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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि से इन प्रतिभाशाली मुनि को आचार्य पद प्रदान कर श्रीजिनचन्द्रसूरिजी नाम से प्रसिद्ध किया। आचार्य पद महोत्सव इनके पिता साह रासल ने वडे समारोह पूर्वक किया। श्रीजिनदत्तसूरिजी की इन पर महती कृपा थी। उन्होंने स्वयं । 'इन्हें जिनागम, मंत्र, तन्त्र, ज्योतिप आदि पढा कर सभी विपयों में पारंगत विद्वान बना दिया। ये भी सर्वदा गुरु सेवा में दत्तचित्त रहते थे।
श्रीजिनदत्तसूरिजी का भावी संकेत विनयी शिप्य की सेवा से युगप्रधान गुरुजी बड़े प्रसन्न थे। उन्होंने इन्हें गच्छ सञ्चालन एवं आत्मोन्नति की अनेक शिक्षाएँ दी थीं, उनमें एक शिक्षा वडी ही महत्त्व की थी कि जिसे हम गुरुसेवा का अमूल्य लाभ ही कह सकते है वह शिक्षा यह थी कि “योगिनीपुर-दिल्ली में कभी मत जाना।" क्योंकि दिल्ली में उस समय दुष्ट देव और योगिनियों का बहुत उपद्रव था एवं श्री जिनचन्द्रसूरिजी का मृत्युयोग भी उसी निमित्त से ज्ञात कर
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१ वाल्ये श्रीजिनदत्तसूरि विभुभियें दीक्षिताः शिक्षिता ।
__दत्त्वाचार्यपद स्वय निजपढे ते रेव सस्थापिता' ॥ ६ ॥ श्रीमजिनचन्द्रसूरिगुर्वोऽपूर्वेन्दुविम्वोपमा. ।
न प्रस्तास्तमसा कलकविकलाः क्षोणी बभूवुस्ततः ॥ ७ ॥
[शालिभद्र चरित्र, स० १२८५ में पूर्णभद्र कृत]