________________ भूमिका माते हैं कि उन्हें विशेष बात करनेका मानो भवसर ही नहीं है। ठीक ही है, विवाह समबके निर्णीत होनेपर मो महान् उत्तरदायित्वपूर्ण मार कन्यापिताके ऊपर आ जाता है, उसे मुक्तभोगी या सहृदय ही कोई व्यक्ति समझ सकता है। रामाषिराज होते हुए भी मीमको कितनी चिन्ता है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण कविने बहुत सुन्दर चित्रित किया है। योग्य वर-चरणका सुसमाचार सुनाकर वे सहपर्मिणी महारानीसे कहते हैं कि-'विवाह मङ्गल योग्य खी-सम्बन्धी कार्योको तुम सियां करो तथा हमलोग मौत स्मात विधियोंको करते हैं। ऐसा कहकर उत्तर या स्वीकृति पाये बिना ही झट बाहर मा नाते हैं_ 'सजन्तु पाणिग्रहमङ्गलोचिता मृगीरशः बीसमयस्पृशः क्रियाः श्रुतिस्मृतीनाश्तु वयं विदध्महे विधीनिति स्माह च नियंयौ च सः॥(१५।७) तथा महारानीके आशानुसार विविध प्रकार के पकवानों को बनानेमें निपुणतमा पुरन्ध्रियां मी तुरन्त अपने-अपने कार्योंका निपुणता पूक भारम्म कर देती हैं 'काचित्तदाऽऽलेपनदानमण्डिता कमप्यहवारमगारपुरस्कृता।। अलम्भि तुझासनसन्निवेशमादपूपनिर्माणविदग्धपाऽऽदरः // ' (15/12) साथ हो राजमहल तथा नगरकी सजापट होने लगती है। कपड़ेको काटकर तथा उन्हें उन्हीं सुगन्धि द्रव्योंसे सुवासितकर बनाये गये असामयिक फूलोंकी माला के आधिक्यसे मार्ग चंदबासे आच्छादित की तरह शीखने लगे। उन कपड़ों के असामयिक फूलोंकी मुगन्धको भौर कोई तो क्या, सौरमके पारखी भ्रमर भी नहीं पहचान सके और उन्हें सचा फूल समझकर सौरभलोमसे समन्ततः आकृष्ट होने लगे 'पथामनीयन्त तथाऽधिवासनान्मधुव्रतानामपि दत्तविभ्रमाः। वितानतामातपनिर्भयास्तदा पश्छिदाऽकालिकपुष्पजाः मजः // ' ( 15 / 14) विवाहार्थ वधू-परका मण्डन तथा विवाहविधिका वर्णन नैषधकारने कुमारसंयवके पार्वती करके समान हो किया है, किन्तु नैपषका वर्णन मत्युदात्त विस्तृत एवं सरस है। कुमारसम्मवमें मण्डन के उपरान्त पार्वतीके दपंग देखने का वर्णन इस प्रकार है - 'क्षीरोदवेलेव सफेनपुमा पर्याप्तचन्देव शरप्रियामा ! नवं नषदोमनिवासिनी सा भूषो पो दर्पणमादधाना // ' ( 7 / 26 ) तथा नैषध, वहा वर्णन निम्नावित है'मणीसनाभी मुकुरस्य अण्डले बभी निजास्यप्रतिबिम्पदर्शिनी। विधोरदूरं स्व मुखं विधाय सा निरूपयन्तीव विशेषमेतयोः॥ जितस्तदास्येन कलानिधिदधे विचन्द्रधीसाधिकमायकायताम् / तथापि जिग्ये युगपत्सखीयुगप्रदर्शितावर्शवषिष्णुता // किमालियुग्मार्पितदर्पणद्वये तदास्यमेकं बहु चान्यदम्वुजम् / हिमेषु निर्वाप्य निशासमाधिभिस्तदात्य सालोक्यमितं पक्षोक्यत // (15 / 50-52)