Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 101
________________ 94 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण चित्रण वस्तुगत हैं, कुछ अवस्तु नहीं । आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट कहा है (समयसार) कि जिस प्रकार अनार्य भाषा के बिना म्लेच्छ को समझाना अशक्य है उसी प्रकार बिना व्यवहार के निश्चय का उपदेश अशक्य है । जिस प्रकार अक्षर के भेद-प्रभेद रूप विन्यास के बिना बालक को सर्वप्रथम ही अक्षर ज्ञान नहीं हो सकता, अपितु उसे 'अ' के पेट, चूलिका, दण्ड, रेखा ( , । -) अलग-अलग बताने पड़ते हैं तथा तभी उन अवयवों से ही 'अ' बनता है, उसी प्रकार खण्डशः वर्णन रूप व्यवहार नय प्राथमिक जीवों को उपयोगी है एवं व्यवहार भेदों के एकत्रीकरण से ही निश्चय का स्वरूप निष्पन्न होता है । आशय यह है कि व्यवहार साधन है और निश्चय साध्य । पूर्व में मोक्षमार्ग को भी व्यवहार एवं निश्चय दो प्रकार बताकर साधन-साध्य भाव प्रकट किया ही है । द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नय-चक्र में माइल्लधवल में कहा है - णो ववहारेण विणा णिच्छयसिद्धो कया विणिहिट्ठा । साहण हेऊ जम्हा तम्हा य भणिय सो ववहारो ॥ - बिना व्यवहार के तीन काल में भी निश्चय की सिद्धि निर्दिष्ट नहीं की गई है। सिद्धि का कारण होने से ही उसे व्यवहार कहते हैं । आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने अपने वाङ्मय में इसी आर्षभाव की सम्यक् सिद्धि की है । आचार्य अमृतचन्द्रजी ने पञ्चास्तिकाय की टीका में इस साध्य-साधन भाव को दृढ़ता से गाथा नं. 167 से 178 तक प्रतिपादित किया है अवश्य पठनीय है । उन्होंने दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनों रत्नों को व्यवहार और निश्चय दोनों रूपों को मान्यता दी है । व्यवहार को निश्चय का बीज प्रतिपादित किया है। यानी व्यवहार ही निश्चय के रूप में परिणमित हो जाता है जो निश्चय और व्यवहार में से किसी भी एक का पक्षपात करता है वह देशना का फल प्राप्त नहीं करता । उसके लिए तो उपदेश ही व्यर्थ है । कहा भी है - व्वहारनिश्चयौ यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्य ॥पु. सिद्धि-8॥ किसी नय की अवहेलना वस्तु तत्त्व की अवहेलना है । नय तो जानने के लिए है। समय-समय पर प्रत्येक नय काम में आता है । आ. अमृतचन्द्रजी ने गोपिका के उदाहरण से मुख्य - गौण करने रूप अनेकान्तमय जैनी नीति को निम्न आर्या में प्रस्तुत किया है - एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुततत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ॥पु. सि. 225॥ - जैसे गोपिका मक्खन निकालने के लिए मथानी की रस्सी के दोनों छोरों को पकड़े रहती है एक को खींचती है दूसरी को ढीला करती है उसी प्रकार तत्त्व प्राप्ति का इच्छुक रस्सी स्थानीय प्रमाण के दोनों अंश व्यवहार-निश्चय इनमें से किसी को छोड़ता नहीं है

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