सम् + आप्] समाप्त करना, महद्धिक । पूरा करना। समारणइ (हे ४, १४२), समाएसण न [समादेशन] आज्ञा, हुकुम समहिपदिय वि [समभिनन्दित] पान समाणेमि (स ३७६) (भवि)1. न्दित खुशी किया हुआ (उप ५३० टो)। समाण वि [समान] १ सदृश, तुल्य, सरिखा समाओग समायोग] स्थिरता (तंदु । समहिल वि [समखिल] सकल, समस्त (कप्प)। २ मान-सहित, अहंकारी (से ३, १४) (गउड) ४६) । ३ पुंन. एक देव-विमान (सम ३५) समाओसिय वि[समातोषित] संतुष्ट किया समहुत्त वि [दे] संमुख, अभिमुख (अणु हुमा (भवि) समाग वि [सत् ] विद्यमान, होता हुआ २२२)। (उवा; विपा १, २-पत्र ३४)। स्त्री.णी समाकरिस सक [समा + कृष] खींचना । समा स्त्री [समा] १ वर्ष, बारह मास का (भग; कप्प)।हेकृ. समाकरिसिउं (पि ५७५) । समय (जी ४१)। २ काल, समय (सम समाग देखो संमाण = संमान (से ३, ४६) 10 समाकरिसण न [समाकर्षण ] खींचाव ६७ ठा २,१--पत्र ४७; कप्प)। समाणअ वि[समापक] समाप्त करनेवाला (सुपा ४)। समाअम देखो समागम (अभि २०२; नाट. (से ३, ४६)। | समाकार सक [समा + कारय् ] अाह्वान | समाणण न [भोजन] भक्षण, खानाः 'तंबोलमालती ३२) समाइन्छ सक[समा + गम् ] १ सामने करना, बुलाना । संकृ. समाकारिय (सम्मत्त समागणपज्जाउलवयणयाए' (स ७२)। भाना । २ समादर करना, सत्कार करना। २२६)। समाणत्त वि [समाज्ञप्त] जिसको हुकुम संकृ. समाइच्छिऊण (महा)। समागच्छ देखो समागम = समा + गम् । दिया गया हो वह (महा)। समाइच्छिय वि [समागत] पाहत, सत्कृत समागत देखो समागय (सुर २, ८०)। | समाणिअ देखो संमाणिय (से ३, २४)। (स ३७२)। समागम सक [समा + गम् ] १ सामने समाणिअ वि [समानीत] जो लाया गया समाइट्ठ वि [समादिष्ट] फरमाया हुआ पाना। २ प्रागमन करना। ३ जानना। हो वह, मानीत (महा सुपा ५०५)। (महा)। समागच्छद ( महा )। भवि. समागमिस्सइ समाइड्ढ वि [समाविद्ध] वेध किया हुआ (पि ५२३)। संकू समागच्छिअ (पि समाणिअ वि [समाप्त] पूरा किया हुआ ५८१), "विन्नारोण समागम्म (उत्त २३, (से ६, ६२; गाया १,८-पत्र १३३; स ३७१: कुमा ६, ६५) समा वि [समाकीर्ण] व्याप्त (प्रौप; -सुर ४, २४१) । समाणिअ वि [दे] म्यान किया हुआ, म्यान समागम पुं[समा + गम्] १ संयोग, समाइय। वि [समाचीण अच्छी तरह संबन्ध (गउड; महा)। २ प्राप्ति (सूम १, में डाला हुमाः 'विलिएरण तक्खणं चेव समान आचरित (भगः उप ८१३; ७, ३०) समारिणय मंडलग्गं' (स २४२)। विचार ८६५)। समागमण न [समागमन] ऊपर देखो समाणिअ विभुक्त] भक्षित, खाया हुआ समापक [ समा+वृत्] नम्र होना, (महा)। । (स ३१५) नमना, अधीन होना । भूका. समाउट्टिसु (सूत्र समागय वि [सनागन] आया हुआ (पि समाणिआ स्त्री [समानिका] छन्द-विशेष २, १, १८)। (पिंग) For Personal & Private Use Only Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाणी- समालोड समागी सक [समा + नी ] ले थाना । समाणे (विसे १३२५) । समाणी देखो समाग = सत् I समाणु (च) देखो समं (हे ४ ४१० कुमा) । जलाना, समादह सक [ समा + दह ] सुलगाना । वकु. समादहमाण ( श्राचा १. ६, २, १४) 1 v समादा सक [समा + दा] ग्रहण करना । संकृ. समादाय (प्राचा १, २, ६, ३) । समादाण [समाधान] ग्रहण (राज) समादि वि[समादिष्ट] फरमाया हुआ ( मोह ८ ) । समादिस सक [समा + दिश ] आज्ञा करना समादिसिअ (नाट) - समादेस देखो समाएस (नाट मालती ४६)। समावारणया बी [समाधारणा ] समान भाव से स्थापन (उत्त २६, १) समाधि देखो समाहि (ठा १० – पत्र ४७३) । समापणा श्री [समापना ] समाप्ति (विसे ३५६५) । समाभरि वि[समाभरित ] श्राभरण-युक्त (प्रणु २५३) । समाय [समाज ] १ सभा, परिषत् ( उत्त २०, १७२४) २ पशु-भिन्न अन्यों का समूह, संघात । ३ हाथी ( षड् ) । समाय[समाय] सामायिक, संयम- विशेष (विसे १४२१) । समाय देखो समवायः 'एते चैव य दोसा पूरिससमाए व इत्यियापि (सूपनि ६३ राज) । - समायं देखो समयं (भग २६, १ - पत्र ४०) 1 समायण्ण सक [ समा + कर्णय् ] सुनना । संकृ. समायणिऊण (महा) । समायगणन[समाकर्णन] श्रवण (गउड ) । समावणिय वि[समाकर्णित ] सुना हुआ समायय सक[समा + द] ग्रहण करना, स्वीकार करना । समाययंति (उत्त ४, २) । समायय देखो समागय (भवि ) । - पाइरमणको समायर सक [समा + चर] प्राचरण करना । समायर (उवा उव), समायरेसि ( निसा ५) कृ. समायरियच (वा) 1 समावरिय वि[समाचरित] पारित (महा) । समारुहण न [ समारोहण ] श्रारोहण, चढ़ना (सुवा २५३) । समारूढ वि[समारूढ] चढ़ा हुआ (महा) | समायाय वि[समायात ] समागत ( उप समारोव सक [ समा + रोपय ] चढ़ाना। ७२८ टी) । संकृ. समारोविय (पि ५६० ) । समाचार [ समाचार ] चाचरण (विषा समालंकार देखी समघर सम+ ? १, १ -पत्र १२) । २ सदाचार (अणु समालंके कारय समासंकारेड सम १०२) वि. भारता करनेवाला (दि (श्रौप आचा २, १५, १८) । संकृ. समा५२) । सरेचा समाकेचा पाया २ = 2 समार सक [समा + रचय ] १ ठीक (उड समाया देखो समादा । (धाचा १, २, १, ४) । (1 संक्रु. . समायाय ८६९ समारुह सक [समा + रुह ] श्रारोहण करना, चढ़ना । समारुहइ (भवि पि ४८२) । समारता ११)संह समारुहिय १५, १८ ) 1 समालय [समालम्ब] थालम्बन, महारा (संबोध ४० ) 1 करना, दुरुस्त करना। २ करना, बनाना । समारइ (हे ४, ९५: महा) । भूका. समारीग्र (कुमा) । वकृ. समारंत ( पउम ६८, ४० ) । समार सक [ समा+रभू ] प्रारंभ करना । समारइ (षड् ) 1 समार वि [ समारचित ] बनाया हुआ, 'श्रद्धसमारम्मि जरकुडीरम्मि' (सुर २, ६९ ) । समारंभ सक [ समा+रभ् ] १ प्रारम्भ करना । २ हिंसा करना समारंभेज्जा (चाचा) वह समारंभंत समारंभमान (चाचा) प्रयो, समारंभावेगा (प्राचा) । - समारंभ पुं [समारम्भ ] १ पर-परिताप, हिंसा ( श्राचाः परह १, १ -पत्र ५३ श्रा ७) परितानकरी भरे समारंभ संध ४१) । २ प्रारंभ (कप्पू ) । समारचणन [समारचन] १ ठीक करना, S दुरुस्त करना 'कारेइ जिएहराणं समारणं जुडिया' (पत्रम ११ ३२चायक, कर्ता (कुमा)। समारद्ध देखो समाढत्त (सुर १, १ स ७६४) समालंभण न [समालम्भन] अलंकरण, विभूषा करना; 'मंगलसमाल भरणारण विर एमि' ( श्रभि १२७) | देखो समालभण । समालत्त वि[समालपित ] उक्त कथित; 'पवणंजओ समालत्तो' (पउम १५,८८) समालमण न [ समालभन ] विलेपन, अंगराग (सुर १६, १४) । देखो समालंभण समालव सक [समा + लपू ] विस्तार से कहना। समालवेज्जा (सूत्र १, १४० २४) । समापणी श्री[समालपनी] बाह्य-विशेष, 'वेणुवीणा समालवणिरवसुंदरं झल्लरिघोससंमीखरतर (गुपा ५० ) 1 समालविय देखो समालत्त (भवि । समालह सक [ समा + लभ् ] १ विलेपन करना । २ विभूषा करना, अलंकार पहनना । सं समाह (घ) (भदि । समाला देखो समालभण (सुपा १०८ दस ३, १ टी; नाट - शत्रु ७३) । समाला [समालाप] बातचीत संभाषण ( पउम ३०, ३) । समा[समावि] पालित भारत (भषि)। समारण समारंभ ? देखो समारंभ = समा + रम् । समारह) समारभे, रमारभेजा, समारभेजा, समार (सूत्र १, ८, ५; पि ४३०; षड् ) संकृ. समारम्भ (पि ५६० ) 1समारिय वि[समारचित] दुरुस्त किया समालोढ वि [ समाश्लिष्ट ] ऊपर देखो हुधा (कुम ३३४) । (भवि For Personal & Private Use Only Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७० पाइअसद्दमहण्णवो समालोच-समाहि समालोच पुं[समालोच विचार, विमर्श (पएह २, २-पत्र ११४अणु; विसे समाहर सक [सभा + ह] ग्रहण करना। (उप ३६६)। १००३)। ४ समीप (दश वै० वृद्ध० पत्र)।- २ एकत्रित करना। संकृ. समाहटुटु (सूप समालोयण न [समालोचन] सामान्य अर्थ समासंग पृ [समासङ्ग] संयोग (गा १, ८, २६; १, १०, १५), समाहरिवि का दर्शन (विसे २७६)। ६६१?)। (अप) (भवि)। समाव सक [ सम् + आप्] पूरा करना।। | समासंगय वि [समासंगत] संगत, सम्बद्ध समाहविअ वि [समाहूत] माहुत, बुलाया समावेइ (हे ४,१४२)। कर्म, समप्पइ (हे। (रंभा) | हुमा (धर्मवि ६०) ४, ४२२)। समासज देखो समासाद। समाहाण न [समाधान] १ समाधि (उप समाजिय वि [समावजित] प्रसन्न किया समासत्थ वि [समाश्वस्त] १ प्राश्वासन ३२० टी)। २ औत्सुक्य-निवृत्ति रूप स्वास्थ्य, प्राप्त (पउम १८, २८ से १२, ३७ सुख हुआ (महा) २, ६)। २ स्वस्थ बना हुआ (स १२०% मानसिक शान्ति, चित्त-स्वस्थता (अणु १३६ समावड अक [समा + पत्] १ संमुख सुपा ५४८)। सुर ६,६६)। पाकर पड़ना, गिरना । २ लगना। ३ सम्बन्ध समासय पुं[समाश्रय] पाश्रय, स्थान (पउम समाहार पुं[समाहार] १ समूह, 'छद्दव्वकरना । समावडइ (भवि) ७, १६८ ४२, ३५)। समाहारो भाविजइ एस जियलोमो' (श्रु समावडण न [समापतन] पड़ना, गिरना समासव सक [समा + स्त्र ] पाना, ११५)। 'दंद द्वन्द्व] व्याकरण-प्रसिद्ध (गउड)। प्रागमन करना । समासदि (द्रव्य ३१) । समास-विशेष (चेइय ६६०)।समावडिय वि [समापतित] १ संमुख समासस देखो समस्सस । कृ. समाससि- समाहारा स्त्री [समाहारा] १ दक्षिण रुचक आकर गिरा हुआ (सुर २, ६; सुपा २०३)। अव्व (से ११,६५)। पर रहनेवाली एक दिक्कुमारी देवी (ठा २ बद्ध (प्रौप)। ३ जो होने लगा हो वह; समासाद (शौ) सक [ समा + सादय 1 -पत्र ४३६; इक)। २ पक्ष की बारहवीं 'समावडियं जुद्धं' (स ३८३; महा)। प्राप्त करना । समासादेहि (स्वप्न ३७) । कृ. रात्रि (सुज्ज १०, १४)। समावण्ण वि [समापन्न] संप्राप्त (सम समासादइदव्य (मा ३६)। संकृ. समा समाहि पुंस्त्री [समाधि] १ चित की १३४ भग)। सज्ज, समासिज्ज (प्राचा १, ८,८०१ स्वस्थता, मनोदुःख का प्रभाव (सम ३७, समावत्ति स्त्री [समावाप्ति] समाप्ति, पूर्णता पि २१)। उत्त १६, १; सुख १६, १; चेइय ७७७)। समासादिअ वि समासादित] प्राप्त (दस 'ते य समावत्तीए विहरता' (सुख २, ७)। २ स्वस्थताः 'साहाहि रुक्खो लभते समाहि १, १ टी)। समावद सक [समा + वद्] बोलना, कहना। छिन्नाहि सहाहि तमेव खाणु" (उत्त १४, समासासिय वि [समाश्वासित] जिसको समावदेजा (प्राचा १, १५, ५४)। २६)। ३ धर्म। ४ शुभ ध्यान, चित्त की प्राश्वासन दिया गया हो वह (महा)। एकाग्रता-रूप ध्यानावस्था (सूत्र १, १०, १; समावन्न देखो समावण्ण (स ४७६; उवा; समासि सक [समा + थि] सम्यग् पाश्रय सुपा ८६)। ५ समता, राग मादि का प्रभाव ठा २,१-पत्र ३८ दस ५, २, २)। करना। कर्म. समासिज्जइ, समासिज्जति (ठा १० टी-पत्र ४७४)। ६ श्रुतज्ञान। समावय देखो समावद। समावइजा (प्राचा | (णंदि २२६)। ७ चारित्र, संयमानुष्ठान (ठा ४, १-पत्र २, १५, ५) समासिज्ज देखो समासाद। १६५)। ८ पुं. भरतक्षेत्र के सतरहवें भावी समावय देखो समावड । वकृ. समावयंत समासिय वि[समाश्रित पाश्रय-प्राप्त (पउम (दस ६, ३, ८)। तीर्थकर (सम १५४ पव ४६), पडिमा स्त्री ८०, ६४)। [प्रतिमा] समाधि-विषयक व्रत-विशेष (ठा समाविअ वि [समापित पूर्ण किया हुआ समासिय वि समासित उपवेशित, बैठाया ४, १)। पाण न [पान] शक्कर आदि (गा ६१; दे ७, ४५)। हुमा (भवि)। का पानी (भत्त ४०)। मरण न [मरण समास प्रक[सम् + आस ] १ बैठना। समासीण वि समासीन] बैठा हुमा समाधि-युक्त मौत (पडि)। २ रहना। समासइ (भवि)। (महा)। समाहिअ वि [समाहित] १ समाधि-युक्त समास सक [ समा+ अस.] अच्छी तरह समाटु देखो समाहर। (सूत्र १, २, २, ४ सूअनि १०६, उत्त १६, फेंकना । कर्म. समासिज्जंति (णंदि २२६)। समाहड वि [समाहृत] १ विशुद्ध, निर्मल; १५; पउम १०, २४ प्रौपः महा)। २ अच्छी समास पू[समास] १ संक्षेप, संकोच (जीवस __ 'असमाहडाए लेस्साए' (प्राचा २, १, ३, ६)। तरह व्यवस्थापित । ३ उपशमित (भाचा १, १; जी २१)। २ सामायिक, संयम-विशेष २ स्वीकृत (राज)। ८, ६, ३)। ४ समापित (विसे ३५६३) । ५ (विसे २७६५)। ३ व्याकरण-प्रसिद्ध एक समाहय वि [समाहत] माघात-प्राप्त, माहत शोभन, सुन्दर । ६ मबीभत्स । ७ निर्दोष प्रक्रिया, अनेक पदों के मेल करने की रीति । (प्रौपः सुर ४, १२७; सण)। For Personal & Private Use Only Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहिअ-समीहा पाइअसहमहण्णवो समाहिअ वि [समाहृत] गृहीत (प्राचा १, समिआ स्त्री. अ. ऊपर देखो (भग २, ५-पत्र समिद्ध वि[समृद्ध] १ अतिशय संपत्तिवाला | १४०; आचा १, ५, ५, ४), 'समियाए' (प्रौपः रणाया १, १ टी-पत्र १)। २ वृद्ध, समाहिअ वि [समाख्यात] सम्यग् कथित (प्राचा १, ५, ५, ४)। बढ़ा हुया (प्रासू १३)।(सूत्र १, ६, २६; आचा २, १६, ४)। समिआ स्त्री सिमिता] गेहूँ का आटा (णाया समिद्धि स्त्री [समृद्धि] १ अतिशय संपत्ति । समाहुत्त (अप) नीचे देखो (भवि)। .१, ८-पत्र १३२; सुख ४, ५) । २ वृद्धि (हे १, ४४ षड्; कुमाः स्वप्न ६५; समाहअ वि समाहत] बुलाया हया, पाका- समिआ स्त्री समिका. शमिका. शमिता] प्रासू १२८) ल व लसमृद्धिवाला रित (साधं १०५) चमर आदि सब इन्द्रों की एक अभ्यन्तर (सुर १, ४६) समाहे सक [समा + धा] स्वस्थ करना, परिषद् (भग ३, १० टी-पत्र २०२)।- समिर पुं[समिर] पवन, वायु (सम्मत्त 'सुकन्झाणं समाहेइ' (संबोध ५१)। समिइ स्त्री [समिति] १ सम्यक् प्रवृत्ति, १५६) समि स्त्री [शमि देखो समी (अणुः पाप्र)। उपयोग-पूर्वक गमन-भाषण आदि क्रिया (सम समिरिई। देखो स-मिरिई असमरी समिरीय चिक ।समि १०; ओघभा ३; उवः उप ६०२; रयण ४)। वि [शमिन्, क] १ शम-युक्त। समिअ (२ पुं. साधु, मुनि (सुपा ४३६) २ सभा, परिषद्, 'नथि किर देवलोगेवि समिला स्त्री [शमिला, सम्या] युग-कोलक, ६४२; उप १४२ टी)। देवसमिईसु प्रोगासो' (विवे १३६ टीः तंदु गाड़ी की घोंसरो में दोनों प्रोर डाला जाता समिअ देखो संत - शान्त (सिरि ११०४)। २५ टी)। ३ युद्ध, लड़ाई (रयण ४)। ४ लकड़ी का खीला (उप पृ१३८; सुपा २५८)। निरन्तर मिलन (अणु ४२)।। समिल्ल देखो संमिल्ल । समिल्लइ (षड्) समिअ वि [समित] सम्यक् प्रवृत्ति करनेवाला, सावधान होकर गति प्रादि करनेवाला समिइ स्त्री [म्मृति] १ स्मरण । २ शास्त्र समिहा श्री [ समिध ] काष्ठ, लकड़ी (अंत (भगः उप ६०४; कप्पः प्रौपः उवः सून १, विशेषः मनुस्मृति प्रादि (सिरि ५५)। ११; पउम ११, ७६; पिंड ४४०)। १६, २पब ७२) । २ राग-आदि से रहित समी स्त्री [शमी] १ वृक्ष-विशेष, छोंकर का समिइम वि [समितिम] गेहूँ के आटे की (सूत्र १, ६, ४)। ३ उपपन्न (सुज ६)। पेड़ (सूम १, २,२, १६ टीः उप १०३१ बनी हुई मंडक आहि वस्तु (पिंड २०२)। ४ सम्यग् गत (सूत्र १, ६, ४)। ५ सन्तत टी, वजा १५०)। २ शिवा, छिमी, फली (ठा २,२-पत्र ५८)। ६ सम्यग व्यवस्थित समिजग पुं सामञ्जक] श्रीन्द्रिय जन्तु की (पाप) खल्लयन [दे] छोंकर की पत्ती. (सूम २, ५, ३१)। एक जाति (उत्त ३६, १३६)।. शमी वृक्ष का पत्र-पुट (सूम १, २, २, १६ समिअ वि[सम्यञ्च ] १ सम्यक् प्रवृत्ति- समिक्ख सक [सम् + ईक्ष् ] १ पालोचना टीः बृह १)। वाला (भग २, ५-पत्र १४०)। २ अच्छा, करना, गुणदोष-विचार करना । २ पर्यालोचन समीअ देखो समीय (नाट-मालवि ५)।सुन्दर, शोभन, समीचीन (सूम २, ५, ३१)। करना, चिन्तन करना । ३ अच्छी तरह समीकय वि [समीकृत समान किया हुआ, समिअ वि शिमित] शान्त किया हुआ देखना, निरीक्षण करना । समिक्खए (उत 'जं किचि प्रणगं तात तंपि समीकतं' (सूत्र (विसे २४५८; औप; पण्ह २, ५-पत्र २३, २५) । संकृ. समिक्ख (सूभ १, ६, १, ३, २, ८ गउड)। १४८; सरण)। ४; उत्त ६, २; महा; उपपं २५)।- समीचीण वि सिमीचीन] साधु, सुन्दर, समिअ वि [श्रमित] श्रम-युक्त (भग २, समिक्खा स्त्री [समीक्षा] पर्यालोचना (सूम शोभन (नाट-चैत ४७)। ५-पत्र १४०)। समीर सक[सम् + ईरय ] प्रेरणा करना। समिअ वि[समिक] सम, राग-द्वेष-रहितः समिक्खिअ वि [समीक्षित] पालोचित समीरए (पाचा १, ८, ८, १७)। 'समियभावे' (पएह २,५–पत्र १४६) (धर्मसं ११११) समिअ न [साम्य] समता, रागादि का समीर पुं[समीर] पवन, वायु(पान; गउड)। प्रभाव, सम-भाव (सूत्र १, १६, ५; आचा समिञ्च देखो समे। समारण पु[समीरण] ऊपर देखो (गउड)। समिच्छण न [समीक्षण] समीक्षा (भवि) सम.ल देखो संमील । समीलइ (षड् )।समिअ वि [संमित प्रमाणोपेत (णाया १, | समिच्छिय देखो समिक्खिअ (भवि) समीव वि [समीप] निकट, पास (पउम १-पत्र ६२; भग)। समिज्मा अक[सम् + इन्ध ] चारों तरफ ६६, ८ महा)। समिअ वि [सामित] गेहूँ के भाटा का बना से चमकना । समिज्झाइ (हे २, २८) । वकृ. समीह सक[सम + ईह ] चाहता, वांछा हुमा पक्वान्न-विशेष, मण्डक (पिंड २४५)। समिझन्त (कुमा ३, ४)। करना । वकृ. समीहमाण (उप ३२० टी)। समिअंभ[सम्यग ] अच्छी तरह (माचा; समिता देखो समिआ = समिका (ठा ३, समीहा बी [समीहा] इच्छा, वांछा (उप पएह २, ३-पत्र १२३)। २-पत्र १२७, भग ३, १०-पत्र ३०२) १०३१ टी) For Personal & Private Use Only Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७२ पाइअसहमहण्णवो समीहिय-समुजल समीहिय वि [समीहित] इष्ट, वांछित औपः परण ३६-पत्र ८३७, महा)। २ समुच्चिय वि [समुच्चित] एक क्रिया प्रादि (महा)। पक्षि-विशेष (जी २२; ठा ४, ४–पत्र में प्रन्वित (विसे ५७६)। समीहिय डेखो समिक्खिअ (वव ३)। २७१) समुच्छ सक [समुत् + छिद्] १ उन्मूलन समुआचार पुं [समुदाचार] समीचीन समुग्गद (शौ) वि [समुद्गत] समुद्भूत, | करना, उखाड़ना। २ दूर करना । समुच्छे पाचरण (दे २, ६४)। समुत्पन्न (नाट-मालती ११६) ।। (सूत्र १, २, २, १३)। भवि. समुच्छिहिति (सूम २, ५, ४)। संकृ. समुच्छित्ता समुइअ वि [समुचित] योग्य, उचित (से समुग्गम पुं[समुद्गगम] समुद्भव (नाट (सूम २,४,१०)।१३, ६८ महा)। रत्ना १३)। समुच्छइय वि [समवच्छादित 7 सतत समुइअ वि [समुदित] १ परिवृत, 'गुण- समुग्गिअ वि [दे] प्रतीक्षित (दे ८, १३)। प्राच्छादित (पउम ६३, ७)।समुइओं (उवः स २८६)। २ एकत्रित समुग्गिण वि [समुद्गीण] उगामा हुआ, समुच्छणी स्त्री [दे] संमार्जनी, झाडू (दे (विसे २६२४) । उत्तोलित, ऊपर उठाया हुअा (पउम १५, ८, १७) - समुइन्न वि [समुदीर्ण] उदय-प्राप्त (सुपा समुच्छल प्रक [समुत + शल्] १ ६१४)। समुग्गिर सक [समुद् + गृ] ऊपर उठाना, | उछलना, ऊपर उठना। २ विस्तीर्ण होना। समुईर देखो समुदीर । कम, ‘जह वुड्ढगाण | 1. उगामना । व. समुग्गिरंत (पउम ६५, समुच्छले (गच्छ १, १५) । वकृ. समुच्छलंत मोहो समुईरइ किनु तरुणाण' (गच्छ ३, (सुर २, २३६)। १५)। समुग्घडिअ वि [समुद्घाटित] खुला हुआ समुच्छलिअ वि [समुच्छलित] १ उछला समुक्कस देखो समुकरिस (उत्त २३, ८८)। (धर्मवि १५)। हुआ । २ विस्तीर्ण (गच्छ १, ६ महा)।" समुत्तिय वि [समुत्कतित] काट डाला समुग्धाइअ वि [समुद्घातित विनाशित समुच्छारण न [समुत्सारण] दूर करना हुमा (सुर १४, ४५)।(प्रासू १६५) (अभि ६०) समुक्करिस पुं [समुत्कर्ष] अतिशय उत्कर्ष समुग्घाय पुं[समुद्घात 1 कम-निर्जरा समुच्छिअ विदे] १ तोषित, संतुष्ट किया (उत्त २३, ८८ सुख २३, ८८)। विशेष, जिस समय प्रात्मा वेदना, कषाय हुमा । २ समारचित । ३ न. अंजलि-करण, समुक्कस सक [ समुत् + कृष्] १ उत्कृष्ट प्रादि से परिणत होता है उस समय वह नमन (द ८,४६)। बनाना । २ अक. गर्व करना। समुक्कसेन्जा अपने प्रदेशों को बाहर कर उन प्रदेशों से समुच्छिद (शौ) वि [समुच्छ्रित] प्रति(ठा ३, १-पत्र ११७), समुक्कसंति (प्रासू वेदनीय, कषाय आदि कर्मों के प्रदेशों की जो उन्नत (पि २८७)निर्जरा-विनाश करता है वहः ये समुद्घात समुच्छिन्न वि[समुच्छिन्न] क्षीण, समुक्किट्ठ वि [समुत्कृष्ट] उत्कृष्ट (ठा ३, सात हैं-वेदना, कषाय, मरण, वैक्रिय, विनष्ट (ठा ४, १ पत्र-१८७)।. १-पत्र ११७)। तैजस, प्राहारक और केवलिक (परण ३६-- | समुच्छंगिय वि [समुच्छ,ङ्गित] टोच पर समुक्कित्तण न [समुत्कीर्तन उच्चारण (सुपा पत्र ७६३; भगः प्रौप; विसे ३०५०)। चढ़ा हुआ (हम्मीर १५) । १४६)। समुग्घायण न [समुद्घातन] विनाश समुच्छुग वि [समुत्सुक] अति-उत्कण्ठित समुक्खअ वि [समुत्खात] उखाड़ा हुआ | (विसे ३०५०)। (सुर २, २१५, ४, १७७)। (गा २७६)। समुग्घुट वि [समुद्घोषित ] उद्घोषित समुच्छेद । पु[समुच्छेद सर्वथा विनाश समुक्खण सक [समुत् + खन्] उखाड़ना। (सुर ११, २६)। समुच्छे य (ठा ८-पत्र ४२५, राज) 1. समुक्खणइ (गा ६८४)। वकृ. समुक्खणंत 'वाइ वि [वादिन] पदार्थ को प्रतिक्षण समुघाय देखो समुग्घाय (दं ३)। (सुपा ५४१)। सर्वथा विनश्वर माननेवाला (ठा ८-पत्र समुक्खणण न [समुत्खनन] उन्मूलन, समुच्चय पुं[समुञ्चय] विशिष्ट राशि, ढग, ४२५; राज)उत्पाटन (कुप्र १७४) । समूह (भग ८, ६-पत्र ३६५; भवि)। समुज्जम प्रक [समुद + यम् ] प्रयत्न समुक्खित्त वि [समुत्क्षिप्त] उठा कर फेंका समुच्चर सक [समुत् + चर ] उच्चारण करना। वकृ. समुज्जमंत (पउम १०२, हुआ (से ११, ७२) करना, बोलना। समुच्चरइ (चेइय ६४१) । १७६; चेइय १५०)। समुक्खिव सक [ समुत् + क्षिप्] उठा | समुञ्चलिअ वि [समुच्चलित] चला हुआ समुज्जम सिमुद्यम] १ समीचीन उद्यम। कर फेंकना । समुक्खिवइ (पि ३१६; सण)। (उप पृ ४८; भवि)। २ वि. समीचीन उद्यमवाला (सिरि २४८)। समुग्ग पुं [-मुद्ग] १ डिब्बा, संपुट (सम समुच्चिण सक [समुत् + चि] इकट्ठा करना, समुज्जल वि [समुज्ज्वल] प्रत्यन्त उज्ज्वल ६३; अणु; णाया १, १७ टी धर्मवि १५; । संचय करना । समुच्चिरणइ (गा १०४)। । (गउड; भवि)। For Personal & Private Use Only Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७३ समुज्जाय-समुह पाइअसहमहावा समुजाय वि [समुद्यात] १ निर्गत (विसे होना । समुत्तरइ (गउड ६४१; १०६६)। | समुदाग सक [समुदानय ] भिक्षा के २६०६) । २ ऊँचा गया हुआ (कप्प)।- संकृ. समुत्तरेवि (अप) (भवि) लिए भ्रमण करना । संकृ. समुदाणेऊण समुज्जोअ अक [सद् + द्युत् ] चमकना, समुत्ताराविध वि [समुत्तारित] १ पार (पएह २, १-पत्र १०१)। प्रकाशना । वकृ. समुज्जोयंत (पउम ११६, पहुँचाया हुआ। २ कूप आदि से बाहर समुदाणिअ देखो सामुदाणिय (प्रौपः भग १७)। निकाला हुया (स १०२) ७, १-पत्र २६३)।समुज्जोअ ' [समुद्योत] प्रकाश, दीप्ति | समुत्तास सक समुत् + त्रासा ] अति- समुदागिणा स्त्री सामुदानिकी] क्रिया(सुपा ४०: महा)। शय भय उपजाना । समुत्तासेदि (शौ) (नाट- विशेष, समुदान-क्रिया (सूअनि १६८) । समुज्जोवय सक [समुद् + द्योतय 7 मालती ११६) । प्रकाशित करना। वकृ. समुज्जोवयंत (स समुदाय समुदाय समूह (अणु २७० समुन्तिण्ण वि [समवतोर्ण अवतीर्ण (पउम टो विसे ६२१)। ३४०) समुज्झ सक [सम् + उज्झ ] त्याग समुदाहिय वि [समुदाहृत] प्रतिपादित, समुत्तुंग वि [समुत्तुङ्ग] अति ऊँचा (भवि)। करना । संक. समुजिकरण (वै ८७)। कथित (उत्त ३६, २१)समुत्तुग वि [दे] गवित (गउड) समुट्ठा अक [समुत् + स्था] १ उठना । समुदिअ देखो समुइअ = समुदित (सूअनि समुत्थ वि [समुत्थ] उत्पन्न (स ४८ ठा २ प्रयत्न करना। ३ ग्रहण करना। ४ १२१ टी, सुर ७, ५६)। उत्पन्न होना। संकृ. समुट्ठिऊण (सण), ४.४ टी-पत्र २८२, सुर २, २२५ समुदिण्ण देखो समुइन्न (राज)। ___ सुपा ४७०)। समुद्राए, समुठ्ठिऊण (प्राचा १, २, २, समुदीर सक[समुद् + ईरय 1 १ प्रेरणा समुत्थइउं देखो समुत्थ्य = समुत् + स्थगय ।। १; १, २, ६, १; सण)। करना । २ कर्मों को खींच कर उदय में समुट्ठाइ वि[समुत्थायिन् ] सम्यग् यत्न | | समुत्यण न [समुत्थान] उत्पत्ति (णाया लाना, उदीरणा करना। वकृ. समुद्दी करनेवाला (प्राचा)।१, ६-पत्र १५७)। [?दी] रेमाण (णाया १, १७-पत्र समुट्ठाइश देखो समुद्विअ (स १२५)। समुत्यय सक [समुत् + स्थगय ] पाच्छा २२६)। संकृ. समुदोरिऊण (सम्यक्त्वो ___दन करना, ढकना । हेकृ. समुत्थइउं (गा समुहाग न [समुपस्थान] फिर से वास | ३६४ अ; पि ३०६)। करना । सुय न [ श्रुत] जैन शास्त्र-विशेष समुद पुं[समुद्र] १ सागर, जलधि (पामा समुत्थय वि [समवस्तृत आच्छादित (कुप्र (दि २०२)। णाया १,८-पत्र १३३; भगः से १,२१ हे १६२) समुहाग न [समुत्थान] १ सम्यग् उत्थान । २, कप्पू प्रासू ६०॥ २ अन्धकवृष्णि का समुत्थल्ल वि [समुच्छलित] उछला हुआ २ निमित्त, कारण (राज)। देखो समुत्थाण। ज्येष्ठ पुत्र (अंत ३) । ३ आठवें बलदेव और (स ५७८)समुट्ठिअ वि [समुत्थित] १ सम्यक् प्रयत्न वासुदेव के पूर्व जन्म के धर्म-गुरु (सम १५३)। समुत्थाण न [समुत्थान] निमित्त, कारण शील (सूत्र १, १४, २२)। २ उपस्थित । ४ वेलन्धर नगर का एक राजा (पउम ५४, (विसे २८२८) । देखो समुट्ठाण । ३ प्राप्त (सूत्र १, ३, २, ६)। ४ उठा ३६) । ५ शाण्डिल्य मुनि के शिष्य एक जैन समुत्थिय देखो समुट्टिअ (भवि) 10 हुआ, जो खड़ा हुआ हो वह (सुर १, ९६)। मुनि (णंदि ४६) । ६ वि. मुद्रा-सहित (से १, २१) समुदग पुं [समुदय] १ समुदाय, संहति, ५ अनुष्ठित, विहितं (सूअ १, २, २, ३१) । दत्त पुं [दत्त] १ चौथे ६ उत्पन्न (णाया १,६-पत्र १५६)। समूह (औप, भग; उवर १८६) । २ समुन्नति, वासुदेव का पूर्वजन्मीय नाम (सम १५३)। ७ आश्रित (राज)। अभ्युदय (कुप्र २२) २ एक मच्छीमार का नाम (विपा १, ८समुड्डीण वि [समुड्डीन] उड़ा हुआ (वज्जा | समुदाआर । देखो समुआचार (स्वप्न पत्र ८२)। दत्ता स्त्री ["दत्ता] १ हरिषेण ६२, मोह ६३)। समुदाचार । ४५ नाट-शकु ७७; औप; वासुदेव की एक पत्नी (महा ४४)। २ स ५६५) समुद्रदत्तमच्छोमार को भार्या (विपा १, ८)। समुण्णइय देखो समुत्तइय (राज)। समुदाण न [समुदान] १ भिक्षा (प्रौप)। °लिक्खा स्त्री [लिक्षा] द्वीन्द्रिय जंतु को समुत्त न [संमुक्त] १ गोत्र-विशेष । २ २ भिक्षा-समूह (भग)। ३ क्रिया-विशेष, एक जाति (परण १-पत्र ४४) विजय पुंस्त्री. उस गोत्र में उत्पन्नः 'समुता (?त्ता)' प्रयोग-गृहोत कर्मों को प्रकृति-स्थित्यादि-रूप j[विजय] १ चौथे चक्रवर्ती राजा का (ठा ७–पत्र ३६०)। देखो समुत्त । से व्यवस्थित करनेवालो क्रिया (सूअनि पिता (सम १५२)। २ भगवान् अरिष्टनेमि समुत्तइय वि [दे] गर्वित (पिंड ४६५) । १६६)। ४ समुदाय (आव ४) चर वि का पिता (मम १५१; कप्प; अंत)। सुआ समुत्तर सक [समुत् + तृ] १ पार [चर] भिक्षा की खोज करनेवाला (पएह स्त्री [सुता] लक्ष्मी (समु १५२)। देखो जाना । २ अक. नीचे उतरना। ३ प्रवतीणं । २,१-पत्र १००) समुद्र । ११० For Personal & Private Use Only Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७४ पाइअसहमहण्णवो समुद्दणवणीअ-समुल्लविअ समुद्दणवणीअ न [दे. समुद्रनवनीत] १ समुद्धाइअ वि [समुद्धावित] समुत्थित, समुप्पित्थ वि [दे] उत्त्रस्त, भय-भीत (सुर अमृत, सुधा । २ चन्द्रमा (दे ८, ५०)। उठा हुमा (स ५६६; ५६७)। १३, ४४) । समुद्दव सक [समुद् + द्रावय ] १ समुद्धाय अक[समुद् + धान्] उठना । समुप्पेक्ख समुपेह । वकृ. समुप्पेखभयंकर उपद्रव करना । २ मार डालना । वकृ. समुद्धायंत (पएह १, ३–पत्र ४५) समुप्पेह माण, समुप्पेहमाण (राज; समुद्दवे (गच्छ २, ४)। समुद्धिअ देखो समुद्धरिअ (गच्छ ३, २६) प्राचा १, ४, ४, ४)। संकृ. समुप्पेहं (दस समुद्दहर न [दे] पानीय-गृह, पानी-घर (दे | ७, ३)। देखो समुवेक्ख । समुधुर वि [समुधुर] दृढ़, मजबूत (उप ८, २१)। १४२ टी)। समुप्फालय वि[समुत्पाटक] उठाकर लानेसमुद्दाम वि [समुद्दाम] अति उद्दाम, प्रखर; समुधुसिअ वि [समुधुषित] पुलकित, वाला, 'पहए जयसिरिसमुप्फालए मंगलतूरे' "थुई समुद्दामसद्देण' (चेइय ६५०)। रोमाजितः 'घणागमे कयंबकुसुमं व समुग्धु- (स २२)।समुद्दिस सक [समुद् + दिश्] १ पाठ (?धु)सियं सरीरं' (कुप्र २१०; स १८% समुप्फालिय वि[समुत्फालित] आस्फालित को स्थिर-परिचित करने के लिए उपदेश धर्मवि ४८)। (भवि)। देना । २ व्याख्या करना । ३ प्रतिज्ञा करना। समदसिमटी १एक देव-विमान (देवेन्द्र समुप्फुद सक। समा + क्रम् । माक्रमण ४ प्राश्रय लेना । ५ अधिकार करना । कम. १४३) । २. देखो समुद्द (हे २, ८०)। करना। वकृ. समुप्पंदंत (से ४, ४३) समुद्दिस्सइ (उवा), समुद्दिस्सिज्जंति (अणु | समन्ना स्त्री सिमन्नति] अभ्युदय (साधं समुप्फोडण न समुत्स्फोटन] प्रास्फालन ३)। संकृ. समुदिस्स (पाचा १, ८,२, (पउम ६, १८०)। १, २, २, १, ४, ५) । हेकृ. समुद्दिसित्तए समुन्नद्ध वि [ समुन्नद्ध] संनद्ध, सज; समुब्भड वि [समुद्भट] प्रचंड (प्रासू (ठा २, १-पत्र ५६)। 'जनमिया सयलनिवा १०२) समुद्देस पुं [समुद्देश] १ पाठ को स्थिर- जिणस्स अचंतबलसमुन्नद्धा। समुब्भव अक [समुद् + भू] उत्पन्न होना । परिचित करने का उपदेश (प्ररण ३)। २ तेण विजएण रत्ना समुन्भवंति (उपपं २५)।व्याख्या, सूत्र के अर्थ का अध्यापन (वव १)। नमित्ति नामं विरिणम्मवियं' समुब्भव पु[समुद्भव] उत्पत्ति (उवः ३ ग्रंथ का एक विभाग, अध्ययन, प्रकरण, (चेइय ६१३)। भवि)। परिच्छेद (पउम २, १२०)। ४ भोजन समुन्नय वि [समुन्नत अति ऊँचा (महा)। समुब्भिय बि समश्चित] ऊँचा किया हमा 'जत्थ समुद्देसकाले' (गच्छ २, ५६) समुपेहं सक [समुत्प्र + ईक्ष ] १ अच्छी (सुपा ८८; भवि)। समुद्देस वि [सामुद्देश] देखो समुद्देसिय तरह देखना, निरीक्षण करना । २ पर्यालोचन समुन्भुय (अप) नीचे देखो (सण)। (पिंड २३०)। करना, विचार करना। वकृ. समुपेहमाण समुद्देसण न [समुद्देशन सूत्रों के अर्थ का (सूत्र १, १३, २३)। संकृ. सपेहिया, समुन्भूअ वि [समुद्भूत] उत्पन्न (स ४७६; सुर २, २३५; सुपा २६५) प्रध्यापन (रणंदि २०६)। समुपेहियाणं (दस ७, ५५; महा)। समुयाण देखो समुदाण = समुदान (विपा समुदसिय वि [समुद्देशिक] १ समुद्देश- समुप्पज प्रक [सपुत् + पद्] उत्पन्न सम्बन्धी । २ विवाह आदि के उपलक्ष्य में होना । समुप्पजइ (भग; महा)। समुप्पजिज्जा १, २-पत्र २५ प्रोघ १८४)। किये गये जोमन में बचे हुए वे खाद्य पदार्थ (कप्प) । भूका. समुप्पजित्था (भग)। समुयाण देखो समुदाण = समुदानय। वकृ. जिनको सब साधु-संन्यासियों में बाँट देने का समुप्पण्ण वि [समुत्पन्न] उत्पन्न (पि समुयाणित (सुख ३, १) संकल्प किया गया हो (पिंड २२६) समुप्पन्न । १०२, भग; वसु)। समुयाणिअ देखो समुदाणिय (ोघ ५१२) समुप्पयण न [समुत्पतन] ऊँचा जाना, समुद्धर सक [समुद् + ह] १ मुक्त करना। समुयाय सक समुदाय (राज)। ऊर्ध्व-गमन, उड्डयन (गउड)। २ जीर्ण मन्दिर प्रादि को ठीक करना । समुद्धरइ (प्रासू ५) । वकृ. समुद्धरंत (सुपा समुप्पाअअ वि [समुत्पादक] उत्पत्ति-कर्ता समुल्लव सक [समुत् + लप्] बोका, (गा १८८) कहना। समुल्लवइ (सण)। वकृ. समुल्ला४७०) । संकृ. समुद्धरेऊण (सिक्खा ६०)। समुप्पाड सक [ समुत् + पादय ] उत्पन्न (सुर २, २६)। कवकृ. समुल्लविजंत (स हेकृ. समुद्धत्तुं (उत्त २५, ८)। करना । समुप्पाडेइ (उत्त २६, ७१)। २, २१७) । समुद्धरण न [समुद्धरण] १ उद्धार । २ वि. समुप्पाय पु[समुत्पाद] उत्पत्ति, प्रादुर्भाव समुल्लवण न [समुल्लपन] कथन, उक्ति (से उद्धार करनेवाला (सण)।" (सूत्र १, १, ३, १०; प्राचा)। १२, ७४) समुरिअ वि [समुद्धृत] उद्धार-प्राप्त | समुप्पिजल न [दे] अयश, अपकीत्ति । २ समुल्लविअ वि [समुल्लपित] उक्त, कथित (गा ५६३ सण)। । रज, धूलि (दे ८, ५०)। (सुर २, १५१, ५, २३८ प्रासू ७) । For Personal & Private Use Only Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुल्लस-समोअर पाइअसद्दमण्णवो ८७५ समुल्लस अक [समुत् + लस् ] उल्लसित समुव्वत्त वि [समुद्वृत्तऊँचा किया हुप्रा समुहय वि [समुद्धत] समुद्धात-प्राप्त होना, विकसना। समुल्लसइ (नाट-विक्र. (से ११, ५१)। (श्रावक ६८) ७१)। वकृ. समुल्लसंत (कप्प; सुर २, समुव्वत्तिय वि [समुद्वर्तित] घुमाया हुप्रा, समुहि देखो स-मुहि - श्व-मुखि । ८५)।फिराया हुआ (सुर १३, ४३) । समूसण न [समूषण] त्रिकटुक-झूठ, पीपल समुल्लसिय वि [समुल्लसित] उल्लास-प्राप्त समुव्वह सक [ समुद् + वह.] १ धारण तथा मरिच या मिरचा (उत्तनि ३)। (सरण)। करना । २ ढोना । समुबहइ (भविः सण)। समूसवय देखो समुस्सविय (पएह १, समुल्लालिय वि [समुल्लालित] उछाला हुआ वकृ. समुव्वहंत (से ६, २, नाट---रत्ना ३-पत्र ४५) (णाया १, १५-पत्र २३७)। समूसस प्रक[समुत् + श्वस ] १ ऊँचा समुल्लाव [समुल्लाप पालाप, संभाषण समुव्वहण न [समुद्वहन] सम्यग् वहन- जाना। २ उल्लसित होना। ३ ऊर्ध्व श्वास (विपा १, ७-पत्र ७०; महा; गाया १, ढोना (उव)। लेना। समूससति (पि १४३) । वकृ. समू१६-पत्र १६६)। समुव्विग्ग वि [समुद्विग्न] अत्यन्त उद्वेग- ससंत, समूससमाण (गा ६०४; गउड; समुल्लास पु[समुल्लास] विकास (गउड)। वाला (गा ४६२)। से ११, १३२)। समुवइट्ठ वि [समुपविष्ट] बैठा हुआ (अ | समुव्बूढ वि [समुव्यूढ] १ विवाहित समूससिअन [समुच्छ्वसित] १ निःश्वास २८८)। (उप पृ १२७)। २ उत्तानित, ऊँचा किया (से ११, ५६)। २ देखो समुस्ससिय समुवउत्त वि [समुपयुक्त] उपयोग-युक्त, हुमा (से ११, ६०)। (णाया १, १--पत्र १३, कप्पः गउड)सावधान (जीवस ३६३) । समुव्वेल्ल बि [समुद्वेल्लित] अत्यन्त कँपाया | समूसिअ देखो समुस्सिअ (भगः प्रौप, सूत्र समुवगय वि [समुपगत] समीप पाया हुआ हुमा, संचालितः ‘गयजूहसमायड्डियविसमस- १, ५, १, ११ टीः परह १, ३--पत्र ४५)। (वव ४) मुब्वेल्लकमलसंघायं' (पउम ६४, ५२)। समूसुअवि [समुत्सुक] अति उत्कंठित (सुपा समुवज्जिय वि [समुपार्जित] उपाजित, समुसरण देखो समोसरण (पिंड २)। ४७७ नाट-विक्र ६२)। पैदा किया हुआ (सुपा १०० सण)। समुस्सय पुं[समुच्छ्य ] १ ऊँचाई, ऊध्यता समूह पुन [समृह] समुदाय, राशि, संघात; समुवत्थिय वि [समुपस्थित] हाजिर, (सूप २, ४, ७)। २ उन्नति, उत्तमता (सूम _ 'मंतीहि य उवसमियं भुयंगमाणं समूह व' उपस्थित (उप ४३५)। १, १५, ७)। ३ कर्मों का उपचय (प्राचा)। (पउम १०६, १५; भोघ ४०७, गउडा समुवयंत देखो समुवे । ४ संघात, समूह, राशि, ढग (दस ६, १७; भवि)। समुवविट्ठ वि [समुपविष्ट] बैठा हुआ (राय अणु २०)। समूह (अप) देखो समुह (भवि) • ७५)। समे सक [समा + इ] १ आगमन करना, समुवसंपन्न वि [समुपसंवन्न] समीप में हुआ (पउम ४०, ६)। प्राना, संमुख पाना । २ जानना। ३ प्राप्त समागत (धर्म ३)। समुस्ससिय वि [समुच्छ्वसित] १ उल्लास- करना। ४ अक. संहत होना, इकट्ठा होना । समुवहसिअ वि [समुपहसित] जिसका खूब | प्राप्त, 'समुस्ससियरोमकूवा' (कप्प)। २ समेइ, समेंति (भविः विसे २२६६)। वकृ. उपहास किया गया हो वह (सण)। उच्छ्वास-प्राप्त (पउम ६४, ३८)। देखो समेमाण (प्राचा १, ८, १, २)। संकृ. समुवागय वि [समुपागत] समीप में प्रागत समूससि। समिञ्च, समेञ्च (सूत्र १, १२, ११; पि (णाया १, १६-पत्र १९६; सण)। समुस्सिअ वि [समुच्छित] ऊर्ध्व-स्थित, - ५६१; प्राचा १, ६, १,१६, पंच ३,४५) । समुवे सक[समुपा +३] १ पास में माना।। ऊँचा रहा हुआ (सूत्र १,५,१,१५; पि ६४) . ऊँचा रहा हुमा (सूत्र १,५,१,१५; पि ६४) | समेअ) वि[समेत] १ समागत, समायात २ प्राप्त करना । समुवेइ, समुवेंति (यति समुस्सिणा सक[समुत् + श्रु] १ निर्माण समेत ) 'सीलवई परिणेउं गिहं समेग्रो ४२पि ४६३)। वकृ. समुवयंत (स | करना, बनाना । २ संस्कार करना, संवारना. महिड्डीए' (श्रा १६)। २ युक्त, सहितः 'तेहि ३७०)। जीर्ण मन्दिर आदि को ठीक करना । समुस्सि- समेतो अहयं वयामि जा कित्तियंपि भूभागं' समुवेक्ख । सक [ समुत्प्र + ईक्ष. ] १ णासि, समुस्सिणामि (प्राचा १,८,२,१२)। (सुर १, १६३, ३, ५८; सुपा २५६ समुवेह निरीक्षण करना। २ व्यवहार । समुस्सुग देखो समसुअ (द्र ४८ महा)। महा)। करना, काम में लाना। वकृ. समुवेक्खमाण, । समुस्सुय" समेर देखो स-मेर=स-मर्याद ।। समुवेहमाण (णाया १, १-पत्र १; समुह देखो संमुह (हे १, २६, गा ६५६ समोअर अक [समव + तृ] १ समाना, आचा १, ५, २, ३)। कुमाः हेका ५१, महा: पाम)। समावेश होना, अन्तर्भाव होना । २ नीचे For Personal & Private Use Only Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७६ पाइअसद्दमण्णवो समोआर-सम्म उतरना। ३ जन्म-ग्रहण करना। समोअरइ पि ६७ भग; णाया १, १-पत्र ३६ समोहण सक [समुद् + हन् ] समुद्घात (अणु २४६; उव; विसे ६४५), समोअरति प्रौपः सुपा ११) करना, प्रात्म-प्रदेशों को बाहर निकाल कर सूत्र २, २, ७६; अणु ५६)। समोसर सक समव + स] १ पधारना, उनसे कम-निर्जरा करना। समोहणइ, समोआर पुं [समवतार] अन्तर्भाव (अणु प्रागमन करना । २ नीचे गिरना । समोसरेजा समोहणंति (कप्पः प्रौप; पि ४६६)। संकृ. २४६) । (ौपः पि २३५)। हेकृ. समोसरिउ (औप)। समोहणित्ता (भगः कप्प, औप) । समोइन्न वि [समवतीर्ण] नीचे उतरा वकृ. समोसरंत (से २, ३६) ।. समोहय वि [सनुद्धत] जिसने समुद्घात हुप्रा (सुर ७, १३४)। समोसर अक [समप+जू] १ पीछे हटना। क्रिया हो वह (ठा २, २-पत्र ६१) । समोगाढ वि [समवगाड] सम्यग अबगाढ २ पलायन करना । समोसरइ (काप्र १६६), समोहय वि [समवहत प्राघात-प्राप्त (सुर (औप)। समोसर (हे २, १९७)। वकृ. समोसरंत । ७, २८)। समोच्छइअ वि[समवच्छादित ] (गा १६२) । सम्म अक श्रम १ खेद पाना । २ थकना। प्राच्छादित, अतिशय ढका हुआ (पुर १०, समोलरण पंन [समवसरण १ एकत्र | सम्मइ (उत्त १,३७) १५७)। मिलन, मेलापक, मेला (सूअनि ११७ राय सम्न प्रक[शम्] शान्त होना, ठण्ढा समोणम सक [समय+नम् सम्यग् १३३)। २ समुदाय, समवाय, समूह होना । सम्मइ (धात्वा १५५)। नमना-नोचा होना। बकृ. समोणमंत 'समोसरण निचय उवचय चए य जुम्से य सम्म न [शहन सुख (हे १, ३२: कुमा)। (ौपः सुर ६, २३७)। रासीय(प्रोध ४०७)। ३ साधु-समुदाय, सम्म वि [सम्पाऊच ] १ सत्य, . सच्चा (सूत्र समोणय वि [समबनत] अति नमा हुग्रा साधु-समूह (पिड २८५; २८८ टी)। ४ १,८, २३, कप्प; सम्म ८७; वसु)। २ (गा २८२)। जहाँ पर उत्सव आदि के प्रसंग में अनेक साधु अविपरीत, अविरुद्ध (ठा १-पत्र २७; समोत्थइअ वि [समवस्थगन] आच्छादित, लोग इकट्ठे होते हों वह स्थान (सम २१ । ३, ४–पत्र १५६)। ३ प्रशंसनीय, (से ६, ८४)। ५ परतीथिकों का समुदाय, जैनेतर दार्शनिकों श्वाघनीय (कम्म ४, १४, पर ६)। ४ समोत्थय वि सिमवस्तृत ऊपर देखो (उप का समवाय (सूप्र १, १२, १)। ६ धर्म- शोभन, सुन्दर । ५ संगत, उचित, व्याजबी ७७३ टी)। विचार, आगम-विचार (सूघ २, २, ८१ (सूत्र २, ४, ३)। ६ न. सम्यग्-दर्शन समोत्थर सक [समव + स्तु] १ आच्छादन | ८२)। ७ 'सूत्रकृताङ्ग सूत्र' के प्रथम श्रुतस्कंध (कम्म ४, ६, ४५), 'त्त न [व] १ करना, ढकना। २ आक्रमण करना। वकृ. का बारहवाँ अध्ययन (सूअनि १२०)। ८ समकित, सम्यग् -दर्शन, सत्य तत्त्व पर समोत्थरंत (गाया १, १ - पत्र २५; पधारना, आगमन (उवा; औप; विपा १, श्रद्धा (उवाः उव; पव ६३; जी ५०; कम्म पउम ३,७८)। ७–पत्र ७२)। ६ तीर्थंकर-देव की पर्षद् । ४, १४)। २ सत्य, परमार्थः 'सम्मत्तदंसिणो' समोसार पु[समवतार अन्तर्भाव, समावेश १० जहाँ पर जिन-भगवान् उपदेश देते हैं (प्राचा: सून १, ८, २३) स्ट्रिय, (विसे ६५६; अणु)। वह स्थान (प्रावमः पंचा २, १७, तो ४३) दिट्ठीय वि[दृष्टिक] सत्य तत्त्व पर श्रद्धा समोयारणा स्त्री [समवतारणा] अन्तर्भाव | तव पुं [तपस् ] तप-विशेष (पव रखनेवाला (ठा १-- पत्र २७, २, २-पत्र (विसे ६७३)। २७१)। ५६) सण न [ दर्शन] सत्य तत्त्व पर समोयारिय वि [समयतारित] अन्तर्भावित, समोसरिअ वि [समपतृत] १ पीछे हटा श्रद्धा (ठा १:--पत्र ५०३), दिदि वि समावेशित (विसे ६५.६) । हुमा (गा ६५६; पउम १२, ६३)।२ [दृष्टि] देखो दिट्टिय (सूअनि १२१)। पलायित (से १०, ५) समोलक्ष्य वि [दे] समुत्क्षिप्त (गउड) नाग न [ज्ञान] सत्य ज्ञान, यथार्थ ज्ञान समोसरिअ वि [समवसृत ] समायात, (सम्म ८७ वसु)- सुय न [भूत] १ समोलुग्ग वि [समवरुग्ण] रोगी, रोग-ग्रस्त समागत (से ७, ४१: उवा) । सत्य शान्न । २ सत्य शास्त्र-ज्ञान (णंदि)। (से ३, ४७) - सनोसब सक [दे] टुकड़ा टुकड़ा करना । मिच्छदिदि वि [मथ्या दृष्टि मिश्र समोवअ सक [समव+पत्] १ सामने समोसवेंति (सूत्र १, ५, २, ८)। दृष्टिवाला, सत्य और असत्य तत्त्व पर श्रद्धा माना । २ नीचे उतरना। वकृ. समोक्यंत, समोलिअ अक [समय + सद्] क्षीण होना, रखनेवाला (सम २६; ठा --पत्र २८)। समोवयमाण (स १३६; ३३०)। नाश पाना, नष्ट होना। वकृ. सनसिअंत वाय [वाद] १ अविरुद्ध वाद । २ समोवइअ वि [समवपतित] नीचे उतरा दृष्टिवाद, बारह्वाँ जैन अंग-ग्रंथ (ठा १०हुमा (णाया १, १६-पत्र २१३) समोसिअ [दे] १ प्रातिवेश्मिक, पड़ोसी पत्र ४६१)। ३ सामायिक, संयम-विशेष; समोसढ़ वि [रूमनस्तृत ] समागत, (दे८, ४६; पात्र)। २ प्रदोष । ३ वि. | 'सामाइयं समइयं सम्मावाप्रो समास संखेवो समोसढ पधारा हुया (सम्मत्त १२% । वध्य, वध-योग्य (दे ८, ४६)। (आव १) For Personal & Private Use Only Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मइ-सयं पाइअसहमहण्णवो सम्मइ देखो सम्मुइ = सन्मति, स्वमति (उत्त २८, १७ प्राचा). सम्मइग देखो सामाझ्य (संबोध ४५) । सम्म प्र[सम्यग् ] अच्छी तरह (प्राचाः सूत्र १, १४, ११, महा)। सम्मुइ स्त्री [सन्मति , संगत मति । २ सुन्दर बुद्धि, विशद बुद्धि (उत्त २८, १७; सुख २८, १७; कप्पा आचा)। ३ पुं. एक कुलकर पुरुष (पउम ३, ५२) । सम्मुइ स्त्री [स्वमति स्वकीय बुद्धि (प्राचा) सम्हरिअ वि [संस्मृत] अच्छी तरह याद किया हुआ (अच्तु ३५)। सय अक[शी, स्वप्] सोना, शयन करना। सयइ, सए, सएज्जा (कप्पः प्राचा १,७, ८, १३, २, २, ३, २५, २६) सयंति (भग १३, ६-पत्र १७)। वकृ. सयमाण (प्राचा २,२, ३.२६)। हेकृ. सइत्तए (पि ५७८)। कृ. देखो सयणिज्ज, सयणी - सय अक [स्वदु] पचना, जीणं होना, माफिक पाना । सयइ (प्राचा २, १, ११, १)। सय प्रक[स्त्र] झरना, टपकना । सयइ (सून २, २,५६) सय सक [भि] सेवा करना । सयंति (भग १३,६-पत्र ६१७)।. सय देखो स= सत् 'वंदणिज्जो सयारणं' पन्नत्ता' (सम ८८), कंत न [कान्त [सहस्रतम] लाखवा (णाया १,८१ रत्न-विशेष । २ वि. शतकान्त रत्नों पत्र १३१)। साहस्स वि [°साहस्र] १ से बना हुआ (देवेन्द्र २६८), 'कित्ति लाख-संख्या का परिमारणवाला (णाया १, j[कीर्ति] एक भावी जिन-देव (पव ४६); १-पत्र ३७)। २ लाख रुपया जिसका 'सत्त (?य) कित्ती' (सम १५३), गुणिअ मूल्य हो वह (पव १११ दसनि ३, १३) । वि[गुणित ] सौगुना (श्रा १०; सुर ३, साहस्सि वि [सहस्रिन्] लखपति, २३२)। ग्घी स्त्री [ध्नी] १ यन्त्र-विशेष, लक्षाधीश (उा पृ ३१५), साहस्सिय वि पाषाण-शिला-विशेष (सम १३७; अंतः प्रौप)। ["साहसिक] देखो साहस्स (स ३६६ २ चक्की, जाँता (दे ८, ५, टी), जल न राज)। साहस्सी स्त्री ["सहस्री] लक्ष, [ज्वल] १ वरुण का विमान (देवेन्द्र २७०)। लाख (पि ४४७; ४४८) 4 °सिक्कर वि देखो सयंजल। २ रत्न को एक जाति । [शर्कर] शत खंडवाला, सौ टुकड़ावाला ३ वि. शतज्वल-रत्नों का बना हुआ (देवेन्द्र (सुर ४, २२; १५३) हा अ धा] सौ २६६) । ४ पुंन. विद्य त्प्रभ नामक वक्षस्कार प्रकार से, सौ टुकड़ा हो ऐसा (सुर १४, पर्वत का एक शिखर (इक) दुवार न २४२) हुत्तं [कृत्वस.] सौ बार [द्वार] एक नगर (अंत), धणु पुं (हे २. १५८, प्रातः षड् ) उ पुं [धनुष्] १ऐरवत वर्ष में होनेवाला एक [आयु] १ एक कुलकर पुरुष का नाम कुलकर पुरुष (सम १५३)। २ भारत वर्ष (सम १५०) । २ मदिरा-विशेष (कुप्र १६०; में होनेवाला दसवाँ कुलकर पुरुष (ठा १०- राज),णि पाणी पुं [नीक] एक पत्र ५१८)। पई स्त्री [पदो] क्षुद्र जन्तु राजा का नाम (विपा १, ५–पत्र ६० की एक जाति (श्रा २३) पित्त देखो । अंत; ती १०) वत्त (गाया १,१-पत्र ३८) पाग न सब देखो सयं = स्वयंः 'सयपालणा य एत्थं' [पाक] एक सौ प्रोषधियों से बनता (पंचा ५, ६६) एक तरह का उत्तम तेल (णाया १,१ सयं देखो सई = सकृत (वै ८८) पत्र १६ ठा ३, १-पत्र ११७) पुप्फा | सयं अस्वयम् ] आप, खुद, निज (प्राचा स्त्री [पुष्पा] वनस्पति-विशेष, सोया का | १, ६, १, ६, सुर २, १८७ भग, प्रासू गाछ (पएण १--पत्र ३४; उत्तनि ३) ७५; अभि ५६; कुमा), कड वि [कृत] 'पोर न पर्वन् इक्षु, ऊख (पव १७४ खुद किया हुप्रा (भग) गाह पुं[ग्राह] टी) + बाहु पुं[बाहु] एक राषि १ जबरदस्ती ग्रहण करना । २ विवाह-विशेष (पउम १०, ७४) भिसया, 'भिसा स्त्री (से १, ३४)। ३ वि. स्वयं ग्रहण करने[भिषज ] नक्षत्र-विशेष (इक; पउम २०, वाला (वव १) । पभ पुं[प्रभ] १ ३८), यम वि [तम] सौवा, १०. वाँ ज्योतिष्क ग्रह-विशेष (ठा २, ३-पत्र ७८)। (पउम १००, ६४) ह पुं [रथ] एक २ भारतवर्ष में प्रतीत उत्सपिणी काल में कुलकर पुरुष (सम १५०) रिलह पुं उत्पन्न चौथा कुलकर पुरुष (सम १५०)। ३ [वृषभ] अहोरात्र का तेईसवाँ मुहूर्त (सुज आगामी उत्सपिणी काल में भारत में होनेवाला १०, १३)वई देखो पई (दे २, ६१) चौथा कुलकर पुरुष (सम १५३) । ४ वत्त न [पत्र] १ पद्य, कमल (पान)। प्रागामी उत्सर्पिणी काल में इस भारतवर्ष में २ सौ पत्तीवाला कमल, पद्म-विशेष (सुपा होनेवाले चाथे जिन-देव (सम १५३)। ५ ४६)। ३ पुं. पक्षि-विशेष, जिसका दक्षिण एक जैन मुनि जो भगवान् संभवनाथ के पूर्वदिशा में बोलना अपशुकन माना जाता है जन्म में गुरु थे (पउम २०, १७)। ६ एक (पउम ७, १७) सहस्स पुंन [°सहस्र] हार का नाम (पउम ३६, ४)। ७ मेरु संख्या-विशेष, लाख (सम २, भगः सुर ३, । पर्वत (सुज ५)। ८ नन्दीश्वर द्वीप के मध २१ प्रासू ६; १३४) । सहस्सइम वि में पश्चिम-दिशा-स्थित एक अंजन-गिरि (पव सय देखो स-स्व (सूत्र १, १, २, २३; गाया १, १४-पत्र १६०; प्राचा; उवा; स्वप्न १६) सय देखो सग = सप्तन् । हत्तरि स्त्री [°सप्तति] सतहत्तर, ७७ (श्रा २८) सय प्र[सदा] हमेशा, निरन्तरः ‘असवुडो सय करेइ कंदप्प' (उव)। काल न [ काल] हमेशा, निरन्तर (सुपा ८५)। सय पुंन [शत] १ संख्या-विशेष, सौ, १००। २ सौ की संख्यावाला (उवा; उवः गा १०१; जी २६ दं)। ३ बहुत, भूरि, अनल्प संख्यावाला (गाया १, १-पत्र ६५)। ४ अध्ययन, ग्रंथ-प्रकरण, ग्रन्थांश-विशेष: 'विवाहपन्नत्तीए एकासीति महाजुम्मसया For Personal & Private Use Only Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७८ पाइअसहमहण्णवी सयंजय-सयालि २६६ टी) । ६ न. एक नगर का नाम, स्वेच्छानुसार वरण, एक प्रकार का विवाह | सयय वि [सतत] निरन्तर (उव; सुर १, राजा रावण के लिए कुबेर द्वारा बनाया जिसमें कन्या निमन्त्रित विवाहार्थियों में से १३; महा)। हुमा एक नगर (पउम ७, १४६)। १० वि. अपनी इच्छानुसार अपना पति वरण कर ले सयय [शतक] १ वर्तमान अवसर्पिणीपाप से प्रकाश करनेवाला (पउम ३६, ४) (उवः गउड अभि ३१), 'वरी स्त्री ["वरा] काल में उत्पन्न ऐरवत वर्ष के एक जिन-देव पभा स्त्री [प्रभा] १ प्रथम वासुदेव की अपनी इच्छानुसार वरण करनेवाली (पउम (सम १५३)। २ आगामी उत्सर्पिणी में पटरानी (पउम २०, १८६)। २ एक रानी १०६, १७) । संबुद्ध वि [संबुद्ध] स्वयं | भारतवर्ष में होनेवाले एक जिनदेव के पूर्वजन्म का नाम (उप १०३१ टी) पह देखो पभ ज्ञात-तत्त्व (सम १) नाम, जो भगवान् महावीर का श्रावक था (पउम ८, २२)। बुद्ध बि [°बुद्धअन्य सयंजय पु[शतजय] पक्ष का तेरहवाँ (ठा -पत्र ४५५) । ३ न. सौ का के उपदेश के बिना ही जिसको तत्त्व-ज्ञान दिवस (सुज्ज १०, १४)। समुदाय (गा ७०६; अच्चु १०१) हुआ हो वह (नव ४३)। भु पु [भु] १ सयंजल [शतजल] १ एक कुलकर-पुरुष सयर देखो सायर = सागर (विसे ११८७)।ब्रह्मा (पएह १, २-पत्र २८)। २ भारत (सम १५०)। २ वरुण लोकपाल का विमान सयरहं देखो सयराहं (स ७६२) ।। में उत्पन्न तीसरा वासुदेव (सम ९४)। ३ (भग ३, ७-पत्र १९८) देखो जय-जल। सतरहवें जिनदेव का गणधर-मुख्य शिष्य सयरा देखो सक्करा; 'सयरं दहिं च दूद्धं तुरंतो ३ ऐरवत वर्ष में उत्पन्न चौदहवें जिनदेव (सम १५२) । ४ जीव, आत्मा, चेतन (भग (पव ७)। कुणसु साहीणं (पउम ११५, ८)। २०,२-पत्र ७७६)। ५ एक महा-सागर, सयंभरी स्त्री [शाकम्भरी] देश-विशेष (मुरिण | सयराहं । अ[दे] १ शोघ्र, जल्दी (दे ८, स्वयंभूरमण समुद्रः 'जहा सयंभू उदहीण | १०८७३)। सयराहा, ११ कुमाः गउड चेइय ६१०)। सेठे' (सूत्र १, ६, २०)। ६ न. एक देव- सयग देखो सयय (पव ४६ कम्म ५, १००) २ युगपत्, एक साथ (विसे ६५६)। ३ विमान (सम १२) । देखो भू । भुरोहिणी सयग्वी स्त्री [द] जाँता, चक्की, पीसने का अकस्मात् (प्रौप)। स्त्री [भुगहिनी] सरस्वती देवी (अच्चु २)। यन्त्र (दे ८, ५) सयरि देखो सत्त- रिसप्तति (पि २४५; 'भुरमण पुं[भुरमण] देखो भूरमण सयड पुंन [शकट] १ गाड़ी (पउम २६, ४४६) । (पएह २, ४–पत्र १३०; पउम १०२, २१); 'सयडो गंती' (पान)। २ न. नगर- सयरी स्त्री [शतावरी] वृक्ष-विशेष, शतावर ६१; स १०७ सुज १६; जी ३, २-पत्र विशेष (पउम ५, २७) । मुह न [ मुख] का गाछ (पएण १-पत्र ३१)। ३६७; देवेन्द्र २५५) भुव, भू पुं[भू] उद्यान-विशेष, जहाँ भगवान् ऋषभदेव को सयल न [शकल] खंड, टुकड़ा (दे १, २८)। १ अनादि-सिद्ध सर्वज्ञः 'जय जय नाह सयंभुव' केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था (पउम ४, १६) सयल वि [सकल] १ संपूर्ण, पूरा । २ सब, (स ६४७) उवर १२२) । २ ब्रह्मा (पाय; सयडाल देखो सगडाल (कुप्र ४४८) समग्र (गा ५३०; कुमाः सुपा १९७; दं पउम २८, ४८ ती ७ से १४, १७)। ३ सयण देखो स-यण = स्व-जन । ३६; जी १४ प्रासू १०८; १६४), चंद तीसरा वासुदेव (पउम ५, १५५) । ४ रावण सयण न [सदन] १ गृह, घर (गउड सुपा | पुं[चन्द्र] 'श्रुतास्वाद' का कर्ता एक जैन का एक योद्धा (पउम ५६, २७) । ५ भगवान् ३६६) । २ अंग-ग्लानि, शरीर-पीड़ा (राज)। मुनि (श्रा १६६), भूसण पुं[भूषण] विमलनाथ का प्रथम श्रावक (विचार ३७८)। सयण न [शयन] १ वसति, स्थान (प्राचा एक केवलज्ञानी मुनि (पउम १०२, ५७) । ६ कुच, स्तन (प्राकृ ४०) + देखो भु। १, ६, १, ६) । २ शय्या, बिछौना (गउड; देस पुं[देश सर्वापेक्षी वाक्य, प्रमाणभूरमण पुं[भूरमण] १ समुद्र-विशेष । कुमाः गा ३३) । ३ निद्रा (कुमा ८, १७) । वाक्य (अज्झ ६२)। २ द्वीप-विशेष (जीव ३, २-पत्र २६७ / ४ स्वाप, सोना (परह २, ४, सुपण ३६६) | सयलि पुं [शकलिन् ] मीन, मछली (दे ३७०) । ३ एक देव-विमान (सम १२) सणिज्ज न [शयनीय] शय्या, बिछौना ८, ११) भूरमणभद्द [ भूरमगभद्र] स्वयंभूरमण (गाया १, १४–पत्र १६०; गउड) । सयहस्थिय वि [सौवस्तिक] १ स्व-हस्त द्वीप का एक अधिष्ठाता देव (जीव ३, २- सयणिजग देखो स-यण = स्व-जन; 'सेहस्स | से उत्पन्न । २ न. शस्त्र-विशेषः 'महकालोवि पत्र ३६७)। भूरमणमहाभद्द पुं [भूर- सयरिणज्जगा प्रागया' (प्रोघभा ३० टी)। नरिंदो मिल्हइ सयहत्थियं सहत्थेणं' (सिरि मणमहाभद्र वही अर्थ (जीव ३, २)। सयणीअ देखो सयणिज्ज (स्वप्न १२१८ ४५१; ४५२) भूरमणमहावर पुं [भूरमणमहावर] | सुर ३, ६०)। सयाचार देखो स-याचार = सदाचार । .. स्वयंभूरमण-समुद्र का एक अधिष्ठायक देव सयण्ण देखो सकण्ण (महा) । (जीव ३, २-पत्र ३६७) । भूरमणवर सयाचार देखो सआ-चार - सदा-चार ।। सयह देखो स-यह = स-तृष्ण । पुं [ भूरमणवर] वही अनन्तर उक्त अर्थ सयत्त वि [दे मुदित, हर्षित (दे ८, ५) सयाण देखो स-याण = स-ज्ञान । (जीव ३, २)। वर [वर] कन्या का सयन्न देखो सकन्न (सुपा २८२)। सयालि पुं [शतालि] भारतवर्ष के भावी For Personal & Private Use Only Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयालु-सरभ पाइअसहमहण्णवो ८७६ अठारहवें जिनदेव का पूर्वजन्मीय नाम (पव धनुष (सूध १, ४, २, १३ सण पुन सरग देखो सरय = शरक (णाया १,१८४६) सम १५४) । देखो भयालि [सन] धनुष (विपा १, २–पत्र २४; पत्र २४१) । सयाल वि [शयाल] सोने की आदतवाला, पापः प्रौप)। "सणपट्टी, सणवट्टिया सरग वि [शारक] शर-तृण से बना हुआ प्रालसी (कुम) स्त्री [सनपट्टी, सनपट्टिका] १ धनुर्यष्टि, (शूपं प्रादि) (माचा २, १, ११, ३)। धनुर्दएड । २ धनुष खींचने के समय हाथ की सयावरी स्त्री [सदावरी] श्रीन्द्रिय जन्तु की सरग्गिका (अप) स्त्री [सारङ्गिका] छन्दरक्षा के लिए बाँधा जाता चमपट्ट-चमड़े का एक जाति (उत्त ३६, १३६, सुख ३६, विशेष (पिंग)। पट्टा (विपा १, २-पत्र २४; औप) १३६) सरि न [शरि] बारण-युद्ध (सिरि सरड पुंसिरट कुकलास, गिरगिट (णाया सयावरी देखो सयरी = शतावरी (राज)।" १०३२)। १,८-पत्र १३३; अोध ३२३, पुप्फ २६७, सयास देखो सगास = सकाश (कालः अभि सर पुं[स्मर कामदेव (कुमा; से ६, ४३) दे ८, ११, उप पृ २६८ सुपा १७७) १२५; नाट-मृच्छ ५२) सर वि [सर] गमन-कर्ता (दस १, ३, ६)M सरडु न [शलाटु, 'क] वह फल जिसमें सयासत्र वि [शताश्रव, सदाश्रव] सूक्ष्म सर [स्वर] १ वर्ण-विशेष, 'प्र' से 'नौ' सरडुअ अस्थि-गुठली न बँधी हो, कोमल छिद्रवाला (भग)। तक के अक्षर (पएह २,२ विसे ४६१)। फल (पिड ४५: प्राचा २,१,८,६ पि सय्यं देखो सज्ज = सद्यस् । 'सय्यंभवृत्ति सय्यं । २ गोत मादि को ध्वनिः प्रावाज, नाद (सुपा ८२, २५६)। भवोयहीपारगो जो तेणं' (धर्मवि ३८) । ५६ कुमा)। ३ स्वर के अनुरूप फलाफल सरण पुंन [शरण] १ त्राण, रक्षा (माचा; सय्यंभव देखो सज्जभव (धर्मवि ३८) को बतानेवाला शास्त्र (सम ४६) सम १: प्रासू १५६ कुमा)। २ वारण-स्थान सय्ह देखो सज्झ = सह्य (हे २, १२४ | सर पुंन [ सरस ] तड़ाग, तालाब (से ३, (पाचा कुमा २, ४५)। ३ गृह, प्राश्रय, षड्६; उवाः कप्प; कुमाः सुपा ३१६)। पंति स्थानः निवायसरणप्पईवमिव चित्तं (संबोध सर सक [स] १ सरना खिसकना। २ स्त्री [पङ्क्ति ] तड़ाग-पद्धति (ठा २, ४ ५१) दय वि [दय त्राण-कर्ता (भगः अवलम्बन करना, प्राश्रय लेना । ३ अनुसरण पत्र ८६) रुह न [रुह] कमल, पद्म पडि) “गय वि [°गत] शरणापन्न करना । सरह (हे ४,२३४), सरेज्जा (उपपं (प्रातः हे १, १५६; कुमा)। सरपंतिया (प्रासू ५) २५) । कृ. सरणीअ (चउ २७), सरेअव्व स्त्री [°सरःपङ्क्ति ] श्रेरिण-बद्ध रहे हुए अनेक सरण न [स्मरण] स्मृति, याद (मोघ ८ (सुपा ४१४)। तालाब (पराह २, ५-पत्र १५०)। विसे ५१८ महा; उप ५६२; प्रौप; वि ६)। सर सक [स्मृ] याद करना। सर (हे ४, सर देखो सरय = शरद् (गा ७१२). "दिंदु सरण न विरण] मावाज करना, ध्वनि करना ७४; गुरु १२ प्राप्र)। वकृ. सरंत (सुपा पुं[इन्दु] शरद् ऋतु का चन्द्र (सुर २, (विसे ४६१)। ५६४), सरमाण (णाया १,६-पत्र १६५ ७०० १६, २४६)। सरण न [सरण गमन (राज) पउम ८, १६४; सुपा ३३६)। हेकृ. सरि- | सरऊ स्त्री [सरयू] नदी-विशेष (ठा ५, सरणि पुंस्त्री [सरणि] १ मार्ग, रास्ता (पाम; त्तए (पि ५७८) । कृ. सरणीअ, सरेअव्य, १-पत्र ३०८ ती ११, कस)। सुपा २; कुप्र २२); 'सरलो सरणी समगं सरियव्व (चउ २७; धम्मो २०; सुपा सरंग (अप) पुं [सारङ्ग] छन्द-विशेष कहियो' (साधं ७५)। २ अालवाल, क्यारी ३०७)। प्रयो. सरयंति (सूम १, ५, १, (पिंग)। (गउड)। १६) सरंब पुं शरम्ब] हाथ से चलनेवाले सर्प की सरण्ण वि [शरण्य] शरण-योग्य, त्राण के सर सक [स्वर ] आवाज करना। सरइ, एक जाति (पएह १,१-पत्र ८) । लिए पाश्रयणीय (सम १५३, पण्ह १, ४सरंति (विसे ४६२) सरक्ख सक [सं + रक्ष ] अच्छी तरह पत्र ७२, सुपा २६१, अच्चु १५, संबोध सर पुंन [शर] १ बाणः 'मज्झे सराणि वरि- रक्षण करना। सरक्खए (सूत्र १, १, ४, सयंति' (णाया १, १४-पत्र १६१; कुमा; ११ टि)। सरत्ति प्र[दे] शीघ्र, जल्दी, सहसा (दे ८, सुर १, ६४ स्वप्न ५५)। २ तृण-विशेषः सरक्ख वि [सरजस्क, सरक्ष] १ शैव-धर्मी, 'सो सरवणे निलोणो रहियो तक्खिव्व पच्छन्नों शिव-भक्त, भौत, शैव (प्रोघ २१८; विसे (धर्मवि ६२; परण १-पत्र ३३; (कुप्र १०४०; उप ६७७)। २ वि. रजोयुक्त | सरद देखो सरय = शरत (प्राप्र)। १०)। ३ छन्द-विशेष। ४ पाँच की संख्या (प्राव ४)। सरन्न देखो सरण (सुपा १८३)।(पिंग)। पण्णी स्त्री [पर्णी ] तृण-विशेष, सरभ देखो सरह = शरण (भग; गाया := मुज का घास (राज)) पत्त न [पत्र] 'ससरक्खेहिं पाएहि' (दस ५, १, ७)। २ १--पत्र ६५; परह १,१-पत्र , अस्त्र-विशेष (विसे ५१३)। पाय न [पात] | भस्म (पिंड ३७, प्रोघ ३५६) । ७४२; पिग)। For Personal & Private Use Only Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अधिष्ठात्री सरिअ देखा ८८० पाइअसहमहण्णवो सरभेअ-सरिस्सव सरभेअ वि [दे] स्मृत, याद किया हुआ (दे सरसी स्त्री [सरसी] बड़ा तालाब-तड़ाग | नाह पुं['नाथ] समुद्र (धर्मवि १०१)। ८, १३)। (औपः उप पृ ३८, सुपा ४८५) रुह न देखो सरिआ। सरमय पुं.ब. [शर्मक] देश-विशेष (पउम [रुह] कमल (सम्मत्त १२०; १३६)। सरिअ वि [स्मृत] याद किया हुमा (पउम सरस्सई स्त्री [सरस्वती] १ वाणी, भारती, ३०, ५४, सुपा २२१, ४६२)10 ६८, ६५)। भाषा (पान; प्रौप) । २ वाणी की अधिष्ठात्री सरिअ देखो सरि% सदृश; 'सोभेमारणा सरय पुन [ शरद् ] ऋतु-विशेष, प्रासोज देवी (सुर १, १५)। ३ गीतरति नामक पाश्विन तथा कार्तिक का महीना (पएह २, | सरियं संपत्थिया थिरजसा देविंदा' (औप)। इन्द्र की एक पटरानी (ठा ४, १-पत्र सरिन [सृतम् ] अलं, पर्याप्त, बसः २–पत्र ११४ गउड से १,२७ गा ५३४; स्वप्न ७०, कुमाः हे १,१८); 'मुय माणं २०४६ रणाया २-पत्र २५२)। ४ एक | 'बहुरिणएण सरि' (रयरण ५०)। मारण पियं पियसरयं जाव वच्चए सरयं (वजा राज-पत्नी (विपा २,२--पत्र ११२)।५ | सारआली[सरित् ] नदी (कुमा; हे १. | १५; महा) एक जैन साध्वी जो सुप्रसिद्ध कालकाचार्य वह ७४) + °चंद [चन्द्र] शरद् ऋतु का [पति] समुद्र (से चाँद (णाया १, १-पत्र ३.)। देखो की बहिन थो (काल) ७, ४१, ६, २) सर = शरद् ।। सरह पुं[शरभ] १ शिकारी पशू की एक | सारआ ना दे] माला, हार (पएह १, जाति (सुपा ६३२)। २ हरिवंश का एक ४-पत्र ६८ कुप्र ३; सुपा ३४३)। सरय पुं[शरक काठ-विशेष, अग्नि उत्पन्न राजा (पउम २२, ९८)। ३ लक्ष्मण के सरिक्ख । वि [सहक्ष] सदृश, समान, करने के लिए अररिग का काष्ठ जिससे घिसा एक पुत्र का नाम (पउम ११, २०)। ४ सरिच्छ ) तुल्य (प्राकृ ८६ प्राप्र हे १, जाता है वह (णाया १,१८-पत्र २४१)। एक सामन्त नरेश (पउम ८, १३२)। ५ १४२, २, १७ कुमा(~ सरय पुंन [सरक] १ मद्य-विशेष, गुड़ तथा एक वानर (से ४, ६)। ६ छन्द-विशेष | सरिक्त वि[स्मर्ट] स्मरण-कर्ता (ठा - घातकी का बना हुवा दारू (परह २, ५- (पिंग) पत्र ४४४) पत्र १५०; सुपा ४८५; गा ५५१ मा कुप्र सरह पु[दे] १ वृक्ष-विशेष, वेतस या बेंत सरिभरी स्त्री [दे] समानता, सरोखाई, १०)। २ मद्य-पान (वजा ७४) 10 का पेड़ (दे ८, ४७)। २ सिंह, पञ्चानन गुजराती में 'सरभर'; 'तनो जाया दोएहवि सरय देखो स-रय = स-रत । (दै ८, ४७; सुर १०, २२२)। सरिभरी' (महा १०) सरय (अप)[सरस] छन्द-विशेष (पिग) सरह (अप) वि [श्लाघ्य] प्रशंसनीय (पिंग) सरिर देखो सरीर (पव २०५)। सरल पुं[सरल] १ वृक्ष-विशेष (पएण १ सरहस देखो स-रहस - स-रभस । - सरिवाय पु[दे] प्रासार, वेगवाली वृष्टि पत्र ३४)। २ ऋतु, माया-रहित (कुमा; सरहा स्त्री [सरघा] मधु-मक्षिका (दे २, (दे ८, १२) । १००) सण) । ३ सीधा, अवक्र (कुमाः गउड) V | सरिस वि[सहरा] समान, सरीखा, तुल्य सरहि पुंस्त्रो [शरधि] तूणीर, तीर रखने का । (हे १, १४२; भगः उव, हेका ४८) सरलिअ वि [सरलित] सीधा किया हुआ भाथा-तरकस (मे ७०)। (कुमा: गउड) सरिस पुन [दे] १ सह, साथ; सरा नी [दे] माला (दे ८, २)। 'का समसीसी तियसिदयाण सरली स्त्री [दे] चौरिका, क्षुद्र कीट-विशेष, सराग देखो स राग = स-राग । वडवालणस्स सरिसम्मि । झींगुर (दे ८, २) सराडि स्त्री शिराटि, शराडि] पक्षी की उपसमियसिहीपसरो सरलीआ स्त्री [दे] १ जन्तु-विशेष, साही, एक जाति (गउड) मयरहरो इंधणं जस्स। जिसके शरीर में काँटे होते हैं। २ एक जात सराव शिराव] मिट्टी का पात्र-विशेष, (वजा १५४)। का कीड़ा (दे ८, १५)। सकारा, पुरवा (दे २, ४७; सुपा २६६) | "पाढत्तो संगामो बलवइणा तेण सरिसोत्ति सरव पुं[शरप] भुजपरिसपं की एक प्रकार सरासण देखो सरससण = शरासन । (महा)। २ तुल्यता, समानता (संक्षि ४७); (सूअ २, ३, २५) सराह वि [दे] दर्पोद्धर, गर्व से उद्धत (दे "अंतेउरसरितेणं पलोइयं नरवरिदेणं' (महा)सरस वि [सरस] रस-युक्त (प्रौपः अंत; | सरिसरी देखो सरिभरी (महा) । गउड)। "रण पुं[रण्य] समुद्र, सागर सराय पुं[दे] सर्प, साँप (दे ८, १२) सरिसव पु [सप] सरसों (चंड; भोप (से ६, ४३) सरि वि [ सदृश 1 सदृश, सरीखा, तुल्य ४०६: सं ४४; कुमा; कम्म ४, ७४; ७५; सरसिज, न [सरसिज] कमल, पद्म (भग; णाया १, १-पत्र ३६; अंत ५ ७७ गाया १,५–पत्र १०७) . सरसिय ) (हम्मीर ५१; रंभा)। हे १, १४२, कुमा)। सरिसाहुल वि [दे] समान, सदृश (दे सरसिरुह न [सरसिरह] कमल, पद्य (उप सरि स्त्री [ सरित् ] नदी (से २, २६; सुपा ८, ६) ७२८ टी; सम्मत्त ७६). ३५४; कुप्र ४३, भत्त १२३; महा) सरिस्सव देखो सरीसव (पउम २०,९२) For Personal & Private Use Only Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरी सहिह सरी की [दे] माला, हार (सुपा २३१) सरीर पुंन [शरीर ] देह, काय, तनु (सम ६७; उवा कुमाल जी १२); 'कइ णं भंते सरोरा पत्ता ( १२ ) नाम "नाम पुन नामन् ] कर्म-विशेष शरीर का कारण मृत कर्म (राजः समः ६७) | "पण [बन्धन] कर्म-विशेष (राम न ६७) संघायण न ['संघातन ] नाम कर्म का एक भेद (सम ६७ ) । सरोरि [ शरीरिन ] जीव धारमा प ११२ १७) । सरोव 1 [सरीसृप] १ सर्प, साँप (खा सरीसिव ११ सून १, २, २१४ ) । २ सर्प की तरह पेट से चलनेवाला प्राणी ( सम ६० ) । सख्य ( सरूर } देखो स-रूय = स्व-रूप । - सरुव देखो सरूव = सद्-रूप, स रूप । सरुवि[स्वरूपिन् ] जीव माती (ठा २. १-पत्र ३८ ) । सरेअव्व देखो सर = सृ, स्मृ । सरेक्य पुं [दे] १ हंस । प्रवाह मोरी (दे व ४०) २ वर का जल सरोअ न [सरोज] कमल, पद्म ( कुमा अऋतु ४२; सुपा ५६; २११३ कुप्र २६८) । सरोरुह न [सरोरुह ] ऊपर देखो (प्रा कुमा २०४) | सरोवर [ सरोवर] या पा २६०; महा) | सलभ देखो सलह् = शलभ (राज) । सलली स्त्री [दे] सेवा (दे ८. ३) । - सलह सक [श्लाघ] प्रशंसा करना । सलह (हे ४८८) कर्म सहिद (११२) । सहि (कुमा) देखो साइ सलह पुं [शलभ ] १ पतङ्ग (पाउड सुपा १४२ ) । २ एक वणिक्-पुत्र ( सुपा ६१७ ) 1 सलहण न [ श्लाघन] प्रशंसा, श्लाघा (गा ११४ पि १३२) । [] कुछ यादि का हाथा (दे ८, ११) 1 सर्लाहि बि [ श्लाघित] प्रशंसित (कुमा) । १११ पाइअसहमणवो सलहिज्ज देखो सल६ = श्लाघ् । सलाग न [शालाक्य] चिकित्सा शास्त्रश्रायुर्वेद का एक श्रृंग, जिसमें श्रवण श्रादि शरीर के ऊ भाग के सम्बन्ध में चिकित्सा का प्रतिपादन हो वह शास्त्र ( विपा १, ७— पत्र ७५) । सागा [] ) श्री } (सम १, सली, सलाई २, १० कपू)। सलाया २ पल्य-विशेष, एक प्रकार की नाप ( जीवस १३६६ कम्म ४, ७३३ (५) पुरिस [पुरुष]२४१२ वासुदेव । प्रतिवासुदेव तथा बलदेव ये ! ६३ महापुरुष (संबोध १२ ) । ह सलाह देखो सलह = श्वाघ् । सलाहइ ( प्राकृ २८) । वकृ. सलमाण (गा ३४६ सम्म १५९ ) । पञ्च, सलाहणिय, सलाहणीअ (प्राह २८ गाया ११६पत्र २०१; सुर ७, १७१, रयण ३५० पउम ८२, ७३;पि १३२) - सलाहण न [श्वन ] वाघा, प्रशंसा (गा ११४ उप पृ १०६ ) ~ सत्यहा श्री [लाचा ] पात्र १०१ यह 1सलाहिअ देखो सर्लाहि सलिल पुंन [सलिल ] २, (कुमा) 1 नी, जल; 'सलिला रण सदंति ण वंति वाया' (सुन १, १२, कुमादि [*निधि] सागर, समुद्र (से ६. ६) ५ °नाह ['नाथ ] वही (पउन ६, ६६) बिल न ['बिल ] भूमि-निर्भर, जमोन से बहता करना ( भग ७, ६ - पत्र ३०५ ) रासि [ राशि ] समुद्र (पान) । वाह [वाह मेघ (पउम ४२, ३४) हरपुं [र] वही (से, ε४) वई, ती स्त्री [ती] विजय क्षेत्र विशेष (राज गाया १, ८पत्र १२१) न [वर्त] वैताढ्य पर्वत पर उत्तर दिशा - स्थित एक विद्याधरनगर (इ) 1 一 सलिला श्री [सलिला]] महानदी बड़ी नदी ( सम १२२ ) । सलिच्छवि [सलिलोय ] प्लावित डुबोया टुमा (पाच) For Personal & Private Use Only ८८१ सलिस क [ स्वप् ] सोना, शयन करना । सलिल पड़ सलग देखो सलूग = स-लवण सलोग [श्लोक] खापा, प्रशंसा (सू १, १३, १२) । देखो सि सलोग देखो स-लोग = सलोक ॥ सोण को नग देखो = सल सलोय देखो लोगो १.६, २२) सह पुंन [राज्य] १ अत्र विशेष तोमर, साँग 'तम्रो सल्ला पण्णा' (ठा ३, ३--पत्र १८७) । २ शरोर हुआ कोटा, तीर आदि ( सू २२, पंचा १, १६ प्रात : २०)। ३ पारानुज्ञान, पापक्रियापार सूप १, १५, २४) । ४ पापानुष्ठान मे लानेवाला कर्म ( सू १, १५, २४० व १।। ५ पुं. भरत के साथ दीक्षा लेनेवाले एक राजा का ( पउम ८५, २) । ६ न. छन्द- विशेष (पिंग) गवि [] शल्यवाला, यदि शल्य शूल से पीडित ( परह २, ५ - पत्र १५०) ग [ग] परिज्ञान, जानकारी ( सू २२, ५७) 1 सह श्री [] हाथ से चलनेवाली जन्तु की एक जाति (सू २, ३, २५) सल्लइय वि[ल्यकित ] शल्य-युक्त, जिसको शल्य पैदा हुआ हो वह (गाया १, ७- पत्र ११६) । सलई बी [ सल्लको ] वृक्ष-विशेष (गाया १, ७ टी- पत्र ११६६ उप १०३१ टी. कुमा; धर्मवि १३०६ सुपा २६१) । सलग देखो सल्लाग= शल्य-क, शल्य-ग सलग देखो स-हग = सत्-लग | सहहत्त पुंन [शाल्यहत्य ] आयुर्वेद का एक अंग, जिसमें शल्य निकालने वा प्रतिपादन किया गया हो वह शास्त्र ( विपा १, ७७५)। सल्ला बी [शल्या ] एक महौषधि ती ५) । सहिल वि [शल्यित ] शल्य- पीडित ( गुर १२, १५२; सुपा २२७ महाः भवि) 1 सहिह देखो संलि से+लि (धारा ३५) । सहिदि = Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८२ सल्लुद्धरण न [रावोरण] १ शल्य को बाहर निकालना (विद्या १८ पत्र ८६) । २ श्रालावना प्रायश्चित्त के लिए गुरु के पास दूषण निवेदन (श्रोष ७९१) । सल्लेहा देखो संलेगा (बारा ३५ भवि ) । सहि वि[संलेखन ] क्षोण, 'सल्ले हिया कसाया करंति मुरिलो र वित्तसंखोई' ( धारा ३६ ) । सब सक [] १ शाप देना, श्राक्रोश करना गाली देना । २ श्राह्वान करना । सब (गा ३२४ ४०० ) सविमो, सत्रसु (कुमा)। कर्म. सम्पए (विने २२२७) । वकृ. सवमाण ( उ ) कवकृ. सम्मान (पह १, ३--पत्र ५४ ) 1 सत्र सक [ ] उत्पन्न करना, जन्म देना । सवइ (हे ४० २३३ षड़ ) सब देखो स= सु । सबइ, सबए (षड् ) 1 सब तक [] भरना, टपकना, चूना । सवइ (विसे १३६८ ) 1 वपुं [अस] १ कान । २ ख्याति 'सवोमू' (प्रा)। सती श्री [व] नदी ( अ १०३१टो) । सबक देखो सबत्ती (सुपा ३३७ ६०१; सूक्त ४६६ महाः कुत्र १७० ) । सक्ख देखो सबक्ख सन्पक्ष सवग्गीय वि [सवर्गीय] सवर्ग-संबन्धी (हास्य १२० ) 1 1 सबब देखो सन्पच = श्वपच ॥ सब न [ब] शत्र, मुरदा, मृत शरीर (पाथ सय स ७६३ सा = सबजा देखो सपज्जा ( चेइय २०४ कप्पू) 1 सवह वि [] श्रभिमुख, संमुख; सवडहुत्त 'सहसा सवडंमुहो चलियो' } ( महा दे ८, २१० पउम ७२ ३२० भवि ), उपश्रो नहपलं विमागत्यो अह तारण सबहुतो रणरसतरहालु सहसा (पउम ८, ४७), 'वच य दाहिणदिसं लंकानयरीसवडहुत्ती' (पउम ८ १३४) सवण देखो समग= श्रमण ( धारा ३६ भवि ) । सम सल्लुद्धरण- सव्व सवग पुं [श्रवण] १ क, कान (पाय सवह] [ शपथ ] १ प्राक्रोश-वचन, गाली सुपा १२८ ) । २ नक्षत्र विशेष (सम ८, १५ ( गाया १, १ - - पत्र २६ देवेन्द्र ३५ ) । २ सुज १०, ५) । न. श्राकर्णन, सुनना सोगन्ध, सोंह (गा ३३३; महा) | ३ दिव्य, ( भगः सुर १, २४६ ) । देखो सवन । दोषारोप की शुद्धि के लिए किया जाता सबण न [शपन] श्राह्वान (विसे २२२७ ) । अग्नि प्रवेश आदि (पउम १०१, ७) सवग देखो स-वग = सव्रण। - [] श्येन पक्षी (देब, ७) सपा वन [सवन] कर्मों में प्रेरणा (राज) सवगता सवणवा पत्र ४६; ६ सवाग ) देखो स बाग = श्वपाक 1 सवाय सवाय देखो स वायस-पाद, सवाद, सद्वाच् ॥ ar [raini ] १ श्राकर्णन, श्रवरण, सुनना (ठा २, १---- - पत्र ३५५ गाया ११पत्र २६ भग; श्रौप ) २ अवग्रह ज्ञान (fle for) सवारन [दे] सुबह प्रभात गुजराती में 'सवार' (बृह १) [व] समान वर्णवाला (पउम २, ३१) [न] [सावर्ण्य] समानता (प्रयो २०) । सब[सपत्न] १ दुश्मन, शत्रु र ( से ३, ५७ उप १०३१ टी; गउड) । २ वि. विरुद्ध (ओघ २७६) । ३ समान, तुल्य 'सयवत्तसवत्तनयण र मणिजा' ( कुप्र २); 'सयमेव सरिसवत्तं छत्तं उवरि ठियं तस्स' (कुम ११९) । देखी सपत्ती 'षि (?) तिखी' (पिंड ५१० ) । सर्वान्तिवा श्री [सपत्निका] नीचे देखा (आ) सवास पुं [दे] ब्राह्मण (८, ५) सवाल देखो सवास = सवास [[वि] [[राप्त ] शाप-१ १३; पान) । सचि[वि] सूर्य रवि बो ६६७ ) । २ हस्त नक्षत्र का अधिपति देव (सुन १०, १२) हस्त नक्षत्र (म) 1 सविल वि [ सापेक्ष ] अपेक्षा रखनेवाला ( सम्मत ७६ ) । सविन देस-सि-वियv सविट्ठा को [वि] विशेष प नक्षत्र नक्षत्र (राज) । सविग देव (१८) सवितुदेव सवि (२, ३-- ७७ ) ॥ सबत्ती श्री [सपत्नी] पति की दूसरी श्री रूचि न [दे] सुरा दाह (दे. ४) य सविन [सविध] पास, निकट ( पाच ) 1 सव्व वि [सव्य] वाम, बाँया (श्रीप; उप पृ १३० ) । (उवा काम ८७१ स्वप्न ५७ ठा ४, ३-पत्र २४२; हेका ४५ ) । सवन (मा) पुं [ श्रवण ] एक ऋषि का नाम ( मोह १०९) । देखो सत्रण = श्रवण । सवन्न देखो सवण ( हम्मीर १७ ) । सवय देखो स वय = सवयस स व्रत सवर देखो सबर (पउम ६८, ६५० इक कप्पू पि २५० ) । 7 सवरिआ देखो सपज्जा (नाट-वेणी २६) । सवल देखो सवल (दे २ ५५३ कुमार हे १, १३०; रंभा ) । - [[]] रोका एक प्राचीन जैन मन्दिर (मुणि १०८६६ ) 1 For Personal & Private Use Only = सव्वत्रि [य] श्रवण-योग्य, 'सव्वक्खरसंनिवाई' (भग १, १ - पत्र ११) | सब् स [सर्व] १ सव, सकल, समस्त । २ (2,xxe) [] १ सब से । २ सब ओर से (हे १, ३७६ कुमा बाचा) जमद[ि"तोभद्र ] १ सब प्रकार से सुखी । २ न. सब प्रकार से सुख (पंत्र १) । परिभा के ज्ञान का साधन भूत एक चक्र ( ति ६ ) । ४ महाशुकदेवलोक में स्थित एक विमान (सभ ३२) । ५ पाचवा ग्रैवेयक विमान Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वंकस-सविढि पाइअसहमहण्णवो (पव १६४)। ६ एक नगर का नाम (विपा | (साधं ८०)। २ राजा कुमारपाल के समय ! १८१) णंद नन्द ऐरबत क्षेत्र के १, ५-पत्र ६१) ७ अच्युतेन्द्र का एक का एक सेठ (कुप्र १४३) इंसि देखो एक भावी जिन-देव (सम १५४)- णुभूइ पारियानिक विमान (ठा १०-- पत्र ५१८; दंसि (चेइय ३५) द्धा श्री [द्वा] पुं [नुभूति] १ भारत वर्ष में होनेवाले प्रौप) । ८ दृष्टिवाद का एक सूत्र (सम सब काल, अतीत आदि सर्व समय (भग) पांचवें जिन भगवान् (सम १५३)। २ भग१२८)। . यक्ष की एक जाति (राज)। धत्ता स्त्री धत्ता] व्यापक, सर्व-ग्राहक वान महावीर का एक शिष्य (भग १५---पत्र १० देव-विमान-विशेष (देवेन्द्र १३६; १४१) (विसे ३४६१)। न्नु देखो ज (मम १; ६७८) हा श्री [ारा विद्या-विशेष 'ओभद्दा स्त्री [ तोभद्रा] प्रतिमा-विशेष, प्रासू १७०; महा)। पग वि [त्मक] (पउम ७, १४४) व विप संपूर्ण एक व्रत (औप-ठा २, ३-पत्र ६४; अंत १ व्यापक । २ पुं. लोभ (सून १, १, २, । (भग) सा [शिन] प्राग्न. आग २६) 'कामस मिट्ठ पुकामसमृद्ध] १२) पभा स्त्री [प्रभा] उत्तर रुचक पक्ष का छठवा दिवस, षडी तिथि (सुज्ज पर्वत पर रहनेवाली एक दिपकुमारी देवी सव्वंकस वि (सर्व] १ सतिशायो, १०, १४)।कामा स्त्री [कामा विद्या- (राज), भक्ख वि [A] सबको खाने- सर्व से विशिष्ट (कप्पू)। २ न. पाप (आव) । विशेष, जिसको साधना से सर्व इच्छाएँ पूर्ण वाला, सर्व-भोजोः 'अरिगमिव सबभक्खे' सव्यंग वि [सर्वाङ्ग] १ संपूर्ण (ठा ४, २-- होती हैं (पउम ७, १०७) गय वि (णाया १, २--पत्र ७६). भद्दा स्त्री पत्र २०८)। सर्व-शरीर-व्यापो (राज) - [गत व्यापक (अच्चु १०) गा स्त्री [भद्रा] प्रतिज्ञा-विशेष, व्रत-विशेष (पव सुंदर वि ['सुन्दर] १ सर्व अगों में श्रेष्ठ । [गा] उत्तर रुचक पर्वत पर रहनेवाली २७१), "भावविउ पुं भावविद्]। २ पुंन. ता-विशेष (राजः पब २७१) । एक दिक्कुमारी देवी (ठा ८-पत्र ४३७)। आगामी काल में भारत वर्ष में होनेवाले सव्यगि वि सर्वाङ्गीण सर्व अवयवों 'गुत्त पुं [ गुन] एक जैन मुनि (पउम बाहरवें जिन-देव (सम १५३)। “य वि सव्वंगीण में व्याप्त (हे २, १५१, कुमाः २०, १६)। ज विज्ञ] १ सर्व पदार्थों ra] सब देनेवाला (पएह २, १-पत्र से १५, ५४); 'सबंगोणाभरणं पत्तेयं तेरण का जानकार । २ पुं. जिन भगवान् । ३ २६) या प्र[दा] हमेशा, सदा (रंभा) ताण कयं' (कुप्र २३५; धर्मवि १४६) बुद्धदेव । ४ महादेव । ५ परमेश्वर (हे २, रयण [ रत्न] १ एक महा-निधि (ठा | सव्वण देखो स-व्यण = स-व्रण । ८३ षड् ; प्राप्र)। पुं [ार्थ] १ ग्रहों- ६-पत्र ४४६)। २ पुंन. पर्वत-विशेष का सव्वराइअ वि [सार्वरात्रिक] संपूर्ण रात्रि रात्र का उनतीसवाँ मुहूत्तं (सुज्ज १२, १३)। एक शिखर (इक), रयणा स्त्री ["रत्ना] से सम्बन्ध रखनेवाला, सारी रात का (सूम २ न. सहस्रार देवलोक का एक विमान (सम ईशानेन्द्र की वसुमित्रा नामक इन्द्राणी की २, २, ५५; कप्प)। १०५) । ३ अनुत्तर देवलोक का सपर्थिसिद्ध- एक राजधानी (इक), रचणामय वि सव्वरी स्त्री [शर्वरी] रात्रि, रात (पाम गा नामक एक विमान (पव १६०) । ४ पुं. सब [रत्नमय] १ सब रत्नों का बना हुआ (पि अर्थ (प्राचा १, ८, ८, २५) । दृसिद्ध ७०; जीव ३, ४)। २ चक्रवर्ती का एक ६५३; सुपा ४६१)। पुंन [ार्थसिद्ध] १ अहोरात्र का निधि (उव ६८६ टी)। "विग्गहिअ वि सव्वल [दे. शर्वल] कुन्त, बी (राज उनतीसवाँ मुहूर्त (सम ५१) २ एक [विग्रहिक] सर्व-संक्षिप्त, सबसे छोटा (भग काल) । देखो सद्धल । सर्व-श्रेष्ठ देव-विमान, अनुत्तर देवलोक का १३, ४-पत्र ६६) - विरइ स्त्री सव्वला स्त्री [दे. शवला] कुशी, लोहे का पांचवा विमान (सम भग;अंतीप)। ३ पुं. विरति पाप-कर्म से सर्वथा निवत्ति. पां एक हथियार (६८, ६)। ऐरवत वर्ष में उत्पन्न होनेवाले छठवें जिनदेव संयम (विसे २६८४), संगय [ सङ्गन] सव्यवक्ख देखो स-व्यवेक्ख = स-व्यपेक्ष । (पव ७) सिद्धा स्त्री [ार्थसिद्धा] भग मृत्यु (पउम---पत्र० २१, पर्व ११०, सव्वाव देखो सव्य-गव = सर्वाप । वान् धर्मनाथजी को दोक्षा-शिविका (विचार गा० ४४) संजम पुं[संयम पूर्ण सव्वाव देखो स-व्याव = स-ध्याप । १२६) दृसिद्धि स्त्री [र्थिसिद्धि] एक संयम (राय) । सह वि [सह] सब सहन सव्वावंति प[दे] सर्व, सब, संपूर्ण, 'एयादेव विमान (देवेन्द्र १३७)। णु देखोज करनेवाला. पूर्ण सहिष्ण (पउम १४, ७६) वति सव्वावंति लोगंसि' (प्राचा), 'सवाति (हे १, ५६; षड् ; पोप)। त्त देखो त्य 'सिद्धा स्त्री [सद्ध] पक्ष की चौथी, च णं तीसे एं पुक्खरिणीए' (सूम २, १,५), (समु १५०), तो देखो 'ओ ( पाथ नववीं और चौदहवीं रात्रि-तिथि (सुज्ज १०, 'सब्वाति च णं लोगंसि' (सूम २, ३,१), अ [त्र सब स्थान में, सब में (गउड प्रासू १५)। सो अ[शस 1 सब ओर से, 'सव्वं ति सव्वावंति फुसमाएकालसमयंसि ३६६८), "दस, दारांस वि दशिन् सब प्रकार से (उत्त १, ४ प्राचा)। "स्स जावतियं खेत्तं फुसई (भग १, ६-पत्र १ सब वस्तुओं को देखनेवाला। २ पुं. जिन न [स्व] सकल द्रव्य, सब धन (स ४५६; ७७) । भगवान, महंन (राजा भग; सम १, पडि)। अभि ४०: कप्पू) हा प्रथा] सब प्रकार सविडिढ स्त्री [सद्धि] संपूर्ण वैभव °देव ["दव] १ एक प्रसिद्ध जैन प्राचार्य । से, सब तरह से (गा ८९७: महा: प्रासू ३; (गाया १,८--पत्र १३१) । For Personal & Private Use Only Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८४ पाइअसदमण्णो सव्विवर-सह सवित्रा देवो का-व्यिवर = स-विवर । ससि पुं शशिन] १ चन्द्रमा, चांद (सुज्ज सस्मवण वि [सश्रवण] सकर्ण, निपुण (सुपा सम्मास स्त्रीसियापधि]१लब्धि-विशेष, २०-पत्र २६१; उव, कप्प; कुमाः पि ६४५)।जिसके प्रभाव से शरीर की कफ आदि सब ४५)। २ एक विद्यार्थी का नाम (पउम सस्सिय पुं [शस्यिक] कृषीवल, कृषक चीज पौषधि का काम करती है (पएह २, ५.६४)। ३ चन्द्र नाड़ी, वाम नाड़ी (सिरि (राज)१-पत्र ६६) २ वि. लब्धि-विशेष को ३६१)। ४ एक देव-विमान (देवेन्द्र १४३)। सस्सिरिअ देखो स-स्सिरिअस-श्रीक ।। प्राप्त (राज) ५ छन्द विशेष (पिंग)। ६ एक राजा का नाम सस्सिरिली देखो सिस्सिरिली (उत्त ३६, सस अवस.] खास लेना. सांसना। (उव)। ७ दक्षिण रुचक पर्वत का एक कूट ९८). ससाइ (रयरा ६)। दकृ. ससंत (गाया १, (ठा ----पत्र ४६६) अंत पुं[कान्त] सस्सिरीअ देखो स-स्सिरीअ = स-श्रीक ।१--पत्र ६३ गा५४६; सुर १२, १६४, कान्त माण (अच्नु ५८)। अलाना सस्सू स्त्री [ श्वभू] सास, पति या पत्नी की नाट-मृच्छ २२०)। 'कला] चन्द्र की कला, सोलहवां भाग माता (प्राकृ३८: सिरि ३५५) । सस [रास] खरगोश (णाया १,१--पत्र (गउड)। कर देखो अंत (कुमा; सण) 1M २४; ६ सह अक [ राज ] शोभना, विराजना । सहइ पभ, पह, [भ] १ माठवें जिनदेव, इंच पूं[चिह्न] चन्द्रमा (गउड) । (हे ४, १००; पाम कुमा; सुपा ४) भगवान् चन्द्रप्रभा । २ इक्ष्वाकु वंश का एक हर पुं [धर] चन्द्रमा (णाया राजा (पउम ५, ५) १, ११, सुर १६, ६; हे '३, ८५, कुमा; पहा मी प्रभा] सह अक । सह.] सहन करना। सहइ, वज्जा १६; रंभा) एक रानी, कर्पूरमंजरो को माता (पउम सहात (उवः महा: कुमा), सहइरे, सहेइरे ६, ६१ कप्पू) मणि पुंस्त्री [मणि] (पि ४५८) वकृ. सहत, सहमाण (महा। ससंकसिशाङ्क] १ चन्द्रमा, चद (कप्प; चन्द्रकान्त मणि (ले ६, ६७) ५ °लेहा श्री षड् । स. साहअ (महा) । हेक. साहउँ, सुर १६, ५५, सुपा २:; कप्पू, रंभा)। [ लेखा] चन्द्र की कला (सुमा ६:३)। और सोढुं (महा; धात्वा १५५; १५७)। कृ. २ नृप-विशेष (पउम ५, ४३, ८५, २) "वक्कय न [ क] आभूषण-विशेष सहिअव्य, सोढव्य (धात्वा १५५, सुर धम्म [ध] विद्याधर-वंश का एक । (प्रौप) । वेग वेग] एक राज-कुमार १४,८०७ गा १८ कप्पू, उप ७२८ टी धात्वा राजा (पउम ५, ४४)। (उप १०३१ टी) । सेहर ' [शेखर] ससंक देखो स-सं: = स-शङ्क।। महादेव, शिव (सुपा ३३) सह सक [आ + ज्ञा] हुकुम करना. पादेश ससंकि देखो स-संकि सशहित ससिअन [श्वसितावास. साँस १२. करना, फरमाना । सहइ (धात्वा १५५) ससंग देखो ससंक= शशाङ्क। सह वि [दे] १ योग्य, लायक (दे ८, १)। ससंवेण देखो स-संवेयण = स्व-संवेदन । ससिण देखो ससि (क) । २ सहाय, मदद-कर्ता (सूम १, ३, २, ६)।सासगिद्ध वि सिंस्निग्ध, सस्निग्ध] स्नेह- सह वि [व] देखो स= स्व (प्राचा) ससक्स सिसाक्ष्य] साक्षीवाला (राय "देस पुं[देश] स्वदेश, स्वकीय देश (पिंग)। युक्त (पाचा २, २, ७, ११; कप्प)। १४०)। संबुद्ध विसंबुद्ध] १ निज से ही ज्ञान ससग पु [शराक] देखो सस = शश ससिस्थ न [सस्क्यि ] पाटा आदि से लिप्त। को प्राप्त । २ पुं. जिन-देव (मौप)। (उव) । हाथ या बरतन प्रादि का धोवन (पडि)। सह वि [सह] १ समर्थ, शक्तिमान् (पाय: ससण वसन] १ शुण्डा-दण्ड, हाथी सप्तिरिया देखा स-सिरिय = स-श्रीक। से ५, २३)। २ सहिष्णु, सहन कर्ता की सूंड (नंदु २. औप)। २ वायु, पवन । (प्राचा) । ३ . युगलिक मनुष्य को एक ३ न. निधात (राज)। ससिह देखो स-सिह = स-स्पृह. स-शिख ।। जाति (इक राज)। ४ अ. साथ, संग (स्वप्न ससत्ता देखो स-सत्ता = स-सत्त्वा । ससुर पुंश्वसुर ससुर, पति और पत्नी का ३४; पाचा. जी ४३ प्रासू ३८)। ५ युगपत्, पिता (पउन १८, ८ हेका ३२, कुमाः सुपा ससरक्ख विसर जस्क, सरक्ष] १ रजो एक साथ (राज)। कार [कार] १ ३७७) आम का पेड़ (कण)। २ साथ मिलकर काम युक्त, धूलावाला (प्राचा २, १, ६, ३; २, ससूग देखो स-सूग = स-शूक । - २.३, ६३; प्राव ४)। २ पुं. बौद्ध मत का करना । ३ मदद, साहाय्य (हे ११७७)। ससेस देखो स-सेस =स-शेष । कारि वि [कारिन] १ साहाय्य-कर्ता साधु (सुख १८, ४३; महा)। ससाग देखो स-सोग = स-शोक । (पंचा ११, १२)। २ कारण-विशेष (विसे ससरा घि[२] निष्पिष्ट, पिसा हुग्रा (दे ससोगिल्ल ११६८ श्रावक २०६) गत, गय वि सस्स न [शस्य] १ क्षेत्रगत धान्य (गा [गत] संयुक्त (पएण, २२–पत्र ६३७; सस स्त्री स्थान] बहन, भगिनी (पिंड ३१७; ६८६ महा; सुपा ३२)। २ त्रि. प्रशंसनीय, उव) गारि, गारिअ देखो कारि (धर्मसं हे ३, ३५: कुमा) । श्लाध्य (सुपा ३२) । देखो सास = शस्य । ३०६ उप ४७२, उबर ७६) °चर देखो Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह-सहिअय पाइअसहमहण्णवो ५ 'यर (कुमा) J°चरण न [°चरण] सहबर, सहस देखो सहस्स (श्रा ४४, पि ६२: सहस्संदवण न [सहस्राम्रवण] एक उद्यान, साथ रहना, मेलापः 'रयणनिहाणेहिं भवउ ६६) किरण पुं [किरण] सूर्य, रवि प्राम के प्रभूत पेडोंवाला वन (णाया, १,८-- सहचरण' (श्रु८४) । ज पुं [ज] १ (सम्मत्त ७६) क्ख [क्ष] १ इन्द्र . पत्र १५२; अंतः उवा) । स्वभाव (कुमाः पिंग)। २ वि. स्वाभाविक (सुपा १३०)। २ रावण का एक योद्धा सहस्सार सहस्त्रार] १ माठव' देवलोक (चेइय ४७१)-4 जाय वि [जात एक (पउम ५६, २६) । ३ छन्द-विशेष (पिंग)। (सम ३५; भग; अंत)। २ पाठवें देवलोक साथ उत्पन्न (गाया १, ५–पत्र १०७) का इन्द्र (ठा २, ३--पत्र ८५)। ३ एक सहसक्कार पुं[सहसाकार] १ विचार किए "देव [देव १ एक पाण्डव, माद्री-पुत्र देस विमान (देवेन्द्र १३५) । वसिय पुन विना करना (प्राचा)। २ आकस्मिक क्रिया, (धर्मवि ८१) । २ राजगृह नगर का एक [वितंसक] एक देव-विमान (सम ३५) ।। अकस्मात् करना (भग २५, ७---पत्र ६१६)। राजा (उप ६४८ टी) देवा स्त्री [देवा] सहा बी [सभा] समिति, परिषत् (कुमाः ३ वि. विचार किए बिना करनेवाला ओषधि-विशेष (धर्मवि ८१) "देवी स्त्री स १२६, ५१६; सुपा ३८४) सय वि (प्राचा) ["देवं] १ चतुर्थ चक्रवर्ती की माता (सम [सद] सभ्य, सदस्य (पानः स ३८५) । १५२. महा)। २ एक महौषधि (ती ५) सहसांत्त प्र. अकस्मात्, शीघ्र, जल्दी, तुरन्त सहा देखो साहा - शाखा (गा २३०) धम्मआरिणी स्त्री धर्मचारिणी पत्नी, (पाप; प्राकृ८१) । सहाअ देखो स-हाअ- स्व-भाव - भार्या (प्रति २२)-1 सुकीलिअ वि. सहसा असहसा अकस्मात्, शोघ्र, जल्दी सहाअ पुं[सहाय] साहाय्य-कर्ता (गाया [°पांशुक्रीडित बाल-मित्र (सुपा २५४ (पान; प्रासू १५१: भवि) । वित्तासिय १,२-पत्र ८८; पाम से ३, ३स्वप्न पाया १,५-पत्र १०७)। य देखो ज न [वित्रासित] अकस्मात् स्त्री के नेत्र-स्थ- १०६: महाः भग)। (चेइय ४४६ राज) यर वि [चर] १ गन प्रादि क्रीडा (उत्त १६,६) सहाइ बिसाहारियन्] ऊपर देखो (सिरि, सहाय, साहाय्य-कर्ता । २ वयस्य, दोस्त । ६७; सुपा ५६३) सहस्स पुंन [सहस्र] १ संख्या-विशेष, दस ३ अनुचर (वायः कुप्र २। अन्तु १०% सहाइया स्त्री [सहायिका] मदद करनेवाली म सौ,१०००। २ वि. हजार की संख्यावाला (उवा) नाट--शकु ६१), यरी श्री [चरी] (जी २७; ठा ३.१ टी-पत्र ११६ प्रासू ४ सहार देखो सहर = सह-कार । पत्नी, भार्या (कुप्र १५१; से ८, ६६) 'यार देखो कार (पामः हे १, १७७) कुमा) । ३ प्रचुर, बहुत (कप्पा आवमः हे सहाव देखो स-हाव = स्व-भाव । २,६६८) "किरण 'राग वि [ राग] राग-सहित (पउम १४, [किरण] १ सूर्य, रवि (सुपा ३७)। २ एक राजा (पउम १०, | सहास देखो सहस्स (भवि) हुत्तो प्र ३) र देखो कार (पउम ५३, ७६)। ३४) क्ख पुं [T] इन्द्र, देवाधिपति [कृत्वस ] हजार बार (षड् )। सह देखो सहा = सभा (कुमा)। (कप्पः उत्त ११, २३)। णयण, 'नयण सहामय देखो सहा-सपसभा-सद । सहउत्थिया स्त्री [दे] दूती (दे ८, ६) पुं[नयन] १ इन्द्र (उव; हम्मीर ५ स वि [सखि] मित्र, दोस्त (पामः उर सहगुह पुं[द] घूक, उल्लू, पक्षि-विशेष (दे। महा) । २ एक विद्याधर राज-कुमार (पउम २. ६) । देखो सही । ५, ६७)। पत्त प्र पत्र] हजार दन- सहि देखो सही (कुमा)। सहडामुह न शिजटामुख] वैताट्य की वाला कमल (कप्प) पाग पुन [पाक उत्तर श्रेरिण में स्थित एक विद्याधर-नगर सहिअ विसोढ सहन किया हुअा (से १, हजार प्रोषधि से बनता एक प्रकार का तैल हजार प्राषाय सबनता एका ५५, धात्वा १५५) । (णाया १,१-पत्र १९; ठा ३, १--पत्र । सहण अदे] सह, साथ में (सूत्र० चूणि ११०) रस्सि पु[संश्म] सूर्य, रवि । सहिन वि सहित] १ युक्त, समन्वित (उव; गा० २५७) । (णाया १,१-पत्र १७, भगः रयण ८३) कुमा; सुपा ६१)। २ हित-युक (सूत्र १, सहण न सहन] १ तितिक्षा, मर्षण । २ 'लोयण पु लोचन] इन्द्र (स ६२२)। २. २, २३) । ३ . ज्योतिष्क ग्रह-विशेष वि. सहिष्ण, सहन करनेवाला (सं २६) (ठा २, ३-पत्र ७७)। 'सिर वि [°शिरस ] १ प्रभूत मस्तकसहर पुंस्त्री शिकर] मत्स्य, मछली (पाम; बाला । २ पुं विष्णु (हे २, १९८) । वत्त सहि पूं [सभिक] द्यूत-कारक, जुना गउड)। स्त्री. (हे १, २३६; गउड)। देखो पत्त (से ६, ३८; सुपा ४६), सो खेलनेवाला (दे ६, ४२ पानः सुपा ४८८)। सहर विदि साहाय्य-कर्ता, सहाय; 'न तस्स अ[शस ] हजार-हजार, अनेक हजार सहज देखो स-हिअ = स्व-हित ।। माया न पिया न भाया, कालम्मि तम्मि (श्रा १२) हा अ [धा] सहस्त्र प्रकार से सदा देखो सह - सह । (?म्मी) सहरा भवंति' (वै ४३)।. (सुपा ५३) हुत्तं [कत्वस ] हजार सहिअ । वि [सहृदय] १ मुन्दर चित्तसहल वि सफल] फल-युक्त, सार्थक (उप बार (प्रातः हे २, १५८)। देखो सहस, सहिद वाला । २ परिपक्व बुद्धिवाला १०३६ टी हे ।। २३६; कुमाः स्वप्न १६) सहास। (हे १,२६६ दे १,१, काप्र ५२१)। For Personal & Private Use Only Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८६ सहिआ देखो सही (महा सहिज्ज वि देखो सहाअ = सहायः 'हुति सहिया विहरे कुनिया सोयरा चेव' (सुदा ४२७ महाः कुप्र १२) + खो. 'ज्जी (सुपा १६ टि) सहिण देखो सह + श्लक्ष्ण (प्राचा २, ५, १, ७; स २६४० ३२९ ३३३ ) | सहि [ [ सहिष्णु ] सहन करने की सहिण्डु } श्रादतवाला (राज) पि ५६६ ) । स्त्री. री (गा ४७पि ५६६) । सही स्त्री [सखी] सहेली संगिनी (स्वप्न १४१३ कुमा) सहो देखो सहि । 'वाय पुं [वाद] मित्रतासूचक वचन ( सूत्र १, ६.२७) सहीण वि [ स्वाधीन ] स्वायत्त, स्व-वश ( पउम २५, १७ उवः दस ८, ६) । सहु वि [सह ] समर्थ, शक्तिमान् ( श्रोष ७७; श्रोघभा ६८ उबर १४२ व ४) । सहु (अप) देखो संघ (संति ३१) सहुँ (घर) ४१६ कुमा) । IM [स] साथ संग ( ४, सहेज देखी सहज (महा) सहेर ( ) [ शेखर ] षट्पद छन्द का एक भेद (पिंग). सहेल [सहेल] हेसायुक्त, अनायास होनेवाला, सरल, गुजराती में 'सहेलु" (प्रवि ११) । सहोअर वि [सहोदर ] १ तुल्य, सदृश ( से ६, ४) । २ पुं. सगा भाई (पान काल ) सहोअरी श्री [सहोदरी ] सगी बहिन (राज) । - सहोढ वि [ सहोड ] चोरी के माल से युक्त, स-मोष (पिंड ३८०६ गाया १, २पत्र ८६) । सहोदर देखो सहोर (मुपा २४० महा) । सहस वि[सहोपित ] एक-स्थान- वासी (१४) साअड्ढ सक [प] १ चाष करना, कृषि करना । २ खींचना । साग्रड्डइ (हे ४, १८७ वड् ) । वि सहिआ - साउज साअअ [2] लोचा हुआ (कुमा साक्ष तक [स्वादु सात्मी+] १ ७, ३१) स्वाद लेना, खाना । २ चाहता, अभिलाष करना। ३ स्वीकार करना. ग्रहण करना । ४ श्रासक्ति करना। ५ अनुमोदन करना । ६ उपभोग करना। साइज्जइ, साइज्जामो ( यात्रा कस कप्प - टी; भग १५ पत्र ६८०; श्रप), साइज्जेज्ज ( आचा २. १, ३. २ ) । भवि साइज्जिस्पामि ( श्राचा) 1 हे. साइज्जित्त (ग्रप) 1 • साइजन [स्वादन] धाि (२६८५) पाइजसम साजद (शी) देखो सागद ( अभि १०२ नाट- मृच्छ ४ प १८५) । साइ[िशाखिन] सोनेवाला शयन-कर्ता (सूत्र १, ४, १, २८ श्राचा; दस ४ २६ ) । साइवि [साहि] १ आदि सहित, उत्पत्तियुक्त (सम्म ६१ ) । २ न. संस्थान - विशेष, शरीर की श्राकृति विशेष जिल शरीर में नाभि से नीचे के अवयव पूर्ण और नाभि के ऊपर के प्रवयत्र होन हो ऐसी शरीराकृति (सम १४६: अणु) । ३ कर्म- विशेष, सादिसंस्थान की प्राप्ति का कारण-भूत कर्म (कम्म १, ४). साइन [साचि] १ सेमल का पेड़ - शाल्मली वृक्ष । २ संस्थान विशेष, देखो साइ - सादि का दूसरा और तीसरा अर्थ (जीव १ टीपत्र ४३ ) । साइी [स्पाति] नक्षत्र-विशेष (सम २९: कप्प ); 'ला साई तं च जलं पत्तविसेसेरा अंतरंग (प्रा २९) २. भारतवर्ष में होनेवाले एक जिनदेव का पूर्वजन्मोय नाम (सम १५४ ) । ३ एक जैन मुनि (दि ४२४ पर्यंत का अधिष्ठायक देव (ठा २, ३ - पत्र ६६) ~1 (05 साइ पुं [ सा दिन ] घुड़सवार (उप ७२८ टी) । साइ पुंस्त्री [सात] १ श्रच्छी चीज के साथ खराब चीज का मिश्रण, उत्तम वस्तु के साथ हीन वस्तु की मिलावट ( सू २, २, ६५) । २ श्रविश्रम्भ, अविश्वास । ३ असत्य वचन, झूठ ( परह १, २ पत्र २६) । ४ सातिशय द्रव्य, अपेक्षाकृत अच्छी चीज ( राज ११४ ) | जोग पुं ["योग ] १ मोहनीय कर्म (सम ७) । २ अच्छी चीज से हीन चीज की मिलावट ( राय ११४) संजोग ["संप्रयोग ] वही अर्थ ( राय १४ ) ~ साइ पुत्री [] केसर, 'सालतले सारिठिया श्रचच चंडि ससाइपरमेहि' (दे ८ २२) For Personal & Private Use Only J । सागया श्री [स्वादन] उपभोग वा (ठा ३, ३ टी -पत्र १४७) सा[] साइजिअ वि [ स्वादित ] ( कप्प - टी) । २ उपभुक्त सम्बन्धी । स्त्री. *या (कण्य) - (२६) उपभुक्त साइम वि [स्वादिम] पान, सुपारी प्रादि मुखवास (ठा ४, २--पत्र २१६६ प्राचाः उवा श्रौपः सम २६ ) 1 साइप वि[सादिक ] धादिसाम ६ नव ३६ ) । साइय देखो सागय = स्वागत ( सुर ११, २१०) । - साइयन [दे] संस्कार (८२५) सायंकारवि [ दे ] स प्रत्यय, विश्वस्त (४२) । साइरेग वि [ सातिरेक] साधिक, सविशेष (सम २भग ) । साइसय वि [ सातिशय ] श्रतिशयवाला ( महा सुपा ३६७ ) । साई देखो सी (इक = साउ वि [स्त्रादु] स्वादवाला, मधुर ( पिंड १२८ उप ६७ से २, १८ कुमाः हे १५) । साउन वि[स्वायुफ] स्वादिष्ट भोजनाला मधुर भोजनवाला 'कुलाई जे धावइ साउगाई' ( सू १, ७, २३) । साउन [सायुज्य ] सहयोग, साहाय्य (मण्ड ६५) ।. Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साउणिअ-साडिल्ल पाइअसहमहण्णवो ८८७ साउणि वि [शाकुनिक] १ पक्षि-घातक, | सागडिअ वि [शाकटिक] गाड़ीवान, गाड़ी सम्म ६५)। ३ आवाद-युक्त (भग ७, २पक्षियों के वध का काम करनेवाला (पएह चला कर निर्वाह करनेवाला (सुर १६, पत्र २६५; उप ७२८ टी)। पस्ति वि १,१२-पत्र २६ प्रणु १२६ टि: विपा २२३: स २६२, उत्त ५, १४; श्रा १२)। शिन] ज्ञानवाला (परण ३:-पत्र १, ८--पत्र २३)। २ शकुन-शान का सागय न स्वागत] १ शोभन आगमन, ७५६) । जानकार (सुपा २६७ कुप्र५)। ३ श्येन प्रशस्त प्रागमन (भग)। २ अतिथि-रात्कार, सागार वि सिागार] गृह-युक्त, गृहस्थ पक्षी द्वारा शिकार करनेवाला (अरण पादर, बह-मान (सुपा २५६)। ३ कुशल (पावम)। १२६ टि) (कुमा)। सामारि । विसागारिन्, 'रिक १ साउन देखो साउग (राज)। सागर पुंसाग] : समुद्र (पराह १. ३-- सागारिय। गृह का मालिक, आश्रय का साउथ विसायुष ] आयुवाला, प्राणी पत्र ४४; प्रासू १३४)। २ एक राज-पुत्र मालिक, साधु को स्थान देनेवाला गृहस्थ, (ठा २, १-- ३८)। (उप ६३७)। ३ राजा अन्धकवृष्णि का शय्यातर (पिंड ३१० पाचा २, २, ३,५; साउल वि [संकुल] व्याप्त, भरपुर (सुर | एक पुत्र (अंत ३) । ४ एक वरिण-व्यापारी सूत्र. ६, १६: प्रोघ १६६)। २ सूतक, (उप ६४८ टी)। ५ सातवें बलदेव तथा प्रसव पोर मरण की अशुद्धि, अशोच (सूप साउलय वि [साकुलत ] प्राकुलता युक्त, वासुदेव के पूर्व भव के धर्म-गुरु (सम १५३) । १.६, १६) । ३ गृहस्थ से युक्त; 'सागारिए व्याकुल, व्यग्र: 'इंदियसुहसाउलग्रो परिहिंडई ६ पुन. कूट-विशेष (इक)। ७ समय-परिमाण उवस्सए' (पाचा २, २, १.४, ५)। ४ न. सोवि संसार (पउम १०२, १६७)। विशेष, दश-कोटाकोटि-पल्यो म-परिमित काल मैथुन (पाचा १, ९, १, ६)। ५ वि. साउली स्त्री [दे) र वस्त्राञ्चल (गा २६६) । (नवः , जी ३६; पव २०५)। ८ एक शय्यातर गृहस्थ का, उपाश्रय के मालिक से २ बस्न, कपड़ा (गा ६०५)। देखो साहुली देव विमान (सम २)। कंत पुंन[कान्त] संबन्ध रखनेवाला; 'सागारियं पिंडं भुंजेमागे" सा उल्ल [६] अनुराग, प्रेम (हे ८, २४; एक देव-विमान ( सम २) चंद पुं ["चन्द्र] १ एक जैन प्राचार्य (काल)। २ सांगेय देखो साकेय = साकेत (णाया १, सारज देवो साइज्ज। साएज्जइ (भवि एक व्यक्तिवाचक नाम (उव; पडि: राज) -पत्र १३१: उप ७२८ टी)। 'चित्त पूंन चित्र] कूट-विशेष (इक)।- साड सक [शाटय , शातय.] सड़ाना, साएय न साकेत] अयोध्या नगरी (इक; दत्त पुं [दत्त १ एक जैन मुनि (सम विनाश करना । हेकृ. साडेत्तए (विपा १, सुपा ५५०; पि ६३)। पुर न [पुर] १५३)। २ तीसरे बलदेव का पूर्वजन्मीय ?-पत्र १६)।वही अर्थ (उप ७२८ टी)। पुरी स्त्री नाम (सम १५३) । ३ एक श्रेणि-पुत्र (महा)। साड पुं[शाट, शात] १ शाटन, विनाश [पुरी] वही (पउम ४, ४)। देखो ४ एक सार्थवाह का नाम (विपा १,७)। ५ (विसे ३.२१)। २ शाटक, उत्तरीय वस्त्र, साकेय। हरिषेण चक्रवर्ती का एक पुत्र (महा ४४)। चद्दर (पव ३८)। ३ वस्त्र, कपड़ा; एगसाडे साएया स्त्री [साकेता] अयोध्या नगरी "दत्ता स्त्री [ दत्ता], भगवान् धर्मनाथजी अदुवा अचेले' (प्राचा: सुपा ११) । (पउम २०, १. गाया १,८--पत्र १३१)।- की दीक्षा-शिविका (सम१५.)। २ भगवान् साडा पुन [शाटक वन, कपड़ा (सुपा सांतवण न [सान्तपन] व्रत-विशेष (प्रबो विमलनाथजी को दीक्षा-शिविका (विचार साडग १५३, राज)। १२६)। देव [देव ] हरिषेण चक्र- साङग न [शाटन, शातन] १ विशरण, साक देखो साग (दे ६, १३०)। वर्ती का एक पुत्र (महा) वूह पुं[व्यूह] विनाश (विसे ३३१६; स ११६)। २ छेदन साकेय न [साकेत] १ नगर-विशेष, सैन्य की रचना विशेष (महा)। देखो (सूअनि ७२)। अयोध्या (ती १:)। २ वि. गृहस्थ-संबन्धी। सायर = सागर । साडण स्त्री [शाटना, शातना] खण्ड-खण्ड ३ न. प्रत्याख्यान-विशेष (पव ४)। सागरित्र देखो सागारिय (पिंड ५६८ पव होकर गिराने का कारण, विनाश-कारण साकेय वि साङ्केत] १ संकेत का, संकेत- ११२) । + (विपा १, १-पत्र १६)। संबन्धी। २ न. प्रत्याख्यान का एक भेद सागरोवम पुन सागरोपम] समय-परिमारण साडि वि शाटित, शातित] सड़ाकर (पब ४)। विशेष, दस-कोटाकोटि-पल्योपम-परिमित काल गिराया हपा, विनाशित (सुर ५, ३, दे साग पुं[शा] १ वृक्ष-विशेष (पउम ४२, (ठा २, ४-पत्र ६० सम २,८.६.१ ७.८)।७; दे १, २७)। २ तक-सिद्ध बड़ा प्रादि ११, उवः पि ४४८)। साडिआ श्री [शाटिका] वस्त्र, कपड़ा (ोप; खाद्य; ‘सागो सो तक्कसिद्धं जं' (पव सागार वि [साकार] १ आकार-सहित, कप्प)। २५६)। ३ शाक, तरकारी (पि २:२; आकृतिवाला । २ विशेषांश को ग्रहण करने साडल्ल देखो साड = शाट नियसियग्राजाण३६४)। की शक्ति, विशेष-ग्रहण, ज्ञान (प्रौपः भग; मलिणसाडिल्लो' (सुपा ११)। For Personal & Private Use Only Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८८ पाइअसद्दमहण्णवो साडी स्त्री [शादी ] वस्त्र, कपड़ा ( कुप्र ४१२ ) । - सानुबंध वि [ सानुबन्ध] निरन्तर, श्रच्छिन्न साडी श्री [कीं] गाड़ी फम्म न प्रवाहाला (उप ७७२ [ "कर्मत्र ] गाड़ी बनाना, बेचना चलाना आदि शकट जीविका (उवा श्रा २२ ) ।साडीगा देखो साटिजा; जह उल्ला साडीया श्रासुं सुकइ विल्लिया संती' (विसे ३०३२) । साडोह देखो साइन (गाया १, १८ पत्र २३५) । साण सक [ शाजय ] शाण पर चढ़ाना, तीक्ष्ण करना। सारिगज्जदि (शौ) (नाट) 1 साणी [न] १ कुत्ता (पात्र परह १, १- पत्र ७. प्रामू १६६ हे १, ५२ ) । स्त्री. णी (मुपा ११४ ) २ छन्द - विशेष (पिंग) . साण वि [ श्यान] निबिड, घनीभूत (गा ६८२) । साण पुं शाण, शान] शस्त्र को घिस कर तीक्ष्ण करने का यन्त्र (गउड, रंभा ) सा वि [शाण] सन का बना हुआ, पाट का बना हुआ स्त्रीणां (दस ५, १,१८ ) 1 साण देखो सासायन कम्म ३, २१) । साइअ वि [दे. शाणित] उत्तेजित (दे ८, १३) । सायन [शाणक] सन का बना हुआ वस्त्र (ठा ५, ३ - पत्र ३३८ कस) । खाणि श्री [थाण] राम का बना हुआ कपड़ा (दस ५. १, १८) साणि वि [] शान्त ( ब ) 1साणी देखो साण = श्वान । साणी बी [शाणी] देखो साणिः 'साणीपा- सादेव्व न [सादिव्य] देव का श्रनुग्रह सांनिध्य 'सादेव्वाणि य देवयाओ करेंति सच्चवणे रयाणं' (पराह २ २ -- पत्र १९४१ उप ८०३) । वारपिहिमं (दस ५, २, १८) साणुन [सानु] पर्वत पर का समान भूमिवाला प्रदेश (पाश्र; सुर ७२१४ स ३६५ ) । "मंत पुं ['मत ] पर्यंत (उप १०३१ टी ) लांडया श्री [यष्टिका ] ग्राम-विशेष (राज) । सासव[सानुकोश] दयालु (डा ४ । | साध देखो साह = साधय् । सार्धेति ( सुज १०, १७) ४ - पत्र २८५३ पराह १, ४ पत्र ७२ स्वप्न २६ ४४; वसु) 1 साप न [सानुप्रग] प्रातःकाल, प्रभात साधम्मिअ देखो साहम्मिअ ( पउम ३५, साधग देखो साहूग (धर्मंसं १४२: ३२३) । साधम्म देखो साम्म (घमंसं ८७७) । समय (बृह १) 68) 11 साणुनीय वि[सानुनीज] जिसमें शक्ति नष्ट न हुई हो वह बीज (आचा २, १, ८, ३) । साणुवाय वि [ सानुयात] अनुकूल पवनवाला ( उव) । - सणुसय वि [सानुशय] अनुतापयुक्त (अभि १११: गउड) | न खार [दे] देवगृह, देव-मन्दिर दे २४) । सात न [सात] १ सुख (ठा २, ४ ) । २ वि. सुखवाला स्त्री. ता (पण ३५ - पत्र ७८) विणिज्जन ["वेदनीय] सुख का कारण-भूत कर्म (ठा २, ४ पत्र १६) साति देखो साइ = स्वाति, सादि, साचि, साति (सम २ ठा २, ३ पत्र ८०६ - पत्र ३५७; जीव १- - पत्र ४२, परह १, २- पत्र २६६ सम ७१) । सातिजणया देखो साइज्जणयः ३--पत्र १४७) । साद [साद] अवसाद, खेद (दे १, १६८) । सादिय[स] देवता-प्रयुक्त, देव-कृत ( प २६८) । ठा ३, = । - सादिव्य देखी साहेब (पिंड ४२७) - सादीअ देखो इय सादिक (भाग: श्रीप) सादीणगंगा स्त्री [सादीनगङ्गा ] आजीविक मत में उक्त एक परिमाण (भग १५ - पत्र ६७४) । सादूलसड (प) देखो सद्दूल सट्ठ (पिंग) For Personal & Private Use Only साडी - सामइअ साधारण देखो साहारण = साधारण ( त्रि 52) 1~ साधारण श्री [संधारणा] वासना, धारणा, स्मरणशक्ति दि १७६) साधीण देखो साहीग (नाट - - मालती १२१ ) 1 सापद (शौ) देखो सावय = श्वापद (नाट-शकु ३०) | साफल | देखो साह (बिसे २५३२ साफल्या ) उप ७६८ टी धर्मवि ६६३ स ७०८ ७०६ ) 1 साह[सावाच] धावाधा सहित ( ३३६ टी) । सामरंग [. सामरक] रुपया, सोलह श्राने का सिक्का (पव १:१) । सामव्य देखो साहञ्च (विसे १३६ ) 1 साभाविक देखो साहाविअ (सूनि १६ साभाविय) कप्पः श्रावक २५८ टी) M साम पुंन [सामन्] १ शत्रु को वश करने का उपाय-विशेष एक राजनीति लाया, १ - पत्र ११३ प्रासू ६७ ) । २ प्रिय वाक्य (कुमा महा १४) ३ एक वेद-शास्त्र (भग; ४ मंत्रीमता (वि४८१) ५] धादि मिए वस्तु 'महरपरिणाम साम' (श्राव १) । ६ सामायिक, संयम- विशेष (संबीय ४५) 'सामं सर्म च सम्म इरायवि सामाइयस्स एगट्ठा' (ग्राव १ ) । कोट्ठ [कोष्ट ] ऐरवत वर्ष में उत्पन्न एक्कीसवें देव (१५३) देखो साभिकुद्ध साम [श्याम ] कृष्ण व काला रंग । २ हरा वरणं, नीला रंग । ३ वि. काला वरवाला । ४ हरा वर्णवाला (आचाः कुमा; सुर ४,४४) ५. देवों की एक जाति (सम २८ मूनि ७२ ) ६ एक जैन मुनि श्यामा (रादि ४५७न छ- विशेष ) गन्ध-तुरा ( सू २, २, ११) ८ पुंन. आकाश, गगन (भग २० २ -- पत्र ७७६) । "इस्थि [ "हस्तिन ] भगवान् महावीर का शिष्य एक मुनि (भग १०, ४---पत्र ५ : १) । सामइअ वि [प्रतीक्षित ] जिसकी प्रतीक्षा की गई हो वह (कुमा) 1 Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामइअ-साम पाइअसहमहण्मयो 48 सामइअ देखो सामाइअ (विसे २६२४, सामा। स्त्री [सामग्री] १ समस्तता। २ सामरि पुंस्त्री [दे. शाल्मलि] शाल्मलो वृक्ष, २६३३, २६३४; २६३६) । कारण-समूह (सम्मत्त २२४; महा; कप्पू: सेमर का पेड़ (दै ८, २%; पाम)। सामइअ) पुं[सामयिक] १ एक गृहस्थ । सामरिस वि [साम] ईर्ष्यालु, असहिष्णु सामइग का नाम (सूअनि १६१)। २! सामच्छ सक [दे] मन्त्रणा करना, पर्या- (सुर २,६०) वि. समय-सम्बन्धी (पंच ५, १६६)। ३ लोचन करना । संकृ. सामच्छिऊण (पउम सामल वि [श्यामल] १ काला, कृष्ण वर्णसिद्धान्त का जानकार (पिंडभा ६)। ४२,६५) वाला (से १, ५६ सुर ३, ६५; कुमा)। २ मागम-आश्रित, सिद्धान्त-प्राश्रित (ठा ३, सामन्य सामच्छ न [सामर्थ्य] समर्थता, शक्ति (हे समय पुं. एक वणिग---बनिया (सुपा ५५५) ३–पत्र १५१)। ५ बौद्ध विद्वान् (दसनि । २, २२: कुमा) | सामलइअ वि [श्यामलिस] काला विया सामच्छण देखो सामथण (राज)।- हुग्रा (से ८, ६६) सामइग देखो सामाइअ (विसे २७१६) । सामज न [साम्राज्य] सार्वभौम राज्य, सामलय वि [श्यामलक], काला ! २ बड़ा राज्य (उप ३५७ ठी)। काला पानीवाला ( से १, ५६) । ३ पुं. सामगि वि [सामायिकिन् । सामायिक सामण । वि [श्रामण, °णिक] श्रमण- वनस्पति-विशेष (राज)। वाला (विसे २७१६) सामणिय संबन्धी (राज) सानला स्त्री [श्यामला] १ कृष्ण वर्णवाली सामंत पुन [सामन्त] १ निकट, समीप, पास; साणिय देखो सामण्ण = श्रामण्य (सूम १, स्त्री। २ सोलह वर्ष की स्त्री, श्यामा (वजा 'तस्स एणं अदूरसामंते' (णाया १, २-पत्र ७, २३; दस ७,५६)। ११२)। ७८; उवा; कप्प)। २ अधीन राजा सामणेर पुं[श्रामाण] श्रमण का अपत्य, सामलि पुंस्त्री [शाल्मलि सेमल का गाछ (महा काल)। ३ अपने देश के अनन्तर देश साधु की संतान (सून १, ४, २, १३) (सून १, ६, १८ उत्रप्रौप)।का राजा, समीप देश का राजा (कप्प)। सामण्ण न [श्रामण्य] श्रमणता, साधुपन सामलिय देखो सामलइअ (सुर ४, १२७)। सामंती स्त्री [दे] सम-भूमि (दे ८, २३)। (भगः दस २, १; महा)। सामली देखो सामला (गउडा गा १२३, सामंतोवणिवाइय न [सामन्तोपनिपातिक] २३८ ७६४, सुपा १८५) । सामण्ण पुं [सामान्य १अपनी देवों अभिनय का एक भेद (राय ५४)। सामलेर पु[शावलेय] काबरचित गौ-चित का एक इन्द्र(ठा २,३-पत्र ८५)। २ न. सामतोवणिवाइया, स्त्री [सामन्तोपनिपा कबरी गाय का वत्स (अणु २१७)। वैशेषिक दर्शन में प्रसिद्ध सत्ता पदार्थ (धर्मसं सामंतोवणीआ तिकी] क्रिया-विशेष, । २५६) । ३ वि. साधारण (गा ८६१; साम स्त्री [श्यामा] १ तेरहवें जिनदेव की चारों तरफ से इकट्ठ हुए जन-समुदाय में माता (सम १५१)। २ तृतीय जिनदेव की ६६६ नाट-रत्ना ८१)। होनेवाली क्रिया--कम बन्ध का कारण (ठा प्रथम शिष्या (सम १५२)। ३ रात्रि, रात सामस्थ देखो सामच्छ (दे) । संकृ. सामत्थे२, १-पत्र ४०%; नव १८) (सून २, १, ५६; से १,५६ोध ३८७)। ऊण (काल)। ४ शक्र की एक अग्र-महिषी-पटरानी (पउम सामंतोवायणिय पुन सामन्तोपपातनिक] सामथ देखो सामच्छ = सामर्थ्य (हे २, १०२, १५६)। ५ प्रियंगु वृक्ष (परण १अभिनय-विशेष (ठा ४, ४–पत्र २८५) २२; कुमाः ठा ३, १-पत्र १०६, सुपा पत्र ३३, १७–पत्र ५२६; अनु ४)। ६ सामक्ख देखो समक्खः संभरिय चिय वयणं, २८२; प्रासू १४४) । एक महौषधि (ती ५)। ७ लता-विशेष, 'ज त प्रणरएणमित्तसामक्खं । भरिणयं अईयकाले' सामथ । न [दे] पर्यालोचन, मन्त्रणा साम-लता (प्रौप)। ८ सोम लता (से १, (पउम १०, ८४) सामस्थण कास हरामोत्ति अज्ज दव्वं ५६)। ६ नारी, स्त्री (से १, ५६; अणु सामग देखो सामय = श्यामाक (राज)। इति सामत्थं करेंति गुज्झ' (पएह १, ३ १३६)। १० श्याम वर्णवाली स्त्री (कुमा)। पत्र ४६; पिंड १२१; बृह १) सामग्ग सक [श्लिष् ] आलिङ्गन करना। ११ सोलह वर्ष की उम्रवाली स्त्री (वज्जा सामन्न देखो सामग= श्रामण्य (भगः कप्प; सामग्गइ (हे ४, १६०)। १०४) १२ सुन्दर स्त्री, रमणी (से १, ५६ सुर १, १) गउड)। १३ यमुना नदी। १४ नील का सामग्ग । न[सामग्र्य सामग्नी, संपू. सामन्न देखो सामण्ण = सामन्य (उवा स गाछ । १५ गुग्गुल का गाछ। १६ गुडूची, सामग्गिअर्णता, सकलता (से ६, ४७; ३२५; धर्मवि ५६; कम्म १, १०, ३१) आचा २, १, १, 5 महा) । गला । १७ गुन्द्रा। १८ कृष्णा । १६ सामय सका प्रति + ईक्ष ] प्रतीक्षा करना, अम्बिका । २० कस्तुरी। २१ वटपत्री। २२ सामग्गिअ वि [श्लिष्ट] प्रालिङ्गित (कुमा) बाट जोहना (हे ४, १६३; षड्)। वन्दा की लता। २३ हरी पुनर्नवा । २४ सामग्गिअ वि [दे] १ चलित। २ प्रव- सामय पुं [श्यामाक] धान्य-विशेष, साँवा (हे पिप्पली का गाछ । २५ हरिद्रा, हलदी । लम्बित । ३ पालित, रक्षित (दे ८, ५३) १,७१; कुमा)। २६ नील दूर्वा । २७ तुलसी । २८ पद्मबीज । ११२ For Personal & Private Use Only Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६० २६ गौ गया । ३० छाया । ३१ शिसपा, सीसम का पेड़ । ३२ पक्षि- विशेष (हे १, २६ ) स [a] शनि-भोजन (सूच २, १५६ः प्राचा १, २, ५, १ ) 1 सामाइन [ सामाविक][संपय-विशेष सम-भाव, राग-द्वेष-रहित अवस्थान (विसे २६५६ २६८०३ २६८१ २६६०; कसः श्रपः नव) सामाइन वि [ सामाजिक ] समाज का समूह से संबन्ध रखनेवाला, सभ्य (उत्त ११, २६ सुख ११, २६) । सामाइअवि [ श्यामायित ] रात्रि - सदृश ( गा ५६) । - सामाग पुं [ श्यामाक] भगवान् महावीर के समय का एक गृहस्थ, जिसके ऋजुवालिका नदी के किनारे पर स्थित क्षेत्र में भगवान् महावीर को केवलज्ञान हुआ था (कप्प ) । देखो सामाय = श्यामाक 1 सामाजिअ देखो सामाइन सामाजिक सामिद्धि श्री [समृद्धि] १ प्रति संपत्ति २ वृद्धि (१४४: कुमा) (हास्य १८) सामाण देखो समाय= समान लोहो नि सामिधेय व [सामिधेय ] का अंत हलिकाष्ठ-समूह द्दखंजर कद्दमकि मिरागसामाणी' (कम्म १, ११५६१) २०३ पृष्फ २८७ ) । सामाण न [सामान] एक देव-विमान (सम ३३) । = सामाजिवि [ सामानिक] १ संनिहित, निकटवर्ती नजदीक में स्थित (२६७६) । २. इन्द्र के समान ऋद्धिवाले देवों की एक जाति (सम ३७ ठा ३, १ –पत्र ११६; उवा; औप: पउम २, ४१) सामापक [ श्यामाय ] काला होना सामाइ, सामाय, सामायंति ( गउड ) । वकृ. सामायंत (गउड) 1 सामाय देखो सामय = श्यामाक (राज) । सामा[सामा] संयम - विशेष, सामापिक (बिसे १४२१ संबध ४५ ) - सामायारिवि [ समाचारिन् ] श्राचरण करनेवाला (उ) 1 सामायारी स्त्री [ सामाचारी ] साधु का आचार - क्रिया-कलाप ( गच्छ १, १५ उव; उप ६६९) । पाइअसहमणव सामास देखो सामास = श्यामा-श सामासिय[सामासिक ] समास-संवन्धी (१४७) सामि सामिअ । उवः कुमा । वि [स्वामिन् ] १ नायक, अधिपति २ ईश्वर, मालिक (सम ८६ विपा १, १ टी --पत्र ११; प्रासू ८८) श्री. जी (महा) ३ पुं. प्रभु भगवान् (कुमा १, १३७, ३७ सुपा ३५) । ४ राजा नृप । ५ भर्ता, पति (महा) । "कुट्ठ [कुछ ] ऐखत वर्ष में उत्पन्न एक्कीसवें जिन देव (पव ७) | देखी साम- कोटू । [[]] मालकियत चाधिपत्य (सम २२)["पुर] नगर- विशेष ( उप ५६७ टी) । 1 सामिअवि [दे] दग्ध, जलाया हुधा (दे ८२३) । सामिअवि [ शमित ] शान्त किया हुआ (सुपा १५) । For Personal & Private Use Only सामाइज सायं - सामुदायि वि[सामुदानिक ] १ भिक्षासंबन्धी, भिक्षा से लब्ध (ठा ४, १-पत्र २१२ सू २ १५६ ) । २ भिक्षा, भैक्ष (भग ७, १ टी -पत्र २९३ ) 1 , सामुद [दे] इसु-समान तुरा-विशेष (दे पुं ८, २३) १ सामुद वि [सामुद्र, 'क] मुद्र सामुद्दय सम्बन्धी, सागर का ( गाया १, ८-पत्र १४५३ भग ५, २– पत्र २११; २. छन्द-विशेष सूचन सामिली न [स्वामिलिन् ] १ गोत्र - विशेष, जो वत्स गोत्र की एक शाखा है। २ पुंस्त्री. उस गोत्र में उत्पन्न (ठा ७--पत्र ३६० ) 1सामिसाल देखो सामि (पम्म ८६८ सुपा २६) श्री. खी (स ३०६) सामिद्देय देखो सामिधेय (स १४० १४४० महा) 1 सामीर वि[सामीर ] समीर-संबन्धी (गउड)।सामंअ ] [] - विशेष व जिसकी कलम की जाती है (पान) । सामुग्ग वि [ सामुद्ग] संपुटाकारवाला; 'सामुनि' (श्रीप)। सामुद्देश्य वि[सामुच्छेदिक] वस्तु को एकान्त माननेवाला एक मत और साथ उसका अनुयायी (ठा ७ – पत्र ४१०३ विसे २३८६) सामुदाइय वि [ सामुदायिक ] समुदाय का, समुदाय से संबन्ध रखनेवाला (गाया १, १६ – पत्र २०८ ) । १३) 1 सामुदिअ न [सामुद्रिक] शास्त्र-विशेष. १ शरीर पर के चिह्नों का शुभाशुभ फल बतलानेवाला शास्त्र (श्रा १२ ) । २ शरीर की रेखा आदि चिह्न 'सामुद्दियलक्खणारा लक्खपि ' ( संबोध ४२ ) । ३ वि. सामुद्रिक शास्त्र का ज्ञाता ( कुप्र५) । सामुयाणिय देखो सामुदाणिय (उत्त १७, ?ε) 10 साय देखो साइज्ज = स्वाद, सात्मी + कृ । सायए ( भाचा २, १३, १), साएज्जा ( वव १ ) 1 साय देखो साग = शाकः 'भोत्तव्वं संजएण समियं न सायसूयादिक' ( परह २, ३ - पत्र १२३; पण १ - - पत्र ३४ ) | सायन [सात] १ सुख ( भगः उव ) । २ मुख का कारण-भूत कर्मसम्म ११३ ५५) । ३ एक देव विमान (सम ३८ ) | वाइ वि [वादिन] सुख-सेवन से ही सुख की उत्पत्ति माननेवाला (ठा ८-पत्र ४२५ ) । V [वादन] एक प्रसिद्ध राजा (काल) गारव [भीरव] १ सुखशीलता (सम ८) । २ सुख का गवं (राज) सुक्खन ['सौख्य] अतिशय सुख (जीव ३) । देखो सान = सात 1 [स्वाद ] रस का अनुभव (वि ७६६६ पउम ३३, १०; उप ७६८ टी) सायन [ दे] १ महाराष्ट्र देश का एक नगर । २ दूर (दे ८, ५१) । सायं भ [ सायम् ] १ सन्ध्या समय, शाम (पाम; गउड कप्पू ) । २ सत्य, सच्चा (ठा Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसहमहण्णवो सायंदूर-सारक्खिा ८९१ १०-पत्र ४६५), कार पु कार] १ ३ प्रेरणा करना। ४ उन्नत करना, उत्कृष्ट १०० प्राप्र)। ४ विष्णु का धनुष (हे २ सत्य। २ सत्य-करण (ठा १०-पत्र बनाना। ५ सिद्ध करना। ६ अन्वेषण १००%; सुपा ३४८) पाणि पुं[पाणि] ४६५) तण वि [तन] सन्ध्या-समय करना, खोजना । ७ सरकाना, खिसकाना, विष्णु (प्राकृ २७)। का (विक्र १९) एक स्थान से अन्य स्थान में ले जाना। | सारंग सारंग] १ सिंह, मृगेन्द्र (सुर १, सायंदूर न [दे] नगर-विशेष (दे ८. ५१ टी)M सार, (सुपा १५४), सारंति, सारयइ (सूम ११, सुपा ३४८)। २ चातक पक्षी (पाय; सायंदूला स्त्री [दे] केतकी, केवड़े का गाछ १, २, २, २६; २, ६, ४); 'सारेहि वीणं' से ६, ८२)। ३ हरिण, मृग (से ६, ८२ (स ३०६), सारेह (सूत्र १, ३, ३, ६)। (दे ८, २५)। कप्पू)। ४ हाथी। ५ भ्रमर । ६ छत्र । ७ कम. 'हसाण सरेहि सिरि सारिज्जइ प्रह सायकुंभ न [शातकुम्भ] १ सुवर्ण, सोना। राजहंस । ८ चित्र-मृग, चितकबरा हरिण । सराण हंसेहि (गा ६५३; काप्र ८६२)। ६ वाद्य-विशेष । १. शंख। ११ मयूर । २ वि. सुवर्ण का बना हुआ (सुपा २०१) कवकृ. सारिज्जंत (सुपा ५७)। १२ धनुष । १३ केश। १४ प्राभरण, सायग पुं [सायक] बाण, तीर (सुपा सार सक [स्वरय ] १ बुलवाना। २ अलंकार । १५ वस्न। १६ पद्म, कमल । ६५१)। उच्चारण-योग्य करना। सारंति (विसे १७ चन्दन । १८ कपूर। १६ फूल । २० सायग वि [स्वादक] स्वाद लेनेवाला (दस | कोयल । २१ मेघ (सुपा ३४८) रूअक्क, ४, २६)। सायणा स्त्री [शातना] खण्डन, छेदन सार वि [शार] १ शबल, चितकबरा (पापा रूपक (अप) पुन [रूपक] छन्द-विशेष (सम ५८) गउड ३७८, ५३०)। २ पृ. सार, पासा, सायणी श्री [शायनी, स्वापनो] मनुष्य खेलने के लिए काठ आदि का चौपहल सारंग न [साराङ्ग] प्रधान दल, श्रेष्ठ अवयव की दस दशामों में दसवीं-६० से १०० (पएह २, ५---पत्र १५०; सुपा ३४८) । रंगबिरंगा साँचा (सुपा १५४) वर्ष की उम्रवाली-दशा (तंदु १६)। सार पुन [सार] १ धन, दौलत (पापा से | सारंगि पू[शाङ्गिन् ] विष्ण, श्रीकृष्ण सायत्त वि [स्वायत्त] स्वाधीन, स्वतन्त्र २,१२६, मुद्रा २६७)। २ न्याय्य, न्याय- (कुमा) युक्त; 'एयं खु नारिणणो सारं जन हिसइ सारंगिका।नी [सारङ्गिका ] छन्द-विशेष (स २७६) किंचण' (सूम १, १, ४, १०)। ३ बल, सारंगिक) (पिंग) सायय देखो सायग (पानः स ५४८)। पराक्रम (पाम से ३, २७)। ४ परमार्थ सारंगी स्त्री सारङ्गी]१ हरिणी (पान)। सायर ' [सागर] १ समुद्र (सुपा ५६ः | (प्राचानि २३६ )। ५ प्रकर्ष (प्राचानि २ वाद्य-विशेष (सुपा १३२)।८८ जी ४४, गउड प्रासू ८७ १४४ २४०)। ६ फल (प्राचानि २४१)। ७ सारंभ देखो संरंभ (ठा ७--पत्र ४०३)। प्राप्र; हे २, १८२)। २ ऐरवत वर्ष में परिणाम (ठा ४, ४ टी-पत्र २८३) । होनेवाले चौथे जिन-देव (पव ७)। ३ मृग सारकल्लाग पुं[सारकल्याण ] वलयाकार ८ रस, निचोड़ (कप्पू)। ६ एक देव-विमान विशेष । ४ संख्या-विशेष (प्राप्र)। ५ एक वनस्पति-विशेष (पएण १--पत्र ३४)। (देवेन्द्र १४३)। १० स्थिर अंश (से ३, सेठ का नाम (सुपा २८०) देखो सालकल्लाण । घोस पुं २७; गउड)। ११ पृ. वृक्ष-विशेष (परण [घोष] एक जैन मुनि जो आठवें बलदेव सारक्ख सक [सं + रक्ष ] परिपालन १--पत्र ३४)। १२ छन्द विशेष (पिंग)। के पूर्वजन्म में गुरु थे (पउम २०, १६३)। करना, अच्छी तरह रक्षण करना । सारक्खइ १३ वि. श्रेष्ठ, उत्तमः 'जह चंदो ताराणं भद्द [ भद्र] इक्ष्वाकुवंश का एक राजा (तंदु १३)। वकृ.सरक्खंत, सारक्खमाग गुणाण सारा तहेह दया' (धम्मो ६; से २, (पउम ५, ४)। देखो सागर = सागर।। (पि ७६; उवा)२६), कंता श्री [°कान्ता] षड्ज ग्राम सायर वि[सादर] आदर-युक्त (गउड सुर की एक मुर्छना (ठा ७–पत्र ३६३)। °य | सारक्खण न [संरक्षण] सम्यग् रक्षण, २, २४५)। वि [द] सार देनेवाला (से ९, ४०) त्राण (णाया १, २-पत्र ६०; सून १, सायार देखो सागार = साकार (सम्म ६४; वई स्त्री [वती] छन्द विशेष (पिंग) ११, १८ प्रौप)पउम ६, ११८)। वंत वि [वत् ] सार-युक्त (ठा ७--पत्र सारक्खणया स्त्री [संरक्षणा] ऊपर देखो सार सक [प्र + ह] प्रहार करना। सारइ ३६४ गउड)। वंती देखो वई (पिग)। (पि ७६) - (हे ४, ८४) । वकृ. सारंत (कुमा)। सारइय वि [शारदिक] शरद् ऋतु का सारक्खि वि [संरक्षिन् ] संरक्षण-कर्ता सार सक [स्मारय ] याद दिलाना। सारे (उत्त १०, २८; पएण १७--पत्र ५२६; (पि ७६) । (वव १)। ती ५; उवा) सारक्खिअ वि[संरक्षित] जिसका संरक्षण सार सक [ सारय ] १ ठीक करना, दुरुस्त सारंग वि [शाङ्ग] १ सोंग का बना हुआ। किया गया हो वह (पएह २, ४-पत्र करना। २ प्रख्यात करना, प्रसिद्ध करना। २ न. धनुष । ३ भाद्र'क, आदी (हे २, १३०)। For Personal & Private Use Only Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६२ पाइअसहमहण्णवो सारक्खेत्तु-सारूविअ सारक्खेत्तु वि [संरक्षित] संरक्षण-कर्ता सारय वि स्वारत] पासक्त, खूब लीन साँचा (गा १३८)। ३ युद्ध के लिए गज(ठा ७-पत्र ३८६) (प्राचा १, ४, ४, १)। पर्याण (दे ७, ६१; भवि) सारग देखो मारय = स्मारक (प्राचा | सारय देखो सार-य । सारि देखो सारी (दे) (पाप)। प्रौप)। सारया स्त्री [शारदा] सरस्वती देवी (सम्मत सारिअ वि [सारिक] सारवाला; 'पारोग्गसारज न [म्वाराज्य] स्वर्ग का राज्य (विसे १४०) सारिनं माणसत्तणं सच्चसारिप्रो धम्मो' (श्रा १८८३) । सारव देखो सार = सारय । भवि. सारविस्स सारण पुं [मारण] १ एक यादव-कुमार (वव १) सारिअ वि [सारित] चिपकाया हुआ, सील (अंत ३; बुप्र १०१)। २ रावणाधीन एक सारव सक [समा + रच ] साफ करना, किया हुमा; ततो कुंभीए निक्खिविऊरण तीए सामन्त राजा (पउम ८.१३३)। ३ रावण ठीक-ठाक करना, दुरुस्त करना। सारवइ | सम्म मुहं पूरिऊण उवरि लक्खाए सारियाए' का मन्त्री (से १२, ६४)। ४ रावण का (हे ४, ६५); 'सारवह सयलसरणोप्रो (सुर । (सम्मत्त २२६) एक सुभट (से १४, १३)। ५ न. ले जाना, १५, ८२) । वकृ. सारवंत (गउड)। कवकृ. सारिआ । स्त्री सारिका] मैना, पक्षिप्रापण (ोध ४४८) । सारविजंत (सण) सारिइआ । विशेष (गा ५८६, पान दे ८, २४) । सारण न [स्मरण] १ याद कराना (ोघ सारव सक [समा + रभ ] शुरूआत करना, सारिक्ख न सादृदय] समानता, सरीखाई ४४८)1 २ वि. याद दिलानेवाला। स्त्री. प्रारम्भ करना । सारवइ (षड् )। (हे २, १७ कुमा; धर्मसं ४२५; समु १८०% "णिया, जी (ठा १०-पत्र ४७३)।- सारवण न [समारचन] समालन, साफ विसे ४६९)। सारणा न रिमारणा] १ याद दिलाना (सुर करना (प्रोघ ७३) । सारिक्ख । वि [सदृक्ष] समान, सरीखा १५, २४८: विचार २३८ काल) सारविअ वि [समारचित] दुरुस्त किया। सारिन्छ । सारिक्खविप्पलंभा तह भेदे सारणि । स्त्री [सारणि, णी] १ प्रालवाल, | हुमा, साफ किया हुआ (दे ८, ४६ कुमा; किमिह सारिक्वं' (धर्मसं ४२५; समु १७६; सारणी । नीक, कियारी (धण २६; कुप्र प्रोघभा ८) प्राप; हे १, ४४, कुमाः गा ३०६४) ५८)। २ परंपरा (सम्मत ७७)। सारस पुंसारस] १ पक्षि-विशेष (कप्प; सारिच्छ देखो सारिक्ख = सादृश्य (हे २, सारस्थ न [सारथ्य सारथिपन (णाया औषः स्वप्न ७०; कुमाः सण)। २ छन्द १७, सुर १२, १२२)। १, १६; पउम २४, ३८)। विशेष (पिंग)। सारिच्छिआ स्त्री [दे] दूर्वा, दूब (दे ८, सारदा देखो सारया (रंभा)। सारसी स्त्री [सारसी] १ षड्ज ग्राम की एक २७) । सारदिअ देखो सारइय (अभि EK) मूर्छना (ठा ७–पत्र ३६३)! मादा सारस सारित देखो सार = सारय ।सारमिअ विदे] स्मारित, याद कराया पक्षी । ३ छन्द-विशेष (पिंग)। सारिस देखो सरिस =सदृश (संक्षि .२; हुमा (दे ८, २५)। सारस्सय पुं[सारस्वत] १ लौकान्तिक देवों वजा ११४)। सारमेअ [सारने य] श्वान, कुत्ता (उप की एक जाति (णाया १,८-पत्र १५१; सारिस । न [सादृश्य समानता,सरीखाई पि ३५३)। ७६८ टी. कुप्र ३६३; सम्मत्त १८६; प्रासू सारिस्स । (राज नाट - रत्ना ७६) ।। १५८)। सारह न [सारव] मधु, शहद (पान दे ८, २७) सारी स्त्री [दे] वृसी, ऋषि का प्रासन (दे ८, सारमेई स्त्री [सारमेयी] कुत्ती, शुनी (सुर सारहि पुं[सारथि रथ हाँकनेवाला (सम २२, ६१)। २ मृत्तिका, मिट्टी (दे ८, १४१५५)। २२ टी)। १पान; महा)। सारय वि [शारद] शरद् ऋतु का (सम साराडि पुंस्त्री [दे] पक्षि-विशेष, शरारि पक्षी सारी स्त्री [शारी] देखो सारि = शारिः १५३: परह १,४-पत्र ६८ विसे १४६६ (दे ८, २४)। 'सज्जिनो कंचणगुडासारीहि...हत्थी' (कुप्र अजि १३; कप्पा औप)। साराय अक [साराय् ] सार-रूप होना । १२०)। सारय वि [सारक] १ श्रेष्ठ करनेवाला (से सारीर विशारर] शरीर का, शरीर-संबन्धी वकृ. सारायंत (उप ७२८ टी) (उवः सुर ४, ७५)। ३, ४८) । २ साधक, सिद्ध करनेवाला (कप्प; साराव सक [सारय् ] विपकवाना, लगवाना, सारीरिय वि [शारीरिक] ऊपर देखो (सुर से ६, ४) सील कराना । संकृ. 'साराविऊरण लक्खं १२, १० सण)। सारय वि [स्मारक] १ याद करनेवाला । २ नोरंधत्तं तत्य कयं' (धर्मवि ५)। सारूवि । सारूपिन, क जैन साधु याद दिलानेवाला (भगः प्राचा १, ४, ४, १; सारि स्त्री शारि] १ पक्षि-विशेष, मैना (गा सारूविअ के समान वेष को धारण करनेकप्प)। ५५२)। २ पासा खेलने का रंग-बिरंगा । वाला रजोहरण-वजित स्त्री-रहित गृहस्थ, For Personal & Private Use Only Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारूविअ-सालूर पाइअसदमद्दण्णवो साधु और गृहस्थ के बीच की अवस्थावाला सालंकी स्त्री [दे] सारिका, मैना (दे ८, २४) के करिणश-बाल का तीक्ष्ण अग्रभाग (राज जैन पुरुष (संबोध ३१; ५४ बृह १; वव सालंगणी स्त्री [दे] सीढ़ी, निःश्रेणी (दे, उवा) रक्खिआ स्त्री [रक्षिका धान २६; कुप्र १२०) । का रक्षण करनेवाली स्त्री, कलम-गोपी सारू विअ न [सारूप्य] समान रूपता (सूम सालंब वि [सालम्ब] अवलम्बन-युक, पाश्रय (पान) + वाहण पुं [वाहन एक २, ३, २: २१)। युक्त (गउड राज) सुप्रसिद्ध राजा (सम्मत्त १३७) । देखो मालसारेच्छ देखो सारिच्छ = सादृक्ष्य (गउड)। सालकल्याण g[शालकल्याण] वृक्ष-विशेष वाहण सच्छिय पुं[साक्षिक मत्स्य (भग ८, ३ टी-पत्र ३६४) । देखो की एक जाति (पराग १- पत्र ४७)। सारोहि वि संरोहिन] संरोहण-कर्ता (पि सारकल्लाण । "सित्थ पुं[सिस्थ] मत्स्य-विशेष (पारा ६३) सालकिआ स्त्री [दे] सारिका, मैना (षड् ) साल पुंसाल, शाल] १ ज्यौतिष्क महाग्रह °सालि वि शालिन] शोभनेवाला (गउड . विशेष (ठा २, ३--पत्र ७८)। २ वृक्ष सालग न [दे] १ वृक्ष की बाहरी छाल मा विशेष, साखू का पेड़ (सम १५२: औपः । (निचू १५) । २ लम्बी शाखा (प्राव १)। सालिआ स्त्री शालिका घर का कमरा, कुमा)।। वृक्ष, पेड़ । ४ किला, प्राकार | ३ रसः 'अंबसालगं वा अंबदालगं वा भोत्तए। एण्हि सुवंति घरमज्झिमसालिग्रासु' (कप्पू) ।। (सुपा ४६७) । एक राजा; 'साल महासाल-! । वा पायए वा' (माचा २, ७, २, ७)। __सालिआ देखो साडिआ (राज)। सालिभहो य' (पडि)। ६ पक्षि-विशेष (पएह । सलगय न [सारणक] कढ़ी के समान एक । सालिणिआ। स्त्री [शालिनिका, 'नी] १ १, १ टी-पत्र १०)। ७ पुन, एक देव- तरह का खाद्य (भवि)। सालिगी। शोभनेवालीः 'पीणसोरिणथविमान (सम ३५), कोट्ठ्य न कोष्टक सालभंजी देखो सालहंजी (धर्मवि १४७; सालिरिणयाहिं' (अजि २६)। २ छन्दचैत्य-विशेष (राज) - वाहण, ण कुमा) । विशेष (पिंग) । [वाहन] एक सुप्रसिद्ध राजा (विचार सालस वि [सालस] पालस्य-युक्त, अलसी । सालिभंजिया स्त्री [शालिभञ्जिका] पुतली ५३१, हे १, २११; प्रापः पि २४४० षड्; (गउड सुपा २५१) । (पउम १६, ३७) कुमा)। | सालहजिया स्त्री [शालभजिका, साल देखो सार = सार (सुपा ३८४ णाया। सालहंजी जी] काठ सालिय पुं [शालिक] तन्तुवाय, जुलाहा आदि की: १,१६-पत्र १६६) इय वि ["चिता (विसे २६०१)। बनाई हुई पुतली (सुपा ४३; ५४)।सार-युक्त (गाया १, १६) सालहिआ। स्त्री [द] सारिका, मैना (पामः सालिय वि [शाल्मलिक] शाल्मलि वृक्ष का, सालही । श्रा २८, दे ८, २४)।- सेमल के गाछ काः 'एग सालियापोंडं बद्धो साल न [शाला घर, गृहः 'मायामहमालंपि 'साला स्त्री [शाला] १ गृह, घर । २ भित्ति- आमेलगो होइ' (उत्तनि ३)। हु कालेणं सयलमुच्छन्नं' (सुपा ३८४)। रहित घर (कुमाः उप ७२८ टो)। ३ छन्द- सालिस देखो सारिस = सदृश (गाया १, साल माल साला, बहू का भाई (मोह। विशेष (पिग) । -पत्र १३ ठा ४, ४-पत्र २६५; ८८; सिरि ६८८ भवि: नाट मृच्छ ३५) साला स्त्री[दा शाखा (दे८, २२; पएह १, कप्प)साल पुं. देखो साला%3D (ये), 'जस्स सालस्स ३ पत्र ५४: दस ७, ३१ राय ८८)। सालिहीपिउ [शालिहीपित एक जैन भग्गस्स'; 'परित्तजीवे उसे साले (परण सालाइय देखो सलाग (राज) गृहस्थ (उवा)। १-पत्र ३७ ठा -पत्र ४२६), मंत सालाणय वि [दे] १ स्तुत, जिसकी स्तुति साली स्त्री [श्याली] पत्नी-भगिनी, भार्या को वि [वन् ] शाखावाला (णाया १, १ की गई हो वह । २ स्तुत्य, स्तुति-योग्य (दे बहन (दे ६, १४८) टी-पत्र ४ औप)। ___८,२७) सालू अ पुन [शालू क] जल-कन्द विशेष, साल देखो साला शाला। गिहघर न सायहण देखो साल-हण = शाल-बाहन - कमल कन्द (पाचा २, ५, ६, ३० दस, [गृह] १ भित्ति-रहित घर (निचू ८)। २ सालि पुंन [शाले] १ व्रीहि, धान, चावल बरामदावाला घर (राय)। (सूम २,२,११ गा ५६६६६१, कुमा; सालअनदे] १ शम्बूक, शंख । सूखे यव सालक्ष्य देखो सारइय = शारदिक (णाया १, गउड) । २ वलयाकार वनस्पति-विशेष, वृक्ष । प्रादि धान्य का अग्र भाग (दे ८, ५२) । १६ पत्र १९६)। विशेष (पएण -पत्र ३४)M भद्द पुं सालूर खो [शालर] १ भेक, मेंढक (पान; सालंकायण न शालङ्कायन] १ कौशिक [भ] एक प्रसिद्ध धष्ठि-पुत्र, जिसने सुर , ७४; सुपग ६२; साधं १०६; सूक्त गोत्र का एक शाखा-गोत्र । २ पुंस्त्री. उस भगवान महावीर के पास दीक्षा ली थी (उवः । २ ।। स्त्री. री (गा ३६१)। २ न. छन्दगोत्रवाला (ठा ७-पत्र ३६०)। पडि) भसेल, भसेल्ल पु[] घान विशेष (पिंग)। For Personal & Private Use Only Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६४ पाइअसहमहण्णवो साव-सासण साव सक [श्रावय ] सुनाना। सार्वति सावणा स्त्री [श्रावगा] सुनाना (कुप्र ६०) साविक्ख वि [सापेक्ष अपेक्षा-युक्त, अपेक्षा(प्रौप)। वकृ. सावंत, सावित, सावेत सावणी स्त्री स्वापनी] देखो सायणी (ठा वाला (श्रा & संबोध ४१) (प्रौप; राजा पउम १०, ५७) १०--पत्र ५१६) । साविगा देखो साविआ (ठा १:-पत्र साव पुं[शाप] १ सराप, आक्रोश (प्रौपः सावतेन्ज , देखो सावएज्ज (णाया १, १-- ४६६ णाया १, २-पत्र ६०; महा) । कुमाः प्रति RE)। २ शपथ, सौगंध (प्राप्र; सावतेय पत्र ३९; औपः सूत्र २, १, साविट्ठी स्त्री [श्राविष्ठी] १ श्रावण मास की हे १, २३१) ३६)। पूर्णिमा । २ श्रावण की अमावस (सुज १०; साव पुं[शाव] बालक, बच्चा (समु १५६; सावत्त देखो सावक (दे १, २५ भवि सिरि ६ इक)। ४६; कप्पू) प्राकृ८५) | सावित्ती स्त्रो [सावित्री] ब्रह्मा को पत्नी साव पुं [स्वाप] स्वपन, शयन, सोना (विसे सावस्थिगा स्त्री [श्रावस्तिका] एक जैन मुनि- (उप ५९७ टी कुप्र ४०३)। १७५५) शाखा (कप्प-पृ८१)। साविह पुं [श्वाविध] श्वापद पशु-विशेष, साव (अप) देखो सव्व = सर्व (हे ४, ४२०)। सावत्थी स्त्री [श्रावस्ती] कुणाल देश की साही (दे २, ५० ८, १५) प्राचीन राजधानी (णाया १,८-पत्र १४०%; सावइज देखो सावएज (कप्प)। सावेक्ख देखो साविक्ख (पउम १००, ११ उवा) सावइत्त वि [श्रावयित] सुनानेवाला (सूप सावन (अप) देखो सामन्न = सामान्य उप ८७०) २, २.७६)। सास सक [शास] १ सजा करना। २ (भवि) सीख देना । ३ हुकुम करना। भूका, सासित्था सावरज न [स्वापतेय] धन, द्रव्य (कप्प) सावय देखो सावग (भगः उवा; महा), 'एयं (कुप्र १४) । कम. सासिजइ, सोसइ (नाटसावक न [सापत्न्य सपत्नीपन, सौतिनपन कहेहि सुंदर सवित्थरं सच्चसावो तुयं' मृच्छ २००, कुप्र ३६६)। वकृ. सास, (कुप्र २५५) (पउम ५३, २६) । सासंत (उत्त १, ३७, प्रौपः पि ३९७)। सावक वि [सापत्न सौतेली माँ की संतान सावय पुं[श्वापद] शिकारी पशु, हिंसक ३.. सासणीअ (नाट -विक्र १०४)। कवकृ. (धर्मवि ४७)।जानवर (णाया १,१-पत्र ६५, गउड; सासिज्जत (उप १४६ टी) सावक्का स्त्री [सपत्नी] सौतेली माँ, विमाता; प्रासू १५४; महाः सण)। सास सक [कथय ] कहना। सासइ गुजराती में 'सावकी', 'सावका सुयजणरणी सावय पुं[4] १ शरभ, श्वापद पशु-विशेष (षड् ) । कर्म. सासइ (प्राकृ ७७)। पासत्था गहिय वायए लेह (धर्मवि ४७)। (दे ८, २३)। २ बालों की जड़ में होनेवाला सास पुंश्वास १ साँस (गा १४१, १४७)। सावग पुन [श्रावक] १ जैन उपासक, अहंद्एक तरह का क्षुद्र कीट (जी १६)। २ रोग-विशेष, श्वास-रोग (णाया १, १३भक्त गृहस्थ (ठा १०-पत्र ४६६; उवा; सावय [शावक] बालक, बच्चा, शिशु पत्र १८१, उवाः विपा १,१) हरा स्त्री पाया १,२--पत्र०)। २ ब्राह्मण। ३ (नाट) [ धरा] जीवन धारण करनेवाली (दश वृद्ध श्रावक (गाया १. १५-पत्र १९३; सावरी स्त्री [शावरी] विद्या-विशेष (सूम २, वृ० हारि० पत्र ६४, २)। अरण २४); तो सागरचंदो कमलामेला २, २७)। सास पुन [शस्य, सस्य १ क्षेत्र-गत धान्य य"गहियाणुव्वयाणि सावगाणि संवुत्ताणि' सावसेस विसावशेष] अवशिष्ट, बाकी (पराह १, ४-पत्र ७२, स १३१); 'सासा (प्राक ३१)। ४ वि. सुननेवाला। ५ सुनाने| बचा हुअाः 'जावाऊ सावसेस' (उव)। प्रकिटजाया' (पउम ३३, १४)। २ वृक्ष वाला (हे १. १७७)। धम्म पुं ["धर्म] सावहाण वि [सावधान] प्रवधान-युक्त, आदि का फल । ३ वि. वध-योग्य (हे १, प्राणातिपात-विरमण प्रादि बारह व्रत, जैन सचेत (नाटः रंभा) । ४३)। देखो सस्स = शस्य ।। गृहस्थ का धर्म (णाया १,१४-पत्र १६१) साविअ वि [शापिन] १ जिसको शाप दिया सावज वि [सावद्य] पाप-युक्त, पापवाला गया हो वह । २ जिसको सौगंध दिया गया पुलगवइरिंदनीलसासगककेयणलोहियक्ख -' (भगः उव; मोघ ७६३; विसे ३४६६; सुर हो वह (गाया १,१--पत्र २६, भग १५ (कप्प) ४, ८२)। पत्र ६८२; स १२६) । सासग [सासक] वृक्ष-विशेष, बीयक नाम सावण न [श्रावण] १ सुनाना (उप ७२८ साविअ वि [श्रावित] सुनाया हुआ (भग का पेड़ (णाया १, १-पत्र २४) ।। टी सुपा २८८)। २. मास-विशेष, सावन १५-पत्र ६.२ गाया १,१--पत्र २६७ सासण न शासना१द्वादशांगी. बारह का महीना (पउम ६७,७; कप्प; हे ४, ३५७; पउम १०२, १५, ६६ सार्ध १८)। जैन अंग-ग्रन्थ, पागम, सिद्धान्त, शास्त्र; 'अणु३६६)। ३ वि. श्रवणेन्द्रिय-सम्बन्धी श्रावण- साविआ स्त्री [श्राविका] जैन गृहस्थ-धर्म सासरणमेव पक' (सूम १, २,१, ११ प्रणु प्रत्यक्ष का विषय, जो कान से सुना जाय वह पालनेवाली स्त्री (भगः पाया १,१६-पत्र ३८ सम्म १; विले ८६४)। २ प्रतिपादन (धर्मसं १२८१). २०४ कप्प; महा) (णंदिउप ३७४)। ३ शिक्षा, सीख For Personal & Private Use Only Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासण-साहत्थी पाइअसहमहण्णवो ८६५ (अणु) । ४ आज्ञा, हुकुम (पएह २,१-पत्र सासू स्त्री [ श्वश्रू] सासू, पति तथा पली साहग वि [शासक, कथक ] कहनेवाला १०१, महा)। ५ ग्रास, निर्वाह-साधन: की माता (पाय; पउम १७, ४ गा ३३६) (सुर १२. ३० स ३६१) । 'जीवंतसामिपडिमाए सासणं विभरिऊरण सासय वि [सासया असया-युक्त, मत्सरी साहज्जन [साहाय्य सहायता, मदद (विसे भत्तीए (कुलक २३)। ६ वि. प्रतिपादक, (सुर ३, १९७; उप ७२८ टी)। २६५८: गण ६: रयण १४, सिरि ३६८, प्रतिपादन-कर्ता (सम्म १; गण २२, एंदि सासेरा स्त्री [दे] यान्त्रिक नाचनेवाली, यन्त्र । कुप्र १२)। ४८) । ७ प्रतिपाद्य, जिसका प्रतिपादन किया की बनी हुई नर्तकी (राज)।. साहट्ट सक [सं + वृ] संवरण करना, जाय वह (पराह २, १-पत्र ६६) देवी समेटना । साहट्टइ (हे ४, ८२) स्त्री ["देवी] शासन की अधिष्ठात्री देवी | साह सक [कथय , शास ] कहनो। साहट्टिअ वि [संवृत] समेंटा हुआ, संहत साहइ, साहेइ (हे ४, २: उव; कालः महा)। (कुमा)सुरा स्त्री [सुरी] वही प्रथं (पंचा किया हुआ, पिंडीकृत (कुमा)। साहसु, साहेसु (महा)। भवि. साहिस्सइ, | ८, ३२) साहट्ट अ [संहत्य] समेट कर, संकुचित साहिस्सामो (महाः प्राचा १, ४, ४, ४)। सासण देखो सासायण (कम्म २, २, ५; कर, 'दाहिणं जाणु धरणितलंसि साह?' वकृ. साहेंत, सायंत (हेका ३८, काप्र १४ ४, १८, २६, ५, ११, ६, ५६ पंच (कप्प), 'साहट टु पायं रीएज्जा' (प्राचा २, ३०; सुर ६, १३२)। कवकृ. साहिज्जंत, २, ४२) ३, १, ६); 'वियडेण साहट्टु य जे सिणाई' साहिप्पंत, साहिय्यंत, साहियमाण सासणा स्त्री [शासना] शिक्षा (पराह २, (सूत्र १, ७, २१)। (चंड सुर १,३०; सुपा २०५; चंड; सुपा १-पत्र १००) २६३; उप पृ ४२; चंड) । संकृ. साहिऊण, साहट्ठ वि [संदृष्ट] पुलकित (राज)। सासणावण न [शासन] आज्ञापन (स साहेत्ता (काल)। हेकृ. साहिउँ (काल; साहण सक [सं+ हन् ] संघात करना, महा)। कृ. साहियव्य, साहेअव्व (महा। संहत करना, चिपकाना। साहणंति (भग)। सासय वि [शाश्वत] नित्य, अविनश्वर (भगः सर १, १५४) ।। कर्म. साहन्नति (भग १२, ४-पत्र ५६१)। पाम से २, ३; सुर ३, ५८ प्रासू १४१) साह देखो सलाह - श्लाघ् । कृ. साहणीअ कवकृ. साहण्णंत, साहन्नंत (राजा ठा सासय पुंस्वाश्रय] निज का आधार (से | २,३--पत्र ६२) । संकृ. साहणित्ता (भग)।साह सक [साध] १ सिद्ध करना, बनाना। साहण न [साधन] १ उगय, कारण, हेतु सासव पुं [सर्पप] सरसों (माचा २, १, ८, २ वश में करना । साहइ, साहेइ, साहेति (विसे १७०६)। २ सैन्य, लश्कर (कुमाः ३) नालिया स्त्री [ नालिका कन्द-विशेष (भगः कप्पः उव; प्रासू २७; महा)। वकृ. सुर १०, १२१)। ३ वि. सिद्ध करनेवाला: (प्राचा २, १, ८, ३)। साहंत, साहिंत, साहेमाण (सिरि ६२८ 'जह जीवाण पमानो अणत्यसयसाहणो होई' सासवूल पुं [दे] कपिकच्छू का पेड़, कौछ, । महाः सुर १३,८२)। कवकृ. साहिज्जमाण | (हि १३; सुर ४, ७०)श्री.णा, 'णी किवांच, कवाछ (दे ८, २५)।. (नाट)। हेकृ. साहिलं (महा)। कृ. साह- (हे ३, ३१ षड्). सासागन [सास्वादन] १ गुण-स्थानक- णिज, साह्णीअ, साहियव्य (मा ३६ साहणण न [संहनन] संघात, अवयवों का सासायण । विशेष, द्वितीय गुरण-स्थान (कम्म पउम ३७, ३०; सुर ३, २८)। मापस में चिपकना (भग ८,६-पत्र ३६५; ४, १३; ४६)। २ वि. द्वितीय गुण-स्थान साह पुं[दे] १ वालुका, बालू । २ उलूक, । १२, ४-पत्र ५:७)।में वर्तमान जीव (सम्य १६; सम्म २६)। उल्लू । ३ दधिसर, दही की मलाई (दे ८, | साहणिअ ' [साधनिक] सेना-पति (सुपा सासि वि [श्वासिन् ] श्वास-रोगवाला (तंदु ५१) । ४ प्रिय, पति (संक्षि ४७)। २६२) साह (अप) देखो सव्व =सर्व (हे ४, साहणिज्ज देखो साह = साध् । - सासिटु (शौ) वि [शासित] शासन-कर्ता, ३६६; कुमा)। साहर्ण देखो साहण = साधन ।। शिक्षा-कर्ता (अभि २१४)। साहणाअ देखो साह = श्लाघ् , साध् । साहंजग [दे] गोक्षुर, गोखरू (दे सासिल्ल देखो सासि (विपा १,७-पत्र साहंजय ) ८, २७)। साहाणंत देखो साहण = स + हन ।. साहस्थिं प्रबहस्तेन] १ अपने हाथ से । साहंजणी स्त्री [साभाअनी] नगरी-विशेष २ साक्षात् (गाया १, ६--पत्र १६३; सासुया देखो सासू (सुर ६, १५७, ६, (विपा १, ४–पत्र ५४)। उवा)। २३३, सिरि ६४६)। साग वि [साधक] सिद्धि करनेवाला, | साहस्थिया । स्त्री [स्वाहस्तिकी] क्रिया-विशेष, सासुर न [श्वाशुर ] श्वशुर-गृह (सुर ८, साधना करनेवाला (णाया १, ८ टी-पत्र साथी अपने हाथ से गृहीत जीव आदि १६४) १५५; कप्पः नव २५, सुपा ८४ धर्मसं द्वारा हिसा करने से होनेवाला कम-बन्ध सासुर (अप) देखो ससुर = श्वशुर (भवि) । ७० हि २०) । (ठा २,१-पत्र ४०; नव १८)। For Personal & Private Use Only Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६६ पाइअसहमहष्णवो साहन्नंत-साहारण साहन्नंत देखो साहण - सं+ हन् । साहल्ल न [साफल्य सफलता (प्रोध ७३) की जाल, डाली (माचा २, १, ७, ६; उवः साहम्म न [साधय] १ समान धर्म, तुल्य साहव देखो साहु = साधु; 'यह पेच्छइ साहवं औपः प्रासू १०२) । ३ वेद का एक देश धर्म (सम्म १५३; पिड १३६) । २ सादृश्य, । तहि वालि' (पउम ६, ६१,७७, ६४) ।। (सुख ४, ६). भंग [भङ्ग] शाखा समानता (विसे २५८६ प्रोष ४०४, | साहवन साधवासाधता. साधपन (पउम। का टुकड़ा, पल्लव (पाचा २,१, ७, ६) पंचा १४, ३५)। १,६०)। 'मय, मिअ, मिग पु[मृग वानर, साहम्मि वि [सर्मिन, साधर्मिन] समान साहव्व न स्वाभाव्य स्वभावता, स्वभाव- बन्दर (पान ती २; सुपा २६२, ६१८) धर्मवाला, एक-धर्मी (पिंड १३६ १४६ पन (धर्मसं ६६)। 'र, ल वि [वत् ] १ शाखावाला, शाखा१४७) स्त्री. णी (प्राचा २, १, १, १२ साहस न साहस] १ बिना विचार किया। युक्त (धम्म १२ टीः सुपा ४७४) । पुं. महा) जाता काम (उव, महा)। २ पुं. एक विद्या वृक्ष, पेड़ (सुपा ६३८)। साहम्मिअरवि [सार्मिक] ऊपर देखो घर नरेन्द्र, साहस गति (पउम ४७, ४७) साहाणुसाहि पुं[] शक देश का सम्राट् , साहम्मिग (प्रोघ १५; ७७६; प्रौपः उत्त बादशाहः पत्तो सगकूलं नाम कूल, तत्थ गइ ' [हि] वही अर्थ (पउम ४७, २६, १; कसः सुपा ११२: पंचा १६, २२)। जे सामंता ते साहिणा भएणंति जो सामंता४५ महा) साहय देखो साग = साधक (उप ३६० हिवई सयलनरिंदवंदचूडामणी सो शाहाणुसाही साहस देखो साहस्स = साहस्र (राज)। स ४५, काल) भएगई' (काल) साहसि वि [साहसिन] साहस कर्म करने- साहार सक[सं+ धारय ] अच्छी तरह साहय देखो साहग = शासक, कथक (सम्म वाला. साहसिका 'ते धीरा साहसिणो उत्तम- धारण करना । साहारइ (भवि) १४३)। सत्ता' (उप ७२८ टी, किरात १४) साहय वि [संहृत] संक्षिप्त, समेटा हुआ साहार पुं[सहकार] प्राम का गाछ, 'होसइ पत्र और तंद साहसिअ वि [साहासक] ऊपर देखो : किल साहारो साहारे अंगणम्मि वढते' (वजा . (औपः सून २, २, ६२, चारु ३७; कुप्र१३. सुपा ६३८)साहर सक [सं + वृ] संवरण करना । साहरइ (हे ४, ८२)। | साहस्स वि साहार [दे. साधुकार] साहुकार, महा साहस्त्र] १ जिसका मूल्य जन (धम्म १२ टी)।' साहर सक [सं+ ह] १ संकोच करना: हजार (मुद्रा, रुपया आदि) हो वह वस्तु संक्षेप करना, सकेलना, समेटना। २ साहार पुं[सदाचार सहकार] अच्छा (दसनि ३, १३ उब महा)। २ हजार का स्थानान्तर में ले जाना। ३ प्रवेश कराना । आधार, सहारा, अवलम्बन, सहायता, मदद, परिमाणवाला; 'जोयणसयसाहस्सो विस्थिराणो ४ छिपाना। ५ व्यापार-रहित करना । उपकार; 'परचित्तरं जगणं न वेसमेत्तेण मेरुनाभीयो' (जीवस १८५)। ३ न. हजार साहरइ, साहरे, साहरंति (भग ५, ४-पत्र साहारो' (उवः पुप्फ २२५), "भुंजतो आहार (जीवस १८५) मल्ल पुं [मल्ल] व्यक्ति२१८, कप्पः उवः सून १, ८, १७ पि गुणोवयारसरीरसाहारं' (ोघ ५८३, स वाचक नाम (उब)। ७६)। साहरिज (भग ५, ४)। भवि. ४२५, वजा १३०; सण)। साहस्सिय वि [साहस्रिक] १ हजार का साहरिज्जिस्सामि ( कप्प)। कवकृ. साह साहार वि [साहकार] आम के गाछ से परिमाणवाला (णाया १, १-पत्र ३७; रिज्जमाण (कप्प; प्रौप)। संकृ. साहरित्ता उत्पन्न, आम्र-वृक्ष-सम्बन्धी (कप्पू)। कप्प)। २ हजार आदमी के साथ लड़नेवाला। (कप्प)। हेकृ. साहरित्तए (भग ५, ४मल्ल (राज) साहार । पुन [साधारण] १ वनस्पतिपत्र २१८)। साहस्सी स्त्री [साहस्री] हजार, दस सौः साहारण) विशेष, जहाँ एक शरीर में अनन्त साहरण न [संहरण] एक स्थान से दूसरे 'गिहत्थारण प्रणेगानो साहस्सोमो समागया'। जोव हों वह वनस्पति, कन्द आदि। २ कर्मस्थान में ले जाना, स्थानान्तर-नयन (पिंड (उत्त २३, १६; सम २६; उदा: प्रोप, उत्त विशेष, जिसके उदय से साधारण-बनस्पति में ६०६, ६०७)। जन्म होय वह कर्म (कम्म २, २८ परह २२, २३, हे ३, १२३)। साहरय वि [दे] गत-मोह, मोह-रहित (दे १, १-पत्र ८ कम्म १,२७; जी ८, २६)। साहा स्त्री [श्लाघा] प्रशंसा (सम ५१)। पएरण १-पत्र ४२)। ३ कारण प्राचू १)। साहरिवि सिंहत] १ स्थानान्तर में नीत साहा अस्वाहा] देवता के उद्देश से द्रव्य-: में नीत साहा अस्वाहा दवता क उद्दश स द्रव्य- ४ . साधारण बनस्पति-काय का जीव (सम ८६; कप्प)। २ अन्यत्र क्षिप्त (पिंड त्याग का सूचक अव्यय, पाहुति-सूचक शब्द (परण १-पत्र ४२)। ५ वि. सामान्य । ५२०)। ३ सलोन किया हुमा, संकोचित (ठा -पत्र ४२७ आधभा २७) - ६ समान, तुल्य (पराह १-पत्र ४२)। ७ (ौप) साहा स्त्री [शाखा] १ एक ही प्राचार्य की पुन, उपकार, सहायता, मददः साहारगट्ठा साहरिअ विसंवृत] संवरण-युक्त (कुमाः संतति में उत्पन्न अमुक मुनि की सन्तान- जे केइ गिलाण म्मि उबटिए। पभूण कुराई पान) परम्परा, अवान्तर संतति (कप्प)। २ वृक्ष किच्च' (सम ५१) । °सरीरनाम न [ शरीर For Personal & Private Use Only Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६७ साहारण - सिअअ पाइअसहमणक ६७) । 1~ नामन् ] देखो ऊपर का दूसरा श्रर्थं (सम साहिज्ज देखो साइज ( अंत १३; सुपा २०५३ साहुलिआ ) स्त्री [दे] १ वस्त्र, कपड़ा (दे साहुली = ५२, गा ६०६ श्र; कप्पू: पाम; सुपा २२०; २४६) २ शिरोवस्त्र - खंड ( रंभा )। ३ शाखा, डाली (दे ८, ५२: षड् ; पा) । ४, भौं। ५ भुज, हाथ । पिकी, कोयल । ७ सदृशः समान! सहचरी (दे ८ ५२ ) । मयूरपिच्छ ( स ५२३ टि) उड; कु१३) । साहिजंत देखो साह = कथय् । साहिज्जमाण देखो साह = साधू | साहिण (प) [ कथिन् ] ह (सण) 1 सखी, साहित्त न [साहित्य ] श्रलंकार- शास्त्र (सुपा १०३: ४५३) । - साहित्यंत देखो साह = कथंय् । साहारण न [ संधारण ] ठीक तरह से धारण करना, टिकाना 'अभिकमे पडिक्कमे संकुचए 'पसार कायसाहारा (चाचा १५) 1 साहारण न [ स्वाधारण ] सहारा करना, उपकार करना (सम ५१ ) 1 साहारण न [संहरण] संकोचन, समेटन (दिने ३०५२) । साहियमाग साहारिअ वि[संधारित ] ठीक तरह धारण साहिय्यंत किया हृा (भवि) 1 साहायि वि[स्वाभाविक] स्वभाव-सिद्ध नैसर्गिक कुदरती (गा २२५ कफ सुपा ४६३)। साहि [शाखिन] पा उप पृ १५३) । साहि [दे] १ शक देश का सामन्त राजा, 'पत्तो सगकूलं नाम कूलं । तत्थ जे सामंता ते साहिणो भरांति' (भग) । २ देखो साही (दे ८, ६० से १२, २) = साहि (प) देखो सामिस्वामिन (पिंग ) - साहिअ[िकथित शासित, स्वाख्याता ] कहा हुआ, उक्त प्रतिपादित (सुपा २७६; सुर १, २०४ काल पात्रः श्राचा) । . साहिअ वि[साधित] सिद्ध किया हुआ, निष्पादित ( अंत १३ सुर ६, ६६ भवि) 1साहि[साधिक] सविशेष, सातिरेक (कल्प सुपा २०१ ) - साहिअ वि [ स्वाहित] स्वहित से विरुद्ध, निज का अहित (सुपा २७६) साहिकरण वि[साधिकरण] १ अधिकरण(१०)। २करता गा (ठा ३ - पत्र ३५२) । साहिकरण वि[साधिकरणिन् ] अधिकरणयुक्त, शरीर आदि अधिकरणवाला (भग १६, १- पत्र ६६८ ) 1 साहिगरण देखो साहिकरण (राम)। साहिगरणि देठो साहिकरण (भग १६, १ टी-पत्र ६९६) । १९३ [](२६) साहिर वि [शासितृ कथयितृ] शासन साहेमा देखी साह = साधू करनेवाला कहनेवाला ( गउड ) । ~ सिअ देखो सिप शिव (संधि१७) - = सि[ि] ६४ १३, १५: सू २, ७, ८) सिअ देखो सिआ = स्यात् (भगः श्रावक १२८; धर्मसं २५८; १११२ गण ५; कुप्र १५१) 1 सिअ वि [शित ] तीक्ष्ण धारवाला (सुपा ४७५)। सिअ वि [स्थित] अच्छी तरह प्राप्त (विसे ३४४५) सिअ पुं [सित] १ शुक्ल वर्णं । २ वि . श्वेत, सफेद, शुक्ल (श्रीपः उव; नाट - विक्र ७१३ सुपा ११ भत्रि ) । ३ बद्ध, बँधा हुआ (विसे ३ - २६ ) । ४ न. नाम-कर्म का एक भेद, तव का कारण कर्म (कम्म ४०) 'किरण [] द ( उप १३३ टी ) । 'गिरि पुं ['गिरि] वैतान्य पर्वत की उत्तर श्रेणि में स्थित एक विद्यारनगर (कान ["ध्यान] मर्व श्रेष्ठ ध्यान, शुक्ल ध्यान (सुवा १) । "पक्ख [पक्ष ] शुक्ल पक्ष (सुपा १७१) । 'यर पुं [र] चन्द्रमा ( उप ७२८ टी) । [प] पाल, जहाज का बादवान; 'संकोनो सियो पारद्धा देवयारण विन्नत्ती' (उप ७२) बास [बासस ] श्वेताम्बर जैन ( ती १५ ) सिअ (अप) देखो सिरी = श्री (भवि ) / वंत [म] मीना भवि सिअअ देखो सिचय (गा ८७७८ कप्पू)। २ साहित्य [] मधु शहद (२७) सादी श्री [दे] १ रच्या. मुहल्ला (६ से १२, ६२) । २ वर्तनी, मार्ग, रास्ता ( पिंड ३३४ ) । ३ राजमार्ग ( से १२, ९२ ) । खिड़की, छोटा दरवाजा ( श्रोध- ६२२ ) । साहीण वि [ स्वाधीन ] स्वायत्त, ( पाच गा १६७३ चारु ४३३ सुर ३, ५६; प्रासू ६९ ) । स्वतन्त्र 'तेत्तीस साहीय देखो साहिअ = साधिक उयहिनामा साहीया हुंति श्रजयसम्माणं ( जीवस २२३) । साहु पुं [साधु ] १ मुनि, यति (विसे ३६० - श्राचा सुपा ३४२ ) । २ सज्जन, सत्पुरुष; 'साहवो सुप्ररणा' (पाम ) ३ वि सुन्दर, शोभन, अच्छा (प्राचा; स्वप्न ६७ कुप्र ४५९) + 'कम्म न [कर्मन् ] तप-विशेष, निविकृतिक तप (संबोध ५८ ) कार, कार [का] धन्यवाद, साधुवाद, प्रशंसा (वेणी ११४ ठा ४, ४ टी-पत्र २८३, पउम ५६; २३ से १३, १९६ महाः भवि विक्र १९ ) 1 नाह [नाथ ] श्रेष्ठ मुनि, प्राचार्यं (मुपा ५४५) वा न [वाद] प्रशंसा 'जायं चसावायें (विरि ३२४३८५ ३७०) | साहुई स्त्री [साध्वी ] १ स्त्री-साधु, श्रमणी यतिनी । २ सती स्त्री । ३ अच्छी (प्राकृ २८ ) । साहुणी स्त्री [सध्वी] स्त्री-साधु, यतिनी (काल उप १०१४; सुपा ६७, ३३२ सार्धं २६३ कुप्र २१४) । साहेज देवो साइज (दे ७, ८६ सुपा १५२० गउड महा; उअ २८) । साहेब For Personal & Private Use Only Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६८ पाइअसद्दमहण्णवो सिअंग-सिंचाण सिअंग दे वरुण देवता (दे ८, ३१)।. सिंकला देखो संकला (अच्चु ४०)। सिंगि वि [शृङ्गिन] १ सींगवाला (सुख ८, सिअंबर पुंश्वेताम्बर जैनों का एक सम्प्र- सिंखल न देनूपुर (दे८,१०० कुप्र६८). १३ दे ७, १६) । २ . मेष, भेड़ । ३ दाय, श्वेताम्बर जैन (सुपा ६५८)। सिंखला देखो संकला (से १, १४ प्राप; पर्वत । ४ भारतवर्ष का एक सीमा-पर्वत । मिअहि पुश्री [दे] वृक्ष-विशेष (स २५६)। नाट-मृच्छ ८६)। ५ मुनि-विशेष । ६ वृक्ष (अणु १४२) । देखो सीअल्लि । सिंग न [शृङ्ग] १ लगातार छब्बीस दिनों सिंगिणी स्त्री [दे] गौ, गैया (दे ७, ३१) ।. सिआ देखो सिवा -शिवा (से १३, ६५) : के उपवास (संबोध ५८)1२-देखो संग= सिंगिया स्त्री [शृङ्गिका] पानी छिड़कने का सिआ अ [स्यात् इन अर्थों का सूचक शृङ्ग (उवाः पापा राय ४६, कप्प, उप __पात्र विशेष, पिचकारी (सुपा ३२८)। अव्यय-१ प्रशंसा, श्लाघा। २ अस्तित्व, ५६७ टी; सुपा ४३२; विक्र ८६; गउड सिंगरीडी स्त्री [शृङ्गिरीटी] चतुरिन्द्रिय सत्ता। ३ संशय, संदेह । ४ प्रश्न । ५ हे १, १३०) । णाइय न ['नादित] जन्तु की एक जाति (उत्त ३६, १४८) । अवधारण, निश्चय । ६ विवाद। ७ विचारणा प्रधान काज (पंचभा ३) । पाय न ["पात्र] सिंगी स्त्री [शृङ्गी] देखो सिंगिया (सुपा (हे २, (७)। ८ अनेकान्त, अनिश्चय, सींग का बना हुआ पात्र (प्राचा २, ६, १, ३२८)। कदाचित् (सून १, १०, २३, बृह १; परण ५)। माल पुं[°माल] वृक्ष-विशेष (राज)। सिंगेरिवम्म न [दे] वल्मीक (दे ८, ३३)। ५---47 २३७) । वाइ पुं [वादिन] बंदण न [वन्दन] ललाट से नमन (बृह ३)- सिंच सक [ शिङघ सूंघना । सिंघइ (कुप्र जिनदेव, अहंन देव (कुमा) । वाय पुं ___ वेर न [°वर] १ आद्रक, प्रादी । २ शुण्ठी, ८१) । संकृ. सिंघिउं (धर्मवि ६४) । हेकृ. [वाद] अनेकान्त दर्शन, जैन दर्शन (हे २, सोंठ (उत्त ३६, ६७; दस ५, १,७०; भास सिंघेउं (धर्मवि ६४)। १०७ चंडः षड् )। ८ टोः पराण १-पत्र ३५) । सिंघ देखो सिंह (हे १,२६, विपा १,४सिआ स्त्री [सिता] १ लेश्या-विशेष, शुक्ल सिंग विदे] कृश, दुबल (दे ८, २८)। पत्र ५५षड् )। लेश्या (पव १५२)। २ द्राक्षा आदि का संग्रह (राज) सिंगय वि [दे] तरुण, जवान (दे८३१)। सिंघल देखो सिंहल (सुर १३, २६; सुपा १५.पि २६७)। सिआल [शृगाल, सृगाला१पश-विशेष, सिंगरीडी देखो सिंगिरीडी (राज)। सिंघाडग) पुंन [शृङ्गाटक] १ सिंघाड़ा, सियार, गोदड़ (गाया १,१-पत्र ६५)। सिंगा स्त्री [दे] फली, फलियाँ (भास ८टी)। सिंघाडय। पानी-फल (पराग १-पत्र:६; २ दैत्य-विशेष । ३ वासुदेव । ४ निष्ठुर । सिंगार शृिङ्गार] १ नाट्यशास्त्र-प्रसिद्ध प्राचा २, १, ८, ५)। २ त्रिकोण मार्ग ५ खल, दुर्जन (हे १, १२८ प्राप्र)। रस-विशेष, सिगारो णाम रसो रइसंजोगा- (पराह १, ३-पत्र ५४; प्रौपः रणाया १, सिअली श्री [दे] डमर, देश का भीतरी या भिलाससंजणणो' (अणु)। २ वेष, भूषण, १ टी--पत्र ३; कप्प)। ३ पुं. राहु (सुज्ज बाहरी उपद्रव (दे ८, ३२)।. आदि की सजावट, भूषण प्रादि की शोभा २०)। सिआली स्त्री [शृगाली] मादा सियार (नाटः । (ौपः विपा १, २) । ३ लवङ्ग, लौंग । ४ सिंघाण पुन [शिवाग] १ नासिका-मल, पि ५०) सिन्दूर । ५ चूर्ण, चून। ६ काला अगरु । श्लेष्मा (ठा ५, ३-पत्र ३४२ सम १० सिआलीस श्रीन [षट्चत्वारिंशत् ] छेना- ७ भाद्रक, मादी । ८ हाथी का भूषण । पराह २,५-पत्र १४८ औप; कप्प; कस; लीस, चालीस और छः (विसे ३४६ टी)। अलंकार, भूषण (हे १, १२८ प्राप्र)। १० दस ८, १८ पि २६७) । २ पु. काला सिआसिअ ' [सितासित] १ बलभद्र, वि. अतिशय शोभावाला: 'तए णं समरणस्स पुद्गल-विशेष (सुज्ज २०) बलराम । २ वि. श्वेत और कृष्ण (प्राप्र)। भगवनो महावीरस्स वियट्टभोइस्स सरीरयं सिंघासण देखो सिंहासण (स ११७)। सिइ पुं[शिति] १ हरा वणं। २ वि. हरा पोरालं सिंगार कल्लारणं सिवं धन्नं मंगल सिंघुअ पु[दे] राहु (दे ८,३१) . वर्णवाला । पावरण पुं [प्रावरण] बल- अलकिप्रविभूसिग्रं......"चिट्रई (भग)। सिंच सक [सिन् ] सोंचना, छिड़कना । सिचइ (हे ४, ६६; महा) । भूका. सिचिन राम, बलभद्र (कुमा) । सिंगार सक [शृङ्गारय ] सिंगार करना, (कुमा)। भवि. सिंचिस्सं (पि ५२६) । कृ. सिइ स्त्री [दे. शिति] सीढ़ी, निःश्रेरिण (पिंड सजावट करना । सिंगारइ (भवि)। सिंचेयव्य (सुर ७, २३५) । कवकृ. ४७३ वव १०)। सिंगारि वि[शृङ्गारिन सिंगार करनेवाला, लासिचंत, सिञ्चमाण (पि ५४२, उप २११ सि (अप) देखो समं (भवि) । शोभा करनेवाला (सिरि ८४४) । टी; स ३४६) । सिटामो [ दे.असिकुण्ठा ] साधारण सिंगारिअ वि [शृङ्गारित] सिंगारा हुआ, सिंचण न [सेचन] छिड़काव (सून १, ४. • बनस्पति-विशेष (पएण १-पत्र ३५)। सजाया हुमा (सिरि १५८)। । १, २१; मोह ३१)। सिएअर वि [सितेतर] कृष्ण, काला सिंगारिअ वि [शृङ्गारिक] शृङ्गार-युक्त सिंचाण पुं [दे] पक्षि-विशेष, श्येन पक्षी, (उवा)। बाज; गुजराती में "सिंचारणों' (सए)। For Personal & Private Use Only Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंचाविअ-सिंह पाइअसहमहण्णवो ८९९ सिंचाविअ वि [सेचित] छिड़कवाया हुआ सिंदोलन [दे] खजूर, फल-विशेष (पान)। सिंबलि देखो संबलि = शाल्मलि (हे १, (उप १०३१ टी; स २८० ५४६)। सिंदोला स्त्री दे] खजरी, खजर का पेड १४६, ८, २३; पाप्रा सुर १४, ४३; पि सिंचि वि [सिक्त] सोचा हुआ, छिड़का (दे ८, २९)। १०६ संथा ८५; उत्त १६, ५२)। हुआ (कुमा)। सिंधव न सैन्धव १ सिंध देश का लवरण, सिंबलि स्त्री [शिम्बलि, शिम्बा] कलाय सिंज अक [शि ] प्रस्फुट पावाज करना। प्रादि की फली, छीमी, फलियाँ (भग १५__सेंधा नोन (गा ६७६; कुमा)। २ पुं. घोड़ा वकृ. सिंजंत (सुपा ५०; सण) । कृ. सिंजि पत्र ६८०, प्राचा २, १,१०, ३, दस ५, (हे १, १४६) अव्य (गा ३६२)। १,७३), थालग पुन [स्थालक] १ सिंजण न [शिञ्जन] १ अस्पष्ट शब्द, भूषण सिंधविया स्त्री [सैन्धविका] लिपि-विशेष । फली की थाली। २ फली का पाक (प्राचा को पावाज। २ वि. अस्प आवाज करने- (विसे ४६४ टी) २, १, १०, ३) । देखो संबलि । वाला (सुपा ४) । सिंधु स्त्री [सिन्धु] १ नदी-विशेष, सिन्धु सिबलिका स्त्री [सिम्बलि] टोकरी (जिनसिंजा स्त्री [शिआ] भूषण का शब्द (कप्पू नदी (धर्मवि ८३, ४--पत्र २६०, सम दताख्यान)। प्राप), २७)। २ नदीः 'सरिमा तरंगिणी निएण्या सिंबा स्त्री शिम्बार फली, छीमीः 'कोसी सिंजिणी स्त्री [शिञ्जिनी] धनुगुण, धनुष नई पावगा सिंधू (पान)। ३ सिन्धु नदी की समीय सिंबा' (पान) - की डोरी (गा ५४)। अधिष्ठायिका देवी (जं ४)। ४ पुं. समुद्र, सिंजाली मोटे नाक की प्रावाज (दे सिंजियन [शिञ्जित अव्यक्त आवाज (उप सागर (पामा कुप्र २२ सुपा १, २६४)। ८. २६) १०३१ टी; कप्पू)। ५ देश-विशेषः सिन्ध देश (मुद्रा २४२; भवि; सिंजिर वि [शिञ्जित] अस्फुट आवाज करने कुमा)। ६ द्वीप-विशेष । ७ पद्म-विशेष (जं सिंबीर न [दे] पलाल, घास (दे ८, २८)। वाला, 'सद्दालं सिजिरं करिणरं' (पान)। ४-पत्र २६०) णद न [ नद] नगर. सिंभ पुं[श्लेज्मन् ] श्लेष्मा, कफ (हे २, सिंझ पुंन [सिध्मन् कुष्ठ रोग-विशेष (भग विशेष (पउम ८, १६८)। णाह पु ७४, तंदु १४. महा) । ७,६-पत्र ३०७) ["नाथ] समुद्र (समु १५१), देवी स्त्री सिंभाल देखो सिंबलि = शाल्मलि (सुपा सिंड वि [दे] मोटित, मोड़ा हुअा (दे ८, [देवी] सिन्धु नदी की अधिष्ठायिका देवी ८४)। (उप ७२८ टो)। "देवीकूड पुं["देवीकूट] सिभि वि [श्लेषितन्] श्लेष-युक्त, श्लेष्मसिंढ [दे] मयूर, मोर (दे ८, २०)। क्षुद्र हिमवंत पर्वत का एक शिखर (जं ४- रोगी (सुपा ५७६) । सिंढा श्री [दे] नासिका-नाद, नाक को पत्र २६५). पवाय पुन [प्रपात] कुण्ड- सिंभिय वि [श्लैष्मिक] श्लेष्म-सम्बन्धी आवाज (दे८, २६) विशेष, जहाँ पर्वत से सिन्धु नदी गिरती है (तंदु १६; रणाया १,१-पत्र ५०; प्रौप: सिंदाण न [दे] विमान (उप १४२ टी) (ठा २,३-पत्र ७२) राय पु [राज] . पि २६७) । सिंदी स्त्री [दे खजूरी, खजूर का गाछ (दे ॥ राजा (मुद्रा २४२)4 वइ सिंह [सिंह], श्वापद पशु-विशेष, मुग८, २६; पानः प्रावम)। [पति] १ समुद्र, सागर (स २०२)। राज, केसरी (प्रासू १५४ १६६) । २ एक सिंदीर न [दे] नूपुर (दे ८, १०)। २ सिन्ध देश का राजा (कुमा) सोवीर राज-कुमार (उ7 ६८६ टो)। ३ एक राजा सिंदु स्त्री [] रज्जु, रस्सो (दे८,२८)। [सौवीर] सिन्धु नदी के समीप का देश (रयण २६)। ४ भगवान महावीर का एक सिंदुरय न [दे] १ रज्जु, रस्सी। २ राज्य विशेष (भग १३, ६; महा)। शिष्य, मुनि-विशेष (राज)। ५ व्रत-विशेष, (दे ८, ५४)। सिंधुर पु [सिन्धुर] हस्ती, हाथी (सुपा त्रिविधाहार को संलेखना-परित्याग (संबोध सिंदुवण पु [दे] अग्नि, आग (दे ८, ३२) । ५८), अलोअण (अप) न वलोकन सिंदुवार पु [सिन्दुवार] वृक्ष-विशेष, सिंप देखो सिंच । सिंपइ (हे ४, ६६)। सोना १ सिंह की तरह पीछे देवना। २ छन्दनिगु एडी, सम्हालु का गाछ (गउड कुमाः कर्म. सिप्पइ (हे ४, २५५) कवकृ. सिप्पंत विशष (पिग) उर नपु] उप १०१६; कुप्र ११७)। (कुमा ७, १०) , का एक प्राचीन नगर (भवि), कण्णी स्त्री सिंदूर न [दे] राज्य (दे ८, ३०)11 [कर्णी] बनस्पति-विशेष (पएण-पत्र सिंदूर न [सिन्दूर] १ सिंदूर, रक्त-वर्ण, र सिपिअ देखो सिंचिअ (कुमा) ३५), केसर पुं [केसर] एक प्रकार चूर्ण-विशेष (पउम २, ३८ गउड; महा)। सिंपुअवि [दे] पागल, भूत-गृहीत, भूताविष्ट का उत्तम मोदक-लड्डू (उप २१ १ टी) २ पुं. वृक्ष-विशेष (हे १, ८५; संक्षि ३)। , (दे ८, ३०)। दत्त [दत्त] १ व्यक्ति-वाचक नाम । सिंदूरिअ वि [सिन्दूरित सिन्दूर-युक्त किया सिंबल पुं [शाल्मल] सेमल का गाछ (रंभा २ वि. सिंह ने दिया हुअा (हे १, ६२)। हुआ (गा ३००) २०) ।। दुवार न [दूर] राज-द्वार (मोह १०३)।" For Personal & Private Use Only Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 800 पाइअसद्दमहण्णवो सिंहल-सिचय वलोक पुं [वलोक] १ सिह की तरह सिक्किआ स्त्री [शिक्या, शिक्यिका] रस्सो सिक्खा (अप) स्त्री [शिखा] छन्द-विशेष पीछे की तरफ देखना। २ छन्द-विशेष की बनी हुई एक चीज जो चढ़ने के काम (पिंग)। (पिंग) सण न [सन] प्रासन-विशेष, में प्राती है (सिरि ४२४) सिक्खाण न [शिक्षाण] प्राचार-सम्बन्धी राजासन, राज-गद्दी (महा)। देखो सीह ।। सिक्ख सक [शिक्ष ] सीखना, पढ़ना, । उपदेश देनेवाला शास्त्र (कप्प) सिहल [सिहल] १ देश-विशेष, सिंहल- प्रभ्यास करना । सिक्खइ (गा ४७५. ५२४), सिक्खाव सक [शिक्षय ] सिखाना, पढ़ाना, द्वीप, लंका द्वीप (इका सुर १३, २५, २७)। सिक्खंतु, सिक्खह (गा ३६२; गुण ४)। अभ्यास कराना। सिक्खावेइ (पि ५५६) । २ पुंस्त्री. सिंहल-द्वीप का निवासी (प्रौप)। भवि. सिक्खिस्सामि (स्वप्न ६७)। वकृ. भवि. सिक्खावेहिति (प्रौप) । संकृ.सिक्खास्त्री. °ली (प्रौपा रणाया १, १-पत्र ३७)।। सिक्खंत, सिक्खमाण (नाट--मृच्छ १४१; वेत्ता (औप)। हेकृ. सिक्खावित्तए, सिक्खावेत्तए; सिक्खावेउं (ठा २, सिंहलिआ स्त्री [दे] शिखा, चोटी (पान)- पि ३६७; सून १,१४,१) संकृ.सिक्खि सिंहिणी स्त्री [सिहिनी] छन्द-विशेष (पिंग)। । (नाट-रत्ना २१)। हेकृ. सिक्खिउं (गा। १--पत्र ५६: कस; पंचा १०, ४८ टी) ____८६२)। सिक्खावअ देखो सिक्खवअ (गा ३५८% सिंहीभूय न [सिंहीभूत] व्रत-विशेष, मिले सिहामृत व्रतविशष, सिक्ख देखो सिक्खाव । वकृ.सिक्खयंत । प्राकृ ६१) चतुर्विध आहार की संलेखना--परित्याग (पउम ८२, १२) । कृ. सिक्खगोअ (पउम सिक्खावण न [शिक्षण सिखाना, सीख, (संबोध ५८)। ३२, ५०) हितोपदेश (सुख २. १६७ प्राकृ ६१कप्पू)। सिकता । स्त्री [सिकता] बालू, रेत (अणु सिक्खग वि शिक्षक शिक्षा-कर्ता, 'दुक्खाणं सिक्खावणा स्त्री [शिक्षणा] ऊपर देखो सिकया ) २७० टी पउम ११२, १७ विसे सिक्खगं तं परिणदमिह भे दुक्कयं (रंभा)। (सूअनि १२७ उप १५०टी) १७३६)।सिक्खग [शक्षक] नूतन शिष्य (सूअनि सिक्खाविअ वि [शिक्षित] सिखाया हुआ सिक्क ' [सृक्क] होठ का अन्त भाग (दे १२८)। । (भगः पउम ६७, २२; गाया १,१-पत्र ६०० १,१८--पत्र २३६) सिक्खण न [शिक्षण १ अभ्यास, पाठ | सिक्खिअ वि [शिक्षित] सिखा हुआ, सिक्कग पुन [शिक्यक] सिकहर, सीका, छींका, (कुप्र २३०)। २ सीख, उपदेश (सुर ८, रस्सी की बनी डोलनुमा एक चीज जो छत ५१)। ३ अध्यायन, पाठन (सिरि ७८१) जानकार, विद्वान् (गाया १, १४-पत्र में लटकायी जाती है और उसमें चीजें रख सिक्खव देखो सिक्खाव। सिक्खवेसु (गा मिक्खिर विशिक्षित १८७ प्रौप)। सीखने की दी जाती हैं जिससे उसमें चीटियाँ न चढ़े ७५०; ६४८)। कवकृ. सिक्खविजमाण आदतवाला, अभ्यासी (गा ६६१)। और उसे बिल्ली न खाय (राय ६३, उवाः (सुपा ३१५)। कृ.सिक्खवियव्व- (सुपा निचू १: श्रावक ६३ टी)। सिखा स्त्री [शिखा] छन्द-विशेष (पिंग)। २०७)। सिक्कड पुंन [दे] खटिया, मचियाः 'कोव- सिक्खवअ वि [शिक्षक शिक्षा देनेवाला, सिखि देखो सिहि-शिखिन् ( नाट-विक्र भवणम्मि जरजिन्नसिक्कडे पडइ जरियव' पढ़ानेवाला, शिक्षक (प्राकृ ६१) (सुपा ६) सिक्खविअ वि [शिक्षित] १ सिखाया सिगया देखो सिकया (राज)सिक्कय देखो सिक्कग (राय ६३: श्रावक ३ हपा, पढाया हा (गा ३५२)। २. सिगाल दखा सिआल (सरण) टी: स ५८३) शिक्षा देना, अभ्यास कराना, मध्यापन (सुपा सिगाली देखो सिआली = शृगाली (चारु सिक्करा स्त्रो [शर्करा] खंड, टुकड़ा: ‘सय.. २५) । ११)10 सिक्करो' (स ६६३) सिक्खा नी [शिक्षा] १ सजा, दण्ड (कुप्र सिग्ग विदे] १ श्रान्त, थका हुमा (दे ८, ११०)। २ वेद का एक अङ्ग, वर्गों के २८ ओघ २३) । २ न. परिश्रम, थकावट सिकरिअ न [सीत्कृत] अनुराग से उत्पन्न उच्चारण सम्बन्धी ग्रंथ-विशेष, अक्षरों के (वव ४)। आवाज (गा ३६२) स्वरूप को बतलानेवाला शास्त्र; 'सिक्खावा- सिग्गु [शि] वृक्ष-विशेष, सहिजना का सिकरिआ स्त्री (दे. श्रीकरी] जहाज का । गरणछंदकप्पडढो' (धर्मवि ३८, प्रौप; कप्पा पेड़ (दे, २०; पात्र)। आभरण-विशेष (सिरि ३८७) अंत)। ३ शास्त्र और प्राचार सम्बन्धी सिग्ध न [शीघ्र १ जल्दी, तुरंत । २ वि. सिकार पुं[सोत्कार] १ अनुराग की आवाज । शिक्षण, अभ्यास, सीखः सिखाई, उपदेश शीघ्रता-युक्त, त्वरा-युक्त (पाप; स्वप्न ५४; (गा ७२१; भविः सण; नाट-मृच्छ १३६)। (औपबृह १; महा: कुप्र १९७) वय न चंड, कप्पू, महाः सुर १, २१०, ४, ६६ २ हाथी की चिल्लाहट; कुंतविरिणभिन्नकरि- [व्रत व्रत-विशेष, जैन गृहस्थ के सामायिक सुपा ५८०)।कलहमुक्कसिक्कारपउरम्मि "समरम्मि' (मि आदि चार व्रत (औप; महा; सुपा ५४०)। सिचय पुं[सिचय] वन, कपड़ा (पाम: वय न [पद] शिक्षा-स्थान (प्रोप)। गा २६१; कुप्र ४३३)। For Personal & Private Use Only Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिचंत-सिणिद्ध पाइअसहमहण्णवो ६०१ सिञ्चंत देखो सिंच = सिच् । सिद्ध वि [श्रेष्ट] अति उत्तम (उप ८७६) । सिढिलीभूय वि [शिथिलीभूत] शिथिल सिच्चमाण) सिट्ठ वि [सृष्ट] १ रचित, निर्मित (उप बना हुआ (पउम ५३, २४)। सिच्छा स्त्री [ स्वेच्छा] स्वच्छन्द (सुपा ___७२८ टी; रंभा) । २ युक्त । ३ निश्चित । ४ सिण देखो सण = शण (जी १०, सुपा १८६) भूषित । ५ बहुल, प्रचुर । ६ त्यक्त (हे १, गा ७६८) सिज प्रक [स्विद् ] पसीना होना । सिज्जइ १२८) सिणगार देखो सिंगार = शृङ्गार, सिणगार(षड् २०३)। वकृ. सिज्जत (नाट-उत्तर सिद्ध वि [शिष्ट] १ कथित, उक्त, उपदिष्ट चारुवेसो' (संबोध ४७); 'कारिप्रसुरसुंदरिसि (सुर १,१६५, २, १८४ जी ५०; वजा गारं' (सिरि १५८)सिज देखो सिज्जा (सम्मत्त १७०) १३६)। २ सजन, भलामानस, प्रतिष्ठित सिगा अकस्निा सिजंभण पुं [शय्यंभण] एक सुप्रसिद्ध स्नान करना, नहाना । (उप ७६८ टी; कुप्र ६४; सिरि ४५; सुपा प्राचीन जैन महर्षि (कप्प-पृ ७८; दि)। सिणाइ (सूम १, ७, २१; प्राकृ २८) । ४७०) यार पुं [चार] भलमनसी, सिन्नंस देखो सेज्जंस = श्रेयांस (कप्पः पडि; संकृ. सिणाइत्ता (सूत्र २, ७, १७)। ईक. सदाचार (धर्म १)।आचा २, १५, ३) सिणाइत्तए (प्रौप)। सिह विदे] सो कर उठा हुअा (षड् ) सिज्जा स्त्री [शय्या] १ बिछौना (सम १५ सिणाउ पुंस्त्री [स्नायु] नाडी-विशेष, वायु उवा; सुपा ५५३)। २ उपाश्रय, वसति सिद्धि स्त्री [सृष्टि] १ विश्व-निर्माण, जगद्- वहन करनेवाली नाड़ी (प्राक २८)। (मोघ १६७) तरी, यर। स्त्री ["तरी] रचना (सुपा १११; महा)। २ निर्माण, सिणाण उ [स्नान] नहान, अवगाहन (नम उपाश्रय की मालकिन (ोघ १६७; पि रचना। ३ स्वभाव । ४ जिसका निर्माण ३५; ओघ ४६६, रयण १४)।१०१)। वाली स्त्री [पाली] बिछौना का होता हो वह (हे १, १२८)। ५ सीधा क्रम, सिणात देखो सिणाय = स्नात (ठा ४,१काम करनेवाली दासी (सुपा ६४१)। देखो प्रविपरीत क्रम 'चकाई जंतजोगेणं सिद्धि पत्र १६३५, ३-पत्र ३३६) सेन्जा विसिट्टिकमेणं एगंतरियं भर्मताई' (सिरि सिणाय देखो सिणा । सिणायंति (दस ६, सिजिअ (अप) वि [सृष्ट] उत्पन्न किया हुआ, ८७८)। ६३) । वकृ. सिणायंत (दस ६, ६२; पि बनाया हुआ (पिंग) सिट्टि [दे. श्रेष्ठिन] नगर-सेठ, नगर का सिज्जिर वि [स्वेत्तु] जिसको पसीना हुआ मुख्य साहूकार, महाजन (कप्प, सुपा ५८०) सिणाय) वि स्निात, क] १ प्रधान, करता हो वह, पसीनावाला (गा ४०७; । - पय न [पद] नगर-सेठ की पदवी (सुपा सिणायग श्रेष्ठ (सूम २, २, ५६) । २ ४०८, ७७४: कुमा)। स्त्री. री (हे ४,२२४) ३४२) । देखो सेट्ठि सिणायय) मुनि-विशेष, केवलज्ञान प्राप्त सिज्जूर न [दे] राज्य (दे८, ३०)- सिट्टिणी स्त्रीश्रेष्ठिनो] श्रेष्ठि-पत्नी, सेठानी मुनि, केवली भगवान् (भग २५, ६; एंदि सिज्म अक [सिध] १ निष्पन्न होना, (सुपा १२)। । १३८ टी; ठा ३, २-पत्र १२६%3; धर्मसं बनना । २ पकना। ३ मुक्त होना । ४ मंगल सिढी स्त्री [दे] सीढ़ी, निःश्रेरिण (अज्झ । । १३५८; उत्त २५, ३४)। ३ बुद्ध शिष्य, होना । ५ सक. गति करना, जाना । ६ शासन ७०)। । बोधि सत्त्व (सूम २, ६, २६)। करना । सिज्झइ (हे ४, २१७; भग; महा) सिढिल वि [शिथिर, शिथिल] १ श्वथ, सिगाव सक [स्नपय ] स्नान कराना। सिझंति (कप्प)। भूका, सिभिंसु (भग ढोला । २ महढ़, जो मजबूत न हो वह । सिणावेदि (शौ) (नाट-चैत ४४) । पि ५१६)। भवि सिज्झिहिइ, सिज्झिस्संति, - ३ मन्द (हे १, २१५, २५४; प्राप; कुमा) सिरणावंति, सिणावेंति (प्राचा २, २, ३, सिभिहिति, सिज्झिही (उवाः भगः पि प्रासू १०२ गउड)। १०; पि १३३)।५२७; महा)। वकु.सिझंत (पिंड २५१) सिदिल सक शिथिलय 1 शिथिल करना। सिणि स्त्री [सृणि] अंकुश (सुपा ५३७; सिरि सिज्म देखो सिंझ (राज)। सिढिलेइ, सिढिलंति, सिढिलेंति (उवः वजा १०५८) । सिझणया । स्त्री [सेधना] १ सिद्धि, मुक्ति, सिणिज्म अक [स्निह ] प्रीति करना। १० से ६ ६५) सढिलेहि (वेणी २४३; सिज्मणा मोक्ष, निर्वाण (सम १४७; । पि ४६८) । वकृ. सिढिलेत (से ५, ४२) सिरिणज्झइ (प्राक २४)। कर्म. सिप्पइ (हे उप १३१,७६६, पव ५८, धमवि १५१ ४, २५५) । कवकृ. सिप्पंत (कुमा ७, सिढिलावि वि [शिथिलित] शिथिल विसे ३०३७)। २ निष्पत्ति, साधना; ६०) 'सब्बो परोवयारं करेइ कराया हुमा (प्राकृ ६१) सिणिद्ध वि [स्निग्ध] १ प्रीति-युक्त, स्नेहनियकजसिज्झणाभिरनो। सिढिलिअ वि [शिथिलित] शिथिल किया युक्त (स्वप्न ५३; प्रासू ६२)। २ भाद्र', निरविक्खो नियकज्जे हुमा (कुमाः गउड; भवि) । रस-युक्त (कुमा)। ३ मसूण, कोमल । ४ परोवयारी हवइ धन्नो॥ सिढिलीकय वि [शिथिलीकृत] शिथिल चिकना । ५ न. भात का माँड़ (हे २, १०९ (रयण ४६) किया हुआ (सुर २, १६, १७३) । प्राप्र) For Personal & Private Use Only Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ पाइअसहमहण्णवो सिणेह-सिद्धि सिणेह देखो सणेह (भग पाया १, १३-- साव्य-विलक्षण शब्द (भास ८६)। साबित भावी दूसरे जिन-देव (सम १५४)। ४ एक पत्र १८१; स्वप्न १५; कुमा; प्रासू ) किया हुआ। १० प्रतीत, ज्ञात (पंचा ११, जैन मुनि जो नववें बलदेव के दीक्षा-गुरु थे सिणेहाल वि [स्नेहवन् । स्नेहवाला (स २६) । ११ पुं. विद्या, मंत्र, कर्म, शिल्प (पउम २०, २०६)। ५ वृक्ष-विशेष (सुपा प्रादि में जिसने पूर्णता प्राप्त की हो वह ७७ पिंड ५६१)। ६ सर्षप, सरसों (अणु सिण्ण वि [स्विन्न] स्वेद-युक्त (गा २४४) पुरुष (ठा १-पत्र २५; विसे ३०२८ वजा २३; कुप्र ४६०; पव १५४ हे ४,४२३; सिण्ण देखो सिन्न - शीणं (नाट-मृच्छ १८)। १२ समय-परिमाण विशेष, स्तोक- उप पृ६६)। ७ भगवान महावीर के कान २१०) 10 विशेष (कप्प)। १३ न. लगातार पनरह। से कील निकालनेवाला एक वणिक (चेइय सिह पुन [शिश्न] पुंश्चिह्न, पुरुष-लिंग दिनों के उपवास (संबोध ५८) । १४ पुंन. ६)। ८ एक देव-विमान (सम ३८; आचा (प्राप, दे ४,५)। महाहिमवंत आदि अनेक पर्वतों के शिखरों २, १५, २, देवेन्द्र १४५)। ६ यक्ष-विशेष सिण्हा स्त्री [दे] १ हिम, आकाश से गिरता का नाम (ठा ८-पत्र ४३६; 8--पत्र (आक)। १० पाटलिसंड नगर का एक राजा जल-करण (दे ८,५३)। २ अवश्याय, कुहरा, ४५४, इक)। क्वर पुन [rक्षर गमो । (विपा १, ७-पत्र ७२)। ११ एक गाँव कुहासा (दे ८, ५३ पात्र)। अरिहंताणं' यह वाक्य (भाव) गंडिया का नाम (भग १५-पत्र ६६४), "पुर न स्त्री ["गण्डिका] सिद्ध-संबन्धी एक ग्रन्थ- [पुर] अंग देश का एक प्राचीन नगर (सुर सिण्हालय पुंन [दे] फल-विशेष (अनु ६) । प्रकरण (भग)। चक्क न [°चक्र) अहंन्। २, ६८), वग न [वन] वन-विशेष सिति देखो सिइ = (दे) (वव १०)। प्रादि नव पद (सिरि ३४) । न न [न] (भग)। सित्त वि [सिक्त सींचा हुआ (सुर ४, १४५ पकाया हुआ अन्न (सुपा ६३३) पुत्त पुं सिद्वत्या स्त्री [सिद्धार्था] १ भगवान् अभिकुमा)। [पुत्र] जैन साधु और गृहस्थ के बीच की नन्दन-स्वामी की माता का नाम (सम सित्तुंज देखो सेत्तुंज (सूक्त ५२) । अवस्थावाला पुरुष (संबोध ३१; निचू१) १५१) । २ एक विद्या (पउम ७, १४५)। सित्य न [दे] गुण, धनुष की डोरी; 'सित्थं मणोरम पुं [मनोरम] पक्ष का दूसरा ३ भगवान संभवनाथजी की दीक्षा-शिविका व असोत्तगयं मह मरणं देव दूमेई' (कुप्र ५४, दिन (सुज १०, १४)। राय पुं [राज] (विचार १२६)। विक्रम की बारहवीं शताब्दी का गुजरात का सिद्धत्थिया स्त्री सिद्धाथिका] १ मिष्ट-वस्तुपात्र) सिस्थ न [सिक्थ] १ धान्य-करण (पएह एक सुप्रसिद्ध राजा, जो सिद्धराज जयसिंह के विशेष (पण १७-पत्र ५३३)। २ प्राभसिस्थय १, ३-पत्र ५५; कप्प; प्रौपः नाम से प्रसिद्ध था (कुप्र २२; वान १५) रण-विशेष, सोने की कंठी (प्रौप)। अणु १४२) । २ मोम (दे १, ५२ पाम: + वाल पुं [पाल] बारहवीं शताब्दी का उप ७२८ थी)। ३ ओपधि-विशेष, नीली, गुजरात का एक प्रसिद्ध जैन कवि (कप्र सिद्धय पु[सिद्धका १ वृक्ष-विशेष, सिंदुवार नील (हे २, ७७)। ४ पुन, कवल, ग्रास १७६) । °सेण पु [सेन] एक सुप्रसिद्ध वृक्ष, सम्हालु का गाछ । २ शाल वृक्ष (हे 'मासे मासे उजा अज्जा एगसित्येण पारए' प्राचीन जैन महाकवि और ताकिक प्राचार्य १. १८७) (गच्छ ३, २८ प्राप्र)। (सम्मत्त १४१). °सेणिया स्त्री [श्रेणिया] सिद्धा स्त्री सिद्धा] १ भगवान महावीर की सिस्था स्त्री [दे] १ लाला। २ जीवा, धनुष : वारहवें जैन अंग-ग्रन्थ का एक अंश (णंदि) शासन-देवी, सिद्धायिका (संति १०) । २ को डोरी (दे१,५३) ।। 'सेल' [ शैल] शत्रुतय पर्वत, सौराष्ट्र । पृथिवी-विशेष, मुक्ति-स्थान, सिद्ध-शिला (सम देश में पालीताना के पास का जैन महा- सित्थि [६] मत्स्य, मछली (दे ८, २८) । २२)। तीर्थ (सुख १, ३, सिरि ५५२) + हेम सिद्धाइया स्त्री [सिद्धायिका भगवान् महासि विदे] परिपाटित, विदारित, चीरा नामाप्राचार्य हेमचन्द्र विरचित प्रसिद्ध वीर की शासन-देवी (गण १२) । हुया (दे ८, ३०) । । व्याकरण-ग्रन्थ (मोह २)।सि वि सिद्ध] १ मुक्त, मोक्ष प्राप्त,निर्वाण सिद्धाययण पुन [सिद्धायतन] १ शाश्वत प्राप्त (ठा १-पत्र २५; भग; कप्प; विसे सिद्धत पुं[सिद्धान] १ आगम, शास्त्र (उवः मन्दिर-देव-गृह । २ जिन-मन्दिर (ठा ४, ३०२७, २६७ सम्म ८६: जी २५, सुपा बहा रणदि) । २ निश्चय (स १०३)।- २-पत्र २२६%3 इका सूर ३.१२)। ३ प्रमक २४४; ३४२) । २ निष्पन्न, बना हुआ सिद्धत्थ पु[दे] रुद्र, देव-विशेष (दे ८, पर्वतों के शिखरों का नाम (इक; जं ४)। (प्रासू १५) । ३ पका हुआ (सुपा ६३३)। ३१)। सिद्धालय बीन [सिद्धालय] मुक्त-स्थान, ४ शाश्वत, नित्य (चेइय ६७६)। ५ प्रतिष्ठित, सिद्धत्थ वि[सिद्धार्थ कृतार्थ, कृतकृत्य सिद्ध-शिला (प्रौपः पउम ११, १२१, इक)। लब्ध-प्रतिष्ठ (चेइय ६७६ सम्म १)। ६ (पउम ७२,११) २६. भगवान महावीर स्त्री.या (ठा ८-पत्र ४४०; सम २२)।निश्चित, निीत (सम्म १)। ७ विख्यात, के पिता का नाम (सम १५१, कप्पा पउम सिद्धि स्त्री [सिद्धि] १ सिद्ध-शिला, पृथिवीप्रसिद्ध (चेइय ६.०) । ८ शब्द-विशेष, २, २१ सुर १,१०)। ३ ऐरवत वर्ष के विशेष, जहाँ मुक्त जीव रहते हैं (भगः उव; ठा For Personal & Private Use Only Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिन्न-सिरि पाइअसहमहण्णवो ६०३ ८-पत्र ४४०; प्रौप; इक)।२ मुक्ति, निर्वाण, सिप्पिअ वि [शिल्पिक] शिल्पी, कारीगर [गृह मकान के ऊपर की छत, चन्द्रशाला मोक्ष (ठा १-पत्र २५: पडि प्रौप कुमा)। (महा)। (दे ३, ४६)। देखो सिरों। ३ कर्म-क्षय (सन २, ५, २५, २६)। ४ सिप्पिर न [दे] तृण-विशेष, पलाल, पुपाल सिर देखो सिरा (जी १०)। अणिमा आदि योग की शक्ति (ठा १)। ५ (पएण १-पत्र ३३; गा ३३०)। 'सिरय । देखो सिर = शिरस् (कप्फ परह कृतार्थता, कृतकृत्यता (ठा १-पत्र २५, सिप्पी श्री [दे] सूची, सूई (षड्)। "सिरस १, ४–पत्र ६८ प्रौप)। कप्पः प्रौप)। ६ निष्पत्तिः 'न कयाइ दुवि- सिप्पीर देखो सिप्पिर (गा ३३० प्र; पि. णीमो सकजसिद्धि समाणेइ' (उव)। ७ सिरसावत्त वि [शिरसावर्त, शिरस्यावत] २२१)। मस्तक पर प्रदक्षिणा करनेवाला, शिर पर सम्बन्ध (दसनि १, १२२)। ८ छन्द विशेष सिबिर देखो सिविर (पउम १०, २७)। परिभ्रमण करता (णाया १,१--पत्र १३; (पिंग)। गइ स्त्री [गति मुक्ति-स्थान में सिब्भ देखो सिंभ (चंड)। गमन (कप्प; प्रौप; पडि)। गंडिया स्त्री सिभा स्त्री [शिफा] वृक्ष का जटाकार मूल कप्प; प्रौप)। [गण्डिका] ग्रन्य-प्रकरण-विशेष (भग ११, (हे १, २३६)। सिरा स्त्री [शिरा, सिरा] १ रग, नस, नाड़ी ६-पत्र ५२१)। "पुर न [पुर] नगर- सिम स [सिम] सवं, सब (प्रामा)। (णाया १,१३-पत्र १८१ जी १०; जीव विशेष (कुप्र २२)। १)। २ धारा, प्रवाह (कुमाः उप पृ ३६६)।सिम देखो सीमाः 'जाव सिमसंनिहाणं पत्तो सिन्न वि [शीर्ण] जीर्ण, गला हुआ (सुपा नगरस्स बाहिरुजाणे' (सुपा १६२) । सिरि देखो सिरी (कुमा; जी ५७; प्रासू ११; विवे ७० टी)। ५२,८०; कम्म १, १; पि ६८) उत्त सिमसिम अक [सिमसिमाय 1 सिम पु [पुत्र] भारतवर्ष में होनेवाला एक सिन्न देखो सिण्ण = स्विन्न (सुपा ११) सिमसिमाय | सिम' आवाज करना । सिम चक्रवर्ती राजा (सम १५४)। उर न [°पुर] सिन्न स्त्रीन [सैन्य] १मिला हया हाथी-घोड़ा सिमायंति (वजा ८२)। वकृ.सिमसिमंत नगर-विशेष (उप ५५०) । कंठ पु प्रादि । २ सेना का समुदाय (हे १, १५० (गा ५६१ अ)। [कण्ठ] १ शिव, महादेव (कुमा)। २ कुमा)। स्त्री. 'ता अन्नदिणे नयरे पवेढियं सिमिण देखो सुमिण (हे १, ४६; २५६)। पर पवाढय सिामण दखा सुमण (ह १,४६, २५६)- वानरद्वीप का एक राजा (पउम ६, ३)।सत्तुसिन्नाए' (सुर १२, १०४)। सिमिर (अप) देखो सिविर (भवि)। कंत पुन [कान्त] एक देव-विमान (सम सिप्प देखो सिंप । सिप्पइ ( षड्)। सिमिसिम , देखो सिमसिम। बकृ. २७), कंता स्त्री [°कान्ता] १ एक राजसिप्प न [दे] पलाल, पुआल, तुण-विशेष सिमिसिमाअ सिमिसिमंत, सिमिसि पत्नी (पउन ८, १८७)। २ एक कुलकर(दे ८, २८)। माअंत (गा ५६०; पि ५५८)।" पत्नी (सम १५०)। ३ एक राज-कन्या सिप्प न [शिल्प] कारु-कार्य, कारीगरी, सिमिसिमिय वि [सिमिसिमित] 'सिम . (महा) । ४ एक पुष्करिणी (इक), कंदचित्रादि-विज्ञान, कला, हुनर, क्रिया-कुशलता सिम' आवाज करनेवाला (पउम १०५, ५५) लग पु [कन्दलक] पशु-विशेष, एक(पराह १,३-पत्र ५५, उवा, प्रासू८०)। खुरा जानवर की एक जाति (पएण १सिर सक [सृज् ] १ बनाना, निर्माण २ तेजस्काय, अग्नि-संघात । ३ अग्नि का पत्र ४६), करण न [करण] १ न्यायाकरना। २ छोड़ना, त्याग करना । सिरह जीव । ४ पुं. तेजस्काय का अधिष्ठाता देव यालय, न्याय-मन्दिर । २ फैसला (सुपा (पि २३५), सिरामि (विसे ३५७६)। (ठा ५, १-पत्र २६२)+ सिद्ध पुं. ३६१) करणाय वि [करणीय] श्री [°सिद्ध] कला में प्रतिकुशल (प्रावम)। सिर न [शिरस ] १ मस्तक, माथा, सिर करण-संबन्धी (सुपा ३६१), कूड पुन जीव वि [जीव] कारीगर, कला-हुनर (पानः कुमाः गउड)। २ प्रधान, श्रेष्ठ। ३ [कूट] हिमवंत पर्वत का एक शिखर से जीविका-निर्वाह करनेवाला (ठा ५, १ अग्र भाग (हे १, ३२)। क न [क] (राज)। खंड न [खण्ड] चन्दन (सुर पत्र ३०३)। शिरस्त्राण, मस्तक का बख्तर (दे ५, ३१, २, ५६; कप्पू)। गरण देखो करण (सुपा कुमाः कुप्र २६२). ताण, त्ताण न ४२५), गीव घुग्रीव] राक्षस-वंश का सिप्पा स्त्री [सिप्रा] नदी-विशेष, जो उजैन [त्राण] वहो पूर्वोक्त अर्थ (कुमाः स ३८५)।- एक राजा, एक लंका-पति (पउम ५, २६१)। के पास से गुजरती है (स २६३; उप पृ 'बत्थि स्त्री [ बस्ति चिकित्सा-विशेष, सिर 'गुत्त पु [गुप्त एक जैन महर्षि (कप्प)। २१८; कुप्र ५०)। में चम-कोश देकर उसमें संस्कृत तैल आदि घर न [गृह] भंडार, खजाना (गाया १, सिप्पि वि [शिल्पिन] कारीगर, हुनरी, पूरने का उपचार (विपा १,१-पत्र १४), १.-पत्र ५३; सूअनि ५५) घरिअ वि चित्र आदि कला में कुशल (प्रौप; मा ४) 'सिरावेढेहि (?सिरबत्थोहि)य' (णाया १, [गृहिक] भंडारी, खजानची (विसे सिप्पि स्त्री [शुक्ति] सीप, घोंघा (हे २, १३–पत्र १८१) मणि देखो सिरो-मणि १४२५)। 'चंद पुं["चन्द्र] १ एक प्रसिद्ध १३८; उवा; षड् ; कुमाः प्रासू ३६ पि (सुपा ५३२), 'य पुं[ज] केश, बाल जैनाचार्य और ग्रन्थकार (पव ४६; सुपा (भगा कप्पः प्रौप; स ५७८)। हर न ६५८) । २ ऐरवत क्षेत्र में होनेवाले एक For Personal & Private Use Only Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ ५ जिनदेव (सम १५४ पत्र ७ ) । ३ श्रठवें बलदेव का पूर्वभवीय नाम ( पउम २०, १९१) चंद्रा स्त्री ['चन्द्रा ] १ एक हरिणी (इक) २ एकराज उप १८६ टी) / डढ पुं [आढ्य ] एक जैन मुनि ( कप ) यर न ['नगर] वैताढ्य की दक्षिण-श्रेणी का एक विद्याधरनगर (एक) देखो 'नयर 'णिकेत न ["निकेतन ] वैताढ्य की उत्तर-श्रेणी में स्थित एक विद्याधर नगर (एक) 'जिन ["निलय] बैता पर्यंत को दक्षिण में स्थित एक नगर (इ) देखो 'निलय 'खिया श्री ['निलया] एक पुष्करिणी (इक)) णिहुवय [कामक] विष्णु, श्रीकृष्ण (कुमा) 1'ताली श्री [ख] विशेष (1 "दत्त [["देश] ऐरत वर्ष में उत्पन्न पाँचवें जिन देव ( पत्र ७ ) दाम न ["दामम् ] १ शोभावाली माता (५) । २ ग्रामरण- विशेष (आम) ३. एक राजा (विया १, ६६४) दामचंड, "दामगंड न [दामकाण्ड ] १ शोभावाली मालाओं का समूह (जं ५) । २ एक देवविमान (सम २९) दामगंड पुंग ["दामगण्ड] १ शोभावाली माताओं का दरकार समूह ( जं ५ ) देवी स्त्री [["देवा]] देवीविशेष (राज) २ लक्ष्मी (धर्मवि १४७) देवीनंदण पुं ["देवीनन्दन] कामदेव (धमव १४७) नंदण ["नन्दन] १ कामदेव २पि. श्री से समृद्ध (सुपा २३४ धम्म १३ टी) । 'नयर [नगर]देश का एक शहर (कुमाखीवर निय["निलय] वासुदेव (पउम ३५, ३०) | देखो लिय । J [4] नगर सेठाई का सूचक एक रा-चिह्न (सुपा २०३) पच्चय [पर्यंत ] पर्वत- विशेष (ज्जा ६८ ) J पह [प्रभ] एक प्रसिद्ध जैन श्राचार्य और ग्रन्थकार (धर्मवि १५२) पाल देखो बाल (सिरि ३४) फल ["फल] (कुमा) देखो दल भूः पुं ["भूति ] भारत में होनेवाले चक्रवर्ती राजा (सम १५४)। म देखी पाइअसहमणवो *मंत (उप पृ ३७४) । मई स्त्री [मती] १ इन्द्र नामक विद्याधर राज की एक पत्नी ( पउम ६, ३) २ एक राज - पत्नी (महा) । ३ एक सार्थवाह कन्या (महा) + 'मंगल [मङ्गल] दक्षिण भारत का एक देश (उप ७६० टी) मं[िमन] शोभावाला शोभायुक्त (कुमा) २. तिलक वृक्ष । श्रश्वत्थ वृक्ष । ४ विष्णु । ५ शिव, महादेव । ६ श्वान कुत्ता ( २० १५) मलयन [स] वेताच्य की श्रेणी में स्थित एक विद्याधर नगर (इक) महिअन ['महिक ] एक देव-विमान (रूम २७) ।"महिआ श्री ["महिना ] एक पुष्करिणी (इक) मा ["माल] एक प्रसिद्ध वंश (१४३) मालपुर न ["मालपुर ] एक नगर ( ती १५) यंठ देखो कंट (गडदेखील राह १, १–पत्र ७) वइ पुं [पाते] श्रीकृष्ण, वासुदेव (सम्मत ७५) बच्छ [स] १ जिनदेव आदि महापुरुषों के हृदय का एक ऊँचा श्रयवाकार चिह्न (श्रौपः सम १५३; महा) । २ महेन्द्र देवलोक के इन्द्र का एक पारियानिक विमान (ठा ४३७) । ३ एक देव-विमान (सम ३६ देवेन्द्र १४० प ) वच्छा स्त्री ['वत्सा ] भगवान् श्रेयांसनाथजी की शासन देवी (संति ६) वडिसन [ अवतंसक ] सौधर्म देवलोक का एक मन (राज) व न [°बन] एक उद्यान (अंत ४) ५ वण्णी श्री [पर्णी] वृक्ष-विशेष (१ पत्र २१) देवी संत (भवि पउम ५, [["वर्धन] एक राय (मर, २६)। वथ वुं [°बद] पक्षि-विशेष (दे १, ६७८, ५२ टी) । 'वारिसेण पुं [वारिपेण] ऐर एवं में होनेवाले जिनदेव (७) वाल ['पाल ] ? एक प्रसिद्ध जैन राजा (सिरि ३१७) । २ राजा सिद्धराज के समय का एक जैन महाकवि ( कु २:१) संभूआ श्री [["संभूता] पक्ष की छठवीं रात (सुज्ज १०, १४) । "सिचय ["सिपय] ऐखत ८ - में सिरिअ - सिरी उत्पन्न दूसरे जिनदेव (पव ७) सेण पुं [पेण] एक राजा ( प १८६) सेल [शैल] हनुमान (पम १७, १२० ) 'सोम पुं [सोम ] भारतवर्ष में होनेवाला सातवाँ चक्रवर्ती राजा ( सम १५४ ) । 'सोमणस पुंन [ 'सोननस ] एक देवविमान (सम २७ ) | हर न [गृह] भंडार (या २०) हर [र] भगवान् पार्श्वनाथ का एक मुनि गए । २ भगवान् पार्श्वनाथ का एक गणधर - मुख्य शिष्य ( कप्प ) । ३ भारतवर्ष में प्रतीत उत्सर्पिणी काल में उत्पन्न सातवें जिनदेव | ४ ऐरवत वर्ष में वर्तमान अवसर्पिणी काल में उत्पन्न बीसवें जिनदेव (पव ७ उप ६८६ टी) । ५ वासुदेव (पउम ४७, ४९ षड् ) । हर वि । ["हर ] श्री को हरा करनेवाला (कुमा) । हल न ['फल] बिल्व फल ( पाच ), देखो फल 1 सिरिअ पुं [श्रीक, श्रीयक] स्थूलभद्र का छोटा भाई और नन्द राजा का एक मन्त्री (पडि) 1 सिरिअ] [व] स्वछन्दता (७३) २ सिरिंग पुं [दे] विट, लम्पट कामुक (दे ८, ३२) । सिरिद्दह पुंस्त्री [दे] पक्षियों का पान-पात्र (पान दे ८ ३२) । सिरिमुह वि [दे] मद-मुख, जिसके मुह में मद हो वह (दे ८, ३२) । सिरियां देखो सिरी (सन १५१) सिरिली स्त्री [दे. श्रीली] कन्द-विशेष (उत्त ३६, १८ ) । पुं सिविच्छी [हे] गोपाल, ग्वासा (दे सिविय पुं [दे] हंस पक्षी (दे ८, ३२) । 5, 33) ~ । सिरिचय देखी सिरिन्ययवर्ष चौबीसवें For Personal & Private Use Only सिरिस पुं [ शिरीष ] १ वृक्ष-विशेष, सिरसा का पेड़ (सम १५२ हे १,१०१ ) । २ न. सिरसा का फूल (कुमा) सिरी श्री [श्री] १ लक्ष्मी, कमला ( पाच कुमा) । २ संपत्ति, समृद्धि, विभव (पाच) कुमा) । ३ शोभा (श्रौफ राय; कुमा) । ४ Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरीस--सिव पाइअसहमहष्णवो ९०५ पग्रहद की अधिष्ठात्री देवी (ठा २, ३- सिलाइच पु [शिलादित्य] वलभीपुर का सिलेन्छिय पुं [शिलैक्षिक] मत्स्य-विशेष पत्र ७२)। ५ उत्तर रुचक पर रहनेवाली एक प्रसिद्ध राजा (ती १५)। (जीव १ टी. पत्र ३६) एक दिक्कुमारी देवी (ठा-पत्र ४३७)। सिलागा देखो सलागा (सं ८४)। सिलेम्ह देखो सिलिम्ह (षड् )।६ देव प्रतिमा-विशेष (णाया १, १ टी-पत्र | सिलाघ (शौ) नीचे देखो । कृ. सिलाघणीअ सिलेस सकश्लिष] आलिङ्गन करना, ४३)। ७ भगवान् कुन्थुनाथ जी की माता (प्रयौ ६७) भेंटना सिलेसइ (हे ४, १६०)। का नाम (पब ११)। ८ एक श्रेष्ठि-कन्या | सिलाह सक [शाय] प्रशंसा करना। सिलेस कृ. सिलाहणिज (रयण १६) (कुप्र १५२)। ६ एक श्रेष्ठि-पत्नी (कुप्र श्लेष १ वज्रलेप आदि संवान २२)। १० देव, गुरु आदि के नाम के सिलाहा स्त्री [श्लाघा] प्रशंसा (मै ८८)। (सूनि '८५) । २ आलिङ्गन, भेंट (सुर १६, २५३)। ३ संसगं । ४ दाह (हे २, पूर्व में लगाया जाता आदर-सूचक शब्द सिलिंद पु[शिलन्द ] धान्य-विशेष (पव । १०६. षड्)। ५ एक शब्दालंकार (मुर (पब ७; कुमा; पि६८)। ११ वाणी। । १५६; संबोध ४३; था १८ दसनि ६, ८) १,३६ १६, २४३)। १२ वष-रचना। १३ धर्म आदि पुरुषार्थ । सिलिंध पुन शिलीन्ध्र] १ वृक्ष-विशेष, १४ प्रकार, भेद। १५ उपकरण, साधन । छत्रक वृक्ष, भूमिस्फोट वृक्ष (णाया १, १ सिलेस देखो सिलिम्ह (अनु ५) ।। १६ बुद्धि, मती। १७ अधिकार । १८ प्रभा, पत्र २५, ६-पत्र १६०; औपः कुमा)। सिलो पुंश्लोक १ कविता, पद्य, तेज। १६ कीति, यश। २० सिद्धि । २१ । २. पर्वत-विशेष (स २५२) निलय सिलोग काव्य (मुदा १९८; सुपा ५६४; वृद्धि । २२ विभूति । २३ लवंग, लौंग। पु[निलय] पर्वत-विशेष (स ४२४) । अजि ३, महा)। २ यश, कीर्ति (सूम १, २४ सरल वृक्ष । २५ बिल्व-वृक्ष । २६ सिलिंब १३, २२; हे २, १०६)। ३ कला-विशेष, दा शिशु, बच्चा (दे८, ३०%, पोषधि-विशेष । २७ कमल, पद्म (हे २, कवित्व, काव्य बनाने की कला (प्रौप)। सुर ११, २०६; सुपा ३४) १०४). देखो सिअ, सिरि, सी= श्री। सिलोच्चब देखो सिलुच्चय (पान; सुर १, ७, सिलिट्ठ वि [श्लिष्ट] १ मनोज्ञ, सुन्दर सिरीस देखो सिरिस (णाया १, ६-पत्र राज) 'अइक्कंतविसप्पमारणमउयसुकुमालकुम्मसंठिय१६०, औप; कुमा) सिलिट्ठचरणा' (पएह १, ४-पत्र ७६)। सिल्ल पु[दे] १ कुन्त, बरछा, शस्त्र-विशेष सिरीसिव ' [सरीसृप] सर्प, साँप (सूत्र २ संगत, सुयुक्त (औप)। ३ आलिङ्गित । (सुपा ३११, कुप्र २८ काल, सिरि ४०३)। १, ७, १५; पि ८१, १७७)। ४ संसष्ट । ५ श्लेषालंकार-युक्त (हे २,१०६ २ पोत-विशेष, एक प्रकार का जहाज (सिरि सिरों° देखो सिर = शिरस् । धरा (शौ) प्राप्र)। देखो हरा (पि ३४७) मणिपु[मणि] सिलिपइ देखो सिलिवइ (राज)। सिल्ला देखो सिला। रj [कार] शिलाप्रधानः अग्रणी, मुख्या 'प्रलससिरोमणी' सिलिम्ह पुत्री श्लेष्मन् ] श्लेष्मा, कफ वट, पत्थर गढ़नेवाला शिल्पी (ती १५)।(गा ६७०सुपा ३०१ प्रासू २७)। रुह (हे २, ५५, १०६; पि १३६)। देखो सिल्हग न [सिह लक] गन्ध-द्रव्य-विशेष पु[रुह] केश, बाल (पान) । 'विअणा सेम्ह। (राज)।स्त्री ["वेदना] सिर की पीड़ा (हे, सिलिया स्त्री शिलिका]१ चिरैता आदि सिल्हा स्त्री [दे] शीत, जाड़ा (से १२, ७)। १५६), वत्थि देखो सिर-बस्थि (राज) तृण, ओषधि-विशेष। २ पाषाण-विशेष, | सिव न शिव] १ मङ्गल, कल्याण। २ हरा स्त्री धरा ग्रीवा, गला, डोक (पाय; शन को तीक्षण करने का पाषाण (गाया १, | सुख (पाग्र कुमाः गउड) । ३ अहिंसा (परह णाया १, ३: स ८ अभि २२४)।-- १३–पत्र १०१) २, १-पत्र ६९)। ४ न. मुक्ति, मोक्ष सिल देखो सिला (कुमा)। °cपवाल न सिलिखिअ देखो सिलिट्ठ (कुमा ७, ३५)।- (पात्र; सम्मत्त ७६; सम १; कप्प; औप; [प्रवाल] विद्रुम (प्रौप)। सिलिवइ वि [श्लंपादन ] श्लीपद नामक पडि)। ५ वि. मङ्गल-युक्त, उपद्रव-रहित सिलंब देखो सिलिंब (पास)। रोगवाला, जिससे पैर फुला हुआ और कठिन (कप्प; प्रौपः सम१; पडि)। ६ पुं. महादेव सिलद पु[दे] उच्छ, गिरे हुए अन्न-कणों हो जाता है उस रोग से युक्त (प्राचा; बृह १) (णाया १, १-पत्र ३६% पापा कुमाः - का ग्रहण (दे८, ३०)। सिलीमुह पुं[शिल मुख] १ बाण, तीर सम्मत्त ७६)। ७ जिनदेव, तीर्थंकर, अर्हन सिला स्त्री [शिला] १ सिल, चट्टान, पत्थर । (पाम; सुर ६, १४)। २ रावण का एक (पउम १६, १२)। ८ एक राजषि, जिसने (पान. प्राधा कप्प; कुमा)। २ अोला (दस योद्धा (पउम ५६, ३६) भगवान महावीर के पास दीक्षा ली थी (ठा ८, ६) । जउ पुन [जतु] शिलाजित, सिलीस देखो सिलेस = श्लिष् । सिलीसइ ८--पत्र ४३०; भग ११, ६)।पाचवें पर्वतों से उत्पन्न होनेवाला द्रव्य-विशेष, जो (भवि) । सिलीसंति (सूम २, २,५५)। वासुदेव तथा बलदेव का पिता (सम.५२)। दवा के काम में आता है, शिला-रस (उप सिलञ्चय ( [शिलोच्चय] १ मेरु पर्वत १. देव-विशेष (रायः अणु)। ११ पौष ७२८ टी; धर्मवि १४१)। (सुज ५) । २ पर्वत, पाहाड़ (रंभा)। मास का लोकोत्तर नाम (सुज्ज १०, १६) ११४ For Personal & Private Use Only Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ င် कर न १२ एक देव विमान (देवेन्द्र छन्द - विशेष (पिग ) + शैलेशी अवस्था की प्राप्ति । २ मुक्ति-मागं ( सूमनि ११५) गइ स्त्री [गति] १ मुक्ति, मोक्ष । २ वि मुक्त, मुक्ति प्राप्त (राज)। ३ पुं. भारतवर्ष में अतीत उत्सपिशी काल में उत्पन्न चौदहवें जिन देव ( पर्व ७) तत्व [] काशी बनारस (हे ४, ४४२) । नंदा स्त्री [नन्दा] श्रानन्द-श्रावक की पत्नी (उवा) [["भूति] १ एक जैन महारूप्प बोटिक मत - दिगंबर जैन संप्रदाय का स्थापक एक मुनि (विसे २५५१) । रन्ति श्री [] फाल्गुन (गुजराती माघ मास की कृष्ण चतुर्दशी तिथि (सहि ७८ ये सेण ["सेन] ऐखत वर्ष में उत्पन्न एक ग्रहन (सम १५३ ) । सिवंकर पुं [शिवङ्कर ] पांचवे केशव का पिता (पउम २०, १८२) - भूइ पुं २ J १४३) । [° कर] १ १३ सिवक [शिवक] १ बढ़ा तैयार होने सिवय के पूर्व की एक अवस्था (विसे २३१६)। २ वेलन्धर नागराज का एक श्रावास पर्वत ( इक ) 1 सिवा की [शिवा] भगवान नेमिनाथजी की माता का नाम (सम १५१ ) । २ सौधर्मं देवलोक के इन्द्र की एक अग्र-महिषी (ठा ८ - पत्र ४१६६ गाया २ – पत्र २५३ ) । पर जिनदेव की प्रतिमुख्य साध्वी (पव ९ ) । ४ शृगाली, मादा सियार (अ) वज्जा ११८ ) । ५ पावती ( पाच ) 1सिवाणंदा देखो सित्र- नंदा (उवा) । सिवासि [शिवाशिन् ] भरतक्षेत्र में प्रतीत उत्सर्पिणी-काल में उत्पन्न बारहवें जिनदेव ( पव ७ ) 1. सिविग देखो सुमिंग (हे १, ४६ प्र रंभा कुमा; कप्पू) । सिविर न [शिविर ] कक्षावार सैन्य निवासस्थानी (कुमा) २ सैन्य सेना, लश्कर (सुपा ६) । पाइअसहयो सिन्व सक [ सांव्] सीना, साँधना सिव्ह (षड्, विसे १३६८ ) । भवि. सिव्वि सामि श्राचा १, ६, ३, १) सिव्व देखो सव= शिव (प्राकृ २६ संक्षि १०) 1 सिव्विपि [स्यून] शिया हुआ (६२) । सिठिवणी स्त्री [दे] सूची सूई (दे ८, } सिडी २६ ) 1 श्लिष् । सिसइ (षड् ) 1दही (दे ८, ३१ सिस देखो सिलेस सिसिर न [दे] दधि, पत्र २०८; सून १, ३, १, १ उप ६४८ टी: कुछ ५५६) यवन [य] - विशेष (पण १ - पत्र ३३) ५ बाल देखो पाल ( सू १, ३, १, १ टी सिस्स पुंत्री [ शिष्य ]१ चेला, छात्र, विद्यार्थी (गाया १, १ पत्र ६०० सूत्रनि १२०) श्री. रेखा "सिगी मागाया १, १४ - पत्र १८८ ) - सिस्स देखो सीस= शीर्ष (सत ५० ) - सिविया स्त्री [शिविका] सुखासन, पालकी, सिस्सिरिली स्त्री [दे] कन्द-विशेष (उत डोलो (पः श्रीपः महा) - TE) Iसिसिर [शिशिर ] १ ऋतु- विशेष माघ तथा फागुन का महिना (उप ७२८ टी हे ४, ३५७ ) । २ माघमा का लोकोत्तर (सुज्ज १०, १९) । ३ फागुन मास; 'सिसिरो , माही (पाप) ४ वि जड़ ठंडा, शीतल (पाच उप ७६८ टो) । ५ हलका ( उप ७६८ टी) । ६ न. हिम (उप ९८६ टी) किरण [ "किरण ] चन्द्रमा (धर्मवि ५) महीहर ["महीधर ] हिमालय पर्वत (उप ८६ टी) 1सिसिरली देखो सिसिरिली (राज) । सिसु पुंन [शिशु] बालक, बच्चा ( सुपा ५८८ सम्मत्त १२२); 'सा खाइ पायमेक् निणि मी पदमपरे (कुत्र १०३ ) । "आख [का] बाबा-काचैत ३७) नागपु[नाग] क्षुद्र कीटविशेष, अलस (उत्त ५, १०) ५ पाल [*पाल] एक प्रसिद्ध राजा (खाया १, १६ ३६, ६८ ) 1 सिह सक [ स्पृह ] इच्छा करना चाहना । सिहइ (हे ४, ३४ प्राकृ २३) । कृ. सिहणिज्ज (दे ८, ३१ टो) । For Personal & Private Use Only सिकंकर - सिहि सिंह ' [दे] भुजपरिसर्प की एक जाति ( सू २, ३, २५) । सिहंड [शिखण्ड] शिक्षा, पूल, पोटो पुं ( पाम: अभि १५१) । सिहंडइल पुं [दे] १ बालक, शिशु । २ दधिसर, दही की मलाई मजूर मोर दि ५४) सिहंडहिल ' [दे] बालक, बच्चा (षड् ) 1सिहंडि वि [शिखण्डिन् ] १ शिखा ( भत्त १०० प्रौप ) । २ पं. मयूर पक्षी, मोर (पा; उप ७२८ टी ) । ३ विष्णु (सुपा १४२ ) । सिहण देखो सिहिण ( रंभा ) । सिहर न [शिखर ] १ पर्वत के ऊपर का भाग, शृङ्ग (पाद्य; गउड सुर ४, ५६ से ६, २८) । २ अग्रभाग ( खाया १, ९) । ३ लगातार अठाईस दिनों के उपवास (संबोध [ग] शिखरों से सिद्ध २८) (से ९, १८) सिहरिकरम १ पहाड पर्वत ( पास गुपा ४६) २ वर्षपर पर्यंत विशेष (ठा २, ३ – पत्र ६६; सम १२; ४३ ) । ३ पुंन. कूट - विशेष (ठा २ ३ – पत्र ७० ) 1[पति] हिमालय पर्वत से ८, २) सिहरिणी । स्त्री [दे. शिखरिणी] मार्जिता सिहरिल्ला | खाद्य-विशेष, दही-चीनी मादि } से बनता एक तरह का मिष्ट खाद्य (दे १, १५४ ८, ३३; परह २, ५ पत्र १४८ पत्र ४ पभा ३३० कसः सण ) | सिहली सिहा स्त्री [शिखा ] १ चोटी, मस्तक पर के बालों का गुच्छा (पंचा १०, ३२; पव १५३ पात्र गाया १, ५ - पत्र १८ संबोध ३१ ) । २ अग्नि की ज्वाला (पाच कुमा गड) 1सिहाल वि [शिखावत् ] शिखावाला, शिखायुक्त (गउड) 1 सिहि पुं [शिखिन् ] १ अग्नि, आग (गा १३० पान सुपा ५१९ ) । २ मयूर, मोर ( पा हेका ४५ ; गा ५२; १७३ ) । ३ रावण का एक सुभट ( पउम ५६, ३० ) । ४ पर्वत । ५ ब्राह्मण । ६ मुर्गा ७ केतु Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिहि- सीकोत्तरी ग्रह ८ वृक्ष ६ प्रश्न १० चित्रक - वृक्ष । ११ मयूरशिखा वृक्ष १८ बकरे का रोम । १३ वि. शिखायुक्त (प्रणु १४२) । सिहि [दे] कुक्कुट, मुर्गा (३८२८) सिद्दिवि [नि] कुमा ३१३ सिहिण पुंन [दे] स्तन, धन (दे ८, सुर १,६०६ पान; षड् रंभा सुपा ३२ भवि; हम्मीर ५० सम्मत्त १६ ) । सिहिणी श्री [शिखिनन्दविशेष (पिंग) सिही (अप) (पिंग ) 1 सी (अप) स्त्री [श्री] छन्द- विशेष (पिंग ) । देखो सिरी । [[]] दशेष अ + [सद्] १ विवाद करना, खेद करना । २ थकना । ३ पोड़ित होना, दुःखी होना। ४ फलना, फल लगना। सीइ, सीति (पि ४८२ गा८७४) जया सोर्वात सीयइ' (पिंड ८२), 'सीयंतिय सव्वधंगाई' (सुर १२, २) । वकृ. सीअंत (पान ५०७ सुपा ५१०; कुप्र ११८) - अन [दे] सिक्थक, मोम (दे ८, ३३) - सीअ वि [स्वीय] स्वकीय, निज का 'सीयते पहिया' सोमव लेस्सा' (भग १५ – पत्र ६६६) । सीअ देखो सिअ = सित; 'सीग्रासीनं ( प्राप्र ) । सीअ पुंन [शीत] १ स्पर्शं विशेष, ठंढा स्पर्श (ठा १-पत्र २५३ प ८६) ३ हिम तुहिन ( से ३, ४७ ) । ३ शीत- काल (राज) । ४ ठंढ, जाड़ा (ठा ४, ४ पत्र २८७ श्रौपः गड उत्त २, ६) । ५ कर्म-विशेष, शीत स्पर्श का कारण कर्म (कम्म १, ४१० ४२) । ६ वि. शीतल, ठंढा (भग; औप गाया १, १ टी -पत्र ४) । ७ पुं. प्रथम नरक का एक नरक स्थान ( देवेन्द्र ४) । न. तप-विशेष प्रालि (५८) εवि. अनुकूल (सूश्र १, २२, २२ ) । १० न. सुख (प्राचा) रन [गृह] चक्रवर्ती का वर्धकि निर्मित वह घर, जहाँ सर्व ऋतु में स्पर्श की अनुकूलता होती है (वव ३) । ' च्छायवि [च्छाय ] शीतल छायावाला ८ इसम पाया ११ दीपन ४) परीसह [प] शीत को सहना (उत्त २ १) कास [स्परा] ठंड जाड़ा स (प्राचा) सोआ त्री [श्रोता स्रोता ] नदी - विशेष ( इकः ठा ३, ४ – पत्र १६१ ) 1 ६०७ For Personal & Private Use Only माता का नाम ( पउम २०, १८४० सम १२२) लाङ्गलपद्धति खेत में हल चलाने से होती भूमि-रेखा (दै २, १०४) । ४ ईषत्प्रारभारा नामक पृथिवी (उत्त ३६, ६२; चेइय ७२५) । ५-६ नील तत्र माल्यवत् पर्वतों के शिखर - विशेष (इक) । ७ एक दिक्कुमारी देवी (ठा ८ ) । सीआ देखो सिविया (m) [धीक सम १५१ ) 1 सीआण देखो मसाण = श्मशान ( हे २, ८६ लोअअ [लोकक] १ चन्द्रमा । २ शीतकाल, हिम ऋतु (से ३, ४७) । सीअ देवो स. शोता 'वसाय ["प्रपात] ग्रह-विशेष जहाँ ता नदी पहाड़ पर से गिरती है (ठा २, ३ –पत्र ७२) । सीअ देखो साआ = सोता (कुमा) । वव ७ ) 1 सीटर [4. शांतरस्] गुल्म-विशेष सीआर देखो सिकार (गाया १, १-पुं [दे. 'पत्तउरसीयउरए हवइ तह जवासए य बोध वे' ( पराग १ - पत्र ३२ ) 1 ६३) । सीआला ी [ सप्तचत्वारिंशत् ] सैंतालीस, ४७ (कम्म ६, २१) | सीआलीस त्रीन ऊपर देखो ( पि ४४५३ ४४८ ) । स्त्री. सा (सुज्ज २, ३ - पत्र ५१) 1 3 सीअण न [सदन] हैरानी ( सम्मत्त १६६ ) । सीअणय न [दे] १ दुग्ध पारी, दूध दोहने का पात्र । २ श्मशान, मसान (दे ८, ५५)।सीअर पुं [शीकर ] १ पवन से क्षिप्त जल, फुहार, जल-करण (हे १, १८४ गउड; कुमा २ वायु, पवन (दे १. १८४० प्रा सीअरि वि [र्श-करिंन] शीकर-युक्त (गड सीअल पुं [शीतल] १ वर्तमान श्रवर्षापणी सीआव सक [ सादय ] शिथिल करना, 'सीया बिहार' (मच्छ १, २३) - सीइओ श्री [दे] कड़ी निश्तर दृष्टि (दे 5,38)1 ८४) | स वि. ८, काल के दसवें जिन देव (सम ४३ पडि ) । २] कृष ( २० ) ठंढा (हे ३, १०: कुमा, गउड रयण ५७ ) । सीअलिया स्त्री [शीवलिका ] १ ठंढी, शीतला; 'सीयलियं तेन लेप्रां निसिरामि' (भग १५-पत्र ६६६ ) । २ जूता-विशेष (राज) । सीअलि पुंस्त्री [द] १ हिमकाल का दुर्दिन । २-विशेष (५५) सीआ श्री [शीता] सीइयर [सन्न] विप्र, परिचान्त (२३) - सोई स्त्री [दे] सीढ़ी, निःश्रेणि (पिंड ६८) । सोहम्मद व [दे] गुजा (दे ३४ सीउट्ट न [दे] हिम-काल का दुर्दिन ( षड् ) 1 सीउण्ह न [शीतोष्ण] १ ठंढा तथा गरम । २ अनुकूल तथा प्रतिकूल (सूत्र १२, २ २२; पि १३३) । - सीउल्ल देखो सोउट्ट (षड् ) । सीओओ देखो सोओआ । व्यवाय पुं [["प्रपात] कुण्ड-विशेष जड़ शोतोदा नदी पहाड़ से गिरती है (जं ४-पत्र ३०७ ) "दीच [प] द्वीप-विशेष (४ २००) 1 एक महानदी (सम २७ १०२ इक) । २ ईषत्प्राग्भारा नामक पृथिवी सिद्ध-शिला (एक) शीताम्रपात ग्रह की अधिष्ठात्री देवो (जं ४) । ४ नील पर्वत का एक शिखर । ५ माल्यवत् पर्वत का सीओओ स्त्री [शीतोदा] १ एक महा-नदी एक कूट ( इक) । ६ पश्चिम रुचक पर रहने- (ठा २, ३ - पत्र ७२३ इकः सम २७ वाली दिकुमारी देवी (डा पत्र ४३६।१०२) २नि पर्वत का एक कूट (डा "मुह न ["मुख ] एक वन ( जं ४ ) 1सीआ स्त्री [सीता] १ जनक-सुता, राम-पत्नी ( पउम ३८५६ ) । २ चतुर्थं वासुदेव की । ६--पत्र ४५४) । |सीकोत्तरी त्री [दे] नारी, स्त्री, महिला (सिरि ३१०) 1 Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो सीत-सीविध १ मर्यादा । २ एक कुलकी कुलकर (सम । सीत देखो शीअ-शीत (ठा ३, ४--पत्र पभ [प्रभ] सीमन्तक नरकावास की सीरि पु[सीरिन] बलभद्र, बलदेव (पास)। पूर्व तरफ स्थित एक नरकावास (देवेन्द्र सीरिअ वि दे] भिन्न, 'सीरियो भिन्नों सीता देखो सीआ = शीता, सोता (ठा ८- २.), मज्झिम मध्यम] सीमन्तक (पान)।पत्र ४३६, ६--पत्र ४५४) । की उत्तर तरफ स्थित एक नरकावास (देवेन्द्र सील सक[शीलय ] १ अभ्यास करना, सीतालोस देखो सीआलीस (सुज्ज २, ३-- २०)। विसि? [विशिष्ट] सीमन्तक प्रादत डालना । २ पालन करनाः 'सोलेजा पत्र ५१) की दक्षिण दिशा में स्थित एक नरकावास सोलमुजलं' (हित १९); 'सव्वसील सीलह सीतोद देखो सीओ (ठा २, ३-पत्र (देवेन्द्र २१), वित्त पुं["वर्त] सीमन्तक पव्वज्जगहणेग (श्रा १६) । देखो सलाव ।। की पश्चिम तरफ का एक नरकावास (देवेन्द्र ७२) - सील न [शील] १ चित्त का समाधान, सीतोदा, देखो सीओआ (परह २, ४२१) 'सीलं चित्तसमाहाणलक्खणं भरणए एय' सीतोया पत्र १३०; सम ८४) सीमंतय न [दे] सीमंत-बालों को रेखा (उप ५६७ टो)। २ ब्रह्मचर्य (प्रासू २२, विशेष में पहना जाता अलंकार-विशेष (दे सीदण न [सदन शैथिल्य, प्रमत्तता (पंचा ५१; १५४ १६६, श्रा १६ हित १९)। १२, ४६) । ३ प्रकृति, स्वभावः 'सीलं पयई' (पात्र); सीमंतिअवि[सीमन्तित खण्डित, छिन्न सीधु देखो सीहु (गाया १, १६-पत्र २०६ 'कलहसीलं' (कुमा)। ४ सदाचार, चारित्र, (पाप) उवा)। उत्तम वर्तन (कुमाः पंचा १४, १; परह २, सीभर देखो सीअर (प्रातः कुमा: हे १, सीमंतिणी स्त्री [सीमन्तिनी] स्त्री, नारी, १-पत्र १९)। ५ चरित्र, वर्तन (हे २, महिला (पान; उर ७२८ टी; सम्मत्त १९१% १८४ षड्) १८४)। ६ अहिंसा (पएह २, १-पत्र सुपा ७)। सीभर वि [दे] समान, तुल्य (अणु १३१)।" १६)Jइ पु[जित् ] क्षत्रिय परिव्राजक सीमंधर पुं[सीमन्धर] १ भारतवर्ष में उत्पन्न का एक भेद (प्रौप) ड्ढ वि [य] सीमआ स्त्री [सीमन्] १ मर्यादा। २ एक कुलकर पुरुष (पउम ३, ५३)। २ ऐरवत शील-पूर्ण (मोघ ७८४) परिघर पुन अवधि । ३ स्थिति। ४ क्षेत्र । ५ वेला, वर्ष का एक भावी कुलकर (सम १५३) । [परिगृह] १ चारित्र-स्थान । २ अहिंसा समय । ६ अण्डकोष, पोता ( षड्)। देखो ३ पूर्व-विदेह में वर्तमान एक पहन देव (पएद २, १-पत्र ६६) मंत, व वि सीमा। (काल)। ४ एक जैन मुनि, जो भगवान् [वत् ] शील-युक्त (माचा; मोघ ७७७; सीमंकर पु[सीमङ्कर] १ इस अवसपिणी सुमतिनाथ के पूर्व जन्म में गुरु थे (पउम २०, श्रा ३६) व्वय न [व्रत] अणुव्रत, काल में उत्पन्न एक कुलकर पुरुष का नाम १७)। ५ भगवान् शीतलनाथ जी का मुख्य जैन श्रावक के पालने योग्य अहिंसा मादि (पउम ३,५३)। २ ऐवत क्षेत्र के भावी श्रावक (विचार ३७८)। ६ वि. मर्यादा को पाँच व्रत (भग) सालि वि [ शालिन् द्वितीय कुलकर (सम १५३)। ३ वि. मर्यादा धारण करनेवाला, मर्यादा का पालक (सूम शील से शोभनेवाला (सुपा २४०)। कर्ता (सूत्र २, १, १३)। २, १, १३). सीलाव सक [शीलय ] तंदुरुस्त करना । सीमंत पुं[सीमन्त] १ बालों में बनाई हुई सीमा स्त्री [सीमा देखो सीमआ (पापा गा कर्म. सीलप्पए (वव १) रेखा-विशेष (से ६, २०; गउडा उप ७२८ । १६८० ७५१, काल; गउड)। गार पुं सीलट न [दे] पुस, खीरा, ककड़ी (दे, टी)। २ अपर काय (गउड ८५) । ३ ग्राम [कार] जलजन्तु-विशेष, ग्राह का एक भेद ३५; पात्र)। से लगी हुई भूमि का अन्त, सीमा, गाँव का (पएह १, १---पत्र ७) धर वि [ धर] सीव सक [ सीव ] सीना, सिलाई करना, पर्यन्त भाग (गउड २७३, २७७; उप ७२८ । मर्यादा धारक (पडिः है ३, १३४) °ल वि साँधना । भवि. सोविस्सामि (प्राचा)। संकृ. टी)। ४ सीमा का अन्त, हद्दः 'एसो चिय। [°ल] सीमा के पास का, सीमा के निकट- सीविऊण (स ३५०)। सोमंतो गुणाण दूरं फुरंतारण' (गउड)। वर्ती; 'सीमाला नरवइणो सब्बे ते सेवमावन्ना' सीवणा स्त्री/सीवना] सीना, सिलाई (उप सीमंत पुं[सीमान्त] १ सीमा का अन्त (सुपा २२२; ३५२; ४६३; धर्मवि ५६)। ३२२० ४५३० धमाव ५६) पृ. २६८)। भाग, गाँव का पर्यन्त भाग (गउड ३६७ सीर पुंन [सी] हल, जिससे खेत जोतते हैं सीवणी स्त्री [दे] सूची, सूई (गउड) । देखो ४०५) । २ हद्द (गउड ८९६)। (पउम ११३, ३२, कुमा; पडि); 'संसयवसु- सिविणी।। सीमंत सक [दे. सीमान्तय ] बेचना। हासीरो' (धर्मवि १६) धारि । ["धारिन्] सीवण्णी) स्त्री [श्रीपर्णी] वृक्ष-विशेष (प्रोध संकृ. मीमंतिऊण (राज)। बलदेव, बलभद्र, राम (पउम २०, १९३) सीवन्नी ४४६ टी पिड ८१, ८२, उप सीमंतग [सीमन्तक] प्रथम नरक-भूमि पाणि पु ["पाणि] वही (दे २, २३, १०३१ टो)। सीमंतय का एक नरका-वास, नरक-स्थान कुमा), सीमंत पु [°सीमन्त] हल से सीविअ देखो सिव्विअ (से १४, २८ दे ४, (निचू १, ठा ३, १-पत्र १२६, सम ६८) फाड़ी हुई जमीन की रेखा (दे)। । ७; अोघभा ३१५) For Personal & Private Use Only Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीस-सीह पाइअसहमहङ्ग्णवो सीस सक [शिप्] १ वध करना, हिंसा सीह पु[सिंह] १ श्वापद जन्तु-विशेष, केसरी, ३-पत्र ४५), 'निकीलिय, निक्कीलिय करना। २ शेष करना, बाकी रखना । ३ मृग-राज (पराह १,१-पत्र ७ प्रासू ५१ देखोणि कोलिय (पव २७१; अंत २८ विशेष करना । सीसइ (हे ४, २३६ षड्) १७१)। २ वृक्ष-विशेष, सहिजने का पेड़ णाया १,८--पत्र १२२) निसाइ वि सीस सक [कथय ] कहना । सीसइ (हे (हे १, १४४ प्राप्र)। ३ राशि-विशेष, मेष [निषादन] सिंह की तरह बैठनेवाला ४, २; भवि)। से पाँचवीं राशि (विचार १०६)। ४ एक (सुज्ज १०, ८ टी)"णिसिज्जा स्त्री सीस न (सीस] धातु-विशेष, सीसा (दे २, अनुत्तर देवलोक-गामी जैन मुनि (अनु २)। [निषद्या] भरत चक्रवर्ती द्वारा प्रापद पर्वत २७)। ५ एक जैन मुनि, जो प्रायं-धर्म के शिष्य थे पर बनवाया हुप्रा जैन मन्दिर (ती ११) सीस देखो सिस्स = शिष्य (हे १, ४३ (कप्प)। ६ भगवान महावीर का शिष्य एक पुच्छ न [पुच्छ] पृष्ठ-वधं, पीठ की कुमाः दं ४७ गाया १,५–पत्र १०२) मुनि (भग १५-पत्र ६८५) । ७ एक चमड़ी (सूअनि ७७) । "पुच्छण न सीस पुन [शीर्ष] १ मस्तक, माय! (स्वप्न विद्याधर सामन्त राजा (पउम ८, १३२)। [पुच्छन] पुरुष चिह्न का तोड़ना, लिंग६० प्रासू ३)। २ स्तबक, गुच्छा (आवा एक श्रेष्ठि-पुत्र (सुप) ५०६)। एक प्रोटन (पएह २,५---पत्र १५१) पुच्छिय २, १, ८, ६)। ३ छन्द-विशेष (निंग) ।। देव-विमान (सम ३३; देवेन्द्र १४०)। १० वि [पुच्छित] १ जिसका पुरुष-चिह्न तोड़ "अ न [क] शिरस्त्राण (वेणी ११०)। एक जैन आचार्य, जो रेवतीनक्षत्र नामक दिया गया हो वह । २ जिसको कृकाटिका घडी स्त्री [घटी] सिर की हड्डी (तंदु आचार्य के शिष्य थे (दि ५१) । ११ छन्द- से लेकर पुत-प्रदेश-नितम्ब तक की चमड़ी ३८) । पकंपिअन [प्रकम्पित] संख्या विशेष (पिंग) °उर न [पुर] नगर-विशेष उखाड़ कर सिंह के पुच्छ के तुल्य की जाय विशेष, महालता को चौरासी लाख से गुनने (सण) कंत न [कान्त] एक देव- वह (प्रौप), 'पुरा, पुरी स्त्री [पुरी] पर जो संख्या लब्ध हो वह (इक) पहेलिअ विमान (सम ३३). "कडि पुं [कटि] नगरी-विशेष, विजय-क्षेत्र की एक राजधानी स्त्रीन [प्रहेलिक] संख्या-विशेष, शीपंप्रहे रावण का एक योद्धा (पउम ५६, २७). (ठा २, ३--पत्र ८०० इक), "मुह पुं लिकांग को चौरासी लाख से गुनने पर जो कण्ण पुं[कर्ण] एक अन्तर्वीप (इक) ["मुख] १ अन्तर्वीप-विशेष । २ उसमें संख्या लब्ध हो वह (इक)। स्त्री. "आ (ठा कण्णी स्त्री [कर्णी] कन्द-विशेष (उत्त रहनेवाली मनुष्य-जाति (ठा ४, २--पत्र २, ४-पत्र ८६, सम ६०; अणु ६६) ३६, १००)। केसर पुं ["केसर] १ २२६; इक)। रव पुं[व] सिंह-गर्जना, पहेलियंग न [प्रहेलिकाङ्ग] संख्या-विशेष, मास्तरण-विशेष, जटिल कम्बल (गाया १. सिह-नाद, सिंह की तरह आवाज (पउम ४४, चूलिका को सौरासी लाख से गुनने पर जो ; १-पत्र १३)। २ मोदक-विशेष (अंत ६; ३५) रह [रथ गन्धार देश के पुंड्र. संख्या लब्ध हो वह (ठा २, ४--पत्र ८६; पिंड ४८२) गइ पुं[गति] अमितगति वर्धन नगर का एक राजा (महा), वाह अणु ६६) "पूरग, पूरय पु पूरक] तथा अमितवाहन नामक इन्द्र का एक-एक पुं[वाह] विद्याधर-वंश का एक राजा मस्तक का प्राभरण (राज; तंदु ४१) लोकपाल (ठा ४, १-पत्र १९८) "गिरि (पउम ५, ४३) वाहण पुं[वाहन] रूपक, रूअ (अप) । पुन रूपक] पुं[गिरि] एक प्रसिद्ध जैन महर्षि (उव; राक्षस-वंश का एक राजा (पउम ५, २६३)। छन्द-विशेष (पिंग)। विढ पु[वेष्ट] उप १४२ टी पडि), गुहा स्त्री [गुहा] वाहणा स्त्री [वाहना] अम्बिका देवी गोले चमड़े आदि से मस्तक को लपेटना एक चोर-पल्ली (णाया १,१८--पत्र २३६) (राज)। विक्कमगइ पू["विक्रमगति] (सम ५०)। चूड पु [चूड] विद्याधर-वंश का एक अमितगति तथा अमितवाहन नामक इन्द्र का सीस देखो सास = शास् । राजा (पउम ५,४६), °जस [यशस] एक-एक लोकपाल (ठा ४, १-पत्र १९८ सीसक न [दे. शीर्षक] शिरस्त्राण, मस्तक भरत चक्रवर्ती का एक पौत्र (पउम ५, ३)। इक) को पुन [°वीत एक देव-विमान का कवच (दे ८, ३४; से १५, ३०) °णाय पुं[नाद] सिंहगर्जन, सिंह की (सम ३३)। सेण पुं["सेन] चौदहवें सीसम पुन [दे] सीसम का गाछ, शिशपा गर्जना के तुल्य आवाज (भग), "णिकीलिय जिनदेव का पिता, एक राजा (सम १५१)। न [निक्रीडित] १ सिंह की गति । २ (उप १०३१ टी) २ भगवान् अजितनाथ का एक गणधर (सम तप-विशेष (अंत २८) "णिसाइ देखो १५२)। ३ राजा श्रेणिक का एक पुत्र सीसय वि [दे] प्रवर, श्रेष्ठ (दे ८, ३४) । "निसाइ (राज) 'दुवार न [द्वार] (अनु २)। ४ राजा महासेन का एक पुत्र सीसय न [सीसक] देखो सीस = सोस राज-द्वार, राज-प्रासाद का मुख्य दरवाजा (विपा १,६--पत्र ८६)। ५ ऐवत क्षेत्र (महा)। (कुप्र ११६) द्धय पु [ध्वज] १ में उत्पन्न एक जिनदेव (राज)। 'सोआ स्त्री सीसवा स्त्री [शिंशपा] सोसम का गाछ विद्याधरवंश का एक राजा (पउम ५, ४३)। [स्रं ता] एक नदी (ठा २, ३–पत्र ८०)। (पएण १-पत्र ३१) २ हरिषेण चक्रवर्ती के पिता का नाम (पउम वो इअ न [वलोकित] सिंहावलोकन, सीह देखो सिग्ध = शीघ्र (राज)। ८,१४४), नाय देखो गाय (पण्ह १, । सिंह की तरह चलते हुए पीछे की तरफ For Personal & Private Use Only Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० पाइअसहमहण्णवो सीह-सुअर देखना (महा) सण न [Iसन] प्रासन- वकृ. सुयंत, सुयमाण (सुर ५, २१६ शास्त्रों की अधिष्ठात्री देवी (पडि), "देवी विशेष, सिंहाकार प्रासन, सिंहाङ्कित प्रासन, सुपा ५०५; महा ३७, १२ पि ४६७)। स्त्री ["देवी] वही (सुपा १; कुमा)। 'धम्म राजासन (भग) । देखो सिंह ।। हेकृ. सोउं (पि ४६७) । कृ. सोएवा (अप) [ धर्म] १ जैन अंग-ग्रंथ (ठा २, १सीह वि [सैंह ] सिंह-संबन्धी। श्री. 'हा। (हे ४, ४३८)। पत्र ५२)। २ शास्त्र-ज्ञान (प्रावम)। ३ (णाया १, १-पत्र ३१) सुअ सक [२] सुनना। वकृ. सुअंत आगमों का अध्ययन, शास्त्राभ्यास (णंदि)।'सीह [सिंह] श्रेष्ठ, उत्तम (सम १ पडि) (धात्वा १५६) । धर वि [धर] शास्त्रज्ञ (सुपा ६५२; पएह २, १-पत्र ६६) सुअ पुं[सुत] पुत्र) लड़का (सुर १, १०; सीहंडय पुं[दे] मत्स्य, मछली (दे ८, २८) नाण पुन ["ज्ञान] शास्त्रज्ञान (ठा २, १--पत्र प्रासू८६; कुमाः उव) । सीहणही स्त्री [दे] १ वृक्ष-विशेष, करौंदी का ४६; भग)। नाणि देखो णाणि (वव गाछ । २ करौंदी का फल (दे ८, ३५) सुअ (शुक] १ पक्षि-विशेष, तोता (परह १०) निस्सिय देखो "णिस्मिय (ठा सीहपुर वि [सैंहपुर] सिंहपुर-संबन्धी (पउम । १,१-पत्र ८ उत्त ३४, ७; सुपा ३१)। २,--पत्र ४६)। पंच-नीस्त्री [पञ्चम] २ रावण का मन्त्री (से १२, ६३)। ३ ५५, ५३)। कार्तिक मास की शुक्ल प.चवीं तिथि (भवि)। रावरणाधीन एक सामंत राजा (पउम८ सीहर देखो सीअर (हे १, १८४; कुमा)। पुव्य वि [पूर्वी पहले सुना हुआ (उप १३३)। ४ एक परिव्राजक (णाया १, सीहरय [दे आसार, जोर की वृष्टि (दे १४२ टो)। "सागर पु सागर] ऐरवत ५-पत्र १०५)। ५ एक अनार्य देश ८,१२) क्षेत्र के एक भावी जिनदेव (सम १५४) । (पउम २७, ७)। सीहल देखो सिंहल (पएह १, १-पत्र सुअवि [श्रुत] १ सुना हुआ, प्राकणित | सुअ वि [स्मृत] याद किया हुआ (भग)। १४ इक पउम ६६, ५५)। (हे १, २०६, भगः ठा१-पत्र ६)। २ सुअध पु[सुगन्ध १ अच्छी गन्ध, खुशब सीहलय पु[दे] वस्त्र प्रादि को धूप देने का -ज्ञान (विसे (गा १४)। २ वि. सुगन्धी (से ८, ६२ यन्त्र (३८, ३४) ७६; ८१, ८५, ८६, ६४ १.४ १०५ ___ सुर १, २८)। सीहलिआ स्त्री [द] १ शिखा, चोटी। २ एंदि; अणु)। ३ शब्द, ध्वनि, आवाज । सुअंधि वि [सुगन्धि] सुन्दर गन्धवाला (से नवमालिका, नवारी का गाछ (दे ८, ५५)। ४ क्षयोपशम, श्र तज्ञान के प्रावरक कर्मों का १, ६२, दे८.८)। देखो सुगंधि । सीहलिपासग पुन [दे] ऊन का बना हुआ नाश-विशेष । ५ आत्मा, जीव; 'तं तेण सुअक्खाय वि [स्वाख्यात] अच्छी तरह ककरण, जो वेणी बांधने के काम में आता तमो तम्मि व सुणेइ सो वा सुग्रं तेणं' (विसे कहा हुपा (सूम २,१, १५, १६, २०; है (सूत्र १, ४, २, ११)। ८१)। ६ पागम, शास्त्र, सिद्धान्त (भग; । २९)।सीही स्त्री [सिह स्त्री-सिंहः सिंह की मादा एंदिः अणुः से ४, २७; कम्म ४. ११; सुअच्छ वि [स्वच्छ] निर्मल, विशुद्ध (भवि)। (नाट)। १४, २१; बृह १, जी८)। ७अध्ययन, सीहु न सीधु] १ मद्य, दारू । २ मद्य स्वाध्याय (सम ५१; से ४, २७)। सुअण [सुजन सज्जन, भला आदमी श्रवण (प्राकृ७०), केवलि पुं[केवलिन] । (गा २२४; पाम प्रासू ८ ४, सुर २, विशेष (पराह २, ५-पत्र १५०; दे १, चौदह पूर्व-ग्रथों का जानकार मुनि (राज) ४६ गउड). ४६, पान गा ५४५: मा ४३) क्खंध, खंध पुं[स्कन्ध] १ अंग-ग्रन्थ सुअण न [स्वपन] सोना, शयन (सूक्त ३१)। सुप्र[स] इन अर्थों का सूचक अव्यय-१ का अध्ययन-समूहात्मक महान् अंश-खण्ड सुअणा स्त्री [दे] अतिमुक्तक, वृक्ष-विशेष प्रशंसा, श्लाघा (विसे ३४४३; सूअनि ८८)। (सून २, ७, ४०, विपा १, १-पत्र ३)। (दे ८, ३८) २ अतिशय, अत्यन्तता (श्रु १९)। ३ २ बारह अंग-ग्रंथों का समूह । ३ बारहवा सअण वि सुितनु] १ सुन्दर शरीरवाला। समीचीनता (सट्ठि १६)। ४ अतिशय अंग-ग्रंथ, दृष्टिवाद (राज)। जाण देखो योग्यता (पिंग)। ५ पूजा। ६ कष्ट, २ स्त्री. नारी, महिला (गा २६६, ३८४; नाण (ठा २, १टा-पत्र ५१) णाणि मुश्किली। ७ अनुमति । ८ समृद्धि (षड् ५६६ पि ३४६ गउड)।वि [ज्ञानिन] शास्त्र-ज्ञान-संपन्न, शास्त्रों १२२; १२३ १३५)। ६ अनायास (ठा सुअण्ण देखो सुवण्ण (प्राकृ ३०)। का जानकार (भग)। णिस्सिय न ५,१-पत्र २६६)। [निश्रित मति-ज्ञान का एक भेद (णंदि)। 3 सुअम वि [सुगम] सुबोध (प्राकृ ११)। सुअ अक [स्वप्] सोना। सुप्रइ (हे ४, "तिहि स्त्री [तिथि] शुक्ल पंचमी तिथि सुअर वि[सुकर जो अनायास से हो सके १४६; प्राकृ ६६; पि ४६७; उव), सुयामि (रयण २) थेर स्थविर] तृतीय वह, सरल (अभि६६)। (निसा १); "खणंपि मा सुय वीसत्थी' और चतुर्थ अंग-ग्रंथ का जानकार मुनि (ठा सुअर पुं [शूकर] सूअर, वराह (विपा १, (आत्महि ६) । कर्म. सुप्पइ (हे २, १७६)। ३, २) । "देवया स्त्री ["देवता] जैन ७–पत्र ७५; नाट–मृच्छ २२२) । खण्ड विपा १, २ बारह * अतिशय For Personal & Private Use Only Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुअरिअ - सुंदरी पाइअसरमणको सुअरिअन [सुचरित] सदाचार, सद्वर्तन सुइल देखो सुक्क = शुक्ल (हे २, १०६) । (अभि २५३) । वि [ श्वस्तन ] श्रागामी कल से संबन्ध रनेवाला कल होनेवाला (२४१) सुई स्त्री [] बुद्धि, मति (८,३६) । सुई स्त्री [शुकी] शुक पक्षी की मादा, मैना (सुपा ३६०) । - Fr सुनुवार [सुधर] प्रतिशय संयम में रहनेवाला सुसंयमी ( सू २, १३.७) । उज्जयार वि[सुऋजुचार ] श्रतिशय सरल आचरणवाला (सूत्र १, १३, सुउमार ) देखो सुकुमाल ( स्वप्न ६० सुउमाल कुमा ) 1 अलंकिय[स्कृत]] [[बच्छी तरह विभूषित खाना १, १११) । [सुआ श्री [सुता] पुत्री लड़की (गा ३०२ ८६३ (कुमा) 1 सुआ (शौ ) प्रक [शी] शयन करना, सोना । सुनादि ( प्राकृ ९४ ) IV सुआ श्री [] यज्ञ का उपकरण विशेष घी श्रादि डालने की कड़छी या कलछी ( उत्त १२, ४३, ४४ ) 1आइक्य वि[स्वाख्येय ] सुख से - अनायास से कहने योग्य (ठा ५, पत्र २६६ ) । आउत वि[स्वायुक्त ] अच्छी तरह ख्याल रखनेवाला ( उव) । सुइ [ शुचि ] १ पवित्रता, निर्मलता; विषम्म मुखियो य वच्ख दोति सुइरहिया' (सुपा १६६ ) । २ वि श्वेत, सफेद (कुमा) । ३ पवित्र, निर्मल (श्रौप कप्पः श्रा १२; महा; कुमा) । ४ स्त्री. शक्र की एक अग्र महिषी (इक) 1 sat [श्रुति] १ श्रवण, श्राकन, सुनना स्त्री (उत्त ३, १ वसु विसे १२५ ) । २ कर्ण, कान (गा ६४१; सुर ११, १७४ सम्मत्त ८४ सुपा ४६६ २४७) । ३ वेद-शास्त्र (पात्र ४. कुमा) ४ शान विद्वान् (वा ७; प्रासू ४६) । - सुइ स्त्री [स्मृति] स्मरण (विपा १, २ - पत्र ३४) । - सुइअ देखो सृइअ = सूचिक (दे १, ६९ ) 1सुइण देसी सुमिण (गुर १२ उप ७२६ टी; हे ४, ४३४ ) । V सुइदि स्त्री [सुति] १ पुण्य । २ मङ्गल, कल्याण । ३ सत्-कर्म (प्राः पि २०४ ) 1 सुइयाणिया स्त्री [दे. सृतिकारिणी] सूतिकर्म करनेवाली स्त्री (सुपा ५७८) १ सुइरन [सुचिर] अन्त दीर्घ काल, बहु काला ११७४११२७ महा) - ७) सुर [पुरुष] सज्जन, भला प्रादमी (मात्र हे १, कुमा) । सुए अ [ श्वस] श्रागामी कल ( स ३६ वै ४१ ) 1 सुंक न [शुल्क ] १ मूल्य ( खाया १, ८-पत्र १३१६ विपा १, ६-- पत्र ३) । २ चुंगी, विक्रेय वस्तु पर लगता राज-कर (धम्म १२ टी सुपा ४४७) । ३ वर पक्ष के पास से कन्या पक्षवालों को लेने योग्य घन ( विपा १, ११४) ठाण न ["स्थान ] पुंगी पर (धम्म १२ टी पालय वि [*पालक] बुंदी पर नियुक्त राजगुरु (सुपा ४४७) । देखो सुक्क = शुल्क | काणि ' [ ] नाव का डांड़ खेनेवाला व्यक्ति, पतवार चलानेवाला (सिरि ३८५) । सुंकार पु [ सूत्कार ] अव्यक्त शब्द- विशेष (सुर २, ८ गउड ) । सुंकिअ वि [शौक्लिक] शुल्क लेनेवाला, चुंगी पर नियुक्त पुरुष (उप पृ १२० ) सुख देखो सुक्ख = शुष्क (संक्षि १६ ) 1 संग देखक शुल्क (हे २०११ कुमा) गायण [शौङ्कायन] गोत्र विशेष (मुज्ज १०, १६) = ६११ सुंब स [दे] सूँघना । वकृ. सुंघंत (सिरि ६२२ ) 1 सुधिअवि [] घ्रात सुँघा हुप्रा (दे८, (३७) सुंचल न [दे] काला नमक, 'सुंठिसुचलाईयं' (कुत्र ४१४) - सुंठ न [] प वनस्पति-विशेष (पा १-पत्र ३३) । For Personal & Private Use Only सुंठय पुंन [शुण्ठक] भाजन-विशेष, 'मीरासु य सुंठएसु य कंड्नु य पयंडएसु य पर्यंत' (सूमनि ७६ ) 1 सुंठी श्री [गुण्डी] अँड या सोंड (पमा १४ कुप्र ४१४ पंचा ५, ३० ) 1४ सुंड वि [शौण्ड ] १ मत्त, मद्यप दारू पीनेवाला ( हे १, १६० प्राकृ १०६ संक्षि ६ ) । २ दक्ष, कुशल (कुमा) । देखो सोंड | V सुंडा देखो सोंडा ( श्राचा २, १, ३, २० श्रावम) 1 सुंकअ । पुंन [दे] किशारु, धान्य श्रादि का सुंडीर देखो सोंडीर (भवि ) । सुंकल अग्र भाग (दे ८ ३८ ) । लिन [दे] पत्र ३३) । विशेष (१- सुकविय वि [शुक्लित] जिसकी चुगी दी गई हो वह (सुपा ४४७ ) | सुंडिअ पुं [ शोण्डिक] कलवार, दारू बेचनेवाला (प्राकृ १०; संक्षि ६) सुंडिआ स्त्री [शौण्डिका ] मदिरापान में ५२,३६) डिकदेखी सुंडिज ( ६, ७) I डिकिणी श्री [सीण्डिकी] कलवार की की (प्रयो १०९) IV सुंद[सुन्द] राजा रावण का एक भागनेय, खरदूषण का पुत्र ( पउम ४३,१८) | सुंदर वि [सुन्दर ] १ मनोहर, चार, शोभन ( परह १, ४, सुपा १२८; २६५; कप्पूः कात्र ४०८) २. एक सेठ का नाम (सुपा १४३) ३ तेरहवें जिनदेव का पूर्वजन्मीय नाम (सम १५१ ) । ४ न. तप-विशेष, तेला, तीन दिनों का लगातार उपवास (संबोध ५०) बाहु [वाह] सातवें जिनदेव का पूर्वजन्मीय नाम (राम १४१) सुंदरिअ देखो सुंदर (हे २, १०७ ) 1 सुंदरम पुंस्त्री. देखो सुंदर (कु २२१) | सुंदरी श्री [सुदरी] उत्तम श्री (प्रा५७ वि १८ ) । २ भगवान् ऋषभदेव की एक पुत्री (ठा ५ २ – पत्र ३२६ सम ९०; पउम Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ पाइअमदमहणवो सुदेर-सुक्कव ३, १२०: वि १८)। ३ रावण की एक सुकण्हा श्री [सुप्रष्णा] राजा श्रोणिक की सुक अक[शुपा सूखना। सुक्का (विसे पत्नी (पउम ७४,९)। ४ छन्द-विशेष एक पत्नी (अंत २५)। ३:३२, पव ७०), सुक्कंति (दे ८, १८ (पिग)। ५ मनोहरा, शोभनाः 'सुंदरी । सुकद देखो सुध (संक्षि ) टो) देवाणप्पिया गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स धम्म- सुकम्माण वि [सुमन्] अच्छा कर्म करने-सुक वि [शुष्क] सूखा हुमा (हे २, ५, पएणत्ती' (उवा)। वाला (हे ३, ५६; षड्) णाया १, ६--पत्र ११४; उवा; पिंड २७६; सुंदर । न [सौन्दर्य] सुन्दरता, शरीर सुक्य न [सुकृत] ? पुण्य (पएह १, २- सुर ३, ६५, १०, २२३; धात्वा १५६) सुंदेरिम का मनोहरपन (प्रातः १.५७ पत्र २८पान)। २ उपकार (से १,४६)। सुक्क न [शुक्ल] १ चुंगी, वेचने को वस्तु पर कुमाः सुपा ४, ६२२ धम्म ११ टी) ३ वि. अच्छी तरह निर्मित ( राज ) लगता राज-कर (णाया १, १-पत्र ३७; जाणुअ. bणु, ज्णुअ वि [ज्ञ] सुकृत सुंब न [शुम्ब] १ तृण-विशेष (ठा ४, ४-- कुमाः श्रा १४; सम्मत्त १५६) । २ स्त्री-धन का जानकार, उपकार की कदर करनेवाला पत्र २७१, सुख १०, १)। २ तृण-विशेष विशेष । ३ वर पक्ष से कन्या पक्षवालों को (प्राकृ १८; उप ७६८ टी) की बनी हुई डोरो-रस्सी (विसे १५४) । लेने योग्य धन । ४ स्त्री को संभोग के लिए सुफयस्थ बि [सुतार्थ] अत्यन्त कृतकृत्य सुंभ [शुम्भ] १ एक गृहस्थ जो शुभा दिया जाता धन । ५ मूल्य (हे २, ११)। (प्रासू १५५) नामक इन्द्राणी का पूर्व-जन्म में पिता था देखो सुंक सु फर देखो सुगर (प्राचा १, ६, १, ८) (णाया २, २-पत्र २५१) । २ दानव सुक्क [शुक्र] १ ग्रह-विशेष (ठा २, ३सुकाल पु[सुकाल] राजा श्रेणिक का एक विशेष (पि ३६०; ३६७ ए)- वडेंसय न पत्र ७८ सम ३६ वज्जा १००)। २ न. पुत्र (निर १, १)। [वितंसक] शुम्भा देवी का एक भवन एक देव-विमान (सम ३३, देवेन्द्र '४३)। सुकाली स्त्री [सुकाली] राजा श्रीणिक की (णाया २, २) सरी स्त्री [श्री] शुम्भा ३ न. वीयं, शरीरस्थ धातु-विशेष (ठा ३, एक पत्नी (अंत २५)। देवी की पूर्व-जन्मीय माता (पाया २, २)। सुकि देखो सुकय (हे ४, ३२६; भवि)। ३-पत्र १४४, धर्मसं १८४; वजा १००)। सुंभा स्त्री शुम्भा] बलि नामक इन्द्र की एक मकिट विमच्छी । एक सुकिट्ट वि सुकृष्ट] अच्छी तरह जोता हुआ सुक पु[शुक्ल] १ वर्ण-विशेष, सफेद रंग। तरह जो पटरानी (पाया २, २-पत्र २५१) (पउम ३, ४५)। २ सफेद वर्णमाला, श्वेत (हे २, १०६ सुंसुमा स्त्री [सुसुमा] धन सार्थवाह की कन्या सुकिट्टि [सुकृष्टि] एक देव-विमान (सम कुमा; सम २६)। ३ न. शुभ ध्यान-विशेष का नाम (णाया १, १८-पत्र २३५) । (औप)। ४ वि. जिसका संसार अधं पुलसुंसुमार पु[सुसुमार, शिशुमार] १ जल सुकिदि वि [सुकृतिन्] १ पुण्य-शाली । २ परावर्त काल से कम रह गया हो वह (पंचा चर प्राणी की एक जाति, सैंस, सोंस या सूसर सत्कर्म-कारी (रंभा)। १, २) उझाण, झाण न [ ध्यान (णाया १,४,पि ११७)। २ द्रह-विशेष (भत्त सुकिल) देखो सुक्क = शुक्ल (हे २,१०६; शुभ ध्यान-विशेष (सम ; सुपा ३७; अंत)। ६६)। ३ पर्वत-विशेष । ४ न. एक अरण्य सुकिल्लपि १३६)। 'पक्ख पुं पक्ष] १ जिसमें चन्द्र की कला (स ८६)। देखो सुसु-मार। सुकुमार । वि [सुकुमार] १ अति कोमल। क्रमशः बढ़ती है वह प्राधा महीना (सम सुकुमाल २ सुन्दर कुमार अवस्थावाला सुक देग्डो सुझ= शुक (सुपा २३४) पहा २६ कुमा) । २ हंस पक्षी । ३ काक, कौया। (महा; हे १, १७१; पि १२३; १६०)। स्त्री [प्रभा] भगवान् सुविधिनाथ की दीक्षा ४ बगला, बक पक्षी (हे २, १०६) शिविका (विचार १२६)। सुकुमालिअ वि [दे] सुघटित, सुन्दर बना पक्खिय वि [पाक्षिक] वह आत्मा जिसका हुआ (दे ८, ४०) संसार अधं पुद्गल-परावर्त से कम रह गया हो सुकइ ' [सुकवि अच्छा कवि (गा ५००; सुकुल पुंन [सुकुल] उत्तम कुल (भवि) (ठा २, २-पत्र ५६)। लस देखो °लेस ६००; महा) (भग), "लेला देखो "लेस्सा (सम ११ सुकंठ वि [सुकण्ठ] १ सुन्दर कराठवला। सुकुसुम न [सुकुसुम] १ सुन्दर फूल । २ २ पुं. एक वणिक-पुत्र (श्रा १६) एक । वि. सुन्दर फूलवाला (हे १, १७७; कुमा) ठा१-पत्र २८)J "लेस्स वि [लश्या] चोर-सेनापति (महा)। सुकुसुमिय वि [सुकुसुमित जिसको अच्छी शुक्ल लेश्यावाला (पएण १५-पत्र ५११) शु लेस्सा स्त्री [°लेश्या] आत्मा का अध्यवसुकच्छ पु [सुकच्छ] विजय-क्षेत्र-विशेष । तरह फूल आया हो वह (सुपा ५६८)। (ठा २, ३--पत्र ८८; इक) + कूड पुन साय-विशेष, शुभतम प्रात्म-परिणाम (पग्रह सकोसल पुं [सुशोशल] १ ऐरवत-वर्ष के [कूट] शिखर-विशेष (इक; राज) २, ४-पत्र १३०)। एक भावी जिनदेव (सम १५४; पब ७)। सुक्कड। देखो 'सुकय (सम १२५; पउम सुकड देखो सु.य (चउ ५८)। २ एक जैन मुनि (पउम २२, ३६) सुक्या १५, १००)। सुकण्ह पु [सुष्म] एक राज-पुत्र (निर सुकोसला स्त्री [सुकोशला] एक राज-कन्या सुकव सक [शोषय ] सुखाना। वकृ. १, १; पि ५२) । (उप १०३१ टी) सुक्कवेमाण (णाया १, ६--पत्र १:४)। For Personal & Private Use Only Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुक्काणय-सुचिर पाइअसहमहण्णवो ६१३ सुक्कागय न [दे] जहाज के आगे का ऊँचा सुगंधा स्त्री [सुगन्धा] पश्चिम विदेह का एक (ठा ५, १-पत्र ३०२)। २ भारतवर्ष में काष्ठ; गुजराती में 'सुकान' (सिरि ४२४) सिरि ४२४) विजयक्षेत्र (इक) IN होनेवाला नवयाँ प्रतिवासुदेव राजा (सम सुक्काम न [शुक्राभ] १ एक लोकान्तिक सुगंधि देखो सुधि (प्रौप)। "पुर न [पुर] १५४) । ३ राक्षस-वंश का एक राजा, एक देव-विमान (पव ३६७)। २ वैताब्य पर्वत वैताब्य की उत्तर श्रेरिण में स्थित एक विद्या- लङ्का-पति (उम ५, २६०) । ४ नववें की दक्षिण श्रेणि में स्थित एक विद्याधर- घर-नगर (इक) जिनदेव के पिता का नाम (सम १५१) । नगर (इक)। सुगण वि सुगण अच्छी तरह गिननेवाला । ५ राजा वालि का छोटा भाई (पउम ६,६: सुक्किय देखो सुकय (भवि)। (षड् ) से १,४६: १४, ३६)। ६ एक राजा का सुगम वि [सुगम] १ अल्प परिश्रम से जाया नाम (सुर . २४)! ७ न. नगर-विशेष सुकिय देखो सुक्कीअ (राज)। जा सके बैसा. सुरु-मध्य (प्रोधभा ७५)। (उत्त , १) IN सकिल देखो सुक्क = शुक्ल (भग; २ सुबोध (चेय ३६३)। सुशिलय प्रौप; हे २, १०६, पंच ५, सुध (अप) देखो सुइ = सुख (हे ४ ३६६) । सुकिल्ल ३३; पण १०४); मत्तं सुगय वि सुगत] १ प्रच्छो गतिवाला (ठा सुघटु वि [मुघण] अच्छी तरह घिसा हुआ सुक्किलवत्थं' (गच्छ २, ४६; कप्प; सम ४१ ४, १-पत्र २०२ कुप्र १००)। २ सुस्थ । (राय ८० टी)। धर्मसं ४५४) । स्त्री. 'एगो सुक्किलियाएं एगो ३ धनी । ४ गुणी (४, १-पत्र २०२ सुघरा स्त्री [सुगृहा] मादा-पक्षी की एक सबलाणं वग्गो को (आक ७)। राजः हे १, १७७)। ५. बुद्धदेव (पान; जाति जो पापना घोंसला खूब सुन्दर बनाती पव ६४)।' सुक्की वि [सुक्रीत] अच्छी तरह खरीदा सुगय वि [सौगत] बुद्ध-भक्त, बौद्ध (सम्मत्त है (नाच १)। हुआ. 'मुक्की वा सुविक्कीअं (दस ७, ४५)। १२०) | सुबोस सुघाप] १ एक कुलकर-पुरुष सुक्ख देखो सुक्क = शुष् । वकृ. सुक्खंत सुगर वि[सुकर] सुख-साध्य, अल्प परिश्रम (गा ४१४; वज्जा १४६)।से हो सके ऐसा (प्राचा १, ६, १, ८) (उप ७२८ सी)। ३ पुंन. सनत्कुमार देवलोक सुक्ख देखो सुक्क = शुष्क (हे २,५; गा २६३, का एक विमान (सम १२)। ४ लान्तक सुगरि? वि [सुरिट] अति बड़ा (श्रु १६) मा ३१, उप ३२० टो)। नामक देवलोक का एक विमान (सभ १७) । सुगिझ वि [सुग्राह्य सुख से ग्रहण करने । ५ वि. सुन्दर प्रावाजवाला (जीव ३,१; सुक्ख न [सौख्य सुख (कप्पा कुमाः सार्ध योग्य (पउम ३१, ५४)। भवि)। एक नगर का नाम (विपा २,८४ ५१, प्रासू २८; १४५) । सुगिम्ह पुंसुग्रीम] १ चैत्र मास की | सुघोमानी सुबोषा] १ गीतरति नामक सुक्खव देखो सुक्कव । कर्म. सुक्खवीअंति पूर्णिमा (ठा ५,२-पत्र २१३) । २ गन्धर्वेन्द्र की एक पटरानी (ठा ४.१-पत्र (पि ३५६ ५४३) फाल्गुन का उत्सव (2८, ३६)। २:४)। २ गीतयशनामक गन्धर्व की एक सुक्खिय वि [स्वाख्यात] अच्छी तरह कहा सुगिर वि [सुगमन्छी वाणीवाला (षड्) पटरानी आ४, १-पत्र २०४) । ३ हुमा, प्रतिज्ञातः 'तो सुइवइयराजपणे ते सुगहिय) वि सुगृहीत] विख्यात. सुधर्मेन्द्र की प्रसिद्ध घंटा (पएह २, ५-पत्र सुक्खियमासि बुद्धिलेण अद्धलक्खं, तन्निमित्तसुगिहीय विश्रुत (स ६६; १३) । १४६, सुपा ४५)। ४ वाद्य-विशेष (राय मेसो पेसिपो चालीससाहस्सो हारो त्ति वोत्त सुगी देखो सुई = शुकी (कुमा)समपिउं च हारकरंडियं गो दासचेडो' सुगुत्त पुं [सुगुप्त] एक मंत्री का नाम सुचंद सुचन्द्र] ऐरवत वर्ष में उत्पन्न (महा) । (महा)। दूसरे जिन-देव (सम १५३) । सुखम (पै) देखो सह = सूक्ष्म 'मुखमवरिसो' सुगुरु सुगुरु] उत्तम गुरु (कुमा)। सुचरिशन सुवरित] १ सदाचरण, सदा(प्राकृ १२४)। सुग्ग न [दे] १ आत्म-कुशल (दे ८,५६ चार कप्पः गउड) । २ वि. सदाचरण सुग देखो सुअ = शुक (उप ६७२; स ८६; : सण)। २ वि. निर्विघ्न, विघ्न-रहित । ३ . नावघ्न, विघ्न-राहत । ३ संपन्न (गउड)। ३ अच्छी तरह पाचरित ' विसर्जित (दे ८, ५६) । उर ५, ७ कुप्र ४३८ कुमा)। (पउम ७५, १८: रणाया १,१६-पत्र सुग्गइ देखो सुगइ (सुपा १६१; सं ८१)। २०५)सुगइ स्त्री [सुगति] १ अच्छी गति (ठा ३, सुग्गय देखो सुगय - मुगत (ठा ४, १-पत्र सुचिण्ण। वि सुचीर्ण] १ सम्यग पाच३--पत्र १४६)। २ सन्मार्ग, अच्छा मार्ग, २०२) सुचिन्न । रितः 'तवसंजमो सुचिरागोवि' (सपनि ११५)। ३ वि. अच्छी गति को सरगाह प्रकाप्रीफैलना । सुग्गाहइ (पउम, ६५, ६४, २२ ठा ४, २-पत्र प्राप्त (प्रावम)। (धात्वा १५६) २१०) । २ न. पुण्य (प्रौपः उवा)। सुगंध देखो सुअंध (कप्पः कुमा; प्रौप; सुर सुग्गीव पुं[सुग्रोव] १ नागकुमार देवों के मुचिर न [सुचिर] प्रत्यन्त चिर काल, २, ५८)। ' इन्द्र भृतानन्द के अश्व-रौन्य का अधिपति सुदीर्घ काल (सुपा २७ महा: प्रासू ३२) । ११५ For Personal & Private Use Only Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ पाइअसहमहण्णवी सुचोइअ-सुणंदा सुचोइअ वि [सुबोदित] प्रेरित (उत्त १, सुज पुंसूर्य] सूरज, रवि । २ आक का देव (णाया १, १६-पत्र २१७)। ३ पेड़ । ३ दैत्य-विशेष (हे २, ६४; प्राप्र)। आर्यसुहस्ति आचार्य का शिष्य एक जैन महर्षि सुच वि गोच्य] अफसोस करने योग्य, ४ पुंन. एक देव-निमान (सम १५)। कंत (कप्प) 'मुच्चा ते जियलाए जिरावयणं जे नरा न पुंन ["कान्त एक देव-विमान (सम १५) सुट असुष्टु] १ अच्छा, शोभन सुन्दर पारगीत' धर्मवि १७)। झय पुंन । ध्वज] देव-विमान-विशेष सट (पाचा भगः स्वप्न २३, सुर २, मुचा देखो सुग- श्रु (सम १५) पम न [प्रभ] एक देव- १७८)। २ अतिशय, अत्यन्त (सुर ४, २४ सुपिक न सुजल्पित] प्राशीर्वाद (गाया विमान (सम १५) लेस पुंन ["लेल्य] प्रासू १३७)। एक देव-विमान (सम १५) । वण्ण पुन , सुठि देखो सुदिअ (पान) सुजड सुट] एक विद्याधर-नरेश (पउम [वर्ण] देव विमान विशेष (सम १५)। १०, २ः)। "सिंग पुन [ 7 एक देव-विमान (सम सुढ सक [स्मृ] याद करना। सुढइ (प्राकृ सुढ सकस्म याद करना। सुजम पुं[सुयरास.] १ एक जिनदेव का । १५) । 'सिट्ठ पुंन मृष] एक देव-विमान ! ६३)। नाम (उर १०.१ टी) । २ वि. यशस्वी (श्रा STATH 7 सुढि वि दि] १ श्रान्त, थका हुप्रा (दे ८, ब्राह्मण-कन्या ( महानि २)। लिव पूं ३६; गउड सुपा १७६ ५३०, सुर १०, सुजसा स्त्रोसिपशस१चौदहवें जिन- शिवा एक ब्राह्मण का नाम (महानि २) २१८) । २ संकुचित अंगाला (महा)। देव की माता (सम १५१)।२ एक राज- हास पुं[हाल तलवार की एक उत्तम सुण सक [२] सुनना। सुणइ, सुरणेइ (हे ४, पत्नी (लप ६८६ टो)। जाति (पउम ४३. 18) भि न [भ] ५८ २४१; महा)। सुणउ, सुणेउ, सुरगाउ सुजह दिसुहाना मुख से जिसका त्याग हो वैतात्य की उत्तम-श्रेशि में स्थित एक विद्याधर- (हे ३, १५८)। भवि. सुरिणस्सइ, मुरिणसके वह (उत्त, ६)। नगर (इक) वित्त पुंन [वित] एक देव- स्सामो सोच्छिइ, सोचियहि सोच्छ, सुजाइ विसुजाति] प्रशस्त जातिवाला, विमान (सम १५)। देखो सूर, सूरिअ = सोच्छिस्सं, सोच्छिमि, सोच्छिहिमि, सोच्छिजात्य (महा) सूर, सूर्य । स्सामि, सोच्छिहामि (पि ५३१; प्रौप; हे सुजाण वि [सुन] सयाना, अच्छा जानकार सुजाण वि[सुज्ञान] सुजान, सयाना, सुज्ञ ३, १७२)। कर्म. सुरिणजइ, सुबइ, मुखए, (सिरि :६१: प्रासू १३; सुपा ५८८)। (षड् ; पिंग)। सुम्मइ, सुरणीमइ (हे ४, २४२, कुमा; महा: सुजाय विमुजात] १ सुन्दर जाति में सानताहिंसा न लियोनराम: पि ५३६)। वकृ. सुणंत, सुणित, सुगमाण, उत्पन्नः कुलोन, खानदानी (उस ७२८ टो)। - एक देव-विमान (सम १५)। सुणेमाण (हेका १०५, सुर ११, ३७; पि २ अच्छो तरह उपन्न, सुन्दर रूप से उत्पन्न सुज्म अक [ शुध् ] शुद्ध होना । सुज्झइ ५६१; विपा १, १; सुर ३, ७६)। कवकृ. (ठा ४, २..- २०८ प्रौप; जीव ३, ४, सुम्मत, सुवंत, सुवमाण (सुर ११, उवा) । ३ न. सुन्दर जन्म (आव)। ४ पुं. . (महा) । संकृ. सुजिमग (सम्यक्त्वो ८)। १६६, ३, ११ से २, १०, ६, ४६) । संकृ. एक राज कुमार (विपा २, ३) ! ५ पुन. एक सुर सुज्झत वि [दृश्यमान] सूझता, दीख पड़ता, सुणिअ, सुणिऊण, सुणित्ता, सुणेत्ता, एक देव-विमान (देवेन्द्र २७२)। मालूम होता; 'अन्नंगि गं असुज्झतं । भुंजंत सोऊण, सोउआण, सोउआणं, सोउं, एण रत्ति' (पउम १०३, २५) सुजाया स्त्री [सुजाता] १ कालवाल आदि सोचा, सोचं, सुच्चा (अभि ११६; षड्; लोकपालों की पटरानियों के नाम (ठा ४, सुझगया स्त्री [सोधना] शुद्धि (उप ८:४)। हे ४,२४१; पि ५८२ हे ४, २३७, २, १-पत्र २०४; इक)। २ राजा श्रेणिक सुझय न [दे] : रौप्य, चाँदी। २ पुं. १४६; कुमाः हे २, १५; पि ११४० ३४६%; को एक पत्नी (अंत २५)। रजक, धोबी (दे ८, ५६) । ५८७) । हेकृ. सोउं (कुमा)। कृ. सुणेयव्यः सुजिट्र स्त्री सुम्येष्टा] एक महासती राज-सज्झरय देश रजक, धोबी (दे, ३६) सोअव्व (भगः परह १,१-पत्र ५ से २, दुमारो, जो रेटकराज को पुत्री थी (पडि)।सुज्झवण न [शोधन] शुद्धि, प्रक्षालन (उप । १०; गउड; अजि ३८)सुनुत्ति ब्रा नियुक्ति सुन्दर युक्ति (सुपा ६८५) ।... सुगः देखो सुगय ।। सुज्झाइवि [सुध्याचिन] शुभ ध्यान करने- सुगंद पुं[सुनन्द] १ एक राजर्षि (धम्म)। सुजेट्ठा देखा सुजिट्ठा (राज)। वाला (संवोध ५२) । २ भगवान् वासुपूज्य को प्रथम भिक्षा-दाता सुजासि. विसुजुष्ट] अच्छी तरह सेवित सम्झाइय विसिध्याना अच्छी तरह चिन्तित गृहस्थ (सम १५१)। ३ न. एक देव-विमान (सून, २, २, २६)।(राज)। (सम २६)। देखो सुनंद। सुज.स. वि [सुजोक्ति] सुष्ठु क्षपित, सुदिअ वि [सुस्थित] ? सम्या स्थित सुगंदा स्त्री [सुनन्दा] । भगवान् पार्श्वनाथ सम्यग् विनाशित (सूम १, २, २, २६)। (कप्प) । २ पु. लवण समुद्र का अधिष्ठायक को मुख्य श्राविका (कप्प)। २ तृतीय चक्रवर्ती For Personal & Private Use Only Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुणक्खत्त-सुत्थ पाइअसमरणयो ६१५ की पटरानी-तीसरा स्त्री-रत्न (सम १५२% सुण्ण न [शून्य] १ निर्जन स्थान (गउड सुन्त देखो सुअ = श्रुत, पचक्लमोहिमणमहा)। ३ भूतानन्द प्रादि इन्द्रों के लोकपालों ५२४) । २ वि.रिक्त, रीता, खालो (स्वप्न ३१ | केवलं च पक्खि मइसुतं' (जीवस १४१)।की अग्रमहिषियों के नाम (ठा ४,१-पत्र । गउड।: निष्फल: व्यर्थ. निष्प्रयोजन (गउड सुत्त देखो सेन्त = स्रोतस् (भवि) । २०४: इक) ८४२९७२)। ४ न. तप-विशेष, एकाशन सुत्त देखा सोत्त = श्रोत्र (रंभाः भवि) सुणक्खत्त पुं[सुनक्षत्र] १ एक जैन मुनि द्रत (संबोध ५७) । देखो सुन्न । सुत्त विसुम] सोया, शयित (ठा ५, २(मनु २)। २ भगवान् महावीर का शिष्य सुगआर देखो सुग्गार दे ३, ५४) । पत्र ३२६, स्वप्न १०४, प्रासू ६८ श्रा एक मुनि (भग १५-पत्र ६७८)। सुण्णइथ वि [शून्यन] शून्य किया २५) सुणक्खा स्त्री [सुनक्षत्रा] पक्ष की दूसरी ! सुण्णविअ हुआ. ११, ४० गउड गा सुत्त वि सक्ती १ सुचारु रूप से कहा हुआ । रात (सुज्ज १,१४)। २६, १६६६.६) सुणग दे । सुगय (प्राचाः पि २०६)। । २ न. सुभाषित. सुन्दर वचनः मुकइब्ध मुत्तसुग्णार पुं[सुवर्णन सुनार, सोनी (दे ५, सुणण न [श्रवण] सुनना (स ५३) उत्तीए' (सुपा ३३) ३६) सुरक्षाशुनका कुक्कुर, कुत्ता (हे सुबह देखो सह % सुक्ष्म (हे १, ११८: सुन्दन सूसूता, धागा, वन तन्तु (विधा सुणह १, ५२ गा ५५०; ६८, ६९ कुमा) १, --पत्र ८५; सुपा २८१)। २ नाटक णाया १, १-पत्र ६५; गा १३८; १७५; सुण्हसिअ वि [द] स्वपन-शोल, सोने की का प्रस्ताव (मोह ४८; मुपा १). ३ शाम्बसुर २, १०३, ६, २०४; श्रा १६; कुप्र आदतवाला ( दे ८, षड)। विशेष ( भगः ठा४, ४--पत्र २८३: जी १५३; रंभा)। स्त्री. सुणई, सुगिना (कुमाः सुण्हा स्त्री [सास्ना] गौ का गल-कम्बल (हे ३९) पुंकार] ग्रंथकार (कप्यु ।। गा ६८६) । २ . छन्द-विशेष (पिंग)। १, १५; कुमा)4 ल ल वृषभ, बैल कंठठ ] आह्मग. विप्र (पउम ४, सुणहिल्या स्त्री [शुनकी] कुत्ती, मादा-कुक्कुर (कुमा)+लचि [ल. चह्न १ भगवान ६५),डन [कृत द्वितीय जैन प्रागम ग्रंथ (सूपनि २) गन [क] यज्ञोपवीत ऋषभदेव । २ महादेव कुमा)। (वज्जा ८६) (प्रौप, । धार पुं[धार देखो हार सुणावण न [श्रावण] सुनाना (विसे २४८५)। सुण्हा स्त्री [स्नुपा] पुत्र-वधू (णाया १,७ (सुपा १ मोह ४८)। फासि णित्ति सुणावि वि [श्रावित] सुनाया हुमा (सुपा। । पत्र ११७; सुर ४,६८ सुतणु स्त्री सुनु] नारी, स्त्री (सुर २, स्त्री ६०२) नियुक्ति] सूत्र की व्याख्या (अणु) रुइ श्री [रुचि] शास्त्र-श्रद्धा सुणासीर पुं [सुनासीर] इन्द्र, देव-राज (प्रोप) सुतरं प्रसुतराम्] निश्चित अर्थ के अतिशय धार] १ प्रधान नट, (पान; हम्मीर १२) का सूचक अव्यय (विसे ८६१) नाटक का मुख्य पात्र (प्रानू : ६३)। २ सुणाह देखो सुनाभ (राज) सुतार, बड़ई (कम्म १, ४८) । सुतवसिय न [सुप ला] सुन्दर तप, सुगिज देखो सुग। । तपश्चर्या का सुन्दर अनुष्ठान (राज)। सुत्ति नो मत सोपः घोंघा (हे २, १३८ सुणिअ वि [श्रुत] सुना हुआ (कुमाः रयण । कुमा) । म स्त्री [मती] चेदि देश की सुतवास्स वि[सुपस्थिन् ] अच्छा तपस्वी प्राचीन राजधानी (णाया १,१६-पत्र (सम ५१)। सुणिअ पुं[शौनिक] कसाई (सिरि १०७७) २०८) सुतार वि[सुमार] १ अत्यन्त निर्मल । अतिसुणिउग देखो सुनिउण (राज)। शय ऊँचा। ३ अच्छा तैरनेवाला । अत्युच्च सुत्ति स्त्री मुक्ति] सुन्दर वचन, भुभाति ।। सुणिपकंप देखो सुनिप्पकंप (राज) प्रावाजवाला (हे १, १७७)। त्ति पात्रो [प्रत्यया] एक जैन मुनि । शाखा (कप्प-पृ ७६ टि राज) सुणिम्मिय वि [सुनिर्मित] चारु रूप से बना सुतारया , स्त्री [सुरा] १ भगवान् सुविधि- । हुआ (कप्प)। सुतारानाथजी को शासन-देवी (संतिक सुत्तिर देने सत्तअ = मोत्रिक (वन) सुणिव्य वि [सुनिर्वत] अत्यन्त स्वस्थ २ सुग्रीव की पत्नी पिउम १०,१)। ३ सुत्तिय निवृत्रित सूत्र-निबद्ध (राज)। (णाया १, १-पत्र ३२) । प्राभूषण-विशेष (कुमा)। सुत्थ विसुन्थ] १ स्वस्थ, तन्दुरुस्त । २ सुणिस । वि [सुनिशान्त] अच्छी तरह सुना सुतितिक्स वि सुतितिक्ष] सुख से सहन सुखी (संक्षि १२; गा ४७८; महा; देइय हुआ, 'हमेगेसि प्रायारगोयरे को सुणिसंते करने योग्य (ठा ५, १-पत्र २६६) २६६: १०३१ टी)। भवति' (याचा १, ८, १, २, २, २, २, सुतोसअवि [सुनोष्य सुख से तुष्ट करने सुत्थ नास्थ्य] १ तंदुरुस्तो, स्वस्थता । १०, १३, १५) । योग्य (दस ५, २, ३४) । २ सुखिपन (संक्षि १२, कुप्र १७६: सुपा सुणुसुणाय सक [सुनसुनाय ] 'सुनु' 'सुन्' सुत्त सक [ सूत्रय, बनाना । सुत्तइ (सुपा १८ १२८, स १३५, उप६०२, धर्मवि मावाज करना । वकृ. सुणुसुणायंत (महा) २३५) । २२) - For Personal & Private Use Only Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ पाइअसहमहण्णवो सुत्थिय-सुद्धि सुत्थिय देखो सुदिअ (सुपा ६३२) सुदाम [सुदाम] अतीत उत्सपिणी-काल सुदुल्लह वि [सुदुर्लभ] अत्यन्त दुर्लभ (राज)।४ सत्थिर विस्थिर अतिशय स्थिर, अति- में उत्पन्न भारतवर्ष का दूसरा कुलकर पुरुष सुदूसह वि [सुदुःसह] अत्यन्त दुःख से निश्चल (प्राकृ १६%; सुपा ३४८ कुमा)- (सम १५०)। सहन करने योग्य (सुर ६, १५८)। सुभेव वि [लुतोक] प्रत्यल्प (पउम ८, सुदेव पुं[सुदेव] उत्तम देव (सुपा २५६) । १५२) सुदारुण पुंदे] चंडाल (दे ८, ३६) सुद्द शूद] मनुष्य की अधम जाति, चतुर्थ सुदंती स्त्री सुदती] सुन्दर दातवालो (उप सदिट वि सदृष्ट सम्यग् विलोकित (गा वर्ण (विपा १, ५-पत्र ६१; पउम ३, ७६८ टो)२२५)। ११७; श्रु १३)। सुदंसग [सुदर्शन] १ भगवान् अरनाथ सुदिप प्रकसु दीप ] अतिशय सुहय शुद्रका एक राजा का नाम (मोह के पिता का नाम (सम १५१)। २ तीसरे चमकना । वकृ. सुदिप्त (सुपा ३५१) । १०५; १०६)।वासुदेव तथा बलदेव के धर्म-गुरु (सम १५३)। सुदीह । वि सुर्द घ] अत्यन्त लम्बा (सुर सुद्दिणी (अप) स्त्री [शूद्रा] शूद्रजातीय श्री ३ भारतवर्ष में होनेवाला पाचवाँ बलदेव सुदीहर ) २, १२५: , १६८)। कालीय, (पिंग)। (सम १५४): ४ धरणेन्द्र के हस्ति-सैन्य का । वि [कालिक] सुदीर्घ-काल-सम्बन्धी (सुर , अधिपति (ठा ५, १-पत्र ३०२)। ५ एक र सुद्ध पुं[दे] गोपाल, ग्वाला (दे ८, ३३)। १५, २२)। दास वि [दर्शिन् ] अन्तकृद् भुनि (अंत ८)। ६ मेरु पर्वत परिणाम का विचार कर कार्य करनेवाला सुद्ध वि [शुद्ध] १ शुक्ल, उज्वल; 'वइसाह(सन १.६,६ सुज्ज ५) । ७ एक विख्यात (३२) सुद्धपंचमिरत्तीए सोहणं लग्गं (सुर ४, श्रेष्ठी (पडिः वि १६)। ८ देव-विशेष (ठा १०१: कुप्र ७०, पंचा ६, ३४)। २ पवित्र । सुदुक्कर वि [सुदुष्कर जो अत्यन्त दुःख से २, ३--पत्र ७६)। ६ विष्णु का चक्र ३निर्दोष । ४ केवल, किसी से अमिश्रित । ५ किया जा सके वह, प्रति मुश्किल (उप पू (सुपा ३६०)। १० भगवान् अरनाथ का न. सेंधा नून-नमक। ६ मरिच, मिर्चा (हे १, १६०) पूर्वभवीय नाम । ११ भगवान पार्श्वनाथ का २६०)। ७ लगातार १८ दिनों के उपवास सुदुक्खत्त वि सुदुःखात] अति दुःख से पूर्वजन्मोय नाम (सम १५१)। १२ पुंन. (संबोध ५८)। ८ पुं. छन्द-विशेष (पिंग)। पीड़ित (सुर ७, ११)। एक देव-विमान (देवेन्द्र १३६)। १३ वि. गंधारा स्त्री [गन्धारा] गन्धार-ग्राम की सुदुक्खिा वि [सुदुःखित] अत्यन्त दुःखित जिसका दर्शन सुन्दर हो वह (वि १६)। एक मूर्च्छना (ठा ७--पत्र ३६३), दंत (सुण ३०४). १४ न. पश्चिम रुचक पवंत का एक शिखर सुदुग्ग वि [सुदुर्ग] जहाँ दुःख से गमन पुं [दन] १ भारतवर्ष में होनेवाले चौथे (ठा ८-पत्र ४३६)। किया जा सके वह (पउम ३०, ४६) जिनदेव (सम १५४) । २ एक अनुत्तर-गामी सुदंसणा स्त्री सुदर्शना] १ जम्बू नामक जैन मुनि (अनु २)। ३ एक अन्तर्वीप। ४ एक वृक्ष, जिससे यह द्वीप जंबूद्वीप कहलाता सुदुच्चा नि [मुदुस्त्यज] मुश्किल से जिसका उसमें रहनेवाली एक मनुष्य-जाति (इक)/ है (सम १३: परह २, ४-पत्र १३०)। २ त्याग हो सके क, सहावो वि सुदुच्चों पक्ख पुं ["पक्ष] शुक्ल पक्ष (पउम ६, भगवान महावीर की ज्येष्ठ बहिन का नाम (श्रा १२)। २७) प पुं [त्मन् ] पवित्र आत्मा सुदुत्तार विसुदुस्तार] कठिनता से जिसको । (पाचा २.१५, ३: कप्प)। ३ धरण आदि (कप्प) पवेस वि [प्रवेश्य] पवित्र पार किया जा सके वह (औप; पि ३०७) इन्द्रों के कालवाल प्रादि लोकपालों की एक और प्रवेश के लिए उचित (भग) पवेस एक अग्रमहिषी (ठा ४.१--पत्र २०४)। ४ सुदुद्धर वि सुदुर्धर] प्रति दुःख से जो वि [आत्मवेश्य] पवित्र तथा वेशोचित काल तथा महाकाल-नामक पिशाचेन्द्रों की धारण किया जा सके वह (श्रा ४६ प्रासू । (भग) बायt वात वाय-विशेष. अग्रमहिषियों के नाम (ठा ४, १-.-पत्र मन्द पवन (जी ७)। विराड न [विट २०४)। ५ भगवान ऋषभदेव की दीक्षा सुदुन्निवार वि सुदुर्निवार] अति कठिनाई उष्ण जल (कप्य), सज्जा स्त्री [पड्जा] शिविका (विचार १२६)। ६ चतुर्थ बलदेव से जिसका निवारण किया जा सके वह षड्ज ग्राम की एक मूर्छना (ठा ७-पत्र की माता (सम १५२)। (सुपा ६४) सुदक्खिन्न वि [सुदाक्षिण्य] दाक्षिण्यवाला सुप्पिच्छ वि[सुदुदेश] अतिशय मुश्किल सुद्धत पुंसुद्वान्त] अन्तःपुर (उप ७६८ से देखने योग्य (सुर १२, १६६) (धम्म १५; सं ३१) टोः कुप्र ५५; कुम्मा २६; कस) प्रति वा सपा सुभेअ वि सुदुर्भेद] प्रति दुःख से सुद्धवाल वि[३] शुद्ध-पूत, शुद्ध और पवित्र ५१७)। जिसका भेदन हो सके वह (उप २५३ टी) (दे ८, ३८) सुदा सण देखो सुदसण ( हे २, १०५; सुदुम्मणिआ स्त्री [दे] रूपवती स्त्री (दे सुद्धि स्त्री [शुद्धि] १ शुद्धता, निर्दोषता, पउम २०, १७६; १६: पद १६४ इक) ५,४०)। निर्मलता (सम्मत्त २३०; कुमा)। २ पता, For Personal & Private Use Only Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुद्धसणिअ-सुपरन्न पाइअसद्दमहण्णवो खबर, खोई हुई चीज की प्राप्ति; 'वद्धाविजह सुनिग्गल वि [सुनिर्गल] चिर-स्थायी (विसे नाम (सुपा ३६) । ८ भाद्रपद भात का पियाइ सूद्धीए' (सुपा ५१७; कुप्र २०२; ७६६) लोकोत्तर नाम (मुज्ज १०, १६)। पात्रसम्मत्त १७२, कुम्मा ) सुनिन्छय वि [सुनिश्चय] दृढ़ निर्णयवाला विशेष (राय)। १० न. एक नगर का नाम सुसणिअ वि [शुद्ध षणिक] निर्दोष (सुपा ४६८)। विपा १, ६-पत्र ८८), म पुन [भ] द्वार की खोज करनेवाला (प .१- सुनिप्पकंप वि [सुनिष्प्रकम्प] अत्यन्त । एक देव-विमान (सम १४; पब २६७) - पत्र १०.) निश्चल (सुपा ६५३) सुपाद्वय वि मुप्रतिष्टित] अच्छी तरह सद्धोअण शुद्धोदन] बुद्धदेव के पिता सुनिम्मल वि[सुनिमल ] अतिशय निर्मल प्रतिप्रा-प्राप्त । का नाम तणय पुं [तनय] बुद्ध देव (पउम २६, ६२) । मुपक्क वि सुपक्क] अच्छी तरह पका हुआ (सम्म १४५) । देखो सुद्धोदण - सुनिरूबिय वि [सुनिरूपित अच्छी तरह (प्रास १०२: नाट-मच्छ ५७ सदोअगिजीनोनिदेव वा तलासा हुआ (सुपा ५२३)। सुपड़ाय वि [सुपनाक) सुन्दर ध्वजावाला सनिविन विसुनिविष्ण] अतिशय खिन्न (कूमा) 10 सुद्धोदण देखो सुद्रोअण पुत्त पुं[पुत्र] (सुर १४, ५८ उब) - बुद्ध देव (कुप्र ४४०)। सुपाडवुद्ध वि [सुप्रतिबुद्ध] १ सुन्दर रीति सुनिव्वुड देखो सुणिव्युय (द्र ४७)। से प्रतिबोध को प्राप्त (पाचा १, ५, २, सुधम्म पुं[सुधमेन ] १ भगवान् महावीर सुनिसाय वि [सुनिशात] अत्यन्त तीक्ष्ण ३)। २ पृ. एक जैन महर्षि (कप्प):का पट्टधर शिष्य (कुमा)। २ एक जैन मुनि (सुपा ५७.)। मुप डवत्त वि सुपरिवृत्त] जो अच्छी तरह (विपा २, ४)। ३ तीसरे बलदेव के गुरु सुनिसिअ वि [सुनिशित] ऊपर देखो (दस हुपा हो वह (पउम ६४, ४५)। एक जैन मुनि (पउम २०, २०५)। ४ एक १०, २) जैन मुनि, जो सातवें बलदेव के पूर्व-जन्म में सुरणिहिय वि [सुप्रणिहित] सुन्दर प्रणिसुनिन्संफ वि सुनिःशङ्क] बिलकुल शङ्कागुरु थे (पउम २०, १६३)। ५ एक धानवाला (पएह २, ३--पत्र १२३). रहित (सुपा १८) जैनाचार्य; तह प्रज्जमंगुसूरि प्रज्जसुधम्म सुपण्ण देखो सुप्पन्न (राज)। च धम्मरय' (साधं २२) । देखो सुहम्म । सुनाविआ श्री सुनावका] सुन्दर नावा-सु- पुंसुवणे गरुड पक्षी (नाट: कुप्र वस्त्र-ग्रन्थिवाली स्त्री (कुमा)। सुपन्न, ६३)। सुधा देखो छुहा - सुधा (कुमा) सुनेत्ता स्त्री [सुनेत्रा] पाँचवें वासुदेव की सुपनत्त वि [सुप्राप्त ] १ सुन्दर रूप से सुनंद [सुनन्द] १ भारतवर्ष के भावी पटरानी (पउम २८, १८६) ।। कथित (पाचा १,८,१, ३)। २ सम्यग दसवें जिनदेव के पूर्वभव का नाम (सम सुन्न न [शून्य १ बिन्दी (सुर १६, १४६)। प्रासेवित (दस ४, १)। १५४)। २ एक जैन मुनि (पउन २०, २-देखो सुण्ण (प्रासू १०; महा: भगः सुपभ देखो सुप्पम (राज)। २०) । देखो मुणंद । प्राचाः सं ३६, रंभा) + पत्तिया स्त्री सुपम्ह पुंसुपक्ष्मन १ एक विजय-क्षेत्र सुनक्खत्त देखो मुणक्खत्त (भग १५-पत्र [प्रत्ययिका, पत्रिका] एक जैन मुनि (ठा २. ३--पत्र ८०)। २ पुंन. एक देव६८ ६८७) शाखा (कप्प) । विमान (सम १५)। सुपरिकम्मिय वि [सुपरिकर्मित ] सुन्दर करनेवाली स्त्री (सुपा २८६) १२) । संस्कारवाला (णाया १,७-पत्र ११६) । सुनयण सुनयन] १ राजा रावण के सुन्नार देखो मुण्णार (सुपा ५६२) । सुपर क्ख । वि [सुपरीक्षित] अच्छी अधीनस्थ एक विद्याधर सामन्त राजा (पउम मुन्हा देखो सुण्हा (वा ३७; भवि) । सुपरिच्छिय । तरह जिसकी परीक्षा की ८, १३३)। २ वि. सुन्दर लोचनवाला सप सकमज1 मार्जन करना, शोधन गई हो वह (उवः प्रासू १५) (माजम)N ___ करना । सुपइ (प्राप्र)। सुपारे पट्ठिय । वि सुपरिनिष्ठित अच्छी सुनाम सुनाम] अमरकंका नगरी के सुपट्ट वि [सुप्रतिष्ट] १ न्याय-मार्ग में सुपा नदिअ ) तरह निपुण (राज) भग)। राजा पद्मनाभ का पुत्र (णाया १,१६-पत्र | स्थित । २ प्रतिज्ञा-शूर (कुमा १. २८) । ३ सुपारम्फु बि [सुपरिस्फुट] सुस्पष्ट (पउम २१४) अतिशय प्रसिद्ध । ४ जिसकी स्थापना विधि- ४५, २६) सुनिउण वि [सुनिपुण] १ अत्यन्त सूक्ष्म पूर्वक की गई हो वह (बुमा २, ४०) । ५ सुपारसं वि [सुपरिश्रान्त] अतिशय पका (सम ११४)। २ अति चतुर (सुर ४, पुं. भगवान महावीर के पास दोक्षा लेकर मुक्ति प्रा (पउम १०२, ४५)। पानेवाला एक गृहस्थ (अंत १८)। ६ अंग- सुपरन्न वि [सुप्ररुदित] जिसने जोर से रोने सुनिरण वि [सुनिगुण] अतिशय निश्चित विद्या का जानकार पचवाँ रुद्र पुरुष (विचार का प्रारम्भ किया हो वह (गाया १,१८गुणवाला (सम ११४) ४७३)। ७ भगवान् सुपाश्र्वनाथ के पिता का पत्र २४.) For Personal & Private Use Only Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ पाइअग्नहमहण्णवो सुपवित्त--सुबंभ सुपवित्त वि [सुपवित्र अत्यन्त विशुद्ध (सुपा सुपेसल वि [सुपेल] अति मनोहर (उत्त देव (सम १५४)। ३ भारतवर्ष का भावी ३५४) । १२, १३)। तीसरा कुलकर पुरुष (सम १५३)। ४ हरिसुपवित्तिय [सुपवित्रित] अत्यन्त पवित्र सुप्प अक [स्वप्] सोना । सुप्पइ (हे २, कान्त तथा हरिसह नामक इन्द्रों के एक-एक किया हुया (मुग ३) लोकपाल का नाम (ठा ४,१--पत्र १९७; सुपच पं[सुपर्वन १ देव । २ न. सुन्दर सुप्प पुन [सूर्य] सूप छाज, सिरकी का बना इक) । ५ पुंन. एक देव-विमान (देवेन्द्र पर्व (कप्र ४२) एक पात्र जिससे अन्न पदोरा जाता है (उबाः । १४१) कंन पु न] हरिकान्त तथा सुपसाइअ वि सुप्रसादित] अच्छी तरह पराह १,१-पत्र)। णह विनख हरिसह नामक इन्द्रों के एक-एक लोकपाल प्रसन्न किया हुअा (रंभा)। सुप के जो नख्वाला (गाया १, ८-~-पत्र का नाम (ठा ४, १--पत्र १९७)। मुपमिट वि [सुप्रसिद्ध अति विख्यात १३३)। .. ही स्त्री [न या] रावण । सुष्मा स्त्री [सुप्रभा] १ तीसरे बलदेव को की बहिन का नाम (प्राकृ. ४२) माता (सम १५२)। २ धरण प्रादि दक्षिणसुपस्स वि सुदर्श सुख से देखने योग्य (ठा सुप्पइट्ठ देखो सुपर; (राज)।' श्रेणि के कई इन्द्रों के लोकगलों को एक४.३-पत्र २५३: ५.१-पत्र २६६) सुपदि देखो सुपाटय (राज)। एक अग्रहियो का नाम (ठा ४, १-वत्र सुपह सुपथ] शुभ मार्ग (उबः सुपा २०४) । ३ धनवाहन नामक विद्याधर-नरेश सुप्पण्या स्त्री सुप्रतिजा दक्षिण रुचक सुप्पाइन्ना की पत्नी (पउम ५, १३८)। ४ भगवान् पर रहनेवाली एक दिक्कुमारी अजितनाथ की दोक्षा-शिविका (विचार १२६%; मुपहाय न सुिप्रभात माङ्गलिक प्रातःकाल देवी (राज इक)। सम १५१) सुप्पलिय न. शीतहारक वन-विशेष (भव० सुपावय वि [सुपापक] प्रतिशय पापी (उत्त सुप्पभूय वि [सुप्रभूत] प्रति प्रचुर (पउम । वृ० पत्र ३६५, श्लो. ४०, ४६)। १२.१४) ५५, ३६) सुप्पंजल वि मुराञ्जल] अत्यन्त ऋजु- सुप्पसण । वि [सुप्रन] अत्यन्त प्रसादमुपानमुपा १ भारतवर्ष में उत्पन्न सीधा (कप्पू) । सुप्पसन्न युक्त (नाट-मालती १६१ सातवें जिन भगवान् (मम ४३: कपः सुपा सुप्पडिआणंद विसुप्रत्यानन्द उपकृत भवि)। २) । २ भगवान महावीर के पिता का भाई पुरुष के किये हुए उपकार को माननेवाला (ठा 8--पत्र ४५५; विचार ४७८)। ३ सुष्पसार विसुभ्रसारित] सुख से पसारने (ठा ४,३-पत्र २४८)।। एक कुलकर पुरुष का नाम (सम १५०)। योग्य (सुख २, २६) सुप्पडिआर न [सुप्रतिकार ] उपकार का ४ भारतवर्ष के भावी तीसरे जिनदेव (सम सुप्पसारिय वि [सुप्रसारित) अच्छी तरह बदला, प्रत्युपकार (ठा ३, १-पत्र ११७)। १५:)। ५ऐरक्त क्षेत्र में उत्पन्न एक जिन पसारा हुपा (प्रौप)। देव ( मम १५३!। ६ ऐरवत क्षेत्र में आगामि सुप्पडिबुद्ध देखो सुपडिबुद्ध (राज)। सुप्पसिद्ध देखो सुपसिद्ध (सम १५१; पि उत्सपिंगो-काल में होनेवाले अठारहवें जिनदेव सुप्पडिलग्ग व सुप्रतिलग्न] अच्छी तरह (मम १५४: पब ७)। ७ भारतवर्ष के भावी लगा हुआ, अवलम्बित (सुपा ५६१)। सुप्पसृय वि[सुप्रसूत सम्यग् उत्पन्न (प्रौप)। दूसरे जिनदेव का पूर्वजन्मीय नाम (सम सुप्पाणहाण न सुप्रांगधान] शुभ ध्यान सुप्पहूब (अप) देखो सुप्पभूय (भवि)। १५४ (ठा ३, --पत्र १२१)। सुप्पाडोस पुं[दे] अच्छा पड़ोस (श्रा २७) । मुपामा ब्रो सुपा] एक जैन साध्वी (ठा सुप्पणिय देखो सुपणिहिय (पएह २, सुप्पिय वि [सुप्रिय] अत्यन्त प्रिय (उत्त ११; ६-पत्र ४५७) १--पत्र १०१)।सुपा सुपीत] अहोरात्र का पाचवा सुप्पन्न वि[सु.] सुन्दर बुद्धिबाला (सूम |८ सुपा ४६५) । मुह (मम ५१) सुप्पुरिस देखो सुपुरिस (रयण २४)। मुपुन्छ न सुपु. एक देव-विमान (सम सुप्पबुद्ध पुन [सुप्रतुद्ध] एक ग्रैदेयक-विमान | सुफणि बीन [सुफणि] जिसमें तक्र ादि २२)। (देवेन्द्र १३६, पत्र १९४) ।। उबाला जाय ऐसा बटुवा आदि पात्र (सूप्र १, मुपु न सुपुण्ड एक देव-विमान (सम सुप्पबुद्धा स्त्री प्रबुद्धा] दक्षिण रुचकपर २२): रहनेवालो एक दिक्कुमारी देवी (ठा ८-पत्र सुबंधु पुं[सन्धु] ? दूसरे बलदेव का सुपुष्क न सुपु प] एक देव-विमान (सम ४३६; इक)। पूर्वजन्मीय नाम (सम १५३) । २ भारतवर्ष सुप्पभ सुप्रीवर्तमान अवसपिणी-काल | का भावी सातवाँ कुलकर (सम १५३) । मुपुरिस पुंसुदुरूप सज्जन, साधु पुरुष में उत्पन्न चतुर्थ बलदेव (सम ७१)। २ सुबंभ पुंन [सुब्रह्मन् ] एक देव-विमान (हे २, १८४; गउड; प्रामू)। पागामी उत्सपिणी में होनेवाला चौथा बल- । (सम १९)। For Personal & Private Use Only Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबंभण-सुमग्ग पाइस महणव सुभग पुं [सुब्राह्मण] प्रशस्त विप्र (पि सुभंकर न [ शुभंकर ] वरुण नामक लोकान्तिक २५०) देवों का विमान (राज)। देखो सुहंकर । सुबद्ध वि [सुबद्ध] अच्छी तरह बँधा हुया सुभग वि [सुभग] १ मानन्द जनक ( कप्प ) । (उ) 1 २ सौभाग्य युक्त, वल्लभ, जन-प्रिय (सुज्ज २० ) । ३ न. पद्म-विशेष ( सू २, ३, १८ राय ८२) । ४ कर्म विशेष (सम ६७ कम्म १, २६३ ५० धर्मंसं ६२ टी) सुभगा स्त्री [सुभगा ] १ लता - विशेष (पराग १--पत्र ३३) । २ सुरूप नामक भूतेन्द्र की एक पटरानी (ठा ४, १ – पत्र २०४ गाया २-पत्र २५३ इक) सुभग्ग वि [सुभाग्य ] नाग्यशाली, जिसका भाग्य अच्छा हो वह (उव ०३१ टी) सुभड देखो सुहड (नाट - - मालती १३८ ) । सुभणिय व [सुभणित] वचन-पुरा ( सुद्द [सुभद्र] ४ का एक राजा (परम २८, १३६) । २ दूसरे वासुदेव तथा बलदेव के धर्म-गुरु (सम १५३) । ३ न. एक देव-विमान (देवेन्द्र १४१ ) । ४ नगर - विशेष (उप १०३१ टी) । सुभद्दा श्री [सुभद्रा ] १ दूसरे बलदेव की माता (सम १५२ ) २ प्रथम श्री राम भरत चक्रकर्त्ती की अग्र महिषी (सम १५२ ) । ३ बलि नामक इन्द्र के सोम आदि चारों लोक । - पत्र पालों की एक-एक महियो का नाम (ठा ४, १ - - पत्र २०४ ) । ४ भूतानन्द आदि इन्द्रों के कालवाल नामक लोकपाल की एकएक श्रग्र-महिषी का नाम (ठा ४, १२०४) । ५ प्रतिमा विशेष, एक व्रत (ठा ४, १ - पत्र २०४) । ६ राम के भाई भरत की पत्नी (पउम २८, १३६) । ७ राजा कोरिएक की स्त्री (प) । ८ राजा श्रेणिक की एक स्त्री अंत २५) एक सती श्री (पडि १० एका विपा १, २ - २२) । विशेष जिससे यह ११ द्वीप कहलाता है (इक) । सुबल [सुबल] १ सोमवंश का एक राजा ( प ५, ११) २ पहले बलदेव का पूर्वजन्मीय नाम (पउम २०, १२० ) /सुबलिट्ठ वि [सुबलिष्ट ] श्रतिशय बलवान् (श्रु१८) वि सुबहु [ब] प्रतिप्रभूत ( वि सुबहु [सुत्र] ऊपर देखी (1 सुबाहु [सुबाहु ] १ एक राज कुमार ( दिपा २, १ - पत्र १०३) । २ स्त्री रुक्मिराज की एक कन्या (पाया १, - पत्र १४० ) IV -3 सुबुद्धि [सुदुद्धि] १ सुन्दर प्रज्ञा (था १४) २ . राम-भ्राता भरत के साथ लेनेवाला एक राजा ( पउम ८५, ३) । ३ एक मन्त्री (महा) 1 सुभवि [शुभ्र ] २ सफेद, श्वेत (सुपा ५०६ ) । २ न. एक प्रकार की चाँदी (राय ७५) । सुन्भ न [शौय ] सफेदी, श्वेतता (संबोध ५२) । | सुभि [ सुरभि ] १ सुगन्ध, खुशबू ( सम ४१, भग, गाया १, १२) । २ वि. सुगन्धी, सुगन्ध युक्त (उत्त ३६, २८ आाचा १, ६, २३) मनोहर, मनोज सुन्दर १, १२ - पत्र १७४) । सुम्पिन [सुभिक्ष] मुकाल (सुपा ३५८ ) ! सुभु स्त्री [ सुत्र ] नारी, महिला ( रंभा ) । सुभ पुं [शुभ ] १ भगवान् पार्श्वनाथ का प्रथम गणधर (ठा पत्र ४२६ सम १३ ) । २ भगवान् नमिनाथ का प्रथम गणधर (सम १५२ ) । ३ एक मुहूर्त (पउम १७, ८२ ) । ४ न. नाम कर्म का एक भेद (सम ६७; कम्म १, २६) । ५ मंगल, कल्याण । ६ वि. मंगल-जनक, मांगलिक, प्रशस्त (कप्पः भगः | कम्म १. ४२ : ४३) घोस पुं ['घोष ] भगवान् पार्श्वनाथ का द्वितीय गणधर (सम १३) धम्म [धुर्मन् ] राक्षसवंश का एक राजा (पउम ५, २६२ ) । देखो | सुह = शुभ 1 सुभा स्त्री [शुवा] १ वैरोचन बलीन्द्र की एक अप्र-महिषी (ठा ५. १ – पत्र ३०२ ) । २ ६१६ एक विजय-क्षेत्र (ठा २, ३ - पत्र ८० ) । ३ रावण की एक पत्नी ( पउम ७४, १ ) । सुभासि देखो सुहासि (उत २०, ५१; दस ६.१.१७) 1 सुधासिर वि[सुभाषित ] सुन्दर बोलनेवाला । स्त्री. (सुपा ५६८ ) । सुभिक्ख देखो सुभिक्ख ( उवः सार्धं ३६ ) | सुभिच्च [ सुभृत्य ] अच्छा नौकर (सुपा ४६५: हे ४, ३३४) 16 सुभम वि[सुभीम | प्रति भयंकर (सुर ७. २३३) । For Personal & Private Use Only [भीषण ] रावल का एक सुभट (पउम ५६, ३१) सुभूम पुं [सुभूम] १ भारतवर्ष में उत्पन्न आठवां चक्रवर्ती राजा (ठा २, ४–पत्र ६६) । २ भारतवर्ष के भावी दूसरा कुलकर पुरुष (सम १५३) । भगवान् अमरनाथ का प्रथम श्रावक ( विचार ३७८) । सुभूमण [सुभूषण] विभीषण का एक पुत्र ( पउम ६७, १६) । - सुभोगा श्री [ सुभोगा ] लोक में रहने वाली एक दिक्कुमारी देवी (ठा -पत्र ४३७; इक) सुभो न [सुभोजन] व्रत विशेष एकाशन उप संयोष १८) सुमन [सुम] पुष्प, फूल (सम्मत्त १६१) । ~ "मर पुं. [ "शर] कामदेव ( रंभा ) | सुबइ पुं [सुमति] १ पाँचवाँ जिन भगवान् ( सम ४३ ) । २ ऐरवत क्षेत्र में होनेवाला दसवाँ कुलकर पुरुष (सम १५३) । ३ एक जैन उपासक (महानि ४) । ४ वि. शुभ बुद्धि वाला (गउड) । ५ पुं. एक नैमित्तिक विद्वान् (सुर ११, १३२) । " [सुमङ्गल] ऐरक्त वर्ष में होने सुमय देखो सुभग ( भग १२, ६ – पत्र सुमंगला स्त्री [सुमङ्गला ] १ भगवान् ऋषभ५७८) 1 देव की एक पत्नी ( पउम ३, ११६) । २ सुभरिय वि [सुभृत] प्रच्छी तरह भरा हुआ, सूर्यवंशीय राजा विजयसागर की पत्नी ( पउम भरपूर, परिपूर्ण ( उव)। ५ २) । सुमंगल बाले प्रथम जिनदेव (सम १५४) । सुप्रग्ग पुं [ सुमार्ग ] प्रच्छा रास्ता (सुपा 330) Iv Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩ पाइअसहमहण्णवो सुमण-सुर सुमण ।न [सुमनस ] १ पृष्प, फूल सुमराविय वि [स्मारित] याद कराया हुआ सुमुह पुं[सुमुख १ भगवान् नेमिनाथ के पास सुमणस (हे १, ३२; सुपा ८६)। २ पृ. (सुर १४, ४८, २४३)। दीक्षा लेकर मुक्ति पानेवाला एक राज कुमार देव, सुर (सुपा ८६ ३३४)। ३ वि. सुन्दर समरिश देखो समर स्म । (अंत ३)।२ राक्षस-वंश का एक राजा, एक मनवाला, सजन (सुपा ३३४. पउम ३६, लंका-पति (पउम ५, २६१)। ३ न. छन्दसुमरिअ वि [स्मृत] याद किया हुआ (पान)। १३०० ७७. १७ रयण ३)। ४ हर्षवान्, विशेष (अजि २०) मानन्दित, सुखी (ठा ३,२-पत्र १३:)। सुमस्या स्त्री [सुनरुत् ] भगवान महावीर के पास दीक्षा लेकर मुक्ति पानेवालो राजा सुमुही स्त्री [सुमुखी] छन्द-विशेष (पिंग)।५ पुन, एक देव-विमान (देवेन्द्र १३६) । भ६ पु सुमेघा स्त्री सुपेघा] ऊर्ध्व लोक में रहनेवाली श्रेणिक की एक पत्नी (अंत २५) । भद्र] १ भगवान महावीर के पास दीक्षा लेकर मुक्ति पाने वाला एक सुमहुर वि [सुमधुर] अति मधुर (विपा १, एक दिक्कुमारी देवी (ठा ८---पत्र ४३७) गृहस्थ (अंत १८)। २ प्रार्य संभूतिविजय के ७ ... पत्र ७७) सुमेरु पुंसुमेरु] मेरु-पर्वत (पान; पउम एक शिष्य, एक जैन मुनि (कप)। सुमाणस वि [मुमानस] प्रशस्त मनवाला, | ७५, ३८)। सुमणमा स्त्री [सुमनस.] वल्ली-विशेष सजन (पउम १-२. २७)। सुमेहा देखो सुमेघा (इक)। (पराग १ --पत्र ३३)10 सुमाणुस — [सुमानुप] सजन, उत्तम मनुष्य सुमेहा स्त्री सुमेधा] सुन्दर बुद्धि (उप पृ सुमणा स्त्री सुमनस ] १ भगवान् चन्द्रप्रभ । (सुपा २५६)। की प्रथम शिष्या (सम १५२१६)। २ सुमालि सुमालिन्] एक राज-कुमार सुम्मत देखो सुण = श्रु भूतानन्द प्रााद इन्द्रों के एक-एक लोकपाल (पउम ६, २२.) । की एक-एक अग्न-महिषो का नाम (ठा ४, सुम्ह पुं. व. [सुम देश-विशेष (हे २, ७४)। सुमिण पुंन [स्वप्न] १ स्वप्न, सपना (हे १, १--पत्र २०४) ३ राजा श्रेणिक की एक ४६; कुमाः महा; पडि; सुर ३, ६१, ६७)। सुर पुं सुर १ देव, देवता (पएह १, ४पत्नी (अंत २५)। ४ एक जम्बू वृक्ष का २ स्वप्न के फल को बतलानेवाला शास्त्र पत्र ६८; कप्प, जी ३३; कुमा)। २ एक नाम ( इक)। ५ शक्र को पद्मा नामक (स्वप्न ४६ । पाढय वि [पाठक स्वप्न राजा का नाम (उप ७६५) + अण न इन्द्राणी की एक राजधानी (इक )। ६ के फल बतानेवाले शास्त्रों का जानकार [वन] नन्दन-वन (मे ६, ८६), "अरु मालती का फूल (स्वप्न ६१)। (णाया १, १-पत्र २०) । देखो सुविण । ["तरु] कल्प वृक्ष (नाट) । करडि पुं ["करटिन ऐरावरण हाथो (सुपा १७६). सुमित्त पुंसुमित्र] । भगवान् मुनिसुव्रतसुमणों देखो सुमण (उप पृ१८)। स्वामी का पिता-एक राजा (सम १५.)। कार (करिन् वही अर्थ (सुपा २६१) सुमणाहर वि [सुमनोहर ] अत्यन्त मनोहर २ द्वितीय चक्रवर्ती का पिता (सम १५२) । कुंभि पु[कुम्भिन्] वही (सुपा २०१) (उप पृ१८)। ३ चतुर्थ बलदेव के पूर्व जन्म का नाम (पउम कुभर पु[कुमार] भगवान् वासुपूज्य का सुमर सक [स्मृ] याद करना। सुमरइ (हे २०, १६.)। ४ छठवें बलदेव के धर्मगुरु -- ४, ७४) । भाव. सुमरिस्मास (पि ५२२) । शासन-यक्ष (पब २६) कुसुम न [ कुसुम] एक जैन मुनि (पउम २०, २०५) । ५ एक लवंग, लौंग (पि १४) कम. सुमरिजइ (हे ४, ४२६; पि ५३७) । गय पु [गज वणिक् का नाम (उप ७२८ टी)। ६ अच्छा इन्द्र-हस्ती, ऐरावण (पान; से २, २२)। वकृ. सुमरंत (सुर ६, ६४: मुपा ४०८ मित्रा 'सुमित्ताव जिरणवम्मो' (सुपा २३४)। "गिरि पु [गिरि] मेरु पर्वत (सुपा २; पउम ७८, ५६)। कवकृ. सुमरिज्जत (पउम ३१, ३५४ सरण) गिह देवो घर (उप ५, १८६% नाट--मालती ११०)। संक ७ भगवान् शान्तिनाथ को प्रथम भिक्षा देनेवाले एक गृहस्थ का नाम (सम १५१) । ७६८ टो) गुरु [गुरु] १ बृहस्पति सुमरिअ, सुमारजण (कुमा; काल)। हेकृ. (पान सुपा १७६)। २ नास्तिक मत का सुमरउ, सुमारत्तए (पि ४६५; ५७८)। सुमित्ता स्त्री सुमित्रा] लक्ष्मण को माता प्रवर्तक एक प्राचार्य (मोह १०१) गोव कृ. सुमरियव्य, सुमरेयव्य, सुमरणीअ और राजा दशरथ की एक पत्नी (पउम २५, पू[गोप] कीट-विशेष, इन्द्रगोप (णाया (सुपा ९५३,८२, २१५, अभि १२०) ४) तणय पुं[तनय] लक्ष्मण (से ४, १५; १४, ३२) । १, ६-पत्र १६०; पा) घर न [गृह] सुमर पुं[स्मर) कामदेव (नाट-चेत ८१)। सुमित्ति मामित्रि] सुमित्रा का पुत्र १ देव-मन्दिर (कुप्र ४) । २ देव-विमान सुमरण श्रीन [स्मरण] याद, स्मृति (कुमा; (सरण) चमू स्त्रो ['चमू] देव-सेना लक्ष्मण (पउम ४५, ३६)। हे ४, ४२६, वसु, प्रापः सुपा ७१,१५६ (सुपा ४५) चाव पु [चाप] इन्द्र३६७. ३:४)। स्त्री. णा (स ६७०% सुमुइय वि [सुमुदित प्रति-हर्षित (प्रौप)। धनुष (गा ५८५: ८०८ सुपा १२४) ।। सुपा २२०) सुमुखी देखो सुमुही (पिंग) जाल न [जाल] इन्द्रजाल (राज)णई मुमरा भक [स्मारय ] याद दिलाना । सुमुणि वि सुज्ञात] अच्छी तरह जाना स्त्री [नदा] गंगा नदी (पाप्र) गाह पु वकृ. मुमरावंत (कुप्र ५६) । । हुआ (सुपा २८२)। [नाथ] इन्द्र (गा ८६४; दे) + तरंगिणि For Personal & Private Use Only Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरइ-सुरिंद पाइअसहमहष्णवो ६२१ स्त्री ["तरङ्गिणी] गंगा नदी (सण) + तरु विद्याधर-नरेश (पउम ८, ४१) सुंदरी कुम्मा १४) । ४ पुंन. एक देव-विमान देखो अरु (सण) - ताण पु[त्राण] स्त्री [सुन्दरी] १ देव-वधू, देवाङ्गना (सुर (देवेन्द्र १४०) गंध वि [गन्ध सुगन्धी यवननृप, सुलतान (ती १५)4 दारु न ११, ११५; सुपा २०.)। २ एक राज- (प्राचा) पुरन [पुर] नगर-विशेष [°दारू] देवदार की लकड़ो (स ६३३) पुत्री (सुर १२. १४३)। ३ एक राज-कुमारी (राज)। देखो सुरहि। 'धंसी स्त्री [ध्वंसिनी] विद्या-विशेष (पउम । (सिरि ५:) सुरहि स्त्री [सुरमि] काम- सुमी वि सुरमणीय अत्यन्त मनोहर ७, १३७) । धणु, धणुह न [वनुष्] घेनु (रयण १३) °सेल पु [शैल] मेरु (सुर ३, ११२) । इन्द्र-धनुष (कूमाः सरण)। नई देखो गई पर्वत (सुपा १३) हात्थ पुहास्तन्म रमा विसरमा पर देखो (श्र ७७) 'नाह देखो माह (सरण) ऐरावण हाथी (से ६, ६) उह न सुरय न [सुरत मैथुन, स्त्री-संभोग (सुर १३, पहु पु[प्रभु] इन्द्र, देव-राज (सुपा ५.२ [आयुध वज्र (पाभ) देव पुगदेव २०; गा १५५; काप ११३) । उप १४२ टोः सण) । "पुर न [पुर] देव- एक श्रावक का नाम (उवा) देवी स्त्री पुरी, अमरावती, स्वर्ग (पउम ५., १ सण)- देवो पश्चिम रुवक पर रहनेवाली एक सुरयण न सुरत्न] सुन्दर रत्न (सुपा ३२७) "पुरी स्त्री [पुरी] वही अर्थ (पान कुमा) दिशा-कूमारी देवी (31८--पत्र ४७६; इक) सुयरणा सुरवना] सुन्दर रचना (सुपा "प्पिअ [प्रय] एक यक्ष (अंत) बंदी रि पु[रि] राक्षसवंश का एक राजा, ३२) । स्त्री [°बन्दी] देवी, देव-स्त्री (से ६, ५०) एक लंका-पति (पउम ५, २६२) "लय सुरस विसुरस] १ सुन्दर रसवाला (गाया भवण न [भवन] देव-प्रासाद (भगः पुंन [लय स्वर्ग (पामः सून १,६, ६ १, १२-पत्र १७४)। २ न. तृण विशेष सण) । मंति [मन्त्रन] बृहस्पति सुपा ५६६) हिराय पु[धिराज] (दे १, ५४) °लया स्त्री ["लता] तुलसी(सुपा ३२६). मंदिर न मन्दिर] १ इन्द्र (उप १४२ टी) हिव पुं[धिप] लता (दे ५, १४) देहरा, मन्दिर (कुप्र ४)। २ देव-विमान इन्द्र (से १५,५३) हिवइ पुं[धिपति] सुरसुर पुं[सुरसुर ध्वनि-विशेष, सुर सुर' (सण) मुणि पुं [मुनि] नारद मुनि वही (सुपा ४६) आवाज (ोय २८१)। (पउम ६०, ८) रमण न [रमण] सुरइ स्त्री [सुरति सुख (पएह १, ४-पत्र सुरसुर अक [सुरसुराय ] 'सुर सुर' रावण का एक बगीचा (पउम ४६, ३७) M६८) आवाज करना। वकृ. सुरसुरंत (गा ७४) ।। 'राय [ राज] इन्द्र (सुपा ४५; सिरि सरड्य वि [सुरचित] अच्छी तरह किया सुरह सक[सुरभय । सुगन्धित करना। २४) "रिउ पुरिपु दैत्य, दानव हुप्रा (पएह १, ४--पत्र ६८) सुरहेइ (कुमाः प्रासू ६)। (पान) लोअg[लोक स्वर्ग (महा) Mainm बोराडना देव-बध (सूपा सुरह पुंन [मौरभ] सुन्दर गन्ध, खूशबू; लोइय वि लौकिक] स्वर्गीय (पुप्फ २४६) 'गंधोविन सुरहो मालईइ मलणं पुण २५८)। लोग देखो लोअ (पउम ५२, सुरंगा स्त्री [सुरङ्गा] सुरंग, जमीन के भीतर विणासो' (भत्त १२१) १८) व [पति१ इन्द्र, देव-राज 26 महाः सपा ४५४) सुरह सुरथ साक्तपुर का एक राजा (पान सुपा ४४, ४८, ८८, ४०२) । २ सुरंगि पुंस्त्री [द] वृक्ष-विशेष, शिग्रु वृक्ष, (महा) इन्द्र नामक एक विद्याधर-नरेश (पउम ७, २७) सुरहि पुत्री सुरभि] १ वसंत ऋतु (रंभा; सहिजना का गाछ (दे ८, ३७) । वण्ण पुंन [वर्ण] एक देव विमान पान; कप्पू)। २ चैत्र मास (गा १०००)। (सम १०) वधू देखो वह (पि ३८७) सुरजेट धू[दे] वरुण देवता (दे ८, ३१) ३ वृक्ष-विशेष, शतदु वृक्ष (प्राचा २, ६, ८, 'वन्नी स्त्री [प] 'नाग वृक्ष (पाप)। सुरह . ब. मुराष्ट्र एक भार 3)। ४ स्त्री. गौ, गैया (रयण १३, धर्मवि "वर व उत्तम देव भ ज न आजकल काठियावाड़ के नाम से प्रसिद्ध है ६५; पामः प्रामू १६८)। ५ न. नाम-कर्म [वरेन्द्र] इन्द्र, देव-राज (था ०७)। (गाया १, १६-~-पत्र २०८ हे २, ३४; का एक भेद, जिसके उदय से प्राणी के शरीर वहू स्त्री [°वधू] देवाङ्गना, देवी (कुमा)। पिंड २०२) ।। में सुगन्ध उत्पन्न होती है (कम्म १, ४१)। वारण [वारण] ऐरावण हस्ती (उप सुरणुचर वि [स्वनुचर] सुख से करने योग्य ६ वि. सुगन्ध युक (उवाः कुमाः गा ३१७; २११ टी) संगीय न [ संगीत] नगर- (ठा ५, १-पत्र २६६) ।। ३६६: सुर ३, ३६ हे २, १५५)। देखो विशेष (पउम ८, १८) सरि स्त्री सुरत । देखो सुरय (पउम १६, ८०; संक्षि सुरभित्र ["सरित् ] भागीरथी, गङ्गा नदी (गउड सुरद । प्राकृ १२) सुरा स्त्री [सुरा] मदिरा, दारू (उवा) रस उप पृ ३६; सुपा ३३, २८६) सिहरि सुरभि पुत्री [सुरभि] १ वसन्त ऋतु । २ पुरस] समुद्र-विशेष (दीव)। [शिखरिन] मेरु पर्वत (सण), सुंदर स्त्री. गौ, गैया (कुम्मा १४) । ३ वि. सुगन्ध- सुरिंद पुं [सुरेन्द्र] १ इन्द्र, देव-स्वामी (सुर पुं [सुन्दर] रथचक्रवाल-नगर का एक युक्त, सुगंधी (सम ६० गा ८६१; कप्पा २, १५३; गउड; सुपा ४४)। २ एक १५६ २५८ वा पति१ २०२) । २ मुरंगि उनी For Personal & Private Use Only Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह२२ पाइअसहमहण्णवा सुारदय-सुवत्त विद्याधर नरेश (पउम ७, २६) दत्त पुं सुलसा स्त्री [सुलसा] १ नववें जिनदेव की | विजय-क्षेत्र, प्रान्त-विशेष, जिसकी राजवानो [दत्त] एक राज-कुमार (उप ६३६) । प्रथम शिष्या (सम १५२)। २ भगवान् कुंडला नगरी है (ठा २, ३-पत्र ८० इक) सुरिंदय पुंसुरेन्द्रक] विमानेन्द्रक, देव सुवच्छा स्त्री [सुबत्सा] १ अधोलोक में विमान-विशेष (देवेन्द्र १३१)। प्रागामि काल में तीर्थंकर होगा (ठा 8-पत्र रहनेवाली एक दिशा-कुमारी देवी (ठा४५५; सम १५४)। ३ नाग नामक गृहपति सुरी स्त्री [सुरीदेवी (कुमा) पत्र ४३७)। २ सौमनस पर्वत पर रहनेवाली की बी (अंत ४)। ४ शक्र की एक अग्र- एक देवी (इक)। सुरंगा देखो मुरंगा (पउम ८, १५८) । महिषी, एक इन्द्राणी पउम १०२, १५६)। सुरुग्घ पृ न] देश-विशेष (हे २. ११३; सुवज्ज पुं[सुबन] १ एक विद्याधर-वंशीय ५ शंखपुर के राजः सुन्दर की पत्नी (महा) षड्ज वि [ज] देश-विशेष में उत्पन्न राजा (पउम ५. १६)। २ न. एक देवसुलह देखो सुलभ (स्वप्न ४८; महा; दं (कुमा)। विमान (सम २५)। सुरु? वि [सुरुष अत्यन्त रोप-युक्त (पउम सुवट्टिय वि [सुतित] अतिशय गोल किया सुलाह पुं [सुलाभ ] अच्छा नफा (सुपा | ६८, २५) हुप्रा (राज)। सुरूया स्त्री [सुरूपा] एक इन्द्राणी (णाया सुवण न [स्त्रपन] शयन (मोघ ८७ पंचा | सुली स्त्री [दे] उल्का, आकाश से गिरती २-पत्र २५२) । देखो सुरुवा। १, ४५, उप ७६२) । प्राग (दे ८, ३६) सुरूत्र सुरूप] १ भूत-निकाय के दक्षिण सुवण पुसुपर्ण] १ गरुड़ पक्षी (उत्त १४; सुलुसुल ।प्रक[सुलमुलाय ] 'सुल' 'सुल' दिशा का इन्द्र (ठा २, ३-पत्र ८५)। २ ४७)। २ भवनपति देवों की एक जाति सुलसुलाय ) आवाज करना। सुलुसुलायइ न. सुन्दर रूप। ३ वि. सुन्दर रूपवाला (औप)। ३ प्रादित्य, सूर्य (गउड)कुमार (तंदु ४१)। वकृ. सुलुसुलिंत, सुलसुलें। (उवा; भग)। पुं[कुमार] भवनपति देवों की एक जाति (तंदु ४४महा)। सुरूवा श्री [सुरुषा] सुरूप तथा प्रतिरूप सुलूह वि[सुरूक्ष प्रत्यन्त लूना-रूखा (सूप नामक भूतेन्द्रों की एक एक अग्र-महिषी १, १३, १२) सुवण्ण पुं[दे] अर्जुन वृक्ष (दे ८, ३७) । (ठा ४, १-पत्र २०४)। २ भूतानन्द सुलोअ देखो सिलोअश्लोक (प्रवि १६) सुवण्ण न [सुवर्ण] १ सोना, हेम (उवा; नामक इन्द्र की एक अग्र-महिषी (इक)। महाः गाया १,१७ गउड)। २ पृ. भवनसलोयण ३ एक दिशा-कुमारी देवी (ठा ४,१-पत्र सुलोचन] एक विद्याधर-नरेश पति देवों की एक जाति (भग)। ३ सोलह १९८६-पत्र ३६.): ४ एक कुलकर(पउम ५, ६६) कर्म-माषक का एक बाँट (अणु १५५)। ४ पत्नी (सम १५०)। ५ सुन्दर रूपवाली सुलोल वि [सुलोल] प्रति चपल (कप्पू)। सुन्दर वणं । ५ वि. सुन्दर वर्णवाला (भग)। (महा) । सुल्लन [शूल्य शूला-प्रोत मांस (दे ८, "आर, कार [कार] सोनी, सुनार (दे सुरेस पु[सुरेश १ देव-पति, इन्द्र। २ ३६ पाम)। महा), कुंभ '[कुम्भ] प्रथम बलदेव के उत्तम देव (सुपा ६१४) 0 सुव प्रक [स्वप्] सोना । सुवइ, सुवंति धर्म-गुरु एक जैन मुनि (पउम २०, २०५) । सुरेसर सुरेश्वर] इन्द्र, देव-राज (सुपा (हे १, ६४ षड् ; महाः रंभा)। भवि. 'कुसुम न [कुसुम] सुवर्णयूथिका लता २७; कुप्र ४)। सुविस्सं (पि ५२६) । वकृ. सुवंत, सुवमाण का फूल (राय ३१), कूला श्री [कूला] मुलक्खणि वि[मुलक्षणिन् उत्तम लक्षण- __ (पान; से १, २१; भग)। संकृ. सुविऊण नदी-विशेष ( सम २७, इक ) 'गुलिया वाला (धर्मवि १४२)। स्त्री [गुलिका] एक दासी का नाम (महा)। मुलग्ग चि [मुलग्न] अच्छी तरह लगा हुआ सुव देखो स= स्व (हे २, ११४; षड् ; कुमा) 'सिला स्त्री [शिला] एक महौषधि (ती (महा)। सुव (अप) देखो सुअ = श्रुत, सुत (भवि)। ५, राज)। "गर पुं [कर] सोने की सुलझ वि सुलब्ध] सम्यक् प्राप्त (णाया खान (णाया १, १७-पत्र २२८) र सुवंस पु[सुवंश] १ अच्छा बास । २ वि. १, १-पत्र २४; उबा)। पुं [कार] सोनो (उप पू ३५१)। देखो सुन्दर कुल में उत्पन्न, खानदानी (हे ४, मुलभ । वि [सुलभ] सुख से प्राप्त हो सके, ४१६) सुबन्न = सुवर्ण । सुलभ ) वह (था १२ सुख २, १५; महा)। सुवग्गु पु[सुवल्गु] एक विजय-क्षेत्र, जिसकी । सुषण्णाषLJ महा) सवग्ग पंसिबला एक विजय-क्षेत्र जिसकी सुवण्णविंदु पु[दे] विष्णु (दे ८,४०)।। सुलस [सुलस] पर्वत-विशेष (इक)। राजधानी खड्गपुरी है (ठा २, ३.-पत्र सुवण्णिा वि [सौवर्णिक] सुवर्ण-मय, सोने सुलस न [दे] कुसुम्भ-रक्त वन (दे ८, ३७) ८० इक)। का बना हुमा (हे १, १६०; षड् प्राक सलसमंजरी। स्त्री [दे] तुलसी (दे ८, ४० सुवच्छ पुं[सुबत्स] १ व्यन्तर-देवों का सुवच्छ पुंसुवर ३६) 10 सुलसा पान) एक इन्द्र (ठा २, ३--पत्र ८५)। २ एक सुवत्त देखो सुव्वत्त (राज) । For Personal & Private Use Only Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवन्न-सुवेल पाइअसहमइण्णवो ह२३ सुवन्न न [सुवर्ण] १ सोना (सं ५० प्रासू सुविउल वि [सुविपुल अति विशाल (उव) सुविर वि [स्वप्त] स्वपन-शील, सोने की २. कुप्र१, कुमा) । २ वि. सुन्दर अक्षरवाला सुविक्कम पु [सुविक्रम] भूतानन्द नामक प्रादतवाला (ोघभा १३३; दे ८. ३६)।(कुप्र १) कुमार [कुमार] भवनपति इन्द्र के हस्ति सैन्य का अधिपति (ठा ५, सुविरइय वि [सुविराचत] मच्छी तरह देवों की एक जाति (भग; सम ८३) १-पत्र ३०२; इक) घटित, सुघटित (उवा २०६)। कूलप्पवाय पुंकूलप्रपात] एक ह्रद सुविक्खाय वि [सुविख्यात] सुप्रसिद्ध (सुर सुविराइय वि [सुविराजित] सुशोभित जहाँ से सुवर्णकूला नदी बहती है (ठा २, ६,६४) (सुपा:१०) ३-पत्र ७२)- गार [ कार] सोनी सुविगा श्री [सुकिका, शुकी] मैना (उप सुधिराहिय वि सुविराधित] अतिशय (णाया १, 6-पत्र १४०; उप पृ ३५३) ९७३, ६७५) - विराधित (उव) जूहिया स्त्री [युथिका] लता-विशेष सुविज्जा स्त्री [सुविद्या] उत्तम विद्या (प्रासू सुविलास वि सुविलास] सुन्दर दिलासवाला (परण १७–पत्र ५२६) यार देखो ५३)। (सुर ३, ११४) 'गार (सुपा ५६५)। देखो सुवण = सुषिण देखो सुमिण (सुर ३, १.१ महा। सुविवेइय वि [सुविवेचत] सम्यग् विवेचित सुवर्ण ।। रंभा)। न्नु वि [s] स्वप्न-शास्त्र का (उव)। सुवन वि [सौवर्ण] सोने का बना हुआ जानकार (उप पृ ११६, सुर १०, ६८) । सुविवेच सक[सुवि+विच अच्छी तरह (कुप्र ४)। सुविगढ़ वि [सुविनष्ट] बिलकुल नष्ट (गा व्याख्या करना । संकृ. सुविवेचित (?य) सुवन्नालुगा श्री [दे] दतवन करने का ७४०)। (धर्मसं १३११)। पात्र--लोटा प्रादि (कुप्र १४०) सुविणिच्छिय वि [सुविनिश्चित] अच्छी सुविस वि [सुविकसित] अच्छी तरह सुवप्प [सुवा] एक विजय-क्षेत्र (ठा २, तरह निर्णीत (उव) । | विकसित (सुर ३, १११)। ३-पत्र ८०) सुविणिम्मिय बि [सुविनिर्मित 1 अच्छी सुविसत्थ ( [दे] व्यभिचारी पुरुष (वजा सुवयण न [सुवचन] सुन्दर वचन (भग)। तरह बनाया हुआ (णाया १,१-पत्र १२) ६८)। सुवर । (अप) देखो सुमर। सुवरइ, सुवँरहि सुविणीय वि [सुविनीत] १ अतिशय दूर सुविसाय पुन [सुविसात] एक देव-विमान सुवर(भवि पि २५१)। किया हुप्रा (उत्त १, ४७)। २ अत्यन्त (सम ३८)। सुवहु देखो सुबहु (प्राप)। विनय-युक्त (दस ६, २, ६)। सुविहाणा स्त्री [सुविधाना] विद्या-विशेष (पउम ७, १३७) सुवाय पुंन [सुवात] एक देव-विमान (सम सुवित्त न [सुवृत्त] अत्यन्त गोलाकार । सुविहि [सुविधि] १ नववाँ जिन भगवान् २ सदाचार, अच्छा प्राचरण (सुर १, २१)। (सम ८५; पडि)। २ पुंस्त्री. सुन्दर अनुष्ठान सुवास पुं(सुवर्ष] १ सुन्दर वृष्टि (उप सुवित्थड वि [सुविस्तृत प्रति विस्तारयुक्त (पएह २, ५ टी-पत्र १४६)। ३ न. ८४६) । २ छन्द-विशेष (पिंग)। (अजि ४०; प्रासू १२८ द्र ६८)। रामचन्द्र तथा लक्ष्मण का एक यानः 'चंकमणं सुवासणी देखो सुवासिणी (धर्मवि १२३)। सुवित्थिन्न वि [सुविस्तीर्ण] ऊपर देखो (सुर | हवइ सुविहि-नामेणं' (पउम ८०, ४) सुवासव ( [सुवासव] एक राज-कुमार १, ४५, १२, १)। सुविहिअ वि सुविहित] सुन्दर पाचरण(विपा २, ४). सुविधि देखो सुविहि (सम ४३)। वाला, सदाचारी (सम १२५; भास १, उत्र; सवासिणी स्त्री दे.सुवासिनी] जिसका सुविभज वि [सुधिभज] जिसका विभाग स १३०; साधं ११५; द्र ३२) पति जीवित हो बद स्त्रो (सिरि १५६)। अनायास हो सके वह (ठा ५, १-पत्र सुवीर [सुवर] १ यदुराज का एक पौत्र सुवाहा प[स्वाहा] देवता को हविष आदि २६६) । (अंत)। २ पुंन. एक देव-विमान (सम १२)।। मर्पण का सूचक अव्यय (सिरि १९७) सुविभत्त वि [सुविभक्त] अच्छी तरह सुवीसत्थ वि [सुविश्वस्त] अच्छी तरह सुविआजअ वि सुिव्यजित] विशेष रूप विविक्त (गाया १,१टी--पत्र ५ प्रौपः विश्वासप्राप्त (सुर ६, १५६; सुपा २११)।। से उपाजित (तंदु ५६)। | भग)। सुवुण्णा स्त्री [दे] संकेत, इशारा (दे ८, सुविअद्ध वि [सुविदग्ध] अत्यन्त चतुर सुविम्हिअ वि [सुविस्मित] अतिशय (नाट-रत्ना) | आश्चर्यान्वित (उत्त २०, १३)। सुबुरिस देखो सुपुरिस (गउड) । सुविइय वि [सुविदित] अच्छी तरह ज्ञात सुवियक्खण वि [सुविचक्षण] प्रति चतुर सुवे म [श्वस.] अागामी कल (हे २, (उव, सुपा ४०४)। (सुपा १५०)। ११४, चंडः कुमा) सुविउ वि सुविद्] अच्छा जानकार (श्रा सुवियाण न [सुविज्ञान] अच्छा ज्ञान, सुन्दर सुवेल पू[सुवेल] १ पर्वत-विशेष (से ८, २८)जानकारी, पंडिताई (सट्ठि १६) । ८०)।२न. नगर-विशेष (पउम ५४,४३)।। For Personal & Private Use Only Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ पाइअसहमहणणको सुवो-सुसिर सुवो देखो सुवे (षड ; प्राप) सुसंपरिग्गहिय वि [सुसंपरिगृहीत] खूब सुसर पृन [सुस्वर] १ एक देव-विमान (सम सुव्य न [शुल्ब] १ ताँबा, ताम्र (ती २)। अच्छी तरह ग्रहण किया हुमा (राय ६३) १७) । २ न. नामकर्म का एक भेद, जिसके २ र रस्सी । ३ जल-समीप । ४ प्राचार । सुसंपिगद्ध वि [सुसंपिनद्ध] खूब अच्छी उदय से सुन्दर स्वर की प्राप्ति हो वह कर्म ५ यज्ञ का कार्य (हे २, ७६) तरह बँधा हुआ (राय)। (सम ६७; कम्म १, २६, ५१)। देखो सुसंभंत वि [सुर भ्रान्त] अतिशय व्याकुल | सुस्सर, सुसर। सुव्वंत देखो सुग।। (उत्त २०, १३) सुसा स्त्री [स्वसू ] बहिन, भगिनी (सूम १, मुव्वत देखो मुव्यय (ठा २, ३--पत्र ७८) सुसंमिअ वि [सुसंभृत] अच्छी तरह संस्कृत ३, १, १ टी)। सुवन वि सुव्यक्त] स्फुट, सुस्पष्ट (अंत | (स १८६ उप ६४८ टी)। सुसा देखो सुण्हा = स्नुषा (कुमा)। २०; प्रौपः नाट-मृच्छ २८)। सुसंमय वि[सुसंमत] अच्छी तरह संमति सुसागय न [सुस्वागत] सुन्दर स्वागत सुबमाण देखो सुण । युक्त (सुर १०, ८२)। (भग). सुव्यय सत्रन]१ भारतवर्ष में उत्पन्न सुसंवुअवि [सुसंवृत] १ परिगत, | सुसागर पुन सुसागर] एक देव-विमान बीसवें जिनदेव, मुनिसुव्रत स्वामी (ती; सुसंवुड, व्याप्त । २ अच्छी तरह पहना। मात १९" (सम२) पव ३५)। २ ऐरवत वर्ष के एक भावी । हुपा (गाया १,१-पत्र १६; पि २१६)। सुसाण न [ श्मशान ] मुर्दाघाट, मरघट जिन देव (सम १५४)। ३ छठवें जिनदेव के ३ जितेन्द्रिय । ४ रुका हुमा (उत्त २, ४२) (णाया १.२-पत्र ७६: हे २,५६ स गरणधर (१५२)। ४ एक जैन मुनि जो सुसंहय वि [सुसंहत] अतिशय संश्लिष्ट ५६७; धा १४; महा)। तीसरे बलदेव के पूर्व जन्म में गुरु थे (पउम (प्रौप) । | सुसामण्ण न [सुश्रामण्य] अच्छा साधुपन २०, १९२)। ५ आठवें बलदेव के धर्म-गुरु सुसज्ज वि [सुसज्ज अच्छी तरह तय्यार (उवा)। (पउम २०,२०६)। ६ भगवान् पाश्वनाथ (सुपा ३११) सुसाय विसुस्वाद] स्वादिष्ठ, सुन्दर स्वादका मुख्य श्रावक (कप्प)। ७ एक ज्योतिष्क सुसण्णप्प देखो सुसन्नप्प (राज) वाला (पउम ८२, ६85 १०२, १२२) । महा-ग्रह (राज)। ८ एक दिवस का नाम | सुसद वि [सुशब्द] १ सुन्दर प्रावाजवाला। सुसाल पूंन[सुशाल ] एक देव-विमान (प्राचा २, १५, ५, कप्प) । न. एक २ प्रसिद्ध, विख्यात (सुपा ५६६) । (सम ३५)। गोत्र (कप्प) । १० वि. मुन्दर व्रतवाला (पव ३५), 'गि ' [ग्नि] एक दिवस का सुसन्नप्प विसुिसंज्ञाप्य] सुख-बोध्य (कस) सुसाग। [सुश्रावक] अच्छा श्रावकनाम (कप्प) । सुसमत्थ वि [सुसमर्थ] सुशक्त, अतिशय सुसावय ) जैन गृहस्थ (कुमा; पडि द्र २१)।सामथ्यंवाला (सुर १, २३२) । सुसाय देखो सुसंय (पएह १, ४-पत्र सुव्यया स्त्री [सुव्रता] १ भगवान् धर्मनाथ को माता (सम १५१) । २ एक जैन साध्वी | सुसमदुरुसमा। स्त्री सुषमदु प्षमा] काल सुसमदूसमा । विशेष, अवपिणी-काल सुसाहु पुं [सुसाधु] उत्तम मुनि (परह २, (सुर १५, २४७; महा)। का तीसरा और उरिणी का चौथा पारा १-पत्र १०१; उव)। सुविआ श्री [दे] अम्बा, माता (दे ८० ३८)- (हक; ठा २, ३-पत्र ७६)। सुसिअ वि [शुष्क] सूखा हुमा (सुपा २०४६ सुस देखो सृस; 'सृसइ व पंकं न वहति सुसमसुसमा स्त्री सुषमसुषमा] काल-विशेष, कुप्र १३)। निज्झरा वरहिणो न नच्चंति (वजा १३४ । अवसपिणी का पहला और उत्सपिणी का सुसिअ वि [शोषित] सुखाया हुमा (महा: भवि) । कृ. सुसियव्व (सुर ४, २२६)। छठवां पारा (इक, ठा १-पत्र २७)। वज्जा १५०; कुप्र १३)। सुमंगद वि [सुसंगत अति-संबद्ध (प्राकृ ससमा श्रीसपमा१ काल-विशेष, प्रव-सुसिक्खिअ वि [सुशिक्षित अच्छी तरह १२) । सपिणी का दूसरा और उत्सर्पिणी का पांचवाँ शिक्षा को प्राप्त (मा २०)। सुसुमिअवि [सुसंयमित] अति-नियन्त्रित । पारा (ठा २, ३-पत्र ७६; इक) । २ सुसिणिद्ध वि सुस्नग्ध अत्यन्त स्नेह-युक्त छन्द विशेष (पिंग)। (सुर ४, १६६) सर्वडिआ स्त्रीदे] शुला-प्रोत मास (दे, सुसमाहर सक [सुनमा + ह] अच्छी तरह ससिस्थ देखो सुत्थ = सौस्थ्य (संक्षि १२) । ग्रहण करना । सुसमाहरे (सून १, ८, २०) । ससिन्न वि [सुशीर्ण] अति सड़ा हुआ (सुपा सुसं वि [सुसत्क] अति सुन्दरः 'अहो | सुसमाहिअ वि[सुसमाहित] अच्छी तरह YEE जगा कुणह तवं मुसंतय' (पउम , ५६) समाधिसंपन्न (दस ५, १, ६ उत्त २०, ४)। ससिर विशिषिर१पोला, खाली। छछा मुसंनिविट्ठ वि [सुसंनिवि] अच्छी तरह सुसमिद्ध वि[सुसमृद्ध] अत्यन्त समृद्ध (उप ७२८ टी; कुप्र १९२)। २ पुंन. एक स्थित (सुपा १३३)। (नाट-मृच्छ १५६)। देव-विमान (सम ३७)। अयससमा त्री सुषमा सुर ४, २२६ For Personal & Private Use Only Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुसिलिट्ठ - सुहंभर सुसिलिट्ठ संबद्ध (सुर १० ८२३ पंचा १८, २३ ) | [ सुश्लिष्ट ] सुसंगत, प्रति सिस [सुशिष्य ] उत्तम चेला (उप पृ ४०६) । सुसीज [सुमीत] [पति शीतल (कुमा) सुसीम न [ सुसीम ] नगर- विशेष (उप ७२८ टी) सुसीमा श्री [सुसीमा ] १ भगवान् पद्मप्रभ की माता (सम १५१ ) । २ कृष्ण वासुदेव की एक पत्नी ( अंत १५) । ३ वत्स नामक विजय क्षेत्र की एक राजधानी (ठा २, ३- पत्र ८० ) IV सुखोन्द्र म] [सुशीख] उत्तम स्वभाव (म १४, ४४ ) । २ वि. उत्तम स्वभाववाला, सदाचारी (शा) [व] सदाचारी (पउम १४; ४४ प्रासू ३६) सुसु [ [ [शिश ] बच्चा, बालक मार पुं [" मार] जलचर प्राणी की एक जाति, महिषाकार मत्स्य विशेष ( पि ११७ ) । मारिया स्त्री [मारिका ] वाद्य-विशेष (राय ४६) सुमार । सुरज पुंग [सुसूर्य] एक देव-विमान (सम १५) । - सुसुमार [सुसुमार] जलचर जन्तु की एक जाति (जी २ ) । देखो सुसु-मार सुमुध[सुसुगन्ध] १ सुगन्धी अत्यन्त ( पउम ६, ४१ गउड ) । २ पुं. प्रत्यन्त खुशबू (गउड) 1 सुसुर देखो ससुर (धर्मवि ११४ सिरि २२४२४ ३४००१८८) सुसूर म [सुसूर] एक देव-विमान (सम 80) 1~ पाइअसहमणव सुसोह वि [ सुशोभ ] अच्छी शोभावाला (सुपा २७५) । सुसोहिय वि [ सुशोभित ] शोभा संपन्न, समलंकृत ( उप ७२८ टी) IV सुरसूसणया स्त्री [शुश्रूषणा ] ऊपर देखो सुसुकर [सुशुभङ्कर ] छन्द का एक भेद सुम्सुमणा ( उत्त २६, १ श्रपः गाया (पिंग) १, १३ – पत्र १७८) IV मुख [ [ [प] सूखा (सूच 10 १, २, १, १६) । वक्कू. सुस्संत (स १६६) । सुसमण [सुक्षमण उत्तम दा सुस्सर वि[सुस्वर ] सुन्दर आवाजबाला (सुपा २८९) । देखो सुमर 1 सुसरा स्त्री [सुस्वरा ] गीतरति तथा गीतयश नाम के गन्धर्वेन्द्रों की एक एक श्रग्रमहिषी का नाम (ठा ४, १ पत्र २ ४६ इक) सुरसार वि[सुसार ] सार-युक्त (वि) 1 सुस्सा देखो सुसाबग (उव श्रा १२ ) सुरसाय सुसी देखो सुनी (मृषा ११० ५०० ० ) | सुरसुग देखो सुसुअ (राज) 1 सुस्सुयाय अक [ सुसुकाय, सूत्कार ] सु सु श्रावाज करना, सूत्कार करना । संकु. सुरसुयाइन्ता (उत्त २७, ७) 1 सुरसूत्री [व] सासू (बृह २) | सुरसूख तक [शुश्रू] सेवा करना। सुस्सूसइ ( उब महा) । कु. सुस्सू संत, सुस्सुसमाण ( कुलक ३४; भग; औप ) कृ. सुस्सूसिदुं (शौ ) ( मा ३६ ) IV सुरसूस वि[ष] सेवा करनेवाला (कप्पू) सुरण 7 [शुश्रूषण] देश, शुश्रूषा (प्र २४७ रत्न २१ ) सुस्सा श्री [शुपा]] ऊपर देखो (पा १२७) सुसे | [सुपेण] १ सुग्रीव का श्वसुर (से ४, ११, १३, ८४) । २ एक मंत्री ( विपा १, ४ पत्र ५४ ) ३ भरत चक्रवर्ती का मन्त्री (राज) सुसेण, स्त्री [सुषेणा] एक यो नदी (डा | सुद्द देखो सुभ (हे २ २६ ३० कुमा ५, ३ – पत्र ३५२) । २०२१) अ [द] सुह देखो सोह = शुभ् । सुहइ ( वज्जा १४; पिंग) [सुख] सुखी करना । सुहइ (पिंग), गुद्देवि (शी) (E) IV For Personal & Private Use Only ६२५ मंगलकारी (कुमा) कम्मिवि [र्मिक] पुण्यशाली (वि)[म] मङ्गल की चाहवाला ( सुपा ३२६) गर वि [कर ] मङ्गल-जनक ( कुमा) गामा ["नामा] पक्ष की पांचवीं, दसवीं तथा पनरहवीं रात्रि तिथि ( सुज्ज १२, १५) [न] १ शुभेच्छक (भग) । २ शुभ वाला (गाया १, १ - पत्र ७४) । ४ 'द देखो 'अ (कुमा) I २ सुह न [सुख] १ प्रानन्द चैन मजा । प्राराम, शान्ति (ठा २, १ - ११ ४७, ३, १ – पत्र ११४; भगः स्वप्न २३ प्रासू १३३; हे १, १७७ कुमा) । ३ निर्वाण, मुन्द्रि (२४४३० ३४४४ ) । ५ सुख-प्रद, सुख-जनक (गाया १, १२ –पत्र १७८ श्राचा कम्म १. । ६ अवि [*५] ५१) अनुकूल (खाया है, १२) । ७ सुख (३१६) - दायक (सुर २, ९५; सुपा ११२: कुमा) । इस वि[[व] सुखी (पि ६०) रवि [र] मुख (१९७७) कामिवि [ "कामिन् ] सुखाभिलाषी (प्रोव ११६ स्थवि [न] वही (श्राचा) द वि [द] सुख-दाता (वै १०३ कुमा) - दाय वि ["दाय ] वही (पउम १०३, १६२) फंस वि [स्फर्श ] कोमल (पाप) यर देखो कर (हे है, १७७ कुमाः सुपा ३ ) संझा श्री [" सन्ध्या ] सुख जनक सायंकाल (कप्पू ) वह वि [ वह ] १ सुख जनक (श्रा २८ उव; सं ६७ ) । २ पुंन. एक पर्वत शिखर (ठा २, ३ - पत्र ८०) सण न [सन ] श्रासन - विशेष, पालकी (सुर २, ६ सुपा २७८ कप ) सिया स्त्री [सिका ] सुख से बैठना, सुखी स्थिति (प्रा) सुहउत्थि स्त्री [दे] दूती (८, 8) सुहंकर वि [सुखकर ] सुख-कारक (सिरि १६. कुमा सुकर व [शुभकर ] १ शुभ कारक (कुमा) । २ पुं. एक वणिक् का नाम (उप ५०७टी) 1 सुदर वि [सुखम्भर] सुखी (गउड Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ सुहग देखो सुभग ( रयण ४० गा ६६ नाट - मालवि २८) सुद[सुट] योद्धा (गुर २ प्रासू ७४; सरण) 1 सुहड वि [सुहृत] अच्छी तरह हरण किया हुआ (दस ७, ४१) सुदस्य [सुस्त ] हा हाथ की लघुतावाला हाथ से शीघ्र शीघ्र काम करने में समर्थ ( से १२, ५५) । २ दाता, दानशील (भवि) 1 सुहत्थि पुं [ सुहस्तिन् ] १ गन्ध- हस्ती ( या १, १ - पत्र ७४; उवा)। २एक जैन महर्षि (कप्प: पडि) 1 २६ मा 1 सुहद्द न [सौहार्द] १ स्नेह र मित्रता (भवि ) । सुक्ष्म न [सूक्ष्म] १ फूलपुरुष १ ३६) । २ देखो सह, सुडुम - सूक्ष्म (हे २, १०१३ चंड) | सुहम्म[सुधर्मेन] १- भगवान् महावीर का पट्टधर शिष्य (विपा १. १ - पत्र १ ) । २ बारहवें जिनदेव का प्रथम शिष्य ( सम १५२) । ३ एक यक्ष का नाम (विपा १, १ - पत्र ४ १, २ – पत्र २१ ) + सामि [["स्वामिन] ] भगवान् महावीर का पट्टधर शिष्य (भग)। देखो सुधम्म M सुहम्म° देखो सुहम्मा व पुं [पति इन्द्र (महा) ] सुहम्ममाण वि[सुहन्यमान ] जो अच्छी तरह मारा जाता हो वह (पि ५४० ) । दम्मा की [सुधर्मा] पमर आदि इन्द्रों की सभा, देव-सभा (सम १५; भग) सुहय देखो सुह-अ = सुखद, शुभ-द सुदय देशो सुभगः सहेका २७२ बुमा सुहय [वि] [सुरत]] अण्डी तरह जो मारा गया हो वह (कुप्र २२६) । पाइअसहमण्णषो सुहग सूअ सुहाय पुं [दे] १ वेश्या का घर । २ चटक, सुहिरण्णा श्री [सुहिरण्या, व्यिका ] गैरैया पक्षी (दे ८,५६) । सुहिरणिया वनस्पति-विशेष, ( पुष्प-प्रधान ) सुरझिया कृत-विशेष (राम २१ राज परह १७ - पत्र ५२६ ) । सुद्धी श्री [दे] सुत्र, बानन्द (२६) सुदयदेखी सुभग (६६) स्त्री थी (प्रा३७) । सुहिरीमण वि [ सुमनस ] श्रत्यन्त लज्जालु, अतिशय शरमिन्दा (सूत्र १४, २, १७ राम) - = सुहा अक [ सु + भा ] अच्छा लगना, सुहाइ गोमईएस (१५२) मुद्दा देखी हुद्दा तुषा (स २०२० साउन [] कारखाना (आाचा २, २, २, ६) । [ हार] देव, देवता ( स ७५५) । सुहा न मा सुहि पुं [सुहृद् ] मित्र, दोस्त (ठा ४, सुदिन ३ - २४२ खाया १, २ ३---पत्र २४३; गाया १, २ पत्र ६०; उत्त २०, ६ सुर ४, ७६६ सुपा १०७ ४१६; प्रयौ ३६; सुर ३, १५४, भवि सुदिवि [सुखत] -युक्त (से २, सुखी, ८ गा ४१८ः कुत्र ४०६६ उवः कुमा) । सुहिअ वि [सुहित ] १ तृप्त ( से २, ८) । २ सुन्दर हितवाला (धर्मं २ ) ।~ सुहर वि [सुझर] सुख से भरने योग्य (दस सुट्ठि वि [सुहृष्ट] प्रति हर्षित (उप ७२८ ८, २५) सुहरअ देखो सुहराव ( ब ) (षड् सुदरा श्री [4. सुदा] पक्षि-विशेष, सुपरी ( से ८,३६) । का हार पुं सुहाअ सुहाय [सुखाय ] सुख पाना । २ सक सुखी करना । सुहाइ, सुहाई, सुहावइ, सुहावेइ (भवि वज्जा ( से १, गा ६१७पि ५५८ से १२, ८६ १६४ भवि उव) । वकृ. सुदाअं २८ नाट - रत्ना ६१ ) सुहाव देखो सहाव = स्वभाव (गा ५०८; वज्जा १०) ४ पण [सुखायन] स-जगत ( वि भावि) 1 सुहावय वि [सुखायक] ऊपर देखो (चज्जा ४६४ भवि मुद्दासिय वि[सुभाषित] सम्ब उक ( परह १, १ - पत्र १) । २ न. सुन्दर वचन, सूक्त (७६१ पा ५१४) सुदिप []] (२१२ सुख-युक्त (सुपा ४३१) । For Personal & Private Use Only टी) । सुहिर देखो सुसिर 'अनाहि तो सुहिर व चरणाचाहि धर्मन १२४० ( रंभा ) । - सुदिहिया देो सुरेहि रसं सुराम्रो' (भत्त १४२) सुही वि [सुधी] पंडित, विद्वान् (सिरि ४० ) । मुटु वि[क्ष्म] बारीक अत्यन्त छोटा २ तीक्ष्ण (हे १, १८२, ११३३ कुमा जी १४) । ३ पुं. भारत वर्ष के एक भावी कुलकर पुरुष (सम १४३) ४ एकेन्द्रिय जीव-विशेष (ठा ८ कम्म ४, २, ५ ) । ५ न कर्म-विशेष (सम) संपराग ६ । संपरा पुन [ संपराय ] १ चारित्र - विशेष (ठा ५, २ – पत्र ३२२ ) । २ दशवाँ गुरणस्थानक (सम २६) । देखो सण्छ, सुहम = सूक्ष्म सुवि[सुहुत] [छी तरह होम किया हुआ (२६० टी. कप्पः श्रौष) 1 सु[ि.] सुख, धान्य, मजा (दे ८ ३६ पागा १०८ २११; २६१ २८८ ३६८ ५५६; ८६४ स ७२)। मुसिव [सुपिन] सुखाभिलाषी (पा २२७) सुन्दा अध्यय (नाट) - सृअ सक [ सूचय ] १ सूचना करना । २ जानना । ३ लक्ष करना । सूएइ, सूअंति मोसे १३६८ २४८ उड पिंड ४१७) कर्म सूरज (गा ३२९ ) । बकु सूर्यंत सूत (२६६ व (१०) अन्य (से १०, २८ ) 1 सूत्र [द] रसोइया (महा) सूअ [सृत] १ सारथि, रथ हाँक्नेवाला ( पाच ) । २ वि. प्रसूत, जिसने जन्म दिया हो वह 'सु( सू गोधर (१, ३, २, ११) गड पुंन [कृत ] दूसरा जैनगन्य (सुपनि २ ) - Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह२७ म २ (दस दिया सूअ---सूर पाइअसद्दमहण्णवो सूअ [शूक] धान्य प्रादि का तीक्ष्ण अग्र सूइ स्त्री [सूचि देखो सूई (प्राचाः सम सूणिय वि [शूनिक १ सूजन का रोगवाला. भाग (गउडः गा ५६८) १४६; राय २७)। जिसका शरीर सूज गया हो वह । २ न. सूअ वि [शून फुला हुमा, सूजनवालाः 'स्य सूहअ वि सूचित] जिसकी सूचना की गई सूजन (प्राचा)। मुहं सुग्रहत्थं सयपा' (विपा १.७-पत्र हो वह (महा)। २ उक्त, कथित (पास) सणुपं सना पुत्र, लडका (कप्र ३१६)। ३ व्यजनादि-युक्त (खाद्य) (दस ५, १, १८) । सूतक देखो सूअय = सूतक (वव १) सूअ [सप] दाल (पंव ६१, टीः उवाः । सूइअ वि सूत प्रसूत, जिसने जन्म दिया। पएह २, ३-१२३, सुपा ५७) गार, हो वह, व्यायी. साणं सूइयं गावि' (दस सूप दखा सूअ = सूप (परह २, ५-पत्र 'यार, पुं[कार) रसोइया (स १७; कुप्र ५,१.१२) ५, १. १ ६६ ३४ श्रावक ६३ टी) रिणी स्त्री सूइसचिका दरजी (कूप्र ४०१) सूभग देखो सभगः 'सूभग दूभगनामं सुसर [कारणी] रसोई बनानेवाली स्त्री (पउम सूरपु सूइअ पु[दे] चण्डाल (दे ८, ३६) तह दूसरं चेव' (धर्मसं ६२ श्रावक २३)। चरनाल (, २६) सूइय न [सुन] निद्रा; 'सेजं प्रत्थरिऊण सूभग देखो सोभम्ग (पिंड ५०२) ।। सूअ देखो सुत्त = सूत्र गड पुन [कृत] | अलियसूइयं काऊण अच्छति' (महा)। समाल देखो सुरमाल (पएह १, ४-पत्र दूसरा जैन अंग-ग्रन्थ; 'पायारो सूयगडो' (सूत्र सूइय वि [दे सूप्य, सूपिक] भीजा हुआ ७८ णाया १.१--पत्र ४७; १,१६-पत्र २. १, २७. सम :)। (खाद्य); 'प्रवि सूइयं वा सुकं वा' (प्राचा) । २०० कप्पः सुर १३, ११८ कुप्र ५५) । सुअअ. वि [सूचक १ सूचना करनेवाला सूइया स्त्री सूतिका] प्रसूति-कर्म करनेवाली सूर सक[भञ्] तोड़ना, भांगना। सूरइ सअक (वेणी ४५, श्रा ११, सुर २, स्त्री (सम्मत्त १४५) सूअग । २२६) । २ पुं. पिशुन, खल, दुर्जन सूई स्त्री [सूची] कपड़ा सीने की सलाई, सूई सूर वि [शूर] पराक्रमी, वीर (ठा ४, (पएह १, २--पत्र २८)। ३ गुप्त दूत, (पराह १, ३-पत्र ४४ गा ३६४,५०२)। ३-पत्र २३७; कप्प; सुपा २२२, ४१२, जासूस (प्राप्र)। २ परिमारण-विशेष, एक अंगुल लम्बी एक प्रासू ७१) । २ पृ. एक राजा (सुपा ६२२)। सूअग, न [सूतक] सूतक, जनन और मरण प्रदेशवाली श्रेणी (प्रण १५८)। ३ दो तख्तों ३ पुंन. एक देव-विमान (देवेन्द्र १४३)। सूअय । की अशुद्धि (पंचा १३, ३८ वव के जोड़ने के काम में प्राती एक तरह की सेण पुसेन] एक भारतीय देश, जिसकी पतलो कील (राय २७, ८२) फलय न प्राचीन राजधानी मथुरा थी (विचार ४६; सूअण न [सूचन] सूचना (उवः सुर २, [कलक] तख्ते का वह हिस्सा, जहाँ सूची पउम ६८,६६; तो १४ विक्र ६, सत्त २३३)। कीलक लगाया गया हो (राय ८२) मुह पं ६७ टी)। २ ऐवत वर्ष के एक भावी जिनसूअर दुशूकर] सूअर, वराह (उवाः विपा [मुख] १ पशि-विशेष (पएह १. १-पत्र देव (सम १५४)। ३ एक जैनाचार्य (उप १, ३-पत्र ५३; प्रयौ ७०) वल्ल पुं ८)। २ द्वीन्द्रिय जन्तु की एक जाति (पएण ७२८ टो। ४ भगवान आदिनाथ का एक [वल्ल] अनन्तकाय वनस्पति-विशेष (पव ४ | १-पत्र ४४)। ३ न. जहाँ सूची-कीलक तख्ते का छेद कर भीतर घुसता है उसके पुत्र (ती १४) श्रा२०) सूअरिअ वि [दे] यन्त्र-पीड़ित (दे ८, ४१ समीप की जगह (राय ८२)। सूर [सूर, सूर्य] १ सूर्य, रवि (हे २, ६४ ठा २, ३-पत्र ८५, उव; सुपा २२२; टी)। सूई स्त्री [दे मंजरी (दे ८, ४१) । सुरिया, स्त्री [दे] यन्त्र-पीड़ना (सुर १३, सूई देखो सूइ = सूति (सुपा २६५)। ६२२: कप्प; कुमा) । २ सतरहवें जिन देव सूअरी १५७; दे ८, ४१)। का पिता (सम १५१)। ३ इक्ष्वाकु-वंश का सूड सकभञ्ज , सूदु] भागना, तोड़ना, सूअल न दि] किंशारु, धान्य का तीक्ष्ण एक राजा (पउम ५, ६)। ४ एक लंकाविनाश करना । सूडइ (हे ४,१०६)। कर्म. अग्र भाग ( दे ८, ३८) पति (पउम ५, २६३)। ५ एक द्वोर का सूडिजंतु (परह १, २-पत्र २६)। नाम (सुज्ज १९)। ६ एक राजा (सुपा सूआ श्री [ सूचा] सूचन, सूचना (पिंड सूडण न [सूदन] १ भजन, विनाश (गउड)। ५५६) । ७ छन्द का एक भेद (पिंग) ८ ४३७ उप ५०; सूअनि २) + कर वि २ वि. विनाशक (पव २७१)। पुन. एक देव-विमान (सम १०) अंज, [कर] सूचक (उप ७६८ टी)। सूग वि [शून] सूजा हुअा, सूजन से फुला हुआ। 'कत पुं[कान्त १ मणि-विशेष (स ६, सूआ, स्त्री सूति] प्रसव, प्रसूति, जन्म (पउम १०३, १४८; गा ६३६; स ३७१, ५०; पउम ३, ७५, पएण १-पत्र २६; सूइ (पउम २६, ८५, १, ६१, सुपा ४८०) ! उत्त ७७) । २ पुंन. एक देव-विमान (देवेन्द्र २३)+ कम्म न [कर्मन] प्रसव-क्रिया (सुर | सूर्ण स्त्री [सूना] वध-स्थान (निर १, १; १४४; सम १०) कूड पुंन [°कूट] एक १०, सुपा ४०)। हर न [गृह] प्रसूति- सूणा ) मा ३४ कुप्र २७६) वइ पुं| देव-विमान-देव-भवन (सम १०) उभय गृह (पउम २६, ८५) [पनि] कसाई (दे २,७०) पुंन [वज] एक देव-विमान (सम १०) For Personal & Private Use Only Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२) ६२८ पाइअसहमहण्णवो सूरंग-सूसिय 'दीव पुं[द्वीप] द्वोप-विशेष (इक)। देब सूरद्धय दे] दिन, दिवस (दे८, ४२ (कुप्र ३७)। पृ. ब. देश-विशेष (पउम ९८, पु[दव] आगामि उत्सपिणी-काल में होने- षड् ) ६५) पाणि पु [पाणि] यक्ष-विशेष वाले भारतवर्ष के दूसरे जिनदेव (मम १५३) सुरल्लि पुत्री दे]१ मध्याह्न, दुपहर का समय (कम ५), धर पु[धर] शिव, महादेव पन्नत्ति स्त्री [ प्रज्ञप्ति] एक जैन उपाङ्ग(दे ८,५७; षड्)।२ कीट-विशेष, मशक (पिंग)। ग्रंथ (ठा, २-पत्र १२६) परिवेस पुं। के समान प्राकृतिबाला कीट (दे ८, ५७)। सूलच्छ न [दे] पल्वल, छोटा तालाब (दे [परिवेष] मेघ प्रादि से होता सूर्य का वल ३ तृण-विशेष, ग्रामणी नामक तृण (दे ८, ८, ४२) ।" याकार मंडल (अणु १२०). पव्वय पु ५७; जीव ३, ४: राय) सूलत्थारी स्त्री [दे] चण्डी, पार्वती (दे८, ["पर्वत] पर्वत-विशेष (ठा २, ३-पत्र सूरि पुरि ] आचार्य (जी १; सण) ८०) पाया स्त्री [पाका] सूर्य के किरण से होनेवाली रमोई (कुप्र ६६) 'प्पभ | सूरिअ वि (भन] भाँगा हुआ (कुमा)। सूला स्त्री [शूला] शूली. सुतीक्ष्ण लोह-कंटक पुंन प्रभ] एक देव-विमान (सम १०) सूरिअ देखो सुज (हे २, १०७; सम ३६; | (गा ६४; उप ३३६ टी; धर्मवि १३७)। cपमा, पहा स्त्री [प्रभा] १ सूर्य की भगः उप ७२८ टी), कंत पु [कान्त] | इय वि [चित, "तिग] शूली पर चढ़ाया एक अग्र-महिषी (इक, रणाया २--पत्र प्रदेशि-नामक राजा का पूत्र (भग ११, हुया (गाया १,६-पत्र १५७, १६३ २५२)। २ ग्यारहवें जिनदेव की दीक्षा- ६-पत्र ५१४: कुप्र १४:) कंता स्त्री | राय १३४)। शिविका (सम १५१)। ३ पाठवें जिनदेव कान्ता] प्रदेशी राजा की पत्नी (कुप्र सूला स्त्री [दे] वेश्या, वारांगना (दे ८, की दीक्षा-शिविका (विचार १२६) 'मल्लिया। १४६) पाग पुंस्त्री [पाक सूर्य के ताप स्त्री [ मल्लिका वनस्पति-विशेष (राय ७६) से होनेवाली रसोई (कुप्र ७०) । स्त्री. गा साल वि [शलिन १ शूल-रोगवाला; 'जह °मालिया स्त्री [ मालका] प्राभरण-विशेष (कुप्र ६८) लस्सा स्त्री [°लेश्या] सूर्य की विदलं सूलीण' (वि ३)। २ पु शिव, महादेव (प्रौप)। लेस पुन [°लेश्य] एक देव- प्रभा (सुज्श ५–पत्र ७६) भ पुं[भ] (पान) विमान (सम १०) वक्रय न | वक्रण] १ प्रथम देव लोकका एक देव (राय १४; धर्मवि आभूषण-विशेष (प्रौप)। वर पु [वर] १ ६)। २ पुंन. एक देव-विमान । ३ न, सूर्याभ । सूलिया स्त्री [शूलिका] शूलो, जिसपर वध्य एक द्वीप । २ एक समुद्र (सुज्ज १९) देव का सिंहासन (राय १४) वित्त को चढ़ाया जाता है (पएह १, १-पत्र 'वर भास पु [°वरावभास] १ द्वीप- [वर्त] मेरु पर्वत (सुज्ज ५, इक), वरण विशेष । २ समुद्र-विशेष (सुज्ज १९) पुं[वरण] मेरु पर्वत (सुज्ज ५; इक) सूब पृ[सूप] दाल (उवा; मोघ ७१४; चारु 'वल्ली स्त्री [°वल्ली] लता-विशेष (परण १- सूरिल [दे] श्वशुर पक्ष (?), 'महंतं मे | ६: पिड ६२४: पंचा १०, ३७)। यार, पत्र ३३), वेग पु ["वेग] एक राज- सोयणं ति साहिऊरण सुरिलस्स समागमो र पुं [कार] रसोइया, रसोः बनानेवाला कुमार (उप १०३१ टी)- सिंग पुन चं' (स ५१०) नौकर (पउम ११३, ७; सुर १६, ३८; [शृङ्ग एक देव-विमान (सम १०) सुरिस देखो सुउरिस (हे 1, ८) उप ३०२)। 'सिट्ठ पुन [सृष्ट] एक दैव-विमान (सम सूरुत्तरवडिंसग न [सूरोत्तरावतंसक] सूस अक [शुष्] सूखना। सूसइ, सूसंति, १०)। सिरी स्त्री ["श्री] सातवें चक्रवर्ती एक देव-विमान (सम १०)। सूसइरे (हे ४, २३६ प्राकृ ६८ कुमा ३७४, की स्त्री (सम १५२) सुअ पु [सुत] शनैश्चर-ग्रह (हाट-मृच्छ १६२) भ सूरुल्लि देखो सूराल्ल (राय ८० टो)। सूसर वि सुस्वर] १ सुन्दर अावाजवाला पुंन [भ] एक देव-विमान (सम १४, पव सूरोद पु[सरोद एक समुद्र (सुज्ज १९) (सुर १६, ४६) । २ न. नामकर्म का एक २६७) वित्त पुंन [विते] एक देव- सरोदय न [सरोदय नगर-विशेष (पउम ८, भेद, जिससे सुन्दर स्वर की प्राप्ति हो वह विमान (सम १०) । देखो मुज्ज । १८६)। कर्म (धर्मसं ६२० श्रावक २३; कम्म २, सूरंग पुंदे] प्रदीप, दीपक (दे ८, ४१ सरोवराग पू । सरोपराग 7 सूर्य-ग्रहण २२)M परिवादिणी स्त्री [परिवादिनी] षड् ) । (भग) एक तरह की वीणा (पण्ह २, ५--पत्र सूरंगय [सुराङ्गज] एक राजा (उप सूल पुंन [शूल] १ लोहे का सुतीक्ष्ण काँटा, १४६) १:३१ टी) शूली (विपा १, ३-पत्र ५३; प्रौप) । शत्र । सूसास वि [सोच्छ्वास] ऊर्व श्वासवाला सूरण पृद. सूरण] कन्द-विशेष, सूरन, प्रोल विशेष, त्रिशूल (पराह १, १--पत्र १८ (हे १, १५७ कुमा) । (दे ८, ४१ परण १--पत्र ३६, उत्त ३६ कुमा)। ३ रोग-विशेष (प्रासू १०५)। ४ सूसिय वि [शोपित] सुखाया हुप्रा (सुर ९६; पंचा ५, २.)। बबूल प्रादि का तीक्ष्ण अग्र भागवाला काटा १५, २४८) For Personal & Private Use Only Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ सूसुअ-सेज्जंस पाइअसहमहण्णवो सूसुअ वि [सुश्रुन] १ अच्छी तरह सुना ४३०; राय ९) कंठ ( [कण्ठ] सेआल देखो सेबाल = शैवाल (से २, ३१) ।। हुआ। २ अच्छी तरह ज्ञात (वज्जा १०६)। भूतानन्द नामक इन्द्र के महिप-सैन्य का। सेल देखो सेअल = एष्यत्-काल। ३ पृ. वैद्यक ग्रन्थ-विशेष (वज्जा १०६) ।। अधिपति (ठा ५, १-पत्र ३०२, इक) सेआल पं[६] १ गांव का चुखिया । २ सूहा। देखो सुभग (संक्षि २०, हे १, पड, 'वड पुं ०] श्वेताम्बर जैन, जैन सांनिध्य करनेवाला यक्ष प्रादि (दे ८,५८)। सूहव) ११३; १९२) . का एक संप्रदाय (सुपा ६४१; विते २५८५; ३ कृषक, खेतो करनेवाला गृहस्थ (पान)। से देखो सेअ = श्वेत 'वड पु[पट] धर्मसं ११०६) सेआली स्त्री दूर्वा, दूब, दूभ (दे ८,२७)।। श्वेताम्बर जैन (सम्मत्त १३७)। सेअ वि [ष्यत् ] आगामी, भविष्या 'पभू रणं भंते केवलो सेयकालसि वि तेसु चेव से प्र[दे) इन अर्थों का सूचक अव्यय सेआलु पुदे मनौती की सिद्धि के लिए १ वाक्य का उपन्यास । २ प्रश्न (भग १, धागासपदेसेसु हवं वा जाव प्रागाहित्ताणं उत्सृष्ट बैल (दे ८, ४४) से इअ त [स्वेदित] पसीना (भवि) चिट्ठित्तए' (भग ५, ४-पत्र २२३, ठा १; उवा)। ३ प्रस्तुत वस्तु का परामर्श (उत्त २, ४०; जं.)। ४ अनन्तरता (ठा १०--पत्र ४६५: अण २१) 4 ल सेइआ स्त्री [पेतिका] परिमाण-विशेष, १०-पत्र ४६५) । [काल भविष्य काल (भगः उत्त २६, ७१)M सेइगा । दो प्रकृति की एक नाप (तंदु २६; से । प्रक [शी] सोना। सेइ, सेपइ सेअंकर पुज्यन्सरज्योतिष्क ग्रह-विशेष उप पृ ३३७ अणू १५१) । से ( षड्) (ठा २, ३–पत्र ७८) । सेउ पुन [सेतु] १ बाँध, पुल (से ६, १७; कुप्र २२०; कुमा)। २ पालवाल. कियारी, सेअ सक [सिच् ] सींचना। सेमइ (हे सेअंकार [ध्यस्कार श्रेयः-करण, 'श्रेयस्' | का उच्चारण (ठा १०--पत्र ४६५)। थांवला । ३ कियारी के पानी से सींचने योग्य खेत (औप; णाया १, १ टी-पत्र १)। से दे] गणपति, गणेश (दे ८, ४२) सेअंबर लाम्बर] १ एक जैन संप्रदाय ४ मार्ग (प्रौपा गाया १, १ टी-पत्र १; सेअ पु[सेय] १ कर्दम, कोदो, पंक (सन (सं २ सम्मत्त १२३; सुपा ५६६) । २ न. कप्प ८६),बंध [बन्ध] पूल बांधना २, १, २, रणाया १,१-पत्र ६३) । २ सफेद वस्त्र (पउम ६६, ३०)। (से ६, १७)५ वह [पथ] पुलवाला एक अधम मनुष्य-जाति; 'चंडाला मुट्ठिया सेअंस पु[यांस] १ एक राज-कुमार (धण सेया जे अन्ने पावकम्मिणों' (ठा ७-पत्र १५) । २ चतुर्थ वासुदेव तथा बलदेव के पूर्व सेउ वि[सेक्टा सेचक, सिंचन करनेवाला ३६३)। जन्म के धर्म गुरु--एक जैन मुनि (सम | | (कप्प ८९) सेअ पुं स्वेद] पसीना (गा ५७८ दे ४, १५३; परम २०, १७६) । देखो सेजस । सेउय वि [सेवक सेवा-कर्ता (कप्प ६)। ४६ कुमा) सेअंस देखो सेअ = श्रेयस् (ठा ४, ४-पत्र सेंदूर देखो सिंदूर (प्रातः संक्षि ३) सेअपु[सेक] सेचन, सींचना (मै ६५; गा सेंधव देखो सिंधव (विक्र ८९)। ७६ हेका ६६ अभि ३३)। सेअण न [सेचन सेक, सोचना (कुमा; अभि सेभ देखो सिंभ (उवः पि २६७)।। सेअ न [श्रेयस ] १ शुभ, कल्याण (भग)। ४७; णाया १, १३–पत्र १८१; सुपा सेंमिय देखो सिंमिय (भगः पि २६७)। २ धर्म। ३ मुक्ति, मोक्ष (हे १, ३२)। ४ ___३०६) वह पथ] नीक (प्राचा २, सेवाडय पं दे] चुटकी को आवाज (दे८, वि. अति प्रशस्त, अतिशय शुभः 'इय संज १०, २) मोवि सेप्रो' (पंचा ७,१४ कुमा; पंच ६६)। सेअणग । सेचनका १ राजा श्रेणिक सेअणय ५ पुं. अहोरात्र का दूसरा मुहूर्त (सुज्ज १०, सेचणय न [सेचनक] सिंचन, छिड़काव का एक हाथो (अ २६४ टो; णाया १,१-~-पत्र २५)। २ वि. सींचने- (मोह २७) । देखो सेअणय । सेअ वि [सैज] सकम्प, कम्प-युक्त (भग ५, वाला (कुमा) । देखो सेचणय । | सेचाग (अप) पुं [श्येन] छन्द-विशेष सेअविय विसेवनीय] सेवा-योग्य, ‘ण (पिंग) । देखो सेण = श्येन । ७–पत्र २३४)। सेञ्च न [शैत्य] शीतपन, ठंढ़ापन (प्राप्र)।सेअ वि [श्वेत १ शुक्ल, सफेद (णाया १, सिक्खतो सेयवियस्स किचि' (सूत्र १, ५, १, १-पत्र ५३; अभि ३३; उव)। २ पुं.. सेज देखो सेज्जा व पं. [पति] वसतिएक इन्द्र, कुभंड-निकाय के दक्षिण दिशा | सेअघिया स्त्री [श्वेतविका] केकया देश की स्वामी गृहस्थ (पब ८४) का इन्द्र (ठा २,३-पत्र ८५)। ३ शक्र को प्राचीन राजधानी (विचार ५० पव २७५; सेज्जंभव देखो सिज्जभव (कप्पः दसनि १, नट-सेना का अधिपति (इक)। ४ मामल- इक) । १२) कल्पा नगरी का एक राजा, जिसने भगवान् सेआ स्त्री [श्वेतता] सफेदपन (सुज १, १)। सेज्जंस पु [छेयांस १ ग्यारहवें जिनदेव का महावीर के पास दीक्षा ली थी (ठा ८-पत्र | सेआ देखो सेवा (नाट-चैत ६२) नाम (सम ८८ कप्प)। २ एक राज-पुत्र, २६५) । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० पाइअसद्दमण्णवी सेज्जंस-सेल . जिसने भगवान आदिनाथ को इक्षु-रस से | लश्कर जिसमें ३ हाथी, ३ रथः ६ घोड़े और सेप्फ! देखो सेम्ह (हे २,५५, षड् कुमाः प्रथम गारणा कराया था (कप्पः कप २१२)। १५ प्यादें हों (पउम ५६. ५)णिय. सेफ) प्राकृ २२) ३ मार्गशीर्ष मास का लोकोत्तर नाम (सुज णी, णय पुंनो ] सेना-पति, लश्कर सेफ पुंन [शेफ] पुरुष-चिह्न, लिंग (प्राकृ १४)। १०. १६)। ४ भगवान महावीर का पिता का मुखियाः 'सेगारिणग्रोवि ताहे घेत्तूग सेभालिआ स्त्री [शेफालिका] लता-विशेष राजा सिद्धार्थ (पाचा २, १५, ३)। देखो जिणेसर सुरवइस्स' (पउम ३, ७७; सुपा (हे १, २३६, प्राकृ १४) । सिज्जंस, सेअंस = श्रेयांस । ३००3; धर्मवि ८४; पउम ६४,३०), मुह सेमुसी । स्त्री [शेमुषो] मेधा, बुद्धि (राज; सेजस देखो मेअंस = श्रेयस् (मावम)। न मिखा वह सेना जिसमें ६ हाथी, ६ सेमही उप पृ३३३; हम्मीर १४, २२) सेज्जा स्त्री शय्या] १ सेज, बिछौना (से १, रथ, २७ घोड़े और ४५ प्यादे हों (पउम सेम्ह पुंस्त्री [श्लेष्मन] कफ, सेम्हा गरुई' ५७; कुमा) । २ मकान, घर, वसति, उपाश्रय ५६, ५) वइ पुं [पति] सेना का । (प्राक २२: पि २६७) । मुखिया, सेना-नायक (कप्पः पउम ३७, २; सेर वि [स्वैर ] स्वच्छन्दी, स्वतन्त्र, स्वेच्छ (पब १२ सुख १,१५)। "यर पुं [तर] गृह-स्वामी, उपाश्रय का मालिक, साधु को सम २७; सुपा २५५) हिवइ पुं (स्वप्न ७७ विक्र ३७)। रहने के लिए स्थान देनेवाला गृहस्थ (मोघ [धिपति वहो पूर्वोक्त अर्थ (सुपा ७३) विमा विकस्वर हे २.७८ कमा)। सेणावञ्च न [सैनापत्य सेनापतिपन, सेना | २४२; पब ११२; पंचा १७, १७) वाल सेर पु[दे] सेर, परिमारण-विशेष (पिंग)। का नेतृत्व (कप्प; प्रौप) । पुपाल] शय्या का काम करनेवाला सेणि स्त्री [श्रेणि] १ पंक्ति। २ समूह (महा)। चाकर (सुपा ५८७) । देखो सिज्जा। सेरंधी स्त्री [सैरन्ध्री] नी-विशेष, अन्य के ३ कुम्भकार प्रादि मनुष्य-जाति (णाया १, घर में रहकर शिल्प-कार्य करनेवाली स्वतन्त्र सेन्जारिअ न [दे] अन्दोलन, हिंडोले में १-पत्र ३७) 10 स्त्री (कप्पू) । भूलना (दे८, ४३) सेणिअ [गिक] १ मगध देश का एक सेराह पु[दे] प्रश्व की एक उत्तम जाति सेट्टि [दे. श्रेष्ठिन् ] गाँव का मुखिया, प्रख्यात राजा (गाया १,१--पत्र ११; ३७ (सम्मत्त २१६) सेठ, महाजन (दे८, ४२; सम ५१ गाया ठा -पत्र ४५५; सम १५४, उवाः अंत; सेरिभ पु[दे] धुर्य वृषभ, गाड़ी का बैल १, १-पत्र १६; उवा)। पउम २, १५; कुमा)। २ एक जैन मुनि (दे ८, ४४) सेडिय न [दे] तृण-विशेष (पएण १-पत्र (कप्प) सेरिभ देखो सेरिह (सुख ८, १३; दे ८, सेणिआ स्त्री [सेणिका] एक जैन मुनि-शाखा ४४ टी) सेडिया स्त्री [दे. सेटिका] सफेद मिट्टी, खड़ी (कप्प) । सेरिय पुत्री [दे] वाद्य-विशेष, 'करडिभंभ(प्राचा २, १, ६, ३)। सेणि स्त्री [सेनिका] छन्द का एक सेरियहुहुक्कहि' (सण) सेढि स्त्री [श्रेणि] देखो सेढी श्रेणी (सुर सेणिका भेद (पिंग)। सेरियय पु[दे] गुल्म-विशेष (पएण १३, १७७ ५, १६६) सेणिग देखो सेणिअ (संबोध ३५) । पत्र ३२) सेढिया। देखो सेडिया (दस ५, १, ३४; | सेणिग [सैनिक] लश्करी सिपाही (स सेरिह पुत्री [सैरिभ] भैंसा, महिष (गा सेढी । जो ३) ३८१)। १७२; ७४२; नाट-मृच्छ १३५)। स्त्री. सेढी स्नो [श्रेणी] १ पंक्ति (सम १४२, र सेणी स्त्री [श्रेणी] देखो सेणि (महाः णाया ही (पान) महा)। २ राशि (अणु)। ३ असंख्य योजन१, १)। सेरी स्त्री [दे] १ लम्बी प्राकृति। २ भद्र कोटाकोटी की एक नाप (अणु १७३) । सेण्ण देखो सिन्न = सैन्य (णाया १,८-पत्र प्राकृति (दे ८,५७)। ३ रथ्या, मुहल्ला देखो सेणि। १४६; गउड) (सिरि ३१८)। ४ यन्त्र-निर्मित नर्तकी सेण पुं[श्येन] १ पक्षि-विशेष (पउम ८, सेत्त देखो सित्त = सिक्त (कुप्र १६) । (राज) ७६; दे ७, ८४ वै ७४) । २ विद्याधर- सेत्त (अप) देखो सेअ = श्वेत (पिंग)। सेरीस पुन [सेरीश] एक गाँव का नाम (ती ११)। वश का एक राजा (पउम ५, १५) । सेत्तुंज पुं[शत्रुजय] एक प्रसिद्ध पर्वत | सेल पु[शैल] १ पर्वत, पहाड़ (से २, ११, सेण देखो सेग्ण; ‘मणणरवइणो मरणे मरंति (गाया १, १६--पत्र २२६; अंत)। प्राप्रसुर ३, २२९)। २ पाषाण, पत्थर मेणाई इंदियमयाई (पारा ६०)। सेद देखो सेअ=स्वेद (दे ४, ३४; स्वप्न (उप १०३१)। ३ न. पत्थरों का समूह (से सेणा स्त्री [सेना] १ भगवान् संभवनाथजी ३९) ६, ३१) कार पुं [कार] पत्थर घड़नेकी माता (सम १५१)। २ लश्कर, सैन्य सेध देखो सेह = सेह (जीव २–पत्र ५२) वाला शिल्पी, शिलावट (अणु १४६) (कुमा) । ३ एक जैन साध्वी, जो महर्षि सेन्न देखो सिन्न = सैन्य (हे १, १५०; कुमाः "गिह न [गृह] पर्वत में बना हुमा घर स्थूलभद्र की बहिन थी (कप्पः पडि)। ४ वह सण सुर १२, १०४ टि)। (कप्प) जाया श्री [जाया] पार्वती For Personal & Private Use Only . Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेलग-सेहंब पाइअसहमण्णवो ६३१ (रंभा) त्थंभ पु[स्तम्भ] पाषाण का सेल्लि स्त्री [दे] रज्जु, रस्सी (उत्त २७, ७) सेविय वि[सेवित] जिसकी सेवा की गई खंभा (कम्म १, १८) पाल, वाल पु सेव सक [ सेव] १ आराधन करना। २ हो वह (काल)। [पाल] १ धरण तथा भूतानन्द नामक आश्रय करना। ३ उपभोग करना। मेवइ, सेव्या देखो सेवा (हे २, ६६ प्राप्र)। इन्द्रों का एक एक लोकपाल (ठा ४,१- सेवए (पाचा उवः महा)। भूका. सेवित्था, सेस पुं [शेष] १ शेष-नाग, सर्प-राज (से पत्र १६७ इक)। २ एक जैनेतर धर्मावलम्बी सेविसु (प्राग)। वकृ. सेवभाग (सम ३९; २, २८)। २ छन्द का एक भेद (पिंग)। पुरुष (भग ७, १०-पत्र ३२३) सन भग)। कवकृ. सेविज्जत, सेविजमाण ३ वि. अवशिष्ट वाकी का (ठा ३, १ टी-- [स] वज्र (से ३, २७), "सिहर न (सुर १२, १३६; कप्प)। संकृ. सेविअ, पत्र ११४: दसनि १, १३४ हे १, १८२; [शिखर पर्वत का शिखर (कप्प-सुआ सेवित्ता (नाट-मृच्छ २४५, प्राचा)। ग उड) मई,ई स्त्री [वती] १ सातवें स्त्री [सुता] पार्वती (पास) कृ. सेवेयव्य (सुपा ५५७; कुमा), सेवणिय वसुदेव की माता (सम १५२)। २ दक्षिण सेलग। [शैलक] १ एक राजर्षि (णाया (सुपा १९७) रुचक पर रहनेवाली एक दिक्कुमारी देवी सेलय १, ५--पत्र १०४; १११)। २ सेवग देखो सेवय (पंचा ११, ४१)। (ठा -पत्र ४३६, इक)। ३ वल्लो-विशेष एक यक्ष (पि १५६; णाया १.६-पत्र सेवड देखो से = श्वेत। (पएण -पत्र ३३)। ४ भगवान महावीर १६४), 'पुर न [पुर] एक नगर (गाया की दौहित्री--पुत्री की पुत्री (प्राचा २, १५, सेवण न [सेवन] १ सीना, सिलाई करना । १६) वन [वत् ] अनुमान का एक (उप पृ १२३) । २ सेवा (उत्त ३५, ३) । सेलयय न [शैलकज] एक गोत्र (ठा - भेद (प्रणु २१२) राअ ( [राज] सेवणया। स्त्री [सेवना] सेवा (उत्त २६, पत्र ३६०; राज) छन्द विशेष (पिंग) सेवणा ) १; उप ८०१)। सेला नी [शला] तीसरी नरक-पृथिवी (ठा सेवय वि सेवका १ सेवा-कर्ता (कुप्र सेसव न [शैशव बाल्यावस्था (दे ७,७६)७-पत्र ३८८; इक) ___४०२)। २ पृ. नौकर, भृत्य (पामा कुप्र सेसा स्री शेषा] निर्माल्य (उप ७२८ टो। सेलाइच्च पु[शैलादित्य] वलभीपुर का ४०२ सुपा ५३२) । सिरि ५५५)। एक प्रसिद्ध राजा (ती १५) । सेवल न [शैवल सेवार, सेवाल, एक प्रकार सेसिअ वि [शेपित] १ बाकी बचाया हुआ सेलु पु[शैल ] श्लेष्म-नाशक वृक्ष-विशेष की घास जो नदियों में लगती है (पाम)। (गा ६६१)। २ अल्प किया हुआ, खतम (पएण १-पत्र ३१)। सेवा स्त्री [ सेवा] १ भजन, पर्युपासना, ! किया हुआ (विसे ३०२६)सेलूस पुं[दे] कितद, जुपाड़ी (दे ८, २१)M भक्ति । २ उपभोग । ३ आश्रय । ४ पाराधन । सेसिअ वि [इलेपित] संबद्ध किया हुआ, सेलेय वि [शैलेय] पर्वत में उत्पन्न, पर्वतीय (हे २, ६६; कुमा) । । चिपकाया हुआ (विसे ३०३६) । (धर्मवि १४०) । सेवाड न [शैवाल] १ सेवार, सेवाल, सेह प्रक [ नश् ] पलायन करना, भागना । सेलेस पु[शैलेश] मेरु पर्वत (विसे ३०६५) सेवाल ) घास विशेष (उप पृ १३६; पात्र; सेहइ (हे ४, १७८; कुमा) सेह सक [शिक्षय ] १ सिखाना, सीख जी ६)। २ पुं. एक तापस, जिसको गौतम सेलेसी स्त्री [शैलेशी] मेरु की तरह निश्चल साम्यावस्था, योगी की सर्वोत्कृष्ट अवस्था स्वामी ने प्रतिबोध किया था (कुप्र २६३) देना । २ सजा करना । सेहंति (सूप', २. (विसे ३०६५, ३०६७; सुपा ६५५) । दाइ [दायिन] भगवान महावीर १, १६) । कवकृ. साहज्जत (सुपा ३४५) । सेलोदाइ पु [शैलोदायिन] एक जेनेतर के समय का एक अजैन पुरुष (भग ७, सेह पुं[दे. सेह] भुजपरिसर्प की एक जाति, १०-पत्र ३२३)। साही, जिसके शरीर में काँटे होते हैं (पएह धर्मावलम्बी गृहस्थ (भग ७, १०-पत्र सेवाल पुंदे] पङ्क, कादा, काँदो (दे ८,४३, १,१-पत्र : परण १-पत्र ५३) सेल्ल देखो सेल = शैल; 'न हु झिज्जइ ताण | सेह पुशैक्ष] १ नव-दीक्षित साधु (सूत्र सेवालि [शैवालिन्] एक तापस, जिसको मणं सेल्लं मिव सलिलपूरेणं' (वजा ११२) १, ३, १, ३, सम ५८, मोघ १६५; गौतम स्वामी ने प्रतिबोध किया था (उप ३७८ उवः कस)। २ जिसको दीक्षा दी सेल्ल पुं [दे] १ मृग-शिशु । २ शर, बारण १४२ टो)। जानेवाली हो वह (पव १०७)। ३ शिष्य, (दे ८, ५७)। ३ कुन्त, बी (कुमा; हे सेवालिय वि [शैवालिक, त] सेवालवाला, चेला (सुख १, १३)। ४, ३८७)। सेल्ल पु[शैल्य] एक राजा (णाया १, शैवाल-युक्त; 'सेवालियभूमितले फिल्लुसमाणा | सेह पु [सेध] सिद्धि (उवा) १६-पत्र २०८)। य थामथामम्मि' (सुर २, १०५) । सेहंब वि [सेधाम्ल] खाद्य-विशेष, वह खाद्य सेल्लग शैल्यक] भूजपरिस को एक सेवि वि [सेविन सेवा-कर्ता (उवा) जिसमें पकने पर खटाई का संस्कार किया जाति, जन्तु-विशेष (पण्ह १, १-पत्र ८) सेवित्त वि [सेवित] ऊपर देखो (सम १५) जाय (उवा; पण्ह २, ५--पत्र १५०)। For Personal & Private Use Only Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ पाइअसद्दमहण्णवो सेहणा-सोगंधिअ सेहणा स्त्री [शिक्षणा] शिक्षा, सजा, कदर्थनाः सोअन [श्रोत्र] कान, श्रवणेन्द्रिय (भाचा सोउमल्ल देखो सोअमल्ल (अभि २१३; सुर 'बहबंधमारणसेहणायो कानो परिग्गहे नस्थि' भगः प्रौपः सुर १, ५.३), मिय वि [°मब] | ८, १२५) (उव) श्रोत्रेन्द्रिय-जन्य (ठा:-पत्र ४७६) सोंड देखो सुंड (पाय) मगर पुं[भकर] सेहर पुंशेखर १शिवाः फलसेहरा' (पिंड सोअ पुन [स्रोतस] १ प्रवाह (प्राचा मगर को एक जाति (पएण १-पत्र ४८) ।। १६५. पाय)। २ छन्द-विशेष (पिंग)। ३ गा ६६२) । २ छिद्र (प्रौप)। ३ वेग (णाया रोंडा स्त्री [शुण्डा] १ सुरा, दारू (माचा मस्तक-स्थित माला (कुमा) २, १, ३, २)। २ हाथी की नाक, ढूंढ सेहरय बु[] चक्रवाक पक्षी (दे ८, ४३)। सोअण न स्विपन] शयन (उव) । (उवा)। सेहालिआ देखो सेभालिआ (स्वप्न ६३; सोअण न [शन] १ शोक, दिलगीरी सोंडिअ ' [शौण्डिक] दारू बेचनेवाला, गा ४१२, कुमाः हे १, २६६) । (सूत्र २, २, ५५; संबोध ४६)। २ शुद्धि, कलवार (अभि १८८)। प्रक्षालन (स ३४८) सोंडिया स्त्री [शुडिका] दारू का पात्रसेहाली स्त्री [शेफाला लतानवशष ( दमोशाया , लोशोचना] १ऊपर देखो विशेष (ठा ८-पत्र ४१७) सोअणा ) (प्रौप; अज्झ १७४)। २ सोंडीर वि [शौण्डीर] १ शूर, वीर, पराक्रमी सेहाव देखो सेह = शिक्षय । सेहावेइ (पि | दीनता, दैन्य (ठा ४, १--पत्र १८८) (कप्प; सुर २, १३४ सुपा ६०)। २ गर्व३२३)। भवि. सेहावेहिति (प्रौप)। संकृ. सोअमल्ल न[सौकुमार्य] सुकुमारता, प्रति- | युक्त, गर्वित (महा)। सेहावेत्ता (पि ५८२)। हेकु. सेहावेत्तए | कोमलता (हे १, १०७ प्राप्र; कुमा)। सोंडीर न [शौण्डीर्य] १ पराक्रम, शूरता । (कस) । कृ. सेहावेयव्य (भत्त १६०)। सोअर ' सोदर] सगा भाई (प्रबो २६ २ गर्व ( हे २, ६३, षड् ) सेहाविअ वि [शिक्षित ] सिखाया हा! सुपा १६३; रंभा)। | सोंडीरिम पुत्री [शौण्डीरिमन्] ऊपर देखो (भग; णाया १, १-पत्र ६ पि ३२३) । सोअरा स्त्री [सोदरा] सगी बहन (कुमा)। (सुपा २६२)। सेहि देखो सिद्धि (प्राचा) । - सोअरिअ वि [शौकरिक] १ शूकरों का सोंदज (शौ) देखो सुंदर (पि ८४) सेहिअ वि सैद्धिक] १ मुक्ति-सम्बन्धी। २ शिकार करनेवाला (विपा १, ३-पत्र ५४)। सोक देखो सुक = शुष्क (षड्) निष्पत्ति-संबन्धी (सूप १, १, २, २)। २ शिकारी, मृगया करनेवाला। ३ कसाई सोक्ख देखो सुक्ख = सौख्य (प्राकृ १०, गा सेहिऊ वि [दे] गत, गया हुआ (दे ८,१)। (पिंड ३१४; उवः सुपा २१४) । १५८ सुपा ७०; कुमा)। सो सक सु] १ दारू बनाना। २ पीड़ा सोअरिअ वि [सोदय सहोदर, एक उदर सोक्ख देखो सुक्ख = शुष्क (षड्)।। करना। ३ मन्थन करना। ४ अक. स्नान से उत्पन्न (सून १, १, १, ५)। सोग देखो सोअ = शोक (पउम २०, ४५; करना । सोइ ( षड् )। सोअल्ल देखो सोअमल्ल (संक्षि २) . सुर २, १४० स २५५; प्रासू ८३ उव) सो । प्रक[स्वप] सोना, सूतना। सोइ, सोअविय स्त्रीन [शौच शुद्धि, पवित्रता (सूम | सोगंध न [सौगन्ध्य] १ लगातार सोअ) सोअइ (धात्वा १५७; प्राकृ ६६) ।। २, १, ५७)। स्त्री.या (प्राचा)। सोगंधिअ चौबीस दिनों के उपवास (संबोध सोअ सक [शुच ] १ शोक करना। २ शुद्धि सोअव्व देखो सुण = श्रु ५८)। २ सुगन्धिपन, सुगन्धः 'सोगंधियकरना। सोअइ, सोएइ, सोइंति, सोयंति (से सोआमणी , स्त्री [सौदामनी, मिनी] १ परिकलियं तंबोल' (सम्मत्त २२०) ।। १. ३८ हे ३,७०, प्राचा; अज्म १७४ | सोआमिणा । विद्युत, बिजली (उत्त २२, सोगंधिअन सिौगन्धिका १ रन-विशेष, १७५; सून २, २, ५५)। वकृ. सोइंत, ७: पउम ७४, १४; स १२ महा पाप)। रत्न की एक जाति (पाया १,१-पत्र ३१; सोएंत (उप १४६ टी; पउम ११८, ३५)। २ एक दिक्कुमारी देवी (इका ठा ४, १-पत्र पएण १-पत्र २६; उत्त ३६, ७७; कप्पा कवकृ. सोइज्जंत (सण)। कृ. सोअणिज, १९८)। कुम्मा १५)। २ रत्नप्रभा नामक नरकसोअणीअ, सोइयव्य (अभि १०५; सूक्त सोइअ न [शोचित] चिन्ता, विचार (सुर पृथिवी का एक सौगन्धिक-रत्न-मय काण्ड ४७; पउम ३०, ३५) । देखो सोच - शुच ८, १४सुपा २६६) । देखो सोचिय (सम ८९)। ३ कद्धार, पानी में होनेवाला सोअन [शौच] १ शद्धि, पवित्रता, निर्मलता सोइंदिय न [श्रोत्रेन्द्रिय] श्रवणेन्द्रिय, कान श्वेत कमल (सून २, ३, १८; राय ८२)। (माचाः प्रौप; सुर २, ६२; उप ७६८ टो; (भग)। ४ पुं. नपुंसक का एक भेद, अपने लिंग को सुपा २८१)। २ चोरी का प्रभाव, पर-द्रव्य | सोइंधिअ देखो सोगंधिअ (इक)। सूंघनेवाला नपुंसक (पव १०९; पुप्फ १२८)। का प्रहरण (सम १२०; नव २३; बा ३१) सोउ वि [श्रोत] सुननेवाला (स ३, प्रासू २) ५ न. एक देव-विमान (देवेन्द्र १४२)। सोअ [शोक] अफसोस, दिलगीरी (सुर सोउणिअ देखो सोवणिअ (सूम २, २, २८ ६ वि. सुगन्धवाला, सुगन्धी (उवाः सम्मत्त १,५३ गउड; कुमाः महा)। । पि १५२) २२०) For Personal & Private Use Only Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोगधिया-सोभा पाइअसद्दमण्णवो सोगंधिवा स्त्री सौगन्धिका] नगरी-विशेष सोणहिअ वि [शौनकिक] १ श्वान-पालक । २१; गा २४४; अभि १२८ नाट-रत्ना (गाया १, ५ पत्र १०५) | २ कुत्तों से शिकार करनेवाला (स २५३)। - २५३) १०)। सोगमल देखो सोअमल्ल (दस २, ५)। सोणार देखो सुण्णार (गा १९१; पि ६६ सोस्थिअपु[स्वस्तिक] १ ज्योतिष्क ग्रहसोग्गइ देखो सुग्गइ (उत्त २८, ३ पउम । १५२) विशेष (ठा २, ३--पत्र ७८) । २ न. २६, ६०; स २५०) सोणि स्त्री [श्रोणि कटी, कमर (कप्प; उप शाक-विशेष, एक प्रकार की हरित वनस्पति सोग्गाह (?) प्रक[प्र+स] पसरना, । १५६) सुत्तग न [सूत्रक] कटी-सूत्र, (पएण १--पत्र ३४)।३--देखो सत्यिअ, फैलना । सोग्गाहइ (धात्वा १५६) करधनी (प्रौप)। सोवस्थिअ = स्वस्तिक (पएह १, ४--पत्र सोच देखो सोअ = शुच् । वकृ. सोचंत, सोणि पु [शौनिक कसाई (दे ६, ६२)- ६८ णाया १, १-पत्र ५४) । सोचमाण (नाट-मृच्छ २८१; णाया १, सोणिअन [शोणित] रुधिर, खून (उवा सोदाम पु [सोदाम] देखो सोदामि १-पत्र ४७)। संकृ. 'सोचिऊण हत्थपाए भवि)। (इक)।प्रारोग्गमणिरयरणेण प्रोमजिनो राया' (स सोणिम पुंस्त्री [शोणिमन्] रक्तता, लाली सोदामणी देखो सोआमणी (पउम २६, ५६७) । कृ. सोञ्च (उव)। (विक्र २८) सोचिय विशोचित] शुद्ध किया हुआ, सोणी स्त्री [श्रोणी] देखो सोणि (पएह १, सोदामि सिौदामिन् चमरेन्द्र के अश्वप्रक्षालित (स ३४८)। ४--पत्र ६८ ७६) सैन्य का अधिपति (ठा ५, १-पत्र सोञ्च देखो सोच ।। सोणीअ देखो सोणिअ = शोणित, 'भुंजते ३०२)। सोच । मंससोणीनं ण छणे ण पमजए' (प्राचा १, सोदामिणी देखो सोआमिणी (नाटसोचा देखो सुण = श्रु।' ८,८, पि ७३)। मालती) सोच्छ सोण्ण न [स्वर्ण] सोना, सुवर्ण (प्राकृ ३०; | सोदास पुं [सौदास] एक राजा (पउम सोच्छिा देखो सोत्थिअ (इक)। संक्षि २१)। २२, ८१)। सोजण्ग , न [सौजन्य सुजनता, सजनता, सोण्ह देखो सुण्ह = सूक्ष्म (षड् ; गा७२३)। सोध (शौ) देखो सउह = सौध (पि ६१ ए)। सोजन्न । भलमनसी (उप ७२८ टी; सुर २, सोण्हा देखो सुण्डा = स्नुषा (संक्षि १५, प्राकृ सोपार । पूं. ब. [सोपार, क] देश३७ गा १०७; कार ८६३) । सोपारया विशेष (पउम ९८, ६४सुपा सोज देखो सोरिअ = शौर्य (प्राक १६) सोत्त न [श्रोत्र] कान, श्रवणेन्द्रिय (प्राचा; २७५) । २ न. नगर-विशेष (सार्ध ३६; सोज्झ वि [शोध्य शुद्धि-योग्य, शोधनोय रंभा विक्र ६८) ती ११)। (सुज १०, ६ टी)। सोत्त देखो सोअ = स्रोतस् (हे २, ९८; गा सोबंधव वि [सौबन्धब] सुबन्धु नामक कवि सोज्झय [दे] रजक, धोबो (पान)। ५५१ से १, ५८; कुमा)। का बनाया हुआ ग्रंथ (गउड) देखो सुज्भय ।। सोत्ति देखो सुत्ति = शुक्ति (षड्; उप ६४८ | सोभ प्रक [शुभ ] शोभना, चमकना । सोडिअ देखो सोडिअ (कर्पूर ३४)। टो)। सोभंति (सुज्न १६) भूका. सोभिसु, सो सु सोत्तिअ ' [श्रोत्रिय] वेदाभ्यासी ब्राह्मण (सुज्ज १६)। भवि. सोभिस्संति (सुज्ज सोडीर वि शौटीर] देखो सोंडीर = शौएडीर (पिंड ४३६; नाट-~-मृच्छ १३४ प्राप) ।। १६)। वकृ. सोभंत (गाया १, १--पत्र (कप्पः प्रौप; मोह १०४ कप्पू: चारु ६३)। | सोत्ति वि [सौत्रिक] १ सूत्र-निर्मित, सूते २५; कप्प; औप) सोडीर न [शोटीर्य] देखो सोंडीर = शौण्डीयं का बना हुप्रा (ोधमा ८९; मोघ ७०५)। सोभ सक [शोभय ] शोभाना, शोभा-युक्त (कुमा; से ३, ४, ५, ३, १३, ७६ ८७; २ सूते का व्यापारी (मणु १४६)। करना। सोभेइ (भग) । वकृ. सोभयंत (पि प्राकृ १६) सोत्ति सोढ वि [सोढ] सहन किया हुआ (उप २६४ ४६०) । संकृ. सोभित्ता (कप्प)। [शौक्तिक] द्वीन्द्रिय जन्तु-विशेष | सोभग वि (शोभक] १ शोभनेवाला। २ (परण १-पत्र ४४)।टी; धात्वा १५७)। सोत्तिअमई। स्त्री शुिक्तिकावती] केकय शोभानेवाला (कप्प)। सोढुं देखो सह = सह ।। सोत्तिअवई देश की प्राचीन राजधानी सोभग्ग देखो सोहग्ग (स्वप्न ४५)। सोण वि [शोण] लाल, रक्त वर्णवाला (राजः इक)। सोभण देखो सोहण = शोभन (पउम ७८, (पाप)। सोत्ती स्त्री [दे] नदी (दे ८, ४४; षड्)। ५६; स्वप्न ४६) सोणंद न दे. सौनन्द त्रिकाष्ठिका, तिपाई सोस्थि पुंन [स्वस्ति] १ एक देव-विमान सोभा देखो सोहा शोभा (प्राकृ १७ उत्त (पएह १, ४--पत्र ७८ औप; तंदु २०)। (देवेन्द्र १३३)। २-देखो सत्थि (संक्षि । २१, ८; कप्पा सुज्ज १९)।. For Personal & Private Use Only Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमण्णवो सोभिय-सोमित्ति सोभिय देखो सोहिअ = शोभित (पाया १,1 १ क्षत्रियों के सोमवंश का मादि पुरुष, बाहु- ५ एक देव-विमान, छठवाँ बेयक-विमान १ टी-पत्र ३)। बलि का एक पुत्र (पउम ५, १०% कुप्र (देवेन्द्र १३७; १४३: पब १६४) । ६ सौमसोम पुं[सोम १ चन्द्र, चाँद, एक ज्यो- | २१२)। २ तेरहवीं शताब्दी का एक जैन नस-पर्वत का एक शिखर (ठा २, ३-पत्र प्राचार्य और ग्रंथकार (कुप्र ११५)। ३ ____८०)। ७ न. मेरु-पर्वत का एक वन (ठा २, तिष्क महाग्रह (ठा २, ३-पत्र ७७ विसे चमरेन्द्र के सोम-लोकपाल का उत्पात-पर्वत १८८३; गउड)। २ भगवान् पार्श्वनाथ का ३-पत्र ८०) पाँचवाँ गणधर (सम १३; ठा ५-पत्र (ठा १०--पत्र ४८२) । भूइ पुं [भूति] सोमणा न [सौमनस्व] १ सुन्दर मन, ४२६)। ३ एक प्रसिद्ध क्षत्रिय-वंश (पउम एक ब्राह्मण का नाम (गाया १, १६--पत्र संतुए मन (रायः कप्प)।५, २)। ४ चतुथं बलदेव और वासुदेव का १९६) भूइय न [भूतिक] एक कुल सोम गसा स्त्री [सौमनसा] १ जम्बू-वृक्ष पिता (ठा | विशेष, जिससे यह द्वीप जम्बूद्वीप कहलाता का नाम (कप्प)। य न [क] एक गोत्र, -पत्र ४४७; पउम २०, १०२)। ५ एक विद्याधर नर-पति, जो जो कौत्स गोत्र भी शाखा है (ठा ७-पत्र है (इक)। २ एक राजधानी (इक)। ३ | ३६०) व वा, वि [प, पा] सोमज्योति:पुर का स्वामी था (पउम ७, ४३)। सौमनस वन की एक वापी (जं ४)। ४ ६ एक सेठ का नाम (सुपा ५६७)। ७ एक रस पीनेवाला (पड़)। सिरी स्त्री | श्री] पक्ष की पांचवीं रात्रि (सुज्ज १,२४) ब्राह्मण का नाम (णाया १,१६-पत्र एक ब्राह्मणी (अंत) सुंदर पुं[सुन्दर] सोमणसिय वि [सौमनस्यित] १ संतुष्ट एक प्रसिद्ध जैनाचार्य तथा ग्रन्थकार (संति | मनवाला । २ प्रशस्त मनवाला (कप्प)।। १६६)। ८ चमरेन्द्र, बलीन्द्र, सौधर्मेन्द्र तथा ईशानेन्द्र के एक-एक लोकपाल के नाम (ठा १४: कुलक ४४)। भूरि पुं [सरि एक सोमणस्स देखो सोमणस = सौमनस्य (कप्प; जैनाचार्य, पाराधना-प्रकरण का कर्ता एक औप)। ४, १-पत्र २०४; भग ३, ७--पत्र जैनाचार्य (आप ७०) सोमणस्सिय देखो सोमणसिय (कप्पः प्रौपः १६४)। ६ लता-विशेष, सोमलता। १. पाया १,१-पत्र १३)। उसका रस । ११ अमृत (षड्) । १२ आर्य- सोम वि [सौम्य १ अरौद्र, अनुग्र (ठा; सोमल्ल देखो सोअमल्ल (प्राकृ २०० ३०) सुहस्ति सूरि का एक शिष्य-जैन मुनि भग १२, ६-पत्र ५७८)। २ नोरोग, (कप्प)। १३ पुंन. देव-विमान-विशेष (देवेन्द्र रोग-रहित (भग १२, ६)। ३ सोमहिंद न [दे] उदर, पेट (दे ८, ४५) ।। प्रशस्त, सोमहिड्ड [दे] पंक, कादा (दे ८, ४३) १३३, १४३, १४५)। १४ वि. कीतिमान्, श्लाघ्य (कण)। ४ प्रिय-दर्शन, जिसका सोमा स्त्री सोमा] १ शक्र के सोम आदि यशस्वी (कप्प) + काइय कायिक] दर्शन प्रिय मालूम हो वह । ५ मनोहर, चारों लोकपालों की एक-एक पटरानी का सोम लोकपाल का प्राज्ञाकारी देव (भग ३, सुन्दर । ६ शान्त पातिवाला (प्रोघभा २२; नाम (ठा ४.१-पत्र २०४)। २ सातवें ७-पत्र १६५), 'ग्गहण न ["ग्रहण] उवः सुपा १८०; ६२२)। ७ शोभा-युक्तः । जिनदेव को प्रथम शिष्या (सम १५२, पव चन्द्र-ग्रहण (हे ४, ३६६).। चंद पुं दीप्तिमान (जं २)। देखो सोम्म । ६)। ३ सोम लोकपाल की राजधानी (भग चिन्द्र ऐरवत क्षेत्र में उत्पन्न सातवें सोमइअ वि [दे] सोने की आदतवाला (दे। ३,७–पत्र १६५)। जिन-देव (सम १५३) । २ प्राचार्य हेमचन्द्र सोमा स्त्री [सौम्या] उत्तर दिशा (ठा १.-- का दीक्षा समय का नाम (कुप्र २१)। जस पुं[यशस ] एक राजा (सुर २, १३४) सोमंगल पं. [सौमङ्गल] द्वीन्द्रिय जन्तु की पत्र ४७८ भग १०, १-४६३)। एक जाति (उत्त ३६, १२६)। सोमाण न [श्मसान मसान, मरघट (दे ८, "णाह देखो नाह ( राज) दत्त पूं ["दत्त १ एक ब्राह्मण का नाम (णाया १, सोमणंतिय वि स्वापनान्तिक, स्वाप्ना सोमाणस पं सोमानस] सातवां ग्रैवेयक १६-पत्र १६६) २ एक जैन मुनि, जो भद्र- न्तिक] १ सोने के बाद किया जाता प्रति विमान (पब १६४) बाहु-स्वामी का शिष्य था (कप्प)। ३ भगवान् क्रमण-प्रायश्चित्त-विशेष । २ स्वप्न-विशष सोमर) देखो सकुमार (गा १८६ स चन्द्रप्रभ स्वामीको प्रथम भिक्षा-दाता गृहस्थ में किया जाता प्रतिक्रमण (ठा ६--पत्र सामाल । ३५६; मै ७ षड् प्राप्र; हे १, (सम १५१)। ४ राजा शतानीक का एक ३७६)। १७१: कुमाः प्राकृ २०; ३८ भवि)। परोहित (विपा १,५-पत्र ६०)। देव सोमणस पुसौमनस] १ महाविदेह-वर्ष सोमाल न द] मांस (दे ८, ४४)। [°देव] १ सोम नामक लोकपाल का सामा- का एक वक्षस्कार-पवंत (ठा २, ३-पत्र सोमिति सौमित्रि] राम-भ्राता लक्ष्मण निक देव (भग ३, ७-पत्र १६५)। २ ६६ सम १०२; 5 ४) । २ उस पर्वत पर (गा ३५) । भगवान पद्मप्रभ को प्रथम भिक्षा-दाता गृहस्थ रहनेवाला एक महद्धिक देव (जं ४)। ३ सोमित्ति स्त्री सुमित्रा] लक्ष्मण की माता । (सम १५१)। 'नाह [नाथ] सौराष्ट्र पक्ष का आठवाँ दिन (सज्ज १०, १४) ४ पुत्त पुं[पुत्र] लक्ष्मण; 'रामसोमित्तिदेश की सुप्रसिद्ध महादेव-मूत्ति (ती १५; पुन. सनत्कुमार नामक इन्द्र का एक पारि- पुत्ता' (पउम ३८, ५७)- सुय पुं [सुत] सम्मत्त ७५), पभ, पह पु. [ प्रभ] | यानिक विमान (ठा ५-पत्र ४३७; प्रौप)। वही अर्थ (पउम ७२, ३)। For Personal & Private Use Only Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमिल-सोवरिअ पाइअसहमहण्णवो ६३५ सोमिल [सोमिल] एक ब्राह्मण (अंत (विपा १, ८)वडिंसग न [वतंसक] | सोवण न [स्वपन] शयन, सोना (उप पू एक उद्यान (विपा १, ८-पत्र ८२)। २३७)। सोनेत्ति देखो सोमित्ति = सौमित्रि (से सोलम त्रि. ब. [षोडशन] १ संख्या-विशेष, सोवण न [दे] १ वास-गृह, शय्या-गृह, रति मन्दिर (दे८, ५८स ५०३: पाम)। २ १२.८८) सोलह, १६ । २ सोलह संख्यावाला (भग स्वप्न । ३ पुं. मल्ल (दे ८,५८)।' सोमेसर ( [सोमेश्वर] सौराष्ट्र का सोमनाथ ३५, १-पत्र ९६४: ६६७; उवा; सुर १ ३५; प्रासू ७७; पि ४४३) । ३ वि. सोवण (अप) देखो सोवण्ण (भवि) । महादेव (सम्मत्त ७५)। सोलहवाँ, १६ वा (राज)। म वि [°श] सोम्म वि [सौम्य , रमणीय, सुन्दर (से सोवणि वि शौचनिक] १ श्वान-पालक, १ सोलहवाँ, १६ वाँ (णाया १, १६---पत्र १, २७) । २ ठंढा. शीतल (से ४, ८)। कुत्तों को पालनेवाला। २ कुत्तों से शिकार ३ शीतल प्रकृतिवाला, शान्त स्वभाववाला १९६: सुर १६, २५१ पत्र ४६)। २ लगा करनेवाला (सूम २, २, ४२) तार सात दिनों के उपवास (गाया १,१---- (से ५, १६, विसे १७३१)। ४ प्रिय-दर्शन, सोवणी श्री [स्वापना] विद्या-विशेष (पि पत्र ७२)। य न [क] सोलह का समूह जिसका दर्शन प्रिय लगे वह । ५ जिसका (उत्त ३१, १३) । विह वि [विध] सोवण्ण वि[सौवर्ग] स्वर्ण-निर्मित, सोने अधिष्ठाता सोम-देवता हो वह । ६ भास्वर, सोलह प्रकार का (पि ४५१)। का (महा सम्मत्त १७३)। कान्तिवाला । ७. बुध ग्रह । ८ शुभ ग्रह। ६ वृष प्रादि सम राशि । १० उदुम्बर वृक्ष । सोलसिआ स्त्री [षोडशिका] रस-मान-विशेष, सोवण्णमक्खिआ स्त्री [दे] मधुमक्षिका की ११ द्वीप-विशेष । १२ सोम-रस पीनेवाला सोलह पलों की एक नाप (अणु १५२)। एक जाति, एक तरह की शहद को मक्खी ब्राह्मण (प्राप्र)। देखो सोम= सौम्य । सोलह देखो सोलस (नाट; भवि)। सोवणि वि [सौवर्णिक] सोने का, सोजि (अप) प्र[स एव ] वही (प्राकृ सोलहावत्तय पुं[दे] शंख (दे ८, ४६) । सोवणिग सुवर्ण-घटित (प्रति ७ स साल सकपच् पकाना। सल्लिइ (हे ४, ४५८)-पव्यय पुं [पर्वत] मेरु पर्वत सोरट सौराष्ट१ एक भारतीय देश, ६० धात्वा १५६)। वकृ. सोल्लंत (विपा (पउम २.१८) सोरठ, काठियावाड़ (इक ती १५)। २ वि. १, ३----पत्र ४३)। सोवण्णेअ पुंस्त्री [सौपर्णेय गरुडपक्षी। स्त्री. सोरठ देश का निवासी (श्रावक ६३)। ३ सोल्ल सक [क्षिप् ] फेंकना। सोल्लइ (हे ४, आ, °ई (षड्) । न. छन्द-विशेष (पिंग)। १४३; षड्)। कर्म. सोल्लिज्जइ (कुमा) । सोवत्थ नदे] १ उपकार । २ वि. उपभोग्य, सोरट्ठिया स्त्री [सौराष्टिका] १ एक प्रकार सोल्ल सक [ ईर , सम् + ईर ] प्रेरणा उपभोगयोग्य (दे ८, ४५)। को मिट्टी, फिटकिरो (प्राचा २, १,६,३; करना । सोल्लइ (धात्वा १५६; प्राकृ ६६) सोवस्थि । वि [सौवस्तिक] १ माङ्गलिक दस ५, ६, ३४) । २ एक जैन मुनि-शाखामोल न दे माँस (दे८.४४)। देखो सोवत्थिअ) वचन बोलनवाला, मागष मादि (कप्प)।सुल्ल = शूल्य । स्वस्ति-वाचक (ठा ४, २-पत्र २१३; सोरब्भ, न [सौरभ] सुगन्ध, खुशबू (विक्र सोल्ल वि [पक] पकाया हुआ (उवाः विपा औप) । २ पुं. ज्योतिष्क महाग्रह-विशेष सोरंभ ११३, कुप्र २२३ भकि, उप १,२-पत्र २७; १, ८- पत्र ८५ ८६ (ठा २. ३–पत्र ७८)। ३ त्रीन्द्रिय जन्तु सोरभ । ६८६ टी)। औप)। की एक जाति (पएण १-पत्र ४५)। सोरसेणी श्री [शौरसेनी] शूरसेन देश की सोल्लिय वि [पक्क] १ पकाया हुआ, 'इंगाल- सोवस्थिअ ' [स्वस्तिक] १ साथिया, एक प्राचीन भाषा, प्राकृत भाषा का एक भेद । सोल्लिय' (प्रौप)। २ न. पुष्प-विशेष (प्रौप)। मङ्गलचिह्न (प्रौप) । २ न. विद्युत्प्रभ नामक (विक्र ६७) सोच देखो सुव = स्वप् । सोवइ, सोवंति (हे | वक्षस्कार पर्वत का एक शिखर (इक)। ३ पूर्व सोरह देखो सोरभ (गउड)।' १, ६४; उव; भविः पि १५२)। रुचक-पर्वत का एक शिखर (राज)। ४ एक सोरिअ न [शौथ] शूरता, पराक्रम (प्राप्रः सोवकम । विसोपक्रम निमित्त-कारण देव-विमान (देवेन्द्र १४१) । देखो सत्थिअ, प्राकृ १६) सोवकम । से जो नष्ट या कम हो सके वह सोथिअ = स्वस्तिक ।सोरिअन [शोरिक] १ कुशावर्त देश की कम. प्राय, आपदा आदि (सूपा ४५२, सोवन्न देखो सोवण्ण (अंत १७ श्रा २८ प्राचीन राजधानी (इक)। २ एक यक्ष (विपा ४५६)। सिरि ८११, भवि):१, ५-पत्र ८२) दत्त पुं[दत्त] १ सोवचिय वि [सोपचित] उपचय-युक्त, सोचन्निअ देखो सोवण्णिअ (णाया १,१एक मच्छीमार का पुत्र (विपा १, १-पत्र स्फीत, पुष्ट (कप्प)। पत्र ५२)।४ विपा १, ८) २ एक राजा (विपा १, सोवञ्चल पुंन [सौवर्चल] एक तरह का नोन, सोवरिअ देखो सोअरिअ = शौकरिक (सूप ५-पत्र ८२)नपुर न [पुर] एक नगर काला नमक (दस ३, ८ चंड)। । २, २, २८)। सोवस्थि । वचन बोलनेवाला पत्र २१३ For Personal & Private Use Only Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३६ पाइअसहमहाया सोवरी-- साहल सोवरी स्त्री [शाम्बरी] विद्या-विशेष (सूत्र सोसणी स्त्री दि] कटी, कमर (दे ८, ४५) । सोहगंजण न [सौभाग्याञ्जन] सौभाग्य२, २, २७) सोसविअ वि [शोपित] सुखाया हुमा (हे जनक अंजन (सुपा ५६७). सोववत्तिअ वि [सोपपत्तिक] सयुक्तिक, ३, १५०, उव)। सोहग्गिअ वि [सौभागित] भाग्य-शाली, युक्ति-युक्त (उप ७२८ टो)। सोसाव देखो सोस = शोषय । हेकृ.सोसावेटुं सुन्दर भाग्यवाला (उप पृ ४७; १०८)। सोवाअ वि [सोपाय] उपाय-साध्य (गउड) (शा) (नाट) सोहण पुशोभन] १ एक प्रसिद्ध जैन सोवाग पुं [श्वपाक] चाण्डाल, डोम (प्राचा; | सोसास वि [सोच्छ्वास] ऊवं श्वास-युक्त मुनि ( सम्मत्त ७५ )। २ वि. शोभा-युक्त, ठा, ४, ४-पत्र २७१; उत्त १३, ६; उवः | सुन्दर (सुर १, १४७, ३, १८५; प्रासू सुपा ३७०; कुप्र २६२, उर १, १५)। सोसिअ देखो सोसविक्ष (हे ३, १५०; सुर १३२) । स्त्री.°णा,°णी (प्राकृ ४२) वर ३,१.६; महा)। सोवाग स्त्री [श्वापाकी] विद्या-विशेष (सूम न [°वर] वैताव्य की उत्तर श्रेरिण का एक | सोसिअ वि [सोच्छित] ऊँचा किया हुआ विटारगर २, २, २७) । विद्याधर-नगर (इक)। (कप्प) सोवाण न [सोपान] सीढ़ी, निसेनी, पैड़ी सोसिल्ल वि[शोफवन् ] शोफ युक्त, सूजन सोहण न [शोधन] १ शुद्धि, सफाई (अ (सम १०६ गा २७८; उव; सुर १, ६२) रोगवाला (विपा १, ७--पत्र ७३) । ५६७ टी; सुज्ज १०, ६ टी; कप्प)। २ सोवासिणं देखो सबारिणी (भवि) सोह प्रक [शुभ ] शोभना, चमकना। _ वि. शुद्धि-जनक (श्रा ६) । सोविअ विस्थापित सुलाया हुआ, शायित: सोहइ, सोहए सोहंति (हे १, १८७; पानः सोहणी स्त्री [दे] संमार्जनी, झाडू (दे ८, 'कमलकिसलयरइए सत्थरए सोवियो तेण कुमा)। वकृ. पाहंत, सोहमाण (कप्प सुर । | सोहद न [सौहृद] १ मित्रता। २ बन्धुता ३, १११; नाट--उत्तर ८) । (सुर ४, २४४ उप १०३१ टी) सोह सक [शे भय ] शोभा युक्त करना। (अभि २१८ अच्छु ५:)। सोवियल्ल पुंस्त्री [सौविदल्ल] अन्तःपुर का | सोहेइ (उवा)। सोहम्म देखो सुधम्म, सुहम्म - सुधर्मन् रक्षक (गउड) । स्त्री.ल्ली (सुपा ७) सोह सक [ शोधय ] १ शुद्धि करना । २ (सम १६) सोवीर ब. [मौवीर] १ देश-विशेष (पव खोज करना, गवेषणा करना । ३ संशोधन सोहम्म पु [सौधर्म प्रथम देवलोक (सम २७५; सून , ५, १, १-टी)। २ न. करना । सोहेइ (उव)। वकृ. 'लूसिग्नं सगिह २; रायः अणु)। इप्प पुं[कल्प पहला काजिक, कॉजी (ठा, ३-पत्र १४७ दछु सोहिंतो दइयं निग्रं' (था १२)। देवलोक, स्वर्ग-विशेष (महा)। वह पूं पाप) मजन-विशेष, सौवीर देश में होता सोहेमाण (उवा; विपा १, १-पत्र ७)। [पति] प्रथम देवलोक का स्वामी, शक्रेन्द्र सुरमा (जी ४) । ४ मद्य-विशेष (कस) कवकृ. सोहिज्जत (उप ७२८ टी)। कृ. (सुपा ५१), वडिंसय पुंन [वतंसक] सोवीरा स्त्री [सौवीरा मध्यम ग्राम की एक सोहणीअ, सोहेयव्य (णाया १, १६-- एक देव-विमान (सम ८, २५, राय ५६) मूर्छना (ठा ७-पत्र ३६३) पत्र २०२; नाट-शकु ६६; सुपा ६५७)। सामि पुं[स्वामिन् प्रथम देवलोक का सोव्य वि [द] पतित-दन्त, जिसका दात संकृ. सोहइत्ता (उत्त २६, १)। इन्द्र (सुपा ५१)।। गिर गया हो वह (दे ८, ४५) । सोह देखो सउह् = सौध (रुक्मि ६१, प्रति मोहन । सोहम्म देखो सहम्मा (महा) सोस सक [शोषय ] सुखाना, शोषण ४१; नाट--मालती १३८)। सोहम्मण देखो सोहण = शोधनः 'रयणंपि करना । सोसइ (भवि)। वकृ. सोसयंत सोहंजण [दे. शोभाञ्जन] वृक्ष-विशेष, गुणुक्करिसं उबेइ सोहम्मरणगुणणं' (कम्म सहिजने का पेड़ (दे ८, ३७कप्पू)। ६, १ टी)। सोस देखो सुस्स । सोसउ (हे ४, ३६५)। सोहग देखो सोभग (कप्प ३८ टी)। सोहम्मिद पुं[सौधर्मेन्द्र शक्र, प्रथम देवसोस पुं [शोष] १ शोषण (गउड प्रासू सोहग [शोधक] धोबी, रजक (उप पृ लोक का स्वामी (महा)। ६४) । २ रोग-विशेष, दाह रोग (लहुन २४१) । देखो सोहय = शोधक । साहम्मिय वि[सौर्मिक] सौधर्म-देवलोक १५) | सोहग्ग न [सौभाग्य] १ सुभगता, लोक- का (सण)।सोसण पुं[दे] पवन, वायु (दे ८, ४५) । प्रियता (प्रौप; प्रासू ६६)। २ पति-प्रियता सोय वि [शोधक] शुद्ध कर्ता, सफाई सोसण न [शोषण १ सुखाना । २ कामदेव (सुर ३, १८१; प्रासू ८५)। ३ सुन्दर करनेवाला (विसे ११६६) । देखो सोहग = का एक कारण (कप्पू)। ३ वि. शोषण-कर्ता, भाग्य (उप पृ ४७; १०८)। कप्परुक्ख शोधक। सुखानेवाला (पउम २८, ५; कुप्र ४७)। [ कल्पवृक्ष] तप-विशेष (पव २७१)। सोहय देखो सोहग =शोभक (उप पृ.२१६)। सोसणा । स्त्री [शोपा] शोषण (उवाः "गुलिया स्त्री [गुटका] सौभाग्य-जनक सोहल वि [शोभावत् ] शोभा-युक्त (सणः सोसणा उत्त३,५) मन्त्र-विशेष से संस्तृत गोली (सुपा ५६७)। भवि) For Personal & Private Use Only Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोहा-हंस पाइअसहमहण्णवो ६३७ सोहा श्री [शोभा] १ दीप्ति, चमक (से १, सोहि वि[शोभिन् ] शोभनेवाला (संबोध सोहिर वि [ शोभित ] शोभनेवाला (गा ४८; कुमाः सुपा ३१, रंभा)। २ छन्द- ४८ कप्पू, भवि)श्री. णी ( नाट- ५११)। विशेष (पिंग)। रत्ना १३) सोहिल्ल वि[शोभावत् ] शोभा-युक्त (गा सोहाव सक [शोधय ] सफा कराना। | सोहि पुत्री [दे] १ भूत काल। २ भविष्य ५४७ सुर ३, ११, ८, १०८ हे २, १५६; सोहावेह (स ५१६) । काल (दे ८,५८) चंड भविः सण)। सौअरिअ देखो सोअरिअ = सौदर्य (चंड)।सोहाविय वि [शोधित] साफ कराया हुआ सोहिअ न [दे] पिष्ट, आटा, चावल आदि सौंअरेअ न [सौन्दर्य] सुन्दरता (हे १, १). का चूर्ण ( षड्)। सौह देखो सउह =सौध (रुक्मि ५६; नाटसोहि स्त्री [शुद्धि, शोधि] १ निर्मलता | सोहिअ वि [शोभित] शोभा-युक्त (सुर ३, (णाया १, ५--पत्र १०५; संबोध १२)। ७२ महा: प्रोप; भग) स देखो स = स्व (गा २२६)। २ पालोचना, प्रायश्चित्त (ोष ७९१ | सोहिअ वि [शोधित] शुद्ध किया हुआ स्सास देखो सास = श्वास (गा ८५६) ७६७ प्राचा)। (पएह २, १; भग) स्सिरी देखो सिरी = श्री (गा ९७७)। सोहि वि [शोधिन् शुद्धि-कर्ता (प्रौप)। सोहिद देखो सोहद (नाट-शकु १०६)। | स्सेअ देंखो सेअ = स्वेद (अभि २१०) विशामिना " मालती १३६) । ॥इम सिरिपाइअसद्दमहण्णवम्मि सयाराइसहसंकलणो सत्ततीस इमो तरंगो समत्तो। हंतव्व देखो हण। ह पुं [ह] १ कंठ-स्थानीय व्यञ्जन वर्ण- । 'हंडण देखो भंडण (गा ६१२; पि ५८८)। हंदि प. इन अर्थों का सूचक अव्यय-१ विशेष (प्रापः प्रामा)। २ प. इन अर्थों का | हंत देखो हंता (धर्मसं २०२; राय २६; सणः विषाद, खेद । २ विकल्प । ३ पश्चाताप । सूचक अव्यय-संबोधन; 'से-भिक्खू गिलाइ, कप्पू: पि २७५) ।। ४ निश्चय। ५ सत्य। ६ 'लो', 'ग्रहण से हंद ह णं तस्साहरह (माचा २, १, ११, करों (पामा हे २, १८० षड्; कुमा)। १, २, पि २७५)। ३ नियोग। ४ क्षेप, हंता । ७ आमन्त्रण, संबोधन (पिड २१०; धर्मसं निन्दा । ५ निग्रह । ६ प्रसिद्धि । ७ पादपूर्ति | हंता अ[हन्त] इन अर्थों का सूचक अव्यय- | ४४)। ८ उपदर्शन (पंचा ३, १२, दसनि (हे २, २१७) १मभ्युपगम, स्वीकार (उवा; औपः भगः ३, ३७) । ह देखो हा = म. (हे १, ६७) । तंदु १४; अणु १६०णाया १, १-पत्र हंभो देखो हंहो (सुर ११, २३४, प्राचा: ७४)। २ कोमल मामन्त्रण (भग; अणु सूम २, २, ८१)। हइ स्त्री [हति] हनन, वध,मारण (श्रा २७)। १६०; तंदु १४० प्रौप)। ३ वाक्य का | हंस देखो हस्स- ह्रस्व (प्राप्र)। हं म.[हम् ] इन अर्थों का सूचक अव्यय- प्रारम्भ। ४ प्रत्यवधारण। ५ संप्रेषण। हंस व् [हंस] १ पक्षि-विशेष (णाया १, १ क्रोष (उवा)। २ असम्मति (स्वप्न २१) ६ खेद। ७ निर्देश (राज)। ८ हर्ष। ६ १-पत्र ५३; परह १, १--पत्र ८ कुमाः हंजय पुंदे] शरीर-स्पर्श-पूर्वक किया जाता - अनुकम्पा (राय)। १० सत्य (उवा)। प्रासू १३; १६९)। २ रजक, धोबो; 'वत्यशपथ-सौगंध (द ८, ६१)। हंतु वि [हन्तु] मारनेवाला (प्राचा; भगः धोवा हवंति हंसा वा' (सूप १, ४, २, हंजे प्र. इन अर्थों का सूचक अव्यय-१ दासी | पउम ५१,१६७ ७३, १६७ विसे २९१७) १७)। ३ सैन्यासि-विशेष (से १, २६ का आह्वान (हे ४, २८१; कुमाः पिंग)। २ | हंतूण देखो हण प्रौप)। ४ सूर्य, रवि (सिरि ५४७)। ५ सखी का आमन्त्रण (स ६२२, सम्मत्त | हंदि प्र. 'ग्रहण करों इस अर्थ का सूचक | मणि-विशेष, हंसगर्भ नामक रत्न की एक१७२). प्रव्यय (हे २, १८१; कुमाः प्राचा २, १, जाति (पएण १-पत्र २६)। ६ छन्द का 'हंड देखो खंड (हम्मीर १७)। । ११,१२:पि २७५) एक भेद (पिंग)। ७ निर्लोभी राजा। ८ ११८ For Personal & Private Use Only wwwinelibrary.org Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [] भूषण-विशेष (ध) । ६३८ विष्णु । परमेश्वर, परमात्मा । १० मत्सर । ११ मन्त्र - विशेष । १२ शरीर स्थित वायु की चेश-विशेष | १३ मेरु पर्वत । १४ शिव महादेव । १५ अश्व की एक जाति । १६ श्रेष्ठ । १७ अगुआ । १८ विशुद्ध । १९ मन्त्रवर्ण-विशेष (ह २, १८२ ) । २० पतंग, यजन्तु विशेष (१४) गम्भ 4 [] रा की एक जाति (छाया १- पत्र ३३ १७--पत्र २२६, कप्प; उस ३६७७) तूली भी ["तूली] बिछौने की गद्दी ( सुर ३, १८८६, १२८ ) । द्दी [' द्वीप ] द्वीप - विशेष xx, xx)- "@wan ft [n] १ शुक्ल, सफेद (अंत) २ विद, निर्मल गाया १, १८-पत्र २४० ) । संकृ. हका रिऊण हकारेण (मसुदा २२०) प्रयो. हक्कारावर (सुपा ११८ ) । 1 ( (२) । सुपा २४ } हक्कार सक [दे] ऊँचे फैलाना । कर्म. हक्काहड वि [.] जिसका हरण किया गया रिति (सिरि ४२४) । हो वह (३८ ५६ कप्प)। हकार [हाकार ] १ युगलिकों के समय की हडक (मा) देखो दिय एक दण्डनीति (ठा ७ - पत्र ३६८ ) । २ हडक । १०५: १०२ प्राप; नाट---- -- मृच्छ हाँकने की आवाज (सुर १,२४६ ) । ६१: पि ५० १५०) । हंसवन [स] [र (पाय गुण कारण न [आारण] भद्वान (सेर[] विशेष म् १ पात्र हडप्फ श्रादि का पात्र । २ ताम्बूल प्रादि ३२७)। ११६) । का पात्र (श्रीप) । ३ श्राभरण का करण्डक हंसल कारिअ [आकारित] धाडूत (सुपा वि (गाया १, १ टी-पत्र ५७ ५८ ) । २६६३ श्रोध ६२२ टी; महा) । हकिअ वि [दे] हाँका हुआ - १ खदेड़ा हुधा हो करो' (महा) 'जेण तम्रो पासल्यादराखानि हतिया सम्म (सार्धं १०३) । २ श्राहूत ( कुप्र १४१ ) ३ प्रेरित ( सुपा २१ ) । ४ उन्नत ( बड् ) । हक्क व [निषिद्ध] निवारित (कुमा) । कोद्ध व [] अभिलषित (दे ८, ६० ) । हक्त वि [] उत्पाटित, उठाया हा हुमा, उत्क्षिप्त (दे ८, ६० पउम ११७, ५ पान स ६१४) । देखो हांसल | हंसी जी [हंसी] १ हंस पक्षी की मादा ( पाम्र) । २ छन्द का एक भेद (पिंग) | हंसुलय [हंस ] अव की एक उत्तम जाति (सम्मत २१६) । हो [] इनका सूचक अव्यय-१ संबोधन, श्रामन्त्रण ( सुख २३, १; धर्मवि ५५; उप ५६७ टी) । २ तिरस्कार ( धम्म ११ टी) । ३ दर्प, गर्व । ४ दंभ, कपट । ५ प्रश्न ( हे २, २१७ ) । कुन [हकुव] फल-विशेष ( अनु ५ ) । हक्क सक [नि + षिध् ] निषेध करना, निवारण करना । हक्कइ (हे ४, १३४; षड् ) । वकृ. हकमाण (कुमा) । हक्क सक [दे] हाँकना - १ पुकारना, प्राह्वान करना । २ प्रेरणा करना । बड़ना । हक्क (१०२) व (गुर १५, २०३३ सुपा ५३८ ) । कवकृ. हक्किज्जंत (सुपा २५३) [सं.] हकिय, हि हकिऊण (मुर २ २३१ सुपा २४५ महा) । हक्का स्त्री हाँक -- १ [] पुकार, बुलाहट श्राह्वान । २ प्रेरणा; 'धवलो धुरम्मि जुत्तो न पाइअसद्दमहणव साहिति सहइ उच्चारियं हक्क' ( वज्जा ३८ पिंग सुपा १५१ सिरि ४१० उप पृ.७८) । हकार सक [ आ + कारय ] पुकारना, श्राह्वान करना बुलाना हक्कारइ (महा भवि) कार (सुपा १००) कर्म. हक्कारिज्जंतु (सुर १, १२६, सुपा २६२ ) । यह कारंत मारेमाज (मुर وا हंसयइण हट्ठ वि [हृष्ट] ? हर्ष-युक्त, प्रान्वित । विस्मित (या विपा १, १ प्रौपः राय ) । ३नोरोग रोगरहित हक्खुव सक [उत् + क्षिप् ] १ ऊँचा करना, उठाना । २ फेंकना । हक्खुवइ (हे ४, १४४); 'रायरदेो देवी कि महादेव' (विसे ६६५) । क्खुवि वि [उक्षित] उत्पादित (कुमा) । हा स्त्री [हत्या ] वध, घात ( कुप्र १५७६ पनि १०) । हट्ट पुं [हट्ट ] १ पाण, बाजार (गा ७६४; भवि ) । २ दूकान (सुपा ११३ १८६) गाई, गावी श्री [गयो] व्यभिचारी कुलटा (सुपा ३०१३ ३०२ ) । हट्टिगा } श्री [दट्टिका ] छोटी दुकान (मोह ६२; सुपा १८६ ) हट्टी For Personal & Private Use Only श्रमुगतवो प्रमुगदिणम्मि- नियमेां कायदो' ( पत्र ४ – गाथा १६२ ) ३४ शानशाल शक्तिशाली जवान, समर्थं तरुण (कप्प ) । ५ दृढ़, मज(घोष ५ देखो भट्ट (गा ६५४ "ह हम [] १२ । त्रि दक्ष, चतुर (दे ८, ६५) । ३ स्वस्थ युवा (षड् Eses पुं [दे] ? अनुराग, प्रेम (दे ८, ७४ (षड् ) । २ ताप (दे ८.७४) । हटहड [] - आवाज (सिरि पुं ७७६)। Estes वि [दे] प्रत्यर्थं प्रत्यन्त ( विपा १, १-पत्र ५ खाया १.१६ + पत्र १६९) ॥+ ह ि [ह] काष्ठ का बन्धन विशेष, काठ की बेड़ी (सखाया १, २ विपा १, ६--पत्र ६६३ ग्रौप, कम्म १, २३) हड न [दे] हाड़, अस्थि ( द ) ५६ तंदु २५५ - १००) । हढपुं [ह] १ बलात्कार (पात्र, परह १, ३ - पत्र ४४ दे १, १६) । २ जल में होनेबाली अमरपति- विशेष कुम्बी काई 'वायाइदो वहढो दिप्पा भवि(स्तसि' (उत्त २२, ४४ सू २८० परारण (--१त्र २४) ४: १ जाना, हम सक [ह] ? वध करना गुति करना हराइ, हरिया (कुमाः श्राचा) । भूका, हरिण सु, हरणी ( श्राचाः कुमा) । भवि, हरिणही (कुमा) कर्म. हरिणज्जइ, णिज्जए, हरणए, हन्नइ हम्मइ (हे ४, २४४) कुमा प्रासू १६; प्राचा) । S 3 Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हण-हत्थि पाइअसद्दमहण्णवो भवि. हम्मिहिइ, हरिणहिइ (हे ४, २४४) । नगर-विशेष (पउम १,६१, १७, ११८)। हत्थंदु । पुन [हसान्दुक] हाथ बांधने वकृ. हणंत (प्राचाः कुमा)। कवकृ. हण्णु, "व, "वंत देखो म (पउम ४७, २५, ५०, हत्थंदुय) का काठ आदि का बन्धन-विशेष हणिजमाण, हम्मत, हम्ममाण (सूम १, ६ उप पृ ३७६)। (पिंड ५७३, विपा १, ६--पत्र ६६)। २, २, ५; श्रा १४; सुर १, ६९; विपा १, हणुया स्त्री हनुका] १ ठुड्डी, ठोढ़ी, दादी हत्थच्छुहणी स्त्री [दे] नव-वधू, नवोढ़ा (दे २--पत्र २४ पि ५४०)। संकृ. हंता, (अनु ५) । २ दंष्ट्रा-विशेष दाढ़ा-विशेष हेतूण, हंतूणं, हत्तूण, हणिऊण, हणिअ (उवा)। हत्थड (प्रा) देखो ह्त्य (हे ४, ४४५, पि (प्राचा; प्रासू १४७, प्राकृ ३४; नाट)। हणू स्त्री [हनू] देखो हणु (पि ३६८ ३६६)। ५६६)। हेक्. हं, हणि' (महाः उप पृ ४८) । - हण्णु देवो हण = हन् । हत्थय न [हस्तक] कलाप-समूह (दश कृ. हंतव्य (से ३, ३, हे ४, २४४; अगस्त्य० सूत्र ५१ पत्र ८१)। हत्त देखो हय = हत (पि १९४; ५६५) । प्राचा)। हत्यल पुं[दे] १ क्रीड़ा के लिए हाथ में लो हत्तरि देखो सत्तरि (पि २६४)। हण सक [0] सुनना । हणइ (हे ४, ५८)। हुई चीज । २ वि. हस्त-लोल, चञ्चल हाथहत्त वि [हत] हरण-कर्ता (प्राकृ २०)। वाला (दे ८, ७३)। हण वि [दे] दूर, अनिकट (दे ८, ५६)। हत्तूण देखो हण = हन् । हत्थल वि [हस्तल] १ खराब हाथवाला । हण देखो हणण; "हणदहणपयणमारण २ पुं. चोर, तस्कर (पएह १, ३-पत्र (पउम ८, २३२)। हत्य वि [दे] १ शीघ्र, जल्दी करनेवाला (दे ८, ५६)। २ क्रिवि. जल्दी (प्रोप)। हण देखो धण = धन (गा ७१५; ८०१)। हत्यलिज्ज देखो हथिलिज (राज)। हत्थ पुंन [हत] १ हाथ; 'अत्थित्तणेण हणण न [हनन] १ मारण, वध, घात (सुपा हत्थल्ल वि[दे] क्रोड़ा से हाथ में लिया हुआ हत्थं पसारियं जस्स कराहेणं' (वज्जा १०६; २४५, सण)। २ विनाश (पएह २, ५ आचाः कप्पः कुमाः दं ६)।२ पुं. नक्षत्रपत्र १४८)। ३ वि. वध-कर्ता । स्त्री. °णी हत्यल्लिअ वि [दे] हस्तापसारित, हाथ से विशेष (सम १०, १७)। ३ चौबीस अंगुल हटाया हया (दे८,६४)। (कुप्र २२)। का एक परिमाण । ४ हाथी की ढूंढ (हे। | हत्यल्ली स्त्री [दे] हस्त बृसी, हाथ में स्थित हणिअ वि [हत] जिसका वध किया गया हो २, ४५ प्राप्र)। ५ एक जैन मुनि (कप्प)। श्रासन-विशेष (दे ८, ६१)। वह (श्रा २७ कुमाः प्रासू १६; पिंग)। कप्प न [कल्प] नगर-विशेष (णाया १, हत्यार न [दे] सहायता, मदद (दे ८, ६०)। हणिअ देखो हण = हन् । १६--पत्र २२६; पिड ४६१)। कम्म न हत्थारोह पुं [हत्यारोह] हस्तिपक, हाथी हणिअ वि [श्रुत] सुना हुआ (कुमा)। [कर्मन् हस्त-क्रिया, दुश्चेष्टा-विशेष (सूत्र १, ६, १७; ठा ३, ४-पत्र १६२; सम का महावत (विपा १, २-पत्र २३)। हणिद देखो हिणिद (गा ६६३)। ३६; कस)। 'ताड, ताल पुं [ताड] | हत्थावार न [दे] सहायता, मदद (भवि)। हणिर वि [हन्तु] वध करनेवाला (सुपा हाथ से साड़न (राजा कस ४, ३ टि)। पहे- हत्थाहत्थि स्त्री [हस्ताहस्तिका] हाथोहाथ, लिअ स्त्रीन [प्रहेलिक] संख्या-विशेष, | एक हाथ से दूसरे हाथ (गा १७६)। हणिहणि) अ [अन्यहनि] १ प्रतिदिन, शीर्षप्रकम्मित को चौरासी लाख से गुणने पर हत्थाहत्थि अ. ऊपर देखो (गा २२६; ५८१; हणिहणि हमेशा (पएह २, ३-पत्र जो संख्या लब्ध हो वह (इक) । पाहुड न पुष्फ ४६३)। १२२) । २ सर्वथा, सब तरह से (पएह २, [प्राभृत हाथ से दिया हुआ उपहार (दे हथि पुंस्त्री [हस्तिन्] १ हाथी (गा १:६; ५---पत्र १४८)। ८, ७३)। °मालय न [ मालक] आभरण- कुमा; अभि १८७)। स्त्री. 'णी (णाया १, हणु वि [दे] सावशेष, बाकी बचा हुअा (दे विशेष (प्रौप) । लहुत्तण न [लघुत्व] १ १ -पत्र ६३)। २ पुं. नृप-विशेष (ती १४)। ८, ५६ सरण)। हस्त-लाघव । २ चोरी (पराह १, ३-पत्र °आरोह [आरोह] हाथी का महावत हणु पुंस्त्री [हनु] चिबुक, होठ के नीचे का ४३) । °सीस न [शीर्ष] नगर-विशेष (धर्मवि १६)। कण्ण, कन्न पुं [कर्ण] भाग, ठुड्डी, ठोढ़ी, दाढ़ी (माचा; पण्ह १, (णाया १,१६-पत्र २०८)। भरण न | २ एक अन्तर्वीप। २ वि. उसका निवासी ४-पत्र ७८)। अ, म, मंत, यंत पु -[भरण] हाथ का गहना (भग)। याल मनुष्य (इक ठा ४, २--पत्र २२६)। [मत् ] हनुमान्, रामचन्द्रजी का एक पंताड] देखो ताड (कस)। लंब कप्प न [कल्प] देखो हत्य-कप्प प्रख्यात अनुचर, पवन तथा प्रजनासुन्दरी j [लम्ब] हाथ का सहारा, मदद (से (राज)। गुलगुलाइय न [गुलगुलायित] का पुत्र (पउम १, ५६१७, १२१, ४७, १, १६, सुर ४, ७१; कस)। हाथी का शब्द-विशेष (राय) । णागपुर न २६) हे २, १४६) कुमाः प्राप्रः पउम १६, हत्थंकर पुं[हस्तङ्कर] वनस्पति-विशेष [ नागपुर] नगर-विशेष, हस्तिनापुर (उप १५, ५६, २१)। रुह, रूह न [रुह] (प्राचा २, १०, २)। ६४८ टी सण)। तावस ऍ[तापस] For Personal & Private Use Only Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 640 पाइअसहमहण्णवो हत्थिअचक्खु-हर बौद्ध साधु-विशेष, हाथी को मारकर उसके हत्थुत्तरा स्त्री [हस्तोत्तरा] उत्तराफाल्गुनी 2 वि. उसह निवासी मनुष्य (इका ठा 4, मॉस से जीवन-निर्वाह करने के सिद्धान्तवाला नक्षत्र (कप्प) २-पत्र 226) / 3 एक प्रनायं देश (पव संन्यासी (प्रौप; सूअनि 160), नायपुर हत्थुल्ल देखो हत्थ (हे 2, 164 षड् ) / - / 274), "मुह [मुख 1 एक अन्तर्वीप भगवान महावीर के समय का पावापुरी का आभूषण / 2 हस्त-प्राभृत, हाथ से दिया हय देखो हिअ%D हृत (महा; भविः राय एक राजा (कप्प) / "पिप्पली , स्त्री जाता उपहार (दे 8, 73) / ["पिप्पली] वनस्पति-विशेष (उत्त 34, हथलेव पुं[दे] हस्त-ग्रहण, पारिण-ग्रहण ह्य देखो हर %द्रह / पोंडरीय [ पुण्ड११) मुह पू[मुख] 1 एक अन्तर्वीप / (सिरि 158) / रीक] पक्षि-विशेष (पएह 1, १-पत्र 8) / 2 वि. उसका निवासी मनुष्य (ठा 4, 2- हद देखो य = हत (प्राप्र प्राकृ 12) / हय देखो भय (गा 380) / पत्र 226; इक) रयण न ["रत्न] उत्तम हदपू[दे बालक का मल-मूत्रादि (पिंड हयमार पुं [दे. हतमार] कणेर का गाछ हाथी (प्रौप) राय पुं [ राज] उत्तम हद्द) 471) (पान)। हाथी (सुपा 426), 'वाउय पुं[व्यापृत] | हद्धय पुं[दे] हास, विकास (दे 8, 62) हर सक [ह] 1 हरण करना, छीनना। 2 महावत (औप) वाल देखो पाल (कप्प)। हद्धि। [हा धिक् ] 1 खेद / 2 अनुताप प्रसन्न करना, खुश करना। हरइ (हे 4, 'विजय न [विजय] वैताब्य की उत्तर हद्धी (प्राकृ 76 षड़: स्वप्न 61 नाट- 2340 उव; महा)। कर्म. हरिजइ, हीरइ, श्रेरिण का एक विद्याधर-नगर (इक) सीस | शकु 66; हे 2, 162) / हरीप्रइ, होरिज्जइ (हे 4, 250; धात्वा न [शीर्प] एक नगर, जो राजा दमदन्त | हमार (अप) वि [अस्मदीय] हमारा, हमसे | 157) / वकृ. हरंत (पि 367) / कवकृ. की राजधानी थी (उप 648 टी), सुंडिया | संबन्ध रखनेवाला (पिंग)। हीरंत, हीरमाण (गा 105; सुर 12, देखो सोंडिगा (राज)। सोंड पुं | हमिर देखो भमिर (पि 188) / 111, सुपा 635) / संकृ. हरिऊग शौण्ड] त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष (परण हम्म सक [हन् वध करना / हम्मइ (हे 4, | (महा)। हेकृ. हरिउ (महा)। कृ. हिज, १--पत्र 45), सोडिगा स्त्री [ शुण्डिका] | 244; कुमाः संक्षि 34, प्राकृ 68) / हेज (पिंड 446; 453) / पासन-विशेष (ठा 5, 1 टी-पत्र 266) हम्म सक [हम्म् ] जाना। हम्मइ (हे 4, हत्थिअचक्खु न [दे] वक्र अवलोकन (दे हर सक [ग्रह ] ग्रहण करना, लेना। हरइ (हे 4, 206) / 8, 65) हम्म न [हये] क्रीड़ा-गृह (से 6, 43) / हत्थिश्चग वि [हस्तीय, हस्त्य] हाथ का, हम्म देखो हण = हन् / हर सक [8] मावाज करना। हरह (से हाथ-संबन्धी (पिंड 424) / हम्मार देखो हमार (पिंग)। हत्थिणउर / न [हस्तिनापुर नगर-विशेष हर पुं[हर] 1 महादेव, शंकर (सुपा 363, हम्मिअ वि [हम्मित] गत, गया हुआ (स हथिणपुर / (ठा १०-पत्र 477; सुर | 743) / कुमाः षड् हे 1, 51 गा 687 764) / हस्थिणाउर | 10, 155, महा; गउड सुर हम्मिअ न [दे. हयं] गृह, प्रासाद, महल 2 छन्द-विशेष (पिंग), मेहल न [ मेखल] हस्थिणापुर 1, 64; नाट-शकु 74; कला-विशेष (सिरि 56) / वल्लहा स्त्री (दे 80 62; पाम सुर 6, 150; प्राचा 2, अंत)।.. [°वल्लभा] गौरी, पार्वती (सुपा 597) / 2,1,10) हस्थिणी देखो हस्थि / हम्मीर पुं [हम्मीर] विक्रम की तेरहवीं हर पुं[हृद] द्रह, बड़ा जलाशय (से 6, हस्थिमल [दे] इन्द्र-हस्ती, ऐरावण हाथी शताब्दी का एक मुसलमान राजा (ती 5; हम्मीर 27; पिंग)। हर देखो घर = गृह; 'ता वच्च पहिय मा मग्ग हस्थियार न [दे] 1 हथियार, शस्त्र (धर्मसं हय वि[हत] जो मारा गया हो वह (औप; | वासयं एत्थ मज्झ हरे (वज्जा 100; कुमाः 1022; 1104; भवि)। 2 युद्ध, लड़ाई; सुपा 363; हे 2, 144) / से 2, 11; महा)। माकोड पुं[मरकोट] ता उद्धेहि संपयं करेहि हथियारं ति', 'देव, एक विद्याधर-नरेश (पउम 10, 20) "स हर देखो धर = घृ। कृ. हरेअव्व (से 6, कोइस देवेण सह हथियारकरणं' (स 637; | वि [श] निराश (पउम 61, 74; गा 281; हे 1, 206; 2, 165; उव)। हर देखो भर = भर (पउम 100, 54. सुपा हत्यिालजन [हस्तिलीय] एक जैन-मुनिहय ऍ [य] अश्व, घोड़ा (प्रौप; से 2, 11, 432) / बुल (कप्प) कुमा)। कंठ पुं कण्ठ] रत्न-विशेष, हर वि [हर] हरण-कर्ता (सण)। इयिय [द] ग्रह-भेद (दे 8, 63) / प्रश्व के कंठ जितना बड़ा रत्न (राय 67) / हर वि [धर] धारण करनेवाला (गा 315; इंथिहरिह [दे] वेष (दे 8, 64) / कण्ण, कन्न पुं[कर्ण] 1 एक अन्तर्वीप। 365) / For Personal & Private Use Only Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरअई-हरि पाइअसहमहण्णवो 641 हरअई, स्त्री [हरीतकी] 1 हर का गाछ। 226; श्रु 86) / विष्णु, श्रीकृष्ण (गा केशबल नामक मुनि का (उत्त 12) / कंखि हरडई 2 फल-विशेष, हरे (षड्; हे 1, 406, 411, सुपा 143) / 5 रामचन्द्र न [काशिन्] नगर-विशेष (ती 27) / 96 कुमा)। (से 6, 31) / 6 सिंह, मृगेन्द्र (से 6, 31; कंत पु[कान्त] विद्यु कुमार देवों की हरण न [हरण] 1 छीनना (सुपा 18:436; कुमा कुप्र 346) / 7 वानर, बन्दर (से 4, दक्षिण दिशा का इन्द्र (इक)। कंतपधाय, कुमा)। 2 वि. छीननेवाला (कुप्र 114 25, 6, 22; धर्मवि 51; सम्मत्त 222) / कंतप्पवाय पु [कान्ताप्रपात] एक द्रह 8 अश्व, घोड़ा (उप 1031 टी ती 8 कुप्र (ठा 2, ३--पत्र 72, टी-पत्र 75) / धर्मवि 3) / 23 सुख 4, 6) / 6 भारत के साथ जैन | कंता स्त्री [कान्ता] 1 एक महा-नदी (ठा हरण न [ग्रहण] स्वीकार (कुमा)। दीक्षा लेनेवाला एक राजा (पउम 85, 4) / 2, ३-पत्र 72; सम 27; इक)। 2 हरण न [स्मरण] स्मृति, याद; 10 ज्योतिषशास्त्र-प्र सद्ध एक योग; 'गुरुहरि- महाहिमवान् पर्वत का एक शिखर (इका ठा 'अलिअकुविधपि कसमंतुअंव विठे गंडविइवाए' (संबोध 54) / 11 ८-पत्र 436) / केलि पु [ केलि] में जेसु सुहम अणुर्णेतो। छन्द का एक भेद (पिंग)। 12 सर्प, साँप / भारतीय देश-विशेष (कप्पू) / केसवल देखो ताण दिग्रहाण हरणे रुग्रामि, 13 भेक, मण्डूक / 14 चन्द्र / 15 सूर्य / 'एसबल (कुलक 31)-1 केसि j ण उणो अहं कुविना 16 वायु, पवन / 17 यम, जमराज / 18 [केशिन] एक जैन मुनि (श्रु 140) / (गा 641) हर, महादेव / 16 ब्रह्मा / 20 किरण / गीअ न [गीत] छन्द का एक भेद (पिंग)। 'हरण देखो भरण (गा 527 अ) 21 वर्ष-विशेष / 22 मयूर, मोर / 23 'ग्गीव पुं [ग्रीव] राक्षस-वंश का एक हरतणु पुहिरननु] खेत में बोये हुए गेहूँ, कोकिल, कोयल / 24 भतृहरि नामक एक | राजा (पउम 5, 260) / चंद पुं[चन्द्र] जौ आदि के बालों पर होता जल-बिन्दु विद्वान् / 25 पीला रंग / 26 पिंगल वर्ण / 1 विद्याधर-वंश का एक राजा (पउम 5, (कप्प; चेइय 373; जी 5) / 27 हरा रंग। 28 वि. पीत वर्णवाला / 44) / 2 एक विद्याधर-कुमार (महा)। हरद देखो हरय (भग)। 26 पिंगल वर्णवाला (हे 3, 38) / 30 चंदण पुं[चन्दन] 1 एक अन्तकृद् जैन हरपच्चुअ वि [दे] 1 स्मृत, याद किया हरा वर्णवाला; 'हरिमणिसरिच्छरिणअरुई मुनि (अंत 18) / 2 देखो अंदण (प्रासू हुआ। 2 नाम के उद्देश से दिया हुआ (दे (अच्चु 32) / 31 पुंन. महाहिमवंत पर्वत 145; स 346) / °णयर न [ नगर] 8, 74) / का एक शिखर (ठा -पत्र 436) / 32 वैतान्य की दक्षिण-श्रोणि में स्थित एक हरय ह्रद] बड़ा जलाशय, द्रह (प्राचा; विद्युत्प्रभ पर्वत, का एक शिखर (ठा &; इक)। | विद्याधर-नगर (इक) / ताल पुं ["ताल] भगः परह 2, ५-पत्र 146% उत्त 12, 33 निषध पर्वत का एक शिखर (ठा - द्वीप-विशेष (इक)। देखो आल + दास 45 46 हे 2, 120) / पत्र 454, इक) / 34 हरिवर्ष-क्षेत्र का | पू[दास] एक वणिक् का नाम (पउम 5, हरहरा स्त्री [दे] युक्त प्रसंग, योग्य अवसर, मनुष्य-विशेष (कप्प)। अंद [श्चन्द्र] 83) / धणु न [ धनुष ] इन्द्र-धनुष स्वनाम प्रसिद्ध एक राजा (हे 2, 87 षड्: (उप 567 टी)। "पुरी स्त्री [पुरी] इन्द्रउचित प्रस्ताव 'निमगं च गामं महिलागउड; कुमा)। अंदण न [°चन्दन] 1 पुरी, अमरावती, स्वर्ग (सुपा 635) + भद्द पुं[भद्र] एक सुविख्यात जैन प्राचार्य तथा चन्दन की एक जाति (से 7, 37; गउड; थूभं च सुरणयं दट्ट। नीयं च काया प्रोलिति सुर 16, 14) / 2 पुं. एक तरह का कल्प- ग्रन्थकार (चेश्य 34 उप 1039, सुपा 1) / ___ जाया भिक्खस्स हरहरा' वृक्ष (सुपा 87 गउड)। देखो चंदण / - मंथ ( [मन्थ] धान्य विशेष, काला चना (विसे 2064) / 'अण्ण देखो अंद (संक्षि 17) / आल (श्रा 18 पव 156; संबोध 43) / मेला पुंन ["ताल] 1 पीत वर्णवाली उपधातु- | हरहराइय न [हरहरायित] 'हर हर' आवाज स्त्री [ मेला] वृक्ष-विशेष (प्रौप) + वइ पुं विशेष, हरताल (णाया १,१-पत्र 24; (पएह 1, ३-पत्र 45) / [पति वानर-पति, सुग्रीव (से 1,16) / जी 3 पव 155, कुमाः उत्त 34, 8, 36, वंस [वंश] एक सुप्रसिद्ध क्षत्रिय-कुल हराविअ वि [हारित] हराया हुआ, जिसका 75) / 2 . पक्षि-विशेष (हे 2, 121) / (कप्प, पउम 5, 2) + वस्सः वास पुं पराभव किया गया हो वह (हे 4, 406) / देखो ताल / "एस पुं [केश] 1 चंडाल [वर्ष] 1 क्षेत्र-विशेष (मणु 161; ठा 2, हरि दे हरि शुक, तोता (दे 8, 56) / (ोघ 766, सुख 6, 1; महा)। 2 एक ३-पत्र 67) सम 12 पउम 102, 106; हरि पुं [हरि] 1 विद्युत्कुमार-देवों की दक्षिण चण्डाल मुनि (उत्त 12) / एसबल पु इक) / 2 पुंन. महाहिमवान् पर्वत का एक दिशा का इन्द्र (ठा 2, ३-पत्र 84) / 2 [ केशबल] चण्डालकुलोत्पन्न एक मुनि शिखर (ठा ८–पत्र 436) / 3 निषष पर्वत एक महाग्रह (ठा 2, ३–पत्र 78) / 3 (उव; उत्त 12, 1) एसिज्ज वि | का एक शिखर (ठा--पत्र 454 इक)। इन्द्र, देव-राज (कुमा; कुप्र 23, सम्मत्त / [केशीय] 1 चण्डाल-संबन्धी। 2 हरि- वाहण पुं[वाहन] 1 मथुरा का एक For Personal & Private Use Only Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क 642 पाइअसहमहण्णवो हरि-हलबोल राजा (पउम 12, 2) / 2 नन्दीश्वर द्वीप के हरिडय पुं [हरितक] कोंकण देश-प्रसिद्ध हरिसाइय वि [हर्षित] हर्ष-प्राप्त (पउम अपराध का अधिष्ठाता देव (जीव 3, 4) / वृक्ष-विशेष (पएण 1-- पत्र 31) / 61,72) / 'सह देखो स्सह (राज)। सेण पुं["षेण] हरिण [हरिण] 1 हिरन, मृग (कुमा)। हरिसाल देखो सरिसाल = हर्ष-वत् / 1 दशा चक्रवर्ती राजा (सम 68152) / / 2 छन्द का एक भेद (पिंग)। "च्छी स्त्री हरिसिअ वि [हषित] हर्ष-प्राप्त, मानन्दित 2 भगवान् नमिनाथजी का प्रथम श्रावक क्षी] सुन्दर नेत्रवाली स्त्री (कप्पू)। रि (प्रौप; भविः महा सण)। (विचार 378) / "स्सह पुं[सह] 1 [ारि] सिंह (उप पृ 26) / हिव पुं हरी देखो हिरी (सून 1, 13, 6; भग)। विद्युत्कुमार-देवों को दक्षिण दिशा का इन्द्र [धिप वहीं (हे 3, 180) / हराडई देखो हरडई (प्राकृ 12) / (ठा 2, ३-पत्र 84, इक)। माल्यवन्त हरिणकहिरिणाङा चन्द्र, चांद (हे 3, हरे अ[अरे] इन अर्थों का सूचक अव्ययपर्वत का एक शिखर (ठा :--पत्र 454) / 180; कप्पू, सण)। 1 आक्षेप, निन्दा। 2 संभाषण / 3 रति-कलह हरि पुं[हरित् ] 1 हरा रंग, वर्ण-विशेष / हरिणंकुस पु[हरिणाङ्कश] चौथे वलदेव के / (हे 2, 202; कुमाः स 430; पि 338) / 2 वि. हरा रंगवाला (णाया 1, 16 पत्र ___ गुरु एक जैन मुनि (पउम 20, 205) / हरेडगी देखो हरीडई (पंचा 10, 25) / 228) / 3 स्त्री. एक महा-नदी (सम 27; हरिणगवेसि देखो हरिणेगमेसि (पउम 3, हरेणुया स्त्री [हरेणुका] प्रियुगु, मालकांगनी इका ठा 2, ३-पत्र 72) / 4 षड्ज ग्राम (उत्तनि 3) / की एक मूछना (ठा ७-पत्र 363) / हरिणी स्त्री [हरिणी] 1 मादा हिरन, हिरनी | हरेस सक [हष्] गति करना (नाटपवात, पवाय पु [प्रपात] एक द्रह, (पात्र) / 2 छन्द-विशेष (पिंग)। वेणी 67) / जहाँ से हरित् नदी निकलती है (ठा 2, 3 हरिणेगमेसि पु [हरिनैगमैपिन्] शक्र के हल न [हल] हर, जिससे खेत जोतते हैं पत्र 72; टी-पत्र७५) / पदाति-सैन्य का अधिपति देव (ठा 5,1- (उवाः प्रौप)। उत्तय पुंन [युक्तक] हरि' देखो हिरि' (भग; पि 68 उत्त 32, 302; अंत 7 इक)। हल जोतनाः 'असुभे समयम्मि को तेणं 103) / हरिदा देखो हलिद्दा (पि 375) / हलउत्तमो खित्ते' (सुपा 237 236, सुर हरिअ [हरित] 1 वर्ण-विशेषः हरा रंग / हरिमंथ दे] काला चना, अन्न-विशेष 2, 77) / "कुड्डाल, कुदाल पुं["कुद्दाल] 2 वि. हरा वर्णवाला (प्रौपा गाया 1. 1 (था 18 पव 156, संबोध 43; दे 8,70 / हल के ऊपर का भाग (उवा)। धर पुं टी--पत्र 4; 1, ७-पत्र 196; से 8, टि)। देखो हिरिमंथ। [धर] बलदेव, राम (पएण १७--पत्र 46; गा 665) / 3 पुं. एक प्रार्य मनुष्य- हरिमिग्ग पुं [दे] लगुड, लट्ठी, लाठी, डंडा 526 दे 2, 55) / धारण पुं[ धारण] जाति (ठा ६-पत्र 358) / 4 पुंन. बलभद्र, राम (पउम 117, 6) / वाहग वनस्पति-विशेष, हरा तृण, सब्जी (पएण हरियंदपुर न [हरिचन्द्रपुर] गंधर्वनगर | वि [वाहक] हालिक, हल जोतनेवाला १-पत्र 30, औष, पान; पंच 2, 50 (चउप्पन्न ऋषभचरिचत्र)। (श्रा 23) / हर देखो धर (सम 113; दस 10, 3) / हरिली देखो हिरिली (उत्त 36, 98) / पव-गाथा 48; प्रौपः कुप्र 257) / हरिअ देखो हिअ = हूत (कस: महा)। हरिल्ल वि [भरवत् ] भारवाला, बोझवाला | उह पुं [आयुध] बलभद्र, राम (पउम हरिअ देखो भरिअ= भरित (गा 632) / (गा 545) / 38, 23; 76, 26) / हरिअग) न [हरितक] जीरा आदि के हरिस प्रक[हष1 खुशी होना। हरिसइ | हल देखो फल फल (सुपा 366, भवि; हरिअय / पत्तों से बना हुआ भोज्य विशेष तो से बना हुआ भोज्य विशेष (हे 4, 235; प्राप्रः षड् ); 'हरिसिजइ त्रि 103) / (पव 256; सुज 20 टी)। / कयतावो रुद्दज्झारणोवगयचित्तो' (संबोध 46) / हलअ (मा) देखो हिअय = हृदय (चारु 11; हरिआ स्त्री [हारता] दूर्वा, दूब, तृण-विशेष हरिस सक [हर्ष हर्ष से रोम खड़ा करना, नाट--मृच्छ 21) / (से 7, 56, 6, 31) / 'लोमादियं पि ण हरिसे सुन्नागारगप्रो मुणी' हल उत्तय देखो हल उत्तय / हरिआ देखो हिरि (कुमा)। (सूत्र 1, 2,2, 16) / हलद्दा / देखो हलिद्दा (हे 1, 88 कुमा; हरिआल देखो हरि-आल / हरिस पुं [हर्ष] 1 सुख / 2 आनन्द, प्रमोद, हलद्दो षड्)। हरिआली स्त्री [दे. हरिताली] दूर्वा, दूब खुशी (हे 2, 105, प्राप्र; कुमाः भग) / 3 | हलप्प वि [दे] बहु-भाषी, वाचाल (दे (दे 8, 64 पान अंत; कप्पा अणु 23) / | आभूषण-विशेष (प्रौप) / °उर [पुर] 8, 61) / हरिएस देखो हरि-एस। एक जैन गच्छ (सुपा 658) / ल वि हलबोल [दे] कलकल, शोरगुल, कोलाहल हरिचंदण देखो हरि-चंदण। [वत् ] हर्ष-युक्त (प्राकृ 35) / (दे८, 64; पान, कुमाः सुपा 87; 132, हरिचंदण न [दे. हरिचन्दन] कुंकुम, केसर हरिसण पुं [हर्षेण] ज्योतिष-प्रसिद्ध एक हट्ठि 140; कुप्र 362 सिरि 433 सम्मत्त (दे 8, 65) / योग (सुपा 108) / 122) / For Personal & Private Use Only Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइअसद्दमहण्णवो 643 लहर देखो हल-हर-हल-घर / हलुअ वि [लघुक] हलका (हे 2, 122; हल्लोहलिअ देखो हल्लप्फलिअ (सिरि 6640 हलहल देखो हव्हड =(दे) / (गा 21) / स 745) / 634 भवि)। हलहल / पुन [] 1 तुमुल, कोलाहल, हलर वि [दे] सतृष्ण, सस्पृह (दे 8, 62) / हल्लोहलिय पुंसी [दे] सरट, गिरगिट / स्त्री. हलहल शोरगुल (दे. 6, 74, से 12, | हल अहला ह साख, सखा का सबाधन या (कप्प)। 186) 2 कौतुक, कुतुहल (दे. 1874 (हे 2, 165 कुमा)। हव अक [ भू] 1 होना। 2 सक. प्राप्त सावरा हडबडी. हलफल, हल्ल अक [दे] हिलना, चलना। हल्लंति करना / हवइ हवेइ. हवंति (हे 4, 60 शीता; हलहलयो सरा' (पाम स७०४) / (सट्टि 68) / वकृ. हलंत (उबकु 21, सुपा कप्पः उव: महा ठा 3, १-पत्र 106); 4 पौत्सुक्य उत्कंठा (गा 21 780)" 34; 223; वज्जा 40; से 8, 45) / 'कि इक्खुवाडमज्झट्टिो नलो हवइ महुरत्त' हलहलिअविदेरी कम्पित कापाया हल्ल पुं [हल्] एक अनुत्तर-गामी जैन मुनि (धर्मवि 17), हवेज्ज, हवेज्जा (पि 475) / | (अनु 2: पडि)। वकृ. हवंत, हवेमाण ( षड्)। हला पहला] सखी का आमन्त्रण, हे सखि | हल्लअ न [हल्क] पद्म-विशेष, रक्त कहार हव देखो भव = भव (उप 464) / (हे 2, 165 स्वप्न 40 अभि 26 कुमा; (विक्र 23) / हवण न [हवन] होम (विसे 1562) / गा 43:; सुपा:४६) हल्लपविअ वि [दे त्वरित, शीघ्र ( षड्) / हलाहल न हलाहल] एक प्रकार का उग्र | हवि पुंन [हविस ] 1 धृत, घो। 2 हलफल न [दे] 1 हलफल, हड़बड़ी, हवनीय वस्तु (स; 714, दसनि 1, जहर, विष-विशेष (प्रासू 38) / औत्सुक्य, त्वरा, शीव्रता (हे 2, 174; स 104) / हलाहला स्त्री [दे] बंभणिका, बाम्हनी, जन्तु- 602; कुमा)। 2 आकुलता; 'अह उवसंते हविअ वि [दे] म्रक्षित, चुपड़ा हुआ (दे 5, "विशेष (दे८,६३)। करिणो हल्लप्फलए' (सुपा 636) / 3 22; 8, 62) / हाल ' [हलिन] बलराम, बलभद्र (पउम वि. कम्पनशील, कॉपता, चञ्चल; 'पास हव्व वि [हव्य] हवनीय पदार्थ, होम-योग्य ट्ठिोवि दीवो सहसा हल्लप्फलो जाओ' 70, 35; कुप्र 101) / वस्तु (सुपा 163) / वह पुं[वह अग्नि, (वज्जा 66) / हलिअ वि [हालिक] हल जोतनेवाला, कृषक हल्लप्फलिअ वि [दे] 1 शीघ्र, जल्दी। 2 पाग (उप 567 टी; सुपा 416, गउड)। (हे 1; 67: पात्र; प्राप्र; गा 17 317) वाह पुं [वाह] वही (प्राचाः पायः न. आकुलता, व्याकुलपन (दे 8, 56) / 3 वि. व्याकुल (धर्मवि 56) / सम्मत्त 228; वेणी १६२दस 6, 35) / "हलिअ देखी फलिअ (गा ) / हव्य वि [ अर्वाच्] 1 अवर, पर से अन्यः हल्लफल देखो हल्लप्फल (गा 76) / हलिआ स्त्री [हलिका] 1 छिपकली। 2 'नो हव्वाए नो पाराए' (प्राचाः सूत्र 2, 1, हल्लप्फलिअ देखो हलप्फलिअ; 'विमलो बाम्हनी, जन्तु-विशेष (कप्प)। 1810:16; 24, 28, 33) / 2 न. आह लोहेण, तो हल्लफलियो इम' (श्रा 12) / हलिआर देखो हरि-आल = हरि-ताल (हे शीघ्र, जल्दी (गाया १,१-पत्र 31; उवा; हल्लाविय वि [दे] हिलाया हुआ (सुर 3, सम 56; विपा 1, १-पत्र 8; ती 10; हलिद पुं हरिद्र, हारिद्र] 1 वृक्ष-विशेष प्रौप; कप्प; कस)। 3 न. गृहवास (सूत्रहल्लिअ वि [दे] हिला हुअा, चलित (दे 8, (हे 1, 254; गा 863) / 2 वर्ण-विशेष, कु० 2.1.6 चूरिण)। 62; भवि)। पीला रंग। 3 न. नाम-कर्म का एक भेद, हव्य देखो भव्व = भव्य (गा 360, 420 जिसके उदय से जीव का शरीर हल्दी के हल्लिर वि [दे] चलन-शील, हिलनेवाला (स समान पीला होता है, वह कर्म (कम्म 1, 578; कुप्र 351) / हस अक [ हस ] : हँसना, हास्य करना। 4) / "पत्त पु["पत्र] चतुरिन्द्रिय जन्तु हल्लास पुं [दे] रासक, मण्डलाकार होकर | 2 सक. उपहास करना, मजाक करना। की एक जाति (परण १-पत्र 46) / स्त्रियों का नाच (दे८, 61; भवि)। / हसइ, हसेइ, हसए, हसंति, हससि, हससे, मन्छ [ मत्स्य] मछलो की एक जाति हल्लत्ताल न [दे] शीघ्रता, जल्दी स्वराः / हसिस्था, हसह, हसामि, हसमि, हसामो, (परण :--पत्र 47) / हल्लत्तावल, गुजराती में 'उतावळ' (भविः / हसामु, हसाम, हसेम, हसेम (हे 3, 136; हलिहा। स्त्री [हरिद्रा] औषधि-विशेष, हल्दी सुर 15, 88) / 140; 141, 142, 143, 144; 154; हलिद्दी / (हे. 1, 88 254 गा 58 80 हलुप्फलिय देखो हटुप्फलिअ (जय 12) / 158 कुमा)। हसेउ हसंतु, हससु, हसेजसु, हल्लोहल देखो हल्लप्फल (उप पृ 77 था हसेजहि, हसेज्जे, हसेज्ज, हसेज्जा (हे 3, / हलीसागर [हलिसागर मत्स्य की एक | 16; हे 4 ६६उप 728 टीः सुख 18, 158,173; 175; 176) / भवि. हसिहिइ जाति (परण १-पत्र 47) / | 37; महा भवि)। हसिस्सामो, हसिहिमो, हसिहिस्सा, हसिहित्या, Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 644 पाइअसहमहण्णवो हसिस्सं (हे 3, 166; 167 168 हस्स देखो हस = हस्। हस्सइ (धात्वा | हेचाण, हेचाणं (पि 587) / कृ. हेअ 166) / कर्म. हसीआइ, हसिज्जइ, हसिजंति / 157) / कर्म. हस्सइ (धात्वा 157) हे 4, / (स 565 पंचा 6, 27 अच्च 8 गउड)(हे 3, 160 142) / वकृ. हसंत, हसत, 246) हा देखो भा-स्त्री (गउड)। हसमाण (प्रौपः हे 3, 158; 181; हस्स न [हास्य] 1 हंसी (प्राचा 1, 2, 1, हाअ देखो हा-सक / हामइ, हामए (षड् ) / (षड्)। कवकृ. हसिज्जंत, हसीअंत, 2: पब 72, नाट-मृच्छ 62) / 2 पुं. हाअ सक [हादय ] अतिसार रोग को हसीअमाण, हसिज्जमाण, हसेजमाण महाकन्दित नामक देवों का दक्षिण दिशा का उत्पन्न करना / हाएज्ज (पिंड 646) / (हे 3, 160; उप 567 टी; सुर 14, इन्द्र (ठा 2, ३–पत्र 85)5 गय न हाअ देखो भाअ = भाग (से 8, ८२;षड्)। 180) / संकृ. हसिऊण, हसेऊण, [गत] कला-विशेष (स 603), ड हाअ देखो घाय = घात (से 7, 59) हसिउआण, हसिउआणं, हसेउआण, [रति] इन्द्र-विशेष, महाक्रन्दित-निकाय का | 'हाअ देखो भाव = भाव (से 3, १५)।हसे उआणं, हसिऊणं (हे 3, 157; पि उत्तर दिशा का इन्द्र (ठा २,३-पत्र८५) हाउ देखो भाउ: 'मह वपणं मइरागंधिप्रति 584 585) / हेकृ. हसिउं, हसेउं हस्स वि [हस्व] 1 लघु, छोटा (सूम 2, 1, | हामा तुहं भाई (गा 872) / (हे 3, 157) / कु. हसिअब, हसेअव्व, 15, पव 54) / 2 वामन, खवं (पाम)। हांसल देखो हंसल (राज)। हसणीअ (पएह 2, ५–पत्र 146; हे 3 अल्प, थोड़ा (भगः पंच 5, 103; कम्म हाकंद देखो हा-कंद।३, 157) षड्, संक्षि 34; नाट–मृच्छ | हाकलि स्त्री [हाकलि] छन्द का एक भेद 5, 84) / 4 पुं. एक मावावाला स्वर 114) (पिंग) (पएण ३६--पत्र 846; विसे 3068) हस अक [ हस ] हीन होना, कम होना। हाडहड न [दे] तत्काल, तत्क्षण (वव 1). हस्सण वि[हर्षण हर्ष-कारक 'रोमहस्सयो हसइ (पंच 5, 53) / हाडहडा स्त्री [दे] प्रारोपणा का एक भेद, जुद्धसंमद्दों (विक्र 87) / हस पुं [हास] हास्य (उप 1031 टी)। प्रायश्चित-विशेष (ठा 5, २-पत्र 325, हस्सिर देखो हसिर; 'अ-हस्सिरे सदा दंते | निचू 20) हसण स्त्रीन [हसन हास्य, हँसी (भग; उत्त 36, 262, पंचा 2, 8) / स्त्री. णा (उप (उत्त 11, 4, सुख 11, 4) / हाणि स्त्री [हानि] क्षति, अपचय (भवि)। पृ 275) हहह / प्रहहह, हा] 1 इन अर्थों का हाम भ[दे] इस तरह, इस प्रकार, एवं हहहा सूचक पव्यय-१पाश्चयं (प्रयौ 74) / हसहस प्रक [हसहसाय ] 1 उत्तेजित 'हाम भरण' (प्राकृ८१)। होना / 2 सुलगना; 'सिंगाररसत्तु (?) इया | 2 खेद, विषाद (सिरि 612) / | हायण पुं[हायन] वर्ष, संवत्सर (मौका मोह मईफुफुमा हसहसेई' (सुख 1, 8) / हहाहहा] 1 गन्धर्व देवों की एक जाति | गाया 1,1 टी-पत्र 57) / वकृ. सहसित (दसनि 3, 35) / संकृ. | | (हे 3, 129) / 2 अ. खेद-सूचक भव्यय हायणी स्त्री हायनी] मनुष्य की दस दशानों हसहसेऊण (राज)। (सिरि 268; 767) / | में छठवीं अवस्था (ठा १०-पत्र 516; दंदु हसाव देखो हास: हासय / हसावइ, हसावेइ हा अहा इन अर्थों का सूचक अव्यय- 10) (हे 3, 146) 1 विषाद, खेद (सुर 1, 66, स्वप्न 27, हार सक [ हारय ] 1 नाश करना। 2 गा 218; 754, 660; प्रासू 20) / 2 हारना, पराभव पाना / हारेइ, हारसु (उव; हसिअ वि [हसित] 1 जिसका उपहास किया शोक, दिलगीरी / 3 पीड़ा / 4 कुत्सा, निन्दा महा)। वकृ हारंत (सुपा 154) - गया हो वह (उब 113) / 2 न. हास्य, (हे 1, 67, 2, 217), कंद [ कन्द] हार पुं [हार] 1 माला, अठारह सर की हाहाकार (पिंग) 5 रव पुं[व] वही अर्थ मोती अादि की माला (कप्प; राय 102; हसिअ वि [हसित] ह्रास-प्राप्त, हीन (पंच (सुर 2, 111) / उवाः कुमा; भवि)। 2 हरण, अपहरण (वव 5,53) हा सक [हा] 1 त्याग करना। 2 गति 1) / 3 द्वीप-विशेष / 4 समुद्र-विशेष (जीव हसिर वि [हसित हास्य-कर्ता, हँसने की करना। 3 क्षीण करना. हीन करना, कम 3, ४-पत्र 367) / 5 हरण-कर्ताः 'प्रदत्तकरना / हाइ (षड्)। कर्म. हायइ, हायंति | हारा' (प्राचा 1, 2, 3, 5) मादतवाला (प्राप्रा गा 174, उप 728 टी; पुड पुन सुर 2, 78, कुमा)। स्त्री. री (गउड)। (भगः उव), हिज्जइ (भवि), हिज्जउ (प्रयो | [पुट] धातु-विशेष, लोहा (माचा 2, 6, 107) / कवकृ. हायंत (णाया 1, 10 1, 1) भद्द पुं[भद्र ] हार-द्वीप हसिरिआ स्त्री [दे] हास, हँसी (दे 8,62) / टी-पत्र 171), हीयमाग (काल)। संकृ. का अधिष्ठाता एक देव (जीव 3, ४-पत्र हस्स प्रक[ हस.] कम होना, न्यून होना, हाउं (उवकु 10; 11), हिच्चा, हिचाणं | 367), महाभद्द [महाभद्र] हारक्षीण होना। वकृ.हस्समाण (णंदि 82 (प्राचा 1, 4, 4, 1; पि 587), हेच, द्वीप का एक अधिष्ठाता देव (जीव 3, 4) / टो) हेच्चा (सूम 1, 2, 3, 1, उत्त 18, 35), / महावर पु["महावर] हार-समुद्र का एक For Personal & Private Use Only Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार-हास पाइअसहमहण्णवो अधिष्ठायक देवः 'हारसमुद्दे हारबर-हारवर- हारिअ न [हारीत 1 गोत्र-विशेष, जो हालिज्ज नहालीय] एक जैन मुनि-कुल (?हार)महावरा एत्थ दो देवा महिड्डीया' कौत्स गोत्र की एक शाखा है। 2 पुंस्त्री. उस (कप्प)।(जीव 3, ४-पत्र 367) / वर पुं[°वर] गोत्र में उत्पन्न (ठा ७-पत्र 360; एंदि हालिद्द हारिद्र] 1 हल्दी के तुल्य रंग, 1 हार-समुद्र का एक अधिष्ठाता देव / 2 46; कप्प) मालागारी श्री [ मालाकारी] | पीला वर्ण (मरण 106; ठा ५,१--पत्र द्वीप-विशेष / 3 समुद्र-विशेष / 4 हारवर- एक जैन मुनि-शाखा (कप्प)। 261) / 2 वि. पीला, जिसका रंग पीला समुद्र का एक अधिष्ठाता देव (जीव , 4) हारिअ वि [हारित] 1 हारा हुमा, चूत | हो वह (परण १-पत्र 25; सुम 2, 1, वरभद्द पुं [वरभद्र] हारवर-द्वीप का | प्रादि में पराजित (सुपा 366 महा: भावि)। 15; भगः प्रौप)। 3 न. एक देव-विमान एक अधिष्ठायक देव (जीव 3, 4) 2 खोया हुना, गुमाया हुअा (वव 1; सुपा (देवेन्द्र 132) / 'वरमहाभद्द पु["वरमहाभद्र] हारवर- | 166) / हालिया स्त्री हालिका] देखो हलिआ द्वीप का एक अधिष्ठाता देव (जीव 3, 4) / हारियंद वि [हारिचन्द्र] हरिचन्द्र का, | (राज)। वरमहावर पुं [वरमहावर] हारवर- हरिचन्द्र-कवि का बनाया हुआ (गउड)। हालअ वि [दे] क्षीब, मत्त (दे 8, 66) / समुद्र का एक अधिष्ठायक देव (जीव 3, 4) हारिया स्त्री [हारीता] एक जैन मुनि-शाखा हाव सक [हापय 1 1 हानि करना / 2 वरावभास पुं[वरावभास] 1 एक द्वीप। (राज)। देखो हारिअ-मालागारी / त्याग करना / 3 परिभव करना। 4 लोप 2 एक समुद्र (जीव 3, 4) / वरावभास | हारियायण न [हारितायन] एक गोत्र | करना; 'थंडिलसामायारि हावेई' (वव 1), भह पुं [वरावभासभद्र] हारवराभास हावए (उत्त५, 23; सट्ठि 21 टी)। हावद्वीप का एक अधिष्ठाता देव (जीव 3, 4) हारी स्त्री [हारी] देखो हारि= हारि (उप | इज्जा (दस 8, 41) / वकृ. हार्वित (विसे 'वरावभासमहाभद्द ["वरावभासमहापृ 52 कुप्र 244; पिंग)। 2746) / भद्र] हारवरावभास-द्वीप का एक अधिष्ठायक देव (जीव 3, 4) / वरावभासमहावर पुं| हारीय हारीत] 1 मुनि-विशेष / 2 न. हाव पुं[हाव] मुख का विकार-विशेष (पएह [वरावभासमहावर] हारवराभास-समुद्र गोत्र-विशेष (राज), बंध पुं[बन्ध] 2, ४–पत्र 132; भवि)। का एक अधिष्ठाता देव (जीव 3, 4) / छन्द-विशेष (पिंग)। हाव वि [दे] जंघाल, द्रुतगामी, वेग से दौड़ने'वरावभासवर पुं[°वरावभासवर] हार| हारोस पुं[हारोष] 1 अनार्य देश-विशेष / वाला (दे 8,75) / 2 वि. उस देश का निवासी (पएण १वरावभास-समुद्र का एक अधिष्ठायक देव (जीव | हाव देखो भाव = भाव; 'ईसरहावेण' (अच्यु 3, ४-पत्र 367) / पत्र 58) २५)।हार देखो भार (सुपा 361; भवि)।हाल पुं[दे. हाल] राजा सातवाहन, गाथा हावण वि [हापन] हानि करनेवाला (हे 2, हारअ वि [हारक] नाश-कर्ता (मभि 111) / सप्तशती का कर्ता (दे 8, 66; 2, 36, गा 3; वजा 64) / हारण वि [हारण] ऊपर देखो, 'धम्मत्थ हाविर वि [दे] 1 जंघाल, द्रुतगामी / 2 कामभोगाण हारणं कारणं दुहसयाणं' (पुष्प हाला स्त्री [हाला] मदिरा, दारू (पामा कुप्र दीर्घ, लम्बा। 3 मन्थर / 4 विरत (दे८, 407; रंभा)। 262 धम्म 10 टी) हालाहल पुं[दे] मालाकार, माली (दे 8, हारव देखो हारहारय / हारवइ (हे 4, हास देखो हस हस् / वकु. 'न हासमायो 31) / भवि. हारविस्सइ (स 566) वि गिरं वइज्जा' (दस 7, 54) / / हालाहल पुंस्त्री [हालाहल] 1 जन्तु-विशेष, हारविअ वि [हारित] नाशित (कुमाः सुपा ब्रह्मसर्प, बाम्हनी (दे 6, 60; पान, गा हास सक ! हासय ] हँसाना। हासेइ (हे 512) 62) / स्त्री.ला (दे 8, 15) / 2 त्रीन्द्रिय 3, 146) / कर्म. हासोअइ, हासिज्जइ (हे हारा स्त्री [दे] लिक्षा, जन्तु-विशेष (दे 8, जन्तु-विशेष (पएण १-पत्र 45) / 3 3, 152) / वकृ. हासेंत (प्रोप)। कवकृ. पुंन. स्थावर विष-विशेष (दस 6,1,7; हासिजंत (सुपा 57) / 'हारा देखो धारा (कप्प, गा 785) / गच्छ 2, 4) / 4 पुं. रावण का एक सुभट हास पुं[हास] 1 हास्य, हँसी (प्रौपः गच्छ हारि स्त्री [हारि] 1 हार, पराजय (उप पू | (पउम 56, 33) 2,42, उव; गा 11, 332) / 2 कर्म५२)। 2 पंक्ति, श्रेरिण (कुप्र 344) / 3 हालाहला स्त्री [हालाहला] एक पाजीविक- विशेष, जिसके उदय से हंसी प्राव वह कर्म छन्द-विशेष (पिंग)। / मतानुयायिनी कुम्हारिन (भग १५-पत्र (कम्म 1, 21, 57) / 3 अलंकार-शास्त्रोक्त हारि वि [हारिन] 1 हरण-कर्ता (विसे 656) / रस-विशेष (अणु 135)4 कर वि ['कर] 3245; कुमा)। 2 मनोहर, चित्ताकर्षक हालिअ देखो हलिअ.= हालिक (हे 1, 67; हास्य-कारक (सुपा 243), कारि वि (गउड) / प्राप्र)। [कारिन्] वही (गउड)।११६ For Personal & Private Use Only e Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 646 पाइअसहमहण्णवो हास-हिंड हास पुं[हास] क्षय, हानि (धर्मसं 1164) / इस तरह (गउड 324; सण) / 4 विशेष। हिअय देखो हिअ = हित; 'कुद्धेहि जेहि हास देखो हरिस = हर्ष (प्रौप)। 5 प्रश्न / 6 संभ्रम / 7 शोक / 8 असूया। जो प्रयाणगो' हिअयमग्गम्मि' (उप 768 & पाद-पूरण (कुमा; गउड; गा 242 टी)। हासंकर देखो हास-कर (सुपा 78) / 265, 602, 648; पिंगः हे 2, 217) / हिअयंगम वि [हृदयंगम] मनोहर, चित्ताहासंकुद्दय वि हास्यकुहक] हास्य-जनक हिअ वि [हृत] 1 अपहृत, छीना हुआ | कर्षक (दे 1, 1) / कौतुक-कर्ता (दस 10, 2.) / (णाया १,१६-पच 215 पउम 5, 73: हिआली स्त्री [हृदयाली] काव्य-समस्याहामण वि [हासन] 1 हास्य करानेवाला 30, 20; सुर 6, 175) / 2 नीत, जो . 2 नीत. जो विशेष, गूढार्थक काव्य-विशेष ( वज्जा (पव 73 टी)। 2 हास्य-कर्ता (प्राचा 2, दूसरी जगह ले जाया गया हो वह (पामः 124) / हे 1, 128) / 3 विनष्ट, स्फोटित (पिंड हिइ श्री [हति] 1 अपहरण। 2 न. स्थाहासा स्त्री [हामा] एक देवी (महा)। 415) / 4 प्राकृट, खींचा हाः "हियहियए नान्तर में ले जाना (संक्षि 5) / हामावि वि हासिन हँसाया हुआ (राय)। हिएसय वि [हितैषक] हितेच्छु, हित चाहनेहासिअ / (गा १२३षड् ; कुमा; हे हिअ न [हित] 1 मङ्गल, कल्याण / 2 वाला (उत्त 34, 28) / उपकार, भलाई (उत्त 1, 6; पउम 65, हिएसि वि [हितैषिन] ऊपर देखो (उत्त हासि वि हासिन हास्य-कर्ता (प्राचा 2, 21; उव; ठा 4, 4 टी-पत्र 283; प्रासू। 13, 15, उप 728 टी; सुपा 404; 15, 5) / 14) / 3 वि. हित-कारक, उपकारी (उत्त, पुप्फ 10) / हासिअ वि [हास्य हंसने योग्य, 'चडु 1, 28 26; उब 326; 450; प्रासू | हिओ अ [ह्यस ] गत कल, (मभि 56; पारनं पई मा हु पुत्ति जणहासिनं कुणसु' 14) / 4 स्थापित, निहित (भत्त 78) / प्राप; पि 134) / (गा 605 हे 3, 105) / कर वि [कर] 1 हितकारक (ठा 6) / 2 हिंग [दे] जार, उपपति (दे 1,4) / हासिअ देखो भासिअ = भाषित (नाट पं. दो उपवास (संबोध 58) / 3 एक गिन टिकनिक विक्र 61) / वणिक् का नाम (पउम 5, 28) / कार वि गाछ (पराण १--पत्र 34) / 2 हींग;"डाए दासीअ न [दे. हास्य] हास, हँसी (दे 8, [कार] हित-कारक (श्रु 146) / यर लोणे हिंगू संकामण फोडणे घूमे (पिंड 250% 62) / देखो कर (पउम 65, 21) / स 258 चारु 7) / "सिव पु [शिव] हाहक्कार देखो हाहाकार, 'हाहाकारमुहरवा' | हिअ देखो हिअय = हृदय (हे 1, 266 व्यन्तर देव-विशेष (दसनि 1, 66) / (पउम 17, 10) / कुमा; आचाः काप)। "इट्ठ वि [इष्ट] हिंगुल पुन [हिङ्गल] पार्थिव धातु-विशेष, हाहा हाहा] गन्धर्व देवों की एक जाति मन: प्रिय (पउम 85, 23) / उड्डावण वि हिंगुल, सिंगरफ (परण १-पत्र 25, ती (सुपा 56; कुमाः धर्मवि 48) / 2 अ. [°उड्डायन] चिताकर्षण का साधन (णाया 2; जो 3; सुख 36, 75) / विलाप, हाहाकार, शोकध्वनि (पाप्र; भग 1, १४-पत्र 187) / 2 चित्त को शून्य 7, ६--पत्र 305) / कय न [कृत] + हिंगुल फूंन [हिङ्गल] ऊपर देखो (उत्त 36, बनानेवाला (विपा 1, २-पत्र 36) / हाहाकार, शोक-शब्द (गाया 1, ६-पत्र / 75, कप्प)। 'हिअ न घृत] घी (सुख 18,43) / 157) / कार पुं[कार] वही (महा; हिंगोल, पूंन दे1मृतक-भोजन, किसी के भविः वेणी 136) / भूअ वि [भूत] हिअउल्ल (अप) देखो हिअय = हृदय (कुमा)। मरण के उपलक्ष्य में दी जातो जमीन, हाहाकार को प्राप्त (भग 7, ६-पत्र | हिअंकर ' [हितंकर] राम-पुत्र कुश के पूर्व श्राद्ध / 2 यक्ष आदि के यात्रा के उपलक्ष्य में 305) / 'रव पुं [व] हाहाकार (महा; जन्म का नाम (पउम 104, 26) / किया जाता जीमनवार (प्राचा 2,1, सुपा 136; भवि)। हूहू [हूहू] संख्या हिअड ) (अप) देखो हिअय-हृदय (हे विशेष, 'हाहाहूहूअंग' को चौरासो लाख से हिअडल्ल) 4, 350 मि 566; राण)। हिंचिअ न [दे] एक पैर से चलने की बालगुनने पर जो संख्या लब्ध हो वह (इक)हिअयन हदया 1 अन्तःकरण, हिया, मन क्रीड़ा (दे. 8, 68) 'हूहूअंग न [हूहूअङ्ग] संख्या-विशेष, (हे 1, 269; स्वप्न 33, कुमा; गउड; दं | हिंजीर न [हिजीर] शृंखलक, सिकरी, 'अमम' को चौरासी लाख से गुनने पर जो 46 प्रासू 44) / 2 वक्षस, छाती (से 4, सांकल (दे 6,116 गउड)। संख्या लब्ध हो वह (इक)। 21) / 3 पर ब्रह्म (प्राप्र)। गमणीअ वि हिंड सक [हिण्ड् ] 1 भ्रमण करना / 2 हि अहि] इन अर्थों का सूचक अव्यय-१ [गमनीय] हृदयंगम, मनोहर (सम 60) / जाना, चलना / हिंडई (सुपा 384 महा), अवधारण, निश्चय (स्वप्न 10) / 2 हेतु, हारि वि [हारिन् ] चित्ताकर्षक (उप | हिडिज्जा (प्रोध 254) / कर्म, हिंडिज(प्रासू कारण (कुमा 8, 17; कप्पू)। 3 एवम्, / 728 टी)। 40) / वकृ. हिंडंत (गा 138) / कृ. हिंडि For Personal & Private Use Only Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडा वि [हिण्डक 1 T (अणु 14 वध क हिडग-हित्था पाइअसहमहण्णवो 647 यव्व (उप पृ 50; महा)। संकृ. हिंडिय हिंदोलग न [हिन्दोलन] भूलनाः दोलन हिक्कास [दे] पङ्क; कादा (दे 8, 66) / (महा) / हेकृ. हिंडिउं (महा)। हिक्किअ न [दे] हेषा-रव, अश्व-शब्द (दे 8, हिंडग वि [हिण्डक] 1 भ्रमण करनेवाला हिंबिअ न [दे] एक पैर से चलने की बाल(पंचा 18, 8) / 2 चलनेवाला (अणु क्रीडा (दे 8,68) / हिज्ज देखो हर = हु। | हिंस सक [हिंस] 1 वध करना। 2 पीड़ा 126). हिज देखो हा। हिंडण न [हिण्डन] 1 परिभ्रमण, पर्यटन करना / हिंसइ, हिसई (आचा; पव 121) / हिजा) अ[दे. ह्यस ] गत कल (षड्; (पउम 97, 18 स 46) / 2 गमन, गति भूका. हिसिसु (प्राचा: पब 121) / भवि. हिजो दे८,६७, पाप, प्रयो 13; पि नी (उप 1017) / 3 वि. भ्रमण-शील (दे 2, हिंसिस्सइ, हिसिस्संति, हिंसेही (पि 516 134) / प्राचा; पव 121) / वकृ. हिंसमाण (प्राचा)। हिज्जो अ [दे] अागामी कल (दे 8, 67) / " हिंडि स्त्री [हिण्डि] परिभ्रमण, पर्यटन कृ. हिंस, हिंसियव्व (उप 625; पण्ह 1, १-पत्र 5, 2, १-पत्र 10; उव)। हिट वि [दे] आकुल (दे 8, 67) / 'वासुदेवाइणो हिंडी राय-वंसुब्भवाण वि / हिट्ठ देखो हेद (सुर 4, 225; महा; सुपा तारुण्णेवि कहं हुंता न हुँतं जइ कम्मयं हिंस वि [हिंस्र] 1 हिंसा करनेवाला, हिंसक (कर्म 16) / (उत्त 7, 5, पण्ह 1, १-पत्र 5; विसे हिंडि पुं[हिण्डिन्] रावण का एक सुभट 1763; पंचा 1,23, उप 625; स 50) / हट्ट देखो हट्ठ% हृष्ट (उव; सम्मत्त 75) / (पउम 56, 23) / प्पदाण, °पियाण न [प्रदान] हिंसा के हिट्ठाहिड वि [दे] पाकुल (दै 8, 67) / हिंडिअ वि [हिण्डित] 1 चला हुआ, चलित, साधन-भूत खड्ग आदि का दान (प्रौपः हिट्ठिम देखो हेटिम (सिरि 708 सुज 10, गत (महा 34) / जहाँ पर जाया गया हो राज)। -5 टी)। वह; हिंडियं असेसं गाम' (महा 61) / 3 हिंस' देखो हिंसा (पण्ड 1, १-पत्र 5) / हिडिल्ल देखो हेटिल्ल (सम 87) / न. गति, गमन, विहार (गाया १,१-पत्र प्पेहि वि [प्रेक्षिन] हिंसा को देखनेवाला हिडिंब [हिडिम्ब] 1 एक विद्याधर राजा 165; अोघ 254) / (ठा 5, १-पत्र 300) / (पउम 10, 20) / 2 एक राक्षस (वेणी हिंडअ पुं [दे. हिण्डुक] आत्मा, जीव, | हिंसअ) वि [हिंसक] हिंसा करनेवाला 177) / 3 देश-विशेष (पउम 18, 65) / जन्मान्तर माननेवाला प्रात्मा, हिन्दु (भग हिंसग (भगा योघ 752; उत्त 36, / 26, हिडिंबा स्त्री [हिडिम्बा] एक राक्षसी, हिडिम्ब २०,२-पत्र 776) / 256; उवः कुप्र 26) / राक्षस की बहिन (हे 4, 266) / हिंडोल न [दे] 1 खेत में पशुओं को रोकने हिंसण न [हिंसन] हिंसाः 'अहिंसणं सब हिडोलणय देखो हिंडोलग (दे 8, 76) / की आवाज / 2 क्षेत्र की रक्षा का यन्त्र (दे जियाण धम्मो (सत्त 42) / हिड्ड वि [दे] वामन, खर्व (दे 8, 67) / हिंसा स्त्री [हिंसा] 1 वध, घात (उवाः | हिणिद वि [भणित] उक्त, कथितः ‘खणपाहिंडोल देखो हिंदोल (स 521) / महाः प्रास 143) / 2 वध, बन्धन आदि से हरिणा देअरजाप्रा ए सुहम कि ति दे हहिंडोलण न दे] 1 रत्नावली, रत्नमाला। जीव को की जाती पीड़ा, हैरानी (ठा 4, (हि)रिणदा' (गा 963) / 2 क्षेत्र की रक्षा को आवाज, खेत में पशु १-पत्र 188) / | हिण्ण सक [ग्रह ] ग्रहण करना / हिरणइ आदि को रोकने का शब्द (दे 8, 36) / हिंसा स्त्री हेषा] अश्व का शब्द, 'गयगजि (धात्वा 157) / हिंडोलय देखो हिंडोल (दे 8, 69) / हयहिंसं च तप्पुरमो केवि कुव्वंता' (सुपा हिण्ण (अप) देखो हीण (पिंग)। 194) / "हिण्ण देखो भिण्ण (गा 563) / हिंताल पुं[हिन्ताल] वृक्ष-विशेष (उप हिंसिय वि [हिंसित] हिंसा-प्राप्त (राज)। / हित) (पै) देखो हिअअ = हृदय (प्रात: 1031 टीः कुमा)। हितप हिंसिय न [हेषित] अश्व-शब्द (पउम 6, षड्; वाम 16; पि 254) हे 4, हिंद सक [ग्रह ] स्वीकार करना, ग्रहण 31%; कुमाः प्राकृ 124) / करना / हिंदइ (प्राकृ 70, धात्वा 157) / 180; दस 3, 1 टी)। हित्थ वि[दे] 1 लजित (दे 8, 67 धण कर्म, हिदिजइ (पात्वा 157) / संकृ. हिंसी स्त्री [हिंसी] लता-विशेष (गउड)। | 6) / 2 त्रस्त, भय-भीत (दे 8, 67 हे 2, हिंदिऊण (प्राकृ 70 घात्वा 157) / हिंह पुं[दे] हिन्दू, हिन्दुस्तान का निवासी 136, प्राप्र; गा 386, 763; सुर 16, हिंदोल सक [हिन्दोलय ] भूलना / वकृ.! (पिंग)। 61; कुमा)। 3 हिंसित, मारा हुआ. 'हित्थो हिंदोलअंत (कप्पू)। हिक्का स्त्री [दे] रजको, धोबिन (दे 8, 66) वण हित्थो मे सत्तो, भरिणय व न भरिणयं हिंदोल पुं [हिन्दोल] हिंडोला, झूलना, हिका स्त्री [हिका] रोग-विशेष, हिचकी (सुपा / मोसं' (वव 1) / दोला (कप्पू)। 486) / |हित्था स्त्री [दे] लजा, शरम (दे 8, 67) / For Personal & Private Use Only Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र (पान कही (उप / हिलिहीत] लान 648 पाइअसद्दमहण्णवो हिदि-हीयमाणय हिदि प[हृदि हृदय में 'हिदि निरुद्धवाउच' 'गब्भट्ठिप्रस्स जस्स उ हिला ! स्त्री [दे] वालुका, बालू, रेती (दे८, (विसे 220) / हिरगणवुटी सचणा पडिया। हिल्ला 66) तेणं हिरएणगब्भो हिल्लिय पुंस्त्री [दे] कीट-विशेष, त्रीन्द्रिय जन्तु हिद्ध वि [दे] स्रस्त, खिसका हुआ, खिसक जयम्मि उवगिजए उसभो।' की एक जाति (परण १-पत्र 45) कर गिरा हुआ (षड् ) / (पउम 3,68) / - हिल्लिरी स्त्री [दे] मछली पकड़ने का जालहिम न हिम] 1 तुषार, प्राकाश से गिरता हिरि प्रकही] लजित होना / हिरिपामि विशेष (विपा १,८-पत्र 85) / जल-करण (पाम आचा: से 2, 11) / 2 (अभि 255) / हिल्लूरी स्त्री [दे] लहरी, तरङ्ग (दे 8, 67) / चन्दन, श्रीखण्ड (से 2, 11) / 3 शीत, हिरि' देखो हिरी (गाया 1, १६-पत्र 217) | हिल्लोडण न [6] खेत में पशुओं को रोकने ठंढ़ी, जाड़ा (बृह 1) / 4 बर्फ, जमा हुआ षड् ),म वि [मत् ] लजालु, शरमिन्दा | की प्रावाज (दे 8, 66) / जल (कप्पा जी 5) / 5. छठवीं नरक (उत्त 11, 13, 32, 103; पिंड 526) हिव देखो हव=भू / हिवइ (हे '4, 238). पृथिवी का पहला नरकेन्द्रक-नरक-स्थान बेर पु र] तृण-विशेष, सुगन्धवाला (देवेन्द्र 12) / 6 ऋतु-विशेष, मार्गशीर्ष तथा हिसोहिसा स्त्री [दे] स्पर्धा (दे 8, 69) (पामा उत्तनि ३)पौष का महीना (उप 728 टी) कर j हिरि पुं [हिरि] भालूक भालू का शब्द (पउम ही मही] इन अर्थों का सूचक अव्यय[कर] चन्द्रमा, चाँद (सुपा 51) गिरि 1 विस्मय, आश्चर्य (सिरि 473) / 2 दुःख ["गिरि] हिमाचल पर्वत (कुमाः भविः (उप 567 टो)। 3 विषाद, खेद / 4 शोक, हिरिअ वि[हीत] लज्जित (हे 2, 104) / सण) धाम पुं [धामन] वही (धम्म दिलगीरी (श्रा 16; कुप्र 436; कुमाः रंभा हिरिआ स्त्री [ह्रीका] लज्जा, शरम (उप 9 टो) नग पुं [नग] वही (उप पृ मन 37) / 5 वितर्क (सिरि 268) / 6 706, कुमा)। 348) / यर देखो कर (पान) °व, वंत कन्दर्प का अतिरेक / 7 प्रशान्त-भाव का पुं[वत् ] 1 वर्षधर पर्वत-विशेष: 'हिमवो हिरिंब न [दे] पल्वल, क्षुद्र तलाव (दे 8, अतिशय (अणु 136) / य महाहिमवो' (पउम 102, 105; उवा ही देखो हिरी (विसे 2603) म वि [ मत् ] हिरिमंथ दे] चना, अन्न-विशेष (दे८, कप्प; इक)। 2 हिमाचल पर्वत (पि 396) / लज्जाशील, लज्जालु (सूम 1, 2, 2, 18)* 3 राजा अन्धकवृष्णि का एक पुत्र (अंत 3) / 70) / देखो हरिमंथ / ही अ [हीं ] मंत्राक्षर-विशेष, मायाबीज 4 एक प्राचीन जैन मुनि, जो स्कन्दिलाचार्य हिरिली स्त्री [दे] कन्द-विशेष (उत्त 36 | (सिरि 1210) के शिष्य थे; 'हिमवंतखमासमणे वंदे' (दि हीण वि [हीन] 1 न्यून, कम, अपूर्ण (उदाः 52) वाय पुं [पात] तुषार-पतन | हिरिवंग पू[दे] लगुड, लट्ठी (दे.८, 63) / णाया 1, १४–पत्र 190) / 2 रहित, (माचा) सीयल पुं[°शीतल] कृष्ण हिरी स्त्री [ह्री] 1 लज्जा, शरम (घाचा; हे | वजितः 'हयं नाणं कियाहीणं' (हे 2,104) / पुद्गल-विशेष (सुज २०)°सेल पुं[शैल 2, 104) / 2 महापद्म-ह्रद की अधिष्ठात्री 3 अधम, हलका। 4 निन्द्य, निन्दनीय हिमालय पर्वत (उप 216 टी) गम पुं देवी (ठा 2, ३-पत्र 72) / 3 उत्तर (प्रासू 125, उप 728 टो)। 5 पं. [गम] ऋतु-विशेष, हेमन्त ऋतु (गा रुचक-पर्वत पर रहनेवालो एक दिक्कुमारी प्रतिवादि-विशेष (हे 1, 103) जाइल्ल 330) *णी स्त्री [नी] हिम-समूह देवी (ठा ८-पत्र 437) / 4 सत्पुरुष वि [जातिक] अधम जाति का, नीच (कुप्र ३६७)ीयल पुं [चल] हिमालय नामक किंपुरुषेन्द्र की एक अन महिषी (ठा | जाति का (उप 728 टी)। बाड पं पर्वत (सुपा 632) लय पुं[लय] 4, १-पत्र 204) / 5 महाहिमवान पर्वत [वादिन] वादि-विशेष (सुपा २८२)वही अर्थ (पउम 10, 13; गउड)। का एक कूट (इक)। 6 देवप्रतिमा-विशेष हीण वि [हींण] भीत (विपा 1, 2 टीहिर देखो किर= किल (हे 2, 186; कुमा) (णाया 1, 1 टी-पत्र 43) पत्र 28) / हिरीअ देखो हिरिअ (हे 2, 104). हिरडी स्त्री [दे] चील पक्षी की मादा (दे 8, हीमाणहे / (शौ) अ. 1 विस्मय, पाश्चयं / हिरे देखो हरे (प्राप्र)। हीमादिके) 2 निर्वेद (हे 4, 282; कुमाः हिरण्ण) न [हिरण्य] 1 रजत, चाँदी हिला स्त्री [दे] भुजा, हाथः प्राकृ९८; मृच्छ 202, 206). हिरन्न / (उवाः कप्प)। 2 सुवर्ण, सोना 'बच्चामो पेच्छंता घणदलपावरण हीयमाण देखो हा / (माचाः कप्प) / 3 द्रव्य, धन (सूम 1, 3, साहुलिहिलामो।' हीयमाणगन [हीयमानक ] अवधिज्ञान 2,8) क्ख पु [क्ष एक दैत्य (से (पृथ्वी चं०-शांतिसूरि) हीयमाणय का एक भेद, क्रमशः कम होता 4, 22) + गब्भ पुं ["गर्भ] 1 ब्रह्मा / साहुलिहिलामो त्ति शाखाभुजाः / जाता अवधिज्ञान (ठा ६--पत्र 370, 2 प्रथम जिन भगवान् (पउम 106, 12) / (पृथ्वी० चं० प्रथमभव. संकेतकार रत्नप्रभकृत)। एंदि)। For Personal & Private Use Only Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीर-हुण पाइअसद्दमहण्णवो 646 हीर देखो हर-हर (हे 1,51, कुमा; षड्) हुप्रखिल] इन अर्थों का द्योतक अव्यय- हुंकार पु[हुङ्कार] 1 अनुमति-प्रकाशक शब्द, हीर पुंहीर 1 विषम भंग, असमान छेद 1 निश्चय (हे 2, 198 से 1,15, कुमा; हाँ (विसे 565, से 10, 24; गा 356; (पएण १-पत्र 37) / 2 बारीक कुत्सित प्राकृ 78 प्रासू 54) / 2 ऊह, वितर्क | प्रात्मानु 6) / 2 हुँ' प्रावाज, 'हूं' ऐसा तृण, कन्द आदि में होती बारिक रेखा (जीव (हे 2, 198 कुमाः प्राकृ 78) / 3 संशय, शब्द (हे 4, 422; कप्पू: सुर 1, 246)3, 4; जी 12) / 3 ऍन. हीरा, मरिण- संदेह (हे 2, 198; कुमा)। 4 संभावना हुंकारिय न [हुङ्कारित ] 'हूं' ऐसी की विशेष (स 202, सिरि 1186; कप्पू)। (हे 2, 168 कुमाः प्राकृ 78) / 5 विस्मय, | हुई प्रावाज (स 377) / 42 - विशेष (पिग)। 5 दाढा का अन पाश्चर्य (हे 2, 198; कुमा)। 6 किन्तु, | हुंकुरव [दे] अंजलि, प्रणाम (दे 8, 71) / भाग (से 4, 14) / परन्तु (प्रासू 101) / 7 अपि, भीः 'ह हुंड न [हुण्ड] 1 शरीर की आकृति-विशेष, हीर पुन [दे] 1 सूई की तरह तीक्ष्ण मुंह अविसहत्थम्मि व त्ति' (धर्मसं 140 टी)। शरीर का बेढब अवयव (ठा ६-पत्र 357; वाला काष्ठ आदि पदार्थ (दे 8, 70; कस)। 8 वाक्य की शोभा (पंचा 7, 35) / 6 सम 44, 146) / 2 कर्म-विशेष. जिसके 2 भस्म (दे 8,70) / 3 प्रान्त, अन्त भाग पादपूत्ति, पाद-पूरण (पउम 8, 146 उदय से शरीर का अवयव असंपूर्ण बेढब(गउड)। कुमा)। प्रमाण-शून्य अव्यवस्थित हो वह कर्म (कम्म हीरंत देखो हर - हृ / हु / देखो हव = भू / हुअइ, हुएइ, हुंति, 1, 40) / 3 वि. बेढब अंगवाला (विपा हीरणा स्त्री [दे] लाज, शरम (दे 8, 67; हुअ हुइरे, हुअइरे, हुज्ज, हुएज, हुएइरे, 1. १-पत्र 5)- वसप्पिणी श्री हुएज्जइरे (पि 476; हे 4, 61; पि 458% षड्)। [वसर्पिणी] वर्तमानहीन समय (विचार हीरमाण देखो हर = हु। 466) / भवि. हुक्खामि, होक्खामि, हुक्खं (उत्त 2, 12; सुख 2, 12) / वकृ. हुंत हुंडी स्त्री [दे] घटा (पान) हील सक [हेलय 1 अवज्ञा करना, (हे 4, 61, सं 34) / हुंबउट्ट [दे] वानप्रस्थ तापस की एक तिरस्कार करना। 2 निन्दा करना। 3 कदर्थन करना, पीड़ना। होलइ (उवः सुख जाति (प्रौपा भग 11, ६-पत्र 515; | हुअ देखो हुण-हु। हुअइ (प्राकृ 66) / 2, 19), होलंति (दस 6, 1, 2, प्रासू वकृ. हुअंत (धात्वा 157) / हुँहुय अक [हुहु+कृ] 'हुँ' 'हुँ' प्रावाज 26) / वकृ. हीलंत (सट्ठि 86) / कवकृ. हुअ वि [हुत] 1 होमा हुअा, हवन किया करना / बकृ. हुहुयंत (चेइय 460) / हीलिज्जत, हीलिजमाण (उप पृ 133; हुआ (सुपा 263; स 55 प्राकृ 66) / 2 हुञ्च देखो पहुच्च %D प्र + भू / णाया 1, ८--पत्र 144; प्रासू 165) / न. होम, हवन (सूत्र 1, 7, 12, प्राकृ हुटू देखो हो? (प्राचाः पि 84 338) / 66), "वह पुं[वह] अग्नि, प्राग (गा कृ. हीलणिज (णाया 1, 3), हीलियव्य (पएह 2, १--पत्र 100; 2, ५--पत्र 211; पात्र; णाया 1, १-पत्र 63, हुड पुं[दे] 1 मेष, मेढ़ा (दे 8, 70) / 2 150) गउड), सि पु [श] अग्नि (गउड श्वान, कुत्ता (मृच्छ 253) / हीलण स्त्रीन [हेलन] 1 अवज्ञा, तिरस्कार / अझ 150; भविः हि 13) सन पुं हुडुअ पुं[दे] प्रवाह (दे 8,70) / 2 निन्दा (सुपा 104) / स्त्री. णी (पएह 2, [शन] वही अर्थ (भगः से ५,५७पान) हुड़क्क पुंस्त्री [दे. हुडुक्क] वाद्य-विशेष (प्रौप; १-पत्र 100%; प्रौप; उवः दस, 1, 7 | हुअ देखो हूअ-भूत (प्रातः कुमाः भविः कप्पू: सण; विक्र 87) / स्त्री. का (रायः सट्ठि 100) / सरण) सुपा 50; 175; 242) / हीला स्त्री [हेला] ऊपर देखो (उवः उप पू हुअंग देखो भुअंग; "चंदनलट्ठिव्व हुअंगदूमिया हुड' हुडम पृ [दे] पताका, ध्वजा (दे 8, 700 पान)। 216; उप 142 टी)। किं णु दूमेसि' (गा 626) / हुड्ड पुंस्त्री [दे] होड़, बाजी, पण, शत, दांव / हीलिअ बि [हीलित] 1 निन्दित / 2 / हुअग देखो भुअग (गा 809; पि 188) M स्त्री. ड्डा (दे 8, 70; सुपा 276; पव अपमानित, तिरस्कृत (सुख 2, 17 अोघ हप[ हुम् ] इन प्रों का सूचक अव्यय- 38); 'हुड्डाहु९ सुयंतेहि' (सम्मत्त 143) / 526; कस; दस 6, 1, 3) / 3 पीड़ित, 1 दान / 2 पृच्छा, प्रश्न (हे 2, 167 देखो होड्ड / कश्रित (प्राचा 2, 16, 3) / प्राप्र, कुमा)। 3 निवारण (हे 2, 197; हुण सक [हु] होम करना। हुण्इ (हे 4, हीसमण न [दे. हेषित] हेषारव, अश्व- कुमा)। 4 निर्धारण (प्राप्र रंभा)। 5 241; भग 11, ६-पत्र 516; कुमा)। घोड़े का शब्द (दे 8, 68 हे 4, 258) / स्वीकार (श्रा 12; कुप्र 345) / 6 हुङ्कार, कर्म. हुव्वइ, हुणिज्जइ, हुणिज्जए (हे 4, हीही / (शौ) अ. विदूषक का हर्ष-सूचक हुँ' शब्द; 'हुँ करंति घुसव' (सुपा 462) / 242, कुमा)। कवक हुणिजमाग (सुपा हीहीभोमव्यय (हे 4, 285; कुमा; प्राक 7 अनादर (सिरि 153) / 67) / संकृ. हुणिऊण, हुणेऊग, हुणित्ता 17 मोह 41) / हुंकय पुं[] अंजलि, प्रणाम (दे 8,71) (षड् ; भग 11, ६-पत्र 516). For Personal & Private Use Only Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेच्च / देखो हा-हा। पाइअसहमहण्णवो हुणण-हेम हुणण न [हवन होम (सुपा 63) / हुव्वंत देखो धुव्वंत = धुव = धाव् (से 6, के फण की तरह किए हुए हाथ से निवारण हुणिअ देखो हुअ = हुत (सुपा 217 मोह (दे८,७२)। 107) / | हुस्स देखो हस्स = ह्रस्व (प्राचा; औप; हेउ पुं[हेतु] 1 कारण, निमित्त 'हेऊई' (राय हुत्त वि [दे] अभिमुख, संमुख (दे 8, 70; सम्मत्त 190) / 26, उवा, पएह २,२-पत्र 114 कप्प; हे 2, 1580 गउड; भवि)। हुहुअ पुंन [हुहुक] देखो हूहूअ (अणु 66; गउड जी 51 महा पि 358) / 2 अनुमानहुत्त देखो हूअ- हूत (हे 2, 66) / 176) / वाक्य, पंचावयव वाक्य (उत्त, ; सुख 6, हुत्त देखो हूअ = भूत (गा 245; 896) / हुहुअंग पुंन [हुहुकाङ्ग] देखो हूहूअंग 8) / 3 अनुमान का साधन (धर्मसं 77; ठा हुमआ देखो भुमआ (गा 505 पि 188) / (अणु 66 176) / 4, 4 टी-पत्र 283) / 4 प्रमाण (अणु)। हुर देखो फुर = स्फुर् / वकृ. 'कंतीए हुरंतीए' हुहुरु [हुहुरु] अनुकरण-शब्द-विशेष, "वाय पुं[वाद] 1 बारहवाँ जैन अंग-ग्रन्य आदि (कुप्र 420) / 'हुहुरु' ऐसा शब्द (हे 4, 423; कुमा)। दृष्टिवाद (ठा १०-पत्र 461) / 2 तर्कवाद, हुरड पुत्री [दे] तृण प्रादि से कुछ कुछ हअ देखो भूअ% भूत (हे 4, 640 कुमा; युक्तिवाद (सम्म 140 142) / पकाया हुआ चना आदि धान्य, होला-होरहा श्रा 14 16 महा; सार्ध 105) / हे उअ वि [हैतुक] 1 हेतुवाद को माननेवाला, (सुपा 386 473) / तर्कवादी 'जो हेउवायपक्खम्मिहेउयो प्रागमे | हूअ वि [हूत] अाहूत, प्राकारित (हे 2, हुरत्था प [दे] बाहर (प्राचा 1, 8, 2, य प्रागमियो' (सम्म 142; उवर 151) / ___66) / 1, 3, 2,1, 3, 2, कस। 2 हेतु का, हेतु से संबन्ध रखनेवाला / स्त्री. | हूअ देखो हुअ = हुतः ‘मन्ने पंचसरो पुरा हुरुडी स्त्री [दे] विपादिका, रोग विशेष (दे उई (विसे 522) / भगवया ईसेण हूप्रो सयं, कोहंधेण समासुगोवि 8, 71) / सधणुदंडोवि णित्तानले' (रंभा 25) / हुल सक [क्षिप्] फेंकना। हुलइ (हे 4, हेच्चाणं। 143; षड्)। हूण पुं [हूण 1 एक अनार्य देश / 2 वि. हेज देखो हर = हु। हुल सक [ मृज् ] मार्जन-करना, साफ करना। उसका निवासी मनुष्य (पएह 1, १-पत्र हेतु स्त्री [अधस ] नीचे, गुजराती में 'हे' हुलइ (हें 4, 105; षड् ) / 14; कुमा)। 'नग्गोहहेटुम्मि' (सुर 1, 205; पि 107) हूण देखो हीण = हीन (हे 1, 103; षड़)। हुलण वि [मार्जन] सफा करनेवाला (कुमा हे 2, 141; कुमा; गउड); 'हेटुनो' (महा)। हूम पुं[दे] लोहार (दे 8,71) / स्त्री. 'ट्ठा (प्रौपः महा; पि 107; 114) / हूसण देखो भूसण (गा 655; पि 188) / हुलण न [क्षेपण] फेंकना (कुमा)। मुह वि [मुख प्रवाङ मुख; जिसने मुंह हूहू पुं [हूहू] गन्धर्व देवों की जाति (धर्मवि हुलिअ वि [दे] 1 शीघ्र, वेग-युक्त; 'मइ | 48 सुपा 56) / नीचा किया हो वह (विपा 1, ६–पत्र 68 दे 1, 63; भवि)। वणि वि [ अवनी] पवणहुलिए' (दे 8, 56) / 2 न. शीघ्र, हूहूअ पुंन [हूहूक] संख्या-विशेष, 'हूहूअंग' महाराष्ट्र देश का निवासी, मरहट्टा-मरहठा जल्दी, तुरंत (पराह १,१-पत्र 14; स को चौरासी लाख से गुनने पर जो संख्या (पिंड 616) / 350; उप 728 टी)। लब्ध हो वह (ठा 2, ४-पत्र 86; अणु हेट्ठिम / वि [अधस्तन] नीचे का (सम हुलुभुलि स्त्री [दे] कपट, दम्भ (नाट-मृच्छ 247) / हेढिल्ल 167 ४१भगः हे 2, 163 सम 282) / हूहूअंग पुंन [हूहूकाङ्ग] संख्या-विशेष, 87 षड् प्रौप)। हुलुब्धी स्त्री [दे] प्रसव-परा, निकट भविष्य 'अवव' को चौरासी लाख से गुनने पर जो हेडा स्त्री [दे] 1 घटा, समूह (सुपा 386; में प्रसव करनेवाली स्त्री (दे 8,71) / संख्या लब्ध हो वह (ठा 2, ४-पत्र 86; 530) / 2 घूत आदि खेलने का स्थान, 'हुल्ल देखो फुल्ल = फुल्ल (भवि)। अणु 247) / अखाड़ा (धम्म 12 टी)। हुव देखो हुग = हु / हुवइ (प्राकृ 66) / हे महे] इन अर्थों का सूचक अव्यय -1 हुव देखो हव = भू / हुवंति (हे 4, 60 संबोधन / 2 अाह्वान। 3 असूया, ईर्ष्या (हे हेदिस / 1 (प्रशो) देखो एरिस (पि 121) / प्राप्र)। भूका. हुवीन (कुमा 5, 88) / 2, 217 टि; पि 71, 403; भवि) / हेपिअ वि [दे] उन्नत, ऊँचा (षड् ) / भवि. हुविस्सति (पि 521) / वकृ. हुवंत, | हेअ देखो हाहा / हेम न [हेम] 1 सुवर्ण, सोना (पान जं 4 हुवमाण, हुवेमाण (षड्) / संकृ. हुविअ हेअ देखो भेअ = भेद (गा 827) / औप; संक्षि 17) / 2 धत्तूरा। 3 मासे का (नाट-चैत 57) / हेअंगवीण न [हैयङ्गवीन] 1 नवनीत, परिमाण / 4 पुं. काला घोड़ा। 5 वि. हुव (अप) देखो हूअ% भूत (भवि)। मक्खन। 2 ताजा घी (नाट–साहित्य पंडित (संक्षि 7) / 6 पुं. एक विद्याधर हुव (अप) देखो हुअ = हुत (भवि): 236) / राजा (पउम 10, 21) / "चंद पुं[°चन्द्र] हुव्य 'देखो हुण = हु। हेआल पुं[दे] हस्त-विशेष से निषेधः साप / 1-2 विक्रम की बारहवीं शताब्दी के दो For Personal & Private Use Only Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमंत-होरण पाइअसहमण्णवो सुप्रसिद्ध जैन प्राचार्य तथा ग्रन्थकार (दे८, हेरणि [हैरण्यिक] सुवर्णकार (उप 156; 177; भगः प्रापः पि 466) / 77H सुपा 658) / 3 विक्रम की पनरहवीं पृ 210) / भूका. होत्था, होहोन (कप्पः प्राप्र)। भवि. शताब्दी का एक जैन मुनि (सिरि 1341) / हेरन्नवय देखो हेरण्णवय (ठा 2, ३-पत्र होहिइ, होहिति, होहामि, होहिमि, होस्, जाल न [जाल] सुवर्ण की माला (प्रौप)। 67 76) / होस्सामि, होक्खइ, होक्खं (ह 3, 166; 'तिलय पुं [तलक] विक्रम की चौदहवीं हेरिअ पु[हरिक] गुप्त चर, जासूस (सुपा 167 166; प्राप्र; पि 521), होसइ शताब्दी का एक जैनाचार्य (सिरि 1340) / 464, 586) / (अप) (हे 4, 388) / कम. होइजइ, पुर न [पुर] एक विद्याधर-नगर (इक)। हेरिव [देहेरम्ब] विनायक, गणेश (दे. होइज्जए, होईप्राइ (षड : पि 476) वकृ. °मय वि [मय सोने का बना हुया (सुपा 8, 72; षड्) / होत, होमाण (हे 3, 180; 4, 355; 88) / महिहर महिधर] मेरु पर्वत | हेरुयाल सक [दे] क्रुद्ध करना, गुस्सा उपजाना। 372; कुमाः पि 476) / संक. होऊण, (गउड)। मालिगं श्री माटिनो एक ख्यालंति (णाया १,८--पत्र 144) / होऊणं, होअऊण, हाइऊण, हविय, दिक्कुमारी देवा (एक) / 'व बन] हेला स्त्री [हेला] 1 स्त्री की शृङ्गार-संबन्धी होत्ता (गउड पि 585: 586 कुमा)। | हेकृ. होउं, होत्तर (महा; पि 475: कप्प)। [विमल एक जैन प्राचार्य (कुम्मा 35) / 1.55) / 3 अनायास, अत्प प्रयास, सहलाई, कृ. होयव्य (कप्प; महा, उव, प्रासू 16; भि [भ] चौथी नरक-पृथिवी का एक | सरलता (से 1, 55, कप्पू: प्रवि 11; पि नरक-स्थान (निर 1, 1) / हो म [हो] इन प्रों का सूचक अव्यय-१ हेमंत [हेमन्त 1 ऋतु-विशेष, मगसिर या हेला श्री [दे. हेला] वेग, शीघ्रता (दे 8, विस्मय, प्राश्चर्य (पाना नाट-मृच्छ 112) / अगहन तथा पोस या पुस महिना (पान प्राचा 71 कप्पू प्रवि 11; पि 375) / 2 संबोधन, आमन्त्रण (संक्षि 47 उप 567 कप्पः कुमा)। 2 शीतकाल (दस 3, 12) / ! हेलिय पुं [हैलिक] एक तरह की मछली टी)। (जीव 1 टी-पत्र 36) / हेमंत वि [हेमन्त हेमन्त ऋतु में उत्पन्न (सुज १२-पत्र 216) / हेलअ न [दे] क्षुत. छींक (दे 8, 72) / होंड देखो हुड (विचार 507) / हेलक्का स्त्री [दे] हिका, हिचकी (दे 8, हेमतिअ वि [हैमन्तिक] ऊपर देखो (कप्पा हो? ' [ओप्ट] होंठ, प्रोठ (प्राचा)। प्रौप; गा 66, राय 38) / हेल्लि (अप) महले] सखी का आमन्त्रण, होड्ड देखो हुड्ड; 'तो हं छोडेमि होडो' (सुपा हेमग वि [हैमक] हिम का, हिम-संबन्धी 277, 278) / (ठा 4. ४-पत्र 287) / हेवं (अशो) देखो हेवं (पि 336) / होढ [होड मोष, चोरी की वस्तु (णाया हेमवइ / पुंन[हैमवत] 1 वर्ष-विशेष, क्षेत १,२–पत्र 86: पिंड 380) / हेमवय विशेष (इकः सम 12; जं ४-पत्र हेवाग ' [हेवाक] स्वभाव, पादत (राज)। होण देखो हूगहूण (पब २७४विचार 266, 300, ठा 2, 3 टी-पत्र 67, हेसमण वि [दे] उन्नत, ऊँचा (षड)। पउम 102, 106) / 2 हिमवंत पर्वत का हेसा स्त्री [हेषा] अश्व-शब्द (सुपा 288 श्रा होत्तिय पुं[होत्रिक] 1 वानप्रस्थ तापसों का एक शिखर / 3 कूट-विशेष (इक)। 4 वि. 27) / एक वर्ग, अग्निहोत्रिक वानप्रस्थ (औपः हिमवंत पर्वत का (राय 74 पौष)। 5 पुं. हेसिअ न [हेपित] ऊपर देखो (दे 8, 680 भग 11, ६-पत्र 515) / 2 न. तृणहैमवत क्षेत्र का अधिष्ठाता देव (जं ४--पत्र पउम 54, 30; प्रौप; महा भवि)। विशेष (पएण १-पत्र 33) / हेसिअ न [दे. हेषित] रसित, चीत्कार हेम्म देखो हेन (संक्षि 17) / होम [होम हवन, अग्नि में मन्त्र-पूर्वक हेर सक ] 1 देखना, निरीक्षण करना। धृत आदि का प्रक्षेप (अभि 156) हेहंभूअवि [दे] गुण-दोष के ज्ञान से रहित 2 खोजना, अन्वयण करना। वकृ. हेरंत और निर्दम्भ, प्रज्ञ किन्तु निखालस (वव 1) / / होम सक [होमय ] होम करना / हेकृ. (पिंग) / संकृ हेरऊग (धर्मवि 54) / हेहय पुंहहय] 1 एक राजा (राज)। 2 होमिउं (ती 8) / हेरंब 1 महिष, भंसा / 2 डिरिडम, डिंब डिम्ब एक विद्याधर राजा / होमिअ वि गित हवन किया हुमा, वाद्य-विशेष (दे८,७६)। (पउम 10.20) / __'अणत्थपंडियकुकव्वविहोमियो' (स 714) / हेरणवत्र पुन हिरण्यवत]१ वर्ष-विशेष, हो देखो हव = भू / होइ. होनाइ, होपए, / हारभा स्त्री [हारम्भा वाद्य-विशेष, महाएक युगलिक क्षेत्र (इक पउम 102, 106) / होएइ, होति, होइरे, होपइरे (हे 4, 60 ढक्का, बड़ा ढोल (राय 46) / 2 रुक्मि पर्वत का एक शिखर / 3 शिखरी पड़ , कणउव; महा; पि 458, 476) / होरण न दे] वन्न, कपड़ा (दे८, 72: मा पर्वत का एक शिखर (इक 218) / होज, होजा, होएज, होएजा, होउ (हे 3, 771) / For Personal & Private Use Only Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 652 पाइअसहमहण्णवो होरा-हास होरा स्त्री होरा] 1 खडी या खलो से की हुई 'होलाहगिद्धकुक्कुडहंसबगाईसु सउणजाईसु। होलिया स्त्री [होलिका] होली, फागुन मास रेखा (गा 435) / 2 ज्योतिष-शास्त्र में उक्त जं खुहवसेरण खद्धा किमिमाई तेवि खामेमि' / | का पर्व-विशेष (सट्ठि 78 टी)। लग्न (मोह 101) / 3 होराज्ञापक शास्त्र (खा 13) / होस देखो हो = भू / ' (स 602) / ३एक तरह की गाली, अपमान-सूचक शब्दहोल पुंस्त्री [दे] 1 वाद्य-विशेष, होलं वाएह मूर्ख, बेवकूफ (प्राचा 2, 4, 1,6; 11 ह्रद देखो दह (पिंड 84, पि 366 ए)। मे इत्थ' (धर्मवि 44); 'पाढत्तं मजपारणं दस 7,14,164 वाय पुं [°वाद] दुर्वचन हस्स देखो रहस्स = ह्रस्व (पि 354) / वायावेइ होलं' (सुख 3, 1) / 2 पक्षि-विशेष; | बोलना, गाली-प्रदान (सूत्र 1, 6, 27) / हास देखो हास = ह्रास (गदि 206 टी)। // इन पाइअसदमण्णवम्मि हाराइसहसंकलणो अटुतीसइमो तरंगो समत्तो। समत्तो अ तस्समत्तीए एस गंथो / / - सत्थाण। सहयाई महेसीहिं विडाओ बुड्ढिचंदो पसत्थी [प्रशस्तिः] आसाइ पच्छिमाए भारह-बासे इहत्थि अइ-रम्मो / गुज्जर णामा देसो पुवं लाढो त्ति विक्खाओ ॥शातस्सुत्तर-दिसि-भाए पुरं पुराणं पुराणमइ-पवरं / राहणपुरं ति अच्छइ सच्छाण जिणिंद-भवणाणं / / 2 / / चंगाणं तुङ्गागं धय-बड-सेअंवलेहिं चलिरेहिं / पडिसेहतं पिव जं णिअ-वासि-जणे अहम्माओ ||3|| णिअ-पाय-ण्णासेणं वासेण य वास-याल-पेरंतं / जं पुण कयं पवित्तं जय-गुरु-पमुहेहिं सूरीहिं // 4|| [कुलयं] - तव्वत्थव्यों आसी सिट्ठी सिरिमाल-बस-वर-रयणं / णामेण तिअमचंदो दक्खिण्ण-दयाइ-गुण-कलिओ ||5|| आवय-संपत्तीणं संपत्तीए वि जेण णिअचित्ते / दिण्णो णेव कयाई विसाय-हरिसाण अवयासो // 6 // [जुग्गं]अणवज्ज-कन्ज-सज्जा धम्म-मणा धम्मपत्ती से धणिअं। सीलाइ-गुण-प्पहाणा पहाणदेवि त्ति अ अऽसि ॥जा. तेसिं दो तणुजम्मा आबल्लं लद्ध-धम्म-सकारा / जिट्ठो हरगोविंदो कणिटुओ वुड्ढिचंदो ओ ||3|| सत्थ-विसारय-जइणायरिएहिं विजयधम्म-सूरीहिं / कासीइ महेसीहिं विजागारम्मि संठविए / / 9 / / गंतूण सोअरेहिं तेहिं बेद्दिपि तत्थ सत्थाणं। सकय-पययमयाणं अब्भासोकाउमारद्धो // 10 // खण-दिट्ठ-गट्ठ-भावं संसारं सार-वजिअं णाउं / एअंतिअ-अचंतिअ-सोक्खं मोक्खं च चाय-फलं // 12 // पडिवजिअ पव्वजं अणुओ प णुअ-राग-विदेसो। विहरइ तं पालितो विसालविजओ त्ति पत्तभिहो / / 12 / / [जुग्गं]. जेट्ठो उण सत्थाणं गाय-व्यायरणमाइ-विसयाणं / वढणज्झावाण-संसोहणाइ-कज्जेसु दिण्ण-मणो // 13 // लंकाइ सिंहलेसुं पाली-भासाइ सुगय-समयाणं। अब्भास-परिक्खासुं पारं पत्तोप्प-कालेणं // 14 // कलिकायाए णाए वायरणे चेव लद्ध-तित्थ-पओ। खायाइ परिक्खाए उत्तिण्णो उच्च-कक्खाए ॥१५।।तत्थेव विस्सविज्जालयम्मि सव्वुत्तमाइ सेणीए / पायय-सक्य-सत्थज्मावण-कज्जम्मि विणिउत्तो // 16 // तेण य पायय-भासाहिहाण गंथस्स विक्खमाणेणं / चिर-कालाउ अभावं आयर जोग्गस्स विवुहाणं // 17 // वाणारसोइ वरिसे सिअहय-य-अंक-राणरयण-मिए / विहिओ उवक्कमो विक्कमाओ एअस्स गंथस्स // 18 // कलिकायाए जाया पावय-वसु-अंक इंदु-परिगणिए। वरिसे भद्दय-मासे सिअ-सत्तमीए समत्ती ओ / / 1 / / तस्स सुभद्दादेवी-णामाइ सम्मिगीइ एत्थ बहुं। आयरिअं साहिज विज्जज्झयणाणुरत्ताए // 20 // आरंभ काऊणं आरिस-भासाउ आ अवब्भंसा / जो सद्दी जहिं अत्थे जत्थ गंथे उ उवलद्धो // 21 // वण्णाणमणुकमेणं सो सहो तम्मि अत्थए लिहिओ। तग्गन्थ-टाण-दसण पुव्वं णिउणं णिरूवेत्ता / / 22 / / पाईण-पाइआणं भासाण बहुत्त-भेअ-भिण्णाणं / सद्दण्णव-पारं जे गया तयट्रो ण एस समो / / 23 / / जे उण अण-पत्तदा सयं तयब्भासिणो य अ-सहाया। ताणं हत्थालंबण-दाणाएवस्स णिम्माणं // 24 // जइ थेवोवि हवेजा तेसिं गन्थेणणेण उवयारो। ता एत्तिअमेत्तेणं मण्णे आयास-साहल्लं // 25 // अण्णाणेण मईए भमेण वा एत्थ किंचि जमसुद्धं तं सोहिंतु पसायं काऊण सयासया स-यणा // 26 / / // समाप्ता / / For Personal & Private Use Only