Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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व्यक्तित्व एवं कृतित्व को सम्मानित करने के परम पुनीत लक्ष्य से इस अभिनन्दन ग्रन्थ का सम्पादन व प्रकाशन अपने आप में एक प्रेरणा स्रोत है, असद् से सद् की ओर तथा अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला अमृतशोल है। यह सम्पादन मूल में उनके जीवन के आदर्शों को, त्याग, सेवा-भावना और लोकसंग्रही उदार मानवतावादी दृष्टिकोण को मुखर करता है। शिक्षा, समाज, धर्म और राष्ट्र के लिये इनका व्यक्तित्व व कृतित्व वास्तव में एक अनूठा समर्पण है, सृष्टि मंगल की आराधना है। राणावास का एक नन्हा पुष्प किस प्रकार समूचे देश को सुरभित कर सकता है ऐसा दिग्सूचक है, मानव जीवात्मा का अटल विश्वास और संजीवन है। अतः भारतीय इतिवृत्त में उनका समर्पण न केवल आंचलिक अपितु सार्वदेशिक जन कल्याण व जनचैतन्य का चतुर्मुखी उद्घोष है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए ही इस अभिनन्दन ग्रन्थ की सामग्री को बहु आयामी स्वरूप देने की विनम्र चेष्टा की गई है।
ग्रन्थ का प्रथम खण्ड अभिनन्दनीय जीवनवृत्त से सम्बन्धित है। कर्मयोगी श्री केसरीमल जी सुराणा की जीवन ज्योति को इस खण्ड में संयोजित व रूपायित किया गया है। उनकी जीवन-रेखा के क्रम में, उनके जीवन से सम्बन्धित विभिन्न संस्मरण युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी, युवाचार्य श्री महाप्रज्ञजी, साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभाजी एवं अन्य सन्त-मुनिराजों के आशीर्वचन, गणमान्य सज्जन शिरोमणियों के श्रद्धा सुमन, काव्याञ्जलि और कर्मयोगी सराणाजी को प्रदत्त विभिन्न अभिनन्दन पत्रों के आलोक में उनके जीवन के कर्मयोगी स्वरूप से साक्षात्कार करने का प्रयास किया गया है।
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द्वितीय खण्ड सुराणाजी के कृतित्व को उद्घाटित करता है। इसमें सुराणाजी के सान्निध्य व सदप्रयासों से संस्थापित श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ मानव हितकारी संघ, राणावास का क्रमबद्ध इतिहास व उसके द्वारा संचालित विभिन्न प्रवृत्तियों को प्रस्तुत किया गया है और यह ध्यान रखा गया है कि किस प्रकार एक सामान्य सा प्राथमिक विद्यालय आगे चलकर महाविद्यालयी स्वरूप ग्रहण करता है और बीज से बरगद की कहावत को चरितार्थ करता है। इस प्रस्तुतीकरण में प्रत्येक प्रवृत्ति का परिचय सर्वांगीण रूप से संवारने का उपक्रम है।
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तृतीय खण्ड शिक्षा व समाज-सेवा की वर्तमान गति-प्रगति को दर्शाता है। चूंकि कर्मयोगी काकोसा का समूचा जीवन शिक्षा के प्रचार-प्रसार में समर्पित रहा है, अतः इस खण्ड में विभिन्न शिक्षाविदों व विद्वान लेखकों ने अपने अनुभवों के आधार पर शिक्षा की वर्तमान व भावी स्थिति और समाज-सेवा को भूमिका व महत्ता पर प्रकाश डालने की चेष्टा की है।
चतुर्थ खण्ड जैन धर्म, दर्शन एवं साधना से सम्बन्धित है। यद्यपि इन तीनों शीर्षकों के अन्तर्गत अब तक जैनविद्या मनीषियों ने प्रभूत परिमाण में लिखा है किन्तु इस खण्ड की प्रस्तुत सामग्री में फिर भी कुछ नयापन है। कुछ आलेख ऐसे भी हैं जो प्रथम बार नूतन जानकारी उपलब्ध कराते हैं। ऐसे लेखों की उपयोगिता एवं महत्ता स्वयं सिद्ध है।
ग्रन्थ का पंचम खण्ड जैन साहित्य की सुदीर्घ व समृद्ध परम्परा को प्रस्थापित करता है। इस प्रयास में यह खण्ड अपेक्षाकृत कुछ अधिक विस्तृत कलेवर वाला हो गया है। लेकिन प्राप्त लेखों के स्वरूप को देखते हुए यह अपरिहार्य था। प्रयास यह भी किया गया है जैन धर्म, व दर्शन से सम्बन्धित आभिजात्य साहित्य के लेखों के साथ साथ लाक्षणिक, तकनीकी एवं वैज्ञानिक साहित्य के बारे में भी अधिकृत आलेख दिये जायं । इस क्रम में कछ लेख वास्तव में ग्रन्थ की उपलब्धि है।
षष्ठ खण्ड जैन धर्म के इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति से सम्बन्धित है। इन तीनों शीर्षकों से सम्बधित विभिन्न लेख जैन धर्म की प्राचीनता व उसके सार्वदेशिक स्वरूप को स्पष्ट करते हैं। तथा उनके विभिन्न पक्षों का सम्यक् उद्घाटन करते हैं।
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