Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 384
________________ पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : अब आप दीजिये । पूज्यश्री : इसके लिए तो आया हूं । यहां भगवती में मात्र गौतम स्वामी ही नहीं, जयन्ती जैसी श्राविका ने भी प्रश्न किये हैं । प्रश्न कर्ता गौतम स्वामी कैसे ? प्रथम पोरसी में सूत्र, दूसरी में अर्थ रूप ध्यान के कोठे में रहने वाले । अर्थ अर्थात् नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य आदि सबका अध्ययन । इसीलिए अध्ययन को 'अक्षीण' भी कहा है, क्योंकि इतने अर्थ निकलते हैं कि वे कभी समाप्त होते ही नहीं । अक्षीण अर्थात् अट, भरपूर । भगवती का एकाध नमूना देखें । पंचास्तिकाय रूप लोक में अलोक का भी समावेश हो चुका है, क्योंकि आकाशास्तिकाय अलोक में भी है । भगवान के प्रति जितना आदर-सम्मान बढ़ेगा, उतने आगमों के रहस्य समझ में आयेंगे । पूज्य जिनचन्द्रसागरसूरिजी ने सबसे गवाया : जिम जिम अरिहा सेविये रे; तिम तिम प्रगटे ज्ञान सलूणा...। पूज्यश्री : देव-गुरु की भक्ति से ज्ञान प्रकट होगा । मैं स्वयं विद्वान नहीं हूं। मुझ से अधिक विद्वान यहां हैं । भक्ति के प्रभाव से जो अर्थ निकले उससे मुझे भी आनन्द आये । ध्यान के समय अर्थ निकलते हैं । भगवान को पूछने के लिए जाना नहीं पड़ता, भगवान स्वयं आकर कह कर जायें, ऐसा अनुभव होता है । मीरा के लिए कृष्ण दूर नहीं हैं । भक्त के लिए भगवान दूर नहीं हैं । भगवान दूर हैं, यह भ्रम मिटाना ही पड़ेगा । शायद किसी को विशिष्ट अर्थ मालूम हो जाये तो भगवान का प्रभाव मानें, अपना नहीं । पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : ब्राह्मीलिपि को नमस्कार क्यों ? (३५२00oooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि -३)

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