Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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किया जाता है तो अनेक महान साधिकाओं के दिदिगंत में गुंजाया। तीनों ने पारस्परिक स्नेह । नामोल्लेख मिलते हैं।
और सद्भावना का एक ज्वलन्त आदर्श उपस्थित र अमर परम्परा के इतिहास में अनेक ज्योतिर्धर कर जन-जन के लिए प्रेरणा स्रोत बनीं । जगमगाती साधिकाएँ हुई हैं जिनके तेजस्वी हाँ तो सद्गुरुणी जी श्री कुसुमवती जी म०, र व्यक्तित्व के सम्बन्ध में यहाँ चिन्तन न कर मैं सद्- महासती श्री सोहनवर जी महाराज की पट्टधर गुरुणीजी की गुरुणी साध्वीरत्न श्री सोहनकुवर शिष्या हैं । वर्षों तक गुरुणीजी के चरणों में बैठकर | जी महाराज के सम्बन्ध में चन्द पंक्तियों में चिन्तन उन्होंने ज्ञानार्जन किया और भारत के विविध 9 प्रस्तुत कर रही हूँ।
अंचलों में परिभ्रमण कर जैन धर्म की प्रबल प्रभामहासती सोहनकुवर जी महाराज तप और वना की । इसीलिए वे अभिवन्दनीय और अभिन
। की, स्नेह और सद्भावना की एक ऐसी न्दनीय है। इसी कारण उनके चरणारविन्दों में मिशाल थीं जिन पर स्थानकवासी समाज को अनन्त श्रद्धा को मूर्तरूप देने वाला अभिनन्दन ग्रन्थ हार्दिक गौरव था। जिस समय विभिन्न सम्प्रदायें समर्पित करने का हमें गौरव प्राप्त हुआ है। फन फैलाकर खड़ी थीं उस समय एक सम्प्रदाय गुरुवर्या श्री कुसूमवती जी म० सा० का जीवन वाले दूसरी सम्प्रदाय के महापुरुषों का गुणोत्कीर्तन दर्शन विविध आयामी है। यहाँ उस पर चर्चा
करने से कतराते थे उस समय उनके तप और करना प्रासंगिक नहीं होगा (जिज्ञासू पाठक उनका al त्यागमय जीवन को निहार कर आदरणीय आचार्य जीवन दर्शन इस ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में देखने का
श्री गणेशीलाल जी महाराज के हत्तन्त्री के तार कष्ट करें) फिर भी एक बात कहे बगैर नहीं रहा झनझना उठे थे । उन्होंने एक बार कहा कि मैंने जाता। इस तथ्य से सभी भलीभांति परिचित हैं अनेक साध्वियाँ देखी हैं पर महासती सोहनकुंवर कि कुसुम (फूल) के बाह्य स्वरूप का उतना अधिक जी जैसी धीर गम्भीर साध्वी नहीं देखी। यही महत्व नहीं होता जितना उसके अन्तर का । कुसुम कारण है कि उनके गुणों पर आकर्षित होकर अज- की वास्तविक पहचान उसकी सुगन्ध से होती है। मेर शिखर सम्मलन के सुनहरे अवसर पर सती उसकी सौरभ से समूचा उपवन सुरभित हो जाता समूदाय ने चन्दनबाला श्रमणी संघ का निर्माण है और हर कोई उस सुरभित पूष्प का आनन्द लेना किया और उस संघ की प्रमुखा पद पर सर्वानुमति चाहता है । यही बात पूजनीया गुरुणी जी म० पर से उन्हें निर्वाचित किया।
यथार्थ रूप से लागू होती है । आज समाज उनकी श्री सोहनकुवर जी महाराज के त्याग वैराग्य संयम-साधना एवं दृढ़ आचार पालन से भलीभाँति से छलछलाते हुए प्रवचनों को सुनकर अनेक बहनों परिचित है और उनके संयम की सौरभ चहुँ ओर ने संयम मार्ग स्वीकार किया। पर उन्होंने अपनी व्याप्त है। गुरुणी जी श्री अपने नाम के अनुरूप I शिष्यायें नहीं बनायीं वे बहुत ही निस्पृहा थों। कुसुमवत् ही है । अन्त में त्यागमूर्ति मदनकुंवरजी महाराज की आज्ञा पूजनीया गुरुणी जी के दीक्षा के पचासवें वर्ष
से उन्होंने अपनी तीन शिष्यायें बनायीं। प्रथम में ही अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करने की प्रबल भावना M) महासती श्री कुसुमवतीजी, द्वितीय महासती श्री थी, किंतु उस समय शोधकार्य में अत्यधिक व्यस्त 60
पुष्पवतीजी और तृतीय महासती श्री प्रभावतीजी। होने के कारण मैं अपनी उस भावना को मूर्त रूप ये तीनों शिष्याय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और प्रदान नहीं कर सको । जैसे ही मेरा शोध कार्य सम्यग्चारित्र के रूप में रहीं। तीनों ने अपनी सम्पन्न हुआ, अन्तर्मन की श्रद्धा और प्रबल प्रेरणा
प्रतापपूर्ण प्रतिभा से सद्गुरुणीजी के नाम को से अभिनन्दन ग्रन्थ का कार्य आरम्भ कर दिया। (OER 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ GeoG Jain Education International For Private & Personal Use Only
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