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गाथा ६६ ] लब्धिसार
[ ५७ उक्कस्सट्ठिदिबंधे प्रावाहागा ससमयमावलियं । मोदरियणणिसेगेसुक्कड्डेसु भवरमावलियं ॥६६॥
अर्थ-उत्कृष्टस्थितिका बन्ध होनेपर उस कर्मबन्धके प्राबाधाकालसम्बन्धी चरमसमयसे एकसमयअधिक आवलिकाल पूर्वतक जो उदय आने योग्य सत्कर्म निषेक है, उनके द्रव्यका उत्कर्षण होनेपर आवलिप्रमाण जघन्यप्रतिस्थापना होती है ।
विशेषार्थ- इस गाथासूत्रका यह भाव है कि जो स्थितिया बधती है, उनमें पूर्वबद्ध स्थितियोंका उत्कर्षण होता है और उत्कर्षणको प्राप्त हुई स्थितिकी एकआवलिप्रमाण अतिस्थापना होती है जो निर्व्याघात उत्कर्षणकी जघन्यप्रतिस्थापना है । वह इसप्रकार है-७० कोडाकोडीसागरके बन्धयोग्य कर्मकी पूर्वमे अन्तःकोडाकोड़ीसागरप्रमाण स्थितिका बन्ध हुआ। इसस्थितिके ऊपर बन्ध करनेवाले जीवके एकसमयअधिक, दो समयअधिक आदिके क्रमसे जबतक एकावलि और एकावलिके असख्यातवेभाग अधिक स्थितिका बन्ध नही होता, तबतक उसस्थितिके अन्तिमनिषेकका उत्कर्षण सम्भव नही है, क्योकि निर्व्याघातउत्कर्षणका प्रकरण है। इसलिये एकआवलिप्रमाण अतिस्थापना और प्रावलिके असंख्यातवेभागप्रमारण जघन्य निक्षेपके परिपूर्ण हो जानेपर ही निर्व्याघातविषयक उत्कर्षण प्रारम्भ होता है। इससे आगे प्रावलिप्रमाण अतिस्थापनाके अवस्थित रहते हुए अपने उत्कृष्टनिक्षेपकी प्राप्ति होनेतक निरन्तर क्रमसे निक्षेपकी वृद्धिका कथन करना चाहिए। इसीप्रकार अन्त.कोडाकोडीसागरप्रमाण स्थितिके द्विचरमनिषेकका भी कथन करना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि पूर्वके निक्षेपस्थानोसे इसके निक्षेपस्थान एकसमयअधिक होते है। इसीप्रकार नीचेकी सर्वस्थितियोकी प्रत्येकस्थितिको विवक्षित करके प्ररूपणा करनी चाहिए । नवीन कर्मबन्धकी आबाधाके भीतर एकसमयअधिक प्रावलिप्रमाण नीचे जाकर जो पूर्व सत्कर्मकी स्थिति स्थित है, उसके प्राप्त होनेतक अतिस्थापना एकावलिप्रमाण ही रहती है । इससे नीचेकी स्थितियोका उत्कर्षण होनेपर निक्षेप तो पूर्वके समान रहता है, किन्तु इतनी विशेषता है कि उदयावलीके बाहरकी स्थितिके प्राप्त होनेतक इन स्थितियोकी अतिस्थापना एक-एकसमय बढती जाती है।
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ज.ध.पु.८ पृ २५४-५५ ।