Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 30
________________ तयोः जात्यादिकं यथा जनसम्मर्दने 'जनत्वम्' जात्यादिकं धर्म ज्ञातव्यम्, किन्तु व्यक्तिविशेषधर्माः तेषां जनानां मध्ये अयं गुर्जरदेशीयोऽयं मरुधरप्रदेशीयश्च एतादृशं वैशिष्टय व्यनक्ति तत् स्वरूपं विभेदकं विशेषधर्मस्य लक्षणं भवति । वस्तूनां साम्यपर्यायः सामान्यः, विसदृशो विशेषः । यथा विशेषावश्यके कथितमिदम् तम्हा वत्थूरणं चिय जो सरिसो पज्जो स सामन्न । जो विसरिसो विसेसो स मोऽरणत्यंतरं तत्तो ।। [विशेषा० २२०२ ] पद्यानुवाद : _ [ उपजातिवृत्तम् ] विशेष-सामान्य विभक्त धर्मा, सभी पदार्था उभयात्मरूपा । जात्यादि सामान्य पदार्थ है भी, जात्यादि से भेद विशेष है भी ॥३॥ भावानुवाद : विश्व के समस्त पदार्थ सामान्य और विशेष भेदों में विभक्त होकर उभयात्मक स्वरूपवाले हैं। जीव और अजीव आदि पदार्थ उभयात्मक रूपवाले हैं। प्रत्येक पदार्थ के दो रूप अर्थात् दो दृष्टिकोण होते हैं। एक नयविमर्शद्वात्रिशिका-६

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