Book Title: Kulingivadanodgar Mimansa Part 01
Author(s): Sagaranandvijay
Publisher: K R Oswal

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Page 60
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५७) 'मलेण वच्छं बहुणा उ०-इदं मदीयं वस्त्रं बहुमलेन यस्तं०' इत्यादि भाष्य-टीकाकार की आज्ञा से स्व-पर को ग्लानी करनेवाले मलाविल वस्त्र को वारिश के सिवाय भी धो लेना चाहिये । निशीथचूर्णि में ' एवमादीएहि कारणेहिं० ' ऐसा कह कर जो बहुत ही कारण दिखाये हैं उनमें यतियों की शिथिलता के कारण की गंध तक नहीं है और चूर्णिकार महाराज के दिखाये हुए कारण वर्तमान में प्रायः उपस्थित नहीं है । अतएव वस्त्र वर्ण परावर्तन करना महावीर शासन में अनुचित ही है। __ यदि कहा जाय कि-उत्तराध्ययनसूत्र टीकाकारने 'वेषविडम्बकादयोऽपि वयं व्रतिनः' इस वाक्य से वेषविडम्बकों से साधुओं का जुदा वेश लोगों के विश्वासके लिये स्वयं प्रतिपादन किया है ?, परन्तु इस खुलासे में उन्हीं टीकाकारने वर्द्धमानविनेयानां हि रक्तादिवस्त्रानुज्ञाते वक्रजडत्वेन वस्त्ररञ्जनादावपि प्रवृत्तिः स्यादिति न तेन तदनुज्ञातम् । ' इन वाक्यों से वर्द्धमान स्वामि के शिष्यों को वस्त्ररंजनादि प्रवृत्ति का स्वयं निषेध कर दिया है। इससे वर्द्धमान भगवान् के शासन में यतियों की शिथिलता का कारण रहने पर भी उनसे जुदा भेद दिखलाने के लिये वस्त्र का रंगना सिद्ध नहीं है, किन्तु शास्त्रोक्त मर्यादा से सफेद वस्त्र ही रखना सिद्ध है । लेकिन जिन लोगों का अथवा यों समझिये कि पिशाचपंडिताचार्य का हृदय-भवन अन्त कुतर्कों की वादि से वासित है, उनको शुद्ध समझने का रास्ता कहां से मिल सकता है ? उन्हें तो केवल अपवाद के परदे में बैठ कर मनोकामना ही सिद्ध करनी है । For Private And Personal Use Only

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