Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

View full book text
Previous | Next

Page 42
________________ 35 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण के दुराग्रह के फलस्वरूप ही है । अपने को कुन्दकुन्द का अनुयायी घोषित करनेवाले निश्चय एकांत के विष से विषाक्त होकर कुन्दकुन्द के सच्चे अनुयायी दिगम्बर साधुओं की प्रतिष्ठा गिराने में लगे हैं एवं त्याग-तपस्या के मार्ग के विपरीत झंडा गाड़ रखा है । यद्यपि जैन समाज इससे सावधान होकर परित्याग कर रहा है । 2. सामाजिक एवं व्यक्तिगत स्वास्थ्य का अनुभव अनेकान्त में ही होता है । एक आँख से ही सदैव देखनेवाला मनुष्य अंत में अस्वस्थ हो ही जावेगा । नय और नयन लगभग एकार्थवाची हैं । नय भी नेत्र हैं । द्रव्यार्थिक (निश्चय), पर्यायार्थिक (व्यवहार) नेत्र रूपी वस्तु स्वरूप को जानने के उपाय हैं ।। ऊपर आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने जिस संगठन और स्वास्थ्य का महामंत्र अनेकान्त उद्घोषित किया है वह अनेकान्त ही भगवान् महावीर का सर्वोदय तीर्थ है । आचार्य समन्तभद्र की यह उक्ति दृष्टव्य है - सर्वान्तवत् तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथ्योऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं दुरन्तं सवर्णोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥युक्त्यनुशासन 92॥ इस श्लोक में आचार्य समन्तभद्र ने अर्पितानर्पित नय-पद्धति के प्रयोग युक्त एवं समस्त आपत्तियों के नाशक अर्थात् सहअस्तित्व के महामन्त्र अनेकान्त को सर्वोदय तीर्थं के रूप में व्याख्यापित किया है । यही मन्तव्य आचार्य आचार्य ज्ञानसागर का ऊपर वर्णित है । पदार्थों के सत्स्वरूप का वर्णन करते हुए महाराज ने अभेद नय (निश्चय नय) एवं भेद नय का निरूपण निम्न श्लोक एवं स्वोपज्ञ टीका में किया है उदाहरण के माध्यम से सुपाच्य एवं सुगम रूप में है, अवलोकनीय है । सदेतदेकं च नयादभेदाद् द्विधाऽभ्यधास्त्वं चिदचित्प्रभेदात् । विलोडनाभिर्भवतादवश्यमाज्यं च तक्रं मुनि गोरसस्य ॥ - सर्ग 26/92|| टीका - हे प्रभो ! सदिति सामान्य वस्तु तदपि चामेदान्नयादेवैकं भवति । भेदान्नयान्तु पुनस्त्वं चिच्चेतनात्मकमचिज्जडात्मकमिति प्रभेदाद् द्विधा द्विरूपतयाभ्यधा उक्तवान् । यथावश्यमेव विलोडनाभिर्गोरस्यैकस्यैवाज्यं घ्रतं तक्रं च मथितमिति भवतादेवेति द्विरूपं पृथक् पृथक् भुवि। हे भगवान्, इस सत् को आपने अभेद नय से एक तथा भेद नय की अपेक्षा चेतनअचेतन के प्रभेद से दो प्रकार का कहा है । यह ठीक ही है कि विलोडन करने पर पृथ्वी पर गोरस के घी और तक्र के भेद से दो भेद अवश्य हो जाते हैं । पदार्थ का स्वरूप भेदाभेदात्मक होने से ही व्यवहार और निश्चय नय की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है । आचार्य ज्ञानसागरजी ने सोदाहरण दोनों भेदों को वास्तविक माना है । घी-तक्र दोनों प्रत्यक्ष दृष्टव्य हैं उसी प्रकार दोनों नय वास्तविक हैं कोई भी नय अवस्तु का कथन नहीं करता । यहाँ हम उक्त कथन की पुष्टि हेतु आचार्य अमृतचन्द्रजी का निम्न कलश प्रस्तुत करते हैं, एकस्यचैको न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपातौ । यस्यत्ववेदी च्युत पक्षपात स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥81॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106