Book Title: Manidhari Jinchandrasuri
Author(s):
Publisher: Shankarraj Shubhaidan Nahta
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प्रकाशक - शंकरदान गुमैराज नाहटा १६, आर्मेनियन स्ट्रीट,
कलकत्ता।
मुद्रक :भगवतीप्रसाद सिंह
न्यू राजस्थान प्रेस, ७३ए, चासाधोवापाड़ा स्ट्रीट,
कलकत्ता।
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किग्नित वक्तव्य
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( २ ) न्याय से यह चरित्र स्वतन्त्र रूप से प्रकाशित करते हुए हमे हर्प होता है।
हमे यह देख कर दुख होता है कि लोगों मे साहित्यिक रूचि का वडा ही अभाव है। खास कर राजस्थानी और जेन साहित्य के प्रति तो हिन्दी भापा-मापियों का रुख बड़ा ही विचारणीय है। यदि यह विचार किया जाय तो प्रमाणित होगा कि ये दोनों साहित्य भारतीय भापाओं में संस्कृत को छोड़ कर वाकी किसी भी भाषा के साहित्य-भडार से टकर ले सक्ने है। पर जैन समाज और राजस्थानी ससार अपनी इस साहित्य निधि को इस प्रकार मुलाये बैठा है मानो उससे उसका कुछ सम्बन्ध ही नहीं है। यदि हम और भी संकुचित दृष्टि से विचार करें तो मालूम होगा कि, खरतरगच्छ मे दादाजी के हजारों भक्त है। साथ ही दादाजी के माननेवालों की तादाद अन्य गच्चों में भी काफी है। भावुक श्रावक दादाजी के मदिर, पादुकाओ के स्थापनादि कार्यों में दिल खोलकर खर्च करते हैं। मुक्तहस्त होकर उनकी सेवा-भावना का प्रसार होता है। पर सबसे अधिक दुःख तो इस बात का है कि, हम जिनकी अर्चना, सेवा और भक्ति प्रदर्शन के लिये इतनी धनराशि व्यय करते हैंउनकी कृतियों का, उनके अप्रतिम चरित्रो को जानने की ओर चप्टिपात भी नहीं करते। यह जाति की मरणोन्मुखता का ही द्योतक है। जागृत जातियां कभी भी ऐसा नहीं कर सकती। इससे कोई हमारा मतलब यह नहीं समझे कि हम पूजा-अर्चना
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की अवहेलना करने की सिफारिश करते हैं पर हमारा नम्र निवेदन तो इतना ही है कि, लोग पूजा करें-दिन दूनी करें पर साथ ही इस बात का ज्ञान भी प्राप्त करने का प्रयास करें कि हमार आराध्य देवों ने, हमारे पूज्यवर आचार्यों ने संसार को जो अतुलनीय बान दिया है वह क्या है उन्होंने संसार के लिये क्या क्या रन छोड़ है। आशा है समाज हमारे इस निवेदन पर गंभीरता से विचार करेगा।
आज 'बंगला साहित्य' इतनी समृद्धि पर इसीलिये है कि बंगाली जाति ने उसको गौरव के साथ देखा है। अपने लेखकों, साहित्य-स्रष्टाओं को उसने उच्च आसन पर बैठाया है। उसने अपने साहित्य की भित्ति पर अपनी जाति का निर्माण किया है। पर हमारा समाज साहित्य से एक दम उदासीन है। वह पूजा करता है, पर यह नहीं जानता कि वह क्यों और किस प्रकार के महान् पुरुष के महान आदर्श की अर्चना करता है। यह स्थिति दुःखद है और उज्ज्वल भविष्य की सूचना नहीं देती। हमने इसके पूर्व जैन साहित्य के १० ग्रन्थ प्रकाशित किये हैं। जिनमे दो तो दादाजी आचार्यों के जीवनचरित्र ही है और एक ऐतिहासिक जैन काव्यों का वृहत् संग्रह है। यदि जैन समाज इसको समुचित आदर के साथ स्वीकार कर लेता तो दिन पर दिन इस प्रकार के ग्रन्थों को शीघ्रातिशीघ्र प्रकाशित करने का प्रयास किया जाता। भारतीय विद्वानों ने तो इन ग्रन्थों का बहुत ही आदर किया है। भारतीय पत्रों ने इनकी
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( ४ ) बहुत ही प्रशंसा की है। पूज्य मुनिराज श्रीलब्धिमुनिजी ने युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि और दादा श्रीजिनकुशलसूरि इन दोनों प्रन्यों के आधार पर संस्कृत काव्यों का भी निर्माण किया है। परहने समाज की ओर से जैसा चाहिए उत्साह नहीं मिला। फिर भी कमण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन की सुप्रसिद्ध उक्ति के अनुनार हम अपने कर्तव्य-मार्ग पर रद है और यह ग्यारहवां पुष समाज की सेवा में इस आशा के साथ रत रहे है कि सभी न कभी समाज में जागृति होगी ही।
श्रीमणिधारीजी का चरित्र बहुत ही संक्षिा निलता है एवं उस समय का अन्य इतिहास भी प्रायः अंधकारमय है। अत. बहुत कुछ अन्वेषण करने पर भी हम इस चरित्र को मनोनुकूल नहीं बना सके। पुस्तक छोटी हो जाने के कारण उनके रचित व्यवस्था-बुलक को भी सानुबाद इसमें प्रकाशित किया जा रहा है। साथ ही इसका नहत्व इसलिये भी अधिक है कि आचार्यश्री की यही एकमात्र कृति हमें उपलब्य है। इसकी एक पत्र की प्रति यति श्रीमुकुन्दचन्दजी के संग्रह में मिली थी व दूसरी जैसलमेर भंडार की प्रति से यति लक्ष्मीचन्दजी नकल कर के लाये । उसले हमने मिलान तो कर लिया था पर जैसलमेर भंडार की मूल ताडपत्रीय प्राचीन प्रति के न मिल सकने के कारण पाठ-गुद्धि ठीक नहीं हो सकी है। पूज्य मुनिराज श्रीकवीन्द्रसागरजी ने जनसाधारण के लिये इसको अधिक उपयोगी बनाने के उद्देश्य ले इसकी संस्कृत
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( ५ ) छाया और भापानुवाद किया है। इसके लिये हम उनके आभारी हैं। ___ पूज्य श्री मणिधारीजी का चित्र या मूर्ति आदि न मिल सकने के कारण उनके समाधि-स्थान के चित्र को ही देकर संतोप करना पड़ता है। इसकी प्राप्ति हमें पूज्य श्रीजिनहरिसागरसूरीजी की कृपा से श्री केशरीचंदजी वोहरा दिल्लीनिवासी द्वारा हुई है जिसके लिये हम दोनों ही महानुभावों के आभारी है।
इस चरित्र का मुख्य आधार जिनपालोपाध्याय रचित 'गुर्वावली' है। अतः उपाध्यायजी का उपकार तो हम शब्दों द्वारा व्यक्त ही नहीं कर सकते। यह सूचित करते हमें हर्ष होता है कि इस ग्रन्थरन का संपादन पुरातत्त्वाचार्य श्रीजिनविजयजी जैसे सुप्रसिद्ध विद्वान् ने किया है और अब वह 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' से, प्रकाशित होने जारहा है।
हमने जिस समाधिरथान के चित्र का उल्लेख ऊपर किया है उसके सम्बन्ध में हम यहां यह सूचित कर देना उचित समझते हैं कि इस स्थान पर श्री मणिधारीजी के देहावसान के बाद स्तूप निर्माण हुआ था और वह स्तूप श्रीजिनकुशलसूरिजी के गुरु कलिकालकेवली श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के समय में विद्यमान था। इसका प्रमाण हमें गुर्वावली से ही प्राप्त होता है। उसमें लिखा है । कि श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने संवत् १३७५ में उसकी दो बार यात्रा की थी। इस समय वहां पर चरणपादुका या मूत्ति नहीं है।
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इम पुस्तिका की प्रस्तावना शैकानेर के मुसिद्ध विद्वान पं० श्रीदशस्यनी गर्मा [.. नहोदय ने लिखने की कृपा की है। अन. इन उन ऋता है। नाय ही पूल इतिहासनत्व महादधि जनाचार्य श्री विजयेन्तमूरिजी ने इस प्रप्त-संशोधन आदि कार्यो में हमारा हाथ टाया है इस लिये हम उनके मी अमारी है और आशा करते है त्रिविद्वानों का सहयोग हुने बराबर मिलता रहेगा।
बिनीत. अगरचन्द्र नाहटा भंवरलाल नाहटा
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प्रवेशिका
अन्तिम जैन तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी एवं महात्मा बुद्ध प्रायः समकालीन थे। हृदयहीनता एवं दम्भ का विरोध कर इन महान् आत्माओं ने संसार को कारुण्य का उपदेश दिया था। परन्तु बौद्ध धर्म अव भारतवर्ष से विलीन हो चुका है। उसके विहार एवं मठ अव 'बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि' 'सघं शरणं गच्छामि' के वाक्यों से प्रतिध्वनित नहीं होते। जिस धर्म का चक्रवती महाराज अशोक एवं हर्षवर्धन ने प्रसार किया था उसके भारतीय अनुयायी अव अंगुलियों पर गिने जा सकते है। इस महान परिवर्तन का कारण क्या धार्मिक अत्याचार था ? क्या पुष्यमित्र और शशाक की तलवारों ने इस धर्म का नाश कर दिया ? भारतीय इतिहास का पृष्ठ-पृष्ठ चिल्ला कर कहेगा कि नहीं। बौद्ध धर्म पर अन्त तक भारतीय राजाओं की कृपा रही, अन्त तक उसके लिये विहारों
और संघारामों की मृष्टि होती रही। उसे किसी ने नष्ट नहीं किया, वह स्वयं ही नष्ट हो गया। वह विलासिता, शिथिलता, एवं उत्साहहीनता के बोझ से दब गया और फिर न उठ सका। सहजयान, वज्रयान, कुलयान आदि की सृष्टि कर वह केवल
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स्वयं अनाचार-प्रस्त नहीं हुआ, अपितु दूसरों को भी अनाचारअस्त बना कर भारत के पतन का मुख्य कारण वना। ___ ख्रिस्तीय आठवीं शताब्दी के आसपास जैनधर्म भी इसी पतन की तरफ किसी न किसी अंश मे अग्रसर हो चुका था। आचार्य-प्रवर श्रीहरिभद्र के कथनानुसार कई जैन साधु मन्दिरों में रहते, उनके धन का उपभोग करते, मिष्टान्न. घृत, ताम्बूल आदि से अपने शरीर और जिह्वा को तृप्र करते. और नृत्य, गीतादि का आनन्द लेते। यदि जैन धर्म के विषय में इनसे प्रश्न किया जाता तो इहकालीन कई धर्माध्यक्षों के अनुसार यही कह कर टाल देते कि यह विषय अत्यन्त सूक्ष्म है, श्रावकों को मति के लिये अगम्य है। केशलुञ्चन का इन्होंने परित्याग कर दिया था, स्त्रियों की संगति को ये सर्वथा त्याज्य नहीं समझते थे, धनी गृहस्थों का विशेष मान करते, और अन्य भी कई जिन शिक्षा के विरुद्ध आचरण किया करते थे। यदि प्रभावक चरित के कथन का विश्वास किया जाय तो उस समय के कई वड़े वडं आचार्य भी इस आचारशथिल्य से सर्वथा अस्पृष्ट नहीं थे। कन्नौज के सम्राट नागभट्ट द्वितीय के गुरु सुविख्यात श्रीवप्पभट्टि हाथी पर सवार होते थे, उनके शिर पर चमर डुलाए जाते थे, और उनका राजाओं के समान सम्मान किया जाता था।
श्रीहरिभद्राचार्य ने इस स्थिति को सुधारने का प्रयत्न किया। परन्तु उन्हें पूरी सफलता न मिली। स्वयं श्रीहरिभद्रा
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( ३ ) चार्य के प्राचीन स्थान चित्तौड में चैत्यवासियों का प्राबल्य था, और गुजरात तो एक प्रकार से उनका घर ही था। वे पहले चावड़ों के, और तदनन्तर चौलुपयों के अनेक वर्ष तक गुरु रहे। उनका विरोध करना कोई साधारण कार्य न था। परन्तु पतन एवं बौद्धधर्म के समान भरण की तरफ अग्रसर होते हुए जिनोपदेश का उद्धार करना आवश्यक था। अतएव चन्द्रकुल शिरोमणि श्रीजिनेश्वरसूरि ने चैत्यवासियों के प्रबलतम दुर्ग पत्तन मे ही उनका विरोध किया और दुर्लभराज चौलुक्य की सभा में उन्हें परास्त कर, अपने गच्छ के लिये 'खरतर नामक' प्रसिद्ध विरुद किया। नवाङ्ग वृत्तिकार सुविख्यात दार्शनिक श्रीअभयदेवसूरि ने अपनी पुस्तक-रचना एवं उपदेश द्वारा इस कार्य को अग्रसर किया। उनके शिष्य श्रीजिनवल्लभ अपने समय के अन्यतम विद्वान् थे। उन्होंने केवल अनेक ग्रन्थों की ही रचना नहीं की, अपितु समस्त राजस्थान, बागड और मालवा में विहार कर सत्य धर्म का उपदेश दिया और विधिचैत्यों की स्थापना की। 'चर्चरी' के कथनानुसार श्री हरिभद्राचार्य के ग्रन्थों का मनन कर श्री जिनवल्लभसूरि ने विधिमार्ग का प्रकाशन किया (श्लोक १४)। जिन जिन बातों पर श्री हरिभद्राचार्य ने आक्षेप किया था वे सब विधिचैत्यों मे वर्जित थी। यहां रात्रि के समय नृत्य और प्रतिष्ठा न होती, रंडियों न नाचती, और रात्रि समय स्त्रियाँ चैत्यों में प्रवेश न करतीं। जाति और ज्ञाति का यहां कदाग्रह न था, और लगुड रास
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आदि वर्जित थे। श्रावक लोग जने पहले यहा न आने थे, और न यहाँ नाम्चूल-चत्रण होता था। नृत्य, हाम, क्रीडा, तथा जिनोपदेश विन्द्व अन्य कार्य यहां सर्वथा निपिद्ध थे। चिनोड, नग्वर, नागौर, मरोट आदि विविर्चत्यों में ये शिक्षाएं प्रशस्ति रूप में लगा दी गई थीं।
श्रीजिनदत्तनूरि इनके मुयोग शिष्य थे। इनका चरित्र इम ग्रंथमाला में शीव ही प्रकाशिन होगा। अतः यहां इतना ही कहना पयांप होगा कि ये अत्यन्त प्रभावशाली एव निभीक उपदेवा थे। यदि सब धर्माचार्य इनके समान
"मड वा पगे मा विम या पग्यित्तट ।
भामिव्वा हिया भामा मपम्प गुणकारिया ॥" कह सके तो क्या ससार में कभी धर्म की अवनति हो सकती है ? ___इस लघुकाय पुस्तिका मे अगरचन्दजी एवं भंवरलालजी नाहटा ने इनके सुशिप्य एवं पट्टधर श्रीजिनचन्द्रमूरि का चरित्र दिया है। पुम्नक बड़ी खोज के साथ लिखी गई है। विद्वान् लेंग्यका की इस बात से में मर्वथा सहमत हूँ कि सूरिजी द्वारा प्रतियोधित मदनपाल कोई सामान्य श्रावक मात्र नहीं बल्कि दिल्ली का राजा था।
चौहानों के अधीन होने पर भी किसी अन्यवंशीय राजा का दिल्ली में राज्य करतं रहना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। विग्रहराज चतुर्थ ने आशिका अर्थात हांसी को दिल्ली से पहिले जीता था, किन्तु संवत् १२२८ मे वहाँ भीमसिंह नामक चौहाने
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( ५ )
तर वंश का राजा राज्य करता था। पुराने विजेता अधिकतर विजितवंश को सर्वथा अधिकार-च्युत न करते थे। यदि राजा ने अधीनता स्वीकार कर ली और कर देना स्वीकार किया तो यह पर्याप्त समझा जाता था। विग्रहराज के शिलालेख मे केवल इतना ही लिखा है कि उसने आशिका के ग्रहण से श्रान्त अपने यश को दिल्ली अर्थात् दिल्ली में विश्राम दिया। इसका यह मतलव हो सकता है कि दिल्ली के राजा ने विग्रहराज की अधीनता स्वीकार की। यह शिलालेख हमे यह मानने के लिये विवश नहीं करता कि चौहान-सम्राट् ने दिल्ली के राजवंश
और राज्य को ही समाप्त कर दिया। श्री जिनपाल उपाध्याय का कथन सर्वथा स्पष्ट है, और उसके आधार पर हम निस्सकोच कह सकते है कि सम्वत् १२२३ में योगिनीपुर अर्थात् दिल्ली में राजा मदनपाल का राज्य था। वे सर्वथा स्वतन्त्र थे या पराधीन- यह दूसरा विपय है और इसका निर्णय अन्यत्र उपलभ्य ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर किया जा सकता है।
इस सुन्दर पुस्तिका को लिखने के लिये अगरचन्दजी एवं भंवरलालजी दोनों ही वधाई एवं धन्यवाद के पात्र है। भगवान से प्रार्थना है कि वे इसी तरह चिरकाल तक नवीन-नवीन एवं शोधपूर्ण पुस्तकों द्वारा हिन्दी साहित्य की वृद्धि करते रहे।
बीकानेर चैत्र कृ. ३,१९९६
दशरथ शर्मा
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि
न समाज में सुप्रसिद्ध दादा सनक खरतरगच्छ के
चार ( आचार्यों में श्रीजिनदत्तसूरिजी के अनन्तर मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरिजी का पुनीत नाम आता है। ये बडे प्रतिभाशाली विद्वान एवं प्रभावक आचार्य थे। केवल २६ वर्ष की अल्पायु पाकर इन्होंने जो कार्य किये वे सचमुच आश्चर्यजनक और गौरवपूर्ण हैं। गुरुवर्य श्रीजिनदत्तसूरिजी दे उनकी प्रतिभा की सच्ची परख की थी, उनके लोकोत्तर प्रभाव की गहरी छाप श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के जीवन मे अङ्कित पाई जाती है। मणिधारीजी का व्यक्तित्त्व महान एवं असाधारण था । इसो का सक्षिप्त परिचय इस लघु पुरितका में दिया जा रहा है।
१ श्रीजिनदत्तसूरि, चरित्रनायक श्रीजिनचन्द्रसूरि, श्रीजिनकुशलसरि और युगप्रवान श्रीजिनचन्द्रसूरि-इनमे से पिछले दो आचार्यों का चरित्र हम पूर्व प्रकाशित कर चुके हैं। श्रीजिनदत्तसरिजी का चरित्र शीघ्र ही प्रकाशित करेंगे।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसरि
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जन्म
जेसलमेर के निकटवर्ती विक्रमपुर ' में साह रासल नामक पुण्यवान श्रेष्टि निवास करते थे। उनके देल्हणदेवी नामक सुशीला धर्मपत्री थी। उसकी रत्नगर्भा कुक्षि से सं० ११६७ भादवा शुक्ला ८ के दिन ज्येष्टा नक्षत्र मे हमारे चरित्रनायक श्रीजिनचन्द्रसूरिजी का जन्म हुआ था। ये आकृति के बड़े ही सुन्दर, सुडौल और लावण्यवान थे।
१ यह स्थान (पोहकरण ) फलोवी मे ४० मील पर अब भी इमो नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि इस समय यहा जनी की वस्ती एव जन मन्दिर विद्यमान नहीं है, फिर भी कई चगावशेप इतस्ततः पाये जाते हैं। यहा के मन्दिर की मूर्तिया जेसलमेर के मन्दिर में विराजमान की गई हैं।
कई लोग बीकानेर, जिसका नाम भी विक्रमपुर पाया जाता है, नाम साम्य की भ्रान्ति से आक्षेप करते हैं कि उस समय बीकानेर बमा भी नहीं था, लेकिन वास्तव में यह बात अनानमूलक है। स० १२९५ में सुमतिगणि कृत गणधरसार्वशतक वृहति से स्पष्ट है कि श्रीजिनदत्तमूरिजी ने यहा के वीरजिनेश्वर की प्रतिष्ठा की थी। भूत-प्रेती को तिरस्कृत किया था। खरतरगच्छ पट्टावलीसग्रह में प्रकाशित स० १५८२ की सूरिपरम्परा प्रशस्ति में लिखा है कि महामारि के उपञ्च को गान्त कर माहेश्वगनुयायि लोगों को जनवर्म का प्रतियोव टेकर जैनी बनाया था।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि विक्रमपुर में श्रीजिनदत्तसूरिजी का बड़ा भारी प्रभाव था। सूरिजी ने बागड़ देश में 'चर्चरी " नामक ग्रन्थ रच कर विक्रमपुर के मेहर, वासल आदि श्रावकों के पठनार्थ वह चर्चरी टिप्पनक विक्रमपुर भेजा। उससे प्रभावित हो कर सहिया के पुत्र देवधर ने चैत्यवास आम्नाय का परित्याग कर सूरिजी को अजमेर से विक्रमपुर ला कर चातुर्मास कराया। सूरिजी के अमृतमय उपदेश से वहा पर बहुत से व्यक्ति प्रतिबोध पाये । बहुतों ने देशविरति और सवविरति धर्म स्वीकार किया। वहा के जिनालय में सुरिजी के कर-कमलों से महावीर भगवान की प्रतिमा स्थापित की गई।
एक वार रासलनन्दन बाल्यवस्था में आपके निकट माता के साथ पधारे। बालक के शुभ लक्षणों को देख कर सूरिजी ने उसी समय उनके होनहार एवं प्रतिभासम्पन्न होने का निश्चय कर लिया और अपने ज्ञान-बल से इस बालक को अपने पट्ट के सर्वथा योग्य ज्ञात किया।
दीक्षा विक्रमपुर में महती धर्म-प्रभावना कर युगप्रधान गुरुदेव
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१ यह अन्य अपभ्रश भाषा की ४७ गाथाओं में है। उपाध्याय श्रीजिनपालजी कृत वृत्ति सहित गायकवाड़ ओरियन्टल सिरीज' से प्रकाशित 'अपभ्रश काव्यत्रयी' मे मुद्रित हो चुका है।
२ विशेष जानने के लिए गणधरसार्धशतक हवृति देखनी चाहिए।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रमुरि
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अजमेर पधार और वहीं सं० १२०३ के मिती फाल्गुन शुक्लाह के दिन श्रीपार्श्वनाथ विविचत्य मे हमारे चरित्रनायक की दीक्षा हुई। आप असाधारण बुद्धिशाली और स्मरण शक्ति सम्पन्न थे, दो वर्ष के विद्याध्ययन मे ही आपकी प्रतिभा चमक उठी। सभी लोग इस लघुवयम्क सरस्वतीपुत्र मुनि की मेधा एव सूरिजी की परख की भूरि भूरि प्रशंमा करने लगे।
आचार्य पद सं० १२०५ । के मिती वैशाख शुक्ला को विक्रमपुर के श्री महावीर जिनालय मे श्री जिनदत्तमरिजी ने स्वहस्त कमल
__१० श्री क्षमाक्यागजी की पट्टावली में स० १२११ लिखा है लेकिन वह ठीक नहीं जात होता । म० १३१० दीवाली के दिन प्रहारनपुर में विरचित अभयनिलकोपाध्याय के द्वयाश्रयकाव्य उत्ति की प्रगस्ति में लिखा हैनन्पट्टाचलचूलिकाचल्मल चक्रेऽप्वोऽपि म
श्रीमान्द्रो जिनचन्द्रसूरि सुगुरु कण्ठीर वा भेपिम य लोगेत्तररूपसपदमपेन्य स्व पुलिन्दोपम
मन्वानोऽनुदधौ स्मरस्तदुचिताथाप गरान्यं वच ॥en इसी मितो में स्तम्भतीयं मे २० श्रीचन्द्रतिलक रचित श्री अभयकुमार चरित्र में भी ९ वर्ष के अवस्था में सुरिपट मिलने का उल्लेख मिलता है। श्रीजिनपालोपाध्याय ने गुर्वावली में भी यही बात लिखी है। पिछली अन्य पट्टावलियों में भी सूरिपद का समय स० १२०५ ही लिखा है।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि से इन प्रतिभाशाली मुनि को आचार्य पद प्रदान कर श्रीजिनचन्द्रसूरिजी नाम से प्रसिद्ध किया। आचार्य पद महोत्सव इनके पिता साह रासल ने वडे समारोह पूर्वक किया। श्रीजिनदत्तसूरिजी की इन पर महती कृपा थी। उन्होंने स्वयं । 'इन्हें जिनागम, मंत्र, तन्त्र, ज्योतिप आदि पढा कर सभी विपयों में पारंगत विद्वान बना दिया। ये भी सर्वदा गुरु सेवा में दत्तचित्त रहते थे।
श्रीजिनदत्तसूरिजी का भावी संकेत विनयी शिप्य की सेवा से युगप्रधान गुरुजी बड़े प्रसन्न थे। उन्होंने इन्हें गच्छ सञ्चालन एवं आत्मोन्नति की अनेक शिक्षाएँ दी थीं, उनमें एक शिक्षा वडी ही महत्त्व की थी कि जिसे हम गुरुसेवा का अमूल्य लाभ ही कह सकते है वह शिक्षा यह थी कि “योगिनीपुर-दिल्ली में कभी मत जाना।" क्योंकि दिल्ली में उस समय दुष्ट देव और योगिनियों का बहुत उपद्रव था एवं श्री जिनचन्द्रसूरिजी का मृत्युयोग भी उसी निमित्त से ज्ञात कर
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१ वाल्ये श्रीजिनदत्तसूरि विभुभियें दीक्षिताः शिक्षिता ।
__दत्त्वाचार्यपद स्वय निजपढे ते रेव सस्थापिता' ॥ ६ ॥ श्रीमजिनचन्द्रसूरिगुर्वोऽपूर्वेन्दुविम्वोपमा. ।
न प्रस्तास्तमसा कलकविकलाः क्षोणी बभूवुस्ततः ॥ ७ ॥
[शालिभद्र चरित्र, स० १२८५ में पूर्णभद्र कृत]
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मणिबारी श्रीनिनचन्द्रसूरि
इन्हं दिल्ली जाने का सर्वथा निषेध किया था। सूरिजी के भावी संक्त का तात्पर्य यह था कि ये इस सम्बन्ध में सतर्क रहें।
गच्छनायक पद संवन १२११ मिती आपाढ शुक्ला ११ को अजमेर नगर में श्रीजिनदत्तनूरिजी महाराज स्वर्ग सिधा। तभी से गच्छ सञ्चालन का मारा भार इनके ऊपर आ गया। ये भी बडी योग्यता पूर्वक इस महान पढ को निभाने लगे।
विहार सवन् १२१४ मे श्रीजिनचन्द्रसूग्जिी त्रिभुवनगिरि । पधारे। वहा परमगुरु श्रीजिनदत्तमूरिजी द्वारा प्रतिष्टित श्री
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१ ग्यारहवीं शताब्दी के जनाचार्य श्रीप्रा नमूरिजी ने त्रिभुवनगिरि के कदम गजा को जन बनाया था। जो टोलिन होकर श्रीवनश्चमूरिनी के नाम में प्रसिद्ध हुए थे।
[जन साहित्य का सक्षिप्त इतिहास पृ. १६२-७ ] म. १९६५ मे रचित 'गणवरमार्यशतक वृहद वृत्ति' और 'गुर्वावली' में श्रीजिनदत्तमूग्जिी के त्रिभुवनगिरि पवारने और वहा महाराजा कुमारपाल को प्रतिवाब देने का उलेय पाया जाता है।
हमारे सग्रह के श्रीवादिदेवमूरिचरित्र में त्रिभुवनगिरि के दुर्ग में रक्तवन वादा को पराजा करने का वर्णन मिलता है।
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ram ramarrrrrrrrrrrronarrrrrrrrrn.
मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि शान्ति जिनालय के शिखर पर स्वर्ण दण्ड, कलश और ध्वजा को महा महोत्सव पूर्वक चढ़ाया गया। साध्वी हेमदेवी गणिनी को इन्होंने प्रवर्तिनी पद से विभूपित किया। वहां से विहार कर क्रमशः मथुरा पधारे । वहा की यात्रा कर सं० १२१७ के फाल्गुन शुक्ला ? १० के दिन पूर्णदेव २ गणि, जिनरथ, वीरभद्र, वीरनय, जगहित, जयशील जिनभद्र और नरपति (श्री जिनपतिसूरि ) को भीमपल्ली : के श्री वीरजिनालय में दीक्षा दी
गुर्वावली में श्री जिनपतिसुरिजी के नेतृत्व में स० १२४४ में एक संघ निकला उसमे त्रिभुवनगिरि से यशोभद्राचार्य के समीप अनेकान्त जयपताका, न्यायावतार आदि अन्यों के पढ़ने वाले शीलसागर और सोमदेव स्थानीय सघ के साथ आकर पूज्यश्री के आज्ञानुसार सघ में सम्मिलित होने का उल्लेख है।
१ हमारे सम्पादित ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह के अन्तर्गत श्री जिनपतिसूरि के गीतद्वय में दीक्षा स० १२१८ फाल्गुण कृष्ण १० लिखा है पर गुर्वावली में दो स्थानों में उपर्युक्त संवत् तिथि मिलने के कारण व प्रस्तुत जीवनी का मुख्य आधार गुर्वावली होने के कारण हमने भी उसी को स्थान दिया है।
२ स० १२४५ मे लवणखेटक स्थान में श्रीजिनपतिसूरिजी ने इनको वाचनाचार्य पद से विभूषित किया था।
३ आपका सक्षिप्त परिचय हमारे 'ऐतिहासिक जैन काव्य सग्रह' के सार भाग पृष्ठ ९ में देखना चाहिए। गुर्वावलो मे आपका जीवन अति विस्तार से मिलता है, जिसे स्वतन्त्र रूप या गुर्वावली के अनुवाद के रूप में प्रकाशित किया जायगा।
४ वर्तमान भीलड़ी पालनपुर एजेन्सी मे डीसा ग्राम से ८ कोश
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि गई। साह क्षेमन्धर' को प्रतिवोध दिया। वहां से विहार कर सूरिजी मल्कोट (मरोट ) पधारे। स्थानीय श्री चन्द्रप्रभस्वामी के विधिचैत्य पर साधु गोल्लक कारित स्वर्णदण्ड, कलश व ध्वजारोपण किया गया। इस महोत्सव में साह क्षेमन्धर ने ५००J उस्म ( मुद्रा ) देकर माला ग्रहण की। __मस्कोट से विहार कर सूरि-महाराज सं० १२१८ में उच (सिन्धु प्रान्तीय ) पधारे वहा पभदत्त, विन ........."
विनयशील. गुणवर्द्धन, मानचन्द्र' नामक ! साध और जगधी, सरस्वती और गुणश्रीनामक साध्वी त्रय को दीक्षा दी। इसी प्रकार क्रमशः सूरिजी के समीप और भी बहुत से व्यक्ति दीक्षित होते गये।
पश्चिम में है। विशेष जानने के लिए मुनि श्री कल्याणविजयजी का "जैन तीर्थ भीमपत्री अने रामनन्य” गीर्षक लेख पढ़ना चाहिए जो कि जैन युग सं० १९८५-८६ के भाद्रपद-कार्तिक के अक मे छपा है।।
१ ये पद्मप्रभाचार्य के पिता थे, जिनसे सं० १२४४ में आगापल्ली मे श्रीजिनपतिसूरिती ने गास्त्रार्य किया था। इसका कुछ उल्लेख श्री जिनप्रतिमूरिजी ३ वाढस्थल और विस्तार पूर्वक वर्णन गुर्वावली में मिलता है। ___ २ इन्हें भी लवणखेटक में उपर्यत पूर्णदेव गांग के साथ स० १२४५ में श्रीजिनरतिमूरिजी ने वाचनाचार्यपट दिया था।
३ स० १२३४ मे श्रीजिनपतिसूरिजी ने इन्हें महत्तरा पद दिया था।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि
सवत् १२२१ में सूरिजी सागरपाड़ा पधारे। वहा सा० । गयधर कारित पार्श्वनाथ विधि चैत्य में देवकुलिका की प्रतिष्ठा
की। वहा से अजमेर पधार कर स्वर्गीय गुरुदेव श्रीजिनदत्तसूरिजी के स्तूप ' की प्रतिष्ठा की। वहा से क्रमशः विहार करते हुए सूरिजी बब्बेरक पधारे। वहां वा० गुणभद्र २ गणि, अभयचन्द्र, यशचन्द्र, यशोभद्र, देवभद्र और देवभद्र की भार्या को दीक्षा दी गई। आशिका (हाँसी) नगरी में नागदत्त को वाचनाचार्य पद दिया। महावन स्थान के श्री अजितनाथ विधिचेत्य की प्रतिष्टा की। इन्द्रपुर के श्री शान्तिनाथ विधिचत्य के स्वर्ण दण्ड, कलश और ध्वज की प्रतिष्ठा की। तगला ग्राम में वाचक गुणभद्र गणि के पिता महलाल श्रावक के वनवाये हुए श्री अजितनाथ विधिचैत्य की प्रतिष्ठा की। ___ सं० १२२२ में वादली नगर के श्री पार्श्वनाथ मन्दिर में उपर्युक्त महलाल श्रावक कारित स्वर्ण दण्ड, कलश की प्रतिष्ठा की। अम्बिका-मन्दिर के शिखर पर स्वर्ण-कलश की प्रतिष्टा
१ सवत् १२३५ में श्रीजिनपतिसरिजी ने इस स्तूप को बड़े विस्तार से पुनः प्रतिष्ठा की थी।
२ स० १२४५ में लवणखेटक में श्रीजिनपतिसूरिजी ने इन्हें वाचनाचार्य पद से सुशोभित किया था। इनके पिताका नाम महलाल श्रावक था जिनकी करवाई हुई तगला और चौरसिदा की प्रतिष्ठा का उल्लेख ऊपर आ ही चुका है।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रभूमि कर मूरि-महाराज ने न्द्रपली ' की ओर विहार किया। नपट्टी से नरपालपुर पधारे, वहां ज्योतिष शास्त्र के किश्चित अभ्याम से गर्विष्ट एक ज्योतिषी से साक्षात्कार हुआ। ज्योतिष सम्वन्धी चर्चा करते हुए मूरिजी ने उसे कहा कि चर. स्थिर. द्विस्वभाव इन ३ स्वभाव वाले लग्नों में किसी भी लग्न का प्रभात्र दिवाओ। ज्योतिषी के निहत्तर होने पर मूरिजी ने वृष लग्न क ११ से ३० अंशां तक के समय मार्गशीर्ष मुहर्न में श्री पार्श्वनाथ मन्दिर के समक्ष एक शिला १७६ वर्ष तक स्थिर रहने की प्रतिज्ञा से अमावस्या के दिन स्थापित कर उस ज्योतिषी को जीत लिया। ज्योतिषी लजित होकर चला गया। श्रीजिनपालोपाध्याय गुर्वावली में लिखते है कि वह शिला अव (रचनाकाल सं० १३०५) तक वहां विद्यमान है।
पबचन्द्राचार्य से शास्त्रार्थ वहां से विहार कर श्रीजिनचन्द्रसूरिजी पुनः ठपल्ली पधार । वहां किसी दिन मुनि मण्डली सहित लयुवयस्क सूरि महाराज
श्रीजिनदत्तमूरिजी ने यहा पधार र बहुत से व्यचियों को मन्यक्ती, टशविर्गन, सर्वविरति बनाम था। एवं श्री पार्श्वनाथ स्वामी और श्रीपभदेव प्रमुक त्रलय में प्रतिष्ठा की थी। श्रीजिन्वभिमूरिजी के शिष्य अंजिनावरांनाथाय भी यहीं के थे । इस स्थान के नाम पर रखरतरगच्छ की वरीय शाखा इन्हीं से प्रादूभूत हुई।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि को अपने पास से होकर वहिभूमि जाते देख मात्सर्यवश पद्मचन्द्राचार्य नामक चैत्यवासी ने उनसे पूछा कहिये ! आचार्यजी आप आनन्द में हैं "
सूरि-हाँ। देवगुरु के प्रसाद से आनन्द में हूं।
पद्म०-आप आज कल किन किन शास्त्रों का अभ्यास करते है ?
यह सुन कर साथ मे रहे हुए मुनि ने कहापूज्यश्री आज कल न्याय कन्दली” १ का चिन्तन करते है।।
पद्म-क्यों, आचार्यजी आपने तमोवाद का चिन्तन कर लिया है।
सूरिजी-हाँ, तमोवाद प्रकरण देखा है। पद्म०-आपने उसका अच्छी तरह से मनन किया है। सूरिजी-हां, कर लिया है।
पद्म०-अन्धकार रूपी है या अरूपी, एवं उसका रूप कैसा है?
सूरिजी-अन्धकार का स्वरूप कैसा ही हो, पर उस पर वाद करने का यह समय नहीं है। वाद विवाद तो राजसभा
१ यह ग्रन्थ श्रीधर का बनाया हुआ है। इस पर हर्षपुरोयगच्छ के मलधारी श्रीदेवप्रभसूरि ( १३ वीं शताब्दी) के शिष्य नरचद्रसरि ने टिप्पण लिसा है। एवं उन्हीं की परम्परा मे राजशेखरसूरि ( १५ वो शताब्दी) ने पशिका बनाई है।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि में प्रधान सभ्यों के समक्ष होना ही उचित है। नीति और प्रमाणों द्वारा अपने अपने पक्ष का समर्थन करके वस्तु स्वरूप का तभी विचार हो सकता है। यह निश्चित है कि स्वपक्ष स्थापना करने पर भी वस्तु अपना स्वरूप नहीं छोड़ती।
पद्म-पक्ष स्थापनामात्र से वस्तु अपना स्वरूप छ नहोड़े पर परमेश्वर तीर्थङ्करों ने 'तम को द्रव्य कहा है, यह सर्व लम्मत है।
मूरिजी-अन्यकार को उन्य मानना कौन अस्वीकार करता है?
पूज्यत्री ने वार्तालाप के समय ज्यों ज्यों शिष्टता और विनय प्रदर्शन किया त्यों त्यों पद्मचन्द्राचार्य अहवार में उन्मत्त हो गए। कोप के आवेग से उनक नेत्र लाल हो गए, शरीर कांपने लगा और कहने लग-"जब मैं प्रमाण रीति से अन्धकार द्रव्य हैं इसे स्थापित करूँगा तब तुम क्या मेरे सामने ठहर सकोगे।"
सुरिजी-किस की योग्यता है और किसकी नहीं, यह तो मौका पड़ने पर राजसभा में स्वतः विदित हो नायगा। पशुप्राया की जंगल ही रणभूमि है, आप हमें लघुवयस्क सममा कर अपनी शक्ति को अधिक न वधारिये ! मालम है ? छोटे शरीर वाले सिंह की दहाड़ सुन कर पर्वताकृति गजराज भी डर नान है। ___ इन दोनों आचार्यों का विवाद मुन कर कौतुक देखने के लिए वहां कितने ही नागरिक एकत्र हो गए। दोनों पक्ष के
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि
१३ श्रावक अपने अपने आचार्य का पक्ष लेकर एक दूसरे को परस्पर अहंकार दर्शाने लगे। बात बढ़ते बढ़ते राजसभा मे शास्त्राथ निश्चित हुआ। निश्चित समय पर शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने बडी विद्वता के साथ विपक्षी के युक्ति और प्रमाणों को रद्द कर स्वपक्ष का स्थापन किया।
पद्मचन्द्राचार्य शास्त्रार्थ में परास्त हो गये। राज्याधिकारियों ने समस्त जनता के समक्ष श्रीजिनचंद्रसूरिजी को जयपत्र समर्पण किया। चारों ओर से सूरिजी की जयध्वनि प्रस्फुटित हुई। सूरिजी की विद्वत्ता एवं सुविहित मार्ग की बड़ी प्रशंसा हुई। श्रावक लोगों ने इस विजय के उपलक्ष में बड़ा महोत्सव किया। सूरिजी के भक्त श्रावकों की 'जयतिहट्ट' नाम से प्रसिद्धि हुई और पद्मचंद्राचार्य के श्रावक 'तर्कहट्ट' कहलाने लगे। इस प्रकार यशस्वी आचार्य श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने कई दिन तक वहां ठहर कर सिद्धान्तोक्तविधि से अच्छे सथवाड़े के साथ वहा से प्रस्थान किया।
म्लेच्छोपद्रव से संघ रक्षा क्रमशः विहार करते हुए मार्ग में वोरसिदान प्राम के समीप संघ ने पडाव डाला। उसी समय वहा म्लेच्छों के आने की खबर लगने से सथवाड़े के लोग भयभीत होने लगे। संघ को म्लेच्छों के भय से व्याकुल देख कर सूरिजी ने कहा--'आप लोग आकुल क्यों हो रहे है ?
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसरि साथवाले लोगों ने कहा-भगवन् । देखिये, वह म्लेच्छों की मेना आ रही है, इस दिशा में आकाश धूलि से आच्छादित हो रहा है। यह देखिो-सैनिकों का कोलाहल भी सुनाई देता है।
पूज्यश्री ने सावधान होकर सब से कहा--महानुभावो! धैर्य रखो अपने ऊंट, बैल आदि चतुष्पदी को एकत्र कर लो। प्रनु श्रीजिनदत्तसूरिजी सब का भला करेंगे।
तत्पश्चात पूज्यश्री ने मन्त्रध्यानपूर्वक अपने दण्डे से संघ के चारों और कोट के आकार वाली रेखा खींच दी। सथवाड़े के लोग गोणी मे घुस गये। उन लोगों ने घोड़ों पर चढे हुए हजारों म्लेच्छों को पडाव के पास से जाते हुए देखा परन्तु म्लच्छा ने सब को नहीं देखा, वे केवल कांट को देखते हुए दूर चल गये। सब लोग निर्भय होकर चले, और क्रमशः दिल्ली के समीप जा पहुंचे।
सूरिजी के पधारने की सूचना पाकर दिल्ली के ठक्कुर लोहट, सा० पाल्हण, मा० मुलचंद्र, सा० महीचद आदि सब के मुख्य श्रावक बड़े समारोह के साथ सूरिजी के वन्दनार्थ सन्मुख चल पड़े।
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महाराजा मदनपालप्रतिवोध
दिल्ली नगर के प्रधान लोगों को सुन्दर वेशभूपा से अलंकृत, सपरिवार सवारियों पर आरूढ़ होकर नगर से बाहर जाते
१ पिछले पट्टावलिकारों ने मदनपाल को श्रीमाल श्रावक लिखा है परन्तु गविली से स्पष्ट है कि उस समय वे दिल्ली के महाराजा थे। यथापि भारतीय ऐतिहासिक ग्रन्थों में उनका उल्लेख नहीं पाया जाता पर तँवर राजवगावली शुद्ध एव परिपूर्ण उपलब्ध नहीं है तथा उस समय दिली के शासक कौन थे इगके जानने के लिए भी कोइ मुद्रादि साधन उपलब्ध नहीं है अतएव गुर्वावली तिमिराच्छन्न भारतीय इतिहास पर एक नवीन प्रकाश डालती है। गुर्वावलीकार के कथन में सन्देह का कोई भी कारण नही हो सकता क्योंकि इसके कर्ता उ० जिनपाल की दीक्षा स. १२२५ में हुई थी अतः हमारे चरित्रनायक के साथ में रहने वाले गीतार्थों के मुग से सुनी हुई सत्य घटना को हो सकलित किया गया है। उपाध्यायजी चरित्रनायक के पशिष्य थे एव उनका समय भी अति सन्निकट अर्थात् जिनचन्द्रसूरिजी के म्वर्गवास के दो वर्ष पश्चात् ही आपकी दीक्षा हुई थी। इसलिए पावलिकारों का कथन यहीं तक ग्राह्य हो सकता है कि मदनपाल के आग्रह से रिजी दिल्ली पधारे थे और वह आपका अत्यन्त भक्त था अतः उमे श्रावक शब्द से सम्बोधित कर दिया है।
क्षमाकल्याणजी की पट्टावली में उस समय दिल्ली का शासक पातसाह लिसा है पर यह सर्वथा भ्रान्तिमूलक ही है ।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रमूरि हुए देख कर राजप्रासाद में बैठे हुए महाराजा मदनपाल ने विम्मय पूर्वक अपने प्रधान अधिकारियों से पूछा-"ये नगर के विशिष्ट लोग बाहर क्यों जा रहे है ?” उन्होंने कहा-'राजन् ! अत्यन्त सुन्दर आकृतिवाले अनेक शक्ति सम्पन्न इनके गुरु महाराज आये है, ये लोग भक्तिवश उनके स्वागतार्थ जाते हैं। ___ कौतूहलवश महाराना के मन में भी सरिजी के दर्शनों की उत्कण्ठा जागृत हुई और राजकर्मचारियों को आज्ञा दी किहमारे पट्ट घोड़े को सजाओ और नगर में घोषणा कर दो कि सब राजकीयपुरुप तैयार होकर शीघ्र हमारे साथ चलें।। ___ राजाना पाकर हजारो सुभट लोग अश्वारूढ़ होकर नरपति के पोछे हो गये। महाराजा मदनपाल श्रावक लोगों से पूर्व ही ससैन्य सूरिजी के निकट जा पहुँचे। ,
साथ वाले लोगों ने राजा साहब को प्रचुर भेंट देकर सत्कृत किया। पूज्यश्री ने भी अमृतमय धर्म देशना दी। राजा साहब ने उपदेश श्रवण कर कहा-महाराज! आपका शुभागमन किस स्थान से हुआ है " पूज्यश्री ने कहा-इस समय हम रुद्रपल्ली से आ रहे हैं। राजा साहब ने कहा-आचार्य भगवन् । उठिये और अपने चरणविन्यास से मेरी नगरी को पवित्र कीजिये।
पूज्यश्री, श्रीजिनदत्तसूरिजी के दिये हुए उपदेश को स्मरण कर कुल भी न बोले। तब उन्हें मौन देख कर पुनः राजा साहब ने कहा-"आचार्य महाराज! आप चुप क्यों हैं? क्या
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१७ मेरे नगर में आपका कोई प्रतिपक्षी है ? या आपके परिवार योग्य अन्नजल की प्राप्ति में असुविधा है। अथवा और कोई कारण है ? जिससे मार्ग में आये हुए मेरे नगर को छोड़ कर आप अन्यत्र जा रहे हैं। ___ सूरिजी ने कहा-“राजन् ! आपका नगर प्रधान धर्मक्षेत्र है" परन्तु.... ... ..
राजा- तो फिर उठिये और शीघ्र दिल्ली पधारिये। आप विश्वास रखिये कि मेरी नगरी में आप की ओर कोई अङ्गाली भी नहीं उठा सकेगा। दिल्लीश्वर मदनपाल के विशेप अनुरोधवश श्रीजिनदत्तसूरिजी की दिल्लीगमन निषेधात्मक आना का उलघन करते हुए उन्हें मानसिक पीडा अनुभव होती थी, फिर भी भवितव्यता के वश से दिल्ली की ओर प्रस्थान करना पड़ा।
आचार्यश्री के प्रवेशोत्सव के उपलक्ष मे सारा नगर बन्दरवाल, तोरण और पताकाओं से सजाया गया। २४ प्रकार के वाजिन वजने लगे। भट्ट लोग विरुदावली गाने लगे। सधवा स्त्रियाँ मङ्गल गीत गाने लगीं। स्थान स्थान पर नृत्य होने लगा। लाखों मनुष्यों को अपार भीड़ के साथ महाराजा मदनपाल सूरिजी की सेवा में साथ चल रहे थे। प्रवेशोत्सव का यह श्य अभूतपूर्व था। लोगों का हृदय आनन्द से परिपूर्ण हो गया।
सूरिजी के पधारने पर नगरवासियों मे नवजीवन का संचार होने लगा। उनके उपदेशामृत की झड़ी से अनेक लोगों
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसरि की सन्तप्त आत्मायें शान्ति-लाम करने लगी। नृपति मदनपाल भी अनेक समय दर्शनार्थ आकर मूरिजी के उपदेशों का लाभ उठाते थे। द्वितीया के चन्द्रमा की भांति उनका धर्म-प्रेम दिनोंदिन बढ़ने लगा।
अं० कुलचन्द्र पर गुरु कृपा श्रीजिनचन्द्रमूरिजी को दिल्ली में रहते हुए कई दिन बीत गए। एक दिन अपने अत्यन्त भक्त श्रावक कुलचन्द्र को धनाभाव के कारण दुर्वल देख कर दयालु आचार्य महाराज ने कुंकुम कस्तूरी, गोरोचन आदि सुगन्धित पदार्थो से लिखे हुए मन्त्राक्षर युक्त यन्त्रपट्ट कुलचन्द्र को देते हुए कहा-इस यन्त्रपट्ट को अपनी मुष्टि प्रमाण वासक्षेप से प्रतिदिन पूजना, यन्त्रपट्ट पर चढा हुआ वह निर्माल्य वासक्षेप पार आदि के संयोग से सोना हो नायगा। कुलचन्द्र भी सुरिजो की वतलाई हुई विधि के अनुसार पूजा करने लगा जिससे वह अल्पकाल में करोड़पति हो च्या ।
देवता प्रतिबोध एक दिन सुरिमहाराज दिल्ली के उत्तरीय दरवाजे से वहिभूमि जा रहे थे। उस दिन महानवमी अर्थात् नवरात्रि का अन्तिम दिन था। मार्ग में जाते हुए मास के लिये लड़ते हुए दो मिथ्याष्टि देवताओं को देखा। दयाल हृदयवाले आचार्य
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१९ महाराज ने उनमे से अतिवल नामक देवता को प्रतिवोध दिया। वह भी उपशान्त होकर सूरिजी से कहने लगा-आपके उपदेश से मैंने मासवलि का परित्याग कर दिया है परन्तु कृपा कर के मुझे रहने के लिए कोई स्थान बतलावें जहां रहता हुआ मैं आपके आदेश का पालन कर सकें। ___ सूरिजी ने कहा-अच्छा, श्रीपार्श्वनाथ विधिचैत्य मे प्रवेश करते समय दक्षिणस्तम्भ में जाकर निवास करो।
देवता को इस प्रकार आश्वासन देकर सूरिजी पौषधशाला मे पधारे । उन्होंने सा० लोहड, सा० कुलचन्द्र, सा० पाल्हण आदि प्रधान श्रावकों को सारी बात कहसुनाई और श्रीपार्श्वनाथ मन्दिर के दक्षिणस्तम्भ में अधिष्ठायक की मति उत्कीर्ण करने का संकेत किया। श्रावकों ने भी वैसा ही किया, सूरिजी ने बड़े विस्तार से उसकी प्रतिष्ठा कर अधिष्ठायक का नाम "अतिवल" प्रसिद्ध किया, श्रावक लोग अधिष्ठायक की अच्छे अच्छे मिष्टान्नों द्वारा पूजा करने लगे और अतिवल भी उनके मनोवांछित पूर्ण करने लगा।
स्वर्गवास
इस प्रकार धर्म प्रभावना करते हुए सूरिजी ने अपना आयु शेप निकट जान कर सं० १२२३ के द्वितीय भाद्रपद कृष्णा १४ को चतुर्विध संघ से क्षमतक्षामणा की और अनशन आराधना के
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रमरि साथ स्वर्ग सिधारे । अन्त समय मे श्रावकों के समक्ष आप श्री ने एक भविष्यवाणी की कि "शहर के जितनी ही दूर हमारा देह-संस्कार किया जायगा, नगर की आवादी उतनी ही दूर तक बढ जायगी" इन शब्दों को स्मरण कर श्रावक लोग सूरिजी की पवित्रदेह को वडे समारोह के माथ अनेक मण्डपिकाओं से मण्डित निर्यान-विमान में विराजमान कर नगर के बहुत दूर लि गए। चन्दन कर्पूरादि सुगन्धित द्रव्यों से सूरि-महाराज की) अन्त्येष्टिक्रिया की गई ।
मूरिजी की देह के अन्तिम दर्शन करते हुए श्री० गुणचन्द्र ३ गणि पूज्यश्री के गुण वर्णनात्मक कान्यो: से इस प्रकार स्तुति करने लगे--
१ पट्टावलियों में लिखा है कि आपका स्वर्गवास योगिनी के छल से हुआ था।
२ यह स्थान अभी दिल्ली में कुतुब मीनार के पास 'बड़े दादाजी' के नाम से प्रसिद्ध है। पट्टावलियों में इस स्तूप का अविष्ठाता खोडिया ( खज) क्षेत्रपाल लिया है।
३ स० १२३२ फाल्गुण शुक्ला १० विक्रमपुर में इनके स्तूप की प्रतिष्ठा श्रीजिनपतिसुग्जिी ने की थी। गणवरसार्धगतक की हवृत्ति में इनका परिचय इस प्रकार मिलता है__ये पहले श्रावक थे, एक तुर्क ने इनको हस्तरेखा टेस "यह अच्छा भण्डारी होगा" नात कर भाग जाने को सम्भावना से इन्हे दृढ जजीर से
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(१) चातुर्वगर्यमिदं मुदा प्रयतते तद्र पमालोकितु
मारक्षाश्च महर्पयम्तव वचः क्तु सदैवोधता । शक्रोऽपि स्वयमेव देवमहितो युष्मत्प्रभामीहते
तत्कि श्रोजिनचन्द्रसूरिसगुरो स्वर्ग प्रति प्रस्थितः ॥ अर्थात्-हे सुगुरु श्रीजिनचन्द्रसूरि महाराज | चारों वर्णो के लोग सदैव आपका दर्शन करने के लिए सहर्प प्रयत्न किया करते थे। वैसे ही हम माध लोग भी हमेशा आपकी आज्ञा के लिए प्रस्तुत रहा करते थे फिर भी आप हम निरपराधी लोगों को छोड कर स्वर्ग सिधार गा इसका एक मात्र कारण हमारी समझ में यही आता है कि देवताओं के साथ स्वयं देवराज शकेन्द्र भी वहुत समय से आपके दर्शनों की प्रतीक्षा कर रहा होगा।
(२) साहित्य च निरर्थक समभवनिर्लक्षणं लक्षण
मन्त्रमन्त्रपरैरभूयत तथा कैवल्यमेवाश्रितम् ।
बांध दिया। इस विपत्ति के समय इन्होंने लक्ष नवभारमन्त्र का जाप किया जिसके प्रभाव से जजीर टूट गई और रात्रि के पिछले प्रहर में बन्धन मुक्त हो कर किसी वृद्धा के घर पहुंचे। उसने मदय हो कर उन्हें कोठी में छिपा लिया। तुरुष्क के बहुत सोजने पर भी ये उसके हाथ न लगे और रात्रि के समय निकल कर स्वदेश लौटे। इम विपत्ति के समय वैगग्य पाकर उन्होंने श्रीजिनदत्तमूरिजी महाराज से दीक्षा ग्रहण की थी।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसरि वल्या जिनचन्द्रसरि बरतं स्वगांविरोह हहा!
सिद्धान्तः करिष्यत किमपि यत्तन्नेव जानीमहे ।। अर्थात्-आपकं स्वर्ग पधारने पर साहित्य शास्त्र निरर्थक हो गया. अर्थात् आप ही उसके पारगामी मर्मन थे, वैस ही न्यायशान्न लक्षण शुन्य हो गया, आपका आश्रय टूट जान से निराधार मन्त्रशान्त्रक मन्त्र परस्पर में मन्त्रणा करते है कि अब हमें किस का सहारा लेना चाहिए ? अर्थात-आप मन्त्रशान्त्र के भी अद्वितीय बाता थे। इसी प्रकार ज्योतिष की अवान्तर मंद रमल-विद्या ने आपके वियोग में वैराग्य वश मुक्ति का आश्रय लिया है, अब सिद्धान्त शान क्या करेंगे? इनका हमें पता नहीं है।
प्रामाणिकराधुनिकर्षिययः प्रमाणमार्ग स्फुटमप्रमाणः । हहा! महाकटमुरस्थित ते स्वगांधिरोह जिनचन्नपुर।
अर्थात-आधुनिक मीमांसकों के लिये प्रमाण मार्ग अप्रमाण स्वल्प हो गया है क्योंकि उसका विशेषत्र अब पृथ्वी पर नहीं रहाश्रीजिनचन्द्रमूरिजी! आप स्वगाधिरोहण से सव शास्त्रों में बड़ी हलचल मच गई है।
इस प्रकार गुरु गुण गान करते करते श्रीगुणचन्द्रगणि अधीर हो । उनकी आंखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी। इसी तरह अन्य साधु लोग भी गुल्लह से विह्वल होकर, परस्पर में
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२३ पराइमुग्व हुए अश्रुपात करने लगे । उपस्थित श्रावक लोग भी वस्त्राञ्चल से नेत्र ढांक कर हिचकियां लेने लगे। इस समय चारों ओर मानो शोकसागर उमड पड़ा था। गुरुविरह के अतिरिक्त किसी को अन्य कोई बात नहीं सूझ पड़ती थी। सचमुच इस अप्रिय दृश्य को देख कर अन्य दर्शक लोग भी अपने हृदय को थामने में असमर्थ से हो गए।
इस असमञ्जस अवस्था को देख कर कुछ क्षण के पश्चात् श्री गुणचन्द्रगणि स्वयं धैर्य धारण करके साधुओं के प्रति इस प्रकार कहने लगे
____ "हे महासत्वशील साधुओ। आप लोग अपनी आत्मा को शान्ति दें, खोया हुआ रन अब लाख उपाय करने पर भी हाथ नहीं आने का । पूज्यश्री ने अपने अन्तिम समय में मुझे आवश्यक कर्तव्यों का निर्देश किया है, मैं उनकी आज्ञानुसार वैसा ही कलंगा कि जिस से आप सब को सन्तोप हो। इस समय आप लोग मेरे साथ साथ चले आइए।"
इस समय दाह संस्कार सम्बन्धी क्रिया-कलाप को सम्पादित कर सर्वादरणीय भाण्डागारिक श्रीगुणचंद्र गणि पौषधशाला मे पधारे। वहां कुछ दिन ठहर कर चतुर्विध संघ के साथ बब्वेरक की ओर विहार कर दिया।
श्रीगुणचन्द्र गणि ने बव्वरक जाकर श्रीजिनचद्रसूरिजी की आज्ञानुसार नरपति मुनि को श्रीजिनदत्तसूरिजी के वृद्ध शिप्य
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महोत्सव में देशान्तरीय संघ' भी सम्मिलित हुआ था । इसी समय श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के शिष्य वाचनाचार्य जिनभद्र भी आचार्य पद देकर श्रीजिनभद्राचार्य नामक द्वितीय श्रेणि के आचार्य बनाये गये ।
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पट्टावलियों की दो विशेष बातें
मणिधारीजी का उपर्युक्त चरित्र उपाध्याय श्री जिनपाल रचित गुर्वावली के आधार पर लिखा गया है। पट्टावलियों में और भी कई बाते पाई जाती हैं, जिन मे बहुत सी बातें भ्रान्त और असंगत ज्ञात होती है । ऐतिहासिक दृष्टि से निम्नोक्त दो बातें कुछ तथ्यपूर्ण प्रतीत होने से यहा लिखी जाती है
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१ श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने महत्तियाण ( मन्त्रिदलीय ) जाति की स्थापना की थी, जिन की परम्परा में से कई व्यक्तियों ने पूर्वदेश के तीथा का उद्धार कर शासन की बडी भारी सेवा की है। सतरहवीं शताब्दी पर्य्यन्त इस जाति के बहुत से घर अनेक स्थानों में थे पर इसके बाद क्रमशः उसकी सख्या घटन
जिनपतिमूरिजी के उपर्युक्त प्रसन से मानदेव के समृद्धिसम्पन और जिनपतिसूरिजी पर असीम स्नेह का पता लगता है । स० १२३३ का में कन्यानयन ( करनाल ? ) स्थान में इन्हीं मानदेव ने श्री महानोर सामी का प्रतिमा श्रीजिनपतिसूरिजी से स्थापित करवाई थी। इस प्रतिमा का विशेष वर्णन जिनप्रभसूरि रचित विविध-तोर्घकल के कन्याचयन क्ल को देखना चाहिए।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रमरि
घटतं नाम शेप हो गई है। इस जाति के विपय मे हमारा एक स्वतन्त्र लेख 'ओसवाल नवयुवक' के वर्प ७ अंक ६ मे प्रकाशित हुआ था, पाठकों के अवलोकनार्थ उसे परिशिष्ट में दिया जाता है।
२ श्रीजिनचन्द्रसरिजी के ललाट मे मणि' थी और उसी के कारण उनकी प्रसिद्धि 'मणिधारीजी' के नाम से हुई है। इस मणि के विषय में पट्टावलीकारों का कहना है कि सरिजी ने अपने
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१ मबत् १४१२ को गजगृह प्रशस्ति में इसका उल्लेस इस प्रकार पाया जाता है :
तत पर श्रीजिनचन्द्रमविभूव निमगगुणास्तभूरि चिन्तामणिभलतले यहीयेऽध्युवास वामादिव भाग्यल म्या ॥२२॥
(प्राचीन-जन-लेख-मग्रह, लेखाक ३८०) इसके पीछे का उल्लेख हमारे 'एतिहामिक-जैन-काव्य-सग्रह पृ. ४६ मे प्रकाशित खरतरगच्छ पट्टावली में, जो कि श्रीजिनभद्रसरिजी के समय में रची गई थी, मिलता है
"नरमणि ए जासु निलाड़ि, मलहलह जेम गयणहि दिणदो" 'बन्तरगच्छ पट्टावली सग्रह' में प्रकाशित 'मूरि परम्परा प्रशस्ति' एव पट्टावली त्रय में इसका वर्णन विगेप रूप से मिलता है। लगभग उमी प्रकार का वर्णन श्रीललितविजयजी विरचित यशोभद्रसरि चरित्र में उन आचार्यश्री के सम्बन्ध में पाया जाता है। इसकी समानता बतलाने के लिए उस ग्रन्य से आवश्यक अवतरण यहा दिया जाता है -
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि
२७ अन्त समय में श्रावक लोगों को कहा था कि अग्नि संस्कार के ममय हमारी देह के सन्निकट दूध का पात्र रखना ताकि वह मणि निकल कर उसमें आ जायगी पर श्रावक लोग गुरु विरह से व्याकुल होने के कारण ऐसा करना भूल गए और भवितव्यता सं वह मणि एक योगी के हाथ लगी। श्रीजिनपतिसूरिजी ने उस योगी की स्थम्भित प्रतिमा को प्रतिष्टित कर उससे वह मणि पुनः प्राप्त कर ली थी।
मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरिजी बड़े प्रतिभाशाली थे अतः खरतरगच्च मे प्रति चौथे पट्टधर का नाम यही रखा जाने की परिपाटी इन्ही से प्रचलित होने का पट्टावलियों में उल्लेख है।
___ "श्री आचार्य महाराज इस प्रतान्त को सुन कर अपने ज्ञान का उपयोग देकर बोले-~-मेरी ६ महीने की आयुः वाकी है, मेरे मस्तक में एक प्रभावशाली मणि है उसे लेने के लिए यह ( योगी ) कई उपाय करेगा परन्तु तुम पहले ही मेरे मृतक गरीर में से उस मणि को निकाल लेना और पोल अग्नि राम्कार करना-इस तरह की सूचना भक्त श्रावक को देकर विक्रम स० १०३९ में आचार्य यशोभद्र समाधि पूर्वक स्वर्गास्ट हुए। आचार्यश्री का स्वर्गवास मुन कर वह योगी तत्काल अपनी स्वार्य मिति के लिए वहां आ पहुंचा। उसने आचार्य महाराज के मस्तक को मणि लेन के लिए अनेक प्रयत्न किए। परन्तु जब उसे मालम हुआ कि मणि निकाला गया और वह मुझे किलो तरह कोई उपाय करने पर नहीं मिलेगा तब निराशा के ग को न राहन करते हुए उम योगी का हृदय फट गया।"
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नगियारी श्रीजिनचन्द्रलर ___ सं. १२९४ में संत्रलगच के आचार्य श्रीनहन्टमूरि विरत्रित शतपनी प्रत्य के भामात्नर घट १५२ में "श्रीजिनचन्द्रसरि नी आचरणाओं से तीन बाने लिखी है. इस प्रकार है.
१ एक पट्टना ना ५ लोकमाल. यन. यक्षिणी क्षेत्रवता, बैग्देवता. शासनवता. नामिलदेवता. भद्रकदेवता. आनन्तुल देवता तथा ज्ञान. दर्शन. अने चारित्रना देवता एवं २५ दन्तानी बुल बुटी भी करी।।
२ जिनदतरि चैत्यना नानी के वृद्ध वेश्या ने नचाव टेगरी युवान कन्ग तथा गानारी स्त्रियों नु निषेध कों पण जिनचन्द्रभूरि ए वी बग निषेध करें।
३ जिन्दत्तरिए श्रावित्रा ने मूल प्रतिमा ने अड़क, निग्य है पण जिनचन्द्रगरिए तो एम ठहरान्यु के श्राविकाओ सर्वथा शुचि नहीं जोय माटे तनणे कोई पण प्रतिना ने नहीं अकबु ।
तरगच्चीय त्यों में इन आचरणाओ के सम्बन्ध में उल्लेत्र है या नहीं? यह बने अज्ञात है।
ग्रन्य-रचना भारली विकृत प्रतिमा की परिचायक कोई ऋति आज सामने नहीं है। केवल एक व्यवस्थाशुल्क-(साधु, साध्वी. शक्र. श्राविका शिक्षालन ही उपलब्ध है. जिसे सानुवाद इम पुस्तिका में प्रगट लिया जा रहा है।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि
आपके शासनकाल में रचित खरतरगच्छ का विस्तृत साहित्य उपलब्ध नहीं है। अद्यावधि हमारे अवलोकन मे केवल एक ही ग्रन्थ "ब्रह्मचर्य प्रकरण" गा० ४३ का आया है जो कि श्रावक कपूरमल्ल की कृति है। यह ग्रन्थ छोटा सा एवं अप्रकाशित होने के कारण इस पुस्तक के परिशिष्ट में दे दिया गया है।
उपसंहार महात्मा भर्तृहरि की यह उक्ति "गुणा पूजास्थानं गुणिपु न च लिङ्गन च वयः” सोलहो आने सत्य है। मणिवारीजी की दीक्षा कंवल छः वर्ष और आचार्य पद भी ८ वर्प जैमी लघवय मे योगीन्द्र युगप्रधान परमपितामह श्रीजिनदत्तरिजी के द्वारा होना बहुत ही विग्मयकारक एव आपकी अद्वितीय प्रतिभा का परिचायक है। चैत्यवासी पद्मचन्द्राचार्य जैसे वय एवं ज्ञानवृद्ध आचार्य को शास्त्रार्थ में परारत करना और दिल्लीश्वर महाराज मदनपाल का चमत्कृत हो अनन्य भक्त बनना आपकी विशिष्ट जीवनी के उत्तम प्रतीक है। ग्वेद है कि आपके जीवनचरित्र को श्रीजिनपालोपाध्याय ने बहुत ही संक्षिप्त रूप से मंकलित किया है जिसके कारण हमे जापक मन्चे व्यक्तित्व को पहचानने में कठिनता होती है पर हम श्रीजिनपालोपाध्याय को इस सद्प्रयन के लिए गाधुवाद दिये बिना नहीं रह सकते, क्योंकि आज हमे जो कुछ भी वास्तविक इतिहत्त प्राप्त हुआ है कल उन्हीं की कृपा का सुफल है।
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महोपाध्याय श्री पुण्यसागर कृत अ श्रीजिदछन्द्रसूरि अष्टकम् । श्रीजिनदत्तमुरिन्द पथ, श्रीजिनचन्द्रगुणिन्द ।
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नय (ए) मगिडित भाल यस कुशल कुन्द्र वगचंद॥भा संवत निव सत्तागवयं. मद्यनि मुदि जन्न।
रातल तात सुमानु जनु, देल्प देवि सुबन्त ॥२॥ संरत वार तिरोत्तरयः नगुण नवनि विशुद्ध।
पंच नहन्वय गरि परिय. गाणि पडिबुद्ध ॥३॥ भरह सई पंचोतरन ए, वैशाखाह नदि छट्टि।
यापिड विक्रमपुर नयरि. जिण्डतपुरि सुष्ट्रि॥४॥ तविसइ मात्र सिणि, चद्धति मुह परिणानि ।
सुपुरि पत्ता मुगिपत्रर. श्री जोयमिपुर ठानि ॥५॥ मुह गुरु पूजा नह करड़ ए, नालय ताट निस।
रोग सांग आरति व्लड़ ए. निलइ लछि मुनिशन ॥६॥ नान मंत्र मुन्न पड़ ए, न तग मुहि तिनंन्त।
मनलत सवि तमु हु. ऋजारंभ अन्त॥ ७ !! जाट सुजनु नगि निगमिग ए. चंदुजल निचलंक।
प्रमु प्रतार गुग विष्टड. हरइ डनर रि संच॥८॥ इय अंजिनचन्नमरि गु- संधिगिर गुनि पुत्न।
श्री "युग्यसागर वीनवइ, सहपुर हाउ मुश्मन्न ॥६॥ ईद जिनवरि महामन्त्री बनं मंजूर्गन् ।
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॥ अहं नमः ॥
परिशिष्ट ( १ )
श्रीजिनचन्द्रसूरिजी महाराजकृत
व्यवस्था - शिक्षा- कुलकम्
पणमिय वीरं पणयंगिवग्गसग्गापवग्ग सोक्खकरं । सिरपासधम्मसामि तीत्थयरं सव्वदोसहरं ॥ १ ॥ प्रणम्य वीरं प्रणताङ्गि वर्गग्वर्गापवर्गसौक्ख्यकरम् । श्री पार्श्वधर्मस्वामिनं तीर्थकरं सर्वढोपहरम् ॥ १ ॥
अर्थ --- नमस्कार करनेवाले भव्यजीव समूह को स्वर्ग और मोक्ष के सुन देने वाले श्री महावीर भगवान को एव धर्म के स्वामी- तीर्थ को करने चाले सब दोषों को हरनेवाले श्री पार्श्वनाथ भगवान को प्रणाम करके ।
साहृण साहुणीणं, तह साचय - सावियाण गुणहेउ । संखेवेण सुद्धसद्धम्मववहारं ॥ २ ॥
दंसेमि,
१ ---मुह ।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि साधूना साध्वीना तथा श्रावकश्राविकाणा गुणहेतोः। संक्षेपेण दर्शयामि शुद्धसद्धर्मव्यवहारम् ॥२॥
अर्थ-साधु मावियों के लिये तथा श्रावक श्राविकाओं के गुण का (सुस का ) कारण रूप शुद्ध सत्यधर्म के व्यवहार को सक्षेप से दिखाता हूँ।
उसग्गेणं अववाय ओवि-सिद्धंत सुत्तनिद्दिट्ट । गीयत्थाइणं वा धमत्थमणत्थसत्यहरं ॥३॥ उत्सर्गेण अपवादतोऽपि सिद्धान्तसूत्रनिर्दिष्टम् । गीतार्थाचीर्णं वा धर्मार्थमनर्थसार्थहरम् ॥ ३ ॥
अर्य-उत्सर्ग अपवाद से आगम-ग्रन्थों द्वारा निर्दिष्ट और गीतायों से आचरित वह वर्म-व्यवहार अनर्यसमूह को हरनेवाला होता है ।
जेसिं गुरुमि भत्ती बहुमाणो गउरवं भयं लज्जा । नेहो वि अस्थि तेति, गुरुकुलवासो भवे सहलो ॥ ४ ॥
येपा गुरौ भक्ति-बहुमानं गौरव भय लज्जा।
स्नेहोऽप्यस्ति तेपा गुरुकुलवासो भवेत् सफल ॥ ४॥ अर्थ-जिनकी गुरु महाराज में भक्ति है, बहुमान है, गौरव है गुरु महाराज से जो डरते है,-खराब काम करने मे लज्जा भी करते है और गुरुमहाराज के प्रति स्नेह भी रखते हैं उन साबु पुरुषों का गुरुकुलबास सफल हो जाता है।
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व्यवस्था-शिक्षा-कुलकम्
अवन्नवाइणो सीसा, माणिणो छिद्दपेसिणो। सबुद्धिकयमाहप्पा, गुरुणो रिउणो व्च ते नेया ॥ ५ ॥
अवर्णवादिनः शिष्या मानिनश्छिद्रप्रेक्षिण । स्वबुद्धिकृतमाहात्म्या गुरारिपव इव तयाः ॥५॥
अर्थ-जो शिष्य गुरुमहाराज के अवर्णवादी है अभिमानी और छिन्द्रान्वेषी हैं अपने को अधिक बुद्धिमान समझने वाले हैं उनको गिप्य नहीं गुरुमहाराज के शत्रु जैसे मानने चाहिये ।
नाणदसणसंजूत्तो खेत्तकालाणुसारओ । चारित्त चट्टमाणो जो सुद्धसद्धम्मदेसओ ।। ६ ।।
ज्ञानदर्शनसंयुक्तः क्षेत्रकालानुसारगः । चारित्रे वर्तमानो यः शुद्धसद्धर्म देशकः ।।६।।
अर्थ-जो सम्यग दर्शन और ज्ञान मे मयुक्त हैं क्षेत्र और काल के अनुगार ही चारित्र में वर्तमान है ये ही साधु पुरुष शुद्ध और सत्य धर्मक उपदेशक हो सकते हैं।
१ पहिणी। २-सित्ता ३-चरिते। ४-टेमिओ ।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रमुरि
पासत्थाइ भयं जस्ल-माणसे नत्थि सव्वहा | सव्वविज्जाय-तत्तन्तु समाइगुणसंजुओ ॥ ७ ॥
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पार्श्वस्थादि भयं यस्य मानसे नास्ति सर्वथा ।
सर्वविद्यातत्त्वज्ञ.
क्षमादिगुणसंयुक्त
॥ ७ ॥
अर्थ-पतिन आचार वाले पामस्थों का भय जिनके मन में सर्व्वथा नहीं है। जो मत्र विद्यातत्त्वों के जानकार होते हैं। जो क्ष्मादि गुणों 'सयुक्त होते हैं।
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पुरओ जस्स नन्नस्स जओ होज विचारणो ।
भवे जुगप्पहाणो सो सव्वमोक्खकरो गुरु ॥ ८ ॥
पुरतो यस्य नान्यस्य जयो भवेद्र विवादितः ।
भवेद् युगप्रधान स सर्वसौख्यकरो गुरुः ॥ ८ ॥
अर्थ - जिनके सन्मुख किसी विवाद का जय नहीं हो सक्ता वे युग ने प्रधान गुरु सब सुख को करने वाले होते है ।
वारसंगाणि संघो विवोत्तं पासायामिव संभाव्य तं धरे
पवयणं फुडं |
सया य सो ॥ ६ ॥
प्रवचनं स्फुटम् ।
द्वादशाङ्गानि संघोपि उक्तं प्रासादमिव स्तम्भ इव तद्र्धरति सदा च सः ॥६॥
अर्थ – द्वाडगांगी और नघ को सूत्रों ने पट रूप से प्रवचन कहा है ।
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उनी महल में खने के जैसे हमेशा वही गुरु रहा करता है।
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व्यवस्था-शिक्षा-कुलकम् तदाणाए पयट्टतो, संघो मन्नह सग्गुणो। वियप्पेण विणा सम्म, पावए परमं पयं ॥ १० ॥
तदाज्ञायां प्रवर्तन संघो मण्यते सद्गुणः । विकल्पेन विना सम्यक् प्राप्नुयात् परमं पदम् ॥१०॥ अर्थ-तथोक्त प्रवचनाधार युगप्रधान गुरु की आज्ञा में वर्तता हुआ मघ ही सद्गुणी कहा जा सकता है। बिना किसी सकल्प विक्रय के सन्यक परमपद को वह प्राप्त करता है।
जिणदत्ताणमासज्ज, जं कीरइ तयं हियं । जो तं लंघई मोहा-भवारन्ने भमेइ सो ।। ११ ।। जिन-दत्ताज्ञामासाद्य यत्क्रियते तद् हितम् ।
यस्तं लद्धयति मोहाद-भवारण्ये भमिति सः ॥११॥ अर्थ-श्रीजिनभगवान को दी हुई आज्ञा को श्रीजिनदत्ताना को पाकर के जो अनुष्ठान किया जाता है वह हितकारी होता है। जो मोह से उस का-श्रीजिनदत्ताज्ञा का उल्लघन करता है, वह भवाटची में भटकता है।
पढणं सवणं झाण, विहारो गुणण तहा। तवो कम्म विहाण च, सीवण तुन्नणाइ चि ।। १२ ।।
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मणिधारी प्रीजिनचन्द्रमूरि पठनं श्रावणं ध्यान-विहारो गुणनं तथा। तप कर्म विधानं च, सीवनं तुम्ननाद्यपि ॥१२॥ अर्थ-पहाना, सुनाना, ध्यान करना, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने ल्प विहार करना, गुनना, तपश्चर्या क्रियाविधान और मीना दुन्ना आदि।
भोयण सुवणंजाणं ठाणं दाण निसेहणं । धारण पोत्थयाईण, आणाए गुरुणो सया ॥ १३ ॥ भोजनं शयनं यानं स्थानं दानं निधनम् ।
धारणं पुस्तकादीना-माजया गुरो. सदा ॥ १३ ॥ अर्थ-भोजन करना, सोना, गमन करना, स्थिति करना, दान करना, निषेध करना, पुस्तर माटिको का धारण करना इन्यादि अनुष्ठान गुरु को थाना ने ही करने चाहिये।
तं कन्जंपि न कायव्वं, जं गुरुहिं न मन्नियं । गुरुणो जं जहा विति, कुजा सीसों तहाय तं ॥१४॥ तत्कार्यमपि नो कर्तव्यं यद् गुरुभिर्न मानितम् । गुरवो यद् यथा त्रुवते कुर्याच्छिष्यस्तथा च तत् ।।१४॥ अर्थ-ऐसा कार्य करना ही नहीं चाहिये जो गुल्ओं के अनुमत न हो । गुल्म्हाराज जब जो काम फरमा गिष्य को चाहिये कि वह उसी काय को करे।
१-पुथयाण।
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लकम्
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व्यवस्था-शिक्षा-कुलकम् वायणा सरिणो जुत्ता, निसेज्जा पयकंवला । चउकी पुष्टिवट्टो य, पायाहो-पाय पुंछणं ॥ १५ ॥ वाचना सुग्युक्ता निपद्या पदकम्बला ।
चतुष्किका पृष्टिपट्टश्च-पाढाधः पादपोंछनम् ।। १५ ।। अर्थ-आचार्य महाराज मे वाचना का होना युक्त है। आमन परकम्बल चौको पीठफलक और पैरों के नीचे पादौछन भी आचार्य महाराज के लिये होते हैं।
अर्थ - वाचनाचार्य के लिये निपद्या-आसन पदकवल चौकी पीठफलक पदतल पादपोंछन होना युक्त है।
पाएन चंदणं जुत्त न कप्पुराइ खेवणं । साविया धवले दिति, एसोसुगुरु दिक्खिओ ॥ १६ ॥ पादयोश्चन्दनं युक्त न कर्पूरादिक्षेपणं । श्राविका धवलान् दृढत्येप 'सुगुमटः ॥१६॥
त्येप (विधिः) सुगुरुदर्शितः ।।
अयं-अगपूजा के समय आचार्यदेव के चरणों में चटन लगाना गुरू है. न कि कपूर आदि का ग्येना। आचार्य देव के सामने प्राधिकार धवल देती हैं मगल गीत गाती हैं। एसे मुगुरु देखे गये है। अथरा यह मुगुरु का फरमान है।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रपरि wrwww. waman rrrrrrrrrrr..... ww.rrn xx..mararam
अर्थ-वाचनाचार्य के चरणों में चन्दन पूजा ही युक्त है, न कि कर्पूर आदि का डालना। श्राविकाएँ धवल ढती है मगल गाती है। यह मुगुन का फरमान है। पहजिणवल्लभ सरिसा वाणायरिओ कि होइ जइ कोवि । कप्पूरामखिवणं तस्स मिरे कारई जुत्तं ॥ १७ ॥ प्रभुजिन वल्लभ सशो-वाचानाचार्योऽपि भवति यदि कोऽपि । कर्पूरवास क्षेपणं तस्य-शिरसि क्रियतं युक्ताम् ॥ १७ ॥
अर्थ-समर्थ एवं श्रीजिनबन्लमनी महागज के जसे वाचनाचार्य यटि अंडे हो तो उनके मस्तक पर क ग्वान का दालना युक्त ही है ।
कीरई वामनिक्खयो उज्झायस्सय संगओ । अक्खण्य सकप्पूर न दिगंति य तस्सिरे ॥१८॥ क्रियते वासनिक्षेप-उपाध्यायस्य च संगत.।
अक्षतान सकभ्रान्-न दीयन्तं च तच्छिरसि ।। १८॥ अर्थ-उपाध्यायजी महाराज के उपर बास-शंप का करना सगत है । कर महित अननों को उनके मस्तक पर नहीं डालने चाहिये।
जो सिंहटाणिओ सूरी, सो होइ पत्रयणपगुत्ति । पवयणपभावणा हेडं, तस्स पदसारओ कुजा ॥१६॥
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व्यवस्था-शिक्षा-कुलकम्
३९ यः सिंहस्थानीयः सूरिः स भवेत प्रवचनप्रभुरिति । प्रवचनप्रभावनाहेतोः, तस्य पढसारकः कुर्यात् ।। १६ ॥ अर्थ-जो सिह के जैसे होते हैं वे आचार्य प्रवचन के स्वामी होते है। ऐमा जान कर प्रवचन को प्रभावना के हेतु उनको पदपूजा पधराचणी विस्तार से करे।
वसहठ्ठाणिया जे उ सामन्नेण तु कीरइ ते सिं । जंबु हाणियाण तु जुलो संखेचओ समासेण ॥२०॥ वृपभरथानीया ये तु सामान्येन तु क्रियते तेपाम् । जंबुकरथानीयानां तु युक्तः सभेपतः समासेन ।। २० ।।
अर्थ-जो आचार्य चैल के जैसे प्रवचन को चलाते हैं उनकी पदपूजा सामान्य से की जाती है, और जो नाममात्र के आचार्य-जबुक स्थानीय सीगाल के जैसे है, उनकी पटपूजा संक्षेप से करनी युक्त होती है।
अट्ठाहियाइपव्वेसु निज्झइ छ गिहेसु जुत्तामिण । सामन्नसाहुवत्थाइ दाण दियहे न जुत्तं तं ॥२१॥
अष्टातिकादिपर्वसु दीयते छत्रं गृहेषु युक्तमिदम् । सामान्य साध्यवस्थायामिदानी दीयते न युक्तं तत् ॥२१॥
अर्थ-भट्टाहि आदि पों में [ गृहस्थी के ] घरों में [ आचार्य के लिये एन लगाया जाता है। यह युक्त है। आगपाल मामान्य गार भगरमा में दिया जाता है वह युक्त नहीं है।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रमरि
तदुत्तवयणासत्तो विहाराइमु बट्टइ । अकहियो गुरुणा नेय लेइ किंपि न मिल्लह ॥ २२ ॥ तदुक्तवचनासक्ते विहारादिपु वर्तते ।
अकथितो गुरुणा नैव लाति किमपि न सजति ॥२२॥ अर्य-पूर्वोक्त आचार्यदेव के वचनों में आसक्त होता हुआ माधु विहारादिक में प्रवृत्ति करता है। गुरु के बिना कहे न कुछ लेना है न युल छोडता है।
ठाविआ गुरुणा जत्थ जो अज्जाइण पालगो। तेण ताओ वि अज्जाओ, पलणिज्जा गुरुतए ॥२३॥
स्थापितो गुरुणा यत्र य आयादीनां पालकः । तेन ता अय्यार्या. पालनीया गुस्तया ॥२३॥ अर्थ-जहा पर जिसको गुल्महाराज ने आदिकों का पाला रक्षा करने वाला नियुक्त किया है उनको चाहिये कि गुरु-आचार्य के जैसे ही उन आर्याओं की रक्षा करे।
गुरु आणाए बहतो सो अजाहिं पि सायरं । गुरुज्य मन्नणिज्जोचि तदुत्त करणा सया ॥ २४॥ गुर्वाज्ञायां वर्तन् स आर्याभिरपि सादरम् । गुररिव माननीय इति तदुक्तकरणान सदा ॥ २४ ॥
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व्यवस्था-शिक्षा-कुलकम्
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अर्थ-आयर्याओं को भी चाहिये कि वे गुरु आज्ञा में वर्तमान उस पालक की गुरु के जैसे ही हमेशा उसको कही हुई आना को करते हुए सादर सन्मान करें।
जइ को विदेइ अज्जाण वत्थाइ सयणोतयं । घेतव्यं तं तदाणाए ताहि समणीहिं नन्नहा ॥ २५ ॥ यदि कोऽपि ददात्यार्याभ्यो-वस्त्रादि स्वजनस्तत। गृहीतव्यं तत् तदाज्ञया ताभिः श्रमणीभिर्नान्यथा ।। २५ ॥
अर्थ-यदि कोई स्वजन-सम्बन्धी आर्याओं को वन आदि देता है तो उप पालक की आशा में उन श्रमणीयों को ग्रहण करना चाहिये। नही तो नहीं। सयणाईहिं पि जं दिन्नं तंतस्तप्पिति भावओ,। जइ सो तासि तं देइ, तया गिण्हति ताओवि ॥२६॥ स्वजनादिभिरपि यहत्त-तत्तम्मायन्ति भावतः।
यदि स ताभ्यो ददाति तदा गणहन्ति ता अपि ।। २६॥ अर्ध-स्वजनादिकों ने जो कुछ दिया भाव से उग-पालक को अर्पण करना चाहिये। यदि यह गालक उस वस्त्रादि को उन्द है तो उस समय उनको ग्रहण करना चाहिये।
जइ तस्स न निवेयन्ति तं गिण्हंति जहामई । आणा भट्ठा तया अज्जा पाति य न मंडलिं ॥२७॥
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि
यदि तस्मै न निवेदयन्ति तद्गृणहन्ति यथामति ।
आजाभ्रष्टा सा आर्या प्राप्नोति च न मण्डलीम् ।। २७ ।। मर्थ-यदि उस पालक को निवेदन नहीं करती हैं और यथामतिस्वेच्छा से ग्रहण करती है तो वे आर्याय आजा से भ्रष्ट हैं और मडलि समुदाय में रहने योग्य नहीं है।
जइ सो न देइ अज्जाणं लद्धवत्थाइ लोहओ। सुगुरुत्ताओ चुक्को मण्डलिं पावए कहिं ।। २८॥
यदि स न ददात्यार्याभ्योः लब्धवस्त्रादि लोभतः। सुगुरुतातश्च्युतः मंडलीं प्राप्नुयात् कथम् ।। २८ ।। अर्थ-यदि वह पालक लोभ से पाये हुए वस्त्रादि उन आर्याओ को नहीं देता है तो वह अपने गुरुत्त्व से भ्रष्ट होता है। वह कैसे मडलि का पालन करेगा? सर्वथा नहीं।
देवस्स नाण दव्वं तु साहारण धणं तहा । सावगेहिं तिहा काउं नेयव्वं बुड्ढि मायरा ॥ २६ ॥
देवस्य ज्ञान द्रव्यं तु साधारणं धनं तथा।
श्रावकैस्त्रिधा कृत्वा नेयं वृद्धिमादरात् ।। २६ ।। अर्थ-श्रावकों को देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य और साधारणद्रव्य ऐसे धार्मिक धन के तीन भेद करने चाहिये, और तत्परता से उसकी वृद्धि करनी चाहिये।
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व्यवस्था-शिक्षा-कुलकम्
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साहू वा साहुणीओ वा कारिता नाणपूअणं । गिण्हंता सयं जंति आणा भट्टाय दुग्गई ॥ ३० ॥ साधवो वा साध्न्यो वा कारयित्वा ज्ञानपूजनम् ।। गृणहुन्त' स्वयं यान्त्या-ज्ञाभ्रष्ठाश्च दुर्गतिम् ॥३० ।।
अर्थ- साधु और साध्विये भानपूजा कराके स्वय ग्रहण करते हैं तो वे आशाभ्रष्ट हो कर दुर्गति में जाते हैं। सजओ सजई सट्टो, सड्ढी वा कलहं करे । चुकति दसणाओ ते होउं तइपभावगा ॥ ३१ ॥
संयतः संयती श्राद्धः श्राद्धी वा कलह क्रियात् ।
भ्रश्यन्ति दर्शनात्ते-भूत्वा तदप्रभावकाः ॥ ३१ ।। अर्थ-साधु, साधी, श्रावक और श्राविका यदि एक दूसरे से क्लह करते हैं तो वे सम्यक्त्व मे भ्रष्ट होते हैं और वे शासन को होलणा फरनेवाले होते हैं।
गिहीणं जे उ गेहाओ, आणित्तासणपाणगं । निकारणं विच्छडता, जंति ते सुगई कहं ॥३२॥
गृहिणां ये तु गृहा-दानाय्यासनपानकम् । निष्कारणं क्षिपन्तो यान्ति ते सुगतिं कथम् ।। ३२॥ अर्थ- जो साधु साधी गृहस्थी के पर में अमण पान आदि आहार को ला करके कारण हो फेक देते है वे कसे गुगति में जा सकते हैं?
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४२
मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि यदि तस्मै न निवेदयन्ति तद्गृणहन्ति यथामति ।
आनाभ्रष्टा सा आर्या प्राप्नोति च न मण्डलीम् ।। २७॥ अर्थ-यदि टम पालक को निवेदन नहीं करती है और यथामतिन्वेच्छा से ग्रहण करती है तो वे आर्याय आना से भ्रष्ट हैं और मडलि समुदाय में रहने योग्य नहीं है ।
जइ सो न दे अज्जाणं लद्धवत्थाइ लोहओ। सुगुरुत्ताओ चुक्को मण्डलिं पावए कहिं ।। २८ ॥
यदि स न ददात्यार्याम्योः लब्धवस्त्रादि लोभतः। सुगुरुतातश्च्युतः मंडलीं प्राप्नुयात् कथम् ।। २८ ।। अर्थ-यदि वह पालक लोभ से पाये हुए वस्त्रादि टन आर्याओं को नहीं देता है तो वह अपने गुरुत्व से भ्रष्ट होता है। वह कैसे मडलि का पालन करेगा? सर्वथा नहीं।
देवस्स नाण दव्वं तु साहारण धणं तहा । सावगेहिं तिहा काउं नेयव्यं बुडि मायरा ॥ २६ ॥
देवस्य ज्ञान द्रव्यं तु साधारणं धनं तथा।
श्रावकस्त्रिधा कृत्वा नेयं वृद्धिमादरात् ॥ २६ ॥ अर्थ-श्रावकों को देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य और साधारणद्रव्य ऐसे धार्मिक धन के तीन भेद करने चाहिये, और तत्परता से उसको वृद्धि करनी चाहिये।
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व्यवस्था-शिक्षा-कुलस्म्
साहू वा साहुणीओ वा कारित्ता नाणपूअणं । गिण्हंता सयं जंति आणा भट्टाय दुग्गई ॥ ३० ॥
साधवो वा साध्न्यो वा कारयित्वा ज्ञानपूजनम् । गृहन्तः स्वयं यान्त्या-नाभ्रष्टाच दुर्गतिम् ॥ ३० ॥
अर्थ-- साधु और माचिये ज्ञानपूजा कराके स्वय ग्रहण करते है तो वे आवाभ्रष्ट हो कर दुर्गति में जाते हैं । सञ्जओ सञ्जई सट्टो, सड्ढी वा कलहं करे । चुकं ति दसणाओ ते होउं तइपभावगा ॥ ३१ ॥
संयतः संयती श्राद्धः श्राद्धी वा कलहं नियात् ।
भ्रश्यन्ति दर्शनात्ते-भूत्वा तदप्रभावकाः ॥३१॥ अर्य-साधु, साधी, श्रावक और श्राविका यदि एक दूसरे से क्लह करते हैं तो वे मम्यपत्य से भ्रष्ट होते हैं और ये शासन को होलणा फरनेवाले होते है।
गिहीणं जे उ गेहाओ, आणित्तासणपाणगं । निकारणं विच्छडंता, जंति ते सुगई कहं ॥ ३२ ॥
गृहिणा ये तु गृहा-दानाय्यासनपानकम् । निष्कारणं क्षिपन्तो यान्ति ते सुगतिं कथम ।। ३२ ।। अर्थ- जो साधु माधी गृहन्धी के घर में अमण पान आदि सातार को ला करके अकारण ही पंक देते हैं ये गे मुगति में जा गाते है ?
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसरि संगहंति य जे दव्यं गुरुणं न कहंति य । ते वि भट्टाहमा धिट्टा भमंति भवसागरे ।। ३३ ।।
संगृणहन्ति च ये दन्यं, गुल्न न कथयन्ति च । तेऽपि भ्रष्टा अधमा धृष्टा भ्रमन्ति भवसागरे ॥३||
अर्थ-जो माधु सान्त्री द्रव्य का मग्रह करते हैं और गुरु को नहीं कहते हैं। वे भी भ्रष्ट अवम और धोठे भवसागर में भटकते हैइवते हैं।
अवेलाए न साहणं वसहीए साविगागमा । साहुणीए विसेसेण ना सहायाइ संगओ ॥ ३४ ॥
अवेलायां न साधना वसती श्राविकागमः। साच्या विशेर्पण नासहायाढी सङ्गत. ॥३४॥ अर्थ-विना समय माधुओं के स्थान में श्राविकाओं का आना उचित नहीं है। विशेष रूप मे मावीयों का आना भी सगत नहीं है। हाँ असहाय अवस्था में मगत हो मरना है।
गीयत्था गुरुणो जं जं खित्त कालाइ जाणगा। करिति तमगीयत्थो जो कुज्जा दंमणी न सो ॥ ३५ ॥
गीतार्था गुरवो ययन् क्षेत्र कालादि बायका.। कुर्वन्ति तद्गीतार्थो यत् कुर्याद् दर्शनी न सः ।। ३५ ।।
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व्याया-शिक्षा-कुन्कम्
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अर्थ-क्षेत्र कालादि को मानने वाले गोतार्थ गुरु लोग जो करते है टमको बिना समझे जी अगीतार्थ आचरते है वे सम्यक्त्ती नहीं है।
सुद्धसद्धम्मकारीणं जे सुगुरूणमंतिए । सुद्धं सहसणं लिंति सग्गासिद्धिसुहावहं ।। ३६ ॥
शुद्धसद्धर्मकारिणां ये सुगुरूणामन्तिके ।
शुद्धं सद्दर्शनं लान्ति, स्वर्गमिद्धिसुखावहम् ।। ३६ ।। अर्थ--शुत गद्धर्म को करनेवाले गुरुजी के पास जो शुन मम्यगदर्शनमम्यक्त्व लेते हैं। उनके लिये वह गुण स्वर्ग-मिति के गुग को करनेवाला होता है।
साविया ओ वि एवं जा गिन्हति य सुदंसणं । तासिं सरीरदब्याई होजा सुगुरुसंतियं ।। ३७ ।।
श्राविका अप्येवं या गृहन्ति च मुदर्शनम्। तासां शरीरदव्याणि भवेयुः सुगुमसत्कानि ।। ३७ ॥
अर्थ-जी श्राविकाय भी इस प्रकार गुदर्शन को प्रहण करती हैं। ये तन, धन मे गुम्मेरा में गर्दव तत्पर रहती है।
सावया साविया ओ वा गुरुत्तातं धणाइयं । जे न वांछंति तं दाउ दिन्नपि गुरुणा पुरा ॥ ३८ ॥
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मांगवारी श्रीजिनचन्द्रसरि
श्रावनाः श्राविकाच वा गुरुत्वावधनादिकम् । जं न वाञ्छन्ति ते दातुं वृत्तमपि गुन्भ्यः पुरा ।।३८॥
अर्थ- धाक और अत्रिएं गुरना के समय दिया हुआ भी बर्दिक-ईल्या होने देने के नहीं चाहते हैं।
ते कहं तसिं आणाए बट्टति समईवसा । चत्ता सम्मत्त वत्ता वि दूरं सातहिं सब्बहा ॥३६॥ युग्म
ते कथं तपानाबायां वर्तन्त स्वमतिवशाः । त्यता सन्यत्ववातापि-दूरात्सतः सर्वथा ॥३६ ।।
अर्थ-टर बनाये लच्छन्द शव अधिक टन गुरुओं की भाना में नग! उस सन्यन्त्र वान के भी दूर से ही टनने तथा लाग दी है। युन्न
सावया तुच्छवित्ता वि पोसंति सकुडुंबयं । धण धन्नात्रओगेण, जावजी पि सायरं ॥४०॥
श्रावत्रानुचविचा अपि पोपयंति स्वछुट्टत्वकम् । धनवान्योपगगन-यावनीवमपि सादरम् ॥ ४॥
-अन्य धन बल भी थावत्र वन-धान्योपोग के प्रश्न पूर्वक स्पन युटुन्ज को न पन्त पोपडे हैं।
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व्यवस्था-शिक्षा-कुलकम्
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तहाणहाण साहूण, मन्नवत्थाइचिंतणं । कुणंति समणीणं न, तेसिं सम्मत्तमत्थि किं ।। ४१ ॥
तत्स्थानस्थानां साधूना-मन्नवस्त्रादिचिन्तनम् । कुर्वन्ति श्रमणीना न, तेपा सम्यक्त्वमस्ति किम् ।। ४१॥ अर्थ धार्मिक कुटुम्य स्थानीय साधु और सा चीयों के अन्न-वस्त्र आदि की यदि वे धावक चिन्ता-गार मभाल नहीं रखते तो उनमे सम्पयत्व होता है क्या ? अर्थात् नहीं होता।
जओ वॉचं सुस्म्स धम्मराओ गुरुदेवाण समाहीए । वेयावच्चे नियमो सम्मद्दिटिस्स लिंगाई ॥ ४२ ॥
यत उक्तं शुश्रूपा, धर्मरागो गुरुदेवानां समाधौ। वैयवृत्ये नियमः सम्यहप्टेलिगानि ॥४२॥ अर्थ- इसीलिये कहा है कि गुरुदेवों को शुभ्रूमा करना, धर्म पर राग रसना, गुरुओं की समाधि को बढ़ाना, यापमा करने का नियम रखना ये राम्यगृष्टि के चित्र है।
साहण कप्पणिज्जं जं नवि दिन्नं कहिं चि (किंचि) तहिं । धीरा जहुत्तकारी, सुसावगा तं न भुंजंति ॥ ४३ ॥
साधनां कल्पनीयं यन नापि कहिचिन किभित्तहिं । धीरा यथोतकारिणः सुश्रावका तन मुमन्ते ।। ४ ।।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि
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अर्थ-तथोक कामों को करनेवाले धोरमुधावक कहीं पर कुछ भी माधुओं के लिये जो कल्पनीय होता है, उसे साधुओं को बिना दिये नहीं भागते हैं।
चमहीसयणासणभत्तपाणवत्थ पत्ताई । जवि न पज्जत्तधणोथोवा वि हुथोवयं देह ॥४४॥ वसति-सयना-सन भक्तपान वस्त्रपात्राणि । यद्यपि न पर्याप्तधनः स्तोकादपि स्तोकं देयात् ।। ४४॥ अर्थ यद्यपि श्रावन पर्याप्त धनवाला न होने पर भी वमति स्थान गव्या सथारा आसन भात-पानी-औषध-वस्त्र-पात्र आदि योडे से भी थोड़ा दे।
एगं विसोवगं सड्ढो तिसु ठाणेसु देह जो।
अहिंगं वा ऊसवाइसु सम्मत्ति होइ नन्नहा ॥४॥ एतद् विसोपकं (भागं) श्राद्धस्त्रिपु स्थानेषु ददाति यः । अधिकं वा उत्सवादिषु सम्यक्त्वी भवति नान्यथा ।।४।।
अर्थ-तीन स्थानों में टेव गुल्जान द्रव्यों की मद में श्रावक एक हिस्सा है। टलबादिकों में अधिक भी है। अन्यथा सम्यक्ती नहीं हो सकता।
अग्गाहणं तु जम्मो य नामाकरण मुंडणं । पुत्ताइसु विवाहो य हवंति उस्सवा इमे ॥ ४६ ॥
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च्यवस्था-शिक्षा-फुलकम् सीमन्तोन्नयनं तु जन्म च नामाकरणं मुण्डनम् ।
पुत्रादीनां विवाहश्च भवन्ति उत्सवा इमे ॥ ४६॥ अर्थ-सीमतकर्म-जन्म, नामकरण, मुण्डन, पुत्राटिकों के विवाह ये उत्सव के स्थान होते हैं। उस्सग्गेणासणाईणि कप्पणिज्जाणि जाणिउ । आहाकम्माइ दोसेण, जाणि चत्ताणि दूर ओ ||४|| उत्सर्गणासनादीनि कल्पनीयानि जात्वा ।
आधाकर्मादि दोपण नात्वा त्याज्यानि दूरतः ।। ४७ ।। अर्थ--उत्सर्ग से करपनीय असन पान आदि को जान कर गाधु ले, और आधाकर्म आदि दोषपूर्ण जान कर दूर से हो त्याग दे।
दायवाणि जईणं तु जेण वृत्तं जिणागमे । पिंडं सेज्जं च वत्थं च प सिज्जभवेण उ ॥४८॥
दातव्यानि यतीना तु येन प्रोक्तं जिनागमे । पिण्डः शय्या च वस्त्रं च पात्रं च सय्यंभवेन तु ॥४८॥ अर्धयतियों को देने योग्य पिट, गया, वरन और पान श्री गण्य भवानार्य ने दशवकालिझ~-जिनागम में कहा है उससे जाने ।
एवं सुबहुहा मुत्ते वोत्तमत्थि जहट्ठियं । तहायवायओ वावि नाणामत्तंसु दंसियं ॥ ४६ ॥
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रमुरि एवं सुबहुधा सूत्रे प्रोक्तमस्ति यथास्थितम् । तथापवादतश्चापि नानासूत्रेषु दर्शितम् ।। ४ ।।
अर्थ-इस प्रकार सत्र में ययास्थित उत्सर्ग मार्ग बहुत प्रकार से कहा हुआ है। तथा अपवाट भी नाना रूप से सूत्रों में दर्शित है।
अच्चंतियाववाएणं कि पि कत्थइ जंपियं । गीयत्यो तादिसं पप्य, कारणं तं करेइ य ॥ ५० ॥
आयन्तिकापवादेन किमपि कुत्रचिन्नल्पितम् । गीतार्थस्तादृशं प्राप्य कारणं तत् करोति च ॥ ५० ॥
अर्थ-कहीं • आत्यतिक अपवाद से भी कुछ कहा हुआ होता है, उसको ऐसे ही कारण के प्राप्त होने पर गीतार्थ आचरते हैं।
तंकरेंतो तहा सो वि मज्जिज्जा तो भवण्णवे । एसा आणा जिणाणंतु तं कुणंतो तमुत्तरे ॥ ५१ ॥
तजुर्वन् तथा सोऽपि मज्जेन्न भवार्णवे । एपाना जिनानां तु तां कुर्वन् तमुत्तीर्यात् ।। ५१ ।।
अर्थ-वे गीतार्य टम-अपवाद को आचरते हुए भवसमुद्र में नहीं दुबते प्रत्युत यह जिनेश्वरी को आना है उसको करते हुए उस संसार सागर में पार उतर जाते हैं।
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घ्यवस्था-शिक्षा-पुतकम्
जओ भणिय मिणं सत्ते संथरणंमि असुद्धं दुण्हवि गिण्हंत दितयाणऽहियं । आउरदिढतेणं तं चेव हियमसंथरणे ॥ ५२ ॥
यतो भणितमिदं सूत्रे - संस्तरणे शुद्धं द्वयोरपि गृहतो ददतो ऽहितम् ।
आतुर हटान्तेन तच्चंव हितमसंस्तरणे ।। ५२ ।। अर्थ- इसलिये सूत्र में यह कहा है कि
मुखपूर्वक निर्वाह होते हुए अशुद्ध लेने वाले और देने वाले दोनों का अहित होता है। तो गेगी के उदाहरण से निर्वाह न होने पर अशुद्ध लेने और देने वाले दोनों का हित होता है।
"नय किं पि अणुन्नायं, पडिसिद्धं वाविजिणवरिंदेहिं ।" एसा तेमि आणा 'कज्जे सच्चण होयचं' ॥ ५३ ॥
न च किमप्यनुज्ञातं प्रतिपिद्ध वापि जिनवरेन्दः।। एपा तपामाज्ञा, कार्य सत्येन भवितव्यम् ॥ ५३॥ अर्थ-श्रीतीर्थकर भगवान ने एकान्त प न मिी कार्य या अनु. गोदन हो लिया है, न किमी का निषेध ही किया है। यह टनको आगा है कि "कार्य करते हुए सत्यभार से रहित होना चाहिये।"
। स्थानाज सत्र (पृ. ११.) की पहली पृशि में ।
"टीम गेण्डन देतयाणऽदिय ।"
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रमनि
PAJ
मा कुउ जइ तिगिच्छं, अहिया सेऊण जइ तरह मम्मं । अहियासितम्स पुणो, जड़ जागा न हायन्ति ।। ५४ ॥
मा करोतु यदि चिकिन्मां अध्यासोढुं यदि तरति सम्यक् । अध्यामहतः पुनर्यदि योगा न हीयन्नं ॥५४॥
अर्थ-विकिा मन बगे यदि भली प्रकार में सहन करना सत्य है। तो। यदि कटोगे मानिने मन कग्नं हुए गंग-मन वचन और गया नट न होने हो तो।
कन्तारोह मद्धाणा उम (2) गेलन्न माइ कर्जमु । सव्वायरेण जयणाए कुणइ ज साहु करणिज्जं ॥ ५५ ॥
कान्ताररोह विकटाध्वनि ग्लान्यादि-कार्यपु ।
सादरण यतनया करोति यन्साघुकरणीयम् ।। 12॥ अर्थ-भयर अटो आदि को पार करते हुए विकट मार्ग के आने पर या रोग आदि कार्यों में जो करने योग्य कान होता है उसको माधु माटर से बदना पूर्व करता है।
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जावज्जीवं गुरुगो मुद्धममुद्धेण वावि कायव्वं । वसहे बारसवासा अट्ठारस भिक्षुणी मासा ॥ ५६ ।।
यावनीवं गुरो. शुद्धाशुद्धेण वापि कर्त्तव्यम् । वृपमस्य द्वादशवर्ष अष्टादश भिक्षो मासान् ।। ५६।।
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व्यवम्या-शिक्षा-कुलकम्
अर्थ-यावजीवन गुरु की रक्षा परिस्थिति के अनुकूल शुद्ध अशुद्ध तरीके से भी करनी ही चाहिये। बैल को गारह वर्ष पयंत और भिक्षुपाधु की अठारह मास तक।
असिवे ओमोयरिए राय पउट्ट भए य गेलन्ने । एमाइकारणेहिं आहाकम्माइजयणाए ॥ ५७ ॥
अशिवेऽवमोदरिके (दुर्भिक्षे) राजप्रद्विष्टे भये च ग्लान्ये । इत्यादिकारण-राधाकम्मादि यतनया ॥५७ ॥
अर्थ-आशिय और तुपाल के उपस्थित होने पर. राजा के प्रति हो जाने पर, भग की अवस्था में, बीमारी को अवस्था ग, त्यादि कारणों में यतना से आधाकर्म आदि का सेवन होता है।
जओ सिद्धते वर्गकाले चिय जयणाए मच्छर रहियाण उज्जगताणं। जणजत्ता रहियाणं, होइ जहनं जइण सया ॥ ५८ ।। यतः सिद्धान्त प्रोक्तम्काल एव यतनया गात्सर्यरहितानामुगमवताम् । जनयात्रारहिताना भवति यतित्वं यतीना सदा ।। २८॥ असम में फरमाया frमा गाा रहिन, सयम में उपन शोल, लोकगाना ने साल माधुओ को पाल की याना हरी गतिएगा। अर्धात् गगग फे जाण साधु को साधु है।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि सालंधणो पडतो वि अप्पाणं दुग्गमे वि धारेह । इय सालंबणसेवी धारेइ जइ असद भावं ॥ ५६ ॥
सालम्बनः पततोऽप्यात्मानं दुर्गमेऽपि धारयति। इति सालम्बनसेवी धारयति यद्यशठभावम् ।। ५६ ।।
अर्थसहारे वाला व्यक्ति दुर्गममार्ग में गिरते हुए भी आत्मा की रक्षा कर लेता है। इसी प्रकार सकारण अपवाद का सेवन करने वाला भी यदि सरल भाव को रखता है तो अपने आप को दुर्गति से बचा लेता है।
वुत्त सिद्धन्तसुत्त सु-गीयत्यहिं वि दंसियं । तमित्थालंवणं होइ, सुठ्ठ पुढे न सेसयं ॥ ६० ॥
प्रोक्तं सिद्धान्तसूत्रेषु-गीतार्थेरपि दर्शितम् ।
तदवालम्बनं भवति सुष्ठु पृष्टं न शेपकम् ॥६॥ अर्थ-सिद्धान्तसूत्रों में कहा हुआ और गीतार्थ आचार्यों द्वारा दर्शित मार्ग ही यहां पर आलंबन होता है जो कि भली प्रकार पूछा हुआ समझा हुआ होता है। दूसरा नहीं।
साहम्मियाण जो दवं, लेइ नो दाउमिच्छइ । संते वित्ते सगेहेवि होज्जा किं तस्स दसणं ॥ ६१ ॥ साधर्मिकाणा यो द्रव्यं लाति नो दातुमिच्छति। सति वित्ते स गेहेऽपि भवेत् किं तस्य दशनम् ।। ६१ ॥
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व्यवस्था शिक्षा कुलम् अर्थ-जो माधमियों के द्रव्य को ले लेता है और अपने घर में धन के होने पर भी देना नहीं चाहता है उसको भी क्या दर्शन मम्यस्त हो सकता है? अर्थात् नहीं।
सयं च लिहियं दिन्नं जाणतो विहु जंपइ । मया न लिहियं दिन्नं नोजाणामिचि मग्गिओ ।।६२।।
म्वयं च लिखितं दत्तं जानपि खलु जल्पति।
मया न लिखितं दत्तं नो जानामीति मागितः।। ६२॥ अर्थ-गुदने लिया है साधी ने दिया है, फिर भी जो मागने पर जागता हुआ भी कहता है, न मैंने लिया है न तुमने दिया है, न में जानता ही है।
पच्चक्खं सो मुसाबाई लोए वि अपभावणं । कुणतो छिंदइ मूलं सो दंगण महद्द मं ।। ६३ ॥
प्रत्यक्षं स मृपावादी लोके ऽप्यप्रभावनाम् ।
पुर्वश्छेदयति मूलं स दर्शनमहदहमस्य ।। ६३ ।। अर्थ-यह प्रत्यक्ष में मृषाभाषी लोक में अप्रगावना निदा को करता हुआ सम्यक रूप बड़े भारो पेट की जर को काटता है।
समं साहम्मिएणा वि. राउलं दडलं करे। हीलयं धरणं जुद्धं, सो बिहु नासइ दंसणं ।। ६४ ॥
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसुरि समं साधर्मिकेणापि राजकुल देवकुलं कुर्यात् । हेलनं धरणं युद्धं सोऽपि खलु नाशयति दर्शनम् ।। ६४॥
अर्थ-जो मार्मिक के साथ भी राज दरवार करता है हीलगातिरस्कार करता है, धरणा देता है, युद्ध करता है वह अपने सम्यक्त्व का नाश करता है। साहू वा सावगोवाचि माहूणी सावियाइ वा। वाडिप्पाया वि जे संति गुरुधम्म ढुमस्स ते ॥६५॥
साधुश्रावको वापि साध्वी श्राविकादिर्वा । वृत्तिप्राया अपि ये सन्ति गुरुधर्मद्रुमस्य ते ॥३॥ अर्थ-जो साधु श्रावक, साध्वी और श्राविकायें भी बड़े वर्मस्प पेड़ की रक्षा करने वाली बाड के जैसे है । पालणिजा पयत्त ण, वत्थपाणासणाइणा । सायरं सो न तेसिंतु करिजा समुवेहणं ॥ ६६ ॥
पालनीयाः प्रयत्नेन वस्त्रपानासनाढिना।
सादरं स न तेषां तु कुर्यात् समुपंक्षणम् ॥६६॥ अर्थ-वस्त्र खान पान आदि से आदरपूर्वक पालने योग्य हैं। उनको उपेक्षा कभी भी नहीं करनी चाहिये।
जइ सो वि निग्गुणो नाउंसमईए विनिंदई । सा बाडी उक्खया तेण संति धम्मदुरक्खगा ॥६॥
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व्यवन्या-शिक्षा-गुलकम् यदि सोऽपि निर्गुणो ज्ञात्वा स्वमत्यापि निन्दति। सा वृत्तिमत्क्षता तेन सती धर्मदुरक्षिका ॥ ६७ ॥
अर्थ-यदि वह निर्गुण जान करके भी स्वच्छन्दतया निदा करता है तो उसने उस धर्मक्ष को रक्षिका वार को ही तोड़ दी है।
आणा वि तेण सा भग्गा गुरुणा सोक्सकारिणी। मिच्छदिद्वितओ सो वि लटुंतल्लक्षणावलि ॥६॥
आज्ञापि तेन सा भग्ना गुरोः सौरन्यकारिणी। गिथ्यादृष्टितया सोऽपि लब्धं तरक्षणावलीम् ॥६॥ अर्थ-उगने गिगाइरिगाव में, और मिध्याटि के पित-दुर्गति को। परपरा पाने को परमा फरनेवाली गुरुमहाराज की भाग भी गठित कर दी। जणइ निव्वई जन्तु-जायं फलमणुत्तरं। गुरुधम्मदुमाहितो तेण तं पि हु हारियं ।। ६६ ॥
जनयति नितिं यत्तु जान फलमनुत्तरम् । गुगधर्मगुमान तेन नदपि पटु हारितम् ॥६॥ अ---जो निति गो पंडा करना मा परे धर्मर से पटाया सरपल गोभी उगने नियम पार धार दिया। चायणं पिछ सो दंड जो दाडं जाणई तयं । परदुन्चयणं सोच्चा जोरोसेण न जिप्पइ ॥ ७० ॥
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मणिधारी श्रोजिनचन्द्रमूरि नोदनमपि खलु स ददाति यो दातुं जानाति तकन। परटुर्वचनं श्रुत्वा यो रोपेण न नीयते ॥ ४० ॥
अर्थ-दूसरे के दुचनो को सुन कर जो रोप में पूर्ण नहीं हो जाता वही महापुरुष दूसरों को बर्म में प्रेरणा करता है और प्रेरणा करना भी जानता है।
नाहंकारं करइत्ति मायामोहवित्रजिओ। सव्वंजीवहियं चित्तं जस्सत्यि मुविवेयओ ॥७॥
नाहंकारं करोतीति मायामोहविवर्जितः । सर्वजीवहितं चित्ते यस्यास्ति सुविवेकतः १७१॥ अर्थ-जिसके चित्त मे मुवित्रक से सब जीवों का हित रहा हुआ है। वह मायामोह से रहित व्यक्ति कभी अहकार को नहीं करता ।
जा कात्रि गुरुणो आणा सुद्धसद्धम्मसाहिगा। कहिया हियाय सम्म कायन्या विहिणा य सा ।। ७२ ॥
या कापि गुरोराना शुद्धसद्धर्मसाधिका। कथिता हिताय सम्यक् कर्त्तव्या विधिना च सा ॥७२॥ अर्थ-शुद्ध सद्धर्म को साधने वाली जो कुछ भी गुरु महाराज को आना श्री हित के लिये कही है। हितपियों के विधिपूर्वक उसे पालनी चाहिये। संखेवण मिहत्तमागममयं गीयत्थसत्योचियं, कीरंतं गुणहेउनिव्वुडकर भव्वाण सन्वेसि ।
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व्यवस्था-शिक्षा-कुलकर
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साहणं समणीगणस्सय सया सड्दाण सड्ढीण य, सिक्खत्थं जिणचंदररिपयवीसंसाहगं सवहा ॥७३॥
मणेहोफ्तमागममयं गीतार्थशास्त्रोचितं । फुर्वद गुणहेतु नियतिकरं भव्याना सर्वेषां यत् ।। माधनां श्रमणीगणम्य च सदा श्राद्धाना श्रादीनां च । शिक्षार्थ जिनचन्द्रसूरिपदवीसंमाधकं सर्वथा ||७|| अर्थ-यहाँ सक्षेप मे आगमममत और गीताधों के मिलान्त के अनुहल गुण कारण को प्रकटाने वाला, मय भय्यान्माओ को निति करने वाला साधुमानो गमुदाय को और धावन धाविका गमूह को गिक्षा देने के लिये नर्मदा श्रीजिननन्द्रमरि (तीर्थगर और आना) पद को साधनयाला विषय कहा। गमे जणचटरि" इन पद ने फत्ता ने स्वनाम भी सूचित
एयं जिणदचाणं करेइ जो कारवेइ मन्नेछ । सो सव्वदुहाण लहुं जलंजलिं देह सिव मेह ॥७॥ पता जिनहत्तामा गति य कारापयति मानयति । स सम्मेभ्यो लघु जलासलिं ददाति शिवमेति ॥७४||
--इम प्रारमिन भगवान को मार निमार गुलंग की जो आनग्नामे Tram, मानता गह सब नुको स्टाट स्त
र मौर में पना। माधु-नान्यो-श्रावक-श्राविका शिक्षा गुल कम्
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परिशिष्ट (२) ॥ ॐ नमो वीतरागाय ॥
श्री कपूरमल्ल विरचितम्
ब्रह्मचर्य परिकरणम् पउस रयणाइ रइया, भासुरकिरणेहिं नहयलं चित्तं । देविंदमउलिलच्छी, नमिय जिणं वसइ कमकमले ॥ १ ॥ णिनियमणंगवीर, सुद्धप्पा झायमाण त वीरं। निमिय सिरिधम्मसिहरं, वंभवयं सु नध वोच्छामि ।। युग्मं तं वंभवयं दुविहं, दव्वं भावं जिणेहिं णिद्दिट्ट। जो चरइ सम्मणाणी, णिवाणसुहं च पावेइ ।।३।। वंभ भणियइ आया, तस्स सरूवं च चरइ जो साहू । सो भाववंभचरणं इत्थीवायेण दवो य ॥४॥ नरतिरियदेवइत्थी उवलाइय धाओ दारुचित्तंगा। मणवयणकायचाये नवकोडिविसुद्ध सो साहू ॥५॥ चारितमोहउदये इत्थीस्वेण रजिओ मूढो । ते खुद्द अवयठाणा पुग्गलदव्वस्स परिणामा ॥६॥ परिहरह एस इत्थी कुच्छियमलधाओ असुइठाणं च। सूडपडणगलणधम्मा रागविसं कारिणी वल्ली ॥७॥
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चामचर्य परिकरणम् जह घटु महराभरियो चंदणकुसुमेहि पूयो उवरि । स कहं हवा विमुद्धो तह अमुहसरीरगं जाण ॥८॥ जह अस्थि भावतो मुणहो गल्लहि महिरनिम्सरई । तं णियमलेण रज्जह तह मूढो रंजए विमग ॥६॥ पुन्नुढयविसयसुकावं भुजतो जीउ बंध पाव । पुनखाएणं खीयइ सो णाणी जो परिचयह ॥ १० ॥ जो परदेहविरना णियदेहेण य कोइ अणुरायं । अप्पसहाये सुरयं सो गीगयो एवइ साह ॥११॥ इयं असासई बुंदी तेमि पमं न धारये । भाण्ड एगमप्पाणं जे पाय धुवं पयं ॥ १२॥ असुई असामई जो पगया चय अमुहबंधकारिणा । रु: दिव्यमहालच्ची सा एगा परदु वरंगणा ॥ १३ ॥ सुरभुइ मामई जा मोहागिणि णिगलो य सिरिवसः। पुणरवि न देठ गमणं अहा भागिणी सुजमा ।। १५ ॥ तम्मिय जराण गच्च अमियरसं हरपाणिचंदाभा। सारमझुसिद्धिरमणी अणताकारिणी लन्द्री ॥१५॥ जा चयः अण उत्थी जिम्मलरयणहि मजुओ गमः । आयरड तया लछो णिग्यमा, दंड मा 'भा ॥१६॥ जो हया पीयरागी फेवलमहरयणभूमियमरी । मो ग्गर सिन्दिरमणी नय अग्नी जिनवगे भणः ॥१७॥ परं विमुद्धि माराय नं पया मिहिननीयमंदिरं । भुजा अर्गननुपर मुह मिदं गााहिलं ॥१८॥
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि
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सपरं वाधा सहियं विछिन्नं वंधकारणं विसमं। इय पंचमलविमुक्कं तं सुद्धं जिणवरो भणइ ॥ १६ ॥ अइसयमायसमुत्थं णिपन्नं णिचतं हवइ सिद्धं । इंदेहिं अणंतगुणं अणोवमं तं महादिव्वं ॥२०॥ संपुण्णविमलणाणं दसणसुहसत्तिवीरियनिवासं । सिद्धं बुद्धं णिच्चं तं वदे लोयसिहरत्यं ॥ २१ ॥ तित्थयरचक्वट्टी गभं धारंति पुरिसरयण च। ते सलहिन्नइ इत्थी अह सीलबईच न य अन्नं ॥ २२ ॥ सासंगि दोसढीवहिं णियगुणरयणेहिं लुचियो होइ । पंचमहन्वयनासो भुजतो दुग्गई जाइ ॥ २३ ॥ तम्हाहुजिणिन ट्ठिी अप्पमुहं दुक्खकारिणी बहुगा । दिट्ठोहिं रागभावो सो सिवसुक्खं च विग्घकरो।। २४ ।। अरिणिजियजिणराये रागाइ य जेहि रक्खिया चित्ते। तिहिं कह हवइ पसन्नो जिहिं कढिय तेहिं सतुह्रो ।। २५ ॥ त: दीय सिद्धिलच्छी अमियकरा पुन्नचंदसारिच्छा। भरहादिवसगराई जिहिं कारणि चइय बहुइत्थी ।। २६ ॥ तिहि गहिय सुद्धचरणं सुद्धप्पाधम्मझायमाणाणं । लद्धं केवलणाणं भरहाइयसिवसुह पत्ता ॥ २७ ॥
यदुक दशाश्रुतस्कन्धे। आयगुत्तेसु सुद्धप्पा धम्मे ठिचा अणुत्तरे । इहव लभते कित्ति पच्चाय मुगति वर ।। २७॥
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घामचर्य परिकरणम्
जो माय: परमप्पा णाणमयं रागभावरहियं च । सो गच्छइ सिवलोयं उज्जोयंतो दसदिसाओ ॥ २६ ॥ जो चरइ बंभचरणं अणेगगुणसणि आरुहइ साहू । लो पावड मिद्धमुहं जीरायो जो इवह विमये ॥३०॥ आगहणा य तिविहा णाणं सणचरित्तठाणंगे। नं निय मयलो आया आराह मिलमुहकन्ने ॥ ३१ ॥ जो रयणत्तयगइयो णियदयं मुग्यकारण भणिय । अन्नं जे परदव्या मुहाऽहं बंधहंउ ति ॥ ३२॥ मुहटव्यणं पुन्नं असुह पावंति मुगई जो गगी। परिणामोऽननगयो दुक्राफ्पयकारणं समए ॥३३॥ जो मुहणाणरूचं मंजमनवमाधिभावए अप्पा । मोऽसमम्वकारणकम्मपये मारवय मुगड ॥३४॥ जो परदन गिन्हा अवराही होइ चम्प लोये। परतन्ध जो न गिनाइ नो मार न बंधए कोड।। ३५॥ अप्पाउ चुस्साए सो घमाइ मत्तअट्टकम्मेति । अप्पधम्माओ न यो फम्मेति अबंधगो 31॥ जो अप्पाणं जाण: पुगलकम्माओ भावओ अन्नं। मदं जाणग भावं सो मलं जाणा मध ॥३५॥ जो ग्यणत्तयधम्मो मां पर आया गति सबन्न। नं मार परगप पमायरहियण महकरने ।। ३८॥ नेमण ने पिड णाणं जण गुणा जीवागं। गणिणि संधि रपपः नं पर भगः सम्यन्नू ।। १ ।।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसरि
जो परवेण खो णियदवसहावभावणालीणो। सो तेण वीदरागो भवियो भवसागरं तरइ॥४०॥ पालय वंभचरणं णिम्मलणीरागमणसंमाहीए । सो बयइ वंभलोयं अणंतसहठाणगं भणियं ॥४१॥ संपयवंभवयावो (भासुरदेविज्जवरविमाणं च । पावइमणुन्नभोयं तत्थ चुया णिचुयं जंति ॥ ४२ ॥ एवं पवयणसारं वंभवयं अमियपाणसारिच्छं । . जो चरइ भन्यजीवो संसारविसं निवारेइ ॥४३॥ भावं जिणपन्नतं णिस्संकिय जोहु सहहइ जीवो। सो हवइ सम्मट्ठिी अमियसुहं पावए विउलं ॥४४॥ एसो पवयणसारो सिरिजिणवरगणहरहि पन्नतो। गुरुजिणदत्तपसाया लिहियो कप्यूरमल्लेहि ॥४५॥ संपइ गणाहिपवरो णिम्मलगुणरयणरोहणसरिच्छो । सिरिजिणचंदमुर्णिदो दीवग इव दीवए लोए ॥ ४६॥
॥ इति श्रीब्रह्मचर्यपरिकरण सम्मतं ।।
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परिशिष्ट (३)
महत्तियाण जाति
प्रस्तुत निबन्ध में हम एक ऐमी जाति का परिचय दंगे जिसका नाम मात्र शिला-लगों और कतिपय प्राचीन प्रन्यों में ही अवशेप है। जिस जाति वालों ने पूर्व प्रान्तीय जैन तीर्थी फ जीर्णोद्धार आदि मे महत्त्वपूर्ण भाग लिया है अथवा दूसरे शब्दों में यों को कि वर्तमान पूर्व प्रान्तीय जनतीर्थ जिनके मन्द्रन्य और आत्मभोग के ही सुपरिणाम है, एव जो फेवल ३०० वर्ष पूर्व एक अन्दी गच्या में विद्यमान थे, उनकी जाति का आज एक भी व्यक्ति दृष्टिगोचर नहीं होता, यह कितने बर्ड मंद की बात है।
नाम और प्राचीनता अम जाति मागभनाम प्रसिद्ध लोक-भाषा में मारियाग और गिलारेगादि में ममिलीय' भी पाया जाता है।
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि शिलालेखों के कथनानुसार इस जाति की उत्पत्ति अत्यन्त प्राचीन है। प्रथम तीर्थकर श्री ऋपभदेव भगवान के पुत्र महाराजा श्री भरत चक्रवति के प्रधानमन्त्री श्रीदल के नाम से उनकी सन्तति का नाम भी 'मन्त्रिदलीय' प्रसिद्ध हुआ। मन्त्री शब्द का अपभ्रंश "महता” हैं, अतः उनके वशजों की जाति का नाम भी उसी शब्दानुसार महत्तियाण' कहलाने लगा ऐसा ज्ञात होता है।
प्रतियोधक आचार्य इस जाति को प्रतिवोध देकर जैन वनाने का श्रेय खरतरगन्छाचार्य श्रीजिनचन्द्रसूरि २ को है। शिखा-लेखों और पट्टावलियों में इस सम्बन्ध मे जो उल्लेख प्राप्त है, उनके आवश्यक उद्धरण इस प्रकार हैं:
१ "नरमणिमण्डित मस्तकाना प्रतिवोधित प्राग्देशीय महत्तियाणि श्रावक वर्गाणा"
(हमारे संग्रहस्थ १६ वी शताब्दि मे लिखित पट्टावली) २ "नरमणि मण्डित भालो महत्तियाण श्रावक प्रतिवोधकः”
मयसुन्दरजी कृत खरतरगच्छ पट्टावली ) ३ "नरमणिमण्डितभाल: श्रीजिनदत्तसूरिभिः स्वहस्तेन पट्टो
१ श्रीमपभाजनराज प्रथम चक्रवत्ति श्री भरत महाराज सकल मन्त्रिमढल श्रेष्ठ मत्रि श्रीदल सतानीय महत्तिआण ज्ञाति + (पावापुरी शिलालेख)
२ श्रीजिनचन्द्रसरि-ये श्रीजिनदत्तसूरिजी के शिष्य थे।
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मात्तियाण जाति म्थापितः पूर्वास्यां दशवर्षाणि स्थित्वा महुत्ति-आण श्राद्धः प्रतियोधकः।
(परतर गच्छ पट्टायली संग्रहः पृ० ११) ४ श्रीजिनचन्दमूरि। (सम्बंगरंगशाला प्रकरणकर्ता) चिदन्य जातीय राज्याधिकारिणोऽपि श्राद्धाः जाता तेभ्यः प्रति पातिशाहिना वह महत्त्वं दत्तम् ततस्तेषा 'महतीयाण' इति गोत्र स्थापना कृता। तदगोत्रीयाः श्रावकाः "जिनं नमामि, वा जिनचन्द्र गुरु नमामि, नान्यम्" इति प्रतिक्षावन्तो बभूवुः" ।
(क्षमाफल्याणजी कृत पट्टावली, २०५० संग्रह प्र०२३)
५ 'श्रीजिनचन्द्रमरि (संवेगरंगशाला कर्ता):-धनपाल फटाफजाता मानिआण गोत्रीया इति । "महुत्तिआणडा दुः नम: का जिण का जिणचंद"
(परतर गन्ध पट्टावली मंडा, पृ.४५) ६ "श्री तत्वरतर-गच्छीय नरमणिनषित भालस्थल श्रीजिनचन्दमूरि प्रतियोधित मानि-आण श्रीमंध फारितः
(पावापुरी तीर्थध सं० १९१८फा लेग श्री परणरन्जी नाहर न जन लेगमप्रा।) ___ उपरोक अवतरणों में मं० १.२३. में मणिपागंजी और ०१-५ में मंगरंगशाला फलां जिनचन्द्रमूरिजी को इन जाति प्रतियोभम आचार्य लिया। किन्तु उसमें भी परिचय प्रायः
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रभूरि मणिधारीती का ही दिया है अतः बात होता है कि नाम साम्य की भ्रान्ति से वे बाल संवंगरंगशालाकत्ता श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के साथ लगा दी है। इन दोनों आचार्यों के समय में लगभग १०० वर्षों का अन्तर है. परन्तु दोनों का एक ही नाम होने के कारण यह भ्रान्ति हो जाना सम्भव है। इन प्रमाणों से यह निर्विवाद सिद्ध है कि इस जाति से प्रतिवोधक खरतर गच्चार्य श्रीजिनचन्द्रसरि थे।
इस नाति वालों की एक प्रतिज्ञा नं. ४-५ के अवतरण से इस जातिवालों की एक महत्त्वपूर्ण प्रतिमा का पता लगता है। वह प्रतिता यह थी कि "हम या तो श्रीविनेश्वर भगवान को या श्रीजिनचन्द्रसूरि (एवं उनके अनुयायी साधुसंध को ही वन्दन करेंगे दूसरों को नहीं इससे उनके मन्यन्त्र गुण की बद्धता एवं अपने उपकारी खरतरगच्चाचायों के प्रति अनन्य अवा का अच्छा परिचय मिलता है। ___ उपर्युक्त बात की पुष्टि स्वल्प इस जाति वालों ने जिनविम्व और जिनालयों की सभी प्रतिष्टाएं खरतर गच्छाचाया द्वारा ही कराई है।
श्रीजिनशालरिजी के पट्टाभिषेक महोत्सव में भी इसी जाति के उपर विजयसिह ने बहुवसा द्रव्य व्यय र किया था, जैसा कि श्रीजिनकुशलसरि पट्टाभिषेक रास में लिखा है:
१ वा पूर्णवन्द्रनार द्वारा प्रकगित बरतर-गन्छ-पट्टावली संग्रह पृ०३०॥
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मालियाण जाति
"न विजर्यामह रम्फर परी मातिाण मुग्लि मार । तउ नामु ठाम नए अप्पियउ तउ गोलाइ गर गणधार 11 त गुमर घर मसणठ अलिराट नाम् ।
न मिलिय मंघ समुदाय नदि महनिभाण अभिरामु ॥९॥ (हमारे सम्पादित तिहासिक-जन-काव्य संग्रह" प. १)
उपर्युक्त श्रावक ठपकुर विजयसिंह की गुरुभक्ति की प्रशंसा पड़ी २ उपमाओं द्वारा ममी राम में उम प्रकार वर्णित है:
स माहिए भादि निगद भरा, नेमि जिग नारायण पामा ए जिम परमिन्दु जिम मेगिग गुर पोर निण, मिण परिप गहगुरु भनि मा निमाण परि सय ए. पहिान्नण नात परिपुन्न विजयमोहु चगि जामि लिपट,
परमान ठार विजयसिंह के पुत्रग्स ठार बलिराज की गाद अभ्यर्थना से परतरगन्जीय श्रीमरणप्रभाचार्य ने “पटावश्यक चालावबोध गृत्ति" की रचना की थी, जैसा कि इस प्रन्य की निम्न प्रशम्नि से शान होना है:-- ____ "संवत १४११ वर्षेनीपोत्नय दिवने शनिवारे श्रीमनट पत्तने महागजाधिराज पानमामि भी पागजगाति विजयगाय प्रवनमान श्री चंद्रगाचालंकार श्रीपरनग्गरमाधिपति श्री जिनपन्द्रमृरिशियाश भीनम्णप्रभारिभिः श्रीमंत्रिदलीय पशावतंस टपटर यार सुन परमाग कार विजामिन श्री जिनशामन प्रभागर. श्रीनगुणांना भिन्नामणि रिषित मम्तक गोजिनधर्म कायकपर मिल नपान परमान
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि ~rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr ठक्कुर वलिराजकृत गाढाभ्यर्थनया पडावश्यकवृत्ति सुगमा वालाववोधकारिणी सकल सत्तोपकारिणी लिखिता। छ.। शुभमस्तु ॥ छः ॥
(स० १४१२ लिखित प्रति, बीकानेर ज्ञानभंडार मे से)
कुलीनता इस जाति की कुलीनता और ञ्चता ओसवाल, श्रीमालादि जातियों से किसी तरह न्यून नहीं थी। श्रीजिनपतिसूरिजी कृत समाचारी ' के अन्त में खरतरगच्छ मे आचार्यो, उपाध्यायों, महत्तरा आदि पदों के योग्य कुलो की जो व्यवस्था की गई है उनमें महक्तिआण जाति को भी वीसा ओसवाल,श्रीमालों की भाति आचार्य पद के योग्य बतलाई गई है।
__ लेखों की सूची इस जातिवालों के निर्माण कराये हुए जिन विम्व व जीर्णाद्धारों के उल्लेखवाले बहुत से शिलालेख इस समय उपलब्ध हैं। जिनमे से बाबू पूरणचन्दजी नाहर द्वारा सम्पादित 'जेन लेख संग्रह के भाग १-२-३ आदि के लेखों की संवतानुक्रम सूची तथा अन्य सूचिया नीचे दी जाती है। जिससे पाठकों को उनके उत्कर्प एवं सुकृत्यों का संक्षिप्त परिचय हो जायगा।
१ उ० श्री जयमागरजी सकलित श्रीजिनदत्तसूरि चरित्र उत्तरार्व में प्रकागित।
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मानियाण जानि सं० १४१२ आषाढ कृष्णा ६ २३६ सं० १४३६ फाल्गुन शुधा ३ १०१६ सं० १५०४ फाल्गुन गृछा ६ २७०, २३६. २५३,
१७१, १७२, १८४६, १८५४, १९५६, १८५ मं० १५१६ वैशाग्य शुमा १३ ४८२ मं० १५१६ आपाढ़ कृष्णा १ २४२१, २१६, ४१८,
४१६, २८१, २१५० २१७, ४८. १६१ मं० १५१९ आपाढ़ पग्गा १० १० सं० १९१६ आपाढ शुमा १० १०३ स. १५०३ वशाय शुरा १३ ११५७ सं० १५२७ मार कृष्णा ५ १६ सं० १९८६ शाम मुदि १५ २७१ मं० १९८८ (१८६) . . १७६ सं० १६६८शाय नमा११२, १३ र मं० १७०२मार गृहा १३ ११८ धीगर बुद्धिनागरिजी माल “जन भानु प्रतिमा
ग्य मंमा मा. १-२ :मं० १६:. आ मति ...... मं. १:धापाद यह मं. १ आगाद धादि: १८४ मं0
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्ररि मुनिराज श्रीजयन्तविनयजी सम्पादित 'अर्बुदगिरि शिलालेख संवह' में :सं० १४८३
लेखांक १७६ हमारं संग्रहित बीकानेर जन लेख संग्रह में:सं० १५२३ वै मु. १३ अजितनाथजी का मन्दिर श्रीजिनविजयजीसम्यादित प्राचीन जैन लेख संग्रह भा०२ में:
सं० १४८५ कार्तिक शुला५ ५६, सं० १४६६ आयाढ़ शुका १३ ६०
(ये दोनों लेख गिरनार यात्रा के हैं)
गोत्रों के नाम उपरोक्त शिलालेखों में इस जाति के बहुत से गोत्रों के नाम उपलल्य होते है जिनकी नामावली इस प्रकार है:
दसिण्ड १८६, १४०७ (बु) वायड़ा २१६, १:७८ (१) बाग १०, ११, १२, २१५, बत्तिटिया १९२
२१३, २७०, ८१, ४१८, सयला १९२
४३९, १६३ () मोल, १९९७ बड़ा १९२
महवा १६६ बोरा १७६, १९०, १९८, २४५, पाहड़िया १३९७
२७१, १९, १९९ माणवाग १६६७ जजियग१९३
वजागरा १९९७
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নদিয়া বা
जाटा०३९, २५६
जूम १९९७ दानहग १९२
मुट ११५७ दुर १९
भगार ४८७ (अभिमागरमूरि नानूला १९२, ६० (जि०स०भा० ) माहित ) यालिरिया १६७
गुनामः ५६ (जिनपि सम्पादित मुटतोर ११, १७२
भा० १.२) गहटिया ९०
जिम जाति के गांवों की संख्या कंवल प्रतिमा लंगों में तनी प्राप्त हो इस जाति वालों की जनसंख्या कितनी अधिक होनी चाहिये उसका अनुमान पाठकगण म्वयं कर ले।
निवासस्थान और गृह-संन्या एम जातिवालों का निवासस्थान कौन कौन से प्रान्नों में और किन किन नगरों में था, इसके विषय में मतगावीं शताब्दी में लिए हमारे ममा एक पत्र ने अन्दा प्रकाश पटता। यापि इस पत्र में या संस्थानों (घरो की संख्या के माथ) फही नाम है, तो भी या विशेष उपयोगी होने से पाठकों को जानकारी के लिये, उसका मशहम यह न करने।
श्री मत्तियाण यग्तर श्रावक नर ठामे प्रामे मनःपा.--- १ घर २५ विकार | गन पीपलिया
पर २० माणिकपुर
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TIME TAMARHI
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि
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३ घर ५ पटण ४ घर २ वारि (वाड़) ५ घर ३ भागलपुर ६ घर १ वांगर मऊ ७ घर ४ जलालपुर ८ घर २० सहारणपुर । गंगापारपि केपि । ६ घर २. अमदावादे माजनई सर्व घर १००
इससे पहिले के शिलालेखों और खरतरगच्छ की वृहत् गुर्वावली में दिल्ली, जवणपुर (जौनपुर), डालामऊ, नागौर आदि स्थानों में भी इस जाति के प्रतिष्ठित धनीमानी श्रावकों के निवास करने का उल्लेख पाया जाता है। विहार तो इनका प्रमुख निवासस्थान था. जिसका परिचायक वहाँ अव भी "महत्तियाण मुहा" नाम से प्रसिद्ध एक मुहल्ला है और वहां उन्हीं के वनाये हुए जिनालय और धर्मशाला विद्यमान हैं।
चौदहवीं शताब्दि से सतरहवीं शताब्दि पर्यंत मंत्रिदलीय लोगों की बड़ी भारी जाहोजलाली ज्ञात होती है। वे केवल धनवान ही नहीं परन्तु बड़े-बड़े सत्ताधीश एवं राजमान्य व्यक्ति थे। अपने उपगारी खरतर-गच्छाचार्यों की सेवा. तीर्थयात्रा संघभक्ति, और अर्हन्तभक्ति में इस जातिवालों ने लाखों रुपये खुले हाथ से व्यय कर अपनी चपला लक्ष्मी का सदुपयोग किया था।
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महतियाण जाति मग्नर गन्छ गृहद गुर्वावली में उनके मुत्यों का मनोरा एवं ग्लापनीय वर्णन भी मिलना है, जिसका संक्षिप्त मारया लिया जाता है।
गंबर १३७५ मे कलिकालवली श्रीजिनचन्नमरि माय दिल्ली के ठपार विजयसिंह, सदा (डालामऊ के अनलमिहने फलयदि पार्श्वनाथ की यात्रा की थी और वहां सेब ने बारह मान द्रव्य देकर इन्द्रपट प्राम किया था, एवं उसी वर्ष में ठपपुर प्रतापसिंह पुत्रगज अचलमिाः ने गनुबुटीन मरत्राण सेनयंत्र निर्वाध यात्रा के निमित्त फरमान प्राप्त कर मंघ नरित हस्तिनापुर. मथुग आदि अनेक तीथों की यात्रा की थी। वं मार्ग में पतुबुद्दीन मुग्नाण की पंद में उगकपुगेय आचार्य को बुदाया था।
मंस १३७६ में ठपपुर. आगपाल पं. पुत्र जगामिाने श्रीजिनारालसूरिजी आदि संग के साथ आगमण नारना आदि नीर्स की यात्रा की थी। २० १३८८ ममपनि ग्याति पसंप में गन्त्रिदलीय सेठ राधनपाल भी गुस्य सुमायनों में । मं० १९८१ में श्रीजिनगुगलसरिजी म. नाथ पाका नगर मे पधारे उम ममय टपात गणमायामनग आदिकायों नाग जन धर्म की प्रभावना की थी।
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न जिनपारमाग्मिी, जालोर मारने पर मन्त्रिालीरन माग
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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रमरि rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr armrrrके पुत्र मं० सलमवणसिंह आदि ने फाल्गुन मृगाह से लगातार २५दिनों तक पूज्यश्री के पास प्रतिष्टा, प्रतग्रहण. उद्यापनादि नन्दिमहोत्सव बड़े समारोह से सम्पन्न करवाये। सं० १३८३ फाल्गुन ऋग्गा : को राजगृह के "भारगिरि" नामक पर्वत के शिखर पर ठ० प्रतापसिंह के वंशधर अचलसिंह ने चतुर्विंशति जिनालय निर्माण कराया था. उसके मूलनायक योग्य श्रीमहावीर स्वामी एवं अन्य तीर्घरों की पायाण एवं धातुनिर्मित बिम्बों की प्रतिष्टा श्रीजिनकुशालरिजी के करकमलों से सम्पन्न हुई थी।
उपसंहार इन प्रकार उपलब्ध साधनों के द्वारा जो कुछ भी इस जाति के विषय में बात हुआ वह इस लेख में संक्षिम ल्प से लिख दिया गया है। इससे विशेष जानकारी रखनेवाले सज्जनों से अनुरोष है कि वे इस सम्बत्य में विशेष प्रकाश डालने की कृपा करें।
[ओसवाल नवयुवक वर्ष ७ अंक से उद्धत]
१ स. १४२ में उत्तीर्ण गनगृह पार्श्व जिनालय प्रगस्ति में श्री जिनकुगलपूरिनी के द्वारा विपुलागिरि पर मंत्र की मूर्ति की प्रतिष्टा की जाने का उल्लेख है। उक्त प्रशस्ति बड़े महल की है और अनुवाद श्री जिनविजयजी सवादित 'प्राचीन जन लेख संग्रह में भी प्रगित है।
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विशेष नामावली
अजमेर
... पन्यानग्न अजितनाथ विधिचन्य १ कपरमाल भारत নিথ
१९ पदम गला भनेकान जग पनाका ७ फग्यारिज अभयामार चरित्र
४ गुनुपमीनार अभयमन्त्र
९ मारपाल महाराजा अभयनिगमोपाध्याय
पिनमा १४,१८,१९ अपरायों
समाकरणाम मानिका (हांगी)
पामगार মাগাথা
~ १.२४-८९ पुर
९ पानगद पटणे उप ( देश) ८ गरगरगा पा . अपना
१. गोरिपा (पत्र) पार . प्रगमा
८ माMATE. Anty fair-i-पाप-REr vie Angn:
१ र 'er : २८ गापा
। . .
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गुगभद्रगणि गुणवर्दन गुणधी गुञ्चांवली
(चन्द्रप्रभविधि-चैत्य
९, जिनप्रभसूरि ८ बिनभद्र, जिनभद्राचार्य
८ जिनभद्रसूरि
६,७,८,१५ जिनस्य गोलक सा०
८ जिनबल्लमसूरि १० चर्चरी
३ जिनशेखरोपाध्याय चन्द्रतिलक उपाध्याय ४ जेसलमेर
८) जैनतीर्थ भीमपल्ली भने रामसैन्य ८ जगहित
७ जैनसाहित्य का सक्षिप्तइतिहास ६ जगधी
८ जनयुग जयदेवाचार्य
२४ ढीसा नयमोल
७ तगला ग्राम जिनकुशस्ति
१ त्रिभुवनगिरि जिनचन्द्रमूरि १,२,४,५,६,१०,13, तवर
१५,२०,२२,२३,२५, दिल्ली (योगिनीपुर-जोयणिपुर) २६,२८,२९,३०
५६,१५,१७,१८, निनवन्द्रसरि अष्टकम् ३०
२०२९,३० जिनदत्तसूरि १,२,३,४,५,६,९,१०, देल्हणदे
२,३० १४,१६,१५,२१,२३, देवप्रभसूरि (मलधारि) ११ ___ २४,२८,३०
देवभद्र जिनपतिसरि ७.८,९,१०,२४,२५,२७ धनेश्वरसरि ‘निनपालोपाध्याय ३,४,१०,१५,२५,२९ नरचन्द्रसरि
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गरपनि मुनि
१,२३ बीकानेर नापालपुर
९ भांदर यायपन्दगी
11 भीमपाती, गोरी न्यायायमार
. मग नागा
९ मानपाल महाराजा -1 पापात्रावायं १०,११,१२,१३,२९ माकोट (मराट)
२४ गालिग (मन्त्रिागंग २, এ নাঘ ১
८ मालाल धायक মপুণগুলি प्रहार
र महापरिगामी रवीरान महाराजा Y TER. বাণ -
११.१९ मगर पार
७ माना पासंग
२१ माग पान fri (मन्दिर) मार
....... मग TAIT मायाप . माग नंग
८ पौeer Fin:
" मावा Ti (ram) पुग Hilari
पागजा
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. ८८८
रासल
२,३,५,३० वौर जिनालय रुद्रपल्ली
९,१६ वीरभद्र रुद्रपल्लीय शाखा
१० वीरनय ललितविजयजी
२६ बोरसिदान लवणखेटक
७,८ शान्तिनाथ विधिचैत्य लोहर ठक्कुर
१४,१९ शालिभद्र चरित्र व्यवस्थाकुलक
२८ शीलसागर वागड देश
३,२४ श्रीधर वाढली
९ श्रीमाल वादस्थल
८ सरस्वती वादिदेवसरि चरित्र ६ सागरपाडा वासल
३ समति गणि विक्रमपुर (विक्कमपुर) २,३४,२०,३० सूरि-परम्परा-प्रशस्ति विनयशील
८ सोमदेव विविधतीर्थ-कल्प २५ हर्षपुरीय गच्छ वीर जिनेश्वर
२ हेमदेवी गणिनी
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6: ८
* पुस्तक के टिप्पण में भूल से इसके स्थान में वोरसि दा छप गया है। पाठक सुधार लें।
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