Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

View full book text
Previous | Next

Page 75
________________ हैं इन्हें शब्दनय में ही क्यों न समाविष्ट किया जावे । इन दोनों नयों को शब्दनय में समाविष्ट करने पर नयों की संख्या पाँच ही रह जायगी। ये हैं 'नगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द'-ये पांच नय ही मूल रूप से रह जायेंगे । प्रत्येक नय के सौ भेद होते हैं तो इन पाँचों नयों के पांच सौ भेद हो जाते हैं । ___ इस कथन से स्पष्ट होता है कि समभिरूढ़ तथा एवंभूत दोनों नय शब्दनय के साथ अन्तहित हो जाय तो मूलरूप से पांच नय ही हैं। इस मतान्तर का उल्लेख विशेषावश्यक में करते हुए पूज्य श्रीजिनभद्रगरिग क्षमाश्रमणजी म. ने भी कहा है कि “एक अन्य आदेश भी है, जिससे नय के पाँच सौ भेद होते हैं" ॥२०॥ [ २१ ] सप्तानामपि नयानां द्वयोरेव वर्गीकरणम् [ उपजातिवृत्तम् ] द्रव्यास्तिके भान्ति च नैगमादि चतुर्नया वै ऋजुसूत्रकान्ताः। शब्दादयस्ते चरमे त्रयोऽपि, पर्यायपूर्वास्तिकर्तिनः स्युः ॥२१॥ नयविमर्शद्वात्रिशिका-५४

Loading...

Page Navigation
1 ... 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110