Book Title: Nirukta Kosh
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नितकोश पक्खिपक्रया तेसिं संतीति पविरवणो वाचना-प्रमुख आचार्य तुलसी प्रधान संपादक युवाचार्य महाप्रज्ञ Jain Education Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश वाचना-प्रमुख प्राचार्य तुलसी प्रधान-संपादक युवाचार्य महाप्रज्ञ संपादक साध्वी सिद्धप्रज्ञा साध्वी निर्वाणश्री जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ooo साध्वी सिद्धप्रज्ञा साध्वी निर्वाणश्री Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक जैन विश्व भारती लाडनूं ( राजस्थान ) आर्थिक सौजन्य : रामपुरिया चेरिटेबल ट्रस्ट कलकत्ता प्रबन्ध-सम्पादक : श्रीचन्द रामपुरिया निदेशक : आगम और साहित्य प्रकाशन ( जैन विश्व भारती ) प्रथम संस्करण : १६८४ पृष्ठांक : ४०० मूल्य : ४०.०० मुद्रक : मित्र परिषद् कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं ( राजस्थान ) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NIRUKTA KOSA Vācanā Pramukha ĀCĀRYA TULSI Chief Editor YUVĀCĀRYA MAHĀPRAJNA Editors Sãdhyī Siddhaprajñā Sādhyī Nirvāṇaśrī JAINA VISHVA BHARATI LADNUN (RAJASTHAN) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Managing Editor: Shreechand Rampuria Director: Agama and Sahitya Prakashan Jain Vishva Bharati By munificence: Rampuria Charitable Trust Calcutta First Edition : 1984 Pages i 400 Price i Rs. 40.00 Printers : Jain Vishva Bharati Press Ladnun (Rajasthan) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ आगम कल्पवृक्ष की एक उपशाखा है । जैसे-जैसे समय बीता, वैसे-वैसे आगमवृक्ष का विस्तार होता गया । आगम शब्दकोश की कल्पना आगम संपादन कार्य के साथ- साथ हुई थी, किन्तु उसकी क्रियान्विति उसके पचीस वर्षों के बाद हुई । इस कार्य के लिए हमने शताधिक ग्रन्थों का चयन किया और वह कार्य प्रारम्भ हो गया । इस विशाल कार्य में निरुक्त, एकार्थक शब्द, देशी शब्द आदि का पृथक् वर्गीकरण किया गया । इस आधार पर उस महान् कोश में से प्रस्तुत कोश का अवतरण हो गया । इस अवतरण कार्य में अनेक साध्वियों, समणियों और मुमुक्षु बहिनों ने अपना योग दिया है । इसे कोश का रूप दिया है साध्वी सिद्धप्रज्ञा और साध्वी निर्वाणश्री ने । मुनि दुलहराज की श्रम - संयोजना और कल्पना ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है । यह एक सुखद संयोग है कि आगम शब्दकोश तथा उसकी शाखा विस्तार का सारा कार्य महिला जाति के द्वारा संपन्न हुआ है । स्वकथ्य वैदिक और बौद्ध साहित्य में निरुक्त अथवा एकार्थक शब्दों पर कार्य हुआ है, किन्तु जैन आगम साहित्य पर इस प्रकार का कार्य नहीं हुआ था । समीक्षात्मक और तुलनात्मक दृष्टि से इसमें कार्य करने का पर्याप्त अवकाश है, फिर भी प्रारंभिक स्तर पर जिस सामग्री का संकलन हुआ है वह कम मूल्यवान् नहीं है । जिन-जिन व्यक्तियों ने इस कार्य में अपना योग दिया है, उन्हें साधुवाद और उनके लिए मंगल भावना है कि उनकी कार्य-क्षमता उत्तरोत्तर बढ़े और समग्र आगम शब्दकोश की संपन्नता में उनका कर्तृत्व और अधिक निखार पाए । लाडनूं २१-१-८४ -आचार्य तुलसी - युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन छह वेदाङ्गों के अन्तर्गत निरुक्त को एक विशेष स्थान प्राप्त है । प्राचीन भारत में निरुक्तों की एक लंबी परंपरा थी । इस क्षेत्र में चौदह प्रयास हुए थे, जिनमें आज हमारे सामने केवल अंतिम प्रयास ही भगवान् - यास्क के निरुक्त के रूप में उपलब्ध है । आचार्य यास्क ने निर्वचन के कुछ ठोस सिद्धान्त बताए हैं जिनका संक्षिप्त उल्लेख करते हुए हम प्रस्तुत ग्रंथ से उदाहरण देकर उन्हें स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे । १. जिन शब्दों में उदात्त आदि स्वर एवं व्याकरण से सिद्ध परिवर्तन अर्थ के अनुकूल हों तथा उचित धातु के विकारों से युक्त हों, उन शब्दों का निर्वचन उस प्रकार से ही करें । यथा - अंगतीत्यङ्गम् । अङ्ग शब्द गत्यर्थक अम् धातु से निष्पन्न है । २. जब स्वर तथा व्याकरण की प्रक्रिया अर्थ की व्याख्या के अनुकूल न हो तथा व्याकरण सिद्ध धातु के विकार आदि उपलब्ध न हों, उस परिस्थिति में मात्र अर्थ के आधार पर ही निर्वचन करें। इसमें कृत्, तद्धित, धातु, समास आदि किसी भी वृत्ति का उपयोग करें । व्याकरणशास्त्र में शब्द की प्रधानता है जबकि निरुक्तशास्त्र अर्थ - प्रधान होता है । यथा — रुक्ख । रुत्ति पुहवी खत्ति आगासं तेसु दोसु वि जहा ठिया तेण रुक्खा । ३. यदि कोई वृत्ति उपलब्ध न हो तो उस शब्द के किसी अक्षर या वर्णमात्र के आधार पर निर्वचन करें । निर्वचन तो अवश्य करें ही, व्याकरण प्रक्रिया का आदर न करें - ( न संस्कारमाद्रीयेत ) । जितनी भी वृत्तियां हैं वे - सब संशयग्रस्त ही हैं - ( विशयवत्यो हि वृत्तयो भवन्ति ) । यथा — खेल 1 'खे ललणाओ खेलो' – जो खे / शून्य में घूमता है, वह खेल / श्लेष्म है । ४. प्रकरण से विविक्त किसी पद का निर्वचन न करें । किसी शब्द के अर्थ का निर्धारण प्रकरण की अपेक्षा से करना चाहिए। प्रकरण भेद से शब्द -के अर्थ में बहुधा परिवर्तन होना स्वाभाविक है । जिस पद का व्याकरण Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) अवगत न हो, उसका निर्वचन प्रकरण या परिचायक किसी अन्यपद के आधार पर किया जा सकता है । इसीलिए यास्क ने कहा है--नैकपदानि निब्रूयात् । यथा भ्रांत, भवान्त, भयान्त, भजन्त भदन्त, भांत, भ्राजन्त आदि सभी शब्दों का प्रकरण से भगवान् अर्थ किया गया है । J ५. भाषा की स्वच्छंद प्रवृत्ति को ध्यान में रखना आवश्यक है । नैरुक्त के लिए यह आवश्यक है कि वह शब्द प्रयोग में लोगों की सामान्य प्रवृत्तियों से परिचित रहे । यथा - पवा । 'पिबिस्संति पेहियादि सा पवा'--- जहां पथिक पानी पीते हैं, वह प्याऊ है । ६. नैरुक्त को व्याकरणशास्त्र से अभिज्ञ होते हुए भी वैयाकरण नहीं होना चाहिए । यथा - जुवाण | 'यौवनस्थोऽ हमित्यात्मानं मन्यते यः भवति जुवाणी | व्याकरण शास्त्र के ज्ञाता होते हुए भी यहां चूर्णिकार ने किसी प्रकार की धातु का निर्देश नहीं किया है । ७. शब्दों की प्रवृत्ति किसी अर्थ में सर्वत्र व्युत्पत्ति के अनुसार नहीं M होती है । सामान्य नियम के अनुसार पदों के अर्थ विकसित होते हैं । यथाशूर ।' शवत्यसौ युद्धं मुंचति वा तमिति शूर : - जो युद्ध में शक्ति - प्रयोग करता है, वह शूर है । यहां 'मुच्' धातु का 'शू' धातु से कोई संबंध नहीं है । पाणिनी से पूर्व युग में निरुक्तशास्त्र के प्रति विद्वानों में विशेष आदर था। प्रारंभिक काल में निरुक्तशास्त्र का विषय केवल वैदिक देवविद्या की सेवा करना था । यास्क ने देव शब्द के निर्वचन द्वारा देवताओं के स्वरूप की व्याख्या इस प्रकार की है - ' देवदानात् वा, दीपनात् वा, द्योतनात् वा, स्थानो भवतीति वा । इसी प्रकार शाकपूणि के अनुसार अग्नि देवता का निरूपण तीन धातुओं से किया गया है । इ धातु से अ, अ या दह धातु से ग, नी धातु सेनि गृहीत है । अग्निदेवता इन तीन क्रियाओं को करता है अतः इसे देवता कहा गया है । इन निर्वचनों द्वारा वेदों में वर्णित देवताओं के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है । वैदिक देवताओं पर कई पाश्चात्य विद्वानों ने काफी ऊहापोह किया है । निरुक्तशास्त्रों द्वारा भी हम देवताओं के सही रूप को हृदयंगम कर सकते हैं। परन्तु आगे चलकर इसका मुख्य उद्देश्य भाषाशास्त्रीययोग में परिणित हो गया । यद्यपि वह सदैव अर्थ - प्रधान ही रहा, न कि व्याकरण की तरह शब्द प्रधान । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११) यास्क के पश्चाद्वर्ती आचार्यों में बृहदेवता के प्रणेता आचार्य शौनक का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने निर्वचन के क्षेत्र में यास्क के कार्यों को आगे बढ़ाया है। वे देवताओं के स्वरूप निरूपण में निरुक्तशास्त्र की उपयोगिता एवं अनिवार्यता इतनी अधिक मानते थे कि निर्वचन द्वारा देवताओं के स्वरूप का जिज्ञासु व्यक्ति चाहे दुष्कर्म करनेवाला ही क्यों न हो वह ब्रह्मरूप का साक्षात्कार करता है। शौनक के मत में सभी नामशब्द क्रिया-निष्पन्न हैं। (सर्वाण्येतानि नामानि कर्मतस्त्वाह शौनकः ।) शब्द में जितनी भी धातुओं के चिह्न तथा अभिधेय अर्थ मिलें उतनी ही धातुओं से उस शब्द का निर्वचन करना चाहिए । यथा-कुशल । 'कुसे लुणातीति कुसलो।' 'कुच्छिते सलतीति कुशलं।' शौनक के अनुसार शब्द पांच प्रकार के होते हैं१. धातु से उत्पन्न (कृदन्त) २. धातु से उत्पन्न शब्द के द्वारा उत्पन्न (तद्धित) ३. समस्त पद ४. वाक्य से निष्पन्न (इतिहास-इति ह आस) ५. अनवगत-जिसका अर्थ निःसंदिग्ध रूप से ज्ञात नहीं हो। शौनक के अनुसार निर्वचन करने में इन पांच बिंदुओं को ध्यान में रखना चाहिए - १. शब्द का रूप २. शब्द का अर्थ ३. व्युत्पत्ति ४. शब्द का आधार (धातु आदि) ५. शब्द के आधार में प्रत्ययजन्य विकार । ये पांच बिंदु अनेक अर्थों को प्रगट कर सकते हैं । निर्वचन का उद्देश्य शब्दों के अज्ञात अर्थ को स्पष्ट करना है। हम ऊपर लिख चुके हैं कि यास्क पाणिनी से पूर्ववर्ती हैं । उनकी निरुक्त पद्धति के कुछ निदर्शन प्राकृत एवं पालि साहित्य में उपलब्ध हैं । यद्यपि ये निर्वचन उस समय में प्रचलित अर्थों के आधार पर किए गए हैं । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) उदाहरणार्थ – इन्द्रवाचक शब्दों का निर्वाचन संयुक्त निकाय में इस प्रकार किया गया है चूंकि पूर्व मनुष्यभव में उसका नाम मघ था, अत: वर्तमान ( शक्र ) भव में उसे मघवा कहा जाता है। उसने पुरों-नगरों में दान दिया था ( पुरे दानमदासित्) इसीलिए उसे पुरिंदद ( पुरंदर का तद्भव ) कहा जाता है । -सत्कारपूर्वक दान देने से वह सक्क कहलाता है । आवसथों का दान दिया था इसीलिए वासव कहा गया है । एक मुहूर्त्त में सहस्र अर्थों का चिंतन करता था, अत: सहस्सक्ख कहा गया । अब हम इन्द्र वाचक शब्दों के निर्वचन प्राकृत साहित्य के आधार पर दे रहे हैं -- महामेघ जिसके वशवर्ती हैं, वह मघवा है । जो असुरों के पुरों/ नगरों का विदारण करता है, वह पुरंदर है । जो शक्तिसंपन्न है, वह शक्र है । जो पाक नामक शत्रु को शासित करता है, वह पाकशासन है । जिसके हजार आंखें अर्थात् पांच सौ मंत्री हैं, वह सहस्राक्ष है । उपर्युक्त निरुक्तों पर विचार करने से यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि दोनों ही परंपराएं लौकिक मान्यताओं का प्रतिनिधित्व कर रही हैं । पालि साहित्य में निर्वचन के आधार पर कुछ शब्दों के अर्थों में प्रचलित अर्थों से सर्वथा विपरीत अर्थों का प्रतिपादन किया गया है। ( उदाहरणार्थ - अरसरूप, णिब्भोग, अकिरियवाद, उच्छेदवाद, जेगुच्छी, वेनयिक, तपस्सी, अपगब्भ शब्दों को, जो निदार्थक थे, प्रशस्त अर्थ में परिणत किया गया । अरसरूप का अर्थ रूखा सूखा है, परन्तु उसका प्रशस्थ अर्थ रूप, रस के प्रति अनासक्त भाव के रूप में किया गया है। इसी प्रकार 'णिब्भोग' का अर्थ सत्त्वहीन व्यक्ति था । उसे बदलकर सभी प्रकार के भोगों में अनासक्त — इसे ग्रहण किया गया है । इसी प्रकार अन्य शब्दों के निन्दार्थक अर्थों को प्रशंसित अर्थ में परिवर्तित किया गया है । इस प्रकार के प्रयोग कहींकहीं प्रस्तुत ग्रंथ में भी देखे जा सकते हैं - यथा— उन्मार्ग । 'उम्मग्गणं उम्मग्गो ( प ४७ ) । जो उत् / ऊंचा मार्ग है वह उन्मार्ग / प्रशस्त मार्ग है । जैन शास्त्रकारों ने निरुक्तों के माध्यम से विशेष विशेष शब्दों का निरुक्त कर निर्वचन विद्या की जो सेवा की है, उसका एक स्पष्ट रूप प्रस्तुत निरुक्त-कोश से हमारे सामने उभर आता है । इस कोश के निर्माण की योजना आचार्यश्री व युवाचार्यश्री द्वारा की गई, जिसको साध्वी द्वय ने मूर्तरूप Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) प्रदान किया है । यह कार्य अत्यन्त सराहनीय है । इसमें कितने परिश्रम, चिंतन की अपेक्षा थी, उसकी कल्पना पाठक स्वयं ही करेगा । हमारे संघ में अनेक विद्वान् एवं विदुषियों का निर्माण आचार्यश्री ने किया है, जैसा अन्यत्र प्रायः दुर्लभ है । शोधकार्य में निरत इतना विशाल विद्वन्मंडल विश्वविद्यालयों में भी दृष्टिगोचर नहीं होता । प्रभूत अर्थसाध्य शोधकार्य का निःशुल्क सम्पादन तेरापंथ धर्म में ही संभव है । प्रस्तुत कोष का सम्पादन कर साध्वीश्री सिद्धप्रज्ञाजी एवं साध्वीश्री निर्वाणीजी ने एक महत्त्वपूर्ण कार्य को संपन्न किया है । मुझे पूरा विश्वास है कि सुधी समाज में यह ग्रन्थ आदर प्राप्त करेगा । डा० नथमल टाटिया डाइरेक्टर -- शोध विभाग जैन विश्व भारती Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेरणा और कार्यारम्भ युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के वाचना- प्रमुखत्व और युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के निर्देशन में आगम-संपादन के क्षेत्र में तीन दशकों से निरन्तर कार्य हो रहा है । उसी श्रृंखला में विक्रम संवत् २०३७ चैत्रशुक्ला त्रयोदशी के दिन 'आगमकोष' के निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण कार्य प्रारंभ हुआ । इस कार्य में अनेक साध्वियां, समणियां और मुमुक्षु बहिनें व्यापृत हुईं । प्रस्तुति 'आगम-कोश' का निर्माण मुख्य था, किन्तु इसके अन्तर्गत अनेक उपकोशों का निर्माण कार्य भी हाथ में ले लिया गया। वे कोश इस प्रकार हैं १. एकार्थक कोश २. निरुक्त कोश ३. देशीशब्द कोश । कार्य द्रुतगति से चला और लगभग तीन वर्षों की अल्पावधि में इन तीन कोशों के लिए पर्याप्त सामग्री संकलित कर ली गई । यद्यपि इन तीन वर्षों की अवधि में कार्य करने वालों की संख्या में एकरूपता नहीं रही, पर कार्य की निरन्तरता सदा बनी रही। इसी कारण से लगभग सौ ग्रंथों ( आगम तथा आगमेतर) से सामग्री का संचयन करने में सफल हो सके । इनमें मूल आगम, निर्युक्तियां, भाष्य, चणियां, टीकाएं तथा अन्यान्य ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं । निरुक्त कोश में काम आने वाले हजारों शब्दों के भिन्न-भिन्न कार्ड तैयार कर लिए । इस कार्य को अंतिम रूप देने से पूर्व सभी ग्रन्थों के निरुक्तस्थलों का पुनर्निरीक्षण करना अनिवार्य था । बड़ी तत्परता और उत्साह के साथ दो मास की अवधि में यह कार्य सम्पन्न कर लिया गया । इससे मूल निरुक्त पाठ, उनके प्रमाण-स्थल और अधिक प्रामाणिक हो गए । यत्र-तत्र अवशिष्ट निरुक्त भी संगृहीत कर लिए गए । अब कार्य को अंतिम रूप देना Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) आवश्यक था। पर अभी निरुक्तों के हिन्दी अनुवाद का कार्य अवशिष्ट था। उसे पूरा करना जरूरी था। सभी ग्रंथों के संदर्भ देख-देख कर उन शब्दों का हिन्दी अनुवाद हो सके, इसलिए अब अंतिम दायित्व हम दो साध्विों को सौंपा गया। हमने यह कार्य प्रारम्भ किया। हमारे सम्पूर्ण कार्य का निरीक्षण मुनिश्री दुलहराजजी ने किया। उन्होंने लम्बी अवधि तक अपने अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों को गौण कर हमारा मार्ग-दर्शन किया। इस प्रयत्न के बाद भी कुछेक शब्द ऐसे थे जिनके अर्थ-निर्धारण में मूल ग्रंथ तथा सहायक ग्रन्थ अपर्याप्त सिद्ध हो रहे थे। ऐसे शब्दों के अर्थ-निर्धारण में युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने हमें समय प्रदान किया और हमारा अवरोध समाप्त हो गया। वे कुछेक शब्द ये थेबादर, वडार, सेना आदि-आदि । निरुक्तकोश की रूपरेखा निरुक्त कोश में मूल शब्द प्राकृत भाषा के हैं। वे मोटे व गहरे टाइप में क्रमांक से अनुगत हैं। उनके सामने कोष्ठक में संस्कृत छाया दी गई है। देश्य शब्दों का संस्कृत रूपान्तर नहीं होता। ऐसे देशी शब्दों को हमने कोष्ठक में 'दे' से निर्दिष्ट किया है। कुछ शब्द ऐसे भी हैं, जिनका एक अंश देशी है और शेष संस्कृत का है। ऐसे शब्दों की छाया में देशी अंशों को ' ' इस चिन्ह के अन्तर्गत दिया है। मूल शब्द और संस्कृत छाया के निर्देश के पश्चात् उसका निरुक्त गहरे छोटे अक्षरों में निर्दिष्ट है । निरुक्त प्राकृत और संस्कृतदोनों भाषाओं में है। निरुक्त के सामने कोष्ठक में उसके प्रमाण-स्थल का निर्देश है। सभी प्रमाण-स्थलों का निर्देश एब्रिविएसन में किया गया है । उनकी विस्तृत जानकारी 'प्रयुक्त ग्रन्थ-संकेत सूचि' के अन्तर्गत उपलब्ध है । एक शब्द में, एक ही स्थल के दो भिन्न-भिन्न निरुक्तों का प्रमाण-स्थल का निर्देश एक साथ दिया गया है । एक ही शब्द में जहां अनेक प्रकार के निरुक्त उपलब्ध हैं, उनका निर्देश ग्रंथ के कालक्रम से किया गया है। सभी निरुक्तों, मूलगत तथा पाद-टिप्पणगत, का हिन्दी अनुवाद किया गया है। जहां एक ही भाव के संवादी दो या अधिक निरुक्त हैं, केवल वाक्य रचना में भेद अथवा अर्थ की स्पष्टता मात्र है, ऐसे निरुक्तों का अनुवाद एक साथ दिया गया है। इसके लिए 'आवस्सग', 'ओहि', 'कल्याण', 'कुंभ' आदि शब्द द्रष्टव्य हैं। ऐसे शब्द जिनका प्राकृत रूप एक होने पर भी संस्कृत रूपान्तर भिन्न है, उनका अनुक्रम एक साथ न होकर अलग-अलग है, जैसे-आस (अश्व), आस (आस्य)। कुछ ऐसे शब्द, जिनका प्राकृत और संस्कृत रूप एक है, पर Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) अर्थ में भिन्नता है, उनका अनुक्रम अलग-अलग है, जैसे – आदाण ( १७९), आदाण (१८०), आयाण (२१०), आयाण (२११) आदि । एक ही तात्पर्यार्थ के अनेक शब्द, जिनका प्राकृत और संस्कृत रूप भिन्न-भिन्न है, उनका अनुक्रम भी एक साथ नहीं है, जैसे- अरिह (अर्हत् ), अरहंत ( अरथान्त), आवस्स (आवश्यक), आवासय ( आवासक ) आदि । निरुक्त कोश को समृद्ध बनाने की दृष्टि से पाद-टिप्पणों में अनेक निरुक्तों का समावेश किया गया है । मूल अर्थ को स्पष्ट करने के लिए यत्रतत्र आगम के व्याख्या ग्रन्थों के संदर्भ हिन्दी अनुवाद सहित दिए गए हैं, जैसे - आयरिय, आवासय, आसायणा आदि । आगम व्याख्या ग्रन्थों के अतिरिक्त इस ग्रन्थ में संस्कृत, पाली के अनेक कोशों तथा व्याकरणों का उपयोग पाद-टिप्पण में किया गया है। मूल निरुक्त के संवादी तथा भिन्नार्थ वाले अन्यान्य निरुक्तों का निर्देश किया गया है। अर्थ की स्पष्टता के लिए अनेक स्थलों में धातुओं का निर्देश भी है । निरुक्तों के प्रकार वैयाकरणाचार्यों ने निरुक्त के पांच प्रकार बताए हैं । वे सभी प्रस्तुत ग्रंथ में सोदाहरण उपलब्ध हैं, यथा १. वर्णागम - वे निरुक्त जिनमें वर्ण का आगम होता है । यथाहंस | 'हसतीति हंसः । ' २ वर्णविपर्यय- वे निरुक्त जिनमें वर्ण का विपर्यय होता है । यथासिंह | 'हिनस्तीति सिंहः ।' ३. वर्णविकार – वे निरुक्त जिनमें वर्ण में विकार उत्पन्न होता है । यथा- - विपाक | 'विपचनं विपाकः ।' ४. वर्णनाश - वे निरुक्त जिनमें वर्ण नष्ट होते हैं । यथा - ओदन | उदत्ति तमिति ओदनम् । ५. धात्वर्थातिशय- वे निरुक्त जो धातु के अर्थ की विशिष्टता प्रकट करते हैं । यथा— भ्रमर । 'भ्रमति च रौति च भ्रमरः । ' उपर्युक्त वर्गीकरण के अतिरिक्त प्रस्तुत कोश में संगृहीत निरुक्तों को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है १. व्युत्पत्तिजन्य २. पारिभाषिक Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) ३. विशेषणात्मक ४. वृत्त्यात्मक व्यौत्पत्तिक- व्युत्पत्तिजन्य निरुक्त के दो प्रकार हैं। एक वे निरुक्त हैं जो संपूर्णपद की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं और एक वे हैं जो अक्षरों की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । संपूर्णपदव्याख्यात्मनिरुक्त, जैसे-खण । 'खीयते इति खणो-जो क्षीण होता है, बीतता है, वह क्षण है। अक्षरव्याख्यात्मकनिरुक्त प्रत्येक अक्षर की अलग-अलग व्याख्या करते हुए संपूर्णपद का एक विशेष अर्थ प्रस्तुत करते हैं, जैसे-खंध । स्कन्दन्तिशुष्यन्ति धीयन्ते च पोष्यन्ते च पुद्गलानां विचटनेन चटनेन स्कन्धाः । जो पुद्गलों के विघटन से क्षीण और संघटन से पुष्ट होते हैं, वे स्कन्ध हैं। पारिभाषिक- इस श्रेणी में उन सभी निरुक्तों का समाहार किया जा सकता है जो एक परिभाषा प्रस्तुत करते हैं। जैसे-खेयण्ण । 'खेदः अभ्यासस्तेन जानातीति खेदज्ञः'--जो खेद/अभ्यास से आत्मा को जानता है, वह खेदज्ञ है । जो खेद/जन्ममरण के श्रम को जानता है, वह खेदज्ञ है। विशेषणात्मक- ऐसे शब्द जिनमें विशेषण जोड़कर विशेष अर्थ का निर्धारण किया जाता है, वे विशेषणात्मक निरुक्त हैं, जैसे-कुकुटी । 'कुत्सिता कुटी कुकुटी' -जो कुत्सित पदार्थों से भरा हुआ कुटीर है, वह कुकुटी/शरीर वृत्त्यात्मक-कुछ निरुक्त समास, तद्धित, कृदन्त आदि से निष्पन्न हैं। समास से निष्पन्न होने वाले निरुक्तों में तृतीया, पंचमी, सप्तमी आदि विभक्तियों के समस्त-पदों की प्रधानता है। 'क्षत्रेण धर्मेण जीवन्ति इति क्षत्रिया:'-जो क्षात्रधर्म से जीवित रहते हैं, वे क्षत्रिय हैं। तद्धित से निष्पन्न निरुक्त, जैसे-आदित्य आदौ भव आदित्यः ।। कृदन्त जन्य निरुक्तों के लिए परिशिष्ट १ द्रष्टव्य है । निरुक्तों की परम्परा बहुत प्राचीन है, जिसका निर्देश भूमिका में किया गया है। मूल आगमग्रन्थों-सूत्रकृतांग, भगवती, नंदी, अनुयोगद्वार आदि में भी इसके बीज उपलब्ध होते हैं, जैसे-आणमइ-पाणमइ तम्हा पाणे (भगवती २/१५) । व्याख्याग्रंथों में निरुक्तों की दृष्टि से उत्तराध्ययनचूणि सर्वाधिक समृद्ध प्रतीत होती है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९) इस प्रकार प्रस्तुत कोश में १७५४ निरुक्त संगृहीत हैं। इसमें दो *परिशिष्ट हैं । पहले परिशिष्ट में कृदन्तपरक निरुक्त हैं। जैसे—गमनं गतिः । विभयनं विभत्ती। जननं जातिः । ये सभी निरुक्त अनट् प्रत्यय से निष्पन्न हैं। वाक्यरचना संक्षिप्त है। इनकी एकरूपता शृंखलाबद्ध चले, अनुक्रम का सौंदर्य सुरक्षित रह सके, इस दृष्टि से इन्हें मूल निरुक्तों से पृथक् परिशिष्ट-१ में रखा गया है । ऐसे निरुक्तों के हिन्दी अनुवाद की अपेक्षा इसलिए महसूस की गई कि चूर्णिकारों व टीकाकारों के विशिष्ट मन्तव्य को मात्र व्युत्पत्ति से नहीं समझा जा सकता। इसके साक्ष्य में एक निरुक्त का निदर्शन पर्याप्त होगा । यथा-अवधानं अवधिः। जो समाधान देता है, वह अवधिज्ञान है अथवा जो एकाग्रता से उत्पन्न होता है, वह अवधिज्ञान है। दूसरा परिशिष्ट तीर्थंकरों के नामों के अन्वर्थ निरुक्त का है। इससे चौबीस तीर्थंकरों के नामकरण की विशेष जानकारी प्राप्त होती है। इस प्रकार प्रस्तुत कोश में १७५४+२०८+२४=१९८६ निरुक्त हैं । इनके पारायण से मूलशब्दगत अर्थगरिमा को पकड़ने में सुविधा होगी और स्वज्ञान वृद्धि के साथ-साथ प्राचीन ज्ञान वैभव को आत्मसात् करने में पाठक सक्षम होगा। सबसे पहले हम आचार्यश्री तथा युवाचार्यश्री के प्रति श्रद्धावनत हैं और यह मानती हैं कि इसमें जो कुछ है, वह सारा उन्हीं का अवदान है । हम तो मात्र इसके संचयन की निमित्त बनीं और एक ग्रन्थ रूपायित हो गया। हम बार-बार उनके श्रीचरणों में अपनी कोमल अभिवंदनाएं प्रस्तुत करती हैं और आगे के लिए और अधिक सक्षम होकर कार्य में व्याप्त होने की कामना करती हैं। हम साध्वीप्रमुखा महाश्रमणी कनकप्रभाजी के हार्दिक वात्सल्य और स्नेह की ऋणी हैं। उनकी सतत प्रेरणा के कारण ही हमने कार्य को करने का संकल्प किया और उनके आशीर्वाद से सफलतापूर्वक उसे संपन्न किया। हम उनके चरणों में श्रद्धावनत हैं। हम मुनिश्री दुलहराजजी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती हैं जिन्होंने सतत हमारा सफल मार्गदर्शन किया। अनेकान्त शोधपीठ के निदेशक डॉ० नथमल टाटिया के सहयोग को भी नहीं भूलाया जा सकता जिन्होंने समयसमय पर अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव देकर और प्राक्कथन लिखकर इस ग्रंथ के Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ ( २० ) गौरव को बढ़ाया है। इस ग्रंथ-संपादन में श्रीचंदजी रामपुरिया के भी अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव प्राप्त हुए हैं । अंत में हम उन सभी साध्वियों, समणियों और मुमुक्षु बहिनों के सहयोग का स्मरण करती हुई, उनके अवदान का मूल्यांकन करती हैं । आगम कोश कार्य में संपृक्त साध्वियों, समणियों और मुमुक्षु बहिनों में कुछ साध्वियां और समणियां कोश के लिए उपयुक्त शब्दों का चयन करवाती और उनका भिन्न-भिन्न कोशों के लिए विभाग निर्दिष्ट करतीं। समग्र साधिकाओं में से कुछ निरन्तर इस कार्य में व्याप्त रही हैं और कुछ ने . सावधिक समय तक सहयोग किया है। उनके नाम इस प्रकार हैं निर्देशिका १. साध्वी कनकश्री निशीथ २. , यशोधरा व्यवहार ३. , अशोकश्री आचारांग, दशाश्रुतस्कन्ध, पंचाशक, सूर्यप्रज्ञप्ति जिनप्रभा सूत्रकृतांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध) कल्पलता दशवकालिक विमलप्रज्ञा आवश्यक (द्वितीय भाग), उत्तराध्ययन, प्रज्ञापना, नवीनकर्मग्रन्थ ७. , सिद्धप्रज्ञा सूत्रकृतांग (द्वितीय श्रुतस्कंध), स्थानांग, बृहत् कल्प, पिण्डनियुक्ति, प्रज्ञापना ८. , निर्वाणश्री आवश्यक (प्रथम भाग), विशेषावश्यकभाष्य, पञ्चसंग्रह, सूत्रकृतांग (प्रथमश्रुतस्कंध) ६. समणी कुसुमप्रज्ञा भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, विपाकश्रुत, औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, अंगविज्जा, अनुयोगद्वार, नंदी, प्रश्नव्याकरण, ओपनियुक्ति, जीतकल्पभाष्य, प्राचीनकर्मग्रन्थ, प्रवचनसारोद्धार विशेष सहयोगी १. समणी स्मितप्रज्ञा ४. मुमुक्षु मंजु २. , उज्ज्वलप्रज्ञा ५. , राकेश ३. , सुप्रज्ञा ६. , निरंजना * Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगी - १-२ -८४ बीदासर १. साध्वी शारदाश्री २. "1 33 ३. ४. कमलयशा 11 ५. साध्वी अमितश्री ६. मर्यादाश्री ७. प्रज्ञाश्री 5. गवेषणाश्री 37 ६. समणी स्थितप्रज्ञा १०. मधुरप्रज्ञा ११. मुदितप्रज्ञा १२. चिन्मय प्रज्ञा 21 37 33 ( २१ ) 23 जगत्प्रभा शशिकला 13 १३. समणी अक्षयप्रज्ञा १४. सहजप्रज्ञा 33 १५. मुमुक्षु पुखराज १६. ज्योति 17 विनयावनतः साध्वी सिद्धप्रज्ञा साध्वी निर्वाणश्री Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थ-संकेत सूची १. अंवि- अंगविज्जा (प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, बनारस, सन् १९५७) अचि- अभिधान चितामणि कोश (श्री जैन साहित्य वर्धक सभा, अहमदाबाद वि०सं० २०२५) ३. अनुद्वा- अनुयोगद्वार (हस्तलिखित) ४. अनुद्वाचू- अनुयोगद्वारचूणि (श्री ऋषभदेवजी केसरीमल श्वे. संस्था रतलाम, सन् १९२८) ५. अनुद्वामटी-अनुयोगद्वार मलधारीय टीका (श्री केसरबाई ज्ञानमंदिर पाटण, सन् १९३६) “६. अनुद्वाहाटी-अनुयोगद्वार हारिभद्रीया टीका (सेठ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, मुबंई, सं. १९७३) ७. आचू- आचारांग चूणि (श्री ऋषभदेवजी केसरीमल श्वे. संस्था रतलाम, सन् १९४१) ८. आटी- आचारांग टीका (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, सन् १९७८) ६. आनि- आचारांगनियुक्ति (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, सन् १९७८) १०. आप्टे- आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी, (प्रसाद प्रकाशन पूना. सन् १९५७) ११. आवचू १– आवश्यकचूणि १ (श्री ऋषभदेवजी केसरीमल श्वे. संस्था __ रतलाम, सन् १९२८) १२. आवचू २- आवश्यकचूणि २ (वही, सन् १९२६) १३. आवनि- आवश्यकनियुक्ति (वही, सन् १९२६) १४. आवनिदी- आवश्यकनियुक्ति दीपिका (विजयदानसूरीश्वर जैन ग्रन्थ माला, सूरत, सन् १९३६) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) १५. आवमटी - आवश्यक मलयगिरिटिका ( आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९२८) १५. आवहाटी १ - आवश्यक हारिभद्रीया टीका १ (भैरूलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, बंबई, संवत् २०३८ ) १७. आवहाटी २ - आवश्यक हारिभद्रीया टीका २ ( वही ) १८. उच् उत्तराध्ययनचूर्णि ( देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सन् १९३३) १६. उपाटी - उपासकदशाटीका ( श्री हिन्दी जैनागम प्रकाशक सुमति कार्यालय, कोटा, सन् १९४६) २०. उशाटी - उत्तराध्ययन शान्त्याचार्यटीका ( देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सं० १९७३) २१. ओटी २२. ओटी २३. काल २४. जंटी २५. जीटी २७. ज्ञाटी जीवाभिगमटीका ( देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सं० १६६५ ) २६. जीतभा - जीतकल्प भाष्य ( बबलचंद्र केशवलाल मोदी, अहमदाबाद, सं० १९६४) २८. दअचू ओघनिर्युक्तिटीका ( आगमोदय समिति, बम्बई सन् १९१९) औपपातिकटीका ( पंडित दयाविमलजी ग्रन्थमाला, द्वितीय संस्करण, वि०सं० १९६४) कालूस्मृति ग्रन्थ ( श्री कालूगणी जन्म शताब्दी समारोह समिति, छापर, सन् १९७७ ) जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका ( नगीनभाई घेलाभाई झवेरी, बम्बई, सन् १९२०) ज्ञाताधर्मकथा टीका ( श्री सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, सूरत, सन् १९५२) दशवेकालिक अगस्यसिंह स्थविर चूर्णि ( प्राकृत ग्रन्थ परिषद् वाराणसी, सन् १९७३) २९. दजिचू - दशवैकालिक जिनवास चूर्णि (श्री ऋषभदेव केसरीमल श्वे. संस्था, रतलाम, सन् १९३३) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. दटी ३१. दनि ३२. दभा ३३. दश्रुचू ३४. धातु-- ३५. नं३६. नंचू३७. नंटि३८. नंटी३६. नक ( २५) दशवकालिक टीका (देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार ग्रन्थांक ४७) दशवैकालिक नियुक्ति (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी, सन् १९७३) दशवैकालिक भाष्य (देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार ग्रन्थांक ४७) दशाश्रुतस्कन्ध चूणि (पंन्यास श्री मणिविजयजी गणि ग्रंथमाला, भावनगर सं० २०११) धातुपारायणम् (जैन श्वे. मू० संघ, अहमदाबाद, सन् १९७१) नंदी सूत्र (हस्तलिखित) नंदी चूणि (प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, बनारस, सन् १९६६) नंदी टिप्पणक (वही, सन् १९६६) नंदी टीका (वही, सन् १९६६) नवीन कर्मग्रन्थटीका (जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् १९३४) निघण्टु तथा निरुक्त (मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, सन् १९६७) निशीथ चूणि (सन्मति ज्ञानपीठ, दूसरा संस्करण, सन् १९८२) निशीथ भाष्य (वही, सन् १९८२) पंचाशकप्रकरणटीका (ऋषभदेव केसरीमल श्वे० संस्था, रतलाम, सन् १९४१) पंचसंग्रहटीका (श्री खुबचन्द पानचंद, उभोई, (गुजरात सन् १९३७) पालि इंग्लिश डिक्शनरी (पालि टेक्स्ट सोसायटी, लंदन, सन् १९७२) पिण्डनियुक्तिटीका (देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सन् १९१८) ४०. नि ४१. निचू ४२. निभा- ४३. पंटी ४४. पंसंटी ४५. पा ४६. पिटी Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) ४६. प्रज्ञाटी- प्रज्ञापनाटोका (आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१८) ४७. प्रटी- प्रश्नव्याकरणटीका (वही, सन् १९१६) ४८. प्रसाटी- प्रवचनसारोद्धार टोका (देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, द्वितीय संस्करण, सं० १९८१) ४६. प्रा- प्राकृत व्याकरण (हेमचन्द्र) (जैन दिवाकर दिव्यज्योति कार्यालय, ब्यावर, सं० २०१६) ५०. प्राकटी- प्राचीन कर्मग्रन्थ टोका (जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, वि० सं० १९७२) ५१. बृचू- बृहत्कल्पचूणि (हस्तलिखित, लाडनूं भंडार) ५२. बृटी- बृहत्कल्प टीका (जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् ५४. भ ५६. राटी ५३. बृभा- बृहत्कल्प भाष्य (वही, सन् १९३६) भगवती (अंगसुत्ताणि भाग २, जैन विश्व भारती लाडनूं सन् १९७४) ५५. भटी- भगवतीटीका १ (आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१८) भगवतीटीका २ (ऋषभदेव केसरीमल श्वे. संस्था, रतलाम, द्वितीय संस्करण, सन् १९४०) राजप्रश्नीयटीका (गूर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय, अहमदाबाद, वि०सं० १६६४) ५७. वा- वाचस्पत्यम् ६ भाग (चौखम्बा संस्कृत ग्रन्थमाला, वाराणसी, तृतीय संस्करण, सन् १६६६) ५८ वि- विशुद्धिमग्ग (वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, सन् १९६६) ५६. विटी- विशुद्धिमग्गटीका, (वही, सन् १९६६) ६०. विपाटी- विपाक टीका (आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९२०) ६१. विभा- विशेषावश्यकभाष्य (दिव्यदर्शन कार्यालय, अहमदाबाद, वीर सं० २४८६) ६२. विभाकोटी-विशेषावश्यकभाष्य कोट्याचार्यटोका (श्री ऋषभदेव केसरी मल रतलाम, सन् १९३६) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७. सं (२७) ६३. विभामहेटी--विशेषावश्यकभाष्य मलधारीय टीका (दिव्यदर्शन कार्यालय, अहमदाबाद, वीर संवत् २४८६) ६४. व्यभा- व्यवहार भाष्य (वकील केशवलाल प्रेमचन्द, अहमदाबाद, सन् १९२६) ६५. व्यभाटी- व्यवहार भाष्य टीका (वही, सन् १९२६) ६६. शब्द- शब्दकल्पद्रुम ५ भाग, तीसरा संस्करण (चौखम्बा संस्कृत ग्रन्थमाला, वाराणसी, सन् १९६६) ए कन्साइज इटिमोलोजिकल संस्कृत डिक्शनरी (हरडलबर्ग, सन् १९६३) ६८. सू- सूत्रकृतांग (अंगसुत्ताणि भाग. १, जैन विश्व भारती लाडनूं, सन् १९७४) ६६. सूचू १- सूत्रकृतांगचूणि प्रथम श्रुतस्कन्ध (प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी वाराणसी, सन् १९७५) ७०. सूचू २- सूत्रकृतांगचूणि द्वितीय श्रुतस्कन्ध (ऋषभदेव केसरीमल श्वे० संस्था, रतलाम, सन् १९४१) ७१. सूटी १- सूत्रकृतांग टीका प्रथम श्रुतस्कन्ध (आगमोदय समिति बम्बई, सन् १९१६) ७२. सूटी २- सूत्रकृतांग टीका, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, (श्री गोडी पार्श्वनाथ जैन ग्रंथमाला, सन् १९५३) ७३. सूर्यटी- सूर्यप्रज्ञप्ति टोका (आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१६) ७४. स्थाटी- स्थानांगटीका (सेठ माणेकलाल चूनीलाल, अहमदाबाद, सन् १९३७) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम स्वकथ्य प्राक्कथन प्रस्तुति प्रयुक्त ग्रन्थ-संकेत सूची निरुक्त कोश परिशिष्ट १. कुदन्तव्युत्पन्न निरुक्त २. तीर्थकर-अभिधान निरुक्त Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १. अंग (अङ्ग) अंगतीत्यंगम् ।' (उचू पृ १७५) __जो प्रवृत्ति करता है, वह अंग है। अज्यते व्यक्तीक्रियते अस्मिन्नित्यङ्गम् । (आटी प ५) जिसमें (पराक्रम) व्यक्त किया जाता है, वह अंग है। २. अंगण (अङ्गन) अंगति तस्मिन्निति अंगनं ।। (उचू पृ १५८) जिसमें घूमा जाता है, वह आंगन है। ३. अंगप्पभव (अङ्गप्रभव) अङ्गाद्-दृष्टिवादादेः प्रभव-उत्पत्तिरेषामिति अङ्गप्रभवानि । (उशाटी प ५) जो दृष्टिवाद आदि अंगश्रुत से उत्पन्न होते हैं, वे अंगप्रभव आगम हैं। १. (क) अम्—गत्यादौ। (वा पृ७२) (ख) 'अंग' शब्द के अन्य निरुक्तअमति वृद्धिमङ्गतीति वा अङ्गम् । (अचि पृ १२७) जो बढ़ता है, वह अंग है । जो प्रवृत्ति करता है, वह अंग है । २. 'अंगण' शब्द का अन्य निरुक्तअगि—गतौ । अङ्ग यते गृहानिःसृत्य गम्यते अत्र अङ्गणम् । (वा पृ ७५) कमरे से निकल कर जिसमें घूमा जाता है, वह आंगन (courtyard) है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ४. अंतग (अन्तक) अंतं करोतीति अंतकः । (सूचू १ पृ १६२) __ जो अन्त करता है, वह अंतक/मृत्यु है । ५. अंतगर (अन्तकर) अन्तं भवस्य कुर्वन्तीति अन्तकराः। (जंटी प १५५) जो भव का अन्त करते हैं, वे अंतकर मुक्तिगामी हैं । ६. अंतराय (अन्तराय) अन्तरा- दातृप्रतिग्राहकयोरन्तविघ्नहेतुतयाऽयते गच्छतीत्यन्तरायम् । (उशाटी प ६४१) दाता और प्रतिग्राहक के अंतरा/मध्य में जो विघ्न बनकर आता है, वह अंतराय है। ७. अंतलिक्ख (अन्तरिक्ष) अन्तः मध्ये ईक्षा-दर्शनं यस्य तदन्तरीक्षम् ।' (भटी प १४३१) जो (आकाश और पृथ्वी के) मध्य में देखा जाता है, वह अन्तरिक्ष/आकाश है। ८. अंतिय (अन्तिक) अंतेसु गामादीणि वसंतीति अंतिया। (सूचू २ पृ ३५७) जो ग्राम आदि के अंत में रहते हैं, वे अंतिक हैं । १. 'अंतरिक्ष' के अन्य निरुक्तअन्तर्मध्ये ऋक्षाण्यस्य द्यावापृथिव्योरन्तरीक्षते वा अन्तरिक्षम् । (अचि पृ ३७) जिसके मध्य में ऋक्ष/नक्षत्र होते हैं, वह अंतरिक्ष है। जो आकाश और पृथ्वी के बीच देखा जाता है, वह अंतरिक्ष है । अन्तरा थावापृथिव्योः क्षान्तं अवस्थितं भवति । (आप्टे पृ १२५) जो आकाश और पृथ्वी के बीच अवस्थित है, वह अन्तरिक्ष है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १. अंतेवासि (अन्तेवासिन्) __अन्ते-गुरोः समीपे वस्तुं शीलमस्यान्तेवासी। (स्थाटी प २३४) जो गुरु के अंत/समीप में वास करता है, वह अंतेवासी/शिष्य है । १०. अंधयार (अन्धकार) अन्धमिवान्धं चक्षुःप्रवृत्तिनिवर्तकत्वेनार्थात् जनं करोतीत्यन्धकारः। (उशाटी प ५१०) जो मनुष्य को अन्धे की भांति अंधा कर देता है, वह अंधकार है। ११. अंबर (अम्बर) अम्बेव-मातेव जननसाधादम्बा–जलं तस्य राणाददानादम्बरम् । (भटी प १५३१) जो अम्बा/माता के सदृश जननधर्मा है, अनेक पदार्थों की उत्पत्ति का कारण है, वह अम्बा/जल है । जो जल का दान करता है, वह अंबर/आकाश है। १२. अकयण्णु (अकृतज्ञ) कृतमुपकारं न जानातीत्यकृतज्ञः। (स्थाटी प २७५) जो किए हुए उपकार को नहीं जानता, वह अकृतज्ञ है । १३. अकिंचण (अकिञ्चन) नत्थि जस्स किंचणं सोऽकिंचणो । (दअचू पृ ११) जिसके पास कुछ भी नहीं है, वह अकिंचन/मुनि है। १४. अकुय (अकुच) न कुचतीत्यकुचः।। (व्यभा ८ टी प १६) जो स्पन्दन नहीं करता, वह अकुच है। १. 'अंबर' शब्द के अन्य निरुक्त(क) अमन्त्यत्र देवा अम्बरम्-जहां देवता अमन/गमन करते हैं, वह अंबर है। (ख) अम्बते शब्दायते (इति अम्बरम्)---जो शब्द करता है, वह अंबर है । (अचि पृ ३७) २. कुच्-स्पन्दने । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ १५. अक्कोस ( आक्रोश ) आस्यते यतस्स आक्रोशः । जिससे भर्त्सना की जाती है, वह आक्रोश है । १६. अक्ख (अक्ष) अश्नुत इत्यक्षः । अश्नीते नवनीतादिकमित्यक्षः । धुरा है । १७. अक्ख (अक्ष) जो नवनीत आदि चिकने पदार्थों से व्याप्त होता है, वह अक्ष / असु वावण' धाऊओ अक्खो जीवो उ भण्णए णियमा । जं वावयए भावे णाणेणं तेण अक्खो त्ति ॥ १८. अक्खर (अक्षर) न खरतित्ति अक्खरं । निरुक्त कोश अस भोयणम्मि अहवा सव्वदव्वाणि भोगमेतस्स । आगच्छंती जम्हा पालेइ य तेण अक्खोत्ति | ( जीतभा १२, १३ ) जो ज्ञानात्मा से अर्थों को जान लेता है, वह अक्ष / जीव है । जो सब द्रव्यों का भोग करता है, वह अक्ष है । (उच्च् पृ ७० ) ( उच्च पृ १३५) ( उशाटी प २४७ ) जो क्षरित / नष्ट नहीं होता, वह अक्षर है । अर्थात् क्षरति न च क्षीयते इत्यक्षरम् । ( आवहाटी १ पृ१६ ) जो अर्थों का क्षरण / प्रकटन करता है, पर स्वयं क्षीण नहीं होता, वह अक्षर है । ( वृभा ४३ ) १. असु - व्याप्तौ । २. अशश् - भोजने । ३. एत्थक्खर सद्दो संचलणे वट्टइ, अकारो पडिसेहे, जम्हा णोक्खरति अओ अक्खरं । (आवचू १ पृ २५ ) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश न क्षरति-न चलत्यनुपयोगेऽपि न प्रच्यवत इत्यक्षरम् । (नंटि पृ १५८) जो अनुपयोग अवस्था में भी क्षरित विस्मृत नहीं होता, वह अक्षर है। १६. अक्खात (आख्यात) आख्यातीत्याख्याता । (सूचू २ पृ ३१७) जो कथन करता है, वह आख्याता है । २०. अक्खाय (आख्यात) आ-मर्यादया जीवाजीवलक्षणतारूपया अभिविधिना वा समस्तवस्तुविस्तारख्यापनालक्षणेन कथितं आख्यातम् । (स्थाटी प ७) मर्यादापूर्वक विस्तार से कथन करना आख्यात है। २१. अक्खीण (अक्षीण) यद्दीयमानं न क्षीयते स्म तदक्षीणम् । (स्थाटी प ५) जो देने पर क्षीण नहीं होता, वह अक्षीण है । २२. अक्खेवणो (आक्षेपणी) आक्षिप्यते मोहात् तत्त्वं प्रत्याकृष्यते श्रोताऽनयेत्याक्षेपणी । (स्थाटी प २०४) जिससे श्रोता तत्त्वज्ञान और चारित्र के प्रति आकृष्ट होता है, वह आक्षेपणी (कथा) है। २३. अग (अग) अगमणाद् अगा। (दअचू पृ ७) न गच्छंतीति अगा। (आचू पृ २३) जो गति नहीं करते, वे अग/वृक्ष हैं । २४. अगम (अगम) न गच्छंतीति अगमा। (दजिनू पृ ११) जो गति नहीं करते, वे अगम/वृक्ष हैं। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. अगम (अगम ) गमन क्रियारहितत्वेनागमम् । जो गति नहीं करता, वह अगम / आकाश है । २६. अगार ( अगार) अगाः वृक्षास्तैः कृतत्वाद् आ समन्तात् राजते इति अगारम् । ( आमटी प ४३४ ) २७. अगारत्थ (अगारस्थ ) जो संपूर्ण रूप से काष्ठ निर्मित है, वह अगार / गृह है । अगारे चिट्ठतीति अगारत्थो । जो अगर / गृह में रहता है, वह अगारस्थ / गृहस्थ है | २८. अग्गह ( आग्रह ) आङ् मर्यादया ग्रहः स्वीकार आग्रहः । २६. अग्गि (अग्नि) अंगतीत्यग्निः । जो ऊर्ध्व गति करती है, वह अग्नि है । जो मर्यादित स्वीकरण / अभिनिवेश है, वह आग्रह है । १. ' अगार' के अन्य निरुक्त निरुक्त कोश (भटी प १४३१ ) २. 'अग्नि' के अन्य निरुक्त ( आचू पृ ३०१ ) ( बूटी पू १८० ) अग्यतेऽस्मिन्नगारम् अगान् वृक्षानियति वा । ( अचि पृ २१९ ) जिसमें रहा जाता है, वह अगार है । जो वृक्ष से निर्मित है, वह अगार है । अगत्यूर्ध्वं याति अग्निः । (अचि पृ २४५ ) जो ऊर्ध्व गति करती है, वह अग्नि है । अग्रणीर्भवति । अग्रं यज्ञेषु प्रणीयते । ( नि ७ /१४) जो यज्ञ में सर्वप्रथम प्रणीत होती है, वह अग्नि है । ( उच् पू १५२ ) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ३०. अग्गेणीय (अग्रायणीय) अग्ग-परिमाणं वणिज्जइ त्ति अग्गेणीतं । (नंचू पृ ७५) ___ जिसमें अग्र/परिमाण का वर्णन है, वह अग्रायणीय (दूसरा पूर्व) है। ३१. अचल (अचल) अचलतीति अचलो। (आचू पृ २६२) जो चलित नहीं होता, वह अचल है । ३२. अच्चा (अर्चा) अच्चीयते तमिति अच्चा । (आचू पृ १४४) जिसकी पूजा की जाती है, वह अर्चा/शरीर है। अर्चयन्ति तां विवधराहारैर्वस्त्राद्यलङ्कारैश्चेत्यर्चा । (सूचू १ पृ २२५) जो विविध प्रकार के आहार, वस्त्र और अलंकारों से अर्चितपूजित होता है, वह अर्चा/शरीर है । ३३. अच्चिमालि (अचिमालिन्) रस्सीओ-अच्चीओ तासि माला अच्चिमाला। सा जस्स अस्थि सो अच्चिमाली। (दअचू पृ २१०) जिसके अचि रश्मि रूप माला है, वह अचिमाली/सूर्य है । ३४. अच्चंत (अत्यन्त) अन्तमतिक्रान्तोऽत्यन्तः। (उशाटी प ६१२) जिसने अंत का अतिक्रमण कर दिया, वह अत्यंत है । ३५. अच्छि (अक्षि) अश्नोतीत्यक्षिः । (उचू पृ २०८) जो व्याप्त होती है, वह अक्षि/आंख है। जो विषयों/पदार्थों को ग्रहण करती है, वह अक्षि है। ३६. अच्छिज्ज (आच्छेद्य) आच्छिद्यते-अनिच्छतोऽपि दानाय परिगृह्यते यत् तदाच्छेद्यम् । (पिटी प ३५) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोष है । ३७. अच्छेर ( आश्चर्य) निरुक्त कोश जो बलात् छीनकर दिया जाता है, वह आच्छेद्य / भिक्षा का एक आ - विस्मयतश्चर्यन्ते ३८. अजिण ( अजिन ) १. 2 जो विस्मयपूर्वक जाने जाते हैं, वे आश्चर्य हैं । अजति तेनेत्यजिनम् ।' ३६. अज्झत्थ (अध्यात्म ) - अवगम्यन्त इत्याश्चर्याणि । जो रज आदि को फेंकता है, वह अजिन / चर्म है | अत्ताणं अधिकिच्च वट्टति तं अज्झत्थं । जो आत्मा में बरतता है, वह अध्यात्म है । आत्मानं प्रति यद्वर्तते तदध्यात्मम् । जो आत्मा के प्रति होता है, वह अध्यात्म है । ४०. अभयण ( अध्ययन ) अप्पस्स आणयणं अज्झयणं । " वह अध्ययन है । ( स्थाटी प ५०० ) (क) अज - क्षेपणे च चकाराद् गतौ । ( ख ) ' अजिन' शब्द का अन्य निरुक्तअजन्ति तदिति अजिनम् (अचि १४२ ) जो खींची / उतारी जाती है, वह अजिन है । ( उचू पृ १३८ ) जो अध्यात्म का आनयन / लाभ है, वह अध्ययन है । जेण सुहपज्झयणं अज्झप्पाणयण महियमयणं वा । बोहस्स संजमस्स व मोक्खस्स व तो तमज्झयणं ॥ ( विभा ६० ) जिससे बोधि, संयम और मोक्ष का अधिक अयन / लाभ होता है, ( आचू पृ ३६ ) ( उचू पृ २२६ ) ( अनुद्वा ६३१ ) इह निरुक्तविधिना प्राकृतस्वाभाव्याच्च पकारस्सकारआकारणकारलक्षण मध्यगतवर्णचतुष्टयलोपे अज्झयणमिति भवति । ( अनुद्वामटी प २३२ ) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश अधीयते वा–पठ्यते आधिक्येन स्मर्यते गम्यते वा तदित्यध्ययनम् । (स्थाटी प ५) जो पढ़ा जाता है, अधिक स्मृत और ज्ञात किया जाता है, वह अध्ययन है। अधीयन्ते-जायन्ते यैस्तान्यध्ययनानि । (सूर्यटी प १४६) जिनसे जाना जाता है, वे अध्ययन हैं। ४१. अज्झाक्य (अध्यापक) अध्यापयतीति अध्यापकः । (उचू पृ २०७) जो अध्यापन कराता है, वह अध्यापक है । ४२. अज्झोयर (अध्यवतर) अहियं उदरं अज्झोयरं। (जीतभा १२८३) अधि--आधिक्येनावपूरणं स्वार्थदत्ताधिश्रयणादेः साध्यागमनमवगम्य तद्योग्यभक्तसिद्ध्यर्थं प्राचुर्येण भरणमध्यवपूरः। (प्रसाटी प १४४) पकाते समय (साधुओं के निमित्त) अधिक ऊरना/डालना अध्यवतर (दोष) है। ४३. अज्झोवण्ण (अध्युपपन्न) अधिकं उपपण्णा अज्झोवण्णा । (सूचू १ पृ ७०) जो अत्यधिक उपपन्न/आसक्त हैं, वे अध्युपपन्न हैं। ४४. अट्ट (आत) ऋतं-दुःखं तन्निमित्तं दुरझवसातो अट। (दअचू पृ १६) जो अध्यवसाय ऋत/दु:ख का कारण है, वह आत्तं (ध्यान) है। ४५. अट्ट (अट्ट) अट्यते-- अतिक्राम्यतेऽनेनेत्यट्टः । (भटी प १४३१) जिसके द्वारा गमन-आगमन किया जाता है, वह अट्ट/आकाश है । ४६. अट्ट (अर्थ) इयर्ती इच्छति वा अर्थः। (उचू पृ १६७) जो प्राप्त किया जाता है, वह अर्थ/धन है। जिसकी इच्छा की जाती है, वह अर्थ/धन है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० निरुक्त कोश ४७. अट्टकर (अर्थकर) अर्थान्—हिता हितप्राप्तिपरिहारादीन् राजादीनां दिग्यात्रादौ तथोपदेशतः करोतीत्यर्थकरः। (स्थाटी प २३३) ___ जो अर्थ हित की प्राप्ति और अहित के परिहार का उपदेश करता है, वह अर्थकर/मंत्री/नैमित्तिक है । ४८. अट्ठजात (अर्थजात) अर्थेन अथितया जातं कार्य यस्य सोऽर्थजातः । अर्थः प्रयोजनं जातो ऽस्येत्यर्थजातः। ___ (व्यभा ४/२ टी प ४६) ___जिसका अर्थ प्रयोजन सिद्ध हो गया है, वह अर्थजात है। अपने अर्थ/प्रयोजन के लिए जिसका कार्य निष्पन्न हो गया, वह अर्थजात (भिक्षु) है। ४६. अणंतघाइ (अनन्तघातिन्) अनन्ते-ज्ञानदर्शने हन्तुं शीलं येषां तेऽनन्तघातिनः। (उशाटी प ५८०) जो अनन्त--ज्ञान-दर्शन का हनन करता है, वह अनन्तघाति है। ५०. अणंतनाण (अनन्तज्ञान) अणंतं जेण नज्जइ णाणेणं तं अणंतनाणं । (दजिचू पृ ३०६) जिस ज्ञान के द्वारा अनन्त को जाना जाता है, वह अनन्तज्ञान ५१. अणंतहितकाम (अनन्तहितकाम) अणंतं हितं कामयतीति अणंतहितकामए। (दजिचू पृ ३३४) जो अनन्त हित/मोक्ष की कामना करता है, वह अनन्तहितकाम ५२. अणंताणुबंधि (अनन्तानुबन्धिन् ) अनन्तं संसारमनुबध्नन्तीत्येवंशीला अनन्तानुबन्धिनः । (प्रज्ञाटी पृ ४६८) जो अनन्त संसार का अनुबन्ध करते हैं, वे अनन्तानुबंधी (कषाय) हैं। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ५३. अणकर ( ऋणकर ) ऋणं पापं करोतीति ऋणकरः । जो ऋण / पाप करता है, वह ऋणकर है । ५४. अणगार (अनगार) अगारं - घरं तं जस्स नत्थि सो अणगारो । जिसके अगार / घर नहीं है, वह अनगार / मुनि है । ५५. अणण्णवित्ति (अनन्यवृत्ति ) है, ५६. अणापुच्छियचारि (अनापृच्छ्यचारिन् ) न विद्यते अन्या भिक्षामात्रात् व्यतिरिक्ता वृत्तिर्येषां ते अनन्यवृत्तयः । (व्यभा २ टी प ४) भिक्षा के अतिरिक्त जिनकी कोई दूसरी वृत्ति / आजीविका नहीं वृत्ति हैं । ५७. अणावाय (अनापात ) गणं अनापृच्छ्य चरति क्षेत्रान्तरसंक्रमादि करोतीत्येवंशी लोग्ना पृच्छ्य - चारी । ( स्थाटी प २६१ ) जो गण को बिना पूछे क्षेत्रान्तर में विहरण करता है, वह अनापृच्छ्यचारी है। स्थान है । ५८. अणिल ( अनिल ) ११. ( प्रटी प ७ ) (दअचू पृ ८५ ) न विद्यते आपातः अभ्यागमः परस्य अन्यस्य स्वपक्षस्य परपक्षस्य वा यस्मिन् तदनापातम् । ( प्रसाटी प २०४ ) जहां किसी का आवागमन नहीं होता, वह अनापात / एकांत अणिलयणाद् अणिलः । ' १. 'अनिल' के अन्य निरुक्त अनन्त्यनेन अनिलः न निलति वा । (अचि पृ २४६) जिससे श्वास / प्राण ग्रहण करते हैं, वह अनिल है । जो हल्का होता है, वह अनिल है । ( णिलत् — गहने) ( अचू पृ १५१) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश निलयो जस्स नत्थि सो अणिलो। (दजिचू पृ २२५) जिसके निलय/स्थान नहीं है, वह अनिल/पवन है । ५६. अणु (अणु) अणतीत्यणुः । (उचू पृ १५६) जो सदा अपने अस्तित्व को बनाए रखता है, वह अणु है। ६०. अणुंधरि (अणुन्धरिन्) अणुं सरीरं धरेति अणुंधरी। (दश्रुचू प ६५) जो अणु/लघु शरीर को धारण करता है, वह अणुंधरी/ सूक्ष्मजीव है। ६१. अणुगम (अनुगम) अनुगम्यतेऽनेनास्मिंश्चेति अनुगमः । (उचू पृ६) जिसके द्वारा सूत्र का अनुसरण अथवा सूत्र के अर्थ का स्पष्टीकरण किया जाता है, वह अनुगम/व्याख्या है। अथातो सुत्तं अणु, तस्स अणुरूवगमणत्ताओ अनुगमो । (अनुद्वाचू पृ १८) अर्थ से सूत्र अणु/लघु होता है । उसके अनुरूप गमन करना अनुगम है। सूत्रार्थानुकूलगमनं वा अनुगमः। (अनुद्वाचू पृ २३) सत्र और अर्थ के अनुकूल गमन करना अनुगम है । सूत्रपठनादनुपश्चाद् गमनं-व्याख्यानमनुगमः। अनुसूत्रमर्थों गम्यते-ज्ञायते अनेनेत्यनुगमः ॥ ___ (अनुद्वामटी प ५४) सूत्र पढने के पश्चात् गमन/व्याख्यान करना अनुगम है । जिसके द्वारा सूत्रानुसारी ज्ञान होता है, वह अनुगम है। ६२. अणुगामि (अनुगामिन्) अणुगमणसोलो अणुगामितो। (नंचू पृ १५) जो अनुवर्तन करता है, वह अनुगामिक है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १३ गच्छन्तमनुगच्छतीत्यनुगामिकः । (सूटी २ प ६१) जो चलने वाले का अनुगमन करता है, वह अनुगामिक है। ६३. अणुग्गह (अनुग्रह) अनुगृह्यते इति अनुग्रहः । (व्यभा २ टी प १०) अनुग्रहण/अभीष्ट सम्पादन करना अनुग्रह है। ६४. अणुजुत्ति (अनुयुक्ति) अनुयुज्यते इति अनुयुक्तिः । अनुगता अनुयुक्ता वा युक्तिः अनुयुक्तिः । (सूचू १ पृ.६३) अनुयोजन करना अनुयुक्ति है। अनुरूपा युक्तिः अनुयुक्तिः । (सूचू १ पृ १९७) अनुरूप कथन करना अनुयुक्ति है । ६५. अणुजोग (अनुयोग) अणुणा जोगो अणुजोगो। (बृभा १६०) __ अणु/सूत्र के साथ अर्थ का योजन अनुयोग है। जोगोत्ति वावारो जो सुत्तस्स सोऽणुरूवो अणुकूलो वा अनुयोगः । (अनुद्वाचू पृ ५) सूत्र के अनुरूप या अनुकूल योग/प्रवृत्ति करना अनुयोग है। ६६. अणुण्णा (अनुज्ञा) अनुज्ञायते वाऽनयेति अनुज्ञा । (नंटी पृ १७०) जिससे जाना जाता है, वह अनुज्ञा/गुरुवचन है। ६७. अणुतापि (अनुतापिन्) अनु-पश्चात् हा दुष्ठुकृतं हा दुष्ठुकारितमित्यादिरूपेण तपति सन्तापमनुभवतीत्येवंशीलोऽनुतापी। (व्यभा ३ टी प ११०) जो अनु/बाद में संताप का अनुभव करता है, वह अनुतापी है। ६८. अणुत्तर (अनुत्तर) न विद्यन्ते उत्तराः प्रधानाः स्थितिप्रभावसुखयुतिलेश्यादिभिरेभ्योऽन्ये देवा इत्यनुत्तराः। __(उशाटी प ७०२) जिनसे दूसरे देव उत्तर प्रधान नहीं हैं, वे अनुत्तर देव हैं । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ६६. अणुत्तर (अनुत्तर) णत्थि जतो ऊत्तरतरो विसिट्टतरो सो अणुत्तरो। (दअचू पृ १६५) जिससे कोई उत्तर/विशिष्ट नहीं होता, वह अनुत्तर है । ७०. अणुपुग्विग (आनुपूर्विग) आनुपूर्वी—क्रमस्तं गच्छतीत्यानुपूर्विगः। (आटी प २६२) जो क्रम के अनुसार चलता है, वह आनुपूर्विक है । ७१. अणुमाण (अनुमान) अनु–लिङ्गग्रहणसम्बन्धस्मरणस्य पश्चान्मीयते—परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति अनुमानम् । (अनुद्वामटी पृ १९६) लिंग/चिह्न या संकेत की स्मृति के अनु/पश्चात् होने वाला ज्ञान अनुमान है। ७२. अणुरंगिणी (अनुरङ्गिनी) अनुरज्यते- अनुकारं विदधातीत्येवंशीलाऽनुरङ्गिनी । (सूर्यटी प १३६) जो शरीर का अनुकरण करती है, वह अनुरंगिनी/छाया है। ७३. अणुसासण (अनुशासन) अनुशास्यते येन तद् अनुशासनम् । (सूचू १ पृ ७४) जिसके द्वारा अनुशासित किया जाता है, वह अनुशासन श्रुतज्ञान है। ७४. अणुसासिअ (अनुशासित) अणुकूलं सास्यते स्म अनुशासितः । (उचू पृ २८) __ जो (गुरु के) अनुकूल शासित होता है, वह अनुशासित है । ७५. अणुसोयचारि (अनुस्रोतश्चारिन्) अनुस्रोतसा चरतीत्यनुस्रोतश्चारी। (स्थाटी प २६३) जो स्रोत/प्रवाह के पीछे-पीछे चलता है, वह अनुस्रोतचारी है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ७६. अणुसंसरण ( अनुसंसरण) अणु कह संसरति अणुसंसरति । ( आचू पृ १३ ) कर्मों से अनुगत होकर संसरण / जन्म-मरण करना अनुसंसरण है । ७७. अणुसार (अनुस्वार) अणुस्सारं नाम पम्हुट्ठे अत्थे सतं संभरिते अण्णेण अक्खरविरहितं सद्दकरणं तमणुस्सारं भण्णइ । ७८. अण्णगिलाय ( अन्नग्लायक ) विस्मृत अर्थ का स्वयं द्वारा स्मरण करने पर अथवा दूसरे द्वारा कराए जाने पर जो अक्षर रहित शब्द किया जाता है, वह अनुस्वार है | अन्नं भोजनं विना ग्लायति अन्नग्लायकः । ( औटी पृ७४ ) जो अन्न / भोजन के बिना ग्लान होता है, वह अन्नग्लायक है । ७६. अण्णतरग (अन्यतरक ) एकस्मिन् काले आत्मपरयोरन्यमन्यतरं तारयन्तीति अन्यतरकाः । (व्यभा ३ टीप ३) ८०. अण्णव (अर्णव) जो एक समय में स्व या अन्य — दोनों में से एक को तारते हैं, वे अन्यतरक हैं । अतरणशीलो अण्णवो ।' १५ वा संभारिते जं ( आवचू १ पृ ३० ) जिसे तैरना संभव नहीं, वह अर्णव / समुद्र है । ८१. अण्णा चरक ( अज्ञातचरक ) १. 'अर्णव' का अन्य निरुक्त अर्णासि सन्त्यस्य अर्णवः । (अचि पृ २३८ ) जिसमें अणं / जल होता है, वह अर्णव है । अज्ञातः - अनुपर्दाशतस्वाजन्यद्धिमत्प्रव्रजितादिभाव: सन् चरति - भिक्षार्थ मटतीत्यज्ञातचरकः । ( स्थाटी प २८७ ) जो अज्ञात रहकर भिक्षाचरण करता है, वह अज्ञात चरक है । ( उचू पृ १९९३) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ८२. अण्णायएसि ( अज्ञातैषिन् ) अज्ञातमज्ञातेन एषते - भिक्षते असौ अज्ञातैषी । जो अज्ञात रहकर अज्ञात कुलों में एषणा अज्ञातैषी है । ८३. अंतर (अंतर) न तरितुं शक्यत इति अतरः । जिसे तरना संभव नहीं, वह अतर / समुद्र है । ८४. अतिगमण ( अतिगमन ) अतिक्रम्य गमनं - प्रवेशमतिगमनम् । ८५. अतिमाण ( अतिमान) अतिक्राम्यते येन चारित्रं सोऽतिमाणं । अतिक्रमण कर गमन / प्रवेश करना अतिगमन है । जिसके द्वारा चारित्र का अतिक्रमण अतिमान है । ८६. अतिवात ( अतिपात ) अतिवादिज्जति जेण सो अतिवादो । है । ८७. अतिवातसोय ( अतिपात स्रोतस् ) अतिपतति संसारातो अतिपातसोयं । क्रिया) है | ८८. अत्त (आप्त ) निरुक्त कोश ( उचू पृ २३५ ) करता है, वह ( व्यभा ४ / १ टीप २३) ( आचू पृ ३०७ ) जिसके द्वारा अतिपतन / विनाश होता है, वह अतिपात / हिंसा ( बृटी पृ ६१० ) (सूचू १ पृ २०३) किया जाता है, वह ( आचू पृ ३०७ ) जो संसार से निकालता है, वह अतिपातस्रोत ( ईर्यापथिक जो ज्ञान आदि से व्याप्त है, वह आप्त है । ज्ञानदर्शनचारित्राणि येनाप्तानि स भवत्याप्तः । जिसने ज्ञान, दर्शन और चारित्र को प्राप्त कर लिया है, वह आ है। ज्ञानादिभिराप्यते स्म आप्तः । ( व्यभा १० टीप ३५) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २६. अत्त (आत्र) आ–अभिविधिना त्रायन्ते दुःखाद् संरक्षन्ति सुखं चोत्पादयन्तीति आत्राः। (भटी पृ १२०४) जो दुःख से त्राण/रक्षा करते हैं और सुख उत्पन्न करते हैं, वे आत्र/आप्त हैं। १०. अत्तगवेसि (आत्मगवेषिन्) अत्ताणं गवसतीति अत्तगवेसिओ। (दजिचू पृ २६२) जो आत्मा की गवेषणा करता है, वह आत्मगवेषी है। ६१. अत्तपण्णेसि (आत्मप्र षिन्) आत्मप्रज्ञामेषयन्तीति आत्मप्रज्ञैषिणः। (सूचू १ पृ १५२) जो आत्मप्रज्ञा/आत्मज्ञान की खोज करते हैं, वे आत्मप्रज्ञैषी हैं। १२. अत्तव (आत्मवत्) नाणदंसणचरित्रमयो जस्स आया अत्थि सो अत्तवं । (दअचू पृ १९७) जिसकी आत्मा ज्ञान,दर्शन और चारित्रमय है, वह आत्मवान् ६३. अत्थ (अर्थ) अर्थ्यत इत्यर्थः। __(अनुद्वाचूपृ २२) जिसको जानने की इच्छा की जाती है, वह अर्थ है । अर्यतेऽधिगम्यतेऽर्थ्यते वा याच्यते बुभुत्सुभिरित्यर्थः । (स्थाटी प ४६) ___ जो जिज्ञासु द्वारा जाना जाता है अथवा जिज्ञासु जिसको जानने की याचना करता है, वह अर्थ है। ६४. अत्थाणंतरचारि (अर्थानन्तरचारिन्) अर्थे-शब्दादाविन्द्रियव्यापारादनन्तरं चरति-व्याप्रियत इत्येवंशीलमर्थानन्तरचारि। (बृटी पृ १६) जो अर्थ शब्द आदि विषयों में इन्द्रियों की प्रवृत्ति के पश्चात् प्रवृत्त होता है, वह अर्थानन्तरचारी/मन है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ निरुक्त कोश ६५. अत्योग्गह (अर्थावग्रह) अर्यते-अधिगम्यतेऽर्थ्यते वा अन्विष्यत इत्यर्थः, तस्य सामान्यरूपस्य अशेषविशेषनिरपेक्षा निर्देश्यस्य रूपादेरवग्रहणं-प्रथमपरिच्छेदनमर्थावग्रहः। (स्थाटी प ४६) सभी विशेषणों से निरपेक्ष, सामान्यरूप से अर्थ पदार्थ का अवग्रहण करना अर्थावग्रह है। ६६. अदत्तहारि (अदत्तहारिन्) अदत्तं हरतीति अदत्तहारी। (सूचू १ पृ १२७) जो अदत्त का हरण करता है, वह अदत्तहारी/चोर है । १७. अद्द (अर्थ) अर्थ ते—गम्यतेऽनेनेत्यईः। (भटी पृ १४३१) जिसमें गति की जाती है, वह अर्द/आकाश है। १८. अद्धा (अध्वन्) ___ अत्ति प्राणानित्यध्वा । (उचूपृ १८३) जो प्राणों का भक्षण करता है, वह अध्वा/मार्ग है। ६६. अधम्मपलज्जण (अधर्मप्ररञ्जन) अधर्मप्रायेषु कर्मसु प्रकर्षेण रज्यन्त इति अधर्मप्ररक्ताः । (सूटी २ प ७२) जो अधार्मिक कार्यों में अत्यन्त रक्त/आसक्त हैं, वे अधर्मप्ररक्त १००. अपुवकरण (अपूर्वकरण) अपूर्वामपूर्वा क्रियां गच्छतीत्यपूर्वकरणम् । (भाटी प २६७) _____ जो नई-नई क्रियाओं/अवस्थाओं को प्राप्त होता है, वह अपूर्व करण है। १०१. अप्प (आत्मन्) अतति-सन्ततं गच्छति शुद्धिसंक्लेशात्मकपरिणामान्तराणीत्यात्मा। (उशाटी प ५२) जो विविध भावों में परिणत होती है, बह बात्मा है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश साधारस्तावो। जोर १०२. अप्परिसावि (अपरिस्राविन्) न परिस्रवतीत्येवंशीलोऽपरिस्रावी । (व्यभा ३ टी प १८) जो परिस्रवित नहीं होता/झरता नहीं, वह अपरिस्रावी है। १०३. अब्भ (अभ्र) अपो बिभ्रतीति अब्भ्राणि ।' (राटी पृ ६५) जो जल को धारण करते हैं, वे अभ्र/बादल हैं। १०४. अब्भागमिय (अभ्यागमिक) अभिमुखं आगमिकं अभ्यागमिकं । (सूचू १ पृ.७५) जो सम्मुख आता है, वह अभ्यागमिक/आगंतुक है । १०५. अब्भासवत्ति (अभ्यासवर्तिन्) गुरोरभ्यासे समीपे वर्तते इत्येवंशीलोऽभ्यासवर्ती । (व्यभा १ टी प ३१) जो गुरु के पास रहता है, वह अभ्यासवर्ती है । १०६. अब्भुट्ठाण (अभ्युत्थान) आभिमुख्येनोत्थानमभ्युत्थानम्। (आवहाटी २ पृ २२) सम्मुख आते हुए को देखकर उठना अभ्युत्थान है। १०७. अब्भोवगमिया (आभ्युपगमिकी) या स्वयमभ्युपगम्यते, अभ्युपगमेन स्वयमङ्गीकारेण निर्वृत्ता आभ्युपगमिकी। (प्रज्ञाटी प ५५७) जिसका स्वयं अभ्युपगमन/स्वीकरण किया जाता है, वह आभ्युपगमिकी (वेदना) है। १. 'अभ्र' का अन्य निरुक्तअभ्रतीति अभ्रं, आप्नोति सर्वा दिश इति वा अभ्रम् । (अचिपृ ३८) जो गति करता है, वह अभ्र है। (अभ्र-गतौ) जो सब दिशाओं में व्याप्त होता है, वह अभ्र है । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १०८. अभयंकर (अभयङ्कर) अभयं करोतीति अभयङ्करः। (सूचू १ पृ १४६) जो अभय करता है, वह अभयंकर है । १०६. अभयद (अभयद) अभयं ददतीत्यभयदाः। (जीटी १ २५५) जो अभय देते हैं, वे अभयदाता हैं। ११०. अभिग्गह (अभिग्रह) अभिगृह्यन्ते इति अभिग्रहाः। (आवहाटी २ पृ २१०) जिनको संकल्परूप में ग्रहण किया जाता है, वे अभिग्रह/ प्रतिज्ञाएं हैं। १११. अभिजोग (अभियोग) अभियुज्यत इत्यभियोगः। (सूचू २ पृ ४५२) जो आरोपित किया जाता है, वह अभियोग है। ११२. अभिज्झा (अभिध्या) अभि-व्याप्त्या विषयाणां ध्यानं तदेकाग्रत्वमभिध्या । (भटी पृ १०५२) इन्द्रिय-विषयों में विशेष रूप से एकाग्र होना अभिध्या/लोभ है। ११३. अभिणिबोह (अभिनिबोध) अत्थाभिमुहो नियतो बोधो अभिनिबोधः। (नंचू पृ १३) जो अर्थाभिमुख ज्ञान होता है, वह अभिनिबोध/मतिज्ञान है । ११४. अभिणिसेज्जा (अभिनिषद्या) अभि रात्रिमभिव्याप्य स्वाध्यायनिमित्तमागता निषीदन्त्यस्यामित्यभिनिषद्या। (व्यभा ३ टी प ५२) जहां रात्रि के समय मुनि स्वाध्याय के लिए बैठते हैं, वह अभिनिषद्या स्वाध्याय भूमि है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ११५. अभियुअ ( अभिष्टुत) आभिमुख्येन स्तुता अभिष्टुताः । ( आवहाटी २ पृ ११ ) जिनकी प्रधान रूप से स्तुति की जाती है, वे अभिस्तुत / तीर्थंकर हैं । ११६. अभिलप्प ( अभिलाप्य ) अभिलाप्यते वस्त्वभिलाप्यमनेनेति अभिलापः । ( बृटी पृ ५) जिससे वस्तु का अभिलाप / कथन किया जाता है, वह अभि+ लाप है । ११७. अभिहड (अभिहृत) अभि-साध्वभिमुखं हृतं - स्थानान्तरादानीतम् अभिहृतम् । ( पिटी पृ ३५ ) जो आहार आदि दूसरे स्थान से साधु को देने के लिए लाया जाता है, वह अभिहृत / भिक्षा का दोष है । ११८. अमणाम (दे) न मनसा अम्यन्ते – गम्यन्ते पुनः पुनः स्मरणतो ये तेऽमणामाः । (भटी प ७२) जिनका मन के द्वारा बार-बार स्मरण नहीं किया जाता, वे अमणाम / अमनोज्ञ हैं । ११. अमणुण्ण ( अमनोज्ञ ) मनसा न ज्ञायन्ते --- नाभिलष्यन्ते अमनोज्ञाः । ( उपाटी पृ २४३ ) जिनकी मन के द्वारा आकांक्षा नहीं की जाती, वे अमनोज्ञ हैं । ( दअचू पृ २५७ ) १२०. अमर ( अमर ) ण जेसि मरो अत्थि ते अमराः । जिनके मर / मरण नहीं है, वे अमर हैं । २१ १२१. अय (अज) अजतीत्यजः । ' ( उचू पृ १६० ) जो बलि / यज्ञ के लिए ले जाया जाता है, वह अज / बकरा है । १. अजति वातमजा (अचि पृ २८५ ) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १२२. अरह (अरहस्) नास्य रहस्यं ति विद्यते वा अरहा।' (सूचू १ पृ ७६) जिनके लिए कोई रहस्य नहीं है, वे अ-रह/अर्हत् हैं । १२३. अरहंत (अरथान्त) अविद्यमानो रथः–स्यन्दनः सकलपरिग्रहोपलक्षणभूतोऽन्तश्च विनाशो जरादयुपलक्षणभूतो येषां ते अरथान्ताः । (भटी प ३) जिन्होंने परिग्रहरूपी रथ का तथा जरा-मरण आदि का अंत/ नाश कर दिया है, वे अरथान्त/अर्हत हैं। १२४. अरिहंत (अर्हत्) अरिणो हंता रयं हंता अरिहंता।' (आवनि १०७६) जो क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करते हैं, वे अरिहंत हैं । जो कर्म-रज का नाश करते हैं, वे अरिहंत हैं । 'अरह' के अन्य निरुक्तये सच्छकत सद्धम्मा अरिया सुद्धगोचरा । न तेहि रहितो होति नाथो तेन अरह मतो ॥ रहो वा गमनं यस्स संसारे नत्थि सव्वसो । पहीन जातिमरणो अरहं सुगतो मतो ॥ (विटी पृ ४२२) जो आर्य-धर्मों से रहित नहीं है, वह अरह/अर्हत् है । जिसने संसार का रह/गमन मिटा दिया है, वह अरह/अर्हत् है । २. (क) कोहाई उ अरी ऊ अहव रयं कम्मं होइ अट्टविहं । अरिणो व रयं हंता तम्हा उ हवंति अरिहंता। (जीतभा ९८३) (ख) 'अरिहंत' का अन्य निरुक्त अरा संसारचक्कस्स हता आणासिना यतो। लोकनाथेन तेनेस अरहं ति पवुच्चति ॥ (वि ७/११) जिसने ज्ञान रूपी तलवार के द्वारा संसाररूपी चक्र के आरों का नाश कर दिया, वह अरहा/अरिहंत है । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ३ अरह पूयाए' धातू पूयामरिहंति तेण अरिहंता । अरिहंति वंदण णमंसण च तम्हा उ हवंति अरिहंता ॥ (जीतभा ६८२) जो पूजा के योग्य हैं, वे अर्हत हैं। जो वन्दन-नमस्कार के योग्य हैं, वे अर्हत् हैं। १२५. अरुह (अरुह) न रोहन्ति भूयः समुत्पद्यन्ते इत्यरुहाः। (प्रसाटी प ४४७) जो बार-बार उत्पन्न नहीं होते, वे अरुह/सिद्ध हैं। १२६. अलंकार (अलङ्कार) अलंक्रियते-भूष्यतेऽनेनेत्यलङ्कारः। (स्थाटी प २७६) जो अलंकृत/विभूषित करता है, वह अलंकार/आभूषण । १२७. अल्लीण (आलीन) न चलति त्ति अल्लीणो। ___ (आवहाटी १ पृ १३१) जो चलता नहीं, वह आलीन/निश्चेष्ट है। १२८. अवगाहणा (अवगाहना) अवगाहन्ते –अवतिष्ठन्ते जीवा अस्यामित्यवगाहना । (अनुद्वामटी प १५१) जीव जितने स्थान का अवगाहन करता है, वह अवगाहना/ शरीर-परिमाण है। १२६. अवड्ड (अपार्ध) अपगतमर्द्ध यस्य सोऽपार्द्धः । (प्रज्ञाटी प ३८४) जो आधे भाग से अपगत/रहित है, वह अपार्द्ध है। १. (क) अर्ह-पूजायाम् । (ख) गुणेहि सदिसो नत्थि यस्मालोके सदेवके । तस्मा पासंसियत्तापि अरहं द्विपदुत्तमो॥ (विटी पृ ४२२) ___जो लोक में अपने असाधारण गुणों से अहं प्रशंसनीय है, वह अर्ह अर्हत् है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ निरुक्त कोश १३०. अवदालि (अवदारिन्) अवदारयति शकटं स्वस्वामिनं वा विनाशयतीत्येवंशीलोऽवदारी। (उशाटीप ५४८) ___ जो स्वामी और शकट का अवदारण/विनाश करता है, वह अवदारी/दुष्ट बैल है। १३१. अवमाण (अवमान) अवमीयते—परिच्छिद्यते खाताद्यनेनेति अवमानम् । (अनुद्वामटी प १४२) जिसके द्वारा परिखा आदि का माप किया जाता है, वह अवमान है। १३२. अवलावि (अपलापिन्) अपलपति गूहतीत्येवंशीलोऽपलापी। (व्यभा ३ टी प १८) जो अपलपन करता है-छिपाता है, वह अपलापी/असत्यभाषी है। १३३. अवहि (अवधि) अवधीयते इति अधोऽधो विस्तृत परिच्छिद्यते, मर्यादया वेति । (आवहाटी १ पृ ५) जिससे उत्तरोत्तर विस्तार से जाना जाता है, वह अवधि (ज्ञान) है। जो अवधि/सीमाबद्ध ज्ञान है, वह अवधि (ज्ञान) है। १३४. अवाय (अपाय) अप अयः-सामस्त्येन परिच्छेदोऽपायः। (नंटी पृ १४५) जो सम्पूर्णरूप से अवबोध होता है, वह अपाय/निश्चय (ज्ञान) है। १३५. अवायदंसि (अपायदर्शिन्) अपायान्–अनर्थान् पश्यतीत्येवंशीलः, सम्यगनालोचनायां वा दुर्लभबोधिकत्वादीन् अपायान् शिष्यस्य दर्शयतीति अपायदर्शी । (स्थाटी प ४०६) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश २५ जो अपाय/अनर्थों को देखता है, वह अपायदर्शी है । जो अपायों को दिखाता है, वह अपायदर्शी है। इहलोकापायान परलोकापायांश्च दर्शयतीत्येवंशीलोऽपायदर्शी । (व्यभा ३ टी प १८) जो इहलोक और परलोक के अपाय/दोषों को दिखाता है, वह अपायदर्शी है। १३६. अवादाण (अपादान) अपादीयते अपायतो-विश्लेषत आ- मर्यादया दीयते-खण्ड्यतेभिद्यते आदीयते वा गृह्यते यस्मात्तदपादानम्। (स्थाटी प १४०) जिससे अपाय/विश्लेषण और मर्यादापूर्वक भेदन या आदान/ ग्रहण किया जाता है, वह अपादान (कारक) है। १३७. असण (अशन) आसु खुहं समेई असणं । (आवनि १५८८) जो भूख का आशु शीघ्र शमन करता है, वह अशन/भोजन है । असिज्जइ खुहितेहिं जं तमसणं । (दजिचू पृ १५२) जो भूखे व्यक्तियों द्वारा खाया जाता है, वह अशन है । १३८. असब्भ (असभ्य) असभाजोग्गमसभं । (बृभा ७५३) जो सभा के योग्य नहीं है, वह असभ्य है । । १३९. असुर (असुर) अस्यत्यसावित्यसुरः। (उच पृ ६६) जो देवों को फेंकते हैं, वे असुर हैं। १. दोंच-अवखण्डने । २. (क) अस्यन्ति देवान् असुराः, सुराया अपानाद् वा (अचि पृ ५८) जो देवों को फेंक देते हैं, वे असुर हैं। जो सुरा/मदिरा-पान नहीं करते, वे असुर हैं। अस्यति क्षिपति देवान् असुरः । (वा पृ ५५६) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १४०. असंलोय (असंलोक) न विद्यते संलोको-दर्शनं वृक्षादिच्छन्नत्वाद्यत्र परस्य तदसंलोकम् । (प्रसाटी प २०४) आवरण के कारण जहां कुछ दिखाई न दे, वह असंलोक है । १४१. असंविभागि (असंविभागिन्) असंविभयणसोलो असंविभागी। (दअचू पृ २१८) जो सम विभाग नहीं करता, वह असंविभागी है । १४२. अस्स (अश्व) अश्नाति अश्नुते वा अध्वानमिति अश्वः । (उचू पृ १३२) जो मार्ग को खा जाता है/पार कर जाता है, वह अश्व है। जो मार्ग को व्याप्त कर लेता है, वह अश्व है । १४३. अहाकम्म (आधाकर्मन्) साधुं प्रधानकारणमाधाय-आश्रित्य कर्माण्याधाकर्माणि । (सूटी २ प १२३) साधु को प्रधान कारण मानकर किये जाने वाले पचनपाचन आदि कार्य आधाकर्म हैं। १४४. अहासंविभाग (यथासंविभाग) अहत्ति—यथासिद्धस्य स्वार्थनिवर्तितस्य अशनादेः समितिसङ्गतत्वेन पश्चात्कर्मादिदोषपरिहारेण विभजनं साधवे दानद्वारेण विभागकरणं यथासंविभागः । (उपाटी पृ ५३) (ख) 'असुर' के अन्य निरुक्तअस्ताः प्राच्याविताः देवैः स्थानेभ्यः। जो देवों द्वारा स्थानच्युत किये जाते हैं, वे असुर हैं। अ सुरताः स्थानेषु न सुष्ठुरताः स्थानेषु चपला इत्यर्थः।। जो अच्छे स्थानों में आनन्द नहीं लेते और चपल होते हैं, वे असुर हैं। असुः प्राणः तेन तद्वन्तो भवन्ति रो मत्वर्थे । (आप्टे पृ २६५) जो असु/प्राणवान् होते हैं, वे असुर हैं। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश स्वयं के लिए निर्मित आहार आदि का सम्यक् प्रकार से विभाग कर साधुओं को दान देना यथासंविभाग (व्रत) है। १४५. अहिंगम (अधिगम) अधिगम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते पदार्था येन सोऽधिगमः । (आवहाटी २ प २७) जिसके द्वारा पदार्थों को जाना जाता है, वह अधिगम है । १४६. अहिगरण (अधिकरण) अधिकं अतिरित्तं उत्सूत्रं करणं अधिकरणम् । (निचू३ पृ ३८) सूत्र (शास्त्रविहित आचार) का अत्यधिक अतिक्रमण अधिकरण है। अधिक्रियत इति अधिकरणम् । (सूचू २ पृ ३६७) जिससे पाप में प्रवृत्ति होती है, वह अधिकरण है । १४७. अहिगरणकर (अधिकरणकर) अधिकरणं करोतीति अधिकरणकरः। (सूचू १ पृ ६५) जो अधिकरण/कलह करता है, वह अधिकरणकर है । १४८. अहिताव (अभिताप) अभिमुखं तापयतीति अभितापः । (सूचू १ पृ ८०) जो अभितप्त करता है, वह अभिताप है। १४६. अहिप (अधिप) अधिकं पांतीत्यधिपाः। (सूचू १ पृ ५३) जो अधिक व्यक्तियों का पालन रक्षण करते हैं, वे अधिप/ राजा हैं। १५०. अहिमर (अभिमर) अभिमुखं परं मारयन्ति तेऽभिमराः। (प्रटी प ४६) ____जो अभिमुख शत्रु को मारते हैं, वे अभिमर हैं। अधिक्रियते आत्मा नरकादिषु येन तदधिकरणम् । (स्थाटी प ३८) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ निरुक्त कोश १५१. अहियगामिणी (अहितगामिनी) अधितो संसारो तं गमयतीति अधितगामिणी। (दअचू पृ १६७) __ जो अहित/संसार की ओर ले जाती है, वह अहितगामिनी (भाषा) है। १५२. अहीकरण (अधीकरण) अधी--- अबुद्धिमान् पुरुषः स तं करोतीत्यधिकरणम् । (निचू ३ पृ ३८) ___जिसे अ-धी/बुद्धिहीन मनुष्य करता है, वह अधिकरण कलह १५३. अहोकरण (अध:करण) अधो अधस्तात् आत्मनः करणं अहोकरणम् । (निचू ३ पृ ३८) जो आत्मा का पतन करता है, वह अधःकरण कलह है। १५४. आइच्च (आदित्य) आदौ अहोरात्रसमयादीनां भव आदित्यः । (भटी पृ १०६१) जिससे रात, दिन आदि का काल-विभाग प्रारम्भ होता है, वह आदित्य/सूर्य है। १५५. आइण्णा (आचीर्णा) साधुभिराचर्यते या सा आचीर्णा । (निचू २ पृ ८४) मुनि जिसका आचरण करते हैं, वह आचीर्णा/आचारविधि है। १. 'आदित्य' के अन्य निरुक्त आदत्ते रसान् । आदत्ते भासं ज्योति ज्योतिषाम् । आदीप्तो भासेति वा । अदितेः पुत्र इति वा । (नि २/१३) जो रसों को लेता है, वह आदित्य है। जो ज्योतिष्पिंडों के प्रकाश को अपने में समाहित कर लेता है, वह आदित्य है। जो चमक से अत्यन्त दीप्त है, वह आदित्य है। जो अदिति का पुत्र है, वह आदित्य है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १५६. आइन्न ( आकीर्ण ) आकीर्यते व्याप्यते विनयादिभिः गुणैरिति आकीर्णः । १५७. आउ ( आयुष्) जो विनय आदि गुणों से आकीर्ण / संपन्न होता है, वह आकीर्ण / जातिमान् अश्व है । प्रतिसमयभोगत्वेन आयातीत्यायुः । (निचू ३ पृ २३७) जिसका प्रतिक्षण उपभोग होता है, वह आयु है । १५८. आउज्ज (आवर्ज ) एति - गच्छति गत्यन्तरमनेनेत्यायुः । (प्राक १ टी पृ ६ ) जिससे जीव एक गति से दूसरी गति में जाता है, वह आयु / आयुष्यकर्म है । १५. आउत ( आयुक्त ) अभिमुखीक्रियते मोक्षोऽनेनेति आवर्जः । ( प्रज्ञाटी प ६०४ ) जो मोक्ष को अभिमुख / निकट करता है, वह आवर्ज / शुभ प्रवृत्तिविशेष है । अच्चत्थं जुत्तो आउत्तो । ( उशाटी प ४६ ) १६०. आउर ( आतुर ) २६. जो अत्यन्त युक्त / जागरूक है, वह आयुक्त / अप्रमत्त है । अच्चत्थं तुरति आतुरो । जो अत्यंत आकुल व्याकुल होता है, वह आतुर है । अत्यर्थं तरतीत्यातुरः । ' जो अत्यधिक त्वरता / शीघ्रता करता है, वह आतुर है । १. तुर — त्वरणे सौत्रः आतोरति आतुरः । (अचि पृ १०५ ) ( निंचू १ पृ २५ ) ( आचू पृ १०८ ) ( उचू पृ ५४ ) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १६१. आउवेद (आयुर्वेद) आयुः-जीवितं तद्विदन्ति रक्षितुमनुभवन्ति चोपक्रमरक्षणे विदन्ति वा-लभन्ते यथाकालं तेन तस्मात्तस्मिन् वेत्यायुर्वेदः । (स्थाटी प ४१०) जिसके द्वारा आयु/जीवन के रक्षण और पोषण का ज्ञान होता है, वह आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र है। १६२. आउस (आयुष्मत्) आयुः-जीवितं तत्संयमप्रधानतया प्रशस्तं प्रभूतं वा विद्यते यस्यासावायुष्मान् । (स्थाटी प ७) जो प्रशस्त आयु/जीवन वाला है, वह आयुष्मान् है । जो दीर्घायु है, वह आयुष्मान् है । १६३. आउह (आयुध) आयुध्यतेऽनेनेत्यायुधम् । (राटी प २८०) जिससे युद्ध किया जाता है, वह आयुध/शस्त्र है। १६४. आएस (आदेश) आगतो आदेसं करोतीति आएसो।' (निचू ३ पृ ३६) जो आकर आदेश देता है, वह आदेश/अतिथि है। आदिश्यते यस्मिन्नागते संभ्रमेण परिजनस्तदासनदानादिव्यापारे स आदेशः। (सूटी २ प ३९) जिसके आने पर परिजनों को त्वरता से आसन आदि देने के लिए आदेश दिया जाता है, वह आदेश/अतिथि है। आयासकर आदेशः। __जो आयास/श्रम पैदा करता है, वह आदेश/अतिथि है। आदेश्यते सत्कारपुरस्सरमाकार्यत इत्यादेशः। (व्यमा ६ टी प १) जिसे सत्कारपूर्वक पुकारा जाता है, वह आदेश/अतिथि है। १६५. आगंतार (आगन्त्रगार) आगंतु जत्थ आगारा चिट्ठति तं आगंतारं। (आचू पृ ३१२) जहां आकर गृहस्थ ठहरते हैं, वह आगंगार/धर्मशाला है। १. आदेश आवेशो वा नाम ज्ञातिकाः स्वजनः सुहृद् मित्रं प्रभु नायकः परतीथिको वा। (व्यभा ६ टी प १) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश प्रसंगायाता आगत्य यत्र तिष्ठन्ति तदागन्तारम् । (आटी प ३०६) __ प्रयोजनवश आए हुए लोग जहां ठहरते हैं, वह आगन्त्रागार/ धर्मशाला है। १६६. आगम (आगम) णज्जंति अत्था जेण सो आगमो।' (आवचू १ पृ ३६) जिसके द्वारा पदार्थों का अवबोध होता है, वह आगम है । अत्तस्स वा वयणं आगमो। (अनुद्वाचू पृ १६) जो आप्तवचन है, वह आगम है। गुरुपारम्पर्येणागच्छतीत्यागमः। (अनुद्वामटी प २०२) जो गुरु-परंपरा से आता है, वह आगम है । १६७. आगर (आकर) आकुर्वन्ति तस्मिन्नित्याकरः। (उशाटी प ६०५) जो खोदा जाता है, वह आकर/खान है। । १६८. आगसण (आकर्षण) आकृष्यत इति आगसणं । (निचू २ पृ १७६) जिसके द्वारा आकृष्ट किया जाता है, वह आकर्षण है। १६६. आगार (आकार) आक्रियन्त इत्याकाराः। (आवहाटी २ पृ २३३) जो (ग्रहण) किए जाते हैं, वे आकार/अपवाद हैं। १७०. आगास (आकाश) आ–मर्यादया तत्संयोगेऽपि स्वकीय स्वरूपेऽवस्थानतः सर्वथा ततस्वरूपत्वाप्राप्तिलक्षणया प्रकाशन्ते-स्वभावलाभेन अवस्थिति आ-समन्तात् गम्यन्ते-ज्ञायन्ते जीवादयः पदार्था अनेनेति वा आगमः। (अनुद्वामटी प २०२) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश करणेन च दीप्यन्ते पदार्थसार्था यत्र तदाकाशमिति ।' (अनुद्वामटी प ६७) ___आकाश से संयुक्त होकर भी जहां पदार्थ उसके स्वरूपगत गुणों से अप्रभावित होते हुए अपने मूल रूप में अवस्थित और अभिव्यक्त रहते हैं, वह आकाश है। १७१. आघविय (अर्घापित) अर्घः-पूजा तस्य आपः प्राप्तिर्जाता यस्य तदर्घापितं अर्घ वा आपितं प्रापितं यत्तदर्घापितम् । (प्रटी प ११३) जिसने अर्घा/पूजा को प्राप्त किया है, वह अर्घापित है। १७२. आचाल (आचाल) आचाल्यतेऽनेनातिनिविडं कर्मादीत्याचालः। (आटी प ५) जिसके द्वारा अति सघन कर्मों को आचालित/प्रकम्पित किया जाता है, वह आचाल/आचार है । १७३. आजाति (आजाति) आजायन्ते तस्यामित्याजातिः । (आटी प ५) जिसमें (प्राणी) उत्पन्न होते हैं, वह आजाति है । १७४. आजीविय (आजीविक) आजीवन्ति ये अविवेकतो लब्धिपूजाख्यात्यादिभिश्चरणादीनि इत्याजीविकाः। (प्रज्ञाटी प ४०६) जो भिक्षु पूजा-प्रतिष्ठा के लिए संयमजीवन यापन करते हैं, वे आजीविक/पाखंडी हैं। १७५. आजोजिता (आयोजिका) आयोजयन्ति जीवं संसारे इत्यायोजिकाः। (प्रज्ञाटी प ४४५) जो जीव को संसार में आयुक्त नियोजित करती है, वह आयोजिका (क्रिया) है। 'आकाश' का अन्य निरुक्तआकाशन्ते सूर्यादयोऽस्मिन्निति आकाशम् । (अचि पृ ३७) जहां सूर्य आदि चमकते हैं, वह आकाश है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm निरुक्त कोश १७६. आणा (आज्ञा) आणप्पत इति आणा। (आचू पृ २१७) जो आज्ञप्त होती है, वह आज्ञा है। आणयंति एयाए आणा। (अनुद्वाचू पृ १६) जिसके द्वारा कार्य संपन्न किया जाता है, वह आज्ञा है। आज्ञाप्यते यया हितोपदेशत्वेन सा आज्ञा। (नंचू पृ ८१) जिसके द्वारा हित-संपादन करने के लिए निर्देश दिया जाता है, वह आज्ञा है। आ–अभिविधिना ज्ञायन्तेऽर्था यया साऽऽज्ञा। (स्थाटी प १८३) जिसके द्वारा पदार्थों को जाना जाता है, वह आज्ञा/प्रवचन है। १७७. आणुगमिय (आनुगमिक) अनुगच्छतोत्यानुगमिकः । (सूचू २ पृ ३५६) जो अनुगमन करता है, वह आनुगमिक है । १७८. आतावय (आतापक) आतापयति–आतापनां शोतातपादिसहनरूपां करोतीत्यातापकः । (स्थाटी प २८८) जो आतापना/शीत, ताप आदि को सहता है, वह आतापक है । १७९. आदाण (आदान) आदीयत इत्यादानम् । (सूचू २ पृ ३५८) जो ग्रहण किया जाता है, वह आदान/स्वीकरण है। १८०. आदाण (आदान) आदीयते-द्वारस्थगनार्थ गृह्यत इत्यादानम्। (जीटी प २७२) जो द्वार को बंद करने के लिए ग्रहण किया जाता है, वह आदान/अर्गला आदि है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ निरुक्त कोश १८१. आदाणिज्ज (आदानीय) ... आदिज्जति आयत्ते वा आदाणीयं । (आचू पृ २१५) जो ग्रहण या अधीन किया जाता है, वह आदानीय है। १८२. आदीणभोजि (आदीनभोजिन्) दोणत्तणेण भुंजतीति आदीणभोजी । (सूचू १ पृ १८७) जो दीनता दिखाकर भिक्षा प्राप्त करता है, वह आदीनभोजी १८३. आदेस (आदेश) आदिश्यते-आज्ञाप्यत इत्यादेशः। (आटी प ४१४) जिसके द्वारा क्रिया करने का निर्देश दिया जाता है, वह आदेश/आज्ञा है । १८४. आद्दहण (आदहन) आहृत्य यस्मिन् सुहृदो दहंति तं आहहणं-श्मशानम् । (सूचू २ पृ ३१६) जहां ले जाकर सुहृवर्ग का दहन किया जाता है, वह आदहन श्मशान है। १८५. आधार (आधार) आधारणादाधारः। (भटी पृ १४३१) जो सब पदार्थों को धारण करता है, वह आधार आकाश है । १८६. आनयण (आनयन) आनीयतेऽनेनेति आनयनम् । (उशाटी प ६) जिसके द्वारा (पूर्वापर सम्बन्ध) जोड़ा जाता है, वह आनयन/ प्रस्तावना है। १८७. आभिओग (आभियोग्य) अभिओगं-व्यापारणमर्हन्तीत्याभियोग्याः। (स्थाटी प २६५) __जो अभियोग/आज्ञापित कार्यों में दास की भांति व्यापृत किये जाते हैं, वे आभियोग्य हैं। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १८८. अभिओगिय (आभियोगिक ) अभियोजनं - विद्या मन्त्रादिभिः परेषां वशीकरणादि अभियोगः, सोऽस्ति येषां तेन वा चरन्तीति अभियोगिका आभियोगिका वा । ( प्रज्ञाटी प ४०६ जो विद्या मंत्र आदि के द्वारा दूसरों का अभियोजन / वशीकरण करते हैं, वे आभियोगिक हैं । १८. आभिजोग्ग ( आभियोग्य ) आ-- समन्तात् इत्याभियोग्याः । आभिमुख्येन युज्यन्ते — प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यन्ते ( प्रसाटी प १७९ ) जिनको सबके समक्ष प्रेष्य कार्य में नियुक्त किया जाता है, वे अभियोग्य / कर्मकर हैं । १०. आभिणिबोहिय ( आभिनिबोधिक) afragore त्ति आभिणिबोहियम् । ( नं ३५) जो इन्द्रिय आदि द्वारा जाना जाता है, वह आभिनिबोधिक / मतिज्ञान है । ३५ अत्याभिहो नियओ बोहो जो सो मओ अभिनिबोहो । सो चेवाssभिणिबोहिअ'' 11 ( विभा ८० •) जो अर्थाभिमुख नियत बोध होता है, वह आभिनिबोधिक / मतिज्ञान है । आता तदभिनिबुज्झए, तेण वाभिणिबुज्झते, तम्हा वाभिणिबुज्झते तम्हि वाभिणिबुज्झए इत्ततो आभिनिबोधिकः । ( नंच पृ १३ ) करती है, वह आत्मा जो / जिससे / जिसमें अभिनिबोध प्राप्त आभिनिबोध / मतिज्ञान है । १६१. आमलय (आमरक) रश्रुतेर्लश्रुतिरित्या मरक:- सामस्त्येन मारिः । जो सामूहिक मरक / वध होता है, वह आमरक है । ( स्थाटी प ४८६ ) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ निरुक्त कोश १९२. आमोक्ख (आमोक्ष) आमुच्यन्तेऽस्मिन्नित्यामोक्षम् । (आटी प ५) जिसमें प्राणी मुक्त होते हैं, वह आमोक्ष है । १६३. आमोस (आमोष) आ-समन्तात् मुष्णन्ति-स्तैन्यं कुर्वन्तीत्यामोषाः । (उशाटी प ३१२) जो सबकुछ चुरा लेते हैं, वे आमोष/चोर हैं। १९४. आय (आय) एतीत्यायो। (सूचू २ पृ ४२५) जो प्राप्त होता है, वह आय/लाभ है । १६५. आयंक (आतङ्क) आगत्य संकोचयति आयु सरीरं बुद्धी व आयङ्को। (आचू पृ ३३२) जो आयु, शरीर और बुद्धि को संकुचित/स्वल्प करता है, वह आतङ्क रोग है। विविधैर्दुःखविशेषैरात्मानमङ्कयतीति आतङ्कः। (उचू पृ १६१) जो विविध दुःखों से आत्मा को अंकित चिह्नित करता है, वह आतंक है। आत्मानं तंकयतीत्यातंकः । (उचू पृ १३४) जो आत्मा को तंकित दुःखित करता है, वह आतंक है । १९६. आयंकदंसि (आतङ्कदर्शिन्) आतंकं पासति आतंकदंसि। (आचू पृ११३) जो आतंक को देखता है, वह आतंकदर्शी है। १९७. आयंतम (आत्मतम) आत्मानं तमयति-खेदयतीत्यात्मतमः। (स्थाटी प २०७) ___जो आत्मा को तमित खिन्न करता है, वह आत्मतम आचार्य आदि है । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १९८. आयंदम (आत्मदम) आत्मानं दमयति- शमवन्तं करोति शिक्षयति वेत्यात्मदमः । (स्थाटी प २०७) जो आत्मा का दमन शमन करता है, वह आत्मदम है। जो आत्म-दमन की शिक्षा प्रदान करता है, वह आत्मदम है । १६६. आयंस (आदर्श) आदृश्यते अस्मिन्नित्यादर्शः। __ (आटी प ५) जिसमें प्रतिबिम्ब देखा जाता है, वह आदर्श/दर्पण है। २००. आयतण (आयतन) एत्य तस्मिन् यतति आयतणं । (दअचू पृ १०१) जहां आकर प्रवृत्ति की जाती है, वह आयतन/स्थान है। आइज्जति अस्ससंति वा आयतणं । __ (आचू पृ ७३) जो स्वीकार किया जाता है, वह आयतन है। जो आश्वस्त करता है, वह आयतन है । २०१. आयतर (आत्मतर) आत्मानं केवलं तारयन्तीत्यात्मतराः। (व्यभा ३ टी प ३) जो केवल आत्मा/स्वयं को तारते हैं, वे आत्मतर हैं । २०२. आयदंड (आत्मदण्ड) आत्मानं दण्डयति आयदंडे । (सूचू २ पृ ४२७) जो आत्मा को दण्डित करता है, वह आत्मदंड है । २०३. आययट्ठि (आयतार्थिन् ) आयतं अट्ठाणविप्पकरिसतो मोक्खो, तेण तंमि वा अत्थी आययत्थी। जो आयत/मोक्ष की आकांक्षा करता है, वह आयतार्थी है । आययी आगामी कालो तम्मि सुहत्थी आययत्थी। (दअचू पृ २२६) जो आयत/आगामी काल में सुख का इच्छुक है, वह आयतार्थी Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २०४. आययण (आयतन) आयरंति तमिति आययणं। (आचू पृ १६८) जिसका आचरण किया जाता है, वह आयतन/चारित्र है । समस्तपापारम्भेभ्यः आत्मा आयत्यते-आनियम्यते यस्मिन् कुशलानुष्ठाने वा यत्नवान् क्रियते इत्यायतनम्। (आटी प २०६) जो समस्त पापमय प्रवृत्तियों से आत्मा को नियंत्रित करता है और कुशल अनुष्ठान में प्रवृत्त करता है, वह आयतन/चारित्र है । २०५. आयरक्ख (आत्मरक्ष) अप्पं रक्खतीति आयरक्खो। (सूचू २ पृ ३०६) जो आत्मा की/अपनी रक्षा करता है, वह आत्मरक्षक है। - २०६. आयरिअ (आचरित) आचर्यतेस्म बृहत्पुरुषैरप्याचरितम् । (व्यभा १ टी प ६) महान् व्यक्तियों ने जिसका आचरण किया है, वह आचरित २०७. आयरिय (आचार्य) आयारं आयरमाणा तहा पभासंता।' आयारं संता' आयरिया तेण वुच्चंति ॥ (आवनि ६६४) जो आचार का आसेवन करते हैं, वे आचार्य हैं। १. आचारो-ज्ञानाचारादिः पञ्चधा आ-मर्यादया वा चारो विहार आचारस्तत्र स्वयं करणात् प्रभाषणात् प्रदर्शनाच्चेत्याचार्याः । (भटी प ३,४) जो स्वयं आचार का पालन करते हैं, दूसरों से कराते हैं और आचार की प्ररूपणा करते हैं, वे आचार्य हैं । २. आचारं दर्शयन्तः सन्तः प्रत्युपेक्षणादिक्रियाद्वारेण, मुमुक्षुभिः सेव्यन्ते येन कारणेनाचार्यास्तेनोच्यत इति । (आवहाटी १ पृ २६६) आचार-विधि का मार्ग-दर्शन देने के कारण शिष्यवर्ग जिनकी सेवा करते हैं, वे आचार्य हैं। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश जो आचार की प्रभावना करते हैं, वे आचार्य हैं । जो आचार का प्रशिक्षण देते हैं, वे आचार्य हैं। मर्यादया चरन्तीति आचार्याः। जो मर्यादापूर्वक चलते हैं, वे आचार्य हैं। आचारेण वा चरन्तीति आचार्याः। (आवचू १ पृ ५८५) जो आचारविधि के अनुसार चलते हैं, वे आचार्य हैं। आचर्यते-सेव्यते कल्याणकामैरित्याचार्यः। (प्रसाटी प २४) ___कल्याण की कामना करने वाले व्यक्ति जिसकी सेवा करते हैं, वह आचार्य है। आ-ईषद् अपरिपूर्णाः चाराः हेरिका ये ते आचाराः चार कल्पा इत्यर्थः। युक्तायुक्त विभागनिपुणाः विनेयाः अतस्तेषु साधवो यथावच्छास्त्रार्थोपदेशकतया इत्याचार्याः। (भटी प ४) गण में जो शिष्य गुप्तचर सदृश होते हैं, वे आ-चार हैं। उनमें जो सूत्र और अर्थ के व्याख्याता हैं, वे आचार्य हैं । २०८. आयव (आतप) आ-समन्तात् तपति संतापयति जगदिति आतपः । (उशाटी प ३८) जो चारों ओर से तपता है और सभी को संतप्त करता है, वह आतप है। २०६. आयवि (आत्मवित्) आत्मानं श्वभ्रादिपतनरक्षणद्वारेण वेत्तीत्यात्मवित् । (आटी प १५३) जो आत्मा को जानता है, वह आत्मविद् है । जो आत्मरक्षा के उपायों को जानता है, वह आत्मविद् है । २१०. आयाण (आदान) आदीयतेऽनेनेत्यादानः । (दटी प १६८) _ जिससे गन्तव्य प्राप्त किया जाता है, वह आदान/मार्ग है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૦ २११. आयाण (आदान ) आदीयते - प्रथममेव गृह्यत इत्यादानम् । २१२. आयार ( आचार) जो पहले ग्रहण किया जाता है, वह आदान / प्रारम्भ है । आचर्यतेऽसावित्याचारः । ( दजिचू पृ २७१ ) जिसका आचरण किया जाता है, वह आचार है । २१३. आयावय ( आतापक) २१४. आयावाइ (आत्मवादिन्) आतापयति-- शीतादिभिर्देहं संतापयतीत्या तापकः । ( औटी पृ ७५ ) जो शरीर को गर्मी, सर्दी आदि से संतप्त करता है, वह आतापक है । आत्मानं वदितुं शीलमस्येति आत्मवादी । २१५. आया हम्म ( आत्मघ्न ) निरुक्त कोश ( आटी प १६६ ) जो आत्मा का कथन करता है, वह आत्मवादी है । २१६. आरंभ (आरम्भ ) आत्मानं दुर्गतिप्रपातकारणतया हन्ति - विनाशयतीत्यात्मघ्नम् । ( पिटी प ३६ ) जो आत्मा का हनन / विनाश करता है, वह आत्मघ्न / आत्मविनाशक है । २१७. आरंभजीवि (आरंभजीविन् ) आरंभेण जीवतीति आरंभजीवी । ( आटी प २१ ) आरभ्यते—विनाश्यते इति आरम्भः । (प्रटी प ६ ) जिसके द्वारा प्राणियों का आरंभ / विनाश किया जाता है, वह आरंभ / हिंसा है । ( आच पृ १६२ ) जो आरम्भ / हिंसा से जीवन चलाता है, वह आरम्भजीवी है । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २१८. आरन्निय (आरण्यिक) अरन्ने वसंतीति आरन्निया । (दश्रुचू प १३) जो अरण्य/जंगल में रहते हैं, वे आरण्यक हैं । २१६. आराम (आराम) आगत्य रमंते यस्मिन् इत्यारामः । (सूचू २ पृ ४५१) जहां आकर लोग क्रीड़ा करते हैं, वह आराम है । आरमन्ति येषु माधवीलतादिषु दम्पत्यादीनि ते आरामाः । (भटी प २३८) जहां माधवी आदि लताओं से बने कुञ्जों में दम्पति आकर क्रीड़ा करते हैं, वे आराम हैं। २२०. आराहग (आराधक) आराधयन्ति-अविकलतया निष्पादयन्ति सम्यग्दर्शनादीनि इत्याराधका भवन्ति । (उशाटी प २३३) जो सम्यग्दर्शन आदि की पूर्ण आराधना करते हैं, वे आराधक २२१. आरिय (आर्य) आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्याः। (सूटी २ प १५) जो सब हेय धर्मों से दूर रहते हैं, वे आर्य हैं । २२२. आरोवणा (आरोपणा) आरोप्यते इति आरोपणा। (व्यभा १ टी प १५) जो आरोपित की जाती है, वह आरोपणा/प्रायश्चित्त है । २२३. आलंबण (आलम्बन) आलंबिज्जति जं तमालंबणं । (निचू १ पृ १२६) १. 'आर्य' का अन्य निरुक्तअर्यतेऽभिगम्यते आर्यः । (अचि पृ ८८) जो (प्रशस्त रूप में) जाना जाता है, वह आर्य है । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ आलम्ब्यते - पतद्भिराश्रीयते इत्यालम्बनम् । गिरते हुए व्यक्ति जिसका सहारा लेते हैं, २२४. आलय (आलय ) आलीयन्ते तस्मिन्नित्यालयः । २२५. आलवण (आलपन ) अत्यर्थं लवणं आलवणं । जिसमें निवास किया जाता है, वह आलय / मकान है । अधिक बोलना आलपन है । २२६. आलीण ( आलीन ) ज्ञानादिषु आ समन्तात् लीना आलीनाः । जो ज्ञान आदि में सम्पूर्ण रूप से हैं । २२७. आलेव ( आलेप ) आलिप्यते अनेनेति आलेपः । जो लिप्त करता है, वह आलेप है । २२८. आलोग (आलोक ) आलोक्यते ज्ञायतेऽनेनेत्यालोकः । प्रकाश है, ज्ञान है । २२६. आलोय ( आलोक ) आलोक्कतोति आलोको । निरुक्त कोश ( प्रसाटी प २२६ ) वह आलम्बन है । २३०. आलोयण (आलोकन) ( उच्च पृ १९३ ) ( नंटि पृ १६२ ) जिसके द्वारा देखा जाता है / जाना जाता है, वह आलोक / (दक्षुचू प १५ ) ( व्यभा १० टी प ६० ) लीन हैं, वे आलीन / तल्लीन ( आचू पृ १२५ ) जो आलोकित / स्पष्ट अभिव्यक्त है, वह आलोक है । ( निचू २ पृ २१६) आलोक्यन्ते दिशोऽस्मिन् स्थितैरित्यालोकनम् । ( उशाटीप ४५१ ) जहां से दिशाओं का अवलोकन किया जाता है, वह आलोकन / गवाक्ष है । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २३१. आवट्ट (आवर्त) आवर्तन्ते - परिभ्रमन्ति प्राणिनो यत्र स आवर्त :। (आटी प ६२) जिसमें प्राणी परिभ्रमण करते हैं, वह आवर्त संसार है। २३२. आवट्टण (आवर्त्तन) आ--मर्यादया वर्त्तनमावर्त्तनम् । (नंटी पृ ५१) ___ मर्यादापूर्वक वर्तन करना आवर्तन है। २३३. आवनपरिहार (आपन्नपरिहार) आपन्नेन प्रायश्चित्तस्थानेन परिहारो वर्जनं साधोरिति गम्यते आपन्नपरिहारः । (व्यभा २ टी प ११) प्राप्त प्रायश्चित्त का परिहार करना आपन्नपरिहार है। २३४. आवरण (आवरण) आवियते ---आच्छाद्यतेऽनेनेत्यावरणम्। (प्रसाटी प ३५६) जो आच्छादित करता है, वह आवरण है। २३५. आवसहिअ (आवसथिक) आवसहेसु वसंतोत्यावसहिकाः । (दश्रुचू प ६१) जो आवसथ/धर्मशाला में वास करते हैं, वे आवसथिक (तापस) हैं। २३६. आवस्सग (आवश्यक) समणेण सावएण य, अवस्स कायग्वयं हवइ जम्हा । अंतो अहोनिस्सिस्स य, तम्हा आवस्सयं नाम ॥ (विभा ८७३) जो प्रातः और सायं श्रमण और श्रावक के द्वारा अवश्यकरणीय है, वह आवश्यक प्रतिक्रमण है। आ वस्सं वा जीवं करेइ जं नाणदसणगुणाणं। (विभा ८७५) जो गुणों को आत्मा के वशवर्ती करता है, वह आवश्यक है। जदवस्सं कायव्वं तेणावस्समिदं । (विभा ८७४) अवश्यं भाविवाद वाच्यत्वाद्वाऽऽवश्यकम् । (स्थाटी प २१८) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ निरुक्त कोश जो अवश्य होता है और जिसका अवश्य कथन किया जाता है, वह आवश्यक है। आसमन्ताद् वश्या इन्द्रियकषायादिभावशत्रवो येषां ते तथा तैरेव क्रियते यद् तदावश्यकम् । (अनुद्वामटी प २८) जो जितेन्द्रिय व्यक्तियों के द्वारा करणीय है, वह आवश्यक है। २३७. आवात (आपात) आपतंत्यनेनेत्यापातः। (उचू पृ ५४) ___ जहां लोगों का निरन्तर आवागमन रहता है, वह आपात है। २३८. आवास (आवास) आसमन्ताद्वसन्ति तेष्वित्यावासाः। (उशाटी प २५२) __ जिसमें सदा-सदा के लिए रहा जाता है, वे आवास/गृह हैं । २३९. आवासय (आवासक) आ–मज्जायाए वासं करेइत्ति आवासं । ___जहां मर्यादापूर्वक वास किया जाता है, वह आवासक आवश्यक प्रतिक्रमण है। पसत्थगुणेहि अप्पाणं छादेतीति आवासं । जो प्रशस्त गुणों से आत्मा को आच्छादित करता है, वह आवासक/आवश्यक है। सुण्णमप्पाणं तं पसत्थभावेहि आवासेतीति आवासं । (अनुद्वाचू पृ १४) जो गुणशून्य आत्मा को प्रशस्त भावों से आवासित करता है, वह आवासक/आवश्यक है। समग्रस्यापि गुणग्रामस्यावासकमित्यावासकम् । (अनुद्वामटी प २८) जो समस्त गुणों का निवास स्थान है, वह आवासक/ आवश्यक सूत्र है। १. गुणशून्यमात्मानमावासयति गुणैरित्यावासकम् । . (आवहाटी १पृ ३४) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ४५ २४०. आवाह (आवाह) आहूयन्ते स्वजनास्ताम्बूलदानाय यत्र स आवाहः। (जीटी प २८२) ___जहां सगे-संबंधी तांबल-दान के लिए बुलाए जाते हैं, वह आवाह/विवाह या उत्सव है । २४१. आवेस (आवेश) आविशतीत्यावेशः। जो विशेष रूप से घर में प्रवेश करता है, वह आवेश/अतिथि आवेशनं नाम यस्मिन् स्थाने प्रविष्टेन सागारिकस्यायासो स आदेश आवेशो वा। (व्यभा ६ टी प १) जिसके आविष्ट/प्रविष्ट होने पर गृहस्थ को आयास/प्रयास करना होता है, वह आवेश/अतिथि है । २४२. आवेसण (आवेशन) आगंतु विसंति जहियं आवेसणं । (आचू पृ ३११) __जहां लोग चारों ओर से प्रविष्ट होते हैं, वह आवेशन/शून्यगृह २४३. आस (अश्व) अश्नातीत्यश्वः । ... जो मार्ग का पार पा लेता है, वह अश्व है। आशु धावति न च श्राम्यतीत्यश्वः । (बृटी पृ ६४) जो शीघ्र दौड़ता है, पर थकता नहीं, वह अश्व है। २४४. आस (आस्य) असत्यनेनेति आसयं ।। (निचू १ पृ १४२) जिसमें ग्रास डाला जाता है, वह आस्य/मुख है। जिससे ग्रास चबाया जाता है, वह आस्य/मुख या दाढ़ा है। १. देखें 'आएस'। २. 'आस्य' का अन्य निरुक्तआस्यन्दत एनमन्नमिति आस्यम् । (नि १/६) जिसमें अन्न प्रवेश करता है, वह आस्य/मुख है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ २४५. आसंदी (आसन्दी ) आसनं ददातीत्यासंदी । जो आसन देती है, वह आसन्दी / कुर्सी है । २४६. आसण (आसन) आसियते जम्हि तमासणं । ' आस्यते - स्थीयते अस्मिन्निति वाऽऽसनम् । जिस पर बैठा जाता है, वह आसन है । २४७. आसम (आश्रम ) गृह हैं २४८. आसम (आश्रम ) आङिति - स्वपरप्रयोजनाभिव्याप्त्या श्राम्यन्ति - खेदमनुभवन्त्यस्मि - नित्याश्रमाः । ( उशाटी प ३१५ ) जिनमें स्व और पर के लिए श्रम किया जाता है, वे आश्रम / आसमन्ताद् श्राम्यन्ति —– तपः कुर्वन्त्यस्मिन्नित्याश्रमः । २५०. आसव (आश्रव ) निरुक्त कोश (सूचू २ पृ ३६१) ( निचू १ पृ ६ ) ( आटी प १३३ ) जहां तपस्वी श्रम / तपस्या करते हैं, वह आश्रम है । २४. आसव (आश्रव ) आ - समन्तात् शृण्वन्ति — गुरुवचनमाकर्णयन्तीत्याश्रवाः । ( उशाटी प ४६ ) जो गुरु-वचनों का पूर्णरूप से श्रवण करते हैं, वे आश्रव / आज्ञाकारी शिष्य हैं । ( उशाटी प ६०५ ) आश्रवत्यष्टप्रकारं कर्म यैरारम्भस्ते आस्रवाः । ( आटी प १८१ ) जिन आरम्भों / प्रयत्नों से अष्टविध कर्म का आस्रवण होता है,, वे आश्रव हैं । आश्रूयते— उपायते कर्म एभिरित्याश्रवाः । ( प्रसाटी प १३५ ) जिनके द्वारा कर्मों का उपार्जन किया जाता है, वे आश्रव हैं । १. यत्थ यत्थ आसति निसीदति, तं आसनं । (वि १ / ७१) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ४७ २५१. आसव (आश्रव) आश्रवति-ईषत् क्षरति जलं यैस्ते आश्रवाः। (भटी प ८३) जिनसे थोड़ा-थोड़ा जल झरता है, वे आस्रव/स्रोत हैं। २५२. आसव (आस्नव) ___ आ अभिविधिना स्नौति-श्रवति कर्म येभ्यस्ते आस्नवाः । (प्रटी प २) जिससे कर्म प्रवाहित होते हैं, वह आस्नव/आश्रव है । २५३. आसा (आशा) आससति तमिति आसा।' (आचू पृ ७२) जो मनुष्य को आशान्वित करती है, वह आशा है । २५४. आसायणा (आशातना) आयाय सातयाणा, आयस्स उ साडणा जा उ । सा होती आसातणा। आतस्स साडणं ती, यकारलोवम्मि होइ आसयणा । (जीतभा ८६२-६४) जो आय/ज्ञान आदि का शाटन/विनाश करतो है, वह आशातना है। सम्यक्त्वादिलाभं शातयति-विनाशयतीत्याशातना । (उशाटी प ५७६) जो सम्यकत्व आदि का विनाश करती है, वह आशातना है । १. 'आशा' के अन्य निरुक्तआश्यति अनया आशा । (अचि पू९६) जिसके द्वारा व्यक्ति क्षीण हो जाता है, वह आशा/आकांक्षा है। आसमन्तात् अश्नुते (इति आशा)। (आप्टे पृ ३६६) जो सब कुछ पाना चाहती है, वह आशा है। २. ज्ञानादिगुणा आ–सामस्त्येन शात्यन्ते अपध्वस्यन्ते यकाभिस्ता आशातना । (स्थाटी प ४८८) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ निरुक्त कोश २५५. आसाविणी (आस्राविनी) आश्रवतीति आश्राविनी। (सूचू १ पृ २०२) जो झरती है, जो छेदवाली है, वह आस्राविनी (नौका) है। २५६. आसास (आश्वास) आश्वसन्त्यस्मिन्नित्याश्वासः। (आटी प ५) जिसमें प्राणी सुखपूर्वक श्वास लेते हैं, वह आश्वास/विश्रामस्थल है। आश्वासयीति आश्वासः। (व्यभा ४/२ टी प ६७) जो आश्वस्त करता है, वह आश्वास/विश्राम-स्थल है। २५७. आसीविस (आशीविष) सप्पस्स दाढा आसी, तीए विसं जस्स सो आसीविसो । (दअचू पृ २०८) जिसकी आशी/दाढा में विष होता है, वह आशीविष (सर्प) है । २५८. आहरण (आहरण) आहरति तमत्थे विण्णाणमिति आहरणं । (दअचू पृ २०) जो प्रतिपाद्य का अर्थ में आहरण करता है, वह आहरण उदाहरण है। २५६. आहाकम्म (आधाकर्मन्) ओरालसरीराणं, उद्दवणऽइवायणं तु जस्सट्ठा। मणमाहित्ता कुव्वति, आहाकम्मं तयं बेन्ति ॥ (जीतभा ११००) __ मन में विचार कर जिसके लिए औदारिक शरीरवाले प्राणियों का अपद्रवण/पीड़न और अतिपात किया जाता है, वह आधाकर्म है । साधूनामाधया-प्रणिधानेन यत् कर्म षट्कायविनाशेनाशनादिनिष्पादनं तद् आधाकर्म। (बृटी पृ १४१८) साधुओं को लक्षित कर किया जाने वाला कर्म (अशन आदि का निष्पादन) आधाकर्म है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २६०. आहार (आहार) आहारिज्जतीति आहारो। (आचू पृ २६९) जिसमें से रस का आहरण किया जाता है, वह आहार है। २६१. आहार (आधार) आ सामस्त्येन धारणमाधारः। (व्यभा ३ टी प १८) जो सम्पूर्णरूप से धारण करता है, वह आधार है । २६२. आहारग (आहारक) चतुर्दशपूर्वविदा आह्रियते-गृह्यते इत्याहारकम् । (अनुद्वामटी प १८१) चतुर्दशपूर्वियों द्वारा विशेष प्रयोजनवश जिस शरीर का आहरण/ग्रहण किया जाता है, वह आहारक (शरीर) है। आह्रियन्ते-गृह्यन्ते तीर्थकरादिसमीपे सूक्ष्मा जीवादयः पदार्था अनेनेत्याहारकम् । (प्राक ४ टी पृ ४८) जिसके द्वारा केवली के समीप जीव आदि सूक्ष्म पदार्थों का आहरण/परिज्ञान किया जाता है, वह आहारक (शरीर) है। २६३. इंगिणीमरण (इङ्गिनीमरण) इङ्गिते प्रदेशे मरणमिङ्गितमरणम् । (आटी प २६१) इंगित/संकेतित स्थान में मरण का वरण करना इंगितमरण है। २६४. इंद (इन्द्र) इन्दतीति इन्द्रः। (अनुद्वामटी प २३६) जो ऐश्वर्यसम्पन्न है, वह इन्द्र है। २६५. इंदगोवग (इन्द्रगोपक) इंदो गोवयतीति इन्द्रगोपको।' (निचू १ पृ ५) ___ इन्द्र जिसका गोपन/रक्षण करता है, वह इन्द्रगोपक/कीट विशेष है। १. आहरन्ति रसमस्मादित्याहारः। (आप्टे पृ ३७७) २. इदि-ऐश्वर्ये । ३. इन्द्रो-गोपो रक्षकोऽस्य वर्षाभवत्वात्तस्य । (आप्टे पृ ३७५) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. निरक्त कोश कारः। २६६. इंदिय (इन्द्रिय) इन्द्रो इयति अनेनेति इंद्रियं ।' (आवचू १ पृ २५९) जिसके द्वारा इंद्र/जीव जाना जाता है, वह इन्द्रिय है। जिसके द्वारा इंद्र/जीव जानता है, वह इन्द्रिय है। २६७. इच्छाकार (इच्छाकार) एषणमिच्छा, करणं कारः, इच्छया बलाभियोगमन्तरेण कार इच्छा (स्थााटी प ४७८) इच्छापूर्वक कार्य में प्रवृत्त होना इच्छाकार (सामाचारी) है । २६८. इच्छियव्व (इप्सितव्य) मुमुक्षुभिरिप्स्यते प्राप्तुमिष्यते इप्सितव्यः। (व्यभा १ टी प ६) मुमुक्षु जिसे पाने की इच्छा करता है, वह इप्सितव्य/मोक्ष है। २६६. इट्ट (इष्ट) इष्यन्ते स्म अर्थक्रियाथिभिरितीष्टाः। (स्थाटी प ६०) प्रयोजन की सिद्धि के लिए जिसकी इच्छा की जाती है, वह इष्ट है। २७०. इत्थंथ (इत्थंस्थ) इत्थं तिष्ठतीति इत्थंस्थम् । (आवहाटी १ पृ २६७) “यह इस रूप में है"—इस प्रकार जिसका निर्देश किया जा सके, वह इत्थंस्थ/सांसारिक प्राणी है । २७१. इब्भ (इभ्य) इभो-हस्ती तत्प्रमाणं द्रव्यमहतीतीभ्यः। (अनुद्वामटी प २१) जिसके पास इभ-हाथी (छुप जाए) जितना धन होता है, वह इभ्य है। १. 'इंद्रिय' के अन्य निरुक्त इन्द्रियमिन्द्र लिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रवत्तमिति वा । (आप्टे पू ३७६) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २७२. इसि (ऋषि) ऋषति धर्म्ममिति ऋषिः । ' जो धर्म को जानता है, वह ऋषि है । जो धर्म में गति करता है, वह ऋषि है । २७३. इहत्थ ( इहस्थ ) इहैव विवक्षिते ग्रामादौ तिष्ठतीति इहस्थः । at se / विवक्षित ग्राम आदि में रहता है, २७४. इहत्थ ( इहास्थ ) हा । ऊहापोह करना ईहा है । sta जन्मनि भोगसुखादि आस्था - इदमेव साध्विति बुद्धिर्यस्य स इहास्थ: । ( स्थाटी प २४१ ) जिसकी वार्तमानिक जन्म के भोगों में आस्था है, वह इहास्थ / इहस्थ है । २७५. ईसिप भारा ( ईषत्प्राग्भारा ) २७७. उंछ (उञ्छ) ईसित्ति अप्प भावे, प इति प्रायोवृत्या, भार इति भारक्कतस्स पुरिसस्स गायं पायसो ईसि गयं भवति, जा य एवं ठिता सा पुढवी ईसिप भारा । ( निचू १ पृ ३२ ) जो पृथ्वी ईषत् / कुछ झुकी हुई है, वह ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी है । २७६. ईहा (ईहा) ( नंदीच पृ ४६ ) उच्छ्यते - अल्पाल्पतया गृह्यत इत्युञ्छः । ५१ ( उचू पु २०७ ) ( स्थाटी प २४१ ) वह इहस्थ है । जो थोड़ा-थोड़ा लिया जाता है, वह उञ्छ (भिक्षा) है । ( स्थाटी प २०६ ) १. 'ऋषि' के अन्य निरुक्त ऋषति जानाति तत्त्वं ऋषिः, दर्शनाद्वा ऋषि: । (अचि पृ १४ ) जो तत्त्व को जानता है वह ऋषि है । जो द्रष्टा है, वह ऋषि है । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोशः २७८. उक्कोस (उत्कर्ष) उक्कस्यतेऽनेनेति उक्कोसो। (सूचू १ पृ ४६) जिसके द्वारा उत्कर्ष किया जाता है, वह उत्कर्ष/मान है। २७६. उक्कोसण (उत्कर्षण) ऊर्द्ध कसणं उक्कोसणं। (आचू पृ ३५७) जो ऊपर की ओर खींचता है, वह उत्कर्षण है। २८०. उक्कंचण (उत्कञ्चन) ऊद्ध्वं कञ्चनं मूल्याधारोपणार्थ उत्कञ्चनम् । (ज्ञाटी प ८६) अल्पमूल्य में उत्कञ्चन/स्वर्ण का सा अधिक मूल्य आरोपित करना उत्कंचन/माया है। २८१. उक्खित्तचरअ (उत्क्षिप्तचरक) उत्क्षिप्तं—स्वप्रयोजनाय पाकभाजनादुद्धतं तदर्थमभिग्रहविशेषाच्चरति-तद्गवेषणाय गच्छतीत्युत्क्षिप्तचरकः। (स्थाटी प २८७) जो उत्क्षिप्त (भोजनपात्र से निकाली हुई) भिक्षा ग्रहण करता है, वह उत्क्षिप्तचरक है। २८२. उग्गह (अवग्रह) अव इति प्रथमतो ग्रहणं परिच्छेदनमवग्रहः। (स्थाटी प २७३) जो अव/प्रारम्भिक ग्रहण/बोध है, वह अवग्रह है। २८३. उग्गहण (अवग्रहण) सूत्रमर्थ वा झगित्येवावगृह्णातीति अवग्रहणः। (बृटी पृ २२८) जो सूत्र और अर्थ को शीघ्र ग्रहण करता है, वह अवग्रहण/ मेधावी है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ५३ २८४. उच्चार (उच्चार) उच्चवइ सरीराओ उच्चारो।' (आनि ३२१) जो शरीर से तीव्र गाति से बाहर निकलता है, वह उच्चार/ मल है। २८५. उज्जाण (उद्यान) ऊवं यानं उद्यानम् । (सूचू १ पृ८८) जिसको प्राप्त करने के लिए क्रमशः ऊंचाई पर चढ़ना पड़ता है, वह उद्यान/उपवन है। उद्यान्ति यत्र तच्चम्पकादितरुखण्डमण्डितमुद्यानम् । (अनुद्वामटी प २२) जो ऊंचाई पर हो तथा एक ही प्रकार के वृक्षों से मंडित हो, वह उद्यान है। २८६. उज्जुकड (ऋजुकृत) रिजु---संजमो, रिजें करोतीति उज्जुकडो। (आचू पृ २३) ___ जो ऋजु/संयम करता है, वह ऋजुकृत/संयमी है । २८७. उज्जुदंसि (ऋजुशिन्) उज्जु-संजमो समया वा, उज्जू रागद्दोसपक्खविरहिता अविग्गहगती वा, उज्जू मोक्खमग्गो, तं पस्संतीति उज्जुदंसिणो। (दअचू पृ ६३) जो ऋजु/संयम को देखता है, वह ऋजुदर्शी है। १.(क) शरीरात् उत्-प्राबल्येन च्यवते, अपयाति चरतीति वा उच्चारः। (आटी प ४०८) सरीराओ उच्छलति--णिफिडवति तेण उच्चारो। (आचू पृ ३६८) जो शरीर से बाहर निकलता है, वह उच्चार (मल) है। (ख) 'उच्चार' का अन्य निरुक्तउच्चार्यते प्रेर्यते उच्चारः । (अचि पृ १४३) जो उत्सर्ग के लिए प्रेरित करता है, वह उच्चार है । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫૪ जो ऋजु / समता को देखता है, वह ऋजुदर्शी है । जो ऋजु / मध्यस्थता से देखता है, वह ऋजुदर्शी है । जो ऋजु / मोक्षमार्ग को देखता है, वह ऋजुदर्शी है । २८८. उज्जुसुअ (ऋजुसूत्र ) ऋजु — प्रगुणम् - अकुटिलमतीतमनागतपरकीयवऋपरित्यागात् वर्तमानक्षण विर्वात स्वकीयं च सूत्रयति-निष्टं कितं दर्शयतीति ( आवमटी प ३६५ ) ऋजुसूत्रः । जो अतीत और अनागत से व्यतिरिक्त ऋजु / वर्तमान क्षण को सूत्रित / प्रदर्शित करता है, वह ऋजुसूत्र (नय ) है । ऋजु – अतीतानागतपरकीयपरिहारेण प्राञ्जलं वस्तु सूत्रयति - अभ्युपगच्छतीति ऋजुसूत्रः । ( अनुद्वामटी प १६ ) जो वस्तु के ऋजु / शुद्ध स्वरूप को जानता है, वह ऋजुसूत्र ( नय) है | २८६. उज्जोय ( उद्योत ) उद्योतयतीति उद्योतः । निरुक्त कोश २६०. उज्झ (उज्झ / उध्य ) उद्योतित / प्रकाशित करता है, वह उद्योत है । उत्ति उवओगकरणे ज्झत्ति अ झाणस्स होइ निद्देसे । ' जो उष्ट्रिका / विशाल मृत्तिका पात्र में तपश्चरण करते हैं, वे उष्ट्रिकाश्रमण हैं । ( उशाटीप ३८ ) जो उपयोगपूर्वक ध्यान करते हैं, वे उज्झ / उपाध्याय हैं । २१. उट्टियासमण ( उष्ट्रिकाश्रमण ) उष्ट्रिका - महामृण्मयो भाजन विशेषस्तत्र प्रविष्टा ये श्राम्यन्तितपस्यन्तीत्युष्ट्रकाश्रमणाः । (ओटी पृ २०१ ) प्रविष्ट हो श्रम / ( आवनि ९६८ ) १. उ इत्येदक्षरं उपयोगकरणे वर्तते, ज्भ इति चेदं ध्यानस्य भवति निर्देशे, ततश्च प्राकृतशैल्या एतेन कारणेन भवति उज्झा, उपयोगपुरस्सरं ध्यानकर्त्तारः । ( आवहाटी पू २६९ ) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश ५ . २६२. उण्णत (उन्नत) उच्छिन्नं नतं-पूर्वप्रवृत्तनमनमभिमानादुन्नतम् । (भटी पृ १०५१) अभिमानवश विनम्रता को छोड़ देना उन्नत/मान है। २६३. उण्णय (उन्नय) उच्छिन्नो नयो-नीतिरभिमानादेवोन्नयः। (भटी पृ १०५१) अभिमानवश नय/नीतिमार्ग से हट जाना उन्नय/मान है। २६४. उण्ह (उष्ण) उषति-दहति जन्तुमिति उष्णम् । (उशाटी प ३८) जो प्राणियों को जलाता है, वह उष्ण अग्नि है । २६५. उत्तप्प (उत्त्रप्य) उत्प्राबल्येन त्रप्यते लज्यते येन तत् उत्त्रप्यम् । (व्यभा १० टी प ३८) जिससे लज्जित होना पड़ता है, वह उत्त्रप्य/अवयवहीन शरीर है। २६६. उत्तम (उत्तम) मिच्छत्तमोहणिज्जा नाणावरणाचरित्तमोहाओ । तिविहतमा उम्मुक्का' तम्हा ते उत्तमा' हुंति ॥ (आवनि १०६३) जो तीन प्रकार के तम (मिथ्यात्व, अज्ञान और कषाय) से उन्मुक्त हैं, वे उत्तम/सिद्ध हैं। तमो-संसारो ताओ उम्मुक्का तेण उत्तमाः। जो तम/संसार से उन्मुक्त हैं, वे उत्तम हैं। ओघातितो वा तमो यस्ते उत्तमाः। (आवचू २ पृ १२) १. उद्-उद्भवोर्ध्वगमनोच्छेदनेषु । (आवचू २ पृ ११,१२) २. 'उत्तम' का अन्य निरुक्तअतिशयेन उद्गतमुत्तमम् । (अचि पृ ३२२) जो विशिष्ट है, वह उत्तम है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश जिन्होंने तम को विनष्ट कर दिया, वे उत्तम हैं। ऊर्ध्व वा तमस इत्युत्तमसः । (आवहाटी २ पृ १२) जो तम/अन्धकार से परे हैं, वे उत्तम हैं। २९७. उदधि (उदधि) उदकं दधातीति उदधिः । (सूचू १ पृ १४८) जो उदक/पानी को धारण करता है, वह उदधि है । २६८. उदयचरग (उदकचरक) उदगे चरंति ते उदगचरगा। (आचू पृ २०४) जो जल में विचरण करते हैं, वे उदकचरक जलचरप्राणी हैं। २६६. उदर (उदर) उदीर्णान्तः' (उदीर्णन्ति ?) उदीर्यते' वा उदरम् ।' (उचू पृ १५६) जिसे बार-बार भरा जाता है, वह उदर है। जिसे बहुत अधिक भरा जाता है, वह उदर है । ३००. उद्देस (उद्देश) उद्दिस्सति जेण सो उद्देसो। (आचू पृ १०१) जिसके द्वारा उद्देश/निर्देश किया जाता है, वह उद्दश है । ३०१. उद्देसिय (औद्देशिक) उद्दिस्स कज्जइ तं उद्देसियं ।। (दजिचू पृ १११) जो साधुओं के उद्देश्य से बनाया जाता है, वह औद्देशिक/ भिक्षा का दोष है। १. उत्+ऋ २. उत्+ह ३. 'उदर' का अन्य निरुक्तउनत्यन्नमत्र उदरम् । उदियर्तीति वा उदरम् । (अचि पृ १३६) जो अन्न को ग्रहण करता है, वह उदर है । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश ३०२. उद्धारणा (उद्धारणा) उत्प्राबल्येन उपेत्य वा उद्धृतानामर्थपदानां धारणा उद्धारणा ।। (व्यभा १० टी प ८६) __पढ़े हुए अर्थपदों/पाठ की दृढ़ धारणा करना, उन्हें विस्मृत नहीं करना, उद्धारणा है। ३०३. उद्धावण (उद्धावन) उत्प्राबल्येन धावनं उद्धावनम् । (व्यभा २ टी प १३४) शीघ्रगति से दौड़ना उद्धावन है । ३०४. उप्पत्ति (उत्पत्ति) उत्पद्यते यस्मादिति उत्पत्तिः। (व्यभा २ टी प ४४) जिससे उत्पन्न होता है, वह उत्पत्ति है । ३०५. उन्भाम (उद्भ्रम) उत्प्राबल्येन भ्रमन्त्युद्धमाः। (व्यभा ३ टी प ६६) जो निरंतर भ्रमण करते रहते हैं, वे उभ्रम/भिक्षाचर हैं । ३०६. उब्भिय (उद्भिज) उद्भेदनमुद्भित्ततो जाता उद्भिजाः। (आटी प ७०) जो भूमि का उद्भेदन कर बाहर आते हैं, वे उद्भिज/ कीटविशेष हैं। ३०७. उभयतर (उभयतर) आत्मानं परं चाचार्यादिकं तारयन्तीत्युभयतराः। (व्यभा ३ टी प ३) जो स्वयं को तारता है तथा आचार्य आदि की सेवा करता है, वह उभयतर है। ३०८. उम्मग्ग (उन्मार्ग) ऊवं वा मार्गमुन्मार्गम् । (आटी प २३३) जो उर्ध्व बाहर निकलने का मार्ग है, वह उन्मार्ग है । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ निरक्त कोश ३०६. उम्माण (उन्मान) जण्णं उम्मिज्जइ । (अनुद्वा ३७८) जिससे तोला जाता है, वह उन्मान है। यदुन्मीयते-प्रतिनियतस्वरूपतया व्यवस्थाप्यते तदुन्मानम् । (अनुद्वामटी प १४१) जो वस्तु के स्वरूप को निश्चित करता है, वह उन्मान माप-तोल है। ३१०. उर (उरस्) इति अर्यतेऽनेनेति उरः। (उचू पृ १५०) जो स्पन्दित होता है, फैलता है, वह उर है। ३११. उरग (उरग) . उरेण गच्छतीति उरगः । (उचू पृ २३१) जो उर/वक्षस्थल से चलता है, वह उरग है । ३१२. उरपरिसप्प (उरःपरिसर्प) उरसा-वक्षसा परिसर्पन्ति–सञ्चरन्तीत्युरःपरिसर्पाः । (स्थाटी प ५०२) जो उर/वक्ष से परिसर्पण/गमन करते हैं, वे उरपरिसर्प हैं । - ३१३. उरन्भ' (उरभ्र) उरसा भ्राम्यति बिति वा तमिति उरभ्र'। (उचू पृ १५९) जो ऊन के साथ चलता है, वह उरभ्र/मेष है । जो ऊन को धारण करता है, एह उरभ्र/मेष है । १. urabbha-wool lat. vervex. (पा पृ १५५) २. 'उरभ्र' का अन्य निरुक्तउच्चैरभते उरभ्रः । जो उच्च शब्द करता है, वह उरभ्र है। उरभ्रमतीति उरभ्रः। जो उरु/अधिक घूमता है, वह उरघ्र है। (अचि पृ २८५) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ३१४. उरस (औरस) उरसा वर्तत इति ओरसः-बलवान् । उरसि वा हृदये स्नेहाद् वर्तते यः सः औरसः । (स्थाटी प ४६३) जो उरस् शक्ति से सम्पन्न है, वह ओरस/बलवान् है। जो हृदय में स्नेह उत्पन्न करता है, वह औरस/पुत्र या पुत्री है। ३१५. उरस (उपरस) उपगतो-जातो रसः--पुत्रस्नेहलक्षणो यस्मिन्पितृस्नेहलक्षणो वा यस्यासावुपरसः। (स्थाटी प ४६३) जिसको देखकर पुत्रस्नेह या पितृस्नेह अभिव्यक्त होता है, वह उपरस/औरस है। ३१६. उलूक (उलूक) ऊर्ध्वकर्णः उलूकः । (अनुद्वा ३६८) जिसके कान ऊर्ध्वमुखी हैं, वह उलूक है । ३१७. उवओग (उपयोग) उपयुज्यते-वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीव एभिरित्युपयोगाः । (प्रसाटी प ३८१) जिसके द्वारा प्राणी वस्तुबोध में व्याप्त होता है, वह उपयोग है। १. 'उलूक' के अन्य निरुक्तअलत्युलूकः, उच्चर्लोक्यते वा। (अचि पृ २९६) जो केवल रात्रि में ही देखने में समर्थ है वह उल्लू है । (अल-पर्याप्ती) लक्ष्मी का वाहन होने से जो पूज्यभाव से देखा जाता है, वह उलूक है। वलतीति उलूकः । (शब्द पृ २७३) जो (दिन में दृष्टि का) संवरण करता है, (रात्रि में) संचरण करता है, वह उल्लू है । (वल-संवरणे, सञ्चरणे) । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ३१८. उवकारिगा (उपकारिका) उपकरोति–उपष्टभ्नातीत्युपकारिका। (जीटी प २२२) जो उपकार करती है|सहारा देती है, वह उपकारिका/ पीठिका है। ३१६. उवक्कम (उपक्रम) उपक्रम्यते अनेनेत्युपक्रमः। (सूचू १ पृ १७) जिसके द्वारा उपक्रम/प्रारम्भ किया जाता है, वह उपक्रम है। उपक्रम्यते वा निक्षेपयोग्यं क्रियतेऽनेन गुरुवाग्योगेनेत्युपक्रमः। (अनुद्वामटी पृ ४०) जो गुरुवचनों के द्वारा निक्षेपयोग्य किया जाता है, वह उपक्रम है। ३२०. उवक्खर (उपस्कर) उपस्क्रियतेऽनेनेत्युपस्करः। (स्थाटी प २१३) - जो वस्तु को उपस्कृत/संस्कृत करता है, वह उपस्कर/ मसाला है। ३२१. उवग (उपग) उवयोगं गच्छंतीति उवगा । (आचू पृ ३७०) जो उपयोग में आते है, वे उपग/वृक्ष हैं। ३२२. उवगरण (उपकरण) जं जुज्जति उवकारे उवकरणं तं से होइ।' (निचू १ पृ. ६३) ___ जो उपकार करता है, वह उपकरण है। १. उपकरोतीत्युपकरणं । (सूचू २ पृ ३२५) उपक्रियते-उपष्टभ्यते स्फीति नीयते अनेनेति धर्मोपकरणम् । (आवमटी प ४२५) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ निरुक्त कोश ३२३. उवग्गह (उपग्रह) . उपगृह्णातीति उपग्रहः । (दश्रूचू प १७) जो उपकार करता है, वह उपग्रह/उपकरण है। ३२४. उवधायणाम (उपघातनाम) उपहन्यते येन कर्मणा तदुपघातनाम। (प्राक १ टी पृ ३३) जो उपहनन/घात करता है, वह उपघात (नामकर्म) है। ३२५. उवचय (उपचय) उव्विच्चा चिज्जति जेण सो उवचयो। (आचू पृ २६९) जो बाहर से ग्रहण कर उपचित होता है, वह उपचय है। ३२६. उवचरग (उपचरक) उपेत्य चरतीत्युपचरकः । (सूचू २ पृ ३५७) जो समीप आकर (विनय आदि का उपचार कर) ठगता है, वह उपचरक है। ३२७. उवज्झाय (उपाध्याय) उत्ति उवओगकरणे वत्ति अ पावपरिवज्जणे होइ ।। झत्ति अ झाणस्स कए उत्ति अ ओसक्कणा कम्मे ।। (आवनि ६६९) जो उपयोगपूर्वक पापकर्म का परिवर्जन करते हुए ध्याना: रूढ़ हो कर्म-मल को दूर करते हैं, वे उपाध्याय हैं । तमुपेत्य शिष्टा अधीयन्त' इत्युपाध्यायः। (आवचू १ पृ ५८६) जिसके पास जाकर शिष्य पढ़ते हैं, वह उपाध्याय है । १. उप-आत्मनः समीपे संयमोपष्टम्भार्थं वस्तुनो ग्रहणमुपग्रहः। ----- (प्रसाटी प ११८) २. ईङ्-अध्ययने । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश अधि-आधिक्येन गम्यते' (इति उपाध्यायाः) । जिनके पास बहुत अधिक जाना जाता है, वे उपाध्याय हैं.। स्मयते' सूत्रतो जिनप्रवचनं येभ्यस्ते उपाध्यायाः । जिनके पास जिन-प्रवचन का स्मरण किया जाता है, वे उपाध्याय हैं। उपाधानमुपाधिः सन्निधिस्तेनोपाधिना उपाधौ वा आयो-लाभः श्रुतस्य येषामुपाधीनां वा विशेषणानां प्रक्रमाच्छोभनानामायोलामो येभ्यस्ते (उपाध्यायाः)।। जिनकी उपाधि/सन्निधि से श्रुत का आय/लाभ होता है वे उपाध्याय हैं। आधीनां मनः पीड़ानामायो लाभः-आध्यायः अधियां वा (नञः कुत्सार्थत्वात्) कुबुद्धीनामायोऽध्यायः, दुर्ध्यान' वाध्यायः, उपहतः आध्यायः वा यैस्ते उपाध्यायाः। (भटी प ४) जिन्होंने आधि, कुबुद्धि और दुर्ध्यान को उपहत/समाप्त कर दिया है, वे उपाध्याय हैं। ३२८. उवट्ठाण (उपस्थान) उपतिष्ठति तस्मिन्नति उपस्थानं । (सूचू १ पृ ४४) जिसमें रहकर उपासना की जाती है, वह उपस्थान संप्रदाय है। ३२६. उवट्ठावणा (उपस्थापना) उप-सामीप्येन सर्वदावस्थानलक्षणेन तिष्ठन्त्यस्यामिति उपस्थापना। (व्यभा ४/३ टी ६६) जिसमें सदा साथ रहा जाता है, वह उपस्थापना/वसति (स्थाटी प २८८) ३३०. उवणिहि (उपनिधि) उपनिधीयत इत्युपनिधिः। जो पास में रहती है, वह उपनिधि है। १. इण्-गतौ। २. इंक-स्मरणे। ३. ध्य-चितायाम् । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ३ निरक्त कोश ३३१. उवदेस (उपदेश) उवदिस्सइ त्ति उवदेसो। (निचू १ पृ ३५) जो उपदिष्ट होता है, वह उपदेश है। ३३२. उवधि (उपधि) उपदधाति सरीरमितिउवधी। (दअचू पृ १४८) जिसे शरीर पर धारण किया जाता है, वह उपधि है । उपधीयते-पोष्यते जीवोऽनेनेत्युपधिः। (स्थाटी प ११४) जिसके द्वारा जीव पुष्ट होता है, वह उपधि है । ३३३. उवभोग (उपभोग) उपभुज्यते-पौनः पुन्येन सेव्यत इत्युपभोगः। (उपाटी प १६) जिसका बार बार उपभोग/आसेवन किया जाता है, वह उपभोग है। ३३४. उवमा (उपमा) उवेच्च माणं उवमा । _(दअचू पृ २०) जिस माप को स्वीकार किया जाता है, वह उपमा है। उवमिजंति अणेण अत्था तेण ओवम्म। (दजिचू पृ २०) जिसके द्वारा पदार्थ उपमित किया जाता है, वह उपमा उपमीयते--सदृशतया वस्तु गृह्यते अनयेत्युपमा । (अनुद्वामटी प ४०१) जो वस्तु के सादृश्य का निरूपण करती है, वह उपमा है। ३३५. उवलेव (उपलेप) उपलिप्यते अनेनेत्युपलेपः। (औटी प ६६) जिसके द्वारा उपलिप्त किया जाता है, वह उपलेप है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ निरुक्त कोश ३३६. उववज्झ (औपवाह्य उपवाह्य) उप्पेध (उवेच्च) सव्वावत्थं वाहणीया उववज्झा ।' (दअचू पृ २१३) जिसे सब अवस्थाओं में वाहन बनाया जाए, वह औपवाह्य/ हाथी, घोड़ा है। ३३७. उववात (उपपात) आचार्यादीनामुप-समीपे पतनं स्थानमुपपातः । (उशाटी प ४४) आचार्य आदि के पास में बैठना उपपात है। ३३८. उवसग (उपाश्रय) उपेत्य-आगत्य साधुभिराश्रीयत इत्युपाश्रयः। (बृटो पृ ६२५) जहां आकर साधु आश्रय लेते हैं, वह उपाश्रय है । ३३६. उवसग्ग (उपसर्ग) उपसरंतीति उवसग्गा। जो पास में आते हैं/पीड़ित करते हैं, वे उपसर्ग हैं । उवसृजति वा अनेन उवसर्गाः। (आवचू १ पृ ५३५) जो (कष्ट का) उपसर्जन करते हैं, वे उपसर्ग हैं । उपसृज्यते--क्षिप्यते च्याव्यते प्राणी धर्मादेभिरित्युपसर्गाः । (स्थाटी प ५००) जिनसे प्राणी धर्म से उपसृत/च्युत होते हैं, वे उपसर्ग/ उपद्रव हैं। ३४०. उवहाण (उपधान) मोक्षं प्रति उप–सामीप्येन दधातोति उपधानम् । (सूटी १ प ५६) १. (क) कारणमकारणे वा उवेज्ज वाहिज्जति उववज्झा । (दजिचू पृ ३१०) (ख) उप-समीपे वाह्यते उपवाह्यः। (अचि पृ २७४) जिसे पास में लाया जाता है, वह उपवाह्य वाहन है। २. उप–सामीप्ये, सृज-विसर्गे। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश जो मोक्ष के निकट पहुंचाता है, वह उपधान/तपोविशेष है। उपधीयते-उपष्टभ्यते श्रुतमनेनेति उपधानम् ।' (स्थाटी प १७४) जिससे श्रुत/ज्ञान अवस्थित होता है, वह उपधान (तप) उपदधाति—पुष्टि नयत्यनेनेत्युपधानम्। (व्यभा १ टी प २५) जो ज्ञान को पुष्ट करता है, वह उपधान (तप) है। ३४१. उवहाण (उपधान) उप-सामीप्येन धीयते-व्यवस्थाप्यत इत्युपधानम् । (आटी प २६६) जो पास में रखा जाता है, वह उपधान/तकिया है । ३४२. उवहि (उपधि) उपदधाति तीर्थ उपधिः। (उचू पृ २०४) जो तीर्थ/परंपरा को चलाती है, वह उपधि/साधन है । उपधीयते-संगृह्यत इत्युपधिः। (आटी प १७६) जिसका संग्रह किया जाता है, वह उपधि है। ३४३. उवाद (उपाद) उपादीयंत इति उपादाः। (सूचू १ पृ १६०) जो ग्रहण किये जाते हैं, वे उपाद/मत हैं। ३४४. उवासग (उपासक) उपासंति तत्त्वज्ञानार्थमित्युपासकाः। (सूचू २ पृ ३६७) जो तत्त्वज्ञान की संप्राप्ति के लिए मुनियों की उपासना करते हैं, वे उपासक/श्रमणोपासक हैं । १. उप-समीपे धीयते-ध्रियते सूत्रादिकं येन तपसा तदुपधानम् । (प्रसाटी प ६४) जिस तप के द्वारा सूत्र आदि को धारण किया जाता है, वह उपधान (तप) है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ३४५. उसह (वृषभ) . वृषेन भातीति वा वृषभः । (जंटी प १३५) जो वृष/धर्म से सुशोभित होता है, वह वृषभ/ऋषभ है। ३४६. उस्सग्ग (उत्सर्ग) उज्जयसग्गुस्सग्गो। (वृभा ३१६) उद्यतः सर्गः-विहार उत्सर्गः । (बृटी पृ ६७) जो सामान्य विहार आचार है, वह उत्सर्ग है । ३४७. उस्सन्न (अवसन्न) सामाचार्यासेवने अवसीदति स्मेत्यवसन्नः। (व्यभा ३ टी प १०७) जो सामाचारी के पालन में खिन्न होता है, वह अवसन्न ३४८. उस्सप्पिणी (उत्सप्पिणी) उत्सर्पति–वर्द्धतेऽरकापेक्षया उत्सर्पयति वा भावानायुष्कादीन वर्द्धयतीति उत्सप्पिणी। (स्थाटी प २५) जिसमें आयुष्य आदि का उत्सर्पण/वर्धन होता है, वह उत्सर्पिणी (कालचक्र) है। ३४६. उस्सुअ (उत्सूत्र) । ऊवं सूत्रादुत्सूत्रं । (आवचू २ पृ ६६) जो सूत्र/आगम से ऊर्ध्व/परे है, वह उत्सूत्र है। ३५०. उस्सेइम (उत्स्वेदिम) उत-ऊद्वं निर्गच्छता वाष्पेण यः स्वेदः स उत्स्वेदः, उत्स्वेदेन निर्वृत्तमुत्स्वेदिमम् । (बृटी पृ २७०) जो ऊपर उठते हुए स्वेद/वाष्प से निष्पन्न होता है, वह उत्स्वेदिम है। ३५१. ऊसासग (उच्छ्वासक) उच्छ्वसितोति उच्छ्वासकः। (आवहाटी १ पृ २२३) जो उच्छ्वास लेता है, वह उच्छ्वासक है । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश ३५२. एअ (एज) एयतीति एओ। (आचू पृ ३८) जो प्रकम्पित होता है, वह एज/वायु है। ३५३. एकलंभि (एकलाभिन्) य एकं प्रधानं शिष्यमात्मना लभते-गृह्णाति शेषास्त्वाचार्यस्य समर्पयति स एकलाभेन चरतीति एकलाभिकः । जो एक प्रधान शिष्य को अपने पास रखता है और शेष को गुरुचरणों में समर्पित करता है, वह एकलाभिक है । एकमेव लभन्ते इत्येवंशीला एकलाभिनः।' (व्यभा ४/२ टी प २३) जो एक का ही लाभ/प्राप्ति करते हैं, वे एकलाभिक हैं । ३५४ एगंतचारि (एकान्तचारिन्) एगते उज्जाणादिसु चरंति एगंतचारी। (सूचू २ पृ ४२०) जो उद्यान आदि एकान्त स्थानों में रहते हैं, वे एकान्त चारी हैं। ३५५. एगचर (एकचर) एगा चरंति एगचरा। (आचू पृ ३१६) जो एकाकी विचरण करते हैं, वे एकचर हैं। ३५६. एगट्ठिय (एकाथिक) एकश्चासावर्थश्च-अभिधेयः एकार्थः स यस्यास्ति स एकाथिकः । (स्थाटी प ४७२) जिन शब्दों का एक ही अर्थ/अभिधेय हो, वे एकार्थक/ पर्यायवाची हैं। १. येषामेक एव लाभो यथा यदि भक्तं लभन्ते ततो वस्त्रादीनि न । अथ वस्त्रादीनि लभन्ते तर्हि न भक्तमपि । (व्यभा ४/२ टी प २३) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ३५७. एलय (एडक) ( उचू पृ १५८ ) एति एत्याकारितो एत्येलकः । एति - एति / आओ-आओ इस प्रकार पुकारने पर जो आता है, se / मेष है। a ३५८. एवंभूय ( एवम्भूत) एवं - यथा व्युत्पादितस्तं प्रकारं भूतः - प्राप्तः एवम्भूतः । ३५६. एसणा ( एषणा ) जो शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार प्राप्त होता है, वह एवंभूत (नय ) है | एषति एभिरित्येषणा । ३६०. एसणिय ( एषणीय) जिससे अन्वेषणा की जाती है, वह एषणा है । ३६१. एसिय (एषिक ) निरुक्त कोश एष्यते - गवेष्यते उद्गमादिदोषविकलतया साधुभिर्यत्तदेषणीयम् । ( स्थाटी प १०३ ) साधु जिसकी उद्गम आदि दोषों से रहित एषणा करते हैं, वह एषणीय / कल्पनीय है । ३६२. ओमचरय (अवमचरक ) ( प्रसाटी प २४६ ) एवन्तीति एषिका । ( सू चू १ पृ १७५ ) जो शिकार के लिए / मांस प्राप्त करने के लिए प्राणियों की खोज करते हैं, वे एषिक हैं । १. 'एडक' का अन्य निरुक्त ( उचू पृ १७४ ) इज्यते देवता अनेन एडक: । (अचि पृ २८५ ) अवमौदर्यां चरति --- आसेवते अवमचरकः । ( उशाटी प ६०६ ) जो अवम / कम खाता है, वह अवमचरक / अल्पभोजी है । जिसकी बलि से देवता प्रसन्न होते हैं, वह एडक / मेष है । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश ३६३. ओमाण (अवमान) जण्णं ओमिणिज्जइ (ओमाणं)। (अनुद्वा ३८०) जो हाथ आदि से नापा जाए, वह अवमान है। ३६४. ओमोय (अवमोक) अवमुच्यते--परिधीयते यः सोऽवमोकः। (भटी पृ ६६७) जिसे खोला जाता है, पहना जाता है, वह अवमोक/ आभूषण है। ३६५. ओयण (ओदन) उनत्ति उदत्ति' वा तमिति ओदनम् । (उचू पृ १५८) ___ जो अपने पोषक रसों से शरीर को आर्द्र कर देता है, वह ओदन चावल है। ३६६. ओरालिय (औदारिक) उदारैः पुद्गलैनिवृत्तमौदारिकम् । (आवहाटी २ पृ १८५) जो उदार/स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न है, वह औदारिक/ स्थूल शरीर है। ३६७. ओवक्कमिया (औपक्रमिकी) उपक्रम्यतेऽनेनायुरित्युपक्रमः-ज्वरातीसारादिस्तत्रभवा या सौपक्रमिको। (स्थाटी प २३९) जिससे आयुष्य उपक्रांत/क्षीण होता है, वह औपक्रमिकी/ व्याधि है। ३६८. ओवाहि (उपाधि) उपाधीयते इति उपाधिः। (आटी प १७४) जो सदा पास में रहता है, वह उपाधि कर्म है । १. उन्द-क्लेदने । उनत्ति-क्लेदयति । २. उनत्ति क्लीद्यत्योदनः : (अचि पृ ६२) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश ३६६. ओवीलय (अपव्रीडक) अपवीडयति- लज्जां मोचयतीत्यपवीडकः । (व्यभा ३ टी प १८) जो लज्जा/संकोच को मिटाता है, वह अपव्रीडक है । ३७०. ओसन्न (अवसन्न) अवसीदति-प्रमाद्यति यः सोऽवसन्नः। (प्रसाटी प २५) जो अवसाद/प्रमाद करता है, वह अवसन्न/प्रमादी है। ३७१. ओसप्पिणी (अवप्पिणी) अवसर्पति होयमानारकतया अवसर्पयति वाऽऽयुष्कशरीरादिभावान् हापयतीत्यवसप्पिणी। (स्थाटी प २५) जो ह्रास की ओर बढ़ती है, वह अवसर्पिणी है । जिसमें आयुष्य, शरीर आदि का अवसर्पण ह्रास होता है, वह अवसर्पिणी (कालचक्र) है। ३७२. ओहंतर (ओघन्तर) ओहं जो तरति तरिस्सति वा सो ओहंतरो। (आचू पृ १८०) जो ओघ/प्रवाह का पार पा जाता है, वह ओघंतर है । ३७३. ओहि (अवधि) तेणावहीयए तम्मिवाऽवहाणं तओऽवही सो य मज्जाया। जं तीए दव्वाइ परोप्परं मुणइ तओऽवहि ति ॥ (विभा ८२) अव–अधो विस्तृतं वस्तु धीयते--परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः । जिससे उत्तरोत्तर विस्तार से जाना जाता है, वह अवधि/ अवधिज्ञान है। अवधिः-मर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः। (प्रज्ञाटी प ५२७) जो अवधि/सीमाबद्ध ज्ञान है, वह अवधि (ज्ञान) है । ३७४. कउ (क्रतु) करोतीति ऋतुः। (सूचू २ पृ ३३५) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ७१ ( ब्राह्मण) जिसका अनुष्ठान करते हैं, वह ऋतु/यज्ञ हैं ।" ( स्वर्गकामी) जिसका अनुष्ठान करते हैं, वह ऋतु / यज्ञ है । " ३७५. कच्छु (कच्छ) कंडू इतस्स अंते डज्जति विसप्पतीति वा कच्छू । जो खुजलाने के बाद जलन पैदा करती है वह कच्छू / खुजली है | ३७६. कट्ठ (काष्ठ) कश्यतीति काष्ठम् । कत्थतीति काष्ठम् । जो जलने पर प्रकाश देता है, वह काष्ठ है । जो चीरा जाता है, वह काष्ठ है । ३७७. कणंगर (कनङ्गर) ३७८. कण्णसर (कर्ण शर) जो जलते समय शब्द करता है, वह काष्ठ है । काय - पानीयाय नङ्गराः - बोधिस्थ ( वोहित्थ ) -- निश्चलीकरण - पाषाणास्ते कनङ्गराः । ( विपाटी प ७१ ) जल में स्थित जलपोत को स्थिर करने वाला पाषाण कनङ्गर / लंगर है | १. क्रियते द्विजातिभिः क्रतुः । (निरुक्तम् १ पृ १३६ ) २. क्रियते स्वर्गकामैः ऋतु: । (अचि पृ १८२ ) ३. 'कच्छ' का अन्य निरुक्त ( आचू पृ ३९ ) और फैलती है, कषति त्वचं कच्छू: । (अचि पृ १०६ ) ( उच्च् पृ २०९ ) कण्णं सरंति पार्वति कण्णसरा । जधा सरीरस्स दुस्सहमायुधं सरो तहा ते कण्णस्स, एवं कष्णसरा ते । ( अचू पृ २२१ ) जो कानों में सरण / प्रवेश करते हैं, वे कर्णसर / शब्द हैं । जो कानों ने शर / बाण की तरह चुभते हैं, वे कर्णशर / शब्दबाण हैं । - ४. काश् - - दीप्तौ । कष् - हिंसायाम् । ( उचू पृ २११ ) जो त्वचा को उत्पीड़ित करती है, वह कच्छू / खुजली है । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश ३७६. कत्ता (कर्ता) जो करेइ सो कत्ता। (निचू १ पृ ३६) करोतीति कर्ता। (सूचू १ पृ. २७) जो प्रवृत्ति करता है, वह कर्ता है। ३८०. कप्प (कल्प) मूलोत्तरगुणान् कल्पयति-वर्णयति कल्पः। (बृचू प २) जो मूलगुण-उत्तरगुणों का कल्पन/वर्णन करता है, वह कल्प/ बृहत्कल्प है। कल्पयति-जनयत्याचार्यकमिति कल्पः। (बृटी पृ ४) जो शिष्य को आचार में निपुण बनाता है, वह कल्प/ आचारशास्त्र है। कल्पते समर्था भवंति संयमाध्वनि प्रवर्तमाना अनेनेति कल्पः।। (व्यभा १ टी प ६). संयममार्ग में चलने वाले जिसके द्वारा कल्प/समर्थ होते हैं, वह कल्प/आचार है। १ ३८१. कप्पणी (कल्पनी) कल्प्यते-छिद्यते यया सा कल्पनी। (आटी प ६०) जिसके द्वारा काटा जाता है, वह कल्पनी/कैची है। .. ३८२. कप्पोवग (कल्पोपग) कल्प्यन्ते-इन्द्रसामानिकत्रास्त्रिशादिदशप्रकारत्वेन देवा एतेष्विति कल्पा:- देवलोकास्तानुपगच्छन्ति-उत्पत्तिविषयतया प्राप्नुवन्तीति कल्पोपगाः। (उशाटी प ७०२) जहां इन्द्र, सामानिक आदि के रूप में देव कल्पित/ व्यवस्थित हैं, वे कल्प/देवलोक हैं। वहां उत्पन्न होने वाले देव कल्पोपग कहलाते हैं। सामत्थे वण्णणाए य, छेदणे करणे तहा । ओवम्मे अहिवासे य, कप्पसद्दो तु वण्णितो (जीतभा २५६०) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ३८३ कम्म (कर्मन् ) free इति कम । बन्ध है | ( उच्च पृ १५५ ) जो ( मिथ्यात्व आदि हेतुओं से ) किया जाता है, वह कर्म / ३८४. कम्मकर (कर्मकर) कर्म करोति इति कर्म्मकरा । ३८५. कम्मावह (कर्मावह) जो कर्म / कार्य करते हैं, वे कर्मकर / नौकर हैं । कम्मं आवहतीति कम्मावह । ३८६. कयंत ( कृतान्त) ( आचू पृ ११० ) जो कर्म का आवहन करता है, वह कर्मावह / हिंसा है । कृतं - निष्पादितं बह्नपि कार्यमन्तं नयतीति कृतान्तः । ( बृटी पृ ५७७ ) जो सभी कार्यों का अन्त कर देता है, वह कृतान्त / कृतघ्न है । ३८७. कयकिच्च ( कृतकृत्य ) कृतानि - समापितानि कृत्यानि येन स कृतकृत्यः । ३८८. करण (करण) ७३ ( सू २३८५ ) ( बृटी पृ ५२६ ) जिसने कृत्य / कार्य समाप्त कर दिए हैं, वह कृतकृत्य है । क्रियते तेन करणम् । है । ३८६. करण (करण) ( आमटी प ५५८ ) जिसके द्वारा कार्य निष्पन्न किया जाता है, वह करण / साधन क्रियत इति करणम् । ( सूटी २ प ४१ ) (मूल गुणों की पुष्टि के लिए) जो किया जाता है, वह करण / उत्तरगुण है । १. क्रियन्ते मिथ्यात्वादिहेतुभिर्जीवेनेति कर्माणि । ( उशाटी प ६४१ ) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૪ ३०. करुण ( करुण ) कुत्सितं रौत्यनेनेति करुणः ।' जो कुत्सित / दयनीय शब्द करता है, वह करुण है । ३६१. कलत्त ( कलत्र ) धनं कलं यस्मात् सर्वं अत्ते गृह्णाति तस्मात् कलत्तं । ३६२. कलह ( कलह ) ( अनुद्वामटी प १२४ ) ( तिचू २२५८ ) जिससे कल / धन आदि सब कुछ ग्रहण कर लिया जाता है, वह कलत्र / पत्नी है । निरुक्त कोश कलाभ्यो हीयते येन स कलहः '' ( उचू पृ १७१ ) जिससे कलाएं / शक्तियां क्षीण होती हैं, वह कलह है । १. 'करुणा' के निरुक्त परदुक्खे सति साधुनं हृदयकम्पनं करोतीति करुणा । दूसरों के दुःख को देखकर हृदय में जो प्रकम्पन पैदा होता है, वह करुणा है । किणाति वा पदुक्ख हिंसति विनासेतीति करुणा । ( वि ६ / ६६ ) - जो दूसरों के दुःख का विनाश करती है, वह करुणा है । २. 'कलत्र' के अन्य निरुक्त कडति - माद्यति कड, लश्वे कलत्रम् । (अचि पृ ११७ ) जो गृहस्वामिनी होने के कारण गर्व करती है, वह कलत्र है । कलं त्रायते इति कलत्रम् | ( वा पृ १७७९ ) ata / धन / परिवार को त्राण देती है, वह कलत्र है । ३. 'कलह' के अन्य निरुक्त कल्यते क्षिप्यतेऽत्र कलहः । जो मैत्री का विनाश करता है, वह कलह है । कलं हीनबलं हन्तीति वा ( कलहः ) । जो असमर्थ को हानि पहुंचाता है, वह कलह है । कलां जहातीति वा ( कलहः ) ( अचि पृ १७७ ) कला / विवेक का विनाश करता है, वह कलह है । कलं कामं हन्तीति कलहः । ( आप्टे पृ ५४५ ) जो कल / मधुरता को समाप्त करता है, वह कलह है । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ७५ ३९३. कल्लाण (कल्याण) कल्यमानयतीति कल्याणम् ।। (उचू पृ ४१) कल्यः-अत्यन्तनीरुक्तया मोक्षस्तमानयति अणति-प्रज्ञापयतीति कल्याणः। (उशाटी प १२८) जो कल्य/मुक्ति/सुख/आरोग्य प्रदान करता है, वह कल्याण है। ३६४. कल्लाण (कल्याण) कल्लमणइ ति गच्छइ गमयइ व बुज्झइ व बोहयइ व त्ति । भणइ भणावेइ व जं तो कल्लाणो स चायरिओ॥ (विभा ३४४१) ___ जो स्वयं कल्य आरोग्य मोक्ष को प्राप्त करते हैं, मोक्ष-मार्ग को जानते हैं, उसका प्रतिपादन करते हैं तथा दूसरों को कल्य प्राप्त कराते हैं, ज्ञात कराते हैं और उसका प्रतिपादन करने के लिए प्रेरित करते हैं, वे कल्याण/गुरु/आचार्य हैं। अहवा कल सइत्थो संखाणत्यो य तस्स कल्लं ति । सदं संखाणं वा जमणइ तेणं च कल्लाणो। (विभा ३४४२) __ जो कल्य/शब्द-शास्त्र/व्याकरण तथा कल्य/गणित-शास्त्र के ज्ञाता हैं, वे कल्याण आचार्य हैं। ३९५. कवित्थ (कपित्थ) कपिरिव लम्बते त्थेति च करोति कपित्थं । (अनुद्वा ३६८) जो कपि बंदर की तरह लटकता हुआ रहता है, वह कपित्थ कैथ है। १. कल्यते धार्यते कल्याणम । कल्यं-नीरुजत्वमणतीति वा (कल्याणम्) । (अचि पृ १५) २. 'कपित्थ' के अन्य निरुक्त । कपयोऽस्मिन् तिष्ठन्ति कपित्थः, कपिप्रियत्वात् कपिरिव तिष्ठतीति वा । (अचि पृ २५८) जहां कपि रहते हैं, वह कपित्थ (वृक्ष) है। जो कपि को प्रिय है, वह कपित्थ (वृक्ष) है। (जिसके फल) कपि की तरह स्थित हैं, वह कपित्थ है । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ३९६. कस (कश) कशतीति कशः । (उचू पृ ३०) जो गति प्रदान करता है, वह कशा/चाबुक है। जो दण्डित करता है, वह कशा/चाबुक है । ३६७. कसाय (कषाय) कसंतीति कसाया। (आचू पृ २८६) जो (कर्म-पुद्गलों को) आकृष्ट करते हैं, वे कषाय हैं । जो (आत्मा को) रञ्जित करते हैं, वे कषाय हैं । या अप्रशस्ता गतिः तां नयंतीति तेन कषायाः।' जो अप्रशस्त गति की ओर ले जाते हैं, वे कषाय हैं। शुद्धमात्मानं कलुषीकरोतीति कषायाः। (आवचू १ पृ ५१७) जो शुद्ध आत्मस्वरूप को कलुषित/मलिन करते हैं, वे कषाय हैं। कष्यन्ते-हिंस्यन्ते प्राणिनो यत्रासौ कषः-संसारस्तमेति प्राप्नोति प्राणी यैस्ते कषायाः। (प्रसाटी प १३६) जहां प्राणी विनष्ट होते हैं, वह कष/संसार है । जिनके कारण प्राणी कष/संसार में जन्म-मरण करते हैं, वे कषाय हैं । ३९८. कहा (कथा) कथ्यत इति कथा। (सूचू १ पृ १८८) जो कही जाती है, वह कथा है । १. 'कशा' का अन्य निरुक्तकशा प्रकाशयति भयमश्वाय । कृष्यतेर्वाणूभावात् । (नि ६/१९) जो भय का प्रकाशन करती है, वह कशा/चाबुक है । जो लघु होने के कारण खींची जाती है, वह कशा/चाबुक है। (कश्-गति-शातनयोः) २. कषाय-रागे, कषायितः- रञ्जितः। (वा पृ १८३६) ३. कष्-गतौ । ४. कष् - हिंसायाम् । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश ३६६. काकपेज्ज (काकपेय) तडत्थितेहिं काकेहि पिज्जंति काकपेज्जा। (अचू पृ १७४) जल से परिपूर्ण वैसा तालाब या नदी जिसके तट पर बैठकर कौए पानी पी लेते हैं, वह काकपेया-नदी या तालाब होता ४००. काम (काम) कामयन्त इति कामाः। (सूटी २ प १७) जिनकी कामना की जाती है, वे काम/इन्द्रियविषय हैं । ४०१. कामकामि (कामकामिन्) कामे कामयति कामकामी। (आचू पृ८३) जो काम इन्द्रिय विषयों की कामना करता है, वह कामकामी है। ४०२. काय (काय) चीयत इति कायः । (भटी प १८१) जो उपचित होता है, वह काय शरीर है । ४०३. कायतिज्ज (कायतार्य) कारण तरिज्जंतित्ति कायतिज्जाओ। (दजिचू पृ २५८) __ जो शरीर के द्वारा तरने योग्य हैं, वे कायतार्य (नदी, तालाब) हैं। ४०४. कायोवग (कायोपग) कायान् कायेषु वोपगच्छन्तीति कायोपगाः। (सूटी २ प १४२) जो काया/शरीर का अनुसरण करते हैं, वे कायोपग हैं । .... जो काया/शरीर में ही अनुरक्त रहते हैं, वे कायोपग हैं । १. कुच्छितानं सासवधम्मानं आयो ति कायो । (वि. १५/१) जो झरने वाले कुत्सित पदार्थों का उत्पत्ति-स्थल है, वह काय है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ निरुक्त कोश ४०५. कारग (कारक) क्रियां करोतीति कारकः। (नंचू पृ८) जो क्रिया करता है, वह कारक है। कारयतिति कारकः। (प्रसाटी प २८३) जो कराता है, वह कारक है । ४०६. काल (काल) कलनं-समस्तवस्तुस्तोमस्य संख्यानमिति कालः।' (प्रसाटी प २८९) जिससे समस्त पदार्थों का कलन/ज्ञान होता है, वह काल है । कलयन्ति-परिच्छिन्दन्ति वस्तु तस्मिन् सतीति कालः। ' (विभामहेटी १ पृ ७१५) जिसके होने पर वस्तु के परिच्छेद/पृथक् अस्तित्व का बोध होता है, वह काल है। कलयन्ति-समयोऽस्यानेन रूपेणोत्पन्नस्यावलिकामुहूर्तादि वा । जिससे समय, आवलिका, मुहूर्त आदि की कलना/गणना होती है, वह काल है। ४०७. कालकंखि (कालकांक्षिन्) कालं काङ्क्षतीति कालकंखी । (सूचू १ पृ २०४) जो काल मरण की कांक्षा करता है, वह कालकांक्षी है। ४०८. कालिय (कालिक) काले-प्रथमचरमपौरुषीद्वये पाठ्यत इति कालिकं । (आवहाटी १ पृ १९०) जो प्रथम और चतुर्थ पौरुषी में पढ़ा जाता है, वह कालिक (श्रुत) है। १. 'काल' का अन्य निरुक्त :कालयति -क्षिपति सर्वभावान् कालः। (अचि पृ २६) कलनात् सर्वभूतानां स कालः परिकीर्तितः। (वा पृ १७७६) जो सबको अपना ग्रास बनाता है, वह काल/समय है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७8 "निरुक्त कोश ४०६. कासंकस (कासंकष) कासः संसारस्तं कषतीति तदभिमुखो यातीति कासंकषः । ___ (आटी प १३८) जो संसार की ओर जाता है, वह कासंकष/किंकर्तव्यविमूढ़ है । ४१०. कासग (कर्षक) कृषंतीति कर्षकाः। (उचू पृ २०५) जो खेतों का कर्षण करते हैं, वे कर्षक/किसान हैं। ४११. कासव (काश्यप) कासं-उच्छू तस्स विकारो काश्यः-रसः, सो जस्स पाणं सो कासवो। (दअचू पृ ७३) __ जो काश्य/इक्षुरस का पान करते हैं, वे काश्यप/इक्ष्वाकु वंशी हैं। ४१२. काहीअ (काथिक) कथयतीति कथिकः । (सूचू १ पृ ६७) जो कथा करता है, वह काथिक है । ४१३. किंकर (किङ्कर) ____कि करोमीति किङ्करः। (व्यभा ४/२ टी प २६) __ 'क्या करूं' (इस प्रकार आदेश की प्रतीक्षा) करने वाला किंकर/नौकर है। ४१४. किरिया (क्रिया) क्रियन्त इति क्रियाः। (सूटी २ प ४३) जो की जाती हैं, वे क्रियाएं हैं । १. कर्षति भुवं कर्षकः । (अचि पृ १९६) २. काशो नाम इक्खु भण्णइ, जम्हा तं इक्खु पिबंति तेन काश्यपा अभिधीयते । (दजिचू पृ १३२) ३. किं करोमोत्याज्ञां प्रतीक्षते किंकरः । (अचि पृ ८४) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ४१५. किरियावादि (क्रियावादिन्) क्रियांवदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः। (सूटी २ प ८१) जो केवल क्रिया प्रवृत्ति का ही कथन करते हैं, वे क्रियावादी हैं। ४१६. किरियावादि (क्रियावादिन) क्रियां-जीवाजीवादिरर्थोऽस्तीत्येवंरूपां वदन्तीति क्रियावादिनः। (स्थाटी प २५८) जो क्रिया/जीव आदि पदार्थों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं, वे क्रियावादी/आस्तिक हैं। ४१७. किलेस (कलेश) क्लिश्यन्ते-बाध्यन्ते शारीर-मानसर्दुःखैः संसारिणः सत्त्वा एभिरिति क्लेशाः। (बृटी पृ २१७) जिनसे प्राणी क्लेश/दुःख पाते हैं, वे क्लेश/कर्म हैं। ४१८. कोब (क्लीब) क्लिद्यते इति क्लीवः । (निचू ३ पृ २४६) जो शीघ्र पिघल जाता है, वह क्लीव/नपुंसक है। ४१९. कुंजर (कुञ्जर) कु-भूमि तं जरेती कुंजरम् ।। (उचू पृ १९९) को जीर्यतीति कुञ्जरः। (जीटी प १२२) ___ जो कु/पृथ्वी को जीर्ण कर देता है, वह कुंजर/हाथी है। १. 'क्लीब' का अन्य निरुक्तक्लीबते क्लीबः । (अचि पृ १२७) जो दुर्बल मन वाला होता है, वह क्लीब है। २. 'कुंजर' के अन्य निरुक्तकुजति कुञ्जरः-जो चिंघाड़ता है, वह कुंजर है । कुजौ हन् दन्तौ वा अस्य स्त इति कुञ्जरः। (अचि पृ २७३) जिसके कुञ्ज दो लंबे दांत/गजदंत होते हैं, वह कुंजर है । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश कुजे-वनगहने रमते-रतिमाबध्नातीति कुञ्जरः । (जीटी प १२२) जो कुंज/गहनवन में रतिक्रीडा करता है, वह कुंजर/हाथी ४२०. कुंथु (कुन्थु) ___ कु-भूमी तस्यां तिष्ठतीति कुंथु। (दश्रुचू प ६५) जो कु-भूमि में रहता है, वह कुंथु/सूक्ष्म प्राणी है। ४२१. कुंभ (कुम्भ) को भातीति कुम्भः। (सूटी २ प १८६) जो कु/पृथ्वी पर प्रतिष्ठित सुशोभित होता है, वह कुंभ है । कुम्भनात् कुम्भः। __ (अनुद्वामटी पृ १२५) को उम्भनात् कुस्थितपूरणात् कुम्भः। (नंटि पृ १६०) जिसे पृथ्वी पर स्थित कर भरा जाता है, वह कुम्भ/घट है। ४२२. कुकुटी (कुकुटी) कुत्सिता कुटी कुकुटी। (व्यभा ८ टी प ५७) जो कुत्सित पदार्थों से भरा हुआ कुटीर है, वह कुकुटी/ शरीर है। ४२३. कुक्कुय (कुत्कुच) कुञ्चति भ्रूनयनौष्ठनासाकरचरणवदनविकारैः संकुचतीति कुत्कुचः। __ (प्रसाटी प ७७) जो शरीर के विभिन्न अवयवों को विकृत कर, उनका संकोच-विकोच करता है, वह कुत्कुच/चपल है। १. 'कुम्भ' के अन्य निरुक्तकायत्यम्भसा भ्रियमाणः कुम्भः, कैरुम्भ्यते वा कुम्भः। (अचि पृ २२६) जो जल से भरे जाने पर शब्द करता है, वह कुम्भ/घट है। जो कं/जल से भरा जाता है, वह कुम्भ/घट है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ निरुक्त कोश ४२४. कुक्कुय (कुकूज) कुत्सितं कूजति–पीडितः सन्नाक्रन्दति कुकूजः । (उशाटी प ४८६) जो आक्रन्दन करता है, वह कुकूज है । ४२५. कुड (कुट) कुटनाद् कुटः, कौटिल्ययोगात् कुट इति । (अनुद्वामटी १२५) जो टुकड़े-टुकड़े हो जाता है, वह कुट/घड़ा है । जो विभिन्न आकारों में मोड़ा जाता है, वह कुट/घड़ा है। ४२६. कुत्थियचारि (कुत्सितचारिन्) कुत्थियं चरतीति कुत्थियचारी। (आचू पृ ३१४) जो कुत्सित आचरण करता है, वह कुत्सितचारी है । ४२७. कुप्पह (कुपथ) कुत्सिताः पथाः कुपथाः। (उशाटी प ५०८) जो दूषित पथ है, वह कुपथ है। ४२८. कुमार (कुमार) काम्यतिऽसौ काम्यति वा क्रीडत इति कुमारः। (उचू पृ २०७) जिसे सब चाहते हैं, वह कुमार है । जो क्रीडा करता है, वह कुमार है। १. 'कुट' का अन्य निरुक्त कुटति कुटः। (अचि पृ २२६) जो तप्त किया जाता है, वह कुट/घट है। (कुटिण्-प्रतापने, कुटत्-कौटिल्ये) २. 'कुमार' के अन्य निरुक्त कामयते यदपि तदपि दृष्टं इति कुमारः। कुमारयति क्रीडयति वा कुत्सितो मारोऽस्येति वा । (अचि पृ ७६) जो कुछ देखता है, उसे चाहता है, वह कुमार है। जो क्रीड़ा करता है, वह कुमार है। जिसकी मार/वासना कुत्सित है, वह कुमार है । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश ४२६. कुमारिय (कुमारिक) कुमारेण मारेति ते कुमारिया। (निचू २ पृ९) _____ जो कु-मार/बुरी तरह से मारते हैं, वे कुमारिक कसाई हैं । ४३०. कुय (कुज) ___कौ-भूमौ जायत इति कुजाः। (अंविटी पृ २७२) जो कु/भूमि में उत्पन्न होते हैं, वे कुज/वृक्ष हैं । ४३१. कुरुय (कुरूप) कुत्सितं यथा भवत्येवं रूपयति-विमोहयति यत्तत्कुरूपम् । (भटी पृ १०५२) जो कुत्सित रूप से विमूढ़ करता है, वह कुरूप/भाण्डकर्म है। ४३२. कुलत्था (कुलस्था) कुले तिष्ठन्तीति कुलस्थाः। (भटी पृ १३६६) जो कुल की मर्यादा में रहती हैं, वे कुलस्था/कुलाङ्गना हैं । ४३३. कुलिगि (कुलिङ्गिन्) कुत्सितानि-असम्पूर्णानि लिङ्गानि-इन्द्रियाणि यस्यासो कुलिङ्गी। ___ (बृटो पृ १०६२) जिसके लिङ्ग/इंद्रियां पूर्ण नहीं हैं, वह कुलिंगी/विकलेन्द्रिय है। ४३४. कुवलय (कुवलय) कुत्सितो उवलो कुवलयो। (नंचू पृ६) जो कृष्ण या नील उपल है, वह कुवलय/कृष्ण मुक्ताफल ४३५. कुवलय (कुवलय) कुत्सितो उवलो कुवलयो। (नंचू पृ६) ___जो कुत्सित/नील उत्पल है, वह कुवलय/नीलोत्पल है । १. 'कुवलय' के अन्य निरुक्तको वलति प्राणिति कुवलयं, कुत्सितो बहिर्वलयः पत्रवेष्टनमस्य वा । (अचि पृ २६०) जो पृथ्वी से प्राण-ग्रहण करता है, वह कुवलय है। जिसका बाहरी वलय/पत्र-वेष्टन कुत्सित है, वह कुवलय है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश - ४३६. कुसल (कुशल) कुसे' लुणातीति कुसलो।' (आचू पृ ७४) जो कुश कर्म को काटता है, वह कुशल है । कुच्छिते सलतीति कुशलं । (आचू पृ २१५) कुच्छियाओ कारणाओ सलइत्ति कुसलो।' (दजिचू पृ ३२४) जो कु/पाप से दूर हटता है, वह कुशल है । ४३७. कुसील (कुशील) कुच्छितं सीलं तमिति कुशीला। (आचू पृ २१०) जिसका शील कुत्सित है, वह कुशील है। ४३८. कुह (कुह) कुत्ति भूमी तोए धारिज्जंतीति कुहा। (दअचू पृ ७) जो कु/भूमि द्वारा धारण किए जाते हैं, वे कुह/वृक्ष हैं । १. (क) को शेते कुशः। (अचि पृ २६७) जो कु/पृथ्वी पर उत्पन्न होता है, वह कुश/तृण है । (ख) दव्वकुसा दब्भा, भावकुसा अट्टप्पगारं कम्मं ते भावकुसे लूनंतीति कुसला। (उचू पृ २११) २. 'कुशल' के अन्य निरुक्तकुशं लातीति कुशलः। जो कुश/दर्भ को ग्रहण करता है, वह कुशल कुशग्राहक है । (लांक-आदाने ।) कुश्यति-पुण्यात्मना सम्बध्यते कुशलम् । (अचि पृ १६) जो पवित्र आत्मा से संबद्ध होता है, वह कुशल है। . कौ-पृथिव्यां शलति श्लाघां प्राप्नोतीति कुशलः । (शब्द २ पृ. १६०) जो कु/पृथ्वी पर श्लाघा प्राप्त करता है, वह कुशल है। ३. कुं-पापं तस्मात् शलति गच्छति पृथक्त्वं प्राप्नोतीति कुशलम् । (शब्द २ पृ १६०) (शल-गतो, श्लाघे, चलने)। - Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ४३९. कूइय ( कूजित ) कुत्सितं रसितं कूजितं । ४४०. कूडगाह ( कूटग्राह ) जो अव्यक्त ध्वनि की जाती है, वह कूजित है । कूटेन जीवान् गृह्णातीति कूटग्राहः । ग्राह है । ४४१ . कूर ( क्रूर ) ( विपाटी प४८ ) कूटयन्त्र से जो मृग आदि जीवों को फंसाता है, वह कूट कृन्तन्तीति क्रूराः । ४४२. केय (केय) जो काटता है / नष्ट करता है, वह क्रूर है । ४४३. केस (केश ) कित्यते - उष्यते अस्मिन्निति घञि केतः । जिसमें प्राणी वास करते हैं, वह केत / गृह है । क्लेशयन्ति वा कामिनः क्लेशाः ( केशाः ) ' जो कामी पुरुषों को कष्ट पहुंचाते हैं, वे ४४४. कोकंतिय (दे० ) ( आवचू २ पृ ७३ ) ४४५. कोडि (कोटि) ८५ १. 'केश' का अन्य निरुक्त ( उचू पृ १३५ ) की कंतियन्ति - रात्रौ को को इत्येवं रारटीति । ( आटी प ३३७ ) जो रात्रि के समय 'को को' इस प्रकार बोलती है, वह कोकंति / लोमड़ी है । ( प्रसाटी प ४६ ) ( (उच् पृ ११ ) क्लेश / केश हैं । कोडिज्जते जम्हा बहवे दोसा उ सहियए गच्छं । कोडि त्ति... | ( जीतभा १२८७ ) के शेरत इति केशाः । (अचि पृ १२८ ) Aata / मस्तक पर होते हैं, वे केश / बाल हैं । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश जिसके द्वारा बहुत से दोषों को नष्ट कर दिया जाता है, वह कोटि/भिक्षा-शुद्धि है। ४४६. कोमुदी (कौमुदी) कुमुदेहि' प्रहसणभूतेहिं क्रीडणं जीए सा कोमुदी। __ (दअचू पृ २१०) जो विकसित कुमुदों/कमल पुष्षों के साथ क्रीडा करती है, वह कौमुदी/चांदनी है। ४४७. कोव (कोप) कुप्यते येन स कोपः। (उचू पृ २८) जिसके द्वारा व्यक्ति कुपित होता है, वह कोप है। ४४८. कोह (क्रोध) क्रुध्यति येन स क्रोधः। (ओनिटी प ५) जिससे प्राणी क्रुद्ध होता है, वह क्रोध है । ४४६. कोहदंसि (क्रोधशिन्) कोहं पस्सति कोहदंसी। (आचू पृ १२८) जो क्रोध को देखता है, वह क्रोधदर्शी है । ४५०. खंडिय (खण्डिक) खंडयन्तीति खण्डिका। (उचू पृ २०६) जो शीघ्र खण्डित कुपित होते हैं, वे खण्डिक/विद्यार्थी हैं । ४५१. खंत (क्षान्त) खमतीति खंतः। (सूचू २ पृ ३३५) १. कौ मोदते कुमुदम् । (अचि पृ २६१) ___ जो कु/पृथ्वी पर मुदित/विकसित होता है, वह कुमुद/श्वेत कमल है। २. कौमुदी का अन्य निरुक्तकुमुदानामियं विकाशहेतुत्वात् कौमुदी । (अचि पृ २४) जो कुमुदों को विकसित करती है, वह कौमुदी है । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ८७ क्षमा करोतीति क्षान्तः। (दटी प २६२) जो सहता है, वह क्षान्त है। जो क्षमा करता है, वह क्षान्त है। ४५२. खंतिखमण (क्षान्तिक्षमण) क्षान्त्या क्षमत इति क्षान्तिक्षमणः। (स्थाटी प ४६१) जो क्षान्ति/धृति से सहन करता है, वह क्षान्तिक्षमण है। ४५३. खंध (स्कन्ध) स्कन्दन्ति-शुष्यन्ति धीयन्ते च पोष्यन्ते च पुद्गलानां विचटनेन चटनेन स्कन्धाः । (उशाटी प ६७३) जो पुद्गलों के विघटन से क्षीण और संघटन से पुष्ट होते हैं, वे स्कंध हैं। ४५४. खण (क्षण) खोयते इति खणो। (आचू पृ ५६) जो क्षीण होता है/बीतता है, वह क्षण है । ४५५. खत्तिय (क्षत्रिय) क्षतात् त्रायन्त इति क्षत्रियाः ।' (सूचू १ पृ १४८) क्षत्रेण धर्मेण जीवन्त इति क्षत्रियाः। (सूचू १ पृ १७५) जो क्षत/कष्ट से त्राण देते हैं, वे क्षत्रिय हैं। जो क्षत्रिय धर्म से जीवित रहते हैं, वे क्षत्रिय हैं। ४५६. खमण (क्षमण) खमतीति खमणो। (अनुद्वा ३२०) जो सहन करता है, वह क्षमण है। ४५७. खरकंटय (खरकण्टक) खरा-निरन्तरा निष्ठुरा वा कण्टाः कण्टका यस्मिस्तत् खर कण्टम्। १. क्षदति संवृणोति क्षत्रं । क्षत्रस्य अपत्यम् क्षत्रियः । (अचि पृ १९०) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द८ निरुक्त कोश जिसमें खर / तीक्ष्ण कांटे होते हैं, वह खरकण्टक / बबूल है । खरकण्टयति — लेपवन्तं करोति यत् तत्खरण्टम् । ( स्थाटी प ३३६ ) जो खरष्टित / लिप्त करता है, वह खरण्ट / अशुचि है | ४५८. खवण ( क्षपण ) क्षपयति कर्माणीति क्षपणः । ४५. खह (खह ) जो कर्मों का क्षय करता है, वह क्षपण / मुनि है । खनने भुवो हाने च - त्यागे यद् भवति तत् खहमिति । है । ४६०. खयर ( खचर ) (भटी पृ १४३१) भूमि को खोदने से जो प्रकट होता है, वह खह / आकाश खम्-- आकाशं तस्मिश्चरन्तीति खचराः । ४६१. खाइम ( खादिम) खे माइ खाइमंति । (पिटीप ५) जो ख/ आकाश में चलते हैं, वे खचर / पक्षी हैं । खाज्जत इति खातिमं । जो खाया जाता है, वह खादिम है । ४६२. खीरासव (क्षीरास्रव ) जो खे/ मुखाकाश में समाता है, वह खादिम है । ( उशाटी प ६६८ ) ( आवनि १५८८ ) (आवचू २ पृ ३१३) क्षीरवन्मधुरत्वेन श्रोत्ॠणां कर्णमनः सुखकरवचनमाश्रवन्ति-क्षरन्ति ये ते क्षीरास्रवाः । ( औटी पृ ५३) जिनके वचन क्षीर की तरह भरते हैं, वे क्षीरास्रव (लब्धिसम्पन्न ) हैं । १. खमित्याकाशं तच्च मुखाकाशं तस्मिन् मायत इति खातिमं । ( आवचू २ पृ १३) : Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 निरुक्त कोश ४६३. खुइय (क्षुत्) खुत्ति कतं तं खुइतं ।' (जीतभा ६०७) जिसमें छीत्कार किया जाता है, वह क्षुत् / छींक है। ४६४. खुड्ड (क्षुद्र) क्षुणतीति क्षुद्रः। (उचू पृ २६) ___जो क्षुद्रता/तुच्छता करता है, वह क्षुद्र है । ४६५. खेड (खेट) खेट्यन्ते----उत्त्रास्यन्तेऽस्मिन्नेव स्थितैः शत्रव इति खेटम् । (उशाटी पृ ६०५) जिसमें स्थित हो शत्रुओं को त्रसित भयभीत किया जाता है, वह खेट है। ४६६. खेत्त (क्षेत्र) क्षितो त्राणं क्षेत्र। (आवचू १ पृ ३७०) जो ग्राम को त्राण देता है, वह क्षेत्र/खेत है । क्षीयत इति क्षेत्रं ।' (उचू पृ २०६) जो अवकाश देता है, वह क्षेत्र है। क्षियन्ति--निवसन्त्यस्मिन्निति क्षेत्रम् । (उशाटी प १८८) जिसमें निवास किया जाता है, वह क्षेत्र है। १. क्षवणं क्षुत् । (अचि पृ १०६) २. क्षितः ग्रामः। (धातु पृ २५१) ३. 'क्षेत्र' के अन्य निरुक्त क्षयन्त्यत्र धान्यानि क्षेत्रम् । जहां धान्य उत्पन्न होता है, वह क्षेत्र है। क्षीयते-हलैहिस्यते वा क्षेत्रम् । (अचि पृ २१३) जो हलों द्वारा क्षुण्ण होता है, वह क्षेत्र है। ४. क्षि-निवासगत्यो। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ४६७. खेत्तचार (क्षेत्रचार) यस्मिन् क्षेत्रे चारः क्रियते यावद्वा क्षेत्रं चर्यते स क्षेत्रनारः। (आटी प २०२). जिस क्षेत्र में चार/गति की जाती है, वह क्षेत्रचार है । जितने क्षेत्र में चार/गति की जाती है, वह क्षेत्रचार है। ४६८. खेमंकर (क्षेमङ्कर) खेमं करोतीति खेमंकरः।। (सूचू २ पृ ४६३) जो क्षेम/उपद्रव का शमन करता है, वह क्षेमंकर है। ४६६. खेय (खेद) खेदयत्यनेन कर्मेति खेदः। (उशाटी प ४१६) जो कर्मसंस्कारों को खिन्न उत्पीडित करता है, वह खेद/ संयम है। ४७०. खेयण्ण (क्षेत्रज्ञ) खित्तं जाणाति खित्तण्णो। (आचू पृ ७६) जो क्षेत्र/आत्मा को जानता है, वह क्षेत्रज्ञ आत्मज्ञ है। ४७१. खेयन्न (खेदज्ञ) खेदः-अभ्यासस्तेन जानातीति खेदज्ञः। जो खेद/अभ्यास से आत्मा को जानता है, वह खेदज्ञ है। खेदः-श्रमः संसारपर्यटनजनितस्तं जानातीति । (आटी प १३१) जो खेद/जन्म-मरण के श्रम को जानता है, वह खेदज्ञ है। ४७२. खेल (क्ष्वेड/श्लेष्मन्) खे ललणाओ खेलो। (जीतभा ८१६) जो खे/शून्य में घूमता है, वह खेल श्लेष्म है। १. क्षेमं वशवतिनां उपद्रवाभावं करोति क्षेमंकरः । (राटी पृ २४) २. क्षीयन्ते क्लेशा अनेन क्षेमम् । (अचि पृ १६) __ जो क्लेशों को क्षीण करता है, वह क्षेम कल्याण है। ३. श्लिष्यति हृदयादौ श्लेष्मा। (अचि पृ १०६) जो श्लिष्ट होता है, वह श्लेष्म है । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश ६१ ४७३. गअ (गज) गच्छतीति गजः । (सूचू २ पृ ३५४) जो गमन करता है, वह गज/हाथी है । गजति गर्जते वा गजः। (सूचू २ पृ ४४४) जो गर्जना करता है, वह गज है। ४७४. गइ (गति) गम्यते-प्राप्यते स्वकर्म रज्जुसमाकृष्टैर्जन्तुभिरिति गतिः । __ (प्रसाटी प २६१) अपने कर्मों के द्वारा आकृष्ट हो प्राणी जिसे पाते हैं, वह गति है। ४७५. गंगा (गङ्गा) गाढगतो गच्छति वा गंगा । (सूचू १ पृ १४८) जो सघन रूप से निरन्तर प्रवाहित है, वह गंगा है। गां गच्छतीति गंगा। (उचू पृ २१४) जो स्वर्ग से गो/पृथ्वी की ओर लाई गई है, वह गंगा है। जो गा/स्तुति/शोभा को प्राप्त होती है, वह गंगा है। ४७६. गंठिभेयग (ग्रन्थिभेदक) ग्रन्थि – कार्षापणादिपुट्टलिकां भिन्दन्ति-आच्छिन्दन्तीति प्रन्थिभेदकाः। (औटी ४) जो ग्रंथि रुपयों की नौली का बलात् भेदन/हरण कर लेते हैं, वे ग्रंथिभेदक/चोर-विशेष हैं। १. 'गज' का अन्य निरुक्त-- गर्जतिः माद्यति गजः। (अचि पृ २७३) जो मदोन्मत्त होता है, वह गज है। २. 'गंगा' के अन्य निरुक्तगच्छति समुद्रं गङ्गा । गामगं वा गच्छतो ति गङ्गा । (अचि पृ २४०) - जो समुद्र की ओर गमन करती है, वह गंगा है। जो स्वर्गीय सुखों को प्राप्त करती है, वह गंगा है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ निरुक्त कोश ४७७. गंड (गण्ड) गच्छतीति गण्डम् । (उचू पृ १६१) जो आगे से आगे फैलता है, वह गण्ड/फोड़ा है। ४७८. गंडि (गण्डि) गच्छति प्रेरितः प्रतिपथादिना डीयते च कूर्दमानो विहायोगमनेनेति गण्डिः । (उशाटी प ४६) जो हांकने पर उल्टे मार्ग से जाता है और उछलता कूदता है, वह गंडि/दुष्ट बैल है। ४७९. गंडिपय (गण्डीपद) गण्डी पद्मकणिका तद्वद्वत्ततया पदानि येषां ते गण्डीपादाः । (उशाटी प ६६६) गण्डी/पद्मकणिका की तरह जिनके पांव वृत्ताकार हैं, वे गंडीपद हैं। ४८०. गंथ (ग्रन्थ) ग्रथनाति–बध्नात्यात्मानं कर्मणेति ग्रन्थः । (प्रसाटी प २१०) जो आत्मा को कर्म से बांधता है, वह ग्रंथ/परिग्रह है। ४८१. गंथ (ग्रन्थ) विप्रकीर्णार्थग्रन्थनाद् ग्रन्थः। (अनुद्वामटी प ३४) जो बिखरे हुए अर्थों को ग्रथित करता है, वह ग्रंथ है । ४८२. गंथमेधावि (ग्रन्थमेधाविन्) महंतं गंथं अहिज्जति सो गंथमेधावी। (दजिचू पृ २०३) जो महान् ग्रंथ का अध्ययन करता है, वह ग्रंथमेधावी है । ४८३. गंध (गन्ध) घ्रायते-सिध्यते इति गन्धः। (स्थाटी प २३) १. गच्छति विकारं गण्डम् । (अचि पृ १०७) जो विकृत होता जाता है, वह गण्ड/फोड़ा है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश गन्ध्यते आघ्रायते इति गन्धः । . (प्राकटी १ पृ ४८) __ जिसे सूंघा जाता है, वह गंध है। ४८४. गगण (गगन) अतिशयगमनविषयत्वाद् गगनम् ।' (भटी पृ १४३१) - जहां सब पदार्थ गमन करते हैं, वह गगन है । ४८५. गणटकर (गणार्थकर) गणस्य साधुसमुदायस्यार्थान्—प्रयोजनानि करोतीति गणार्थकरः । (स्थाटी प २३३) जो गण के अर्थ प्रयोजनों को पूर्ण करता है, वह गणार्थंकर है। ४८६. गणसोभि (गणशोभिन्) गणं वादप्रदानतः शोभयतीत्येवंशीलो गणशोभी। (व्यभा १० टी प ६७) जो गण को वादनिपुणता से सुशोभित करता है, वह गणशोभी है। ४८७. गणसोहिकर (गणशोधिकर) गणस्य यथायोगं प्रायश्चित्तदानादिना शोधि-शुद्धि करोतीति गणशोधिकरः। (स्थाटी प २३३) जो गण की शुद्धि करता है, वह गणशोधिकर है। ४८८. गणहर (गणधर) तित्थगरेहि सयमणुन्नातं गणं धारेंतिति गणहरा। (आवचू १ पृ८६) जो तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात गण को धारण करते हैं, वे गणधर हैं। १. 'गगन' का अन्य निरुक्तगच्छन्त्यनेन देवा गगनम । (अचि पृ ३७) जिसके द्वारा देवता गमन करते हैं, वह गगन/आकाश है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ निरुक्त कोश धर्मगणं धारयतीति गणधरः। (दटी प १०) __ जो धर्मगण को धारण करता है, वह गणधर है। ४८६. गणहारि (गणधारिन्) गणं-साध्वादिसमुदायलक्षणं धारयितुं शीलमस्येति गणधारी। (आवहाटी १ पृ १६०) जो गण/साधुसमुदाय को धारण करता है, वह गणधारी है । गुणसमुदयं वा धारयितुं शीलमस्येति गणधारी। (बृटी पृ ३७७) जो गुणसमूह को धारण करता है, वह गणधारी है। ४६०. गणिम (गणिम) जण्णं गणिज्जइ (गणिमं)। (अनुद्वा ३८२) गण्यते--सङ्ख्यायते वस्त्वनेनेति गणिमम् । जिसके द्वारा वस्तु की गणना की जाती है, वह गणिम है। गण्यते-सङ्ख्यायते यत्तद्गणिमम् । (अनुद्वामटी प १४२) जिसकी गणना की जाती है, वह गणिम है। ४६१. गमक (गमक) गम्यते अनेनार्थ इति गमकः ।' (सूचू १ पृ १२) जिसके द्वारा अर्थ को जाना जाता है, वह गमक/विकल्प ४६२. गमिय (गमिक) गमबहुलत्तणतो गमियं । (नंचू पृ ५६) जिसमें गमों/विकल्पों की बहुलता है, वह गमिक श्रुत है । १. गम्यते वस्तुस्वरूपमेभिरिति गमा-वस्तुपरिच्छेदप्रकाराः। (उशाटी प ३४२) २. आदि-मज्झ-वसाणे वा किंचिविसेसजुत्तं सुत्तं दुगादिसतग्गसो तमेव पढिज्जति तं गमियं भण्णति । (नंचू पृ ५६) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ 'निरुक्त कोश ४६३. गलि (गलि) गिलत्येव केवलं न तु वहति गच्छति वेति गलिः । (उशाटी प ४६) __ जो केवल खाता है, न भार ढोता है और न चलता है, वह गलि दुष्ट बैल है। ४६४. गव (गो) गच्छतीति गौः । (उचू पृ १५१) जो गति करती है, वह गौ/गाय है । ४६५. गाधा (गाथा) गायतीति गीयते वा गाधा । (सूचू १ पृ २४५) जो गाई जाती है, वह गाथा है । गीयते-शब्द्यते स्वपरसमयस्वरूपमस्यामिति गाथा। (उशाटी प ६१४) जिसमें स्वसिद्धान्त और परसिद्धांत का निरूपण किया जाता है, वह गाथा है। ४९६. गाम (ग्राम) असति बुद्धिमादिणो गुणा इति गामो। (दअचू पृ ९६) ___ जो बुद्धि आदि गुणों को ग्रसित करता है, वह ग्राम है। १. 'गौ' का अन्य निरुक्त गच्छत्यनेन गौः । (आप्टे पृ ६७१) जिससे घी, दूध, चमड़ा आदि सब कुछ प्राप्त होता है, वह गौ/गाय २. 'ग्राम' का अन्य निरुक्तप्रस्यते कुण्ठेरिति ग्रामः । (अिच पृ २१२) जहां अशिक्षित व्यक्ति वास करते हैं, वह ग्राम है। अट्ठारसण्हं करभराणं गंमो गमणिज्जो वा गामो । (आचू पृ २८१) जहां अठारह प्रकार के कर लगते हैं, वह ग्राम है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ निरुक्त कोश ४६७. गामंतिय (ग्रामान्तिक) ग्रामस्यान्ते- समीपे वसन्तीति ग्रामान्तिकाः। (सूटी २ प ५५) जो ग्राम के समीप रहते हैं, वे ग्रामान्तिक हैं। ४९. गाय (गात्र) ___ गच्छति गत इति वा गात्रम् ।' (उचू पृ ७६) जो परलोक में जाता है, गया है, वह गात्र/शरीर है। ४६९. गाह (ग्राह) गृह्णन्तीति ग्राहाः। (उशाटी प ६६६) जो ग्रहण करते हैं/पकड़ते हैं, वे ग्राह|मगरमच्छ हैं । ५००. गाहग (ग्राहक) ग्राहयतीति ग्राहकः। गृह्णातीति ग्राहकः। (व्यभा ४/२ टी प ७१) जो ग्रहण कराता है, वह ग्राहक है । जो ग्रहण करता है, वह ग्राहक है। ५०१. गिम्ह (ग्रीष्म) ग्रसत इति ग्रीष्मः । (उचू पृ ५७) ___जो (रसों का) शोषण करता है, वह ग्रीष्म है । ५०२. गिरा (गिर्) णिगिरंति तामिति गिरा। (दअचू पृ १५६) जो भाषावर्गणा के पुद्गलों का निगरण/भक्षण करती है, वह गिर वाणी है। गीयते गिरति गृणाति वा गिरा।' __(उचू पृ २०६) जो शब्द करती है, वह गिर्/भाषा है। १. गच्छति मरणात् परं स्वकारणभूतपञ्चत्वं प्राप्नोति यद्वा गम्यते स्थानात् स्थानान्तरं प्राप्यते सञ्चाल्यते वाऽनेन इति गात्रम् । (शब्द २ पृ ३२२) २. ग्रसते रसानिति ग्रीष्मः । (वा पृ २७७५) ३. गृ---शब्दे, विज्ञापने, निगरणे । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश ५०३. गिरि (गिरि) गृणाति गिरंति वा तस्मिन् गिरी। (उचू पृ २०८) जो गिरा/वाणी को प्रतिध्वनित करता है, वह गिरि/पर्वत गृणन्ति-शब्दायन्ते जननिवासभूतत्वेनेति गिरयः । (भटी प ३०६,७) पर्वत निवासी मनुष्यों के द्वारा जो शब्दायमान रहते हैं, वे गिरि पर्वत हैं। ५०४. गिह (गृह) गृह्णातीति गृहम् । (उचू पृ २१६) ___ जो ग्रहण करता है, वह गृह है । ५०५. गिहत्थ (गृहस्थ) गृहे गृहलिङ्ग तिष्ठतीति गृहस्थः। (व्यभा ४/२ टी ५ २६) जो घर में रहते हैं, वे गृहस्थ हैं। जो गृहस्थवेश में रहते हैं, वे गृहस्थ हैं। ५०६. गिहि (गृहिन्) गिहाणि संति जेसि ते गिहिणो । (दअचू पृ २५१) जिनके घर हैं, वे गृही/गृहस्थ हैं। गिहं-पुत्त-दारं, तं जस्स अत्थि सो गिही। (दअचू प २६६) जिसके गृह/पुत्र-पत्नी है, वह गृही है। धर्मार्थकामान् गृह्णातीति गृही। (उचू प १३८) __ जो धर्म, अर्थ और काम का ग्रहण/आसेवन करता है, वह .. गृही है। १. गृह्णाति पुरुषोपार्जितं द्रव्यमिति गृहम् । (अचि पृ २१६) जो पुरुष द्वारा उपाजित द्रव्य/धन को ग्रहण करता है, उसका व्यय करता है, वह गृह है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ५०७. गोई (गीती) गीएण होइ गीई। (वृभा ६६०) जिसने गीत/सूत्र का सम्यक् अध्ययन किया है, वह गीती/ सूत्रधर है। ५०८. गीयत्थ (गीतार्थ) गीएण य अत्थेण य गीयत्थो। (बृभा ६८६) जो गीत/सूत्र और अर्थ को धारण करता है, वह गीतार्थ बहुश्रुत है। गीतो-विज्ञातः कृत्याकृत्यलक्षणोऽर्थो यैस्ते गीतार्थाः । (प्रसाटी प २२४) जो गीत/कृत्य और अकृत्य को जानता है, वह गीतार्थ/ बहुश्रुत है। ५०६. गुण (गुण) गुण्यन्ते-संख्यायन्ते इति गुणाः। (अनुद्वामटी प १००) जिनसे व्यक्ति गणित/प्रसिद्ध व्यक्तियों में गिना जाता है, वे गुण हैं। ५१०. गुण (गुण) गुण्यते-भिद्यते विशिष्यतेऽनेन द्रव्यमिति गुणः। (आटी प ६८) जिसके द्वारा द्रव्य में गुणवत्ता/विशेषता आपादित होती है, वह गुण है। । ५११. गुणासाअ (गुणास्वाद) गुणे सादयति गुणासाता। (आचू पृ १७६) जो गुणों/इन्द्रिय-विषयों का आस्वाद लेता है, वह गुणास्वाद है। १. गीतेन–सूत्रेण केवलेन सम्यक्पठितेन गीतमस्यास्तीति गीती भवति । (बृटी पृ २०७) २. गीतेन-सूत्रेण चार्थेन च यो युक्तः स गीतार्थो भण्यते। (बृटी पृ २०७) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ५१२. गुम्मिय (गौल्मिक) गुल्मेन समुदायेन संचरन्तीति गौल्मिकाः। (व्याभा ३ टी प ६७) जो गुल्म/समूह रूप में भ्रमण करते हैं, वे गौल्मिक/नगररक्षक हैं। ५१३. गुरु (गुरु) गृणंति शास्त्रार्थमिति गुरवः। (उचू पृ २) जो शास्त्रों के अर्थ का कथन करते हैं, वे गुरु हैं। गीर्यते वा गुरुः। __(उचू पृ १६१) जिसकी स्तुति की जाती है, वह गुरु है । ५१४. गुरुपरिभासय (गुरुपरिभाषक) ____ गुरून् परिभाषते-विवदते गुरुपरिभाषकः। (उशाटी प ४३४) ____ जो गुरु से परिभाष/विवाद करता है, वह गुरुपरिभाषक है । ५१५. गेय (गेय) ___ गेयं णाम यद् गीयते सरसंचारेण । (सूचू १ पृ ४) जो स्वर-संचार के द्वारा गाया जाता है, वह गेय है । ५१६. गेविज्ज (अवेयक) ग्रोवेव ग्रीवा लोकपुरुषस्य त्रयोदशरज्जूपरिवर्तीप्रदेशस्तस्मिन्निविष्टतयाऽतिभ्राजिष्णुतया च तदाभरणभूता नैवेयाः ।। (उशाटी प ७०२) जो लोकपुरुष में ग्रीवा स्थानीय हैं तथा अत्यन्त दीप्त होने से आभूषण की भांति शोभित हैं, वे ग्रैवेय/देवों के आवास हैं। १. 'गुरु' का अन्य निरुक्त गिरत्यज्ञानं गुरुः । (वा पृ २६१३) __जो अज्ञान का नाश करता है, वह गुरु है । (गृ-गिरणे, शब्दे) २. लोकपुरुषस्य ग्रीवाप्रदेशविनिविष्टा ग्रीवाभरणभूता अवेयकाः । (अचि पृ १६) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० निरुक्त कोश ५१७. गेहि (गृद्धि) गृयतेऽनेनेति गृद्धिः। (उचू पृ १५१) जिससे प्राणी आसक्त होता है, वह गृद्धि है । ५१८. गो (गो) णिसिरिया लोगंतं गच्छतीति गो। (दअचू पृ १५६) बोली जाने पर जो लोकान्त तक जाती है, वह गो/वाणी ५१६. गोत्त (गोत्र) गूयते इति गोत्रम् । (उचू पृ १०२) __ जो प्राणियों की शुभता-अशुभता प्रकट करता है, वह गोत्र गीयते-शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैः आत्मेति गोत्रम् । (उशाटी प ६४१) जिसके द्वारा प्राणी उच्चावचरूप में पुकारा जाता है, वह गोत्र है। गां वाचं त्रायतीति गोत्रम् । (प्राक १ टी प ५) जो गो/वाणी की रक्षा करता है, वह गोत्र है। ५२०. गोपुर (गोपुर) गोभिः पूर्यत इति गोपुरम् । (उचू पृ १८२) जो नगर-द्वार गो/प्रभा से परिपूर्ण होता है, वह गोपुर है । जो नगर-द्वार अपनी कलात्मकता के कारण गो/जननेत्रों से परिपूर्ण होता है, वह गोपुर है। १. गूयते शुभाशुभता प्राणिनां यद्वशात्तद्वा गोत्रम् । (पंसंमटी प १०७) गूङ---शब्दे । २. 'गोपुर' के अन्य निरुक्त-- १. गोप्यते गोपुरम् । (अचि पृ २१७) जो नगर की रक्षा करता है, वह गोपुर/नगर-द्वार है । २. गोपायति नगरं रक्षतीति गोपुरम् । (शब्द २ पृ ३५६) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १०१ जो नगर-द्वार गो/रत्नों से परिपूरित/मंडित होता है, वह गोपुर है। जो नगर-द्वार गो/शोभा से परिपूर्ण है, वह गोपुर है । ५२१. गोय (गोत्र) गुप्यत इति गोत्रं । (सूचू १ पृ २३४) जो रक्षा करता है, वह गोत्र/संयम है। गां त्रायत इति गोत्रम् । (सूटी २ प १६८) जो गो/पृथ्वी/प्राणीजगत् को त्राण देता है, वह गोत्र/संयम ५२२. गोयर (गोचर) गोरिव मध्यस्थतया भिक्षार्थ चरणम् गोचरः।' (बृटी पृ १६६७) - गौ की भांति मध्यस्थभाव से भिक्षा के लिए चार/गमन करना गोचर है। ५२३. गोरहग (दे) गोजोग्गा रहा गोरहजोगत्तणेण गच्छंति गोरहगा। ___ (दअचू पृ १७०) ___ जो रथ में जुतने योग्य हैं, वे गोरहग/बैल हैं। ५२४. घड (घट) घटनाद् घटः। (सूटी २ प १८८) घटते-चेष्टते इति घटः। (स्थाटी प १४६) जो घटित/कार्यकर होता है, वह घट है। जो क्रियाशील होता है, वह घट है। ५२५. घय (घृत) जत्ति घरत्ति वा घतं ।' (उचू पृ ६६) __ जो सिञ्चन करता है, वह घृत है । १. गौरिव परिचितेतरभूभागपरिभावनारहितत्वेन चरणं भ्रमणमस्मिन्निति गोचरः। (उशाटी प ४६२) २. घृ-सेचने । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ निरुक्त कोश ५२६. घसी (दे) गसति सुहुमसरीरजीवविसेसा इति घसी। (दअचू पृ १५६) जहां सूक्ष्म जीव ग्रसित/एकत्रित रहते हैं, वह घसी/पोली भूमि है। ५२७. घाइ (घाति) स्वावार्य गुणं ध्नन्ति इत्येवंशीलाः घातिन्यः । (नक ५ टी पृ २) जो आत्मगुणों का घात करते हैं, वे घाति (कर्म) हैं । ५२८. घास (ग्रास) ग्रस्यत' इति ग्रासः। (उचू पृ७५) जिसको चबाया जाता है, वह ग्रास/भोजन है.। ५२६. घासेसणा (ग्रासैषणा) घासं एसंतीति घासेसणा। (आचू पृ ३२३) जिसमें ग्रास/भक्षण-क्रिया का विवेक किया जाता है, वह ग्रासैषणा है। ५३०. घोर (घोर) घूर्णत' इति घोरः। (उचू पृ ११६) जो प्रकंपित करता है, वह घोर भयावह है । जो घूर क्रूर है, वह घोर/निर्दय है । ५३१. घोरमुहुत्त (घोरमुहूर्त) घूर्णत इति घोरः। (उचू पृ ११६) जो घोर/गतिशील है, वह मुहूर्त काल है। १. प्रस-अदने। २. Ghorah horrible (Nepali-ghurnu) (ए पृ ३६२) ३. घर---हिंसायाम् । घुर-भीमार्थशब्दयोः । हन्—हिंसागत्योः । ४. घूर्णत्-भ्रमणे । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ निरुक्त कोश ५३२. चउत्थ (चतुर्थ) चत्वारि भक्तानि यत्र त्यज्यन्ते तच्चतुर्थ (भक्तम्) । (ज्ञाटी प ७६) जिसमें चार समय का आहार छोड़ा जाता है, वह चतुर्थ भक्त/उपवास है। ५३३. चंडाल (चण्डाल) चंडेन अलं यस्य भवति चंडालः । __ जो चंड/क्रोध से परिपूर्ण है, वह चण्डाल/क्रोधी है । चंडेन वा आगलितः चंडालः । (उचू प २९) जो चंड/क्रोध से उद्विग्न है, वह चण्डाल/क्रोधी है । ५३४. चक्कवट्टि (चक्रवतिन्) चक्रेण वर्तयति पालयतीति चक्रवर्ती ।' (अनुद्वामटी प १५८) जो चक्र के द्वारा राज्य का संचालन करता है, प्रजा का पालन करता है, वह चक्रवर्ती है। ५३५. चक्किय (चाक्रिक) चक्र प्रहरणमेषामिति चाक्रिकाः। चक्र जिनका शस्त्र है, वे चाक्रिक योद्धा हैं । १. चण्डमुग्रं कर्म अलति पर्याप्नोति चण्डालः। (अचि पृ १६८) २. 'चक्रवर्ती' के अन्य निरुक्त नृपाणां चक्रे समूहे वर्तते स्वाम्यनेनेति चक्रवर्ती । जो राजाओं के चक्र समूह में स्वामी होता है, वह चक्रवर्ती है । चक्रं राष्ट्र वर्तयतीति वा । (अचि पृ १५४) जो राष्ट्र का पालन करता है, वह चक्रवर्ती है । चक्रे भूमण्डले वर्तित, चक्रं सैन्यचक्रं वा सर्वभूमौ वर्तयित शीलमस्य चक्रवर्ती । (वा पृ २८३६) जो (छह खण्ड) पृथ्वी पर शासन करता है, वह चक्रवर्ती है। जिसकी सेना सम्पूर्ण पृथ्वी पर फैल जाती है, वह चक्रवर्ती है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ निरुक्त कोश चक्रं वास्ति येषां ते चाक्रिकाः। चक्र के द्वारा जो आजीविका प्राप्त करते हैं, वे चाक्रिक/ कुंभकार, तैली आदि हैं। चक्रं वोपदर्थ्य याचन्ते ये ते चाक्रिकाः। (ज्ञाटी प ६४) जो चक्र दिखाकर याचना करते हैं वे चाक्रिक/भिखारी हैं। ५३६. चक्खु (चक्षुष्) चक्ष्यतेऽनेनेति चक्षुः। (आवचू १ पृ ५३०) जो देखती है, वह चक्षु (इन्द्रिय) है। ५३७. चरक (चरक) तवं चरइ त्ति चरको। (दअचू पृ ३७) जो तप का आचरण करता है, वह चरक श्रमण है। ५३८. चरण (चरण) चर्यत इति चरणम् । (सूटी २ प ४१) जिसका आचरण किया जाता है, वह चरण चारित्र है। चर्यते – गम्यते-प्राप्यतेऽनेन संसारोदधेः परं कूलमिति चरणम् । i(विभाकोटी पृ ३) जिसके द्वारा संसार-समुद्र का पार पाया जाता है, वह चरण चारित्र है। . चरन्ति - परमपदं गच्छन्ति जीवा अनेनेति चरणम् । (नक १ टी पृ ३०) जिससे जीव परमपद/मोक्ष को प्राप्त करते हैं, वह चरण/ ____ चारित्र है। १. चश्-दर्शने । २. 'चक्षु' का अन्य निरुक्त चष्टे शुभाशुभं स्फुरणाच्चक्षुः । (अचि पृ १३०) जिसके स्फुरण/स्पन्दन से शुभ-अशुभ का निर्देश किया जाता है, वह । चक्षु है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १०५ ५३६. चरणकरणपारविअ (चरणकरणपारविद्) चरंति तदिति चरणं व्रताभ्युपगम, कुर्वन्ति तदिति करणं पडिलेहणादि पारमन्तगमन मित्येकोऽर्थः, चरणकरणपारं विदंतीति चरणकरणपारविदु । (सूचू २ पृ ३३५) व्रतों को स्वीकार करना 'चरण' है, प्रतिलेखन आदि दैनिक क्रियाएं करना 'करण' है। जो इन दोनों के पार/अंतिम बिन्दु को जान लेते हैं, स्पर्श कर लेते हैं, वे चरणकरणपारविद् हैं। ५४०. चरित्त (चरित्र) चर्यते-आसेव्यते यत् तेन वा चर्यते—गम्यते मोक्ष इति चरित्रम् । (स्थाटी प ४६) जिसका चरण आसेवन किया जाता है, वह चरित्र है। जिससे मोक्ष प्राप्त किया जाता है, वह चरित्र है। चरन्ति-गच्छन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रम् । (आवमटी प ११७) जिसके द्वारा चरण अनिंद्य-आचरण किया जाता है, वह चरित्र है। ५४१. चरिया (चर्या) चरणं चर्यते वा चर्या । (आटी प २०१) जिसका आचरण किया जाता है, वह चर्या है। ५४२. चल (चल) चलति चालयति वा चलो। (आचू पृ २४१) जो विचलित होता है, वह चल है। जो विचलित करता है, वह चल है । ५४३. चाउरंत (चातुरन्त) चत्वारः चतुर्गतिलक्षणा अन्ताः अवयवाः यस्मिस्तच्चातुरन्तम् । (उशाटी प ५८५) जिसके चार गतिरूप अन्त/अवयव हैं, वह चातुरंत/संसार है। १. चरन्ति तस्मि, सोलेसु परिपूरकारिताय पवत्तन्ती ति चारित्तं । (वि १/२५) Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ५४४. चाउरंत (चातुरन्त) चत्वारोऽन्ताः पूर्वापरदक्षिणसमुद्रास्त्रयः चतुर्थो हिमवान् इत्येवं स्वरूपास्ते वश्यतयास्य सन्तीति चातुरन्तः। (जंटी प १८१) जिसके पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशाओं के समुद्र और हिमवान् पर्वत-ये चारों वश में हैं, वह चातुरन्त/चक्रवर्ती ५४५. चारक (चारक) चारयतीति चारकः । (सू चू १ पृ ५२) जो गुप्तचरी करता है, वह चारक गुप्तचर है । ५४६. चारित्त (चारित्र) चियस्स कम्मचयस्स रित्तीकरणं चारित्तं ।' (निचू १ पृ २५) जो संचित कर्मचय को रिक्त करता है, वह चारित्र है । ५४७. चालणा (चालना) सूत्रगोचरमर्थगोचरं वा दूषणं चाल्यते-आक्षिप्यते यया वचनपद्धत्या सा चालना। (बृटी पृ २५८) जिस वचन-पद्धति से सूत्र या अर्थविषयक गुण-दोषों का चालन/विमर्श किया जाता है, वह चालना/व्याख्या-पद्धति है । ५४८. चिइ (चिति) चीयन्ते--मृतकदहनाय इन्धनानि अस्यामिति चितिः।' (उशाटी प ३८६) मृतक को जलाने के लिए जहां लकड़ियों का उपचय किया जाता है, वह चिति/चिता है। १. स्वपरराष्ट्रवृत्तान्तज्ञानार्थ राजनियोगेन इतस्ततो भ्रमणकर्तरि चारे । (वा पृ २८६८) जो राजाज्ञा से स्वराष्ट्र और परराष्ट्र की प्रवृत्तियों को जानने के लिए इधर-उधर गमन करता है, वह चारक/गुप्तचर २. चितस्य कर्मणो रिक्तीकरणात् चारित्रम् । (प्राक १ टी पृ १६) ३. चीयतेऽस्यामग्निरिति चितिः । (शब्द २ पृ ४४७) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १०७ ५४६. चिइ (चिति) चीयते असाविति चितिः । (आवहाटी २ पृ १४) जिसका उपचय किया जाता है, वह चिति है। " ५५०. चिंध (चिह्न) चिह्नते-ज्ञायतेऽनेनेति चिह्नम् । (सूटी १५ १०२) जिसके द्वारा जाना जाता है, वह चिन्ह है। ५५१. चिक्खल्ल (दे) चिच्चं करोति खल्लं च भवति चिक्खल्लं। (अनुद्वा ३६८) जो फिसलाता है और लिप्त कर देता है, वह चिक्खल/ कर्दम है। जो 'चिक् चिक् चग् चग्' शब्द करता है, वह चिक्खल है। ५५२. चितका (चितका) चीयन्ते इति चितकाः । (सूचू १ पृ १३७) जिसको चिना जाता है, वह चितका/चिता है । ५५३. चित्त (चित्त) चितिज्जइ जेण तं चित्तं । (नंचू पृ ५) जिससे स्मरण किया जाता है, वह चित्त है ।। चित्यते यैस्तानि चित्तानि । (नंटी पृ ८) जिनके द्वारा संज्ञान किया जाता है, वे चित्त हैं। १. चीयते श्मशानाग्निरस्यां यद्वा चीयते उच्चीयतेऽसौ प्रेतस्य परलोक शर्मगे इति चिता। (शब्द २ पृ ४४७) २. चित्-स्मृतौ, चित्-ज्ञाने। ३. 'चित्त' के अन्य निरुक्तचित्तेति आरम्भणं उपनिज्झायति ति चित्तं । __ जो आलम्बन को ग्रहण करता है, वह चित्त है। सन्तानं चिनोतीति पि चित्तं । (विटी पृ १६) जो व्यक्तित्व को पुष्ट करता है, वह चित्त है। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ निरुक्त कोश ५५४. चित्ताणुग (चित्तानुग) चित्तं अणुगच्छंतीति चित्ताणुगा। (उचू पृ ३०) जो चित्त के अनुकूल प्रवृत्ति करते हैं, वे चित्तानुग हैं । ५५५. चिरद्वितीय (चिरस्थितिक) चिरं तेसु चिट्ठतीति चिरद्वितीय। (सूचू १ पृ १२८) जहां चिर लंबे समय तक रहना होता है, वह चिरस्थितिक (नरक) है। ५५६. चीर (चीर) चित्तंति तदिति चीरं'।' (उचू पृ १३८) जो ढांकता है, वह चीर/वल्कल है । ५५७. चेइय (चैत्य) चीयत इति चेइयं । चित्तंति वा । ततः चेतनाभावो वा जायते चेतियं । (उचू पृ १८१) जो चिति/वेदिका से युक्त होता है, वह चैत्य चैत्यवृक्ष है। जो चेतन प्राणियों (पशु-पक्षियों) से आकीर्ण होता है, वह चैत्य/चैत्यवृक्ष है। ५५८. चेइयथूभ (चैत्यस्तूप) चैत्यस्य सिद्धायतनस्य प्रत्यासन्नाः स्तूपाः चैत्यस्तूपाः । चित्तालादकत्वात् वा चैत्याः स्तूपाः चैत्यस्तूपाः । (स्थाटी प २२५) चैत्य सिद्धायतन के निकटवर्ती स्तूप चैत्यस्तूप कहलाते हैं । जो चित्त में आह्लाद पैदा करते हैं, वे चैत्यस्तूप हैं । १. चिनोति आवृणोति वृक्षं कटि देशादिकं वा चीरम् । (शब्द २ पृ ४५४) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ५५६. चेल (चेल ) चिज्जतीति चेलं ।' ( आचू पृ २१७ ) जिसमें (तन्तुओं का ) उपचय होता है, वह चेल / वस्त्र है । ५६०. छउम (छद्म ) छादयति छद्म ।' ५६१. छउमत्थ (छद्मस्थ ) जो आच्छादित करता है, वह छद्म / कर्म है । छद्मनि तिष्ठन्तीति छद्मस्थाः । हैं । ५६२ . छंदोणुवत्ति (छन्दोनुवर्तिन् ) जो आवरण में अवस्थित हैं, वे छंदो -- गुरूणामभिप्रायस्तमनुवर्तते – आराधयतीत्येवंशीलः छंदोनुवर्ती । है । ५६३. छत्त (छत्र ) छादयतीति छत्रम् । ( आवहाटी १ पृ ६० ) ५६४. छवि (छवि) जो छंद / अभिप्राय का अनुवर्तन करता है, वह छंदोनुवर्ती छ्यति छिद्यते वा छविः । ( आवहाटी १ पृ ० ) छद्मस्थ / अवीतराग जो आच्छादित करता है, वह छत्र है । 'चेल' का अन्य निरुक्त चिल्यते, चलति वा चेलम् । (अचि पृ १४६ ) जो पहना जाता है, वह चेल / वस्त्र है | ( चिल् - वसने ) २. छादर्यात ज्ञानादिगुणमात्मन इति छद्म । १०६. ( व्यभा १ टी प ३१ ) जिसे उधेड़ा जाता है, वह छवि / त्वचा है । ( आटी प ४०२ ) ( उच्च पृ ५६ ) (प्राक ४ टीपू ३२) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० निरुक्त कोश ५६५. छाया (छाया) छयति छिनत्ति वाऽऽतपमिति छाया। (उशाटी प ३८) जो आतप को छिन्न/नष्ट करती है, वह छाया है। ५६६. छिड्ड (छिद्र) छिदः छेदनस्यास्तित्वाच्छिद्रम्। (भटी पृ १४३१) जिसका अस्तित्व छिद्रमय है, वह छिद्र आकाश है। ५६७. छिद्दप्पेहि (छिद्रप्रेक्षिन्) छिद्राणि प्रमत्ततादीनि प्रेक्षत इति छिद्रप्रेक्षी। (स्थाटी प २६०) जो छिद्र/दोषों की प्रेक्षा करता है, वह छिद्रप्रेक्षी है । ५६८. छेवट्ट (सेवार्त) अस्थिद्वयपर्यन्तस्पर्शनलक्षणां सेवामा सेवामागतमिति सेवार्तम् । (स्थाटी प ३४३) ___जो दो हड्डियों के अन्त का स्पर्श करता है, वह 'सेवा' है । जो उस रूप में आर्त है/प्रतिबद्ध है, वह सेवार्त (संहनन) ५६९. छेवट्टि (छेदवति) यत्रास्थीनि परस्परं छेदेन वर्तन्ते न कोलिकामात्रेणापि बन्धस्तत् छेदवति । (जीटी प १५) __ जहां अस्थियों में परस्पर जुड़ने के लिए छिद्र होता हैं, कीलिका नहीं, वह छेदवति (संहनन) है । ५७०. जइ (यति) जतमाणतो जती।' (दअचू पृ २३३) १. 'यति' के अन्य निरुक्तयतते मोक्षायेतिस्य यतिः । जो मोक्ष के लिए प्रयत्न करता है, वह यति है। यतं यमनमस्त्यस्य यती। (अचि पृ १४) जो यमित/संयमित है, वह यति/मुनि है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश १११ यतते सर्वात्मना संयमानुष्ठानेष्विति यतिः। (बृटी पृ ६३) जो संयम-अनुष्ठान में यत/प्रयत्नशील है, वह यति/मुनि है । ५७१. जंतु (जन्तु) जायंतीति जंतवो। (आचू पृ २०५) जननाज्जन्तुः। (भटी पृ १४३२) जो जन्म लेते हैं, वे जंतु हैं। ५७२. जंबूदीवपण्णत्ति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) जम्ब्वा-सुदर्शनापरनाम्न्याऽनादृतदेवावासभूतयोपलक्षितो द्वीपो जंबूद्वीपस्तस्य प्रकर्षेण-निःशेषकुतीथिकसार्थागम्य यथावस्थितस्वरूप निरूपणलक्षणेन ज्ञप्तिः-ज्ञापनं यस्यां ग्रंथपद्धतौ, ज्ञप्तिर्ज्ञानं वा यस्याः सकाशात् सा जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिः । जम्बू सुदर्शन नाम के देवता से अधिष्ठित द्वीप जम्बूद्वीप है। उस द्वीप के अन्तहित मत-मतान्तरों की सम्यक् ज्ञप्ति/अवगति देने वाला ग्रंथ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति है। जंबूद्वीपं प्रान्ति-पूरयन्ति स्वस्थित्येति जंबूद्वीपप्राः जगतीवर्षवर्षधराद्यास्तेषां ज्ञप्तिर्येषां सकाशात् सा जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिः । (जंटी प ४) जंबूद्वीप जगती, क्षेत्र और सीमांतक पर्वतों के द्वारा परिपूर्ण है। उन सबकी ज्ञप्ति ज्ञान जिस ग्रंथ से होता है, वह जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति है। ५७३. जक्ख (यक्ष) यांति क्षयमिति यक्खा। (उचू पृ १००) जो क्षय/निवास स्थान को शीघ्र बदल लेते हैं, वे यक्ष हैं। यान्ति वा तथाविद्धिसमुदयेऽपि क्षयमिति यक्षाः । जो विशिष्ट ऋद्धि के होने पर भी क्षय/मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे यक्ष हैं। 8. Swift creatures, changing their abode quickly and at will. (पा पृ ५४५) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ इज्यन्ते पूज्यन्ते इति यक्षाः । जिनकी पूजा की जाती है, वे यक्ष हैं । ५७४. जग (जग) ५७५. जग ( जगत् ) जायत इति जगत् । ' जगति विद्यन्ते ये, जायन्त इति वा जगाः । जो जगत् में विद्यमान हैं, वे जग / जन्तु हैं । जो उत्पन्न होते हैं, वे जग / जंतु हैं । जो उत्पन्न होता है, वह जगत् है । ५७६. जगसव्वसि (जगसर्वदर्शिन् ) जगे सव्वं पस्सतीति जगसव्वदंसी । ५७७० जडा (जटा ) जायत इति जडा । ५७८. जण (जन ) निरुक्त कोश " ( उशाटी प १८७ ) जो जगत् में सब कुछ देखता है, वह जगसर्वदर्शी है । १. ' जगत्' का अन्य निरुक्त गच्छतीत्येवंशीलं जगत् । (अचि पृ ३०६ ) जो निरंतर गतिशील है, वह जगत् है । ( सू १ पृ २०३ ) (उच्च् पृ १३८) जो तपस्वी के या तपस्या में उत्पन्न होती है, वह जटा है । ( सूचू १ पृ १४६ ) ( सूच १ पृ ६८ ) जति जाइस्संति य जाणंति वा कम्माणि जणा । ( आचू पृ २३२) जो कर्म - संस्कारों को उत्पन्न करते हैं, करेंगे, वे जन हैं । जो कर्म - संस्कारों को जानते हैं, वे जन हैं । २. (क) जायते तपसि जटा । (अचि पृ १८१ ) (ख) 'जटा' का अन्य निरुक्त जटति परस्परं संलग्ना भवतीति जटा । ( शब्द २ पृ ५०३ ) परस्पर उलझे हुए केशों की संहति को जटा कहते हैं । ( जट् - संहतौ ) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ निरुक्त कोश ५७६. जणणी (जननी) जनयति-प्रादुर्भावयत्यपत्यमिति जननी। (उशाटी प ३८) जो सन्तान को उत्पन्न करती है, वह जननी है। ५८०. जणवयपाल (जनपदपाल) जनपदं पालयतीति जनपदपालः। (राटी पृ २४) जो जनपद का पालन करता है, वह जनपदपाल है । ५८१. जन्न (यज्ञ) . जयंते यजंति वा तमिति यज्ञः।' (उचू पृ २११) जिससे (देवों को प्रसन्न किया जाता है, वह यज्ञ है। जिसमें (देवता की) पूजा की जाती है, वह यज्ञ है। ५८२. जय (जगत्) अतिशयगमनाज्जगत् । (भटी पृ १४३२) जो निरन्तर गति करता है, वह जगत्/जीव है । ५८३. जरा (जरा) णरा जिज्जति जेण सा जरा। (आचू पृ १०७) जिससे मनुष्य जीर्ण होता है, वह जरा/बुढापा है। ५८४. जराउय (जरायुज) जराउवेढिता जायंति जराउजा। (दअचू पृ ७७) जो जरा/झिल्ली से वेष्टित होकर जन्मते हैं, वे जरायुज ५८५. जलण (ज्वलन) जलतीति जलणो। (अनुद्वा ३२०) जो जलता है, वह ज्वलन/अग्नि है। ५८६. जलयर (जलचर) जले चरन्ति-भक्षयन्ति चेति जलचराः। (उशाटी प ६६८) जले चरन्ति-पर्यटन्तीति जलचराः। (प्रसाटी प २८६) जो जल-जीवों का भक्षण करते हैं, वे जलचर हैं। जो जल में पर्यटन करते हैं, वे जलचर हैं। १. इज्यते यज्ञः। (अचि पृ १८२) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ५८७. जल्ल (दे) जायते लीयते वा जल्लं । (उचू पृ ८०) जो उत्पन्न होता है, चिपकता है, वह जल्ल/ मैल है । ५८८. जवणाली (यवनाली जीए णालीए जवा वाविज्जति सा जवणाली। (आवचू १ पृ ५६ जिस नलिका के द्वारा यव जौ बोए जाते हैं, वह यवनालिका है। ५८६. जस (यशस्) · अश्नुते सर्वलोकेष्विति यशः । (उचू पृ १६७) जो सारे लोक में व्याप्त होता है, वह यश है। ५६० जहक्खाय (यथाख्यात) अहसदो जाहत्ये आङोऽभिविहीए कहियमक्खायं । चरणमकसायमुदितं तमहक्खायं जहक्खायं ॥ (विभा १२७६) यथातथ्येन अभिविधिना वा यत् ख्यातं-कथितं अकषायचारित्रमिति तत् अथाख्यातम् । जो यथार्थ में अकषायचारित्र आख्यात/कथित है, वह यथाख्यात (चारित्र) है। सर्वस्मिन् जीवलोके ख्यातं-प्रसिद्धमकषायं भवति चारित्रमिति तथैव यत्तत् यथाख्यातम् । (प्रसाटी प २६२) जो सारे लोक मे अकषायचारित्र के रूप में ख्यात/प्रसिद्ध है, वह यथाख्यात है। ५६१. जायतेय (जाततेज) तेजेण सह जायति जायतेनो। जो तेज के साथ प्रादुर्भूत होता है, वह जाततेज/अग्नि है । जायमाणस्स वा तेजः जाततेजो। (दश्रुचू पृ ७४) जो प्रादुर्भूत होने पर तेजस्वी होता है, वह जाततेज/ अग्नि है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश ११५ ५६२. जावय (यापक) यापयतीति यापकः। (दटी प ५७) जिस बहाने समय का यापन किया जाता है, वह यापक/ हेतु है। ५६३. जावसिय (यावसिक) यवसः तत्प्रायोग्यमुद्गमाषादिरूपआहारस्तेन तद्वहनेन चरन्तीति यावसिकाः। (बृटी पृ ४६५) जो मूंग, उड़द आदि के भोजन से जीवन चलाते हैं, वे यावसिक हैं। ५६४. जिण (जिन) रागद्वेषमोहान् जयन्तीति जिनाः। (स्थाटी प १६८) जो राग, द्वेष और मोह को जीतते हैं, वे जिन हैं। ५६५. जीव (जीव) जीवत्तं आउयं च कम्मं उवजीवितं तम्हा जीवे। (भ २/१५) , ____ जो जीवत्व और आयुष्य कर्म का भोग करता है, वह जीव है। जीवइ जीविस्सइ य जिवं ति होइ जिओ। (जीतभा ७०४) जो जीता है, जीएगा, वह जीव है। जीवान् धारयतीति जीवः । (भटी पृ १३३३) जो प्राणों को धारण करता है, वह जीव है । ५६६. जीवित (जीवित) जीविज्जइ जेणं तं जीवितं । (आचू पृ ६६) जिससे प्राणधारण किया जाता है, वह जीवित/जीवन है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ निरुक्त कोश ५६७. जीहा (जिह्वा) जायते जयति जिनति वा जिह्वा ((उचू पृ २०६) जो जन्म के साथ उत्पन्न होती है, वह जिह्वा है । ___ जो सब इन्द्रियों को जीतती है, वश में करती है, वह जिह्वा है। ५६८. जुवाण (युवन्) यौवनस्थोऽहमित्यात्मानं मन्यते यः भवति जुवाणो।' (अनुद्वाचू पृ ५६) जो अपने आपको यौवन में अवस्थित मानता है, वह युवक युवा-यौवनस्थः प्राप्तवया एष इत्येवम् अणति-व्यपदिशति लोको यमसौ निरुक्तिवशात् युवानः। (अनुद्वामटी प १६२) 'यह युवा है'--इस रूप में लोग जिसका व्यपदेश करते हैं, वह युवक है। ५६६. जूव (यूप) युवंति तेनात्मनः यूपा। (उचू पृ २११) जिससे पशुओं को बांधा जाता है, वह यूप/यज्ञ-स्तम्भ है। १. जिब्भिन्दिउ नायगु वसि करहु जसु अधिन्नई अन्नइं । (प्रा पृ ५६९) २. 'जिह्वा' के अन्य निरुक्त जिह्वा कोकुवा । कोकूयमाना वर्णान्नुदतीति वा जिह्वा । (नि ५/२६) __जो पुन: पुनः पुकारती है, वह जिह्वा है । लेढि रसान् जिह्वा । (अचि पृ १३२) जो रसों का आस्वाद लेती है, वह जिह्वा है। (लिहेजिह चउणा ५१३) ३. 'युवा' का अन्य निरुक्तयौति मिश्रीभवति स्त्रिया युवा। (अचि पृ ७६) जो स्त्री के साथ युक्त होता है, वह युवा है । ४. यूयते पशुरनेन यूपः । (अचि पृ १८३) यु-बन्धे । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ६००. जोइ (ज्योतिस्) ज्योतयतीति ज्योतिः। (सूचू १ पृ २११) जो प्रकाशित करती है, वह ज्योति है। ६०१. जोइ (ज्योतिस्) द्योतयन्ति-प्रकाशयन्ति जगदिति ज्योतींषि । (प्रसाटी प ३३३) जो जगत् को ज्योतित/प्रकाशित करते हैं, वे ज्योति/ विमान हैं। ६०२. जोइ (द्योति) धु तते द्योतिः। (उचू पृ २१०) जो द्योतित/प्रकाशित होती है, वह द्योति/अग्नि है । ६०३. जोइसिअ (ज्योतिष्क) जोतकरा ज्योतिष्का। (सूचू २ पृ ३६७) जो उद्योत करते हैं, वे ज्योतिष्क देव हैं। ६०४. जोग (योग) जं जीवे जुजयती पेरयति वा ततो जोगा। (जीतभा ७३२) जो जीव द्वारा प्रयुक्त हैं, वे योग/प्रवृत्तियां हैं। जो जीव को प्रेरित करते हैं, वे योग हैं । युज्यत इति योगः। __ (आवचू १ पृ. ६०६) जो जोड़ता है, वह योग है। ६०५. जोगव (योगवत्) योगो नाम संयम एव, योगो यस्यास्तीति स भवति योगवान् । (सूचू १ पृ ५४) जो योग/संयम-संपन्न है, वह योगवान् है। योगः-समाधिः सोऽस्यास्तीति योगवान् । (उशाटी १ ३४३) ___ जो योग/समाधि-संपन्न है, वह योगवान् है। १. युज्यते-धावनवल्गनादिक्रियासु व्यापार्यत इति योगः। (नक १ टी पृ ११३) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ६०६. जोगवाहि ( योगवाहिन) श्रुतोपधान कारितया योगेन वा समाधिना सर्वत्रानुत्सुकत्वलक्षणेन वहतीत्येवंशीलो योगवाही । ( स्थाटी प ४९१ ) जो योग / तपोयोग और समाधियोग से जीवनयापन करता है, वह योगवाही है । ६०७. जोणि (योनि) जणीति जोणिः । जो पैदा करती है, वह योनि है । यौति - मिश्रीभवति असुमान् यासु ता योनयः । जिनमें जीव सम्मिश्रित होता है, वे योनियां हैं । युवन्ति - तेजसकार्मणशरीरवन्तः सन्त स्थल हैं । औदारिकादिशरीरेण मिश्रीभवन्त्यास्यामिति योनिः । ( नंटी पृ ३ ) जिसमें विविध शरीरों का मिश्रण होता है, वह योनि है । आसु जन्तवो जुषन्ते सेवन्ते ता इति वा योनयः । ( उशाटी प १८३ ) a जिनमें बार-बार आते हैं, रहते हैं, वे योनियां / उत्पत्ति ६०८. भरग ( स्मारक / ध्याता ) निरुक्त कोश सुत्थेय मणसा झायंतोज्भरको । ' ( उच्च पृ १६५ ) ( नंचू पृ८ ) जो सूत्र और अर्थ का मन से चिंतन करता है, वह स्मारक ( स्मरण करने वाला ) है । ६०६. काण ( ध्यान ) ध्यायते -- चिन्त्यते वस्त्वनेनेति ध्यातिर्वा ध्यानम् । ( प्रसादी प ६८ ) जिसके द्वारा वस्तु का चिंतन किया जाता है, वह ध्यान है । ६१०. सिर ( शुषिर ) भुषे: - शोषस्य दानात् शुषिरम् । १. स्मरेर्भरभूर जो शोष - पोलापन है, वह शुषिर / आकाश है । 1 (प्रा ४ /७४) (भटी पृ १४३१). Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ६११. ठवणा (स्थापना) उडुबद्धात अण्णा मेरा ठविज्जतीति ठवणा ऋतुबद्ध काल स्थापना / पर्युषणा है | ६१२. ठवणा (स्थापना) स्थाप्यत इति स्थापना | ६१३. ठाण (स्थान) स्थापित करना स्थापना है । तिट्ठति तहिं तेण ठाणं । ६१४. ठाण (स्थान) जहां ठहरा जाता है, वह स्थान है । ६१५. ठाण (स्थान) के अतिरिक्त मर्यादा तिष्ठति स्वाध्यायव्यापृता अस्मिन्निति स्थानम् । भूमि है । ६१६. ठाणाइय (स्थानातिग ) ठाणे णं जीवा ठाविज्जंति, अजीवा। ( नं ८३) ठाविज्जंति त्ति स्वरूपतः स्थाप्यंते, प्रज्ञाप्यते । (नंच पृ ६४ ) जिसमें जीव - अजीव आदि स्थापित / प्ररूपित हैं, वह स्थानांग ( सूत्र ) है । ६१७. ठिइ (स्थिति) स्थीयतेऽनयेति स्थितिः । (दश्रुचू प ५२ ) स्थापित करना (व्यभा ३ टीप ५४) स्वाध्यायी साधक जहां स्थित होते हैं, वह स्थान / स्वाध्याय ११६ स्थानं - कायोत्सर्ग स्तमतिगच्छति - करोतीति स्थानातिगः । ( औटी पृ ७५ ( स्थाटी प २ ) जो स्थान / कायोत्सर्ग करता है, वह स्थानातिग है । ( आचू पृ ४४ ) जिसके द्वारा ठहरा जाता है, वह स्थिति है । (प्राक १ टी पृ ४ ) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० निरुक्त कोश ६१८. ठियप्प (स्थितात्मन्) णाणदंणचरित्तेसु ठिओ अप्पा जस्स सो ठियप्पा ! (दजिचू पृ ३४७) जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र में स्थित है, वह स्थितात्मा ६१६. णंद (नन्द) नन्दति--समृद्धो भवतीति नन्दः । (औटी पृ १३६) जो समृद्ध होता है, वह नन्द पुत्र है । ६२०. णंदण (नन्दन) नन्दन्ति तत्रेति नन्दनं । (सूचू १ पृ १४७) गंदंति जेण वणयर-जोतिस-भवण-वेमाणिया विज्जाहरमणुया य तेण णंदणं । (नंचू पृ ५) जहां व्यंतर, ज्योतिष्क, भवनपति, वैमानिक, विद्याधर और मनुष्य आनन्द मनाते हैं, वह नंदन (वन) है। ६२१. गंदा (नन्दा) नन्दयति-समृद्धि नयतीति नन्दा।। (प्रटी प १०३) जो समृद्धि की ओर ले जाती है, वह नन्दा/अहिंसा है । ६२२. गंदी (नन्दी) नन्दन्ति समृद्धिमवाप्नुवन्ति भव्यप्राणिनोऽनयेति नन्दी। (विभामहेटी १ पृ ४४) जिससे प्राणी समृद्धि को प्राप्त होते हैं, वह नंदी/ज्ञान है। ६२३. णक्खत्त (नक्षत्र) ___ न क्षयं यान्तीति नक्षत्राणि । (सूचू १ पृ २००) जिनका क्षय नहीं होता, वे नक्षत्र हैं। १. 'नक्षत्र' के अन्य निरुक्तनक्षति गच्छति व्योमनीति नक्षत्रं । न क्षदति प्रभामिति नक्षत्रम् । (अचि पृ २४) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १२१ ६२४. णग (नग) न गच्छतीति नगः। (उचू पृ २१४) जो गति नहीं करता, वह नग/पर्वत है। ६२५. णगर (नगर) ण एत्थ करो विज्जतीति नगरं ।' (आचू पृ २८१) ___ जहां किसी प्रकार का कर नहीं लगता, वह नगर है। ६२६. णय (नय) नयंति गमयंति प्राप्नुवंति वस्तु ये ते नयाः। (उचू पृ २३४) जो वस्तु का बोध कराते हैं, वे नय हैं। ६२७. गर (नर) नृत्यत इति नरः। (उचू पृ २१६) जो शक्ति का आयतन है, वह नर है। नृणन्ति–निश्चिन्वंति वस्तुतत्त्वमिति नराः । (नक १ टी पृ ३९) जो यथार्थ का निर्णय करते हैं, वे नर हैं। नृणन्ति-विवेकमासाद्य नयधर्मपरा भवंतीति नराः। ___ (नक ४ टी पृ १२८) जो नीतिमान् हैं, वे नर हैं। जो आकाश में गमन करता है, वह नक्षत्र है। जिसकी प्रभा कभी आवृत नहीं होती, वह नक्षत्र है। (क्षद्-संवरणे) १. 'नगर' का अन्य निरुक्त नगा इव प्रासादा सन्त्यत्र नगरम् । (आप्टे पृ ८७३) जहां नग/पर्वत जितने ऊंचे भवन होते हैं, वह नगर है। २. क. नर (Ved. nara cp nrtu) to be strong. (पा पृ ३४७) ख. 'नर' का अन्य निरुक्तनरति नेतीति नरो। (विटी १/७), जो ले जाता है, वह नर है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ निरक्त कोश ६२८. गरग (नरक) नीयंते तस्मिन् पापकर्माण इति नरकाः। पापी जिसमें ले जाए जाते हैं, वे नरक हैं। न रमन्ति वा तस्मिन्निति नरकाः। (सूचू १ पृ १२६) जहां प्राणी आनन्द का अनुभव नहीं करते, वे नरक हैं। नरान् कायन्ति आह्वयन्तीति नरकाः। (उशाटी प १८२) जो पापी नरों को बुलाते हैं, वे नरक हैं । ६२६. णह (नख) न क्षीयंति नखाः। (उचू पृ २०८) जो पूरे क्षीण नहीं होते, वे नख हैं। ६३०. णह (नभस्) न भाति न दीप्यते इति नभः। (भटी पृ १४३१) __ जो दीप्त/रूपायित नहीं होता, वह नभ है । १. 'नरक' के अन्य निरुक्तनृणाति शिक्षयति पापिनः नरकः । नरान् कृन्तीति कृणोति वेति वा । (अचि पृ ३०५) जहां पापी प्राणियों को शिक्षा दी जाती है, वह नरक है। जहां मनुष्यों को काटा जाता है, वह नरक है। २. नरान्-उपलक्षणत्वात् तिरश्चोऽपि प्रभूतपापकारिणः कायन्तीव आह्वयन्तीवेति नरकाः । (नक १ टी पृ ३६) ३. 'नख' के अन्य निरुक्त न खं छिद्रमत्र नखम् । (वा पृ ३६३४) जिसमें ख/छिद्र नहीं होता, वह नख है। न खन्यते नखः। जिसे कुरेदा नहीं जाता, वह नख है । नखति गच्छतीति वा नखः । (अचि पृ १२०) जो बढ़ता है, वह नख है । ४. 'नभ' के अन्य निरुक्तनाते मेधैः नभः । (वा पृ ३६६५) जो मेघों से घिर जाता है, वह नभ है । (नह -बन्धने) नभ्यतीति नभः । (अचि पृ ३७) जो शब्द करता है, वह नभ आकाश है । (नभ्-शब्दे) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १२३. ६३१. णाअ (न्याय) निपूर्वः नितरामीयते गम्यते मोक्षोऽनेनेति न्यायः । (व्यभा १ टी प ६) जो निश्चित रूप से मोक्ष को प्राप्त कराता है, वह न्याय ६३२. णाग (नाग) नास्य किंचिदगम्यं नागः । (उचू पृ ५६) जिसके लिए कुछ भी अगम्य नहीं है, वह नाग/हाथी है । ६३३. णाग (नाग) नास्य अगमं किंचिन्नागः । (उचू पृ १३४) जिसके लिए कुछ भी अगम्य नहीं है, वह नाग/सर्प है । ६३४. णाण (ज्ञान) णज्जइ अणेणेति नाणं । जिससे जाना जाता है, वह ज्ञान है । णज्जति एतम्हित्ति णाणं । (नंचू पृ १३) जिसमें ज्ञात होता है, वह ज्ञान है । - ६३५. णाणवि (ज्ञानवित्) ज्ञानं यथावस्थितपदार्थपरिच्छेदकं वेत्तीति ज्ञानवित् । (आटी प १५३) ज्ञान यथार्थ को जो जानता है, वह ज्ञानवित् है। ६३६. गागावरणीय (ज्ञानावरणीय) ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयम् । (स्थाटी प ६१) जो ज्ञान को आवृत करता है, वह ज्ञानावरणीय (कर्म) १. 'नाग' का अन्य निरुक्त---- __ नगे भवो नागः । (अचि पृ २७३) __ जो पर्वत पर पैदा होता है, वह नाग है । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ६३७. णात (ज्ञात) णज्जति अणेण अत्था णातं । (दअचू पृ २०) जिसके द्वारा अर्थ जाना जाता है, वह ज्ञात/उदाहरण है । गायत्ति-आहरणा, दिलैंतियो वा गज्जति जेहऽत्थो ते णाता। (नंचू पृ ६६) जिसमें ज्ञात/दृष्टांत निरूपित हैं, वह ज्ञाता/ज्ञाताधर्मकथा सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध है। ६३८. णाम (नाम) नयति नीयते वा नाम। (उचू पृ २०३) जिससे (परिचय) प्राप्त होता है, जाना जाता है, वह नाम । ६३६. णाम (नाम) नामयति-गत्यादिविविधभावानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम। (प्रसाटी प ३५६) ____ जो गति आदि विविधभावों के अनुभवन में जीव को आसक्त कर देता है, वह नाम (कर्म) है। नामयत्यधममध्यमोत्तमासु गतिषु प्राणिनं प्रह्वीकरोतीति नाम । (पंसंमटी प १०७) जो प्राणियों को विविध गतियों में प्रस्तुत करता है, वह नाम (कर्म) है। ६४०. णाराय (नाराच) नरं मुंचतीति नाराचः । (उचू पृ १८३) जो नर को शरीर से मुक्त कर देता है, वह नाराच बाण १. नारं नरसमूहमञ्चतीति नाराचः । (अचि पृ १७२) जो मनुष्यों तक पहुंचता है, वह नाराच/बाण है। नरान् आचामति नाराचः। (वा पृ ४०४५) जो मनुष्यों का भक्षण करता है, वह नाराच/बाण है । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ६४१. नालंदा ( नालन्दा ) नालं ददातीति नालंदा । ' ( सूटी २ प १५८ ) जो पर्याप्त मात्रा में / भरपूर देता है, वह नालन्दा है । ६४२. णावा (नौ) नयति नीयते वा नौः । ६४३. णास (न्यास) जो पार ले जाती है, वह नौका है । ( मांझी ) जिसे ले जाता है, वह नौका है । न्यस्यते— रक्षणायान्यस्मै समर्प्यत इति न्यासः । धरोहर है । ६४४. णाहियवादि ( नास्तिकवादिन् ) ( पंटी पृ १९ ) जिसे रक्षा के लिए दूसरों के पास रखा जाता है, वह न्यास / नास्त्यात्मा एवं वदनशील नाहियवादी । वादी है । ६४५. णिकरण (निकरण ) १२५ ( सूचू १ पृ २०२ ) (दश्रुचू प ३७ ) 'आत्मा नहीं है ' -- ऐसा जो कथन करता है, वह नास्तिक ६४६. णिकिर (निकिर ) निश्चयेन नितरां वा नियतं वा क्रियन्ते नानादुःखावस्था जन्तवो येन तन्निकरणम् । ( आटी प १४१ ) जिससे प्राणी निरंतर दुःख का उत्पादन करता है, वह निकरण / परिग्रह / संग्रह है । निकरणं निकीर्यते वा नि किरः । जो है । १. प्रतिषेधवाचिनो नकारस्य तदर्थस्यैवालंशब्दस्य । ( सूटी २ प १५८ ) यहां न और अलं — दोनों शब्द प्रतिषेधवाची हैं । २. नुद्यते कर्णधारैनौ: । (अचि पू८७६ ) ( सूच १ पृ ११४) पशु के सामने बिखेरा जाता है, वह निकिर / घासफूस Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ निरुक्त कोश ६४७. णिक्कम्मदंसि (निष्कर्मशिन्) णिक्कम्माणं पस्सतीति णिक्कम्मदंसी। (आचू पृ ११३) __जो निष्कर्म/मोक्ष को देखता है, वह निष्कर्मदर्शी है । ६४८. णिक्करुण (निष्करुण) निर्गता करुणा-दया यस्मादसौ निष्करुणः। (प्रटी प १५) जो करुणा/दया से रहित है, वह निष्करुण/क्रूर है । ६४६. णिक्खेव (निक्षेप) गहणं आदाणं ती होति णिसद्दो तहाहियथम्मि । खिव पेरणे व भणितो अहिउक्खेवो तु णिक्खेवो ॥ (जीतभा ८०९) 'नि' शब्द के तीन अर्थ हैं-ग्रहण, आदान और आधिक्य । 'क्षेप' का अर्थ है--प्रेरित करना। जिस वचनपद्धति में नि/ अधिक क्षेप/विकल्प हैं, वह निक्षेप है । निक्षिप्यतेऽनेनेति निक्षेपः। नियतो निश्चितो क्षेपो निक्षेपः। (सूचू १ पृ १७) जिसका क्षेप/स्थापन नियत और निश्चित होता है, वह निक्षेप है। ६५०. णिगम (निगम) नयन्तीति निगमाः। (उचू पृ ६६) जहां नाना प्रकार के पदार्थ ले जाए जाते हैं, वह निगम/ व्यापारिक स्थल है। निगमयन्ति तस्मिन्ननेकविधभाण्डानीति निगमः । (उशाटी प ६०५) जहां अनेक प्रकार के पदार्थ विक्रयार्थ आते हैं, वह निगम ६५१. णिगाइय (निकाचित) नितरां काचनं--बन्धनं निकाचितम् । (स्थाटी प २१५) जो निश्चित बन्धन है, वह निकाचित (बंध) है । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ६५२. णिग्गंथ (निर्ग्रन्थ ) बज्झ अब्भंतरातो गंथातो णिग्गतो णिग्गंथो । ( सूचू १ पृ २४६ ) बाह्य और आभ्यन्तर ग्रंथि से विनिर्मुक्त है, वह निर्ग्रन्थ है । -६५३. णिग्गह (निग्रह ) निगृह्यन्त इन्द्रिय-कषायादयो भावशत्रवोऽनेनेति निग्रहः । ( विभामहेटी १३५४ ) इन्द्रिय, कषाय आदि भाव शत्रु जिसके द्वारा निगृहीत किए जाते हैं, वह निग्रह / आवश्यक सूत्र है । ६५४. णिग्धाय ( निर्घात) आधिक्येन घातः निर्घातः । अधिक घात निर्घात / हिंसा है । ६५५. णिग्घोस ( निर्घोष ) नितरां घोषो निर्घोषः । निश्चित घोष / उद्घोषणा निर्घोष है । ६५६. णिच्चय ( निश्चय ) निराधिक्यं चयनं चयः अधिकश्चयोनिश्चयः । ६५७. णिच्छय ( निश्चय ) निर्गतः कर्मचयो निश्चयः । १२७ जो सघनता से चय / संकल्प है, वह निश्चय है । निश्चीयन्ते इति निश्चयाः । जो निर्णीत होते हैं, वे निश्चय हैं । ( आवचू २ पृ २५१) ( विपाटी प ८६ ) (अनुवाहाटी पृ १२४ ) (राटी पृ २७७) जो कर्म-संचय से रहित है, वह निश्चय / मोक्ष है । (प्रटी प २) Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ६५८. णिजोग ( नियोग ) अहिगो जोगो निजोगो । अतीव योगो नियोगो । आत्यंतिक योग नियोग / संबंध है । निश्चितो योगो नियोगो । जो निश्चित योग है, वह नियोग है । ६५. णिज्जरापेहि (निर्जराप्रेक्षिन् ) णिज्जरं पेक्खतीति णिज्जरापेही । ६६०. णिज्जव ( निर्याप ) ६६१. णिज्जावय ( निर्यापक ) ( आचू पृ २८६ ) जो निर्जरा को देखता है / चाहता है, वह निर्जराप्रेक्षी है । निरुक्त कोश निश्चितं यापयति प्रायश्चित्तविधिषु याप्यमालोचकं करोति निर्वाहयतीति यावदिति निर्यापः । ( व्यभा ३टी प १८ ) जो प्रायश्चित्त विधि का यापन / निर्वहन कराता है, वह निर्याप / आराधनाकारक है । ( वृभा १६४ ) ६६२. णिज्जुत्त (निर्युक्त ) ( आवचू १पू११५ ) निर्यापर्यात तथा करोति यथा गुर्वपि प्रायश्चित्तं शिष्यो निर्वाहयतीति निर्यापकः । ( स्थाटी प ४०६ ) जो कुशलता से प्रायश्चित्त का निर्यापन / निर्वहन कराता है, वह निर्यापक है । निश्चयेन आधिक्येन सार्थादितो वा युक्ता निर्युक्ताः । (सूचू १ पृ ३ ) जो अर्थ के साथ अधिक युक्त / संबद्ध है, वह निर्युक्त है । ६६३. णिज्जुत्ति (निर्युक्ति) णिज्जुत्ता ते अत्था जं बद्धा तेण होइ निज्जुत्ती । निच्छ्याइजुत्ता सुत्ते अत्था इमीए वक्खाया | तेणेयं निज्जुत्ती निज्जुत्तत्थाभिहाणाओ || ( आवनि८८ ) ( विभा १०८६ ) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १२६ नितरां युक्ताः सूत्रेण सह लोलीभावेन सम्बद्धा निर्युक्ता - अर्थास्तेषां युक्ति:- स्फुटरूपतापादनं निर्युक्तिः । एकस्य युक्तशब्दस्य लोषान्निर्युक्तिः । ( अनुद्वामटी प २३९ ) जिसमें निर्युक्तों / सूत्र के साथ सम्बद्ध जीव आदि का स्पष्ट प्रतिपादन किया जाता है, वह निर्युक्त है । निर्युज्यन्ते - निश्चितं सम्बद्धा उपदिश्य व्याख्यायन्ते यकाभिस्ता निर्युक्तयः । ( पिटी प १ ) जिनमें सूत्र के साथ अर्थ का निश्चित सम्बन्ध बताकर उनकी निर्योजना / व्याख्या की जाती है, वे निर्युक्तियां है । सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजनं - सम्बन्धं निर्युक्तिः । ( आवमटी प १०० ) सूत्र और अर्थ का परस्पर निर्योजन / सम्बन्ध-स्थापन निर्युक्ति है । ६६४. णिज्जोग (निर्योग ) निर्युज्यते - उपक्रियतेऽनेनेति निर्योगः । ( पिटी प १२ ) जिसके द्वारा निर्योग / उपकार किया जाता है, वह निर्योग / उपकरण है । ६६५. णिज्भवणा ( निर्यापना) निः-- आधिक्येन यान्ति प्राणिनः प्राणास्तेषां निर्यातां निर्गच्छतां प्रयोजकत्वं निर्यापना | (प्रटी प ७) जिसमें प्राणियों के प्राण अत्यधिक रूप में निर्गमन करते हैं, वह निर्यापना / हिंसा है । ६६६. गिट्टित ( निष्ठित) ण एतीति णिट्टितो । ( आचू पू १६७ ) जो गति नहीं करता, स्थिर है, वह निष्ठित है । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ६६७. दिरिसण ( निदर्शन ) अहिकं दरिसणं निदरिसणं । निच्छियं दरिसिति अणेण अत्था तेण निदरिसणं । ६६८. णिदा (दे ) जिससे अर्थ का निश्चित दर्शन / प्रकटीकरण होता है, वह निदर्शन / उदाहरण है . वेदना है | ६६. णिदाह ( निदाघ ) अदाहो निदाहो । नितरां निश्चितं वा सम्यक् दीयते चित्तमस्यामिति निदा । अधिक दाह निदाघ / गर्मी है | ६७०. णिद्दा ( निद्रा) (प्रज्ञाटी प ५५७ ) जिसमें चित्त निश्चित रूप से निविष्ट होता है, वह णिदा / निद्रा है । ६७१. सिवत्ति ( निर्देशवर्तिन् ) निरुक्त कोश नियतं द्राति- कुत्सितत्वम विस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यमनयेति निद्रा ( स्थाटी प ४२८ ) ( अचू पृ २० ) ६७२. द्धिम्म ( निर्धर्मन् ) णिग्गतधम्मा गिद्धम्मा । . ( दजिचू पृ ४० ) जिससे चेतना निश्चित रूप से सुषुप्ति को प्राप्त होती है, वह जो धर्म से रहित हैं, वे निर्धर्म हैं । १. द्वा- कुत्सायां गतौ । निद्देसो आणा तम्मि वति निद्देसवत्तिणो । ( दअचू पृ २१८) जो निर्देश / आज्ञा में वर्तन करता है, वह निर्देशवर्ती / आज्ञानुवर्ती है । ( बृभा १९४ ) ( निचू १ पृ १२२) Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १३१ ६७३. णिप्पग्गह (निष्प्रग्रह) निर्गतः प्रग्रहादिति निष्प्रग्रहः। (बृटी पृ २११) जो प्रग्रह/नियंत्रण से निर्गत/रहित है, वह निष्प्रग्रह/ अनियन्त्रित है। ६७४. णिन्भयणा (निर्भजना) निश्चिता भजना निर्भजना। (आटी प ८६) जिसमें भाग/विकल्प निश्चित होता है, वह निर्भजना है । ६७५. णिम्मद्दय (निर्मर्दक) निरन्तरं मृनन्ति ये ते निर्मर्दकाः। (प्रटी प ४६) जो निरन्तर मर्दन करते हैं, वे निर्मर्दक/चोर विशेष हैं। ६७६. णियडि (निकृति) अधिका कृति निकृतिः। (दश्रुचू प ३७) ___अधिक कृति उपचार निकृति/भाया है। ६७७. णियतिक (नयतिक) नियतिर्व्यवस्था तत्र नियुक्तास्तथा वा चरन्तीति (नै) नियतिकाः । (व्यभा ३ टी प १३२) जो धान्य आदि की नियति व्यवस्था करते हैं, वे नैयतिक ६७८. णियाग (नियाग) यजनं यागः नियतो निश्चितो वा यागो नियागः । (आटी प ४२) जिसमें याग/ज्ञान-दर्शन-चारित्र की निश्चित संगति/समन्विति है, वह नियाग/मोक्षमार्ग है । १. यज्-संगतार्थत्वाद्धातोः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रात्मतया गतं संगतमिति । (आटी प ४२) २. नियागं णाम चरित्तं पडिवण्णो । (सूचू २ पृ ३०८) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ निरुक्त कोश ६७९.णियाण (निदान) निश्चितमादानं निदानं । (आवचू २ पृ ७६) ऐहिक प्राप्ति के लिए जो निश्चित संकल्प किया जाता है, वह निदान है। निदायते-लूयते ज्ञानाधाराधनालता येनाध्यवसायेन तन्निदानम् ।' (स्थाटी प ४६१) जिस अध्यवसाय/संकल्प से ज्ञान आदि की आराधना उखड़ जाती है, वह निदान है। ६८०. णियाय (निकाय) निर्गतः कायः--औदारिकादिर्यस्माद्यस्मिन्वा सति स निकायः । (आटी प ४२) जिसमें औदारिक आदि काय/शरीर नहीं है, वह निकाय/ मोक्ष है। ६८१. णिरंगण (निरङ्गण) रङ्गणं-रागाद्युपरञ्जनं तस्मान्निर्गतः निरङ्गणः । (स्थाटी प ४४४) जो राग आदि के रंगण/रंजन से उपरत है, वह निरक्षण निलिप्त है। ६८२. णिरय (निरय) निर्गतम्-अविद्यमानमयम्--इष्ट फलं कर्म येभ्यस्ते निरयाः । (स्थाटी प २६) जिनमें से अय/पुण्यकर्म निकल गया है, वे निरय/नरक हैं । ६८३. णिरवकंख (निराकांक्ष) निष्क्रान्तमाकाङ्क्षातो निराकाङ्क्षम् । (उशाटी प ६००) ___जो (भोजन की) आकांक्षा से रहित है, वह निराकांक्ष (अनशन) है। १. नितरां दीयन्ते---लयन्ते दीयन्ते वा खण्ड्यन्ते तथाविधसानुबन्धफलाभावतस्तपःप्रभृतीन्यनेनेति निदानम् । (उशाटी प ३८४) Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १३३ ६८४. पिरामिस (निरामिष) निष्क्रान्ता आमिषाद्-गृद्धिहेतोरभिलषितविषयावे इति निरामिषाः। (उशाटी प ४०६) जो आमिष/गृद्धि से रहित हैं, वे निरामिष/अनासक्त हैं । ६८५. णिरुत्त (निरुक्त) निच्छियमुत्तं निरुत्तं । (बृभा १८८) निश्चित रूप से कथन करना निरुक्त है। णिव्वयणं वा णिरुत्तं। (सूचू १ पृ ३) जो शब्द का निर्वचन है, वह निरुक्त है। ६८६. णिरुत्ति (निरुक्ति) निश्चिता उक्तिनिरुक्तिः । (अनुद्वामटी पृ २४१) ___ जो निश्चित कथन है, वह निरुक्ति है। ६८७. णिवारण (निवारण) वियते येन तद् वारणं नियतं निश्चितं निपुणं वा वारणं निवारणं। (उचू पृ ५६) जो नि/सम्यक् प्रकार से वारण/आच्छादन करता है, वह निवारण कंबल है। ६८८. णिव्वाण (निर्वाण) निर्वान्ति-कर्मानल विध्यापनाच्छीतीभवन्त्यस्मिन् जन्तव इति निर्वाणम् । (उशाटी प ५११) __जहां कर्म रूपी अग्नि के बुझ जाने से जीव शीतल/शांत होते हैं, वह निर्वाण है। ६८६. णिव्विइय (निर्विकृतिक) निर्गतो घृतादिविकृतिभ्यो यः स निर्विकृतिकः । (स्थाटी प २८८) जो घृत आदि विकृतियों का परित्याग करता है, वह निविकृतिक है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ निरुक्त कोश ६६०. णिविण्णचारि (निर्विण्णचारिन्) णिविण्णो चरति णिविण्णचारी। (आचू पृ १७८) जो उदासीन भाव से आचरण करता है, वह निविण्णचारी ६६१. णिव्वेयणी (निदनी) निविद्यते-संसारादेनिविण्णः क्रियते अनयेति निर्वेदनी । (स्थाटी प २०४) जो संसार से निविण्ण/उदासीन करती है, वह निर्वेदनी (कथा) है। ६६२. णिसंस (नृशंस) नून्-नरान् शंसति-हिनस्तीति नृशंसः। (ज्ञाटी प ८६) जो नर का शंसन/हनन करता है, वह नृशंस है। ६६३. णिसण्ण (निषण्ण) अहियं सण्णो निसण्णो। जो (पाप में) अत्यधिक निमग्न है, वह निषण्ण है। णियतं णिच्छितं वा सण्णो णिसण्णो। (आचू पृ ११७) जो निरंतर निश्चितरूप से (पाप में) निमग्न है, वह निषण्ण है। ६६४. णिसाद (निषाद) निषीदन्ति स्वरा यस्मिन् स निषादः। (अनुद्वामटी प ११७) जिसमें सभी स्वर निषण्ण/समाविष्ट होते हैं, वह निषाद स्वर ६९५. णिसिज्जा (निषद्या) णिसज्जति सुत्तत्थाणनिमित्तं जत्थ भूपदेसे सा णिसिज्जा । (निचू १ पृ. ६४) १. षड्जादयः षडेतेऽत्र स्वराः सर्वे मनोहराः । निषीदन्ति यतो लोके निषादस्तेन कथ्यते ॥ (शब्द २, पृ ६०२) national Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १३५ जहां सूत्र और अर्थ के ग्रहण या परावर्तन के लिए बैठा जाता है, वह निषद्या/स्वाध्याय-भूमि है । ६६६. णिसीहिआ (नषेधिकी) निषेधेन–स्वाध्यायव्यतिरिक्तशेषव्यापारप्रतिषेधेन निर्वृत्ता नषेधिको।' (व्यभा ३ टी प ५४) जहां स्वाध्याय के अतिरिक्त शेष प्रवृत्तियों का निषेध है, वह नषेधिकी/स्वाध्याय भूमि) है। ६६७. णिसीहिआ (नषेधिकी) निषिध्यन्ते-निराक्रियन्ते अस्यां कर्माणीति नैषेधिको । (उशाटी प ३२२) जहां कर्मों का निषेध/नाश होता है, वह नषेधिकी/निर्वाण भूमि है। ६९८. णिस्साणपद (निश्राणपद) निश्रीयते--मन्दश्रद्धाकैरासेव्यत इति निश्राणं तच्च तत् पदं च निश्राणपदम् । (बृटी पृ २४१) __जो पद दुर्बल व्यक्तियों द्वारा निश्रित आसेवित है, वह निश्राणपद/अपवादपद है। ६६६. णिस्सेयस (निःश्रेयस्) नियतं निश्चितं वा श्रेयः निःश्रेयसम् । (उचू पृ १७१) ___जो नियत और निश्चित रूप से श्रेयस्कर है, वह निःश्रेयस्/ मोक्ष है। ७००. णिह (स्निह) स्निह्यत इति स्निहः । (आटी प १२४) जो स्नेह करता है, वह स्निह/स्नेहवान्/रागी है। १. निषेधः-गमनादिव्यापारपरिहारः स प्रयोजनमस्याः तमहतीति वा नषेधिको । (बृटी ६२५) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ निरुक्त कोश स्निह्यते—श्लिष्यतेऽष्टप्रकारेण कर्मणेति स्निहः ।(आटी प १६०) आठ प्रकार के कर्मों से जो श्लिष्ट होता है, वह स्निह/ स्नेहवान् है। ७०१. णिह (निह) निहन्यत इति निहः । (सूटी २ प १५२) जिसका निहनन/पीड़न होता है, वह निह/पीड़ित है । ७०२. णिहि (निधि) नितरां धीयते - स्थाप्यते यस्मिन् स निधिः । (स्थाटी प ३२७) जिसमें सदा कुछ न कुछ रखा जाता है, वह निधि है। ७०३. णीरय (नीरजस्) निर्गतो रजसः कर्मण इति नीरजाः। (उशाटी प ३१९) जो कर्म-रजों से रहित है, वह नीरज है । ७०४. णीसंस (नि:शंस) निष्क्रान्तो वा शंसायाः—श्लाघाया इति निःशंसः। (प्रटी प ५) जो आशंसा/श्लाघा से रहित है, वह निःशंस है। ७०५. णीसासग (नि:श्वासक) निःश्वसितीति निःश्वासकः। (आवहाटी १ पृ २२३) जो नि:श्वास लेता है, वह नि:श्वासक है । ७०६. णेआइय (नैयायिक) न्यायेन चरतीति नैयायिकः।। (आवचू १ पृ ६०२) जो न्यायपूर्वक चलता है, वह नैयायिक है। ७०७. णेउ (नेतृ) नयतीति नेता। (सूचू १ पृ १४४) जो ले जाता है, वह नेता है । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १३७ ७०८. णेगम (नैगम) नेगेहि माणेहिं मिणइत्ति नेगमस्स य निरुत्ती। (अनुद्वा ७१५) जो अनेक प्रमाणों से वस्तु को जानता है, वह नैगम है। नैकोऽपि तु बहवो गमाः वस्तुपरिच्छेदा यस्यासौ निरुक्तविधिना ककारस्य लोपाद् नैगमः। (नंटी पृ १७३) जिसमें वस्तुबोध के अनेक गम/भंग हैं, वह नैगम है । निश्चितो गमो नैगमः। (प्रसाटी प २४३) जो निश्चित गम/विकल्प है, वह नैगम है। ७०६. णेचइय (नैचयिक) निचयेन संचयेनार्थाद् धान्यानां ये व्यवहरन्ति ते नैचयिकाः। (व्यभा ४/३ टी प ११) जो निचय/संचय पूर्वक धान्य का व्यापार करते हैं, वे नंचयिक/धान्य के थोक व्यापारी हैं। ७१०. णेत (नेत्र) नयतीति नेत्रम् ।' (सूचू १ पृ २११) जो दृश्य के साथ संबद्ध करता है, वह नेत्र है। ७११. गेय (ज्ञेय) ज्ञायते इति ज्ञेयम् । (निचू १ पृ ३७) जो जाना जाता है, वह ज्ञेय है। ७१२. गेयाइय (नैयायिक) नयतीति नैयायिकः । (सूचू १ पृ ५८) जो ले जाता है, वह नैयायिक नेता है । ७१३. णेयाउत (नैर्यात्रिक) णयणसीलो याउतो। (दश्रुचू प ७५) ___जो पार ले जाता है, वह नैर्यात्रिक है। १. नीयतेऽनेन दृश्यमिति नेत्रम् । (अचि पृ १३०) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ निरक्त कोश ७१४. ण्हाण (स्नान) स्नात्यनेनेति स्नानम् । (उशाटी ४७६) जिससे व्यक्ति स्नात/शुद्ध होता है, वह स्नान है। ७१५. एहाणीय (स्नानीय) स्नाति जनोऽनेनेति स्नानीयम् । (बृटी पृ २५६) जिससे व्यक्ति स्नान करता है, वह स्नानीय/चूर्ण है । ७१६. एहसा (स्नुषा)' स्नौति श्रवन्ति वा तामिति स्नुषा । (उचू पृ १५०) जो (अपने पुत्र के लिए) क्षरण करती है, वह स्नुषा/पुत्रवधू है। ७१७. तंतज (तन्त्रज) तन्यते इति तंत्रं-वेमविलेखनछनिकादि तत्र जातं तंत्रजं । (उचू पृ ७६) जो ताने-बाने से उत्पन्न होता है, वह तंत्रज कम्बल आदि ७१८. तंतु (तन्तु) तनोत्यसौं तन्यते वा तंतुः। (उचू पृ ७६) जो विस्तृत होता है या किया जाता है, वह तंतु है। ७१६. तंत्र (तन्त्र) तन्यतेऽस्मादर्थ इति तन्त्रम् । (आवनिदी प ४४) जिसके द्वारा अर्थ विस्तार पाता है, वह तंत्र/शास्त्र है । १. (क) स्नौति अपत्यवात्सल्यात् स्नुषा । (अचि पृ ११७) (ख) 'स्नुषा' के अन्य निरुक्तसाधु सादिनीति वा, साधु सानिनीति वा, स्वपत्यं तत्सनोतीतिवा स्नुषा । (नि १२/६) जो भली-भांति बैठती है, भली-भांति प्राप्त करती है, सु/अपत्य प्राप्त करती है, वह स्नुषा है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ७२० तण (तृण) तरतीति तृणं । जो ( जल में ) तैरता है, वह तृण है । तृणेढि तृण्वंति वा तमिति तणम् । ' पशु जिसका भक्षण करते हैं, वह तृण है । ७२१. तणु (तनु ) ७२४. तमोकाइ ( तमस्कायिक) तनोति --- विस्तारयत्यात्मप्रदेशानस्यामिति तनुः ॥ ] (नक ४ टी पृ १२८ ) जहां आत्मा अपने प्रदेशों को फैलाती है, वह तनु / शरीर है । ७२२. तम (तमस् ) तमयति- खेदयति जनलोचनानीति तमः । ( उशाटीप ३८ ) जो आंखों को खिन्न करता है, वह तम / अंधकार है । ७२३. तमोकसिय ( तमस्काषिन् ) तमसि कषितुं शीलं येषां ते तर्मासकाषिणः । ( सूटी २ प ५३ ) जो तम / अंधेरे में दुराचार करते हैं, वे तमस्काषी हैं । तमसि कार्यं कुर्वन्तीति तमोकाइया । ७२५. तरु (तरु) अत्थाहमुदगं तरंति तेहि तरवो ।' (सू २ पृ ३४७) जो अंधकार में क्रियाशील रहते हैं, वे तमस्कायिक / चोर हैं । जिनसे अथाह जल तरा जाता है, वे तरु हैं । नदीतलागादीणि तेहिं तरिज्जंति तेण तरवो । जिनसे नदी तालाब आदि तरे जाते हैं, वे १. तृण्यतेऽद्यते पशुभिरिति तृणम् । (अचि पृ २६६ ) २. 'तरु' का अन्य निरुक्त (उच्च् पृ ७८ ) (उच् पू २११ ) १३६ तरन्त्यापदमनेन तरुः । (अचि पृ २४८ ) | जिससे आपत्ति का पार पाया जाता है, वह तरु है । ( अचू पृ७ ) ( दजिचू पृ ११ ) तरु हैं । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० निरुक्त कोश ७२६ तव (तपस्) रस-रुधिर-मांस-मेदोऽस्थि-मज्ज-शुक्राण्यनेन तप्यंते कर्माणि चाशुभानीत्यतस्तपः । (निचू १ प २६) जिससे शरीरस्थ सारी धातुएं तप्त होती हैं, वह तप है। जिससे अशुभ कर्म तप्त होते हैं, वह तप है । ७२७. तवण (तपन) तवतीति तवणो। (अनुद्वा ३२०) जो तपता है, वह तपन सूर्य/अग्नि है । ७२८. तस (त्रस) त्रसंतीति त्रसाः। (सूचू १ पृ ४७) जो त्रस्त/भयभीत होते हैं, वे त्रस हैं । त्रसन्ति अभिसन्धिपूर्वकं वा ऊर्ध्वमस्तिर्यक् चलन्तीति त्रसाः । (जीटी प ६) जो चिंतनपूर्वक गमन करते हैं, वे त्रस हैं । ७२६. तसरेणु (त्रसरेणु) पौरस्त्यादिवायुप्रेरितस्त्रस्यति—गच्छतीति त्रसरेणुः । (स्थाटी प ४१६) जो रेणु पवन से प्रेरित हो चलती है, वह त्रसरेणु सूक्ष्ममाप है। ७३०. तहावेय (तथावेद) तथा वेदयंतीति तथावेदाः । (सूचू १ पृ १०६) जो स्त्रियां जैसी हैं, वैसी जानते हैं, वे तथावेद/कामतंत्रवित् ७३१. ताइ (त्रातृ) त्रायतीति त्राता। (सूचू १ पृ. ६४) जो त्राण देता है, वह त्राता है। १. तापयत्यनेकभवोपात्तमष्टविधकर्मेति तपः । (आवहाटी १ पृ ४८) । २. त्रसश्चञ्चलत्वात् भीत इव रेणुः। त्रिंशत्परमाणुपरिमाणम् । स गवाक्षान्तर्गते सूर्यकिरणे दृश्यते । (शब्द २ पृ ६५४) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १४१ ७३२. ताय (तात) तायते-सन्तानं करोति पालयति च सर्वापद्भ्य इति तातः ।' (उशाटी प ३६८) जो सन्तान को पैदा करता है और उसका पालन करता है, वह तात/पिता है। ७३३. तायि (तायिन्) तायोऽस्यास्तीति तायी। (दटी प २६२) जो सुदृष्ट मार्ग की देशना के द्वारा शिष्यों का संरक्षण करता है, वह तायी है। ७३४. तायि (त्रायिन्) त्राएति संसारसागरे पडमाणे जीवे तम्हा तायी । (दअचू पृ २३३) जो संसार-सागर में गिरते हुए जीवों को त्राण देता है, वह त्रायी/रक्षक है। अन्नाणं अप्पं च तारयतीति तायी। (दजिचू प २११) जो स्व और पर को त्राण देता है, वह त्रायी है। ७३५. तालउट (तालपुट) तालपुडसमयेण मारयतीति तालउडं । (दअचू पृ १६६) जेणंतरेण ताला संपुडिज्जति तेणंतरेण मारयतीति तालपुडं । . (दजिचू पृ २६२) जो विष ताल/हथेली संपुटित हो उतने समय में मार डालता है, वह तालपुट कहलाता है । १. (क) ताङ्--सन्तान पालनयोः । (ख) 'तात' का अन्य निरुक्ततनोति सन्तति तातः। (अचि पृ १२६) ___ जो सन्तति का विस्तार करता है, वह तात/पिता है । २. तायः सुदृष्टमार्गोक्तिः, सुपरिज्ञातदेशनया विनेयपालयितेत्यर्थः । - (दटी प १६२) Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ निरुक्त कोश ७३६. ताव (ताप) तापयतीति तापः। (आटी प १४) जो तप्त करता है, वह ताप है। ७३७. तावस (तापस) तवो से अस्थि तावसो। (दअचू पृ ३७) जो तप से युक्त है, वह तापस है। ७३८. तासि (बासिन्) स्वयं त्रस्तः परानपि त्रासयतीति त्रासी। (स्थाटी प २०२) जो स्वयं त्रस्त होता हुआ दूसरों को त्रास देता है, वह त्रासी ७३६. तिउला (दे) तुदतीति तिउला। (उचू पृ ७६) जो व्यथित करती है, वह तिउला/वेदना है। ७४०. तिउला (त्रितुला) त्रीणि मनोवाक्कायबलानि उपरिमध्यमाधस्तनकाय-विभागान् वा तुलयति-जयतीति त्रितुला। (स्थाटी प ४४१) त्रीनपि मनोवाक्कायलक्षणानांस्तुलयति-जयति तुलारूढानिव वा करोतीति त्रितुला । (ज्ञाटी प ७४) जो मानसिक, वाचिक और शारीरिक शक्ति को तोलती है, वह त्रितुला/वेदना है। जो शरीर के ऊर्ध्व, मध्य और अधस्तन---तीनों भागों को तोलती है, वह वितुला है। ७४१. तिण्ण (तीर्ण) तरतीति तिण्णो। (आचू पृ २५) तीर्णवान् तीर्यते वा तीर्णः। (उचू पृ १९३) ' जो तैर जाता है/पार पहुंच जाता है, वह तीर्ण है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश ७४२. तित्थ (तीर्थ) तिज्जइ जं तेण तहिं तओ व तित्थं ।' (विभा १०२६) तीर्यते तार्यते वा तीर्थम् । ((उचू पृ १८०) जिससे तरा जाता है, वह तीर्थ है । ७४३. तित्थ (त्रिस्थ) त्रिषु क्रोधाग्निदाहोपशमलोभतृष्णानिरासकर्ममलापनयनलक्षणेषु तिष्ठतीति त्रिस्थम् । जो क्रोध, लोभ और कर्ममल के अपनयन में स्थित है, वह त्रिस्थ/तीर्थ है। ज्ञानादिलक्षणेषु वा अर्थेषु तिष्ठतीति त्रिस्थम् । (स्थाटी प ३०) ___जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र- इन तीन अर्थों में वास करता है, वह त्रिस्थ/तीर्थ है। ७४४. तित्थ (व्यर्थ) कोहाग्गिदाहसमणादओ व ते चेव जस्स तिण्णत्था । होइ तियत्थं तित्थं तमत्थसद्दो फलत्थोऽयं ॥ (विभा १०३६) क्रोध का उपशमन, लोभ का निरसन और कर्मों का अपनयन-ये तीन जिसके अर्थ फल हैं, वह व्यर्थ तीर्थ है। १. (क) तरति पापादिकं यस्मात् (तत्तीर्थम्) । (शब्द २ पृ. ६२५) (ख) देहाइतारयं 5 बज्झमलावणयणाइमत्तं च । गंताणच्चंतियफलं च तो दव्वतित्थं तं ॥ (विभा १०२८) जं नाणदंसणचरित्तभावओ तन्विवक्खभावाओ । भवभावओ य तारेइ तेण तं भावओ तित्थं ॥ (विभा १०३३) २. तहकोहलोहकम्ममयदाहताहामलावणयणाई।। एगंतेणच्चंतं च कुणइ य सुद्धि भवोघाओ॥ (विभा १०३४) दाहोवसमाइसु वा जं तिसु थियमहव दंसणाईसु । तो तित्थं.... .....॥ (विभा १०३५) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ निरुक्त कोश अहवा सम्मइंसणनाणचरित्ताइ तिन्नि जस्सत्था । तं तित्थं पुव्वोइयमिह अत्थो वत्थुपज्जाओ। __ (विभा १०३७) सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र-ये तीन जिसके अर्थ प्रयोजन हैं, वह व्यर्थ तीर्थ है । ७४५. तित्थयर (तीर्थकर) ........ 'जे भावतित्थमेयं तु कुवंति पगासंति य ते तित्थयरा। (विभा १०४७) जेहिं एयं दंसणणाणादिसंजुत्तं तित्थं कयं ते तित्थकरा भवन्ति । जो दर्शन, ज्ञान और चारित्रमय तीर्थ की स्थापना करते हैं, वे तीर्थंकर हैं। तित्थं गणहरा, तं जेहिं कयं तं तित्थकरा। जो तीर्थ/गणधरों को तैयार करते हैं, वे तीर्थंकर हैं । तित्थं चाउवन्नो संघो, तं जेहिं कयं ते तित्थकरा । (आवचू १ पृ ८५) जो श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध तीर्थ धर्मसंघ की स्थापना करते हैं, वे तीर्थंकर हैं । ७४६. तिप्पणया (तेपनता) त्रीणि कायवाङ्मनोयोगान् तापयति तिप्पणया। (सूचू २ पृ ३६६) जो शरीर, वाग और मन को तप्त करती है, वह तेपनता/ पीड़ा है। ७४७. तिरिक्ख (तिर्यक्) तिरोऽञ्चन्तीति-गच्छन्तीति तिर्यञ्चः । (उशाटी प ६४३) जो तिरछी गति करते हैं, वे तिर्यंच हैं । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १४५ ७४८. तिलोगदंसि (त्रिलोकदशिन्) त्रीन् लोकान् पश्यन्तीति त्रिलोकदर्शिनः। (सूचू १ पृ २३३) जो तीनों लोकों को देखते हैं, वे त्रिलोकदर्शी हैं । ७४६. तिव्व (त्रिप्र) त्रिभिस्तापयतीति त्रिप्रं। (सूचू १ पृ २५) जो (मन, वचन और शरीर) तीनों को तप्त करता है, वह त्रिप्र/कर्म है। ७५०. तीय (अतोत) अति-अतिशयेनेतो-गतोऽतीतः। (स्थाटी प १५२) जो सदा के लिए बीत जाता है, वह अतीत है। ७५१. तीर (तीर) तिष्ठति तमिति तोरं । (आचू पृ.६९) जहां ठहरा जाता है, वह तीर/तट है । तरंति तेणेति तीरम् । (उचू पृ २१५) जहां से तरा जाये, वह तीर है। ७५२. तीरट्टि (तीरार्थिन्) तीरं अत्थयति-मग्गतीति तीरही। (दअचू पृ २३४) तीरेण जस्स अट्ठो स भवति तोरट्ठी। (सूचू २ पृ ३३५) जो तीर तट पर जाना चाहता है, वह तीरार्थी है । तोरे ठितो तोरट्ठी। (दअचू पृ २३४) जो तीर/तट पर स्थित है, वह तीरार्थी है। ७५३. तुद (तुद) तुदंतीति तुदाः। (सूचू १ पृ १३५) जो व्यथित करते हैं, वे तुद/चाबुक हैं। .........-- १. 'तीर' का अन्य निरुक्ततीरयति समापयति नद्यादिकमिति तीरम् । (शब्द २ पृ६२५) नदी आदि को जहां तैर कर समाप्त किया जाता है, वह तीर है। जहां नदी आदि की सीमा समाप्त हो जाती है, वह तीर है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ७५४. तुम्नवाय ( तुन्नवाय ) तुन्नं त्रुटितं वयति--सिव्यति यः स तुम्नवायः । ७५५. तुलणा (तुलना ) तोत्यते परीक्ष्यते आत्मा यया सा तुलना ।" जो फटे हुए को सीता है, वह तुन्नवाय / दर्जी है । ७५६. इच्छिय ( चैकित्सिक) चिकित्सा चरति जीवति वा चैकित्सिकः । ( प्रसाठी प ११९ ) जिसके द्वारा स्वयं को तोला जाता है, वह तुलना / तुला है । वह चिकित्सक/ वैद्य है । ( बूटी पू ५७१ ) जो चिकित्सा से आजीविका चलाता है / जीवित रहता है, ७५७. तेण (स्तन) द्यते येन तुतं । स्त्यायत इति स्तेनः । जो धन को बटोरता है, वह स्तेन / चोर है । जो समूहरूप में रहता है, वह स्तेन / चोर है । ७५८. तो (तोत्र) ७५. थंडिल ( स्थण्डिल) निरुक्त कोश ( नंटी पृ १३९ ) थाणं ददातीति थंडिलं । जो व्यथित करता है, वह तोत्र / चाबुक / दोष है । स्तनयति स्तेनः । ( अचि पू८६ ) जो चुराता है, वह स्तेन है । (स्तेनन् - धोयें) (उच् पृ १६० ) ( उच्च पृ ४२ ) ( आचू पृ २८६ ) जो स्थान प्रदान करता है, वह स्थण्डिल (भूमी) है । १. सवेण सत्तेण सुत्ते, एगत्तेण बलेण य । तुला पंचहा वृत्ता, जिणकप्पं पडिवज्जओ । ( वृनि १३२८ ) २. 'स्तन' का अन्य निरुक्त Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ७६०. थंभ (स्तम्भ) स्तम्नातीति स्तम्भः । जो स्तब्ध करता है, वह स्तम्भ / मान है | ७६१. थल ( स्थल) तिष्ठति तस्मिन्निति स्थलम् । जहां ठहरा जाता है, वह स्थल है । ७६२. थलयर (स्थलचर ) स्थलं - निर्जलो भूभागस्तस्मश्चरन्तीति स्थलचराः । ७६३. थावर (स्थावर ) तिष्ठतीति स्थवराः ।' जो स्थितिशील हैं, वे स्थावर हैं । ७६४. थिर (स्थिर) तिष्ठतीति स्थिरः । जो स्थल / भूमि पर चलते हैं, वे स्थलचर ( प्राणी ) हैं । जो ठहरता है, वह स्थिर हैं । ७६५ थिरीकरण ( स्थिरीकरण) वाणी और क्रिया का सहयोग देकर पुन: संयम में स्थिर करना स्थिरीकरण है । ७६६. थीद्धि (स्त्यानद्धि / स्त्यानगृद्धि ) १४७ ( दजिचू पृ ३० ) ( उच्च् पृ २०५ ) ( उशाटी प ६६८) वयण किरिया सहायत्तेण जं संजमे थिरं करेतित्ति थिरीकरणं । (सूच १ पृ ४७ ) ( सू १ १४५ ) इद्धं चित्तं तं थीणं जस्स अच्चंतद रिसणावरणकम्मोदया सो थीणद्धी । ( निचू १ पृ ५५ ) ( निचू १ पृ १८ ) संयमच्युत व्यक्ति को १. स्थावरनामकर्मोदयात् तिष्ठन्तीत्येवंशीलाः स्थावरा:- पृथिव्यादयः । ( स्थाटी प ३६ ) २. जह उदगम्मि घए वा थीणम्मि णोवलब्भए किंचि । इद्धं चित्तं भणति तं थीगं तेण थीणद्धी || ( जीतभा २५२६ ) Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ निरुक्त कोश स्त्याना-पिण्डीभूता ऋद्धिः-आत्मशक्तिरूपा यस्यां स्वापावस्थायां सा स्त्यानद्धिः। (प्रज्ञाटी प ४६७) जिसमें चित्त अत्यन्त स्त्यान/जड़ीभूत हो जाता है, वह स्त्यानद्धि/निद्रा का एक प्रकार है। ७६७. थेर (स्थविर) सीदतः साधून स्थिरीकरोतीति स्थविरः। (प्रसाटी प २४) जो संयम में अस्थिर व्यक्ति को स्थिर करता है, वह स्थविर ७६८. दंड (दण्ड) दम्मन्ति जेण सो दंडो। (आचू पृ १८६) जिससे दमन/निग्रह किया जाता है, वह दण्ड/शस्त्र है। दण्ड्यतेऽनेनेति दण्डः। (उचू पृ २०७) जो दंडित करता है, वह दंड है। ७६६. दंड (दण्ड) दण्ड्यन्ते-व्यापाद्यन्ते प्राणिनो येन स दण्डः : (आटी प ११४) ___ जिससे प्राणियों को दंडित/प्राणच्युत किया जाता है, वह दंड/हिंसा है। ७७०. दंडभीरु (दण्डभोरु) डंडाओ बीभेति डंडभीरू । (आचू पृ २६०) जो दंड/हिंसा से भी/भयभीत होता है, वह दंडभीरु/मुनि ७७१. दंत (दन्त) दस्यते एभिरिति दन्ताः । (उचू पृ २०८) जो काटते हैं, वे दांत हैं। १. 'दंत' का अन्य निरुक्त दाम्यन्त्यम्लभक्षणात् दन्ताः। (अचि पृ १३२) जो अम्ल द्रव्य के भक्षण से बेकार हो जाते हैं, वे दांत हैं । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ७७२. दंत ( दान्त) दान्तः यः पापेभ्यः उपरतोऽथवा दान्तोनाम इन्द्रियदमेन नोइन्द्रियदमेन च । ' ( व्यभा १० टी प ६० ) जो पाप से उपरत है, वह दान्त है । जिसने इन्द्रिय और मन का दमन / उपशमन किया है, वह दांत है । ७७३. दंतवक्क ( दान्तवाक्य ) दम्यन्ते यस्य वाक्येन शत्रवः स भवति दान्तवाक्यः । चक्रवर्ती है । ७७४. दंतसोहण ( दन्तशोधन) जिसके वचनों से शत्रु का दमन होता है, वह दांतवाक्य / दंता सोहिज्जंति जेण तं दंतसोहणं । ७७५ दंस ( दंश ) दशन्तीति दंशाः । ( दजिचू पृ २१६ ) जिससे दांतों का शोधन होता है, वह दन्तशोधन / दतून है । जो काटते हैं, वे दंश / डांस / मच्छर हैं । ७७६. दंसण (दर्शन) १४६ -- ७७७. दंसण (दर्शन) ( सूचू १ पृ १४८ ) दृश्यन्ते श्रद्धीयन्ते पदार्था अनेनास्मादस्मिन् वेति दर्शनम् । ( स्थाटी प २१ ) जिसके द्वारा पदार्थों पर दर्शन / श्रद्धान किया जाता है, वह दर्शन / दृष्टि है । ( उशाटी प ८२ ) दृश्यतेऽनेन सामान्यरूपेण वस्त्विति दर्शनम् । ( उशाटी प २१० ) जिसके द्वारा वस्तु के स्वरूप का सामान्य दर्शन / बोध होता है, वह दर्शन है । १. दाम्यतीति दान्तः । ( शब्द २ पृ ७०१ ) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० निरुक्त कोश ७७८. सणावरण (दर्शनावरण) दर्शनं–सामान्यावबोधस्तदाप्रियते अनेनेति दर्शनावरणम् । (उशाटी प ६४१) दर्शन/सामान्य अवबोध जिसके द्वारा आवृत होता है, वह दर्शनावरणीय (कर्म) है। ७७६. दगवीणिया (दकविनीता) विणयति जम्हा उदगं दगवीणिय भण्णते तम्हा ।' (निभा ६३४) जिससे दक/पानी ले जाया जाता है, वह दकविनीता/जल प्रणालिका है। ७८०. दढप्पहारि (दृढप्रहारिन्) निक्किवं पहणइति दढप्पहारी। (आवहाटी १ पृ २६२) जो निर्दयता से प्रहार करता है, वह दृढप्रहारी (चोर) है । ७८१. दप्पणिज्जा (दर्पणीया) दर्पयतीति दर्पणीया। (प्रज्ञाटी प ३६६) जो दर्प/उन्माद पैदा करती है, वह दर्पणीया (शराब) है । ७८२. दमअ (द्रमक) भोयणनिमित्तं घरे घरे द्रमति गच्छतीति दमओ। (दअचू पृ १६८) जो भोजन के लिए घर घर भटकता है, वह द्रमक/ भिखारी है। ७८३. दया (दया) दोयत इति दया। (आचू पृ २७०) जिसके द्वारा सहानुभूति प्रगट की जाती है, वह दया है । १. 'दगं' पाणी तं 'वीणिया' वाहो, दगस्स वीणिया दगवीणिया। . (निचू २ पृ ३६) २. 'दया'का अन्य निरुक्त-- दयन्तेऽनया दया। (अचि पृ ८६) जिसके द्वारा प्राणियों की रक्षा की जाती है, वह दया है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ७८४. दरिसण (दर्शन) दिस्सति जेण पस्सति वा तं दरिसणं। (आचू पृ १२६) दृश्यते तत्त्वमस्मिन्निति दर्शनम् । (उशाटी प ५५६) जिससे तत्त्व देखा-जाना जाता है, वह दर्शन/अर्हत्-वाणी ७८५. दव्व (द्रव्य) द्रवते द्रूयते वा द्रव्यम् । जिसके पर्याय बदलते रहते है, वह द्रव्य है। द्रवति-स्वपर्यायान् प्राप्नोति क्षरति च, द्रूयते गम्यते तैस्तैः द्रव्यम् । जो पर्यायों के लय और विलय से जाना जाता है, वह द्रव्य है। द्रवति-गच्छति तांस्तान् पर्यायविशेषानिति द्रव्यम् । (सूचू १ पृ ५) जो विशेष पर्यायों को प्राप्त करता है, वह द्रव्य है । ७८६. दक्विकर (दर्वीकर) द:--फणा तत्करणशीला दीकराः। (जीटी प ३९) जो दर्वी/फण करते हैं, वे दर्वीकर/सर्प हैं । ७८७. दसवेकालिय (दशवैकालिक) विगते काले विकाले दसकमज्झयणाण कतमिति दसवेकालियं ।' जिसके दस अध्ययन विकाल में रचे गए हैं, वह दशवकालिक (सूत्र) है। चउपोरिसितो सज्झायकालो तम्मि विगते वि पढिज्जतीति विगयकालियं दसवेकालियं । (दक्षचू पृ ३) १. मणगं पडुच्च सेज्जभवेण निज्जूहिया दसज्झयणा । वेयालियाइ ठविया तम्हा दसकालियं णामं ॥ (दनि १५) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ निरक्त कोश जिसका स्वाध्याय विकाल में भी किया जाता है, वह दशवकालिक (सूत्र) है। दस वि अज्झयणा निज्जू हिज्जंता विकाले निज्जूढा थोवावसेसे दिवसे तेण दसवेकालियं त्ति । (दअचू पृ ५) जिसके दस अध्ययनों का नि!हण करते करते विकाल हो गया, वह दशवैकालिक (सूत्र) है। ७८८. दसवेयालिय (दशवैतालिक) दसमं वा वेतालियोपजातिवृत्तेहिं नियमितमज्झयणमिति दसवेतालियं । (दअचू पृ३) जिसका दसवां अध्ययन वैतालिक छंद में बनाया गया है, वह दशवंतालिक/दशवैकालिक (सूत्र) है। '७८६. दस्सु (दस्यु) दंसंतीति दसुगाणि । (आचू पृ ३५६) जो दूसरों का विनाश करते हैं, वे दस्यु हैं। दसणेहि दंतेहिं दंसति तेण दसू। (निचू ४ पृ १२४) जो दांतों से काटता है, वह दस्यु है । ७६०. दहण (दहन) दहतीति दहणो। (आवचू १ पृ २६) जो जलता है, वह दहन/अग्नि है। ७६१. दाण (दान) ___ दोयत इति दानम् । (सूचू १ पृ १४८) जो दिया जाता है, वह दान है। ७६२. दाणीय (दानीय) दीयतेऽस्मै इति दानीयः। (बृटो पृ २५६) जिसे दिया जाता है, वह दानीय/अतिथि है । १. दसति उपक्षणोति दस्युः । (अचि पृ ८६) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १५३ ७६३. दाय (दातृ) ददातीति दाता। (उचू पृ २१८) जो देता है, वह दाता है। ७९४. दारुण (दारुण) मणं दारयंतीति दारुणा । (उचू पृ ७०) - जो मन को विदीर्ण करते हैं, वे दारुण हैं । ७६५. दावर (द्वापर) द्विपर्यवसितो द्वापरः । (आटी प १३) जो द्वा/सतयुग और त्रेता-इन दो युगों के पर/बाद में आता है, वह द्वापर (युग) है । जिससे द्वा/सतयुग और त्रेता- ये दो युग पर श्रेष्ठ हैं, वह द्वापर युग है। ७६६. दास (दास) दयित' इति दासः। (उचू पृ १०१) जिसका दान दिया जाता है, जो बेचा जाता है, वह दास जिसको पीड़ित किया जा सकता है, मारा जा सकता है, वह दास है। दास्यते' दीयते एभ्य इति दासाः। (उशाटी प १८८) जिन्हें दिया जाता है, वे दास हैं । ७६७. दिट्ठिवाय (दृष्टिवाद) ____ सव्वाणतदिट्ठीओ तत्था वदंति त्ति दिठिवातो। (नंचू पृ ७२) १. द्वौ सत्यत्रेतायुगौ परौ श्रेष्ठौ यस्मात् (द्वापरः) । (शब्द २ पृ ७६५) २. दय-दाने, वधे। ३. दासृङ-दाने । ४. दास्यते दीयते भूतिमूल्यादिकं यस्मै सो दासः । (शब्द २ पृ ७०७) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश वादः दृष्टयो-दर्शनानि नया उद्यन्ते-अभिधीयन्ते यस्मिन्नसौ दृष्टि (स्थाटी प १६२) जिसमें अनेक दृष्टियों/दर्शनों का कथन है, वह दृष्टिवाद बारहवां अंग (आगम) है। ७६८. दिट्टिवाअ ((दृष्टिपात) सवणतदिछीओ तत्थ पतंति त्ति दिट्ठिवातो। (नंचू पृ ७१) दृष्टयो-दर्शनानि नया पतन्ति-अवतरन्ति यस्मिन्नसौ दृष्पिातः। __(स्थाटी प १९२) जिसमें अनेक दृष्टियां/दर्शन पतित/अवतरित हैं, वह दृष्टि पात/दृष्टिवाद है। ७६६. दिळंत (दृष्टान्त) दीसंति अणेण अत्था तेण दिळंतो। (दजिचू ) जिसके द्वारा अर्थ दृष्ट/ज्ञात होता है, वह दृष्टांत/उदाहरण दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः । (दटी प ३४) जो दृष्ट अर्थ की पुष्टि करता है, वह दृष्टांत है। ८००. दिणयर (दिनकर) दिनं करोतीति दिनकरः। (अनुद्वामटी प २१) जो दिन को करता है, वह दिनकर सूर्य है । ८०१. दिय (द्विज) दो जम्माणि जस्स सो दिओ। (आचू पृ २२६) गर्भादण्डाच्च द्विर्वा जातो द्विजः। (सूचू १ पृ २२८) जो गर्भ से और अंडे से-इस प्रकार दो बार उत्पन्न होता है, वह द्विज/पक्षी है। ८०२. दिव्व (दिव्य) अक्षर्दोव्यतीति दिव्यम् । (सूचू १ पृ ६६) जो हारजीत के लिए पाशों से खेला जाता है, वह दिव्य/ जूआ है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ८०३. दिसा (दिश् ) दिसते जा सा दिसा ।' है | दिस्सति जेण सा दिसा । ( आचू पृ १० ) जो पूर्व आदि का व्यपदेश / कथन करती है, वह दिशा जो अवकाश देती है, वह दिशा है । दिश्यते यया शिष्यः सा दिक् । है । ८०४. दीण ( दीन ) दीयते इति दीनः । ( पंटी प १७४ ) जिससे शिष्य को कालज्ञान कराया जाता है, वह दिशा जिसे दिया जाता है, वह दीन है । ८०५. दीप ( द्वीप) ८०६. दीव (दीप ) दीप्यते दीपः । द्विधा fraft वा द्वीपः । ( सूचू १ पृ २०० ) जो दो विपरीत दिशाओं ( पूर्व-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण) से पान / जल का स्पर्श करता है, वह द्वीप है । जो दीप्त होता है, वह दीप है । ( आचू पृ १७८ ) १५५ ( उचू पु ५३ ) १. ( क ) दिश्यते - व्यपदिश्यते पूर्वादितया वस्त्वनयेति दिक् । ( दटी प १६ ) (ख) कृत्वैवमवधि तस्मादिदं पूर्वञ्च पश्चिमम् । इति देशो निदिश्येत यया सा दिगिति स्मृता ॥ ( स्थाटी प १२७ ) २. दिशति अवकाशं ददाति या सा दिक् । ( शब्द २ पृ ७०८ ) ३. द्विता आपोऽस्मिन्निति द्वीपः । ( आटी प २४६ ) ( शब्द २ पृ७०८ ) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ निरुक्त कोश ८०७. दीवग (दीपक) दोवइ जं तत्ते दीवगं तं तु। (प्रसा ६४६) तत्त्वानि दीपयति-परस्य प्रकाशयति दीपकम् । (प्रसाटी प २८३) जो तत्त्वों को दीपिक्क/प्रकाशित करती है, वह दीपक (सम्यक्त्व) है। ८०८. दुक्ख (दुःख) दुःखयतीति दुःखम् । (आटी प ७१) जो दुःखित/उत्पीडित करता है, वह दुःख है । ८०६. दुक्खबोहि (दुःखबोधि) दुक्खेण बुज्झइ दुक्खबोही। (आचू पृ १९) जो कठिनाई से समझता है, वह दुःखबोधी है । ८१०. दुक्खसह (दुःखसह) दुक्खं सारीर-माणसं सहतीति दुक्खसहो। (दअचू पृ २०१) जो शारीरिक और मानसिक दुःखों को सहन करता है, वह दुःखसह है। ८११. दुग्ग (दुर्ग) दुखं गम्यत इति दुर्गः। (सूचू १ पृ १४६) ___ जहां दु:ख कष्टपूर्वक जाया जाता है, वह दुर्ग है। ८१२. दुग्गम (दुर्गम) दुःखेन गम्यत इति दुर्गमम् । (स्थाटी प २८६) जो कठिनाई से जाना जाता है, वह दुर्गम है । १. 'दुःख' का अन्य निरुक्त दु इति अयं सद्दो कुच्छिते दिस्सति । खं सद्दो पुन तुच्छे । तस्मा कुच्छितत्ता तुच्छत्ता च दुक्खं ति वुच्चति (वि १६/१०) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ८१३. दुच्चर ( दुश्चर ) दुक्करं चरिज्जतीति दुच्चरं । है । ८१४. दुज्जय (दुर्जय ) ( आचू पू ३१८ ) जिसका कठिनाई से आचरण किया जाता है, वह दुश्चर दुक्खं जिणिज्जंतीति दुज्जयाः । दुःखेन जीयते--अभिभूयन्ते इति दुर्जयाः । ८१५. दुण्णाम (दुर्नाम ) जो कठिनाई से जीता जाता है, वह दुर्जय है । है । ८१६. दुतितिक्ख ( दुस्तितिक्ष ) मदाद् दुष्टं नमनं दुर्नाम । (भटी पृ १०५१ ) अभिमान वश कठिनाई से नमन करना दुर्नाम / दुर्नमन ८१७. दुत (दुर्दान्त) दुःखेन तितिक्ष्यते - सह्यते इति दुस्तितिक्षम् । ( स्थाटी १२८६ ) जो दुःखपूर्वक सहा जाये, वह दुस्तितिक्ष है । दुष्टं दमनं दुर्दान्तम् । १५७ ८१८. दुपरिच्चय ( दुष्परित्यज ) ( उचू पृ १८४) ( उशाटी प ३६० ) ( उशाटी प ६३१ ) जिसका कठिनाई से दमन किया जाता है, वह दुर्दान्त है । ८१६. दुपस (दुर्दर्श) दुःखेन - कृच्छ्रेण परित्यज्यन्ते -- परिह्रियन्ते इति दुष्परित्यजा: । ( उशाटी प २६२ ) जो कठिनाई से परित्यक्त होते हैं, वे दुष्परित्यज हैं । दुःखेन दर्श्यते इति दुर्दर्शम् । ( स्थाटी व २८७ ) जिस तत्त्व का कठिनाई से निर्देशन किया जाता है, वह दुर्दर्श (तत्त्व ) है | Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ निरुक्त कोश ८२०. दुप्पजोवि (दुष्प्रजीविन्) दुक्खेन-कृच्छण प्रकर्षणोदारभोगापेक्षया जीवितुं शीला दुष्प्रजीविनः। (दटी ५ २७२) ___जो अत्यन्त दुःख में जीवन यापन करते हैं, वे दुष्पजीवी ८२१. दुप्पहंसय (दुष्प्रधर्षक) दुःखेन प्रधय-पराभूयन्ते केनापीति दुष्प्रधर्षकाः। (उशाटी प ३५३) जिन्हें कठिनाई से प्रधर्षित/पराभूत किया जाता है, वे दुष्प्र धर्षक/बहुश्रुत हैं। ८२२. दुप्पूरय (दुष्पूरक) दुःखं पूर्यत इति दुष्पूरए। (उचू पृ १७६) जो कठिनाई से पूर्ण होता है, वह दुष्पूरक है । ८२३. दुम (द्रुम) भूमीए आगासे य दोसु माया दुमा । जो भूमि और आकाश-दोनों में समाते हैं, वे द्रुम/वृक्ष हैं । दू:-साहा ताओ तेसि विज्जति ते द्रूमा। (दअचू पृ ७) जिनके दू/शाखाएं हैं, वे द्रुम हैं। ८२४. दुम्मारि (दुर्मारि) दुष्टदेवतादिकृतं सर्वगतं मरणं दुर्मारि। (प्रसाटी प १०८) दुष्ट देव आदि के द्वारा जो व्यापक मरण होता है, वह दुर्मारि है। ८२५. दुरणपाल (दुरनुपाल) दुःखेनानुपाल्यत इति दुरनुपालः । (उशाटा प ५०२) जिसका अनुपालन कठिनाई से किया जाता है, वह दुरनुपाल है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ निरुक्त कोश ८२६. दुरहि (दुरभि) दौर्मुख्यकृद् दुरभिः । (अनुद्वाहाटी प ६०) जो मुख को दुर्/विकृत बना देती है, वह दुरभि/दुर्गंध है। ८२७. दुरारुह (दुरारोह) दुःखेनारुह्यते-अध्यास्यत इति दुरारोहम्। (उशाटी प ५१०) जहां कठिनाई से आरोहण किया जाता है, वह दुरारोह है। ८२८. दुरासय (दुराश्रय) बुक्खमाश्रीयते दुरासतं । (दअचू पृ १५०) जिसे अपने आश्रित करना दुष्कर है, वह दुराश्रय/अग्नि ८२६. दुरुत्तर (दुरुत्तर) दुक्खं उत्तरिज्जति दुरुत्तरम् । (उचू पृ १३०) जो कठिनाई से पार किया जाता है, वह दुरुत्तर है । ८३०. दुरवणीय (दुरुपनीत) दुष्टमुपनीतं -निगमितं योजितमस्मिन्निति दुरुपनीतम् । (स्थाटी प २५०) जिसका निगमन/उपसंहार उचित रूप में उपनीत/योजित नहीं होता, वह दुरुपनीत है। ८३१. दुरूवभक्खि ('दुरूव' भक्षिन्) दुरूवं भक्खयन्तीति दुस्वभक्खी। (सूचू १ पृ १३१) जो दुम्व/मल-मूत्र का भक्षण करते हैं, वे दुरूवभक्षी/ नरयिक है। ८३२. दुल्लह (दुर्लभ) दुःखेन लभ्यत इति दुर्लभः । (उचू पृ ६८) जो कठिनाई से प्राप्त होता है, वह दुर्लभ है। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ८३३. दुव्विसोज्झ (दुर्विशोध्य ) दुःखेन विशोधयितुं - निर्मलतां नेतुं शक्यो दुर्विशोध्यः । कठिनाई से शुद्ध / निर्मल होता है, वह दुर्विशोध्य है । ८३४. दुसन्नप्प (दुःसंज्ञाप्य ) दुःखेन कृच्छेण संज्ञाप्यन्ते - प्रज्ञाप्यन्ते - बोध्यन्त दुःसंज्ञाप्याः । ८३६. दुहिल ( दुहिल) दुहसीलो दुहिलो | जो द्रोह करता है, वह दुहिल है । जिसको कठिनाई से समझाया जाता है, वह दुःसंज्ञाप्य है । ८३५. दुस्संबोध ( दुस्सम्बोध) दुःखेन सम्बोध्यते - धर्मचरणप्रतिपत्ति कार्यत इति दुस्सम्बोधः । ( आटी प ३५ ) कठिनाई से संबुद्ध होता है, वह दुस्संबोध है । ८३७. दुइज्ज (दु ) दोसु सिसिरगिम्हेसु रीतिज्जति दूइज्जति । वह इज्जण / गमन है । दोसु वा पाएसु रोइज्जति दूइज्जति । जो दो ऋतुओं / शिशिर और ग्रीष्म में आना-जाना होता है, दो पैरों से गमन करना / पैदल चलना ८३८. देव (देव) निरुक्त कोश दीवं आगासं तंमि आगासे जे वसंति ते देवा । जो दिव/ आकाश में रहते हैं, वे देव हैं । दीव्यन्तीति देवाः । जो दीप्त हैं, वे देव हैं । ( उशाटी प ५०२ ) इति ( स्थाटी प १६० ) ( उच्च् पृ १६६ ) ( निचू ३ पृ १२१ ) दूइज्जण / गमन है । ( दजिचू पृ १५ ) (टीप २१ ) Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश दीव्यन्ति-क्रीडन्ति देवाः। (उशाटी प ३२३) ___ जो क्रीड़ा करते रहते हैं, वे देव हैं। दोव्यन्ते—स्तूयन्ते जगत्त्रयेणापोति देवाः। (उशाटी प ६१६) ___जो तीनों लोकों के द्वारा स्तुत्य हैं, वे देव हैं । ५३६. देवराय (देवराज) देवानां मध्ये राजमानत्वात्-शोभमानत्वाद्देवराजः । ___ (उपाटी प १२४) जो देवों के मध्य राजित/सुशोभित होता है, वह देवराज/ इन्द्र है। ८४०. देस (द्वष) दूसंति तेण तम्मि व दूसणमह देसणं व देसो त्ति ।' __(विभा २९६६) जिससे प्राणी दूषित/विकृत होते हैं, वह द्वेष है । जिसके होने पर अप्रीति उत्पन्न होती है, वह द्वेष है । ८४१. देसअ (देशक) देशयन्तीति देशकाः। . (आवहाटी १ पृ.६०) जो उपदेश करते हैं, वे देशक/उपदेशक हैं। ८४२. देसणा (देशना) अत्थं देसयतीति देसणा। (दजिचू पृ २३५) जो अर्थ का देशन/कथन करती है, वह देशना/भाषा है। १. दुष्यन्ति विकृति भजन्ति तेन तस्मिन् वा प्राणिन इति द्वेषः । (दुष् वैकृत्ये) द्विषन्ति-अप्रीति भजन्ति तेन तस्मिन् वा प्राणिन इति द्वेषः । (द्विष-अप्रीतौ) (विभामहेटी २ पृ २२३) द्विषत्यनेनेति द्वेषः । (आवचू २ पृ ७६) जिस भावना से द्वेष/शत्रुता पैदा होती है, वह द्वेष है। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ निरुक्त कोश ८४३. देह (देह) देहियत इति देहो।' (आचू पृ २६६) जो बढ़ता है/सम्पुष्ट होता है, वह देह है। दिह्यते इति देहः । (सूचू १ पृ ५५) दिह्यते-उपचीयन्ते पुद्गलैरिति देहः। (उशाटी प ४१) ___जो पुद्गलों से उपचित होता है, वह देह है। ८४४. दोकिरिय (द्वैक्रिय) द्वे क्रिये-शीतवेदनोष्णवेदनादिस्वरूपे एकत्र समये जीवोsनुभवतीत्येवं वदन्ति ये ते द्वे क्रियाः। (औटी पृ २०२) जीव एक समय में एक साथ दो क्रियाओं/शीत-उष्णवेदना आदि का अनुभव करता है-ऐसा प्रतिपादन करने वाले द्वैक्रियवादी/गंगाचार्यमतावलम्बी हैं । ८४५. दोग्गइ (दुर्गति) दुट्ठा गती दुग्गती। जो खराब गति है, वह दुर्गति है। दुग्गा वा गती दुग्गती। जो दुर्ग/भयंकर गति है, वह दुर्गति है। दुक्खं वा जंसि विज्जति गतीए एसा गई दुग्गती। (निचू १ पृ ११) जो दुःखपूर्ण गति है, वह दुर्गति/नरकगति-तिर्यंचगति है । ८४६. दोणमुह (द्रोणमुख) दोहिं गम्मति जलेण वि थलेण वि दोणमुहं । (आचू पृ २८२) ___ जिसमें जल और थल-दोनों मार्गों से जाया जा सके, वह द्रोणमुख है। द्रोण्यो-नावो मुखमस्येति द्रोणमुखम् । (उशाटी प ६०५) १. देग्धि प्रतिदिनं देहः। (शब्द २ पृ ७४६) (दिह-वृद्धौ) २. धातुभिर्दिह्यते देहः । (अचि पृ १२७) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १६३ जिसमें द्रोणी/नौका के द्वारा मुख/प्रवेश होता है, वह द्रोणमुख है। ८४७. दोस (द्वेष) ___दूसंति तेण तम्मि व......... (दोसो)। (विभा २९६६) जिससे प्राणी दूषित/विकृत होते हैं, वह दोष द्वेष है। ८४८. दोस (दोष) दूसयतीति दोसो। (दअचू पृ १०२) दूसिज्जति जेण स दोसो। (निचू १ पृ ३७) ____ जो दूषित करता है, वह दोष है। ८४६. धण (धन) दधाति' धीयते' वा धनम् ।' (उचू पृ १९२) जो सुख को धारण करता है, वह धन है । जो पूर्ण करता है, वह धन है । ८५०. धणु (धनुष) ध्नन्ति तेन धारयति वा धनुः ।। जिससे मारा जाता है, वह धनुष है । जिससे धारण रक्षण किया जाता है, वह धनुष है। १. दधाति सुखमिति धनम् । (शब्द २ पृ ७७६) २. धो (धीयते) पूर्ण करना (आप्टे पृ ८६२) ३. 'धन' शब्द का अन्य निरुक्त धनति शब्दायते धनम् । (अचि पृ ४५) जो व्यक्ति को प्रसिद्ध करता है, वह धन है। ४. 'धनुष' के अन्य निरुक्त धन्यतेऽयंते, धमति शब्दायते ज्याघातेन वा धनुः । (अचि पृ १७०) जिससे विजय प्राप्त होती है, वह धनुष है । जो ज्या/धनुष की डोरी के आघात से शब्द करता है, वह धनुष है। धन्वन्त्यस्मादिषवः धनुः । (नि ६/१६) जिससे बाण छूटते हैं, वह धनुष है। (धन्वतेर्गतिकर्मणः, वध कर्मणो वा) (उचू पृ १८३) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ निरुक्त कोश ८५१. धण्ण (धन्य) णाणदंसणचरित्ताणि धणं एतेण धणेण धण्णो। (आवचू १ पृ ५३८) जो ज्ञान, दर्शन और चरित्र रूप धन से संपन्न है, वह धन्य ८५२. धण्णा (धन्या) धनमर्हति लप्स्यते वा या सा धन्या । (अंतटी प ८) जो धन/प्रशंसा के योग्य है, प्रशंसा को प्राप्त करती है, वह धन्या है। ८५३. धम्म (धर्म) धारेति संसारे पडमाणमिति धम्मो।' (दअचू पृ १) धारेति दुग्गतिमहापडणे पतंत मिति धम्मो। (दअचू पृ. ६) जो संसार अथवा दुर्गति में पड़ती हुई आत्मा को धारण करता है/बचाता है, वह धर्म है। ८५४. धम्मक्खाइ (धर्माख्यायिन्) धर्ममाख्यान्ति भव्यानां प्रतिपादयन्तीति धर्माख्यायिनः । (औटी पृ २०२) जो धर्म का आख्यान/प्रतिपादन करते हैं, वे धर्माख्यायी हैं । ८५५. धम्मक्खाति (धर्मख्याति) धर्माद् वा ख्यातिः प्रसिद्धिर्येषां ते धर्मख्यातयः। (औटी पृ २०२) जो धर्म से ख्याति प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं, वे धर्मख्याति हैं । १. (क) दुर्गतिप्रसृतान् जीवान् यस्माद् धारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभ स्थाने, तस्माद् धर्म इति स्मृतः ।। (आवहाटी २ पृ १६८) (ख) 'धर्म' का अन्य निरुक्तध्रियते पुण्यात्मभिरिति धर्मः। (शब्द २ पृ ७८३) पवित्र आत्मा जिसे धारण करती है, वह धर्म है। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ८५६. धम्मत्थकाम ( धर्मार्थकाम ) धम्मस्स अत्थं कामयंतीति धम्मत्थकामा । ( अचू पृ १३९ ) धम्मस्स फलं मोक्खो, सो चेव अत्थो । तं अत्थं कामेन्ति धम्मत्थकामा । (दअचू पृ १४३) जो धर्म के अर्थ / मोक्ष की कामना करते हैं, वे धर्मार्थकाम / मुमुक्षु हैं। ८५७. धम्मद ( धर्मद) धर्म - चारित्ररूपं ददतीति धर्मदाः । जो धर्म को प्रदान करते हैं, वे ८५८. धम्मदेस्य ( धर्मदेशक ) धर्मं दिशन्तीति धर्मदेशकाः । जो धर्म की देशना देते हैं, वे धर्मदेशक / तीर्थंकर हैं । ८५. धम्मपण्णत्त (धर्मप्रज्ञप्ति ) ८६०. धम्मपलज्जण (धर्मप्ररज्यन ) (जीटी प २५६ ) धर्मदाता / तीर्थंकर हैं । धम्मो पण्णविज्जए जाए सा धम्मपण्णत्ती । ' ( दअचू पृ ७३ ) जिसमें धर्म की प्रज्ञापना / प्ररूपणा है, वह धर्मप्रज्ञप्ति / दशवै: कालिक सूत्र का चतुर्थ अध्ययन है । धर्मे प्ररज्यन्ते – आसज्यन्ते ये ते धर्म प्ररज्यनाः । ८६१. धम्मपलोइय (धर्मप्रलोकिन् ) १६५ ( जीटी प २५६ ) जिनका धर्म के प्रति अनुराग है, वे धर्मप्ररज्यन हैं । ( औटी पृ २०२ ) धर्मं प्रलोकयन्ति - उपादेयतया प्रेक्षन्ते पाषण्डिषु वा गवेषयन्तीति धर्मप्रलोकिनः । (ओटी पृ २०२ ) धर्म का प्रलोकन / गवेषण करते हैं, वे धर्म प्रलोकी हैं । १. धम्मस्स फलं मोक्खो ....... तमभिपाया साहू तम्हा धम्मत्थकामति ॥ ( दनि १६७ ) २. आयप्पवायपुव्वा णिज्जूढा होइ धम्मपण्णत्ती (दनि १६ ) Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ निरुक्त कोश ८६२. धम्मविदु (धर्मविद् धम्म विदतीति धम्मविदः । (आचू पृ १४४) जो धर्म को जानता है, वह धर्मवित् है। ८६३. धम्माणुअ (धर्मानुग) धर्म-श्रुतरूपमनुगच्छन्ति ये ते धर्मानुगाः। (औटी पृ १०२) ____जो धर्म का अनुगमन करते हैं, वे धर्मानुग हैं। ८६४. धर (धर) धरतीति धरः। (नंटी पृ १३) जो धारण करता है, वह धर/धारक है। ८६५. धरणा ((धरणा) अवायाणंतरं तमत्थं अविच्चुतीए जहण्णुक्कोसेणं अन्तमुहुत्तं धरेंतस्स धरणा। (नंचू पृ ३७) जो अर्थबोध अपाय के पश्चात् अंतर्मुहूर्त के लिए स्थिर रहता है, वह धरणा/धारणा है। ८६६. धव (धव) धारयति तां स्त्रियं धीयते वा तेन पुंसा वा स्त्री दधाति सर्वात्मना पुष्णाति वा तेन कारणेन धवः। (व्यभा ७ टी प ८६) जो स्त्री का सर्वात्मना धारण/पोषण करता है, वह धव/ पति है। ८६७. धाई (धात्री) धारेइ' धीयए' वा धयंति वा तमिति तेण धाई उ। (पिनि ४११) १. 'धव' का अन्य निरुक्त धुनाति धवः। (अचि पृ ११८) - जो प्रकम्पित/उत्तेजित होता है, वह धव/पति है । २. धारयति बालकमिति धात्री। ध्रियते-पोष्यते इति धात्री। (पिटी प १२२) ३. धीयते-धार्यते बालानां दुग्धपानाद्यर्थमिति धात्री। (प्रसाटी प १४४) ४. धयन्ति-पिबन्ति बालकास्तामिति धात्री। (पिटी प १२२) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश १६७ जो बालक का धारण/पोषण करती है, वह धात्री/धाय बच्चों के दुग्धपान आदि के लिए जिसे रखा जाता है, वह धात्री है। बालक जिसका स्तन-पान करते हैं, वह धात्री है। ८६८. धारणा (धारणा) अवगतार्थविशेषधरणं धारणा । (स्थाटी प २७३) ___ अवगत अर्थ को विशेषरूप से धारण करना धारणा/मति ज्ञान का एक भेद है। ८६६. धिक्कार (धिक्कार) धिगधिक्षेपार्थ एव तस्य करणं-उच्चारणं धिक्कार।। (स्थाटी प ३८२) तिरस्कार को दिखाने के लिए 'धिग्' शब्द का उच्चारण करना धिक्कार है। ८७०. धीर (धीर) धोः बुद्धिः सा जस्स अत्थि सो धीरो।' (दअचू पृ १७६) धीः बुद्धिः इत:-परिगतः तया इति धीरः। (उचू पृ ३५) जो धी/बुद्धिसम्पन्न है, वह धीर है। धी:-बुद्धिस्तया राजन्त इति धीराः। (आवचू २ पृ २५४) जो धी/बुद्धि से राजित/सुशोभित होता है, वह धीर है । बुड्यादीन् गुणान् दधातो धीरः। (सूचू १ पृ २१) जो बुद्धि आदि गुणों को धारण करता है, वह धीर है। ८७१. धुत (धुत) जो विहुणइ कम्माई 'धुयं तं वियाणाहि। (आनि २५२) १. धियमीरयतीति धीरः । (अचि पृ ८०) २. 'धीर' का अन्य निरुक्त-धियं रातीति धीरः। (वा पृ ३८६६) जो धी/विवेक देता है, वह धीर है । (रांक्-दाने) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश धुतं णाम येन कर्माणि विधूयन्ते । (सूचू १ पृ ५३) जिसके द्वारा कर्मों को धुना जाता है, वह धुत साधना का एक अंग है। ८७२. धुवण (धुवन) धूयतेऽनेनेति धुवणं । (सूचू २ पृ ३५९) जिसके द्वारा गरीबी को धुत/प्रकंपित किया जाता है, वह धुवन कार्य/शिल्प है। ८७३. धुवनिग्गह (ध्रुवनिग्रह) ध्रुवं-कर्म, तद् निगृह्यतेऽनेनेति ध्रुवनिग्रहः । . (विभामहेटी १ पृ ३५४) _जो ध्रुव कर्म का निग्रह करता है, वह ध्वनिग्रह/आवश्यक सूत्र है। ८७४. धूय (धूत) धूयते इति धूतम् । (सूटी २ प ७४) जिसको प्रकंपित किया जाता है, वह धूत कर्म है । ८७५. धृया (दुहित) दोग्धि केवलं जननी स्तन्यार्थमिति दुहिता ।' (उशाटी प ३८) जो दूध के लिए केवल जननी का दोहन करती है, वह दुहिता/पुत्री है। १. 'दुहिता' के अन्य निरुक्तदोग्धि विवाहादिकाले धनादिकमाकृष्य गृह्णातीति दुहिता । ___जो विवाह आदि के अवसर पर माता-पिता आदि से धन आदि का दोहन ग्रहण करती है, वह दुहिता है। यद्वा दोग्धि गा इति दुहिता। (आर्षकाले कन्यासु एव गोदोहनभारस्थितेस्तथात्वम्) । (शब्द २ पृ ७३५) जो गायों का दोहन करती है, वह दुहिता है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'निरक्त कोश ८७६. घेवत (धैवत) अभिसन्धयते-अनुसंधयति शेषस्वरानिति धैवतः ।। (अनुद्वामटी प ११७) जो शेष सभी स्वरों का अनुसंधान करता है, वह धैवत/षष्ठ स्वर है। ८७७. पइ (पति) पाति-रक्षति तामिति पतिः । (उशाटी प ३८) जो पत्नी की रक्षा करता है, वह पति है। ८७८. पइट्ठा (प्रतिष्ठा) अपायावधारितमेवार्थ हदि प्रतिष्ठापयतः प्रतिष्ठा भण्यते । (नंटी पृ ५१) अपाय द्वारा गृहीत अर्थ को विकल्पपूर्वक प्रतिष्ठित करना प्रतिष्ठा/धारणा है। ८७६. पइट्ठा (प्रतिष्ठा) प्रतीत्य-- आश्रित्य तिष्ठन्त्यत्र दुःखाभिहताः प्राणिन इति प्रतिष्ठा। (उशाटी प ५०८) जहां दुःखी प्राणी आश्वस्त होकर रहते हैं, वह प्रतिष्ठा/ प्रतिष्ठान है। ८८०. पईव (प्रदीप) प्रदीप्यते इति प्रदीपः। (पिटी प ५) जिसे प्रदीप्त/प्रज्वलित किया जाता है, वह प्रदीप/ दीपकलिका है। ८८१. पएस (प्रदेश) प्रदिश्यते इति प्रदेशः ।। (सूचू २ पृ ४५१) जो पूछा जाता है, वह प्रदेश/प्रश्न है । १. गत्वा नाभेरधोभागं वस्ति प्राप्योर्ध्वगः पुनः। धावन्निव च यो याति कण्ठदेशं स धैवतः॥ (शब्द २पृ ८०७) २. प्रवचनस्य प्रश्न इत्यर्थः । (सूचू २ पृ ४५१) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० निरुक्त कोश ८८२. पएस (प्रदेश) प्रकृष्टो-निरंशो देशः प्रदेशः । (स्थाटी प २२) जो वस्तु का प्रकृष्ट/अविभाज्य देश/विभाग है, वह देश/ अवयव विशेष है। प्रकर्षेण सूक्ष्मा तिशयलक्षणेन दिश्यन्ते-कथ्यन्ते इति प्रदेशाः। (उशाटी प २५) जो अत्यंत सूक्ष्म कहे जाते हैं, वे प्रदेश हैं। ८८३. पओग (प्रयोग) प्रकर्षेण युज्यत इति प्रयोगः। (आटी प ६३) जो प्रकर्ष/सघनता से किया जाता है, वह प्रयोग है। ९८४. पंक (पङ्क) पतंत्यस्मिन्निति पंकः । (उचू पृ ७६) जिसमें प्राणी गिर जाते हैं, वह पंक कीचड़ है। पङ्कयतीति पङ्कः। (सूटी २ प ७४) जो पंकिल बनाता है, वह पंक है । ८८५. पंचम (पञ्चम) पञ्चानां षड्जादिस्वराणां निर्देशक्रममाश्रित्य पूरणः पञ्चमः । षड्ज आदि स्वर-क्रम में जो पञ्चम स्थान की पूर्ति करता है, वह पञ्चम (स्वर) है। पञ्चसु-नाभ्यादिस्थानेषु मातीति पञ्चमः (स्वरः)।' (अनुद्वामटी प ११७) १. 'पंक' का अन्य निरुक्त-- पञ्चयते विस्तार्यते जलेन पङ्कः। (अचि पू २४२) ___ जो जल के द्वारा विस्तृत होता है, वह पंक कीचड़ है। १. वायुसमुद्धतो नाभेरुरोहत्कण्ठमूद्ध सु । विचरन् पञ्चमस्थानमाप्त्या पञ्चम उच्यते ॥ प्राणोऽपानः समानञ्च उदानो व्यान एव च । एतेषां समवायेन जायते पञ्चमः स्वरः। (वा पृ ४१८६) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १७१ जो नाभि आदि पांच स्थानों में समाता है, वह पञ्चम (स्वर) है। ८८६. पंडित (पण्डित) पापाड्डीनः पंडितः ।' जो पाप से डयन/पलायन करता है, वह पंडित है । ... पण्डा वा बुद्धि तयानुगतः पण्डितः। (उचू पृ २८) जो पंडा/बुद्धि से संपन्न है, वह पंडित है । ८८७. पंत (प्रान्त) प्रगतं अन्तं प्रान्तम् । (उचू पृ १७५) जो अंतिम है, वह प्रान्त/बचाखुचा (भोजन) है। ८८८. पंथ (पथिन्) पद्यत इति पंथाः। (सूचू १ पृ ५८) जिस पर गति की जाती है, वह पथ है। ८८६. पंथपेहि (पथप्रेक्षिन्) पंथं पेहति पंथपेही। (आचू पृ ३१०) जो पथ को देखता है, वह पथप्रेक्षी है । ८६०. पंसु (पांशु) पश्यति पाश्यति वा पांशुः। (उचू पृ २०४) जो मलिन करती है, वह पांशु/धूल है । ८६१. पकप्प (प्रकल्प) प्रकृष्टकल्पाभिधायकत्वात् प्रकल्पः । (स्थाटी प ११३) १. 'पंडित' का अन्य निरुक्तपण्ड्यते तत्त्वज्ञानं प्राप्यतेऽस्मात् इति पण्डितः। (शब्द ३ प २०) तत्त्वज्ञान जिससे प्राप्त किया जाता है, वह पण्डित है । २. पथन्ति अस्मिन् पन्थाः । (अचि पृ २१६) (पथे गतौ) ३. पंशयति नाशयति आत्मानमिति पांशुः । (शब्द ३ पृ ८८). Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ निरुक्त कोश जो संपूर्णरूप से कल्प / आचार का प्रतिपादन करता है, वह प्रकल्प / निशीथसूत्र है । ८२. किरण ( प्रकिरण ) प्रदातुं कीर्यते विक्षिप्यते इति प्रकिरणम् ।' फलदान के लिए जिसे बिखेरा जाता है, है । ८३. पकुव्वय ( प्रकारिन् ) यः शुद्धि प्रकर्षेण कारयति स प्रकारीति । जो प्रकृष्ट रूप से शुद्धि करता है, दाता है । ८४. पकुव्वि ( प्रकुविन्) प्रकुर्वतीत्येवंशीलः प्रकुर्वी ।' ( व्यभा ३ टीप १८ ) जो उचित प्रायश्चित्त के द्वारा दोषसेवी की विशुद्धि करता है, वह प्रकुर्वी / आचार्य है । ८५. पक्खि (पक्षिन् ) पक्खा तेसि संतोति पक्खिणो । जिनके पक्ष / पंख हैं, वे पक्षी हैं । ८६. पग्गह (प्रग्रह) (व्यभा १ टीप ५) वह प्रकिरण / वपन ( स्थाटी प ४०६ ) वह प्रकारी / प्रायश्चित्त प्रगृह्यते - उपादीयते आदेयवचनत्वाद्यः स प्रग्रहः । ( स्थाटी प ३ ) आदेयवचन के कारण जिसका प्रग्रहण / स्वीकरण किया जाता है, वह प्रग्रह / सर्वमान्य नायक है । ( आचू पृ ३१४ ) १. प्र शब्दोऽत्र दाने । ( व्यभा १ टीप ५) २. कुर्व इत्यागम प्रसिद्धो धातुरस्ति यस्य विकुर्वणेति प्रयोगः । आलोचकेनालोचितेष्वपराधेषु यः सम्यक् प्रायश्चित्तप्रदानत आलोचकस्य विशुद्धिमुपजनयति स प्रकुर्वी । ( व्यभा ३ प १८ ) Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ८७. पच्चक्ख (प्रत्यक्ष ) जीवो अक्खो तं पति जं बट्टइ तं तु होति पच्चक्खं । " मन और इन्द्रिय से निरपेक्ष केवल ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष ( प्रमाण ) है । ८८. पच्चक्खाण (प्रत्याख्यान ) प्रमादप्रतिकूल्येन मर्यादया ख्यानं --कथनं प्रत्याख्यानम् ८६. पच्चय ( प्रत्यय ) प्रतीयतेऽनेनार्थ इति प्रत्ययः । अप्रमत्तभाव को जगाने के लिए जो मर्यादापूर्वक संकल्प किया जाता है, वह प्रत्याख्यान है । ६०० पच्चवाय ( प्रत्यपाय ) है । ०१. पच्चावट्टण (प्रत्यावर्तन ) ( जीतभा ११ ) अक्ष / आत्मा द्वारा जो ( उचू पृ २४ ) जिससे अर्थ / तत्त्व की प्रतीति होती है, वह प्रत्यय है । १७३ प्रत्यपाययति - प्रत्यपाये पातयतीति प्रत्यपायः । ( बृटी पृ १७१ ) जो प्रत्यपाय / विघ्न में डालता है, वह प्रत्यपाय / विराधना प्रतिपत्ति / ज्ञानपूर्वक मतिज्ञान का एक भेद है । ०२. पच्चु पन्त ( प्रत्युत्पन्न ) ( स्थाटी प ४१ ) प्रतिपत्त्याऽऽवर्तनं प्रत्यावर्त्तनम् । ( नंटी पृ ५१ ) आवर्तन करना प्रत्यावर्तन / अवाय / २. विधिनिषेधविषया प्रतिज्ञेत्यर्थ: । ( स्थाटी प ४१ ) साम्प्रतमुत्पन्नं प्रत्युत्पन्नम् । १. अश्नाति - भुङ्क्ते अश्नुते वा - व्याप्नोति ज्ञानेनार्थानित्यक्ष:आत्मा तं प्रति यद् वर्त्तते इन्द्रियमनोनिरपेक्षत्वेन तत्प्रत्यक्षम् । ( स्थाटी प ४६ ) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ निरुक्त कोश जो तत्काल / वर्तमान में उत्पन्न होता है, वह प्रत्युत्पन्न है । प्रति प्रति वोत्पन्नं प्रत्युत्पन्नम् । ( आवहाटी १ पृ १८९ ) जो व्यक्ति व्यक्ति में भिन्न रूप से उत्पन्न होता है, वह प्रत्युत्पन्न है । ६०३. पच्छण्णपडिसेवि (प्रच्छन्नप्रतिसेविन् ) प्रच्छन्नं प्रतिसेवत इति प्रच्छन्नप्रतिसेवी । ( स्थाटी प २११ ) जो छिप छिप कर दोषों की प्रतिसेवना करता है, वह प्रच्छन्नप्रतिसेवी है | ०४. पच्छाणुपुव्वि (पश्चानुपूर्विन् ) पाश्चात्यः ---- - चरमस्तस्मादारभ्य व्यत्ययेनैवानुपूर्वी - परिपाटिः विरच्यते यस्यां स पश्चानुपूर्वी । ( अनुद्वामटी प ६७ ) जो पाश्चात्य / अंतिम बिंदु से प्रारंभ होकर उल्टेरूप में क्रम निर्धारित करता है, वह पश्चानुपूर्वी है । ०५. पच्छित ( प्रायश्चित्त) पायेण वा वि चित्तं सोहयई तेण पच्छित्तं । ( जीतभा ५ ) प्रायः बाहुल्येन चित्तं - जीवं शोधयति मूलोत्तरगुणविषयातीचारजनितकर्ममलमलिनं निर्मलं करोतीति प्रायश्चित्तम् । ( प्रसाठी प ६७ ) जो प्रायः चित्त का शोधन कर देता है, वह प्रायश्चित्त है । . १०६. पजणण ( प्रजनन ) प्रजन्यते अनेनेति प्रजननं । ०७. पजा (प्रजा) ( सूचू १ पृ १०२ ) जिसके द्वारा पैदा किया जाता है वह प्रजनन / शिश्न है । प्रकर्षेण जायते पाकनिष्पत्तिरस्यामिति प्रजा । है । (व्यभा ६ टी प ४) जिसमें प्रकृष्ट रूप से अन्न आदि पकता है, वह प्रजा / चुल्ही Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ०८. पज्जय ( पर्याय ) -६०६. पज्जव (पर्यव ) परि - समन्ताद् आयः पर्यायः । ( नंटि पृ ११२ ) जिसमें चारों ओर से आय / प्राप्ति होती है, वह पर्याय है । परि-समन्तादवन्ति - अपगच्छन्ति न तु द्रव्यवत् सर्वदैवावतिष्ठन्त इति पर्यवाः । जो द्रव्य की तरह सदैव एक रूप में न रहकर बदलते रहते हैं, वे पर्यव हैं । १७५ परि --- समन्ताद् अवनानि गमनानि द्रव्यस्यावस्थान्तरप्राप्तिरूपाणि पर्यवाः । जिनसे द्रव्य अवस्थान्तर को प्राप्त होते हैं, वे पर्यव हैं । परि-सामस्त्येन एति - अभिगच्छति व्याप्नोति वस्तुतामिति पर्यायाः । ( अनुद्वामटी प १०१ ) जो संपूर्णरूप से वस्तु में व्याप्त हो जाते हैं, वे पर्याय हैं । १०. पज्जुसणा (पर्युषणा ) सव्वासु दिसासु ण परिब्भमंतीति पज्जुसणा । (दश्रुचू प ५२ ) किसी भी दिशा में परिभ्रमण नहीं करना पर्युषणा है । परि सर्वथा वसनं एकत्र निवासो निरुक्तविधिना पर्युषणा ।' ( प्रसाटी प १८७ ) परि / सर्वथा एक स्थान पर रहना पर्युषणा है । ११. पज्जोसवणा (पर्युपशमना) परीति - सर्वतः क्रोधादिभावेभ्यः उपशम्यते यस्यां सा पर्युप( स्थाटी प ४८९ ) शमना । जिस (पर्व) में क्रोध आदि कषायों से सर्वथा उपशांत रहा जाता है, वह पर्युपशमना / पर्युषण है । १. परि सर्वथा एक क्ष ेत्रे जघन्यतः सप्तविनानि उत्कृष्टतः षण्मासान् वसनं पर्युषणा । ( स्थाटी प ४६६ ) Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ निरुक्त कोश ६१२. पज्जोसवणा (पर्यासवना) पर्याया-ऋतुबद्धिकाः द्रव्यक्षेत्रकालभावसम्बन्धिन उत्सृज्यन्ते -उज्ज्यन्ते यस्यां सा पर्यासवना। (स्थाटी प ४८६) जिसमें ऋतुबद्ध विहार के सारे पर्याय छोड़ दिए जाते हैं, वह पर्यासवना/पर्युषणा है। ९१३. पज्जोसवित (पर्युषित) परीति सामस्त्येनोषिता पज्जोसविता। (स्थाटी प २६८) सम्पूर्णरूप से (धर्माराधना में) निवास करना पर्युषित ६१४. पट्टन (पत्तन) पतन्ति तस्मिन् समस्तदिग्भ्यो जना इति पत्तनम् । (उशाटी प ६०५) जहां सभी दिशाओं से लोग आते हैं, वह पत्तन है। ९१५. पडिक्कमण (प्रतिक्रमण) प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणं । (आवचू २ पृ ५२) (सद्भाव में) पुनः लौट आना प्रतिक्रमण है । ६१६. पडिच्छिअ (प्रतीच्छिक) गच्छान्तरादागत्य सूत्रस्यार्थस्य वा प्रतीच्छनं प्रतीच्छा, तया । चरति प्रतीच्छिकः। (व्यमा ४/१ टी प ७६) एक गण से दूसरे गण में आकर सूत्र और अर्थ का ग्रहण प्रतीच्छा है । जो प्रतीच्छासेवी है, वह प्रतीच्छिक है। ६१७. पडिबोहग (प्रतिबोधक) प्रतिबोधयतीति प्रतिबोधकः । (नंटी पृ ५२) जो प्रतिबोध देता है, वह प्रतिबोधक है। ६१८. पडिमाढाइ (प्रतिमास्थायिन्) प्रतिमया-एकरात्रिक्यादिकया कायोत्सर्गविशेषेणैव तिष्ठतीत्येवंशीलो यः स प्रतिमास्थायी । (स्थाटी प २८८) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश १७७ ___ जो (एकरात्रिक आदी) प्रतिमा में स्थित है, वह प्रतिमा स्थायी है। ६१६. पडिमाण (प्रतिमान) जण्णं पडिमिणिज्जइ (पडिमाणं)। (अनुद्वा ३८४) जिससे तोला जाता है, वह प्रतिमान है। प्रतिमीयतेऽनेन गुंजादिना प्रतिरूपं वा मानं प्रतिमानं ।। __ (अनुद्वाहाटी पृ ७६) प्रतिरूप/सदृश मान/तुला प्रतिमान है। ६२०. पडिलेहय (प्रतिलेखक) प्रतिलिखतीति प्रतिलेखकः। (ओटी प १३) जो प्रतिलेखन/वस्तु-निरीक्षण करता है, वह प्रतिलेखक है। ६२१. पडिवाइ (प्रतिपाति) प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति । (स्थाटी प ३५६) जो पतनशील है, वह प्रतिपाती है। ६२२. पडिसलीण (प्रतिसंलीन) क्रोधादिकं वस्तु वस्तु प्रतिसम्यग्लीन निरोधवन्तः प्रतिसंलीनाः। ___ (स्थाटी प २००) जिन्होंने क्रोध आदि का सम्यक् लय किया है, वे प्रतिसंलीन हैं। ९२३. पडिसग (प्रतिश्रय) प्रतिश्रीयत इति प्रतिश्रयः। (बृटी पृ ६२५) ___ जो आश्रय देता है, वह प्रतिश्रय/उपाश्रय/मुनि का निवास स्थान है। ६२४. पडिसुणणा (प्रतिश्रवण) प्रतिश्रूयते—अभ्युपगम्यते यत् तत् प्रतिश्रवणम् । (पिटी १ प ३६) जिसको प्रतिश्रुत स्वीकृत किया जाता है, वह प्रतिश्रवण है Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ निरुक्त कोश ९२५. पडिसेवअ (प्रतिसेवक) प्रतिषिद्धं सेवते इति प्रतिसेवकः। (व्यभा १ टी प १६) ___जो प्रतिषिद्ध/निषिद्ध का सेवन करता है, वह प्रतिसेवक है। ९२६. पडिसेवणा (प्रतिसेवना) सम्यगाराधनविपरीता प्रतिगता वा सेवना प्रतिसेवना । (स्थाटी प ३२४) प्रतिकूल आसेवन आचरण करना प्रतिसेवना है। १२७. पडिसेह (प्रतिषेध) प्रतिषिध्यतेऽनेनेति प्रतिषेधः । (बृटी पृ २६१) जिससे निषेध किया जाता है, वह प्रतिषेध है । ६२८. पडिहारिय (प्रतिहार्य) प्रतिहरणीयं प्रतिहार्य । (दश्रुचू प २२) जो पुनः देने योग्य है, वह प्रतिहार्य (वस्तु) है। ९२६. पडोयार (प्रत्यवतार) प्रति सर्वतः सामस्त्येन अवतीर्यते-व्याप्यते यैस्ते प्रत्यवताराः। (प्रज्ञाटी प ५३२) जो परितः अवतरित/व्याप्त हैं, वे प्रत्यवतार/परिधियां हैं। ९३०. पडोयर (प्रत्यवतार) प्रत्यवतार्यते पात्रमस्मिन्निति प्रत्यवतारः। (पिटी प १३) जिसमें पात्र का प्रत्यवतरण/स्थापन किया जाता है, वह प्रत्यवतार/झोली है। ९३१. पणामअ (प्रणामक) प्रणामयन्तीति प्रणामकाः। (सूचू १ पृ ६७) जो अत्यन्त नीचे झुकाते/गिराता हैं, वे प्रणामक कामभोग हैं। ९३२. पणिहाण (प्रणिधान) प्रकर्षेण नियते आलम्बने धानं-धरणं मनःप्रभृतेरिति प्रणिधानम् । (भटी पृ १३८१) Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १७६ मन को निश्चित आलम्बन पर संपूर्णरूप से टिका देना प्रणिधान है । ३३. पणिहि (प्रणिधि ) प्रणिधीयते प्रणिधिः । ( दजिचू पृ २७१ ) जिससे प्रणिधान / एकाग्रता होती है, वह प्रणिधि / समाधि है । ३४. पणीतत्थ (पणितार्थ ) पणीयो- परभवं जस्स जीवितत्थो सो पणीतत्थो । ( अचू पू १७४ ) जो अर्थ / धन के लिए जीवन की पणित / बाजी लगा देता है, वह पणितार्थ / चोर है । ε३५. पणीय ( प्रणीत ) प्रकरिसेण णीतं प्रणीतं । ( नंचू पृ ४६ ) जो प्रष्ट रूप में नीत / ग्रथित है, वह प्रणीत है । ३६. पीयरस (प्रणीत रस ) ह- लवण-संभारातीहि प्रकरिसेण सुरसत्तं णीतं पणीतरसं । जो प्रकृष्ट रूप से (घृत, लवण, मशाले स्वादिष्ट बनाया जाता है, वह प्रणीतरस (भोजन) है | ३७. पण्णग ( पण्यक ) पण्णंति तमिति पण्णगम् । ३८. पण्णत्त (प्रज्ञप्त ) ( सू २ पृ ४२५ ) जिसका सौदा किया जाता है, वह पण्य / विक्रेय वस्तु है । पहाणपण अवाप्तं पण्णत्तं । ( अचू पृ १६६ ) आदि के द्वारा ) पहाणपण्णातो अवाप्तं पण्णत्तं । जो विशेष प्रज्ञावान् से प्राप्त है, वह प्रज्ञप्त जो विशेष प्रज्ञा से प्राप्त है, वह प्रज्ञप्त है । I Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० निरुक्त कोश पण्णा-बुद्धी ताए अवाप्तं पण्णत्तं । (नंचू पृ १३) जो बुद्धि से गृहीत है, वह प्रज्ञप्त है। ६३६. पण्णत्त (प्राज्ञाप्त) प्राज्ञात्-तीर्थकरादाप्तं प्राप्तं गणधरैरिति प्राज्ञाप्तम् । जो प्राज्ञ/तीर्थंकरों से गणधरों द्वारा प्राप्त किया गया है, वह प्राज्ञाप्त है। प्राजः—गणधरैस्तीर्थकरादात्तं-गृहीतमिति प्राज्ञाप्तम् । जो प्राज्ञ/गणधरों द्वारा प्राप्त है, वह प्राज्ञाप्त है। प्रज्ञया आप्त---प्राप्तं प्राज्ञाप्तम् । (अनुद्वामटी प २) जो प्रज्ञा द्वारा प्राप्त है, वह प्राज्ञाप्त है। ९४०. पण्णवग (प्रज्ञापक) पण्णवतीति पण्णवयो। (दअचू पृ २३३) जो मोक्षमार्ग का प्रज्ञापन/प्ररूपण करता है, वह प्रज्ञापक/ मुनि है। ६४१. पण्णवणा (प्रज्ञापना) प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते जीवादयो भावा अनया शब्दसंहत्या इति (प्रज्ञाटी प ४) जिसमें जीव आदि पदार्थों का प्ररूपण है, वह प्रज्ञापना (सूत्र) है। ९४२. पण्णवणी (प्रज्ञापनी) पण्णविज्जति तीए इति पण्णवणी। (दअचू पृ १५६) जो प्रज्ञापन/निरूपण करती है, वह प्रज्ञापनी/भाषा है। ९४३. पण्णा (प्रज्ञा) प्रज्ञायते अनयेति प्रज्ञा। (सूचू २ पृ ३५४) जिससे विशेष जाना जाता है, वह प्रज्ञा है। प्रज्ञापना। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश १५१ ९४४. पण्णा (प्रज्ञा) प्रज्ञा अस्यां जायत इति पण्णा।' (दश्रुचू प ३) जिस वय में प्रज्ञा उत्पन्न होती है, वह प्रज्ञा (अवस्था) है । ९४५. पण्णाण (प्रज्ञान) प्रकर्षण ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञानम् । (आटी प २३३) जिसके द्वारा उत्कृष्ट रूप में जाना जाता है, वह प्रज्ञान है । ९४६. पण्णावग (प्रज्ञापक) प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापकः।। (नंटी पृ ५२) जो अच्छे प्रकार से ज्ञापन करता है| बताता है, वह प्रज्ञापक ६४७. पतंग (पतङ्ग) पंतं पतंतीति पतंगा। (उचू पृ २०६) जो फुदक फुदक कर चलते हैं, वे पतंग कीटविशेष हैं। ९४८. पतग्गह (पतद्ग्रह) पतत् भक्तं पानं वा गृह्णातीति पतद्ग्रहः। (राटी पृ २९२) ___ जो गिरते हुए भक्त-पान को ग्रहण करता है, वह पतद्ग्रह/ पात्र है। ९४६. पतत्त (पतत्र) पतन्तं त्रायन्तीति पतत्राणि । (सूचू १ पृ २२८) जो गिरते हुए की रक्षा करते हैं, वे पतत्र/पंख हैं। ६५०. पतिभा (प्रतिभा) तांस्तान् प्रति अर्थान् भातीति प्रतिमा। जो अर्थो/रहस्यों को प्रकट करती है, वह प्रतिभा है। १. पंचमि तु दसं पत्तो, आणुपुग्वीइ जो नरो। ___ इच्छियत्थं विचितेइ, कुटुंबं वाभिकंखई । (दटी प ८) २. पतः गच्छति पतङ्गः। (अचि पृ २७२) पतन् उत्प्लवन् गच्छति पतङ्गः। (वा पृ ४२०४) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१८२ पभणति वा पतिभा । ५१. पत्त (पात्र) जो प्रकर्षरूप से कथन करती है, वह प्रतिभा है । पतन्तमाहारं पातीति पात्रम् ५२. पत्त (पत्र) パ ( आटी प २७६ ) जो गिरते हुए आहार को धारण करता है, वह पात्र है । पात्यतेऽनेनात्मा तमिति पत्रम् | ( सूचू २ पृ ३४७) जिसके द्वारा पक्षी उड़ान भरता है, वह पत्र / पंख है । पतन्तं त्रायत इति पत्रम् | ( उशाटी प २६६ ) जो गिरते हुए की रक्षा करता है, वह पत्र / पंख है | ६५३. पत्ती (पत्नी) पाति तमिति पत्निः । ५४. पत्तोय ( पत्रोपग ) जिसकी रक्षा की जाती है, वह पत्नी है । पत्राण्युपगच्छति - प्राप्नोति पत्तोपगः । ५५. पत्थार ( प्रस्तार ) प्रस्तीर्यत इति प्रस्तारः । निरुक्त कोश ( सूचू १ पृ २३३) जो पत्तों से युक्त होते हैं, वे पत्रोपग / वृक्ष हैं । चटाई है । ५६. पद (पद) गम्मते इति पदं । १. 'पात्र' के अन्य निरुक्त पाति आधेयं पात्रम् । जो आधेय की रक्षा करता है, वह पात्र है । पीयतेऽस्मादिति पात्रम् । (अचि पृ २२७ ) जिससे पान किया जाता है, वह पात्र है । ( बृटी पृ ६६१) जिसे प्रस्तारित किया जाता है / फैलाया जाता है, वह प्रस्तार / ( उच् पृ २०८ ) ( स्थाटी प १०७ ) ( दअचू पृ ३६ ) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश १५३ पद्यतेऽनेन पदम् । (दटी प ८७) जिससे चला जाता है, वह पद/पैर हैं। ९५७. पद (पद) पद्यतेऽनेनेति पदं। (सूचू १ पृ ५६) जिसके द्वारा जाया जाता है, वह पद/मार्ग है । ६५८. पदपास (पदपाश) पदं पाशयतीति पदपाशः। (सूचू १ पृ ३३) जो पद/पैर को बांधता है, वह पादपाश/जाल है । ६५६. पभंगुर (प्रभंगुर) भिसं भंगसीलं पभंगुरं । (आचू पृ २०५) जो अत्यन्त विनाशधर्मा है, वह प्रभंगुर शरीर है। ९६०. पभावणा (प्रभावना) प्रभाव्यते विशेषतः प्रकाश्यते इति प्रभावना। (व्यभा १ टी प २७) किसी वस्तु को प्रकर्ष से प्रकाश में लाना प्रभावना है। ६६१. पभु (प्रभु) प्रभवतीति प्रभुः। (सूचू १ पृ १५०) जो समर्थ होता है, वह प्रभु है । ९६२. पमत्त (प्रमत्त) प्रमाद्यन्ति–संयमयोगेषु सीदन्ति स्म प्रमत्ताः। (प्रज्ञाटी प ४२४) जो संयमयोगों में प्रमाद/आलस्य करते हैं, वे प्रमत्त हैं । ६६३. पमाण (प्रमाण) प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम् । (उचू प ११) जिससे मापा जाता है, वह प्रमाण है। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ६४. पमेदिल (प्रमेदुर) अतीव मेदो जस्स सो पमेइलो । ६५. पमोक्ख ( प्रमोक्ष) जो अधिक मेद / वसा वाला है, वह प्रमेदुर है । प्रकर्षेण मोक्षयति — मोचयतीति प्रमोक्षः । ६६. पय (पद) पद्यते - गम्यते इति पदम् । जो सर्वथा मुक्त करता है, वह प्रमोक्ष है । ६७. पयला ( प्रचला ) ( स्थाटी प २१७ ) जिसके द्वारा जाना जाता है, वह पद / संख्यास्थान है । उपविष्ट ऊर्ध्वस्थितो वा प्रचलत्यस्यां स्वापावस्थायामिति प्रचला । ( स्थाटी प ४२८ ) जिस निद्रा में घर् घर् शब्द सुनाई है । ६८. पया (प्रजा) : नींद के कारण जिसमें बैठे-बैठे या खड़े-खड़े सिर का प्रचलन / डोलना होता है, वह प्रचला / निद्रा - विशेष है । प्रचलति घूर्णतेऽस्यामिति प्रचला । पयांति पजणेंति वा पया । ६६. पयायसाल (प्रजातशाल) ( दजिचू पृ २५३ ) जो पैदा करती हैं, वे प्रजा /स्त्रियां हैं । निरुक्त कोश पयायसाला / ( उशाटी प ६२१ ) वृक्ष है | (प्राक १ टी पृ १४) देता है, वह प्रचलान धविणिग्गता डालमूला साला जेसि पकरिसेण जाता ते ( दअचू पू १७२ ) जिस वृक्ष के अत्यधिक शालाएं / शाखाएं हैं, वह प्रजातशाल / ( आचू पृ ११६ ) Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - निरुक्त कोश ७०. पयोद ( पयोद ) पयं ददातीति पयोदो । ७१. परंतम (परंतम ) जो पय/ पानी देता है, वह पयोद / बादल है । परं - शिष्यादिकं तमयतीति परंतमः । ७२. परंदम ( परन्दम ) परे य दमयतीति परंदम । ( स्थाटी प २०७ ) जो शिष्यों को तमित / नियंत्रित करता है, बह परंतम है । ६७३. परक्कम (पराक्रम ) पराक्रमन्ते णेण परक्कमो । जो दूसरों का दमन करता है, वह परंदम है । ७४. परक्कम (पराक्रम ) परा (न्) क्रमतीति पराक्रमः । जिससे दूरी पार की जाती है, वह पराक्रम / मार्ग है | ७५. परग्घ ( परार्ध्यं ) परमो जस्स अग्घो तं परग्धं । ९७६ परतरग (परतरक) ( दजिचू पृ २६३ ) ( आवचू पृ ४८६ ) जो दूसरों को आक्रान्त / परास्त करता है, वह पराक्रम है । ७७. परपंडित (परपण्डित ) परः -- प्रकृष्टः पण्डितः परपण्डितः । १८५ (उच् पृ १६० ) जिसका उत्कृष्ट अर्ध्य / मूल्य है, वह परार्ध्य है । ( अचू १ पृ १०० ) ये तपः कर्तुमसमर्था वैयावृत्यं चाचार्यादीनां कुर्वन्ति ते परं तारयान्तीति परतरकाः । (व्यभा ३ टीप ३) जो दूसरों को तारते हैं, सेवा करते हैं, वे परतारक हैं । जो प्रकृष्ट पण्डित है, वह परपण्डित है । ( अचू पृ १७५) ( स्थाटी प ४३२) Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ निरुक्त कोशः ९७८. परपरिवाय (परपरिवाद) परेषामपवदनं परपरिवादः । (भटी पृ १०५१) पर दूसरों का अपवाद/निंदा करना परपरिवाद (पाप) ९७९. परम (परम) परं माणं जस्स तं परमं । (आचू पृ १११) जिसका मान-परिमाण उत्कृष्ट है, वह परम है। ९८०. परमचक्खु (परमचक्षुष्) परं--केवलनाणं तं जस्स चक्खु परमचक्खू । (आचू पृ १७०) ___ जिसका चक्षु परम/उत्कृष्ट ज्ञान है, वह परमचक्षु है । ६८१. परमट्ठपय (परमार्थपद) परमः-प्रधानः अर्थः परमार्थो—मोक्षः स पद्यते-गम्यते यस्तानि परमार्थपदानि । (उशाटी प ४८७) जिनके द्वारा परम-अर्थ / मोक्ष प्राप्त होता है, वे परमार्थपद/ सम्यक्-दर्शन आदि हैं। ९८२. परमट्ठाणुगामिय (परमार्थानुगामिक) ज्ञानादयो वा परमार्थाः तान् अनुगच्छतीति परमार्थानुगामिकः । (सूचू १ पृ १७६) जो परमार्थ ज्ञान आदि का अनुगमन करते हैं, वे परमार्था नुगामिक हैं। ९८३. परमदंसि (परमशिन्) परो संजमो मोक्खो वा, परं पस्सतीति परमदंसी । __(आचू पृ ११४) जो परम/संयम/मोक्ष को देखता है, वह परमदर्शी है । ९८४. परमसंजत (परमयंयत) परमः-प्रधानः स चेह मोक्षस्तदर्थं सम्यग् यतते परमसंयतः । (उशाटी प ६६५) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १८७ . जो परम/मोक्ष के लिए सम्यक् प्रयत्न करते हैं, वे परम संयत हैं। ९८५. पराघाय (पराघात) परानाहन्ति पराघातनाम । (प्राक १ टी पृ ३३) जो दूसरों का हनन घात करता है, वह पराघात (नामकर्म) ९८६. पावाउय (प्रावादुक) भृशं वदंतीति प्रावादुकाः। (सूचू २ पृ ३७१) जो पुनः पुनः अपने मत का प्रतिपादन करते हैं, वे प्राव दुक मतप्रवर्तक हैं। ६८७. परिग्गह (परिग्रह) परिगृह्यत इति परिग्रहः । (प्रटी प ६३) जिसका परिग्रहण/स्वीकरण किया जाता है, वह परिग्रह ६८८. परिचियसुय (परिचितश्रुत) परिचितमत्यन्तमभ्यस्तीकृतं श्रुतं येन स परिचितश्रुतः । (व्यभा ३ टी प ६७) जिसने श्रुत को परिचित अभ्यस्त कर लिया है, वह परि चितश्रुत है। ६८९. परिजिय (परिजित) परि-समन्तात् सर्वप्रकारैजितं परिजितम् । (अनुद्वामटी प १४) जो सब प्रकार से जित/स्मृत है, वह परिजित/परिचित (श्रुत) है। ६६०. परिणचारि (परिज्ञचारिन्) परिणा–ज्ञानं परिण्णा चरतीति परिण्णचारी। (आचू पृ ३८१) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश जो परिज्ञा/ज्ञानपूर्वक आचरण करता है, वह परिज्ञचारी ६६१. परिणिट्ठिय (परिनिष्ठित) परि–समन्तान्निष्ठितः परिनिष्ठितः। (प्रसाटी प २२२) जो सर्वथा निष्ठित/पूर्ण हो जाता है, वह परिनिष्ठित है। ९६२. परिणिव्वाण (परिनिर्वाण) परि-समन्तान्निर्वाणं-सकलकर्मकृतविकारनिराकरणतः स्वस्थीभवनं परिनिर्वाणम् । (स्थाटी प २२) __जो सर्वथा कर्मविकार का निराकरण/निरसन करता है, वह परिनिर्वाण/मोक्ष है। ६६३. परिताण (परितान) परितन्यत इति परितानः। (सूचू १ पृ. ३२) जो फैलाया जाता है, वह परितान/जाल है। ६६४. परियाण (परियान) परियायते-गम्यते यस्तानि परियानानि । (स्थाटी प ४२१) जिनके द्वारा गमन किया जाता है, वे परियान वाहन हैं । ६६५. परियाणिय (परियानिक) परियान-गमनं तत् प्रयोजनमस्येति परियानिकम् । (बृटी पृ १०८१) जो परियान/गमन के काम आता है, वह पारियानिक/वाहन ६६६. परियारग (परिचारक) परिचरन्ति–सेवन्ते स्त्रियमिति परिचारकाः। (स्थाटी प ६५) जो परिचरण/मैथुन सेवन करते हैं, वे परिचारक हैं । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ६६७ परिरय ( परिरय ) परि समन्ताद् रयणं परिरयः । है । ६८. परिवसणा (परिवसना ) ( बृटी पू ३०२ ) परितः / चारों ओर से रयण / भ्रमण परिरय / परिभ्रमण पागतिया गिहत्था एगत्थ चत्तारि मासा परिवर्ततीति परिवसणा । (दश्रुचू पृ ५२ ) साधारण गृहस्थ जिसमें चार मास तक एक स्थान पर रहते हैं, वह परिवसना / वर्षावास है । SEE परिवाय (परिपात ) परिपातो वा गुणेभ्यः परिपातनमिति । (भटी पृ १०५१ ) गुणों से पतित करना परिपात / निंदा है । १०००. परिवायअ ( परिव्राजक ) पावाइं परिहरतो पारिव्वातो । परिसमन्तात् पापवर्जनेन व्रजति - गच्छतीति १००१. परिवेसण ( परिवेषण) परिवेष्यते - भोजनं दीयते येभ्यस्ते परिवेषणाः । १८६ परिव्राजकः । जो पूर्णरूप से पाप का वर्जन कर व्रजन / गमन करता है, वह परिव्राजक है । १. श् - गतिरेषणयोः । ( दजिचू पृ ३७ ) जिनको भोजन परोसा जाता है, वे परिक्षण हैं । १००२. परिसप्प ( परिसर्प ) परि-समन्तात्सर्पन्ति - गच्छन्तीति परिसर्पाः 1 ( दटी प ८४ ) (पिटीप १०५) ( उशाटी प ६६६ ) जो संपूर्ण शरीर से सर्प / गमन करते हैं, वे परिसर्प हैं । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. निरक्त कोश १००३. परिसा (परिषद्) परितः सर्वतः सीदति परिषत् । (दश्रुचू प ७०) जहां चारों ओर लोग बैठे रहते हैं, वह परिषद् है । १००४. परिसाडण (परिशाटन) परिशटति परिभ्रश्यति इति परिशाटनानि । परिशाट्यन्ते इति परिशाटनानि । (व्यभा १ टी प ५) जिन्हें परिशाटित/विकीर्ण किया जाता है, वे परिशाटन/ बीज हैं। १००५. परिस्सव (परिस्रव) परि-समन्तात् सवति-गलति यैरनुष्ठानविशेषैस्ते परिस्रवाः । (आटी प १८१) जिन अनुष्ठानों से सर्वतः परिस्रवण निर्जरण होता है, वे परिस्रव/निर्जरास्थान हैं। १००६. परिहरण (परिहरण) परिह्रियते इति परिहरणम् । (व्यभा २ टी प १०) ___ परिहार करना/छोड़ना परिहरण है । १००७. परिहार (परिहार) परिहार्यते इति परिहारः। परिहियते वय॑ते च अस्मात् परिहारः। (निचू ४ पृ ३८८) __ जिससे प्राप्त प्रायश्चित्त का वहन और दोष का वर्जन शोधन होता है, वह परिहार/प्रायश्चित्त का एक प्रकार है। १००८. परीसंह (परीषह) परिसहिज्जते इति परीसहा । (आवचू २ पृ १३९) जो सहन किए जाते हैं, वे परीषह हैं। १००६. परूवणा (प्ररूपणा) साधु प्रकृष्टा प्रधाना प्रगता प्ररूपणा वर्णानां प्ररूपणा । (आवचू १ पृ ५०४) Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १६१ वर्णों ( शब्द - शास्त्र ) का जो प्रकृष्ट प्रतिपादन है, वह प्ररूपणा है । १०१०. परोक्ख ( परोक्ष ) परओ पुण अक्खस्सा, वट्टत होइ पारोक्खं । अक्खो जीवो तस्स जं परतो तं परोक्खं । अक्ष / आत्मा से व्यक्तिरिक्त (इन्द्रिय ज्ञान होता है, वह परोक्ष है । परैरुक्षा -- सम्बन्धनं जन्यजनकभावलक्षणमस्येति परोक्षम् । ( जीतभा ११ ) ( आवचू १ पृ ७) आदि के द्वारा ) जो जिसका जन्य - जनकभावलक्षणरूप उक्षा / संबंध पर / दूसरों से होता है (आत्मा से नहीं ), वह परोक्ष है | १०११. पलास ( पलाश ) पलं असतीति पलासो । १०१२. पलिउंचण (पलिकुञ्चन ) ( स्थाटी प ४६ ) जो पल / मांस खाता है, वह पलाश / राक्षस है । परि - समन्तात् कुञ्चयन्ते —— वक्रतामापाद्यन्ते येन कुञ्चनम् । जिसके द्वारा सारी प्रवृत्ति वक्र हो जाती है, वह पलिकुञ्चन / माया है । १०१३. पलिमंथु ( परिमन्धु) ( अनुद्वा ३२१ ) प्रतिकुंच्यते अन्यथा प्रतिसेवितमन्यथा कथ्यते यया सा प्रतिकुंचना । ( व्यभा १ टी प ५० ) जिसके द्वारा प्रतिकुंचित किया जाता है / छिपाया जाता है, वह प्रतिकुंचना /माया है । तत्पलि ( सूचू १ प १७ ) पगरिसेण संजमो मंथिज्जति जेण सो पलिमंथो । परि - सर्वतो मथ्नन्ति - विलोडयन्ति परिमन्यवः । ( निचू २ पृ २३७ ) ( बृटी पृ १६६७ ) Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ निरुक्त कोश जो सब ओर से (संयम को ) मथ डालता है, वह परिमन्धु / व्याघात है । १०१४. पलीण ( प्रलीन ) पइ पइ लीणा उ होंति तु पलीणा । मोहादी वा पलयं जेसि गया ते पलीणा तु ॥ ' प्रलीन हैं । जो पद पद पर लीन हैं, वे प्रलीन हैं । जिनके क्रोध आदि ( कषाय ) प्रलय को प्राप्त हो गए हैं, वे १०१५. पलंब ( प्रलम्ब ) प्रलम्बते इति प्रलम्बः । जो लटकता है, वह प्रलम्व है । १०१६. पलंब ( प्रलंब ) है । १०१७. पल्लवगाहि ( पल्लवग्राहिन् ) प्रकर्षेण वृद्धि याति वृक्षोऽस्मादिति प्रलम्बम् । (व्यभा २ टीप २) जिसके द्वारा वृक्ष वृद्धि को प्राप्त होता है, वह प्रलंब / मूल ( जीतभा ६६५ ) १०१८. पल्ली ( पल्ली ) अपरापरशास्त्रतरूणां पल्लवान् — तन्मध्यगतालापक - श्लोक-गाथारूपान् सूत्रार्थलवान् स्वरुच्या ग्रहीतुं शीलमस्येति पल्लवग्राही । ( बृटी पृ २३५ ) जिसका पल्लव / थोड़ा थोड़ा या बीच-बीच से ग्रहण करने का स्वभाव है, वह पल्लवग्राही / अपूर्ण ज्ञाता है । (राटी पृ १०८ ) पाल्यन्तेऽनया दुष्कृत विधायिनो जना इति पल्ली । १. प्रकर्षेण लीना लयं विनाशं गताः क्रोधादय येषामिति प्रलीनाः । ( व्यभा १० टी प ६० ) ( उशाटी प ६०५ ) Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश १९३ जो पापकारी प्रवृत्ति करने वाले लोगों का पालन/संरक्षण करती है, वह पल्ली/छोटा गांव है। १०१६. पल्हायणिज्जा (प्रह्लादनीया) प्रह्लादयतीति प्रह्लादनीया। (प्रज्ञाटी प ३६६) जो प्रह्लाद/आनन्द उत्पन्न करती है, वह प्रह्लावनीया है। १०२०. पवंचा (प्रपञ्चा) प्रपञ्चते-व्यक्तीकरोति प्रपञ्चति वा विस्तारयति खेलकासादि या सा प्रपञ्चा । जो श्लेष्म, खांसी आदि रोगों को प्रपञ्चित/विस्तृत और व्यक्त करती है, वह प्रपंचा (जीवन के सातवें दशक की अवस्था) है। प्रपञ्चयति वा-संसयति आरोग्यादिति प्रपञ्चा। (स्थाटी प ४६७) जो आरोग्य से दूर करती है, वह प्रपञ्चा है । १०२१. पवत्ति (प्रवर्तिन्) तवसंजमजोगेसु जो जोगो तत्थ तं पवत्तेइ । असहं च नियत्तेइ गणतत्तिल्लो पवत्तीओ।। यथोचितं प्रशस्तयोगेषु साधून प्रवर्तयतीति प्रवर्तकः । (प्रज्ञाटी प २४) जो साधुओं को प्रशस्त योगों में प्रवृत्त करता है, वह प्रवर्तक १०२२. पवन (पवन) पवतीति पवणो। पवते पुनातीति वा पवनः । जो तेज चलता है, वह पवन है। जो पवित्र करता है, वह पवन/वायु है। (अनुद्वा ३२०) (पिटी ५) Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ निरक्त कोश १०२३. पवयण (प्रवचन) अहवा पगयपसत्थं, पहाणवयणं व पवयणं । . अहव पवत्तयतीई, नाणाई पवयणं तेणं ।। (जीतभा २) - जो प्रशस्त और प्रधान वचन है, वह प्रवचन है । . जो ज्ञान आदि का प्रवर्तन करता है, वह प्रवचन है । प्रकर्षण वक्ति तत्त्वानीति प्रवचनं । (आक्चू १ पृ ३६) . जो प्रकृष्टरूप से जीव आदि तत्त्वों का प्रतिपादन करता है, वह प्रवचन है। १०२४. पवयणनिण्हव (प्रवचननिह्नव) प्रवचन-जिनागमं निल वते-अपलपन्त्यन्यथा तदेकदेशस्याभ्युपगमात्ते प्रवचननिह्नवकाः। (औटी पृ २०२) जो जिनप्रवचन का निवन अन्यथा अपलपन करते हैं, वे प्रवचनचिह्नव हैं। १०२५. पवह (प्रवह) प्रवहति—प्रवर्तते अस्मादिति प्रवहः। (भटी पृ १११५) जहां से प्रादुर्भाव होता है, वह प्रवह/उद्गम स्थल है । १०२६. पवा (प्रपा) पिबिस्संति पेहियादि सा पवा। (आचू पृ ३१२) जहां पथिक पानी पीते हैं, वह प्रपा/प्याऊ है । १०२७. पध्वइय (प्रव्रजित) पम्वइए इति प्रगतो गिहातो संसारातो वा। (दअचू पृ ३६) जो घर या संसार से निकल जाता है, वह प्रव्रजित है। वधादीयो पावादो वजितो पव्वयितो। (दअचू पृ २३४) जो प्राणातिपात आदि पापों से 'वजित/दूर है, वह प्रवजित Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'निरक्त कोश १६५ १०२८. पव्वज्जा (प्रव्रज्या) पव्वयणं पव्वज्जा पावाओ सुद्धचरणजोगेसु । (स्थाटी प १२३) पाप से हटकर शुद्ध चरणयोगों में प्रव्रजन/गमन करना प्रव्रज्या है। १०२६. पव्वय (पर्वत) पर्वतीति' पर्वतः ।। (उचू पृ १८५) जो पत्थरों से परिपूर्ण होता है, वह पर्वत है । १०३०. पसत्थु (प्रशास्तृ) प्रशासति-शिक्षयन्ति ये ते प्रशास्तारः। (स्थाटी ४६३) जो प्रशासन/शिक्षण देते हैं, वे प्रशास्ता/धर्मोपदेशक हैं । १०३१. पसप्पग (प्रसर्पक) प्रकर्षेण सर्पन्ति-गच्छन्ति भोगाद्यर्थ देशानुदेशम् । (स्थाटी प २५५) जो अर्थार्जन के लिए एक देशसे दूसरे देश में निरंतर प्रसर्पण गमन करते हैं, वे प्रसर्पक हैं । १०३२. पसु (पशु) पश्यते तमिति पशुः। (उचू पृ १०१) जिसे बांधा जाता है, वह पशु है। पश्यतीति पशुः । (उचू पृ १५१) जो समान रूप से देखता है, वह पशु है। १. पय॑ ते पूर्यते शिलाभिः पर्वतः । (पर्व-पूतौं) २. 'पर्वत' का अन्य निरुक्तपर्वाणि सन्त्यत्र वा पर्वतः । (अचि पृ २२८) जहां पर्व/भाग होते हैं, वह पर्वत है । ३. सर्वमविशेषेण पश्यति, दृश-कु पशादेशः । (आप्टे पृ ६६६) ४. पशु का अन्य निरुक्त ----- स्पशति बाधते पशुः। (अचि पृ २७३) जो बाधा पहुंचाता है, वह पशु है । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ १०३३. पहाण (प्रहान ) प्रहीयत इति पहाणं । प्रकृष्ट रूप से क्षीण होना प्रहान है । १०३४. पहिय ( पथिक ) पथि गच्छन्तीति पथिकाः । जो पथ पर चलते हैं, वे पथिक हैं । १०३५. पाई (पात्री) पतंति तस्यामिति पात्री | जिसमें (पदार्थ) गिरते हैं, वह पात्री है । १०३६. पाउक्करण ( प्रादुष्करण ) १०३७. पाओवगमन ( पादपोपगमन ) प्रादुः --- प्रकटत्वेन देयस्य वस्तुनः करणं प्रादुष्करणम् । निरुक्त कोश १०३८. पागसासण ( पाकशासन) ( उचू पृ १८ ) साधु को देने के लिए अप्रकाशित वस्तु को प्रकाशित करना प्रादुष्करण / भिक्षा का एक दोष है । ( ज्ञाटी प १५६ ) ( सू २ पृ ३६३) पादपो - वृक्षः, तस्येव छिन्नपतितस्योपगमनम् - अत्यन्त निश्चेष्टतयाऽवस्थानं यस्मिंस्तत्पादपोपगमनम् । ( स्थाटी प८ ) पागे बलवगे अरी जो सासेति सो पागसासणो । ( प्रसाटी प १३६ ) छिन्न पादप / वृक्ष की तरह उपगमन / अवस्थान करना पादपोपगमन है | ( दश्रुचू प ६४ ) जो पाक नामक बलवान् शत्रु को शासित करता है, वह पाकशासन / इन्द्र है । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - निरुक्त कोश १०३६. पागार ( प्राकार) प्रकुर्वन्तीति प्राकाराः । प्रकर्षेण सर्यादया च कुर्वन्ति प्राकाराः । परकोटे हैं । -१०४०. पाठ (पाठ) जो विशालरूप में तथा सीमा में बनाए जाते हैं, वे प्राकार / पठ्यते एतदिति पाठः । जो पढ़ा जाता है, वह पाठ है । १०४१. पाडिपंथिय ( प्रातिपथिक ) १०४२. पाण (प्राण) आणइ - पाणमइ तम्हा पाणे । पन्थानं प्रति योऽन्यः पन्थाः स प्रतिपथ: प्रतिपन्था वा तेन गच्छतीति प्रातिपथिकः । ( सूचू १ पृ ८१ ) प्रतिपथ / अपमार्ग से जाता है, वह प्रातिपथिक है । है । - १०४३. पाण (प्राण) प्रकर्षेणानन्तीति - श्वसन्तीति प्राणाः । जो अपेक्षाकृत तेज श्वसन क्रिया ( द्वीन्द्रिय आदि ) हैं । १०४४. पाण (पान) (भ २ /१५) जो आन-प्राण / उच्छ्वास- निःश्वास लेता है, वह प्राण / जीव पाणावर पाणं । पीयते इति पानम् । १६७ ( उच् पृ १८२ ) ( उशाटी प ३११ ) जो पीया जाता है, वह पान है । ( आवनिदी प ४४) जो प्राणों का उपग्रह / पोषण करता है, वह पान है । ( उशाटी प ३७० ) करते हैं, वे प्राण ( आवनि १५८८ ) (आटी प २६४ ) Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ निरुक्त कोश १०४५. पाणि (प्राणिन्) दुःखेनाभिभूतास्त्रस्यन्ति-उद्विजन्ति प्राणा इति प्राणिनः । (आटी प ७१) दुःख से जिनके प्राण कांप उठते हैं, वे प्राणी हैं। १०४६. पाणिज्जा (प्राणिपेया) तडत्थेहि हत्थेहि पेज्जा पाणिज्जा। (दअचू पृ १७४) वह तालाब या नदी, जिसके तट पर बैठ कर प्राणी पाणि हाथ से पानी पी लेते हैं, वह पाणिपेज्जा या प्राणिपेया नदी है। १०४७. पायच्छित्त (प्रायश्चित्त) पावं छिदति जम्हा, पायच्छित्तं त्ति भण्णते तेणं । (आवनि १५०८) जो पाप का छेदन करता है, वह प्रायश्चित्त है। १०४८. पायरास (प्रातराश) पादे आसणं पातरासणं। (आचू पृ ७७) जिसको प्रात: खाया जाता है, वह प्रातराश है । १०४६. पायव (पादप) पादेहिं पिबंति पालिज्जंति वा पायवा। (दअचू पृ ७) जो पाद/मूलद्वारा जलग्रहण करते हैं, वे पादप हैं । जिनका पालन/पोषण पाद/जड़ों से होता है, वे पादप हैं । १०५०. पारंगम (पारङ्गम) पारः-तटः परकूलं तद्गच्छन्तीति पारङ्गमाः। (आटी प १२३) . जो पार/तट पर पहुंच जाते हैं, वे पारंगम हैं । १०५१. पारंचिअ (पाराञ्चिक) पारं-तीरं तपसा अपराधस्याञ्चति–गच्छति ततो दीक्ष्यते यः स १. (क) पा पाणे धातुः रक्खणे वा, पाया—मूला पिज्जति तेसु तेसु. कारणेसु । (दअच पृ ७) (ख) पादैर्मूलैः पिबति पादपः । (अचि पृ २४८) Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश १६६ पाराञ्ची स एव पाराञ्चिकः। (स्थाटी प १५७) जो तपः प्रायश्चित्त के द्वारा अपराधों का पार/विशोधन कर पुनः दीक्षित होता है, वह पाराञ्चिक है । १०५२. पारंचिय (पाराञ्चित) यस्मिन् प्रतिसेविते लिङ्गक्षेत्रकालतपसां पारमञ्चति तत् पाराञ्चितम् । जिसका प्रतिसेवन करने पर लिङ्ग, क्षेत्र, काल, तप आदि का पार अंत हो जाता है, वह पाराञ्चित अन्तिम प्रायश्चित्त है। पारं-अन्तं प्रायश्चित्तानां तत उत्कृष्टतरप्रायश्चित्ताभावाद । (प्रसाटी प २८१) जो प्रायश्चित्तों में अन्तिम उत्कृष्ट प्रायश्चित्त है, वह पाराञ्चित है। १०५३. पारय (पारग) पारं गच्छतीति पारगो। (आचू पृ २६६) ____ जो पार पा लेता है, वह पारग है। १०५४. पारविउ (पारविद्) पारं-तीरं पर्यन्तगमनं तद्वत्तीति पारविद् । (सूटी २ प ४१) जो पार पाना जानते हैं, वे पारविद् हैं। १०५५. पारिणामिया (पारिणामिकी) परि-समन्तान्नमनं परिणामः (सुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनादिजन्य आत्मधर्मः) स कारणं यस्याः सा पारिणामिकी । (भटी पृ १०५३) जो परिणाम सुदीर्घ अतीत की ज्ञानसंपदा से उत्पन्न होती है, वह पारिणामिकी (बुद्धि) है । १०५६. पारिहारिक (पारिहारिक) परिहरणं परिहारः तपोविशेषस्तेन चरन्तीति पारिहारिकाः । (प्रसाटी प १६९) Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश जो परिहार तप का आचरण करते हैं, वे पारिहारिक (मुनि) हैं। १०५७. पाली (पाली) पालयतीति उवस्सयं तेण होति सा पालो। (बृभा ३७०६) जो उपाश्रय/प्रवासस्थल का पालन/रक्षण करती है, वह पाली/स्थविरा है। १०५८. पाव (पाप) पासयति पातयति वा पापम् । (उचू पृ १५२) पाशयति-गुण्डयत्यात्मानं पातयति चात्मन आनन्दरसं शोषयति क्षपयतीति पापम् । (स्थाटी प १६) जो आत्मा को बांधता है, वह पाप है । जो नीचे गिराता है, वह पाप है। जो आत्मा के आनन्दरस का क्षय करता है, वह पाप है। १०५९. पावग (प्रापक) सुराणं पावयतीति पावकः। (दअचू पृ १५०) . जो पावक/हव्य को देवताओं तक पहुंचाती है, वह प्रापक/ अग्नि है। १०६०. पावग (पावक) पाप एव पापकस्तं प्रभूतसत्त्वापकारित्वेनाशुभम् । (दटी प २०१) जो अनेक प्राणियों की घातक है, वह पापक/अग्नि है। १. 'पाप' का अन्य निरुक्तपाति रक्षति अस्मादात्मानमिति पापम् । (शब्द ३ पृ ११६) आत्मा को जिससे बचाया जाता है, वह पाप है। २. 'पावक' का अन्य निरुक्त पुनाति पावकः । (अचि पृ २४४) . जो पवित्र करता है, वह पावक/अग्नि है । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'निरुक्त कोश २०१ २०६१. पावपरिक्खेवि (पापपरिक्षेपिन्) पापैः कथञ्चित् समित्यादिषु स्खलितलक्षणैः परिक्षिपतितिरस्कुरुत इत्येवंशीलः पापपरिक्षेपी। (उशाटी प ३४६) जो पाप/स्खलना करने वालों का परिक्षेप/तिरस्कार करता है, वह पापपरिक्षेपी (अविनीतशिष्य) है । १०६२. पावयण (प्रावचन) प्रवचनं वेत्ति प्रावचनः। (आच पृ ३७३) जो प्रवचन/श्रुत को जानता है, वह प्रावचन/बहुश्रुत है। १०६३. पावासि (प्रवासिन्) प्रवसतीत्येवंशीलः प्रवासी। (व्यभा ७ टी प ६६) जो प्रवास करता है, वह प्रवासी है। १०६४. पास (पाश) पाश्यतेऽनेनेति पाशः। (उचू पृ १५०) जो बांधता है, वह पाश है। पारवश्य हेतुतया पाशाः । (उशाटी प ५०५) जो परवशता/परतंत्रता का हेतु है, वह पाश/बंधन है। १०६५. पासंडत्थ (पाषण्डस्थ) पाषण्डं -- व्रतं तत्र तिष्ठन्तीति पाषण्डस्थाः। (अनुद्वाहाटी प २३) जो पाषंड/व्रत में उपस्थित हैं, वे पाषण्डस्थ हैं। १०६६. पासंडि (पाषण्डिन्) अट्ठविधकम्मपासातो डीणो पासंडी। (दअचू पृ २३४) पाशाड्डीनः पाषण्डी। (दटी प २६२) जो अष्टविध कर्मपाश से दूर है, वह पाषण्डी/मुनि है । १. (क) पश्यते बध्यतेऽनेन पाशः । (ख) 'पाश' का अन्य निरुक्त पान्त्यऽनेन वा पाशः। (अचि पृ २०५) जिससे रक्षा की जाती है, वह पाश है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ १०६७. पासत्थ (पार्श्वस्थ ) पार्श्वे - बहिर्ज्ञानादीनां देशतः सर्वतो वा तिष्ठतीति पार्श्वस्थः । ( स्थाटी प ४६१ ) जो ज्ञान आदि से पार्श्व / बाहर रहता है, वह पार्श्वस्थ है । १०६८. पासत्थ (पाशस्थ ) मिथ्यात्वादयो बन्धहेतवः पाशाः पाशेषु तिष्ठतीति पाशस्थः । ( आवहाटी २१८ ) जो मिथ्यात्व आदि के पाश में बंधा हुआ है, पार्श्वस्थ है | वह पाशस्थ १०६६. पासत्य ( प्रास्वस्थ ) प्रकर्षेणासमन्तात् ज्ञानादिषु निरुद्यमतया स्वस्थः प्रास्वस्थः । १०७०. पासवण ( प्रश्रवण ) पसवइत्ति पासवणं ।' जो संपूर्ण रूप से ज्ञान आदि के विषय में अस्वस्थ है, वह प्रास्वस्थ / पार्श्वस्थ है । १०७१. पासवण ( प्रश्रवण ) निरुक्त कोश: ( आनि ३२१ ) ( जीतभा ६८७ ) पायं सवती जम्हा, तम्हा तू होति पासवणं । जो प्रस्रवित होता है, वह प्रस्रवण / मूत्र है । प्रश्रवति-क्षरतीति प्रश्रवणः । ( व्यभा ३ टीप १११) है । १०७२. पासा ( प्रासाद ) (भटी प १४२ ) जो प्रश्रवित होता है / बहता है, वह प्रश्रवण / प्रस्यन्दन / भरना पसीदंति जम्मि जणस्स मणो णयणाणि सो पासादो । (दअचू पृ १७१) जिसमें व्यक्ति के नयन और मन प्रसन्न होते हैं, वह प्रासाद है । १. प्रकर्षेण श्रवतीति प्रश्रवणम् - एकिका । ( आटी प ४०६ ) -- Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २०३ १०७३. पासिम (दृष्टिमत्) पस्सतीति पासिमं । (आचू पृ १२५) जो देखता है, वह पश्यक/द्रष्टा है। १०७४. पासिय (पाशिक) पाथेन–बन्धनविशेषेण चरन्तीति पाशिकाः। (प्रटी प ३७) जो पाश/जाल आदि के द्वारा जीवन यापन करते हैं, वे पाशिक हैं। १०७५. पाहुडा (प्राभृता) प्र इति प्रकर्षण आ इति-साधुदानलक्षणमर्यादया भृता-निर्वतिता यका भिक्षा सा प्राभृता। (प्रसाटी प १३६) जो भिक्षा खासतौर पर साधु को देने के लिए बनाई जाती है, वह प्राभृता है। १०७६. पाहुणिज्ज (प्राहवनीय) प्रकर्षण आहवनीयं पाहुणिज्जं । (औटी पृ १०) ___ जहां लोग प्रचुर मात्रा में भेंट चढाते हैं, वह प्राहवनीय/ चैत्य है। १०७७. पिउ (पितृ) पाति विभति वा पुत्रमिति पिता । (उचू पृ १५०) जो पुत्र/सन्तान का रक्षण/पोषण करता है, वह पिता है । १०७८. पिंडोलग (दे) पिंडेसु दिज्जमाणेसु उल्लंतीति पिंडोलगा। (आचू पृ ३२३) जो पिण्ड भिक्षा से निर्वाह करता है, वह पिंडोलग/भिक्षा जीवी है। १०७६. पिंडोलय (पिण्डावलग) पिण्ड्यते तत्तद्गृहेभ्य आदाय संघात्यत इति पिण्डः। तमवलगति -सेवते पिण्डावलगः। (उशाटी प २५०) Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ निरक्त कोश जो भोजन घर-घर से इकट्ठा किया जाता है, वह पिण्ड है । जो पिण्ड का अवलगन/सेवन करता है, वह पिण्डावलग १०८०. पिट्ठ (पृष्ठ) स्पृशंति तां पृश्यते वाऽसाविति पृष्ठिः। (उचू पृ २०६) जिसे तैल आदि से सींचा जाता है, वह पृष्ठ/पीठ है। १०८१. पिट्ठिमंसित (पृष्ठमासिक) पिठ्ठीमंसं खायंतीति पिठ्ठमंसितो। (दश्रुचू प ४०) ___ जो पीठ पीछे/परोक्ष में निंदा करता है, वह पृष्ठमासिक चुगलखोर है। १०८२. पियंवाइ (प्रियवादिन्) प्रियमेव वदतीत्येवंशीलः प्रियवादी। (उशाटी प ३४७) जो प्रिय ही वोलता है, वह प्रियवादी है। १०८३. पिसुण (पिशुन) पीतिसुण्णो पिसुणो। (निभा ६२१२) पीतिसुण्णं करोतित्ति पिसुणो। (दजिचू पृ ३१६) ___ जो प्रीति से शून्य करता है, वह पिशुन/चुगलखोर है । १०८४. पीढसप्पि (पोठसपिन्) पीठाभ्यां परिसपतीति पीठसप्पी। (सूचू १ पृ ६६) जो पीठ के सहारे चलता है, वह पीठसो/पंगु है । १०८५. पुक्खलसंवट्टग (पुष्कलसंवर्तक) पुष्कलं—सर्वअशुभानुभावरूपं भरतभूरोक्ष्यदाहादिकं प्रशस्तस्वोदकेन संवर्तयति--नाशयतीति पुष्कलसंवर्तकः । (जंटी प १७३) जो पृथ्वी के पुष्कल सम्पूर्ण दोषों का अपने प्रशस्त जल से संवर्तन/नाश करता है, वह पुष्कलसंवर्तक (मेघ) है । १. (क) पृष्यते सिच्यते इति पृष्ठम् । (शब्द ३ पृ २३१) (ख) स्पृश्—to sprinkle (आप्टे पृ १७२८) Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २०५ १०८६. पुग्गल (पुद्गल) पूरणगलणतणतो पुग्गलो। (अनुद्वाचू पृ २२) द्रव्याद् गलन्ति–वियुज्यन्ते किञ्चित्तु द्रव्यं स्वसंयोगतः पूरयन्ति -पुष्टं कुर्वन्ति पुद्गलाः। (प्रसाटी प २८६) जो द्रव्य से गलित वियुक्त होते हैं, और अपने संयोग से द्रव्य को पुष्ट करते हैं, वे पुद्गल हैं। १०८७. पुढवी (पृथिवी) प्रथते पृथति वा तस्यां पृथिवी । (उचू पृ १८५) जो प्रथित/विस्तृत है, वह पृथ्वी है। जिस पर सब फैले हुए हैं, वह पृथ्वी है। १०८८. पुण्ण (पुण्य) पुणाति–सोधयतीति पुण्णं । (दअचू पृ २६१) जो पवित्र/विशुद्ध करता है, वह पुण्य है । १०८६. पुण्णमासी (पौर्णमासी) पूर्णो माः चन्द्रमाः अस्यामिति पौर्णमासी'। (जीटी प ३०५) जिस रात्री में मा/चांद पूर्ण हो, वह पौर्णमासी/पूर्णिमा १०९०. पुत्त (पुत्र) पुनाति पितरं पाति वा पितृमर्यादामिति पुत्रः । (स्थाटी प ४६३) १. पुत् वर्द्धनशीलः गलो ह्रासवांश्चेति पुद्गलः । (शब्द ३ पृ १७०) २. पृथुत्वात् पृथ्वी । (अचि पृ२०७) ३. 'पौर्णमासी' का अन्य निरुक्त पूर्णमास इयमिति पौर्णमासी। (अचि पृ ३३) जो महीने को पूर्ण करती है, वह पौर्णमासी है। ४. 'पुत्र' का अन्य निरुक्तपुन्नाम्नो नरकात् त्रायते इति पुत्रः। (अचि पृ १२३) जो पुत् नामक नरक से रक्षा करता है, वह पुत्र है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ निरुक्त कोश जो माता-पिता को पवित्र करता है, वह पुत्र है। जो पितृमर्यादा/कुलमर्यादा का पालन/रक्षण करता है, वह पुत्र है। १०६१. पुप्फ (पुष्प) पुष्पन्ति-विकसन्तीति पुष्पाणि । (बृटी पृ ६३) जो पुष्पित विकसित होते हैं, वे पुष्प हैं । १०६२. पुर (पुर) पूर्यत इति पुरम् । (उचू पृ २२२) जो जनाकीर्ण है, वह पुर है । १०६३. पुरंदर (पुरन्दर) असुरादीणं पुराणि दारइत्ति पुरंदरो। (दश्रुचू पृ ६४) जो असुर आदि के पुरों/नगरों का विदारण करता है, वह पुरंदर/इन्द्र है। १०९४. पुरक्कार (पुरस्कार) पुरस्करोति-प्राधान्येनाङ्गोकुरुत इति पुरस्कारः। (उशाटी प ५१६) जो पुर/प्रधानरूप से ग्रहण किया जाता है, वह पुरस्कार १०६५. पुरिस (पुरुष) पुन्नो सुहदुक्खाणं पुरिसो। जो सुख-दुःख से पूर्ण है, वह पुरुष है। १. पुरि शरीरे शेते पुरुषः । (अचि पृ ३०६) २. 'पुरुष' के अन्य निरुक्त-- पृणाति पुमर्यानिति पुरुषः। (अचि पृ ७६) जो पुमर्थ/पुरुषार्थ चतुष्टयी को पुष्ट करता है, वह पुरुष है। पुरि उच्चे ठाणे सेति पव्वत्तीति पुरिसो (विटी १ पृ १६) जो महान् स्थानों में प्रवर्तित होता है, वह पुरुष है। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश पुरि सयणा वा पुरिसो' । जो पुर / शरीर में निवास करता है, वह पुरुष है । पिबति प्रीणाति चात्मानमिति पुरुषः । ( उचू पृ १४७ ) जो आत्मा का उपभोग करता है, उसे तृप्त करता है, वह पुरुष है । : १०६६. पुरिसविजय ( पुरुष विचय ) पुरुषा विचीयन्ते - मृग्यन्ते विज्ञानद्वारेणान्वेष्यन्ते येन स पुरुषविचयः । ( सूटी २ प ५६ ) जिस विज्ञान से पुरुष का विश्लेषण किया जाता है, वह पुरुषविचय है । -१०६७. पुरिसादाणिय ( पुरुषादानीय ) पुरुषाणां मध्ये आदीयत इत्यादानीयः । १०९८. पुव (पूर्व ) ( स्थाटी प ४१२ ) जो पुरुषों में आदानीय / उपादेय है, वह पुरुषादानीय है । पूरयतीति पूर्व: । पिपर्तीति पूर्व: । जो पूर्ण करता है, वह पूर्व है । पूर्यते प्राप्यत पाल्यते वाऽनेन कार्यमिति पूर्वम् । १०. पुण्वगत (पूर्वगत) सर्वभूतात्पूर्व क्रियन्त इति पूर्वाणि गतः-- अभ्यन्तरीभूतः पूर्वगतः । २०७ ( आचू पृ १५ ) ११००. पुव्वधर ( पूर्वधर) हैं । जिससे कार्य पूर्ण / व्याप्त / रक्षित होता है, वह पूर्व है । पूर्वाणि धारयन्तीति पूर्वधराः । जो सम्पूर्ण श्रुत में प्रथम है, वह पूर्वश्रुत है और उसमें समागत तत्त्व पूर्वगत है । ( उचू पृ १५१ ) ( नंटि पृ १२८ ) ( नंटी पू ४५ ) उत्पादपूर्वादीनि चतुर्दश तेषु ( स्थाटी प ४७० ) ( विभामहेटी पृ ३२३) जो पूर्व / अतुल ज्ञानराशि को धारण करते हैं, वे पूर्वधर Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ निरक्त कोश ११०१. पूयणा (पूतना) पातयन्ति धर्मात् पासयन्ति वा चारित्रमिति पूतनाः । (सूचू १ पृ. ६६) जो धर्म से नीचे गिराती हैं, वे पूतना/विकृतियां हैं। जो चारित्र को जकड़ लेती हैं, वे पूतना हैं। ११०२. पूयाहिज्ज (पूजाहार्य) पूजया ह्रियते--आवय॑ते इति पूजाहार्यः। (पिटी प १३१) जो पूजा से गृहीत होता है, वह पूजाहार्य है। ११०३. पूरी (पूरी) पूर्यते-स्तोकैरपि तन्तुभिः पूर्णीभवतीति पूरिका । ___(बृटी पृ १०५५) जो थोड़े तन्तुओं से भी पूर्ण हो जाती है, वह पूरिका (मोटे शण से बना हुआ पट) है । ११०४. पेज्ज (प्रेज्य) प्रकर्षेण वा इज्या-पूजास्येति प्रेज्यम् । (औटी पृ १८१) जो अत्यन्त पूजनीय है, वह प्रेज्य/प्रेय है। ११०५. पेस (प्रेष्य) पुनः पुनः प्रेष्यन्ते इति प्रेष्याः। (सूचू १ पृ १३५) जिन्हें बार-बार भेजा जाता है, वे प्रेष्य/नौकर हैं। ११०६. पेसल (पेशल) पीति उप्पाएतीति पेसलो। (आचू पृ २४१) प्रियं करोतीति पेशलः। (उचू पृ १७७) जो प्रीति उत्पन्न करता है, वह पेशल/सुन्दर है। १. पिशति पेशलम् । (अचि पृ ३२३) जो सुसज्जित है, वह पेशल/सुन्दर है। (पिश्-Decorate आप्टे पृ १०२३) Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश २०६ ११०७. पोग्गल (पुद्गल) पूरणाद्गलनाच्च शरीरादीनां पुद्गलः। (भटी पु १४३२) जिसके शरीर आदि बनते और बिखरते रहते हैं, वह पुद्गल/जीव है। ११०८. पोत (पोत) पततीति पोतः। (सूचू १ पृ २८८) जो उड़ान भरता है, वह पोत/पक्षिशावक है । ११०६. पोयय (पोतज) पोतमिव सूयते पोतजा। (दअचू पृ ७७) जो पोत/शिशु रूप में उत्पन्न होते हैं, वे पोतज हैं । १११०. पोसग (पोषक) पुष्यन्तेऽनेनेति पोषकम् । (सूचू १ पृ १०४) जिसके द्वारा स्त्री पुष्ट होती है, वह पोष/योनि है। ११११. पोसह (पौषध) पोषं-धर्मपुष्टिं धत्त इति पौषधः। (उशाटी प ३१५) जो धर्म को पोष/पुष्टि देता है, वह पौषध है। १११२. फलिह (परिघ) परिहननात् परिघः। (स्थाटी प २१०) जो रुकावट पैदा करता है, वह परिघ/अवरोधक है । जो चारों ओर से परिनन/चोट करता है, वह परिघ/ कांटेदार दंड है। १११३. फास (स्पर्श) फुसंतीति फासा। (आचू पृ २३६) जो स्पृष्ट होते हैं, वे स्पर्श हैं । १. पत्-to fly (आप्टे पृ १५५) २. परितो हन्तीति (परिघः)-सर्वतः कण्ट कितो लोहदण्डः । (आप्टे पृ ९७४) Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० निरुक्त कोश १११४. फासुय (प्रासुक) प्रगता असवः--असुमन्तः प्राणिनो यस्मात् तत्प्रासुकम् । (स्थाटी प १०३) जो असु/जीव रहित है, वह प्रासुक/अचित्त है । १११५. बंध (बन्ध) बज्झति जेण सो बंधो। (आचू पृ १७१) जिससे प्राणी बंधता है, वह बंध/बंधन है । १११६. बंधु (बन्धु) बध्नातीति बंधु ।' (उचू पृ ११२) जो (स्नेह से) बांधता है, वह बंधु है । १११७. बंभ (ब्रह्मन्) बृहति बृहितो वा अनेनेति ब्रह्म। (उचू पृ २०७) जो संयम का बृहण पोषण करता है, वह ब्रह्म/ब्रह्मचर्य है । १११८. बंभचेर (ब्रह्मचर्य) ब्रह्म चर्यते –अनुष्ठीयते यस्मिन् तद् ब्रह्मचर्यम् ।' (सूटी २ प ११६) जहां ब्रह्म सत्य, संयम का आचरण किया जाता है, वह ब्रह्मचर्य/निर्ग्रन्थ प्रवचन है। १११६. बंभण (ब्राह्मण) अट्ठारसविधं बंभं धारयतीति बंभणो'। (दअचू पृ २३४) जो अठारह प्रकार से ब्रह्मचर्य को धारण करता है, वह ब्राह्मण मुनि है। १. बघ्नाति स्नेहं बन्धुः । (अचि पृ १२७) २. ब्रह्म-सत्य तपोभूतदयेन्द्रियनिरोधलक्षणं तच्चर्यते—अनुष्ठीयते ___ यस्मिन् तन्मौनीन्द्रप्रवचनं ब्रह्मचर्यमित्युच्यते । (सूटी २ प ११६) ३. ब्रह्म वेदं शुद्धं चैतन्यं वा वेत्त्यधीते वा ब्राह्मणः । (आप्टे पृ ११७७) Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २११ ब्रह्म अणतीति ब्राह्मणः । (सूचू २ पृ ३३५) जो ब्रह्म/आत्मा में रमण करता है, वह ब्राह्मण/मुनि है । ११२०. बंभण (ब्राह्मण) ब्रह्मणोऽपत्यानि ब्राह्मणाः। जो ब्रह्म की सन्तान हैं, वे ब्राह्मण हैं। बृहन्मनस्त्वाद्वा ब्राह्मणाः । (सूचू २ पृ ४४२) जिनका मन विशाल/उदार है, वे ब्राह्मण हैं । ११२१. बंभयारि (ब्रह्मचारिन्) ब्रह्मण ब्रह्म वा चर्य चरतीति ब्रह्मचारी। (उचू पृ २०७) जो ब्रह्म/संयम का आचरण करता है, वह ब्रह्मचारी है। ११२२. बंभव (ब्रह्मवित्) ब्रह्म -अशेषमलकलङ्कविकलं योगिशर्म वेत्तीति ब्रह्मवित् । । (आटी प १५३) जो ब्रह्म शाश्वत सुख को जानता है, वह ब्रह्मवित् है । ११२३. बहिद्ध (दे) धर्माद् बहिर्भवतीति बहिद्धं । (सूचू १ पृ १७७) जो धर्म से बहिर्भूत है, वह बहिद्ध/मैथुन है । ११२४. बहुरय (बहुरत) बहुषु समयेषु रता-आसक्ता बहुभिरेव समयैः कार्य निष्पद्यते नैकसमयेनेत्येवंविधवादिनो बहुरताः। (औटी पृ २०१) ____जो बहुत समयों/क्षणों में कार्य की निष्पत्ति मानते हैं, वे बहुरतवादी हैं। ११२५. बाल (बाल) द्वाभ्यां कलितो बालः,' कार्याकार्यानभिज्ञो वा बालः। (दश्रुचू प ३) १. जमाली (ई० पू० छठी) का बहुचर्चित सिद्धान्त । २. द्वाभ्यां-बुभुक्षया तृषा वाऽऽगलितो बालः । (बृटी पृ ६४) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ निरक्त कोश जो भूख और प्यास से व्याकुल होता है, वह बाल है । जो कार्य और अकार्य से अनभिज्ञ है, वह बाल है । ११२६. बाहुप्पमद्दि (बाहुप्रमदिन्) बाहुभ्यां प्रमृद्नातीति बाहुप्रमः । (औटी पृ १९४) जो भुजाओं से पछाड़ देता है, वह बाहुप्रमर्दी/भुजबली है । ११२७. बिहणीय (बृंहणीय) बृहतीति बृहणीयः। (जीटी प ३५२) जो बृहण करते हैं, वे बृहणीय हैं। ११२८. बोहणअ (भयानक) __ भापयति—भयवन्तं करोतीति भयानकः । (प्रटी प ५) जो भयभीत करता है, वह भापनक/प्राणवध है । ११२६. बुद्ध (बुद्ध) बुज्झतीति बुद्धो।' (दअचू पृ २३४) ___ जो तत्त्व को जानता है, वह बुद्ध मुनि है। ११३०. बुद्धि (बुद्धि) . बुड्यतेऽनयेति बुद्धिः । (आवमटी प ५१६) ___ जिससे बोध होता है, वह बुद्धि है । ११३१. बुद्धिल (बुद्धिल) बुद्धि लात्युपजीवति इति बुद्धिलः। (व्यभा १० टी प ६८) जो बुद्धि का उपजीवी है, वह बुद्धिल है। ११३२. बोहग (बोधक) बोधयन्तीति बोधकाः। (जीटी प २५६) जो बोध देते हैं, वे बोधक हैं। १. 'बुद्ध' का अन्य निरुक्त (क) बुध्यते तत्त्वानि बुद्धः । (अचि पृ ५७) (ख) दधाति बुद्ध्यादीन गुणानिति बुद्धः। (सूचू १ पृ २०४) जो बुद्धि आदि गुणों को धारण करता है, वह बुद्ध/मुनि है । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • निरक्त कोश ११३३. भंजग ( भञ्जक ) भज्जतीति भंजका । ११३४. भंत (भ्रान्त) अहवा मंतोऽवेओ' जं मिच्छत्ताइबंधहेऊओ । ( अचू पृ ७) जिनका भंजन / छेदन किया जाता है, वे भञ्जक / वृक्ष हैं । है । - ११३५. भंत ( भगवत् ) अहवेसरियाइ भगो' विज्जइ से तेण भगवंतो' । जो मिथ्यात्व आदि से भ्रांत / रहित है, वह है । ( विभा ३४४८ ) भ्रांत / भगवान् १. भ्रम - अनवस्थाने । २. इस्सरियख्वसिरिजसधम्मपयत्ता मया भगाभिक्खा | ते ते सममण्णा संति जओ तेण भगवंते ॥ (विभा १०४८ ) २१३ जो भग / ऐश्वर्य से युक्त है, वह भगवान् है । ( विभा ३४४८ ) 'भग' शब्द के छह अर्थ हैं - ऐश्वर्य, रूप, लक्ष्मी, यश, धर्म और पुरुषार्थं । जो इनसे युक्त है, वह भगवान् है । ३. 'भगवान्' के अन्य निरुक्त--- भगवा ति वचनं सेट्ठ भगवा ति वचनमुत्तमं । गुरुगारवयुक्त्त सो भगवा तेन वुच्चति । (वि ७/३६) जो शील आदि गुणों में सर्वश्रेष्ठ है, वह भगवान् है । तीसुं भवेसु तण्हासङ्घातं गमनं अनेन वन्तं । भव सद्दतो भ-कारं गमन सद्दतो ग-कारं वन्तसद्दता व कारञ्च दीघं कत्वा आदाय भगवा ति दुच्चति । ( वि७ / ४४ ) भावितसोलो भावितचित्तो भावितपति भगवा । (विटी पृ ४५२ ) जिसके शील, चित्त और प्रज्ञा भावित हैं, वह भगवान् Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ निरुक्त कोश ११३६. भंत (भवान्त) नेरयाइभवस्स व अन्तो जं तेण सो भवंतो त्ति । (विभा ३४४६) जो भव/संसार का अंत करता है, वह भवांत/भगवान् है । ११३७. भंत (भयान्त) अहवा भयस्स अंतो होइ भयंतो भयं तासो। (निभा ३४४६) जो भय त्रास का अंत करता है, वह भयान्त/भगवान् ११३८. भंत (भदन्त) भदि कल्याणसुहत्थोधाऊ तस्य य भदंतसद्दोऽयं । स भदंतो ...................॥ (विभा ३४३६) जो भद/कल्याण और सुख से युक्त है, वह भदन्त/भगवान् ११३६. भंत (भजन्त) अहवा भय सेवाए तस्स भयंतोत्ति सेवए जम्हा । सिवगइणो सिवमग्गं सेव्वो य जओ तदत्थीणं ॥' (विभा ३४४६) जो सिद्ध भगवान् तथा सिद्धि के मार्ग की उपासना करता है, वह भजन्त है। १. एत्थ भयंताइणं पागयवागरणलक्खणगईए। संभवओ पत्तेय द-य-ग-व-गाराइलोवाओ॥ हस्सेकारंतादेसओ य भंते त्ति सव्वसामण्णं । (विभा ३४५५,५६) २. (क) भजते-सेवते सिद्धान सिद्धिमार्ग वा अथवा भज्यते-सेव्यते शिवाथिभिरिति भजन्तः। (स्थाटी प ११८) (ख) भजि विभजि पविभजि धम्मरतनं ति भगवा । (विटी पृ ४५२) जो धर्म-रत्न का कथन करता है, वह भगवान् है । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २१५ जो मोक्षार्थी व्यक्तियों के द्वारा उपास्य है, वह भजन्त/ भगवान् है। ११४०. भंत (भान्त/भ्राजन्त) अहवा 'भा भाजो वा दित्तीए तस्स होइ भंतो त्ति । भाजतो चारिओ सो नाणतवोगुणजुईए ॥' (विभा ३४४७) ____जो ज्ञान आदि से दीप्त होता है, वह भांत या भ्राजन्त/ भगवान् है । ११४१. भंयण (भञ्जन) भंजते भज्यते वाऽसाविति असंयतैर्भञ्जनः। (सूचू १ पृ १७७) जो भंग विनाश करता है, वह भजन/लोभ है। जो आसक्त करता है, वह भजन/लोभ है। ११४२. भग (भग) भज्यत इति भगः। (स्थाटी प ३३) जिसका विभाग किया जाता है, वह भग/ऐश्वर्य है। जिसको भोगा जाता है, वह भग/भाग्य है। ११४३. भगव (भग्नवत्) भग्नवन्तः कषायादीनिति भगवन्तः। (जीटी प ४) जिन्होंने कषाय को भग्न/क्षीण कर दिया है, वे भग्नवान्/ भगवान हैं। १. भाति-दीप्यते भ्राजते वा दीप्यते एव ज्ञानतपोगुणदीप्त्येति भान्तो भ्राजन्तो वेति । (स्थाटी प ११८) २. (क) इस्सरियरूवसिरिजसधम्मपयत्तामया भगाभिक्खा । (विभा १०४८) (ख) ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणाः।। (आप्टे पृ ११८०) Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ निरक्त कोशः ११४४. भज्जा (भार्या) भरणीया भार्या । (सूचू १ पृ८४) जो भरणयोग्य है, वह भार्या है। बिति भयते वासौ भार्या । (उचू पृ १५०) जो (परिवार का) पोषण करती है, वह भार्या है। जो सेवा/परिचर्या करती है, वह भार्या है । ११४५. भणग (भणक) कालियपुव्वसुत्तत्थं भणतीति भणको। (नंचू पृ८) जो कालिकश्रुत और पूर्वश्रुत के सूत्र व अर्थ की वाचना देते हैं, वे भणक/वाचनाचा हैं। ११४६. भत्तु (भर्तृ) बिभौति भर्ता। (दश्रुचू प ७५) जो (पत्नी का) भरण पोषण करता है, वह भर्ता है। ११४७. भद्द (भद्र) भाति भास्यतेऽनेनेति भद्रः। (उचू पृ ४१) जो सुशोभित होता है, वह भद्र/सुशील है। ११४८. भद्द (भद्र) भायते भाति वा भद्रम् । (नंचू पृ २) जो दीप्त होता है, वह भद्र कल्याण है। ११४६. भद्दा (भद्रा) भदन्ते-कल्याणीकरोति देहिनमिति भद्रा। (प्रटी प १०३) जो प्राणियों का कल्याण करती है, वह भद्रा/अहिंसा है । ११५१. भद्दा (भद्रा) भयते भाति वा भद्रा। _(उचू पृ २०७) जो सेवा करती है, वह भद्रा (स्त्री) है। जिससे घर सुशोभित होता है, वह भद्रा (स्त्री) है । १. भ्रियते भार्या । (अचि पृ ११७) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश २१७ ११५१. भमर (भ्रमर) भ्रमति च रौति च भ्रमरः । (अनुद्वा ३६८) जो भ्रमण करता है और शब्द करता है, वह भ्रमर है। ११५२. भयंतु (भयत्रातृ) भयातायंत इति भयंतारो। (सूचू २ पृ ३२६) जो भय से त्राण देता है, वह भयन्तार/मुनि है । ११५३. भव (भव्य) भवति–परमपदयोग्यतामासादयतीति भव्यः । (नकटी ४ पृ १२७) जो परमपद/मोक्ष-गमन की योग्यता को प्राप्त करता है, वह भव्य है। ११५४. भव (भव) भवतीति भवः। (उचू पृ १८८) जो होता है, वह भव/जन्म है । भवन्ति प्राणिनोऽस्मिन्निति भवः । (प्रज्ञाटी ३२८) जिसमें जीव उत्पन्न होते हैं, वह भव/जन्म है । ११५५. भवंत (भवान्त) भवखवंतो भवंतो य। (व्यभा २/१२) भवमंतयति भवस्यान्तं करोतीति भवान्तः।। (व्यभा २ टी प६) जो भव/नरक आदि गति का अन्त करता है, वह भवान्त/ भिक्षु है। ११५६. भववेयणिज्ज (भववेदनीय) भवेन-जन्मना वेद्यते-अनुभूयते यत्तद् भववेदनीयम् । (स्थाटी प २६४) जिसका भव/वर्तमान जन्म में वेदन किया जाता है, वह भववेदनीय (कर्म) है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ११५७. भवसिद्धिय (भवसिद्धिक) भविष्यति भवा-- भाविनी सा सिद्धि: - निर्वृतिर्येषां ते भवसि - ( स्थाटी प२८ ) १.१५८. भवोवग्गह (भवोपग्रह ) द्धिकाः । T जिन्हें भव / भविष्य में सिद्धि प्राप्त होगी, वे भवसिद्धिक हैं । t. भवे - मनुष्यभवे उप- - समीपेन गृह्यते - अवष्टम्भ्यते यैस्तानि भवोपग्रहाणि । ( प्रज्ञाटी प ६०३ ) ११५६. भागहार (भागहार ) जिनके कारण (केवली को) मनुष्यभव में रहना पड़ता है, वे भवोपग्राही / अघाति कर्म हैं । भागं हरतीति भागहारः । है । ११६०. भायण (भाजन ) ( व्यभा २ टीप ८ ) जो भाग का हरण करता है, वह भागहार (भाग / गणित ) भाजनाद् विश्वस्याश्रयणाद् भाजनम् । जो विश्व के लिए भाजन / आश्रय का भाजन / आकाश है । ११६१. भार (भार) बिर्भात भ्रियते वाऽसौ भारः । ' जो भारी करता है, वह भार है । जो ढोया जाता है, वह भार है । निरुक्त कोश ११६२. भारही (भारती ) अत्यभारं धरेतीति भारती । ( भटी पृ १४३१ ) कार्य करता है, वह १. मार - गुरुत्वपरिमाणे तद्वति द्रव्ये । ( वा पृ ४६५२ ) २. 'भारती' के अन्य निरुक्त ( सुचू १ पृ १३३ ) ( अचू पृ १५९ ) भरतानां नटानामियं देवता भारती । भरतानां ऋत्विजां स्तुतिलक्षणा तैरवतारित्वात् इति याज्ञिकाः । (अचि पृ ५६ ) Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश २१६ १. जो अर्थ के भार का वहन करती है, वह भारती/वाणी ११६३. भाव (भाव) भवन्ति भविष्यन्ति भूतवन्तश्चेति भावाः ।। जो हैं, होंगे और थे, वे भाव/पदार्थ हैं। भवन्त्येतेषु स्वगता उत्पादविगमध्रौव्याख्यापरिणामविशेषा इति भावाः। . (दटी प ७०) जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त हैं, वे भाव हैं। ...! ११६४. भावणा (भावना) भावयतीति भावना। (आचू पृ ३७७) जो भावित/संस्कारित करती है, वह भावना है । . : भावयंति तां भाव्यते वाऽनयेति भावना। (सूचू १ पृ३८) जिसकी भावना की जाती है, वह भाववा है । ११६५. भावन्नु (भावज्ञ) भावः चित्ताभिप्रायः दातुः श्रोतुर्वा तं जानातीति भावज्ञः। (आटी प १३२) जो भाव अभिप्राय को जानता है, वह भावज्ञ है। ११६६. भावियप्प (भावितात्मन्) भावितो-वासित आत्मा ज्ञानदर्शनचारित्रैस्तपोविशेषैश्च येन स भावितात्मा । (प्रज्ञाटी प ३०३) जिसकी आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप से भावित/ संस्कारित है, वह भावितात्मा है । ११६७. भावुक (भाव्य) ___ भाव्यन्ते प्रतियोगिना स्वगुणैरात्मभावमापद्यन्त इति भाव्यानि । (आवहाटी २ पृ २१) १. भाव्यते-वास्यते व्रतं यकाभिस्ता भावनाः । (प्रटी प ११०) Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश प्रतियोगी के द्वारा जो अपने स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, वे भाव्य/संस्कारित हैं। ११६८. भासा (भाषा) अत्थं वंजयतीति भासा। (वअचू पृ १६४) जो अर्थ का भाषण/अभिव्यञ्जन करती है, वह भाषा है। भाष्यते इति भाषा। (आवहाटी १ पृ ६) जो बोली जाती है, वह भाषा है । ११६६. भासुरा (भास्वरा) पभासतीति भासुरा। (दजिचू पृ ३२४) जो भा/प्रकाश से दीप्त है, वह भास्वरा/सिद्धगति है। ११७०. भिक्खाग (भिक्षाक) भिक्षां भक्षन्तीति भिक्षाकाः । (आचू पृ ३४४) जो भिक्षाभोजी हैं, वे भिक्षाक हैं। ११७१. भिक्खु (भिक्षु) भेत्ताऽऽगमोवउत्तो दुविह तवो भेअणं च भेत्तव्वं । अट्टविहं कम्मखुहं तेण निरुत्तं स भिक्खुत्ति ॥ (दनि ३४२) भिदंतो यावि खुहं भिक्खू ......॥ (व्यभा २१२) जो तपस्या से क्षुद्/कर्मों का भि/भेदन करता है, वह भिक्षु जं भिक्खमत्तवित्ती तेण व भिक्खू । (दनि ३४४) भिक्खणसीलो भिक्खू,.....। (निभा ६२७५) जो शुद्ध भिक्षा से जीवन-यापन करता है, वह भिक्षु है । भिक्षाभोगी वा भिक्खू । (निचू ४ पृ २७१) जो भिक्षाभोजी है, वह भिक्षु है। १. भेदकः साधुः,-तपो भेदनं वर्तते, भेत्तव्यं कर्म, तच्च क्षुदादिदुःख हेतुत्वात् क्षुद् शब्दवाच्यं, यः शास्त्रनीत्या तपसा कर्म भिनत्ति सभिक्षुः। (दटी प२६१) Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ 'निरक्त कोश ११७२. भीम (भीम) बिभेति जनोऽस्मादिति भीमः । (बृटी पृ २५६) जिससे व्यक्ति डरता है, वह भीम/भयावह है । ११७३. भुजपरिसप्प (भुजपरिसर्प) . भुजाभ्यां-बाहुभ्यां परिसर्पन्तीति भुजपरिसर्पाः । __ (स्थाटी प १०८) जो भुजाओं के सहारे परिसर्पण/गति करते हैं, वे भुजपरि सर्प हैं। ११७४. भुयंग (भुजङ्ग) भुजाभ्यां गच्छतीति भुजङ्गः। (उचू पृ २२६) जो भुजाओं से चलता है, वह भुजङ्ग सर्प है । ११७५. भू (5) भ्रमतीति भ्रः। (अनुद्वामटी प १०३) जो भावों के अनुसार इधर-उधर घूमती हैं, वे भ्रू/भौंहें हैं। ११७६. भूतोवघाइणी (भूतोपघातिनी) भूयाणि उवहम्मंति जाए भासाए भासियाए सा भूतोवघाइणी। (दजिचू पृ २५५) जिस भाषा के द्वारा भूत/प्राणियों का उपघात होता है, वह भूतोपघातिनी (भाषा) है । ११७७. भूय (भूत) भूते भवति भविस्सति य तम्हा भूए । (भ २/१५) जिसका अस्तित्व था, है और होगा, वह भूत/प्राणी है । ११७८. भेउर (भिदुर) वाहीए विवागेणं वा भिज्जतीति भेउरं। (आचू पृ ७४) व्याधि अथवा (कर्म) विपाक से जिसका भेदन होता है, वह भिदुर शरीर है। १. भ्राम्यति नेत्रोपरि इति भ्रूः। (शब्द ३ पृ ५६०) Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ निरुक्त कोश ११७६. भेद (भेद) - कर्माणि भिनत्तीति भेदः। ...... (सूचू १ पृ २०४) जो कर्मों का भेदन करता है, वह भेद/संयम है। ११८०. भेरव (भैरव) भयं करोतीति मेरवं । (आचू पृ.२८४) - जो भय पैदा करता है, वह भैरव/भयंकर है। ११८१. भोअ (भोग) भुज्यते—सकृदुपभुज्यत इति भोगः। (उशाटी प ६४४) ____ जिनका एक बार आसेवन किया जाता है, वे भोग हैं। ११८२. भोइया (भोजिका) भोजय ति' भर्तारमिति भोजिका । (बृटी पृ २७७) जो भर्ता/स्वामी की सेवा करती है, वह भोजिका/भार्या है । ११८३ भोमिज्ज (भौमेयक) भूमौ--पृथिव्यां भवाः भौमेयकाः। (उशाटी प ७०१) __जो भू/पृथ्वी में वास करते हैं, वे भौमेयक/भवनवासी हैं। ११८४. भोयण (भोजन) भुज्जत इति भोयणं । (आचू प २६६) जो खाया जाता है, वह भोजन है। ११८५. मइ (मति) मन्नति जेण सा मती। (आचू पृ ३८१) मन्यते-इन्द्रियमनोद्वारेण नियतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनयेति अतिः। (प्रसाटी प ३६०) जो इन्द्रिय और मन के द्वारा वस्तु का ज्ञान करता है, वह मति (ज्ञान) है। १. सति भुज्जइत्ति भोगो सो पुण आहारपुप्फमाईओ ।(उशाटी प ६४५) २. भुज-पालनाभ्यवहारयोः । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २२३ ११८६. मंगल (मङ्गल) मंगिज्जएऽधिगम्मइ जेण हिअं तेण मंगलं होइ। जिसके द्वारा मंगल/हित साधा जाता है, वह मंगल है। अहवा मंगो धम्मो तं लाइ तयं समादत्ते ॥ (विभा २२) जो मंग/धर्म को प्राप्त कराता है, वह मंगल है। मं गालयइ भवाओ मंगलमिहेवमाइ नेरुत्ता। (विभा २४) जो मा/पाप को गाल देता है, वह मंगल है । मङ्कयते अनेन मन्यते वाऽनेनेति मङ्गलम् । जो मंडित करता है, वह मंगल है। जिसके द्वारा विघ्न का अभाव निश्चित किया जाता है, वह मंगल है। मा गलो भूदिति मङ्गलम् । जो गल/विघ्न को नष्ट कर देता है, वह मंगल है। मा गलो वा भूदिति मङ्गलम् । (सूचू १ प २) जो गाल नाश न करे, वह मंगल है। माद्यन्ति हृष्यन्ति अनेनेति मङ्गलम् । __ जो प्रसन्न करता है, वह मंगल है । महन्ते पूज्यन्तेऽनेनेति मङ्गलम्। (विभामहेटी १ पृ २) जिसके द्वारा पूजा जाता है, वह मंगल है। मथ्नाति-विनाशयति शास्त्रपारगमनविघ्नान गमयति-प्रापयति शास्त्रस्थ यं लालयति च श्लेषयति तदेव शिष्यप्रशिष्यपरम्परायामिति मङ्गलम् । (उशाटी प २०) जो शास्त्रपारगामिता के विघ्नों का विनाश करता है, सूत्रार्थ को स्थिर करता है और उसे शिष्य-प्रशिष्य की परंपरा से जोड़ता है, वह मंगल है। ११८७. मंथु (मन्थु) मथ्यत इति मंथू । (उचू पृ १७५) जो मथित/चूर्णित किया जाता है, वह मंथु सत्तु आदि का चूर्ण है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ निरक्त कोशः ११८८. मंदा (मन्दा) मंदमस्यां बाल्यं यौवनं विज्ञानं श्रोत्रादिविज्ञानं वा तेण मंदा । __ (दश्रुचू प ४६६) श्रोत्र आदि विज्ञान जिसमें मंद होता है, वह मंदा अवस्था मन्दः-विशिष्टबलबुद्धिकार्योपदर्शनासमर्थो भोगानुभूतावेव च समर्थो यस्यामवस्थायां सा मन्दा । (स्थाटी प ४६६) जो विशिष्ट कार्य करने में असमर्थ और भोग भोगने में समर्थ है, वह मन्दा अवस्था है । ११८६. मक्कार (माकार) 'मा' इत्यस्य निषेधार्थस्य करणं--अभिधानं माकारः । (स्थाटी प ३८२) मा/निषेध का उच्चारण करना माकार है। ११९०. मग्ग (मार्ग) मृज्यते----शोध्यते अनेनात्मेति मार्गः।' (आवहाटी १ पृ ५८) जो आत्मा का मार्जन/शोधन करता है, वह मार्ग/मोक्षमार्ग ११६१ मग्गणा (मार्गणा) मृग्यतेऽनेन परिणामकरणेनेति मार्गणम् । (नंटी पृ ५०) जिस परिणामविशेष से पदार्थ के अन्वय-व्यतिरेक धर्मों का मार्गण/पर्यालोचन होता है, वह मार्गणा/ईहा/मतिज्ञान का एक भेद है। १. मार्ग के अन्य निरुक्तमार्यते संस्क्रियते पादेन मृग्यते गमनायान्विष्यते इति वा मार्गः । (शब्द २ पृ ७०८) जो पैरों से क्षुण्ण होता है, वह मार्ग है। जिसे गमन के लिए खोजा जाता है, वह मार्ग है। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश २२५ ११९२. मघव (मघवन्) मघवंति महामेहा, ते जस्स वसे संति से मघवं ।' (दश्रुचू प ६४) ___मघ/महामेघ जिसके वशवर्ती हैं, वह मघवा/इन्द्र है। . ११९३. मच्चिय (मर्त्य) मरंतीति मच्चिया। (आचू पृ ८३) जो मरणधर्मा हैं, वे मर्त्य हैं। ११९४. मज्झत्थ (मध्यस्थ) मझेहि चिट्ठतीति मज्झत्थो। (आचू पृ २८६) जो मध्य में रहता है, वह मध्यस्थ है। ११६५. मट्टिया (मृत्तिका) मयंति' तामिति मृत्तिका । (उचू पृ १३४) जिसे रौंदा जाता है, वह मृत्तिका है। ११९६. मणपज्जवणाण (मनःपर्यायज्ञान) पज्जवणं पज्जयणं पज्जाओ वा मणम्मि मणसो वा ।। तस्स व पज्जायादिन्नाणं मणपज्जवं नाणं । (विभा ८३) मनांसि पर्येति परिच्छिनत्ति मनःपर्यायम् । (नंटी पृ ११२) जो मन/मनोभावों को जानता है, वह मनःपर्यायज्ञान है। ११६७. मणभक्खि (मनोभक्षिन्) मनसा भक्षयन्तीत्येवंशीला मनोभक्षिणः। (प्रज्ञाटी प ५१०) जो मन/चिन्तन से भोजन का आहरण करते हैं, वे मनो: भक्षी/देव हैं। १. 'मघवा' शब्द के अन्य निरुक्तमघः सौख्यमस्याऽस्ति मघवान् । मघो देवसभा सोऽस्यास्तीति वा। (अचि पृ ४०) जिसके (अपार) मघ/सुखसंपदा है, वह मघवा है। जिसके मघ/देवसभा है, वह मघवा है । २. मृदश्-क्षोदे। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ निरुक्त कोश ११९८. मणसमाहारणा (मनःसमाधारणा) मनसः समिति-सम्यग् आङिति-मर्यादयाऽऽगमाभिहितभावाभिव्याप्त्याऽवधारणा-व्यवस्थापनं मनःसमाधारणा।। (उशाटी प ५६२) मन का सम्यक् रूप से अवधारण व्यवस्थापन करना मनःसमाधारणा है। ११६६. मणाम (मनआप) मनःअमन्ति–गच्छन्ति यास्ताः मनपाः। (स्थाटी प ४४४) मनांसि आप्नुवंति आत्मवशतां नयन्तीति मनआपाः । (राटी पृ ८५) जो मन को आकृष्ट कर लेता है, वह मनआप/मनोज्ञ है। १२००. मणाम (दे) मन्नइ मणसा मणामं तं । (प्रसा १४०) जो मन को इष्ट है, वह मणाम/मनोज्ञ है। १२०१. मणि (मणि) मद्यते मन्यते वा तमलङ्कारमिति मणिः। (उचू पृ १५१) __जो अलंकार को विशिष्ट और सुशोभित करती है, वह मणि है। १२०२. मणुअ (मनुष्य) मनसि शेते मनुष्यः। (उचू पृ ६६) जो मनचिंतन में खोया रहता है, वह मनुष्य है । १. 'मणि' शब्द का अन्य निरुक्तमणति महार्घतां मणिः। (अचि पृ २३५) जो मूल्यवान् होती है, वह मणि है । (मण शब्दे) २. 'मनुष्य' का अन्य निरुक्तमनोरपत्यं मनुष्यः। जो मनु की सन्तान है, वह मनुष्य है । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश રર૭ १२०३. मणुण्ण (मनोज्ञ) मणइटें तु मणुण्णं । (प्रसा १४०) मनसा-अन्तःसंवेदनेन शोभनतया ज्ञायत इति मनोज्ञः। (विपाटी प ६१) जो मनको सुन्दर प्रतीत होता है, वह मनोज्ञ है। १२०४. मणुय (मनुज) मनोर्जाता मनुजाः। (स्थाटी प २०) ___जो मनु से उत्पन्न हुआ है, वह मनुज/मनुष्य है । १२०५. मणोरम (मनोरम) मनांसि अत्र मनस्विनां रमंत इति मणोरमे। (सूचू १ पृ १४६) जहां मनस्वी व्यक्तियों का मन आनन्द का अनुभव करता है, वह मनोरम है। मनः चित्तं रमते-धृतिमाप्नोति यस्मिन् तन्मनोरमम् । (उशाटी प ३०६) जहां मन/चित्त रमण करता है, वह मनोरम है । १२०६. मणोहर (मनोहर) मणं हरन्तीति मणोहरणाई। (आचू पृ ३७८) ___ जो मन का हरण करते हैं, वे मनोहर हैं। १२०७. मत्ता (मात्रा) मीयतीति मत्ता। (आचू पृ ७२) जो भाप करती है, वह मात्रा है । १२०८. मत्तंगय (मत्ताङ्गद) मत्तं-- मदस्तस्याङ्ग- कारणं मदिरा तद्ददतीति मत्ताङ्गदाः। (स्थाटी प ४६४) जो मत्त होने की हेतुभूत मदिरा प्रदान करते हैं, वे मत्ताङ्गद (वृक्ष) हैं। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ निरुक्त कोश १२०६. मयंगा (मृतगङ्गा) मृतेव मृता विवक्षितभूदेशे तत्कालाप्रवाहिणी सा चासौ गङ्गा च मृतगङ्गा। (उशाटी प ३५४) जो विवक्षित भूभाग में मृत/अप्रवाहित है, वह गंगा मृतगंगा है। १२१०. मयण (मदन) मदयतीति मदनः। (दटी प ८५) जो मत्त बनाता है, वह मदन/काम है । १२११. मरण (मरण) मरतीति मरणं । (आचू पृ ६७) म्रियते येन तद् मरणम् । (सूचू १ प ६९) जिसके द्वारा प्राणी मृत्यु को प्राप्त होता है, वह मरण/ मृत्यु है। १२१२. मरालि (मरालि) म्रियत इव शकटादौ योजितो राति च--ददाति लत्तादि लीयते च भुवि पतनेनेति मरालिः। (उशाटी प ४६) ___ जो बैल गाड़ी में जोते जाने पर मृत-सा हो जाता है, लात मारता है, भूमी पर गिर पड़ता है, वह मरालि दुष्ट बैल है । १२१३. मल (मल) मृद्नाति' तमिति मलम् । (उचू पृ १३४) जिसे साफ किया जाता है, वह मल है। १. मृद्- to remove (आप्टे पृ १२८६) २. 'मल' का अन्य निरुक्त-- मलते धारयति कायं मलं, मृज्यते वा । (अचि पृ १४२) जो शरीर को टिकाये रखते हैं, वे मल/वात-पित्त-कफ हैं। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २२६ १२१४. मल्ल (माल्य) मालिज्जतीति मल्लं ।' (दश्रुचू प ६१) जो वेष्टित करती है, वह माला है । जो म्लान होती है, वह माला है । १२१५. मसय (मशक) मारयितुं शक्नुवन्ति मशकाः। (उशाटी प १२१) जो मार/काट सकते हैं, वे मशक/मच्छर हैं । १२१६. महप्प (महात्मन्) । महं अप्पा जेसि ते महप्पाणो। (दअचू पृ १९३) जिनकी आत्मा महान् है, वे महात्मा हैं । १२१७. महरिह (महार्ह) महं-उत्सवमर्हतीति महार्हः। (जीटी प २४३) जो मह/उत्सव के योग्य है, वह महार्ह है। १२१८. महाकाय (महाकाय) महान्–बृहन् प्रशस्तो वा कायो निकायो यस्य स महाकायः। (भटी पृ ११६८) (भवनपति देवों में) जो सबसे महान्/बृहत् और प्रशस्त काय/समूह है, वह महाकाय/असुरकुमार देवगण है । १२१६. महाणाग (महानाग) महापाणं णयंति महानागा। (सूचू १ पृ १७१) जो महाप्राण/महान् बल को धारण करते हैं, वे महानाग/ शक्ति-संपन्न हैं। १. 'माला' के अन्य निरुक्तमालव माल्यं मल्यते धार्यते इति माला, मान्ति पुष्पाण्यस्यां वा माला। (अचि पृ १४६) जिसे धारण किया जाता है, वह माला है। जिसमें पुष्प पिरोए जाते हैं, वह माला है। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० निरुक्त कोश १२२०. महापाण (महापान) पिबति अर्थपदानि यत्रस्थितस्तत्पानं, महच्च तत्पानं च महापानम् । (व्यभा ६ टी प ४६) जिसमें महान् अर्थपदों का पान ज्ञान किया जाता है, वह महापान (ध्यान साधना) है। १२२१. महाभाग (महाभाग) महत्तं भजतीति महाभाग। (आवचू १ पृ ८६) जो महान् /मोक्ष का आसेवन करता है, वह महाभाग है। १२२२. महामुणि (महामुनि) महान्तं मुनतीति महामुनिः। (उचू पृ ५९) जो महान्/मोक्ष को जानता है, वह महामुनि है । १२२३. महावीर (महावीर) पहाणो वीरो महावीरो। (दअचू पृ ७३) महन्तं वीरियं यस्य स भवति महावीरो। (आवचू १ पृ ८६) जिसका वीर्य/पराक्रम महान् है, वह महावीर है । १२२४. महित (महित) त्रैलोक्यस्स मनोहिता महिता। जो तीनों लोकों के मन में समाविष्ट हैं, वे महित/अर्हत हैं। महिमाकरणेन महिता। (नंचू पृ ४६) जिनकी महिमा/स्तुति की जाती है, वे महित/पूजित हैं। १२२५. महिस (महिष) मह्यां शेते महिषः। (अनुद्वा ३६८) १. पिबति मिनोति एकाौँ । (व्यभा ६ टी प ४६) २. 'महिष' के अन्य निरुक्तमहति महिषः। (अचि पृ २८६) जो विशालकाय है, वह महिष है । (मह, --Increase आप्टे पृ १२४६) Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २३१ जो मही/पृथ्वी पर शयन करता है, वह महिष/भैंसा है। १२२६. महीरुह (महोरुह) महीए रुहंतीति महीरहा। (दअचू पृ ७) जो मही/पृथ्वी पर पैदा होते हैं, वे महीरुह/वृक्ष हैं । १२२७. महेसि (महर्षि) इसी-रिसी, महरिसी-परमरिसिणो।' (दअचू पृ ५६) जो महान् ऋषि हैं, वे महर्षि हैं । १२२८. महेसि (महैषिन्) महानिति मोक्षो तं एसन्ति महेसिणो। (दअचू पृ ५६) जो महान्/मोक्ष की एषणा करते हैं, वे महैषी/महर्षि हैं । महान्- बृहन् शेषस्वर्गाद्यपेक्षया मोक्षस्तमिच्छति-अभिलषतीति महदेषी। (उशाटी प ३६६) जो महान्/मोक्ष को चाहता है, वह महषी है । १२२६. माउ (मातृ) मानयति मन्यते वाऽसौ माता ।। जो मानित/पूजित होती है, वह माता है । (मिमीते) मिनोति वा पुत्रधर्मानिति माता। (उचू पृ १५०) जो पुत्र की योग्यताओं का अनुमापन करती है, वह माता मंहति पूजयंति देवानेनेति महिषः । (शब्द ३ पृ ६७७) देवों के लिए जिसकी बलि दी जाती है, वह महिष है । १. महान्तश्च ते ऋषयश्च महर्षयः । (दटी प ११६) . मान्यते पूज्यते या सा माता । (शब्द ३ पृ ६६१) Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ १२३०. मांस (मांस) मन्यते स भक्षयिता येनोपभुक्तेन बलवन्तमात्मानमिति मांसं । ( उच्च पृ १३३ ) जिसे खाकर व्यक्ति अपने आपको पुष्ट मानता है, वह मांस है । १२३१. माण (मान) मननम् - अवगमनं मन्यते वाऽनेनेति मानः । अपने आपको बड़ा मानना मान है । १२३२. माण (मान) मीयते इति मानम् । १२३३. माणव (मानव) माणंतित्ति माणवा । जो मनन करते हैं, वे मानव हैं । मा-निषेधे नवः प्रत्यग्रो मानवः । जिसके द्वारा मापा जाता है, वह मान / माप है । निरुक्त कोश ( स्थाटी प १८६ ) ( आमटी प ४४६ ) ३. 'मान' का अन्य निरुक्त मत्समो नास्तीति मननं मानः । (अचि पृ७४ ) मेरे जैसा दूसरा कोई नहीं है, ऐसा मानना मान है । (भटी पृ १४३२) जिसका अस्तित्व नया नहीं है, अनादिकालीन है, वह मानव 1 १. मान्यतेऽनेन मांसम् । ( सूटी २ प १५१ ) 'मांस' का अन्य निरुक्त मांस भक्षयितामुत्र यस्य मांसमिहादम्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ( अचि पृ १४० ) यहां मैं जिसका मांस खा रहा हूं, परलोक में मां / मेरा मांस स / वह खायेगा - यही मांस का मांसत्व है | ( अचू पृ ७२ ) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "निरक्त कोश २३३ १२३४. मायण्णु (मात्रज्ञ) मत्तं जाणाति मातण्णो। (आचू पृ ७६) जो मात्रा को जानता है, वह मात्रज्ञ है। १२३५. माया (माया) मीयते' अनयेति माया। (स्थाटी प १८६) __ जिससे तथ्य का गोपन किया जाता है, वह माया है। १२३६. मार (मार) खणे खणे मारयतीति मारो। (आचू प १०८) जो क्षण-क्षण घात करता है, वह मार/मृत्यु है । १२३७. मास (मास) मीयते तमिति मासम् ।' (उचू पृ १८४) जिसका मान/माप होता है, वह मास/महीना है । १२३८. माहण (माहण) मा हणह सव्वसत्तेहि भणमाणो अहणमाणो य माहणो भवति । (सूचू १ पृ २४६) जो कहता है-माहण/मत मारो और स्वयं उसका आचरण __ करता है, वह माहण/ब्राह्मण/श्रमण है । १. मीयते अपरोक्षवत् प्रदर्श्यतेऽनया माया । (शब्द ३ पृ ७०१) २. 'माया' का अन्य निरुक्त माति अनया माया। (अचि पृ८८) जिससे दिखावा किया जाता है, वह माया है। ३. (क) मानासनान्मासः, अन्यानि मानानि समयावलिकादीनि असतीति मासः, मानानि वा द्रव्यक्षेत्रादीन्यसतीति मासः। (निचू ४ पृ ३८८) (ख) माति मिमीते वा मासः, मस्यते परिमीयते सावनचान्द्रसूर्यादिभेदेनेति । (अचि पृ ३४) जिसके द्वारा सावनमास, चन्द्रमास, सूर्यमास आदि मापे जाते हैं, वह मास है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ निरक्त कोश १२३६. मिच्छामि दुक्कड (मिथ्या मे दुष्कृत) मित्ति मिउमद्दवत्ते छत्ति अ दोषाण छायणे होइ । मित्ति य मेराइ ठिओ, दुत्ति दुगुंछामि अप्पाणं ॥ (आवनि १५०५) कति कडं मे पावं डत्तियं डेवेमि तं डवसमेणं । एसो मिच्छादुक्कडपयक्ख रत्थो समासेणं ॥ (आवनि १५०६) मि/मृदुता पूर्वक दोषों का छा/छादन/शोधन करने के लिए मि/मर्यादा/आचारविधि में उपस्थित हो मैं (पापकारी) आत्मा से दु/जुगुप्सा करता हूं और उपशमभाव के द्वारा क/कृतपाप का ड/ अतिक्रमण करता हूं। १२४०. मित्त (मित्र) मेज्जंतो' मेयंति' वा तदिति मित्रं । (उचू पृ १४६) जो स्नेह करता है, वह मित्र है । जो व्यक्ति की योग्यताओं का अनुमापन करता है, वह मित्र १२४१. मिय (मृग) मृग्यते इति मृगः। (उचू पृ २१४) शिकारी द्वारा जिसकी खोज की जाती है, वह मृग है। --- जो तृण आदि का अन्वेषण करता है, वह मृग है। जिसका शिकार किया जाता है, वह मृग है। म्रियते इति मृगः। (उचू पृ २१८) जो मारा जाता है, वह मृग है। १. मिद्यति स्निह्यति मित्रम् । (अचि पृ १६२) २. मिनोति मानं करोति इति मित्रम् । (शब्द ३ पृ ७२२) ३. (क) मृग्यते व्याधर्मगः। (अचि पृ २८६) (ख) मृगयते अन्वेषयति तृणादिकं मृगः । (शब्द ३ पृ ७६४) (ग) मृग-to hunt (आप्टे पृ १२८४) ४. मृ-to kill (आप्टे पृ १२८४) Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १२४२. मियवादि (मितवादिन् ) मितं - परिमिताक्षरं वदितुं शीलमस्येति मितवादी । १२४३. मियासण ( मिताशन) जो मित/ परिमित बोलता है, वह मितवादी है । मियं असतीति मियासणे । १२४४. मुंड (मुण्ड ) मुण्डयति - अपनयतीति मुण्ड: । जो मित भक्षण करता है, वह मिताशन है । सावज्जेस मोणवतीति मुणी । ( स्थाटी प ४७५ ) जो ( विषय और कषाय का ) मुण्डन / अपनयन करता है, वह us / है । १२४५. मुणि (मुनि) मुणतीति मुणी । मनुते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः । " है १२४६. मुणि ( मुणि) जो सावद्य कार्यों के प्रति मौन है, वह मुनि है । ( बृटी पृ १०४४) मुणति - प्रतिजानीते सर्वविरतिमिति मुणिः । ' है । १. 'मुनि' का अन्य निरुक्त ( दजिचू पृ २८४ ) ( आचू पृ १८० ) ( सूटी २ प ४१ ) जो जगत् की त्रैकालिक अवस्थाओं को जानता है, वह मुनि मन्यतेऽसौ मुनि: । (अचि पृ १४ ) २३५ २. मुण् — प्रतिज्ञाने । ( उशाटी प ३५७ ) जो संयमी जीवन जीने की प्रतिज्ञा करता है, वह मुणि / मुनि (दअचू पृ २३३ ) जिसका वचन मान्य होता है, वह मुनि है । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ निरक्त कोश १२४७. मुत्ति (मुक्ति) मुच्यन्ते सकलकर्मभिः तस्यामिति मुक्तिः। (स्थाटी प ४२२) __ जहां जीव सब कर्मों से मुक्त होते हैं, वह मुक्ति है। १२४८. मुधाजीवि (मुधाजीविन्) मुधा अमुल्लेण तधा जीवति मुधाजीवी। (दअचू पृ १६०) जो मुधा/निष्कामवृत्ति से जीता है, वह मुधाजीवी है । १२४६. मुम्मुही (मुङ मुखी) विणओवक्कमंतो मूक इव भाषते मुम्मुही। (दश्रुचू प ३) जिसमें व्यक्ति मूक की तरह संभाषण करता हैं, वह मुमुखी/मनुष्य की नौवीं अवस्था है । मोचनं मुक्, मुचं प्रति मुखं-- आभिमुख्यं यस्यां सा मुमुखी ।' (स्थाटी प ४६७) जिसमें प्राणी मृत्यु के अभिमुख होता है, वह मुङ्मुखी/ मनुष्य की नौवीं अवस्था है। १२५०. मुसल (मुसल) मुहुर्मुहुर्लसति मुसलं : (अनुद्वा ३६८) जो बार बार (ऊखल का) स्पर्श करता है, वह मुसल है । १२५१. मुह (मुख) खद्यते तत् इति मुखम् । (उचू पृ १३६) जिससे खाया जाता है, वह मुख है। १. णवमी मुम्मुही नाम जं नरो दसमस्सिओ। जराघरे विणस्संतो जीवो वसइ अकामओ ॥ (दटी प ८) २. 'मुसल' के अन्य निरुक्तमुस्यते खण्ड्यतेऽनेन मुसलः, मुहुः स्वनं लाति वा । (अचि पृ २२४) जो टुकड़े टुकड़े करता है, वह मुसल है। जो बार बार शब्द करता है, वह मुसल है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश २३७ खन्यते' तत् खनति' वा तत् मुखम् । (उचू पृ २६६) विधाता ने जिसे बनाया है, वह मुख है । जो खनन/अवदारण करता है, वह मुख है । १२५२. मुहमंगलिय (मुखमङ्गलिक) मुखमङ्गलानि-चाटुवचनानि ये कुर्वन्ति ते मुखमङ्गलिकाः । (ज्ञाटी प ६४) जो प्रत्यक्ष में झूठी प्रशंसा करते हैं, वे मुखमंगलिक/ चापलूस हैं। १२५३. मुहरि (मुखरिन्) मुहेण अरिमावहतीति मुहरी।" (उचू पृ २७) जो मुख/वाणी से शत्रु बनाता है, वह मुखरी/वाचाल है। जो मुख से अरि/परिहास या कलह का आवहन करता है, वह मुखरी है। १२५४. मुहुत्त (मुहूर्त) मीयतेऽनेनेति मुहूर्तः । (सूचू १ पृ८८) जिसके द्वारा काल मापा जाता है, वह मुहूर्त है । १. खन्यते विधात्रा मुखम् । २. खनति विदारयति अन्नादिकमनेन मुखम् । (शब्द ३ पृ ७३४) ३. 'मुख' का अन्य निरुक्त मह्यते मुखम् । (अचि पृ १२६) जो शरीर की शोभा बढ़ाता है, वह मुख है । ४. 'मुखर' का अन्य निरुक्तमुखं सर्वस्मिन् वक्तव्येऽस्त्यस्य मुखरः। (अचि पृ८२) जो अनर्गल प्रलाप करता है, वह मुखर/वाचाल है । ५. 'मुहूर्त' के अन्य निरुक्तहूर्छति मुहूर्तः, मुहुरियति वा । (अचि पृ ३०) जो ठगता है, वह मुहूर्त काल है । (हूर्च्छ-कौटिल्ये) जो बीतता है, वह मुहूर्त है। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ निरक्त कोश १२५५. मूढ (मूढ़) मुह्यते स्म अस्मिन्निति मूढः । निचू १ पृ १७) जो मुग्ध/विवेकविकल बनाती है, वह मूढ (दृष्टि) है । १२५६. मेखला (मेखला) मेखस्य माला मेखला।' (अनुद्वा ३६८) जो मे/गुप्त ख/स्थान की माला है, वह मेखला है । १२५७. मेज्झ (मध्य) मेध्यानि द्रव्याणि नाम यर्मेधा उपक्रियते । (व्यभा १० टी प ६५) जिनसे मेधा उपकृत होती है|बढती है, वे मेध्य श्रेष्ठ पदार्थ १२५८. मेय (मेद) मिद्यतेऽनेनेति मेदः। (उचू पृ १५६) जिससे स्निग्धता प्राप्त होती है, वह मेद है । १२५९. मेहावि (मेधाविन्) मेहाए धावतीति मेहावी । (आचू पृ १२४) जो मेधा से प्रवृत्ति करता है, वह मेधावी है । मेरा धावित्ता मेहाविणो। (आचू पृ २२५) जो मर्यादापूर्वक गति करते हैं, वे मेधावी हैं। १२६०. मोय (मोक) मोचयति पापकर्मभ्यः साधुमिति मोका। (व्यभा ह टीप १५) जो पापकर्म से मुक्त करती है, वह मोक (प्रतिमा) है । १. मेहनस्य खस्स माला वि वत्तव्बे मेखला । (विटी १ पृ४५६) २. मेद्यति स्निह्यतीति मेदः। (शब्द ३ पृ ७७६) ३. धारणाशक्तियुक्ता धीर्मेधा, मेधते सङ्गच्छतेऽस्यां सर्व, बहुश्रुतं विषयी करोति इति वा मेधा । (शब्द ३ १७८०) जिसमें सब कुछ समाहित हो जाता है, वह मेधा है । जो अनेक विषयों में प्रवृत्त होती है, वह मेधा है । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश २३६ १२६१. मोहणीय (मोहनीय) मुह्यते येन स मोहः । (उचू पृ ११५) वैचित्र्यमुत्पादयत्यात्मन इति मोहनीयम् ।' जो चित्त में विचित्तता/मूढ़ता पैदा करता है, वह मोहनीय (कर्म) है। मोहयति वैचित्र्यमापादयतीति मोहनीयम् ।। (प्राक १ टी पृ १७) ___ जो संकल्प-विकल्पों की विचित्रता पैदा करता है, वह मोहनीय (कर्म) है। १२६२. रइ (रति) रम्यतेऽनयेति रतिः। (दटी प ७८) जिसके द्वारा (असंयम में) रमण किया जाता है, वह रति (मोहनीय कर्म) है। १२६३. रइयगभोइ (रचितकभोजिन्) रचितकं नाम कांस्यपात्रादिषु पटादिषु वा यदशनादिदेयबुद्ध्या वैविक्त्येन स्थापितं यद्भुक्ते इत्येवंशीलो रचितकभोजी। (व्यभा ३ टी प ११६) जो रचित/पृथक् रूप से स्थापित भोजन का भक्षण करता है, वह रचितकभोजी है। १२६४. रक्खोवग (रक्षोपग) रक्षामुपगच्छन्ति तदेकचित्ततया तत्परायणा वर्तन्ते इति रक्षोपगाः ।। ___ (राटी पृ २७०) जो रक्षा करने में तत्पर हैं, वे रक्षोपग/अंगरक्षक हैं। १२६५. रज (रजस्) जीवस्यानुरञ्जनाद् मालिन्यापादनात् रजः। (विभामहेटी २ १ २३८) १. मद्यपानवद्विचित्तताजनेनेति मोहः । (उशाटी प ६४१) Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० निरक्त कोशः जो जीव को अनुरञ्जित/मलिन करता है, वह रज (कर्म) १२६६. रण्ण (राजन्) राजनाद्'-दीपनाद् राजा।' (स्थाटी प १६१) जो मंत्री आदि से सुशोभित होता है, वह राजा है। १२६७. रत्ति (रात्रि) सन्ध्या यतो राजते ---शोभते तेन रात्रिः । (बृटी पृ ८५७) जिससे सन्ध्या शोभित होती है, वह रात्रि है। १२६८. रय (रजस्) रंजयतीति रजः। (सूचू १ पृ ५६) जो रञ्जित/मटमैला कर देती है, वह रज/धली है । रीयत इति रजः। (उचू पृ १६१) जो गति करती है, वह रज/धूली है। १२६६. रयणप्पभा (रत्नप्रभा) रत्नानां प्रभा यस्यां रत्नैर्वा प्रभाति-शोभते या सा रत्नप्रभा । (स्थाटी प ५०१) जो रत्नों से प्रभास्वर है, वह रत्नप्रभा है । १२७०. रयहरण (रजोहरण) रजो ह्रियते-अपनीयते येन तद्रजोहरणम् । (स्थाटी प ३२७) जो रजों का अपहरण/अपनयन करता है, वह रजोहरण (धर्मोपकरण) है। १. राजतेऽमात्यादिभिरिति राजा । २. 'राजा' का अन्य निरुक्तरञ्जयति प्रजामिति वा । (अचि पृ १५४) जो प्रजा को प्रसन्न रखता है, वह राजा है । ३. 'रात्रि' का अन्य निरुक्तराति सुखं रात्रिः। (अचि पृ ३१) जो सुख प्रदान करती है, वह रात्रि है। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश २४१ १२७१. रस (रस) रस्यते-आस्वाद्यते इति रसः। (स्थाटी प २३) जिसका आस्वाद लिया जाता है, वह रस है। रस्यन्ते-अन्तरात्मनाऽनुभूयन्त इति रसाः।। (अनुद्वामटी प १२४) अन्तरात्मा से जिनका अनुभव किया जाता है, वे रस हैं । १२७२. रसग (रसग) रसमनुगच्छन्तीति रसगा:। (आटी प २३७) जो रस में उत्पन्न होते हैं, वे रसज प्राणी हैं । १२७३. रसहरणी (रसहरणी) रसो ह्रियते-आदीयते यया सा रसहरणी। (भटी प ८८) जिसके द्वारा रस का हरण/ग्रहण किया जाता है, वह रसहरणी/नाभिनाल है। १२७४. रसायण (रसायन) रसः अमृतरसस्तस्यायनं-प्राप्तिः रसायनम् ।। (विपाटी प ७५) जिसके द्वारा रस/अमृत की प्राप्ति होती है, वह रसायन औषधि है। १२७५. रसेसि (रसैषिन्) रसं एसन्तीति रसेसिणो। (आचू पृ ३३८) जो रस की खोज/प्रार्थना करते हैं, वे रसैषी हैं। १२७६. राअ (राग) रज्जंति तेण तम्मि व..... ....... राओ। (विभा २६६१) जिससे प्राणी रञ्जित/आसक्त होता है, वह राग है। १. रसायन विधयः--स्थापनमायुर्मेधाकरं रोगापहरणसमर्थं च तदभिधायक तन्त्रमपि रसायनम् । (विपाटी प ७५) २. रज्यन्ते तेन तस्मिन् वा सति क्लिष्टसत्वाः प्राणिनः स्यादिष्विति रागः। (विभामहेटी २ पृ २२२) Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ निरक्त कोश १२७७. रायदारिय (राजद्वारिक) राजद्वारमर्हतीति राजद्वारिकम् । (बृटी पृ १६२) जो राजद्वार के योग्य है, वह राजद्वारिक है।। राजाऽमात्यमहत्तमादिभवनेषु गच्छभिर्यत् परिभुज्यते तद् राजद्वारिकम् । (बृटी पृ १६१) राजद्वार पर जाते समय जिसका उपयोग किया जाता है, वह राजद्वारिक है। १२७८. रायहाणी (राजधानी) राजा धीयते-विधीयते अभिषिच्यते यासु ता राजधान्यः । (स्थाटी प ४५८) जिनमें राजा का अभिषेक किया जाता है, वे राजधानियां १२७९. रुइल (रुचिल) रुचिः-दीप्तिस्तां लाति-आददति रुचिलानि । (सूटी २ प ७) जो रुचि/दीप्ति को धारण करता है, वह रुचिल/सुन्दर १२८०. रुक्ख (रूक्ष) रुक् पृथिवी तं खातीति रुक्खो ।' (निचू २ पृ ३०६) ___ जो रुक्/पृथ्वी को खाता है, वह रूक्ष वृक्ष है। रुत्ति पुहवी खत्ति आगासं तेसु दोसुवि जहा ठिया तेण रुक्खा । __ (दजिचू पृ ११) जो रु/पृथ्वी और ख/आकाश-दोनों में स्थित हैं, वे रूक्ष/ वृक्ष हैं। १२८१. रुजग (रुजक) . रुत्ति पृथिवी तीय जी (जा) यंतित्ति रुजगा। (दजिचू पृ ११) १. 'रूक्ष' का अन्य निरुक्त रूक्षयति रूक्षः। (अचि पृ २४८) जो सूखकर रूक्ष/टूंठ हो जाता है, वह रूक्ष/वृक्ष है। A rt Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २४३ जो रु / पृथ्वी से पैदा होते हैं, जीवित रहते हैं, वे रुजक / वृक्ष हैं । १२८२. रुद्द (रौद्र) रोतीति रुद्रः, तेण कृतं रौद्रम् ।' ( दअचू पृ १६ ) जो अत्यंत दीनता से अश्रुविमोचन करता है, चिन्तन करता है, वह रौद्र ध्यान है । १२८३. रूव (रूप) रूप्यते - अवलोक्यत इति रूपम् । जो देखा जाता है, वह रूप है । १२८४. रोग (रोग) रुजतीति रोगः । जो रुग्ण बनाता है, वह रोग है । - १२८५. रोयग ( रोचक ) सदनुष्ठानं रोचयत्येव केवलं न पुनः कारयतीति रोचकम् । १२८६. रोवग (रोपक ) रुपंति रोपणीया वा रोपका । जो विहित अनुष्ठान में केवल रुचि / प्रीति करती है, वह राचक ( सम्यकत्व ) है । १२८७. लउडसाइ ( लकुटशायिन् ) ( स्थाटी प २३) जिनको रोपा जाता है, वे रोपक / पौधे हैं । ( दअचू पृ १७ ) ( प्रसाटी प २८२ ) लगण्डं - वक्रकाष्ठं तद्वत् शेते यः स लगण्डशायी ( लकुटशायी ) । ( औटी पृ ७५ ) ( दअचू पृ ७ ) जो लकुट | वकाष्ठ की भांति शयन करता है, वह लकुट - शायी / कायक्लेश का एक प्रकार है । १. हिंसाद्यतिक्रौर्यानुगतं रौद्रम् । ( आवहाटी २ पृ ६३ ) संछेदनैर्दहनभञ्जनमारणैश्च बन्धप्रहारदमनैविनिकृन्तनैश्च । यो याति रागमुपयाति च नानुकम्पां, ध्यानन्तु रौद्रमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥ ( दटी प ३२) Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ १२८८. लंगलिक (लाङ्गलिक) लाङ्गलं वा प्रहरणं येषां गले वा लम्बमानं सुवर्णादिमयं तद्येषां ते लाङ्गलिकाः । ( ज्ञाटी प ६४ ) जिनके लांगल / हल आजीविका का साधन होता है, वे लांगलिक / किसान हैं । front आयुध लांगल / हल होता है, वे लांगलिक / बलराम हैं । जिनके गले में स्वर्णमय हलाकृति होती है, वे लांगलिक / कापटिक हैं । १२८६. लंबण (लम्बन ) लम्ब्यन्ते इति लम्बनाः । ( ज्ञाटी प १६५ ) जो स्थिर रहने में आलंबन बनते हैं, वे लंबन / लंगर हैं । १२६०. लक्खण (लक्षण) लक्खिज्जइत्ति नज्जइ पच्चक्खियरो व जेण जो अत्थो । तं तस्स लक्खणं लक्ष्यते तदन्यव्यवच्छेदेन ज्ञायते येन तल्लक्षणम् । है | १२६१. लयण (लयन ) कपडिया जत्थ लयंति तं लयणं । निरुक्त कोश (सूर्यटीप २५६ ) जिससे वस्तु का पृथक् अस्तित्व जाना जाता है, वह लक्षण १२६२. लाढ (लाढ) ............. ॥ (दभा १२ ) ( अनुद्वाच् पृ ५३ ) कार्पेटिक जिसमें लीन होते हैं, वह लयन / पाषाणगृह है । येनकेनचित् प्रासुकाहा रोपकरणादिगतेन यापयति पालयतीति लाढः । है, वह लाढ / संयमी है । जो यत् किञ्चित् सामग्री से विधिपूर्वक जीवनयापन करता विधिना आत्मानं ( सूटी १ प ९८९ ) Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २४५ १२६३. लाबु (अलाबु) लवतीति लाबुं । जो काटा जाता है, वह अलाबु है । आदानार्थेन वा युक्तं ला आदाने इति लाचं तं अलाबु' भण्णति । (अनुद्वाचू पृ ४६) ____ जो जल आदि पदार्थ ला/ग्रहण करता है, वह लाबु/अलाबु १२६४. लाला (लाला) ललतीति लाला। (आचू पृ ८५) जो टपकती है, वह लाला/लार है । जो श्लिष्ट करती है, वह लाला/लार है। १२६५. लाह (लाभ) लभ्यते लाभः। (स्थाटी प २३६) जो प्राप्त होता है, वह लाभ है। १२६६. लिंग (लिङ्ग) लिङ्ग यते साधुरनेनेति लिङ्गम् । (आवहाटी २ पृ २३) जिसके द्वारा साधु पहचाना जाता है, वह लिंग वेष है । १२६७. लिंग (लिङ्ग) लीनमर्थं गमयतीति लिङ्गं । (सूचू २ पृ ४३१) जो लीन/छिपे अर्थ का ज्ञान कराता है, वह लिङ्ग/लक्षण है । १२६८. लूस (लूष) लूषयति कर्ममलमपनयतीति लूषः। (स्थाटी प १७४) ___ जो कर्ममल को दूर करता है, वह लूष/मुनि है । १२९६. लूसग (लूषक) लूसंतीति लूसगा। (आचू पृ २४२) जो लूटते हैं, वे लूषक हैं। १. 'अलाबु' का अन्य निरुक्त न लम्बते अलाबुः। (शब्द १ पृ १२०) Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ निरुक्त कोश १३००. लूह (रूक्ष) अंतपतेहि लूहेहि जीवंतीति लूहे। (दअचू पृ २३४) जो अंतप्रांत भोजन से जीवन यापन करता है, वह रूक्ष/ संयमी है। १३०१. लूहवित्ति (रूक्षवृत्ति) लूहं-संजमो तस्स अणुवरोहेण वित्ती जस्स सो लूहवित्ती। __ जो रूक्ष/संयम के द्वारा जीवन यापन करता है, वह रूक्षवृत्ति है। लूहदव्वाणि-चणगनिष्फावकोद्दवादीणि वित्ती जस्स सो लूहवित्ती। (दश्रुचू प १९१) जो रूक्ष भोजन से जीवन यापन करता है, वह रूक्षवृत्ति/ संयमी है। १३०२. लेसा (लेश्या) लेशयति-श्लेषयतीवात्मनि जननयनानीति लेश्या । (उशाटी प ६५०) जो दूसरों की आंखों को अपनी ओर आकृष्ट करती है, वह लेश्या/दीप्ति है। १३०३. लेसा (लेश्या) श्लेषयन्त्यात्मानमष्ट विधेन कर्मणा इति लेश्याः । (आवहाटी १ पृ १३) जो आत्मा को अष्टविध कर्म से श्लिष्ट करती है, वह लेश्या/आत्मपरिणाम विशेष है। १३०४. लोगेसणा (लोकैषणा) जं लोगो एसति सा लोगेसणा। (आचू पृ १३५) जिसकी लोग खोज/प्रार्थना करते हैं, वह लोकैषणा है । १. (क) कायाद्यन्यतमयोगवतः कृष्णादिद्रव्यसंबन्धादात्मनः परिणामाः लेश्याः । (आवहाटी १ पृ १३) (ख) कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्परिणामो य आत्मनः। स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥ (उशाटी प ६५६) Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश १३०५. लोम (लोम) लुनाति लीयन्ते वा तेषु यूका इति लोमानि । (उशाटी प २५४) जो उखाड़े जाते हैं, वे लोम/रोम हैं। जिनमें यूका/जूंए लीन होती हैं/वास करती हैं, वे लोम १३०६. लोमहार (लोमहार) लोमानि-रोमाणि हरन्ति-अपनयन्ति प्राणिनां ये ते लोमहाराः। (उशाटी प ३१२) जो प्राणियों के लोम/केशों का अपहरण करते हैं, उन्हें मार डालते हैं, वे लोमहार/लुटेरे हैं । १३०७. लोय (लोक) लोक्यते इति लोकः। (उचू पृ १७६) लोक्यते-दृश्यते केवलालोकेनेति लोकः। (स्थाटी प १३) जो (केवल ज्ञान से) देखा जाता है, वह लोक है। लोकान् पातीति लोकः । (आटी प २१) प्राणी जिसमें समाते हैं, वह लोक है। लोक्यते-प्रमीयत इति लोकः। (स्थाटी प ३६) जिसका माप किया जाता है, वह लोक है। १३०८. लोह (लोभ) लुभ्यते वाऽनेनेति लोभः। (स्थाटी प १८६) जिसके द्वारा प्राणी लुब्ध होता है, वह लोभ है। १३०६. वइ (वतिन्) वयाणि से संतीति वती। (दअचू प २३३) जिसके व्रत हैं, वह व्रती है। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ निरक्त कोश १३१०. वइरोयण (वैरोचन) विविधैः प्रकारै रोच्यन्ते-दीप्यन्त इति विरोचनास्ते वैरोचनाः । __ (स्थाटी प १६८) जो विविध प्रकार से रोचित/दीप्त हैं, वे वैरोचन/इन्द्र १३०११. वइस (वैश्य) वित्ति विसंतीति वइस्सा। (आचू पृ ५) जो वृत्ति/व्यापार में प्रवेश करते हैं, वे वैश्य हैं। कलादिभिर्विशन्ति लोकमिति वैश्याः। (सूचू २ पृ ४४२) जो कला आदि के द्वारा लोक में प्रवेश करते हैं, वे वैश्य वणिक् हैं। १३१२. वंकसमायर (वक्रसमाचर) वको–असंजमो तं समायरति वंकसमायरो । जो वक्र—असंयम का समाचरण करता है, वह वक्रसमाचर नाणागइकुडिलो वंको-संसारो तं समायरति वंकसमायरो। (आचू पृ ३४) जो वक्र/संसार-भ्रमण का समाचरण करता है, वह वक्र समाचर है। १३१३. वंजण (व्यञ्जन) जिज्जति जेण अत्थो, वंजणमिति भण्णते ।। (जीतभा १०१०) जिससे अर्थ की अभिव्यंजना होती है, वह व्यंजन/अक्षर १३१४. वंतर (व्यन्तर) विगतमन्तरं-विशेषो मनुष्येभ्यो येषां ते व्यन्तराः । (प्रसाटी प ३३२) जो मनुष्यों के निकट होते हैं, वे व्यन्तर हैं । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २४६ विविधान्यन्तराणि-उत्कर्षापकर्षात्मकविशेषरूपाणि निवासभूतानि वा गिरिकन्दरविवरादीनि येषां तेऽमी व्यन्तराः। (उशाटी प ७०१) जिनमें उत्कर्ष और अपकर्ष की अपेक्षा से विशेष अन्तर होता है, वे व्यन्तर हैं। विविध प्रकार के पर्वत, कन्दरा और शून्य-स्थान जिनके निवास-स्थल हैं, वे व्यन्तर हैं। १३१५. वंतासि (वान्ताशिन्) वंतं असिउं शीलं यस्यासौ वन्ताशी। (उचू पृ २३०) __ जो वान्त/त्यक्त वस्तु को खाता है, वह वान्ताशी है। १३१६. वंदण (वन्दन) वन्द्यते—स्तूयतेऽनेन प्रशस्तमनोवाक्कायव्यापारजालेनेति वन्दनम् । (आवहाटी २ प १४) वन्द्यते-पूज्या गुरवोऽनेनेति वन्दनम् । (प्रसाटी प ६) ____जिसके द्वारा स्तुति की जाती है, वह वन्दन है । १३१७. वंसक (व्यंसक) व्यसयतीति व्यंसकः । (दजिचू पृ ५८) जो हेतु दूसरों को भ्रम में डाल देता है, वह व्यंसक (हेतु) १३१८. वक्क (वाक्य) वयियव्वं वक्कं ।। (दअचू पृ १५६) वाच्यत इति वाक्यं । (दजिचू पृ २३४) जो बोला जाता है, वह वाक्य है । १. व्यंसयतिच्छलयति व्यंसकः । (अचि पृ ८८) २. प्रयुज्यमानैरप्रयुज्यमानैर्वा कादिभिविशेषणैः सहितम् उच्यत इति वाक्यम् । (अचि पृ ५६) Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० १३१६. वक्ककर (वाक्यकर) वक्कं करेमाणो वक्ककरे । ( दअचू पृ २२० ) जो गुरु के वाक्य / वचन का पालन करता है, वह वाक्यकर / आज्ञाकारी है । १३२०. वग्ग (वर्ग) वृज्यन्ते दूरतः परिहीयन्ते रागादयो दोषा अनेनेति वर्गः । ( विभामहेटी १ पृ ३५५ ) जिसके द्वारा राग आदि दोष दूर किए जाते हैं, वह वर्ग / आवश्यकसूत्र है । १३२१. वच्छ (वृक्ष) वृश्च्यन्त इति वृक्षाः ।' जिनको छेदा जाता है, वे वृक्ष हैं । १३२२. वच्छ ( वत्स ) वत्सा - पुत्ता इव रक्खिज्जंति वच्छा | १३२३. वज्ज (वर्ज्य ) ( दअचू पृ ७ ) वत्स / पुत्र की तरह जिनकी रक्षा की जाती है, वे वत्स / वृक्ष हैं । पुत्तणेहेण वा परिगिज्भंति तेण वच्छा । ( दजिचू पू११ ) पुत्र-स्नेह से जिनका परिग्रह / पालन-पोषण किया जाता है, वे वत्स / वृक्ष हैं । वृज्यते इति वर्ज्यम् । निरुक्त कोश १३२४. वज्जण ( वर्जन ) वृज्यते इति वर्जनम् । जो वर्जित / निषिद्ध है, वह वर्जन है । १. 'वृक्ष' का अन्य निरुक्त वृक्षते वृणोति वा वृक्ष: । (अचि पृ २४८ ) जो (छाल से ) ढकता है, वह वृक्ष है । (आटी प ५६ ) जिसका वर्जन किया जाता है, वह वर्ज्य / पाप है । ( आमटी प ५७८ ) ( व्यभा २ टीप 8) P Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश २५१ १३२५. वट्टण (वर्तन) वर्त्यतेऽनेनेति वर्तनम् । (नंटी पृ ५१) जिसके द्वारा वर्तन किया जाता है, वह वर्तन/व्यवहार है। १३२६. वट्टमाण (वर्तमान) वर्तत इति वर्तमानः । (प्रसाटी प २८६) ____ जो हो रहा है, वह वर्तमान है । १३२७. वडार (दे) · वडेण आरितो वडारो। (निचू ४ पृ २४४) __ जिसे विभाग/नामपूर्वक आमंत्रित किया जाता है, प्रेरित किया जाता है, वह वडार है। १३२८. वड्डमाण (वर्धमान) वर्धत इति वर्धमानम् । (नक १ टी पृ २०) जो बढ़ता जाता है, वह वर्धमान है । १३२६. वण (व्रण) व्रणीति व्रणम् । (पंटी प ४११) ___ जो घायल करता है, वह व्रण घाव है। १३३०. वणंतर (वनान्तर) विविधमन्तरं-शैलान्तरं कन्दरान्तरं वनान्तरं वा आश्रयरूपं येषां ते वनान्तराः। (प्रसाटी प ३३२) _ विविध प्रकार के पर्वत, कन्दरा और वनों के अन्तर/ मध्यभाग जिनके निवास स्थल हैं, वे वनान्तर/व्यन्तर हैं। १३३१. वणचारि (वनचारिन्) विचित्रोपवनादिषूपलक्षणत्वादन्येषु च विविधास्पदेषु क्रीडैकरसतया चरितुं शीलमेषामिति वनचारिणः। (उशाटी प ७०१) उपवन आदि विविध स्थानों में जो क्रीड़ा करते रहते हैं, वे वनचारी/व्यन्तर देव हैं। १३३२. वणप (वनप) वणं पातीति वणपा। (दश्रुचू प ६०) जो वन की रक्षा करते हैं, वे वनपाल हैं। १. व्रण-अंगक्षतौ। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ निरुक्त कोश १३३३. वणस्सइ (वनस्पति) 'वन षण सम्भक्तौ' (वनति सनति) इति वनस्पतिः। (दअचू पृ७३) जिसका छेदन-भेदन किया जाता है, वह वनस्पति है । १३३४. वणीमग (वनीपक) परेषामात्मदुःस्थत्वदर्शनेनानुकलभाषणतो यल्लभते द्रव्यं सा वनी प्रतीता। तां पिबति-आस्वादयति पातीति वेति बनीपः, स एव वनीपकः। (स्थाटी प ३२६) दूसरों को अपनी दीन-हीन दशा दिखाकर चापलूसी कर, जो द्रव्य-लाभ किया जाता है, वह वनी है। जो इस द्रव्य-लाभ (वनी) का उपभोग करता है, वह वनीपक है । वनुते-प्रायो दायकाभिमतेषु श्रमणादिष्वात्मानं भक्तं दर्शयित्वा पिण्डं याचते इति वनीपकः।। (प्रसाटी प १४६) जो दाताओं को मान्यता के अनुकूल अपने को भक्त बता पिण्ड/ भोजन की याचना करता है, वह वनोपक है। १३३५. वण्ण (वर्ण) वणिज्जति जेण वण्णो। (आचू पृ १७८) वर्ण्यते-- अलंक्रियते गुणवक्रियते शरीराद्यनेनेति वर्णः । (प्रसाटी प ३६४) जो शरीर आदि को विशेष रूप से वणित/अलंकृत करता है, वह वर्ण/रूप-रंग है। वृणीते वृणोति वर्णयति वा तमिति वर्णः। (उचू पृ १०२) जो व्याप्त होता है, वह वर्ण है। जो आनन्द देता है, वह वर्ण है। जो पहचान देता है, वह वर्ण है। १. वनस्पति का अन्य निरुक्तवनस्य पतिः वनस्पतिः । (शब्द ४ पृ २६३) वन में जिसकी अधिकता है, वह वनस्पति है । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २५३ वर्ण्यते-यथावस्थितं वस्तुस्वरूपं निर्णीयते अनेनेति वर्णः । (प्रज्ञाटी प ५६६) जिसके आधार पर वस्तु के यथार्थ स्वरूप का वर्णन निर्णय किया जाता है, वह वर्ण है। १३३६. वत्थ (वस्त्र) वासयतीति' वत्थं । (निचू २ पृ.५६) गातं आच्छादेति जम्हा तेण वत्थं । (निचू ३ पृ ५६६) ___ जो आच्छादित करता है/ ढकता है, वह वस्त्र है । १३३७. वत्थु (वस्तु) वसन्त्यस्मिन् गुणा इति वस्तु । (आवमटी प ४८५) जिसमें गुण विद्यमान रहते हैं, वह वस्तु है। १३३८. वय (व्रत) वियत इति व्रतम् । (उचू पृ १३८) जो अविरति रूप छिद्र को ढांकता है, वह व्रत है। १३३६. वय (वय) वएतीति वयो। (आचू पृ २६६) जो बीतती है, वह वय/अवस्था है। वयन्ति-पर्यटन्ति यस्मिन् स वयः। (आटी प १४१) जिसमें प्राणी भ्रमण करते हैं, वह वय/संसार है । १३४०. वयण (वचन) वयंति तेण अत्थमिति वयणं । (दअचू पृ १५६) वयणिज्ज वयणं । (दजिचू पृ २३४) जो अर्थ का कथन करते हैं, वे वचन हैं। १. वस्-आच्छादने । २. शरीरस्य वियन्ति क्रमेण गच्छन्ति वयांसि । (अचि पृ १२८) विगतौ । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ निरक्त कोश उच्यन्त इति वचनानि । (अनुद्वामटी प १२३) जो कहे जाते हैं, वे वचन हैं। १३४१. ववसाय (व्यवसाय) विशिष्ट अवसायः व्यवसायः । (आवहाटी १ पृ ७) जो विशिष्ट अवसाय/निश्चय है, वह व्यवसाय है। १३४२. ववहार (व्यवहार) विशेषतोऽवाहियते निराक्रियते सामान्यमनेनेति व्यवहारः। (आवमटी प ३७५) ___ जो वस्तु के विशेष धर्मों का अवहरण/ग्रहण और सामान्य धर्मों का निराकरण करता है, वह व्यवहार (नय) है। १३४३. ववहार (व्यवहार) विविहं वा अवहरणं व्यवहारः। विविध प्रकार का आचरण व्यवहार है। विविधो वा अवहारः व्यवहारः। (उचू पृ ४३) विविध प्रकार का अवहार/निश्चय व्यवहार है। विधिवदवहरणाद् व्यवहारः। वपनात् हरणाच्च व्यवहारः । (बृचू प २) विधिना हारो व्यवहारः। (व्यभा १ टी प ४) विधिना उप्यते ह्रियते च येन स व्यवहारः । (व्यभा १ टी प ५) जो विधिपूर्वक प्रयुक्त होता है, जिसका बीज-वपन किया जाता है, वह व्यवहार है। व्यवह्रियतेऽपराधजातं प्रायश्चित्तं प्रदानतो येन स व्यवहारः।' (व्यभा ३ टी प १८) जो प्रायश्चित्त देने में व्यवहृत होता है, वह व्यवहार है । १. व्यवहारः आगमादिरूपपञ्चप्रकारः । (व्यभा ३ टी प १८) Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश २५५ १३४४. ववहारि (व्यवहारिन्) व्यवहरतीत्येवंशीलो व्यवहारी। (व्यभा १ टी प ३) जो आगम आदि पांच प्रकार के व्यवहार/आचार का आच रण करता है, वह व्यवहारी है । १३४५. ववहारि (व्यवहारिन्) व्यवहरंतीति व्यवहारिणो। (सूचू १ पृ.६६) जो व्यापार करते हैं, वे व्यवहारी/व्यापारी हैं। १३४६. वसण (व्यसन) वसणं णाम चित्तं तंमि वसंतीति वसणं ।' (चित्त) जिसमें वास करता है, वह व्यसन है । तस्स वा वसे वट्टतीति वसणं । (निचू १ पृ १६४) मनुष्य जिसके वशवर्ती हो जाता है, वह व्यसन है । १३४७. वसट्टि (वशवतिन्) गुरुणां वशे वर्त्तते इति वशवर्ती। (सूचू १ पृ १०७) जो गुरु के वश/अनुशासन में रहता है, वह वशवर्ती है । १३४८. वसु (वसु) ___ वसति जेहिं गुणो सो वसु ।' (आचू पृ २१०) जिसमें गुण निवास करते हैं, वह वसु है । १३४६. वसुम (वसुमत्) वसे जस्स वदति इंदियकषाया सो य वसुमं। (आचू पृ ४२) जिसके इन्द्रिय और कषाय वशवर्ती हैं, वह वसुमान है। १. 'व्यसन' का अन्य निरुक्तविशेषेणाऽस्यते क्षिप्यते चित्तमेभिरिति व्यसनानि । (अचि पृ १६३) जो चित्त को विशेष रूप से विक्षिप्त करते हैं, वे व्यसन हैं। २. वीतरागो वसुर्जेयो जिनो वा संयतोऽथवा। सरागोऽनुवसुः प्रोक्तः स्थविरः श्रावकोऽथवा ॥ (आचू पृ २१०) Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ निरुक्त कोश १३५०. वसुहा (वसुधा) वसूनि निधत्ते इति वसुधा । (उचू पृ २०६) जो वसु/रत्नों को धारण करती है, वह वसुधा/पृथ्वी है। १३५१. वहग (वधक) वधन्तीति वधकाः। (दटी प ७८) जो वध करते हैं, वे वधक हैं । १३५२. वहण (वहन) उद्यतेऽनेन वोढव्य मिति वहनम् । (उशाटी प ५५०) जिसके द्वारा भार ढोया जाता है, वह वहन वाहन है । १३५३. वाअ (वात) वातीति' वातः । (उचू पृ १८२) जो गन्ध को ग्रहण करती है, वह वात/हवा है । जो बहती है, वह वात/हवा है। १३५४. वाअ (वाच्) वक्तीति वाक् । (उचू पृ १५३) उच्यते वाऽनयेति वाक् । (आवहाटी १ पृ ३०४) जो बोलती है/शब्द करती है, वह वाक् वाणी है । १३५५. वाअर (बादर) वातं रातीति वातरो। (दअचू पृ ८१) ____ जो वाणी-इन्द्रिय का विषय बनता है, वह बादर है। १३५६. वाउरिय (वागुरिक) वागुरा-मृगबन्धनं तया चरन्तीति वागुरिकाः । (अनुद्वामटी प ११९) १. वांक्-गतिगन्धनयोः। २. 'वात' का अन्य निरुक्त वायति वा द्रव्याणि वायुः । (अचि पृ २४६) जो पदार्थों को चालित करती है, वह वायु है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश २५७ जो वागुरा/मृगजाल के द्वारा जीवन यापन करते हैं, वे वागुरिक शिकारी हैं। १३५७. वागरण (व्याकरण) वागरिज्जतीति वागरणं । (आचू पृ १२) जिसके द्वारा अभिव्यक्ति की जाती है, वह व्याकरण/कथन १३५८. वागरण (व्याकरण) व्याक्रियन्ते लौकिकाः सामयिकाश्च शब्दा अनेनेति व्याकरणम् । (आवमटी प २५९) जिसके द्वारा लौकिक और सामयिक शब्दों की व्याख्या की जाती है, वह व्याकरण है। १३५९. वाणमंतर (दे) वनान्तराणि तेषु भवा वानमन्तराः। (प्रसाटी प ३३३) जो वनों में वास करते हैं, वे वाणमंतर/व्यंतर हैं। १३६०. वाणी (वाणी) वणयतीति' वाणी। (दअचू पृ १५६) जो शब्द करती है, वह वाणी है।। वदिज्जते वयणिज्जा वा वाणी। (दजिचू पृ २३५) जो बोली जाती है, वह वाणी है । १३६१. वादिसमोसरण (वादिसमवसरण) वादिनः-तीथिकाः समवसरन्ति–अवतरन्त्येष्विति समवसरणानि-विविधमतमोलकास्तेषां समवसरणानि वादिसमवसरणानि। (स्थाटी प २५६) ___जहां विविध मत-मतान्तरों के लोग एकत्रित होते हैं, वे वादिसमवसरण हैं। १. वनानां समूहो वानं तस्यान्तरे भवन्तीति वानमन्तरा इति । (अचि पृ १६) २. वणि-शब्दे । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ १३६२. वाम ( व्याम ) व्यामयन्ते - परिच्छिद्यन्ते रज्ज्वादि अनेनेति व्यामः ।" (राटी पृ १३ ) जिससे रज्जु आदि का प्रमाण जाना जाता है, वह व्याम / मापविशेष है । १३६३. वामवट्ट (वामवर्त्त ) वामं विवट्टतित्ति वामवट्टो " ( निघू ४ १ २५८ ) जो वाम / प्रतिकूल वर्तन करता है, वह वामवर्त्त / विपरीत कारी है । १३६४. वायग (वाचक) वायेंति सिस्साणं कालियपुव्वसुतं ति वातगा । जो शिष्यों को कालिकपूर्वश्रुत की वाचना प्रदान करते हैं, वे वाचक / आचार्य हैं । गुरुण्णिहाणे वा सिस्सभावेण वाइतं सुतं जेहि ते वायगा । निरुक्त कोश १३६५. वालव ( व्यालप) गुरु के सानिध्य में जिन्होंने शिष्यभाव से वाचना को सुना है, वे वाचक हैं | १३६६. वास (वर्ष) व्यालान् — भुजङ्गान् पान्तीति व्यालपाः । (प्रटी प ३७ ) जो व्याल / सर्पों का पालन करते हैं, वे व्यालप / सपेरे हैं । वर्षतीति वर्षः । जो बीतता है, वह वर्ष है । ( नंचू पृ 2 ) १. तिर्यग् बाहुद्वयं प्रसारणप्रमाणो व्यामः । (राटी पृ १३ ) २. एहि भणितोति वच्चति वच्चसु भणिओ त्ति तो समुल्लियति । जं जह भणितो तं तह, अकरेंतो वामवट्टो उ ॥ ( निभा ६२११ ) (उच् पृ १६२ ) Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश २५९ १३६७. वासग (वासक) वासंतीति वासगा। (आचू पृ २०४) ___जो शब्द करते हैं, वे वासक द्वीन्द्रिय आदि जंतु हैं । १३६८. वासहर (वर्षधर) वर्ष-क्षेत्र विशेष धारयतो-व्यवस्थापयत इति वर्षधरः। (स्थाटी प ६५) जो वर्ष/क्षेत्रविशेष की व्यवस्था करता है सीमा करता है, वह वर्षधर (पर्वत) है। १३६६. वासावास (वर्षावास) वरिसासु चत्तारि मासा एगत्थ अच्छंतीति वासावासो। (दश्रुचू प ५२) वर्षाकाल में जहां चार मास तक एक स्थान पर रहा जाता है, वह वर्षावास है। १३७०. वाह (वाह) वाहतीति वाहः। (सूचू १ पृ.७१) जो वाहन को चलाता है, वह वाह/गाड़ीवान् है । १३७१. विउल (विपुल) 'पुल महत्त्वे' विशेषेण पुलानि विपुलानि । (सूचू २ पृ ४५०) जो अनेक हैं, विशिष्ट हैं, वे विपुल हैं। १३७२. विकहा (विकथा) विणट्टा कहा विकहा। (दअचू पृ ५८) जो कथा विनाश की ओर ले जाती है, वह विकथा है । १३७३. विक्किया (विक्रिया) विविधा क्रिया विक्रिया। (आवहाटी १ पृ १८५) जो विविध प्रकार की क्रिया है, वह विक्रिया है । विरुद्धा विरूपा वा कथा विकथा। (उशाटी प ६१३) विसंवादी और विसंगत कथन विकथा है । १. वास-शब्दे। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० निरुक्त कोश १३७४. विक्खेवणी (विक्षेपणी) विक्षिप्यते सन्मार्गात् कुमार्गे कुमार्गाद्वा सन्मार्गे श्रोताऽनयेति विक्षेपणी। (स्थाटी प २०४) जिससे श्रोता सन्मार्ग से कुमार्ग में या कुमार्ग से सन्मार्ग में क्षिप्त होता है, वह विक्षेपणी (कथा) है । १३७५. विगइ (विगति) विकृति-अशोभनं गतिं नयन्तीति विगतयः।' (उचू पृ २४६) जो असुन्दर अवस्था की ओर ले जाती है, वह विगति/ विकृति है। १३७६. विगति (विकृति) विकृति णेतीति विगती। (दअचू पृ २६५) जो विकार पैदा करती है, वह विकृति है। १३७७. विगत्तु (विकर्तृ) विविधया कर्ता विकर्ता। (भटी पृ १४३२) जो विविध प्रकार से कार्य करता है, वह विकर्ता/आत्मा १३७८. विग्गह (विग्रह) विगृह्यतेऽनेनेति विग्रहः । (उचू पृ ६८) ____ जो कर्म आदि का ग्रहण करता है, वह विग्रह/शरीर है। विशेषेण गृह्यते आत्मना कर्मपरतन्त्रेणेति विग्रहः (उशाटी प २७१) ___जो कर्म से परतंत्र आत्मा द्वारा गृहीत होता है, वह विग्रह १. तं आहारित्ता संयतत्वादसंयतत्वं विविध प्रकारं गच्छिहिति विगती। (दश्रुचू प ५७) २. 'विग्रह' का अन्य निरुक्त-- विगृह्यते रोगादिभिरिति विग्रहः । (अचि पृ १२७) जो रोगों से आक्रान्त होता है, वह विग्रह/शरीर है। विविधं सुखदुःखादिकं गृह्णातीति विग्रहः । (शब्द ४ पृ ३७७) जो विविध प्रकार के सुख-दुःख ग्रहण करता है, वह विग्रह/शरीर है। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ निरक्त कोश १३७६. विग्ध (विघ्न) विशेषेण हन्यते-विनाश्यतेऽनेनेति विघ्नम् । (नक १ टी पृ ५८) जो विशेष रूप से हनन करता है|बाधा उपस्थित करता है, वह विघ्न है। १३८०. विजय (विजय) अभ्युदयविघ्नहेतून विजयन्त इति विजयास्तथैव वैजयन्ताः। (उशाटी प ७०३) जो अभ्युदय के अवरोधक को जीतते हैं, वे विजय/वैजयन्त (देव) हैं। १३८१. विज्जल (दे) विगयमानं जतो जलं तं विज्जलं। (दअचू पृ १००) जिसमें जल की न्यूनता होती है, वह विज्जल कीचड़ है। १३८२. विज्जा (विद्या) विद्यतेऽनया तत्त्वमिति विद्या। (उशाटी प ४४२) जिससे तत्त्व जाना जाता है, वह विद्या/श्रुतज्ञान है। १३८३. विज्जाहर (विद्याधर) विद्यां धरन्तीति विद्याधराः। (राटी पृ १५) जो अनेक विद्याओं को धारण करते हैं, वे विद्याधर हैं। १३८४. विज्जु (विद्युत्) विशेषेण द्योतते-दीप्यत इति विद्युत् । (उशाटी प ४६०) जो विशेष रूप से द्योतित/दीप्त होती है, वह विद्युत् है । १३८५. विडिमी (दे) विडिमाणि जेसि विज्जति ते विडिमी। (दअचू पृ ७) जिनके विडिम/शाखाएं होती हैं, वे विडिमी/वृक्ष हैं । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ निरक्त कोश १३८६. विणअ (विनय) विनीयते-अपनीयते कर्म येन स विनयः ।। (सूटी १ प २४२) जिसके द्वारा कर्मों का विनयन किया जाता है, वह विनय विशिष्टो विविधो वा नयो विनयः। (उशाटी प १६) जो विशिष्ट एवं विविध प्रकार का नय/नीति है, वह विनय १३८७. विणयन्नु (विनयज्ञ) विनयो ज्ञानदर्शनचारित्रौपचारिकरूपस्तं जानातीति विनयज्ञः । (आटी प १३१) जो विनय को जानता है, वह विनयज्ञ है। १३८८. विणिच्चय (विनिश्चय) विशेषेण निश्चयो विनिश्चयः । विशेष निश्चय विनिश्चय है। निराधिक्ये चयनं चयः-पिण्डीभवनं अधिकश्चयो निश्चयः । (अनुद्वामटी प २४५) जिसमें चय/उपचय अधिक होता है, वह निश्चय/विनिश्चय १३८९. विणीय (विनीत) विशेषेण नीतः-प्रापितः प्रेरकचित्तानुवर्तनादिभिः श्लाघादिति विनीतः। (उशाटी प ४६) जो विशेष रूप से प्रेरक के चित्तानुकूल वर्तन कर प्रशंसा प्राप्त करता है, वह विनीत है । १. "विनय' का अन्य निरुक्तविशेषेण नयतीति विनयः । (शब्द ४ पृ ४०१) जो विशिष्टता की ओर ले जाता है, वह विनय है । २. विनीत' का अन्य निरुक्त शास्त्रादिना विनीयते स्म विनीतः । (अचि पृ.६६) Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २६३. १३६०. विणीयकरण (विनीतकरण) विशेषतः संयमयोगेषु नीतानि करणानि मनोवाक्कायलक्षणानि येन स विनीतकरणः। (व्यभा ४/२ टी प ४०) जो करण-मन, वचन और काया को विशेष रूप से संयम में नियोजित करता है, वह विनीतकरण है। १३६१. विण्णत्ति (विज्ञप्ति) विशेषेण ज्ञापनं विज्ञप्तिः । (नंटी पृ ४३) ___विशेषरूप से प्रकट करना विज्ञप्ति/विज्ञान है । १३९२. विण्णाण (विज्ञान) विविहं विसिट्ठौं वा णाणं विण्णाणं । (आचू पृ १३५) विविध एवं विशिष्ट प्रकार का ज्ञान विज्ञान है। विनायति जेण तं विण्णाणं । (आचू पृ १३६) जिससे विशेष रूप से जाना जाता है, वह विज्ञान है। १३६३. विण्णात (विज्ञात) विविहं विसिटुं वा णातं विण्णातं। (सूचू २ पृ ३३२) जो विविधता या विशिष्टता से ज्ञात है, वह विज्ञात है। १३६४. विण्णायग (विज्ञायक) विविधं-अनेकधा जानातीति विज्ञायकः। (नंटी पृ ३) जो विविध प्रकार से जानता है, वह विज्ञायक है। १४६५. वितद्द (वितर्द) विविधं तदतीति वितर्दः। (आटी प २५२) जो विभिन्न प्रकार से हिंसा करता है, वह वितर्द/हिंसक १३६६. वितिगिच्छा (विचिकित्सा) वीति-विशेषेण विविधप्रकारैर्वा चिकित्सामिप्रतिकरोमि निराकरोमि गर्हणीयान् दोषान् इति विचिकित्सामि । (स्थाटी प २०८) Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ निरक्त कोश विविध प्रकार से एवं विशिष्ट प्रकार से गर्हणीय दोषों की चिकित्सा/अपनयन करना विचिकित्सा है । १३६७. वित्त (वित्त) विद्यते इति वित्तं । (सूचू १ पृ २३) जो प्राप्त होता है, वह वित्त/धन है । १३९८. वित्तासण (वित्रासन) विविधं त्रासनं वित्रासनं । (उचू पृ ६७) जो विविध प्रकार से त्रस्त करता है, वह वित्रासन है। १३९६. वित्ति (वृत्ति) वर्तते शरीरं यया सा वृत्तिः। (प्रसाटी प ४५) जिसके द्वारा शरीर टिकता है, वह वृत्ति/भिक्षा है । १४००. वित्तिय (वृत्तिद) वृत्ति वा आश्रितलोकानां ददाति यत् तद् वृत्तिदम् । (ज्ञाटी प ४) जो आश्रित व्यक्तियों को वृत्ति/आजीविका देता है, वह वृत्तिद है। १४०१. वित्तेसि (वित्तैषिन्) वित्तं-द्रव्यं तदन्वेष्टुं शीलं येषां ते वित्तैषिणः। (सूटी २ प १४६) जो वित्त/धन की खोज करते हैं, वे वित्तैषी हैं । १४०२ विदंसग (विदंशक) विदंशतीति विदंशकः । (प्रटी प १५) जो विशेष रूप से काटता है, वह विदंशक/बाज आदि है। १. विद्यते लभ्यते इति वित्तम् । (अचि पृ ४५) Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " निरुक्त कोश १४०३. विधार ( विधार) विविहि पगारेहिं धारेयत्थं विधारो तु । व्यवहार है । ( जीतभा ६५६ ) विविध प्रकार से जो अर्थ की धारणा होती है, वह विधार / १४०४. विधारग ( विधारक ) विविहं वा धारए विधारए । ( आचू पृ २२३ ) जो विविध प्रकार से धारण करता है, वह विधारक है । १४०५. विधारणा ( विधारणा ) विविधैः प्रकारैः विशिष्टं चार्थमुद्धृतमर्थपदं यया धारणया स्मृत्या धारयति सा विधारा विधारणा । ( व्यभा १० टी प ८६ ) जिस धारणा की स्मृति के आधार पर विविध प्रकार से तथ्य की धारणा की जाती है, वह विधारा या विधारणा है । १४०६. विधूतकप्प ( विधूतकल्प ) विविहं धृतं विधूतं, कप्पइत्ति कप्पो, विधुणिज्जति जेण अट्ठविहो कम्मरयो सविधूतको । ( आचू पृ १२२ ) अष्टप्रकार के कर्म संस्कारों का जो विधुनन / नाश करता है, वह विकल्प है | -१४०७. विप्पडिवण्ण ( विप्रतिपन्न ) विरुद्धं मार्ग प्रतिपन्नाः विप्रतिपन्नाः । जो विपरीत मार्ग को स्वीकार है | १४०८ विप्पमुक्क ( विप्रमुक्त) १४०९. विप्पवास ( विप्रवास ) २६५ विशेषेण प्रवासोऽन्यत्र गमनं विप्रवासः । अन्तर- बाहिरगंथबंधणविविहप्पगारमुक्का विप्यमुक्का । ( अचू पृ ५६ ) जो सर्वथा बाह्य और आभ्यन्तर बंधन से मुक्त हैं, वे विप्रमुक्त हैं । करता है, ( सूटी २ प २१ ) वह विप्रतिपन्न विशेष रूप से अन्यत्र प्रवास करना विप्रवास है । (व्यभा २ टी प २५) Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ निरुक्त कोश १४१०. विप्पसण्ण (विप्रसन्न) विशेषेण विविधैर्वा भावनादिभिः प्रकारैः प्रसन्ना विप्रसन्नाः । (उशाटी प २४६) जो विशिष्ट या विविध प्रकार से प्रसन्न हैं, वे विप्रसन्न हैं। १४११. विभंग (विभङ्ग) विरुद्धो वितथो वा अन्यथा वस्तुभङ्गो-वस्तुविकल्पो यस्मिस्तद्विभङ्गम् । (स्थाटी प ३६८) ___जिसमें भंग/विकल्प ज्ञान विरुद्ध या वितथ होता है, वह विभंगज्ञान है। १४१२. विभंग (विभङ्ग) विविधो विशिष्टो वा विभागो विभङ्गः। (सूचू २ पृ ३५४) विविध या विशिष्ट प्रकार का विभाग करना विभङ्ग है। १४१३. विभत्ति (विभक्ति) विभज्यते कर्तृत्वकर्मत्वादिलक्षणोऽर्थो यया सा विभक्तिः। (स्थाटी प ४०६) जिससे कर्ता, कर्म आदि कारकों का विभाजन होता है, वह विभक्ति है। १४१४. विभासा (विभाषा) वैविक्त्येन भाषणं विभाषा। (बृटी पृ ३) विविध प्रकार से भाषण/कथन करना विभाषा है । १४१५. विमत्ता (विमात्रा) विषमा विविधा वा मात्रा-कालविभागो विमात्रा। (भटी प २६) ___ जो विषम और विवध प्रकार की मात्रा/कालविभाग है, वह विमात्रा है। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ निरुक्त कोश १४१६. विमाण (विमान) विशेषेण मानयन्ति–उपभुञ्जन्ति सुकृतिन एतानीति विमानानि ।' (उशाटी प ७०१) सुकृत पुण्य करने वाले जिनका विशेष भोग करते हैं, वे विमान हैं। १४१७. विमुह (विमुख) मुखस्य आदेरभावाद्विमुखम् । (भटी पृ १४३१) जिसके मुख प्रवेशद्वार का कोई आदि बिंदु नहीं है, वह विमुख/आकाश है। १४१८. विमोह (विमोक्ष) विमोक्खतेति विमोहा। (आचू पृ २८७) जो बन्धन से मुक्त होते हैं, वे विमोक्ष/विमुक्त हैं । १४१६. वियंतिकारय (व्यन्तकारक) विसिट्ठा अंती वियंती, वियंती करेति वियंतीकारओ। (आचू पृ २७६) विशिष्ट प्रकार का अंत/मरण व्यंत है, जो विशिष्ट प्रकार से व्यंत/मरण करता है, वह व्यंतकारक है। १४२०. वियक्खण (विचक्षण) । विविधमनेकप्रकारमाचष्टे विचक्षणः। (दजिचू पृ २०६) जो विविध प्रकार से अभिव्यक्ति करता है, वह विचक्षण १. 'विमान' का अन्य निरुक्तविमान्ति वर्तन्तेऽस्मिन् देवा इति विमानः । (अचि पृ १८) देवता जिसमें वास करते हैं, वह विमान है । विगतं मानमुपमा यस्य विमानम् । (शब्द ४ पृ ४१५) जो अनुपमेय है, वह विमान है। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२६८ १४२१. वियड ( विकट ) विगतजीवं विगडं । १४२२. वियाण ( वितान ) जो जीवरहित है, वह विकट / अचित्त / प्रासुक है । वितण्णत इति वियाणं । १४२३. वियाग ( विजानक) जो फैलाया जाता है, वह वितान / चंदवा है | १४२४. वियालचारि ( विकालचारिन् ) विकालेsपि रात्रावपि चरतीति विकालचारी | सव्वं जाणइति वियाणगो । जो सब कुछ जानता है, वह विजानक / सर्वज्ञ है | १४२५. विवाहित ( व्याख्यात) विविहं आहिते वियाहिते । १४२६. विरत (विरत ) ( आचू पृ ३०८ ) (ओटी पृ १९४) जो विकाल / रात्री में गमन करते हैं, वे विकालचारी हैं । १४२७. विवज्जास ( विपर्यास) निरुक्त कोश ( निचू १ पृ १५७ ) विपरीततामेवैति विपर्यासः । ( आचू पृ १६७ ) जो विविध प्रकार से आख्यात / कथित है, वह व्याख्यात है । पाणवहादीहि आसवदारेहि पविरमइत्ति विरए । ( दजिचू पृ ३३४ ) जो आश्रवों से विरत रहता है, वह विरत / मुनि है । ( नंचू पृ १ ) ( सूचू १ पृ ४८ ) जो विपरीतता का रक्षण करता है, वह विपर्यास है । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २६६ १४२८. विवर (विवर) विगतवरणतया विवरम् । (भटी पृ १४३१) जिसका कोई आवरण नहीं है, वह विवर/आकाश है। १४२६. विवाग (विपाक) विविधो पाकः विपचनं वा विपाकः । (नंचू पृ ७०) जिसमें विविध प्रकार का पाक/कर्म-परिणाम दशित है, वह विपाक (आगम) है। १४३०. विवाग (विपाक) विविधो पागो विपागो। (आवचू २ पृ ८४) जिसका पाक/परिणमन विविध रूपों में होता है, वह विपाक है। १४३१. विवाह (व्याख्या) व्याख्यायन्ते जीवादयोऽर्था यस्यां सा व्याख्या। (नंटि पृ १६५) जिसमें (जीव आदि) पदार्थ व्याख्यायित होते हैं, वह व्याख्याप्रज्ञप्ति/भगवतीसूत्र है । १४३२. विवित्तेसि (विविक्तैषिन्) विविक्तान्येषतीति विवित्तेसी। जो विविक्त/एकान्त की एषणा करता है, वह विविक्तैषी विविक्तानां-साधूनां मार्गमेषयतीति विवित्तेसी । जो विविक्त/श्रामण्य की एषणा करता है, वह विविक्तैषी है। कर्मविवित्तो मोक्खो तमेवमेषयतीति विवित्तमेसी । (सूचू १ पृ १०३) जो विविक्त/मोक्ष की एषणा करता है, वह विविक्तैषी है । १. 'विवर' का अन्य निरुक्तविवृणोतीति विवरम् । (शब्द ४ पृ ४२७) जो सब को आच्छादित कर लेता है, वह विवर/आकाश है। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० निरक्त कोश १४३३. विवेक (विवेक) विविच्यतेऽनेनेति विवेकः। (आटी प २१७) __ जिसके द्वारा पृथक् किया जाता है, वह विवेक है । १४३४. विस (विष) विवेष्टि विष्णात्ति' वा विषम् । (उचू पृ १८५) जो शीघ्रता से व्याप्त होता है, वह विष है। जो विप्रयोग/शरीर और प्राणों का वियोग करता है, वह विष है। १४३५. विसन्न (विषण्ण) विविधं सन्ना विसन्ना। (उचू पृ १५३) जो विविध प्रकार से डूबे हुए हैं, वे विषण्ण हैं । १४३६. विसन्नेसि (विषण्णैषिन्) विसण्णो असंजमो तमेसति विसण्णेसी। (सूचू १ पृ ११३) जो विषण्ण असंयम को खोजता है, वह विषण्णैषी है। १४३७. विसय (विषय) विषीदन्त्येषु प्राणिन इति विषयाः। (दटी प २२) प्राणी जिनमें विषाद प्राप्त करते हैं, वे (इन्द्रिय) विषय विषीदन्ति-धर्म प्रति नोत्सहन्त एतेष्विति विषयाः। जो धर्म के प्रति विषाद/अनुत्साह पैदा करते हैं, वे विषय विषस्योपमा यान्तीति विषयाः। (उशाटी प १९०) ___ जो विष की उपमा को प्राप्त होते हैं, वे विषय हैं । १. विष्-व्याप्तौ, विप्रयोगे। २. 'विषय' का अन्य निरुक्तविषण्वन्ति विषयिणं स्वेन रूपेण निरूपणीयं कुर्वन्ति विषयाः । (शब्द ४ पृ ४४६) Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "निरुक्त कोश २७१ १४३८. विसूइया (विसूचिका) विध्यतीव शरीरं सूचिभिरिति विसूचिका। (उशाटी प ३३८) जो वायु शरीर को सूचि/मूई-बेध की तरह पीड़ित करता है, वह विसूचिका/हैजा है। १४३६. विसेसण (विशेषण) विशेष्यते परस्परं पर्यायजातं भिन्नतया व्यवस्थाप्यते अनेनेति विशेषणम् । (व्यभा १ टी प १६) जिसके द्वारा विशेषित/भिन्नता आपादित की जाती है, वह विशेषण है। १४४०. विसोहि (विशोधि) कम्ममलिणो आता विसोहिज्जति विसोही। (अनुद्वाचू पृ १४) कर्ममलिन आत्मा जिससे विशुद्ध होती है, वह विशोधि/ आवश्यकसूत्र है। १४४१. विस्साम (विश्राम) विश्राम्यते-विरम्यते एष्विति विश्रामाः । (प्रसाटी प १६) आगम पाठ के वे स्थल जहां विश्राम लिया जाता है, वे विश्राम/सम्पदा/विश्रमणस्थान हैं । १. (क) सूचीभिरिव गात्राणि तुदन् सन्तिष्ठतेऽनिलः । यस्याजीर्णेन सा वैद्य विसूचीति निगद्यते ॥ (ख) 'विसूचिका' का अन्य निरुक्तविशेषेण सूचयति मृत्युमिति विसूचिका । (शब्द ४ पृ ४६२) जो विशेष रूप से मृत्यु को सूचित करती है, वह विसूचिका २. अट्ठ नवट्ठ य अट्ठवीस सोलस य वीस वीसामा । मंगलइरियावहिया सक्कत्थयपमुह दंडेसु ॥ (प्रसा ७८) Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ निरुक्त कोश १४४२. विह (विध) विधीयते-क्रियते कार्यजातमस्मिन्निति विधम् । (भटी पृ १४३१) जिसमें कार्य किया जाता है, वह विध/आकाश है। १४४३. विहंगम (विहङ्गम) विहायसा गच्छंतीति विहंगमा। (सूचू १ पृ६८) ___ जो आकाश में विचरण करते हैं, वे विहंगम/पक्षी हैं। विहे-विहायोगतेरुदयादुद्गच्छन्तीति विहङ्गमाः। (दटी प ७१) जो विहायोगति नामकर्म के उदय से उड़ते हैं, वे विहंगम पक्षी हैं। १४४४. विहाण (विधान) विविक्तं-इतरव्यवच्छिन्नं धानं--पोषणं स्वरूपस्य यत् तद् विधानम् । (प्रज्ञाटी प ५०१) जो दूसरों से व्यवच्छिन्न करने वाले स्वरूप का पोषण करता है, वह विधान है। १४४५. विहाय (विहायस्) विशेषेण होयते-त्यजते तदिति विहायः । (भटी पृ १४३१) जिसमें विशेष रूप से वस्तुओं को छोड़ा जाता है|रखा जाता है, वह विहायस्/आकाश है। १४४६. विहार (विहार) विहरन्त्यस्मिन् प्रदेश इति विहारः। (उशाटी प ५४४) जिसमें विहरण किया जाता है, वह विहार प्रदेश है। १४४७. विहार (विहार) विविहपगारेहिं रयं हरइ जम्हा विहारो उ। (व्यभा ४/१/१८) जा विविध प्रकार से कर्मरज का हरण करता है, वह विहार/गीतार्थ है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश २७३ १४४८. विहारि (विहारिन्) ज्ञानादीनां पार्वे तटे विहरतीत्येवंशीलो विहारी। (व्यभा ३ टी प १११) जो (ज्ञान आदि के तट पर) विहरण करता है, वह विहारी है। १४४६. वीइ (वीचि) वेचनात् विविक्तस्वभावत्वाद्वीचिः। (भटी पृ १४३१) जो वस्तुओं के अनुरूप पृथक् पृथक् आकार धारण करता है, वह वीचि आकाश है। १४५०. वीदंसय (विदंशक) विशेषेण दशन्तीति विदंशकाः। (उशाटी प ४६०) जो विशेष रूप से काटते हैं, वे विदंशक हैं । १४५१. वीमंसा (विमर्श, मोमांसा) संकप्पते चेव विविधा आमरिसणा वोमंसा। (नंचू पृ ४६) ___ संकल्पपूर्वक विविध प्रकार से आमर्श चिन्तन करना विमर्श/ईहा/मतिज्ञान का एक भेद है । १४५२. वीयराग (वीतराग) वीतो-विगतो रागो यस्मात् स चासौ वीतरागः । (स्थाटी प ४६) जो राग से वीत/रहित है, वह वीतराग है। १४५३. वीर (वीर) ........ "विक्कतो व कसायाइसत्तुसेनापराजयओ। (विभा १०५६) वीरयति कषायान् प्रति विक्रामति स्मेति वीरः। (जंटी प १५) कषायों का नाश करने में जो वीरता/पराक्रम दिखाता है, वह वीर है। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ निरक्त कोश ईरइ विसेसेणं खिवेइ कम्माइं गमयइ सिवं वा । गच्छद य तेण वीरो स... .........' __ (विभा १०६०) जो विशेष रूप से कर्मों का क्षय कर, मोक्ष की ओर गमन करता है, वह वीर है। विरायति संजमवीरिएणं वीरो। (आचू पृ ७५) जो संयम के वीर्य से सुशोभित है, वह वीर है । विशिष्टा-सकलभुवनाद्भुता यका स्वर्गापवर्गादिका ई:लक्ष्मीस्तां राति भव्येभ्यः प्रयच्छति इति वीरः। ___ (नक २ टी पृ ६६) जो वि/विशिष्ट, ई/(मुक्तीरूपी) लक्ष्मी (भव्यजनों को) रा/प्रदान करता है, वह वीर है। १४५४. वोरिय (वीर्य) विराजयत्यनेनैव इति वीरियं । (उचू पृ ६६) जिससे जीव दीप्त होता है, वह वीर्य है ।। विशेषेण ईय॑ते-चेष्ट्यतेऽनेनेति वीर्यः। (उशाटी प ६४५) जो प्राणी को विशेष रूप से प्रवृत्त करता है, वह वीर्य है । १४५५. वीसायणिज्ज (विस्वादनीय) विशेषतः स्वादनीयो विस्वादनीयः। (प्रज्ञाटी प ३६६) जो विशिष्ट स्वादिष्ट है, वह विस्वादनीय है। १४५६. वीसास (विश्वास) विश्वासयतीति विश्वासः। (व्यभा ४/२ टी प ६७) जो विश्वस्त करता है, वह विश्वास है। १. विशेषेण-अपुनर्भावेन ईर्ते-'ईरिक् गतिकम्पनयोः' इति वचनाद् याति शिवं, कम्पयति--आस्फोटयति अपनयति कर्म वेति वीरः। (नक २ टी पृ ६६) २. वीर्य्यतेऽनेनेति वीर्यः । (शब्द ४ पृ ४७४) Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश २७५ १४५७. वेअड्ड (वैताढ्य) भरतक्षेत्रस्य द्वे अर्धे करोतीति वैताड्डयः। ___ जो भरत क्षेत्र को दक्षिणार्ध और उत्तरार्ध के रूप में विभक्त करता है, वह वैताड्ढ्य (पर्वत) है। वैताडगिरिकुमारोऽत्र देवो महद्धिको परिवसति तेन वैताड्ढ्यः । (जंटी प ८४) जहां वैताड्डयगिरिकुमार नामक ऋद्धि-संपन्न देव निवास करता है, वह वैताड्ढय् (पर्वत) है। १४५८. वेउम्विय (वैकुर्विक) विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियम् । जिसमें विविध या विशिष्ट क्रिया रूपनिर्माण किया जाता है, वह वैक्रिय है ! विशिष्टं कुर्वन्ति तदिति वा वैकुर्विकम् । (अनुद्वामटी प १८१) विशिष्ट लब्धिसंपन्न व्यक्ति जिस क्रिया को करते हैं, वह वैक्रिय है। १४५६. वेणइय (वैनयिक) . विनयमहन्तीति वैनायिकाः। (व्यभा ४/२ टी प ३६) जो विनय आचार में निपुण होते हैं, वे वैनयिक/आचार्य आदि हैं। ____ जो विनय के योग्य हैं, वे वैनयिक आचार्य आदि हैं। १४६०. वेणइय (वैनयिक) विनयेन चरन्तीति वैनायिकाः । (प्रसाटी प ३४५) जो विनय के द्वारा आजीविका प्राप्त करते हैं, वे वैनयिक विनयवादी है। १४६१. वेतालिय (वैदालिक) विदालयतीति वेदालिकः। (सूचू १ पृ ५८) जो (कर्मों को) विदारित करता है, वह वैदालिक है। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ निरक्त कोश १४६२. वेदग (वेदक) वेद्यन्ते–अनुभूयन्ते शुद्धसम्यक्त्वपुञ्जपुद्गला अस्मिन्निति वेदकम् । ___ (प्रसाटी प २८५) ____ जिसमें शुद्ध सम्यक्त्व का वेदन/अनुभवन किया जाता है, वह वेदक (सम्यक्त्व) है। १४६२. वेदणा (वेदना) वेद्यत इति वेदना । (सूचू २ पृ ३२७) जिसका वेदन/अनुभव किया जाता है, वह वेदना है। १४६४. वेदणीय (वेदनीय) वेद्यते-आह्लादादिरूपेणानुभूयते यत्तद्वेदनायम् । (प्रसाटी प ३५६) सुख-दुःख आदि के रूप में जिसका वेदन किया जाता है, वह वेदनीय (कर्म) है। १४६५. वेय (वेद) वेदेइ जेण सा वेदो।' (आच पृ १५२) जिसके द्वारा जाना जाता है, वह वेद/आगम है । १४६६. वेय (वेद) वेदेतित्ति वेदो। (आचू पृ २३७) जो (तत्त्व को) जानता है, वह वेद/आगमज्ञ है । १४६७. वेय (वेद) वेदेति य सुहदुक्खं तम्हा वेदे । (भ २/१५) जो सुख-दुःख का वेदन करता है, वह वेद/जीव है । १. 'वेद' का अन्य निरुक्त (क) वेद्यते सकलचराचरमनेनेति वेदः आगमः । (आटी प १६४) (ख) विन्दत्यनेन धर्म वेदः। (अचि पृ ६०) जिससे धर्म प्राप्त होता है, वह वेद है। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ निरुक्त कोश १४६८. वेयय (वेदक) वेदयन्ति–निर्जरयन्ति उपभुञ्जन्तीति वेदकाः। (दटी प ७०) जो कर्मों का वेदन/निर्जरण या उपभोग करते हैं, वे वेदक १४६६. वेयरणी (वैतरणी) वेगेन तस्यां तरतीति वैतरणी। (सूचू १ पृ ६६) जिसमें वेग से तरा जाता है, वह वैतरणी (नदी) है । विरूपं तरणं प्रयोजनमस्या इति वैतरणी। (प्रसाटी प ३२२) जिसमें वि-तरण/प्रतिकूल तरण होता है, वह वैतरणी (नदी) है। १४७० वैयवि (वेदविद्) दुवालसंगं प्रवचनं वेदो, तं जे वेदयति स वेदवी । (आचू पृ १८५) जो वेद/द्वादशांग प्रवचन को जानता है, वह वेदविद् है । जीवादिपदत्थे वेदापयतीति वेदवी। (आचू पृ २३७) जो जीव आदि पदार्थों को समझाता है, वह वेदवित् है । १४७१. वयालिग (वैयालिक) व्यालैश्चरन्तीति वैयालिकाः । (प्रटी प ३७) जो व्याल/सों को दिखाकर आजीविका प्राप्त करते हैं, वे वयालिक/सपेरे हैं। १. 'वैतरणी' के अन्य निरुक्तविगततरणौ व्यर्के पाताले भवा वैतरणी । विगततरणिवितरणिविनौका ततः वैतरणी । (अचि पृ २४१) जो वितरणि सूर्यरहित नरक में होती है, वह वैतरणी (नदी) है । जो वितरणि नौका रहित है, वह वैतरणी (नदी) है । वितरणेन दानेन तीर्यते वैतरणी। विरुद्धं तरणं वितरणं तदस्यामस्तीति वैतरणी। (शब्द ४ पृ ५०६) जिसे वितरण/दान से तैरा जाता है, पार किया जाता है, वह वैतरणी है। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ निरुक्त कोश १४७२. वेयावच्च (वैयापृत्त्य) व्यापिपति स्मेति व्यापृतः तस्यभावो वैयापृत्यम् । (प्रसाटी प ६८) धर्मपुष्टि के लिए मुमुक्षुओं की सेवा में व्याप्त होना वैयापृत्य वैयावृत्त्य है। १४७३. वेर (वैर) विरज्यते येन तद् वैरम् । (सूचू १ पृ २२) जिसके द्वारा आत्मा विशेष रूप से रंजित होती है, वह वैर है। १४७४. वेरि (वैरिन्) वेराई कुव्वती वेरी। (सू १/८/७) जो वैर करता है, वह वैरी है। १४७५. वेलंधर (वेलन्धर) वेला-लवणसमुद्रशिखामन्तविशन्ती बहिर्वाऽऽयान्तीमग्र शिखां च धारयन्तीति वेलंधराः। (स्थाटी प २२१) जो वेला/लवणसमुद्र की शिखा को धारण करते हैं, वे वेलंधर (पर्वत) हैं। १४७६. वोम (व्योम) विशेषेणावनाद् व्योम । (भटी पृ १४३१) जो विशेष रूप से (सर्वत्र) व्याप्त है, वह व्योम/आकाश जिसमें गति की जाती है, वह व्योम है। जो (अवकाश प्रदान कर) रक्षा करता है, वह व्योम है । १. वेयावच्चं वावडभावो इह धम्मसाहणनिमित्तं । अन्नाइयाण विहिणा संपयाणमेस भावत्थो । (प्रसाटी प ६८) २. अवनं गमनं विविधमस्मिन् विद्यते इति व्योम। अवति-रक्षति प्राणिनोऽवकाशप्रदानेन इति । (शब्द ४ पृ ५५४) Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २७६ १४७७. स (श्वन्) शयति श्वसिति वा श्वा।। (उचू पृ २०३) जो इधर उधर घूमता है, वह श्वा/कुत्ता है। जो (शीघ्रता से) श्वास लेता है, वह श्वा/कुत्ता है । १४७८. संकम (संक्रम) संकमिज्जति जेण सो संकमो। (निचू २ पृ ३४) जिससे संक्रमण/पार किया जाता है, वह संक्रम/सेतु है। १४७६. संका (शङ्का) संसयकरणं संका। (जीतभा १०३६) संशय करना शंका है। • १४८०. संखडि (दे) आउयखंडणा संखडी। (आचू पृ ३०९) जो (प्राणियों के) आयुष्य को खंडित करती है, वह संखडी/जीमनवार है। १४८१. संखा (संख्या) सम्यक् ख्यायते-प्रकाश्यतेऽनयेति संख्या। (आटी प २१०) जो (तत्त्व का) सम्यक् रूप से ख्यापन/प्रकाशन करती है, वह संख्या/प्रज्ञा है। १४८२. संखा (संख्या) संख्यायते-निश्चीयते वस्त्वनयेति संख्या। (अनुद्वामटी प ११६) जो वस्तु की निश्चित परिगणना करती है, वह संख्या है। १. 'व्योम' का अन्य निरुक्त व्ययति छादयति मां व्योम । (अचि पृ ३७) २. श्वयति गच्छतीति श्वा । (शब्द ५ पृ १७७) ३. आउआणि जम्मि जीवाण संखंडिज्जति सा संखडी। (निचू २ पृ २०६) 22 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० १४८३. संखिज्ज ( संख्येय) संख्यायत इति संख्येयः । १४८४. संग ( सङ्ग) सज्जति जेण स संगो । जिसकी गणना की जा सकती है, वह संख्येय है । १४८५. संगकर ( सङ्गकर) ( आचू पृ १०६ ) जिसके द्वारा प्राणी आसक्त होता है, वह संग / आसक्ति है । संगं कुर्वन्तीति संगकराः । (उच् पृ २१६ ) जो संग / आसक्ति पैदा करते हैं, वे संगकर / इन्द्रिय-विषय हैं । १४८६. संग्रह (संग्रह) संग्रहणं संगिण्हइ सं गिज्यंते व तेण जं भेया । तो संगहो त्ति संगहिय पिंडियत्थं वओ जस्स ॥ ( विभा २२०३ ) अशेष विशेष तिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया समस्तं जगदादत्ते इति संग्रहः । ( प्रसाठी प २४३) १४८७. संगह ( सङ्ग्रह) जो विशेष का परिहार करते हुए सामान्य रूप से सम्पूर्ण वस्तुओं को ग्रहण करता है, वह संग्रह ( नय) है | संगृह्णातीति संग्रहः । ( आवहाटी १ पृ २१ ) निरुक्त कोश १४८८. संगाम ( स ग्राम ) जो संग्रह करता है, वह संग्रह / संग्राहक है । १. 'संग्राम' का अन्य निरुक्त सङ्ग्रामयन्तेऽत्र सङ्ग्राम: । (अचि पृ १७७ ) ( व्यभा ४ / २ टी प ५० ) संगमतीति संगामो ।' ( आचू पृ २४३ ) जहां दो सेनाओं का संगम / मिलन होता है, वह संग्राम है । समस्तं ग्रस्यते ग्रस्यंते वा तस्मिन्निति सङ्ग्राम: । ( सूचू १ पृ७९ ) जहां सब कुछ ग्रस्त / नष्ट होता है, वह संग्राम है । जहां संग्राम / युद्ध किया जाता है, वह संग्राम है । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २८१ समं ग्रस्ते इति संग्रामः। (उचू पृ ५६) - जो एक साथ (बहुतों को) कालकवलित करता है, वह संग्राम है। १४८६. संघ (सङ्घ) संघातयतीति संघः। (व्यभा ४/२ टी प ६७) जो सबको संहत/सम्मिलित करता है, वह संघ है । १४६०. संघयण (संहनन) संहन्यन्ते-धातूनामनेकार्थत्वाद् दृढी क्रियन्ते शरीरपुद्गलाः कपाटादयो लोहपट्टिकादिनेव येन तत् संहननम् । (नक १ टी पृ ४०) जिसके द्वारा शरीर के पुद्गल दृढ़ होते हैं, वह संहनन अस्थि-रचना विशेष है। १४६१. संघाडी (सङ्घाटी) संघातिज्जति त्ति संघाडी। गुणसंघायकारणी वा संघाडी। (निचू ३ पृ ३२६) __ जो गुण/तन्तु के संघात समूह से निर्मित है, वह संघाटी/ शाटिका है। "१४६२. संघात (सङ्घात) संघातयति-पिण्डीकरोति औदारिकपुद्गलान् येन हेतुना संघातमुच्यते। (प्राक १ टी पृ ४५) जिस कारण से औदारिक आदि पुद्गल संहत पिण्डीभूत होते हैं, वह संघात नामकर्म है। १४६३. संघायविमोयग (सङ्घातविमोचक) कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनां संघाताद्विमोचयति प्राणिन इति संघातविमोचकः। (व्यभा ४/२ टी प ६६) जो कर्म संघात/समूह से विमुक्त करता है, वह संघातविमोचक/जिनशासन है। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ निरक्त कोश १४६४. संचयण (सञ्चयन) संचीयत इति सञ्चयनम् । (प्रटी प ९३) ___ जो संचित किया जाता है, वह संचय/परिग्रह है। १४६५. संजम (संयम) सं एगीभावम्मि जमउवरम एगभावउवरमणं । सम्मं जमो वा संजमो मण-वइ-कायाण जमणं तु ॥ (जीतभा ११०७) एकान्ततः उपरति संयम है। मन, वचन और काया का सम्यक् संयमन/नियमन संयम है। १४६६. संजय (संयत) संमं यतो संयतो।' (उचू पृ २०३) सम्--एकोभावेन यतः संयतः। (आवहाटी २ पृ १७) जो सम्यक् रूप से/समग्र रूप से यत्नवान् है, वह संयत है । १४६७. संजलण (संज्वलन) सम्-ईषद् ज्वलयन्तीति संज्वलनाः । (प्रज्ञाटी प ४६८) ___जो (संयमी को) सम्-किचित् ज्वलित/उत्तेजित करता है, वह संज्वलन (कषाय) है। १४६८. संजलण (संज्वलन) संजलतीति संजलणो। (दश्रुचू प ३६) जो संज्वलित/उत्तेजित होता है, वह संज्वलन/क्रोधी है । १४६६. संजूह (संयूथ) सङ्गतं-युक्तार्थ यूथं–पदानां पदयोर्वा समूहः संयूथम् । (स्थाटी प ४७३) संगत युक्तियुक्त अर्थ वाले पदों का यूथ/समूह संयूथ/समास १. सम्यग् यतते सदनुष्ठानं प्रतीति संयतः । (उशाटी प ४१६) Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २८३. १५००. संजोग (संयोग) संयुज्जत इति संयोगः येन वा संयुज्जते स संयोगः । (उचू पृ १५) जो संयुक्त करता है, वह संयोग है। १५०१. संजोग (संयोग) संयुज्यते संयोजनं वा संयोगः । (आटी प १०१) जो संयुक्त होता है, वह संयोग/धन-धान्य आदि है । १५०२. संजोयणा (संयोजना) संयोज्यन्ते सम्बध्यन्तेऽसंख्यैर्भवैर्जन्तवो यैस्ते संयोजनाः । (पंसंटी प ११२) जिससे जीव असंख्य भवों से संयुक्त/सम्बद्ध होता है, वह संयोजना/अनन्तानुबंधी कषाय है । १५०३. संठाण (संस्थान) संतिष्ठतेऽनेनाकारविशेषेण वस्त्विति संस्थानम् । (उशाटी प ५६२) जिस आकार-विशेष में वस्तु स्थित होती है, वह संस्थान सन्तिष्ठन्त एभिः स्कन्धादय इति संस्थानानि । (उशाटी प ६७७) स्कंध आदि जिसमें रूपायित होते हैं, वे संस्थान हैं। १५०४. संथव (संस्तव) संस्तूयते येन संस्तवः। (उचू पृ १५१) जिसके द्वारा पहचान प्राप्त की जाती है, वह संस्तव है। १५०५. सांथार (संस्तार) संस्तरन्ति साधवोऽस्मिन्निति संस्तारः। (व्यभा ४/३ टी प ७) जिसमें साधु रहते हैं, वह संस्तार/उपाश्रय है । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ निरुक्त कोश १५०६. संधारणा (संधारणा) सं एगीभावम्मी, 'धी धरणे' ताणि एव भावेणं । धारेयत्थपयाणि तु, तम्हा संधारणा होति । (जीतभा ६५७) एक साथ धारणीय पदों को धारण करना संधारणा/ धारणा व्यवहार है। १५०७. संधि (सन्धि) सन्धीयते असो सन्धिः । (आटी प १३०) जिसका सन्धान किया जाता है, वह संधि कर्त्तव्यकाल है । १५०८. संधिचारि (सन्धिचारिन्) संधि चरति संधिचारी। (आचू पृ ३४६) जो संधि/विवर को देखता है, वह संधिचारी है। १५०६. संनिचय (सन्निचय) सम्यग् निश्चयेन चीयत इति सग्निचयः । (आटी प १३०) चीनी, द्राक्षा आदि का संग्रह सन्निचय है । १५१०. संनिहि (सन्निधि) सम्यग् निधीयत इति सन्निधिः । (आटी प १३०) विनाशशील द्रव्यों का सन्निधान संस्थापन सन्निधि है। १५११. संपणिवाय (संप्रणिपात) सम्यक-समीचीनतया प्रकर्षेण निपतनं-संप्रणिपातः । (प्रसाटी प १५) सम्यक् प्रकार से अत्यन्त झुक कर नमन करना संप्रणिपात १. अविनाशिद्रव्याणां अभयासितामृद्वीकादीनां सङ्ग्रहः सन्निचयः । (आटी प १३०) २. विनाशिद्रव्याणां दध्योदनादीनां संस्थापनं सन्निधिः । (आटी प १३०) Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २५५. १५१२. संपत्त (सम्प्राप्त) ___ सोभणेण पगारेण पत्ते संपत्ते । (दजिचू पृ १६६) जो अच्छे ढंग से प्राप्त है, वह सम्प्राप्त है । १५१३. संपराय (सम्पराय) संपरीत्यस्मिन्निति सम्परायः। (सूचू १ पृ १४०) संपरायन्ति-भृशं पर्यटन्त्यस्मिन् जन्तव इति सम्परायः । (उशाटी प ४७८) जिसमें प्राणी पर्यटन-भ्रमण करते हैं, वह संपराय/संसार १५१४. संपराय (सम्पराय) संपर्येति–पर्यटति अनेन संसारमिति संपरायः । (उशाटी प ५६८) जिससे संसार-भ्रमण करना पड़ता है, वह संपराय लोभकषाय है। १५१५. संपातिम (सम्पातिम) आहच्च आगत्य सव्वतो पतंति संपतंति-इति संपातिमा। __ (आचू पृ ३१) सहसा सब ओर से आकर जो प्राणी गिरते हैं, वे सम्पातिम हैं। सम्पतितुमुत्प्लुत्योत्प्लुत्य गन्तुमागन्तुं वा शीलं येषां ते सम्पातिमाः। (आटी प ५५) जो फुदक-फुदक कर आगे जाते हैं, वे सम्पातिम हैं । १५१६. संबद्ध (सम्बद्ध) समस्तं बद्धाः संबद्धाः। (सूचू १ पृ.६०) जो सम्पूर्णरूप से बद्ध है, वह संबद्ध है। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ निरुक्त कोश १५१७. संबाह (सम्बाध) समिति-भृशं बाध्यन्तेऽस्मिन् जना इति संबाधः । (उशाटी प ६०५) जहां लोगों की अत्यन्त संकुलता है, वह संबाध/भीड़ है। १५१८. संभम (संभ्रम) संभ्रमति तस्मिन्निति संभ्रमः। (सूचू १ पृ.६६) जिसमें व्यक्ति संभ्रमित आकुल-व्याकुल होते हैं, वह संभ्रम १५१६. संभरण (सम्भरण) सम्भ्रियते धार्यते सम्भरणम् । (प्रटी प ६३) जो धारण किया जाता है, वह संभरण/परिग्रह है। १५२०. संभव (सम्भव) सदा भवनम् सम्भवः । (सूटी २ प ६५) जो सदो पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं, वह सम्भव/वनस्पति विशेष है। १५२१. संभिन्न (संभिन्न) समस्तं भिन्नं सं एकीभावे वा सत्तामंगीकृत्यैक जीवाजीवादिभावेण भिन्नं संभिन्नं । दव्वपज्जायभावेण भिन्नं संभिन्नं । सम्यग्भिन्नं वा बज्झन्भंतरतो वा भिन्नं संभिन्नं । (आवचू १ पृ १०७) जो पूर्णरूप से अथवा भिन्न पृथक्-पृथक रूप से ज्ञात किया जाता है, वह संभिन्न है। १५२२. संभिन्नसोय (सम्भिन्नश्रोत) सम्भिन्न--सर्वतः सर्वशरीरावयवैः शृण्वन्तीति सम्भिन्नश्रोतारः। जो संपूर्ण शरीर से सुनते हैं, वे संभिन्नश्रोता विशेष लब्धिसंपन्न हैं। सं भिन्नानि-प्रत्येक ग्राहकत्वेन शब्दादिविषयः व्याप्तानि श्रोतांसि-इन्द्रियाणि येषां ते संभिन्नश्रोतसः। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'निरक्त कोश २८७ जिनकी प्रत्येक इन्द्रिय शब्द आदि सभी विषयों में व्याप्त होती है, वे संभिन्नश्रोता हैं। सामस्त्येन वा भिन्नान्-परस्परभेदेन शब्दान् शृण्वन्तीति संभिन्नश्रोतारः। (प्रटी प १०४) जो सम्मिलित शब्दों को भिन्न-भिन्न रूप में सुनते हैं, वे संभिन्नश्रोता हैं। १५२३. संभूत (सम्भूत) सम्मं भवति संभूतं । जो अच्छे प्रकार से होता है, वह संभूत है। संभितं वा संभूतं । (आचू पृ ६८) जो पुष्ट और संस्कारित होता है, वह संभूत है। १५२४. संभोग (सम्भोग) सम्-एकत्र भोगो-भोजनं सम्भोगः। (स्थाटी प १३३) एक मंडली में भोजन करना संभोग है। समिति-संकरेण स्वपरलाभमीलनात्मकेन भोगः संभोगः। (उशाटी प ५८७) स्व और पर लाभ का सम्मिलित भोग/सेवन संभोग है। १५२५. संमोह (सम्मोह) सम्मुह्यतीति सम्मोहः । (स्थाटी प २६५) जो संमूढ बनाता है, वह सम्मोह है। १५२६. संयत (संयत) संगच्छति स्म सम्यगुपरमति स्म यावज्जीवं सर्वसावधयोगादिति संयतः। (प्राक २ टी पृ ३) जो जीवनभर के लिए सर्वसावद्ययोग से उपरमण करता है, वह संयत/संयमी है। १. एकमण्डलीकभोक्तृत्वम् । (उशाटी प ५८७) Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ निरुक्त कोश १५२७. संलेहणा (संलेखना) संलिख्यतेऽनया शरीरकषायादीनि संलेखना।' (आवहाटी २ पृ २३३) संलिख्यते-कृशीक्रियतेऽनयेति संलेखना। (भटी प १२७) शरीर और कषाय जिसके द्वारा कुरेदे जाते हैं, कृश किये जाते हैं, वह संलेखना है। १५२८. संवच्छर (संवत्सर) संवसन्ति तस्मिन्निति संवत्सरः। (सूचू २ पृ ४४४) (समस्त ऋतुएं) जिसमें सम्यक रूप से अवस्थान वर्तन करती हैं, वह संवत्सर है। १५२६. संवट्ट (संवर्त) संवर्तन्ते-पिण्डीभवन्त्यस्मिन् भयत्रस्ता जना इति संवतः। (उशाटी प ६०५) जहां भयभीत लोग एकत्र होते हैं, वह संवर्त है । १५३०. संवट्टग (संवर्तक) संवर्तयति-नाशयतीति संवर्तकः। (नंटि पृ १०३) जो भरतक्षेत्र की पृथ्वी के संपूर्ण दोषों का अपने प्रशस्त जल से संवर्तन/नाश करता है, वह संवर्तक (मेघ) है । १५३१. संवर (संवर) संवियते-कर्मकारणं प्राणातिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन स संवरः। (स्थाटी प १७) संवियते-निरुध्यते आत्मतडागे कर्मजलं प्रविशदेभिरिति संवराः । (प्रटी प २) जो कर्म-प्रवेश का संवरण/निरोध करते हैं, वे संवर/व्रत, अप्रमाद आदि हैं। १. अनशन से पूर्व की जाने वाली तपस्या । २. संवसन्ति ऋतवोऽत्र संवत्सरः। (वा पृ ५१७६) Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १५३२. संवाह ( सम्वाह) यत्र पर्वत नितम्बादिदुर्गे परचक्रभयेन रक्षार्थं धान्यादीनि संवहन्ति स संवाहः । ( स्थाटी प २८४ ) जहां धान्य आदि का संवहन / रक्षण किया जाता है, वह संवाह / दुर्गविशेष है । १५३३. संवुडचारि (संवृतचारिन् ) संवृतः संयमोपक्रमः तच्चरणशीलः संवृतचारी । ( सूचू १ पृ ३८ ) जो संयममय आचरण करते हैं, वे संवृतचारी हैं । १५३४. संवेयणी ( संवेदनी ) संवेगयति संवेगं करोतीति संवेद्यते वा संबोध्यते संवेज्यते वासंवेगं ग्राह्यते श्रोतानयेति संवेदनी संवेजनी वेति । ( स्थाटी प २०४ ) जो संवेग / भवविराग पैदा करती है, संबुद्ध करती है, वह संवेदी ( कथा ) है | १५३५. संसत्त (संसक्त) २८६. गुणैर्दोषैश्च संसज्यते - मिश्रीभवतीति संसवतः । ( प्रसाटी प २७ ) जो गुणों / व्रतों का पालन करता है, साथ-साथ दोषों का सेवन भी करता है, वह संसक्त / शिथिलाचारी मुनि है । १५३६. संसप्प ( संसर्पक) संसप्पंतीति संसप्पगा । १५३७. संसय ( संशय ) जो गति करते हैं, वे संसर्पक / चींटी आदि प्राणी हैं । ( आचू पृ २६० ) संसेतीति संसयो । संशेऽस्मिन् मन इति संशयः । जिससे मन संदेहशील होता है, वह संशय है । संशय्यते च अर्थद्वयमाश्रित्य बुद्धिरिति संशयः । ( उचू पृ १८३ ) जहां (दो अर्थों को लेकर ) बुद्धि सन्दिग्ध बनती है, वह संशय है । ( आचू पृ १५६ ) ( उशाटी प ५२४ ) Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० निरक्त कोश १५३८. संसार (संसार) संसरणम् ---इतश्चेतश्च परिभ्रमणं संसारः। (स्थाटी प १६१) जिसमें प्राणी भ्रमण करता है, वह संसार है । १५३६. संसुद्ध (संशुद्ध) समस्तं सुद्धं संसुद्धं । (आवचू २ पृ. २४२) जो संपूर्ण रूप से शुद्ध है, वह संशुद्ध है। १५४०. संसेइम (संस्वेदिम) सम्—एकोभावेन स्वेदः संस्वेदः तेन निवृत्तं संस्वेदिमम् । (बृटी पृ २७०) जो स्वेद/सघन वाष्प से निष्पन्न होते हैं, वे संस्वेदिम हैं । १५४१ . सक्क (शक) शक्नोतीति शक्रः । (उचू पृ १८१) जो (दैत्यों का नाश करने में) समर्थ है, वह शक्र/इंद्र है । शक्तिबोगाच्छकः । (उपाटी पृ १२४) ___ जो शक्ति-संपन्न है, वह शक है । १५४२. सच्च (सत्य) सद्भयो हितं सच्चं । (आवचू २ पृ २४२) जो सत्/श्रेय के लिए हितकर है, वह सत्य है । १५४३. सज्ज (षड्ज) षड्भ्यो जातः षड्जः। (अनुद्वामटी प ११७) ___ जो षट् छह स्थानों से उत्पन्न होता है, वह षड्ज (स्वर) १. शक्नोति दैत्यान् नाशयितुमिति शक्रः । (शब्द ५ पृ७) २. 'शक' का अन्य निरुक्त शक्रं नाम सिंहासनमस्यास्तीति शक्रः। (अचि १४०) ___ जो शक्र नाम के सिंहासन से सुशोभित होता है, वह शक है । ३. 'षड्जः षड्भ्यस्तु जायते। कण्ठोरस्तालुनासाभ्यो जिह्वाया दशनादपि ॥ (अचि पृ ३१४) Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश २६१ १५४४. सज्झाय (स्वाध्याय) शोभनं आ–मर्यादया अध्ययनं-श्रुतस्याधिकमनुसरणं स्वाध्यायः । (स्थाटी प ३३५) विधि के अनुसार श्रुत का पारायण करना स्वाध्याय है ।। १५४५. सठ (शठ) शाठ्येति शाममेवेति शठः ।। (उचू पृ १६४) जो शठता/धोखा करता है, वह शठ है। जो प्रियभाषण कर सत्य का शमन अवगुंठन करता है, धोखा देता है, वह शठ है। १५४६. सणप्पय (सनखपद) सह नखैः-नखरात्मकैवर्तन्त इति सनखानि पदानि येषां ते सनखपदाः। (उशाटी प ६६६) जिनके पैर नख से युक्त हैं, वे सनखपद/सिंह आदि हैं। १५४७. सण्णा (संज्ञा) संजानातीति संज्ञा। (सूचू २ पृ ३२७) सम्यक् रूप से जानना संज्ञा है । १५४८. सण्णा (संज्ञा) संज्ञायतेऽनयाऽयं जीव इति संज्ञा । (प्रसाटी प २७३) जिस संवेगात्मक प्रवृत्ति के द्वारा 'यह जीव है'—ऐसा जाना जाता है, वह संज्ञा है । १५४६. सण्णिवाय (सन्निपात) सम्-इति संहतरूपतया नि—इति नियतं पतनं गमन मेकत्रवर्तनं सन्निपातः। (नक ४ टी पृ १६०) १. सुष्ठ आ मर्यादया कालवेलापरिहारेण पौरुष्यपेक्षया वा अध्यायःअध्ययनं स्वाध्यायः (प्रसाटी प ६८) २. संज्ञा-वेदनीय मोहोदयाश्रिता ज्ञानावरणदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रिता च विचित्राहारराधिप्राप्तिकिया। (प्रसाटी ५ २७३) Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ निरक्तकोश जहां एक से अधिक भाव नियत रूप से एक साथ वर्तन करते हैं, वह सन्निपात (भाव) है। १५५०. सण्णिहाण (सन्निधान) सन्निधीयते क्रिया अस्मिन्निति सन्निधानम् । (स्थाटी प ४१०) सन्निधीयते-आधीयते यस्मिंस्तत् सन्निधानम् । (अनुद्वामटी प १२३) जिसमें क्रिया सन्निहित होती है, वह सन्निधान/आधार है । १५५१. सण्णिहि (सन्निधि) संनिधीयतेऽनयाऽऽत्मा दुर्गताविति संनिधिः। (दटी ११७) ____जो आत्मा को दुर्गति में सन्निहित करती है, वह सन्निधि/ संग्रह है। सम्यग् निधीयते—अवस्थाप्यत उपभोगाय योऽर्थः स सन्निधिः। (आटी प १०८) उपभोग के लिए जिसका संचय किया जाता है, वह सन्निधि है। १५५२. सण्णिहिकामि (सन्निधिकामिन्) सणिहि कामयतीति सन्निहिकामी। (दजिचू पृ २२०) जो सन्निधि संयम की कामना करता है, वह सन्निधिकामी १५५३. सत्त (सत्त्व) सत्ते सुभासुभेहिं कम्मेहि तम्हा सत्ते। (भ २/१५) शुभाशुभ कर्मों से जिसकी सत्ता है, वह सत्त्व/प्राणी है । १५५४. सत्थ (शास्त्र) शास्यतेऽनेनेति शास्त्रम् । (आवनिदी पृ ४४) जिसके द्वारा (सूत्रार्थ) शासित किया जाता है, वह शास्त्र Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश २६३ १५५५. सत्थ (शस्त्र) शस्यते अनेनेति शस्त्रम् । (सूचू १ पृ १७७) जिसके द्वारा मारा जाता है, वह शस्त्र है । १५५६. सत्थवाह (सार्थवाह) सार्थो विद्यते यस्येति व्युत्पत्त्या सार्थवाहः। यस्य वा वशेन सार्थो व्रजति सः सार्थवाहः। (बृटी पृ ८६८) जिसके साथ सार्थ/संघ होता है, वह सार्थवाह है। सार्थ जिसके वशवर्ती होकर चलता है, वह सार्थवाह है। १५५७. सत्थु (शास्तृ) शासतीति शास्ता। (सूचू १ पृ २३६) जो शासन करता है, वह शास्ता है । १५५८. सद्द (शब्द) शब्द्यते-प्रतिपाद्यते वस्त्वनेनेति शब्दः। (आवमटी ५ ३७५) जिसके द्वारा वस्तु का प्रतिपादन किया जाता है, वह शब्द . शप्यते वाहूयते वस्त्वनेनेति शब्दः। (विभामहेटी २ पृ १३) वस्तु जिसके द्वारा पहचानी जाती है, वह शब्द है । १५५६. सद्दिय (शब्दित) ___ शब्दः-प्रसिद्धिः स संजातो यस्य तच्छब्दितम्। (ज्ञाटी प ४) जिसे शब्द/प्रसिद्धि प्राप्त है, वह शब्दित/प्रसिद्ध है । १५६०. सप्पि (सपिन्) सर्पतीति सी। (प्रटी प १६२) जो वैशाखी के सहारे सर्पण/गमन करता है, वह सी/पंगु १. सार्थान् सधनान् सरतो वा पान्थान् वहति सार्थवाहः। (अचि पृ १६१) १. सी-पीठसी स किल पाणिगृहीतकाष्ठः सर्पतीति । (प्रटी प १६२) Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ निरुक्त कोश १५६१. सबल (शबल) शबलयन्ति-कर्बुरीकुर्वन्त्यतीचारकलुषीकरणतश्चारित्रमिति शबलाः । (उशाटी प ६१५) जो चारित्र को शबल/धब्बों युक्त कर देते हैं, वे शबल (दोष) हैं। १५६२. सब्भ (सभ्य) सभाया योग्यं सभ्यम् । (बृटी पृ २३४) जो सभा के योग्य है, वह सभ्य है। १५६३. सब्भाव (सद्भाव) स्वे भावे ठितो सब्भावो। जो अपने भाव में स्थित है, वह सद्भाव है । स सोभणो वा भावो सब्भावो । अच्छा भाव सद्भाव है। स विज्जमाणो वा भावो सब्भावो। (नंचू पृ ११) जो विद्यमान है, वह सद्भाव है। १५६४. समण (श्रमण) श्राम्यतीति श्रमणः। (आटी प ४०२) __ जो श्रम/तपस्या करते हैं, वे श्रमण हैं । १५६५. समण (समण) समिति-समतया शत्रुमित्रादिष्वणन्ति-प्रवर्त्तन्त इति समणाः । (स्थाटी प २७२) जो समता का आचरण करते हैं, वे समण/श्रमण हैं । संगतं वा यथाभवत्येवमणति-भाषते समणः। (भटी प ७) जिसकी कथनी-करणी समान है, वह समण/श्रमण है । १. श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः । (व्यभा ४/२ टी प २७) Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश २६५ १५६६. समण (समनस्) सम्यक् मणे समणे। (सूचू १ पृ ६०) जिसका मन सम्यक् है, वह समना/श्रमण है। समान--स्वजनपरजनादिषु तुल्यं मनो येषां ते समनसः । (स्थाटी प २७२) स्वजन और परजन में जिनका मन समान होता है, वे समना/श्रमण हैं । सह शोभनेन मनस वर्तत इति समनाः। (भटी प ७) जिसके श्रेष्ठ मन है, वह समना/श्रमण है। १५६७. समण (शमन) शम्यन्ते उपशमं नीयन्ते रोगा यस्तानि शमनानि । (व्यभा २ टी प ८६) जिनके द्वारा रोग शमित/उपशांत होते हैं, वे शमन औषधियां हैं। १५६८. समणोवासग (श्रमणोपासक) विशिष्टोपदेशार्थं श्रमणानुपासते-सेवन्त इति श्रमणोपासकाः। (सूटी २ प ७६) जो विशिष्ट उपदेश के लिए श्रमणों की उपासना करते हैं, वे श्रमणोपासक श्रावक हैं । १५६६. समभिरूढ (समभिरूढ) सम्–एकोभावेन अभिरोहति-व्युत्पत्तिनिमित्तमास्कन्दति शब्दप्रवृत्तौ यः स समभिरूढः। _ (आवमटी प ३७६) ___व्युत्पत्ति के अनुसार जो शब्द प्रवृत्त होता है, वह समभिरूढ (नय) है। १५७०. समयण्णु (समयज्ञ) स्वसमयपरसमयौ जानातीति स्वसमयपरसमयज्ञः । (आटी प १३१) जो समय/सिद्धांत को जानता है, वह समयज्ञ है । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ निरुक्त कोश १५७१. समवसरण (समवसरण) समवसरंति जेसु दरिसणाणि दिट्ठीओ वा ताणि समोसरणाणि । (सूचू १ पृ २०७) जहां अनेक दर्शन/दृष्टियां समवसृत होती हैं, वह समवसरण २५७२. समवाय (समवाय) जीवा समासिज्जंति समं आसइज्जति । समं ति–ण विसमं, जहावत्थितं अनुनातिरित्तं इत्यर्थः। आसइज्जति-आश्रीयंते बुद्ध्या ज्ञानेन गृह्यतेत्यर्थः । (नंचू पृ ६४) जिसमें ज्ञान या बुद्धि के द्वारा जीव आदि पदार्थों का यथार्थ आकलन किया गया है, वह समवाय (सूत्र) है। १५७३. समादाण (समादान) समादीयते कर्म एभिरिति समादानानि । (जीटी प १२१) जिनके द्वारा कर्मों का आदान/ग्रहण किया जाता है, वे समादान कर्म-हेतु हैं। १५७४. समास (समास) भिण्णपयसमसणं समासो। (दअचू पृ ७) जो भिन्न पदों को समस्त/संयुक्त करता है, वह समास है। १५७५. समाहिमण (समाधिकमनस्) समेन वा उपशमेन अधिकं मनो यस्य समाधिकमनाः । (प्रटी प १११) जिसका मन सम/उपशम में अधिक आकृष्ट है, वह समाधिक मना/समाहितमना है। १५७६. समाहिमण (समाहितमनस्) सम-तुल्यं रागद्वेषानाकलितं आहितं- उपनीतमात्मनि मनो येन स समाहितमनाः। जिसका मन समत्व में लीन है, वह समाहितमना है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • निरक्त कोश २९७ समाहितं वा स्वस्थं मनो यस्य स समाहितमनाः । (प्रटी प १११) जिसका मन स्वस्थ है, वह समाहितमना है । १५७७. समाहिय (समाहित) सम्यगाहिताः तपःसंयम उद्युक्ताः समाहिताः। (आटी प १५६) जो तप और संयम में संलग्न हैं, वे समाहित हैं । १५७८. समिइ (समिति) सम्ममयति त्ति समिती। (जीतभा ८०४) जिसके द्वारा (साधक) सम्यक् गति/प्रवृत्ति करता है, वह समिति है। १५७६. समिय (समित) सम्मं इतो समितो। (आचू पृ ३१५) जो सम्यक्रूप से प्रवृत्ति करता है, वह समित/मुनि है। १५८०. समुग्घाय (समुद्घात) सम्यक् अपुनर्भावेनोत्-प्राबल्येन कर्मणो हननं घातः प्रलयो यस्मिन् प्रयत्नविशेषेऽसौ समुद्घात इति । (आवहाटी १ पृ २६३) जिस प्रयत्न में कर्मों का प्रबलता से क्षय होता है, वह समुद्घात है। १५८१. समुच्छेय (समुच्छेद) सामस्त्येन प्रकर्षण च छेदः समुच्छेदः। (स्थाटी १ प ३६३) समग्रता से उखाड़ देना समुच्छेद/विनाश है । १५८२. समुट्टित (समुत्थित) समं संगतं वा संजमउत्थाणेण उद्वितो समुट्टितो। (आचू पृ ७७) संयम के उत्थान/पराक्रम में जो सम्यक्रूप से उपस्थित है, वह समुत्थित है। १. सम्यक्–सर्ववित्प्रवचनानुसारितया इतिः-आत्मनः चेष्टा समितिः । (उशाटी प ५१४) Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ १५८३. समुदाण ( समुदान) समिति--सम्यक् प्रकृतिबन्धादिभेदेन देशसर्वोपघातिरूपतया च आदानं स्वीकरणं समुदानम् । ( स्थाटी प १४७ ) सम्यक् आदान / स्वीकरण समुदान ( क्रियाविशेष ) है । १५८४. समुदाण ( समुदान) समेच्च उवादीयते समुदाणं । ( अचू पृ २२० ) जो सामूहिक रूप से ग्रहण किया जाता है, वह समुदान ( भिक्षा) है । १५८५. समुह (समुद्र) समन्तादुन त उन्नावा पृथिवों कुर्वत अनेनेति समुद्रः । है | सह मुद्रा - मर्यादया वर्तन्त इति समुद्राः । ( उचू पृ १७२ ) जो चारों ओर से पृथिवी को आर्द्र कर देता है, वह समुद्र निरुक्त कोश जो मुद्रा / मर्यादा में रहते हैं, वे समुद्र हैं । १. 'समुद्र' के अन्य निरुक्त समुन्दन्ति आर्द्राभवन्ति वर्षाकालनद्योऽस्मात् समुद्रः । (अचि पृ २३८ ) बरसाती नदियां जिससे आर्द्र होती हैं, भरती हैं, वह समुद्र है । सम्यगुद्गतो रोऽग्निरत्र समुद्रः । जिससे र- अग्नि पैदा होती है, वह समुद्र है । चन्द्रोदयात् आपः सम्यगुन्दन्ति क्लिद्यन्ति अत्र समुद्रः । चन्द्रमा की कलाओं के साथ-साथ जिसका जल बढ़ता है, वह समुद्र है । मुदं राति ददाति समुद्रः । जो मुद् / प्रसन्नता प्रदान करता है, वह समुद्र है । ( अनुद्वामटी प ८२ ) मुद्राणि रत्नादीनि तैः सह वर्त्तते इति समुद्रः । ( शब्द ५ पू२७८ ) मुद्र / रत्नों से युक्त है, वह समुद्र है । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ निरक्त कोश १५८६. समुद्दपाल (समुद्रपाल) समुद्रेण पाल्यते स्मेति समुद्रपालः। (उशाटी प ४८२) जो समुद्र में उत्पन्न है, पालित है, वह समुद्रपाल/श्रेष्ठिपुत्र १५८७. समोयार (समवतार) समसंख्यावतारो समोतारो। (अनुद्वाचू पृ २३) समसंख्या का अवतरण समवतार है। सम्मं समस्तं वा ओतारयतित्ति समोतारे। (अनुद्वाचू पृ २८८) सम्यक् अवतरण समवतार है। समस्त का अवतरण समवतार है। समवतरणं-वस्तूनां स्वपरोभयेष्वन्तर्भावचिन्तनं समवतारः। (अनुद्वामटी प २२८) स्व, पर और उभय-सब में वस्तुओं का अन्तर्भाव करना समवतार है। १५८८. सम्म (सम्यक्) समञ्चतीति वा सम्यक् । (पंटी प ७) जो सम/औचित्य को प्राप्त होता है, वह सम्यक् है । १५८६. सम्मत्तदंसि (सम्यक्त्वशिन्) सम्म पस्संतीति सम्मत्तदंतिणो । (सूचू १ पृ १७२) जो सम्यक् देखते हैं, वे सम्यक्दर्शी/सम्यक्त्वदर्शी हैं। १५६०. सयंगाह (स्वयंग्राह) स्वयमात्मना गृहंतीति स्वयंग्राहाः। (व्यभा २ टी प ५) जो स्वयं भिक्षा ग्रहण करते हैं, वे स्वयंग्राह/भिक्षुक हैं । १५६१. सयंभ (स्वयंभू) स्वयं भवतीति स्वयंभूः । (सूचू १ पृ ४१) जो स्वयं उत्पन्न होता है, वह स्वयंभू ब्रह्मा विष्णु/ईश्वर Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० १५२. सयक्कतु ( शतक्रतु) कतू पडिमा तास सतं फासितं जेण सो सयक्कतू । (दश्रुचू प ६४ ) जिसने सौ बार ऋतु / प्रतिमा का स्पर्श / पालन किया है, वह शतक्रतु / इन्द्र है । - १५६३. सयग्घी ( शतघ्नी ) शतं घ्नन्तीति शतघ्न्यः । ( उच् पृ १८२ ) जो सौ व्यक्तियों को एक साथ मारती है, वह शतघ्नी / शस्त्रविशेष है । १५४. सयण ( शयन ) सुप्पति जत्थ णं सयणं । जहां सोया जाता है, वह शयन है । १५६५. सयण ( शयन ) शय्यते - स्थीयते येष्विति शयनानि । जिन पर बैठा जाता है, वे शयन हैं । १५६६. सर (स्वर) निरुक्त कोश ( आचू पृ ३१२) अक्षस्य चैतन्यस्य स्वरणात् संशब्दनात् स्वराः । ( विभामहेटी १ पृ २१६) जीव / चैतन्य का जो शब्द है, वाणी है, वह स्वर है । १५६७. सरक्खर (स्वराक्षर ) अक्खरं अक्खरं सरंति-गच्छंति सरंति' वा इत्यतो सरक्खरं । ( नंचू पृ ५४ ) जो प्रत्येक अक्षर के साथ सरण / संयुक्त होते हैं, वे स्वर हैं । जो उच्चारण में सहयोगी बनते हैं, वे स्वर हैं । १. ( क ) कार्तिकश्रेष्ठत्वे शतक्रतुः ( उपाटी पृ १२४) (ख) 'शतऋतु' का अन्य निरुक्त शतं ऋतवोsस्य शतक्रतुः । ( वा पृ ५०८१ ) जिसने सौ बार ऋतु/यज्ञ किया है, वह शतक्रतु / इन्द्र है । २. स्वर्, स्वृ— to sound ( आप्टे पृ १७४४) ( आटी प ३०७ ) शतं ऋतूनाम् — अभिग्रह विशेषाणां यस्यासौ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १५६८. सरण (शरण) जं अस्सिता णिन्भयं वसंति तं सरणं ।' (आचू पृ ५३) जिसके आश्रय में निर्भय रूप से वास किया जाता है, वह शरण/गृह है। श्रयंति तमिति शरणम् । (सूचू १ पृ ४५) जिसका आश्रय लिया जाता है, वह शरण है। १५६६. सरस्सती (सरस्वती) सरो से अस्थि त्ति सरस्सतो। (दअचू पृ १५६) जो सर/प्रसरण करती है, वह सरस्वती/भाषा है । जो सर अर्थवान् होती है, वह सरस्वती है। १६००. सराग (सराग) सह रागेण--अभिष्वङ्गण मायादिरूपेण य स सरागः । (स्थाटी प ४६) जो राग/आसक्ति से युक्त है, वह सराग है । १६०१. सरासण (श रासन) शरा अस्यन्ते-क्षिप्यन्तेऽस्मिन्निति शरासनः। (जीटी प २५६) जिसमें वाण रखे जाते हैं, वह शरासन है। १६०२. सरीर (शरीर) सीर्यत इति शरीरं । (आचू पृ १४६) उत्पत्तिसमयादारभ्य प्रतिक्षणमेव शीर्यत इति शरीरम् । __ (स्थाटी प २८४) जो उत्पत्तिकाल से लेकर प्रतिक्षण शीर्ण/क्षीण होता है, वह शरीर है। १. 'शरण' का अन्य निरुक्त शीर्यते शीताद्यनेन शरणम् । (अचि प २१६) जो शीत आदि को शीर्ण/नष्ट करता है, वह शरण/गृह है। २. सरः-प्रसरणमस्त्यस्याः सरस्वती। सरो ज्ञान विद्यतेऽस्यामिति वा । (अचि पृ ५६) Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ निरुक्त कोश सरतीति शरीरं। (आचू पृ २०५) जो गति करता है, वह शरीर है। १६०३. सरूवि (सरूपिन्) सह रूपेण-मूर्त्या वर्तत इति सरूपिणः। (स्थाटी प ३६) जिनके रूप/संस्थान, आकृति होती है, वे सरूपी/सशरीर १६०४. सल्ल (शल्य) शलति शूलयति वा शल्यम् । (उचू पृ १८५) शल्यते-बाध्यते अनेनेति शल्यम् । (स्थाटी प १४३) जो गति करता है/प्रवेश करता है, वह शल्य है। जो शालित/पीड़ित करता है, वह शल्य है । १६०५. सल्लग (सल्लग) 'रगे लगे संवरणे' शोभनं लगनं संवरणं, इन्द्रियसंयमरूपं सल्लगः। (सूटी २ प ६८) इन्द्रियों का संवरण सल्लग/संयम है। १६०६. सवण (श्रवण) श्रूयते इति श्रवणम् । (प्रज्ञाटी प ३९६) जो सुना जाता है, वह श्रवण है । १६०७ सव्व (सर्व) स्त्रियते स इति श्रियते वाऽनेनेति सर्वः। (आवहाटी १ पृ ३१८) जो (समस्त का) समाहार कर लेता है, वह सर्व है। १६०८. सव्वजोणिय (सर्वयोनिक) सव्वासु जोणीसु उववज्जतीति सव्वजोणिया। (आचू पृ ३०५) जो सब योनियों में उत्पन्न होते हैं, वे सर्वयोनिक हैं। १. (क) शलत्यन्तविशति शल्यम् । (अचि पृ १७४) (ख) शल-गतो, शूल-रुजायाम् । २. सरति सर्वम्, सर्वतीति वा । (अचि पृ ३२१) Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश १६०९. सव्वट्ठसिद्ध (सर्वार्थसिद्ध) सर्वेऽर्थाः सिद्धा इव सिद्धा येषां ते सर्वार्थसिद्धाः । ___ (उशाटी प ७०३) जिनके सब अर्थ सिद्ध हो गए हैं, वे सर्वार्थसिद्ध (देव) हैं। १६१०. सव्वदंसि (सर्वदशिन्) सर्व समस्तं गम्यमानत्वात्प्राणिगणं पश्यति-आत्मवत् प्रेक्षत इत्येवंशीलः, अभिभूय रागद्वेषौ सर्व वस्तु समतया पश्यतीत्येवंशील: सर्वदर्शी। (उशाटी प ४१४) जो सब कुछ देखता है, वह सर्वदर्शी है । जो सबको समत्व से देखता है, वह सर्वदर्शी है। १६११ सव्वधत्ता (सर्वधत्ता) सर्व जीवाजीवाख्यं वस्तु धत्तं-निहितमस्यां विवक्षायामिति सर्वधत्ता। जिसमें जीव-अजीव समस्त पदार्थ विवक्षित हैं, वह सर्वधत्ता विवक्षा है। सर्व बधातीति सर्वधं-निरवशेषवचनं सर्वधमात्तं-आगृहीतं यस्यां विवक्षायां सा सर्वधत्ता। (आवहाटी १ पृ ३१८) जो समस्त को ग्रहण करती है, वह सर्वधत्ता विवक्षा है। १६१२ सव्वासि (सर्वाशिन्) सर्वमश्नातीत्येवंशीलः सर्वाशी। (व्यभा ३ टी प १०६) जो अधिक खाता है, वह सर्वाशी/बहुभोजी है। १६१३ ससी (सश्री) सह श्रिया वर्तत इति सश्रीः। (भटी पृ १०६१) जो श्री/शोभा से युक्त है, वह सश्री/चन्द्रमा है। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ निरुक्त कोश १६१४. सहसंबुद्ध (स्वयंसम्बुद्ध) सह-आत्मनैव सार्द्धमनन्योपदेशतः सम्यग्-यथावद् बुद्धोहेयोपादेयोपेक्षणीयवस्तुतत्त्वं विदितवानिति सहसंबुद्धः।। (भटी प ८) जो स्वयं अपनी ही आत्म-पवित्रता से संबुद्ध होता है, वह स्वयंसंबुद्ध/तीर्थकर आदि है। १६१५. सहसंबुद्ध (सहसम्बुद्ध) सहसा संबुद्धो सहसंबुद्धो। (उचू पृ १८०) जो सहसा/अकस्मात् संबुद्ध होता है, वह सहसंबुद्ध है। १६१६. सहस्सक्ख (सहस्राक्ष) पंचण्हं से मंतिसयाणं सहस्समक्खीणं । (दश्रुचू प ६४) पञ्चानां मंत्रिशतानां सहस्रमणां भवतीति तद्योगादसौ सहस्राक्षः । (उपाटी पृ १२४) जिसके पांच सौ मंत्री अर्थात् सहस्र आंखें होती हैं, वह सहस्राक्ष इन्द्र है। १६१७. सहा (सभा) सत्--सोभणाविहु जं भयंते सभा ।' जिसमें सज्जन लोग एकत्रित होते हैं, वह सभा है । पोत्थयवायणं वा जत्थ अण्णतो मणुयाण अच्छनट्ठाणं वा सभा। (अनुद्वाहाटी पृ ७६) जहां शास्त्रों का वाचन होता है, वह सभा है। जहां मनुष्य (सोद्देश्य) ठहरते हैं, वह सभा है । १. (क) संतो भजन्त्येतामिति सभा । (अनुद्वामटी प १४६) सह भान्यस्यामिति सभा। (अचि पृ ११०) (ख) 'सभा' शब्द का अन्य निरुक्त सन्यते भज्यते सभा। (अचि पृ ११०) Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ निरक्त कोश १६१८. सहिय (सहित) सम्यग् ज्ञानक्रियाभ्यां सहितः। जो हित/सम्यक् ज्ञान और क्रिया से युक्त है, वह सहित/ मुनि है। सह हितेन-आयतिपथ्येन अर्थादनुष्ठानेन वर्तत इति सहितः । (उशाटी प ४१६) ___ जो हित/भावी कल्याणकारी प्रवृत्ति से युक्त है, वह सहित/ मुनि है। १६१६. साइम (स्वाद्य) साएइ गुणे तओ साई। (आवनि १५८८) सादयति ---विनाशयति स्वकीयगुणान् माधुर्यादीन् स्वाद्यमानमिति स्वादिमम् । (प्रसाटी प ५१) स्वाद लेते लेते जिसके माधुर्य आदि गुण विनष्ट हो जाते हैं, वे स्वादिम हैं। स्वाद्यत इति स्वादिमम् । (आटी पृ २६४) जिसका आस्वाद लिया जाता है, वह स्वादिम है। १६२०. साउणिय (शाकुनिक) शकुनेन-श्येनलक्षणेन चरन्ति शकुनान् वा घ्नन्तीति शाकुनिकाः । (अनुद्वामटी प ११९) जो बाज पक्षी से शिकार करवाता है, वह शाकुनिक है । जो पक्षियों को मारता है, वह शाकुनिक है। १. तथा स्वादयति रसादीन् गुणान् गुडादिद्रव्यं कर्तृसंयमगुणान् वा यतस्ततः स्वादिम, हेतुत्वेन तदेवास्वादयतीत्यर्थः। ......न चैतन्निरुक्तं कल्पनामात्रं स्वकीयमिति ज्ञेयं । (प्रसाटी प ५०, ५१) Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ १६२१. सागरंगमा ( सागरङ्गमा ) सागरं - समुद्रं गच्छतीति सागरङ्गमा । १६२२. सागार (सागार) ( उशाटी प ३५२ ) जो सागर की ओर जाती है, वह सागरङ्गमा / नदी है । सहागारेण - गृहेण वर्तते इति सागारः । १६२३. सामण ( सामान्य ) जो अगार / गृह में रहता है, वह सागार / गृहस्थ है । १६२४. सामाइय (सामाजिक) उपसर्जनीकृतातुल्यरूपाः प्रधानीकृततुल्यरूपाः समतया प्रज्ञायमानाः सामान्यमिति व्यपदिश्यन्ते । ( स्थाटी प १२ ) जिसमें असमानता गौण रूप से और समानता प्रधान रूप से जानी जाती है, वह सामान्य है । १६२५. सामुच्छेइय ( सामुच्छेदिक ) निरुक्त कोश समाज:- -समूहस्तं समवयन्ति सामाजिका: । ( उशाटी प ३५१ ) जो समूह में चलते हैं, वे सामाजिक हैं । ( पंटी प १५३ ) प्रतिक्षणं समुच्छेदं --- क्षयं वदन्तीति सामुच्छेविका: । १६२६. सायणी (शायिनी ) जो प्रतिक्षण समुच्छेद / विनाश का प्रतिपादन करते हैं, वे सामुच्छेदिक / अश्वमित्र ( निह्नव) मतानुयायी हैं । ( औटी पृ २०२ ) शाययति -- स्वापयति निद्रावन्तं करोति या शेते वा यस्यां सा शायिनी शयनी वा ।' ( स्थाटी प ४६७) जो व्यक्ति को सुलाती है, वह शायिनी / मनुष्य की दसमी दशा है । १. ही भिन्न सरो दोणो, विवरीओ विश्चित्तओ । डुब्बलो दुखिओ सुवई, संपत्तो इसम दसं । ( स्थाटी प ४६७) Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "निरक्त कोश ३०७ १६२७. सायाणुग (सातानुग) सायं अणुगच्छंतीति सायाणुगा। (सूचू १ पृ ७०) जो साता/सुख का अनुगमन करते हैं, वे सांतानुग/सुविधा वादी हैं। १६२८. सारुविय (सारूपिक) समानं रूपं सरूपं तेन चरतीति सारूपिकः। (व्यभा ४/३ टी प २६) साधु के सदृश वेश धारण कर जो साधु जैसा आचरण करता है, वह सारूपिक मुनि और गृहस्थ के बीच की अवस्था वाला साधक है। १६२९. सावग (श्रावक) श्रान्ति पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्राः, तथा वपन्ति-गुणवत्सुप्तक्षेत्रेषु धनबीजानि निक्षिपन्तीति वाः, तथा किरन्ति-क्लिष्टकर्मरजो विक्षिपन्तीति काः, ततः कर्मधारये श्रावक इति भवति । (स्थाटी प २७२) श्रा/वह व्यक्ति जो श्रद्धा को पार तक ले जाता है, व/जो धनबीज का विभिन्न क्षेत्रों में वपन करता है, क जो क्लिष्ट कर्मों को नष्ट करता है अर्थात् जो श्रद्धालु, दानी और कर्मक्षय में निपुण है, वह श्रावक है। श्रावयतीति श्रावकः। (दश्रुचू प ३५) जो सुनाता है, वह श्रावक है । शृणोति साधुसमीपे जिनप्रणीतां सामाचारीमिति श्रावकः । (अनुद्वामटी प २७) जो साधुओं के पास आचारविधि को सुनता है, वह श्रावक १६३०. सावज्ज (सावद्य) अवज्ज–गरहितं, सह तेण सावज्जो। जो अवद्य/पापयुक्त है, वह सावध है । (दअचू पृ १७५) Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ १६३१. सावेक्ख ( सापेक्ष ) सह अपेक्षा गच्छस्येति गम्यते येषां ते सापेक्षाः । मुनि हैं । १६३२. सालि (शालि ) शालितीति शालिः । ' जिनके गच्छ / गण की अपेक्षा है, वे सापेक्ष / गच्छवासी १६३३. सासण ( शासन ) जो श्लाघ्य / प्रशस्य है, वह शालि / धान्य है | सासिज्जति - णाये पडिवायिज्जति जेण तं सासणं । शासन है । शास्तीति शासनम् । शासनात् शिक्षणाच्छासनम् । ( अचू प २६० ) जिसके द्वारा न्याय का प्रतिपादन किया जाता है, वह १६३४. सासय ( शाश्वत ) ( व्यभा १ टी प ५२) शश्वद्भवतीति शाश्वतः । जो अनुशासित करता है, वह शासन है । १६३५. सासु ( सासु) जो निरन्तर होता है, वह शाश्वत है । १. 'शालि' का अन्य निरुक्तशृणातीति शालिः । निरुक्त कोश असवः प्राणाः सह असवा यस्य येन वा तत् सासुः । ( उबू पृ २१० ) (उच्च् पृ २३२ ) ( अनुद्वामटी प ३४ ) ( सू २ पृ ३३९ ) अ/प्राणों सहित है, वह सासु / सचित्त है । ( व्यभा ६ टीप ६६ ) शालयो मधुराः शीता लघुपाका बलावहाः । पित्तनाश्चानिलकफाः स्निग्धा बद्धाल्पवचसः ॥ ( शब्द ५ पृ ६४ ) Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश ३०४ १६३६. साहम्मिय (सार्मिक) समाणा सरिसा वा धम्मिया साहम्मिया। (आचू १ पृ २८५) जिनका धर्म/आचार सदृश है, वे सार्मिक हैं । १६३७. साहसिअ (साहसिक) सहसा-असमीक्ष्य प्रवर्तत इति साहसिकः। (उशाटी प ५०७) जो सहसा/बिना विचार किये कार्य में प्रवृत्त होता है, वह साहसिक है। १६३८. साहारण (साधारण) समानम्--एकं धारणम्-अङ्गीकरणं शरीराहारादेर्येषां ते साधारणाः। (आटी प ५८) जिनका शरीर समान/एक है और जो आहार आदि का धारण/स्वीकरण एकरूप से करते हैं, वे साधारण (वनस्पति) कहलाते हैं। १६३६. साहु (साधु) व्वाणसाहणेण साधवः। (दअचू पृ ३३) शान्ति साधयन्तीति साधवः । (दजिचू पृ ६६) जो निर्वाण/शांति की साधना करते हैं, वे साधु हैं । साधयन्ति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोक्षमिति साधवः । जो रत्नत्रयी से मोक्ष की साधना करते हैं, वे साधु हैं । समतां वा सर्वभूतेषु ध्यायन्तीति साधवः । जो सब प्राणियों के प्रति समता का चिंतन करते हैं, वे साधु हैं। साहायकं वा संयमकारिणां धारयन्तीति साधवः। (भटी ५४) जो संयम में सहायक बनते हैं, वे साधु हैं। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० निरुक्त कोश १६४०. सिंगार (शृङ्गार) शृग-सर्वरसेभ्यः परमप्रकर्षकोटिलक्षणमिति गच्छतीति शृगारः। (अनुद्वामटी प १२४) जो सब रसों में शृगस्थ/प्रधान है, वह शृगार (रस) है । १६४१. सिक्ख (शैक्ष) शिक्षामधीत इति शैक्षः। (स्थाटी प १२४) जो शिक्षा ग्रहण करता है, वह शैक्ष है। १६४२. सिक्खा (शिक्षा) सिक्खाते शिक्ष्यन्ते वा तमिति शिक्षा । (उचू पृ १६५) जो सिखाती है, वह शिक्षा है। जिससे विद्या का ग्रहण होता है, वह शिक्षा है । १६४३. सिक्खासोल (शिक्षाशील) शिक्षायां शीलः स्वभावो यस्य शिक्षा वा शीलयति-अभ्यस्यतीति शिक्षाशीलः। (उशाटी प ३४५) जिसका शील/स्वभाव शिक्षा प्राप्त करना है, वह शिक्षाशील जो शिक्षा का अनुशीलन/अभ्यास करता है, वह शिक्षाशील १६४४. सिज्जाकर (शय्याकर) सेज्जाकरणे सेज्जाकरो। (बृभा ३५२२) सिज्जं करेति तम्हा सो सिज्जाकरो। (निचू २ पृ १३१) जो शय्या/वसति का निर्माण करता है, वह शय्याकर है। १. 'शृंगार' का अन्य निरुक्तश्रयति एनं जनः शृंगारः । (अचि पृ ६६) प्रत्येक व्यक्ति जिसका आश्रय लेता है, वह शृंगार (रस) २. शिक्षा शीलमस्य शैक्षः। (अचि पृ १४) ३. शिक्ष्यते वर्णविवेकोऽनया शिक्षा । (अचि पृ६१) Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १६४५. सिणेह (स्नेह) स्निह्यतेऽनेनेति स्नेहः । (उचू पृ १७१) __जिससे प्रीति की जाती है, वह स्नेह है। १६४६. सित (सित) सेतति-बध्नाति जीवमिति सितम्। (नंटि पृ १२३) जो जीव को बांधता है, वह सित/बन्धन है । १६४७. सिद्ध (सिद्ध) सितं-बद्धमष्टप्रकारं कर्मेन्धनं ध्मातं-दग्धं जाज्वल्यमानशुक्लध्यानानलेन यैस्ते सिद्धाः। शुक्लध्यान की आग के द्वारा जिन्होंने कर्मरूपी इन्धन को जला दिया है, वे सिद्ध हैं। सेधन्तिस्म'-अपुनरावृत्त्या निर्वृत्तिपुरीमगच्छन् । जो सदा सदा के लिए मुक्तिनगर में चले गए हैं, वे सिद्ध सिध्यन्तिस्म-निष्ठितार्था भवन्तिस्म । __ जिनके लिए सब अर्थ कार्य निष्ठित/संपन्न हो गए हैं, वे सिद्ध हैं। सेधन्ते स्म'-शासितारोऽभवन् माङ्गल्यरूपतां वाऽनुभवन्ति स्मेति सिद्धाः। जो आत्मानुशासक हैं एवं मंगल कल्याण का अनुभव करते हैं, वे सिद्ध हैं। सिद्धाः—नित्या अपर्यवसानस्थितिकत्वात् प्रख्याता वा भव्यरुपलब्धगुणसन्दोहत्वात् । (प्रज्ञाटी प २,३) ___ जो शाश्वत/अपर्यवसित हैं, वे सिद्ध हैं। जो भव्य जनों द्वारा (ज्ञान आदि) गुणों के कारण प्रख्यात/प्रशंसित हैं, वे सिद्ध हैं। १. विधु-गतौ। २. षिध–संराद्धौ। ३. पिधु-शास्त्रे माङ्गल्ये च । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ निरुक्त कोश १६४८. सिद्धत (सिद्धान्त) जेण उ सिद्धं अत्थं, अंतं णयतीति तेण सिद्धंतो।' (बृभा १७६) जो सिद्ध/यथार्थ अर्थ को अंत/पार तक ले जाता है, वह सिद्धांत है। १६४६. सिद्धि (सिद्धि) सिध्यन्ति-कृतार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः। (स्थाटी प २२) जिसमें प्राणी सिद्ध कृतार्थ हो जाता है, वह सिद्धि है। १६५०. सिर (शिरस्) शीर्यते' इति शिरः। (उचू पृ ५६) __ जो शीर्ण होता है, वह शिर/मस्तक है। शृता तस्मिन् प्राणा इति शिरः। (दश्रुचू प ७४) जिसमें प्राण अवस्थित--संगृहीत रहते हैं, वह शिर है। १६५१. सिरज (शिरज) सिरे जायंति शिरजा। (दश्रुचू प ४१) जो सिर में पैदा होते हैं, वे शिरज केश हैं । १६५२. सिलेस (श्लेष) श्लेषयति श्लेषः । (आटी प ५७) जो श्लिष्ट करता है, वह श्लेष/गोंद है । १६५३. सिसिर (शिशिर) सिणातीति' सिसिरं । (आचू पृ ३१०) ___ जो प्रकम्पित करता है, वह शिशिर (ऋतु) है। १. सिद्धं-प्रमाणप्रतिष्ठितमर्थमन्तं-संवेदननिष्ठारूपं नयतीति सिद्धांतः। (अनुद्वामटी प ३४) २. शृणाति वियुक्तमिति शिरः। (अचि पृ १२८) ___ जो धड़ से वियुक्त होने पर शीर्ण हो जाता है, वह शिर है । ३. सिण्ता (स्नुह) हिमम् । (कालू स्मृति ग्रंथ पृ १०४) ४. 'शिशिर' के अन्य निरुक्त Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'निरक्त कोश ३१३ १६५४. सिसु (शिशु) शंसति' व तेनेति शिशुः। (उचू पृ १३४) जो सोता है, वह शिशु है । १६५५. सीमंकर (सीमङ्कर) सोमां-मर्यादां करोतीति सीमङ्करः। (राटी पृ २४) जो अपने अधीनस्थ व्यक्तियों के लिए सीमा/मर्यादा करता है, वह सीमंकर है। १६५६. सीमंधर (सीमन्धर) सीमां-मर्यादां धारयति पालयति न तु विलुम्पतीति सीमन्धरः। (राटी पृ २४) जो प्राचीन और अर्वाचीन सीमाओं परंपराओं का धारण निर्वहन करता है, वह सीमंधर है । १६५७. सीय (शीत) शृणाति इति शोतम् । (उशाटी प ८८) जो क्षत-विक्षत करता है, वह शीत (ऋतु) है। शशति शीघ्र गच्छति दिनमत्र शिशिरः । (अचि पृ ३५) जिसमें दिन शीघ्रता से बीतता है, वह शिशिर (ऋतु) है। शशति गच्छति वृक्षादिशोभा यस्मात् शिशिरः । (शब्द ५ प १०७) वृक्ष आदि जिससे शोभाहीन हो जाते हैं, वह शिशिर है । १. शस्-to sleep (आप्टे पृ १५४०) २. 'शिशु' का अन्य निरुक्त-- श्यति क्रशयति मातरं शिशुः। (अचि पृ ७६) जो माता का दुग्धपान करता है, वह शिशु है । शिशुः शंसनायो भवति, शिशीते । (नि १०/३६) जो शसंनीय/प्रशंसा के योग्य है, वह शिशु है । मनुष्य द्वारा जो स्त्री को दिया जाता है, वह शिशु है । (शि-दाने) ३. 'शीत' के अन्य निरुक्तशेतेऽनेन श्यायते वा शीतः। (अचि पृ ३१०) जो सघन करता है, वह शीत है। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ निरुक्त कोश १६५८. सीस (शिष्य) __ शासितुं शक्यः शिष्यः। (उशाटी प ५६) जिसे शासित/प्रशिक्षित किया जाता है, वह शिष्य है । १६५६. सीह (सिंह) हिनस्तीति सिंहः । (प्रसाटी प ५१) जो हिंसा करता है/मारता है, वह सिंह है। १६६०. सुंभक (शुम्भक) सोभयतीति सुंभकः। (अनुद्वाचू पृ ४६) जो सुशोभित करता है, वह शुम्भक कुशुभक है। १६६१. सुकड (सुकृत) सु? कतं सुकडं । (दअचू पृ १७५) सुखं क्रियत इति सुकडं । (उचू पू ६५) जो सुख पूर्वक किया जाता है, वह सुकृत है। १६६२. सुक्क (शुक्ल) सुत्ति-सुद्धं शोकं वा क्लामयति सुक्कं । (दअचू पृ १६) शोधयत्यष्टप्रकारं कर्ममलं शुचं वा क्लमयतीति शुक्लम् । (स्थाटी प १८१) जो कर्ममल को शुद्ध करता है, वह शुक्ल (ध्यान) है। जो शोक को नष्ट करता है, वह शुक्ल (ध्यान) है । १६६३. सुक्क (शुक्र) शोभत इति शुक्रः । (उचू पृ १००) जो शोभित होता है, वह शुक्र/देव, देवविमान है। जो शोभित होते हैं वे शुक्ल/चंद्र, सूर्य आदि हैं। १. 'शुक्र' का अन्य निरुक्त शोचति वानवानिति शुक्रः। (अचि १ २७) जो दानवों को खिन्न करता है, वह शुक्र है। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १६६४. सुगर (सुकर ) सुहं किरति सुकरणम् । १६६५. सुग्गइगामि ( सुगतिगामिन् ) सुगति गमिष्यतीति सुगतिगामी । जो सरलता से किया जाता है, वह सुकर है । १६६६. सुजह (सुहान ) सुखेन - अनायासेन हीयन्त इति सुहानाः । जो बिना आयास के हीन / त्यक्त होते हैं, जो सुगति की ओर जाता है, वह सुगतिगामी है । हैं । १६६७. सुणइ ( सुनति ) है । १६६८. सुत्त (सूत्र) शोभना नतिर् - नामः अवसानो यस्मिन् तत् सुनतिः । सूयइति सुत्तं ।' ( आचू पृ ३०२ ) ( स्थाटी प २४१ ) (राटी पृ १३३) जिस नाटक की नति / अन्त सुखमय है, वह सुनति / सुखान्त ३१५. ( उशाटी प २६२ ) वे सुहान / सुत्याज्य जो अर्थ को सूचित करता है, वह सूत्र है । १. सूच्यत इति अर्थस्य सूचनात् सूत्रम् । २. अर्थपदान्यनेकानि सीव्यतीत्यर्थस्य सीवनात् सूत्रम् । सिव्वइति सुतं । " जो अनेक अर्थपदों को स्यूत / संयुक्त करता है, वह सूत्र है । सुवइत्ति सुत्तं । जो अर्थ का प्रादुर्भाव करता है, वह सूत्र है । अणुसरइति सुत्तं । * ३. अर्थं प्रसवतीति सूत्रम् । ४. सूत्रमनुसरन् रजः अष्टप्रकारं कर्म अपनयति ततः सरणात् सूत्रम् । ( बूटी पृ ६५ ) - ( बृभा ३११ ) Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ निरुक्त कोश जिसके अनुसरण से कर्मों का सरण/अपनयन होता है, वह सूत्र है। सिंचति खरइ' जमत्थं तम्हा सुत्तं निरुत्तविहिणा। (विभा १३६८) जो अर्थ का सिंचन क्षरण करता है, वह सूत्र है। सूत्र्यन्ते अनेनेति सूत्रम् । (स्थाटी प ४६) जिससे अर्थ सूत्रित/गुम्फित किया जाता है, वह सूत्र है। १६६६. सुत्त (सुप्त) पासुत्तसमं सुत्तं अत्थेणाबोहियं न तं जाणे । (बृभा ३१२) जो व्याख्या के बिना सुप्त की तरह सुप्त होता है, वह सुप्त/सूत्र है। १६७०. सुत्त (सूक्त) सुवुत्तमिइ वा भवे सुत्तं । (बृभा ३१०) सुष्ठूक्तत्वाद्वा सूक्तम् । जो सुभाषित है, वह सूक्त/सूत्र है । सुस्थितत्वेन व्यापित्वेन च सूक्तम् । (स्थाटी प ४६) जो व्यवस्थित और व्यापक अर्थ बोध देता है, वह सूक्त/ सूत्र है। १६७१. सुत्तफासिय (सूत्रस्पशिक) सुत्तं फुसतीति सुत्तफासिय। (निचू २ पृ २) ___जो सूत्र का स्पर्श अनुगमन करती है, वह सूत्रस्पशिक (व्याख्या) है। १६७२. सुदुल्लह (सुदुर्लभ) सुष्ठु दुर्लभः सुदुर्लभः। (उचू पृ १७६) __ जिसे पाना अत्यंत कठिन है, वह सुदुर्लभ है। १. पिंच-क्षरगे। (बृटी पृ६५) २. अर्थेन अबोधितं सुप्तमिव सुप्तं प्राकृतशैल्या सुत्तं । (बृटी पृ. ६४) Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ३१७ १६७३. सुद्द (शूद्र) शोचनाद् रोदनाच्च शूद्राः ।' (आटी प ७) जो शोक करते हैं, रोते हैं, वे शूद्र हैं । १६७४. सुपट्ठिय (सुप्रस्थित) सुष्टु प्रस्थितः सुप्रस्थितः। (उशाटी प ४७७) जिसने अच्छे ढंग से प्रस्थान किया है, वह सुप्रस्थित है। १६७५. सुपडिबुद्ध (सुप्रतिबुद्ध) सुट्ठ पडिबुद्धं सुपडिबुद्धं । (आचू पृ १७०) जो सम्यक् प्रकार से प्रतिबुद्ध है, वह सुप्रतिबुद्ध है। १६७६. सुप्पडियार (सुप्रतिकार) सुखेन प्रतिक्रियते-प्रत्युपक्रियत इति सुप्रतिकारम् । (स्थाटी प ११३) जिसका प्रतिकार सुखपूर्वक किया जाता है, वह सुप्रतिकार १६७७. सुप्पणिहाणा (सुप्रणिधान) सुष्ट-प्रकण नियते आलम्बने धानं-धरणं मनः प्रभृतेरिति सुप्रणिधानम् । (नंटि पृ १०१) निश्चित आलम्बन पर मन आदि को प्रकृष्ट रूप में स्थापित करना सुप्रणिधान है। १६७८. सुप्पणिहिय (सुप्रणिहित) सुष्टु प्रणिहितानि ----असन्मार्गात् प्रच्याव्य सन्मार्गे व्यवस्थापितानीन्द्रियाण्यनेनेति सुप्रणिहितः। (उशाटी प ५८१) जिसने इन्द्रियों को अच्छी तरह प्रणिहित/व्यवस्थापित किया है, वह सुप्रणिहित स्थिरयोगी है । १. शीयते इति शूद्रः। (अचि पृ १९७) जिसे उत्पीड़ित किया जाता है, वह शूद्र है। (शदल--शातने) Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३१८ १६७९. सुप्पभा (सुप्रभा) सुष्ठु - प्रकर्षेण च भाति - शोभते या सा सुप्रभेति । १६८०. सुफणि (दे ) (ओटी पृ २१९ ) जो सुन्दर रूप में सुशोभित होती है, वह सुप्रभा / मुक्ति है । सुखं फणिज्जति जत्थ सा भवति सुफणी । है । १६८१. सुभ (शुभ) ( सूचू १ पृ ११७ ) जिसमें सुखपूर्वक पकाया / रांधा जाता है, वह सुफणी ( पात्र ) शोभते सर्वावस्थास्वनेनात्मेति शुभम् । शुभ है । ( उशाटी प ६४४) जिसमें आत्मा सब अवस्थाओं में सुशोभित होती है, वह -१६८२. सुभासिय ( सुभाषित) सोभणाणि भासिताणि सुभासिताणि । -१६८३. सुमुणित ( सुज्ञात) सुट्ठ मुणितं सुमुणितं । निरक्त कोश जो सुन्दर भाषण / कथन हैं, वे सुभाषित हैं ! * १६८४. सुय ( श्रुत) (दअचू पृ २११ ) जो अच्छे प्रकार से ज्ञात होता है, वह सुज्ञात है । ( नं पृ ११ ) सुतीति सुयं । ( वृभा १४७ ) तत्शृणोति तेण वा सुणेति, तम्हा वा सुणेति, तम्हि वा सुतोति सुतं । जो / जिससे / जिसमें या जिसको सुना जाता है, वह श्रुत है । आत्मैव वा श्रुतोपयोगपरिमादनन्यत्वात्शृणोतीति श्रुतम् । (नंचू पृ १३ ) श्रुतोपयोग में परिणत आत्मा अनन्य होकर जो सुनती है, वह श्रुत है । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्त कोश - १६८५. सुयग्गाहि ( श्रुतग्राहिन् ) सुतं गाहयतीति सुयग्गाही । १६८६. सुयनिधस ( श्रुतनिघर्ष ) ( दजिचू पृ ३१४ ) जो श्रुत / आगम ज्ञान को ग्रहण करता है, वह श्रुतग्राही है । श्रतं निघर्षयन्तीति श्रुतनिघर्षाः ।' -१६८७. सुर (सुर) जो श्रुत का निघर्षण करते हैं, वे श्रुतनिघर्षक हैं । सुष्ठु राजन्ते ये ते सुराः । वे जो सम्यक् प्रकार से सुशोभित होते हैं, सुरन्ति - विशिष्टमेश्वर्यमनुभवन्तीति सुराः । ' देव हैं । जो विशिष्ट ऐश्वर्य का अनुभव करते हैं, वे सुर / देव हैं । सुष्ठु रान्ति - ददति प्रणतानामीप्सितमर्थं इति सुराः । ( नक १ टी पृ ३८, ३६ ) १६८८ सुरइ (सुरति ) ( व्यभा ४ / २ टी प २८ ) जो पूजा से प्रसन्न हो इच्छित वस्तु प्रदान करते हैं, वे सुर / ध्वनि है । १६८६. सुरक्खित ( सुरक्षित ) शोभना रतिर्यस्मिन्नु श्रोतॄणां तत् सुरतिः । (राटी पृ १३३ ) रति / प्रेम है, वह सुरति / मधुर जिसमें श्रोताओं की अच्छी ३१६ ( उपाटी पृ १२४ ) सुर / देव हैं । सुट्टु सव्वपयत्तणेण पावविणियत्तीए रक्खितो सुरक्खितो । स्वसमयपरसमयान् परीक्ष्यन्ते ते श्रुतनिघर्षाः । ( अचू पृ २७० ) जो सव प्रकार के पापों से रक्षित है, वह सुरक्षित है । २. सुरत् ऐश्वर्य दीप्त्योः सुरन्तीति सुराः । (अचि पृ १७ ) ( व्यभा ४ / २ टी प २८ ) Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० निरुक्त कोश १६६०. सुरम्म (सुरम्य) सुष्ठु मनांसि रमयतीति सुरम्यः । (राटी पृ २३) __जो मन को भलीभांति रमण कराता है, वह सुरम्य है। १६६१. सुरहि (सुरभि) सौमुख्यकृत् सुरभिः। (अनुद्वाहाटी पृ ६०) जो मुख को सु/प्रसन्न करती है, वह सुरभि है । सुष्ठु रभते सुरभिः। (प्राक १ टी पृ ४८) जिसका सम्यक् आसेवन किया जाता है, वह सुरभि है । जिसकी अधिक कामना की जाती है, वह सुरभि है । १६६२. सुवण्ण (सुवर्ण) शोभनवर्णं सुवर्णम् । (उचू पृ १८५) जिसका वर्ण श्रेष्ठ है, वह सुवर्ण/स्वर्ण है। १६६३. सुविण (स्वप्न) सुप्यते स्वप्नमात्रं वा स्वप्नम् । (उचू पृ १७५) जो सोये सोये लिया जाता है, वह स्वप्न है । जिसमें स्वप्नमात्र का वर्णन है, वह स्वप्न (शास्त्र) है। १६६४. सुविसुद्ध (सुविशुद्ध) . मण-दयण-कायजोगेहि सुठ्ठ विसुद्धो सुविसुद्धो। (दअचू पृ २२८) जो मन, वचन और काया से विशुद्ध है, वह सुविशुद्ध है । १६६५. सुसंभिय (सुसंभृत) सुष्ठु---अतिशयेन संभृताः-संस्कृताः सुसंभृताः । (उशाटी प ४०५) जो अत्यधिक रूप में संभृत/संस्कृत हैं, वे सुसंभृत हैं। १६६६. सुसमा (सुषमा) सुष्ठु समा सुषमा। (स्थाटी प २५) १. रभ्---Embrace, to long for (आप्टे पृ १३२६) Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ३२१ जा सुन्दर समा/समय है, वह सुषमा/कालचक्र का एक भाग १६६७. सुसाण (श्मशान) सवसयणं सुसाणं ।' (आचू पृ ३१२) शवानां शयनं श्मशानम् । (आटी प २७०) जहां शव सुलाए जाते हैं, वह श्मशान है । १६६८. सुसीला (सुशीला) __ सुष्ठु शीलं-स्वभावो यस्याः सा सुशोला। (उशाटी प ४६०) जिसका शील/स्वभाव सुन्दर है, वह सुशीला है। १६६६. सुस्सर (सुस्वर) सुखेन-अनायासेन स्वर्यते- उच्चार्यत इति सुस्वरः । (बृटी पृ ७३१) जिसके उच्चारण में आयास नहीं करना पड़ता, वह सुस्वर १७००. सुहमोय (सुखमोच) सुखेन मोच्यन्त इति सुखमोचाः । (बृटी पृ ७०८) जिनका सुखपूर्वक मोचन त्याग किया जाता है, वे सुखमाच/ सुत्याज्य हैं। १७०१. सुहसाय (सुखशात) सुखं-वैषयिकं शातयति-तद्गमनस्पृहानिवारणेनापनयतीति सुखशातः। (उशाटी प ५८६) जो वैषयिक सुखों का शातन अपनयन विनाश करता है, वह सुखशात निस्पृह है। १. श्मशब्देन शवः प्रोक्तः शानं शयनमुच्यते । निर्वचन्ति श्मशानार्थं मुने ! शब्दार्थकोविदाः॥ (शब्द ५ पृ १४५) श्मान:-शवाः शेरतेऽत्र इति श्मशानम् । (आप्टे पृ १५७१) Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ १७०२. सुहसायय ( सुखस्वादक ) सुहं सायति - पत्थयतित्ति सुहसाययो । १७०३. सुहसील ( सुखशील ) सुहं सोलेति- अणुट्ठेति सुहसीले । जो सुविधावादी है, वह सुखशील है । जो सुख की प्रार्थना करता है, वह सुखस्वादक है । १७०४. सुहावह ( सुखावह ) सूयणीया सुहुमा । सुहमावहतीति सुहावहं । ( दजिचू पृ ३२९ ) जो सुख का आवहन करता है, वह सुखावह / सुखकर है । १७०५. सुहुम (सूक्ष्म) १७०६. सुहय ( सुहूत) निरुक्त कोश ( दजिचू पृ १६३ ) ( आचू पृ २६५ ) जिनका प्रयत्नपूर्वक सूचन किया जाता है, वे सूक्ष्म हैं । सुष्ठु हुतं क्षिप्तं घृतादीनि गम्यते यस्मिन् स सुहूतः । १७०७. सूर ( शूर) ( दअचू पृ ६ ) ( स्थाटी प ४४४ ) जिसमें अच्छी तरह से घृत आदि डाले गये हों, वह सुहूत (अग्नि) है । १. सूच्यते सूक्ष्मम् । (अचि पृ ३१९ ) २. (क) शवति वीयं प्राप्नोतीति शूरः । (ख) 'शूर' का अन्य निरुक्त शूरयति विक्रामति इति शूरः । ( शब्द ५ पृ १२६ ) जो वीरता दिखाता है, वह शूर है । शपति शप्यते वा शूरः । ( सूचू १ टी पृ ७६ ) जो आह्वान करते हुए आगे बढ़ता है, वह शूर / योद्धा है । शवत्यसौ युद्धं मुंचति वा तमिति शूरः パ ( उच्च् पृ ५६ ) जो युद्ध में शक्ति को प्राप्त होता है, वह शूर है । जो युद्ध में शक्ति का प्रयोग करता है, वह शूर है । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ३२३ १७०८. सेउकर (सेतुकर) सेतुः मार्गस्तं करोतीति सेतुकरः । (राटी पृ २५) जो सेतु! मार्ग का निर्माण करता है, वह सेतुकर मार्गदर्शक १७०६. सेज्जंस (श्रेयांस) श्रेयः श्रेयसि तस्मिन्निति श्रेयांसः । (आचू पृ ३७५) जिसमें श्रेय कल्याण निहित है, वह श्रेयांस है । १७१०. सेज्जा (शय्या) शेरते आस्विति शय्याः। (प्रसाटी प २३७) जिनमें शयन किया जाता है, वे शय्या हैं । १७११. सेज्जातर (शय्यातर) गोवाइऊण वसहि तत्थ वि ते यावि रक्खि तरइ ।' तद्दाणेण भवोघं च तरति सेज्जातरो तम्हा।। (बभा ३५२३) ___ जो शय्या वसति का तरण संरक्षण करने में समर्थ है, वह शय्यातर है। जो शय्या/उपाश्रय में स्थित साधुओं का रक्षण करता है, वह शय्यातर है। ___ जो शय्या वसति के दान से संसार को तरता है, वह शय्यातर है। १७१२. सेज्जादाउ (शय्यादातृ) सेज्ज ददाति सेज्जादाता । (निचू २ प १३१) जो शय्या 'सति देता है, वह शय्यादाता है । १७१३. सेज्जाधर (शय्याधर) अम्हा धारण विज्पडमणि छज्जलेपनाईहि। जं वा तीए धरेति नगा आयं धरो सम्हा। (बृभा ३५२४) १. 'तत्र' तस्यां --शय्यायां स्थितान् साधन स्तेनादिप्रसपायेभ्यो रक्षितुं तरति शय्यातरः । (बृटी पृ९८१) Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ निरुक्त कोश जो शय्या/मकान का धारण रक्षण करता है, वह शय्याधर प्यादान के द्वारा आत्मा का धार वह शय्याधर है। १७१४. सेणा (सेना) सिनोति असिना सेना । ___ जो तलवार के द्वारा शत्रुओं को वश में करती है, वह सेना है। सीयते वाऽसौ दानमानसक्कारादिभिः सेना। (उचू पृ २०६) जिसका बन्धन सूत्र है दान, मान और सत्कार, वह है सेना। १७१५. सेय (श्रेयस्) सेयं इति पसंसे अत्थे, सेयंति तमिति सेओ।' (आचू पृ १२४) जिसकी प्रशंसा की जाती है, वह श्रेय/मोक्ष है । १७१६. सेय (दे) सीदंति तस्मिन्निति स्वेदः। (सूचू २ पृ ३११) जहां प्राणी अवसाद/पीड़ा को प्राप्त होते हैं, वह सेय/ कीचड़ है। सीयन्ते--अवबध्यन्ते यस्मिन्नसौ सेयः । (सूटी २ प ७) जिसमें (प्राणी) लिप्त होते हैं, वह सेय/कीचड़ है। १७१७. सेह (सेध) सेध्यते---निष्पाद्यते यः स सेधः । (स्थाटी प १२४) जिसे ज्ञान, दर्शन और चारित्र में निष्पन्न किया जाता है, वह सेध/शैक्ष है। १. सिनोति शत्रुमिति सेना। (शब्द ५ पृ ४०६) षि-बन्धने । २. 'सेना' का अन्य निरुक्तइनेन प्रभुणा सह वर्तते या सा सेना । (शब्द ५ पृ ४०६) जो इन/स्वामी से युक्त है, वह है सेना । ३. अतिशयेन प्रशस्यं श्रेयः । (अचि पृ १३) Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश १७१८. सेहंब (सेधाम्ल ) सेधे- सिद्धौ सति यानि अम्लेन --तीमनादिना संस्क्रियते तानि सेधाम्लानि । ( उपाटी पृ २२ ) जो पकने के बाद अम्ल-द्रव्य - तीमन आदि से संस्कृत किए जाते हैं, वे सेधाम्ल हैं । १७१६. सोइंदिय ( श्रोत्रेन्द्रिय) श्रूयते अनेनेति श्रोत्रेन्द्रियं । १७२०. सोत ( श्रोतस् ) जिसके द्वारा सुना जाता है, वह श्रोत्रेन्द्रिय / कान है | श्रवतीति श्रोतः । जो करता है, वह स्रोत / निर्भर है । १७२१. सोत्तिया ( स्रोतसिका) सवतीति सोत्तिया । १७२२. सोदरिय ( सोदर्य ) जो अनुकूल बहती है, वह स्रोतसिका है । सोदरे शयिताः सोदर्याः । १७२३. सोय ( शौच ) शुद्ध्यतेऽनेनेति सोयम् । ( उशाटी प ४०६ ) जो एक ही उदर में शयन करते हैं / उत्पन्न होते हैं, वे सोदर्य (भाई) हैं । १७२४. सोय (श्रोत्र) ३२५ ( आवचू १ पृ ५२६ ) है । १. समानोदरे शयितः सोदरः । ( शब्द ५ पृ ४१५ ) जिससे शुद्धि होती है, वह शौच (धर्म) है । ( सूच १ पृ २०२ ) ( आचू पृ २५ ) शृणोति भाषापरिणतान् पुद्गलानिति श्रोत्रम् | ( आटी प १०३) जो भाषा में परिणत शब्दों को सुनता है, वह श्रोत्र / कान (उच्च् पृ २१५) Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ निरक्त कोश १७२५. सोयकारि (श्रोतस्कारिन्) श्रोतसि करोतीति श्रोतःकारी। ___ जो कानों से सुनता है, वह श्रोतस्कारी है। श्रोत्रेण गृहीत्वा हृदि करोतीति श्रोतःकारी। जो कानों से सुनकर हृदय में धारण करता है, वह श्रोतस्कारी है। श्रुत्वा वा करोतीति श्रोतःकारी। (सूचू १ पृ २३२) जो सुनकर करता है, वह श्रोतस्कारी है । १७२६. सोयरिय (शौकरिक) शूकरेण सन्निहितेन शूकरवधार्थं चरन्ति शौकरिकाः। जो अपने पास वाले शूकर से अन्य सूअर का वध करता है, वह शौकरिक है। शूकरान् वा घ्नन्तीति शौकरिकाः। (अनुद्वामटी प ११९) जो सूअरों का वध करता है, वह शौकरिक है । १७२७. सोल्ल (शूल्य) शूले पच्यन्ते इति शूल्यानि । (उपाटी पृ १४७) जो मांस खंड शूल में पिरोकर पकाए जाते है, वे शूल्य/ मांस खंड हैं। १७२८. सोवाग (श्वपाक) साणं पचंतीति सोवागा। (आचू पृ ३२३) जो कुत्तों को पकाते हैं, वे श्वपाक चांडाल हैं। १७२६. सोहि (शोधि) सोधयति कम्मं तेण सोही। (दश्रुचू प २६) जो कर्मों का शोधन करती है, वह शोधि है। १७३०. सोहि (शोधिन्) शोधयत्यात्मपराविति शोधी। (ज्ञाटी प ७७) Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ३२७ जो स्व और पर की शुद्धि करता है, वह शोधी/शोधि करने वाला है। १७३१. हंस (हंस) हसन्तीति हंसाः । (उचू पृ २१४) जो सदा प्रसन्न रहते हैं, वे हंस हैं। १७३२. हक्कार (हाकार) ह इत्यधिक्षेपार्थस्तस्य करणं हक्कारः। (स्थाटी प ३८२) (तिरस्कार पूर्वक) हाय ! शब्द उच्चारण करना हाकार (नीति) है। १७३३. हट्ठकारग (हठकारक) हठेन कुर्वन्ति ये ते हठकारकाः । (प्रटी प ४६) जो हठपूर्वक चोरी करते हैं, वे हठकारक/चोर हैं । १७३४. हण (हन) हणतीति हणो। (आचू पृ २३०) जो हनन करती है, वह हन/हिंसा है। १७३५. हणुय (हनुक) हंतीति हणुया। (आचू पू २७६) जो चबाता है, वह हनुक/ऊपर का जबड़ा है। १७३६. हत्थ (हस्त) । हन्यतेऽनेनेति हस्तः। १. 'हंस' का अन्य निरुक्तहन्ति सुन्दरं गच्छतीति हंसः । (शब्द ५ पृ ४६६) जो सुन्दर गति से चलता है, वह हंस है। २. हन्ति कठोरद्रव्यादिकमिति हनुः । (शब्द ५ पृ ५०३) ३. 'हस्त' का अन्य निरुक्तहसति विकशतीति हस्तः । (अचि पृ १३३) जो बढ़ता है, वह हाथ है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ निरुक्तकोश जिससे हनन/मारा जाता है, वह हस्त/हाथ है । हसति वा मुखमावृत्येति हस्तः । (निचू २ पृ २) जिससे मुख ढांक कर हंसा जाता है, वह हस्त है । १७३७. हत्थितावस (हस्तितापस) हस्तिनं व्यापाद्यात्मनो वृत्ति कल्पयन्तीति हस्तितापसाः । (सूटी २ प १५६) जो हाथी मारकर आजीविका चलाते हैं, वे हस्तितापस हैं। १७३८. हय (हय) हिनोति' हीयते हयः । (सूचू २ पृ ३५४) ___ जो तेज और विशेष गति से चलता है, वह हय घोड़ा है । १७३६. हयजोहि (हययोधिन्) हयेन- अश्वेन युध्यत इति हययोधी। (औटी पृ १९४) जो हय अश्व के द्वारा युद्ध करते हैं, वे हययोधी हैं । १७४०. हर (हर) हरतोति हरः । (उचू पृ २२४) जो हरण करती है, वह हर/मृत्यु है। १७४१. हरिएस (हरिएस, हरिकेश) हरति ह्रियते वा हरिः। हरि एसतीति हरिएसो।' (उचू पृ २०३) जो हरण करता है, जिसके द्वारा हरण किया जाता है, वह हरि यमदूत कहलाता है । हरि की एषणा करने वाला हरिएस है। १७४२. हव्ववाह (हव्यवाह) हव्वं वहतीति हव्ववाहो। (आचू पृ १४६) __जो हवन को वहन करता है, वह हव्यवाह/अग्नि है। १. हि--वर्द्धने गतौ च । २. हयति गच्छतीति हयः । (शब्द ५ पृ ५०५) ३. हरि---कपिल वर्ण की जटावाला हरिकेश है । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " निरुक्त कोश १७४३. हसिर (हसितृ ) हसनशीलो हसिरो । जिसे हंसने की आदत है, वह हसिता है । - १७४४. हायणी (हायनी) हायत्यस्यां बाहुबलं चक्षुर्वा हायणी । है | छट्टी उ हायणी नाम जं नरो दसमस्सिओ । विरज्जइ य कामेसु इंदिएसु य हायई । ' (दश्रुचू प ३ ) जिसमें बाहुबल और चक्षुबल क्षीण होते हैं, वह हायनी दशा - १७४५. हास (हास ) ( दटी प ८ ) जो पुरुष की इन्द्रियों को अर्थग्रहण में हीन बनाती है, वह हायनी (छठी दशा ) है | हस्यतेऽनेनेति हासः । : १७४६. हिंस ( हिंस्र ) हिंसयतीति त्रिः । ( दटी प ७८ ) जिसके द्वारा हंसा जाता है, वह हास / हास्य मोहनीय कर्म है । जो हिंसा करता है, वह हिंस्र है । १७४७. हिंसपेहि (हिंसाप्रेक्षिन् ) हिंसां - वधं साध्वादेः प्रेक्षते - गवेषयतीति हिंसाप्रेक्षी । १७४८. हिंसय (हिंसक ) ( उचू पृ १९७ ) हिनस्तीति हिंसकः । ३२६ जो मारने की टोह देखता है, वह हिंसाप्रेक्षी है । जो हिंसा करता है, वह हिंसक है । ( उच्५ १६० ) ( स्थाटी प २६० ) १. हापयति पुरुषमिन्द्रियेष्विति -- इन्द्रियाणि मनाक् स्वार्थग्रहणापटूनि करोतीति हापयति प्राकृतत्वेन च हायणित्ति । ( स्थाटी प ४७ ) ( आटी प १६५ ) Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० निरुक्त कोश १७४६. हिंसा (हिंसा) हिंस्यत इति हिंसा। (प्रटी प ६) जो हनन करती है, वह हिंसा है । १७५०. हियभासि (हितभाषिन्) हितं परिणामसुंदरं तद्भासते, इत्येवंशीलो हितभाषी । (व्यभा १ टी प २६) जो हितकारी भाषण करता है, वह हितभाषी है । १७५१. हिययग्गाहि (हृदयग्राहिन्) हृदयं गृह्णाति हृदये सम्यग्निवेशिते इत्येवंशीलो हृदयग्राही । (व्य भा १ टी प ३०) ___जो हृदय/हार्द को पकड़ लेता है, वह हृदयग्राही है । १७५२. हियाणुपेही (हितानुप्रेक्षिन्) हितं-पथ्यम् अनुप्रेक्षते-पर्यालोचयतीत्येवंशीलो हितानुप्रेक्षी। (उशाटी प ३८६) जो हित का अनुप्रेक्षण/पर्यालोचन करता है, वह हितानुप्रेक्षी १७५३. होयमाण (हीयमान) हीयमाणं पुव्वावत्थातो अधोऽधो हस्समाणं । (नंचू पृ १६) हीयते-तथाविधसामग्र्यभावतो हानिमुपगच्छतीति हीयमानम् । (नक १ टी पृ २०) जो हीन/क्षीण होता चला जाता है, वह हीयमान (अवधिज्ञान) है। ___ जो हानि/विनाश को प्राप्त होता है, वह हीयमान है। १७५४. हेउ (हेतु) हिनोतीति हेतुः । (उचू पृ १५५) हिनोति-गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति हेतुः । (दटी प ३३) जो अर्थ की ओर प्रेरित करता है, वह हेतु है । १. हिनोति व्याप्नोति कार्यमिति हेतुः । (शब्द ५ पृ ५४७) Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १. कृदन्तव्युत्पन्न निरुक्त २. तीर्थंकर-अभिधान निरुक्त Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ (कृदन्तव्युत्पन्न निरुक्त) १. अइयार (अतिचार) . अतिचरणमतिचारः। (आवचू २ पृ ६६) ___मर्यादा का अतिक्रमण करना अतिचार है। २. अइसय (अतिशय) अतिशयनमतिशयः। __(ओटी प १४) जो विशेषता आपादित करता है, वह अतिशय है । ३. अक्कोस (आक्रोश) आक्रोशनमाकोशः। (प्रसाटी प १९३) क्रुद्ध होना आक्रोश है। ४. अणुकंपा (अनुकम्पा) अणुकंपणमणुकंपा। (निचू १ पृ ७६) करुणा से कंपित होना अनुकंपा है । ५. अणुगम (अनुगम) अनुगमनं अनुगमः। (अनुद्वामटी प ४०) सूत्र का अनुगमन अनुसरण करना अनुगम/व्याख्या है । ६. अणुजोग (अनुयोग) अनुयोजनमनुयोगः । (स्थाटी प ३) जो (सूत्र को अर्थ से) अनुयोजित करता है, वह अनुयोग/ व्याख्या है। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ७. अणुण्णा (अनुज्ञा) अनुज्ञानं अनुज्ञा । (नंटी पृ १७०) आज्ञा देना अनुज्ञा है। ८. अणुप्पेहा (अनुप्रेक्षा) ___ अनुप्रेक्षणमनुप्रेक्षा। (स्थाटी प ३३५) अनुप्रंक्षण/चिंतन करना अनुप्रेक्षा है। ६. अणुभाव (अनुभाव) अनुभवनमनुभावः । (सूचू १ पृ १२६) जिसका अनुभव किया जाता है, वह अनुभाव है । १०. अणुवाद (अनुवाद) अणुवदणं अणुवादो। (आचू पृ २२६) कथन का अनुवदन करना अनुवाद है। ११. अणुसिट्टि (अनुशिष्टि) अनुशासनमनुशास्तिः। (स्थाटी प २४६) अनुशासन करना अनुशास्ति/अनुशिष्टि है । १२. अतिवाय (अतिपात) अतिवातणं अतिपातो। (आचू पृ ७५) प्राणों का वियोजन करना अतिपात/हिंसा है। १३. अत्था (आस्था) आस्थानमास्था । (सूटी २ प ७) पूर्ण रूप से स्थिर रहना बास्था है । १४. अभयंकर (अभयङ्कर) अभयं करोतीति अभयङ्करः। (सूचू १ पृ १४६) जो अभय करता है, वह अभयङ्कर है। १५. अभाव (अभाव) अभवनं अभावः। (नंचू पृ ८०) न होना अभाव है। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “निरुक्त कोश १६. अभूइभाव (अभूतिभाव) अभूतिभवणं अभूतिभावो। (दअचू पृ २०६) भूति/ऋद्धि का नहीं होना अभूतिभाव/विनाश है । १७. अलंकार (अलङ्कार) अलंकरणं अलंकारः। (दजिचू पृ ८०) जो अलंकृत करता है, वह अलंकार है। १८. अवग्गह (अवग्रह) अत्थाणं उग्गहणं अवग्गहो। (विभा १७६) प्रथम दर्शन के पश्चात् अर्थ/पदार्थ का अवग्रहण अवग्रह/ मतिज्ञान का एक भेद है। १६. अवद्धंस (अपध्वंस) अपध्वंसनमपध्वंसः। (स्थाटी प २६५) विनाश करना अपध्वंस है। २०. अहिलाव (अभिलाप) अभिलपनं अभिलापः। (बृटी पृ ५) जिससे वस्तु का अभिलपन/कथन किया जाता है, वह अभिलाप है । २१. आउज्ज (आवर्ज) आवर्जनं आवर्जः। (प्रज्ञाटी प ६०४) अभिमुख होना/उपयोजन करना आवर्ज है। २२. आएस (आदेश) आदेशनमादेशः । (स्थाटी प २१६) अधिकृतरूप में कथन करना आदेश/आज्ञा है। २३. आगइ (आगति) आगमनमागतिः। (स्थाटी प १६) कहीं से आना आगति है। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ निरक्त कोश २४. आगम (आगम) आगमनमागमः। (नंटी पृ ६६) जानना आगम है। २५. आगाल (आगाल) आगालनमागालः। (आटी प ५) आगालन/सम प्रदेशों में शुद्ध आत्मा में अवस्थान करना आगाल ज्ञान आदि आचार है। २६. आजाइ (आजाति) आजननमाजातिः। (स्थाटी प ४८६) प्रादुर्भाव होना आजाति/उत्पत्ति है। २७. आणंद (आनन्द) आणंदणमाणंदो। (दअचू पृ २७१) जो आनन्दित करता है, वह आनन्द है। २८. आपुच्छा (आपृच्छा) आपृच्छनमापृच्छा। (प्रसाटी प २२२) जिज्ञासा करना आपृच्छा है। २६. आयंक (आतङ्क) आतङ्कनं आतङ्कः। (आटी प ७५) जो कष्टप्रद है, वह आतंक है । ३०. आयव (आतप) आतपनमातपः। (प्राक १ टी पृ ३३) जो तप्त करता है, वह आतप है। ३१. आयार (आचार) आयरणं आयारो। (नंचू पृ ६१) जिसका आचरण किया जाता है, वह आचार है। ३२. आरंभ (आरम्भ) आरंभणं आरंभो। (आचू पृ २२६) जो पचन-पाचन की प्रवृत्ति है, वह आरंभ/हिंसा है । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ३३७ ३३. आलोयणा (आलोचना) ___ आलोचनं आलोचना। (पंटी प ४०७) गुण-दोष का विचार करना आलोचना है। ३४. आस (आश) अशनं आशः। (सूटी २ प ३९) अशन/भक्षण करना आश/भोजन है। ३५. आसंसा (आशंसा) आशंसनमाशंसा। (स्थाटी प ४६२) __आकांक्षा करना आशंसा है। ३६. आसव (आश्रव) आश्रवणं आश्रवः। (स्थाटी प ३०५) जो आश्रवित होता है, झरता है, वह आश्रव है । ३७. आसास (आश्वास) आश्वसनं आश्वासः । (आटी प २४६) जो आश्वस्त करता है, वह आश्वास है। ३८. आहाकम्म (आधाकर्मन्) आधानमाधा। (पिटी प ३५) ___ साधु को देने का विचार कर भोजन आदि बनाने के लिए जो पचन आदि क्रिया की जाती है, वह आधाकर्म है । ३९. इज्जा (इज्या) यजनमिज्या । (अनुद्वामटी प २६) देवताओं को यजन/बलि देना इज्या/यज्ञ है। ४०. इरिया (ईर्या) ईरणं गमनमौर्या । (आटी प ४२७) सावधानी से चलना ईर्या (समिति) है। १. आधया कर्म-पाकादि क्रिया, यद्वा आधाय-साधं चेतसि प्रणिधाय यत्क्रियते भक्तादि तदाधाकर्म । (पिटी प ३५) Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.३८ ४१. ईहा ( ईहा ) ४२. उक्कोय (उत्कोच) उत्कोचनं उत्कोचः । ( आवहाटी १ पृ७) हा | जानने में प्रवृत्त होना ईहा ( मतिज्ञान का एक भेद ) है | घूस देना उत्कोच / रिश्वत है । ४३. उग्गम ( उद्गम ) उद्गमनमुद्गमः । ४४. उज्जोय ( उद्योत ) उद्योतनमुद्योतः । जो उद्गमन / उत्पत्ति स्थल है, वह उद्गम है । ४५. उपेहा (उपेक्षा) उपेक्षा । जो प्रकाशित करता है, वह उद्योत है । अन्यमनस्क होना उपेक्षा है । ४६. उपाय ( उत्पात ) उत्पतनमुत्पातः । ४७. उम्मग्ग (उन्मार्ग ) उम्मग्गणं उम्मग्गो । ऊपर की ओर गति करना उत्पात है । ४८. उवएस ( उपदेश ) उपदेशनमुपदेशः । ( प्राक ४. उवओग (उपयोग ) उपयोजनमुपयोगः । जो उपदिष्ट होता है, वह उपदेश है । निरुक्त कोश ( ज्ञाटी प ८६ ) ( प्रसाठी प १३७ ) जो उत् / ऊंचा मार्ग है, वह उन्मार्ग/श्रेष्ठ मार्ग है । टीपू ३३) ( सू २ पृ ३२४) ( स्थाटी प ४६१ ) ( आचू पृ ११८ ) (नंचू पृ ४७ ) ( अनुद्वामटी प १४ ) Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिरक्त कोश ३३६ विवक्षित अर्थ में मन का उपयोजन/नियोजन करना उपयोग है। ५०. उवक्कम (उपक्रम) उपक्रमणमुपक्रमः। (स्थाटी प ३) उपक्रमण करना/समीप जाना उपक्रम है । ५१. उवयार (उपचार) उवचरणं उवचारः। (निचू १ पृ २६) जो उपचरित होता है, वह उपचार है । ५२. उवरम (उपरम) उवरमणं उवरमो। (आचू पृ १०८) किसी पदार्थ या वृत्ति से उपरमण करना/दूर होना उपरम ५३. उवलद्धि (उपलब्धि) उपलम्भनमुपलब्धिः । (बृटी पृ २५) जो प्राप्त होती है, वह उपलब्धि है। ५४. उववात (उपपात) उववज्जणमुववातो। (नंचू पृ ६९) उपपतन जन्म उपपात है। ५५. उवसंपय (उपसम्पत्) उपसम्पादनमुपसम्पत् । (प्रसाटी प २२२) निकटता से आचरण करना उपसंपत् है । ५६. उवसम (उपशम) उवसमणं उवसमो। (आचू पृ २२६) उपशांत होना उपशम है। ५७. उवालंभ (उपालम्भ) उपालम्भनं उपालम्भः। (स्थाटी प २४६) Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० 1 निरुक्त कोश अनौचित्य का निकटता से भान कराना उपालम्भ / उलाहना ५८. उस्सय (उच्छ्रय) उच्छ्रयनमुच्छ्रयः । (सूच १ पृ १७७ ) जो मन में उच्छ्रयन / बड़प्पन का भाव पैदा करता है, वह उच्छ्रय/मान है । ५६. ऊसास (उच्छ्वास ) उच्छ्वसनमुच्छ्वासः । श्वास लेना उच्छ्वास है । ६०. एसणा ( एषणा ) एषणं एषणा । खोजना एषणा है । ६१. ओगाह ( अवगाह ) अवगाहणमवगाहः । ६२. ओहि (अवधि) अवधानमवधिः । भीतर तक अवगाहन करना / पैठना अवगाह है । है । ६३. कअ (क्रय) किणणं कओ । ( अनुद्वामटी प २ ) अवधान / समाधान देता है, वह अवधि ( ज्ञान ) है | जो अवधान / एकाग्रता से उत्पन्न होता है, वह अवधि ज्ञान खरीदना क्रय है । ६४. कप्प (कल्प ) कल्पनं कल्पः । (प्राक १ टी पृ ३३) ( पंटी प ३५१ ) ( निचू १ पृ २७ ) जो विधि / करणीय है, वह कल्प / आचार है । ( आचू पृ७८ ) ( नंटी पू ७० ) Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश ३४१ ६५. कसि (कृषि) ___ कर्षणं कृषिः। (प्रटी प १२) कर्षण करना/खेत को जोतना कृषि है। ६६. कहा (कथा) कथनं कथा। (ओटी प ६) ___ जो कही जाती है, वह कथा है । ६७. काम (काम) कमनं कामः। (सूटी २ प १४५) जो अभिलषणीय है, वह काम/इच्छा है । ६८. कार (कार) करणं कारः। (आटी प १०१) जो किया जाता है, वह कारकार्य है। ६६. काल (काल) कलनं कालः। (प्रसाटी प २८६) ___ जो कलना/गणना करता है, वह काल है। ७०. किरिया (क्रिया) करणं क्रिया। (स्थाटी प ३७) करना क्रिया है। ७१. केत (केत) केतनं केतः। (स्थाटी प ४७७) जो चिह्नित करता है, वह केत/चिह्न है। ७२. कोह (क्रोध) क्रोधनं क्रोधः। (ओटी प ५) __क्रुद्ध होना क्रोध है। ७३. खंति (क्षान्ति) खवणं खंती। (दअचू पृ २३४) क्रोध आदि का क्षय क्षांति है। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ निरुक्त कोश ७४. खय (क्षय) क्षपणं क्षयः। (उचू पृ १५५) क्षीण होना क्षय है। ७५. खाय (खाद) खादनं खादः। (स्थाटी प १०३) जो खाया जाए, वह खाद/खाद्य है । ७६. खार (क्षार) क्षरणं क्षारः। (स्थाटी प ४१०) क्षरण/विनाश होना क्षार है । ७७. गइ (गति) गमनं गतिः । (स्थाटी प ३२१) गमन करना गति है। ७८. गंथ (ग्रन्थ) गंथणं गंथो। (आचू पृ ११८) जिसमें तत्त्व ग्रथित होते हैं, वह ग्रंथ है । ७६. गम (गम) गमनं गमः। (आटी प १२३) गमन करना गम/गति है। ८०. गरिहा (गर्हा) गर्हणं गरे । (स्थाटी ४०) अनौचित्य की निन्दा करना गर्दा है। ८१. गुण (गुण) गुणणं गुणः। (अनुद्वाचू पृ ७४) जिसका गुणन वृद्धि होती है, वह गुण है । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ३४३ ५२. गुत्ति (गुप्ति) गोपनं गुप्तिः । (स्थाटी प १०५) गोपन करना गुप्ति है। ८३. चयण (च्यवन) च्युतिः च्यवनम् । (स्थाटी प १६) च्युत होना च्यवन है। २४. चरिया (चर्या) चरिया चरणं । (आचू पृ १६३) जिसका आचरण किया जाता है, वह चर्या है। ८५. चाग (त्याग) त्यजनं त्यागः। (स्थाटी प २८७) छोड़ना त्याग है। ८६. चिइ (चिति) चयनं चितिः । (आवहाटी २ पृ १४) चयन करना चिति/संग्रह है। ८७. छंद (छन्दस्) छन्दनं छन्दः । (आटी प १२६) जो आल्हादित करता है, वह छंद/अभिप्राय है । ८८. जम्म (जन्म) जननं जन्म। (उचू पृ २३२) पैदा होना जन्म है। ६८ ज ति (जाति) जणणं जाती। (आचू पृ ११०) जो उत्पत्ति है, वह जाति जन्म है। १. चन्दत्याह्लादयति छन्दः । (अचि पृ ३१०) Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ निरुक्त कोश १०. जोग (योग) योजनं योगः। (नक ४ टी पृ ११३) जो (आत्मा को कर्म से) योजित करता है, वह योग/ चंचलता है। ६१. ठवणा (स्थापना) स्थापनं स्थापना। (नटी पृ ५१) स्थापित करना स्थापना/धारणा है । ६२. ठिति (स्थिति) स्थानं स्थितिः। (स्थाटी प ३२१) ठहरना स्थिति है। ९३. गंदि (नन्दि) नन्दनं नन्दिः । (स्थाटी प २११) जो आनन्दित करता है, वह नन्दि/आनन्द है । १४. णमुक्कार (नमस्कार) नमस्करणं नमस्कारः। (बृचू प १) नमन करना नमस्कार है। ६५. णय (नय) नयनं नयः। (स्थाटी प ४) जिससे/जिसमें ले जाया जाता है, वह नय है । ६६. णिक्खम्म (निष्क्रम) निष्क्रमणं निष्क्रमः। (स्थाटी प ४६७) घर से निकलना निष्क्रम/प्रव्रज्या है । १७. णिक्खेव (निक्षेप) णिक्खिवणं णिक्खेवो। (अनुद्वाचू पृ १९) न्यास करना निक्षेप है। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश ८. णिग्गम (निर्गम) निर्गमनं निर्गमः । बाहर निकलना निर्गम है । ६६. णिग्गह ( निग्रह ) निग्रहणं निग्रहः । निग्रहण करना निग्रह है । १००. णिज्जरा (निर्जरा ) निर्जरणं निर्जरा । कर्मों का निर्जरण / क्षय होना निर्जरा है । १०१. णिद्दा ( निद्रा ) निद्राणं निद्रा । शयन करना निद्रा है । १०२. निद्दस ( निर्देश ) निर्देशनं निर्देशः । जो निर्दिष्ट होता है, वह निर्देश है। १०३. नियम (नियम) नियमनं नियमः । १०४. गिरोह (निरोध ) निरंभणं निरोहो । रोकना निरोध है । १०५. णिवाय ( निपात) निपतनं निपातः । नीचे गिरना निपात है । १. द्वै - स्वप्ने । जो नियंत्रित / संयमित करता है, वह नियम है । ३४५ (ओटी प १४ ) (ओटी प ५ ) ( स्थाटी प १७ ) ( प्रज्ञाटी प ४६७ ) ( स्थाटी प ४०६ ) ( पंटी प १४६ ) ( बूटी पृ २५ ) (आटी प २० ) Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ निरक्त काश १०६. णिव्वेय (निर्वेद) निवेदनं निर्वेदः। (उचू पृ९७) निविण्ण/विरक्त होना निर्वेद है । १०७. णिस? (निसृष्ट) निसर्जनं निसृष्टम् । (स्थाटी प ३६) ____ निसर्जन/छोड़ना निसृष्ट है । १०८. णिसिज्जा (निषद्या) निसीयणं निसिज्जा। (आचू पृ ३१७) ___ जहां बैठा जाता है, वह निषद्या/स्वाध्याय भूमि है। १०६. णिसेह (निषेध) निषेधनं निषेधः। (प्रसाटी प १९३) निषेध करना निषेध है। ११०. तक्क (तर्क) तर्कणं तर्कः। (स्थाटी प १६) कैसे ? क्यों ? इस रूप में तर्कणा करना तर्क है। १११. तहक्कार (तथाकार) तथाकरणं तथाकारः। (स्थाटी प ४७८) आज्ञा के अनुरूप करना तथाकार है। ११२. ताड (ताड) तलणं ताडः। (सूचू २ पृ ३६०) ताडित करना ताडन है। ११३. तिगिच्छा (चिकित्सा) चिकित्सनं चिकित्सा। (प्रसाटी प १४७) रोग का प्रतिकार करना चिकित्सा है। ११४. थंभ (स्तम्भ) थंभणं थंभो। (दअचू पृ २०६) जो जड़ीभूत करता है, वह स्तम्भ/मान है । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ निरुक्त कोश ११५. दंड (दण्ड) दंडणं दंडः। (निचू १ पृ ७६) जो दण्डित करता है, वह दंड/हिंसा है। ११६. दिक्खा (दीक्षा) दीक्षणं दीक्षा। (ओटी प ६) व्रतों का स्वीकरण दीक्षा है । ११७. देस (देश) दिसणं देसो। (आचू पृ १९७) जो दिष्ट कथित होता है, वह देश/कथन है । ११८. दोस (द्वेष) द्वेषणं द्वेषः। (स्थाटी प २४) __ द्विष्ट होना द्वेष है। ११६. दोस (दोष) दूषणं दोषः। (पंटी प ३३७) जो दूषित करता है, वह दोष है । १२०. पइट्ठा (प्रतिष्ठा) प्रतिष्ठापनं प्रतिष्ठा । (नंटी पृ ५१) जो अर्थ बोध को प्रतिष्ठित करती है, वह प्रतिष्ठा/धारणा (दटी प ७५) १२१. पइन्ना (प्रतिज्ञा) प्रतिज्ञानं प्रतिज्ञा। संकल्पबद्ध होना प्रतिज्ञा है। १२२. पओग (प्रयोग) प्रयोजनं प्रयोगः । प्रयुक्त करना प्रयोग है। (स्थाटी प १०१) Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬ १२३. पक्खेवय ( प्रक्षेपक ) प्रक्षेपणं प्रक्षेपकः । जो फेंकता है, वह प्रक्षेपक है । १२४. पगइ (प्रकृति) प्रकरणं प्रकृतिः । १२५. पज्जय ( पर्यय ) पज्जयणं पज्जयः । स्वभाव का निर्णय करना प्रकृति ( बन्ध ) है | जो गतिशील है, वह पर्यय / पर्याय है । १२६. पडबंध ( प्रतिबन्ध ) पडिबंधणं पडिबंधो । प्रतिबन्धनं प्रतिबन्धः । १२७. पडिमा (प्रतिमा) परिमाणं पडिमा । प्रतिमान / प्रतिकृति प्रतिमा है । १२८. पडिलेहणा (प्रतिलेखना) प्रतिलेखनं प्रतिलेखना । १२६. पडिसेहणा (प्रतिषेधना ) प्रतिषेधनं प्रतिषेधना । जो प्रतिबंधित करता है / रोकता है, वह प्रतिबंध है । निषेध करना प्रतिषेधना / निवारणा है । १३०. पणाम ( प्रणाम ) प्रणमनं प्रणामः । निरुक्त कोश ( बृटी पृ १८६ ) प्रकृष्ट रूप से नमन करना प्रणाम है । (प्राक १ टी पृ ४ ) ( प्रसाटी प १३७ ) प्रतिलेखन / प्रत्येक का निरीक्षण करना प्रतिलेखना है । (नंचू पु १३ ) ( दअचू पृ २६८ ) ( बूटी पृ ५८३ ) ( निचू १ पृ १२५ ) ( बृटी पृ २८५ ) (उच् पृ २ ) Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश १३१. पणिहाण (प्रणिधान) प्रणिहितिः प्रणिधानम् । (स्थाटी प ११५) एक आलम्बन पर चित्त का स्थापन प्रणिधान/एकाग्रता है। १३२. पण्णत्ति (प्रज्ञप्ति) पण्णवणं पण्णत्ती। (निचू १ पृ ३१) प्रतिपादित करना प्रज्ञप्ति है। १३३. पण्णा (प्रज्ञा) प्रज्ञानं प्रज्ञा। (नंटी पृ ५८) जो विशेष रूप से जानती है, वह प्रज्ञा है। १३४. पत्थार (प्रस्तार) पत्थरणं पत्थारो। (निचू ३ पृ २०१) विस्तृत करना प्रस्तार है। १३५. पभव (प्रभव) प्रभवनं प्रभवः। (पंटी प ३४१) प्रादुर्भूत होना प्रभव उत्पत्ति है। १३ १. पमाय (प्रमाद) प्रमदनं प्रमादः। (स्थाटी प ३४६) प्रमत्त होना प्रमाद है। १३७. पयार (प्रचार) प्रचरणं प्रचारः। (दटी प २२) प्रचरण/अत्यन्त गतिशीलता प्रचार है। १३८. परिग्गह (परिग्रह) परिग्रहणं परिग्रहः। (स्थाटी प २४) परिग्रहण स्वीकार करना परिग्रह/ मूर्छा है । १३९. परिण्णा (परिज्ञा) परिज्ञानं परिज्ञा । (स्थाटी प ३०६) सब प्रकार से जानना परिज्ञा है। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० निरक्त कोश १४०. परिभासा (परिभाषा) परिभाषणं परिभाषा। (स्थाटी प ३८२) किसी बात को नियमबद्ध कर कथन करना परिभाषा है । संक्षेप में समग्रता से कथन करना परिभाषा है । १४१. परिहार (परिहार) परिहरणं परिहारः । (पंटी प २८६) परिहरण छोड़ना परिहार है । १४२. पलिउंचणा (परिकुञ्चना) परिकुंचणं परिकुचना। (व्यभा १ टी प १५) ___ सर्वतः कुंचन/छिपाना परिकुंचना/माया है । १४३. पलोयणा (प्रलोकना) प्रलोकनं प्रलोकना। (ओटी प १३) प्रकृष्ट रूप से देखना प्रलोकना है। १४४. पसाय (प्रसाद) प्रसीदनं प्रसादः । (उचू पृ ३५) प्रसन्न होना प्रसाद/प्रसन्नता है। १४५. पसूइ (प्रसूति) प्रसवनं प्रसूतिः । (पंटी प ३४१) प्रसव करना/जन्म देना प्रसूति/जन्म है। १४६. पाय (पात) पतनं पातः। (निचू १ पृ ११) गिरना पात है। १४७. पिंड (पिण्ड) पिण्डनं पिण्डः। (प्रसाटी प १३७) पिंडित/एकत्रित करना पिंड है। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "निरुक्त कोश १४८. पेक्खणा (प्रेक्षणा) प्रेक्षणं प्रेक्षणा । प्रेक्षण / निरीक्षण करना प्रेक्षा है । १४६. बंध (बन्ध ) बंधणं बंधो । १५०. बोहि (बोधि ) बोहणं बोही । १५१. भव (भव ) बांधता है, वह बन्ध है । बोध / जानना बोधि है । भवनं भवः । : १५२. भव (भव ) भवनं भवः । जो विद्यमान रहता है, वह भव / संसार है । उत्पन्न होना भव / जन्म है । - १५३. भासा ( भाषा) भाषणं भाषा । जो बोली जाती है, वह भाषा है । १५४. भिक्खा ( भिक्षा ) भिक्षणं भिक्षा | भीख मांगना भिक्षा है । : १५५. भोय (भोग) भोजनं भोगः । जो भोगा जाता है, वह भोग है । ३५१ (ओटी प १३ ) ( दअचू पृ २५१ ) ( आवहाटी १ पृ १९ ) ( आचू पृ १६ ) ( स्थाटी प २१३ ) ( बृटी पृ ६१ ) ( दटी प १४ ) ( पंटी प ३६६ ) Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ निरुक्त कोश १५६. मइ (मति) मननं मतिः। (आटी प १२) जो मनन करती है, वह मति है। १५७. मच्चु (मृत्यु) मरणं मृत्युः। (उचू पृ २१८) प्राणों का त्याग मृत्यु है । १५८. मण (मनस्) मननं मनः । (सूचू २ पृ ३६८) ___ जो मनन में प्रवृत्त होता है, वह मन है। १५६. मणोम (मनोम) मनसो मतः मनोमः। (सूचू २ पृ ३२६) जो मन को प्रिय मान्य है, वह मनोम/मनोज्ञ है । १६०. मुंड (मुण्ड) मुण्डनं मुण्डः। (स्थाटी प ३२२) __ केशों तथा कषाय का मुण्डन/अपनयन करना मुंड है। १६१. मुच्छा (मूर्छा) मूर्च्छन मूर्छा। (जीटी प १९३) मूच्छित/मूढ़ होना मूर्छा है। १६२. मोक्ख (मोक्ष) __ मोचनं मोक्षः। (स्थाटी प १५) मुक्त होना मोक्ष है। १६३. याग (याग) यजनं यागः। (आटी प ४२). जिसमें यजन देवपूजा की जाती है, वह याग/यज्ञ है। १६४. रइ (रति) रमणं रतिः। (प्रसाटी प १९३) रमण/आनन्दानुभव रति है। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ निरुक्त कोश १६५. राअ (राग) रंजणं राओ। (विभा २६६१) जो रंजित/आसक्त करता है, वह राग है । १६६. रोहग (रोधक) रोधनं रोधकः। (बृटी पृ २०२) जो रुकावट डालता है, वह रोधक है। १६७. लाह (लाभ) लम्भनं लाभः। (प्रसाटी प १९४) जो प्राप्त होता है, वह लाभ है। १६८. ववहार (व्यवहार) व्यवहरणं व्यवहारः। (नंटी पृ १७३) जो व्यवहृत होता है, वह व्यवहार है। १६६. वाव (वाद) वदनं वादः। (नंचू पृ ४७) जिसका कथन किया जाता है, वह वाद है। १७०. वास (वर्ष) वर्षणं वर्षः। (बृटी पृ ४५५) बरसना वर्ष/वृष्टि है। १७१. विउस्सग्ग (व्युत्सर्ग) व्युत्सर्जनं व्युत्सर्गः। (पंटी प ४०७) व्युत्सर्जन/छोड़ना व्युत्सर्ग है। १७२. विक्कय (विक्रय) विकीणणं विक्कयो। (आचू पृ ७८) बेचना विक्रय है। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ १७३. विजय ( विनय ) विनयणं विणओ । १७४. विष्णत्ति (विज्ञप्ति ) विज्ञानं विज्ञप्तिः । जो कर्मों का विनयन / नाश करता है, वह विनय है । विशिष्ट ज्ञान विज्ञप्ति है । १७५. विभत्ति ( विभक्ति) विभयणं विभत्ती । विभाग करना विभक्ति है । १७६. विभूसा ( विभूषा ) विभूसणं विभूसा । सज्जित होना विभूषा है । १७७. विराग ( विराग ) विरमणं विरागो । भोगों से विरत होना विराग है । १७८. विवेग (विवेक) विवेजणं विवेगो । १७६. विहार (विहार) विहरणं विहारो । जिसमें विहरण होता है, वह विहार है । १५०. बुद्धि ( वृद्धि ) जो विवेचन / पृथक् करता है, वह विवेक है । वर्द्धनं वृद्धिः । निरुक्त कोश ( निचू १ पृ १८ ) ( नंटी पृ ४३ ) (नंचू पृ ५८ ) ( अचू पृ १५७ ) ( आचू पृ १२० ) ( आचू पृ १७६) ( नंचू पृ ५८ ) ( अनुद्वाचू पृ १० ) बढ़ती है / विस्तृत होती है, वह वृद्धि / व्याख्या है । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश . १८१. वे? (वेष्ट) वेष्टनं वेष्टः। (स्थाटी प २७६) जो लपेटा जाता है, वह वेष्ट पट्टा है। १८२. वेयणा (वेदना) वेदनं वेदना। (स्थाटी प १७) वेदन/अनुभव करना वेदना है । १८३. सइ (स्मृति) स्मरणं स्मतिः। (नंटि पृ १५२) __ जिससे स्मरण किया जाता है, वह स्मृति है। १८४. संकंति (सङक्रान्ति) संक्रमणं सङ्क्रान्तिः। (दटी प ४३) संक्रमण गमन करना संक्रान्ति है। १८५. संका (शङ्का) संकणं संका। (निचू १ १ १५) संदेह करना शंका है। १८६. संखा (संख्या) संख्यानं संख्या। (दटी प ७) गिनना संख्या है । १८७. संग (सङ्ग) षंजनं सक्तिर्वा संगः। (सूचू २ पृ ४२५) ____ आसक्त होना संग/आसक्ति है। १८८. संगह (संग्रह) संग्रहणं संग्रहः। (स्थाटी प ४७४) संचयन करना संग्रह है। १८६. संजम (संयम) संजयणं संजमो। (आचू पृ ७७) जो सम्यक् प्रकार से नियमन करता है, वह संयम है। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ १०. संजोयणा ( संयोजना ) संयोजनं संयोजना ।' ११. संणिहि (सन्निधि ) सन्निधानं सन्निधिः । संयुक्त करना संयोजना / आहार का एक दोष है । संग्रह है। १२. संति (शान्ति) शमनं शान्तिः । ( उच्च पृ १५६ ) जो सम्यक् प्रकार से निहित / संचित होती है, वह सन्निधि / शमन करना शान्ति है । १९३. संधि (सन्धि ) सन्धानं सन्धिः । १४. संवर ( संवर) संवरणं संवरः । संवरण / रुकावट करना संवर है । १५. संवास ( संवास ) संवसनं संवासः । जिसमें दो को एक किया जाता है, वह संधि है | साथ-साथ रहना संवास है । १६६. संसार (संसार) संसरणं संसारः । है । १७. सण्णा (संज्ञा ) निरुक्त कोश ( प्रसाटी प २१३ ) संजाणं संज्ञा । ( आटी प ७३ ) ( सूच १ पृ २४१ ) ( आवहाटी १ पृ २१७ ) जिसमें संसरण / गमन - आगमन किया जाता है, वह संसार ( स्थाटी प ३०५ ) ( स्थाटी प २६५ ) सम्यक् प्रकार से जानना संज्ञा है । १. उत्कर्षतोत्पादनार्थं द्रव्यस्य द्रव्यान्तरेण मीलनं संयोजना | ( आचू पृ ६ ) ( प्रसाटी प २१३ ) Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'निरक्त कोश १९८. सण्णा (संज्ञा) संज्ञानं संज्ञा। (स्थाटी प २६७) __जानना/अभिलाषा करना संज्ञा/चैतन्य/जीव का परिणाम विशेष है। १९९. सन्निवाय (सन्निपात) सन्निपतनं सन्निपातः। (प्रसाटी प ३७१) अनेक वस्तुओं का मिलन सन्निपात है । २००. समवाय (समवाय) समवायणं समवायः। (सूचू २ पृ ३१६) संयुक्त करना समवाय है। २०१. समायार (समाचार) समाचरणं समाचारः। (आटी प ६३) जिसका समाचरण/व्यवहरण किया जाता है, वह समाचार/ समाचारी है। २०२. समास (समास) समसनं समासः। (ओटी प ५) विभिन्न पदों को संयुक्त करना समास है । २०३. समाहि (समाधि) समाहाणं समाही। (आचू पृ ३५७) चित्त का समाधान/सम्यक् स्थापन समाधि है । २०४. सवण (श्रवण) श्रवणं श्रुतम् । (प्राक १ टी पृ१०) सुनना श्रुत है। २०५. सवण्ण (सवर्ण) सवर्णनं सवर्णः। (स्थाटी प ४७५) सदृश होना सवर्ण है। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ निरुक्त कोश २०६. साय (स्वाद) स्वादनं स्वादः। । स्थाटी प १०३) जिसका आस्वाद लिया जाता है, वह स्वाद है। २०७. हास (हास्य) हसणं हासो। (आचू पृ १२३) हंसना हास्य है। २०८. हिंसा (हिंसा) हिंसनं हिंसा। (सूटी २५ ४५) हनन करना हिंसा है। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ (तीर्थंकर-अभिधान निरुक्त) तीर्थंकर स्वतंत्र धर्म-परम्परा के प्रवर्तक होते हैं, फिर भी उनकी भाषा में धर्म का मौलिक रूप एक होता है। इस कालचक्र में ऋषभ पहले तीर्थंकर और महावीर चौबीसवें तीर्थंकर हुए हैं। तीर्थकरों के नामकरण का भी एक इतिहास है, जिसे नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु ने मूलरूप में सुरक्षित रखा है। उनके अन्वर्थ नामों के निरुक्त इस परिशिष्ट में उपलब्ध हैं। चूर्णिकार और टीकाकारों ने इस अन्वर्थ नाम निरुक्तों की शृखला को और अधिक विकसित रूप में प्रस्तुत किया है। प्रथम कोटि में उन निरुक्तों को रखा गया है जो नामकरण की मौलिकता एवं विशिष्टता के संवाहक हैं। दूसरी श्रेणी में वे निरुक्त हैं, जो सामान्य रूप से सभी तीर्थंकरों के लिए व्यवहृत हो सकते हैं। इहाहतां नामानि अन्वर्थमधिकृत्य सामान्यलक्षणतो विशेषलक्षणतश्च वाच्यानि । (आवहाटी २ पृ ८) एते सामण्णं, विसेसो ..... । (आव २ पृ.६) विशेष बात यह है कि प्रायः ये सभी नाम मातृ इच्छा से प्रभावित Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० निरुक्त कोश १. उसभ (वृषभ/ऋषभ) ऊरूसु उसमलंछणं उसभं सुमिणमि तेण उसभ जिणो।' (आवनि १०८०) दोनों ऊरूओ/जंघाओ पर वृषभ का चिह्न होने के कारण वे (प्रथम तीर्थंकर) वृषभ/ऋषभ कहलाए। माता मरुदेवी ने सर्वप्रथम (चौदह स्वप्नों में) वृषभ/बैल का स्वप्न देखा, इसलिए उनका नामकरण वृषभ/ऋषभ हुआ। वृष-उद्वहने, उव्वढं तेन भगवता जगत्संसारमग्गं अतुलं नाणदंसणचरित्तं वा तेन ऋषभ इति । (आवचू २ पृ९) समग्रसंयमभारोद्वहनाद् वृषभः। (आवहाटी २ पृ ८) जो संसार का उद्वहन/उद्धार करता है, वह वृषभ है। जो अतुल ज्ञान, दर्शन और चारित्र को धारण करता है, वह वृषभ है। २. अजिम (अजित) अक्खेसु जेण अजिआ जणणी अजिओ जिणो तम्हा । (आवनि १०८०) जब वे गर्भ में आए, तब उनकी माता विजया द्यूतक्रीड़ा में विजित हुई, इसलिए उनका नाम अजित रखा गया। अजितो परीसहोवसग्गेहि। (मावचू २ पृ. ६) परीषहोपसर्गादिभिर्न जितोऽजितः। (आवहाटी २ पृ८) जो परीषह और उपसर्गों से अजेय है, वह अजित है। ३. संभव (सम्भव) अभिसंभूआ सासत्ति संभवो तेण वुच्चई भयवं । (आवनि १०८१) जब वे (तृतीय तीर्थकर) गर्भ में थे, तब उनके प्रभाव से अत्यधिक शस्य/धान्य संभूत/उत्पन्न हुआ, अतः उनका नाम संभव रखा गया। १. उसमोत्ति वा वसभोत्ति वा एगठें। (आवहाटी २ पृ ८) Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'नियत कोश ३६१ संभवन्ति प्रकर्षण भवन्ति चतुस्त्रिशदतिशयगुणा अस्मिन्निति सम्भवः। (आवहाटी २ पृ ८) जिसमें चौंतीस अतिशय सम्भव/प्रकृष्टरूप में विद्यमान हैं, वह संभव है। ४. अभिणंदण (अभिनन्दन) अभिणंदई अभिक्खं सक्को अभिणंदणो तेण। (आवनि १०८१) गर्भकाल से लेकर निरन्तर शक्र ने जिनका अभिनंदन किया, वे (चतुर्थ तीर्थकर) अभिनंदन की अभिधा से अभिहित हुए। अभिनन्द्यते देवेन्द्रादिभिरित्यभिनन्दनः। (आवहाटी २ पृ ८) जो देवेन्द्र आदि द्वारा अभिनंदित है, वह अभिनंदन है। “५. सुमइ (सुमति) जणणी सव्वत्थ विणिच्छएसु सुमइत्ति तेण सुमइ जिणो। (आवनि १९२) जब वे (पंचम तीर्थंकर) गर्भ में थे, उस समय माता मंगला ने प्रत्येक व्यवहार में सुमति/प्रभूत बुद्धिमत्ता का परिचय दिया (दो माताओं के पाण्मासिक कलह का कुशलता से उपशमन किया) । इस कारण से उनका नाम सुमति रखा गया। शोभना मतिरस्येति सुमतिः। (आवचू २ प १०) __ जिसकी मति श्रेष्ठ है, यह सुमति है। ६. पउम (पद्म) पउमसयणमि जणणोइ डोहलो तेण पउमाभो। (आवनि १०८२) गर्भवती माता सुसीमा को पद्मशय्या में शयन करने का दोहद उत्पन्न हुआ, इसीलिए उन (छठे तीर्थंकर) का नाम पद्म रखा गया। पउमवण्णो य भगवं तेण पउमप्पहोत्ति ।' (आवहाटी २ पृ.९) १. इह निष्पङ्कतामङ्गीकृत्य पद्मस्येव प्रभा यस्यासौ पद्मप्रभः । (आवहाटी २ पृ९) Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ निरुक्त कोश जिसका वर्ण पद्म के समान पीत / स्वर्णाभ है और जो पद्म की भांति निर्लिप्त है, वह पद्म है । पउमगब्भ सुकुमाला । ( आवचू २ पृ १० ) जो पद्मगर्भ की भांति सुकुमार है, वह पद्म है । ७. सुपास ( सुपार्श्व ) गभगए जं जणणी जाय सुपासा तओ सुपासजिणो । ' जब वे (सप्तम तीर्थंकर) पार्श्वभाग सु / सम / सुन्दर हो गये अतः उन्हें सुपार्श्व कहा गया । शोभनानि पावन्यस्येति सुपार्श्वः । ८. चंदप्पह ( चन्द्रप्रभ ) ( आवनि १०८३ ) गर्भस्थ हुए, तब माता पृथ्वी के ( वे पहले विषम / असुन्दर थे ), जिसके पार्श्वभाग श्रेष्ठ हैं, वह सुपार्श्व है । जणणीए चंदपिणंभि डोहलो तेण चंदाभो । ( आवनि १०८३ ) माता लक्ष्मणा को चंद्रपान का दोहद उत्पन्न हुआ था, इसलिए उसने अपने पुत्र को 'चन्द्रप्रभ' कहकर पुकारा । ( आवहाटी २ पृ 8 ) चांद जैसी प्रभा / आभा के कारण वे चन्द्रप्रभ कहलाये । चन्द्रस्येव प्रभा – ज्योत्स्ना सौम्याऽस्येति चन्द्रप्रभः । - ६. सुविहि (सुविधि ) ( आवहाटी २ पृ 2 ) जिसकी प्रभा / आभामण्डल चांद की भांति सोम्य है, वह चन्द्रप्रभ है । सव्वविहोसु अ कुसला गब्भगए तेण होइ सुविहि जिणो । ( आवनि १०८४ ) नौवें तीर्थंकर के गर्भ में आते ही जननी रामा ने सब विधिविधानों में अत्यधिक कुशलता अर्जित की, इसलिए उनका नामकरण सुविधि हुआ । १. सव्र्व्वेसि सोभणा पासा तित्थकर मातृणं च विसेसो माताए गुठिवणीए सोभणा पासा जातत्ति, पढमं विकुक्षिया आसी । (अवचू २१० ) Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त कोश ३६३ शोभनो विधिरस्येति सुविधिः । (आवहाटी २ पृ ६) जो सब विधियों/नीतियों में कुशल है, वह सुविधि है। १०. सोयल (शीतल) पिउणो दाहोवसमो गब्भगए सीयलो तेणं। (आवनि १०८४) (दसवें तीर्थंकर के) पिता दृढ़रथ की पित्तदाहजन्य पीड़ा औषधि से शांत नहीं हुई, पर गर्भवती माता नन्दा के स्पर्शमात्र से पित्तदाह का शमन हो गया, अत: शिशु का नाम शीतल रखा गया। सकलसत्त्वसन्तापकरणविरहादालादजनकत्वाच्च शीतल इति, तत्थ सम्वेऽवि अरिस्स मित्तस्स वा उरि सीयलघरसमाणा। (आवहाटी २ पृ.) जो सब प्राणियों का संताप दूर कर आह्लाद उत्पन्न करता है, सबके लिए शीतगृह की भांति सुखकर है, वह शीतल है। ११. सेज्जंस (श्रेयांस) महरिहसिज्जारुहणंमि डोहलो तेण सिज्जंसो। (आवनि १०८५) माता विष्णुदेवी को देवतापरिगृहीत शय्या पर बैठने का दोहद उत्पन्न हुआ। वह उस शय्या पर बैठी पर गर्भ के प्रभाव से देवता उसका कुछ भी अश्रेय/अहित नहीं कर सके, इसलिए उनका श्रेयांस अभिधान हुआ । श्रेयात्-समस्तभुवनस्यैव हितकरः .... श्रेयांसः। (आवहाटी २ पृ ६) जो तीनों लोकों का श्रेय कल्याण करता है, वह श्रेयांस है। १२. वसुपुज्ज (वासुपूज्य) पूएइ वासवो जं अभिक्खणं तेण वसुपुज्जो। (आवनि १०८५) बारहवें तीर्थंकर जब माता जया की कुक्षि में अवतरित हुए, तब वासव/इन्द्र ने पुनः पुनः जननी की पूजा की, इसलिए उनका नामकरण 'वासुपूज्य' हुआ। वसूणि-रयणाणि, वासवो-वेसमणो सो वा अभिगच्छति । (आवचू २ पृ १०) Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ निरक्त कोश उन के गर्भस्थ होने पर वासव/वैश्रमण ने पुनः पुनः राजकोश को वसु रत्नों से भरा, अत: उनका नाम वासुपूज्य रखा गया। वसूनां पूज्यो वसुपूज्यः, वसवो-देवाः। (आवहाटी २ पृ९) जो वसुदेवों का पूज्य है, वह वासुपूज्य है। १३. विमल (विमल) विमलतणुबुद्धि जणणी गब्भगए तेण होइ विमलजिणो। (आवनि १०८६) जिनके गर्भ में आने पर माता श्यामा की बुद्धि और शरीर अत्यंत विमल/निर्मल हो गये, वे 'विमल' नाम से अभिहित हुए। विगतमलो विमलः, विमलानि वा ज्ञानादीनि यस्य स विमलः । (आवहाटी २ पृ १०) जिसके ज्ञान आदि विमल/निर्मल हैं, वह विमल है । २४. अणंत (अनन्त) रयणविचित्तमणंतं दामं सुमिणे तओऽणंतो। (आवनि १०८६) माता सुयशा ने स्वप्न में रत्नखचित अनंत/विशाल माला देखीं, अतः पुत्र का नाम रखा अनंत । अनन्तकाशजयादनन्तः, अनन्तानि वा ज्ञानादीन्यस्येति अनन्तः । (आवहाटी २ पृ १०) जो अनन्त कर्माशों को जीतता है, उनका क्षय करता है, वह अनन्त है। जो अनन्त चतुष्टयी से संपन्न है, वह अनंत है । १५. धम्म (धर्म) गब्भगए जं जणणी जाय सुधम्मत्ति तेण धम्मजिणो। (आवनि १०८७) अम्मापितरो सावगधम्मे भुज्जो चुक्के खलंति, उववण्णे दढव्वताणि । (आवचू २ पृ ११) Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरक्त कोश ३६५ जब वे गर्भ में आये, तब माता सुव्रता और पिता भानु श्रावक धर्म में विशेष रूप से उपस्थित हुए, इसलिए उनका नाम रखा-धर्मजिन। दुर्गतौ प्रपतन्तं सत्त्वसङ्घातं धारयतीति धर्मः। (आवहाटी २ पृ १०) __ जो दुर्गति में गिरते हुए प्राणियों को धारण करता है, वह धर्म है। १६. संति (शान्ति) जाओ असिवोवसमो गब्भगए तेण संति जिणो। (आवनि १०८७) जिनके गर्भ में आने पर सर्वत्र व्याप्त अशिव/महामारी का प्रकोप शांत हो गया, उनका अभिधान हआ-शांतिजिन (सोलहवें तीर्थंकर)। शान्तियोगात् तदात्मकत्वात् तत्कर्तृत्वाद् वा शान्तिः । (आवहटी २ पृ १०) जो शांति सुख प्रदान करता है, वह शांति है । १७. कुंथु (कुन्थु) थूह रयणविचित्तं कुंथु सुमिणमि तेण कुंथु जिणो।' __ (आवनि १०८८) ____ गर्भवती माता श्री देवी ने स्वप्न में कु/भूमि पर स्थित थु/रत्नों का विशाल स्तूप देखा, इसलिए बालक का नामकरण हुआ 'कुंथु' (१७ वें तीर्थंकर) कुः पृथ्वी तस्यां स्थितवानिति कुस्थः। (आवहाटी २ पृ १०) ___ जो कु/पृथ्वी पर स्थित है, वह कुस्थ कुंथु है । १८. अर (अर) सुमिणे अरं महरिहं पासइ जणणी अरो तम्हा । - (आवनि १०८८) १. माताए थूमो सव्वरतणामतो सुविणे विट्ठो भूमित्थो तेण कुंथू । (आवचू २ पृ ११) Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ निरुक्त कोश माता देवी ने स्वप्न में अतिसुंदर, अतिविशाल रत्नमय अर/चक्र देखा, अतः शिशु का नाम रखा 'अर' (१८ वें तीर्थंकर)। सर्वोत्तमे महासत्त्व कुले य उपजायते । तस्याभिवृद्धये वृद्धैरसावर उदाहृतः ॥ (आवहाटी २ पृ १०) ___ जो सर्वोत्तम और महान् शक्तिशाली कुल में उत्पन्न हो वृद्धि करता है, वह अर है। १९. मल्लि (मल्लि) वरसुरहिमल्लसयणंमि डोहलो तेण होइ मल्लिजिणो । (आवनि १०८६) माता प्रभावती को सदा सुरभित पुष्पमाला की शय्या का दोहद उत्पन्न हुआ, इसलिए अपनी पुत्री का नामकरण कियामल्लि (१६ वें तीर्थकर)। सव्वेहिपि परीसहमल्लरागदोसा य णिहयत्ति । (आवहाटी २ पृ १०) जो परीसह तथा राग-द्वेष आदि मल्लों को जीतता है, वह मल्लि है। २०. मुणिसुव्वय (मुनिसुव्रत) जाया जणणी जं सुव्वयत्ति मुणिसुव्वओ तम्हा । (आवनि १०८६) जिनके गर्भ में आने पर माता-पिता (पद्मा, सुमित्र) सुव्रती बने, उनका नाम रखा गया मुनि सुव्रत, (२०वें तीर्थंकर) । मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः, तथा शोभनानि वतान्यस्येति सुव्रतः, मुनिश्चासौ सुव्रतश्चेति मुनि सुव्रतः । सव्वे सुमुणियसव्वभावा सुव्वया यत्ति । (आवहाटी २ पृ १०) जो त्रैकालिक अवस्थाओं को जानता है और सुंदर व्रतों से परिपूर्ण है, वह मुनि सुव्रत है। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ “निरक्त कोश २१. णमि (नमि) पणया पच्चंतनिव्वा दसियमित्त जिणंमि तेण नमी। __(आवनि १०६०) (शत्रु राजाओं ने नगर को घेर रखा था ।) ज्योंही राजाओं ने अट्टालिका पर खड़ी गर्भवती रानी 'वा' को देखा, गर्भ के प्रभाव से वे सभी राजे तत्काल प्रणत हो गये, अतः शिशु का नामकरण हुआ-नमि (२१ वें तीर्थंकर) । परीषहोपसर्गादिनमनान्नमिः। सव्वेहिवि परीसहोवसग्गा णामिया कसाय त्ति । __ (आवहीटी २ पृ ११) जो परीषह, कषाय आदि को नमित/नष्ट करता है, वह नमि है। २२. रिटुनेमि (अरिष्टनेमि) रिटुरयणं च नेमि उप्पयमाणं तओ नेमी। (आवनि १०६०) गर्भवती माता शिवा ने स्वप्न में अत्यन्त विशाल अरिष्टरत्नमय नेमि/चक्र को ऊपर उठते हुए देखा, अतः बालक का नाम रखा-अरिष्टनेमि (२२ वें तीर्थंकर)। धर्मचक्रस्य नेमिवन्नेमिः । सव्वेवि धम्मचक्कस्स णेमीभूयत्ति । (आवहाटी २ पृ ११) जो धर्मचक्र के नेमिभूत/धुरा के समान है, वह नेमि है । २३. पास (पश्यक/पार्श्व) सप्पं सयणे जणणी तं पासइ तमसि तेण पासजिणो। (आवनि १०६१) माता वामा ने अपनी शय्या पर लेटे-लेटे (गर्भ के प्रभाव से) अंधेरे में भी सर्प को देख लिया, इसलिए अपने पुत्र को 'पार्श्व' नाम से संबोधित किया। (पास-पश्य-दृश्)। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ पश्यति सर्वभावानिति पार्श्वः पश्यक् इति चान्ये । सव्वेऽवि भावाणं जाणगा पासगा यत्ति पासा । है । २४. वद्धमाण ( वर्द्धमान ) ( आवहाटी २११ ) जो सब भावों की पश्यना / परिज्ञान करता है, वह पार्श्व निरुक्त कोश वढइ नायकुलंति अ तेण वद्धमाणुत्ति । ( आवनि १०९१ ) भगवान् जब त्रिशला के गर्भ में आये, तब ज्ञातकुल में धनसंपदा की अतिशय वृद्धि हुई, अत: उनका नाम वर्धमान / महावीर रखा गया । ( २४ वें तीर्थंकर) । उत्पत्तेरारभ्य ज्ञानादिभिर्वर्धत इति वर्धमानः । तत्थ सव्वेदि णाणादिगुणेह वढइति । ( आवहाटी २ पृ ११ ) जन्म से लेकर जिसके ज्ञान आदि बढ़ते रहते हैं, वह वर्धमान है । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धाशुद्धि पत्र पृष्ठ निरुक्त-संख्या अशुद्ध शुद्ध सत्र १४ ६६ ऊत्तर ३५ जाना जाता सम्यकत्व आश्वासयीति सूत्र उत्तर जानता सम्यक्त्व आश्वासयतीति ऊर्ध्व ४८ उर्ध्व ५७ वह ३०८ ३०८ ३०८ ३२८ ४४२ WWG ह अधिक तस्मिन्निति (केत) (खाद्य) गर्जति गगनम वशात् मोक्षायेति भवन्त्यस्याम् ११० अधिक तस्मिन्नति (केय) (खादिम) गर्जतिः गगनम बशात् मोक्षायेतिस्थ भवन्त्यास्याम् लोषान् निर्युक्त दिडिवातो दीपिक्क (धनुष) (..."आदी) पडोयर गिराता प्रचलान ४७३ ९३ ४८४ ५१६ ५७० ११८ ६०७ १२६ १२६ ६६५ १५३ ७६७ ८०७ ८५० १७७ ६१८ ६३० ६३१ १८४६६७ लोपान् नियुक्ति दिद्विवातो दीपित (धनुष्) (..'आदि) पडोयार गिराते प्रचला Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिरक्त कोश १८५ ९७१ १८६ ( 'थंयत) १८४ १०२४ १०६० चिह्नव वह (.."संयत) निह्नव (पापक) पुरि''पृ २०६ प्राप्यते १०६५ २०० २०७ २०७ २१५ (पावक) पुरि 'पृ २०७ प्राप्यत २१६ २१६ २२० २३२ १०६८ ११४२ ११४५ ११५० ११६६ १२३३ १२६८ १२८५ १२६७ १३१२ १४४५ १४६४ धुली २४० २४३ वाचनाएं वाचनाचार्य ११५१ ११५० भास्बरा भास्वरा (अचू) (आचू...) धली राचक (सम्यकत्व) रोचक (सम्यक्त्व) लिंग लिङ्ग वको वंको त्यजते त्यज्यते वेदनायम् वेदनीयम् सो वयालिग वेयालिग २४५ २४८ २७२ २७६ २७६ १४६५ सा २७७ १४७१ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________