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गाथा २९६-३०० ] लब्धिसार
[ २४१ विशेषार्थ-दूसरे समयमे तो प्रथम समयमे उदीर्ण हुई कृष्टियोके अग्राग्रसे अर्थात् सवसे उपरिम कृष्टिसे लेकर नीचे पल्यके असख्यातवे भागप्रमाण कृष्टियोको छोडता है, क्योकि ऐसा न हो तो प्रथम समयके उदयसे दूसरे समयका उदय अनन्तगुणा हीन नहीं बन सकता है। इसलिये पूर्व समयमे उदीर्ण हुई कृष्टियो में से सबसे उपरिम कृप्टिसे लेकर असख्यातवे भागप्रमाण उपरिम भागको छोड़कर अधस्तन बहुभागप्रमाण कृप्टियोका दूसरे समयमे वेदन करता है, परन्तु नीचेसे प्रथमसमयमें अनुदीर्ण हुई कृष्टियोके अपूर्व असख्यातवेभागको वेदता है अर्थात् पालम्बनकर ग्रहण करता है। प्रथम समय में उदीर्ण कृप्टियोसे दूसरे समयमें उदीर्ण हुई कृष्टियां असख्यातवेभाग प्रमाण विशेषहीन है, क्योकि अधस्तन अपूर्व लाभसे उपरिम परित्यक्त भाग बहुत स्वीकार किया गया है । इसीप्रकार सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक तृतीयादि समयों मे भी कथन करना चाहिए।
इसप्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकगुणस्थानके कालका पालन करता हुआ आवलि प्रत्यावलिके शेष रहने पर आगाल-प्रत्यागालका विच्छेद करके पश्चात् एक समयाधिक आवलिकालके शेष रहनेपर जघन्य स्थिति उदीरणा करके पुन. क्रमसे सूक्ष्मसाम्परायका अन्तिम समय प्राप्त हो जाता है'।
अथानन्तर सूक्ष्मकृष्टि द्रव्यके उपशम सम्बन्धी विधि एवं सूक्ष्मसाम्परायके अन्तमें कर्मोके स्थितिबन्धका निर्देश करते हैं
किटि सुहुमादीदो चरिमोत्ति असंखगुणिदसेढीए । उवसमदि हु तच्चरिमे अवरदिदिबंधणं छरहं ॥२६॥ अंतोमुहूत्तमेत्तं घादितियाणं जहण्णठिदिवंधो । णामदुग वेयणीये सोलस चउवीस य मुहुत्ता ॥३०॥
अर्थ-सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयसे अन्तिम समयतक कृष्टियोंको असंख्यातगुणी श्रेणिक्रमसे उपशमाता है । अन्तिम समयमे छहकर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध होता है । तीन घातिया कर्मोंका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण, नाम व गोत्रका १६ मुहूर्त और वेदनीयका चौवीस मुहूर्तप्रमाण जघन्य स्थितिबन्ध होता है ।
१. ज घ. पु. १३पृ ३२४-२५ ।