Book Title: Kalashamrut 6
Author(s): Kanjiswami
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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નાટક સમયસારના પદ
४७३
આ વિષયમાં શ્રીગુરુ સમાધાન કરે છે. (દોહરા) क्रिया एक करता जुगल, यौँ न जिनागम माहि। अथवा करनी औरकी, और करै यौं नाहि ।।२१।। करै और फल भोगवै, और बनै नहि एम। जो करता सो भोगता, यहै जथावत जेम।।२२।।
भावकरम करतव्यता, स्वयंसिद्ध नहि होइ। जो जगकी करनी करै, जगवासी जिय सोइ ।।२३।। जिय करता जिय भोगता, भावकरम जियचाल । पुदगल करै न भोगवै, दुविधा मिथ्याजाल ।।२४।। तातें भावित करमकौं, करै मिथ्याती जीव । सुख दुख आपद संपदा, भुंजै सहज सदीव ।।२५।।
કર્મના કર્તા-ભોક્તા બાબતમાં એકાંત પક્ષ ઉપર વિચાર.
(સવૈયા એકત્રીસા) केई मूढ़ विकल एकंत पच्छ गहैं कहैं,
आतमा अकरतार पूरन परम है। तिन्हिसौं जु कोऊ कहै जीव करता है तासौं,
फेरि कहैं करमकौ करता करम है।। ऐसै मिथ्यामगन मिथ्यातो ब्रह्मधाती जीव,
जिन्हिकै हिए अनादि मोहको भरम है। तिन्हिकौं मिथ्यात दूर करिबैकौं कहैं गुरु,
कमैवं प्रवितर्ण कर्तृ हतकैः क्षिप्त्वात्मनः कर्तृतां
कर्तात्मैष कथंचिदित्यचलिता कैश्चिच्छुतिः कोपिता । तेषामुद्धतमोहमुद्रितधियां बोधस्य संशुद्धये
स्याद्वादप्रतिबन्धलब्धविजया वस्तुस्थितिः स्तूयते ।।१२।।

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