Book Title: Nirukta Kosh
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ ( ११) यास्क के पश्चाद्वर्ती आचार्यों में बृहदेवता के प्रणेता आचार्य शौनक का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने निर्वचन के क्षेत्र में यास्क के कार्यों को आगे बढ़ाया है। वे देवताओं के स्वरूप निरूपण में निरुक्तशास्त्र की उपयोगिता एवं अनिवार्यता इतनी अधिक मानते थे कि निर्वचन द्वारा देवताओं के स्वरूप का जिज्ञासु व्यक्ति चाहे दुष्कर्म करनेवाला ही क्यों न हो वह ब्रह्मरूप का साक्षात्कार करता है। शौनक के मत में सभी नामशब्द क्रिया-निष्पन्न हैं। (सर्वाण्येतानि नामानि कर्मतस्त्वाह शौनकः ।) शब्द में जितनी भी धातुओं के चिह्न तथा अभिधेय अर्थ मिलें उतनी ही धातुओं से उस शब्द का निर्वचन करना चाहिए । यथा-कुशल । 'कुसे लुणातीति कुसलो।' 'कुच्छिते सलतीति कुशलं।' शौनक के अनुसार शब्द पांच प्रकार के होते हैं१. धातु से उत्पन्न (कृदन्त) २. धातु से उत्पन्न शब्द के द्वारा उत्पन्न (तद्धित) ३. समस्त पद ४. वाक्य से निष्पन्न (इतिहास-इति ह आस) ५. अनवगत-जिसका अर्थ निःसंदिग्ध रूप से ज्ञात नहीं हो। शौनक के अनुसार निर्वचन करने में इन पांच बिंदुओं को ध्यान में रखना चाहिए - १. शब्द का रूप २. शब्द का अर्थ ३. व्युत्पत्ति ४. शब्द का आधार (धातु आदि) ५. शब्द के आधार में प्रत्ययजन्य विकार । ये पांच बिंदु अनेक अर्थों को प्रगट कर सकते हैं । निर्वचन का उद्देश्य शब्दों के अज्ञात अर्थ को स्पष्ट करना है। हम ऊपर लिख चुके हैं कि यास्क पाणिनी से पूर्ववर्ती हैं । उनकी निरुक्त पद्धति के कुछ निदर्शन प्राकृत एवं पालि साहित्य में उपलब्ध हैं । यद्यपि ये निर्वचन उस समय में प्रचलित अर्थों के आधार पर किए गए हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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