Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1975
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 333
________________ 2-100 42 वर्ष की आयु में जम्भिका प्राम के निकट मानव जैन हैं। चौबीस तीर्थङ्करों में से प्रादि ऋजुकुला सरिता के तट पर वे 'सर्वज्ञ' अथवा तीर्थंकर ऋषभदेव, पंचम तीर्थङ्कर सुमतिनाथ, 'जिन' या 'महावीर' कहलाए। जिन का अर्थ प्रष्टम तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ, तेरहवें तीर्थङ्कर विमलविजयी होता है। हमारे कवियों ने उनको उनके नाथ, सोलहवें तीर्थ कर शान्तिनाथ, बाइसवें गुणाश्रित पांच नामों से सम्बोषित किया है : वीर, तीर्थकर नेमिनाथ, तेइसवें तीर्थ कर पार्श्वनाय, अतिवीर, महावीर, सन्मति तथा वर्द्धमान । वे प्रतिम तीर्थकर महावीर स्वामी के जीवन-चरित्र सिद्धशिला थे क्योंकि यह भगवान् महावीर की को लेकर हिन्दी में विपुल साहित्य लिखा गया जीवन-साधना के चरमोत्कर्ष-मोक्ष का प्रतीक है। है। भगवान नेमिनाथ पर जितना हिन्दी में वे निम्रन्थ थे इसीलिए जैनधर्म निर्ग्रन्थ धर्म के साहित्य लिखा गया है। उतना किसी भी तीर्थ कर नाम से भी विश्रुत हुप्रा क्योंकि इसमें मोहमाया पर नहीं, यहां तक कि महावीर स्वामी पर भी की ग्रन्थि का उन्मूलन ही सर्वस्व है। वे सामाजिक नहीं। हिन्दी के साहित्यकारों के मध्य सर्वाधिक तथा प्राध्यामिक संघर्ष के सफल सेनानी थे। वे प्रतिष्ठित और लोकप्रिय भगवान नेमिनाथ ही अहिंसा के अवतार थे। वे जीवन-कमल थे उन्होंने दिखायी पड़ते हैं । उनके बाद कहीं महावीर स्वामी, राजनैतिक और सामाजिक जीवन भी मोगा और पार्श्वनाथ और ऋषभदेव पाते हैं। ऋषभदेव का उसकी चरम परिणति माध्यात्मिक जीवनचक्र पाख्यान श्रीमद्भागवत में भी पाया है और उन्हें में की। वे प्रेय से श्रेय की मोर उन्मुख हुए। हिन्दुओं के अवतारों में भगवान बुद्ध की भांति ग्रहण वे मानव से भगवान बने । वे जिनेन्द्र और किया गया है। जिनेश्वर थे। वे क्षमा के देवता और साकार साहित्य के प्रेरणा-स्रोत : निर्वाणस्वरूप थे। दीर्घ तपस्वी महावीर ने उत्तर भगवान महावीर स्वामो साहित्य के प्रेरणाप्रदेश, बिहार तथा पश्चिम बंगाल का भ्रमण कर स्रोत रहे हैं। मुख्यतः दसवीं एकादश शताब्दी से अपने युग के समाज को निरखा-परखा था। वे लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक जैनाचार्यों द्वारा युग-धर्म की विभूति थे और इसीलिए उन्होंने लिखित पुष्कल साहित्य में वे चरित्र नायक के रूप कलियुग में धर्मयुग की सच्ची स्थापना की थी। में प्रतिष्ठित हैं। इस समयावधि में हिन्दी में उनके इन्हीं गुणों ने हमारे साहित्यकारों को उच्चस्तरीय और पृथुल जैन साहित्य रचा गया है आकृष्ट, मुग्ध और मन्त्र-मोहित किया है। जिसकी गणना श्रेष्ठ भारतीय साहित्य में भलीभांति साहित्य के सागर : तीर्थङ्कर : - की जा सकती है। । मूलत. और प्रधानत: जन साहित्य ने प्राकृत भगवान् महावीर स्व मी ने जैन-दर्शन को तथा प्रर्द्ध मागधी भाषा की श्रीवृद्धि की है। मौलिक प्रदेय दिए हैं जिनसे हमारा हिन्दी-साहित्य उनके अतिरिक्त संस्कृत तथा हिन्दी साहित्य में अनुगृहीत हुआ है। श्रमण-संस्कृति के परम्परागत भी तद्विषयक विपुल स्तरीय भोर समृद्ध साहित्य महाव्रतों अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय मौर लिखा गया है । जैन-धर्म विश्व के प्राचीन धर्मों अपरिग्रह में ब्रह्मचर्य को संलग्न-सम्बद्ध करके, में से एक रहा है। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा के महावीर ने जैन-मत के परम तथा प्रमुख उन्नायक उत्खनन कार्य और ऋग्वेद यजुर्वेद के साहित्य में होने के गौरव को प्राप्त किया है । इसके साक्ष्य विद्यमान हैं। ऋग्वेद तथा यजुर्वेद जैन-धर्म का प्रभाव हमें हमारे साहित्य में में भगवान ऋषभदेव और भगवान नेमिनाथ के चार रूपों में स्पष्टतया दिखायी देता है :नामों का उल्लेख मिलता है । भाव और अधुनातन (क) जैन-धर्म .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446