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कातन्वष्याकरणम्
ग्रहणबलादतिशयव्याप्त्या विभक्तिविपरिणामः क्रियते, तस्मादुभयग्रहणं कर्तव्यमेव । ननु यावत् सार्वनामिकनिषेधे द्वन्द्वस्थः शब्दः पञ्चम्यन्तोऽपि षष्ठ्यन्तः कृतः, तथाऽवयवाश्रितनिषेधार्थमपि सिद्धान्तो घटत इत्याह - सिद्धान्तः पुनरित्यादि । यद् वा यदि समुदायाश्रितकार्यं निषिध्यते नावयवाश्रितं तदा कतरकतमका इत्यत्र कतरशब्दादक् स्यादित्याह -सिद्धान्तः पुनरित्यादि ।। ११२।
[समीक्षा]
'पूर्वापर + डे' में डे को स्मै, 'पूर्वापर + ङसि' में सि को 'स्मात्' तथा 'दक्षिणोत्तरपूर्व + आम्' में सु-आगम प्राप्त होता है, परन्तु प्रकृत सूत्र के निर्देशानुसार सार्वनामिक कार्यों का निषेध हो जाने से ‘स्मै' आदि आदेश उपपन्न नहीं होते हैं ।
पाणिनि सार्वनामिक कार्यों का निषेध न करके द्वन्द्व समास में सर्वनामसंज्ञा का ही निषेध करते हैं - "द्वन्द्वे च" (अ० १।१।३१)। इससे सार्वनामिक कार्यों की प्राप्ति ही नहीं होती है।
[रूपसिद्धि]
१. पूर्वापराय। पूर्वापर + । प्रकृत सूत्र के निर्देशानुसार सार्वनामिक कार्यों का निषेध होने के कारण "स्मै सर्वनाम्नः" (२।१।२५) से डे को 'स्मै' आदेश न होने पर ":" (२।१।२४) से डे को 'य' आदेश तथा "अकारो दीर्घ घोषवति" (२।१।१४) से दीर्घ होकर 'पूर्वापराय' रूप निष्पन्न होता है।
२. पूर्वापरात । पूर्वापर + ङसि । 'स्मात' आदेश के अभाव में "उसिरात" (२।१।२१) से ङसि को ‘आत्' आदेश, "समानः सवर्णे दीर्घाभवति परश्च लोपम्" (१।२।१) से सवर्णदीर्घ तथा परवर्ती आकार का लोप ।
३. दक्षिणोत्तरपूर्वाणाम् । दक्षिणोत्तरपूर्व + आम् । “सुरामि सर्वतः" (२।१।२९) से 'सु' आगम के अभाव में "आमि च नुः" (२।१।७२) से 'नु' आगम, "घुटि चासंबुद्धौ” (२।२।१७) से दीर्घ तथा नकार को णकारादेश ।। ११२ ।
११३. तृतीयासमासे च [२।१।३४] [सूत्रार्थ]
तृतीयासमास होने पर तथा उसके अभाव में भी सार्वनामिक कार्य नहीं होता है ।।११३।