Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 406
________________ प्रत्यक्ष गुरु भगवंत की वाचना का लाभ तो हमें नहीं मिल सकता है, लेकिन उनके पुस्तकारूढ पवित्र शब्द सुनने का लाभ मिला, उससे भी हम धन्य बने । धन्य हैं आप जैसे संत-सतियां, जो पू. आचार्य भगवंत की मधुर वाचना लेकर जीवन धन्य बना रहे हैं । पुस्तक पढने पर ध्यान आता है कि वांकी तीर्थ में प्रश्नोत्तरी की कैसी धूम मची होगी ? महासती कमलप्रभाश्री, ककरवा कच्छ 'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक मिलते ही मुझे लगा: मेरी प्रार्थना सफल हुई । पूज्य श्री के प्रवचन मद्रास तथा बेंगलोर में सुनने मिले थे, लेकिन हम टेप नहीं कर सकते थे । क्योंकि आप लोग माइक का उपयोग नहीं करते । जीव बहुत ही व्यथित हो रहा था : अगर केसेट होती तो मन की शांति के लिए पूज्यश्री की वाणी कभी भी सुन सकता था । इस प्रार्थना का फल ७-८ वर्षों के बाद मिला । अब मेरे पास पूज्यश्री की वाणी की पुस्तक ही आ गई : जब चाहे तब पढी जा सके । धीरुभाई ठक्कर, आम्बरडी - ३७४ 'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक हमारा स्वाध्याय ग्रन्थ बन गया है । इस पुस्तक का हम प्रतिदिन साथ मिलकर स्वाध्याय करते हैं । बाबुभाइ कड़ीवाला, अमदावाद - - नित्य प्रति सामायिक में इस पुस्तक के एकेक पेज दोतीन बार पढने का निर्णय किया है । अद्भुत आनंद आता है । - टीकु आर. सावला, मनफरा- कच्छ ( मुम्बई ) - ܛ - कच्छ (अभी चेन्नई) पुस्तक हाथ में लेने के बाद छोड़ने की इच्छा ही नहीं होती । धनजी बी. सावला, मनफरा- कच्छ (मुम्बई) १८७७ कहे कलापूर्णसूरि - ३

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