Book Title: Navtattva Prakaran
Author(s): Nilanjanashreeji
Publisher: Ratanmalashree Prakashan

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Page 10
________________ आशी: स्वर जैनदर्शन की यह एक सर्व सामान्य नीति है कि वह अहिंसा का आचरण करने से पूर्व ज्ञान प्राप्त करे । 'पढमं नाणं तओ दया' ज्ञान के अभाव में आचरण अपनी सार्थकता नहीं बना सकता । ज्ञान की परिभाषा परमात्मा महावीर के अनुसार भाषागत विद्वत्ता या संसार से जुडी उच्चस्तरीय डिग्री नहीं बल्कि आत्मज्ञान है । उनका यह स्पष्ट कथन है कि 'जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ' जो एक (स्वयं) को जानता है, वह सर्व को जानता है । 1 आत्मज्ञान ही उसे अहिंसा पालन और संयम आचरण में राह दिखाता है । जिसे आत्मा का ज्ञान, स्वयं का ज्ञान न हो, वह संसार के पदार्थों को जानकर क्या करेगा ? जिसे स्वयं का ज्ञान है, उसे सृष्टि में फैले अन्य जीवराशि के संबंध में ज्ञान होना स्वाभाविक है और जिसे जीव एवं अजीव, इन दोनों का ज्ञान है, उसे संयम के आचरण एवं अहिंसा की साधना में बाधा नहीं आ सकती । परमात्मा महावीर का यह स्पष्ट विधान है " जो जीवे वि वियाणेइ, अजीवे वि वियाणइ । जीवाजीवे वियाणंतो, सो हु नाहीइ संजमं ॥" जो जीव और अजीव इन दोनों तत्त्वों को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जानेगा और संयम को जाने बिना संयम का पालन कैसे करेगा ? जो संयम का पालन नहीं करेगा, वह इस संसार से स्वयं की चेतना को मुक्त कैसे करेगा ? भारतीय सभी धर्मदर्शनों ने मात्र चार्वाक को छोडकर इस सृष्टि की द्वैत के रूप में व्याख्या की है । किसी ने प्रकृति - पुरुष के रूप में तो किसी ने नाम और रूप से । जैनदर्शन ने इस सृष्टि को जीव और अजीव के रूप में व्याख्यायित- विश्लेषित किया है । यद्यपि परमात्मा के लिये और जो भी परमात्मा होना चाहे उसके लिये मात्र चेतना का ही महत्त्व है, फिर भी अध्यात्म के क्षेत्र में जीव के साथ अजीव की व्याख्या भी प्रस्तुत हुई । इसका कारण यह है कि जब तक चेतना संसार श्री नवतत्त्व प्रकरण ७

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