Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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सपी
महापुरुषों का जीवन जनसाधारण एवं साधक-जनों के लिए स्पृहणीय, प्रेरक एवं मार्गदर्शक होता है। इसीलिए उनके जीवन-दर्शन और व्यक्तित्व की चर्चा की जाती है। किन्तु महापुरुष जैसा जीवन जीते हैं, उसे दूसरा कोई पूर्णतः न तो जान पाता है और न ही उसे समझ पाता है। दूसरा तो केवल बाह्य क्रियाओं को देखकर उनकी महत्ता का अनुमान करता है। बाह्य क्रियाओं से अन्तरंग विचारों, मूल्यों और भावनाओं का सम्यक् आकलन हो पाना कठिन है। इसीलिए किसी महापुरुष या महामनस्वी का जीवन तब तक सम्यक् रूपेण चित्रित करना संभव नहीं, जब तक कि उनके जैसे आध्यात्मिक, वैचारिक एवं आचरण संबंधी मूल्यों को आत्मसात् न कर लिया जाय। मानतुंगाचार्य ने प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव की स्तुति करते हुए कहा है
वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र शशांककान्ताल।
करते क्षमः सुरगुरुपतिमोऽपि बद्धया।। उनका यह कथन अध्यात्मयोगी, उच्चकोटि के साधक,युगमनीषी आचार्यप्रवर पूज्य श्री हस्तीमल जी म. सा. के गुणवर्णन के संबंध में भी उचित ही प्रतीत होता है। गुणसमुद्र आचार्यप्रवर के गुणों का कथन करना अथवा उनकी जीवनी का लेखन करना मेरे जैसे अल्पज्ञ के लिए तो कदापि संभव नहीं। दूसरी बात यह है कि गुण अमूर्त होते हैं। अमूर्त गुणों का ख्यापन मूर्त शब्दों से नहीं किया जा सकता। किन्तु शब्दों की अपनी महत्ता होती है। संस्कृत के महाकवि दण्डी का कथन है
इदमन्यतमः सर्व जायेत भुवनत्रयं ।
यदि शब्दाहवयं ज्योतिरासंसारान्न दीप्येत।। यदि शब्दरूपी ज्योति इस संसार में दीप्त न हो तो तीनों लोक अन्धकारमय हो जाएँ, क्योंकि मानव को उनके संबंध में जानकारी शब्दों से होती है। इसीलिए अमूर्त गुणों एवं उच्च कोटि के साधक जीवन को यत्किंचित् समझने में सहायक जानकर शब्दों का आश्रय लिया जाता है। जैन दर्शन में शब्द पुद्गल माने गए हैं, किन्तु वे भी प्रेरक निमित्त बनकर मूढ साधक को साधना में अग्रसर कर सकते हैं। इसी चिन्तन के साथ आचार्यप्रवर के जीवन, दर्शन, व्यक्तित्व और कृतित्व को शब्दों में निबद्ध करने का किंचित् प्रयास किया गया है।
मैं उस समय असमंजस की स्थिति में आ गया, जब अखिल भारतीय श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ, जोधपुर के तत्कालीन संघाध्यक्ष माननीय श्री मोफतराजजी मुणोत ने पीपाड़ में समायोजित 10 से 12 अक्टूबर सन् 1997 की कार्यकारिणी बैठक में मुझे युगमनीषी, चारित्रनिष्ठ, करुणानिधान, अध्यात्मयोगी, महामनस्वी आचार्यप्रवर पूज्य 1008 श्री हस्तीमल जी म.सा. की जीवनी का कार्य पूर्ण करने का आदेश दिया। मैं अपनी क्षमताओं की सीमा से परिचित था, इसलिए मैंने अपनी असमर्थता भी प्रकट की, किन्तु उनके अगाघ स्नेह एवं कार्यकारिणी सदस्यों के आग्रह के आगे मेरी आवाज बेअसर रही। मैं सोचता रहा कि न तो मेरा कोई आध्यात्मिक स्तर है, न मैं पूज्य गुरुदेव जैसे महनीय व्यक्तित्व को समझने और उसे भाषा में उकेरने का सामर्थ्य रखता हूँ। यह वास्तव में मेरे लिए इसलिए भी कठिन है, क्योंकि न तो लछेदार भाषा का प्रयोग मेरे स्वभाव में है, और न ही इस प्रकार की कृति के निर्माण का मुझे कोई अनुभव है। मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ कि प्रतिभासम्पन्न, समर्पित संघसेवी संघ के पूर्व महामंत्री एवं पूर्व उपाध्यक्ष मेरे अग्रज भाई श्री ज्ञानेन्द्र जी बाफना को संघाध्यक्ष माननीय श्री रतनलाल जी बाफना ने 'आचार्य श्री हस्ती जीवन चरित्र प्रकाशन समिति' का अध्यक्ष मनोनीत कर दिया। इससे मुझे राहत का अनुभव हुआ। अब दायित्व की चिन्ता कुछ कम हो गयी। कतिपय माह